(संग्रहकर्ताः राहत हुसैन नासिरी)
(रूपान्तरणकर्ताः हैदर महदी (एम0 ए0)
इन्तेसाब (समर्पण)
मैं अपनी इस संक्षिप्त धार्मिक सेवा को अपनी प्रीतम स्वर्गीय भावज, पत्नी, आदरणीय भाई मुस्तफ़ा अली खाँ साहब के नाम समर्पित करता हूँ। जिन्होंने सही मानों में जनाबे फ़िज़्ज़ा का सम्पूर्ण अनुसरण करते हुए मोहब्बते अहलेबैते अतहार (अ.स) में अपनी पूरी आयु लगा दी और आख़िरे वक़्त तक ज़िक्रे हुसैन मज़लूम (अ.स) का वज़ीफ़ा क़ायम रखा और जिनके दाग़े जुदाई ने दिल में वह ज़ख़्म डाला है जो मरते समय तक भर नहीं सकता और इस दीनी तहदिये का सवाब उनकी आत्मा को बख़्शता हूँ और मौला ए कायनात (अ.स) की ख़िदमत में दस्त बस्ता अर्ज़ करता हूँ कि इस मुख़्तसर दीनी ख़िदमत को शरफ़े क़ुबूलियत अता फ़रमायें और परवरदिगार से दुआ है कि इसका सवाब स्वर्गवासिनी की आत्मा को प्रदान करता रहे। आमीन
अहक़रूल एबाद (तुच्छ)
राहत हुसैन नासिरी
प्रकाशक प्रस्तुत
अहलेबैते अतहार (अ.स) विशेषकर सैय्येदतुन निसाइल आलामीन हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (अ.स) और हसनैन (अ.स) की सेविका के सौभाग्य से गौरान्वित होने वाली आदरणीय स्त्री जनाबे फ़िज़्ज़ा का चरित्र हालात और घटनाओं की रौशनी में यह संक्षिप्त पुस्तिका पाकिस्तानी सात्यकार जनाब "राहत हुसैन नासिरी" के क़लमी प्रयतनों का सफ़ल और उत्तम परिणाम है, जिसका उर्दू संस्करण हमारे इदारे से पहले ही प्रकाशित हो चुका है और अब हिन्दी वर्ग के निरन्तर आग्रह और लगातार तक़ाज़ो के अर्न्तगत हमारा इदारा इस पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहा है जिसे "हैदर महदी" सल्लामहू ने अंजाम दिया है।
इस पुस्तिका का उपादेयता यह है कि इसमें जनाबे फ़िज़्ज़ा क बारगाहे रिसालत में आगमन क़ुबूले इस्लाम हुलिया ए मुबारक रसूल (स0 अ0) की प्रीयतम पुत्री की सेवा का सौभाग्य, आराधना एवं पूजा अर्चना, ज़ोहद व तक़वा, दुआ व करामात कीमियासाज़ी (सोना बनाने की विधा) और फ़ातिमा ज़हरा (अ.स) के देहांत से कर्बला, कूफ़ा और शाम की मंज़िल तक जान लेवा और धैर्य एवं सहनशीलता का संक्षिप्त प्रतिबिंब इस अंदाज़ से प्रस्तुत किया गया है कि पाठकगण को वाक्य और लेख कला में तृष्णा का अनुभव नहीं होता।
हमें आशा है कि हिन्दी दां (हिन्दी नोइंग ग्रुप) भी जनाबे फ़िज़्ज़ा के चरित्र एंव आचरण व हालात से परिचित होंगे।
ईश्वर इस प्रस्तुति को स्वीकारने का सौभाग्य प्रदान करें।
अहकरूल एबाद – (तुच्छ)
सै0 अली अब्बास तबातबाई
इफ़्तेताहिया (प्रारम्भिक)
अल्हम्दो लिल्लाहिल लज़ी ला तुदरेबेहाश शवाहेदों वला तहवीहिल मशाहेदो वला तराहुन नवाज़िरो वला तहज़ुबुहू वस्सलातो वस्सलामो व नवामिय्ये बराकातेका अला मोहम्मदिन अब्देका व रसूलेकल जातमे लेमा सबका बल फ़ातेहे लेमन ग़लका बल मुआलेनिल हक्के बिल हक़्क़े अर्रसूलिल मुसद्ददे अबिल कासिमे मोहम्मद वा आलेहित तयेबीनत ताहेरीनल मासूमीनल लज़ी अज़ हबल्लाहो अन्हुमुर्रिजसा व तहहिस्हुम ततहीरा। अम्माबादः
जीवन रचनाः
जितना महत्वपूर्ण और ज़रूरी काम है उतनी ही मुश्किल ज़िम्मेदारी का फ़रीज़ा है। अगर सीरत निगार ने सही जीवन रचना की और भावनाओं में डूबकर बाहुल्य और अबाहुल्य से काम लिया तो यह जीवन चरित्र की सही रूप रेखा न होगी और यह जीवनीकार के साथ अन्याय होगा। जीवन रचनाकार का सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वह क़लम उठातो वक़्त इस बात का पूरा लिहाज़ रखे कि सही हालात बिला जज़बात को दख़ल दिये हुए क़लम बन्द करे। जीवन चरित्र और जीवनी लिखने में यह एक आम तरीक़ा है कि लिखने वाला अपनी श्रध्दाओं और भावना से काम लेकर वाक़ेआत के अनुचीत अंदाज़ में प्रस्तुत करता है। जीवनी और जीवन परिचय के अध्य्यन से ज्ञात होता है कि यह भावना रोग की तरह बड़े बड़े इतिहासकारों में संक्रामक का रूप धारण कर गई है। प्राचीन इतिहासकारों की पुस्तकें पढ़ी जायें तो मालूम होगा कि सत्यता से कितनी दूर हो गई हैं। जनाब मौलाना शिबली साहब वास्तव में एक उच्च स्तरीय साहित्यकार और कुशल जीवन रचियता थे किन्तु उनकी पुस्तकों को पढ़कर ज्ञात होगा कि कोई इतिहास इस भावना से ख़ाली नहीं है यधपि सीरतुन्नबी (स0 अ0) ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक भी अपनी भावनाओं एवं श्रृध्दाओं के अन्तर्गत लिखि गई और रसूल (स0 अ0) के जीवन के विचित्र और अदभुत अन्दाज़ में प्रस्तुत करके सच्चे वाक़ेआत को केवल अपने विश्वासों पर चोट लगने से बचाने के लिये रूपान्तरित कर दिया है उनकी एक और मान्य पुस्तक "अल फ़ारूक़" के अध्यन से मालूम होगा कि लेखन ने श्रृध्दा और प्रेम की भावनाओं में डूबकर कितनी ही घटनाओं को ग़लत तरीक़े से पेश किया है और कितने ऐसे वाक़ेआत को जिनसे विश्वास का मत पर आघात लगती थी छुपाया है। ग़रज़ यह सिर्फ़ उन ही पर निर्भर नहीं बल्कि बड़े बड़े रचियता और इतिहासकार भी इस से नहीं बच सकें हैं।
जीवन चरित्र के लिये सबसे ज़रूरी यह है कि जीवनीकार के हालात को मुद्रित करते वक़्त उसके व्यक्तित्व और उसके पूरे माहौल पर नज़र रखें ताकि यह अनुभव हो सके कि जीवनीकार के हालात उसके माहौल के अनुसार हैं या नहीं, और आया जिस माहौल में उसने ज़िन्दगी व्यतीत की है उसका प्रभाव उस पर कितना हुआ है और उसके स्वभाव व फ़ितरत में उस माहौल ने कितना असर किया है।
इतिहास युग में बहुत से सकुशल लोग ऐसे गुज़रे हैं जो बावजूद ज्ञानी और कुशल होने के आज उनके नाम व निशान का भी पता नहीं है और समय परिवर्तन ने उनके नाम अस्तित्व पृष्ठों से बिल्कुल मिटा दिये। विशेषकर वो धर्मान्त व्यक्ति जो दामने अहलेबैत (अ.स) से वाबस्ता थे और जीनके किरदार बायसे ज़ीनते तारीख़ होते और जिनके बेहतरीन किरदार के नमूने आज मूसलमानों के लिये मार्गदर्शक होते। उनकों भुला करके एक ऐसा बड़ा नुकसान इस्लाम धर्म को पहुँचाया जिसकी पूर्ती सम्भव नहीं है। किसी दूसरे से हमको यह शिकायत अनुचित होगी क्योंकि वह तो अपने अक़ायद को सुरक्षित रखने और अपने धर्मगुरूओं को चोट लगने से रोकने के लिये नज़र अन्दाज़ करते हैं क्योंकि जब स्वंय अहलेबैते रसूल (स0 अ0) की ज़िन्दगी के हालात को हर सम्भव तरीके से गुप्त रखने, बल्कि मिटाने की कोई कोशीश उठा न रखी गई तो फिर उनके सम्बन्धियों के हालात किस तरह लिखे जाते, क्योंकि उनके हालात लिखने का उद्देश्य उनके विपरीत चरित्र रखने वालों को आईना दिखाना होता, किन्तु शिकायत उनसे है जो दामने अहलेबैत (अ.स) से सम्बन्धित हैं कि उन्होंने इसमें कोताही की और उनके हालात को क़ौम के सामने प्रस्तुत नहीं किया। भूतकालीन उलमा तो समय की प्रतिकूलता के कारणवश सत्यता को स्पष्टता में असहाय थे किन्तु वर्तमानकाल में जबकि हर प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त है हमारे ज्ञानियों की ग़फ़लत व लापरवाही ही यक़ीनन आश्चर्य जनक है।
इसमें सन्देह नहीं हमारे उलमा ए केराम ने आइम्मा ए मासूमीन (अ.स) की जीवनी और चरित्र पर बहुत पुस्तके लिखकर दुनिया ए शीयत को बहुत फ़ायदा पहुँचाया है किन्तु इसी के साथ यह भी बहुत आवश्यक था कि उन आदरणीय व्यक्तियों के हालाते ज़िन्दगी पेश करके दिखाते कि ख़ानदाने अहलेबैत (अ.स) की पाक हस्तियाँ तो तक़लीद योग्य थीं हीं लेकिन उनके दामन से सम्बन्ध स्थापित करने वालों ने चरित्र के वह क़िमती और बहुमूल्य नमूने पेश कर दिये जिनकी मिसाल नहीं मिल सकती और अगर शिया क़ौम बल्कि मुसलमान सिर्फ़ इन्हीं हस्तियों को मार्गदर्शक बनाऐं और उसके प्रकाश में चरित्र ग्रहण करें तो मनुष्यता की उस श्रेणी पर आगमन हो सकते हैं जहाँ दूसरों का गुज़र भी नहीं हो सकता और संसार यह कहने पर बाध्य हो जाए कि आले मोहम्मद (अ.स) के अनुयायी ऐसे होते हैं।
जनाबे सलमाने फ़ारसी, जनाबे अबुज़रे ग़फ़्फ़ारी, जनाबे अम्मारे यासीर, जनाबे मिक़दाद, जनाबे कुमैल, जनाबे क़म्बर, जनाबे मिसमें तम्मार और जनाबे फ़िज़्ज़ा ये वह अस्तित्व हैं जिन्होंने दामने आले मोहम्मद (अ.स) से सम्बन्ध स्थापित कर किरदार के वह बेहतरीन नमूने प्रस्तुत किये जिनको पढ़कर बुध्दि अचम्भे में आ जाती है और बेइख़्तियार मुंह से निकलता है "अल्लाह के बन्दे इस दुनिया में ऐसे भी आए हैं " लेकिन अफ़सोस की इन आदरणीय हस्तियों के हालात आम लोगों की निगाहों से पोशीदा हैं और आज हमारी क़ौम के बच्चे सिर्फ़ नाम से तो मजालिस की बर्कत की बदौलते परिचित है मगर उनको नहीं मालूम कि उन्होंने दुनिया में किन ख़तरनाक हालात में कैसे कैसे उच्चस्तरीय चरित्र प्रस्तुत किये और किन कठोर मुश्किल कठिनाइयों में अपनी जानों पर खेल कर आले मोहम्मद (अ.स) की दीनी और अमली तबलीग़ (प्रचार) की सम्भव है कि अरबी या फ़ारसी भाषाओं में इन हज़रात के हालात लिखे गये हों लेकिन जहाँ तक उर्दू ज़बान का सम्बन्ध है इन योग्य व्यक्तियों के हालात बहुत ही कम मिलते हैं। हाल ही में मेरे प्रिय मिल्ला मोहम्मद ताहिर साहब क़िब्ला के पुत्र मिर्ज़ा मो0 जाफ़र साहब सल्लामहू ने जनाबे अबूज़रे ग़फ़्फ़ारी के हालात में दो बहुमूल्य पुस्तकें प्रकाशित की हैं, परवरदिगारे आलम अहलेबैते अतहार (अ.स) के सदक़े में जनाबे सल्लामहू को दीर्घायु प्रदान करें और अहलेबैते अतहार (अ.स) के प्रति उनकी सेवा भावना में वृध्दि करता रहे।
जनाबे सलमाने फ़रासी की जीवनी लिखने के बाद मैं अर्से से इस ख़्याल में था कि जनाबे फ़िज़्ज़ा के हालाते ज़िन्दगी लिख दिये जाऐं, मगर बड़ी दिक्कत ये पेश आई कि इन आदरणीय स्त्री के हालाते ज़िन्दगी इतने पोशीदा रही कि आज उनका खोजना अतयन्त कठिन कार्य है अतः खोज एवं जिज्ञासा के पश्चात डेढ़ साल की लम्बी अवधि में पुस्तकालयों की ख़ाक छानने के बाद कुछ जीवन पर आधारित घटनाऐं विभिन्न पुस्तकों से प्राप्त हो सकीं, फिर भी पूरे हालात न मिल सके विशेषकर जनाबे सैय्यदा (अ.स) की सेवा में आने पूर्व के हालात बिल्कुल पोशीदा है केवल उनका अस्ली नाम और वतन अत्यधिक जिज्ञासा के पश्चात विभिन्न प्रतिकूलताओं के साथ ज्ञात कर सके। इसी तरह अहलेबैते रसूल (अ.स) के घर से रूख़सत होने के कारण और उसके बाद के हालात भी सविस्तार नहीं मिल सके, जो घटनाऐं विभिन्न पुस्तकों से प्राप्त हो सकीं केवल वह पाठकगण की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। अगरचे सविस्तार हालातज उपलब्ध न हो सके लेकिन जो इस संक्षिप्त पुस्तिका में पेश किया जा सका है वही उनके आचरण एवं चरित्र की महत्ता को सिध्द करने के लिये काफ़ी है और उनसे क़ौम की बेटिया बहुत कुछ लाभ अर्जित करके अपने आचरण को सँवार कर सकती है यहाँ तक लिखने के बाद अब मैं अपनी जाति की बेटियों से कहना चाहता हूँ कि तुम उस क़ौम की औलाद हो जो अपने को अहलेबैते रसूल (अ.स) से सम्बन्धित होने और उनकी ग़ुलामी की दावेदार हैं तो फिर इस बात को विचारना होगा कि इन पवित्र अस्तित्वो से सम्बन्ध स्थापना और ग़ुलामी का क्या अर्थ है।
क्या इसका सिर्फ़ यह मतलब हो सकता है कि ज़बान से लोग ग़ुलामी का दावा करते रहें और अय्यामें अज़ा (मोहर्रम के दिन) में उनका ज़िक्र सुनकर सिर्फ़ चन्द आँसू बहा लें या सीनाकूबी (सीना पीटना) कर लें सत्य तो यह है कि यह न तो सम्बन्ध स्थापना है और न ग़ुलामी, बल्कि ये केवल पैतृक रस्म परस्ती है और उनका नाम लेकर उनको बदनाम करना है बल्कि सम्बन्ध स्थापना और ग़ुलामी का सही अर्थ ये है कि हम उनके पद चिन्ह पर चलने का प्रयत्न करें और उनके किरदार को अपने व्यवहारिक जीवन में मार्गदर्शक बनायें। जो क्रियाऐं एवं व्यवहार उन्हें पसन्द नहीं उनसे हम बचें उनके आचरण एवं चरित्र के प्रस्तुत करने का उद्देश्य ही यही है कि उनके चाहने वाले और शिया उनकी व्यवहारिक अनुसरण करें। अतः प्रेम व मोहब्बत का दावा उसी समय सच्चा हो सकता है जब हम उनके आचरण को ग्रहण करने का प्रयत्न करें जब यह निश्चित है कि शिया होना इसी पर निर्भर हैं तो अब अपनी आत्मा का परिक्षण करना चाहिये और देखना चाहिये कि हम हक़ीक़त में शिया हैं या सिर्फ़ ज़बानी दावेदार हैं क्या हमारे किरदार या चाल चलन में कोई समानता भी उनके किरदार की है क्या हमने कथन एवं आदेशों पर कभी अमल करने का भी ख़्याल किया है ? आम तौर पर लोग यह कहकर कर्तव्यों से मुक्ति होने का प्रयत्न करते हैं कि वे मासूम थे, इमाम थे, हम उन जैसा किरदार कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं लेकिन यह कभी नहीं कहा जाता कि तुम उनकी तरह मासूम हो जाओ। तुम क्या यह तो वे हस्तियाँ हैं जिनकी बराबरी गत अम्बिया (अ.स) नहीं कर सके किन्तु उनके पद चिन्हों पर चलने की कोशिश ही उनका अनुसरण है और सिर्फ़ कोशिश ही करने से बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है।
यह सच्च है कि तुम जनाबे सैय्यदा (स0) नहीं बन सकतीं, हमारे बेटे भी हसन (अ.स) व हुसैन (अ.स), आबिद (अ.स) व बाक़िर (अ.स) इत्यादि जैसे नहीं हो सकते क्योंकि वे मासूम थे लेकिन (ऐ क़ौम की बेटियों) तुम फ़िज़्ज़ा तो बन सकती हो, हमारे बेटे सलमान, अबुज़र, अम्मार, मिक़दाद व कुमैल तो बन सकते हैं। जनाबे फ़िज़्ज़ा एक अर्से तक कुफ़्र के वातावरण में परवरिश पाने के बाद अहलेबैत (अ.स) की सेवा में आईं और उन्होंने अपने चरित्र को आले मोहम्मद (अ.स) के आचरण से सबक़ लेकर ऐसा सवाँरा की अपने अन्दर उसकी झलक उत्पन्न कर ली इसके विपरीत तुम तो कई पीढ़ियों से धर्मवलम्बी चली आ रही हो तुम में पूर्ण योग्यता किरदारे अहलेबैत (अ.स) के आत्मसात करने की मौजूद होना चाहिये फिर तुम में वह भी है जिनको उनकी संतान होने का सौभाग्य प्राप्त है और जनाबे सैय्यदा (अ.स) का पवित्र ख़ून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है उनमें तो स्वंय किरदारे जनाबे सैय्यदा (अ.स) के गुण होने चाहिये उनके लिये तो यह ख़्याल ही काफ़ी है कि इन मासूमा (अ.स) की संतान हैं।
अतः उनके चरित्र की झलक अपने अन्दर उत्पन्न करने की कोशिश भी करना चाहिये लेकिन यह अत्यन्त दुख की बात है कि नशवर समृध्दि के ख़्याल से शाशवत जीवन के सुख चैन को क़ुर्बान कर दिया जाए।
मेरी प्यारी बच्चीयों तुम दूसरी जातियों का अनुसरण कर सकती हो, उनके व्यवहार व आचरण को ग्रहण करने में तुमको कोई परेशानी अनुभव नहीं होती बल्कि शौक से ग्रहण कर लेती हो जबकि इसमें शाशवत सुख की हानि है। किन्तु जिनका अनुसरण करना सामायिक तकलीफ़ों और समृध्दि की प्रतिभू है और सांसरिक जीवन में भी तुम्हें मनुष्यता के पराकष्ठा पर पहुँचा सकती है उनको तुम ने पकड़ छोड़ रखा है। तुम जनाबे ज़ैनब (अ.स) की बेपरदगी का मातम करती हो किन्तु तुम स्वंय इच्छानुसार जन समूह में बे पारदा निकलती हो, पश्चिमी ज्ञान प्राप्ति में बढ़ चढ़ कर भाग लेती हो लेकिन अहलेबैत (अ.स) के ज्ञान प्राप्ति की ओर ध्यान नहीं देती।
मिल्लते जाफ़रिया की बच्चियों – मैं पश्चिमी ज्ञान प्राप्ति का विरोधी नहीं हूँ अवश्य प्राप्त करो किन्तु उसके साथ अपने दीन पर भरपूर तवज्जोह देना भी ज़रूरी है (बल्कि धार्मिक ज्ञान प्राप्ति एक कर्तव्य है और न भूलों की तुम अहलेबैते अतहार (अ.स) की नाम लेवा हो इसलिये उनके किरदार की मुमकिन हद तक तुम्हारे अन्दर झलक होना आवश्क है और इसी उद्देश्य से तुम्हारे सामने जनाबे सैय्यदा (अ.स) का नहीं बल्कि उनकी कनीज़ (सेविका) जनाबे फ़िज़्ज़ा का हाल जितना मुझसे सम्भव हो सका प्रस्तुत कर रहा हूँ और हार्दिक इच्छा है कि तुम कम से कम उन्हीं का अनुसरण करके दुनिया पर सिध्द करो कि अहलेबैत (अ.स) की सेविकाऐं ऐसे उत्तम और पवित्र आचरण वाली होती हैं।
बहरहाल मैंने दो वर्ष पूर्व इस पुस्तिका को लिखना प्रारम्भ किया था किन्तु उस बीच कई(Heart Attack) पडने के कारण शीर्घ पूरी न हो सकी लेकिन ईश्वर का अभारी हूँ कि उसने अहलेबैत (अ.स) के सदक़े में मौत से इतनी मोहलत अता फ़रमाई कि मैं इस धार्मिक सेवा को सम्पन्न कर सका ख़ुदा का शुक्र है पुस्तक सर्वाग करके पाठकगण के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। अत्यन्त प्रयत्न किया गया है कि घटनायें सही लिखी जायें, अपने इस प्रयत्न में किस हद तक सफ़लता प्राप्त कर सका हूँ ज्ञानी इसका फ़ैसला करेंगे, ख़ताकार होने के कारण ख़ता की सम्भावना को स्वीकार करते हुए पाठकगण से क्षमा याचना का भी इच्छुक हूँ और दुआ ए ख़ैर से याद किये जाने का भी निवेदक और प्रार्थी हूँ कि अध्य्यन पश्चात कमियों और त्रुटियों से सौहार्द पूर्ण सूचित किया जाता और लाभकारी तथा उपादेय परामर्श और निर्देशों से नवाज़ा जाये।
यह संक्षिप्त प्रस्तुति अपनी मख़्दूमा जनाबे फ़िज़्ज़ा (अ.स) की ख़िदमते आलिया में प्रस्तुत करके निवेदक हूँ कि बीबीः यह हदिया आपके योग्य तो नहीं है लेकिन इसके लिखित उद्देश्य पर नज़र करते हुए आप इसको अपनी शहज़ादी जनाबे सैय्यदा (अ.स) की सेवा में प्रस्तुत कर सिफ़ारिश करवाकर स्वीकृत प्रमाण प्रदान करा दें तो महाप्रलय के दिन मेरे पापों का प्रायश्चित और नरक की कष्ट एवं यातनाओं से मुक्ति का आदेश पत्र प्राप्त हो जायेगा।
वस्सलाम
वलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलामीन व सल्लल्लाहो
अला मोहिम्मदिन व आले हित तय्येबीनत ताहेरीनल
मासूमीना व लानतुल्लाहे अला अआदा ए हिम अज मईन
अहक़रूल एबाद
राहत हुसैन नासिरी
बिस्मिल्लाह हिर्रहमा निर्रहीम
जनाबे फ़िज़्ज़ा के इस्लाम स्वीकृति से पूर्व के हालात और आपका वतन
आपके निश्चित वतन के सम्बन्ध में बहुत भिन्नतायें हैं अक्सर लोगों का विचार है कि आप हबिश उन नस्ल थीं और हबश (अफ़्रक़ा) देश से जब जनाबे जाफ़रे तैय्यार वापिस आये तो हबश के शासक ने जनाबे रसूले मक़बूल (अ.स) की सेवा में उपहार स्वरूप पेश किया था और इसकी पुष्टि में वह घटना प्रस्तुत की है कि जब यज़ीद के दरबार में आप अहलेहरम के समक्ष पर्दा करने के उद्देश्य से सीधी खड़ी हो गई थीं और यज़ीद ने आदेश दिया था कि उनको सामने से हटा दिया जाए, तो उस समय आपने दरबार में नियुक्त हबशी ग़ुलामों को लज्जा दिलाई थी। जिस पर वह तलवारें ख़ींच कर जंग पर तैय्यार हो गये थे, तो यज़ीद को ख़ामोश होना पड़ा था लेकिन एक (जनाबे नासिरूल मिल्लत आलल्लाहो मक़ामहू) अन्वेषणक का कथन है कि यह घटना जनाबे फ़िज़्ज़ा की नहीं है बल्कि एक दूसरी कनीज़े हबशिया की है और चूँकि सिर्फ़ यही "कनीज़े जनाबे सैय्यदा (अ.स) प्रसिध्द थीं इस लिये आप ही को ख़्याल किया गया और इस प्रकार आपका शुभ नाम इस घटना में आ गया।
पुस्तक शीराज़ी में लेखक मुद्रित करते हैं कि जनाबे फ़िज़्ज़ा हिन्द की रहने वाली थीं, राजपुताना के किसी सम्मानित एंव प्रतिष्ठित परिवार की फ़र्द थीं। प्रारम्भिक प्रवास के समय में कुछ मिस्री लूटमार के सिलसिले में हिन्द पहुँचे और जनाबे फ़िज़्ज़ा के परिवार को लूटा और उनको बन्दी बनाकर मिस्र ले आए और मिस्र के शासक को उपहार स्वरूप भेंट किया। यह घटना अन्वेषणकों के समक्ष सही है जबकि सरकारे नासिरूल मिल्लत का भी कहना है।
आपके नस्ल के सम्बन्ध मेः यथार्थ विवरणात्मक हालात नही मिल सके तारीख़े वसीर के अध्ययन से केवल इतना ज्ञात हो सका है कि आपका सम्बन्ध राजपुताना के किसी प्रतिष्ठित राजपूत घराने से था। आपका नाम इस्लाम स्वकृति से पूर्व नौबिया था और कुछ नौबिया ए हिन्दीया और कुछ नौबिया ए हबशिया लिखते हैं। जब आपको जनाबे रसूले मक़बूल की सेवा में उपस्थित किया गया तो हुज़ूरे सरवरे कायनात ने आपका नाम फ़िज़्ज़ा रखा।
आपका हुलिया ए मुबारकः
तारीख़े अल ख़ुल्फ़ा के लेखक इमामे स्यूति ने अपनी पुस्तक "सीरतल सहबियात" में और जौहरी ने अपनी तारीख़ में और साहिबे मनाकिब ने अपनी पुस्तक "मनाकिब" में आपके हुलिये से सम्बन्ध बयान किया है कि आप लम्बी चौड़ी थीं, रंग महकता हुआ गुंदुमी बड़ी बड़ी आँखें और शरीर के अंग मुतानासिब थे।
रसूल (अ.स) की सेवा में आपकी आपकी उपस्थितिः
जनाबे अल्लामा मजलिसी ने "बेहारूल अनवार" के सातवें भाग के पाठ जनाबे सैय्यदा (अ.स) में और "हुलियातुल औलिया" में ज़ोहरी ने जनाबे अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब से खामत की है कि एक दिन जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने जनाबे सैय्यदा (अ.स) से इरशाद फ़रमाया कि घर का काम करने से और चक्की पीसने से तुम्हारे हाथ ज़ख़्मी हो गये हैं, कुछ क़ैदी लायें गये हैं, अतः आप जनाबे रसूले मकबूल (स0 अ0) से अपने लिये एक कनीज़ (सेविका) की इच्छा करें चुनाँचे जनाबे सैय्यदा (अ.स), जनाबे अमीरूल मोमिनीन(अ.स) के साथ रसूल (अ.स) की सेवा में गई मगर कुछ कह न सकीं और वापिस आ गई किन्तु आवश्यकता ने मजबूर किया इसलिये दूसरे दिन भी आप जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) के संग सेवा में पुनः उपस्थित हुईं और अपनी इच्छा व्यक्त की।
हुज़रे अकरम ने फ़रमाया मैं उनकी क़ीमत अहले सुफ़्फ़ा को देना चाहता हूँ और उसके बदले में आपको "तस्वीह" तालीम फ़रमाई जो तस्बीहे फ़ातिमा ज़हरा (अ.स) के नाम से आज तक पढ़ी जाती है लेकिन किताब शीराजी में सविस्तार लिखा है कि जिस समय जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (अ.स) ने सेविका की इच्छा की तो हज़रत(अ.स) के नेत्रों में आंसू भर आये और आपने फ़रमाया ऐ बेटी ! उस अस्तित्व की क़सम जिसने मुझे सत्य के साथ ईश्वरीय दूतत्व के स्थान पर नियुक्त किया कि इस समय मस्जिद में चार सौ व्यक्ति ऐसे हैं जिनके पास सेवन हेतु कुछ नहीं है अगर मुझको यह अन्देशा न होता कि इस तरह तुम्हारे सवाब में कमी हो जाऐगी तो मैं तुमको सेविका दे देता तुमको इस बात का अधिक ख़्याल होना चाहिये कि महाप्रलय के दिन अली इब्ने अबी तालीब (अ.स) पति स्वरूप तुमसे अपने किसी अधिकार की माँग करें,
इसके पश्चात आपने जाप की शिक्षा दी जब दोनो हज़रात वापिस आये तो अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) ने इरशाद फ़रमायाः
(हम दोनों, रसूलुल्लाह से दुनिया की चीज़ तलब करने गये थे, लेकिन अल्लाह ने हमें सवाबे आख़िरत (परलोक का ईनाम) अता फ़रमाया।)
जनाबे अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब बयान करते हैं कि जब अली (अ.स) और फ़ातिमा (अ.स) घर वापिस हुए अभी रास्ते में ही थे कि जिब्राईल अमीन प्रकट हुए और कहा कि ईश्वर बाद तोहफ़ा ए दुरूद ओ सलाम इरशाद फ़रमाता है कि तुमने आख़रित (परलोक) के सवाब को दुनिया पर अधिमान किया और मेरी कनीज़े ख़ास (मुख्य सेविका) फ़ातिमा (अ.स) ने मेरी प्रसन्नता के लिये उसको स्वीकार किया इसलिये हम चाहते हैं फ़ातिमा (अ.स) का सवाल निरस्त न करें और आयत नाज़िल फ़रमाई।
"व इम्मा तोअरेज़न्ना मिन्हुमुब तेग़ा अ रहमतिम
मिर्रब्बेका तर्जूहा फ़क़ुल ल हुमा क़ौलन मैयसूरा"
(ऐ हमारे रसूल!) अगर तुम अपने परवरदिगार की ख़ुशनूदी के लिये किसी बात से एअराज भी करो तो इन दोनों से नर्मी से बात करो)
इसके पश्चात मिस्र के शासक ने रसूल (स0 अ0) की सेवा में एक सेविका उपहार स्वरूप भेजी जिसको हज़रत (अ.स) ने स्वीकार कर लिया और उस सेविका को जनाबे सैय्यदा (अ.स) के पास भेज दिया। इस सेविका का नाम नौबिया था और जनाबे रसूले ख़ुदा (स0 अ0) ने उसका नाम फ़िज़्ज़ा रखा।
जनाबे सैय्यदा (अ.स) की सेवा में आने के पश्चात के हालातः
जिस समय जनाबे फ़िज़्ज़ा जनाबे सैय्यदा (अ.स) के विश्रामालय में आयी तो अपनी मालिका के घर को "गौरन्वित निवास स्थान" समझकर सेवा में व्यस्त हो गईं। जनाबे मासूमा (अ.स) ने भी कार्य विभाजन उसी न्याय पर किया जो इस घर का तरीक़ा था कि घर का सम्पूर्ण काम एक दिन स्वंय करती थीं और एक दिन आपकी सेविका जनाबे फ़िज़्ज़ा किया करती थीं।
इस भाग्यशाली निवासग्रह में आने के पश्चात जनाबे फ़िज़्ज़ा ने अनुभव किया कि जनाबे सैय्यदा (अ.स) के घर के सदस्य अक्सर अनाहार एवं उपवास में जीवन व्यतीत करते हैं जिससे आपको अत्यन्त कष्ट हुआ चूँकि उन्हें अभी मारेफ़ते अहलेबैत (अ.स) प्राप्त नहीं हुई थी इस लिये अहलेबैत (अ.स) के अनाहार को संकुचित आय पर निर्भर किया और इस सोच में रहीं कि अपनी शहज़ादी की यह तकलीफ़ दूर करने का उपाय करें।
आप इल्मे कीमिया (सोना बनाने की विधि) से परिचित थीं बल्कि इस कला में निपुणता रखती थीं। इस से यह ज्ञात होता है कि आप किसी ऐसे ख़ानदान की सदस्य थीं जहाँ ज्ञान और कलाँओ का चर्चा था वरनः उस ज़माने में किसी औरत के किसी विधा और कला में निपुण होने का प्रशन ही नहीं उत्पन्न होता।
जनाबे फ़िज़्ज़ा का कीमिया द्वारा लोहे को सोना बनाकर जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) की सेवा में प्रस्तुत करनाः
एक दिन आपने बाज़ार से एक लोहे का टुकड़ा और कुछ औषधियाँ ख़रीदीं और उन दवाओं के द्वारा लोहे को सोने में परिवर्तित किया और जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) की सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया कि मैंने औषधियों के द्वारा यह सोना बनाया है आपको इसको बाज़ार में विक्रय कर बच्चों के लिये जलपान हेतु सामान ले आइये।
जनाबे अमीरुल मोमिनीन (अ.स) ने मुस्कुरा कर फ़रमाया, अच्छा जाओ एक पत्थर उठा लाओ
जब वह पत्थर लेकर आईं तो जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने पत्थर की ओर इशारा किया, वह तुरन्त सोने में परिवर्तित हो गया, इसके पश्चात आपने फ़िज़्ज़ा को धरती की ओर देखने को कहा और ज़मीन की तरफ़ त्वरित इशारा भी किया, ज़मीन में दरार पड़ गई फ़िज़्ज़ा ने देखा की दरार के अन्दर सोने का भण्डार मौजूद है।
जनाबे फ़िज़्ज़ा यह सब कुछ देखकर आश्चर्य में पड़ गईं और मन में सोचने लगीं कि यह क्या मामला है।
जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने जनाबे फ़िज़्ज़ा की हैरानी को दूर करने और किसी हद तक अपना परिचय कराने हेतु फ़रमायाः ऐ फ़िज़्ज़ा हमारा अनाहार एवं दरिद्रता तो ईश्वर इच्छा हेतु है न कि किसी मजबूरी के कारणवश। हमें ईश्वर ने प्रत्येक चीज़ पर अधिकार और उपभोग स्वत्व प्रदान किया है हम स्वंय इस दुनिया के आनन्दमयी जीवन को छोड़ कर के केवल परलोक का आनन्द प्राप्त करते हैं और यही हम अहलेबैते रसूल (अ.स) की परम्परा है।
इसके बाद आपने हुक्म दिया कि वह तख़्ती सोने की और पत्थर उसी सोने के भण्डार में डाल दियें जाऐं, फिर आपने इशारा किया तो दरार बन्द हो गई।
यह सब कुछ देखने के बाद जनाबे फ़िज़्ज़ा को अनुभव हुआ कि वह जिस घर में आईं हैं उस घर के सदस्य किस प्रतिष्ठित एवं मान्य पद पर सम्मानित हैं और कितने उच्च आचरण के स्वामी हैं।
जनाबे फ़िज़्ज़ा का संयम एवं निस्पृहता तथा ईश्वरीय आराधनाः
मनुष्य स्वभाव का यह स्वीकार्य विषय है कि मनुष्य अपने यर्थाथ स्वभाव पर पैदा होता है किन्तु वातावरण उसके स्वभाव पर ग़ालिब होकर उसको अपने साँचे में ढ़ाल लेता है प्रायः ऐसा हुआ है कि मनुष्य ग़लत माहौल में रहकर अपना सार एवं दक्षता खो देता है और अगर फिर सही माहौल मिल जाए तो भटकी हुई फ़ितरत के सीधे रास्ते पर आने की सम्भावना अधिक होती है।
कुछ हस्तियाँ ऐसी भी देखी गईं हैं जिन पर प्रकृति का प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि उनकी बुध्दि शक्ति दूसरी सम्पूर्ण शक्तियों (शहविया व ग़ज़बिया वग़ैरा) पर ग़ालिब रहती है जो बग़ैर सोच विचार और बुध्दि के विपरीत किसी बात को स्वीकार करने पर तैयार नहीं होतीः किन्तु कवि अनुसार
ईय सआदत ब ज़ोरे बाज़ू निस्त
ता न बख़्शद ख़ुदा ए बख़्शिन्दा।
चुनाँचे जनाबे सलमाने फ़ारसी की मिसाल हमारे सामने मौजूद है उनके माता पिता काफ़िर थे और उन्होंने उनको अपने धर्म की शिक्षा भी दी थी, और सम्भावित प्रयत्न इस बात का करते रहे कि वह अपने पूर्वजों के धर्म को न त्यागें किन्तु यह बचपन ही से अपने पैतक धर्म से निकल, रूष्ट तथा असंतुष्ट थे और सत्य की खोच में परेशान रहे, माता पिता की सख़्तियाँ सहन की, घर से निकाले गये, अवधियों इस दोहे के चरित्रार्थ रहे कि
एक उम्र पाये चुनार रहे एक उम्र सुख़न ताबीक़ी
अर्सा गुज़रा घर से निकले इश्क ने ख़ाना ख़राबी की
ईश्वर और रसूल के प्रेम में कहाँ कहाँ फिरे किन्तु कुफ़्र स्वीकार नहीं किया जनाबे फ़िज़्ज़ा के गत धर्म के सम्बन्घ में कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस समय का कोई विवरण इतिहास पुस्तकों में नहीं मिलता लेकिन यह स्पष्ट है कि उस समय हिन्दुस्तान में मुर्तीपूजा प्रचलित थी या फिर बौध्द धर्म था उस समय तक वहाँ कोई दूसरा धर्म नहीं पहुँचा था हबश देश में ईसाई धर्म चालू था यह भी ज्ञात नहीं हो सकता कि जनाबे सलमाने फ़ारसी की तरह यह भी अपने पैतृक धर्म से रूष्ट थी या नहीं किन्तु इसे नकारा नहीं जा सकता कि सुशील, मनीष एवं पवित्र स्वभाव पूरी तरह उनमें मौजूद था और सत्य स्वीकरने का जौहर उसमें ग़ालिब था जिसने आपको इस प्रतिष्ठा पर सम्मानित किया जहाँ बड़े बड़े संयमी एवं सदाचारी न पहुँच सके।
इस सौभाग्यशाली गृह में पधारने के पश्चात उन्होंने देखा कि घर भर ईश्वरीय पूजा अर्चना सदाचार एवं संयम का साकार एवं साक्षात तस्वीर बना हुआ है अतः सुशीलता ने पूरा काम करना प्रारम्भ किया।
दूसरी ओर शिक्षकों की लाभप्रदानता ईशवर की सहायता और स्वंय में अच्छाई स्वीकार करने की भरपूर सक्षमता, जब यह सब बातें एकत्रित थीं तो नतीजा प्रकाशमयी सूर्य की तरह स्पष्ट है अपनी मालिका के पद चिन्हों पर चलना प्रारम्भ किया, निस्ग्रह अस्तित्व ने आगे बढ़कर लब्बैक कही चमत्कार और विशेषता के मार्ग तय होने लगे, यहाँ तक कि आध्यात्मवाद अपने उस स्थान पर अग्रसर हो गई जहाँ पहुँच कर मनुष्य देवताओं से श्रेष्ठ हो जाता है और ईश्वर का जग उत्पत्ति का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है आप अध्यात्मकवाद के उस विशेष पद पर आसीन हुईं जिसका अन्दाज़ा लगाना एक सामान्य मनुष्य के वश में नहीं है।
संक्षिप्त रूप में ईश्वर उन सभी नेमतों से सम्मानित करता रहा जो अहलेबैत (अ.स) के लिये नाज़िल हुईं थी यह वह सत्यता है जिससे इन्कार की कोई गुन्जाईश नहीं है और एतिहासिक पृष्ठ गवाह है कि जब स्वर्ग की नेमतें (चीज़ें) अहलेबैते अतहार (अ.स) के लिये आईं तो यह भी उनमें शरीक रही, सिवाय ऐतिहासिक साक्षों के यह बात तार्किक तौर पर ईश्वरीय न्याय के विपरीत है कि जब अहलेबैत (अ.स) के साथ वह अनाहार व उपहास में बराबर की शरीक थीं और इस पर संतोष व आभार में भी, तो ईश्वरीय न्याय का तक़ाज़ा यही था कि वह आपको भी उन नेमतों में शरीक रखे और स्वंय जनाबे रसूले मक़बूल (स0 अ0) और अहलेबैते अतहार (अ.स) की पवित्र हस्तियों से भी सम्भव न था कि वह उनको शरीक न फ़रमाते वास्तव में जब कभी जन्नत से चीज़ें और खाना आया आपको उसमें सम्मिलित किया गया बल्कि स्वंय आपकी स्तुति से स्वर्गीय भोजन आया है।
यधपि अबुल क़ासिम शीराज़ी और अल्लामा मजलिसी और जनाबे शैख़े सुदूक़ ने अपनी अपनी पुस्कतों में यह घटना लिखी है कि जनाबे सलमाने फ़ारसी बयान करते हैं कि एक मर्तबा हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) और जनाबे सैय्यदा (स0) और जनाबे हस्नैन (अ.स) ने जनाबे रसूले मक़बूल (स0 अ0) की बारी बारी दावत की। अन्तिम दिन जब हज़रत (अ.स) भोजन कर चुके तो वापिस जाने लगे तो जनाबे फ़िज़्ज़ा क़रीब दरवाज़े के आकर खड़ी हो गईं और जब सरकारे रिसालत दरवाज़े के क़रीब आये तो जनाबे फ़िज़्ज़ा ने हाथ जोड़कर कहा कि इस कनीज़ की तरफ़ से भी दावत स्वीकार कर के ग़ौरन्वित करें।
रहमतुल लिल आलमीन ने फ़िज़्ज़ा की इस दावत को स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन जब खाने का समय आया तो हज़रत (अ.स) जनाबे सैय्यदा (स0) के निवास स्थान पर पहुँचे, बेटी और दामाद ने बढ़ कर स्वागत किया किन्तु बेवक़्त तौर पर हुज़ूर के तशरीफ़ लाने से ताज्जुब में हो गये और इस आगमन का कारण ज्ञात करना चाहा।
आपने कहा कि आज में फ़िज़्ज़ा का अतिथि हूँ। यह सुनकर दोनों आश्चर्यचकित और व्याकुल हुए क्योंकि फ़िज़्ज़ा ने किसी से ज़िक्र नहीं किया था और न खाने का कोई प्रबन्ध किया था। अतः जनाबे मासूमा इस इरादे से फ़िज़्ज़ा के पास तशरीफ़ ले गईं कि पूछें, न तो उन्होंने दावत का कोई ज़िक्र किया, न प्रबन्ध किया किन्तु जब आप वहाँ तशरीफ़ ले गईं तो अजीब मन्ज़र देखा, कहती हैं कि फ़िज़्ज़ा मुसल्ले पर सजदे में हैं और अपने ख़ालीक की बारगाह में रो रो कर कह रहीं हैं कि मेरे मालिक मैने तेरी अनुकंपा के भरोसे पर तेरे हबीब (अ.स) की दावत की है इस सेविका की इज़्ज़त तेरे हाथ है (मैं तुझे वास्ता देती हूँ अपनी मख़्दूमा और उनके पिता, तेरे हबीब (अ.स) का मेरी इज़्ज़त रख ले)
अभी यह दुआ समाप्त न हुई थी कि स्वर्गीय भोज की ख़ुश्बू जनाबे फ़िज़्ज़ा (अ.स) की नाक में पहुँची। सजदे से सिर उठाकर देखा तो ख़ानहाय जन्नत रखे हुए थे। तुरन्त सजदा ए शुक्र अदा किया और ख़ानहाय जन्नत उठाकर रसूल (स0 अ0) की सेवा में उपस्थित हुईं जैसे ही ये तबक़ रसूलुल्लाह की सेवा में पेश हुए वैसे ही हज़रत जिब्राईल अमीन रसूल (स0 अ0) की सेवा में उपस्थित हुए और कहा कि ईशवर बाद तोहफ़ा ए दुरूद व सलाम कहता है कि ऐ हमारे हबीब (स0 अ0) आज आपको हमारी कनीज़ ने आमन्त्रित किया है हमने नहीं चाहा कि उसको शर्मिन्दगी हो, अतः यह भोजन उसकी तरफ़ से हमने भेजा है।
यह थी जनाबे फ़िज़्ज़ा के किरदार व पवित्रता की मंज़िलत कि अल्लाह ने इसको पसन्द नहीं किया कि आपकी ज़रा भी (ख़ातिर शिकनी) हो अब इस से बढ़कर और क्या श्रेष्ठता हो सकती है कि ईशवर को आपकी दिलजुई स्वीकार हो कि दुआ पर स्वर्ग से भोज भेजकर आपको रसूल (स0 अ0) के समक्ष शर्मिन्दगी से सुरक्षित रखे और विदीर्ण हृदय न होने दे, केवल यही नहीं बल्कि उससे भी बढ़कर यह है कि ईश्वर ने अहलेबैत (अ.स) की प्रशंसा में आपको भी सम्मिलित किया।
सूरा ए हल अता इसका सुबूत है यह बात सर्वसम्मति से स्वीकार हो चुकी है कि ये सूरा अहलेबैत (अ.स) की प्रशंसा हेतु आया है जबकि जनाबे इमाम हसन (अ.स) और इमाम हुसैन (अ.स) बीमार हुए, आपके स्वस्थ हेतु रोज़ों (व्रत) की नज़र मानी गई और स्वस्थ होने पर सभी सदस्यों ने तीन रोज़े रखे और हर एक ने इफ़्तार के समय सायल (मांगने वाला) के सवाल पर अपने अपने इफ़्तारे सोम का खाना उठाकर सायल को दे दिया। उन खाना देने वालों में पंजतन के अलावा जनाबे फ़िज़्ज़ा भी शरीक थी।
रहमते इलाही जोश में आई और यह सूरा सब हज़रात की प्रशंसा करता हुआ उतरा और क्योंकि जनाबे फ़िज़्ज़ा भी इसमें शरीक थीं इस लिये इस सूरे ने जिन की तारीफ़ की उनमें जनाबे फ़िज़्ज़ा भी शामिल थीं (रोज़े रखने में जनाबे मक़बूल (स0 अ0) शामिल न थे) यदि जनाबे फ़िज़्ज़ा को प्रशंसा की श्रेणी में सम्मिलित न किया जाता तो यह इशवरीय न्याय के विपरीत होता।
भाष्यकारों ने इस बात पर एकता कर रखी है कि सूरा ए हल अता में जनाबे फ़िज़्ज़ा भी शरीक हैं बल्कि कुछ भाष्यकारों ने यह भी लिखा है तथाकथित सूरे में तीन स्थानों पर शब्द फ़िज़्ज़ा जो आया है उससे जनाबे फ़िज़्ज़ा का सम्मान और श्रेष्ठता उद्देश्य है (अगर भाष्यकारों की उस भाष्य को, भाष्य बिर्राय पर आधारित किया जाये, जो हमारे उलमा और मासूमीन के नजदीक हराम है) तब भी यह बात तो यक़ीनी है कि ईश्वर ने उन लोगों का स्वयं शुक्रिया अदा किया जो इस वाक्य में बराबर के शरीक थे।
अतः इन शब्दों में आधार व्यक्त किया गयाः
इन्ना हाज़ा काना लकुम जज़ा अंव व काना सअ योकुम मश्कूरा।
अनुवादः बेशक ये है तुम्हारी जज़ा और तुम्हारी कोशीश के हम शुक्रगुज़ार हैं।
हम तुम्हारे त्याग को यह प्रत्युपकार देते हैं और इन व्रतों में हमारी ख़ुश्नूदी के पेशेनज़र जो तकलीफ़े तुमने सहन की उनका हम आभार भी व्यक्त करते हैं।
स्पष्ट है कि जनाबे फ़िज़्ज़ा भी इस प्रयत्न में शरीक थीं इस लिये वह भी आभार हेतु पात्र थीं इसमें ज़्यादा क्या श्रेष्ठता हो सकती हैं कि पातिव्रत्य सदस्यों के संग उनका भी आभार ईश्वर ने व्यक्त किया इस सम्बन्ध में एक और घटना लिखी जाती है।
ईश्वर की दृष्टि में जनाबे फ़िज़्ज़ा के श्रेष्ठता की एक विचित्र घटनाः
जनाबे शैख़ मुफ़ीद अलैयर्रहमा ने अपनी पुस्तक हदायकुर रेयाज़ में इस घटना को जनाबे जाबिर बिन अब्दुल्लाहे अन्सारी की ज़बानी विश्वस्त सूत्रों द्वारा बयान किया है कि एक दिन जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) जनाबे आयशा के निवास स्थान से किसी आवश्यकता से पधारे हुए थे कि नमाज़ का समय आ गया आपने जनाबे फ़िज़्ज़ा को आवाज़ दी कि वुज़ू के लिये पानी लेकर आये, दो तीन बार हज़रत ने आवाज़ दी, किन्तु फ़िज़्ज़ा ने उत्तर नहीं दिया आपने सोचा कि शायद उन्होंने सुना न हो।
जब आप घर के आँगन में तो देखा कि एक आफ़ताब पानी से भरा हुआ रखा है, आपको अत्यन्त ताअज्जुब हुआ और वुज़ू करके मस्जिद में चले गये नमाज़ समाप्ति पश्चात् हज़रत सरवरे कायनात ने पूछा ऐ अली (अ.स) तुमने वुज़ू के लिये पानी कहाँ पाया ? हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने कहा कि मैंने फ़िज़्ज़ा को पानी लाने के लिये आवाज़ दी मगर वह नहीं आई, मैंने थोड़ी देर प्रतिक्षा की, जब पानी लेकर फ़िज़्ज़ा न आई तो मैं घर के आँगन में पहुँचा और देखा कि एक आफ़्ताबे में पानी भरा हुआ है मैंने वुज़ू किया और मस्जिद में जाकर नमाज़ अदा की।
हज़रत (स0 अ0) ने कहा कि अभी जिब्राइल आये थे उन्होंने मुझे सूचना दी है कि तुमने फ़िज़्ज़ा से वुज़ू के लिये पानी मांगा था किन्तु फ़िज़्ज़ा चूँकि अपनी हालते आदिया (महावारी) में थीं अतः उन्होंने गवारा नहीं किया कि तुम्हारे लिये इस हालत में वुज़ू के लिये पानी दें, और लज्ज़ा के कारणवश ख़ामोशी इख़्तियार की, ईश्वर ने उनकी शर्म बाक़ी रखने के लिये स्वार्गाध्यक्ष को आदेश दिया कि कौसर का जल तुम्हारे वुज़ू के लिये लाकर रख दे।
यह थी ईश्वर की दृष्टि में जनाबे फ़िज़्ज़ा की श्रेष्ठता, कि ईश्वर ने पसन्द न किया कि उनको पानी न लाने की मजबूरी का कारण बयान करना पड़े और शर्मिन्दगी उठाना पड़े, दूसरी तरफ़ यह भी ग़ौर करने की बात है कि स्वयं जनाबे फ़िज़्ज़ा की निगाह में इस्मते इमामत की इतनी अज़मत थी कि बावजूद शरई रूकावट न होने के उन्होंने इस हालत में जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) को वुज़ू के लिये पानी देना उनकी अज़मत व जलालत के विपरीत समझा और ईश्वर ने उनके इस अमल की प्रशंसा की तथा स्वर्गाध्यक्ष को पानी प्रस्तुत करना पड़ा।
वास्तविकता यह है कि जब इस तरह इमामत की श्रेष्ठता को समझा जाए तब मार्फ़ते इमामत के सही स्थान पर पहुँचा जा सकता है, जग देखे और ग़ौर करे कि आले मोहम्मद (अ.स) के दर की ललाटता एवं कमालता मनुष्य को श्रेष्ठता की किस उच्च श्रेणी पर पहुँचा देती है इसमें सन्देह नहीं और इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि जो इस डयोढ़ी का हो गया वह मनुष्यता की सर्वोच्च ऊँचाई पर जा पहुँचा इस बात की सीमा नहीं कि वह कम्बर हो, मीसम व कुमैल हो या फ़िज़्ज़ा जिसने भी इस चौखट पर सिर झुकाया वह लोक व परलोक में सम्मानित रहा। वह लोग जो ग़ुलामी व आले मोहम्मद (अ.स) की कनीज़ी का दम भरते हैं देखें और सोचें की इस दर के ग़ुलाम और कनीज़ जब अपने श्रेष्ठ आचरण के आधार पर ग़ुलामी का दम भरते हैं तो दुनिया की प्रत्येक चीज़ उनकी दृष्टि में तुच्छ हो जाती है फिर ईश्वर के दर्शनार्थ न उनको मौत से डर होता है और न दुर्घटना की चिन्ता, ईश्वर की कृपा व दया उनको सरफ़राज़ करती रहती है और उनकी आत्मा पवित्र होकर प्रतिष्ठा एवं श्रेष्ठता योग्य हो जाती है। यह मर्तबा हर किसी को नहीं मिलता उनके अस्तित्व से करामात व चमत्कार प्रदर्शित होते हैं जिनको देखकर साधारण व्यक्ति आश्चर्य व ताज्जुब के समुद्र में डूब जाता है। चूँकि आगे चलकर जनाबे फ़िज़्ज़ा की करामत का ज़िक्र आयेगा अतः उचित प्रतीत होता है कि चमत्कार की वास्तिविकता पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जायेगा क्योंकि आजकल का युवा वर्ग चाहे व लड़कियाँ हों या लड़के, इन बातों को केवल कथा एवं किस्सों पर आधारित करके नज़र अन्दाज़ कर देते हैं अतः ज़रूरत है कि उदाहरणों से उनकी बुध्दि में यह सारी बातें बैठा दी जाएं कि वह अपने उत्तम क्रिया कलाप और दृढ़ विश्वास से उच्च श्रेणी पर नियुक्त होकर चमत्कारी विषयों पर स्पष्ठ कर सके दार्शनिकों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है कि मनुष्य को ईश्वर ने सर्वश्रेष्ठ प्राणी उत्पन्न किया है, जैसा कि ईश्वर का कथन है, "ऐ मेरे बन्दे मैंने सारे जग को तेरे लिये पैदा किया है और तुझको अपने लिये तू मेरा हो जा, सम्पूर्ण जगत तेरा आज्ञाकारी हो जायेगा" अथार्त अगर मनुष्य ईश्वर की आज्ञा का पालन करे गा तो सारा जगत मनुष्य का आज्ञाकारी हो जायेगा और अगर मनुष्य अपने ईश्वर से अहंकार करेगा तो दूसरी मख़्लूकात इन्सान से अहंकार करेगी और उसकी आज्ञाकारिता से इन्कार कर देगी। इसका स्पष्ठ उदाहरण यह है कि अगर कोई अधीन अपने अफ़्सर का आदेशानुपालन न करे और उससे अहंकार करे तो स्वयं उसके अधीन उसका आदेश न माने गें और उससे अहंकार करेगें यह एक स्पष्ट वास्तविकता है जो प्रतिदिन होती रहती है। दूसरी स्पष्ट व रौशन मिसाल यह है कि एक व्यक्ति अगर अपने पिता का आज्ञाकारी न हो तो उसके दूसरे भाई उससे अहंकार करेगें क्योंकि उसने ऐसी हस्ती से अहंकार किया है जिसकी आज्ञापालन उस पर आवश्यक है और श्रेष्ठता में उसकी हैसियत सबके लिये समान थी।
ईश्वर ने इन्सान को कुछ शक्तियों सहित पैदा किया है जो यह हैः
1.नफ़्से मुत्मइन्ना या नफ़्से मलकीः वह मनोवृत्ति जो आत्मा में संतोष उत्पन्न करती है।
2.नफ़्से लव्वामः वह मनोवृत्ति जो बुरे कामों पर घृणा प्रकट करती है जिससे मनुष्य पछताता है।
3.नफ़्से अम्मारा या हैवानीः वह मानसिक शक्ति जो बुरे कामों की ओर प्रवृति करती है।
इन शक्तियों को देखकर बुध्दि को नेतृत्व प्रदान किया ताकि इसके सहयोग से उस मनोवृत्ति का अनुसरण करें जो उसको अपने ईश्वर तक पहुँचाने में सहायक हो औरउस आत्मशक्ति को पस्त करें जो ईश्वर से दूर करती और शैतान का आज्ञाकारी बनाती है तीनों शक्तियों का विवरण निम्न है।
नफ़्से मुत्मइन्ना या मलकीः
यह मनोवृत्ति अपनी कुछ शक्तियों के संग काम करती है जिनका वर्णन आयाम का कारण होगा, बहरहाल यह मनोवृत्ति आत्मा को सम्पूर्ण बुराईयों पवित्र करके मनुष्य को अपने ईश्वर से मिला देती है और मनुष्य उन सभी गुणों का पात्र होता है जो उसको अपने वास्तविक उद्देश्य तक पहुँचा देती है, धैर्य, सहनशीलता, बहादुरी, बोध और सतीत्व इसके विशेष रत्न हैं।
नफ़्से लव्वामः
इसका काम यह है कि जब नफ़्से हैवानी मनुष्य को किसी बुराई तरफ़ आकर्षित करता है और मनुष्य उस काम को करने पर तैयार होता है तो उस समय यही नफ़्से लव्वामः उसको रोकता है अगर मनुष्य उस काम से बाज़ रहता है तो वह नफ़्से मुत्मइन्ना की तरफ़ राग़िब कर देता है और अगर नफ़्से अम्मारा बलवान सिध्द होता है और मनुष्य उसका अनुसरण करके बुरे कर्मों में लीन हो जाता है तो यह धीरे धीरे मनुष्य को बुराईयों का आकार बनाकर जानवर से बद्तर बना देता है।
नफ़्से अम्मारा या हैवानीः
यह नफ़्स क़ुव्वते ग़ज़बिया और क़ुव्वते शहविया (कामवेग) के साथ काम करता है अगर इन्सान ने इसको नियन्त्रण में रख कर संतुलन से काम लिया तो बलाओं से आत्म रक्षा और शरीर की सुरक्षा करता है और अपनी पीढ़ी को आगे बढ़ाता है किन्तु मनुष्य अगर इससे दब गया तो फिर सम्पूर्ण हैवानी कर्म उससे होने लगते हैं और वह निकृष्ट प्राणी मनुष्यता के लिये नासूर बन जाता है।
आत्मा एक पुनीत रत्न है जो शरीर में आने के उपरान्त उस पर शासक होती है जब मनुष्य नफ़्से अम्मारा का अनुयायी होकर बुरे कर्मों का आदी हो जाता है तो आत्मा में पवित्रता बाक़ी नहीं रहती लेकिन अगर मनुष्य नफ़्से मुत्मइन्ना की तरफ़ आकर्षित होता है तो उसकी पवित्रता बढ़ जाती है और ईशवर की ओर से उस पर रहमतों की बारीश होती रहतीं है और उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह दूसरी मख़्लूक पर क़ब्ज़ा करने लगती है और यही वह क़ब्ज़ा है जो चमत्कार होता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य इन पर आदतन क़ाबिज़ नहीं होता अतः उसकी दृष्टि में वह विचित्र और असाध्द प्रतीत होता है और उसी को चमत्कार कहते हैं। इन्सान जितना नफ़्से मुत्मइन्ना का अनुसरण करता है उसी लिहाज़ से क़ुव्वते रूहानी (आध्दात्मिक) में वृध्दि होती रहती है इसी लिये अम्बिया व आइम्मा ए मासूमीन (अ.स) जो नफ़्से मुत्मइन्ना के अलावा नफ़्से कुलीय्या ए इलाही के अधिकारी होते हैं सम्पूर्ण जग पर शासन करते हैं और जिस समय जिस चीज़ पर चाहें क़ब्ज़ा एवं अधिकार कर सकते हैं और वह सब उनकी मुतीअ होती हैं और उसी को चमत्कार कहते हैं।
जनाबे फ़िज़्ज़ा ने अपनी पूजा अर्चना एवं लगन व परिश्रम से वह स्थान प्राप्त कर लिया था कि आपकी दुआ ईश्वर के दरबार में स्वीकार होती थी और मुश्किल काम हल हो जाते थे अतः निम्न घटना आपके चमत्कार के सम्बन्ध में लिखी जाती हैं।
जनाबे फ़िज़्ज़ा की दुआ का स्वीकार होना और चमत्कारः
जनाबे शेख़ मुफ़ीद लिखते हैं कि जनाबे अबुज़रे ग़फ़्फ़ारी ने बयान किया है कि एक दिन जनाबे फ़िज़्ज़ा लकड़ियाँ लेने के लिये तशरीफ़ ले गईं आपके लकड़ियाँ एकत्र की और उनको बाधाँ मगर लकड़ियों का गट्ठर इतना भारी था कि आप उसे उठा न सकीं तो आपने वह दुआ जिसके जनाबे रसूले अकरम (स0 अ0) ने शिक्षा दी थी पढ़ी और उसके पढ़ते ही आपकी दुआ क़ुबूल हुई आपने देखा कि एक अरब क़बीला ए आज़ाद का सामने आया और बग़ैर आपके कुछ कहे हुए लकड़ियों का गट्ठर उठाकर जनाबे सैय्यदा (स0) के निवास स्थान पर रखा और चला गया इसके अलावा भी आप से प्रायः इस तरह के चमत्कार प्रकट होते रहते थे जिनका वर्णन नहीं किया गया केवल इसी घटना पर संतोष किया गया है अपने स्थान पर वह घटनायें लिखीं जायेंगी।
जनाबे सैय्यदा (स0) के देहान्त पश्चात फ़िज़्ज़ा के हालात और सेवाएः
रसूले मक़बूल (स0 अ0) के देहान्त पश्चात् अहलेबैते अतहार (अ.स) को जिन दुख़ो एंव अत्याचार का सामना करना पड़ा वह इस्लाम धर्म के इतिहास (Islamic History) की एक अत्यन्त दुखदः घटना है। यह दुख इतने सख़्त थे कि जनाबे रसूले मक़बूल (स0 अ0) की पारा ए जिगर ज़्यादा दिनों तक बर्दाश्त न कर सकीं और केवल पछत्तर दिन या नब्बे दिन की अल्पावधि में चल बसी, शहज़ादी के देहान्त पश्चात जनाबे फ़िज़्ज़ा की ज़िम्मेदारियों में वृध्दि हो जाना यक़ीनी और आवश्यक था, सब बच्चे कमसिन थे जिन पर दुखों के पहाड़ टूट पड़े थे अभी प्रियतम नाना का साया उठा ही था कि माँ से भी वंचित हो गये। स्पष्ट है कि उनकी सेवा व सांत्वना, अब जनाबे फ़िज़्ज़ा ही के ज़िम्मे थी, उसी के साथ घर के सारे काम की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारियाँ तन्हा उन ही पर आ पड़ी थीं। किसी तारीख़ से पता नहीं चलता कि किसी और ने इस अवधि में जनाबे फ़िज़्ज़ा की सहायता की हो, जनाबे अस्मा बिन्ते उमैस से विवाह जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) का हज़रत अबुबक्र के देहान्त पश्चात हुआ उसके बाद भी घर की ज़िम्मेदारियाँ किसी ने बर्दाश्त नहीं की।
इसमें सन्देह नहीं कि जनाबे फ़िज़्ज़ा के हालात, वाक़ेआते कर्बला से पूर्ण तारीख़ से सविस्तार नहीं मिलते, किन्तु तारीक़ों और घटनाओं से ज्ञात हो सकता है कि उनके ज़िम्मे सम्पूर्ण घरदारी रही होगी क्योंकि दोनों साहबज़ादियाँ जनाबे ज़ैनब व जनाबे उम्मे कुलसूम (अ.स) कमसिन थीं।
जनाबे फ़िज़्ज़ा का विवाह और आपकी संतानः
जनाबे फ़िज़्ज़ा का विवाह हज़रत अली (अ.स) ने जनाबे सैय्यदा (स0) के देहान्त पश्चात एक अरबी ग़ुलाम "साल्बा" से कर दिया उससे एक लड़का पैदा हुआ, लेकिन डेढ़ साल बाद साल्बा का देहान्त हो गया और उसके देहान्त के बाद लड़के की भी मृत्यु हो गयी। इब्ने हजरे अस्कलानी ने यह वाक़ेया दूसरे ख़लीफ़ा के समय का लिखा है "किताबुल अन्साब" में लिखा है कि साल्बा की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद सुलैका नामी अरबी ने जनाबे फ़िज़्ज़ा से परिणय की इच्छा की जिसको आपने स्वीकार न किया, सुलका ने मायूस होकर ख़लीफ़ा ए वक़्त से शिकायत की, ख़लीफ़ा ए वक़्त ने उनके बुलवा कर के इन्कार का कारण पूछा।
जनाबे फ़िज़्ज़ा ने उत्तर दिया चूँकि उनका ज़माना ए इद्दत पुरा नहीं हुआ, अगर विवाह कर लिया जाए तो इस्लाम शास्त्र के विपरीत होगा, और यह कि अगर पहले पति से गर्भ होता है तो यह पता न चलता कि गर्भ पहले पति का है या मौजूदा पति का अगर वह सन्तान साल्बा की होती और ग़लत तौर पर सुलैका का उत्तराधिकार ठहरती तो वह उसके उत्तराधिकारी की हक़दार न होती, इस तरह अनुचित उत्तराधिकार से सुलैका के बाद की जायज़ सन्तान के साथ अन्याय होता। यह जवाब सुनकर ख़लीफ़ा ए वक़्त ने कहा कि अबुतालिब (अ.स) के घर की दासी भी बनी अद्नदी से ज़्यादा इस्लाम शास्त्र की ज्ञानी है। बहरहाल, सुलैका से आपका परिणय हुआ जिससे चार पुत्र और एक पुत्री पैदा हुई।
लड़कों के नाम दाऊद, मोहम्मद, यहिया, मूसा थे और लड़की का नाम मिस्का था उनकी लड़की शकीला थी जो बहुत बड़ी सदाचारी और संयमी थीं उनका एक विचित्र वाक़ेआ पुस्तकों में मुद्रित जो अपनी जगह पर लिखा जाऐगा।
विवाह उपरान्त जनाबे फ़िज़्ज़ा ने अपने कर्तव्यों में कोई कमी नहीं की और अहलेबैते अतहार (अ.स) की सेवा में उसी प्रकार व्यस्त रहीं। तारीख़ में कोई वाक़ेआ ऐसा नहीं मिलता जिससे अहलेबैत (अ.स) की सेवा और अपने कर्तव्यों की पूर्ति में किसी प्रकार की मामूली सी भी कोताही नज़र आये।
वाक़ेआ ए कर्बला में जनाबे फ़िज़्ज़ा की ख़िदमात (सेवाएं)
कौन सोच सकता है कि वह हस्ती जिसने भाग्यशाली निवास स्थल में आने के उपरान्त लगभग 58 वर्ष अहलेबैत (अ.स) की सेवा में व्यतीत किये वह उस दुर्गम घटना में अपनी शहज़ादी के बच्चों के साथ दुखों एवं कठिनाईयों में सम्मिलित न रही हो जिस तरह शहज़ादी (अ.स) के जीवनकाल में अहलेबैत (अ.स) के हर काम में शरीक रहीं और जो नेमतें अहलेबैते अतहार (अ.स) पर नाज़िल होती रहीं उनमें शरीक रहीं, उसी तरह मसायब (दुखों) के समय भी उनके काँधें से काँधा मिलाकर दुख एवं कठिनाईंयो का सामना करती रहीं और कभी उपालंभ तथा उलाहना ज़बान पर न लाईं, यह उनके जीवन का स्वर्णिम पाठ है जो महाप्रलय तक इतिहास और व्याख्यान की शोभा बना रहेगा और अहलेबैते अतहार (अ.स) के ज़िक्रे ख़ैर के साथ दुनिया उनका ज़िक्रे ख़ैर (अच्छा तज़किरा) भी दोहराती रहेगी।
मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब और मक़ातिल में जो नुमाया काम अन्जाम दिये हैं वह जली हुरूफ़ में कलमबन्द हैं चुनाँचे अबु मुख़न्नफ़ ने मक़तल में लिखा है कि जिस समय जनाबे सैय्यदुश शोहदा (अ.स) ने मदीने से रूख़सते सफ़र बाँधा तो दूसरे घर के सदस्यों के साथ आप भी रवाना हुईं और कर्बला, कूफ़ा व शाम से वापिसी तक अहलेबैत (अ.स) के साथ हर मुसीबत व दुख में शरीक रहीं अथार्त कर्वला आगमन के पश्चात से शबे आशूर तक जैसे जैसे मसायब में वृध्दि होती रही वैसे वैसे आपके फ़रायज़ की अदायगी और हिम्मत व जुर्अत में इज़ाफ़ा होता रहा वह हंगामाख़ेज़ रात जो शबे आशूर के नाम से मशहूर है शुरू हुई जनाबे इमामे हुसैने मज़लूम (अ.स) को एक रात की मोहलत मिली। सारी रात पूजा अर्चना में व्यतीत हुई फ़िज़्ज़ा भी अपने कर्तव्यों की पूर्ती में व्यस्त रहीं। कभी बच्चे की देख भाल करना, कभी इतरते रसूल (अ.स) की सेवा में व्यस्त रहना और जब आशूर की क़यामत ख़ेज़ सुबह हुई, तीरों की बारीश शुरू हुई, जनाबे फ़िज़्ज़ा ने भी कमरे हिम्मत बाँधी और हालात का सामना करने के लिये तैय्यार हो गयी। सुबह से शहादत के समय तक हालात पर नज़र रखना और जनाबे ज़ैनब (स0) को हालात से परिचित कराते रहना, कभी ख़ेमें के अन्दर तीरों से नुक़सान पहुँचने की सूचना जनाबे सैय्यादुश शोहदा को देना कभी जनाबे हबीब इब्ने मज़ाहिर के आने की सूचना जनाबे ज़ैनब (स0) को देना और कहना कि बीबी घबराने की ज़रूरत नहीं है आक़ा हुसैन (अ.स) के बचपन के साथी जनाबे हबीब आ गये हैं, फिर ख़ुद जनाबे हबीब को जनाबे ज़ैनब (स0) का सलाम पहुँचाना, कभी जनाबे हुर के आने की ख़बर पहुँचाना कि शहज़ादी, इमाम हुसैन (अ.स) के सहायकों में एक वृध्दि और भी हुई है मक़तल में लिखा है कि सुबह से अस्र के समय तक फ़िज़्ज़ा कभी दरे ख़ेमा पे आतीं कभी ख़ेमें के अन्दर जातीं जब कोई जाँबांज़ रूख़सत लेकर जंग के लिये मैदाने कर्बला में जाता, आप ही सूचना देतीं कि मौला (अ.स) का फ़लां फ़लां जांनिसार मौला (अ.स) से जूदा हो रहा है जब उसकी लाश आतीं तो फ़ौरन शहज़ादी को ख़बर देतीं कि फ़लाँ जांनिसार शहीद हो गया, जब कोई रिश्तेदार मैदान में जाता, आप इत्तेलाअ देतीं, कभी बच्चों की बहादुरी और वफ़ा का ज़िक्र करतीं, कभी जनाबे क़ासिम (अ.स) की वफ़ा का हाल सुनातीं, कभी जनाबे औन व मौहम्मद की जंग की कैफ़ियत बयान करतीं।
अगर यह घटना सही है कि जनाबे अली अकबर (अ.स) की शहादत के बाद, जनाबे ज़ैनबे कुबरा आपकी लाशे मुबारक पर गईं तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह भी आपके संग अवश्य गईं होगीं, यह बात सम्भव न थी कि जनाबे ज़ैनब (अ.स) अकेली गईं हो और आप ख़ेमें में अकेली बैठी रहीं हों। इतिहास इस सम्बन्ध में ख़ामोश हैं, केवल एक स्थान पर यह वाक्य मेरे दृष्टिगोचर हुआ है, कि रावी का कथन है कि जिस समय शहज़ादा ए अली अकबर (अ.स) घोड़े से गिरे और सैय्यादुश शोहदा (अ.स) युध्द क्षेत्र में बेतहाशा पहुँचें तो रावी ने देखा कि अचानक ख़ेमे का पर्दा उठा और एक लम्बे क़द की स्त्री सिर से पाँव तक चादर में लिप्टी हुई बाहर निकली और उनके संग वृध्दा चादर का कोना पकड़े हुए थी अगर जनाबे ज़ैनब (अ.स) का मैदान में जाना सही है तो यह रवायत भी सही है और वह वृध्दा जो चादर का कोना पकड़े हुए साथ थी वह जनाबे फ़िज़्ज़ा के अलावा कोई नहीं थी, वही साथ गईं होंगी और लाश उठाने में सहायता की होगी।
दोपहर ढली, सूर्य ने पश्चिम का रूख़ किया, अन्सार शहीद हो चुके, रिश्तेदारों की लाशें ख़ेमे से वापिस युध्द क्षेत्र पहुँच चुकीं, जनाबे अब्बास (अ.स) शाने कटवा चुके, बराबर का बेटा सीने पर बर्छी का फ़ल खाकर मैदान में सो चुका, अली असग़र (अ.स) की प्यास तीन भार के तीर से बुझ चुकी और शहीद होकर अपनी आख़री आरामगाह में पहुँच चुके, अब जनाबे इमाम हुसैन (अ.स) अकेले थे, दुश्मनों ने ललकारा और जनाबे सैय्यदा (स0) का लाल आख़री रूख़्सत के लिये मैदान से ख़ेमे में आया और आवाज़ दीः
"या ज़ैनब व या उम्मे कुलसूम व या रूक़य्या व या सुकैना व या रबाब अलैयकुन्ना मिन्नीस सलाम"
यह कहकर सबसे रूख़्सत हुए, ख़ेमे के दर पर आये, देखा कि बचपन की सेवा करने वाली माँ की बूढ़ी कनीज़ सफ़ेद बाल खोले दरे ख़ेमा का पर्दा पकड़े सिर झुकाये खड़ी है यह देख कर आपकी ज़बान पर यह शब्द जारी हुएः
या फ़िज़्ज़ा अलैयका मिन्निस सलाम ।
ऐ मेरी माँ की कनीज़ फ़िज़्ज़ा तुम पर भी मेरा आख़री सलाम हो।
किसके क़लम में ताक़त है और किसकी ज़बान में क़ुदरत है कि उनकी श्रेष्ठता को सीमित कर सके जिनको सिब्ते रूसूलुस सक़लैन, जिगर गोशा ए सैय्यादुन निसाइल आलामीन सलाम करें क़लम व ज़बान क्या चीज़ है विचारों की उड़ान भी इस श्रेष्ठता को सीमित नहीं कर सकती।
इमामे मज़लूम घर वालों से रूख़्सत होकर मैदाने जंग की तरफ़ चले और अली (अ.स) की बहादुर बेटी ने अमानत का बोझ अपने काँधे पर उठाया, सय्यद आले रज़ा साहब के कथनासुरः
बच्चों को रोके, भाई को रूख़्सत किये हुए
ज़ैनब खड़ी हैं बारे भरे अमानत लिये हुए
अब वह समय था कि अहलेबैत (अ.स) की नज़र में दुनिया तारीक थी अब इस वृध्दा सेविका ने अनुभव किया कि इस समय अपने कर्तव्यों को अत्यन्त दृढ़ता से अदा करना है अतः जनाबे फ़िज़्ज़ा ख़ेमे के दर पर आ खड़ी हुईं और अपनी गोद के खिलाए हुए छोटे शहज़ादे की जंग देखने लगीं और जनाबे ज़ैनब (अ.स) को बताती जाती थीं और इतने में अस्र का हंगाम आया सूर्य ने अपनी मंज़िले तय करके पश्चिम का रूख़ किया, इधर आफ़ताबे रिसालत नें आफ़ताबे फ़लक (आकाशीय सूर्य) पर नज़र की और इश्वरीय आराधना के लिये तैय्यार हुए, ज़ुल्फ़िकार (तलवार) नियाम में रखी, शत्रुओं ने यह देखा तो चारों ओर से तीरों, तलवारों और नेज़ों के वार शुरू कर दिये, हुसैन (अ.स) घोड़े से ज़मीन पर आये, फ़िज़्ज़ा ने बेचैन होकर आवाज़ दी, "शहज़ादी मेरी मल्का का लाड्ला शहज़ादा घोड़े पर नज़र नहीं आता" बशीर रावी कहता है कि मैंने देखा कि उस समय एक लम्बे क़द की स्त्री सिर से पाँव तक चादर से लिपटी हुई बेतहाशा ख़ेमे से निकली और एक वृध्दा पीछे पीछे चादर का कोना सँभाले हुए साथ है, इतने में आधियाँ चलने लगी, ज़मीन को भूचाल आया, क़द क़ोतेलल हुसैन (अ.स) की निदा (आवाज़) बुलन्द हुई और फिर इमाम (अ.स) का सिर नेज़े पर बलन्द दिखाई दिया। फ़िज़्ज़ा बेताब होकर दुश्मनों के झुण्ड की तरफ़ गईं और वापिस आकर आवाज़ दी कि बीबी ग़ज़ब हो गया, अब दुश्मन शहज़ादे की लाश की पायमाली का इरादा कर रहे हैं जनाबे ज़ैनब बहुत बेचैन हुईं तो फ़िज़्ज़ा ने कहा कि बीबी इस जंगल में एक शेर रहता है जो जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) का आज़ाद किया हुआ है मुझे मेरे मौला ने उसके रहना का स्थान बताया है।
पुस्तक नूरूल ऐन फ़ी मक़तलील हुसैन (अ.स) में जो एक प्रसिध्द एवं मान्य पुस्तक है लिखतें हैं कि जनाबे फ़िज़्ज़ा जंगल में गईं, देखा की एक स्थान पर शेर सो रहा है आपने आवाज़ दी "ऐ शेर! कैसा ग़फ़लत की निन्द सो रहा है उठ कि इमामे वक़्त हुसैन इबने अली (अ.स) इसी जंगल में शहीद कर दिये गये और अब अमीरूल मोमिनीन (अ.स) के जिगर का टुकड़ा हमारी शहज़ादी जनाबे ज़ैनब (अ.स) तुझ को याद कर रही हैं।
यह सुनकर शेर उठा और जनाबे फ़िज़्ज़ा के साथ ख़ेमागाह पर आया, शहज़ादी शेर से मुख़ातिब हुईं और बोलीं कि ऐ शेर ! ये दुश्मने दीन अब मेरे मज़लूम भाई इमाम हुसैन (अ.स) की लाश को पायमाल करना चाहते हैं जा और लाश की हिफ़ाज़त कर।
यह सुनकर शेर क़त्लगाह की तरफ़ चल दिया विभिन्न ऐतिहासिक पुस्तकों में इस वाक़ेआ को लिखा हुआ देखा गया है जिसका विवरण यह है कि अपनी ज़ाहिरी ख़िलाफ़त के दौर में जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) एक रोज़ मस्जिदे कूफ़ा में अभिभाषण दे रहे थे कि अचानक लोगों ने देखा कि एक शेर मस्जिद की तरफ़ आ रहा है, लोगों ने भय से भागना शुरू कर दिया, लेकिन हज़रत अली (अ.स) ने फ़रमाया कि डरने की ज़रूरत नहीं है इसको मेरे पास आने का रास्ता दे दो। रास्ता मिलने पर शेर सीधा मिम्बर के क़रीब पहुँचा, ज़मीने अदब को चूमा और दोंनो पर मिम्बर पर रख कर आपकी तरफ़ बढ़ा, आपने अपना कान उसके मुँह के क़रीब किया तो उसने अपनी ज़बान से कुछ कहना शुरू किया। हज़रत अली (अ.स) ने उसी की ज़बान में जवाब दिया। जब बात ख़त्म हुई तो फिर शेर ने ज़मीने अदब को बोसा दिया और वापिस चला गया।
शेर के चले जाने पर लोगों के हवास दुरूस्त हुए तो जनाबे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) से इस वाक़ेआ के बारे में पूछने लगे, हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने बताया कि इस शेर ने बयान किया कि उसकी बीवी मर गई है और उसने एक दूध पीते बच्चे को छोड़ा है जिसका पालन पोषण उसकी क्षमता से परे हैं अतः शेर अपनी परेशानी मुझसे बयान करने आया था ताकि उसके बच्चे के पालन पोषण का कोई प्रबन्ध हो सके अतः मैंने उसको बता दिया है कि नैनवा के जंगल में एक शेरनी रहती है उससे मेरी तरफ़ से कहे कि वह उस बच्चे की परवरिश करे।
इस घटना के डेढ़ साल बाद एक दिन फिर जब आप मिम्बरे कूफ़ा पर अभिभाषण दे रहे थे कि लोगों ने देखा की एक शेरनी और एक शेर मस्जिद में आ रहा है हज़रत ने पहले की तरह लोगों से मार्ग प्रशस्त का करने का निर्देश दिया वह दोनों मस्जिद में दाख़िल हुए और ज़मीने अदब को बोसा दिया फिर शेरनी मिम्बर के क़रीब पहुँची आपके कान में अपनी ज़बान में कुछ बात की आप (अ.स) ने उसकी ज़बान में जवाब दिया आप (अ.स) का जवाब सुनकर वह दोनों अदब से झुके और वापिस चले गये।
लोगों ने पूछना शुरू किया, हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) ने इरशाद फ़रमाया कि पिछले साल मैंने एक शेर को जिस शेरनी के पास शेर के बच्चे के लालन पालन हेतु भेजा था यह वही शेरनी है जो उस बच्चे को लेकर आयी थी, उसने बताया कि बच्चे का पालन पोषण करके मैंने आपके आदेश की पूर्ती कर दी, अब यह जवान हो गया है इसके सम्बन्ध में क्या आदेश है ? मैंने उसे निर्देश किया है कि शेर नैनवां के जंगल ही में रहे क्योंकि एक दिन ऐसा भी आयेगा जब मेरी औलाद को उसकी आवश्यकता होगी।
यही वह शेर था जिसकी सूचना जनाबे फ़िज़्ज़ा को मिल चुकी थी।
घटनाओं का क्रम आगे बढ़ाने से पूर्व यह उचित समझते हैं कि इस घटना की सत्यता पर प्रकाश डाल दिया जाए, क्योंकि वर्तमान समय का युवावर्ग जो सत्यताओं से अनिभज्ञ और हर उस बात को मानने से इन्कार करते हैं जो बज़ाहिर उनकी बुध्दि में न आयें और उनके विचार में सम्भव न हो, वह लोग जो अहलेबैत (अ.स) की श्रेष्ठता एव प्रतिष्ठाओं से इन्कार करते हैं और उनको अपने जैसा समझते हैं उनसे इस सम्बन्ध में बात करना बेकार है कि वह उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते जिसको साँसारिक उदाहरणों से सिध्द करने के लिये एक लम्बी वार्ता की आवश्यकता होगी जिसके लिये यह संक्षिप्त लेख प्राप्त नहीं हो सकता इस लिये कहना अपनी क़ौम के उन नौजवानों से है जो केवल पश्चिक का मूंद नेत्रों से अनुसरण में अपना सब कुछ खोते चले जा रहे हैं वह चन्द्रमा पर मनुष्य के पहुँचने को इस लिये सही मानते हैं कि रूस और अमेरिका ने दावा किया है जिस के सच होने का अब तक कोई ठोस सुबूत नहीं है लेकिन जनाबे रसूले अकरम (स0 अ0) के मेराज पर जाने और सितारे का अली (अ.स) और फ़ातिमा (स0) के निवास स्थल पर उतरने में उन्हें इसलिये परेशानी है क्योंकि वह उल्मा ए इस्लाम ने लिखा है इस लिये उस पर चरित्र सम्बन्धी नहल की जाती है।
तथाकथित घटना पर साँसारिक उदाहरणः
यह बात किसी उदाहरण की मोहताज नहीं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में पैदा किया गया है और यह एक नियम है कि श्रेष्ठ को अपने कमतर पर पूर्ण अधिकार होता है और कमतर श्रेष्ठ का अनुयायी होता है। किन्तु वास्वत में मनुष्य सम्पूर्ण जग पर श्रेष्ठ कब और कैसे होता है नज़रे ख़ास में मनुष्य के आदेशान्तर्गत कोई प्राणी नहीं है अथार्त अधिकार में तो है किन्तु आदेशान्तर्गत नहीं है वास्तव में, जिन शर्तों के साथ इन्सान को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया गया था, मनुष्य ने उनका अनुसरण नहीं किया तो यह श्रेष्ठता उससे ले ली गयी।
ईश्वर ने उत्तपत्ति समय पर आत्माओं से वचन लिया था कि वे उसके आज्ञाकारी रहेंगी। हदीसे क़ुदसी में इरशाद हुआ है कि "ऐ बन्दे ! तू मेरा हो जा तो यह सारी दुनिया तेरी हो जायेगी" अब जो बन्दे उसके होकर रहे, सम्पूर्ण जगत उनके आदेशान्तर्गत हो गया, यह एक स्पष्ट सत्यता है। आज भी जिसका दिल चाहे ईश्वर का होकर अपने आदेशानुपालन के अनुसार दुनिया पर शासक हो सकता है, दरवाज़ा ए रहमत बन्द नहीं है फिर जब ईश्वर की तरफ़ से उसकी मासूम हस्ती, संसार का इमाम व पेशवा बनाकर भेजा जाये तो स्पष्ट है कि उसको कितना अधिकार व इख़्तियार दिया गया होगा।
सूरा ए यासीन में इरशाद फ़रमायाः
"कुल्लो शय इन अहसयनाओ फ़ी इमामिम मुबीन" (हर चीज़ को हमने इमामे मुबीन के अहसा में दे दिया है)
जब इमाम के आदेशान्तर्गत सारा संसार है चाहे वह मलायका हो या जिन्न, इन्सान हो या हैवान नबातात (वृक्ष इत्यादि) या जमादात (पत्थर इत्यादि) सभी इमाम के आदेश के प्रति आज्ञाकारी हैं तो हर विषय में इमाम से अनुमति प्राप्त की जायेगी और इमाम प्रत्येक वर्ग की भाषा समझेगा अन्यथा वह उस पर शासक नहीं हो सकता। अतः शेर का अपने समय के इमाम के पास उपस्थित होना कोई आशचर्यजनक बात नहीं है। जो बातें साधारण व्यक्तियों हेतु शर्तों सहित सम्भव है वह विषय इमाम के लिये मामूली तौर पर सम्भव है और आसानी से वह उस पर अमल कर सकते हैं। साधारण व्यक्तियों में से कोई भी किसी वृक्ष की हज़ार बार मिन्नत व समाजत और ख़ुशामद करे कि वह अपनी जगह से हिले तब भी वह अपनी जगह पर स्थिर रहेगा। एक इंच भी आगे न बढ़ेगा, लेकिन जब ख़ुदा के रसूल (स0 अ0) ने वृक्ष को हुक्म दिया तो वृक्ष ज़मीन चीरता हुआ रसूले अकरम (स0 अ0) की सेवा में उपस्थित हो गया, सूर्य अपनी गति किसी के लिये नहीं बदल सकता लेकिन इमाम (अ.स) के एक इशारे पर डूब जाने के बाद अपनी चाल बदलकर फिर अपने स्थान पर आ जायेगा अर्थात सम्पूर्ण जग का इमाम (अ.स) के आदेशान्तर्गत होना आवश्यक है और यह कोई आशचर्य योग्य बात नहीं है।
अब रहा यह कि जनाबे फ़िज़्ज़ा तो इमाम (अ.स) नहीं थीं, उनके कहने पर शेर क्योंकर आया ? तो हम पिछले पृष्ठों में लिख चुके हैं कि नफ़्से मुत्मइन्ना प्राप्त करने के उपरान्त रज़ा ए इलाही हासील हो जाती है और आत्मा पाक व पवित्र होकर उस ऊचाँईं पर पहुँच जाती है कि जहाँ चमत्कार उनसे प्रकट होते हैं अतः इस विशेष सेविका ने अहलेबैत (अ.स) की सेवा में रह कर वह गुण प्राप्त किये कि मनुष्यता की सर्वश्रेष्ठ श्रेणी पर पहुँच गई कि उनसे चमत्कारों का प्रकटन कोई आश्चर्यजनक बात न रह गई। उनके जीवन में बहुत ऐसी घटनाऐं मिलेगीं जिनसे उनका मनुष्यता के श्रेष्ठ पद पर नियुक्त होने का पता चलता है।
केवल वही नहीं बल्कि उनकी नवासी शकीला की भी कुछ विचित्र ऐतिहासिक घटनाऐं हैं जो इन्शाअल्लाह अपनी जगह पर लिखी जायेंगी।
हुसैन (अ.स) के ख़ेमों की बर्बादी से लेकर कूफ़ा व दमिश्क के दरबार और शाम के क़ैदख़ाने तक जनाबे फ़िज़्ज़ा ने जिस तरह अहलेबैते अतहार (अ.स) का साथ दिया वह सेवाएं बेमिसाल कारनामें की हैसियत से रहती दुनिया तक यादगार रहेंगी।
हमने पिछले अम्बिया (अ.स) के हालात पढ़े, उनके साथियों और सहायकों के तज़कीरों का अध्य्यन किया किन्तु हज़रत आदम (अ.स) से लेकर हज़रत ख़ातमुल अम्बिया (अ.स) तक किसी नबी (अ.स) या रसूल (अ.स) के अस्हाब को हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) के अस्हाब की तुलना में बा वफ़ा और बहादुर नहीं पाया। उनमें कोई मर्द हो या औरत, बच्चे हों या नौजवान, युवा हो या वृध्द एक एक व्यक्ति ने प्रेम और साहस के जो चिन्ह सदैव के लिये छोड़े वह प्रकाशमयी दिन की तरह स्पष्ट व अनुसरणीय हैं।
मुझे तो एक जनाबे फ़िज़्ज़ा के सामने सम्पूर्ण अम्बिया के अस्हाब व सहायक पस्त नज़र आते हैं। दुनिया में कोई मिसाल ऐसी नहीं है कि किसी सेविका ने ऐसी वफ़ादारी और दृढ़ता का प्रर्दशन किया हो। जनाबे फ़िज़्ज़ा के कारनामों को देख कर दिमाग़ दंग रह जाता है बुध्दि भ्रष्ट हो जाती है और यह कहने पर मजबूर से हो जाती हैं कि "ऐसे व्यक्ति ईश्वर भी इस संसार में आये हैं" । अन्याय व अत्याचार की वह तेज़ आंधियाँ, ज़ुल्म व बे इंसाफ़ी के वह तूफ़ान और उनमें आत्मसंतोष का यह आलम कि किसी जगह कोई भय नहीं शत्रुओं के अत्याचार का साहासिक मुक़ाबला न ज़िन्दगी की इच्छा, न मरने का डर, बस एक ही धुन और भावना कि हुसैन (अ.स) के बच्चों और अहलेबैत हुसैन (अ.स) की सेवा में अपने को ख़त्म कर देना है, मक़ातिल में है कि जिस समय कूफ़ा व शाम के अत्याचारी अहलेहरम पर ज़ुल्म व सितम करते और उनके अपवित्र और घृणत हाथ जनाबे ज़ैनब (अ.स) व उम्मे कुल्सुम (अ.स) की तरफ़ ताज़ियाने लेकर बढ़ते तो यह वृध्दा अपनी पीठ को ढाल बना देती और दुर्रों की चोट से उन पातिवृत्य शहज़ादियों को बचाने का प्रयत्न करतीं।
इब्ने ज़्याद के दरबार में जिस समय मलऊन ने जनाबे ज़ैनब (अ.स) से बदकलामी की है उस समय जिस साहस व हिम्मत के साथ फ़िज़्ज़ा ने मलऊन से उस मतऊन की मलामत की है वह ऐतिहासिक पृष्ठों में सुरक्षित है ऐसे अत्याचारी और अन्यायी शासक के समक्ष ऐसे साहस से वार्तालाप वही कर सकता है जो नफ़्से मुत्मइन्ना से सम्बन्धित हो। इसी तरह यज़ीद मलऊन के दरबार में जब दरबार सुसज्जित हो गया और अहलेबैते अतहार (अ.स) उस मलऊन के सामने लाये गये तो मक़ातिल में ये सविस्तार मुद्रीत है कि जिस समय यज़ीद मलऊन ने अहलेहरम का निरिक्षण करना चाहा तो जनाबे फ़िज़्ज़ा अपनी शहज़ादियों के आगे जाकर खड़ी हो गईं ताकि यह ख़्वातीन नामहरम की नज़र से सुरक्षित रहें।
इस पर यज़ीद मलऊन क्रोधित हुआ और उनको सामने से हट जाने का आदेश दिया और जब उस ज़ालिम व जाबिर के आदेश पर ये न हटीं तो यज़ीद मलऊन ने ज़बरदस्ती उनको हटाने का हुक्म दिया उस समय जिस साहस व हिम्मत के साथ उन्होंने नंगी तलवारे लिये ग़ुलामों को जो यज़ीद के दरबार में खड़े थे ग़ैरत दिलायी कि वह लोग जंग पर तैय्यार हो गये और इस तरह अपनी शहज़ादियों को सुरक्षित रखने की कोशिश की वह केवल उन्हीं मोअज़्ज़मा का काम था। क़ैद में जाने के हालात में स्पष्ट है कि इतिहास ख़ामौश है और उनके सम्बन्ध में कोई विशेष वर्णन नहीं मिलता किन्तु सबूत एवं हालात से यह बात विश्वास की हदों तक पहुँच जाती है कि यहाँ भी अपनी शहज़ादियों की सेवा करने में कमी न की होगी, ख़ास तौर पर इमामे मज़लूम के नाज़ों की पली सकीना (अ.स) जब तड़पकर रोती होगी तो सम्भवता उनकी दिलजूई और सेवा करने में कोई दक़ीक़ा उठा न रखा होगा और जिस समय इस बच्ची न दुनिया को खदेड़ा होगा उस वक़्त भी उन्होंने सम्भव सेवा करने में कोई कमी न की होगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस विशिष्ट घटना में उस मासूमा की अंतिम सेवाएं उन्होंने ही अर्पित की होगी अहलेबैत (अ.स) की इस बेचारगी और मजबूरी के आलम में उनकी हर सम्भवतः कोशिश अहलेबैत (अ.स) के दुखों एवं कष्टों को कम करने में सहायक सिध्द होगी।
दमिश्क (शाम) के क़ैद ख़ाने के उपरान्त से देहांत तक के हालातः
शाम के क़ैद ख़ाने से रिहाई के उपरान्त आप अहलेबैत (अ.स) के साथ मदीना ए मुनव्वरा आईं और 63 हिजरी तक आपका मदीना ए मुनव्वरा में मौजूद होना सिध्द होता है किन्तु उस समय के हालात पर बिल्कुल (लगता है) पर्दा पड़ा हुआ है और इतिहास बिल्कुल ख़ामोश है लेकिन रवायत में यह ज्ञात हुआ है कि जिस समय जनाबे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स) की दरबारे यज़ीद में दोबारा तलबी का आदेश आया और जनाबे ज़ैनब (अ.स) उनके साथ गईं तो यह भी अपनी शहज़ादी के साथ गईं दीं और जनाबे ज़ैनब (अ.स) की शहादत के बाद आप कूफ़े आ गईं और अपने चारों पुत्रों के साथ वहीं रहीं और वहीं उनका देहांत हुआ।
ख़सायसे ज़ैनबिया में जो जनाबे शीरज़ी लिखते हैं कि जब यज़ीद को यह सूचना प्राप्त हुई कि लोग हज़रत अली इब्नुल हुसैन (अ.स) के यहाँ जता होतें हैं तो उसने मदीने के गवर्नर को लिखा कि अली इब्नल हुसैन (अ.स) को उसके पास भेज दिया जाये।
बहरहाल जिस समय मदीने से रवाना होने लगे तो दुखयारी फ़ूपी प्रेंम के कारण बेताब हो गईं और उनके अकेले जाने पर राज़ी न हुई बल्कि स्वंय भी उनके साथ गई उस समय यह ख़ानदानी ख़ादिमा भी साथ थी और जिस समय जनाबे ज़ैनब (अ.स) वृक्ष के नीचे ठहरी और आपकी शहादत हुई तो जनाबे फ़िज़्ज़ा ही ने सम्पूर्ण ग़ुस्ल ओ कफ़न की क्रियांए सम्पन्न की और इसके बाद आप बजाए मदीने वापिस जाने के कूफ़े चली गईं और फिर वहीं ठहरीं लेकिन चूँकि जनाबे ज़ैनब का दोबारा मदीने से शाम जाना अक्सर उल्मा (इस्लाम धर्मशास्त्र के ज्ञाता) के अनुसार और विशेषकर सदरूल मोहक़्क़ेक़ीन सरकारे नासिरूल मिल्लत जनाब मौलाना अस सैय्यद नासिर हुसैन साहब क़िबला आलल्लाहो मक़ाअहलेबैत (अ.स) मक़ामहू और उनके पिता श्री आदरणीय अल्लामा अस सैय्यद हामिद हुसैन साहब किबला आल्लाहो मक़ामहू के अनुसंधान में सही नहीं है बल्कि आपने उसका खण्डन किया है।
इनका अनुसंधान यह है कि जनाबे ज़ैनब (अ.स) दुबारा मदीने से तशरीफ़ नहीं ले गईं और मदीने में ही देहांत हुआ और जन्नतुल बक़ीअ में ही आपकी क़ब्र है दरायतन भी यह रवायत सही प्रतीत नहीं होती क्योंकि चौथे इमाम (अ.स) के कथन के पश्चात कि फ़ूफ़ी अम्मा आप परेशान न हो मुझे इस यात्रा में यज़ीद से कोई चोट नहीं पहुँचेगी और मैं रास्ते ही से वापिस आ जाऊँगा और आप बाएजाज़े इमामत वापिस आ गए। स्पष्ट है कि इमाम (अ.स) के विश्वास दिलाने के बाद आपका सन्तुष्ट न होना अर्थहीन है इस स्थान पर एक चीज़ जो इस रवायत के सही होने की दलील है वह जनाबे ज़ैनब (अ.स) का रोज़ा ए अक़दस जो दमिश्क के समीप स्थित है के सम्बन्ध में लोगों को यह संदेह उत्पन्न होना स्वभाविक है कि अगर यह वाक़िया ग़लत है तो आपका रोज़ा ए अक़दस वहाँ क्योंकर हो सकता है लेकिन इस तरह की विभिन्न मिसालें और भी मौजूद हैं जो विपरीत होते हुए भी प्रसिध्द हो गई। चुनाँचे मिश्र में दफ़्न सरे हुसैन (अ.स) की मौजूदगी इसी तरह और भी एक दो स्थान हैं जहाँ कहा जाता है कि हुसैन (अ.स) का सिर दफ़्न है। हालांकि अनवेषकों को यहाँ यह बात निश्चित है कि हुसैन (अ.स) कर्बला में आपके पवित्र शरीर के साथ ही दफ़्न हैं। इसी तरह जनाबे सकीना (अ.स) की क़ब्र शाम के क़ैदख़ाने में बनी हुई है । हालांकि यह सेविका वाक़ेआ ए कर्बला के समय बालिग़ हो चुकी थीं और आपने काफ़ी दीर्घ आयु पाई।
बहरहाल यह बात तय है कि पूरे जीवन जनाबे ज़ैनब (अ.स) के साथ जनाबे फ़िज़्ज़ा मदीना ए मुनव्वरा ही में रहीं उसके बाद कूफ़े में अपने लड़कों के साथ जीवन यापन किया अथाह प्रयास के बावजूद यह ज्ञात नहीं हो सका कि आपके चारों पुत्रों में से कोई भी वाक़ेआ ए कर्बला में शामिल क्यों नहीं हुआ हालांकि यह स्पष्ट है कि आपकी सभी औलादें अहलेबैत (अ.स) की प्रेंम लीला में लीन थी और इमाम (अ.स) की पहचान में उनको वह स्थान प्राप्त था जहाँ प्रत्येक व्यक्ति का पहुँचना मुश्किल है और संयम व सदाचार के उन उच्च स्थानों पर नियुक्त थे जहाँ इमाम (अ.स) के रिश्तेदारों को होना चाहिये। इस रूप में सिवाय इसके कि या वो वाक़ेआ ए कर्बला से पूर्व जो अहलेबैत (अ.स) के चाहने वाले क़ैद कर लिये गये थे, उन्हीं में यह चारों हज़रात शामिल थे या फिर नाकाबन्दी होने के कारणवश आपको उसी के अर्न्तगत रहने के लिये मजबूर होना पड़ा और कोई वजह नहीं हो सकती अन्यथा जनाबे फ़िज़्ज़ा (अ.स) के संतान का मैदाने कर्बला में उपस्थित न होने का और कोई कारण नहीं हो सकता।
जनाबे फ़िज़्ज़ा (अ.स) का क़ुरआनी भाषा में वार्तालाप करनाः
वह सभी ऐतिहासिक पुस्तकें जिनमें जनाबे फ़िज़्ज़ा का वर्णन है उनमें यह बात स्पष्ट रूप से मुद्रित है कि आले मोहम्मद (अ.स) के निवास स्थल से निकल ने के बाद से जीवन भर जनाबे फ़िज़्ज़ा ने सिवाय क़ुरआनी भाषा के और किसी ज़बान में बात न की और यह अवधि लगभग 22 वर्ष है। "चुनांचे मनाकिब शहरे आशोब" से यह वाक़ेआ सविस्तार लिखा जाता है। साहिबे मनाकिब ने यह रवायत विश्वसनीय सुत्रों से अबुल क़ासिम दमिश्की तक पहुँचाई है, लिखते हैं कि रावी ने बयान किया उससे अबुल क़ासिम दमिश्की ने बयान किया अस्ल वाक़ेया निम्न हैः
अबुल क़ासिम दमिश्की बयान करते हैं कि एक अरब हज करके कूफ़े से गुज़र रहा था वह कहता है कि मैं एक वीरान स्थान पर काफ़िले से पीछे रह गया। मैंने देखा कि एक मोअज़्ज़मा एक मैंदान में तन्हा बैठी है। मैं उन के क़रीब गया और हाल पूछा, उन्होंने क़ुरआन की आयत पढ़ीः
"क़ुल सलामुन फ़ सौफ़ा तअलामून" यानि "पहले सलाम करो फिर मालूम करों।"
अतः मैंने सलाम किया फिर दरियाफ़्त किया कि आप कौन हैं, क़ौमे जिन्न है या बनी आदम हैं ?
जवाब दियाः या बनी आदमा ख़ुजू ज़ी नताकुम इन्दा कुल्ले मस्जिद
यानि ऐ बनी आदम अपने को ज़ीनत दो मस्जिदों से (हर नमाज़ में अपने को ज़ीनत दिया करों)
बस मैंने समझा कि बनी आदम (अ.स) हैं। फिर मैंने सवाल किया कि आप यहाँ क्या कर रहीं है ?
फ़रमायाः युनादूना मंय यहदेयल्लाहो फ़ला मुज़िल्ला लहू । यानि, जिस की ख़ुदा हिदायत (निर्देश) करता है उसको कोई गुमराह नहीं कर सकता ।
मैं समझ गया कि राह भूल गई हैं। मैंने पूछा आप कहाँ से तशरीफ़ ला रहीं हैं ?
फ़रमायाः मिम मकानिन बईद (दूर से तशरीफ़ लाईं हैं)
फिर मैंने सवाल किया कि कहाँ का इरादा है ?
फ़रमायाः लिल्लाहे अलन नासे हिज्जुल बैते ली मीनस लताआ एलैयहे सबील
यानि, अल्लाह की तरफ़ से इन्सानों पर हज्जे बैयतुल्लाह फ़र्ज़ किया गया है बशर्ते कि इस्ताअत रखता हो।
मैं समझ गया कि हज के लिये जा रहीं है।
फिर मैंने सवाल किया कि कितने दिनों से सफ़र में हैं ?
कहाः व लक़द खलक़न्नस समावाते वल अरज़ा फी सित्तते अयाम
यानिः और हमने छः दिनों में आसमानों और ज़मीन को पैदा किया
मैं समझ गया कि छः दिनों से सफ़र में हैं। फिर मैंने पूछा कुछ खाने की इच्छा है ?
कहाः मा ज अल्नाहुम जसा दल ला याकुलूनत तआम
अर्थातः हमने उनके शरीर ऐसे नहीं बनाए कि वह खाना न खाऐं
मैं समझ गया कि आप भूक का अनुभव कर रहीं है। अतः मैंने खाना प्रस्तुत किया। खाने के उपरांत मैंने चलने के लिये जल्दी की
कहाः ला यकुल्लेफ़ुल्लाहो नफ़्सन इल्ला वुस अहा
ख़ुदा ने ताक़त से ज़्यादा तकलीफ़ नहीं दी।
मैंने कहा अगर आप चलने की शक्ति नहीं रखती तो मेरी सवारी हाज़िर है।
कहाः लौ काना फ़ी हेमा आले हतुन इल्लल्लाहो ल फ़ंसा दत
अर्थातः अगर एक ख़ुदा के सिवा दो ख़ुदा होते तो दोनों (आसमान व ज़मीन) फ़ासिद हो जाते
बस मैंने उनको सवार किया और स्वयं पैदल चला उन्होंने कहाः
अल्हम्दो लिल्लाहिल लज़ी सख़्खरा लना हाज़ाः
यानिः प्रशंसा योग्य है वह ईशवर जिसने हमारे लिये इसको (सवारी) मोहय्या किया
जब हम गंतव्य पर पहुँचे तो मैंने पूछा कि आपका कोई रिश्तेदार इस काफ़िले में है, जिसको मैं सूचित करूँ ? कहाः या दाऊदों इन्ना जअल्नाका फ़िल अरज़े ख़लीफ़ा, वमा मोहम्मदुन इल्ला रसूल, या योहया ख़ुज़िल किताब, या मूसा इन्नी अनल्लाह।
यानिः ऐ दाऊद हमनें तुमको ज़मीन पर ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया, मोहम्मद नहीं है मगर (हमारे) रसूल ऐ यहिया। यह किताब (पकड़) लो, ऐ मूसा ! यक़ीनन मैं अल्लाह हूँ।
बस मैं काफ़िले में गया और इन चारों नामों को पूकारा तो चार जवान काफ़िले से निकल कर आपके पास आये मैंने दरियाफ़्त किया कि यह नौजवान कौन है ?
कहाः अल मालो वल बनून जी नतुल हयातिद दुनिया।
अर्थातः माल और औलद दुनिया की ज़ीनते हैं
मैं समझ गया कि यह इनके बेटे हैं। फिर वह उनकी तरफ़ मुख़ातब हुईं और बोलीः
इस्ताजिर हो इन्ना ख़ैरा मनिस ता जरतल क़विय्युल अमीन
अर्थातः इसको (मज़दूरी) उजरत दे दो क्योंकि बेहतरीन मज़दूर वही है जो मज़बूत और ईमानदार हो
बस उन नौजवाने ने मुझे कुछ रक़म दी।
उन मोअज़्ज़मा ने फिर कहाः वल्लाहो युज़ा अफ़ो ले मयी यशाअ
अर्थातः अल्लाह जिसको चाहता है इज़ाफ़े (और अधिक) से नवाज़ता है
तब उन्होंने मेरे साथ एहसान में इज़ाफ़ा (वृध्दि) किया और मज़ीद रक़म दीः
मैंने उन नौजवानों से दरियाफ़्त किया कि यह आदरणीय वृध्दा कौन हैं ? उन्होंने बताया कि यह हमारी माँ जनाबे फ़िज़्ज़ा (अ.स) हैं जो सेविका ए जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स0) है बीस वर्ष ग़ुज़र गये कि सिवाय कलामे इलाही के इन्होंने कोई और कलाम नहीं किया।
तथाकथित घटना से आपके अध्यात्मिक चमत्कार के अलावा यह भी मालूम होता है कि आपको क़ुरआने मजीद का कितना ज्ञान था। 20 वर्ष केवल क़ुरानी भाषा में वार्तालाप करना ऐसी करामत है जिसका विचार ही आश्चर्यजनक है किन्तु इस दर की सेवा का परिणाम और सौभाग्य है जिस डयोंढी पर जिब्राईल अमीन सेवक स्वरूप उपस्थित होते थे, रिज़वाने जन्नत दर्ज़ी बनना सौभाग्य समझते थे, पिछले रसूलों (स0 अ0) ने गृहस्थियों से लाभ आर्जित किया और उनकी कठिनाईंया आसान हुईं। मुल्ला काशी के अनुसारः
कातिबे दीवाने आरत मूसा ए दरिया शिग़ाफ़ पर्दा दारे वामे कस्रत ईसा ए गर्दू नशीं
वह अम्मार हो या मिक़दाद अबुज़र हो या सलमान कम्बर हो या फ़िज़्ज़ा जिसने इस दर की सेवा की वह मनुष्यता की उस पराकाष्ठा श्रेणी पर नियुक्त हुआ जिससे समीपस्थ फ़रिश्ते भी पस्त नज़र आते हैं। इन आदरणीय अस्तित्वों ने मनुष्यता के डंके बजवा दिये और दनुया को दिखा दिया कि आले मोहम्मद (अ.स) की सेवा करने वाले बेमिसाल होते हैं।
काश दुनियावासी इन्हीं व्यक्तियों के चमत्कार को देखकर आले मोहम्मद (अ.स) के महत्व को समझते और उनकी क़द्र करते और उस मार्ग पर चलते विशेषवार वह मुसलमान जो रसूल (स0 अ0) के अनुयायी होने का दम भरते हैं, वह आँखें खोलकर देखते लेकिन अफ़सोस है कि बजाए उनके पद चिन्हों पर चलने के आले मोहम्मद (अ.स) की मोअद्दत (प्रेम) व पैरवी तो दूर इन हज़रात के सही हालात व जीवन संबन्धी करामात को गुप्त रखा गया और ऐसे लोगों को उन पर प्रदान्ता दी गई और उसका प्रचार किया गया जो वास्तव में इस्लाम में कोई स्थान ही नहीं रखते थे। मुझे ज़्यादा शिकायत अपनी क़ौम से है जो आले मोहम्मद (अ.स) के अनुयायी होने का दावा करती है किन्तु उनके ग़ुलामों और कनीज़ों के आचरण को भी न अपना सकी। हम जब अपने आचरण का विशलेषण करते हैं तो अपने को उनका ग़ुलाम कहते हुए शर्म आती है। बहरहाल हमें चाहिये कि अब हम अपने अस्तित्वों की दुरूस्तगी और आचरण की शुध्दि का प्रयास करें और केवल ज़बान से हुसैन (अ.स) का नाम लेने, मजालिसे अज़ा का प्रबन्ध करके कानों को अभिभाषणों से हर्ष प्रदान करने और नौहा व मातम बर्पा करने पर संतोष न करें बल्कि इस दुखद घटना से इमामे मज़लूम (अ.स) के अंसार और रिश्तेदारों के चरित्र व आचरण की आत्मा पर ग़ौर एवं विचार करें और उस पर चलने को अपना तरीक़ा ए कार बनाऐं।
साहिबे मनाक़िब लिखते हैं कि जनाबे फ़िज़्ज़ा 22 या 23 वर्ष मदीना छोड़ने के बाद ज़िन्दा रहीं तारीख़ या इस घटना के उपरान्त तारीख़ बिल्कुल ख़ामोश है किन्तु अन्दाज़ से पता चलता है कि मृत्यु सन का किसी ऐतिहासिक पुस्तक से पता नहीं चलता है कि अगर 63 हिजरी या 64 हिजरी में मदीना छोड़ा तो 86 या 87 हिजरी तक जीवित रहीं और अपनी शहज़ादी से 72 या 73 साल इस दुनिया में जुदा रहकर स्वर्गवासी हो गयी अपनी शहज़ादी की सेवा में पहुँच गईं और दुनिया ए इस्लाम की औरतों के लिये अपने आचरण से वह सबक़ दे गईं कि अगर वह उनके पद चिन्हों का अनुसरण करने का प्रयास करें तो मनुष्यता की पराकाष्ठा की श्रेणी पर पहुँच सकती हैं जो इस्लाम के अनुयाइयों का स्थान है।
ऐ जनाबे सैय्यदा (स0) की कनीज़ ऐ हुसैन (अ.स) और उनके बच्चों की परवाना हम गुनाहगारान व ग़ुलामाने आले मोहम्मद (अ.स) का आप पर सलाम हो और ख़ुदा की रहमतें (अनुकम्पा) आपके अस्तित्व पर सदैव होती रहे। बीबी हम आपकी शहज़ादी (अ.स) के सिर्फ़ नाम लेना ही सही लेकिन संबंध तो रखते हैं। महाप्रलय के दिन हमको न भूल जाइयेगा और अपनी शहज़ादी से जब महाप्रलय के दिन हम पापियों का हिसाब पेश हो तो आप सिफ़ारिश कर कर सफ़ल बना दीजियेगा और अपने संग हमको भी सैय्यादुश शोहदा (अ.स) की सेवा में पहुँचा दीजियेगा।
अब अन्त में जनाबे फ़िज़्ज़ा की निवासी का एक महत्वपूर्ण चमत्कार मुद्रित किया जाता है ताकि पाठकगण इस पूरे घर की महानता का अन्दाज़ा कर सकें और देखें कि सिर्फ़ जनाबे फ़िज़्ज़ा ही उन उत्तम श्रेणियों पर नियुक्त नहीं थी बल्कि उनकी आग़ोशे तरबियत के पले हुए भी आचरण व विश्वास की किस श्रेणी पर नियुक्त थे।
जनाबे फ़िज़्ज़ा (अ.स) की नवासी शकीला का करामत का एक वाक़ेआः
साहिबे मनाक़िब लिखतें हैं कि जनाबे फ़िज़्ज़ा की एक साहबज़ादी थी जिनका शुभ नाम मिस्का था उनकी एक लड़की थी जिनका नाम शकीला था वह संयम सदाचार एवं आराधना में अपने समय की सम्पूर्ण धर्मावलबलिम्बयों में महानता रखती थी रात दिन पूज़ा अर्चना में व्यस्त रहती थी जिसकी वजह से वह उस उत्तम स्थान पर नियुक्त थी जिस पर प्रत्येक व्यक्ति नहीं पहुँच सकता आपसे प्रायः चमत्कारों का प्रकटन होता रहता था।
एक मर्तबा का ज़िक्र है कि आप हज्जे बैयतुल्लाह के लिये एक काफ़िले के साथ रवाना हुईं आपका नाका (ऊँटनी) बहुत कमज़ोर थी जिसका नतीजा यह हुआ कि आप काफ़िले से पीछे रह गयीं क्योंकि आपका नाका चलने से माज़ूर होकर बैठ गया आपने मजबूर होकर नाके को आज़ाद कर दिया और मैदान में एक वृक्ष का सहारा लेकर बैठ गई जंगल में अकेलीं थीं और वहाँ से निकलने का कोई मार्ग नज़र नहीं आता था, निराशा से आपने आसमान की तरफ़ नज़र की और कहा ईशवर मैं तेरे घर का हज करने के लिये निकली थी किन्तु प्रकट रूप से इस सौभाग्य से वंछित हो गई हूँ और घर से दूर इस अवस्था में अकेली हूँ, नाके ने मित्रता से मुहं मोड़ लिया है अब सिवाय तेरे कोई सहारा नहीं है मेरी सहायता कर आपके मुहं से इन शब्दों का निकलना था कि सामने से एक अरब नाका लिये हुए आता दिखाई पड़ा और समीप पहुँच कर नाके की मेहार आपके हाथ में दे दी और स्वयं वापिस चला गया। आपने ईशवर का आभार प्रकट किया और नाके पर सवार हो गई वह नाक़ा इतनी तेज़ी से चला कि आप अपने छूटे हुए काफ़िले से पहले ही मक्का ए मोअज़्ज़मा पहुँच गईं लोगों ने आश्चर्य से काफ़िले से पहले पहुँचने का कारण पूछा तो कहा कि मैं जिसके घर के दर्शनार्थ निकली थी, उसने तुम लोगों से पहले पहुँचा दिया।
फिर आपने सविस्तार पूरा वाक़ेआ सुनाया। लोगों को न सिर्फ़ इस विचित्र घटना से आश्चर्य हुआ बल्कि आपके चमत्कार मर्तबे और ईश्वर से समीपस्थ की जो श्रेणी आपको प्राप्त थी, उससे परिचित हुए और आपका आदर व सम्मान करने पर मजबूर हुए।
यह था जनाबे फ़िज़्ज़ा के लालन पालन का चमत्कार जो तीन पीढ़ियों तक अपना प्रभुत्व दिखाता रहा इनकी गोद में परवरिश पाने वालों के स्वभाव में अहलेबैत (अ.स) का प्रेम रच बस गया था और ईश्वरीय आदेशानुपालन ने दूसरे स्वभाव का रूप धारण कर लिया था। जिसने उनको और उनकी संतान को उन सर्वोच्च स्थानों और उच्च श्रेणियों तक पहुँचाया कि रहती दुनिया तक उनकी नाम और कारनामें लोगों के लिये अनुसरणीय रहेंगे। परलोक में उनके स्थान जिस ऊँचाई एवं बलन्दी पर होंगे उनका सीमांकन भला हम जैसे कैसे कर सकते हैं।
वल्लाहो आलम बिस्सवाव
पुस्तके जिनसे लाभ अर्जित किया गयाः
नाम पुस्तक |
नाम लेखक |
1.मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब |
मोहम्मद बिन शहरे आशोब |
2.बेहारूल अनवार |
जनाब अल्लामा मोहम्मद बाक़िर मजलिसी |
3.किताबुल अन्साब |
जनाबे शेख़ मुफ़ीद (मो0 बिन मो0 नोअमान) |
4.मक़तल इब्ने मुख़न्नफ़ |
इब्ने मुख़न्नफ़ |
5.नूरूल ऐयनैनफ़ीमक़तलिल हुसैन(अ.स) |
अबुल फ़ज़ल |
6.ज़सायसेज़ैन्नबिया |
अल्लामा शीराज़ी |
7.सीरतुल आइम्मा (अ.स) |
अल्लामा हामिद हुसैन साहब क़िबला |
(ख़ातीमतुल किताब) (पुस्तक समापन)
हज़ार हज़ार शुक्र है उस अस्तित्व का जो रहमान व रहीम है जिसने मोहम्मद वा आले मोहम्मद (अ.स) के सदक़े में अपनी उन्नत कृपा एवं अनुकम्पा को काम में लाकर मुझ जैसे गुनाहगार औव पापी की सहायता की और इस सेवा को अर्पित करने का सौभाग्य और भावना प्रदान कर मेरा नाम भी मोहम्मद व आले मोहम्मद (अ.स) की प्रशंसको की सूची में लिख लिया वरना चे निस्बत ख़ाक रा ब आलमे पाक कहां मैं और कहां जनाबे सैय्यदा (स0) की कनीज़े ख़ास की सेवा और प्रशंसा। इस ज्ञान की कमी के कारण सलीक़ा ए तहरीर भी नहीं फ़िर वृध्दावस्था ने शरीर के अंग अंग को कमज़ोर कर दिया अब न दिमाग़ क़ाबू मे है, न दिल, फिर यह कि लगभग दो साल से हार्ट पैशेंट होने के कारण दिमाग़ को भूल का रोगी बना दिया।
कविनुसारः
भुलाया वहशते दिल ने पढ़ा तो जो दबिस्ता में,
फ़क़त एक नाम गुल का याद है सारी गुलिस्तां में।
बहरहाल दो साल के निरन्तर प्रयास के बाद पुस्तक के समाप्ति की नौबत आई। मुझे विश्वास नहीं था कि मेरे जीवन काल में यह पुस्तक सम्पूर्ण हो सकेगी मगर उसकी अनुकम्पा और मौला (अ.स) की सहायता से इस पुस्तक को पूरा करने की शक्ति और क्षमता प्राप्त हुई और दिनांक 27 शव्वालुल मुक़र्रम 1395 हिजरी को यह किताब पूर्ण हो गई और अब यह पाठक गण हेतु प्रस्तुत है।
पाठकगण से निवेदन है कि मुझे अपनी कम इल्मी का बिना किसी बनावट के एहसास है। ज्ञानी होना तो दूर विधार्थी होने का भी दावा नहीं कर सकता क्योंकि वास्तव में विधार्थी तो वह महान हस्तियाँ हैं कि जिन्होंने अपनी आयु ज्ञान प्राप्ति में व्यतीत कर दी मैं एक जिसके पास न धन है और न ज्ञान हाँ केवल एक धन मेरे पास है जिस पर मुझे पूरा विश्वास है और जिसके सामने दुनिया की हुकूमतें तुच्छ है और वह दौलत अहलेबैत (अ.स) का दामन है जिस पर गर्व है और उसी का सहारा स्व0 सैय्यद साहब ताश्शुक़ है।
दौलते दामने सुल्ताने उमम हाथ में है,
दीन व दुनिया सिफ़ते तेग़े दू दम हाथ में है।
और ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे सांसरिक धन की अपेक्षा आध्यामिक धन से लाभान्वित करता रहे और मरते दम तक मेरे हाथ से दामने अहलेबैत (अ.स) छूट ने न पाए, उनकी और उनके सच्चे ग़ुलामों की सेवा करता हुआ दुनिया से उठूं। बस यही एक सहारा दरे बाबे इल्म की सेवा है। रातों को इस दर की ख़ाक छानता हूँ और उसको अपने दिल व दिमाग़ में सुरक्षित रखकर सुबह क़लम को समर्पित कर देता हूँ।
बहरहाल पाठकगण से निवेदन है कि इस पुस्तक में जो ग़ल्तियाँ हों उनको मेरी कम इल्मी का नतीजा समझकर क्षमा करें और दुआ ए ख़ैंर में याद फ़रमायें और इन ग़ल्तियों से नाचीज़ को सूचीत करें मैं आभार के साथ उसे स्वीकार करके अगले संस्करण में उसकी शुध्दि कर दूंगा।
अन्त में उन मोअज़्ज़मा की सेवा में जिनके हालात लिखे गये है मेरा हार्दिक निवेदन है कि ऐ बीबी यह तुच्छ प्रस्कृत वास्तव में आपके योग्य नहीं है किन्तु आप उस शहज़ादी की सेविका हैं जिनके दर से सायल (माँगने वाला) वापिस नहीं किया गया और जो अपने ग़ुलामों के तुच्छतम उपहारों को भी प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया करती थीं। अतः आप भी यह प्रेम स्वरूप उपहार उन ही मासूमा (अ.स) और दूसरे मासूमीन (अ.स) के सदक़े में इस फ़क़ीर व हक़ीर और पापी का स्वीकार करें ताकि बख़्शिश का ज़रिया बन सके और हक़ीर का नाम भी मोहम्मद व आले मोहम्मद (अ.स) के प्रशंसकों में लिखा जायें और जब महाप्रलय के दिन अपनी शहज़ादी की सेवा में यह उपहार प्रस्तुत करके कहूँ कि मेरी शहज़ादी, मुझ हक़ीर के पास आपके योग्य कोई उपहार न था, आपकी विशेष सेविका की कुछ सेवा करके उपस्थित हुआ हूँ। अपनी कनीज़ विशेष जनाबे फ़िज़्ज़ा के सदक़े में मुझे अपनी छत्र छाया में जगह देकर महाप्रलय की भयावह गर्मी से बचा लिजिये।
ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे मालिक मेरे मौला मेरे पैदा करने वाले तूले मुझे संसार में भेजा मगर मैंने तेरी नाफ़रमानियां की, पापी व लज़्ज़ित तेरी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ सिवाय मोहब्बते अहलेबैत (अ.स) के मेरे पास कोई अच्छा कर्म नहीं है। मालिक अपने हुसैन (अ.स) के सदक़े में मेरे पापों को क्षमा कर दे और मुझे अहलेबैत (अ.स) के ग़ुलामों में शुमार कर ले। मेरे मालिक मरते वक़्त की मुश्किलों से मुक्ति प्रदान कर जब मौत आये तो दामने मौला ए कायनात हाथ में और आँखें उनके दर्शन में लीन हो और अन्तिम क्षणों में मेरे मज़लूम आक़ा हुसैन (अ.स) का नाम मेरी ज़बान पर हो (आमीन)
अल्लाहुम्मा त क़ब्बल मिन्नी बे हक़्क़े मोहम्मदिंव व आले मोहम्मद इन्नका अन्तस समी उल अलीम।
तुच्छ
राहत हुसैन नासिरी
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