अख़लाक़ उन सिफ़ात और अफ़आल को कहा जाता है जो इंसान की ज़िन्दगी में इस क़दर रच बस जाते हैं कि ग़ैर इरादी तौर पर भी ज़हूर पज़ीर होने लगते हैं।
बहादुर फ़ितरी तौर पर मैदान की तरफ़ बढ़ने लगता है और बुज़दिल तबीयी अंदाज़ से परझाईयों से डरने लगता है। करीम का ख़ुद बख़ुद जेब की तरफ़ बढ़ जाता है और बख़ील के चेहरे पर साइल की सूरत देख कर हवाईयाँ उड़ने लगती हैं।
इस्लाम ने ग़ैर शुऊरी और ग़ैर इरादी अख़लाक़ीयात को शुऊरी और इरादी बनाने का काम अंजाम दिया है और उसका मक़सद यह है कि इंसान उन सिफ़ात को अपने शुऊर और इरादे के साथ पैदा करे ताकि हर अहम से अहम मौक़े पर सिफ़त उसका साथ दे वर्ना अगर ग़ैर शुऊरी तौर पर सिफ़त पैदा भी कर ली है तो हालात के बदलते ही उसके मुतग़य्यर हो जाने का ख़तरा रहता है। मीसाल के तौर पर उन तज़किरों को मुलाहेज़ा किया जाये जहा इस्लाम ने साहिबे ईमान की अख़लाक़ी तरबीयत का सामान फ़राहम किया है और यह चाहा है कि इंसान में अख़लाक़ी जौहर बेहतरीन तरबीयत और आला तरीन शुऊर के ज़ेरे असर पैदा हो।
क़ुव्व्ते तहम्मुल:
सख़्त तरीन हालात में क़ुव्वते बर्दाश्त का बाक़ी रह जाना एक बेहतरीन अख़लाक़ी सिफ़त है लेकिन यह सिफ़त बअज़ अवक़ात बुज़दिली और नाफ़हमी की बेना पर पैदा होती है और बअज़ अवक़ात मसाअब व मुश्किलात की सही संगीनी के अंदाज़ा न करने की बुनियाद पर। इस्लाम ने चाहा है कि यह सिफ़त मुकम्मल शुऊर के साथ पैदा हो और इंसान यह समझे कि क़ुव्वते तहम्मुल का मुज़ाहेरा उसका अख़लाक़ी फ़र्ज़ है जिसे बहरहाल अदा करना है। तहम्मुल न बुज़दिली और बेग़ैरती की अलामत बनने पाये और न हालात के सही इदराक के फ़ोक़दान की अलामत क़रार पाये।
इरशाद होता है:
الَّذِينَ إِذَا أَصَابَتْهُم مُّصِيبَةٌ قَالُواْ إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعونَ أُولَئِكَ عَلَيْهِمْ صَلَوَاتٌ مِّن رَّبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُهْتَدُونَ إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِن شَعَآئِرِ اللّهِ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ أَوِ اعْتَمَرَ فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَا وَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَإِنَّ اللّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ
(बक़रा 156-158)
“यक़ीनन हम तुम्हारा इम्तेहान मुख़्तसर से ख़ौफ़ और भूक और जान, माल और समरात के नक़्स के ज़रीये लेगें और पैग़म्बर आप सब्र करने वालों को बशारत दे दें जिनकी शान में यह है कि जब उन तक कोई मुसीबत आती है तो कहते हैं कि हम अल्लाह के लिये हैं और उसी की बारगाह में पलट कर जाने वाले हैं। उन्ही अफ़राद के लिये परवरदिगार की तरफ़ से सलवात व रहमत है और यही हिदायत याफ़्ता लोग हैं।”
आयते करीमा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआने मजीद क़ुव्वते तहम्मुल की तरबीयत देना चाहता है और मुसलमान को हर तरह के इम्तेहान के लिये तैयार करना चाहता है और फिर तहम्मुल को बुज़दिली से अलग करने के लिये
إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعونَ
तालीम देता है और नक़्से अमवाल व अनफुस को ख़सारा तसव्वुर करने के जवाब में सलवात व रहमत का वादा करता है ताकि इंसान हर माद्दी ख़सारा और नुक़सान के लिये तैयार रहे और उसे यह अहसास रहे कि माद्दी नुक़सान, नुक़सान नही है बल्कि सलवात और रहमत का बेहतरीन ज़रीया है। इंसान में यह अहसास पैदा हो जाये तो वह अज़ीम क़ुव्वत तहम्मुल का हामिल हो सकता है और उसमें यह अख़लाक़ी कमाल शुऊरी और इरादी तौर पर पैदा हो सकता है और वह हर आन मसाइब का इस्तेक़बाल करने के लिये अपने नफ़्स को आमादा कर सकता है।
“الَّذِينَ قَالَ لَهُمُ النَّاسُ إِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُواْ لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ إِيمَاناً وَقَالُواْ حَسْبُنَا اللّهُ وَنِعْمَ الْوَكِيلُ”
(सूरह आले इमरान आयत 174-175)
“वह जिनसे कुछ लोगों ने कहा कि दुशमनों ने तुम्हारे लिये बहुत बड़ा लश्कर जमा कर लिया है तो उनके ईमान में और इज़ाफ़ा हो गया और उन्होने कहा कि हमारे लिये ख़ुदा काफ़ी है और वही बेहतरीन मुहाफ़िज़ है जिसके बाद वह लोग नेमत व फ़ज़्ले इलाही के साथ वापस हुए और उन्हे किसी तरह की तकलीफ़ नही हुई और उन्होने रेज़ाए इलाही का इत्तेबाअ किया, और अल्लाह बड़े अज़ीम फ़ज़्ल का मालिक है।”
आयते करीमा के हर लफ़्ज़ में एक नई अख़लाक़ी तरबीयत पायी जाती है और उससे मुसलमान के दिल में इरादी अख़लाक़ और क़ुव्वते बर्दाश्त पैदा करने की तलक़ीन की गयी है। दुश्मन की तरफ़ से बेख़ौफ़ हो जाना शुजाअत का कमाल है लेकिन حَسْبُنَا اللّهُ कह कर बेख़ौफ़ी का ऐलान करना ईमान का कमाल है। बैख़ौफ़ होकर नामुनासिब और मुतकब्बेराना अंदाज़ इख़्तेयार करना दुनियावी कमाल है और रिज़ावाने इलाही की इत्तेबाअ करते रहना क़ुरआनी कमाल है। क़ुरआने मजीद ऐसे ही अख़लाक़ीयात की तरबीयत करना चाहता है और मुसलमान को इसी मंजिल कमाल तक ले जाना चाहता है।
“وَلَمَّا رَأَى الْمُؤْمِنُونَ الْأَحْزَابَ قَالُوا هَذَا مَا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَصَدَقَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَمَا زَادَهُمْ إِلَّا إِيمَانًا وَتَسْلِيمًا
”(सूरह अहज़ाब आयत 73)
“और जब साहिबे ईमान नें क़ुफ़्फ़ार के गिरोहों को देखा तो बरजस्ता यह ऐलान कर दिया कि यही वह बात है जिसका ख़ुदा व रसूल ने हम से वादा किया था और उनकी वादा बिल्कुल सच्चा है और इस इज्तेमाअ से उनके ईमान का और तज़बा ए तसलीम में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया”
मुसीबत को बर्दाश्त कर लेना एक इंसानी कमाल है। लेकिन इस शान से इस्तिक़ाबाल करना कि गोया इसी का इंतेज़ार कर रहे थे और फिर उसको सदाक़त ख़ुदा व रसूल की बुनियाद क़रार देकर अपने ईमान व तसलीम में इज़ाफ़ा कर लेना वह अख़लाक़ी कमाल है जिसे क़ुरआन मजीद अपने मानने वालों में पैदा कराना चाहता है।
“وَكَأَيِّن مِّن نَّبِيٍّ قَاتَلَ مَعَهُ رِبِّيُّونَ كَثِيرٌ فَمَا وَهَنُواْ لِمَا أَصَابَهُمْ فِي سَبِيلِ اللّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا اسْتَكَانُواْ وَاللّهُ يُحِبُّ الصَّابِرِينَ”
(आले इमरान 147)
“और जिस तरह बअज़ अंबीया के साथ बहुत से अल्लाह वालों ने जिहाद किया है और उसके बाद राहे ख़ुदा में पड़ने वाली मुसीबतों ने न उनकी कमज़ोरी पैदा की और न उनके इरादों में ज़ोअफ़ पैदा हुआ हो और न उनमें किसी तरह की जिल्लत का अहसास पैदा दुआ कि अल्लाह सब्र करने वालों को दोस्त रखता है।”
आयत से साफ़ वाज़ेह होता है कि इस वाक़ेआ के ज़रीये ईमान वालों को अख़लाक़ी तरबीयत दी जा रही है और उन्हे हर तरह के ज़ोअफ़ व ज़िल्लत से इसलिये अलग रखा जा रहा है कि उनके साथ ख़ुदा है और वह उन्हे दोस्त रखता है और जिसे ख़ुदा दोस्त रखता है उसे कोई ज़लील कर सकता है और न बेचारा बना सकता है। यही इरादी अख़लाक़ है जो क़ुरआनी तालीमात की तुर्रा ए इम्तेयाज़ है और जिससे दुनिया के सारे मज़ाहिब और अक़वाम बे बहरा हैं।
“وَعِبَادُ الرَّحْمَنِ الَّذِينَ يَمْشُونَ عَلَى الْأَرْضِ هَوْنًا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ الْجَاهِلُونَ قَالُوا سَلَامًا”
(सूरह फ़ुरक़ान आयत 64)
“और अल्लाह के बंदे वह हैं जो ज़मीन पर आहिस्ता चलते हैं और जब कोई जाहिलाना अंदाज़ से उनसे ख़िताब करता है तो उसे सलामती का नाम का पैग़ाम देते है। यही वह लोग है जिन्हे उनके सब्र की बेना पर जन्नत में ग़ुरफ़े दिये जायेगें और तहय्यत और सलाम की पेशकश की जायेगी।”
इस आयत में भी साहिबाने ईमान और इबादुर्रहमान की अलामत क़ुव्वते तहम्मुल व बर्दाश्त को क़रार दिया गया है, लेकिन قَالُوا سَلَامًا कहकर उसकी इरादीयत और शुऊरी कैफ़ियत का इज़हार किया गया है कि यह सुकूत बर बेनाए बुज़दिली व बेहयाई नही है बल्कि उसके पीछे एक अख़लाक़ी फ़लसफ़ा है कि वह सलामती का पैग़ाम देकर दुशमन को भी राहे रास्त पर लाना चाहते हैं और उसकी जाहिलाना रविश का इलाज करना चाहते हैं।
वाज़ेह रहे कि इन तमाम आयात में सब्र करने वालों की जज़ा का ऐलान तरबीयत का एक ख़ास अंदाज़ है कि इस तरह क़ुव्वते तहम्मुल बेकार न जाने पाये और इंसान को किसी तरह के ख़सारे और नुक़सान का ख़्याल न पैदा हो बल्कि मज़ीद तहम्मुल व बर्दाश्त का हौसला पैदा हो जाये कि इस तरह ख़ुदा की मईयत, मुहब्बत, फ़ज़्ले अज़ीम और तहय्यत व सलाम का इस्तेहक़ाक़ पैदा हो जाता है जो बेहतरीन राहत व आराम और बेहद व बेहिसाब दौलत व सरवत के बाद भी नही हासिल हो सकता है।
क़ुरआने मजीद का सबसे बड़ा इम्तेयाज़ यही है कि वह अपने तालीमात में इस उन्सूर को नुमायाँ रखता है और मुसलमान को ऐसा बाअख़लाक़ बनाना चाहता है जिसके अख़लाक़ीयात सिर्फ़ अफ़आल, आमाल और आदात न हों बल्कि उनकी पुश्त पर फ़िक्र, फ़लसफ़ा, अक़ीदा और नज़रिया हो और वह अक़ीदा व नज़रिया उसे मुसलसल दावते अमल देता रहे और उसके अख़लाक़ीयात को मज़बूत से मज़बूत बनाता रहे।
जज़्बा ए ईमानी:
क़ुव्वते तहम्मुल के साथ क़ुरआने मजीद ने ईमानी जज़्बात के भी मुरक़्के पेश किये हैं जिनसे यह बात वाजेह हो जाती है कि वह तहम्मुव हिल्म को सिर्फ़ मन्फ़ी हदों तक नही रखना चाहता है बल्कि मसाइब व आफ़ात के मुक़ाबले में इसे एक मुस्बत रुख़ देना चाहता है।
فَأُلْقِيَ السَّحَرَةُ سُجَّدًا قَالُوا آمَنَّا بِرَبِّ هَارُونَ وَمُوسَى (71(
قَالَ آمَنتُمْ لَهُ قَبْلَ أَنْ آذَنَ لَكُمْ إِنَّهُ لَكَبِيرُكُمُ الَّذِي عَلَّمَكُمُ السِّحْرَ فَلَأُقَطِّعَنَّ أَيْدِيَكُمْ وَأَرْجُلَكُم مِّنْ خِلَافٍ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمْ فِي جُذُوعِ النَّخْلِ وَلَتَعْلَمُنَّ أَيُّنَا أَشَدُّ عَذَابًا وَأَبْقَى (72(
قَالُوا لَن نُّؤْثِرَكَ عَلَى مَا جَاءَنَا مِنَ الْبَيِّنَاتِ وَالَّذِي فَطَرَنَا فَاقْضِ مَا أَنتَ قَاضٍ إِنَّمَا تَقْضِي هَذِهِ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا (73(
إِنَّا آمَنَّا بِرَبِّنَا لِيَغْفِرَ لَنَا خَطَايَانَا وَمَا أَكْرَهْتَنَا عَلَيْهِ مِنَ السِّحْرِ وَاللَّهُ خَيْرٌ وَأَبْقَى (74(
(सूरह ताहा आयत 71 से 74)
“पस जादूगर सजदे में गिर पड़े और उन्होने कहा कि हम हारून और मूसा के रब पर ईमान ले आये तो फ़िरऔन ने कहा कि हमारी इजाज़त के बग़ैर किस तरह ईमान ले आये बेशक यह तुमसे बड़ा जादूगर है जिसने तुम लोगों को जादू सिखाया है तो अब मैं तुम्हारे हाथ पाँव काट दूँगा और तुम्हे दरख़्ते ख़ुरमा की शाख़ों पर सूली पर लटका दूँगा ताकि तुम्हे मालूम हो जाये कि किस का अज़ाब ज़्यादा सख़्त तर है और ज़्यादा बाकी रहने वाला है। उन लोगों ने कहा कि हम तेरी बात को मूसा के दलाइल और अपने परवरदिगार पर मुक़द्दम नही कर सकते हैं। अब तू जो फ़ैसला करना चाहता है कर ले तू सिर्फ़ इसी ज़िन्दगानी दुनिया तक फ़ैसला कर सकता है और हम इसलिये ईमान ले आये हैं कि ख़ुदा हमारी ग़लतीयों और उस जुर्म को माफ़ कर दे जिस पर तूने हमें मजबूर किया था और बेशक ख़ुदा ही ऐने ख़ैर और हमेशा बाक़ी रहने वाला है।”
إِلاَّ تَنصُرُوهُ فَقَدْ نَصَرَهُ اللّهُ إِذْ أَخْرَجَهُ الَّذِينَ كَفَرُواْ ثَانِيَ اثْنَيْنِ إِذْ هُمَا فِي الْغَارِ إِذْ يَقُولُ لِصَاحِبِهِ لاَ تَحْزَنْ إِنَّ اللّهَ مَعَنَا فَأَنزَلَ اللّهُ سَكِينَتَهُ عَلَيْهِ وَأَيَّدَهُ بِجُنُودٍ لَّمْ تَرَوْهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ الَّذِينَ كَفَرُواْ السُّفْلَى وَكَلِمَةُ اللّهِ هِيَ الْعُلْيَا وَاللّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ (40(
(सूरह तौबा आयत 40)
“अगर तुम उनकी नुसरत नही करोगे तो ख़ुदा ने उनकी नुसरत की है जब उन्हे कुफ़्फार ने दो तो दूसरा बना कर वतन से निकाल दिया और वह अपने साथी से कह रहे थे कि रंज मत करो ख़ुदा हमारे साथ है तो ख़ुदा ने उन पर अपनी तरफ़ से सुकून नाज़िल कर दिया और उनकी ताईद ऐसे लश्करो के ज़रीये कि जिनका मुक़ाबला नामुमकिन था और कुफ़्फार के कल्मे को पस्त क़रार दे दिया और अल्लाह का कल्मा तो बहरहाल बुलंद है और अल्लाह साहिबे ईज़्ज़त भी है और साहिबे हिकमत भी है।”
आयते ऊला में फ़िरऔन के दौर के जादूगरों के जज़्बा ए ईमानी की हिकायत की गयी है जहा फ़िरऔन जैसे ज़ालिम व जाबिर के सामने भी ऐलाने हक़ में किसी ज़अफ़ व कमज़ोरी से काम नही लिया गया और उसे चैलेंज कर दिया गया कि तू जो करना चाहता है कर ले। तेरा इख़्तियार ज़िन्दगानी दुनिया से आगे नही है और साहिबाने ईमान आख़िरत के लिये जान देते हैं उन्हे दुनिया की राहत की फ़िक्र या मसाइब की परवाह नही होती है।
और दुसरी आयत में सरकारे दो आलम(स) के हौसले का तज़किरा किया गया है और सूरते हाल की संगीनी को वाज़ेह करने के लिये साथी का भी ज़िक्र किया गया जिस पर हालात का संगीनी और ईमान की कमज़ोरी की बेना पर हुज़्न तारी हो गया और रसूले अकरम(स) को समझाना पड़ा कि ईमान व अक़ीदा सही रखो। ख़ुदा हमारे साथ है और जिसके साथ ख़ुदा होता है उसे कोई परेशानी नही होती है और वह हर मुसीबत का पूरे सुकून और इतमीनान के साथ मुक़ाबला करता है।
उसके बाद ख़ुदाई ताईद और इमदाद का तज़किरा करके यह भी वाजेह कर दिया गया कि रसूले अकरम(स) का इरशाद सिर्फ़ तसकीने क़ल्ब के लिये नही था बल्कि उसकी एक वाक़ेईयत भी थी और यह आपके कमाले ईमान का असर था कि आप पर किसी तरह का हुज़्न व मलाल तारी नही हुआ और आप अपने मसलक पर गामज़न रहे और इसी तरह तबलीग़ें दीन और ख़िदमते इस्लाम करते रहे जिस तरह पहले कर रहे थे बल्कि इस्लाम का दायरा उससे ज़्यादा वसीतर हो गया कि न मक्के का काम इंसानों के सहारे शुरु हुआ था और न मदीने का काम इंसानों के सहारे होने वाला है। मक्के का सब्र व तहम्मुल भी ख़ुदाई इमदाद की बेना पर था और मदीने का फ़ातेहाना अंदाज़ भी ख़ुदाई ताईद व नुसरत के ज़रीये ही हासिल हो सकता है।
अदबी शुजाअत:
मैदाने जंग में ज़ोरे बाज़ू का मुज़ाहिरा करना यकीनन एक अज़ीम इंसानी कारनामा है लेकिन बअज़ रिवायात की रौशनी में इससे बालातर जिहाद सुल्ताने जाइर के सामने कल्म ए हक़ का ज़बान पर जारी करना है और शायद इसका राज़ यह है कि मैदाने जंग के कारनामे में बसा अवक़ात नफ़्स इंसान का हमाराही करने को तैयार हो जाता है और इंसान जज़्बाती तौर पर भी दुश्मन पर वार करने लगता है जिसका खुला हुआ सुबूत यह है कि मौला ए कायनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम मे अम्र इब्ने अब्दवद की बेअदबी के बाद इसका सर क़लम नही किया और सीने से उतर आये कि जिहादे राहे ख़ुदा में जज़्बात की शुमीलीयत का अहसास न पैदा हो जाये लेकिन सुलताने जायर के सामने कलमा ए हक़ के बुलंद करने में नफ़्स की हमराही कभी ज़ाया होते हुए मफ़ादात की तरफ़ मुतवज्जेह करता है और कभी आने वाले ख़तरात से आगाह करता है और इस तरह यह जिहाद “जिहादे मैदान” से ज़्यादा सख़्ततर और मुश्किल तर हो जाता है जिसे रिवायात ही की ज़बान में जिहादे अकबर से ताबीर किया गया है। जिहाद बिललिसान बाज़ाहिर जिहादे नफ़्स नही है लेकिन ग़ौर किया जाये तो यह जिहादे नफ़्स का बेहतरीन मुरक़्का है ख़ुसिसीयत के साथ अगर माहौल नासाज़गार हो औप तख़्ता ए दार से ऐलाने हक़ करना पड़े।
क़ुरआने मजीद ने मर्दे मुस्लिम में इस अदबी शुजाअत को पैदा करना चाहा है और उसका मन्शा यह है कि मुसलमान अख़लाकियात में इस क़दर मुक्म्मल हो कि उसके नफ़्स में क़ुव्वते बर्दाश्त व तहम्मुल हो। उसके दिल में जज़्बा ए ईमान व यक़ीन हो और उसकी ज़बान, उसकी अदबी शुजाअत का मुकम्मल मुज़ाहिरा करे जिसकी तरबीयत के लिये उसने इन वाक़ेआत की तरफ़ इशारा किया है।
“وَقَالَ رَجُلٌ مُّؤْمِنٌ مِّنْ آلِ فِرْعَوْنَ يَكْتُمُ إِيمَانَهُ أَتَقْتُلُونَ رَجُلًا أَن يَقُولَ رَبِّيَ اللَّهُ وَقَدْ جَاءَكُم بِالْبَيِّنَاتِ مِن رَّبِّكُمْ وَإِن يَكُ كَاذِبًا فَعَلَيْهِ كَذِبُهُ وَإِن يَكُ صَادِقًا يُصِبْكُم بَعْضُ الَّذِي يَعِدُكُمْ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي مَنْ هُوَ مُسْرِفٌ كَذَّابٌ”
“फ़िरऔन वालों में से एक मर्दे मोमिन ने कहा जो अपने ईमान को छिपाये हुए था कि क्या तुम किसी शख़्स को सिर्फ़ इस बात क़त्ल करना चाहते हो कि अल्लाह को अपना परवर दिगार कहता है जबकि वह अपने दावे पर खुली दलीलें भी ला चुका है। तो अगर वह झूटा है तो अपने झूट का ख़ुद जिम्मेदार है लेकिन अगर सच्चा है तो बअज़ वह मुसीबतें आ सकती हैं जिन का वह वादा कर रहा है। बेशक ख़ुदा ज़ियादती करने वाले और शक करने वाले इंसान की हिदायत नही करता है।
इस आयते करीमा में मर्दे मोमिन ने अपने सरीही ईमान की पर्दादारी ज़रूर की है लेकिन चंद बातों का वाशिगाफ़ लफ़्ज़ों में ऐलान भी कर दिया है जिसकी हिम्मत हर शख़्स में नही हो सकती है।
यह भी ऐलान कर दिया है कि यह शख़्स खुली दलीलें लेकर आया है।
यह भी ऐलान कर दिया है कि वह अगर झूटा है तो तुम इसके झूट के ज़िम्मेदार नही हो और न तुम्हे क़त्ल करने का कोई हक़ है।
यह भी ऐलान कर दिया है कि वह अगर सच्चा है तो तुम पर अज़ाब नाज़िल हो सकता है।
यह भी ऐलान कर दिया है कि यह अज़ाब उस वईद का एक हिस्सा है वरना इसके बाद अज़ाबे जहन्नम भी है।
यह भी ऐलान कर दिया है कि तुम लोग ज़ियादती करने वाले और हक़ाइक़ में शक करने वाले हो और ऐसे अफ़राद कभी हिदायत याफ़ता नही हो सकते हैं।
और अदबी शुजाअत का इससे बेहतर कोई मुरक़्क़ा नही हो सकता है कि इंसान फ़िरऔनीयत जैसे माहौल में इस क़दर हक़ाइक़ के इज़हार की जुर्रत व हिम्मत रखता हो।
वाज़ेह रहे कि इस आयते करीमा में परवरदिगारे आलम ने उस मर्दे मोमिन को मोमिन भी कहा है और उसके ईमान को छुपाने का भी तज़किरा किया है जो इस बात की दलील है कि ईमान एक क़ल्बी अक़ीदा है और हालात व मसालेह के तहत इसको छुपाने को कतमाने हक़ से ताबीर नही किया जा सकता है जैसा कि बअज़ दुश्मनाने हक़ाइक़ का वतीरा बन गया है कि एक फ़िर्के की दुश्मनी में तक़ैय्ये की मुख़ालेफ़त करने के लिये क़ुरआने मजीद के सरीही तज़केरे की मुख़ालेफ़त करते हैं और अपने लिये अज़ाबे जहन्नम का सामान फ़राहम करते हैं।
“قَالَ مَا خَطْبُكُنَّ إِذْ رَاوَدتُّنَّ يُوسُفَ عَن نَّفْسِهِ قُلْنَ حَاشَ لِلّهِ مَا عَلِمْنَا عَلَيْهِ مِن سُوءٍ قَالَتِ امْرَأَةُ الْعَزِيزِ الآنَ حَصْحَصَ الْحَقُّ أَنَاْ رَاوَدتُّهُ عَن نَّفْسِهِ وَإِنَّهُ لَمِنَ الصَّادِقِينَ”
(युसुफ़ आयत 52)
“जब मिस्र की औरतों ने उँगलीयाँ काट लीं और अज़ीज़े मिस्र ने ख़्वाब की ताबीर के लिये जनाबे युसुफ़ को तलब किया तो उन्होने फ़रमाया कि उन औरतों से दरयाफ़्त करो कि उन्होने उँगलीयाँ काट लीं और इसमें मेरी क्या ख़ता है?अज़ीज़े मिस्र ने उन औरतों से सवाल किया तो उन्होने कि ख़ुदा गवाह है कि युसुफ़ की कोई ख़ता है। को अज़ीजे मिस्र की औरत ने कहा कि यह सब मेरा अक़दाम था और युसुफ़ सादिक़ीन में से हैं और अब हक़ बिल्कुल वाजेह हो चुका है।”
इस मक़ाम पर अज़ीज़े मिस्र की ज़ौजा का इस जुर्रत व हिम्मत से काम लेना कि भरे मजमे में अपने ग़लती का इक़रार कर लिया और ज़नाने मिस्र का भी इस जुर्रत का मुज़ाहिरा करना कि अज़ीज़े मिस्र की ज़ौजा की हिमायत में ग़लत बयानी करने के बजाए साफ़ साफ़ ऐलान कर दिया कि युसुफ़ में कोई बुराई और ख़राबी नही है। अदबी जुर्रत व शुजाअत के बेहतरीन मनाज़िर हैं जिनका तज़किरा करके क़ुरआन मजीद मुसलमान की ज़हनी और नफ़सीयाती तरबीयत करना चाहता है।
“وَجَاء مِنْ أَقْصَى الْمَدِينَةِ رَجُلٌ يَسْعَى قَالَ يَا قَوْمِ اتَّبِعُوا الْمُرْسَلِينَ (21(
اتَّبِعُوا مَن لاَّ يَسْأَلُكُمْ أَجْرًا وَهُم مُّهْتَدُونَ (22)
وَمَا لِي لاَ أَعْبُدُ الَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيْهِ تُرْجَعُونَ (23)
أَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِ آلِهَةً إِن يُرِدْنِ الرَّحْمَن بِضُرٍّ لاَّ تُغْنِ عَنِّي شَفَاعَتُهُمْ شَيْئًا وَلاَ يُنقِذُونِ (24(
إِنِّي إِذًا لَّفِي ضَلاَلٍ مُّبِينٍ (25(
إِنِّي آمَنتُ بِرَبِّكُمْ فَاسْمَعُونِ (26(
“और शहर के आख़िर से एक शख़्स दौड़ता हुआ आया और उसने कहा कि ऐ क़ौम, मुरसलीन का इत्तेबाअ करो, उस शख़्स का इत्तेबाअ करो जो तुम से कोई अज्र भी नही माँगता है और वह सब हिदायत याफ़ता भी हैं, और मुझे क्या हो गया है कि उस ख़ुदा की इबादत न करो जिसने मुझे पैदा किया है और तुम सब उसी की तरफ़ पलट कर जाने वाले हो। क्या मैं उसके अलावा दुसरे ख़ुदाओ को इख़्तेयार कर लूँ जबकि रहमान कोई नुक़सान पहुचाना चाहे तो उनकी सिफ़ारिश किसी काम नही आ सकती है और न यह बचा सकते हैं, मैं तो खुली गुमराही में मुब्तला हो जाऊँगा। बेशक मैं तुम्हारे ख़ुदा पर ईमान ला चुका हूँ लिहाज़ा तुम लोग भी मेरी बात सुनो।”
आयते करीमा में उस मर्दे मोमिन के जिन फ़िक़रात का तज़किरा किया गया है वह अदबी शुजाअत का शाहकार हैं।
उसने एर तरफ़ दाईये हक़ की बेनियाज़ी का ऐलान किया कि वह ज़हमते हिदायत भी बर्दाश्त करता है और उजरत का तलबगार भी नही है।
फिर उसके ख़ुदा को अपना ख़ालिक़ कह कर मुतावज्जेह किया कि तुम सब भी उसी की बारगाह में जाने वाले हो तो अभी से सोच लो कि वहाँ जाकर अपनी इन हरकतों का क्या जवाज़ पेश करोगे।
फिर क़ौम के ख़ुदाओं की बेबसी और बेकसी का इज़हार किया कि यह यह सिफ़ारिश तक करने के क़ाबिल नही हैं, ज़ाती तौर पर कौन सा काम अंजाम दे सकते हैं।
फिर क़ौम के साथ रहने को ज़लाले मुबीन और खुली हुई गुमराही से ताबीर करके यह भी वाज़ेह कर दिया कि मैं जिस पर ईमान लाया हूँ वह तुम्हारा भी परवरदिगार है। लिहाज़ा मुनासिब यह है कि अपने परवरदिगार पर तुम भी ईमान ले आओ और मख़लूक़ात के चक्कर में न पड़ो।
“إِنَّ قَارُونَ كَانَ مِن قَوْمِ مُوسَى فَبَغَى عَلَيْهِمْ وَآتَيْنَاهُ مِنَ الْكُنُوزِ مَا إِنَّ مَفَاتِحَهُ لَتَنُوءُ بِالْعُصْبَةِ أُولِي الْقُوَّةِ إِذْ قَالَ لَهُ قَوْمُهُ لَا تَفْرَحْ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْفَرِحِينَ (77(
وَابْتَغِ فِيمَا آتَاكَ اللَّهُ الدَّارَ الْآخِرَةَ وَلَا تَنسَ نَصِيبَكَ مِنَ الدُّنْيَا وَأَحْسِن كَمَا أَحْسَنَ اللَّهُ إِلَيْكَ وَلَا تَبْغِ الْفَسَادَ فِي الْأَرْضِ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِينَ (78)
“बेशक क़ारून मूसा ही की क़ौम में से था लेकिन उसने क़ौम पर ज़ियादती की और हमने उसे इस क़दर ख़ज़ाने अता किये कि एक बड़ी जमाअत भी इसकी बार उठाने से आजिज़ थी तो क़ौम ने इससे कहा कि ग़ुरूर मत करो कि ख़ुदा ग़ुरूर करने वालो को दोस्त नही रखता है और जो कुछ ख़ुदा ने तुझे अता किया है उससे दारे आख़िरत हासिल करने की फ़िक्र कर और ज़मीन पर फ़साद न कर कि ख़ुदा फ़साद करने वालों को दोस्त नही रखता है।”
आयत से साफ़ वाज़ेह होता है कि क़ारून के बेतहाशा साहिबे दौलत होने के बावजूद क़ौम में इस क़दर अदबी जुर्रत मौजूद थी कि उसे मग़रूर और मुफ़सिद क़रार दे दिया, और यह वाज़ेह कर दिया कि ख़ुदा मग़रूर और मुफ़सिद को नही पसंद करता है और यह भी वाज़ेह कर दिया कि दौलत की बेहतरीन मसरफ़ आख़िरत का घर हासिल कर लेना है वरना दुनिया चंद रोज़ा है और फना हो जाने वाली है।
इफ़्फ़ते नफ़्स:
इंसान के अज़ीम तरीन अख़लाक़ी सिफ़ात में से एक इफ़्फ़ते नफ़्स भी है जिसका तसव्वुर आम तौर से जिन्स से वाबस्ता कर दिया जाता है, हाँलाकि इफ़्फ़ते नफ़्स का दायरा इससे कही ज़्यादा वसीअतर है और उसमे हर तरह की पाकीज़गी और पाक दामानी शामिल है। क़ुरआने मजीद ने इस इफ़्फ़ते नफ़्स के मुख़्तलिफ़ मुरक़्क़े पेश किये हैं और मुसलमानों को इसके वसीअतर मफ़हूम का तरफ़ मुतवज्जेह किया है।
“وَرَاوَدَتْهُ الَّتِي هُوَ فِي بَيْتِهَا عَن نَّفْسِهِ وَغَلَّقَتِ الأَبْوَابَ وَقَالَتْ هَيْتَ لَكَ قَالَ مَعَاذَ اللّهِ إِنَّهُ رَبِّي أَحْسَنَ مَثْوَايَ إِنَّهُ لاَ يُفْلِحُ الظَّالِمُونَ”
(सूरह युसुफ़ आयत 23)
“और ज़ुलेख़ा ने युसुफ़ को अपनी तरफ़ मायल करने की हर इम्कानी कोशिश की और तमाम दरवाज़े बंद करके युसुफ़ को अपनी तरफ़ दावत दी लेकिन उन्होने बरजस्ता कहा कि पनाह बे ख़ुदा वह मेरा परवरदिगार है और उसने मुझे बेहतरीन मक़ाम अता किया है और ज़ुल्म करने वालों के लिये फ़लाह और कामयाबी नही है।”
ऐसे हालात और माहौल में इंसान का इस तरह दामन बचा लेना और औरत के शिकंजे से आज़ाद हो जाना इफ़्फ़ते नफ़्स का बेहतरीन कारनामा है, और अलफ़ाज़ पर दिक़्क़त करने से यह भी वाज़ेह होता है कि युसुफ़ ने सिर्फ़ अपना दामन नही बचाया बल्कि नबी ए ख़ुदा होने के रिश्ते से हिदायत का फ़रीज़ा भी अंजाम दे दिया और ज़ुलेख़ा को भी मुतवज्जेह कर दिया कि जिसने इस क़दर शरफ़ और इज़्ज़त से नवाज़ा है वह इस बात की हक़दार है कि उसके अहकाम की इताइत की जाये और उसके रास्ते से इन्हेराफ़ न किया जाये और यह भी वाज़ेह कर दिया है कि उसकी इताअत से इन्हेराफ़ ज़ुल्म है और ज़ालिम किसी वक़्त भी कामयाब व कामरान नही हो सकता है।
“لِلْفُقَرَاء الَّذِينَ أُحصِرُواْ فِي سَبِيلِ اللّهِ لاَ يَسْتَطِيعُونَ ضَرْبًا فِي الأَرْضِ يَحْسَبُهُمُ الْجَاهِلُ أَغْنِيَاء مِنَ التَّعَفُّفِ تَعْرِفُهُم بِسِيمَاهُمْ لاَ يَسْأَلُونَ النَّاسَ إِلْحَافًا وَمَا تُنفِقُواْ مِنْ خَيْرٍ فَإِنَّ اللّهَ بِهِ عَلِيمٌ”
(सूरह बक़र: आयत 273)
“उन फ़ोक़रा के लिये जो राहे ख़ुदा में महसूर कर दिये गये हैं और ज़मीन में दौड़ धूप करने के क़ाबिल नही हैं, नावाक़िफ़ उन्हे उनकी इफ़्फ़ते नफ़्स की बेना पर मालदार कहते है हाँलाकि तुम उन्हे उनके चेहरे के अलामात से पहचान सकते हो, वह लोगों के सामने दस्ते सवाल नही दराज़ करते हैं हाँलाकि तुम लोग जो भी ख़ैर का इन्फ़ाक़ करोगे ख़ुदा तुम्हारे आमाल से ख़ूब बाख़बर है।
जिन्सी पाक दामनी के अलावा यह इफ़्फ़ते नफ़्स का दूसरा मुरक़्क़ा है जहाँ इंसान बदतरीन फ़क़्र व फ़ाक़ा की ज़िन्दगी गुज़ारता है जिसका अंदाज़ा हालात और अलामात से भी किया जा सकता है लेकिन उसके वाबजूद अपनी ग़ुरबत का इज़हार नही करता है और लोगो के सामने दस्ते सवाल दराज़ नही करता है कि यह इंसानी ज़िन्दगी का बदतरीन सौदा है। दुनिया का हर साहिबे अक़्ल जानता है कि आबरू की क़ीमत माल से ज़्यादा है और माल आबरू के तहफ़्फ़ुज़ पर क़ुरबान कर दिया जाता है। बेना बर इन आबरू देकर माल हासिल करना ज़िन्दगी का बदतरीन मामला है जिसके लिये कोई साहिबे अक़्ल व शरफ़ इम्कानी हुदूद तक तैयार नही हो सकता है। इज़्तेरार के हालात दूसरे होते हैं वहाँ हर शरई और अक़्ली तकलीफ़ तब्दील हो जाती है।”
“وَالَّذِينَ لَا يَشْهَدُونَ الزُّورَ وَإِذَا مَرُّوا بِاللَّغْوِ مَرُّوا كِرَامًا”
(सूरह फ़ुरक़ान आयत 73)
“अल्लाह के नेक और मुख़्लिस बंदे वह हैं जो गुनाहों की महफ़िलों में हाज़िर नही होते हैं और जब लग़वीयात की तरफ़ से गुज़रते हैं तो निहायत शरीफ़ाना अंदाज़ से गुज़र जाते हैं और उधर तवज्जोह देना भी गवारा नही करते हैं।
इन फ़िक़रात से यह बात भी वाज़ेह हो जाता है कि इबादुर्रहमान में मुख़्तलिफ़ अक़साम की इफ़्फ़ते नफ़्स पायी जाती है। जाहिलों से उलझते नही हैं और उन्हे भी सलामती का पैग़ाम देते है। रक़्स व रंग की महफ़िलों में हाज़िर नही होते हैं और अपने नफ़्स नही को उन ख़ुराफ़ात से बुलंद रखते है। इन महफ़िलों के क़रीब से भी गुज़रते हैं तो अपनी बेज़ारी का इज़हार करते हुए और शरीफ़ाना अंदाज़ से गुज़र जाते है ताकि देखने वालों को भी यह अहसास पैदा हो कि इन महफ़िलों में शिरकत एक ग़ैर शरीफ़ाना और शैतानी अमल है जिसकी तरफ़ शरीफ़ुन नफ़्स और इबादुर्रहमान क़िस्म के इंसान तवज्जोह नही करते है और उधर से निहायत दर्जा शराफ़त के साथ गुज़र जाते हैं।
अख़लाक़ की तरबीयत
Typography
- Smaller Small Medium Big Bigger
- Default Helvetica Segoe Georgia Times
- Reading Mode
Comments powered by CComment