नमाज़ और समाज

इबादात
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अल्लाह के नेक बंदों पर सलाम हो। हर मुसलमान चाहे वह ज़मीन के किसी भी हिस्से पर रहता हो उसे चाहिए कि दिन मे पाँच बार अपने हम फ़िक्र अफ़राद को सलाम करे। जैसे कि नमाज़ मे है अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन।(हम पर सलाम हो और अल्लाह के तमाम नेक बंदों पर सलाम हो।)

यहाँ पर मालदारों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।

यहाँ पर हाकिमों और ताक़तवरों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।

यहाँ पर रिश्तेदारों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।

यहाँ पर हम ज़बान हम क़ौम हम वतन लोगों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।

बल्कि यहाँ पर है अल्लाह के नेक बंदों को सलाम करने की तालीम दी जा रही है। यहाँ पर मकतबे हक़ के तरफ़दारो को सलाम करने की तालीम दी जा रही है।

हमारी खारजी सियासत(बाह्य नीति) नमाज़ के दो जुम्लों ग़ैरिल मग़ज़ूबि अलैहिम वलज़्ज़ालीन और अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन से तय होती है।

जो इंसान दिन मे पाँच बार अल्लाह के बंदो को सलाम करता हो वह कभी भी न उनको धोका दे सकता है और न ही उनके साथ मक्कारी कर सकता है।
नमाज़ की अस्ल यह है कि उसको जमाअत के साथ पढ़ा जाये। और जब इंसान नमाज़े जमाअत मे होता है तो वह एक इंसान की हैसियत से इंसानो के बीच और इंसानों के साथ होता है। नमाज़ का एक इम्तियाज़ यह भी है कि नमाज़े जमाअत मे सब इंसान नस्ली, मुल्की, मालदारी व ग़रीबी के भेद भाव को मिटा कर काँधे से काँधा मिलाकर एक ही सफ़ मे खड़े होते हैं। नमाज़े जमाअत इमाम के बग़ैर नही हो सकती क्योंकि कोई भी समाज रहबर के बग़ैर नही रह सकता। इमामे जमाअत जैसे ही मस्जिद मे दाखिल होता है वह किसी खास गिरोह के लिए नही बल्कि सब इंसानों के लिए इमामे जमाअत है।

इमामे जमाअत को चाहिए कि वह क़ुनूत मे सिर्फ़ अपने लिए ही दुआ न करे बल्कि तमाम इंसानों के लिए दुआ करे। इसी तरह समाज के रहबर को भी खुद ग़रज़ नही होना चाहिए। क्योंकि नमाज़े जमाअत मे किसी तरह का कोई भेद भाव नही होता ग़रीब,अमीर खूबसूरत, बद सूरत सब एक साथ मिल कर खड़े होते हैं। लिहाज़ा नमाज़े जमाअत को रिवाज देकर नमाज़ की तरह समाज से भी सब भेद भावों को दूर करना चाहिए। इमामे जमाअत का इंतिखाब लोगों की मर्ज़ी से होना चाहिए। लोगों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किसी को इमामे जमाअत मुऐयन करना जायज़ नही है। अगर इमामे जमाअत से कोई ग़लती हो तो लोगों को चाहिए कि वह इमामे जमाअत को उससे आगाह करे। यानी इस्लामी निज़ाम के लिहाज़ से इमाम और मामूम दोनों को एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।

इमामे जमाअत को चाहिए कि वह बूढ़े से बूढ़े इंसान का ख्याल रखते हुए नमाज़ को तूल न दे। और यह जिम्मेदार लोगों के लिए भी एक सबक़ है कि वह समाज के तमाम तबक़ों का ध्यान रखते हुए कोई क़दम उठायें या मंसूबा बनाऐं। मामूमीन(इमाम जमाअत के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले अफ़राद) को चाहिए कि वह कोई भी अमल इमाम से पहले अंजाम न दें। यह दूसरा सबक़ है जो अदब ऐहतिराम और नज़म को बाक़ी रखने की तरफ़ इशारा करता है।

अगर इमामे जमाअत से कोई ऐसा बड़ा गुनाह हो जाये जिससे दूसरे इंसान बा खबर हो जायें तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह फ़ौरन इमामे जमाअत की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाये। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि समाज की बाग डोर किसी फ़ासिक़ के हाथ मे नही होनी चाहिए। जिस तरह नमाज़ मे हम सब एक साथ ज़मीन पर सजदा करते हैं इसी तरह हमे समाज मे भी एक साथ घुल मिल कर रहना चाहिए।

इमामे जमाअत होना किसी खास इंसान का विरसा नही है। हर इंसान अपने इल्म तक़वे और महबूबियत की बिना पर इमामे जमाअत बन सकता है। क्योंकि जो इंसान भी कमालात मे आगे निकल गया वही समाज मे रहबर है।

इमामे जमाअत क़वानीन के दायरे मे इमाम है। इमामे जमाअत को यह हक़ नही है कि वह जो चाहे करे और जैसे चाहे नमाज़ पढ़ाये। रसूले अकरम ने एक पेश नमाज़ को जिसने नमाज़े जमाअत मे सूरए हम्द के बाद सूरए बक़रा की तिलावत की थी उसको तंबीह करते हुए फ़रमाया

कि तुम लोगों की हालत का ध्यान क्यों नही रखते बड़े बड़े सूरेह पढ़कर लोगों को नमाज़ और जमाअत से भागने पर मजबूर करते हो।

 

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