अनुवादक: सय्यद अबरार अली जाफ़री (मंचरी)
रसूले ख़ुदा (स), अहलेबैत (अ), सहाबा और ताबेईन की सुन्नत यह रही है कि सजदा केवल ज़मीन पर और उन चीज़ों पर किया जाए जो ज़मीन से उगती हैं मगर खाने-पीने और पहनने वाली चीज़ों में शामिल नहीं होती। यह बात सब मज़हब मानते हैं कि रसूले ख़ुदा (स) और सहाबा मिट्टी पर ही नमाज़ पढ़ते थे।
वहाबी फ़िक्र के लोग मिट्टी या शहीदों की तुर्बत (करबला की मिट्टी) पर सजदा करने को उन की पूजा करने जैसा कहकर उसे शिर्क मानते हैं। वे कहते हैं: “तुम लोग मोहर यानी सजदागाह पर सजदा क्यों करते हो? यह शिर्क और बुत-परस्ती है।” इसी वजह से मक्का और मदीना में शीआ हुज्जाज को सजदागाह (मोहर) पर सजदा करने से रोका जाता है। इस सिलसिले में सालेह फ़ौज़ान (सऊदी इफ़्ता समिति सदस्य) लिखते है: “अगर किसी औलिया की तुर्बत पर तबर्रुक या उनके क़ुर्ब के लिए सजदा किया जाए तो यह शिर्क ए अकबर है, और अगर अल्लाह के क़ुर्ब के लिए किया जाए मगर इस अक़ीदे के साथ कि यह तुर्बत मस्जिदुल हराम, मस्जिदुल नबवी या मस्जिद ए अक़्सा जैसी फ़ज़ीलत रखती है तो यह दीन में बिदअत है।”[1]
लेकिन असल जवाब यह है कि वहाबी लोग सजदा अल्लाह के लिए और सजदा ज़मीन पर करने को मिला देते हैं। जबकि हक़ीक़त यह है कि सजदा सिर्फ़ अल्लाह के लिए है। क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है: “और अल्लाह ही के लिए सजदा है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है।” (सूरए रअद, आयत 15)
इसलिए “सजदा” तो अल्लाह के लिए ही है और होना भी चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि सजदा किस चीज़ पर किया जाए? क्या हर चीज़ पर (यहाँ तक कि खाने-पीने और पहनने वाली चीज़ों और आर्टिफिशल, कृत्रिम चीज़ों पर) या सिर्फ़ कुछ ख़ास नैसर्गिक तबिई (नैचुरल) चीज़ों पर?
अहलेबैत (अ) के मानने वाले (फ़िक़्ह जाफ़री) कहते हैं कि सजदा सिर्फ़ पाक ज़मीन और वह (नैसर्गिक, नैचुरल) चीज़ जो ज़मीन से उगती है मगर खाने-पीने और पहनने वाली चीज़ों में इस्तेमाल नहीं होती उन पर सजदा करना जायज़ है। शहीदों की तुर्बत भी पाक मिट्टी की मिसाल है। जबकि कुछ अहले-सुन्नत इमाम सजदा को आम मानते हैं और किसी भी चीज़ पर जायज़ समझते हैं।
अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम का ख़ाक पर सजदा करने के बारे में नज़रिया
रसूले ख़ुदा (स) की मशहूर हदीस है, जिसे शीआ और सुन्नी दोनों मानते हैं: “ज़मीन मेरे लिए सजदा की जगह और पाकी (तयम्मुम) का ज़रिया बनाई गई है।”[2]
इस हदीस में और क़ुरआन के सूरए निसा की आयत 43 के मुताबिक़: “अगर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से तयम्मुम करो” से दो बातें साबित होती हैं: 1) सजदा और तयम्मुम दोनों ज़मीन पर होने चाहिए। 2) ज़मीन पाक होनी चाहिए।
इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इस हिकमत को यूं बयान किया: सजदा मिट्टी पर इसलिए है क्योंकि यह अल्लाह के सामने सबसे ज़ियादा विनम्रता और आज़ारी का इज़हार है।
हिशाम बिन हकम बयान करते हैं कि उन्होंने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से पूछा: किन चीज़ों पर सजदा जायज़ है और किन पर नहीं? आप ने (अ) फ़रमाया: “सजदा सिर्फ़ ज़मीन और उसकी पैदावार (जो खाने पीने और पहनने की न हो) पर है।” फिर आपने (अ) फ़रमाया: “सजदा अल्लाह की आज्ञाकारिता और विनम्रता है। इसलिए खाने पीने और पहनने वाली चीज़ों (जिन पर दुनियादार लोग मोहित होते हैं) पर सजदा करना सहीह नहीं है।”[3]
इसीलिए रसूले ख़ुदा (स), अहलेबैत (अ) और सहाबा हमेशा ज़मीन और उसकी पैदावार (नैचुरल चीज़ों) पर ही सजदा किया करते थे और हर मुसलमान के लिए सबसे बड़ा उस्वा और मिसाल रसूलअल्लाह (स) और अहलेबैत (अ) का अमल है।
सुन्नी रिवायतों से दलील
वाएल बिन हुजर कहते हैं: “मैंने नबी (स) को देखा कि जब सजदा करते तो अपनी पेशानी और नाक ज़मीन पर रखते।”[4]
बराअ बिन आज़िब कहते हैं: “हम नबी (स) के पीछे नमाज़ पढ़ते थे। जब आप सजदा करते और अपनी पेशानी ज़मीन पर रखते तब ही हम सजदा करते थे।”[5]
अबू सईद ख़ुदरी कहते हैं: “रसूलअल्लाह (स) की पेशानी और नाक पर मिट्टी का निशान देखा गया, जब आपने लोगों के साथ नमाज़ अदा की।” [6]
कुछ अन्य रिवायतें इस बात पर दलील देती हैं कि रसूले ख़ुदा (स) ने मुसलमानों को सजदा करते समय पेशानी को मिट्टी पर रखने का हुक्म दिया। जैसे अबू सालेह कहते हैं: “मैं जनाब उम्मे सलमा (रसूले ख़ुदा (स) की पत्नी) के पास गया। उसी दौरान उनका भतीजा भी आया और घर में नमाज़ पढ़ने लगा। जब सजदा किया तो मिट्टी पर फूँक मारने लगा। जनाबे उम्मे सलमा ने कहा: ऐ भतीजे! मिट्टी पर फूँक मत मारो, क्योंकि रसूले ख़ुदा (स) ने अपने ग़ुलाम यसार (अफ़लह) से फ़रमाया था: अपना चेहरा अल्लाह के लिए मिट्टी पर रखो।” [7]
रसूलअल्लाह (स) के इस हुक्म से पता चलता है कि सजदा मिट्टी पर करना ज़रूरी है।
रसूलअल्लाह (स) की सीरत (जीवन शैली) यह दर्शाती है कि आप न केवल ज़मीन पर बल्कि उन चीज़ों पर भी सजदा करते थे जो ज़मीन से उगती हैं, बशर्ते वे खाने या पहनने की चीज़ न हों।
अहले सुन्नत की दलीलों (स्रोतों) में भी कई रिवायतें हैं कि: “काना रसूलअल्लाह (स) युसल्ली ‘अलल ख़ुम्रह” यानी रसूलअल्लाह (स) हमेशा “ख़ुम्रह” (खजूर के पेड़ के रेशों से बनी छोटी चटाई) पर सजदा किया करते थे।
यह बात कई सहाबा से भी नक़्ल की गई है जैसे अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास [8], अब्दुल्लाह इब्ने उमर [9], आयेशा [10], जनाबे उम्मे सलमा [11], जनाबे मैमूना [12], और उम्मे सुलैम [13]। इन रिवायतों की सनद (स्रोत, श्रृंखला) अधिकतर सहीह है। [14]
अन्य रिवायतों में भी बयान हुआ है कि रसूलअल्लाह (स) हसीर (चटाई) पर नमाज़ पढ़ते थे।
अबू सईद कहते हैं: “मैं रसूले ख़ुदा (स) के पास गया, उस वक़्त आप अपनी चटाई पर नमाज़ पढ़ रहे थे और उसी पर सजदा कर रहे थे।” [15]
अनस भी रिवायत करते हैं: “नबी (स) ने हसीर पर नमाज़ पढ़ी।” [16]
इब्ने हजर अस्कलानी (शारिह-ए-बुख़ारी) कहते हैं: “छोटी सज्जादा जो खजूर के रेशों से बुनी हो उसे ख़ुम्रह कहते हैं और अगर बड़ी हो तो उसे हसीर कहते हैं।” [17]
*इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) का नज़रिया (दृष्टिकोण)*
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं: “अस्सुजूद अलल अर्ज़ फ़रीज़ह व अलल ख़ुम्रह सुन्नह” [18]
यानी सजदा ज़मीन पर करना फ़र्ज़ (अल्लाह का हुक्म) है, और ख़ुम्रह पर सजदा करना रसूलअल्लाह (स) की सुन्नत है।
आप (अ) ने यह भी फ़रमाया: “सजदा केवल ज़मीन पर या ज़मीन से उगने वाली चीज़ों पर ही जायज़ है, सिवाय खाने और पहनने की चीज़ों के।” [19]
*सहाबा किस पर सजदा करते थे?*
रसूलअल्लाह (स) और अहलेबैत (अ) के अमल के अलावा, सहाबा और ताबेईन का रवैया भी सजदा ज़मीन पर करने का गवाह है।
जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी कहते हैं: “मैं रसूलअल्लाह (स) के साथ ज़ोहर की नमाज़ पढ़ता था। मैंने एक मुट्ठी कंकड़ उठाई और हाथ में रखी ताकि ठंडी हो जाए। फिर सजदे के वक़्त अपनी पेशानी उन पर रखी क्योंकि गर्मी बहुत तेज़ थी।” [20]
✦ इन सब रिवायतों से यह साबित होता है कि रसूले ख़ुदा (स), अहलुलबैत (अ) और सहाबा सजदा हमेशा ज़मीन या ज़मीन से उगने वाली चीज़ पर करते थे सिवाय खाने पीने और पहनने की चीज़ों के।
नाफ़ेअ कहते हैं: "मैं अब्दुल्लाह इब्ने उमर को देखता था कि जब वे सजदा करते और उनके सर पर पगड़ी (अमामा) होती, तो वे उसे उठा लेते ताकि पेशानी ज़मीन पर लगे।" [21] यानी अब्दुल्लाह बिन उमर सजदे के वक़्त अपनी पगड़ी हटा लेते थे ताकि पेशानी ज़मीन पर रख सकें।
*नबी ए करीम (स) का मना करना कि पेशानी और ज़मीन के दरमियान कोई रुकावट न हो*
मुहद्दिसीन अहले सुन्नत ने ऐसी रिवायतें नक़्ल की हैं जो यह दिखाती हैं कि रसूलअल्लाह (स) ने उन लोगों को रोका जो सजदे के वक़्त पगड़ी का कोना अपनी पेशानी और ज़मीन के बीच रखते थे।
सालेह सबाई कहते हैं: रसूलअल्लाह (स) ने एक शख़्स को अपने पास सजदा करते देखा, जिसकी पेशानी पर अमामा था। नबी (स) ने उसकी पेशानी से अमामा हटा दिया।" [22]
अयाज़ बिन अब्दुल्लाह क़रशी कहते हैं: "रसूलअल्लाह (स) ने एक शख़्स को देखा जो अपने अमामे के कोने पर सजदा कर रहा था। नबी (स) ने हाथ से इशारा किया कि अपना अमामा उठाओ, और अपनी पेशानी की तरफ़ इशारा फ़रमाया।" [23]
इब्ने सअद अपनी किताब में लिखते हैं: "मसरूक़ बिन अजदअ जब पानी का सफ़र करते थे तो अपने साथ एक ईंट लेकर चलते और कश्ती में उस पर सजदा करते थे।" [24]
इसलिए अपने साथ एक टुकड़ा मिट्टी (तुरबत) रखना, कुछ लोगों के ख़याल के मुताबिक़ शिर्क या बिदअत नहीं है।
*नतीजा और ख़ुलासा
पहले बयान की गई बातों से यह समझ आता है कि सुन्नते रसूलअल्लाह (स), अहलेबैत (अ), सहाबा और ताबेईन की सीरत यह थी कि सजदा ज़मीन पर किया जाए, या उन चीज़ों पर जो ज़मीन से उगती हैं सिवाय उन चीज़ों के जो खाने या पहनने की होती हैं और यह बात भी सब मज़हबों के नज़दीक तस्लीमशुदा है कि रसूलअल्लाह (स) और सहाबा ख़ाक (मिट्टी) पर ही नमाज़ में सजदा करते थे।
करबला की मिट्टी से बनी मोहर (सजदागाह) भी असल में एक पाक मिट्टी का टुकड़ा है जिस पर सजदा किया जाता है। अगर मिट्टी न मिले तो ग़ैर ख़ुराक चीज़ों पर सजदा किया जा सकता है। दूसरे लफ़्ज़ों में, हम ज़मीन पर सजदा करके अल्लाह ही को सजदा करते हैं। असल में दुनिया के तमाम मुसलमान किसी न किसी चीज़ (क़ालिन, गालिचे, प्लास्टिक चटाई...) पर सजदा करते हैं, लेकिन उनका सजदा उस चीज़ के लिए नहीं, बल्कि अल्लाह के लिए होता है।
क्या यह सच नहीं कि तमाम नमाज़ गुज़ार काबा यानी मस्जिदुल हराम के पत्थरों पर सजदा करते हैं? लेकिन उनका मक़सद पत्थरों की इबादत नहीं, बल्कि अल्लाह की इबादत है। इसी तरह ख़ाक या पौधों या उनके पत्ते पर सजदा करना भी उनकी इबादत नहीं, बल्कि अल्लाह की इबादत है। सजदा का असल मतलब है अल्लाह के सामने इतनी ज़िल्लत और ख़ुशू इख़्तियार करना कि इंसान अपने आप को मिट्टी तक गिरा दे, करबला की तुरबत जो एक पाक मिट्टी है, उस पर सजदा करना भी इसी क़िस्म का सजदा है। इन तमाम बातों से यह वाज़ेह होता है कि शीआ मुसलमान क्यों सिर्फ़ मिट्टी, पत्थर या कुछ पौधों, पत्तों पर सजदा करते हैं और हर चीज़ पर सजदा नहीं करते। क्योंकि यह असल में सुन्नते नबवी (स) की पैरवी है, जिसमें रसूलअल्लाह (स) ख़ाक पर सजदा किया करते थे।
हवाला (Reference) नोट:
1) अल मुन्तका मिन फ़तावा शैख़ सालिह बिन फ़ौज़ान, जिल्द 2, सफ़हा 86
2) सहीह बुख़ारी, जिल्द 1, सफ़हा 100, हदीस 335, किताब अल-तयम्मुम. तस्हीह बिन बाज़
3) शैख़ हुर आमुली, वसाइलुश्शीआ, जिल्द 5, सफ़हा 344, हदीस 6740
4) मुसनद अहमद, जिल्द 4, सफ़हा 317 / तबरानी, अल मुअजमुल कबीर, जिल्द 22, सफ़हा 30 / अहकामुल क़ुरआन (जस्सास हनफ़ी), जिल्द 3, सफ़हा 209, बाब अल सुजूद ‘अलल वजह'
5) सहीह बुख़ारी, किताब अस्सलात, बाब मुताबेआ अल इमाम, सफ़हा 228, हदीस 949
6) सुनन अबू दाऊद, सफ़हा 173, किताब अस्सलात, बाब अल सुजूद ‘अलल अन्फ़ वल जेबहा, हदीस 894
7) मुसनद अहमद, जिल्द 6, सफ़हा 301. सुनन तिर्मिज़ी, किताब अस्सलात, बाब मा जा’ फ़ी कराहिय्या अल नफ़्ह, सफ़हा 131, हदीस 381 / अल मुसतद्रक, जिल्द 1, सफ़हा 271 / बैहक़ी, सुनन अल कुबरा, जिल्द 2, सफ़हा 252
8) मुसनद अहमद, जिल्द 1, सफ़हा 269
9) मुसनद अहमद, जिल्द 2, सफ़हा 92
10) मुसनद अहमद, जिल्द 6, सफ़हा 149, 179, 209
11) मुसनद अहमद, जिल्द 6, सफ़हा 302
12) मुसनद अहमद, जिल्द 6, सफ़हा 330 / सहीह बुख़ारी, जिल्द 1, सफ़हा 116, किताब अस्सलात, बाब 21, अस्सलात ‘अलल ख़ुमरा, हदीस 381
13) मुसनद अहमद, जिल्द 6, सफ़हा 377
14) मजमउल ज़वाएद, जिल्द 2, सफ़हा 57–58
15) मुसनद अहमद, जिल्द 3, सफ़हा 52
16) मुसनद अहमद, जिल्द 3, सफ़हा 179
17) फ़तहुल बारी, जिल्द 1, सफ़हा 364
18) शैख़ हुर आमुली, वसाइलुश्शीआ, जिल्द 5, सफ़हा 345, हदीस 6746
19) वसाएलुश्शीआ, जिल्द 5, सफ़हा 344, हदीस 6740
20) अल-मुसतद्रक, जिल्द 1, सफ़हा 195
21) बैहक़ी, सुननुल कुबरा, जिल्द 2, सफ़हा 104, बाब अल-कश्फ़ ‘अन अल सजदा फ़ील सुजूद
22) सुननुल कुबरा, जिल्द 2, सफ़हा 105
23) सुननुल कुबरा, जिल्द 5, सफ़हा 105
24) अल तबक़ातुल कुबरा, जिल्द 6, सफ़हा 79
अल्लाह हुम्मा अज्जिल ले वलियेकल फ़रज...
Comments powered by CComment