लेखक: अली अहमद
अनुवादक: सैयद ताजदार हुसैन ज़ैदी
संशोधन: सैयद एजाज़ हुसैन मूसवी
जन्म भूमि
मिस्र हमेशा से ही आलिमों एवं बुद्धिजीवियों का केन्द्र रहा है, और आज भी शैख़ मोहम्मद अबदोह, उस्ताद हसनुल बन्ना, शैख़ महमूद शलतूत, सैय्यद क़ुतुब आदि जैसे आलिम इस देश से उठे और इस्लाम और मुसलमानो की बहुत सेवा की है।
1334 हि0 क़मरी[1] में बोहैरा ज़िले के “नकला अलइनब” नामक गाँव के आम और धार्मिक घर में एक बच्चा पैदा हुआ जो कि बाद में बड़ा इस्लामिक विद्रान बना और बहुत ख्याति पाई।
उनके पिता शैख़ अहमद अल सक़ा गांव के व्यापारियों में से थे और रसूल (स0) और उनके अहले बैत (अ0) (ख़ानदान वालो) से मोहब्बत करते था।
मोहम्मद के पैदा होने से पहले उनके पिता ने एक सपना देखा कि जिस में उनको एक बेटे का शुभ समाचार दिया गया, वह इस सपने से अति प्रसन्न हुए और इसके पूरा होने की लालसा में रहे। कुछ दिनो बाद यह प्रतिक्षा समाप्त हुई और ईश्वर ने उनको एक बेटा दिया।
उनके पिता अहमद, जो कि सुन्नियों के बड़े आरिफ़ो और ब्रह्मज्ञानी, अबू हामिद ग़ज़ाली (505) से बहुत प्यार करते थे, अपने प्यार और उस सपने का कारण निर्णय किया कि बेटे का नाम मोहम्मद ग़ज़ाली रखा जाए।[2]
शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली बाद में एक क्लास में पढ़ाते समय अपने नाम करण के बारे में कहते हैः
हमारे पिता शैख़ मोहम्मद अल सक़ा धर्म से आरिफ़ थे, अहले बैत (अ0) से मोहब्बत करते थे और ब्रह्मज्ञान के विद्रानो का विशेष आदर करते थे, वह “अहयाए उलूम अद्दीन” किताब के लेखक हुज्जतुल इस्लाम अबु हामिद मोहम्मद ग़ज़ाली का बहुत आदर करते थ, इसलिए जब मै पैदा हुआ तो उन से मोहब्बत के कारण मेरा नाम मोहम्मद ग़ज़ाली रखा जो कि वास्तव में एक मिश्रित नाम है और मेरा उपनाम अल सक़ा है। वास्तव में मेरे पिता ने मेरा यह नाम इसलिए रखा कि मैं भी अपने समय में अबू हामिद जैसा बन सकूं और उनके जैसी ख्याति प्राप्त कर सकूं।[3]
स्कूल
मोहम्मद, अपने बचपन की अवधि समाप्त करने के बाद अदबियाते अरब और इस्लाम की प्रारंभिक शिक्षा (मुक़द्दिमाते उलूमे इस्लामी) के लिये अपने गांव के स्कूल में प्रवेष किया, वह प्रवेष के साथ ही क़ुरआन को याद करने में लग गये और दस साल की उम्र में पूरा क़ुरआन याद कर लिया, ग़ज़ाली बाद में उन दिनों के बारे में कहते हैः
जब मैं क़ुरआन याद कर रहा था, प्रातःकाल, विश्राम के समय, रोज़ की नमाज़ो के बाद, चहल क़दमी करते हुए, सोने से पहले और अकेले में क़ुरआन को याद करता और उसको दोहराता रहता था। और बाद में जब मुझे जेल भेजा गया तो सदैब क़ुरआन पढ़ता रहता था और उस भयानक अकेले पन में क़ुरआन ही मेरा साथी और दोस्त था।[4]
मोहम्मद ने अपने पिता के पास पैसा न होने के कारण, अपने बचपन को बहुत कठिनाई में व्यतीत किया, उनके पिता अहमद के छह बेटे थे और वह उनका सही तरह से भरन पोषण नही कर सकते थे, इसलिए मोहम्मद का कमरा बहुत ही छोटा था, वह रातो को धरती पर बिछे पतले से फ़र्श पर सोते थे लेकिन इन सारी सख्तियों और कठिनाईयों के बावजूद भी उनका सारा ध्यान केवल क़ुरआन को याद करने की ही तरफ़ था।[5]
इस्कन्दरिया विश्व विद्यालय
मिस्र में बोहैरा ज़िले के लोग धार्मिक और इस्लामिक नियमों का पालन करने वाले लोग है। ग़ज़ली इस बारे में कहते हैः
इस ज़िले के लोग इस्लाम को पसंद करते हैं और अपने बेटों को अल अज़हर में भेजते हैं और कहते हैं कि हम ने अपने बेटों के ईश्वर को दे दिया है।[6]
मोहम्मद के पिता जो कि बहुत चाहते थे कि उनका बेटा धार्मिक शिक्षा ग्रहण करे, उसको इस्कन्दरिया[7] भेजा मोहम्मद अल अज़हर विश्व विद्यालय के एक कॉलिज में धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने लगे. कॉलिज में उनकी विशेष्ताओं में से एक यह थी कि वह टीचरों के साथ इल्मी वाद विवाद (मुबाहिसा) किया करते थे। उनका ज्ञान, योग्यता, और बौद्धिक विकास और इश्काल करने की अतभुद छमता को कॉलिज के सारे टीचर और विद्यार्थी मानते थे, उनकी दूसरी विशेष्ता यह थी कि वह कभी भी किसी विद्यार्थी पर कॉलिज के किसी अधिकारी का अत्याचार एवं अन्याय सहन नही करते थे और अगर कोई अधिकारी किसी विद्यार्थी पर अत्याचार या अन्याय करता तो वह उसकी रक्षा करते थे।
मोहम्मद ने 1356 हि0 क़0[8] में इस्कन्दरिया के कॉलिज से अपनी पढ़ाई पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए क़ाहिरा गये और उसूले दीन के सब्जेक्ट से अल अज़हर विश्व विद्यालय में पढ़ाई शुरू की।
अध्यापक
मोहम्मद ग़ज़ाली ने इस्कन्दरिया के कॉलिज और अल अज़हर विश्व विद्यालय की अपनी पूरी पढ़ाई में बहुत से अध्यापकों से शिक्षा ग्रहण की लेकिन कुछ अध्यापकों ने उन के जीवन पर विशेष छाप छोड़ी है कि जिन से उन्होंने विशेष अध्यात्मिक एवं सद्व्यवहारिक लाभ उठाया है। ग़ज़ाली से किसी ने पूछा कि किन लोगों ने आपकी अध्यातमिक एवं इस्लामी निमंत्रण के क्षेत्र में विशेष छाप छोड़ी हैं। उन्होने इन लोगों का नाम लियाः
1. शैख़ इब्राहीम ग़रबावी.
इस्कन्दरिया के अध्यापकों में से हैं।
2. शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिलाल.
और अब्दुल अज़ीज़ के अध्यापक जो कि सदाचार के अध्यापकों में से हैं।
ग़ज़ाली ने इन दोनों की सदैव प्रशंसा की है और इनके बारे में कहते हैः
शैख़ इब्राहीम ग़रबावी और शैख़ अब्दुल उच्च श्रेणी के अराधना करने वाले (आबिद) और संयम बरतने वाले (मुत्तक़ी) थे। और शिक्षण को ईश्वर से नज़दीकी और उसकी प्रसन्नता का कारण मानते थे। और शिक्षा को शिक्षा के उच्च स्थान पर पहुचने का लक्ष्य बना कर ग्रहण करने से मना करते थे, और मानते थे कि शिक्षा की उपाधियां निःस्वार्थता को समाप्त कर देती हैं।[9]
3. शैख़ अनानी
4. इमाम मोहम्मद अबु ज़ोहरा. ग़ज़ली ने गहन चिंतन और साहस के कारण इनकी प्रशंसा की है।[10]
5. शैख़ अब्दुल अज़ीज़ ज़रक़ानी
वह उसूले दीन कॉलिज के अध्यापक और “मनाहिलुल इरफ़ान फ़ी उलूमिल क़ुरआन” जैसी पुस्तको के लेखक थे।
6. शैख़ महमूद शलतूत
ग़ज़ाली के अनुसार, शैख़ मोहम्मद शलतूत ने उनकी आस्था एवं बौद्धिक विकास पर विषेश छाप छोड़ी है, और उन्होने (गज़ाली) उन से शिक्षा ग्रहण की है।
गज़ाली शैख़ शलतूत की प्रशंसा करते हैं और उनके बारे में कहते हैः
वह तफ़्सीरे क़ुरआन के अध्यापक थे और इसमें बहुत योग्य थे, फिक़्ह और शरीअत (इस्लाम की धार्मिक शिक्षा) का भी अच्छा ज्ञान था, वह एक आलिम और विद्रान व्यक्ति थे और बहुत से लोग उन के गिर्द (शिक्षा ग्रहण करने के लिए) जमा थे।[11]
7. हसन अल बन्ना
निःसंदेह हसने बन्ना ने गज़ाली के सोंच और विचारों पर सब से अधिक छाप छोड़ी है, ग़ज़ाली और हसने बन्ना की पहली मुलाक़ात उस समय हुई जब गज़ाली इस्कन्दरिया कॉलिज में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, वह इस पहली मुलाक़ात के बारे में इस तरह कहते हैः
जब मैं इस्कन्दरिया में शिक्षा ग्रहण कर रहा था एक रात हसने बन्ना को जो कि कॉलिज में आए हुए थे पास से देखा और आज भी उन का अकर्षक चेहरा मेरी आखों में समाया हुआ है।[12]
गज़ाली बन्ना को चौदहवी शताब्दी हि0 में इस्लाम को दोबारा जावित करने वालों में से मानते हैं[13] और मानते हैं कि बन्ना के आत्मिक प्रशिक्षण और इस्लामिक शिक्षण ने मिस्र के इस्लामी समाज पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है, और मिस्र में एक क्रान्तिकारी और इस्लामी नस्ल के प्रशिक्षण का कारण बना है।
ग़ज़ाली एक शिक्षक (कुर्सी ए तदरीस)
ग़ज़ाली बहुत मेहनत और कठिन परिश्रम से चार साल के बाद 1340 हि0 क़0[14] में 26 साल की उम्र में अल अज़हर विश्व विद्यालय से पारंगत हुए और इसी प्रकार निमंत्रण (इस्लाम का प्रचार), और अनुदेश का अधिकार प्राप्त किया और इसी प्रकार अल अज़हर विश्व विद्यालय में पाठन का आधिकार भी प्राप्त किया।[15]
गज़ाली अल अज़हर विश्व विद्यालय के उसूले दीन और अरबी एवं इस्लामी अनुसंधान के विभाग में अध्यापक हुए और पाठन कार्य प्रारम्भ किया।
इसी प्रकार कई साल तक अब्दुल क़ादिर विश्व विद्यालय के इस्लामिक ब्रह्मज्ञान (मआरिफ़े इस्लामी) विभाग के कुल पति रहे, विद्रानो एवं जानकारों के अनुसार इस विश्व विद्यालय की इस्लामिक संस्क्रति, इस्लामिक धर्म शास्त्र के आधार आदि विषयों में स्नातक स्नाकोत्तर एवं पी एच डी (Ph.D) स्तर पर ख्याति गज़ाली के क्लासों के कारण ही थी[16]
विद्यार्थी
बहुत से विद्यार्थियों ने ग़ज़ाली से शिक्षा ग्रहण की है जिन में से कुछ प्रसिद्ध विद्यार्थियों का हम यहां पर नाम बयान करेंगेः
1. यूसुफ़ क़रज़ावी
सुन्नियों के बड़े और प्रसिद्ध धर्म गुरू, ये 1344 हिद क़0[17] में “सिफ़त तुराब” नामक गांव में जो कि पश्चिमी मिस्र के ज़िलों में से है पैदा हुए। अपना बचपन गुज़ारने के बाद अपने गांव के मकतब में दाख़िल हुए और नौ साल की उम्र में पूरा क़ुरआन हिफ़्ज़ कर लिया, फिर अपनी पढ़ाई को आगे जारी रखने के लिए अल अज़हर विश्व विद्यालय में प्रवेश किया।
वह 1363 और 1373 हि0 क़0[18] में अख़वानुल मुसलेमीन की सहायता और उन के कार्यों में लिप्त होने के कारण मिस्री हुकूमत के हाथों गिरफ़्तार हुए और जेल भेजे गये।
जेल से आज़ादी के बाद अल अज़हर विश्व विद्यालय में अध्यापक हुए और लेखन कार्य आरम्भ किया।
1380 हि0 क़0[19] में क़तर प्रवास किया और संस्क्रतिक केन्द्र “बहूसुस सुन्नते वस सीरत” का शिलान्यास किया और ख़ुद उसके संपादक बन कर कार्य प्रारम्भ किया और अब तक उसी देश में संस्क्रतिक कार्यों में लीन हैं[20]
शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली अपने इस विद्यार्थी से बहुत प्रेम करते थे और उनके पांडित्य और विद्धत्ता के बारे में कहते हैः
क़रज़ावी हमारे समय के विद्रानों में से हैं वह उन लोगों में से हैं जिन्होंने पारंम्परिक विद्या (उलूमे नक़लीः वह विद्या जो कि रसूल (स0) इमाम (अ0) या उन के सहाबा के कथनो एवं कर्मों से हासिल किया जाता है) और उलूमे अक़्ली को एक किया है। क़रज़ावी ने शिक्षा ग्रहण करने और ज्ञान एकत्र करने में दूसरों से बहुत आगे निकल गये हैं। मैं क़रज़ावी का अध्यापक और वह मेरा गुरू है, शैख़ यूसुफ़ मेरा विद्यार्थी था लेकिन अब मैं उसका विद्यार्थी हूँ।[21]
क़रज़ावी ने आक़ाएद (श्रद्धा शास्त्र) क़ुरआन, सुन्नत, फ़िक़्ह, उसूल, इस्लामिक अर्थ शास्त्र, इस्लामिक प्रशिक्षण, इस्लामिक धर्म प्रचार, एकता, साहित्य आदि वह 128 पुस्तकें लिखीं हैं।[22]
2. शैख़ हुसैन अत्तवील ये अल अज़हर के विद्रानों मे से हैं।[23]
उत्सर्ग परिषद
ग़ज़ाली 1362 हि0 क़0[24] मे उत्सर्ग परिषद और मिस्र के चैरिटी ट्रस्ट की तरफ़ से अल क़ुब्बतुल ख़ज़रा नामक मस्जिद में इमाम जुमा और जमाअत नियुक्त किये गए।
कुछ समय बाद उत्सर्ग परिषद मे नौकरी की और उत्सर्ग परिषद की तरफ़ से इस्लामिक धर्म प्रचार विभाग में वकील के पद पर नियुक्त हुए। इस पद पर उनके कार्यों में से एक मिस्र की मसजिदों की देख रेख पर निगाह रखना था। वह अपने इस ख़तरनाक (हस्सास) कार्य में उच्च अधिकारियों से बिना किसी डर के अपने इस्लामिक कर्तव्यों का पालन करते रहे। मोहम्मद अब्दुल्लाह इस बारे में एक कहानी बयान करते है जो उनके इस स्वभाव को बयान करती है, वह कहते हैः
ग़ना के शासक “नकरूमा”[25] की मौत के बाद जब्कि मैं गुरू ग़ज़ाली के पुस्तकालय में आने की प्रतीक्षा कर रहा था चूंकि ग़ज़ाली मस्जिदों की देख रेख के पद पर थे इसलिए विदेश मंत्रालय ने उन को फ़ोन किया ताकि उमरे मुकरम नामक मस्जिद को “नकरूमा” की अंत्योण्टी के लिये तैयार करें, क्योंकि उन्होंने फ़ैसला किया इस मस्जिद में “नकरूमा” की मजलिसे तरहीम की जाए गुरू “सैय्यद साबिक़” ने उन को फ़ोन पर उत्तर दिया कि गुरू ग़ज़ाली पुस्तकालय में उपस्थित नही हैं, मैं ने ईश्वर का धन्यवाद किया इसलिए कि अगर गुरू पुस्तकालय में होते और विदेश मंत्रालय की अर्ज़ी को अस्वीकार कर देते तो ग़ज़ाली पर निन्दा और आलोचनाओं का तूफ़ान आ जाता जब गुरू पुस्तकायल में आए और उनको सारे मामले की सूचना मिली तो उन्होंने क़सम खा कर कहा कि मैं ऐसा कार्य (चाहे वह किसी गंभीर दुर्घटना का कारण ही क्यों न बनता) कभी न करता “नकरूमा” के उत्तराधिकारी ने विवश होकर उसकी मजलिसे तरहीम “शीरा” नामक गिरजाघर में की।[26]
गज़ाली उस समय जब वह उत्सर्ग परिषद में कार्यरत थे, उस विभाग की तरफ़ से सऊदी अरब, और क़तर की यात्रा की और उस स्थान पर कार्य करने के अलावा अल अज़हर से संबंधित विश्व विद्यालयों में पाठन कार्य भी किया।[27]
ग़ज़ाली की उपाधियां
ग़ज़ाली ने पूरी आधी शताब्दी में इस्लामिक दुनिया की तरफ़ से बहुत सी पदवियां प्राप्त कीं
उन्होंने इराक़ के बादशाह मलिक फ़ैसल से इस्लाम की सेवा की उपाधी प्राप्त की लेकिन उपाधी लेते समय पूरी नम्रता के साथ यह आयत पढ़ीः
हे ईश्वर तेरी उस अनुकम्पा और मेहरबानी का जो तूने मुझ पर की, कभी भी दुष्कृतियों और पापियों की सहायता नही करूगां।
और इसी प्रकार तरफ़ीअ की उपाधी मूरीतानिया और अल जज़ाएर जैसे देशों से प्राप्त किया और सऊदी अरब, सूडान और क़रत में उनका आदर एवं सत्कार किया गया।
1400 हि0 क0[28] में इस्लाम धर्म की तरफ़ निमंत्रण की अपने प्रयासो के चलते पाकिस्तान की तरफ़ से और 1415 हि0 क़0[29] में मलेशिया की तरफ़ से उन देशो की सब से बड़ी उपाधी प्राप्त की [30]
भाग 2
संबोधन और लेखन के छेत्र में
संबोधन और निमंत्रण
सही है कि ग़ज़ाली ने पचास से अधिक उपयोगी और लाभदायक पुस्तको का लेखन करके मिस्र और इस्लामिक दुनिया के बड़े लेखकों में अपना नाम दर्ज करा दिया है, लेकिन वह संबोधन और इस्लाम की तरफ़ निमंत्रण देने से भी कभी ग़ाफ़िल नही हुए, गज़ाली ने अपने क़लम और ज़बान दोनो से लोगो को इस्लाम की तरफ़ बुलाया।
मिस्र के प्रसिद्ध विद्रानों में से एक यूसुफ़ क़रज़ावी ग़ज़ाली के उस काल के इस्लामिक निमंत्रण कार्य के प्रोग्राम के बारे में कहते हैः
सन 60 ई0 मिस्र के इतिहास में मुसलमानों के लिए बहुत कठिन समय था। हर क्रांन्ति और आज़ादी की आवाज़ का गला दबा दिया जाता था, ऍसे कठिन समय में सिर्फ़ ग़ज़ाली की एक ऍसी एकेली आवाज़ थी जो न थमी और उन की अकेली ऍसी आवाज़ थी जो लोगों को इस्लाम की तरफ़ बुला रही थी और ईश्वर के रास्ते का निमंत्रण दे रही थी। वह उस गंभीर और कठिन समय में एक चिराग़ की तरह जले और लोगों राह नुमाई की।[31]
ग़ज़ाली लोगों की राह नुमाई और अनुदेश के लिए साल के कुछ महीने विशेषकर रमज़ान के पवित्र महीने में महान मिस्र देश के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा किया करते थे और लोगों से मुलाक़ात एवं परिचय के साथ साथ उनको क़ुरआन और इस्लाम की शिक्षा दिया करते थ। गुरू मोहम्मद शिबली ग़ज़ाली की इस्लाम की तबलीग़ के लिए अनथक मेहनत और प्रयासों के बारे में कहते हैः
बहुत कम लोग महान निमंत्रण कर्ता (ग़ज़ाली) को सही प्रकार से पहचानते हैः वह गुरुवार को अस्र के समय बालमीना में जाते और मग़रिब और इशा की नमाज़ में समिलित होते और नमाज़ के बाद लोगों के संबोधित करते फिर उसके दूसरे दिन (जुमे को ज़ोहर के समय) मनफ़लूत[32] में नमाज़े जुमा पढ़ाते और ख़ुत्बा देते। उसी दिन अस्र के समय असयूत[33] उपस्थित होते और और लोगों को सही रास्ते की राह नुमाई करते और इशा के बाद सोहाज[34] जाते और वहा लोगों को धर्मोपदेश देते, और सनीचर के दिन प्रभात में क़ाहिरा में अपने सारे साथियों से पहले कार्य पर पहुंच जाते।[35]
ग़ज़ाली दूसरे इस्लामी देशों भी इस्लाम के प्रचार को अनदेखा न किया और इस महत्व पूर्ण कार्य के लिये विभिन्न देशों की यात्र की। इस यात्राओं के मध्य बहुत सो विचित्र चीज़ें भी उन के साथ हुई जिन को बयान करते हुए वह कहते हैः
जिन क्षेत्रों की मैने यात्रा की उन में मेरे साथ कुछ ऍसी घटनाएं घटी कि जिन्होंने मुझ पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है, इसलिए कि मेरी यात्रा भ्रमण, अराधना, और ईश्वर की तरफ़ निमंत्रण और गहरी नींद में सोए हुए मुसलमानों को जगाने के लिए थी।[36]
वह दो बार रमाज़ान के पवित्र नहीने में लोगों की राह नुमाई और इस्लाम के प्रचार के लिए ग़ज़ा के समीप एक राहत शिविर में गए कि जहां आवारा फ़िलिस्तीनी लोग ठहरे हुए थे अपनी इस यात्रा में उन्होंने मुसलमानों के दुखों और कठिनाईयों के आलावा किसी और चीज़ को नही देखा और इस बारे में वह कहते हैः
राहत शिविर में सब दुखी और चिंतित थे, उन के चेहरे पीले और अपमान का वस्त्र प्रकट था।[37]
इसी प्रकार एक बार रमज़ान के पवित्र महीने में इस्लाम के प्रचार के लिए मदीना और एक दूसरे रमाज़ान के पवित्र महीने में सूडान की राजधानी ख़रतूम गये और वहा लोगों को इस्लाम का निमंत्रण दिया वहा पर इस्लाम के प्रचार के साथ साथ ख़रतूम विश्व विद्यालय में इस्लामिक धर्म शास्त्र की शिक्षा भी दी।
गज़ाली सूडानी समाज में पश्चिमी सभ्यता के आविभार्व से बहुत क्रोधित हुए और कहते हैः
वह विशिष्ट वस्र्तों के पहनते थे और खुले आम रोज़ा तोड़ते थे अगर उनकी त्वचा से पता न चलता तो मैं कहता कि ये अंग्रेज़ हैं मदिरा पान इतना अधिक आम है कि मदिरा पान में सूडान विश्व का तीसरे नम्बर का देश है, और इग्लैड की शराब बनाने वाली एक बड़ी कंपनी ने एक शराब का कारख़ाना ख़रतूम में बनाया है।[38]
प्रकाशन के क्षेत्र में
गज़ाली अपनी जवानी के दिनों में ही मिस्र के प्रकाशनों से विद्या संबंधी मेल जोल बना लिया था।उनके निबंध और थीसेस जो कि विभिन्न विषयों पर और सादी भाषा में लिखे गये थे लोगों द्वारा बहुत पसंद किये गए, विशेषकर जवानो की बीच बहुत लोक प्रिय हुए।
उन्होने ने अपने प्रकाशन का कार्य सात रोज़ा मैगज़ीन अख़वानुल मुसलेमीन से प्रारम्भ की जो कि जमीअत “अख़्वानुल मुसलेमीन” की तरफ़ से प्रकाशित होती थी। उनके निबंध इस सात रोज़ा मैगज़ीन के एक विशेष कालम में जिसका नाम ख़वातिरे हुर्रह था में छपते थे। लेकिन 1367 हि0 क0[39] में गिरफ़्तार होने और जेल जाने के बाद प्रकाशन क्षेत्र से उनका संबंध समाप्त कर दिया गया।[40]
अख़वानुल मुसलेमीन के कार्यो में तीव्रता आने और हुकूमत के साथ टकराव के कारण ये मैगज़ीन बंद हो गई। गज़ाली ने इसके बाद “अलमबाहिस” नामक मैगज़ीन और फिर “अद्दाअवा” नामक मैगज़ीन कि जिसका निर्माण सालेह अशमावी ने किया था ।
इसी प्रकार गज़ाली ने सऊदी अरब के “लेवाउल इस्लाम” “हाज़ा दीनोना” “अल मुसलेमून” और “अल हक़्क़ुल मुर” जैसे मैगज़ीनो इल्मी संबंध रखा।[41]
इसी प्रकार जब सैय्यद क़ुतुब [42] ने सियासी और समाजी मैगज़ीन “अल फ़िक्रुल जदीद” का प्रकाशन किया तो गज़ाली उसके लेखकों मे से एक थे।
उस समय की समस्याओं में से कोई एक भी समस्या ऍसी नही थी कि जिस से मुक़ाबला न किया हो और उसके लिए लेख न लिखा हो। मिस्र के प्रकाशनों में लिखे जाने वाले उनके क्रान्तिकारी और इस्लामी लेखों ने हुकुमत और कार्य कर्ताओं को क्रोधित कर दिया। वह हुकूमत के कार्य कर्ताओं के बारे लिखते हैः
मैं चाहता था कि अपने सारे प्रभावों और विचारों को पूर्ण रूप से लिख दूँ ताकि ईश्वर के सामने वास्तविक्ता तो छुपाने वाला और भलाई के रास्ते में कमी करने वालों में से न हो जाऊँ।[43]
अमरीकी समाचार पत्र
ग़ज़ाली मिस्र के उन पत्रकारों को जो कि धार्मिक चिन्हों जैसे नमाज़, रोज़ा, पर्दा आदि की निंदा करते है, की कठोर निंदा करने के साथ साथ उन को अमरीकी कहते हैं और लिखते हैः
वह समाचार पत्र जो की आज के समय में मांसिक्ता की उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए था बेहद खेद के साथ कहना पड़ता है कि उन्होंने अमरीकी समाचार पत्रों के रास्ते को चुन लिया है, और उपद्रव और अशिक्षित लोगों को ख़ुश करने और अपराधों को बढ़ावा देने में एक दूसरे को पीछे छोड़ रहे हैं[44]
वह एक दूसरे स्थान पर लिखते हैः
निसंदेह इस्लाम का अपमान और मुसलमानों को अपमानित करना और दूसरे धर्मों का सत्कार और अन के धर्म गुरूओं का आदर एवं सत्कार करना सोची समझी साज़िश हैं जिस को विशेष क़लमों ने रचा है और वह हुकूमते जिन्होंने तबशीरी केन्द्रों का निर्माण करते हैं वह उनके कार्य कर्ताओं का संरक्षण करते हैं और उनकी सहायता करते हैं।[45]
भाग 3
ग़ज़ाली और अख़वानुल मुसलेमीन
अख़वानुल मुसलेमीन 1309 – 1349 हि0 क0[46] में एक क्रान्तिकारी संगठन था जो अरब के अधिकतर देशों में कार्य कर रहा था और उनका असली केन्द्र मिस्र में था यह संगठन ज़ीक़अदा 1347 हि0 क़0 में हसने बन्ना (1324 – 1368 हि0 क़0) के माध्यम से मिस्र के इस्माईलिया शहर में अस्तित्व में आया और मदर्सए अल तहज़ीब में क़ुरआन, तजवीद, हदीस, तफ़्सीर और दूसरे इस्लामिक विषयों से कार्य प्रारम्भ किया।
हसने बन्ना ने 1350 हि0 क़0 में अख़वानुल मुसलेमीन के लक्ष्यों को ध्यान में रख कर एक मैगज़ीन प्रकाशित की और संगठन के संपादक (चीफ़ एडीटर) चुने गये। संगठन का धार्मिक और सियासी कार्य बड़ जाने के कारण इसके कार्यालय को इस्कन्दरिया से मिस्र स्थानांनतरित करना पड़ा। 1355 हि0 क़0 में अख़वानुल मुसलेमीन मिस्र की चौथी सभा आयोजित की गई और उसमें मलिक फ़ारूक़ की बादशाही का समर्थन किया गया।संगठन का ये निर्णय बहुत सों की तरफ़ से निंदा का कारण बना।
1356 हि0 क़0 में संगठन की पाँचवी सभा आयोजित की गई जिस में कुछ महत्व पूर्ण निर्णय लिये गये जिन में से महत्व पूर्ण ये हैः
1. देश को दूसरों विशेषकर इग्लैड के चंगुल से स्वतंत्र कराना
2. मिस्र में इसलामी सत्ता की स्थापना।
3. समाजी और वित्तीय ढांचा मज़बूत करना।
4. साम्राजी ताक़तों ले मुक़ाबला और उन से लोहा लेना।
5. पूरे विश्व में इस्लामी देशों की स्वतंत्रा का समर्थन करना
6. सम्प्रदायिक कट्टपंथ का विरोध और इस्लामिक एकता का प्रयास।
1327 हि0 क़0[47] में अरब और इसराईल के युद्ध में अख़वानुल मुसलेमीन संगठन ने फ़िलिस्तीनियों की राजनीतिक, वित्तीय और सैन्य सहायता की और इस संगठन के बहुत से कार्य कर्ता इस युद्ध में समिलित हुए।
इस दुर्घटना के बाद एक तरफ़ जहां मुसलमानों के बीच अख़वानुल मुसलेमीन की मान्यता बढ़ी वही दूसरी तरफ़ मिस्री हुकूमत और बूढ़ी साम्राजी ताक़त इग्लैड उन से बहुत क्रुद एवं अप्रसन्न हुए। इसलिए सफ़र 1368 हि0 क़0[48] को नक़राशी पाशा की सत्ता ने मलिक फ़ारूक़ के आदेश से अख़वानुल मुसलेमीन संगठन को प्रतिबंधित करने का आदेश दे दिया और उसके अधिकतर कार्य कर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और संगठन की धंनराशी ज़ब्त कर ली गई।[49]
ग़ज़ाली जेल में
ग़ज़ाली जो कि इस संगठन के सक्रिय कार्य कर्ताओं में से थे 1389 हि0 क़0[50] में अख़वानुल मुसलेमीन के साथ संबंध रखने के कारण गिरफ़्तार कियें गये। वह कुछ दूसरे कार्य कर्ताओं के साथ शहरे “तूर”[51] के एक जेल “अल हज़ा” में स्थानांनतरित कर दिए गये।
ग़ज़ाली जेल में भी अपने लक्ष्य को भूले नही और क़ैदियों की मान्सिकता अपने पक्ष में करने के लिए भाषण दिया करते थे, उनके अधिकतर भाषण नमाज़ के बाद हुआ करते थे।
वह अपने भाषणों में क़ैदियों को (जिन में से अधिकतर अख़वानुल मुसलेमीन के कार्य कर्ता थे) नवीन दृष्टि कोण देने के अलावा उनको सात्वना देते और क्रान्ति के कठिन रास्ते पर आगे बढ़ने आशा दिलाते। ग़ज़ानी जेल में क़ैदियों के नेता थे। और सारे क़ैदी उन की बातो और निर्णय का आदर करते थे। यूसुफ़ क़ऱज़ावी मिस्र के बड़े कूट नीतिज्ञ जो कि ग़ज़ाली के साथ जेल में थे उन दिनों के बारे में कहते हैः
शैख़ ग़ज़ली जेल में नमाज़ों में हमारे इमामे जमाअत थे और जुमे के दिनों में क़ैदियों के बीच भाषण दिया करते थे। वह दिनो में हम को शिक्षा दिया करते थे, और नमाज़ के क़ुनूत में उनकी दुआ यह थीः
الھم افکک بقوتک اسرنا، و اجبر برحمتک کسرنا و تول بعنا یتک امرنا، استر عوراتنا و آمن روعاتنا، الھم علیک بالظالمین[52]
हसने बन्ना का क़त्ल
1369 हि0 क़0[53] में जब कि गज़ाली जेल में थे, जेल के बाहर एक दुर्घटना घटी, अख़वानुल मुसलेमीन जो कि प्रतिबंध के बाद छुप कर कार्य कर रहा था, एक सोचे समझे प्लान से नक़राशी पाशा मिस्र के प्रधान मंत्री (अख़वानुल मुसलेमीन संगठन को प्रतिबंधित करने वाला) को क़त्ल कर दिया। कुछ समय बाद इस के प्रतिशोध में मिस्र की हुकूमत ने हसने बन्ना, अख़वानुल मुसलेमीन के संस्थापक को क़त्ल कर दिया। उनकी मौत से उनके छात्रों और सहायको के बीच शोक की लहर दौड़ गई।
ग़ज़ाली को जब हसने बन्ना की मौत की सूचना मिली तो वह बहुत दुखी हुए और कहाः
एक बड़ी अत्मा को क़त्ल कर दिया जो कि ईश्वर की अराधना में विन्रम था और क़याम एवं सजदे करता था और ईश्वर की राह में क़दम बढ़ाता था यूरोप समझ गया था कि एस व्यक्ति के होने से पूर्व में उनका जीवन ख़तरे में पड़ जाएगा इसलिए उनको रास्ते से हटा दिया।[54]
उन्होंने उनके दोस्तो को सात्वना देते हुए एक भाषण में उनको संबंधित कर के कहाः
हसने बन्ना की मौत का यह अर्थ नही है कि ईश्वर के दुश्मन मुसलमानो के दुश्मन से जंग समाप्त हो गई है बल्कि जो झंडा हसने बन्ना ने उठाया था, उनके बाद उनके सिपाहीयों और दोस्तों के हाथ में लहराता रहेगा, और यह निमंत्रण कभी भी समाप्त नही होगा[55]
उनका मानना था कि हसने बन्ना की मौत से जिहाद और इस्लाम के शत्रुओं जंग समाप्त नही होगी, क्योंकि उन्होंने अपने बाद बहुत से क्रान्तिकारी और मुजाहिद चेले बनाये हैं। एक व्यक्ति ग़ज़ाली के पास आया और कहने लगाः
अल बन्ना की मौत से मातृ भूमि और इस्लाम को ऐसा घाटा हुआ है जिसकी भरपाई नही की जा सकती।
गज़ाली ने उसकी बात को अस्वीकार कर दिया और कहाः
उनका मिशन जीवित है और मरने वाला नही है।
उस व्यक्ति ने ग़ज़ाली को जवाब दियाः
लेकिन इस्लामिक क्रान्ति को क्रान्तिकारी लोगों की आवश्यकता है।
गज़ाली ने जवाब दियाः
हसने बन्ना ने ऐसे लोगों को प्रशिक्षण दिया है कि जो صدقوا ما عاھداوا اللہ علیہ[56]
ग़ज़ाली ने हसने बन्ना की शहादत के एक वर्ष पूर्व होने पर उनका सत्कार करते हुए “अद्दअवा” नामक मैग़ज़ीन एक लेख लिखा जिसका शीर्षक “ग़ुस्नो बासिक़ फ़ी शजरतिल ख़ुलूद अविनाशी वृक्ष की ऊँची शाख़ा”[57]
अख़वानुल मुसलेमीन से निष्कासन
ग़ज़ाली कई दुखों और जेल की यातनाओं को सहने के बाद 1369 हि0 क़0 [58] में जेल से रिहा हुए और अपनी विद्या संबंधी सक्रियता को आगे बढ़ाया। उन्होंने सब से पहले उन पाठों को जिनको जेल में क़ैदियों को पढ़ाते थे “इस्लाम वल इस्तेबदादुद सियासी” नामक शीर्षक में प्रकाशित किया।
हसने बन्ना के बाद हसन हज़ीबी को अख़वानुल मुसलेमीन के कार्य कर्ताओं की तरफ़ से दबीरे कुल (चेयर मैन) चुना गया।
1372 हि0 क़0[59] में फ़ौजी तख़्ता पलट से जनरल जमाल अब्दुल नासिर ने मलिक फ़ारूक़ को सत्ता से हटा कर मिस्र में बादशाही सत्ता को समाप्त किया और प्रजा तंत्र का शिला न्यास किया।
अख़वानुल मुसलेमीन संगठन ने जो कि बादशाही सत्ता का विरोधी था, अबदुल नासिर का समर्थन किया और तख़्ता पलट को सफ़ल बनाने में बहुत सहायता की। अबदुल नासिर जब सत्ता में आया तो उसने उनकी सहायता को ध्यान में रखते हुए अख़वानुल मुसलेमीन संगठन वैधानिक बना दिया। लेकिन बाद में उसके विचार बदल गये और उसने अख़वानुल मुसलेमीन संगठन से मुठभेड़ आरम्भ कर दी और इस संगठन के कुछ कूटनीतिज्ञों जैसे सैय्यद क़ुतुब के लिए मौत की सज़ा का आदेश दे दिया।
प्रारम्भ में गज़ाली भी दूसरे कार्य कर्ताओं की तरह अबदुल नासिर के बारे में अच्छे विचार रखते थे और उसका समर्थन करते थे। लेकिन बाद में उसके इरादे साफ़ होने के बाद उन्होंने अपने विचार बदल डाले और और अबदुल नासिर की इस्लाम और मुसलमानो के विरुद्ध किये जाने वाले षड़यंत्र के बारे में बहुत से पुस्तकें जैसे “क़ज़ाएफ़ुल हक़” “अल इस्लाम वल ज़ोहोफ़िल अहमर” लिखीं[60]
अब्दुल नासिर जो कि अख़वानुल मुसलेमीन संगठन के नौजवानों के बीच ग़ज़ाली के विचारों के समावेश से डर रहा था, हसन हैसमी को उकसाया कि गज़ाली और दूसरे प्रभावित करने वाले लोगों को संगठन से निष्कासित करे
हसन हैसमी जिसकी अब्दुल नासिर से बहुत मित्रता थी उसने अख़वानुल मुसलेमीन के चार बड़े मिम्बरों “सालेह अशमावी, अख़वानुल मुसलेमीन संगठन के वकील, डॉक्टर मोहम्मद सुलैमान, अहमद अब्दुल अज़ीज़ जलाल और ग़ज़ाली” को बरख़ास्त कर दिया।[61]
एकता ग़ज़ाली की नज़र से
कहा जा सकता है कि आज के युग में ग़ज़ाली एकता का परचम उठाने वालों में से एक हैं। ग़ज़ाली का मानना है कि, इस्लाम, एकता का धर्म है और अपनी उत्पत्ति के शुरूआती दिनों में ही उसने अरब और अजम (ग़ैरे अरब) की बीच में एकता का संचार कर दिया था और सत्तर साल में इंसानी और इस्लामी दुनिया की सब से बड़ी सभ्यता का शिला न्यास करे लेकिन अफ़सोस उसके बाद इख़्तेलाफ़ का बीज डाल दिया गया और जन समूह एवं सम्प्रदाय एक दूसरे से अलग हो गए, फल स्वरूप इस्लामी देश समाप्त हो गए।[62]
हम इस बारे में उनके कुछ विचारों को यहां पेश करेंगें।
इस्लाम वास्तविक वतन
ग़ज़ाली भूगोलिक सरहदों पर विश्वास नही रखते हैं, बल्कि इस से बहुत आगे की सोचते हैं। ग़ज़ाली का मानना है कि जहां भी मुसलमान रहते हैं वह एक इस्लामी देश है, वह इस बारे में कहते हैः
हमारा एक छोटा सा वतन नील की ज़मीन है जो हमारे ध्यान का केन्द्र है लेकिन हमारा बड़ा वतन वह ज़मीन हैं जो अरबों के अधिकार में हैं और हमारे ध्यान का केन्द्र है, लेकिन हमारा सब से बड़ा वतन वह क्षेत्र है कि जहां मुसलमान एक क़ानून एक सोच, और एक अक़्ल के साथ रहते हैं और उनके दिल एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।[63]
अरबी नासियुनालिज़्म की निंदा
ग़ज़ाली का मानना है कि इस्लाम को हटा कर अरबी देशी की एकता का कोई लाभ नही है। वह अरबी नासियुनालिज़्म की कठोर निंदा करते हुए कहते हैः
अगर अरबों की एकता और अरबी नासियुनालिज़्म का निमंन्त्रण अरबी बअस संगठन की शैली का हो तो तो मैं ख़ुदा से चाहता हूँ कि वह इसको कामयाब न करे और इसकी पृष्ट भूमि भी तैयार न करे। अरब इस्लाम को हटा कर ज़ीरो हैं और अगर इस्लाम न हो तो इस एकता का कोई महत्व नही है। और हम को भी उसकी कोई आवश्यकता नही होगी।
अहले बातिक की एकता और अहले हक़ का इख़्तेलाफ़
इस्लामी दुनिया के खेद जनक चीज़ों में से एक उनका इख़्तेलाफ़ है जबकि साम्राजी ताक़तें और माल एवं ताक़त को हामी एकता के साथ मुसलमान देशो फ़ायदों के बरबाद कर रही हैं, मुसलमान अपने घरेलू इख़्तिलाफ़ के कारण एक इस्लामी देश बनाने में असफ़ल रहे। मसीही यूरोप ने एक पैसा, एक अर्थ व्यवस्था आदि को बना लिया। लेकिन बहुत खेद जनक है कि कुछ इस्लामी देशो के सत्ता धारी दूसरे इस्लामी देशो से बदला लेने के लिए अमरीका और इस्राईल की सहायता कर रहे हैं। यह समस्या केवल हमारे युग में नही है बल्कि ये वह समस्या है जो इमाम अली (अ0) के सामने भी थी और जब उनको दुश्मन के हमलों के सामने अपने सिपाहियों की काहिली देखी तो फ़रमायाः
मुझे ख़बर मिली है कि बुस्र बिन अरतात ने यमन पर अधिकार कर लिया है, ख़ुदा की क़सम मै जानता था कि जल्द ही शाम के लोग तुम पर अधिकार कर लेंगें इसलिए कि वह अपने बातिल की सहायता करने में एकता रखते हैं लेकिन तुम अपने हक़ रक्षा करने में इख़्तेलाफ़ का शिकार हो तुम ने हक़ में अपने इमाम के आदेशों का पालन नही किया लेकिन वह बातिल में अपने इमाम के आदेशों का पालन करते हैं वह अपने अपने सेना पति के विश्वास पात्र हैं और तुम विश्वास घात करते हो...[64]
ग़ज़ाली मुसलमानो के बीच पाए जाने वाले इख़्तिलाफ़ और काफ़िरों की एकता की निंदा करते हुए लिखते हैः
मसीहियों के अलग-अलग और एक दूसरे के दुश्मन सम्प्रदायों ने क़रूने वुस्ता में होने वाली अपनी धार्मिक जंगों को भुला दिया, और गंभीर इख़्तिलाफ़ात के जिन में से कुछ उनकी आस्था तक में पहुँचते थे और इनको आस्थ एवं अक़ीदे के एतेबार से एक दूसरे से अगल करते थे, यकायक इन सारे इख़्तेलाफ़ात को दूर फ़ेंक दिया और तय कर लिया कि इस्लाम और मुसलमानो के सामने एक क़तार में आ जायें और एक शक्तिशाली मोरचा बनाएं, लेकिन मुसलमान अब भी अपने बे जा इख़्तेलाफ़ात और दुश्मनी में पड़े हुए हैं और एक ऍसा समाज जो इनको इख़्तिलाफ़ और दुश्मनी से दूर रखे अब भी एक पूरी न होने वाली आरज़ू की तरह बाक़ी है और इनके रास्ते को रौशन करने वाले मोहब्बत और नेक दिली के नूर ने अब भी इनके रास्ते में नूर की किरण भी नही डाली है।
इख़्तेलाफ़ के कारण
1. जानकारी का ना होना
मुसलमानो के बीच इख़्तिलाफ़ का एक बहुत बड़ा कारण सामने वाले की आस्था, विश्वास, आमाल और अख़्लाक़ के बारे में जानकारी का ना होना है। जानकारी का न होना ग़लत फ़ैसलों का कारण बनती है।
जब अल्लामी शैख़ मोहम्मद शलतूत, अल अज़हर के धर्म गुरू (शैख़) ने मज़हबे अहले बैत के पालन के जाएज़ होने का फ़त्वा दिया, तो कुछ बंद फ़िक्र और छोटे विचार वालों ने जानकारी न होने के कारण उन के इस फ़त्वे का विरोध किया। ग़ज़ाली इस बारे में कहते हैः
मुझे याद है कि जब एक दिन एक व्यक्ति ये क्रोधित हो कर मुझ से पूछाः कि शैख़े अल अज़हर ने किस प्रकार ये फ़त्वा दे दिया कि शिया दूसरे सम्प्रदायो की तरह एक इस्लामी फ़िरक़ा है? मैं ने उस से जवाब में पूछाः तुम को शियों के बारे में कुछ जानकारी है? और शिया सम्प्रदाय के बारे में क्या जानते हो? वह थोड़ी देर चुप रहा और फिर कहाः वह एक ऍसा जन समूह है जो हमारे से अलग एक दूसरे दीन का पालन करते हैं। मैं ने कहाः लेकिन मैं ने देखा है कि वह बिलकुल हमारी तरह ही नमाज़ पढ़ते हैं, और रोज़ा रखते हैं। उसने आश्चर्य से कहाः ये कैसे हो सकता है? मैं ने कहा कि इस से ज़्यादा आश्चर्य जनक बात तो ये है कि हमारी ही तरह क़ुरआन पढ़ते हैं, और ईश्वर के दूत (पैग़म्बरे इस्लाम (स0)) का सम्मान करते हैं, और हज करते हैं। उसने कहाः मैं ने सुना है कि उनका क़ुरआन हम से अलग है और इसलिए काबे को जाते हैं कि ता कि उसका अपमान कर सकें!
मैं ने उसको दया भरी दृष्टि से देखा और कहाः इसमे तुम्हारी ग़लती नही है क्योंकि हम में से कुछ लोग दूसरों के बारे में ऍसी बातें कहते हैं कि जिस से उनका अपमान करना चाहते हैं।[65]
2. नवीसंदगाने मुग़रिज़ (द्वेषी लेखक, शत्रु लेखक)
निःसंदेह पुस्कतें मुसलमानों के संस्क्रतिक निर्माण में बहुत अधिक प्रभाव डालती हैं, अगर कोई लेखक निफ़ाक़, और इख़्तिलाफ़ को अपनी पुस्तकों में लिखने लगे तो समाज की सोच भी वैसी ही रो जाएगी। ग़ज़ाली ऍसै लेखकों की निंदा करते हुए कहते हैः
वह लेखक जो मुसलिम एकता का ख़्याल नही रखते हैं या उनके लेख शत्रुता और इख़्तिलाफ़ को बढ़ावा देते हैं, वह बहुत बड़ा अपराध कर रहे हैं।[66]
3. पुराने इख़्तिलाफ़ात की याद आवरी
मुसलमानो के बीच इख़्तिलाफ़ का एक बड़ा कारण पुराने इख़्तिलाफ़ात को खोदना और उनको बड़ा बना कर पेश करना है। इस्लाम के शुरूवाती दिनों में ही ख़िलाफ़त (रसूल के बाद उनका उत्ताधिकारी कौन) मुसलमानों के बीच इख़्तिलाफ़ का बड़ा कारण बना, और अब भी बना हुआ है। ग़ज़ाली इस बारे में कहते हैः
हम बुनयादी तौर से ही पीछे रह गए हैं, इस्लाम क्या करे? मुसलमानो की हालत चिंता जनक है। वह पुरानी बातों को एक दूसरे के सामने ला रहे हैं। उमर और अबू बकर के बीच का इख़्तिलाफ़, उमर और अली (अ0) के बीच का इख़्तिलाफ़।
इतिहास की दृष्टि से ये बात समाप्त हो चुकी है, मैं आज की नस्ल हूँ, इस मामले को उभारना किस समस्या को हल करता है, सिवाए इसके कि आज की नस्ल में भी इख़्तिलाफ़ की आग उसी प्रकार भड़क जाएगी जिस प्रकार हमारे पूर्वजो में थी, हम ने क्या पाया है? कुछ नही![67]
एकता के अवामिल
इल्मी और संस्क्रतिक तरक़्क़ी
ग़जाली का मानना है कि मुसलमानो के बीच इख़्तिलाफ़ को समाप्त करने और एकता का संचार करने का रास्ता मुसलिम समाज में इल्मी और संस्क्रतिक तरक़्क़ी है। वह इस बारे में कहते हैः
जानकारी का विस्तार, इल्म और तरक़्क़ी, जीवन की वास्तविक्ताओं की जानकारी, और पुराने फ़ल्सफ़ियों तथा धर्म गुरूओं के रास्ते की जानकारी इख़्तिलाफ़ को हल करने की पहली सीढ़ी है।[68]
1. धर्म गुरू
ग़ज़ाली के विश्वास के अनुसार लोगों के विभिन्न दलो के बीच एकता पैदा करने का प्रमुख साधन तमाम सम्प्रदायों में धर्म गुरूओं किरदार है, स्पष्ट सी बात है कि अगर धर्म गुरु अपने भाषणों, कॉन्फ़्रेंसों, लेखों में एकता पर ध्यान दे, तो इस्लामी समाज भी एकता के रास्ते पर आगे बढ़ेगा। ग़ज़ाली इस बारे में कहते हैः
ईश्वर ईरान के बादशाह नादिर शाह को उसके मुसलमानों को बीच एकता बनाए रखने के लिए की जाने वाली कोशिशों के लिए उस पर उपकार (जज़ाए ख़ैर) करे। लेकिन हमारे युग में एकता की दायित्व (जो कि पहले बादशाहों के ज़िम्मे था) धर्म गुरुओं के कांधों पर है।[69]
2. पदाधिकारी
ग़ज़ाली इख़्तिलाफ़ के महत्व पूर्ण कारणों में से मुसलमान देशों में चरित्रहीन सत्ता धारियो की सत्ता को बताते हुए सत्ता धारियों को अपने विचार इख़्तिलाफ़ से एकता की तरफ़ मोड़ने के लिए कहते हैः
सही है कि इख़्तिलाफ़ सियासी प्रभावो से पैदा हुआ है और बादशाहों की लालच और अधिकारियों का अन्याय उस को बढ़ावा दिया है। इसलिए सत्ता धारियो का दायित्व है कि वह ग़लती जो उनके पूर्वजों ने की है उस को सही करें।
एकता के लिए मुसलमानो की ज़िम्मेदारी
ग़ज़ाली इस्लामी दुनिया के गंभीर हालात और साम्राजी ताक़तों की साज़िशों को बयान करते हुए मुसलमानो के दायित्व को बहुत गंभीर मानते हैं वह इस बारे में कहते हैः
इन गंभीर हालात और ख़तरनाक स्तिथि में मुसलमानो का दायित्व ये है कि जुदाई और इख़्तिलाफ़ को दूर करें और सलीबीयों के नए हमले के लिए एक क़तार में रह कर एक शक्तिशाली मोरचा बनाएं और भाग्य की लिखी इस इतिहासिक जंग में अपने दीन के दृण मोरचे में क़दम जमाए रखें और ध्यान रहे कि ये बहुत शर्म की बात है कि दुश्मनों की शक्ति के इकट्ठा होने और उन पर हमला करने के लिए दुश्मनों की एकता के सामने वह इख़्तेलाफ़ और तितर बितर का शिकार रहें, या तरक़्क़ी के मैदान में आगे बढ़ने में पीछे रह जाएं, या अपने धार्मिक कार्यों में सुस्ती बरतें जब्कि बातिल के अनुयायी अपनी आस्था और विश्वासों का पालन कर रहे हैं।[70]
इख़्तिलाफ़ का मुक़ाबला
एक दिन ग़ज़ाली को ख़बर मिली कि एक मस्जिम में इख़्तिलाफ़ हो गया है और क़रीब है की मार पीट हो जाए। नमाज़ियों के बीच लड़ाई का कारण ये था कि क्या अज़ान के बाद पैग़म्बरे अकरम (स0) पर दुरूद और सलाम पढ़ सकते हैं या किसी भी तरह का इज़ाफ़ा बिदअत है... ग़ज़ाली ने दोनो तरफ़ के लोगों के पास बुलाया और ख़ुत्बा देते हुए उनको इख़्तिलाफ़ से दूर रहने को कहा और उन से कहाः
मैं इस मस्जिद में तुम्हारे इख़्तिलाफ़ और झगड़े के कारण अज़ान को समाप्त करने के बेहतर समझता हूँ। अज़ान मुसतहब है लेकिन एकता, हमदिली, मोहब्बत और भाईचारा वाजिब है।[71]
एकता के आधार
हसन बन्ना मिस्र के बुद्धिमान और क्रांतिकारी व्यक्ति ने इस्लामी समाज की एकता के लिए 20 दफ़ा (अस्ल) बनाईं। ग़ज़ाली ने अपनी किताब दस्तूरूल वहदतुस्ससिक़ाफ़िया बैनुल मुस्लेमीन में इन दफ़ा की व्याख़्या करते हुए 10 और दफ़ा का इज़ाफ़ा किया है जो कि ये हैः
1. औरते मर्दों की अर्धागंनी है (ज़नान नीमी अज़ मर्दान हस्तन्द) शिक्षा ग्रहण करना और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर (अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना) दोनो पर वाजिब है। औरते (इस्लामी क़ानूनों का पालन करते हुए) इस्लामी समाज को बनाने में समिलित रहें
2. ख़ानदान इस्लामी समाज की सदव्यवहारिक अस्तित्व का प्रतीक है और आगामी नस्ल के लिए शिक्षा का स्रोत है। माँ और बाप पर वाजिब है कि घर में शान्ति पूर्ण माहौल बनाए रखें। मर्द घर का अभिभावक है और घर को चलाने का दायित्व (इस्लामी आदेशो के अनुसार) उसी का है।
3. चूंकि ईश्वर ने इंसान को सम्मान दिया है, इंसान लौकिक एवं अलौकिक हुक़ूक़ का स्वामी है। इस्लाम ने इन हुक़ूक़ को बयान किया है और और सब को इन का आदर करने का आदेश दिया है।
4. अधिकारी (बादशाह या प्रधान मंत्री) जनता के सेवक हैं इसलिए उन को चाहिए की जनता के माद्दी और मानवी लाभ के लिए कार्य करे। हुकूमत को पदों पर उनका अधिकार तब तक है जब तक वह जनता के लिए कार्य करें।
5. परामर्श हुकूमत का आधार है और हर सम्प्रदाय को परामर्श के तरीक़ो का चुनाव करना चाहिए। सब से अच्छा तरीक़ा ये है कि हुकूमत ईश्वर ख़ुशी के लिए हो, और पाषंड, ढोंग, अभिमान, चाल बाज़ी और दुनिया तलबी के लिए न हो।
6. प्राइवेट सम्पत्ति (इस्लाम और शरअ के आदेशों के अनुसार) का सम्मान है और सम्प्रदाय एक जिस्म है कि जिस के किसी भी अंग को रुका हुआ या ख़राब नही होना चाहिए। किसी भी सम्प्रदाय का अपमान नही करना चाहिए और सम्प्रदाय के माद्दी और मानवी मामलात सही होना चाहिए।
7. महान इस्लामी हुकूमतों का बड़ा ख़ानदान इस्लाम के प्रचार का दायित्व रखता हैं, और उन पर आवश्यक है कि बिदअतों को दीन से अलग करें और रह जगह हर सम्प्रदाय का समर्थन करें।
भाग 7
ग़ज़ाली के विचार
राजनीतिक विचार
पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण
पश्चिम में कारोबारी क्रांति और अर्थ व्यवस्था की तेज़ तरक़्क़ी धर्म के राजनीति से अलग होने की सोच का कारण बना और धर्म एक अंतरिक और वयक्तिगत चीज़ हो कर रह गया, फल स्वरूप लाउबाली पर, सेक्स की आज़ादी पश्चिमी हुकूमतों का आधार बन गया, यूरोप में इन हालात के पैदा होने के साथ ही इस्लामी देशों के विद्रानों में यूरोप के लिए दो प्रकार के दृष्टि कोण सामने आएः
1. पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण, इस दृष्टि कोण के समर्थक मानते थे कि इस्लामी समाज की तरक़्क़ी और उसके पीछे रह जाने के जुबरान के लिए पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नही है। मुसलमानो को चाहिए कि वह शौक्षिक, आर्थिक, संस्क्रतिक, क़ानून व्यवस्था, फ़ौजी आदि में वह पश्चिम का अनुसरण करें। प्रसिद्ध मसल की तरह कि सर से पाँव तक पश्चिमी हो जाएं।
2. ग़र्ब सतेज़ी (पश्चिम सभ्यता से नफ़रत) इस दृष्टि कोण के समर्थक कहते हैः मुसलमानो के पीछे रह जाने का कारण शिक्षा और विकास पर ध्यान न देना है और पिछड़े पन के जुबरान का रास्ता शिक्षा और टेक्नोलॉजी पर ध्यान है और इस क्षेत्र में पश्चिम से सहायता लेने में कोई हर्ज नही है लेकिन संस्क्रति स्तर पर पश्चिम की संस्क्रति का पालन नही करना चाहिए।
गज़ाली पश्चिम को दो निगाहों से देखते हैं। वहां शौक्षिक तरक़्क़ी और सदव्यवहारिक पतन दोनो को एक साथ देखते है। वह इल्मी और कारोबारी (सिनअती) तरक़्क़ी में पश्चिम के अनुसरण को जाएज़, बल्कि आवश्यक मानते हैं लेकिन संस्क्रतिक स्तर पर मना करते हैं, वह पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करने वालों की निंदा करते हुए कहते हैः
वह लोग जो पश्चिम से मिल गए लेकिन पश्चिम की वास्तविक्त को नही पहचाना और उसको सही प्रकार से नही पहचानवा सके, यही लोग मुसलमानो के पिछड़े होने के ज़िम्मेदार है। हर नई संस्क्रति में कुछ ऊपरी और कुछ गहरी चीज़े होती है, काम और लाउबाली पन होता है, और इन लोगों ने उसके ऊपरी हिस्से (मस्ती और लाउबाली पन) को ले लिया है लेकिन उनके इल्म और काम को छोड़ दिया है।[72]
दूसरी जगह पर कहते हैं कि पश्चिम अपने विचारों और आत्मा के लिहाज़ से इस पृथ्वी की सब से गंदी क़ौम है।[73]
संस्क्रतिक आक्रमण
यूरोप में कारोबारो क्रांति के बाद और सैनिक, टेक्नालॉजी, आर्थिक तरक़्क़ी के बाद यूरोपी देशों जैसेः पुर्तगाल, फ़्रांस, इंग्लैड आदि ने पूर्वीय और इस्लामी देशों पर आक्रमण कर दिया और उनके माल को बरबाद करना शुरू कर दिया। फ़्रांस का अल जज़ाएर और सूडान पर आक्रमण, इंग्लैड का मिस्र और हिन्दुस्तान पर आक्रमण इन इतिहासिक बरबादियों की बानगी मात्र है।
इनको कुछ समय बाद जब लोगों के प्रचंड विरोध का सामना करना पड़ा तो इस नतीजे पहुंचे कि सैनिक आक्रमण का कोई लाभ नही है इसलिए उन्होंने सोचा और मुसलमानों के ख़िलाफ़ संस्क्रतिक आक्रमण को चुना।
ग़ज़ाली कि जिनके देश पर इंग्लैड ने सैनिक आधिकार कर लिया था और देश की आज़ादी के बाद दुश्मन के संस्क्रतिक आक्रमण को देखा, इस बारे में कहते हैः
जैसा कि आप जानते हैं कि साम्राज़ी ताक़तों के ख़िलाफ़ हमारी क़ौम को जंग करते हुए एक युग से अधिक गुज़र गया है, वह साम्राजी ताक़तें कि जिन्होंने हमारी ज़मीनो पर क़ब्ज़ा किया हमारे माल को बरबाद किया। लेकिन जब हमारे पूर्वजों और उनके बाद हम ने उनकी सैनिक सत्ता को समाप्त कर दिया तो अचानक हम को पता चला कि सैनिक साम्राज्य ने एक अलग प्रकार का साम्राज्य जैसे संस्क्रतिक और हुक़ूक़ी साम्राज्य अपने स्थान पर छोड़ दिया है, इस प्रकार से कि उसने हमारी पहचान को समाप्त कर दिया है और हमारी संस्क्रति से हम को बेगाना कर दिया है, इसलिए हमको पूर्ण आज़ादी और पहचान उस समय मिलेगी जब हम अपनी संस्क्रति की तरफ़ पलट जाएं।[74]
ग़ज़ाली तमाम मुसलमानो से अनुरोध करते हैं कि दुश्मन के संस्क्रतिक आक्रमण को रोके,
हम मुसलमानो नो जिस प्रकार सैनिक साम्राज्य से जंग की है उसी प्रकार हम को संस्क्रतिक और हुक़ूक़ी साम्राज्य से भी जंग करनी चाहिए ताकि बेगानों के माध्यम से हमारे देशों में आमे वाले आईडियल अपना बिस्तर समेट लें और इस्लाम अपने अहल की तरफ़ पलट जाए।[75]
साम्राजी ताक़तों के लक्ष्य
1. लोगों को निराश करना
साम्राजी ताक़तों के महत्व पूर्ण लक्ष्यों में से एक इस्लामी देशों में लोगों को इस्लाम धर्म सो निराश करना और उनके दिल में ये बात डालना है कि इस्लाम इंसान के जीवन की तमाम आवश्यकताओं को पूरा नही कर सकता ग़ज़ाली इस बारे में कहते हैः
पश्चिमी साम्राजी ताक़तें (पुरातन सलीबी आत्मा के प्रभाव में) लगातार कोशिश कर रहे हैं ता कि इस्लाम की ताक़त और शक्ति को कम कर दें और मसलमानो की एकता और एत्तेहाद की जड़ को काट दें और उसकी सक्रियता को कम कर दें और मुसलमानो की तरक़्क़ी के रास्ते में विभिन्न प्रकार की मुशकिलें और रुकावटें खड़ी कर दें और तरह तरह की मक्कारियां और चालबाज़ियां कर रहे हैं ता कि इस धर्म के अनुयायियों को उसकी राह पर चलने से हटा दें और उनको इससे निराश और नाउम्मीद कर दें।[76]
2. बे ईमान नस्ल की तरबियत
इस्लामी देशों के महान प्रकृतिक स्रोतो पर अधिकार करने के लिए दुश्मन की चालों में से एक ऍसी नस्ल को प्रशिक्षित करना है कि जिसका दीन धर्म से कोई संबंध न हो, ऍसी नस्ल जिनका दिल ईश्वर पर आस्धा, जिहाद, अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर से ख़ाली हों। जब साम्राजी ताक़तें अपने इस काम में सफ़ल हो गईं तो आराम से उस नस्त को स्रोतों पर अधिकार कर लिया। उन्दुलुस का मामला सारे मुसलमानो के लिए सीख है, एक ऍसी जगह जो पश्चिमियों की चालों से एक इस्लामी देश ईसाई देश में बदल गया और वह मस्जिदें जिन में युगों से नमाज़े होती आई थीं चर्च में बदल गईं।
ग़ज़ाली मुसलमानो को इस बारे मे सचेत करते हुए कहते हैः
साम्राजी ताक़तों की साज़िश एक ऍसी नस्ल का निर्माण है जो जिसका दिल ईमान से ख़ाली हो पाप और अश्लीलता को फैलाए ता कि इस्लाम का अस्तित्व मिटा सकें और लोगों को इस्लाम की शिक्षा के स्रोतों से रोक सकें, ये हमारी भूल है कि हम कहें कि सलीबी साम्राजी ताक़तों का लक्ष्य केवल समाज में बुराई और अश्लीलता को फैलाना और समाज के छिनन भिनन करना हैं, बल्कि उनका लक्ष्य इससे बहुत बड़ा है।[77]
अश्लीलता का प्रसार
साम्राजी ताक़तों के ज्येष्ठ लक्ष्यों में से एक मुसलमानो के बीच बुराई और अश्लीलता का प्रसार करना है ता कि इसके माध्यम से उनको दुनिया और उनके देश के महत्व पूर्ण मामलात पर सोचने से रोक सकें। ग़ज़ाली इस बारे में कहते हैः
निःसंदेह बे दीनी और अश्लीलता का प्रसार साम्राजी ताक़तों का काम है, और जिस दिन से उन्होंने हमाने देशों पर अधिकार किया है, हमारी नामूस और पवित्र चीज़ों पर आक्रमण उनका व्यवहार बन गया है और ये उन से अगल होने वाला नही है।[78]
इस्लाम को मिटा देना
ग़ज़ाली का मानना है कि ये तमाम काम जो साम्राजी ताक़ते इस्लामी देशो कर रही हैं उन से उन का अन्तिम लक्ष्य इस्लाम को परास्त करना और उसको मिटा देना है। वह इस बारे में कहते हैः
अगर ख़तरनाक मौज़े सूराख़ बना दें तो रुकती नही हैं, और एक के बाद एक अक्रमण करती रहती हैं। पश्चिम ने इस्लाम के जज़ाई, शहरी, हुकूमती क़ानून को पैरो तले रौंद कर कामयाब हो गया लेकिन एकाकी जीवन को क़ानून अब भी उन के आक्रमण का निशाना नही बने हैं और जब भी इस पर भी आक्रमण शुरू हो जाए तो इस्लमा के तमाम क़ानून दफ़न हो जायेंगे और उस समय इस शेर को पढ़ना पड़ेगाः
و یا موت ان الحیاۃ ذمیمۃ
و بالنفس جدی ان دھرک ھازل[79]
ऐ मौत अब आ जा कि ज़िन्दगी से नफ़रत हो गई है, वाय हो कोशिश करो कि तेरी ज़िन्दगी बेकार हो गई है।
साम्राजी ताक़तें और विश्व विद्यालय
निःसंदेह हर देश के प्रमुख स्तम्भों में से एक वहा के विश्व विद्यायल होते हैं अगल दुश्मन इस जगह पर अपने काम के आदमी पाने और अपनी सभ्यता के अनुसार उनका प्रशिक्षण करने में कामयाब हो जाए तो उस देश की आगामी नस्ल को अपना ग़ुलाम बना लिया है। ग़ज़ाली विश्व विद्यालयों के बारे में साम्राजी ताक़तों की साज़िशों से सारे मुसलमानों को सचेत करते हुए कहते हैः
जिस समय से पूर्व में मुसलमान देश नए साम्राज्य का निशाना बने हैं तब से पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करने वालो को मज़बूत किया जा रहा है और वह आगे बढ़ रहे हैं और इसी कारण साम्राजी ताक़तों की दरिन्दगी और रक्तपात बढ़ रहा है। अचानक साम्राज्य ने विश्व विद्यालयों के छात्रों पर आक्रमण शुरू कर दिया और उनके ईमान और धर्म की पवित्र चीज़ो के सम्मान को उनके दिल से मिटा दिया। इस छात्र ने अपने जीवन के बीस साल इस संस्था में शिक्षा ग्रहण करते हुए ग़ुज़ारे हैं लेकिन इस्लामी शिक्षा के बारे में कुछ भी नही जाना है, इसलिए कि पाठक्रम बहुत पहले से ही नए सलीबी आक्रमण कारियों के हाथ में चला गया है।[80]
साम्राजी ताक़ते और संस्क्रतिक केन्द्र
साम्राजी ताक़तों ने देशों पर अधिकार का अनुभव करने के बाद, संस्क्रतिक आक्रमण शुरू किया, और संस्क्रतिक आक्रमण के माध्यमों में से एक, इस्लामी देशों में संस्क्रतिक केन्द्रों का निर्माण है। ये केन्द्र जो इस्लामी देशों संस्क्रतिक सेवा के नाम पर बनाए जाते हैं, वास्तव में साम्राजी देशों के फ़ायदे में काम करते हैं, ग़ज़ाली इस बारे में कहते हैः
उन नए संस्क्रतिक केन्द्रों की गतिविधियां जो हमारे धर्म और ज़बान यानी इस्लाम के जुदा हैं, साम्राजी विद्यालयों से कम नही है और उनकी शैली साबित करती है कि यूरोपी साम्राज्य ऍसे सम्प्रदाय का निर्माण करना चाहता है कि जो संस्क्रतिक, समाजिक, धार्मिक, और इतिहासिक स्तर पर कमज़ोर हो और कोई जानकारी न रखता हो। इसीलिए इस्लामी देशों शिक्षा व्यवस्था को अपने या अपनी ही जैसे विचारों वालो देशों के क़ब्ज़े में करके, बहका रहा है ताकि इन देशों के लाल अपने समाज और इतिहास से बेगाने रहें।[81]
अक़ीदती विचार (आस्था के विचार ,श्रद्धात्मक विचार)
हुकूमत ख़ुदा के लिए है
ग़ज़ाली भी मिस्र के क्रंतिकारी विद्रान सैय्यद क़ुतुब की तरह हुकूमत को केवल ख़ुदा के लिए मानते हैं, पश्चिमी डेमोक्रेसी के उलट कि जिस में हुकूमत लोगों का हक़ मानी गई है। वह इस बारे में कहते हैः
इस्लाम धर्म तमाम लोगों के ईश्वर का उपहार है, और ये एक वैश्विक व्यवस्था है जिसका बादशाह केवल ईश्वर है और अरब एव ग़ैरे अरब में कोई अंतर नही है, वह हुकूमत जिसका शासक केवल ईश्वरीय संकल्प हो उसमें ईश्वर की तरफ़ से दी गई ज़िम्मेदारियां फ़ैसले और क़ानून व्यवस्थ का स्रोत हैं, और सारे मोमिनीन उसमे बराबर का हक़ रखते हैं। एक ऍसी हुकूमत जिसमें ना कोई अत्याचारी है और न कोई अकेला शासक।[82]
संस्क्रतिक बदलाब की आवश्यकता
ग़ज़ाली हर चीज़ से अधिक इस्लामी समाज में संस्क्रतिक बदलाव पर विश्वास करते थे और राजनीतिक स्तर पर बहुत अधिक सक्रिय होने के बावजूद आत्मा के अंदर धार्मिक वास्तविक्ताओं की कमी को दूर करने की तरफ़ आशा भरी दृष्टि से देख रहे थे। उनका मानना था कि बिना इस्लामी विचारों को अपनाए और बिना इस्लामी संस्क्रति का अनुसरण किये दुनिया के राजनीतिक आक्रमण के सामने नही टिका जा सकता है। वह इस बारे में कहते हैः
मेरा मानना है कि अगर पूर्वी कम्युनिस्ट और पश्चिमी सलीबी सभ्यताएं समाप्त हो जाएं तब भी इस्लामी दुनिया की समस्याओं की कोई एक भी गांठ नही खुलेगी, क्योंकि हमारी समस्याएं हमारे अंदर से पैदा होती हैं और सब बाहरी प्रभाव से नही हैं, हां बाहरी दबाव अवश्य है, लेकिन मुसलमानो की समस्याओं के असली कारण का पता लगाना चाहिए और उसके लिए उसके अंदरूनी ढांचे में तलाश करनी चाहिए। यहूदी और ईसाई युगो तक जंग करने के बाद आज एक हो गए हैं, लेकिन मुसलमान हर तरफ़ से अलग जा रहा है और रोज़ कोई इख़्तिलाफ़ फैलाने वाला मामला सामने आ जाता है, कभी धर्म और सम्प्रदाय और कभी नस्ल और क़ौमियत इख़्तिलाफ़ और निफ़ाक़ का बीज बो देती हैं।[83]
धर्म और राजनीती
दीन का सियासत से अलग होना आज के युग के बहुत महत्व पूर्ण विषयों में से एक है जिस पर इल्मी और सियासी बैठकों में बहुत ध्यान दिया जा रहा है।
कुछ इस्लामी रौशन फ़िक्र पश्चिमी रौशन फ़िक्रों का अनुसरण करते हुए, कहते हैं कि धर्म को राजनीती से अगल होना चाहिए और कुछ दूसरे धर्म और राजनीती को एक साथ कहते हैं। ग़ज़ाली को धर्म और राजनीती को एक साथ मानने वालों में गिना जा सकता हैं। वह इस बारे में कहते हैः
इस्लाम मानवी और इल्मी क़ानूनों का संग्रह है। इल्मी क़ानून जो कि सार्वजनिक सुधार के लिए इंसान को दिए गए हैं और इंसान की एकाकी और सार्वजनिक जीवन से संबंधित है, और कौन ये दावा कर सकता है कि एक सुधारात्मक निमंत्रण हुकूमत के मामले को छोड़ सकता है, और हुकूमत की आरज़ू नही रखेगा।[84]
वाबस्ता (बिके हुए) धर्म गुरूओं की निंदा
कुछ इस्लामी धर्म गुरू का अत्याचारी और अन्नयायी शासको मिला होना उनकी मज़बूती और ग़लत फ़ायदा उठाने का कारण बनता है, हर युग और हर हुकूमत में कुछ धर्म गुरू अन्नयायी और अत्याचारी शासकों से जुड़े रहे हैं और कुछ जगहों पर उनका समर्थन भी करते हैं। ग़ज़ाली मिस्र के कुछ धर्म गुरूओं की निंदा करते हुए कहते हैः
मैं अल अज़हर के कुछ बड़े विद्रानो को जानता हूँ कि जो इस्लाम के लिए इस प्रकार जीवन व्यतीत करते हैं कि उनके हाथ ख़ून से रगें और दिल बीमार हैं, ये विद्रान लोग शासकों के साथ मिल कर एक लक्ष्य को हासिल करने में लगे हैं और इसी कारण वह जिस धर्म के बारे में बात करते हैं उसको बेऐतेबार कर देते हैं।[85]
वहाबियत
मुसलमानो के बीच इख़्तिलाफ़ फैलाने के लिए साम्राजी ताक़तों के लक्ष्यों में से एक नए धर्म और दीन को पैदा करना है ताकि इस के माध्यम से मुसलमानो के बीच के दूरी को और बढ़ा सकें।
असहिष्णु वहाबी सम्प्रदाय इसीलिए पैदा हुआ और उसने मुसलमानो के ख़िलाफ़ कार्य कियें।
ग़ज़ाली इस मज़हब के बारे में कहते हैः
वहाबियत एक ऍसा धर्म है जो पचास साल या उससे भी पहले सऊदी अरब में उत्पन्न हुआ और उसमें एक प्रकार की असहिष्णुता, इस्लामिक वास्तविक्ताओं से दूरी, लोगों को नीचा समझना और उन पर इल्ज़ाम लगाना पाया जाता है, मैं नही कह सकता कि वह वास्तविक इस्लाम को पहचनवा रहे हैं।[86]
ग़ज़ाली और फ़लसफ़ा
बहुत से विषयों में से एक जिस पर इस्लामी विद्रानो को बीच बहुत अधिक मत भेद हुआ हैं वह यूनानी फ़सलफ़ा और उसका इस्लाम से मिल जाना है, कुछ ने यूनानी फ़लसफ़ो का समर्थन और कुछ दूसरों ने उसकी कठोर निंदा की है, और उसको इस्लामी शिक्षा से मिलाने को जाएज़ नही जाना है। ग़ज़ाली का मानना है कि इस्लाम धर्म एक ईश्वरीय उपकार है जो कि मासूम ज़बान से निकला है और उसके एक एकान्त प्रिय व्यक्ति के ख़यालात से नही मिलाया जा सकता, वह धर्म के फ़लसफ़े से मिलाए जाने की कठोर निंदा करते हैं और कहते हैः
काश कि मसीह और इस्लाम के अनुयायीओं ने अपने धर्म को फ़लसफ़े से बचाया होता, ताकि ईश्वरीय धर्म अपने ईश्वरीय महत्व और तरावत पर बाक़ी रहता, और आसमानी मतालिब बेकार की आस्था से न मिलते और शक में न डालते।[87]
और मुसलमानों के पतन का एक कारण धर्म का फ़लसफ़े से मिल जाना मानते हैं और इस बारे में कहते हैः
यूनान की ख़ुराफ़ाती संस्क्रति और अहले किताब के विषेश झूठ का इस्लामी संस्क्रति में समावेश इस्लामी संस्क्रति के पतन के कारणों में से एक कारण है। फल स्वरूप तफ़्सीरी, इतिहासिक, इस्लामी आक़ाएद (विश्वास) की किताबे, ऍसी बेकार की चीज़ों से भर गई हैं कि जिनका लिखना, बयान करना या पढ़ाना सही नही था।[88]
ग़ज़ाली के मोरचे
घरेलू मोरचे
फ़रज फ़ूदह के क़ातिलों का फ़ैसला
डॉक्टर फ़रद फ़ूदह मिस्र का मुरतद (धर्म भ्रष्टः) लेखक ने इस्लाम धर्म का मज़ाक़ उड़ाया और मुसलमानो का अपमान किया
और कुछ क्रन्तिकारी नौजवानो के हाथों मारा गया शिकायत करने वालो की शिकायत के कारण उसके क़ातिलों के ख़िलाफ़ रिपोर्ट लिखी गई और अदालत में उनके ख़िलाफ़ कारवाई शुरू हुई गज़ाली आरोपितों बन कर अदालत में उपस्थित हुए और अदालत के प्रश्नों के उत्तर दिये और कहाः
अदालतः जो व्यक्ति ईश्वर के आदेश को बदले और हलाल को हराम और हराम को हलाल करे उसका क्या हुक्म है?
निःसंदेह वह मुसलमान नही है।
धर्म मे मुरतद के लिए क्या आदेश है?
ऍसे त्तवो का इसलामी समाज में होना पतन का कारक है और लोगों को इस्लाम छोड़ने का निमंत्रण देता है, और शासक पर वाजिब है कि उसको मौत की सज़ा दे[1]
अगर हुकूमत उसको सज़ा न दे तो क्या आदेश समाप्त हो जाएगा?
अगर मिस्र की हुकूमत मुरतद लोगों को मौत की सज़ा सुनाने में कोताही करेगी, तो मजबूरन ये समाज के मुसलमानो की दायित्व होगा कि ऍसे लोगों को उनके कार्यों की सज़ा दें।[2]
पश्चिमी सभ्यता का सामना
ख़ालिद मोहम्मद ख़ालिद अल अज़हर विश्व विद्यालय के अध्यपकों में से एक थे और ग़ज़ाली के विचारों वाले और उनके दोस्तों में से थे। उन्होंने “या अरबामेअह मिलयून हबवा” नामक किताब को प्रकाशित करके पूरी दुनिया के मुसलमानों को और साम्राजी ताक़तों की साज़िशों के ख़िलाफ़ इत्तेहाद और एकता का निमंत्रण दिया।[3] लोकिन कुछ ही निदो के बाद उनके विचार 180 डिगरी बदल गए और बहुत तेज़ी से पश्चिम के हिमायती हो गए। 1370 हि0 क़0 [4] में “मिन हुना नबदओ” नामक पुस्तक लिखी और उसमें अब्दुल रज़्ज़ाक़ के विचारों का समर्थन किया। उन्होने पश्चिमी डेमोक्रेसी का समर्थन किया और “अख़वानुल मुसलेमीन” संगठन की उसूल गराई की कठोर निंदा की और ग़ैर धार्मिक हुकूमत की ताकीद और धर्म को राजनीती से अलग होने के विचार का समर्थन किया। ग़ज़ाली ने इसके उत्तर में लेखों की पूरी श्रंखला प्रकाशनों में छापी और विस्तार के साथ, दृण बयान और तर्कों के साथ ख़ालिद के विचारों का उत्तर दिया।[5]
ग़ज़ाली की ख़ालिद से दोस्ती थी लेकिन इस किताब में दोस्ती का ख़्याल किये बिना, पूरी तीव्रता के साथ उनके विचारों की निंदा की। वह इस के बारे में कहते हैः
हाँ, ख़ालिद मेरा दोस्त है लेकिन हक़ मेरे लिए अधिक प्रिय है[6]
मर्द और औरत की समानता
1382 हि0 क़0 [7] में ख़ल्क़ की तरफ़ से एक बैठक बुलाई गई। इस बैठक में आने वाले लोगो ने मिस्र के नवीन संविधान के बारे विचार विमर्श किया, इस विधान की जंजाली दफ़ाओं में से एक मर्द और औरत की धार्मिक, समाजिक और संस्क्रतिक तमाम छेत्रों में समानता का क़ानून था। जमाल अब्दुल नासिर ने अपने भाषण में तमाम छेत्रों में मर्द और औरत की बराबरी का समर्थन किया और इस बारे में क़ानून बनाने की मांग की। अब्दुल नासिर के बाद ग़ज़ाली खड़े हुए और अपने भाषण में उन्होंने मर्द और औरत की समानता के विचारों की कठोर निंदा की और इसे इस्लाम के ख़िलाफ़ जाना। उन्होंने इस बैठक में मिस्र की कुछ औरतों की बे पर्दगी निंदा करने के साथ कहा कि ऍसा क़ानून बनना चाहिये जिस में लम्बा वस्त्र (जो कि हाथों और पैरों को टख़नो तक छुपा सके) धारण करना औरतों के लिए आवश्यक किया जाए।
इसी प्रकार शिक्षण संस्थानों में नैतिकता के गिरते स्तर की निंदा की और ऍसा क़ानून बनाने की मांग की जिससे महिला और पुरूष विद्यार्थी अलग अलग शिक्षा ग्रहण करें।
इसी प्रकार ऍसा क़ानून बनाने की भी मांग कि जिसमें अलकोहलिक चीज़ों की ख़रीद और फ़रोख़्त ग़ैर कानूनी हो।[8]
इस कानफ़्रेन्स के बाद “अल अहराम” समाचार पत्र जो कि ग़ज़ाली के उसूली विचारों के सख़्त ख़िलाफ़ था, उसने उन पर कट्टपंथ (ख़ुश्क मुक़्द्दसी) और छोटी मानसिकता का आरोप लगाया और उनका अपमानजनक कॉरटून छापा।[9]
समाचार पत्र के इस कार्य से छात्र बहुत आक्रोशित हुए और उन्होंने क्लासों का बाईकाट किया और रेली निकाली, और ग़ज़ाली के उसूली विचारों के समर्थन का एलान किया।[10]
क़ानूने अहवाले शख़्सिया
70वे दहे में अहवाले शख़्सिया क़ानून के बदले जाने पर चर्चा अरम्भ हुई। मुसलमान विद्रान इस क़ानून के बदले जाने के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए जिम में ग़ज़ाली भी थे जिन्होंने भाषण और अपने लेखों के माध्यम से मिस्र की हुकूमत के सामने अपना विरोध प्रकट किया।
डॉक्टर अब्दुर्रहमान अदवी कहते हैः
ग़ज़ाली ने अल अज़हर विश्व विद्यालय में एक कान्फ़्रेन्स में मसिलिय हुए और उसमें “मुनाक़ेशा क़ानून अल अहवालुश शख़्सिया” के शीर्षक से एक निबंध पढ़ा। ग़ज़ाली के निबंध पढ़ने के बाद, ज़करिया बरी, उत्सर्ग विभाग (इदारह ए औक़ाफ़) के वज़ीर बहुत क्रोधित हुए और कहाः तुम्हारे इस कार्य की सज़ा ये है कि तुम को नौकरी से निकाला जाता है।
धमकियों के बावजूद ग़ज़ाली ..... से पीछे न हटे और लोगों की मानसिकता उज्जवल करने के लिए “उमर बिन आस” (अफ़रीक़ा की सब से बड़ी मसजिद) नामक मसजिद में उपस्थित हुए और तीस हज़ार नमाज़ीयों के बीच भाषण दिया और अधिकारियों को इस क़ानून के बनाने से मना किया।
लोगों के ग़ज़ाली के गिर्द जमा हो जाने और लोगों पर उनके विचारों का प्रभाव मिस्र के अधिकारियों की निगरानी का कारण बन गया। इसलिए उत्सर्ग विभाग (विज़ारते औक़ाफ़) के आदेश से उनको “उमर बिन आस” नामक मसजिद में आने से रोक दिया गया। वह विवश हुये कि नमाज़ पढ़ने और धार्मिक गतिविधियों का संचालन करने के लिए “सलाहुद्दीन अय्यूबी” नामक मसजिद में जायें। अधिकारियों की ओछी मानसिकता और यातनाएं कारण बनी कि ग़ज़ाली ने मिस्र को छोड़ने का प्लान बना लिया और सऊदी अरब प्रवास कर गऐ। वह इस बारे में कहते हैः
मुझे बल पूर्वक मसजिदे “सलाहुद्दीन” भेजा गया जब्कि मेरे भाषण देने पर रोक लगा दी गई थी, जब मैं उस मसजिद पहुंचा तो मुझे कोई ऍसा स्थान नही मिला जहां इस्लाम का प्रचार और धार्मिका कार्यों को अंजाम दे सकूं... जब मैं ने हालात को ऍसा पाया तो मिस्र को छोड़ दिया और सऊदी अरब आ गया। और वहा “अल शरीअत वल दिरासातिल इस्लामिया” विश्व विद्यालय में उसूले दीन विभाग में वाइस चॉसलर हुआ।[11]
विदेशी मोरचे
इरान का इस्लामी इन्क़ेलाब
दुनिया के विभिन्न छेत्रों के मुसलमान विद्रानो, की दिली इच्छा थी कि एक पूर्ण रूप से इस्लामी आदेशों पर चलने वाला देश हो, और इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए उन्होंने बहुत कोशिशें कीं। सैय्यद जमालुद्दीन असद आबादी, मोहम्मद अब्दोह, हसन अल बन्ना, सैय्यद क़ुतुब आदि और दूसरे बहुत से क्रांतिकारी विद्रानो इस्लामी हुकूमत बनाने की आशा में साम्राजी ताक़तों से लड़ते थे
जब इमाम ख़ुमैनी के मार्ग दर्शन में ईरान में इस्लामी क्रांति विजयी हुई तो विभिन्न इस्लामी देशों के विद्रानों ने ईरान की इस्लामी क्रन्ति का समर्थन किया। ग़ज़ाली ईरान की इस्लामी क्रांति का समर्थन करते हुए कहते हैः
मैं ईरान की इस्लामी क्रांति का पूर्ण रूप से समर्थन करता हूँ। जब तक ईरान ईश्वर पर भरोसा और एक उम्मत रहेगा तो इन्शा अल्लाह वह अपने लक्ष्यों के पा लेगा।
इराक़ा का ईरान पर हमला इम्पिरयालिज़म के समर्थन में हुआ है, मैं सद्दाम को ऍसा तजावुज़गर मानता हूँ जो इस्लाम के दुश्मनों के लिए कार्य कर रहा है।[12]
शैख़ ग़ज़ाली ईरान के इस्लामी लोक तंत्र के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी के विचारो से बहुत अधिक प्रभावित थे और उनकी चर्चा किया करते थे।जब इमाम ख़ुमैनी ने सलमान रुशदी के मुरतद (भ्रष्ट धर्म) होने का इतिहासिक फ़त्वा दिया तो शैख़ ग़ज़ाली ने एक बैठक में उनका सत्कार करते हुए कहाः
क़ाहिरा के उलेमा के साथ एक बैठक में मैं ने आरज़ू की कि काश ईश्वर इमाम ख़ुमैनी की बहादुरी का थोड़ा सा हिस्सा सारे उलेमाए इस्लाम को अता कर देता। इसलिए कि जब संस्क्रतिक केन्द्र (इग्लैंन्ड) में इस्लाम और मुसलमानो के ख़िलाफ़ साज़िश रची गई और व्यक्तित्व से गिरे हुए और इस्लाम के सब से बड़े शत्रु ने इतिहास के सदात्मा और बेहतरीन वयक्तित्व के मालिक इंसान यानी नबी अकरम (स0) और उनकी अज़वाज (बीवियां) और उनके असहाब (साथी) का अपमान किया, तो सब चुप थे और केवल वह (इमाम ख़ुमैनी) था कि जिसने बहादुरी और दिलेरी के साथ इस नीच और बे अदब इंसान के मुरतद होने का आदेश दिया।[13]
बअस पार्टी और सद्दाम हुसैन
ग़ज़ाली के विचारों में सद्दाम हुसैन की हुकूमत एक रक्तपात करने वाली अत्याचारी हुकूमत है। वह इस बारे में कहते हैः
सद्दाम ने एक मिलयन शिया मुसलमानों का कत्ले आम किया है, और इसी प्रकार एक लाख कुर्द सुन्नी मसलमानों को मारा है, बअस पार्टी का इतिहास रहा है कि जब जब उसने किसी देश में सत्ता संभाली है तो उनकी हुकूमत रक्तपात, और अत्याचार भरी रही है।[14]
इराक़ और कुवैत की जंग के बाद, 1370 हि0 क0[15] में इस देश के शियों ने बअस पार्टी के विरोध में मोरचा निकाला, ये मोरचा “इन्तेफ़ाज़ए शाबानिया” के नाम से प्रसिद्ध है, इस से दक्षिणी इराक़ में शियों को भरपाई न हो सकने वाला नुक़सान हुआ और दसियों हज़ार लोग इराक़ी हुकूमत के हाथों शहीद हुए, और सद्दाम की सत्ता समाप्त होने के बाद “कर्बला” और “नजफ़” जैसे धार्मिक शहरों में सैकड़ों सामूहिक क़ब्रें मिलीं जिन्होंने बअस पार्टी के ज़ुल्म और अत्याचार के बे नक़ाब कर दिया। ग़ज़ाली इराक़ की हुकूमत के कार्य पर अफ़सोस करते हुए कहते हैः
ये पहली बार नही है जब बअसे अरबी ने ये घिनौना काम किया है और ये उनका आख़री कार्य भी नही होगा, क़ौमियते अरबी और बअसे अरबी को शौतानों ने लोगों को उनके धर्म से दूर करने के लिए बनाया है। जब बअसे अरबी ने ईरान पर हमला किया तो अरबों ने उसका समर्थन किया। ख़ुदा और रसूस (स0) को भुला दिया और उनसे जवाब नही मांगा गया।[16]
हरमे इमाम रज़ा (अ0) में बम धमाका
30/3/1373 हि0 क़0 को आशूरा के दिन मुनाफ़ेक़ीन के एक आतंकवादी ग्रुप ने इमाम रज़ा (अ0) के हरम में पवित्र ज़रीह के पास बम विस्फ़ोट किया कि जिस में 27 लोग मारे गए और बहुस से लोग ज़ख़्मी हुये। मुनाफ़ेक़ अतंकवादियो (जो कि अमरीका के समर्थन में कार्य कर रहे थे) के इस काम ने पूरी दुनिया में नफ़रत की लहर दौड़ा दी और सब ने इनके इस कार्य की निंदा की। मिस्र के क्रांतिकारी विद्रान ग़ज़ाली ने भी मिस्र में हिफ़ाज़त अज़ मनाफ़े जमहूरी इस्लामी ईरान के दफ़्तर को लिखे अपने एक ख़त में मुनाफ़ेक़ी के इस भयानक कार्य की निंदा की। हम पाठकों की अधिक जानकारी के लिए नीचे अनके ख़त को लिख रहे हैः
بسم اللہ الر حمن الحیم
जब मैं ने इमाम रज़ा (अ0) के हरम में होने वाले धमाके की ख़बर पढ़ी तो दुख और अफ़सोस में डूब गया, ये एक ऍसी घटना थी रकूअ और सजदा करने वालो की मौत का कारण बनी जो कि नमाज़ के लिए वहां गए थे, लेकिन मौत उनका इन्तेज़ार कर रही थी।
बहुत से निवर्तों (मुनकिर) ने इस घटना को अंजाम देने के लिए एक दूसरे से हाथ मिलाया, मक्कारी, चालबाज़ी, अपने कामो को ज़िल्लत और पस्ती के साथ मस्जिद में अंजाम दिया, मोमिनीन का क़त्ल बहुत बड़ा दुख है, और उनको उस समय क़त्ल करना जब कि वह ख़ुदा के लिए नमाज पढ़ने के लिए खड़े हुए थे और भी बड़ा दुख है।
इस काल में मस्जिदों के आशिक एक ऍसी दुनिया में भलाई की यादगार है जब कि बहुत से लोग अपनी काम इच्छाओं की पूजा कर रहे हैं और ईश्वर को भुला चुके हैं, बल्कि प्रलोक में उसकी मुलाक़ात का भी इनकार कर रहे हैं। यह दुर्घटना कि इसमे मारे जाने वाले लोग वह शहीद हैं कि जिन्होंने अपने ईश्वर से इस हालत में मुलाक़ात की कि जब उसकी प्रसन्ता और मोक्ष को प्राप्त कर चुके थे।
ईरान की इस घटना, ने मुझे हिन्दुस्तान के बुत परस्तों द्वारा से गिराई जाने वाली बाबरी मसजिद की याद दिला दी कि जिस में वह मोमिनीन मारे गई जो अपनी आख़िरी सांसों तक इस से मुक़ाबले में खड़े रहे यहा तक कि अपनी पवित्र आत्माओं को ईश्वर के हवाले कर दिया। हां इस से पहले कि बुत परस्त ईश्वर के घर को गिराते मसजिद एक खंडहर बन गई और कितनी ऍसी मसजिदें है जो अब तक कुफ़्फ़ार को हाथों खंडहर बनाई जा चुकीं हैं और कितने ऍसे शहीद हैं जो मसजिदों पर हमला करने में शहीद हो चुके हैं।
मुझ से सवाल किया गया कि इस घटना के पीछे किस का हाथ है? निःसंदेह जो इस साज़िश में समिलित हैं उनका कोई धर्म नही है साम्राजी ताक़तें कुछ ऍसे लोगों को जमा करने में कामयाब हो गईं जो न ईश्वर को मानते हैं और न प्रलोक पर विश्वास करते हैं ताकि हर कुछ समय के बाद एक घटना को अंजाम दे सकें। मोमिनीन के क्रोध को भड़काऐं और और दुख एवं दर्द को उनके दिलों में डाल सकें।मैं ईरान के मुसलमानों से चाहता हूं कि धैर्य रखें और होशियार एवं सजग रहें और इसी प्रकार से सारे मुसलमानों से चाहता हूँ एकता का प्रदर्शन करें, क्योंकि मुझे नही लगता कि बड़ी ताक़तों साज़िशें और मक्कारियां इतनी जल्दी समाप्त हो जाऐंगी ऍसी हुकूमतें कि जिन्होंने इस्लाम से अपने क्रोध को प्रकट करने में किसी प्रकार की कोई कोताही नही की है।
हम देखते हैं कि सलमान रुशदी इर्तिदाद के बाद यूरोप और अमरीका के देशों में जाता रहता है और उसका आदर सत्कार किया जाता है, किसी एक भी अरब को लाज नही आती हैं और पश्चिम के साथ संबंभ बनाए हुए हैं, यहा तक कि हम अपनी पुरानी शत्रुता को समाप्त करें, हम में से कुछ लोग झूटी क़सम खाते हैं और कहते हैं शियों का क़ुरआन हम से भिन्न है, मै ऍसा आरोप लगाने वालों से कहता हूँ कि इस्लाम के इतिहास के पहले दिन से अब तक जब की 15 सौ साल बीत चुकें हैं, पूरी दुनिया में मुसलमानों के किसी भी सम्प्रदाय में इस क़ुरआन के अलावा और कोई क़ुरआन नही देखा गया है, तो वह किस के लाभ के लिए प्रचार कर रहे हैं कि शियों का क़ुरआन हम से अलग है?
हम चाहते हैं कि सब एक दूसरे के क़रीब आयें और वह राजनीतिक और सैनिक ग़लत फ़हमिया जिन्होंने हम को ख़तरे में डाल दिया है को दूर करें। तो क्या ईश्वर से डरते हों?
फ़्रान्सियों ने अल जज़ाएर की सब से बड़ी मसजिद को चर्च में बदलने और हज़ारों मुसलमानों को नमाज़ पढ़ते हुए क़त्ल करने में कोई शर्म नही की, और इसी प्रकार साम्राजी ताक़ते घात लगाये बैठी हैं, तो क्यों इस उम्मत को उनके सामने टुकड़े टुकड़े करना चाहते हों और साम्राजी ताक़तो से सामने उनके मोरचों का अपमान करते हो।[17]
भाग 5
ग़ज़ाली की यात्राएं
फ़िलिस्तीन
ग़ज़ाली ने अपने जीवन के कुछ साल फ़िलिस्तीन के मज़लूम लोगों के बीच गुज़ारे और इन दिनों में उनके दुख दर्दो को पहचाना। वह अपनी इस यात्रा के बारे में कहते हैः
जब मैं 1369 हि0 क़0[18] में जेल से आज़ाद हुआ, शैख़ मामून शनावी (1880 – 1950 ई0)[19] जो उस समय अल अज़हर के कुल पति थे, उन्होंने मुझे अपना प्रतिनिधि बना कर ग़ज़ा भेजा और मै वहां तीन साल रहा वहां मैं ने फ़िलिस्तीनी लोगों के दुख और दर्द का क़रीब से अनुभव किया, और इस बीच मैं “बरीह” “नसीरात” “दबीर बल्ह” “ख़ान यूनुस” और “रफ़्ह” के कैम्पों में गया और वहां उनके दुख और दर्द का अनुभव किया।[20]
ग़ज़ाली जब तक वहां रहे उन्होंने सहयूनिज़्म के लक्ष्यों और मुसलमानों को दुनिया से अलग थलग कर देने की उनकी साज़िशों का पता लगाया। उन्होंने इस अवधि में समझ लिया कि इस्राईल की गतिविधियों में से एक यहूदी नौजवानों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ शिक्षा देना और प्रशिक्षित करना है। वह इस बारे में कहते हैः
यहूदी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बहुत से कार्य कर रहे हैं, जैसे कि एक यहूदी एक बुत बनाता है और उसको अरबो का वस्त्र पहनाता है, और अपने बेटे से कहता है कि उस पर गोलियां चलाओ ताकि उनसे डर, ख़ौफ़ या उनका आदर उनके दिल में बाक़ी न रह जाए। यहूदी औरते अपने पूरे वजूद से इस्राईल के लिए कार्य कर रही है जैसे जिस समय इग्लैंड ने यहूदियों के इस्राईल जाने पर अंकुश लगाया और उनकी संख्या सीमित कर दी तो उन्होंने एक अगल प्रकार की तरकीब आज़माई जैसे कि अगर उन से कहते थे कि केवल बीस हज़ार यहूदी ही इस्राईल जा सकते हैं, तो यहूदी औरतें प्रयास करती थीं कि वह गर्भवती हो ता कि अगर इस्राईल जाएं और बच्चा पैदा हो तो उनकी आबादी बढ़े उन्होंने यह काम कियें हैं और कर रहे हैं।[21]
सहयूनिज़्म ग़ज़ाली की दृष्टि से
नील से फ़ुरात तक
1368 हि0 क़0 [22] में इस्राईल अमरीका और इग्लैड के समर्थन के साथ अस्तित्व में आया। इस ग़ासिब (अप भोगी) देश के अस्तित्व में आने के साथ ही मुसलमान क्रन्तिकारी विद्रानों ने इस कार्य का विरोध किया, और इस्लामी दुनिया को सजग करने के साथ उनका विश्वास था कि इस्राईल केवल फ़िलिस्तीन तक सीमित नही रहेगा, बल्कि उनका लंबी अवधी का लक्ष्य एक ऍसा देश बनाना है जो कि नील से फ़ुरात तक फैला हुआ हो, ग़ज़ाली मुसलमानों के सजग करते हुए कहते हैः
उनकी आगामी प्रोग्रामिंग जिस को वह क्रयात्मक करना चाहते हैं वह इस्राईल को किरानए बाख़तरी, और ख़ावरी और ग़ज़ा या अल ख़लील तक सीमित नही करता है, मामला इस से बहुत बड़ा है, मामला नील से फ़ुरात तक का है, इसका नक़्शा इस्राईल में कनिस्त (पार्लिमेंन्ट) की दीवार पर लगा हुआ है और इस से पहले अहदे अतीक़ की दीवारों पर लगा हुआ था कि दरियाए कबीर (नील) से नहरे कबीर (फ़ुरात) तक।
इस्लाम का अस्तित्व मिटा देना
ग़ज़ाली का मानना है कि इस्लामी दुनिया में यहूदी और इस्राईल का लक्ष्य इस्लाम का अस्तित्व मिटाना है, वह इस बारे में कहते हैः
आज इस्राईल की सियासत ये है कि तुम इस्लाम को छोड़ दो और नास्तिकों के परचम तले चले आओ, अब अगर हम ने अपने धर्म को छोड़ दिया और दूसरों ने ना छोड़ा बल्कि उसके आदेशो पर अमल किया तो इसका परिणाम क्या होगा इसका परिणाम इक्कीसवी शताब्दी के आरम्भ और पंन्दरहवी हिजरी में प्रकट होगा उस समय मिस्र और इराक़ को लोग शरणार्थी होंगे और दमिश्क़ महान इस्राईल के अंदर होगा।[23]
इस्राईल की साज़िशें
ग़ज़ाली इस्राईल की मक्कारियों और साज़िशों को केवल इस्लामी देशों के लिए नही मानते हैं बल्कि उनका मानना है कि इस्राईल की साज़िशे पूरी दुनिया के ख़तरे में डाल लही हैं
ग़ज़ाली की निगाह में दुनिया के लिए सहयूनियों की साज़िशे निम्न हैः
1. मुसलमानो के बीच जंग की आग भड़काना विशेषकर आर्थिक जंग ताकि दोनो का नुक़सान हो।
2. घरेलू प्रकाशन के माध्यम से पूरी दुनिया के माल पर क़ब्ज़ा करना।
3. संस्क्रतिक हमला ताकि लोगों के दिलों के इमान और अक़ीदे (आस्था और विश्वास) से ख़ाली कर सकें, और विश्वास के नाम पर यहूदियत के सिवा कुछ बाक़ी न रहे।
4. यूरोप और इस्लामी देशों की हुकूमत के उच्च अधिकारियों में सहयूनिज़्म विचारों संचार।[24]
अमरीका इस्राईल का सहयोगी
निःसंदेह अमरीका ने इस्राईल के शिलान्यास में बहुत महत्व पूर्ण किरदान निभाया है, और ख़ावर मियाने में इस्राईल के अस्तित्व में आने के बाद से हर कठिन समय में हर प्रकार की सहायता की है। बहुत से राजनीतिक विद्रानो का मानना है कि अगर अमरीका इस्राईल की सहायता न करे तो इस्राईस मुसलमानों के सामने एक दिन भी नही टिक करता है।
ग़ज़ाली का मानना है कि अमरीका इस्राईल के हर जुर्म में समिलित है और इस बारे में कहते हैः
फ़िलिस्तीन और अरब सम्प्रदाय जान लें कि अमरीका और इग्लैंड इतिहास के इस सब से बड़े नर संहार में सहयोगी हैं।[25]
फ़िलिस्तीन की जंग इस्लामी जंग है
कुछ विद्राने फ़िलिस्तीन और क़ब्ज़ा की हुई ज़मीनों की आज़ादी की समस्या को सम्प्रदायिक समस्या समझते हैं, लेकिन ग़ज़ाली का विश्वास है कि फ़िलिस्तीनियों की यहूदियों से जंग इस्लामी जंग है। वह इस बारे में कहते हैः
इस्लाम जिहादे फ़िलिस्तीन के लिए संगे बुनियाद है, फ़लिस्तीन की जंग आरम्भ से ही एक धार्मिक जंग थी और उसे एक धार्मिक जंग ही बने रहना चाहिए। हमारे दुश्मन अपने धार्मिक आस्थाओं और दीनी विश्वासों को जीवंत कर रहे है, लेकिल हम इसके मुक़ाबले में देखते हैं कि बहुत से अरब इस्लाम से दूर हो रहे हैं, या उसके नाम को पसंन्द नही करते हैं और इस्लाम के परचम तले आगे कदम नही बढ़ाना चाहते हैं और ये दुनिया और प्रलोक दोनो में उनकी ज़िल्लत का कारण है। यहूदियों की हमारे साथ सदैव से चली आने वाली जंग में यही चाल है, वह चाहते हैं कि हमारी पहचान को समाप्त कर दें और हमारे दिन को मिटा दें।[26]
जो लोग फ़िलिस्तीन की समस्या को धार्मिक दृष्टि से नही देखते हैं ग़ज़ाली उनकी निंदा करते हुए कहते हैः
इस क़ौम (यहूद) का मामला एक राजनीतिक मामला है, कि जिसका स्रोत धर्म है इसलिए जो भी ये चाहता है कि इस्लाम को फ़िलिस्तीन की जंग (जो कि एक धार्मिक मामला है) से अलग कर दे उस से बहुत बड़ा धोखा दिया है और हम कह सकते हैं कि उसने साम्राजी ताक़तों और सलीबियों और हमारे धर्म के दुश्मनों से मिल गया है।[27]
अल जज़ाएर में
अल जज़ाएर अफ़रीक़ा के उत्तर पश्चिम में पाया जाता है उसकी सरहद पश्चिम में दरयिए मुदितराने, पूरब मे तूनिस और लीबी, दक्षिण मे माली और नीजीरिया और पश्चिम में मराकिश और मूरितानी से मिलती है। अल जज़ाएर की रजधानी “अल जज़ीरा” में दो मिलयन से अधिक की आबादी है और तक़रीबन सारी आबादी मुसलमान है।[28]
अल जज़एर की आज की धरती तक़रीबन तीन हज़ार साल ईसा पूर्व क़ौमे बरबर के पूर्वजो के रहने का स्थान था 1200 साल ईसा पूर्व फ़ीनिक़ियों ने उत्तरीय समुद्र तट को महत्व पूर्ण व्यपारिक केन्द्र बना दिया, 200 साल ईसा पूर्व रूमियों ने इस धरती पर क़ब्ज़ा कर लिया और नवी ईसवी तक उस पर सत्ता बनाये रखी। अल जज़ाएर इसी युग मुसलमानों के क़ब्ज़े में आ गया इस इस जगह के लोग मुसलमान हो गए। 1500 ई0 में साम्राजी हुकूमत बन जाने के कारण ये इस्लामी देश इस्पेन (इस्पानिया) के अधिकार में चला गया। लेकिल स्पेन वालों का अधिकार ज़्यादा दिन नही रहा और सोलहवी शताब्दी से अरम्भ में उस्मानी हुकूमत का हिस्सा बन गया।
1256 हि0 क़0[29] में फ़्रान्स की साम्राजी सत्ता ने इस पर अधिकार कर लिया। लेकिन कुछ समय बाद लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा, और अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए उन के विरोध को कुचलना शुरू कर दिया, फल स्वरूप ऐक मिलयन अल जज़ाएरी मुसलमान मारे गए। लोगों के विरोध को कुचलने के बाद फ़्रान्सवी ज़बान इस इस्लामी देश की अधिकारिक ज़बान बन गई और पश्चिमी सभ्यता को रिवाज देने के लिए ऐक मिलयन फ़्रान्सवियों ने इस देश की तरफ़ प्रवास किया।
अल जज़एर के स्वतंत्रता मोरचा ने फ़्रान्सवी फ़ौज़ियो के ख़िलाफ़ 1374 हि0 क़0[30] से गोरिला जंग और आत्म घाती हमले शुरू किये और अल जज़ाएर के स्वतंत्रता मोरचा की कोशिशों और लोगों के समर्थन से 1382 हि0 क़0[31] में अल जज़ाएर आज़ाद हुआ और फ़्रान्सवी फ़ौजियो ने अल जज़ाएर को छोड़ दिया।[32]
ग़ज़ाली की अल जज़ाएर यात्रा
ग़ज़ाली अनवर सादात की सत्ता के साथ मतभेद होने के बाद सऊदी अरब और उसके कुछ समय बाद क़तर चले गए और वहां अल अज़हर विश्व विद्यालय से संबंधिद कॉलिज में पढ़ाने और लेखन कार्य करने लगे। अल जज़ाएर के गंभीर हालात और इस देश में विदेशियों की मौजूदगी के देखते हुए क़तर विश्व विद्यालय के कुल पति “डॉक्टर शाज़ली बिन जदीद” ने ग़ज़ाली से प्राथना की कि वह अल जज़ाएर चले जाएं और वहां इस्लाम का प्रचार करें, शाज़ली ने ग़ज़ाली से कहाः
अल जज़ाएर में इस्लामी जागरूकता आ गई है, प्रचार और समर्थन की आवश्यकता है और मैं जानता हूँ कि आप क़तर में बहुत सक्रिय हैं लेकिल अल जज़ाएर को वास्तविक इस्लाम की बहुत अधिक आवश्यकता है। मैं चाहता हूँ कि आप अल जज़ाएर जाएं और वहां मिस्र के अल अज़हर विश्व विद्यलय की जैसी इस्लामी यूनिवरसिटी का निर्माण करें।[33]
ग़ज़ाली क़तर में पाँच साल विद्या संबंधी और इस्लाम का प्रचार करने के बाद अल जज़ाएऱ गऐ ताकि वहां भी इस्लाम की आवाज़ सब को सुना सकें।
जब ग़ज़ाली ने अल जज़ाएर में क़दम रखा, बुराई फ़ैली हुई थी, इस्लाम पहाड़ो के बीच में ख़ामोश था। लोगों की मात्र भाषा “अरबी” आधिकारिक न थी, बल्कि फ़्रान्सवी भाषा ने एक इस्लामी देश की मात्र भाषा का स्थान ले लिया था। पश्चिमी सभ्यता का रिवाज था, हाँ सही है कि जब भी साम्राजी ताक़ते किसी देश पर क़ब्ज़ा करती हैं वहा की पहचान को भी मिटा देती हैं।
ग़ज़ाली ने ऍसै हालात में “अमीर अब्दुल क़ादिर” विश्व विद्यालय का शिला न्यास किया और ख़ुद शूराए इल्मी के कुल पति बने और छात्रों को पढ़ाना और मार्ग दर्शन करना शुरू किया।[34]
ग़ज़ाली का तफ़्सीरे मौज़ूई क़ुरआन का पाठ जो कि अल जज़ाएर के टीवी पर दिखाया जाता था उसको दोखने वाले इतने अधिक थे कि अल जज़ाएर के समाचर अधिकारियों के अनुसार उनका पाठ उन प्रोग्रामों में से था जिनके प्रसारण के समय गली कूचे ख़ाली हो जाया करते थे। उनकी किताबें प्रकाशन के कुछ ही समय बाद बाज़ार से ग़ायब हो जाया करती थीं, निःसंदेह बाद में अल जज़ाएर की जवान नस्ल में जो क्रांति पैदा हुई वह ग़ज़ाली के मार्ग दर्शन और प्रभावों से अछूती नही थी।
वह जितना समय अल जज़ाएर में रहे, इस्लाम और मुसलमानो की बहुत सेवा की।
इसलिए मिस्र लौटते समय उन्हें अल जज़ाएर का सब से बड़ी उपाधी “लियाक़त” दी गई।[35]
ईरान में
ईरान में इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी ने पूरी दुनिया के मुसलमान देशों में एक इस्लामी लहर दौड़ दी। ईरान मुसलिम देशों के लिए एक इस्लामी हुकूमत को आइडियल के तौर पर पेश करने में कामयाब रहा। इस्लामी देशों के विद्रान सदैव से ही ईरान के समर्थक रहे हैं और इसको दूसरो देशों के लिए आशा की किरण मानते हैं।
जब नामए फ़रहंग मासिक पत्रिका के रिपोर्टर ने ग़ज़ाली से ईरान के इस्लामी इन्क़ेलाब के बारे में प्रश्न किया तो उन्होनें जवाब में कहाः
आज इस्लाम दोस्ती की लहर दौड़ रही है और सुन्नी मुसलमानो की बीच इसको आरम्भ करने वालो हसन बन्ना थे, लेकिन उन पर राजनीतिक दबाव बहुत अधिक था और अब भी है, भाग्य से तुम को तुम्हारा लक्ष्य मिल गया और तुम कामयाब हो गए और तुम्हारी कामयाबी का फल एक इस्लामी देश की स्थापना है। यह एक ऍसा उसूल है जिस पर हमारा विश्वास है और जो मेरी हमदर्दी और इस इन्क़ेलाब से विचारों के मिलाप का कारण बना है।[36]
ग़ज़ाली का ईरान से अधिक लगाव कारण बना कि वह 1364 हि0 क़0 को आयतुल्लाह जन्नती के निम्त्रण पर इस्लामी विचार कान्फ़्रेंस में समिलित होने के लिए ईरान का यात्र करे।[37]
ग़ज़ाली ने इस कान्फ़्रेंस में रिसालते बेहतरीन उम्मत के शीर्षक से एक निबंध पढ़ा और इसमें उन्होंने अपने सुधार वादी विचार व्यक्त किए।
इस निबंध के एक अंश पर ग़ौर करेः
वह हुकूमत जो ईश्वरीय संदेशों की अमानत दार हो तो उस पर मुसलमानों और आगामी नस्लों के लिए बहुत अधिक ज़िम्मेदारिया हो जाती हैं। इस में से कुछ ज़िम्मेदारियों की तरफ़ हम इशारा कर रहे हैः
1. इस्लामी हुकूमत की पहली ज़िम्मेदारी ये है कि वह दूसरी उम्मतों के लिए भलाई और सुधार का सूचक हो। इस प्रकार से कि तमाम संस्क्रति, सभ्यता, संबंधो, व्यापार, कारीगरी, शिल्प कारी, देहात और शहरों सब में यह दिखाई दे। और व्यवहारिक प्रचार के माध्यम से दूसरी उम्मतों के ज़हनों को वास्तविक इस्लाम परिचित कराएं।
2. धार्मिक ज्ञान को जीवंत करना और इसी के साथ तुल्लाब (छात्रों) को आवश्यक समाजी और हुक़ूक़ी एवं क़ज़ाई मसाएल से परिचित कराना।
3. ब्रमन्ज्ञान को बिदअत (जो चीज़ धर्म में न हो और अलग से धर्म का हिस्सा बनाई जाए) और उन बे ढंगी बातों से जिन को उन से मनसूब किया गया है अलग कर के फ़ोक़हा (धर्म गुरू) और आरिफ़ो (ब्रहम्ज्ञानियों) के बीच के मत भदों को दूर करना और उनको ख़ुदा की किताब और रसूल की सुन्नत के समान करना।
4. फ़ोक़हा और फ़लसफ़ियों को ये समझाना कि केवल अक़्ल के माध्यम से कमाल तक नही पहुँचा जा सकता हैं। कितनी ऍसी अक़्लें हैं कि जिन में निफ़ाक़ (द्वैयवादिता) और बद बख़्ती पैदा हो गई।
5. अधिकतर मुसलमान को अपनी समाजिक शैली को सही प्रकार से चलाने के लिए विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है और चूंकि ये ज्ञान ग़ैर मुसलमानों के पास है इसलिए मुसलमान इन लोगों पर आश्रित होते हैं जिसके कारण उनकी ताक़त और ध्रुवता में कमी आती है।[38]
[1] अल शैख़ गज़ाली कमा अरफ़तोहू, पेज 344
[2] रिसालत समाचार पत्र, 27/1/1373, पेज 3
[3] अल शैख़ गज़ाली कमा अरफ़तोहू, पेज 21
[4] 1950 ई0
[5] रोया रूई मसलकहा जुम्बिशहाई सियासी दर ख़ावर मियानए अरबी ता साले 1967 ई0, अली सम्मान, पेज 54
[6] अल अताउल फ़िक्री लिश शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली, पेज 196
[7] 1962 ई0
[8] मकतबे इस्लाम मासिक, रबीउस्सानी, 1341, पेज 59
[9] अल अताउल फ़िक्री लिश शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली, पेज 188
[10] मकतबे इस्लाम मासिक, रबीउस्सानी, 1341, पेज 59
[11] अल अताउल फ़िक्री लिश शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली, पेज 191
[12] पासदारे इस्लाम मासिक, दि माह 1360
[13] गामी बे सूई तफ़्सीरे मौज़ूई सूरहाई क़ुरआने करीम, जिल्द 1, पेज13
[14] जमहूरी इस्लामी समाचार पत्र, 9/7/1369, पेज 11
[15] 1991 ई0
[16] रिसालत समाचार पत्र, 3/4/1370, पेज 12
[17] इत्तेलाआत समाचार पत्र, 23/4/1374, पेज 2
[18] 1949 ई0
[19] शैख़ मामून शनावी 1885 ई0 में मिस्र में पैदा हुए, तेरह साल की उम्र में पूरा क़ुरआन हिफ़्ज़ कर लिया। और अपने जन्म स्थान पर ही प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद, क़ाहिरा की यात्रा की और अपने बड़े भाई शैख़ सैय्यद शनावी जो बहुत सालों से अल अज़हर विश्व विद्यालय में थे, के पास इस्लामी दुनिया की बड़ी यूनिवर्सिटी अल अज़हर में प्रवेश किया।
उनके अध्यापकों में से मोहम्मद अब्दोह और शैख़ अबुल फ़ज़्ल जीज़ावी का नाम लिया जा सकता है।
शनावी प्रारम्भ मे इस्कन्दरिया में अल अज़हर के एक कॉलिज में अध्यापक हुए। और 1917 ई0 में धार्मिक जज और 1948 ई0 (1367 हि0 क़0) और शैख़ मुस्तफ़ा अब्दुल रज़्ज़ाक़ के निधन के बाद अल अज़हर के कुल पति हुए।
मामून शनावी का 1950 ई0 (1369 हि0 क़0) में मिस्र में निधन हुआ।
[20] अल अज़हर फ़ी अल्फ़े आम, जिल्द 1, पेज 296
[21] इत्तिलाआत, 4/11/1369, पेज 12
[22] 14/5/1948
[23] इत्तिलाआत, 4/11/1369
[24] अस इस्तेमार अहक़ाद व अतमाअ, पेज 322
[25] वही, पेज 386
[26] इत्तेलाआत समाचार पत्र, 4/11/1369, पेज 12, मिम्बरुल इस्लाम पत्रिका ले लिया गया, फ़रवरी 1990 ई0, अंक 7
[27] वही
[28] फ़रहंग जामे सियासी, पेज 174
[29] 1830 ई0
[30] 1954 ई0
[31] 1962 ई0
[32] फ़रहंग जामे सियासी, पेज 176
[33] अल अताउल फ़िक्री लिश शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली, पेज 192
[34] अल अताउल फ़िक्री लिश शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली, पेज 193
[35] आइनए पज़ोहिश, अंक 37, पेज 102
[36] नामए फ़रहंग, पहला साल, अंक 2, पेज 25
[37] आएनए पज़ोहिश, अंक 37, पेज 102
[38] हुकूमत दर इस्लाम, मक़ालाते सिव्वोमीन व चहारोमीन कान्फ़्रेस अन्देशए इस्लामी, पेज 360
[1]. 1971,माहाना (मासिक) आइनए पज़ोहिश, अंक 37, पेज 102
[2]. अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 183
[3]. गामी बे सूई तफ़्सीरे मौज़ूई क़ुरआने करीम, मोहम्मद ग़ज़ाली, अली असग़र मोहम्मदी, जिल्द 2 , पेज 12
[4]. वही, पेज 184
[5]. वही, पेज 185
[6]. मजल्ला नामाए फ़रहंग, अंक 2, पेज 21
[7]. इस्कन्दरिया, मिस्र के बड़े व्यपारिक एवं संस्क्रतिक शहरों में से है, दरियाए नील के पश्चिम में है और उसकी आबादी दो मिलयन से अधिक है।
इस शहर को 332 क़मरी ई0 में इस्कन्दरे कबीर ने बनवाया था। 31 क़मरी ई0 में रोमानी साम्राज्य ने इस शहर को जीता और उस पर क़बज़ा कर लिया। इस्कन्दरिया तीसरी शताब्दी में बड़े संस्क्रतिक केन्द्रों और यूनानी संस्क्रति का बड़ा सेंटर था। यह इस शहर पर 642 ई0 में अरबों ने क़ब्ज़ा कर लिया और उनकी नौ सौ साल की सत्ता के बाद उस पर तुर्कों ने अधिकार कर लिया और उस्मानी साम्राज्य में उसका विलय हो गया।(अल मुन्जिद, जिल्द 2, पेज 44)
[8].1983 ई0
[9].अल शैख़ अल ग़ज़ाली कमा अरफ़तहु, पेज 53
[10].अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 178
[11].अल शैख़ अल ग़ज़ाली कमा अरफ़तोहु, पेज 35
[12]. वही, पेज 30
[13].वही, पेज 31
[14] 1941 ई0
[15].अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 185
[16].आइनए पज़ोहिश, अंक 37, पेज 102
[17] 1926 ई0
[18] 1948 ई0 और 1954
[19] 1961 ई0
[20] यूसुफ़ अल क़रज़ावी, पेज 12
[21] यूसुफ़ अल क़रज़ावी, पेज 49
[22] वही, पेज 128
[23] अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 188
[24] 1943 ई0
[25] क़िवाम नकरूमा (1909 – 1972 ई0) वह 1909 ई0 में ग़ना की राजधानी अकरा में पैदा हुआ, 1950 ई0 मे हालैन्डी आक्रमणकारियों के मुक़ाबले में ग़ना के न्तिकारियों का लीडर बना और उसकी अनथक कोशिशों ग़ना को लोगों की सहायता से 1957 ई0 में ग़ना स्वतंत्र हो गया। नकरूमा ने 1960 ई0 में लोकतान्त्रिक संविधान बनाया और ख़ुद ग़ना का पहला प्रधान मंत्री बना, और हुकूमत का कार्य भार संभाला।
क़िवाम नकरूमा सोशलिस्ट विचारो वाला था और उसने सोशलिस्ट विचारों वाले देशों से संबंध बनाए वह मित्तीय मामलों में पश्चिम पर निर्भर था। उसकी सत्ता “सरगर्द कवाज़ी” के 1967 ई0 में तख़्ता पलट से समाप्त हुई। (ग़ना, रामीन ज़ारेए, पेज 15)
[26] फ़स्ल नामाए मीक़ाते हज, अंक 23, बहार 1377, पेज 205
[27] अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 184
[28] 1990 ई0
[29] 1996 ई0
[30] वही, पेज 185
[31] अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 189
[32] एक शहर जो कि असयूत ज़िले में है, जो कि नील के पश्चिमी तट पर है। इस शहर की आबादी बीस हज़ार है (अल मुनजिद फ़ी अल लोग़ते वल आलाम, पेज 689)
[33] मिस्र के पुराने शहरो में से है जो कि नील के पश्चिमी तट पर है, यह मिस्र का एक बड़ा व्यापारिक कला एवं संस्क्रतिक केन्द्र है और असयूत ज़िले की राजधानी है, और इस की आबादी नव्वे हज़ार है
यह शहर बहुत से धर्म गुरुओं और विद्रानो का जन्म स्थान रहा है, जैसे सुन्नियों के बड़े धर्म गुरू जलालुद्दीन सियूती। (अल मुनजिद फ़ी अल लोग़ते वल आलाम, पेज 48)
[34] मिस्र के पुराने शहरों में से है और इसकी आबादी एक लाख बीस हज़ार है नील के पश्चिमी तट पर पाया जाता है और सोहाज ज़िले की राजधानी है। सोहाज मिस्र के पुराने शहरों में से है और वहा के अधिकतर लोग मछली पकड़ने का कार्य करते हैं।(अल मुनजिद फ़ी अल लोग़ते वल अलाम, पेज 373)
[35] वही, पेज 186
[36] इस्लाम व बिलादहाए नवीन, पेज 173
[37] वही, पेज172
[38] इस्लाम व बिलादहाए नवीन, पेज 174
[39] 1948 ई0
[40] अल शैख़ गज़ाली कमा अरफ़तोहू, पेज 11
[41] अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 74
[42] देखो तलाया दाराने तक़रीब, सैय्यद क़ुतुब
[43] अल अताउल फ़िक्री लिश्शैख़ मोहम्मद अल ग़ज़ाली, पेज 185
[44] इस्लाम व बिलादहाए नवीन, पेज 195
[45] वही, पेज 146
[46] 1930 – 1960 ई0
[47] 1948 ई0
[48] 1948 ई0
[49] दाएरतुल मआरिफ़े बुज़ुर्गे इस्लामी, जिल्द 7, पेज 279
[50] 1949 ई0
[51] सीना छेत्र का एक शहर जो कि दक्षिण पश्चिम (मूसा पहाड़ स्विज़र लैड की खाड़ी) में पाया जाता है।
[52] अल शैख़ अल ग़ज़ाली कमा अरफ़्तुहू, पेज 16
[53] 1949 ई0
[54] तअम्मुलात फ़ीद्दीन वल हयात
[55] अल शैख़ गज़ाली कमा अरफ़्तुहू, पेज 34
[56] वही, पेज 34
[57] अल शैख़ गज़ाली कमा अरफ़तोहू, पेज 31
[58] 1949 ई0
[59] 1952 ई0
[60] वही, पेज 56
[61] वही, पेज 44
[62] तमअ काराने कीनावर बा नक़्शाहाई इस्तेमारी, पेज 27
[63] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 210
[64] नहजुल बलाग़ा, मोहम्मद दश्ती, ख़ुत्बा 24, पेज 73
[65] वही, पेज 299
[66] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 187
[67] रिसालत, 3/4/1370, पेज 12
[68] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 197
[69] मुहाकिमए अगनास गुलज़ीहर सहयूनिस्त, पेज 300
[70] वही, पेज 322
[71] फ़स्लनामए मीक़ाते हज, अंक 23, पेज 205
[72] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 234
[73] वही, पेज 28
[74] इत्तेलाआत,11/1/1371, अलमसार से लिया गया, 2/2/1992 ई0
[75] वही
[76] मुहाकिमए अगनास गुलज़ीहर सहयूनिस्त, पेज 315
[77] मुहाकिमए अगनास गुलज़ीहर सहयूनिस्त, पेज 24
[78] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 157
[79] इस्लाम व बालाहाई नवीन, पेज 127
[80] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 106
[81] इस्लाम व बलाहाई नवीन, पेज 112
[82] रोयारूई मसलकहा व जुम्बिशहाई सियासी दर ख़ावरमियाने अरबी ता साले 1968 ई0 पेज 55
[83] आईनए पज़ोहिश, अंक 37, पेज 102
[84] रोयारूई मसलकहा व जुम्बिशहाई सियासी दर ख़ावरमियाने अरबी ता साले 1968 ई0 पेज 56
[85] अख़वानुल मुसलेमीन, डॉक्टर बहमन आक़ाई व ख़ुसरू सफ़वी, पेज 177
[86] रिसालत, 3/4/1370, पेज 3
[87] इस्लाम व बालाहाई नवीन, पेज 230
[88] हुक़ूक़े बशर, मुक़ाएसए तआलीमे इस्लाम बा मनशूरे मिलले मुत्तहिद, पेज 295
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