ख़ुरूजे मुख़्तार

इतिहास
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लेखक: सैय्यद मोहम्मद अली अफ़ज़ई

मुतरजिम: मौलाना सैय्यद अली हसन अख़तर अमरोहवी

 

इन्तेसाब

उस कलामे रब्बानी के नाम जिस की जिसकी आयत ने यह एलान किया कि-

"जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है उन्हें अन्क़रीब मालूम हो जायेगा कि वह लोग

किस जगह लौटाए जाएं गे " (प.19, आयत 227)

 

इरशादे रब्बानी

वला तह-सबन्नल लज़ीना क़ोतेलु फ़ी सबी-लिल्लाहे अमवातन. बल अहयाउन इन्दा रब्बे-हिम यर्ज़क़ून. (सूरा आले इमरान आयत 169)

तर्जुमाः- और जो लोग ख़ुदा की राह में शहीद किये गये उन्हें हर्गिज़ मुर्दा न समझना बल्कि वे लोग जीते जागते मौजूद हैं, अपने परवरदिगार के यहाँ से वे रोज़ी पाते हैं

 

इरशादे इमामत

अगर कोई सियाह ग़ुलाम भी हम अहलेबैत (अ.स) के हक़ में दिफ़ाअ के लिये खड़ा हो जाये और हक़्क़े क़ुरआन व हक़्क़े अहलेबैत (अ.स) ग़ासिबो के पंजे से निकालना चाहे तो हर शख़्स पर ऐसे शख़्स की मदद करना वाजिब है। (इमामे ज़ैनुल आबेदीन (अ.स)

 

अर्ज़े नाशिर

करबला की जंग में यज़ीद की तरफ़ से जो लोग इमाम हुसैन (अ.स) के क़त्ल में शरीक थे, उनमें से शायद ही कोई बचा हो जिसको मौत से पहले दुनिया ही में सज़ा न मिली हो

कोई क़त्ल किया गया कोई इबरतनाक अज़ाब में मुब्तिला हुआ किसी का चहरा मस्ख़ हो गया किसी के रूख़ पर सियाही दौड़ गई, कोई प्यास से तड़प-तड़प कर मर गया, किसी की ज़बान मुंह से बाहर आ गई, कोई इन्तेहाई भयानक अन्जाम से दो-चार हुआ और कोई तख़्त व ताज से महरूम होकर अपने सियाह आमाल के साथ जहन्नम रसीद हुआ

सिब्ते इब्ने जौज़ी का कहना है के एक बूढ़ा आदमी हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) के क़त्ल में शरीक था वह दफ़अ-तन-नाबीना (अंधा) हो गया तो लोगों ने सबब दरयाफ़्त किया- उसने कहा कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद मुस्तुफ़ा (स0) को ख़ाब में देखा कि वह आस्तीन चढ़ाये हुए हैं हाथ में तलवार है और आपके सामने चमढ़े का वह फ़र्श है जिस पर किसी को क़त्ल किया जाता है और उस फ़र्श पर क़ातिलाने हुसैन (अ.स) में से दस आदमियों की लाशें ज़िबह की हुई पड़ी हैं उसके बाद आपने मुझे ललकारा और ख़ूने हुसैन (अ.स) की एक सलाई मेंरी आँख़ों में फेर दी, मैं सुबह उठा तो अंधा था

इब्ने जौज़ी ने नक़्ल किया है कि जिस शख़्स ने इमामे हुसैन (अ.स) के सरे मुबारक को अपने घोड़े की गर्दन में लटकाया था उसके बाद उसे देखा गया कि उसका मुँह काला मिस्ल तारकोल हो गया है लोगों ने उससे पूछा के तुम तो अरब के ख़ूबसूरतों में से थे और तुम्हारा रंग सुर्ख़ व सफ़ैद था यह तुम्हे क्या हो गया, उसने कहा की जिस रोज़ से मैंने सरे हुसैन (अ.स) को घोड़े की गर्दन में लटकाया उस दिन से मेरी यह हालत है कि जब मैं सोता हुँ तो दो आदमी मेरे बाज़ू पकड़ कर मुझे दहकती हुई आग के क़रीब ले जाते हैं और उसमें डाल देते हैं जो मुझे झुलसा देती है और फिर वह शख़्स उसी हालत में चन्द रोज़ बाद मर गया

इब्ने जौज़ी ने सद्-दी से यह रवायत बी की है कि उन्होंने एक शख़्स की दावत की और बा वक़्ते तआम यह ज़िक्र छिड़ गया कि इमामे हुसैन (अ.स) के क़त्ल में जो भी शरीक हआ उसको बहुत जल्द दुनिया ही में सज़ा मिल गई उस शख़्स ने तमस्ख़ुराना अन्दाज़ में कहा कि बिल्कुल ग़लत है, मैं ख़ुद हुसैन (अ.स) के क़त्ल में शरीक था और मेरा कुछ नहीं बिगड़ा, वह शख़्स दावत के बाद जब अपने घर गया तो चिराग़ की बत्ती दुरूस्त करते वक़्त उसके कपड़ों में आग लग गई और वह जल भुन कर ख़ाक हो गया।

सद्-दी कहते हैं कि मैंने ख़ुद जब उस शख़्स को देखा तो वह कोयला चुका था।

यह मशहूर रवायत है कि जिस शख़्स ने इमाम को पानी पीने से बाज़ रखने के लिये आपको तीर मारा था उस पर ख़ुदा ने ऐसी प्यास मुसल्लत कर दी थी कि वह जिस क़द्र पानी पीता जाता था उसकी प्यास बढ़ती जाती थी यहाँ तक की पानी पीते पीते उसका पेट फट गया और वह मर गया लेकिन उसकी प्यास न बुझ सकी।

ख़ुद यज़ीद का अन्जाम भी सामने है कि क़त्ले हुसैन (अ.स) के बाद उसे एक लम्हा के लिये भी सुकून व चैन मयस्सर न हुआ तमाम इस्लामी ममालिक में ख़ूने शोहदा का मुतालबा और बग़ावते शुरू हो गयीं उसकी ज़िन्दगी भी दो साल आठ माह और एक रवायत के मुताबिक़ तीन सान से ज़्यादा नहीं रही दुनिया ही में अल्लाह ने उसको ज़लील व रूसवा किया और वह उसी ज़िल्लत के साथ हलाक हुआ।

ग़रज़ के इमामे मज़लूम (अ.स) के क़ातिलों पर अल्लाह की तरफ़ से भी इन्तेक़ामन तरह तरह की आफ़ते अर्ज़ी व समावी और अज़ाब का सिलसिला जारी रहा वाक़ेआ-ए-शहादत के पाँचवे बरस 66 हि0 में जनाबे मुख़्तार ने क़ातिलाने हुसैन (अ.स) से क़सास लेने का इरादा किया। इस कारे ख़ैर में आम लोगों की अक्सरियत ने उनका साथ दिया और थोड़े ही अर्से में उन्हें यह क़ुव्वत व ताक़त हासिल हो गई कि कूफ़ा और इराक़ उनके ज़ेरे तल्लुत हो गया चुनाँचे इक़्तेदार हासिल करने के बाद उन्होंने एलान कर दिया कि क़ातिलाने हुसैन (अ.स) के सिवा तमाम लोगों को अमान दी जाती है। इस एलान के बाद क़ातिलाने हुसैन (अ.स) की तफ़्तीश शुरू हुई और गिरफ़्तारी के बाद वे मौत के घाट उतारे जाने लगे एक दिन 248 आदमियों को इस लिये क़त्ल किया गया कि वे लोग क़त्ले इमाम में शरीक़ थे।

आम क़ातिलों को जब मुख़्तार ने मौत के घाट उतार दिया तो ख़ास अफ़राद की तलाश और गिरफ़्तारी शुरू हुई अमरौ बिन हज्जाजे ज़ुबैदी भागा मगर गर्मी की शिद्दत और प्यास से बेहोश होकर गिर पड़ा और तहे तेग़ कर दिया गया शिम्र मलऊन को क़त्ल कर के उसकी नजीस लाश कुत्तों के सामने डाल दी गई। अब्दुल्लाह बिन असीरे जहती, मालिक बिन बशीर, जमल बिन मालिक का जब मुहासिरा किया गया तो उन्होंने रहम की दर्ख़ास्त की मुख़्तार ने कहा, ज़ालिमों! तुमने नवासा-ए- रसूल (अ.स) पर न रहम किया तो तुम पर रहम कैसे किया जा सकता है चुनाँचे सब के सब फ़ना के घाट उतारे गये। मालिक बिन बशीर ने इमाम (अ.स) का अमामा लिया था उसके दोनों हाथ और दोनो पाँव काट कर उसे धूप में डाल दिया गया और वह वहीं तड़प- तड़प कर जहन्नम वासिल हो गया।

उसमान बिन खालिद और बशीर बिन शुमीत ने जनाबे मुस्लिम बिन अक़ील (अ.स) के क़त्ल में मुआवेनत की थी, उन्हें क़त्ल कर के जला दिया गया।

उमरे साद मलऊन जब क़त्ल किया गया तो जनाबे मुख़्तार ने उसके लड़के हफ़्स को दरबार में बुलाकर बैठाया और जब उमरे साद का सर दरबार में लाया गया तो मुख़्तार ने हफ़्स से कहा कि तू जानता है कि यह सर किसका है? उसने कहा, हाँ मगर इसके बाद मुझे भी अपनी ज़िन्दगी अज़ीज़ नहीं है चुनाँचे इन कलमात के साख उसका काम भी तमाम कर दिया गया गया और मुख़्तार ने कहा के उमरे साद का क़त्ल, क़त्ले हुसैन (अ.स) का बदला है और उसके जवान बेटे हफ़्स का क़त्ल अली अकबर (अ.स) के खून का बदला है लेकिन फिर भी बराबरी नहीं हो सकी ख़ुदा की क़सम अगर मैं तीन चौथाई अरबों को क़त्ल कर दूँ तो इमाम हुसैन (अ.स) की उस एक उगँली का बदला नहीं हो सकता जिसे ज़ालिमों ने एक अँगुश्तरी के लिये काट लिया था ।

हकीम बिन तुफ़ैल का बदन तीरों से छलनी कर दिया गया इस लिये की उस मलऊन ने इमाम (अ.स) के सीने पर तीर मारा था।

सनान बिन अनस और हुर्मुला बिन काहिले असदी का इबरतनाक अन्जाम भी तारीख़ ती नज़रों से पोशीदा नहीं है ग़रज़ के जब हम क़ातिलाने हुसैन (अ.स) के इबरतनाक अन्जाम पर नज़र करते हैं तो बेसाख़्ता ज़बान पर यह क़ुर्आनी आयत आती है

"क्रज़ालेकर अज़ाबो वल अज़ाबुल आख़ेरते अकबरो लौ कानू यअ-ला-मून"

"अज़ाब ऐसा ही होता है और आख़ेरत का अज़ाब इससे बड़ा है, काश वे समझ लेते" अहले क़लम व अहलेदानिश ने क़सासे मुख़्तार से मुताल्लिक़ बहुत सी किताबें "मुख़्तार नामा" और दीगर उनवानात से अपने अपने लब-व-लहजे में तहरीर की हैं जो मुकम्मल हालात के साथ तवील व ज़ख़ीम भी हैं ज़रूरत इस अम्र की थी कि ख़ुरूजे मुख़्तार के सिलसिले में कोई इजमाली किताब भी हो जिससे क़ारेइन इस्तेफ़ादा कर सकें।

ज़ेरे नज़र किताब "इन्तेक़ामे ख़ूनी यी खुरूजे मुख़्तार" जो आक़ाई सै. मो. अली अफ़ज़ई के आलेमाना क़लम का नतीजा है और जिसके मुता-रज्जिम मौलाना सै. अली हसन अख़तर अमरोहवी हैं, अब्बास बुक एजेन्सी का सिलसिला-ए-इशाअत की एक कड़ी है।

इस किताब में जनाबे मुख़्तार के इजमाली हालात इन्तेहाई पुर-असर अन्दाज़ में क़लम बन्द किये गये हैं और क़ातिलाने मज़लूमे करबला के इबरतनाक अन्जाम को बड़े सलीक़े से रक़म किया गया है ताकि आवाम जनाबे मुख़्तार के कारनामों से बा-ख़बर हो सके- उम्मीद है के यह किताब हिन्दुस्तानी मुसलमानों में ख़ातिर ख़ाह मक़बूलियत हासिल करेगी।

ख़ाक पाये अहलेबैत

सै. अली अब्बास तबातबाई, अब्बास बुक एजेन्सी दरगाह हज़रत अब्बास (अ.स) लखनऊ

 

 

मुख़्तसर गुफ़्तुगू

दरबार-ए-रवायत व अख़बार

मुख़्तार के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ मुताज़ाद अख़बार व रवायात नज़र से गुज़रते हैं लिहाज़ा उस ज़माने के हालात को देखना ज़रूरी है कि वे रवायत किस मौक़े और महल पर बयान हुई हैं। तारीख़ गवाह है के अकसर रवायात उस ज़माने की हैं जिनमें तक़य्या ज़रूरी था क्योंकि दीगर औक़ात में आइम्मा-ए-अतहार (अ.स) ने मुख़्तार के इस इक़दाम की मदह फ़रमाई है। इसके बर-अक्स हर ज़माने और हर दौर में ख़ुद-गर्ज़ और ख़ुद-फ़रामोश मोअर्रेख़ो (लेखक) ने हुकूमते वक़्त की चापलूसी और ख़ुशनूदी में ग़लत वाक़ेआत करके आवाम को फ़रेब दिया है। चुनाँचे दौरे उमवी और उसके बाद के ज़माने में ऐसे बहरूपिये ब कसरत (ज़्यादा) नज़र आते हैं जो दीन के भेस में दुनिया कमाते रहे, अबु हुरेरा उसमें पेश-पेश नज़र आते हैं मुख़्तार का यह सियासी और मज़हबी ख़ुरूज था। जिसने हुकूमतें बनी उमय्या को हिला दिया, जिसके बाद हुकूमते उमवी ने झूठी रवायतें माहिरे मोअर्रेख़ीन के ज़रीये मुख़्तार को बदनाम और रूस्वा करने के लिये आइम्मा-ए-दीन के हवाले से लिखवायीं ताकि लोग इस रहबरे मुजाहिद के कारनामों से मुता-नफ़्फ़िर हो जायें लेकिन हक़ीक़त शनास निगाहें उन मसनूई रवायत से हर्गिज़ मुतास्सिर नहीं हो सकी, मसलअन मुख़्तार की मज़म्मत में लिखा गया कि हज़रत सज्जाद (अ.स) ने मुख़्तार के भेजे हुए हदाया क़ुबूल नहीं फ़रमाये और न उन लोगों से मिलना पसन्द फ़रमाया या मसलन हज़रत ने मजमा-ए-आम में मुख़्तार को दरोग़-गो बतलाया और मलऊन कहा वग़ैरा- वग़ैरा।

 

 

 

बयाने हक़ीक़त

हक़ीक़त यह है कि मोमेनीन और मुसलेमीन बल्कि ग़ैरे मुस्लिम के क़ुलूब में भी उस वक़्त ख़ूने शोहदा-ए-कर्बला जोश-ज़न था। और अम्माले हुकूमते उमवी के जासूम मज़ीद इन्क़ेलाब के ख़ौफ़ से हर गली व कूचे में फैले हुए थे। हज़रत ने मुनासिब न समझा के मुख़्तार के कारनामों को सराह कर मोमेनीन को मुदाफ़ेअत पर उभारा जाये। लिहाज़ा तक़य्या ही इख़्तेयार किया जो बहर-हाल मुनासिब था वरना ऐसी मोअतबर रवायत भी मौजूद है कि हज़रत (अ.स) मसरूफ़े गिज़ा थे कि मुख़्तार की जानिब से उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद का सरे नजिस आया, इमाम (अ.स) ने लुक़मा हाथ से रख दिया और दरबारे इब्ने ज़्याद में जब कि वह मशग़ूले ग़िज़ा था अपना जाना याद करके सजदा-ए-शुक्र अदा किया और मजलिस को अग़यार से ख़ाली देख कर फ़रमाया- ख़ुदावन्दा तेरा हज़ार शुक्र की तूने हमारा इन्तेक़ाम दुश्मनाने अहलेबैत से लिया, ख़ुदाया मुख़्तार को जज़ा-ए-ख़ैर अता फ़रमा। उसके बाद हज़रत ने कुछ मेवा मदीने के घरो में तक़सीम फ़रमाया और बनी हाशीम को हुक्म दिया कि आज से सोग बढ़ाया जाये।

असहाबे हज़रते मोहम्मद बाक़िर (अ.स) से रवायत है कि हम हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर थे कि एक शख़्स आया आगे बढ़ा और चाहा कि इमाम (अ.स) के हाथों को बोसा दे, इमाम ने हाथ ख़ीच लिये और मना फ़रमाया असल व नसब का सवाल किया उसने अर्ज़ की मौला मैं मुख़्तारे सक़ाफ़ी का फ़रज़न्द हूँ, हज़रत ने उसका हाथ पकड़ कर इस तरह अपनी तरफ़ ख़ींचा जैसे अपनी आग़ोश में बैठाना चाहते हैं यह मेहरबानी और नवाज़िश देखकर फ़रज़न्दे मुख़्तार ने कहाः- मेरे बाप के मुताल्लिक़ लोग ग़लत बयान करते हैं इमाम का क्या ख़याल है, फ़रमाया- मुख़्तार को दरोग़ा-गो कहने वाले ख़ुद दरोग़ा-गो हैं, मेरे पदरे बुज़ुर्गवार ने मुझसे फ़रमाया कि मेरी ज़ौजा का महर उस माल से जो मुख़्तार ने हदियातन भेजा था उसी माल से बनी हाशिम के मकान की मरम्मत हुई उसने हमारे क़ातिलों से इन्तेक़ाम लिया, दुश्मनाने अहलेबैत को क़त्ल किया ख़ुदा उस पर रहमत नाज़िल फ़रमायें। बेहारूल अनवार की रवायत, रवायते बाला की ताईद कर रही है कि इमामे मो. बाक़िर (अ.स) ने फ़रमाया कि मुख़्तार को बुरा न कहो- वह माल जो हदियातन भेजा था हम मर्दों और औरतों के अज़्दवाज में काम आया। उसने क़ातिलाने शौहदा-ए-कर्बला से इन्तेक़ाम लिया।

 

हासिले रवायात

क्या इन रवायात से जो मुख़्तार के हक़ में हैं यह पता नहीं चलता कि मुख़ालिफ़ रवायात बर-बिनाये तक़य्यामख़सूस मवाक़े पर कही गई हैं

समझ में नहीं आता कि यह दुनिया झूठ पर क्यों तुली हुई है।

इस अवाम् फ़रेबी से क्या फ़ायदा- मक्कारी और इस अय्यारी से क्या हासिल आख़िर इस इस्लाम कुशी से क्या मन्ज़ूर है- यही न कि अवाम को बेख़बर और ग़ाफ़िल रख़ें- हाँ यही मक़सद और सिर्फ़ यही मक़सद है कि दीन को मस्ख़-शुदा सूरत में पेश करके दीनदारी का (ग़ाज़ा) लागाया जाये। क्या ये बेहक़ीक़त और झूठे अख़बार ज़हरीले इश्तेहार का बायस नहीं क्या ये ग़लत रवायत नहीं बतला रहे कि यह सब कुछ क़स्त्रहाय बनी उमय्या के चमकाने और आज़ादी ख़ाह मुजाहिदों के कारनामों को मिटाने के लिये लिखे गयें हैं।

बेशक ये अख़बारात मुख़्तार की मुक़द्दस रूह के इन्क़ेलाबी समरात का निशान दे रहें हैं। बेशक ये रवायते फ़िदाकारिये मुख़्तार ही है जो जब्र व इस्तेबदाद् के सुनहरे क़स्त्रो से नफ़रत दिला कर मुजाहिदाना रूह फ़ूँक रहे हैं।

 

हमारे उलमा का फ़ैसला

शिया रावी मुख़्तार के बारे में मख़सूस नज़रिया रखते हैं। अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा इस बारे में ख़ामोश हैं। फ़रमातें हैं रवायत से यही ज़ाहिर है कि अहले-मग़्फ़ेरत है और उलमा-ए-शिया ने भी मुख़्तार की तारीफ़ की है।

अल्लामा अमीनी फ़रमाते हैः- शहीदे अव्वल ने जो ज़ियारत मुख़्तार के वास्ते लिखी है उससे मालूम होता है कि माज़ी में क़ब्रे मुख़्तार शियों की ज़ियारत गाह थी। आख़ीर में हम अल्लामा जवाद लिबनानी की रवायत नक़्ल करते हैं जो अल्लामा मजलिसी के हम ख़्याल होते हुए फ़रमाते हैं कि हम नियते मुख़्तार से आगह नहीं लिहाज़ा ख़ुदा पर छोड़ते हैं अगर मुख़्तार का मक़सद ख़िलाफ़त को उसके अहल तक पहुँचाना और शोहदा-ए-कर्बला का इन्तेक़ाम लेना था तो ख़ुशनूदिये ख़ुदा के लिये इससे बढ़ कर और क्या बात हो सकती है।

 

नतीजा

मुख़्तार की नुमाया शख़्सियत पर हम कितना ही परदा डालें लेकिन उसको हर्गिज़ नहीं छुपा सकते कि मुख़्तार ने हज़रत महदी (अ.स) के ज़ुहूर तक के लिये शियों के ज़ख़्मी दिलो पर मरहम लगाया है, लेकिन फिर भी यह ज़ख़्म कहाँ भर सकते हैं अगर चे मुख़्तार का यह इन्तेक़ामे अहलेबैत (अ.स) शियाने अहलेबैत (अ.स) के लिये बायसे मसर्रत हुआ लेकिन आशूरा के अलमनांक वाक़ेआ को कब भुला सकते हैं।

क्या वह दिन जिस दिन बनी उमय्या के दरिन्दों ने जाँबाज़ मुजाहिदों का ख़ून बहाया, भुलाया जा सकता है? क्या वह दिन जिस दिन तेरह साल के मुजाहिदे इस्लाम क़ासिम बिन हसन (अ.स) ने मुसलमानों की आज़ादी की ख़ातिर जान दी क्या वह दिन जिस दिन पीरे मुजाहिद हबीब इब्ने मज़ाहिर मुजाहिदे आज़म की नुसरत को दौड़ा किया, वह दिन के बनी हाशिम के शेर दिल जवाने बा-वफ़ा ने जामे शाहादत पिया, ख़ुसूसन वह दिन जिस दिन पेशवाये मुजाहेदीन जान हथेली पर रखकर रोज़े आशूरा हैय-हात मिनज़-ज़िल्ला फ़रमाता हुआ सब कुछ क़ुर्बान कर गया और सय्यादुश शोहदा लक़ब पाया भुलाया जा सकता है, हर्गिज़ मुजाहेदीने कर्बला का सुर्ख़ ख़ून का जोश व ख़रोश कम नहीं हो सकता। ये वह जेहाद है जिसका सूरज ग़ुरूब नहीं हो सकता। यह जंग उस वक़्त तक दिलों से नहीं भुलाई जा सकती जब तक इमामे आख़िर (अ.स) ख़ूने नाहक़ का इन्तेक़ाम ना ले लें, और जब तक जा-उल-हक़ (हक़ आ गया) का पर्चम चहार- दांग- आलम में न लहराये, यज़ीद और यज़ीदियत का ज़ुल्म व इस्तेबदाद् सफ़ा-ए-हस्ती से न मिट जाये और आज़ादारी का स्याह पर्चम इन्तेक़ाम के सुर्ख़ पर्चम से न बदल जाये हम पुकार पुकार कर यह कहते रहेंगे कि शोहदा- ए- कर्बला के ख़ून का इन्तेक़ाम लेने वालो कहाँ हो?


ज़िन्दगी ए मुख़्तार

हर आज़ाद इन्सान की ज़िन्दगी उसके माँ बाप और उसकी तरबियत से वाबस्ता है तारीख़ का मुतालेआ करने वाले ख़ूब जानते हैं कि एक बुलन्द फ़िक्र आज़ाद मर्द हमेशा एक मुक़द्दस आग़ोश और आली ख़ानदान की परवरिश का नतीजा होता है लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कभी कभी शाज़ व नादर ख़श व ख़ाशाक के ढेर से भी लाला का फूल उगा है।

क़बीला ए सक़ीफ़

तायफ़ के हिजाज़ का एक मर्दम ख़ेज़ ख़ित्ता था जिस में अबु उबैदा बिन मसऊद (पदरे मुख़्तार) उरवा इब्ने मसऊद (अम्मूई मुख़्तार) अबु इस्हाक़ मुख़्तार इब्ने अबु उबैदे सक़फ़ी जैसे नामवर दिलावर अफ़राद पैदा हुए जिनकी मर्दानगी के नुक़ूश आज भी तारीख़ में मौजूद हैं।

मक्का की फ़तहा के बाद लश्करे इस्लाम ने ताएफ़ का रूख़ किया जहाँ क़बीला बनी सक़ीफ़ सुकूनत पज़ीर था वाक़ेआ यह पेश आया की अहले तायफ़ शिकस्त ख़ाकर पीछे हटे और शहर में क़िला बन्द हो गया।

लश्करे इस्लाम ने शहर का मुहासिरा कर लिया उनके बाग़ात व काश्त को बर्बाद किया मगर शहर पर क़ाबिज़ न हो सके की ज़िक़ाद का महिना आ गया और लश्करे इस्लाम मुहासिरा ख़त्म करके मक्के रवाना हो गया बिन आख़ीर तायफ ने इस्लाम क़ुबूल किया और लश्करे इस्लाम के नामूर बहादुरों में शुमार हुआ।

 

पिदरे मुख़्तार

पिदरे मुख़्तार (अबु उबैद बिन मसऊदे सक़फ़ी) मुजाहिदे इस्लाम ईरान और इस्लाम की जंग में शहीद हो गये यही मुख़्तार का बाप एक रोज़ इस्लाम के ख़िलाफ़ जंग कर रहा था लेकिन आज इस्लाम की राह में जान दे रहा है वजह ज़ाहिर और रौशन है कि जिस ज़माने में इस्लाम की हक़्क़ानियत पर पर्दा डाल कर उसको दीने हक़ की सदाक़त से ग़ाफ़िल रखा गया था तायफ़ की जंग के बाद उसको मालूम हुआ की दीने इस्लाम की तमाम अदयान से बेहतर और बर्तर है चुनाँचे इस्लाम के लश्कर के सरदारों में नाम पाकर इस्लाम की राह में जामे शहादत पिया।

जंगे ईरान और इस्लाम में मुख़्तार अपने बाप के हमराह था मगर कमसिन होने की वजह से शरीक़े जंग न था बाप की शहादत के बाद अपने चचा की सरपरस्ती में जो मोहिब्बे अहलेबैत था ज़िन्दगी बसर की।

मादरे मुख़्तार

मुख़्तार की वालिदा (दो-मतुल हसना) एक शेर दिल और शेर परवर ख़ातून थीं  उनकी शुजाअत और दिलेरी के अफ़साने बेशुमार हैं हम ब-नज़रे इख़्तेसार सिर्फ़ इस वाक़ेआ पर इक्तेफ़ा करेंगे के इस्लाम और ईरान की जंग में यह ख़ातून अपने शौहर अबु उबैद ए सक़फ़ी के हमराह मसरूफ़े जेहाद थी और इस बहादुर ख़ातून ने उस जंग में अपने बहादुर शौहर को जामे शहादत पीते देखा।

कारनामा ए मुख़्तार

बाप की शहादत के बाद मुख़्तार ने अपना चचा साद बिन मसऊद की ज़ेरे सरपरस्ती जवानी का ज़माना गुज़ारा क्योंकि यह सारा घर इस्लाम का ख़ैर ख़ाह और दोस्तदाराने अहलेबैते अतहार था। मुख़्तार के दिल में भी मोहब्बते अहलेबैत जोश ज़न थी। सिर्फ़ दो वाक़ेआत हम पेश कर रहे हैं जो मुख़ालेफीने मुख़्तार के रूख़सार पर एक ज़बरदस्त तमाचा है।

(1) जिस ज़माने में ज़्याद बिन अबीहा हाकिमे कूफ़ा था। हजर इब्ने अदी के ख़िलाफ़ दोस्ती ए अहलेबैत (अ.स) के जुर्म में एक शिकायत नामा तैयार किया गया जिस पर मोअज़्ज़ेज़िने कूफ़ा के दस्तख़त लिये गये जब मुख़्तार की बारी आई तो मुख़्तार ने उस पर दस्तख़त करने से साफ़ इन्कार कर दिया।

(2) जब कूफ़ा की हुकूमत मुख़्तार के क़ब्ज़े में गई तो मुख़्तार ने अहलेबैते अतहार (अ.स) से दरख़ास्त की के वह इस हुकूमत को जो उन्हीं का हक़ है मन्ज़ूर फ़रमालें।

(अल-अफ़्फ़ानी जिल्द 4 स.7)

मुख़्तार के इज़्ज़त व एहतेराम की हुकूमते वक़्त की नज़र में एक ख़ास वजह यह थी कि मुख़्तार की हमशीरा अब्दुल्लाह बिन उमर से जिसकी इज़्ज़त हुकूमत ख़ुद करती थी मनसूब थी।

तव्वाबीन की हंगामा आराई के वक़्त मुख़्तार की ज़िन्दगी से रिहाई का बायस भी यही रिश्ता बना।

 

मुख़्तार की फ़िदाकारी

जिस ज़माने में इमाम हसन (अ.स) और मुआविया में नेज़ाअ और जंग की सूरत पेश आई और सल्तनते ज़ाहिरी मुआविया के ग़ासेबाना हाथों में जा पहुँची शिया पैरू ए इमाम रहे और दुनिया परस्तों की अकसरियत ने अमीरे शाम के हाथ पर बैअत कर ली। मुख़्तार उस ज़माने में अमीरे शाम की ईरानी और रूसी शहनशाहिय्यत के जलवे देखकर और यज़ीद की वली अहदी का एलान सुनकर सोचता था कि यह जाह व जलाल और यह शान व शौकत यह हुकूमत में वरासत ख़िलाफ़े अहकामे इस्लाम है इसके ख़िलाफ़ हर मुस्लमान का फ़रिज़ा ए अव्वालीन है कि इस्लाम के रौशन एहकाम को ज़िन्दा रखने हक़्क़े अहलेबैत (अ.स) को वापिस लेने की कोशीश करें चुनाँचे मुख़्लेसाना तौर पर मुख़्तार काफ़ी मुद्दत इन्क़ेलाब की तदाबीर में मुनाफ़क्क़िर नज़र आता है।

 

शख़्सियते मुख़्तार

मुख़्तार मुजाहिदाने इस्लाम में एक बे-बदल मुजाहिद था जिसने अपने मक़सद की कामयाबी में इन्तेहाई मसायब और दुशवारियों का सामना किया। अशराफ़े कूफ़ा में एक शरीफ़ तरीन इन्सान था जिसकी शराफ़त, ज़ेहानत और मतानत के लिये यह वाक़ेआ बहुत काफ़ी है कि एक रोज़ अय्यामे तेफ़ूलियत में मुख़्तार को हज़रत अली (अ.स) की ख़िदमत में ले जाया गया। हज़रत बे- इन्तेहा शफ़क़्क़त व मोहब्बत से पेश आये अपनी आग़ोशे मुबारक में बैठा लिया सर पर हाथ फेरते जाते थे और ( या क़य्यिस या क़य्यिस ) ऐ अक़्लमन्द ऐ अक़्लमनद फ़रमाते जाते थे गोया हज़रत किसी आने वाले वक़्त के लिये उस बच्चे की ज़ीरकी की पेश गोई फ़रमा रहे थे।

मुख़्तार एक वह इन्क़ेलाबी मुजाहिद है जिसका मुसलमानों की अक्सरियत ने साथ दिया मुख़्तार एक शरीफ़ जादा शरीफ़ुल खानदान होने के बावजूद हमेशा ग़ोरबा (निर्धन) और मेहनत कश मज़दूरों में ज़िन्दगी बसर करता उनके दुख दर्द व तकलीफ़ में उनके मुआविन व मददगार बनता यही बातें थीं जो उसकी ग़ैरे मामूली कामयाबी का बायस बनी वह आक़िल व आदिल था। अदल व इन्साफ़ के पेशे नज़र उसने आक़ाओ व सरमायादारों के हालात को ख़त्म करके उसने बराबरी का परचम लहराया और ताजीस्त अपने उस ईमान पर मुस्तहक़म रहा।

अहलेबैते अतहार (अ.स) का बे बदल दोस्तदार था। जनाबे मुस्लिम बिन अक़ील से बचपन की मोहब्बत और अक़ीदत थी। मुख़्तार यारे ब वफ़ा साहेबे जूदो सख़ा ग़रीबों का दोस्तदार महनत कशों का मददगार, नेक किरदार और ख़ुशगुफ़्तार था। हज्जाज बिन युसूफ़ जैसा दुश्मनने जान, मुख़्तार के मुताल्लुक़ कहता था कि मुख़्तार आतिशे जंग का भड़कने वाला और दुशमनों की सरकशी की सरक़ूबी करने वाला है।

उसकी बीवी जिससे बढ़कर राज़दां नहीं हो सकती कहती है कि मुख़्तार की रातें इबादत में और दिन रोज़े में गुज़रते थे।

 

तारीख़

तारीख़ गवाह है कि हर मुजाहिद ने अपने मक़ासिदे इन्क़ेलाबी को इब्तेदा में पोशीदा रखा है और अर्से दराज़ के बाद मुनासिब मौक़ा और महल पर ज़ाहिर किया है मुख़्तार के हालात भी इससे जुदा नहीं हैं। मज़कूरा वाक़ेआत और हालात से मालूम होता है कि बचपन ही से इन्क़ेलाबी हालात उसके दिल व दिमाग़ में गर्दिश कर रहे थे जो अय्यामें जवानी में गाहे- गाहे ज़ाहिर होते रहे और बिल आख़ीर आज़मूदाकारी, तजुर्बा कारी में पुख़्तागी आने के बाद एक अज़ीम तहरीक़ की सूरत में ज़ाहिर हुए। मुख़्तार को इस तहरीक़ में अमली जामा पहनाने में बड़ी दिक़्क़ते आईं। इस लिये की उस ज़माने में उमवी जाबिर हुकूमत बर- सरे इक़्तेदार थी। आज़ादी ख़ाह और आज़ादी पसन्द अफ़राद पर हुकूमत की कड़ी नज़र थी। मुख़्तार अपने आफ़कारे इन्क़ेलाबी को सामने लाने के लिये मौक़े का मुन्तज़िर रहा। मुख़्तार के तारीख़ी कारनामों का दोहराना अगर चे ज़्यादा मुफ़ीद नहीं लेकिन अगर तौफ़ीक़ाते इलाही शामिल हों तो क्या अजब कि आज़ादी पसन्द नौजवानों के लिये दर्से इबरत हो सके।

हज़रते मुस्लिम (अ.स) का कूफ़े में दाख़िला

पाँचवी शव्वाल को ब-रवायते तबरी व इब्ने असीर हज़रत मुस्लिम (अ.स) कूफ़े में दाख़िल हुए और अपने बचपन के दोस्त मुख़्तार के घर को जाए- अम्न क़रार दिया क्योंकि तमाम अहले कूफ़ा मुख़्तार की बे इन्तेहा इज़्ज़त करते थे मुख़्तार आपकी तशरीफ़ आवरी से बे इन्तेहां ख़ुश हुए और बड़ी इज़्ज़त व एहतेराम से पेश आये। हज़रत मुस्लिम को उनके पेशवाये बुज़ुर्ग हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की तरफ़ से जो प्रोग्राम सुपुर्द हुआ था उसमें एहले कूफ़ा के ख़यालात और अफ़कार का जायज़ा भी लेना था चुनाँचे आपने मुख़्तार को हुक्म दिया कि वह अतराफ़े कूफ़ा में इन उमूर का जायज़ा लें। मुख़्तार हालियाने कूफ़ा का जायज़ा लेने और अपना हम ख़याल बनाने की ग़रज़ से कूफ़े से रवाना हुआ। हज़रत मुस्लिम हानी बिन उरवा के मकान में मुनतक़िल हो गये। अठ्ठारह हज़ार कूफ़ियों ने हज़रत मुस्लिम के हाथ पर बैअत कर ली, कि इब्ने ज़्याद कूफ़े का हाकिम बनाकर भेज दिया गया। जाबिर हुकूमत नें डरा धमका कर तमअ ए ज़र के वायदा वईद करके अहले कूफ़ा को अपना हम ख़्याल बना लिया मगर लोगों के दिल अभी जनाबे मुस्लिम ही की तरफ़ मायल थे। मगर क़त्ल होने, क़ैद होने और ला-वारसी ए अतफ़ाल के ख़ौफ़ ने हज़रत मुस्लिम का साथ देने से बाज़ रखा और उन लोगों ने यह बेहतर समझा कि उमूरे सियासी में ख़ामोशी ही इख़्तेयार की जाये, और घर के गोशे में ख़ामोश बैठकर हज़रत की कामयाबी की दुआ करते रहें।

लेकिन इस मामले में जान को अज़ीज़ रखना सही न था। क्या कभी सुना है कि मुसलमाने इस्लामी ग़ज़वात में अस्लेह से दस्तर्बदार होकर मस्जिद में दुआ के लिये बैठ गयें हों और जंग में फ़त्हा पा ली हो। मुजाहिदीने इस्लाम ने जब सर ब कफ़ होकर जान की बाज़ी लगाई तब मुसलमानों को फ़त्हा व कामरानी नसीब हुई है देखो इमाम हुसैन (अ.स) ने अगर शब को दुआ के लिये मोहलत चाही तो दिन को जान की बाज़ी लगाई। अगर इमाम (अ.स) के अन्सान ने रात इबादत में गुज़ारी तो दिन को दरगाहे ख़ुदावन्दी में सर को नज़्र कर दिया।

अबुल फ़ज़लिल (अ.स) नें अगर रात नमाज़ियों की हिफ़ाज़त में बसर की तो दिन में राहे ख़ुदा में सर दे दिया। मर्दुमें कूफ़ा क्यों सुल्हो पसंद बन बैठे क्यों इस्लाम को सिर्फ़ नज़रे ज़ाहिर से देखा उन्हें चाहिये था कि हज़रत मुस्लिम का साथ देते क्योंकि वह नायबे इमाम थे और इमाम की तरफ़ से इजाज़त याफ़्ता थे। क्या यह इजाज़त सिर्फ़ हज़रत मुस्लिम (अ.स) के वास्ते थी। हमें ज़रा अपने हाल पर नज़र करनी चाहिये। हमारा हाल भी इस वक़्त कूफ़ियों से कम नहीं। आख़ीर कार हज़रत मुस्लिम शहीद हुए और तमाम कूफ़े में सिर्फ़ एक जान फ़रोश हानी बिन उरवा निकला जिसने हज़रत मुस्लिम पर जान निसार कर दी और सिर्फ़ एक औरत जिसने अपने घर में पनाह दी। आख़ीर वह वक़्त आया कि हज़रत मुस्लिम दारूल-अमारा से फेके गये। सारा कूफ़ा बेचैन था लेकिन क़ैद व बन्द के ख़ौफ़ से अपनी बेचैनी और इज़्तेराब को भी ज़ाहिर नहीं कर सकता था।

 

मुख़्तार की कूफ़े की तरफ़ वापसी

मुख़्तार नें वापसी पर शहर को पुर आशोब देख कर अन्दाज़ा लगाया कि ज़रूर कोई हादिसा हुआ है। कूफ़े में दाखिल होते वक़्त अबु क़दाम ए शामी पासबाने दरवाज़ा ए शहर से मुलाक़ात हुई अबु क़दाम से शहादत हज़रत मुस्लिम (अ.स) का हाल मालूम करके मुख़्तार और मुख़्तार के साथी इस क़द्र मुतास्सिर हुए कि देर तक रोते रहे।

मुख़्तार ने क़बाएल के बहादुर साथियों को रूख़सत किया और ख़ुद कूफ़े में तन्हा दाख़िल हुआ इससे मालूम होता है कि मुख़्तार को हज़रते मुस्लिम (अ.स) के क़ैद होने और शहीद होने का बिल्कुल इल्म नहीं था।

दूसरे दिन मुख़्तार की मुलाक़ात अमरौं बिन हरीस निगेहबाने शहर से हुई। अमरौ ने मुख़्तार को उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद से मिलने का मशविरा दिया।

(बद बातिनी)

मुख़्तार ने उसकी सरकशी और बद बातिनी के बायस उससे मिलने से इन्कार कर दिया मगर अमरौ हिफ़ाज़त का वायदा कर के मुख़्तार को उबैदुल्लाह के पास ले गया मुख़्तार निहायत लापरवाही और बे-एअतेनाई से उबैदुल्लाह के सामने जा बैठा जिसको यह मुताकब्बिर और ख़ुद परस्त इन्सान देख कर बर आशोफ़्ता हुआ और कलमाते नाज़ेबा मुख़्तार के लिये इस्तेमाल किये कि क्यों मुस्लिम को अपने घर में पनाह दी। मुख़्तार जवाब देना चाहता था कि अमरौ ने मुख़्तार की तरफ़दारी में कुछ कल्मात कहे ही थे कि अबु क़दामा के शिकस्त ख़ौरदा साथी उबैदुल्लाह के दरबार में दाख़िल हुए और मुख़्तार की शिकायत की, उबैदुल्लाह ने निहायत बर अफ़रोख़्ता होकर मुख़्तार को क़ैद का हुक्म सादिर कर दिया।

 

शेर पिंजरे में

मुख़्तार उबैदुल्लाह के हुक्म से क़ैद कर दिया गया लेकिन यह ज़िन्दान मुख़्तार के लिये बेहतरीन दर्सगाह साबित हुआ। यहाँ मुख़्तार को मीसमे तम्मार जैसे दीनदार बुज़ुर्ग से मुलाक़ात और उनके तजुर्बात से फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला। हज़रत इमाम हुसान (अ.स) के ख़ूने नाहक़ के इन्तेक़ाम के सिलसिले में मीसमे तम्मार ने मुफ़ीद राय और पेश बीनी की राहें दिखलायीं। तारीख़ गवाह है कि अवाम की परेशान हाली और सल्बे सल्बे आज़ादी ही अवाम को हुकूमत दुशमनी पर आमादा करती रही है। मुख़्तार बावजूद कूफ़े के मुमताज़ और मोअज़्ज़ज़ होने के हमेशा मज़लूमों और कमज़ोरो का मुआविन व मददगार रहा। इस लिये ग़ुलामी की जकड़ी ज़ंजीरों में अवाम की कसीर जमाअत मुख़्तार की हम ख़याल हो गई। मुख़्तार की क़ैद ख़ाने में पा सिर्फ़ मीसमे तम्मार की बल्कि उमैर इब्ने आमिर से भी मुलाक़ात हुई। मीसमे तम्मार हज़रत अली (अ.स) के असहाबे ख़ास में से थे और यही एक वजह उनकी क़ैद की हुई और हज़रत (अ.स) की पेशीन गोई के बिल्कुल मुताबिक़ आपकी शहादत वाक़ेअ हुई। उमैर इब्ने आमिर कूफ़े के उलमा में से एक मुमताज़ आलिम- मोअल्लिम और दोस्तदाराने अहलेबैत (अ.स) में से था दर्सगाह में जब के मशग़ूले दर्स थे प्यास मालूम हुई और पानी पीने के बाद आपने इमाम हुसैन (अ.स) पर दुरूद भेजा तलबा में सनान बिन अनस का लड़का भी था उसने बाप से दुरूद भेजने का हाल जा कहा और यही वजह उनके क़ैद की हुई। हुकूमत ख़ूब जानती थी कि जब तक नामे हुसैन (अ.स) लोगों के दिलों से ख़त्म न होगा हुकूमत की पायदारी और इस्तहक़ाम नामुमकिन हैं। एक अर्से बाद अमीर बिन आमीर अपने भाई की सिफ़ारिश से जो दरबारी अफ़सर था रिहा हुए। मुख़्तार ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाया और एक ख़त अपनी क़ैद व बन्द के हालात का अब्दुल्लाह बिन उमर बिन ख़त्ताब को जो मुख़्तार का बहनोई था लिखकर दे दिया कि यज़ीद से रिहाई की सिफ़ारिश करे ये वह मवाक़े हैं जिनमें एक आज़ादी चाहने वालें मुजाहिद को क़ैद व बन्द में रहते हुए भी मामूली फ़ुर्सत को हाथ से न जाने देना चाहिये, और उससे बड़े से बड़ा फ़ायद उठाने चाहिये। मुख़्तार चाहता था कि क़ैद से निकल कर आवाम को ख़ाबे ग़फ़लत से बेदार करें और हुसूले आज़ादी में क़ुर्बानियाँ देने से भी दरेग़ न करें। यज़ीद के हुक्म से उबैदुल्लाह मुख़्तार के आज़ाद करने पर मजबूर हो गया और इस शर्त पर रिहा किया कि फिर हुकूमत के ख़िलाफ़ किसी सियासी कोशिश में हिस्सा न लें और तीन रोज़ के अन्दर कूफ़े से निकल जायें।

 

मुख़्तार की हिजाज़ को रवानगी

इन मज़कूरा शरायत पर मुख़्तरा रिहा होकर मक्के की तरफ़ चल पड़ा और मक्का पहुँच कर सुना की अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर इन्तेक़ामे हुसैन (अ.स) का दावेदार है यह सुन कर दिल ही दिल में बहुत ख़ुश हुआ कि एक हम ख़याल साथी और मिल गया फ़ौरन अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर से मिलकर उसको अपनी हिमायत का यक़ीन दिलाया। अब्दुल्लाह क्योंकि मुख़्तार की नुमायां शख़्सियत और मक़बूलियत से ख़ूब वाक़िफ़ था फ़ौरन राज़ी हो गया मगर बाज़ मोअर्रेख़ीन ने लिखा है कि मुख़्तार को अपना रक़ीब समझ कर वह इम काम में अपना शरीक न करना चाहता था अपने असहाब के इसरार और मशविरे के बाद राज़ी हुआ। यज़ीद की मौत के बाद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने अपना रूख़ बदला बजाये इन्तेक़ाम के अब वह सल्तनत और अवाम पर हुकूमत की गुफ़्तुगू करता और ख़ूने हुसैन (अ.स) के इन्तेक़ाम के सिलसिले में कभी ज़बान ही नहीं खोलता। मालूम हुआ, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने यह देखकर कि अवाम इन्तेक़ामें ख़ूने हुसैन (अ.स) के प्यासे हैं उनको अपनी तरफ़ मायल करने के लिये इब्तेदा में अवाम के सामने ख़ुद को ख़ूँ ख़ाही के रंग में पेश किया था। मुख़्तार ने अब्दुल्लाह का यह रंग देख कर कूफ़े का रूख़ किया क्योंकि अगर उसका इरादा हुकूमत करना होता तो अब्दुल्लाह का साथ न छोड़ता। मुख़्तार सिर्फ़ अवाम की आज़ादी और इन्तेक़ामें ख़ूने हुसैन (अ.स) का ख़ाहाँ था। कूफ़े में उस वक़्त पहुँचा जबकि तव्वाबीन का गरोह इन्तेक़ामें ख़ूने हुसैन (अ.स) के लिये तैयार हो चुका था। मुख़्तार ने कूफ़े में अपने घर पर मोअज़्ज़ेज़ीने कूफ़ा की एक मजलिस मुनक़्क़द की जिसमें अपने अजायम और मक़ासिद की वज़ाहत की गई। मोअज़्ज़ेज़ीने कूफ़ा ने एक होकर मुख़्तार से दर्ख़ास्त की कि वह अभी कुछ तवक़्क़ुफ़ करें और अपने इरादे को अमली जामा न पहनायें क्योंकि अहले कूफ़ा से सुलेमान बिन सर्दे ख़ुज़ाई ने बैअत ले ली है।

मुख़्तार गाहे गाहे लोगों से इस सिलसिले में बात करता और उनकी तवज्जोह अपने मक़सद की तरफ़ मुन- अतिफ़ करता रहा। शाही इनामात के वायदे वईद जैसा कि हर हुकूमत करके लोगों को अपनी तरफ माएल करती है दर हक़ीक़त बेकार और फ़ुज़ूल है, इसलिये कि क़ौम व मिल्लत जानती है और ख़ूब समझती है कि कौन दोस्त है और कौन दुशमन और जब ताक़त पकड़ लेती है तो इन्केलाबे अज़ीम का बायस होती है। मुख़्तार जानता था, और अपने फ़रायज़ को हत्तुल- इम्कान अदा करता रहा।

 

 

तव्वाबीन (तौबा करने वाले)

इससे पहले की हम इस गरोह के हालात पर रौशनी डालें ज़रूरत है कि लफ़्ज़ (तव्वाबीन) की वज़ाहत कर दें। तव्वाबीन के माना तौबा  करने वालों के हैं। तौबा वह करता है जो अपने गुज़ीश्ता अमालों से ज़िश्त से नादिम होकर अहद करे कि आइंन्दा वह अमले ग़ैरे मुस्तहसन न करेगा। यहाँ तव्वाबीन से मुराद उन लोगों से है जिन्होनें तीसरी ख़िलाफ़त के बाद हज़रत अली (अ.स) के हाथ पर बैअत की थी और अब ख़ूने हुसैन (अ.स) और इन्तेक़ामे हुसैन (अ.स) लेने जमा हुए थे। उनका मक़सद सिर्फ़ यह था कि ज़ालिम के तरफ़दारों को ज़्यादा से ज़्यादा क़त्ल करें और ख़ुद भी शहीद हो जायें।

 

गिरोहे तव्वाबीन

इस जमाअत की बुनियाद 61 हिजरी में बादे शहादते इमामे हुसैन (अ.स) पड़ी लेकिन यह लोग चाहते थे कि अपने इरादों को कुछ साल पोशीदा रखें। इस गरोह ने अपने इरादों को 61 हिजरी से 64 हिजरी तक पोशीदा रखा और आलाते जंग व सामाने हर्ब मोहय्या करते रहे हत्ता के 64 हिजरी में यज़ीद वासिले जहन्नम हो गया उसे बाद तब्लीग़े इन्क़ेलाबी का आग़ाज़ हुआ और सुलेमाने बिन सर्दे ख़ुज़ाई की सरकर्दगी में बसरा और कूफ़े के इर्द- गिर्द मुरासलत शुरू हो गई और बुज़ुर्गाने जमाअत ने इस काम मे काफ़ी रूपया ख़र्च किया।

आशूरा के बाद सुलेमान बिन सर्द मुख़्तार के साथ क़ैद में था। आज़ाद होने पर मुख़्तार मक्के की तरफ़ चला गया और सुलेमान ने कूफ़े में रहकर मख़्फ़ी कोशिश जारी रखी।

जिन लोगों ने उबैदुल्लाह बिन ज़्याद  से रिश्वत ले कर ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली थी आहिस्ता- आहिस्ता शर्मसार और नादिम हुए। उसी ज़माने में सुलेमान ने भी उन लोगों को अपनी तरफ़ कर के इन्तेक़ाम और ख़ून चाहने पर तैयार कर लिया। सबसे पहले सुलेमान ने मोअज़्ज़ेज़ीने कूफ़ा से जो अहलेबैत अतहार (अ.स) से ताल्लुक़ रख़ते थे, बात की, जिनमें अबदुल्लाह बिन वाल, वलीद बिन हसीन भी थे। लोगों ने इसी मजलीस में सुलेमान को अपना रहबर चुन लिया। चुनने के बाद सुलेमान ने एक दिलकश पुर ज़ोर तक़रीर की। हाज़िरीन ने इस तक़रीर के बाद ख़ुद को एक बड़ी तारीकी मे देखा और अहद कर लिया की शहीद होने से पहले हम आराम से न बैठेंगे। इसी मजलिस में अरकाने मजलिस के तक़सीमें कार का इन्तेख़ाब हुआ।

बेहतरीन अफ़राद के सुपुर्द मैदाने जंग का फ़रीज़ा किया गया। पहले बताया गया कि यज़ीद के मरने के बाद और दूसरी रवायत से मरवान के मरने के बाद इन्तेक़ाम का खुल्लम खुल्ला काम हुआ। इन्तेक़ाम की आवाज़े हर तरफ़ से उठीं। या सारातुल हुसैन (अ.स) की सदाओं से कूफ़े की फ़िज़ायें गूँजने लगीं।

या-सारातुल-हुसैन का फ़िक़रा तव्वाबीन का ईजाद किया हुआ है। अरबी डिक्शनरी में "सार" के माना (अर्थ) तहरीक या जुंबिश के हैं, यह कह कर लोगों को इन्तेक़ाम में शिरकत के लिये बुलाया जाता था। चुनाँचे 16 हज़ार अफ़राद की भीड़ इमाम के चाहने वालों की जमा हो गई। इसमें ज़्यादातर वे लोग थे जिन्होंने दावते इमाम (अ.स) पर "लब्बैक" न कही थी और अब अपनी ग़लती का एहसास करके शर्मिन्दा थे। मुक़र्रेरीन गरोह अपनी पुर- ज़ोश तक़रीर से लोगों के दिल हिला देते थे जिससे इन्तेक़ाम की आग और भी भड़क गई। इन्ही तक़ारीर करने वालों में एक ख़तीब ख़ालीद बिन कूफ़ी भी था जिसने अपनी तक़रीर में यह कहा कि ख़ुदा की क़सम अगर हमारी तौबा दरगाहे अहादीस में क़ुबूल हो जाये और वह मुन्तक़िमे हक़ीक़ी मुझसे राज़ी हो जाये तो अपना सब माल व मताअ उसकी राह में क़ुर्बान कर दूगाँ सिवाय उस तलवार के जिससे ज़ालिमों से जंग करूँ यहाँ तक के क़त्ल हो जाऊँ। मक़सद यह की इस क़िस्म की तक़रीरें लोगों के मुर्दा एहसास में ज़िन्दगी डाल कर फ़िदाकारी और जाँनिसारी पर आमादा और तैयार कर रही थीं।

 


आग़ाज़े कार (शुरूआत)

मुख़्तार ख़ुद को क्यों कि मोहम्मदे हनफ़िया का नुमायन्दा ज़ाहिर करता था अहले कूफ़ा ने साथ देने से इन्कार कर दिया। इस तरफ़ अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर से भी मायूस हो चुका था लिहाज़ा तन्हा अपने हुसूले मक़सद के लिये तैयार हुआ। मुख़्तार की सुलेमान का साथ न देने की वजह सिर्फ़ यह थी कि मुख़्तार और सुलेमान के नज़रिये में ज़रा इख़्तेलाफ़ था। मुख़्तार जाबिर हुकूमत के ख़िलाफ़ खड़ा हो कर मज़लूमों की दादरसी चाहता था और अभी वह इन्तेक़ामे शोहदा को छिपाये रखना चाहता था।

इसके बर- अक्स (विपरीत) सुलेमान और उसके साथी सिर्फ़ क़ातेलीने शोहदा- ए- कर्बला से इन्तेक़ाम लेना चाहते थे। मुख़्तार ने तव्वाबीन की जमाअत में इख़्तेलाफ़ और इन्तेशार पैदा कर दिया और ख़ुद को नुमायन्दा- ए- मो0 हनफ़िया ज़ाहिर करता था। बहुत से अहले कूफ़ा उनके हम ख़्याल बन गये, यहाँ तक की तव्वाबीन की जमाअत जो सोलह हज़ार थी सिर्फ़ चार हज़ार रह गई।

 

 

सौगन्दे वफ़ादारी

सुलेमान अपनी क़िल्लत (कमी) के बावजूद मायूस न हुआ और सबसे पहला इक़दाम शोहदा की क़ब्रों पर जाकर यह अहद (वचन) करना और क़सम खाना था लिहाज़ा यह सब कर्बला की तरफ़ चल पड़े। कूफ़े से निकलने के वक़्त उनकी तादाद चार हज़ार थी कर्बला पहुँच कर एक हज़ार अफ़राद और शामील हो गये और एक रात क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स) पर मुतावातिर (निरन्तर) रोते रहे और तौबा व अस्तग़फार के बाद दरगाहे अहादीस में यह दुआ करते थे कि ख़ुदा क़ातिलाने शोहदा से इन्तेक़ाम लेने की तौफ़ीक़ अता फ़रमायें मगर अफ़सोस ग़ुर्बत व बेकसि- ए हुसैन (अ.स) और ज़ैनबे कुबरा की दरबदरी पर एक आँसू भी उस वक़्त न बहा सके। अब अश्कों का ख़ूनी सेलाब जबकि वे मुजाहेदीन ज़ेरे ख़ाक हैं बहाया जा रहा है। इसी दौरान सुलेमान को मालूम हुआ कि इब्ने ज़्याद एक भारी लश्कर के साथ उनकी सर- कूबी को आ रहा है। इस ख़बर के मालूम होते ही सुलेमान ने एक पुरज़ोश तक़रीर की और एलान किया कि मेरे क़त्ल के बाद सरदारे लश्कर मुसय्यब फिर अब्दुल्लाह इब्ने साद फिर अब्दुल्लाह इब्ने वाल होंगे। इस पुर असर (प्रभावपूर्ण) तक़रीर के बाद सुलेमान और मुसय्यब दूसरें सरदारों के साथ शाम के लश्कर पर हमलावर हुए। कुछ देर रद्दो- बदल के बाद शामी लश्कर भाग खड़ा हुआ। शामी लश्कर की शिकस्त का हाल इब्ने ज़्याद को मालूम हुआ। इस ख़बर को पहुँचते ही बारह हज़ार शामी फ़ौज और रवाना हुई। तीन रोज़ मुतावातिर (निरन्तर) जंग होती रही। शामी घबरा उठे मगर शामी सरदार हसीन बिन नमीर की एक चाल कामयाब हुई और तव्वाबीन को मुहासिरे में ले लिया और शहादत की आरज़ू रखने वाला सुलेमान दर्जा- ए शहादत पर फ़ायज़ हुआ।

इसके बाद हर सरदार बित- तरतीब शहादत पाता रहा और बाक़ी- मान्दा (बचा हुआ) लश्कर ने ख़ुद को बग़ैर सरदार के पाकर कूफ़े का रूख़ किया इस तरह जिन लोगों ने इमाम हुसैन (अ.स) का साथ न दिया था और सुकूत इख़्तेयार किया था सब के सब शहीद हो गये।

 

आग़ाज़े जंगे मुख़्तार (जंगे मुख़्तार की शुरूआत)

तव्वाबीन के कूफ़े से रवाना होने पर मुख़्तार ने अपने काम का आग़ाज़ (शुरूआत) किया और तव्वाबीन की कसीर जमाअत को अपनी तरफ़ माएल कर लिया अक्सर आलाते जंग के न होने का उज्र करके सुलेमान के हमराह कर्बला न गये। मुख़्तार की पुर असर और पुर जोश तक़रीर अहले कूफ़ा को अपनी तरफ़ माएल कर रही थी। उमर बिन साद और सीस इब्ने रबई जो क़त्ले हुसैन (अ.स) में शरीक थे यह देखकर कि मुख़्तार क़ातिलाने हुसैन (अ.स) से बदला लेगा और एक को भी बाक़ी न छोड़ेगा तो अब्दुल्लाह बिन यज़ीद, वालिये इब्ने ज़ुबैर के पास गये और मुख़्तार को क़ैद करने का मशविरा दिया और कामयाब हुए मुख़्तार को दुबारा क़ैद कर लिया गया।

 

नया क़ैद ख़ाना

इस मर्तबा मुख़्तार क़ैद ख़ाने में बे-इन्तेहा परेशान था क्योंकि मुख़्तार आग़ाज़ कर चुका था। लोग उसका साथ देने पर आमादा हो चुके थे, ऐसी हालत में क़ैद हो जाना उसके मक़सद के लिये सख़्त नुकसान देने वाला था। मगर मुख़्तार फिर भी अपनी कोशीशों से बाज़ न रहा बाक़ी बचे तव्वाबीन की वापसी की ख़बर सुन कर मुख़्तार ने उनको ख़ुतूत (पत्रों) लिखे कि क़ैद से रिहा होकर वह शोहदा- ए- कर्बला का बदला लेगा और ख़ुदा से दुआ करता हूँ और तुम से वायदा करता हूँ कि ख़ुदा मुझे तौफ़िक़ अता फ़रमायें के मैं तुम्हारे साथ मय्यत इस काम को अन्जाम दूँ इस ख़त के पहुँचने पर गरोहे तव्वाबीन ने मुख़्तार को लिखा के वे बिल्कुल तैयार हैं और इजाज़त हो तो क़ैद से रिहाई की कोशीश की जाये। मुख़्तार ने इजाज़त न दी बल्कि यह लिखा कि मैं इन्शाल्लाह अनक़रीब क़ैद से आज़ाद हो जाऊँगा।

इसके बाद मुख़्तार ने अब्दुल्लाह बिन उमर को ख़त लिखा कि मुझे बिला वजह दो बार क़ैद किया गया है जल्द मेरी रिहाई की कोशिश की जाये। अब्दुल्लाह बिन उमर ने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को ख़त लिखा कि मुख़्तार को जल्द आज़ाद किया जाये ख़त को देखते ही इब्ने ज़ुबैर ने मुख़्तार को रिहा कर दिया। और मुख़्तार ने कूफ़ा पहुँच कर बुज़ुर्गाने कूफ़ा से मुशावेरती सर- गर्मियाँ शुरू कर दीं। लोगों ने इन शरायत पर मुख़्तार से बैअत की के वे क़ुर्आन और सुन्नत पर कार- बन्द रहेंगें ख़ूने हुसैन (अ.स) व शोहदा का बदला लें और आवाम को ज़ालिम हुकूमत के पंजे से निजात दिलायें लेकिन बाज़ लोगों ने कहा कि मुख़्तार क्योंकि ख़ुद को नुमायन्दा- ए हज़रत मो0 हनफ़िया ज़ाहिर करता है लिहाज़ा कुछ मोअतबर मख़सूस लोगों को मो0 हनफ़िया की ख़िदमत में तसदीक़ को भेजा जाये। चुनाँचे इसी मजलीस में तय पाया की कुछ आदमी मख़सूस मदीने भेजें जायें।

 

मदीना की तरफ

कुछ मख़सूस बुज़ूर्ग हज़रत मो0 हनफ़िया की ख़िदमत में मदीने पहुँचे और अर्ज़ किया कि मुख़्तार यह इरादा रखता है और ख़ुद को आपका नुमायन्दा ज़ाहिर करता है लाहज़ा आप हुक्म दें तो हम सब भी उसके शरीके कार हो जायें।

 

मो0 हनफ़िया का जवाब

यह अज़ीम मुसीबत जो हम अहलेबैत पर गुज़री हम सब मरमूम हैं ख़ुदा-ए- बुज़ूर्ग व बरतर ने इस शहादत को हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) के लिये मक़दूर फ़रमाया। बेशक शहादत हमारे लिये फ़ख़्र है और उस हकीमे मुतलक़ का कोई फ़ेल ख़ाली अज़ हिकमत नहीं होता मुख़्तार के बारे में सिर्फ़ इतना कहुँगा कि ख़ुदा की क़सम मैं दोस्त रख़ता हूँ उसको की ख़ुदा हमें तौफ़ीक़ दे कि हम दुश्मनाने हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) से इन्तेक़ाम लें सकें और ख़ुदायें बुज़ुर्ग की दरगाह में उन सब के लिये मग़फ़ेरत की दुआ करता हूँ। उसके बाद मो0 हनफ़िया उन लोगों को हज़रत अली बिन हुसैन (अ.स) की ख़िदमत में ले गये आपने कूफ़ियों का बयान सुन कर फ़रमाया,

हज़रत सज्जाद (अ.स) का जवाब

 अगर कोई हबशी ग़ुलाम भी हम अहलेबैत के हक़ के दिफ़ाअ के लिये आमादा हो जाये और हक़्क़े क़ुर्आन और अहलेबैत को ज़ालिमों के पंजों से निकाले तो हर शख़्स पर वाजिब है कि उसका साथ दे।

इसके बाद मो0 हनफ़िया से फ़रमाया कि तुम इनके मामले में वकील हो जो मुनासिब समझो हुक्म दो।

इस तरह कूफ़ी मुख़्तार के शरीके कार होने का तहय्या करके मदीने से कूफ़े की तरफ़ रवाना हुए।

हालांकि ख़ुशनूदी और ख़ल्क़ की बहबूदी के लिये किसी इस्तेख़ारे और मशविरे की ज़रूरत नहीं होती।

हज़रत सज्जाद (अ.स) के इस जवाब से मालूम हुआ कि हुक़ुक़ूल्लाह और हुक़ूक़ल इबाद की हक़ रसी के लिये ख़ड़ा होना और जंग करना वह इस्लामी फ़रीज़ा है कि हर मुसलमान को बावजूद ख़तरात के शरीके कार होना चाहिये और यह बहाना बाज़ी कि हमें पेशवा का हुक्म नहीं है लिहाज़ा सुकूत इख़्तेयार करना चाहिये। हक़ीक़त में आज़ादी चाहने वाले मुजाहिद को अकेला छोड़ने और हार का सामान फ़राहम (उपलब्ध) करने का बायस है। ये लोग मदीने से लौट कर मुख़्तार की ख़िदमत में हाज़िर हुए और जो कुछ हुआ था मुख़्तार को बतलाया मुख़्तार ने अपनी ज़्यादातर तक़रीरों (भाषड़ों) में नुमायन्दगी की तसदीक़ करते हुए अहले कूफ़ा को हम कारी की दावत दी। लोग जोक़ दर जोक़ मुख़्तार के शरीके कार होते रहे जो इन्क़ेलाबी इरादों के लिये मज़बूती का बायस (कारण) बने।

जमा- आवरिये- ताक़त (ताक़त का जमा होना) कूफ़ा अब्दुल्लाह इब्ने यज़ीद वाली- ए इब्ने ज़ुबैर की सर-कर्दिगी में था और मुख़्तार ताक़त और असलहा की जमअ आवरी में मसरूफ़ था कि इब्ने ज़ुबैर ने अब्दुल्लाह बिन यज़ीद की सादा लौही देख कर उसको हटा दिया और इब्ने मुतीअ को कूफ़े का हाकिम बना कर मक्के से कूफ़े रवाना किया इब्ने मुतीअ ने आते ही लोगों को कूफ़े की मस्जिद में जमा करके यूँ ख़िताब किया कि अमीरूल मोमेनीन अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने तुम्हारे शहरे कूफ़ा का मुझे हाकिम बना कर भेजा है तुम्हारे हर फ़ायदे में ख़याल रख़ूगाँ तुम पर भी फ़रमाबरदारी और इताअते अमीर लाज़ीम है मेरे जुम्ला अहकामात सीरते उमर और सुन्नते उस्मान के मुताबिक़ होंगे जाहिलों का साथ देना छोड़ दो वरना हुकूमत के नाफ़रमान और बाग़ी को सज़ा दी जायेगी। मजमें में से एक शख़्स उठा और अपनी बलन्द आवाज़ से जिससे पूरी मस्जिद गूँज उठी कहा कि हमें सुन्नते उमर व उस्मान से कोई ग़रज़ नहीं अगर तू हुकूमत करना चाहता है तो सुन्नते अमीरूल- मोमेनीन (अ.स) पर चलना पड़ेगा।

इब्ने मुतीअ यह ख़िलाफ़े उम्मीद आवाज़ सुनकर और मस्जिद के बहुत से लोगों की हामेकारी देखकर डर गया और एअतेराज़ करने वालों के साथ हो गया।

बाद में मालूम हुआ कि वह शख़्स मुख़्तार के ख़ास लोगों में से था। फ़ौरन मुख़्तार के हाज़िर होने का हुक्म सादिर हुआ। मुख़्तार ने बीमारी का बहाना करके जाने से इन्कार कर दिया। मुख़्तार ने यह हालात देखकर मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर शियों को शिरकत के वास्ते ख़ुफ़िया तौर पर ख़त लिखे सबसे अहम ख़त इब्राहीम बिन मालिके अश्तर के नाम था, क्योंकि उसका बाप मालिके अश्तर हज़रत अली (अ.स) के लश्कर के ख़ास सरदारों में और दोस्तदारे अहलेबैते अतहार (अ.स) और अरब के एक बड़े मारूफ़ क़बीले का सरदार था। बाक़ी ख़त व किताबत के बाद तय यह पाया कि मुख़्तार ख़ुद इब्राहीम से जाकर इस सिलसिले में ज़बानी गुफ़्तुगू करें।

मुख़्तार आदमियों को लेकर इब्राहीम से मिलने गया और मो0 हनफ़िया का एक ख़त जिसमें इब्राहीम को लिखा था कि फ़ौरन मुख़्तार के साथ शामिल होकर दुशमन से मुक़ाबला करें, इब्राहीम को दिखाया, इब्राहीम ख़त के सही होने पर मुताद्दुद ( सही है या नहीं) था मगर साथियों की ताईद और मुख़्तार की पुर असर गुफ़्तुगू असर अन्दाज़ हुई और आख़िरकार इब्राहीम ने दोस्ती करते हुए मुख़्तार की बैअत करली इस मुजाहिद के शामील होने से मुख़्तार के इन्क़ेलाबी मुहीम में और जान पड़ गई और शुरूआत का ऐलान हो गया और वह वक़्त आ गया कि क़ातिलों से इन्तेक़ाम लिया जाये।

जज़्बाते इन्तेक़ाम हर साँस में उभर रहे थे बहादुरों के हथियार जंग के लिये तैयार थे जान से खेलने और जान को क़ुर्बान करने का शौक उछल रहा था। हर आदमी असलहे से लैस नज़र आता था। राहे हक़ में ख़ूं रेज़ी सीनों में मचल रही थी और तौफ़ीक़े इलाही उनसे कह रही थी कि कामयाबी हासिल करने के लिये दुश्मन से ज़्यादा मुसल्लह और तैयार रहना चाहिये।

वे ख़ूब जानते थे कि सुलाह (संधि) और मुसालेहत से कोई मज़लूम और सितम- रसीदा क़ौम मसायब और ज़ुल्म के पंजे से निजात नहीं पा सकती। बग़ैर फ़िदाकारी और ख़ूं-ख़ारी के, ख़ू-ख़ार ताक़तवर दुश्मन पर ग़ल्बा नहीं पा सकती अब वक़्त वह आ गया है कि अपने तमाम पिछले मसायब को फ़रामोश करके दुश्मन के ख़िलाफ़ एलाने जंग बेदरंग कर दिया जाये। हर फ़र्द के हाथों में अब तेज़ धार हथियार और साफ़ व बेकीना दिलों में अब कीना और अदावत की आग भड़क रही थी वही लोग जो हुकूमत की ग़ैरे मामूली ताक़त से डरे हुए थे अब हाथों में हथियार लिये अबरूओं पर बल डाले फड़कती हुई नब्ज़ों से दुश्मन का ख़ून पीने को तैयार थे।

 

पहला मुक़ाबला

गुफ़्तुगू और मशविरों के बाद यह तय पाया कि जुमेरात के दिन 14 रबी-उल- अव्वल 66 हिजरी मुक़ाबले का दिन क़रार दिया जाये और उसके आने तक मुशावेरती मजलिसें मख़्फ़ी तौर (गुप्त रूप से) पर होती रहें और नक़्ल व हरकत से बा-ख़बर रहा जाये- शबे चहार 28 शंबा।

इब्राहीम 100 हथियारों से लैस सवारों के साथ मुख़्तार की तरफ़ रवाना हुआ उस रात इब्राहीम की मुलाक़ात कूफ़े की राहों (मार्गो)  और 38 मैदानों के मुहाफ़िज़ (रक्षक) अयास इब्ने मज़ारिब से हुई। अयाज़ इब्ने मज़ारिब ने इब्राहीम से पूछा तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो? इब्राहीम ने अपना तार्रूफ़ कराते हुए कहा एक ज़रूरी काम से जा रहें हैं, इब्ने मज़ारिब ने कहा कि अच्छा मैं तुम्हें अमीरे शहर के पास ले चलता हूँ, यह क्या ज़रूरी काम है जो इस वक़्त रात को पेश आया है।

इब्राहीम ने कहा अच्छा रास्ता दो ताकि हम रवाना हो जायें और तुम अपना काम करो। अयास बिन मज़ारिब आगे बढ़ा ताकि इब्राहीम को गिरफ़्तार करके दारूल अमारा ले जाये, इब्राहीम ने उसके साथियों में से एक का नेज़ा छीन कर अयास को क़त्ल कर दिया। दुश्मन के हथियार से ही दुश्मन को क़त्ल कर दिया। अयास के साथी अपने सरदार के क़त्ल होने को दखकर भाग खड़े हुए। इब्राहीम अयास का सर लेकर मुख़्तार के पास पहुँचा और पूरा वाक़ेआ बयान किया सबने इस वाकेआ को नेक फ़ाल समझ कर तय किया कि इसी रात जंग की शुरूआत कर दी जाये।

 


जंग (युध्द)

इब्राहीम और अयास के इस वाक़ेये के बाद मुख़्तार के घर का इब्ने मुतीअ के लश्कर से मुहासिरे का हर वक़्त (समय) ख़तरा था, लिहाज़ा तय पाया कि अभी आज शब मुक़ाबला शुरू कर दिया जाये। या सारातुल हुसैन की आवाज़े फ़िज़ाओं में गूँजने लगीं कूफ़े के हर घर में यह सदा ऐलाने जंग होकर पहुँची और बिला देर किये हर शख़्स लिबासे जंग पहनकर बताये हुए मक़ाम पर आ पहुँचा और सूरज निकलने तक तीन हज़ार आठ सौ जवान जंग के लिये आमादा हो गये, 13 रबी-उल अव्वल की सुबह को मुख़्तार का लश्कर (दैरे हिन्द) में जमा हो गया। सुबह की नमाज़ अदा करके सियाह पर्चम मुख़्तार ने लहराया और घोड़ा दौड़ाता लश्कर में दर आया और यूँ चिल्लायाः- ऐ मुजाहिदाने राहे ख़ुदा सय्यादुश्शोहदा इमाम हुसैन (अ.स) की मुक़द्दस रूह तुम्हें देख रही है। बहादुरों क्या तुम तैयार हो कि ख़ूने हुसैन (अ.स) का इन्तेक़ाम उनके ख़ू-ख़ार दुश्मनों से लेकर रूहे मुक़द्दस हुसैन (अ.स) को ख़ुश करो, लब्बैक- लब्बैक की आवाज़ों से फ़िज़ा गूँज उठी। इब्ने मुतीअ हाकिमें कूफ़ा ने राशिद इब्ने अयास की सरदारी में चार हज़ार का लश्कर मुक़ाबले को भेजा लेकिन इब्राहीम के पहले ही बहादुराना हमले ने सरदारे लश्कर को क़त्ल कर दिया। यह देखकर बाक़ी बची फ़ौज भाग ख़ड़ी हुई और इस ना-उम्मीद फ़त्हा ने मुख़्तार के लश्कर के दिल बढ़ा दिये।

राशिद इब्ने अयास के क़त्ल के बाद शीस इब्ने रबई लश्कर लेकर मुख़्तार पर हमलावर हुआ। जंग ने तूल पकड़ा शीस का लश्कर हमले पर हमला कर रहा था मगर मुख़्तार का लश्कर साबित क़दमी से जमा हुआ था कि इब्राहीम फ़त्हा व कामयाबी का पर्चम लहराता आ शामिल हुआ शीस के सिपाही इब्राहीम को देखकर मैदान छोड़कर भाग गये।

इन फ़ुतुहात के बाद मुख़्तार के लशकर में इज़ाफ़ा होता रहा और वे लोग जो अब तक ख़ामोश बैठे हुए थे आकर शामिल होते रहे फ़त्हेयाब मुख़्तार कूफ़े में दाख़िल हुआ और ख़ुशी व ख़ुर्रमी के नारों से कूफ़े के गली और कूचे गूँज उठे।

 

पहली ख़ुशख़बरी

तीन रोज़ के बाद इब्राहीम ने दारूल अमारा का मुहासिरा कर लिया और इब्ने मुतीअ हाकिमे कूफ़ा शीस के मशविरे से लिबास बदलकर कस्रे शाही से निकल भागा और सरदार भी फ़रार हो गये। बाक़ी बची कसीर तादाद ने मुख़्तार की बैअत कर ली और मुख़्तार के साथ शरीक हो गये।

रात मुख़्तार ने दारूल अमारा में गुज़ारी सुबह होते ही नमाज़े जमाअत का एलान हुआ मस्जिद नमाज़ियों से ख़चाखच भरी हुई थी मुख़्तार नमाज़े सुबह के फ़रायज़ अदा करने के बाद मिम्बर पर गया और एक फ़सीह व बलीग़ पुर असर ख़ुत्बा पढ़ा और ख़ुत्बे के ज़मन में यह भी कहा "ऐ कूफ़ियों क्या तुम वही नहीं हो जिन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की मदद में कोताही की और ख़ुद दावत देकर हज़रत से मुँह फेर लिया सुनो- सुनो अब वह वक़्त आ पहुँचा है कि तुम अपने गुज़रे हुए शर्मनांक आमाल की तलाफ़ी में मुजाहेदीन के शरीके कार हो जाओ और अपने दाग़दार शर्मनाक लिबास को दुश्मनों के ख़ून से धो डालो।

अब शहरे कूफ़ा पर मुख़्तार का क़ब्ज़ा था तमाम अहले कूफ़ा से क़ुर्आन, सुन्नते रसूले अकरम (अ.स) पर बैअत ली गई और जो कुछ इब्ने मुतीअ के ख़ज़ाने में था सब मुजाहेदीन में तक़सीम कर दिया कूफ़ा पर जो सियासते इसलामी की नज़र में एक अहम मक़ाम था कामिल क़ब्ज़ा होने के बाद ख़ुद-ब- ख़ुद इराक़ के शहर हुकूमत में शामिल हो गये और मुख़्तार तामम अतराफ़े इराक़ का वाहिद (अकेला) हाकिम बन गया।

तक़र्रूर इब्ने ज़्याद (इब्ने ज़्याद का नियुक्ति) अब्दुल्लाह बिन ज़्याद जो मरवान बिन हकम हाकिमे शाम के हुक्म से एक लश्करे कसीर के साथ इराक़ पर कब्ज़ा करने के लिये रवाना किया गया था अभी रास्ते ही में था कि मरवान की मौत की ख़बर मिली और साथ ही साथ अब्दुल मलीक बिन मरवान का जो बाप का जानशीन हो गया था खत मिला कि इराक़ की मुहिम को जारी रखा जाये उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद मुख़्तार के मुक़ाबले के लिये इराक़ तरफ़ रवाना हुआ। अब्दुर्रहमान बिन साद जो मुख़्तार की तरफ़ से मौसूल भेजा गया था परेशान था मुख़्तार को उसने एक ख़त लिखा ख़त के पहुँचते ही मुख़्तार ने जंगजू तीन हज़ार सिपाह यज़ीद बिन अनस की सर-कर्दिगी में फ़ौरन रवाना की उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद ने यह ख़बर सुनकर सात हज़ार फ़ौजी यज़ीद इब्ने अनस के मुक़ाबले के लिये और रवाना कर दिये।

ईदे क़ुर्बान (बक़रीद) के दिन दोनों लश्करों में मुक़ाबला हुआ यज़ीद इब्ने अनस बावजूद सख़्त बीमार होने के दो दिन लगातार लड़ता रहा आख़िर कार शामी लश्कर को शिकस्त हुई और तीन सौ शामी क़ैद होकर क़त्ल किये गये दो तीन रोज़ ही गुज़रे थे कि यज़ीद इब्ने अनस शदीद अलालत के बायस इन्तेक़ाल कर गये लश्कर ने इस हादिसे से परेशान होकर मुख़्तार को तमाम वाक़ेये से बा- ख़बर किया।

मुख़्तार ने ख़त पढ़ते ही बारह हज़ार बहादुर इब्राहीमे अश्तर की नियाबत में मौसल की तरफ़ दुश्मन की सर क़ूबी के लिये रवाना किये।

मुख़्तार के ख़िलाफ़ साज़िश शिम्र बिन ज़िल जोशन मोहम्मद बिन अशअस अब्दुर्रहमान बिन सईद, उमर बिन हज्जाज शीस इब्ने रबई- काब बिन अबी वग़ैरहम अशरार व ऊबाशे कूफ़ा ने जो तमाम तर ख़ूं रेज़ी-ए- हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) में शरीक थे और अब हर लहज़ा अपने क़त्ल हो जाने से डरे हुए थे। कूफ़े को इब्राहीम बिन मालिके अश्तर से ख़ाली देखकर मशविरा किया कि फ़ौरन हमला करके दारूल अमारा का मुहासिरा कर लिया जाये और उबैदुल्लाह बिन ज़्याद का इन्तेज़ार किया जाये।

इन इन्सानियत के गुनाहगारों, ज़लील इन्सानों, बरादर कश ख़यानतकारों और दुनिया की तारीख़ के बदकारों ने एक मुसल्लह फ़ौज तैयार की ताकि मुख़्तार को गिरफ़्तार कर लें चुनाँचे मुख़्तार पर हर रास्ता बन्द कर दिया गया। पहले ग़िज़ाई मुहासिरा हुआ फ़िर उन बदकिरदारों ने मुख़्तार और उनके साथियों पर पानी भी बन्द कर दिया मुख़्तार ने यह ख़तरनाक हालात देखकर इब्राहिम को ख़त लिखा कि फ़ौरन कूफ़ा आकर मुख़्तार की मदद करें।

कूफ़े के शूरिश पसन्द इन ज़लील अफ़राद ने अशरफ़े कूफ़ा को भी अपना हम ख़्याल बना लिया था क्योंकि अशरफ़े कूफ़ा समझते थे कि मुख़्तार की हुकूमत मसावत (बराबरी) पसन्द है।

मुख़्तार ने इस ख़तरनाक शूरिश का ब- ग़ौर (ध्यानपूर्वक) मुतालेआ (पढ़ना) किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि इस वक़्त की मौजूदा कमज़ोर हालत में मुक़ाबला दुशवार है लिहाज़ा इब्राहीम के वापिस आने तक निहायत नर्मी से नामा व पयाम में उन लोगों को लगाये रखा।

इब्राहीम के कूफ़े पहुँचने पर मुख़्तार ने इन्तेक़ामी जंग शुरू कर दी इब्राहीम ने शूरिशियों पर एक भरपूर हमला करके न सिर्फ़ शिकस्त दी थी बल्कि एक हज़ार तीन सौ अफ़राद को गिरफ़्तार कर लिया मुख़्तार ने हुक्म दिया इनमें से जो ख़ूं रेज़ी-ए शोहदा में शरीक थे उनको अलग किया जाये चुनाँचे दो सौ अड़तालीस अश्ख़ास जो वाक़िये कर्बला में मौजूद थे मुख़्तार के हुक्म से क़त्ल कर दिये गये।

 

आग़ाज़े इन्तेक़ाम (बदला लेने की शुरूआत)

मुख़्तार के हुक्म से कूफ़ा के दरवाज़े बन्द कर दिये गये और यज़ीद के बदकिरदार आमाल की जाँच पड़ताल शुरू हुई बदकार गुनाहगार अलग अलग बहानों से भागना शुरू हुए।

शिम्र ज़िल ज़ोशन और मो0 इब्ने अशअस औरतों का लिबास पहनकर निकल गया उमर बिन हज्जाज मुहाफ़िज़े फ़ुरात (नहरे फ़ुरात का रक्षक) बना था और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) को ज़ख़्मी किया था रातों रात कूफ़े से भाग निकला रास्ते में वह और उसकी सवारी शिद्दते प्यास की वजह से चलने से मजबूर हुई मुख़्तार के गश्ती सिपाहियों ने गिरफ़्तार करके मुख़्तार के सामने पेश किया प्यास से ज़बान बाहर निकली हुई थी उसी हालत में क़त्ल कर दिया गया।

 

कमीनों का अंजाम

जैसे जैसे ज़माना गुज़रता गया कमीने ज़ालिमों की तादाद भी बढ़ती गई अब हम कुछ उन कमीने ज़ालिमों के अंजाम बद का तज़किरा करते हैं ताकि दुनिया में रौशन हो जाये कि जिन्होंने दीनदारों के इमाम और उनके साथियों को क़त्ल किया उनका हशर क्या हुआ।

 

हुर्मुला

मिन्हाल जब सफ़रे हज से और ज़ियारते अली इब्नल हुसैन (अ.स) से वापिस आया कूफ़े में दाखिल हुआ आतिशे इन्तेक़ाम उसके सीने में भड़क रही थी राह में मुख़्तार से मिला जो घोड़े पर सवार था सलाम किया,

मुख़्तार ने कहा मिन्हाल अब तक कहाँ रहे और मेरे साथ क्यों न शरीक हुए?

मिन्हाल ने कहा मैं हज को गया था इसी अस्ना में कुछ लोग मुख़्तार के पास आये और हुर्मुला की गिरफ़्तारी की ख़ुश ख़बरी लाये मुख़्तार ने हुक्म दिया कि फ़ौरन उसके हाथ पैर काट दो और एक लकड़ियें के ढेर में जिसके शोले आसमान से बातें कर रहें थे डलवा दिया।

मिन्हाल की ज़बान से बेसाख़्ता (सुब्हानल्लाह) निकला

मुख़्तार ने हैरत से सुब्हानल्लाह का कल्मा सुना और कहा बेशक वह ख़ुदा-ए बरहक़ हर वक़्त क़ाबिले सना है मगर मिन्हाल इस वक़्त सुब्हानल्लाह कहने में कोई राज़ छिपा हुआ है- मिन्हाल ने कहाः- हाँ- मैं मदीना ख़िदमते अली इब्नल हुसैन (अ.स) में था कि इमाम ने मुझसे पूछा मिन्हाल कुछ हुर्मुला मलऊन का हाल बताओ- मैने कहा वह ज़िन्दा है, इमाम ने अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ़ बलन्द कर दिये और दरगाहे इलाही में दुआ की कि पालने वाले हुर्मुला को लोहे और आग का मज़ा चखा। मुख़्तार यह सुनकर एक दम घोड़े से कूद पड़ा और दो रकअत नमाज़ पढ़ी और सजदा-ए शुक्र बजा लाया कि इमाम (अ.स) की आरज़ू मेरे ज़रिये पूरी हुई।

दो और गुनाहगार

यज़ीद के लश्कर के सरदारों की तलाश में मुख़्तार के सिपाही सर- गर्दा थे कि दो ख़ताकार अब्दुल्लाह इब्ने असद और मालिक इब्ने बशीर गिरफ़्तार करके मुख़्तार के सामने हाज़िर किये गये, मुख़्तार ने अब्दुल्लाह इब्ने असद से सवाल किया क्यों ऐ दुश्मनें ख़ुदा तूने अपने रसूल (स00) के नवासे के मुकाबिल शमशीर ज़नी की? अब्दुल्लाह ने जवाब दिया मैं न चाहता था मगर हाकिम के हुक्म से मजबूर था।

अब्दुल्लाह इब्ने असद को मुख़्तार के हुक्म से क़त्ल किया गया और मालिक इब्ने बशीर का सर मुख़्तार के ग़ुलाम ने क़लम कर दिया।

इसके बाद अब्दुल्लाह इब्ने कामिल को जो कूफ़े के मोअज़्ज़ेज़ीन में से और मुख़्तार का हम ख़्याल था तजस्सुसे ख़तारान के लिये मुक़र्रर (तैनात) किया गया।

 

हकीम इब्ने तुफ़ैल

अब्दुल्लाहे कामिल, हकीम बिन तुफ़ैल (जो अबुल फ़ज़लिल अब्बास (अ.स) का क़ातिल था) की तलाश में रवाना हुआ। बड़ी जुस्तुजू के बाद हकीम को क़ैद करके मुख़्तार की तरफ़ लेकर चला, अदी बिन हातम जो हकीम बिन तुफ़ैल का बरादरे निस्बती था, हकीम की सिफ़ारिश के लिये अब्दुल्लाह के पास आया, अब्दुल्लाह ने कहा बग़ैर अमीर की इजाज़त के इसकी रिहाई मुमकिन नहीं हैं। अदी सिफ़ारिश के लिये मुख़्तार की तरफ़ रवाना हुआ, अब्दुल्लाह के हमराहियों ने इस ख़्याल से कि अदि बिन हातम एक मशहूर और मोअज़्ज़ज़ सरदारे क़ौम है कहीं अमीरे मुख़्तार उसकी सिफ़ारिश को क़ुबूल न कर लें, अब्दुल्लाहे कामिल को मशविरा दिया कि अदि के मुख़्तार तक पहुँचने से पहले ही हकीम का ख़ातिमा कर दिया जाये तो बेहतर है, अब्दुल्लाह ने इस मशवीरे को पसन्द किया और हकीम पर तीरों की बारिश शुरू हो गई। लोगों ने उसकी लाश के टुकड़े टुकड़े कर दिये और सर काट कर मुख़्तार की तरफ़ रवाना हुए। यह दुरूस्त है कि इन्सान के मरने के बाद उसकी लाश के टुकड़े टुकड़े करने से कोई फ़ायदा नहीं क्योंकि रूह निकल जाने के बाद उसको इससे क्या अज़ियत (तकलीफ़) पहुँच सकती है मगर एक ज़ालिम के साथ यह सुलूक करना मज़लूमों की दाद रसी और इबरत के बायस हो सकता है। लश्करे यज़ीद के ख़ताकारों ने जो कर्बला में मौजूद थे हकीम का यह इबरतनाक हाल सुना तो रातों रात एक मजलिसे मुशावेरत की और जिसमें तय पाया कि फ़ौरन कूफ़े से निकल कर अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर हाकिमे मक्का जो मुख़्तार का मुख़ालिफ़ था उसकी पनाह में चले जायें चुनाँचे पन्द्रह ख़ताकार उसी रात बसरे की तरफ़ रवाना हो गये रास्ते में मुख़्तार के ग़ुलाम से मुलाक़ात हुई और उसको वहीं शहीद कर दिया।

 

अब शिम्र क़त्ल किया जाता है

शिम्र ज़िल जोशन और उसके हमराही बादे फ़रार एक क़रिये में रू पोश हो गये और दहक़ानों की वसाअत से एक ख़त मसअब इब्ने ज़ुबैर को बसरे लिखा। रास्ते में अबु उमरह ने जो सरहदाते बसरा का मुख़्तार की तरफ़ से मुहाफ़िज़ (रक्षक) था। दहक़ानों को गिरफ़्तार कर लिया और ख़त पढ़कर अबुल उमरह क़रिये क़ुल्तानिया की तरफ़ गिरफ़्तारिये शिम्र के इरादे से रवाना हुआ इस तरफ़ मुख़्तार ने यह मालूम करके कि शिम्र अपने साथियों के साथ भाग गया है। एक लश्कर अब्दुल्लाहे कामिल की सर कर्दिगी में बसरे की तरफ़ रवाना किया अबु उमरह और अब्दुल्लाह के लश्करों ने क़रिये क़ुल्तानिया का मुहासिरा कर लिया। जिस घर में शिम्र और उसके साथी मुक़ीम थे लोग दाख़िल हो गये सब के सब पड़े सो रहे थे और मुख़्तार की हुकूमत से फ़रार का नक़्शा ख़ाब में बना रहे थे जूँही आँख खुली वह चीज़ नज़र आई के क़रीब था हदक़- ए- चश्म से आँखे निकल पड़ें यज़ीदी कुत्तों ने ख़ुद को दुश्मन के हाथ में फँसा हुआ देखकर ऐसे बौखला गये के हथियार सँभालना भूल गये शिम्र ने एक नैज़ा जो क़रीब में पड़ा हुआ था उठा लिया तकिये की सिपर बनाई और लड़ना शुरू किया कुछ देर के बाद शिम्र के हमराही भाग खड़े हुए और शिम्र अबु उमरह की तलवार से क़त्ल हुआ लेकिन दूसरे मोअर्रेख़ीन ने इस वाक़ेआ को इस तरह बयान किया है कि अबु उमरह की तलवार से शिम्र जब ज़ख़्मी हो गया तो उसके हाथ और पैर बाँध कर एक ऊँट की नंगी पीठ पर बैठाकर कूफ़े की तरफ़ ले चले। जब कूफ़े के क़रीब पहुँचे तो उसको ऊँट से उतार कर गर्दन में रस्सी बाँधकर दारूल अमारा की तरफ़ ख़ींचते हुए ले गये। कूफ़े के तमाशाईयों का एक हुजूम था, यज़ीदी कुत्ते के नजिस जिस्म पर संगबारी हो रही थी तमाम जिस्म ज़ख़्मों से चूर चूर था। वह ख़ताकार जो एक रोज़ नवासा-ए रसूल (स0) को शहीद करके अपने कारनामें पर फ़ख़्र कर रहा था आज निहायत ज़िल्लत व ख़ारी के साथ अपने नजिस ख़ून से नहाया हुआ मुख़्तार के सामने पेश हुआ।

मुख़्तार शिम्र की गिरफ़्तारी को अपनी एक बड़ी फ़त्हा समझता था। मुख़्तार ने ग़ज़बनाक होकर शिम्र की तरफ़ रूख़ करके कहाः- क्यों कुछ याद है कि कर्बला में कैसे नारे लगा रहा था, अब मानना पड़ेगा कि ख़ुदा मुन्तक़िम है जो ज़ालिमों से मज़लूमों का इन्तेक़ाम लेता है।

शिम्र ख़ौफ़ से काँप रहा था, प्यास की शिद्दत से होंठ ख़ुश्क पड़े थे, सर झुकाये खड़ा था और कुछ न बोलता था।

हाँ ऐ ना हिन्जार अब अपने किये की सज़ा भुगत

एक बसरी आगे बढ़ा और मुख़्तार से दरख़ास्त (प्रार्थना) की कि मुझे इख़्तेयार दे कि मैं अपनी तलवार से शिम्र को क़त्ल करूँ शिम्र को बसरी के सुपुर्द कर दिया गया।

देखो जो ज़ालिम बे गुनाहों पर ज़ुल्म व सितम करते हैं उनको ख़ुदा इसी दुनिया में कैसी सज़ा देता है ख़ुदा इसी दुनिया में उनका ख़ून बहाता है। ख़ुदा इसी दुनिया में उनका ख़ून उसी तरह से बहाता है जिस तरह से उन्होंने ख़ून बहाया और उसके अज़ाब से न डरे।

देखो यज़ीद की सुनहरी ज़जींर का कुत्ता किस बेकसी से दम तोड़ रहा है।

देखो यह हुकूमते बनी उमय्या का मुर्दार ख़ार कर्बला के प्यासों का ख़ूने आशाम है यह शिम्रे नाबकार है जो क़त्ल हो रहा है।

बसरी ने शिम्र का हाथ पकड़ कर ख़ींचा और ज़मीन पर दे पटख़ा फिर दोनों घूटने उसके सीने पर रखकर इस ज़ोर से दबाया के हडडियों के टूटने की आवाज़ सुनाई दी और इस ईमान फ़रोश की हाय के मरा की सदा से फ़िज़ा गूँज उठी

मर्दे बसरी ने अपने ख़न्जर की तेज़धार को पत्थर से ज़ख़्मी करके आरे की शक्ल दे दी और शिम्र को गर्म ज़मीन पर लेटा दिया और ख़न्जर को पुश्ते गर्दन पर रखकर हडडियों और गर्दन को आरे की तरह काटना शुरू किया आधी गर्दन जब कट गई तो शिम्र को सीधा लिटाकर आधी बची गर्दन को काट कर सर को हाथ में लेकर बलन्द किया और हाज़िरीन से चिल्लाकर कहा।

 

यह है ज़ालिमो का अंजाम

हाँ यही है इन ज़ालिमों का अंजाम जिन्होंने अहलेबैते रसूल (अ.स) पर हर ज़ुल्म व सितम को जारी रखा मुख़्तार के हुक्म से उस मलऊन का सर मन्ज़रे आम पर लटका दिया गया और देर कर कूफ़े के बच्चों के पत्थरों और गन्दगियों का निशाना बना रहा।

 

कुछ और ख़ताकार

जिन ज़ालिम सवारों ने शोहदा-ए कर्बला के लाशो पर घोड़े दौड़ाये थे और अपनी इस ख़ताकारी को कारनामा समझते थे गिरफ़्तार हो गये और मुख़्तार के हुक्म से मेख़ो से ज़मीन पर गाड़ दिये गये कुछ सवारों के घोड़ों की ताज़ानाल बन्दी कराकर उन ज़ालिमों पर दौड़ा दिया गया बे हया नाबकार चींख़ते चिल्लाते थे मगर कोई रहम न खाता था बाक़ी बचे जिस्मों को आग के हवाले कर दिया गया।

 

अन्जामे ख़ूली

कूफ़े के ख़ताकारों में एक ख़ूली बिन यज़ीदे असबही है जो हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) के मुक़ाबले में पहली ही सफ़ (लाइन) में जंग कर रहा था जब गिरफ़्तारी का वक़्त आया तो यह मरदूद अपने घर के तन्दूर में छिप कर बैठ गया मगर इसकी मोमिना बीवी ने इशारे से बतला दिया और गिरफ़्तार हो गया।

जब इसको मुख़्तार के पास ले जाया जा रहा था रास्ते में इसने अब्दुल्लाह बिन कामिल को रिशवत देनी चाही अब्दुल्लाह ने कहा दुनिया और तमाम दौलते दुनिया से ज़्यादा कीमती मेंरी नज़र में तेरा क़त्ल है। यह ख़बीस समझता था कि एक सच्चे मुसलमान का ईमान ख़रीदा जा सकता है। इससे ग़ाफ़िल था कि एक सच्चे मुजाहिद मुसलमान को माले दुनिया, राहते दुनिया ऐश व आरामे दुनिया सही रास्ते से नहीं भटका सकता।

ख़ूली मुख़्तार के हुक्म से अपने घर वापिस किया गया वहाँ उसको क़त्ल किया और क़त्ल के बाद आग की आग़ोश में फेंक दिया गया।

 

 

दो और ख़ताकार

सनान इब्ने अनस जो क़ातिलाने हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) में से था गिरफ़्तार होकर मुख़्तार के सामने पेश किया गया। मुख़्तार के हुक्म से उसके हाथ पैर काटे गये और ज़ैतून के खौलते हुए तेल में डाला गया। मुता- रज्जिम हाँ यह वही मलऊन था जिसने हुसैन (अ.स) के अट्ठारह बरस के जवान बेटे अली अकबर (अ.स) को नैज़ा मारकर शहीद किया था। दूसरा शख़्स बजदल बिन सलीम था जिसने सामाने अहले हरम, हुसैन (अ.स) की शहादत के बाद लूटा था और अंगुली हासिल करने के लिये हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की अँगुली दस्ते मुबारक से जुदा कर दी थी मुख़्तार के हुक्म से उसके भी हाथ पैर काटे गये और अपने नजिस ख़ून में तड़पता हुआ अपने दोस्तों से जा मिला।

अल मुख़तसर (संक्षिप्त रूप में) गुज़री हुई हालात के दुहराने से मक़सद सिर्फ़ यह है कि अहले कूफ़ा इन्क़ेलाबियों और फ़िदाकारों के शरीके हाल किस तरह हो गये। वजह सिर्फ़ यह थी कि वे तमाम हालात को ग़ौर से देख रहे थे और मुख़्तार को अपना और क़ौम का सच्चा हमदर्द समझ रहे थे। इसलिये एक होकर जाबिर हुकूमत के ख़िलाफ़ अलमे इख़्तेलाफ़ बलन्द किया और कामयाब हो गये।

 

उमरे साद की मौत

अभी मुजरेमाने वाक़ेये कर्बला सब के सब सज़ायाब न हुए थे और कामिल कामयाबी अभी हासिल न हुई थी कि एक बड़ी ख़ुश ख़बरी मुख़्तार तक पहुँची कि उमरे साद जो अपने फ़रार की तदबीर सोच रहा था। गिरफ़्तार कर लिया गया। यह तक़रीबन आख़िरी शख़्स था जिसको ख़ून आलूद कशां कशां मुख़्तार के सामने पेश किया गया।

मुख़्तार ने उमरे साद से सवाल कियाः- क्यों उमर जो कार तूने अंजाम दिया उसके मुताल्लिक (सम्बन्ध में) तेरा क्या ख़्याल है?

उमरः- दक़दीरे ख़ुदा।

मुख़्तारः- कर्बला क्यों गया था और अहलेबैते रिसालत को क्यों शहीद किया?

उमरः- तक़दीरे ख़ुदा

मुख़्तारः- क्या तक़दीरे ख़ुदा यही थी के तूने उनको पानी तक नहीं दिया।

उमरः- तक़दीरे ख़ुद

मुख़्तारः- कहो क्यों हुकूमते रे न मिली?

उमरः- यज़ीद ने मेरी ख़िदमत पर ग़ौर नहीं किया।

मुख़्तारः- ग़ज़बनाक अन्दाज़ में ख़िदमात या मआसियात (गुनाह) इब्ने ज़्याद ने तेरे साथ क्या किया।

उमरः- वह कुछ फ़ायदा न पहुँचा सका।

मुख़्तारः- सय्यदुश्शोहदा को क़त्ल करके तुझे क्या मिला?

उमरः- कुछ नहीं तक़दीर में यही लिखा था।

मुख़्तारः-अच्छा तैयार हो जा ताकि आख़िरी तक़दीर का भी इज्रा हो जाये फिर उसके बाप की तलवार उसके हाथ से लेकर अबु उमरह को हुक्म दिया कि इस तलवार से उमरे साद का सर क़लम करे उमरे साद जो अब तक अपनी निजात और रिहाई की उम्मीद रखता था यह हुक्म सुनकर काँपने लगा। ज़िन्दगी से मायूस होकर जिस्म का हर हिस्सा लरज़ रहा था, लेकिन शमशीरे इन्तेक़ाम चली और सरे नजिस को काटती हुई निकल गई। दीन को दुनिया के बदले बेचने वाले हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की नसीहत न सुनने वाले ने न मुल्के रे पाया और न ही जान सलामत ले जा सका।

 

उमरे साद का बेटा

उमरे साद के क़त्ल के बाद उसका बेटा हफ़्स लाया गया। मुख़्तार ने उसके बाप का सर उसके सामने रखकर कहाः- इस सर को तू पहचानता है उसने कहा हाँ यह सर मेरे बाप का है। मुख़्तार ने कहा क्या यह सर इसी लायक़ था कि काटा जाय? हफ़्स ने कहाः- हाँ ऐ अमीर। मुख़्तार ने उसके सर की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि इस सर को दो मर्तबा क़लम (काटना) करना चाहिये क्योंकि तू बाप के साथ था और उसकी कामयाबी पर ख़ुश भी था। हफ़्स को मुख़्तार से इन बातों की उम्मीद (आशा) नहीं थी हैरान होकर चाहा के वहाँ से भाग निकलें मुहाफ़िज़ों ने गिरफ़्तार कर लिया क्योंकि एक सर को दो बार काटा नहीं जा सकता। मुख़्तार के हुक्म से दो तलवारों से सर जुदा किया गया फिर मुख़्तार ने लोगों की तरफ़ मुतावज्जेह होकर कहा उमरे साद हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) के बदले और उसका बेटा हफ़्स अली इब्नुल हुसैन (अ.स) के बदले क़त्ल हुआ। मगर ख़ुदा की क़सम अगर हज़ारों सर क़लम किये जायें तो हुसैन (अ.स) की एक अँगुश्त का बदला भी नहीं हो सकता। मुख़्तार अहलेबैत (अ.स) से बहुत मोहब्बत रखता था चुनाँचे अपने भाँजे को भी क़त्ल किये बग़ैर न छोड़ा और कहता था अगर मेरा बाप भी कर्बला में मुख़ालिफ़ होता तो मैं उसको भी क़त्ल किये बग़ैर न छोड़ता।

उमरे साद और हफ़्स का सर मो0 हनफ़िया की ख़िदमत में मदीने भेजा गया। जब जनाबे मो0 हनफ़िया ने उमरे साद के सर को देखा तो दोनों हाथ आसमान की तरफ़ बुलन्द किये और बारगाहे इलाही में अर्ज़ कीः- ख़ुदावन्दा मुख़्तार को फ़रामोश न फ़रमाना जो अहलेबैते मोहम्मद (अ.स) से इसने सुलूक किया है उसका बेहतरीन बदला अता करना। काफ़ी ख़ताकार अपने कैफ़रे किरदार को पहुँच चुके थे मुख़्तार को ग़ैरे मामूली कामयाबी हासिल हो चूकी थी मगर अभी बहुत कुछ काम बाक़ी था। अब तक ब-क़ौल मोअर्रेख़ीन (लेखको के कथानुसार) अट्ठारह हज़ार और ब-क़ौल बाज़ चालीस हज़ार ख़ताकार क़त्ल हो चुके थे।

 

 

आख़िरी फतेह

दाख़िली हंगामें और उन मुफ़्सेदीन की सरक़ूबी के बाद जो मुख़्तार को मग़्लूब करना चाहते थे, इब्राहीमे अश्तर मौसल की तरफ़ उबैदुल्लाह बिन ज़्याद की सरक़ूबी के लिये मुजाहेदीन का एक बड़ा लश्कर लेकर रवाना हुआ। उस वक़्त शहरे मौसल पर उबैदुल्लाह का क़ब्ज़ा था और इराक़ पर हमला करने की तैयारियाँ हो रही थीं कि इब्राहीम अपने लश्कर के साथ मौसल से पाँच मील के फ़ासले पर दरिया के किनारे ख़ेमा ज़न हुआ। इब्ने ज़्याद एक लाख फ़ौज के साथ इब्राहीम के मुक़ाबले को बढ़ा और लड़ाई का इम्कान हर वक़्त बढ़ता जाता था। मोअर्रेख़ीन (लेखक) इस बात पर एक जुट है कि जंग का आग़ाज़ 10 मोहर्रम 67 हिजरी को हुआ। जंग शुरू हुई इब्राहीम और उसके बहादुर मुजाहेदीन ने जो तादाद में कम थे, वह जौहरे मर्दानगी दिखलाये कि पहले ही भरपूर हमले में इब्ने ज़्याद और हसीन बिन नमीर को क़त्ल कर दिया। सरदाराने लश्कर के क़त्ल को देखकर लश्कर के पैर उख़ड़ गये और मैदान छोड़ कर भाग ख़ड़े हुए। इब्ने ज़्याद, हसीन बिन नमीर और दूसरे सरदारों के सर मुख़्तार के पास भेज दिये गये। सर जब मुख़्तार के सामने पेश किये हुए तो मुख़्तार ने अपना जूता निकाल कर देर तक उन मलाईन के सरों पर मारता रहा और फिर मुलाज़िम से कहा जूते को पानी से धोकर पाक कर दें।

कूफ़े में चिहाग़ां हुआ। ख़ुशी के जशन मनाये गये ज़ालिमों के सर कई दिनो तक दारूल अमारा पर लटके रहे इसके बाद मुख़्तार ने उन सरों को हज़रते मो0 हनफ़िया के पास भेज दिया। जनाबे मो0 हनफ़िया ने उन सरों को साथ में उन हदाया के जो मुख़्तार ने भिजवाये थे हज़रत सज्जाद (अ.स) की ख़िदमत में भेज दिया।

 

बयाने इमाम (अ.स)

जब इब्ने ज़्याद का सर इमाम की ख़िदमत में पेश किया गया, इमाम उस वक़्त (समय) ख़ाना नौस फ़रमा रहे थे। सरे इब्ने ज़्याद पर निगाह पड़ी और बे ईख़्तियार रोये। दिल भर आया और वह वक़्त याद आया कि जब दरबारे इब्ने ज़्याद में इमाम और इमाम का कुन्बा क़ैदी बनाकर लाया गया था तो वह भी मलऊन खाना खा रहा था। इमाम सजदे में गिर पड़े और यह कहाः- ख़ुदाया तेरा किस तरह शुक्र अदा हो के तूने हमारे दुश्मनों से हमारे ख़ून का इन्तेक़ाम लिया। ख़ुदाया मुख़्तार को जज़ाये खैर अता फ़रमा इमाम ने सजदे से सर उठाया और फ़रमाया मैंने ख़ुदा से दुआ की थी और दरख़ास्त की थी के जब मैं सरे इब्ने ज़्याद न देख लूँगा मुझे दुनिया से न उठाना ख़ुदा का शुक्र है कि उसने मेरी दुआ क़ूबूल फ़रमा ली।

मुख़्तार अपने मक़सद (उद्देश्य) में कामयाब और कामगार था। जिस वक़्त वह कूफ़े के क़ैदख़ाने से निकल कर हिजाज़ की तरफ़ जा रहा था तो अपनी मुट्ठियों को भींचकर और अपने दाँतों को पीसकर कीना और नफ़रत भरे लहजे में क़सम खा कर कह रहा था कि मैं उन ज़ालिमों की आवाज़ों को मुर्दा और मज़लूमों की मुर्दा साँसों को ज़िन्दा करके इन्सानियत को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से ज़रूर आज़ाद करूँगा। अब वह अपने इरादों में कामयाब था। मायूस इन्सानियत उसकी नेक नियती आज़ाद ख़ाही (स्वतन्त्रता की इच्छा) देखकर दिल व जान से उसकी शरीके हाल थी। लोग जानते थे कि मुख़्तार ने जो कुछ किया है वह सब सिर्फ़ ख़ुदा और उसके रसूल (अ.स) की ख़ुशी हासिल करने के लिये किया है।

सिसकती हुई इन्सानियत को यज़ीदियत के ज़ालिम पंजे से निजात दिलाई है।

ख़ूने आले रसूल का इन्तेक़ाम लेकर अहलेबैते रसूल (अ.स) को ख़ुश किया है, न सिर्फ़ क़ातिलाने शोहदा ए कर्बला से इन्तेक़ाम लिया है बल्कि जो भी दामे दरमे, क़दमें और सुख़ने उनके शरीके हाल थे हर एक को जहन्नम रसीद किया है। मुख़्तार क्यों न ख़ुश हो इस लिये के उसने मज़लूमों की दादरसी में कोशिश करके यह ज़ाहिर कर दिया कि देख़ो यह है बदकारों और बदतीनों की सज़ा, यह है ज़ालिमों और ख़ताकारों का नतीजा यह है बेरहम हाकिमों की सज़ा इमामे बरहक़ और नेकदिल मुख़्लिस मुसलमानों के शहीद करने की सज़ा बेशक हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) ने क़ाबिले सूद इफ़्तेख़ार शहादत का दर्जा पाया मगर उनके कमीने वे क़ातिल जो माल व मक़ाम के लालच में मुर्तक़िबे क़त्ल हुए थे किस ज़िल्लत व रूसवाई से मारे गये। वला तहसबन्नल्लाहा ग़ाफ़ेलन अम्मा यअ- मलुज़ ज़ालेमून (सूरा ए इब्राहीम आयत 43 )

(हर्गिज़ गुमान मत करो के अल्लाह सितमगारों के आमाल से ग़ाफ़िल है।)

 

आख़री जंग

अब क़ातिलाने शोहदा ए कर्बला का नाम व निशान भी बाक़ी न रहा था कि अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर हाकिमे मक्का का भाई मसअब इब्ने ज़ुबैर मुख़्तार से जंग करने के लिये मामूर हुआ। ये दोनों भाई बनी उमय्या के मुख़ालिफ़ होने के बावजूद अहलेबैते रसूल (अ.स) से दुश्मनी रखते थे और अहलेबैत की मुख़ाल्फ़त में बनी उमय्या के हम ख़्याल थे। मरवान कहता था अगर हम अली को बर सरे मेमबर दुशनाम (बुरा भला कहना) न दें तो हमारी हुकूमत मुस्तहक़म नहीं रह सकती।

अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर ने भी चालीस रोज़ तक दौराने ख़ुत्बा रसूले अकरम (स0) पर दुरूद न भेजा। लोगों ने वजह (कारण) पूछी तो कहा कि रसूल के अहलेबैत क्योंकि नाशाएस्ता थे मैं नहीं चाहता कि उन पर दुरूद भेजकर तक़वियत पहुँचाऊँ। ऐसे शख़्स के भाई मसअब ने कूफ़े पर हमला किया और मैदाने कनासा में मुख़्तार के लश्कर के सरदार अब्दुल्लाह इब्ने हातम से मुक़ाबला हुआ। अब्दुल्लाह बिन हातम अपने को कमज़ोर पाकर अपने दो सौ साथियों के साथ अपने क़बीले की तरफ़ भाग गया। मसअब का लश्कर कूफ़े में दाख़िल हो गया और कूफ़े के रहने वाले डर कर अपने घरों के दरवाज़े बन्द करके अपने घरों में बैठे रहे। मसअब ने दारूल हुकूमत का घेराव कर लिया। मुख़्तार अपने बा-वफ़ा साथियों की वजह से परेशान था क्योंकि घेराव की वजह से अब न ये किसी को ख़त भेजकर बुला सकता था न कोई अब आ सकता था। फिर भी दो माह की मुद्दत तक मुक़ाबला जारी रहा। आख़ीर ग़िज़ा और ख़ुराक की कमी की वजह से कमज़ोरी के साथ परेशानी पढ़ती रही। बिल आख़िर ग़िज़ा और ख़ुराक की कमी की वजह से कमज़ोरी और परेशानी पढ़ती रही बिल आखिर मुख़्तार ने अपने साथियों से कहा कि हालत बहुत तशवीशनाक है। ख़तरा हर लम्हा बढ़ता ही जा रहा है। दुश्मन के हाथ में गिरफ़्तार होने से बेहतर यह है कि हम मर्दानावार लड़कर जान दे दें अगर हम ज़िन्दा रहे और कामयाब हो गये तो फिर अपनी क़ुव्वत को बढ़ा सकते हैं और अगर मारे गये तो अपना असली मक़सद हम हासिल कर ही चुके हैं यानि इन्तेक़ामें शोहदा-ए कर्बला लेकिन बहुत से लोग इब्नुल वक़्त अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत से इनाम व इकराम की तमन्ना में मुख़्तार से अलग हो गये।

जाँबाज़ी

कभी हारे हुए इन्सान की मौत बहुत से ख़ूंख़ार फ़ातेहीन से ज़्यादा माना ख़ेज़ (अर्थ) और ज़फरयाब होती है।

आख़ीर मुख़्तार और उसके उन्नीस वफ़ादार साथियों ने तय किया कि वे दुश्मन के ख़िलाफ़ आख़ीर वक़्त तक लड़ते रहेंगे। असलहा दर कफ़ और घोड़ो पर बैठे हुए दारूल हुकूमत के पीछे की तरफ़ आ खड़े हुए मुख़्तार नारे तकबीर बलन्द करता हुआ दुश्मन के लश्कर में दाख़िल हो गया और इस फ़ौरी (अचानक) हमले से मसअब का लश्कर हैरान रह गया। बहुत तदाबीर सोचीं मगर कुछ समझ में न आया क़रीब था की भाग खड़ें हों। ये बीस (20) जाँबाज़ मुजाहिद इस तरह लड़ रहे थे कि दुश्मन में मुक़ाबला करने की ताक़त ख़त्म हो रही थी। सिर्फ़ मुख़्तार ने जो सबसे आगे लड़ रहा था दो सौ आदमी वासिले जहन्नम किये। मसअब ने यह मायूसनाक मन्ज़र देखकर लश्कर को हुक्म दिया कि बजाये तलवार की जंग के नैज़ो से जंग करें और नैज़ा बरदार मुख़्तार का मुहासिरा कर लें मुख़्तार की तलवार के आगे जो भी आता था जान सलामत न ले जा सकता था। दुशमन का एक बहादुर मुख़्तार की तलवार खाकर ज़मीन पर गिर पड़ा और उसी हालत में उसने अपनी तलवार से मुख़्तार के घोड़े के आगे के पैर काट दिये घोड़ा मुँह के बल ज़मीन पर गिर पड़ा बहादुर मुख़्तार पुश्ते ज़ीन से ज़मीन पर कूदा और पैदल जंग करना शुरू की मुख़्तार आख़री वक़्त तक जंग करता रहा के एक नैज़े ने उसके गले को ज़ख़्मी कर दिया। ज़ख़्म की ताब न लाकर ज़मीन पर बैठ गया उठना चाहा कि एक ज़ालिम की तलवार चली और मुख़्तार अपने मक़सद में कामयाबी के बाद हमेंशा के लिये उरूसे शहादत की आग़ोश में रू पोश हो गया अफ़सोस वही सिपाही जिनकी आज़ादी और निजात की ख़ातिर मुख़्तार और उसके साथियो ने जंग की थी दुश्मन की मोहब्बत में सच्चे दोस्त को भुला बैठे जब जहाँ कहीं मुख़्तार का कोई दोस्त नज़र आता उसको तहे तेग़ किया जाता। मुख़्तार से दोस्ती के शक में लोग गिरफ़्तार किये जाते और मसअब के रू ब रू पेश किये जाते। नोमान इब्ने बशीर की लड़की भी जो मुख़्तार की हमसर थी इसी जुर्म में पेश की गई। क़त्ल का हुक्म दिया गया और आख़री वक़्त मसअब ने उससे कहा के बेज़ारी इख़्तेयार करो वरना क़त्ल करा दूँगा। लड़की ने जवाब दिया कि ऐसे शख़्स जो ख़ुदा परस्त रोज़ेदार नमाज़गुज़ार था और जिसने अहलेबैते रसूल (अ.स) के ख़ून का इन्तेक़ाम लिया कैसे बेज़ारी इख़्तेयार करूँ मै अच्छी तरह जानती हूँ कि क़त्ल की जाऊँगी और जन्नत में ख़िदमते रसूल और आले रसूल (अ.स) में पहुँचुगी मगर तुझ जैसे ज़ालिम की इताअत हर्गिज़ क़ुबूल नहीं करने की इसके बाद उसने हाथ आसमान की तरफ़ बुलन्द किये ख़ुदावन्दा तू ख़ूब जानता है कि मैं तेरे पैग़म्बर (स00) और उनकी आल (अ.स) की पैरो (अनुसरण करने वाली) हूँ।

 

हयाते अबदी (सदैव की ज़िन्दगी)

हयाते ज़ाहिरी के बाद मुख़्तार की हयाते अबदी शुरू होती है। इस वाक़ेआ को बरसो गुज़र गये मगर मुख़्तार की याद और उसकी फ़िदाकारी की दास्तान दिलों में ज़िन्दा है। उसके शाहकार की नूरानी दास्तान सीना-ब- सीना आज भी उसी तरह मुजादीन के ख़ून को गर्मा रही है।

मुख़्तार और उसके साथी मज़ालिम के सददेबाब करने मज़लूम मुसलमानों को आज़ादी दिलाने हुकूमते आदेलाने इस्लामी क़ायम करने के जुर्म में क़त्ल किये गये। बेशक वे अपने इमाम के सही पैरो कार थे। जिस इमाम ने सफ़रे कर्बला के वक़्त फ़रमाया था कि यज़ीद से कह दो कि वह मुझे क़त्ल करेगा मगर यह याद रखे कि मज़लूम का ख़ून जब बहाया जाता है तो वह जोश मारता है और उसके ख़ून का मवाजे दरिया अपनी हवलनाक मौजों में ज़ालिम को ग़रक़ाबे फ़ना में हमेशा के लिये डाल देता है मुख़्तार और उसके साथी इसी आज़ादी और सदाक़त की राह में क़त्ल होने ही को अपनी हयाते अबदी समझी हुए थे। वे जानते थे कि इस राह में क़त्ल होना है मगर बादे क़त्ल भी आज़ादी चाहने वाले फ़िदाकार मुजाहिद मरते नहीं, हयाते जावेद के मालिक बनते हैं।

वला तहसबन्नल लज़ीना क़ोतेलु फ़ी सबीलिल्लाहे अमवातन बल अहयाउन इन्दा रब्बेहिम युर्ज़क़ून

(सूरे आले इमरान आयत 168)

ख़ुदा की राह में जो क़त्ल हुए उनको हर्गिज़ मुर्दा मत समझो बल्कि वे ज़िन्दा हैं और अपने परवरदिगार से रोज़ी पाते हैं।

 

मुख़्तारे सक़फ़ी के क़ातिल का अन्जाम

फ़ुज़्तो बे रब्बिल काबा कहने वाले सच्चे पैरो व जाँबाज़ मुख़्तार जब अपने मक़सद और वाहिद मक़सद इन्तेक़ामें ख़ूने मुक़द्दसे इमाम हुसैन (अ.स) में कामयाब हो चुका और शौक़े शहादत में मसअब इब्ने ज़ुबैर के हाथों उरूसे शहादत से हमकिनार हुआ। कूफ़े की हुकूमत पर बसरे के हाकिम मसअब का पूरा पूरा तसल्लुत हो गया तो फ़ातेहे कमज़र्फ़ की निगाहें कूफ़े से निकलकर मुल्के शाम की पूर फ़िज़ा और नज़र फ़ेरब सर सब्ज़ वादियों तक पहुँची मगर इस तमन्ना की बर आवरी अकेले मसअब के लिये दुशवार बल्कि दुशवार तर थी। बड़े ग़ोर व फ़िक्र के बाद तय पाया कि अगर इब्राहीमे अश्तर को जो इस मौसल का हाकिम है और उसकी शुजाअत की धाक इराक़ और अरब पर बैठी हुई है अपना हमनवा बना लिया जाये तो शायद यह मुहीम आसानी से पूरी हो जाये।

इब्राहीमे अश्तर को अपना हम ख़्याल बनाने की इस्कीमें शुरू हुईं यह ख़बर उड़ते उड़ते अमीरे शाम अब्दुल मलिक के कानों तक पहुँची। दिल के साथ तख़्त हिल गया सोचा कि क्या तरक़ीब करनी चाहिये शाम के बड़े बड़े रईस और ख़ास ख़ास शख़्सियतें सर जोड़कर बैठी और तय पाया कि मसअब इब्ने ज़ुबैर कि तैयारियां मुकम्मल होने से पहले उस पर हमला कर दिया जाये शाम के नामूर जंगजूओं की सरकर्दिगी में एक लश्करे कसीर सर से कफ़न बाँध कर निकल खड़ा हुआ और मसअब की फ़ौजे ज़फ़रे मौज से जा टकराया रन पड़ा क़यामत का रन पड़ा इब्राहीमे अश्तर के मारे जाने की ख़बर से मसअब के होश व हवास फ़ाख़्ता हो गये अपने बेटे ईसा से कहा कि फ़ौरन मक्का जाकर अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर अपने चचा को हालत की नज़ाकत बता कर मदद की दरख़ास्त करे मगर ईसा ने इसको सआदते पेसरी के ख़िलाफ़ समझा कि बाप को इस नाज़ुक़ मौक़े पर तन्हा छोड़कर मक्के की तरफ़ चला जाये और मर्दाना वार मैदाने जंग में कूदकर जान अब्दुल मलिक के हवाले कर दी बेटे की क़त्ल की ख़बर सुनकर बाप की आँखों में दुनिया तारीक हो गयी और अँधा धुँध तलवार चलाता हुआ बेटे के पास जा पहुँचा मसअब इब्ने ज़ुबैर के क़त्ल के बाद लशकर के पैर उखड़ गये मैदान अब्दुल मलिक के हाथ आया अब अब्दुल मलिक कूफ़े का भी हाकिम मुन्फ़रिद था।

एक रोज़ कूफ़े के तख़्त पर बैठा हुआ था और फ़त्हा की ख़ुशी में ख़ूब हँस रहा था सामने कूफ़े का एक सरदार बैठा हुआ था वह भी हँसा अब्दुल मलिक ने उससे हँसने की वजह पूछी बोला अगर अमीर जाँ बख़्शी का वायदा फ़रमायें तो एक बात कहूँ अब्दुल मलिक ने इजाज़त दी कहने लगा ऐ अमीरे शाम। एक रोज़ मैं इसी जगह बैठा देख रहा था कि रसूल (स0) के नवासे का सर इसी तख़्त के सामने रखा हुआ था और इस तख़्त पर इब्ने ज़्याद बैठा हँस रहा था फिर कुछ मुद्दत के बाद इब्ने ज़्याद का सर इसी तख़्त के सामने रखा था और इस तख़्त पर मुख़्तार जलवा अफ़रोज़ था फिर देखा के मुख़्तार का सर तख़्त के सामने रखा हुआ है और मसअब तख़्त पर बैठा हँस रहा था आज देख रहा हूँ कि मसअब का सर सामने है और अमीर शाम तख़्त पर बैठा हँस रहा है कल की ख़बर नहीं कि क्या होने वाला हैय़

 

मुख़्तार बुज़ुर्ग उलामा की नज़र में

(मुख़्तार ज्ञानियों की द्रष्टि में)

यह बात एक हद तक इस किताबचे में पाये सुबूत को पहुँचा चुकी है कि हमारे आइम्मा-ए- ताहेरीन (अ.स) मुख़्तार और औलादे मुख़्तार से शफ़क़्क़त व हमदर्दी के साथ पेश आते रहें हैं और ख़ुद ओलमा-ए केबार ने भी मुख़्तार के फ़ेल (कार्य) को भी बेहद सराहा है हत्ता कि शैख़ मुफ़िद जैसे आलिमे अजल और फ़ाज़िले बे बदल ने अपनी किताब में इस ज़ियारत को लिखा है जो क़ब्रे मुक़द्दसे मुख़्तार पर पढ़ी जाती है जिसका सिर्फ़ तर्जुमा हम मुख़्तारे सक़ाफ़ी की बलन्दिये मक़ाम की निशान देही के लिये पेश कर रहे हैं।

 

तर्जुमा ज़ियारते मुख़्तार

(1) सलाम हो आप पर ऐ ख़ुदा के नेक बन्दे

(2) सलाम हो आप पर ऐ नसीहत करने वाले वली

(3) सलाम हो आप पर ऐ अबु इस्हाक़ मुख़्तार

(4) सलाम हो आप पर ऐ काफ़िरों और फ़ाजिरों से इन्तेक़ाम लेने वाले बहादुर

(5) सलाम हो आप पर ऐ इतरते रसूल और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स) के मुख़्लिस

(6) सलाम हो आप पर जिससे राज़ी हुए अहमदे मुख़्तार ऐ यक्ता ए रोज़गार

(7) सलाम हो आप पर जिसने ख़ुशनूदी और नुसरते आइम्मा ए ताहेरीन में अपनी जान दे दी

(8) सलाम हो तुम पर ऐ मुख़्तार, ख़ुदा तुम्हें रसूले मुख़्तार और आइम्मा-ए ताहेरीन की तरफ़ से जज़ा-ए ख़ैर अता फ़रमाये।

 

 

क़ता

ईमान की ज़ेबाइश गो ख़ूने शहादत है, ज़ालिम के लिये लेकिन आफ़त है, क़यामत हैं

मुख़्तार के हमले से ज़ाहिर हुआ ये अख़्तर, हर दौर में ताबिन्दा शमशीर अदालत है।

 

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