(चौदह सितारे)
लेखकः नजमुल हसन कर्रारवी
बाप की शमशीर का हमसर है बेटे का क़लम ।
बाज़ुए हैदर की ताक़त , खा़मए शब्बर में है ।।
फ़तेह ख़ैबर में है मुज़मर मक़सदे सुलहे हसन ।
मक़सदे सुलहे हसन , फ़तहे दरे ख़ैबर में है ।।
साबिर थरयानी (कराची)
वली ज़ुलमेनन , हज़रत हसन , आँ सरवरे ख़ूबां ।
कि हर चीज़ अज़ अदम बाकु़दर तश मुमकिन ज़े इमकाँ शुद ।।
ज़ेहे सौदाए बातिल , के तवानम , मदहे आँ शाहे ।
कि मदाहश ख़ुदा , रावी पयम्बर , मदहे कु़रां शुद ।।
हज़रत इमाम हसन (अ.स.), अमीरल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) व सय्यदतुननिसां हज़रत फ़ात्मा (स.अ.) के फ़रज़न्द और पैग़म्बरे ख़ुदा हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) व मोहसिने इस्लाम हज़रत ख़दीजतुल कुबरा के नवासे थे। आपको खु़दा वन्दे आलम ने मासूम मन्सूस अफ़ज़ले कायनात आलिमे इल्मे लदुन्नी क़रार दिया है।
आपकी विलादत
आप 15 रमज़ानुल मुबारक 3 हिजरी की शब को मदीनाए मुनव्वरा में पैदा हुये। विलादत से क़ब्ल उम्मे अफ़ज़ल ने ख़्वाब में देखा कि रसूले अकरम (स.अ.) के जिस्मे मुबारक का एक टूकड़ा मेरे घर में आ पहुँचा है। ख़्वाब रसूले करीम (स.अ.) से बयान किया। आपने फ़रमाया कि इसकी ताबीर यह है कि मेरे लख़्ते जिगर फ़ात्मा के बत्न से एक बच्चा पैदा होगा जिसकी परवरिश तुम करोगी। मुवर्रेखी़न का बयान है कि रसूल (स.अ.) के घर में आपकी पैदाईश अपनी नवैय्यत की पहली ख़ुशी थी। आपकी विलादत ने रसूल (स.अ.) के दामन में मक़तूलून् नसल होने का धब्बा साफ़ कर दिया और दुनियां के सामने सूरए कौसर की एक अमली और बुनियादी तफ़सीर पेश कर दी।
आपका नामे नामी
विलादत के बाद इस्मे गेरामी हम्ज़ा तजवीज़ हो रहा था लेकिन सरवरे कायनात (स.अ.) ने बा हुक्मे खुदा मूसा (अ.स.) के वज़ीर हारून (अ.स.) के फ़रज़न्दों के शब्बीर व शब्बर नाम पर आपका नाम हसन और बाद में आपके भाई का नाम हुसैन रखा। बेहारूल अनवार में है कि इमाम हसन (अ.स.) की पैदाईश के बाद जिब्राईले अमीन ने सरवरे कायनात (स.अ.) की खि़दमत में एक सफ़ैद रेशमी रूमाल पेश किया जिस पर हसन, हुसैन लिखा हुआ था। माहिरे इल्म अल नसब अल्लामा अबुल हुसैन का कहना है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने दोनो शाहज़ादों का नाम अन्ज़ारे आलम से पोशीदा रखा था यानी इनसे पहले हसन और हुसैन नाम से कोई मोसूम नहीं था। किताबे आलमे अलवरी के मुताबिक़ यह नाम भी लौहे महफ़ूज़ में लिखा हुआ था।
ज़बाने रिसालत दहने इमामत में अल्ल शराए में है कि जब इमाम हसन (अ.स.) की विलादत हुई और आप सरवरे कायनात (स.अ.) की खि़दमत में लाये गये तो रसूले करीम (स.अ.) बे इन्तेहा खु़श हुये और उनके दहने मुबारक में अपनी ज़बाने अक़दस दे दी। बेहारूल अनवार में है कि आं हज़रत ने नौज़ायदा बच्चे को आग़ोश में ले कर प्यार किया और दाहिने कान में अज़ान और बांए में अक़ामत फ़रमाने के बाद अपनी ज़बान उनके मुंह में दे दी इमाम हसन (अ.स.) उसे चूसने लगे। इसके बाद आपने दुआ की ख़ुदाया इसको और इसकी औलाद को अपनी पनाह में रखना। बाज़ लोगों का कहना है कि इमाम हसन (अ.स.) को लोआबे दहने रसूल (स.अ.) कम और इमाम हुसैन (अ.स.) को ज़्यादा चूसने का मौक़ा दस्तियाब हुआ था। इसी लिये इमामत नसले इमाम हुसैन (अ.स.) में मुस्तक़र हो गई।
आपका अक़ीक़ा
आपकी विलादत के सातवें दिन सरवरे कायनात ने खुद अपने दस्ते मुबारक से अक़ीक़ा फ़रमाया और बालों के मुंडवा कर उसके हम वज़न चांदी तसद्दुक़ की। (असद उल ग़ाबेता जिल्द 3 सफ़ा 13) अल्लामा कमालुद्दीन का बयान है कि अक़ीक़े के सिलसिले में दुम्बा ज़ब्हा किया गया था । (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 220) काफ़ी कुलैनी में है कि सरवरे कायनात (स.अ.) ने अक़ीक़े के वक़्त जो दुआ पढ़ी थी उसमें यह इबारत भी थीः अल्लाह हुम्मा अज़महा बाअज़मा लहमहा, बिल हमा, दमहा बदमहा वशअरहा, बशराही, अल्लाहा हुम्मा अज अलहा वक़आ लम हमीदिन वालेही
तरजुमाः
खु़दाया इसकी हड्डी मौलूद की हड्डी के ऐवज़, इसका गोश्त उसके गोश्त के एवज़, इसका ख़ून उसके खून के ऐवज़, इसका बाल उसके बाल के ऐवज़ क़रार दे और इसे मोहम्मद व आले मोहम्मद (स.अ.) के लिये हर बला से नजात का ज़रिया बना दे। इमामे शाफ़ेई का कहना है कि आं हज़रत (स.अ.) ने इमामे हसन (अ.स.) का अक़ीक़ा कर के इसके सुन्नत होने की दाएमी बुनियाद डाल दी। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 220) बाज़ माआसेरीन ने लिखा है कि आं हज़रत (स.अ.) ने आपका ख़त्ना भी कराया था लेकिन मेरे नज़दीक यह सही नहीं है क्यो कि इमामत की शान से मख़्तून पैदा होना भी है।
कुन्नियत व अलक़ाब
आपकी कुन्नियत सिर्फ़ अबू मोहम्मद थी और आपके अलक़ाब बहुत कसीर हैं जिनमें तय्यब, तक़ी, सिब्त व सय्यद ज़्यादा मशहूर हैं। (मोहम्मद बिन तलहा शाफ़ेई का बयान है कि आपका सय्यद लक़ब खुद सरवरे कायनात का अता करदा है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 221)
ज़्यारते आशूरा से मालूम होता है कि आपका लक़ब नासेह और अमीन भी था।
इमामे हसन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की नज़र में
यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि इमाम हसन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के नवासे थे लेकिन कु़रआने मजीद ने उन्हें फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) का दरजा दिया है और अपने दामन में जा बजा आपके तज़किरे को जगह दी है। ख़ुद सरवरे कायनात (स.अ.) ने बे शुमार आहादीस आपके मुताअल्लिक़ इरशाद फ़रमाई हैं। एक हदीस में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने इरशाद फ़रमाया है कि मैं हसनैन को दोस्त रखता हूं और जो उन्हें दोस्त रखे उसे भी क़द्र की निगाह से देखता हूँ। एक सहाबी का बयान है कि मैंने रसूले करीम (स.अ.) को इस हाल में देखा है कि वह एक कंधे पर इमामे हसन (अ.स.) और एक पर इमामे हुसैन (अ.स.) को बिठाए हुए लिये जा रहे हैं और बारी बारी दोनों का मुंह चूमते जाते हैं। एक सहाबी का बयान है कि एक दिन आं हज़रत (स.अ.) नमाज़ पढ़ रहे थे और हसनैन आपकी पुश्त पर सवार हो गये किसी ने रोकना चाहा तो हज़रत ने इशारे से मना फ़रमाया। (असाबा जिल्द 2 सफ़ा 12) एक सहाबी का बयान है कि मैं उस दिन से इमाम हसन (अ.स.) को बहुत ज़्यादा दोस्त रखने लगा हूँ जिस दिन मैंने रसूले करीम (स.अ.) की आग़ोश में बैठ कर उन्हें उनकी दाढ़ी से खेलते हुए देखा। (नूरूल अबसार सफ़ा 113) एक दिन सरवरे कायनात (स.अ.) इमाम हसन (अ.स.) को कंधे पर सवार किये हुए कहीं लिये जा रहे थे, एक सहाबी ने कहा कि ऐ साहब ज़ादे तुम्हारी सवारी किस क़द्र अच्छी है, यह सुन कर आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया कहो कि किस क़द्र अच्छा सवार है। (असद अल ग़ाब्बा जिल्द 3 सफ़ा 15 बाहवाला तिरमिज़ी) इमाम बुख़ारी और इमाम मुस्लिम लिखते हैं कि एक दिन रसूले खुदा (स.अ.) इमाम हसन (अ.स.) को कांधे पर बिठाए हुए फ़रमा रहे थे ख़ुदाया मैं इसे दोस्त रखता हूँ तू भी इससे मुहब्बत कर। हाफ़िज़ अबू नईम, अबू बक्र से रवायत करते हैं कि एक दिन आं हज़रत (स.अ.) नमाज़े जमाअत पढ़ा रहे थे कि नागाह इमाम हसन (अ.स.) आ गये और वह दौड़ कर पुश्ते रसूल (स.अ.) पर सवार हो गये यह देख कर रसूल (स.अ.) ने निहायत नरमी के साथ सर उठाया। इख्तेतामे नमाज़ पर आपसे इसका तज़किरा किया गया तो फ़रमाया यह मेरा गुले उम्मीद है।
इब्नी हाज़ा सय्यद यह मेरा बेटा सरदार है और देखो यह अनक़रीब दो बड़े गिरोहों में सुलह करायेगा। इमाम निसाई अब्दुल्लाह इब्ने शद्दाद से रवायत करते हैं कि एक दिन नमाज़े इशा पढ़ाने के लिये आं हज़रत (स.अ.) तशरीफ़ लाये आपकी आग़ोश में इमाम हसन (अ.स.) थे आं हज़रत नमाज़ में मशग़ूल हो गये जब सजदे में गये तो इतना तूल कर दिया कि मैं यह समझने लगा कि शायद आप पर वही नाज़िल होने लगी है। इख़्तेतामे नमाज़ पर आपसे इसका तज़किरा किया गया तो फ़रमाया कि मेरा फ़रज़न्द मेरी पुश्त पर आ गया था, मैंने यह न चाहा कि उसे उस वक़्त तक पुश्त से उतारूं जब तक कि वह खुद न उतर जाये, इस लिये सजदे को तूल देना पड़ा। हकीम तिरमिजी़ और निसाई व अबू दाऊद ने लिखा है कि आं हज़रत (स.अ.) एक दिन महवे ख़ुत्बा थे कि हसनैन (अ.स.) आ गये और हसन (अ.स.) के पांव अबा के दामन में इस तरह उलझे कि ज़मीन पर गिर पडे़, यह देख कर आं हज़रत (स.अ.) ने ख़ुतबा तर्क कर दिया और मिम्बर से उतर कर आग़ोश में उठा लिया और मिम्बर पर ले जा कर ख़ुत्बा शुरू फ़रमाया। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 223)
इमाम हसन (अ.स.) की सरदारीए जन्नत
आले मोहम्मद (अ.स.) की सरदारी मुसल्लेमात में से है, उलेमाए इस्लाम का इस पर इत्तेफ़ाक़ है कि सरवरे कायनात (स.अ.) ने इरशाद फ़रमाया हैः الحسن والحسین سیدا شباب اھل الجنہ و ابوھما خیر منھما
हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) जवानाने बहिश्त के सरदार हैं और उनके वालिदे बुज़ुर्गवार यानी अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) इन दोनों से बेहतर हैं। जनाबे हुज़ैफ़ाए यमानी का बयान है कि मैंने आं हज़रत (स.अ.) को एक दिन बहुत ही मसरूर पा कर अर्ज़ कि मौला आज इफ़राते शादमानी की क्या वजह है? इरशाद फ़रमाया कि मुझे आज जिब्राईल ने यह बशारत दी है कि मेरे दोनों फ़रज़न्द हसन (अ.स.) व हुसैन (अ.स.) जवानाने बेहिशत के सरदार हैं और उनके वालिद अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) उनसे बेहतर हैं। (कन्ज़ुल आमाल जिल्द 7 सफ़ा 107, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 117) इस हदीस से इसकी भी वज़ाहत हो गई है कि हज़रत अली (अ.स.) सिर्फ़ सय्यद ही न थे बल्कि फ़रज़न्दाने सियादत के बाप थे।
जज़बाए इस्लाम की फ़रावानी
मुवर्रेख़ीन का बयान है कि एक दिन अबू सुफ़ियान हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर कहने लगा कि आप आं हज़रत (स.अ.) से सिफ़ारिश कर के एक ऐसा मोहायदा लिखवा दीजिए जिसके रू से मैं अपने मक़सद में कामयाब हो सकूं। आप ने फ़रमाया कि आं हज़रत (स.अ.) जो कह चुके हैं अब उसमें बाल बराबर फ़र्क़ न होगा। उसने इमाम हसन (अ.स.) से सिफ़ारिश की ख़्वाहिश की। आपकी उम्र अगरचे उस वक़्त सिर्फ़ 4 साल की थी लेकिन आप ने उस वक़्त ऐसी र्जुअत का सबूत दिया जिसका तज़किरा ज़बाने तारीख़ पर है। लिखा है कि अबू सुफ़ियान की तलब सिफ़ारिश पर आपने दौड़ कर उसकी दाढ़ी पकड़ ली और नाक मरोड़ कर कहा कलमा ए शहादत ज़बान पर जारी करो। तुम्हारे लिये सब कुछ है। यह देख कर अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) मसरूर हो गये। (मनाक़िबे आले अबू तालिब जिल्द 4 सफ़ा 46)
इमाम हसन (अ.स.) और तरजुमानी वही
अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) का यह तरीका था कि आप इन्तेहाई कम सिनी के आलम में अपने नाना पर नाज़िल होने वाली वही मन अन अपनी वालेदा माजेदा को सुना दिया करते थे। एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ बिन्ते रसूल मेरा जी चाहता है कि हसन को तरजुमानीए वही खुद करते हुए देखूं और सुनूं सय्यदा (स.अ.) ने इमाम हसन (अ.स.) के पहुँचने का वक़्त बता दिया। एक दिन अमीरल मोमेनीन (अ.स.) हसन (अ.स.) से पहले दाखि़ले ख़ाना हो गये और गोशा ख़ाना में छुप कर बैठ गए। इमाम हसन (अ.स.) हसबे मामूल तशरीफ़ लाये और मां की आग़ोश में बैठ कर वही सुनानी शुरू कर दी, लेकिन थोड़ी देर के बाद अर्ज़ कि , ‘‘ या अमाह क़द तलजलज लेसानी व कुल बयानी लाअल सय्यदी यरानी ’’ मादरे गेरामी आज वही तरजुमानी में लुक़नत और बयाने मक़सद में रूकावट हो रही है मुझे ऐसा मालूम होता है कि जैसे मेरे बुजु़र्ग मोहतरम मुझे देख रहे हों। यह सुन कर हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने दौड़ कर इमाम हसन (अ.स.) को आग़ोश में उठा लिया और बोसा देने लगे। (बेहारूल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 193)
हज़रत इमाम हसन (अ.स.) का बचपन में लौहे महफ़ूज़ का मुतालेआ करना।
इमाम बुख़ारी रक़म तराज़ हैं कि एक दिन कुछ सदक़े की खजूरें आईं हुई थीं इमाम हसन (अ.स.) इसके ढेर से खेल रहे थे और खेल ही के तौर पर इमाम हसन (अ.स.) ने दहने अक़दस में रख ली, यह देख कर आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया, ऐ हसन क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि हम लोगों पर सदक़ा हराम है। (सही बुखारी पारा 6 सफ़ा 25)
हज़रत हुज्जतुल इस्लाम शहीदे सालिस का़ज़ी नूर उल्लाह शूशतरी फ़रमाते हैं कि इमाम पर अगरचे वही नाज़ील नहीं होती लेकिन उसको इल्हाम होता है और वह लौहे महफ़ूज़ का मुतालेआ करता है जिस पर अल्लामा इब्ने हजरे असक़लानी का वह क़ौल दलालत करता है जो उन्होंने सही बुखा़री की इस रवायत की शरह में लिखा है जिसमें आं हज़रत (स.अ.) ने इमाम हसन (अ.स.) के शीरख़्वारगी के आलम में सदक़े की खजूर के मुंह में रख लेने पर ऐतेराज़ फ़रमाया था। ‘‘ कख़ कख़ अमा ताअलम अनल सदक़तः अलैना हराम ’’ थूकू थूकू क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोगों पर सदक़ा हराम है और जिस शख़्स ने यह ख़्याल किया कि इमाम हसन (अ.स.) उस वक़्त दूध पीते थे, आप पर अभी शरई पाबन्दी न थी आं हज़रत (स.अ.) ने उन पर क्यों एतेराज़ किया। इसका जवाब अल्लामा असक़लानी ने अपनी फ़तेह अलबारी शरह सही बुखा़री में दिया है कि इमाम हसन (अ.स.) और दूसरे बच्चे बराबर नहीं हो सकते। क्यों कि ‘‘ انا الحسن یتلالع لوح المحفوظ ’’ इमाम हसन (अ.स.) शीर ख़्वारगी के आलम में भी लौहे महफ़ूज़ का मुतालेआ किया करते थे। (हक़ाएक़ुल हक़ सफ़ा 127)
ख़लीफ़ाए अव्वल को मिम्बरे रसूल (स.अ.) से उतरने का हुक्म
अल्लामा इब्ने हसर और इमामे सियूती रक़मतराज़ हैं कि इमाम हसन (अ.स.) एक दिन मस्जिदे रसूल (स.अ.) से गुज़रे। आपने देखा कि हज़रत अबू बक्र मिम्बरे रसूल (स.अ.) पर बैठे हुये है आप से रहा न गया और आप मिम्बर के क़रीब तशरीफ़ ले जा कर फ़रमाने लगे انزل ممنر ابی
मेरे बाप के मिम्बरे से उतर आओ, यह तुम्हारे बैठने की जगह नहीं है, यह सुन कर वह मिम्बर से उतर आये और इमाम हसन (अ.स.) को अपनी आग़ोश में बैठा लिया। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 105, तारीलख अल ख़ोल्फ़ा सफ़ा 55, रियाज़ुन नज़रा सफ़ा 128)
इमाम हसन (अ.स.) का बचपन और मसाएले इल्मिया
यह मुसल्लेमात से है कि हज़रात आइम्मा ए मासूमीन (अ.स.) को इल्मे लदुन्नी हुआ करता था। वह दुनिया में तहसीले इल्म के मोहताज नहीं हुआ करते थे। यही वजह है कि वह बचपन में ही ऐसे मसाएले इल्मिया से वाक़िफ़ होते थे जिनसे दुनिया के आम उलेमा अपनी ज़िन्दगी के आख़री उम्र तक बे बहरा रहते थे। इमाम हसन (अ.स.) जो ख़ानवादाए रिसालत की एक फ़र्द अकमल और सिलसिले असमत की एक मुस्तहकम कड़ी थे कि बचपन के हालात व वाक़ेयात देखे जायें तो मेरे दावे का सबूत मिल सकेगा।
पहला वाकिआ
मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब में ब हवाले शरह अख़बारे क़ाज़ी नोमान मरक़ूम है कि एक सायल हज़रत अबू बक्र की खि़दमत में आया और उसने सवाल किया कि मैंने हालाते अहराम में शुतर मुर्ग़ के चन्द अन्डे भून कर खा लिये हैं बताइये कि मुझ पर क्या कफ़्फ़ारा वाजिब उल अदा हुआ? सवाल का जवाब चूंकि उनके बस का न था, इस लिये अरक़े निदामत पेशानिये खि़लाफ़त पर आ गया। इरशाद हुआ कि इसे अब्दुल रहमान बिन औफ़ के पास ले जाओ। जो उनसे सवाल दोहराया तो वह भी ख़ामोश हो गये और कहा कि इसका हल तो अमीरल मोमेनीन (अ.स.) कर सकते हैं। साएल हज़रत अली (अ.स.) की खिदमत में लाया गया। आपने साएल से फ़रमाया कि मेरे दो छोटे बच्चे जो सामने नज़र आ रहे हैं उनसे दरयाफ़्त कर ले। साएल इमामे हसन (अ.स.) की तरफ़ मुतवज्जे हुआ और मसला दोहराया, इमामे हसन (अ.स.) ने जवाब दिया कि तूने जितने अन्डे खाए हैं उतनी ही ऊंटनियां ले कर उन्हें हामेला करा और उन से जो बच्चे पैदा हों उन्हें राहे ख़ुदा में हदियाए खा़ना काबा कर दे। अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने हंस कर फ़रमाया कि बेटा जवाब तो बिल्कुल सही है लेकिन यह तो बताओ कि क्या ऐसा नहीं है कि कुछ हमल ज़ाया हो जाते हैं और कुछ बच्चे मर जाते हैं। अर्ज़ कि बाबा जान बिल्कुल दुरूस्त है, मगर ऐसा भी तो होता है कि कुछ अन्डे भी ख़राब और गन्दे निकल जाते हैं। यह सुन कर साएल पुकार उठा कि एक मरतबा अपने अहद में सुलैमान बिन दाऊद ने भी यही जवाब दिया था जैसा कि मैंने अपनी किताबो में देखा है।
दूसरा वाकिआ
एक रोज़ अमीरल मोमेनीन (अ.स.) मक़ामे रहबा में तशरीफ़ फ़रमा थे और हसनैन (अ.स.) वहां मौजूद थे, नागाह एक शख़्स आ कर कहने लगा कि मैं आपकी रियाया और अहले बलद (शहरी) हूं। हज़रत ने फ़रमाया कि तू झूठ बोलता है, तू न तो मेरी रियाया में से है और न मेरे शहर का शहरी है, बल्कि तू बादशाहे रोम का फ़रसतादा है। तुझे उसने माविया के पास चन्द मसाएल दरयाफ़्त करने के लिये भेजा था और उसने मेरे पास भेज दिया है। उसने कहा या हज़रत आपका इरशाद बिल्कुल बजा है मुझे माविया ने पोशीदा तौर पर आपके पास भेजा है और इसका हाल ख़ुदा वन्दे आलम के सिवा किसी को मालूम नहीं है, मगर आप बा इल्मे इमामत समझ गये। आप ने फ़रमाया की अच्छा अब इन मसाएल के जवाबात इन दो बच्चों में से किसी एक से भी पूछ ले। यह इमाम हसन (अ.स.) की तरफ़ मुतवज्जे हो कर चाहता था कि सवाल करे कि इमाम हसन (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ शख़्स तू यह दरियाफ़्त करने आया है कि, 1. हक़ो बातिल में कितना फ़ासला है?, 2. ज़मीन व आसमान तक कितनी मसाफ़त है?, 3. मशरिक़ व मग़रिब में कितनी दूरी है?. 4. का़ैस क़ज़ा क्या चीज़ है?, 5. मख़नस किसे कहते हैं?, 6. वह दस चीज़ें क्या हैं जिनमें से हर एक को ख़ुदा वन्दे आलम ने दूसरे से सख़्त और फ़ाएक़ पैदा किया है?.
सुन हक़ व बातिल में चार अंगुश्त का फ़र्क़ व फ़ासला है। अक्सर व बेशतर जो कुछ आंख से देखा है और जो कुछ कान से सुना व बातिल है। (आंख से देखा हुआ यक़ीनी, कान से सुना हुआ मोहताजे तहक़ीक़) ज़मीन और आसमान के दरमियान इतनी मसाफ़त है कि मज़लूम की आह और आंख की रौशनी पहुँच जाती है। मशरिक़ व मग़रिब में इतना फ़ासला है कि सूरज एक दिन में तय कर लेता है और कौसे क़ज़ा असल में कौसे ख़ुदा है। इस लिये कि क़ज़ह शैतान का नाम है। यह फ़रावनी रिज़्क़ और अहले ज़मीन के लिये ग़र्क़ से अमान की अलामत है इस लिये अगर यह ख़ुश्की में नमूदार होती है तो बारिश के अलामात से समझी जाती है और बारिश में निकलती है तो ख़त्मे बारान की अलामात में से शुमार की जाती है। मुख़न्नस वह है जिसके मुताअल्लिक़ यह मालूम न हो कि वह मर्द है या औरत और जिसके जिस्म में दोनों के आज़ा हों। इसके हुक्म यह है कि ता हदे बुलूग़ इन्तेज़ार करे, अगर मोहतलिम हो तो मर्द और हायज़ हो और पिस्तान उभर आयें तो औरत। अगर इससे मसला हल न हो तो देखना चाहिये कि उसके पेशाब की धार सीधी जाती है कि नहीं, अगर वह सीधी जाती है तो मर्द वरना औरत। और वह दस चीज़ें जिनमें से एक दूसरे पर ग़ालिब व क़वी हैं वह यह हैं कि ख़ुदा ने सब से ज़्यादा सख़्त पत्थर को पैदा किया है मगर इस से ज़्यादा सख़्त लौहा है जो पत्थर को भी काट देता है, उससे ज़्यादा सख़्त क़वी आग है जो लोहे को पिघला देती है और आग से ज़्यादा सख़्त क़वी पानी है जो आग को बूझा देता है और इससे ज़्यादा सख़्त क़वी अब्र है जो पानी को अपने कंधों पर उठाए फिरता है और उससे ज़्यादा क़वी हवा है जो अब्र को उड़ाये फिरती है और हवा से ज़्यादा सख़्त व क़वी फ़रिश्ता है जिसकी हवा महकूम है और उससे ज़्यादा सख़्त व क़वी मलकुल मौत है जो फ़रिशताए बाद की भी रूह क़ब्ज़ कर लेंगे और मलकुल मौत से भी ज़्यादा सख़्त व क़वी मौत है जो मलकुल मौत को भी मात डालेगी और मौत से भी ज़्यादा सख़्त क़वी हुक्मे ख़ुदा है। यह जवाबात सुन कर साएल फ़ड़क उठा।
तीसरी वाकिआ
हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) से मनक़ूल है कि एक मरतबा लोगों ने देखा कि एक शख़्स के हाथ में खून आलूदा छुरी है और उसी जगह एक शख़्स ज़ब्ह किया हुआ पड़ा है। जब उससे पूछा गया कि तूने उसे क़त्ल किया है तो उसने कहा हां। लोग उसे जसदे मक़तूल समैत जनाबे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की खि़दमत में चले। इतने में एक शख़्त दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि इसे छोड़ दों, इस मक़तूल का क़ातिल मैं हूँ। उन लोंगों ने उसे भी साथ ले लिया और हज़रत के पास ले गये। सारा क़िस्सा बयान किया गया। आपने पहले शख़्स से पूछा कि जब तू इसका क़ातिल नहीं था तो क्या वजह है कि अपने को इस का क़ातिल बयान किया। उसने कहा मौला मैं क़स्साब हूँ। गोसफ़न्द ज़ब्ह कर रहा था कि मुझे पेशाब की हाजत हुई। इस तरह ख़ून आलूदा छुरी लिये हुये उस ख़राबे में चला गया, वहां देखा की वह मक़तूल ताज़ा ज़िब्हा किया हुआ पड़ा है, इतने में लोग आ गये और मुझे पकड़ लिया। मैंने यह ख़्याल करते हुये कि इस वक़्त जब कि क़त्ल के सारे क़राएन मौजूद हैं मेरे इन्कार को कौन बावर करेगा। मैंने इक़रार कर लिया। फिर आपने दूसरे से पूछा कि तू इसका क़ातिल है? उसने कहा जी हंा मैं ही उसे क़त्ल कर के चला गया था। जब देखा कि एक क़स्साब की ना हक़ जान चली जायेगी, तो हाज़िर हो गया। आपने फ़रमाया मेरे फ़रज़न्द हसन को बुलाओ वही इस मक़सद का फ़ैसला सुनायेंगे। इमाम हसन (अ.स.) आये सारा क़िस्सा सुना। फ़रमाया दोनों को छोड़ दो यह क़स्साब बे कु़सूर है और यह शख़्स अगरचे का़तिल है मगर उसने एक नफ़्स को क़त्ल किया तो दूसरे नफ़्स (क़स्साब) को बचा कर उसे हयात दी और उसकी जान बचा ली, और हुक्मे क़ुरआन है कि ! ‘‘ मन अययाहा फ़ाक़ानमा अहया अन्नास जमीअन ’’ जिसने एक नफ़्स की जान बचाई उसने गोया तमाम लोगों की जान बचाई। लेहाज़ा उस मक़तूल का ख़ून बहा बैतुलमाल से दे दिया जाये।
चौथा वाकिआ
अली इब्ने इब्राहीम क़ुम्मी ने अपनी तफ़सीर मे लिखा कि शाहे रोम ने जब हज़रत अली (अ.स.) के मुक़ाबले में माविया की चीरा दस्तियों से आगाही हासिल की तो दोनों को लिखा कि मेरे पास एक एक नुमाइन्दा भेज दें। हज़रत अली (अ.स.) की तरफ़ से इमाम हसन (अ.स.) और माविया की तरफ़ से यज़ीद की रवानगी अमल में आई। यज़ीद ने वहां पहुँच कर शाहे रोम की दस्त बोसी की और इमाम हसन (अ.स.) ने जाते ही कहा कि ख़ुदा का शुक्र है मैं यहूदी, नसरानी, मजूसी वग़ैरा नहीं हूँ बल्कि ख़ालिस मुसलमान हूँ। शाहे रोम ने चन्द तसावीर निकालीं। यज़ीद ने कहा कि मैं इन में से एक को भी नहीं पहचानता और न बता सकता हूं कि यह किन हज़रात की शक्लें हैं। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) ने, हज़रत आदम (अ.स.), हज़रत नूह (अ.स.), हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और शुऐब (अ.स.) व याहीया (अ.स.) की तसवीरें देख कर शक्लें पहचान लीं और एक तसवीर देख कर आप रोने लगे। बादशाह ने पूछा यह किसी तसवीर है? फ़रमाया मेरे जद्दे नामदार की। इसके बाद बादशाह ने सवाल किया कि वह कौन से जान दार हैं जो अपनी मां के पेट से पैदा नहीं हुए? आपने फ़रमाया कि ऐ बादशाह, वह सात 7 जानदार हैं। 1. आदम, 2. हव्वा, 3. दुम्बाए इब्राहीम, 4. नाक़ा ए सालेह, 5. इबलीस, 6. मुसवी अज़दहा, 7. वह कव्वा जिसने क़ाबील की दफ़्ने हाबील की तरफ़ रहबरी की। बादशाह ने यह तबह्हुरे इल्मी देख कर बड़ी इज़्ज़त की और ताहएफ़ के साथ वापस किया।
इमाम हसन (अ.स.) और तफ़सीरे क़ुरआन
अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई बा हवाला ए तफ़सीर वसीत वाहिदी लिखते हैं कि एक शख़्स ने इब्ने अब्बास और इब्ने उमर से एक आयत से मुताअल्लिक़ ‘‘ शाहिद व मशहूद ’’ के मानी दरयाफ़्त किये। इब्ने अब्बास ने शाहिद से यौमे जुमा और मशहूद से यौमे अरफ़ा बताया और इब्ने उमर ने यौमे जुमा और यौमुल नहर कहा। इसके बाद वह शख़्स इमाम हसन (अ.स.) के पास पहुँचा। आपने शाहिद से रसूले ख़ुदा (स.अ.) और मशहूद से यौमे क़यामत फ़रमाया और दलील से आयत पढ़ी। 1. ‘‘ या अय्योहन नबी अना अरसलनाका शाहिदो मुबशशिरो नज़ीरा ’’ ऐ नबी हम ने तुम को शाहिदो मुबशशिर और नज़ीर बना कर भेजा। 2. ‘‘ ज़ालेका यौमे मजमूआ लहा अन्नास व ज़ालेका यौमे मशहूद ’’ क़यामत का वह दिन होगा, जिसमें तमाम लोग एक मक़ाम पर जमा कर दिये जायेंगे और यही यौमे मशहूर है। साएल ने सब के जवाब सुन्ने के बाद कहा ‘‘ फ़काना का़ैल अल हसन अहसन ’’ इमाम हसन (अ.स.) का जवाब दोनों से कहीं बेहतर है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 225)
इमाम हसन (अ.स.) की साया ए रहमत से महरूमी
मुवर्रेख़ीन का बयान है कि इमाम हसन (अ.स.) की उम्र जब सात 7, साल पांच 5, माह और तेरह 13 दिन की हुई तो आपके सर से रहमतुल लिल आलेमीन का साया 28 सफ़र 11 हिजरी को उठ गया। अभी आप नाना का सोग मनाने से फ़राग़त हासिल न कर सके थे कि 3 जमादिउस्सानी 11 हिजरी को आपकी वालेदा माजेदा हज़रत फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) ने भी इन्तेक़ाल फ़रमाया। इस गाम बालाए ग़म ने इमाम हसन (अ.स.) को बे इन्तेहा सदमा पहुँचाया।
मुशहबेहते रसूल (स.अ.)
अल्लामा अली मुत्तक़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रते अली (अ.स.) फ़रमाया करते थे कि हसन रसूले करीम (स. अ.) की शक्लो शबाहत से बहुत ज़्यादा मुशाबेह है। अनस बिने मालिक का बयान है कि इमाम हसन (अ.स.) के जिस्म का निस्फ़ बालाई हिस्सा रसूल अल्लाह (स.अ.) से और निस्फ़ हिस्सा ज़ेरी अमीरल मोमेनीन (अ.स.) से मुशाबेहत है।
एक रवायत में है कि आं हज़रत (स.अ.) फ़रमाया करते थे कि हसन में ख़ुदा ने हैबत और सरदारी और हुसैन में जुर्रत व हिम्मत वदीअत की है। (कन्ज़ुल आमाल जिल्द 7 सफ़ा 107)
इमाम हसन (अ.स.) की इबादत
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़रमाते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) ज़बरदस्त आबिद बेमिसाल ज़ाहिद, अफ़ज़ल तरीन आलिम थे। आप ने जब भी हज फ़रमाया पैदल फ़रमाया। कभी कभी पा बरहैना हज को जाते थे। आप अकसर मौत, अज़ाबे क़ब्र, सिरात और बेअसत व नशूर को याद कर के रोया करते थे। जब आप वज़ू करते थे तो आपके चेहरे का रंग ज़र्द हो जाया करता था और जब नमाज़ के लिये खड़े होते थे तो बेद की मिस्ल कांपने लगते थे। आपका मामूल था कि जब दरवाज़ए मस्जिद पर पहुँचते तो खुदा को मुख़ातिब करके कहते, मेरे पालने वाले तेरा गुनाहगार बन्दा तेरी बारगाह में आया है ऐ रहमानों रहीम अपनी अच्छाईयों के सदक़े में मुझ जैसे बुराई करने वाले को माफ़ कर दे। आप जब नमाज़े सुबह से फ़ारिग़ होते थे तो उस वक़्त तक वजा़एफ़ में मशगू़ल रहते थे जब तक सूरज तुलू न हो जाये। (रौज़ातुल वाएज़ीन व बेहारूल अनवार)
आपका ज़ोहद
इमाम शाफ़ेई लिखते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) ने अक्सर अपना सारा माल राहे ख़ुदा में तक़सीम कर दिया और बाज़ मरतबा निस्फ़ माल तक़सीम फ़रमाया। वह अज़ीम ज़ाहिदो परहेज़गार थे।
आपकी सख़ावत
मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि एक शख़्स ने हज़रत इमाम हसन (अ.स.) से कुछ मांगा। दस्त सवाल दराज़ होना था कि आपने 50,000 (पचास हज़ार) दिरहम और 500 (पांच सौ) अशर्फि़यां दे दीं और फ़रमाया कि मज़दूर ला कर इसे उठा ले जा। इसके आपने मज़दूर की मज़दूरी में अपना चोग़ा बख़्श दिया। (मरातुल जनान 123) एक मरतबा आपने एक साएल को ख़ुदा से दुआ करते हुए सुना, ख़ुदाया मुझे दस हज़ार दिरहम अता फ़रमा। आपने घर पहुँच कर मतलूबा रक़म भिजवा दी। (नूरूल अबसार सफ़ा 122)
आपसे किसी ने पूछा कि आप तो फ़ाक़ा करते हैं लेकिन साएल को महरूम वापस नहीं फ़रमाते। इरशाद फ़रमाया कि मैं खु़दा से मांगने वाला हूँ उसने मुझे देने की आदत डाल रखी है, और मैंने लोगों को देने की आदत डाली है। मैं डरता हूँ कि अगर अपनी आदत बदल दूं तो कहीं ख़ुदा भी अपनी आदत न बदल दे और मुझे भी महरूम कर दे। (सफ़ा 123)
तवक्कुल के मुताअल्लिक़ आपका इरशाद
इमामे शाफ़ेई का बयान है कि किसी ने इमाम हसन (अ.स.) से अर्ज़ की कि अबूज़रे ग़फ़्फ़ारी फ़रमाया करते थे कि मुझे तवंगरी से ज़्यादा नादारी और सेहत से ज़्यादा बीमारी पसन्द है। आपने फ़रमाया कि ख़ुदा अबू ज़र पर रहम करे उनका कहना दुरूस्त है लेकिन मैं तो कहता हूँ कि जो शख़्स के क़ज़ा व क़द्र पर तवक्कल करे वह हमेशा इसी चीज़ को पसन्द करेगा जिसे खु़दा उसके लिये पसन्द करे। (मरातुल जेना जिल्द 1 सफ़ा 125)
इमाम हसन (अ.स.) हिल्म और इख़्लाक़ के मैदान में
अल्लामा इब्ने शहरे आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम हसन (अ.स.) घोड़े पर सवार कहीं तशरीफ़ लिये जा रहे थे, रास्ते में माविया के तरफ़दारों का एक शामी सामने आ पड़ा। उसने हज़रत को गालियां देनी शुरू कर दी। आपने उसका मुतलक़न कोई जवाब न दिया। जब वह अपनी जैसी कर चुका तो आप उसके क़रीब गये और उसको सलाम कर के फ़रमाया कि भाई शायद तू मुसाफ़िर है, सुन अगर तुझे सवारी की ज़रूरत हो, तो मैं तुझे सवारी दे दूं। अगर तू भूखा हो तो खाना खिला दूं। अगर तुझे कपड़े दरकार हों तो कपड़े दे दूं। अगर तुझे रहने को जगह चाहिये तो मकान का इन्तेज़ामक र दूं। अगर दौलत की ज़रूरत है तो तुझे इतना दे दूं कि तू ख़ुश हाल हो जाये। यह सुन कर शामी बे इन्तेहा शरमिन्दा हुआ और कहने लगा कि मैं गवाही देता हूँ कि आप ज़मीने ख़ुदा पर ख़लीफ़ा हैं। मौला मैं तो आपको और आपके बाप दादा के सख़्त नफ़रत और हिक़ारत की नज़र से देखता था लेकिन आज आपके इख़्लाक़ ने मुझे आपका गिरवीदा बना दिया। अब मैं आपके क़दमों से दूर न जाऊंगा और ता हयात आपकी खि़दमत में रहूँगा। (मुनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 53 व कामिल मबरूज 2 सफ़ा 86)
एहसान का बदला एहसान
अबुल हसन मदाईनी का बयान है कि एक मरतबा इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार हज को जाते हुए भूख और प्यास की हालत में एक ज़ईफ़ा के झोपड़े में जा पहुँचे और उससे खाने पीने की चीज़ तलब फ़रमाई। उसने अर्ज़ की कि मेरे पास एक बकरी है उसका दूध दूह कर प्यास बुझाई जा सकती है, उन्होंने दूध पी लिया लेकिन गुरसनगी से तसल्ली न हुई तो उससे फ़रमाया कि कुछ खाने का बन्दो बस्त भी हो सकता है। उसने कहा मेरे पास तो बस यही एक बकरी है लेकिन मैं क़सम देती हूँ कि आप इसे ज़ब्ह कर के तनावुल फ़रमा लें। बकरी ज़ब्ह की गई गोश्त भूना गया और सब ने खा लिया और इसके बाद क़दरे आराम कर के वह लोग रवाना हो गये। जब शाम को उसका शौहर आया तो उस औरत ने सारा वाक़िया सुनाया। शौहर ने पूछा वह कौन लोग थे? कहा मालूम नहीं, जाते वक़्त यह कहा था कि हम मदीने के रहने वाले है। शौहर ने कहा ख़ुदा की बन्दी यह तो बता कि अब हमारा गुज़ारा किस तरह होगा। ग़रज़ कि थोड़े ही अरसे में उन लोगों को क़हत का सामना करना पड़ा और यह सख़्त मुसिबतों में मुब्तिला हो कर भीख मांगते हुए मदीने जा पहुँचे। एक गली से गुज़र रहे थे कि नागाह इमाम हसन (अ.स.) की निगाह उस औरत पर जा पड़ी। आप ने उसे बुलवा कर बकरी वाला वाक़िया याद दिलाया और उसको एक हज़ार बकरियां और एक हज़ार अशर्फि़यां इनायत फ़रमा दीं और उसे इमाम हुसैन (अ.स.) की खि़दमत में भेज दिया, उन्होंने भी उसे इसी क़द्र बकरियां वग़ैरा अता फ़रमाई फिर अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र को इत्तेला दी गई उन्होंने भी उसी के लगभग उसे दे दिया। वह माला माल हो कर अपने घर वापस चली गई। (नूरूल अबसार सफ़ा 121 व मतालेबुल सुवेल सफ़ा 229)
अहदे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) में इमाम हसन (अ.स.) की इस्लामी खि़दमात
तवारीख़ में है कि जब हज़रत अली (अ.स.) को पच्चीस बरस की ख़ाना नशीनी के बाद मुसलमानों ने ख़लीफ़ाए ज़ाहिरी की हैसियत से तसलीम किया और उसके बाद जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान की लड़ाईयां हुईं तो हर एक जेहाद में इमाम हसन (अ.स.) अपने वालिदे बुज़ुर्गवार के साथ साथ ही नहीं रहे बल्कि बाज़ मौक़ों पर जंग में आपने कारहाय नुमायां भी किये। सैरूल सहाबा और रौज़ातुल सफ़ा में है कि जंगे सिफ़्फ़ीन के सिलसिले में जब अबू मूसा अशअरी की रेशा दवानियां उरयां हो चुकीं तो अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने इमाम हसन (अ.स.) और अम्मारे यासीर को कूफ़ा रवाना फ़रमाया। आपने जामए कूफ़ा में अबू मूसा के अफ़सून को अपनी तक़रीर के तिरयाक़ से बे असर बना दिया और लोगों को हज़रत अली (अ.स.) के साथ जाने पर आमादा किया। अख़बार अल तवाल की रवायत की बिना पर नौ हज़ार छः सौ पचास (9650) का लशकर तय्यार हो गया।
मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जंगे जमल के बाद जब आयशा मदीने जाने पर आमादा न हुईं तो हज़रत अली (अ.स.) ने इमामे हसन (अ.स.) को भेजा और उन्होंने समझा बुझा कर मदीने रवाना किया चुनान्चे वह इस सई मम्दूह में कामयाब हो गये। बाज़ तारीखो में है कि इमाम हसन (अ.स.) जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन में अलमदारे लशकर थे और आपने मोहायदए तहकीम पर दस्तख़त फ़रमाये थे और जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन और नहरवान में भी सई बलीग़ की थी। फ़ौजी कामों के अलावा आपके सिपुर्द सरकारी मेहमान ख़ाने का इन्तेज़ाम और शाही मेहमानों की मदारात का काम भी था। आप मुक़दमात के फ़ैसले भी करते थे और बैतुल माल की निगरानी भी फ़रमाते थे।
हज़रत अली (अ.स.) की शहादत और इमाम हसन (अ.स.) की बैयत
मवर्रेख़ीन का बयान है कि इमाम हसन (अ.स.) के वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत अली (अ.स.) के सरे मुबारक पर बा मक़ामे मस्जिदे कूफ़ा 19 रमज़ान, 40 हिजरी बा वक़्ते सुबह अमीरे माविया की साज़िश से अब्दुल रहमान इब्ने मुल्जिम मुरादी ने ज़हर में बुझी हुई तलवार लगाई। जिसके सदमे से आपने 21 रमज़ानुल मुबारक 40 हिजरी बा वक़्ते सुबह शहादत पाई। इस वक़्त इमाम हसन (अ.स.) की उम्र 38 साल 6 यौम की थी। हज़रत अली (अ.स.) की तदफ़ीन व तकफ़ीन के बाद अब्दुल्लाह अब्ने अब्बास की तहरीक से बक़ौल इब्ने असीर क़ैस इब्ने सआद इबादा अन्सारी ने इमामे हसन (अ.स.) की बैयत की और उनके बाद तमाम हाज़ेरीन ने बैयत कर ली जिनकी तादाद 40,000 (चालीस हज़ार) थी। यह वाके़या 21 रमज़ान 40 हिजरी यौमे जुमा का है। किफ़ाएतुल अस्र अल्लामा मजलिसी में है कि इस वक़्त आपने एक फ़सीह व बलीग़ ख़ुतबा पढ़ा। जिसमें आपने हम्दो सना के बाद 12 इमामों की खि़लाफ़त का ज़िक्र फ़रमाया और इसकी वज़ाहत की कि आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया है कि हम में हर एक या तलवार के घाट उतरेगा या ज़हरे दग़ा से शहीद होगा। इसके बाद आपने ईराक़, ईरान, ख़ुरासान, हिजाज़ और यमन व बसरा वग़ैरा के अम्माल की तरफ़ तवज्जो की और अब्दुल्ला इब्ने अब्बास को बसरा का हाकिम मुक़र्रर फ़रमाया। माविया को ज्योही ख़बर पहुँची तो बसरे के हाकिम इब्ने अब्बास मुक़र्रर कर दिये गये हैं तो उसने दो जासूस रवाना किये, एक क़बीलए हमीर, कूफ़े की तरफ़ और दूसरा क़बीलए क़ीन का बसरे की तरफ़। इसका मक़सद यह था कि लोग इमाम हसन (अ.स.) से मुनहरिफ़ हो कर मेरी तरफ़ आ जायें लेकिन वह दोनों जासूस गिरफ़्तार कर लिये गये और उन्हें बाद में क़त्ल कर दिया गया।
हक़ीक़त है कि जब ऐनाने हुकुमत इमाम हसन (अ.स.) के हाथों में आई तो ज़माना बड़ा पुर आशोब था। हज़रत अली (अ.स.) जिनकी शुजाअत की धाक सारे अरब में बैठी हुई थी दुनियां से कूच कर चुके थे। उनकी दफ़ातन शहादत ने सोये हुये फ़ितनों को बेदार कर दिया था और सारी ममलकत में साज़िशों की खिचड़ी पक रही थी। ख़ुद कूफ़े में अशअस इब्ने क़ैस, उमर बिने हरीस, शीस इब्ने रबई वग़ैरा खुल्लम खुल्ला बर सरे अनाद और आमादए फ़साद नज़र आते थे। माविया ने जा बजा जासूस मुक़र्रर कर दिये थे जो मुसलमानों में फूट डलवाते और हज़रत के लश्कर में इख़्तेलाफ़ो इफ़तेराक़ का बीज बोते थे। उसने कूफ़े के बडे़ बड़े सरदारों से साज़िशी मुलाक़ातें कीं और बड़ी बड़ी रिश्वतें दे कर उन्हें तोड़ लिया। बेहारूल अनवार में एल्लश्शराए के हवाले से मन्क़ूल है कि माविया ने उमर बिने हरीस, अशअस बिने क़ैस, हजर इब्नुल हजर शीश इब्ने रबई के पास अलाहेदा अलाहेदा यह पैग़ाम भेजा कि जिस तरह हो सके हसन इब्ने अली को क़त्ल करा दो, जो मनचला यह काम कर गुज़रेगा उसे दो लाख दिरहम नग़द इनाम दूँगा और फ़ौज की सरदारी अता करूगां और अपनी किसी लड़की से शादी कर दूंगा। यह इनाम हासिल करने के लिये लोग शबो रोज़ मौक़े की तलाश में रहने लगे। हज़रत को इत्तेला मिली तो आपने कपड़ों के नीचे ज़िरह पहनना शुरू कर दी। यहां तक की नमाज़े जमाअत पढ़ाने के लिये बाहर निकलते तो ज़िरह पहन कर निकलते थे। माविया ने एक तरफ़ तो ख़ुफ़िया तोड़ जोड़ किये, दूसरी तरफ़ एक बड़ा लशकर ईराक़ पर एक बड़ा हमला करने के लिये भेज दिया। जब हमला आवर लश्कर हुदूदे ईराक़ में दूर तक आगे बढ़ आया तो हज़रत ने अपने लशकर को हरकत करने का हुक्म दिया। हजर इब्ने अदी को थोड़ी सी फ़ौज के साथ आगे बढ़ने के लिये फ़रमाया। आपके लश्कर में भीड़ भाड़ तो ख़ासी नज़र आने लगी थी मगर सरदार जो सिपाहीयांे को लडा़ते हैं कुछ तो माविया के हाथ बिक चुके थे, कुछ आफ़ियत पोशी में मसरूफ़ थे। हज़रत अली (अ.स.) की शहादत ने दोस्तों के हौसले पस्त कर दिये थे और दुशमनों को जुरअतो हिकमत दिला दी थी।
मुवर्रेख़ीन का बयान है कि माविया 60,000 (साठ हज़ार) की फ़ौज ले कर मक़ामे मकसन में जा उतरा, जो बग़दाद से दस फ़रसख़ तकरीत की जानिब अवाना के क़रीब वाक़े है। इमाम हसन (अ.स.) को जब माविया की पेश क़दमी का इल्म हुआ तो आपने भी एक बड़े लशकर के साथ कूच कर दिया और कूफ़े से साबात में जा पहुँचे और बारह हज़ार की फ़ौज क़ैस इब्ने साअद की मातहती में माविया की पेश क़दमी रोकने के लिये रवाना कर दिया फिर साबात से रवाना होते वक़्त आपने एक ख़ुतबा पढ़ा जिसमें आपने फ़रमाया कि, ‘‘ लोगों तुमने इस शर्त पर मुझ से बैयत की है कि सुलह और जंग दोनों ही हालातों में मेरा साथ दोगे। मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि मुझे किसी शख़्स से बुग़ज व अदावत नहीं है, मेरे दिल में किसी को सताने का ख़्याल नहीं है। मैं सुलह को जंग से और मोहब्बत को अदावत से कहीं बेहतर समझता हूं।
लोगों ने हज़रत के इस खि़ताब का मतलब यह समझा कि हज़रत इमाम हसन (अ.स.) अमीरे माविया से सुलह करते की तरफ़ माएल हैं और खि़लाफ़त से दस्त बरदारी करने का इरादा दिल में रखते हैं। इसी दौरान में माविया ने इमाम हसन (अ.स.) के लशकर की कसरत से मुतास्सिर हो कर यह मशवेरा अमरे आस कुछ लोगों को इमाम हसन (अ.स.) के लशकर में और कुछ को क़ैस इब्ने साअद के लशकर में भेज कर एक दूसरे के खि़लाफ़ प्रोपेगन्डा करा दिया। इमाम हसन (अ.स.) के लशकर वाले साज़िशयों ने क़ैस के मुताअल्लिक़ यह शोहरत देनी शुरू की कि उसने माविया से सुलह कर ली है और क़ैस बिने साअद के लशकर में जो साज़िशी घुसे हुए थे उन्होंने तमाम लशकरयों में चर्चा कर दिया कि इमाम हसन (अ.स.) ने माविया से सुलह कर ली है। इमाम हसन (अ.स.) के दोनों लशकरों में इस ग़ल्त अफ़वा हके फैल जाने से बग़ावत और बद गुमानी के जज़बात उभर निकले। इमाम हसन (अ.स.) के लश्कर का वह उन्सर जिसे पहले ही से शुबह था कि माएल ब सुलह हैं यह कहने लगा कि इमाम हसन (अ.स.) भी अपने बाप हज़रत अली (अ.स.) की तरह काफ़िर हो गये हैं। बिल आखि़र फ़ौजी आपके ख़ैमे पर टूट पड़े आपका कुल असबाब लूट लिया। आपके नीचे से मुसल्ला तक खींच लिया। दोशे मुबारक पर से रिदा भी उतार ली और बाज़ नुमाया क़िस्म के अफ़राद ने इमाम हसन (अ.स.) को माविया के हवाले कर देने का प्लान तय्यार किया। आखि़र कार आप इन बद बख़्तों से मदाएन के गर्वनर साअद या सईद की तरफ़ रवाना हो गये। रास्ते में एक ख़वारजी ने जिसका नाम बा रवायतुल अख़बारूल तवाल सफ़ा 393, जराह बिने क़ैसा था, आपकी रान पर कमी गाह से एक ऐसा ख़न्जर लगाया जिसने हड्डी तक महफ़ूज़ न रहने दी। आपने मदाएन में मुक़ीम रह कर इलाज कराया और अच्छे हो गये। तारीख़े कामिल जिल्द 3, सफ़ा 161, तारीख़े आइम्मा सफ़ा 333, फ़तेहुलबारी।
माविया ने मौक़ा ग़नीमत जान कर 20,000 (बीस हज़ार) का लश्कर अब्दुल्लाह इब्ने अमिर की क़यादत व मातहती में मदाएन भेज दिया। इमाम हसन (अ.स.) उससे लड़ने के लिये निकलने ही वाले थे कि उसने आम शोहरत कर दी कि माविया बहुत बड़ा लश्कर ले कर आ रहा है। मैं इमाम हसन (अ.स.) और उनके लश्कर से दरख़्वास्त करता हूं कि मुफ़त में जान न दें और सुलह कर लें। इस दावते सुलह और पैग़ामे ख़ौफ़ से लोगों के दिल बैठ गये, हिम्मते पस्त हो गईं और इमाम हसन (अ.स.) की फ़ौज भागने के लिये रास्ता ढूंढने लगी।
सुलह
मुवर्रिख़, मआसिर अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि अमीरे शाम को हज़रते इमाम हसन (अ.स.) की फ़ौज की हालत और लोगों की बेवफ़ाई का हाल मालूम हो चुका था इस लिये वह समझते थे कि इमाम हसन (अ.स.) के लिये जंग मुम्किन नहीं है मगर इसके साथ यह भी यक़ीन रखते थे कि हज़रत इमाम हसन (अ.स.) कितने ही बेबस और बेकस हों मगर अली (अ.स.) व फ़ात्मा (स.अ.) के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे हैं इस लिये वह ऐसे शराएत पर हरगिज़ सुलह न करेंगे जो हक़ परस्ती के खि़लाफ़ हों और जिनसे बातिल की हिमायत होती हो। इसको नज़र में रखते हुए उन्होंने एक तरफ़ तो आपके साथियों अब्दुल्लाह इब्ने आमिर के ज़रिये पैग़ाम दिलवाया कि अपनी जान के पीछे न पड़ो और ख़ूं रेज़ी न होनें दों इस सिलसिले में कुछ लोगों को रिशवतें भी दी गई और कुछ बुज़दिलों को अपनी तादाद की ज़्यादती से ख़ौफ़ ज़दा किया गया और दूसरी तरफ़ हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के पास पैग़ाम भेजा कि आप जिन शराएत पर कहें उन्हीं शराएत पर सुलह के लिये तय्यार हूं।
इमाम हसन (अ.स.) यक़ीनन अपने साथियों की ग़द्दारी देखते हुए जंग करना मुनासिब न समझते थे लेकिन इसी के साथ साथ यह ज़रूर पेशे नज़र था कि ऐसी सूरत पैदा हो कि बातिल की तक़वियत का धब्बा मेरे दामन पर न आने पाये। इस ज़माने को हुकूमत व इक़तेदार की हवस तो कभी थी ही नहीं उन्हें तो मतलब इससे था कि मख़लूक़े ख़ुदा की बेहतरी हो और हुदूदे इलाही का इजरा हो। अब अमीरे माविया ने जो आप से मुंह मांगे शरायत पर सुलह करने के लिये आमदगी ज़ाहिर की तो अब मुसालेहत से इन्कार करना शख़्सी इक़तेदार की ख़्वाहिश के अलावा और कुछ नहीं क़रार पा सकता था और यह की अमीरे शाम सुलह की शरायत पर अमल न करेंगे। बात की बात थी जब तक सुलह न होती यह अंजाम सामने कहां से आ सकता था और हुज्जतें तमाम क्यों कर हो सकती थीं फिर भी आख़री जवाब देने से क़ब्ल आपने साथ वालों को जमा कर लिया और तक़रीर फ़रमाई।
आगाह रहो कि तुम में वह खूं रेज़ लडा़ईयां हो चुकि हैं जिनमें बहुत लोग क़त्ल हुए कुछ मक़तूल सिफ़्फ़ीन में हुए जिनके लिये आज तक रो रहे हो और कुछ मक़तूल नहरवान के जिनका मुआवेज़ा तलब कर रहे हो । अब अगर तुम मौत पर राज़ी हो तो हम इस पैग़ामे सुलह को क़बूल न करें और उनसे अल्लाह के भरोसे पर तलवारों से फ़ैसला करें और अगर ज़िन्दगी को अज़ीज़ रखते हो तो हम उसको क़बूल कर लें और तुम्हारी मरज़ी पर अमल करें। जवाम मे लोगों ने हर तरफ़ से पुकारना शुरू किया कि हम ज़िन्दगी चाहते हैं। आप सुलह कर लिजिये। इसी का नतीजा था कि आपने सुलह के शरायत मुरत्तब कर के मआद के पास रवाना किये। (तरजुमा इब्ने ख़ल्दून)
शराएते सुलह
इस सुलह नामे के शराएत हसबे ज़ैल थे
1. यह कि माविया हुकूमते इस्लाम में, किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स.अ.) पर अमल करेगे।
2. यह कि माविया को अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा नामजद करने का हक़ न होगा।
3. यह कि शाम व ईराक़ व हिजाज़ व यमन सब जगह के लोगों के लिये अमान होगी।
4. यह कि हज़रत अली (अ.स.) के असहाब और शिया जहां भी हैं उनके जान व माल और नामूस और औलाद महफ़ूज़ रहेंगे।
5. यह कि माविया हसन इब्ने अली (अ.स.) और उनके भाई हुसैन इब्ने अली (अ.स.) ख़ानदाने रसूल (स.अ.) में से किसी को भी कोई नुक़सान या हलाक करने की कोशिश न करेगे और न ख़ुफ़िया तौर पर और न ऐलानियां और उनमें से किसी को किसी जगह धमकाया और डराया न जायेगा।
6. यह कि जनाबे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की शान में कलमाते नाज़ेबा जो अब तक मस्जिदे जामा और कु़नूते नमाज़ में इस्तेमाल होते रहे हैं वह तर्क कर दिये जायें आखि़री शर्त की मंज़ूरी में माविया को उज़्र हुआ तो यह तय पाया कि कम अज़ कम जिस मौक़े पर इमाम हसन (अ.स.) मौजूद हों, उस जगह ऐसा न किया जाये। यह मुआहेदा रबीउल अव्वल या जमादिउल अव्वल 41 हिजरी को अमल में आया।
सुलह नामे पर दस्तख़त
25 रबीउल अव्वल को कूफ़े के क़रीब मुक़ामे अम्बारे में फ़रीक़ैन का इज्तेमा हुआ और सुलह नामे पर दोनों के दस्तख़त हुए और गवाहियां सब्त हुईं। (निहायतुल अरब फ़ी मारेफ़तुन निसाब अल अरब सफ़ा 80) इसके बाद माविया ने अपने लिये आम बैयत का ऐलान कर दिया और साल का नाम सुन्नतुल जमाअत रखा फिर इमाम हसन (अ.स.) को ख़ुतबा देने पर मजबूर किया। आप मिम्बर पर तशरीफ़ ले गये और इरशाद फ़रमाया, ‘‘ ऐ लोगों ख़ुदाए तअला ने हम में से अव्वल के ज़रिए से तुम्हारी हिदायत की और आखि़र के ज़रिये से तुम्हें खूं रेज़ी से बचाया। माविया ने इस अम्र में मुझसे झगड़ा किया जिसका मैं इस से ज़्यादा मुस्तहक़ हूं लेकिन मैंने लोगों की खूं रेज़ी की निसबत इस अम्र का तर्क कर देना बेहतर समझा। तुम रंज व मलाल न करों कि मैंने हुकूमत इसके न अहद को दे दी, और उसके हक़ को जाय नाहक़ पर रखा मेरी नियत इस मामले में सिर्फ़ उम्मत की भलाई है। यहां तक फ़रमाने पाय थे कि माविया ने कहा बस ऐ हज़रत ज़्यादा फ़रमाने की ज़रूरत नहीं है। (तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 सफ़ा 325)
तकमीले सुलह के बाद इमाम हसन (अ.स.) ने सब्र व इस्तेक़लाल व नफ़्स की बलन्दी के साथ उन तमाम नाख़ुशगवार हालात के बरदाश्त किया और मोहायदे पर सख़्ती से क़ायम रहे, मगर इधर यह हुआ कि अमीरे शाम ने जंग के ख़त्म होते ही और सियासी इक़तेदार के मज़बूत होते ही ईराक़ में दाखि़ल हो कर नख़ीले में जिसे कूफ़े की सरहद समझना चाहिये क़याम किया और जुमे के ख़ुत्बे के बाद ऐलान किया कि मेरा मक़सद जंग से यह न था कि तुम लोग नमाज़ पढ़ने लगो, रोज़े रखने लगो, हज करो या ज़कात अदा करो, यह सब तुम तो करते ही हो मेरा मक़सद तो यह था कि मेरी हुकूमत तुम पर मुसल्लम हो जाय और यह मेरा मक़सद हसन (अ.स.) के उस मुहायदे के बाद पूरा हो गया और बावजूद तुम लोगो की नगवारी के मैं कामयाब हो गया। रह गये वह शरायत जो मैंने हसन (अ.स.) के साथ किये हैं वह सब मेरे पैरों के नीचे हैं। इनका पूरा करना या न करना मेरे हाथ की बात है। यह सुन कर मजमे में एक सन्नाटा छा गया, मगर अब किस में दम था कि उसके खि़लाफ़ ज़बान खोलता।
शराएते सुलह का हशर
मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि अमीरे माविया जो मैदाने सियासत का खिलाड़ी और मकरो जौर की सलतनक का ताजदार था इमाम हसन (अ.स.) से वादा और मुहायदा के बाद ही सब से मुकर गया। ‘‘ वलमयफ़ लहु मावीयतालयाअ महाआहद अलैह ’’ तारीखे कामिल इब्ने असीर जिल्द 3 सफ़ा 162 में है कि माविया ने किसी एक चीज़ की भी परवाह न की और किसी पर अमल न किया। इमाम अबुल हसन अली बिन मोहम्मद लिखते हैं कि जब माविया के लिये अमरे सलतनत उसतवार हो गया तो इस ने अपने हाकिमों को जो मुख़तलिफ़ शहरों और इलाकों़ में थे, यह फ़रमान भेजा कि अगर कोई शख़्स अबु तुराब और उसके अहले बैत की फ़ज़ीलत की रवायत करेगा तो मै उससे बरीउजि़्ज़म्मा हूं। जब यह ख़बर तमाम मुल्कों में फैल गई और लोगों को माविया का मंशा मालूम हो गया तो तमाम ख़तीबों ने मिम्बर पर से सब्बो शितम और मनक़सते अमीरल मोमेनीन पर ख़ुत्बा देना शुरू कर दिया। कूफ़े में ज़्याद इब्ने अबीहा जो कई बरस तक हज़रत अली (अ.स.) के अहद में उनके अलम में रह चुका था वह शीआने अली को अच्छी तरह से जानता था। मर्द, औरतों, जवानों और बूढ़ों से अच्छी तरह आगाह था इसे हर एक रहाईश और कोनों और गोशों में बसने वालों का पता था। इसे कूफ़े और बसरे दोनों का गर्वनर बना दिया गया था। इसके ज़ुल्म की हालत यह थी कि शियाने अली को क़त्ल करता और बाज़ों की आंखों को फोड़ देता और बाज़ों के हाथ पांव कटवा देता था। इस ज़ुल्में अज़ीम से सैकड़ों तबाह हो गये। हज़ारों जंगलों और पहाड़ांे में जा छुपे। बसरे में आठ हज़ार आदमियों का क़त्ल वाक़े हुआ जिनमें बैयालिस हाफ़िज़ और क़ारीये क़ुरआन थे। इन पर मोहब्बते अली का जुर्म आयद किया गया था। हुक्म यह था कि अली (अ.स.) के बजाय उस्मान के फ़ज़ाएल बयान किये जायें और अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल के मुताअल्लिक़ यह फ़रमान था कि एक फ़ज़ीलत के एवज़ दस दस मुनक़सत व मज़म्मत तसनीफ़ की जाए यह सब कुछ अमीरल मोमेनीन (अ.स.) से बदला लेने और यज़ीद के लिये ज़मीने खि़लाफ़त हमवार करने की ख़ातिर था।
कूफ़े से इमाम हसन (अ.स.) की मदीने को रवानगी सुलह के मराहिल तय होने के बाद इमामे हसन (अ.स.) अपने भाई इमाम हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र और अपने अतफ़ाल व अयाल को ले कर मदीने की तरफ़ रवाना हो गये। तारीख़े इस्लाम मिस्टर ज़ाकिर हुसैन की जिल्द 1 सफ़ा 34 में है कि जब आप कूफ़े से मदीना के लिये रवाना हुए तो माविया ने रास्ते में एक पैग़ाम भेजा और वह यह था कि आप ख़्वारिज से जंग करने के लिये तय्यार हो जायें क्यों कि उन्होंने मेरी बैयत होते ही फिर सर निकाला है। इमाम हसन (अ.स.) ने जवाब दिया कि अगर खूंरेज़ी मक़सूद होती तो मैं तुझ से क्यों सुलह करता। जस्टिस अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं कि ख़्वारिज हज़रत अबू बक्र और हज़रत उमर को मानते और हज़रत अली (अ.स.) और उस्मान ग़नी को नहीं तसलीम करते थे और बनी उमय्या को मुरतिद कहते थे।
सुलह हसन (अ.स.) और उसकी वजह व असबाब
उस्ताज़ुल आलाम हज़रत अल्लामा सय्यद अदील अख़्तर आलल्लाहो मक़ामा (साबिक़ प्रिन्सपल मदरसातुल वाएज़ीन लखनऊ) अपनी किताबे तसकीन अल फ़तन फ़ी सुलह अल हसन के सफ़ा 158 में तहरीर फ़रमाते हैं
इमामे हसन (अ.स.) की पालीसी बिल्कुल जैसा कि बार बार लिखा जा चुका है कुल अहले बैत की पालीसी एक और सिर्फ़ एक थी। (विरासत अल बैब सफ़ा 249) वह यह कि हुक्मे खुदा और हुक्मे रसूल (स.अ.) की पाबन्दी उन्हीं के एहकाम का इजरा चाहिए हैं। इस मतलब के लिये जो बरदाश्त करना पडे़, मज़कूरा बाला हालात में इमाम हसन (अ.स.) के लिये सिवाए सुलह क्या चारा हो सकता था। इसको ख़ुद साहेबाने अक़ल समझ सकते हैं। किसी इस्तेदलाल की चन्दा ज़रूरत नहीं है। यहां पर अल्लामा इब्ने असीर की यह इबारत (जिसका तरजुमा दर्ज किया जाता है) का़बिले गौ़र है।
कहा गया है कि इमाम हसन (अ.स.) ने हुकूमत माविया को इस लिये सुर्पुद की जब माविया ने खि़लाफ़त हवाले करने के मुताअल्लिक़ आपको ख़त लिखा उस वक़्त आपने ख़ुत्बा पढ़ा और खुदा की हम्दो सना के बाद फ़रमाया कि देखो हम को शाम वालों से इस लिये नहीं दबना पड़ रहा है कि अपनी हक़ीक़त में कोई शक या निदामत है। बात तो फ़क़त यह है कि हम अहले शाम से सलामत और सब्र के साथ लड़ रहे थे, मगर अब सलामत में अदावत और सब्र मे फ़रियाद मख़्लूत कर दी गई है। जब तुम लोग सिफ़्फ़ीन को जा रहे थे उस वक़्त तुम्हारा दीन तुम्हारी दुनिया पर मुक़द्दम था लेकिन अब तुम एक से हो गये हो कि आज तुम्हारी दुनिया तुम्हारे दीन पर मुक़द्दम हो गई है। इस वक़्त तुम्हारे दोनों तरफ़ दो क़िस्म के मक़तूल हैं। एक सिफ़्फ़ीन के मक़तूल जिन पर रो रहे हो दूसरे नहरवान के मक़तूल जिनके ख़ून का बदला चा रहे हो। खुलासा यह कि जो बाक़ी है वह साथ छोड़ने वााला है और जो रो रहा है वह बदला लेना ही चाहता है। ख़ूब समझ लो कि माविया ने हम को जिस अम्र की दावत दी है न इसमें इज़्ज़त है और न इन्साफ़ लेहाज़ा अगर तुम लोग मौत पर आमादा हो तो हम इसकी दावत रद कर दें और हमारा इसका फ़ैसला खुदा के नज़दीक़ भी तलवार की बाढ़ से हो जाये और अगर तुम ज़िन्दगी चाहते हो तो जो इसने लिखा है मान लिया जाय और जो तुम्हारी मरज़ी है वैसा हो जाय। यह सुनना था कि हर तरफ़ से लोंगो ने चिल्लाना शुरू कर दिया, बक़ा लक़ा, सुलह सुलह। ’’ (तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 162)
कारेईन इंसाफ़ फ़रमाइये कि क्या अब भी इमाम हसन (अ.स.) के लिये यह राय है कि सुलह न करे। इन फ़ौजियों के बल बूते पर (अगर ऐसों को फ़ौज और उनकी क़ुव्वतों को बल बूता कहा जा सके) लड़ाई ज़ेबा है हर गिज़ नहीं। ऐसे हालात में सिर्फ़ यही चारा था कि सुलह कर के अपनी और इन तमाम लोगों की ज़िन्दगी को महफ़ूज़ रखें जो दीने रसूल (स.अ.) का नाम लेवा और हक़ीक़ी पैरो औ पाबन्द थे। इसके अलावा पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की पेशीन गोई भी सुलह की राह में मशाल का काम कर रही थी। (बुखा़री) अल्लामा मोहम्मद बाक़र लिखते हैं कि हज़रत को अगरचे माविया की वफ़ाए सुलह पर एतेमाद नहीं था लेकिन आपने हालात के पेशे नज़र चारो नाचार दावते सुलह मंज़ूर कर ली। (दमउस साकेबा)
सुलह हसन (अ.स.) और जंगे हुसैन (अ.स.)
सुलह और जंग दो मुतज़ात मुताबइन लफ़्ज़ हैं। सुलह का लफ़ज़ कलामे अरब में उस वक़्त इस्तेमाल होता है जब फ़साद बाक़ी न रहे और मुसालेह उस क़रारदाद को कहते हैं जिससे नज़ा दूर हो जाय और साहेबाने सियासत के नज़दीक़ सुलह उसको कहते हैं जिसके बाद कुछ शराएत पर लड़ाई रोक दी जाय। (सवानेह इमाम हसन सफ़ा 99 बा हवालाए मोअज्जिम अल तालिब सफ़ा 555) और जंग उसे कहते हैं जिसके दामन में सुलह का इम्कान न हो। सुलह इम्काने जंग मफ़्कूद होने पर और जंग इमकाने सुलह के फ़क़दान पर होती है और इस इम्कान और अदम इमकान नीज़ मौक़े के समझने का हक़ साहबे मामेला को होता है। यही वजह है कि आं हज़रत (स.अ.) ने मौक़े सुलह पर सुलह हुदैबिया किया और मौक़ाए जंग पर बेशुमार जेहाद किये और हज़रत अली (अ.स.) ने मौक़ाए सुलह में ख़ामोशी और गोशा नशीनी इख़्तेयार की और मौक़ाए जंग में जमल और सिफ़्फ़ीन का कारनामा पेश किया।
इमाम हसन (अ.स.) के लिये जंग मुम्किन न थी इस लिये उन्होंने सुलह की और इमाम हुसैन (अ.स.) के लिये सुलह मुम्किन न थी इस लिये उन्हेांने जंग की और अज़ रूए हदीस अपने मक़ाम पर दोनों अमल सहीह और मम्दूह हुये। اماما قام او قعوداयह दोनों इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) हर हाल में वाजिब अल इताअत हैं चाहे जंग करें या सुलह। (बेहार) यानी दोनों के हालात और सवालात में फ़र्क़ था। इमाम हसन (अ.स.) के पास उस वक़्त बिल्कुल मुईन व मददगार न थे। जब माविया ने ख़लऐ खि़लाफ़त का सवाल किया था नीज़ माविया का सवाल यह था कि खि़लाफ़त छोड़ दो या अपनी और अपने मानने वालों की तबाही व बरबादी बरदाश्त करो। इमाम हसन (अ.स.) ने हालात की रौशनी में खि़ल खि़लाफ़त को मुनासिब समझा और सुलह कर ली। आप इरशाद फ़रमाते थे ‘‘ फ़क़द तराकतोहू लम इरादतन ले इसलाहल उम्मता व हक़ देमाअल मुसलेमीन ’’ मैंने खि़लाफ़त जान बूझ कर इस लिये तर्क कर दी ताकि इस्लाह व सुकून हो सके और ख़ून न बहे। (कामिल व बेहार)
इमाम हुसैन (अ.स.) के पास बेहतरीन जां निसार जां बाज़ मौजूद थे और यज़ीद का सवाल यह था कि बैअत करो या सर दो। (तबरी रौज़तुल सफ़ा) इमाम हुसैन (अ.स.) ने हालात की रौशनी में सर देने को मुनासिब समझा और बैअत से इन्कार कर के जंग के लिये तैय्यार हो गये।
यक़ीन करना चाहिये कि अगर इमाम हसन (अ.स.) से भी बैअत का सवाल होता तो वह भी वहीं कुछ करते जो इमाम हुसैन (अ.स.) ने किया है। आपके मददगार होते या न होते, क्यों कि आले मोहम्मद (अ.स.) किसी ग़ैर की बैयत हरामे मुतलक़ समझते थे। अल्लामा जलाल हुसैनी मिसरी ने ‘‘अल हुसैन’’ में बा हवालाए वाक़ेए हिर्रा लिखा है कि वाक़ेए करबला के बाद किसी हुकूमत ने आले मोहम्मद के किसी अहद में बैअत का सवाल नहीं किया।
बा हुक्मे हक़ कहीं सुलह कर लेते हैं दुश्मन से।
कहीं पर जंगे ख़ामोशी जवाबे संग होती है।।
जम़ाना यह सबक़ ले फ़ात्मा के दिल के टुकड़ों से।
कहां पर सुलह होती है कहां पर जंग होती है।।
इमाम हसन (अ.स.) पर कसरते अज़वाज का इल्ज़ाम
यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की जद्दो जेहद और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की सई व कोशिश से इसलाम दुनिया में फैला जो लोग इब्तेदाए बेसत में मुसलमान हुये और जिन्होंने हयाते पैग़म्बर तक इस्लाम क़ुबूल किया उनके मज़हबी इन्के़लाब में हज़रत अली (अ.स.) के दस्ते बाज़ू का बड़ा दखल है। उमवी और अब्बासी नस्लों में इस्लाम की दरामद और अली (अ.स.) की जेहादी क़ुव्वत रहीने मिन्नत है। ज़रूरत थी कि इन नस्लों के चश्मों चिराग़ जब आगे चल कर फ़रोग़ पाते तो अली (अ.स.) का क़सीदा पढ़ते, क्यों कि उन्हीं के सदक़े में उन्हें सिराते मुस्तक़ीम नसीब हुई थी लेकिन यह होता उसी वक़्त जब कि बा जबरो इक़राह इस्लाम क़बूल न किया होता। यहां हाल यह था ज़बान पर अल्लाह दिल में बागड़ बिल्ला यही वजह है कि नस्लों की हर फ़र्द ने फ़रोग़ पाते ही मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) और उनकी आले पाक की मुख़ालेफ़त अपना शेवा बना लिया था। अमीरे माविया जो बक़ौले मुवर्रेख़ीन इस्लाम व फ़िरंग, सियाना, बदनियत गुनाहों से बे परवाह, खुदा से बे खौ़फ़ था। (महाज़राते असफ़हानी, तारीख़े अमीर अली) को नहीं इक़तेदार हासिल हुआ। उसने आले मोहम्मद (अ.स.) को तबाह करने के लिये वह तमाम मसाएल मोहय्या किये जिनके बाद बानिये इस्लाम और उनकी आल की इज़्ज़त व आबरू, जान माल का तहफ़्फ़ुज़ ना मुमकिन सा हो गया। जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन वग़ैरा इसकी चीरा दस्तियों से रूनूमां हुई। इमाम हसन (अ.स.) की सुलह इसी की ज़्यादतियों का नतीजा थीं मुवर्रेख़ीन का बयान है कि सुलह हसन (अ.स.) के बाद माविया मुसल्लेमुल सुबूत बादशाह बन गया। फिर इसने अपनी ताक़त के ज़ोर से मोहम्मद (स.अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) के खि़लाफ़ हदीसों के गढ़ने और तारीख़ का धारा मोड़ने की मुहिम शुरू कर दी और मोहम्मद (स.अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) को बदनाम करने में कोई दक़ीक़ा फ़रो गुशात नहीं किया। इस मौक़े पर चन्द चीज़ों की तरफ़ इशारा करता हूँ।
1. पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) को मेराजे जिस्मानी नहीं हुई। (शरह शिफ़ा)
2. आप में जिन्सी हवस इस दर्जा थी कि शबो रोज़ अपनी ग्यारह बीवियों के पास जाते थे। (सम्त अल शमीम महिब, तबरी जिल्द 2, सफ़ा 94 तबआ हलब)
3. आपके दिल पर अक्सर पर्दे पड़ जाया करते थे। (सही मुस्लिम व अबू दाऊद)
4. आपकी चार लड़कियां थीं। (तवारीख़े इस्लाम)
5. आप के बाप दादा काफ़िर थे और आखि़र वक़्त तक मुसलमान न हुये।
6. उस्मान ग़नी ज़ुन्नुररैन थे।
7. अबू तालिब बिल्कुल मुफ़लिस थे।
8. अली ने उस्मान को क़त्ल किया।
9. अली बहुत ज़बरदस्त डाकू थे। (मरऊजे अल ज़हब मसअवी)
10. अली व फ़ात्मा नमाज़े सुबह नहीं पढ़ते थे। (हयातुल औलिया, जिल्द 3 सफ़ा 144 तबाअ मिस्र 1933 ई0)
11. अली की बेटी उम्मे कुलसूम का अक़्द ख़लीफ़ाए दोयम से हुआ था।
12. अफ़सानए सकीना बिन्तुल हुसैन, इमाम हसन की कसरते अज़वाज और कसरते तलाक़ का अफ़साना भी ऐसी नस्ले बनी उमय्या ख़ुसूसन माविया की पैदावार है। खि़लाफ़त को छोड़ने के बवजूद वह इसके दस्ते ज़ुल्म से महफ़ूज़ नहीं रह सके। मुख़्तलिफ़ क़िस्म के इलज़ामात उन पर हज़बे आदत लगते रहे और फिर इन तमाम चीज़ों को तवारीख़ और अहादीस में जगह देने की सई करता रहा उसके बाद ज़रा सुकून हासिल करते ही किताब अल इख़्बारूल माज़ीयीन तदवीन कराई और इसमें उल्टी सीधी बातें लिखवा दीं।
उमवी अहद की तारीख़ के मुताअल्लिक़ मुसतशरक़ीने यूरोप की राय
अमेरीका का मशहूर मुवर्रिख़ फिल्पि के0 हिट्टी अपनी तसनीफ़ (तारीख़े अरब) में लिखता है कि मुसलमान अरब के दो फ़िरक़ जब कभी कोई मज़हबी, सियासी या समाजी निज़ा होती थी तो हर एक फ़रीक़ अपनी ताईद में रसूल अल्लाह (स.अ.) की हदीस पेश करता, ख़्वाह वह हदीसें सही हों या मौजूआ और झूठी, इस लिये अली (अ.स.) और अबू बक्र की सियासी मुख़ालेफ़त, अली (अ.स.) और माविया का झगड़ा, बनी अब्बास और बनी उमय्या की बाहमी अदावत वगै़रा मुताअद्िदद झूठी हदीसों के बनने के बाएस हुए। इसके अलावा उलमा की कसीर तादाद के लिये यह दौलत कमाने और रूप्या पैदा करने का ज़रिया बन गया।
प्रोफ़ेसर सिमेन किले कैम्बरेज यूनीवर्सिटी मतूफ़ी 1720 ई0 अपनी तारीख़ सारा सेनेज़ में लिखते हैः अरबो ने तारीख़ नवीसी का ग़लत तरीक़ा इख़्तेयार कर के हम को इस मसर्रत और फ़ायदे से महरूम कर दिया जो हम को इनकी लिखी हुई किताबों से हासिल हो सकता था। मुवर्रिख़ के फ़राएज़ और हुक़ूक़ क्या होते हैं उन्होंने कमा हक़्क़ा न समझा इस लिये इन फ़राएज़ और हुक़ूक़ को नज़र अन्दाज़ कर दिया। हमारे लिये इनकी लिखी हुई तारीखो का मुतालेआ करना और उनसे सही तारीख़ी वाक़ेयात का अख़़्ज़ करना बहुत मुश्किल हो गया।
यह इन तारीख़ी किताबो की बे एतेमादी और उनकी कोताहियों का आलम है जिनमें इमाम हसन (अ.स.) जैसे मुरताज़ इमाम की कसरते अज़वाज का अफ़साना मुरत्तब किया गया है।
जब हम कसरते अज़वाज और कसरते तलाक़ के अफ़साने पर ग़ौर करते हैं तो हमें साफ़ नज़र आता है कि ऐसा वाक़िया हरगिज़ नहीं हुआ क्यों कि अगर ऐसा होता तो इनत माम औरतों के नाम इल्मे रिजाल की तारीख़ की किताबों में ज़रूर होते। हमें कुतुबे रिजाल में जो नाम मिलते हैं उनकी इन्तेहा सिर्फ़ 9 तक होती है। यह हक़ीक़त है कि आपने वक़तन फ़ावक़तन इसी तरह नौ 9 बीवियां अपने अक़्द में रखीं। जिस तरह से रसूल अल्लाह (स.अ.) की नौ 9 बीवियां थी। आपकी बीवियों के नाम यह हैं। 1. उम्मे फ़रवा, 2. खूला, 3. उम्मे बशीर, 4. सक़फ़िया, 5. रम्ला, 6. उम्मे इसहाक़, 7. उम्मुल हसन, 8. बिन्ते उमराउल क़ैस, 9. जोदा बिन्ते अशअस । (सीरतुल हसन, अबसारूल ऐन)
एडर्वड गिबन मशहूर मारूफ़ तारीख़ तन्ज़ील व इनके़ताए सलतनते रोम में लिखते हैं।
यह हज़रात आले मोहम्मद (अ.स.) हालाते हर्ब, मालो ज़र सियासी न रखते थे, इस पर लोग इसकी इज़्ज़त, वक़अत और ताज़ीम करते थे। जो चीज़ हुक्मरान ख़ुलफ़ा के दिलों मे रश्क व हसद की आग भड़काती थी, इनके मज़ाराते मुक़द्देसा जो मदीने, फ़रात के किनारे और ख़ुरासान में मौजूद हैं। अब तक इन के शियों की ज़्यारत गाह हैं। इन बुज़ुर्गवारांे पर हमेशा बग़ावत और ख़ाना जंगियों का इल्ज़ाम लगाया जाता था, हालां कि यह शाही ख़ानदान के औलिया अल्लाह, दुनिया को हमेशा हक़ीर समझते थे। मशियते इजे़दी के मुताबिक़ सरे तसलीम ख़म करते हुये और इन्सानों के मज़ालिम बरदाश्त करते हुये उन्होंने उमूरे दीनी तालीम व तलक़ीन में अपनी उमरें सर्फ़ कर दीं। यह समझने की बात है कि जो हज़रात दुनिया को हक़ीर समझते हांे उनकी तरफ़ कसरते अज़वाज और कसरते तलाक़ का इन्तेसाब अफ़साने से ज़्यादा क्या वुक़अत हासिल कर सकता है।
हज़रत इमाम हसन (अ.स.) की शहादत
मुवर्रेखी़न का इत्तेफ़ाक़ है कि इमाम हसन (अ.स.) अगर सुलह के बाद मदीने में गोशा नशीन हुए थे लेकिन अमीरे माविया आपके दर पाए आज़ार रहे। उन्होंने बार बार कोशिश की किसी तरह इमाम हसन (अ.स.) इस दारे फ़ानी से मुल्के जावेदानी को रवाना हो जायें और इससे इनका मक़सद यज़ीद की खि़लाफ़त के लिये ज़मीन हमवार करना थी। चुनान्चे उसने आपको पांच बार ज़हर दिलवाया लेकिन अय्यामे हयात बाक़ी थे ज़िन्दगी ख़त्म न हो सकी। बिल आखि़र शाहे रोम से एक ज़बरदस्त क़िस्म का ज़हर मगंवा कर मोहम्मद इब्ने अशअस या मरवान के ज़रिये से जोदा बिन्ते अशअस के पास अमीरे माविया ने भेजा और कहला दिया कि जब इमाम हसन शहीद हो जायेंगे तब हम तुझे एक लाख दिरहम देंगे और तेरा अक़्द अपने बेटे यज़ीद के साथ कर देंगे। चुनान्चे इसने इमाम हसन (अ.स.) को ज़हर दे कर हलाक कर दिया। (तारीख़े मरऊजुल ज़हब मसूदी जिल्द 2 सफ़ा 303 व मक़ातिल अल तालेबैन सफ़ा 51, अबू अल फ़िदा जिल्द 1 सफ़ा 183, रौज़तुल सफ़ा जिल्द 3 सफ़ा 7, हबीबुल सैर, जिल्द 2 सफ़ा 18, तबरी सफ़ा 604, इस्तेयाब जिल्द 1 सफ़ा 144)
मफ़स्सिरे क़ुरान साहिबे तफ़सीरे हुसैनी अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी रक़म तराज़ हैं कि इमाम हसन (अ.स.) मुसालेह माविया के बाद मदीने में मुस्तक़िल तौर पर फ़रोकश हो गये थे। आपको इत्तेला मिली की बसरे में रहने वाले मुहिब्बाने अली (अ.स.) के ऊपर चन्द ऊबाशों ने शब ख़ूं मार कर इनके 38 आदमी हलाक कर दिये। इमाम हसन (अ.स.) इस ख़बर से मुतास्सिर हो कर बसरे की तरफ़ रवाना हो गये। आपके हमराह अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास भी थे। रास्ते में बा मुक़ामे मूसली साअद मूसली जो जनाबे मुख़्तार इब्ने अबी उबैदा सक़फ़ी के चचा थे वहां क़याम फ़रमाया। इसके बाद वहां से रवाना हो कर वह दमिश्क से वापसी पर जब आप मूसल पहुंचे तो बइसरारे शदीद एक दूसरे शख़्स के वहां मुक़ीम हुए और वह शाख़्स माविया के फ़रेब में आ चुका था और माल व दौलत की वजह से इमाम हसन (अ.स.) को ज़हर देने का वायदा कर चुका था। चुनान्चे दौराने क़याम में उसने तीन बार हज़रत को खाने में ज़हर दिया लेकिन आप बच गये। इमाम के महफ़ूज़ रह जाने से इस शख़्स ने माविया को ख़त लिखा कि तीन बार ज़हर दे चुका हूं मगर इमाम हसन हलाक नहीं हुए। यह मालूम कर के माविया ने ज़हरे हलाहल इरसाल किया और लिखा कि अगर इसका एक क़तरा भी दे सका तो यक़ीनन इमाम हसन हलाक हो जायेंगे। नामाबर ज़हर और ख़त लिये हुए आ रहा था कि रास्ते में एक दरख़्त के नीचे खाना खा कर लेट गया इसके पेट में ऐसा दर्द उठा कि वह बरदाश्त न कर सका नागाह एक भेड़िया बरामद हुआ और उसे ले कर रफ़ू चक्कर हो गया। इत्तेफ़ाक़न इमाम हसन (अ.स.) के एक मानने वाले का उस तरफ़ से गुज़र हुआ। उसने नाक़ा ख़त और ज़हर से भरी हुई बोतल हासिल कर ली और इमाम हसन (अ.स.) की खि़दमत में पेश किया। इमाम हसन (अ.स.) ने उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर जा नमाज़ के नीचे रख लिया। हाज़ेरीन ने वाक़ेया दरयाफ़्त किया। इमाम ने बताया। साअद मोसली ने मौक़ा पर वह ख़त जा नमाज़ के नीचे से निकाल लिया जो माविया की तरफ़ से इमाम के मेज़बान के नाम से भेजा गया था। ख़त पढ़ कर साद मोसली आग बबूला हो गया और मेज़बान से पूछा क्या मामेला है? उसने ला इल्मी ज़ाहिर की मगर उसके उज़्र को बावर न किया गया उसको ज़दो क़ोब किया गया यहा तक कि वह हलाक हो गया। उसके बाद आप मदीने रवाना हो गये।
मदीने में उस वक़्त मरवान बिन हकम वाली था उसे माविया का हुक्म था कि जिस सूरत से हो सके इमाम हसन (अ.स.) को हलाक कर दे। मरवान ने एक रूमी दल्लाला जिस का नाम अल्यसूनिया था, को तलब किया और उससे कहा कि तू जोदा बिन्ते अशअस के पास जा कर उसे मेरा यह पैग़ाम पहुँचा दे कि अगर तू इमाम हसन (अ.स.) को किसी सूरत से शहीद कर देगी तो तुझे माविया एक हज़ार दीनारे सुख्र और पचास खि़ल्अते मिस्री अता करेगा और अपने बेटे यज़ीद के साथ तेरा अक़्द कर देगा और उसके साथ साथ सौ दीनार नक़द भेज दिये। दल्लाला ने वायदा किया और जोदा के पास जा कर उस से वायदा ले लिया। इमाम हसन (अ.स.) उस वक़्त घर में न थे और बमुक़ामे अक़ीक़ गये हुए थे इस लिये दल्लाला को बात चीत का अच्छा ख़ासा मौक़ा मिल गया और जोदा को राज़ी करने में कामयाब हो गयी। अल ग़रज़ मरवान ने ज़हर भेजा और जोदा ने इमाम हसन (अ.स.) को शहद में मिला कर दे दिया। इमाम (अ.स.) उसे खाते ही बीमार हो गये और फ़ौरन रोज़ाए रसूल (स.अ.) पर जा कर सेहत याब हुए। ज़हर तो आपने खा लिया लेकिन जोदा से बदगुमान भी हो गये। आपको शुब्हा हो गया जिसकी वजह से आपने उसके हाथ का खाना पीना भी छोड़ दिया और यह मामूल मुक़र्रर कर लिया कि हज़रते क़ासिम की मां या हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के घर से खाना मंगवा कर खाने लगे। थोड़े अरसे बाद आप जोदा के घर तशरीफ़ ले गये उसने कहा मौला हवाली मदीना से बहुत उम्दा ख़ुरमें आये हैं हुक्म हो तो हाज़िर करूं आप चुंकि ख़ुरमे बहुत पसन्द करते थे। फ़रमाया ले आ। वह खुरमें जह़र आलूद ख़ुरमें ले कर आई और पहचाने हुए खुरमें छोड़ कर खुद साथ खाने लगी। इमाम ने एक तरफ़ से खाना शुरू किया और वह दाने खा गये जिनमे ज़हर था। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) के घर तशरीफ़ लाये और सारी रात तड़प कर बसर की। सुबह को रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर जा कर दुआ मांगी और सेहतयाब हुए। इमाम हसन (अ.स.) ने बार बार इस क़िस्म की तकलीफ़ उठाने के बाद अपने भाइयों से तबदीलीए आबो हवा के लिये मूसल जाने का मशविरा किया और मूसल के लिये रवाना हो गये। आपके हमराह हज़रत अब्बास (अ.स.) और चन्द हवा ख़्वाहान भी गये। अभी वहां चन्द यौम न गुज़रे थे कि शाम से एक नाबीना भेज दिया गया और उसे एक ऐसा असा दिया गया जिसके नीचे लौहा लगा हुआ था जो ज़हर में बुझा हुआ था। उस नाबीना ने मूसल पहुँच कर इमाम हसन (अ.स.) के दोस्तदारान में से अपने को ज़ाहिर किया और मौक़ा पा कर उनके पैर में अपने असा की नोक चुभो दी। ज़हर जिस्म मे दौड़ गया और आप अलील हो गये। जर्राह इलाज के लिये बुलाया गया , उसने इलाज शुरू किया। नाबीना ज़ख़्म लगा कर रू पोश हो गया था। चैदह दिन के बाद जब पन्द्रहवे दिन वह निकल कर शाम की तरफ़ रवाना हुआ तो हज़रते अब्बास अलमदार (अ.स.) की नज़र उस पर जा पड़ी। आपने उससे असा छीन कर उस के सर पर इस ज़ोर से मारा कि सर शिग़ाफ़ता हो गया और वह अपने कैफ़रो किरदार को पहुँच गया। उसके बाद जनाबे मुख़्तार और उनके चचा साद मोसली ने उसकी लाश जला दी। चन्द दिनों बाद हज़रत इमाम हसन (अ.स.) मदीनाए मुनव्वरा वापस तशरीफ़ ले गये।
मदीनाए मुनव्वरा में आप अय्यामें हयात गुज़ार रहे थे कि अल सोनिया दल्लाला ने फिर मरवान के इशारे पर जोदा से सिलसिला जुम्बानी शुरू कर दी और ज़हरे हलाहल उसे दे कर इमाम हसन (अ.स.) का काम तमाम करने की ख़्वाहिश की। इमाम हसन (अ.स.) चूंकि उससे बदगुमान हो चुके थे इस लिये उसकी आमदो रफ़्त बन्द थी। उसने हर चन्द कोशिश की लेकिन मौक़ा न पा सकी। बिल आखि़र शबे 28 सफ़र 40 ई0 को वह उस जगह जा पहुँची जिस मक़ाम पर इमाम हसन (अ.स.) सो रहे थे। आपके क़रीब हज़रत ज़ैनब व उम्मे कुलसूम सो रही थीं और आपकी पाइंती कनीज़े महवे ख़्वाब थीं। जोदा उस पानी में ज़हरे हलाहल मिला कर ख़ामोशी से वापस आईं जो इमाम हसन (अ.स.) के सराहने रखा हुआ था। उसकी वापसी के थोड़ी देर बाद ही इमाम हसन (अ.स.) की आंख खुली, आपने जनाबे जै़नब को आवाज़ दी और कहा कि ऐ बहन मैंने अभी अभी अपने नाना, अपने पदरे बुज़ुर्गवार और अपनी मादरे गेरामी को ख़्वाब में देखा है। वह फ़रमाते थे कि ऐ हसन तुम कल रात हमारे पास होगे। उसके बाद आपने वज़ू के लिये पानी मांगा और ख़ुद अपना हाथ बढ़ा कर सराहने से पानी लिया और पी कर फ़रमाया कि ऐ बहन ज़ैनब ایں چہ آب بود از سر حلقم تا نافم پارہ شد हाय यह कैसा पानी है जिसने मेरे हल्क़ से नाफ़ तक टुकड़े टुकड़े कर दिया है। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) को इत्तेला दी गई वह आये दोनों भाई बग़ल गीर हो कर महवे गिरया हो गये। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने चाहा कि एक कूज़ा पानी खुद पी कर इमाम हसन (अ.स.) के साथ नाना के पास पहुँचें। इमाम हसन (अ.स.) ने पानी के बरतन को ज़मीन पर पलट दिया वह चूर चूर हो गया। रावी का बयान है कि जिस ज़मीन पर पानी गिरा था वह उबलने लगी थी। अल ग़रज़ थोड़ी देर के बाद इमाम हसन (अ.स.) को ख़ून की क़ै आने लगी। आपके जिगर के सत्तर टुकड़े तख़्त में आ गये। आप ज़मीन पर तड़पने लगे। जब दिन चढ़ा तो आपने इमाम हुसैन (अ.स.) से पूछा कि मेरे चेहरे का रंग कैसा है? कहा ‘‘ सब्ज़ ’’ है। आपने फ़रमाय कि हदीसे मेराज का यही मुक़तज़ा है। लोगों ने पूछा कि यह हदीसे मेराज क्या है? फ़मरमाया कि शबे मेराज मेरे नाना ने आसमान पर दो क़स्र एक ज़मर्रूद को एक याक़ूत को देखा तो पूछा कि ऐ जिब्राईल यह दोनों क़स्र किस के लिये हैं? उन्होंने अर्ज़ कि एह हसन के लिये और दूसरा हुसैन के लिये। पूछा दोनों के रंग में फ़र्क़ क्यो है? कहा हसन ज़हर से शहीद हांेगे और हुसैन तलवार से शहादत पायेंगे। यह कह कर आप हुसैन (अ.स.) से लिपट गये और दोनों भाई रोने लगे और आपके साथ दरो दीवार भी रोने लगे।
उसके बाद आपने जोदा से कहा अफ़सोस तूने बड़ी बे वफ़ाई की लेकिन याद रख तूने जिस मक़सद के लिये ऐसा किया है उसमें कामयाब न होगी। उसके बाद आपने हुसैन (अ.स.) और बहनों से कुछ वसीयतें कीं और आंखें बन्द फ़रमा ली। फिर थोड़ी देर के बाद आंख खोल कर फ़रमाया ऐ हुसैन मेरे बाल बच्चें तुम्हारे सुपुर्द हैं फिर आंख बन्द फ़रमा कर नाना की खि़दमत में पहुँच गये। इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलेहै राजेऊन
इमाम हसन (अ.स.) की शहादत के फ़ौरन बाद मरवान ने जोदा को अपने पास बुला कर दो औरतों और एक मर्द के साथ माविया के पास भेज दिया। माविया ने उसे हाथ पैर बंधवा कर दरियाए नील में यह कह कर डलवा दिया कि तूने जब इमाम हसन (अ.स.) के साथ वफ़ा न की तो यज़ीद के साथ क्या वफ़ा करेगी। (रौज़ातुल शोहदा सफ़ा 220 ता 235 तबा बम्बई 1285 ई0 व ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 50 तबा लाहौर 1956 ई0)
माविया सजदा ए शुक्र में
मरवान हाकिमे मदीना ने जोदा बिन्ते अशअस के ज़रिए से अपनी कामयाबी की इत्तेला माविया को दी। माविया ख़बरे शहादत पाते ही ख़ुशी के मारे अल्लाहो अकबर कह कर सजदे में गिर पडा़ और उस के देखा देखी सारे दरबार वाले ख़ुशी मनाने के लिये नाराए तकबीर बलन्द करने लगे। उनकी आवाज़ें फ़ात्मा बिन्ते क़रज़आ के कानों में पहुँची जो माविया की बीवी थी, वो कहने लगी यह किस चीज़ की ख़ुशी है? माविया ने जवाब दिया इमाम हसन की शहादत हो गई है। इस ख़ुशी में मैंने नाराए तकबीर बलन्द कर के सज्दाए शुक्र अदा किया है। फ़ात्मा बेइन्तेहा रंजीदा हुई और कहने लगीं अफ़सोस फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) क़त्ल किया जाये और दरबार में ख़ुशी मनाई जाये। (तारीख़ अबुल फ़िदा जिल्द 1 सफ़ा 182, अक़्दुल फ़रीद जिल्द 2 सफ़ा 211, ओकली सफ़ा 336, रौज़तुल मनाज़िर जिल्द 11 सफ़ा 133, तारीख़े खमीस जिल्द 2 सफ़ा 328, हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 51, नूजूलुल अबरार सफ़ा 5, अरहज्जुल मतालिब सफ़ा 357 व अख़बारूल तवाल सफ़ा 400) इब्ने क़तीबा ने इब्ने अब्बास के दरबारे माविया में पहुँच कर इस मौक़े की ज़बर दस्त गुफ़तगू लिखी है। (अल इमामत वल सियासत)
इमाम हसन (अ.स.) की तजहीज़ों तकफ़ीन
अल ग़रज़ इमाम हसन (अ.स.) की शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने गु़स्लो कफ़न का इन्तेज़ाम फ़रमाया और नमाज़े जनाज़ा पढ़ी गई। इमाम हसन (अ.स.) की वसीयत के मुताबिक़ उन्हें सरवरे कायनात (स.अ.) के पहलू में दफ़्न करने के लिये अपने कंधों पर उठा कर ले चले। अभी पहुँचे ही थे कि बनी उमय्या ख़ुसूसन मरवान वग़ैरा ने आगे बढ़ कर पहलू रसूल (स.अ.) में दफ़्न होने से रोका और हज़रत आयशा भी एक खच्चर पर सवार हो कर आ पहुँची और कहने लगीं यह घर मेरा है मैं तो हरगिज़ हसन को अपने घर में दफ़्न होने न दूं गी। (तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 1 सफ़ा 183, रौज़तुल मनाज़िर जिल्द 11 सफ़ा 133) यह सुन कर बाज़ लोगों ने कहा ऐ आयशा तुम्हारा क्या हाल है। कभी ऊँट पर सवार हो कर दामादे रसूल (स.अ.) से जंग करती हो कभी खच्चर पर सवार हो कर फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) के दफ़्न में मज़ाहेमत करती हो। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये। (तफ़सील के लिये मुलाहेजा़ हों ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 51) मगर वह एक न मानी और ज़िद पर अड़ी रही यहां तक कि बात बढ़ गई। आप के हवाख़वाहों ने आले मोहम्मद (अ.स.) पर तीर बरसाए। किताब रौज़ातुल सफ़ा जिल्द 3 सफ़ा 7 मे है कि कई तीर इमाम हसन (अ.स.) के ताबूत में पेवस्त हो गये। किताब ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 51 में है कि ताबूत में सत्तर तीर पेवस्त हुए थे। तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 28 में है कि नाचार लाशे मुबारक को जन्नतुल बक़ी में ला कर दफ़्न कर दिया गया। तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 182 में है कि शहादत के वक़्त आपकी उम्र 47 साल की थी।
आपकी अज़वाज और औलाद
आपने मुख़्तलिफ़ अवक़ात में 9 नौ बीवियां की। आपकी औलाद में आठ बेटे और सात बेटियां थीं। यही तादाद इरशादे मुफ़ीद सफ़ा 208 और नूरूल अबसार सफ़ा 112 तबा मिस्र में है। अल्लामा तल्हा शाफ़ेई मतालेबुल सुवेल के सफ़ा 239 पर लिखते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) की नस्ल जै़द और हसने मुसन्ना से चली है। इमाम शिब्लन्जी का कहना है कि आपके तीन फ़रज़न्द अब्दुल्लाह, क़ासिम और उमरो करबला में शहीद हुए हैं। (नूरूल अबसार सफ़ा 112)
जनाबे ज़ैद बड़े जलीलुल क़द्र और सदक़ाते रसूल (स.अ.) के मुतावल्ली थे उन्होंने 120 हिजरी में 90 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया।
जनाबे हसने मुसन्ना निहायत फ़ाज़िल, मुत्तक़ी और सदक़ाते अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के मुतवल्ली थे। आपकी शादी इमाम हुसैन (अ.स.) की बेटी जनाबे फ़ात्मा से हुई थी। आपने करबला की जंग में शिरकत की थी और बेइंतेहां ज़ख़्मी हो कर मक़तूलों में तब गये थे। जब सर काटे जा रहे थे तब उनके मामू अबू हसान ने आपको ज़िन्दा पा कर उमरे साद से ले लिया था। आपको ख़लीफ़ा सुलैमान बिन अब्दुल मलिक ने 97 हिजरी में ज़हर दे दिया था जिसकी वजह से आपने 52 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया। आपकी शहादत के बाद आपकी बीवी जनाबे फ़ात्मा एक साल तक क़ब्र पर खेमा ज़न रहीं। (इरशादे मुफ़ीद सफ़ा 211 व नूरूल अबसार सफ़ा 269)
शेख अब्दुल क़ादिर जीलानी
बरादराने अहले सुन्नत के अवाम का ख़्याल है कि शेख़ सय्यद अब्दुल का़दिर जीलानी और बरवायते इब्ने जंगी दोस्त और बरवायते इब्ने चंग दोस्त सय्यद थे और इनका नसब जनाबे हसने मुसन्ना इब्ने इमाम हसन बिन अली (अ.स.) तक पहुँचता है लेकिन उनके उलेमा इस से इनकार करते हैं।
1. इमाम उल अन्साब अहमद बिन अली बिन अल हुसैन बिन अली, बिन महन्ना अपनी किताब उमदतुल तालिब तबा बम्बई के सफ़ा 112 पर लिखते हैं कि खुद शेख़ अब्दुल क़ादिर ने अपनी सियादत का दावा नहीं किया और न उनके बेटों ने किया है अलबत्ता इसकी इजाद उनके पोते क़ाजी़ अबुल सालेह नासिर बिन अबी बक्र बिन अब्दुल क़ादिर ने फ़रमाई है लेकिन अपने दावे के सुबूत में वह दलील लाने से क़ासिर रहे हैं। यहीं वजह है कि किसी अहले नसब ने आपका दावा तसलीम नहीं किया।
2. अल्लामाए दौरां ने सय्यद अहमद बिन मोहम्मद अल हुसैनी निसबे किताब शजरतुल अल अवलिया में रक़म तराज़ हैं कि तमाम उलेमाए इन्साब ने शेख़ सय्यद अब्दुल क़ादिर के सिलसिलाए सियादत से इन्कार किया है और किसी ने भी इनके सादात होने को नक़ल नहीं किया और ख़ुद उन्होंने भी सय्यद होने का दावा नहीं किया और उनकी ज़िन्दगी में किसी और ने भी इनको सय्यद नहीं कहा। ‘‘ अन अव्वल मन अज़हर हाज़ा अल दाआ अल बातलता हु अनसरा इब्ने अबी बक्र बिन अल शेख़ अब्दुल क़ादिर ’’ मालूम होना चाहिये कि इस दावाए बातिला को सब से पहले इनके पोते नसर बिन अबी बक्र ने ज़ाहिर किया है।
3. रिसाला सू़फ़ी जो बसर परस्ती ख़्वाजा हसन निज़ामी मंडी बहाउद्दीन ज़िला गुजरात से शाया होता था इसके जिल्द 3 सफ़ा 6 में लिखा है सेयुम पीरे तरीक़त हज़रत ख़्वाजा मुहिउद्दीन अब्दुल क़ादिर जीलानी हैं। वलदियत आपकी क़दम बक़दम हज़रत ईसा के है सिलसिला नसब आपका हज़रत उमर फ़ारूख़ तक पहुंचता है।
इमाम शिब्लन्जी का इरशाद है कि आपकी विलादत 470 ई0 में और वफ़ात 561 ई0 में हुई है। आप हम्बलीउल मज़हब थे। आपकी वालेदा उम्मुल ख़ैर मक़ामे जबाल इलाक़ए तबरिस्तान की रहने वाली थीं। इस लिये आपको अब्दुल क़ादिर जिब्ली कहते हैं और जीलानी एज़ाज़ी तौर पर कहा जाता है। (नूरूल असार सफ़ा 214 व इक़तेबासुल अनवार सफ़ा 72) आप दो किताबों ग़नीयतुल तालेबैन और फ़तूहुल ग़ैब के मुसन्निफ़ हैं। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 5 सफ़ा 63)
माविया इब्ने अबू सुफ़ियान का तारीख़ी र्ताअरूफ़
अमीरे माविया के र्ताअरूफ़ और आपके किरदार की आईना दारी के लिये अगरचे सिर्फ़ यही कहना काफ़ी है कि आप हज़रत अली (अ.स.) इमाम हसन (अ.स.) अम्मारे यासिर, मालिके अशतर और उम्मुल मोमेनीन हज़रत आयशा बिन्ते अबी बक्र, मोहम्मद इब्ने अबी बक्र नीज़ अब्दुर्रहमान इब्ने ख़ालिद इब्ने वलीद वग़ैराहुम के मुसल्लेमुल सुबूत क़ातिल हैं जैसा कि तहरीर किया जा चुका है लेकिन इससे आपकी नस्ली हालात और आपके किरदार के दिगर पहलू रौशन नहीं होते इस लिये ज़रूरत है कि कुतबे मोतबर के हवाले से चन्द चीज़ें निहायत मुख़्तसर लफ़्ज़ों में पेश कर दी जाऐ। बनाबरीं अर्ज़ है कि 1. नसायह काफ़िया सफ़ा 95 व सफ़ा 110 में है कि क़बीलाए क़ुरैश की इब्तेदा , क़सी इब्ने क़लाब से हुई जो औलादे क़अब इब्ने लवी से थे क़सी के चार बेटों में से एक का नाम अब्दुल मनाफ़ था। हाशिम और अब्दुल शम्स अब्दुल मनाफ़ के बेटे थे। हाशिम की ज़ुर्रियत से मोहम्मद व आले मोहम्मद (स.अ.) में जो हाशमी कहलाते हैं और अब्दुल शम्स की तरफ़ मन्सूब हैं जो पसता क़द, चुन्धा, करंजा, बदशक्ल था जिसके चेहरे से शरारत व नहूसत नुमाया थी उमिया के मानी छोटी लौंडी के हैं। हस्सान बिन साबित ने इसके औलाद व अब्दुल शम्स होने से इन्कार किया है। देखो दीवाने हस्सान सफ़ा 91,
2. अलहुर्रियत फी़ल इस्लाम मुसन्नेफ़ा अबुल कलाम अज़ादा के सफ़ा 26 में है कि खि़लाफ़ते राशेदा के बाद बनू उमय्या का दौरे फ़ितना व बिदआत से शुरू होता है जिन्होंने निज़ामे हुकूमते इस्लामी की बुनियादं मुताज़लज़िल कर दीं।
3. ततहीर उल जिनान सफ़ा 142 नसलहे काफ़िया सफ़ा 106 में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने इरशाद फ़रमाया है कि हमारा सब से बड़ा दुशमन क़बीलाए बनी उमय्या है।
4. नियाबुल मोवद्दता सफ़ा 148 में है कि क़बाएले अरब में सब से शरीर बनी उमय्या हैं।
5. तहरीरूल जेनान सफ़ा 148 में है कि हर शै के लिये एक आफ़त है और दीने इस्लाम की आफ़त बनी उमय्या हैं।
6. तारीख़ उल ख़ुल़्फ़ा सफ़ा 8 और तफ़सीरे नैशा पुरी में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने ख़्वाब में देखा कि मिम्बर पर लंगूर कूद रहे हैं जिससे आपको बेइन्तेहां सदमा हुआ जिससे तसल्ली के लिये सूरए क़द्र नाज़िल हुआ जिसमें फ़रमाया गया है कि शबे क़द्र मुद्दते हुकूमत बनी उमय्या से बेहतर है।
7. रौज़तुल मनाज़िर बर हाशिया कामिल जिल्द सफ़ा 85 में है कि शाजराए मलउना फ़िल क़ुरान से बुराद बनी उमय्या हैं।
8. तारीख़े आसम कूफ़ी सफ़ा 242 में है कि अहदे जाहितयत में बनी उमय्या कि ग़िज़ा टिड्डी और मुरदार थी।
9. फ़तेहुलबारी इब्ने हजर असक़लानी जिल्द 5 सफ़ा 65 में है कि ज़मानाए जाहिलयत में फ़ाहेशा औरतें अपने मकानों पर पहचान के लिये झन्डे लगाए रहती थीं।
10. नसायहे काफ़िया सफ़ा 110, समरतुल अवराक़ सफ़ा 108, अबुल फ़िदा जिल्द 1 सफ़ा 188, इब्ने शहना जिल्द 2 सफ़ा 134, एयर विंग सफ़ा 48, तज़किराए ख़वास अल उम्मता सफ़ा 117, तारीख़े आसम कूफ़ी सफ़ा 236 वग़ैरा में है कि मशहूर फ़ाहेशा औरतें जिनके मकानों पर झन्डे थे, वह चार थीं, 1. ज़रक़ा, 2. नाबेग़ा, उमरो आस की मां, 3. हमामा, अमीरे माविया की दादी, 4. हिन्दा, अमीरे माविया की मां। और हिन्दा के मुताअल्लिक़ आसम कूफ़ी सफ़ा 236 में है कि यह तमाम ऐबों की ख़ज़ीना दार थीं।
11. तारीख़े ख़ुल्फ़ा सफ़ा 218 में है कि यह शायरा और बड़ी संग दिल थी। इसके एक शेर अहवाले मामून रशीद में दर्ज है जिसका तरजुमा यह है। हम ख़ूबसूरती में सितारए सुबह सादिक़ की बेटियां है। नर्म बिस्तरों पर हम किसी के साथ यूं मिलते हैं जैसे मुजामेअत करने वाला मस्त चकोर चांद के गिर्द घूमता है। (मुतख़ेबुल लुग़ात व सराह)
13. नसाए सफ़ा 83 में है कि हस्सान इब्ने साबित ने हिन्दा की ज़िना कारी अपने अशआर में बयान की है और आं हज़रत को सुनाया हज़रत ख़ामोश रहे। अशआर मुलाहेज़ा हो दीवाने हस्सान सफ़ा 40 से 60 में।
14. इब्ने क़तीबा ने लिखा है कि आं हज़रत (स.अ.) ने उक़बा को मक़ामे सफ़ोरिया (शाम) का यहूदी फ़रमाया है।
15. निसाय काफ़िया सफ़ा 110 में है कि उमय्या ने सफ़ोरिया की एक यहूदन लड़की से ज़िना किया था जिससे ज़कवान नामी लड़का पैदा हुआ था जिसकी कुन्नियत अबू उमरो मुक़र्रर की गई थी। यही अबू उमरो अक़बा का दादा है।
16. रौज़तुल अनफ़ असाबा व कामिल और हलबी में ज़कवान के ग़ुलामे उमय्या लिखा है।
17. आग़ाफ़ी अबुल फ़रह असफ़हानी 48ध्8 तरजुमा मुसाफ़िर में है कि उमय्या के बाद ज़कवान ने अपनी मां से निकाह कर लिया था।
18. अग़ाफ़ी अबुल फ़राह असफ़हानी निसाए काफ़िया हाशिया सफ़ा 84 तज़किरए सिब्ते अब्ने जौज़ी में ंहै कि इसी अबू उमर का बेटा मुसाफ़िर था जो सख़ावत और जमाली शेर गोई में मशहूर था। हिन्दा का उस से मोअशेक़ा हो गया और उससे हामेला हो गई जब हमल ज़ाहिर हो गया तो उसने मुसाफ़िर से कहा कि तू किसी तरफ़ चला जा। चुनान्चे वह हीरा को चला गया। उसके बाद हिन्दा अबू सुफ़ियान के तसर्रूफ़ में आ गई। जब मुसाफ़िर को पता लगा तो उसने फ़ेराक़ में जान दे दी। मुसाफ़िर के चले जाने के बाद हिन्दा मक़ामे अजयाद की तरफ़ चली गई और वहीं बच्चा जना।
19. सिब्ते इब्ने जोज़ी ने तज़किराए ख़वास अल उम्मता में लिखा है कि हज़रत आयशा ने उम्मे हबीबा ख़्वाहरे माविया को कहा, ‘‘ क़ातिल अल्लाह अब्नतुल राहता ’’ ख़ुदा लानत करे दुख़्तरे ज़ने ज़िना कार पर, और इमाम हसन (अ.स.) ने माविया को कहा, ‘‘ वक़द अलमत अल फ़राश्त लज़ी दलदत इलैहे ’’ मैं उस फ़र्श को जानता हूँ जिस पर तू पैदा हुआ है। उसके बाद इसकी तौज़ीह इब्ने जोज़ी ने यह की है ‘‘ क़ाला अल समीई वल हशाम इब्ने मोहम्मद अल कल्बी फ़ी किताब अल मुसम्मा बिल मसालिब वक़फ़त अला मानी क़ौल अल हसन माविया क़द अलिमतो अल फ़राशत लज़ी वलदत इलहै अन माविया कानाया अल अनाह मिन्नी अरबता मिन कुरैश ग़मारता इब्ने वलीद व मुसाफ़िर इब्ने अबी उमरो व अबी सुफ़ियान वल अब्बास व हूला कानू अन्दमा अबी सुफ़ियान व काना कुल यत्तहुम बेहिन्द ’’ यानी असमई और हश्शाम ने कहा है कि इमाम हसन (अ.स.) के क़ौल के यह मानी हैं कि, माविया, अबु सुफ़ियान, उमरो अब्बास और मुसाफ़िर चार आदमियों की तरफ़ मन्सूब है। ‘‘ अमा मुसाफ़िर बिन अबी उमरो फ़क़ाला अल कलबी आउम्मतुन नास अली अन माविया मिनहा ’’ कल्बी ने कहा कि जमहूर की राय थी कि माविया मुसाफ़िर इब्ने उमरो से है क्यों कि वही सब से ज़्यादा हिन्दा से मोहब्बत करता था। मसालिब इबने समआन में है कि पदरे हिन्दा ने इसका निकाह ‘‘ लोअदा ’’ माले कसीर अबू सुफ़ियान से किया।
‘‘ फ़ौज़अत माविया बाद सलासता अशहर ’’ निकाह के तीन माह बाद बत्ने हिन्दा से माविया पैदा हुआ। इसी लिये ज़महशरी ने रबीउल अबरार में माविया को चार यारी लिखा है। बरवायत हिन्दा का ताअल्लुक़ एक ख़ूब सूरत डोम से भी था जिसका नाम ‘‘ सब्बाह ’’ था। इसी से माविया का भाई अतबा इब्ने अबू सुफ़ियान पैदा हुआ। जैसा कि निसाए काफ़िया सफ़ा 110 में है ‘‘ क़ाला अल शआबी फ़क़द असा रसूल अल्लाह अबी हिन्दा यौमे फ़तेह मक्का बशी मन हाज़ा ’’ इमामे शाबी का बयान है कि हिन्दा की ज़िना कारी की तरफ़ आं हज़रत (स.अ.) ने फ़तेह मक्का के दिन उस मौक़े पर इशारा फ़रमाया था जब िकवह बैयत करने आई थी। हिन्दा ने कहा कि मैं किस चीज़ पर बैयत करूं? हज़रत ने फ़रमाया कि तू उस चीज़ पर बैयत कर कि आज से ज़िना नहीं करेगी। उसने कहा कि हज़रत कहीं ‘‘ हुर्रा ’’ आज़ाद औरतें ज़िना करती हैं। ‘‘ मन्ज़र रसूल अल्लाह इला उमरे तबस्सुम ’’ यह सुन कर आपने हज़रत उमर की तरफ़ देख कर तबस्सुम फ़रमाया, मुलाहेज़ा हो। (माविया दायरतुल इस्लाह सफ़ा 8)
अल्लामा मजलिसी हयातुल क़ुलूब जिल्द 2 सफ़ा 437 पर लिखते हैं कि हज़रत उमर ज़मानए जाहिलयत के अमली शाहिद थे। इसी लिये रसूल अल्लाह (स.अ.) उनकी तरफ़ देख कर मुस्कुराए थे।
20. तमाम तवारीख़े इस्लाम में है कि इसी हिन्दा ने हज़रते हम्ज़ा को अपने एक आशिक़ हब्शी नामी से शहीद करा के उनका जिगर चबाना चाहा था और कान, नाक वग़ैरा काट कर अपने गले का हार बनाया था।
21. माविया का बाप जो अबू सुफ़ियान कहा जाता है वह बरवायत हैवातुल हैवान ‘‘ तेली ’’ था।
22. आसम कूफ़ी सफ़ा 236 में है कि यह शराबी था।
23. हयातुल क़ुलूब और नहजुल बलाग़ाह जिल्द 2 सफ़ा 131 में है कि अबू सुफ़ियान ने ब जब्रो इक़राह इस्लाम क़ुबूल किया था।
24. माविया दायरतुल इस्लाह सफ़ा 14 में है कि माविया 17 या 22 साल क़ब्ले हिजरत हिन्दा के शिकम में पैदा हुआ।
25. नहजुल बलाग़ह जिल्द 2 सफ़ा 19 में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने माविया को नसीक़ फ़रमाया है जिसके मानी मुत्तिहमुन नसब है।
26. जनातुल ख़ुलूद में है कि माविया का क़द लम्बा और आंखें सब्ज़ थीं।
27. तारीख़ुल ख़ुलफ़ा सफ़ा 132 में है कि इसकी सूरत डरावनी है।
28. तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 166 और निसाए काफ़िया सफ़ा 21 में है कि मोहम्मद इब्ने अबी बक्र ने माविया को लईन इब्ने लईन कहा है।
29. उसने ग़लत तौर पर मशहूर किया कि अली (अ.स.) क़ातिले उस्मान हैं। (आसम कूफ़ी सफ़ा 169)
30. निसाए काफ़िया सफ़ा 53 व हुलयातुल औलिया सफ़ा 144 में है कि उसने ग़लत शोहरत दी कि माज़अल्लाह अली (अ.स.) नमाज़ नहीं पढ़ते।
31. निसाए काफ़िया सफ़ा 53 में है कि माविया के हुक्म से उबैदुल्लाह इब्ने अब्बास के दो कमसिन बच्चे मां की गोद में ज़िब्ह किये गये।
32. आसम कूफ़ी सफ़ा 307 में है कि माविया ने यमन और हिजाज़ में 30,000 (तीस हज़ार) मुहिब्बाने अली (अ.स.) को क़त्ल किया।
33. निसाए काफ़िया सफ़ा 61 में है कि माविया ने मालिके अशतर को ज़हर से शहीद करा दिया।
34. आसम कूफ़ी सफ़ा 338 में है कि माविया ने मोहम्मद इब्ने अबी बक्र को गधे की खाल में सिलवा कर जलवा दिया।
35. इसी किताब में है कि जब हज़रत आयशा को इसकी ख़बर मिली तो बहुत रोईं और तहयात बद दुआ देती रहीं।
36. निसाई काफ़िया सफ़ा 62 में है कि हज़रत अली (अ.स.) को इसकी इत्तेला मिली तो बक़ा बक़आ शदीदन बहुत रोय।
37. निसाई काफ़िया सफ़ा 58 में सीरते मोहम्मदिया सफ़ा 577 में है कि हजर इब्ने अदी सहाबिए रसूले करीम (स.अ.) मोहब्बते अली (अ.स.) में क़त्ल किये गये और अब्दुर्रहमान इब्ने हस्सान ज़िन्दा दफ़्न किये गये।
38. निसाई काफ़िया सफ़ा 43 में है कि उमर बिन हमक़ भी हुक्मे माविया से शहीद किये गये।
39. तबरी और निसाई काफ़िया सफ़ा 52 में है कि माविया के एक आमिल समरता ने आठ हज़ार आदमियों को शहीद किया।
40. तारीख़े आसम सफ़ा 334 व निसाए काफ़िया सफ़ा 70 में है कि बसरे और कूफ़े में एक एक रात को पांच पांच सौ (500) मुहिब्बाने अली (अ.स.) क़त्ल किये गये।
41. तारीख़े कामिल इब्ने असीर जिल्द 3 सफ़ा 133 में है कि माविया नमाज़ के हर क़ुनूत में हज़रत अली (अ.स.), इब्ने अब्बास, इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ.स.) और मालिके अशतर पर लानत करता था।
42. निसाए काफ़िया सफ़ा 170 में है कि माविया मोअल्लेफ़ुल क़ुलूब में था उसका कातिबे वही होना ग़लत है।
43. तारीख़े आसम सफ़ा 46 में है कि माविया ने शोहदाय ओहद की क़ब्रों पर नहर जारी कराई और लाशों को दूसरी जगह दफ़्न करा दिया। लाशों के निकालने में एक बेलचा हज़रते हम्ज़ा के पैर में लग गया जिससे ख़ूने ताज़ा जारी हो गया।
44. मोलवी अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) के तरके खि़लाफ़त के बाद माविया हक़ीकत में ही बादशाहे इस्लाम बन गया। इस तरफ़ ज़माने के अजीबो ग़रीब इन्के़लाब से हज़रते मोहम्मदे मुस्तुफ़ा (स.अ.) के दुश्मानें ने उनकी औलाद का मौरूसी हक़ ग़ज़्ब कर लिया और बुत परस्ती के हामी उन जनाब के मज़हब और सलतन्त के सरदार और पेशवा बन गये। दारूल खि़लाफ़ा जो हज़रत अली (अ.स.) ने कूफ़े में मुक़र्रर किया था अब दमिश्क़ में मुन्तक़िल हो गया जहां माविया ईरानी और यूनानी शानो शौकत के साथ रहा करता था। वह अक्सर अपने दुश्मनों या मुख़ालिफ़ों का ज़हर या तलवार से काम तमाम कर देता था। रिश्तेदारी या खि़दमते इस्लाम भी उसके सफ़्फ़ाक हाथों से बचा न सकती थी और फिर मुवर्रिख़ ओबसरन ने नक़ल किया है कि बनी उमय्या का अव्वल ख़लीफ़ा सियाना, मुताफ़न्नी और सफ़्फ़ाक था। अपना मतलब निकालने के लिये किसी जुर्म के इरतेक़ाब से न डरता था। जबर दस्त ग़नीम को हलाक करा देना उसके बायं हाथ का खेल था। पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे इमाम हसन (अ.स.) और मालिके अशतर को ज़हर से हालाक करा दिया। इसी तरह अब्दुल रहमान इब्ने ख़ालिद इब्ने वलीद को 45 हिजरी में ज़हर से तमाम करा दिया। (कामिल इब्ने असीर, तबरी, अबुल फ़िदा , रौज़ातुल सफ़ा, हबीब अल सैर) और उम्मुल मोमेनीन जनाबे आयशा को इस तरह ज़िन्दा गढ़े में दफ़्न कर दिया कि 56 हिजरी में आ कर एक मकान में गढ़ा खुदवा कर उसको ख़स पोश कर के आबनूस की कुर्सी बिछवाई और आयशा को दावत में बुलवा कर उस पर बिठाया, आयशा बैठते ही उस गढ़े में जा पड़ीं। माविया ने इस गढ़े को पत्थर और चूने से बंद करा दिया और मक्के की तरफ़ कूच कर गये। (हबीब उस सैर जिल्द 1 सफ़ा 85, ओकली तारीख़े इस्लाम रबीउल अबरार, अवाएल सियूती, कामिल अल सफ़ीना, हदीक़ा हकीम सनाई, मुनाक़िबे मुर्तज़वी)
45. 51 ई0 में हजर इब्ने अदी को जो निहायत मुत्तक़ी व परहेज़गार और इबादत गुज़ार थे और उनके छ़ हमराहियों को और उमर इब्ने हमक़ सहाबी को सिर्फ़ इस जुर्म में कि वह दोस्त दाराने अली (अ.स.) में से थे और जब माविया का गर्वनर कूफ़े के मिम्बर पर अली (अ.स.) पर लानत करता तो यह रोकते और अली (अ.स.) की हिमायत करते थे, क़त्ल करा दिया।
46. खानदाने बनी उमय्या को क़ुरआन में शजराए मलऊना फ़रमाया है।
47. उनको, अली (अ.स.) उनकी औलाद और उनके शियों से सख़्त दुश्मनी थी चुनान्चे माविया हज़रत अली (अ.स.) पर तबर्रा करता था। उसने 41 हिजरी में हुक्म दिया कि ममालिके महरूसा की मस्जिदों मे ख़तीब मिम्बर पर बैठ कर हज़रत अली (अ.स.) पर तबर्रा किया करें और यह रस्म 99 हिजरी तक जारी रही जब कि उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने ख़ुतबे में से इस तबर्रा को निकलवा कर आयएः ان اللہ یعمر بالعدل والاحسان
और ख़ुलफ़ाए अरबिया के नाम दाखि़ल कराये। मुलाहेज़ा हो, सही मुस्लिम, तिर्मिज़ी, मिनहाजुल सुन्नता, अक़्दुल फ़रीद, अबुल फ़िदा, कामिल इब्ने असीर, तबरी, तारीख़ अल खु़लफ़ा, फ़तावाए अज़ीज़ी, तफ़रीह उल अहबाब, ख़साएस निसाई।
इमाम ग़ेज़ाली (र.) लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) पर शितम व तबर्रा एक हज़ार माह तक जारी रहा। (इसरारूल आलेमीन सफ़ा 10 तबआ बम्बई) अल निसाएल काफ़िया के सफ़ा 9 में है कि हज़रत अली (अ.स.) पर सत्तर हज़ार मिम्बरों पर सबबो शितम की जाती थी। माविया ने अबू हुरैरा, उमरे आस, मुग़ीरा इब्ने शेबा और उरवा इब्ने ज़ुबैर को इस अम्र पर मामूर किया था कि अली (अ.स.) की मनक़सत में झूठी हदीसे तय्यार करें।
48. इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 सफ़ा 9 पर है, शियाने अली (अ.स.) के माल व मता ज़ब्त कर लिये गये वो क़त्ल किये गये और इस क़दर उन पर ज़ुल्म किये गये कि कोई अपने को शिया न कह सकता था।
49.. इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 सफ़ा 9, निसाए काफ़िया सफ़ा 70, किताब अल फ़ख़्री में है कि माविया उमूरे दुनिया में इस क़द्र मुनहमिक रहता और अपनी हिम्मत तदबीर उमूरे दुनिया में इतनी मसरूफ़ करता कि और सब बातें उसके सामने हेच समझता था।
50. दिन में पांच मरतबा खाता था और आख़री दफ़ा सब से ज़्यादा खा कर कहता था ऐ गु़लाम उठा ले खाते खाते थक गया मगर सेर नहीं हुआ। एक बछड़ा भून कर लाये वह एक ही मैदे की रोटी के साथ खा गया और साथ में चार मोटे मोटे गुर्दे। एक गर्म भेड़ का बच्चा और एक ठन्डे भेड़ का बच्चा और खजूरों से अलग मुंह मीठा किया। इसके आगे सौ (100) रतल बाक़लानी रूतब रखा गया वह सब खा गया।
51. इमाम निसाई फ़रमाते हैं कि रसूल अल्लाह (स.अ.) ने उनके हक़ में बद दुआ की थी ला अशबा उल्लाह बतना ख़ुदा इसका पेट न भरे।
52. माविया अपना मतलब निकालने में खूंरेज़ी के मुताअल्लिक़ परवाह न करता था।
53. ओकली लिखता है कि वह ज़क्र बर्क कपड़े पहनता और शानो शौकत से बसर करता और हमेशा शराब पीता था।
54. हसन बसरी कहते हैं कि माविया की चार बातें ऐसी हैं कि उनमें से एक ही उसकी हलाकत के लिये काफ़ी है। 1. अव्वल मुस्तहक़ीने खि़लाफ़त को महरूम करके ज़बर दस्ती खि़लाफ़त पर क़ब्ज़ा करना। 2, दूसरे यज़ीद को वली अहद बनाना जो बद अतवार, शराबी, हरीर पहनने वाला, गाना बजाना सुनने का शौकीन था। 3. तीसरे अबू सुफ़ियान के हरामी बेटे ज़ियाद को शरीयत के खि़लाफ़ अपना भाई बनाना। 4. चौथे हजर और उनके असहाब पर ज़ुल्म करना और उनको क़त्ल कराना।
55. इमाम शाफ़ेई फ़माते हैं कि चार सहाबी ऐसे हैं जिनकी गवाही क़ाबिले क़ुबूल नहीं। माविया, उमरो आस, मुग़िरा, ज़ियाद। हकीक़त यह है कि इस्लाम की इन्हीं चार फ़ितना ग़रों ने कमर तोड़ी है।
56. मसूदी लिखता है कि अहले शाम माविया के फ़रमा बरदार और इताअत गुज़ार ऐसे थे कि जंगे सिफ़्फ़ीन को जाते हुए माविया ने जुमे की नमाज़ बुध को पढ़ा दी और लोगों ने पढ़ ली।
57. फिर मसूदी लिखता है कि बनी उमय्या के अहद में आम लोगों के इख़्लाक़ में यह बात दाखि़ल हो गई थी कि सय्यद को सरदार न बनायें। बनी उमय्या बग़ैर आलिम होने के इल्म की बात कहते थे बिला तमीज़ फ़ाज़ील व मफ़जू़ल और फ़ायदा नुक़सान के जो उनके आगे हो जाय उसकी मुताबेक़त कर लेते थे और हक़ो बातिल में तमीज़ न करते थे।
58. माविया 60 हिजरी में अलील हुआ और उसने यज़ीद से कहा कि जो कुछ मांगना हो मांग ले। उसने कहा हुकूमत चाहता हूँ ताकि उसके ज़रिये से जहन्नुम से नजात हासिल कर लूँ। उसने यज़ीद का मुंह चूम लिया और कहा मुझे मंज़ूर है।(तारीख़े कामिल)
चुनान्चे यह यज़ीद जैसे दुश्मने इस्लाम को ख़लीफ़ा बना कर रजब 60 हिजरी में राहीए दार उल बवार हो गया।
(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 33)
59. यह मुसल्लेमाते तारीख़ी में से है कि माविया के हक़ में कोई एक हदीस भी वारिद न हुई और उसके बिदआत बे शुमार हैं। ततहिरूल जिनान, मौज़ूआते मुल्ला अली क़ारी सफ़ा 48 व फ़तेहुल बारी में है कि माविया के हक़ में कोई भी ख़बर सही वारिद नहीं यही वजह है कि सही बुख़ारी में उसके लिये कोई बाब नहीं किया गया।
60. मफ़रूदात इमाम राग़िब असफ़हानी में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया था कि माविया के गले में जब तब ईसाईयों की सलीब न पड़ेगी उसे मौत न आयेगी। चुनान्चे आख़री वक़्त नसरानी किरस्टान ने तावीज़े शिफ़ा के नाम से उसके गले में सलीब डाल दी। उसके बाद उसका इन्तेक़ाल हो गया। यक़ीन है कि माविया नसरानी व ईसाई महशूर होगा। क्यों कि यह अली (अ.स.) का दुश्मन और उनको अज़ीयत देने वाला था, और हदीस में है कि ‘‘ मन अज़ी अलीयन बाएस यौमुल क़यामा यहूदिया ’’ जो अली (अ.स.) को अज़ीयत दे गा वह यहूदी या नसरानी मबऊस व महशूर होगा। निसाए काफ़िया, तारीख़ुल खुलफ़ा सफ़ा 135 में है कि माविया ने चालीस साल हुकूमत की। 77 साल की उम्र पाई और 60 हिजरी में इन्तेक़ाल किया और दमिश्क़ (शाम) में दफ़्न किया गया।(1)
मैं कहता हूँ कि माविया के जुमला अमल व किरदार के नताएज एक तरफ़ और उसका हज़रत अली (अ.स.) और इमाम हसन (अ.स.) का क़त्ल करना एक तरफ़। यक़ीन करना चाहिये कि अमीरे माविया की बख़्शिश क़तअन दुश्वार नामुम्किन और मोहाल है।
(1). सुना जाता है कि शाम में जिस जगह पर माविया की क़ब्र थी उस जगह चूड़िया बनाने की भट्टी बनी हुई है।
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