शेरे खुदा इमाम अली (अ.स.)

नबी अकरम व अहलेबैत
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लेखकः मौलाना नजमुल हसन कर्रारवी

नुसरते दीं है, अली का काम सोते जागते

ख़्वाबो बेदारी है यकसां यह हैं ऐने किरदिगार

इसकी बेदारी की अज़मत को सने हिजरी से पूछ

जिसका सोना बन गया, तारिख़े दीं की यादगार

 (साबिर थरयानी, कराची)

 

मौलूदे काबा हज़रत अली (अ.स.) अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब व जनाबे फ़ात्मा बिन्ते असद के बेटे पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. सहीमे नूर, दामाद, भाई, जानशीन और फ़ात्मा स. के शौहर हज़रत इमामे हसन (अ.स.), इमामे हुसैन (अ.स.) ज़ैनबो उम्मे कुलसूम के पदरे बुज़ुर्गवार थे। आप जिस तरह पैग़म्बरे इस्लाम के नूर में शरीक थे, उसी तरह कारे रिसालत में भी शरीक थे। यौमे विलादत से ले कर पूरी जि़न्दगी पेग़म्बरे इस्लाम के साथ उनकी मदद करने में गुज़ारी। उमूरे मम्लेकत हो या मैदाने जंग आप हर मौक़े पर ताज दारे दो आलम के पेश पेश रहे। अहदे रिसालत स. के सही फ़तूहात का सेहरा आप ही के सर रहा। इस्लाम की पहली मंजि़ल दावते ज़ुल अशीरा से ले कर ता विसाले रसूल स. आपने वह कार हाय नुमायां किये जो किसी सूरत में भूलाये नहीं जा सकते और क्यों न हो जब कि आपका गोश्त पोस्त रसूल स. का गोश्त पोस्त था और अली (अ.स.) पैदा ही किये गये थे इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम के लिये।

आपकी विलादत आपकी नूरी तख़्लीक़, खि़ल्क़ते सरवरे कायनात के साथ साथ पैदाईशे आलम व आदम (अ.स.) से बहुत पहले हो चुकी थी लेकिन इन्सानी शक्लो सूरत में आपका ज़ुहूर व नमूद 13 रजब 30 आमूल फ़ील, मुताबिक़ 600 ई0 जुमे के दिन बमुक़ामे ख़ानाए काबा हुआ। आपकी मां फ़ात्मा बिन्ते असद और बाप अबू तालिब थे। आप दोनों तरफ़ से हाशमी थे। इतिहासकारों ने आपके ख़ाना ए काबा में पैदा होने के मुताअल्लिक़ कभी कोई इख़्तेलाफ़ जा़हिर न किया बल्कि बिल इत्तेफ़ाक़ कहते हैं कि लम यूलद कि़बलहा वला बादह मौलूद फ़ी बैतुल हराम आप से पहले कोई न ख़ाना ए काबा में पैदा हुआ है न होगा। इसके बारे में उलेमा ने तवातुर का दावा भी किया है। (मुस्तदरिक इमामे हाकिम जिल्द 3 पेज न. 483) तवारिख़े इस्लाम में वाकि़याए विलादत यूं बयान किया गया है कि फ़ात्मा बिन्ते असद को जब दर्दे ज़ेह की तकलीफ़ महसूस हुई तो आप रसूल करीम के मशवरे के मुताबिक़ ख़ाना ए काबा के क़रीब गईं और उसका तवाफ़ करने के बाद दीवार से टेक लगा कर खड़ी हो गईं और बारगाहे ख़ुदा की तरफ़ मुतावज्जे हो कर अर्ज़ करने लगीं, ख़ुदाया मैं मोमेना हूं तुझे इब्राहीम बानी ए काबा और इस मौलूद का वास्ता जो मेरे पेट में है, मेरी मुशकिल दूर कर दे। अभी दुआ के जुमले ख़त्म न होने पाए थे कि दीवारे काबा शक (टूटना) हो गई और फ़ात्मा बिन्ते असद काबे में दाखि़ल हो गईं और दीवार ज्यों की त्यों हो गई। (मनाकि़ब पेज न. 132, वसीलतुन नजात पेज न. 60) विलादत काबा के अन्दर हुईं। अली (अ.स.) पैदा तो हुए लेकिन उन्होने आंख नहीं खोली। मां समझी की शायद बच्चा बे नूर है, मगर जब तीसरे दिन सरवरे कायनात स. तशरीफ़ लाए और अपनी आग़ोशे मुबारक में लिया तो हज़रत अली (अ.स.) ने आंखे खोल दीं और जमाले रिसालत पर पहली नज़र डाली। सलाम कर के तिलावते सहीफ़ाए आसमानी शुरू कर दी। भाई ने गले लगाया और यह कह कर कि ऐ अली (अ.स.) जब तुम हमारे हो तो मैं तुम्हारा हूं, फ़ौरत मूंह मे ज़बान दे दी। अल्लामा अरबली लिखते हैं वअज़ ज़बाने मुबारक दवाज़दह चश्मए कशूदा शुद ज़बाने रिसालत स. से दहने इमामत में बारह चशमे जारी हो गये और अली (अ.स.) अच्छी तरह सेराब हो गये। इसी लिए इस दिन को यौमुल तरविया कहते हैं क्योंकि तरविया के माने सेराबी के हैं। (कशफ़ुल नग़मा पेज न. 132)

अल ग़रज़ हज़रत अली (अ.स.) ख़ाना ए काबा से चैथे रोज़ बाहर लाए गये और उसके दरवाज़े पर अली (अ.स.) के नाम का बोर्ड लगा दिया गया। जो हश्शाम इब्ने अब्दुल मलिक के ज़माने तक लगा रहा। आप पाको पाकीज़ा, तय्यबो ताहिर और मख़्तून (ख़तना शुदा) पैदा हुए। आपने कभी बुत परस्ती नहीं की और आपकी पेशानी कभी बुत के सामने नहीं झुकी इसी लिए आपके नाम के साथ करम अल्लाह वजहा कहा जाता है। (नूरूल अब्सार, पेज न. 76, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पेज न. 72)

आपके नामे नामी मोवर्रेख़ीन का बयान है कि आपका नाम जनाबे अबू तालिब ने अपने जद्दे आला जामए क़बाएले अरब क़सी के नाम पर ज़ैद और मां फ़ात्मा बिन्ते असद ने अपने बाप के नाम पर असद और सरवरे काएनात स. ने ख़ुदा के नाम पर अली रखा। नाम रखने के बाद अबू तालिब और बिन्ते असद ने कहा हुज़ूर हमने हातिफ़े ग़ैबी से यही नाम सुना था। (रौज़ातुल शोहदा और किफ़ायत अल तालिब)

आपका एक मशहूर नाम हैदर भी है जो आपकी मां का रखा हुआ है। जिसकी तस्दीक़ इस रजज़ से होती है जो आपने मरहब के मुक़ाबले में पढ़ा था। जिसका पहला मिसरा यह है अना अल लज़ी समतनी अमी हैदरा इस नाम के मुताअल्लिक़ रवायतों में है कि जब आप झूले में थे एक दिन मां कही गई हुई थीं झूले पर एक सांप जा चढ़ा, आपने हाथ बढ़ा कर उसके मूँह को पकड़ लिया और कल्ले को चीर फेंका, माँ ने वापस हो कर यह माजरा देखा तो बे साख़्ता कह उठीं, यह मेरा बच्चा हैदर है।

कुन्नीयत व अल्क़ाब आपकी कुन्नीयत व अल्क़ाब बे शुमार हैं। कुन्नीयत में अबुल हसन और अबू तुराब और अल्क़ाब में अमीरूल मोमेनीन, अल मुर्तज़ा, असद उल्लाह, यदुल्लाह, नफ़्सुल्लाह, हैदरे करार, नफ़्से रसूल और साकि़ये कौसर ज़्यादा मशहूर हैं।

आपकी परवरिश आपकी परवरिश रसूले अकरम स. ने की। पैदा होते ही गोद में लिया, मुँह में ज़बा नदी और दूध के बजाए लोआबे दहने रसूल स. से सेराब हो कर लहमोका लहमी के हक़दार बने। (सहरते हलबीता जिल्द 1 पेज न. 268) इसी दौरान में जब कि आप सरवरे कायनात के ज़ेरे साया आरज़ी तौर पर परवरिश पा रहे थे मक्के में शदीद कहर पड़ा, अबू तालिब की चूँकि औलादे ज़्यादा थीं इस लिये हज़रते अब्बास और सरवरे कायनात स. उनके पास तशरीफ़ ले गये और उनको राज़ी कर के हज़रत अली (अ.स.) को मुस्तकि़ल तौर पर अपने पास ले आये और अब्बास ने भी जाफ़रे तय्यार को ले लिया। हज़रत अली (अ.स.) सरवरे काएनात स. के पास दिन रात रहने लगे। हुज़ूरे अकरम स. ने तमाम नेमाते इलाही से बहरावर कर लिया और हर कि़स्म की तालीमात से भरपूर बना दिया यहां तक कि अली नामे ख़ुदा क़ुव्वते बाज़ू बन कर यौमे बेसत 27 रजब को कुल्ले ईमान की सूरत में उभरे और हुज़ूर की ताईद कर के इस्लाम का सिक्का बिठा दिया।

इज़हारे ईमान मुसलमानो में अक्सर यह बहस छिड़ जाती है कि सब से पहले इस्लाम कौन लाया और इस सिलसिले में हज़रत अली (अ.स.) का नाम भी आ जाता है हांलाकि आप इस मौजूए बहस से अलग हैं क्योंकि ज़ेरे बहस वह लाये जा सकते हैं जो या तो मुसलमान ही न रहे हों और तमाम उम्र र्शिको बुत परस्ती में गुज़ारी हो जैसे हज़रत अबू बक्र, हज़रत उमर, हज़रत उस्मान वग़ैरा या मुसलमान तो रहें हों और दीने इब्राहीम पर चलते रहें हों लेकिन इस्लाम ज़ाहिर न कर सके हों जैसे हज़रते हमज़ा, हज़रते जाफ़रे तय्यार और अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब (अ.स.) वग़ैरा ऐसी सूरत में इन हज़रात के लिये कहा जायेगा कि इस्लाम क़ुबूल किया और बाद वाले ज़ैसे हज़रत अबू तालिब (अ.स.) वग़ैरा के लिये कहा जायेगा कि इसलाम ज़ाहिर किया। अब रह गये हज़रत अली (अ.स.) यह काबा में फि़तरते इस्लाम पर पैदा हुए। कुल्ले मौलूद यूलद अली फि़तरतुल इस्लाम रसूले इस्लाम स. की गोद में आँख खोली, लोआबे दहने रसूल स. से परवरिश पाई, आग़ोशे रिसालत मे पले, बढ़े, दस साल की उम्र में ब वजहे ज़ुरूरत ऐलाने ईमान किया। रसूल स. के दामाद क़रार पाये। मैदाने जंग में कामयाबियां हासिल कर के कुल्ले ईमान बने फिर अमीरूल मोमेनीन के खि़ताब से सरफ़राज़ हुए।

फ़ाजि़ल माअसर तारीख़े आइम्मा में लिखते हैं कि उल्माए मोहक़्क़ेक़ीन ने साफ़ साफ़ लिखा है कि हज़रत अली (अ.स.) तो कभी काफि़र रहे ही नहीं क्योकि आप शुरू से ही हज़रत रसूले ख़ुदा स. की किफ़ालत में इसी तरह रहे जिस तरह खुद हज़रत की औलादें रहती थीं और कुल मामेलात में हज़रत की पैरवी करते थे। इस सबब से इसकी ज़रूरत ही नहीं हुई कि आप को इस्लाम की तरफ़ बुलाया जाता और जिसके बाद कहा जाता कि आप मुसलमान हो जायें। (सिरते हलबिया जिल्द 1 पेज न. 269) मसूदी कहता है कि आप बचपन ही से रसूल स. के ताबे थे। ख़ुदा ने आपको मासूम बनाया और सीधी राह पर क़ायम रखा। आपके लिये इस्लाम लाने का सवाल ही नहीं पैदा होता।

(मरूजुल ज़हब, जिल्द 5 पेज न. 68)

हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मैंने उस उम्मत में सब से पहले ख़ुदा की इबादत की और सब से पहले आं हज़रत स. के साथ नमाज़ पढ़ी। (इस्तीयाब जिल्द 2 पेज न. 472) पैग़म्बरे इस्लाम स. फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने एक सेकेन्ड के लिये भी कुफ्ऱ इख़्तेयार नहीं किया। (सीरते हलबिया जिल्द 1 पेज न. 270)

 

हुलिया मुबारक

आपका रंग गंदुमी, आखें बड़ी सीने पर बाल, क़द मियाना, दाढ़ी बडी और दोनों शानें कोहनिया और पिंडलियां पुर गोश्त थीं, आपके पांव के पठ्ठे ज़बरदस्त थे शेर के कंधो की तरह आपके कंधों की हड्डियां चैड़ी थीं। आपकी गरदन सुराही दार और आपकी शक्ल बहुत ही ख़ूबसूरत थी। आपके लबों पर मुस्कुराहट खेला करती थी, आप खि़ज़ाब नहीं लगाते थे।

आपकी शादी ख़ाना आबादी आपकी शादी 2 हिजरी में हुज़ूरे अकरम की दुख़्तर नेक अख़तर हज़रत फ़ात्मा ज़हरा स. से हुई। आपके घर में लौंडी, ग़ुलाम और खि़दमतगार न थे। बाहर का काम आप खुद और आपकी वालेदा मोहतरमा करती थीं और उमूरे ख़ाना दारी के फ़राएज़ जनाबे फ़ात्मा ज़हरा स. अंजाम देती थीं, हो सकता है कि यह रिश्ता आम रिश्तों की हैसियत से देखा जाए, लेकिन दर हक़ीक़त इसमें एक अहम क़ुदरती राज़ छुपा हुआ है और उसका खुलासा इस तरह हो सकता है कि इस पर ग़ौर किया जाए कि हुज़ूरे अकरम स. का इरशाद है कि, अली (अ.स.) के अलावा फ़ात्मा स. का सारी दुनियां में रहती दुनियां तक कफ़ो नहीं हो सकता। (नूरूल अनवार) फिर फ़रमाते हैं कि मुझे ख़ुदा ने हुक्म दिया है कि मैं फ़ात्मा स. की शादी अली (अ.स.) से करूं और इसी सिलसिले में इरशाद फ़रमाते हैं कि हर नबी की नस्ल उसके सुल्ब से होती है लेकिन मेरी नस्ल सुल्बे अली से क़रार दी गयी है। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा, पेज न. 74) इनत माम अक़वाल को मिलाने के बाद यह नतीजा निकलता है कि अली (अ.स.) और फ़ात्मा स. का रिैश्ता नस्ले नबूवत की बक़ा और दवाम के लिये क़ायम किया गया है। यही वजह है कि लोग पैग़ामे रिश्ता दे कर कामयाब नहीं हो सके। जिनकी बुनियाद नजासते कुफ़्र पर इस्तेवार हुई और जिनकी इन्तेहा गन्दगिऐ निफ़ाक़ पर हुई।

 

सरदारी और सयादते अली (अ.स.) की सिफ़ते ज़ाती हैं सरवरे कायनात स. से इत्तेहादे ज़ाती और इश्तेराके नूरी की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) की सयादत मुसल्लम है जो मदाररिजे करम हुज़ूरे अकरम स. को नसीम हुए उन्हीं से मिलते जुलते हज़रत अली (अ.स.) को भी मिले। सयादत जिस तरह सरवरे कायनात स. के लिये ज़ाती है उसी तरह हज़रत अली (अ.स.) के लिये भी है। हाफि़ज़ अबू नईम ने हुलयतुल औलिया में लिखा है कि ग़दीर के मौक़े पर ख़ुतबे से फ़राग़त के बाद जब अमीरूल मोमिनीन हुज़ूरे अकरम स. के सामने आये तो आपने फ़रमायाः  ऐ मुसलमानों के सरदार और ऐ परहेज़गारों के इमाम तुम्हें जानशीनीं मुबारक हो। इस इरशादे रसूल स. पर इज़हारे ख्याल करते हुए अल्लामा मौहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई ने मुतालेबुल सुऊल में लिखा है कि हज़रत की सयादते मुसलेमीन और इमामत मुत्तक़ीन जिस तरह सिफ़ते ज़ाती हैं। खुदा ने अपना नफ़्स क़रार दे कर, रसूल स. ने अपना नफ़्स फ़रमा कर अली (अ.स.) की शरफ़े सयादत को बामे ऊरूज पर पहुंचा दिया क्योकि जिस तरह असलिये नबविया में नफ़से नबूवत मशारिक है, उसी तरह असलिये सयादत में भी नफ़्स शरीक है। इस लिये हुज़ूरे अकरम स. हज़रत अली (अ.स.) को सय्यदुल अरब, सय्यदुल मोमेनीन, सय्यदुल मुसलेमीन फ़रमाया करते थे। (मतालिबुल सवेल, पेज न. 56, 57) और हज़रत फ़ात्मा स. को सय्यदुन्निसां अल आलेमीन और उनको फ़रज़न्दों को सय्यदे शबाबे अहले जन्ना के अलफ़ाज़ से याद किया करते थे, मालूम होना चाहिये कि अली (अ.स.) और फ़ात्मा स. की बाहमी मनाकहत व मज़ावेहत (शादी) ने सिफ़ते सयादत को दायमी फ़रोग़ दे दिया यानी जो बनी फ़ात्मा स. हैं उनका दरजा और है और जो दीगर औलादे अली (अ.स.) हैं जो बतने फ़ात्मा स. (फ़ात्मा स. के पेट) से पैदा नहीं हुए उनकी हैसियत और है क्यों कि बनी फ़ात्मा सिलसिलाए नस्ले नबूवत की ज़मानत हैं।

 

माँ की वफ़ात आपकी वालेदा माजेदा जनाबे फ़ात्मा बिन्ते असद ने 1 बेसत में इज़्हारे इस्लाम किया। आप 1 हिजरी में शरफ़े हिजरत से मुशर्रफ़ हुईं। 2 हिजरी में आपने अपने नूरे नज़र को रसूल स. की लख़्ते जिगर से बियाह दिया और 4 हिजरी में इन्तेक़ाल फ़रमा गईं। आपकी वफ़ात से हज़रत अली (अ.स.) बेहद मुताअस्सिर हुए और आपसे ज़्यादा रसूले अकरम स. को रन्ज हुआ। रसूले करीम स. हज़रत अली (अ.स.) की वालेदा को अपनी माँ फ़रमाते थे और उनके वहां जा कर रहते थे। इन्तेक़ाल के बाद आपने क़ब्र खोदने में ख़ुद हिस्सा लिया। अपनी चादर और अपने कुरते को शरीके कफ़न किया और क़ब्र में लेट कर उसकी कुशदगी का अन्दाज़ा किया।

(कंज़ुल आमाल जिल्द 6 पेज न. 7, फ़ुसूले महमा, पेज न. 15 व असाबा जिल्द 8 पेज न. 160 व अज़ालतूल ख़फ़ा जिल्द 1 पेज न. 215)

 

आपके वालिदे माजिद का इन्तेक़ाल आपके वालिदे माजिद अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब (अ.स.) 535 ई0 में बमक़ामे मक्का पैदा हुए और वहीं पले बढ़े, आपकी बुनियाद दीने फि़तरत पर थी। (उमहातुल आइम्मता पेज न. 143) आपने हज़रत अली (अ.स.) को हिदायत की थी कि रसूल स. का साथ न छोड़ना। (तारीख़े कामिल, जिल्द पेज न. 60) आप ही की हिदायत से हज़रत जाफ़रे तय्यार ने हुज़ूरे अकरम स. के पीछे नमाज़ पढ़ना शुरू की थी।

(असाबा जिल्द 7 पेज न. 113)

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के इन्तेक़ाल के वक़्त 578 ई0 में जब कि रसूले करीम स. की उम्र आठ साल की थी, आपने उनकी परवरिश अपने जि़म्मे ले ली और 45 साल की उम्र तक महवे खि़दमत रहे। इसी उम्र में ग़ालेबन 594 ई0 में आपने रसूले करीम स. की शादी जनाबे ख़दीजा के साथ कर दी औ ख़ुतबाए निकाह ख़ुद पढ़ा।

(असनिल मतालिब पेज न. 34, मिस्र में छपी, तारीख़े ख़मीस मोवाहेबुल दुनिया)

आपका इन्तेक़ाल 15 शव्वाल 10 बेसत में 80 साल की उम्र में हुआ। आपके इन्तेक़ाल से हज़रत अली (अ.स.) को बेइन्तेहा रंज हुआ और रसूल अल्लाह स. भी बे हद मुताअस्सिर हुए। आपने इन्तेहाई ताअस्सुर की वजह से इस साल का नाम आमुलहुज़्न रखा। हज़रत अबू तालिब को इस्लामी उसूल पर दफ़न किया गया।

(तारीख़े ख़मीस, सीरते हलबिया)

 

हज़रत अली (अ.स.) के जंगी कारनामे उलेमा का इत्तेफ़ाक है कि इल्म और शुजाअत इकठ्ठा नहीं हो सकते लेकिन हज़रत अली (अ.स.) की ज़ात ने इसे वाज़े कर दिया कि मैदाने इल्म और मैदाने जंग दोनों पर क़ाबू किया जा सकता है बशरते इन्सान में वही सलाहियतें हों जो कु़दरत की तरफ़ से हज़रत अली (अ.स.) को मिली थीं। 2 हिजरी से ले कर अहदे वफ़ाते पैग़म्बरे इस्लाम तक नज़र डाली जाय तो अली (अ.स.) के जंगी कारनामे अवराक़े तारीख़े पर नज़र आयेंगे। जंगे ओहद हो या जंगे बद्र, जंगे ख़ैबर हो या जंगे ख़न्दक़, जंगे हुनैन या कोई और मारेका हर मन्जि़ल में हर मौकि़फ़ पर अली (अ.स.) की ज़ुल्फि़क़ार चमकती हुई दिखाई देती है। तारीख़ शाहिद है कि अली (अ.स.) के मुक़ाबले में कोई बहादुर टिका ही नहीं। आपकी तलवार ने मरहब, अन्तर, हारिस व उम्रो बिन अब्दवुद जैसे बहादुरों को दमे ज़दन में फ़ना के घाट उतार दिया। (जंग के वाकि़यात गुज़र चुके हैं) याद रखना चाहिये कि अली (अ.स.) से मुक़ाबला जिस तरह इन्सान नहीं कर सकते थे, उसी तरह जिन भी आपसे नहीं लड़ सकते थे।

 

जंगे बेरूल अलम मनाकि़ब इब्ने आशोब जिल्द 2 पेज न. 90 व कनज़ुल वाएज़ीन मुलला सालेह बरग़ानी में बा हवाला, इमामुल मोहक़्क़ेक़ीन अलहाज मौहम्मद तक़ी अल क़रदीनी बतवस्सुल हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) व अबू सईद ख़दरी व हुज़ैफ़ा यमानी लिखते हैं कि रसूले ख़ुदा स. जंगे सिकारसिक से वापसी में एक उजाड़ वादी से गुज़रें आपने पूछा यह कौन सा मका़म है, उम्र बिन अमिया ज़मरी ने कहा इसे वादी कसीबे अरज़क़  कहते हैं। इस जगह एक कुआं है जिसमें वह जिन रहते हैं जिन पर जनाबे सुलैमान (अ.स.) को क़ाबू नहीं हासिल हो सका। इधर से तेग़े यमानी गुज़रा था उसके दस हज़ार सिपाही इन्हीं जिनों ने मार डाले थे। आपने फ़रमाया कि अगर ऐसा है तो फिर यही ठहर जाओ। काफि़ला ठहरा, आपने फ़रमाया दस आदमी जा कर जिनों के कुऐं से पानी लायें। जब यह लोग कुएं के पास पहुँचे तो एक ज़बरदस्त इफ़रीयत बरामद हुआ और उसने एक ज़बरदस्त आवाज़ दी। सारा जंगल आग का बन गया। धरती कांपने लगी, सब सहाबी भाग निकले लेकिन अबुल आस सहाबी पीछे हटने के बजाए आगे बढ़े। और थोड़ी देर में जंगल जल कर राख हो गये। इतने में जिब्रईल नाजि़ल हुए और उन्होंने सरवरे कायनात स. से कहा कि किसी और को भेजने के बजाय आप अलम दे कर अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) को भेजिये। अली (अ.स.) रवाना हुए, रसूल स. ने दस्ते दुआ बलन्द किया, अली (अ.स.) पहुँचे इफ़रीयत बरामद हुआ और बड़े ग़ुस्से में रजज़ पढ़ने लगा। आपने फ़रमाया मैं अली इब्ने अबी तालिब हूँ। मेरा शेवा मेरा अमल सरकशों की सर कोबी है। यह सुन कर उसने आप पर ज़बरदस्त करतबी हमला किया। आप ने वार ख़ाली दे कर उसे ज़ुल्फि़क़ार से दो टुकड़े कर डाला। उसके बाद आग के शोले और धुएं के तूफ़ान कुऐं से बरामद हुए और ज़बरदस्त शोर मचा और बेशुमार डरावनी शक्लें सामने आ गईं, अली (अ.स.) ने बरदन व सलामन कहा और चन्द आयतें पढ़ीं। आग बुझने लगी धुवां हवा होने लगा। हज़रत अली (अ.स.) कुऐं की जगत पर चढ़ गए, और डोल डाल दिया। कुऐं से डोल बाहर फ़ेंक दिया। हज़रत अली (अ.स.) ने रजज़ पढ़ा और कहा मुक़ाबले के लिये आ जाओ। यह सुन कर एक इफ़रीयत बरामद हुआ। आपने उसे क़त्ल किया, फिर कुऐं में डोल डाला वह भी बाहर फेक दिया गया, ग़रज़ कि इसी तरह तीन बार हुआ। आखि़र में आपने असहाब से कहा कि मैं कमर में रस्सी बांध कर कुएं में उतरता हूँ, तुम रस्सी पकड़े रहो। असहाब ने रस्सी पकड़ ली और अली (अ.स.) कुएं में उतरे, थोड़ी देर बाद रस्सी कट गई और अली (अ.स.) और असहाब के बीच रिश्ता टूट गया। असहाब बहुत परेशान हुए और रोने लगे। इतने में कुऐ से चीख़ पुकार की आवाज़ें आने लगीं। उसके बाद यह सदा आईः अली हमें पनाह दो। आपने फ़रमाया क़ता व बुरीद और ज़रबे शदीद कलमें पर मौकूफ़ है। कलमा पढ़ो, अमान लो। ग़रज़ की कलमा पढ़ा गया। इसके बाद रस्सी डाली गई और अमीरूल मोमेनीन 20,000 (बीस हज़ार) जिनों को क़त्ल कर के और 24,000 (चैबीस हज़ार) क़बाएल को मुसलमान बना कर कुऐं से बाहर आये। असहाब ने ख़ुशी का इज़हार किया और सब के सब आं हज़रत स. की खि़दमत में हाजि़र हुए। हुज़ूरे अकरम स. ने अली (अ.स.) को सीने से लगाया, उनकी पेशानी का बोसा दिया और मुबारकबाद से हिम्मद अफ़ज़ाई फ़रमाई। फिर एक रात क़याम के बाद मदीने को रवानगी हुई। (अद्दमतुस् साकेबा पेज न. 176 ईरान में छपी व शवाहेदुन नबूवत अल्लामा जामी रूक्न 6 पेज न. 165, लखनऊ में 1920 ई0 में छपी)

 

इस्लाम पर अली (अ.स.) के एहसानात इस्लाम पर अली (अ.स.) के एहसानात की फ़हरीस्त इतनी मुख़्तसर नहीं है कि हम उसे इस मुख़्तसर मजमूए हालात में लिख सकें। ताहम मुश्ते अज़ ख़र दारे लिख देते हैं।

1. दावते ज़ुलअशीरा के मौक़े पर जिस जगह रसूले अकरम स. को तक़रीर करने का मौक़ा नहीं मिल रहा था। आपने ऐसी जुर्रत और हिम्मत का मुज़ाहेरा किया के पैग़म्बरे इस्लाम स. कामयाब हो गये और आपने इस्लाम का डंका बजा दिया।

2. शबे हिजरत फ़र्शे रसूल स. पर सो कर इस्लाम की किस्मत बेदार कर दी और जान जोखम में डाल कर ग़ार में तीन रोज़ खाना पहुँचाया।

3. जंगे बद्र में जबकि मुसलमान सिर्फ़ 313 (तीन सौ तेरह) और कुफ़्फ़ार बेशुमार थे। आपने कमाले जुर्रत और हिम्मत से कामयाबी हासिल की।

4. जंगे ओहद में जब कि मुसलमान सरवरे आलम स. को मैदाने जंग में छोड़ कर भाग गये थे, उस वक़्त आप ही ने रसूले अकरम स. की जान बचाइ और इस्लाम की इज़्जत महफ़ूज़ कर ली थी।

5. कुफ़्फ़ार जिनके दिलों में बदले की आग भड़क रही थी, उमरो बिल अब्द वुद जैसे बहादुर को ले कर मैदान में आ पहुँचे और इस्लाम को चैलेंज कर दिया। पैग़म्बरे इस्लाम स. परेशान थे, और मुसलमानों को बार बार उभार रहे थे कि मुक़ाबले के लिये निकलें लेकिन अली (अ.स.) के अलावा किसी ने हिम्मत न की। आखि़र कार रसूल अल्लाह स. को कहना पड़ा कि आज अली (अ.स.) की एक ज़रबत इबादते सक़लैन से बेहतर है।

6. इसी तरह ख़ैबर में कामयाबी हासिल कर के आपने इस्लाम पर एहसान फ़रमाया।

7. मेरे ख्याल के मुताबिक़ हज़रत अली (अ.स.) का इस्लाम पर सब से बड़ा एहसान यह था कि, वफ़ाते रसूल स. के बाद दुख भरे वाके़यात और जान लेवा हालात के बावजूद आपने तलवार नहीं उठाई वरना इस्लाम मंजि़ले अव्वल पर ही ख़त्म हो जाता।

 

दुनिया हज़रत अली (अ.स.) की निगाह में यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि हज़रत अली (अ.स.) दुनिया और दुनिया के कामों से हद दरजा बेज़ार थे। आपने दुनिया को मुख़ातिब कर के बारह कहा कि ऐ दुनिया जा मेरे अलावा और किसी को धोखा दे। मैंने तुझे तलाक़े बाइन दे दी है जिसके बाद रूजु करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि, एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अन्सारी को लम्बी लम्बी सांस लेते हुए देखा तो पूछा ऐ जाबिर क्या यह तुम्हारी ठंडी ठंडी सांस दुनिया के लिये है? अर्ज़ की मौला, है । तो ऐसा ही आपने फ़रमाया। जाबिर सुनो इन्सान की जि़न्दगी का दारो मदार सात चीज़ो पर है और यही सात चीज़ें वह हैं जिन पर लज़्ज़तों का ख़ातमा है, जिनकी तफ़सील यह है 1. खाने वाली चीज़ें, 2. पीने वाली चीज़ें, 3. पहन्ने वाली चीज़ें, 4. लज़्ज़्ाते निकाह वाली चीज़ें, 5. सवारी वाली चीज़ें, 6. सूंघने वाली चीज़ें 7. सुन्ने वाली चीज़ें।

ऐ जाबिर, अब इनकी हक़ीक़तों पर गौ़र करो। खाने में बेहतरीन चीज़ शहद है, यह मख्खी का लोआबे दहन (थूक) है और बेहतरीन पीने की चीज़ पानी है, यह ज़मीन पर मारा मारा फिरता है। बेहतरीन पहनने की चीज़ दीबाज़ है, यह कीड़े का लोआब है और बेहतरीन मन्क़ूहात औरत है जिसकी हद यह है कि पेशाब का मक़ाम पेशाब के मक़ाम में होता है, दुनिया इसकी जिस चीज़ को अच्छी निगाह से देखती है वह वही है जो उसके जिस्म में सब से गंदी है। और बेहतरीन सवारी की चीज़ घोड़ा है जो क़त्लो कि़ताल का मरकज़ है और बेहतरीन सूंघने की चीज़ मुश्क है जो एक जानवर के नाफ़ का सूखा हुआ ख़ून है। और बेहतरीन सुनने की चीज़ गि़ना (गाना) है जो बहुत बड़ा गुनाह है। ऐ जाबिर ऐसी चीज़ों के लिये आकि़ल क्यो ठंडी सांस ले? जाबिर कहते हैं कि इस इरशाद के बाद मैंने कभी दुनिया का ख़्याल तक न किया।

(मतालेबुल सूउल, पेज न. 191)

 

कसबे हलाल की जद्दो जहद आपके नज़दीक कसबे हलाल बेहतरीन सिफ़त थी। जिस पर आप खुद भी अमल पैरा थे। आप रोज़ी कमाने को ऐब नहीं समझते थे और मज़दूरी को बहुत ही अच्छी निगाह से देखते थे। मोहद्दिस देहलवी का बयान है कि हज़रत अली (अ.स.) ने एक दफ़ा कुएं से पानी खींचने की मज़दूरी की और उजरत के लिये फ़ी डोल एक ख़ुरमे का फ़ैसला हुआ। आपने 16 डोल पानी के खींचे और उजरत ले कर सरवरे कायनात स. की खिदमत में हाजि़र हुए और दोनों ने मिल कर तनावुल (खाया) फ़रमाया। इसी तरह आपने मिट्टी खोदने और बाग़ में पानी देने की भी मज़दूरी की है। अल्लामा मुहिब तबरी का बयान है कि, एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने बाग़ सींचने की मज़दूरी की और रात भर पानी देने के लिये जौ की एक मिक़दार (मात्रा) तय हुई। आपने फ़ैसले के अनुसार सारी रात पानी दे कर सुबह की और जौ (एक प्रकार का अनाज) हासिल कर के आप घर तशरीफ़ लाये। जौ फ़ात्मा ज़हरा स. के हवाले किये। उन्होंने उस के तीन हिस्से कर डाले और तीन दिन के लिये अलग अलग रख लिया। इसके बाद एक हिस्से को पीस कर शाम के वक़्त रोटियां पकाईं इतने में एक यतीम आ गया, और उसने मांग लीं। फिर दूसरे दिन रोटियां तय्यार की गईं, आज मिस्कीन ने सवाल किया, और सब रोटियां दे दी गईं, फिर तीसरे दिन रोटियां तय्यार हुईं आज फ़कीर ने आवाज़ दी, और सब रोटियां फ़कीर को दे दी गईं। अली (अ.स.) और उनके घर वाले तीनों दिन भूखे ही रहे। इसके इनाम में ख़ुदा ने सूरा हल अताः नाजि़ल फ़रमाया (रियाज़ुन नज़रा जिल्द 2 पेज न. 237) बाज़ रवायत में है कि सूरा हल अता के बारे में इसके अलावा दूसरे अन्दाज़ का वाके़या मिलता है।

 

हज़रत अली (अ.स.) अख़लाक़ के मैदान में आप बहुत ही ख़ुश अख़लाक़ थे। उलेमा ने लिखा है कि आप रौशन रू और कुशादा पेशानी रहा करते थे। यतीम नवाज़ थे। फ़़कीरों में बैठ कर ख़ुशी महसूस करते थे। मोमिनों में अपने को हक़ीर और दुश्मनों में अपने को बा रोब रखते थे। मेहमानों की खि़दमत खुद किया करते थे। कारे ख़ैर में सबक़त करते थे। जंग में दौड़ कर शामिल होते थे। हर मुस्तहक़ की इमादाद करते थे। हर काफि़र के क़त्ल पर तकबीर कहते थे। जंग में आपकी आंखे ख़ून के मानन्द होती थीं। इबादत खाने में इन्तेहाई ख़ुज़ु व ख़ुशु की वजह से बेहिस मालूम होते थे। हर रात को वह हज़ार रकअत नवाफि़ल अदा करते थे। अपने बाल बच्चों के साथ घर के कामां में मदद करते थे। घर में इस्तेमाल होने वाला सारा सामान ख़ुद बाज़ार से ख़रीद कर लाते थे। अपने कपड़ों में ख़ुद पेवन्द लगाते थे। अपनी और रसूले अकरम स. की जूती ख़ुद टांकते थे। हर रोज़ दुनिया को तीन तलाक़ देते थे। वह ग़ुलाम अपनी मज़दूरी से ख़ुद ख़रीद कर आज़ाद करते थे। (जनातुल ख़ुलूद) किताब अर हुज्जल मतालिब पेज न. 201 में है कि हज़रत अली (अ.स.) हुज़ूरे अकरम स. की तरह कुशादा हंसने वाले और ख़ुश तबआ थे और मिज़ाह (मज़ाक़) भी फ़रमाया करते थे।

 

हज़रत अली (अ.स.) ख़ल्लाक़े आलम की नज़र में 1. ख़ल्लाक़े आलम ने खि़लक़ते कायनात से पहले नूरे अलवी को नूरे नब्वी स. के साथ पैदा किया। 2. फिर मसजूदे मलाएक क़रार दिया। 3. फिर जिब्राईल का उस्ताद बनाया। 4. फिर अम्बिया के साथ अपनी तरफ़ से मददगार बना कर भेजा। (हदीसे क़ुदसी व मदीनतुल मगा़हिज़ पेज न. 19 ईरान में छपी) 5. अपने मख़सूस घर, ख़ाना ए काबा में अली (अ.स.) को पैदा किया। 6. इस्मत से बहरावर फ़रमाया। 7. आपकी मोहब्बत दुनिया वालों पर वाजिब क़रार दी। 8. रसूले अकरम स. का खुद जां नशीन बनाया। 9. मेराज में अपने हबीब से उन्हीं के लहजे में कलाम किया। 10. हर इस्लामी जंग में उनकी मदद की। 11. आसमान से अली (अ.स.) के लिये ज़ुल्फि़क़ार नाजि़ल फ़रमाई। 12. अली (अ.स.) को अपना नफ़्स क़रार दिया। 13. इल्मे लदुन्नि से मुम्ताज़ किया। 14. फ़ात्मा स. के साथ अक़्द का खुद हुक्म दिया। 15. मुबल्लिग़े सूरा ए बराअत बनाया। 16. मदहे अली (अ.स.) में कसीर (काफ़ी तादाद में) आयात नाजि़ल फ़रमाईं। 17. अली (अ.स.) ने इन्तेहाई सबरो ज़ब्त दे कर रसूल स. के बाद फ़ौरी तलवार उठाने से रोका। 18. उनकी नस्ल से क़यामत तक के लिये इमामत क़रार दी। 19. क़सीम अल नारो जन्नतः बनाया (जन्नत और दौज़ख़ को बांटने वाला)। 20. लवाएल हम्द का मालिक बनाया। 21. और साकि़ये कौसर क़रार दिया।

 

अली (अ.स.) की शान में मशहूर आयात 1. आयए तत्हीर 2. आयए सालेह अल मोमेनीन 3. आयए विलायत 4. आयए मुबाहेला 5. आयए नजवा 6. इज़्ने वायता 7. आयए अतआम 8. आयए बल्लिग़, तफ़सील के मुलाहेज़ा हों  रूह अल क़ुरआन,   मोअल्लेफ़ा हक़ीर लाहौर में छपा।

 

हज़रत अली (अ.स.) रसूले ख़ुदा की निगाह में

1. फ़ख़रे मौजूदात हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. ने अली (अ.स.) के काबा में पैदा होते ही मुँह में अपनी ज़बान दी।

2. अली (अ.स.) को अपना लोआबे दहन चूसाया।

3. परवरिश व परदाख़्त खुद की।

4. दावते ज़ुलअशीरा के मौक़े पर जब कि अली (अ.स.) की उम्र 10 या 14 साल की थी।

5. दामादी का शरफ़ बख़्शा।

6. बुत शिकनी के वक़्त अली (अ.स.) को अपने कन्धों पर सवार किया।

7. जंगे खन्दक़ में आपके कुल्ले ईमान होने की तस्दीक़ की।

8. इल्मो हिक्मत से बहरा वर किया।

9. अमीरूल मोमेनीन का खि़ताब दिया।

10. आपकी मोहब्बत ईमान और आपका बुग़्ज़ कुफ्र क़रार दिया।

11. अली (अ.स.) को अपना नफ़्स क़रार दिया।

12. शबे हिजरत आपने अपने बिस्तर पर जगह दी।

13. आप पर भरोसा कर के फ़रमाया कि अमानतें वग़ैरा तुम अदा करना।

14. अली (अ.स.) को मख़सूस क़रार दिया कि वह ग़ार मे खाना पहुँचाएं।

15. 18 जि़ल्हिज को आपकी खि़लाफ़त का 1,24,000 (एक लाख चैबीस हज़ार) असहाब के मजमे में ग़दीर ख़ुम के मक़ाम पर एलान फ़रमाया।

16. वफ़ात के करीब जांनशीनी की दस्तावेज़ लिखने की कोशिश की।

17. आपकी मदहो सना में बेशुमार अहादीस फ़रमाईं।

18. आपको हुक्म दिया कि मेरे बाद फ़ौरी जंग न करना।

19. मौक़ा हाथ आने पर मुनाफि़क़ों से जंग करना ताके हुक्मे खुदा जाहद अल कुफ़्फ़ा रवल मुनाफ़ेक़ीन की तकमील हो सके जो कि मेरे लिये है।

 

अली (अ.स.) की शान में मशहूर अहादीस

1. हदीसे मदीने, 2. हदीसे सफ़ीना, 3. हदीसे नूर, 4. हदीसे मन्जि़लत 5. हदीसे ख़ैबर 6. हदसे खन्दक़, 7. हदीसे तैर, 8. हदीसे सक़लैन, 9. हदीसे ग़दीर।

(तफ़सील के लिये अब्क़ातुल अनवार मुलाहेज़ा हो)

 

नक़्शे ख़ातमे रसूल स. और अली वली अल्लाह इमामुल मोहद्देसीन अल्लामा मौहम्मद बाक़र मजलिसी, अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी, अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी तहरीर फ़रमाते हैं कि रसूले करीम स. हज़रत अली (अ.स.) को एक नगीना दे कर मोहर कुन (नगीने पर नक़्श बनाने वाले) के पास जो अंगूठियों के नगीनों पर कन्दा करता था भेजा और फ़रमाया कि इस पर मौहम्मद बिन अब्दुल्ला कन्दा करा लाओ। हज़रत अली (अ.स.) ने उसे कन्दा करने वाले को दे कर इरशादे रसूल स. के मुताबिक़ हिदायत कर दी। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) जब शाम के वक़्त उसे लाने के लिये गये तो उस पर मौहम्मद बिन अब्दुल्ला के बजाय मौहम्मद रसूल अल्लाह कन्दा था। हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने जो इबारत बताई थी तुमने वह क्यो न कन्दा की। कन्दा करने वाले ने अर्ज़ की मौला, आप इसे हुज़ूर के पास ले जाइये फिर वह जैसा इरशाद फ़रमाऐगें वैसा किया जाऐगा। हज़रत ने उसे क़ुबूल फ़रमा लिया। रात गुज़री, सुबह के वक़्त वजू़ करते हुए देखा कि इस पर मौहम्मद रसूल अल्लाह स. के नीचे अली वली अल्लाह कन्दा है। आप इस पर ग़ौर फ़रमा रहे थे कि जिब्राईल अमीन ने हाजि़र हो कर अर्ज़ कि हुज़ूर फ़रमाया गया है कि ऐ नबी।  जो तुमने चाहा तुमने लिखवाया, जो मैने चाहा मैंने लिखवा दिया। तुम्हें इसमें तरदुद क्या है।

(बेहारूल अनवार, दमए साकेबा, सफ़ीनतुल बेहार, लिल्द 1 पेज न. 376 नजफ़े अशरफ़ में छपी)

 

नियाबते रसूल (स.अ.व.व)

हर अक़्ले सलीम यह करने पर मजबूर है कि मनीब व मनाब में तवाफ़ुक़ होना चाहिये। यानी जो सिफ़ात नाएब बनाने वाले में हो, उसी कि़स्म की सिफ़तें नाएब बनने वाले में भी होनी चाहिये। अगर नाएब बनाने वाला नूर से पैदा हो तो जां नशीन को भी नूरी होना चाहिये। अगर वह मासूम हो तो, उसे भी मासूम होना चाहिये। अगर उसे ख़ुदा ने बनाया हो तो, उसे भी ख़ुदा के हुक्म से ही बनाया गया हो। हज़रत अली (अ.स.) हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा के जां नशीन थे, लिहाज़ा उनमें नब्वी का सिफ़ात का होना ज़रूरी था। यही वजह है कि जिन सिफ़ात के हामिल सरवरे कायनात थे, उन्हीं सिफ़ात से हज़रत अली (अ.स.) भी बहरावर थे।

 

जानशीन बनाने का हक़ सिर्फ़ ख़ुदा को है क़ुरआने मजीद के पारा 20, रूकू 7 - 10 में ब सराहत मौजूद है कि ख़लीफ़ा और जानशीन बनाने का हक़ सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे करीम को है। यही वजह है कि उसने तमाम अम्बिया का तक़र्रूर खुद किया और उनके जांनशीन को खुद मुक़र्रर कराया, अपने किसी नबी तक को यह हक़ नहीं दिया विह बतौर खुद अपना जांनशीन मुक़र्रर कर दे। न कि उम्मत को इख़्तेयार देना कि इजमा से काम ले कर मन्सबे इलाहिया पर किसी को फ़ाएज़ कर दे। और यह हो भी नहीं सकता था क्योंकि तमाम उम्मत ख़ताकार है। ख़ताकारों का इजमा न सवाब बन सकता है और न खातियों का मजमूआ मासूम हो सकता है और जांनशीने रसूल स. का मासूम होना इस लिये ज़रूरी है कि रसूल मासूम थे। यही वजह है कि खुदा ने रसूले करीम स. का जांनशीन हज़रत अली (अ.स.) और उनकी 11 (ग्यारह) औलाद को मुक़र्रर फ़रमाया। (नियाबुल मोअद्दता पेज न. 93) जिसकी संगे बुनियाद दावते ज़ुलअशीरा के मौक़े पर रखा और आयते विलायत और वाकि़ए तबूक़ (सही मुस्लिम जिल्द 2 पेज न. 272) से इस्तेहकाम पैदा किया। फिर इज़ा फ़रग़ता फ़ननसब से हुक्मे निफ़ाज़ का फ़रमान जारी फ़रमाया और आयए बल्लिग़ के ज़रिये से ऐलाने आम का हुक्म नाफि़ज़ फ़रमाया।

चुनांचे रसूले करीम स. ने यौमे जुमा 18 जि़ल्हिज्जा 10 हिजरी को बामुक़ामे ग़दीर ख़ुम एक लाख चैबीस हज़ार (1,24,000) असहाब की मौजूदगी में हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त का ऐलाने आम फ़रमाया। (रौज़ातुल सफ़ा जिल्द 2 पेज न. 215) में है कि मजमे को एक जगह पर जमा करने के लिये जो ऐलान हुआ था वह हय्या अला ख़ैरिल अमल के ज़रिये से हुआ था। कुतुबे तवारीख़ व अहादीस में मौजूद है कि इस ऐलान पर हज़रत उमर ने भी मुबारक बाद अदा की थी जिसकी तफ़सील बाब 1 में गुज़री।

 

18 जि़ल्हिज्जा अल्लामा जलाल उद्दीन सियोती ने लिखा है कि हज़रत उमर ने इस तारीख़ को यौमे ईद क़रार दिया है। रईसुल उलेमा हज़रत अल्लामा बहावुद्दीन आमेली तहरीर फ़रमाते हैं कि सरवरे कायनात स. की विलादत से 4 साल बाद 18 जि़ल्हिज्जा 10 हिजरी को हज़रत अली (अ.स.) की जांनशीनी अमल में आई और आपके इमाम अल इन्सो जिन होने का ऐलान किया गया और इसी तारीख़ 34 हिजरी में हज़रते उस्मान क़त्ल हुए और हज़रत अली (अ.स.) की बैअत की गई। इसी तारीख़ हज़रते मूसा (अ.स.) साहिरों पर ग़ालिब आये और हज़रते इब्राहीम (अ.स.) को आग से नजात मिली और इसी तारीख़ को हज़रते मूसा (अ.स.) ने जनाबे यूशा इब्ने नून को, हज़रते सुलैमान ने जनाबे आसिफ़ इब्ने बरखि़या को अपना जांनशीन मुक़र्रर किया और इसी तारीख़ को तमाम अम्बिया ने अपने जांनशीन मुक़र्रर फ़रमाए।

(जामेए अब्बासी या नज़द वबाबी पेज न. 58, 1914 ई0 देहली में छपा व इख़्तेयारात मजलिसी रहमतउल्लाह इलैह)

 

दस्तावेज़े खि़लाफ़त

सरवरे कायनात स. ने इब्तेदाए इस्लाम से ले कर जि़न्दगी के आखि़री दिनों तक हज़रत अली (अ.स.) की जांनशीनी का बार बार मुख़तलिफ़ अन्दाज़ व उन्वान से ऐलान करने के बाद वफ़ात के वक़्त यह चाहा कि उसे दस्तावेज़ी शक्ल दे दें लेकिन हज़रत उमर ने बनी बनाई इस्कीम के तहत रसूले करीम स. को कामयाब न होने दिया और उनके आखि़री फ़रमान (क़लम दवात की तलबी) को बकवास और हिज़यान से ताबीर कर के उन्हें मायूस कर दिया जिसके मुताअल्लिक़ आपका ख़ुद बयान है कि जब आं हज़रत स. ने वक़्ते आखि़र मरज़ुल मौत में हक़ को छोड़ कर बातिल की तरफ़ जाना चाहा ताके अली (अ.स.) की सराहत कर दें तो ख़ुदा की क़सम मैंने आं हज़रत स. को मना कर दिया और आं हज़रत स. अली (अ.स.) के नाम को तहरीरन ज़ाहिर न कर सके।

(तारीख़े बग़दाद व शरह इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 1 पेज न. 51 तेहरान में छपी)

 

इमामें ग़ज़ाली फ़रमाते हैं कि रसूल अल्लाह स. ने अपनी वफ़ात से पहले असहाब से कहा कि मुझे क़लम दवात और काग़ज़ दे दो। ला ज़ैल अनकुम इशक़ाल अल मरज़ा जि़क्र लकुम मिनल मुस्तहक़ बादी क़ाला उमरा औ अल रजल फ़ाना लेहजर ताके मैं तुम्हारे लिये इमारत व खि़लाफ़त की मुश्किलात को तहरीरन दूर कर दूँ कि मेरे बाद इमारत व खि़लाफ़त का मुस्तहक़ कौन है। मगर हज़रत उमर ने उस वक़्त यह कह दिया कि इस मर्द को छोड़ दो यह हिज़यान बक रहा है और बकवास कर रहा है। (माअज़ अल्लाह)

मुलाहेज़ा हो:-

(सेराआलेमीन बम्बई में छपी, पेज न. 9, सतर 15 किताब अल शिफ़ा, काज़ी अयाज़, बरेली में छपी, पेज न. 308 व नसीम अल रियाज़ शरह शिफ़ा, शरह मिश्क़ात, मोहद्दिस देहलवी व मदारिजे नबूवत, हबीब अल सैर जिल्द 1 पेज न. 144, रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पेज न. 550, बुखा़री जिल्द 6 पेज न. 656, अल फ़ारूक़ जिल्द 2 पेज न. 48)

 

ख़लीफ़ा का तक़र्रूर और तवारीख़े फ़रहंग मोअर्रेख़ीने इस्लाम के अलावा मोअर्रेख़ीने फि़रहंग (अंग्रेज़ इतिहासकारों) ने भी हज़रत अली (अ.स.) इस्तेहक़ाक़े खि़लाफ़त और नुमायां तौर पर ख़लीफ़ा मुक़र्रर किये जाने पर मुकम्मल रौशनी डाली है।

हम इस मौक़े पर मिस्टर डीवन पौर्ट की तहरीर का तरजुमा पेश करते हैं। इन दोनों फि़रक़ों सुन्नी और शिया में से एक ने मौहम्मद के चचा जा़द भाई और दामाद अली से जैसा कि मुक़तज़ाए इन्साफ़ व हमियत है तो ला रखा है क्योंकि आंहज़रत ऐलानिया तौर पर उनसे मोहब्बत व उल्फ़त रखते थे और कई बाद उनको अपना ख़लीफ़ा भी ज़ाहिर किया था। ख़ुसूसन दो मौक़ों पर एक जब आंहज़रत स. ने अपने घर में बनी हाशिम की दावत की थी और अली (अ.स.) ने कुफ़्फ़ार के मज़ाक उड़ाने और तौहीन करने के बावजूद अपना ईमान ज़ाहिर किया था। हज़रत ने अपनी बाहें उस जवान के गले में डाल कर छाती से लगाया और बाआवाज़े बलन्द कहा, देखो मेरे भाई, मेरे वसी और मेरे ख़लीफ़ा को।

दूसरे जब आं हज़रत ने अपने इन्तेक़ाल से कुछ महीने पहले ख़ुतबा पढ़ा था। बा हुक्मे ख़ुदा जिसको जिब्राईल आं हज़रत के पास लाये थे और यूं कहा था कि ऐ पैग़म्बर मैं ख़ुदा की तरफ़ से आप पर सलवात व रहमत लाया हूँ और इसका हुक्म आपके पैरवांे के नाम जिनको आप बग़ैर ताख़ीर के सुना दीजिये और शरीरों से कोई ख़ौफ़ न कीजिये। ख़ुदा आपको उनके शर से बचाएगा। ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ आंहज़रत ने अनस से कहा कि लोगों को जमा करें जिसमें आंहज़रत के पैरव व यहूदी व नसरानी व मुख़तलिफ़ बाशिन्दे भी हाजि़र हों। यह जीमयत एक गांव के पास जमा हुई जिसे ग़दीरे ख़ुम कहते हैं जो नवाह शहर हजफ़ा में मक्के और मदीने के बीच मे है। पहले इस मक़ाम को साफ़ किया गया और 2 अप्रैल 626 ई0 को आंहज़रत एक ऊंचे मिम्बर पर गये जो वहां उनके लिये तय्यार किया गया था और जब कि हाज़ेरीन निहायत तवज्जोह से सुनते थे। एक ख़ुतबा हज़रत ने बड़ी शानो शौकत और फ़साहत व बलाग़त से पढ़ा, जिसका खुलासा यह है:-

तमाम हम्दो सना उस खुदाए यकता के लिये हैं जिसके कोई देख नहीं सकता। उसका इल्म माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल को शामिल है और उसको इन्सानों के कुल पोशीदा इसरार मालूम हैं क्यों कि उस से कोई चीज़ पोशीदा नहीं रह सकती। वह बेइन्तेहां बईद और बिल्कुल क़रीब है। वही वह है जिसने आसमानों ज़मीन और उसके दरमियान की तमाम चीज़ों को ख़ल्क़ किया। वह ग़ैर फ़ानी है और जो कुछ है सब उसकी क़ुदरत और उसके इखि़्तयार के ताबे है। उसकी रहमत और उसका फ़ज़ल सबके शामिले हाल है। वह जो करता है मसलेहत से करता है। वह नुज़ूले अज़ाब में टाल मटोल करता है। उसका सज़ा देना रहमत से खा़ली नहीं है। उसकी ज़ात का भेद मुमकिनात को मालूम नहीं हो सकता। आफ़ताब (सूरज) व महताब (चाँद) और बाक़ी अजरामे समावी (नक्षत्र) उसी के इल्म से अपनी राह पर जो उसी ने मुक़र्रर कर दी है चलते हैं। बाद हम्दे ख़ुदा वाज़े हो के मैं ख़ुदा का सिर्फ़ एक बन्दा हूं। मुझे ख़ुदा का हुक्म हुआ है और मैं उसकी तामील में सरे नियाज़ बा कमाले अदब व ख़ुज़ू झुकाता हूँ। सुनो तीन बार जिब्राईल मेरे पास आ चुके हैं और तीनों दफ़ा उन्होंने मुझे हुक्म दिया है कि मैं अपने तमाम पैरवों से ख़्वाह वह गोरे हों या काले यह ज़ाहिर कर दूँ कि अली (अ.स.) मेरे खलीफ़ा और मेरे वसी और तमाम उम्मत के इमाम हैं और मेरे गोश्त व पोस्त हैं और मेरे ऐसे हैं जैसे मूसा के हारून थे और मेरी वफ़ात के बाद वही तुम्हारी हिदायत करेंगे और हादी होंगे। जब मैं इस दुनिया से रेहलत कर जाऊं तो मेरे पैरवों को उनकी फ़रमा बरदारी ऐसी करनी चाहिये जैसे इताअत मेरी करते थे जब कि मैं तुम में मौजूद था।

सुनो ! जिसने अली (अ.स.) की नाफ़रमानी की उसने दर हक़ीक़त ख़ुदा और रसूल स. की नाफ़रमानी की, ऐ दोस्तों, यह ख़ुदा के अहकाम हैं। सब वहीयां (जिब्राईल के ज़रिये ख़ुदा के भेजे हुए सारे पैग़ामात) जो वक़्तन फ़ावक़्तन मुझ पर आई हैं अली (अ.स.) ने मुझ से सीख ली हैं। जो अली (अ.स.) का हुक्म न मानेगा उसके सर पर अल्लाह की दाएमी लानत ज़रूर रहेगी।

ख़ुदा ने क़ुरआन की हर सूरत में अली (अ.स.) की तारीफ़ की है मैं दोबारा कहता हूँ कि अली मेरे चचा ज़ाद भाई और मेरे गोश्त और ख़ून हैं और ख़ुदा ने उनको निहायत नादिर ख़ूबियां अता की हैं। अली (अ.स.) के बाद उनके बेटे हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) उनके जांनशीन होंगे। इस ख़ुतबे के तमाम होने पर अबू बक्र, उमर, उस्मान, अबू सुफि़यान और दूसरे लोगों ने अली (अ.स.) के हाथ चूमे और उनको रसूल स. के ख़लीफ़ा मुक़र्रर होने की मुबारक बाद दी और इक़रार किया कि उनके कुल अहकाम को सच्चे तौर पर बजा लाऐंगे।

622 ई0 में सिर्फ़ तीन दिन पहले अपने इन्तेक़ाल से आंहज़रत स. ने फिर अपने ताबेईन को इन अक़ीदों की मज़ीद ताक़ीद कर दी और इस बात पर ज़ोर दिया कि आप की आल से ख़ुसूसियत के साथ मोहब्बत रखें और उनकी इज़्ज़तों तौक़ीर करें। आपने बड़े शद्दो मद से यूँ फ़रमाया कि जो मुझको मौला मानता हो वह अली (अ.स.) को भी मौला समझे, अल्लाह ताईद करे उसकी जो दोस्ती रखे अली (अ.स.) से और ग़ज़बनाक हो उस पर जो उनका दुश्मन हो। ऐसे मुक़र्रर और मुसर्रह बयानात से जो खुद रसूल स. के लबों से अदा हुए थे एक वक़्त तो अमरे खि़लाफ़त से शको शुब्हा बिल्कुल दूर रहा मगर आखि़र में सब को मायूसी हो गई क्यों कि अबू बकर की बेटी और आं हज़रत स. की दूसरी ज़ौजा (पत्नी) आयशा ने साज़ बाज़ कर के अपने बाप को पहला ख़लीफ़ा लोगों से मुक़र्रर करा लिया। मलकुल मौत के इन्तिज़ार में आं हज़रत का आयशा के हुजरे में जाना चाहे आपकी मरज़ी से हो या बीबी आयशा के हुक्म से ख़ास कर के उनके मुफ़ीद मतलब बात हो गई कि आं हज़रत का हुक्म दोबारा खि़लाफ़ते अली (अ.स.) लोगों के कानों तक न पहुंचने पाए। बस अल्ल उमूम यह समझा गया कि रसूल स. बग़ैर अपने ख़लीफ़ा के मुताअल्लिक़ आखि़री वसीयत किए हुए इन्तेक़ाल किया और इस तरह यह बात हुई कि तीनों ख़लीफ़ाओं ने राज किया। इससे पहले कि अली (अ.स.) अपने हक़ को पहुँचें जिसका वह मुकम्मल इस्तेहक़़ाक़ रखते थे न सिर्फ़ बा लिहाज़े क़राबत व ज़ौजियत फ़ात्मा दुख़्तरे रसूल स. बल्कि बा लिहाज़ उन बेशुमार और बड़ी खि़दमतों के जो उन्होंने इस्लाम कीं, हो सकता है कि बीबी आयशा ने अपने बाप की लड़की होने की वजह से उनकी यह खि़दमत की हो कि, उन्हें ख़लीफ़ा बना दिया जाए लेकिन सही यह है कि आयशा को अली (अ.स.) की तरफ़ से पुराना बुग़ज़ व कीना था जो वाक़ए अफ़क़ के मौक़े पर पैदा हो गया था क्यों कि उस मौक़े पर अली (अ.स.) ने राय पेश की थी कि बीबी आयशा की तहक़ीक़ात कराई जाय। बीबी आयशा इस बात को कभी न भूलीं और उन्होंने दरगुज़र नहीं किया, बल्कि अली (अ.स.) को सताया और ऐसा इन्तेक़ाम लिया जो इस्लाम में अपनी आप नज़ीर है।

(किताबे खि़लाफ़त मन्क़ूल अज़ तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 पेज न. 25)

आनरएबिल मिस्टर टायलर ने अपनी किताब में लिखा है कि मौहम्मद स. ने ख़ुद अपने दामाद अली (अ.स.) को अपना ख़लीफ़ा और जांनशीन कर दिया था लेकिन आपके ससुर अबु बकर ने लोगों को अपनी साजि़श में ले कर खि़लाफ़त पर क़ब्ज़ा कर लिया। (मुलाहेज़ा हो एलीमेंट्स आफ़ जनरल हिस्टीª पेज न. 249, 1851 ई0 में छपा)

इन्साईक्लोपीडिया बरटानिका में है कि, रसूल स. के बाद इस्लाम की सरदारी का दावा अली (अ.स.) को ज़्यादा मुनासिब मालूम होता था। मिस्टर टरयो ने लिखा है कि अगर क़राबत (नज़दीकी) की वजह से तख़्त नशीनी का उसूल अली (अ.स.) के मोअल्लिफ़ माना जाता तो वह बरबाद कुन झगड़े पैदा न होते जिन्होंने इस्लाम को मुसलमानों के ख़ून में डूबो दिया। (स्प्रिट आफ़ इस्लाम मिस्टर सडीवाज़ तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 पेज न. 201)

 

हज़रत अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल

अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल क़लमबन्द करना इन्सान की ताक़त के बाहर है। ख़ुद सरवरे कायनात स. ने इसके मोहाल होने पर नस फ़रमा दी है। आपका इरशाद है कि, अगर तमाम दुनिया के दरिया, समन्दर सियाही बन जायें और दरख़्त क़लम हो जायें और जिन्नो इन्स लिखने और हिसाब करने वाले हों तब भी अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के मुकम्मल फ़ज़ाएल नहीं लिखे जा सकते। (कशफ़ुल गम्मा पेज न. 53 व अर हज्जुल मतालिब) उलेमाए इस्लाम ने भी अकसरियत फ़ज़ाएल का एतेराफ़ किया है और अकसर ने अहातए फ़ज़ाएल से आजेज़ी ज़ाहिर की है। अल्लामा अब्दुल बर ने किताब इस्तियाब जिल्द 2 के पेज न. 478 पर तहरीर फ़रमाया है फ़ज़ाएले ला यूहीत बहा किताब आपके फ़ज़ाएल किसी एक किताब में जमा नहीं किए जा सकते। अल्लामा इब्ने हजरे मक्की सवाएक़े मोहर्रेक़ा और मंज मकीया में लिखते हैं कि मनाकि़बे अली व फ़ज़ाएल अकसर मिन अन तुहसा हज़रत अली (अ.स.) के मनाकि़ब व फ़ज़ाएल हद्दे एहसा से बाहर हैं और सवाएक़ पेज न. 72 पर फ़रमाते हैं कि, फ़ज़ाएले अली वही क़सीरह, अज़ीताह मशाएतः हत्ता क़ाला अहमद वमा जा लाहद मिनल फ़ज़ाएल माजल अली बे शुमार हैं, बेश बहा हैं, और मशहूर हैं। अहमद इब्ने हम्बल का कहना है कि, अली (अ.स.) के लिये जितने फ़ज़ाएल व मनाकि़ब मौजद हैं किसी के लिये नहीं हैं। क़ाज़ी इस्माईल, इमामे निसाई और अबू अली नैशापूरी का कहना है कि किसी सहाबी की शान में उम्दा सनदों के साथ वह फ़ज़ाएल वारिद नहीं हुए जो हज़रत अली (अ.स.) की शान में वारिद हुए हैं। अल्लामा मौहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई तहरीर फ़रमाते हैं कि अली (अ.स.) के जो फ़ज़ाएल हैं वह किसी और को नसीब नहीं। रसूल अल्लाह ने आपको आयतुल हुदा, मनारूल ईमान और इमाम अल औलिया फ़रमाया है और इरशाद किया है कि अली का दोस्त मेरा दोस्त है और अली का दुश्मन मेरा दुश्मन है। (मतालेबुल सेवेल पेज न. 57) अल्लामा हजर लिखते हैं कि क़ुरआन मजीद में जहां या अय्योहल लज़ीना आमेनू आया है वहां ईमान दारों से मुराद लिये जाने वालों में अली (अ.स.) का दरजा सबसे पहला है। क़ुरआने मजीद में मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर असहाब की मज़म्मत आई है लेकिन हज़रत अली (अ.स.) के लिये जब भी जि़क्र आया है ख़ैर के साथ आया है और अली (अ.स.) की शान में कु़रआने मजीद की तीन सौ (300) आयतें नाजि़ल हुई हैं। (सवाएके़ मोहर्रेक़ा पेज न. 76 मिस्र में छपी) यही वजह है कि इमाम अल इन्स वल जिन हज़रत अली (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं, इस उम्मत में किसी एक का भी भीक़्यास और मुक़ाबेला आले मौहम्मद स. से नहीं किया जा सकता और इन लोगों की बराबरी जिनको बराबर नेमतें दी गईं उन अफ़राद से नही की जा सकती जो नेमत देने वाले थे और नेमतें देते रहे। आले रसूल स. दीन की निव और यक़ीन के खम्बे हैं। (सल सबीले फ़साहत तरजुमा नहजुल बलाग़ा पेज न. 27) बे शक हुज़ूरे विलायत का यह फ़रमान बिलकुल दुरूस्त है कि आले मौहम्मद स. की बराबरी नहीं की जा सकती क्यों कि हुज़ूर रसूले करीम स. ने इरशाद फ़रमा दिया है कि मेरी आल मेरे अलावा सारी कायनात से बेहतर और अफ़ज़ल है और हदीसे कफ़ो फ़ात्मा स. ने इसकी वज़ाहत कर दी कि आले रसूल स. का दरजा अम्बिया से बाला तर है। इन्हीं हज़रात की मोहब्बत का हुक्म ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में दिया है और उनकी मोहब्बत से सवाल किया जाना मुसल्लम है। इनके लिये दुनिया की मस्जिदें अपने घर के मानिन्द हैं। (दुरेमन्शर व मतालेबुल सवेल पेज न. 59) अहले बैत में हज़रत अली (अ.स.) का पहला दरजा है, और यह मानी हुई बात है कि जो फ़ज़ीलत अली (अ.स.) की है इसमें तमाम आइम्मा मुशतरक हैं। आपको ख़ुदा ने क़सीमे नारो जन्नत बनाया है। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा पेज न. 73) आपके हुक्म के बग़ैर कोई जन्नत में नही लेजा सकता। अल्लामा हजरे मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत अबू बकर ने इरशाद फ़रमाया है कि मैंने रसूल अल्लाह स. को यह कहते सुना है कि, कोई शख़्स भी सिरात पर से गुज़र कर जन्नत में जा न सकेगा जब तक अली (अ.स.) का दिया हुआ परवानाए जन्नत उसके पास न होगा। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा पेज न. 75 मिस्र में छपी) आपको हक़ के साथ और हक़ को आपके साथ होने की बशारत दी र्गइं है। आपको रसूले अकरम स. ने मवाख़ात के मौक़े पर अपना भाई क़रार दिया है। आपके लिये दो बार आफ़ताब पलटा, शवाहेदुन नबूवत पेज न. 87 में है कि जंगे ख़ैबर के सिलसिले में सहाबा के मक़ाम पर (वही) का नज़ूल होने लगा और सरे मुबारके रसूल स. अली (अ.स.) के ज़ानू पर था और आफ़ताब ग़ुरूब हो गया था उस वक़्त आपने अली (अ.स.) को हुक्म दिया कि आफ़ताब को पलटा कर नमाज़ अदा करें चुनांचे आफ़ताब डूबने के बाद पलटा और अली (अ.स.) ने नमाज़ अदा की। इसी किताब के पेज न. 176 पर और किताब सफ़ीनातुल बिहार जिल्द 1 पेज न. 57 व मजमुए बैहरैन पेज न. 232 में है कि वफ़ाते रसूल स. के बाद हज़रत अली (अ.स.) बाबुल जाते वक़्त जब फ़रात के क़रीब पहुँचे तो असहाब की नमाज़े अस्र क़ज़ा हो गई, आपने आफ़ताब को हुक्म दिया कि पलट आए चुनांचे वह पलटा और असहाब ने नमाज़े अस्र अदा की। नसीमुल रियाज़, शरह शिफ़ा क़ाज़ी अयाज़ वगै़रह में है कि एक मरतबा आपका एक ज़ाकिर आपके जि़क्र में मशग़ूल था कि नमाज़े अस्र क़ज़ा हो गई, उसने कहा कि ऐ आफ़ताब पलट आ कि मैं उसका जि़क्र कर रहा हूँ जिसके लिये तू दो बार पलट चुका है चुनांचे आफ़ताब पलटा और उसने नमाज़े अस्र अदा की। शवाहेदुन नबूवत के पेज न. 219 में है कि अली (अ.स.) मुजस्सम हक़ थे और उनकी ज़बान पर हक़ ही जारी होता था। इमामे शाफ़ेई इरशाद फ़रमाते थे जो मुसलमान अपनी नमाज़ में उन पर दुरूद न भेजे उसकी नमाज़ सही नहीं है।

 

मौलाना ज़फ़र अली खा़ँ का एक शेर और उसकी रद

मौलाना ज़फ़र अली खा़ँ मरहूम एडीटर ज़मींदार लाहौर का एक अजीबो ग़रीब शेर एक दरसी किताब (हमार्री उदू) मुसन्नेफ़ा हारून रशीद में हमारी नज़र से गुज़रा शेर यह है।

हैं किरनें एक ही मशल की अबु बक्रो, उमर उस्मानो अली।

हम मरतबा हैं, याराने नबी, कुछ फ़कऱ् नहीं इन चारों में।।

इस शेर में अगर मशल से मुराद नबी स. की ज़ात ली गई है तो असहाब का उनकी किरन होना इन्तेहाई बईद है क्यों कि वह नूरी और जौहरी थे और यह माद्दी हैं। वह मुजस्सम ईमान थे और उन लोगों ने 38, 39, 40 साल कुफ़्र में गुज़ारे हैं। उन्होंने कभी बुत परस्ती नहीं की और उन्होंने अपने उम्र के बड़े हिस्से बुत परस्ती में गुज़ार कर इस्लाम क़ुबूल किया था औश्र अगर मशअल से मुराद नबूवत ली गई है और उसकी किरने उनकी इमामत और खि़लाफ़त को क़रार दिया है तो यह भी दुरूस्त नही है क्यो कि रसूल स. की नबूवत मिन जानिब अल्लाह थी और उनकी खि़लाफ़त की बुनियाद इज्माए नाकि़स पर क़ायम हुई थी। इस शेर के दूसरे मिस्रे में चारों को हम मरतबा कहा गया है और रसूल स. का यार बताया गया है। हो सकता है कि तीनों हज़रात रसूल स. के यार रहे हों लेकिन हज़रत अली (अ.स.) हरगिज़ रसूल स. के यार नहीं थे बल्कि दामाद और भाई थे। अब रह गया चारांे का हम मरतबा होना यह तो हो सकता है कि तीनों हम मरतबा हों और था भी कि तीनों हज़रात हर हैसियत से एक दूसरे के बराबर थे लेकिन हज़रत अली (अ.स.) का उनके बराबर होना यह उनका आपके हम मरतबा होना समझ से बाहर है क्यों कि यह चालीस साल बुत परस्ती के बाद मुसलमान हुए थे और अली (अ.स.) पैदा ही मोमिन और मुसलमान हुए। इन लोगों ने मुद्दतों बुत परस्ती की और अली (अ.स.) ने एक सेकेण्ड भी बुत नहीं पूजा। इसी लिये  करम अल्लाहो वजहा  कहा जाता है। यह फ़ात्मा स. के शौहर थे। इनमें से किसी को यह शरफ़ नसीब नहीं हुआ। वह लोग आम इन्सानों की तरह ख़ल्क़ हुए और अली मिसले नबी स. नूर से पैदा हुये। इसके अलावा खुद ख़ुदा वन्दे आलम ने अली (अ.स.) के अफ़ज़ल ही होने की नहीं बल्कि बेमिस्ल होने की नस (सनद) फ़रमा दी है। मुलाहेज़ा हों:-

(अहया अल उलूम, ग़ज़ाली सफ़सीर साअल्बी व तफ़सीरे कबीर जिल्द 2 पेज न. 283)

 

इमाम फ़ख़रूद्दीन राज़ी ने हज़रत अली (अ.स.) को अम्बिया के बराबर और तमाम सहाबा से अफ़ज़ल तहरीर किया है।

(अरबईन फ़ी उसूल अल दीन, दारे हज अल मतालिब, पेज न. 455)

सरवरे कायनात स. ने अली (अ.स.) को अपनी नज़ीर बताया है।

(अरजहुल मतालिब पेज न. 454)

इन्ही ख़ुसूसीयात की बिना पर अली (अ.स.) को मेयारे ईमान क़रार दिया गया है।

अल्लामा तिरमिज़ी और इमामे नेसाई ने बुग़ज़े अली (अ.स.) से मुनाफि़क़ को पहचानने का उसूल बताया है और बाज़ ने अफ़ज़लियते अली (अ.स.) पर एतेक़ाद ज़रूरी क़रार दिया है और अल्लामा अब्दुल बर ने एस्तेयाब में सहाबा, ताबईन वग़ैरा की फ़ेहरिस्त पेश की है जो अली (अ.स.) को अफ़ज़ल सहाबा मानते थे और शायद इसकी वजह यह होगी कि तमाम लोग जानते थे कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अली (अ.स.) के सिवा किसी के क़ल्ब को ईमान की कसौटी पर नहीं कसा। (एज़ालतुल ख़फ़ा जिल्द 2 पेज न. 256)

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की इल्मी हैसियत

हज़रत अली (अ.स.) का नफ़्से अल्लाह होना मुसल्लेमात से है और अल्लाह उस वाजेबुल वुजूद ज़ात को कहते हैं जो इल्म व क़ुदरत से इबारत है। यह ज़ाहिर है कि जो नफ़्से अल्लाह होगा उसे फि़तरतन तमाम उलूम से बहरावर होना चाहिये। हज़रत अली (अ.स.) के लिये यह मानी हुई चीज़ है कि आप दुनिया के तमाम उलूम से सिर्फ़ वाकि़फ़ ही नहीं बल्कि उनमें महारत रखते थे और इल्में लदुन्नी से भी माला माल थे। तमाम उलूम के बारे में आपके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। इमामे शबलन्जी लिखते हैः आपके इल्मों फ़हम वग़ैरा के लिये बहुत सी जिल्दें दरकार हैं। मौहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि इमाम अली

 

मुफ़स्सेरीन जनाब इब्ने अब्बास का कहना है कि इल्मों हिकमत के 10 (दस) दरजों मे से 9 (नौ) हज़रत अली (अ.स.) को मिले हैं और दसवें में तमाम दुनिया के उलेमा शामिल हैं और इस दसवें दरजे में भी अली (अ.स.) को अव्वल नम्बर हासिल है। अबुल फि़दा कहते हैं कि हज़रत इल्म अल नास बिल क़ुरआन वल सन्न थे, यानी तुम लोगों से ज़्यादा उन्हें क़ुरआन व हदीस का इल्म था। ख़ुद सरवरे कायनात स. ने भी आपके इल्मी मदारिज पर बार बार रौशनी डाली है। कहीं अना मदीनतुल इल्म व अलीयन बाबोहा फ़रमाया, कहीं अना दारूल हिकमते व अलीयन बाबोहा इरशाद फ़रमाया, किसी जगह पर अलम उम्मती अली इब्ने अबी तालिब कहा। हज़रत अली (अ.स.) ने ख़ुद भी इसका इज़हार किया है और बताया है कि इल्मी नुक़्ताए नज़र से मेरा दरजा क्या है। एक मक़ाम पर फ़रमाया कि रसूल अल्लाह स. ने मुझे इल्म के हज़ार बाब (अध्याय) तालीम फ़रमाये हैं और मैंने हर बाब से हज़ार बाब (अध्याय) पैदा कर लिये हैं। एक मक़ाम पर इरशाद फ़रमाया ज़क़नी रसूल अल्लाह ज़क़न ज़क़न मुझे रसूल अल्लाह स. ने इस तरह इल्म भराया है जिस तरह कबूतर अपने बच्चे को दाना भराता है। एक मन्जि़ल पर कहा कि सलूनी क़ब्ल अन तफ़क़दूनी मेरी जि़न्दगी में जो चाहे पूछ लो वरना फिर तुम्हें इल्मी मालूमात से कोई बहरावर करने वाला न मिलेगा। एक मक़ाम पर फ़रमाया कि आसमान के बारे में मुझसे जो चाहे पूछो मुझे ज़मीन के रास्तों से ज़्यादा आस्मान के रास्तो का इल्म है। एक दिन फ़रमाया कि अगर मेरे लिये मसन्दे क़ज़ा बिछा दी जाए तो मैं तौरैत वालों को तौरैत से, इन्जील वालों को इन्जील से, ज़बूर वालों को ज़बूर से और क़ुरआन वालों को क़ुरआन से इस तरह जवाब दे सकता हूँ कि उनके उलेमा हैरान रह जायंे। एक मौक़े पर आपने इरशाद फ़रमाया कि, ख़ुदा की क़सम मुझे इल्म है कि क़ुरआन की कौन सी आयत कहां नाजि़ल हुई है, और मैं यह भी जानता हूँ कि ख़ुश्की में कौन सी नाजि़ल हुई है और तरी में कौन सी आयत नाजि़ल हुई है। कौन सी दिन में और कौन सी आयत रात में नाजि़ल हुई है। उलेमा ने लिखा है कि एक शब इब्ने अब्बास ने हज़रत अली (अ.स.) से ख़्वाहिश की कि बिस्मिल्लाह की तफ़सीर बयान फ़रमायें, आपने सारी रात तफ़सीर बयान फ़रमाई और जब सुब्ह हो गई तो फ़रमाया ऐ इब्ने अब्बास मैं इसकी तफ़सीर इतनी बयान कर सकता हूँ कि 70 ऊँटों का बार हो जाए, बस मुख़तसर यह समझ लो कि जो कुछ क़ुरआन में है वह सूरा ए हम्द में है और जो सूरा ए हम्द में है वह बिस्मिल्लाह हिर रहमार्निरहीम में है और जो बिस्मिल्लाह में है वह बाए बिस्मिल्लाह में है और जो बाए बिस्मिल्लाह में है वह नुक़्ताए बाए बिस्मिल्लाह में है। ऐ इब्ने अब्बास मैं वही नुक़्ता हूँ जो बिस्मिल्लाह की बे के नीचे दिया जाता है। शेख़ सुलैमान क़न्दूज़ी लिखते हैं कि तफ़सीरे बिस्मिल्लाह सुन कर इब्ने अब्बास ने कहा कि ख़ुदा की क़सम मेरा और तमाम सहाबा का इल्म अली (अ.स.) के मुक़ाबले में ऐसा है जैसे सात समुन्दरों के मुक़ाबले में पानी का एक क़तरा। कुमैल इब्ने ज़्याद से हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ कुमैल मेरे सीने में इल्म के ख़ज़ाने हैं काश कोई अहल मिलता कि मैं उसे तालीम कर देता।

मुहिब तबरी तहरीर फ़रमाते हैं कि सरवरे आलम स. का इरशाद है कि जो शख़्स इल्मे आदम, फ़हमे नूह, हिल्मे इब्राहीम, ज़ोहदे यहीया, सौलते मूसा को इन हज़रात समेत देखना चाहे फ़ल यन्ज़र इला अली इब्ने अबी तालिब उसे चाहिये कि वह अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के चेहरा ए अनवर को देखे। मुलाहेजा़ हों,। (नूरूल अबसार शरह मवाकि़फ़ मतालेबुल सवेल, सवाएक़े मोहर्रेक़ा, श्वाहेदुन नबूवत, अबुल फि़दा, कशफ़ुल ग़म्मा, नेयाबुल मोअद्दत, मनाकि़ब इब्ने शहरे आशोब, रियाज़ुल नज़रा, अरजहुल मतालिब, अनवारूल ग़ता) उलमाए इस्लाम के अलावा अंग्रेज़ इतिहासकारों ने भी आपके कमाले इल्मी का एतेराफ़ (मान्ना) किया है। लेखक इन्साईक्लोपीडिया बरटानिका लिखते हैं, अली (अ.स.) इल्म और अक़्ल में मश्हूर थे और अब तक कुछ संग्रह ज़रबुल मिसाल और शेरों के उनसे मन्सूब हैं, ख़सूसन मक़ालाते अली जिसका अंग्रेज़ी तरजुमा (विल्यम पोल) ने 1832 ई0 में बा मक़ाम टोंबरा छपवाया।

(मोहज़ब्बुल मोकालेमा पेज न. 104)

मिस्टर एयर विंग लिखते हैं, आप ही वह पहले ख़लीफ़ा हैं जिन्होंने उलूम व फ़ुनून की बड़ी हिमायत फ़रमाई। आपको ख़ुद भी शेर कहने का पूरा जौक़ था और आप के बहुत से हकीमाना मकूले और ज़रबुल मिसाल इस वक़्त तक लोगों के ज़बांज़द (याद) हैं और मुख़्तलिफ़ ज़बानों में उनका तरजुमा भी हो गया है।

(किताब ख़ुलफ़ाए रसूल पेज न. 178)

मिस्टर ओकली लिखते हैं, तमाम मुसलमानों में बा इत्तेफ़ाक़ अली की अक़्ल व दानाई की शोहरत है जिसको सब मानते हैं। आपके सद कलेमात अभी तक महफ़ूज़ हैं जिनका अरबी में तुरकी में तरजुमा हो गया है। इसके अलावा आपके अशआर का दीवान भी है जिसका नाम अनवारूल अक़वाल है। लोवर वर्डलीन पुस्तकालय में आपके अक़वाल की एक बड़ी किताब (नहजुल बलाग़ह) मौजूद है। आपकी मशहूर तरीन तसनीफ़ (जाफ़रो जामा) है जो एक बईदुल फ़हेम (समझ में न आने वाला) ख़त में आदादो हिन्द से (गिन्ती और निशानों) के ज़रिये से लिखा हुआ है। यह हिन्दसे उन तमाम अज़ीमुश्शान वाक़ेयात को जो इब्तेदाए इस्लाम से रहती दुनिया तक होने वाले वाक़ेयात बतलाते हैं। यह आपके ख़ानदान में है लेकिन पढ़ी नहीं जा सकती अल बत्ता इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) इसके कुछ हिस्से की तशरीह व तफ़सीर में कामयाब हो गये हैं और इसको मुकम्मल बारहवें इमाम करेंगे।

(तारीख़े अरब ओकली पेज न. 332)

मोवर्रिख़ गिबन लिखते हैं, आप वह पहले ख़लीफ़ा हैं जिन्होंने इल्मों फ़न और किताबत की परवरिश की और हिकमत से ममलू अक़वाल का एक बड़ा मजमूआ आपके नाम से मन्सूब है। आपका क़ल्ब व दिमाग़ हर शख़्स से खि़राजे तहसीन हासिल करता रहेगा। आपका क़ल्बो देमाग़ मुजस्सम नूर था। आपकी दानाई और पुर मग़ज़ नुकता संजी ज़रबुल मिसाल के ईजाद में आपकी फ़ेरासत बहुत ही आला पाए की थी।

(तारीख़े अरब पेज न. 286)

बम्बई हाई कोर्ट के जज मिस्टर अरनोल्ड, एडवोकेट जनरल एक फ़ैसले में लिखते हैं। शुजाअत, हिकमत, हिम्मत, अदालत, सख़ावत, जोहद और तक़वा में अली (अ.स.) का अदीलो नज़ीर तारीख़े आलम में कम नज़र आता है।

(लाँ रिपार्ट जिल्द 12 एजाज़ अल तन्ज़ील पेज न. 166)

 

हज़रत अली (अ.स.) की तस्नीफ़ात

उल्माए इस्लाम का इस पर इत्तेफ़ाक़ है कि इस्लाम में सब से पहले मुसन्निफ़ (लेखक) हज़रत अली (अ.स.) हैं। अल्लामा रशीद उद्दीन इब्ने शहरे आशोब किताब माआलिम अल उलेमा में और अल्लामा मौहम्मद मोहसिन सदर ने किताब अल शिया व फ़ुनूने इस्लाम में तहरीर फ़रमाया है कि, अव्वल मिन सनफ़ फि़ल इस्लाम अमीरल मोमेनीन इस्लाम मे सब से पहले हज़रत अली (अ.स.) ने तस्नीफ़ की है। आपकी किताब का नाम (किताबे अली) और जामिया था। उसूले काफ़ी किताब अल हुज्जत में है कि इस किताब में तमाम दुनिया में होने वाले वाक़ेयात व हालात लिखे हुए थे। यह भी मुसल्लम है कि सब से पहले क़ुरआन जमा करने वाले भी हज़रत अली (अ.स.) हैं। मुलाहेज़ा हों (नूरूल अबसार इमामे शबलेंजी पेज न. 73 मिस्र में छपी) किताब आयानुल शिया में अबुल आइम्मा की तालीफ़ात व तसनीफ़ात की फ़ेहरिस्त इस तरह लिखी है।

1.  कुरआने मजीद को तन्ज़ील के मुताबिक़ हज़रत अली (अ.स.) ने जमा किया इसमे असबाब व मक़ामाते नुज़ूल आया व सूर का भी जि़क्र था।

2. किताबे अली जिसमें क़ुरआने मजीद के साठ कि़स्म के उलूम का जि़क्र था।

3. किताब जामे, 4. किताब अल जफ़र 5. सहीफ़ुल फ़राएज़, 6. किताब फ़ी ज़कात अल नअम 7. किताब फि़ल अबवाब अल फि़क़ा, 8. किताब फि़ल फि़क़ा 9. मालिके अशतर के नाम तहरीरी हिदायत, 10. मौहम्मद बिन हन्फि़या के नाम वसीयत, 11. मसन्दे अली (अ.स.) लाबी अब्दुल रहमान, अहमद बिन शईब नेसाई, इन किताबों के अलावा आपका संग्रह और सहीफ़ाए अलविया और आपके अशआर का मजमूआ दीवाने अली के नाम से हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) की तरफ़ मन्सूब है। यह किताब नवाब अलाउद्दीन अहमद ख़ां बहादुर, फ़रमा रवाए लोहारो के हुक्म से 1876 ई0 में फ़ख़रूल मताबे, लाहौर में छपी थी और अब मुख़तलिफ़ मुल्कों में छप चुकी है और उसकी शरहें भी हो चुकी हैं। इन किताबों के अलावा जनाबे अमीरूल मोमेनीन का कलाम नीचे लिखी किताबों में जमा किया गया है।

1. नहजुल बलाग़ा:- इसे अल्लामा सय्यद रज़ी (अलै रहमा) ने जमा फ़रमाया है, वह 359 हिजरी मुताबिक़ 969 ई0 में पैदा हुए थे। और उनकी वफ़ात मोहर्रम 404 हिजरी मुताबिक़ 1513 ई0 में हुई है। किताब नहजुल बलाग़ा की बहुत सी शरहें लिखी गई हैं लिखने वालो में से कुछ नाम यह हैं।

1. इमामे अहले सुन्नत अज़ीज़ बिन अबु हामिद अब्दुल हमीद बिन हेयत उल्लाह बिन मौहम्मद बिन हसनैन इब्ने अबिल हदीद मदाईनी अल मुतावल्लिद 1 जि़लज्जिा 586 हिजरी मुताबिक़ 1257 ई0 बा मक़ाम बग़दाद।

2. क़वामुद्दीन युसूफ़ बिन हसन, जिनकी वफ़ात 922 हिजरी मुताबिक़ 1516 ई0।

3. मुफ़्ती मौहम्मद अब्दूह मिस्र

4. अल्लामा मौहम्मद हसन नाएल अल मरसफ़ी जिनका हाशिया है असल किताब नहजुल बलाग़ाह मिस्र के मशहूर प्रेस दारूल कुतुब अल अरबिया में छप गई है। यह चारों व्याख्याकर्ता अहले सुन्नत वल जमाअत से ताअल्लुक़ रखते हैं।

5. सय्यद अली बिन नासिर यह सय्यद रज़ी के दौर के थे सब से पहले नहजुल बलाग़ा की शरह उन्होंने ही लिखी है। उनकी शरह का नाम आलामे नहजुल बलाग़ा है।

6. अल्लामा कुतुबउद्दीन रावन्दी उनकी शरह का नाम मिनहाजुल बरअता है।

7. सय्यद इब्ने ताऊस, अबुल क़ासिम अली बिन मूसा बिन जाफ़र बिन मौहम्मद बिन ताऊस जो मोहर्रम 519 हिजरी में पैदा हुये और 5 ज़ीक़ाद 668 हिजरी में इन्तेक़ाल हुआ।

8. कमाल उद्दीन मीसम बिन अली मीसम बहरानी।

9. कुतुबउद्दीन मौहम्मद बिन हुसैन सिकन्दरी।

10. शेख़ हुसैन बिन शहाबुद्दीन हैदर अली आमेली का सफ़र के महीने में 1076 हिजरी मुताबिक़ अगस्त 1664 ई0 बामक़ाम हैदराबाद दकन इन्तेक़ाल हुआ।

11. शेख़ निज़ामुद्दीन अली बिन हुसैन इनकी शरह का नाम अनवारूल फ़साहत है।

12. अल्लामा मिर्ज़ा अलाउद्दीन मौहम्मद बिन अबी तुराब अल हुसैन उनकी शरह बहुत ही मबसूत है। इसका नाम हदायक़ुल हक़ाएक़ है। यह 20 (बीस) जिल्दों में है।

13. आक़ा शेख़ मौहम्मद रज़ा मुसम्मा बा दुर्रे नजफि़या ।

14. मुल्ला फ़तेह अल्लाह काशेफ़ी जिनका इन्तेक़ाल 997 हिजरी में हुआ यह फ़ारसी में है और इसका नाम तम्बीहुल ग़ाफ़ेलीन है।

15. मोहकि़क़ हबीब अल्लाह हाशमी अल खूई इनकी शरह का नाम भी मिनहाज उल बराअता फ़ी नहजुल बलाग़ा है यह 25 जिल्दों में है। क़ुम ख़याबाने इरम तेहरान में मिलती है। इसके अलावा किताब के कुछ मुस्तदरकात हैं जो छप चुकी हैं।

2. मायते कलमता जिसको जाहिज़ ने जमा किया था।

3. ग़र्र अल हकम व दरद अल कलम जिसको अब्दुल वाहिद बिन मौहम्मद बिन अब्दुल वाहिद ने जमा किया था।

4. दस्तूरे माअलम हक्म जिसको क़ाज़ी अबू अब्दुल्लाह मौहम्मद बिन सलामा ने जमा किया था इनका इन्तेक़ाल 454 हिजरी में हुआ था।

5. नसर अला लाई जिसको अबुल फ़ज़ल अली बिन हुसैन अल बतरसी साहब मजमउल बयान ने जमा किया।

6. किताब मतलूब कुल्ले तालिब मन कलामे अली बिन अबी तालिब जिसको अबू इस्हाक़ अल वतवात अल अन्सारी ने जमा किया है। इसका फ़ारसी और जरमन ज़बान में तरजुमा हो चुका है।

7. क़लाएद अल हकम व फ़राएद अल क़लम जिसको क़ाज़ी अबू युसूफ़ बिन सुलैमान अला सफ़रानई ने जमा किया है।

8. किताब माअमियाते अली

9. इमसाल अल इमाम अली बिन अबी तालिब

10. शेख़ मुफ़ीद अल रहमा ने किताब अल इरशाद में कुछ कलाम जमा किया है।

11. नसर बिन मज़ाहम की किताब सिफ़्फ़ीन में आपका कलाम जमा है।

12. किताब जवाहरूल मतालिब।

 

आपकी इल्मी मरकजीयत

अल्लामा इब्ने अबिल हदीद, अल्लामा इब्ने शहरे आशोब, अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई और अल्लामा अरबली तहरीर फ़रमातें हैं कि  अशरफ़ुल उलूम, उल इलाहियात है और यह हज़रत अली (अ.स.) ही के कलाम से एक़तेबास किया गया है और आप ही इसकी इब्तेदा और इन्तेहां हैं। अक़ाएद के एतेबार से इस्लाम में मुख़तलिफ़ फि़रक़े हैं इन्में मोतज़ला भी है। इस फि़रक़े का बानी वासिल इब्ने अता है जो अबु हाशिम का शार्गिद था और वह अपने बाप मौहम्मद बिन हन्फि़या का शार्गिद था और मौहम्मद हज़रत अली के शार्गिद थे। दूसरा फि़रक़ा अशअरिया है जो अबुल हसन अशअरी की तरफ़ मन्सूब है और वह शार्गिद था अबु अली जबाई का जो मशाएख़ मोतज़ला से था। इसकी इन्तेहा भी हज़रत अली तक क़रार पाती है। तीसरा फि़रक़ा इमामिया व ज़ैदिया है। इसका हज़रत की तरफ़ मन्सूब होना बिल्कुल वाज़ेह है।

इस्लामी उलूम में इल्में फि़क़्हा भी है और इस्लाम का हर फि़रक़ा व मुजतहिद हज़रत ही का शार्गिद है। चुनान्चे अहले सुन्नत में चार फि़रक़े हैं। मालकी, हन्फ़ी, शाफ़ेई और हम्बली। मालकी फि़रके़ के बानी इमामे मालिक शार्गिद थे रबीअतुल राई के और वह शार्गिद थे अकरेमा के और वह शार्गिद थे इब्ने अब्बास के और वह शार्गिद थे हज़रत अली (अ.स.) के। दूसरे फि़रक़े हन्फ़ी के बानी इमामे अबू हनीफ़ा थे, वह शार्गिद थे इमामे मौहम्मद बाक़र (अ.स.) के और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के और वह शार्गिद थे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के और इमाम आबिद (अ.स.) शार्गिद थे इमाम हुसैन (अ.स.) के और वह शार्गिद थे हज़रत अली (अ.स.) के। तीसरे फि़रक़े के बानी इमाम शाफ़ेई शार्गिद थे इमाम मौहम्मद के और वह शार्गिद थे इमाम अबू हनीफ़ा के। चैथे फि़रक़े के बानी इमाम अहमद बिन हम्बल शार्गिद थे, इमाम शाफ़ेई के इस तरह उनका फि़रक़ा भी हज़रत अली (अ.स.) का शार्गिद हुआ। इसके अलावा सहाबा के फ़ुक़हा हज़रत उमर व अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास थे, और दोनों ने इल्में फि़क़्हा हज़रत अली (अ.स.) से ही सीखा। इब्ने अब्बास का शार्गिदे हज़रत अली (अ.स.) होना तो वाज़ेह और मशहूर है, रहे हज़रत उमर तो उनके बारे में भी सब को इल्म है कि बकसरत मसाएल में जब उनकी अक़्लो फ़हम और राह चारो तदबीर बन्द हो जाया करती थी तो वह हज़रत अली (अ.स.) की तरफ़ रूजु करते और हज़रत अली (अ.स.) से ही मुश्किल कुशाई की दरख़्वास्त किया करते थे और अकसर ऐसा भी हुआ है कि अपने अलावा दीगर सहाबा की भी मुश्किल कुशाई अली (अ.स.) से कराया करते थे। उनका बार बार लौला अली लहक़ा उमर अगर अली (अ.स.) न होेते तो उमर हलाक हो जाता, कहना और यह फ़रमाना कि ख़ुदा वह वक़्त न लाये कि मैं किसी इल्मी मुश्किल में मुब्तिला हो जाऊँ और अली (अ.स.) मौजूद न हों। इसके अलावा यह कहना कि जब अली (अ.स.) मस्जिद में मौजूद हों तो कोई फ़तवा देने की जुरअत न करे। यह साबित करता है कि हज़रत उमर की फि़क़ही हद हज़रत अली (अ.स.) की मुन्तही होती है। हज़रत अली (अ.स.) ही वह हैं जिन्होने उस औरत के मुक़दमे में मुनसेफ़ाना फ़तवा दिया जिसने छः (6) महीने में बच्चा जना था और जि़ना कार हामला औरत के मामले में तय फ़रमाया था जिसके रजम का फ़तवा हज़रत उमर दे चुके थे।

इस्लामी उलूम में तफ़सीरे क़ुरआनी का इल्म भी है। यह इल्म भी हज़रत अली (अ.स.) से हासिल किया गया है। जो शख़्स तफ़सीर की किताबें देखे उसे आसानी से इस दावे की सेहत मालूम हो जाऐगी क्यों कि तफ़सीर के मतालिब ज़्यादा तर हज़रत अली (अ.स.) और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास ही से मन्क़ूल हैं और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास का शार्गिदे अली (अ.स.) होना मशहूर व मारूफ़ है। लोगों ने अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से एक दफ़ा पूछा कि हज़रत अली (अ.स.) के इल्म के मुक़ाबले में आपका इल्म कितना है? फ़रमाया जितना एक बहरे ज़ख़्ख़ार के मुक़ाबले में एक छोटा क़तरा हो सकता है। इस्लामी उलूम में इल्मे तरीक़त व हकी़क़त और उसूले तसव्वुफ़ भी है और तुमको मालूम होना चाहिये कि इस फ़न के जुमला उलेमा व माहेरीन अपने को हज़रत की तरफ़ ही मन्सूब करते हैं और हज़रत ही तक अपने सिलसिले को मुन्तही क़रार देते हैं। इसकी सराहत उन लोगों ने भी की है जो फि़रक़ाए सूफ़ीया के इमाम और पेशवा माने गये हैं। जैसे शिब्ली, जुनैद, सिरी, अबू यज़ीद बस्तामी, मारूफ़ करख़ी, सूफ़ी ख़रक़ा, सूफ़ी को अली (अ.स.) का ही शेआर क़रार देते हैं।

उलेमा अरबिया मे इल्मे नुजूम भी है। दुनिया के माहेरीन को इल्म है कि इस इल्म के बानी हज़रत अली (अ.स.) हैं। आप ही ने इस इल्म की ईजाद की है। आप ही ने इसके क़वाएद व ज़वाबित मदून फ़रमाये हैं। आप ने इस इल्म के उसूल व जवामे की तालीम अबू अल अस्वद देली को दी और उसके क़वानीन तरतीब देने का तरीक़ा सिखाया हज़रत ने जो मुख़्तसर और जामे उसूल बताये उनमें कलाम, कलमा और एराब थे। आप ने कहा कि कलाम, इल्मे फ़ेल, हरफ़ को कहते हैं और कलमा मारेफ़ा और नुक़रा होता है और एराब, रफ़े नसब हजर और जज़्म में मुन्क़सिम होता है। हज़रत के इन मुख़्तसर उसूल व ज़वाबित को आपके मोजेज़ात मे शुमार करना चाहिये। (शरह इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 1 पेज न. 7, व मतालेबुल सुवेल पेज न. 98 व कशफ़ुल ग़म्मा पेज न. 54 मनाकि़ब जिल्द 2 पेज न. 67)

इसके अलावा इल्म अल कि़रअत, इल्म अल फ़राएज़, इल्म अल कलाम, इल्म अल खि़ताबत, इल्म अल फ़साहत व बलाग़त, इल्म अल शेर, इल्म अल उरूज वल क़वाफ़ी, इल्म अल अदब, इल्म अल किताबत, इल्म ताबीरे ख़्वाब, इल्म अल फ़लसफ़ा, इल्म अल हिन्दसा, इल्म अल नुजूम, इल्म अल हिसाब, इल्म अल तिब, इल्मे मन्तिक़ अल तैर वग़ैरा में आपको इन्तेहाई कमाल हासिल था। (मनाकि़ब जिल्द 2 पेज न. 67) और इल्मे लदुन्नी, इल्मे अल ग़ैब में भी आपको यदे तूला हासिल था। (नुरूल अबसार पेज न. 760 व अर हज्जुल मतालिब पेज न. 213)

इब्ने शहरे आशोब ने मनाकि़ब में हज़रत अली (अ.स.) के सौते नाकूस की तफ़सीर बयान फ़रमाने की तफ़सील लिखी है और अल्लामा मौहम्मद बाक़र ने दमुस साके़बा के पेज न. 141 पर इब्ने अबिल हदीद के हवाले से 33, बड़ी सतरों पर मुश्तमिल हज़रत का एक निहायत फ़सीह व बलीग़ ऐसा ख़ुतबा नक़ल किया है जिसमें लफ़्ज़े अलिफ़ नहीं है।

 

आपका ज़ोहद व तक़वा मिस्र के मशहूर मोवर्रिख़ अल्लामा जरजी ज़ैदान लिखते हैं कि अली (अ.स.) की हालत क्या बयान हो। ज़ोहद और तक़वे के मुताअल्लिक़ आपके वाक़ेयात बहुत कसरत से हैं। उसूले इस्लाम की पाबन्दी करने में आप बहुत सख़्त और अपने हर क़ौलो फ़ेल में निहायत शरीफ़ व आज़ाद थे। जाल, फ़रेब, धोका, मक्र को आप जानते तक न थे और अपनी जि़न्दगी के मुख़्तलिफ़ ज़मानों से किसी हालत में भी आपने चाल, हीला, ग़द्दारी वग़ैरा की तरफ़ ज़र्रा बराबर भी रूख़ न किया। आपकी तमाम तर तवज्जे महज़ दीन के मुताअल्लिक़ रहती थी और आपका कुल एतेमाद और भरोसा सिर्फ़ सच्चाई और हक़ पर था। चुनान्चे आपके ज़ोहद और फ़क़ीराना जि़न्दगी की मिसालों में से एक यह भी है कि आपने जिस वक़्त रसूल स. की बेटी फ़ात्मा स. से शादी की तो आपके पास फ़र्श की कि़स्म से कोई चीज़ नहीं थी सिवाय दुम्बे की एक खाल के कि उसी पर दोनों शब में पड़ कर सो रहते थे और दिन के वक़्त इसी चमड़े पर अपने ऊँट को दाना खिलाते थे। आपके पास एक मुलाजि़म भी न था जो आपकी खिदमत करता। आपकी खि़लाफ़ते ज़ाहेरी के ज़माने में एक दफ़ा असफ़हान के (ख़ेराज) का माल आया तो आपने उसको सात हिस्सों पर तक़सीम कर दिया फिर उसमें एक रोटी मिली तो उसके भी सात टुकड़े किये। आप ऐसे कपड़ों का लिबास पहनते थे जो सर्दी से ज़रा भी महफ़ूज़ नहीं रख सकता था। बाज़ लोगों ने आपको देखा कि अपने ओढ़ने की चादर में खजूरें उठा कर खुद ला रहे हैं जिनको एक दिरहम में खरीदा था। यह देख कर अर्ज़ कि ऐ अमीरूल मोमेनीन यह हमें दे दें ताके हम पहुँचा दें। आपने जवाब दिया कि जिसके अयाल हैं उन्हीं को उनका बोझ उठाना चाहिये। आपके ज़र्री अक़वाल से यह भी है कि मुसलमान को चाहिये कि इतना कम खाएं कि भूख से उनके पेट हल्कें रहें और इतना कम पियें कि प्यास से उनके पेट सूखे रहें और खुदा के ख़ौफ़ से इतना रोयें कि उनकी आंखें ज़ख़्मी रहें।

(तारीख़े तमददुने इस्लामी, जिल्द 4 पेज न. 37 व तारीख़े कामिल जिल्द 3 पेज न. 204)

 

आपकी सही राय

आप की राय इतनी सही थी कि कभी लग़जि़श नहीं हुई। जिसको जो मशवेरा दे दिया वह अटल साबित हुआ। अल्लामा इब्ने अबिल हदीद शरह नहजुल बलाग़ह में लिखते हैं कि तमाम लोगों से ज़्यादा हज़रत अली (अ.स.) की राय साएब और मोहकम व सही हुआ करती थी और आपकी तदबीर तमाम लोगों की तदबीरों से बलन्द व बरतर होती थी अलबत्ता आप इसी मामले में राय देते थे जो शरीयत के मुताबिक़ और इस्लाम की रौशनी में हो यानी ग़लत उमूर में आपका कोई मशवेरा न था।

 

आपकी सियासत आल्लामा इब्ने अबिल हदीद लिखते हैं काना शदीद अल सियासत खशनन फ़ी ज़ात अल्लाह आप बे नज़ीर सियासी थे। आप की सियासत उन लोगों जैसी न थी जो दीन और ख़ुदा को पहचानते नहीं। आप की सियासत हुक्मे खुदा व रसूल स. की मिसाल हुआ करती थी। आप अल्लाह की ज़ात के बारे में निहायत ही सख़्त और शदीद अल अमल थे। इस सिलसिले में उन्होंने कभी अपने भाई तक की परवाह नहीं की। अक़ील और इब्ने अब्बास की नाराज़गी मशहूर है।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा)

 

हिल्म, सदाक़त, अदल

ख़ालिद इब्नल अमीर का बयान है कि मैं अली (अ.स.) को तीन बातों की वजह से महबूब रखता हूँ।

1. यह कि जब वह ख़फ़ा होते थे तो मुकम्मल इल्म का इस्तेमाल करते थे।

2. जो बात कहते थे सच कहते थे।

3. जो फ़ैसला करते थे पूरे अदल के साथ करते थे।

माअक़ल इब्नुल यसार का बयान है कि सरवरे कायनात स. ने एक दिन फ़ात्मा ज़हरा स. से फ़रमाया कि मैंने तुम्हारी शादी बहुत बड़े आलिम और उम्मत में सब से बड़े ईमानदार और अज़ीम तरीन हिल्म करने वाले अली से की है। (अरजहुल मतालिब पेज न. 202)

 

मौला ए कायनात हज़रत अली (अ.स.) के बाज़ करामात

यह मुसल्लम है कि मौला ए कायनात, मुशकिल कुशा, आलिम, हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) मज़हरूल अजाएब वल ग़राएब थे। खि़ल्क़ते ज़ाहेरी से क़ब्ल अम्बिया (अ.स.) की मद्द करना, सलमाने फ़ारसी को दश्त अरज़न में शेर से छुड़ाना और ज़हूरो शहूद के बाद एक शब में चालीस जगह बयक वक़्त दावत में शिरकत करना, दुनिया के हर गोशे में आपके क़दम के निशानात का पत्थर पर मौजूद होना। ग़ारे असहाबे कहफ़ में निशाने क़दम का मौजूद होना। क़ाबुल में मज़ारे सख़ी का वजूद और दीगर निशानात का मौजूद होना। तूरे ख़ुम के क़रीब मस्जिदे अली की तामीर, पेशावर में असाए शाहे मरदां की जि़यारत गाह का होना। कोटा के रास्ते में क़दम के निशानात का पाया जाना। हैदराबाद में क़दम गाह मौला अली का होना। आलम में हर शख़्स की मुश्किल कुशाई का हो जाना। नीज़ बाबे ख़ैबर का उख़ाड़ना। रसूल करीम स. की आवाज़ पर चश्मे ज़दन में पहुच जाना। चादर पर बैठ कर ग़ारे असहाबे कहफ़ तक जाना और उनसे कलाम करना वग़ैरा वग़ैरा आपके मज़हरूल अजाएब वल ग़राएब होने का बय्यन सुबूत है। हम ज़ैल में किताब (इमामे मुबीन) से वाक़ेयात का खुलासा दर्ज करते हैं।

 

आपका गहवारे में कल्ला ए अज़दर दो पारा करना

एक दफ़ा का जि़क्र है कि हवालिये मक्का में एक निहायत ज़बर दस्त और तवील अज़दहा आ गया है और उसने तबाही मचा दी, एक लशकर ने उसे मारने की कोशिश की मगर कामयाब न हुआ। एक दिन वह अज़दहा मदीने की तरफ़ चला, जब क़रीब पहुँचा, शहरे मदीना में हलचल मच गई। लोग घरों को छोड़ कर भागने लगे। इत्तेफ़ाक़न वह अज़दहा ख़ाना ए अबू तालिब (अ.स.) में दाखि़ल हो गया। वहां मौला ए काएनात गहवारे में फ़रोकश थे और उनकी मादरे गेरामी कहीं बाहर तशरीफ़ ले गईं थी। जब वह अज़दहा गहवारे के क़रीब पहुँचा तो यदुल्लाह ने उसके दोनो जबड़ों को पकड़ कर दो कर दिया। रसूले ख़ुदा स. ने मसर्रत का इज़हार किया, अवाम ने दादे शुजाअत दी। माँ ने वापस आकर माजरा देखा और अपने नूरे नज़र का नाम हैदर रखा। इस नाम का जि़क्र मरहब के मुक़ाबले में अली बिन अबी तालिब (अ.स.) ने ख़ुद भी फ़रमाया है।

अना अल लज़ी सम्मतनी अम्मी हैदर।

ज़रग़ाम, आजाम वल यस क़सूरा।।

 

साकि़ए कौसर और संगे ख़ारा

रवायत में है कि हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) जंगे सिफ़्फ़ीन से वापस जाते हुए एक सहराए लक़ो दक़ से गुज़रे, शिद्दते गरमा की वजह से आपका लशकर बे इन्तेहा प्यासा हो गया उसने हज़रत से पानी की ख्वाहिश की। आपने सहरा में इधर उधर नज़र दौड़ाई, एक बहुत बड़ा पत्थर नज़र आया, उसके क़रीब तशरीफ़ ले गये और पत्थर से कहा कि मैं तुझसे सुनना चाहता हूँ कि इस सहरा में पानी कहां है उसने ब क़ुदरते ख़ुदा जवाब दिया कि चशमाए आब मेरे ही नीचे है। हज़रत ने लशकर को हुक्म दिया कि इस पत्थर को हटाएं लेकिन सौ (100) आदमी कामयाब न हो सके। फिर आपने लबे मुबारक को हरकत दी और दस्ते ख़ैबर कुशा उस पर मारा, पत्थर दूर जा गिरा। उसके हटते ही शहद से ज़्यादा शीरीं और बर्फ़ से ज़्यादा सर्द पानी का चश्मा बरामद हो गया। सब सेराब हुए और सब ने पानी से छाबने भर लीं। फिर आपने पत्थर को हुक्म दिया कि अपनी जगह पर आ जमे बरवायत इब्ने अब्बास पत्थर उस जगह से खुद ब खुद सरक कर अपनी जगह पर आ पहुँचा और लश्कर शुकरे ख़ुदा करता हुआ रवाना हो गया।


 

मौला अली (अ.स.) और इन्सान की शक्ल बदल देना

असबग़ बिन नबाता का बयान है कि एक शख़्स क़ुरैश से हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हो कर कहने लगा कि मैं वह हूँ कि जिसने बे शुमार इन्सानों को क़त्ल किया है और बहुत से अत्फ़ाल को यतीम किया है। हज़रत ने उसका जब यह ताअरूफ़ सुना तो आपको ग़ुस्सा आ गया। आपने फ़रमाया कि अख़साया क़ल्ब ऐ कुत्ते! मेरे पास से दूर हो जा, हज़रत के दहने अक़दस से इन अल्फ़ाज़ का निकलना था कि उसकी माहियत और उसकी हय्यत बदल गई। और वह कुत्ते की शक्ल में हो कर दुम हिलाने लगा लेकिन साथ ही साथ बेताब हो कर फ़रयादो फ़ुग़ा करते हुए ज़मीन पर लोटने लगा। हज़रत को उस पर रहम आया और आपने दुआ की ख़ुदा ने फिर उसे उसकी शक्ल में बदल दिया।

 

ऐन उल्लाह, अली (अ.स.) ने कोरे मादर ज़ाद को चशमे बीना दे दी

अब्दुल्लाह बिन यूनुस का बयान है कि मैं एक साल हज्जे बैतुल्लाह के लिये घर से रवाना हो कर जा रहा था। नागाह रास्ते में एक नाबीना ज़ने हबशिया को देखा कि वह हाथों का उठाए हुए इस तरह दुआ कर रही है। ऐ अल्लाह ब हक़्क़े अली बिन अबी तालिब (अ.स.) मुझे चश्में बीना दे दे। यह देख कर मैं उसके क़रीब गया और उस्से पूछा कि क्या तू वाक़ेइ अली बिन अबी तालिब (अ.स.) से मोहब्बत रखती है? उसने कहा बे शक मैं उन पर सद हज़ार जान से क़ुरबान हूँ। यह सुन कर मैंने उसे बहुत से दिरहम दिये मगर उसने क़ुबूल न किया और कहा कि मैं दिरहम व दिनार नहीं मांगती। मैं आंख चाहती हूँ फिर मैं उसके पास से रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचा और हज से फ़राग़त के बाद फिर उसी रास्ते से वापस आया। जब उस मक़ाम पर पहुँचा जिस मक़ाम पर वह नाबीना औरत थी तो देखा कि वह औरत चशमे बीना की मालिक है और सब कुछ देखती है। मैंने उस से पूछा कि तेरा माजरा क्या है? उसने कहा कि मैं बदस्तूर दुआ किया करती थी, एक दिन हसबे मामूल मशग़ूले दुआ थी नागाह एक मुक़द्दस तरीन शख़्स नमूूदार हुए और उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या तू वाक़ेइ अली को दोस्त रखती है? मैंने कहा जी हाँ, ऐसा ही है। यह सुन कर उन्होंने कहा कि खुदाया अगर यह औरत दावाए मोहब्बत में सच्ची है तो उसे बीनाई अता फ़रमा। उनके इन अल्फ़ाज़ के ज़बान पर जारी होते ही मेरी आंखें खुल गईं, चशमे बीना मिल गई। मैं सब कुछ देखने लगी। मैंने उसके फ़ौरन बाद क़दमों पर गिर कर पूछा, हुज़ूर आप कौन हैं? फ़रमाया, मैं वही हूँ जिसके वास्ते से तू दुआ कर रही थी।

 

मुशकिल कुशा की मुशकिल

कुशाई एक रवायत में है कि एक दिन हज़रत अली (अ.स.) मदीने की एक गली से गुज़र रहे थे, नागाह आपकी निगाह अपने एक मोमिन पर पड़ी देखा कि उसे एक शख़्स बुरी तरह गिरफ़्त में लिये हुए है। हज़रत उसके क़रीब गये और उस से पूछा यह क्या मामेला है? उस मोमिन ने कहा, मौला मैं इस मर्दे मुनाफि़क़ के एक हज़ार सात सौ (1700) दीनार का क़जऱ्दार हूँ। इसने मुझे पकड़ रखा है और इतनी मोहलत भी नहीं देता कि मैं यहाँ से जा कर कोई बन्दोबस्त करूं। हज़रत ने फ़रमाया कि तू ज़मीन की रूख़ कर और जो पत्थर वग़ैरह इस वक़्त तेरे हाथ आयें उन्हें उठा ले। चुनान्चे उसने ऐसा ही किया, जब उसने उठा कर देखा तो वह सब सोने के थे।

हज़रत ने फ़रमाया कि इसका क़र्ज़ा अदा करने के बाद जो बचे उसे अपने काम में ला। रावी कहता है कि दूसरे दिन जिब्राईल के कहने से हज़रत रसूले करीम स. ने इस वाक़ेए को असहाब के मजमे में बयान फ़रमाया।

 

एक मशलूल की शिफ़ा याबी

अब्दुल्लाह बिन अब्बास का बयान है कि एक रोज़ नमाज़े सुब्ह के बाद हज़रत रसूले करीम स. मस्जिदे मदीना में बैठे हुए सलमान, अबूज़र, मिक़दाद और हुज़ैफ़ा से महवे गुफ़तुगू थे कि नागाह मस्जिद के बाहर एक ग़ुलग़ुला उठा, शोर सुन कर लोग मस्जिद के बाहर गये, तो देखा कि चालीस आदमी खड़े हैं जो मुसल्लाह हैं और उनके आगे एक निहायत ख़ूबसूरत नौजवान शख़्स हैं। हुज़ैफ़ा ने रसूले ख़ुदा को हालात से आगाह किया, आपने फ़रमाया कि उन लोगों को मेरे पास लाओ। वह आ गये, तो हज़रत ने फ़रमाया कि अली बिन अबी तालिब को बुला लाओ। हुज़ैफ़ा गये, अमीरूल मोमेनीन ने फ़रमाया कि ऐ हुज़ैफ़ा मुझे इल्म है कि एक गिरोह क़ौमे आद से आया है, मुझे उनकी हाजत भी मालूम है। उसके बाद आप हाजि़रे खि़दमते रसूले करीम स. हुए। आं ने हज़रत अली (अ.स.) से उनका सामना कराया। हज़रत अली (अ.स.) ने उस मरदे ख़ूबरू से कहा कि ऐ हज्जाज बिन ख़ल्जा बिन अबिल असफ़ बिन सईद बिन मम्ता बिन अलाक़ बिन वहब बिन सअब बता तेरी क्या हाजत है। उसने जब अपना नाम और पूरा शजरा सुना तो हैरान रह गया और कहा कि हुज़ूर मेरे भाई को शिकार का बड़ा शौक है। उसने एक दिन जंगल में शिकार खेलते हुए एक जानवर के पीछे घोड़ा डाला और उस पर तीर चलाया, इसके फ़ौरन बाद उसका निस्फ़ बदन शल हो गया। बड़े इलाज किये मगर कोई फ़ायदा न हुआ, आपने फ़रमाया कि उसे मेरे सामने ला। वह एक ऊँट पर लाया गया। हज़रत ने उसे हुक्म दिया कि उठ बैठ चुनान्चे वह तन्दरूस्त हो कर उठ बैठा। यह देख कर वह और उसके क़बीले के सत्तर हज़ार (70,000) नुफ़ूस मुसलमान हो गये।

 

आपकी सायए रहमत से महरूमी

हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. ने 28 सफ़र 11 हिजरी यौमे दोशम्बा इन्तेक़ाल फ़रमाया। (मोअद्दतूल क़ुरबा) हज़रत अली (अ.स.) आपकी तजहीज़ो तकफ़ीन में मशग़ूल हो गये। हज़रत उमर अबू बकर को हमराह ले कर सक़ीफ़ा बनी साएदा जो मदीने से 3 मील के फ़ासले पर वाक़े है और मशवेरा हाय बातिल के लिये बनाया गया था, चले गये। (ग़यासुल लुग़ात) रस्सा कशी के बाद हज़रत अबू बक्र को ख़लीफ़ा बना लाये। हज़रत अली (अ.स.) चूंकि रसूले करीम स. को इन लोगों की वापसी के पहले दफ़्न कर चुके थे। इस लिये सब से पहले उन्होंने यह सवाल किया कि आपने हमारी वापसी का इन्तेज़ार क्यों नहीं किया। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि रसूले करीम स. ब मुक़ामे ग़दीर ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर चुके थे। आप किस जवाज़ से वहां गये और किस उसूल से मसलाए खि़लाफ़त को ज़ेरे बहस लाये, और क्या वजह थी कि हम रसूल स. का लाशा बे गोरो कफ़न रहने देते। इसके बाद उन्होंने बैअत का मुतालेबा किया। हज़रत अली (अ.स.) ने अपना हक़ फ़ाएक़ होना और अपने को मन्सूस ख़लीफ़ा होना ज़ाहिर कर के उनके मुतालेबे के खि़लाफ़ एहतेजाज किया और फ़रमाया कि मुझसे बैअत का सवाल ही पैदा नहीं होता। इस पर उन्होंने शदीद इसरार किया और आप से बैअत लेने की हर मुम्किन कोशिश की। मोवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि इसी सिलसिले में फ़ात्मा ज़हरा स. का घर जलाया गया। फ़ात्मा स. के दुर्रे लगाए गये। अली (अ.स.) की गरदन में रस्सी बांधी गयी और आपको क़त्ल कर देने की धमकी दी गई और विरासते रसूल स. से फ़ात्मा स. और औलादे फ़ात्मा स. को महरूम कर दिया गया। बाग़ छीना गया। अली (अ.स.), हसनैन (अ.स.) और उम्मे ऐमन को गवाही में झूठा क़रार दिया गया। इन हालात से आले मौहम्मद स. को जितना मुताअस्सिर होना चाहिये इसका अन्दाज़ा हर बा फ़हम कर सकता है। हज़रत अली (अ.स.) जो सायाए रहमते रसूल स. से महरूम हो कर मसाएब व आलाम की चक्की के दोनों पाटों में आ गये। उन्होंने अपने ख़ुतबात से इस पर रौशनी डाली है और अपने हालात की वज़हत की है। तफ़सील के लियें मुलाहेज़ा हों ख़ुतबाए शक़शक़या।

 


 

वफ़ाते रसूल . के बाद अली (..) का ख़़ुतबा

किताब नहजुल बलाग़ाह जिल्द 1 पेज न. 432 प्रकाशित मिस्र में है बुज़ुरगाने असहाबे मौहम्मद स. ने जो हाफि़ज़े क़ुरआन व सुन्नते नबवी थे जान लिया था कि मैं कभी एक साअत के लिये भी फ़रमाने ख़ुदा और रसूल स. दूर नहीं हुआ और पैग़म्बरे अकरम स. की ख़ातिर कभी अपनी जान की परवा नहीं की। जब दिलेरों ने राहे फ़रार इख़्तेयार की और बड़े बड़े पहलवान पीछे हट आये, इस शुजाअत और जवां मरदी के बाएस जो ख़ुदा ने मुझे अता की है मैंने जंग की और रसूले ख़ुदा स. की क़ब्ज़े रूह इस हालत में हुई कि आपका सरे मुबारक मेरे सीने पर था। इनकी जान मेरे ही हाथों पर बदन से जुदा हुई। चुनान्चे मैंने अपने हाथ (रूह निकलने के बाद) अपने चेहरे पर मले। मैंने ही आं हज़रत स. के जसदे अतहर को ग़ुस्ल दिया और फ़रिश्तों ने मेरी इस काम में मदद की। पस बैते नबवी और उसके एतराफ़ से गिरयाओ जा़री की सदा बलन्द हुई। फ़रिश्तों का एक गिरोह जाता था तो दूसरा आ जाता था। उनकी नमाज़े जनाज़ा का हमहमा मेरे कानों से जुदा नहीं हुआ यहां तक कि आपको आख़री आराम गाह में रख दिया गया। पस आं हज़रत की हयात व ममात में उनसे मेरे मुक़ाबले में कौन सज़ावार था। जो कोई इसका अदआ करता है वह सही नहीं कहता।

(तरजुमा नहजुल बलागा़ह, रईस अहमद जाफ़री जिल्द 1 पेज न. 1200 प्रकाशित लाहौर)

इसी किताब के पेज न. 1303 पर है कि मेरे माँ बाप आप पर क़ुरबान ऐ रसूले ख़ुदा स. आपकी वफ़ात से नबूवत, ऐहकामे इलाही और अख़बारे आसमानी का सिलसिला मुनक़ेता हो गया। जो दूसरे पैग़म्बारों की वफ़ात पर कभी नहीं हुआ था। आपकी ख़ुसुसियत यगानगत यह भी थी कि दूसरी मुसीबतों से आपने तसल्ली दे दी क्यों कि आपकी मुसीबत हर मुसीबत से बालातर है और दुनिया से रहलत फ़रमाने की बिना पर आपको यह उमूमियत व ख़ुसूसियत हासिल है कि आपके मातम में तमाम लोंग यकसां दर्दमन्द और सीना फि़ग़ार हैं।

 

रफ़ीक़ाए हयात की जुदाई

रसूले करीम स. के इन्तेक़ाल पुर मलाल को अभी 100 दिन भी न गुज़रे थे कि आपकी रफ़ीक़ा ए हयात हज़रत फ़ात्मा ज़ैहरा स. अपने पदरे बुज़ुर्गवार की वफ़ात के सदमे वग़ैरा से बतारीख़ 20 जमादुस्सानिया 11 हिजरी इन्तेक़ाल फ़रमा गईं। हज़रत अली (अ.स.) ने वसीयते फ़ात्मा स. के मुताबिक़ हज़रत अबू बक्र, हज़रत उमर, हज़रत आयशा को शरीके जनाज़ा नहीं होने दिया और शब के तारीक पर्दे में हज़रत फ़ात्मा ज़ैहरा स. को सुपुर्दे ख़ाक फ़रमा दिया। और ज़मीन से मुख़ातिब हो कर कहा, या अरज़न असतो दक़ा व देयती हाज़ा बिन्ते रसूल अल्लाह ऐ ज़मीन मैं अपनी अमानत तेरे सुपुर्द कर रहा हूँ ऐ ज़मीन यह रसूल स. की बेटी है। ज़मीन ने जवाब दिया या अली अना अरफ़क़ बेहा मिनका ऐ अली आप घपरायें नहीं मैं आपसे ज़्यादा नर्मी करूंगी।

(मुअद्दतुल क़ुरबा पेज न. 129 तमाम वाक़ेयात की तफ़सील गुज़र चुकी है।)

 

शहादते फातेमा जहरा पर हज़रत अली (अ.स.) का ख़ुतबा

ज़मीन से मुख़ातिब होने के बाद आपने सरवरे कायनात स. को मुख़ातिब कर के कहा कि, या रसूल अल्लाह स. आपको मेरी जानिब से और आपकी पड़ोस में उतरने वाली और आप से जल्द मुल्हक़ होने वाली आपकी बेटी की तरफ़ से सलाम हो। या रसूल अल्लाह स. आपकी बरगुज़ीदा बेटी की रेहलत से मेरा सब्रो शकेब जाता रहा। मेरी हिम्मत व तवानाई ने साथ छोड़ दिया लेकिन आपकी मुफ़ारेक़त के हादसाए उज़मा और आपकी रेहलत के सदमाए जांकह पर सब्र कर लेने के बाद मुझे इस मुसिबत पर भी सब्र ही से काम लेना पड़ेगा जब कि मैंने अपने हाथों से आपको क़ब्र की लहद में उतारा और इस आलम में आपकी रूह ने परवाज़ की कि आपका सर मेरी गरदन और सीने के दरमियान रखा हुआ था। (इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे रजेऊन) अब यह अमानत पलटाई गई । गिरवीं रखी हुई चीज़ छुड़ा ली गई लेकिन मेरा ग़म बे पायां और मेरी रातें बे ख़्वाब रहेंगी यहां तक कि ख़ुदा वन्दे आलम मेरे लिये भी इसी घर को मुन्तखि़ब करे जिसमें आप रौनक़ अफ़रोज़ हैं। या रसूल अल्लाह स. वह वक़्त आ गया कि आपकी बेटी आपको बताऐं कि किस तरह आपकी उम्मत ने उन पर ज़ुल्म ढाने के लिये एका कर लिया। आप उनसे पूरे तौर पर पूछें और तमाम अहवाल और वारदात दरयाफ़्त करें। यह सारी मुसिबत इन पर बीत गई हालां कि आपको गुज़रे हुए कुछ ज़्यादा अरसा नहीं हुआ था और न आपके तज़किरों सें ज़बाने बन्द हुईं थीं। आप दोनों पर मेरा सलामे रूख़सती हो। ऐसा सलाम जो किसी मलूल और दिल तंग की तरफ़ से होता है। अब अगर मैं इस जगह से पलट जाऊँ तो इस लिये नहीं कि आप से मेरा दिल भर गया और अगर ठहरा रहूँ तो इस लिये नहीं कि मैं इस वादे से बदज़न हूँ जो अल्लाह ने सब्र करने वालों से किया है।

(नहजुल बलाग़ा मुतरजमा मुफ़्ती जाफ़र हुसैन जिल्द 2 पेज न. 243 प्रकाशित लाहौर)

 

हज़रत अली (अ.स.) की गोशा नशीनी

पैग़म्बरे इस्लाम के इन्तेक़ाले पुर मलाल और उनके इन्तेक़ाल के बाद हालात नीज़ फ़ात्मा ज़हरा स. की वफ़ाते हसरत आयात ने हज़रत अली (अ.स.) को उस स्टेज पर पहुँचा दिया, जिसके बाद मुस्तक़बिल का प्रोग्राम बनाना नागुज़ीर हो गया। यानी इन हालात में हज़रत अली (अ.स.) यह सोचने पर मजबूर हो गये कि आप आइन्दा जि़न्दगी किस असलूब और किस तरीक़े से गुज़ारें। बिल आखि़र आप इस नतीजे पर पहुँचे कि 1. दुश्मनाने आले मौहम्मद को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिये। 2. गोशा नशीनी इख़्तेयार कर लेना चाहिये। 3. हत्तल मक़दूर मौजूदा सूरत में भी इस्लाम की मुल्की व ग़ैर मुल्की खि़दमत करते रहना चाहिये चुनान्चे आप इसी पर कारबन्द हो गये।

हज़रत अली (अ.स.) ने जो प्रोग्राम मुरत्तब फ़रमाया वह पैग़म्बरे इस्लाम के फ़रमान की रौशनी में मुरत्तब फ़रमाया क्यों कि इन्हें इन हालात की पूरी इत्तेला थी और उन्होंने हज़रत अली (अ.स.) को सब बता दिया था। अल्लामा इब्ने हजर लिखते हैं इन्नल्लाहा ताआला अतला नबीया अला मायक़ूना बाआदा ममा अब्तेला बा अली कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने नबी को इन तमाम उमूर से बा ख़बर कर दिया था जो उनके बाद होने वाले थे और इन हालात व हादेसात की इत्तेला कर दी थी, जिसमें अली (अ.स.) मुब्तिला हुये । (सवाएक़े मोहर्रेक़ा पेज न. 72) रसूले करीम स. ने फ़रमाया था कि ऐ अली (अ.स.) मेरे बाद तुमको सख़्त सदमात पहुँचेगे, तुम्हे चाहिये कि इस वक़्त तुम तंग दिल न हो और सब्र का तरीक़ा इख़्तेयार करो और जब देखना कि मेरे सहाबा ने दुनिया इख़्तेयार कर ली है तो तुम आख़ेरत इख़्तेयार किये रहना। (रौज़ातु अहबाब जिल्द 1 पेज न. 559 व मदारेजुल नबूवत जिल्द 2 पेज न. 511) यही वजह है कि हज़रत अली (अ.स.) ने तमाम मसाएब व आलाम निहायत ख़न्दा पेशानी से बरदाश्त किये मगर तलवार नहीं उठाई और गोशा नशीनी इख़्तेयार कर के जम ए कु़रआन की तकमील करते रहे और वक़्तन फ़वक़्तन अपने मशवेरों से इस्लाम की कमर मज़बूत फ़रमाते रहे।

 

ग़स्बे खि़लाफ़त के बाद तलवार न उठाने की वजह बाज़ बरादराने इस्लाम यह कह देते हैं कि जब अली (अ.स.) की खि़लाफ़त ग़स्ब की गई और उन्हें मसाएब व आलाम से दो चार किया गया तो उन्होंने बद्रो, ओहद, ख़ैबरो खन्दक़ की चली हुई तलवार को नियाम से बाहर क्यों न निकाल लिया और सब्र पर क्यों मजबूर हो गये लेकिन मैं कहता हँू कि अली (अ.स.) जैसी शखि़्सयत के लिये यह सवाल ही पैदा नहीं होता कि उन्होंने इस्लाम के अहदे अव्वल में जंग क्यों नहीं की। क्यों कि इब्तेदा उम्र से ता हयाते पैग़म्बर अली (अ.स.) ही ने इस्लाम को परवान चढ़ाया था। हर महलक़े में इस्लाम ही के लिये लड़े थे। अली (अ.स.) ने इस्लाम के लिये कभी अपनी जान की परवाह नहीं की थी। भला अली (अ.स.) से यह क्यों कर मुम्किन हो सकता था कि रसूले करीम स. के इन्तेक़ाल के बाद वह तलवार उठा कर इस्लाम को तबाह कर देते और सरवरे कायनात की मेहनत और अपनी मशक़्क़त को अपने लिये तबाह व बरबाद कर देते। इस्तेयाब अब्दुलबर जिल्द 1 पेज न. 183 प्रकाशित हैदराबाद में है कि हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मैंने लोगों से यह कह दिया था कि देखो रसूल अल्लाह स. का इन्तेक़ाल हो चुका है और खि़लाफ़त के बारे में मुझसे कोई नज़ा न करे क्यों कि हम ही उसके वारिस हैं लेकिन क़ौम ने मेरे कहने की परवाह न की। ख़ुदा क़सम अगर दीन में तफ़रेक़ा पड़ जाने और अहदे कुफ्ऱ के पलट आने का अन्देशा न होता तो मैं उनकी सारी कारवाईयां पलट देता। फ़तेहुल बारी, शरह बुख़ारी जिल्द 4 पेज न. 204 की इबारत से वाज़े होता है कि हज़रत अली (अ.स.) ने इस तरह चश्म पोशी की जिस तरह कुफ़्र के पलट आने के ख़ौफ़ से हज़रत रसूले करीम स. मुनाफि़क़ों और मुवल्लेफ़तुल क़ुलूब के साथ करते थे। कन्ज़ुल आमाल जिल्द 6 पेज न. 33 में है कि आं हज़रत मुनाफि़को के साथ इस लिये जंग नहीं करते थे कि लोग कहने लगेंगे कि मौहम्मद स. ने अपने अस्हाब को क़त्ल कर डाला। किताब मुअल्लिमुल तन्ज़ील सफ़ा 414, अहया अल उलूम जिल्द4 सफ़ा 88 सीरते मोहम्मदिया सफ़ा 356, तफ़सीरे कबीर जिल्द 4 सफ़ा 686, तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 सफ़ा 1139, सीरते हल्बिया सफ़ा 356, शवाहेदुन नबूवत और फ़तेहुल बारी में है कि आं हज़रत ने आएशा से फ़रमाया कि ऐ आएशा लौलाहद सान क़ौमका बिल कुफ़्र लेफ़आलत अगर तेरी का़ैम ताज़ी मुसलमान न होती तो मैं इसके साथ वह करता जो करना चाहिये था।

हज़रत अली (अ.स.) और रसूले करीम स. के अहद में कुछ ज़्यादा फ़कऱ् न था जिन वजूह की बिना पर रसूल स. ने मुनाफि़कों से जंग नहीं की थी। उन्हीं वजूह की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) ने भी तलवार नहीं उठाई। (कन्ज़ुल अमाल, जिल्द 6 सफ़ा 69, ख़साएसे सियूती जिल्द 2 सफ़ा 138 व रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 सफ़ा 363, इज़ालतुल ख़फ़ा जिल्द 1 सफ़ा 125 वग़ैरा में मुख़तलिफ़ तरीक़े से हज़रत की वसीयत का जि़क्र है और इसकी वज़ाहत है कि हज़रत अली (अ.स.) के साथ क्या होना है और अली (अ.स.) को उस वक़्त क्या करना है चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने इस हवाले के बाद कि मेरी जंग से इस्लाम मन्जि़ले अव्वल में ही ख़त्म हो जायेगा। मैंने तलवार नहीं उठाई। यह फ़रमाया कि ख़ुदा की क़सम मैंने उस वक़्त का बहुत ज़्यादा ख़्याल रखा कि रसूले ख़ुदा स. ने मुझसे अहदे ख़ामोशी व सब्र ले लिया था। तारीख़े आसम कूफ़ी सफ़ा 83 प्रकाशित बम्बई में हज़रत अली (अ.स.) की वह तक़रीर मौजूद है जो आपने खि़लाफ़ते उस्मान के मौक़े पर फ़रमाई है। हम उसका तरजुमा आसम कूफ़ी उर्दू प्रकाशित देहली के सफ़ा 113 से नक़ल करते हैं। ख़ुदाए जलील की क़सम अगर मौहम्मद रसूल अल्लाह स. हमसे अहद न लेते और हमको इस अम्र से मुत्तेला न कर चुके होते जो होने वाला था तो मैं अपना हक़ कभी न छोड़ता और किसी शख़्स को अपना हक़ न लेने देता। अपने हक़ को हासिल करने के लिये इस क़दर कोशिशे बलीग़ करता कि हुसूले मतलब से पहले मरज़े हलाकत में पड़ने का भी ख़्याल न करता। इन तमाम तहरीरों पर नज़र डालने के बाद यह अमर रोज़े रौशन की तरह वाज़े हो जाता है कि हज़रत अली (अ.स.) ने जंग क्यों नहीं की और सब्र व ख़ामोशी को क्यों तरजीह दी।

मैंने अपनी किताब अल ग़फ़ारी के सफ़ा 121 पर हज़रत अबू ज़र के मुताअल्लिक़ अमीरल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के इरशाद व अला अलमन इज्ज़ फि़हा की शरह करते हुए इमामे अहले सुन्नत इब्ने असीर जज़री की एक इबारत तहरीर की है जिसमें हज़रत अली (अ.स.) की जंग न करने की वजह पर रौशनी पड़ती है। वह यह है:-

निहायतुल लुग़त इब्ने असीर जज़री के सफ़ा 231 में है अल एजाज़ जमा इज्ज़ व हू मोख़राशी यरीद बेहा आखि़रूल अमूर एजाज़ इज्ज़ की जमा है जिसके मानी मोख़रशी के हैं और जिसका मतलब आखि़र उमूर तक पहुंचने से मुताअल्लिक़ है। इसके बाद अल्लामा जज़री लफ़्ज़े एजाज़ की शरह करते हुए हज़रत अली (अ.स.) की एक हदीस नक़ल फ़रमाते हैं वमन हदीस अली लना हक़ अन नाता नाख़ज़ा व अन नमनआ नरक़ब एजाज़ अल बल व अन ताक़ा सरा आप फ़रमाते हैं खि़लाफ़त हमारा हक़ है अगर दे दिया गया तो ले लेगें और अगर हमें रोक दिया यानी हमें न दिया गया तो हम ऐजाज़े अबल पर सवारी करेंगे। यानी आखि़र तक अपने इस हक़ के लिये जद्दो जेहद जारी रखेंगे और उसमें मुद्दत की परवाह न करेंगे, यहां तक कि उसे हासिल कर लें। यही वजह है कि सलम व सब्र अल्ल ताख़ीर वलम यक़ातल व इननमा क़ातल बाद एन्आक़ाद अल इमामता दिल तंग और सब्र के आखि़र तक बैठे रहे और ख़ुल्फ़ाए वक़्त से जंग नहीं की फिर जब उन्होंने इमामत (खि़लाफ़त) हासिल कर ली तो उसे सही उसूलों पर चलाने के लिये ज़रूरी समझा।

 

हज़रत अली (अ.स.) का क़ुरआन पेश करना

नूरूल अबसार इमाम शबलन्जी में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने रसूले करीम स. के ज़माने में क़ुरआने मजीद जमा कर के आं हज़रत की खि़दमत में पेश किया था। जिल्द 1 सफ़ा 73, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 76 में है कि जब आपको बैय्यते अबू बक्र के लिये मजबूर किया गया और कहा गया तो आपने फ़रमाया कि मैंने क़सम खाई है कि जब तक क़ुरआने मजीद को मुकम्मल तौर पर जमा न कर लूँगा रिदा न ओढ़ूगां। (एतक़ाने सियूती सफ़ा 57) हबीब अल सियर जिल्द 1 सफ़ा 4 में है कि अली (अ.स.) का क़ुरआन तन्ज़ील के मुताबिक़ था। बेहारूल अनवार व मनाकि़ब जिल्द 2 सफ़ा 66 में है कि अमीरूल मोमेनीन ने पूरा क़ुरआन जमा करने के बाद उसे चादर में लपेटा और ले कर मस्जिद मे पहुँचे और हज़रत अबू बक्र से कहा कि यह क़ुरआन है जिसे मैंने तन्ज़ील के मुताबिक़ जमा किया है और जो आं हज़रत स. की नज़र से गुज़र चुका है, इसे ले लो और राएज कर दो। आपने यह भी कहा कि मैं इसे इस लिये पेश कर रहा हूँ  कि मुझे आं हज़रत (अ.स.) ने हुक्म दिया था कि एतमामे हुज्जत के लिये पेश करना। किताब फ़सल अल ख़त्ताब में है कि उन्होंने जवाब दिया कि इसे वापस ले जाओ। हमें तुम्हारे क़ुरआन की ज़रूरत नहीं है। अल्लामा सियोती तारीख़ुल ख़ुलफ़़ा के सफ़ा 184 में इब्ने सीरीन का क़ौल नक़ल करते हुए लिखते हैं कि अगर वह क़ुरआन क़ुबूल कर लिया गया होता तो लोगों को बे इन्तेहा फ़ाएदा पहुँचता।

 

हज़रत अली (अ.स.) के मुहाफि़ज़े इस्लाम मशवरे

यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि अपने से पहले ख़ुलेफ़ा को गद्दार, ख़ाईन, काजि़ब, गुनाहगार समझते थे। (सही मुस्लिम जिल्द 2 सफ़ा 91 प्रकाशित नवल किशोर) और उनकी सीरत से इस दरजा बेज़ार थे कि मौक़ाए तक़र्रूरे खि़लाफ़त हज़रत उस्मान, सीरते शेख़ैन की शर्त की वजह से तख़्त छोड़ना गवारा किया था लेकिन इस से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हज़रत अली (अ.स.) अपने ज़ाती जज़बात पर ख़ुदा व रसूल स. के जज़बात को मुक़द्दम रखते थेे। अमरो बिन अब्दवुद ने जब जंगे खन्दक में आपके चेहरा ए मुबारक के साथ लोआबे दहन से बे अदबी की थी और आपको ग़ुस्सा आ गया था तो आप सीने से उतर आए थे, ताके कारे ख़ुदा में अपना ज़ाती ग़ुस्सा शामिल न हो जाय। यही वजह थी कि आप दिल तंग और नाराज़ होने के बवजूद तहफ़्फ़ुज़े वक़ारे इस्लाम की ख़ातिर ख़ुलफ़ा को अपने मज़ीद मशवरों से नवाज़ते रहे। मिसाल के लिये मुलाहेज़ा हों।

1. क़ैसरे रोम ने दूसरे ख़लीफ़ा से सवाल कर दिया कि आपके क़ुरआन में कौन सा सूरा है जो सिर्फ़ सात आयतों पर मुशतमिल है और इसमें सात हुरूफ़ हुरूफ़े तहजी के नहीं हैं। इस सवाल से आलमे इस्लाम मे हलचल मच गई। हुफ़्फ़ाज़ ने बहुत गौरो फि़क्र के बाद हथियार डाल दिये। हज़रत उमर ने हज़रत अली (अ.स.) को बुलवा भेजा और यह सवाल सामने रखा, आपने फ़ौरन इरशाद फ़रमाया कि वह सूरा ए हम्द है। इस सूरे में सात आयतें हैं और इसमें से, जीम, ख़े, ज़े, शीन, ज़ोय, फ़े नहीं हैं।

2. उलमाए यहूद ने दूसरे ख़लीफ़ा से असहाबे कहफ़ के बारे में चन्द सवालात किये, आप उनका जवाब न दे सके और आप ने अली (अ.स.) की तरफ़ रूजु की, हज़रत ने ऐसा जवाब दिया कि वह पूरे तौर पर मुतमइन हो गये। हज्रे अस्वद के बोसा देेने पर हज़रत अली (अ.स.) ने जो बयान दिया है उस से हज़रत उमर की पशेमानी, बुदूरे साफ़रा सियूती में मौजूद है।

3. एहदे अव्वल में नीज़ अहदे सानी की इब्तेदा में शराब पीने पर (40) चालीस कोड़े मारे जाते थे। हज़रत उमर ने यह देख कर कि इस हद से रोब नहीं जमता और कसरत से शराब पी रहे हैं, हज़रत अली (अ.स.) से मशवेरा किया, आपने फ़रमाया कि चालीस के बजाय (80) अस्सी कोड़े कर दिये जायंे और उसके लिये यह दलील पेश की कि जो शराब पीता है वह नशे में होता है और जिसको नशा होता है वह हिज़यान बकता है और जो हिज़यान बकता है वह इफ़तेरा करता है। व अली अल मुफ़तरी समानून और इफ़तेरा करने वालों की सज़ा अस्सी कोड़े हैं लेहाज़ा शराबी को भी अस्सी कोड़े मारने चाहिये। हज़रत उमर ने इसे तस्लीम कर लिया। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 104)

4. एक हामेला औरत ने जे़ना किया हज़रत उमर ने हुक्म दिया कि उसे संगसार किया जाए। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि ज़ेना औरत ने किया है लेकिन वह बच्चा जो पेट में है, उसकी कोई ख़ता नहीं, लेहाज़ा औरत पर उस वक़्त हद जारी की जाए जब वज़ए हमल हो चुके। हज़रत उमर ने तस्लीम कर लिया और साथ ही साथ कहाः अगर अली न होते तो उमर हलाक हो जाता।

5. जंगे रूम में आपने जाने के मुताअल्लिक़ हज़रत उमर ने हज़र अली (अ.स.) से मशवेरा किया।

6. जंगे फ़ारस में भी खुद शरीके जंग होने के मुताअल्लिक़ हज़रत अली (अ.स.) से मशवेरा लिया। मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत अली (अ.स.) ने हज़रत उमर को ख़ुद जंग में जाने से रोका और फ़रमाया कि अगर आप शहीद हो जायेंगे तो कसरे शाने इस्लाम होगी। हज़रत अली (अ.स.) के मशवेरे पर हज़रत उमर बहादुरों के मुसलसल ज़ोर देने के बावजूद जंग में शरीक न हुए। मेरा ख़्याल है कि हज़रत अली (अ.स.) ने निहायत ही साएब मशवेरा दिया था क्यों कि वह जंगे बद्र और ख़ैबर, ख़न्दक़ के वाक़ेयात व हालात से वाकि़फ़ थे। अगर ख़ुदा न ख़ासता मैदान छूट जाता तो यक़ीनन कसरे शाने इस्लाम होती। अगर शहादत से कसरे शाने इस्लाम का अन्देशा होता तो हज़रत अली (अ.स.) सरवरे कायनात स. को भी मशवेरा देते कि आप किसी जंग में ख़ुद न जाइये। तारीख़ में है कि वह बराबर जाते और ज़ख़्मी होते रहे। ओहद में तो जान ही ख़तरे में आ गई थी।

7. मिस्टर अमीर अली तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) के मशवेरे से ज़मीन की पैमाईश की गई और माल गुज़ारी का तरीक़ा राएज किया गया।

8. आप ही के मशवेरे से सन् हिजरी क़ायम हुआ।

 


 

मशवरों के मुताअल्लिक़ इस्लाम की रायें

अल्लामा इब्ने अबिल हदीद लिखते हैं कि जब हज़रते उमर ने चाहा कि ख़ुद जंगे रोम व ईरान में जायें तो हज़रत अली (अ.स.) ही ने उनको मुफ़ीद मशवेरा दिया जिसको हज़रत उमर ने शुकरिये के साथ क़ुबूल किया और वह अपने इरादे से बाज़ रहे और हज़रत उस्मान को भी ऐसे क़ीमती मशवेरे दिये जिनको अगर वह क़ुबूल कर लेते तो उन्हें हवादिसों आफ़ात का सामना न करना पड़ता। उबैद उल्लाह अमरतसरी लिखते हैं कि तमाम मुवर्रेख़ीन मुत्तफि़क़ हैं कि इस्लाम में हज़रत उमर से ज़्यादा कोई ख़लीफ़ा मुदब्बिर पैदा नहीं हुआ इसकी ख़ास वजह यह थी कि हज़रत उमर हर बाब में हज़रत अली (अ.स.) से मशवेरा लेते थे। (अरजहुल मतालिब सफ़ा 227) मिस्टर अमीर अली लिखते हैं कि हज़रत उमर के अहदे हुकूमत में जितने काम रेफ़ाहे आम के हुये वह सब हज़रत अली (अ.स.) की सलाह व मशवरे से अमल में आये।

(तारीख़े इस्लाम)

 

मशवरों के अलावा जानी इमदाद

हज़रत अली (अ.स.) ने सिर्फ़ मशवेरों ही से अहदे गोशा नशीनी में इस्लाम की मदद नहीं कि बल्कि जानी खि़दमात भी अन्जाम दी है। मिसाल के लिये अर्ज़ है कि जब फ़तेह मिस्र का मौक़ा आया तो हज़रत अली (अ.स.) ने अपने ख़ानदान के नौजवानों को फ़ौज में भरती कराया और उनके ज़रिये से जंगी खि़दमात अन्जाम दिये। शैख़ मौहम्मद इब्ने मौहम्मद बिन मआज़ मम्लेकते मिस्र में मुसलमानों की फ़तूहात के सिलसिले में कहते हैं कि मुबारकबाद के क़ाबिल हैं हज़रत अली (अ.स.) के भतीजे और दामाद मुस्लिम बिन अक़ील और उनके भाई जिन्होंने महाज़े मिस्र में सख़्त जंग की और इस दरजा ज़ख़्मी हुए कि ख़ून उनकी जि़रह पर से जारी था और ऐसा मालूम होता था कि ऊँट के जिगर के टूकड़े हैं। (मुलाहेज़ा हो किताब फ़तूहात, सफ़ा 64 प्रकाशित बम्बई 1286 ई0) इसी तरह फ़तेह शुशतर के मौक़े पर 170 हिजरी में आपके भतीजे मौहम्मद इब्ने जाफ़र और औन बिन जाफ़र शहीद हुए।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 81 बा हवाला तारीख़े कामिल व इस्तियाब।)

 

हज़रत अली (अ.स.) और इस्लाम में सड़कों की तामीरी बुनियाद

हज़रत अली (अ.स.) बज़ाते खु़द सीराते मुस्तक़ीम थे और आपको रास्तो से ज़्यादा दिलचस्पी थी। आप फ़रमाते थे कि मैं ज़मीन व आसमान के रास्तों से वाकि़फ़ हूँ। हाफि़ज़ हैदर अली क़लन्दर सीरते अलविया में लिखते हैं कि जजि़ये का माल व रूपया लशकर की आरास्तगी सरहद की हिफ़ाज़त और कि़लों की तामीर में सर्फ़ होता था और जो उससे बच रहता था वह सड़को पुलांे की तय्यारी और सरिशतये तालीम के काम में आता था। (एहसनुल इन्तेख़ाब, सफ़ा 488 प्रकाशित लखनऊ 1351 हिजरी)

इसी सीरते अलविया की रौशनी में फि़क़ही किताबों में सड़क की तामीर की तरफ़ लफ़्ज़े फ़ी सबी लिल्लाह से इशारा किया गया है। (शराए अल इस्लाम प्रकाशित ईरान 1207 ई0) में है कि फ़ी सबी लिल्लाह से मुराद मख़सूस जंगी एख़राजात हैं और एक क़ौल है कि इसमें रास्तों और पुलों की तामीर, ज़ायरों की इमदाद, मस्जिदों की मरम्मत भी शामिल है और मुजाहिद को चाहे वह अपने मामेलात में ग़नी हीं क्यों न हो इमदाद देनी ज़रूरी है। सबील माने रास्ते के हैं और इसकी इज़ाफ़त अल्लाह की तरफ़ देने से बाहवाला मज़कूरा साबित होता है कि सड़क की तामीर को भी ख़ास अहमियत हासिल है। इसी लिये हज़रत अली (अ.स.) ने सड़क की तामीर में पूरे इनहेमाक का सुबूत दिया है। अल्लामा हाशिम बहरैनी किताब मदीनातुल मआजिज़ के सफ़ा 79 पर बाहवाला इब्ने शहरे आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने 17 मील तक अपने हाथों से ज़मीन हमवार की और सड़क की तामीर फ़रमाई और हर मील पर पत्थर नस्ब कर के उन पर हाज़ा मीले अली तहरीर फ़रमाया चूंकि इस ज़माने मे नक़लो हमल का कोई ज़रिया न था इस लिये इन वज़नी पत्थरों को जिन्हें बड़े क़वी हैक़ल लोग उठा न सकते थे। हज़रत अली (अ.स.) ख़ुद उठा कर ले जाते थे और नस्ब करते थे और उठाने की शान यह थी कि दो पत्थरों को हाथों में ले लेते थे और एक को पैरों की ठोकरों से आगे बढ़ाते थे। इसी तरह तीन तीन पत्थर ले जा कर हर मील पर संगे मील नस्ब करते थे। अल्लामा शिब्ली ने हज़रत उमर के मोहक़्मए जंगी की ईजाद को अल फ़ारूख़ में बड़े शद्दो मद से लिखा है, लेकिन हज़रत अली (अ.स.) की इस अहम रिफ़ाही खि़दमत का कहीं भी कोई जि़क्र नहीं किया हालाकि हज़रत अली (अ.स.) की यह वह बुनियादी खि़दमत है जिसका जवाब ना मुमकिन है।

 

हज़रते उस्मान की खि़लाफ़त और वफ़ात

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़राते शेख़ैन की वफ़ात के बाद मसलए खि़लाफ़त फिर ज़ेरे बहस लाया गया और हज़रत अली (अ.स.) से कहा गया कि आप सीरते शेख़ैन पर अमल पैरा होने का वायदा कीजिये तो आपको ख़लीफ़ा बना दिया जाए। आपने फ़रमाया कि मैं खुदा व रसूल स. और अपनी साएब राय पर अमल करूंगा लेकिन सीरते शेख़ैन पर अमल नहीं कर सकता। (तबरी जिल्द 5 सफ़ा 37 व शरह फि़क़हे अकबर सफ़ा 80 और तारीखुल क़ुरआन सफ़ा 36 प्रकाशित जद्दा) इस फ़रमाने के बाद लोगों ने इसी इक़रार के ज़रिये हज़रत उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया। हज़रत उस्मान ने अपने अहदे खि़लाफ़त में ख़ुवेश परवरी, अक़रेबा नवाज़ी की। बड़े बड़े अस्हाबे रसूल स. को जिला वतन किया। बैतुल माल के माल में बेजा तसर्रूफ़ किया। अपनी लड़की के लिये महर तामीर कराये। मरवान बिन हकम को अपना दामाद और वज़ीरे आज़म बना लिया। हालांकि रसूल अल्लाह स. उसे शहर बदर कर चुके थे, और शेख़ैन ने भी इसे दाखि़ले मदीना नहीं होने दिया था। फि़दक इसके हवाले कर दिया। बाज़ मोअजि़्ज़ज़ सहाबा को पिटवाया। गुज़रे हुए अहद में जो क़ुरआन राएज थे उन्हे जमा कर के जला दिया। जिन असहाब ने अपने क़ुरआन न दिये थे उन्हें मस्जिद मे इतना पिटवाया कि पसलियां टूट गईं। हज़रत आयशा उम्मुल मोमेनीन का वज़ीफ़ा बन्द कर दिया और हज़रत मौहम्मद इब्ने अबी बक्र को क़त्ल कर देने की पूरी साजि़श की। इन्हीं हालात की वजह से नतीजा यह बरामद हुआ कि हज़रत आयशा ने लोगों को हुक्म दिया कि अक़तलू नासल इस लम्बी दाढ़ी वाले को क़त्ल कर दो।

(रौज़ातुल अहबाब जिल्द 3 सफ़ा 12 -20, मजमउल बिहार सफ़ा 372, नहाया इब्ने असीर सफ़ा 166)

इस फ़रमाने के बाद आप हज को तशरीफ़ ले गईं। आपके जाने के बाद लोगों ने उस्मान को क़त्ल कर डाला। जब आपको मक्के में क़त्ले उस्मान की ख़बर मिली तो आप बहुत ख़ुश हुईं। मुवर्रेख़ीन ने लिखा है कि आपके जनाज़े पर हज़रत अली (अ.स.) मदीने में होने के बावजूद नमाज़े जनाज़ा न पढ़ सके। आपकी लाश कुड़े पर डाल दी गई और कुत्तो ने एक टांग खा ली। (तारीख़े आसम कूफ़ी) अलग़रज़ आप 18 जि़ल्हिज्जा सन् 35 हिजरी यौमे जुमा 88 साल की उम्र में क़त्ल हो कर यहूदियों के क़बरस्तान (ख़शे कौकब) में दफ़्न हुये।

 

हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़ते ज़ाहेरी

पैग़म्बरे इस्लाम स. के इन्तेक़ाल के बाद हज़रत अली (अ.स.) गोशा नशीनी के आलम में फ़राएज़े मन्सबी अदा फ़रमाते रहे यहां तक कि खि़लाफ़त के तीन दौरे इस्लाम की तक़दीर के चक्कर बन कर गुज़र गये और 35 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त ख़ाली हो गया। 23, 24 साल की मुद्दते हालात को परखने और हक़ व बातिल के फ़ैसले के लिये काफ़ी होती हैं। बिल आखि़र असहाब इस नतीजे पर पहुँचे कि तख़्ते खि़लाफ़त हज़रत अली (अ.स.) को बिला शर्त हवाले कर देना चाहिये। चुनान्चे असहाब का एक अज़ीम गिरोह हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हुआ। इस गिरोह में ईराक़, मिस्र, शाम, हिजाज़, फि़लस्तीन और यमन के नुमाइन्दे शामिल थे। उन लोगों ने खि़लाफ़त क़ुबूल करने की दरख़्वास्त की।

हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया मुझे इसकी तरफ़ रग़बत नहीं है तुम किसी और को ख़लीफ़ा बना लो। इब्ने ख़लदून का बयान है कि जब लोगों ने इस्लाम के अन्जाम से हज़रत को डराया, तो आपने रज़ा ज़ाहिर फ़रमाई। नहजुल बलाग़ा में है कि आपने फ़रमाया कि मैं ख़लीफ़ा हो जाऊंगा तो तुम्हे हुक्मे ख़ुदावन्दी मानना पड़ेगा। बहर हाल आपने ज़ाहेरी खि़लाफ़त क़ुबूल फ़रमा ली। मुसन्निफ़ बिरीफ़ सरवे ने लिखा है कि अली (अ.स.) 655 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त पर बिठाए गये। जो हक़ीक़त के लेहाज़ से रसूल स. के बाद ही होना चाहिये था। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 26) रौज़ातुल अहबाब में है कि खि़लाफ़ते ज़ाहिरया क़ुबूल करने के बाद आपने जो पहला ख़ुतबा पढ़ा उसकी इब्तेदा इन लफ़्ज़ो से थी। अलहम्दो लिल्लाह अला एहसाना क़द रजअल हक़ अला मकानेह ख़ुदा का लाख लाख शुक्र और उसका एहसान है कि उसने हक़ को अपने मरकज़ और मकान पर फिर ला मौजूद किया। तारीख़े इस्लाम और जामए अब्बासी में है कि 18 जि़ल्हिज्जा को हज़रत अली (अ.स.) ने खि़लाफ़ते ज़ाहेरी क़ुबूल फ़रमाई और 25 जि़ल्हिज्जा 35 हिजरी को बैयते आम्मा अमल में आई। इन्साइक्लोपीडिया बरटानिका में है कि जब मौहम्मद साहब स. ने इन्तेक़ाल फ़रमाया तो अली (अ.स.) में मज़हबे इस्लाम के मुसल्लम अल सुबूत सरदार होने के हुक़ूक़ मौजूद थे लेकिन दूसरे तीन साहब अबू बक्र, उमर व उस्मान ने जाये खि़लाफ़त पर क़ब्ज़ा कर लिया और अली (अ.स.) मुलक़्क़ब बा ख़लीफ़ा न हुये लेकिन बादे उस्मान 656 हिजरी में अली (अ.स.) ख़लीफ़ा हो गये, अली (अ.स.) के अहदे खि़लाफ़त में सब से पहला काम तलहा व ज़ुबैर की बग़ावत को फ़रो करना था। जिन्हें बी बी आयशा ने बहकाया था। आयशा अली (अ.स.) की सख़्त दुश्मन थीं और ख़ास उन्हीं की वजह से अली (अ.स.) अब तक ख़लीफ़ा न हो सके थे। (मोहज़्ज़ब मुकालेमा, सफ़ा 34) मुवर्रिख़ जरजी ज़ैदान   लिखते हैं कि, अगर हज़रत उमर के ज़माने में जब लोगों के दिलों में नबूवत की दहशत और रिसालत की हैबत क़ायम थी और सच्चा दीन क़ायम था, हज़रत अली (अ.स.) मुसलमानों के हाकिम मुक़र्रर होते तो आपकी हुकूमत और सियासत कहीं बेहतर और आला साबित होती और आपके कामों में ज़र्रा बराबर भी ज़ोफ़ ज़ाहिर न होता लेकिन इसको क्या किया जाय कि आपके पास खि़लाफ़त की खि़दमत उस वक़्त आई जब लोगों की नियतें फ़ासिद हो गईं थीं और इन्तेज़ामाते मुल्की और उसूली हुकूमत के मुताअल्लिक़ वालियो और मातहतों के दिलों में हिरस व लालच पैदा हो गई थी और इन सब से ज़्यादा लालची और मक्कार माविया इब्ने अबू सुफि़यान था क्योकि इसने अपनी हुकूमत जमाने के लिये लोगों को धोका फ़रेब दे कर उनके साथ मक्र व हीला कर के और मुसलमानों का माल बे दरेग़ लुटा कर लोगों को अपनी तरफ़ कर लिया था। (तारीख़ अल तमद्दुन अल इस्लामी 4 सफ़ा 37 प्रकाशित मिस्र)

फ़ाजि़ल माअसर सैय्यद इब्ने हसन जारचावी लिखते हैं कि अगर अली (अ.स.) रसूल स. के बाद ही ख़लीफ़ा तसलीम कर लिये जाते तो दुनिया मिनहाजे रिसालत पर चलती और राहवारे सलतनत व हुकूमत दीने हक़ की शाहराह पर सरपट दौड़ता मगर मसलेहत और दूर अन्देशी के नाम से जो आइन व रूसूम हुकमरां जमाअत का जुज़वे जि़न्दगी और औढना बिछोना बन गये थे, उन्होंने अली (अ.स.) की पोज़ीशन नाहमवार और उनका मौकफ़ ना इस्तेवार बना दिया था। पिछलों दौर की गै़र इस्लामी रसमों और इम्तियाज़ पसन्द ज़ेहनियतों की इस्लाह करने में उनको बड़ी दिक़्क़त हुई और फि़र भी खा़तिर ख़्वाह कामयाबी हासिल न हो सकी। तबीयते आदम मसावात की खूगर और माअशरती अदल से कोसों दूर हो चुकी थीं।

टली (अ.स.) ने बैअत के दूसरे रौज़ बैतुल माल का जायज़ा लिया और सब को बराबर तक़सीम कर दिया। हबशी ग़ुलाम और क़ुरैशी सरदार दोनों को दो दो दिरहम मिले। इस पर पेशानी पर सिलवटें पड़ने लगीं। बनी उमय्या को इस दौर में अपनी दाल गलते नज़र न आई। कुछ माविया से जा मिले, कुछ उम्मुल मोमेनीन आयशा के पास मक्के जा पहुँचे। आसम कूफ़ी का बयान है कि आयशा हज से वापस आ रहीं थीं कि उन्हें क़त्ले उस्मान की ख़बर मिली। उन्होने निहायत इशतेयाक़ से पूछा कि अब कौन ख़लीफ़ा हुआ। कहा गया, अली यह सुन कर बिल्कुल ख़ामोश हुईं। अब्दुल्लाह इब्ने सलमा ने कहा, क्या आप उस्मान की मज़म्मत और अली (अ.स.) की तारीफ़ नहीं करती थीं, अब नाख़ुश का सबब क्या है? फ़रमाया आखि़र वक़्त में उसने तौबा कर ली थी। अब उसका क़सास चाहती हूं। इब्ने ख़ल्दून का बयान है कि आयशा ने ऐलान कराया कि जो शख़्स इस्लाम की हमदर्दी करना और ख़ूने उस्मान का बदला लेना चाहता हो और उसके पास सवारी न हो, वह आय उसे सवारी दी जायेगी। बिरीफ़ सरवे ऑफ़ हिस्ट्री में है कि आयशा जो अली (अ.स.) की पुरानी और हमेशा की दुश्मन थीं अदावत में इस कद्र बढ़ गईं कि उनके माज़ूद कर ने के लिये एक फ़ौज जमा कर ली।

हज़रत अली (अ.स.) को एक दूसरी दिक़्क़त यह दरपेश थी कि सारा आलमे इस्लाम इन उमवी आमिलो और हाकिमों से तंग आ गया था जो हज़रत उस्मान के अहद में मामूर थे, अगर अली (अ.स.) उनको ब दस्तूर रहने देते तो हुकूमत के बवजूद जमहूर को चैन न मिलता, और अगर हटाते हैं तो मुखा़लिफ़ों की तादाद में इज़ाफ़ा करते हैं। हुक्काम व आमिल मुद्दत से ख़ुदसरी के आदी और बैतूल माल को हज़म करने के ख़ूगर हो चुके थे। अकसर उनमें ऐसे थे जिनके बाप दादा अज़ीज़ व अक़रोबा अली (अ.स.) की तलवार से मौत के घाट उतर चुके थे या अली (अ.स.) को खरे और बे लौस अदलों इन्साफ़ का तमाशा देख चुके थे। उनको नज़र आ रहा था कि अली (अ.स.) हैं तो हम नहीं रह सकते और रहे भी तो मन मानी नहीं कर सकते। उन्होने वह कमीनगाह (छुपने की जगह) तलाश की जहां बैठ कर वह दामादे रसूल स.अ.व.व पर तीर चला सकें और वह मोरचे बनाए और वह घाटियां खोदीं जिनकी आड़ में छुप कर वह नई हुकूमत को जड़ से उखाड़ सकें।

तलहा व ज़ुबैर जो ख़ुद हुकूमत के ख़्वाहां और खि़लाफ़त के आरज़ू मन्द थे और हज़रत आयशा की हिमायत और मदद उनको हासिल थी। पहले तो हज़रत अली (अ.स.) से बैयत कर बैठे, फिर लगे उनसे साजि़शे करने। एक दिन आय और बसरे और कूफ़े की हुकूमत तलब करने लगे। हज़रत अली अ ने कहा मुझे तुम्हारी ज़रूरत है, मदीने में रहो और रोज़ मर्रा के कारोबारे हुकूमत में मेरी मदद करो। दूसरे दिन वह मक्का जाने की इजाज़त मांगने आय। वाशिंगटन एयरविंग लिखता है, ऐसी हालत में कि लब पर तक़वा और दिल में मक्र था। यह आयशा से जा मिले जो मुख़ालेफ़त के लिये तैय्यार थीं। यही मुवर्रिख़ लिखता है। अली (अ.स.) ख़लीफ़ा हो गये लेकिन देखते थे कि उनकी हुकूमत जीम नही है। गुज़शता ख़लीफ़ा के ज़माने में बहुत सी बद उन्वानियां पैदा हो गईं थीं जिनमें इस्लाह की ज़रूरत थी और बहुत से सूबे उन लोगों के हाथ में थे जिनकी वफ़ादारी पर उनको मुतलक़न एतेमाद न था। उन्होंने इस्लाहे आम का इरादा किया।

 

गवरनरों की तक़र्रूरी

पहली इस्लाह यह थी कि गवर्नर हटा दिये जायें। लोगों ने उनके इस अमल की मोअफ़ेक़त न की मगर अली (अ.स.) ने न माना और गवरनरों की तक़र्रूरी फ़रमा दी। आपने हालाते हाज़रा के पेशे नज़र इस ओहदे पर ज़्यादा उन लोगों को फ़ाएज़ किया जिन पर आपको कामिल एतेमाद था और जो अहदे साबिक़ में अपने हुक़ूक़े सरदारी से महरूम रखे गये थे। आपने अब्दुल्लाह को यमन का, सईद को बहरैन का, समाआ को तहामा का, औन को मियामा का, क़सम को मक्के का, क़ैस को मिस्र का, उस्मान बिन हनीफ़ को बसरे का, अम्मार को कूफ़े का और सहल को शाम का गवर्नर मुक़र्रर फ़रमा दिया। हज़रत अली (अ.स.) को सलाह दी गई कि वह माविया को अपनी जगह रहने दें मगर अली (अ.स.) ने ऐसी सलाहों पर तवज्जोह न की और क़सम खाई कि मैं रास्ते से मुन्हरिफ़ उमूर पर अमल न करूंगा। एहसान अल्लाह अब्बासी तारीख़े इस्लाम में लिखतें हैं। अली (अ.स.) ने सीधे तौर पर जवाब दिया कि मैं उम्मते रसूल स. पर बूरे लोगों को हुक्मरां नहीं रख सकता। अल्लामा जरज़ी ज़ैदान तारीख़े तमद्दुने इस्लामी में लिखते हैं, यह अम्र पहले मालूम हो चुका है कि अबू सुफि़यान और उसकी औलाद ने महज़ मजबूरी के आलम में इस्लाम क़ुबूल किया था क्यों कि उनको अपनी कामयाबी से मायूसी हो चुकि थी इस लिये माविया को खि़लाफ़त की आरज़ू महज़ दुनियावी अग़राज़ की वजह से पैदा हुई। क़ुरैश के चन्द चीदा चीदा सरदार उनके पास जमा हो गये। अग़राज़े नफ़सानी की बिना पर मन्सबे खि़लाफ़त का ख़ानदाने बनी हाशिम में जाना उनको बहुत शाक़ गुज़र रहा था।

आमिल हटते गये और कुछ माविया के पास शाम में और कुछ उम्मुल मोमेनीन आयशा के पास मक्के में जमा होते गये। तलहा व जु़बैर मक्के जा कर उम्मुल मोमेनीन से मिले और इन्तेक़ामे उस्मान के नाम से एक तहरीक उठाई। अब्दुल्लाह इब्ने आमिर और लैला इब्ने उमय्या ने जो माज़ूल गवर्नर थे और बैतुल माल का रूपया ले कर भाग आय थे माली इम्दाद दी। तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 169 में है कि बा रवायते साहबे रौज़ातुल अहबाब व इब्ने ख़लदून, इब्ने असीर लैला ने जनाबे आयशा को साठ हज़ार (60,000) दीनार जो छः लाख (6,00,000) दिरहम होते हैं और छः सौ (600) ऊँट इस ग़रज़ से दिये कि अली (अ.स.) से लड़ने की तैय्यारी करें। उन्हीं ऊँटों में एक निहायत उम्दा अज़ीम उल जुस्सा ऊँट था जिसका नाम असकर था और जिसकी क़ीमत ब रवायत मसूदी दो सौ अशरफ़ी थी। मुवर्रिख़ीन का बयान है कि इसी ऊँट पर सवार हो कर जनाब उम्मुल मोमेनीन आयशा दामादे रसूल स. शौहरे बुतूल अली (अ.स.) से लड़ीं और इसी ऊँट की सवारी की वजह से इस लड़ाई को जंगे जमल कहा गया।

 


 

जंगे जमल

 (36 हिजरी)

यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि हज़रत अली (अ.स.) क़त्ले उस्मान के बाद 18 जि़लहिज्जा 35 हिजरी को तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतमक्किन हुये और आपने अनाने हुकूमत संभालने के बाद सब से पहला जो काम किया वह क़त्ले उस्मान की तहक़ीक़ात से मुताअल्लिक़ था। नायला ज़वजए उस्मान अगरचे कोई शहादत न दे सकीं और किसी का नाम न बता सकीं नीज़ उनके अलावा भी कोई चश्म दीद गवाह न मिल सका, जिसकी वजह से फ़ौरी सज़ाएं दी जायें लेेकिन हज़रत अली (अ.स.) तहक़ीक़ाते यक़ीनीया का अज़मे समीम कर चुके थे। अभी आप किसी नतीजे पर न पहुँचने पाये थे कि मक्के में साजि़शें शुरू हो गईं। हज़रत आयशा जो हज से फ़राग़त के बाद मदीने के लिये रवाना हो चुकी थीं और खि़लाफ़ते अली (अ.स.) की ख़बर पाने के बाद फिर मक्के में जा कर फ़रोकश हो गईं थीं। उन्होंने चार यारान, तल्हा, ज़ुबैर, अब्दुल्लाह, अबुल याअली के मशवेरे से इन्तेक़ामे ख़ूने उस्मान के नाम से एक साजि़शी तहरीक की बुनियाद डाल दी और क़त्ले उस्मान का इल्ज़ाम हज़रत अली (अ.स.) पर लगा कर लोगों को भड़काना शुरू कर दिया और इसका ऐलाने आम करा दिया कि जिसके पास अली (अ.स.) से लड़ने के लिये मदीना जाने के वास्ते सवारी न हो वह हमें इत्तेला दे, हम सवारी का बन्दो बस्त करेंगे। उस वक़्त अली (अ.स.) के दुश्मनों की कमी नहीं थी। किसी को आप से बुग़ज़े लिल्लाही था, कोई जंगे बद्र में अपने किसी अज़ीज़ के मारे जाने से मुतास्सिर था, किसी को प्रोपेगन्डे ने मुतास्सिर कर दिया गया था। ग़रज़ के एक हज़ार अफ़राद हज़रत आयशा की आवाज़ पर मक्के में जमा हो गये और प्रोग्राम बनाया गया कि सब से पहले बसरे पर छापा मारा जाय। चुनान्चे आप इन्हीं मज़कूरा चारों अफ़राद के मैमने और मैसरे पर मुशतमिल लशकर ले कर बसरे की तरफ़ रवाना हो गईं। आपके साथ अज़वाजे नबी में से कोई भी बीबी नहीं गई। हज़रत आयशा का यह लशकर जब मुक़ामे जातुल अरक़  में पहुँचा तो मुगीरा और सईद इब्ने आस ने लश्कर से मुलाक़ात की और कहा कि तुम अगर ख़ूने उस्मान का बदला लेना चाहते हो तो तल्हा और ज़ुबैर से लो क्यो कि उस्मान के सही क़ातिल यह हैं और अब तुम्हारे तरफ़दार बन गये हैं। इतिहास में है कि रवानगी के बाद जब मक़ामे हव्वाब पर हज़रत आयशा की सवारी पहुँची और कुत्ते भौंकने लगे तो उम्मुल मोमेनीन ने पूछा कि यह कौन सा मुक़ाम है? किसी ने कहा इसे हवाब कहते हैं। हज़रत आयशा ने उम्मे सलमा की याद दिलाई हुई हदीस का हवाला हो दे कर कहा कि मैं अब अली (अ.स.) से जंग के लिये नहीं जाऊँगी क्यों कि रसूल अल्लाह स. ने फ़रमाया था कि मेरी एक बीवी पर हवाब के कुत्ते भौकेंगे और वह हक़ पर न होगी लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर के जि़द करने से आगे बढ़ीं, बिल आखि़र बसरे जा पहुँचीं और वहां के अलवी गर्वनर उस्मान बिन हनीफ़ पर रातो रात हमला किया और चालीस आदमियों को मस्जिद में क़त्ल करा दिया और उस्मान बिन हनीफ़ को गिरफ़्तार करा के उनके सर, डाढ़ी, मूंछ, भवें और पलकों के बाल नुचवा डाले और उन्हें चालीस कोडे़ मार कर छोड़ दिया। उनकी मद्द के लिये हकीम इब्ने जब्लता आये तो उन्हें भी सत्तर आदमियों समेत क़त्ल करा दिया गया। इस के बाद बैतुल मार पर क़ब्ज़ा न देने की वजह से सत्तर आदमी और शहीद हुए, यह वाक़ेया 25 रबीउस सानी, 36 हिजरी का है।

(तबरी)

हज़रत अली (अ.स.) को जब इत्तेला मिली तो आपने भी तैय्यारी शुरू कर दी, अभी आप बसरे की तरफ़ रवाना न होने पाये थे कि मक्के से उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा का ख़त आ गया। जिसमें लिखा था कि आयशा हुक्मे ख़ुदा व रसूल स. के खि़लाफ़ आपसे लड़ने के लिये मक्के से रवाना हो गई हैं, मुझे अफ़सोस है कि मैं औरत हूँ, हाजि़र नहीं हो सकती, अपने बेटे उमर बिन अबी सलमा को भेजती हूँ इसकी खि़दमत क़ुबूल फ़रमायें।

(आसिम कूफ़ी)

हज़रत अली (अ.स.) आखि़र रबीउल अव्वल 36 हिजरी में अपने लशकर समेत मदीने से रवाना हुए। आपने लश्कर की अलमदारी मोहम्मदे हनफि़या के सिपुर्द की और मैमने पर इमाम हसन (अ.स.) और मैसरे पर इमाम हुसैन (अ.स.) को मुताअय्यन फ़रमाया, और सवारों की सरदारी अम्मारे यासिर और पियादों की नुमाइन्दगी मौहम्मद इब्ने अबी बक्र के हवाले की और मुक़दमा तुल जैश का सरदार अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को क़रार दिया। मुक़ामे ज़ब्दा में आपने क़याम फ़रमाया और वहां से कूफ़े के वाली अबू मूसा अशअरी को लिखा कि फ़ौज रवाना करे, लेकिन चुंकि वह आयशा के ख़त से पहले ही मुतास्सिर हो चुका था लेहाज़ा उसने फ़रमाने अली (अ.स.) को टाल दिया। हज़रत को मक़ामे ज़ीक़ारा पर हालात की इत्तेला मिली, आपने उसे माज़ूद कर के क़रज़ा इब्ने काब को अमीर नामज़द कर दिया और मालिके अशतर के ज़रिेये से दारूल इमाराह ख़ाली करा लिया।

(तबरी)

इसके बाद इमाम हसन (अ.स.) के हमराह 7000 (सात हज़ार) कूफ़ी और मालिके अशतर के हमराह 12000 (बारह हज़ार) कूफ़ी 6 दिन के अन्दर जी़क़ार पहुँच गये। इसी मुक़ाम पर उवैसे क़रनी ने भी पहुँच कर बैयत की। इसी मुक़ाम पर उन ख़ुतूत के जवाब आये जो रबज़ा से हज़रत ने (तल्हा व ज़ुबैर) को लिखे थे जिनमें उनकी हरकतों का तज़किरा किया था और लिखा था कि अपनी औरतों को घर में बिठा कर नामूसे रसूल स. को जो दर बदर फिरा रहे हो इससे बाज़ आओ। जवाबात में इस्कीम के मातहत क़त्ले उस्मान की रट थी। इसके बाद इमाम हसन (अ.स.) ने एक ख़ुतबे में तलहा और ज़ुबैर के क़ातिले उस्मान होने पर रौशनी डाली। हज़रत अभी मक़ामे ज़ीक़ार ही में थे कि मज़लूम उस्मान बिन हनीफ़ आपकी खि़दमत में जा पहुँचे। हज़रत ने उस्मान का हाल देख कर बेहद अफ़सोस किया और फ़ौरन बसरे की तरफ़ रवाना हो गये। मुसन्निफ़ तारीख़े आइम्मा लिखते हैं कि आयशा के लशकर की आख़री तादाद 30,000 (तीस हज़ार) और हज़रत अली (अ.स.) के लशकर की तादाद 20,000 (बीस हज़ार) थी। सफ़ा 265 अल्लामा अब्बासी लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) तलहा, ज़ुबैर और आयशा के तमाम हालात देख रहे थे लेकिन यही चाहते थे कि लडा़ई न हो। जब बसरे के क़रीब आप पहुँचे तो क़आक़ा इब्ने उमरो को उन लोगों के पास भेजा और सुलह की पेश कश की। क़आक़ा ने जो रिर्पोट वापस आकर पहुँचाई इससे वह लोग तो मुतास्सिर हुए जो ज़ेरे क़यादत आसम इब्ने क़लीब अली (अ.स.) के पास बतौरे सफ़ीर आये हुए थे और उनकी तादाद 100 (सौ) थी, लेकिन आयशा वगै़रा पर कोई ख़ास असर न हुआ। आसम वग़ैरा ने अली (अ.स.) की बैयत कर ली और अपनी क़ौम से जा कर कहा कि अली (अ.स.) की बातें नबियों जैसी हैं। ग़रज़ कि दूसरे दिन अली (अ.स.) बसरा पहुँच गये। उसके बाद जमल वाले बसरा से निकल कर मुक़ामे ज़ाबुक़ा या ख़रबिया  में जा ठहरे और वहां से अली (अ.स.) के मुक़ाबले के लिये हज़रत आयशा ऊंट पर सवार हो कर खुद निकल पड़ीं। हज़रत अली (अ.स.) ने अपने लशकर को हुक्म दिया कि आयशा और उनके लशकर पर हमला न करें, न उनका जवाब दें। ग़रज़ कि वह जंग की कोशिश कर के वापस गईं। उसके बाद अली (अ.स.) ने ज़ैद इब्ने सूहान को उम्मुल मोमेनीन के पास भेज कर जंग न करने की ख़्वाहिश की मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ।

15 जमादिल आखि़र 36 हिजरी यौमे पंजशम्बा बा वक़्ते शब तल्हा व ज़ुबैर ने शबख़ूँ मार कर हज़रत अली (अ.स.) को सोते में क़त्ल कर डालना चाहा लेकिन अली (अ.स.) बेदार थे और तहज्जुद में मशग़ूल थे। हज़रत को हमले की ख़बर दी गई, आपने हुक्मे जंग दे दिया। इस तरह जंग का आग़ाज़ हुआ।

 

मैदाने कारज़ार

हज़रत आयशा को तल्हा व ज़ुबैर लोहे व चमड़े से मढ़े हुये हौदज में बैठा कर मैदान में लाये और अलमदारी का मनसब भी उन्हीं के सिपुर्द किया और उसकी सूरत यह की कि हौदज में झन्डा नस्ब कर के मेहारे नाक़ा अस्कर लायली के सिपुर्द कर दी। यह देख कर हज़रत अली (अ.स.) रसूल अल्लाह स. के घोड़े दुलदुल पर सवार हो कर दोंनो लश्करों के दरमियान आ खड़े हुये, और ज़ुबैर को बुला कर कहा कि तुम लोग क्या कर रहे हो, अब भी सोचो और उस पर ग़ौर करो कि रसूल अल्लाह स. ने तुम से क्या कहा था। ऐ ज़ुबैर क्या तुम्हें मुझ से जंग करने के लिये मना नहीं किया था। यह सुन कर ज़ुबैर शरमिन्दा हुए और वापस चले आये लेकिन अपने लड़के अब्दुल्लाह के भड़काने से आयशा की तरफ़दारी में नबरद आज़माई से बाज़ न आये।

अलग़रज़ हज़रत अली (अ.स.) ने जब देखा कि यह जमल वाले ख़ूँरेज़ी से बाज़ न आयेंगे तो अपनी फ़ौज को ख़ुदा की तरसी की तलक़ीन फ़रमाने लगे, आपने कहा:- 1. बहादुरों सिर्फ़ दफ़ये दुश्मन की नियत रखना। 2. इब्तेदाए जंग न करना। 3. मक़तूलो के कपड़े न उतारना। 4. सुलह की पेशकश मान लेना और पेशकश करने वाले के हथियार न लेना। 5. भागने वालों का पीछा न करना। 6. ज़ख़्मी बीमार और औरतों व बच्चों पर हथियार न उठाना। 7. फ़तेह के बाद किसी के घर में न घुसना।

इसके बाद आयशा से फ़रमानो लगे, तुम अनक़रीब पशेमान होगी और अपने लोगों की तरफ़ मुतावज्जे हो कर कहा तुम में कौन ऐसा है जो क़ुरआन के हवाले से जंग करने से बाज़ रखे। यह सुन कर मुस्लिम नामी एक जांबाज़ इस पर तैयार हुआ और क़ुरआन ले कर उनके मजमे में जा घुसा। तल्हा ने उसके हाथ कटवा दिये, और फिर शहीद करा दिया।

हज़रत अली (अ.स.) के लशकर पर तीरों की बारिश शुरू हो गई। बारवायत तबरी आपने फ़रमाया अब इन लोगों से जंग जायज़ है। आपने मौहम्मद बिन हनफि़या को हुक्म दिया, मौहम्मद काफ़ी लड़ कर वापस आये। हज़रत अली (अ.स.) ने अलम ले कर एक ज़बर दस्त हमला किया और कहा बेटा इस तरह लड़ते हैं। फिर अलम मौहम्मद बिन हनफि़या के हाथ में दे कर कहा हां बेटा आगे बढ़ो, मौहम्मद हनफि़या अन्सार ले कर यहां तक कि हौदज तक मारते हुय जा पहुँचेे, बिल आखि़र सात दिन के बाद हज़रत अली (अ.स.) खुद मैदान में निकल पड़े और दुश्मन को पसपा कर डाला। मरवान के ज़हर आलूद तीर से तल्हा मारे गये और ज़ुबैर मैदाने जंग से भाग निकले। रास्ते मे वादीउस्सबा के क़रीब उमर बिने ज़रमोज़ ने उनका काम तमाम कर दिया। उसके बाद हज़रते आयशा बारह हज़ार जर्रार समेत आखि़री हमले के लिये सामने आ गईं। अलवी लशकर ने इस क़दर तीर बरसाए कि हौदज पुश्ते साही के मानिन्द हो गया। हज़रत आयशा ने क़ाअब इब्ने असवद को क़ुरआन दे कर हज़रत अली (अ.स.) के लशकर की तरफ़ भेजा। मालिके अशतर ने उसे रास्ते ही में क़त्ल कर दिया। उसके बाद आयशा के नाक़े को पैय कर दिया गया। ऊँट हौदज समेत गिर पड़ा और लोग भाग निकले। हज़रत अली (अ.स.) ने मौहम्मद बिन अबी बक्र को हुक्म दिया कि हौदज के पास जा कर उसकी हिफ़ाज़त करें। उसके बाद ख़ुद पहुँच कर कहने लगे, आयशा तुम ने हुरमते रसूल बरबाद कर दी। फिर मौहम्मद से फ़रमाया कि इन्हें अब्दुल्लाह इब्ने हनीफ़ ख़ज़ाई बसरी के मकान में ठहरायें । हज़रत ले कुशतों को दफ़्न कर ने का हुक्म दिया, और ऐलाने आम कराया कि जिसका सामान जंग में रह गया हो तो जामेउल बसरा में आ कर ले जाय। मसूदी ने लिखा है कि इस जंग में 13,000 (तेराह हज़ार) आयशा के और 5,000 (पांच हज़ार) हज़रत अली (अ.स.) के लशकर वाले मारे गये।

(मुरूज जुज़हब, जिल्द 5 सफ़ा 177)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि फ़तह के बाद अब्दुल रहमान इब्ने अबी बक्र ने हज़रते अली (अ.स.) की बैयत कर ली। मसूदी और आसम कूफ़ी ने लिखा है कि हज़रत अली (अ.स.) ने आयशा को मुताअदद्दि आदमियों से कहला भेजा कि जल्द से जल्द मदीने वापस चली जाओ, लेकिन उन्होंने एक न सुनी। आखि़र में बारवायते रौज़तुल अहबाब व हबीब उस सैर व आसम कूफ़ी, इमाम हसन (अ.स.) के ज़रिये से कहला भेजा अगर तुम अब जाने में ताख़ीर करोगी तो मैं तुम्हे ज़वजियते रसूल स. से तलाक़ दे दूँगा । यह सुन कर वह मदीने जाने के लिये तैय्यार हो गईं। हज़रते अली (अ.स.) ने चालीस (40) औरतों को मरदों के सिपाहियाना लिबास में हज़रते आयशा की हिफ़ाज़त के लिये साथ कर दिया, और खुद भी बसरे के बाहर तक पहुँचाने गये। (अलखि़ज़री जिल्द 2 सफ़ा 90) और मौहम्मद बिन अबी बक्र को हुक्म दिया कि इन्हें मंजि़ले मक़सूद तक जा कर पहुँचा आओ। एयरविंग लिखता है कि आयशा को अली (अ.स.) के हाथों सख़्त बरताव की उम्मीद हो सकती थी लेकिन वह आली हौसला शख़्स ऐसा न था जो एक गिरे हुए दुशमन पर शान दिखाता। उन्होंने इज़्ज़त दी और चालीस आदमियों के साथ मदीने के तरफ़ रवाना कर दिया।

उसके बाद हज़रत अली (अ.स.) ने बसरे के बैतुल माल का जायज़ा लिया, 6,00,000 (छः लाख) दुर्रे आबदार बरामद हुये, आपने सब अहले मारेका पर तक़सीम कर दिये और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को वहां का गवर्नर मुक़र्रर कर के बरोज़ सोमवार 16 रजब 36 हिजरी को कूफ़े की तरफ़ रवाना हो गये और वहां पहुँच कर कुछ दिनों क़याम किया और दौराने क़याम में कूफ़ा, ईराक़, ख़ुरासान, यमन, मिस्र और हरमैन का इन्तेजा़म किया। ग़रज़ शाम के सिवा तमाम मुमालिके इस्लामी पर हज़रत का तसल्लुत हो गया और क़ब्ज़ा बैठ गया और इस अन्देशे से कि माविया ईराक़ पर क़ब्ज़ा न कर ले कूफ़े को दारूल खि़लाफ़ा बना लिया। इब्ने ख़ल्दूर लिखता है कि जमल के बाद सिस्तान में बग़ावत हुई, हज़रत ने रज़ी इब्ने क़ास अम्बरी मो भेज कर उसे फ़रो कराया।

ख़ुरासान में रफ़ए बग़ावत के लिये अलवी फ़ौज की जंग और जनाबे शहर बानों का लाना

तरीख़े इस्लाम में है कि अहदे उस्मानी में अहले फ़ारस ने बग़ावत व सरकशी कर के अब्दुल्लाह इब्ने मोअम्मर वालीए फ़ारस को मार डाला और हुदूदे फ़ारस से लशकरे इस्लाम से निकाल दिया। उस वक़्त फ़ारस की लशकरी छावनी मक़ामे असतख़र था। ईरान का आखि़री बादशा यज़द जरद इब्ने शहरयार इब्ने कि़सरा अहले फ़ारस के साथ था। हज़रत उस्मान ने अब्दुल्लाह इब्ने आमिर को हुक्म दिया कि बसरा और अमान के लशकर को मिला कर फ़ारस पर चढ़ाई करे। उसने तामीले इरशाद की। हुदूदे अस्तख़ा में ज़बरदस्त जंग हुई मुसलमान कामयाब हो गये और अस्तख़र फ़तेह हो गया।

अस्तख़र के फ़तेह होने के बाद 31 हिजरी में यज़द जरद मक़ामे रै और फिर वहां से ख़ुरासान और ख़ुरासान से मरव जा पहुँचा और वहीं सुकूनत इख़्तेयार कर ली। इसके हमराह चार हज़ार आदमी थे। मरव मे वह ख़ाक़ाने चीन की साजि़शी इमदाद की वजह से मारा गया और शाहाने अजम के गोरिस्तान अस्तख़र में दफ़्न कर दिया गया।

जंगे जमल के बाद ईरान, ख़ुरासान के इसी मक़ाम मरव में सख़्त बग़ावत हो गयी उस वक़्त ईरान में बारवायत इरशाद मुफ़ीद व रौज़तुल सफ़ा हरस इब्ने जाबिर जाअफ़ी गवर्नर थे। हज़रते अली (अ.स.) ने मरव के कजि़या न मरजि़या   को ख़त्म करने के लिये इमदादी तौर पर ख़लीद इब्ने क़रआ यरबोई को रवाना किया। वहां जंग हुई और हरीस इब्ने जाबिर जाफ़ी ने यज़द जरद इब्ने शहरयार इब्ने कसरा (जो अहदे उस्मानी में मारा जा चुका था) की दो बेटियां आम असीरों में हज़रते अली (अ.स.) की खि़दमत में इरसाल कीं। एक का नाम  शहर बानो    और दूसरी का नाम केहान बानो था। हज़रत ने शहर बानों इमाम हुसैन (अ.स.) को और केहान बानों, मौहम्मद इब्ने अबी बक्र को अता फ़रमाईं। (जामेउल तवारीख़ सफ़ा 149, कशफ़ल ग़म्मा सफ़ा 89, मतालेबुल सेवेल सफ़ा 261, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120, नूरूल अबसार सफ़ा 126, तोहफ़ए सुलैमानिया शरह इरशादिया सफ़ा 391 प्रकाशित ईरान)

 

जंगे सिफ़्फ़ीन

 (36, 37 हिजरी)

सिफ़्फ़ीन नाम है उस मक़ाम का जो फ़ुरात के ग़रबी जानिब बरक़ा और बालस के दरमियान वाक़े है। (माजमुल बलदान सफ़ा 370) इसी जगह अमीरल मोमेनीन और माविया में ज़बरदस्त जंग हुई थी। इस जगह के मुताअल्लिक़ उलेमा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि बानीए जंगे जमल आयशा की मानिन्द माविया भी लोगों को क़त्ले उस्मान के फ़र्ज़ी अफ़साने के हवाले से हज़रते अली (अ.स.) के खि़लाफ़ भड़काता और उभारता था। जंगे जमल के बाद हज़रते अली (अ.स.) के शाम पर मुक़र्रर किये हुए हाकिम सुहैल इब्ने हनीफ़ ने कूफ़े आ कर हज़रत को ख़बर दी कि माविया ने ऐलाने बग़ावत कर दिया है और उस्मान की कटी हुई ऊँगलियों और ख़ून आलूद कुर्ता लोगों को दिखा कर अपना साथी बना रहा है और यह हालत हो चुकी है कि लोगों ने क़समे खा ली हैं कि ख़ूने उस्मान का बदला लिये बग़ैर न नरम बिस्तर पर सोयगें न ठंडा पानी पियेंगे। उमरे आस वहां पहुँच चुका है जो उसे मदद दे रहा है। हज़रते अली (अ.स.) ने माविया को एक ख़त मदीने से दूसरा कूफ़े से इरसाल कर के दावते बैयत दी लेकिन कोई नतीजा बरामद न हुआ। माविया जो जमए लशकर में मशग़ूलो मसरूफ़ था एक लाख बीस हज़ार (1,20,000) अफ़राद पर मुशतमिल लश्कर ले कर मक़ामे सिफ़्फ़ीन में जा पहुँचा। हज़रते अली (अ.स.) भी शव्वाल 36 हिजरी में (नख़लिया और मदाएन) होते हुये रक़ा में जा पहुँचे। हज़रत के लशकर की तादाद नब्बे हज़ार (90,000) थी। रास्ते में लशकर सख़्त प्यासा हो गया। एक राहिब के इशारे से हज़रत ने ज़मीन से एक ऐसा चश्मा बरामद किया जो नबी और वसी के सिवा किसी के बस का न था। (आसम कूफ़ी सफ़ा 212, रौज़तुल सफ़ा जिल्द 2 सफ़ा 392) हज़रत ने अपने लशकर को सात हिस्सों में तक़सीम किया और माविया ने भी सात टुकड़े कर दिये। मक़ामे रका़ से रवाना हो कर आबे फ़रात उबूर किया। हज़रत के मुक़द्देमातुल जैश से माविया के मुक़द्दम ने मज़ाहेमत की और वह शिकस्त खा कर माविया से जा मिला। हज़रत का लशकर जब वारिदे सिफ़्फ़ीन हुआ तो मालूम हुआ की माविया ने घाट पर क़ब्ज़ा कर लिया है और अलवी लशकर को पानी देना नहीं चाहता। हज़रत ने कई पैग़ाम्बर भेजे और बन्दिशे आब को तोड़ने के लिये कहा मगर समाअत न की गई। बिल आखि़र हज़रत की फ़ौज ने ज़बर दस्त हमला कर के घाट छीन लिया। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि घाट पर क़ब्ज़ा करने वालों में इमाम हुसैन (अ.स.) और हज़रते अब्बास इब्ने अली (अ.स.) ने कमाल जुरअत का सुबूत दिया था। (जि़करूल अब्बास सफ़ा 26 मोअल्लेफ़ा हकी़र) हज़रत अली (अ.स.) ने घाट पर क़ब्ज़ा करने के बाद ऐलान करा दिया कि पानी किसी के लिये बन्द नहीं है। मतालेबुल सुवेल में है कि हज़रत अली (अ.स.) बार बार माविया को दावते मसालेहत देते रहे लेकिन कोई असर न हुआ आखि़र कार माहे जि़ल्हिज में लड़ाई शुरू हुई और इन्फ़ेरादी तौर पर सारे महीने होती रही। मोहर्रम 37 हिजरी में जंग बन्द रही और यकुम सफ़र से घमासान की जंग शुरू हो गई। एयरविंग लिखता है अली (अ.स.) को अपनी मरज़ी के खि़लाफ़ तलवार ख़ैंचना पड़ी। चार महीने तक छोटी छोटी लड़ाईयां होती रहीं जिन्मे माविया के 45,000 (पैंतालिस हज़ार) आदमी काम आये और अली (अ.स.) की फ़ौज ने उससे आधा नुकसान उठाया। जि़करूल अब्बास सफ़ा 27 में है कि अमीरल मोमेनीन अपनी रवायती बहादुरी से दुशमने इस्लाम के छक्के छुड़ा देते थे। अमरू बिन आस और बशर इब्ने अरताता पर जब आपने हमले किये तो यह लोग ज़मीन पर लेट कर बरेहना हो गये। हज़रते अली (अ.स.) ने मुँह फेर लिया, यह उठ कर भाग निकले। माविया ने अमरू आस पर ताना ज़नी करते हुये कहा कि दर पनाह औरत खुद गि़रीख़्ती तूने अपनी शर्मगाह के सदक़े में जान बचा ली। मुवर्रेख़ीन कर बयान है कि यकुम सफ़र से सात शाबान रोज़ जंग जारी रही। लोगों ने माविया को राय दी कि अली (अ.स.) के मुक़ाबले मे ख़ुद निकलें मगर वह न माने। एक दिन जंग के दौरान में अली (अ.स.) ने भी यही फ़रमाया था कि ऐ जिगर ख़्वारा के बेटे क्यों मुसलमानों को कटवा रहा है तू ख़ुद सामने आजा और हम दोनों आपस में फ़ैसला कुन जंग कर लें। बहुत सी तवारीख़ में है कि इस जंग में नब्बे (90) लड़ाईयां वुक़ू में आईं। 110 रोज़ तक फ़रीक़ैन का क़याम सिफ़्फ़ीन में रहा। माविया के 90,000 (नब्बे हज़ार) और हज़रते अली (अ.स.) के 20,000 (बीस हज़ार) सिपाही मारे गये। 13 सफ़र 37 हिजरी को माविया की चाल बाजि़यों और अवाम की बग़ावत के बाएस फ़ैसला हकमैन के हवाले से जंग बन्द हो गई। तवारीख़ में है कि हज़रते अली (अ.स.) ने जंगे सिफ़्फ़ीन में कई बार अपना लिबास बदल कर हमला किया है। तीन मरतबा इब्ने अब्बस का लिबास पहना, एक बार अब्बास इब्ने रबिया का भेस बदला, एक दफ़ा अब्बास इब्ने हारिस का रूप् इख़्तेयार किया और जब क़रीब इब्ने सबा हमीरी मुक़ाबले के लिये निकला तो अपने बेटे हज़रते अब्बास (अ.स.) का लिबास बदला और ज़बरदस्त हमला किया। मुलाहेज़ा हो मुनाकि़बे (एहज़ब ख़वारज़मी सफ़ा 196 क़लमी) लड़ाई निहायत तेज़ी से जारी थी कि अम्मारे यासिर जिनकी उम्र 93 साल थी, मैदान में आ निकले और अट्ठारा शामियों को क़त्ल कर के शहीद हो गये। हज़रत अली (अ.स.) ने आपकी शहादत को बहुत महसूस किया। एयर विंग लिखता है कि अम्मार की शहादत के बाद अली (अ.स.) ने बारह हज़ार सवारों को ले कर पुर ग़ज़ब हमला किया और दुशमनो की सफ़ें उलट दी और मालिके अशतर ने भी ज़बर दस्त बेशुमार हमले किये।

दूसरे दिल सुबह को हज़रत अली (अ.स.) फिर लशकरे माविया को मुखातिब कर के फ़रमाया कि लोगों सुन लो कि अहकामे ख़ुदा मोअत्तल को जा रहे हैं इस लिये मजबूरन लड़ रहा हूं। इस के बाद हमला शुरू कर दिया और कुशतों के पुश्ते लग गये।

 

लैलतुल हरीर

जंग निहायत तेज़ी के साथ जारी थी मैमना और मैसरा अब्दुल्लाह और मालिके अशतर के क़ब्ज़े में था। जुमे की रात थी, सारी रात जंग जारी रही। बरवायत आसम कूफ़ी 36,000 (छत्तीस हज़ार) सिपाही तरफ़ैन के मारे गये। 900 (नौ सौ) आदमी हज़रत अली (अ.स.) के हाथों क़त्ल हुए। लशकरे माविया से अल ग़यास, अल ग़यास की आवाज़ें बलन्द हो गईं। यहां तक कि सुबह हो गई और दोपहर तक जंग का सिलसिला जारी रहा। मालिके अशतर दुशमन के ख़ेमे तक जा पहुँचे क़रीब था कि, माविया ज़द में आ जाऐ और लशकर भाग खड़ा हो। नागाह उमरो बिन आस ने 500 (पांच सौ) क़ुरआन नैजा़ पर बलन्द कर दिये और आवाज़ दी कि हमारे और तुम्हारे दरमियान क़ुरआन है। वह लोग जो माविया से रिशवत खा चुके थे फ़ौरत ताईद के लिये खड़े हो गये और अशअस बिन क़ैस, मसूद इब्ने नदक़, ज़ैद इब्ने हसीन ने आवाम को इस दरजा वरग़लाया कि वह लोग वही कुछ करने पर आमादा हो गये जो उस्मान के साथ कर चुके थे मजबूरन मालिके अशतर को बढ़ते हुए क़दम और चलती हुई तलवार रोकना पड़ी। मुवर्रिख़ गिबन लिखता है कि अमीरे शाम भागने का तहय्या कर रहा था लेकिन यक़ीनी फ़तेह, फ़ौज के जोश और नाफ़रमानी की बदौलत अली (अ.स.) के हाथ से छीन ली गई। ज़रजी ज़ैदान लिखता है कि नैजा़ पर क़ुरआन शरीफ़ देख कर हज़रत अली (अ.स.) की फ़ौज के लोग धोखा खा गये। नाचार अली (अ.स.) को जंग मुलतवी करनी पड़ी। बिल आखि़र अवाम ने माविया की तरफ़ उमरो आस और हज़रत की तरफ़ से उनकी मरज़ी के खि़लाफ़ अबू मूसा अशअरी को हकम मुक़र्रर करके माहे रमज़ान में बामक़ाम जोमतुल जन्दल फ़ैसला सुनाने को तय किया।

 

हकमैन का फ़ैसला

अल ग़रज़ माहे रमज़ान में बमुक़ाम अज़रह चार चार सौ अफ़राद समेत उमरो बिन आस और अबू मूसा अशअरी जमा हुये और अपना वह बाहमी फ़ैसला जिसकी रू से दोनों को खि़लाफ़त से माज़ूल करना था, सुनाने का इन्तेज़ाम किया। जब मिम्बर पर जा कर ऐलान करने का मौक़ा आया तो अबू मूसा ने उमरो बिन आस को कहा कि आप जा कर पहले बयान दें। उन्होंने जवाब दिया, आप बुज़ुर्ग हैं पहले आप फ़रमायंे। अबू मूसा मिम्बर पर गये और लोगों को मुख़ातिब कर के कहा कि मैं अली (अ.स.) को खि़लाफ़त से माज़ूल करता हूं। यह कह कर उतर आये। उमरो बिन आस जिससे फ़ैसले के मुताबिक़ अबू मूसा को यह तवक़्क़ो थी कि वह भी माविया की माज़ूली का ऐलान कर देगा लेकिन उस मक्कार ने इसके बर अक्स यह कहा कि मैं अबू मूसा की ताईद करता हूँ और अली (अ.स.) को हुकूमत से हटा कर माविया को ख़लीफ़ा बनाता हूँ। यह सुन कर अबू मूसा अशअरी बहुत ख़फ़ा हुए लेकिन तीर तरकश से निकल चुका था। यह सुन कर मजमे पर सन्नाटा छा गया। अली (अ.स.) ने मुसकुरा कर अपने तरफ़दारों से कहा कि मैं न कहता था कि दुशमन फ़रेब देने की फि़क्र में है।

 

जंगे नहरवान

हकमैन के मोहमल और मक्काराना फ़ैसले को हज़रत अली (अ.स.) और उनके तरफ़दारों ने मुस्तरद कर दिया और दोबारा आला पैमाने पर फ़ौज कशी का फ़ैसला और तहय्या कर लिया। अभी इसकी नौबत न आने पाई थी कि ख़वारिज की बग़ावत की इत्तेला मिली और पता चला कि वह लोग जो सिफ़्फ़ीन में जंग रोकने के खि़लाफ़ थे अब हज़रत के सख़्त मुख़ालिफ़ हो कर मक़ामे  हरवरा    में आ रहे हैं। फिर मालूम हुआ कि वह लोग बग़दाद से चार फ़रसख़ के फ़ासले पर बमुक़ाम नहरवान बतारीख़ 10 शव्वाल 37 हिजरी जा पहुँचे हैं और वहां मुसलमानों को सता रहे हैं। हज़रत ने मजबूरन उन पर चढ़ाई की। 12,000 (बाहर हज़ार) में से कुछ कूफ़े और मदाएन चले गये और कुछ ने बैयत कर ली। चार हज़ार (4000) आमादए पैकार हुये। बिल आखि़र लडा़ई हुई और नौ आदमियांे के अलावा सब मारे गये। इसी जंग में मशहूर मुनाफि़क़ व ख़ारजी ज़ुलसदिया भी मारा गया जिसका असली नाम मोज़ज था। इसके एक हाथ की जगह लम्बा सा पिस्तान बना हुआ था इसी लिये इसे ज़ुलसदिया कहा जाता था।

 

मौहम्मद इब्ने अबी बक्र की इबरत नाक मौत मौहम्मद इब्ने अबी बक्र मिस्र के गवर्नर थे। माविया ने छः हज़ार (6,000) फ़ौज के साथ अमर इब्ने आस को मौहम्मद से मुक़ाबले के लिये मिस्र भेज दिया। मौहम्मद ने हज़रत अली (अ.स.) को वाक़ेए की इत्तेला दी। आपने फ़ौरन जनाबे मालिके अशतर को उनकी मदद के लिऐ मिस्र रवाना कर दिया। माविया को जब मालिके अशतर की रवानगी का पता चला तो उसने मक़ामे अरीश या मुल्जि़म के ज़मींदार को ख़ुफि़या लिख कर भेजा कि मालिके अशतर मिस्र जा रहे हैं, अगर तुम उन्हें दावत वगै़रह के ज़रिये से क़त्ल कर दो तो मैं तुम्हारा खि़राज 20 साल के लिये माफ़ कर दूंगा। उस शख़्स ने ऐसा ही किया। जब मालिके अशतर पहुँचे तो उसने दावत दी और आपके लिये इफ़तारे सोम का इन्तेजा़म किया, और दूध में ज़हर मिला कर दे दिया। जनाबे मालिके अशतर शहीद हो गये। (तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 141 व तबरी जिल्द 6 सफ़ा 54) इधर मालिके अशतर शहीद हुए उधर उमरो आस ने जनाबे मौहम्मद इब्ने अबी बक्र पर मिस्र में हमला कर दिया। आपने पूरा पूरा मुक़ाबला किया लेकिन नतीजे पर गिरफ़तार हो गये। आपको माविया इब्ने ख़दीज ने माविया इब्ने अबू सुफि़यान के हुक्म से गधे की खाल में सी कर जि़न्दा जला दिया। हज़रते आयशा को जब इस इबरत नाक मौत की ख़बर मिली तो आप बे हद रंजिदा हुईं और ता हयात माविया और उमरो आस के लिये हर नमाज़ के बाद बद दुआ करने को वतीरा बना लिया। (तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 143, हैवातुल हैवान वग़ैरा) इस वाकि़ये से अमीरल मोमेनीन को बेहद रंज पहुँचा और माविया को ख़ुशी हुई। (तबरी इब्ने ख़ल्दून मसूदी) यह वाक़ेया सफ़र 38 हिजरी का है।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 216)

किताब निहायतुल अरब फ़ी मारेफ़त निसाबुल अरब मोअल्लिफ़ा अबुल अब्बास अहमद बिने अली बिन अहमद बिन अब्दुल्लाह, तअलक़शन्दी, अल मुतावफ्फा 821, हितरी मतबुआ बग़दाद 1908 ई0 में मुताबिक़ 299 के फ़ुट नोट में है कि मौहम्मद बिन अबी बक्र मक्के मदीने के दरमियान 10 हिजरी में पैदा हुए थे। उनकी परवरिश हज़रते अली (अ.स.) के आग़ोशे करामत में हुई थी। वफ़ाते अबू बक्र के बाद उनकी मां असमा बिन्ते उमैस से हज़रत ने अक़्द कर लिया था। हज़रत उनको बे हद चाहते थे। यह जंगे जमल और सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली (अ.स.) के साथ थे। सन् 37 में अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने उन्हें मिस्र का गवर्नर बना दिया। जब जंगे सिफ़्फ़ीन से अमीरल मोमेनीन बइरादा रवाना हो गये तो माविया ने एक बड़ा लशकर भेज कर मिस्र पर हमला करा दिया। काफ़ी जंग हुई बिल आखि़र मौहम्मद को शिकस्त हुई। अख़्तफ़ी मौहम्मद फ़ाअरफ़ माविया बिन ख़दीज मक़ाना क़ब्ज़ अलैहे व क़त्ला सुम हरक़ा मौहम्मद इब्ने अबी बक्र रूपोश हो गये लेकिन माविया ने उन्हें तलाश कर के गिरफ़्तार कर लिया फिर उन्हें क़त्ल कर के उन्हंे जला दिया। बड़े ज़ाहिद थे। तारीख़े आसम कूफ़ी के सफ़ा 338 में है कि उन्हें गधे की खाल में सी कर जलवा दिया था। हज़रत मौहम्मद बिन अबी बक्र की शहादत के नतीजे में हज़रते आयशा को भी कुएं में गिरा कर अमीरे माविया ने ख़त्म करा दिया था। (हबीब उस सैर वग़ैरा) असकी क़दरे तफ़सील आइन्दा आयेगी।

 

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की विलादत

इसी साल सन् 38 हिजरी के जमादियुस सानी की 15 तारीख़ को हज़रते इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जनाबे शहर बानों बिन्ते यज़द जुरद इब्ने शहरयार इब्ने केसरा शाह ईरान के बत्न से पैदा हुये।

 

हिन्दुस्तान में इस्लाम सब से पहले

हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) के ज़रिये से पहुँचा इलाक़ए सिन्ध से आले मौहम्मद स. का ख़ुसूसी इलाक़ा व राबेता

यह ज़ाहिर है कि हज़रते रसूले करीम स. के बाद इस्लाम की सारी जि़म्मेदारी अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) पर थी जिस तरह सरकारे दो आलम अपने अहदे नबूवत में ता बा हयाते ज़ाहेरी इस्लाम की तब्लीग़ करते रहे और उसे फ़रोग़ देने में तन, मन, धन की बाज़ी लगाए रहे इसी तरह उनके बाद अमीरूल मोमेनीन ने भी इस्लाम को बामे ऊरूज तक पहुँचाने के लिये जेहदे मुसलसल और सई पैहम की और किसी वक़्त भी उसकी तब्लीग़ से ग़फ़लत नहीं बरती, यह और बात है कि ग़ज़बे इक़्तेदार की वजह से दारए अमल वसी न हो सका और हलक़ाए असर महदूद हो कर रह गया। ताहम फ़रीज़े की अदायगी इमामत की ख़ामोशी फि़ज़ा में जारी रही यहां तक की इक़तेदार क़दमों में आया और मिन्हाजे नबूवत पर काम शुरू हो गया तबलीग़ के महदूद हलक़े वसी हो गये। इमामत खि़लाफ़त के दोश बदोश आगे बढ़ी और इस्लाम की रौशनी मुमालिके ग़ैर में पहुँचने लगी। हिन्दोस्तान जो कुफ़्रो इल्हाद और ग़ैर उल्लाह की परस्तिश का मरक़ज़ और मलजा व मावा था अमीरूल मोमेनीन ने दीगर मुमालिक के साथ साथ वहां भी इस्लाम की रौशनी पहुँचाने का अज़मे मोहकम कर लिया और थोड़ी सी जद्दो जेहद के बाद वहां इस्लाम की किरन पहुँचा दी और ज़मीने हिन्द को इस्लामी ताबन्दगी से मुनव्वर कर दिया।

इमामुल मुवर्रेख़ीन अबू मौहम्मद, अब्दुल्लाह बिने मुस्लिम इब्ने क़तीबा दीनवरी अपनी किताबुल माअर्रिफ़ के सफ़ा 95 प्रकाशित मिस्र 1934 ई0 मे लिखते हैं  इस्लाम सिन्ध हिन्दुस्तान में सब से पहले अमीरल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के अहद में पहुँचा इस पर बहुत से वाकि़यात शाहिद हैं। हज नामा क़लमी सफ़ा 34 में है कि अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने सन् 38 हिजरी में नाजि़र बिन दावरा को सरहादाते सिन्ध की देख भाल के लिये रवाना किया। यह रवानगी बज़ाहिर अपने मक़सद के लिये राह हमवार करने की खा़तिर थी और यह मालूम करना मक़सूद था कि हिन्दोस्तान में क्यों कर दाखि़ला हो सकता है। इसी मक़सद के लिये इस से क़ब्ल अहदे उस्मानी में अब्दुल्लाह बिन आमिर इब्ने करेज़ को मुक़र्रर किया गया था। मुवर्रिख़ बिलाज़री लिखते हैं कि वह सफ़रूल हिन्द की तरफ़ दरयाई मुहिम पर रवाना हुये। ग़रज़ यह थी कि इस मुल्क के हालात से आगाही हासिल हो। अब्दुल्लाह बिन आमिर ने हकीम बिन जि़ब्तुल अदवी की सरदारी में एक दस्ता समुन्दर के रास्ते रवाना किया। वह बलुचिस्तान और सिन्ध के मशरिक़ी इलाक़े को देख कर वापस आये तो अब्दुल्लाह ने उनको उस्मान बिन अफ़ान के पास भेज दिया कि जो कुछ देखा है जा के सुना दे, उस्मान ने पूछा उस मुल्क का क्या हाल है, कहा मैंने उस मुल्क को चल फिर कर अच्छी तरह देख लिया है। उस्मान ने कहा मुझ से उसकी कैफि़यत बयान करो। हकीम बिन जबला ने कहाः वहां पानी कम, फल रद्दी, चोर बेबाक, लशकर कम हो तो ज़ाया जायेगा, बहुत हो तो भूखों मरेगा। यह सुन कर उन्होंने कहा, ख़बर दे रहे हो या हजो कर रहे हो। बोले ऐ अमीर, ख़बर दे रहा हूं। यह सुन कर उन्होंने लशकर कशी का ख़्याल तर्क कर दिया।

(तरजुमा फ़तहुल बलदान बेलाज़री लिल्द 2 सफ़ा 613)

हज़रत उस्मान जिनका मक़सद मुल्क पर क़ब्जा़ करना और फ़तुहवात की फ़ेहरिस्त बढ़ाना था, वहां के हालात सुन कर ख़ामोश हो गये और सिन्ध वग़ैरा की तरफ़ बढ़ने का ख़्याल तर्क कर दिया लेकिन हज़रत अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) जिनका मक़सद फ़तूहात की फ़हरिस्त मुरत्तब करना न था बल्कि दीने इस्लाम फ़ैलाना था, उन्होंने नासाज़गार हालात के बवजूद आगे बढ़ने का अज़म बिल जज़्म कर लिया और 39 हिजरी में हज़रत अली (अ.स.) ने हारिस बिन मुर्रा अब्दी को सिन्ध पर क़ाबू हासिल करने के लिये भेजा। इसी सन् में सिन्ध फ़तेह हुआ। यह हज़रत अली (अ.स.) का कारनामा है कि सिन्ध अली बिन अबी तालिब अ.स. के हाथो फ़तेह हुआ और हुकूमते इस्लामिया पहले पहल उन्हीं के हाथों क़ायम हुई। (तारीख़े सिन्ध दारूल मुस्न्नेफ़ीन आज़म गढ़ 1947 ई0)

अल्लाम बिलाज़री अल मुतावफ्फा 279 लिखते हैं कि आखि़र 38 हिजरी या अव्वल 39 हिजरी में हारिस बिन मुर्रा अब्दी ने अली बिन अबी तालिब रजी़ अल्लाह अनहा से इजाज़त ले कर बा हैसियत मुतव्वा सरहदे हिन्द पर हमला किया। फ़तेहयाब हुये, कसीर ग़नीमत हाथ आई, सिर्फ़ लौंडी ग़ुलाम ही इतने थे की एक दिन में एक हज़ार तक़सीम किये गये। हारिस और उनके अक्सर असहाब अरज़े क़ैक़ान मे काम आये सिर्फ़ चन्द जि़न्दा बचे। यह 42 हिजरी का वाक़ेया है।

(तरजुमा फ़तहुल बलदान बिलाज़री जिल्द 2 सफ़ा 613 प्रकाशित कराची)

मुवर्रिख़ जा़किर हुसैन का बयान है कि साहेबे रौज़तुल सफ़ा लिखते हैं कि हिन्दोस्तान में क़ासिम की मातहती में एक मोतदबेह फ़ौज रवाना की गई, जो 38 हिजरी के अवाएल में सिन्ध की फ़तूहात में मसरूफ़ हुई। उसने चन्द मक़ामाते सिन्ध पर क़ब्ज़ा किया। क़ासिम के बाद 38 हिजरी के आखि़र में या 39 हिजरी के शुरू में हारिस बिन मर्रा अब्दी एक दूसरी फ़ौज के साथ दारूल खि़लाफ़ा से रवाना किया गया और उसने इन मुमालिक में बहुत से मुमालिक फ़तेह किये। बहुत से हिन्दू गिरफ़्तार किये गये और कसीर माले ग़नीमत हाथ आया जो बराहे रास्त दारूल खि़लाफ़ा को रवाना किया गया, और एक दिन में एक हज़ार लौंडी ग़ुलाम ग़नीमत के माल में तक़सीम किये गये हारिस बिन मुर्रा मुद्दत तक इन बिलाद पर क़ाबिज़ रहे।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 222 प्रकाशित देहली 1331 हिजरी)

 

बादशाह शन्सब बिन हरिक़ का दस्ते अमीरल मोमेनीन पर ईमान लाना

हिन्दोस्तान के लिये फ़तेह सिन्ध के बाद राह का हमवार हो जाना यक़ीनी था इसी लिये सिन्ध फ़तेह किया गया। फ़तेह सिन्ध के बाद अमीरल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के इस्लामी जद्दो जेहद के आसार तारीख में मौजूद हैं। मुवर्रिख़ मुल्ला मौहम्मद क़ासिम हिन्दू शाह फ़रीशता ज़ेरे उन्वान जि़क्र बिनाए शहरे देहली लिखते हैं कि 307 ई0 में दादपत्ता राजपूत ने जो ताएफ़े तूरान से ताअल्लुक़ रखता था, क़सबाए इन्द्र पत के पहलू में देहली की बुनियाद रखी फिर उनके आठ अफ़राद ने इस पर हुकूमत की फिर ज़वाले हुकूमते तूरान के बाद ताएफ़ चैहान की हुकूमत क़ाएम हुई। इस ताएफ़े के 6 छः अफ़राद ने हुकूमत की। उसके बाद सुल्तान शाहबुद्दीन गा़ैरी ने उनके आखि़री बादशाह पिथवरा को क़त्ल कर दिया। फिर ऊमरे हुकूमत 588 ई0 में मुलूके गा़ैर के आखि़री फ़रमारवा ज़ुहाक़ ताज़ी पर बादशाह फ़रीदूँ का ग़ल्बा हो गया और ज़ुहाक़ के पोते या नवासे सूरी और साम उसके हमराह हो गये। एक अरसे के बाद इन दोनों को फ़रीदों की तरफ़ से अपनी तबाही का वहम पैदा हो गया। चुनान्चे यह दोनों  नेहा चन्द    चले गये और हुकूमत क़ायम कर ली और फ़रीदूँ से मुक़ाबले शुरू कर दिया। बिल आखि़र फ़रीदूँ ग़ालिब रहा और उन लोगों ने खि़राज क़ुबूल कर के हुकूमत क़ायम रखी और जुर्रियत ज़ुहाक़ इस मम्लेकत में यके बा दीगरे बुज़ुर्ग क़बीला यानी बादशाह होता रहा।

 (ता बवक़्ते इस्लाम नौबत बा शन्सब रसीद व ऊ दर ज़माने अमीरल मोमेनीन असद उल्लाहुल ग़ालिब अली बिन अबी तालिब (अ.स.) बूद व बर दस्ते आं हज़रत ईमान आवुरदा। मन्शूरे हुकूमते ग़ौर बख़्ते मुबारक शाह विलायत पनाह याफ़त (तारीख़े फ़रिशता जिल्द 1 सफ़ा 54 मक़ालए दोउम जि़क्र बिनाए देहली व अहवाल मुलूक ग़ौर प्रकाशित नवल किशोर 1281 ई0)

यहां तक कि दौरे इस्लाम आ गया और नौबते शाही शन्सब तक आ पहुँची। इसका ज़माना अहदे अमीरल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) मे आया । उसने हज़रत अली (अ.स.) के हाथों पर ईमान क़ुबूल किया और मुसलमान हुआ और हुकूमते गा़ैर का मन्शूर हज़रत शाह विलायत पनाह के हाथों पर बना।    यही कुछ तबक़ाते नासरी मुसन्नेफ़ा अबू उमर मिनहाजउद्दीन उस्मान बिन मेराज उद्दीन प्रकाशित कलकत्ता 1864 ई0 जि़क्रे सलातीन शन्सानिया के तबक़ए 7 सफ़ा 29 में भी है। तारीख़े इस्लाम जा़किर हुसैन के जिल्द 3 सफ़ा 222 में है कि शन्सब तुरकी नसब का था। मुवर्रिख़ फ़रिशते ने शाह शन्सब का नसब नामा यूँ तहरीर किया है। शन्सब बिन हरीक़ बिन नहीक़ इब्ने मयसी बिन वज़न बिन हुसैन बिन बहराम बिन हबश बिन हसन बिन इब्राहीम बिन साद बिन असद बिन शद्दाद बिन ज़हाक़ सफ़ा 54।

 

औलादे शन्सब की अमले बनी उम्मया से बेज़ारी

मुल्ला मौहम्मद क़ासिम फ़हरशता लिखते हैं कि जिस ज़माने में बनी उम्मया ने यह अन्धेरा गरदी कर रखी थी कि अहले बैते रसूल ख़ुदा स. को तमाम मुमालिके इस्लामिया में मिम्बरों पर बुरा भला कहा जाता था और वह हुक्म बाजा़हिर पहुँचा हुआ था मगर गा़ैर में अहले ग़ौर मुरतकिब आँ अमरे शनीअ नशुदन्द अहले ग़ौर ने इस अमरे नामाक़ूल का इरतेक़ाब नहीं किया था। (और वह इस अमल में बनी उम्मया से बेज़ार थे) तारीख़े फ़रिशता सफ़ा 54।

 

औलादे शन्सब की दुश्मनाने आले मौहम्मद स. से जंग

इसी तारीख़े फ़रिशता के सफ़ा 54 में है कि जब अबू मुस्लिम मरवज़ी ने बादशाहे वक़्त के खि़लाफ़ ख़ुरूज किया था और उसने औलादे शन्सब से मद्द चाही थी तो उन लोगों ने  दर क़त्ले आदाए अहले बैत तक़सीर न करद दुश्मनाने आले मौहम्मद स. के क़त्ल करने में कोई कमी नहीं की। इन तहरीरों से मालूम होता है कि अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के ज़रिये से इस्लाम के साथ साथ शिईयत भी हिन्दोस्तान में पहुँची थी क्यो कि औलादे शन्सब का तरज़े अमल शीईयत का आईना दार है।

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की राहे कूफ़ा से सिन्ध जाने की ख़्वाहिश

मुवर्रिख़ अबू मौहम्मद, मौहम्मद अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन क़तीबा देवनरी अल मुतावफ्फा 276 ई0 तहरीर फ़रमाते हैं जब हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) को हुर ने कूफ़े के रास्ते में रोका तो आपने इरशाद फ़रमाया कि तुम अगर मेरे ईराक़ मे आने को पसन्द नहीं करते तो मुझे छोड़ दो कि मैं सिन्ध चला जाऊँ। उसके बाद इब्ने क़तीबा लिखते है कि इमाम हुसैन (अ.स.) के इस फ़रमाने से मालूम होता है कि इस्लाम इस वक़्त से पहले में पहुँच चुका था। (मारिफ़ इब्ने क़तीबा सफ़ा 94 प्रकाशित मिस्र 1934 ई0 महीज़ उल अहज़ान सफ़ा 163)

 


 

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की एक ज़ौजा का सिन्धी होना

इस्लाम के क़दीम तरीन मुवर्रिख़ इब्ने क़तीबा अपनी किताबे मआरिफ़ के सफ़ा 73 पर लिखता है कानत ज़ौजातुल इमाम ज़ैनुल आबेदीन सिन्दिया व तवल्लुद तहा ज़ैद अल शहीद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की एक बीवी सिन्धी थीं और उनसे हज़रत ज़ैद शहीद पैदा हुये। फिर इसी किताब के सफ़ा 94 पर लिखता है। ज़ैद बिन इमाम सज्जाद बिन इमाम हुसैन की कुन्नीयत अबुल हसन थीं और उनकी माँ सिन्धी थीं।

एक और जगह लिखता है जो बीवी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को दी गई वह सिन्धी थीं। अब्दुल रज़्ज़ाक़ लिखते हैं कि ज़ैद शहीद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की जिस बीवी से पैदा हुये वह सिन्धी थीं।

(किताब ज़ैद शहीद पेज न. 5 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

इन जुमला हालात पर नज़र करने से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि सिन्ध (हिन्दोस्तान) में दीने इस्लाम हज़रत अली (अ.स.) के ज़रिये से पहुँचा और इसी के साथ साथ शीईयत की भी बुनियाद पड़ी थी नीज़ यह कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) को सिन्ध के मुसलमानों पर भरोसा था। वह कूफ़ा व शाम के मुसलमानों पर सिन्ध के मुसलमानों को तरजीह देते थे। यही वजह है कि आपने कूफ़ा में इब्ने जि़याद और यज़ीद बिन माविया के लशकर के सरदार हुर बिन यज़ीद बिन माविया के लशकर के सरदार हुर बिन यज़ीदे रेयाही। (जो बाद में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के क़दमो में शहीद हो कर राहिये जन्नत हुये थे।) से यह फ़रमाया था कि मुझे सिन्ध चले जाने दो। इसके अलावा आपके फ़रज़न्द इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने एक बीवी सिन्ध की अपने पास रखी थी जिस से हज़रत ज़ैद शहीद पैदा हुए थे। यह तमाम उमूर इस अम्र की वज़ाहत करते हैं कि आले मौहम्मद स. को इलाक़ाए सिन्ध से दिलचस्पी और वह उसके बाशिन्दों को अच्छी निगाह से देखते थे और उन पर पूरा भरोसा करते थे।

 

हज़रत अली (अ.स.) की शहादत

 (40 हिजरी)

सिफ़्फ़ीन के साज़ेशी फ़ैसलाए हकमैन के बाद हज़रत अली (अ.स.) इस नतीजे पर पहुँचे कि अब एक फै़सला कुन हमला करना चाहिये। चुनान्चे आपने तैय्यारी शुरू फ़रमा दी और सिफ़्फ़ीन व नहरवान के बाद ही से आप इसकी तरफ़ मुतावज्जेह हो गये थे। यहां तक की हमले की तैय्यारियां मुकम्मल हो गईं। दस हज़ार फ़ौज का अफ़सर इमाम हुसैन (अ.स.) को और दस हज़ार फ़ौज का सरदार क़ैस इब्ने सआद को और दस हज़ार का अबू अय्यूब अंसारी को मुक़र्रर किया। इब्ने ख़ल्दून लिखता है कि फ़ौज की जो मुकम्मल फ़ेहरिस्त तैय्यार हुई उसमें चालीस हज़ार आज़मूदा कार, सत्तर हज़ार रंग रूट और आठ हज़ार मज़दूर पेशा शामिल थे लेकिन कूच का दिन आने से पहले इब्ने मुलजिम ने काम तमाम कर दिया। मुक़द्देमा नहजुल बलाग़ा, अब्दुल रज़्जा़क़ जिल्द 2 सफ़ा 704 में है कि फ़ैसला तो ढोंग ही था, मगर सिफ़्फ़ीन की जंग ख़त्म हो गई और माविया हतमी तबाही से बच गया। अब अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने कूफ़े का रूख़ किया और माविया पर आखि़री ज़र्ब लगाने की तैय्यारियां करने लगे। साठ हज़ार (60,000) फ़ौज आरास्ता हो चुकी थी और यलग़ार शुरू होने वाली थी कि एक ख़ारजी अब्दुल रहमान इब्ने मुलजिम ने दग़ा बाज़ी से हमला कर दिया। हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) शहीद हो गये। इब्ने मुलजिम की तलवार ने हज़रत अली (अ.स.) काम तमाम नहीं किया बल्कि पूरी उम्मते मुसलेमा को क़त्ल कर डाला, तारीख़ का धारा ही बदल डाला। इब्ने मुलजिम की तलवार न होती तो खि़लाफ़त मिनहाजे नबूवत पर इस्तेवार रहती। (अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 478 में है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने पेशीन गोई फ़रमाई थी कि अली (अ.स.) की डाढ़ी सर के ख़ून से रंगीन होगी। तारीख़ अल फ़ख़री सफ़ा 73 में है कि हज़रत अली (अ.स.) एक मरतबा बीमार हुए और शैख़ेन उन्हें देखने के लिये गये, तो हालत सक़ीम देख कर आं हज़रत स. से कहने लगे कि शायद अली (अ.स.) न बचेगें। आपने फ़रमाया अभी अली (अ.स.) को मौत नहीं आयेगी। अली (अ.स.) दुनिया के तमाम रंजो ग़म उठाने के बाद तलवार से शहीद होंगे। सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 80 में है कि हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते थे कि मेरे सर और मेरी दाढ़ी को ख़ून से जो रंगीन करेगा वह दुनिया मे सब से ज़्यादा बद बख़्त होगा। शरह इब्ने अबिल हदीद जुज़ 13 सफ़ा 102 में है कि ख़ालिद बिन वलीद बाज़ उमूरे शुजाअत की वजह से अली (अ.स.) को क़त्ल करना चाहते थे। सीरते हलबिया जिल्द 2 सफ़ा 199 व बुख़ारी जिल्द 5 हालाते ग़ज़वाए ताएफ़ सफ़ा 29 में है कि रसूल अल्लाह स. ख़ालिद इब्ने वलीद पर तबर्रा करते थे। तारीख़ अबुल फि़दा वग़ैरा में है कि ख़ालिद ने अहदे अबू बक्र में मालिक इब्ने नवेरा की बीवी से ज़ेना किया था। तारीख़े आसम कूफ़ी सफ़ा 34 व तारीख़े तबरी जिल्द 4 सफ़ा 464 में है कि हज़रत उमर ने ख़लीफ़ा होते ही ख़ालिद को माज़ूद कर दिया था। तारीख़े तबरी जिल्द 6 सफ़ा 54 व कामिल वग़ैरा में है कि 38 हिजरी में अमीरे माविया ने मालिके अशतर को ज़हर से शहीद करा दिया। तारीख़े कामिल इब्ने असीर जिल्द 3 सफ़ा 142 में है कि माविया ने हज़रत अबू बक्र के बेटे मौहम्मद को गधे की खाल में सी कर जि़न्दा जला दिया था। जिसका हज़रत आयशा को बहुत रंज था और माविया को बद दुआ किया करती थीं। तवारीख़ मे है कि माविया ने हज़रत आयशा को कुएं में गिरा कर जि़न्दा दफ़्न कर दिया। जि़क्र अल अब्बास सफ़ा 51 में मुख़्तलिफ़ तवारीख़ के हवाले से मरक़ूम है कि 28 सफ़र 50 हिजरी को वाकि़ये शहादत हज़रत अली (अ.स.) के दस साल बाद इमाम हसन (अ.स.) को ज़हर से माविया ने शहीद कराया था। कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 61 में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने पेशीन गोई फ़रमाई थी कि अमीरे शाम को उस वक़्त तक मौत न आयेगी जब तक वह मेरे सर और मेरी दाढ़ी को ख़ून आलूद अपनी आंख़ों से न देख लेगा। किताब तज़किराए मौहम्मद व आले मौहम्मद जिल्द 2 सफ़ा 288 में है कि इब्ने मुलजिम ख़ारजी तहरीक़ की इस जमाअत का मिम्बर था जो किसी मज़बूत हाथ के इशारे पर नाच रही थी। ऐन उस वक़्त जब हज़रत अली (अ.स.) शाम के हमले के लिये रवाना होने की तैय्यारियां कर रहे थे इब्ने मुलजिम का वार करना यह बता रहा है कि इसकी तह में बड़ी साजि़श थी। तारीख़ अल इमामत वल सियासत जिल्द 2 सफ़ा 30 में है कि माविया ने अहदे उस्मान में हज़रते उस्मान से क़त्ले अली (अ.स.) की इजाज़त मांगी थी लेकिन उन्होने इन्कार कर दिया था। किताब मनाकि़बे मुरतज़वी के सफ़ा 277 में बा हवाला हदीक़तुल हक़ाएक़ हकीम सनाई (र.) मरक़ूम है कि अमीरल मोमेनीन के क़त्ल के इन्तेज़ामात इब्ने मुलजिम के ज़रिये से अमीरे माविया ने किये थे जिसका इक़रार ख़ुद इब्ने मुलजिम ने इन अल्फ़ाज़ में किया था।

मैंने माविया के कहने से ऐसा किया मगर अफ़सोस कोई फ़ायदा बरामद न हुआ। मुलाहेज़ा हो जि़क्र अल अब्बास सफ़ा 20 किताब अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 753 व तबरी जिल्द 4 सफ़ा 599 व रौज़तुल अहबाब में है कि अब्दुल रहमान इब्ने मुलजिम ने कूफ़ा पहुँच कर एक हज़ार दिरहम की एक तलवार ख़रीदी और उसे ज़हर में बुझा लिया और मौक़े की तलाश में कूफ़े की गलियों के चक्कर काटने लगा। इसी दौरान में एक दिन उसकी नज़र एक हसीन औरत पर जा पड़ी जिसका नाम क़तामा बिन्ते नजबा था और जो माविया की रिशतेदार होती थी। इब्ने मुलजिम उस औरत का बे दाम ग़ुलाम बन गया आर उससे सिलसिला जुम्बानी शुरू की। बिल आखि़र बात ठहरी और अक़्द का फ़ैसला हो गया। जब मेहर की गुफ़्तुगू हुई तो उसने कहा कि तीन हज़ार अशरफि़या और हज़रत अली (अ.स.) का सर लूगीं क्यो कि उन्होंने इस्लामी जंगों में मेरे बाप और भाईयो को क़त्ल कर दिया है। इब्ने मुलजिम ने जवाब दिया कि मुझे मंज़ूर है।  लक़द क़सदत लक़तल अली वमा अक़द मनी हाज़ल मिस्र ग़ैर ज़ालेका    ख़ुदा की क़सम तू ने ऐसी चीज़ मांगी है जिसके लिये मैं ख़ुद इस शहर में भेजा गया हूँ, अलबत्ता तुझे भी अपने वायदे का पास व लिहाज़ रखना चाहिये, उसने कहा ऐसा ही होगा। इस अहदो पैमान वायदा वईद के बाद इब्ने मुलजिम तगो दौ व सई व कोशिश और जद्दो जेहद में मशग़ूल हो गया। सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 80 में है कि इब्ने मुलजिम की इमदाद के लिये शबीब इब्ने बीरह अशजई भी था। रौज़तुल शोहदा सफ़ा 198 में है कि क़तामा ने और बई अशख़ास इसकी मद्द के लिये मोअय्यन और मोहय्या कर दिये। मुस्तदरिक हाकिम में है कि क़तामा ने ऐसा महर मांगा जिसकी मिसाल अरब व अजम में नहीं है। तारीख़े अहमदी सफ़ा 210 में ब हवाला रौज़तुल अहबाब मरक़ूम है कि हज़रत अली (अ.स.) ने ज़मानाए शहादत क़रीब होने पर कई बार अपनी शहादत का इशारे और कनाये में जि़क्र फ़रमाया था। मन्क़ूल है कि एक दिन आप ख़ुतबा फ़रमा रहे थे नागाह इमाम हसन (अ.स.) दौराने ख़ुतबा में आ गये। हज़रत अली (अ.स.) ने पूछा बेटा आज कौन सी तारीख़ है और इस महीने के कितने दिन गुज़र चुके हैं? आपने अर्ज़ कि बाबा जान 13 दिन गुज़र गये हैं। फिर हज़रत ने इमाम हुसैन (अ.स.) की तरफ़ रूख़ कर के पूछा बेटा अब महीने के ख़त्म होने में कितने दिन बाक़ी रह गये हैं? इमाम हुसैन (अ.स.) ने अर्ज़ कि बाबा जान 17 दिन रह गये हैं। उसके बाद आप ने अपनी रीशे मुबारक पर हाथ फेर कर फ़रमाया कि अन्क़रीब क़बीलाए मुराद का एक नामुराद मेरी दाढ़ी को सर के ख़ून से रंगीन करे गा। (अख़बारे सहीहा में वारिद है कि हज़रत अली (अ.स.) का उसूल यह था कि आप एक एक दिन अपने बेटों के यहां इफ़्तार फ़रमाया करते थे और सिर्फ़ एक लुक़मा तनावुल करते थे। एक रवायत में है कि आपने अपनी बेटी उम्मे कुलसूम से फ़रमाया कि मैं अन्क़रीब तुम लोगों से रूख़सत हो जाऊँगा। यह सुन कर वह रोने लगीं। आपने फ़रमाया कि मौत से किसी को छुटकारा नहीं बेटी मैंने आज रात को ख़्वाब में सरवरे आलम को देखा है कि वह मेरे सर से ग़ुबार साफ़ कर रहे हैं और फ़रमाते हैं कि तुम तमाम फ़राएज़ अदा कर चुके अब मेरे पास आ जाओ। जम्हूरे मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि जिस रात की सुबह को आप शहीद हुए उस रात में आप सोय नहीं। यह रात आप की इस तरह गुज़री कि आप थोड़ी थोड़ी देर के बाद मुसल्ले से उठ कर सहने ख़ाना में आते और आसमान की तरफ़ देख कर फ़रमाते थे कि मेरे आक़ा सरवरे कायनात ने सच फ़रमाया है कि मैं शहीद किया जाऊँगा। लिखा है कि जब नमाज़े सुबह के इरादे से बाहर निकले, तो सहने ख़ाना में बत्तख़ों ने दामन थाम लिया और शोर मचाने लगीं किसी ने रोका तो आपने फ़रमाया मत रोको यह मुझ पर नौहा कर रहीं हैं। फिर आप दौलत सरा से बरामद हो कर दाखि़ले मस्जिदे कूफ़ा हुए और गुलदस्तै अज़ान पर जा कर अज़ान कहने लगे। इसके बाद नमाज़ में मशग़ूल हो गये। जब आप सज्दाए अव्वल में गये, नामुराद इब्ने मुलजिम मुरादी ने सरे अक़दस पर तलवार लगा दी। यह तलवार उसी जगह लगी जिस जगह ख़न्दक़ में उमर बिन अब्देवुद की तलवार लग चुकी थी। ज़र्ब लगते ही आसमान से आवाज़ आई  अला क़तलल अमीरल मोमेनीन    आगाह हो कि अमीरल मोमेनीन क़त्ल हो गये। इसके बाद आप ज़मीन पर लौटने लगे और ज़ख़्म पर मिट्टी डाल कर बोले  फ़ुज़तो बे रब्बिल काबा    ख़ुदा की क़सम मैंने हयाते अब्दी पाई और कामयाब हो गया। ज़र्ब लगने के बाद इब्ने मुलजिम भागा, लोगों ने पीछा किया। (किताब जि़करूल अब्बास सफ़ा 40 मे है कि आपको ख़ून में नहाया देख कर अवलादो असहाब ने गिरया करना शुरू कर दिया। आप ने फ़रमाया बस रो चुको और मुझे घर ले चलो यह सुन कर हज़रत इमाम हसन (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और हज़रते अब्बास (अ.स.) ने उक गिलीम में डाल कर आपको घर पहुँचाया। किताब अल कर्रार सफ़ा 402 में है कि घर पहुँच कर आप ने सुबह को मुख़ातिब कर के फ़रमाया कि तू गवाह रहना कि मैंने कभी नमाज़ क़जा़ नहीं की, और ख़ुदा और रसूल स. की कोई मुख़ालेफ़त मुझसे नहीं हुई। तारीख़े अहमदी सफ़ा 212 मे है कि कोई इलाज कारगर न हुआ और आपकी वफ़ात का वक़्त आ पहुँचा। तारीख़ अल इमामत वल सियासत जिल्द 1 सफ़ा 154 में है आपको ऐसी ज़हर से बुझी हुई तलवार से ज़ख़्मी किया गया था कि सारे अहले मिस्र के लिये काफ़ी था। किताब रहमतुल आलेमीन मुसन्नेफ़ा क़ाज़ी मौहम्मद सुलैमान जज पटियाला के सफ़ा 81 में है कि ज़ख़्म को जिस पर शहादत हुई कसीर बिन उमरो सकूनी जो शाहाने ईरान का तबीबे ख़ास रह चुका था उसने बताया कि ज़ख़्म उम्मे दिमाग़ तक पहुँच गया है और अब सेहत मोहाल है। तारीख़े कामिल इब्ने असीर में है कि इन्तेक़ाल के वक़्त आपने नसीहतें और वसीयतें फ़रमाईं जो तक़वा परहेज़ गारी, इबादत सिलए रहम वग़ैरा वग़ैर से मुताअल्लिक़ थीं। फिर एक नविश्ता लिख कर दिया। किताब अख़बारे मातम सफ़ा 124 में और बाज़ कुतुबे तवारीख़ में है कि आपकी खि़दमत में शरबत पेश किया गया तो आपने थोड़ा सा पी कर क़ातिल को भीजवा दिया। अल अख़बार अल तवाल सफ़ा 360 में है कि हज़रत उम्मे कुलसूम ने इब्ने मुलजिम से कहलाया कि ऐ दुशमने ख़ुदा तू ने अमीरल मोमेनीन को शहीद कर दिया, तो उसने जवाब दिया कि अमीरल मोमेनीन को नहीं, मैंने तुम्हारे बाप को क़त्ल किया है और ऐसी तलवार से क़त्ल किया है जिसे एक माह ज़हर पिलाता रहा हूँ। कशफ़ुल अनवार तरजुमा बिहार जिल्द 9 सफ़ा 277 मे है कि आपने आख़री वक़्त अपने सब बेटों को बुला कर इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) की इताअत और इमादाद का हुक्म दिया और फ़रमाया कि यह फ़रज़न्दाने रसूल स. हैं। उसूले काफ़ी सफ़ा 141 मे है कि जिन बेटों को हिदायत दी गई उनकी तादाद बारह थी। मरक़ातुल ईक़ान जिल्द 1 सफ़ा 40 में है कि आपने अपनी तमाम अवलाद व अज़वाज को इमाम हसन (अ.स.) के सिपुर्द फ़रमाया। माईतन्न सफ़ा 441 में है कि हज़रते अब्बास (अ.स.) को इमाम हुसैन (अ.स.) के हवाले कर के फ़रमाया कि यह तुम्हारा ग़ुलाम है करबला में काम आयेगा। किताब अक़दुल फ़रीद में है कि आपने अमरे खि़लाफ़त इमाम हसन (अ.स.) के सिपुर्द फ़रमाया। किताब वसीलातुन नजात में है कि इमाम हसन (अ.स.) हज़रत अली (अ.स.) की वसीयत के मुताबिक़ इमामे बरहक़ और ख़लीफ़ा ए वक़्त क़रार पाए। तारीख़े कामिल इब्ने असीर, बेहारूल अनवार, आलाम अल वरा, जि़करूल अब्बास सफ़ा 38 में है कि आपने 21 रमज़ान 40 हिजरी को इन्तेक़ाल फ़रमाया। किताब जामेए अब्बासी सफ़ा 59 और अल याक़ूबी में है कि शबे 21 रमज़ान को आपने इन्तेक़ाल फ़रमाया है। इसी शब को हज़रते ईसा (अ.स.) आसमान पर उठाए गये। हज़रते मूसा (अ.स.) ने रहलत की और यूशा इब्ने नून ने वफ़ात पाई। किताब अल इमामत वल सियासत जिल्द 1 सफ़ा 155 व इरशादे मुफ़ीद सफ़ा 7 में है कि इमामे हसन (अ.स.), इमामे हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र ने ग़ुस्ल दिया और मोहम्मदे हनफि़या ने पानी डालने में मद्द की। कफ़न पिनहाने के बाद हज़रत इमाम हसन (अ.स.) ने नमाज़े जनाज़ा पढ़ी। रहला इब्ने जबीर अनदलसी सफ़ा 189 प्रकाशित मिस्र 1908 ई0 में है कि आपको जिस जगह ग़ुस्ल दिया गया उस जगह हज़रत नूह (अ.स.) की बेटी का घर था। सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 80 में है कि शहादत के वक़्त आप की उम्र 63 साल थी। बाज़ तवारीख़ में है कि आपकी क़ब्र हज़रत नूह (अ.स.) की बनाई हुई थी और आपका जनाज़ा सिरहाने की तरफ़ से फ़रिश्ते उठाये हुए थे। तारीख़े अबुल फि़दा में है कि आप नजफ़े अशरफ़ में सिपुर्दे ख़ाक किये गये जो अब भी जि़यारत गाहे आलम है। अल याकूबी जिल्द 2 सफ़ा 203 में है कि शहादते अली (अ.स.) के बाद इमामे हसन (अ.स.) ने अपने ख़ुतबे में फ़रमाया कि उन्होंने सिर्फ़ सात सौ (700) दिरहम छोड़े हैं। मुसतदरिक हाकिम और रियाज़ुन नज़रा और अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 760 में है कि जिस शब में हज़रत अली (अ.स.) शहीद हुये उसकी सुबह को बैतुल मुक़द्दस का जो पत्थर उठाया जाता था, उसके नीचे से ख़ूने ताज़ा बरामद होता था। तारीख़ अल याकूबी जिल्द 2 सफ़ा 203 में है कि हज़रत अली (अ.स.) के दफ़्न के बाद उनकी क़ब्र पर क़आक़ा बिन ज़रारा ने एक तक़रीर की जिसमें निहायत ग़मों अन्दोह के साथ कहा कि ऐ मौला आपकी जि़न्दगी ख़ैरो बरकत की किलीद थी, अगर लोग आपको सहीह तरीक़े पर मानते तो ख़ैर ख़ैर पाते मगर दुनिया वालों ने दुनिया को दीन पर तरजीह दी और ख़ैर हासिल न कर सके। इन्शाअल्लाह दुनिया दार जहन्नम में जायेंगे। किताब अनवारूल हुसैनिया जिल्द 2 सफ़ा 36 में है कि आपकी क़ब्र पोशीदा रखी गई थी।  मिस्टर गिबन    की तारीख़ डी गाईन एण्ड हाल अॅाफ़ दी रोमन इम्पाएर में है कि ज़ालिम बनी उम्मया की वजह से अली (अ.स.) की क़ब्र छुपाई गई। चैथी सदी में एक क़ुब्बा रौज़ए कूफ़ा के खन्डरों के पास नमूदार हो गया। मशहदे अली कूफ़े से पाँच मील और बग़दाद से 120 मील जुनूब में वाक़े है। हैवातुल हैवान व दमीरी जिल्द 2 सफ़ा 187 में है कि सब से पहले आपकी क़ब्र के गिर्द कटैहरे लगवाये गये थे। किताब सैफ़ अल मुक़ल्लेदीन बाब 5 सफ़ा 274 में है कि मुसन्निफ़ किताब अब्दुल जलील यूसुफ़ी जी ने आपकी तारीख़ के बारे में लिखा है। गर तू साले शहादतश जूई।

सरे मातम चरानमी गोई।।

 

हज़रत अली (अ.स.) की शहादत पर मरसिया

हज़रत अली (अ.स.) की शहादत पर बहुत से शोअरा ने मरासी कहे हैं हम इस वक़्त किताब रहमतुल लिल आलेमीन मुसन्नेफ़ा का़ज़ी मौहम्मद सुलैमान जज पटियाला के जिल्द 2 सफ़ा 81 से बक्ऱ बिन हमाद अल क़ाहेरी के 11 अशआर में से सिर्फ़ तीन शेर मय तरजुमा नक़ल करते हैं।

क़ुल ला बिन मलहजम व अला क़द अर ग़ालेबा।

हदमत वै लका, लिल इस्लाम अरकाना।।

इब्ने मुलजिम  से कहना गो मैं जानता हूँ कि तक़दीर सब पर ग़ालिब है कि कमबख़्त तूने इस्लाम के अरकान को ढा दिया।

क़तलत अफ़ज़ल मिन यमशी अली क़दम।

व अव्वलुन नास, इस्लामन व ईमाना।

वह शख़्स जो ज़मीन पर चलने वालों में सब से अफ़ज़ल था और इस्लाम व ईमान में सब से अव्वल।

व इल्मुन्नास बिल क़ुरआन सुम बेमा।

सन रसूलना, शरअन वत तबैना।।

और क़ुरआन व सुन्नत के जानने में सब आलम था, तूने उसे क़त्ल किया है।

 

हज़रत अली (अ.स.) की अज़वाज व औलाद

किताब अनवारूल हुसैनिया जिल्द 2 सफ़ा 35 में है कि आपने दस औरतों से निकाह किया और आपके इन्तेक़ाल के वक़्त चार बीवियां मौजूद थीं। इमामा, असमा, लैला और उम्मुल बनीन। आपने दस बेटे और अटठारा बेटियां छोड़ीं। इरशादे मुफ़ीद सफ़ा 199 व हमराह इब्ने हज़म व तहज़ीबुल असमा जिल्द 1 सफ़ा 149 में है कि आपके बारह बेटे और सोलह बेटियां थीं आप की नस्ल पांच बेटों से बढ़ी। 1. इमाम हसन (अ.स.), 2. इमाम हुसैन (अ.स.), 3. मोहम्मदे हनफि़या1, 4. हज़रते अब्बास (अ.स.) 5. उमर बिन अली, मुलाहेज़ा हों। नासेख़ुल तवारीख़ जिल्द 3 सफ़ा 707 प्रकाशित बम्बई व जि़करूल अब्बास सफ़ा 44 प्रकाशित लाहौर।

1.मौहम्मद की माँ का असली नाम ख़ूला और लक़ब और हनफ़ेया था वह क़बीलाए हनफि़या बिन लहीम से थीं, मौहम्मद बिन हनफि़या 8 हिजरी में पैदा हुए और उन्होंने यकुम मोहर्रम 81 हिजरी को इन्तेक़ाल किया। उनके ज़ोहद व रियाज़द और ज़ोरो क़ुव्वत की हिकायत बहुत मशहूर है। (किताब रहमतुल लिल आलेमीन जिल्द 2 सफ़ा 85 प्रकाशित लाहौर) अबुल अब्बास, अहमद बिन अली नल शन्दी अल मुतावफ्फा 821 ई0 तहरीर फ़रमाते हैं कि बनी हनफ़या अदनान के बक्र बिन वाएली से मुताअल्लिक़ एक क़बीला है जिसका सिलसिला यह है। बनू हनफ़या बिन लहीम, बिन साअब बिन अली बिन बक्र बिन वाएल यह यमामा में रहते थे।

(निहायतुल अरब फि़न निसाब अल अरब सफ़ा 225 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

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