अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.)

नबी अकरम व अहलेबैत
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लेखकः नजमुल हसन कर्रारवी

 

अली का नाम और खुलक़े हसन लेकर मौहम्मद का

नक़ी दुनिया में आये, दीन है महवे, सना ख्वानी

सितारा औज पर है, दसवीं मन्जि़ल का इमामत का

तक़ी के घर में नाजि़ल हो रहा है नूरे यज़दानी

(साबिर थरयानी कराची)

 

आज दसवां नाएबे ख़ैरूल बशर पैदा हुआ

हैं लक़ब हादी, नक़ी, जिसके अली है जिसका नाम

रहबरे दीने ख़ुदा हैं, यह मौहम्मद का पिसर

इतरते अतहार में चौथा अली आली मक़ाम

 


 

वालैदेन

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम मौहम्मद (स.अ.व.व) के दसवें जानशीन और हमारे दसवें इमाम और सिलसिला ए मासूमीन की बारवीं कड़ी हैं। आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) थे और वालदा माजदा जनाबे समाना ख़ातून थीं। आप अपने आबाओ अजदाद की तरह इमाम मनसूस, मासूम ए आलम, ज़माना और अफज़ल काएनात थे। आप इल्म सख़ावत तहारते नफ़स, बुलन्दी ए किरदार और जुमला सिफ़ात हसना में अपने वालिद माजिद की जीती जागती तस्वीर थे।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 123 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 291 नूरूल अबसार सफ़ा 149)

आपकी वालेदा के मुताअल्लिक़ उलमा ने लिखा है कि आप सैय्यदा उम्मुल फ़ज़ल के नाम से मशहूर थीं।

(मुनाकि़ब जिल्द 5 सफ़ा 116)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की विलादते बासआदत

आप ब तारीख़ 5, रज्जबुल मुरज्जब 214 हिजरी बरोज़ सेह शम्बा बामुक़ाम मदीना ए मुनव्वरा मुतावल्लिद हुए। नुरूल अबसार सफ़ा 149, दम ए साकेबा सफ़ा 120, शेख़ मुफ़ीद का कहना है कि मदीने के क़रीब एक क़रिया है जिसका नाम सरया है, आप वहां पैदा हुए।

 

इस्मे गिरामी, कुन्नीयत और अलक़ाब

आपका इस्मे गिरामी अली आपके वालिदे माजिद इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) ने रखा इसे यूं समझना चाहिये कि सरवरे काएनात (स.अ.व.व) ने जो अपने बारह जानशीन अपनी ज़ाहेरी हयात के ज़माने में मोअयन फ़रमाये थे। उनमें से एक आपकी ज़ाते गिरामी भी थी। आपके वालिदे माजिद ने उसी मोअयन नाम से मौसूम कर दिया। अल्लामा तबरसी लिखते हैं कि चौदह मासूमीन (अ.स.) के असमा नाम लौहे महफ़ूज़ में लिखे हुए हैं। सरवरे काएनात स. ने उसी के मुताबिक़ सब के नाम मुअयन फ़रमाये हैं और हर एक के वालिद ने उसी की रौशनी में अपने फ़रज़न्द को मौसूम किया है। अल्लामा अल वरा सफ़ा 225, किताब कशफुल ग़म्मा सफ़ा 4 में है कि आं हज़रत ने सब के नाम हज़रत आयशा को लिखवा दिये थे। आपकी कुन्नियत अबुल हसन थी। आपके अलक़ाब बहुत ज़्यादा हैं। जिनमें नक़ी, नासेह, मोतावक्किल, मुर्तुज़ा और असकरी ज़्यादा मशहूर हैं।

(कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 122 नूरूल अबसार सफ़ा 149, मतालेबुल सुवेल सफ़ा 191)

 

आपके अहदे हयात और बादशाहाने वक़्त

आप जब 214, हिजरी में पैदा हुए तो उस वक़्त बादशहाने वक़्त मामून रशीद अब्बासी था। 2180 में मामून रशीद ने इन्तेक़ाल किया और मोतासिम ख़लीफ़ा हुआ अबुल फि़दा 227, हिजरी मे वासिक़ इब्ने मोतासिम ख़लीफ़ा बनाया गया अबुल फि़दा 232 हिजरी वासिक़ का इन्तेक़ाल हुआ और मुतावक्किल अब्बासी ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया गया। अबुल फि़दा फि़र 247 हिजरी में मुग़तसिर बिन मुतावक्किल और 248 हिजरी में मुस्तईन और 252 हिजरी में ज़ुबेर इब्ने मुतावक्किल अलमकनी व ‘‘मोताज़बिल्लाह  अलत तरतीब ख़लीफ़ा बनाए गए। अबुल फि़दा दमतुस् साकेबा 254 हिजरी में मोताज़ के ज़हर देने से इमाम नक़ी (अ.स.) शहीद हुए।

(तज़किरातुल मासूमीन)

 

हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) का सफ़रे बग़दाद और हज़रत इमाम नक़ी (अ.स.) की वली अहदी

मामून रशीद के इन्तेक़ाल के बाद जब मोतासिम बिल्लाह ख़लीफ़ा हुआ तो उसने भी अपने अबाई किरदार को सराहा और ख़ानदानी रवये का इत्तेबा किया। उसके दिल में भी आले मौहम्मद की तरफ़ से वही जज़बात उभरे जो उसके आबाओ अजदाद के दिलों में उभर चुके थे, उसने भी चाहा कि आले मौहम्मद स. की कोई फ़र्द ज़मीन पर बाक़ी न रहे। चुनाचे उसने तख़्त नशीं हाते ही हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) को मदीने से बग़दाद तलब कर के नज़र बन्द कर दिया। इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) जो अपने आबाओ अजदाद की तरह क़यामत तक के हालात से वाकि़फ़ थे। मदीने से चलते वक़्त अपने फ़रज़न्द को अपना जां नशीन मुक़र्रर कर दिया और वह तमाम तबर्रूकात जो इमाम के पास हुआ करते हैं आपने इमाम नक़ी (अ.स.) के सिपुर्द कर दिए। मदीने मुनव्वरा से रवाना हो कर आप 9 मोहर्रमुल हराम 220 हिजरी को वारिदे बग़दाद हुए। बग़दाद मे आपको एक साल भी न गुज़रा था कि मोतसिम अब्बासी ने आपको ब तारीख़ 29 जि़क़ाद 220 हिजरी मे ज़हर से शहीद कर दिया।

(नूरूल अबसार सफ़ा 147)

उसूल काफ़ी में है कि जब इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) को पहली बार मदीने से बग़दाद तलब किया गया तो रावीये ख़बर इस्माइल बिन महरान ने आपकी खि़दमत में हाजि़र हो कर कहाः मौला। आपको बुलाने वाला दुश्मने आले मौहम्मद है। कहीं ऐसा न हो कि हम बे इमाम हों जायें। आपने फ़रमाया कि हमको इल्म है तुम घबराओ नहीं इस सफ़र में ऐसा न होगा।

इस्माईल का बयान है कि जब दोबारा आपको मोतासिम ने बुलाया तो फिर मैं हाजि़र हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ कि मौला यह सफ़र कैसा रहेगा? इस सवाल का जवाब आपने आसुओें के तार से दिया और ब चश्में नम कहा कि ऐ इस्माईल मेरे बाद अली नक़ी को अपना इमाम जानना और सब्र ज़ब्त से काम लेना।

(तज़किरातुल मासूमीन सफ़ा 217)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) का इल्मे लदुन्नी

बचपन का एक वाकि़या:- यह हमारे मुसल्लेमात से है कि हमारे अइम्मा को इल्मे लदुन्नी होता है। यह खुदा की बारगाह से इल्म व हिकमत ले कर कामिल और मुकम्मिल दुनियां में तशरीफ़ लाते हैं। उन्हे किसी से इल्म हासिल करने की ज़रूरत नहीं होती है और उन्होने किसी दुनियां वाले के सामने ज़ानु ए अदब तक नहीं फ़रमाया ज़ाती इल्म व हिकमत के अलावा मज़ीद शरफ़े कमाल की तहसील अपने आबाओ अजदाद से करते रहे, यही वजह है कि इन्तेहाई कमसिनी में भी यह दुनियां के बड़े बड़े आलिमों को इल्मी शिकस्त देने में हमेशा कामियाब रहे और जब किसी ने फ़रद से माकूफ़ समझा तो ज़लील हो कर रह गया, फिर सरे ख़म तसलीम करने पर मजबूर हो गया।

अल्लामा मसूदी का बयान है कि हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) की वफ़ात के बाद इमाम अली नक़ी (अ.स.) जिनकी उस वक़्त उमर 6- 7 साल की थी मदीने में मरजए ख़लाएक़ बन गए थे, यह देख क रवह लोग जो आले मौहम्मद से दिली दुश्मनी रखते थे यह सोचने पर मजबूर हो गये कि किसी तरह इनकी मरकजि़यत को ख़त्म कर दिया जाए और कोई ऐसा मोअल्लिम इनके साथ लगा दिया जो उन्हें तालीम भी दे और इनकी अपने उसूल पर तरबीयत करने के साथ उनके पास लोगों के पहुंचने का सद्दे बाब करें। यह लोग इसी ख्याल में थे उमर बिन फ़जऱ् रहजी फ़राग़ते हज के बाद मदीना पहुंचा लोगों ने उस से अरज़ किया, बिल आखि़र हुकूमत के दबाव से ऐसा इन्तेज़ाम हो गया कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को तालीम देने के लिए ईराक़ का सब से बड़ा आलम, आबिद अब्दुल्लाह जुनीदी माकूल मुशाहेरा पर लगाया गया यह जुनीदी आले मौहम्मद स. की दुशमनी में ख़ास शोहरत रखता था। अलग़रज़ जुनीदी के पास हुकूमत ने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को रख दिया और जुनीदी को ख़ास तौर पर इस अमर की हिदायत कर दी कि उनके पास रवाफि़ज़ न पहुंचने पाएं। जुनीदी ने आपको क़सर सरबा में अपने पास रखा। होता यह था कि जब रात होती थी तो दरवाज़ा बन्द कर दिया जाता था और दिन में भी शियों को मिलने की इजाज़त न थी। इसी तरह आपके मानने वालों का सिलसिला मुनक़ता हो गया और आपका फ़ैज़े जारी बन्द हो गया लोग आपकी जि़यारत और आपसे इस्तेफ़ादे से महरूम हो गये। रावी का बयान है कि मैने एक दिन जुनीदी से कहा, ग़ुलाम हाशमी का क्या हाल है? उसने निहायत बुरी सूरत बना कर कहा, उन्हें ग़ुलाम हाशमी न कहो, वह रईसे हाशमी हैं। खुदा की क़सम वह इस कमसिनी में मुझ से कहीं ज़्यादा इल्म रखते हैं। सुनो मैं अपनी पूरी कोशिश के बाद जब अदब का कोई बाब उनके सामने पेश करता हूँ तो वह उसके मुताल्लिक़ ऐसे अबवाब खोल देते हैं कि मैं हैरान रह जाता हूं। लोग समझ रहे हैं कि मैं उन्हें तालीम दे रहा हूं लेकिन खुदा की क़सम मैं उनसे तालीम हासिल कर रहा हूं। मेरे बस में यह नहीं कि मैं उन्हें पढ़ा सकूं। खुदा की क़सम वह हाफि़ज़े क़ुरआन ही नहीं वह उसकी तावील व तन्ज़ील को भी जानते हैं और मुख़तसर यह कि वह ज़मीन पर बसने वालों में सब से बेहतर और काएनात में सब से अफ़ज़ल हैं।

(असबात उल वसीयत दमतुस् साकेबा सफ़ा 121)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के करामात और आपका इल्मे बातिन

इमाम अली नक़ी (अ.स.) तक़रीबन 29 साल मदीना मुनव्वरा क़याम पज़ीर रहे। आपने इस मुद्दते उमर में कई बादशाहों का ज़माना देखा। तक़रीबन हर एक ने आपकी तरफ़ रूख़ करने से ऐहतिराज़ किया। यही वजह है कि आप उमूरे इमामत को अन्जाम देने में कामयाब रहे। आप चूंकि अपने आबाओ अजदाद की तरह इल्मे बातिन और इल्मे ग़ैब भी रखते थे। इसी लिए आप अपने मानने वालों को होने वाले वाकि़यात से बा ख़बर फ़रमा दिया करते थे और कोशिश फ़रमाते थे कि मक़दूरात के अलावा कोई गज़न्द न पहुंचने पाए इस सिलसिले में आपके करामात बे शुमार हैं जिनमें से हम इस मक़ाम पर किताब कशफ़ुल ग़ुम्मा से चन्द करामात तहरीर करते हैं।

1. मौहम्मद इब्ने फरज रहजी का बयान है कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने मुझे तहरीर फ़रमाया कि तुम अपने तमाम उमूर व मामलात को रास्त और निज़ामे ख़ाना को दुरूस्त कर लो और अपने असलहों को सम्भाल लो। मैंने उनके हुक्म के बामोजिब तमाम दुरूस्त कर लिया लेकिन यह न समझ सका यह हुक्म आपने क्यों दिया लेकिन चन्द दिनी के बाद मिस्र की पुलिस मेरे यहां आई और मुझे गिरफतार कर के ले गई और मेरे पास जो कुछ था। सब ले लिया और मुझे क़ैद खाने में बन्द कर दिया। मैं आठ साल इस क़ैद खाने में पडा रहा। एक दिन इमाम (अ.स.) का खत पहुंचा, जिसमें मरक़ूम था कि ऐ मौहम्मद बिन फ़जऱ्, तुम उस रास्ते की तरफ़ न जाना जो मग़रिब की तरफ़ वाक़े है। ख़त पाते ही मेरी हैरानी की कोई हद न रही। मै सोचता रहा कि मैं तो क़ैद खाने में हूं मेरा तो उधर जाना मुम्किन ही नहीं फिर इमाम ने क्यों यह कुछ तहरीर फ़रमाया? आपके ख़त आने को अभी दो चार ही दिन गुज़रे थे कि मेरी रेहाई का हुक्म आ गया और मैं उनके हुक्म के मुताबिक उस तरफ नही गया कि जिसको आपने मना किया था। क़ैद ख़ाने से रेहाई के बाद मैने इमाम (अ.स.) को लिखा कि हुज़ूर मैं क़ैद से छूट कर घर आ गया हूं। अब आप खुदा से दुआ फ़रमाऐं कि मेरा माल मग़सूबा वापस करा दें। आपने उसके जवाब में तहरीर फ़रमाया कि अन्क़रीब तुम्हारा सारा माल तुम्हें वापस मिल जाएगा चुनांचे ऐसा ही हुआ।

 

2. एक दिन इमाम अली नक़ी (अ.स.) और अली बिन हसीब नामी शख़्स दोनों साथ ही रास्ता चल रहे थे। अली बिन हसीब आपसे चन्द गाम आगे बढ़ कर बोले, आप भी क़दम बढ़ा कर जल्द आजाएं हज़रत ने फ़रमाया कि ऐ इब्ने हसीब तुम्हें पहले जाना है। तुम जाओ इस वाकि़ए के चार दिन बाद इब्ने हसीब फ़ौत हो गए।

 

3. एक शख़्स मौहम्मद बिन फ़ज़ल बग़दादी नामी का बयान है कि मैंने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को लिखा कि मेरे पास एक दुकान है मैं उसे बेचना चाहता हूं आपने उसका जवाब न दिया। जवाब न मिलने पर मुझे अफ़सोस हुआ। लेकिन जब मैं बग़दाद वापस पहुंचा तो वह आग लग जाने की वजह से जल चुकी थी।

 

4. एक शख्स अबू अय्यूब नामी ने इमाम (अ.स.) को लिखा कि मेरी ज़ौजा हामेला है, आप दुआ फ़रमाएं कि लड़का पैदा हो। आप ने फ़रमाया इन्शा अल्लाह उसके लड़का ही पैदा होगा और जब पैदा हो तो उसका नाम मौहम्मद रखना। चुनांचे लड़का ही पैदा हुआ, और उसका नाम मौहम्मद ही पैदा रखा गया।

 

5. यहिया बिन ज़करिया का बयान है कि मैंने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को लिखा कि मेरी बीवी हामेला है आप दुआ फ़रमाऐ कि लड़का पैदा हो। आपने जवाब में तहरीर फ़रमाया कि बाज़ लड़कियां लड़कों से बेहतर होती हैं, चुनांचे लड़की पैदा हुई।

 

6. अबू हाशिम का बयान है कि मैं 227 हिजरी में एक दिन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र था कि किसी ने आकर कहा कि तुर्को की फ़ौज गुज़र रही है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ अबू हाशिम चलो इन से मुलाक़ात करें। मैं हज़रत के हमराह हो कर लश्करियों तक पहुचा। हज़रत ने एक ग़ुलाम तुर्की से इसकी ज़बान में गुफ़्तगू शुरू फ़रमाई और देर तक बातें करते रहे। उस तुर्की सिपाही ने आपके क़दमों का बोसा दिया। मैंने उस से पूछा कि वह कौन सी चीज़ है जिसने तुझे इमाम का गिरवीदा बना दिया? उसने कहाः इमाम ने मुझे उस नाम से पुकारा जिसका जानने वाला मेरे बाप के अलावा कोई न था।

 

7. तिहत्तर ज़बानों की तालीमः

 अबू हाशिम कहते हैं कि मैं एक दिन हज़रत की खि़दमत में हाजि़र हुआ तो आपने मुझ से हिन्दी ज़बान में गुफ़तगू की जिसका मैं जवाब न दे सका, तो आपने फ़रमाया कि मैं अभी अभी तुम्हें तमाम ज़बानों का जानने वाला बनाए देता हूं। यह कह कर आपने एक संग रेज़ा उठाया और उसे अपने मुहं में रख लिया उसके बाद उस संग रेज़े को मुझे देते हुए फ़रमाया कि इसे चुसो। मैने मुँह में रख कर उसे अच्छी तरह चूसा, उसका नतीजा यह हुआ कि मैं तेहत्तर ज़बानों का आलिम बन गया। जिनमें हिन्दी भी शामिल थी। इसके बाद से फिर मुझे किसी ज़बान के समझने और बोलने में दिक़्कत न हुई। सफ़ा 122 से 125

 

8. इमाम अली नक़ी (अ.स.) के हाथों में रेत का सोने मे बदल जाना

आइम्माए ताहेरीन के उलील अम्र होने पर क़ुरान मजीद की नस सरीह मौजूद है। इनके हाथों और ज़बान में खुदा वन्दे आलम ने यह ताक़त दी है कि वह जो कहे हो जाए, जो इरादा करें उसकी तकमील हो जाए। अबू हाशिम का बयान है कि एक दिन मैनें इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खिदमत में अपनी तंग दस्ती की शिकायत की। आपने फ़रमाया बड़ी मामूली बात है तुम्हारी तक्लीफ़ दूर हो जाएगी। उसके बाद आपने रमल यानी रेत की एके मुठ्ठी ज़मीन से उठा कर मेरे दामन में ड़ाल दी और फ़रमाया इसे ग़ौर से देखो और इसे फ़रोख्त कर के काम निकालो।

अबू हाशिम कहते हैं कि ख़ुदा की क़सम जब मैने उसे देखा तो वह बेहतरीन सोना था, मैंने उसे बाज़ार ले जा कर फ़रोख्त कर दिया।

(मुनाकि़ब इब्ने शहर आशोब जिल्द 6 सफ़ा 119)

 

9. इमाम अली नक़ी (अ.स.) और इस्मे आज़म

हज़रत सुक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी उसूले काफ़ी में लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया, इस्म अल्लाहुल आज़म 73 हुरूफ़ में इनमें से सिर्फ़ एक हरफ़ आसिफ़ बरखि़या वसी सुलेमान को दिया गया था जिसके ज़रिए से उन्होंने चश्मे ज़दन में मुल्के सबा के तख्ते बिलक़ीस मंगवा लिया था और इस मंगवाने में यह हुआ था कि ज़मीन सिमट कर तख्त को क़रीब ले आई थी, ऐ नौफ़ली रावी ख़ुदा वन्दे आलम ने हमें इस्मे आज़म के 72 हुरूफ़ दिये हैं और अपने लिये सिर्फ़ एक हरफ़ महफ़ूज़ रखा है जो इल्मे ग़ैब से मुताअल्लिक़ है।

मसूदी का कहना है कि इसके बाद इमाम ने फ़रमाया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपनी क़ुदरत और अपने इज़्ने इल्म से हमें वह चीज़े अता कि हैं जो हैरत अंगेज़ और ताज्जुब ख़ैज़ हैं। मतलब यह है कि इमाम जो चाहें कर सकते हैं। उनके लिए कोई रूकावट नहीं हो सकती।

(उसूले काफ़ी - मुनाकि़ब इब्ने शहर आशोब जिल्द 5 सफ़ा 118 व दमतुस् साकेबा सफ़ा 126)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) और साल के चार अहम रोज़े

10. शेख़ अबू जाफ़र तूसी किताब मिसबाह में लिखते हैं कि इस्हाक़ बिन अब्दुल्लाह अलवी अरीज़ी हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में बा मुक़ाम सरय्या मदीना हाजि़र हुए। इमाम (अ.स.) ने उन्हें देख कर फ़रमाया, मैं जानता हूं कि तुम्हारे बाप और तुम्हारे चचा के दरमियान यह अमर ज़ेर बहस है कि साल के वह कौन से रोज़े है कि जिनका रखना बहुत ज़्यादा सवाब रखता है और तुम इसी के मुताल्लिक़ मुझ से सवाल करने आए हो। उसने कहा ऐ मौला बस यही बात है कि आपने फ़रमाया सुनो वह चार रोज़े हैं जिनके रखने की ताकीद है।

1. यौमे विलादत हज़रत पैग़म्बरे इस्लाम स. 17 रबीउल अव्वल।

2. यौमे बैसत व मेराज 27 रजबुल मुरज्जब।

3. यौमे दहवुल अर्ज़ यानी जिस दिन काबे के नीचे से ज़मीन बिछाई गई और सफ़ीना ए नूह कोह जूदी पर ठहरा जिसकी तारीख़ 25 ज़ीक़ाद है।

4. यानी यौमें अल ग़दीर जिस दिन हज़रत रसूले ख़ुदा स. ने हज़रत अली (अ.स.) को अपने जानशीन होने का ऐलान आम फ़रमाया जिसकी तारीख़ 18 जि़ल हिज है।

ऐ अरीज़ी जो इन दिनों में से किसी दिन भी रोज़ा रखे। उसके साठ और सत्तर साला गुनाह बख़शे जाते हैं।

(किताब मुनाकि़ब जिल्द 5 सफ़ा 123 व दम ए साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 123)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल की तख़्त नशीनी

यह मानी हुई बात है कि मौहम्मद स. व आले मौहम्मद स. उन तमाम उमूर से वाकि़फ़ होते हैं जिनसे अवाम उस वक़्त तक ब खबर नहीं होते जब तक वह मन्ज़रे आम पर न आजायें। इमाम शिबलन्जी लिखते हैं कि वासिक़ का एक मुहं चढ़ा रफ़ीक़ अस्बाती एक दिन ईराक़ से मदीना मुनव्वरा पहुचां और वहां जा कर इमाम अली नक़ी (अ.स.) से मिला। आपने ख़ैर ख़ैरियत दरयाफ़त करने के बाद फ़रमाया कि वासिक़ बिल्लाह ख़लीफ़ा ए वक़्त का क्या हाल है? उसने कहा मैनें उसे ब सलामत छोड़ा और वह बिल्कुल बख़ैरियत है, मैं उसका भेजा हुआ यहां आया हूं। आपने फ़रमाया लोग कहते हैं कि वह फ़ौत हो गया है। यह सुन कर अस्बाती ने सुकूत इख़्तेयार किया और समझा कि यह जो आपने फ़रमाया है, बइल्मे इमामत फ़रमाया है कि हो सकता है कि दुरूस्त हो। फिर आपने कहा अच्छा यह बताओ कि इब्ने अज़यात किस हाल में है? उसने अर्ज़ कि वह वह भी अच्छा ख़ासा है। बिल्कुल ख़ैरियत से है। इस वक़्त उसी का तूती बोलती है और इसी का हुक्म चलता है। आपने इरशाद फ़रमायाः ऐ अस्बाती सुनों हुक्में ख़ुदा को कोई नहीं टाल सकता और क़लमे क़ुदरत को कोई नहीं रोक सकता। वासिक़ का इन्तेक़ाल हो गया है और मुतावक्किल तख़्त नशीने खि़लाफ़त हो गया है और इब्ने अज़यात क़त्ल कर दिया गया है। अस्बाती ने चौंक कर पूछाः या हज़रत यह सब कैसे हो गया है? मैं तो सबको ख़ैरियत व आफि़यत में छोड़ कर आया हूं। आपने फ़रमाया तुम्हारे ईराक़ से निकलने के छः दिन बाद यह इन्क़ेलाब आया है। इसके बाद अस्बाती आप से रूख़सत हो कर शहर में किसी मुक़ाम पर जा ठहरा। चन्द दिनों के बाद मुतावक्किल का नामा बर मदीना पहुंचा तो बिल्कुल उन्हीं हालात का इन्केशाफ़ हुआ जिनकी ख़बर इमामे ज़माना दे चुके थे। नुरूल अबसार सफ़ा 149, तबा मिस्र मुवर्रिख़ अलवर्दी लिखते हैं कि यह वाकि़या 232 हिजरी का है तारीख़े इस्लाम मिस्टर ज़ाकिर हुसैन में है कि इब्ने अलज़्यारत वज़ीर था उसके क़त्ल होते ही मोतावक्किल ने अपना वज़ीर फतेह इब्ने ख़क़ान को बनाया जो बहुत ज़ेहीन व ज़की था।

(फ़ेहरिस्त इब्ने नदीम सफ़ा 175)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला की एक दुआ

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के एक सहाबी सबा बिन हमज़तुल क़ुम्मी ने एक को तहरीर किया कि मौला मुझे ख़लीफ़ा मोतासिम वज़ीर से बहुत दुख पहुंच रहा है, मुझे इसका भी अन्देशा है कि कहीं वह मेरी जान न ले ले। हज़रत ने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया कि घबराओ नही और दुआ ए सहीफ़ा ए कामेला यामन तहलो बेहा अक़दा अलमकाराहा अलख़, पढ़ो मुसीबत से नजात पाओगे। यसआ बिन हमज़ा का बयान है कि मैनें इमाम के हस्बे अल हुक्म नमाज़ सुब्हा के बाद इस दुआ की तिलावत की जिसका पहले ही दिन यह नतीजा निकला कि वज़ीर ख़ुद मेरे पास आया मुझे अपने हमराह ले गया और लिबासे फ़ख़रा पहना कर मुझे बादशाह के पहलू में बिठा दिया।

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के आबाओ अजदाद की क़ब्रों के साथ मोतावकिल अब्बासी का सुलूक

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) मदीने ही में थे कि जि़लहिज 222 हिजरी में अबू अल फ़ज़ल जाफ़र मुतावक्किल अब्बासी तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतामक्किन होने के बाद इसने वह हरकतें शुरू कीं जिन्होने ज़ारे दमिश्क़ यज़ीद को भी शर्मा दिया।

मुवर्रिख़ निगार में मुतावक्किल अब्बासी को वही दर्जा हासिल है जो बनी उम्मया में यज़ीद को हासिल था। यह दोनों अपने ज़ाती किरदार के अलावा जो कुछ आले मौहम्मद स. के साथ करते रहे उससे तारीख़े इस्लाम सख़्त शर्मिन्दा है। मुतावक्किल के मुताल्लिक़ मुवर्रिख़ इब्ने असीर लिखता है कि यह अली बिन अबी तालिब (अ.स.) और उनके अहले बैत से सख्त बुग़ज़ रखता था।

दमेरी का कहना है कि मोतावक्किल हज़रत अली (अ.स.) से बुग़ज़ शदीद रखता था और उनकी मनक़सत किया करता था। तारीख़ अबुल फि़दा में है कि मुतावक्किल ने शायर इब्ने सक़ीयत को इस जुर्म कि उसने मुतावक्किल के इस सवाल के जवाब में मेरे बेटे मोताज़ और मोइद बेहतर हैं या अली (अ.स.) के बेटे हसन (अ.स.) हुसैन (अ.स.) यह कहा था कि तेरे बेटों को मैं हसनैन के ग़ुलाम क़म्बर के बराबर भी नहीं समझता। मोतावक्किल ने उनकी ज़बान गुद्दी से खिचवा ली थी, मोतावक्किल की जि़न्दगी का एक बदतरीन और सियाह ज़माना आले मौहम्मद स. की क़ब्रों को मिसमार करना है। इसके आम हालात यह हैं कि यह बड़ा ज़ालिम दाएम उल ख़ुम्र और अय्याश बादशह था। इसकी चार हज़ार कनीज़ंे थीं। इन सब से मुजामेअत कर चुका था। इसके दरबार में हज़ल और मसख़्रा पन बहुत होता था, जो तमसखुर में बढ़ कर होता वही इसका ज़्यादा क़रीब होता था। वह महफि़ले बज़म में मुसाहेबों और नदीमों के साथ तकलीफ़ और ख़ुश तबइयां करता था, कभी मजलिस में शेर को छुड़ा देता था, कभी किसी की आस्तीन में सांप छोड़ देता था, जब वह काटता तो तरयाक़ से मदावा करता कभी मटकों मे बिच्छू भरवा कर उन्हें मजलिस में तुड़वा देता था, वह मजलिस में फैल जाते किसी को हरकत करने का यारा न होता। उसने एक फ़रमान की रू से मज़हब मोताजि़ला को खिलाफ़े हुकूमत क़रार दिया था। मोताजि़लयों को सरकारी ओहदों से माज़ूल कर दिया था। अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) से दुश्मनी रखता था।

सेवती लिखता है कि मुतावक्किल नासबी था। अली (अ.स.) और औलादे नबी स. का दुश्मन था। साहबे गुलज़ार शाही लिखते हैं कि इसके वक़्त में सादात बेचारे मुसीबत के मारे जिला वतन हो गये। करबला के रौज़े जो उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने बनवाये थे और उन रोज़ों के गिर्द के मकानात उसने मिसमार करवा दिये और लोगों को जि़यारत से मना किया। साहबे हबीब अस सियर लिखते हैं कि 236 हिजरी में मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि कोई मज़ारे हैदरे करार और उनकी औलाद की ज़्यारत को न जाया करें और हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) और शोहदाए करबला के रौज़े को हमवार कर के उन पर ज़राअत के लिये पानी छोड़ दें और तारीख़ गुज़ीदा और तारीख़े कामिल में है कि मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) के मज़ार और उसके गिर्द के मकानात वगै़रह मुन्हदिम कर के वहां ज़राअत की जाए और लोगों को उस मक़ाम तक जाने की मुमानीयत कर के यह मुनादी करा दी कि जो शख़्स वहां दिखाई देगा वह क़ैद किया जायेगा। तवारीख़ में है कि हर चन्द फ़रमा बरों ने कोशिश की मगर पानी इमाम और तमाम शोहदा ए इतरते ताहेरा की क़ब्रों पर जारी न हुआ जिस से खि़लक़त को सख़्त हैरत हुई और उस वक़्त से और इसी सबब से उस मशहदे मुक़द्दस को हायर कहने लगे। मुतावक्किल की इस हरकत से मुसलमानों को सख़्त सदमा हुआ। अहले बग़दाद ने मस्जिदों और घरों की दिवारों पर उसे गालियां लिखी और हुजूमें अशआर कहे। इस बनी फ़ातेमा से बागे़ फि़दक भी छीन लिया था। ग़ैर मुस्लिमों को ओहदों से बरतरफ़ कर दिया था। नसारा को हुक्म दिया कि गले में जि़न्नार न बांधें, घोड़े पर सवार न हों, बल्कि गधे और खच्चर पर सवार हों और रक़ाबे काठ की रखें। 234 हिजरी में उसने तमाम मोहद्देसीन को सामर्रा में जमा किया और इनाम व इकराम दे कर हुक्म दिया कि सिफ़ात व रोयत व ख़ल्क़े क़ुरआन के मुताअल्लिक़ हदीसे बयान करें। चुनाचे इसी लिये अबू बर्क इब्ने शीबा को जामा मस्जिद रसाफ़ा में और उनके भाई उसमान को जामा मन्सूर में मुक़र्रर किया। इन दोनों के वाज़ में हर रोज़ क़रीब हज़ार आदमी जमा होते थे। सियूती लिखता है कि मोतावक्किल वह पहला ख़लीफ़ा है जिसने शाफ़ेई मज़हब इख़्तेयार किया। मोतावक्किल के ज़माने में बड़ी बड़ी आफ़तें नाजि़ल हुईं। बहुत से इलाक़ों मे ज़लज़ले आए, ज़मीनें दस गईं, आग लगीं, आसमान से हौलनाक अवाज़ें सुनाई दीं। बादे समूम से बहुत से आदमीं और जानवर हलाक हुए। आसमान से मिसले टिडडियों के तारे टूटे। दस दस रतल के पत्थर आसमान से बरसे।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 65)

 

मक़ामे ज़खार मे है कि मोतावक्किल चुंकि हज़रत अली (अ.स.) से दुश्मनी रखता था इसका मुस्तकि़ल रवय्या यह था कि वह ऐसे लोगों को अपने पास रखता था जो अमीरूल मोमिनीन से बुग़्ज़ व अनाद रखते थे और उनकी तौहीन में बसर्रत महसूस करते थे। जैसे इब्ने जहम शायर, उमर बिन फर्जरहजी अबू अलहज़ इब्ने अतरजा, अबू अल अबर यह लोग मोतावक्किल को हमेशा औलादे अली के क़त्ल की तरफ़ मोतावज्जा करते थे और इससे कहते थे कि अगर तूने उन्हें बाक़ी रहने दिया तो यह एक न एक दिन तेरी सलतनत पर क़ब्ज़ा कर लेगें। इन लोगों के हर वक़्त उभारने का नतीजा यह हुआ कि दिल में आले मौहम्मद स. की दुश्मनी पूरी तरह क़ाएम हो गई। वह चुंकि गाने वाली औरतों का शायक़ था लेहाज़ा उसने शराब पीने के बाद एक ऐसी औरत को तलब किया जिससे वह बहुत ज़्यादा मानूस था। लोगों ने कहा कि दूसरी औरतें हाजि़र हैं इनसे काम निकाला जाए वह आ जाएगी। चुनान्चे ऐसा ही हुआ। जब वह थोड़ी देर बाद पहुंची तो बादशाह ने पूछा कि कहां गई थीं? उसने कहा मैं हज करने गई थी। मोतावक्किल ने कहा माहे शाबान में कौन हज करता है। सच बता? इसने जवाब दियाः इमाम हुसैन (अ.स.) की जि़यारत के लिये चन्द औरतों के हमराह चली गई थी। यह सुन कर मोतावक्किल बहुत ग़ज़ब नाक हुआ और उसे क़ैद करा दिया। इसका तमाम माल असबाब ज़ब्त कर लिया और लोगों को ज़ियारते करबला से रोक दिया और तीन रोज़ के बाद मनादी कर दी कि जो शख़्स हुसैन (अ.स.) की ज़्यारत को जायेगा क़ैद किया जायेगा और हर तरफ़ एक एक मील के फ़ासले से पहरे बिठा दिये कि जो शख़्स ज़्यारत को जाता हुआ पाया जाऐ फौरन क़ैद में भैज दिया जाए। फिर एक नौ मुस्लिम यहूदी जिसका नाम वैरिज था को हुक्म दिया कि करबला जा कर हुसैन (अ.स.) की क़ब्र का निशान मिटा दे और उस जगह को जुतवा कर वहां खेत बनवा दे और ज़रीह को किसी तरह फिकवा दे। हुक्म पाते ही नौ मुस्लिम यहूदी जिसे इस्लाम और इस्लाम के बानीयों का सही ताअर्रूफ़ भी न था तामील के लिया रवाना हो गया और वहां पहुंच कर दो सौ जरीब ज़मीन उसने जुत्वा डाली। जब क़ब्रे मुनव्वरा इमाम हुसैन (अ.स.) को जोतने के लिये आगे बढ़ा तो मुसलमानों ने तामीले हुक्म से इनकार कर दिया और कहा कि यह फ़रज़न्दे रसूल स. हैं और शहीद हैं। क़ुरान मजीद इन्हें जि़न्दा बताता है हम हरगजि़ ऐसी नाजायज़ हरकत नहीं कर सकते। यह सुन कर विरज ने यहूदियों से मदद ली, मगर कामयाब न हुआ। उसके बाद नहर काट कर क़ब्रे मुनव्वरा को ज़ेरे आब करना चाहा। पानी नहर में चल कर जब क़ब्र के क़रीब पहुंचा तो उस पर रवां न हुआ बल्कि इसके इर्द गिर्द जारी हो गया। क़ब्रे मुबराक ख़ुश्क ही रही। इस यहूदी ने बड़ी कोशिश की, लेकिन कामयाबी हासिल न कर सका। वह ज़मीन जहां तक पानी फैला हुआ था उसे हाएर कहते हैं। किताबे तस्वीरे अज़ा में ब हवाले किताब सराएर मरक़ूम है इस ज़मीन को हाएर इस सबब से कहते हैं कि लुग़ते अरब में हाएर के मानी ज़मीन पस्त के हैं। इस जगह बहता हुआ पानी पहुंच कर साकिन और हैरान हो जाता है क्योंकि बहने का रास्ता नहीं पाता।

शैख़ शहीद अलैहा रहमता का कहना है कि ज़माना ए मोतावक्किल में चुकि आपकी क़ब्र के निशान को मिटाने के लिये पानी जारी किया गया था और वहां पहुंच कर ब एजाज़े हुसैनी हैरान रह गया था और उस पर जारी नहीं हो सका इस लिये इस मुक़ाम को जिसमें पानी ठहरा हुआ था हाएर कहते हैं। सेवती तारीख़ अल ख़ुलफ़ा में लिखता है कि यह वाकि़या इन्हेदामे क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) 236 हिजरी का है उसने हुक्म दिया था कि इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र ढा दी जाए और निशाने क़ब्र मिटा दिया जाए और उनके मज़ार के इर्द गिर्द जितने मकानात हैं उन्हें भी मिस्मार कर के उस मुक़ाम को एक सहरा की शक्ल दे दी जाए और वहां पर खेती की जाए और लागों को ज़ियारते इमाम हुसैन (अ.स.) से क़तअन रोक दिया। इसके बाद सेवती लिखता है मुतावक्किल बड़ा नासबी था उसके इस फ़ेल से मुसलमानों में सख़्त हैजान पैदा हो गया और लागों ने उसकी हजो की और दीवारों पर इसके लिये गालियां लिखीं यही कुछ किताब हबीब उस सियर तारीख़े इस्लाम, तारीख़े कामिल, जिलाउल अयून, क़ुम क़ाम ज़खारे, अमाली शैख़ तूसी वग़ैरा में है।

अल्लामा सेवती लिखते हैं कि इस मौक़े पर जिन बहुत से शायरो ने अशआर लिखे उनमे से एक शायर ने कई शेर कहें हैं जिनका तरजुमा यह है।

1.  ख़ुदा की क़सम बनी उमय्या ने अपने नबी के नवासे को करबला में भूखा और प्यासा ज़ुल्मो जौर के साथ क़त्ल कर दिया।

2. तो बनी अब्बास जो रसूल के चचा की औलाद हैं उन्होंने भी उन पर ज़ुल्म में कमी नही की और उनकी क़ब्र खुदवा कर उसी कि़स्म के ज़ुल्म का इरतेक़ाब किया है ।

3. बनी अब्बास को इस कि़स्म का सदमा था कि वह क़त्ले हुसैन (अ.स.) में शरीक न हो सके तो उन्होंने इस सदमें की आग को बुझाने के लिये हज़रत की हडडियों पर धावा बोल दिया।

 (तारीख़ अल ख़ुलफ़ा सफ़ा 237)

 

अमाली शैख़ तूसी में है कि मोतावक्किल का फि़रस्तादा वह जब जि़्यारत से मना करने के लिये करबला पहुंचा तो वहां के लोगों ने ज़्यारत न करने से साफ़ इन्कार कर दिया और कहा कि अगर मोतावक्किल सब को क़त्ल कर दे तब ही यह सिलसिला बन्द हो सकता है। उसने वापस जाकर मुतावक्किल से वाकि़या बयान किया तो 247 हिजरी तक के लिये ख़ामोश हो गया।

तवारीख़ में है कि ख़लीफ़ा के हुक्म के मुताबिक़ अमीरे फ़ौज ने करबला वालों को ज़ियारते इमाम हुसैन (अ.स.) करने से रोकना चाहा तो उन लोगों ने फ़ौज से मरउब होने के बजाए मुक़ाबले का प्रोग्राम बना लिया और अपनी जानों पर खेल कर अतराफ़ व जवानिब से दस हज़ार अफ़राद जमा कर लिये और सरकारी फ़ौज के बिल मुक़ाबिल औकर कहा कि अगर मुतावक्किल हम में से एक एक को क़त्ल कर डाले तब भी यह सिलसिला बन्द न होगा। हमारी औलादें हमारी नस्लें इस सुन्नते ज़्यारत को अदा करेगी। सुनों हमारे आबाओ अजदाद वही करते चले आए जो हम कर रहे हैं और हमारे अबनाये वाहेफ़ा वही करेंगे जो हम कर रहे हैं, बेहतर होगा कि तुम हमें बाज़ रखने की कोशिश न करो और मुतावक्किल से कह दो कि वह शराब के नशे में ऐसी हरकतें न करे और अपने फ़ैसले पर नज़र सानी कर के हुक्म वापस ले ले। अमीरे फ़ौज वापस गया और उसने सारी दास्तान मुतावक्किन के सामने दोहर दी। मुतावक्किल चुंकि उन दिनों सामरा की तमकील में मशग़ूल था। इसने मन्सूर दवानक़ी की तरह तक़रीबन दस साल ख़ामोश रहा। यानी मन्सूर दवानक़ी जो तामीरे बग़दाद की वजह से दस साल तक इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जक न हो सका। मुतावक्किल भी सामरा की वजह से तक़रीबन इतनी ही मुद्दत के लिये ख़ामोश हो गया। इमाम शिबलन्जी लिखते हैं कि सामरा एक ज़बरदस्त शहर है जो दजला के मशरिक़ मे तकरीयत और बग़दाद के दरमियान वाक़े हैं इसकी बुनियाद 221 हि. में मोतासिम अब्बासी ने डाली थी और मुद्दतों इसकी तकमील का सिलसिला जारी रहा।

(नुरूल अबसार सफ़ा 149 व तारीख़ किरमानी क़लमी)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा तलबी

हुकूमत की तरफ़ से इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा में तलबी और रास्ते का अहम वाकि़या

मोतावक्किल 232 हिजरी में ख़लीफ़ा हुआ और उसने 236 हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र के साथ पहली बार बेअदबी की लेकिन उसमें पूरी कामयाबी न हासिल होने पर अपने फि़तरी बुग़ज़ की वजह से जो आले मौहम्मद स. के साथ था वह हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जा हुआ। मुतावक्किल 243 हिजरी मे इमाम नक़ी (अ.स.) को सताने की तरफ़ मुतावज्जे हुआ और इसने हाकिमे मदीना अब्दुल्ला बिन मौहम्मद को ख़ुफि़या हुक्म दे कर भेजा कि फ़रज़न्दे रसूल इमाम अली नक़ी (अ.स.) को सताने में कोई दक़ीक़ा फ़रो गुज़ाश्त न करे। चुनान्चे इसने हुकूमत के मन्शा के मुताबिक़ पूरी तवज्जा और पूरे इन्हेमाक के साथ अपना काम शुरू कर दिया। ख़ुद जिस क़दर सता सका उसने सताया और आपके खि़लाफ़ रिकार्ड के लिये मोतावक्किल को शिकायत भेजनी शुरू की।

अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को यह मालूम हो गया कि हाकिमे मदीना ने आपके खि़लाफ़ रेशा दवानाइयां शुरू कर दी हैं और इस सिलसिले में इसने मोतावक्किल को आपकी शिकायत भेजनी शुरू कर दी हैं तो आपने भी एक तफ़सीली ख़त लिखा जिसमें हाकिमें मदीना की बे एतिदाली और ज़ुल्म आफ़रीनी का ख़ास तौर से जि़क्र किया। मोतावक्किल ने आपका ख़त पढ़ कर आपको इसके जवाब में लिखा के आप हमारे पास चले आएं। इसमें हाकिमें मदीना के अमल की माज़ेरत भी थी, यानी जो कुछ वह कर रहा है अच्छा नहीं करता, हम इसकी तरफ़ से माज़ेरत ख्वाह हैं मतलब यह था कि इसी बहाने से उन्हें सामरा बुला लें। ख़त मे उसने इतना नरम लहजा इख़्तेयार किया था जो एक बादशाह की तरफ़ से नहीं हुआ करता, यह सब हीला साज़ी थी और ग़रज़ महज़ यह थी कि आप मदीना छोड़ कर सामरा पहुंच जायें।

(नुरूल अबसार सफ़ा 149)

 

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि मोतावक्किल ने यह भी लिखा था कि मैं आपकी ख़ातिर से अब्दुल्ला इब्ने मौहम्मद को माजूल कर के इसकी जगह पर मौहम्मद बिन फ़ज़ल को मुक़र्रर कर रहा हूं।

(जिलाउल उयून सफ़ा 292)

 

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि मुतावक्किल ने सिर्फ़ यही नही किया कि अली नक़ी (अ.स.) को ख़त लिखा हो कि आप सामरा चले आइये बल्कि इसने तीन सौ का लश्कर यहिया इब्ने हरसमा की क़यादत में मदीना भेज कर उन्हें बुलाना चाहा यहिया इब्ने हरसमा का बयान है कि मैं हुक्मे मुतावक्किल पा कर इमाम (अ.स.) को लाने के लिये ब इरादा मदीना मुनव्वरा रवाना हो गया, मेरे हमराह तीन सौ का लश्कर था और इसमें एक कातिब भी था जो इमामिया मज़हब रखता था। हम लोग अपने रास्ते पर जा रहे थे और इस कोशिश में थे कि किसी तरह जल्द से जल्द मदीना पहुंच कर इमाम (अ.स.) को ले आऐ और मुतावक्किल के सामने पेश करें। हमराह जो एक शिया कातिब था उससे एक लश्कर के अफ़सर से रास्ते भर मज़हबी मनाज़रा होता रहा। यहां तक कि हम लोग एक अज़ीमुश्शान वादी में पहुंचे, जिसके इर्द गिर्द मीलों कोई आबादी न थी और वह ऐसी जगह थी जहां से इन्सान का मुश्किल से गुज़र होता था बिल्कुल जंगल और खुश्क सहरा था। जब हमारा लश्कर वहां पहुंचा तो उस अफ़सर ने जिसका नाम शादी था और जो कातिब से मनाज़रा करता चला आ रहा था। कहने लगा ऐ कातिब तुम्हारे इमाम हज़रत अली (अ.स.) का यह क़ौल है कि दुनिया की कोई ऐसी वादी न होगी जिसमें क़ब्र न हो या अनक़रीब क़ब्र न बन जाए। कातिब ने कहा बेशक हमारे इमाम (अ.स.) ग़ालिब कुल्ले ग़ालिब का यही इरशाद है। इसने कहाः बताओ इस ज़मीन पर किस की क़ब्र है? या किस की क़ब्र बन सकती है। तुम्हारे इमाम यूं ही की दिया करते हैं। इब्ने हरसमा का कहना है कि मैं चूंकि हश्वी ख़्याल का था लेहाज़ा जब यह बातें हमने सुनीं तो हम सब हंस पड़े और कातिब शर्मिन्दा हो गया। ग़रज़ कि लश्कर बढ़ता रहा और उसी दिन मदीना पहुंच गया। वारिदे मदीना होने के बाद मैंने मुतावक्किल का ख़त इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में पेश किया। इमाम (अ.स.) उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर लश्कर पर नज़र डाली और समझ गये कि दाल में कुछ काला है। आपने फ़रमाया ऐ इब्ने हरसमा चलने को तैय्यार हूं लेकिन एक दो रोज़ की मोहलस ज़रूरी है। मैंने अर्ज़ कि हुज़ूर ख़ुशी से जब हुक्म हो फ़रमायें मैं हाजि़र हो जाऊं और रवानगी हो जाए। इब्ने हरसमा का बयान है कि इमाम (अ.स.) ने मेरे सामने मुलाज़ेमीन को से कहा कि दरज़ी को बुला दो और उससे कहो कि मुझे सामरा जाना है लेहाज़ा रास्ते के लिये गर्म कपड़े टोपियां जल्दी से तैय्यार कर दे। मैं वहां से रूख़सत हो कर अपने क़याम गाह पर पहुंचा और रास्ते भर यह सोचता रहा कि इमामीया कैसे बेवकूफ़ हैं कि एक शख़्स को इमाम मानते हैं जिसे माज़ा अल्लाह यह तक तमीज़ नहीं है कि यह गर्मी का ज़माना है या जाड़े का। इतनी शदीद गर्मी में जाड़े के कपड़े सिलवा रहे हैं और उसे हमराह ले जाना चाहते हैं। अलग़रज़ मैं दूसरे दिन इनकी खि़दमत में हाजि़र हुआ तो देखा कि जाड़े के बहुत से कपड़े सिले हुए रखे हैं और आप सामाने सफ़र दुरूस्त फ़रमा रहे हैं और आप अपने मुलाज़ेमीन से कहते जाते हैं देखो कुलाह बारानी और बरसाती वग़ैरा रहने न पाए। सब साथ मे बांध दो। इसके बाद मुझे कहा ऐ याहिया इब्ने हरसमा जाओ तुम भी अपना सामान दुरूस्त करो ताकि मुनासिब वक़्त में रवांगी हो जाए। मैं वहां से निहायत बद दिल वापस आया। दिल में सोचता था कि उन्हें क्या हो गया कि इस शदीद गर्मी के ज़माने में सर्दी और बरसात का सामान हमराह ले रहे हैं और मुझे भी हुक्म देते हैं कि तुम भी इस कि़स्म के सामान हमराह ले लो। मुख़्तसर यह कि सामाने सफ़र दुरूस्त हो गया और रवानगी हो गई। मेरा लश्कर इमाम (अ.स.) को घेरे में लिए हुए जा रहा था कि नागाह इसी वादी में जा पहुंचे, जिसके मुतअल्लिक़ कातिब इमामिया और अफ़सर शाही में यह गुफ़तगू हुई थी कि यहां पर किसकी क़ब्र है या होगी। इस वादी में पहुंचना था कि क़यामत आ गई, बादल गरजने लगे, बिजली चमकने लगी और दोपहर के वक़्त इस क़दर तारीकी छाई कि एक दूसरे को देख न सकता था, यहां तक कि बारिश शुरू हुई और ऐसी मुसलाधार बारिश हुई कि उमर भर न देखी थी इमाम (अ.स.) ने आसार के पैदा होते ही मुलाज़मीन को हुक्म दिया कि बरसाती और बारानी टोपीयां पहन लो और एक बरसाती याहिया इब्ने हरसमा और एक कातिब को दे दो। ग़रज़ कि खूब बारिश हुई हवा इतनी ठन्डी चली कि जान के लाले पड़ गए। जब बारिश थमी और और बादल छटे तो मैंने देखा कि अस्सी अफ़राद मेरी फ़ौज के हलाक हो गऐं हैं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ याहिया इब्ने हरसमा अपने मुर्दो को दफ़न करो और यह जान लो कि ख़ुदाए ताला हम चुनी पुरमी गिरवान्द बक़ा राज़ेक़बूर इस तरह ख़ुदा वन्दे आलम हर बुक़्क़ाए अर्ज़ को क़ब्रों से पुर करता है, इसी लिए मेरे जद नामदार हज़रत अली (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया है कि ज़मीन का काई टुकड़ा ऐसा न होगा जिसमें कब़्र न बनी हो। ‘‘यह सुन कर मैं अपने घोड़े से उतर पड़ा और इमाम (अ.स.) के क़रीब जा कर पा बोस हुआ और उनकी खि़दमत मे अर्ज़ की मौला मैं आज आपके सामने मुसलमान होता हुँ यह कह कर मैंने इस तरह कलमा पढ़ा अशअदो अन ला इलाहा इल्ल्लाह व अशअदो अन मौहम्मद अबदहू व इनकुम ख़ुलाफ़ा अला फ़ीअर हैना ’’ और यक़ीन कर लिया कि यही हज़रत ख़ुदा की ज़मीन पर ख़लीफ़ा हैं और दिल में सोचने लगा कि अगर इमाम (अ.स.) ने जाड़े और बरसात का सामान न लिया होता और अगर मुझे न दिया होता तो मेरा क्या हशर होता। फिर वहां से रवाना हो कर अस्कर पहुंचा और आपकी इमामत का क़ाएल रह कर जि़न्दा रहा और ताहयात आपके जद्दे नामदार का कलमा पढ़ता रहा।

(कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 124)

 

अल्लामा जामी और अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि दो सौ से ज़ाएद अफ़राद आपको अपने घेरे में लिये हुए सामरा पहुंचे। वहां आपके क़याम का कोई इन्तेज़ाम नहीं किया गया था और हुक्म था कि मुतावक्किल का कि इन्हें फ़क़ीरो के ठहराने की जगह उतारा जाए चुनान्चे आपको ख़नुल सालेआ में उतारा गया वह जगह बदतरीन थी वहां शुरफ़ा नही जाया करते थे। एक दिन सालेहा बिन सईद नामी एक शख़ जो आपके मानने वाले थे आपकी खि़दमत में हाजि़र हुए और कहने लगे मौला यह लोग आपकी क़दरो मन्जि़लत पर पर्दा डाल रहे हैं और नूरे ख़ुदा को छुपाने की किस क़दर कोशिश करते हैं कहा हुज़ूर की ज़ाते अक़दस और कहा यह क़याम गाह। हज़रत ने फ़रमायाः ऐ सालेह तुम दिल तंग न हो मैं उसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई का ख़्वाहां और उनकी करम गुस्तरी का जोया हूं, ख़ुदा वन्दे आलम ने आले मौहम्मद स. को जो दर्जा दिया है और जो मुक़ाम अता फ़रमाया है उसे कोई छीन नहीं सकता। ऐ सालेह बिन सईद मैं तुम्हे ख़ुश करने के लिये बताना चाहता हूं कि तुम मुझे इस मुक़ाम पर देख कर परेशान न हो ख़ुदा वन्दे आलम ने यहां भी मेरे लिये बेहिश्त जैसा बन्दो बस्त फ़रमाया है यह कह कर आपने उंगली से इशारा किया और सालेह की नज़र में बेहतरीन बाग़ बेहतरीन नहर वगै़रह नज़र आने लगीं। सालेह का बयान है कि यह देख कर मुझे क़दरे तसल्ली हो गई।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 208, नूरूल अबसार सफ़ा 150)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की नज़र बन्दी

इमाम अली नक़ी (अ.स.) को धोके से बुलाने के बाद पहले तो ख़ान अल सआलेक में फिर इसके बाद एक दूसरे मक़ाम में आपको नज़र बन्द कर दिया और ताहयात इसी में क़ैद रखा। इमाम शिब्लन्जी लिखते हैं कि मुतावक्किल आपके साथ ज़ाहिर दारी ज़रूर करता था, लेकिन आपका सख़्त दुश्मन था। उसने हीला साज़ी और धोका बाज़ी से आपको बुलाया और दरपर्दा सताने और तबाह करने और मुसीबतों में मुबतिला करने की कोशिश करता रहा।

(नूरूल अबसार सफ़ा 150)

अल्लामा इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि मुतावक्किल ने आपको जबरन बुला कर सामरा मे नज़र बन्द कर दिया और ता जि़न्दगी बाहर न निकलने दिया।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 124)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) का जज़बा ए हमदर्दी

मदीने से सामरा पहुंचने के बाद भी आपको पास लागों की आमद का तांता बंधा रहा। लोग आपसे फ़ायदे उठाते और दीनी और दुनियावी उमूर में आपसे मदद चाहते रहे और आप हल्ले मुश्किल में उनके काम आते रहे। उलमाए इस्लाम लिखते हैं कि सामरा पहुंचने के बाद जब आपकी नज़र बन्दी मे सख़्ती और शिद्दत न थी, एक दिन आप सामरा के एक क़रये में तशरीफ़ ले गये। आपके जाने के बाद एक साएल आपके मकान पर आया, उसे यह मालूम हुआ कि आप फ़लां गांव में तशरीफ़ ले गए हैं, वह वहां चला गया और जाकर आपसे मिला। आपने पूछा कि तुम कैसे आए हो। तुम्हारा क्या काम है? उसने अर्ज़ कि मौला ग़रीब आदमी हूं। मुझ पर दस हज़ार दिरहम क़र्ज़ हो गया है और इसकी अदाएगी की कोई सबील नहीं। मौला ख़ुदा के लिये मुझे इस बला से निजात दिलाईये। हज़रत ने फ़रमाया घबराओ नहीं। इन्शाअल्लाह तुम्हारे क़र्ज़ की अदाएगी का बन्दो बस्त हो जाएगा। वह साएल रात को आपके हमराह मुक़ीम रहा, सुबह के वक़्त आपने इस से कहा कि मैं तुम्हे जो कहूं उसकी तामील करना और देखो इस अमर में ज़रा भी मुख़लेफ़त न करना, उसने तामीले इरशाद का वादा किया। आपने उसे एक ख़त लिख कर दिया जिसमें यह मरक़ूम था कि ‘‘ मैं दस हज़ार दिरहम इसके अदा कर दूंगा और फ़रमाया कि कलमैं सामरा पहुंच जाऊंगा जिस वक़्त मैं वहां कें बड़े बड़े लोगो के दरमियान बैठा हूं तो तुम मुझसे रूपयां का तक़ाज़ा करना उसने अर्ज़ कि हुज़ूर यह क्यों कर हो सकता है कि मैं लोगो में आपकी तौहीन करूं। हज़रत ने फ़रमाया कोई हर्ज नहीं मैं तुमसे जो कहूं वह करो। ग़रज़ कि साएल चला गया और जब आप सामरा वापस हुए और लोगो को आपकी वापसी की इत्तेला मिली तो आयाने शहर आपसे मिलने आए। जिस वक़्त आप लोगों से महवे मुलाक़ात थे साएल मज़कूर भी पहुंच गया साएल ने हिदायत के मुताबिक़ आपसे रक़म का तक़ाज़ा किया। आपने बहुत नरमी से उसे टालने की कोशिश की, लेकिन वह न टला और ब दस्तूर रक़म मांगता रहा। बिल आखि़र हज़रत ने उसे तीन दिन में अदाएगी का वादा फ़रमाया और वह चला गया। यह ख़बर जब बादशाहे वक़्त को पहुंची तो उसने मुबलिग़ तीस हज़ार दिरहम आपकी खि़दमत में भेज दिये तीसरे दिन जब साएल आया तो आपने उससे फ़रमाया कि यह तीस हज़ार दिरहम ल ले और अपनी राह लग। उसने अर्ज़ कि मौला मेरा क़र्ज़ तो सिर्फ़ दस हज़ार है आप तीस हज़ार दे रहे हैं। आपने फ़रमाया जो क़र्ज़ की अदाएगी से बचे उसे अपने बच्चों पर सर्फ़ करना। वह बहुत ख़ुश हुआ और यह पढ़ता हुआ कि ख़ुदा ही ख़ूब जानता है कि रिसालत व अमानत का कोई अहल है। अपने घर चला गया।

(नूरूल अबसार सफ़ा 149, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 123, शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 207 अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 461)

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की हालत सामरा पहुंचने के बाद

मुतावक्किल की नीयत ख़राब थी ही इमाम अलि (अ.स.)स. के सामराह पहुचने के बाद उसने अपनी नीयत का मुज़ाहरा अमल से शुरु किया और आपके साथ न मुनासिब तरीक़ों से दिल का बुख़ार निकालने की तरफ़ मुतावज्जा हुआ लेकिन अल्लाह जिसकी लाठी में आवाज़ नहीं उसने उसे कैफ़रे किरदार तक पहुंचा दिया मगर इसकी जि़न्दगी में भी ऐसे असार और असरात ज़ाहिर किए जिससे वह भी जान ले कि वह जो कुछ कर रहा था ख़ुदावन्द उसे पसन्द नहीं करता।

मुवर्रिख़ अज़ीम लिखते हैं कि मुतावक्किल के ज़माने में बड़ी आफ़तें नाजि़ल हुईं बहुत से इलाक़ों में ज़लज़ले आए, ज़मीने धस गईं, आगें लगीं, आसमान से हौलनांक आवाज़ें सुनाई दीं। बादे समूम से बहुत से जानवर और आदमी हलाक हुए। आसमान से मिस्ल टिड्डी के कसरत से सितारे टूटे, दस दस रसल के पत्थर आसमान से बरसे। रमज़ान 243 हिजरी में हलब से एक परिन्दा कौवे से बड़ा आ कर बैठा और वह शोर मचाया ‘‘या अय्योहन नास इत्तक़ूल्लाह’’ चालीस दफ़ा यह आवाज़ लगा कर उड़ गया दो दिन ऐसा ही हुआ।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 65)


 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और सवारी की तेज़रफ़्तारी

अल्लामा तबरसी लिखते हैं कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के मदीने से सामरा तशरीफ़ ले जाने के बाद एक दिन अबू हाशिम ने कहाः मौला मेरा दिल नहीं मानता कि मैं एक दिन भी आपकी जियारत से महरूम हूं, बल्कि जी चाहता है कि हर रोज़ आपकी खि़दमत में हाजि़र हुआ करूं। हज़रत ने पूछा इसके लिए तुम्हें कौन सी रूकावट है? उन्होने अर्ज़ की मेरा क़याम बग़दाद है और मेरी सवारी कमज़ोर है। हज़रत ने फ़रमायाः जाओ अब तुम्हारी सवारी का जानवर ताक़तवर हो जाऐगा और इसकी रफ़्तार बहुत तेज़ हो जाएगी। अबू हाशिम का बयान है कि हज़रत के इस इरशाद के बाद से ऐसा हो गया कि मैं रोज़ाना नमाज़े सुब्ह व नमाज़े ज़ोहर सामरा के असकर महल्ले में और नमाज़े मग़रिब इशा बग़दाद में पढ़ने लगा।

(आलामुलवुरा सफ़ा 208)

 

दो माह पहले पहले काज़ी की मौत की ख़बर

अल्लामा जामी रहमतुर अल्लाह तहरीर फ़रमाते हैं कि आप से एक मानने वाले ने अपनी तकलीफ़ बयान करते हुए बग़दाद के काज़ी शहर की शिकायत की और कहा कि मौला वह बड़ा ज़ालिम है हम लोगों को बेहद सताता है आपने फ़रमाया घबराओ नहीं वह दो माह बाद बग़दाद में न रहेगा। रावी का बयान है कि ज्योंही दो माद पूरे हुए काज़ी अपने मनसब से माज़ूल हो कर अपने घर बैठ गया। (शवाहेदुन नबूवा)

 

आपका एहतिराम जानवरों की नज़र में

अल्लामा मौसूफ़ यह भी लिखते हैं कि मुतावक्किल के मकान में बहुत सी बतख़े पली हुईं थीं जब कोई वहां जाता तो वह इतना शोर मचाया करती थीं कि कान पड़े बात सुनाई न देती थी लेकिन जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ ले जाते थे तो वह सब ख़ामोश हो जाती थीं और जब तक आप वहां तशरीफ़ रखते थे, वह चुप रहती थीं।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 209)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और ख़्वाब की अमली ताबीर

अहमद बिन ईसा अल कातिब का बयान है कि मैंने एक शब ख़्वाब में देखा कि हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. तशरीफ़ फ़रमा हैं और मैं उनकी खि़दमत में हाजि़र हूं। हज़रत ने मेरी तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अपने दस्ते मुबारक से एक मुठ्ठी ख़ुरमा इस तश्त से अता फ़रमाया जो आपके सामने रखा हुआ था। मैंने उन्हें गिना तो वह पच्चीस थे। इस ख़्वाब को अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे कि मुझे मालूम हुआ कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) सामरा तशरीफ़ लाए हैं। मैं उनकी ज़्यारत के लिए हाजि़र हुआ तो मैंने देखा कि उनके सामने एक तश्त रखा है जिसमें ख़ुरमें है। मैंने हज़रत को सलाम किया। हज़रत ने जवाबे सलाम देने के बाद एक मुठ्ठी ख़ुरमा मुझे अता फ़रमाया, मैंने इन ख़ुरमों का शुमार किया तो वह भी पच्चीस थे। मैंने अर्ज़ की मौला क्या कुछ ख़ुरमा और मिल सकता है ? जवाब में फ़रमाया ! अगर ख़्वाब में तुम्हें रसूले ख़ुदा स. ने इससे ज़्यादा दिया होता तो मैं भी इज़ाफ़ा कर देता। दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 124 इसी कि़स्म का वाकि़या इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और इमाम अली रज़ा (अ.स.) के लिए भी गुज़रा है।

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और फ़ुक़हाए मुस्लेमीन

यह तो मानी हुई बात है कि आले मौहम्मद स. ही वह है जिनके घर में क़ुरान मजीद नाजि़ल हुआ। इन से बेहतर न क़ुरान समझने वाला है और न उसकी तफ़्सीर जानने वाला है। उलमा का बयान है कि जब मोतावक्किल को ज़हर दिया गया तो उसने यह नज़र मानी कि अगर मैं अच्छा हो गया तो राहे ख़ुदा में माले कसीर दूगां। फिर सेहत पाने के बाद उसने अपने उल्माए इस्लाम को जमा किया और इनसे वाकि़या बयान कर के माले कसीर की तफ़्सीर मालूम करना चाही। इसके जवाब में हर एक ने अलाहेदा अलाहेदा बयान दिया एक फ़क़ीहे ने कहा माले क़सीर से एक हज़ार दिरहम दूसरे फ़क़ीह ने दस हज़ार दिरहम, तीसरे ने कहा एक लाख दिरहम मुराद लेना चाहिए। मोतावक्किल ने जब हर फ़क़ीह से अलाहेदा जवाब सुना तो तशवीश में पड़ गया और ग़ौर करने लगा कि अब क्या करना चाहिए। मुतावक्किल अभी सोच ही रहा था कि एक दरबान सामने आया जिसका नाम हसन था और अर्ज़ करने लगा कि हुज़ूर अगर मुझे हुक्म हो तो मैं इसका सही जवाब ला दूं। मुतावक्किल ने कहा बेहतर है जवाब लाओ अगर तुम सही जवाब लाए तो दस हज़ार दिरहम तुमको इनाम दूगां और अगर तसल्ली बख़्श जवाब न ला सके तो सौ कोड़े मारूगां। इसने कहा मुझे मन्ज़ूर हैं। इसके बाद दरबान हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में गया। इमाम (अ.स.) जो नज़र बन्द जि़न्दगी बसर कर रहे थे दरबान को देख कर बोले अच्छा अच्छा माले कसीर की तफ़्सीर पूछने आया है जा और मुतावक्किल से कह दे माले कसीर अस्सी दिरहम मुराद हैं दरबान ने मुतावक्किल से यही कह दिया। मुतावक्किल ने कहा जा कर दलील मालूम कर। वह वापस आया हज़रत ने फ़रमाया कि क़ुरान मजीद में आं हज़रत स. के लिए आया है कि लक़द नसरकुमुलिल्लाह फ़ी मवातिन कसीरतह ऐ रसूल अल्लाह स. ! ने तुम्हारी मद मवातिन कसीरह यानी बहुत से मुक़ामात पर की है जब हमने इन मुक़ामात का शुमार किया जिनमें ख़ुदा ने आपकी मद्द फ़रमाई है तो वह हिसाब से अस्सी होते हैं। मालूम हुआ की लफ़्ज़े कसीर का इतलाक़ अस्सी पर होता है । यह सुन कर मुतावक्किल ख़ुश हो गया और उसने अस्सी दिरहम सदक़ा निकाल कर दस हज़ार दिरहम दरबान को इनाम दिया।

(मनाकि़ब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 सफ़ा 116)

इसी कि़स्म का एक वाकि़या है कि मुतावक्किल के दरबार में एक नसरानी पेश किया गया जो मुसलमान औरत से जि़ना करता हुआ पकड़ा गया। जब वह दरबार में आया तो कहने लगा मुझ पर हद जारी न किया जाए। मैं इस वक़्त मुसलमान होता हूँ। यह सुन कर काज़ी यहिया बिन अक़सम ने कहा कि इसे छोड़ देना चाहिए क्योंकि यह मुसलमान हो गया है। एक फ़क़ीह ने कहा कि नहीं हद जारी होना चाहिए ग़रज़ कि फोक़हाए मुसलेमीन में इख़्तेलाफ़ हो गया। मुतावक्किल ने जब यह देखा कि मसला हल होता नज़र नहीं आता तो हुक्म दिया कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को ख़त लिख कर इनसे जवाब मगाया जाए। चुनान्चे मसला लिखा गया। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया यज़रब हत्त यमूता कि उसे इतने मारना चाहिए कि मर जाए। जब यह जवाब मुतावक्किल के दरबार में पहुंचाया तो यहिया इब्ने अकसम क़ाज़ी शहर और फ़क़ीह सलतनत नीज़ दीगर फ़ुक़हा ने कहा इसका कोई सबूत क़ुरान मजीद में नहीं है बराए मेहरबानी इसकी वज़ाहत फ़रमायें। आपने ख़त मुलाहेज़ा फ़रमा कर एक आयत तहरीर फ़रमाई जिसका तरजुमा यह है। जब काफि़रों ने हमारी सख़्ती देखी तो कहा कि हम अल्लाह पर ईमान लाते हैं और अपने कुफ़्र से तौबा करते हैं यह उनका कहना उनके लिए मुफि़द न हुआ और न ईमान लाना काम आया आयत पढ़ने के बाद मुतावक्किल ने तमाम फ़ुक़हा के अक़वाल मुस्तरद कर दिए और नसरानी के लिए हुक्म दे दिया कि इस क़दर मारा जाए कि मर जाए।

(दमतुस साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 120)

 

शाहे रोम को हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) का जवाब

अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी लिखते है कि बादशाहे रोम ने ख़लीफ़ाए वक़्त को लिखा कि मैंने इन्जील में पढ़ा है कि जो शख़्स इस सूरे की तिलावत करे जिसमें यह सात लफ़्ज़ न हों 1. से 2. जीम 3. ख़े 4. ज़े 5. शीन 6. ज़ो 7. फ़े। वह जन्नत में जाएगा। इसे देखने के बाद मैंने तौरैत ज़बूर का अच्छी तरह मुतालेआ किया लेकिन इस कि़स्म का कोई सूरा इसमें नहीं मिला। आप ज़रा अपने उलमा से तहक़ीक़ कर के लिखये कि शायद यह बात आपके क़ुरान मजीद में हो। बादशाहे वक़्त ने बहुत से उलमा जमा किये और उनके सामने यह चीज़ पेश की सबने बहुत देर तक ग़ौर किया लेकिन कोई इस नतीजे पर न पहुंच सका कि तसल्ली बख़्श जवाब दे सके। जब ख़लीफ़ा ए वक़्त तमाम उलमा से मायूस हो गया तो इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तरफ़ तवज्जा की। जब आप दरबार में तशरीफ़ लाए और आपके सामने मसला लाया गया तो आपने बिला ताख़ीर कहा, वह सूरा ए हम्द है। अब जो गौ़र किया गया तो बिल्कुल ठीक पाया गया। बादशाहे इस्लाम ख़लीफ़ा ए वक़्त ने अर्ज़ कि, यब्ना रसूल अल्लाह स. क्या अच्छा होता अगर आप इसकी वजह भी बताऐं कि यह हरूफ़ इस सूरा में क्यंों नहीं लाए गये। आपने फ़रमाया यह सूरा रहमत व बरकत का है इसमें यह हुरूफ़ इस लिए नहीं लाए गए कि से सबूर हलाकत तबाही, बरबादी की तरफ़, जीम से जेहीम जहन्नम की तरफ़ ख़े ख़ैबत यानी ख़ुसरान की तरफ़ ज़े से ज़क़ूम यानी थोहड़ की तरफ़ शीन से शक़ावत की तरफ़ ज़ो ज़ुलमत की तरफ़ फ़े फ़ुरक़त की तरफ़ तबादरे ज़ेहनी होता है और यह तमाम चीज़ें रहमत व बरकत के मुनाफ़ी हैं। ख़लीफ़ा ए वक़्त ने आपका तफ़्सीली बयान शाहे रोम को भेज दिया। बादशाहे रोम ने ज्यांही उसे पढ़ा मसरूर हो गया और उसी वक़्त इस्लाम लाया और ता हयात मुसलमान रह।

(दमतुस साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 140 ब हवाला शरा शाफ़या अबू फ़रास)

 

मुतावक्किल के कहने से इब्ने सकीत व इब्ने अकसम का इमाम अली नक़ी (अ.स.) से सवाल

उलमा का बयान है कि एक दिन मुतावक्किल अपने दरबार में बैठा हुआ था दीगर कामों से फ़राग़त के बाद इब्ने सकीत की तरफ़ मुतावज्जा हो कर बोला अबुल हसन से ज़रा सख्त सख्त सवाल करो, इब्ने सक़ीन ने क़ाबलीयत भर सवाल किए। इमाम (अ.स.) ने तमाम सवालात के मुफ़स्सल और मुकम्मल जवाब दिए। यह देख कर यहिया इब्ने अक़सम क़ाज़ी सलतनत ने कहा ऐ इब्ने सकीत तुम नहो शेर, लुग़द के आलिम हो, तुम्हें मनाज़रे से क्या दिलचस्पी, ठहरो मैं सवाल करता हूं। यह कह कर उसने एक सवाल नामा निकाला जो पहले से लिख कर अपने हमराह रखे हुए था और हज़रत को दे दिया। हज़रत ने इसका इसी वक़्त जवाब लिखना शुरू कर दिया कि क़ाज़ी शहर को मुतावक्किल से कहना पड़ा कि इन जवाबात को पोशीदा रखा जाए वरना शीयां की हौसला अफ़ज़ाई होगी। इन सवालात में एक सवाल यह भी था कि क़ुरान मजीद में सबता अलबहर और मानफ़दत कलमात अल्लाह जो हैं इसमें किन सात दरियाओं की तरफ़ इशारा है और कलमात अल्लाह से क्या मुराद है। आपने इसके जवाब में तहरीर फ़रमाया कि सात दरिया यह हैं 1 ऐन अलकिबरीयत 2 ऐन अलमैन 3 ऐन अलबरहूत 4 ऐन अलबतरया 5 ऐन अलसैदान 6 ऐन अल फ़रीक़ 7 ऐन अल याहुरान यह कलमात से हम मौहम्मद स. व आले मौहम्मद (अ.स.) मुराद हैं जिनके फ़ज़एल का एहसा न मुम्किन है।

(मुनाकि़ब जिल्द 5 सफ़ा 117)

 

क़ज़ा व क़दर के मुताअल्लिक़ इमाम अली नक़ी (अ.स.) की रहबरी व रहनुमाई

क़ज़ा व क़दर के बारे में तक़रीबन तमाम फि़रक़े जादए ऐतिदाल से हटे हुए हैं इसकी वज़ाहत में कोई जब्र का क़ाएल नज़र नहीं आता है कोई मुतलक़न तफ़वीज़ पर ईमान रखता हुआ दिखाई देता है। हमारे इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह क़ज़ाओ क़दर की वज़ाहत इन लफ़्ज़ों में फ़रमाई हैः न इन्सान बिल्कुल मजबूर है न बिल्कुल आज़ाद है बल्कि दोनो हालातों के दरमियान है।

(दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 134)

मैं हज़रत का मतलब यह समझता हूं कि इन्सान असबाब व आमाल में बिल्कुल आज़ाद है और नतीजे की बरामदगी में ख़ुदा का मोहताज है।

उलमाए इमामिया की जि़म्मेदारीयों के मुतालिक़ हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) का इरशाद है

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया है कि हमारे उलमा ग़ैबते क़ाएम आले मौहम्मद स. के ज़माने में मुहाफि़ज़े दीन और रहबरे इल्म व यक़ीन होंगे। इनकी मिसाल शियों के लिये बिल्कुल वैसी ही होगी जैसी कश्ती के लिए न ख़ुदा की होती है। वह हमारे ज़ईफ़ों को तसल्ली देंगे। वह अफ़जल उन नास और क़ाएदे मिल्लत होंगे।

(दमतुस् साकेबा जिल्द 2 सफ़ा 137)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की ख़ाना तलाशी

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि 243 हिजरी में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) सामरा पहुंच कर नज़र बन्द हो गए, लेकिन आपने इस हालत में भी फ़रीज़ाए इमामत अदा करने में ज़रा भी पसो पेश नहीं फ़रमाया और फ़रीज़ाए मन्सबी तबलीग़े दीने इस्लाम बराबर फ़रमाते रहे चुंकि आप फ़रज़न्दे रसूल स. और आलिमें अहले ज़माना थे इस लिए आपका विक़ार लोगों की निगाहों में रोज़ बरोज़ बढ़ता गया। आप लोगों को उसूले इस्लाम और इबादत की तालीम फ़रमाया करते थे और ख़ुद भी शबो रोज़ इबादत गुज़ारी में मशग़ूल रहा करते थे। आप यह तहय्या किए हुए थे कि उमूरे सलतनत में कोई दख़ल किसी तरह से न देंगे और अपने को हर वक़्त मशग़ूले हक़ रखेगें और यही कुछ रहे लेकिन दुनिया वाले कब किसी अल्लाह वाले को चैन लेने देते हैं। वह लोग यह भी बर्दाश्त न कर सके कि इमाम इज़्ज़त व विक़ार और सुकून व इतमिनाने ज़ाहेरी की जि़न्दगी बसर करें। बिल आखि़र ज़ालिम मुतावक्किल से चुग़ली ख़ाना शुरू कर दिया और इसे इस दर्जा भड़काया कि वह आपकी हैसीयत से क़ता नज़र कर के आपकी ख़ाना तलाशी पर आमादा हो गया। अल्लामा इब्ने ख़लक़ान लिखते हैं कि बाज़ लोगों ने मुतावक्किल से चुग़ली की कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर मे हतियार और ख़ुतूत वग़ैरा इनके शियों के भेजे हुए जमा हैं। नीज़ मुतावक्किल को यह भी वहम दिलाया गया कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने लिए अमरे खि़लाफ़त के तालिब हैं। मुतावक्किल ने चन्द सिपाही मुक़र्रर किये कि रात को उन्हें गिरफ़्तार कर लाएं। सिपाहीयां ने अचानक हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर में पहुंच कर देखा कि वह बालों का कुर्ता पहने सौफ़ की चादर ओढ़े तन्हा अपने हुजरे में रेग और संग रेज़ों के फ़र्श पर रू बा कि़ब्ला बैठे हुए आहिस्ता आहिस्ता क़ुरान मजीद की तिलावत कर रहे हैं। सिपाहीयां ने उन्हें इसी हालत में ले जा कर मुतावक्किल के सामने पेश किया। मुतावक्किल उस वक़्त शराब लिए हुए मै नोशी कर रहा था। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को देख कर इसने ताज़ीम की और उनको अपने पहलू मे बैठा लिया। सिपाहीयों ने बयान किया कि इनके घर में कोई शै अज़ कि़स्म कुतुब वग़ैरा नहीं मिली और न कोई ऐसी बात पाई गई जिससे इन पर शक व इल्ज़ाम क़ायम हो, यह सुन कर मुतावक्किल ने वह जाम शराब जो इसके हाथों में था हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) जानिब बढ़ाया। उन्होंने फ़रमाया मेरा गोश्त व ख़ून कभी शराब से आलूदा नहीं हुआ। मुझे इससे माफ़ रख। मुतावक्किल ने कहा कि अगर शराब न पियो तो कुछ अश्आर पढ़ूं। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया कि मुझे अश्आर से कम दिलचस्पी है। मुतावक्किल न माना कि ज़रूर कुछ पढ़ो। इमाम नक़ी (अ.स.) ने मजबूर हो कर चन्द शेर इरशाद फ़रमाये, जिनका हासिले मक़सद यह है कि जिन लोगों ने अपनी हिफ़ाज़त की ग़रज़ से पहाड़ों की चोटियों पर सुकूत इख़्तेयार की इनको भी मौत ने न छोड़ा और इज़्ज़त की बुलन्दी से ख़ाके जि़ल्लत पर गिर कर कशां कशां क़ब्रों पर पहुंचा दिया, बाद अज़ां इनको हातिफ़ ने आवाज़ दी के ऐ ! क़ब्र वालों कहां गऐ तुम्हारे तख्त ताज और कहां हैं तुम्हारे लिबासे नफ़ीस और क्या हुए वह नाज़ परवर्दा वह चेहरे जिनके लिए ख़ेमें सरा पर्दे नसब किए जाते थे। इस वक़्त क़ब्र ने इनकी जानिब से जवाब दिया कि दुनिया में वह मुद्दत तक खाते पीते रहे आखि़र कार खुद लुक़्माए हशरातुल अर्ज़ हो गये और अब इन पर कीड़े रेंग रहे हैं। अल्लामाऐ मआसिर मौलाना सय्यद अली नक़ी साहब कि़ब्ला ने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के अश्आर का तरजुमा इस नज़म में फ़रमाया है।

रहे पहाड़ों की चोटी पर पहरे बिठला कर

बहादुरों की हरासत में बच न सके मगर

 

बुलन्द कि़लों की इज़्ज़त जो पस्त होके रही

तो कुन्ज क़ब्र में मन्जि़ल भी क्या बुरी पाई

 

सदा ये उनको दी हातिफ़ ने बादे दफ़ने लहद

कहां हैं वह तख्त व ताज और वह लिबासे जस्द

 

कहां वह चेहरे हैं जो थे हमेशा ज़ेरे नक़ाब

ग़ुबार जिन पे कभी आने देते थे न हिजाब

 

ज़बाने हाल से बोले जवाब में मदफ़न

वह रूख़ ज़मीन के कीड़ों का बन गए मसकन

 

ग़ेजा़एं खाईं शराबें जो पी थीं हद से सिवा

नतीजा इसका है खुद आज बन गए वह गि़ज़ा ।।

 

जब हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने यह अश्आर पढ़े तो मुतावक्किल और हाज़ेरीन पर कमाले रिक़्क़त तारी हुई और मुतावक्किल इस क़दर रोया कि इसकी दाढ़ी आंसूओं से तर हो गई। बाद इसने हुक्म दिया कि शराब उठा ली जाए और हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को उनके घर पहुंचा दिया जाए।

(मुलाहेज़ा हो किताब दफ़ायात अयान जिल्द 1 सफ़ा 322 व नूरूल अबसार, दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 142)

अल्लामा शिबलन्जी ने इन अश्आर के चार इब्तेदाई अश्आर सैफ़ बिन ज़ीयज़ हमीरी के क़स्त्र पर लिखे हुए देखे गए हैं। कंज़ुल फ़वाएद कन्ज़ुल मदफ़ून में है कि मुतावक्किल रोते, रोते अपने हाथ से जाम ज़मीन पर फेंक देता था।

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और शेरे क़ालीन

मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक दिन मुतावक्किल के पास एक मशहूर हिन्दी शोबदे बाज़ आया और उसने बहुत से करतब दिखालाए। मुतावक्किल ने उससे कहा मेरे दरबार में एक निहायत शरीफ़ शख़्स अनक़रीब आने वाला है अगर तू अपने करतब से उसे शर्मिन्दा कर दे तो मैं तुझे एक हज़ार अशरफ़ी इनाम दूगां। उसने कहा ऐ बादशाह ज बवह आजाए तो खाने का बन्दोबस्त कर और मुझे पहलू में बिठा दे मैं ऐसा करूंगा कि सख्त शर्मिन्दा होगा। यह सुन कर मुतावक्किल ख़ुश हो गया और जब आप तशरीफ़ लाए तो खाना लाया गया और सब खाने के लिये बैठे। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने ज्यों ही लुक़मा उठाया और तनावुल फ़रमाना चाहा उसने जादू के ज़ोर से उड़ाना दिया। इसी तरह उसने तीन मरतबा ऐसा किया, आखि़र यह सारा मजमा हंस पड़ा। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) यह देख कर उस क़ालीन की तरफ़ मुतावज्जा हुए जो दीवार में लगा हुआ था और उस पर शेर की तस्वीर बनी हुई थी। आपने शेरे क़ालीन को हुक्म दिया कि मुज्जसम हो कर इस काफि़रे अज़ली को निगल ले। शेर मुज्जसम हुआ और उसने बढ़ कर काफि़रे हिन्दी को मुसल्लम निगल लिया। इस वाकि़ये से दरबार में हलचल मच गई। मुतावक्किल सर निगूं हो गया और इमाम (अ.स.) से दरख्वास्त करने लगा कि इस शेरे क़ालीन को जो फिर अपनी हालत पर आ गया है। हुक्म दीजिए कि इस काफि़रे हिन्दी को उगल दे। आपने फ़रमाया यह हरगिज़ न होगा और उठ कर चले गए। एक रिवायत की बिना पर आपने जवाब दिया कि अपर मूसा के अज़दहे ने फि़रऔन के सांपों को निगल लेने के बाद उगल दिया होता तो यह शेर भी उगल देता। चूंकि उसने नहीं उगला था, इस लिए यह भी नहीं उगले गा।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 209 दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 145)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और अब्दुर रहमान मिस्री का ज़ेहनी इन्क़ेलाब

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि एक दिन मुतावक्किल ने बरसरे दरबार हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को क़त्ल कर देने का फ़ैसला कर के आपको दरबार में तलब किया आप सवारी पर तशरीफ़ लाए।

अब्दुर्ररहमान मिस्री का बयान है कि मैं सामरा गया हुआ था और मुतावक्किल के दरबार का यह हाल सुना कि एक अलवी के क़त्ल का हुक्म दिया गया है तो मैं दरवाज़े पर इस इन्तेज़ार में खड़ा हो गया कि देखूं वह कौन शख़्स है जिसके क़त्ल के इन्तेज़ामात हो रहे हैं इतने में देखा कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) तशरीफ़ ला रहे हैं। मुझे किसी ने बताया कि इसी अलवी के क़त्ल का बन्दो बस्त हुआ है। मेरी नज़र ज्यां ही उनके चेहरे पर पड़ी, मेरे दिल में उनकी मोहब्बत सराएत कर गई और मैं दुआ करने लगा। ख़ुदाया तू मुतावक्किल के शर से इस शरीफ़ अलवी को बचाना। मैं दिल में दुआ कर ही रहा था कि आप नज़दीक आ पहुंचे और मुझसे बिला जाने पहचाने फ़रमाया कि ऐ अब्दुर्रहमान तुम्हारी दुआ क़ुबूल हो गई है और मैं इन्शा अल्लाह महफ़ूज़ रहूंगा। चुनान्चे दरबार में आप पर कोई हाथ उठा न सका और आप महफ़ूज़ रहे। फिर आपने मुझे दुआ दी और मैं माला माल हो गया और साहेबे औलाद हो गया। अब्दुर्रहमान कहता है कि मैं इसी वक़्त आपकी इमामत का क़ाएल हो कर शिया हो गया।

(कश्फ़ुल ग़म्मा सफ़ा 123 व दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 125)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के दौर मे नकली ज़ैनब का आना

उलमा का बयान है कि एक दिन मुतावक्किल के दरबार में एक औरत जवान और ख़ूबसूरत आई और उसने आकर कहा ज़ैनब बिन्ते अली व फ़ात्मा हूं। मुतावक्किल ने कहा कि तू जवान है और ज़ैनब को पैदा हुए और वफ़ात पाए अर्सा गुज़र गया। अगर तुझे ज़ैनब तस्लीम कर लिया जाय तो यह कैसे माना जाए कि ज़ैनब इतनी उमर तक जवान रह सकती हैं। इसने कहा कि मुझे रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने यह दुआ दी थी कि मैं चालीस और पचास साल के बाद जवान हो जाऊंगी इस लिये मैं जवान हूं। मुतावक्किल ने उलमाए दरबार को जमा कर के उनके सामने इस मसले को पेश किया। सब ने कहा यह झूठी हैं। ज़ैनब के इन्तेक़ाल को अर्सा हो गया है। मुतावक्किल ने कहा कोई ऐसी दलील दो कि मैं इसे झुठला सकूं। सब ने अपनी आजिज़ी का हवाला दिया। फ़ता इब्ने ख़ाक़ान वज़ीर मुतावक्किल ने कहा कि इस मसले को इब्ने रज़ा अली नक़ी (अ.स.) के सिवा कोई हल नहीं कर सकता। लेहाज़ा उन्हें बुलाया जाए। मुतावक्किल ने हज़रत को ज़हमते तशरीफ़ आवरी दी। जब आप दरबार में पहुंचे मुतावक्किल ने सूरते मसला पेश की। इमाम ने फ़रमाया झूठी है, मुतावक्किल ने कहा कोई ऐसी दलील दीजिऐ कि मैं इसे झूठी साबित कर सकूं। आपने फ़रमाया मेरे जद्दे नामदार का इरशाद है कि दरिन्दों पर मेरी औलाद का गोश्त हराम है। ऐ बादशाह तू इस औरत को दरिन्दों में डाल दे अगर यह सच्ची होगी और इसका ज़ैनब होना तो दरकिनार अगर यह सय्यदा भी होगी तो जानवर इसे न छेड़ेंगे और अगर सय्यदा से भी बे बहरा और ख़ाली होगी तो दरिन्दे इसे फाड़ खाऐंगे। अभी यह गुफ़्तुगू जारी ही थी कि दरबार में इशारा बाज़ी होने लगी और दुश्मनों ने मिल जुल कर मुतावक्किल से कहा कि इसका इम्तेहान इमाम अली नक़ी (अ.स.) ही के ज़रिये से क्यों न लिया जाए और देखा जाए कि आया दरिन्दे सय्यदों को खाते हैं या नहीं। मतलब यह था कि अगर उन्हें जानवरों ने फाड़ खाया तो मुतावक्किल का मन्शा पूरा हो जाएगा और अगर यह बत गए तो मुतावक्किल की वह उलझन दूर हो जाऐगी जो ज़ैनब काज़ेबा ने डाल रखी है। ग़रज़ कि मुतावक्किल ने इमाम (अ.स.) से कहा ऐ इब्नुल रज़ा क्या अच्छा होता कि आप खुद बरकतुल सबआ में जा कर इसे साबित कर दीजिऐ कि आले रसूल स. का गोश्त दरिन्दों पर हराम है। इमाम (अ.स.) तैय्यार हो गये। मुतावक्किल ने अपने बनाये हुए बरकतुल सबआ ‘‘ शेर ख़ाने’’ में आपको डलवा कर फाटक बन्द करवा दिया और खुद मकान के बाला ख़ाने पर चला गया ताकि वहां से इमाम के हालात का मुतालेआ करे। अल्लामा हजर मक्की लिखते हैं कि जब दरिन्दां ने दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनी तो ख़ामोश हो गये। जब आप सहन में पहुंच कर सीढ़ी पर चढ़ने लगे तो दरिन्दे आप की तरफ़ बढ़े जिनमें तीन और बारिवायते दमे साकेबा 6 शेर भी थे, और ठहर गये और आप को छू कर आपके गिर्द फिरने लगे। आप अपनी आस्तीन उन पर मलते थे। फिर दरिन्दे घुटने टेक कर बैठ गये। मुतावक्किल इमाम (अ.स.) के मुताल्लिक़ छत पर से यह बाते देखता रहा और उतर आया। फिर जनाब सहन से बाहर तशरीफ़ ले आये। मुतावक्किल ने आपके पास गरां बहा सिला भेजा। लोगों ने कहा मुतावक्किल तू भी ऐसा कर के दिखला दे। उसने कहा शायद तुम मेरी जान लेना चाहते हो।

अल्लामा मौहम्मद बाक़र लिखते हैं कि ज़ैनबे कज़्ज़ाबा ने जब इन हालात को अपनी आंखों से देखा तो फ़ौरन अपनी किज़्ब बयानी का एतेराफ़ कर लिया। एक रवायत की बिना पर उसे तौबा की हिदायत कर के छोड़ दिया गया। दूसरी रवायत की बिना पर मुतावक्किल ने उसे दरिन्दों में डलवा कर फड़वा डाला।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा, सफ़ा 124, अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 461, दम ए साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 145, जला लल अयून, सफ़ा 293, रौज़ातुल सफ़ा, फ़सल अल ख़त्ताब।)

अल्लामा इब्ने हजर का कहना है कि इस कि़स्म का वाकि़या अहदे रशीद अब्बासी में जनाबे यहिया बिन अब्दुल्लाह बिन हसने मुसन्ना इब्ने इमाम हसन (अ.स.) के साथ भी हुआ है।

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल का इलाज

अल्लामा अब्दुर्रहमान जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) नज़र बन्दी की जि़न्दगी बसर कर रहे थे। मुतावक्किल के बैठने की जगह कमर के नीचे जिसम के पिछले हिस्से में एक ज़बर दस्त ज़हरीला फोड़ा निकल आया। हर चन्द कोशिश की गई मगर किसी सूरत से शिफ़ा की उम्मीद न हुई। जब जान ख़तरे में पड़ गई तो मुतावक्किल की मां ने मन्नत मान ली कि अगर मुतावक्किल अच्छा हो गया तो इब्ने रज़ा की खिदमत में मैं माले कसीर नज़र करूंगी और फ़तह बिन ख़क़ान ने मुतावक्किल से दरख्वास्त की कि अगर आपका हुक्म हो तो मैं मर्ज़ की कैफि़यत अबुल हसन से बयान कर के कोई दवा तजवीज़ करवा लाऊं । मुतावक्किल ने इजाज़त दी और इब्ने ख़क़ान हज़रत की खिदमत में हाजि़र हुए। उन्होंने साना वाकि़या बयान कर के दवा की तजवीज़ चाही, हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया, कस्बे ग़नम बकरी की मेंगनियां लेकर गुलाब के अरक़ में हल कर के लगा दो, इन्शा अल्लाह ठीक हो जाऐगा। वज़ीर फ़तह इब्ने ख़ाक़ान ने दरबार में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तजवीज़ पेश की लोग हंस पड़े और कहने लगे इमाम होकर क्या दवा तजवीज़ फ़रमाई है। वज़ीर ने कहा ऐ ख़लीफ़ा तजरूबे में क्या हर्ज है। अगर हुक्म हो तो मैं इन्तेज़ाम करूं। ख़लीफ़ा ने हुक्म दिया, दवा लगाई गई, मुतावक्किल की आंख खुल गई और रात भर सोया तीन दिन के अन्दर शिफ़ाए कामिल हो जाने के बाद मां ने दस हज़ार अशरफ़ी की सर ब मुहर थैली हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में भिजवा दी।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 207 आलाम अल वरा सफ़ा 208)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की दोबारा ख़ाना तलाशी

दरन्दिों की जुब्बा साई और मुतावक्किल के इलाज में इमाम (अ.स.) की शानदार कामयाबी ने दुश्मनों के दिलों में हसद की लगी हुई आग को और भड़का दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि जान आप ही के इलाज से बची थी वह ममनूने एहसान होने के बजाए इमाम के दरपए आज़ार हो कर खुल्लम खुल्ला उन्हें सताने की तरफ़ ख़ुसूसी तौर पर मुतावज्जा हो गया।

मुल्ला जामी अलेहिर्रहमा का बयान है कि वाक़ए सेहत के चन्द ही दिनों बाद लोगों ने मुतावक्किल से चुग़ल खाई और कहा कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर में असलाह जंग जमा हैं और अन क़रीब अपने जमातियों के बल बूते पर तेरी हुकूमत का तख़्ता उलट देगें और हाकिमें वक़्त बन कर तेरे किये का बदला लेगें। मुतावक्किल जो पहले से आले मौहम्मद स. का शदीद दुश्मन था लोगों के कहने से फिर भड़क उठा और उसने सईद को बुला कर हुक्म दिया कि जिनकी नज़र बन्दी में इस वक़्त आप थे, मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि तू आधी रात को दफ़तन ‘‘इमाम के मकान में जा कर तलाशी ले और जो चीज़ बरामद हो उसे मेरे पास ले आ। सईद हाजिब का बयान है कि मैं आधी रात को हज़रत के मकान में कोठे की तरफ़ से गया मुझे रास्ता न मिला था, क्योंकि सख़्त तारीकी थी। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने अपने मुसल्ले पर से जो अन्दर बिछा हुआ था आवाज़ दी, ऐ सईद अन्धेरा है, ठहरो ! मैं शमा ला रहा हूं। ग़रज़ मैंने जा कर देखा कि आप ज़मीन पर मुसल्ला बिछा ए हुए हैं और आप के घर में एक शमा के सिवा कोई असलाह नहीं है और एक वह थैली है जो मुतावक्किल की मां ने भेजी थी। मैंने इन चीज़ों को मुतावक्किल के सामने पेश कर दिया । इसने उन्हें वापस किया और वह अपने मुक़ाम पर शर्मिन्दा हुआ।

(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 208, जिलाउल अयून सफ़ा 294)

 

अल्लामा मजलिसी का बयान है कि मुतावक्किल ने आप पर पूरी सख़्ती शुरू कर दी और आप को क़ैद कर दिया। पहले ज़राफ़ी की क़ैद में रखा और ज़राफ़ी की क़ैद में महबूस रखा। ‘‘जलाउल अयून सफ़ा 293’’ अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी का बयान है कि मुतावक्किल ने आपके पास जाने पर मुकम्मल पाबन्दी आएद कर दी ‘‘दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 121’’ और हुक्म दिया कि कोई भी आपके क़रीब तक न जाने पाए।

(कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 124)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के तसव्वुरे हुकूमत पर ख़ौफ़े ख़ुदा ग़ालिब था

हज़रत की सीरते जि़न्दगी और अख़लाक़ व कमालात वही थे जो इस सिलसिले असमत की हर फ़र्द के अपने दौर में इम्तेआज़ी तौर पर मुशाहिदे में आते रहे थे, क़ैद खाने और नज़र बन्दी का आलम हो या आज़ादी का ज़माना हर वक़्त हर हाल में यादे इलाही, इबादत, ख़लक़े खुदा से इस्तग़ना सबाते क़दम सब्र इस्तक़लाल, मसाएब के हुजूम में माथे पर शिकन का न होना, दुश्मन के साथ हिलम व मुरव्वत से काम लेना, मोहताजों और ज़रूरत मन्दो की इमादाद करना यही वह औसाफ़ हैं जो हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की सीरते जि़न्दगी में नुमाया नज़र आते हैं।

क़ैद के ज़माने में जहां भी आप रहे आप के मुसल्ले के सामने एक क़ब्र खुदी तैय्यार रहती थी। देखने वालों ने जब इस पर हैरत व दहशत का इज़हार किया तो आपने फ़रमाया मैं अपने दिल में मौत का ख़्याल रखने के लिये यह क़ब्र अपनी निगाहों के सामने तैय्यार रखता हूं। हक़ीक़त मे यह जा़लिम ताक़त को इसके बातिल मुतालबा ए इताअत और इस्लाम की हक़ीक़ी तालीमात कि नश्रो अशाअत के तर्क कर देने की ख़्वाहिश का एक अमली जवाब था। यानी ज़्यादा से ज़्यादा सलातीने वक़्त के साथ जो कुछ है वह जान का लेना। मगर जो शख़्स मौत के लिये इतना तैय्यार हो कर हर वक़्त खुदी हुई क़ब्र अपने सामने रखे। वह ज़ालिम हुकूमत से डर कर सरे तस्लीम ख़म करने पर कैसे मजबूर किया जा सकता है। मगर इसके साथ दुनियावी साजि़शो में शिरकत या हुकूमते वक़्त के खि़लाफ़ किसी बे महल अक़दाम की तैय्यारी से सख्त तरीन जासूसी इन्तेज़ाम के कभी आपके खि़लाफ़ कोई इलज़ाम साबित न हो सका और कभी सलातीने वक़्त को कोई दलील आपके खि़लाफ़ के जवाज़ की न मिल सकी, बा वजूदे कि सलतनते अब्बासिया की बुनियादें इस वक़्त इतनी खोखली हो रही थी कि दारूल सलतनत में हर रोज़ एक नई साजि़श का फि़तना खड़ा होता था।

मुतावक्किल ने खुद इसके बेटे की मुख़ालफ़त और उसके इन्तेइाई अज़ीज़ गु़लाम बाग़र रूमी की इससे दुश्मनी मुतन्तसर के बाद उमराए हुकूमत का इन्तेशार और आखि़र मुतावक्किल के बेटों को खि़लाफ़त से महरूम कराने का फ़ैसला मुस्तईन की दौरे हुकूमत में यहिया बिन उमर यहिया बिन हसीन बिन ज़ैद अलवी का कूफ़ा में ख़ुरूज और हसन बिन ज़ैद अल मुनक़्क़ब ब दाई अलहक़ का एलाक़ए तबरस्तान पर कब्ज़ा कर लेना और मुसतकि़ल सलतनत क़ाएम कर लेना फिर दारूल सलतनत में तुरकी ग़ुलामां की बग़ावत मुस्तईन का सामरा को छोड़ कर बग़दाद की तरफ़ भागना और कि़ला बन्द हो जाना, आखि़र को हुकूमत से दस्त बरदारी पर मजबूर होना और कुछ अर्से बाद माअज़ बिल्लाह के साथ तलवार के घाट, फिर माज़ बिल्लाह के दौर में रूमियों का मुख़ालफ़त पर तैय्यार रहना। माज़ बिल्लाह को खुद अपने भाईयों से ख़तरा महसूस होना और मोवीद की जि़न्दगी का ख़ातमा और मोफि़क़ का बसरा में क़ैद किया जाना, इन तमाम हगांमी हालात, इन तमाम शोरिशो, इन तमाम बेचैनियो और झगड़ो में से किसी में भी हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की शिरकत का शुब्हा तक न पैदा होना क्या इस तर्ज़ अमल के खि़लाफ़ नहीं जो ऐसे मौक़े पर जज़्बात से काम लेने वालों का हुआ करता है। एक ऐसे अक़तेदार के मुक़ाबले में जिसे न सिर्फ़ वह हक़ व इन्साफ़ के रू से नाजाएज़ समझते हैं बल्कि इनके हाथों उन्हें जिलावतनी, क़ैद और एहानितों का सामना भी करना पड़ता है मगर वह जज़्बात से बुलन्द और अज़मते नफ़्स के कामिल मज़हर दुनियावी हंगामों और वक़्त के इत्तेफ़ाक़ी मौका़ं से किसी तरह का फ़ायदा उठाना अपनी बेलौस हक़्क़ानियत और कोह से गरां सदाक़त के खि़लाफ़ समझता है और मुख़ालफ़त पर पसे पुश्त हमला करने को आपने बुलन्द नुक़्ताए निगाह और मेयारे अमल के खि़लाफ़ जानते हुए हमेशा किनारा कश रहा।

(दसवें इमाम सफ़ा 9)

 

क़ब्रे हुसैन (अ.स.) के साथ मुतावक्किल की दोबारा बेअदबी 247 हिजरी

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को क़ैद करने के बाद फि़र मुतावक्किल क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) के इन्हेदाम की तरफ़ मुतावज्जा हुआ और चाहा कि नेस्त व नाबूद कर दे। मुवर्रिख़ ने लिखा है कि जब इसे यह मालूम हुआ कि करबला में क़ब्रे हुसैनी की ज़्यारत के लिये एतराफ़े आलम से अक़ीदतमंदों की आमद का तांता बंधा हुआ है और बेशुमार हज़रात ज़्यारत को आते हैं तो मुतावक्किल की आतिशे हसद भड़क उठी और इसने इस सिलसिले को बन्द करने का तैहय्या कर लिया और यह भी न सोचा कि यह वही क़ब्र है जिस पर हस्बे तहक़ीक़ पीराने पीर शेख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी सत्तर हज़ार फ़रिश्ते आसमान से उतर कर ख़ानाए काबा का तवाफ़ करने के बाद जाते हैं वहां रोते हैं और इसकी ज़्यारत करते और मुजावरत के फ़राएज़ रोज़ाना अदा करते हैं।

(ग़नीयतुल तालबैन सफ़ा 374, मजमाउल बहरैन सफ़ा 502)

 

आमाली शेख़ तूसी और जिलाउल अयून में है कि मुतावक्किल ने अपनी फ़ौज के दस्ते को ज़्यारत के रोकने और नहरे अलक़मा को काट के क़ब्र पर से गुज़ारने को भेजा और हुक्म दिया जो शख़्स ज़्यारत के लिये आए उसे क़त्ल कर दिया जाए और बाज़ उलमा के बयान के मुताबिक़ यह भी हुक्म दिया गया कि पहले हाथ काटे जायें फिर अगर बाज़ न आऐ तो क़त्ल कर दिये जाऐं यह एक ऐसा हुक्म था जिसने मोतक़ेदीन को बेचैन कर दिया। हज़रत ज़ैद मजनून को दोस्त दाराने आले मौहम्मद स. में से थे, यह ख़बर सुन कर ज़्यारत के लिये मिस्र से चल कर कुफ़े पहुंचे वहां पहुंच कर हज़रत बहलोल दाना से मिले जो उस वक़्त ब मसलेहत अपने को दिवाना बनाए हुए थे। दोनां में तबादलाए ख़्यालात हुआ और दोनों ज़ियारते क़ब्रे मुनव्वर के लिये करबला रवाना हो गये। उन्होंने आपस में तय किया था कि हाथ काटे जाये तो कटवायेंगे क़त्ल होने की ज़रूरत महसूस हो तो क़त्ल हो जायेंगे लेकिन ज़ियारत ज़रूर करेंगे। जब यह दोंनो करबला पहुंचे तो उन्होंने देखा कि क़ब्र की तरफ़ नहर का पानी क़ब्र पर गुज़रने की बे अदबी नहीं करता। पानी क़ब्र तक पहुंच कर फट जाता है और क़तरा कर एतराफ़ व जानिबे क़ब्र का बोसा लेता हुआ गुज़रता है। यह हाल देख कर इनका जज़्बाए मोहब्बत और उभर गया, यह अभी इसी मुक़ाम पर ही थे कि वह शख़्स इनकी तरफ़ मुतावज्जा हुआ जो इन्हेदामें क़ब्र पर मुताअय्यन था। उसने पूछा कि तुम क्यों आये हो? उन लोगों ने कहा ज़ियारत के लिये। उसने जवाब दिया जो ज़्यारत को आए, मैं उसे क़त्ल करने के लिये मुक़र्रर किया गया हूं। इन हज़रात ने कहा हम क़त्ल होने की तमन्ना में ही आए हैं। यह सुन कर वह इनके पैरों पर गिर पड़ा और अपने अमल से ताऐब हो कर मुतावक्किल के पास वापस गया। मुतावक्किल ने उसे क़त्ल करा कर सूली पर चढ़ा दिया। फिर पैरों में रस्सी बंधवा कर बाज़ार में खिंचवाया। ज़ैद को जब यह वाकि़या मालूम हुआ, फ़ौरन सामरा पहुंचे और उसकी लाश दफ़न की और उस पर क़ुरान मजीद पढ़ा।

अभी हज़रत ज़ैद सामरा में ही थे कि एक दिन बड़े धूम धाम से एक जनाज़ा उठाया गया स्याह अलम साथ था अरकाने दौलत और अमाएदीन सलतनत हमराह थे। चारों तरफ़ से रोने की आवाज़ें आ रही थीं। ज़ैद ने समझा कि शायद मुतावक्किल का इन्तेक़ाल हो गया है। यह मालूम करने के बाद हज़रत ज़ैद ने एक आहे सर्द खींची और कहा अल्लाह अल्लाह फ़रज़न्दे रसूल स. इमाम हुसैन (अ.स.) करबला में तीन रोज़ के भुके प्यासे शहीद कर दिये गये। इन पर कोई रोने वाला नहीं था बल्कि उनकी क़ब्र के निशानात मिटाने के भी लोग दरपए हैं और एक मन्हूस कनीज़ का यह एहतिराम है इसके बाद इसी कि़स्म के मज़ामीन पर मुश्तमिल चन्द अश्आर लिख कर हज़रत ज़ैद मजनून ने मुतावक्किल के पास भिजवा दिया, उसने उन्हें मुक़य्यद कर दिया। मुतावक्किल ने ख़्वाब में देखा कि एक मर्दे मोमिन आए हैं और कहते हैं कि ज़ैद को इसी वक़्त रेहा कर दे। वरना मैं तुझे अभी अभी हलाक कर दूंगा। चुनान्चे उसने उसी वक़्त रेहा कर दिया।

 

मुतावक्किल का क़त्ल

मुतावक्किल के ज़ुल्म व तआद्दी ने लोगों को जि़न्दगी से बेज़ार कर दिया था। अब इसकी यह हालत हो चूकी थी कि बरसरे आम आले मौहम्मद स. को गालियां देने लगा था। एक दिन उसने अपने बेटे मुस्तनसर के सामने हज़रत फ़ात्मा ज़हरा स. के लिए नासाज़ अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए। मुन्तसार से दरयाफ़्त किया कि जो शख़्स ऐसे अल्फ़ाज़ बिन्ते रसूल स. के लिऐ इस्तेमाल करे उसके लिए क्या हुक्म है। उलमा ने कहा वह वाजेबुल क़त्ल है। तारीख़ अबुल फि़दा में है कि मुनतासिर ने रात के वक़्त बहालते ख़लवत बहुत से आदमियों की मदद से मुतावक्किल को क़त्ल कर दिया। हादी अल तवारीख़, तारीख़े इस्लाम, जिल्द 1 सफ़ा 66 दमतुस् साकेबा सफ़ा 147 में है कि यह वाकि़या चार शव्वाल 247 हिजरी का है बाज़ मासरीन लिखते हैं मुतावक्किल ने अपने अहदे सलतनत में कई लाख शिया क़त्ल कराए हैं।

 

इमाम अली नक़ी (अ.स.) को पैदल चलने का हुक्म

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि क़त्ले मुतावक्किल से तीन चार दिन क़ब्ल इसी ज़ालिम मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि मेरी सवारी के साथ तमाम लोग पैदल तफ़रीह के लिये चलें। हुक्म में इमाम (अ.स.) ख़ास तौर पर मामूर थे। चुनान्चे आप भी कई मिल पैदल चल कर वापस तशरीफ़ लाए और आपको इस दर्जे तअब तकलीफ़ हुआ कि आप सख़्त अलील हो गये।

(जिला अल अयून सफ़ा 292)

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की शहादत

मुतावक्किल के बाद आप का बेटा मुसतनसिर फिर मुसतईन फिर 252 हिजरी में माज़ बिल्लाह ख़लीफ़ा हुआ मोतिज़ इब्ने मुतावक्किल ने भी अपने बाप की सुन्नत को नहीं छोड़ा और हज़रत के साथ सख़्ती ही करता रहा। यहां तक कि उसी ने आपको ज़हर दे दिया। समा अल मोताज़, अनवारूल हुसैनिया जिल्द 2 सफ़ा 55 और आप व तारीख़ 2 रजब 254 हिजरी बरोज़ दो शम्बा इन्तेक़ाल फ़रमा गए।

(दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 149)

 

अल्लामा इब्ने जौज़ी तज़किराए खास अल मता में लिखते हैं कि आप मोताज़ के ज़माने खि़लाफ़त में शहीद किए गये हैं आपकी शहादत ज़हर से हुई है अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि आपको ज़हर से शहीद किया गया। नूरूल अबसार सफ़ा 150, अल्लामा इब्ने हजर लिखते हैं कि आप ज़हर से शहीद हुए हैं सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 124, दमतुस् साकेबा सफ़ा 185 में है कि आपके इन्तेक़ाल से क़ब्ल इमाम हसन अस्करी (अ.स.) को मवारिस अम्बिया वग़ैरा सुपुर्द फ़रमाते थे। वफ़ात के बाद इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने गरेबान चाक किया तो लोग मोतरिज़ हुए। आपने फ़रमाया कि यह सुन्नते अम्बिया है। हज़रत मूसा ने वफ़ाते हज़रत हारून पर अपना गरेबान फाड़ा था।

(दमतुस् साकेबा सफ़ा 185, जिला अल अयून सफ़ा 294)

आप पर इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने नमाज़ पढ़ी और आप सामरा ही में दफ़्न किए गये इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेउन अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि आपकी वफ़ात इन्तेहाई कसमा पुर्सी की हालत में हुई इन्तेक़ाल के वक़्त आपके पास कोई भी न था।

(जिला अल अयून सफ़ा 292)

 

आपकी अज़वाज व औलाद

आपकी कई बीवीयां थीं उनकी कई औलादें पैदा हुईं जिनके असमा यह हैं।

1.      इमाम हसन अस्करी (अ.स.) 2. हुसैन बिन अली 3. मौहम्मद बिन अली 4. जाफ़र बिन अली 5. दुख़्तर मासूमा आयशा बिन्ते अली।

(इरशाद मुफ़ीद सफ़ा 602 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 129 तबा मिस्र)

 

हाशिया

अल्लामा क़ाज़ी मौहम्मद सुलैमान मन्सूर पूरी रिटार्यड जज रियासत पटयाला लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी रज़ी अल्लाह अन्हो ताला के दो फ़रज़न्द अबू अब्दुल्लाह जाफ़र क़ज़्ज़ाब और हसन अस्करी . से नस्ल जारी है। अबू अब्दुल्लाह जाफ़र के नाम के साथ लक़ब कज़्ज़ाब बाज़ लोग इस लिए शामिल किया करते हैं कि उन्होने अपने भाई हसन अस्करी . की वफ़ात के बाद ख़ुद इमाम होने का दावा किया था। इनकी औलाद इनको जाफ़र तव्वाब कहती है और अपने आप को रिज़वी कहलाती है। सादाते अमरोहा इन्हीं की नस्ल से हैं। किताब रहमतुलल्लि आलमीन जिल्द 2 सफ़ा 146 तबा लाहौर मेरे नज़दीक मुसन्निफ़ को या तो इल्म नहीं या उन्हें धोखा हो गया है दर अस्ल जनाबे जाफ़र एलैह रहमा की औलाद को नक़वी कहा जाता है।

(तमाम)

 

[[अलहम्दो लिल्लाह ये किताबः अबुलहसन हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स) जो कि किताबः चौदह सितारे एक हिस्सा है, पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क) के लिऐ टाइप कराया।

सैय्यद मौहम्मद उवैस नक़वी 18-03-2016 ]]


 

फेहरीस्त

 

अबुल हसन हज़रत इमाम अली नक़ी (..) 1

वालैदेन. 3

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की विलादते बासआदत. 3

इस्मे गिरामी, कुन्नीयत और अलक़ाब 4

आपके अहदे हयात और बादशाहाने वक़्त... 5

हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) का सफ़रे बग़दाद और हज़रत इमाम नक़ी (अ.स.) की वली अहदी. 5

इमाम अली नक़ी (अ.स.) का इल्मे लदुन्नी... 7

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के करामात और आपका इल्मे बातिन. 9

इमाम अली नक़ी (अ.स.) और साल के चार अहम रोज़े.. 15

इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल की तख़्त नशीनी. 16

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला की एक दुआ.. 17

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के आबाओ अजदाद की क़ब्रों के साथ मोतावकिल अब्बासी का सुलूक. 18

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा तलबी. 27

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की नज़र बन्दी... 33

इमाम अली नक़ी (अ.स.) का जज़बा ए हमदर्दी. 34

इमाम अली नक़ी (अ.स.) की हालत सामरा पहुंचने के बाद 36

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और सवारी की तेज़रफ़्तारी. 37

दो माह पहले पहले काज़ी की मौत की ख़बर 37

आपका एहतिराम जानवरों की नज़र में. 38

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और ख़्वाब की अमली ताबीर 38

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और फ़ुक़हाए मुस्लेमीन. 39

शाहे रोम को हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) का जवाब 42

मुतावक्किल के कहने से इब्ने सकीत व इब्ने अकसम का इमाम अली नक़ी (अ.स.) से सवाल. 43

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की ख़ाना तलाशी.. 45

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और शेरे क़ालीन. 49

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और अब्दुर रहमान मिस्री का ज़ेहनी इन्क़ेलाब 51

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के दौर मे नकली ज़ैनब का आना. 52

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल का इलाज. 55

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की दोबारा ख़ाना तलाशी.. 56

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के तसव्वुरे हुकूमत पर ख़ौफ़े ख़ुदा ग़ालिब था. 58

क़ब्रे हुसैन (अ.स.) के साथ मुतावक्किल की दोबारा बेअदबी 247 हिजरी. 61

मुतावक्किल का क़त्ल.. 63

इमाम अली नक़ी (अ.स.) को पैदल चलने का हुक्म... 64

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की शहादत. 65

आपकी अज़वाज व औलाद 66

फेहरीस्त.. 68

 

 

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