हज़रत उमर वाक़ए फ़ील के तेरह बरस के बाद कुरैशे मक्का की शाख़ बन अदी में एक ग़रीब लकड़हारे ख़त्ताब बिन नोफ़िल के यहां पैदा हुए। आपका असली नाम अमीर था जो अपनी शक़्ल बदल कर उमर हो गया। कुन्नियत अबुल हफ़स या अबु हफ़सा थी। लक़ब फ़ारुके आज़म मशहूर है मगर न जाने क्यों? जब कि सरकारे दो आलम स0 ने यह लक़ब हज़रत अली अलै0 को मरहमत फ़रमाया था।
आपकी वालिदा हनतमा बिन्ते हाशिम बिन मुग़ीरा बिन अब्दुल्लाह अबुजहल की चचा ज़ाद बहन थीं। बाज़ ने हनतमा बिन्ते हिश्शाम यानी अबुजहल की हक़ीक़ी बहन तहरीर किया हैं और इस बारे में भी तारीख़ी श़वाहिद मौजूद हैं कि आप नसली हैसियत से हबश थीं।
आपकी हुलिया के बारे में मौलवी अब्दुल शकूर ने तहरीर किया है कि आपका रंग गोरा और सुर्ख़ी माएल था। ज़मानये क़हत में नामवाक़िफ ग़िज़ा के इस्तेमाल से काला हो गया था। रुख़सारों पर गोश्त बहुत कम था। क़द इतना लम्बा था कि जब लोगों के दरमियान ख़ड़े होते थे ऐसा लगता कि जैसे किसी सवारी पर बैठे हों। मौलवी मसीहुद्दीन काकोरवी का बयान है कि आप भींगा (एहवल) देखते थे। तरजुमा असदुल ग़ाबा में है कि आपकी सूरत क़बीलये सुदूस के लोगों से मिलती थी। क़द लम्बा औऱ दाढ़ी ऐसी घनी थी कि जब चूल्हा फूंकते थे धूंआ दाढ़ी के दरमियान से ख़ारिज होता था। इस्तियाब में है कि आपका क़द तवील, रंग सियाही माएल, सर गंजा, मूंछे लम्बी और दाढ़ी झाड़ी नुमा थी। पैरों से माक़िल थे। ऐसी मालूम होता था कि जैसे पैर बन्धे हुए हैं। बायें हाथ से काम काज करते थे। आपकी औलादों का यह कहना है कि काला पन हेमं नानिहाल से विरासत में मिला है। सीरते हलबिया में है कि आपके माकूल होने की वजह यह थी कि बचपन में खेल के दौरान ख़ालिब बिन वलीद ने आपक एक टांग तोड़ दी थी इसी दुश्मनी की बिना पर आपने ख़िलाफ़त का ओहदा संभालते ही ख़ालिद को माज़ूल कर दिया था।
आपके वालिद ख़त्ताब बचपन में आपसे ऊँट और बकरियां चराने का काम लेते थे। लेकिन इस मामले में वह कितना सख़्तगीर थे? इसका अन्दाज़ा कामिल इब्ने असीर, अज़ालतुल ख़फ़ा, अलफ़ारुक़ और सीरत हज़रत उमर की इस रिवायत से होता है कि ज़मानये ख़िलाफ़त में आपका गुज़र एक मर्तबा ज़जनान के जंगलों की तरफ़ से हुआ तो उसे देख कर आपने फ़रमाया कि अल्लाहो अक़बर! एक ज़माना वह था कि मैं नमदे का एक कुर्ता पहन कर इस जंगल में बकरियां चराया करता था और जब कभी थक कर बैठ जाता था तो बाप के हाथ की मार खाता था।
अल्लामा इब्ने अबदरबा ने अमरु आस की ज़बानी एक रिवायत मरकूम की है जिसमें वह कहते हैं कि ख़ुदा की क़सम मैंने उमर और उनके बाप को देखा है कि दोनों के बदन पर क़तरान की अबा होती थी जिसको वह लपेटे रहते थे। अपने सरों पर लकड़ियों का बोझ लाद कर जंगलों से लाते और उसे फ़रोख्त करके अपनी गु़ज़र बसर करते थे। इब्ने अबिलहदी का कहना है कि जब आप अट्ठारह साल के हुए तो वलीद बिन मुग़ीरा के यहां नौकर हो गये थे। उसके ऊँट चराते और सामाने तिज़ारत की देख भाल करते। बाद में कुछ तरक़्की करके बाज़ारों में दलाली का पेशा करने लगे थे जो आप के ज़मानये ख़िलाफ़त तक जारी रहा। यह अमर भी मुताफ़क़्का तौर पर तसलीम शुदा है कि हालते कुफ़्र में आप इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम स0 के सख़्त तरीन दुश्मन थे यहां तक कि आपने क़त्ले पैग़म्बर स0 का इरादा भी किया था मगर अपने मक़सद में नाकाम रहे। आपके मुकम्मल औऱ हैरत अंगेज़ ताज्जुब खेज़ वाक़ियात मालूम करने के लिये मोअल्लिफ़ की किताब अलख़ोलफ़ा हिस्सा दोयम का मुतालिया फ़रमाये।
एक नज़र में अहदे ख़िलाफ़त के वाक़िया
(1) तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होते ही ख़ालिद बिन वलीद की माज़ूली का परवाना जारी किया।
(2) सन् 13 हिजरी से सन् 15 हिजरी तक तमाम मुल्क शाम यानी दमिश्क, तबरिया, हमस, क़नसरीन, हलब, अन्ताकिया, कैसारिया, ग़ज़ा, औऱ बैयतुल मुक़द्दस पर तसल्लुत जमाया।
(3) सन् 14 हिजरी या 15 हिजरी में बसरा आबाद किया।
(4) सन् 15 हिज़री ही में मशाहीरे इस्लाम के वज़ीफ़े मुक़र्रर किये और दफ़ातिर क़ायम किये।
(5) सन् 16 हिजरी में हज़रत अली अलै0 के मशविरों पर सन् हिजरी मुक़र्र किया।
(6) सन् 17 व 18 हिजरी में जज़ीरा आरमीनिया वग़ैरा को फ़तेह किया
(7) सन् 20 हिजरी में मिस्र औऱ सन् 21 हिजरी में असकनदरिया फ़तेह हुआ।
(8) सन् 18 से 23 तक ईरान, आज़र बायजान, फ़ारस औऱ क़िरमान के इलाक़े फ़तेह हुए।
(9) आपके अहद में एक हज़ार छत्तीस शहर ममलेकते इस्लामिया में शामिल किये गये, चार हज़ार मस्जिदों की तामीर अमल में आई, एक हज़ार नौ सौ मिम्बर ख़ुतबा देने के लिये बनाये गये और जाँबजां शहरों में जामा मस्जिद की तामीर भी हुई।
(10) तरावी का हुक्म जारी किया।
(11) आप ही ने दुर्रा (ताज़ियाना) ईजाद किया।
(12) क़ैदख़ाना भी आप ही की ईजाद है।
(13) नमाज़े जनाज़ा की तकबीरें घटा कर उसे सिर्फ़ चार तकबीरों में मुनहसिर किया
(14) मुताह को हराम क़रार दिया।
(15) घोड़ों पर ज़कात मुक़र्रर की।
(16) मैदानों की पैमाइश का तरीक़ा ईजाद किया।
(17) इल्मे मीरास का हिसाब मुक़र्रर किया।
(18) मसाजिद में क़ारी मुक़र्रर किया।
(19) मस्जिदे नबवी की तौसी की।
(20) अपने बेटे अबु शहमा को शराब ख़ोरी और ज़िना कारी के जुर्म में ताज़ियाने मार मार कर हलाक कर देना आपका मशहूर कारनामा है।
दमिश्क़ पर चढ़ाई
यरमूक की फ़तेह के बाद अबुअबीदा बिन जराअ ने बशीर बिन काब को अपना नाएब बना कर यरमूक में छोड़ा और ख़ुद सुफ़्फ़र की तरफ़ आगे बढ़े। वहां पहुँच कर ख़बर मिली कि शिकस्त खु़र्दा रुमी लश्कर नये साज़ो सामान और जंगी हथियारों के साथ फहल के मुक़ाम पर इकट्ठा हो रहा है। दमिश्क से मज़ीद कुक पहुंचने वाली है औऱ बादशाह हरकुल हमस में पड़ाव डाले हैं। अबुउबैदा ने हज़रत उमर को मुतला किया और सुफ़्फ़र ही में मुक़ीम रह कर जवाब के मुन्तज़िर रहे। हज़रत उमर का हुक्म मिला कि पहले शाम के दारुल हुकूमत दमिश्क पर चढाई करो और उसके साथ साथ अहले फ़हल, अहले हमस औऱ अहले फ़िलिस्तीन को भी जंग में उलझा रखो।
अबुउबैदा ने हथियार बन्द सवारों का एक दस्ता फ़हल का मुहासिरा करने के लिये भेज दिया और बक़िया फ़ौज के मुख़तलिफ़ हिस्से करके एक हिस्से को हमस और दमिश्क के दरमियान तैयनात किया और एक को दमिश्क़ व फ़िलिस्तीन के माबैन ठहरने का हुक्म दे कर ख़ुद ख़ालिद बिन वलीद को अपने साथ लेकर दमिश्क़ की तरफ़ बढ़े और उसे मग़रिब की तरफ़ से अबुउबैदा ने मशारिक़ की तरफ़ से ख़ालिद बिन वलीद ने शुमाल की तरफ़ से यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान ने और जूनूब की तरफ़ से अम्र आस व शरजील ने घेर लिया। दमिश्क़ में उस वक़्त रोमियों का नामी गिरामी सिपेह सालार नसतास बिन नसतूस और उनका मज़हबी पेशवा बतरीक़ माहान हाकिम आला की हैसियत से मौजूद था। बाज़ रिवायतों के मुताबिक़ छः माह तक जारी रहा। इस्लामी फौज़े शहर पर मुनजनीक़ों के ज़रिये कभी पत्थर बरसातीं थी और कबी तीर बारानी करती थीं। असनाये महासिरा हरकुल ने अहले दमिश्क़ की मदद के लिये फौज़ें शहर पर मुनजनीकों के ज़रिये कभी पत्थर बरसाती थी और कभी तीर बरानी करती थीं। असनाये महासिरा हरकुल ने अहले दमिश्क़ की मदद के लिये फ़ौज की एक बहुद बड़ी तादाद रवाना की मगर जजुलकलाअ ने जो हमस और दमिश्क़ के दरमियान फ़ौज लिये पड़े थे मुज़ाहमत की और उस फ़ौज को पसपा करके दमिश्क़ में दाख़िल न होने दिया। बिलआख़िर मजबूर होकर मशरिक़ी दमिश्क के बाशिन्दों ने ख़ालिद बिन वलीद से सुलहा की दरख़्वास्त की मगर उन्होंने मंजूर न किया क्योंकि माल ग़नीमत के चक्कर में वह शहर को तलवार के ज़रिये फ़तेह करना चाहते थे। दूसरी तरफ़ मग़रिबी दमिश्क़ के बाशिन्दों में से तक़रीबन सौ आदमीं जिनमे अमाएदीन दमिश्क़ व पादरी शामिल थे, अबुउबैदा से सुलह के मुलतजी हुए। उन्होंने एक लाख दीनार पर मुहाएदा इन शराएत के साथ किया कि शहर का क़बज़ा मुसलमानों को दे दिया जाये। दमिश्क के शहरी अगर शहर को छो़ड़ना चाहें तो अपना माल व असबाब ले जा सकते हैं। सात गिरजा अहले दमिश्क के वास्ते छोड़ दिये जायेंगे बाक़ी मिस्मार कर दिया जायेंगे।
सुलह नामा जब तहरीर किया जा चुका तो अहले दमिश्क ने अबुउबैदा के लिये शहर का मग़रिबी दरवाज़ा “बाबे जाबिया” खोल दिया औऱ सौ आदमियों के साथ वह शहर पर तसल्लुत हासिल करने के लिये दाख़िल हो गये। मिस्टर ऐरविंग के बयान के मुताबिक मशरिकी दरवाज़े पर यह हादसा हुआ कि एक पादरी जिसका नास यसूअ था ख़ालिद के पास आया और उसने उनसे कहा कि अगर तुम मेरे ख़ानदान को अमान दो तो मैं तुम्हें शहर में दाख़िल होने का रास्ता बता दूं। उस पादरी के ज़रिये सौ अरब शहर पनाह की दीवार से अन्दर दाख़िल हुए और मश्रिक़ी दरवाज़ा खोल दिया। ख़ालिद लश्कर के हमराह शहर में दाख़िल हो गये और उन्होंने क़त्ल व ग़ारतगरी का बाज़ार गर्म कर दिया यहां तक कि ख़ूरेंजी करते हुए मरियम के गिरजा घर तक पहुंच गये। यहां उन्हें ये देख कर तअज्जुब हुआ कि अबुउबैदा और उनके साथी भी मौजूद हैं लेकिन उनकी तलवारें नयामें में है और शहर की औरतें और बच्चें उन्हें घेरे हुए हैं। ख़ालिद को ख़ूरेंजी करते देख कर अबुअबीदा ने उन्हें मना किया और कहा कि यह शहर हमने सुलहा की बुनियाद पर फ़तेह किया है, अब किसी शख़्स के क़त्ल का इक़दाम मुनासिब नहीं है। ख़ालिद ने कहा, तुमने सुलय क्यों की, पाबन्दी न की जायेगी तो मुसलमानों का एतमाद व एतबार मजरुह होगा और आइन्दा हमारे मुखालिफ़ कभी सुलहा की पेश कश नहीं करेंगे। ग़र्ज़ कि बड़ी रद्दो कद और जद्दो जेहद के बाद ख़ालिद ने क़त्ल व ग़ारतगरी और ख़ूंरेज़ी से हाथ उठाया। इस तरह सुलह की बुनियाद पर मुसलमानों ने दमिश्क़ पर फतेह हासिल की और वहां के बहुत से बाशिन्दों ने जिला वतनी इख़्तियार की।
जब फ़तेह दमिश्क़ की ख़बर दरबारे ख़िलाफ़त में पहुँची तो उमर ने अबुउबैदा को लिखा कि इराक़ से जो फौज आई थी उसे इराक़ वापस भैज दो। चुनानचे अबुउबैदा ने हाशिम बिन अतबा को इस फ़ौज का मरदार बना कर इराक़ की तरफ़ वापस कर दिया। दस हजा़र के इस लश्कर के मुक़दमतुल जैश की हैसियत से क़का़ बिन अमरु और दोनों बाज़ूओं पर अम्र बिन मालिक और रबी बिन आमिर थे।
तबरी का बयान है कि फ़तेह दमिश्क़ के बाद रजब सन् 14 हिजरी में अबुउबैदा ने ख़ालिद बिन वलीद को उनकी माजूली और अपनी इमारत से आगाह किया। उमर के हु्क्म को इतने दिनों तक उन्होंने सियासी मसलहत की बिना पर मग़फ़ी रखा था।
जंगे फहल
दमिश्क़ फ़तह करने के बाद अबुउबैदा ने यज़ीद बिन अबुसुफियान को दमिश्क़ में छोड़ा और खु़द दीगर फ़ौजी अफ़सरों और लश्करियों के साथ वहां से निकल कर फ़हल में ख़ेमा ज़न हो गये। रोमियों का सरदार सक़लार बिन मख़राक मुक़ाबिले में आया। सात दिन शब व रोज़ की लड़ाई के बाद आख़िरकार सक़लार मय 80 हज़ार रोमियों को मारा गया और बेशुमार माले ग़नीमत मुसलमानों के हाथ आया। बाज़ मोअर्रिख़ीन ने इस जंग को सन् 13 हिजरी में और बाज़ ने 14 हिजरी में तहरीर किया है। यह फ़र्क़ शायद इस लिये है कि मुहासिरा दमिश्क को बाज़ ने सत्तर दिन और बाज़ ने छः माह लिखा है।
फ़तह बेसान व तबरिया
फ़तह फ़हल के बाद अबुउबैदा और ख़ालिद ने हस पर चढ़ाई कर दी औऱ शरजील बिन हसना को कुछ फ़ौज दे कर बेसान पर और अवाला और सलमा को तबरिया पर हमला करने की ग़र्ज़ से रवाना कर दिया। चन्द झड़पों और मामूली ख़ूरेंज़ी के बाद उन दोनों शहरों के बाशिन्दों ने भी अहले दमिश्क़ की तरह सुलह कर ली। इस तरह उरदुन के शहर आसानी से मुसलमानों के क़बज़े में आ गये और उन्होंने अपनी फ़ौजी टुकड़ियों इन्तिज़ामी उमूर के लिये कज़बात व मज़ाफात में ठहरा दी। तबरी और इब्ने असीर ने फ़तेह दमिश्क, फ़तेह फ़हल और फ़तेह बेसान व तबरिया को सन् 13 हिजरी के वाक़ियात में दर्ज किया है।
जंगे मरजुल रोम सन् 15 हिजरी
फ़हल में रोमियों को शिकस्त देकर ख़ालिद औऱ अबुउबैदा अलग अलग रास्तों से हमस की तरफ़ रवाना हुए। हरकुल को जब यह ख़बर मालूम हुई तो उसने तोज़र बतरीक़ को उनके मुक़ाबिले पर भेजा जिसने दमिश्क़ के मग़रिब में मरजुर रोम के मुक़ाम पर ख़ालिद का रास्ता रोका और शग़िश रोमी ने जो क़सीर फ़ौज के साथ तोजर और अहले हमस की मदद पर मामूर था, अबुउबैदा की राह में डेरा जमाया। दमिश्क़ को मुसलमानों के हाथ से वापस लेने की ग़र्ज़ से तोज़र आगे बढ़ा। ख़ालिद को ख़बर हुई तो वह भी इसके पीछे हो लिये। यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान को मालूम हुआ तो वह दमिश्क़ से निक़ल कर तोज़र के सामने आगाय और दोनों में जंग छिड़ गई। रोमी फौज़ यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान से लड़ रही थी कि पिछे से ख़ालिद ने हमला कर दिया। नतीजा यह हुआ कि तोज़र की फौज़ में चन्द ही लोग बाक़ी बचे वरना सब के सब मौत के घाट उतर गये। काफ़ी माले ग़नीमत हाथ आया। आधा यज़ीद के हमराहियों ने ले लिया और आधा ख़ालिद के लश्करियों में तक़सीम हो गया। उसके बाद यजीद दमिश्क़ की तरफ़ पलट आया और ख़ालिद मरजुर रोम की तरफ़ लौट आये। यहाँ अबुअबीदा ने ख़ालिद की रवांगी के बाद शग़श से जंग छोड़ रखी थी। अभी कोई फ़ैसला न होने गाया था कि ख़ालिद भी पहुंच गये। घमासान की जंग हुई। शग़शऔर लतादाद रोमी मारे गये। मुसलमानों ने हमस तक ताकुब किया। हरकुल यह ख़बर सुनकर हमस से रोहा की तरफ़ भाग निकला।
फ़तहे हमस, हमात, सला जक़ीया और क़नसरीन वगैरा
मरजूर रोम की लड़ाई के बाद अबुउबैदा कने हमस का मुहासिरा कर लिया। हरकुल ने अहले जज़ारा को पैग़ाम भेजा कि हमस को मुसलमानो के हाथों से बचाने के लिये शाम की तरफ़ ज्यादा फ़ौज रवाना करें। चुनानचे अहले जज़ीरा की फ़ौजें शाम की तरफ़ रवाना हुई और इधर इराक से साद बिन अबी विकास ने अपनी फ़ौज के मुख़तलिफ़ दस्ते हीत और क़रक़ीसा वग़ैरा की तरफञ रवाना कर दिये कि रोमियों से वह उन शहरों को छीन लें। इसका नतीजा यह हुआ कि जज़ीरा की फ़ौज जज़ीरा की तरफ़ फिर पलट आई और जब हमस के मुहासिरे को एक माह का अरसा गुज़रा और अहले हमस को कुमक की तरफ़ से मायूसी हो गयी तो उन लोगों ने मजबूर होकर अबुउबैदा से दमिशक़् की शराएत पर सुलह कर ली। इसके बाद अबुउबैदा ने अबादा बिन सामित को हमस में अपना नाएब मुक़र्रर किया और वहां से निकल कर उन्होंने हमात, शीराज़, लाज़क़ीया और क़नसरीन वग़ैरा को फ़तेह कर लिया। बिलाज़री और वाक़दी का बयान है कि हमस और उसके मज़ाफ़ात की फ़तेह के बाद शिकस्त ख़ुरदा रोमी इन्ताकिया में हरकुल के पास जमा हो गये। चुनानचे जोश में आकर उसने अपनी तमाम ममलेकत से फ़ौजें इकट्ठा करके मुसलमानों के मुक़ाबिले में रवाना कर दीं। अबुउबैदा ने जो मुकामात फ़तेह किये थे वहां के लोग उनके हुस्ने सुलूक के ऐसे गिरवीदा हो गये थे कि मज़हबी अख़तालाफ़ात के बावजूद वह अबुउबैदा के लिये जासूसी का काम अंजाम देने लगे। चुनानचे उन्होंने यरमूक के सामने देरुल जबम में हरकुल की फ़ौज़े जमा होने की ख़बर दी। अबुउबैदा ने अपने मातहत अफ़सरों से मशविरे के बाद मुनासिब समझा कि दमिश्क़ में जाकर और तमाम इस्लामी फ़ौजों को यक जाकर के मुक़ाबिला किया जाये। उसके बाद अबुउबैदा ने अहले हमस और आस पास के दीगर मफ़तुहा इलाक़ों के लोगों को बुलाकर जो ख़िराज उनसे वसाल किया था उसे वापस कर दिया और कहा कि इस वक़्त चूंकि हम दुश्मन से मसरुफ़े पैकार हैं औऱ तुम्हारी नुसरत व मुहाफ़िज़ नहीं कर सकते। इस पर हमस के यहूद व नसारा में कहा कि अभी तक हम पर जु़ल्म व सितम होता रहा। हम आपको अदालत व हुकूमत के मामले में यहूदियों से बेहतर समझते हैं, अगर आप अपने आमिल के साथ कुछ फौज हमस में छोड़ दें तो मुनासिब होगी। अबुउबैदा ने उनकी बात मान ली। औऱ जब मुसलमानों को मुकम्मल कामयाबी हासिल हो गयी तो उन लोगों ने ख़िराज अदा कर दिया।
फ़तेह हलब, व अनताकिया वग़ैरा
हमस, हमात और क़नसरीन वग़ैरा की मुहिम से फ़रिग़ होकर अबुउबैदा ने हलब की तरफ़ कुच किया। इस्लामी फ़ौजों के आने की ख़बर सुन कर अहले हलब क़िला बन्द हो गये। अयाज़ बिन ग़नम ने जो मुक़द्दमतुल जैश के अफ़सर थे, शहर का मुहासिरा कर लिया। वहां के लोगों ने इस शर्त पर सुलह कर ली कि ईसाई मुसलमानों को जज़िया देंगे और मुसलमान उन के मज़हबी अमूर नीज़ गिरजों के बारे में मोतरिज़ न होंगे। बाज़ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि ईसाई हलब छो़ड़ कर अनताकिया चले गये थे और अनताकिया फ़तेह हो जाने के बाद सुलह करके वापस आये।
हलब को ज़ेर करके अबुउबैदा अनताकिया की तरफ़ बढ़े। यह शहर कुसतुनतुनिया का सानी और मशरिक़ी रोम में कैसर का दारुल हुकूमत था। यहां मुख़तलिफ़ मुक़ामात से ईसाई भीग भाग आ गये थे। मुसलमानों की आमद की ख़बर सुन कर अनताकिया से बाहर सफ़ आरा हुए मगर अबुउबैदा के हमले से पहले ही हज़ीमत उठाकर ईसाई फ़ौजें शहर के अन्दर चली गयीं। अबुउबैदा ने शहर का मुहासिरा किया। चन्द रोज़ बाद ईसाईयों ने मजबूर होकर जज़िया देने या जिला वतनी का मुहाएदा करके सुलह कर ली। जो ईसाई जज़िया न दे सका वह अनताकिया छोड़ कर किसी और सिमत चला गया लेकिन बाद में ईसाईयों ने बद अहदी की। अयाज़ बिन ग़नम और मुहम्मद बिन मुस्लिमा ने फिर जंग करके उन्हें ज़ेर किया और शराएते ऊला के मुताबिक़ फिर सुलह हो गयी।
फिर रोमियो का एक गिरोह मारा मसरीन और हलब के दरमियान मुसलमानों के ख़िलाफ़ मुजतमा हुआ। अबुऊबैदा ने अपने लश्कर को कूच का हुक्म दिया और लड़ कर उन्हें मुन्तशिर कर दिया। अवामुन नास के अलावा ईसाइयों के बहुत से मज़हबी पेशवा भी मैदाने जंग में मारे गये। बिल आख़िर अहले हलब की शराएत पर सुलह हुई औरर अबुउबैदा ने मुहायिदा तहरीर किया। इसके बाद अबुउबैदा ने चारों तरफ़ इस्लामी फ़ौजें फैला दीं और कनसरीन व अनताकिया के तमाम मज़फ़ात पर कबज़ा कर लिया। उसके बाद अबुउबैदा ने क़ोरिस, अबान, बालिस, क़ासरिन, जरहूमा बग़राज़, ग़सान, तनुख़, मरअश और हसनुल हदस (जिसे बनी उमय्या अपने दौर में “वरबुल सलामा” कहते थे) पर इस्लामी परचम लहरा दिये।
अबुउबैदा जिन जिन शहरों और इलाकों को फ़तेह करते जाते थे उनमे हज़रत उमर की हिदायत के मुताबिक अपनी तरफ़ से आमिल मुक़र्रर करके उसकी हिफ़ाज़त के लिये थोड़ी थोड़ी फ़ौज छोड़ते जाते थे।
जंगे अजनादीन
अमरु आस और शरजील ने जब बेसान के मज़ाफ़ाती इलाक़ों को भी फ़तेह कर लिया और अहले उरदुन ने डर कर मुसलिहत कर ली तो रोमी फ़ौजें ग़जा, अजनादीन और बेसान में जमा होना शुरु हुईं। अमरु आस और शरजील ने अबवाला अदर सलमा को उरदुन का ज़िम्मेदार बना कर अजनादीन की तरफ़ रुख किया जहां रोम का मशहूर सिपह सालार अरतबून अपनी फौजें लिये पड़े था और उसके अलावा उसने एक ब़ड़ी फ़ौज एलिया (बैतुल मुक़द्दस) और रमला में ठहरा रखी थी। अमरु आस ने इस मौक़े पर माविया इब्ने सुफ़ियान के ज़रिये एक तरफ़ अहले क़ीसारिया को जंगी सियासत में उलझा रखा था और दूसरी उन्होंने यह तदबीर इख़्तियार की कि अलक़मा बिन हकीम फ़ारासी और मसरुक़ अक्की को बैतुल मुक़द्दस पर हमला करने की ग़र्ज़ से रवाना कर दिया और अबु अय्यूब मालकी को रमला पर मुसल्लत कर दिया ताकि दुश्मनों की फ़ौज़ें जहां हैं वहीं उलझ कर रह जायें और अरतबून की मदद को न पहुंच सकें। गर्ज़ हर तरफ़ से मुतमईन हो जाने के बाद अम्र आस ने अजनादीन पर धावा बोल दिया। इस्लामी तलवारें चमकीं और रोमियों के सर मैदाने कारज़ार में लुढ़कने लगे। जब अरतबून की सारी फ़ौज कट गयी तो गयी तो अरतबून और उसके चन्द साथी भग कर बैतुल मुक़द्दस में पनाह गुजी हो गये। इब्ने ख़लदून का कहना है कि इस जंग का नतीजा यह हुआ कि नयाफ़ा, नाबलिस अमवनास और जबरीन अक्का, बैरुत, सैदा, लाज़क़ीया, आफ़मिया और अबनोला के लोगों ने बग़ैर जंग के मुसलमानों के लिये अपने दरवाज़े खोल दिये।
फ़तह बैतुल मुक़द्दस
मज़कूरा बाला तमाम इलाक़ों को ज़ेर करने के बाद अमरा आस ने बैतुल मुक़द्दस का मुहासिरा कर लिया और अबुउबैदा कभी क़नसरीन वग़ैरा पर इस्लामी परचम लहराते हुए इसी तरफ़ रवाना हुए यहां तक कि दोनों चरनैलों की फ़ौज़ें आपस में मिल गयीं। बैतुल मुक़द्दस के ईसाईयों ने जब यह हाल देखा और अबुउबैदा के आने की ख़बर से मुत्तेला हुए तो ख़ौफ़ व दहशत से वह हाथ पांव छोड़ बैठे। इस शर्त के साथ उन्होंने मसालेहत की ख़्वाहिश का इज़हार किया कि ख़लीफ़ये वक़्त खुद यहां आकर मुहाएदे की तकमील करें औऱ इस पर दस्तख़त करें। चुनानचे अबुउबैदा ने हज़रत उमर को पैग़ाम भेजा कि बैतुल मुक़द्दस की फ़तेह आप की तशरीफ़ आवरी पर मुनहसिर है। हज़रत उमर ने इस सिलसिले में अकाबरीन सहाबा से मशविरा किया। हज़रत उस्मान ने कहा कि आप ईसाइयों से सुलह हरगिज़ न करें क्योंकि वह लोग हिम्मत हार चुके हैं लेहाज़ा बग़ैर किसी क़ताल व जदाल के खुद ब खुद हथियार डा़ल देंगे। हज़रत अली अलै0 ने इस राये से इख़्तिलाफ किया और कहा तुम्हें वहां जा कर सुलह कर लेनी चाहिये। हज़रत उमर ने हज़रत अली अलै0 के मशविरे पर अमल किया और “जाबिया” पहुंच गये। अमाएदीन बैतुल मुक़द्दस भी वहां जमा हुए औऱ क़रारदाद सुलह पर गौ़र व ख़ौज़ के बाद सुलहनामा मुर्त्तब हुआ जिसमें यह शर्ते मरकूम हुईः
1. शहर या उसके मज़ाफ़ात में ईसाई कोई नया गिरजा तामीर नहीं करेंगे।
2. रात या दिन में किसी वक़्त गिरजा में मुसलमानों के दाख़िले पर कोई पाबन्दी न होगी।
3. कलीसाओं ओर गिरजाओं के दरवाज़े आम मुसाफ़िरों के लिये हर वक़्त खुले रखे जायेंगे।
4. ईसाई मुसलमान मुसाफ़िरों की तीन दिन दावत करेंगे और उनके साथ हुस्ने सुलूक व ख़न्दा पेशानी से पेश आयेंगे।
5. ईसाई ने अपने बच्चों को कुरआन की तालीम देंगे न अपने मज़हब का एलानिया एलान करेंगे और न किसी को ईसाई होने की तरग़ीब देंगे।
6. अगर कोई ईसाई अपना मज़हब तर्क करके मुसलमान होना चाहेगा तो उस पर कोई पाबन्दी न होगी।
7. तमाम ईसाई मुसलमानों का अदब व लिहाज़ करेंगे।
8. कोई भी ईसाई मुसलमानों का लिबास नहीं पहनेगा और न अमामा इस्तेमाल करेगा।
9. कोई भी ईसाई मुसलमानों के नाम पर अपने बच्चों का नाम नहीं रखेगा।
10. ईसाई हथियार नहीं लगायेंगे।
11. शराब फ़रोशी की क़तई मुमानियत होगी।
12. कोई भी ईसाई मुसलमानों के बाज़ार में अपना लिटरेचर फ़रोख़्त नहीं करेगा।
13. गिरजा के घण्टे ज़ोर ज़ोर से बजाने की इजाज़त न होगी।
14. कोई ईसाई किसी मुलमान को अपने यहां मुलाज़िम नहीं रखेगा।
15. किसी ईसाई का मकान मुसलमान के मकान से बुलन्द न होगा।
16. हर ईसाई शिनाख़्त के लिये अपने सर का अगला हिस्सा मुण्डवाया करेगा।
इन शिनाख़्त के साथ ईसाईयों ने जज़ीया देना कुबूल किया और शहर के दरवाज़े तमाम मुसलमानों के लिये खोल दिये गये। यह मुहाएदा सन् 15 हिजरी में हुआ और इस पर ख़ालिद बिन वलीद, अम्र आस, अब्दुल रहमान बिन औफ़ माविया बिन अबसुफियान ने भी अपनी शहादतें सब्त की। इस मुहाएदे के साथ ही अहले रमला ने भी इसी तरह का मुहाएदा कर लिया।
जब बैतुल मुक़द्दस पर मुसलमानों का मुकम्मल तसल्लुत हो गया तो अळकमा बिन हाक़िम निस्फ़ फिलिस्तीन के हाकिम मुकर्रर किये गये और उन्हें रमला में क़याम का हुक्म दिया गया। इसके बाद हज़रत खच्चर पर सवार होकर जाबिया से वारिदे बयतुलमुक़द्दस हुए। वहाँ उन्होंने एक उप़तादा मुक़ाम, सख़रा को साफ करके इस पर एक मस्जिद तामीर करने का हु्क्म दिया और दस दिन तक वहां क़याम के बाद मदीना की तरफ मराजेअत की।
हम्स पर रोमीयो का हमला
आरमीनिया और जज़ीरा के रोमामियों ने हर तरह की फ़ौजी इम्दाद देने का वायदा करके बादशाह हरकुल को हम्स पर हलमा करने के लिए उभारा। चुनानचे 17 हिजरी (638 ई0) का मौसम बहार शुरु होते ही हरकुल ने आरमीनिया और जज़ीरा वालों की कमुक के भरोसे अपने बेटे की मातहती में एक लश्कर शाम की तरफ़ रवाना कर दिया। जिन शहरों को मुसलमानों ने फतेह किया थि वह भी हरकुल के लश्कर के साथ हो गये और अरब को ईसाई क़बायल ने भी अपनी हिमायत को इन से वाबस्ता कर दिया। मिस्र से जो फ़ौज आई थी इस ने शुमाली फिलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस तरह मुसलमान हर तरफ़ से नरग़े में घिर गये मगर मुस्तइदी, होशियारी, जोशे हमीयत, हरब व जरब व ज़र्ब की फ़नकारी और तवक्कुल ने इन का साथ दिया।
जब रोमियों ने हम्स पर हमले का इरादा किया तो अबू उबैदा ने भी इधर-उधर से फ़ौजे जमा करके हम्स के बाहर सफ़ें जमा जमा दी। क़िनसरीन से ख़लीद बिन वलीद भी आ गये और इन दोनों ने हज़रत उमर को तमाम हालात से मुत्तेला किया। हज़रत उमर ने चारों तरफ क़ासिद दौड़ाये। ईराक़ के सिपासलार साद बिन अबि विक़ास को लिखा कि इस हुक्म के मौसूल होते है फ़ौरी तौर पर क़ाआका बिन उमर को जो कूफ़े में मुक़ीम है चार हज़ार की फ़ौज के साथ हम्स की तरफ रवाना कर दो। सहल बिन अदी रक़ा की तरफ़ बढ़ कर जज़ीरा वालों को हम्स की तरफ बढ़ने से रोके। अब्दुल्लाह बिन एतबान नसीबैन होते हुये हेरान औऱ रुहा की तरफ़ बढ़े और वलीद बिन अक़बा आगे बढ़ कर अरब के क़बाएल रबिया और तनूख़ की रोक थाम करें जो जज़ीरा में अबाद है। जंग के मौक़े पर आयाज़ बिन ग़नम को इन सब सरदारों का सरदार समझा जाये औऱ इन के हुक्म पर अमल किया जाये। जज़ीरा वालो को जब मालूम हुआ कि इनके इलाक़े में इस्लामी फ़ौजे फैल गयी हैं तो वह रोमियों से अलहदा होकर अपने शहरों को बचाने की फ़कर में वापस चले गये और इसी असना में अबुउबैदा ने रोमियों पर हमला करके उन्हें पसपा कर दिया। मौलवी अमीर अहमद रक़म तराजड है कि मुसलमानों ने दुश्मन को सख़्त नुक़सान पहुंचाया और हरकुल का बेटा कुछ फौज़ के साथ जान बचाकर भागने में कामयाब हो गया और शाम को दोबारा मुसलमानों ने मसख़्खर कर लिया। इस वक़्त हम्स में अबुउबैदा शाम के गवर्नर जनरल थे और उनके मातहत कनसरीन में ख़ालिद बिन वलीद, दमिश्क़ में यज़ीद बिन अबू सूफ़ियान, लदन में माविया, फ़िलिस्तीन में अलक़मा और मूसल में अब्दुल्लाह बिन क़ैस गर्वनरी के ओहदों पर मामूर थे।
क़िसारया को चूकि मिस्र की तरफ़ से बराबर इमदाद मिलती रहती थई इस वजह से वह अरसे तक रोमियों के क़ब्जे में रहा लेकिन जब हरकुल के बेटे फिलीस्तीन के भागने की ख़बर पहुंची तो अहले किसारिया ने भी हाथ पांव छोड़ दिये और जान माल की हिफ़ाजत की शर्त रखी पर मुसलमानों की इताअत कुबूल कर ली और फतूहात शाम की तकमील हो गयी आखिर शिकस्त खाकर जब रोमियों को बिल्कुल मायूसी हो गयी तो उन्होंने इसी पर क़नाअत कर ली कि जब मौक़ा मिले इस्लामी इलाक़ों पर धावा बोल दिया जाय। जब यह बस भी न चला तो उन्होंने अपने और अरबों क दरम्यान नाकाबिले अबूर हद फ़ासिल क़ायम करने के लिये अपनी बाकी मान्दा एशियाई मक़बूज़ात की सरहदों पर एक वसीय व अरीज़ इलाक़े को नेसत व नाबूद और वीरान कर दिया। इस बदक़िस्मत इलाके में जितने भी शहर और क़रिया थे सब ज़मीन के बराबर कर दिये गये और क़िलों को मिसमार कर दिया गया। वहां के लोग शुमाल की तरफ़ जा कर आबाद हो गये। लेकिन यह कोताह बीनी और नाआक़बत अन्देशी की तदबीर भी कारगर न हुई। आयाज़ बिन ग़नम ने जो शुमाली शाम की कमान पर मुतअय्यन थे, कोहतारस को अबूर करके सालेशिया और तरतूस पर कब्ज़ा कर लिया और बहरे असवद तक फतेह का परचम लहराते चले गये यहां तक कि आचाज़ के नाम से एशियाए कोचक के रोमी थरथराने लगे । इसी ज़माने मुसलमानों ने अपनी सलाहियतों से काम ले कर जहाजों का बेड़ा भी तैयार कर लिया और थोड़े ही दिनों में वह समन्दरों पर भी काबिज़ हो गये।
जिस वक़्त अयाज़ बिन ग़नम एशियाए कोचक के इलाकों में फ़तेह वह कामरानी का परचम लहरा रहे थे इन के बीच मातेहत अफ़सरों ने जिन्हें साद बिन अबीविक़ास ने हज़रत उमर के हुक्म से रक़्क़ा, नसीबैन, हरान और रोहा की तरफ़ रवाना किया था, जज़ीरा और आरमीना के अकसर इलाक़ों को सुलह से और बाज़ को जंग करके फ़तेह कर लिया। इस तरह अरज़े रम, रक़्का, नसीबैन, रोहा, दारा, सम्बेसात, सरोज, रास कैफा, अरजुल बैज़ा, मनीह रास ऐन, मुबाफ़ारेक़ैन, कफ़्र तूसा, तूर अबदीन, मारदीन, मूसल, ज़ोज़ान, अरज़न, बदलीस, ख़लात और मुलतिया वग़ैरा सारे शहर और क़रिये सन् 16 हिजरी तक फ़तेह कर लिये।
ईरान से मार्काआराईयों
यह तहरीर किया जा चुका है कि मसन्ना बिन हारसा शैबानी हज़रत अबुबकर से जंगी मदद लेने की ग़र्ज़ से इराक़ से मदायन आये थे कि हज़रत अबुबकर का इन्तेकाल हो गया उनकी वसीयत के मुताबिक़ उमर ख़लीफ़ा हो गये। तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होते ही उन्होंने अबुबकर की छेडी हुई नातमाम जंगु मुहिम को मुक़द्दम समझा और लोगों को इराक़ जाने के लिये उभारना शुरु किया यहां तक कि तीन दिन तक मुताविर मुसलमानों को तरग़ीब व तहरीस के ज़रिये आमादा करते रहे लेकिन किसी ने कोई जवाब न दिया। आख़िर कार जनाबे मुख़तार के वालिद अबुअबीदा बिन मसूल कसक़फी ने इराक़ की मुहिम सर करने का बेड़ा उठाया। चुनानचे हज़रत उमर ने मुसन्ना को आगे रवाना कर दिया और उनसे कहा तुम चलो हम कुमक भेज रहे हैं। ग़र्जं अबुअबीदा को चार हज़ार फ़ौज का सरदार मुक़र्रर करके उन्होंने बाद में रवाना कर दिया। साद बिन अबीद अन्सारी और सीलत बिन कैस अन्सारी भी उनके हमराह हो लिये और एक माह बाद अबुअबीदा हीरा के मुक़ाम पर मुसन्ना के पार पहुंच गये। शाह ईरान ने रुस्तम बिन फ़रख़ज़ाद को जो बड़ा मुदब्बिर और शुजा था एक कसीरुल तादाद फ़ौज के साथ मुसलमानों के मुक़ाबिले में भेजा जिसने अबुअबीदा बिन मसूद सक़फ़ी के वहां पहुंचने से पहले ही मुसलमानों के मफ़तूहा इलाक़ों को क़बज़े में कर लिया था। नरसी और जाबान उसके दो मातहत सरदार हीरा के क़रीब तक आ गये थे। चुनानचे जाबान ने नमाज़िक में और नरसी ने कसकर में डेरा डाल रखा था। अबु अबीदा बिन मसूद ने अपनी फौज़ को अरासता करके नमाज़िक़ में मुक़ीम जाबान के लश्कर पर चढ़ाई कर दी काफ़ी ख़ूरेजी के बाद ईरानियों को शिकस्त हुई। जाबान और उसके हज़ीमत ख़ुर्दा साथियों ने भाग कर कस्कर में नरसी के पनाह ली।
जाबान की शिकस्त का हाल सुन कर रुस्तम ने बीस हज़ार की फ़ौज के साथ अपने एक सरदार जालीनूस को कसकर की तरफ़ रवाना किया जहां नरसी पहले ही से तीस हज़ार का लश्कर लिये हुए ख़ेमा ज़न था। लेकिन जूलीनूस के वहां पहुंचने से पहले ही लश्करे इस्लाम ने नरसी की फ़ौज़ को कसकर के क़रीब सक़ातिया के मुक़ाम पर तहस नहस कर दिया और जब कसकर औऱ सक़ातिया ईरानियों से ख़ाली हो गया तो मुसलमानों ने उनके शहर और क़सबात को जहां को लोगों ने इस्लाम कुबूल करने या जज़ीया देने से इन्कार किया था, तबाह व बर्बाद और वीरान कर दिया। नीज़ उनकी औरतों और बच्चों को गिरफ़्तार कर लिया। अहले सवाद ने ज़जीया के एवज सुलह कर ली।
इस कामयाबी व कामरानी के बाद अबुअबीदा बिन मसूद सक़फी जालीनूस से मुक़ाबिले के लिये आगे बढ़े और मुक़ाम मुबसियासा पर जो रुसमा के क़रीब वाक़े है, मुडभेड हुई लेकिन पहले हमले में ही जालीनूस की फ़ौज अरबी तलवारों की ताब न लाकर भाग ख़ड़ी हुई और अबुअबीदा ने कसकर पर क़बज़ा कर लिया और वहां के लोगों पर जज़िया क़ायम करके हीरा की तरफ़ वापस आ गये।
जंगे क़स नातिफ़ (जसर)
जालीनूस शिकस्त ख़ाकर मय अपने हज़ीमत खुर्दा लश्कर के जब रुस्तम के पास मदायन पुहंच तो रुस्तम ग़म व गुस्से में आपे से बहर हो गयी। उसने तीस हज़ार फ़ौज औऱ तीन सौ हाथियों की कुमक दे कर बहमन जादू को जालीनूस के साथ हीरा की तरफञ रवाना किया औऱ बहमन जादू को हुक्म दिया इस मर्तबा अगर जालीनूस भागे तो उसकी गर्दन उड़ा देना।
बहमन जादू रास्ते के शहरों और क़स्बों से भी अरबों के ख़िलाफ़ लोगों को जमा करता हुआ क़स नातिफ़ में आकर ख़ेमा ज़न हो गया। अबुअबीदा बिन मसूद सक़फ़ी बहमन जादू की आमद की ख़बर सुन कर मरुहा में आ गये। दरमियान में चूंकि दरियाये फुरात हाएल था इसलिये जंग रुकी रही।
फिर फ़रीक़ीन की राये से फुरात पर पुल बनाया गया और जब वह तैयार हो गया तो बहमन जादू ने अबुअबीदा से कहला भेजा कि पुल पाकर करके तुम हमारी तरफ़ आओ या हमें अपनी तरपञ आने की इजाज़त दो। अबुउबैदा ख़ुद फ़ौज लेकर बहमन के लश्कर पर जा पड़े और मैदाने कारज़ार गर्म कर दिया। ईरानियों ने अपने लश्कर के हाथियों को आके रखा था लेहाज़ा वह हाथियों ही पर से मुसलमानों पर तीरों की बारिश करने लगे। मुसलमान सवारों ने हाथियों पर हमला करने का इरादा किया। लेकिन उनके घोड़ों ने चूंकि कभी हाथी देखा न था इसलिये वह भड़क कर मैदान से भागे। यह हाल देख कर घोड़ों के सवार उनकी पुश्त से फांद पड़े और अबुउबैदा की क़यादत में पैदल ही हाथियों पर तलवारें लेकर टूट पड़े। ईरानियों ने तीरों से उन्हें रोकना चाहा मगर जज़बये शहादत और दस्त ब दस्त जंग होने लगी। कुछ ही देर के बाद बहमन जादू ने जब अपनी फ़ौज को मुन्तशिर होते देखा तो उसने हाथियों को आगे बढ़ाने का हुक्म दिया। अबुउबैदा ने मुसलमानों से पुकार कर कहा कि हाथियों पर हमला करो और उनकी सूंड़े काट डालों। यह कहकर अबुउबैदा आगे बढ़े और एक हाथी की सूंड उन्होंने काट दी। इसके सवार ने उन पर नेज़ा का वार किया लेकिन उसे ख़ाली दे कर दूसरे वार उन्होंने उस हाथी के दोनों अगले पांव उड़ा दिये। हाथी गिरा औऱ उसके सवार को अबुउबैदा ने बड़े आराम से ज़मीन पर हमेशा के लिये सुला दिया। अबुउबैदा की यह दिलेरी औऱ तेज़ी देखकर दीगर मुसलमानों ने भई वही रविश इख़्तियार की औऱ देखते ही देखते कई हाथी अपनी सूंड़े और पांव कटा कर ढे़र हो गये। अबुउबैदा एक हाथी के सामने पड़ गये उसने उनको पकड़ने का क़सद किया उन्होंने अपनी जान बचा कर उसकी सूंड पर वार किया। सूंड तोकट गयी लेकिन उसने आगे बढ़कर अबुउबैदा को अपने पैरों तले् रौंद डाला। अबुउबैदा की शहादत के बाद पै दर पै सात आदमियों ने इस्लामी परचम संभाला औऱ लड़ लड़ कर शहीद हो गये आठवें मुसन्ना थे जिन्होंने लवाए इस्लाम को लेकर दो बारा एक पुरजोश लड़ाई लका क़सद किया लेकिन इस्लामी फ़ौजियों की सफ़ें ग़ैर मुर्त्तब हो गयीं थी और यके बा दीगरे सात अलमब्रदारों की शहादत से लोग इधर उधर मुन्तशिर होने लगे थे। अब्दुल्लाह बिन मुरसिद ने यह हाल देख कर पुल के इस ख़्याल से तोड डाला कि मुसलमानों को भागने का रास्ता न मिलेगा तो वह ख़्वाह मख़्वाह जम कर लड़ेंगे। बहमन जादू ने अपने हमलों में और शिद्दत पैदा कर दी। नतीजा यह हुआ कि जो लोग मैदान में न ठहर सके वह फुरात में डूब गये और जो लड़ते रहे वह मारे गये। मुसन्ना, अरवा बिन के पास हीरा आया था और मुल्की जोश व ग़ैरत की वजह से मुसलमानों के साथ इस मारके में शरीक हो गया था, मारा गया और मुसन्ना बुरी तरह ज़ख़्मीं हुए। इस अर्से में पुल दोबारा दुरुस्त कर लिया गया था। चुनानचे मुसन्ना मय अपने बक़िया साथियों के साथ दुश्मनों से लड़ते हुए फुरात अबूर कर गये। इस जंग के आख़री शहीद सलीत बिन क़ैस थे जो पुल के पास लड़ते हुए मारे गये।
इस जंग में इस्लामी लश्कर 6 हज़ार आदमियों पर मुश्तमिल था। चार हज़ार लड़ने और फुरात में डूबने की वजह से ज़ाया हुए, दो हज़ार इधर उधर भाग गये औऱ तीन हज़ार बाकी बये। ईरानियों के छः हज़ार आदमीं काम आये। यह वाक़िया माहे शबान सन् 13 हिजरी का है।
जंगे बवीब
जब हज़रत उमर को अबुउबैदा बिन मसूद सक़फ़ी और दीगर मुसलमानों की शहादत व हज़ीमत की हाल मालूम हुआ तो उन्होंने मुसन्ना की मदद के लिये मुसलमानों से अपील की। सबसे पहले क़बीला बहीला ने अपनी आमदगी ज़ाहिर की मगर यह कहा कि शाम के आलावा हम और किसी तरफ़ नहीं जायेंगे। हज़रत उमर ने माले ग़नीमत के ख़ुम्स का चौथाई हिस्सा देने का वादा करके उन्हें इराक़ जाने पर राज़ी कर लिया औऱ क़बीला बहीला को जरीन बिन अब्दुल्लाह बिजली की क़यादत में मुसन्ना की इमदाद पर रवाना कर दिया। इधर मुसमा ने भी अफने जाती वसाएल से आस पास के अरब क़बिलों को खुतूत कर बहुत से आदमीं जमा कर लिये। अनस बिन हिलाल नमरी भा नसाराये बनी नम्र की एक जमीअते आज़म ले कर आ गया और कहा हम हम ईरानियों से लड़ेंगे।
रुस्तम और फ़ीरज़ान को जब यह ख़बर पहुंची तो दोनों ने मुत्ताहिदा तौर पर महरान नामी एक सरदार को भारी फ़ौज दे कर मुसलमानों के मुक़ाबिले पर रवाना किया। मुसलमानों ने कूफ़ा के क़रीब “बवीब” के मुक़ाम पर डेरा डाला और दूसरी तरफ़ दरिया के उस पार ईरानी लश्कर ख़ेमा ज़न हुआ। महरान ने मुसन्ना कसे कहला दिया कि दरिया अबूर करके तुम आओगे या हम आयें? मुसन्ना ने कहा कि इस मर्तबा तुम ही आ जाओ। मरनान ने अपनी फौज़ के साथ दरिया अबूर किया और मुसलमानों के मुक़ाबिले पर आकर डट गया और उसने अपने लश्कर की तीन सफ़ों को जिनके साथ हाथी भी थे, आगे बढ़ाया। इधर से मुसन्ना पहले ही हमले में ईरानियों के कलब लश्कर तक पहुंच गये। उनके साथ अनस बिन हिलाल भी अपनी जमीयत के साथ मारते काटते आगे बढ़े। ईरानी भई जान छोड़कर लड़ते रहे यहां तक कि उनका सरदार महरान मुसन्ना के हाथ से मारा गया। उसका क़त्ल होना था कि ईरानियों के पांव मैदान से उख़ड़ गये और भगदड़ मच गयी। मुसलमानों ने घोड़े दौड़ा दौड़ा कर उन्हें कत्ल करना शुरु किया और इतने ईरानी मारे कि मुद्दतों बाद भी वहां हड्डियों के ढ़ेर नज़र आते थे। इब्ने ख़लदून और साहबे जैबुल सैर की रवायतों के मुताबिक़ तक़रीबन एक लाख आदमी मारे गये और मुसलमानों ने साबात तक ईरानियों का पीछा न छोड़ा और क़सबात व देहात को ताख़त व ताराज कर डाला नीज़ वहां के बाशिन्दों को गिरफ़्तार कर लिया।
इस लड़ाई से सवाद से दजला तक मुसलमानों का तसल्लुत हो गया और अहले फ़ारस ने मजबूरन दजला पार का इलाक़ा उनके हक़ में छोड़ दिया। इस के बाद मुसन्ना ने हीरा की तरफञ मराजेअत की। यह लड़ाई माहे रमज़ान सन् 13 हिजरी में हुई।
जंगे क़ादसिया
अमाएदीन व अकाबरीन ईरान ने मुसलमानों की मुसलसल फ़तूहात पर तशवीश का इज़हार करते हुए उसे बाहमी नाइत्तेफ़ाक़ी का समरा क़रार दिया और कुछ बुज़ुर्गों ने रुस्तम व फ़िरोज़ान को जो सलतनत के दस्त व बाज़ू थे और आपस में एक दूसरे से अख़ेतेलाफ़ रखते थे, इत्तेफाक़ व इत्तेहाद से काम करने पर आमादा कर लिया। इधर शहंशाह यज़देजुर्द ने अपने मुल्क से तमाम मरज़बानों को जमा कर लिया। इधर शहंशाह यज़देजुर्द ने अपने मुल्क से तमाम मरज़बानों को जमा करके उनसे मुल्क और रेआया की हिफ़ाज़त के बारे में सख़्त ताकीद की और बड़े बडे आज़मूदा कार सिपेहसालारों और चरनैलों को कसीरुल तादाद फौज़ों के साथ हीरा, अबला औऱ अम्बार की सरहदों पर तैनात कर दिया। मुसन्ना ने इन वाक़ियात की ख़बर दरबारें ख़िलाफ़त में दी। अभी वहां से कोई जवाब न आया था कि अहले सवाद ने अहद शिकनी करके बग़ावत कर दी। उनकी सरकूबी के लिये मुसन्ना ने ख़रुज करके ज़ीक़ार में क़याम किया और इस्लामी फ़ौज़ें तफ़ में ख़ेमा ज़न रहीं। यहां तक कि हज़रत उमर का हुक्म मौसूल हुआ कि तमाम इस्लामी अफ़वाज सिमट कर सरहदों पर चलीं जायें, अनक़रीब कुमक भी रवाना की जा रही हैं। इस हुक्म के बाद मुसन्ना फ़ौज़ों को ले कर बसरा के क़रीब मुक़ामे असी में मुक़ीम हुए।
उधर हज़रत उमर ने अपने उम्माल को एक गश्ती मुरासिला भेज कर फ़ौरी तौर पर प्यादो, सवारा और सामाने हर्ब व ज़रब तलब किया। चुनानचे जो लोग इराक़ के क़रीब थे वह वहीं से सीधे मुसन्ना के पास पहुंचे और जो इतराफ़ व जवानिब से आकर मदीने में जमा हो गये थे उनके साथ जरनैल बन कर खु़द हज़रत उमर ने इराक़ की तरफ़ जाना चाहा मगर हज़रत अली अलै0 और बाज़ दीगर साहाब ने मना किया और कहा कि असहाबे पैग़म्बर स0 में से किसी सहाबी को लश्कर का सिपह सालार बनाकर भेज दीजिये, अगर वह नाकाम रहा तो दूसरे को भेज दीजियेगा। इस तरह दुश्मनों पर ज़्यादा असर पड़ेगा। चुनानचे हज़रत उमर ने साद बिन अबी विक़ास को जो हवाज़िन में सदाक़त की वसूलियाबी पर मुक़र्रर थे, तलब करके जंगे इराक़ पर मामूर किया और चार हज़ार की सिपाह के साथ इराक़ की सिम्त रवाना कर दिया। फिर साद के बाद दो हज़ार यमानी और दो हज़ार नजदी जंगजू रवाना किये।
जब साद बिन अबी विक़ास “बजूद” के मुक़ाम पर पहुंचे तो उन्हें मालूम हुआ कि मुसन्ना बसबब उन ज़ख़्मों के कि जो उनके जिस्म पर मारका जसर में लगे थे, बशीर बिन ख़सासिया को अपना क़ायम मुक़ाम मुक़र्रर करके इन्तेक़ाल कर गये। उनके पास उस वक़्त साठ हज़ार आदमीं थे।
साद आगे बढ़े तो तीन हज़ार आदमी बनी असद के उनकी फ़ौज में शामिल हो गये। कूफ़े के क़रीब “सैराफ़” के मुक़ाम पर साद का लश्कर जब पहुंचा तो अशअस बिन क़ैस कुन्दी अपने क़बीले के दो हज़ार आदमियों के साथ उनसे मिल गया।
सैराफ़ में अक़ामत के दौरान हज़रत उमर ने तलीहा बिन ख़वैलद असदी, अमरु बिन माद चकरब, आसिम बिन उमर शरजील बिन समत, औऱ ज़ात बिन हयान में से हर एक को काफ़ी-काफ़ी सिपह देकर एक दूसरे के पीछे साद की मदद के लिये रवाना किया यहां तक कि साद के पास तीस हज़ार और ब-रवायते छत्तीस हज़ार का लश्कर जमा हो गया। यहां मुसन्ना के भाई मुक़नी भी साद से आकर मिले और मुसन्ना ने बावक़्ते इन्तेक़ाल जो ज़रुरी हिदायतें दी थीं उन्होंने साद के गोशगुज़ार कीं। इसी सैराफ़ में क़याम के दौरान साद ने मुसन्ना की बेवा सलमा से जो इन्तेहाई हसीन व जमील थीं, निकाह कर लिया। इतने में साद को हज़रत उमर का हुक्म मिला कि आगे बढ़ कर क़ादसिया के मुक़ाम पर मोर्चा जमा दो।
साद ने क़ादसिया में दो माह क़याम किया मगर दुश्मनों में से किसी लड़ने वाले की सूरत तक दिखाई न दी। इश क़याम के दौरान जब रसद व ग़ल्ला की ज़रुरत होती तो लश्करी अम्बार और कसकर के दरमियान मवाज़ेआत पर धावा मारते और अपनी ज़रुरियात की चीज़ें वहां से लूट लाते थे।
ईरान के शहंशाह यज़दुजर्द को यह कैफ़ियत मालूम हुई तो उसने रुस्तम को मुसलमानों के मुक़ाबिला के लिये मामूर किया। चुनानचे उसने एक अज़ीम लश्कर के साथ साबात के मुक़ाम पर डेरा डाल दिया। साद बिन अबीविक़ास ने इस अमर की इत्तेला हज़रत उमर को दी। वहां से जवाब आया कि ख़ुदा कि ज़ात पर भरोसा रखो और चन्द ऐसे आदमियों को क़बल जंग शाह फारस के पास दावते इस्लाम के लिये भेजो जो बहस व मुबाहिसा का शऊर व सीलक़ा रखते हो।
साद ने चौदा बासलाहियत मुसलमानों को जिनमें नोमान बिन मक़रुन, जरीर बिन अब्दुल्लाह बिजली और तलीहा बिन ख़्वैलद असदी भी शामिल थे, सफ़ीर की हैसियत ये यज़दजुर्द के पास इस्लाम की दावत देने को रवाना कर दिया। जब यह लोग एवाने केसरा में दाख़िल हुए तो उस वक़्त यज़दजुर्द चांदी के सतूनों पर बने हुए एक सोने के तख़्त पर जो हीरे जवाहारात से मुरस्सा था, बैठा हुआ था और मख़सूसीन व मुलाज़मीन ज़़रक व बरक़ और जरीं लिबासेों में मबलूस उसके इर्द गिर्द जमा थे।
बेचारे सादगी पसन्द औऱ सीधे साधे मुसलमान धारीदार यमनी कपड़े पहने हुए उसकी ख़िदमत में हाज़िर हुए। उसने उन पर हेक़ारत की एक नज़र डाली औऱ पूछा क्यों आये हो? सफ़ीरों के सरदार-नोमान बिन मुक़रिन ने कहा, हम आपको इस्लाम की तरफ़ दावत देने आये हैं। हमारा उसूल है कि हम दुश्मन से लड़ने से पहले तीन चीज़ें उसके सामने पेश करते हैं। कुबूले इस्लाम, जज़ीया, या जंग। बेहतर है कि आप इस्लाम कुबूल फ़रमां लें और तमाम झगड़ों से निजात हासिल कर लें।
यज़दजुर्द को मुसलमानों की इस जुराअत व हिम्मत पर सख़्त तअज्जुब हुआ। और वह बोला कि पहले तो तुम से ज़्यादा हक़ीर और पस्त कोई क़ौम न थी और आज यह दावे हैं। क़ैस बिन ज़रारा ने कहा, आपकी बातें दुरुस्त, मगर खुदा ने हम पर हस्ब व नस्ब में हमसे मुम्ताज़ पैग़म्बर भेजा और जो दीन हमें दिया वह सच्चा और निजात दिलाने वाला है। वही दीन हम आपके सामने पेश करते हैं। अब इसे कुबूल कीजिये वरना जज़ीया दीजिये। अगर इनमें से कोई बात क़ाबिले कुबूल नहीं है तो तलवार के फ़ैसले पर तैयार हो जाइये। यह सुन कर यजदुजर्द सख़्त नाराज़ व बरहम हुआ और मिट्टी का एक टोकरा आसिम बन अमरु के सर पर रखवा कर उन्हें वापस कर दिया। उन्होंने साद के पास वापस आकर कहा, फतेह मुबारक हो, दुश्मन ने ख़ुद ही अपनी ज़मीन हमें दे दी है।
इस वाक़िये के बाद भी रुस्तम साबात में पड़ा रहा और लश्करे इस्लाम ने जिसकी तादाद अब तस हज़ार से ऊपर हो चुकी थी कादसियचा के नवाह में लूट खसोट मचा दी। वहां की रेआया ने दरबारे ईरान में जब फ़रयाद की तो रुस्तम को आगे बढ़ने का हुक्म हुआ। चुनानचे उसने एक लाख बीस हज़ार की फ़ौज और 33 हाथियों के साथ साबात से चब कर हीरा में पड़ाव ड़ाला और वहां से कैच करके दूसरे दिन क़ादसिया आ गया। वहां उसने अपना एक क़ासिद भेज कर मुसलमानों से दरियाफ़्त किया कि अब क्या चाहते हो? जवाब मिला, इस्लाम, जज़ीया या तलवार जैसा कि यज़दुजर्द से कहा गया था।
इस्लाम औऱ जज़ीया पर रुस्तम राज़ी न हुआ इसलिये उसके सामने जंग के अलावा कोई रास्ता न था। चुनानचे उसने जंग का एलान कर दिया। इस्लामी अफ़वाज ने भी अपनी साफ़ बन्दी की और माहे मोहर्रम सन् 14 हिजरी बरोज़ड दो शन्बा ज़ोहर के वक़्त लड़ाई शुरु हो गयी। हंगामे कारज़ार दूसरे या तीसरे दिन हज़रत उमर की हिदायत पर हाशिम बिन अतबा भी शाम से दस हज़ार का लश्कर लिये हुए आ धमके. इस मौक़े पर साद बिन अबिविकास अरकुन्निसा के मर्ज़ में मुबतिला हो गये थे लेहाज़ा उन्होंने ख़ालिद बिन अरफ़ता को अपनी जगह सिपेह सालार बना कर मुक़ाबिले के लिये फेज दिया और ख़ुद एक महल पर बैठ कर लड़ाई देखने लगे। “एक पर एक” की जंग में मुसलमान ईरानियों पर ग़ालिब रहे। उसके बाद जंगे मग़लूबा शुरु हुआ। मुसलमानों के घोड़े भड़के सवारों ने भी अपने घोड़ों को ख़ैरबाद कहा और तलवारें ले लेकर पैदल ही दुश्मन की सफ़ में घुस गये और मारते काटते रुस्तम के तख़्त तक पहुंच गये। उसने जब यह हाल देखा तो तख़्त छोड़ कर घोड़े पर बैठा और काफ़ी देर तक लड़ता रहा। आख़िर कार ज़ख्मों की ताब न लाकर भागा और दोपहर के वक़्त दरिया में कुद पड़ा। हिलाल नामी एक मुसलमान सिपाही उसका काम तमाम करके उसके तख़्त पर चढ गया। और पु्कार कर कहा कि हमने रुस्तम का ख़ातमा कर दिया है। यु सुनना था कि ईरानी भाग निकले। मुसलमानों ने दूर तक उनका तअक्कुब करके हज़ोरों को फ़ना के घाट उतार दिया।
सत्तर हज़ार दीनार का रुस्तम का कमर बन्द औऱ एक लाख दीनार की मालियत का उसका ताज हिलाल को दिया गया। औऱ दरफ़िश कावियानी (परचम) जो ज़रार बिन ख़ताब ने लूटा था, उससे तीस हज़ार दीनार का ख़रीदकर माले ग़नीमत में शामिल कर लिया गया। यह परचम जवाहरात से मुरस्सा था और बकौल इब्ने ख़लदून उसकी असल क़ीमत तक़रीबन दस लाख दीनार थी। साद ने माले ग़नीमत का ख़ुम्स दरबारे ख़िलाफ़त में रवाना किया जिसमें बे इन्तेहा नक़दी, जवाहारात, सोने चान्दी के बरतन, ज़रबफ़त के लिबास, घोड़े ख़च्चर औऱ हथियार शामिल थे। इस लड़ाई में साढ़े आठ हज़ार मुसलमान और एक लाख के करीब ईरानी मारे गये जिसें रुस्तम और जालीनूस दोनों शामिल थे। मौलवी अमीर अहमद का कहना है कि यह लड़ाई मार्च सन् 636 में हुई।
फ़तेह मदायन
क़ादसिया की जंग से “कलदिया” और “ईराक़ अरब’ की क़िस्मतों का अमली तौर पर फ़ैसला हो गया। कलदिया (सवाद) पर बग़ैर किसी मज़ाहेमत व मुख़ालिफ़त के फिर मुसलमानों का क़बज़ा हो गया। जंगे क़ादसिया के दो महीने बाद तक हज़रत उमर के हुक्म से साद वहीं मुक़ीम रहे और मुज़ाफ़ाते हीरा के क़रयों की तरफ़ रवाना हुए जहंक क़ादसिया से भाग कर ईरानियों ने क़याम किया था और जहां उनके नामी गिरमीं सरदार फ़ीरज़ान, रहमज़ान और महरान अपनी फ़ौजें लिये पड़े थे। बाबुल पहुंचकर ईरानियों से जंग हुई। ईरानियों ने शिकस्त खाई। मेहरान मदायन की तरफ, हरमिज़ान एहवाज़ की तरफ़ और फीरज़ान नेहादन्द की तरफ़ अपनी अपनी फ़ौजें लेकर भाग खड़े हुए।
इसके बाद साद ने कूसी और साबात फ़तेह करके मदायन पर चढ़ाई का इरादा किया और अपनी तमाम फौजें बहराशेर में मुजतमा की। मोअर्रेख़ीन ने इस फ़ौज की तादाद साठ हज़ार बताई है।बहराशेर के बारे में कहा जाता है कि यहां एक शेर पला हुआ था। जो बादशाहे ईरान से बेहद मानूस था। जब इस्लामी फौजें यहां पहुंची तो वह पड़प कर निकला मगर हाशिब बिन अतबा ने एक ही वार में इसका काम तमाम कर दिया। बहरहाल साद का लश्कर उस मुक़ाम पर दो माह दस दिन तक मुक़ीम रहा। इसका सबब यह था कि बहरा शेर और मदायन के दरमियान दरियाये दजला हाएल था और ईरानियों ने मेहरान के साथ मदायन में दाख़िले के बाद इसके पुलों को तोड़ दिया था। आख़िरकार एक दिन नमाज़ सुबह के बाद मुसलमानों ने दजला के पानी में अपने घोड़े डाल दिये और हाथ पैर मारते हुए उसे पार कर गये। ईरानी बे सर व सामानी की हालत में मदायन छोड़े कर हलवान की तरफ़ भागे। यज़दजुर्द ने माल व मता समैत अपने ख़ानदान को पहले ही हलवान की तरफ़ मुन्तक़िल कर दिया था, उसने जब मुसलमानों के आने की ख़बर सुनी तो ख़ुद भी भागकर हलवान में मुक़ीम हो हया। आख़िरकार अहले शहर ने जज़ीया देना कुबूल करके अपने को बचाया। उसके बाद साद क़सरे अबीज़ में (जहां शाही ख़ानदान के अफ़राद रहा करते थे) दाख़िल हुए और सरबराह की हैसियत से इसी शाही महल में क़याम किया। जाबजां से माले ग़नीमत इकट्ठा करके एक जगह जमा किया गया। उसमें बड़ी बड़ी नादिर व अजाएब रोज़गार चीज़ें थीं। एक सोने का घोड़ा था जिस पर चांदी का ज़ीन कसा हुआ था। उसकी पेशानी पर याकूत व ज़मर्रुद जड़े हुए थे। उसका सवार चांदी का था मगर वह भी हीरे जवाहेरात से लदा हुआ था। एक चांदी की ऊँटनी थी जिसकी पुश्त पर सोने का कजावा था और उसकी मेहार में बेश क़ीमत जवाहेरात पिरोये हुए थे। उसका सवार भी सोने का था और सर से पांव तक जवाहेरात से मुरस्सा था। मोअर्रिख़ अबुल फ़िदा का बयान है कि सोने चांदी और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के साज़ों सामान की क़ीमत का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल था। तबरी वग़ैरा ने लिखा है कि यह माल तीन अरब दीनार का था। खुम्स निकालने बाद साठ हज़ार फ़ौजियों में तक़सीम हुआ और हर एक के हिस्से में बाराह हज़ार दीनार आये। ख़ुम्स जो दरबारे ख़लिफ़त में भेजा गया उसमें एक फ़र्श भी था जिसका नाम थआ बहारिस्तान और जो 60x60 गज़ में अनवा व अक़साम के जवाहारात से बना हुआ था। शाहाने फ़ारस ख़ज़ां के मौसम में उससे मौसमे बहार का काम लेते थे और उसे बिछाकर उस पर शराब पीते थे। खुम्स का माल नौ सौ ऊँटों पर लाद कर बशीर बिन ख़सासिया के ज़रिये मदीना रवाना किया गया था।
तबरी वग़ैरा का कहना है कि मदायन की लूट के मौक़े पर बाज़ सिपाहियों को देखा गया कि वह सोने और चांदी में तमीज़ न कर पाते थे और बाज़ार में आवाज़ लगाते थए कि कोई शख़्स हमारे ज़र्द ताल को (जो सोने का होता था) सफ़ेद थाल जो (चांदी) से बदल ले।
उसके बाद हज़रत उमर ने साद बिन अबीविकास को मदायन की मक़बूज़ात का मुतावल्ली मुक़र्रर किया और हुज़ैफ़ा यमानी मक़बूज़ाते साहिले फ़ुरात के ख़िराज पर नीज़ उस्मान बिन हनीफ दजला के साहिल पर ख़िराज की वसूलियाबी पर मामूर किये गये।
साद बिन अबीविक़ास ने जलूला, तकरीत और मूसल के फ़तेह होने नीज कूफ़ा के बससाये जाने तक मदायन में क़याम किया। फ़तेह मदायन से दरियाये दजला का तमाम मग़रिबी इलाका मुसलमानों के क़बजे व तसल्लुत में आ गया।
जनाबे शहर बानों का वाक़िया
बाज़ मोअर्रेख़ीन मसलन वाक़दी वग़ैरा ने फ़तेह मदायन के असीरों में हज़रत शहर बानों बिन्ते यज़दोजुर्द मादरे इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलै0 का दरबारे ख़िलाफ़त में आना भी तहरीर किया है जो मेरे नज़दीक ग़लत है। क्योंकि जिन मोअर्रेख़ीन ने फ़तेह मदायन के मौक़े पर शहर बानों का आना मरकूम किया है उन्होंने यह हिकायत भी लिखी कि “जब हज़रत शहर बानों उमर के सामने पेश की गयीं तो आपने हुक्म दिया कि इस के तमाम ज़ेवरात उतार लो। चुनानचे एक शख़्स जब ज़ेवरात उतारने के लिये आगे बढ़ा तो जनाबे शहर बानों ने उसके मुंह पर एक ऐसा घूंसा मारा कि वह औंधे मुंह ज़मीन पर उलट गया।” उमर ने ग़बनाक़ हो कर कहा कि इस लड़की से इस घूंसे का क़ेसास लिया जाये लेकिन हज़रत अली अलै0 ने फ़रमाया कि उमर क्या तुझे मालूम नहीं कि रसूल उल्लाह स0 ने तीन शख़्सों पर रहम करने को कहा हैं उमर ने पूछा किस पर? फ़रमाया किसी क़ौम के इज़्ज़तदार पर जो ज़लील हो गया हो। दूसरे किसी क़ौम के अमरी पर जो फ़क़ीर हो गया हो और तीसरे उस आलिम पर जिससे लोग मसख़रा पर करतो हों। यह लड़की अपनी क़ौम में सबसे ज़्यादा इज़्ज़तदार औऱ अमीर है जो इस वक़्त ज़लील व फ़क़ीर की हैसियत से तेरे रुबरु खड़ी है। यक़ीनन क़ाबिले रहम है। हज़रत उमर ने माफ़ कर दिया और पूछा कि इस दुख़्तर को किसे दूं? उस वक़्त देखा जनाबे शहर बानों दुज़दीदा निगाहों से हज़रत इमाम हुसैन अलै0 की तरफ़ देख रही हैं। यह देख हज़रत उमर ने कहा कि इसने तो अपना शौहर ख़ुद ही पसन्द कर लिया। चुनानचे उन्होंने शहर बानों को मय ज़ेवरात के इमाम हुसैन अलै0 के नज़र कर दी।“
यह मज़कूरा हिकायत मोअर्रेख़ीन के ज़हनी एख़्तेरा का नतीजा मालूम होती हैं क्योंकि यड़दजुर्द रबीउल सन् 11 हिजरी (सन् 632) में तख़्त नशीन हुआ। उस वक़्त उम्र अंग्रेज़ मोअर्रेख़ीन के बयान के मुताबिक़ 15 साल की और अरब मोअर्रेखीन के मुताबिक 21 साल की थीं। मदायन बइत्तेफाक़े मोअर्रेख़ीन सन् 16 हिजरी यानी सन् 636 में फ़तेह हुआ। उस वक़्त यज़दजुर्द की उम्र 20 या 26 सा से ज़्यादा नहीं हो सकती। अगर जनाबे शहर बानों को यज़दजुर्द की पहली औलाद मान लें यह भी फ़र्ज़ कर लें कि वह यज़दजुर्द की 18 या 19 बरस की उम्र में पैदा हुई तो फ़तेह मदायन के मौक़े पर उनकी उम्र 7 या 8 बरस से ज़्यादा नहीं हो सकती। इमाम हुसैन अलै, की विलादत बिलइत्तेफाक़ मोअर्रेख़ीन शाबान सन् 4 हिजरी में वाक़े हुई। इस हिसाब से फ़तहे मदायन के वक़्त आप की उम्र पौने बाराह बरस की थी। फिर इश रिवायत के मुताबिक़ जनाबे शहर बानों ऐसी थीं कि उनके एक घूंसे से एक मर्द उलट गया तो उनका ग्यारह बाहर साल के मच्चो को अपनी शौहरी के लिये के पसन्द करना क्योंकर क़रीन क़यास हो सकता है। औऱ अगर वह सात या आठ बरस की थीं तो एक नाबालिग और कमसिन लड़की से हज़रत उमर का क़ेसास लेना चे मानी दारद? लेहाज़ा ये रिवायत ग़लत है और दुरुस्त यह है कि हज़रत शहर बानों सन् 36 हिजरी या सन् 37 हिजरी में हज़रत अली अलै0 के अहदे ख़िलाफ़त में खुरासान से लाई गयीं थी।
जंगे जलूला
मदायन की शिकस्त के बाद ईरानियों ने जलूला में जंग की तैयारियां की और आज़र बाइजान, बाब और जबाल से फ़ौजी इमदाद हासिल करके एक बड़ा लश्कर जमा किया जिसका सरदार मेहरान राज़ी मुक़र्रर हुआ। शहर के चारों तरफ़ ख़ंदख़ें तैयार की गयी और रास्तों व गुज़रगाहों पर गोख़रु नुमा लोहे की कीलें बिछा दी गई। साद बिन अबीविक़ास ने ख़लीफ़ा को सूरते हाल मे सुत्तेला किया। जवाब आया कि हाशिम बिन अतबा को बारह हज़ार की जमीयत के साथ मुक़ाबिले पर रवाना करो औऱ मुक़द्दमुतल जैश पर क़का़ बिन अम्र को अफ़सर मुक़र्रर करो और बाद फ़तेह क़ाक़ा को सवाद व जबाल के दरमियानी इलाकों पर वाली बना दो।
हाशिम बिन अतबा ने अस्सी रोज़ तक जलूला का मुहासिरा जारी रखा। इस मुहासिरे के दौरान ईरानी वक़तन फ़वक़त निकल कर मुक़ाबिला करते रहे। आख़िरी लड़ाई इन्तेहाई सख़्त थी क्योंकि उस रोज़ ऐसी आंधियाँ चलीं कि बिल्कुल अंधेरा हो गया। अहले फ़ारस मजबूर होकर पीछे हटे लेकिन गर्दो गुब्बार की वजह से कुछ सुझाई न देता था। हज़ारों ख़ंदक़ में गिर गिर कर मर गये। ईरानियों ने जब यह हाल देखा तो उन्होंने खंदक़ पाट कर रास्ता बना लिया और अपने बचाव की तदबीर को ख़ुद ही ग़ैर मुस्तहकम कर दिया क्योंकि मुसलमानों ने इसी रास्ते से उन पर हमला कर दिया। यह हमला ऐसी सख़्त था कि ईरानियों के पांव उखड़ गये और वह उस तरफ़ भागने लगे जिस तरफ़ उन्होंने रास्तों में गोख़री नुमा कीलें बिछाई थीँ। नतीजा चह हुआ कि घोड़े ज़ख़्मी हो गये और वह प्यादा हो गये। मुसलमानों ने उन्हें गोख़रुओं पर दौड़ा दौड़ा कर मारना शुरु किया। एक लाख ईरानी मारे गये। यज़दजुर्द हलवान से रै की तरफ़ भाग खड़ा हुआ और क़ाक़ा ने हलवान पर क़बज़ा कर लिया औऱ करोड़ों का माले ग़नीमत हाथ आया।
फ़तेह तिकरीत व मूसल वग़ैरा
इस जंग के बाद तमाम अजम की आंखे खुल गयी और हर सूबे न अलग अलग अरबों के मुक़ाबिले में जंग की तैयारियां शुरु कर दें। चुनानचे सबसे पहले अहले जज़ीरा ने जिनकी सरहदें इराक़ व अरब से मुलहिक़ थीं, सर उठाया। साद ने अपने मातहत अफ़सरों की सरकिरदगी में फ़ौजें रवाना कीं। उन्होंने अबदुल्लाह बिन मोहतम को तक़रीत और मूसल पर, ज़रार बिन ख़त्ताब को मासिन्दान पर और उमर बिन मालिक को हीत व क़रकीसिया पर मुसल्लत कर दिया और उन लोगों ने यह तमाम इलाक़े फ़तेह कर लिये। उसके बाद सन् 17 हिजरी में अहले जज़ीरा ने रोमियों को हम्स फ़तेह करने की तरग़ीब देकर बुलाया तो मुसलमानों ने जज़ीरा व आमीनिया के बहुत से इलाक़े फ़तेह कर लिये।
फ़ारस पर लश्करकशी
हज़रत अबुबकर के ज़माने में अला हज़रमीं बहरैन के आमिल थे। हज़रत उमर ने उन्हें माजूल करके क़दामा बिन मज़ऊन को मामूर कर दिया था मगर सन् 15 हिजरी में अला को बहाल कर दिया। अला हर मामले में साद की तरफ़ से अपने दिल में हसद रखता था। चुनानचे क़ादसिया की जंग में साद जब कामयाब हुए तो अला को सख़्त रश्क पैदा हुआ और उसने हज़रत उमर की इजाज़त के बग़ैर अपनी फ़ौज़ें अपने मातहत अफ़सरों के जरिये समन्दर की राह से बिलादे फ़ारस में उतार दें। असतख़र के क़रीब ताऊस के मुक़ाम पर जंग हुई। अला के दो सरदार “जारुद” और “सवार” मारे गये और सख़्त फ़ौजी नुक़सान हुआ। हज़रत उमर को अला की इस हरकत का पता चला तो वह सख़्त बरहम हुए और अतबा बिन ग़रवान को जो सन् 14 हिजरी “फ़तेह अबल्ला” के वक़्त “ख़रीबा” में (जहां बाद में बसरा आबाद किया गया) मुक़ीम था, लिखा कि फ़ौरन एक लश्करे जर्रार मुसलमानों को बचाने के लिये फ़ारस की तरफ़ फेज दो, और अला को यह तहदीद हुक्म दिया कि तुम बहरैन से अपनी सारी फ़ौज ले कर सादबिन अबीविक़ास के पास चले जाओ। अथबा ने अबु सबरा बिन अबी रहम के मातहत बाराह हज़ार फ़ौज फ़ारस की तरफ रवाना कर दी। अहवाज़ क़रीब ईरानियों से जंग हुई। ईरानियों ने शिकस्त खाई। चूंकि आगे बढ़ने का हुक्म न था इसलिये मुसलमानों को रेहाई दिलाकर बसरा की तरफ़ मराजियत की।
फ़तहे अहवाज़ शोसतर वगै़रा
ईरानियों का सरदार हरमिज़ान क़ादसिया से भाग कर अहवाज़ चला आया था और उसने तसतर (शोस्तर) को अपना दारुल हुकूमत बना लिया था। चूंकि उसकी सरहद बसरा से मिली हुई थी औऱ बग़ैर उसको फ़तेह किये बसरा में अमन का क़याम मुम्किन नहीं था इसलिये साद बिन अबीविकास ने कूफ़े और बसरा से फौजें भेज कर अहवाज़ व शोस्तर पर चढ़ाई की। इस फ़ौज ने उन इलाकों को फ़तेह करके उन पर अपना तसल्लुत क़ायम कर लिया। हरमिज़ान ने इस शर्त पर अपने को हवाले कर दिया कि उसे दरबारे ख़िलाफ़त में भेज दिया जाये और हज़रत उमर जो फ़ैसला मुनासिब समझे वह करें। चुनानचे उसे अनस बिन मालिक और अहनफ़ बिन क़ैस की निग़रानी में हज़रत के पास भेज दिया गया। हज़रत उमर ने पूछा कि तुमने जो बदअहदी की है इसके बारे में हम से सज़ा की क्या उम्मीद करते हो। हरमिज़ान ने कहा कि मुझे अन्देशा है कि बताने से पहले ही तुम मुझे क़त्ल कर दोगे। हज़रत उमर ने कहा ऐसा नहीं होगा। उसने पानी मांगा जब पानी आया तो हाथ में कूजा लेकर उसने कहा कि हो सकता है कि इसे पीने से पहले तुम पानी न पी लोगे तुम्हें क़त्ल नहीं किया जायेगा। ये सुनकर कूज़ा उसने हाथ से रख दिया औऱ कहा कि अब मैं पानी नहीं पीता और इस शर्त के तहत तुम मुझे क़त्ल भी नहीं कर सकते क्योंकि जब तक मैं पानी नहीं पियूंगी तुम्हारी अमान में हूँ। अब तो हज़रत उमर सटपटाये औऱ कहने लगे तू झूठ कहता है। अनस बिन मालिक ने कहा, यह सच कहता है। आपने फ़रमाया है कि जब पानी नहीं पी लोगे उस वक़्त तक क़त्ल नहीं किये जाओगे औऱ लोगों ने भी अनस कगे क़ौल की ताईद की। तब उमर ने कहा कि तुमने मुझे धोका दिया लेकिम मैं धोका नहीं दूंगा, अब बेहतर है कि तुम मुसलमान हो जाओ। उसने कहा मैं पहले ही मुसलमान हो चुका हूं। यह कहकर उसने कलमये तौहीद पढ़ा और हज़रत उमर खुश हो गये। मदीने में रहने की उसको जगह दी और दो हज़ार दिरहम सालाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया।
जंगे नेहावन्द
जंगे जलूला के बाद यज़दजुर्द “रय” की तरफ़ भाग गया था। लेकिन वहां के रईसों ने उसकी इज़्ज़त व तक़रीम नहीं की इसिलये वह वहां ठहर न सका और असफ़हान व किरमान होता हुआ उसने खुरासान के एक मुक़ाम “मख़” में उसने अक़ामत इख़्तियार की और वहां एक आतिश कदा बनवाकर इत्मेनान से रहने लगा। वह समझ रहा था कि मुसलमानों की फ़तुहात का सिलसिला सरहदी मुक़ामात पर तमाम हो जायेगा। लेकिन जब उसको यह मालूम हुआ कि इराक़ के साथ खुरासान भी हाथ से जाता रहा और हरमिज़ान जो हुकूमत का एक अहम सतून था, जिन्दा गिरफ़्तार कर लिया गया तो तैश मैं आकर लश्कर की फ़राहमीं में मसरुफ़ हुआ और इतराफ़ व जवानिब के उमराये मुमालकि से इसने इमदाद तलब की। चुनानचे दफ़तन तबरिस्तान, जरजान, सिंध, खुरासान, असफ़हान और हमदान में फिर से मुसलमानों के ख़िलाफ एक नया जोश पैदा हुआ और डेढ़ लाख की टिड्डी दल फ़ौज नहावन्द की तरफ़ बढ़ी। अब्दुल्ला बिन अतबान को गवर्नर कूफ़ा ने ख़लीफ़ा को ख़बर दी। हज़रत उमर ने अपने जाने के बारे में अकाबरीने हुकूमत का ख़्याल मालूम करना चाहा। कुछ लोगों ने जाने के लिये और कुछ ने लश्कर भेजने के लिये राये दी औऱ कुछ ने कहा कि शाम, यमन और हिजाज से फौज़ें भेजना मुनासिब होगा। सभी के मुख़लिफ़ मशविरे सुन्ने के बाद हज़रत अली अलै0 ने फ़रमाया कि अगर अहले शाम को इस मुहिम में भेजा गया तो रोमी शाम पर हमला कर देंगे। अहले यमन को भेजियेगा तो हब्शा वाले उस पर काबिज हो जायेंगे। हिजाज़ से भेजियेगा तो इतराफ़ के अरबों से पीछा छुडाना मुश्किल हो जायेगा और अगर आप खु़द मुकाबिले के जायेंगे तो आपकी हालत देख कर उनके दिलों से आपका रोब और हैबत जाती रहेगी और वह पंजे झा़ड़ कर आपके पीछे पड़ जायेंगे बेहतर होगा कि बसरा और कुफ़े ही के लोग ईरानियों के मुक़ाबिले में सफ़ आरा हों, कसरत और क़िल्लत का ख़्याल महज बुजुदिली की दलील है। हज़रत उमर ने हज़रत अली अलै0 ही के मशविरे पर अमल किया। चुनानचे नेमान बिन मुक़रिन जिनके साथ उस वक़्त अहले कूफ़ा का एक बड़ा गिरोह था, सरदारे लश्कर मुक़र्रर हुए और उनकी मातहती में कूफ़े व बसरा से तीस हज़ार की जमीयत ईरानियों के मुक़ाबिले में रवाना हुई। औऱ मदीने से भी अब्दुल्लाह बिन उमर की क़यादत में पांच हज़ार का एक मुसल्लह दस्ता भेजा गया। उसके अलावा हज़रत उमर ने उन फौज़ों को जो इलाक़ों अहवाज़ में थी, लिखा कि वह असफ़हान व फ़ारस के ईरानियों को मशगूल रखे़ं ताकि वह अहले नहावन्द की मदद को न पहुंच सकें। इस जंग में अब्दुल्लाह बिन अमरु, जरीर बिजली, मुग़ीरा बिन शेबा, अमरु बिन माद यकरब औऱ तलीहा वगै़रा बड़े बड़े सहाबी शामिल हुए।
गर्ज़ कि नेमान बिन मुक़रिन ने नहावन्द से 6 मील के फ़ासले पर वाक़े असीदहान नामी एक मुक़ाम पर पड़ाव डाल दिया। दूसरी तरफ से ईरानी लश्कर आगे बढ़ा और नहावन्द से मुलहिक़ कोहे अलबर्ज़ के दामन में ऐसी खूरेंज जंग हुई कि जिसने ईरान की तक़दीर का फ़ैसला कर दिया। मगर ठीक उस वक़्त जब मुसलमान फ़तेह का परचम लहरा रहे थे, नेमान बिन मुकऱिन जो ज़ख़्मों से चूर चूर हो चुका था, एक तीर खाकर घोड़े से गिरा और जां बहक हो गया और उसकी जगह हुज़ैफा यमानी सरदारे लश्कर हुए। नहावन्द के मारके औऱ तअक्कुब में एक लाख से ज़्यादा ईरानी मारे गये।
फ़तेह नहावन्द के बाद हुज़ैफ़ा ने वहीं क़याम किया। खुम्स निकाल कर जो माले ग़नीमत फ़ौज में तक़सीम हुआ उसमें सेसवारों को छः छः हज़ार औऱ प्यादों को दो दो हजार दीनार मिले। खुम्स जो दरबारे ख़िलाफ़त में भेजा गया था उसके साथ दो संदूक भई जवाहारात से भरे हुए थे जो केसरा परवेज़ ने नहावन्द के अज़ीमुश्शान आतिश कदा के मोबद हरबिज़ के पास अमानत रखवाये थे मोबिज़ ने जांबख़्शी के वादे पर हुज़ैफ़ा को बता दिया था।
फ़तहे नहावन्दे के बाद मुसलमानों ने दीनवर, हमदान, असफ़हान, रय, क़ोमस, जरजान और आज़र बाइजान वगै़ार पर मुख़्तलिफ़ जरनैलों की क़यादत में फ़तेह हासिल की और उनसे मुतअल्लिक दीगर इलाक़ों पर भी अपना तसल्लुत जमा लिया।
फ़तेह ख़ुरासान
फ़तहे जलूला के बाद यज़दजुर्रुद रय की तरफ़ चला गया था मगर वहां के मर्ज़बान आबान जादू ने उसकी तरफ़ कोई तवज्जो न दी तो वह कबीदा ख़ातिर हो कर असफ़हान गया। वहं भी फतूहाते इसलामी ने चैन से बैठने न दिया तो किरमान की तरफ़ आया और वहां से निकल कर उसने मरव में क़याम किया और यहां आतिश कदा बना कर रहने लगा। एहनिफ़ बिन कै़स ने सन् 18 हिजरी या सन् 22 हिजरी में ख़ुरासान पर चढ़ाई की औऱ तिबसीन होते हुए हरात पहुंचे और उसे लड़कर फ़तेह किया। इसके बाद वह मरव की तरफ़ बढ़े और नेशापूर की तरफ़ मुतरिब बिन अब्दुल्लाह नीज़ सरख़िस की तरफ़ हारिस बिन हसान को रवाना किया। यज़दजुर्द मुसलमानों की इस चढ़ाई का हाल सुनकर मरद शाहजान से भाग कर मरुज़ूद (मरुचक) की तरफ़ चला गया और एहनिफ़ ने बड़ी आसानी से मरव शाहजान पर क़बज़ा कर लिया। फिर उन्होंने मरुज़ूद पर चढ़ाई की। यज़दजुर्द यहां से बालिग़ भागा। एहनिफ़ बलिग़ पर भी चढ़ गये औऱ यज़दजुर्द शिकस्त खाकर वहां से भागा तो दरिया अबूर करता हुआ ख़ाक़ान तुर्क की हुकूमत में पहुंच गया। औऱ एहनिफ़ ने फ़़ौजें भेज कर ख़ूरासान को नेशापुर से तख़ारिस्तान तक फ़तहा कर लिया।
यज़दजुर्द ख़ा़क़ान तर्क के पासर पहुंचा तो उसने बड़ी आव भगत की औऱ एक फौज कसीर लेकर उसके हमराह ख़ुरासान की तरफ रवाना हुआ। यज़दजुर्द के हमराह आने का हाल मालूम हुआ तो वह अपनी फ़ौजे7 लेकर मरुजूद पहुंच गये। ख़ाक़ान बलख़ होतो हुआ मरुजूद पहुंचा और यज़दजुर्द उससे अलाहिदा होकर मरव शाहजान की तरफ़ बढ़ा। एहनिफ़ के पास सिर्फ़ बीस हज़ार की लश्कर था लोहाज़ा उन्होंने खुले मैदान में लड़ाई को जंगी मसलहेत के ख़िलाफ़ तसव्वुर किया और नहर अबूर करके एक ऐसे मैदान में सफ़ बन्दी की और ख़ंदकें खोद कर मोर्चे क़ायम किये जिसकी पुश्त पर पहाड़ था। मोअर्रेख़ीन का कहना है कि एक मुद्दत तक फ़रीक़ीन की फ़ौज़ें अपना अपना मोर्चा संभाले पड़ी रहीं मगर जंग की नौबत नहीं आती थी। आख़िरकार एक दिन मुख़ालिफ फौज के तीन नाम गिरामीं तुर्क एहनिफ़ की ज़द में आ गये और उन्होंने उनका काम तमाम कर दिया तो ख़क़ान का जंग की तरफ़ से इरादा बदल गया और वह डेरा ख़ेमा समेट कर अपनी फ़ौज के साथ अपने वतन की तरफञ रवाना हो गये। यज़दजुर्द को जब यह ख़बर मिली तो उस वक़्त वह हारिस बिन नेमान को मरव शाहजान में महसूर किये हुए था। यह ख़बर सुनते ही उसने मुहासिरा तर्क किया और ख़ज़ाना व जवाहारात समेट कर ख़ाक़ान के पास जाने के लिये तैयार हुआ। उसके दरबारियों ने कहा कि तुर्को के एहद व पैमान का कोई भरोसा नहीं इस लिये बेहत होगा कि मुसलमानों से सलह कर ली जाये क्योंकि वह मुहाइदा औऱ वादे की पाबन्दी में तुर्कों से अच्छे हैं मगर यजदजुर्द ने उनकी बात न मानी जिसका नतीजा यह हुआ कि वह बलवा करके यज़दजुर्द पर टूट पड़े और उसका सारा माल व मता छीन लिया और वह बे सर व सामानी की हालत में दरिया अबूर करके ख़ाक़ान के पास चला गया और उससे अहद करके हज़रत उमर की ख़िलाफ़त तक तुर्कों के दारुल हुकूमत फरख़ाना में मुक़ीम रहा यहां तक कि हज़रत उस्मान के अहदे ख़िलाफ़त में अहले खुरासान ने बग़ावत की और सन् 31 हिजरी में यज़दजुर्द मारा गया।
ख़ुरासान की फ़तहायाबी के बाद हज़रत उमर ने मुसलमानों को आम लश्कर कशी का हुक्म दिया जिसके नतीजे में उन्होंने क़यामत बर्पा कर दी। तव्वज, असतख़र, किरमान सीसान, मकरान और बूरूज़ वगै़रा में जम कर ख़ून की होली खेली गयी और जो इलाका, जो शहर या जो क़रिया सामने पड़ा उसे लूट कर तबाह व बर्बाद और मिसमार कर दिया।
इऱाक़ व ईरान का बन्दोबस्त
जंगी महिम्मात के ख़ातेमे औऱ बगावतों के फ़रो हो जाने के बाद जब कुछ अमन क़ायम हुआ और मुसलमानों ने सुकून व इतमेनान की सांस ली तो उन्होंने मक़बूज़ा मुमालिक की बहाली और तरक़्की के लिये जद्दो जेहद शुरु कर दी। हज़रत अली बिन अबीतालिब अलै0 के मशविरे पर हज़रत उमर ने ज़मीनों की पैमाइश कराई, मालगुज़ारी का नया तरीक़ा राएज किया, ज़मीनदारों पर आएद शुदा शाही टैक्स में तरमीम की, आबपाशी के लिये जाबजां नहरें खुदवायीं और काश्तकारों को वक़्त ज़रुरत तक़ावी की फ़राहमीं का इन्तेज़ाम किया। ज़मीनों औऱ जाएदादों की ख़रीद व फ़रोख़्त पर पाबन्दी औऱ उमरा की जाएदादें और उनके आतिश कदों का माल व मता जिन्हें उनके पुजारी छोड़कर भाग गये थे, सरकारी मिलकियत क़रार दिया।
फ़तूहाते मिस्त्र
सन् 18 ता 22
मिस्र का मुल्क अरसे से शाहाने कुसतुनतुनिया के ज़ेरे तसल्लुत चल आ रहा था। ईरानियों और रोमियों के दरमिया इस मुल्क की बाज़याबी के लिये कई बार जंगी झड़पें भी हो चुकी थीं और ईरानियों ने एक दफा उस पर क़बज़ा भई कर लिया था लेकिन रोमियों ने उन्हें मार भगाया। हज़रत उमर के ज़मानये ख़िलाफ़तच में मिस्र पर मकूक़स नामी एक क़िब्ती गवर्नर था। मिस्री ईसाइयों की तरह मज़हब के मामले में मकूक़स भी यूनानी गिरजा के ख़िलाफ़ याकूबी गिरज़ा का मौतकि़द था। जंग फ़ारस की अबतरी के ज़माने में उसने आज़ाद होने की कोशिश की थी। आंहज़रत स0 ने भी इस्लाम की दावत उसे दी थी और उसने पैग़म्बरे इस्लाम स0 की ख़िदमत में कुछ तहाएफ़ भी भेजे थे।
इसकंदरिया का मारका
सन् 18 हिजरी में शाम और उसके इतराफ़ में ताऊन की वबा फैली जिसमें मुबातिला होकर 25 हज़ार मुसलमान ज़ाया हो गये। मरने वालों में अबुउबैदा बिन जरा गवर्नर शाम और मेआज़ बिन जबल जो अबुउबैदा के बाद शाम के वाली मुक़र्रर हुए थेष शामिल थे।
ताऊन की वबा जब ख़त्म हुई तो हज़रत उमर मतूफ़ी मुसलमान का तरका तक़सीम करने की ग़र्ज़ से शाम आये। इस मौक़े को ग़नीमत जान कर अमरु आस ने जो मेआज़ के बाद शाम के गवर्नर हुए थे ख़लवत में हजरत उमर से कहा कि आप मुझे मिस्र फ़तेह करने की इजाज़त दे दीजिये। हज़रत उमर ने कहा कि अभी मफ़तूहा इलाकों में मुसलमानों के क़दम ब-ख़ूबी नहीं जमे, ताऊन ने हज़ारों जंग जू बहादुरों का काम तमाम कर दिया है और जितनी भी इस्लामी फौज़ें है वह इराक़ अरब, इराक़ अजम और शाम वगै़रा में मसरुफ़ हैं। ऐसी सूरत में किसी दूसरी तरपञ हमला करना दानिशमंदी के खिलाफ़ होगा। मगर चूंकि अम्र आस ने हज़रत उमर को पीरी तरह यक़ीन दिलाया और कहा कि मिस्र का फ़तेह कर लेना कोई बात नहीं है। इसलिये उन्होंने चार हज़ार सिपाह के साथ मिस्र की तरफञ जाने की इजाज़त दे दी मगर रवानगी के वक़्त यह भी कह दिया गया कि तुम जा तो रहे हो लेकिन जंग छिड़ने या न छि़ड़ने के बारे में हम खुदा से इस्तेख़ारा करेंगे और जो फैसला होगी उससे मुतालिक मेरी तहरीर इन्शाअल्लाह जल्द तुम्हारे पास पहुंच जायेगी। चुनानचे अम्र आस के चले जाने के बाद दूसरे या तीसरे दिन हज़रत उमर ने इस्तेख़ारा किया और उसके बाद उन्होंने ख़त लिखा कि मय हमराहियों के वापस चले आओ। क़ासिद अमरु आस के पास उस वक़्त पहुंचा जब वह शाम की सरहद से मुलहिक़ “रफ़ा” नामीं एक गांव में दाख़िल हो चुके थे। अमरु आस समझ गये कि ख़त का मक़सद हुक्मे वापसी के अलावा कुछ भी नहीं है इसलिये उन्होंने उस की वसूलियाबी में ताख़ीर से काम लेते हुए तेज़ क़दम आगे बढ़ाये और सरज़मीने मिस्र की बस्ती अऱीश तक पहुंच गये। वहां उन्होंने क़़ासिद से ख़त वसूल किया और तहरीर के ख़िलाफ़ मुसलमानों को धोका देते हुए कहा कि ऐ मुसलमानों ख़लीफडये वक़्त की इताअत पर आमादा रहो और क़दम आगे बढ़ाओ, अल्लाह मददगार है। ग़र्ज़ की लश्करे इस्लाम यलगार करता हुआ ”फ़रमां” के मुक़ाम पर पहुंच गया जो मिस्र का एक सरहदी क़िला था। यहां रोमियों से मुडफेड़ हुई और एक माह तक मुक़ाबिला जारी रहा। बिलआख़िर मुसलमानों ने फ़तेह पाई और आगे बढ़े यहां तक कि वह “बिलबीस” के मुक़ाम पर पहुंचे। यह भी एक मुस्तहकम जंगी आमाजगाह थी। यहां भी मुसलमानों ने फ़तेह हासिल की। उस मुक़ाम पर मकूक़िस की बेटी रहती थी। अमरु आस ने उसे निहायत इज्ज़त व एहतेराम के साथ मकूक़िस के पास रवाना कर दिया। ज़ाहिर है कि अमरु आस की तरफ़ से हुस्न सुलूक का यह इक़दाम मकूकूस को मूसलमानों की तरफ़ से मुतअस्सिर के लिए काफ़ी था। उसके बाद “ऐनुल शम्स” को फतेह करके अम्र आस ने ख़लीफ़ा वक़्त को अपना कारनामों की तफ़सील से आगाह किया। कहां तो हज़रत उमर इस जंग के बारे में हिचकिचाहट और तज़बजुब का शिकार थे औऱ लड़ाई पर राज़ी न थे, कहां फतहेह व कामरानी का मुज़दए ख़ुशगवार सुन कर फ़ौरी तौर पर कुमक भेजने को तैयार हो गये और उन्होंने चार हज़ार सिपाहियों पर मुश्तमिल एक फ़ौजी दस्ता उजलत के साथ रवाना कर दिया। यह कुमक पहुंची तो अमरु आस ने बाबुल के क़िले को घेर लिया जो मकूक़स के दारुल हुकूमत “मनफ़” का अहम जुज़ औऱ जंगी कुवतों का मरकज़े आला सतझा जाता था। मुसलमानों को इस क़िले पर बग़ैर किसी फ़ाएदे के जंग करना पड़ी औऱ इरसे तक फ़रीक़ैन की फ़ौज़ें एक दूसरे पर मौक़े व महल के हिसाब से हमला आवर होती रही। जब इस क़िले की तसखीर में ज़रुरत से ज्यादा ताख़ीर हुई तो अमरु आश ने हज़रत उमर को मज़ीद फ़ौज रवाना करने के लिये लिखा और जुबैर बिन अवाम की मातहती में चार हज़ार की सिपाह फिर आई। इश फ़ौज में मिक़दाद बिने असवद, अबादा बिने सामत और मुसलम बिने मख़लद ऐसे जांबाज़ औऱ बहादुर भी शामिल थे।
अब उमरो आस के पास बारह हज़ार की फ़ौज हो गई थी मगर रुमी अपनी होशियारी से मुसलमानों को क़िले पर दस्तरस की मोहलत नहीं देते थे। जब सात माह इसी तरह गुज़र गये तो एक दिन जुबैर बिने अवाम क़िले के एक पहलू को देख़कर फ़सील पर चढ गये। रुमी दूसरी तरफ़ मुसलमानों के हमले को रोकने में मसरुफ़ थे कि अचानक उन्हें अपनी पुश्त पर नारे तकबीर का दिल हिला देने वाला गुलगुला सूनायी दिया। पलट कर देखा तो उनके सरों पर खून आशाम तलवारें चमक रही थीं। वह जान बचाकर भागे और जुबैर ने फ़सील से उतरकर क़िले का दरवाज़ा खोल दिया। फिर तो सारी फ़ौज किले के अन्दर दाखि़ल हो गयी औऱ रुमी सिपाह क़िले के शाही महल में महसूर होकर मुक़ाबला करने लगी। मकूकस भी उस क़िले में मौजूद था वह वहां से निकल कर जज़ीरे रौज़े की तरफ़ चला गया जो दरयाए नील के वसत में था।
जब मुसलमानों को इस किले पर मुकम्मल तसर्रुफ़ हिसाल हो गया तो मक़ूक़स ने उमरो आस के पास क़ासिद भेज कर सुलह की ख़वाहिश ज़ाहिर की औऱ हस्बे ज़ैल शराएत पर सुलह नामे की तकमील अमल में आयी।
1. तमाम कि़बती दो दिरहम सालाना जज़िया अदा करेंगे।
2. इस जजि़ये से नाबालिग, सिन रसीदा बूढ़े, राहिब, औऱतें और माज़ूर अशख़ास मुसतरना होंगे।
3. हर शहर में मुसलमानों की सुकूनत के लिये एक जगह मख़सूस रखी जायेगी।
4. क़िब्ती मुसलमानों की तीन दिन तक मेहमानदारी करेंगे।
5. जो क़िबतियों की तरह उन शराएते सुलह की पाबन्दी नहीं करेगा वह सिर्फ़ उसी वक़्त तक मिस्र में रह सकता है जब तक मकूक़स क़ैसरे रोम से उस मुआहिदे के बारे में मन्जूरी या मामन्जूरी न हासिल करें। इसके बाद क़िबतियों की मर्दुम शुमारी की गयी तो साठ लाख से ज़्यादा क़िबती जज़िया अदा करने के क़ाबिल दर्ज रजिस्टर किये गये। इश लिहाज़ से फ़तेह की इब्तिदाई मरहलों में जज़िया की मजमूई रक़म एक क़रो़ड़ बीस लाख दीनार क़रार पायी।
जब मकूक़स ने उन तमाम हालात की इत्तिला क़ैसरे रोम को दी तो उसने मकूक़स पर बड़ी लानत ओ मलामत की और लिखा कि तूने ऐसी ज़लील सुलह क्यों की जब कि एक लाख से ज़्यादा रुमी फ़ौज तेरे पास थी। मैं हरगिज़ इस सुलह को तसलीम नहीं करता।
कै़सरे रोम ने इसी तरह के मलामत आमेज़ खुतूत असकंदरिया और दीगर मक़ामात के रुमी सरदारों को भी रवाना किये और उन्हें नई कुमक के साथ मुसलमानों से मुक़ाबले का हुक्म दिया।
क़ैसरे रोम का ख़त देखकर मकूकूस ने अमरु आस से कहा कि मैं तो सुलह कर चुका, अब मेरे लिये अहदे शिकनी मुम्किन नहीं है। किबती क़ौम भी मुहायिदे की पाबन्दी करेगी। उसके बाद रोमी फ़ौजें सिमट कर मुसलमानों से नबर्द आज़माई करती रही और पसपा होती रही यहां तक कि मुसलमानों में असकन्दारिया पर धावा बोल दिया। क़बती मुसलमानों के लिये रास्तो में पुल बनाने और रसद रसानी का काम अंजाम दे रहे थे।
असकन्दरीया का शहर बहरे रोम के साहिल पर वाक़े होने की वजह से बहत मुस्तहकम था। क़ैसरे रोम (हरकुल) बहरी रास्ते से यहां फ़ौजी इमदाद और सामाने जंग व रसद वग़ैरा भेजता रहता था और ख़ुद भी आने को तैयार था मगर इस्तेसक़ा के मर्ज़ में मुबतिला होने की वजह से उसी असमा में मर गया। उसके मरने से रोमियों की कमर टूट गयी और हौसले पस्त पड़ गये। बहुत से रोमी सरदार असकनदरिया छोड़ कर कुसतुनतुनिया की तरफ़ चले गये। इधर मुसलमानों ने मुहासिरे के दैरान हर तरह की सख़्तियां करके रोमियों को तंग कर रखा था औऱ जब मौक़ा मिलता शहर पर हमला आवर होकर दो चार सौ का ख़ातेमा कर देते। यहां तक कि माहे मुहर्रम सन् 20 हिजरी बरोज़ जुमा मुताबिक़ 22 दिसम्बर सन् 640 में मुसलमानों ने दुनिया का सबसे बड़ा, दौलत मन्द और आबद शहर मिस्र 14 माह के मुहासिरे के बाद फ़तेह कर लिया।
मोअर्रेख़ीन का बयान है कि मुसलमानों ने जब असकनदरिया को फ़तेह किया तो उस वक़्त शहर में चार हज़ार अज़ीमुश्शान महल, चार हज़ार हम्माम, चार सौ सैर गाहे, बाहर हज़ार सबज़ी फ़रोशों की दुकानें और चालीस हज़ार जज़िया देने वाले यहूदी मौजूद थे। साहिल पर एक सौ से ज़्यादा बड़े जहाज़ लंगर अन्दाज़ थे जिन पर रोमियों ने अपना माल व असबाब और बाल बच्चे सवार कर रखे थे। उस वक़्त शहर की आबादी का अन्दाज़ा औरतों और बच्चों को छोड़कर पांच लाख किया गया था।
असकन्दरिया का कुतुबख़ाना
अंग्रेज़ मोअऱ्रिख़ एयरविंग का बयान है कि अमरु आस बजाते ख़ुद एक अच्छा शायर और इल्म दोस्त इन्सान था। फ़तेह मसकन्दरिया के बाद वहां के ईसाई आलिम “यहिया नहवी” (जान दी गरमैरीन) से उसकी दोस्ती हो गयी। एक दिन यहिया नहबी ने अपने ऊपर अम्र आस का ज़्यादा इल्तेफ़ात देखकर एक ऐसे ख़जाने का पता बताया जो अब तक मुसलमानों की नज़र से पोशीदा था।
यह ख़ज़ाना किताबों का ज़खीरा था जो “कुतुबखाना असकन्दरिया के नाम से मशहूर था। हिया नहवी ने इस कुतुब ख़ाने का पता बताते हुए अमरु आस से कहा कि यह कुतुबखाना आप मुझे मरहमत फ़रमा दें तो मैं आपका एहसान मन्द और ममनून व मुताशक्किर हूंगा। यहिया की इस दरख्वास्त पर अमरुआस मसझ गया कि यह ज़रुरी कोई बड़ी चीज़ है चुनानचे उसने यहिया से कहा कि मैं पहले ख़लीफ़ये वक़्त से इस अमर की इजाज़त ले लूं उसके बाद आपको दे दूंगा। उसके बाद अम्र आस ने हज़रत उमर को एक ख़त लिखा जिसमें यहिया नहवी की खूबियां बयान करते हुए उन्होंने वह कुतुबख़ाना उसे मरहमत किये जाने की सिफ़ारिश की। हज़रत उमर उन्होंने वह कुतुबख़ाना उसे मरहमत किये जाने की सिफारिश की। हज़रत उमर ने जवाब लिखा है कि अगर ये किताबें कुरआन की हमनवाई करती हैं तो उनकी कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि कुरआन काफ़ी है और अगर कुरआन से मुताबेक़त नहीं रखते तो नुक़सान देह हैं लेहाज़ा हर हाल में उन्हें जाया कर देना चाहिये।
अमरु आस ने ख़लीफ़ा के हुक्म की पूरी पूरी तामील की और अपनी इल्म दोस्ती का यह सुबूत फ़राहम किया कि उसने उन अज़ीम किताबों के अज़ीम सरमाये को शहर के चार हज़ार हम्मामों में भिजवा दिया जो छःमाह तक ईन्धन का काम देता रहा। इस अज़ीम कुतुबख़ाना का बानी टूलीमी सोटीर (बतलीमूस सोतीर) था और यह ब्रोकेवन की एक बड़ी इमारत में क़ायम किया गया था, उसके बाद हर बादशाह उसे तकक़्क़ी देता रहा यहं तक कि उस कुतुबखाने में चार लाख किताबों के नादिर व नायाब नुसख़े जमा हो गये। उसके अलावा तीन लाख किताबें सराप्यन के माबदगाह रखी गयी थीं। बरक्यून का कुतुबख़ाना तो क़ैसर की जंग में नज़रे आतिश हो गया था मगर सराप्यून वाला बाक़ी था और कलू पतरा ने “परमगस” का कुतुबख़ाना भी उसी में शामिल कर दिया था जो मार्क अनटोनी ने उसे दिया था औऱ जिसमें दो लाख किताबें थी। इम्तेदादे ज़माने के हाथों इस कुतुबख़ाने को बहाल कर दिया जाता था औऱ कुछ इज़ाफ़ा भी उसमें कर दिया जाता था। चुनानचे जिस वक़्त मुसलमानों ने असकन्दरिया को फ़तेह किया तो कुतुब ख़ाना इली हालत में ता जो बयान की गयी।
शहंशाह जलालुदीन मुहम्मद अकबर के दरबारी क़ाज़ी अहमद बिन नसरुल्लाह ने अपनी तसनीफ़ “अलफ़ी” में काज़ी साएद बिन अहमद इन्दीलीमी मतुफ़ी सन् 462 हिजरी की किताब “तबक़ातुल उमम” से लक़ल किया है कि हज़रत अली अलै0 ने जब सुना कि हज़रत उमर ने उन किताबों के जलाने का हुक्म दिया तो आपने एहतेजाजन उमस से फ़रमाया कि किताबों में बेशतर के मज़ामिन कुरआन के मुताबिक हैं बस फ़र्क़ इतना है कुरआन मुजमिल है औऱ हर शख़्स उन मज़ामिन को उससे इस्तेम्बात नहीं कर सकता। और अगर बिलफ़र्ज़ वह किताबें कुरआन के ख़िलाफ़ भी हैं तो भी उनका जलाना दुरुस्त नहीं इसिलये कि हो सकता है वह साबेक़ा शरीयतों पर मुश्तमिल हों और शरीयतों का नज़रे आतिश किया जाना किसी भी तरह जाएज़ न हीं हैं। मगर जनाब उमर पर हज़रत अली अलै0 की इस गुफ़्तगू का ज़र्रा बराबर भी असर न हुआ और आख़िरकार कितबों का यह अज़ीम ख़ज़ाना उनके हु्क़्म से जला दिया गया। इस वाक़िये को मुतक़द्देमीन में बहुत से ओलमा व मोअर्रेख़ीन ने तहरीर किया है।
फ़तूहात का तक़ीदी जाएज़ा
इस अमर में कोई शक नहीं कि हज़रत उमर के अहदे ख़िलाफत-में इस्लामी फ़तूहात के नामम पर मुल्कग़ीरी और माले ग़नीमत की हवस ने मुसलमानों को अबुउबैदा मबन जराअ, ख़ालिद बिन अबी विक़ास, अमरु बिन आ, जबीर बिन अवाम, अहनफ बिन क़ैस, हाशिम बिन अतबा और यज़ाद बिन अबुसुफियान ऐसे जरनलों औऱ कमाण्डरों नीज़ अफ़सरों की क़यादत में बड़ी बड़ी कामयाबियों से हमकिनार किया और उन्होंने जबर व इस्तेबदाद, जुल्म व तशद्दुद लूट मार, आतिश ज़नी, ख़ंरेजी और क़त्ल व ग़ारत गरी को अपना शोआर बनाकर ग़ैर मुमालिक पर हमला किया, उन्हें अपना गुलाम बनाया और उनकी ज़ाएदादों पर काबिज़ होकर ऐश व आराम की ज़िन्दगी बसरस करने लगे।
अज़ीम फ़ातेहीने आलम की फेहरिस्त में हज़रत उमर का नाम बड़े क़र्रोफ़र से लिया जाता है और फख़रिया अंदाज में कहा जाता है कि आपपके दौर में मफ़तूहा व मक़बूजा मुमालिक के हुद्दे अरबा का रक़बा तक़रीबन दो लाख पच्चीस हज़ार एक सौ तीन मुरब्बा मील पर मोहीत था औऱ आपकी बिसाते हुकूमत मक्का मोअज़्ज़मा से शुमाल की तरफ़ 483 मील, मशरिक़ की तरफ़ 1087 मील औऱ मग़रिब की तरफ़ शाम, मिस्र, इराक़, आरमीनिया, आजर बाइजान, फ़ारस रोम, ख़ुरामान, किरमान और बिल्लौचिस्तान के कुछ हिस्सों तक फैली हुई थी लेकिन उसके बावजूद उस मफ़तूहा वुसअत पर न तो कोई अकली दलील क़ाएम हो सकती है और न ही उसे इस्लामी व शरयी ज़वियए निगाह से देखा जा सकता है। उसकी वजह है कि जब कोई हक़ पसन्द औऱ नुकता संज वाक़िया निगार उन फ़तूहात पर ग़ौर करेगा तो यह सवाल उसके ज़ेहन में उभरेगा कि हज़रत अबुबकर के बाद पहली सदी के इब्तेदाई दौर में हज़रत उमर अपने वक़्त के हलाकू नादिरशाह और महमूद ग़ज़नवी थे या नाएबे रसूल सल0? अगर मौसूफ़ अव्वलुल ज़िक्र हैसियत के हामिल थे तो सवाल यह है कि आपके पास वह कौन सा जादू था जिसने चन्द सहरा नशीनों को उभार कर तूफ़ान की तरह फ़ारस व रोम का दफ़्तर उलटने पर मजबूर कर दिया? आख़िर उसके अलल व असबाब क्या थे? जब कि दौरे रिसालत के तमाम इस्लामी ग़ज़वात से आपका फ़रार साबित है।
अगर आपको ख़लीफ़यते रसूल स0 मान लिया जाये तो सवाल ये है कि आपकी यह फ़तूहात किन उसूलों के तहत जाएज़ क़रार पायेगी? क्या मुल्कगीरी, क़त्ल व ग़ारतगरी, फ़ितना व फ़साद और तबाही व बर्बादी के अलमनाक वाक़ियात किसी दीनी रहबर, रुहानी पेशवा और मज़हबी रहनुमा के शायानेशान हो सकते हैं? क्या रसूले अकरम स0 ने इन ज़ालेमाना व जारेहाना इक़दामात की हमनवाई की है? या किसी मुल्क पर फ़ौजकशी करके उसे तबाह व बरबाद और वहां के अवाम को बेसबब क़त्ल किया है? क्या किसी और पैग़म्बर, नबी, हादी और दीनी पेशवा ने तबलीग़ व हिदायत की मंज़िलों में मुल्कगीरी के लिये बेगुनाहों के ख़ून से अपने दामन को दाग़दार बनाया है? क्या अल्लाह की तरफ से अन्बिया व मुरसलीन का तर्ज़े अमल यह था कि जिस मुल्क के लोग ख़ुदा को न मानें, उसकी वहदानियत का इक़रार न करें और उसके दीन को कुबूल न करें तो वह उस पर हमला करके उसे तबाह व बर्बाद कर दें और वहां के अवाम को मौत के घाट उतार दें, उनकी औरतों को बेवा और बच्चों को यतीम कर दें। अगर उन तमाम बातों का जवाब नफ़ी में है तो ग़ैरशरयी थीं और उनका इस्लाम से कोई तअल्लुक़ नहीं था।
फिर हज़रत उमर की उन फ़तूहात को मौसूफ़ का ज़ाती कारनामा भी नहीं कहा जा सकता। इसिलये कि आप फ़रमान रवा ज़रुर थे मगर दैरे रिसालत से लेकर अपने दौर तक न किसी मारके में शरीक हुए न जेहाद के लिये कभी तवलार बुलन्द की। आपने हज़रत अली अलै0 से अकसर व बेशतर जंगी मशवीरे ज़रुर किये मगर चूं कि आपकी सुजाअत से वह अच्छी तरह वाक़िफ थे इसलिये आपने हमेशा जंग के मैदान में जाने से उनको रोका ताकि रसूल स0 के बाद इस्लाम के माथे पर शिकस्त का टीक न लग पाये।
दरहक़ीक़त आपके अहद के जंगी कारनामे दौरे रिसलत के उनके नबर्द आज़मा और आज़मूदा कार कमाण्डरों और जरनलों के मरहूने मिन्नत है जिन्हें तक़दीर के चक्कर ने आपके दौरे हुकूमत से मुत्तसिल कर दिया था और जिन्होंने उन फ़तूहात का सेहरा आफके सर बान्ध कर हुकूमत की नमक ख़्वारी का हक़ अदा कर दिया।
इस्लामी तारीख़ के ऐवान में बाज़ मुतास्सिब मोअर्रेख़ीन की यह आवाज़ भी सुनाईदेती है कि हज़रत अबुबकर और हज़रत उमर ने बड़े बड़े मुल्क फ़तेह किये, इस्लाम को वुसअत दी और इसे बामें तरक़्क़ी तक पहुंचाया मगर हज़रत अली अलै0 ने कोई मुल्क़ फ़तेह नहीं किया न इस्लामी मुमालिक मैं किसी जुज़ का इज़ाफ़ा किया और न ही मुसलमानों के ऐश व इश्ररत का कोई सम्मान किया।
इसका सीधा सा जवाब है कि हज़रत आदम अलै0, हज़रत नूह अलै0, हज़रत इब्राहिम अलै0 यह सब कुछ करते तो हज़रत अली अलै0 भी यक़ीनन उसकी पैरवी करते। मगर चूंकि उन हादियों और रहबरों ने ऐसा नीहं किया इसिलये हज़रत अली अलै0 ने भी इस मामले में ख़ामोशी इख़्तियार की क्योंकि आपका शुमार भी उन्हीं हादियों में है जैसा कि आंहजरत सल0 ने फ़रमायाः
“जो शख़्स” आदम अलै0 को उनके इल्म में, नूहअ0 को उनके फ़हम में, इब्राहिम अलै0 को उनके हिल्म में, यहियाअलै0 को उनके जोहद में और मूसाअलै0 को उनकी हैबत में देखना चाहे तो उसे लाज़िम है कि हज़रत अली अलै0 को देखे।“
इस हदीस के ज़ैल में अल्लामा फख़रुदीन राज़ी का कहना है कि “यह हदीस साबित करती है कि उन सेफ़ात (इल्म, फ़हम, ज़ोहद और हैबत) में हज़रत अली अलै0 मज़कूरा अन्बिया के बराबर थे। और इसमें कोई शक नहीं कि यह तमाम अन्बिया सहाबा से अफ़ज़ल थे और यह कुल्लिया है कि जो शख़्स अफ़ज़ल के बराबर होगा वह भी अफ़ज़ल होगा।“
आहंज़रत सल0 ने भी हज़रत अली अलै0 को अपनी ज़ात के मिसल् क़रार दिया है। फ़रमाते हैं किः
“हर नबी की कोई मिसाल उसकी उम्मत में ज़रुर होती है और मेरी उम्मत मे मेरी मिसाल अली अलै0 हैं।“
वाज़ेह हो गया कि हज़रत अली अलै0 का मर्तबा चूंकि अन्बिया मुरसलीन के मसावी था इसलिया आपके लिये यह मुनासिब नहीं था कि एहकामे इलाहिया के ख़िलाफ कोई क़दम उठाते।
हज़रत अबुबकर के दौर में जो फ़तूहाते जुज़वी तौर पर अमल में आी वह उन्हें क्योंकर नसीब हुई या हज़रत उमर के दौर में सहरा नशीनों ने फ़ारस व रोम का दफ़्तर क्योंकर उलट दिया? इसका सबब यह है कि उस वक़्त के बद्दुओं और जाहिल अरबों को जहाद का ग़लत मफ़हूम बताया गया और यह बात उनके ज़ेहन नशीं कराई गयी कि ख़लीफ़ये वक्त जिस मज़हब को फ़ना करने का हुक्म सादर करे, जिस क़ौम को तबाह व बर्बाद करने का इशारा करे वहीं दरअसल जेहाद है जिसको ख़ुदा औऱ रसूल स0 ने हर मुसलमान पर वाजिब किया है। जो शख़्स इस पर अमल करेगा वह बेहिश्त का हक़दार होगा वरना जहन्नुम का मुस्तहक़ क़रार पायेगा। उन्हें यह बावर कराया गया कि अगर कोई काफ़िर शख़्स इस्लाम कुबूल करने से इन्कार करे तो तलवार के ज़ोर से उस पर क़ाबू हासिल करो। उस पर भी कामयाबी न हो तो उसे क़त्ल कर दो और उसका माल व असबाब लूट लो। जाहिल और सादा लोह अरबों को माले ग़नीमत के दाम में भी गिरफ़्तार किया गया और उनके ज़ेहनों पर यह अक़ीदा मुसल्लत कर दिया गया कि एक ऐसा दामे फ़रेब था कि जिसने तमाम मफ़लूकुल हाल और उसरत जडद अरबों को जकड़ लिया और वह ऐश व इशरत की ज़िन्दगी का ख़्वाब देखने लगे। इसकी दलील ईरान पर हमला के दौरान रुस्तम और मुग़ारा के दरमियान होने वाली वह गुफ़्तगू है जिसे तरीख़ ने ज़ब्त कर लिया है चुनानचे रुस्तम ने मुगीरा से पूछा कि तुम लोग हमारे मुल्क में कयों आये हो? मुग़ीरा ने जवाब दिया कि अल्लाह ने अपने रसूल स0 कि ज़रिये हमे बड़ी बड़ी नेमतों से सरफ़राज़ फरमाया है और उन नेमतों में से एक नेमत तुम्हारे मुल्क में पैदा होने वाला गल्ला भी है जिसके बग़ैर हम जि़न्दा भी नहीं रह सकते। रुस्तम ने कहा, इस ख़्वाहिश में तुम क़त्ल हो जाओगे। उस पर मुग़ीरा ने कहा कि हमें कोई फिक़्र नहीं है। क्योंकि हम क़त्ल होकर बेहिश्त में जायेंगे औऱ वहां की लज़्ज़तों से लुत्फ़ अन्दोज़ होंगे और अगर बच गये तो तुम हमें जज़िया दोगे।
मुग़ीरा की ग़ुफ़्तगू से साफ़ ज़ाहिर है कि इन फ़तूहात की ग़र्ज़ सिर्फ़ यह थी कि उमदा ग़िज़ायें हासिल की जायें, अच्छले लिबास पहने जायें औऱ दुनिया की तमाम लज़्ज़तों के साथ ऐश व आराम की ज़िन्दगी बसर की जाये।
मुग़ीरा के इन ख़्याल में इतनी पुख़्तगी थी कि उसने ईरानी बादशाह यज़दजर्द को भी वही जवाब दिया जो उसके सिपाह सालार रुस्तम को दिया थआ उसके साथ उसने ख़ुदा के बारे में यह भी कहाः
“हमारे ख़ुदा ने अपने रसूल स0 के ज़रिये हम लोगों को हुक़्म दिया है कि जो लोग मज़हब इस्लाम कुबूल न करें उनसे जज़िया लो और अगर वह जज़िया देने से इन्कार करें तो उनसे क़ेताल करो।”
ला इकराहा फ़िद्दीने के मफ़हूम व मक़सद से बेनियाज़ व बेगाना मुग़ीरा की यह गुफ़्तगू ख़ुदा पर इफ़तरा व बोहतान के मुतरिदिफ़ नहीं है तो फिर क्या है? इस जंगी मुहिम के दौरान अबरब के मशहूर ख़तीबों ने मैदाने कारज़ार में जो ख़ुतबे दिये उनसे भी साफ़ ज़ाहिर है कि वह मुसलमानों को यह लालच देते थे कि अगर तुम फ़तहयाब व कामयाब हुए तो तुम्हारे लिये माले ग़नीमत की इन्तेहा नहीं है और जैसा कि क़ैस ने अपनी तक़रीर के दौरान कहा कि “लोगों। घमासान की जंग करो क्योंकि तुम्हार सामने माले ग़नीमत है और पुश्त पर जन्नत।”
और रबी बिन बिलाद ने कहाः “ऐ अरब वालों। अपने मजहब और माले दुनिया के लिये जो खोल कर लड़ो।”
शोअरा भी अपनी नज़मों में उन्हीं ख़्यालात को पिरोकर मुसलमानों के जजबात को बरअगेख्ता करते रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि लोगों ने क़स्में खा लीं और मरने मारने पर तुल गये।
यही वह कामयाबी था जो फ़तूहात में ढ़लती गयी औऱ फ़तुहात का सेलाब तमाम इस्लामी उसूलों को कुचलता हुआ आगे बढ़ता गया। फ़ारस व रोम की शिकस्त और तबाही व बर्बादी के अलल व असबाब यह थे कि हज़रत उमर के अहद में उन मुल्कों का सितारा अक़बाल गुरुब हो चुका था और दूसरा फ़रमानें रवां ऐसा नहीं था जो इस दम तोड़ती हुई हुकूमत के पैकर में तवानाईयां भर सके। दरबार के अमाएदीन व अराकीन साज़िशों में मुनहमिक़ थे और साजिशों की बदौलत तख़्ते नशीनों में बराबर तबदीलियत हो रही थीं। चुनानचे तीन ही चार साल के अन्दर छः या सात फ़रमावाओं के हाथों में ज़मामे हुकूमत आई और निकल गयी। दूसरी वजह यह थी कि नौशेरवां से कुछ पहले मजूकिया फ़िर्क़ा काफ़ी ताक़तवर था जो कुफ्र इल्हाद की तरफ़ माएल था। हालांकि नौशेरवां ने तलवार के ज़ोर से उन्हें पस्पा भी किया लेकिन उनकी कूवत में कमी नहीं आई। मुसलमानों ने जब फ़ारस की ज़मीन पर क़दम रखा तो यह फ़िर्रक़ा भी उन्हें अपना पुश्त पनाह समझ कर उनके साथ हो लिया। ईमाइयों में नसटूरीन फ़िर्क़ा जिसे किसी हुकूमत में पनाह न मिलती थी वह भी मुसलमानों के साये में आकर मुख़ालेफ़ीन के मज़ालिम से मुहफूज़ हो गया। इस तरह मुसलमानों को दो बड़े फ़िरक़ों की कुमक और हमदर्दी मुफ़्त में हासिल हो गयी। रोम की हुकूमत के साथ ईसाइयों के बाहमी इख़्तेलाफ़ात दुश्मनी की हद तक पहुंच गये थे इसलिये मुसलमान अपने मक़सद में कामयाब-रहे और फतूहात के दरवाज़े उन पर खुल गये।
अन्देशा व इन्तेबाह
सीरत, अहादीस और तफ़ासीर की किताबों से पता चलता है कि रसूले अकरम स0 अपने बाद मुसलमानों की इस ऐश तलबी, दुनिया परस्ती और मुल्कगीरी के तसव्वुर से फिक्रमन्द और परेशान थे और चूंकि उन फ़तूहात के अंजाम और पेचो ख़म से आप बाख़बर थे इसलिये आपने बार बार अपने सहाबा को मुतनब्बेह करते हुए फ़रमाया कि तुम लोग मेरे बाद मेरी तालीमात को फ़रामोश न कर डालना, इस्लाम के मसक़सद को पामाल न करना और मुल्कगीरी की हवस में शरीयत की रुह को मजरुह न करना। चुनानचे कभा आपने फरमायाः
“मुझे इस बात का ख़ौफ़ नहीं है कि मेरे बाद तुम मुश्रिक हो जाओगे बल्कि मुझे अंदेशा इस बात का है कि तुम दुनिया परस्ती में मुबतिला हो जाओगे।”
कभी मिंबर से यह आगाही दी किः
“तुम्हारे मुस्तक़बिल के बारे में मुझे यह अन्देशा है कि दुनिया की चमक दमक तुम पर अपने दरवाज़े खोल देगी।”
कभी मतनब्बेह किया किः
“मुझे यह डर है कि मेरे बाद तुम लोगों पर ज़मीन की बरकतें और आसइशें व जेबाइश की राहें कुशादा हो जायेंगी।”
कभी इरशाद फ़रमायाः
“मुझे इस का डर नहीं कि तुम फ़कर में मुब्तिला होंगे बल्कि मुझे यह डर है कि तुम पर दुनिया इस तरह कुशादा हो जायेगी जैसे कि तुम्हारे क़ब्ल वालों पर थी और तुम लोग इस दुनिया की परसतिश इस तरह करोगे जैसे तुम्हारे क़ब्ल वाले करते थे। नतीजा यह होगा कि दुनिया तुम्हें भी इसी तरह हलाक गुमराह) कर देगी जिस तरह तुम्हारे क़बल वालों को कर चुकी है।”
कभी पैग़म्बरे अकरम सल0 ने अपने किसी मोतबर सहाबी से फ़रमाया “अगर तुम ज़िन्दा रहे तो देखोगे” कि किसरा परवर दिगार से इस तरह मिलेंगे कि उनके औऱ खुदा के दरमियान कोई तरजुमा न होगा तो वह जिधर देखेंगे उन्हें जहन्नुम की आग के सिवा कुछ न दिखाई देगा।“ हुजूरै अकरम सल0 ने अपने सहाबा को इश अंदेशे से भी मुतनब्बेह किया किः
“देखो, मेरे बाद तुम लोग का़फ़िर न हो जाना कि बे वजह दूसरों की गर्दनें उड़ाने लगो।”
यह तमाम हदीसें इस अमर की बय्यन दलील हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम सल0 बेजा मफ़तूहा, हमला आवरी, मुल्कगीरी, दुनिया परस्ती और सरमायादारी को इन्तेहाई नफ़रत की निगाह से देखते थे औऱ मुसलमानों को उनसे दूर रहने की हिदायत भी फ़रमाते रहते थे लेकिन अफ़सोस कि आपके बाद खिलाफ़ते ऊला व ख़िलाफ़ते सानिया में वही हुआ जो नहीं होना चाहिये था।
इस्लामी और ग़ैर –इस्लामी फ़तूहात
इस्लामी तारीख़ का यह पहलू इन्तेहाई उजागर है कि पैग़म्बरे इस्लाम स0 को जब इस्लाम की तबलीग़ व अशाअत औऱ मुसलमानों की अयानत व केफ़ालसत के लिये सरमाया की ज़रुरत दरपेश हुई तो आपने न तो काफ़िरों के यहां डाका डाला, न उनका माल व असबाब लूटा, न उन पर मज़ालिम किये, न उन्हें शहर बदर किया, न उनकी जाएदादें हड़प की और न उनके घरों को तबाह व बर्बाद किया। न उनके मुल्कों पर हमला आदर हो कर उन्हें तलवार या ताक़त के बल पर अपनी ग़ुलामी के लिये मजबूर किया बल्कि उसके बरअक्स उनके ज़ेहनों में वहदानियत का तसव्वुर रासिख़ करने, अल्लाह के दीन को उन तक पहुंचाने और अमन, इत्तेहाद नीज़ इन्सानियत का दर्स देने में हुस्ने इख़लाक़ के साथ हमा तन मसरुफ़ रहे।
आपका मिशन और बुनियादी नज़रिया यह था कि रंग व नस्ल की तफ़रीक़ को ख़त्म किया जाये, इन्सान को इन्सानी हुकूक से आगाह किया जाये, लोग सिफ़ाते हुसना से मुत्तसिफ़ और जेवरे इख़लाक़ से आरास्ता हों। तौहीद पर ईमान लायें, वहदानियत का क़लमा पढ़ें और उसकी बुजूर्गी व बरतरी को तसलीम करें। उसकी बारगाह में अपना सरे नियाज़ ख़म करके शराफ़त हासिल करें। चुनानचे इसी नज़रिये औऱ मिशन के तहत आपने तबलीग़े इस्लाम के इब्तेहदाई दौर में कुफ़्फ़ारे मक्का को इस्लाम की दावत भी दी और उन्हे खुदा की वहदानियत, इबादत औऱ इताअत की तरफ़ मुतावज्जे भी किया।
दुनिया की नज़रों से यह तारीख़ी हकीक़त पोशीदा नहीं है कि आंहज़रत सल0 ने जब बुतपरस्ती की एलानिया मुख़ालिफ़त की तो आपका यह तर्ज़े अमल कुफ़्फ़रे मक्का की काफेराना फ़ितरत पर सख़्त नागवार गुज़रा। चुनानचे कुरैश की चन्द सरबरावुरदा शख़्सियतें जनाबे अबुतालिब अलै0 की ख़िदमत में आयीं और उनसे तुर्श लहजे में इस अमर की शिकायत की कि तुम्हारा भतीजा (मोहम्मदसल0) हमारे ख़ुदाओं की तौहीन करता है, उसे समझा लो, वरना हम हम उसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। उस मौक़े पर जनाबे अबुतालिब ने उन्हें नर्मी से समझा बुझाकर रुख़सत कर दिया। लेकिन चूंकि बिनाये मुख़ासिम्त बरक़रार थी और आंहज़रत सल0 अपने फ़र्ज़े मनसबी से दस्तकश न होने पर मजबूर थे इसलिये अहले मक्का को दोबारा फिर हज़रत अबुतालिब अलै0 के पास आना पड़ा। उन्होंने फिर कहा कि तुम्हारा भतीजा अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आता और तुम उसके ख़िलाफ़ कोई क़दम उठा नहीं सकते लेहाज़ा तुम दरमियान से हट जाओ। और अगर यह भी मुम्किन नहीं तो मैदान में उतर आओ ताकि हम दोनों का फ़ैसला तलवार के ज़रिये हो जाये। इस वफ़द में कुरैश के तमाम रऊसा मसलब अबुसुफ़ियान, शीबा और अतबा वग़ैरा शामिल थे।
हज़र अबुतालिब अलै0 के लिये यह मरहला यक़ीनन सख़्त था। एक तरफ़ नबूवत के तहफ़्फुज़ का एहसालसस और दूसरी तरफञ कुफ़्फारे मक्का की धमकियां और बदले हुए तेवर। आपकी दूरे रस निगाहें ने इस नज़ाकत को अच्छी तरह महसूस कर लिया था कि काफ़िरों का पैमान-ए-सब्र लबरेज़ हो चुका है। यह मामला किसी वक़्त भी कोई ख़तरनाक सूरत इख़्तियार कर सकता है। अगर यह लोग आमादए पैकार हुए तो उनसे तन्हा मुक़ाबिला आसान न होगा।
उन्हें ख्यालल व एहसास के रद्दो अमल में जनाबे अबुतालिब अलै0 के चेहरे पर तरद्दुद के आसार मुरत्तब हुए पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने देखा कि शफ़ीक़ व मेहरबान चाचा के पाये सबात में लग़ज़िश के इमकानात हैं तो आबदीदा हो गये और फ़रमाया “ख़ुदा की क़सम अगर यह लोग मेरे एक हाथ पर आफ़ताब औऱ दूसरे पर माहताब लाकर रख दें तो भी मैं अपने फ़र्ज़ मनसबी से मुंह नहीं मोड़ सकता।”
इस पैग़म्बरी आवाज़ और सदाक़त आमेज़ लहजे ने जनाबे अबुतालिब अलै0 के दिल में एक नया जोश और नया वलवला पैदा कर दिया। चुनानचे उन्होंने फ़रमाया “अगर तुम्हारा मौकफ़ और फ़ैसला अटल है तो तुम अपना काम अंजाम देते रहो। मैं वादा करता हूं कि जब तक मेरे जिस्म में जान है कुफ़्फा़र तुम्हारा एक बाल भी बाका नहीं कर सकते।”
अगर पैग़म्बर इस्लाम सल0 या आपके चचा के दिल में हुसूले ज़र, जहां बानी हुक्मरानी या मुल्की फ़तूहात का कोई जज़बा कारफ़रमा होता तो वह इस मौक़े पर कुफ़्फ़ार को आसानी से अपना हमनवा बना सकते थे। उनसे कहते कि क्यों मेरी मुख़ालिफ़त कर करम बस्ता हो, इस्लाम कुबूल कर लो ताकि दुनिया की दौलत पर क़ाबिज़ हो सको, मुसलमान हो जाओ ताक़ि दूसरे मुल्क़ों के ख़ज़ाने लू़ट कर अपना घर भर सको। मेरे कूवते बाज़ू मब जाओ इराक़, ईरान, शाम और मिस्र वग़ैरा पर हमला करके उन्हें ताराज किया जा सके। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया और उनके इस एहतेजाज को सख़्ती से ठुकरा दिया।
जब हालात कुछ साजगार हुए और इस्लाम की कूवत अहदे तफूलियत से गुज़र कर जवानी की सरहद की तरफ़ बढ़ने लगी तो कुफ्फ़ार मक्का के दिलों में अदावत व नफ़रात और रशक व हसद के शोले पूरी शिद्दत से भड़क उठे जिसके नतीजे रसूले अकरम सल0 को मुतअद्दिद ग़ज़वात का सामना करना पड़ा।
पैग़म्बरे इस्लाम सल0 के दौर में जो ग़वात हुए या जो जंगे लड़ी गयीं वह सिर्फ़ देफ़ाई और इस्लाम के मुफ़ाद में थीं। रसूल उल्लाह सल0 की तरफ़ से किसी जंग में इ्ब्तेदा नहीं की गयी। न किसी क़िस्म का जारेहाना क़दाम अमल में आया न बरबरियत औऱ तशद्दुद का मुज़ाहिरा किया था। इसके बर ख़िलाफ़ हज़रत उस्मान से पहले हज़रत अबुबकर और उनके बाद हज़रत उस्मान के दौर में इरा़क़, ईरान, शाम औऱ मिस्र के साथ दीगर दूर दराज़ के मुमालिक पर मुल्कगिरी के लिये हमले किये गये। उन्हें दिल खोल कर लूटा गया, वहां के अवा को तशद्दुद का निशाना बनाया गया, उन पर मज़ालिम के पहाड़ तोड़े गये, उन्हें शहर बदर किया गया औऱ उनके घरों को तबाह बर्बाद और वीरान किया गया।
इन फ़तूहात का उसूल यह नज़र आता है कि जहां तक मुम्किन हो दुनिया की दौलत हासल की जाये, मुल्कों को फ़तेह किया जाये और वहां के अवाम को मज़ालिम और तशद्दुद के ज़रिये इस अमर पर मजबूर किया जाये कि वह मुसलमान हों या जज़ीया दें। और अगर यह दो सूरतें मुम्किन न हो तो तलवार के पानी से सेराब हों। क्या इन फ़तूहात को उसूली औऱ इस्लामी कहा जा सकता है? हरगिज़ नहीं।
दीनी व मज़हबी इस्लाहें
इस्लाम के एहकाम फ़ितरते इन्सानी के ऐन मुताबिक़ हैं और इसका कोई हुक्म ऐसा नहीं है जिसमें इन्सान के फ़ितरे तक़ाज़ों को मलहूज़े ख़ातिर न रखा गया हो। फुरुए दीन में इस्लाम के इस्तेसनाई एहकाम और मराआत ख़ुद इस बात की दलील हैं कि इस्लाम दीने फ़ितरत है। इसके एहकाम नाक़ाबिले अमल नहीं है। ख़ास सूरतों मसलन बीमारी वग़ैरा की हालत में खड़ो होकर नमाज़ पढ़ने या रोज़ा रखने के एहकाम में तबदीली भी हो जाती है जैसे बैठ कर या लेट कर इशारों में नमाज़ पढ़ना औऱ रमज़ान के रोज़े दूसरे दिनों में कज़ा रखना वगैरा। इसी तरह कोई शख़्स ख़ास वजूहात की बिना पर एक मुद्दत तक अपनी ज़ौजा से अलकग रहे और उसके कूवते बरदाश्त, शहवानी ख़्वाहिशात औऱ जज़बात की फ़रावानी के आगे दम तोड़ती नज़र आये तो क्या वह अपनी इस जिन्सी ख़्वाहिशात की तकमील के लिये ऐसा तरीक़ा इख़्तियार करे जो इस्लामी एहकाम के मनाफ़ी हो? या वह अपने फ़ितरी तकाज़ों को पूरा करने के लिये इस्लाम ने चन्द क़यूद, पाबन्दियों और शराएत के साथ जो मराआती एहकाम दिये हैं उन पर अमल पैरा होकर ज़िना के इरतेकाब से महफूज़ रहे। उन्हीं ख़ास मराआती एहकाम में से एक हु्कम का नाम “मुताह’ है जिसकी तक़सीम दो हिस्सों पर मुश्तमिल है। (1) मुताउल हज (2) मुताउल निसा।
“मुताउल हज” को “तमतो बिलहज” भी कहते हैं। तमता के मानी लुत्फ़ अन्दोज़ी के हैं। इसमें इन्सान उमरा और हज के दरमियान अपनी औरतों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो सकता है मगर यह सिर्फ़ उन लोगों के लिये है जो हुदूदे मक्का के कमसे कम 80 किलोमीटर या उससे ज़्यादा फ़ासलों पर आबाद हों।
“मुताउल निसा” की तारीफ़ यह है कि किसी औरत से किसी मुक़र्रर मुद्दत के लिये महर के अवज़ अक़द किया जाये और मुद्दत तमाम होने पर वह औरत अलैहदा हो जाये और इतनी मुद्दत तक इद्दे की हालम में रहे कि हमल का शुब्हा जाता रहे। मुताह के बारे में कुरआन का इरशाद है किः
“जिन औरतों से तुमने मुताह किया हो, उन्हें उनका मोअय्यना मेहर दे दो। और मेहर के मुक़र्रर हो जाने के बाद आगर आपस में (कम व बेश पर) राज़ी हो जाओ तो उसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं है। बेशक ख़ुदा हर चीज़ से वाकिफ़ और मसलहतों का पहचानने वााल है।” (अलनिसा 24)
एक मुक़ाम पर इरशादे बारी हैः
“लोगों। जो तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम पर नाज़िल किया गया है उसकी पैरवी करो।”
एक दूसरे मुक़ाम पर इरशाद हुआः
“जो शख़्स खुदा की किताब के मुताबिक़ हुक्म न दे वह काफ़िर है।”
(माएदा 44)
और सूरा कहफ़ में इरशाद हुआः
“खुदा अपने हुक्म में किसी को शरीक नहीं बनाता।” (अलक़हफ़ 26)मालूम हुआ कि हुक्मे मुताह सिर्फ़ खुदा की तरफ़ से था और इस हुक्म में तरमीम व तनसीख़ का हक़ खुदा के अलावा रसूला अकरम सल0 को भी नहीं था। आपका फ़र्ज़े मनसबी यह था कि आप इस हुक्म इलाही को मुसलमानों पर नाफ़िज़ करें। चुनानचे इशी हुक्म से मुतअल्लिक़ अब्दुल्लाह बिन मसूद की रिवायत है किः
“हम हज़रत रसूल खुदा सल0 के साथ जंगों में जाचा करते थे औऱ हमारे पासर कोई सामान मुक़तेज़ाये फ़ितरत को पूरा करने का नहीं होता था तो हम ने रसूल उल्लाह सल0 से कहा कि हम क्यों न अपने आजा़ये शहवानी को क़ता करा दें। आंहज़रत ने इसकी मुमानियत फ़रमाई और हमें इस अमर की इजाज़त दी कि हम औरतों से मुनासिब मेहर प अक़द कर लिया करें।”
“अब्दुल्लाह बिन मसूद ने कहा हम लोग जवान थे, हमने रसूल उल्लाह सल0 की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि हम अपने आज़ाये शहवानी को क़ता क्यों न करा दें।”
सही मुस्लिम में ग़ज़वात का तज़किरा नहीं है जिससे ज़ाहिर होता है कि ज़मानये अमन में भी अगर ज़ौजा न हो तो नफ़सानी ख़्वाहिशात की क़मील के लिये इस्लाम अक़दे मुताह की इजाज़त देता है और इब्तेदये इस्लाम में मुताह के जवाज़ की ओलमा व मुफ़्स्सेरीन अहले सुन्नत ने तसलीम किया है। चुनानचे अल्लामा फ़ख़रुद्दीन राज़ी तफ़सीरे कबीर में रकम तराज़ है किः
“यह अमर मुतफ़्फ़िक़ अलैह है कि मुताह इब्तेदाये इस्लाम में राएच व जाएज़ था। इस पर तमाम उम्मत का इजामा है कि किसी को इख़्तेलाफ़ नहीं है।”
मगर अफ़सोस कि हज़रत उमर ने अपने ज़ाती इजतेहादी की बिना पर ख़ुदा व रसूल सल0 के इस हुक्म को अपने दौर ख़िलाफ़त में कालअदम क़रार दिया जैसा कि सहाबिये सल0 जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी का बयान है किः
“हम लोग रिसालते माब सल0 के पूरे ज़माने में और हज़रत अबुबकर के पूरे दौरे ख़िलाफ़त में नीज़ उमर के निसफ ज़माने ख़िलाफ़त तक बराबर मुताह करते थए मगर हज़रत उमर ने अपने निस्फ़ ज़माने ख़िलाफत के बाद यह कह कर मुताह की मुमानियत कर दी कि मुताउल हज और मुताउल निसा रसूल सल0 के ज़माने में हलाल थे लेकिन मैं उन्हें हरार क़रार देता हूं औऱ अब जो शख़्स मुताह करेगा उसे मैं सज़ा दूंगा।”
इमरान बिन हसीन से रिवायत है कि हम रसूल उल्लाह सल0 के ज़माने में मुताह किया करते थे और आंहज़रत सल0 ने कभी मना नहीं किया और न उसके बारे में ख़ुदा ने कोई नासिख़ आयत उतारी।
अबी नज़रा से रिवायत है किः
“मैंने जाबरि बिन अब्दुल्लाह अन्सारी से कहा कि इब्ने ज़बीर लोगों को मुताह से रोकता है और इब्ने अब्बास इसकी इजाज़त देते हैं। जाबिर ने कहा ज़मानये रसूल सल0 और ज़मानये अबुबकर में हम मुताह किया करते थे। जब हज़रत उमर हाकिम हुए तो उन्होंने कहा कि कुरआन है तो हुवा करे, रसूल सल0 है तो हुआ करे, मुताउल हज औऱ मुताउल निसा दोनों ज़मानये रसूल सल0 में जारी थे लेकिन मैं तुम लोगों को उन दोनों से मना करता हूँ।”
सही मुस्लिम में तो यहा तक है कि हज़रत उमर ने फ़रमाया कि अल्लाह ने अपने रसूल सल0 के लिये जो चाहा मुबाह कर दिया। अब कोई शख़्स औरतों से ताल्लुक पैदा करगा तो मैं उसे संगसार कर दूंगा।”
इन रिवायतों से पता चलता है कि हज़रत उमर की नज़डर में न कुरआन की कोई अहमियत थी और न हुक्मे इलाही का कोई पास व लिहाज़ था। क्या हुक्मे ख़ुदा और रसूल सल0 को ठुकराने के बाद कोई मुसलमान मुसलमान रह सकता है?
इस मौक़े पर हज़रत आयशा की यह रिवायत क़ाबिले तवज्जो है जिसमें आप फरमाती हैः
“रसूल उल्लाह सल0 ने यह फ़रमाया कि जो शख़्स हमारे दीन में कोई ऐसी बात ईजाद करे या कोई ऐसा अमल करे जिसके मुतअल्लिक हमारा हुक्म न हो तो वह शख़्स मरदूद है।”
तरावीह
तरावीह दरहक़ीक़त हज़रत उमर की ज़हनी इख़तरा का नाम है अहदे रिसालत या उसके बाद हज़रत अबुबकर के दौरे ख़िलाफ़त में तरावही का कोई वजूद नहीं था। यह बात तारीख़ी एतबार से मुस्तहकम, मुसल्लम औऱ यक़ीनी है।
रसूले अक़रम सल0 ने नमाज़े इस्तसक़ा (वह नमाज़ जो बारिश न होने की सूरत में मख़सूस तरकीब के साथ पढ़ी जाती है) के अलावा तमाम सुन्नती नमाज़ों में जमाअत को नाजाएज़ क़रार दे दिया था। उसी पर हज़रत अबुबकर के ज़माने में भी अमब होता रहा लेकिन माहे रमज़ान सन् 14 हिजरी में हज़रत उमर ने मुसलमानों पर यह हुक्म नाफ़िज़ किया कि हर मुसलमान रात भर तरावीह में गुज़ारे और मस्जिद में खड़ा रहे।
इस अज़ीयत रसां हुक्म में क्या मसलहत कारेफ़रमां थी? यह हज़रत उमर ही जानें। बहरहाल यह फ़रमान दूसरे शहरों में भी रवाना कर दिया गया और इस पर अमल की सख़्त ताकीद कर दी गयी। मदीनें में दो क़ारी मुक़र्रर कर दिया गये ताकि वह तमाम रात मुसलमानों को तरावही पढ़ायें।
बाज़ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत उमर ने एक रात मसाजिद का मुआएना किया औऱ नमाज़ियों को मुख़तलिफ अन्दाज़ में मसरुफ़े इबादत पाया तो उसी शब तरावीह का यह फ़रमान जारी किया।
बुख़ारी ने अपनी “तरावीह” में अब्दुल क़ारी से यह रिवायत नक़ल की है किः
“मैं उमर के साथ था, जब वह मस्जिद में दाख़िल हुए तो उन्होंने नमाज़ियों केो मुतफ़र्रिक़ हालत में देख कर कहा कि मैं इन्हें मजमें में देखना चाहता हूँ औऱ फिर आपने तरावही का हुक्म करके अबी बिन काब को इमाम मुक़र्रर किया। जब दूसरी रात आई तो फिर गये तो इजतेमाई मंज़र देखा औऱ फ़रमाया कि क्या अच्छी बिद्अत है।”
अल्लामा क़सतलानी का कहना है कि हज़रत उमर ने इसको बिद्अत से इसलिये ताबीर किया कि रसूल उल्लाह या हज़रत अबुबकर के ज़माने में इस क़िस्म का कोई इजतेमा न था। अल्लामा सेनन्नी लिखते हैं कि हज़रत उमर ने तरावीह ईजाद की। उम्मे वलद की बैय से मना किया। नमाज़े मय्यत में चार तकबीरें कर दीं। अमीरुल मोमेनीन का लक़ब इख़्तियार किया औऱ मुताह को हराम करार दिया।
अल्लामा अबदरबा ने इस्तेयाब में, इब्ने सादने तबक़ात में और इब्ने शहना ने रौज़तुल मुनाज़िर में सन् 23 हिजरी के वाक़ियात में हज़रत उमर की उन खुसूसियात का ज़िक्र किया है।
मौलवी वहीदुज ज़म ख़ा हैदराबादी इस बिदअत के ज़ेल में तहरीर फ़रमाते हैं कि बिदअत की दो क़िस्में हैं। हसना औऱ सय्या। बिदअत शरयी हमेशा सय्या होती है जिसकी तारीफ़ ओलमा ने यह की है कि दीन में कोई ऐसी नई बात पैदा की जाये कि जिसकी दलील किताब व सुन्नत से न हो।
इस बिदअत के बारे में बाज़ ओलमाये अहले सुन्नत का यह ख़्याल है कि हज़रत उमर ने अपनी हिकमते अमलीस से ऐसी चीज़ ईजाद की है जिससे रसूल उल्लाह स0 ख़ुद ग़ाफिल थे। यह महज़ अक खुश फ़हमी हैं वरना हकीक़त तो यह है कि हज़रत उमर ख़ुद एहकामे रिसालत की हिकमतों से बेबहरा थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने नमाज़े मुसतहेब्बात को इस लिये ग़ैर मशरुअ क़रार दिया था कि नमाज़ मुस्तहब को इन्सान अपने माबूर से मुनाजात के लिये इख़्तियार तौर पर अदा करता है। उसे ऐसी तन्हाई तौबा के साथ मुनाजात कर सके और उसके साथ ही इजतेमाई फ़ाएदा यह हो कि घर के बच्चे भी मसूद ने आंहज़रत सल0 से सवाल किया कि नमाज़ घर में अफ़ज़ल है या मस्जिद में? तो आपने फ़रमाया कि मेरा घर मस्जिद से मुलहिक़ है लेकिन मैं गै़र वाजिब नमाज़ें घर में ज़्यादा पसन्द करता हूं।
इब्ने माजा व इब्ने ख़ज़ीमा वग़ैरा ने ज़ैद बिन साबित के ज़रिये आंहज़रत सल0 से रिवायत की है कि बाज़ नमाज़ों के तवस्सुल से अपने घरों को बुजूर्ग बनाओ और बुख़ारी व मुस्लिम ने यह रिवायत नक़ल की है कि आंहज़रत सल0 ने नमाज़ वाले घर को “ज़िन्दा घर” औऱ बग़ैर नमाज़ वाले घर को “मुर्दा घर” से ताबीर किया है।
हज़रत उमर ने इस बिदअत को मुसलमानों पर मुसल्लत करके उन तमाम इजतेमाई, मज़हबी औऱ तरबीयती फ़वाएद से महरुम कर दिया जिनके लिये सरकारे रिसालत ने नमाज़ मुस्तहब को फ़रादा क़रार दिया था।
चार तक़बीरें
पैग़म्बरे इस्लाम सल0 पॉच तक़बीरों के साथ नमाज़े ज़नाज़ा पढ़ा करते थे। हज़रत उमर ने उस नमाज़ में तबदीली करके चार तकबीरों में उसे मुनहसिर कर दिया जैसा कि अल्लामा सयुती ने तारीखुल ख़ोलफ़ा औऱ इब्ने शहना ने रौज़तल मुनाजि़र में तहरीर फ़रमाया है औऱ इमाम अहमद बिन हम्बल ने अब्दुल आला से रिवायत की है कि ज़ैद बिन अरक़म ने एक जनाज़े पर पांच तकबीरों के साथ नमाज़ पढ़ी तो एक शख़्स ने एतराज़ किया कि यह हज़रत उमर के हुक्म के ख़िलाफ़ है। उन्होंने कहा कि मैंने रसूलस उल्लाह सल0 के साथ यूं ही पढ़ी है लेहाज़ा मैं इसे क़यामत तक तर्क नहीं कर सकता। इमाम अहमद ने यह रिवायत भई नक़ल की है कि यहिया ने हुज़ैफ़ा के गुलाम ईसा के साथ नमाज़ पढ़ी, उन्होंने पांच तकबीरें कह कर यह एलान किया कि मैंने सुन्नते रसूल सल0 पर अमल किया है।
इससे यह पता चलता है कि सुन्नते रसूल सल0 में तबदीली को हज़रत उमर अपना हक़ समझते थे।
हज़रत उमर के फैसले
(1) हज़रत उमर ने एक मजनू औ ज़ानिया औरत को संगसार का हुक्म दिया। हज़रत अली अलै0 को पता चला तो उन्होंने उस औरत को लोगों से छुड़कर उसकी जान बचा ली। लोगों ने हज़रत उमर से शिकायत की उन्होंने आपको तलब किया। आप गुसेसे में तशरीफ़ ले गये और फ़रमाया कि क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मजनून, नाबालिग़ और सोता हुआ शख़्स एहकाम से मुस्तसना है। उमर ने कहा हां यह दुरुस्त है । फ़रमाया कि इस औरत का जुनून एक मशहूर बात है। इसलिये मुम्किन है कि वह वक़्ते अमल भी रहा हो। फिर यह हद किस तरह जारी हो सकती है हज़रत उमर ने अपनी इस ग़लती का एतराफ़ किया। इस वाक़िये को इमाम बेहेक़ी ने और इमाम अहमद ने अपनी मसनिद में लिखा है।
(2) हज़रत उमर के पास एक ज़िना कार औरत लाई गयी। बिला तहक़ीक आपने उसकी संगसारी का हुक्म सुना दिया। इस फ़ैसले पर हज़रत अली अलै0 ने हज़रत उमर को टोका कि तुम्हें तहक़ीक़ करना चाहिये था, शायद इसके पास कोई उज़्र होता। हज़रत अली अलै0 के इस मशविरे पर हज़रत उमर ने उसका बयान लिया। उसने बताया कि मुछ पर प्यास का ग़लबा था मैं ने एक शख़्स से पानी मांगा। उसने बदनियती का मुज़ाहिरा किया, मैंने हत्तल इम्कान सब्र किया लेकिन जब सब्र व तहम्मुक का दामन हाथ से छूटने लगा और मजबूर हो गयी तो इस बुरे फ़ेल पर तैयार हो गयी। यह सुनकर हज़रत उमर ने कहा, अल्लाहो अकबर! तौबा नस कुरआन हद से मुस्तसना है। इस वाक़िये को बेहेक़ी ने सनन में और इब्ने क़ीम ने अलतरीक़े हिकमत फ़िस सियासतुल शरिया में नक़ल किया है।
(3) एक ज़िनाकार औरत हज़रत उमर के पास लाई गयी और वह हामला थी लेकिन हज़रत उमर ने उसे संगसार किये जाने का हुक्म दे दिया तो मेआज़ ने तौबा दिलाई कि अगर औरत ख़ताकार है तो इसके शिकम में तो बच्चा है उसने क्या ख़ता की है? आपने अपने हुक्म को फ़ौरन बातिल क़रार दिया और फ़रमाया कि औरतें मेआज़ड का मिस्ल पैदा करने से क़ासिर हैं। इस वाकि़ये को मुहम्मद बिन मुख़लिद अत्तार ने फ़वाएद मे नक़ल किया है।
(4) हज़रत उमर की अदालत में एक शख़्स के क़त्ल का मामला पेश हुआ जिसमें एक मर्द और एक औरत का हाथ था। हज़रत उमर ने तशवीश का इज़हार किया तो हज़रत अली अलै0 ने फ़रमाया कि अगर एक सरक़े के मामले दो शरीक हो तो क्या दोनों के हाथ कता न होंगे? कहा ज़रुर होंगे। आपने फ़रमाया बस यही हुक्म यहां भी जारी होगा। इस वाक़िये को अहमद अमीन ने फ़ज़रुल इस्लाम के सफ़ा 237 पर रक़म किया है।
(5) हज़रत उमर ने कुछ पूछने के लिये एक औरत को तलब किया तो डर के मारे उसका हमल साक़ित हो गया। हज़रत उमर घबराये और उन्होंने ओलमा फ़ुक़हा से मसला दरियाफ़्त किया। सब ने कहा कोई हरज नहीं है। हज़रत अली अलै0 ने फ़रमाया कि अगर यह हुक्म रेआयतन सादर हुआ है तो धोका है और अगर अजतेहाद है तो ग़लत है। लेहाज़ा आप पर शरई फ़र्ज़ है कि आप एक गुलाम आज़ाद करें। हज़रत उमर ने इस मशविरे पर अमल किया। इस वाक़िये को इब्ने अबील हदीद ने नक़ल किया है।
(6) क़दामा बिन मज़ऊन ने शराब पी तो उन्हें पकड़ कर हज़डरत उमर के पास लाया गया। उन्होंने उस पर हद जारी करने का क़सद किया। क़दामा ने कहा कि यह कुरआन के हुक्म के ख़िलाफ़ है क्योंकि उसमें है कि ईमान और अमले सालेह वालों के लिये खाने पीने पर कोई पाबन्दी नहीं है, मैं मोमिन, मुत्तक़ी और मुज़ाहिद हूँ। यह सुन कर हज़रत उमर ख़ामोश हो गये और लोगों से मशविरा करने लगे। इब्ने अब्बास ने हुरमते शराब की आयत से इस्तदाल किया औऱ कहा कि क्या हराम काम का अंजाम देने वाला शख़्स भी मुत्तक़ी और परहेज़गार हो सकता है? उस पर हज़रत उमर ने इस्तेफ़ता किया और अस्सी कोड़ों की सज़ा दी। इस वाक़िये को हाकिम ने मुस्तरदरिक में नक़्ल किया है।
(7) एक औरत को अन्सार के एक नौजवान से इश्क़ हो गया उसने अपनी जिन्सी प्यास बुझाने के लिये उस नौजवान को अपनी गिरफ़्त में लेना चाहा लेकिन वह किसी तरह नज़ान्द नहीं हुआ तो वह औरत इन्तेक़ाम पर उतर आई और उसने यह तरकीब की कि एक अण्डा तोड़ कर उसकी सफ़ेदी अपनी शर्मगाह पर और उसे मुलहिक़ लिबास पर मल ली और उसी हालत में हज़रत उमर के पास जाकर यह फ़रियाद कीकि फ़लां शख़्स ने मेरी आबरुरेज़ी की है। हज़रत उमर ने उस नौजवान को तलब किया और चाहा कि उस पर हद जारी करे। उसने कहा, आप मुझे सज़ा देने से पहले तहक़ीक व तफ़तीश क्यों नहीं करते कि उसके बयान में कहां तक सदाक़त है? बिलआख़िर यह मामला हज़रत अली अलै0 के सामने रखा गया आपने फ़रमाया कि इस औरत के लिबास को गरम पानी में डाल दिया जाये चुनानचे उसका लिबास गर्म पानी में डाला गया और अण्डे की सफ़ेदी उम पर जम गयी और उसकी बदबू से पता चल गया कि यह अण्डे की सफ़ेदी है। तनबीह पर उसने खुद भी इक़रार कर लिया और वह नौजवान हज़रत उमर के ताज़ियानों से बच गया। इस वाक़िये को भी इब्ने क़ीम ने तरीकुल हिकमता के सफ़ा 48 पर रक़म किया है।
मुग़ीरा बिन शोबा की वाक़िया
अबल्ला में जहां जंगे जलूला के बाद सन् 16 हिजरी में बसरा की आबादकारी अमल में आई, अतबा बिन ग़ज़वान सन् 14 हिजरी में सबसे पहले गवर्नर मुक़र्रर किया गये। छः माह बाद अतबा का इन्तेक़ाल हो गया तो उनकी जगह मुग़ीरा बिन शेबा गवर्नर हुए मगर दो ही बरस के बाद रबीउल अव्वल सन् 17 हिजरी में यह माजडूल कर दिया गये और उनकी जगह अबू मूसा अशरी की तक़र्रुरी अमल में आई। बाज़े मोअर्रिख़ीन ने यह भी लिखा है कि अतबा के बाद मजाशा बिन मसूद औऱ उनके बाद मुग़ीरा वगै़रा ने यह बताई है कि मुग़ीर और अबुबकर दोनों पड़ोसी थे और आमने सामने वाला खानों में रहते थे। उन दोनों के मकानों के दरमियान रास्ता मुश्तरिक था औऱ ख़िड़िकियां बिलमुक़ाबिल थी। एक दिन अबुबकर के बालाख़ाने पर उसके चन्द साथी बैठे आपस में बातें कर रहे थे कि अचानक तेज़ हवा का एक झोंका आया जिससे ख़िड़की खुल गयी। अबुबकर उसे बन्द करने उठे तो उन्होंने देखा कि मुग़ीरा के कमरे की खिड़की भी खुली है औऱ वह दुनिया व माफ़िहा से बे ख़बर एक औरत की दोनों टांगों के बीच तेज़ी से हिल रहे हैं। अबुबकर ने यह मंज़र देख कर अपने साथियों नाफ़े बिन कलदा, ज़्याद बिन अबीया और शब्बल बिन माबिद बिजली वग़ैरा से कहा, आओ भाईयों। और एक दिल चसप करिश्मा देखों। उन्होंने देखा तो पूछा कि यह औरत कौन है? अबुबकर ने कहा यह हज्जत बिन अतीक की बीवी उम्मे जमील बिन्ते अफ़क़म है इसका ताल्लुक़ क़बीलये आमिर बिन सासिया से है। यह उमरा व शुरफ़ा के तसकीने नफ़्स का सामान फ़राहम करती है। वह बोले, हमने तो सिर्फ़ निचला हिस्सा ही देखा है। अबुबकर ने कहा, खड़े रहो अभी चेहरा भी देख लेना. चुनानचे जब मुग़ीरा ने उसे छोड़ा और वह लड़खड़ाती हुई उठी तो उन लोगों का शक व शुबहा यकीन में बदल गया और उन लोगों ने भी उसे पहचान लिया।
जब मुग़ीरा ज़ोहर की नमाज़ पढ़ने आये तो अबुबकर ने उन्हें रोका औऱ हज़रत उमर को इस वाक़िये की इत्तेला दी। हज़रत उमरने मुग़ीरा औऱ अबुबकर को मय गवाहों के तलब किया। मुग़ीरा ने अपनी सफ़ाई में यह बयान दिया कि मैं अपनी बीवी के साथ अपने घर में मुजामियत कर रहा था। इनका देखना क्यों कर जाएज़ हुआ? अबुबकर, शब्बल औऱ नाफ़े ने गवाही दी कि हमने मुग़ीरा को उम्मे जमील ही के साथ ज़िना करते देखा है। मगर ज़्याद ने यह गवाही दी कि मैंने मुग़ीरा को एक औरत की दोनों टांगों के दरमियान हिलते देखा है उसके पैरों में मेंहदी लगी थी और वह ऊपर को उठे हुए थे। उसकी शर्मगाह खुली हुई थी औऱ ज़ोर ज़ोर से सांस लेने की आवाज़ आ रही थी। हज़रत उमर ने पूछा, क्या तुम उस औरत को पहचानते हो? कहा नहीं, चुनानचे हज़रत उमर ने मुग़ीरा को छोड़ दिया औऱ तीनों गवाहों पर दरोग़गोई की हद जारी की।
तीरीख़े इब्ने ख़लकान तरजुमा यज़ीद बिन ज़्याद में है कि जब ज़्याद गवाही के लिेय आये तो हज़रत उमर ने कहा कि वह शख़्स आ गया जिसकी ज़बान से मुहाजेरीन में से एक शख़्स रुसवाई से बच जायेगा। तबरी ने लिखा है कि मुग़ीरा ने खुशामद दरामद करके ज़्याद को मिला लिया था और उससे कहा थआ कि वह बात न कहता जो तुमने नहीं देखी क्योंकि अगर तुम मेरे औऱ उस औरत के पेट के दरमियान भी होते भी तुम मुझे दख़ूल करते हुए न देख पाते। इब्ने ख़लकान का बयान है कि जब हज़रत उमर ने पूछा तो ज़्याद ने कहा कि मैंने मुग़ीरा को उस औरत की टांगे उठाये हुए इस तरह देखा है कि ख़ुसिये उसकी रानों के दरमियान रगड़ खा रहे थे।
शदीद धक्के और बुलन्द सांस की आवाज़ सुनी है और इस तरह नहीं देखा जिस तरह सुरमादानी में सलाई जाती है।
इस गवाही के बाद हज़रत उमर ने कहा कि ऐ मुग़ीरा उठो और इन तीनों गवाहों को हद इफ़तेरा के कोड़े मारो। चुनानचे मुग़ीरा ने अस्सी अस्सी कोड़े तीनों को मारे।
कुरआन मजीद में ज़िनाकार मर्द और औरत दोनों की “हद” मोअय्यन है और इसके साथ चार आदिल गवाहों की शर्त भी है मगर वह शर्त कहीं नहीं है कि गवाह इस तरह गवाही दे जिस तरह हज़रत उमर ने फ़रमाया है. जब कि दौरे रिसालत में भी कुछ सहाबा ज़िना के मुरतकिब हुए हैं और उन पर “हद” जारी करने के लिये गवाह भी तलब किये गये हैं मगर सुरमादानी में सलाई वाली शर्त नहीं रखी गयी सिर्फ़ मोतबर और आदिल गवाहों के चश्मदीद बयानात पर एतमाद करके फ़ैसला कर दिया।
हज़रत उमर के तजवीज़ किरदा इस ताज्जुल ख़ेज़ निसाब शहादत को आपके अव्वालियात में शामिल किया जाना चाहिए कि आपने न सिर्फ़ सुरमादानी और सलाई की शर्त रख कर मुग़ीरा को बरी कर दिया बल्कि उसके हाथों से गवाहों की पिटाई भी करा दी जिसमें अबुबकर सब से ज़्यादा ज़ख़्मी हुए।
अबु शहमा का वाक़िया
अम्र बिन आस के हलके अक़तेदार में हज़रत उमर के साहबज़ादे अबु शहा ने एक दिन शराब पी। अम्र आस ने उसका सर मुण्डवा कर उसके भाई अब्दुल्लाह के सामने उस पर शरई हद जारी की और ज़ख़्मी हालत में हज़रत उमर के पास इस ख़त के साथ रवाना कर दिया कि मैंने अबु शहमा पर तमाम शराएते इस्लामी के साथ बिला रेआयत शरई हद जारी कर दी और और अब आपकी ख़िदमत में रवाना कर रहा हूं।
अब्दुल्लाह बिन उमर भाई को लेकर बाप की ख़िदमत में पहुंचे। शफ़क्क़ते पेदरी का तक़ाज़ा तो यह था कि आप अबु शहमा को समझाते बुझाते, तसल्ली देते और ग़ैर शरई इक़दाम से आइन्दा बाज़ रहने की नसीहत फरमाते। हद जारी करने का सवाल ही पैदा नहो होता था क्योंकि वह पहले ही अम्र आस के हाथों जारी हो चुकी थी। लेकिन आपने अबु शहमा को देखते ही ताजियाना उठाया और उन्हें पीटने लगे। अबु शहमा ने फ़रयाद की कि अब्बा जान! मैं बीमार हूँ मर जाऊँगा। आपने एक न सुनी और अज़ सारे नौ हद जारी करके क़ैदख़ाने में डाल दिया जहां अबु शहमा ने दम तोड़ दिया।
यह वाक़िया उस वक़्त और ज़्यादा इबरत अंगेज़ और अफ़सोसनाक हो जाता है जब तारीख़ यह बताती है कि हज़रत उमर खु़द भी शराब के बेदह शौक़ीन थे। उनका अपने शराबी बेटे पर शराब नोशी के इल्ज़ाम में हद जारी करना कहां तक दुरुस्त है? जब कि अम्र आस उस पर शरयी हद का ख़ातेमा कर चुका था। फिर अबु शहमा ने अपने बाप से बीमारी की उज़्र भी किया था तो क्या इस्लामी शरीयत में किसी बीमार पर हद जारी हो सकती है और क्या हद के बाद इन्सान पर क़ैद की सख़्तियां मुसल्लत की जा सकती हैं? एहकामाते इलाहिया के बारे में अगर अमरु आस क़ाबिले एतमाद था तो दोबारा आपने हद जारी करने की ज़हमत क्यों फ़रमाई? औऱ अगर अम्र आस का यह इक़दाम शरयी एतबार से दुरुस्त नहीं था तो ऐसे शख़्स को आपने मुसलमानों पर हाकिम क्यों बनाया?
दीवाने अता
हज़रत उमर ने सन् 15 हिजरी में “दीवाने अता” का इस्तेख़ारा किया तो एक रजिस्टर की शक्ल में था। इसका मक़सद फ़ौजी निज़ाम को दुरुस्त करने के लिये फ़ौजियों की पेंशन औऱ अमाएदीन व अक़ाबरीने इस्लाम, अज़वाजे पैगम्बर सल0, असहाबे बदर और मुहाजेरीन वग़ैरा को वज़ाएफ़ मुक़र्रर करना था। इस काम के लिये अक़ील बिन अबीतालिब अलै0, जबीर बिन मुताम औऱ मोहज़मा बिन नोफ़िल पर मुश्तमिल एक कमेटी बनाई गयी जिसने पेंशन दारान वज़ीफ़ा कुनिन्दीगान के असमा दर्जे रजिस्टर किये। इन्द्रजात के बाद जब रजिस्टर मुरत्तब हो गया तो उसका नाम “दीवाने अता” रखा गया। अज़ालतुल ख़फ़ा में है कि सबसे पहले रजिस्टर में अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब का नाम दर्ज किया गया उसके बाद यके बा दीगरे क़बाएल के नामों से ग़ुज़र कर यह सिलसिला बनी अदी पर तमा हुआ। इस फ़ेहरिस्त की रु से जो तंख़्वाहें और वज़ाएफ मुक़र्रर किये गये उनकी तफ़सील मंदर्जा ज़ैल है।
(1) |
अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब |
12,000 दिरहम सालाना |
(2) |
हज़रत आयशा |
12,000 दिरहम सालाना |
(3) |
दीगर अज़वाजे पैग़म्बर |
10,000 दिरहम सालाना |
(4) |
असहाबे बदर |
5,000 दिरहम सालाना |
(5) |
असहाबे हुदैबिया |
4,000 दिरहम सालाना |
(6) |
मुहाजेरीन क़बल फ़तहे मक्का |
3,000 दिरहम सालाना |
(7) |
मुहाजिरीन हब्शा |
4,000 दिरहम सालाना |
(8) |
शुरकाये जंग क़ादसिया |
2,000 दिरहम सालाना |
(9) |
क़ादसिया व यरमूक के बाद के मुजाहेदीन |
1,000 दिरहम सालाना
|
(10) |
मसना की फ़ौज |
500 दिरहम सालाना |
(11) |
अहले यमन |
400 दिरहम सालाना |
(12) |
लीत की फौज |
300 दिरहम सालाना |
(13) |
रबी की फ़ौज |
250 दिरहम सालाना |
(14) |
अहले बदर की बीवियां |
500 दिरहम सालाना |
(15) |
अहले हुदैबिया की बीवियां |
500 दिरहम सालाना |
(16) |
अहले क़ादसिया की बीवियां |
200 दिरहम सालाना |
जनाबे सलमान फ़ारसी को अहले बदर में शामिल करके उनकी भी पांच हज़ार दिरहम सालाना तंख्वाह मुक़र्रर हुई। मुहाजेरीन हब्शा में हज़रत उम्मे सलमा का नाम दर्ज रजिस्टर करके चार हज़ार तंख्वाह मुक़र्रर की गयी। असामा बिन ज़ैद का चार हज़ार और अब्दुल्लाह बिन उमर का तीन हज़ार मुक़र्रर हुआ। तलहा बिन अबीदउल्लाह अपने भाई उस्मान को लाये तो उनका भी आठ सौ दिरहम मुक़र्रर हुआ और जब नज़र बिन अनस आये तो उनके दो हज़ार दिरहम सालाना मुक़र्रर हुए। (कामिल, तर्जुमा इब्ने ख़लदून, बा तंख़्वाह परचे नवीस भी मुक़र्रर किये थए जो बात बात की इत्तेला उन्हें दिया करते एथ। तबरी ने लिखा है कि उमर के जासूस हर लश्कर के साथ रहते थे जो हर वाक़िये की इत्तेला उन्हें दिया करते थे।
वाक़ियात सन् 16 हिजरी
हज़रत उमर ने हज़रत अली के मशविरे पर यक्कुम मुहर्रम से सन् हिजरी जारी किया। अहले फ़िरंग सन् हिजरी 16 जुलाई सन् 622 से शामार करते हैं।
अब्दुल्लाह बिन उमर ने सफ़िया बिन्ते अबुउबैदा से अक़द किया।
वाक़ियात सन् 17 हिजरी
ख़ालिद बिन वलीद माज़ूल किये गये।
मस्जिदुल हराम की तौसीय अमल में आई।
कूफ़ा आबाद होकर इराक़ का दारुल हुकूमत क़रार पाया।
वाक़ियात सन् 18 हिजरी
शाम में ताऊन की वबा फैली। इस वबा में अबुउबैदा बिन जराअ, मआज़ बिन जबल, यज़ीद बिन अबुसुफि़यान, हरस बिन हश्शाम, सुहैल बिन अम्र, अतबा बिन सुहैल, और आमिर बिन ग़ीलान सक़फ़ी के हमराह 25 हज़ार मुसलमान फौत हो गये। यह बीमारी चूंकि क़रया अमवास से शुरु हुई थी इसलिये वह ताऊने अमवास के नाम से मशहूर हुआ।
यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान की हलाकत के बाद हज़रत उमर ने माविया बिन अबुसुफ़ियान को दमिश्क़ का गवर्नर मुक़र्रर किया।
इसी साल काबुल एहबार ने इस्लाम कुबूल किया।
इसी साल हिजाज़ में ऐसा सख़्त क़हत पड़ा कि ज़मीन की मिट्ठी राख बन कर हवा में उड़ने लगी इसी सबब से इस साल का नाम आमुर-रमादा रखा गया।
वाक़दी का कहना है कि अयाज़ बिन ग़नम ने रुहा, रक़्क़ा औऱ हर्रान इसी साल फ़तेह किया।
वाक़ियात सन् 20 हिजरी
हज़रत उमर ने अपने साले क़दामा को बहरैन की गवर्नरी से माज़ूल करके उसकी शराब नोशी पर “हद” जारी की और इसकी जगह अबुबकर को बहरैन और यमामा का वाली मुकर्रर किया।
इसी साल साद बिन अबी विकास कूफ़े की गवर्नरी से माज़ूल हुए और उनकू जगह अम्मार यासिर वाली मुकर्रर हुए।
हज़रत उमर ने ख़ैबर के यहूदियों को जिवा वतन करके वादी-उल-कुरा में आबाद किया और नजरान के यहूदियों को कूफ़े की तरपञ जिला वतन करके उनकी रेहाइशगाहों को मुसलमानों में तक़सीम कर दिया।
इस साल अम्मार यासिर ने अपने अहदे गवर्नरी से इस्तेफ़ा दे दिया। हज़रत उमर ने उनकी जगह कूफ़ा पर जबीर बिन मुताम को गवर्नर मुकर्रर किया औपर उन्हें उस मनसबे से माज़ूल व महरुम करके उनकी जगह मुगीरा बिन शैबा को गवर्नर बनाया।
इसी साल अमरु आस के ख़ाला ज़ाद भाई अक़बा बिन नाफ़े फ़हरी ने ज़वीला व बर्का का दरमियानी इलाक़ा फतेह किया जिसमें सुलह हुई।
इस साल में अमीर बिन साद, हौरान, हमस, कंसरीन, औऱ अलजज़ाएर पर औऱ माविया दमिश्क, उरदुन, फ़िलिस्तीन, अनताकिया और मारा व मसरीन पर मुतीन थे।
इसी साल अला हज़रमीं आमिले वहरैन ने वफ़ात पाई और उनकी जगह अबुहूरैरा गवर्नर मुकर्रर हुए।
वाकियात सन् 22 हिजरी
इस साल माविया बिलाद रोम से लड़ा और दस हज़ार सवारों के साथ रोम में दाख़िल हुआ।
इसी साल यज़ीद बिन माविया और अब्दुल मलिक बिन मरवान पैदा हुआ।
हज़रत उमर का तर्ज़े हुकूमत
हज़रत उमर का तर्ज़ व निज़ामें हुकूमत अहले शूरा का मरहूने मिन्नत था। रोज़ाना मस्जिद नबवी में नमाज़ व खुतबा के बाद एक मजलिस शूरा का इनएक़ाद अमल में आता था जिसमें अकरब के अमाएदीन व अकाबरीन उमूरे सल्तनत के बारे में अपने मशविरे पेश करते थे और इन्तेहाई ग़ौर व फिक़्र के बाद उन पर अमल दरामद किया जाता था। इसके अलावा भी हर शख़्स को अपनी राये देने का हक़ हासिल था। हुकूमत के तमाम अहम मामलात इसी मजलिस में तय होते थे औऱ हज़रत उस्मान, अब्दुल रहमान बिन औफ़, मेआज़ बिन जबल, ओबी बिन कूब, ज़ैद बिन साबित, तलहा बिन अबीदुल्लाह और ज़बीर बिन अवाम इस मजलिसे शूरा के ख़ुसूसी मुशीरकार थे। जब कोई पेचीदा मामला जेरे बहस आता और वह दुशवार तलब होता तो हज़रत अली अलै0 से कभी कभी मशविरा तलब किया जाता था।
मजलिसे शूरा के अलावा ख़ास ख़ास मामलात के लिये एक और मजलिस “मजलिसे मुहाजेरीन” भी कायम थी जिसमें रोज़ मर्रा की ज़रुरियात और इन्तेज़ामात के बारे में फैसले हुआ करते थए। आम रेआया को भी इन्तेजामी उमूर में मदाख़िल का हक़ था।
मक्का, मदीना, शाम, जज़ीरा, मसरा, कूफा, मिस्र, एलिया (बैतुल मुक़द्दस), हमस, रमला, खुरासान, आज़र बाइजान, फ़ारस, ताएफ़, सनआ, जंद और बहरैन मुमालिक मुहरुसा के सूबे थे। हर सूबे में हाकिम (आमिल या वाली) सिक्रेट्री (कातिब या मुंशी) कलेक्टर (साहेबुल ख़िराज) पुलिस आफ़ीसर (साहबे अहदास) अफ़सर ख़ज़ाना (साहबे माल) मुक़र्रर थे उनके अलावा एक फ़ौजी अफ़सर (क़ाएद) भी होता था।
हर सूबे में कई कई ज़िले औऱ परगने थे जहां मुख़्तलिफ़ हुक्काम मुक़र्रर थे। आमिल को वक़्ते तक़र्रुरी जो फ़रमान जारी किया जाता था उसमें उस के इख़्तियार व फ़राएज़ की तफ़सील दर्ज होती था जिसे आमिल रेआया के मजमे आम में पढ़ कर सुनाता था और लोग उसके मुक़र्ररा इख़्तियारात से वाक़िफ व बाख़बर होकर उसे अपने इख़्तियार की हद से बाहर नहीं निकलने देते थे। हज के मौक़े पर तमाम मुमालिक के आमिल बुलाये जाते थे और वहां के लोग भी आते थे जिनसे आमिल के आमाल के बारे में दरियाफ़्त किया जाता थआ औऱ अगर कोई शिकायत होती तो इसका तदारुक किया जाता था। मुसलमानों से ज़कात ली जाती थी, ज़मीन पर पैदावार का तसवां हिस्सा मुक़र्रर था। जंगी ख़िदमत हर मुसलमान पर लाज़मी थी। ग़ैर मुमालिक से जो लोग ब-गरज़ तिजारत आते थे उनसे माले तिजारत पर दस फ़ीसदी टैक्स वसूल किया जाता था। माले ग़नीमत का पांचवा हिस्सा हुकूमत का हक़ था बाक़ी सब फौज में तक़सीम हो जाता था। उफ़तादा ज़मीनें आबादकारी की शर्त पर आबाद कारों को दी जाती थीं। मुमलिके मुरुसा में आबपाशी के लिये नहरें, तालाब औऱ बन्द बनवाये गयें थे। रेआया के आराम व आसाइश के लिये जाबजां सड़कों, पुलों, शफाखानों, मस्जिदों और रैन बसेरों की तामीर अमल में लाई गई थी। बड़े बड़े शहरों में मुतअद्दिद कैदख़ाने बनवाये गये थे जिनमें क़ैदियों को रखा जाता था। मौलवी सैय्यद अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में रक़म तराज़ हैं कि हज़रत उमर के अहदे हुकूमत में जितने भी काम रफ़ाहे आम के हुए वह सब के सब हज़रत अली के मशवरों के मरहूने मिन्नत हैं।
इ्ब्तेदा में मुकदमाता के फ़ैसले आमिलों के सुपुर्द थे मगर जब हुकूमत मुस्तहकम हो गयी तो जगह जगह क़ाज़ी मुक़र्रर कर दिये गये। क़ाज़ी की अदालत में फ़रीकैन मसावी तौर पर बगै़र किसी मज़ाहमत के आते जाते थे। फ़तवों के लिए खास मुसतनद फ़ाज़िल थे जिनकी निगरां ह़ज़रत आयशा थीं।
फ़ौजदारी के मुक़दमात कें इब्तेदाई तफ़तीश पुलिस करती थी फिर मुलज़िमों का चालान करके क़ाज़ी की अदालत में फेज देती थी। पुलिस के फ़राएज़ में लोगों की जान व मानल की हिफ़ाज़त, दुकानदारों के नाप तौल की देखभाल, सड़कों के किनारे दुकानों की तामीर की रोक थाम, जानवरों पर ज़्यादा बोझ लादने और शराब फ़रोख़्त करने वालों से मवाख़िज़ा भी शामिल था। मदीना, कूफ़ा, बसरा, मूसल, क़सतात , दमिश्क, हमस, उरदुन, और फ़िलिस्तीन फ़ौजी मराकिज़ थे जहां चार चार सौ घोड़ों के असतबल, फ़ौजी बैरीके, अजनास व रसद के गोदाम, फ़ौजी दफ़ातिर और मकानात थे। उनके अलावा सरहदी मुकामात पर भी फ़ौजी छांवनियां थीं जहां हम वक्त फ़ौजें पड़ी रहतीं थीं।
शूरा, वफ़ात, अज़वाज और औलादें
तख्ते हुकूमत पर हज़रत उमर को दस साल छः माह चार दिन गुज़रे थे कि मुग़ीरा बिन शेबा के गुलाम अबु लोलो फ़ीरोज़ ने किसी बात पर बिगड़ कर उनके शिकम में खंज़र उतार दिया। लोग उन्हें ज़ख्मीं हालत में घर लाये मुआलिज बुलाया गया मगर घाव इतना गहरा था कि जब नबीज़ पिलाई गयी तो वह ज़ख्म के रासते से बाहर निकल बड़ी और उनकी ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें ख़त्म हो गयी।
मिजाज़ पुरसी के लिये आये हुए कुछ सहाबा भी इस मौक़े पर मौजूद थे। उन्होंने हज़रत उमर की हालत बिगड़ती देखकर मशविरा दिया कि उपने बाद ख़िलाफ़त के लिये किसी को नामजद कर जाइये। उन्होंने हसरत भरे लहजे में कहा, किसे नामज़द करुँ? काश अबुउबैदा ज़िन्दा होते तो खि़लाफत उनके सुपूर्द करता और जब अल्लाह मुझ से पूछता तो मैं कहता कि उसके सुपुर्द कर आया हूँ जिसे तेरे नबी ने अमीने उम्मत कहा था। या फिर अबु हुअफ़ा का गुलाम सालिम ज़िन्दा होता तो यह मनसब उसके हवाले कर देता। जिसके बारे में पैग़म्बर सल0 ने फ़रमाया था कि वह अल्लाह से बे हद मोहब्बत रखने वाला है। मुग़ीरा बिन शोबा ने कहा, अपने बेटे अब्दुल्लाह को नामज़द कर दीजिये। उस पर हज़रत उमर ने फ़रमाया, ख़ुदा तुझे ग़ारत करे, मैं ऐसे शख़्स को किस तरह ख़लीफ़ा बना दूं जो अपने बीवी को तलाक़ देने से भी बे खबर है।
इब्ने हजर मक्की रक़म तराज़ है कि हज़रत उमर का यह इशारा उस वाक़िये की तरफञ है कि जब अब्दुल्लाह ने अपनी बीवी को हैज़ की हालत में तलाक़ दे दी थी और जिस पर आंहज़रत सल0 ने हज़रत उमर से फ़रमाया था कि इससे कहो कि वह इससे रुजु कर ले।
हज़रत उमर ने मुग़ीरा की बात को रद करने के बाद हाज़रीन से मुख़ातिब होकर कहा कि अगर मैं किसी को ख़लीफा मुक़र्रर करुं तो कोई हरज नहीं है इसलिये कि अबुबकर ने मुझे ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया औऱ वह मुझ से बेहतर थे और अगर मुकर्रर न कुरुं तो उस में भी कोई मुज़ाएका नहीं है इसलिये कि पैग़म्बर सल0 ने किसी को जानशीन मुक़र्रर किया और वह हम दोनों से बेहतर थे। इसी असना में हज़रत आयशा ने अब्दुल्लाह बिन उमर के ज़रिये उन्हें यह पैग़ाम भिजवाया कि उम्मत का इन्तेशार में छोड़ने के बजाये किसी को ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर जायें औऱ ख़ुद अब्दुल्लाह ने भी जानशीन की नामजदगी पर ज़ोर दिया। हज़रत उमर ने कहा कि ग़ौर व फ़िक्र के बाद मैंने यह तय किया है कि अली बिन अबीतालिब अलै0 उस्मान बिन अफ़ान, अब्दुल रहमान बिन औफ़, साद बिन अबी विकास, ज़बीर बिन अवाम और तलहा बिन अबीदुल्लाह को नामज़द करके एक मजलिसे शुरू की तशकील करुं यह लोग इस लायक हैं। कि अपने में से किसी एक को ख़लीफ़ा मुन्तख़ब कर लें।
जब तन्हाई का मौक़ा हाथ आया तो कहा, अगर यह लोग अली अलै0 की ख़िलाफ़त पर इत्तेफाक़ कर लेंगे तो वह उम्मत को हक़ व सदाक़त की राह पर ले जायेंगे। अब्दुल्लाह बिन उमर ने कहा, तो फिर आपको उन्हें बराहे रास्त ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर देना चाहिये। हज़रत उमर ने कहा कि “वह हरगिज़ मुझे गवारा नहीं है।”
मजलिसे शूरा का ख़ाका मुकम्मल करने के बाद मुन्तख़ब अरक़ान को अपने यहां तलब किया ताकि उन्हें मजव्वेज़ा लाहए अमल से आगाह कर दें। जब अरकाने शूरा जमा हो गये तो हज़रत उमर ने कहा, मुझे ऐसा लगता है कि तुम में से हर शख़्स ख़िलाफत का तालिब है। इस पर जुबैर ख़ामोश न रह सके और उन्होंने कहा कि हमें ख़िलाफ़त की तलब क्यों न हो, हम सबक़त और क़राबत मे या मर्तबा व मुक़ाम में तुमसे कम नहीं हैं। अगर तुम ख़लिफ़ा हो सकते हो तो हमारे हाथों में भी ख़िलाफ़त की बाग डोर आ सकती है। हज़रत उमर ने कहा, ऐ जुबैर। तुम हरीस, कज ख़ुल्क़ औऱ तंग दिल हो। गुस्से में हो तो काफ़िर और खुश हो तो मोमिन। अगर तुम्हें ख़िलाफ़त मिल गयी तो तुम सेर आध सेर जौ के लिये लोगों से लड़ते फिरोगे। फिर तलहा के बारे में कहा कि तलहा ज़न मुरीद और गुरुर का पुतला है। अगर वह ख़लीफ़ा हुआ तो ख़िलाफत की अंगूठी अपनी बीवी को पहना देगा। अब्दुल रहमान बिन औफ़ के लिये कहा कि वह उम्मत का फ़िरऔन है। और उस्मान बिन अफ़ान के लिये कहा कि वह क़बीला परस्त और कुन्बा परवर हैं उन्हें अपने क़बीले वालों के अलावा दूसरा कोई नज़र ही नहीं आता।
इस एतराफ़ का तक़ाज़ा तो यह था कि आप मजलिस शूरा की तशकील के बजाये अपने इख़्तियाराते ख़ुसूसी से किसी एक शख़्स को अपनी मर्जी के मुताबिक ख़लीफ़ा नामजद कर देते जैसा कि हज़रत अबुबकर ने आपके साथ किया था। लेकिन एतराफ़ के बावजूद आपने शूरा की तशकील इस लिये ज़रुरी समझी कि इस तशकील में भी आपके मक़सद की तक़मील मुज़मिर थी और इसके अरकान, तरीक़ये कार, तरीक़ये इन्तेख़ाब और लाहए अमल में वह तमाम असबाब पिन्हा थे जिनके ज़रिये खिलाफ का ऱुख़ इसी तरफ मुड रहा था जिधर आप मोड़ना चाहते थे। चुनानचे एक मामूली सूझ बूझ रखने वाला इन्सान भी बड़ी आसानी से इस नतीजे पर पुहंच सकता है कि इस मजलिसे शूरा की तशकील और हिकसमेत अमली में हज़रते उस्मान की कामयाबी के तमाम असबाब फ़राहम थे। क्योंकि अब्दुल रहमान बिन औफ़ उस्मान का बहनोई था औऱ साद बिन अबी विक़ास अब्दुल रहमान का अज़ीज़ व हम क़बीला था लेहाज़ा उन दोनों से किसी एक को भी उस्मान के खिलाफ़ तसव्वुर नहीं किया जा सकता। तीसरे तलहा थे जो अब्दुल रहमान और उस्मान की तरफ़ इसलिये माएल थे कि वह हज़रत अली अलै0 से मुनहरिफ़ थे क्योंकि यह तीमी थे और अबुबकर के ख़लीफ़ा हो जाने की वजह से बनी तीम और बनी हाशिम में निज़ा की दाग़बेल पड़ चुकी थी। बाक़ी रहे जुबैर, वह ब-फ़र्ज़े मोहाल हज़रत अली अलै0 का साथ भी देते तो उनकी तन्हाई की अहमियत ही क्या थी?
हज़रत उमर की हिकमते अमली ने इन्तेख़ाब का जो तरीक़ा तजवीज किया थी वह यह था कि अगर फ़रीक़ीन में राय हदिन्दीगान की तादाद निस्फ़ निस्फ़ हो यानी तीन एक तरफ़ औऱ तीन दूसरी तरफ़ हों तो ऐसी सैरत में अब्दुल्लाह बिन उमर को सालिस बनाया जाये औऱ जिस फ़रीक़ के मुतअल्लिक़ वह हुक़् दे वहीं फ़रीक अपने में ख़लीफ़ा का इन्तेख़ब कर ले औऱ अगर लोग इस पर रज़ामन्द न हों तो अब्दुल्लाह इश फ़रीक़ का साथ दें जिसकी तरफ अब्दुल रहमान बिन औफ़ हों और अगर दूसरे लोग इसकी मुख़ालिफत करें तो उन्हें इस मुत्तफ़िक़ा फ़ैसले की ख़िलाफ़ वर्ज़ी के जुर्म में क़त्ल कर दिया जाये।
आपने एक तरहफ ते यह किया और दूसरी तरफ यह किया कि अब्दुल्लाह को इस अमर की ताक़ीद कर दी कि इख़्तेलाफ़ की सूरत में तुम अब्दुल रहमान का साथ देना इसके बाद आपने अबु तलहा अन्सारी को हुक्म दिया कि वह बचास शमशीर जन ले कर उन छः अफराद के सरों पर मुसल्लत से जायें और उन्हें किसी दूसरे काम में मश़गूल न होने दें। सहीब को हुक्म दिया कि वह नमाज़े जमाअत पढ़ाये और जमाअत को एक घर में बन्द करके तलवारें उनके सरों पर लटका दें। और अगर अरकाने शूरा के दरमियान तीन दिन के अन्दर फैसला न हो सके तो सबकी गर्दनें उड़ा दी जायें और मामला आम मुसलमानों के सुपुर्द कर दिया जाये ताकि वह जिसे चाहे अपना ख़लीफ़ा चुन लें।
हज़रत अली बिन तालिब अलै0 की दूर रस निगाहों ने हज़रत उमर की इस हिकमते अमली और तरीक़ये इन्तेख़ाब को क़बल अज़़ वक़्त भांप लिया कि वह ख़िलाफ़त उस्मान की हो गयी जैसा कि आपने इब्ने अब्बास से फ़रमाया
“ख़िलाफ़त का रुख़ हमसे मोड़ दिया गया है। इब्ने अब्बास ने कहा यह क्यो कर? फ़रमाया मेरे साथ उस्मान को भी लगा दिया गया है और कहा गया है कि अक़सरियत का साथ दो औऱ अगर दो एक पर और दो एक पर रज़ामन्द हो तो तुम उन लोगों का साध दो जिन में अब्दुल रहमान बिन औफ़ हैं। चुनानचे साद अपने चचेरे भाई अब्दुल रहमान का साथ देगा और अब्दुल रहमान तो उस्मान का बहनोई होता ही है।”
बे हर कैफ़ हज़रत उमर की वफ़ात के बाद उनके हुक्म के बमोजिब हज़रत आयशा के हुजरे में यह इजतेमा औऱ दरवाज़े पर अबु तलहा अन्सारी पचास शमशीर बकफ़ आदमियों को ले कर खड़ा हो गया। कार्रवाई की इब्तेदा तलहा ने की और कहा कि गवाह रहना कि मैं अपना हक़ राय दहिन्दगी उस्मान के हवाले करता हूं। इस पर जुबैर ने अपना हक़ राय दहिन्दगी हज़रत अली अलै0 को सौंप दिया। फिर साद ने अपनी राय अब्दुल रहमान के हवाले कर दी। अब अरकाने शूरा में सिर्फ़ हज़रत अली अलै0 उस्मान और अब्दुल रहमान रह गये। अब्दुल रहमान ने कहा मैं इस शर्त पर अपने हक़ से दस्तब्रदार होने को तैयार हूं कि आप दोनों हज़रत अपने मैं से एक के इन्तेख़ाब का हक़ मुझे दे दें। या आप दोनों में से कोई एक दस्तबरदार होकर यह हक़ मुझ से ले ले। यह एक ऐसा जाल था जिसमें हज़रत अली अलै0 को हर तरफ़ से जकड़ लिया गया था। आप या तो दस्तबरदार हो जाते या फिर अब्दुल रहमान को अपनी मन मानी करने देते। पहली सूरत आपके लिये मुम्किन ही न थी कि अपने हक से दस्तबरदार हो कर आप खुद उस्मान या अब्दुल रहमान को मुऩ्तख़ब करते। इसलिये आप जमें रहे और अब्दुल रहमान ने अपने को इससे अलैदा करके यह इख्तियार संभाल लिया औऱ हज़रत अली अलै0 से मुख़ातिब होकर कहा कि मैं इस शर्त पर आपकी बैयत करता हूँ कि आप किताबे खुदा, सुन्नते रसूल सल0 और सीरते शैख़ैन पर अमल पैरा होने का वादा फ़रमायें। आपने फरमाया कि मैं शैख़ीन की सीरत पर अमल नहीं करुँगा बल्कि किताबे खुदा और सुन्नते रसूल सल0 के साथ अपने मसलक पर चलूंगा। तीन मर्तबा दरयाफ़्त करने के बाद जब हज़रत अली अलै0 की तरफ़ से यही जवाब मिला तो हज़रत उस्मान के सामने यह शर्त रखी गयी। उनके लिये इन्कार की कोई वजह न थी। उन्होंने अब्दुल रहमान की शर्त माल ली और उनकी बैयत हो गयी।
इस तरह हज़रत उमर की सियासी हिकमतें अमली और ग़लत तरीक़ा कार ने ख़िलाफ़त की बाग डोर बनी उमय्या की एक ऐसी फ़र्द के हाथों में सौंप दी जिसकी कुनबा परवरी ने इस्लाम का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया।
हज़रत उमर की वफ़ात
26 ज़िलहिज सन् 23 हिजरी मुताबिक़ सन् 644 को हज़रत अबुलोलो फ़िरोज़ के दो धारे खंजर से जख़्मीं हुए औऱ तीन दिन बाद यक्कम मुहर्रम सन् 24 हिजरी को उनकी वफ़ात वाक़े हुई।
अज़वाज
सात औरतों का हज़रत उमर की ज़ौजियत में आना तारीख़ी एतबार से साबित है। आपकी गपहली बीवी का नाम ज़ैनब बिन्ते मज़ऊन था। दूसरी बीवी क़रतीबा बिन्ते अबीं उमय्या मख़जूमीं तीसरी बीवी मलिका बिन्ते जरुल ख़ेज़ाई थीं जिनकी कुन्नियत उम्मे कुलसूम थी। क़रतिबा का तअल्लुक कबीलये कुरैश औऱ मलक़िया का तअल्लुक़ कबीलये ख़जाआ से था लेकिन उन दोनों बीवियों को हज़रत उमर ने सन 6 हिजरी में तलाक़ दे दी थी। सन् 7 हिजरी में महदीने आकर हज़रत उमर ने आसिम बिन साबित की साहबज़ादी जमीला (जिनका अस्ल नाम आसैब था) से अक़द गिया लेकिन बदकिस्मती से वह भी तलाक़ की जद में आ गयीं। सन् 12 हिजरी में आपने अपनी चचेरी बहन आतिका बिन्ते ज़ैद से अक़द किया। हज़रत उर की एक बीवी उम्मे हक़ीम थीं जो हारिस बिन हश्शाम की बेटी थीं और एक ज़ीजा का लमा फ़कीहायमीना था जिनके वालदैन और नसब के बारे में पता नहीं चलता।
औलादें-
आपकी औलादों में लड़कियों की तादाद ज़्याद है जिनमें हज़रत हफ़सा ज़्यादा मशहूर व मुमताज़ हैं जो अपने साबेका़ शौहर ख़नीस के इन्तेक़ाल के बाद रसूल उल्लाह सल0 के अक़द में आ गयं थीं लेकिन कुछ ख़ास वजूद की बिना पर आंहज़रत सल0 ने उन्हें तलाक दे दी थी और बाज़ तारीख़ी सराहत के मुताबिक़ बाद ेमं फिर रुजू कर लिया धा। हफ़सा और अब्दुल्लाह दोनों हक़ीक़ी भीई और बहन थे और उनकी मा ज़ैनब बिन्ते माज़ून थीं। बीक़ी मुख़तलिफ़ बीवियों से आपकी छः औलादें थीं जिनके नाम बिल तरतील अब्दुल्लाह, आसिम अबुशहमा, अब्दुल रहमान, ज़ैद और मजीर किताबों में मरकूम हैं।
अब्दुल्लाह फ़िक़ा और हदीस के ओलमा में शुमार होते ते। अब्दुल्लाह अपने बाप की तरहं पहलवानों के शौक़ीन थे। अबु शहमा को शराब पीने की आदत थी जिनका अंजाम गुजिश्ता सफ़हात में आप पढ़ चुके हैं।
हज़रत उस्मा
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