हज़रत उस्मान

इतिहासिक शख्सीयते
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आप का नाम उस्मान बिन अफ़ान और कुन्नियत अबु अब्दुल्लाह व अबु अम्र था। ग़नी और जुलनूरीन के अलक़ाब सलातीने बनी उमय्या की तरफ़ से अतिया है। नासल का ख़िताब उम्मुल मोमेनीन हज़रत आयशा ने मरहमत फ़रमाया था।

   वालिद का नाम अफ़ान बिन अबुल आस बिन उमय्या बिन अब्दुल शम्स था। वालिदा अरदी बिन्ते करीज़ बिन रबिया थीं जो आपके वालिद अफ़ान की ज़ौजियत में आने से पहले अक़बा बिन अबी मुईत की ज़ौजियत में थीं। अक़बा से एक लड़का वलीद पैदा हुआ जो आपका सौतेला भाई था। इसी वलीद बिन अक़बा को पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने फ़ासिक़ व फ़ाजिर क़रार दिया था औऱ इसी वलीद के बारे में हज़रत इमाम हसन अलै0 का इरशाद है कि ये सफूरिया के एक यहूदी का नुतफ़ा था।

   अक़ीदत मन्दाने उस्माने उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम सल0 के सिलसिलए नसब में शुमार करते है जो सरीहन ग़लत है। इसलिये कि आपका नस्बी उमय्या अब्द शम्स का बेटा नहीं था बल्कि ज़कवान नामी वह एक रुमीं गुलाम था जिसे पस्त, ज़लील और कमतर होने नीज़ वलदियत नामालूम होने की वजह से लोग उमय्या कह कर पुकारा करते थे लेहाज़ा इसी नाम से वह मशहूर हुआ और इसी नाम की निस्बत से उसकी औलाद बनी उमय्या कहलाई। अल्लाम इब्ने हजर इस्तेक़लानी का कहना है किः

   जब सालिब माविया के दरबार में पहुंचे तो उन्होंने दौराने गुफ़्तगू माविया से कहा कि तुम लोग यह झूठा दावा करते हो कि उमय्या अबदे शम्स का बेटा था हालांकि सच यह है कि वह ज़कवान नामी, अबदे शम्स का एक रुमी गुलाम था जिसे पस्त और हक़ीर समझ कर लोग उमय्या कहते थे।

   इस रिवायत की ताईद शरीक़ बिन एवज़ और माविया के दरमियान होने वाले मुनाज़िरे से भी होती है और यही कुछ दग़फ़ल सहाबी रसूल सल0 और माविया के माबैन होने वाले मुकालिमें में भी है जिसे हम अपनी किताबुल ख़ोलफ़ा हिस्सा दोम में नक़ल कर चुके हैं।

   बहरहा, तारीख़ी शवाहिद से यह पता चलता है कि उमय्या अब्दुल शम्स का बेटा हनीं था बल्कि वह एक मजहूलुल नसब गुलाम था लेहाज़ा ऐसी सूरत में हज़रत उस्मान का रसूले अकरम सल0 के सिलसिले नसब में शुमार किया जाना ग़लत है।

   उसमानी ख़ानवादा

     हज़रत उस्मान के हक़क़ी वालिद अफ़ान बिन अबुल आस मख़न्नस थे। सौतेला बाप अक़बा बिन अबी मुईत शराब ख़ाना चलाता था। आपकी बहन आमेना मशातागरी करती थी। बहनोई हुक्म बिन कनान क़बीला बनी मख़जूम का हज्जाम था। चचा हक़म बिन आस जानवरों को बधिया किया करता था और आप का नाना क़साई था।

इब्तेदाई हालात

   ताऱीख़ हमेशा उन लोगों के हालात क़लम बन्द करती है जिन्होंने इब्तेदा ही मैं अपने सिफ़ात व कमालात की बिना पर तारीख़ के धारे को अपनी तरफ़ मोड़ लिया ा फिर कोई शख़्स क़ौम व मुल्क के लिये ऐसी कुर्बानियां पेश करे जो तारीख़ का जुज बन जायें या कोई शख़्स किसी आला मर्तबा पर पहुंच कर खुद अपने अब्तेदाई हालात का तज़कीरा करे और वह इतनी अहमियत व हम्मागीरी का हामिल हो कि तारीख़ खुद बढ़ कर इसके तज़किरे को अपने दामन में समेटने के लिये मजबूर हो जाये। मग़र यह सूरत उसी वक़्त मुम्किन होती है जब तज़किरा करने वाला शख़्स खुद अपने हालात से शरमिन्दा न हो। शायद यही वजह है कि हज़रत उस्मान के इब्तेदाई हालाद बाज़ दूसरे सहाबा की तरह तारीख़ की गिरफ़्त से बाहर और अहदे जाहिलियत की तारीक़ी में हैं। खुद हज़रत उस्मान का अपने बारे में कहना है कि मैं ऐसे ख़ानदान से हूं जो क़लीलुल माश और फ़क़र व फ़ाक़ा का गहवारा था।

      पैग़म्बरे इस्लाम की पेशोनगोई

   अबु हूरैरा का बयान है कि रसूल उल्लाह सल0 ने फ़रमाया कि बनी उमय्या में से एक जब्बार मेरे तख़्त पर बैठेगा जिसकी नाक से ख़ूने रोआफ़ जारी होगा।

   उस पेशानगोई के बारे में साहबे रौज़तुल एहबाब का कहना है कि जब हज़रत उस्मान तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुत्मकिन हुए तो तीन माह तक उनकी नकसीर फूटा की और नाक से ख़ून होता रहा। अल्लामा जलालुद्दीन सेतवी ने भी तारीखुल ख़ोलफ़ा में हज़रते उस्मान की नकसीर फ़ूटने का तज़किरा किया है।

   शूरा का अन्जाम

     हज़रत उमर को जिन छः शख़्सियतों में मुनहसिर किया था उनमें से हर एक ख़लीफ़ा के लिये उम्मीदवार था। लोग हज़रत अली अलै0 की तरफ़ माएल थे क्योंकि वह बनी उमय्या की सल्तनत से ख़ौफ़ ज़दा थे। दूसरी तरफञ मुहाजेरीन हज़रत अली अलै0 और उनकी इस्तेक़ामत से खाएफ थे। शायद उन में से अकसर को बैतुल माल, इजतेमाईत औऱ हुकूमत के बारे में हज़रत अली अलै0 के नज़रियात का इल्म था। अन्सार की अकसरियत हज़रत अली अलै0 के साथ औऱ अक़लियत उस्मान के साथ थी। ऐसा इस लिये था कि वह कुरैश की हुकूमत से ख़ौफ़ज़दा थे औऱ मस्जिदे नबवी में जो गुफ़्तगू हुई थी इसमें बनी उमय्या पर सक़ीफ़ा का क़बाएली ताअस्सुब छाया हुआ था। यह गुफ़्तगु हज़रत उस्मान की बैयत से पहले हुई थी।

   लेहाज़ा हज़रत अली अलै0 मुसलमानों की अक़सरियत की तरफ से और उस्मान कुरैशी अरसदू करीसी की जानिब से अम्मीदवार थे।

   शूरा का नतीजा यह हुआ कि उमवी हुकूमत पर क़ाबिज हो गये और हज़रत उमर ने जिन लोगों को शूरा में नामज़द किया था उनमें हज़रत अली अलै0 के अलावा सभों के सरों पर इक़तेदार का भूत सवार हो गया और यही भूत शूरा से बाहर भी कुरैश की दूसरी शख़्सियतों पर सवार था। क्योंकि उन्हें मालूम था कि हज़रत उमर ने कुरैश में से जिन लोगों को उम्मीदवार बनाया है वह उनसे किसी चीज़ में अफ़ज़ल न थे। शूरा ने अंसार के ज़ेहनों पर भी बुरा असर छोड़ा। क्योंकि सक़ीफ़ा में उनसे वादा किया गया था कि वह हुकूमत में शरीक होंगे लेकिन वह महरुम कर दिये गये थे औऱ इस पर यह सितम था कि उनके क़दीम हरीफ़ यानि मक्के के वह मुश्रिक जो उन के साथ बरसरे पैकार हैं बरसरे अक़तेदार आ गये थे।

   ख़िलाफत की तमा रखने वाले पसे पर्दा अन्सार को अपने गिर्द जमा करते और अपनी दौलत और क़बीला की ताक़त से भी इस्तेफ़ादा करते थे नीज़ दूसरे कबाएल से रिश्ते बनाते थे। चुनानचे उस्मान के दिनों में कुरैश अपने मक़सद के लिये अलल एलान सामने आ गये।

   यह शूरा ही का नतीजा था कि मुख़तलिफ शख़्सियतों को पसन्द करने वाले यह एहज़ाब आलमे वजूद में आ गये। यह शख़्सियतें अपने ज़ाती मफ़ाद की ख़ातिर इक़तेदार पर कबज़ा जमाने के लिये उस्मान के ख़िलाफ की जाने वाली अवामी शिकायतों से भी फाएदा उठाती थी। चुनानचे इब्ने अब्दुल्लाह ने माविया का एक एतराज़ नक़ल किया है जिसमें वह कहता है किः

   उमर ने छः आदमियों में शूरा काएम करके मुसलमानों में तफ़रिक़ा औऱ उनके ख़यालात में इख़्तेलाफ पैदा किया है क्योंकि उनमें से हर एक ख़िलाफ़त की तमा रखने लगा और इसकी क़ौम भी इसकेसाथ इस तमा में शरीक थी।

   यही वह हवादिस थए जिनसे मुसलमानों को दो चार होना पड़ा और उन्हीं हादसात में से हर हादसे ने दूसरे हादसे पर असर डाला औऱ उसके साथ साथ हुकूमत को चलाने, तक़सीम अमवाल और इजतेमाई उमूर में उस्मान के ग़लत असलूब कार ने भी असर किया जिसकी वजह से लोग इस्लामी उसूलों से मुनहरिफ़ हो गये यहां तक कि यह हादसात इस इन्तेहा पर पुहंचे कि हज़रत उस्मान के ख़िलाफ़ अवामी ग़म व गुस्सा का सेलाब उठ खड़ा हुआ और आपके क़त्ल की शक़्ल में शूरा का अंजाम सामने आ गया।

   हज़रत उमर की हिक़मते अमली ने शूरा के एक तीर से दो शिकार किये। एक हज़रत उस्मान को लुक़्मा अजल बनाया और दूसरे बनी उमय्या को इक़तेदार व इस्तेहकाम अता करके अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै0 के क़त्ल का सामना भी फ़राहम कर दिया।

ख़िलाफ़ते उस्मानिया की इब्तेदा

   हज़रत आय़शा और हफ़सा की वसातत ने जिस तरह हज़रत अबुबकर व उमर को सर सब्ज़ किया इसी तरह अब्दुल रहमान बिन औफ़ से इज़ार बन्दी रिशते ने हज़रत उस्मान को तख़्ते ख़िलाफत तक पहुंचाया। लेकिन यह नहीं मालूम कि आप ने किस तारीख़ को हुकूमत का कारोबार संभाला? बाज़ मोअर्रेख़ीन ने यक्कुम मोहर्रमुल हराम सन् 24 हिजरी तहरीर किया है और यही तारीख़ ज़्यादा करीन क़यास है। तारीख़ कुछ सही। मगर यह हक़ीक़ते कुल्लिया है कि आपने हुसूले ख़िलाफ़त के वक़्त किये गये किताबे खुदा और सुन्नते रसूल सल0 पर अमल के वादे को यकसर फ़रामोश कर दिया था और ख़लीफ़ा होते ही उसकी ख़िलाफ़ वर्ज़ियां शुरु कर दी थीं। सिर्फ़ इस बात पर आप की तवज्जे मरकूज़ होकर रह गयी थी कि किस तरह सीरते शैख़ीन की इस्लाम दुश्मनी को जारी रखा जाये और किस तरकीब से ऐसे हालात पैदा कर दिये जायें कि क़यामत तक इस्लाम को फलने फूलने का मौक़ा न मिल सके। ग़ालेबन आपके इसी रुझहान को महसूस करके अरब के माने हुए फ़ितना परदाज अबुसुफ़ियान ने आपको यह तरग़ीब दी थी कि

   बनी तीम और बनी अदी के बाद अब ख़िलाफ़त तुम्हारे हाथ आई है उसे गेन्द की तरह घुमाओ, फिराओ और नचाओ और बनी उमय्या को इसकी मेखें बनाकर उसे हमेशा के लिये मुस्तहकम कर लो। यह सिर्फ दुनियावी हुकूमत है दीन से इसका क्या ताल्लुक? मेरे नज़दीक जन्नत व दोज़ख़ वा सजा व जजा कुछ नहीं है।

निजामें हुकूमत

   सक़ीफ़ा में परवान चढ़ने वाली ख़िलाफ़त इब्तेदा ही से मलूकियत की तरफञ माएल रही। इसका असल मक़सद तालीमाते इस्लामी, सुन्नते पैग़म्बरी, एहक़ामे शरीयत, हुकूके बशरियत और इन्सानी क़दरों को बालाये ताक़ रख कर तख़्त व ताज की ख्वाहिशात, मुल्कगिरी की हवस और इक़तेदार की तमन्ना के तहत एक ऐसी शहंशाही निज़ाम क़याम करना था जिसका ख़्वाहिशाते नफ़्स की तकमील दीनी फ़रीज़ा की अदाएगी क़रार पाये।

   औऱ चूंकि असहाबे सलासा ने तज़किया नफ़स या अल्लाह के हुकूक़ की अदाएगी के लिये इस्लाम कुबूल नहीं किया था बल्कि सिर्फ़ जहां बानी उनका मतमए नज़र था इसलिये वह निज़ामें इस्लामी व निज़ामें इलाही को ख़ालिस शहंशाही निज़ाम में ज़म करने की जद्दो जेहद में मसरुफ़ रहे। वह एक ऐसे निज़ाम की कोशिश में सरगर्दाँ रहे जिसमें हुसूले मनफ़ेअत की हर इम्कानी कोशिश मुस्तहसन समझी जाये ख़्वाह वह मुनफ़ेअत दूसरों पर जबर व तशद्दुद औऱ मज़ालिम के ज़रिये ही क्यों न हासिल हो।

   यह सिलसिला ख़िलाफ़ते ऊला से ख़िलाफ़ते सालसा तक बराबर जारी व सारी रहा और ग़ालेबन यही वजह है कि बाज़ मोअर्रिख़ीन ने अहदे सलासा के निज़ामे हुकूमत को दीनी, मजहबी और इलाही निज़ाम तस्लीम करने से इन्कार किया है जैसा कि मिस्र के मोअर्रिख़, डा0 ताहा हुसैन का कहना है किः

   जो लोग इन निज़ाम (ख़ोलफ़ाये सलासा के निज़ामे हुकूमत) को इलाही निजा़म तसव्वुर करते हैं वह हक़ीक़त में इन अल्फ़ाज़ व कलेमात से धाखा खाते हैं जो ख़ोलफ़ा के ख़ुतबात में पढ़ते हैं नीज़ इन रिवायत से जो ख़ोलफ़ा के बारे में आम तौर से मशहूर हैं और जिनमें अल्लाह का जिक्र, अल्लाह का हुक्म और उसकी सुल्तानी व इताअत का तडकिरा है। यह लोग ख़्याल करते हैं कि यह अलफ़ाज़ और यह रवायात इस बात का सुबूत है कि इनका निज़ामें हुकूमत आसमानी था हालांकि उनमें सिर्फ़ एक बात की तरफ़ इशारा है जो बिल्कुल आम लेकिन साथ ही साथ बहुत अहम है और वह यह कि ख़िलाफ़त ख़ोलफ़ा और आम मुसलमानों के माबैन एक मुहाएदा है।

   अकसर लोग ख़़्याल करते हैं कि इस अहद का निज़ाम एक इलाही निज़ाम है जो आसमान से उतरा है हालांकि वाक़िया यह नहीं है, अस्ल बात ख़लीफ़ा औऱ रेआया के दिलों का मुताअस्सिर होना है। इसका मतलब यह हुआ कि ख़ोलफ़ाये सलासा का राएज करदा निज़ाम न तो इस्लामी था न इलाही। बल्कि इस निज़ाम का मक़सद यह था कि आम मुसलमा उनके राएज करदा निज़ाम को अल्लाह का राएज करदा निज़ाम समझ़ कर उनके हर जाएज़ व नाजाएज़ एहकाम व अफा़ल को कुबूल करते रहें और इससे यह भी वाज़ेह है कि ख़ोलफ़ाये सलासा के ज़ेहन में निज़ामें इस्लामी निज़ामे इलाही या निज़ामें आसमानी का कोई तसव्वुर नहीं था और वह सिर्फ़ एक दुनियावी हुक्मराँ की हैसियत रखते थे।

   यहां यह सवाल किया जा सकता है कि वह मुसलमान या सहाबा जो हमा वक़्त जमाल व कमाले रिसालत का मुशाहिदा किया करते थे और जिन्होंने सोच समझ कर इस्लाम कुबूल किया था या जो सीरते रसूल सल0 से मुतअस्सिर थे औऱ जिनके दिलों में ईमान का चिराग़ रौशन था औऱ जो इस अमर से बख़ूबी वाकि़फ़ ते कि रसूल सल0 दुनिया पर हुकूमत करने नहीं आये बल्कि दुनिया को अमन, उखूवत और सलामती का दर्स देने आये हैं औऱ जो यह भी जानते थे कि रसूले अकरम सल0 के दिल में फ़तूहात और माले ग़नीमत की तमन्ना नहीं थी बल्कि वह खुलक़े अज़ीम बन कर इन्सानी क़दरों को बुलन्द करने, इख़्लाक़ बशरी को संवारने, तौहीद का दर्स देने और मरहलए आख़रत को आसान बनाने के लिये आये हैं। वह लोग अक़ल व बसीरत क्यों खो बैठे कि उन्होंने ख़ुलफ़ाये सलासा के इन ख़तरनाक इरादों और मनसूबों को न समझा और इनके ग़ैर इस्लामी रंग ढंग औऱ रवय्ये को महसूस करते हुए भी उन्हें ख़लीफ़ये रसूल सल0 की हैसियत दे दी?

   इसका जवाब यह है कि तलवार, ताक़त, दौलत औऱ खुसूसन ज़हनों की नीम पुख़्तगी ने हक़ाएक व अक़ाएद पर गहरे पर्दे डाल दिये थे जि़सकी वजह से यह लोग ख़ुलफ़ा की हर बात को हक़ीक़त समझ कर मिज़ाज़ में गुम हो गये।

   मुल्कगीरी की तमन्ना ने दौरे अव्वल में फुतूहात का बाज़ार गर्म करके माले ग़नीमत की शक्ल मे जो सरमाया हासिल किया इसका बेशतर हिस्सा बग़ावतों के फरों करने, हुकूमत के इस्तेहकाम और अफ़वाज़ की तज़ीमकारी पर ख़र्ज हुआ. जो बच गया वह मुसलमानों में तक़सीम के बाद ख़लीफ़ा के घरेलू बैतुल माल में जमा हो गया। रफ़्ता रफ़्ता फ़तुहात का यही सिलसिला दूसरे दौर में दाख़िल होकर मंज़िले कमाल पर पुहंचा और सारी दुनिया की दौलत सिमट कर मदीने में ढेर हो गयी। लेकिन हज़रत उमर की जमा ख़ोरी ने उसे वक़्ते आख़िर हज़रत उस्मान के हवाले कर दिया और हज़रत उस्मान हज़रत उमर के मफ़तूहा मुमालिक और उनके ख़़ज़ानों के मालिक व मुख़तसर बन गये।

   हज़रत उस्मान के अहद में इफ़राते ज़र का यह हाल था कि एक बीय़ा ज़मीन पर लगे हुए बाग़ की मामूली क़ीमत चार लाख दिरहम थी औऱ एक मामूली नस्ल का घोड़ा एक लाख दिरहम में ख़रीदा जाता था।

   अल्लामा जलालुद्दीन सेतवी ने उस्मानी अहद में मफ़तूहा मुमलिक से माले ग़नीमत के तौर पर हासिल होने वाली दौलत के बारे में तहरीर किया है किः

   सन् 30 हिजरी में ख़ुरासान के अकसर शहर नेशापुर, तूस, सरखुस, मरव और बीहक़ वग़ैरा फ़तेह हुए। उन वसीय शहरों की फ़तूहात के बाद दौलत व माले ग़नीमत के अन्बार लग गये तो हज़रत उस्मान ने खज़ाना बनाया और तमाम लोगों को वज़ीफ़ा व यौमिया तक़सीम किया। दौलत की फ़रावानी का यह आलम था कि हर शख़्स को एक एक लाख बदर से हमानियान (सोलह अरब रुपया) दिया गया।

   दौलत की इस रेल पेल में हज़रत उस्मान ने तक़सीमे अमवाल का जो ग़ैर मसावी तरीक़ा इख़्तियार किया वह मुसलमानों के लिये ग़ैर मानूस औऱ तकलीफ़ देह था। आप शूरा के अराकीन, कुरैश के बड़े लोगों और अपने रिश्तेदारों को खुसूसी तौर पर बहुत ज़्यादा माल देते थे। अगर यह सारा माल उनकी अपनी कमाई का होता किसी के लिये एतराज की गुंजाइश न होती। लेकिन यह माल बैतुल माल से दिया गया था जिसमें तमाम मुसलमान शरीक़ थे। मुस्तज़ाद यह कि मुख़्तलिफ़ शहरों में हज़रत उस्मान के नुमाइन्दे भी उनकी पैरवी करते और वह भी अपने अजीज़ों और रिश्तेदारों को तरजीहन ज़्यादा माल दिया करते थे।

   हज़रत उस्मान ने दौलतमन्द तबक़े की दौलत को मज़ीद बढ़ावा देने के लिये यह तरीक़ा भी राएज़ किया कि वह माले ग़नीमत में हासिल हुई अपनी ज़मीनों के उन इलाको़ं में मुन्तकिल कर सकते हैं जहां वह मुक़ीम हैं। यानी अगर किसी शख़्स की ज़मीन शाम में है तो वह उसके एवज़ उस शख़्स से अपनी ज़मीन का तबादला कर सकता है जिसकी आराजी हिजाज़ या दूसरे अरब मुमालिक में है।

   इस तरीक़येकार से दौलतमन्द तबक़े ने फ़ाएदा उठाया और अपनी बेपनाह दौलत से मुख़्तलिफ़ मफ़तूहा इलाकों में ज़मीनों की ख़रीदारी शुरु कर दी औऱ अपने मज़दूरों व गुलामों को उनकी काश्त पर लगाया जिसके नतीजे में उनकी ज़मीनें सोना उगलने लगीं और उनकी दौलत दन दूनी रात चौगूनी के तनासुब बढ़ने लगी जिसका खुलासा मसूदी की ज़बान में यूं है किः

   ज़ुबैर की दौलत मसरा, कूफ़ा, मिस्र और अस्कन्दरिया में पचास हज़ार दीनार, एक हज़ार घोड़े, एक हजार गुलाम औऱ ला महदूद जागीर तक पुहंय गयी थी। तलहा बिन अबीदुल्लाह को सिर्फ़ इराक़ के ग़ल्ला से एक हज़ार दीनार यौमिया की आमदनी थी। अब्दुल रहमान बिन औफ़ के पास एक सौ घोड़ें, एक हज़ार गायें और दस हज़ार भेड़ें थीं। इसके अलावा उनके इन्तेक़ाल के वक़्त उनकी दौलत के आठवें हिस्से का एक चौथाई अट्ठासी हज़ार तक पहुंच गया था। जब ज़ैद बिन साबित का इन्तेकाल हुआ तो उसका सोना और चांदी कुल्हाड़ों से काट काट कर टुकड़े किया गया। इसके अलावा जो नक़द रक़म उसने छोड़ी थी वह एक लाख दीनार पर मुश्तमिल थी।

लैला बिन मीनता मरा तो उसने तीन लाख की जागीर के अलावा पांच लाख दीनार नक़द छोड़े। खुद हज़रत उस्मान ने मरते वक़्त मदीने में एक लाख पचास हज़ार दीनार, दस लाख दिरहम नक़द उसके अलावा वादीउल कुरा में, हुनैन में और दीगर मुक़ामात पर एक लाख दीनार की जायदाद, हज़ारों की तादाद में ऊँट घोड़े और मुतअद्दिद महल छोडें।

   इस दौलतमन्द तबके के बरअक्स गुरबत और अफ़लास का मारा हुआ एक मुफ़लिस व नादार तबक़ा भई था जिसके पास न ज़मीनें थी और न माल व दौलत। इस तबक़े में मेहाजे जंग पर लड़ने वाले जाँबाज़ सिपाही औऱ उनके अहले व अयाल शामिल थे जिनके बारे में हज़रत उस्मान का कहना था कि लड़ने वाले मुसलमानों को सिर्फ़ मामूली उज़रत का हक़ है बाक़ी सारा माले ग़नीमत अल्लह के लिये है।

   जब सारा माले ग़नीमत अल्लाह के लिये था तो क्या हज़रत उस्मान अल्लाह थे या अल्लाह के बेटे? जो उसकी मिल्कियत को अपनी मिलकियत समझ कर उसके माल पर अपना दस्ते तसर्रुफ़ दराज़ किये हुए थे?

   बहरहाल, हज़रत उस्मान ने अपनी इस नाक़िस और ग़लत हिक़मते अमली से इन दोनों तबकों के दरमियान अदम मसावात की एक ख़लीज पैदा कर दी। चुनानचे एक तरफञ दौलत मन्द तबक़े की दौलत में रोज़ अफ़जूँ इजाफ़ा होता गया और दूसरी तरफ़ गरीब व मुफ़लिस तबक़े की गुरबत औऱ बढ़ती गयी। आख़िरक़ार इस ग़ैर मुनसिफ़ाना निज़ाम ने मुसलमानों को बहुत जल्द यह एहसास दिला दिया कि उन्होंने इक़तेदारे इस्लामी को ग़लत औऱ सफ़्फ़ाक़ हाथों के हवाले कर दिया है।

   इसमें कोई शक नहीं कि हज़रत उस्मान ने अपने अहद में जो बदउनवानियां की उन पर किीस दर्दमन्द इन्सान का दिल दुखे बग़ैर नहीं रह सकता। रह सकता। बड़े बड़े जलूलुलस क़दर सहाबा तो गुमनामियों के गोशों मे पड़ें हों, इफ़लास उनका मुक़द्दर बन चुका हो, गुरबत उन्हें घेरे हुए हो और बेतुलमाल पर तसल्लुत हो तो बनी उमय्या का। तमाम चरागाहों में चौपाये चरें तो उनके, महलात तामीर हों तो उनके, हुकूमत के मरकज़ी ओहदों पर फ़ाएज़ हों तो उन्हीं के नौख़ेज व ना तजरबेकार अप़राद। और अगर कोई दर्दमन्द इन्सान उन तमाम बदउवानियों व बेऐतदालियों के खिलाफ़ आवाज़े एहतेजाज बुलन्द करें तो उसे शहर बदर कर दिया जाये।

   ज़कात व सदक़ात जो फ़ुक़रा व मसाकीन का हक़ था औऱ बैतुल माल जो तमाम मुसलमानों का सरमाया था, उसका मसरफ़ क्या करार दिया गया था? ज़ैल के चन्द नमूनों से वाज़ेह है।

(1) हकम बिन आसिम को (जिसे पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने मदीने से निकाल दिया था) न सिर्फ़ सुन्नते रसूल सल0 बल्कि सीरते शैख़ीन की भी खिलाफ़वर्ज़ी करते हुए उसे हजऱरत उस्मान ने फिर मदीने में वापस बुला लिया और बैतुल माल से एक लाख दिरहम अता किये।

(2) वलीद बिन अक़बा को (जिसे कुरआन ने फ़ासिक़ व फ़ाजिर कहा है) एक लाख दिरहम मरहमत किये।

(3) मरवान बिन हकम से जब अपनी बेटी अबान का निकाह किया तो उसे बैतुल माल से एक लाख दिरहम दिये।

(4) हारिस बिन हकम से अपनी बेटी आयशा का अक़द किया तो उसे भी बैतुल माल से एक लाख दिरहम फ़रमाया।

(5) अबुसुफ़ियान बिन हरब को बतौरे खुशनूदी दो लाख दिरहम बैतुल माल से दिये।

(6) मरवान बिन हकम को अफ़रीक़ा का खुम्स जो पांच लाख दिरहम सालाना था दे दिया।

(7) अब्दुल्लाह बिन ख़ालिद को बैतुल माल से चार लाख दिरहम दिये।

(8) मदीने में बहज़ूर एक जगह थी जिसे रसूले अकरम सल0 ने मुसलमानों के लिये वक़्फ़ आम क़रार दिया था, हारिस बिन हकम को दे दी।

(9) मरवान को बाग़े फ़िदक अताये ख़ुसरवाना के तौर पर दिया।

(10) मदीना औऱ उसके नवाह की चरागाहों में बनी उमय्या के जानवरों के इन वाक़ियात से साफ़ ज़ाहिर है कि हज़रत उस्मान ने ख़िलाफ़त हासिल करते वक़्त अब्दुल रहमान बिन औफ़ से किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल सल0 नीज़ सीरते शैख़ीन पर अमल का जो वादा अरकाने शूरा के सामने किया था उससे सिर्फ़ मुकर ही नहीं गये बल्कि ख़िलाफ़त मिल जाने के बाद उसे हवा में उड़ा दिया। यहां तक कि आपके नाक़िस निज़ामे हुकूमत ने बनी उमय्या औऱ बनी हाशिम के दरमियान अदावत की दबी हुई आग का फिर मुश्तइल कर दिया। जो तक़रीबन सौ साल तक भड़कती रही।

क़त्ल हरमिज़ान-

   हरमिज़ान अहवाज़ का ईरानी सूबेदार था जो हज़रत उमर के ज़माने में फ़तहे अहवाज के बाद असीर हो कर मदीने आया था और रसूले अकरम सल0 के चचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब के हाथ पर मुसलमान हो गया था। बैतुलमाल से उसे दो हज़ार दिरहम सालाना वज़ीफ़ा भी मिलता था।

   हज़रत उमर जिस दिन अबुलोलो फ़िरोज़ के ख़ंजर से ज़ख्मी हुए उसके दूसरे दिन अब्दुल रहमान बिन अबुबकर ने अब्दुल्लाह बिन उमर से बताया कि कल मैंने अबुलोलो, हरमिज़ान और जफ़ीना नसरानी को एक जगह बैठकर आपस में कुछ राज़ व नियाज़ की बातें करते देखा था। यह लोग मुझे देखकर इधर-उधर मुंतरिश होने लगे तो उनमें से एक के पास से एक दोधारी खंजर भी गिरा था। फिर अब्दुल रहमान ने उस खंजर की शिनाख़्त बताई तो अब्दुल्लाह बिन उमर ने उसको वैसा ही पाया जैसा कि हज़रत उमर के ज़ख्मी होने के बाद उन्होंने अपने चन्द साथियों की मदद से अबुलोलो के हाथ से छीना था। चुनानचे उन्हें गुमान हुआ कि यह तीनों अफराद उमर के क़त्ल में शरीक थे। इशी गुमान और शक व शुब्हा की बिना पर वह ग़ैज़ व ग़ज़ब की हालत में हरमिज़ान के घर की तरफ़ रवाना हुए और जाते ही उसका काम तमाम कर दिया फिर जफ़ीना नसरानी के यहां पहुंचकर उसके क़त्लस किया, उसके बाद अबुलोलो के खर में घुसे और उसकी यतीम बच्ची को मौत के घाट उतार दिया।

   जब अन्सार व मुहाजेरीन की मुक़दतर हस्तियों को इस तेहरे क़त्ल की इत्तेला हुई तो कुछ लोग अबीदुल्लाह बिन उमर के पास आये और उनके इस फ़ेल पर उन्हें लानत मलामत और तहदीद व तख़्वीफ़ की। अबीदुल्लाह ने जवाब दिया कि मैं अजमियों में से एक को भी ज़िन्दा नहीं छोड़ूगा और उनके साथ बहुत से मुहाजेरीन को भी क़त्ल कुरूंगा। उस पर अबीदुल्लाह बिन उमर औऱ साद बिन अबी विक़ास में सख़्त तू तू मैं मैं, हाथा पाई, गालम गलोज़ और गुत्थम गुत्था हुई यहांम तक कि साद बिन अबीविक़ास ने अबीदुल्लाह बिन उमर की तलवार छीन ली औऱ उन्हे बाल पकड़ कर दे मारा और घसीटते हुए अपने कमरे तक ले गये और बन्द कर दिया। चुनानचे जब तक हज़रत उस्मान के लिये शूरा होता रहा अबीदुल्लाह बिन उमर को बन्द रखा गया। बैयत के दूसरे दिन हज़रत उस्मान के सामने इस तेहरे क़त्ल का पहला मुक़दमा पेश हुआ।

   हज़रत उस्मान ने अन्सार व मुहाजेरीन के सरबआवुर्दा अफराद को जमा किया और उनसे पूछा कि अबीदुल्लाह बिन उमर के बारे में तुम्हारी क्या राय है जिसने हरमिज़ान, ज़फ़ीना औऱ अबुलोली की यतीम लड़की को बेजुर्म व ख़ता क़त्ल किया है।

   बनी हाशिम ने ख़ून और क़त्ल के बदले क़त्ल का मुतालिबा किया। कुय़ मुहाजेरीन व अन्सार भी अबीदुल्लाह को क़त्ल किये जाने के हक़ में थे लेकिन अमरु बिन आस के साथ एक गिरोह अबीदुल्लाह का तरफ़दार भी तथा जो यह कह रहा था किकल बाप मारा गया है आज बेटा मारा जाये, यह कभी नहीं हो सका। इन मुताज़ाद गिरोहों में बहस व मुबाहिसा के बाद जब हंगामा आराई की नौबत आ पहुंची तो अमरु आस ने उस्मान से कहा कि यह वाक़िया आपके ख़लीफा होने से पहलेस का है इसिलये आप इश मामले में न पड़िये औऱ किसी तरह अफने सर से लबा टालिये। उस्मान ने कहा ठीक है, मैं इसकी दैत बैतुलमाल से अदा किये देता हूँ। उस पर हज़रत अली अलै0 ने फ़रमाया कि तुम्हे यह मजाज़ नहीं है कि दैत बैतुलमाल से अदा करो। उस्मान ने कहा अच्छा तो मैं यह रक़म अपनी जेबे खास से अदा करुंगा। चुनानचे उन्होंने दैत की रक़म अदा कर दी और अबीदुल्लाह बिन उमर को छोड़ दिया।

   मुन्दर्जा बाला अक़तेबासात तारीख़ तबरी, इब्ने असीर, रौज़तुल एहसाब और हबीबुल सैर से माख़ूज हैं। तबक़ात इब्ने साद में है कि जब उस्मान ख़लिफ़ा बना दिये गये तो उन्होंने मुहाजेरीन व अन्सार को बुलाया और कहा कि मुझे इस शख़्स (अबीदुल्लाह बिन उमर) के बारे में मशविरा दो जिसने दीन में रखना पैदा किया। मुहाजेरीन व अन्सार ने इत्तेफ़ाक़ करके मक़तूलीन का वाबी बनाया। लोगों की अक़सरियत अबीदुल्लाह के साथ थी जो हरमिज़ान और जफीना के लिये कहते थे कि वह तो क़त्ल हो ही गये, क्या तुम लोग यह चाहते हो कि उमर के बाद उनका बेटा भी क़त्ल कर दिया जाये?

   इस मामले में शोर गुल और इख़्तिलाफ़ जब हदल से बढ़ गया तो अमरु आस ने उस्मान से कहा कि यह वाक़िया आपकी ख़िलाफ़त से पहले का है लेहाज़ा उसे दरगुज़र कीजिये। अमरु की इस बात से लोग मुन्तशिर हो गये। उस्मान भी मान गये और हरमिज़ान, जफ़ीना नीज़ अबुलोलो की लड़की का ख़ून बहा दे दिया गया।

   तबरी में अबी रजज़ा ने अपने वालिद से रिवायत की है कि मैंने अबीदुल्लाह बिन उमर को इसहालत में देखा है कि वह उस्मान से हाथा पाई कर रहे थे कि ख़ुदा तुझे ग़ारत करे, तूने ऐसे शख़्स को क़त्ल किया है जो नमाज़ पढ़ता था, तेरा छोड़ना किसी तरह हक़ नहीं है।

   ताज्जुब है कि हज़रत उस्मान ने उसे क्योंकर छोड़ दिया औऱ सिर्फ़ छो़ड़ा ही नहीं बल्कि ख़ून बहा की रक़म भी अपने पास से पैदा करने को तैयार हो गये। मुम्किन है कि आपके दिल में यह ख़्याल पैदा हुआ हो कि यह ख़िलाफ़त तो अबीदुल्लाह के बाप ही की मरहूने मिन्नत है इस लिये एहसानमन्द और हयादार ख़लीफ़ा को तीन बे गुनाह जानों का क़सास लेते हुए शर्म आई हो। क्योंकि मक़तूलीन ग़ैर अरब थए और इनका कोई वाली व वारिस न था। इसके अलावा यह फ़ाएदा भी मददे नज़र रहा होगी कि दैत की रक़म भी मक़तूलीन का वाली होने की वजह से हज़रत उस्मान ही को मिलने वाली थी।

गवर्नर की माज़ूली औऱ तक़र्री

कूफ़ा

हज़रत उस्मान ने जब तख़्ते ख़िलाफत पर क़दम रखा तो उस वक़्त कुफ़ा था गवर्नर मुगीरा बिन शेबा था, उन्होंने उसे माज़ूल करके साद बिन अबी विक़ास को बवर्नर मुक़र्रर किया लेकिन एक साल भी नहीं गुजरा था कि साद भी माज़ूल हुए औऱ हज़रत उस्मान ने उन्हे हटा कर उनकी जगह वलीद बिन अक़बा बिन अबी मुईत को गवर्नरी के ओहदे पर फ़ाएज़ कर दिया।

   साद बिन अबी विक़ास को माज़ूल किये जाने की वजह आम तौर पर मोअर्रेख़ीन यह बयान करते हैं कि बैतुल माल के ख़जांची अब्दुल्लाह बिन मसूद से क़र्ज़ के लेन देन के मामले में उनका झगड़ा हो गया था क्योंकि साद ने बैतुल माल से कुछ क़र्ज़ा लिया था जिसे वक़्त मुक़र्ररा पर उन्होंने अदा नहीं किया था। लेकिन मिस्री मोअर्रिख़ डाक्टर ताहा हुसैन की नज़र में यह वजह माकूल नहीं है। चुनानचे वह तहरीर फ़रमाते हैं किः

   साद बिन अबी विक़ास का अब्दुल्लाह बिन मसूद से क़र्ज़े के मामले में झगड़ा कोई इतना बड़ा मसला न था कि उन जैसे सहाबी को माज़ूल कर दिया जाता जब कि कर्ज़ से वह मुनकिर न थे महज़ उसकी अदाएगी के लिए थोड़ी सी मोहलत चाहते थे। मेरा ख़्याल तो यह है कि हज़रत साद की माज़ूली का अस्ल सबब यह है कि बनी उमय्या और आले अबी मोईत ने विलायत हासिल करने के लिये जल्दबाजी, तकाज़े औऱ मुख़्तलिफ़ हीले इख़्तियार करना शुरु कर दिये। उन्होंने हज़रत उस्मान पर दबाओ डाल रखा था कि उनके लिये हुकूमत तक पहुंचने का रास्ता साफ़ करें। इसका सुबूत यह है कि जब हज़रत उस्मान ने साद को माज़ूल किया तो उनकी जगह सहाब-ए-कबार या मुहाजिर व अन्सार में से किसी को मुतमईन नहीं किया। न तलहा को फेजा, न ज़ुबैर को, न अब्दुल रहमान को न मुहम्मद बिन मुस्लिमा को और न अबु तलहा को। उन्होंने भेजा तो वलीद बिन अक़बा को, हालांकि मुसलमानों को वलीद पर कोई एतमाद न था।

   वलीद अक़बा हज़रत उस्मान की मौं अरदी बिन्ते करीज़ के बतन से उनका सौतेला भाई और मुस्लिमुल सुबूत फ़ासिक था। इसके फ़िस्क की गवाही कुरआन ने दी है नीज़ पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने उसे जहन्नुमी क़रार दिया है। यह तमाम रात अपने मुसाहेबीन औऱ अरबाबे निशात के साथ शराब नोशी में मशग़ूल रहता था। जब मोअज़्ज़िन नमाज़ के लिये उसे ख़बरदार करता तो वह नशे की हालत में मस्जिद में जाता और नमाज़ियों को नमाज़ पढ़ाता। कभी कभी सुबह की दो रकत के बजाये चार रकत पढ़ा के कहता कि अगर तुम लोग कहो तो और ज़्यादा पढ़ा दूं। यह भी कहा जाता है कि जब वह सजदे में जाता तो काफ़ी देर तक पड़ा रहता थआ और कहा करता था कि परवर दिगार! तू भी पी और मुझे भी पिला। चुनानचे एक बार जो लोग उसके पीछे पहली सफ़ में थे उनमें से किसी ने कहा कि हम तुझ पर ताज्जुल नहीं करते बल्कि हैरत और ताज्जुब उस पर है कि जिसने तुझे हम पर अमीर और वाली मुक़र्रर किया है।

   जब वलीद के फ़िस्क़ औऱ शराब नोशी की ख़बर मुसलमानों में आम हुई तो एक गिरोह ने जिसमें अबुज़र औऱ अबु ज़ैनब वग़ैरा शामिल थे मस्जिद में वलीद पर हुजूम किया। उस वक़्त वह शराब के लशे में धुत था। उन लोगों ने उसे होशियार करना चाहा मगर जब वह किसी तरह होश में नहीं आया तो उसकी अंगूठी जिस पर मोहर कुन्दा थी उसके हाथ से उतार ली औऱ उन लोगों ने मदीने आकर हज़रत उस्मान से वलीद की शराब नोशी का सारा हाल बयान किया और सुबूत में वह अंगूठी पेश की लेकिन हज़रत उस्मान ने शिकायत कुनिन्दगान के सीने पर दो लत्ती रसीद करते हुए उन्हें डांट फटकार कर भगा दिया। हज़रत उस्मान के कि़रदार का वह तज़ाद फिक़्र अंगेज़ है कि वह शरीयते मुहम्मदी और दीने इलाही को तबाह करने वालों पर इन्तेहाई मेहरबान थे और उनके या अपनी ज़ात के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों के लिये इन्तेहाई सख्त और शकी-उल-क़लब।

   बसरा-

   बसरा के गवर्नर अबुमूसा अशरी थे जो हज़रत उस्मान के रिश्तेदारों की नज़र में कांटे की तरह खटक रहे थे। आख़िरकार उस्मान ने उन्हें भी निकाल बाहर किया और उनकी जगह अपने मामू ज़ाद भाई अब्दुल रहमान बिन आमिर को गवर्नर बनाया।

   मिस्र

     मिस्र में अमरु आस गवर्नर था। हज़रत उमर की वसीयत के मुताबिक़ हज़रत उस्मान ने कुछ अर्से तक उसे बरक़रार रखा और अपनी हिकमते अमली से रफ़्ता रफ़्ता अब्दुल्लाह बिन साद के लिये रास्ता हमवार करना शुरु कर दिया। चुनानचे पहले अफ़रीक़ा की फ़तेह के लिये उसे सिपेह सालार बना कर भेजा औऱ फिर मिस्र का वाली ख़िराज बना दिया और अमरु आस की ख़िदमात को जंगी अमूर तक महदूद कर दिया। इश तरह एक सूबे के दो हाकिम हो गये। अब नताज़ेआत का पैदा होना लाज़मीं था और जब तनाज़ेआत ज़हूर पज़ीर होने लगे तो अमरु आस को माज़ूल करके अब्दुल्लाह बिन साद को मुकम्मल तौर पर मिस्र के गवर्नर बना दिया।

   यह अब्दुल्लाह बिन साद हज़रत उस्मान का रज़ाई भाई और हज़रत रसूले ख़ुदा सल0 का मातूब था। फ़तह मक्का के दिन आंहज़रत सल0 ने उसका ख़ून मुबाह कर दिया था। यह शख़्स आंहज़रत सल0 को तरह तरह की अज़ीयतें दिया करता थआ और कुरआन का मज़ाक़ उड़ाया करता था।

   शाम

     शाम में माविया बिन अबुसुफियान हज़रत उमर के दौर से गवर्नर था। उसका शुमार तलक़ा में होता था और उसकी इस्लाम भी मुहमल और नाम निहाद था लेकिन चूंकि उमवी था इसलिये क़ौम परस्ती के फ़ितरी तकाज़ों के तहत हज़रत उस्मान की तमाम तर नवाजिशें औऱ मेहरबानियां उसके साथ थीं। चुनानचे हज़रत उस्मान ने माविया के लिये इस सूबे में दिये जब कि हज़रत उमर के ज़माने में यहां अलग अलग आमिल मुक़र्रर हुआ करते थे।

   अगर हज़रत उस्मान की दीनी ग़ैरत उनके क़बाएली असबियत पर ग़ालिब होती तो वह माविया की हुकूमत व ताक़त को मज़ीद बढ़ावा न देते। माविया और उसकी औलादें ने आले रसूल सल0 पर जो मज़ालिम के पहाड़ तोड़े उनसे तारीख़ के औराक़ भरे पड़े हैं और सारी दुनिया वाकिफ़ है। क्या हज़रत उस्मान इस ज़िम्मेदारी से बच सकते हैं।

   सहाबा पर हज़रत उस्मान के मज़ालिम

अबुज़र ग़फ़्फ़ारी

     हज़रत अबुज़र गफ़्फ़ारी मदीने से मश्रिक़ की जानिब वाक़े एक छोटे से गांव रबज़ा के रहने वाले थे। आपका असल नाम अनदिब बिन जनादा था। जब रसूले अकरम सल0 के बारे में सुना तो मक्के आये और ख़िदमते पैग़म्बर सल0 में बारयाब होकर इस्लाम कुबूल किया जिस पर कुफ़्फ़ारे कुरैश ने उन्हे तरह तरह की तकलीफ़ें और अज़ीयतें पहुंचाई मगर आपके सिबाते क़दम में लग़ज़िश न आई। इस्लाम कुबूल करने वालों में आप पांचवे नम्बर पर शुमार किये जाते हैं। इस बक़ते इस्लामी के साथ आपके ज़ोहद व तक़वा का यह आलम था कि रसूले अकरम सल0 ने फ़रमाया, मेरी उम्मत में अबुज़र ज़ोहद व विरा में ईसा बिन मरयम की मिसाल है।

   आप हज़रत उमर के ज़मानये ख़िलाफ़त में शाम जले गये थे और हज़रत उस्मान के ज़मानये ख़िलाफ़त में भी वहीं मुकीम रहे औऱ शब व रोज़ हिदायत व तबलीग़ गिरां गुज़रता था क्योंकि आप हज़रत उस्मान की रसमायादारी, अक़रुबा परवरी और बेराह रवी पर खुल्लम खुल्ला नक़द व तबसिरा किया करता था। मगर उसके बावजूद माविया के कुछ बनाये न बनती थी। आख़िरकार उसने उस्मान को लिखा कि अगर अबुज़र कुछ दिनों और यहां मुकीम रहे तो अतराफ़ के तमाम लोगों को आपकी तरपञ से मरगश्ता कर देंगे लेहाज़ा इसका इन्साद होना चाहिये। उसके जवाब में उस्मान ने माविया को लिखा कि अबुज़र को किसी सरकश, बेकजावा और तेज़ रफ़्तार ऊँट पर सवार करके तुन्दखू बे रहम और संग दिल रहबर को साथ मदीने की तरफ़ भेज दो। चुनानचे हज़रत अबुज़र जब मदीने पहुंचे तो अज़ीयत नाक सवारी की वजह से आपकी रानों का गोश्त जुदा हो चुका था और सिर्फ़ हड्डियों की सफ़ेदी ज़ाहिर हो रही थी। लेकिन मदीने पहुंच कर भी आपकी ज़बाने सदाक़त खामोश न रह सकी थी। मुसलमानों को रसूल सल0 का ज़माना याद दिलाते, निज़ामें हुकूमत पर तंज़ करते, सरमायादारी की मुख़ालिफ़त करते और शाहाना ठाट बाट की बरसरे आम मज़म्मत करते।

   हज़रत उस्मान के लिये जनाबे अबुज़र का यह तर्ज़ अमल नाक़ाबिले बर्दाश्त था। चनानचे आपने उन्हें एक दिन बुलाया और कहा कि मैंने सुना है कि तुम कहते हो कि बनी उमय्या की तादाद तीस हज़ार तक पुहंच जायेगी तो वह अल्लह के शहरों को अपनी जागीरें, उसके बन्दों को अपना गुलाम और उसके दीन को फ़रेबकारी का ज़रिया क़रार दे लेंगे।

   अबुज़र ने कहा बेशक मैंने पैग़म्बर सल0 से यह हदीस सुनी है। उस्मान ने कहा, तुम झूट कहते हो। फ़िर अपने मुसाहेबीन को मुखातिब करते हुए पूछा कि तुमसमे से किसी ने पैग़म्बर सल0 की ज़बान से यह हदीस सुनी है? सबने जवाब नफ़ी में दिया। जिस पर अबुज़र ने फ़रमाया कि इस हदीस के बारे में अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली अलै0 से पूछा जाये वही इसकी हक़ीक़त बतायेंगे। चुनानचे हज़रत अली अलै0 को बुला कर दरियाफ़्त किया गया तो आपने फ़रमाया कि अबुज़र सज कहते हैं। उस्मान ने कहा, आप किस बिना पर इस हदीस की सेहत की गवाही दे रहे हैं? फ़रमाया, मैंने पैग़म्बर सल0 को यह कहते सुना है कि ज़मीन के ऊपर और आसमान के नीचे अबुज़र से ज़्यादा सच बोलने वाला कोई नहीं है।

   अब उस्मान के पास कोई जवाब न था। अगर झुटलाते तो पैग़म्बर सल0 की तकज़ीब लाज़िम आती लेहाज़ा पेच व ताब खा कर रह गये और कोई तरदीद न कर सके। अब सरमााय परस्ती के ख़िलाफ़ अबुज़र की सदाए एहतेजाज और बुलन्द होने लगी यहां तक कि आप जब उस्मान को देखते तो इश कुरआनी आयत की तिलावत शुरु कर देते

   (तर्जुमा) जो लोग सोना और चांदी जमा करते हैं और अल्लाह की राह में उसे ख़र्च करते उन्हे दर्दनाक अजाब की ख़बर सुना दो कि जिस दिन उनका जमा किया हुआ चांदी और सोना दोज़ख की आग में तपाया जायेगा और उसेस उनकी पेशानियां दाग़ी जायेंगी और उनसे कहा जायेगा कि ह वही है जिसे तुमने अपने लिये ज़ख़ीरा किया था तो अब ज़खीरा अन्दोज़ी का मज़ा चखो।

   हज़रत उस्मान ने अपनी तीनत, फ़ितरत और आदत के मुताबिक अबुज़र को भी माल व ज़र का लालच दिया मगर इस ताएरे आज़ाद को सुनहरी जाल में जकड़ न सके। तशद्दुद और सख़्ती से भी काम लिया मगर ज़बान बन्द न कर सके। आख़िर कार हज़रत उस्मान को ज़ालिमाना रविश ने इस हक़ परस्त को मदीना छोड़ देने और रबज़ा की तरफ़ चले जाने पर मामूर किया गया कि वह उन्हें मदीने से बाहर निकाल दें। यह शाही फ़रमान भी जारी हुआ कि वक़्ते रुख़सत कोई भी शख़्स अबुज़र से कलाम न करे और न उन्हें अलविदा कहे। मगर अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै0, हज़रत इमाम हसन अलै0 और अम्मार यासिर वग़ैरा ने इस फ़रमान की कोई परवा नहीं की और यह तमाम हज़रात अशकबार आंखों के साथ हज़रत अबुज़र के साथ दूर तक रुख़सत करने के लिये जाते।

   जिला वतनी के बाद रबज़ा में अबुज़र की ज़िन्दगी इन्तेहाई मसाएब व आलाम में कटी। आपके फ़रज़न्द ज़र ओर अहलिया ने यहीं इन्तेकाल किया। जो भेड़ बकरियां गुज़ारा के िलये पाल रखी थीं वह भी हलाक हो गयीं सिर्फ़ एक बेटी रह गयी थी जो बापके साथ तमाम दुखों में बराबर की शरीक थी। जब सरो सामाने ज़िन्दगी नापैद हो गये औऱ मुसलसल फ़ाक़ों पर फ़ाक़े होने लगे तो उसने अबुज़र से कहा, बाबा यह जि़न्दगी के दिन अब कैसे कटेंगे, कहीं आना जाना चाहिये औऱ रिज़क का सामान फ़राहम करना चाहिये। बेटी की इस तजवीज़ पर अबुज़र उसे, हमराह ले कर सहरा की तरफ़ निकल खड़े हुए मगर घास फूस औऱ दरख़्तों के पत्ते भी मयस्सर न आ सके। आख़िरकार थक कर एक जगह बैठ गये। सहरा की रेत इकट्ठा की औऱ उस पर सर रख कर लेट गये। इसी आलमें गुरबत में आपकी सांसें उख़ड़ने लगीं और निजाई कैफ़ियत तारी हो गयी। जब अबुज़र की दुख़्तर ने यह हाल देखा तो सरा सीमा व मुज़तरिब होकर कहने लगी कि बाब जान! अगर आपने इस लक़ व दक़ सहरा मे इन्तेक़ाल फ़रमाया तो मैं क्यों कर कफ़न दफ़न का इन्तेज़ाम करुंगी। आपने फ़रमाया, बेटी घबराओं नहीं, रसूल उल्लाह सल0 ने मुझसे फरमाया था कि ऐ अबुज़र तुम आलमे गुरबत में इऩ्तेक़ाल करोगे और कुछ अराक़ी तुम्हारी तजहीज़ व तकफ़ीन करेंगे। लेहाज़ा अगर मैं दुनिया से रुख़सत हो जाऊँ तो एक चादर मेरे ऊपर डाल देना और सरे राह जाके बैठ जाना। जब इधर से कोई क़ाफिला गुज़रे तो उसेस कहना कि सहाबिये रसूल सल0 अबुज़र ने इन्तेक़ाल किया है।

   चुनानचे अबुज़र की रेहलत के बाद उनकी बेटी सरे राह जाकर बैठ गयी। कुछ देर बाद एक क़ाफ़िला नमूदार हुआ जिसमें हिलाल बिन मालिक, एहनिफ बिन क़ैस तमीमी, असअसा बिन सूहान अबदी, असूद बिन क़ैस तमीमी और मालिक बिन हारिस अशतर वग़ैरा शामिल थे। जब उन्होंने हज़रत अबुज़र के इन्तक़ाल की ख़बर सुनी तो इस बेकसी की मौत पर तड़प उठे। सवारियां रोक ली गयीं और तजहीज़ व तकफ़ीन के लिये सफ़र मुलतवी कर दिया गया। मालिके अशतर ने जो कफ़न दिया उसकी क़ीमत चार हज़ार दिरहम थी यह लोग तजहीज़ व तकफ़ीन के फ़राएज़ अंजाम देने के बाद रुख़सत हुए और अबुज़र की बेटी को भी अपने हमराह ले गये। यह वाक़िया 8 ज़िलहिज सन् 32 हिजरी का है। एक रिवायत में है कि मालिके अशतर और उनके साथियों ने कफ़न व दफ़न से फ़ारिग़ होकर अबुज़र हक़ में दुआये मग़फे़र की और उस्मान के लिये बद दुआ की।

   हज़रत अम्मार बिन यासिर

     आपका नाम अम्मार और वालिद का नाम यासिर था जो नसलन यमनी थे। आपकी वालिदा समय्या क़बीलये मख़ज़ूम से थीं। आपने इब्तेदा ही में अपने वालदैन के साथ कुबूलियते इस्लाम का शरफ़ हासिल किया और उसकी पादाश में कुफ़्फारे कुरैश के हाथों बड़े बड़े मसाएब व आलाम बर्दाश्त किये। कुरैश अपने माबूदों (बुतों) की तारीफ़ व तीसीफ़ और रसूल अक़रम सल0 को बुरा भला कहने के लिये आपको चिलचिलाती धूप और उगलती हुई गर्म रेत पर दिन दिन भी बरैहना लिटाये रखते औऱ कहते कि हम तुम्हें उस वक़्त तक न छोड़ेंगे जब तक तुम मुहम्मद सल0 की बुराई और हमारे खुदाओं की तारीफ़ व तौसीफ़ नहीं करोगे। मगर अम्मार की पेशानी पर लब न आात और आपकी ज़बान हम्दे इलाही और तौसरीफ़े मुहम्मदी सल0 में रतबुल लिसान रहती। यह हाल देख कर पैग़म्बरे अकरम सल0 को सदमा होता और वह आप और आपके वालदैन के खुदा से रहमत के तलबगार होते। कुरआन ने भी आपके इस्लामी सिबात औऱ सरमदी ईमान के तज़किरे किये हैं।

   हज़रत अम्मार यासिर को जुलहिजरतैन का खिताब दिया जाये तो ग़लत न होगा, इसिलये कि आपने दो हिज़रते की हैं। पहले हब्शा की तरपञ और फिर मदीने की तरपञ।

   दीगर सहाबा की बनिस्बत मस्जिदे नबवी की तामीर में आपका हिस्सा ज़्यादा है। इसिलये कि दीगर सहाबा अगर एक ईंट या पत्थर लाते तो आप दो लाते थे। आपने जंगे खंदक के मौके़ पर खंदक़ की खुदाई में भी आम मुसलमानों से ज़्यादा हिस्सा लिया और हर इस्लामी जंग में पैग़म्बरे इस्लाम सल0 के दोश रहे औऱ किसी जंग के मैदान से राहे फ़रार इख्तियार नहीं की।

उमर बिन ख़त्ताब ने आपको कूफ़े का गवर्नर मुक़र्रर किया और फिर कुछ ही अर्से बाद माज़ूल कर दिया और पूछा कि इस माज़ूली से आप नाराज़ तो नहीं हुए? अम्मार ने जवाब दिया कि जिस वक़्त आपने मुझे गवर्नर बनाया था, मैं उस वक़्त भी खुश नहीं ता और अब माज़ूल हो गया हूं तब भी खुश नहीं हूं। यह थी अम्मार की साफ़ गोई और शाने बे नियाज़ी।

   हज़रत अबुज़र गफ़्फ़ारी के बाद अम्मार यासिर दूसरे सहाबी थे जिन्होंने हज़रत उस्मान की बदउनवानियों और एतदालियों के ख़िलाफ एलानिया आवाज़े एहतेजाज बुलन्द की और उसके बदले मसाएब व आलाम का शिकार हुए।

   एक दिन हज़रत उस्मान ने बैतुलमाल से एक इन्तेहाई बेश क़ीमत हीरा निकलवाकर अपनी किसी बीवी या बेटी के ज़ेवर में जड़वा दिया। लोगों को इसका पता चला तो उन्होंने हज़रत उस्मान पर लानत मलामत की और अपने ग़म व गुस्से का इज़हार किया। हज़रत उस्मान भी तैश में आ गये उन्होंने बरसरे आम यह एलान किया कि सारा माले ग़नीमत हमारा है, हम जो मुनासिब समझेंगे वह करेंगे, किसी का इसमें क्या इजारा? उस पर हज़रत अली अले0 ने फ़रमाया कि अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हे रोक दिया जायेगा और तुम्हारे औऱ बैतुलमालस के दरमियान दीवार ख़ड़ी कर दी जायेगी। हज़रत अम्मार यासिर भी इस मौक़े परक मौजूद ते। वह खड़े हो गये औऱ कहा कि मैं अपने ख़ुदा को गवाह करके कहता हूं कि इस मामले की मुख़ालिफ़त करने वालों मे मेरा नाम सरे फेहरिस्त शामिल कर लिया जाये बस, इस जुमले पर हज़रत उस्मान ने अम्मार को गिरफ़्तार करा लिया औऱ अपने हाथों से उन्हें इतना मारा कि वह बेहोश हो गये।

   मगर, पैगम्बरे इस्लासम सल0 का यह बे बाक सहाबी फिर भी अपनी हक़ परस्ती व हक़ बयानी पर अड़ा रहा औऱ उसके पाये सिबात में कोई लग़जिश न आई। एक मौक़े पर कुछ सहाबा ने हज़रत उस्मान को एक ख़त लिखा औऱ उसमें उनके तर्ज़े अमल पर मलामत व नसीहत की। यह ख़त लेकर अम्मार यासिर उस्मान के पास आये और उसका इब्तेदाई हिस्सा उन्हें पढ़ कर सुनाया, जिस पर उस्मान ने उन्हें गालिया दी और लातों औऱ घूंसो से बुरी तरह मारा। उस वक़्त हज़रत उस्मान के पैरों में चरमीं मौज़े थे, उनकी एक लात हज़रत अम्मार के पेट पर भी पड़ी जिससे पेटका पर्दा फ़ट गया और इस बूढ़े सहाबी को फुतक का आरज़ा हो गया। मोआर्रिख़ आसमे कूफ़ी का बयान है किः

     हज़रत अबुज़र ग़फ़्फ़ारी के इन्तेक़ाल की ख़बर उस्मान के दरबार में पहुंची तो उस वक़्त अम्मार यासिर भी वहां मौजूद थे। आपने इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैहे राजेऊन का कलमा ज़बान पर जारी किया औऱ फ़रमाया कि अबुज़र पर अल्लाह अपनी रहमतें नाज़िल करें। इस पर ख़लीफ़ा उस्मान ने गुस्सा होकर कहा कि ऐ नालाएक़ तेरा भी यही हाल होगा। मैं अबुज़र को मदीने से निक़ाल कर पशेमान नहीं हूं ------------ अम्मार ने कहा ख़ुदा की कसम, मेरा यह हाल न होगा। उस्मान ने कहा, इसे धक्के दो और शहर से निकाल दो औऱ उसी जगह पहुंचा दो जहं अबुज़र को पहुंचाया था। अम्मार ने कहा, ख़ुदा की क़मस मुझे कुत्तों और भेडि़यों की हमसाएगी तेरे करीब रहने से ज़्यादा पसन्द हैं।

   इस गुफ़्तुगू के बाद हज़रत उस्मान ने अम्मार को भी जिला वतन करने का फ़ैसला कर लिया मगर जब यह खबर आम हुई तो क़बीलये बनी मख़जूम के वह लोग जो अम्मार यासिर के क़रीबी रिश्तेदार थे, हज़रत अली अलै0 की ख़िदमत में हाज़िर हुए औऱ उनसे फ़रयादे रस हुए किः

   आज हम उस्मान की इस नाशाइस्ता गुफ़्तुगू और बेहूदा फ़ैसले के सिलसिले में आपके पास आये हैं जो उसने अम्मारे के बारे में किया है। अगर वह अम्मार को शहर से बाहर निकाल देगा तो हमारे हाथों से भी ऐसा हादसा ज़हूर में आ जायेगा जिससे वह तमाम उम्र पछतायेगा।

   हज़रत अली अलै0 ने बनी मख़ज़ूम के वफ़द के तेवरों को महसूस किया औऱ उस्मान के पास आकर कहा कि तुमने इससे पहले अबुज़र को जो इन्तेहाई नेक, मुत्तकी, परहेज़गार, सच्चा मुसलमान और हज़रत रसूल ख़ुदा सल0 का बेहतरीन सहाबी था, मदीने से निकाल दिया और वह बेचारा बे किसी की हालत में परदेस रबाज़ा) ही में चल बसा। तुम्हारे इस तशद्दुद ने मुसलमानों को बरगश्ता किया। अब तुमने यह इरादा किया है कि अम्मार को भी मदीने से निकाल बाहर करो। अल्लाह से ख़ौफ़ खाओ औऱ असहाबे पैग़म्बर सल0 को अज़ीयतें देने से बाज़ आ जाओ।

   उस्मान को हज़रत अली अलै0 की यह बातें नागवार गुज़रीं। मोआर्रिख़ आसम कूफ़ी का कहना है कि उस्मान ने गुस्से से बेकाबू होकर हज़रत अली अलै0 से भी गुस्ताख़ी और बदकलामी की और आपको भी मदीने से निकाल देने की धमकी दी। उस पर हज़रत के तेवर बदले औऱ फरमाया कि अगर तेरे दिल में यह हसरत है तो आज़मा के देख ले। ख़ुदा की क़सम, तमाम फ़सादात तेरी ज़ात से हैं और मैं देखता हूं कि तुझ से ऐसे उमूर सरज़द हो रहे हैं जो हुदूदे शरीयत से बाहर हैं। यह कहकर आप उस्मान के पास से उठकर चले आये। हज़रत उस्मान ने जब हज़रत अली अलै0 के माथे पर ग़ैज़ व ग़ज़ब के आसार देखे तो मजबूर होकर उन्होंने अम्मर की ज़िला वतनी का ख़्याल तर्क कर दिया।

   अब्दुल्लाह बिन मसूद

     अब्दुल्लाह बिन मसूद का ताल्लुक़ क़बीलये बनी ज़हरा से था। आप साबेक़ीन मुसलेमीन में से थे। आप ही ने सबसे पहले बुलन्द आवाज़ से कुरआन मजीद की तिलावत की, उससे पहले किसी की यह हिम्मत न हुई थी। कुफ़्फ़ारे कुरैश ने आपको इस फ़ेल पर इतना मारा था कि आप लहू लुहान हो गये थे।

   मुशर्रफ़ बइस्लाम होने के बाद से आपके रसूल उल्लाह सल0 की ख़िदमत व फ़रमांबरदारी को अपना शेयार बना लिया था। आप पैग़म्बरे इस्लाम सल0 के कफ़श बरदार भी थे, आपकी नालैन पैरों में पहनाते और आपके साथ आगे आगे चलते।

   आप हब्शा और मदीना, दोनों हिजरतों से सरफ़राज़ थे। जंगे बदर से लेकर उसके बाद तक के तमाम ग़ज़वात में शरीक रहे। मोअर्रेख़ीन का कहना है कि यह रफ़्तार व गुफ़्तार और तीर व तरीक़ में रसूल सल0 के मुशाबा थे।

   हज़रत उमर ने उन्हें उमूरे दीन की तालीम देने के लिये और जनाबे अम्मार यासिर को हाकिम बना कर कूफ़े भेजा था औऱ कूफ़े वालों को तहरीरन यह ताकीद की थी कि तुम लोग इन दोनों हज़रात की पैरवी करना और इनकी बातों पर अमल करना।

   इब्ने मसूद अहले कूफ़ा को कुरआन औऱ दीन की तालीम देते रहे यहां तक कि जब वलीद कुफ़े का गवर्नर मुक़र्रर हुआ तो उस वक़्त आप बैतुल माल के ख़ज़ाची भी थे।

   बैतुलमाल से वलीद ने कुछ कर्ज़ लिया और वक़्ते मोअय्यना पर जब उसने वह रक़म अदा नहीं की तो अब्दुल्लाह बिन मसूद ने तक़ाज़ा किया।

   वलीद ने इस तक़ाज़ा की शिकायत हज़रत उस्मान से की। इस पर उस्मान ने इब्ने मसूद को लिखाः

   तुम सिर्फ़ हमारे खज़ाची हो। वलीद ने बैतुलमाल से जो रक़म ली है उसकी तक़ाजा़ न करो।

   हज़रत उस्मान का यह शाही हुक्म जब मौसूल हुआ तो खुद्दार अब्दुल्लाह बिन मसूद ने बैतुलमाल की कुंजियां वलीद के सामने फेंक दी औऱ कहा के मैं तो उपने आपको तमाम मुसलमानों का ख़जांची तसव्वुर करता था, तुम्हारा ख़जांची होना मुझे मंज़ूर नही है। अल्लामा बिलाज़री का बयान है कि वलीद के सामने कुंजियां फेंकने के बाद आपने यह कहा किः

   जो शख़्स शरीयत में उलट फेर करेगा उसे खुदा भी उलट देगा और जो तबदीली का मुरतकिब होगा वह अल्लाह के कहर व ग़ज़ब में आयेगा। तुम्हारे साहब (उस्मान) ने उलट फेर भी किया है औऱ तबदीली के मुरतकिब भी हुए हैं वरना क्या रसूल सल0 के सहाबी साद बिन अबी विक़ास इस क़ाबिल थे कि उन्हें माजूल किया जाता? और तुम इश क़ाबिल थे कि तुम्हें मुसलमानों पर हाकिम मुक़र्रर किया जाता?

   इब्ने मसूद अकसर यह भी कहा करते थे कि सबसे ज़्यादा सही क़ौल अल्लाह का कलाम है और सबसे उमदा हिदायत मुहम्मदे मुसतफा सल0 की हिदायत है और बदतरीन उमूरे शरियत में नई नई बातें है और हर नई बात बिदअत है और हर बिदअत गुमराही है औऱ हर गुमराही का ठिकाना जहन्नुम है।

   वलीद बिन अक़बा ने उन तमाम बातों के बारे में तफ़सील से उस्मान को लिखा और उसके साथ ही यह भी तहरीर किया कि इब्ने मसूद आप पर मुख़तलिफ़ क़िस्म के इल्ज़ामात आयद करते हैं और अहले कूफ़ा के दरमियान आफको बुरा भला कहते हैं। उस्मान ने जवाब मे वलीद को लाख कि इब्ने मसूद को फ़ोरी तौर पर हमारे पास मदीने रवाना कर दो। चुनानचे अब्दुल्लाह बिन मसूद जब वारिदे मदीना हुए और हज़रत से मिलने की ग़र्ज़ से मस्जिद नबवी में दाख़िल हुए तो उस वक़्त उस्मान मिम्बर से ख़ुतबा दे रहे थे. इब्ने मसूद पर नज़र पड़ी तो कहने लगेः

   लोगों तुम्हारे दरमियान वह जानवर आ रहा है जो अपनी ख़ुराक़ को पैरों तले रौंदता है और उस पर लीद करता है।

   हज़रत आयशा ने अपने हुजरे से पुकार कर कहाः

   उस्मान खुदा का ख़ौफ़ कर, सहाबी-ए-रसूल सल0 की शान में ऐसी गुस्ताख़ियां करता है।

   लेकिन हज़रत उस्मान ने आयशा की एक न सुन और मिम्बर से छलांग मार कर इब्ने मसूद के पैरों तले रौंद डाला जिस्से आपकी पस्लियां शिकस्ता हो गयीं।

   इस जुल्म के बाद भी हज़रत उस्मान को तसल्ली नहीं हुई। चुनानचे उन्होंने इब्ने मसूद का वज़ीफ़ा भी बन्द कर दिया और मदीने से बाहर आने जाने पर मुकम्मल पाबन्दी भई आयद कर दी।

   बिलाजरी ने तहरीर किया है कि जब इब्ने मसूद मरजुल मौत में मुबतिला हुऐ तो उस्मान उनकी अयादत को आय़े और दोनों में बाहम इस तरह गुफ़्तगू हुई।

उस्मान       -    आपको क्या तकलीफ़ है?

इब्ने मसूद     -    अपने गुनाहों का ख़ौफ़ है।

उस्मान       -    आप क्या चाहते हैं?

इब्ने मसूद     -    अपने परवरदिगार की रहमत

उस्मान       -    आपका वज़ीफ़ा फिर जारी कर दूं ?

इब्ने मसूद     -    जब ज़रुरत थी तो बन्द कर दिया, अब ज़रुरत नहीं तो ज़ारी करना

चाहते हैं।

   उस्मान         -    आपके बच्चों के काम आयेगा।

   इब्ने मसूद  -    मेरे बच्चों का कफ़ील खुदा है।

   उस्मान         -    मेरी बख़्शिश के लिये खुदा से दुआ कीजिये।

   इब्ने मसूद  -    मैं खु़दा से कहूंगा कि वह आपसे मेरा इनतेक़ाम ले।

   ताऱीख़ इब्ने कसीर में है कि जब उस्मान ने यह कहा कि वज़ीफ़ा आपके बच्चों के काम आयेगा तो इब्ने मसूद ने जवाब दिया कि आप मेरे बच्चों को नादारी का अन्देशा न करें। मैंने उन्हें ताक़ीद कर दी है कि वह हर रात सूरये वाक़िया की तिलावत करते रहेंगे तो कभी फ़क़र व फ़ाक़ा में मुबतिला न होंगे।

   हज़रत उस्मान जब चले गये तो इब्ने मसूद ने वसीयत की कि वह मेरी नमाज़े जनाज़ा न पढायें। चुनानचे जब आपने इन्तेक़ाल किया तो किसी ने उस्मान को ख़बर तक न दी। अम्मार यासिर ने नमाज़े जनाज़ा पढाई और यह बरगुज़िदा सहाबी सन् 32 हिजरी में दुनिया से रुख़सत होकर आंहज़रत सल0 से जा मिला।

   फ़त्तूहाते उस्मानियाः

     हज़रत अबूबकर और उमर के दौर में हुकूमत के नमक ख़्वार सिपेहसालारों, चरनैलों और फ़ौजी कमाण्डरों ने अरब के नंगे और भूखे क़बाएल के साथ मिल कर मुल्कगीरी और माले ग़नीमत के नाम पर ग़ैर इस्लामी फ़तूहात का जो लामुतनाही सिलसिला क़ाएम किया था इसका तसलसुल हज़रत उस्मान के दौर में भी बरकरार रहा। चुनानचे 25 हिजरी में हज़रत उस्मान ने वाली मिस्र अब्दुल्लाह बिन साद के नाम यह फ़रमान जारी किया कि वह अप़रीक़ा की तरफ़ पेश क़दमी करे औऱ इश इलाक़े को अपने मफ़तूहा इलाक़ों में शामिल कर ले। अब्दुल्लाह बिन साद एक क़सीर फ़ौज लेकर तेवनस की तरफ़ रवाना हुआ मगर वह इस मुहिम में नाकाम रहा।

   सन् 27 हिजरी में हज़रत उस्मान ने एक लश्कर जिसमें सहाबा की एक बड़ी तादाद शामिल थी, अब्दुल्लाह की मदद के लिये रवाना किया ताकि वह तेवनस पर दो बारा हमला करके उस पर फ़तेह हासिल करें। चुनानचे तेवनस फतेह हुआ। उसके बाद स्पेन फ़तह हुआ। इशी साल माविया ने बहरी रास्ते से क़बस पर चढ़ाई करके उसे फ़तेह किया जबकि हज़रत उमर के दौर में माविया की निगाहें क़बरस पर थीं लेकिन चूंकि उमर बहरी जंग से ख़ौफ खाते थे इसलिये इजाज़त नहीं दी थी। इसी साल अरज़ान वग़ैरा भी मफ़तूहा इलाकों में शामिल हुए।

   हज़रत उमर के दौर के बेशतर मफ़तूहा मुमालिक हज़रत उस्मान के अहद में बाग़ी हो गये थे। चुनानचे उनकी बग़ावतों को फ़रो करने में भी हज़रत उस्मान को दुशवार गुज़ार मरहलों का सामना करना पड़ा। सन् 26 हिजरी में इसतख़र और क़सा वग़ैरा फ़तेह हुए। सन् 30 हिजरी में ख़ुरासान औऱ उसके बेशतर शहर नीशापुर, तूस, सरख़िस, मरव, बीहक़ और बहुत से इलाक़े मफ़तूहा मुमालिक में शामिल हुए। आज़र बाइजान का इलाक़ा जो हज़रत उमर के दौर में फ़तेह हो चुका था फिर बाग़ी हो गया लेकिन उसकी बग़ावत को वलीद बिन अक़बा ने सख़्ती से कुचल दिया और वहां के लोगो से आठ लाख सालाना ख़िराज पर सुलह हो गयी।

   इन उस्मानी फ़तूहात का तज़किरा इस कर्रो फ़र से किया जाता है जैसे यह तमाम फ़तूहात सिर्फ़ उन्हीं की तदवबीर और फ़रास्त का नतीजा हों हालांकि हक़ीक़त यह है कि यह फ़तुहात वरसा हैं इस जंगी मुआशरे का जो हज़रत उमर के दौर में पूरी तरह तशकील पा चुका था। फ़ौजी छांवनियां क़ायम हो चुकीं थीं जिनमें बेशुमार मुलाजि़म पेशा फ़ौज रहती थी जिसे मसरुफ़ रख़ना भी ज़रुरी था। इस लिहाज़ से हज़रत उस्मान की फ़तूहात उमर बिन ख़त्ताब के अहद की जंगो का तसलसलु थीं और इन फ़तुहात और क़ामरानी का सेहरा सूबाई गवर्नर, सिपेह सालारों और जरनलों के सर है न कि हज़रत उस्मान के। अलबत्ता उस्मानी दौर में एक नयी जारेहत शुरु हुई और वह थी बहरी जंगों की जिसमें सीरते शैख़ीन का कोई दख्ल न था और न आपकी हौसलामन्दी कारफ़रमां थी। यह मुहिम सिर्फ़ बनी उमय्या के सफ़्फ़ाक और ग़ासिब गवर्नर माविया बिन अबुसुफ़ियान की जाह पसन्दी का नतीजा थी।

   मस्जिदुल हराम की तौसीय

          सन् 26 हिजरी में हज़रत उस्मान ने हरम काबा की तौसीय व तजदीद का हुक्म दिया। पहले तो उन्होंने आस पास के लोगों से उनके मकानों औऱ ज़मीनों को ख़रीदना चाहा मगर जब कुछ लोगों ने इन्कार किया तो उनके घरों को ज़बरदस्ती मिस्मार करा दिया। जब लोगों ने फ़रमाया कि औऱ इन्साफ़ का मुतालिबा किया तो आपने उन्हें क़ैद ख़ानों में डाल दिया। दाल में ब-मुश्किल तमाम अब्दुल्लाह बिन ख़ालिद की सिफ़ारिश पर उन्हें छोड़ा गया। (तबरी)

   मस्जिदे नबवी की तौसीय

     अल्लाहमा जलालुद्दीन सेतवी ने तहरीर किया है कि सन् 26 हिजरी में हज़रत उस्मान ने मस्जिद नबवी की तौसीय की और तराशीदा पत्थरों से उसकी तामीर अमल में लाई गयी। सूतून भी पत्थरों के बनावाये गये और छत में सागवान की लकड़ी इस्तेमाल की गयी नीज़ मस्जिद का तूल 160 हाथ और अरज 150 हाथ रखा गया। (तारीखुल खुलफा)

मिना में उस्मानी नमाज़

कितबे खुदा, सुन्नते रसूल सल0 और रिवायते मुतावातिरा से साबित है कि सफ़र के दौरान नमाज़ क़सर हो जाती है ख्वाह वह ख़ौफ़ व दहशत का आलम हो या सुकून व इत्मिनान का। चुनानचे रसूले अकरम सल0 ने अपनी हायात में क़सर के इस अमल को जारी रखा और आपकी रेहलत के बाद हज़रत अबूबकर और उमर भी इसी सुन्नत पर अमल पैरा रहे। तारीखों से इस अमर की निशानदेही होती है कि हज़रत उस्मान भी अपनी ख़िलाफ़त के इब्तेदाई अय्याम में इसी सुन्नते रसूल सल0 और सीरते शेख़ीन पर कारबन्द रहे लेकिन बाद में न जाने क्यों इसकी मुख़ालिफ़त पर कमर बस्ता हो गये और कुरआन व सुन्नत के मुक़ाबिले में अपनी ज़ाती इजतेहाद से काम लेते हुए इसे तर्क कर दिया जैसा कि मुस्लिम ने अपनी सही में इब्ने उमर से रिवायत की है कि इब्ने उमर कहते हैं कि मिना में रसूल सल0 अबुबकर और उमर ने क़स्र की नमाज़ें पढ़ी लेकिन हज़रत उस्मान ने इतमाम किया।

   हारिस बिन वहाब से बुख़ारी में मरवी है कि हमने मिना में पैग़म्बरे इस्लाम सल0 के साथ निहायत सुकून के आलम में नमाज़े क़स्र पढी हैं।

   अब्दुल रहमान बिन यज़ीद से मरवी है कि हज़रत उस्मान ने मिना में नमाज़ तमाम पढ़ी तो इसकी इत्तेला अब्दुल्लाह बिन मसूद को की गीय। उन्होंने इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन पढ़ कर काह कि यह ख़िलाफ़ते सुन्नते रसूल सल0 व सीरते शैख़ीन है। (बुख़ारी व मुस्लिम)

   मुस्लिम की दीगर रिवायतः

     हज़रत अनस से रिवायत है कि मैंने आंहज़रत सल0 के साथ मदीने में तमाम और जुलहलीफ़ में क़स्र नमाज़ पढ़ी। इब्ने अब्बास से मरवी है कि में मदीने से मक्का और मक्के से मदीने के सफ़र में आहंहज़रत सल0 के साथ रहा और आप बराबर क़स्र के माज़ पढ़ते रहे।

   इब्ने अबी शीबा से रिवायत है कि आंहज़रत सल0 ने नेक क़िरदार अफ़राद की निशानियों में कस्र का जि़क्र भी फ़रमाया है।

   लैला बिन उमय्या ने हज़रत उमर से पूछा कि हम लोग अमन की हालत में अपनी नमाज़े क्यों कस्र करें? उन्होंने कहा कि मैं खुद इसी उलझन में था लेकिन आंहज़रत सल0 से सवाल किया तो आपने फ़रमाया कि क़ब्र सदक़-ए-ख़ुदा है, इसे कुबूल करो।

   ज़हरी कहते हैं कि मैंने अरवा से पूछा कि आयशा को यह क्या हो गया है कि वह सफ़र मे पूरी नमाज़ पढ़तीं है? उन्होंने जवाब दिया कि आयशा ने तावील की है।

   सही मुस्लिम की मज़कूरा रिवायात से पता चलता है कि किताबे ख़ुदा, सुन्नते रसूल सल0 और सीरते शैख़ीन की हज़रत उस्मान की नज़र में कोई अहमियत नहीं थी। नीज़ हज़रत आयशा भी इस फेल में शरीक थीं। एक रिवायत से इस अमर की निशानदेही भी होती है कि हज़रत उस्मान नमाज़ के अजज़ा में भी तहक़ीक़ कर लिया करते थे औऱ सजदे में जाते वक़्त बुलन्द होते वक़्त तकबीर को तर्क कर दिया करते थे। जैसा कि इमाम अहमद बिन हम्बल ने इमरान बिन हसीन से रिवायत की हैः

   उन्होंने (इमरान बिन हसीन) ने कहा कि मैंने अली अलै0 की इमामत में नमाज़ अदा की तो मुझे रसूल उल्लाह सल0 की नमाज़ याद आ गयी। मैं पहली सफ़ में हज़रत के पीछे ही था, जब आप रुकू में जाते औऱ बुलन्द होते तो तक़बीरे कहते मगर उस्मान ने उन्हें उस वक़्त तर्क कर दिया जब वह बूढे हो गये थे।

   इसी तरह सुन्नते पैग़म्बरी बरबाद हुई औऱ उसकी जगम सुन्नते ख़ुलफ़ा और सुन्नते सहााब ने ले ली। यक़ीनन इस्लाम में यह एक बिदअत है औऱ हर बिदअत ज़लालत है और हर ज़लालत का नतीजा गुमराही है।

सीरते शैख़ीन-

   गुज़िश्ता सफ़हात में हम यह तहरीर कर चुके हैं कि सक़ीफ़ा बनी सादा में सहाबियत, अन्सारियत और क़राबत को तज़वीरी चालों से शिकस्त हुई और दुम कटे इजमा की बदौलत हज़रत अभुबकर ख़लीफ़ा बन गये। इस इजमा की नाफ़हम मुसलमानों की एक बड़ी जमाअत ने सीरतें शैख़ीन से ताबीर करते हुए हुज्जत क़रार दिया मगर जब हज़रत अबुबकर ने वक़्ते आख़िर हज़रत उस्मान को उनकी तज़वीरी कोशिशों का समरा वसीयतनामे की शक्ल में दे कर अपने बाद के लिये ख़लीफ़ा बनाया तो यह इझमाल ख़त्म हो गया और सीरत के टुकड़े मसलहत की हवा में उड़ गये। अब इस रविश को मुसलमान क्या कहें? सीरत या सुन्नत? लेकिन यह भी उस वक़्त फ़ेना से हमकिनार हो गयी जब अबुलोलो के खंज़र ने हज़रत उमर की ज़िन्दगी पर मौत का साया डाला। अब न इजमा रहा न नस और न वसीयत, बल्कि शूरा का तरीक़ा राएज हुआ और उसें जान बूझ कर ऐसी शख़्सियतों को नामज़द किया गया जिनके तवस्सुल से ख़िलाफ़त बन हाशिम के बजाये हतमी तौर पर बनी उमय्या तक पहुंचे और जब ऐसा होगा तो बनी उमय्या की देरीना दुश्मन बनी हाशिम को चैन न लेने देगी क्योंकि दौलत, दाक़त और इक़तेदार सब कुछ बनी उमय्या के हाथों में होगा और बनी हाशिम उससे हमेशा के लिये महरुम होंगे।

   यह वह ख़ामोश इन्तेक़ाम था जो रसूले अकरम सल0 के क़त्ल का इरादा करने वाले और उनकी बज़्म में बैठने वाले ने लिया। चुनानचे इशी इन्तेक़ामी कार्रवाई की बुनियाद पर हज़रत उस्मान बिन अफ़ान मुसलमानों के तीसरे ख़लीफ़ां बन बैंठे। महज़ इस ज़बानी व ज़ोहरी इक़रार पर कि वह सीरते शैख़ीन पर अमल करेंगे क्योंकि वह इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ थे कि सीरते शैखीन सिर्फ़ आले रसूल सल0 से दुश्मनी औऱ अदावत का नाम है।

   ग़ालेबन यही वजह थी कि हज़रत उस्मान ने सीरते शैख़ीन के साथ साथ सुन्नते रसूल सल0 को भी पामाल किया और जिन मलऊनों को आंहज़रत सल0 ने अपनी ज़िन्दगी में जिला वतन कर दिया था उन्हें फिर इज़्ज़त व एहतेराम के साथ मदीने वापस बुला लिया जब कि हज़रत अबुबकर व उमर ने यह जसारत नहीं की।

   हज़रत उस्मान के इस इक़दाम को अगर हम सीरते शैख़ीन से ताबीर करें तो इसका मतलब यह होगा कि शैख़ीन की सीरत यह थी कि उस्मान रसूल उल्लाह सल0 की मुख़ालिफत करते वरना हकम बिन आस और मरवान बिन हक़म जिन पर पैग़म्बर सल0 ने लानत की थी और यह कह कर उन्हें मदीने से निकाला था कि इनके हाथों मेरी उम्मत तबाही व बर्बादी में मुबतिला होगी, वापस क्यों बुलाते?

   बाज़ मोअर्रिख़ीन का ख़्याल है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने हकम औऱ उसके बेटे मरवान की तरफ़ जिला वतन किया था और बाज़ का कहना है कि राबज़ा की तरफ़ भेजा था। चुनानचे तारीख़ ख़सीस में इब्ने ख़लकान के हवाले से रिवायत है किः

     जब उस्मान की बैयत हो चुकी तो उन्होंने हज़रत अबुज़र ग़फ़्फ़ारी रहमतुल्लाह अलैहा को रबज़ा में फिकवा दिया सिर्फ़ इस खता पर कि वह लोगों को तर्क दुनिया का दर्स दिया करते थे और हकम बिन आस को जिसे रसूल सल0 ने रबज़ा मे फिकवाया था, मदीने वापस बुला लिया हालांकि यह काम न हज़रत अबुबकर ने किया और न उमर ने।

   इस रिवायत से ज़ाहेर है कि हज़रत उस्मान ने हज़रत अबुज़र गफ़्फ़ारी को उसी मुक़ाम पर जिला वतन किया जिस मुकाम पर रसूले अकरम सल ने हकम बिन आस और मरवान बिन हकम को जिला वतन किया था। क्या हज़रत उस्मान का यह फ़ेल रसूल उल्लाह सल0 से सरीह इन्तेक़ाम न था? क्या इस उस्मानी तर्ज़े अमल को दुनिया के मुसलमान सीरते शैख़ीन का नाम दे सकते हैं?

   दूसरे यह कि हज़रत उस्मान के तख़्ते हुकूमत पर बैठते ही बनी उमय्या की बन आई। बैतुल माल का दरवाज़ा उनके लिये खोल दिया गया और कुन्बापरवरी और सेला रहमीं के परहे में इस्लामी ख़ज़ाना लूटा जाने लगा, दौलत के फ़र्श पर कैफ़ व सुरुर, ऐश व निशात और शराब व कबाब की महफ़िलें गर्म होने लगीं। ज़लील व पस्त घरानो के नौखेज़, नौ उम्र और बदकिरदार लौंडों को असहाबे रसूल पर मुक़द्दम किया जाने लगा। सहाबा माज़ूल किये गये अबुमूसा अशरी को बसरा से हटाकर उस्मान ने उनकी जगह अब्दुल्लाह बिन आमिर को मुक़र्रर किया। मिस्र से अमरु आस को हटाया तो उसकी जगह अपने रज़ाई भाई अबदुल्लाह बिन साद बिन अबी सरहा का तक़र्रुर किया हालांकि उसके मुरतिद होने की वजह से पैग़म्बरे इस्लाम सल0 ने उसका ख़ून मुसलमानों के लिये मुबाह कर दिया था। कूफ़े से अम्मार यासिर को हटाया गया। इसके अलावा और भी बहुत सी अहम तबदीलियां की जिसमें उन्होंने हर लिहाज़ से अपने क़राबत दारों को मलहूज़ ख़ातिर रखा। मुसलमान सोंचे, समझें और फ़ैसला करें कि क्या यह सीरते शैख़ीन थी? लुत्फ़ की बात तो यह है कि उस्मान ने सीरते शैख़ीन औऱ सुन्नते रसूल सल0 की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते हुए जब हकम बिन आस को मदीने में बुलाया तो उसे बैतुल माल से एक लाख दिरहम भी मरहमत किये। क्या यह मुसलमान था? इसी तरह हारिस बिन हकम को बाज़ारे मदीना की आमदनीं का एक बड़ा हिस्सा और मरवान बिन हकम को अफ़रीक़ा का ख़ुम्स और फ़िदक हिबा कर दिया क्योंकि यह दोनों आपके दामाद थे। अब्दुल्लाह बिन ख़ालिद जब मिलने आये तो उसे चार लाख दिरहम दिये। वलीद बिन अक़बा जिसे कुरआन ने फ़ासिक़ कहा है, एक लाख दिरहम औऱ अबुसुफ़ियान को दो लाख दिरहम मरहमत फ़रमाये।

   सहाबिये रसूल सल0 अबुमूसा अशरी का बयान है कि हज़रत उमर के दौरे ख़िलाफ़त में जब सोना चांदी या ज़ेवरात वग़ैरा बाहर से आते थे तो वह उन्हें मुसलमानों में तक़सीम करते थे लेकिन एक मर्तबा जब मैं इस क़िस्म की चीज़ें लेकर उस्मान के पास पहुंचा तो उन्होंने सारा माल अपनी बीवियों और लड़कियों के हवाले कर दिया। इस तर्ज़ अमल पर मुझे बेहद सदमा हुआ। चुनानचे मैंने उनसे कहा कि आपसे पहले तो यह नहीं होता था कि मुसलमानों का माल ख़लीफ़ा की बीवियों और बेटियो की मिल्कियत बन जाये। इस पर उन्होंने जवाब दियाकि उमर अपनी राय से क़म करते थे और मैं अपनी राय पर चलता हूं। क्या यह सीरते शैख़ीन थी?

   हज़रत उस्मान के दौर में ज़ैद बिन साबित बैतुलमाल के इंचार्ज उन्होंने एक दिन उस्मान से इस रक़म का तज़किरा किया जो सालाना इख़राजात के बाद बैतुलमाल की तहवील में बाक़ी थी। उस्मान ने ज़ैद से कहा वह तुम ले लो जब कि इस रक़म की तादाद एक करोड़ दिरहम से ज़्यादा थी। क्या उन्हीं बदउनवानियों और बेएतदालियों का नाम सीरते शैख़ीन है?

   इसके अलावा हज़रत उस्मान ने सुन्नत रसूल सल0 और सीरत शैख़ीन के ख़िलाफ़ जो इक़दाम किये उनकी मुख़तसर फ़ेहरिस्त में उम्मुल मोमेनीन हज़रत आयशा के वज़ीफ़े में तख़क़ीफ़, अब्दुल्लाह बिन मसूद और अबुज़र ग़फ़्फ़ारी के वज़ाएफ़ का बन्द किया जाना, अशतर सहाबिये रसूल स0 को मय बीस आदमियों के मदीने से बाहर निकलवाना औऱ उन्हें क़ैद करना। रसूल सल0 के बरगुज़िदा सहाबियो को जिला वतन करना। अम्मार यासिर और इब्ने मसूद को बुरी तरह ज़द व कोब कराना। कुरआन के जलवाना, अब्दुल्लाह बिन उमर पर बावजूद यह कि वह हरमिज़ान, हफ़ीज और अबुलोलो की कमसिन व यतीम बच्ची के क़ातिल थे, हद न जारी करने औऱ मिना में कस्र के बजाये पूरी नमाज़ अदा करना वग़ैरा शामिल है।

   इनके अलावा भी तमाम उस्मानी लग़ज़िशों और ख़ताओं से तारीख़ सफ़हात भरे पड़े हैं। यही वह सीरते शैख़ीन थी जिसे ठुकराकर अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै0 इब्ने अबीतालिब अलै0 ने शूरा में ख़िलाफ़त कुबूल करने से साफ़ इन्कार कर दिया था।

मुसलमानों में हैजान-

   तशद्दुद, मज़ालिम, जबर, इस्तेबदाद, तज़लीले सहाबा, कुन्बा परवरी और नफ़स परस्ती के साथ साथ आम रेआया के जाएज़ उमूर में ग़फ़लत, लापरवाई, सुस्ती और काहेली ने हज़रत उस्मान के ख़िलाफ़ मुसलमानों में इज़तेराब व बेचैनी की लहर पैदा करके उन्हें एक हैजानी सूरतें हाल से दो चार कर दिया था। हर शख़्स पेच व ताब खा रहा था और उनकी बेराह रवी को नफ़रत की निगाह से देखता था। चुनानचे अबुज़रे ग़फ़्फ़ारी की तौहीन व तज़लील और उनकी जिला वतनी की वजह से बनी गफ़्फ़ार और उनके हलीफ़ क़बाएल, अब्दुल्लाह बिन मसूद की पस्लियां तुड़वाने और उनका कुरआन जलवाने की वजह से बनी हज़ील और उनके हलीफ़ बनी ज़हरा। अम्मार यासिर को बेदर्दी से पिटवाने के बाअस बनी मख़ज़ूम और उनके हलीफ़ क़बीले और मुहम्मद बिन अबुबकर के क़्त्ल का सरोसामान करने की वजह से बनी तीम के दलों में ग़म व गुस्से का एक तूफान करवटें ले रहा था।

   दूसरे सूबों के मुसलमान भी उस्मान के अम्मला के हाथों नालां व परेशान थे। यह लोग दौलत की सरशारियों और बादएक इशरत की सरमस्तियों की बिना पर जो चाहते थे कर गुज़रते थे। न उनके दिलों में ख़ौफ़े खुदा था न मरकज़ की तरफ़ से एताब का डर था औऱ न किसी बाज़ पुर्स का अन्देशा। लोग उनके पंजे इस्तेबदाद से निकलने के लिये फड़फड़ाते थे मगर कोई उनके करब व अज़ीयत सुनने के लिये आमादा न होता था। नफ़रत के जज़बात उफर रहे थे मगर उन्हें दबाने के कोई फिक़्र की जाती थी।

   डॅाक्टर ताहा हुसैन उन उस्मानी अम्मालों के बारे में तबसेरा करते हुए फ़रमाते हैं किः

   यह अम्माल ऐसी हुकूमत के अहल ने थे जिसका निज़ाम इस्लामी उसूलों यानी अदल व इन्साफ़, मसावात और पाबन्दी अहद पर क़ायम हो जिसका वादा उस्मान ने क़ौम से किया था कि वह कुरआन व सुन्नत औऱ सीरत अबुबकर व उमर पर क़ायम रहेंगे और उससे किसी क़िस्म का इन्हराफ़ नहीं करेंगे। बल्कि यह अहल थे इस हुकूमत के कि जिसका निज़ाम कूवत, शौक़त, दबदबा, गुरूर और जबर व इस्तेबदाद पर क़ायम हो। (अल फ़ितनतुल कुबरा)

   सहाबा भी बददिल थे क्योंकि वह देख रहे थे कि अमने आलम तबाह हो रहा है, नज़म व नसफ़ तहोबाला और इस्लामी ख़दो ख़ाल मसतख़ किये जा रहे हैं लेहाज़ा वह भी खामोश न रह सके और जब पानी सर से ऊँचा हो गया तो उन्होंने हज़रत आयशा की सरबराही में हज़रत उस्मान को काफ़िर क़रार दे दिय और उनके क़ताल की ज़मीन हमवार करने में हमा तन मसरुफ़ हो गये।

   हजरत उस्मान से हज़रत आयशा का ख़तेलाफ

     दूसरे दौरे ख़िलाफ़त में हज़रत आयशा की ज़ात हज़रत उमर के खुसूसी तवज्जो का मरकज़ बनी रही। उन्होंने उनके साथ इम्तियाज़ी व तरजीही सुलूक रवा रखें। वजाएफ व अताया मे यह तमाम अज़वाजे रसूल सल0 पर मुक़द्दम थीं। हज़रत उमर ने शरयी एहकाम और फ़ेक़ही मसाएल में भई उन्हे इक़तेदार का मालिक बनाया और रफ़्ता रफ्ता वह कूवत व ताक़त दे दी कि यह बाद में आने बाले हर हाकिम से टकरायें और इसके लिये दर्द सर बन गयीं।

   हज़रत उस्मान की ख़िलाफ़त के इब्तेदाई दौर में हज़रत आयशा उनकी सरगर्म हिमायती रहीं, उनकी मुख़ालेफ़त का ख़्याल भी मोहतरमा के दिल में नहीं था यहां तक कि जब हज़रत आयशा ने दीगर अज़वाज के साथ उस्मान के दौर में हज बैतुल्लाह का इरादा किया तो ज़रुरी समझा कि पहले वह हज़रत उस्मान से इजाज़त हासिल कर लें। चुनानचे ख़ुद उनका बयान है किः

     जब उमर मर गये और उस्मान ख़लीफ़ा हुए तो उम्मे सलमा, मैमूना, उम्मे हबीबा और मैंने उस्मान से हज की इजाज़त चाही। उस्मान ने कहा कि उमर की तरह मैं भी तुम्हारे साथ हज करना चाहता हूं जो भी मेरे साथ चलना चाहे चले। फिर उस्मान ने हम सब के साथ हज किया।

   वसूक़ के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि हज़रत उस्मान और हज़रत आयशा के दरमियान इख़्तिलाफ की इब्तेदा कब से हुई। आम तौर पर मोअर्रेख़ीन का ख़्याल है कि हज़रत उमर ने अपने ज़माने में तमाम अज़वाजे रसूल सल0 के लिये दस दस हज़ार की रक़म बतौरे वज़ीफ़ा मुक़र्रर फरमाई थी औऱ तरजीही बुनियादी पर हज़रत आयशा के बाराह हज़ार मुक़र्रर किये थे। जब उस्मान का ज़माना आया तो उन्होंने आयशा के वज़ीफे में दो हज़ार तख़फ़ीफ़ करके उशे भी दस हज़ार कर दिया ताकि मामला मसावी रहे। यह फ़ेल हज़रत आयशा को नागवार गुज़रा और वह उस्मान पर सख्त बरहम हुई। यहीं से दोनों के दरमियान इख़्तिलाफ़ की इब्तेदा हुई और रफ़्ता रफ़्ता इस इख़्तिलाफ़ ने ख़तरनाक सूरत इख़्तियार कर ली।

   हज़रत आयशा ही वह पहली ख़ातून हैं जिन्होंने उस्मान के क़त्ल पर लोगों को उभारने और मुत्तहिद करने में नबी की ज़ौजियत का भरपूर फाएदा उठाया और यह कहकर इस नासिल को क़त्ल कर दो क्योंकि काफ़िर हो गया है, दुनियाए इस्लाम में इन्क़ेलाब बर्पा कर दिया चुनानचे बिलाज़री का कहना है किः

   हज़रत आयशा की पहली वह ज़ात है जिसने उस्मान की मुख़ालिफ़त में अवाज़ बुलन्द की, उनके मुख़ालेफ़ीन के लिये जाये पनाह बनी और उनसे आमादा पैकार लोगों की क़यादम की। उस वक़्त पूरे मसलेकते इस्लामिया में हज़रत अबुबकर के ख़ानदान बनी तौमर से बढ़ कर हज़रत उस्मान का कोई दुश्मन न था।

   हज़रत आयशा के इख़्तिलाफ़ का सबब वज़ीफ़ा में तख़फीफ़ के अलावा हज़रत उस्मान की वह ज़्यादतियाँ वह मज़ालिम और वह तशद्दुद भी हो सकता है जिसेस तमामत सहाबा और मुसलमान नालां थे। तलहा व जुबैर की वह मिली भगत भी हो सकती है जिसके ज़रिये वह अमारत के ख़्वाहां थे और जिसकी तसवीर उस्मान के क़त्ल के बाद जंगे जमल के मौक़े पर उभर कर सामने आई।

   बहरहाल जो कुछ भी हो, उससे इन्कमार नहीं किया जा सकता कि आपकी जात वह खामोश चिंगारी थी जिसने ख़िलाफ़ते सालिसा की पूरी इमारत को जला कर ख़ाक सियाह कर दिया और फिर अलग की अलग रहीं। मगर तरीख़ उन वाक़ियात पर खामोश नहीं रह सकती थी चुनानचे मोअर्रिख़ीन ने सब कुछ लिख मारा।

   इख़्तिलाफ़ की इस आग को जिन वाक़ियात ने अपने दामन की हवा दे कर भड़काया और शोलों में तबदीली किया उनमें सबसे पहला वाकिया वलीद बिन अक़बा का है।

   हज़रत उस्मान ने अपने दौरे ख़िलाफ़त में साद बिन अबी विक़ास को माज़ूल करके वलीद बिन अक़बा को कूफ़े का गवर्नर बनाया। हम लिख चुके हैं कि वलीद बिन अक़बा उस्मान का सौतेला भाई था। यह माना हुआ फ़ासिक़ था और उसके फ़िस्क़ की गवाही कुरआन ने दी है। जब कि साद बिन अबी विक़ास वह शख़्स थे जिन्होंने हज़रत उमर के हुक्म से कूफ़े की बुनियाद डाली थी औऱ वहां इस्लामी फ़ौजों को आबाद किया था। ईरान की जंग में भी साद उन अफ़वाज के सिपेहसलार थे और उन्हीं के ज़ेरे क़यादत ईरान फ़तेह हुआ था जिसकी वजह से इस्लामी लश्कर में उनकी महबूबियत व मक़बूलियत बहुत ज़्यादा थी, लोग उनका एहतेराम करते थे और उन्हें इज्ज़त की नज़र से देखते थे। चुनानचे जब वलीद गवर्नर होकर आया तो साद ने कहा।

   हमें नहीं मालूम कि हमारे बाद तुम अक़लमन्द हो गये हो या हम अहमक। उस पर वलीद ने कहा घबराइये नहीं, यह बादशाहत है, यहां एक कम सुबह नाशता करती है तो दूसरी क़ौम शाम का खाना खाती है। साद ने कहा कसम है खुदा की, तुम लोग ख़िलाफ़त को बादशाहत ही बना कर दम लोगो

   इस गुफ़्तगु से अन्दाज़ा होता है कि हज़रत उस्मान ने ऐसे शख़्स को मुसलमानों पर गवर्नर की हैसियत से मुसल्लत किया था जो ख़िलाफ़त को बादशाहत के दायरे में महदूद समझता था।

   साद की माज़ूली और वलीद की तक़र्री तमाम मुसलमानों को नागवार गुज़री। लोगों ने कहाः

   उस्मान ने बहुत बड़ी तब्दीली की है कि अबु इस्हाक़ (साद) जो नर्म मिज़ाज, मेहरबान, आलिम, सालेह और सहाबिये रसूल सल0 थे, को माज़ूल करके अपने फ़ासिक़ व फ़ाजिर औऱ अहमक़ भाई को हम मुसलमानों पर हाकिम मुकर्रर किया है।

   वलीद बिन अक़बा ने कूफ़ा का नज़म व नसक़ अपने हाथ में लेते ही सबसे पहले अब्दुल्लाह बिन मसूद को अपने पैकाने इस्तेबदाद का निशाना बनाया जैसा कि हम तहरीर कर चुके हैं कि वलीद की शिकायतों पर हज़रत उस्मान ने इब्ने मसूद को इतना पिटवाया कि इनकी पस्लियां टूट गयीं। इस सहाबिये रसूल सल0 की दास्ताने मसाएब सुन कर मुसलमानों में ग़म व गुस्सा की लहर का पैदा होना एक फ़ितरी अमल था।

   वलीद के जराएम की तूलानी फ़ेहरिस्त में मसाजिद की बेहुरमती भी शामिल है जिसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता अबुल फ़रा असफ़ेहीन का बयान है किः

   हज़रत उस्मान ने जब वलीद को कूफे का गवर्नर बनाकर भेजा तो नसरानी शएर अबु ज़बीद उसके पास आया। उसे मस्जिद से मुलहिक़ अक़ील बिन अबी तालिब अलै0 के घर में ठहराया। बाद में वलीद ने वह घर अक़ील से लेकर अबुज़बीद को दे दिया और वह उसमें रहने लगा। कूफ़े के नज़दीक वलीद की यह पहली क़ाबिले एतराज़ हरकत थी क्योंकि अबुज़बीद अपने घर से निकल कर जूते पहने हुए मस्जिद के अन्दर दाख़िल होता और दरमियान से चलता हुआ वलीद के पास पहुंचता, उसके साथ वहां बैठ कर शराब पीता, गपशप करता और फिर पलटता तो नशे की हालत में झूमता हुआ मस्जिद के दरमियान से गुज़र कर अपने घर में चला जाता

   बिलाज़री रक़म तराज़ हैं

   वलीद ने अबुज़बीद के लिये सुवर के गोश्त औऱ शराब का कोटा मुक़र्रर कर दिया था जो इसे बराबर मिलता रहता था। दूसरा वाक़िया एक साहिर का है जिसे मसूदी ने लिखा हैः

   वलीद ने कूफ़े के नवाह में रहने वाले एक यहूदी शोबदा बाज़ के बारे में जब सुना तो उसे बुलवाया औऱ मस्जिदे कूफ़ा में उसकी शोबदा बाज़ी के मुज़ाहिरे एहतेमाम किया। उसने वलीद को कुछ शोबदे दिखलाये। उसने एक बड़ा हाथी दिखलाया जो सहने मस्जिद में घोड़े की पीठ पर सवार था, फिर वह ऊँट बन गया जो पहाड़ पर चल रहा था, इफर उसने एक गधे की शक्ल इख़्तियार की और जिसके मुहं में दाख़िल हुआ पाख़ाने के मुक़ाम से निकल गया। फिर उसने एक शख़्स की गर्दन मार दी, सर को जिस्म से अलैहदा कर दिया, फिर तलवार फेरी तो वह आदमीं खड़ा हो गया

   इस तमाशा के वक़्त कुछ अहले कुफ़ा भी वहीं मौजूद थे। उनमें जनदिब बिन काब अज़दी भी थे लाहौल पढ़ने लगे, वलीद पर लनात की और तलवार से इस शोबदा बाज़ यहूदी का सर उड़ा दिया और कहा कि सारी महफ़िल दरहम मरहम हो गयी और तमाशाइयों में भगदड़ मच गयी। वलीद ने जनदब को क़त्ल करना चाहा मगर क़बीलये अज़द माने हुआ। ग़र्ज़ कि जनदब क़ैद कर दिये गये। क़ैदख़ाने के दरौग़ा ने जब जनदब को रात भर इबादते ख़ुदा में मशगूल देखा तो उसने उनसे कहा कि क़ैदख़ाने से निकल भागों वरना सुबह होते ही वलीद तुम्हें क़त्ल कर देगा। चुनानचे वह निकल भागे। जब सुबह होते हुई तो वलीद ने जनदब को क़ैदख़ाने से तलब किया। दरौग़ा ने कहा कि वह क़ैद की हिरासत से फ़रार हो गये। उस पर वलीद ने दरौग़ा ही को क़त्ल कर दिया।

   मस्जिद की बे अदबी व बे हुरमती, वलीद का शराब पीकर सुबह की दो रकत के बजाये यार रकत नमाज़ पढ़ाने का और मुसल्ले पर क़ै करने का वाक़िया भी शामिल है जिसके बारे में मसूदी का कहना है कि वलीद की इस हरकत पर नमाज़ियों ने उस पर पथराव किया और वह ज़ख़्मी हो कर कराहता हुआ दारुल अमारा में दाख़िला हुआ।

   वलीद की उन्हें तमाम बातों और बेराह रवी की शिकायतें ले कर अबु ज़ैनब जनदब, इब्ने ज़बीर और अबु हबीबा ग़फ़़्फारी वग़ैरा उस्मान के पास पहुंचे औऱ उन्हे तमाम हालात से आगाह किया। मगर उन्होंने कोई तवज्जों न की बल्कि उल्टे शिकायत कुनिन्दगान को डांटा फ़टकारा और उनके सीनों पर हाथ मारकर कहा मेरी नज़रों के सामने से दैर हो जाओ। यह लोग मायूस होकर हज़रत आयशा की ख़िदमत में आये और उनसे सारा माजरा बयान किया और कहा हम वलीद की शिकायत करने उस्मान के पास आये थे लेकिन उलटे फ़कारे गये।

   ज़री से मंकूल हैः

   कूफ़े के कुछ लोग वलीद की शिकायत लेकर उस्मान के पास आये तो उन्होंने कहा कि तुम लोग जब अपने हाकिम से नाराज़ हो तो उस पर झूटी तोहमतें और ग़लत इल्ज़ाम आयद करते हो। सुबह होने दो, तुम लोगो को सख़्त सजायें दूंगा। उन लोगों ने हज़रत आयशा की पनाह ली। सुबह हुई तो उस्मान ने आयशा के घर से आवाज़ें सुनीं और कहा कि इराक़ के फ़ासिकों और ख़ारजियों के लिये आयशा के घर के सिवा कोई ठिकाना नहीं है। उस्मान की यह बात आयशा के कानों में भी पहुंची। उन्होंने पैग़म्बर सल0 की नालैन उठाकर उस्मान को मुख़ातिब किया और कहा, तुमने इस नालैन पहनने वाले की रविश छोड़ दी है। बाहम तक़रार शुरु हूई। यहां तक कि आवाज़ें सुन कर लोग इकट्ठा हो गये। बाज़ कहते थे कि आयशा सच कहतीं हैं, बाज़ का कहना ता कि औरतों को इससे क्या मतलब, मर्दों के साथ उनकी जूती पैज़ार और ढेलबाज़ी कैसे?

   यह भी कहा जाता है कि हज़रत आयशा और उस्मान के दरमियान इस मामले को लेकर बड़ी तू तू मैं मैं और धींगामुश्ती हुई और आपस में एक दूसरे पर जूते फेंके गये। पैग़म्बर सल0 के बाद मुसलमानों के दरमियान यह पहला झगड़ा और फ़साद था।

   इन वाक़ियात पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि तमाम अक़ाबरीने सहाबा और हक़परस्त मुसलमान हज़रत उस्मान के तर्ज़े अमल से नालां थे और हज़रत आयशा उनकी कायद थीं। उन्हीं की ताक़त व कूवत ती कि उन्होंने अवाम को उस्मान के ख़िलाफ़ मुत्तहिद व मुनज्ज़म कर दिया था। ऐसे वक़्त में जब कि दुनिया की निगाहें रसूल उल्लाह सल0 के तब़र्रुक़ात देखने को तरस रही थी, आपने पैग़म्बर सल0 की नालैन मुबारक निकाल लोगों में हैज़ान वर्षा कर दिया और ऐसी आग लगा दी जो उस्मान के ख़ून से बुझी।

   हज़रत उस्मान पर पथराव

     हज़रत उस्मान का रज़ाई भाई अब्दुल्लाह बिन साद बिन अबी सरह मिस्र का गवर्नर था जिसके जुल्म व इस्तेबदाद से अहले मिस्र जब जंग और परेशान आ चुके तो वह फ़रवाद की ग़र्ज़ से मदीने की तरफ़ बढ़े और शहर के क़रीब पुहंचकर वादिये जिख़शब में उन लोगों ने पड़ाव डाला। वहां से उन्होंने एक शख़्स के ज़रिये हज़रत उस्मान की ख़िदमत में एक तहरीरी अर्ज़दाश्त भेजी जिसमें यह मुतालिबा किया कि इब्ने साद के मज़ालिम, तशद्दुद और बेराहेरवी की सिलसिला बन्द किया जाये, मौजूदा रविश को बदला जाये और आइन्दा के लिये मुतबादिल व माकूल इन्तेज़ाम किया जाये।

   हज़रत उस्मान ने इस अर्ज़दाश्त पर गौ़र करने या तवज्जे देने के बजाये क़ासिद को डांटा फ़टकारा औऱ उसकी गुद्दी में हाथ देकर अपने दरबार से बाहर कर दिया। इस गुरुर व तुग़यान और नारवा सुलूक पर मिस्री वफ़द के लोग बिफ़र गये और मुख़ालिफ़ाना नारे बुलन्द करते हुए शहर में दाख़िल हुए और अहले मदीने से हुकूमत की सितमरानियों और हज़रत उस्मान के इस गै़रउसूली बरताव का शिकवा किया। इधर बसरा और कूफ़े के लोग भी अपनी अपनी शिकायतें लेकर हज़ारों की तादाद में मदीने आये हुए थे, चुनानचे वह लोग भी अहले मिस्र के हमनवा हो गये औऱ मदीने वालों की पुश्तपनाही पर एक जे ग़फीर ने हज़रत उस्मान को घेर कर उन्हे पाबन्दे मसकन बना दिया मगर मस्जिद में आने जाने पर कोई रुकावट नहीं थी। इस मुहासिरे के बावजूद सुलगते हुए माहौल में हज़रत उस्मान ने पहले जुमे में जो ख़ुतबा दिया उसमें मिस्र, कूफ़ा और बसरा वालों पर लानत मलामत की औऱ उन्हें बुरा भला कहा। नतीजा यह हुआ कि तमाम लोग मुश्ताइल हो गये और हज़रत उसमान पर चारों तरफ़ से पत्थरों की बरसात होने लगी यहां तक की वह बेहोश हो गये और मिम्बर से नीचे गिर पड़े।

हज़रत अली अलै0 से फ़रयाद

          जब हज़रत उस्मान को होश आया और उन्हें यह एहसास हुआ कि हालात बिगड़ चुके हैं तो मुश्किल कुशाई के लिये उन्होंने हज़रत अली अलै0 का सहारा लिया और उनसे फ़रयाद की कि इस आई हुई बला को किसी तरह टालें। अमीरुल मोमेनीन अलै0 ने फरमाया कि मैं किस बिना पर उन्हें वापस जाने के लिये कहूं जब कि इनके मुतालिबात हक़ ब-जानिब हैं। उस्मान ने कहा, आप इन लोगों से जो भी मुहायिदा करेंगे मैं उसका पाबन्द रहूंगा। ग़र्ज़ कि हज़रत अली अलै0 अहले मिस्र के वफ़िद से मिले और उनसे गुफ़्तगू की। वह लोग इस शर्त पर जाने के लिये आमादा हो गये कि तमाम मज़ालिम ख़त्म किये जायें। मिस्र के गवर्नर को माज़ूल करके उसकी जगह मुहम्मद बिन अबुबकर का तक़र्रुर अमल में लाया जाये और आइन्दा के लिये इस बेराहेरवी से तौबा की जाये।

   हज़रत अली अलै0 ने पलट कर उनके मुतालिबात उस्मान के सामने रखे जिसे बेचून व चारा उन्होंने मंज़ूर कर लिया। हज़रत अली अलै0 ने अहले मिस्र को उनके मुतालिबात पूरे किये जाने की यक़ीन दहानी करा दी और वह लोग मुन्तशिर हो गये।

   मरवान की फ़रेबकारी

     मरवान हज़रत उस्मान का भतीजा और दामाद था। हम तहरीर कर चुके हैं कि पैग़म्बर इस्लाम सल0 ने उसे और उसके बाप को मदीने से जिला वतन कर दिया था मगर हज़रत उस्मान ने सुन्नते सल0 और सीरते शैख़ीन की ख़िलाफ़ वर्ज़ी करते हुए न सिर्फ़ उसे बल्कि उसके बाप हकम को भी मदीने वापस बुला लिया और उस पर मेहरबानियों, नवाज़िशों और कसीर माल व ज़र के साथ फ़िदक का इलाक़ा उसके हवाले कर दिया। तारीख़ों से पता चलता है कि मरवान तमाम उस्मानी हुकूमत के उमूर पर हावी था। उस्मान नाम के ख़लीफ़ा थे वरना ख़िलाफ़त व हुकूमत के तमाम मसाएल मरवान ही तय करता था।

   हज़़रत आयशा का बयान है कि आंहज़रत सल0 ने मरवान के बाप हकम पर वक़्त लानत की थी जब वह उसके सलब में था इसलिये वह भी लानते रसूल सल0 का एक जुज़ है।

   ज़बीर बिन मुताम से रिवायत है कि हम लोग पैग़म्बर सल0 की ख़िदमत में हाज़िर थे कि इधर से हकम गुज़रा। उसे देख कर आंहज़रत सल0 ने फ़रमाया कि इसके सुलब में जो बच्चा है उसके हाथों मेरी उम्मत परेशानी और अज़ाब में मुबातिला होगी।

   अब्दुल रहमान बिन औफ़ से मरवी है कि मदीने में जो बच्चा पैदा होता था वह आंहज़रत सल0 की ख़िदमत में लाया जाता था। चुनानचे मरवान जब पैदा हुआ था उसकी मां उसे लेकर पैग़म्बर सल0 की ख़िदमत में हाज़िर हुई। आपने देखा तो फ़रमाया यह मलऊन बिन मलऊन है

   बहरहाल हज़रत अली अलै0 की यक़ीन दहानी पर जब अहले मिस्र चले गये और मामला रफ़ा दफ़ा हो गया तो दूसरे दिन मरवान ने हज़रत उस्मान से कहा कि अली अलै0 की दख़ल अन्दाज़ी से मिस्र की बला तो टल गयी अब आप दूसरे शहरों के लोगों की रोक थाम के लिये कोई ऐसा बयान दें जिसेस आईन्दा लोग रुख़ न करें उस्मान ने कहा क्या बयान दूँ? कहा आप यह बयान दें कि मिस्र के कुछ लोग अफ़वाहें सुन कर ग़लत फहमीं की बुनियाद पर मदीने में जमा हो गये थे और जब उन्हें यक़ीन हो गया कि जो वह सुनते थे सब ग़लत था तो वह मुतमईन होकर वापस चले गये। हज़रत उस्मान मरवान की इस फ़रेबकारी से मुबतिला हो गये और उन्होंने उसके कहने के बमोजिब मस्जिदे नबवी में खुतबे के बाद यह बयान दे दिया।

   हज़रत उस्मान के मुंह से इस सरीही झूठ का निकलना था कि मस्जिद में हड़बोग मच गय। लोगों ने चीख़ चीख़ कर कहना शुरु किया कि ऐ उस्मान! इस झूठ से तौबा करो और खु़दा से माफ़ी मांगों वरना तुम्हारा ख़ून बहा दिया जायेगा। हंगामा इतना बढ़ा कि आख़िरकार हज़रत उस्मान को तौबा करते ही बन पड़ी। मस्जिद से लानत मलामत की सौग़ात लेकर हज़रत उस्मान जब घर में दाख़िल हुए तो मरवान ने फिर उनसे कुछ कहना चाहा मगर हज़रत उस्मान की बीवी नाएला ने उसे आडे़ हाथों लिया और कहा कि अब तुम चुप रहो, किसी वक़्त तुम्हारी बाते उनके लिये मौत का पेशे ख़ेमा बन जायेंगी।

   मरवान को नाएला की यह बात नाग़वार गुज़री। उसने बिगड़ते हुए कहा कि तुम्हे हुकूमत व ख़िलाफ़त के मामलात में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं है। तुम उसकी बेटी तो हो जिसे मरते दम तक वज़ू करना भी नहीं आय़ा। नाएला ने बुरअफ़ोख़ता होते हुए कहा कि तू झूठा है औऱ बोहतान रखता है। मरे बापको कुछ कहने के बजाये अपने बापके गरेबान में झांककर देख और अपनी हक़ीक़त पर निगाह डाल, क़सम बाख़ुदा अगर बड़े मियां (उस्मान) का ख़्याल न होता तो ऐसी ख़री खरी सुनाती कि लोग कानों पर हाथ धर लेते। उस्मान ने जब बात बढ़ते देखी तो दोनों के दरमियान बीच बचाव किया र कहा, कहो क्या कहना चाहते हो?

   मरवान ने कहा, मस्जिद में आप तौबा करके क्यों आये? मेरे नज़दीक तो गुनाह पर अड़े रहना इश तौबा से कहीं बेहतर था। क्योंकि गुनाह ख़्वाह किसी हद तक बढ़ जायें तौबा की गुंजाइश बाक़ी रहती है। मारे बांधे की तौबा, तौबा नहीं होती। इश तौबा का नतीजा देख लीजिये दरवाज़े पर हुजूम इकट्ठा है। हज़रत उस्मान ने कहा, मुझे जो करना था वह कर आया, अब इऱ हुजूस से तुम ही निपट लो, मेरे बस का यह रोग नहीं है।

   हज़रत उस्मान के इस कहने पर मरवान बाहर आया और मजमे से मुख़ातिब होकर उसने कहा, तुम लोग यहां क्यों जमा हो, क्या लूट मार का इरादा है? या घर पर धावा बोलना चाहते हो? याद रखो कि तुम लोग आसानी के साथ इक़तेदार हम से नहीं छीन सकते। यहां से मुहं काला करो और भाग जाओ खुदा तुम्हे ज़लील व रुसवा करे।

   लोगों ने जब यह बदला हुआ नक़शा देखा तो गैज़ व गज़ब में भरे हुए वहां से सीधे अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै0 के पास आये और उन्हें सारी रुदाद से मुत्तेला किया। हज़रत अली अलै0 को भी गुस्सा आया चुनानचे वह उसी वक़्त उस्मान के यहां गये और उनसे कहा, तुमने मुसलानों की क्या दुरगत बनाई है, एक बेदीन व बदकिरदार की ख़ातिर दीन से हाथ उठा लिया है औऱ अक़ल को भी छोड़ बैठे हो। तुम्हें अपने वादों का कुछ तो पास व लिहाज़ होना चाहिये। याद रखो! मरवान तुम्हें ऐसे अंधे कुंए में फ़ेकेगा जिससे निकलना तुम्हारे लिये मुम्किन न होगा। तुम मरवान की सवारी बन चुके हो जिस तरह चाहे वह तुम पर चढ़े और जिस ग़लत राह पर चाहे तुम्हें डाल दें। आइन्दा मैं तुम्हारे किसी मामले में दख़ल नहीं दूंगा। जो जी में आये वह करो। अब तुम जानो और तुम्हारा काम।

   यह कह कर हज़रत अली अलै0 जब चले आये तो उस्मान की बीवी नाएला ने उनसे कहा कि मरवान से पीछे छुड़ाइये वरना वह आपकी पेशानी पर एसा कलंक का टाकी लगायेगी जो तमाम उम्र मिटाये न मिटेगा। आप एक ऐसे शख़्स के इशारों पर चल रहे हैं जो समाज में ज़लील औऱ लोगों की नज़म में गिरा हुआ है। अली इब्ने अलीतालिब अलै0 को राज़ी कीजिये वरना याद रखिये कि इन बिगड़े हुए हालात पर काबू पाना न आपके बस में और न ही मरवान के इख़्तियार में। (तबरी)

   ग़र्ज़ कि बीवी के कहने सुनने पर हज़रत उस्मान रात के परतदे में छुपकर हज़रत अली अलै0 के घर आये औऱ उन्होंने उनसे अपनी बेबसी व लाचारी का रोना रोया। आपने फ़रमाया, अब तुम्हारी ज़ात पर एतमाद करना बजात खुद अफने आपको फ़रेब में मुबतिला करना है। लेहाज़ा अब मैं तुम्हारी कोई जि़म्मेदारी लेने को तैयार नही हूं जो रास्ता तुम मुनासिब समझो वह इख़्तियार करो।

   हज़रत का यह जवाब सुनकर उस्मान वहां से मायूसी की हालत में पलटे और जब कुछ न बन पड़ी तो हज़रत अली अलै0 पर उलटे यह इल्ज़ाम आयद करना शुरु कर दिया कि इन तमाम हंगामों के पसेपुश्त अली अलै0 का हाथ है।

   मुहम्मद बिन अबुबकर के साथ उस्मानी फ़रेब

     मुहम्मद बिन अबुबकर का क़िस्सा मिस्र से शुरु होता है। बिलाज़री ने सईद बिन मुसय्यब से रिवायत की है कि हज़रत उस्मान ने बाहर साल हुकूमत की और इस अर्स में उन्होंने ऐसे लोगों को आमिल मुक़र्रर किया जिन्हें पैग़म्बर सल0 की सोहबत का शरफ़ हासिल न था। यह लोग ऐसे मज़ालिम और ऐसी हरकतों के खूगर थे जो असहाबे रसूल सल0 के लिये माक़ाबिले बर्दाश्त थे। उनकी शिकायतें हज़रत उस्मान से की जातीं लेकिन वह कोई तवज्जो न देते न उन्हें माज़ूल करते। आख़िर ज़मानये ख़िलीफ़त में उन्होंने अपने खा़नदान वालों को बहुत सर चढ़ा लिया और हर जगह हाकिम मुक़र्रर कर दिया। उनहीं हाकिमों में अब्दुल्लाह बिन साद बिन अबी सरा भी था। यह अबदुल्लाह बिन मसूद, अबुज़र ग़फ़्फारी औऱ अम्मार यासिर के साथ तरह तरह के मज़ालिम औऱ बदसुलूकियां कर चुका था जिसकी वजह से क़बाएल हज़ील, बनी ज़हरा, बनी गफ़्फ़ार औऱ बनी मख़रुम के लोग बरहम थे। चन्द बरस यह हाकिम रहा होगा कि मिस्र वाले इसकी शिकायतें लेकर हज़रत उस्मान के पास पहुंचे। वक़्ती तौर पर उस्मान ने उसकी तन्बीह की औऱ ख़फ़गी फरे खुतूत लिखे लेकिन उसने कोई परवा न की बल्कि उसकी जसारतें और बढ़ गयीं। जो लोग शिकायतें लेकर उस्मान के पास गये थे, उन्हें उसने मारा पीटा और एक शख़्स को क़त्ल भी कर डाला। आजिज़ होकर फिर सात सौ की तादाद में मिस्र के लोग मदीने रवाना हुए। उन लोगों ने नमाज़ों के वक़्त असहाबे पैग़म्बर सल0 से मुलाक़ातें की और उनसे अब्दुल्लाह बिन साद की ज़्यातियों के बारे में सब कुछ बताया। तलहा ने उस्मान से इस मामले में सख़्त लब व लहजे में गुफ़्तगू की। हज़रत आयशा ने भी कहलाया कि मिस्र वालों के मामले में इन्साफ़ किया जाये। हज़रत अली अलै0 भी अहले मिस्र के तरजुमान बन कर उस्मान के पास गये और फ़रमाया कि यह लोग सिर्फ यह चाहते हैं कि अब्दुल्लाह को हटा कर किसी दूसरे को हाकिम मुक़र्रर कर दीजिये और उनके साथ इन्साफ़ किजिये। उस्मान ने कहा जिसे यह लोग कहें हाकिम मुक़र्रर कर दूं। लोगों ने मुहम्मद बिन अबुबकर के लिये कहा। हज़रत उस्मान ने मुहम्मद बिन अबुबकर को बुला कर मिस्र का परवाना लिख दिया और उनके साथ मुहाजेरीन व अन्सार की एक जमाअत कर दी कि वह मिस्र जायें और अब्दुल्लाह की ज़्यादतियों की तहक़ीक़ात करें।

   अभी मुहम्मद बिन अबुबकर और उनके साथ हिजाज़ की सरहदें पार करके दरियाये कुलजुम के किनारे आबाद एक मुक़ाम ईला तक पहुंचे थे कि उन्हें एक हब्शी नाक़े सवार नज़र आया जो अपने को इस तरह बकटुट दौड़ाये चला जा रहा था जैसे वह किसी का पीछा कर रहा हो। मुहम्मद बिन अबुबकर के साथियों को उस पर शुबहा हुआ, उन्होंने उसे रोका और पूछा कि तुम कौन हो? उसने कहा, में ख़लीफ़ा उस्मान का गुलाम हूं। पूछा की कहां का इरादा है? उसने कहा कि मिस्र का। पूछा किसके पास जा रहे हो? कहा वालिये मिस्र के पास। लोगों ने कहा वालिये मिस्र तो हमारे साथ हैं, तुम किसके पास जा रहे हो? उसने कहा अब्दुल्लाह बिन साद बिन अबी पूछा फिर किस मक़सद से जा रहे हो? उसने कहा नहीं मालूम। लोगों ने कहा इसकी तलाशी ली जाये।

   चुनानचे तलाशी ली गयी लेकिन पास से कोई चीज़ बरामद नहीं हुई केनान बिन बशर ने कहा, इसका मशकीज़ा देखो। जब मशकीज़ा देखा गया तो उसमें से सीसे की एक नलकी बरामद हुई जिसमें ख़त रखा हुआ था जो सील बन्द लिफ़ाफ़े में था। यह ख़त हज़रत उस्मान की तरपञ से अब्दुल्लाह बिन साद बालियों मिस्र के नाम था जिसमें तहरीर था किः

   जब मुहम्मद बिन अबुबकर और उनके साथी तुम्हारे पास पहुंचे तो किीस तदबीर से उन्हे कत्ल कर दो और जो परवानये तक़रीर मुहम्मद के पास है उसे मनसूख समझो औऱ अपने मनसब पर क़ायम रहो   

   ख़त पढने के बाद सब पर सन्नाटा छा गया और हज़रत उस्मान की इर फ़रेबकारी पर लोग हैरत से एक दूसरे के मुंह तकने लगे और उनके दरमियान सरासीमगी और गैज़ व गज़ब की एक लहर दौड़ गयी।

   अब आगे बढ़ना मौत को दावत देना था चुनानचे मुहम्मदबिन अबुबकर ने ख़त को तमाम लोगों के सामने सरबमुहर किया और उस हब्शी गुलाम को लेकर अपने हमराहियों के साथ मदीने की तरफ़ पलट पड़े।

   मदीने पहुंच कर उन लोगों ने हज़रत अली अलै0, तलहा, जुबैर, साद बिन अबी विकास और दूसरे असहाबे पैग़म्बर सल0 को जमा किया और वह ख़त सहाबा के दरमियान रखा गया जिसे देख कर सब अंगुश्त बदन्दां और शशदर रह गये। कोई शख़्स ऐसा न था जो हज़रत उस्मान को बुरा भला न कह रहा था।

   तलहा, जुबैर साद और अम्मार वग़ैरा मुहम्मद बिन अबुबकर के हमराह हज़रत उस्मान के घर पहुंचे और वह ख़त उनके सामने रख कर पूछा कि इस पर मोहर किस की है? उस्मान ने कहा मेरी। पूछा तहरीर किस की है? कहा मेरे कातिब की। पूछा यह गुलाम किस का है? कहा मेरा। पूछा यह सवारी किस की है? कहा सरकारी। पूछा भेजा किसने है? कहा मुझे नहीं मालूम।

   लोगों ने कहा यह कैसे मुम्किन है कि आपका गुलाम, आप ही की सवारी पर बैठ कर जाये और उसके पास ऐसा फ़रमान हो जिस पर आपकी मोहर लगी हो और आपको पता तक न हो। जब आपकी बेबसी व बेचारगी का यह हाल है तो ख़िलाफ़त से दस्तबरदार हो जाइये ताकि कोई ऐसा शख़्स आये जो मुसलमानों के अमूर की देख भाल कर सके।

   हज़रत उस्मान ने कहा यह हरगिज़ नहीं हो सकता कि मैं इस पैरहन को उतार दूं जिसे अल्लाह ने मुझे पहनाया है। अलबत्ता तौबा किये लेता हूं उस पर लोगों ने कहा कि तौबा कि मिट्टी तो उसी दिन ख़राब हो गयी जब मरवान आपके दरवाज़े पर भरे मजमे के सामने आपकी तरजूमानी कर रहा था। रही सही कसर इस ख़त ने पूरी कर दी, अब हम आपके आपके दामे फरेब में आने वाले नहीं हैं। और अगर यह कारनामा मरवान का है तो आप उसे हमारे हवाले कीजिये ताकि हम उससे बाज़ पुर्स कर सकें वरना समझा जायेगा कि वह ख़त आप ही के हुक्म से लिखा गया है।

   मरवान उस वक़्त हज़रत उस्मान के घर में मौजूद था लेकिन उसे उन्होंने सहाबा के हवाले करने से इन्कार कर दिया और वह लोग हज़रत उस्मान को कोस्ते हुए वापस लौट आये।

   क़त्ल उस्मान का फ़तवा और उस पर अमल दरामद

     मोअर्रिख़े आसमे कूफ़ा का बयान है किः

     जब उम्मुल मोमेनीन आयशा ने देखा कि तमाम लोगों ने उस्मान के ख़िलाफ़ एका कर लिया है तो उन्होंने उस्मान से कहा कि तुमने मुसलामानों के बैतुलमाल को अपनी जात के लिये मख़सूस कर लिया ------------ बनी उमय्या को आज़ादी दे दी कि जिस तरह वह चाहे (मुसलमानों का माल) लूटें, उन्हें हर शहर का हाकिम बना दिया और उम्मते पैग़म्बर सल0 को तंगी व उसरत में मुबतिला कर दिया। ख़ुदा तुमसे अपनी बरकतों को रोक ले और ज़मीन की भलाइयों से तुम्हें महरुम कर दे। अगर तुम नमाज़ न पढते तो ऊँट की तरह तुम्हे नहर कर दिया जाता

   खुदा वन्दे आलम ने काफ़िरों की मिसाल नूह अलै0 और लूत अलै0 की बीवियों से दी है कि यह दोनों हमारे नेक बन्दों के तसर्रुफ़ में थीं, दोनो ने अपने शौहरों से दग़ा की मगर कुछ बिगाड़ न सकीं और उनसे कहा कि जहन्नुम में दाख़िल होने वालों के साथ तुम भी दाख़िल हो जाओ। (तहरीम आयत 10)

   अव्वल इस ख़त ने जिसे मिस्र जाते वक़्त मुहम्मद बिन अबुबकर ने हज़रत उस्मान के हब्शी गुलाम के पास से बरामद किया था, दूसरे उनके सख़्त फ़िक़रों ने हज़रत आयशा को जिनके मिजाज़ में पहले ही से हिद्दत भरी हुई थी और जो गैज़ व ग़ज़ब के आलम में अपने आपे में नहीं रहती थीं, एक दम से मुश्तइल कर दिया और इस अमर पर मजबूर कर दिया कि वह हज़रत उस्मान के कुफ़्र और उनके वाजिबुल क़त्ल होने के बारे में फ़तवा जारी कर दें। चुनानचे आपने फ़रमाया उक़तोलो नासलन फ़क़द कफ़रा इस नासिल को क़त्ल कर दो कि यह काफ़िर हो गया है।

   उम्मुल मोमेनीन की ज़बान से इश फ़तवे का सादर होना था कि यह ख़बर इस तरह फैल गयी जैसे आग सूखे पत्तों में फैल जाती है। मुख़ालेफ़ीने उस्मान आपस में मुत्ताहिद होने लगे। तलहा, ज़बीर, हफ़सा, उमर बिन आस, अब्दुल रहमान बिन औफ़, माविया बिन अबुसुफियान, अबुमूसा अशरी, इब्ने मसूद, अम्मार यासिर, मालिके अशतर, अब्दुल्लाह बिन उमर, आमिर बिन क़ैस तमीमी, जन्दिब बिन क़ाब अज़दी, अबु ज़ैनब, हिजजा बिन अदी और साबित बिन क़ैस हमदानी वग़ैरा ने हमनुवाई की। क़बीलये बनी ह़ज़ील, बनी ज़हरा, बनी गफ़्फ़ार, बनी मख़जूम, बनी साएदा, बनी खजाआ, बनी तीम और बनी साद वग़ैरा ने उम्मुल मोमेनीन के इस फ़तवे को सराहा। अहले मदीना, अहले कूफा, अहले सबरा और अहले मिस्र ने लब्बैक कही।

   इधर हज़रत आयशा ने अपने इस फ़तवे की हम्मागीरी का जाएज़ा लिया और जब उन्हें यक़ीन हो गया कि क़त्ले उस्मान के लिये तलवार तैयार हो चुकी है तो वह हज के बहाने से मदीना छोड़ के मक्के की तरफ़ रवाना हो गयी ताकि उनकी अदम मौजूदगी में जो कुछ होना है वह हो जाये।

   हजरत आयशा ने जब तक यह फ़तवा नहीं दिया था, हज़रत अली अलै अल0 और दूसरे सहाबा की जद्दो जेहद से यह उम्मीद क़ायम थी कि शायद हज़रत उस्मान और मुसलमानों के दरमियान कोई समझौता हो जाये मगर इस फ़तवे के बाद हज़रत उस्मान की ज़िन्दगी पर मौत की मुहर लग गयी।

   इश फ़तवे का असर इस वजह से और बढ़ गया। कि उन्होंने ऐसे मौक़े पर यह फ़तवा दिया जब पानी सर से ऊँचा हो चुका था। मुसलमानों में फूट पड़ चुकी थी और मुस्लिम मुआशिरा दो गिरोह में तक़सीम हो चुका था। एक तरफ़ हाकिमों का घराना यानी बानी उमय्या थे जिनकी हर शहर पर हुकूमत थई और दूसरी तरपञ वह मुसलमान थे जो नादार, मफ़लूकुल हाल, फ़का़कश और परेशान हाल थे। हज़रत आयशा के इस फ़तवे पर सहाबाये कराम के इजमा व इत्तेफ़ाक़ के बाद हज़रत उस्मान के लिये सिर्फ़ दो रास्ते थे। या तो वह ख़िलाफत से दस्तबरदार हो जाते या आम मुसलमानों से जंग करते और बिल्कुल यही सूरत दीगर मुसलमानों के लिये भी थी वह गोशा नशीन हो जाये या फ़िर वह हज़रत उस्मान या उनके मुख़ालेफ़ीन के साथ शामिल हो कर मैदान में उतर गये। चुनानचे अराकीने शूरा में हज़रत अली अलै0 और साद बिन अबी विकास ने गोशा को पसन्द किया और तलहा व जुबैर वग़ैरा ने आम मुसलमानों में शामिल होकर क़त्ले उस्मान को तरजीह दी।

   अक़तलूनासला असला का असर यह भी हुआ कि हज़रत उस्मान की जि़न्दगी के आख़री अय्याम मेंलोग उन्हें नासल कह कर पुकारने लगे औऱ उनसे बदकलामियां करने लगे। चुनानचे सब से पहले जिसने उस्मान को नासल कहा वह जबला बिन उमर सादी थे। तबरी ने रवायत कीहै कि हज़रत उस्मान जबला बिन सादी की तरफ़ से गुज़रे तो वह अपने सहन में बैठे हुए थे, उन्होंने कहा ऐ नासल! ख़ुदा की कसम, मैं तुझे ज़रुर क़्तल करुंगा और ऊँठट की पीठ पर बिठा कर पहाड़ों की तरफ़ निकाल बाहर करुंगा।

   दूसरे बुजुर्ग सहाबी जिन्होंने हज़रत उस्मान के मुहं पर उन्हें नासल कहा वह जहजाह ग़फ़्फ़ारी थे। हातिब से रिवायत है कि जहजाह ने उस्मान को नासल कहा और उनका असा छीन कर अपने घुटनों से तोड़ दिया। कुछ किताबों में अबु हबीबा से रिवायत है जहजाह गफ़्फ़ारी उस्मान के लिए एक ऊँट, चादर और हत्थकड़ी व बेड़ी लेकर आये और कहा, ऐ नासल! चल तुझे पहना ओढ़ाकर ऊँट पर बिठाएं और दुख़ान पहाड़ की चोटी पर छोड़ आयें।

   इन रिवायतों से पता चलता है कि हज़रत आयशा के फ़तवे के बाद हज़रत उस्मान की शख़्सियत तमाम मुसलमानों की नज़र में बिल्कुल ही गिर चुकी थी। अगर ज़िन्दा रहते भी तो बेक़ार थे लेहाज़ा इस ज़िल्लत व रुसवाई की जि़न्दगी से उनके लिये मौत ही बेहतर थी।

      मुहासिरा और क़त्ल

तारीख़ों से पता चला है कि हज़रत आयशा ने न सिर्फ़ क़त्ल उस्मान का फ़तवा दिया था बल्कि मुख़तलिफ़ शहरों में खतूत फेज कर मुसलमानों को उनके ख़िलाफ़ उठ खड़े होने की तरग़ीब भी दी थी। और इब्ने अब्बास से भी आपने फ़रमाया थाः

   उस्मान के सारे मामलात रौशनी में आ चुके हैं और अल्लाह ने आपको फ़साहत व बलाग़त और कुवत गोयाई से नवाज़ा है लेहाज़ा आपको चाहिये कि अपनी तक़रीरों मुसलमानों को उस्मान की तरफ़ से बरगश्ता कर दें।

   मगर इब्ने अब्बास आपके चकमें में नहीं आये क्योंकि वह जानते थे कि हज़रत आयशा उस्मान को क़ाफिर क़रार दे कर उनके क़त्ल का फ़तवा दे चुकी है औऱ अगर वह कत्ल हो गये तो यह मुज़लेमा किस कि गर्दन पर जायेगा।

   बहरहाल हज़रत आयेशा ने अफने फ़तवे की हम्मागीरी और कूवत, ज़ाती असरात व रसूख़ औऱ ला महदूद वसाएल की बदौलत हज़रत उस्मान के ख़िलाफ़ अपने मिशन में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की यहां तक कि मिस्र, कूफ़ा औऱ बसरा के मुसलमानों का सेलाब आपकी इस अवाज़ पर उमण्ड कर मदीने की गलियों औऱ कूचों में फैल गया औऱ हज़रत उस्मान को उनके घर ही में महसूर कर दिया गया। बिलाज़री का बयान है किः

लोगों ने हज़रत उस्मान का मुहासिरा कर लिया। इस वजह से कि उन्होंने लोगों के मुतालिबात मंज़ूर नहीं किये नीज़ इस वजह से कि हज़रत आयशा ने उनके क़त्ल का फतवा सादिर कर दिया था और मुख़तलिफ़ शहरों में खुतूत भेज कर मुसलमानों को उनके ख़िलाफ़ उठ खड़े होने की तरग़ीब दी थी।

   मुहासिरा चालिस दिन तक जारी रहा जिसकी क़यादत तलहा के हाथ में थी। इब्तेदा में मुहासिरे की रविश ज़्यादा सख़्त न थी। उस्मान मस्जिद नबवी में नमाज़ की ग़र्ज़ से आते जाते थे। फिर तलहा ने इस आने जाने पर भी पाबन्दी आयद कर दी और नमाज़ ख़ुद पढ़ाने लगे नीज़ उन्होंने बैतुल माल पर भी क़बज़ा कर लिया। हालात की संगीनी के तहत हज़रत उस्मान ने अपने पर एतमाद आमिलों को अपनी मदद के लिये आवाज़ दी और उन्हें खुतूत लिये। आपने शाम के हाकिम माविया को लिखाः

   वाज़ेह हो कि अहले मदीना काफ़िर हो गये हैं, उन्होंने बैयत तोड़ दी है औऱ इताअत से मुंह फेर लिया है लेहाज़ा तुम शाम को फ़ौजों को तेज़ व तुंद सवारियों के ज़रिये मेरी तरफ़ भेजो

   माविया को जब यह ख़त मिला तो उसने तौख़िफ से काम लिया और असहाबे रसूल सल0 से मुख़ालिफ़त नीज़ उनसे बरसरे पैकार होने को मायूब औऱ ख़िलाफ़े मसलेहत जाना क्योंकि वह एक कुहना मशक़ सियासत दां था और इस अमर से बख़ूबी वाक़िफ़ था कि तमाम सहाबा उस्मान की मुख़ालिफ़त पर यक जहती से मुतफ़्फ़िक़ हैं।

   बसरा के गवर्नर को लिखाः

   कुछ सरकश, बाग़ी और ज़ालिम लोगों ने जो मदीने के रहने वाले हैं, बसरे, कूफ़ा औऱ मिस्र के बाशिन्दों के साथ मिल कर औऱ मुझ से बरगशता होकर मेरे घर का मुहासिरा कर लिया है। लेकिन मैं अभी तक उनके दस्तरस से बाहर हूं। हर चन्द उन्हें नसीहत करता हूं और उनकी रज़ामन्दी को मद्दे नज़र रखते हुए किताबे खुदा और सुन्नते रसूल सल0 पर चलने का वादा करता हूं मगर वह ज़रा भी कान नहीं धरते। मेरे क़त्ल या मुझे खिलाफ़त से अलैहदा करने पर मुसिर हैं और मैं उनकी ख़्वाहिश पूरी करने यानी ख़िलाफ़त से अलैहदा हो जाने की बानिस्बत मौत से ज़्यादा सहल और आसान समझता हूं। मैंने तुम्हें सूरते हाल से मुत्तेला कर दिया। लाज़िम है कि तुम मेरी मदद करो औऱ मज़बूत व बहादुर लोगों को जमीयत को मेरी तरफ़ फ़ौरन रवाना करो।

   इन खुतूत के जवाब में कोई मदद तो नहीं आई मगर यह ज़रुर हुआ कि उस्मान के मुख़ालेफीन को इस बात का इल्म हो गया कि ख़लीफ़ा ने अपने आमिलों से फ़ौजी इमदाद मांगी है ताकि वह हम से जंग कर सके।

   ज़ाहिर है कि इस ख़्याल ने मुख़ालेफीन के ज़हनों में क़त्ले उस्मान के सिलसिले में उजलत के तसव्वुर को जन्म दिया होगा और शायद यही वजह है कि तुम मुहासिरे का दाएरा यकबारगी हज़रत उस्मान पर तंग कर दिया गया। रसद व खुरदनी के तमाम ज़राए मुनक़ता कर दिये गये यहां तक कि आप पर पानी भी बन्द कर दिया गया।

   अब हालात क़ाबू से बाहर थें उस्मान ने सोचा कि जान बचाने की यही सूरत मुम्किन है कि हज़रत आयशा के कद़मों में सर रख दिया जाये।

   चुनानचे उन्होंने एक आख़री कोशिश और की। उन्होंने मरवान बिन हकम और अब्दुल रहमान बिन एताब को उम्मुल मोमेनीन के पास उस वक़्त भेजा जब मोअज्ज़मा मदीने से निकलने के लिये रखते सफ़र बान्ध चुकी थीं।

   हज़रत उस्मान के नुमाइन्दों ने उनसे फ़रयाद की और कहा कि ख़लीफ़ा पर मुहसिरे का दाएरा मज़ीद तंग कर दिया गया है। मुनासिब होगा कि आप मक्के का सफ़र मुलतवी कर दें क्योंकि मदनीने में आपकी मौजूदगी उनके बचाव का ज़रिया बन सकती है। हज़रत आयशा ने नाक भी सिकोड़ते हुए जवाब दियाः

   खुदा कि क़सम, मेरा दिल तो यह चाहता है कि उस्मान मेरे इन थैलों में से किसी एक थैले में बन्द होते और मैं खुद उन्हें ले जाकर किसी समुन्दर में गर्क़ कर देती।

   हज़रत आयशा की ज़बान से यह खुश्क और दो टूक जवाब सुनकर हज़रत उस्मान के नुमाइन्दे बे नीलो मुराम वापस आ गये और रही सही यह उम्मीद भी ख़त्म हो गयी।

   मुहासिरे की शिद्दत, ख़ूरदनी आशिया की अदम फ़राहमीं और बन्दिशों आब ने हज़रत उस्मान को मुज़तरिब व नीम जान कर दिया था। खुसूसन प्यास ने जब मजबूर किया तो आप काशानये ख़िलाफ़त की छत पर चढ़ गये औऱ वहं से मुहासिरीन को आवाज़ दे कर पूछा, क्या तुममे अली अलै0 भी हैं? लोगों ने कहा, यहां अली अलै0 का क्या काम। फिर पूछा साद हैं? कहा नहीं। फिर कहा क्या तुममे कोई ऐसा है जो मुझ पर रहम करे और मेरा यह पैग़ाम अली अलै0 तक पहुंचा दे कि वह मेरे लिये पानी की कुछ सबील करें।

   जब यह ख़बर हज़रत अली अलै0 को मिली तो वह तलहा के पास आये और कहा, यह मुनासिब नहीं कु तिम उस्मान पर पानी बन्द रखो। मैं पानी की कुछ मुश्कें भेज रहा हूं, उन्हें उस्मान के पास जाने दो।

   बात साहबे जुलफ़िक़ार की थी, तलहा की क्या मज़ाल थी कि वह इन्हेराफ़ करते। चुनानचे हज़रत अली अलै0 ने तीन मश्के पीनी की उस्मान के पास रवाना कीं जो उन तक पहुंची।

   सहाबिये रसूल सल0, नयार बिन अयाज के क़त्ल का वाक़िया भी क़त्ले उस्मान में उजलत का सबब बना। वह यह कि बिन अयाज़ हज़रत उस्मान को नसीहत करने की गर्ज़ से उनके घर की तरफ़ बढ़ें और मुहासिरीन में शामिल होकर उन्हें आवाज़ दी। जब उस्मान ने ऊपर से झांक कर देखा तो नयार ने कहा, ऐ उस्मान! ख़ुदा के लिये ख़िलाफ़त से दस्तबरदार हो जाओ औऱ मुसलमानों को ख़ून ख़राबे से बचा लो। अभी वह इताना ही कह पाये थे कि उस्मान के आदमियों में किसी ने उन्हें तीर का निशाना बनाकर ख़त्म कर दिया। इस हादसे ने मुसलमानों को यकबारगी मुश्ताइला करके आफे से बाहर कर दिया। पहले तो लोगों ने नयार के क़ातिल को तलब किया मगर उसमान, ने यह कहकर उसे मुहासिरीन के हवाले करने से इन्कार कर दिया कि यह नहीं हो सकता कि मैं अपने एक मददगार को तुम्हारे सुपुर्रद करुँ।

   हज़रत उस्मान की इस सीनाज़ोरी ने भड़कती हुई आग को और हवा दे दी। नतीजा यह हुआ कि जोश में आकर लोगों ने उनका दरवाज़ा फूंक दिया। कुछ लोग अन्दर घुसने के लिये आगे बढ़े थे कि मरवान बिन हकम, साद बिन आस और मुग़ीरा बिन अख़नस अपने अपने जत्थों के साथ उन पर टूट पड़े और दरवाज़े ही पर कुश्त व ख़ून शुरु हो गया। लोग घर के अन्दर घुसना चाहते थे मगर उन्हें बाहर ढकेल दिया जाता था। इतने में अमरु बिन अन्सारी ने जिनका मकान हज़रत उस्मान के मकान से मुत्तसिल था, अपने घर का दरवाज़ा खोल दिया औऱ कहा, भाईयों। आओ इधर से आगे बढ़ो। चुनानचे मुहासिरीन उस मक़ान के रास्ते से काशानये ख़िलाफ़त की छत पर पहुंचे और वहां से सहन में उतर कर तलवारें सौंत लीं।

   अशतर जब उस्मान को क़त्ल करने की नियत से आगे बढ़ें तो उनहोंने देखा कि वह तन्हा हैं औऱ मुदाफ़ेअत करने वाला कोई नहीं है तो उन्होंने इस हालत में क़त्ल को बुज़दिली पर महमूल किया और पलट आये। मुस्लिम बिन कसीर कूफ़ी ने कहा, मालूम होता है कि तुम उस्मान से डर गये। अशतर ने कहा मैं डरा नहीं हूं, चूंकि उस्मान निहत्ते, तन्हा और बेबस हैं, कोई उनकी मदाफ़ेअत करने वाला नहीं है, इस लिये मेरी ग़ैरत ने गवारा नहीं किया कि मैं ऐसे शख़्स पर हाथ उठाता। इतने मे मुहम्मद बिन अबुबकर आगे बढ़े, उन्होंने छपट कर उस्मान की दाढ़ी पकड़ी। उस्मान ने कहा ऐ भतीजे! मेरी दाढ़ी छोड़ दे। अगर तेरा बाप (अबुबकर) ज़िन्दा होता तो वह भी मेरी दाढ़ी पर हाथ न डालता। मुहम्मद ने कहा, अगर मेरा बाप जि़न्दा होता तो वह कभी तुझे उन फ़ेलों की इजाज़त ने देता जिनकी वजह से तू काफिर हो गया है। यह कहकर मुहम्मद ने वह बेलचा जो उनके हाथ में था, उस्मान की गर्दन पर रसीद किया जिससे कारी ज़ख़्म आया। इतने में कुनान बिन बशीर ने उस्मान के सर पर गुरज़ का वार किया। सूदान बिन हमरान ने तलवार मारी औऱ हज़रत उस्मान बुरी तरह ज़ख़्मीं होकर ज़मीन पर ढ़ेर हो गये। आफ़क़ी ने एक ज़र्ब लगाई और एक मिस्री ने उस्मान की नाक काट ली मगर उस्मान की बीवी नाएला जो बड़ी क़वी हेकल थीं, ने उसकी तलवार पकड़ ली। इतने में उस्मान के एक गुलाम ने इस मिस्री पर तलवार का वार करके उसका काम तमाम कर दिया। यह देख़ कर कंनबरा बिन वहब ने क़ंनबरा को मार डाला। इसी असना में अमरु बिन हमक़ जस्त लगाकर उस्मान के सीने पर सवार हो गया और उसने नौ ज़ख़्म लगाये और कहा कि तीन ज़ख़्म मैंने अल्लाह की राह में लगाये हैं और छः ज़ख़्म इस कीना की तरफ़ से हैं जो उस्मान के लिये मेरे दिल में था। उमर ने चाहा कि उस्मान का सर काट लें मगर औरतें रोने पीटने लगीं लेहाज़ा वह इस इरादे से बाज़ रहे।

   जब हज़रत उस्मान का काम तमाम हो चुका तो लोगों ने उनका घर लूटा जिसमें दिरहमों से भरी हुई दो बोरियां बरामद हुई। जिन लोगों ने हज़रत उस्मान के महसूरी के वाक़ियात क़लमबन्द किये हैं उनमे से अकसर ने लिखा है कि जिस दिन उस्मान क़त्ल हुए उस दिन तलहा अपने चेहरे पर नक़ाब डाले हुए लोगों की नज़रों से पोशीदा थे और छुप छुप कर हज़रत उस्मान पर तीर चला रहे थे। यह भी रिवायत है कि जब मुहासरीन को उस्मान के घर में दाख़िल होने का रास्ता न मिला तो तलहा ही ने अम्र के घर से उन्हें उस्मान के घर में दाख़िल किया। तबरी ने लिखा है कि लोग अम्र बिन हज़म अन्सारी के घर में दाखिल हुए। उनका घर हज़रत उस्मान के घऱ के पहलू में था। कुछ देर जंग व जदल का सिलसिला जारी रहा। उसके बाद सवदान बिन हमरान बाहर निकला औऱ उसने पुकार कर कहा, तलहा कहां है? हमने उस्मान को क़त्ल कर दिया।

   यह वाक़िया 18 ज़िलहिज सन् 35 हिजरी जुमें के दिन बाद नमाज़े अस्र ज़हूर पज़ीर हुआ। उस वक़्त हज़रत उस्मान की उम्र 82 साल की थी। मुद्दते मुहासिरा चालीस दिन औऱ बाज़ रिवायतों के मुताबिक़ उन्चास दिन बताई जाती है।

मदफन

मोअर्रिख़ीन का कहना है कि हज़रत उस्मान की लाश तीन दिन तक मज़बला पर पड़ी रही औऱ बलवाइयों ने उसे दफ़्न होने न दिया यहां तक कि आपकी एक टांग कुत्ते खा गये। (आसम कूफ़ी)

   दफ़्न के बारे में एक मिस्री मुसलमान बुज़ूर्ग अब्दुल्लाह बिन सवाद का कहना है कि मैं उन्हीं मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न नहीं होने दूंगा क्योंकि वह मुसलमान नहीं थे। इस गुफ़्तगू के ज़ैल में उसके पास यह दलील थी कि जब उस्मान ख़लीफ़ा हुए औऱ अबुसूफ़ियान ने यह कहा कि अब ख़िलाफ़त तुम्हारे हाथ आई है इसे गेंद की तरह नचाओ। खेलो और इसे हमेशा के लिये बनी उमय्या में मुनहसिर कर दो। मेरे नज़दीक हिसाब व किताब, अज़ाब व सवाब, हश्र व नश्र और जन्नत व दोज़ख़ कोई चीज़ नहीं है। तो उन्होंने इस कलमये कुफ़्र पर शरयी हद क्यों नहीं जारी की और अबुसुफ़ियान को मुसलमानों के बेतुलमाल से दो लाख दिरहम क्यों दिये?

मुम्किन है कि अब्दुल्लाह बिन सवाद की इस ग़ुफ़्तगू के पस मंज़र में हज़रत आयशा का वह फ़तवा भी कार फ़रमां रहा हो जिसके तहत उन्होंने हज़रत उस्मान को क़ाफ़िर कह कर वाजिबुल क़त्ल करार दिया था।

   बहरहाल वजह कुछ सही, हज़रत उस्मान की लाश तीन दिन तक पड़ी रही औऱ उन्हें मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न नहीं होने दिया गया। आख़िरकार जबीर बिन मुताइम और हकीम बिन हज़ाम हज़रत अली अलै0 की ख़िदमत में आये और उनसे मिन्नत समाजत की कि वह किसी तरकीब से उस्मान को दफ़्न करा दें। हज़रत अली अलै0 ने बलवाइयों से राबता क़ायम करके उन्हें हमवार किया कि वह उस्मान की मय्यत को दफ़्न हो जाने दें। ग़र्ज़ वह लोग मान तो गये मगर इसके बावजूद उनमें से कुछ पत्थर ले कर रास्ते में बैठ गये औऱ जब उस्मान का जनाज़ा उधऱ से गुज़रा तो उन्होंने पथराव कर दिया। बड़ी मुश्किलों से आप यहूदियों के कब्रिस्तान हश कोकब में एक दीवार के नीजे दफ़्न किया जा सके।

   तबरी ने अबी करब (जो उस्मान की तरफ से बैतुलमाल की निगरां था) से रिवायत की है कि हज़रत उस्मान बाद मग़रिब दफ़्न हुए। उनकी मय्यत में मरवान बिन हकम,त तीन गुलाम औऱ उनकी एक बेटी शरीक थी जो चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी तो लोगो ने नासिल नासिल कह कर पत्थर फेंकना शुरु कर दिया। क़रीब था कि मय्यत संगसार हो जाती। आख़िरकार हश कोकब में एक दीवार के तले उन्हें दफ़्न कर दिया गया।

   इब्ने क़तीबा का कहना है कि बलवाइयों के ख़ौफ़ से मय्यत तीन दिन तक पड़ी रही। आख़िरकार आयशा दुख़्तरे उस्मान औऱ बाहर दीगर इशख़ास ने मग़रिब व इशा के दरमियान मकान की पुश्त का दरवाज़ा तोड़ कर मय्यत को उसी पर लिटाया औऱ क़ब्रिस्तान की तरफ़ ले गये। दरवाज़े का वह पट जिस पर मय्यत को रखा गया था चौड़ाई में इस क़दर कम था कि आपकी बची हुई टांग के नीचे लटक रही थी और जल्दी जल्दी चलने की वजह से उनका सर उस तख़्ते पर ख़ट खट बोल रहा था। इसी आवाज़ पर बलवाइयों ने पथराव किया। इब्ने ख़लदून व इब्ने क़तीबा के बयान के मुताबिक़ हज़रत उस्मान का गुस्ल व कफ़न या नमाज़े जनाज़ा नहीं हुई।

   जिस दीवार के ज़ेरे साया हज़रत उस्मान की क़ब्र थी, माविया ने अपने दौरे हुकूमत में वह दीवार गिरा दी औऱ मुसलमानों को हुक्म दिया कि वह अपने मुर्दों को उस्मान की क़ब्र के आस पास दफ़्न करें ताकि इसका सिलसिला मुसलमानों के क़बरिस्तान से मिल जाये। उसी वक़्त से वह हिस्सा जहां हज़रत उस्मान की क़ब्र थी, बनी उमय्या वाला क़ब्रिस्तान कहा जाने लगा।

मुद्दते इक़तेदार

हज़रत उस्मान ग्यारह साल ग्यारह माह और चौदह दिन तख़्ते इक़तेदार पर रहे। इस मुद्दत में आपने इस्लाम औऱ मुसलमानों का इस तरह बेड़ा ग़र्क़ किया कि हज़रत आयशा के हुक्म पर मौत के घाट उतार दिये गये।

      अज़वाज और औलादें

हज़रत उस्मान की आठ बीवियां रुक़य्या, उम्मे कुलसूम, फ़ाख़ता बिन्ते ग़ज़वान, उम्मे उमर बिन्ते जन्दिब बिन अम्र, फ़ातेमा बिन्ते वलीद बिन्त मुग़ीरा मख़ज़ूमी, मलीका बिन्ते अतीबा, रमला बिन्ते शीबा और नाएला बिन्ते फ़राफ़ज़ा कलबिया नसरानिया थीं। हज़रत उस्मान की इन बीवियों की फ़ेहरिस्त में रुक़क़या औऱ उम्मे कुलसूम को मुसलमानों का एक फ़िर्क़ा रसूले अकरम सल0 की सुलबी बेटियां क़रार देता है हालांकि हक़ीक़त यह है कि वह हज़रत ख़दीजा की बहने हाला की बेटियां थी। जिन्हें पैग़म्बर सल0 ने जनाबे ख़दीजा से अक़द के बाद पाला था और वह आप ही से मनसूब हो गयी थी जैसा कि अबुल क़ासिम-उल-कूफ़ी-उल-मतूफ़ी सन् 352 हिजरी ने तहरीर फ़रमाया है किः

     जब रसूल सल0 ने हज़रत ख़दीजा से अक़द फ़रमाया तो उसके थोड़े अर्से बाद हाला का इन्तेक़ाल हुआ उसने तीन लड़कियां, रुक्क़या, ज़ैनब और उम्मे कुलसूल छोड़ीं जो पैग़म्बर सल0 और खदीजा की गोद में पलीं और इस्लाम से क़बल यह दस्तूर था कि अगर कोई बच्चा किसी की गोद मे परवरिश पाता तो वह उसी से मनसूब किया जाता था।

   हज़रत उस्मान की सतरह औलादें हुई जिनकी तफ़सील हस्बेज़ेल हैं।

   उम्मे कुलसूम से कोई औलाद नहीं हुई। रुक़्क़या से अब्दुल्लाह पैदा हुए। छः बरस की उम्र में मुर्ग़ ने उनकी आंख में चोंच मारी और वह बीमार होकर मर गये। फिर फ़ाख़ता ने एक लड़के को जन्म दिया उसका नाम भी अब्दुल्लाह रखा गया। उम्मे अमरु बिन्ते जन्दिब से अमरु पैदा हुए, उनके बाद अबान हुए जिनकी किन्नियत अबु सईद थी फिर ख़ालिद और उमर पैदा हुए। उसके बाद मरियम पैदा हुईं जिनका निकाह सईद बिन आस से हुआ। फ़ातेमा बिन्ते वलीद बिन मुग़ीरा मख़जूमी से वलीद और सईद दो लड़के और एक लड़की उम्मे सईद हुई जो अब्दुल्लाह बिन उमर को ब्याही गयी। मलीका बिन्ते अतीबा से अब्दुल्लाह मुल्क पैदा हुए जो पचपन ही में इन्तेक़ाल कर गये। रमला बिन्ते शीबा से दो लड़कियां आयशा और उम्मे अबान हुईं जो फ़राफ़ज़ा से मरियम (उम्मे ख़ालिद) अरदा औऱ उम्मे अबान सुग़रा तीन लड़कियां हुईं जिनमें मरियम अम्र बिन वलीद ने बिन अक़बा बिन अबी मईत से ब्याही गयीं।

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