हज़रत अबुबकर बिन अबुक़हाफा

इतिहासिक शख्सीयते
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 तारीख़ की किताबों से यह पता नहीं चलता कि आकी तारीखे पैदाइश क्या है? अलबत्ता बाज़ मुवर्रिख़ीन का ख़्याल है कि आप हज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वस्सल्लम से सवा दो बरस या तीन बरस छोटे थे और सन् 583 में पैदा हुए। लेकिन सही बुख़ारी बाबुल हिज़रत की एक रवायत से पता चलता है कि जब रसूले अकरम स0 मक्के से मदीने के लिये रवाना हुए तो आगे ऊँट पर हज़रत अबुबकर सवाए थे क्योंकि यह बूढ़े थे और उन्हें लोग पहचानते थे।

   नाम की वजह तसमिया के बारे में मशहूर मिस्री मुवर्रिख़ मुहम्मद हुसैन हैकल का बयान है कि बकर अरबी में जवान ऊँट को कहते हैं। चूंकि हज़रत को ऊँटों की परवरिश व परदाख़्त और इलाज व मुआलेजे का शौक़ ज़्यादा था और आप इसी नाम से मशहूर हो गये।

   जमान-ए-कुफ्र में हज़रत अबुबकर का असली नाम अब्दुल काबा था। इस्लामन लाने के बाद अब्दुल्ला हुआ लेकिन आपकी कुन्नियत ने किसी नाम को उभरने न दिया और सारी दुनिया आपको अबुबकर ही के नाम से जानती है।

      हुलियाः-

   अब्दुल रहमान बिन हाफ़िज़ अमरुद्दीन ने अपनी किताब अबुबकर की सवाहेह उमरी में तहरीर किया है कि हज़रत अबुबकर का रंग सफेद ज़र्दी माएल था। बदन छरहरा, पेशानी बाहर को निलकली हुई और आंखे अन्दर धंसी हुई मालूम होती थी। रुख़सार इस क़दर पिचके थे कि चेहरे की रगें उभरी रहती थी, दाढ़ी हर वक़्त ख़िज़ाब से रंगीन रहती थी और ख़ास बात यह थी कि हाथ की उंगलियो पर बाल नदारद थे।

इब्तेदाई ज़िन्दगीः

     हज़रत अबुबकर के बचपन या जवानी के वाक़ियात बहुत कम तारीख़ की किताबों में मिलते हैं और जो वाक़ियात है भी उनसे यह पता नहीं चलता है कि आप की इब्तेदाई ज़िन्दगी के ख़दो ख़ाल क्या थे? जिस वक़्त आप मुसलमान हुए उस वक़्त आपके वालिद अबुक़हफ़ा ज़िन्दा थे मगर यह पता नहीं चलता कि आप के वालिद पर आपके इस्लाम लाने का क्या असर हुआ और न ये मालूम है कि आपने अपनी ज़िन्दगी में अपने बाप अबुक़हाफ़ से क्या असर कुबूल किया।

वालदैनः-

   हज़रत अबुबकर के वालिद का नाम उस्मान बिन आमिर और कुन्नियत अबुक़हाफ़ा थी। वालिदा का नाम सलमा था जो सख़र बिन अमरु की साहबज़ादी और अबुक़हाफा की चचा ज़ाद बहन थीं। फ़तेह मक़्क़ा के बाद सन् 6 हिजरी में उन्होंने इस्लाम कुबूल किया और 67 बरस की उम्र में सन् 14 हिजरी में वफ़ात पाई। इस तरह वह कुल चार साल कुछ माह मुसलमान रहे बाक़ी ज़िन्दगी कुफ़्र के अंधेरों में गुज़री।

हज़रत अबुबकर का मुसलमान होना

   हज़रत अबुबकर के मुशर्रफ व इस्लाम होने का मसअला इख़तेलाफ़ी है। बाज़ उलमा का ख़्याल है कि हज़रत अबुबकर पहले शख़्स हैं जो पैग़म्बर स0 के मबऊस व रिसालत होते ही इस्लाम लाये। बाज़ ने खुश एतक़ादी की बिना पर आप को हज़रत ख़दीजा स0, हज़रत अली अलै0 और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा स0 के बाद चौथे नम्बर पर रखा है और बाज़ का ख्याल है कि जिस वक़्त आप ने इस्लाम कुबूल किया है उस वक़्त पचास से ज़्यादा लोग मुसलमान हो चुके थे।

   हज़रत अबुबकर के मुसलमान होने का असल सबब क्या था? इस ज़ैल में शाह वली उल्लाह मोहद्दिस देहलवी का कहना है कि हज़रत अबुबकर के मुसलमान होनो का सेहरा काहिनों और नुजूमियों के सर है क्योंकि आपने नुजूमियों से सुन रखा था कि इस्लाम अनक़रीब तर्की करके सीरी दुनिया में फैल जायेगा इस लिये आपने इस्लाम इख़्तियार कर लिया।

   शाह मोहद्दिस की तहरीर से ये बात वाज़ेह है कि इस्लाम के मुहासिन और उसकी अफ़ादियत के तहत हज़रत अबुबकर ने इस्लाम नहीं कुबूल किया बल्कि अपने मुफ़ाद, हुसूले मक़सद और मुस्तक़बिल को मद्दे नज़र रखते हुए दायरये इस्लाम में दाख़िल हुए थे।

   सक़ीफ़ा की कार्रवाईः

     पैग़म्बरे इस्लाम सब0 की वफ़ात के बाद उनकी मौत व हयात के बारे में हज़रत उमर ने जो हंगामा ब-ज़ोरे शमशीर बरपा कर रखा था वह हज़रत अबुबकर की अफ़सूँगरी से ख़त्म हो गया मगर उसने अन्सार के ज़ेहनों में एक हलचल पैदा कर दी और उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि तहरीरे वसियत पर हंगामा, जैश उसामा से तख़ल्लुफ़ और मौत ऐसी वाज़ेह हक़ीक़त से इन्कार आख़िर यह सब क्या है? कहीं ये सब चीज़ें एक ही ज़ंजीर की कड़ियाँ तो नही हैं? यह मसला इतना पेचिदा न था कि उन्हे किसी नतीजे पर पहुँचने में दुश्वारी होती। उन्होंने बड़ी आसानी से समझ लिया कि यह सारी तदबीरें ख़िलाफ़त के उसके अस्ल मक़सद से हटाने और दूसरी तरफ़ मुन्तकिल करने के लिये की जा रही हैं। चुनांचे उन्होंने हालात की तबदीली और मौक़े की नज़ाकत को नज़र में रखते हुऐ फ़ौरी तौर पर सक़ीफ़ा बनी साएदा में एक इजतेमा किया ताकि अन्सार में से किसी एक के हाथ पर बैयत करके वह मुहाजरीन के इस मनसूबे को नाकाम बना दें। अगर अन्सार को यह यक़ीन होता कि मुहाजरीन हज़रत अली अले0 के बरसरे इक़तेदार आने में मज़ाहिम नहीं होंगे तो वह न यह बज़में मशावरत क़ायम करते औऱ न इस सिलसिले में जल्दबाजी से काम लेते। उनके दिलों की आवाज़ वही थी जो सक़ीफ़ा में बैयत के हंगामें के मौक़े पर बुलन्द हुई कि हज़रत अली अलै0 के अलावा और किसी की बैयत नहीं करेंगे

   बाहमीं चशमक औऱ आपसी रंजिश के बावजूद इस इजतेमा में ऊस औऱ ख़िज़रिज दोनों क़बीले शरीक हुए इसलिये कि उन दोनों को मुहाजरीन के एक तबक़ा की बालादस्ती गवारा न थी और न यह लोग मुहाजरीन के इक़तेदार को अपने हुकूक के तहफ़्फुज़की ज़मानत समझते थे।

   ख़िज़रिज के लोग इस इजतेमा के इन्तेज़ाम व एहतेमाम में पेश थे और उन्हीं में की एक मुम्ताज़ शख़्सियत साद बिन अबादा सदर मजलिस थे जो नसाज़ी तबा की वजह से रिदा ओढ़े मसनद पर बैठे थे। उन्होंने अपनी तक़रीर में कहा, ऐ गिरोहे अन्सार। तुम्हें दीन में जो सबक़त और फ़ज़ीलत हासिल है वह अरब में किसी को भी हासिल नहीं है। पैग़म्बरे अकरम स0 दस बरस तक अपनी क़ौम को ख़ुदा परस्ती की दावत देते रहे मगर गिनती के चन्द आदमियों के अलावा कोई उन पर ईमान न लाया और चन्द आदमियों के बस की बात यह नहीं थी कि वह आंहज़रत स0 की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा लेते और दीन की तक़वियत का सामना करते। ख़ुदा ने तुम्हें यह तौफ़ीद दी कि तुम ईमान लाये और पैग़म्बर स0 के सीना सिपर रहे, मैदान जंग में उतरे और दुश्मनों से लड़े। तुम्हारी ही तलवारों सरे अरब के तरकशों के सर ख़म हुए और तुम्हारे ही ज़ारे बाज़ू से इस्लाम को औज व ऊरुज हासिल हुआ। पैग़म्बर स0 दुनिया से रुख़सत हो चुके हैं, अब तुम्हारे अलावा मनसबे ख़िलाफ़त पर अपनी गिरफ़्त मजबूत कर लो।

   साद बिन अबादा की इस तक़रीर की ताईद सबने की और कहा कि हम आप को मनसबे ख़िलाफ़त पर फ़ाएज़ देखना चाहते हैं। अगर यह मामला तन्हा अन्सार का होता ता बैयत की तक़मील के बात इसका फैसला साद के हक़ में हो चुका होता मगर इसके साथ यह ख़दशा भी लाहक़ था कि अगर मुहाजरीन ने मुख़ालिफत की तो क्या होगा? चुनांचे इस ज़हनी ख़लिश के नतीजे में यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि अगर मुहाजरीन ने मुख़ालेफत की तो इस मसले को किस तरह सुलझाया जा सकेगा। उस पर कुछ लोगों ने कहा हम में से हो और एक तुम में से। उस पर साद ने कहा कि यह पहली और आख़री कमज़ोरी होगी।

   और यह हक़ीक़त है कि अगर अन्सार के अज़ाएम व इरादों से पुख़्तगी होती तो वह यह सोचते ही क्यों कि इक़तेदार को दो हिस्सों में तक़सीम किया जा सकता है बल्कि वह अपने नज़रियात व ख़्यालात को अगली जामा पहना देते और मुहाजरीन की मज़ाहमत से पहले बैयत कर चुके होते मगर उन्होंने एहसासे कमतरी में मुबतिला होकर मौक़ा हाथ से खो दिया।

   इस इजतेमा में अगर चे ऊस के अफ़राद भी शरीक थे मगर उनकी शिरकत महज़ इस गरज़ से थी कि वह दूसरों के यह तअस्सुर न दें कि अन्सार में बाहमी इत्तेहाद व यकजहती नहीं है वरना दिल से उन्हें ख़िज़रिज का इक़तेदार हरगिज़ गवारा न था क्योंकि यह दोनों हरीफ़ व मुतहारिब ख़ानदान थे और इस्लाम में दाख़िल होने से कुछ अरसे पहले उनके दरमियान एक ख़ंरेज जंग भी हो चुकी थी जंग बास के नाम से मौसूम है। अगर चे इस्लाम ने काफ़ी हद तक उनकी बाहमीं कदूरतों को ख़त्म कर दिया था मगर इसे इन्सान की कमज़ोरी कहिये या इन्सानी फ़ितरत का ख़ासा कि वह एक दूसरे को हरीफ़ व मद्दे मुक़ाबिल ही की नज़रों से देखते रहे और एक का इम्तेयाज़ दूसरे को खटकता रहा। चुनांचे इस मौक़े पर भी ऊस के दो आदमियों ने मुख़बरी की और हज़रत उमर को ख़ुफ़िया तौर पर इस इजतेमा की इत्तेला दे दी जिस पर हज़रत उमर बहुत सटपटाये और अपने दो हमनवाओं के साथ इस इजतेमा को दरहम बरहम करने पर आमदा हो गये। इब्ने असीर का कहना है कि हज़रत उमर ने हज़रत अबुबकर को ख़बर दी और वह दोनों अबू उबैदा को साथ लेकर सक़ीफ़ा की तरफ़ तेज़ी से चल पड़े। (तारीख़ कामिल जिल्द 2 सफ़ा 222)

   जब यह तीनों आदमी हांपते कांपते सक़ीफ़ा बनी साएदा में अचानक वारिद हुए तो अन्सार उन्हें देखकर हैरत ज़दा रह गये और राज़ के अफ़शा हो जाने से उन्हें अपनी कामयाबी मशकूक नज़र आने लगी । इधर ऊस को भी मौक़ा सिल गया कि वह उन मुहाजेरीन का सहारा ले कर अपने हरीफ क़बीला के मनसूबे को नाकाम बनायें। हज़रत उमर ने आते ही मजमें पर एक निगाह डाली और साद बिन उबैद को चादर में लिपटे हुए देख कर पूछा कि यह कौन है? बताया गया कि यह साद बिन उबैदा हैं जो सदर मजलिस औऱ ख़िलाफ़त के उम्मीदवार हैं। हज़रत उमर की तेवरियां बदलीं और उन्होनें मजमें को मुख़ातिब करके कुछ कहना चाहा मगर अबुबकर ने इस ख़्याल से कि उनकी वजह से कहीं मामला बिग़़ न जाये उन्हें रोक दिया, खुद ख़ड़े हो गये और तक़रीर करते हुए कहा कि ख़ुदा ने पैग़म्बर स0 को उस वक़त भेजा जब हर तरफ़ बुतों की पूजा हो रही थी, आप बुत परस्ती को ख़त्म करने और ख़ुदा परस्ती का पैग़ाम देने के लिये उठ खड़े हुए मगर अहले अरब ने अपना आबाई मज़हब छोड़ना गवारा न किया। ख़ुदा ने मुहाजेरान अव्वालीन को ईमान व तसदीक़ रिसालत के लिये मुनतख़ब किया। उन्होंने ईमान लाने के बाद अपने क़बीला वालों की ईज़ा रसानियों पर सब्र व ज़ब्त से काम लिया और तादाद में कम होने के बावजूद हरासां न हुए। उन्होंने रुए ज़मीन पर सबसे पहले अल्लाह की परसतिश और सबसे पहले अल्लाह के रसूल अ0 पर ईमान लाये। यही लोग रसूल अल्लाह स0 के कुन्बे के अफ़राद और उनके वली व दोस्त हैं, लेहाज़ा उनसे बढ़ कर नज़ा करेगा वह ज़ालिम क़रार पायेगा। ऐ गिरोहे अन्सार! तुम्हारी दीनी फज़ीलत और इस्लामी सबक़त भी नाक़ाबिल इनकार है। अल्लाह ने तुम्हें इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम स0 का हामी व मददगार बनाया और तुम्हारे शहर को दारुल हिज़रत क़रार दिया। हमारे नज़दीक मुहाजेरीन अव्वालीन के बाद तुम्हारा मर्तबा सबसे बुलन्द तर है, लेहाज़ा हम अमीर होंगे और तुम वज़ीर होंगे और कोई मामला तुम्हारे मशविरे के बग़ैर तय नहीं पायेगा।

   हज़रत अबुबकर का यह ख़ुतबा उनकी मामला फ़हमीं और सियासी तदब्बुर का आईनादार है। यह सिर्फ़ मुदब्बराना सूझ बूझ का नतीजा था कि उन्होंने हज़रत उमर को इफ़तेताहा तक़रीर से मना कर दिया ताकि उनकी ज़बान से कोई ऐसा जुमला न निकल जाये जिससे अन्सार के जज़बात भड़क उठें और फिर उन्हें अपने ढ़र्रे पर लगाना मुश्किल हो जाये। अबुबकर की मसलहत अंग्रेज़ निगाहें देख रही थीं कि यह मौक़ा सख़्ती बरतने का नहीं है बल्कि नर्मी और हिक्मत अमली से काम निकालने का है। चुनांचे उन्होंने अपने नपे तुले अल्फ़ाज़ से अन्सार को मुतासिर करके उनका जोश कम किया। उन्हीं मुहाजिरीन का मुशीर क़रार दिया और विज़ारत की पेश कश से उनकी दिल जोई की। इस ख़ुतबे की नुमाया ख़ुसूसियत यह है कि फ़रीक़ मुख़ालिफ़ होते हुऐ भी अबुबकर ने अपने को इस इजतेमा में एक फ़रीक़ की हैसियत से पेश नहीं किया बल्कि वह अन्दाज़ इख़्तियार किया जो एक सालिस और ग़ैर जानिबदार शख़्स का होता है। और एक मुबस्सिर की तरह दोनों गिरोहों के मर्तबा व मुक़ाम का जाएज़ा लिया ताकि शऊरी या लाशऊरी तौर पर मुहाजेरीन व अन्सार का सवाल पैदा न हो जाये। अगर मुहाजेरीन व अन्सार का सवाल उठ खड़ा होता तो फिर ख़ुदा जाने हालात क्या रुख़ इख़्तियार करते। मुम्किन था कि क़ौमी व क़बाएली असबियत जो अरब की घुट्टी में पड़ी हुई थी उभर आती और हर गिरोह इक़तेदार को अपनाने की कोशिश करता, ख़ाना जंगी तक नौबत पहुंचती और कामयाबी मशकूक हो कर रह जाती। इस सिलसिले में मज़ीद एहतियात यह बरती कि अन्सार के मुक़ाबिले में आम मुहाजेरीन को लाने के बजाये मुहाजेरीन के एक ख़ास तबक़ा को जो अव्वलीन कहलाता था, पेश किया ताकि अन्सार को यह तअस्सुर दिया जा सके कि यहां क़ौमी व क़बाएली तक़ाबुल नहीं है बल्कि अवल्लियत व अफ़ज़लिल्यत के लिहाज़ से शख़्सी जाएज़ा है और फिर इस तअस्सुर को मुश्तहकाम करने के लिये जहाँ मुहाजेरीन अव्वलीन के औसाफ गिनवाये वहां अन्सार के औसाफ़ गिनवानें में भी फ़िराख़ दिली से काम लिया। यूं तो मुहाजेरीन के और भी औसाफ़ गिनवाये जा सकते थे मगर उन्होंने सिर्फ उन्हीं औसाफ़ का ज़िक्र किया जो नाक़ाबिल तरदीद थे।

   अन्सार में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे यह एतराफ़ न हो कि मुहाजेरीन अव्वालीन में एक गिरोह इसलाम के मामले में अन्सार पर सबक़त रखता है और उनका क़बीला भी वही है जो हज़रत रसूले ख़ुदा स0 का था कि उसकी तरदीद में आवाज़े बुलन्द हो जातीं और इसके नतीजे में इस्तेहक़ाक़ ख़िलाफत मुतासिर होता। अलबत्ता इस सिलसिले में यह कहा जा सकता था कि मुहाजेरीन की सबक़त भी तसलीम और पैग़म्बर स00 का हम क़बीला होना भी गवारा मगर इससे इस्तेहाक़ ख़िलाफ़त का सुबूत किस शरयी दलील की रु से फ़राहम होता है और अगर यही इस्तेहक़ाक़ ख़िलाफ़त की दलील है तो क्या हज़रत अली अलै0 मुहाजेरीन अव्वालीन में साबिक़ औऱ क़राबत के लिहाज़ से सबसे क़रीब तर नहीं हैं? फिर उनके होते हुए किसी और का इस्तेहाक़ क्यों? इस एतराज़ को अन्सार के हक़ विज़ारत का एलान करके दबा दिया गया इस तरह कि अगर अन्सार इस दलील को मुस्तरिद करके मुहाजेरीन के इस्तेहक़ाक़े ख़िलाफ़त पर मोतरिज़ होते तो इस दलील को भी मुस्तरीद करना पड़ता जो उनके इस्तेक़ाक़ विज़ारत के हक़ में थी। इस विज़ारत की पेश कश ने यह वसवसा भी अन्सार के दिलों से दूर कर दिया कि उनके हक़ूक़ पर कोई सख़्ती व ज़ियादती होगी। इसलिये कि विज़ारत जो तकमिलय ख़िलाफ़त पर कोई सख़्ती व ज़ियादती होगी। इसलिये कि विज़ारत जो तकमिलय ख़िलाफ़त है उनके हक़ूक़ के तहफ़्फुज़ की ज़मानत है। यह दूसरी बात है कि विज़ारत का कोई ओहदा न हज़रत अबुबकर के दौर में क़ायम हो सका और न हज़रत उमर के तवील दौर में। और जब ओहदा ही नहीं है तो ओहदा पर तक़रुरी का क्या सवाल? अलबत्ता हज़रत उस्मान के दौर में विज़ारत के ओहदे के मसावी कातिब का ओहदा था मगर अमवी के होते हुए एक अन्सारी को यह एज़ाज़ कैसे मिल सकता था।

   हज़रत अबुबकर की तक़रुरी से अफ़राद ऊस ने जो अपने हरीफ़ क़बीला ख़िज़ारिज की इमारत पर ख़ुश न थे, अच्छा असर लिया और सर झुकाये खामोश बैठे रहे लेकिन ख़िज़रिज ख़ामोश न रहे। उनके नुमाइन्दा हबाब बिन मनज़िर ख़ड़े हो गये और उन्होंने कहा की ऐ गिरोह अन्सार! तुम अपने मौख़ूफ पर मज़बूती से जमे रहो। यह लोग तुम्हारे ज़ेरे साया आबाद हैं, किसी में यह हिम्मत व जराएत नहीं हो सकती कि वह तुम्हारी राय की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर सके। तुम्हारे पास इज़्ज़त, सरुत, ताक़त और शुजाअत सब कुछ है। न तुम तादाद में उनसे कम हो और न तजरुबे व जंगी महारत में यह तुम्हारे मुक़ाबिला कर सकते हैं। रसूलउल्लाह स0 तुम्हारे शहर में आबाद हुए, तुम्हारी वजह से हरसरे आम अल्लाह की इबादत हुई, तुम्हारी तलवारों से क़बाएले अरब सरनगूं हुए, तुम्हारी वजह से इस्लाम का बोल बाला हुआ। तुम मनसबे ख़िलाफ़त के ग़ल्त दावेदार नहीं हो। अगर यह लोग तुम्हारा हक़ तसलीम नहीं करते तो फिर एक अमीर हमारा होगा और एक उनका होगा।

   हबाब बिन मनज़िर के यह कहने पर बजाये इसके कि अन्सार के मक़सूल को कुछ तक़वियत हासिल होती फ़रीके सानी को उसकी तरदीद करके अपने मौकूफ़ को मज़बूत करने का मौका मिल गया। चुनानचे हजज़रत उमर ने फ़ौरन उसकी तरदीद करते हुए कहा, यह कहां हो सकता है कि एक वक़्त में दो हुक्मरां। खुदा की क़सम अरब इस पर क़तई रज़ामन्द न होंगे कि तुम्हें बरसरे इक़तेदार लायें जब कि नबी तुम में से नहीं हैं। लेकिन अरब को इससे इन्कार नहीं हो सकता कि हाकिम व वली अमर इस घराने से मुन्तख़ब हो जिस घराने में नबूवत है। लेहाज़ा जो पैग़म्बर स0 की सल्तनत व इमारत के मामले में हम से टकरायेगा वह तबाह व बर्बाद होगा।

   हज़रत उमर ने अपनी तक़रीर ख़त्म की तो हबाब फिर खड़े हुए और अन्सार से मुख़ातिब होकर पुर जोश लहज़े में कहा कि इसकी बातों पर ध्यान न धरो, तुम अपने मौकूफ़ पर क़ायम रहो, यह लोग ख़िलाफ़त में तुम्हारा हिस्सा रखना ही नहीं चाहते। लेहाज़ा अगर यह तुम्हारा मुतालिबा तसलीम न करें तो उन्हें अपने शहर से निकाल बाहर करो और जिसे चाहते हो उसे अमीर मुन्तख़ब कर लो। ख़ुदा की कसम तुम इनसे ज़्यादा ख़िलाफ़त के हक़दार हो क्योंकि तुम्हारी तलवारों से दीन फैला और लोग इस्लाम की तरफ़ झुके। अब अगर किसी ने मेरी बात की तरदीद की तो मैं अपनी तलवार से उसकी नाक काट लूंगा।

   उस मुक़ाम पर ज़रुरत थी कि हबाब दौरे जाहेलियत की असबियत का मुज़ाहेरा करने के बजाये इस्लामी फ़ज़ा में बातचीत करते और तशद्दुद आमेज़ लहजा इख़्तियार करने के बजाये नर्म ग़ुफ़्तगारी इख़्तियार करते। चुनांचे को अपना हमनुवा बनाने में कामयाब न हो सके। अबुअबीदा जो मौक़ा व महल की नज़ाकत को समझ रहे थे ख़डे हो गये और उन्होंने अन्सार के दीनी जज़बात को झिंझोड़ते हुए कहा, ऐ गिरोहे अन्सार! तुमने हमारी नुसरत की, हमें अपने यहां पनाह दी, अब अपना तौर व तरीका न बदलो और साबका रोश पर बरक़रार रहो।

   इस नर्म गुफ़्तारी का नतीजा यह हुआ कि ख़िज़रिज के लोग भी ढ़ीले पड़ गये और बशीर बिन साद ख़िज़रिजी ने हवा का रुख़ देखकर कहा कि ऐ गिरोहे अन्सार! अगर चे यह फज़ीलत हासिल है कि हमने मुशरेकीन से जेहाद किये और इस्लाम कुबूल करने में सबक़त हासिल की मगर हमारे पेशे नज़र सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशनूदी और उसके रसूल स0 की इताअत थी। यह मुनासिब नहीं है कि हम दीन को दुनयावी सर बुलन्दी का ज़रिया बनायें और हुकूमत व इक़तेदार की तमन्ना करें। दीन तो अल्लाह की दी हुई एक नेमत है। पैग़म्बर स0 कुरैश में से थे लेहाज़ा उनका क़बीला उनकी नियाबत का ज़्यादा हक़दार है। तुम लोग अल्लाह से डरो और ख़्वाह-म-ख़्वाह उनसे न उलझो। बशीर का यह कहना था कि अन्सार की यकजहती दरहम बहरम हो गयी, लोगों का रुख़ बदलने लगा, जो लोग इस तहरीक को लेकर उठे थे वही इसको कुचलने पर आमदा नज़र आने लगे। मुहाजेरीन को मौक़ा मिला कि वह इस अफ़रा तफ़री से फ़ाएदा उठायें चुनांचे अबुबकर खड़े हो गये और कहने लगे कि यह उमर है। और यह अबुउबैदा हैं। इन दोनों में से किसी एक की बैयत कर लो। उस पर हज़रत उमर ने कहा, आपका हक हम दोनों से ज़्यादा है, हाथ बढ़ाइये, हम आपकी बैयत करेंगे। हज़रत अबुबकर ने बग़ैर किसी तरद्दुद और तवक़्कुफ के अपना हाथ इस तरह आगे बढ़ा दिया कि गोया मामला तय शुदा हो मगर हज़रत उमर अभी बैयत करने न पाये थे कि बशीर बिन साद ने बढ़ कर अबुबकर के बढ़े हुए हाथ पर हाथ रख दिया और बैयत कर ली। फिर हज़रत उमर और अबु उबैदा ने बैयत की और इसके बाद ख़िज़रिज के लोग आगे बढ़े और उन्होंने बैयत की।

   ऊस के नक़ीब असीद बिन हजीर ने ख़िज़ारिज को बैयत के लिये बढ़ते देखा तो अपने क़बीले वालों से उन्होंने कहा, खुदा की कसम! अगर ख़िज़रिज़ एक दफ़ा तुम पर हुक्मरां हो गये तो उन्हें हमेशा के लिये तुम पर फ़ज़ीलत व बरतरी हासिल हो जायेगी और वह तुम्हें इस इमारत में से कभी कोई हिस्सा नहीं देंगे लेहाज़ा उठो और अबुबकर की बैयत कर लो।

   इस बैयत के हंगामें में हबाब बिन मनज़िर तलवार ले कर खड़े हो गये मगर उनके हाथ से तलवार छीन कर उन्हें बे दस्तो बा कर दिया गया। साद बिन आबाद पैरों तले रौंद दिये गये। हज़रत उमर की बन आई थी उनका जो नर्म लहजा शुरु में था अब सियासी ख़तरा टल जाने के बाद इसकी ज़रुरत नहीं रही, चुनानचे नर्म गुफ़्तारी ने सख़्तगीरी इख़्तियार की और साद बिन अबादा से तलख़ कलामी, हाथा पाई और दाढ़ी नोचने व नुचवाने की नौबत आ पहुंची। साद ने कहा यह मुनाफ़िक है जिस पर उमर ने कहा कि इसे क़त्ल कर दो, यह फ़ितना परदाज़ है।

   साद बिन उबैदा जो अन्सार की जलीलुल कदर शख़्सियत और ख़िजरिज के रास व रईस थे, उनका जुर्म क्या था कि उन्हें गर्दन ज़दनी के क़ाबिल समझा गया और फितना परदाज़ करार दिया गया। अगर वह ख़िलाफ़त के उम्मीदवार थे तो दूसरे भी तशकीले ख़िलाफ़त ही के लिये आये थे। अगर हज़रत अबुबकर व हज़रत उमर का नज़रिया यह था कि पैग़म्बर स0 की तजहीज़ व तकफ़ीन से पहले ख़िलाफत का तसफ़िया ज़रुरी है ताकि मुम्लिकात के नज़म व नसख़ में ख़लल न पड़े तो अन्सार का इजतेमा भी तो इसी ग़ैर आईनी व ग़ैर इस्लामी इजतेमा के ज़रिये ख़लीफ़ का इन्तेख़ाब किया था। और हज़रत उमर तो इसे हंगामी हालात की पैदावार समझते थे। चुनांचे वह कहा करते थे किः

अबूबकर की बैयत बै सोचे समझे नागहानी तौर पर हो गयी। आईन्दा अगर कोई ऐसा करे तो उसे क़त्ल कर दो

   अल्लामा जमख़शरी का बयान है किः-

हज़रत अबुबकर ने ख़िलाफ़त का तौक़ इस तरह अपने गले में डाला जिस तरह छीना झपटी करके दूसरों के हाथ से कोई चीज़ छीनली जाती है या झपट्टा मार कर (चील की तरह) पंजों से उचक ली जाती है।

   बावजूद यह कि हज़रत उमर इत तरीक़े कार के एक तरह से बानी थे मगर यह तरीक़ा हमेशा उनकी निगाहों में खटकता रहा और वह उसके दोहराने पर क़त्ल की सज़ा भी तज़बीज़ कर गये। क्या उनके नज़दीक यह तरीक़ेदार शरयी हुदूद के अन्दर न था? अगर शरयी हुदूद के अन्दर और ज़ाबतए इस्लामी के मुताबिक था तो इसे दोहराने और उस पर अमल पैरा होने की सूरत में क़त्ल की सज़ा क्यों? अगर शरयी हुदूद के बाहर था तो इस ग़लत और ग़ैर शरयी तरीक़कार से जो इन्तेख़ाब अमल में आया या इस इन्तेख़ाब पर जो इन्तेख़ाब हुआ वह क्यों कर सही क़रार पायेगा।

   तशद्दुद आमेज़ बैयत

     ख़िलाफ़त की मुहिम जब सर हो चुकी, हज़रत अबुबकर ख़लीफ़ा बन चुके और हज़रत उमर ख़लीफ़ा बना चुके तो यह लोग एक मुख़तसर सी जमाअत के साथ सक़ीफ़ा बनी साएदा से मस्जिदे नबवी की तरफ इस तरह रवाना हुए कि रास्ते में जो शख़्स भी नज़र आता था उसे पकड़ कर उसके हाथ अबुबकर के हाथों से मस करते और उससे बैयत लेते। बरार बिन आज़िब का बयान है कि यह लोग जिस किसी के पास से गुज़रते थे उसे खींच कर अबुबकर के सामने लाते और बैयत के लिये उसका हाथ पकड़कर उनके हाथों से मस करते ख़्वाह वह चाहे या न चाहे।

   जब लोग मस्जिद नबवी में वारिद हुए तो कुछ हाशिये बरदारों को इधर उधर दौड़ाया गाय और उनसे कहा गया कि वह लोगों को पकड़ पकड़ कर बैयत के लिये ले आयें। चुनानचे कुछ लोग जमा किये गये और मस्जिद में जहां पास ही एक हुजरे में सरकारे दो आलम स0 को गुस्ल व कफ़न दिया जा रहा था, तक़बीरों की गूंज, मैं बैयत का सिलसिला शुरु हो गया। बिलाज़री रक़मतराजड हैं कि हज़रत अबूबकर को मस्जिद में लाया गाया और लोगों ने उनकी बैयत की। अब्बास और अली अ0 ने हुजरे से तकबीरों की आवाज़ें सुनीं वह अभी रसूलउल्लाह स0 के गुस्ल से फ़ारिग़ न हुए थे

   यह दुनिया की बेवफ़ाई और सर्द महरी की इन्तेहाई इबरत अंगेज़ मुरक़्का था कि एक तरफ़ सरकारे दो आलम स0 की मय्यत रखी थी, रंज व ग़म से निढ़ाल आपके अज़ीज़ व अक़ारिब तजहीज़ व तकफ़ीन में मसरुफ़ थे और दूसरी तरफ़ इस ग़म अंगेज़ माहौल से बे नियाज़ हुक्मरां तबका़ तकबीर के नारों की गूंज में लोगों से बैयत ले रहा था। न किसी की आंख में आंसू थे न किसी के चेहरे पर मलाल के आसार। ऐसा लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो।

   इस से इक़तेदार परस्तों के साथ अवाम की ज़ेहनियत का भी अन्दाज़ा होता है कि इक़तेदार की कूवत उन्हें कितनी जल्दी महसूस व मुतासिर करती है कि अज़ीम से अज़ीम हादसे के असरात भी मुज़महिल हो जाते हैं और वह फ़ौरन अपने आपको हुकूमत की ख़ुशनूदी व रज़ा जूई से वाबस्ता कर देते हैं। ऐसी सूरत में ये तवक़्को की ख़ुशनूदी व रज़ा जूई से वाबस्ता कर देते हैं। ऐसी सूरत में ये तवक़्को नहीं की जा सकती कि वह यह सोचने कि या इन्तेख़ाब क्यों और कैसे हुआ? राये आम्मा के इसतेसवाब से हुआ या अरबाब हल व अक़द की सवाबे दीद का नतीजा था। अगर इस्तेसवाब राय से हुआ तो उन्हें इज़हारे राये कामौक़ा ही कब दिया गया और अगर यह अहले हल व अक़द का फ़ैसला है तो क्या मुहाजेरीन में तीन ही आदमी अहले हल व अक़द थे? क्या हज़रत अली अलै0? अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब? सलमाने फ़ारसी, अबूज़र ग़फ़्फ़ारी, मिक़दाद, अम्मार यासिर, ज़ुबैर बिन अवाम और ख़ालिद बिन सईद ऐसे अमाएदीन व अकाबरीने मिल्लत और बनी हाशिम उनमें शामिल किये जाने के क़ाबिल न थे? गर्ज़ आलम यह था कि लोग बे सोचे समझे हवा के रुख़ पर उड़ रहे थे वक़्त के सेलाब में बह रहे थे। अगर किसी ने नफ़रत व बेज़ारी का इज़हार किया या किसी क़िस्म की सदाये एहतेजाज बुलन्द की तो उसे डरा धमका कर या लालच दे कर ख़ामोश कर दिया गया और जिन लोगों की पुश्त पर ताक़त द कूवत थी उन्हें वक़्ती तौर पर नज़र अन्दाज़ कर दिया गया। चुनानचे सईद बिन उबैदा से फ़िलहाल बैयत का मुतालिबा ख़िलाफ़े मसलहत समझा गया और जब हज़रत उस्मान, अब्दुर रहमान बिन औफः सईद बिन अबी विकास, बनी उमय्या और बनी ज़हरा की तरफ़ से बैयत और ताईद हासिल हो गयी और हूकूमत में कुछ इस्तेहकाम पैदा हो चला तो उन्हें भी बैयत का पैग़ाम भेजा गया जिसके जवाब में सईद बिन उबैदा ने कहाः

     ख़ुदा की कसम! मैं उस वक़्त तक बैयत नहीं करुंगा जब तक तीरों से अपना तरकश ख़ाली न करुं और अपने क़ौम व क़बीले के लोगों को लेकर तुम से जंग न कर लूं

   हज़रत अबुबकर यह जवाब सुन कर ख़ामोश हो गये मगर हज़रत उमर ने बर फ़रोख़्त होते हुए कहा कि हम इससे बैयत लिये बग़ैर नहीं रहेंगे। उस पर बशीर बिन सईद ने कहा कि अगर सईद बिन उबैदा ने बैयत से इन्कार कर दिया है तो वह क़त्ल होना गवारा करेंगे मगर बैयत नही्ं करेंगे ओर अगर वह क़त्ल किये गये तो उनका ख़ानदान भी क़त्ल होगा और उनका ख़ानदान उस वक़्त तक क़त्ल न होगा जब तक क़बीला ख़िरुज क़त्ल न हो जाये और क़बीला ख़िज़रिज का क़त्ल होना उस वक़्त तक नामुम्किन है जब तक क़बीला ऊस ज़िन्दा है। दूर अन्देशी और मसलहत बीनी का तक़ज़ा यह है कि उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया जाये चुनानचे सईद बिन उबैदा हज़रत अबूबकर के दौर में मदीने में ही रहे मगर उन्होंने न हुक्मरां जमात से कोई ताल्लुक रखक न उनके साथ नमाज़ों में शरीक हुए, न उनके साथ हज किया और न ही उनकी किसी मजलिस में शरीक हुए। मगर जब हज़रत उमर का दौर आया तो उन्होंने एक दफ़ा सईद को रास्ते में देख कर कहा कि क्या तुम वही? सईद ने कहा, हां मैं वहीं हूं और मेरा मौक़फ़ भी वही है मैं तुमसे अब भी इतना ही बेजार हूं जितना कि पहले था। हज़रत उमर ने कहा, फिर मदीना छोड़ कर चले क्यों नहीं जाते।

   साद ख़तरा तो महसूस ही कर रहे थे हज़रत उमर के तेवरों को देख कर समझ गये कि किसी वक़्त भी उन्हें मौत के घाट उतार जा सकता है। चुनानचे वह मदीना छोड़ कर शाम चले गये और चन्द दिनों के बाद हूरान में किसी के तीरों का निशाना बन गये। इब्ने अबदरबा का कहना है किः

     हज़रत उमर ने एक शख़्स को शाम रवाना किया और उससे कहा कि वह सईद से बैयत का मुतालिबा करे। अगर वह इन्कार करें तो उन्हें क़त्ल कर दे। वह शख़्स शाम पहुंचा और मुक़ाम हूरान में एक चार दीवारी के अन्दर सईद से मिला और उनसे बैयत का मुतालिबा किया। उन्होंने कहा, मैं हरगिज़ हरगिज़ बैयत नहीं करूँगा। इस पर उसने तीर मार कर उन्हें क़त्ल कर दिया।

   यह शख्स मुहम्मद बिन मुस्लिमा या मुग़ीरा बिन शेबा बताया जाता है मगर मशहूर यह कर दिया गया कि सईद को किसी जिनने तीर मार कर हलाक कर दिया और उनके मरने पर एक शेर इस मफडहूम का पढ़ा कि हमने सरदारे ख़िज़रिज सईद बिन अबादा को क़त्ल कर दिया और इस पर तीर चलाया जो इसके दिल में पेवस्त हो गया।

   हज़रत अबुबकर के दौर में सईद बिन उबैदा को न बैयत पर कोई मजबूर कर सका और न इस सिलसिले में उन पर कोई सख़्ती कर सका लेकिन उन कारेप्रदाज़ाने ख़िलाफ़त ने हज़रत अली अलै0 से जल्द अज जल्द बैयत हासिल करने की कार्रवाई शुरु कर दी। चुनानचे आप दुनिया की नैरंगी और ज़माने के इन्क़लाब से उफसुरदा ख़ातिर होकर घर में बैठे ही थे कि हुकूमत की तरफ़ से बैयत का मुतालिबा हुआ। आपने और आपके साथ उन तमाम अफ़राद ने जो उस वक़्त घर के अन्दर मौजूद थे बैयत से इन्कार कर दिया। इस पर हज़रत उमर इस क़दर बरहम हुए कि वह आग और लड़कियां लेकर अमीरुल मोमेनीन अलै0 का घर जलाने पहुँच गये और पैग़म्बरे अकमर स0 की सोगवार बेटी फ़ातेमा जहरा सल0 से यह मुतालिबा किया कि अली अल0 को बाहर निकालों वरना हम इस घर में आग लगा कर सबको ज़िन्दा जला देंगे। बिन्ते रसूल स0 जब इस हंगामे से बाख़बर हुई तो दरवाज़े के कऱीब आयी और फ़रमाया कि ऐ उमर! आख़िर क्या चाहते हो? क्या हम सोगवारों क गर में भी चैन से बैठने न दोगे। कहा, ख़ुदा की क़सम अगर अली अलै0 अबुबकर की बैयत नहीं करेंगे तो हम इस घर मे आग लगा देंगे। आपने फ़रमाया अबुल हसन के अलावा इस घर में रसूल स0 की बेटी और उनके दोनों नवासे हसन अलै0 और हुसैन अलै0 भी हैं। कहा, हुआ करें। उमर के इस जवाब पर मासूमा-बे-इख़्तियार रो पड़ीं और फ़रमाया ऐ पदरे बुजूर्गवार! आपके दुनिया से रुख़सत होते ही हम पर कैसे कैसे ज़ुल्म ढ़ाये जा रहे हैं और आपकी उम्मत के लोग हमसे किस तरह फिर गये हैं। लेकिन हज़रत उमर पर मासूमा स0 की इस आहो ज़ारी का कोई असर न हुआ और उन्होंने वही किया जो उन्हें नहीं करना चाहिये था। रसूल स0 की बेटी के घर में आग लगा दी गयी और शोले बुलन्द होना शुरु हुए। हज़रत उमर के साथ जो लोग आये थे उनसे भी वह तशद्दुद देखो न गया। चुनानचे कुछ आग बुझाने में मसरुफ़ हुए और कुछ हज़रत उमर पर लानत मलामत करने लगे। मगर वह कब मानने वाले थे। उन्होंने जलते हुए दरवाज़े पर ऐसी लात मारी कि वह दुख़्तरे रसूल स0 पर गिरा जिससे आपका पहलू शिकस्ता हुआ और मोहसिन की शिकमे मादर में शहादत वाक़े हो गयी।

   ज़बीर बिन अवाम भी इस घर में मौजूद थे अगर चे वह हज़रत अबुबकर के दामाद थे लेकिन उन्होंने जब ये हाल देखा तो तलवार ले कर मुक़ाबिला के लिये बाहर निकल आये मगर सलमा बिन अशीम ने तलवार उनके हाथ से छीन ली और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। तबरी का बयान है कि ज़बीर ने तलवार खींच ली और बाहर निकल आये मगर ठोकर खाई और तलवार हाथ से छूट गयी। लोग उन पर टूट पड़े ओर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया।

   हज़रत उमर और उनके हमराही हज़रत अली को भी घर से निकाल कर बैअत के लिये हज़रत अबूबकर के पास ले आये। आपने बैअत के मुतालबे पर इहतिजाज करते हुए फ़रमायाः

   मैं तुम्हारी बैअत हरगिज़ नहीं करुँगा, तुम्हें खुद मेरी बैअत करना चाहिए क्योंकि मैं तुमसे ज़्यादा ख़िलाफ़त का हक़दार हूँ। तुमने खिलाफ़त हासिल करने के लिये अन्सार के मुक़ाबले में यह दलील दी की तुम को नबी से क़राबत है और अब तुम जबरन अहलेबैत से ख़िलाफ़त छीनना चाहते हो। जिस दलील से तुमने अनसार के मुक़ाबले में अपना हक़ साबित किया है इसी दलील से मैं अपना हक़ तुम्हारे में साबित करता हूँ।

   अगर तुम ईमान लाये हो तो इन्साफ़ करो वरना तुम उम्र से वाकिफ़ होकर जुल्म के मुरतकिब हुए हो

   हज़रत अबूबक्र ख़ामोश बैठे रहे मगर हज़रत उमर ने कहा, जब कि तुम बैअत नहीं करोगे तुम्हें छोड़ा नहीं जायेगा। इस बात से ख़ैबर शिकन की पेशानी पर बल पड़े फ़रमाया, ऐर पिसरे ख़त्ताब! ख़ुदा की क़सम बैअत तो अलग रही मैं तेरी बातों पर ध्यान भी नहीं दूँगा। फिर आपने रसबस्ता राज़ को बेनक़ाब करते हुए फ़रमायाः

   ख़िलाफ़त का दूध निकाला लो उसमें तुम्हारा भी बराबर की हिस्सा है। ख़ुदा की कसम तुम आज अबूबक्र की ख़िलाफ़त पर इसलिये जान दे रहे हो कि कल वह यही ख़िलाफ़त तुम्हें दे जाये

   अमीरुलमोमिनीन अ0 हज़रत अली के इन्कारे बैअत पर ईज़ा रसानी और इहानत का कोई पहलू उठा नहीं रखा गया। घर में आग लगायी गयी, गले में रस्सी डाली गयी और क़त्ल की धमकियाँ भी दी गयी। यह ऐसा तशद्दुद आमेंज तर्ज़े अमल था कि मुआविया बिने अबू सुफ़यान अबूबक्र के फ़रज़न्द मोहम्मद पर तन्ज़ किये बगै़र न रह सका और उसने उन्हें एक ख़त के जवाब में तहरीर कियाः

जिन लोगों ने सबसे पहले अली अ0 का हक छीना और ख़िलाफ़त के सिलसिले में उनकी मुख़ालिफ़त पर साज़-बाज़ की वह तुम्हारे बाप अबूपक्र और उमर थे। उन्होंने अली अ0 से बैअत का मुतालबा किया और जब जवाब इन्कार की सूरत में मिला तो दोनों मिलकर उन पर मसाएब ओ आलाम के पहाड़ तोड़ने का तहय्या कर लिया। इस बैअत के लिये शुद्दुद का जो सिलसिला रवा गया वह सरासर ग़ैर आएनी ओ गैर इस्लामी और नाजाएज़ था। दुनिया के किसी कानून में उसकी इजाज़त नहीं है कि किसी को अपनी राय बदलने पर मजबूर किया जाये और जब्र ओ तशदुदद के जरीए बैअत हासिल की जाये। अगर वह यह देखते कि हज़रत अली अ0 पैगम्बरे इस्लाम के ज़माने से किसी जमाअत के कयाम की तैयारी कर रहे हैं और अब जो जमाअत के तआवुन से मुतवाज़ी हुकूमत क़ायम करके उनके इक़तिदार को ख़तरे ड़ालना चाहते हैं या शोरुशो हंगामा करके अमन ओ आमा को तबाह करना चाहते हैं तो इस तशद्दुद का भी सियासी जवाज़ हो सकता था और जब ऐसी सूरत ही न थी और न टकराव के कोई आसार थे तो फिर बैअत पर इतना इसरार क्यों? मुमकिन है कि इसमें यह मसलहत कार फ़रमा रही हो कि इसी तरह बैअत लेकर अपने मौकिफ़ और तरीक़े कार के हक़ बजानिब होने का सबूत मुहय्या करें तो इस तरह की जबरी बैअत को बैअत नहीं कहा जा सकता-हज़रत अ0 का इन्कार उसूल के तहत था। अगर तशद्दुद आख़िरी हद तक भी पहुँच जाता तो यह मुमकिन न था कि वह चमहूरियत के नाम पर क़ायम की हुई ग़लत हुकूमत की बैअत करके एक ऐसे उसूल को तसलीम कर लेते जिसकी कोई शरई सनद ही न थी। चुनाँचि आपने मुकम्मल सब्र ओ ज़ब्त के साथ मसाएब ओ आलाम का सामना किया। जुमहूरी ख़िलाफ़त को मना और न जुमहूर के उस इन्तिख़ाब को तसलीम किया।


 

हज़रत अली अ0 की ख़ामोशी

   हज़रत अली अ0 ने इस मजमूही ख़िलाफ़त के ख़िलाफ एलानिया एहतेजाज किया और अपने हक़ की फ़ौक़ियत इसी दलील से साबित की जिस दलील की रु से बरसरे अक़तेदार तबक़े ने अन्सार को क़ाएल किया था। यह एहतेजाज दरहक़क़त इस निज़ामे सियासत के ख़िलाफ़ था जिसके तहत इन्तेख़ाबी हुकूमत को ख़िलाफत का और मुन्तख़ब हुक्मरां को ख़लिफ़ये रसूल स0 का दर्जा दे दिया गया था। इस एहतेजाज में न हुकूमत की हवस काऱेफ़रमां थी और न ही अक़तेदार की ख़्वाहिश मुज़मिर थी आगर अमीरूल मोमेनीन अलै0 को हुकूमत व अक़तेदार की हवस होती तो आप भी उन तमाम हरबों को इस्तेमाल करते जो सियासी ताक़त व कूवत हासिल करने के लिये काम में लाये जाते हैं मगर आपने इस सिलसिले में हर कार्रवाई को नज़रत अन्दाज़ कर दिया और अपने मौक़फ़ पर सख़्ती व मज़बूती से जमे रहे। चुनानचे सक़ीफ़ा में जब हज़रत अबुबकर का इन्तेख़ाब अमल में लाया जा रहा था तो अमूवी सरदार अबुसुफ़ियान मदीना में नहीं था। कहीं से वापस आ रहा था कि रास्ते में उसे इस अलमनाक वाक़िये की ख़बर मिली। उसने पूछा कि रसूल उल्ला स0 के बाद मुसलमानों का ख़लीफ़ा कौन हुआ? बताया गया कि लोगों ने अबुबकर के हाथ बर बैयत कर ली है। यह सुन कर अरब का माना हूआ फ़ितना परदाज़ सोच में पड़ गया और एक तजवीज़ ले कर अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब के पास आया और कहा, उमर वग़ैरा ने धांधली मचाकर ख़िलाफ़त एक तमीमी के हवाले कर दी है और ये ख़लीफा अपने बाद उमर को हमारे सरों पर मुसल्लत कर जायेगा। चलो, अली अले0 से कहें कि वह घर का गोशा छोड़ें और अपने हक़ के लिये मैदान में उतर आयें। चुनांचे वह अब्बास अलै0 को लेकर अली इब्ने अबीतालिब अलै0 की ख़िदमत में हाजिर हुआ और चाहा कि उन्हें अपने क़बीले के ताव्वुन का यक़ीन दिला कर हुकूमत के ख़िलाफ़ मैदान में ला ख़ड़ा कर दे। चुनांचे उसने कहा, अफसोस है कि ख़िलाफत एक सस्ततरीन ख़ानदान में चली गयी। ख़ुदा की कसम अगर आप चाहें तो मैं मदीने की गलियो और कूचों को सवारों और प्यादों से भर दूं।

   अमीरूल मोमेनीन अलै0 के लिये यह इन्तेहाई नाज़ुक मरहला था क्योंकि आप पैग़म्बरे इस्लाम स0 के सही वारिस व जानशीन थे और अबुसूफ़ियान ऐसा कूवत व क़बीले वाला शख्स आपके सामने खड़ा था जो हर तरह की मदद पर आमदा था। सिर्फ़ एक इशारा होता और मदीने में जंग के शोले भड़कने लगते मगर अली अलै0 के तदब्बुर ने इस मौक़े पर मुसलमानों को फ़ितना व फ़साद और कुश्त व ख़ून से बचा लिया। आपकी दूर रस नज़रों ने फ़ौरन भांप लिया कि उसकी पेश कश में हमदर्दी व ख़ैर ख़्वाही का जज़बा नहीं है बल्कि यह क़बाएली तास्सुब और नसली इम्तेयाज़ को उभार कर मुसलमानों के दरमियान ख़ूरेज़ी कराना चाहता है ताकि इस्लाम में एक ऐसा ज़लज़ला आये और ख़ून का एक ऐसा धमाका हो जो इसकु बुनियादों को हिला कर रख दे। चुनानचे आपने इसकी तजवीज को ठुकराते हुए उसे झिड़क दिया और फ़रमायाः

   ख़ुदा की कस्म! तुम्हारा मक़सद सिर्फ़ फ़ितना अंग्रेज़ी है। तुम ने हमेशा इस्लाम की बदख़्वाही की है। मुझे तुम्हारी हमदर्दी की ज़रुरत नहीं है।

   इस मौक़े पर अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै0 की ख़ामोशी, मसलहत बीनी और दूर अन्देशी, उनकी असाबते फ़िक्री की आईनादार थी क्योंकि इन हालात में मदीना अगर मरकज़े जंग बन जाता तो यह आग पूरे अरब को अपने लपेटे में ले लेती और मुहाजेरीन व अन्सार में जिस रंजिश की इब्तेदा हो चुकी थी वह बढ़ कर अपनी इन्तेहा को पहुंच जाती। मुनाफ़ेक़ीन की रेशा दवानियाँ अपना काम करतीं और इस्लाम की कश्ती ऐसे गिरदाब में पड़ जाती कि फिर उसको संभालना मुश्किल हो जाता।

   जब यह ख़बर आम हुई कि अबुसुफियान बनि हाशिम को हुकूमत के ख़िलाफ़ उभार रहा है तो अरबाबे हुकूमत ने उसे लालच के जाल में जकड़ कर ख़ामोश कर दिया और उमर ने हज़रत अबुबकर से कहाः

   अबुसुफ़ियान कोई न कोई फ़ितना ज़रुर खड़ा करेगा। रसूलउल्लाह स0 इस्लाम के लिये उसकी तालीफ़े क़लब फ़रमाते थे। लेहाज़ा जो सदक़ात उसके क़बज़े में है उसी को दे दिये जायें। चुनानचे अबुबकर ने ऐसा ही किया और अबुसुफियान ख़ामोश हो गया और उसने अबुबकर की बैयत कर ली।

   अबुसुफ़यान को सिर्फ़ सदक़ात ही से नहीं नवाज़ा गया बल्कि इस बैयत के सिले में उसके बेटे माविया को शाम की इमारत भी दे दी गयी जो अमवी इक़तेदार के लिये संगे बुनियाद साबित हुई।

      क़ज़िया फ़िदक

   फ़िदक पैग़म्बरे इस्लाम स0 की ज़ाती मिलकियत में था। जब आयत जुलकुरबा नाज़िल हुई तो आपने दस्तावेज़ के ज़रिये अपनी साहबज़ादी फ़ातेमा ज़हरा स0 के नाम मुन्तक़िल कर दिया जो आंहज़रतस0 की ज़िन्दगी तक उन्हीं के क़बज़े व तसर्रुफ़ में रहा लेकिन हज़रत अबुबकर ने तख़्ते हुकूमत पर मुत्मकिन होने के बाद इस जाएदाद को हुकूमत की तहवील में ले लिया। इस पर जनाबे सैय्यदा स0 ने अपने हक़ का दावा किया और असबाते दावा में हज़रत अली अलै0 व उम्मे ऐमन की गवाहियां पेश कीं लेकिन हज़रत अबुबकर ने दावा को मुस्तरिद करते हुए कहा कि ऐ दुख़्तरे रसूल स0! दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों के बग़ैर गवाही काफ़ी नहीं होती। जनाबे सैय्यदा ने जब देखा कि हज़रत अली अलै0 और उम्मे ऐमन की गवाहियों को न तमाम क़रार देकर रसूल उल्लाह स0 के हिबनामे से इन्कार किया जा रहा है तो उन्होंने मीरास की बिना पर फ़िदक का मितालिबा किया। मक़सद यह था कि अगर तुम इसे हिबा तस्लीम नहीं करते तो न करो मगर इससे तो इन्कार नहीं कर सकते कि फ़िदक रसूल उल्लाह स0 की ज़ाती मिलकियत था और मैं शरअन उनकी वारिस हूँ लेहाज़ा जाएदाद मुझे मिलना चाहिये। अबुबकर ने कहा, अमवाले रसूल स0 में विरासत का निफ़ाज़ नहीं हो सकता क्योंकि रसूल उल्लाह स0 खुद फ़रमा गये हैं कि हम गिरोह अम्बिया किसी को अपना वारिस नहीं बनाते बल्कि जो छो़ड़ जाते हैं वह सदक़ा होता है। उस पर जनाबे फ़ातेमा ज़हरा ने फ़रमाय क्या अल्लाह की किताब में यह है कि तुम अपने बाप की मीरास के हक़दार बनो और मैं अपने बाप के वुरसा से महरुम रहूँ?

अबुबकर के इस ग़लत फैसले पर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा स0 को इतना सदमा हुआ कि आपने उनसे क़ता कलाम कर लिये और हमेशा उनसे नाराज़ व क़बीदा ख़ातिर रही। यह नाराजगी व बरहमी किसी हंगामी जज़बात का नतीजा न थी बल्कि दीनी एहसासात के तहत थी कि कुर्आन मजीद के अमूमी हुक्मे मीरास को पामाल और जिन्हें पैग़म्बर स0 ने मुबाहिले में हक़ व सदाक़त का शहकार क़रार दिया था उनकी सदक़ बयानी को मजरुह किया गया था इसलिये इस रंज व मलाल ने इतना तूल खींचा कि मरते दम तक आपने अबुबकर से कलाम नहीं किया। इमाम बुख़ारी का बयान है किः

     फ़ातेमा स0 बिन्ते रसूल ने रसूल उल्लाह स0 की वफ़ात के बाद अबुबकर से मुतालिब किया कि अल्लाह ने जो माल पैग़म्बरे अकरम को कुफ़्फार से लड़े बग़ैर दिलवाया था इसकी मीरास मुझे पहुंचती है, वह मुझे दिलवाया जाये। अबुबकर ने कहा रसूल उल्लाह स0 फ़रमा गये हैं कि हम किसी को वारिस नहीं बनाते। इस पर फातेमा स0 ग़ज़बनाक हुईं औऱ अबुबकर से मरते दम तक क़ता ताल्लुक किये रहीं।

   अगर थोड़ी देर के लिये यह फ़र्ज़ कर लिया जाये कि फ़िदक न हिबा था न मौरुसी मिलकियत तो उसमें क्या मुज़ाएका थ कि अबुबकर क़राबते रसूल स0 का पास व लिहाज़ करते हुए उसे फ़ातेमा स0 के नाम कर देते जब कि हाकिम और वली अमर का यह हक़ तसलीम किया जाता है कि वह रियासत व मुम्लिकत के अमवाल व जाएदाद मे से जो चाहे और जिसे चाहे अपनी मर्ज़ी से दे सकता है। चनानचे मुहम्मदुल ख़ज़रमीं मिस्री तहरीर फ़रमाते हैं कि शरए इस्लमा हाकिम के लिये इस अमर से माने नहीं है कि वह मुसलमानों मे से जिसे चाहे अतिया दे औऱ जिसे चाहे न दे। चुनानचे ज़बीर बिन अवाम को अबुबकर ने वादी जरफ़ में जागीर दी और उमर ने भी वाली अक़ीक़ में जागीर अता की। उस्मान ने अपने दौर अक़तेदार में फ़िदक मरवान को दे दिया तो क्या अबुबकर जनाबे फ़ातेमा स0 को फ़िदक बतौरे जागीर नहीं दे सकते थे ताकि उनकी नाराज़गी की नौबत ही न आती जब कि फ़ातेमा स0 की नारज़गी की एहमियत पैग़म्बरे अकरम स0 के इस इरशाद से उन पर ज़ाहिर थीः

     ऐ फ़ातेमा स0! अल्लाह तुम्हारे ग़ज़ब से ग़ज़बनाक और तुम्हारी ख़ुशनूदी से खुशनूद होता है।

   इस अमर पर हैरत होती है कि किसी हुक्म शरई की बिना पर जनाबे फ़ातेमा ज़हरा का दावा मुस्तरिद किया गया जब कि आंहज़रत स0 क़बज़ा दे कर हिबा की तक़मील कर चुके थे। अगर क़बज़ा न होता तो अबुबकर कह सकते थे कि चूंकि क़बज़ा नहीं हे लेहाज़ा यह हिबा नामुम्किन हैं और गवाहों को तलब किये बगैर दावा मुस्तरिद कर देते। गवाहों का तलब किया जाना ही इस बात की दलील है कि वह क़बज़ा तसलीम करते थे और चूंकि दलीले िमलकियत है इसलिये बरसबूत खुद अबुबकर पर था न कि दुख़्तरे रसूल स0 पर। क्या मासूमा के बारे में यह शुब्हा हो सकता है कि वह फ़िदक की ख़ातिर ग़लत बयानी से काम लेंगी और इस चीज़ पर अपना हक़ ज़ाहिर करेंगी जिस पर उनका कोई हक़ न था जब कि उनकी रास्त गोई मुसल्लम है जैसा कि आयशा फ़रमाती है कि रसूल उल्लाह स0 के अलावा मैंने किसी को भी फ़ातेमा से बढ़ कर रास्त गो नहीं पाया।

   फिर जनाबे सैय्यदा स0 ने जो गवाह पेश किये उनकी गवाही को नातमाम भी नहीं कहा जा सकता इसलिये कि रसूल उल्लाह स0 एक गवाह और क़सम पर फै़सला कर दिया करते थे। अगर अबुबकर चाहते तो हज़रत अली अले0 से क़सम लेकर जनाबे फ़ातेमा स0 के हक़ में फैसला कर देते। कुतुब अहादीस में ऐसे वाक़ियात भी मिलते हैं जहां गवाहों की ज़रुरत ही महसूस नहीं की गयी और सिर्फ़ मद्दई की शख़्सियत को देखते हुए उसके दावा को दुरुस्त मान लिया गया या सिर्फ़ एक ही गवाह पर फैस़ला कर दिया गया। चुनानचे फ़रज़न्दाने सहीब ने जब मरवान की अदालत में दावा दायर किया कि रसूल उल्लाह स0 उन्हें दो मकान और एक हुजरा दे गये थे तो मरवान ने कहा, इसका गवाह कौन है? उन्होंने कहा, इब्ने उमर है। उसने इब्ने उमर को तलब किया औऱ उनकी शहादत पर फ़रज़न्दाने सीहब के हक़ में फैसला कर दिया।

   इस मौक़े पर न इब्ने उमर की गवाही को न तमाम कहा गया और न उसके कुबूल करने में पस व पेश किया गया। तो क्या हज़रत अली अलै0 का मर्तबा इब्ने उमर के बराबर भी न था जिनकी सच्चाई द सदाक़त हर दौर में शक व शुब्हे से बालातार थी। चुनानचे मामून अब्बसी ने एक मर्तबा उलमाये वक़्त को जमा करके उनसे दरियाफ़्त किया कि जिन लोगों ने फ़िदक के हिबा होने के बारे में गवाही दी है उनके मुतालिक़ तुम लोग क्या राय रखते हो? सभी ने बएक ज़बान होकर कहा कि वह सादिक़ और रास्ता गो थे, उनकी सदाक़त पर कोई शुब्हा नहीं किया जा सकता। याकूबी का कहना है कि जब ओलाम ने उनकी सदक़ बयानी पर इत्तेफाक़ किया तो मामून ने फ़िदक औलादे फ़ातेमा स0 के हवाले कर दिया और एक नविश्ता भी लिख दिया।

   इस तरह जनाब सैय्यदा स0 के दावेको मुस्तर्द करने का कोई जवाज़ न था इसलिये कि हज़रत अबुबकर ने जिस हदीस से अपने अमल की सेहत पर इस्तेदलाल किया वह कुर्आन के उमामात के सरीहन ख़िलाफ़ है। कुर्आन मजीद का वाज़ेह हुक्म है कि वले कुल्लिन जाअलना मवालेया मिम्मा तराकल वालेदेन वब अक़राबून जो तरका मां बाप और अक़रबा छोड़ जायें हम ने उनके वारिस क़रार दिये हैं। इस आयत की रु से तरकये रसूल स0 को सदक़ा क़रार दे कर विरासत की नफ़ी का कोई जवाज़ नहीं। अगर अमवाले रसूल स0 सदक़ा हो तो पैग़म्बर स0 के लिये उन पर क़ब्ज़ा जाएज़ ही न था बल्कि जिस वक़्त उनकी मिल्कियत में आते हुज़ूरे अकरम स0 उसी वक़्त उन्हें मिल्कियत से अलैहदा करके उनके असली हक़दारों के हवाले कर देते मगर आहंज़रत उन पर मालिकाना तौर पर क़ाबिज़ व मुतसरिफ़ रहे और अबुबकर को भी मिल्कियत से इन्कार न था। अगर इन्कार होतो तो हदीस ला नूरस का सहारा ढ़ूढ़ने के बजाये यह कहते कि फ़िदक रसूल उल्लाह स0 की मिल्कियत ही कब था? ज़ाहिर है कि मिल्कियत के बगै़र विरासत की नफ़ी एक बै मानी चीज़ है। जब पैगम्बर स0 की मिल्कियत साबित है तो आयाते मीरास की रु से वारिसों का हक़ भी मुसल्लम होगा और यह हक़ किसी ऐसी हदीस की रु से साक़ित नहीं हो सकता जिसे अबुबकर के अलावा न किसी ने सुनी हो और न रिवायत की हो और न फ़िदक के अलावा ममलूकाते पैग़म्बर स0 में कहीं इसका जि़क्र आया हो। हालांकि इस हदीस के अल्फ़ाज़ के उमूम का तक़ाज़ा यह था कि पैग़म्बर स0 की तमाम मतरुका अशिया को भी अमूमी सदक़ा क़रार दिया जाता और मनकूल व ग़ैर मनकूला साज़ व सामान में कोई तफ़रीक़ न की जाती मगर मनकूला सामान व अशिया के बारे में पैग़म्बर स0 के वारसान से कोई मुतालिबा नहीं किया जाता बल्कि सिर्फ़ फ़िदक ही को इस हदीस का मौरुद क़रार दिया जाता है। अगर यह तसलीम कर लिया जाये कि इस हदीस की निफ़ाज़ सिर्फ़ आराज़ी व ग़ैर मनकूला आशिया पर था तो अज़वाजे रसूल स0 से उनके घरों को भी वापस लेना चाहिये था मगर उनसे वापसी का मुतालिबा तो दर किनार उनके मालिकाना हुकूक़ तसलीम किये जाते हैं। और इसी हक़ की बिना पर आयशा ने हुजरये रसूल स0 में इमाम हसन अलै0 को दफ़्न करने की इजाज़त नहीं दी और कहा कि यह मेरा घर है और मैं इजाज़त नहीं देती कि वह इसमें दफ़्न किये जायें।

   इन वाज़ेह दलीलों और शहादतों के बाद हदीस की आड़ लेकर यह कहना कि अन्बिया का कोई वारिस नहीं होता हकाएक़ से चश्म पोशी और अमदन गुरेज़ करना है जब कि कुर्आन के मुक़ाबिले में फ़र्दे वाहिद की बयान करदा हदीस का कोई वज़न नहीं है और इस हदीस का वज़न ही क्या हो सकता है जिसकी सेहत से बिन्ते रसूल स0 और वसीये रसूल स0 ने इन्कार कर दिया हो। अगर जनाबे फ़ातेमा ज़हरा स0 इस हदीस को हदीसे रसूल स0 समझतीं तो कोई वजह नहीं थी कि वह अबुबकर से ग़ज़बनाक होतीं और अगर हज़रत अली अलै0 ने इस हदीस को माना होता तो जनाबे सैय्यदा स0 की हमनवाई करने के बजाये उन्हें इस बे महल नाराज़गी से मना करते बल्कि वाक़िआत से यह मालूम होता है कि अबुबकर ख़ुद भी इस हदीस की सेहत पर यक़ीन व एतमान नहीं रखते थे और उनके बाद आने वाले ख़ोलफ़ा ने भी इस की सहत को तसलीम नहीं किया। चुनानचे इब्तेदा में अबुबकर ने जनाबे फ़ातेमा स0 का हक़ विरासत तसलीम करते हुए वागुज़ारी का परवाना भी लिख दिया था मगर उमर के दख़ल अन्दाज़ हो जाने पर उन्हें अपना फ़ैसला बदलना पड़ा जैसा कि अल्लामा मजलिसी ने तहरीर फरमाया हैः

   अबुबकर ने जनाबे फ़ातेमा स0 को फ़िदक की दस्तावेज़ लिख दी इतने में उमर आये और पूछा कि है क्यों है? अबुबकर ने कहा कि मैं ने फ़ातेमा स0 के लिये मीरास का वसीक़ा लिख दिया है जो उन्हेंबाप की तरफ़ से पहुंचती है। उमर ने कहा फिर मुसलमानों पर क्या सर्फ़ करोगे जब कि अहले अरब तुमसे जंग पर आमादा हैं और यह कह कर उमर ने वह तहरीर फ़ातेमा स0 के हाथ से छीन कर चाक कर दी।

   अगर अबुकर को इस हदीस की सेहत पर यक़ीन होता तो उसी वक़्त वह फ़िदक की वागज़ारी से साफ़ इन्कार कर देते, वसीका लिखने की नौबत ही न आती और उमर माने हुए तो इस बिना पर नहीं कि जनाबे सैय्यदा स0 का दावा ग़लत है और अन्बिया का कोई वारिस नहीं होता बल्कि मुल्की ज़रुरियात और जंगी मसारिफ़ के पेश नज़र उन्होंने फ़िदक रोक लेने का ग़लत मशविरा दिया। अगर उभर के नज़दीक यह हदीस दुरुस्त होती तो वह यह कहते कि यह दावा बुनियादी दौर पर ग़लत है और फ़िदक देने का कोई जवाज़ नहीं है। इस मौक़े पर अगर चे उन्होंने दस्तावेज़ चाक की और फ़िदक देने में सद्देराह हुए मगर अबुबकर की पेश करदा वह हदीस से उनकी हमनुवाई जाहिर नहीं हुई। अगर इस हदीस को क़ाबिले वसूक़ व क़ाबिले एतमाद समझा गया होता तो फ़िदक किसी दौर में भी औलादे फातेमा स0 को वापस ने दिया जाता। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ऐसा दूसरे ख़ुलफा ने उसके कमज़ोर पहलू ही को देखकर फ़िदक से दस्तब्रदारी का एलान किया होगा वरना उनका मुफ़ाद तो इसी में था कि इस हदीस की आ़ड़ लेकर इस पर अपना कब्ज़ा जमाये रखते जिस तरह बाज़ खुलफ़ा में इश हदीस का सहारा ले कर अपना कबज़ा बरकरार रखा था।

   इरतेदाद व बग़ावत

ख़लिफ़ा हो जाने के बाद जब अबुबकर की ख़िलाफ़त की ख़बर मदीने के हदूद से निकल कर अतराफ़ व जवानिब में नशर हुई तो मुसलमानों के दरमियान ग़म व गुस्सा और नाराज़गी की एक आम लहर फैल गयी। तमाम क़बाएले अरब के दिलों में बेचैनी और ज़ेनहों में ऐसा तशवीश अंगेज इज़तेराब करवटे लेने लगा जिसने अनके एहसासात को मुतासिर करके उन्हें हुकूमत से अदमें ताव्वुन पर आमाद कर दिया। चुनानचे अरबों के कुछ क़बीले मुरतदीन के परचम तले भी जमा हो गये। हर तरफ़ से मुख़ालिफ़त के तूफ़ान उमडने लगे। इस शोरिश व हंगामे में बनी सक़ीफ़ औऱ कुरैश के अलावा अरब के तक़रीबन हर क़बीले शामिल हो गया जैसा कि इब्ने असीर का बयान है।

   अहले अरब मुरत्तिद हो गये और सर ज़मीने अरब फ़ितना व फ़साद की आग से भड़क उठी। कुरैश औऱ बनी सक़ीफ़ के अलावा हर क़बीले तमाम का तमाम या इसमें का एक ख़ास गिरोह मुरतिद हो गया।

   अबुबकर के दौर में जिन मुरतदीन ने सर उठाया उनके सरगोह पैग़म्बरे इस्लाम स0 की ज़िन्दगी में ही मुरदित हो चुके थे। चुनानचे असवद अनसी, मुसलेमा कज़्जाब और तलीहा बिन ख़्वैलैद ने आंहज़रत स0 के ज़मानये हयात ही में इस्लाम से नुनहरिफ़ होकर दावये नबूवत किया।

असवद अनसी आंहज़रत स0 की ज़िन्दगी के आख़री दिनों में फ़िरोज़ दैलमी के हाथ से मारा गया। मसलेमा अबुबकर के दौर में लड़ता हुआ वहशी के हाथ के क़त्ल हुआ और तलीहा ने उमर के दौर में इस्लाम कुबूल कर लिया, इसी तरह अलक़मा बिन अलासा और सलमा बिन्तु मालिक ने पैग़म्बर के दौर में इरतेदार अख़तेयार किय और आंहज़रत स0 के बाद लश्कर कशी की। अलबत्ता लक़ीत बिन मालिक पैग़म्बर स0 के बाद मुरतिद हुआ और सजाह बिन्ते हारिस ने भी आप के बाद दावाये नबूवत किया। लक़ीत ने मुसलमानों से बुरी तरह शिकस्त खाई और सजाह मुसलेमा का ज़मीमा बन कर रह गयी और इससे निकाह करके उसने बक़िया ज़िन्दगी गुमनामी में गुज़ार दी। यहन थे वह मुरतदीन जिन्होंने अबुबकर के दौर में हंगामा अराई की और जिन क़बाएल को मुनकरीन ज़कात ने नाम से याद किया जाता है वह भी मद्दई याने नबूवत और उनके मुतबईन थे। चुनानचे हज़रत अबुबकर ने तलीहा के वाफ़िद ही के बारे में यह कहा था कि अगर उन्होंने इस रस्सी के देने से भी इन्कार किया जिससे ऊँट के पैर बांधे जाते हैं तो मैं उनसे जेहाद करुँगा।

   यह इरतिदाद की फ़ितना पैग़म्बर की ज़िन्दगी ही में उठ खड़ा हुआ था और बाद में चन्द कबाएल भी इसी रौ में बह गये। लिकिन यह कहना कि पैगम्बर के बाद तमाम क़बाएल मुरतद हो गये न सिर्फ़ ख़िलाफ़े वाक़िआ है इस्लाम की सिदाक़त पर भरपूर हमला भी है। यह क़रीने क़यास बात ही नहीं है कि रसूले अकरम की वफ़ात के फ़़ौरन बाद यकबारगी तमाम क़बीले इस्लाम से मुनहरिफ़ होकर मुरतद हो जायें। क्या यह क़बैएल इस्लाम के फुतूहात और मुसलमानों की बढ़ती हुई ताक़त से मरऊब होकर इस्लाम लाये थे और पैग़म्बर की रिहलत से मरऊबियत का तास्सुर ख़त्म हो गया तो इस्लाम का तौक़ अपनी गरदनों से उतार फेंका? इससे तो उन लोगों के नज़रिये को तक़वीयत हासिल होगी जो यह कहते हैं कि इस्लाम की इशाअत रसूले अकरम की पुरअम्न तबलीग़ का नतीजा न थी बल्कि अरबों को बरोज़े शमशीर मुसलमान बनाया गयी।

   हक़ीक़त यह है कि बाज़ क़बाएल से जंग छे़ड़ने और उन्हें तहे तेग़ करने के लिये इरतिदादों बग़ावत का मुरतकिब क़रार दिया गया और उन क़बाएल को भी मुरतदीन में शुमार कर लिया गया जो अल्लाह की वहदनियत और रसूल कि रिसालत पर अक़ीदा रखते थे मगर हाकिमे वक़्त को बहैसियते ख़लीफ़-ए-रसूल तसलीम करने पर आमादा न थे। इसी जुर्म पादाश में उन्हें मुरतद और बाग़ी क़रार दे दिया गया और इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया। चुनानचे उमरो बिन हरीस ने ज़ैद बिने सईद से पूछा कि तुम रसूलुल्लाह की वफ़ात के मौक़े पर मौजूद थे? कहा कि हाँ मैं मौजूद था। पूछा कि अबूबक्र की बैअत किस दिन हुई? कहा उसी दिन जिस दिन रसूल की वफ़ात वाक़े हुई। पूछा किसी ने इख्तिलाफ़ तो नहीं किया? कहा किसी ने इख़्तिलाफ़ तो नहीं किया मगर उसने जो मुरदत था या मुरतद होने वाला था।

   यह जवाब उस अम्र का ग़म्माज़ है कि जिन्होंने हज़रत अबूबक्र की बैअत से इन्कार किया था उन्हें ज़हनी तौर पर मुरतद या मुरतद होने वाला क़रार दे लिया था हालाँकि इस इन्कारे बैअत के अलावा कोई और चीज़ नज़र नहीं आती जिससे उनका इरतिदाद साबित होता हो। जहाँ तक ज़कात रोक लेने का ताल्लुक है जो उन लोगों ने जब हज़रत अबूबक्र की ख़िलाफत ही को तसलीम नहीं किया तो उन्होंने ज़कात देने से भी इन्कार किया होगा। इस एतेबार से उन्हें मानेईने ज़कात तो कहा जा सकता है मगर मुरतदीन और मुनकरीन ज़कात कहने का कोई जवाज़ नहीं क्योंकि उन्होंने ज़कात तके वुजूब और उसकी मशऊरियत से इन्कार नहीं किया बल्कि वह हुकूमत को ज़कात देने से माने हुए। उसका वाजेह सबूत यह है कि वह नमाज़े पढ़ते थे और किसी ने उन पर तारिक्स्सलात का इल्ज़ाम आयद नहीं किया। अगर वह ज़कात के मुनकिर होते तो उन्हें नमाज़ का मुनकिर भी होना चाहिए था क्योंकि कुरान ए मजीद में बयासी मवाक़े पर नमाज़ और ज़कात का ज़िक्र एक साथ हुआ है और दोनों को यकसाँ अहम्मित दी गयी है तो फिर यह क्योंकर तसव्वुर किया जा सकता है कि वह नमाज़ के वुजूब का अक़ीदा रखते हुए ज़कात की मशऊरियत और उसके वुजूब से इन्कार कर देंगे।

   अलबत्ता अगर वह ज़कात के वुजूब का इन्कार करते तो ज़रुरियात ए दीन में से एक अम्र ज़रुरु के इन्कार से उन पर हुक्म इरतिदाद आयद होता। मगर ज़कात रोक लेने और उसके हुकूमत की तहवील में न देने से उन्हें मुरतद नहीं कहा जा सकता बल्कि अगर वह सिरे से ज़कात ही न अदा करते और उस फ़रीज़ ए इलाही के तारिक होते जब भी उन पर कुछ ओ इरतिदाद का हुक्म नहीं लगाया जा सकता क्योंकि किसी अम्र वाजिब के तर्क होने से इरतिदाद लाज़िम नहीं आता और न उनसे जंग का जवाज़ पैदा होता है और उनका क़त्ल मुबाह हो सकता है। इसी बिना पर हज़रत अबूबक्र ने उन लोगों के ख़िलाफ़ क़दम उठाना चाहा तो सहाबा ने अबूबक्र की राय से इख्तिलाफ़ करते हुए इस इक़दाम की मुख़ालिफत की और हज़रत उमर ने भी वाज़ेह तौर पर कहाः

   ऐ अबूबक्र तुम उनसे किन बिना पर जंग करोगे जब कि रसूलुल्लाह फ़रमा गये हैं कि मुझे लोगों से इस वक़्त तक जंग की इजाज़त दी गयी जब तक वह क़लम ए तौहीद नहीं पढ़ते।

   मगर इस मौक़े पर न सहाबा के मुत्तफ़िक़ा फ़ैसले को क़ाबिले एतना समझा गया और न हज़रत उमर की बात मानी गयी बल्कि हज़रत अबूबक्र ने अपने मौक़फ़ पर बरक़रार रहते हुए ख़ालिद बिने वलीद को क़बाएले अरब पर तबाही ओ बरबादी के लिये मुसल्लत कर दिया। चुनानचे उन्होंने मालिक बिने नवीरा और उनके क़बीले बनी पर बू का क़त्ल आम करके तारीख़े इस्लाम में एक सियाह बाब का इज़ाफ़ा कर दिया और बिला इम्तियाज़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया।

   मालिक बिने नवीरा क़बील ए बनी यर बू के एक बलन्द पाया सरदार थे। मदीन ए मुनव्वरा मैं पैग़म्बर की ख़िदमत में हाज़िर होकर इस्लाम लाये और उन्हीं से आदाबे मज़हब ओ इहकामे शरीअत की तालीम हासिल की आँहज़रत ने उनकी ईमानदारी ओ दयानतदारी पर इतिमाद करते हुए उन्हें सदाक़त की वुसूली पर मामूर फ़रमाया था। यह पैग़म्बरे इस्लाम के आख़िरी ज़माने हयात तक सताक़त जमा करके भिजवाते रहे और जब आँहज़रत के इन्तिक़ाल की ख़बर मिली तो ज़कात की जमाआवरी से दस्तबरदार हो गये और अपने क़बीले वालों से कहा कि यह माल उस वक़्त महफूज़ रखो जब तक यह न मालूम हो जाये कि मुसलमानों का इक़तिदार क़ाबिले इत्मिनान हाथों में आया है।

   उन्हीं दिनों में सज्जाह बिन्ते हारिन ने चार हज़ार का लश्कर इकट्ठा करके मदीने पर हमले का इरादा किया और जब वह लश्कर की क़यादत करते हुए बनी यरबू की बस्ती पर बताह के क़रीब जरवन के मुक़ाम पर पहुँची तो उसने मालिक बिन नवीरा को सुलह का पैग़ाम भेजा और उनसे तर्के जंग का मुआहिदा किया। इब्ने असीर का कहना है किः

   सजाह ने हज़रत अबूबक्र से जंग का इरादा किया और मालिक बिने नवीरा को पैग़ाम भिजवाया और उनसे मसालिहात ओ तर्क जंग के मुआहिदे की ख़्वाहिश की जिसे मालिक ने कुबूल किया और उसे हज़रत अबूबक्र से जंग आज़मा होने से बाज़ रखा और बनी तमीम के क़बीलों पर हमलावर होने की तरग़ीब दी जिसे सजाह ने मंजूर किया।

   उस वक़्ती मसालिहत और मुआहिद ए तर्क जंग को किसी तरह भी इरतिदाद या बग़ावत से ताबीर नहीं किया जा सकता क्योंकि इस मसालिहत और मुआहिदे से कोई ऐसी चीज़ ज़ाहिर नहीं होता जिसे इरतिदाद कहा जा सके बल्कि इस मुआहिदे सुलह में यह मसलिहत कारफ़रमा थी कि सजाह को ग़ैर मुस्लिम क़बाएल से जंग में उलझाकर इस्लाम के मरकज़े मदीने पर हमलावर होने से रोका जा सके। चुनानचे वह इस मसालिहत के ज़रीए उसे रोकने में कामयाब हो गये और उसका रुख़ बनी तमीम की तरफ़ मोड़कर उससे अलाहिदा हो गये। अगर उसे जुर्म क़रार दिया जाये तो तन्हा मालिक ही उसके मुजरिम नहीं बल्की वकी बिने मालिक भी जो उन्हें क़बाएल में ज़काएत की जमाअवरी पर मामूर थे इस मुआहिदे सुलह में शामिल थे लेकिन उनसे कोई मुवाख़िजा नहीं किया गया। सिर्फ़ मालिक और उनके क़बीले बिने यरबू को इधर-उधर मुनतशिर कर दिया था। ख़ालिद ने उनके तआकुब में लश्कर भेजा और उन्हें गिरफ़्तार करके लाया गया। अबू क़तादा अन्सारी ने जो ख़ालिद के लश्कर में शामिल थे, उन्हें असलहों से आरास्ता देख तो कहा, हम मुसलमान हैं, उन्होंने कहा हम भी मुसलमान हैं। कहा फिर यह हथियार तुम लोगों ने क्यों बाँध रखे हैं? उन्होंने कहा, तुम क्यों हथियार लिये घूमते फिर रहे हो? अबू क़तादा ने कहा, अगर तुम मुसलमान हो तो हथियार उतार दो। चुनानचे उन्होंने अपने हथियार उतार दिये और अबू क़तादा के साथ नमाज़ पढी।

   बनी यरबू से हथियार उतरवाने के बाद मालिक को गरिफ़्तार करके ख़ालिद के सामने लाया गया।

   मालिक की गिरफ़्तारी को सुन कर उनकी बीवी उम्मे तमीम बिन्ते मिन्हाल भी उनके पीछे बाहर निकल आई। याकूबी रक़म तराज़ हैं किः

     उनकी बीवी उनके पीछे आई ख़ालिद ने उसे देखा तो वह उन्हें पसन्द गयी।

   मालिक जो ख़ालिद के किरदार और उनकी तीनत व तबियत से वाक़िफ़ थे उन्हें इसके तेवर बदले हुए और ख़राब नज़र आये चुनान्चे वह समझ गये कि अब उन्हें रास्ते से हटा दिया जायेगा। अल्लामा इब्ने हजर का बयान है किः

   जब ख़ालिद ने मालिक की बीवी को देखा जो हुस्न व जमाल न यक्ता थी तो मालिक ने उससे मुख़ातिब होकर कहा कि तूने मेरे क़त्ल का इन्तेज़ाम कर दिया है।

   चुनान्चे ऐसा ही हुआ कि ख़ालिद ने एक बहाना तलाश कर लिया जिससे क़त्ल का जवाज़ पैदा कर लिया गया और वह यह कि गुफ़्तगू के दौरान मालिक की ज़बान एक दो बार यह जुमला निकला कि तुम्हारे साहब ने ऐसा किया वैसा किया।

   इस पर ख़ालिद बिग़ड गये और उन्होंने कहा कि तुम उन्हें (अबूबकर को) बार बार हमारा साहब कहते हो, क्या तुम उन्हें अपना साहब नहीं मानते और साथ ही उन्होंने ज़रार बिन अज़वर को इशारा किया, उसने तलवार चलाई और मालिक का सर तन से जुदा हो गया। उसके बाद ख़लिद का लश्कर बनी यरबू पर टूट पड़ा और क़त्ले आम का सिलसिला शुरु हो गया। देखते ही देखते बारह सौ मुसलमान मौत के घाट उतार दिये गये और उनके कटे हुए सरों के चूल्हे बनाकर उन पर देगचियां चढ़ा दी गयीं।

   इस क़त्ल व ग़ारत गरी और बरबरियत के बाद ख़ालिद ने मालिक की बीवी उम्मे तमीम से ज़िना की जिससे लश्कर में उनके ख़िलाफ़ आम नफ़रत की लहर पैदा हो गयी और अबु क़तादा अन्सारी इस वाक़िये से इतना मुतासिर हुए कि ख़ालिद का साथ छोड़ कर मदीने चले आये और अल्लाह की बाहगाह में यह अहद किया कि वह आइन्दा ख़ालिद के साथ किसी जंग में शरीक हीं होंगे।

   अबुक़तादा की वापसी पर जब यह अफ़सोस नाक़ ख़बर मदीने में आम हुई तो अहले मदीना ने ख़ालिद पर लानत मलामत की और उमर भी बर-अफ़रोख़ता व बहरम हुए। चुनानचे जब ख़ालिब बिन वलीद पलट कर आये और फ़ातहाना अन्दाज़ में सर की पग़ड़ी में तीर आवेज़ा किये हुए शान व शौकत के साथ मस्जिदे नबवी में दाख़िल हुए तो हज़रत अबूबकर ने बढ़ कर उनका इस्तेक़बाल किया मगर उमर ने बढ़ कर उनकी पगड़ी से तीर खींच लिये और उन्हें तोड़ कर पैरों तले मसलते हुए कहाः

   तूने एक मुसलमान को क़त्ल किया फिर उसकी बीवी के साथ ज़िना की, ख़ुदा की क़सम मैं तुझे संगसार किये बग़ैर नहीं रहूंगा।

   उमर चाहते थे कि ख़ालिद को ज़िना के जुर्म में संगसार किया जाये या मालिक के क़सास में उन्हें क़त्ल किया जाये मगर अबुबकर ने यह कह कर टाल दिया कि ऐ उमर! इस के बारे में लब कुशाई न करो।

   इसके बाद अबुबकर ने यह हुक्म दिया कि क़ैदियों को वापस कर दिया जाये और मालिक बिन नवीरा के बेगुनाह ख़ून की दैत बैतुल माल से अदा कर दी जाये।

   इन वाकि़यात को देखने के बाद इस यक तरफ़ा जंग का जेहाद से ताबीर करना इस्लामी जेहाद के मफ़हूम को बदल देने के मुतारादिफ़ है। क्या इस्लाम इसकी इजाज़त देता है कि मुसलमानों को निहत्था करके उन्हें तये तेग़ कर दिया जाये, उनके काटे हुए सरों से चुल्हों का काम लिया जाये औऱ उनकी इज़्ज़त व हुरमत को पामाल किया जाये। यह इक़दाम न सिर्फ़ इस्लामी तालीमात के मनाफ़ी था बल्कि अबुबकर के हुक्म के ख़िलाफ़ भी था क्योंकि अबूबकर ने ख़ालिद को यह हिदायत दी थी कि अगर किसी बस्ती से अज़ान की आवाज़ सुनाई दे तो उस पर हमला न करना। मगर यहां अबुक़तादा अन्सारी, अब्दुल्लाह बिन उमर और दूसरे मुसलमान बनी यरबू को अज़ान व अक़ामत कहते और नमाज़े पढ़ते देखते हैं मगर उसके बावजूद उन्हें क़त्ल कर दिया जाता है।

   इन्साफ़ का तक़ज़ा यह था कि ग़लत इक़दाम को ग़लत समझा जाता और एक फ़र्द के इक़दाम को हक़ ब-जानिब क़रार देने के लिये मुसलमानों की एक बड़ी तादाद पर इस्तेदाद का ज़ोर न दिया जाता। क्या किसी मुसलमान को मुरतिद क़रार देना कोई जुर्म नहीं है? अगर ख़ालिद सहाबिये रसूल स0 थे तो मालिक और उनके साथी भी जुमरए सहाबा में शामिल थे। यह बात तो आसानी से कह दी जाती है कि पैग़म्बर स0 के वाद इरतेदाद आम हो गया और क़बीले के क़बीले मुरतिद हो गये मगर यह हक़ बात हके नाम से उनके सरों पर मुसल्लत किया गया था। रहा ज़कात की अदाएगी से इन्क़ार, जब उनकी नज़र में हुकूमत ही नाजाएज़ थी तो उसकी तहवील में ज़क़ात भी देते थे और इस्लामी एहकामात पर कारबन्द भी थे।

   यह इस्लाम में पहला दिन था जब तावील का सहारा ले कर एक मुजरिम की जुर्म पोशी की गयी। फिर उसके बाद तो तावीलात के दरवाज़े खुल गये और हर जुर्म के लिये तावील की गुंजाइश निकाल ली गयी। चुनानचे तारीख़ में ऐसे वाक़ियात मिलते हैं जहां ख़ताये इजतेहादी की आड़ में हज़ारों मुसलमानों का ख़ून बहाया गया, सैक़ड़ो बस्तियां नज़रे आतिश कर दी गयीं और शहर के शहर उजाड़ दिये गये मगर किसी को हक़ नहीं था कि वह इसके ख़िलाफ़ ज़बान खोल सके क्योंकि यह तमाम हवादिस ख़ताये इजतेहादी की नतीजा था और ख़ताये इजतेहादी क़तई जुर्म नहीं है ख़्वाह नसे सरीह को पसे पुश्त डाल कर महरमात की इरतेकाब किया जाये या मुसलमानों के ख़ून से होली खेली जाये।

   हैरत है कि हज़रत अबुबकर ने किसी उमूल के तहत ख़ालिद के जुर्म को तावील की ग़लती का नतीजा क़रार दिया या और उन्हीं मवाख़िज़ा से बाला तर समझ लिया। क्या क़त्ल मुस्लिम के अदमें जवाज़ में और बेवा के लिये इद्दा या कनीज़ के लिये इस्तेबराये के वजूब में अक़द व राये से तावील की गुंजाइश निकल सकीत है कि इस्लाम के सरही एहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी को ख़ताये इजतेहादी क़रार दे दिया जाये और शरीयत को शख़्सी रुझाहानात और ज़ाती ख़्वाहिशात के ताबे कर दिया जाये। जुर्म बहरहाल जुर्म है।

      मुस्लिमा क़ज़्ज़ाब

   मुस्लिम बिन हबीब बनूं हनीफा से था। सन् 6 हिजरी या 10 हिजरी में अपनी क़ौम का नुमाइन्दा बन कर मदीने आया और पैग़म्बरे इस्लाम स0 के हाथों पर मुसलमान हुआ। लेकिन जब वह पलट कर अपने वतन वापस गया तो वहां उसने अपनी कौम के लोगों से कहा कि मुहम्मद स0 की मदद के लिये ख़ुदा ने मुझे भी मनसबे नबूवत पर फाएज़ कर दिया है। उसने यह दावा भी किया के मुझ पर वही नाज़िल होती है ओर इसके सुबूत ेमं एक फ़र्ज़ी कुर्आन भी मुरत्तब किया जिसकी जन्द आयतें बाज़ मोअर्रिख़ीन में रक़म की है जो लगूवियात, खुराफ़ात औऱ फह़शियात पर मुबनी है।

   मुस्लिमा खुश इख़लाकी, नर्म गुफ़्तारी और शोबदाबाज़ी के फ़न में माहिर था। जो शख़्स उससे एक मर्तबा मिल लेते थे वह उसका गिरवीदा हो जाता था। यही सबब था कि उसने अपने एक मोतक़दीन पैदा कर लिये थे।

   पैग़म्बरे इस्लाम स0 ने अपनी ज़िन्दगी के आख़री अय्याम में उसकी सरकूबी के लिये लश्कर भेजने का इरादा किया था लेकिन बीमारी की वजह से आप मजबूर हो गये और उसे सर का मज़ीद का मौक़ा फ़राहम हो गया।

   सन् 11 हिजरी में जब अबुबकर तख़्ते हुकूमत पर मुत्मकिन हुए तो उन्होंने मालिक बिन नवीरा के वाक़िे के बाद ख़ालिद बिन वलीद को बीस हज़ार के लश्कर के साथ उसकी सरकूबी को रवाना किया। मुस्लिमा ने चालीस हज़ार का लश्कर ले कर मुक़ाबिला किया। घमासान की जंग हुई जिसमें यह वहशी (क़ातिले हमज़ा) के हाथों ड़ेढ़ सौ साल की उम्र में मारा गया। यह जंग यमामा के क़रीब मुस्लिमा के हदीक़तुल रहमान से मुलहिक़ लड़ी गयी जो बाद में हदीक़तुल मौत के नाम से मशहूर हुआ। इब्ने ख़लदून के बयान के मुताबिक़ इस ख़ूंरेज जंग में मुस्लिमा के साथ इसके बीस हज़ार हमराही मारे गये और बाराह सौ या अट्ठारह सौ मुसलमान दरजये शहादत पर फ़ाएज़ हुए जिनमे व ओहद के जलीलुल क़दर सहाबा और सत्तर हाफ़िज़े कुर्आन भी शामिल हैं।

   बनु हनीफ़ा की औरतों को क़ैद करके जब मदीने लाया गया तो उनमें खूला बिन्ते जाफ़र हनफ़िया भी थीं। जब उनके क़बीले वालों को उनकी असीरी का इल्म हुआ तो वह अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै0 की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनसे दरख्वास्त की कि वह उन्हें कनीज़ी के दाग़ से बया कर उनकी ख़ानदानी इज़्ज़त व शराफत को बरक़रार रखें। चुनानचे अमीरुल मोमनीन अलै0 ने उन्हें खरीद कर आज़ाद किया और फिर बाद में उनसे अक़द फरमाया। उन्हीं के बतन से मुहम्मदे हनफिया अलै0 की विलादत वाक़े हुई।

   ख़ालिद बिन वलीद ने इस जंग के दौरान अपनी हवसकारी का मुज़ाहिरा किया और बनु हनीफ़ा के एक शख़्स मजाअ की बेटी से जो यमामा भर में सबसे ज़्यादा खुबसूरत और हसीन थी, ज़बरदस्ती अक़द कर लिया जिस पर मुसलमानों में सख़्त बरहमी पैदा हो गयी थी।

   तबरी, इब्ने असीर और इब्ने ख़लदून वग़ैरा ने तहरीर किया है कि यह जंग सन् 11 हिजरी में हुई और इसके इख़तेमाम तक अरब की तमाम बग़ावते फ़ेरों कर दी गयीं थी मगर साहबे तारीख़े ख़मीस का कहना है कि ये जंग माहे रबीउल अव्वल सन् 12 हिजरी में लड़ी गयी। (वल्लाह आलम)

अहले हज़र मौत की बग़ावत-

   पैग़म्बरे अकरम स0 की वफ़ात के बाद अहले बहरीन, अहले अमान और अहल़े यमन की तरह अहले हज़रत मौत ने भी अबूबकर की ख़िलाफ़त को तसलीम करने से इन्कार किया और सदाक़त व ज़कात की रक़में बैतुल माल में जमां करने के बजाये अपने पास महफूज़ कर लीं।

   अहले हज़रत मौत पर ज़कात की वसूली के लिये उस वक़्त ज़्याद बिन लबीद आमिल मुकर्रर थे। एक दिन उन्होंने यजीद बिन माविया-तुल-क़री नामी एक नौजवान को ऊँट जबरदस्ती सदाक़त से मौसूम करके गल्लए शुतराने बैतुलमाल मे शामिल कर लिया। यज़ीद ने ज्यादा से खुशामद बरामद की और कहा, यह ऊँट मुझे बहुत अज़ीज है लिहाज़ा इस के बदले आप दूसरा ऊँट मुझसे लेकर इसे मुझे वापस कर दे। ज्याद ने कहा, यह ऊँट अगर सदाक़त बैतुलमाल में दाख़िल हो चुका है लिहाज़ा हम इसे वापस नहीं करेगी। यज़ीद हारिस बिन राका के पास जो वहाँ के रईसों में थे, आया और इनसे सारा हाल बयान करने के बाद वह ऊँट मुझे दिलवा दीजिये, मैं उससे ज़्यादा क़ीमत का ऊँट देने को तैयार हूं। हारिस ने ज़्याद से सिफ़ारिश की कहा वह ऊँट इस नौजवान को वापस कर दो और उसकी जगह उस से दूसरा ऊँट लेलो लेकिन ज़्याद बिन न लबीद ने हारिस की सिफ़ारिश को ठुकरा दिया और ऊँट वापस करने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर हारिस को गुस्सा आया वह इस नौजवान को लिये हुये ऊँटों के गल्ले में आये और इस तरह कह तुम अपना खोल लो और अगर तुमसे कोई मुज़ाहमत करेगा तो मैं तलवार से उस का भेजा बाहर निकाल दूँगा। इसके बाद ज़ियाद लबीद से उन्होंने कहा कि हम ख़ुदा के हुक्म से इस के नबी के ताबा दार फ़रमारबरदार थे। जब तक वह ज़िन्दा रहे हम उनकी इताआत करते रहे, अब इनका इन्तेका़ल हो चुका है। अगर उनके अहलेबैत में से कोई इनको जानशीन होगा तो हम उसकी इताअत करेंगे पिसर अबूक़हाफ़ा को हम पर हकूमत करने का कोई हक़ नहीं है और न हम इससे कोई वास्ता व सरोकार रखना चाहते हैं। इसके बाद हारिस ने चन्द शेर पढ़े जिसमें उन्होंने ख़ानवादे रिसालत से अपनी कुरबत औऱ हज़रत अबूबकर से बरायत व बेज़ारी का इज़हार किया।

   ज़ियाद उन शेरों को सुन कर इस क़दर खाएफ़ हुये कि वहां से भाग निकले। बनी जुबैद मे आये, उन से बात चीत हुई उन्होंने कहा, महाजरीन व अन्सार ने मिल कर हक़दारों से उनका हक छीन लिया। बख़ुदा रसूल अल्लाह इस वक़्त तक दुनिया से नहीं गए जब तक उन्होंने अपने जानशीन का ऐलान नहीं कर दिया। ऐ ज़ियाद तुम यहां से भाग जाओ क़ब्ल इस के हम तुम्हारी गरदन मारदे। ग़रज़ के जिस जिस क़बीले में ज़्यादा गये सभी ने यही जवाब दिया। आख़िर कार भाग कर दरबारे ख़िलाफ़त में पहुँचे और अबुबकर से मिलकर सारी दास्तान उन्हें सुनवाई। हज़रत अबूबकर ने चार हज़ार लश्कर ज़ियाद बिन लबीद को दे कर उन्हें फिर हज़र मौत की तरफ रवाना कर दिया। काफी दिनों तक जंग होती रही मगर जब कामयाबी की सूरत नज़र न आयी तो अबूबकर ने अकरमा बिन अबूजहल औऱ मुहाजिर बिन उमय्या को कुछ फौज़ दे कर ज़्याद की मदद के लिये रवाना किया। इन लोगों ने मिलकर अहले हज़र मौत को शिकस्त दी। हज़र मौत के साथ सौ अफ़राद क़त्ल हुये। इशात बिन क़ैस कुन्दी जो वहां का रास व रईस था, मुक़ामे महजरुल ज़बरक़ान से शिकस्त खा कर भागा और एक क़िला में महसूर हो गया। आख़िरकार किला भी फतेह हुआ और वह वहां से गिरफ़्तार हो कर दीगर क़ैदियों के साथ हज़रत अबुबकर के रु-बरी पेश हुआ। उसने माज़रत के साथ इस्लाम की तजदीद कर ली। हालांकि हज़रत उमर का इसरार था कि उसे क़त्ल कर दिया जाये मगर हज़रत अबूबकर न सिर्फ़ इसकी जान बख़्शी की बल्कि उन्होंने अपनी बहिन उम्मे फ़रवा को भी उसके हवाले कर के दोबारा बनी कन्दा का सरदार बना दिया, अशअस और उम्मे फ़रवा से एक बेटी जादा और तीन बेटे मुहम्मद, इसहाक़ और इस्माईल पैदा हुए। जादा बिन्ते असाअस बाद में इमाम हसन अ0 के अक़्द मे आई और उसने माविया से सोज़ बाज़ करके आपको ज़हर दे दिया। मोहम्मद बिन अशअस मारकए करबला में उमरे साद के साथ था जो बाद में जनाब मुख़्तार की तलवार से क़त्ल हुआ।

      अहले तहामा की बग़ावत

   तहामा हिजाज़ का वह हिस्सा है जो मक्का औऱ तायफ़ को अपने दामन में समेटता हुआ समन्दर के किनारे नज्द तक फैला हुआ है। चुनानचे मक्का और तायफ़ के अलावा तहामा के दिगर शहरों के लोगों ने अबूबकर की नई हुकूमत को तस्ली म नहीं किया और सरकशी व सर ताबी पर उतर आये। इसी शोरिश को दबाने और शोरिश फ़रो करने के लिये हज़रत अबूबकर ने बनी क़ज़ाआ पर उमर आस को, तायफ़ के नवाह में माअन बिन हाजज़ा को और तहामा के जुनूबी हिस्सा में स्वीद बिन मक़रान को फ़ौजें दे कर रवाना किया। अहले तायाफ़ ने भी इनकी मदद की। चुनाचे चन्द झड़पो के बाद बगावत फ़रो हो गयी और अमन व अमान क़ायम हो गया।

जम-ऐ-कुरान

   कुरान की जो आयते नाज़िल होती थी रसूल अकरम उन्हें लिखवा लिया करते थे और जो मुसलमान लिखना पढ़ना नहीं जानते थे वह भी अपने तौर पर लिख लिया करते थे। इस के अलावा आपन हज़रत ना़ज़िल शुदा आयतें लोगों को हिफ़्ज़ भी करा दिया करते थे। अक़रम मख़जूमी के मकान पर आप ने एक तिलाबवत ख़ाना भी खोल रखा था जहा मुसलमान जमा हो कर तिलावत किया करते थे। कभी कभी आप खुद भी कुरान पढ़कर सुनाते थे और लोगों से सुनते भी थे। जब आप मक्के से हिजरत कर के वारिदे मदीना हुये तो अहले सफ़ा की एक ज़मात को 80 आदमियों पर मुश्तमिल थी, आप ने कुरआन याद करने और लोगों को याद कराने पर मामूर फ़रमाया।

 

   अबदुल्ला बिन मसूद को आनहज़रत ख़ुद कुरान हुफ़्ज करते थे क्योंकि उनकी क़िराअत और खुश अलहानी आप को पसन्द थी। हज़रत अली को उन तमाम लोगों पर फ़ौकि़यत और अप़ज़लियत हासिल थी जिन्हें कुरआन हिफ़्ज़ था और इब्तेदा ही से वह तनज़ील के मुताबिक उसे तहरीर करते जाते थे। इसी तरह माज़बीन जबील, अबुलदरदा, अबू अयूब अन्सारी, बतौर खुद अपने अपने पास कुरआन लिख कर रखा था। गरज पूरा कुरान आनहज़रात की हयात में ही मुतफ़र्रिक तौर पर मुतआददिद सहाबा के पास लिखा हुआ मौजूद था और सैक़ड़ो लोगों की ज़बानी भी याद था। अल्लामा सियोती ने तारीख़े खुलफ़ा में लिखा है कि हज़रत अली ने तनज़ील के मुताबिक़ पूरा कुरआन तहरीरी शक्ल मे जमा करके रसूल की ख़िदमत मे पेश किया। न जाने उम्मत ने उसे क्यों नहीं कुबूल किया और खुलफ़ा दूसरी तरतीब के दरपै हुये।

   उन रिवायतों से पता चलता है कि कूरआन की तमाम आयतें आनहज़रत की ज़िन्दगी में ही ज़ाब्तए तहरीर में आ चुकी थी मगर हज़रत अली के आलावा किताबों की शक्ल में किसी के पास मुकम्मल कुरआन नहीं था। मुमकिन है इसका सबब यह रहा हो कि उस ज़माने में फन किताबत हक़र समझा जाता था इसलिये लोगों को इस से रग़बत भी न थी, दूसरे ये कि जो लोग पढ़े लिखे होतो थे और इस काम को तकमील तक पहुँचाने की सलाहियत व अहलियत रखते थे उन्हें सामाने किताबत मयस्सर नहीं था। चुनानचे जिन लोगों नें कुर्आन लिख कर रखा ता उनके कुर्आन की कैफ़ियत वह थी कि किसी ने खजूर के पत्तों पर लिख रखा था, किसी ने लक़ड़ी की तख्तियों पर, किसी ने पत्थरों पर, किसी ने बारीक चमड़े और किसी ने ऊँट की हड्डियाँ और पस्लियाँ पर। ग़र्ज़ कि कुर्आन ऐसी हालत में न था कि उसके बक़ा और दवाम की उम्मीद की जा सकती।

   रसूल उल्लाह स0 की रेहलत के एकसाल कुछ माह बाद जंगे यमामा शुरु हुई जिसमें सत्तर हाफिज़े कुर्अान क़त्ल कर दिये गये। इस सानिहे के बाद हज़रत अबुबकर से उमर ने फ़रमाया कि अगर तन्हा हुफ़्फाज़ पर कुर्आन के तहफ़्फुज़ का इनहेसार किया गया और जंगे यमामा की तरह दीगर जंगों में भी हाफ़िज़ क़त्ल होते रहे तो कुर्आन की बक़ा का मसला पेचीदा हो जायेगा और उसमें कमी वाक़ेय हो जाने का एहतेमाल रहेगा, इसिलये कुर्आन लिखवा कर जमा करा देना चाहिये। तमाम साहाबा ने उमर की इस तजवीज़ से इत्तेफाक़ किया। चुनानचे अबुबकर ने ज़ैद बिन साबित को इस काम की तकमील का ज़िम्मेदार क़रार दिया और कुछ लोगों को उनका मददगार बनाया। गर्ज़ कि उन्होंने चमड़ों, तख़्तियों, हड्डियों और खजूर के पततों पर लिखे हुए मुन्तशिर व मुताफ़र्रिक़ कुर्आन के पहले यकजां किया। फिर लोगों के दिलों और सीनों से अख़ज़ किया और बड़ी तहक़ीक़ व जुस्तजू के बाद इन्तेहाई सेहत व एहतियात के साथ एक मरकज़ पर जमा कर दिया। यह कुर्आन ख़त कूफ़ी में क़िरतास पर लिखा गया जिसका नुसख़ा किताब की सूरत में अबुबकर के पास रहा। उनके इन्तेक़ाल के बाद उमर के इन्तेक़ाल के बाद उनकी बेटी हज़रत हफ़सा के हाथ आया।

   चूंकि अहदे ख़ोलफ़ये सलासा में मुसलसल फ़तुहात ने इस्लाम को दूर दराज़ मुमालिक और इलाकों में पहुंचा दिया था इस िलये ज़बान के अन्दाज़ा होना एक लाज़मी अमर था जिसे जंगी मुहिम्मत के दौरान उस्मान के दौर में उनके आलिमों और सरदानों ने महसूस किया और हुज़ीफ़ा यमानी ने हज़रत उस्मान को यह मशविरा दिया कि हफ़सा के पास कुर्आन का जो नुसख़ा है उसे नक़ल करा के तमाम मुमालिक में उसे मुशतहिर कर दिया जाये। उस्मान ने इस काम के लिये एक चार रुकनी कमेटी तशकील दी और उसमें ज़ैद बिन साबित, अब्दुल्लाह बिन ज़बीर, सईद बिन इलियास और अब्दुल्लाह बिन हारिस को नामज़द करके ज़ैद बिन साबित को इसका इनचार्ज बनाया और उन्हें हु्क्म दिया कि कुर्आन का ऐसा मेयारी नुसख़ा मुर्त्तब किया जाये जिसकी बुनियाद कुरैश की क़सात पर हो।

   इस कमेटी ने हफ़सा के पास जो नुसखा महफूज़ था उसे नीज़ दीगर हुफ़्फ़ाज़ की दी हुई आयतों से दोबारा तक़ाबुल और छान बीन करके तहक़ीक़ व तजस्सुस के बाद सात नुसख़े तैयार किये और उन्हें इराक़ व शाम, मिस्र और दीगर बलादे इस्लामिया में भिजवा दिये। यह तो तारीख़ की बातें हैं। अब इस मौक़े पर जमा कुर्आन कमेटी के बा-सलाहियत मिम्बरान के हालात और सिन व साल का जाएज़ा भी ज़रुरी है।

(1) ज़ैद बिन साबितः- ज़ैद में कुर्आन जमा करने की अहलियत व सलाहियत क़तई नहीं थी। वह इस काम को पहाड़ के सरकाने से भी ज़्यादा मुश्किल समझते थे। सन् 9 हिजरी में उनकी उम्र ग्यारह साल की थी, जमा कुर्आन का काम सन् 11 हिजरी में जंगे समामा के बाद शुरु हुआ, बिन मुस्लिम आमिश ने रवायत की है कि जब हज़रत ज़ैद बिन साबित को कुर्आन की तदवीन का हुक्म दिया तो अब्दुल्लाह बिन मसऊद ने मुसलमानों के रुबरु एक ख़ुतबा दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उसमान मुझे हुक्म देते हैं कि मैं कुर्आन को ज़ैद बिन साबित की क़रात के मुताबिक पढ़ूं। ख़ुदा की क़सम जब मैंने रसूल ख़ुदा स0 से सत्तर सूरतें अखज़ की तो उस वक्त ज़ैद बच्चों के साथ खेला करता था।

1  एक दिन उमर बिन ख़त्ताब ज़ैद बिन साबित के पास आये। ज़ैद उस वक़्त अपन कनीज़ के सर में कंघी करा रहे थे, उमर को देखा तो सर खींच लिया और कहा, आपने क्यों ज़हमत की, मुझे बुलवा लेते और मैं खुद हाज़िर हो जाता। इस पर उमर ने कहा, यह वही नहीं है कि तुम इसमें कमी या ज़्यादती करो, यह एक राये व मशविरे की बात है, अगर मवाफ़िक़त करो तो बेहतर है वरना कुछ नहीं। ज़ैद ने इन्कार किया तो उमर ख़फ़ा होकर चले गये।

आख़ेरुल ज़िक्र रवायत से पता चलता है कि ज़ैद बिन साबित वही के मामले में कमी और ज़्यादती करते थे और तारीख़ी अबुल फ़िदा से इस अमर की निशान देही भी होती है कि उमर कुर्आन की कुछ आयतों में तरमीम व तनसीख़ चाहते थे जिसे ज़ैद ने नामंज़ूर कर दिया।

2  अब्दुल्लाह बिन ज़बीर- यह अबुबकर के नवासे थे। सन् 2 हिजरी में पैदा हुए, जमा कुर्आन के वक़्त उसमान के दौर में इनकी उम्र 23 साल की थी।

3  साद बिन आस- यह बनी उमय्या से थेश सन् 9 हिजरी में पैदा हुए, उस वक़्त उनकी उम्र 22 साल की थी। अब्दुल्लाह बिन मसूद के क़ौल नीज़ दीगर रवायतों से साबित है कि जमा कुर्आन कमेटी के अऱाकीन ज़ैद बिन साबित, अब्दुल्लाह बिन ज़बीर और सईद बिन आस की उम्र उस वक्त 22 साल और 24 साल के दरमियान थीं। अब्दुल्लाह बिन मसूद जिन्होंने रसूले अकरम स0 से बराहे रास्त सत्तर सूरतें अख़िज़ की थीं, उनकी मौजूदगी में नौखे़ज़, नो उम्र और न अहल लौंडों को कुर्आन जमा करने का अहम और मोहतात काम सुपुर्द करना इन्तेहाई हैरत अंगेज़ व ताज्जुब से ख़ेज़ बात है।

हज़रत अली अलै0 ऐसी मुफ़स्सिर और मुदब्बिर शख़्सियत भी मौजूद थीं। तदवीन का काम उन्हें क्यों नहीं सुपुर्द किया गया या जमा कुर्आन कमेंटी का ज़िम्मेदार उन्हें क्यों नहीं क़रार दिया गया था उनका जमा करदा कुर्आन क्यों नहीं तलब किया गया? इन तमाम बातों की तह में आले रसूल स0 बिलख़ुसूस हज़रत अली अलै0 से बुगज़ व अनाद का जज़बा कार फ़रमा नज़र आते हैं। अगर आप का जमा करदा कुर्आन कुबूल करके नाफ़िज कर दिया जाता तो इस्लाम की तबाही व बर्बादी का मनसूबा इब्तेदा ही में दम तोड़ देता। अस्ल मक़सद तो इस्लाम में तफ़रीक़ व इन्तिशार पैदा करना था और पैग़म्बर इस्लाम स0 अपनी ज़िन्दगी ही में फरमां चुके थे मेरे बाद इस्लाम में तिहत्तर फि़र्क़े हो जायेंगे। आपकी रेहलत के बाद अहलेबैत अलै0 पर हुकूमते वक़्त की मुक़तदिर हस्तियों ने जो इन्सानियत सोज़ मज़ालिम तोड़े उनसे तारीख़ के औराक़ पुर हैं।

   अगर हज़रत अली अलै0 का कुर्आन कुबूल कर लिया जाता तो मज़ीद किसी तफ़सीर की ज़रुरत लाहक़ न होती और न मदनी आयतें मक्की आयतों में न मक्की आयतें मदनी आयतों में ख़िल्त मिल्त होती। इसके अलावा नासिख़ व मनसूख़ आयतों की तमीज़ में भी दुश्वारी नहीं होती। कमसिन और न अहल लोगों के ज़िम्मे यह अहम काम सुपुर्द करने का नतीजा यह हुआ कि बलहिज़े तरतीबे नज़ूल आयतों को मुत्तर्ब न किया जा सका।

   हज़रत अली अलै0 ने रसूल उल्लाह स0 की ज़बाने मुबारक हर आयत की तफ़सीर जिस तरह सुनी थी उसी तरह आपने अपने कुर्आन के हाशियें पर मरकूम कर दी थी। इसको तर्क कर देने से हर कस व ना कस को यह मौक़ा मिला कि वह अपने क़यास पर तफ़सीर करे। यही वजह है कि एक मुफ़स्सिर की तफ़सीर दूसरे मुफ़स्सिर से नहीं मिलती। इसकाम का अंजाम यह हुआ कि अक़ीदे बदले और तिहत्तर फ़िर्के आलमें वजूद में आ गये। क्या इस्लाम में इस अमल की ज़िम्मेदारी उन ख़ोलफ़ा पर आएद नहीं होती जो हज़रत अली अलै0 से कुर्आन न तलब करने या हज़रत अली अलै0 के कुर्आन को मुस्तरद करने के ज़िम्मेदार हैं।

   हज़रत अबुबकर औऱ उस्मान के इस कारेख़ैर का सबसे बड़ा तारीक़ पहलू यह है कि हज़रत हफ़सा के कुर्आन के अलावा चारों तरफ से तमाम कुर्आनी नुसखे इकट्ठा करा के उनमें आग लगवा दी गयी और वह जलकर ख़ाक सियाह हो गये। अब्दुल्लाह बिन मसूल ने अपना कुर्आन जब हज़रत उस्मान के हवाले से इन्कार किया तो उन्हें बुरी तरह मारा पीटा गया और उनसे ज़बरदस्ती वह नुस्खा छीन कर नज़रे आतिश कर दिया गया।

फ़तूहाते इराक़

     पहली सदी हिज़री में इराक़ का जुग़राफियाई पस मंज़र यह था कि अरब की शुमाली औऱ मशरिकी सरहदों से ईरान की सलतनत शुरु होती थी जिसका दारुल सलतनत मदायन था जो बग़दाद से क़रीब दरियाये दजला पर वाक़े था। दरियाये फुरात के दाहिने किनारे पर शहर हीरात आबाद था यह शहर अरब के मशहूर ख़ानदान मंज़र का पायए तख़्त था। जो छः बरस से ईरान पर हु्क्मरानी कर रहा था और कुछ अर्से से शहाने ईरान का बाजगज़ार हो गया था और ममलेकते ईरान का एक जुज़ समझा जाता था। बाबुल औऱ कलीदिया के क़दीम इलाक़े भी इसमें शामिल थे। चनानचे उस वक़्त इराक़ के मशरिक़ में ख़जिस्तान, इसरा और कलीदिया का कोहिस्तान, शुमाल में मेसोपोटामियां (अल जरीरा) का हिस्सा, मग़रिब और जुनूब में शाम और एक हिस्सा अरब का था और यही इराक़ का हुदूदे अरबा कहलाता था दजला और फुरात के दरमियान जो दोआबा था उसका निचला हिस्सा इराक अरब और ऊपरी हिस्सा अलजज़ाएर या जज़ीरतुल अरब के नाम से मौसूम था। मुसलमानों के हमले के वक़्त ईरान की हुकूमत में इराक़ अरब मेसोपोटामिया, फ़ारस, क़िरमान, माज़िन्दरान, ख़रासान और बलख़ शामिल थे जिसकी वजह से ईरान की सरहद तातार और हिन्दुस्तान से मिलती थी मगर इन इलाक़ों में ख़ाना जंगी की वजह से कमज़ोरी, शिकस्तगी और पज़ मुर्दगी के आसार पैदा हो गये थे। इराक़ का हाकिम मंज़र बिन नोमान मर चुका था और उसकी जगह अयाज़ बिन क़बसिया ताई हाकिम था। इस कमज़ोरी को देख कर इराक़ अरब में क़बीला वाएल के दो सरदारों मुसन्ना बिन हारिस और सुवैद अजली ने थोड़ा बहुत लश्कर इकट्ठा करके हीरा और अबला पर हमला करके वहां अपनी हुकूमत क़ायम करने की कोशिश की मगर चन्द ही दिनों में उन्हें यक़ीन हो गया कि किसी बैरूनी के बग़ैर कामयाबी मुम्किन नहीं है चुनानचे चारों तरफ़ नज़र के घोड़े दौड़ाये मगर उन दिलेर हाथों के सिवा जिन्होंने बहुत ही कम अर्से में तमाम अरब पर अपना तसल्लुत जमा लिया था, कोई पुश्त पनाह नज़र न आया इस लिये मसना बिन हारिस हज़रत अबुबकर के पास आकर मुसलमान हुआ और उनसे फ़ौजी इमदाद लेकर अपने इलाक़े की तरफ़ चल ख़डा हुआ। मगर तमाम तर कोशिशों के बावजूद वह कूफ़े से आगे न बढ़ सका तो हज़रत अबूबकर ने ख़ालिद बिन वलीद के लिये इराक़ अरब का मैदान तजवीज़ किया। चुनानचे महर्रम सन् 12 हिजरी (सन् 633) में उन्होंने एक तरफ़ तो ख़ालिद बिन वलीद को इराक़ जाने का हुक्म दिया और दूसरी तरफ़ अयाज़ बिनग़नम को दूमतुलजन्दल के रास्ते रवाना किया और उसे यह हिदायत की कि वह इसी रास्ते से जाकर ख़ालिद बिन वलीद से मिल जाये।


 

हीरा पर हमला

   ख़ालिद बिन वलीद मंजिले तय करते हुए नवाज के मुक़ाम पर मुसना से मिले और सवाद के हाकिम इब्ने सलूबा को मुतबा करते हुए हीरा पहुंचे और दस हज़ार आदमियों से शहर का मुहासिरा कर लिया। हीरा में दो शाही महल क़सरे ख़ूरनिक़ और क़सरे अबीज़ जो इनतेहाई शानदार थे, उनको ताराज व मिस्मार किया। हाकिम हीरा अयास ने मग़लूब हो कर सुलह कर ली और जज़िया देना कुबूल किया। हाकिमे हीरा पर दस हज़ार और अहले हीरा पर 60 हज़ार दिरहम जज़िया मुक़र्रर हुआ। यह पहल जज़िया है जो मुसलमानों की तरफ से ग़ैर मुल्क पर आएद हुआ।

फ़तहे उबल्ला

   हीरा का मार्का सर करने के बाद ख़ालिद ने 18 हज़ार की फ़ौज लेकर उबल्ला पर चढ़ाई की जिसमें मुसना की आठ हज़ार फ़ौज भी शामिल थी। उबल्ला के ईरानी गवर्नर हरमिज़ ने शहंशाई ईरान को इस हमला की इत्तेला देते हुए फ़ौरी तौर पर कुमक बहम पहुंचाये जाने का मुतालिबा किया और ख़ुद उसने ईला के क़रीब ख़ालिद से मुक़ाबिला किया और मारा गया इसका ताज जो एक लाख की मालियत का था और हाथी ख़लीफ़ के पास मदीने भेज दिया गया। बाक़ी माल फ़ौज़ में तक़सीम कर दिया गया।

जंगे मज़ार

   उबल्ला की जंग में काम आने से पहले हरमीज़ ने शहंशाहे ईरान से मदद तलब की थी जिस पर शाह ईरान ने हवाज़ के गवर्नर क़ारन को पचास ह़ार की जमीयत दे कर रवाना किया था। चुनानचे इस फ़ौज ने नहर मुसना के किनारे मज़ार के मुक़ाम पर पड़ाद डाल रखा था। जब ख़ालिद का लश्कर वहां पहुंचा तो घमासान की जंग हुई। क़ारन के साथ तीस हज़ार ईरानी मारे गये, बहुत से असीर हुए। उन्हीं असीरों में हसन बसरी का बाप हबीब भी था जो नसरानी था। जो माले ग़नीमत हाथ आया उमें से ख़ुम्स का हिस्सा दरबारे ख़िलाफ़त में भेजा गया और बक़िया लश्करियों में तक़सीम हो गया।

       जंगे वलजा

   मज़ार में क़ारन की शिकस्त के बाद शाहे ईरान ने एक और नेबर्द आज़मां सूरमां को जो अपनी बहादुरी की वजह से हज़ार मर्द के नाम से मशहूर था, पचास हज़ार की सिपाह के साथ ख़ालिद के मुक़ाबिले को भेजा। माहे सफ़र सन् 12 हिजरी में कसकर और हीरा के दरमियान वजला के मुक़ाम पर मुडभेड हुई और बीस दिन तक मारका आराई जारी रहा। आख़िरकार हज़ार मर्द मारा गया और मुसलमानों को फ़तेह हासिल हुई। इस जंग में मज़ार से भी ज़्यादा ईरानी मारे गये। इस फ़तहयाबी के बाद इराक़ अरब का बड़ा हिस्सा मुसलमानों के ज़ेरे तसल्लुत आ चुका था इसिलये ख़ालिद ने जाबजा अपने आमिल मुक़र्रर कर दिये।

जंगे उल्लीस

   जंगे वलजा के बाद ख़ालिद अपनी फौज़ लेकर उल्लीस की तरफ़ बढ़ा। शाह ईरान ने बहमन जादू को जो उस वक़्त मक़शिनासा में था, मुक़ाबिले के लिये लिखा। उसने जाबान नामी अपने एक सरदार को रवाना कर दिया और कहा कि मैं भी बादशाह से मशविरा करके आता हूँ। जाबान एक लश्कर कसीर ले कर उल्लीस पहुंच गया। इधर शाहे ईरान की अलालत की वजह से बहमन को तवक्कुफ़ करना पड़ा और इधर जाबान और ख़ालिद में मुडभेड़ हो गयी। दोनो तरफ़ से ऐसी तलवारें चलीं कि खू़ की नदियां बहने लगी। आखिर कार मैदान मुसलमानों ही के हाथ रहा। यह लड़ाई हज़ार बतायी है। इसके बाद ख़ालिद ने इमगेशिया को तबाह व बर्बाद किया। माले ग़नीमत जब दरबारे ख़िलाफत में पहुंचा तो अबुबकर ने फ़रमाया कि औरतें ख़ालिद जैसा पैदा करने से क़ासिर हैं

       जंगे अनबार

   जंगे उल्लीस के बाद ख़ालिद बिनवलीद ने शाहे ईरान को पैग़ाम भेजा की मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल चुका है। अब इस्लाम कुबूल करो या जज़िया दो। अगर उन दोनों बातों में से कोई बात कुबूल नहीं है तो मैदान में निकल आओ। इस पैग़ाम से ईरानी सख़्त परेशान हुए। आज़ादविया ने जो उस वक़्त ईरानी दरबार में मौजूद था, ईरान के अफ़सरों को मुख़ातिब करते हुए कहा कि तुम लोग बाहमी अख़तेलाफ में पड़े हो, इसलिये मुसलमानों के हौसले बड़ गये हौ और फ़ातेह की हैसियत से आगे बढ़ते चले आ रहे हैं अगर तुम सब लोग मुतफ़्फिक. हो जाओ और मुत्तहिद हो कर लड़ो तो उन नंगे भूके अरबों को मार भगाना कोई बड़ी बात नहीं है। आज़दविया की इस मुख़तसर सी गुफ़्तगू ने बड़ा काम किया। ख़ालिद के पैग़ाम बर कोजंग की वारनिंग के साथ वापस कर दिया गया और बहमन जादू को एक कसीर लश्कर के साथ मुक़ाबिला पर मुक़र्रर किया गया। बहमन ने शीरज़ाद को हज़ार फ़ौज के साथ अनबार के मज़बूत व मुसतहकम क़िले की हिफ़ाज़त पर मुक़र्रर किया और मेहमान नामी एक मशहूर सिपेह सलारा को एक दूसरे क़िले ऐनुल तमर पर मामूर किया और उसके साथ ख़ुद भी वहीं मुक़ीम हो गया।

   ख़ालिद ने अपने सफ़ीर से जंग का जवाब सुनकर अनबार पर चढ़ाई कर दी और चारों तरफ़ से शहर को घेर लिया शीरज़ाद ने अपनी इस आहनी फौज़ को आगे किया जो सर से पांव तक लोहे में ग़र्क थी फ़क़्त आंख दिखाई पड़ती थी। मारका कार ज़ार गर्म हुआ तो ख़ालिद ने अपनी फ़ौज को हुक्म दिया कि तीर अन्दाज़ी करो और उनकी आंखे फोड़ दो। हज़ारों तीर चिल्लये कमान से एक साथ रेहा होने लगे और हज़ार हा ईरानी आंखों से महरुम हो गये। शीरज़ाद ने घबराकर सुलह का पैग़ाम दिया। ख़ालिद ने इस शर्त पर सुलह कर ली कि सारा माल व मता छोड़कर शहर से निकल जाओ। चुनानचे वह शहर से निकल गये। इस जंग को ज़ातुल उयून भी कहा जाता है। इसके बाद गिर्दों नवाह के लोगों ने भी ख़ालिद से सुलह कर ली। इसके बाद ख़ालिद ने क़िला ऐनुल तमर पर चढ़ाई कर दी जहां ईरानियों ने इस इलाक़े के अरब क़बीलों बनी सालिब वग़ैरा को भी मिला लिया जिन का सरदार अक़्क़ा था। पहले वही ख़ालिद के मुक़ाबिले में आया लेकिन उसे पकड़ कर क़त्ल कर दिया गया। उसके लश्कर को शिकस्त हुई और बुहत से लोग गिरफ़्तार कर लिये गये। यह सूरते हाल देख महरान और बहमन अपनी अपनी जाने बचा कर भाग निकले और जो क़िला के अन्दर रह गये थे वह सबके सब मारे गये। तमाम माल व असबाब लूट लिया गया। क़िले में चालीस लड़के भी पाये गये जो इन्जील की तालीम हासिल करते थे जो लोगों में तक़सीम कर दिये गये। उन्हीं में इब्ने सीरीन का बाप मुहम्मद, मूसा फ़ातेह इन्दलिस का बाप नसीर और हज़रत उस्मान का गुलाम हमरान भी था। इसी मुक़ाम पर बशीर बिन सईद अन्सारी का इन्तेक़ाल हुआ।

       जंगे दुमतुल जंदल

   ख़ालिद बिन वलीद जब ऐनुल तरम की जंग से फ़ारिग़ हुए तो अयाज़ बिन ग़नम ने जो दूमतुलजंदल के अरब नसरानियों से लड़ने के लिये भेजा गया था ख़ालिद को लिखा कि वह इसकीमदद करें क्योंकि कई माह से वह दूमतुलजंदल का मुहासिरा किये हुए पड़ा था और फ़तह की कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। चुनानचे ख़ालिद ने ऐनुल तमर में अपना आमिल छोड़ कर दुमतुलजंदल की तरफ़ रुख़ किया। अकीदर बिन अब्दुल मलिक और जूदी बिन रबीया नसरानियों के सरदार थे। अकीदर ख़ालिद के आने की ख़बर सुन कर भाग खड़े हुआ मगर रास्ते में पकड़ा गया और क़त्ल कर दिया गया। एक तरफ़ से ख़ालिद ने दूमतुलजंदल पर हमला किया और दूसरी तरफ से अयाज़ बिन ग़नम अपने लश्कर को लेकर आगे बढ़ा। दोनों तरफ़ से अरबों ने शिकस्त ख़ाकर किले में पनाह ली और इसका दरवाज़ा बन्द कर लिया। जो लोग क़िले के बाहर मिले वह क़त्ल कर दिये गये और उनका सरदार जूदी भी मारा गया। असीराने बनी कलब के अलावा जो बनी तमीम की सिफ़ारिश पर छोड़ दिये गये थे, बाकी तमाम क़ैदी क़त्ल हुए उसके बाद क़िला भी फ़तेह कर लिया गया। बहुत से क़त्ल हुए और बहुत से असीर हुए।

   असीरों को फ़रोख्त कर दिया गया। जूदी की दुख़्तर को ख़ालिद ने ख़रीद लिया और कुछ दिनों तक उसके साथ दुमतुलजंदल ही में मुक़ीम रहे।

       जंगे फ़राज

   ख़ालिद ने माहे रमज़ान में फ़राज़ पर चढ़ाई की जहां शाम व इराक़ की सरहदें मिलती हैं। रोमिये, ईरानियों और अरब के मुख़तलिफ क़बीलों ने मिल कर ख़ालिद का मुक़ाबिला किया। घमासान की जंग हुई, रुमी भाग खड़े हुए। ख़ालिद ने अपने लश्कर को हिदायत की कि वह तलवारें न रोकें। चुनानचे मारका और ताअक़्कुब में ग़नीम के एक लाख आदमीं मारे गये।

   इसके बाद ख़ालिद ईरान के पायए तख़्त मदीन पर चढ़ाई के बारे में सोच ही रहे थे कि दरबारे ख़िलाफत से उन्हें शाम की तरफ़ कूच करने का मुहर्रम सन् 12 हिजरी में इराक की मुहिम पर मामुर हुए थे और सन् 13 हिजरी की इब्तेदा में शाम की तरफ़ भेज दिये गये।

       फ़तूहाते शाम

   शाम उन तमाम मुमालिक का मजमूआ था जो फुरात और बहरे रोम के दरमियान वाक़े थे। फ़नाक़िया और फ़िलस्तीन इस मुल्क की दो छोटी छोटी रियासतें थीं जो कुसतुनतुनिया से इल्हाक़ की बिना पर बादशाह हरकुल के ज़ेरे हुकूमत हो गयी थीं। इल्मे जुग़राफि़या के माहेरीन का कहना है कि फ़िलिस्तीन का इलाकाइस खित्ते के जुनूब में वाक़े है जो कोहे क़रमल से तबरिया झील के हिस्से तक और उरदून से बहरे रोम तक फैला हुआ है जिसमें रोमियों के ज़ेरे तसल्लुत क़ीसारिया, अरीहा (जरीको) येरुशलम, असक़लान, जाफ़ा और ज़ग़ारिया ऐसे मज़बूत और महफूज़ इलाकें भी शामिल थे। पटपालूस का शहर और वह ख़ित्ता जो बहरे लूत से ख़लीज अक़बा तक फैला हुआ था फ़िलिस्तीन ही में था। इस ख़ित्ते के शुमाल में उरदुन का सूबा था जिसमें एकर (अक्का) और टायर (सूर) जैसे महफूज़ मुक़ामात थे। फ़िलिस्तीन के शुमाली जानिब वह ज़रखे़ज और सरसब्ज़ व शादाब ख़ित्ता था जिसको इहले रोम सीरिया और अहले अरब शाम कहते हैं। इसमें हलब, हमस और अनताकिया जैसे तारीख़ी शहर शामिल थे। उन तमाम शहरों में रोमियों की फ़ौजी छावनिया थीं जिनमें कसीर तादाद में फ़ौज रहती थी।

   रोमियों का वाय सराय (गवरनर जनरल) अनताकिया में रहता था और फ़िलिस्तीन, हमस, तमिश्क और उरदुन के गदरनर इसके मातहत हुआ करते थे। मुसलमान शाम के बाशिन्दों को बनी असगर कहते थे। अबुबकर ने जब ख़ालिद बिन वलीद को इराक़ की मुहिम पर रवाना किया था तो उन्होंने उन्हीं अय्याम में ख़ालिद बिन सईद को भी एक लश्कर का सरदार मुक़र्रर करके शाम की तरफ़ रवाना करना चाहा था लेकिन वह रवाना होने से पहले ही माजूल कर दिये गये। माजूली की वजह यह बताई जाती है कि जब लोगों ने अबुबकर की बैयत की थी तो ख़ालिद बिन सईद से भी उमर ने बैयत करने को कहा था लेकिन दो महीने तक उन्होंने बैयत नहीं की और हज़रत अली अलै0 के हमनदा रहे। चुनानचे जब अबुबकर ने उन्हें अमीर बनाया और उमर को मालूम हुआ तो उन्होंने इन्तेक़ाम उन्हें इमारात से माजूल करा दिया। इसके बाद अबुबकर ने ख़ालिद बिन सईद को हु्कम दिया कि तुम मदीने छोड़ कर ख़ैबर ओर तबूक के दरमियान वाक़े तीमा नामी एक गांव में क़याम करो और ता हु्कमे सानी वहीं रहो औऱ गिर्दे नवाह के लोगों को जेहाद के लिये आमादा करकों चुनानचे ख़ालिद बिन सईद ने तीमा में अका़मत अक़तेयार की और चन्द ही दिनो में उन्होंने जेहाद के लिये एक बड़ा लश्कर तैयार कर लिया।

   जब रोमियों को ख़ालिद बिन सईद की तैयारी का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने शाम के सरहदी अरब क़बीलों बनी कलाब, बनी ग़सान, बनीलहम और बनी हेजा़म वग़ैरा को इस इलाक़े में लूट मार करने पर उकसा दिया। ख़ालिद बिन सईद ने जब अबुबकर को इस सूरते हाल मे मुत्तेला किया तो उन्होंने ख़ालिद को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। चुनानचे ख़ालिद ने पेश क़दमी की और जब बाग़ियों और लुटेरों के क़रीब पहुंचे तो वह लोग भाग खड़े हुए और ख़ालिद बिन सईद ने उसी मुक़ाम पर अपने ख़ेमे नसब करके छावनी डाल दी। दूसरे दिन अबुबकर का पैग़ाम मौसूल हुआ कि आगे बढ़ते रहो मगर इस बात का ध्यान रखो कि पुश्त से हमला न होने पाये। ख़ालिद बिन सईद आगे बढ़े मगर अभी कुछ ही फ़ासला तय हुआ था कि बतरीक़ माहान नामी सरदार की क़यादत में रोमियों के एक दस्ते से मुडभेड़ हो गयी। इस मुख़तसर सी लड़ाई में बहुत से रोमी मारे गये और बतरीक़ फ़रार हो गया। ख़ालिद ने अबुबकर को इस वाक़िये की इत्तेला दी और मज़ीद कुमक के ख्वास्तगार हुए। चुनानचे अबुबकर ने वलीद बिन अकबा, जुल कलाअ और अक़रमा बिन अबुजहल को मय उनके लश्कर के साथ खालिद की मदद को रवाना कर दिया। इर कुमक के पहुंचते ही ख़ालिद बिन सईद ने जल्द बाज़ी और बद-एहतियाती से काम लेते हुए दमिश्क़ पर हमला कर दिया मगर बतरीक़ माहान जो चन्द रोज़ पहले फ़रार इख़्तियार कर चुका था। लशकरे कसीर के साथ सामने आया और ख़ालिद का रास्ता रोका और मारकए क़ारज़ार गर्म हो गया जिसमे ख़ालिद बिन सईद का बेटा सईद मारा गया औऱ ख़ालिद सख़्त नुक़सान के साथ शिकस्त ख़ाकर ऐसा भागे कि मदीने के करीब वादी जि़ल मराह में आ कर दम लिया। अकरमा शाम के क़रीब ही छः हज़ार का लश्कर लिये पड़े रहे।

शाम पर हमले की तैयारियां

   इस शिकस्त के बाद अबुबकर ने अहले शाम से मारका आराई का मुकम्मल तहय्या कर लिया। तारीख़ आसिम कूफ़ी और फ़तूहाते इस्लामिया में है कि जब अबुबकर ने शाम पर लश्कर कशी का फ़ैसला किया तो उन्होंने मस्जिदे नबवी मे एक तक़रीर की और कहा तुम लोग इस बात से आगाह हो कि तमाम अरब एक ही मां बाप की औलादें हैं। मैंने मुक़म्मिम इरादा कर लिया है कि अरब का लश्कर शाम की तरफ़ फेजूं और रोमियों से जंग करके उन्हें कैफ़रे किरदार तक पहुंचाओ तुममें जो शख़्स फ़तेह पायेगा वह शोहरत व दौलत से हमकिनार होगा और जो मारा जाएगा वह बेहिश्त में अपना झण्डा गाड़ेगा और जेहाद का जो अजर खुदा की तरफ़ से मुक़र्रर है उसका अन्दाज़ा ग़ैर मुम्किन है

   इस मुख़्तसर सी तक़रीर के बाद अबुबकर ने हज़रत अली अलै0, उमर, उस्मान, तलहा, ज़बार, सईद बिन विक़ास और अबुउबैदा बिन जराअ वग़ैरा को तलब करके एक हंगामी जलसा मशावरत मुनअक़िद किया जिसमें अमाएदीन व अकाबरील जलसे ने अपने अपने ख़्यालात का इज़हार किया लेकिन हज़रत अलै0 ख़ामोश रहे। जब हज़रत अली अलै0 से कहा, ऐ अबुल हसन! कुछ आप भी फ़रमायें, इस बारे में आपका क्या ख़्याल है? आपने फ़रमाया, ऐ अबुबकर! तुम लश्कर रवाना करोगे तब भी फ़तेह होगी और अगर ख़ुद इस मुहिम पर जाओगे और अल्लाह पर भरोसा रखोगे तो भी कामयाबी हासिल होगी क्योंकि मैं रसूल स0 की ज़बाने मुबारक से यह जुमला बार बार सुन चुका हूँ कि दीने इस्लाम तमाम अदयान पर ग़ालिब रहेगा। इस पर अबुबकर ने कहा ऐ अबुल हसन! आपने मेरी आंखे खोल दी, मुझे तो इस हदीसे पैग़म्बर स0 के बारे में कोई इल्म ही नहीं था। इसके बाद ख़लीफ़ा उमर की तरफ़ मुतावज्जे हुए और उन लोगों से उन्होंने काह, याद रखो, अली अलै0 इल्मे पैग़म्बर स0 के वारिस हैं और जो शख़्स इनके कलाम में शुब्हा करे वह मुनाफ़िक़ है, अब इस अमर में मेरी तरफ़ से कोई कोताही मुम्किन नहीं, मुझे उम्मीद है कि इस मुहिम में तुम लोग मेरा साथ दोगे।

   इसके बाद मज़मे मुशावरत बरख़ास्त हुई तो अबुबकर ने मक्के, ताएफ़ और गमन वग़ैरा के आलिमों के नाम भी मकतूब रवाना किये और रोमियों व नसरानियाँ पर फ़ौज़ कशी का इरादा ज़ाहिर किया। चारों तरफ़ से सिमट सिमट कर लोग मदीने में जमा होने औऱ एक जंगी माहौल पैदा हो गया। चुनानचे सन् 13 हिजरी की इब्तेदा में अबुबकर ने इस मुहिम को सर करने के लये एक नया लश्कर तरतीब दिया जो चार हिस्सों पर मुश्तमिल था। अबु अबीदा बिन जराअ एक दसता फौज के साथ हमस पर मुक़र्रर किये गये उनके साथ अहले मदीना और सहाबा की एक बड़ी तादाद थी। उन्होंने अपना हेडक्वार्टर जाबिया को क़रार दिया। उमरु आस को इस दस्ते का सरदार मुक़र्रर किया जो फ़िलिस्तीन की तरफ़ भेजा गया था। उन्होंने अरबा में डेरा जमाया। यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान को एक कसीर फ़ौज के साथ दमिश्क पर तैनात किया। उन्होंने बलक़ा में पड़ाव किया। उनकी फौज में ज़्यादा तर मक्के और तहामा के अरब शामिल थे। औऱ शरजील बिन हुस्ना एक बड़े फ़ौजी दस्ते के साथ उरदुन की तरफ़ रवाना किये गये। उन्होंने बुसरा के क़रीब क़याम किया। बलाज़री का कहना है कि इब्तेदा में हर एक जनरल के पास तीन तीन हज़ार सिपाह थी लेकिन मज़ीद इमदाद के बाद साढ़े सात सात हज़ार हो गयी थी। अबुसुफ़ियान के दूसरे साहबज़ादे माविया जिन्होंने आख़िर ख़िलाफ़त ही को ग़सब कर लिया रेज़र्व फौज़ के कमाण्डर मुक़र्रर किये गये। लेकिन इ्ब्ने ख़लदून का कहना है कि माविया को अबुबकर ने उनके भाई यज़ीद का मदद के लिये भेजा था। हाशिम बिन अतबा बिन अबी विक़ास और सईद बिन आमिर भी अफ़वाज के साथ रवाना किये गये। ग़र्ज़ कि जहां जहां से भी लोग जेहाद के इरादे से वारिदे मदीना होते थे वह जत्थों और गिरोहों की शक़्ल में शाम की तरफ़ रवाना कर दिये जाते थे।

   अबुबकर का हुक्म था कि अगर चारों लश्कर एक जगह जमा हो जायें तो अबुअबीदा को चारों लश्करों का सरदार समझा जाये। अबुल फिदा का बयान है कि कुल लश्कर में सहाबा की मजमुई तादाद एक हजार थी जिसमें तीन सौ बदरी सहाबा थे और उन तीन सो में सौ सहाबा ऐसे भी थे कि वह अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जिस अफ़सर के मातहत चाहे काम करने का इख़्तियार रखते थे।

   बाज़ मोअर्रिख़ीन ने लिखा है कि इब्तेदा में कुल अफ़वाज की तादाद सिर्फ़ सात हज़ार थी लेकिन बढ़ते बढ़ते बाद में 35 या 36 हज़ार हो गयी थी। इब्ने असीर ने एक रिवायत में चालिस हज़ार लिखा है। सैय्यद अमीर का कहना है कि इस सलतनत के वसाएल और ताक़त को देखते हुए जिस पर हमला की ग़र्ज़ से यह लोग बढ़े थे चालिस या छियालिस हज़ार की तादाद बहुत कम थी। क़स्तुनतुनिया की रुमी हुकूमत चन्द सूबो के निकल जाने के बावजूद अब भी निहायत ताक़तवर थी। इसके वसाएल और सामाने हरब ग़ैर महदूद थे। इसमे एशियाए कोचक का वसीय जज़ीरा, शाम, फ़नीशिया, मिस्र ओर बहरे वक़ियानूस तक तमाम मुमालिक शामिल थे।

       जंगे यरमूक

   बादशाह हरकुल को जब इस्लामी अफ़वाज के मुनक़सिम व मुताफ़र्रिक़ होने नीज़ उनकी तादाद का हाल मालूम हुआ तो उस वक़्त वह फ़िलिस्तीन में ता। वहां से उसने मुल्क का हंगामी दौरा किया और दमिश्क़ व हमस से गुज़रता हुआ अनताकिया में आकर क़याम पज़ीर हो गया। उस दौरे का मक़सद लोगों को जंग पर तैयार करना था जिसके नतीजे में एक जमे गफ़ीर उसके गिर्द जमा हो गया। हज़रत अबुबकर की तरह उसने अपने भी तज़ारिक को 60 हज़ार की फौज के साथ अमरु आस की तरफ़ भेजा। जर्जा बिन नोदर को चालीस हज़ार का लश्कर दे कर यज़ीद बिन अबुसुफियान की तरफ़ रवाना किया। कीतार बिन नसतूरिस को साठ हज़ार के साथ अबुउबैदा के मुक़ाबिले में भैजा और दराक़िस को पचास हज़ार के साथ शरजील की तरफ़ रवाना किया।

   मुसलमान सरदारों को जब रुम फ़ौजों की नक़ल व हरकत और उनकी तादाद का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने एक दूसरे के पास क़ासिद दौड़ाकर आपस में यह तय किया कि सारी फ़ौजों को एक मरकज़ पर जमा कर लिया जाये चुनानचे चारों दस्ते माहे अप्रेल सन् 634 में दरियाये यरमूक के नज़दीक जोलान के मुक़ाम पर इकट्ठा हो गये।

   यरमूक एक छोटा सा दरिया है जो हूरान से गुज़र कर तबरिया झील से चन्द मील के फ़ासले पर दरियाये जारड़न (उरदुन) से मिल जाता है। मुक़ाम इत्तेसाल से तक़रीबन तीस मील ऊपर की तरफ़ शुमाल जानिब इसका मोड़ निस्फ़ दाएरे की शक़्ल में वाक़े है और इस निस्फ़ दाएरे में एक ऐसा मैदान घिरा हुआ है जो एक बड़ी फौज के क़याम के लिये निहायत महफूज़ व मौजूं है। इस निस्फ़ दायरे की पुश्त पर एक ग़ार भी है जिसके अन्दर से मैदान का रास्ता है। इस जगह को वाक़सा कहते हैं। रोमियों ने उसे हर तरफ़ से घिरा हुआ देख कर दरिया के इस पार लश्कर उतारने के लिये महफूज़ मुक़ाम ख़्याल किया और उनकी फ़ौज मुसलमानों की तरफ़ से किसी कि़स्म का ख़्याल किये बग़ैर उसके अन्दर घुस गयी। मुसलमानों ने अपने दुश्मन की इस ग़लती को ताड़ लिया और उन्होंने दरिया के शुमाली रुख़ की तरफ़ से उसे अबूर करके ग़ार के पहलू में अपने क़दम जमा दिये और इस ताक में लगे रहे कि रोमियों के निकलते ही उन पर हमला आवर हो जायें। चुनांचे सफ़र से रबीउल आख़िर तक तीन महीने दोनों फ़ौज़ें एक दूसरे के इन्तेज़ार में डटी रहीं। यहां तक कि रबीउल आख़िर या जमादुल ऊला की इब्तेदा में ख़ालिद बिन वलीद भी लूट मार करते हुए अपनी 6 हज़ार फ़ौज के साथ वहां पहुँच गये। उस वक़्त वाक़िसा में रुमी अफ़वाज़ की तादाद दो लाख चालीस हज़ार थी और हरकुल का भाई तज़ारिक़ इस फ़ौज का सिपेह सलारे आज़म ता।

   आखिरकार 30 जमादुस सानिया सन् 93 हिजरी मुताबिक़ 30 अगस्त सम् 634 को रुमी फौज अपनी छांवनी से निकल कर मुसलमानों पर हमला आवर हुई। मुसलमान भी मुक़ाबिल हुए। सख़्त घमासान करना पड़ा। मुसलमान मारते काटते हुए ख़नदक में दाख़िल हो गये और अन्दर ही अन्दर तज़ारिक़ के ख़ेमे तक पहुंच गये। एक लाख चालीस हज़ार रुमी मौत के घाट उतार दिये गये बाकिया भाग खड़े हुए और जो बचे वह क़ैद कर लिय गये। मुवर्रेख़ीन ने क़ैदियों की तादाद चालिस हज़ार तक बताई है। इस जंग में तीन हज़ार मुसलमान भी मारे गये जिनमें अकरमा बिन अबुजहल, उसका बेटा उमर और चचा हारिस, सलमा बिन हिश्शाम, उमरु बिन सईद, अबान बिन सईद, तुफ़ैल बिन उमर, अमरु आस का भाई हिश्शाम, सईद बिन हारिस बिन क़ैस, नुज़ैर बिन हारिस और जन्दिब बिन अमरु वग़ैरा शामिल हैं। मिस्टर अमीर अली लिखते हैं कि इस लड़ाई ने तमाम जुनूबी शाम को मुसलमानों के क़दमों में सर झुकाने पर मजबूर कर दिया।

   यरमूक की जंग मे इतना माल हाथ आया कि एक एक सवार को चौबीस हज़ार मिसक़ाल और प्यादों को आठ आठ हज़ार मिसक़ाल सोना बतौर ग़नीमत मिला।

   अकसर मोअर्रिखीन ने लिखा है कि जब यरमूक में मारकये क़ेताल गर्म था तो महमिया बिन ज़नीम नामी एक क़ासिद अबु अबीदा के पास आया और उसने उन्हें अबुबकर के इन्तेक़ाल और उमर के ख़लीफ़ा होने के बारे में ख़बर दी। और उसने उमर का एक नामा भी दिया जो ख़ालिद बिन वलीद की माज़ूली का परवानथा मगर अबु उबूदा ने उस वक़्त तक ख़ालिद से इस परवाने को छिपाये रखा जब तक दुश्मन पर मुकम्मल फ़तेह नहीं हो गयी।

      हज़रत अबूबकर की वफ़ात

   सक़ीफ़ा बनी साएदा में जमहूरियत पर ख़िलाफ़त की बुनियाद रखी गयी थी लेकिन बाद में क़ायम न रह सकी और नुमाइन्दा जमहूर ही के हाथों इसका तारोपूद बिखर गया और इसकी जगह नामजदगी ने ले ली। चुनानचे अबुबकर ने बिस्तरे मर्ग पर उमर को नामज़द करने का फ़ैसला किया और अब्दुल रहमान बिन औफ और उस्मान को बुला कर उनका ख्याल मालूम किया अब्दुल रहमान यह कह कर ख़ामोश हो गये कि आपकी राये साएब है लेकिन इनमें सख्ती व दुरुश्ती का उनसुर गालिब है उस्मान ने पूरी हमनवाई की और उम्मत के लिये इसे फ़ाले नेक करार दिया। इस बात चीत के बाद अबुबकर ने उन्हें रुख़सत कर दिया और फिर तन्हाई में उस्मान को दस्तावेज़े खि़लाफ़त तहरीर करने के लिये तल किया। जब दस्तावेज ख़िलाफ़त लिखवाने के लिये बैठे तो अभी सरनामा ही लिखवाया था कि बेहोश हो गये। उस्मान तो जानते ही थे कि क्या लिखवाना चाहते हैं। उन्होंने इस बेहोशी के वक़्फा में लिख दिया कि मैंने उमर बिन ख़त्ताब को ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया है जब ग़शी से आंखे खुली तो पूछा क्या लिखा है? उस्मान ने जो लिखा था पढ़ कर सुना दिया। कहा तुमने नाम लिखने में जल्दी इस लिये कि कि कहीं मैं मर न जाऊँ और मुसलमानों में इन्तेशार व इफ़तेराक़ पैदा हो जायें। उस्मान ने कहा, हां यही वजह थीष कहा खुदा तुम्हें जज़ाए ख़ैर दे।

   इस वसीयत नामें की तहरीर के बाद आपने उमर को बुला कर कहा कि चयह वसीयत नामा अपने पास रखो और लोगों से इस पर अमल पैरा होने का अहदो व पैमान लो। उमर ने वह वसीयत नामा ले लिया और लोगों से अहद लिया कि इस दस्तावेज़ी हुक्म के पाबन्द रहेंगे। एक शख़्स ने पूछा कि इसमें क्या लिखा है? उमर ने कहा कि इसका इल्म तो मुझे भी नहीं है अलबत्ता जो इसमें दर्ज है उसे में बा-रज़ा व रग़बत तसलीम करुंगा। उसने कहा लेकिन ख़ुदा की कसम मुझे मालूम है कि इसमें क्या लिखा है। तुम गुजिश्ता साल उन्हें ख़लिफ़ा बना चुके थे और अब वह तुम्हें ख़लीफ़ा बना कर जा रहे हैं।

   जब यह ख़बर आम हुई तो कुछ लोग ख़ामोश रहे और कुछ ने एहतेजाज किया। चुनानचे मुहाजेरीन व अन्सार का एक गिरोह अबुबकर के पास आया और उसने कहा तुमने इब्ने ख़त्ताब को ख़लीफ़ा बना कर हम पर हाकिम ठहराया है, कल जब परवरदिगार के सामने पेश होगे तो क्या जवाब दोगे।

   तलहा और उनके साथियों ने भी इस पर अपनी नापसन्दगी का इज़हार करते हुए कहा तुम ने लोगों पर उमर को ख़लीफा और हाकिम मुक़र्रर कर दिया है तुम जानते हो कि तुम्हारे होते हुए उनके हाथों कितनी नागवार सूरतों का सामना करना पड़ा है और अब उन्हें खुली छूट मिल जायेगी। तुम अपने परवर दिगार के हुजूर जा रहे हो, वह तुमसे इस बारे में ज़रुर सवाल करेगा।

   ज़महूरी हुकूमतों का यह शेवा रहा कि जब तक इक़तेदार हासिल नहीं होता बड़े शद्दो मद से इन्तेख़ाब का हक़ अवाम के लिये तसलीम करती है और जब इन्तेख़ाब के बाद इक़तेदार हासिल हो जाता है तो फिर अहले हुकूमत अवाम की मर्ज़ी को नज़र अंदाज़ करके इक़तेदार हासिल हो जाता है तो फिर अहले हुकूमत अवाम की मर्ज़ी को नज़र अन्दाज़ करके इक़तेदार की कूवत और ताक़त के बल पर यह हक़ अपने लिये मख़सूस कर लेते हैं और सारी ज़महूरियत सिमट कर एक फ़र्द वाहिद या चन्द अप़राद में महदूद होकर रह जाती है। सक़ीफ़ा की जमहूरियत का भी यही नतीजा निकला और दो ही ढ़ाई बरस की मुख़तसर मुद्दत मे नामज़दगी की सूरत तबदील हो गयी। अगर यह नामज़दगी सही है तो ये मानना होगा कि ख़लीफ़ा का इन्तेख़ाब जमहूर की राय का ताबे नहीं है और अगर जमहूर की राये से वाबस्ता है तो इम नामज़दगी को किसी भी सूरत में दुरुस्त क़रार नहीं दिया जा सकता। अगर यह कहा जाये कि अबुबकर नुमाइन्दा जमहूर थे और जमहूर ने उन्हें सियाह व सफ़ेद का मालिक बना दिया था। अगर इसे तसलीम भी कर लिया जाये तो जमहूर ने इस्तेख़लाफ़ व इन्तेख़ाब का हक़ उनके सुपुर्द नहीं किया था और न किसी जमहूरी हुकूमत में किसी नुमाइन्दा जमहूर को यह हक़ दिया जाता है। इस सिलसिले में यह भी इतमेनान कर लिया था कि अवाम उमर को ही मसन्दे ख़िलाफ़त पर देखना चाहते हैं। अगर ऐसा ही था तो राय आम्मा पर एतमाद करते और नाम को सेग़ये राज़ में रख कर अवाम से अहदे इताअत लेने के बजाये उन की राय पर छो़ड़ देते और लोगों को अपने यहां जमा करके एलाने आम करते और उनका रद्दे अमल देख कर फैसला करते। उन्होंने इसका इज़हार भी किया तो उस्मान और अब्दुल रहमान बिन औफ़ से क्या जिनमें ऐएक ने मुख़ालिफ़त को बे सूद समझ कर हां में हां मिला दी और दूसरे ने इक़तेदारे नो को अपनी वफ़ादारी का ताअस्सुर देने से मशविरा ही मतलूब था तो अब्बास बिन अब्दुल मुत्तालिब और हज़रत अली अलै0 भी मौजूद थे जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम स0 का हाथ बटा कर इस्लाम को तकमील की मंजिल तक पहुंचाया था और तमाम आसाइशें तर्क करके अपनी ज़ात को सिर्फ़ इस्लाम और अहले इस्लाम के मुफ़ाद के लिये वक़्फ़ कर दिया था। सफ़ीफ़ा बनी साएदा में तो उन्हें न बुलाने का उज़्र था कि पैग़म्बर स0 की तजहीज़ व तकफ़ीन को छोड़कर कैसे आते। मगर यह मशविरा न लेने में आख़िर क्या मसलहत थी। हैरत है कि गज़वात और दूसरे मामलात में तो उनसे मशविरे लिये जाते रहे और असाबते राय और बुलन्द नफ़सी का एतराफ़ किया जाता रहा मगर इस अहम मामले में उनकी राय को ग़ैर ज़रुरी समझा जाता है। क्या इसलिये उन्हें नज़र अन्दाज़ कर दिया गया कि इरशादे पैग़म्बर स0 की रोशनी में इसे सान सक़लैन व सफ़ीन-ए-निजात का हक़ फाएक़ था और उन्हें सितवत व इक़तेदार से मुतअस्सिर करके अपना हमनवा नहीं बनाया जा सकता था।

   बहर हाल जिन लोगों ने सक़ीफ़ा की बराये नाम जमहूरियत के आगे सरे तसलीम ख़म करके अबुबकर को ख़लीफ़ा मान लिया था उन्होंने इस नामज़दगी के आगे भी हथियार डाल दिये और उमर की ख़िलाफ़त तस्लीम कर लिया।

   अबुबकर दो साल तीन माह दस दिन तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन रहने के बाद 22 जमादुस सानिया 13 हिजरी मुताबिक 22 अगस्त सन् 634 को दुनिया से रुख़सत हो गये और इसी दिन हज़रत उमर ने इक़तेदार संभाल लिया।

   आपके दौरे ख़िलाफ़त में ख़ास बात यह थी कि तौसीय हुकूमत और हुसूले इक़तेदार के नाम पर इस्लाम का सहारा ले कर तक़रीबन दो लाख अट्ठारा हज़ार बे गुनाह इन्सानों का ख़ून बहाया गया और इस कुश्त व ख़ून की होली में ज़्यादातर ख़ालिद बिन वलीद का हाथ था।

      अज़वाज व औलादें

    क़तीला बिन्ते अज़ा, उम्मे रुमान बिन्ते हारिस, असमा बिन्ते उमैस और हबीबा बिन्ते ख़ारजा बिन ज़ैद अन्सारी हज़रत अबुबकर की मनकूहा बीवियां थी, कतीला बिन्ते अब्दुल अज़ा के बतन से उसामा और अब्दुल्लाह थे। अब्दुल्लाह जंगे ताएफ़ में अबु मोहजिन तक़फ़ी के तीर से ज़ख़्मी होए और इसी ज़ख़्म की वजह से शव्वाल सन् 11 हिजरी में फ़ौत हो गये। असमा का निकाह जबीर बिन अवाम से हुआ था उनसे अब्दुल्लाह बिन जबीर पैदा हुए थे। मगर मसूदी ने मुरौवजुल ज़हब में लिखा है कि असमा ने जबीर से मुता किया था और इसी से अबद्ल्ला पैदा हुए। इब्ने असीर ने लिखा है कि जब अब्दुल्लाह जवान हुए तो अपने बाग जबीर से कहा कि मेरी शान अब ऐसी नहीं है कि उसकी मां के साथ वती की जाये। लेहाज़ा ज़ुबैर ने तलाक़ दे दी थी। अब्दुल्लाह बिन ज़बीर जब मारे गये तो इसी सदमें में 60 बरस की उम्र में असमा को हैज़ जारी हुआ और कुछ दिन बाद इन्तेक़ाल हो गया। दूसरी बीवी उम्मे रुमान बिन्ते हारिस से आएशा और अब्दुल रहमान पैदा हुए। आएशा का अक़द पहले जबीर बिन मुताइम से हुआ उसके बाद उबुबकर ने जबीर से तलाक़ हासिल करके उनका अक़द रसूल अकरम स0 से करा दिया। अब्दुल रहमान का नाम इस्लाम लाने से क़बन अब्दुल काबा था। सुलह हुदैबिया के बाद इस्लाम लाये। जंगे जमल में अपनी बहन आएशा के साथ थे सन् 53 हिजरी में उनका इन्तेक़ाल हुआ। असमा बिन्ते उमैस से मुहम्मद बिन अबुबकर हुए। यह अपने ज़ोहद की वजह से आबिदे कुरैश कहलाते थे। हज़रत अबुबकर के बाद इनकी वालिदा हज़रत अली अलै0 के अक़द में आयीं और उन्होंने हज़रत अली अलै के दामन तरबियत में परवरिश पाई। जंगे जमल व सिफ़्फीन में हज़रत अली अलै0 के साथ रहे। सन् 37 हिजरी में हज़रत अली अलै0 की तरफ़ से मिस्र के वाली मुक़र्रर हुए मगर इसी साल माविया ने आपको गधे की ख़ाल में सिलवाकर ज़िन्दा जलवा दिया। हबीब बिन्ते ख़ारजा के बतन से हज़रत अबुबकर की वफ़ात के छः दिन बाद उम्मे कुलसूम पैदा हुई जो तलहा बिन अब्दुल्लाह से मनसूब हुयीं।


 

उम्माल

   मक्के में अताब बिन असीद अमवी, ताएफ़ में उस्मान बिन आस, सनआ में महाजिर बिन अबी उमय्या, जन्द में मेआजड बिन जबल, नजरान में जरया बिन अबदुल्लाह बिजली, हज़र मौत में ज़्याद बिन लबीद, बहरैन में अला हज़रमीं, ख़ूलान में याला बिन उमय्या, सवाद इराक़ में मसना बिन हारिस, बलादे शाम में ख़ालिद बिन वलीद और उनके मा तहत अबुअबीदा बिन जराअ, शरजील बिन हुसना औऱ यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान व अमरु आस अबबकर की तरफ से उम्माल मुक़र्रर थे।


 

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