क़ुरआन नातिक़ भी है और सामित भी।

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हज़रत अली (अ) एक तरफ़ तो फ़रमाते हैं कि यह किताब नातिक़ है जब कि दूसरे मक़ाम पर फ़रमाते हैं यह किताब सामित है नातिक़ नहीं इस को बोलने पर आमादा करना चाहिये और यह मैं हूँ जो क़ुरआन को तुम्हारे सामने बयान करता हूं। ख़ुत्ब ए 147 में यह तअबीर इस्तेमाल हुई है “यअनी क़ुरआन साकित व ख़ामोश है इस हाल मे कि नातिक़ व गुफ़्तगू करने वाला है पस इस का क्या मअना हुआ ?

ग़ालेबन क़ुरआने हकीम के बारे में यह दो नुक़्त ए नज़र हैं। एक यह कि क़ुरआन एक मुक़द्दस किताब है लेकिन ख़ामोश, गोशा नशीं, जिस का किसी से कोई राबेता नहीं और न ही यह किताब किसी से हम कलाम होती है। इसके मुक़ाबिल दूसरी निगाह है जिस के मुताबिक़ यह किताब नातिक़ व गोया है जो हस इन्सानों से मुखा़तिब है और अपनी पैरवी व इत्तेबाअ का हुक्म देती है अपने मानने वालों को खुशबख़्ती और सआदत का पैग़ाम देती है।

पस अगर इस किताब को हम फ़क़्त मुक़द्दस तसव्वुर करें तो इस का मतलब यह है कि एक ऐसी किताब है जिस के कलेमात, जुम्ले और आयात सफ़ह ए क़िरतास पर नक़्श बाँधे हुए हैं जिन का मुसलमान बहुत एहतिराम करते हैं। इस को बोसे देते हैं और घर में इन्तेहाई बेहतरीन जगह पर इस को रखते हैं। बाज़ औक़ात अपनी मजालिस व महाफ़िल में इसकी हक़ीक़त व मअना पर ग़ौर व ताअम्मुल किये बग़ैर तिलावत करते हैं एक ऐसी ख़ामोश किताब है जो किसी महसूस व मल्मूस आवाज़ से गुफ़तगू नहीं करती जो इस नज़रिये का क़ायल है वह हरगिज़ क़ुरआने करीम से हम कलाम नहीं हो सकता, क़ुरआन की आवाज़ को नहीं सुन सकता और क़ुरआने मजीद भी उसकी किसी मुश्किल हो हल नहीं फ़रमाता।

बिनाबर ईन हमारा फ़रीज़ा है कि हम क़ुरआन को किताब समझें और ख़ुदा वन्दे आलम के हुज़ूरे इन्तेहाई ख़ुशू व ख़ुज़ू और जज़्ब ए तसलीम व रज़ा के साथ इस किताब से कलाम सुनने के लिये अपने आप को आमादा करें। यह किताब सरासर आईन ए ज़िन्दगी है। इस सूरत में यह किताब नातिक़ भी है क़ुव्वते गोयाई भी रखती है इन्सानों से हम कलाम भी होती है और ज़िन्दगी के तमाम शोअबो में रहनुमाई भी करती है।

इन दो नुक्त ए नज़र के अलावा क़ुरआन के सामित व नातिक़ होने के एक तीसरा मअमा भी है जो इस से ज़्यादा गहरा व अमीक़ है और हज़रत का मन्ज़ूरे नज़र भी यही मअना है वह मअना यह है कि क़ुरआन साकित व सामित है इस को गुफ़्तगू पर आमादा करना चाहिये और यह मैं हूं जो क़ुरआन को तुम्हारे लिये बयान करता हूं गोया अगरचे क़ुरआने करीम ख़ुदा वन्दे आलम का कलाम है और इस कलामे इलाही के सद्रे नुज़ूल की हक़ीक़त इस तरह है कि हम इन्सानों के लिये क़ाबिले शिनाख्त नहीं जबकि दूसरी तरफ़ नुज़ूले क़ुरआन का हदफ़ इन्सानों की हिदायत है तो यह कलाम कलेमात, जुम्लों और आयात की सूरत में इस तरह नाज़िल हुआ कि बशर के लिये पढ़ने और सुनने के क़ाबिल हो जाए इस के बावजूद ऐसा नहीं है कि तमाम तर आयात के मज़ामीन व मफ़ाहीम आम इन्सानों के लिये क़ाबिले फ़हम हों। पस लोग भी पैग़म्बरे इसलाम (स.) आइम्मा (अ.स.) और रासेख़ूना फ़िल इल्म की तफ़सीर व तशरीह के बग़ैर आयात के मक़ासिद को नहीं पा सकते।

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