हज़रत ज़ैनब की विलादत
मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब बिन्ते अमीरल मोमेनीन (अ.स.) 5 जमादिल अव्वल 6 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में पैदा हुईं जैसा कि ‘‘ ज़ैनब अख़त अल हुसैन ’’ अल्लामा मोहम्मद हुसैन अदीब नजफ़े अशरफ़ सफ़ा 14 ‘‘ बतालता करबला ’’ डा0 बिन्ते अशाती अन्दलसी सफ़ा 27 तबा बैरूत ‘‘ सिलसिलातुल ज़हब ’’ सफ़ा 19 व किताबुल बहरे मसाएब और ख़साएसे ज़ैनबिया इब्ने मोहम्मद जाफ़र अल जज़ारी से ज़ाहिर है। मिस्टर ऐजाज़ुर्रहमान एम0 ए0 लाहौर ने किताब ‘‘ जै़नब ’’ के सफ़ा 7 पर 5 हिजरी लिखा है जो मेरे नज़दीक सही नहीं। एक रवायत में माहे रजब व शाबान एक में माहे रमज़ान का हवाला भी मिलता है। अल्लामा महमूदुल हुसैन अदीब की इबारत का मतन यह है। ‘‘ फ़क़द वलदत अक़ीलह ज़ैनब फ़िल आम अल सादस लिल हिजरत अला माअ तफ़क़ा अलमोरेखून अलैह ज़ालेका यौमल ख़ामस मिन शहरे जमादिल अव्वल अलख़ ’’ हज़रत ज़ैनब (स.अ.) जमादील अव्वल 6 हिजरी में पैदा हुईं। इस पर मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। मेरे नज़दीक यही सही है। यही कुछ अल वक़ाएक़ व अल हवादिस जिल्द 1 सफ़ा 113 तबा क़ुम 1341 ई0 में भी है।
हज़रत ज़ैनब की विलादत पर हज़रत रसूले करीम (स.अ.) का ताअस्सुर वक्त़े विलादत के मुताअल्लिक़ जनाबे आक़ाई सय्यद नूरूद्दीन बिन आक़ाई सय्यद मोहम्मद जाफ़र अल जज़ाएरी ख़साएस ज़ैनबिया में तहरीर फ़रमाते हैं कि जब हज़रत ज़ैनब (स.अ.) मुतावल्लिद हुईं और उसकी ख़बर हज़रत रसूले करीम (स.अ.) को पहुँची तो हुज़ूर जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) के घर तशरीफ़ लाए और फ़रमाया कि ऐ मेरी राहते जान, बच्ची को मेरे पास लाओ, जब बच्ची रसूल (स.अ.) की खि़दमत में लाई गई तो आपने उसे सीने से लगाया और उसके रूख़सार पर रूख़सार रख कर बे पनाह गिरया किया यहां तक की आपकी रीशे मुबारक आंसुओं से तर हो गई। जनाबे सय्यदा ने अर्ज़ कि बाबा जान आपको ख़ुदा कभी न रूलाए, आप क्यों रो पड़े इरशाद हुआ कि ऐ जाने पदर, मेरी यह बच्ची तेरे बाद मुताअद्दि तकलीफ़ों और मुख़तलिफ़ मसाएब में मुबतिला होगी। जनाबे सय्यदा यह सुन कर बे इख़्तियार गिरया करने लगीं और उन्होंने पूछा कि इसके मसाएब पर गिरया करने का क्या सवाब होगा? फ़रमाया वही सवाब होगा जो मेरे बेटे हुसैन के मसाएब के मुतासिर होने वाले का होगा इसके बाद आपने इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखा। (इमाम मुबीन सफ़ा 164 तबा लाहौर) बरवाएते ज़ैनब इबरानी लफ़्ज़ है जिसके मानी बहुत ज़्यादा रोने वाली हैं। एक रवायत में है कि यह लफ़्ज़ जै़न और अब से मुरक्कब है। यानी बाप की ज़ीनत फिर कसरते इस्तेमाल से ज़ैनब हो गया। एक रवायत में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने यह नाम ब हुक्मे रब्बे जलील रखा था जो ब ज़रिए जिब्राईल पहुँचा था।
विलादते ज़ैनब पर अली बिन अबी तालिब (अ.स.) का ताअस्सुर
डा0 बिन्तुल शातमी अन्दलिसी अपनी किताब ‘‘बतलतै करबला ज़ैनब बिन्ते अल ज़हरा ’’ तबा बैरूत के सफ़ा 29 पर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत ज़ैनब की विलादत पर जब जनाबे सलमाने फ़ारसी ने असद उल्लाह हज़रत अली (अ.स.) को मुबारक बाद दी तो आप रोने लगे और आपने उन हालात व मसाएब का तज़किरा फ़रमाया जिनसे जनाबे ज़ैनब बाद में दो चार होने वाली थीं।
हज़रत ज़ैनब की वफ़ात
मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब (स.अ.) जब बचपन जवानी और बुढ़ापे की मंज़िल तय करने और वाक़े करबला के मराहिल से गुज़रने के बाद क़ैद ख़ाना ए शाम से छुट कर मदीने पहुँची तो आपने वाक़ेयाते करबला से अहले मदीना को आगाह किया और रोने पीटने, नौहा व मातम को अपना शग़ले ज़िन्दगी बना लिया। जिससे हुकूमत को शदीद ख़तरा ला हक़ हो गया। जिसके नतीजे में वाक़िये ‘‘ हर्रा ’’ अमल में आया । बिल आखि़र आले मोहम्मद (स.अ.) को मदीने से निकाल दिया गया।
अबीदुल्लाह वालीए मदीना अल मतूफ़ी 277 अपनी किताब अख़बारूल ज़ैनबिया में लिखता है कि जनाबे ज़ैनब मदीने में अकसर मजलिसे अज़ा बरपा करती थीं और ख़ुद ही ज़ाकरी फ़रमाती थीं। उस वक़्त के हुक्कामे को रोना रूलाना गवारा न था कि वाक़िये करबला खुल्लम खुल्ला तौर पर बयान किया जाय। चुनान्चे उरवा बिन सईद अशदक़ वाली ए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि मदीने में जनाबे ज़ैनब की मौजूदगी लोगों में हैजान पैदा कर रही है। उन्होंने और उनके साथियों ने तुझ से ख़ूने हुसैन (अ.स.) के इन्तेक़ाम की ठान ली है। यज़ीद ने इत्तेला पा कर फ़ौरन वाली ए मदीना को लिखा कि ज़ैनब और उनके साथियांे को मुन्तशर कर दे और उनको मुख़तलिफ़ मुल्कों में भेज दे। (हयात अल ज़हरा)
डा0 बिन्ते शातमी अंदलसी अपनी किताब ‘‘ बतलतए करबला ज़ैनब बिन्ते ज़हरा ’’ तबा बैरूत के सफ़ा 152 में लिखती हैं किे हज़रत ज़ैनब वाक़िये करबला के बाद मदीने पहुँच कर यह चाहती थीं कि ज़िन्दगी के सारे बाक़ी दिन यहीं गुज़ारें लेकिन वह जो मसाएबे करबला बयान करती थीं वह बे इन्तेहा मोअस्सिर साबित हुआ और मदीने के बाशिन्दों पर इसका बे हद असर हुआ। ‘‘ फ़क़तब वलैहुम बिल मदीनता इला यज़ीद अन वुजूद हाबैन अहलिल मदीनता महीज अल ख़वातिर ’’ इन हालात से मुताअस्सिर हो कर वालीए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि जनाबे ज़ैनब का मदीने में रहना हैजान पैदा कर रहा है। उनकी तक़रीरों से अहले मदीना में बग़ावत पैदा हो जाने का अन्देशा है। यज़ीद को जब वालीए मदीना का ख़त मिला तो उसने हुक्म दिया कि इन सब को मुमालिको अम्सार में मुन्तशिर कर दिया जाय। इसके हुक्म आने के बाद वालीए मदीना ने हज़रते ज़ैनब से कहला भेजा कि आप जहां मुनासिब समझें यहां से चली जायंे। यह सुनना था कि हज़रते ज़ैनब को जलाल आ गया और कहा कि ‘‘ वल्लाह ला ख़रजन व अन अर यक़त दमायना ’’ ख़ुदा की क़सम हम हरगिज़ यहां से न जायेंगे चाहे हमारे ख़ून बहा दिये जायें। यह हाल देख कर ज़ैनब बिन्ते अक़ील बिन अबी तालिब ने अर्ज़ कि ऐ मेरी बहन ग़ुस्से से काम लेने का वक़्त नहीं है बेहतर यही है कि हम किसी और शहर में चले जायें। ‘‘ फ़ख़्रहत ज़ैनब मन मदीनतः जदहा अल रसूल सुम्मा लम हल मदीना बादे ज़ालेका इबादन ’’ फिर हज़रत ज़ैनब मदीना ए रसूल से निकल कर चली गईं। उसके बाद से फिर मदीने की शक्ल न देखी। वह वहां से निकल कर मिस्र पहुँची लेकिन वहां ज़ियादा दिन ठहर न सकीं। ‘‘ हकज़ा मुन्तकलेतः मन बलदाली बलद ला यतमईन बहा अल्ल अर्ज़ मकान ’’ इसी तरह वह ग़ैर मुतमईन हालात में परेशान शहर बा शहर फिरती रहीं और किसी एक जगह मकान में सुकूनत इख़्तेयार न कर सकीं। अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी लिखते हैं ‘‘ व क़ज़त अल अक़ीलता ज़ैनब हयातहाबाद अख़यहा मुन्तक़लेत मन मल्दाली बलद तकस अलन्नास हना व हनाक ज़ुल्म हाज़ा अल इन्सान इला रख़याा अल इन्सान ’’ कि हज़रत ज़ैनब अपने भाई की शहादत के बाद सुकून से न रह सकीं वह एक शहर से दूसरे शहर में सर गरदां फिरती रहीं और हर जगह ज़ुल्मे यज़ीद को बयान करती रहीं और हक़ व बातिल की वज़ाहत फ़रमाती रहीं और शहादते हुसैन (अ.स.) पर तफ़सीली रौशनी डालती रहीं। (ज़ैनब अख्तल हुसैन सफ़ा 44) यहां तक कि आप शाम पहुँची और वहां क़याम किया क्यों कि बा रवायते आपके शौहर अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार की वहां जायदाद थी वहीं आपका इन्तेक़ाल ब रवायते अख़बारूल ज़ैनबिया व हयात अल ज़हरा रोज़े शम्बा इतवार की रात 14 रजब 62 हिजरी को हो गया। यही कुछ किताब ‘‘ बतलतए करबला ’’ के सफ़ा 155 में है। बा रवाएते ख़साएसे ज़ैनबिया क़ैदे शाम से रिहाई के चार महीने बाद उम्मे कुलसूम का इन्तेक़ाल हुआ और उसके दो महीने बीस दिन बाद हज़रते ज़ैनब की वफ़ात हुई। उस वक़्त आपकी उम्र 55 साल की थी। आपकी वफ़ात या शहादत के मुताअल्लिक़ मशहूर है कि एक दिन आप उस बाग़ में तशरीफ़ ले गईं जिसके एक दरख़्त में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का सर टांगा गया था। इस बाग़ को देख कर आप बेचैन हो गईं। हज़रत ज़ुहूर जारज पूरी मुक़ीम लाहौर लिखते हैं।
कारवां शाम की सरहद में जो पहुँचा सरे शाम
मुत्तसिल शहर से था बाग़ , किया उसमें क़याम
देख कर बाग़ को , रोने लगी हमशीरे इमाम
वाक़ेया पहली असीरी का जो याद आया तमाम
हाल तग़ईर हुआ , फ़ात्मा की जाई का
शाम में लटका हुआ देखा था सर भाई का
बिन्ते हैदर गई , रोती हुई नज़दीके शजर
हाथ उठा कर यह कहा, ऐ शजरे बर आवर
तेरा एहसान है , यह बिन्ते अली के सर पर
तेरी शाख़ों से बंधा था , मेरे माजाये का सर
ऐ शजर तुझको ख़बर है कि वह किस का था
मालिके बाग़े जिनां , ताजे सरे तूबा था
रो रही थी यह बयां कर के जो वह दुख पाई
बाग़बां बाग़ में था , एक शकी़ ए अज़ली
बेलचा लेके चला , दुश्मने औलादे नबी
सर पे इस ज़ोर से मारा , ज़मीं कांप गई
सर के टुकड़े हुए रोई न पुकारी ज़ैनब
ख़ाक पर गिर के सुए ख़ुल्द सिधारीं ज़ैनब
हज़रत ज़ैनब का मदफ़न
अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं। ‘‘ क़द अख़तलफ़ अल मुरखून फ़ी महल व फ़नहा बैनल मदीनता वश शाम व मिस्र व अली बेमा यग़लब अन तन वल तहक़ीक़ अलैहा अन्नहा मदफ़नता फ़िश शाम व मरक़दहा मज़ार अला लौफ़ मिनल मुसलेमीन फ़ी कुल आम ’’ ‘‘ मुवर्रेख़ीन उनके मदफ़न यानी दफ़्न की जगह में इख़्तेलाफ़ किया है कि आया मदीना है या शाम या मिस्र लेकिन तहक़ीक़ यह है कि वह शाम में दफ़्न हुई हैं और उनके मरक़दे अक़दस और मज़ारे मुक़द्दस की हज़ारों मुसलमान अक़ीदत मन्द हर साल ज़्यारत किया करते हैं । ’’ (ज़ैनब अख़्तल हुसैन सफ़ा 50 नबा नजफ़े अशरफ़) यही कुछ मोहम्मद अब्बास एम0 ए0 जोआईट एडीटर पीसा अख़बार ने अपनी किताब ‘‘ मशहिरे निसवां ’’ तबा लाहौर 1902 ई0 के सफ़ा 621 मे और मिया एजाज़ुल रहमान एम0 ए0 ने अपनी किताब ‘‘ ज़ैनब रज़ी अल्लाह अन्हा ’’ के सफ़ा 81 तबा लाहौर 1958 ई0 में लिखा है।
शाम में जहां जनाबे ज़ैनब का मज़ारे मुक़द्दस है उसे ‘‘ ज़ैनबिया ’’ कहते हैं।
(ये मकाला चोदह सितारे से लिया गया है।)
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