लेखक: आयतुल्लाह सैय्यद अली हुसैनी मीलानी (दामत बरकातुहु)
अनुवादक: सैयद एजाज़ हुसैन मूसवी
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
प्राक्कथन
.... ईश्वर का अंतिम व सम्पूर्ण धर्म, आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के भेजे जाने बाद संसार वासियों के लिये पेश किया गया और ईश्वर का विधान व दूतों के आने और संदेश पहुचाने का सिलसिला आपकी नबूवत के साथ ही हमेशा के लिये बंद हो गया।
इस्लाम धर्म मक्का शहर में फला फूला और ईश्वर के संदेश वाहक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम और उनके कुछ वफ़ादार साथियों की तेइस वर्षों की कड़ी मेहनत और अंथक प्रयत्नों के साथ पूरे अरब जगत में फैल गया।
ईश्वर के इस पथ को आगे बढ़ाने के लिये ज़िल हिज्जा की अठ्ठारह तारीख़ को, ग़दीरे ख़ुम के मैदान में मुसलमानों की आम सभा में ईश्वर के संदेशानुसार, उसके दूत हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम ने इस्लाम पर सबसे पहले ईमान लाने वाले हज़रत अली अलैहिस सलाम के हवाले किया गया।
उस दिन हज़रत अली अलैहिस सलाम की इमामत के ऐलान व उत्तराधिकारी बनाये जाने के साथ ही ईश्वर की उसके भक्तों पर नेमत तमाम और धर्म सम्पूर्ण हो गया और इस्लाम धर्म को ईश्वर ने अपना पसंदीदा घर्म घोषित कर दिया। जिसके कारण काफ़िर व मुशरिक इस्लाम धर्म के मिट जाने से मायूस हो गये।
अभी ज़्यादा समय नही गुज़रा था कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के आसपास रहने वालों में से कुछ लोगों ने पहले से किये गये प्लान व साज़िश के तहत उनकी वफ़ात के बाद, मार्गदर्शन व हिदायत के रास्ते से मुंह मोड़ लिया, इल्म के शहर के दरवाज़े को बंद करके, मुसलमानों को दर दर भटकने के लिए छोड़ दिया। उन लोगों ने अपनी हुकूमत के पहले ही दिन से पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की हदीसों को लिखने से मना कर के, हदीसें गढ़ कर, और शैतानी शंकाएं उत्पन्न करके, उन इस्लामी वास्तविकताओं को, जो चमकते हुए सूरज की तरह चमक रही थीं, उन्हे शक व शंका के काले बादलों के पीछे छुपा दिया गया।
स्पष्ट है कि सारी साज़िशों के बावजूद इस्लामी वास्तविकताएं व पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की अमुल्य हदीसें उनके उत्तराधिकारी हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और उनके बाद उनके उत्तराधिकारियों अइम्मा ए मासूमीन अलैहिमुस सलाम और नबी (स) के वफ़ादार साथियों और सहाबियों के ज़रिये इतिहास में बाक़ी रह गई और हर ज़माने में किसी न किसी सूरत में प्रकट होती रहीं। उन हज़रात ने इस्लामी मुआरिफ़ को सही तौर पर बयान करके, दो दिली मुनाफ़ेक़त, शैतानी बहकावों और इस्लाम विरोधियों का जवाब देकर हक़ीक़त को सबके सामने पेश कर दिया।
इस राह में कुछ नूरानी चेहरा लोग जिन में शैख़ मुफ़ीद, सैयद मुर्तज़ा, शैख़ तूसी, ख़्वाजा नसीरुद्दीन तूसी, अल्लामा हिल्ली, क़ाज़ी नूरूल्लाह शूसतरी, मीर हामिद हुसैन हिन्दी, सैयद शरफ़ुद्दीन आमुली, अल्लामा अमीनी आदि ... के नाम सितारों की तरह चमकते हैं। इस लिये कि इन लोगों ने इस्लामी व शिया समुदाय की वास्तविकता की रक्षा की राह में अपनी ज़बान और क़लम के साथ उस पर शोध किया और उन पर होने वाले ऐतेराज़ों व आपत्तियों का उत्तर दिया।
हमारे ज़माने में भी एक बुद्धिजीवि व विचारक जिन्होने अपने सरल क़लम और अच्छे बयान के साथ पवित्र धर्म इस्लाम की वास्तविकता का वर्णन किया है और हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इमामत व विलायत की रक्षा आलिमाना अंदाज़ से की है और वह महान अनुसंधानकर्ता हज़रत आयतुल्लाह सैयद अली हुसैनी मीलानी हैं।
इस्लामी वास्तविकता केन्द्र को इस बात पर गर्व है कि उसने इस महान शोधकर्ता के क़ीमती आसार को अपने प्रोग्राम का हिस्सा बनाया ताकि और उनकी किताबों को शोध, अनुवाद व प्रसार के साथ छात्रों, पढ़े लिखे लोगों और इस्लामी वास्तविकता के बारे में जानने वालों के हाथों तक पहुचाया जा सके।
यह जो किताब आप के हाथ में है वह इन ही लेखक की एक किताब का हिन्दी अनुवाद है ताकि हिन्दी भाषी लोग इसके अध्धयन से इस्लामी वास्तविकता को जान सकें।
हमे आशा है कि हमारी यह किताब इमामे ज़माना हज़रत बक़ीय्यतुल्लाहिल आज़म (अज्जल्लाहो तआला फ़रजहुश शरीफ़) की प्रसन्नता और पसंद का कारण बनेगी।
इस्लामी वास्तविकता केन्द्र
प्रस्तावना
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल अलमीन वस सलातो वस सलामो अला सैय्यदना मुहम्मदिन व आलिहित ताहेरीनल मासूमीन व लानतुल्लाहि अला आदाइहिम अजमईन मिनल अव्वलीना वल आख़िरीन।
ख़ुदा वंदे आलम ने पवित्र क़ुरआन में इरशाद फ़रमाया है:
क्या जो सत्य की तरफ़ मार्गदर्शन करता है वह पैरवी के लिये श्रेष्ठ है या वह जो पथभ्रष्ट है जिसे ख़ुद मार्ग दिखाने की आवश्यकता है? तुम्हे क्या हो गया है? तुम कैसे फ़ैसला करते हो?
हक़ का शब्द अरबी भाषा में मज़बूत और दृढ़ता के अर्थ में प्रयोग होता है। आयत के इस भाग का तात्पर्य (क्या वह हक़ का मार्गदर्शन करता है) है कि क्या वह जो तुम्हे क़तई व यक़ीनी मज़बूत कामों की तरफ़ मार्ग दर्शन करता है और हक़ीक़त व वास्तविकता की तरफ़ हिदायत करता है वह पैरवी करने के लिये श्रेष्ठ है या वह जो मार्ग दर्शन नही कर सकता मगर यह कि उसका मार्ग दर्शन किया जाये?
ख़ुदा वंदे आलम ने इस आयत में हमें एक बुनियादी उसूल का मार्ग दिखाया है, ऐसे उसूल की तरफ़ जिसे सारे मुसलमान व ग़ैर मुसलमान स्वीकार करते हैं वह यह है कि अगर कोई समूह किसी वास्तविकता तक पहुचना चाहता है या अगर वह चाहता है कि संसार की वास्तविकताएं उसके सामने स्पष्ठ व ज़ाहिर हो जायें तो वह ऐसे मनुष्ट के पास जायेगा जो इस संसार की सारी वास्तविकताओं की जानकारी रखता हो तभी तो वह दूसरो के लिये बयान कर सकता है लेकिन अगर किसी को इन वास्तविकताओं की जानकारी नही है तो फिर वह कैसे दूसरों को उसके बारे में जानकारी दे सकता है या उसे बता सकता है?।
अत: मुनष्य को चाहिये कि वह कुछ वास्तविकताओं व हक़ीक़तों के बारे में ज्ञान की सीमा तक पहुच जाये और केवल गुमान को पर्याप्त न समझे, बल्कि उनके बारे में केवल दूसरों को दृष्टिकोणों तक ख़ुद को सीमित न करे बल्कि उस के लिये आवश्यक है कि वह ख़ुद उनका यक़ीन हासिल करे।
यही कारण है कि शिया व सुन्नी धर्म गुरुओं ने फ़तवा दिया है कि ऐतेक़ादात और उसूले दीन (धर्म के मूल सिद्धात) के सिलसिले में ख़ुद इंसान के लिये वाजिब है कि वह यक़ीन प्राप्त करे और गुमान करने व दूसरों के बताने से यक़ीन तक पहुच जाना काफ़ी नही है। पवित्र क़ुरआन में ईश्वर का इरशाद है:
निसंदेह ख़्याल इंसान को वास्तविकता से बेनियाज़ नही करता और उसे हक़ तक नही पहुचाता।
यह एक अक़्ली उसूल व सिद्धात हैं जिसे सारे लोग स्वीकार करते हैं और पवित्र क़ुरआन ने भी इसके बारे में वर्णन किया है और हमारा उसकी तरफ़ मार्गदर्शन किया है। अब अगर हमें किसी विषय के बारे में दो लोगों में से किसी एक को प्रश्न करने के लिये चुनाव करना हो जिन में से एक ज़्यादा पढ़ा लिखा व समझदार हो और दूसरों का सही अक़ीदे और उसकी हक़ीक़त व वास्तविकता की स्पष्टता की ओर मार्गदर्शन कर सकता हो जबकि दूसरा ऐसा हो जिसे ख़ुद मार्गदर्शन की आवश्यकता हो वह चाहता हो कि कोई ऐसा हो जो उसे सही मार्ग दिखा सके उसका हाथ पकड़ सके ता कि वह पथभ्रष्ट न हा जाये। तो आप उन दोनों में से किसे अपने मार्गदर्शन के लिये चुनेंगे?। अगर हमें हक़ीक़त तक पहुचना है, हम चाहते है कि वास्तविकता हमारे लिये स्पष्ट व साफ़ हो जाये तो हम उन दोनों में से किस के पास जायेंगे?। क्या हम अपने अक़ीदे को सही करने के लिये किसी ऐसे के पास जाने के लिये तैयार हो जायेंगे जिसे ख़ुद हिदायत व सीखने की आवश्यकता हो?।
हमारा मानना है कि इमामत व ख़िलाफ़त उन कार्यों में से है जिसे चुनने का अधिकार ईश्वर के पास है और जनता के चुनाव का इस महत्वपूर्ण कार्य से कोई संबंध नही है और जैसा कि नबूवत ऐसा पद है जिसका अधिकार ईश्वर के पास है ठीक उसी तरह से इमामत व ख़िलाफ़त भी है इस दृष्टि से इमामत व नबूवत में कोई अंतर नही है।
अत: इमाम की पहचान के लिये हमें पक्के सबूत और स्पष्ट व साफ़ दलीलों की आवश्यकता होगी जो हमें यह बता सके कि जनता का नेता व मार्गदर्शक यह इंसान है, इसलिये कि वह ख़ुद मार्गदर्शन प्राप्त कर चुका है और मार्गदर्शन कर सकता है।
इसी तरह से अगर किसी एक या कई इंसानों के मासूम व निष्पाप होने के सिलसिले में दलील पेश की जाये, तो इस बात के ध्यान में रखते हुए कि उसके अंदर निष्पाप होने की विशेषता पाई जाती है तो हमारी बुद्धि हमें आज्ञा नही देती है कि किसी ऐसे इँसान को छोड़ कर हम किसी और के पास जायें और उससे मार्गदर्शन चाहें। इसी कारणवश कहा गया है कि इमामत व ख़िलाफ़त का या किसी पक्के सबूत से या अक़्ली दलील से साबित किया जाना चाहिये और वह पक्का सबूत व दलील या पवित्र क़ुरआन हो सकता है या फिर क़तई सुन्नत।
अंतिम शाब्दिक दलील जो इस बारे में बयान की गई है वह हदीसे मंज़िलत है जो तीन ऐतेबार से अमीरुल मोमनीन अली अलैहिस सलाम के इमाम व ख़लीफ़ा होने को साबित करती है। यह हदीस आपकी इमामत व ख़िलाफ़त की क़तई सनद होने के साथ साथ, आपके मासूम व निष्पाप होने पर भी स्पष्ट व साफ़ दलील है और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम) के समस्त सहाबियों पर आपकी श्रेष्ठता को साबित करती है।
यह किताब जो आपकी नज़रों के सामने है इस में अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इमामत के मसले को अक़्ली ऐतेबार व अक़्ली दलीलों से साबित किया गया है। यह लेख दो भागों पर आधारित है:
1. इमाम की विशेषताएं
2. अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की विशेषताएं
सैयद अली हुसैनी मीलानी
इमाम की विशेषताएं
इमाम के लिये स्वीकार्य विशेषताएं
अहले सुन्नत धर्म गुरुओं ने अक़ायद व दीनीयात पर बहुत सी किताबें लिखी हैं जैसे: अल मवाक़िफ़ फ़ी इल्मिल कलाम, लेखक क़ाज़ी ऐजी, शरहुल मवाक़िफ़, लेखक शरीफ़ जुरजानी, अत तजरीद पर लिखी गई क़ौशजी की शरह, शरहुल मक़ासिद, लेखक सअदुद्दीन तफ़तज़ानी, शरहुल अक़ायदिन नफ़सिया व अक़ायद की दूसरी महत्वपूर्ण किताबें।
उन सब ने इन किताबों में इमाम के सिलसिले में बहस की है और उसके लिये अलग से अध्याय बनाये हैं। इन किताबों के अध्यायों में कुछ इमाम के चुनाव के बारे में हैं कि इमाम का चुनाव जनता के हाथ में हैं और ईश्वर का इस चीज़ से कोई लेना देना नही है। यह दृष्टिकोण शिया इमामिया के दृष्टिकोण के विपरित है।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
वह किताब के दूसरे भागों में इमाम में पाई जानी वाली कुछ शर्तों को अनिवार्य मानते हैं और कहते हैं: जिस किसी को जनता समाज की रहबरी के लिये चुनती है उन में इन सारी शर्तों का पाया जाना आवश्यक है ता कि वह इस महत्वपूर्ण कार्य के चुनाव के योग्य बन सके, उसके बाद वह उन शर्तों का वर्णन करते हैं और उसे दो भागों में बाटते हैं:
1. वह शर्तें जिन्हे सारे ओलमा स्वीकार करते हैं।
2. वह शर्ते जिन के बारे में ओलमा के दरमियान इख़्तिलाफ़ पाया जाया है।
इस लेख में उन शर्तों की जांच पड़ताल की जायेगी जो अहले सुन्नत इमाम की नियुक्ति के लिये बयान करते हैं। ता कि यह देखा जा सके कि वह आवश्यक विशेषताएँ ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के बाद उनके उत्तराधिकारी के तौर पर किस के अंदर पाई जाती हैं।
अलबत्ता हम इस जांच पड़ताल में शियों के इमाम नियुक्त करने के तरीक़ों की अनदेखी करते हुए, अहले सुन्नत के तरीक़ों के अनुसार इस ख़ूबियों व विशेषताओं के बारे में वार्तालाप करेंगे और बहुत बारीकी से उनकी जांच पड़ताल करेंगे।
1. इल्म व ज्ञान
पहली शर्त जो अहले सुन्नत इमाम के लिये आवश्यक समझते हैं वह उसका इल्म व ज्ञान है, यानी इमाम को धर्म के सिद्धात व उसकी बारीकियों की पूर्ण रुप से जानकारी होनी चाहिये। इस तरह से कि वह इस धर्म की सत्यता व हक़्क़ानियत के लिये दलील व सबूत पेश कर सके। अगर धर्म विरोधियों को ओर से कोई शँका उत्पन्न की जाये तो उसकी अपनी वैचारिक शक्ति इतनी हद तक हो कि वह उनका मुक़बला कर सके और डट कर उन शँकाओं व आपत्तियों को हल कर सके, उनका निवारण कर सके।
2. बहादुरी व वीरता
दूसरी शर्त जो अहले सुन्नत इमाम की नियुक्ति के लिये अनिवार्य समझते हैं वह वीरता व बहादुरी है।
इमाम को इतना वीर व बहादुर होना चाहिये कि वह सारी जंगों में उपस्थित रहे और इस्लामी सेना को दुश्मन से जंग के लिये तैयार कर सके और दुश्मन के हमले के समय न केवल यह कि जंग के मैदान से हटे नही बल्कि अत्यधिक शक्ति के साथ उनके मुक़ाबले पर डटा रहे और धर्म के क़िले और मुसलमान सेनाओं की रक्षा कर सके।
3. न्याय व इंसाफ़
इमाम के लिये आवश्यक तीसरी शर्त न्याय व इंसाफ़ है। यानी इमाम को चाहिये कि वह जनता के साथ जीवन यापन के तरीक़े में न्याय व इंसाफ़ से काम ले। जहां पर मुसलमानों के बीच फ़ैसला करना हो, न्याय व इंसाफ़ के साथ फ़ैसला सुनाये, सरकारी ख़ज़ाने को जनता के बीच न्याय के साथ बाटे और अपने सारे नीजि कार्यों और उन कार्यों में जो मुसलमान जनता से संबंधित हैं, न्याय व इंसाफ़ का ख़्याल रखे।
समस्त अहले सुन्नत ओलमा ने अपनी किताबों में इमाम के लिये इन तीन शर्तों का वर्णन किया है और उनके दृष्टिकोणों के अनुसार जनता के माध्यम से चुनाव होने वाले प्रत्याशी में इन विशेषताओं का पाया जाना आवश्यक है।
अहले सुन्नत ओलमा के दृष्टिकोणों के कुछ उदाहरण
अहले सुन्नत ओलमा के दृष्टिकोणों की जानकारी हासिल करने के लिये हम यहां पर कुछ नमूनों के बयान कर रहे हैं। किताब अल मवाक़िफ़ फ़ी इल्मिल कलाम व शरहुल मवाक़िफ़ में, जो अहले सुन्नत की अक़ायद की सबसे महत्वपूर्ण किताबों में से है, इस तरह से मिलता है:
इमामत की शर्तें
समस्त ओलमा का मानना है कि जनता की इमामत व सर परस्ती के लिये ऐसा व्यक्ति योग्यता रखता है जो धर्म के सिद्धातों, उसूल व फ़ुरू में इज्तेहाद के दर्जे पर पहुच चुका हो और मुजतहिद हो ता कि वह दीन के मसाइल व कार्यों को बयान कर सके और धर्म पर होने वाली आपत्तियों के मुक़ाबले में डट सके और दलील व सबूत के साथ उसका उत्तर दे सके और अपने धर्म की रक्षा कर सके।
इमाम उन इख़्तेलाफ़ी मसलों व कार्यों के हल करने में, जिनमें उसके पास शिकायतें आती हैं, ऐसी शक्ति रखता हो कि उन्हे अपने एक फ़तवे या आदेश से नतीजे तक पहुचा दे और समाज की व्यवस्था को अपनी मुठ्ठी में ले ले। इस लिये कि इमामत का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य यही मसला है कि जिसमें सबसे पहली श्रेणी में धार्मिक अक़ीदे की अपनी इल्मी शक्ती से रक्षा करना है और शंकाओं को हल करने के लिये उसके पास पर्याप्त दलीलें होनी चाहियें और दूसरे मरहले में मुसलमान के दरमियान पाई जाने वाली आपसी दुश्मनी व इख़्तेलाफ़ का अपनी सूझ बूझ से अंत करना है और फ़ैसले के समय उनके बीच न्याय व इंसाफ़ का ख़्याल रखे। यह वह शर्तें कि जिन के बिना इमामत कभी भी सम्पूर्ण नही हो सकती है।
अत: इन बातों के मद्दे नज़र इमाम के अंदर दो शर्त पाई जानी चाहिये:
1. इल्म
2. बहादुरी
अलबत्ता दूसरी जगहों पर जैसे किताबुल मवाक़िफ़ व शरहुल मवाक़िफ़ में इस तरह से बयान हुआ है:
मशहूर व प्रसिद्ध कथन के मुक़ाबले में कुछ का कहना है कि इन सारी विशेषताओं का पाया जाना आवश्यक नही है क्यों कि आज के दौर में कोई ऐसा नही है जिस में यह सारी ख़ूबियां पाई जाती हों।
क़ाबिले ग़ौर बात यह है कि यह किताबें सातवीं व आठवी हिजरी शताब्दी में लिखी गई हैं। उस ज़माने में जो लोग शासन कर रहे थे उनमें से किसी में यह सारी विशेषताएं नही पाई जाती थीं। इस लिये अहले सुन्नत इमाम के चुनाव व नियुक्ति में इन शर्तों का आवश्यक न मानें और जाहिल व डरपोक यहां तक कि पापी व ग़लत अक़ीदा रखने वाले लोगों की इमामत का क़ायल समझने लगें तो जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि वह इमाम में पाई जाने वाली तीसरी शर्त न्याय व इंसाफ़ शुमार करते हैं। किताब अल मवाक़िफ़ के लेखक इस बारे में लिखते हैं:
हां, आवश्यक है कि इमाम न्यायप्रिय हो ता कि जनता पर अत्याचार न करे, इस लिये कि निसंदेह फ़ासिक़ व अधर्म इंसान कभी जनता की दौलत को अपने ज़ाती लक्ष्यों में ख़र्च कर सकता है और अपने इस काम से दूसरे के हक़ पर डाका डाल सकता है अत: इमाम में इन विशेषताओं के होने के बारे में सर्व सम्मती पाई जाती है।
उसके बाद इस तरह से लिखते हैं:
यहां पर कुछ दूसरी विशेषताएं भी बयान हुई हैं लेकिन यह कि वह इमामत की शर्तों में से हैं या नहीं ओलमा के दरमियान इस बारे में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है।
इस दृष्टिकोण की अक़्ली जांच पड़ताल
हम अहले सुन्नत से उनके इस दृष्टिकोण के बारे में बहस करते हुए कहते हैं कि अक़्ली ऐतेबार से इमाम के अंदर इन तीन शर्तों को होना चाहिये। दूसरी तरफ़ यह फ़र्ज़ कर लेते हैं इमाम का चुनाव व नियुक्ति जनता की राय व उनके समर्थन से होना चाहिये तो इस लिहाज़ हमारा उनसे इख़्तिलाफ़ सिर्फ़ इमाम के बारे में रह जाता है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम के बाद इमाम कौन है, इसलिये कि हमारा मानना है कि आप (स) के बाद हज़रत अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम उनके उत्तराधिकारी व इमाम हैं जब कि उनका अक़ीदा है कि अबू बक्र इमाम हैं।
अब बहस इस बात पर है कि वह विशेषताएं जिन्हे सारे अहले सुन्नत मानते हैं कि वह इमाम में होना चाहिये और कहते हैं कि जनता को चाहिये कि वह किसी ऐसे का चयन करे जिस में यह तीनों शर्तें पाई जाती हों तो क्या यह तीनों विशेषताएं अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में नही पाई जाती थीं या यह ख़ूबियां केवल अबू बक्र से विशेष थीं व उन तक सीमित थीं?
अलबत्ता हम यहां पर किताब व सुन्नत से हट कर बहस करेंगे, इस लिये कि पवित्र क़ुरआन व पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सुन्नत व दूसरी दलीलें अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम की इमामत व ख़िलाफ़त को बयान और उसे साबित करती हैं।
अक़्ल कहती है: किसी गिरोह का नेता व उसका मार्गदर्शक और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम) के उत्तराधिकारी में यह सारी ख़ूबियां पाई जानी चाहिये। हम भी अहले सुन्नत की तरह इन सारी विशेषताओं को इमाम के लिये अनिवार्य मानते हैं, हालांकि हम इमाम के मासूम व निष्पाप होने को मानते हैं जो न्याय प्रिय व इंसाफ़वर होने से ज़्यादा श्रेष्ठ है, लेकिन वह सारी विशेषताएं जिन्हे वह स्वीकार करते हैं, उसी से बहस करेंगे और अपने तरीक़े को नज़र अंदाज़ करेंगे।
अब हमारा कहना है कि अगर यह ख़ूबियां जिन्हे अहले सुन्नत मानते हैं, अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में पाई जाती हों तो वह इमाम व ख़लीफ़ा होंगे और अगर किसी दूसरे इंसान में पाई जाती हों तो वह भी इस इमामत व ख़िलाफ़त के योग्य होगा और अगर यह विशेषताएं दोनों व्यक्तियों में पाई जाती हों तो हम जांच करेंगें कि उन दोनों में से किस में यह विशेषताएं उत्तम श्रेष्ठता के साथ पाई जाती है उसी को उत्तराधिकारी व इमाम व ख़लीफ़ा चुनेंगे और उसे दूसरे पर प्राथमिकता देंगे। इसके अलावा दूसरी सूरत में उस का चुनाव नही करेंगे जो दोनो में से बेहतर है और उस बेहतर को किनारे कर देंगे और जो बेहतर व श्रेष्ठ नही है उसे चुन लेगें। यह चीज़ अक़्ल के ऐतेबार से ग़लत व अनुचित होगी। जब कि पवित्र क़ुरआन में इस बारे में इरशाद हो रहा है:
क्या वह जो हक़ व सत्य की ओर मार्ग दर्शन करता है पैरवी व अनुसरण के लिये श्रेष्ठ है या वह जो पथभ्रष्ट है और जिसे ख़ुद मार्ग दर्शन की आवश्यकता हो?
वास्तव में क्या वह व्यक्ति व इंसान जो ज्ञानी व पढ़ा लिखा हो, वह जनता के मार्ग दर्शन के लिये श्रेष्ठ हो सकता है या वह जो अज्ञानी व जाहिल व मंद बुद्धि हो?
अगर यह फ़र्ज़ कर लिया जाये कि वह दोनों ही ज्ञानी व आलिम हैं तो क्या वह जो बड़ा ज्ञानी है उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिये या नही?
क्या वह जो न्याय प्रिय है, वह जनता पर शासन करने के ज़्यादा योग्य है या वह जो जनता पर अत्याचार व ज़ुल्म करता हो?
जी हां, हमें इन प्रश्नों के उत्तर के लिये बुद्धि व बुद्धिमान लोगो की सहायता की आवश्यकता पड़ेगी, हम इसी सिलसिले में यहां पर बात करना चाहते है।
अहले सुन्नत कहते हैं कि इन विशेषताओं व ख़ूबियों को बारे में सारे धर्म गुरु व बुद्धिजीवि एक राय व एकमत हैं लेकिन इस बात में कि इमाम व उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा, हाशमी और क़ुरैशी, मासूम व निष्पाप व स्वतंत्र हो, इख़्तेलाफ़ पाया जाता है। जब कि वह लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम से एक हदीस का उल्लेख करते हैं कि आपने फ़रमाया कि जो भी मुसलमानों पर विलायत रखता हो, उसकी पैरवी व अनुसरण, उसके आदेश का पालन करना अनिवार्य व आवश्यक है चाहे वह कोई दास व ग़ुलाम ही क्यों न हो।
निष्पाप व मासूम होने की विशेषता व ख़ूबी हो होना, शिया अक़ीदानुसार है जबकि दूसरे सम्प्रदाय इसे अनिवार्य नही मानते हैं और इस के अलावा दूसरी विशेषताओं के बारे में भी भिन्नता पाई जाती है, जैसा कि हमने बयान किया कि अहले सुन्नत केवल तीन विशेषताओं के ऊपर एक राय व एकमत हैं और वह ज्ञान, वीरता व न्याय है, अत: हम अपने शोध व रिसर्च को केन्द्र केवल इन ही तीन विशेषताओं पर आधारित करेंगे।
अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम की विशेषताएं
1. ज्ञान व इल्म
इससे पहले बयान किया गया कि पहली शर्त जिसे तमाम अहले सुन्नत इमाम के लिये आवश्यक व ज़रुरी समझते हैं वह ज्ञान व इल्म है।
हम इस भाग में अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और अबू बक्र की सीरत व जीवनी और जो कुछ हज़रत अली अलैहिस सलाम व अबू बक्र के बारे में बयान किया गया है, का वर्णन करेंगे ता कि अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के इल्मी स्थान को स्पष्ट कर सकें और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम, उनके सहाबियों और मुस्लिम धर्म गुरुओं के हज़रत अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के बारे में व्यक्त की गई प्रतिक्रियाओं का वर्णन करेंगे।
अलबत्ता हम उन दोनों हज़रात के अपने बारे में कहे गये वाक्यों को हरगिज़ पेश नही करेंगें कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं:
ईशदूत (स) ने हज़ार इल्मी नुक्तों को मेरे लिये बयान किया और उन में से हक एक नुक्ते और उनकी वास्तविकताओं से हज़ार दूसरी हक़ीक़तें स्पष्ट होती थीं।
इस लिये कि हमारा फ़र्ज़ यह है कि यह हदीस ख़ुद हज़रत अली अलैहिस सलाम से बयान हुई है। एक दूसरी हदीस में आया है कि हज़रत अली अलैहिस सलाम अकसर कहा करते थे:
इससे पहले कि मैं तुम्हारे दरमियान न रहूं मुझ से पूछ लो।
और जबकि अबू बक्र ने अपनी सारी ज़िन्दगी में कभी भी इस तरह का जुमला अपनी ज़बान पर जारी नही किया है।
हालाकि हम दूसरे मक़ाम पर इस हदीस के बारे में जिसे अहले सुन्नत ने भी बयान किया है, बहस करेंगे लेकिन इस समय हम हज़रत अली अलैहिस सलाम व अबू बक्र के बारे में दूसरी के कथनों की जांच पड़ताल करेंगे ता कि उसके बाद हम इन दोनों में से उसका चुनाव कर सकें जो जनता की इमामत व ख़िलाफ़त के इस पद के लिये ज़्यादा योग्य हो।
ईशदूत (स) की दृष्टि में अली (अ) का इल्मी स्थान
1. नबी (स) के इल्म का दरवाज़ा
अब हम इमाम के लिये अनिवार्य पहली शर्त के बारे में बहस करेंगे कि हां इल्म व क़ुदरत विरोधियों से बहस करने और दलील व सबूत लाने के लिये पर्याप्त व काफ़ी है।
अब यह देखना होगा कि इमामत के लिये यह अति महत्वपूर्ण व बुनियादी शर्त किस के अंदर पाई जाती है और प्रतिक्रियाएं व हदीसें जो रसूल ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम से हम तक पहुची हैं, इस श्रेष्ठता व फ़ज़ीलत को किस सहाबी के बारे में साबित करती हैं।
तमाम अहले सुन्नत धर्म गुरुओं ने अपनी किताबों में इस पवित्र हदीस को अल्लाह के रसूल (स) से ज़िक्र किया है कि आप (स) ने फ़रमाया:
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
मैं ज्ञान का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा।
हम उन तमाम ओलमा का नाम यहां पर बयान करेंगे जिन्होने अपनी किताबों में इस पाक हदीस का वर्णन किया है:
1. अब्दुर रज़्ज़ाक़ बिन हम्माम सनआनी।
2. यहया बिन मईन, वह हैं जो रेजाल शास्त्र और सनद में कीड़ा निकालने के माहिर माने जाते हैं लेकिन उसके बावजूद इस हदीस को रद्द नही कर सकें हैं और उसे सहीह मानते हैं।
3. अहमद बिन हंबल।
4. तिरमिज़ी (प्रसिद्ध किताब सहीह तिरमिज़ी के लेखक)।
5. अबू बक्र बज़्ज़ाज़।
6. मुहम्मद बिन जरीर तबरी।
7. तबरानी।
8. अबुश शैख़।
9. इब्ने सक़्क़ा वास्ती।
10. इब्ने शाहीन।
11. हाकिम नैशा पूरी।
12. इब्ने मरदवैह।
13. अबू नईम इस्फ़हानी।
14. मावरदी।
15. ख़तीबे बग़दादी।
16. इब्ने अब्दुर बर।
17. समआनी।
18. इब्ने असाकर।
19. इब्ने असीर जज़री।
20. इब्ने नज्जार।
21. जलालुद्दीन सुयूती।
22. क़सतलानी।
23. इब्ने हजरे मक्की।
24. मुत्तक़ी हिन्दी।
25. मुल्ला अली क़ारी।
26. मन्नावी।
27. ज़रक़ानी।
28. शाह वलीयुल्लाह देहलवी।
यह सब के सब और दूसरे ओलमा ने अपनी किताबों में इस हदीस को बयान किया है कि रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने अली अलैहिस सलाम की शान में इस तरह से फ़रमाया:
मैं इल्म व ज्ञान का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं।
अब जब कि यह श्रेष्ठता व फ़ज़ीलत हज़रत अली अलैहिस सलाम के लिये साबित हो गई तो यह सवाल पैदा होता है कि क्या पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के अलावा किसी और के बारे में भी इस तरह की कोई बात कही है या नही?
2. हिकमत के घर का दरवाज़ा
एक दूसरी बात जो पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के हक़ में कही है वह यह है कि
मैं हिकमत का घर हूं और अली उसका दरवाज़ा।
इस हदीस को भी अहले सुन्नत के बहुत से ओलमा ने बयान किया है जैसे:
1. अहमद बिन हंबल।
2. इमाम तिरमिज़ी।
3. मुहम्मद बिन जरीर तबरी।
4. हाकिमे नैशा पुरी।
5. इब्ने मरदवैह।
6. अबू नईम इस्फ़हानी।
7. ख़तीब तबरेज़ी।
8. अलाई।
9. फ़ीरोज़ा बादी।
10. इब्ने जज़री।
11. इब्ने हजरे असक़लानी।
12. जलालुद्दीने सुयूती।
13. क़सतलानी।
14. सालिही दमिश्क़ी।
15. इब्ने हजरे मक्की।
16. मुत्तक़ी हिन्दी।
17. मनावी।
18. ज़रक़ानी।
19. वयीयुल्लाह देहलवी व दूसरे धर्म गुरु।
इन सब ने रिवायत की है कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के बारे में फ़रमाया:
मैं हिकमत का घर हूं और अली उसका दरवाज़ा।
पैग़म्बरे अकरम (स) की इन दोनो पवित्र हदीसों का वर्णन करने के बाद और इसके सही होने के बारे में अहले सुन्नत के सारे ओलमा के एकमत होने के बाद हम कहते हैं कि
अगर रसूले ख़ुदा (स) ने हज़रत अली अलैहिस सलाम की शान में इस तरह की बात कही है तो फिर इमामत व ख़िलाफ़त के पद के लिये कौन ज़्यादा योग्य है?
क्या अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम में यह योग्यता होगी कि वह इस्लाम धर्म की सत्यता व उसके प्रमाणित करने और विरोधियों की आपत्तियों का उत्तर देने के लिये दलील व सबूत पेश कर सकें या ऐसे किसी इंसान में यह योग्यता होगी जिसके बारे में ऐसी कोई बात बयान नही हुई हो।
3. इख़्तेलाफ़ी बातों का बयान
एक दूसरी हदीस जो अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इल्मी हैसियत पर स्पष्ट दलालत करती है वह रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम की वह हदीस है जिस में आप ने फ़रमाया:
तुम मेरे बाद उम्मत में पेश आने वाले इख़्तेलाफ़ात को साफ़ व स्पष्ट करोगे।
इस हदीस के मद्दे नज़र, रसूले ख़ुदा (स) ने अली अलैहिस सलाम को उम्मत व जनता के सारे इख़्तेलाफ़ी मामलों का जज व शासक नियुक्त किया है। चाहे वह इख्तिलाफ़ दुनियावी कार्यों से संबंध रखता हो या उन विरोध के बारे में हो जो धर्म के बारे में पैदा हो रहे हों। उम्मत के इन सारे झगड़ों में जज और उनका समाधान करने वाले अली अलैहिस सलाम हैं।
इस हदीस को भी बहुत से अहले सुन्नत ओलमा ने ज़िक्र किया है जैसे:
1. हाकिमे नैशा पुरी, जो इस सही की सनद को सही मानते हैं।
2. इब्ने असाकर ने अपनी किताब तारीख़ो मदीनते दमिश्क़ में इसको बयान किया है।
3. दैलमी।
4. जलालुद्दीने सुयूती।
5. मुत्तक़ी हिन्दी।
6. मन्नावी।
ओलमा के एक दूसरे गिरोह ने भी इस हदीस की रिवायत की है और कहा है कि इस तरह की तरह हदीस रसूले ख़ुदा के किसी और सहाबी के बारे में बयान नही हुई है।
4. सुनने वाले कान
हदीस में आया है कि जिस समय यह पवित्र आयत ( ) और सुनने वाले कान उसे सुनते और समझते हैं, नाज़िल हुई, हमने देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने फ़रमाया:
निसंदेह अली ही वह सुनने वाला कान हैं।
बेशक अली वही सुनने वाला कान हैं जो चीज़ों को याद रखते हैं तो इसका मतलब हुआ कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम का पवित्र ह्दय ही वह ज़र्फ़ है जिस में ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से चीज़ें नाज़िल होती हैं और आप (अ) ही वह हस्ती हैं जो संसार की सारी वास्तविकताओं को अपने दामन मे समेटे हुए हैं और रसूले ख़ुदा (स) के इल्म के हामिल व संरक्षक बनने बाले हैं। इस हदीस का निम्न लिखित किताबों में अध्धयन किया जा सकता है:
1. तफ़सीरे तबरी।
2. तफ़सीरे अल कश्शाफ़।
3. तफ़सीरे राज़ी।
4. तफ़सीरे दुर्रे मंसूर।
जलालुद्दीन सुयूती ने इसी किताब में इस हदीस को सईद बिन मंसूर, इब्ने जरीर, इब्ने मुन्ज़िर, इब्ने अबी हातिम, इब्ने मरदवैह, इब्ने असाकर, वाहिदी व इब्ने नज्जार से रिवायत किया है।
5. हिलयतुल औलिया।
6. मजमउज़ ज़वाइद व दूसरी किताबें।
5. बेहतरीन फ़ैसला करने वाले
रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने एक दूसरी हदीस में फ़रमाया:
जैसा कि किताब शरहुल मवाक़िफ़ के लेखक कहते हैं कि हमारी इमाम के प्रति आवश्यकता का कारण यह है कि सारे झगड़ों, इख़्तेलाफ़ात व समस्याओं में कोई होना चाहिये कि जिसके पास जनता अपनी शिकायत को ले कर जा सके और वह उनका समाधान कर सके और न्याय के साथ फ़ैसला सुनाये। इस हदीस में पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:
न्याय व फ़ैसला करने में तुम में सब से बेहतर अली हैं।
इस तरह की हदीस अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के अलावा रसूले ख़ुदा (स) के किसी भी सहाबी के बारे में बयान नही हुई है।
यह हदीस इन किताबों में आई है
1. सही बुख़ारी।
2. मुसनद अहमद बिन हंबल।
3. अल मुसतदरक अलल सहीहैन।
4. सोनने इब्ने माजा।
5. अत तबक़ातुल कुबरा।
6. अल इसतिआब।
7. अस सोननुल कुबरा।
8. मजमउज़ ज़वाइद।
9. हिलयतुल औलिया।
10. उस्दुल ग़ाबा।
11. अर रियाज़ुन नज़रा व दूसरी किताबें।
अब हमारा पाप क्या है अगर हम कहें कि इमामत व ख़िलाफ़त और जनता के मार्ग दर्शन की योग्यता व सलाहियत केवल अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में पाई जाती है, यहां तक कि अगर इस कार्य को जनता के हवाले भी कर दिया जाये और वह इमामत व ख़िलाफ़त के लिये अपने नेता का चुनाव करना चाहें तो उन्हे भी अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम का चुनाव करना पड़ेगा। इस लिये कि वह उसूल व सिद्धात जो अहले सुन्नत अपने अक़ायद की किताबों में बयान किये हैं और इमाम में उन विशेषताओं के पाये जाने को आवश्यक व अनिवार्य माना है वह अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के अलावा किसी भी मानव में नही पाई जाती हैं।
जो भी अब तक सारांश में बयान किया गया वह सब ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम की अमीरुल मोमिनीन की इल्मी श्रेष्ठता व मरतबे के बारे में हदीसें और कथन थे। इन कथनों से यह चीज़ स्पष्ट हो जाती है कि वह व्यक्ति जो इस पवित्र धर्म इस्लाम की रक्षा में दलील व सबूत पेश करने की योग्यता व सलाहियत रखता है और उसके बारे में उत्पन्न की जाने वाली शंकाओं का निवारण कर सकता है वह अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम हैं और वहीं हैं जिन्हे रसूले ख़ुदा (स) की तरफ़ से सारे इख़्तिलाफ़ात व झगड़ों के हल के लिये चयनित किया गया है और केवल वही हैं जिन में रसूले ख़ुदा (स) के बाद अपने इल्म व ज्ञान की शक्ति से इख़्तिलाफ़ व झगड़ों का हल निकाल सकते हैं।
अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इल्मी श्रेष्ठता के बारे में सहाबा की टिप्पणियां
अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इल्मी श्रेष्ठता के बारे में सहाबा के बहुत से कथन का वर्णन मिलता है। हम यहां पर आपकी जीवनी का वर्णन करते हुए केवल एक सहाबी की बात को बयान करेंगे जिस में अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इल्मी श्रेष्ठता के बारे में सारे बड़े सहाबियों, ताबेइन जिन्होने सहाबा को देखा है) के कथनों का ज़िक्र किया गया है और आपके इल्मी मरतबे की गवाही दी गई है।
हाफ़िज़ नववी अपनी किताब तहज़ीबुल असमा वल लुग़ात में अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की प्रशंसा में लिखते हैं:
वह ईश्वरीय धर्म गुरुओं, प्रसिद्ध योद्धाओं व जनता के चहेते इबादत व आराधना करने वालों में से एक थे। वह इस्लाम लाने वाले पहले व्यक्ति हैं।
उसके बात आगे कहते हैं कि उनका इल्म व ज्ञान श्रेष्ठता की मंज़िल तक पहुचा हुआ है। क्यों कि उन्होने रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम से पांच सौ छियासी हदीसें रिवायत की हैं, बुख़ारी व मुस्लिम में जिन में से बीस हदीस पर सहमति जताई है। बुख़ारी ने उन में से नौ हदीस को सहीह माना है जबकि मुस्लिम की नज़र में उन में से पंद्रह हदीसें सहीह हैं।
हज़रत अली अलैहिस सलाम के तीन बेटों हसन, हुसैन व मुहम्मद बिन हनफ़िया ने आपने से रिवायतें की हैं। इसी तरह से अब्दुल्लाह बिन मसऊद, अब्दुल्लाह बिन उमर, अब्दुल्लाह बिन अब्बास, अबू मूसा अशअरी, अब्दुल्लाह बिन जाफ़र, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, अबू सईद, ज़ैद बिन अरक़म, ज़ाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी और कुछ प्रसिद्ध ताबेईन (जिन्होने सहाबा को देखा है) आदि ने आप से रिवायत की है।
अब्दुल्लाह बिन मसईद से एक हदीस में आया है वह कहते हैं कि हम मदीन के बेहतरीन व सर्वश्रेष्ठ जज व शासक अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम से हदीस बयान करते हैं।
इब्ने मुसय्यब कहते हैं कि अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के अलावा कोई इंसान ऐसा पैदा नही हुआ जिसकी ज़बान से यह वाक्य निकला हो कि ( ) मुझ से जो चाहो मुझ लो इस से पहले कि मैं तुम्हारे बीच में न रहूं।
अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं कि इल्म व ज्ञान की दस श्रेणियों में नौ अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम को दी गई हैं और ईश्वर की सौगंध उस एक हिस्से में भी जो बाक़ी सबको दिया गया है वह शरीक हैं।
वह आगे कहते हैं कि अगर कोई चीज़ हमारे लिये अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम की तरफ़ से स्पष्ट व साबित हो जाती थी तो फिर हम किसी और के पास उस मसले को लेकर नही जाते थे।
उसके बाद नववी कहते हैं कि अबू बक्र, उमर, उस्मान और उन दस बड़े सहाबियों, जिन्हे जन्नत की बशारत दी जा चुकी थी, जैसे बड़े सहाबियों का अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम से प्रश्न का उत्तर चाहना और उनके हल के लिये आपके पास भेजना, आपके बताये हुए आदेशों का पालन करना, कठिन व पेचीदा मसलों में आपके सुनाये हुए फ़ैसलों जैसे बहुत से प्रसिद्ध मौक़े जिनसे इंकार करना किसी के लिये भी संभव नही है।
अब जबकि यह बात स्पष्ट हो चुकी कि बड़े नामचीन सहाबा इल्मी कठिनाई का शिकार होने के बाद आप से सेवा लेते थे और आपके बताये हुए उत्तर का पालन करते थे, यहां तक कि कभी एक बार भी ऐसा अवसर पेश नही आया कि आप को उन सब में से किसी की आवश्यकता पड़ी हो और कभी आपने किसी फ़ैसले में उन से सहायता मांगी हो। तो यहां पर हमारी अक़्ल व बुद्धि हमे क्या आदेश देती है? और आप किस तरह से इस का फ़ैसला करेंगे?
हज़रत अली अलैहिस सलाम को किसी भी सहाबी की आवश्यकता नही पड़ती थी
जैसा कि नववी ने स्पष्ट रुप से बयान किया कि कठिन इल्मी मसले में सारे बड़े सहाबा अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम से सहायता मांगते थे और आप ने कभी भी किसी इल्मी मसले में उनसे कोई सहायता नही मांगी है। इस तरह के बहुत से मौक़ों को इब्ने हज़्म उन्दुलुसी ने अपनी लंबी बहस में बयान किया है कि बड़े सहाबियों के धार्मिक मसाइल व अहकाम के बारे में जेहालत और कम इल्मी का शिकार बनना और उनके निवारण व हल के लिये आपसे सहायता मांगना शामिल है। इस लंबी बहस में इब्ने हज़्म ने एक भी मौक़ा ऐसा नही लिखा है कि जब अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम ने किसी भी व्यक्ति से मदद का अनुरोध किया हो।
इब्ने हज़्म अंदुलुसी कहते हैं कि हमने किताबों में इस तरह पढ़ा है कि बड़े बड़े सहाबी इस बात का इक़रार व ऐतेराफ़ करते हैं कि बहुत से अहकाम व रसूले ख़ुदा (स) की सुन्नत उन तक नही पहुची है। इस बारे में अबू हुरैरा से बयान होने वाली रिवायत बहुत प्रसिद्ध है वह कहते हैं कि मेरे शरणार्थी (मुहाजिर) भाई बाज़ारों में ख़रीदार की तलाश में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते थे और मेरे अंसार भाई अपने माल व दौलत की रक्षा के बारे में विचार में डूबे रहते थे जब कि अली अलैहिस सलाम ऐसे थे कि जिन्हे न किसी बाज़ार की इच्छा थी न किसी माल व दौलत का विचार उनके मन में आता था बल्कि वह हमेशा दिन रात रसूले ख़ुदा (स) की सेवा में उपस्थित रहा करते थे।
1. अबू बक्र के इल्म व ज्ञान पर एक नज़र
इब्ने हज़्म एक दूसरी जगह पर इस बात की तरफ़ इशारा करते हुए कि उन्हे शरई मसला मालूम करने के लिये मुग़ीरा बिन शोअबा की ज़रुरत पड़ी, कहते हैं कि अबू बक्र को दादी को मिलने वाली मीरास के बारे में मसले का ज्ञान नही था और मुहम्मद बिन मुसलेमा व मुग़ीरा बिन शोअबा उनको मसला बताया।
इसी तरह से अबू बक्र को इस बात का ज्ञान नही था कि रसूले ख़ुदा (स) का कफ़न कितना था फिर उन्होने अपनी बेटी आयशा से पूछा तो पता चला।
इब्ने हज़्म अंदुलुसी एक दूसरे अवसर को बयान करते हैं कि जिस में सारे बड़े सहाबी शरई मसले से अंजान थे और दूसरे से सहायता चाहते थे।
2. उमर का ऐतेराफ़
उसके बाद इब्ने हज़्म उंदुलुसी कहते हैं कि उमर ने भी बहुत से मौक़ों पर अपने अज्ञान व जिहालत को स्वीकार किया है। उन्होने हदीसे इसतिज़ान के बारे में कहा कि मैं इस मसले को नही जानता हूं, क्यों कि बाज़ार की दिनचर्या ने मुझे अपने साथ व्यस्त कर लिया था।
इसी तरह से जब उन्होने एक गर्भवती महिला के बारे में इस्लामी क़ानून के ख़िलाफ़ आदेश दे दिया और दूसरों ने उन्हे बताया तो उन्होने अपनी ग़लती को स्वीकार कर लिया।
इसी तरह की एक दूसरी घटना उस समय की है जब वह बिना किसी बात के ओऐना बिन हिस्न पर क्रोधित हो गये और हुर्र बिन क़ैस ने उन्हे उनकी ग़लती के बारे में बताया।
एक दूसरी जगह पर उमर व उन से पहले अबू बक्र पैग़म्बरे अकरम (स) के इस आदेश कि यहूदी अपने जन्म स्थान व वतन से दूर हो जायें, से वाक़िफ़ नही थे।
इसी तरह से उमर ताऊन के मसले में रसूले ख़ुदा (स) के आदेश को नही जानते थे यहां तक कि अब्दुर रहमान औफ़ ने उन्हे बताया।
यह बात भी दिलचस्ब है कि उमर को नही मालूम था कि ईद फ़ित्र व ईदे क़ुरबान की नमाज़ में रसूले ख़ुदा (स) कौन सा सूरह पढ़ा करते थे जब कि आप (स) कई साल तक इस नमाज़ को पढ़ते रहा करते थे। इसी कारणवश उन्होने अबू वाक़िद लैसी से पूछा और उन्होने उमर को रसूले ख़ुदा (स) की क़राअत के बारे में बताया।
इब्ने हज़्म उंदुलुसी आगे कहते हैं कि उमर को नही मालूम था कि पारसियों के साथ कैसा बर्ताव करें, यहां तक कि अब्दुर रहमान ने उन्हे रसूले ख़ुदा (स) के उनके बारे में आदेश से परिचित कराया।
दूसरी तरफ़ उन्हे बहरैन के पारसियों से टैक्स लेने जैसे प्रसिद्ध व मशहूर आदेश के बारे में ज्ञान नही था इसी लिये वह उसे भूल गये थे और शायद इसी माल से उन्होने कुछ फ़ायदा भी उठाया था।
उमर, जनाबत वाले व्यक्ति के तयम्मुम का हुक्म भी भूल गये थे और कहा करते थे कि जनाबत वाला व्यक्ति को हरिगज़ तयम्मुम नही करना चाहिये और जब तक पानी न मिल जाये उसे नमाज़ नही पढ़नी चाहिये यहां कि अम्मारे यासिर उन्हे तयम्मुम के आदेश की जानकारी दी।
वह काबे के माल व दौलत को बाटना चाहते थे लेकिन उनके समझ में नही आ रहा था यहां तक कि सहाबियों ने उन्हे इस बात की वास्तविकता से आगाह किया।
3. उस्मान का इल्म व ज्ञान और दूसरे लोग
उसके बाद इब्ने हज़्म उंदुलूसी ने उस्मान और दूसरे लोगों के इल्म व ज्ञान को लिखते हुए बयान करते हैं कि उस्मान ने इस तरह से अमल अंजाम दिया .... और यह आयशा ने इस तरह से किया .... हफ़सा ने ऐसा किया ... और अब्दुल्लाह बिन उमर ने ऐसा किया .... और ज़ैद बिन साबित ने ऐसा किया ....
इन सारी बातों के बावजूद यहां तक कि एक भी बार ऐसा देखने में नही आया कि इब्ने हज़्म ने किसी मसले के बारे में कहा हो कि इस जगह पर अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम को यह मसला नही मालूम था और उन्होने उस को समझने के लिये फ़लां के पास गये ता कि उन्हे उस का आदेश मालूम हो जाये। यह सारी बात जो बयान की गई हैं, सब अल एहकाम फ़ी उसूलिल अहकाम नामी किताब से ली गई हैं।
4. उमर का प्रसिद्ध ऐतेराफ़
उमर का यह जुमला यादगार की तरह बाक़ी बचा हुआ है जिसे मुहावरे के तौर पर प्रयोग में लाया जाता है और सारे लोग यहां तक कि बच्चे भी इसे जानते थे और उसे सुना हुआ था। वह प्रसिद्ध जुमला यह है कि उमर ने विभिन्न अवसरों पर यह कहां
अगर अली न होते तो मैं हलाक हो जाता।
कभी कभी उमर हज़रत अली अलैहिस सलाम से यह कहते थे
ऐ अबुल हसन ख़ुदा वंद मुझे उस वक़्त ज़िन्दा न रखे जब किसी मुश्किल के हल के लिये आप मौजूद न हों।
अहले सुन्नत के वह ओलमा जिन्होने उमर की इस बात को अपनी किताबों में बयान किया है उन के नाम यह हैं:
1. अब्दुर रज़्ज़ाक़ बिन हम्माम
2. अब्द बिन हमीद
3. इब्नुल मुन्ज़िर
4. इब्ने अबी हातिम
5. बैहक़ी
6. इब्ने अब्दुल बर
7. मुहिब्बे तबरी
8. मुत्तक़ी हिन्दी, कंज़ुल उम्माल में।
दूसरे ओलमा जैसे अब्दुर रज़्ज़ाक़ सनआनी, बुख़ारी, दार क़ुतनी और अहले सुन्नत के दूसरे बड़े महान धर्म गुरुओं ने कहा है कि बहुत से अवसरों पर उमर ने इस वाक्य को अपनी ज़बान पर जारी किया है, उन में से एक मौक़ा वह है जब एक पागल औरत जिसने ज़ेना किया था और उमर ने आदेश दिया कि उसे पत्थरों से मार (संगसार करना) दिया जाये, लेकिन अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम ने इस आदेश के पालन को रोक दिया।
और दूसरी कई जगहों पर भी उमर ने अपनी नादानी को स्वीकार किया है कि उन सबको यहां बयान करने की कोई विशेष आवश्यकता नही है। इस बारे में केवल उदाहरण के तौर पर मनावी की बात का उल्लेख करना चाहेंगे।
मनावी एक पवित्र हदीस को ज़िक्र करते हैं जिस में पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने फ़रमाया:
अली (पवित्र) क़ुरआन के साथ हैं और (पवित्र) क़ुरआन भी अली के साथ है यहां तक कि वह क़यामत के दिन हौज़े कौसर के किनारे मुझ से भेट करेंगे।
वह इस हदीस की व्याख्या में कहते हैं कि यह हदीस अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम से बयान हुई है।
उसके बाद कहते हैं कि अहमद बिन हंबल ने इस तरह बयान किया है कि उमर ने आदेश दिया कि उस औरत को पत्थरों से मार दिया जाये, जब उसे ले जा रहे थे तो रास्ते में अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम ने उसे वापस भेज दिया और आदेश के पालन को रोक दिया।
जब इसकी सूचना उमर को मिली तो उन्होने कहा कि अली (अ) कोई भी काम बिना किसी कारण के नही करते हैं फिर एक व्यक्ति को उनके पास भेजा कि वह उनसे इस मसले का शरई हुक्म पूछे, अली (अ) ने उसके जवाब में इस तरह से कहा:
क्या तुम ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम का यह क्या कथन नही सुना है जिस में आपने फ़रमाया है कि तीन गिरोह पर से शरई ज़िम्मेदारी को उठा लिया गया है, एक वह पागल है जो जब तक ठीक न हो जाये। दूसरे वह बालक हो जो अभी बालिग़ नही हुआ है। तीसरे वह व्यक्ति जो सो रहा है जब तक वह उठ न जाये।
उमर ने जब इस मामले के शरई हुक्म को समझ लिया तो इस तरह से कहा:
अगर अली इस मामले में न पड़ते तो उमर हलाक हो जाता।
मनावी इस घटना को बयान करने के बाद लिखते हैं कि अबू बक्र के शासन काल में भी इस तरह के मामले सामने आये और अबू बक्र ने बिना किसी जानकारी के ऐसा ही आदेश दे दिया था और अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम ने आदेश को पालन होने से पहले रोक दिया और अबू बक्र भी अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के फ़ैसले के आगे सर झुकाने पर मजबूर हो गये और इसी तरह का वाक्य कहा:
अगर अली न होते तो निसंदेह अबू बक्र हलाक हो जाता।
किन्तु हमने कुछ किताबों में उस्मान के लिये भी इस तरह की बातें देखी हैं कि उन्हो ने भी अपनी नादानी को स्वीकार किया है और कहा है:
अगर अली न होते तो निसंदेह उस्मान हलाक हो जाते।
अत: कौन हो सकता है जो इस धर्म की सच्चाई व सत्यता पर दलील ला सके और उस पर होने वाली शंकाओं का उत्तर दे सके?
हम आज जब कि पंदरहवी शताब्दी में जीवन व्यतीत कर रहें हैं तो हम कैसे जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के ज़माने के हालात कैसे थे और कैसे समझ सकते हैं कि उन दोनों में से कौन इल्मी ऐतेबार से श्रेष्ठ था ता कि जनता की इमामत व रहबरी के लिये उसके पास जाया जा सके?
हम चाहते हैं कि अहले सुन्नत के तरीक़े व शैली के अनुसार, उन दोनों में से किसी एक को इमामत के लिये चुनें।
क्या इस मसले की जानकारी के लिये इस रास्ते के अलावा कोई और रास्ता संभव हो है?
क्या हमारे पास इसके अलावा कोई रास्ता है कि हम तमाम घटनाओं और वाक़यों पर जो फ़ैसलों आदि से संबंधित हैं, इतिहास के पन्नों में अध्धयन करें और इस तरह से मुसलमानों के इमाम व ख़लीफ़ा को पहचानें और देखें कि इमामत के लिये पाई जाने वाली सबसे पहली विशेषता कौन सी है जिस पर सारे मुसलमान और बुद्धि जीवि एकमत रखते हैं वह विशेषता किस इंसान में पाई जाती है।
यह अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और यह उनके जीवन में पेश आने वाले फ़ैसले हैं। क्या वह अकेले ऐसे इंसान नही थे जिन का इल्म व ज्ञान सारे लोगों से अधिक था?
क्या वह न्याय संबंधित मामलों में सारे लोगों से बेहतर फ़ैसला नही करते थे?
क्या यह घटनाएं व यह कथन उनके बारे में उल्लेख नही हुए हैं?
क्या दूसरे सारे लोग इल्मी व न्याय संबंधी कठिनाईयों में उनसे सहायता नही मांगते थे?
क्या एक भी बार ऐसा हुआ है कि वह किसी मसले से अज्ञान रहे हों और उसे सीखने के लिये किसी और के पास गये हों?
अपनी बात को समेटते हुए यह कहना चाहता हूं कि क्या अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम लोगों के इल्म व ज्ञान से बेनियाज़ व बे परवा नही थे, और सबको उनके इल्म व ज्ञान की आवश्यकता नही थी?
अली अलैहिस सलाम और उनके शिष्यों के माध्यम से इल्म व ज्ञान का विस्तार
इतिहास के अध्धयन से यह बात साफ़ समझ में आ जाती है कि सारे इस्लामी शास्त्र व उलूम हज़रत अली अलैहिस सलाम और उनके शिष्यों, जो सब के सब रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम के बड़े सहाबियों में थे, के माध्यम से सारे इस्लामी शहरों में फैले और उनका विस्तार हुआ। हमने इस बारे में एक जगह विस्तार पूर्वक बहस की है, क्यों कि उस ज़माने में मदीना, मक्का, बसरा, कूफ़ा, यमन, शाम जैसे शहरों की जनता भी इस्लाम के बारे में नही जानती थी।
ध्यान पूर्वक अध्धयन व शोध से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह सारे शास्त्र व उलूम जो इन शहरों में फैले वह सब केवल अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के माध्यम से थे।
मदीना व कूफ़े जैसे शहरों में इल्म व ज्ञान के विस्तार का कारण यह था कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने अपनी अति क़ीमती आयु को इन दो शहरों में व्यतीत किया था और उन दोनो शहरों की जनता को अपने अथाह ज्ञान से फ़ायदा पहुचाया।
अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के शासनकाल के समय में उनके कूफ़े जाने से पहले वहां पर रसूले ख़ुदा के बड़े सहाबी अब्दुल्लाह बिन मसऊद रहा करते थे।
शाम के इलाक़े में बुज़ुर्ग आलिम अबु दरदा भी अब्दुल्लाह बिन मसऊद के शागिर्द थे, वह भी हज़रत अली अलैहिस सलाम के शिष्यों में से थे।
बसरा व मक्का जैसे शहरों में ज्ञान का विस्तार अब्दुल्लाह बिन अब्बास के माध्यम से हुआ जो कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की पाठशाला के शिष्यों में से थे और इस्लामी शास्त्रों का विस्तार उनके ज़रिये से इन शहरों में हुआ।
यमन के शहरों में ज्ञान का विस्तार उन अत्यधिक यात्राओं के कारण हुआ जो अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम वहां की किया करते थे जिसके नतीजे में हमदान नामी क़बीला आप के हाथों पर इस्लाम लाया और मुसलमान हो गया।
अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की और बहुत सी ख़ूबियां व विशेषताएं पहले हम बयान कर चुके हैं जैसे हदीस ( ) व ( ) और इस तरह की दूसरी हदीसें, या वह हदीस जो इस आयत ( ) की व्याख्या में बयान हुई है। रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम के बड़े महान सहाबियों का इस बात की गवाही देना और बाद की विभिन्न शताब्दियों के बुज़ुर्ग ओलमा का अमीरुल मोमिनान अलैहिस सलाम के बारे में इस बात की गवाही देना और यह मानना कि इस्लामी शास्त्र व उलूम का सारे इस्लामी शहरों और आबादियों में पहुचाना आपके माध्यम से हुआ, यह सब इस बात की दलील हैं कि इल्म व ज्ञान के मैदान के अकेले योद्धा हैं और यह अमीरुल मोमिनीन अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम की ही फ़ज़ीलत हैं और उनके अलावा किसी ने इस मैदान में क़दम नही रखा। इस लिये इमामत के लिये पाई जाने वाली पहली शर्त अली बिन तालिब अलैहिस सलाम के अलावा किसी में नही पाई जाती है।
लेकिन चूंकि यह सारी बातें हज़रत अली की दूसरों पर श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं इस लिये अहले सुन्नत ने न चाहते हुए भी इन हदीसों में फ़ेर बदल व तहरीफ़ किया या उन को झुटलाया और उन्हे झूठी साबित किया।
अब अगर आप सहीह तिरमिज़ी उठा कर देखे तो प्रसिद्ध हदीस ( ) जिसे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने फ़रमाया है कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं तो वह आपको उस में नही मिलेगी जबकि बहुत से बुज़ुर्ग ओलमा ने जैसे इब्ने असीर जज़री, जलालुद्दीन सुयूती, इब्ने हजरे असक़लानी और दूसरों ने इस हदीस का उल्लेख किया है और उसे मोतबर माना है।
दूसरी ओर इब्ने तैमिया को कोई चारा नज़र नही आया तो उसने यही कहना उचित समझा कि यह सारी हदीसें और सारी गवाहियां जिनका उल्लेख किया गया है सबकी सब झूठी व बेबुनियाद हैं बल्कि यहां तक कह दिया कि इब्ने अब्बास अली अलैहिस सलाम के शिष्य नही थे।
वह कहता है यह कि अब्दुल्लाह बिन मसऊद ने इल्म व ज्ञान को अली अलैहिस सलाम से प्राप्त किया है, झूट है।
वह पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम की प्रसिद्ध हदीस को जिस में आपने फ़रमाया है कि मैं शहरे इल्म हूं और अली उसका दरवाज़ा, भी झूठी कहता है। इसी तरह से वह मजबूर हो गया कि इस तरह की बहुत सी हदीसों को झूठी साबित करे, हम उन में से कुछ की तरफ़ इशारा कर चुके हैं।
वह उस हदीस के बारे में, जिस में ( ) आया है कि वह सुनने वाला कान अली बिन अबी तालिब हैं, कहते हैं कि इस हदीस के बारे में सारे ओलमा एकंमत हैं कि यह हदीस जाली है इसमें कोई सत्यता व वास्तविकता नही है।
एक दूसरी हदीस में अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने फ़रमाया:
न्याय व फ़ैसला करने में तुम में सबसे बेहतर अली हैं।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
इब्ने तैमिया इसके बारे में कहते हैं कि यह हदीस झूठी है और हरगिज़ साबित नही है, इसकी कोई सनद या प्रमाण नही है जिसके माध्यम से इसके ऊपर दलील दी जा सके और किसी ने इस हदीस को प्रसिद्ध किताबों सोनन व मुसनद में यहां तक की ज़ईफ़ रिवायत के साथ भी उल्लेख नही किया है।
जब कि हम कह चुके हैं कि यह हदीस सहीह बुख़ारी, सोनने निसाई व सोनने इब्ने माजा, अत तबक़ातुल कुबरा, मुसनदे अहमद बिन हंबल और दूसरी किताबों में उल्लेख हुई है।
दूसरी ओर इब्ने तैमिया का इन हदीसों को झूठा कहना ख़ुद इन चीज़ों की सत्यता की दलील है और अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की श्रेष्ठता को दूसरे सारे लोगों पर साबित करती है।
मुख़्तसर यह कि अगर उसूल व फ़ुरु का आलिम होना और शंकाओं व आपत्तियों के मुक़ाबले में दलील देने का माद्दा होना, सारे मुसलमानों के नज़दीक एकमत के साथ इमामत की पहली दलील माना गया है और यह शर्त उस इंसान में पाई जानी चाहिये जिसे वह अपने इमाम और ख़लीफ़ा के तौर पर चुनना चाहते हैं, यह शर्त अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के अलावा किसी में नही मिलती है।
अब हम देखेंगे कि अहले सुन्नत इन दलीलों के मुक़ाबले में अबू बक्र के बारे में कही गई कौन सी हदीस का उल्लेख करते हैं, वह केवल एक हदीस का उल्लेख करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने फ़रमाया:
जो कुछ भी ख़ुदा ने मेरे सीने में रखा था मैंने वह सब अबू बक्र के सीने में डाल दिया है।
अगर यह हदीस सही है तो क्यों इब्ने हज़म कहते हैं कि अबू बक्र बहुत से मसायल नही जानते थे और दूसरों से पूछा करते थे और न्याय के मैदान में अपनी नादानियों को स्पष्ट रुप से सामने लाते थे और कठिनाई के समय दूसरों से सहायता की गुहार लगाते थे।
इसके अलावा यह कि इब्ने जौज़ी ने इस हदीस का उल्लेख अपनी किताब अल मौज़ूआत (जिस में जाली हदीसों का वर्णन किया है) में किया है और साफ़ व स्पष्ठ तौर पर कहा है कि यह हदीस झूठी है।
हां, इस हदीस के अलावा हमें कोई दूसरी हदीस नही मिलती जो अबू बक्र की इल्मी श्रेष्ठता को सिद्ध करती हो, अब फ़ैसला आप के हाथ में है। ख़ुदा वंदे करीम का इरशाद है:
तुम्हे क्या हो गया है? तुम कैसे फ़ैसला करते हो?
दूसरी शर्त बहादुरी व वीरता
दूसरी शर्त व विशेषता जो अहले सुन्नत के अनुसार इमाम के लिये अनिवार्य है उसमें पाई जानी चाहिये वह उसकी वीरता व बहादुरी है। किताब शरहुल मवाक़िफ़ के लेखक लिखते हैं:
यह शर्त इमाम के लिये इस लिये आवश्यक है ता कि वह पर्याप्त मात्रा में क़ुदरत व शक्ती रखता हो ता कि इस्लामी देश व उसकी सीमाओं की रक्षा कर सके और जंग के मैदान में वीरता व साहस के साथ इस्लाम व धर्म की बुनियाद की सुरक्षित कर सके।
हदीसों के अध्धयन व इतिहास के पन्नों को पलटने से यह बात बिल्कुल साफ़ हो जाती है कि कौन था जो जंग के मैदानों में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ता था और वीरता व साहस व बहादुरी के साथ ईश्वर के धर्म की रक्षा करता था और वह कभी भी जंग के मैदान से मुंह नही मोड़ता था।
हां, वह अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम थे जो शिया व सुन्नी दोनो के अनुसार सारे लोगों में सब से ज़्यादा बहादुर थे और ईमान की बुनियाद व जड़ उनकी तलवार के माध्यम से मज़बूत व ठोस हुई। इस्लामी सेना का झंडा सारी जंगों में उनके हाथों में होता था जो सफ़लता का प्रतीक होता था। वह कभी भी जंग के मैदान से पीछे नही हटते थे और यह कभी देखने में नही आया कि वह जंग के मैदान से भाग गये हों बल्कि वह हमेशा इस्लाम की रक्षा करते हुए जान को अपनी हथेली पर लिये रहते थे और अपनी सारी शक्ती के साथ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम की सहायता करते थे।
पूरे विश्वास के साथ यह बात कही जा सकती है कि हज़रत अली अलैहिस सलाम की क़ुर्बानियां व जान जोखम में डालने के अवसर इतने ज़्यादा हैं कि वह उल्लेख व हदीस की सीमा से बाहर हैं बल्कि अगर ध्यान पूर्वक गहरी नज़र से देखा जाये कि किस तरह से आप (अ) ने बद्र, ओहद, ख़ैबर, हुनैन और अहज़ाब की जंगों में अपनी जान की परवा न करते हुए जंग की ता कि इस्लाम की रक्षा कर सकें। यही कारण हैं कि आज तक कोई पैदा नही हुआ है जो उनकी वीरता व साहस के बारे में शक व शंका पैदा कर सके।
तीसरी शर्त न्याय व इंसाफ़
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि अहले सुन्नत के अनुसार इमाम के अंदर पाई जाने वाली तीसरी अनिवार्य विशेषता व शर्त न्याय व इंसाफ़ है। इस बारे में हमारे पास बहुत सी हदीसें हैं जिन के ऊपर सारे मुसलमान एकमत व एक राय हैं। अहले सुन्नत ने भी इन हदीसों के सही व मोतबर होने को स्वीकार किया है, वह सब गवाही देती है कि रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के सारे सहाबियों में सबसे अधिक न्याय प्रिय इंसान अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम हैं। हम इस बारे में केवल हदीसों का उल्लेख करना चाहेंगे:
पहली हदीस
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ने फ़रमाया:
मेरा व अली का हाथ न्याय व इंसाफ़ में एक जैसा, बराबर है।
इस हदीस का इब्ने असाकर ने अपनी किताब तारीख़ो मदीनते दमिश्क़, ख़तीबे बग़दादी ने अपनी किताब तारीख़े बग़दाद, मुत्तक़ी हिन्दी ने अपनी किताब कंज़ुल उम्माल, अर रियाज़ुन नज़रा के लेखक ने मनाक़िबुल अशरा अल मुबश्शरा में और दूसरे ओलमा ने अपनी किताबों में उल्लेख किया है।
दूसरी हदीस
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम ने फ़रमाया:
ऐ अली, तुम सारी ख़ूबियों में मेरे साझी हो सिवाय इसके कि तुम्हे नबी का पद नही दिया गया, क्यों कि मेरे बाद कोई नबी नबी होगा, तुम में जो विशेषताएं पाई जाती हैं वह क़ुरैश में से किसी में नही पाई जाती हैं, उनमें से पहली यह है कि तुम पहले इंसान हो जो ईश्वर पर ईमान लाये हो, ईश्वर से जो समझौता किया उस पर सबसे ज़्यादा पाबंद व वफ़ादार रहे, क़ुरैश के बीच तुम अकेले ऐसे व्यक्ति हो जिस ने ईश्वर के आदेश को जारी करते हो, तुम माल के बटवारे में सर्वश्रेष्ठ हो, जनता में सबसे अधिक न्याय प्रिय व न्याय कर्ता हो, न्याय के मामले में तुम्हारी दृष्टि सबसे अधिक त्रीव है, ईश्वर के यहां तुम्हारा पद बहुत बड़ा व महान है।
इस हदीस का उल्लेख अबू नईम इस्फ़हानी ने अपनी किताब हिलयतुल औलिया, अर रियाज़ुन नज़रा के लेखक ने अपनी किताब और इब्ने असाकर ने किया है। इब्ने असाकर ने इस हदीस का उल्लेख उमर बिन ख़त्ताब से किया है, उमर कहते हैं कि उसके बाद इब्ने असाकर उमर से हदीस में मौजूद इस वाक्य का भी ज़िक्र करते हैं।
अलबत्ता जैसा कि आप सब जानते हैं कि जिस समय हज़रत अली अलैहिस सलाम के बड़े भाई अक़ील बैतुल माल के बटवारे के समय आपके पास आये और आपसे थोड़े अधिक का तक़ाज़ा किया तो आप ने किस तरह से अपने भाई के साथ भी न्याय का उदाहरण पेश किया और दूसरी घटनाएं जो अहले सुन्नत की किताबों में भी उल्लेख हुई हैं वह सब की सब हज़रत अली अलैहिस सलाम के न्याय की ओर इशारा करती है और हम इस बात से बचने के लिये कि बहस बहुत लंबी न खिच जाये उन सब का यहां उल्लेख नही करना चाहते हैं।
इब्ने तैमिया का दृष्टिकोण
इस बारे में कोई शक नही है कि इब्ने तैमिया जैसे बहुत से लोग इन चीज़ों में शक करने वाले हैं। उदाहरण के तौर पर अल्लामा हिल्ली की बातों के उत्तर में उनकी बातों पर ध्यान दें, वह अल्लामा हिल्ली के इस कथन कि अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम लोगों में सबसे अधिक बहादुर थे, के जवाब में कहते हैं कि यह झूठ है और इसमें कोई सत्यता नही है क्यों कि लोगों में सबसे ज़्यादा बहादुर रसूले ख़ुदा (स) थे।
अब हम उनके उत्तर में कहते हैं कि क्या हमारी बहस रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिह व सल्लम की बहादुरी के बारे में थी?
क्या कोई है जो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम की वीरता व बहादुरी के बारे में शक रखता है?
हमारी बहस यहां पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा व जानशीन के बारे में है कि क्या अली बिन अबी तालिब हैं या अबू बक्र बिन क़ुहाफ़ा?
हमारी बहस इमामत और उसके लिये पाई जाने वाली शर्तों के बारे में है कि उन शर्तों में से एक अनिवार्य व ऐसी शर्त जिसके बारे में सारे मुसलमान एकमत हैं वह उनके उत्तराधिकारी की वीरता व शुजाअत है। यहां हम यह जानना चाहते हैं कि रसूले ख़ुदा (स) के बाद यह विशेषता किस में पाई जाती है और सारे मुसलमान किसे सबसे ज़्यादा वीर व बहादुर मानते हैं?
आपने ध्यान दिया कि किस तरह से इब्ने तैमिया बहस को दूसरी ओर मोड़ने का प्रयत्न करते हैं और जनता के दिलों में भ्रम पैदा करना चाहते हैं? वास्तव में वह क्यों भ्रम फैलाना चाहते हैं? उसका कारण भी स्पष्ट है क्यों कि इस बात का उनके पास कोई उत्तर नही है, क्यों कि इब्ने तैमिया और अहले सुन्नत के दूसरे सारे ओलमा इस बात से भली भांति जानते हैं कि अबू बक्र व उमर अधिकतर जंगों में मैदान छोड़ कर भाग चुके हैं और वह दोनो कदापि अल्लाह की राह में एक भी शत्रु का वध करने में सफल नही हो सके हैं।
अल्लामा हिल्ली रहमतुल्लाह अलैहे एक दूसरी जगह पर लिखते हैं कि अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम ईश्वर के शत्रुओं का अपनी तलवार से वध किया करते थे।
इब्ने तैमिया इसके उत्तर में इस तरह से लिखते हैं कि इस कथन में कि अली बिन अबी तालिब (अ) ईश्वर शत्रुओं को अपनी तलवार से वध करते थे, कोई शक नही है कि उन्होने केवल कुछ काफिरों व नास्तिकों को मारने में सफलता प्राप्त की है।
वास्तव में क्या अल्लामा हिल्ली ने यह दावा किया है कि अली (अ) ने सारे नास्तिकों को मारा है? अत: इस में भी कोई शक नही है कि अल्लामा का मतलब यही है कि अली अलैहिस सलाम ने कुछ नास्तिकों को नर्क में पहुचाया है।
इब्ने तैमिया एक दूसरी जगह पर कहते हैं कि वह लोग जो जंग करने में ख्याति प्राप्त थे वह यह है उमर, ज़ुबैर, हमज़ा, मिक़दाद, अबू तलहा, बरा बिन मालिक आदि और उन लोगों ने बहुत से नास्तिकों व काफ़िरों को क़त्ल किया था।
अगर कोई इब्ने तैमिया से पूछे कि वह नास्तिक जो उमर के हाथों मारे गये हैं वह किस तरह के नास्तिक थे?
तो वह उत्तर में कहेंगे कि क़त्ल कभी कभी हाथ और तलवार से होता है जैसा कि अली बिन अबी तालिब करते थे और कभी कभी दुआ के माध्यम से होता है।
वह अपनी किताब मिनहाजुस सुन्नह में स्पष्ट करते हैं कि उमर ने नास्तिकों के एक समूह को अपनी दुआ के ज़रिये क़त्ल कर दिया था और ऐसा करने में कोई हर्ज नही है।
और जब उनसे अबू बक्र की बहादुरी के बारे मे प्रश्न होता है, क्यों इमाम के लिये दूसरी अनिवार्य शर्त उसकी वीरता उल्लेख की गई है? तो वह उसके उत्तर में बिना कोई फेर बदल किये कहते हैं कि अगर वह बहादुरी जो इमाम व ख़लीफ़ा की पसंदीदा विशेषता होती है उसे इच्छा शक्ति, दिल की मज़बूती या अंदरुनी ताक़त माना जाये तो इस में कोई शक नही है कि अबू बक्र उमर से अधिक बहादुर थे और उमर उस्मान, अली, तलहा व ज़ुबैर से बड़े बदाहुर थे, क्यों कि अबू बक्र बद्र की जंग में पैग़म्बर (स) के साथ उनके ख़ैमे (अरीश) में मौजूद थे।
इस लिये अबू बक्र की बहादुरी उनके दिल की मज़बूती में थी और वह उसी इच्छा शक्ति की बदौलत जंग के मैदान में मुक़ाबला किया करते थे। अत: बहादुरी व वीरता दो तरह की होती है:
1. एक वह बहादुरी जिसका अर्थ हर अरबी भाषी जानता है।
2. वह दूसरी बहादुरी जिसका अर्थ इच्छा शक्ति व दिल की मज़बूती है और अबू बक्र में यह वाली वीरता पाई जाती थी।
जी हां, इब्ने तैमिया अबू बक्र व उमर की वीरता व बहादुरी को इस तरह से बयान करते हैं और उत्तर देते हैं कि तुम्हे यह किसी किताब में दिखाई नही दी है न कभी दिखाई देगी। वह उमर को एक बहादुर योद्धा की तरह पेश करते हैं लेकिन साबित यह करना चाहते हैं कि उनकी शक्ति उनके बाज़ू और बदन में नही थी बल्कि वह दुआ के माध्यम से दूसरों के साथ जंग लड़ते थे और जिस तरह से जंग और लड़ाई हाथ और बदन की शक्ति से लड़ी जाती है वैसी ही लड़ाई व जंग दुआ के ज़रिये से भी लड़ी जाती है।
इब्ने तैमिया अबू बक्र को भी बहादुर व वीर व्यक्ति मानते हैं लेकिन उसी दिली बहादुरी की वजह से जो किसी मार्ग दर्शक के लिये पसंदीदा मानी जाती है और वह कहते हैं कि उनकी बहादुरी उनके दिल की मज़बूती के कारणवश है जब कि अली अलैहिस सलाम में जिस्मानी लिहाज़ से बहादुरी थी लेकिन वह अंदरुनी शक्ति से वंचित थे और उससे उनका कोई सरोकार नही था।
इब्ने तैमिया के बचकाना व बे बुनियाद उत्तर से इस बात का यक़ीन हो जाता है कि हमारी दलीलें वास्तविक हैं इस लिये कि अगर यह नही माना जायेगा तो फिर हमें ईश्वर की राह में जंग व जिहाद के एक दूसरे अर्थ को तलाश करने की आवश्यकता पड़ जायेगी और हमें कहना पड़ेगा कि दुआ करना भी अपने आप में एक तरह से अल्लाह की राह में जंग व जिहाद करना है।
इसके अलावा अगर उन दोनो लोगों में अंदरुनी ताक़त व मज़बूत इच्छा शक्ति थी तो फिर वह लोग जंग के मैदान से भाग क्यों जाते थे?
इसमें कोई शक नही है कि अबू बक्र व उमर ओहद की जंग में रणभूमि छोड़ कर भाग गये थे। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है जिस को अहले सुन्नत के बड़े ओलमा ने भी स्वीकार किया है जैसे अबू दाऊद तयालसी, अत तबक़ातुल कुबरा के लेखक इब्ने सअद, अबू बक्र बज़्ज़ाज़, तबरानी, इब्ने हिब्बान, दार क़ुतनी, अबू नईम इस्फ़हानी, इब्ने असाकर, ज़ेया मक़देसी और दूसरे अहले सुन्नत के बड़े ओलमा ने भी इस वास्तविकता का अपनी किताबों में उल्लेख किया है।
अबू बक्र व उमर ने ख़ैबर की जंग में भी डटे रहने के मुक़ाबले में भाग जाने को उचित समझा। इस बात को अहमद बिन हंबल, इब्ने अबी शैबा, इब्ने माजा, बज़्ज़ाज़, तबरी, तबरानी, हाकिमे नैशा पूरी, बैहक़ी, ज़ेया मक़देसी, हैसमी और अहले सुन्नत के दूसरे बहुत से ओलमा ने ज़िक्र किया है। मुत्तक़ी हिन्दी ने अपनी किताब कंज़ुल उम्माल में उनके फ़रार की ख़बर को इन सारे लोगों, जिनके नाम ऊपर आये हैं, के हवाले के उल्लेख किया है।
हाकिमे नैशा पूरी ने अपनी किताब अल मुसतरक अलल सहीहैन में एक सही सनद वाली हदीस का उल्लेख किया है, उस हदीस के अनुसार इब्ने अब्बास कहते हैं कि हुनैन की जंग में मैदान से न भागने वालों की सूची में केवल अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम का नाम आता है केवल वह थे जो नही भागे और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के साथ अंत तक जंग करते रहे।
ख़ंदक़ की जंग में भी अली अलैहिस सलाम के जंगी कारनामे चर्चित व प्रसिद्ध हैं। इसी जंग के बारे में पैग़म्बरे अकरम (स) का वह प्रसिद्ध कथन ख्याति रखता है जिसमें आपने फ़रमाया:
ख़ंदक़ की जंग में अली की एक ज़रबत (वार) सारे इंसान व जिन्नात की इबादत से अफ़ज़ल है।
या यह कि आपने फ़रमाया:
खंदक़ के दिन जंग में अली का एक वार क़यामत तक के सारे मुसलमानों की इबादत से अफ़ज़ल है।
सारांश
जैसा कि हमने उल्लेख किया कि अहले सुन्नत की किताबों और उनके स्रोत के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा के लिये तीन विशेषताएं अनिवार्य व अति आवश्यक हैं, इल्म व ज्ञान, वीरत व बहादुरी, न्याय व इंसाफ़।
सारे मुसलमान इन तीन विशेषताओं पर एकमत हैं और उनका मानना है कि ऐसा इंसान जिसे लोग पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के उत्तराधिकारी व जानशीन के तौर पर चुन रहे हों, उसमें यह तीनों विशेषताएं होनी चाहिये ता कि उसमें जनता के मार्ग दर्शन की योग्यता हो और अगर उस में इन तीनों में से एक भी विशेषता नही है वह इस पद के योग्य नही होगा।
रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के सहाबियों में यह विशेषता व ख़ूबी केवल अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम में पाई जाती थी और उनके अलावा किसी के अंदर भी यह तीनों विशेषताएं व ख़ूबियां देखने में नही आती है।
अगर हम फ़र्ज़ करें और कहें कि अबू बक्र व उमर में भी यह तीनों विशेषताएं पाई जाती थीं तो हम स्पष्ट और तर्कपूर्ण दलीलों से अहले सुन्नत की भरोसेमंद किताबों के अनुसार इस बात को साबित करेंगे कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के साथियों और सहाबियों में अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम सबसे बड़े ज्ञानी, सबसे वीर योद्धा और सबसे अधिक न्यायवर थे और दूसरों पर उनकी सर्वश्रेष्ठता के साबित हो जाने से बाद, अक़्ल आदेश देती है कि अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम ही सारी जनता में इमामत व ख़िलाफ़त के लिये सर्वश्रेष्ठ हैं।
ख़ुदा वंदे आलम पवित्र किताब में इरशाद फ़रमाता है:
क्या वह जो हक़ की ओर मार्ग दर्शन करता है वह पैरवी व अनुसरण के लिये योग्य व उचित है या वह जो पथ भ्रष्ट हैं और उसे ख़ुद मार्ग दर्शन की आवश्यकता है?
अब अगर कोई शरई अहकाम व मसाइल को ना जानता हो और यहां तक कि उसके किसी छोटे से मसले का भी ज्ञान न हो उदाहरण स्वरूप अगर उसे यह भी पता न हो कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम ईदुल फ़ित्र या ईदे क़ुरबान की नमाज़ में कौन सा सूरह पढ़ा करते थे, क्या ऐसे व्यक्ति को अल्लाह के रसूल (स) का उत्तराधिकारी के पद के लिये नियुक्त किया जा सकता है और उसे उनका जानशीन कहा जा सकता है?
क्या ऐसे व्यक्ति में इतनी क्षमता हो सकती है कि वह साफ़ व स्पष्ट दलीलों के माध्यम से धर्म और अंतिम दूत नबी (स) की शरीयत की रक्षा कर सके और विभिन्न धर्मों और उनके अनुयाईयों के ज़रिये किये जाने वाली आपत्तियों व शंकाओं का उत्तर दे सके या उनका निवारण कर सके? अगर नही तो उनको कौन उत्तर देगा? वह इस धर्म के बारे में क्या विचार देगें?
अंतिम बात, श्रेष्ठ को सर्वश्रेष्ठ से आगे बढ़ा देना
हर व्यक्ति की बुद्धि यह आदेश देती है कि वह जाहिल को आलिम के ऊपर वरीयता दिये जाने पर चिंता प्रकट करे और इस बात को पसंद न करे, यही कारण है कि इब्ने तैमिया जैसे इंसान ने भी इस आदेश को स्वीकार करते हैं और अपनी किताब मिनहाजुस सुन्नह में कई जगह पर इस बारे में ताकीद करते हैं, इसके सिवा कोई रास्ता नही बचता कि हज़रत अली अलैहिस सलाम की इमामत व ख़िलाफ़त को माने, इसलिये कि अक़्ल का यह हुक्म ऐसा है जिसका इंकार संभव नही है, इस लिये वह मजबूर हो गये कि उन हदीसों को जो सनद के ऐतेबार से सही व यक़ीनी थी, उन्हे झूठी व बे बुनियाद मान लें, वह मजबूर हो गये कि झूठ का सहारा लें, हालांकि यह हदीसें अहले सुन्नत की सही व मोतबर किताबों सही बुख़ारी व सही मुस्लिम में सही व मोतबर सनदों के साथ उल्लेख हुई है। उनके पास और कोई विकल्प नही बचता कि वह इस तरह की हदीसों का इंकार कर दें, इस लिये कि उनकी अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम से दुश्मनी उन्हे हक़ व सत्य को मानने और उस पर अमल करने से रोक देती है।
लेकिन हमने इन सच्चाईयों का पूर्ण दलीलों के साथ उल्लेख कर दिया है। आशा करते हैं कि वह कुछ लोग जो आंख बंद करके उनका अनुसरण करते हैं वह हक़ व सत्य कर ओर पलट आयें या उन के लिये दलीलें पर्याप्त हों और कोई बहाना न कर सकें ता कि जो लोग हलाक व पथभ्रष्ट हो चुके हैं उनके पास भी दलील रहे।
हां, जो लोग इन हदीसों के सही व मोतबर होने को स्वीकार तो करते हैं लेकिन वह आलिम पर जाहिल को वरीयता देने में कोई बुराई महसूस नही करते हैं। इस लिहाज़ से जो लोग अबू बक्र व उमर के इमाम व ख़लीफ़ा होने का अक़ीदा रखते हैं उनका दो समूह है:
पहला समूह
जो लोग आलिम पर जाहिल व्यक्ति को वरीयता देते हैं और उसे बुरा नही समझते हैं, लेकिन वह सारी हदीसों को स्वीकार करते हैं। फ़ज़्ल बिन रोज़बहान इस गिरोह का हिस्सा हैं।
दूसरा समूह
वह लोग हैं जो बुद्धि व अक़्ल के इस आदेश को स्वीकार करते हैं लेकिन वह इन हदीसों को जो सही व मोतबर सनद के साथ उल्लेख हुई है, झूठी कहते हैं जैसे इब्ने तैमिया जिन्होने सारी हदीसों का इंकार कर दिया है।
फ़ज़्ल बिन रोज़बहान व इब्ने तैमिया ने अल्लामा हिल्ली की उन दलीलों को जो उन्हो ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इमामत व ख़िलाफ़त के सिलसिले में पेश की हैं, रद्द किया है और उसके लिये अलग अलग राय रखी है।
फ़ज़्ल बिन रोज़बहान इब्ने तैमिया की तरह बुरे अथवा अप्रिय व्यक्ति को चुनने के मामले में मजबूर नज़र नही आते। वह कहते हैं कि अनिवार्य नही है कि इमाम व ख़लीफ़ा दूसरे सारे लोगों से सर्वश्रेष्ठ हो बल्कि अगर जाहिल इंसान को पढ़े लिखे पर वरीयता दे दी जाये तो इस में कोई बुराई व हर्ज नही है और वह अपनी इस राय के माध्यम से ऐसी बात का आदेश देते हैं कि जिसका संसार की सृष्टि से लेकर महाप्रलय के दिन तक कोई भी बुद्धिमान हुक्म नही दे सकता है।
दूसरी ओर इब्ने तैमिया इस अक़्ली हुक्म के अनुसार राय तो दे रहे हैं मगर वह सारी सही व मोतबर हदीसों के झूठी होने का दावा करते हैं और बहादुरी व वीरता को उसके असली मअना, अल्लाह की राह में जंग व जिहाद करने को ही बदल देते हैं।
अल मवाक़िफ़, शरहुल मवाक़िफ़, शरहुल मक़ासिद व अहले सुन्नत वल जमाअत की दूसरी किताबों के अध्धयन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह सबके सब चिंतित हैं और जो वह कहते हैं उसका ख़ुद उन्हे भी ज्ञान नही है और अज्ञानता के साथ इन बातों का आदेश देते हैं। कभी वह मानते हैं कि ज्ञानी पर अज्ञानी को बढ़ा देते अस्वीकार्य हैं और इन हदीसों को सही व मोतबर मानते हैं और कभी इस मसले के बारे में शक व शंका उत्पन्न करते हैं जैसे वह नही जानते हों कि यह एक अक़्ली कानून अस्वीकार्य है या नही, इस लिये बहस को उसके हाल पर छोड़ देते हैं।
अब हम यहां पर क़ाज़ी ऐजी जो अलमवाक़िफ़ नामी किताब के लेखक हैं उनकी बात का उल्लेख करेंगे ता कि यह भी स्पष्ट हो जाये कि किस तरह से उन्होने इस मसले से परेशान व आश्चर्य चकित हो कर चुप्पी साध ली है और न ही इस अक़्ली क़ानून को स्वीकार करते हैं न ही उसका इंकार करते हैं लेकिन हमें मालूम है कि उनकी हैरानी का कारण यह है कि जो वह कहते हैं ख़ुद उन्हे उसका ज्ञान नही है और अज्ञानता में यह बयान दे रहे हैं।
जिस समय क़ाज़ी ऐजी से प्रश्न किया जाता है कि अली अलैहिस सलाम पर अबू बक्र को श्रेष्ठता देने के बारे में उनका क्या फ़तवा है? और क्या वह अबू बक्र को अली बिन अबी तालिब पर श्रेष्ठता देते हैं या नही?
तो वह इस बात का इस तरह उत्तर देते हैं कि इन दोनो में किसी एक की श्रेष्ठता का पता लगाना हमारे लिये संभव नही है, यह पता लगाना हमारे बस के बाहर है लेकिन हां रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम के साथी व सहाबी अबू बक्र व उमर व उस्मान को अली से श्रेष्ठ मानते थे और उन तीनों को अली से बेहतर समझते थे, नबी (स) के साथियों से अच्छा गुमान करते हुए हमें उनके तरीक़े का अनुसरण करना चाहिये। हम इस बात को अल्लाह के ऊपर छोड़ते हैं।
वह इस उत्तर के साथ वास्तविकता से फ़रार करना चाहते हैं और सहाबियों को इस बात का ज़िम्मेदार मानते हैं।
क़ाज़ी ऐजी से यह कहना चाहिये कि यह उत्तर जो आपने दिया है इसके बाद तो बहस करने से कोई फ़ायदा ही नही होगा और इस बात की आवश्यकता ही नही रह जाती है कि आप कोई कष्ट करें और इस बात को अपनी किताब में जो धार्मिक शास्त्र की सबसे महत्वपूर्ण किताब है, उल्लेख करें बल्कि आप को तो आरम्भ में ही कह देना चाहिये था कि रसूले ख़ुदा (स) के सहाबियों ने इस तरह से किया था और हमने उनका अनुसरण किया है और हमारा अक़ीदा उनके कार्यों, करनी व कथनी के अनुसार है, इस बारे में हमारा अपनी कोई दृष्टिकोण नही है।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
हां, उनकी शैली सदा से ऐसी ही रही है इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन (हम अल्लाह के लिये हैं और उसी की ओर पलट कर जाने वाले है।) व सयअलमुल लज़ीना ज़लमू अय्या मुनक़लिबिन यनक़लेबून (और जिन लोगों ने अत्याचार किया वह जल्दी ही जान जायेंगे कि वह किस अंजाम का शिकार होने वाले हैं।) और अल्लाह की दुरूद व सलाम हो हमारे सैय्यद व सरदार हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि व सल्लम और उनके पाक व पवित्र वंशज पर।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क पर पढ़ रहे है।)
स्रोत
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