लेखक: आयतुल्लाह सैय्यद अली हुसैनी मीलानी (दामत बरकातुहु)
हिन्दी अनुवाद: सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसवी
प्राक्कथन
.... ईश्वर का अंतिम व सम्पूर्ण धर्म, आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के भेजे जाने बाद संसार वासियों के लिये पेश किया गया और ईश्वर का विधान व दूतों के आने और संदेश पहुचाने का सिलसिला आपकी नबूवत के साथ ही हमेशा के लिये बंद हो गया।
इस्लाम धर्म मक्का शहर में फला फूला और ईश्वर के संदेश वाहक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम और उनके कुछ वफ़ादार साथियों की तेइस वर्षों की कड़ी मेहनत और अंथक प्रयत्नों के साथ पूरे अरब जगत में फैल गया।
ईश्वर के इस पथ को आगे बढ़ाने के लिये ज़िल हिज्जा की अठ्ठारह तारीख़ को, ग़दीरे ख़ुम के मैदान में मुसलमानों की आम सभा में ईश्वर के संदेशानुसार, उसके दूत हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम ने इस्लाम पर सबसे पहले ईमान लाने वाले हज़रत अली अलैहिस सलाम के हवाले किया गया।
उस दिन हज़रत अली अलैहिस सलाम की इमामत के ऐलान व उत्तराधिकारी बनाये जाने के साथ ही ईश्वर की उसके भक्तों पर नेमत तमाम और धर्म सम्पूर्ण हो गया और इस्लाम धर्म को ईश्वर ने अपना पसंदीदा घर्म घोषित कर दिया। जिसके कारण काफ़िर व मुशरिक इस्लाम धर्म के मिट जाने से मायूस हो गये।
अभी ज़्यादा समय नही गुज़रा था कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के आसपास रहने वालों में से कुछ लोगों ने पहले से किये गये प्लान व साज़िश के तहत उनकी वफ़ात के बाद, मार्गदर्शन व हिदायत के रास्ते से मुंह मोड़ लिया, इल्म के शहर के दरवाज़े को बंद करके, मुसलमानों को दर दर भटकने के लिए छोड़ दिया। उन लोगों ने अपनी हुकूमत के पहले ही दिन से पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की हदीसों को लिखने से मना कर के, हदीसें गढ़ कर, और शैतानी शंकाएं उत्पन्न करके, उन इस्लामी वास्तविकताओं को, जो चमकते हुए सूरज की तरह चमक रही थीं, उन्हे शक व शंका के काले बादलों के पीछे छुपा दिया गया।
स्पष्ट है कि सारी साज़िशों के बावजूद इस्लामी वास्तविकताएं व पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की अमुल्य हदीसें उनके उत्तराधिकारी हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और उनके बाद उनके उत्तराधिकारियों अइम्मा ए मासूमीन अलैहिमुस सलाम और नबी (स) के वफ़ादार साथियों और सहाबियों के ज़रिये इतिहास में बाक़ी रह गई और हर ज़माने में किसी न किसी सूरत में प्रकट होती रहीं। उन हज़रात ने इस्लामी मुआरिफ़ को सही तौर पर बयान करके, दो दिली मुनाफ़ेक़त, शैतानी बहकावों और इस्लाम विरोधियों का जवाब देकर हक़ीक़त को सबके सामने पेश कर दिया।
इस राह में कुछ नूरानी चेहरा लोग जिन में शैख़ मुफ़ीद, सैय्यद मुर्तज़ा, शैख़ तूसी, ख़्वाजा नसीरुद्दीन तूसी, अल्लामा हिल्ली, क़ाज़ी नूरूल्लाह शूसतरी, मीर हामिद हुसैन हिन्दी, सैय्यद शरफ़ुद्दीन आमुली, अल्लामा अमीनी आदि ... के नाम सितारों की तरह चमकते हैं। इस लिये कि इन लोगों ने इस्लामी व शिया समुदाय की वास्तविकता की रक्षा की राह में अपनी ज़बान और क़लम के साथ उस पर शोध किया और उन पर होने वाले ऐतेराज़ों व आपत्तियों का उत्तर दिया।
हमारे ज़माने में भी एक बुद्धिजीवि व विचारक जिन्होने अपने सरल क़लम और अच्छे बयान के साथ पवित्र धर्म इस्लाम की वास्तविकता के वर्णन किया है और हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इमामत व विलायत की रक्षा आलिमाना अंदाज़ से की है और वह महान अनुसंधानकर्ता हज़रत आयतुल्लाह सैय्यद अली हुसैनी मीलानी हैं।
इस्लामी वास्तविकता केन्द्र को इस बात पर गर्व है कि उसने इस महान शोधकर्ता के क़ीमती आसार को अपने प्रोग्राम का हिस्सा बनाया ताकि और उनकी किताबों को शोध, अनुवाद व प्रसार के साथ छात्रों, पढ़े लिखे लोगों और इस्लामी वास्तविकता के बारे में जानने वालों के हाथों तक पहुचाया जा सके।
यह जो किताब आप के हाथ में है वह इन ही लेखक की एक किताब का हिन्दी अनुवाद है ताकि हिन्दी भाषी लोग इसके अध्धयन से इस्लामी वास्तविकता को जान सकें।
हमे आशा है कि हमारी यह किताब इमामे ज़माना हज़रत बक़ीय्यतुल्लाहिल आज़म (अज्जल्लाहो तआला फ़रजहुश शरीफ़) की प्रसन्नता और पसंद का कारण बनेगी।
इस्लामी वास्तविकता केन्द्र
प्रस्तावना
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस सलातु वस सलामु अला मुहम्मदिन व आलिहित ताहिरीन व लानतुल्लाहि अला आदाइहिम अजमईन मिनल अव्वालीना वल आख़िरीन।
इमामत व ख़िलाफ़त के मसले में शिया इसना अशरी व अहले सुन्नत के दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्नता रखते हैं।
शिया इसना अशरी मानते हैं कि इमामत व ख़िलाफ़त का पद भी नबूवत की तरह है और उसी मार्ग को आगे बढ़ाना है और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के लिये इमाम व ख़लीफ़ा व उत्तराधिकारी का चुनाव भी नबी के चुनाव के समान है जो कि ईश्वर का अधिकार है और जनता का इससे कोई सरोकार नही है।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)
अहले सुन्नत मानते हैं कि इमाम व ख़लीफ़ा व नायब का चुनाव व इख़्तेयार जनता के हाथ में है।
इसी बुनियाद पर वह इमाम व ख़लीफ़ा के लिये कुछ शर्तों को अनिवार्य समझतें हैं जिन के पाये जाने के कारण इंसान के अंदर प्रतिनिधित्व की सलाहियत पैदा हो जाती है।
उस समय यह बहस पेश आयेगी कि अगर ऐसा है तो क्या उन्होने ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के बाद जिस इंसान का उत्तराधिकारी के तौर पर चुनाव किया उसमें यह सारी शर्तें पाई जाती हैं या नही?
अत: इस बहस की दो दिशाएं होगीं और यह धार्मिक सिद्धातों और बहस के सही उसूलों पर आधारित हो कर ही नतीजे तक पहुच सकती है, क्यों कि उन मूलभूत आधारों को छोड़ कर और उत्तराधिकार में पाई जाने वाली शर्तों व योग्ताओं (जिन्हे वह लोग ख़ुद भी मानते हैं) के न पाये जाने की सूरत में अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की इमामत व ख़िलाफ़त बिना किसी बहस के साबित हो जायेगी और उसको मानने के सिवा कोई रास्ता नही बचेगा। इस लिये कि एक तरफ़ आप की ख़िलाफ़त के बारे में पवित्र क़ुरआन व हदीस में बहुत सी दलीलें पाई जाती हैं तो दूसरी ओर बहुत सी अक़्ली दलीलें भी मौजूद हैं जबकि तीसरी तरफ़ अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के अलावा किसी के उत्तराधिकारी होने पर कोई दलील मौजूद नही है।
यह किताब जो आपके सामने है इस में इसी महत्वपूर्ण धार्मिक मसले पर बहस की गई है और इस बारे में पाई जाने वाली शंकाओं का निवारण किया गया है और वास्तविकता के खोजकर्ताओं व शोधकर्ताओं के लिये रास्ता दिखाया गया है।
(आयतुल्लाह) सैय्यद अली हुसैनी मीलानी (दामत बरकातुहु)
पहला भाग
इमामत व ख़िलाफ़त क्या है?
ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के उत्तराधिकारी या जानशीन की अनिवार्यता या आवश्यकता?
इस शीर्षक का आरम्भ हम इस प्रश्न से करेगें कि क्या अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनके लिये किसी उत्तराधिकारी या नायब का होना आवश्यक या ज़रुरी है या नही?
इसका उत्तर हम इस प्रकार देगें:
पूरी इस्लामी उम्मत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनके उत्तराधिकारी के आवश्यक व ज़रूरी होने पर एकमत है। यह चीज़ शिया व सुन्नी के बहुत से उलमा व बुद्धिजीवियों के कथन से ज़ाहिर होती है बल्कि यह कहना चाहिये कि स्पष्ट होती है। उदाहरण के तौर पर हाफ़िज़ बिन हज़्म अंदुलुसी अपनी किताब अल फ़ेसल फ़िल अहवाए वल मेलले वन नहल में लिखते हैं:
اتفق جمیع فرق اھل السنۃ و جمیع فرق الشیعۃ و جمیع المرجئۃ و جمیع الخوارج علی وجوب الامامۃ۔
अहले सुन्नत के तमाम समुदाय, शियों के तमाम फ़िरक़े, सारे मुरजेया और ख़वारिज के सारे फ़िरक़े उत्तराधिकारी के आवश्यक व ज़रूरी होने के बारे में एकमत रखते हैं।
अत इस बारे में कोई भिन्नता नही है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनका उत्तराधिकारी होना चाहिये।
इमामत या ख़िलाफ़त क्या है?
शिया व सुन्नी उलमा व बुद्धिजीवियों ने इमामत व ख़िलाफ़त की तारीफ़ इस तरह से की है:
الامامۃ ھی الرئاسۃ العامۃ فی جمیع امور الدین والدنیا نیابۃ عن رسول اللہ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم ۔
इमामत, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के उत्तराधिकारी के लिये
दीन और दुनिया के तमाम कामों में एक जन प्रभुत्व या जन सत्ता का नाम है।
शिया व सुन्नी उलमा ने इमामत व ख़िलाफ़त को इस तरह से बयान किया है। इस लिहाज़ से इमाम व ख़लीफ़ा ख़ुदा के रसूल (स) का नायब व जानशीन है और तमाम कामों में लोगों के ऊपर उसके आदेश का पालन करना अनिवार्य है।
अत: इमामत की वह तारीफ़ जिसे सब मानते हैं और जिस में किसी को इख़्तिलाफ़ नही है वह यह है कि इमाम व ख़लीफ़ा को ईशदूत का उत्तराधिकारी होना चाहिये और इमामत का पद पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी का पद है जिसके ज़रिये से उस रिक्त स्थान की पूर्ति की जा सके और इमाम व ख़लीफ़ा नबी (स) के कामों के जनता के लिये अंजाम दे सके, बस फ़र्क़ यह है कि वह उत्तराधिकारी व नायब, नबी नही है।
इमामत और शिया दृष्टिकोण
उस तारीफ़ को ध्यान में रखते हुए जो (इमाम) व (इमामत) के लिये की गई है। शिया इसना अशरी इस तारीफ़ की सारी बातों पर अमल करते हुए उन्हे अपने अक़ीदे का हिस्सा शुमार करते हैं जबकि सक़ीफ़ा विचारधारा के मानने वाले और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के स्वर्गवास के बाद पेश आने वाली घटनाओं को बहाना बनाने वाले इस तारीफ़ को स्वीकार करने के बावजूद मानने से इंकार करते हैं।
शिया कहते हैं: उस तारीफ़ की बुनियाद पर जो इमामत के लिये की गई है। उसके अनुसार जो कुछ ईशदूत के लिये साबित है, निसंदेह इमाम व ख़लीफ़ा के लिये भी वह साबित होना चाहिये सिवाय नबी के पद के। इस का नतीजा यह होगा कि इमाम व ख़लीफ़ा में भी नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की तरह विलायते तकवीनी व तशरीई होनी चाहिये।
इमाम में विलायते तकवीनी होती है इस मअना में कि वह अल्लाह तआला की आज्ञा व अता से इस संसार में होने वाले कामों को अपने हाथ में ले सकता है, उसे अपने ऐतेबार से चला सकता है। यह शक्ति व अधिकार उसे ईश्वर को ओर से प्राप्त होता है जिसके बाद वह जो चाहे कर सकता है।
इमाम में विलायते तशरीई होती है इस का मतलब यह है कि दीन व दुनिया के तमाम मामले में जैसा कि इमाम की तारीफ़ में बयान हो चुका है, वह सारे लोगों को अम्र (आदेश) व नही (मनाही) का हक़ रखता है और किसी को यह हक़ नही है कि वह उसके आदेश का पालन न करे।
निसंदेह अहले सुन्नत उलमा के दरमियान ऐसे लोग जो इल्मे इरफ़ान की ओर झुकाव या दिलचस्बी रखते हैं और तसव्वुफ़ की तरफ़ मायल हैं, वह हमारे इमामों (अलैहिमुस सलाम) के लिये विलायते तकवीनी के मरतबे को मानते हैं, क्यों कि वह लोग इस मरतबे को अल्लाह के तमाम वलीयों के लिये साबित मानते हैं और हमारे इमामों को बावजूद इसके कि इमाम नही मानते हैं फिर भी उन्हे अल्लाह के बड़े वलीयों में शुमार करते हैं।
तीसरा मरतबा जो शिया अपने इमामो (अलैहिमुस सलाम) के लिये मानते हैं, वह शासन व हुकूमत व अल्लाह के क़ानूनों और उसके आदेशों को जारी करना है। शासन व हुकूमत, इमामत के विभागों में से एक विभाग है, ऐसा नही है कि इमामत व हुकूमत किसी एक वास्तविकता का नाम है और इन दोनो को एक समान समझना कोरी ग़लती है।
हुकूमत, इमामत के कामों में से एक काम है जो संभव है कभी उसके हाथ में हो या उसे मिल जाये। जैसे अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम और इमाम हसन अलैहिस सलाम की हुकूमत। कभी हो सकता है कि ऐसा न हो जैसे दूसरे तमाम इमामों अलैहिमुस सलाम का ज़माना, जो अपने समय के अत्याचारी और ज़ालिम शासनों की जेलों में रहे या उनके शिकंजे का शिकार रहे और या जैसे हमारा ज़माना जिस में इमाम अलैहिस सलाम परद ए ग़ैबत में हैं और ज़ाहिरी तौर पर इमाम अलैहिस सलाम के हाथ में हुकूमत व अधिकार नही है हालांकि इसके बावजूद उनकी इमामत व ख़िलाफ़त सुरक्षित है।
इमामत व धार्मिक सिद्धात
इस से पहले इशारा किया जा गया कि शिया इमामत के मसले में अहले सुन्नत से बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ रखते हैं, उनमें से एक इख़्तिलाफ़ यह है कि क्या इमामत उसूले दीन में से है या फ़ुरू ए दीन में से?
शिया अक़ीदे के अनुसार इमामत उसूले दीन में से है। इस बात को साबित करने के लिये जो चंद दलीलें पेश की जा सकती हैं उनमें से सबसे आसान यह हैं:
1. इसमें कोई शक नही है कि इमामत की बहस, नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी की बहस है और इमामत के लिये जो तारीफ़ बयान की गई है उससे स्पष्ट तौर पर बिना किसी संदेह के इस मअना को समझा जा सकता है, क्यों कि तारीफ़ में आया है कि इमामत, अल्लाह के रसूल (स) के उत्तराधिकारी का मसला है और इस वाक्या का मतलब भी है जैसा कि बयान किया गया।
अत इमामत के बारे में बहस नबूवत के सिलसिले की कड़ी है। जैसे कि मासूम होने की बहस और हर वह बहस जो नबूवत के सिलसिले की कड़ी हो और उस पर अक़ीदा रखना अनिवार्य हो, उसका शुमार उसूले दीन में होगा।
2. दूसरी दलील यह है कि इमामत धार्मिक सिद्धातों के आधार में से एक है, प्रसिद्ध हदीस है जिस में पैग़म्बरे इस्लाम (स) से ज़िक्र हुआ है। आप (स) ने फ़रमाया:
من مات و لم یعرف امام زمانہ مات میتۃ جاھلیۃ۔
जो भी मर जाये और अपने ज़माने के इमाम का न पहचानता हो तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है।
शिया व अहले सुन्नत उलमा ने इस हदीस को अपनी किताबों में रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) से नक़्ल किया है।
स्पष्ट है कि जाहिलियत की मौत का मतलब, क़ुफ़्र व नेफ़ाक़ की मौत है और हर वह चीज़ की जिहालत इंसान को कुफ़्र व नेफ़ाक़ तक ले जाये। निसंदेह उसका संबंध धर्म के मूल सिद्धातों से होना चाहिये, इस लिये कि फ़ुरू ए दीन के मसाइल का ना जानना कभी भी इंसान को कभी भी कुफ़्र व नेफ़ाक़ की हद नही पहुचाता।
निसंदेह अहले सुन्नत के बड़े और पढ़े लिखे उलमा में ऐसे अफ़राद भी हैं जिनकी तरफ़ यह निस्बत दी गई है कि वह इमामत को मूल सिद्धात (उसूले दीन) का हिस्सा मानते हैं। उदाहरण के तौर पर क़ाज़ी नासिरुद्दीन बैज़ावी का नाम लिया जा सकता है जिनका शुमार तफ़सीर व इल्मे कलाम में अहले सुन्नत के महान और प्रसिद्ध उलमा में होता है, वह इमामत को उसूले दीन में से मानते हैं।
लेकिन उनके अलावा अहले सुन्नत की अकसरियत शियों के मुक़ाबले में इस बात की क़ायल है कि इमामत फुरु ए दीन में से है। हालांकि कुछ लोग स्पष्ट तौर पर इस मसले पर अपना रुख़ ज़ाहिर नही करते हैं बल्कि कहते हैं: इमामत का फ़ुरु ए दीन में से होना अनसब है लेकिन इसके वाबजूद वह इस बात की कि इमामत मूल सिद्धात (उसूले दीन) में से होना चाहिये, साफ़ बयान नही करते हैं।
बहरहाल, चाहे इमामत उसूले दीन या मूल सिद्धातों के आधार में से एक हो। जैसा कि शिया कहते हैं, या फ़ुरू ए दीन में से हो जैसा कि अहले सुन्नत का अक़ीदा है, इस बात पर बहस होनी चाहिये कि इमाम या ख़लीफ़ा कौन है ता कि हम उसे पहचान सकें और उसकी पैरवी कर सकें, उसके आदेशों का पालन कर सकें और उसके ज़रिये मना की गई बातों को अंजाम न दें और उसकी बात और उसके अमल को महत्व दें, क्यों कि हम उसे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) का नायब और ख़लीफ़ा मानते है।
एक ऐतराज़ का जवाब
क़ाबिले ज़िक्र बात है जैसा कि कभी सुनन में आता है कि कुछ लोग कहते हैं: इमामत पर चर्चा केवल एक इतिहासिक बहस है और आज के दौर में मुसलमानों को इस बात से मतलब नही रखना चाहिये, उन के पास इस से ज़्यादा आवश्यक व महत्वपूर्ण काम हैं जिनका किया जाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि इंसान अपनी उम्र के क़ीमती दिनों को इस बहस में ख़र्च करे।
यह कैसी बकवास व बेबुनियाद बात है?। यह भटके हुई विचाराधारा की बात है जिसे मंद बुद्धि और धार्मिक सिद्धातों से बे खबर लोग कह सकते हैं। कैसे यह संभव है कि एक तरफ़ तो इमामत का अक़ीदा रखना, उसकी इताअत व पैरवी करना, उसके हर छोड़े बड़े आदेश या बात पर सर झुकाना, इस्लामी जनता के तमाम लोगों पर वाजिब व अनिवार्य है और उसके आदेश का पालन न करना, उससे मुंह मोड़ना कुफ़्र व फ़िस्क़ (धर्म से निष्कासित हो जाना) शुमार होता है। जबकि उसकी पैरवी कारण बनती है कि इंसान संसार की पैदाइश के मक़सद और उसके लक्ष्य तक पहुच जाये और दूसरी तरफ़ इस बहस के बारे मे कहा जाये कि यह केवल एक इतिहासिक बहस है और इसका कोई फ़ायदा नही है?।
इंसान के लिये सबसे महत्वपूर्ण चीज़ उसके धार्मिक सिद्धात और उसका अक़ीदा होता है। इमाम और इमामत की बहस बहुत से अमली आसार रखती है, इंसान चाहता है कि उसे पहचाने, क्यों कि उसका न पहचानना उसके ईमान पर सवाल खड़ा कर देता है। इस लिये वह चाहता है कि उसे पहचाने ता कि उससे मुहब्बत कर सके, क्योंकि एक हदीस में इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:
ھل الدین الا الحب والبغض۔
क्या धर्म दोस्ती व दुश्मनी के सिवा किसी और चीज़ का नाम है?
इंसान चाहता है कि इमाम को पहचाने ता कि अमल के मौक़े पर उसकी पैरवी कर सके, इस लिये कि वह इंसान है और इंसान को अल्लाह की तरफ़ से कुछ ज़िम्मेदारियां दी गई हैं उसे जानवरों की तरह स्वतंत्र नही छोड़ दिया गया है और चूंकि इमामत का पद, पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी का पद है, लिहाज़ा इमाम ही वह है जो इंसान के लिये उसकी निजी, ज़ाती और समाजी ज़िन्दगी और अल्लाह की बंदगी के लिये उसके कंधे पर ज़िम्मेदारियां डाल सकता है।
इस लिये इंसान को चाहिये कि वह इमाम को पहचाने और इस पद का दावा करने वाले के बारे में रिसर्च करे ता कि उसकी पैरवी कर सके और मक़ामे बंदगी में जो ज़िम्मेदारी उसे सौंपी गई है वह इमाम उसे उस मंज़िल तक पहुचा सके।
क्या इन सब बातों के बाद भी यह गुंजाइश रह जाती है कि कोई इस महत्वपूर्ण बहस को केवल एक इतिहासिक और बेकार या फ़ुज़ूल बहस कह सके?
हां, सृष्टि के लक्ष्य और उस तक पहुचाने वाले कारणों से ग़ाफ़िल और बेख़बर लोगों को हक़ पहुचता है कि वह इस बहस को बेकार और बेफ़ायदा बयान करें। लेकिन पवित्र क़ुरआन का पालन करने वाले, उससे शिक्षा प्राप्त करने वाले और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के सृष्टि के लक्ष्य के बारे में पहुच हासिल करने वाले कथनों पर अमल करने वालों के लिये इमामत और उसके मुतअल्लिक़ बहसे और इमाम के महान पद के बारे में बहस से बढ़ कर कोई और बहस नही हो सकती है।
एकता इमामत के साये में
शायद यह कहा जाये कि इमामत के बारे में बहस से मुसलमानों की एकता व इत्तेहाद को नुक़सान पहुच सकता है इस लिये इस बहस में नही पड़ना चाहिये।
हमने इस बारे में विभिन्न अवसरों पर तफ़सील से चर्चा की है। उन सब उत्तरों के दृष्टिकोण का सारांश यहां पर पेश कर रहा हूं:
इमामत के बारे में बहस करने से न सिर्फ़ यह कि इस्लामी एकता और मुसलमानों के आपसी भाईचारे पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव नही पड़ेगा बल्कि इससे क़ुरआन व हदीस व अक़्ली दलीलों, बेहतरीन, बल्कि एकता जैसे अति महत्वपूर्ण व क़ीमती लक्ष्य की प्राप्ती के लिये भी इमामत व ख़िलाफ़त और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी के पद और उसकी गरिमा को स्पष्ट और वाज़ेह करना है।
बहस यह है कि एकता से हमारी मुराद क्या है? और यह कैसे संभव हो सकती है?
समकालीन उलमा में से कुछ एकता की स्थापना के लिये इस तरह से राय पेश करते हैं कि शिया व अहले सुन्नत को चाहिये कि वह तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) व हदीस व फ़िक़ह की सारी किताबों को एक दूसरे के साथ, एक दूसरे की मदद से फिर से लिखना जाये। इसलिये कि इख्तेलाफ़ व भिन्नता की जड़ शिया व अहले सुन्नत की किताबों में बातिल व असत्य की भरमार, झूठ के पुलिंदे व अफ़सानवी व गढ़ी हुई बातें हैं। उनकी ग़लत चीज़ों की पहचान और उनकी कांट छांट से वास्तविकता को अलग करके, धर्म का वास्तिवक चेहरा सामने आ सकता है जो ज़ाहिर है कि सबकी सहमति का का पात्र बन सकता है। इसलिये कि सत्य के साथ किसी का इख़्तेलाफ़ या झगड़ा नही हो सकता। नतीजा यह होगा कि सारे झगड़ समाप्त हो जायेंगे।
इस सुझाव के आरम्भिक उत्तर में निम्नलिखित प्रश्न पैदा हो सकते हैं:
1. जो लोग शिया व अहले सुन्नत की किताबों की छानबीन करना चाहते हैं वह कौन लोग होंगे और उनका ताअल्लुक़ किस गिरोह से होगा?
2. सत्य का असत्य से और बातिल का हक़ से पहचान का मेयार क्या होगा?
3. क्या अहले सुन्नत इस पर सहमत हैं कि वह अपनी उन किताबों से, जिन्हे वह शुरु से अंत तक सही मानते हैं और उन्हे वहयी की तरह मानते हैं, (जैसे उनकी छ: सही किताबें या कम से कम सही बुख़ारी व सही मुस्लिम) और उनकी सारी बुनियादी बातें और उनके अक़ायद उन्ही किताबों से लिये गये हैं, हाथ खींच लें और उन्हे फिर से लिखें?
कुछ दूसरे लोग यह राय देते हैं कि दोनों समुदाय की संमिलित व मुश्तरक चीज़ों को लिया जाये।
इस के उत्तर में हम कहेंगे: वह समन्वित व मुशतरक बातें या चीज़ें क्या हैं?
क्या इससे मुराद तौहीद का अक़ीदा रखना और ईश्वर को एक मानना है?
इस जगह पर सबसे पहला झगड़ा अल्लाह तआला की विशेषताओं पर होता है कि क्या ईश्वर जिस्म रखता है?
अहले सुन्नत अबू बक्र के लिये जिस मंज़िलत व मरतबे के क़ायल हैं वह किसी और के लिये क़ायल नही है, वह कहते हैं: अल्लाह उनके लिये विशेष तौर पर अपना जलवा प्रकट करेगा वह उसे उस तरह देखेंगे जैसा कि वह है।
हालांकि वह लोग ख़ुद इस हदीस की सनद के बारे में शक करते हैं, लेकिन इस बात को जानना चाहिये कि इस तरह की फ़ुज़ूल हदीस की गढ़ने वाले कौन लोग हैं? इस तरह के लोगों को जानने और पहचानने का क्या मेयार है?
उन समन्वित व मुशतरक चीज़ों में से एक यही इमामत का मसला है, इस लिये कम से कम अहले सुन्नत को यह मानना चाहिये कि इमामत व ईशदूत के वास्तविक उत्तराधिकारी के बारे में बहस व उस पर शोध करना भी उन मुशतरक व संमिलित बहसों में से एक है और यह इस्लामी एकता पर आधारित है तो क्यों हम उसे अनेकता व भेद का कारण समझते हैं?
हां, कुछ लोग इमामत के बारे में बहस को अनावश्यक समझते हैं और इस विचार के साथ हमें इस्लामी एकता व भाई चारे की दावत देते हैं और यह ठीक उस समय की बात है जब उनका एक समूह शियों को मुसलमान भी नही समझता है।
हां, वह लोग ईश्वर के लिये जिस्म मानने वाले मुजस्समा समुदाय, मुरजेया समुदाय और ख़्वारिज समुदाय को मुसलमान मानते हैं लेकिन हमें, वह न सिर्फ़ यह कि हमारे इस्लाम में शक करते हो बल्कि वह सिरे से हमें मुसलमान ही नही मानते हैं।
अभी कुछ अरसा पहले सऊदी अरब में मसअलुत तक़रीब बैना अहलिस सुन्नते वश शिया नामी एक किताब लिखी गई है, इसके लेखक के इस किताब के लेखन की वजह से डिग्री भी दी गई है।
इस किताब के लेखक ने अस्ल बहस लिखने के बाद एक मतलब को इस तरह से लिखा है:
हमारे (अहले सुन्नत) और शियों के दरमियान एकता व इत्तेहाद का कोई रास्ता नही है मगर यह कि शिया मुसलमान हो जायें और जब तक वह मुसलमान नही होगें। एकता व इत्तेहाद का कोई मतलब नही बनता।
जबकि हम उनके बारे में ऐसा कुछ नही कहते बल्कि हमारा मानना है: आओ, अल्लाह की किताब और उसके नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की सही व क़तई सुन्नत, जिसका ख़ुद वह ऐतेराफ़ हैं, पर अमल करो। हमने हदीसे सक़लैन की सनद व दलालत की बहस में इस बात को तफ़सील से बयान किया है।
दूसरा भाग
पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) का उत्तराधिकारी कौन है?
अली (अ) या अबू बक्र?
अहले सुन्नत दीनीयात की अपनी किताबों में इस बात के दावेदारों में तीन नाम पेश करते हैं और इस में पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के चचा अब्बास को भी शामिल करते हैं लेकिन उनका मानना है कि चूंकि अब्बास, अली (अलैहिस सलाम) के समर्थन में पीछे हट गये थे इस लिये यह अनबन दो लोगों में सीमित हो गई है।
ऐसा लगता है कि अब्बास की इमामत का मामला बनी अब्बास के ज़माने में सामने आया है और इस्लाम के आरम्भिक दिनों में ऐसी कोई बात नही थी और ऐसी कोई दलील भी नही पाई जाती है कि अब्बास ने रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के बाद इमामत व ख़िलाफ़त का दावा किया हो बल्कि अब्बास सक़ीफ़ ए बना सायदा की घटना में अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के साथ थे और उन्होने आप के हाथ पर बैअत भी की थी और अंत तक यह बात सुनने में नही आई कि अब्बास अली (अलैहिस सलाम) के मुक़ाबले में अपनी इमामत या ख़िलाफ़त के दावेदार रहे हों। इस लिये यह बात कि इस मामले में दावेदार तीन लोग थे, ग़लत व बेबुनियाद बात है और मुसलमानों की एकजुटता और आम सहमति के ख़िलाफ़ है।
दूसरे दृष्टिकोण
कुछ का यह मानना है कि क़तई अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम और अबू बक्र बिन क़ुहाफ़ा के मध्य कोई झगड़ा था हा नही। उन्होने अपनी इस बात को साबित करने के लिये 6 सबूत पेश किये हैं:
1. अमीरुल मोमिनीन अली अलैहि सलाम ने पहले अबू बक्र की बैअत की। फिर उमर की बैअत की और अंत में उस्मान की बैअत की। इस लिये उनका इन तीनों से कोई इख़्तेलाफ़ था ही नही।
2. हज़रत अली अलैहिस सलाम हमेशा ख़ुलफ़ा की नमाज़ में उपस्थित होते थे और न सब को स्वीकार करते थे।
3. हज़रत अली अलैहिस सलाम और उनके ख़ानदान और तीनों ख़ुलफ़ा के दरमियान सगी रिश्तेदारी पाई जाती थी।
दूसरे शब्दों में, उन्होने एक दूसरे को लड़कियां दी थीं और एक दूसरे से लड़किया ली थीं और यह बात अच्छे संबंध और दामाद का रिश्ता किसी इख्तेलाफ़ और लड़ाई झगड़े से मेल नही खाता है। क्योंकि तबीई बात है कि अगर इंसान किसी को अपनी बेटी देगा और वह बीमार हो जायेगी तो अवश्य ही उसे देखने अपने दामाद के घर जायेगा। लिहाज़ा आना जाना और साथ उठना बैठना लगा रहेगा। यह सारी बातें इख़्तेलाफ़ और लड़ाई झगड़े से मेल नही खाती हैं।
4. अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ने अपने बेटों के नाम अबू बक्र, उमर, उस्मान रखे। अगर आपका ख़ुलफ़ा से कोई झगड़ा रहा होता तो आप कभी भी अपने बेटों के नाम उनके नामों पर न रखते?
ध्यान देने वाली बात यह है कि तीन और चार सख्या वाली बात पर दूसरी बातों से ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है।
5. अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस से अबू बक्र व उमर की तारीफ़ में कई हदीसें ज़िक्र हुई हैं। इन जगहों पर आप की तरफ़ निस्बत दी गई है कि आपने फ़रमाया:
अगर किसी ऐसे आदमी को मेरे पास लाया जाये जो मुझे अबू बक्र व उमर से बेहतर मानता हो तो मैं उसे कोड़े से मारूंगा और झूठा इल्ज़ाम और तोहमत लगाने वाले की सज़ा उस पर जारी करूंगा।
6. हज़रत अली अलैहिस सलाम ने मुस्लिम समाज की एकता की सुरक्षा की ख़ातिर अपने हक़ से मुंह मोड़ लिया।
इन दृष्टिकोणों का उत्तर
अब हम यहां पर इन छ: दृष्टिकोणों की जांच पड़ताल व समीक्षा करेंगे। हज़रत अली अलैहिस सलाम के बैअत कर लेने के बारे में निम्न लिखित सवाल पैदा होते हैं:
1. बैअत किसे कहते हैं?
2. क्या अली अलैहिस सलाम और ख़ुलफ़ा में कोई बैअत हुई है?
3. अगर अली अलैहिस सलाम व ख़ुलफ़ा में कोई बैअत हुई है तो उसका तरीक़ा क्या था?
4. अगर अली अलैहिस सलाम व ख़ुलफ़ा में कोई बैअत हुई थी तो वह किस समय की बात है?
5. क्या बुनियादी तौर पर इमामत व ख़िलाफ़त बैअत के ज़रिये से साबित की जा सकती है या नही?
हम अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की ख़िलाफ़त व इमामत को साबित करने के लिये पवित्र क़ुरआन, रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की सुन्नते क़तई और अक़्ल से दलील पेश करेंगे और अक़्ली दलील से हमारी मुराद, वह क़ायदा है जिसके अनुसार अफ़ज़ल के होते हुए ग़ैर अफ़ज़ल को आगे बढ़ाना सही नही है और इस क़ायदे को इब्ने तैमीया जैसे लोग भी स्वीकार करते हैं।
लेकिन अहले सुन्नत, अबू बक्र की इमामत व ख़िलाफ़त पर कोई स्पष्ट दलील न होने को स्वीकार करने और उन्हे अफ़ज़ल होने के दावे को ख़ारिज करने के बाद उनके पास सहाबा के इजमा (सर्व सम्मति) और उनकी बैअत के सिवा कोई दलील नही बचती।
बैअत क्या है?
बैअत, एक प्रकार के समाजी प्रस्ताव व तजवीज़ का नाम है, इस अर्थ में कि कुछ लोग किसी व्यक्ति से वादा करते हैं कि जिस के हाथ पर बैअत की जा रही है उसे भरोसा दिलाये कि (उदाहरण के तौर) वह बैअत करने वालों के देश की रक्षा करेगा, आवश्यकता के समय उनके काम आयेगा, उन्हे सास्कृतिक व जनहित सेवाएं व सुविधाएं पहुचायेगा। बैअत करने वाले यह निश्चय करेंगे कि उसके आदेश का पालन करेंगे और किसी आर्थिक या ख़तरे की स्थिति में आवश्यकतानुसार (क़ानून के मुताबिक़) जान और माल से उसकी सहायता व मदद करेंगे। दोनो पक्ष की ओर से समझौता होने के बाद, इसी समाजी वादे व निश्चय जिसका नाम बैअत है, वह लागू हो जायेगा।
शरई बैअत
बैअत हो जाने के बाद मन में यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या दलील है कि दोनो पक्ष इस समझौते पर बाक़ी रहें और उसका पालन करें?
स्पष्ट शब्दों में इस तरह से कहा जाये कि इस समझौते के हो जाने के बाद, बैअत करने वालों के लिये उस व्यक्ति जिससे उन्होने बैअत की है, कि पैरवी का अनिवार्य होना और उसके आदेश का पालन ज़रुरी होना कैसे साबित होगा? और किस दलील और तर्क की बुनियाद पर जिस इंसान की बैअत की गई है उसे शासन करने व आदेश देने का हक़ हासिल हो जाता है?
इस का उत्तर पवित्र क़ुरआन की इस आयत से स्पष्ट हो जायेगा, इरशाद हो रहा है:
یا ایھا الذین آمنوا اوفوا بالعقود ۔
ऐ ईमान वालो, अपने समझौतों का पालन करो।
इस पवित्र आयत से बैअत के उचित और जायज़ होने पर सारांश में इस तरह से दलील दी जा सकती है कि जिस समय दो पक्ष आपस में कोई समझौता करते हैं। (चूंकि किसी बात के लिये वचन देना या समझौता करना भी एक तरह की प्रतिज्ञा व प्रस्ताव है, इसके अलावा हदीसों में समझौते का अर्थ वचन देना या प्रतिज्ञा करना बयान किया गया है। अत: वादे के अनुसार उस पर पाबंद रहना चाहिये।
क्या इमामत व ख़िलाफ़त बैअत के ज़रिये से वुजूद में आ सकते हैं?
बैअत का उचित व जायज़ होना पवित्र क़ुरआन की आयत की दलील के ज़रिये साबित हो गया। जिसमें कहा गया कि बैअत जनता और उस इंसान जिसकी बैअत की गई हो, के बीच एक समाजी समझौता है, अब हम यहां पर इन दो प्रश्नों के ज़रिये उसके जायज़ होने को स्पष्ट करेंगे।
क्या इस के जायज़ होने का नतीजा यह होगा कि वह इंसान जिसकी बैअत की गई है वह जिन लोगों ने बैअत की है उनके ऊपर उनके ख़ुद से ज़्यादा हक़ व इख़्तेयार रखता है?
दूसरी तरफ़, इस फ़र्ज़ में कि ख़ुद वह इंसान जिसकी बैअत की गई है वह क़ानून और समझौते की मुख़ालेफ़त करे, तो क्या तब भी बैअत करने वालों के लिये उस समझौते को निभाना अनिवार्या होगा?
ज़ाहिर सी बात है कि वादा ख़िलाफ़ी या समझौते का पालन न करने की हालत में उसकी पैरवी की अनिवार्ता समाप्त हो जायेगी। अब यहां पर यह बात सामने आयेगी कि इसी लिये जिस इंसान की बैअत की जा रही है उसका मासूम (निष्पाप) होना आवश्यक होना चाहिये और उसके मासूम होने के साथ ही वह प्रयत्न जो ख़लीफ़ाओं की बैअत के सिलसिले में किया गया, उनकी इमामत ख़िलाफ़त पर पानी फेरने के लिये पर्याप्त होगा।
यह बता देना उचित है कि यह सारी बहसें उनके स्वीकार करने के फ़र्ज़ के साथ हैं। वर्ना जिस समय यह बात साबित हो गई कि पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा के चुनाव का हक़ केवल ईश्वर को है और जनता का इस में कोई रोल नही है, इन बहसों की बुनियाद ही ढह जायेगी।
शिया अक़ीदे के सुबूत में कि पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा का चुनाव जनता का काम नही है एक बहुत सी दिलचस्ब व ध्यान योग्य घटना है जिसे इब्ने हेशाम और हलबी ने अपनी सीरत की किताबों में उल्लेख किया है। इनके अलावा सीरत की दूसरी किताबों में भी इसका वर्णन हुआ है।
पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) अपनी नबूवत के आरम्भ में अरब के एक क़बीले को इस्लाम की दावत देने के लिये तशरीफ़ ले गये। उस क़बीले के बड़े सरदारों से मिलने के समय उन्होने अपनी बात इस तरह आपके सामने रखी कि अगर हमने आपके धर्म को स्वीकार कर लिया और आपको समर्थन देने लगें, आपके दुश्मनों से जंग में शिरकत करें तो क्या आप अपने बाद इमामत व ख़िलाफ़त और जनता की सर परस्ती के इस पद को हमारे हवाले कर देंगे?
उस समय उन हालात में जब कि एक एक इंसान का मुसलमान होना मुसलमानों के लिये फ़ायदे का कारण बनता था, आं हज़रत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) ने उन इस तरह का कोई वादा नही किया बल्कि स्पष्ट शब्दों में उनसे फ़रमाया:
الامر الی اللہ یضعہ حیث یشاء ۔
यह चीज़ ईश्वर के हाथ में है, वह जिसे चाहेगा इस पद को उसके हवाले करेगा।
अबू बक्र के हाथ पर किस तरह से बैअत की गई?
इतिहासिक स्रोत व किताबें पुष्टि करती हैं कि सबसे पहले जिस व्यक्ति ने अबू के हाथ पर बैअत की वह उमर बिन ख़त्ताब थे। उनके बाद मुहाजेरीन में से केवल एक या दो लोगों ने बैअत की और उनके बाद अंसार के गिरोह में से कुछ लोगों ने उनमें सबसे पहले बशीर बिन सअद ने बैअत की, जबकि बहुत से अंसार और दूसरे मुहाजेरीन ने और विशेष रुप से सारे बनी हाशिम और रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के महान और बड़े सहाबियों में से कोई भी सक़ीफ़ा में मौजूद नही था और किसी ने भी अबू बक्र की बैअत नही की।
यह जो कुछ बयान किया गया वह कुल्ली बहस थी, अब हम यहां पर इसे ज़ुज़ई बहस के ज़रिये वाज़ेह करेंगे।
बैअत की वास्तविकता वाली बहस में हमने स्पष्ट किया कि बैअत एक समाजी समझौता है। वास्तविक समाजी जिसके असर से अबू बक्र को ख़लीफ़ा मान लिया गया वह कौन सी समाजी वास्तविकता है?
जो कुछ प्रमाणित व निर्विवाद इतिहासिक दलीलों से सामने आता है वह यह है कि सक़ीफ़ ए बनी सायदा में अबू बक्र की बैअत करने वाले चार लोग थे:
1. उमर बिन ख़त्ताब
2. सालिम अबू हुज़ैफ़ा का ग़ुलाम
3. अबू उबैद ए जर्राह
4. नज्द वालों जैसी शक्ल वाला एक बूढ़ा।
क्या इन कुछ लोगों की बैअत से (बल्कि कुछ लोगों भी नही कहा जा सकता बल्कि दो व्यक्तियों) अबू बक्र की पैरवी का सारी इस्लामी उम्मत पर चाहे वह पूरब के रहने वाले हों या पश्चिम के अनिवार्य हो जाना साबित हो जाता है, क्या यह बात माक़ूल है?
क्या हज़रत अली अलैहिस सलाम ने अबू बक्र की बैअत की?
जैसा कि इशारा किया गया कि कुछ लोग कहते हैं: अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने अबू बक्र के हाथ पर बैअत की थी। हम इस दावे का चार तरह से उत्तर देंगे:
पहला: यह कि इस दावे की जांच पड़ताल की जाये।
दूसरा: जैसा कि बयान किया गया कि बैअत एक तरह का समझौता और एक बनाई हुई चीज़ (इंशाई अम्र) है और बनाई जाने वाली चीज़ (इंशाई अम्र) शोध के अनुसार और महान उलमा के मद्दे नज़र जिस चीज़ पर ख़त्म होता है वह एक ऐतेबार और ज़रिये का नाम है। अगर यह मान लिया जाये कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ने अबू बिन क़ुहाफ़ा के हाथ पर हाथ रख कर बैअत कर ली थी तो यह कहां से पता चलेगा कि यह हाथ पर हाथ रखना उन्होने उनकी ख़िलाफ़त और उनकी इताअत के अनिवार्य होने को भी मान लिया था?
अगर कोई कहे: हर बैअत करने वाले का ज़ाहिरी हाल यह होता है कि वह इस काम के ज़रिये उस चीज़ को ऐतेबार बख़्शता है जिस चीज़ में बैअत की आत्मा पाई जाती है और वह उसे ज़ाहिर व स्पष्ट करता है।
हमारा कहना है: हां, ज़ाहिर हाल इसी तरह से है और जो अपनी जगह पर साबिक किया जा चुका है कि ऐसे ज़ाहिर दलील बनते हैं लेकिन यह सब उस सूरत में होता है जब उस ज़ाहिर के मुक़ाबले में कोई बड़ा विरोध न पाया जा रहा हो, जबकि इस बारे में ख़ुतब ए शिक़शिक़िया और उस जैसे दूसरे उदाहरण ख़ुद अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के कथन से सामने आये हैं कि आपने इस तरह से साफ़ शब्दों में फ़रमाया:
واللہ لقد تقمصھا ابن ابی قحافۃ ۔
ईश्वर की सौगंध, अबू बिन अबू क़ुहाफ़ा ने ख़िलाफ़त व उत्तराधिकारी की कमीज़ को पहन लिया जबकि वह उसका हक़ नही था।
तीसरे, यह कि अगर अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के दरमियान बैअत हुई थी, जैसा कि इतिहासकारों ने लिखा है तो वह उन हालात में हुई थी कि जिससे यह कभी नही कहा जा सकता है कि हज़रत अली अलैहिस सलाम ने अपनी मर्ज़ी से अबू बक्र की बैअत की हो। ज्यादा जानने के लिये इस बारे में इब्ने क़ुतैब ए दैनूरी की किताब अल इमामह वस सियासह का पढ़ लेना काफ़ी है ता कि इस घटना के ऊपर किसी हद तक रौशनी पड़ सके।
कुछ अहले सुन्नत को जब इसको स्वीकार करने से बचने का कोई रास्ता नही सूझा तो उन्होने इब्ने क़ुतैबा की इस किताब का ही इंकार कर दिया कि यह किताब इब्ने क़ुतैबा की नही किसी और की है। हालांकि इससे भी उन्हे कोई फ़ायदा नही हुआ, इसलिये कि इस बात में कोई ही नही है कि वह इब्ने क़ुतैबा की किताब है, अहले सुन्नत के बड़े उलमा पिछली शताब्दियों में उस किताब के हवाले से बहुत सी बातें लिख चुके हैं और स्पष्ठ तौर पर उसका संबंध इब्ने क़ुतैबा से लिख चुके हैं।
चौथे, यह कि अगर हज़रत अली अलैहिस सलाम और अबू बक्र के दरमियान बैअत हुई थी तो सही बुख़ारी के अनुसार वह बात हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत के बाद की बात थी।
दूसरी ओर अहले सुन्नत की किताबों के अनुसार हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत, रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की वफ़ात के छ: महीने बाद हुई थी, जैसा कि सही बुख़ारी में बयान हुआ है, इस की बुनियाद पर सवाल पैदा होता है कि क्यों हज़रत अली अलैहिस सलाम ने इतने अरसे तर बैअत नही की थी?
क्यों हज़रत अली अलैहिस सलाम ने हज़रत ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा) को बैअत करने के लिये नही कहा?
इन दलीलों के बाद अगर हज़रत अली अलैहिस सलाम ने ज़ाहिरी तौर पर बैअत कर ली तो यह कहां से साबित हो पायेगा कि यह वही बैअत है जिसके नतीजे में हज़रत ने अबू बक्र की बैअत को मान लिया हो और उम्मत के लिये उनकी पैरवी व इताअत करना अनिवार्य हो गया हो?
निसंदेह यह सारी बातें इस फ़र्ज़ के साथ हैं कि हम ख़िलाफ़त व इमामत के अम्र को बैअत से साबित योग्य मान लें और इस बात का सही नही होना हम पहले ही बयान कर चुके हैं।
हज़रत अली का ख़ुलफ़ा की नमाज़े जमाअत में उपस्थित होना
कुछ अहले सुन्नत दावा करते हैं कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ख़ुलफ़ा की नमाज़े जमाअत में शिरकत करते। इसके बारे में कहा जा सकता है कि यह दावा इस मुहावरे की तरह है:
رب مشھور لا اصل لہ
कुछ मशहूर बातें ऐसी होती है जिनकी कोई बुनियाद नही होती।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)
बहुत सी बातें और घटनाएं ऐसी प्रसिद्ध हो जाती है जिनकी कोई बुनियाद और हक़ीक़त नही होती।
अलबत्ता इस बात को ध्यान में रखते हुए कि यहां तक कि कुछ बड़े और महान लोग इस घटना को प्रमाणित सुबूत मानते हैं, लेकिन हमें अभी तक इसके साबित और मोतबर होने के बारे में कोई प्रमाण नही मिला है। इसलिये कि ऐसा कोई प्रमाण नही मिलता है कि जिस पर सब एक मत हों कि हज़रत अली (अलैहिस सलाम) हमेशा ख़ुलफ़ा की नमाज़े जमाअत में उपस्थित होते रहते हों?
जो कुछ इस बारे में मौजूद है वह बातें हैं जो अबू सईद समआनी ने अपनी किताब अनसाबुल अशराफ़ में बयान किया है जिसे अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के चमत्कारों में से कहा जा सकता है जो उन्होने विरोधियों को ज़लील करने के लिये अंजाम दिया था। इस घटना में उन लोगों ने हज़रत के क़त्ल की साज़िश रची थी। हमने इस बहस को एक जगह पर ज़िक्र किया है।
शायद यह घटना इस बात की ओर इशारा करती हो कि उस समय तक हज़रत अली अलैहिस सलाम ने अबू बक्र की बैअत नही की थी या आपका अबू बक्र की बैअत से सहमत न होना जग ज़ाहिर हो गया था। क्यों कि इसके अलावा कोई कारण समझ में नहीं आता कि आपके क़त्ल की साज़िश की जाये।
क्या अमीरुल मोमिनीन अली (अलैहिस सलाम) और ख़ुलफ़ा में कोई सगी रिश्तेदारी थी?
प्रमाणित व विश्वसनिय शोध व अध्धयन के अनुसार बनी हाशिम व बनी उमय्या में जो भी संबंध या रिश्तेदारियां हुईं वह सब एक तरफ़ा थी। इस अर्थ में कि अकसर ऐसा हुआ है कि रिश्तेदारी या संबंध बनाने वाले बनी उमय्या वाले या दूसरे विरोधी थे जिन्होने बनी हाशिम से रिश्ता जोड़ते हुए उनकी बेटियों का हाथ मांगा है लेकिंन बनी हाशिम में ऐसा कभी नही हुआ कि उन्होने दुश्मनों की बेटियों का साथ चाहा हो। कम से कम जो चीज़ प्रमाणित व संदेह से ऊपर है वह यह है कि मासूम इमामों अलैहिमुस सलाम में से किसी एक की मां भी बनी उमय्या में से नही है।
इस बारे में दो बातें बहस व शोध के क़ाबिल हैं:
1. इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस सलाम का क़ासिम बिन मुहम्मद बिन अबू बक्र का दामाद होना।
क़ासिम, मदीने के फ़ुक़हा में से और एक भारी भरकत अस्तित्व वाले व्यक्ति थे जिसके कारण इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस सलाम ने उनकी बेटी उम्मे फ़रवा से शादी की। यह पवित्र ख़ातून इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम की मां हैं।
2. उम्मे कुलसूम बिन्ते हज़रत अली अलैहिस सलाम की उमर बिन ख़त्ताब से शादी।
अहले सुन्नत कहते हैं: जब आप लोग अपने इमामों को संबोधित करते हुए कहते हैं:
اشھد انک کنت نورا فی الاصلاب الشامخۃ والارحام المطھرۃ۔
मैं गवाही देता हूं कि आप नूर की शक्ल में महान व श्रेष्ठ सज्जनों के सुलबों और पवित्र व बुराइयों से दूर माओं के रहमों में थे।
अत: अबू बक्र जो इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम की मां के दादा हैं वह भी असलाबे शामेख़ा (श्रेष्ठ व महान सुल्ब) में से हुए लिहाज़ा आपको उनके ईमान व पाक आचरण का क़ायल होना चाहिये।
इस दलील का उत्तर हम इस तरह से देंगे:
इस दलील की दोनों आरम्भिक भूमिकाएं सही हैं और शियों के तरफ़ से उसके प्रमाणित होने में किसी को कोई शंका नही है। इस मतलब में भी कोई शक नही है कि जनाबे उम्मे फ़रवा क़ासिम की बेटी, इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस सलाम की बेगम और शियों के छठे इमाम हज़रत जाफ़िर बिन मुहम्मद सादिक़ अलैहिस सलाम की मां हैं और क़ासिम अबू के बक्र के पोते हैं।
दूसरी तरफ़ इस बात में भी कोई शक नही है कि यह इबारत जो ज़िक्र हुई है वह ज़ियारते वारेसा का एक अंश है जिसका शुमार शियों के ऐतेक़ादात में से किया जाता है, लेकिन इन भूमिकाओं से जो नतीजा निकाला गया है वह ऐसा है कि जिस पर जिस मां का जवान बेटा मरा हो वह भी हंसने पर मजबूर हो जायेगी। इस लिये कि:
एक: अरबी भाषा के जानने वालों से यह बात छिपी नही है कि असलाब शब्द का अर्थ, जैसा कि पवित्र ज़ियारत में बयान हुआ है, पुरुष के पूर्वज व वंशज हैं और शियों के इमामों के पूर्वज, अबुल बशर जनाबे आदम अलैहिस सलाम तक मालूम और स्पष्ट हैं और उनका कोई भी संबंध अबू बक्र से नही है।
दो: अरहाम शब्द से मुराद वह नारियां हैं जिनके रहमों में इमामों के पूर्वजों के सुलबों से उनका नूर व प्रकाश मुन्तक़िल हुआ है जिसके नतीजे में शिया इमामों की बीवियां दूसरे यानी बाद वाले इमाम की मां शुमार होती हैं और इसमें कोई शक की गुंजाइश नही है कि वह पाक व पाकीज़ा थीं और यह मेयार इमामों की मांओं की तरफ़ से जनाबे हव्वा तक इसी तरह से है।
उदाहरण के तौर पर सलमा, हज़रत हाशिम अलैहिस सलाम की बीवी एक पाक व पाकीज़ा ख़ातून थीं और यहीं बाद में हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस सलाम की मां बनीं।
इसी तरह से जनाबे अब्दुल मुत्तलिब (अ) की बीवी जो हज़रत अबू तालिब अलैहिस सलाम की मां है वह भी निहायत पवित्र आचरण व पाक व पाकीज़ा ख़ातून थीं।
ईश्वर की कृपा से जो कुछ बयान हुआ उससे पूर्ण रुप से स्पष्ट हो गया कि अबू बक्र बिन अबू क़ुहाफ़ा का शुमार न असलाब (सुल्ब की जमा) में हो सकता है न ही अरहाम (रहम की जमा) में और बुनियादी तौर पर इन दोनो शब्दों का किसी भी तरह से अबू बक्र से कोई भी संबंध नही है। ता कि नौबत यहां तक आ सके कि शिया जनाब की इज़्ज़त व ऐहतेराम के क़ायल हो सकें।
उमर की उम्मे कूलसूम से शादी का अफ़साना
दूसरा मक़ाम उम्मे कुलसूम बिन्ते हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की उमर बिन ख़त्ताब से शादी का मामला था जिसके ज़रिये से उमर के लिये फ़ज़ीलत तलाश कर सकें और पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की वफ़ात के बाद जो कुछ पेश आया उसका इंकार कर सकें। इस बात की भी जांच पड़ताल की जानी ज़रुरी है।
यह घटना पर दो तरफ़ से ध्यान देने व विचार करने की आवश्यकता है:
1. शिया हदीसों के अनुसार
2. ग़ैर शिया हदीसों के अनुसार
शियों की मोतबर हदीसों की रौशनी में यह घटना इस प्रकार है:
उमर बिन ख़त्ताब ने अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम से उनकी छोटी पुत्री हज़रत उम्मे कुलसूम के लिये शादी का पैग़ाम या रिश्ता दिया। हज़रत अली अलैहिस सलाम ने यह कर कि उनकी बेटी की आयु अभी कम है और वह अभी शादी करने के लिये तैयार नही है, मना कर दिया।
कुछ दिनों के बाद उमर, पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के चचा अब्बास से मिलते हैं और उनसे पूछते हैं कि क्या आपको मुझ में कोई ऐब या बुराई दिखाई देती है?
उन्होने उत्तर दिया कि आख़िर ऐसा क्या हो गया? कहना क्या चाहते हो?
उमर ने जवाब दिया कि मैंने आपके भतीजे अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम से उनकी बेटी का रिश्ता मांगा तो उन्होने मुझे इंकार कर दिया।
उसके बाद उमर ने अब्बास (बल्कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और बनी हाशिम) को धमकी दी और कहा: ईश्वर की सौगंध, ज़मज़म के कुवें को भर दूंगा, (मक्के व मदीने से) बनी हाशिम की महानता व श्रेष्ठता के लक्षण को मिटा दूंगा। अली के ख़िलाफ़ दो गवाहों को तलाश करके उन ऊपर चोरी का मुक़द्दमा चलाऊंगा और साबित करके चोरी की सज़ा दूंगां।
अब्बास अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के पास आये और जो कुछ उमर ने कहा था उसे बयान किया और उनसे ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि इस शादी के बारे में फ़ैसला उनके ऊपर छोड़ दें।
अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने उनके इस तक़ाज़े को स्वीकार कर लिया और उनके चचा अब्बास ने उम्मे कुलसूम की शादी उमर से कर दी।
उमर के मरने का बाद अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने उन्हे अपने घर में वापस ले आये।
और जिस समय इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम से इस शादी के बारे में प्रश्न किया गया तो आपने फ़रमाया:
ان ذالک فرج غصباہ۔
यह हमारी इज़्ज़त थी जो हमसे छीन ली गई।
क़ाबिले ज़िक्र है कि कुछ पुराने महान शिया उलमा जैसे शेख़ मुफ़ीद व सैय्यद रज़ी, इस घटना का सिरे से इंकार करते हैं और बहुत से बड़े शिया उलमा ने इस शादी के अफ़साने को अक़्ली व नक़्ली (पवित्र क़ुरआन व सुन्नत) दलीलों के आधार पर रद्द किया है।
शिया हदीसों (जिनकी सनद के बारे में किसी को कोई शक नही है) के अनुसार, ऊपर इस शादी के बारे में बयान हुआ इससे ज़्यादा कोई बात साबित नही होती और अगर ऐसी कोई शादी हुई होगी तो जिस चीज़ को यह साबित करना चाह रहे हैं वह इसको साबित करने के लिये पर्याप्त दलील नही है।
अहले सुन्नत के दृष्टिकोण की जांच पड़ताल
इससे पहले कि विरोधियों की हदीसों की जांच पड़ताल करें इस बात का ज़िक्र कर देना आवश्यक है कि उम्मे कुलसूम (स) से उमर की शादी की घटना को जिस तरह से वह दावे करते हैं और शान व शौकत से बयान करते हैं वह उनकी सबसे सही किताबों सही बुख़ारी व सही मुस्लिम आदि दूसरी छ: सही किताबों में मौजूद ही नही है। इसी तरह से उनकी अकसर मोतबर मुसनदों व प्रसिद्ध मोजमों और आम किताबों में भी उसका वर्णन नही हुआ है और तलाश करने के बाद भी इस तरह की कोई चीज़ नही मिलती।
यह बात बहुत ही ध्यान देने और विचार करने योग्य है कि ऐसी घटना जो अहले सुन्नत के लिये इस हद तक असरदायक है, किस तरह से उन्होने इसे पूर्ण रुप से बयान करने में ग़फ़लत का शिकार हुए हैं और क्या बुनियादी तौर पर ऐसी महत्वपूर्ण बात को बयान करने में ग़फ़लत या लापरवाही सामने आ सकती है? क्या ऐसा संभव है?
कदापि, बल्कि ऐसा मालूम होता है कि यह घटना ही अस्ल में बे बुनियाद व फ़र्ज़ी है। वर्ना वह लोग इतनी आसानी से उसे नही छोड़ते, हालांकि शियों की नज़र में इमामत व ख़िलाफ़त जैसे बेहद अहम व महत्व रखने वाले मसले को साबित करने के लिये, इस तरह की चीज़ों से अगरचे उसका घटित होना प्रमाणित हो जाये। (जबकि इस घटना का साबित होना ही अभी शक के घेरे में है।) तब भी यह दलील पानी को हवन में कूटने की तरह और या पानी पर लकीर बनाने की तरह है।
इस नुक्ते के वर्णन के बाद अब हम उन हदीसों की जांच पड़ताल शुरु करेंगे जो अहले सुन्नत की किताबों में आयी हैं।
वह लोग इस घटना को दो रास्तों से ज़िक्र करते हैं:
1. अहले बैत (अलैहिमुस सलाम) के हवाले से।
2. ग़ैर अहले बैत के हवाले से।
अहले सुन्नत के जरह व तअदील के बड़े उलमा व शोधकर्ता दोनों ही तरह की हदीसों को ज़ईफ़ मानते हैं और उन दोनों में से किसी को भी किसी लायक़ नही समझते हैं।
इसके अतिरिक्त यह कि इस हदीस का मूल ग्रंथ व मत्न ही बिखराव का शिकार और असंतुलित है जिसके कारण ही इस हदीस को ज़ईफ़ की लिस्ट में रखा गया है।
परिणाम यह निकला कि
पहली बात: अहले सुन्नत की किताबों में, विशेष रुप से भरोसेमंद किताबों में जैसे छ: सही किताबें व अकसर व ज़्यादातक मुसनद व मोजम की किताबों में इस घटना के बारे में हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के राज़ी होने की कोई नाम व निशानी नही पाई जाती है।
दूसरी बात: इस वाक़ेया का अहले सुन्नत की किताबों में दो प्रकार से वर्णन हुआ है और कोई ऐसी हदीस जिस के सही व मोतबर होने पर उनके सारे उलमा एक राय व एकमत हों, मौजूद नही है।
तीसरी बात:
मौजूदा हदीस का मत्न (सनद की कमज़ोरी को नज़र अंदाज़ करते हुए) घटना के बयान के सिलसिले में विभिन्न पहलुओं की अजीब सी कशमकश का शिकार नज़र आता है और हदीस शास्त्र को शोधकर्ता इस तरह की रिवायत को मोतबर व विश्वासपात्र नही समझते हैं और ऐसी हदीस को कमज़ोर व ज़ईफ़ मानते हैं।
जो कुछ बयान किया गया वह शिया हदीसों के अनुसार, जब तक अस्ल घटना का इंकार न किया जाये और वारिद होने वाली इस हदीस की ज़ाहिरी दलालत जो घटना के घटित होने को स्पष्ट करती है, उसे उसके किसी और तरफ़ न पलटाया जाये, हालांकि यह दोनों पहलू भी विचार व शोध का विषय बन सकते हैं, अंतिम बात जो स्वीकार योग्य हो सकती है वह यह है कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ने उमर बिन ख़त्ताब के बार बार आने और बहुत ज़्यादा ज़िद व ज़ोर देने पर (जैसा कि विरोधियों की हदीसों में भी यह बात स्पष्ट रुप से दिखाई देती है।) और आपके विभिन्न प्रकार से रद्द करने, मना करने और उज़्र पेश करने के बाद भी, उमर के तरह तरह की धमकी देने और अब्बास व अक़ील के ज़रिये शिफ़ारिश कराने (जैसा कि अहले सुन्नत की किताबें इन सारी बातों को स्पष्ठ रुप से बयान करती हैं।) बेक़ाबू हालात में दिल से राज़ी न होने के बाद, शादी के मामले को अपने चचा अब्बास के हवाले कर दिया।
अब्बास ने ही निकाह होने के बाद, हज़रत उम्मे कुलसूम को उमर के घर तक पहुचाया और कुछ अरसे के बाद जब ख़लीफ़ा को मौत के घाट उतार दिया गया तो अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम अपनी बेटी को वापस अपने घर ले आये।
सच बतायें कि कौन न्याय प्रिय बुद्धिमान इंसान होगा जो इस तरह की घटना को अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम और उमर बिन ख़त्ताब के बीच मधुर संबंधों की दलील बताये?
दूसरी ओर अहले सुन्नत की हदीसों में एक बहुत ही घटिया बात ज़िक्र हुई है कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने अपनी बेटी को उमर के लिये सजा संवार करे भेजा और ख़लीफ़ा ने उन्हे घूर कर देखा और इस शादी में नज़दीकी की गई, जिसके नतीजे में कई बच्चे पैदा हुए और इसी तरह की कई बे बुनियाद बातें जो सब की सब बकवास, झूठ, मनगढ़त हैं जिनका कोई महत्व नही है।
यह भी लिखा गया है कि उमर ने मिम्बर से इस शादी पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देने का कारण रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) का एक कथन लिखा है कि आपने फ़रमाया:
کل حسب و نسب منقطع یوم القیامۃ الا حسبی و نسبی ۔
महाप्रलय व क़यामत के दिन सारे (वंश) हसब व नसब मिट जायेगें सिवाय मेरे (ख़ानदान) हसब व नसब के।
उमर ख़ुद अपने दावे के अनुसार चाहते हैं कि फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा से रिश्तेदारी के ज़रिये से रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) से रिश्तेदारी जोड़ें और क़यामत तक इस रिश्तेदारी से फ़ायदा उठाते रहें।
अब जिस घटना का वर्णन होने जा रहा है उससे इस शादी पर ज़ोर देने के दूसरे फ़ायदे की बात मज़बूत होती नज़र आती है।
मुहम्मद बिन इदरीसे शाफ़ेई कहते हैं कि जिस समय हुज्जाज बिन युसुफ़े सक़फ़ी ने अब्दुल्लाह बिन जाफ़र की बेटी से शादी की, ख़ालिद बिन यज़ीद बिन मुआविया ने अब्दुल मलिक बिन मरवान से कहा: क्या इस शादी के मसले में तुम ने हुज्जाज से कुछ नही कहा?
अब्दिल मलिक बिन मरवान ने ख़ालिद के उत्तर में कहा कि नही मैंने उसे कुछ नही कहा, क्या कोई बात है मुझे उससे कुछ कहना चाहिये था?
ख़ालिद ने कहा, ईश्वर की सौगंध, इस काम से बाद में बहुत ख़तरनाक परेशानियां पैदा होने वाली हैं।
अब्दिल मलिक बिन मरवान ने कहा: कैसे और किस चीज़ की बुनियाद पर?
ख़ालिद बिन यज़ीद ने कहा, ख़ुदा की क़सम, ऐ ख़लीफ़ा, जब से मैंने ज़ुबैर की बेटी रमला से शादी की है, मेरे दिल में ज़ुबैर के लिये जो दुश्मनी व नफ़रत व घृणा थी वह सब ख़त्म हो गई।
जैसे ही अब्दिल मलिक बिन मरवान ने यह बात सुनी, ऐसा लगा जैसा वह सोते से जागा हो, उसने फ़ौरन हुज्जाज बिन युसुफ़े सक़फ़ी को लिखा कि अब्दुल्लाह की बेटी को तलाक़ दे दो।
हुज्जाज ने अपने समय के ख़लीफ़ा के आदेश का पालन किया और उसे तलाक़ दे दी।
निसंदेह शादी करने और रिश्तेदारी जोड़ने का तक़ाज़ा यही होता है कि इससे पिछली और पुरानी दुश्मनियां व नफ़रतें ख़त्म हो जायें या कम से कम उनमें कमी आ जाये। लेकिन यह बातें बनी उमय्या की बुरी नियतों के रास्ते में रुकावट नही बन सकती थी जिनका लक्ष्य यह था कि जैसे भी संभव हो बनी हाशिम की दुश्मनी व उनसे नफ़रत को अपने दिलों में विशेष तौर पर अपने गवर्नरों के दिलों में पैदा कर दें।
अत: उमर बिन ख़त्ताब इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये इस शादी पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिये हुए थे कि शायद बनी हाशिम और ख़ास तौर से अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के घराने में इस रिश्तेदारी के ज़रिये से वह आम मुसलमानों के ज़हनों से सक़ीफ़ ए बनी सायदा की घटना व उनके साथियों की तरफ़ से जनाबे फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा पर किये गये ज़ुल्म व अत्याचार को साफ़ कर सकें या उसे मोड़ने में सफल हो सकें।
हज़रत अमीर और ख़ुलफ़ा के नामों पर बच्चों का नाम रखना
पुराने ज़माने से यह सिलसिला चला आ रहा है कि बच्चों का नाम ऐसे लोग रखते थे जो किसी बड़ी शख़्सियत के मालिक होते थे या किसी बड़े पद पर होते थे चाहे वह हक़ के अनुयाई हों या बातिल के मानने वाले। उदाहरण के तौर पर जब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो हमें ऐसी मिसालें भी मिलती हैं कि अगर रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) को किसी का नाम पसंद नही आता था तो आप उसका नाम बदल देते थे। उसके अलावा आप (स) ने सबसे पहले इमाम हसन (अलैहिस सलाम), इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) और जनाबे मोहसिन (अलैहिस सलाम) का नाम रखा।
बहुत से मौक़ों पर देखने में आता है कि ज़ालिम व अत्याचारी शासक और ख़लीफ़ा किसी न किसी राजनितिक या समाजिक कारणवश लोगों के लिये नाम का चुनाव करते थे और उस समय में मौजूद वातावरण और माहौल के हिसाब से उन बच्चों के अभिभावक उस शासक का विरोध करने से बचते थे।
यह बात अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के बेटे उमर के बारे में भी अहले सुन्नत के बड़े उलामा स्पष्ट कर चुके हैं। हाफ़िज़ मज़्ज़ी, इब्ने हजर असक़लानी और एक अहले सुन्नत के बड़े लेखक उलमा के एक समूह ने इस बात पर इस तरह से चर्चा की है:
जिस समय अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की बीवी सहबा बिन्ते रबीआ के यहां बेटा पैदा हुआ। उमर बिन ख़त्ताब ने इस बच्चे का नाम उमर रख दिया।
हमारे दृष्टिकोण के अनुसार उमर का यह काम भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये था जिसे उन्होने रोब व दबदबे व धमकी के ज़रिये अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम सलाम की बेटी से शादी के लिये रिश्ता भेजा था। जैसा कि इतिहास की किताबों में लिखा है कि एक बार मुआविया ने एक बड़ी रक़्म (अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के दामाद और जनाबे ज़ैनबे कुबरा सलामुल्लाहे अलैहा के शौहर) जनाबे अब्दुल्लाह बिन जाफ़र के लिये भेजी ता कि वह अपने बच्चे का नाम मुआविया रख दें।
इससे बढ़ कर यह कि इन में से अकसर नाम वह हैं जो अरबों में आम तौर पर रखे जाते थे और सारे घराने अपने शौक़ और सलीक़े के हिसाब से अपने बच्चों के लिये इन नामों में से कोई नाम चुन लेते थे।
दूसरे शब्दों में, बुनियादी तौर पर ख़ुद इन नामों में कोई ज़ाती बुराई नही पाई जाती थी। इसी वजह से मुख़ालेफ़ीन की किसी भी किताब में, यहां तक जो किताबें काफ़ी बाद में छपी हैं, (यानी लगभग पचास साल पहले छपी हैं।) नही मिलता है कि इन की वजह से शियों के ख़िलाफ़ कोई क़दम उठाया गया हो और इस नाम के मुद्दे को हमारे इमामों अलैहिमुस सलाम और उनके रहनुमाओं के दरमियान झगड़ा या इख़्तेलाफ़ न होने के सुबूत के तौर पर पेश किया गया हो।
पिछली सारी बातों का निचोड़ यह है कि इतने महत्वपूर्ण मसले को हल करने या न करने के लिये जो सारी मज़बूत और मोहकम दलीलों से साबित हो चुका है और जिस में किसी भी तरह का कोई संदेह नही किया जा सकता है। उसके लिये इस तरह का बहाना पेश करना समझ में नही आता है मगर यह कि यह कहा जाये कि डूबने वाला तिनके की तलाश में है।
الغریق یتشبث بکل حشیش ۔
शैख़ैन की प्रशंसा वाली हदीस पर एक नज़र में
अहले सुन्नत की किताबों में अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की तरफ़ निस्बत दी गई है कि आप ने विभिन्न इबारतों के माध्यम से शैख़ैन (अबू बक्र व उमर) की प्रशंसा की है। एक हदीस में आया है कि हज़रत अली अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:
خیر الناس بعد النبیین ابوبکر ثم عمر ۔
नबियों के बाद सबसे बेहतरीन मनुष्य अबू बक्र उनके बाद उमर बिन ख़त्ताब हैं।
इब्ने तैमिया अपनी किताब मिनहासुस सुन्नह में इस तरह से लिखते हैं:
अकसर अली अलैहिस सलाम से यह बात सुनने में आती थी कि अगर किसी ऐसे इंसान को मेरे पास लाया जाये कि जो मुझे अबू बक्र व उमर से श्रेष्ठ बताता हो तो मैं उसे इस बात पर झूठे इल्ज़ाम लगाने की सज़ा दूंगा और कोड़े मारूंगा।
हम यहां इस चीज़ की कई तरह से जांच पड़ताल करना चाहेंगे:
1. इस तरह की बातें जिनका संबंध अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम से जोड़ा जा रहा है, केवल अहले सुन्नत की किताबों में बयान हुई हैं और किसी एक भी शिया किताब में, यहां तक कि किसी ज़ईफ़ व कमज़ोर सनद के साथ भी, इनका ज़िक्र नही हुआ है।
ज़ाहिर सी बात है कि किसी ऐसी चीज़ से दलील पेश करना जो दो विरोधियों में से केवल एक के यहां पाई जाती हो, वह शास्त्रार्थ व बहस व मुनाज़ेरे के अध्याय के क़ानून के ख़िलाफ़ है।
2. अहले सुन्नत ने इन संबंधों व निस्बतों को यहां तक कि अपने यहां साबित व सही रिवायतों के हिसाब से भी पेश नही किया है।
जो हदीस ऊपर बयान की गई है वह इस इबारत में हैं कि अली अलैहिस सलाम से रिवायत की गई (روی عن علی) या अली (अ) से बयान हुई है। (و قد حکی عن علی) इन शब्दों में इनका वर्णन किया गया है।
हदीस शास्त्र व इल्मे दिराया की परिभाषा में इस तरह की हदीस को मुरसल हदीस कहा जाता है जो सीधे हज़रत अली अलैहिस सलाम से बयान की जाये। वह भी बिना किसी विश्वास पात्र व ध्यानपूर्वक सनद के साथ। स्पष्ट है कि ऐसी किसी हदीस को कोई ऐतेबार नही होता।
3. अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इस हदीस में बहुत से अनुमान पाये जाते हैं और यह भी कि रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) से अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की श्रेष्ठता के बारे में ढेरों मुतावातिर बल्कि उससे भी ऊपर की श्रेणी की हदीसें पाई जाती हैं। जो बहुत से लोगों से ज़िक्र हुई हैं और वह सब शैख़ैन के बारे में हज़रत अली अलैहिस सलाम की प्रशंसा में आने वाली इस हदीस के झुठ को साबित करने के लिये पर्याप्त है।
4. बहुत से नमूने गवाह के तौर पर मौजूद हैं कि जो बिना किसी संदेह के इस तरह की निस्बत को झूठा साबित करते हैं। उदाहरण के लिये उन में से एक का ज़िक्र यहां कर रहे हैं।
इब्ने अब्दुल बर्र अपनी किताब अल इस्तीआब फ़ी मारेफ़तिल असहाब, जो अहले सुन्नत की हदीस शास्त्र व इल्मे रेजाल की सबसे मोतबर किताबों में से एक है, उसमें सलमान, मिक़दाद, अबू ज़र, ख़ब्बाब, जाबिर बिन अब्दिल्लाह अंसारी, अबू सईदे ख़िदरी और ज़ैद बिन अरक़म जैसे अफ़राद से नक़्ल हुआ है कि सबसे पहले इस्लाम लाने वाले अली बिन अबी तालिब थे।
उसके बाद वह लिखते हैं:
و فضلہ ھولاء علی غیرہ ۔
यह सारे लोग अली अलैहिस सलाम को दूसरे सारे लोगों से श्रेष्ठ मानते थे।
यह बात भी कहने योग्य है कि बुज़ुर्ग सहाबियों में से ऐसे सज्जन लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो इस बात के क़ायल थे कि अली अलैहिस सलाम सब में सर्वश्रेष्ठ हैं। जबकि इब्ने अब्दुल बर्र ने अपनी मसलहत के हिसाब से केवल इन ही लोगों के नाम गिनाये हैं।
हालांकि यह बहस अहले सुन्नत की किताबों में एक अलग शीर्षक के साथ की जाती है और वह यह है (सबसे पहले इस्लाम लाने वाला कौन था?)
इब्ने अब्दुल बर्र इन कुछ लोगों के कथनुसार नक़्ल करते हैं कि सबसे पहले इस्लाम लाने वाले अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम थे।
बल्कि इब्ने जरीरे तबरी एक सही रिवायत में नक़्ल करते हैं कि अबू बक्र इब्ने अबू क़ुहाफ़ा पचास लोगों के इस्लाम लाने के बाद इस्लाम लाये।
लेकिन इस लिये कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इस श्रेष्ठता का इंकार कर सकें, कुछ हदीसों को गढ़ लिया है जिनमें से एक हदीस यह है कि सबसे पहले अबू बक्र इस्लाम लाये।
हालांकि हम यहां पर इन बे बुनियाद व झूठी हदीसों को रद्द या उन्हे ग़लत साबित करने की बहस में नही पड़ना चाहते हैं। यहां पर जो चीज़ हमारी बहस से संबंधित है वह यह है कि इब्ने अब्दुल बर्रे क़ुरतुबी जैसी शख़्सियत जो कि अहले सुन्नत के बड़े हाफ़िज़ों में से एक हैं वह अपनी किताब में रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के कुछ असहाब की तरफ़ यह निस्बत देते हैं कि वह सब लोग अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम को अबू बक्र पर फ़ज़ीलत देते थे।
दूसरी तरफ़ हरगिज़ न यह बात देखने में आई न ही सुनने में कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने यह अक़ीदा रखने की वजह से किसी को सज़ा सुनाई हो या यहां तक कि उसकी बुराई की हो।
लिहाज़ा इब्ने हजरे असक़लानी इस बारे में बौखलाहट का शिकार हो गये हैं। इस लिये कि एक तरफ़ तो देखते हैं कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम पर इस तरह की निस्बत दी है कि वह ख़ुद को अबू बक्र व उमर से अफ़ज़ल बताने वाले को सज़ा सुनाते हैं तो दूसरी तरफ़ जो लोग आपकी श्रेष्ठता के क़ायल हैं उन में से किसी को कोई सज़ा नही मिली है और यही कारण है कि इब्ने अब्दुल बर्र की बात में लाचारी की वजह से फेर बदल किया है और आख़िरी बात को उड़ा दिया है।
و فضلہ ھولاء علی غیرہ ۔
ता कि इन लोगों के होते हुए इस बात को स्वीकार करने से बच सकें।
अलबत्ता हमारे पास विभिन्न विषयों के बहुत से प्रमाण मौजूद हैं कि बहाने करने वालों की बुनियाद यह है कि जब उनमें से कोई समकालीन आलिम अपने पुराने उलमा की इस तरह की कोई बात, वाक्य या इबारत देखता है जिससे उसके सर में दर्द हो सकता है या उनके बे बुनियाद दावों की क़लई खोल सकता है या उनके झूठ के रास्ते का रोड़ा बन सकता है तो वह उसमें जिस तरह से भी संभव होता है, फेर बदल कर देते हैं या उसे मिटा देते हैं।
वाह क्या ज़बरदस्त समुदाय है और क्या उनका तरीक़ा है। बातों को अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम जैसी शख़्सियत की तरफ़ मंसूब कर देते हैं और जो कुछ इन उसके रास्ते में आता है उसमें फेर बदल कर देते हैं। आख़िर में परिणाम यह निकलता है कि अपने समुदाय व मज़हब की बुनियाद को इन दो खोखली चीज़ों पर मज़बूत करना चाहते हैं।
क्या हज़रत अली (अलैहिस सलाम) ने अपने हक़ को छोड़ दिया था?
इमामत व ख़िलाफ़त के बारे में एक और दावा जो किया जाता है वह यह है कि वह कहते हैं कि हज़रत अली अलैहिस सलाम ने अपने हक़ को छोड़ दिया था। दूसरे शब्दों में ख़ुद को वंचित कर दिया था।
तो प्रश्न यह उठता है कि क्या इमामत व ख़िलाफ़त व इस्लामी उम्मत का मार्गदर्शन अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की ज़ाती मिल्कियत या संपत्ति थी जो वह उससे हाथ खींच सकते थे और ख़ुद को अपने हक़ से वंचित कर सकते थे?
यह तो संभव है कि इंसान अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़ाती व निजि जायदाद या उस मीरास से जो उसे मिली हो उसे न लेना चाहे और वह उसे दूसरे के ऊपर छोड़ दे और कहे कि मेरा इस मसले में तुम लोगों से कोई झगड़ा नही है।
लेकिन ख़िलाफ़त के दौर में हज़रत अली अलैहिस सलाम के बयानों से यह बात समझ में आती है कि उन्होने न केवल यह कि अपने प्रमाणित हक़ को नही छोड़ा था बल्कि उस दौरान उन्होने मसलहत का ख़्याल करते हुए अपने हक़ के छीन लिये जाने पर सब्र से काम लिया है। आपने अपनी ख़िलाफ़त के छीन लिये जाने के बारे में एक जगह पर इस तरह से फ़रमाया है:
فصبرت و فی العین قذی و فی الحلق شجی ۔
फिर मैंने धैर्य से काम लिया जबकि जैसे मेरी आंखों में तिन्का और हलक़ में हड्डी फसी हुई थी।
आप एक दूसरी जगह पर इस तरह से फ़रमाते हैं:
मैंने अपने चारो ओर देखा, मैंने देखा कि हसनैन के सिवा कोई मेरे पास नही है, मैंने नही चाहा कि दो लोगों के समर्थन के साथ (वह भी कौन दो लोग) खड़ा हो जाऊं और अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के दोनो नवासों को क़त्ल हो जाने दूं, इसलिये मैंने उन दोनों की जान ख़र्च करने में कंजूसी से काम लिया ता कि उनकी जान बच जाये।
अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ने एक दूसरी जगह शिकवा करते हुए उम्मत के अत्याचार की ईश्वर से शिकायत की है, वह कहते हैं:
ऐ ईश्वर, मैंने हसन व हुसैन को तेरे हवाले किया, जब तक मैं जीवित हूं मुझे उनकी मौत का ज़ख़्म न देना, मेरे मरने क बाद तू ख़ुद जानता है कि तू उन्हे क़ुरैश से कैसे सुरक्षित रखेगा।
इस लिये यह बात उचित नही है कि हम सब्र और धैर्य को हक़ छोड़ देने और उससे मुंह मोड़ लेने का नाम दें जबकि इन दोनो बातों में वास्तविकता के ऐतेबार से बहुत ज़्यादा फ़ासला है।
हां, जो कुछ इस बीच में हुआ उसे केवल सब्र का नाम दिया जा सकता है और उम्मत के ज़ुल्म व अत्याचार के मुक़ाबले में सब्र व धैर्य के अलावा कोई रास्ता नही था।
हज़रत मूसा बिन इमरान अलैहिस सलाम ईश्वर प्रार्थना के लिये तूर नाम के पहाड़ पर गये और हारून को जनता के बीच अपना उत्तराधिकारी बनाया ता कि वह मूसा के कामों को लोगों के दरमियान अंजाम दे सकें और उनका मार्गदर्शन कर सकें। पवित्र क़ुरआन में इरशाद हो रहा है:
و قال موسی لاخیہ ھارون اخلفنی فی قومی و اصلح ولا تتبع سبیل المفسدین ۔
और मूसा ने अपने भाई हारून से कहा था कि प्रजा में मेरे उत्तराधिकारी बन जाओ और उनके कामों में सुधार करो और बुराई फैलाने वालों की पैरवी मत करना।
जिस समय हज़रत मूसा अलैहस सलाम मीक़ात से लौटे और देखा कि सब उलटा हो चुका है और सारे लोग धर्म से फिर गये हैं तो हज़रत हारूनस (अ) से आपत्ति जताई।
पवित्र क़ुरआन में इस बारे में इरशाद होता है:
قال ابن ام ان القوم استضعفونی و کادوا یقتلوننی ۔
(हारून अलैहिस सलाम) ने कहा: ऐ मेरी मां के बेटे, निसंदेह जनता ने मुझे कमज़ोर समझा और नज़दीक था कि यह लोग मुझे क़त्ल करे देते।
क्या वाक़ई यह उचित है कि जनता के धर्म से फिर जाने के मामले में हारून के सब्र व धैर्य के बारे में कहा जाये कि उन्होने हज़रत मूसा (अ) की ख़िलाफ़त को छोड़ दिया था या उससे मुंह मोड़ लिया था?
अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम वह हैं जिन की सत्यता व वास्तविकता के बारे में पवित्र क़ुरआन व हदीसों से बहुत सी बयान हुई हैं और ग़दीरे ख़ुम के दिन बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने आपकी इमामत व ख़िलाफ़त पर आपके हाथों पर बैअत की थी तो क्या यह बात समझ में आती है कि ऐसा इंसान इन सारी चीज़ों को नज़र अंदाज़ कर दे और आज के प्रसिद्ध कथनुसार दूसरे के फ़ायदे के लिये किनारे हो जायें?
क्या ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की ख़िलाफ़त व इमामत का पद कोई ऐसी चीज़ है कि जिसका अधिकार किसी ऐसे इंसान को मिल सकता है जो उसे किसी दूसरे के हवाले कर दे?
किसी असत्य व बेकार बात को केन्द्र बना कर क्या इस्लामी समाज की एकता का फ़ायदा, ईशदूस (स) के वास्तवित उत्तराधिकारी से जनता के फिर जाने से होने वाले नुक़सान और क्षति से ज़्यादा हो सकता था?
क्या इस तरह की एकता के लिये किसी फ़ायदे के बारे में सोचा जा सकता है?
क्या यह बात सोची जा सकती है कि कोई मासूम (निष्पाप) किसी ग़ैर मासूम (पापी) के लिये अपना हक़ या पद छोड़ दे?
हां, इन प्रश्नों का उत्तर, ऐसे लोगों के लिये, जो ईश्वरीय पद के महत्व और उसकी श्रेष्ठता के बारे में नही जानते हैं और या जानते बूझते हुए भी बे ख़बर बनते हैं और लोगों के धार्मिक अथवा संसारिक कर्मों के अंजाम व परिणाम के बारे में वास्तविक इमाम व ख़लीफ़ा व उत्तराधिकारी के चरित्र के बारे में नही जानते हैं, साबित है। इस लिये कि इस तरह के लोग अपने इन विचारों के साथ कभी भी इस चीज़ में दिलचस्वी नही दिखाते कि इससे ईश्वर का क्या फ़ायदा हो सकता है कि उसने सृष्टि को पैदा किया और इसके पीछे उसका लक्ष्य क्या है, इस लिये कि
ھمتھم بطونھم، و دینھم دنانیرھم ۔
उनकी हिम्मत उनके पेट के बराबर है और उनका धर्म उनके पैसों के बराबर।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)
अत: कभी भी अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम ने अपने हक़ से ख़ुद को वंचित नही किया बल्कि यह लोग थे कि जो ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के स्वर्गवास के बाद हक़ से पीछे हट गये और ईश्वर व उसके नबी के चुनिन्दा उत्तराधिकारी से मुंह मोड़ लिया और उस उस हस्ती को नायब के तौर पर जिसका चुनाव ख़ुद अल्लाह ने किया था, उसने जब लोगों की पथ भ्रष्टता और मनमानी को देखा तो उसे सब्र व धैर्य के सिवा कोई रास्ता उचित नही लगा, इस लिये उसने सब्र किया और फ़रमाया:
فصبرت و فی العین قذی و فی الحلق شجی ۔
फिर मैंने धैर्य से काम लिया जबकि जैसे मेरी आंखों में तिन्का और हलक़ में हड्डी फसी हुई थी।
पवित्र क़ुरआन भी इस वास्तविकता से पहले ही पर्दा उठा चुका है इरशाद होता है:
وما محمد الا رسول قد خلت من قبلہ الرسل ا فان مات او قتل انقلبتم علی اعقابکم و من ینقلب علی عقبیہ فلن یضر اللہ شیئا و سیجزی اللہ الشاکرین ۔
और मुहम्मद ईश्वरीय दूत हैं और उनसे पहले भी दूसरे बहुत से ईशदूत आ चुके हैं, अगर उनका स्वर्गवास हो जाये या उनका वध कर दिया जाये तो क्या तुम अपने अतीत की ओर पलट जाओगे?। और जो भी अपने अतीत की ओर पलट जायेगा वह ईश्वर को कोई क्षति नही पहुचायेगा और अल्लाह बहुत जल्द ही शुक्र करने वालों को उनका ईनाम देगा।
तीसरा भाग
इमाम व ख़लीफ़ा की विशेषताएं
अहले सुन्नत का दृष्टिकोण
इमामत के बारे में दोनों समुदाय के अक़ीदे और इमाम व ख़लीफ़ ए रसूले ख़ुदा (स) चुनने के तरीक़े को ध्यान में रखते हुए, हमारा यह मानना है कि अगर शिया अपने बुनियादी अक़ीदे से मुंह मोड़ लें, तब भी अबू बक्र व उनके जैसे लोगों में उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा बनने की योग्यता साबित नही हो पायेगी। इस लिये कि अहले सुन्नत ने इमाम व ख़लीफ़ ए रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) में पाई जाने वाली विशेषताओं का वर्णन किया है।
एक नज़र में ईशदूत के उत्तराधिकारी व इमाम व ख़लीफ़ा में पाई जाने वाली उन सिफ़तों व विशेषताओं का वर्णन, जिन के बारे में अहले सुन्नत उलमा बहस करते हैं बुद्धि, बालिग़ होना, मर्द व आज़ाद होना सम्मिलित है इनके अलावा को दो भागों में संक्षिप्त में इस तरह से बाटा जा सकता है।
पहला भाग, वह सिफ़तें व विशेषताएं जिन के पाये जाने के बारे में सब एकमत (इजमा व इत्तेफ़ाक़) हैं।
दूसरा भाग, उनके मासूम व निष्पाप होने के बारे में है लेकिन वह इस विशेषता को आवश्यक नही मानते है और इस पर सब एकमत हैं। उनका कहना है कि पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा में अदालत की विशेषता का पाया जाना इसके लिये पर्याप्त है और उनके निष्पाप या मासूम होने की कोई आवश्यकता नही है।
अलबत्ता इन में से कुछ विशेषताओं पर पिछले दौर से कुछ भिन्नताएं सामने आई हैं जो हमारी बहस से बाहर है। इस लिये कि हमारी बहस अबू बक्र की ख़िलाफ़त और अहले सुन्नत के अनुसार बयान की गई शर्तों का उनके अंदर पाया जाना या नही पाया जाना है। वह विशेषताएं जिनके ऊप सब एक राय व एकमत हैं वह निम्न लिखित हैं:
1. इज्तेहाद व ज्ञान
2. अदालत
3. शुजाअत
पहली विशेषता के अनुसार, ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा को धार्मिक ज्ञान होना चाहिये बल्कि उसे उन मसलों में मुजतहिद होना चाहिये। क्यों कि दूर व नज़दीक से धर्म के ऊपर बहुत से ऐतेराज़ किये जा सकते हैं और अगर उस में यह सिफ़त नही पाई जाती है तो वह अध्यात्मिक दृष्टिकोण से धर्म के सम्मान व प्रतिष्ठा की रक्षा नही कर सकता है।
अदालत के बारे में यह कहा जा सकता है कि ख़िलाफ़त, ईशदूत के उत्तराधिकारी का पद है और फ़ासिक़ व फ़ाजिर इंसान इस योग्य नही होता कि उसे निष्पाप व मासूम नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) का उत्तराधिकारी घोषित किया जा सके।
शुजाअत व बहादुरी इमाम व ख़लीफ़ा की तीसरी विशेषता है कि वह ख़तरे के समय इस्लामी राष्ट की दुश्मनों से रक्षा कर सके और सेना को तैयार करने तथा उसकी कमांड संभालने की योग्यता पाई जाती हो।
क्या अबू बक्र में यह विशेषताएं व सिफ़ात पाई जाती थीं?
अब यह देखना है कि क्या अबू बक्र में यह सारी शर्तें पाई जाती थीं या नही? और अगर उत्तर नही में हो तो उमर व उस्मान की ख़िलाफ़त पर भी प्रश्न चिन्ह लग सकता है। इस लिये कि हमे मालूम है कि इन दोनों की ख़िलाफ़त भी अबू बक्र की ख़िलाफ़त का हिस्सा है। जिस तरह से शियों के ग्यारह इमामों की इमामत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इमामत का हिस्सा है।
लिहाज़ा बिना किसी पक्षपात के अबू बक्र के हालात पर शोध करने के बाद यह देखेंगे कि क्या उनमें यह सारी शर्तें पाई जाती थी या नही?
इस तरह से अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम की इमामत व ख़िलाफ़त प्रमाणित हो जायेगी। क्योंकि हम पहले ही कह चुके हैं कि ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की ख़िलाफ़त व इमामत इन दो लोगों तक सीमित है।
अबू बक्र की शुजाअत व बहादुरी
ख़लीफ़ा व उत्तराधिकारी में पाई जाने वाली विशेषताओं में से एक बहादुरी है। अब हम यहां पर अबू बक्र में इस शर्त के पाये जाने की जांच करेगें और इसे दो इतिहासिक हिस्सों में बाटेंगे:
1. ईशदूत (स) के जीवनकाल में।
2. ईशदूत (स) के जीवनकाल के पश्चात।
इस में कोई शंका नही है कि अबू बक्र ने पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के स्वर्गवास के बाद किसी एक जंग में भी शामिल नही हुए और किसी भी समय ख़ुदा की राह में जिहाद के लिये तलवार को हाथ नही लगाया और किसी भी घटना में नही मिलता है कि वह उसमें रहें हो और उनके हमलों से उनकी बहादुरी का पता चलता हो।
अबू बक्र रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के ज़माने में कुछ जवान थे, ज़ाहिर है कि उस समय उन के अंदर उर्जा ज़्यादा रही होगी, हमने इस चीज़ की छानबीन के लिये अहले सुन्नत की सारी किताबों का अध्धयन किया लेकिन कोई भी चीज़ ऐसी नही मिली जो उनकी शुजाअत व बहादुरी के बारे में बताती बल्कि ऐसी बातें मिल गईं जो ख़ास मौक़ों पर उनसे प्रकट हुईं जो उनके अनुयाईयों के लिये शर्म व लज्जा का कारण बन सकती है।
अबू बक्र व उमर का जंगों से फ़रार कर जाना
अहले सुन्नत के महान शोधकर्ताओं, जीवनीकारों, इतिहासकारों और हदीस शास्त्रियों ने स्पष्ट लिखा है कि ओहद की जंग में, ऐसे हालात बन गये कि मुशरेकीन आरम्भिक जंग में हारने के बाद दोबारा पलटे और उन्होने संकल्प लिया कि ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) को मौत के घाट उतार दें और मुसलमानों की शक्तियों को तोड़ डालें। इस तरह के संवेदनशील स्थिति में अबू बक्र व उमर भी दूसरों की तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स) को दुश्मन के भीड़ में अकेला छोड़ कर अपनी जान की रक्षा के लिये भाग खड़े हुए। उदाहरण के तौर पर निम्न लिखित प्रमाण पेश किये जा रहे हैं यह वह लेखक हैं जिन्होने इन दोनों लोगों के ओहद की जंग में फ़रार होने का वर्णन किया है:
1. अबू दाऊद तियालसी अपनी किताब अस सोनन में।
2. इब्ने सअद अपनी किताब अत तबक़ातुल कुबरा में।
3. तबरानी अपनी किताब अल मोअजम में।
4. अबु बक्र बज़्ज़ाज़ अपनी किताब अल मुसनद में।
5. इब्ने हब्बान अपनी किताब अस सहीह में।
6. दार क़ुतनी अपनी किताब अस सोनन में।
7. अबू नईम इस्फ़हानी अपनी किताब हिलयतुल औलिया में।
8. इब्ने असाकर अपनी किताब तारीख़ो मदीनते दमिश्क़ में।
9. ज़िया मुक़द्देसी अपनी किताब अल मुख़तारा में।
10. मुत्तक़ी हिन्दी अपनी किताब कंज़ुल उम्माल में।
हाकिमे नैशा पुरी जंगे हुनैन के बारे में एक रिवायत को सही सनद के साथ इब्ने अब्बास से नक़्ल करते हैं कि इब्ने अब्बास कहते है: जंगे हुनैन में केवल अली बिन अबी तालिब अलैहिमस सलाम थे जो अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के साथ डटे रहे और लड़ते रहे और सारे लोगों ने फ़रार का रास्ता चुना था।
अहले सुन्नत के महान शोधकर्ता जिन्होने अबू बक्र व उमर के जंगे ख़ैबर से भाग जाने की घटना को अपनी किताब में लिखा है उनके नाम यह हैं:
1. अहमद बिन हंबल ने अपनी किताब अल मुसनद में।
2. इब्ने अबी शैबा ने अपनी किताब मुसन्नफ़ में।
3. इब्ने माजा क़ज़वीनी ने अपनी किताब सोननुल मुस्तफ़ा (स) में।
4. अबू बक्र बज़्ज़ाज़ अपनी किताब अल मुसनद में।
5. तबरी ने अपनी तफ़सीर व तारीख़ की किताबों में।
6. तबरानी ने अपनी किताब अल मोअजमुस कबीर में।
7. हाकिमे नैशा पुरी ने अपनी किताब अल मुसतदरक अलस सहीहैन में।
8. बैहक़ी ने अपनी किताब अस सोननुल कुबरा में।
9. ज़िया मुक़द्दसी ने अपनी किताब अल मुख़तारा में।
10. हैसमी ने अपनी किताब मजमउज़ ज़लायद में।
मुत्तक़ी हिन्दी ने अपनी किताब कंजुल उम्माल में अबू बक्र व उमर के जंगे ख़ैबर से फ़रार के बारे में इन लोगों ने नक़्ल किया है।
ख़ंदक़ की जंग और हज़रत अली अलैहिस सलाम की बहादुरी
इस्लाम की सबसे महत्वपूर्ण जंगों में से एक ख़ैबर की जंग है। इस जंग में अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने जिस समय कुफ़्र व शिर्क के लश्करों का एक साथ मुक़ाबला किया। उस वक्त ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) ने फ़रमाया:
لضربۃ علی فی یوم الخندق افضل من عبادۃ الثقلین ۔
ख़ंदक़ की जंग में अली की एक ज़रबत, अल्लाह के नज़दीक जिन्नात व इंसान की इबादत से अफ़ज़ल है।
कुछ दूसरी हदीसों में इस तरह से आया है:
ضربۃ علی فی یوم الخندق افضل من عبادۃ الامۃ الی یوم القیامۃ ۔
ख़ंदक़ की जंग में अली की एक ज़रबत क़यामत तक की तमाम उम्मतों की इबादत से अफ़ज़ल है।
शैख़ैन (अबू बक्र व उमर) की बहादुरी और इब्ने तैमीया की कष्ट कल्पना
मुसलमानों के ख़लीफ़ा व इमाम के लिये एक तरफ़ बहादुर होने की शर्त तो दूसरी तरफ़ पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के जीवनकाल में बहुत ही महत्वपूर्ण अवसरों पर शैख़ैन (अबू बक्र व उमर) के फ़रार कर जाने ने अहले सुन्नत को परेशानी कर दिया है और वह इसके हल के बारे में ग़ौर व फिक्र व विचार मे लगे हुए हैं, यहां तक कि उनके शैख़ुल इस्लाम यानी जनाबे इब्ने तैमीया ने, जो इस तरह के अवसरों पर उनकी मुश्किलों को दूर करने वालों में से हैं, एक नई सोच और बुद्धिमता भरा हल निकाला है। वह इस बारे में इस तरह से लिखते हैं:
निसंदेह हमारा मानना है कि ख़लीफ़ा व इस्लामी शासक के लिये आवश्यक है कि उसमें शुजाअत व बहादुरी पाई जाने चाहिये। लेकिन शुजाअत व बहादुरी जो तरह की होती है:
1. दिली बहादुरी।
2. शारीरिक बहादुरी।
यह सही है कि अबू बक्र जिस्मानी ऐतेबार से बहादुर नही थे लेकिन उन के मज़बूती और बहादुरी थी और इस्लामी ख़िलाफ़त के लिये इस क़दर बहादुरी पर्याप्त व काफ़ी है।
वह अपनी बात को जारी रखते हुए कहते हैं:
अगर आप कहते हैं कि अली बड़े जंग और जिहाद वाले थे तो हम कहते हैं कि उमर बिन ख़त्ताब भी अल्लाह की राह में जंग व जिहाद करने वाले थे लेकिन यह बात जान लेना चाहिये कि जंग व जिहाद दो तरह के होते हैं:
1. तलवार वाली जंग
2. दुआ वाली जंग
उमर बिन ख़त्ताब दुआ के साथ, अल्लाह की राह में जंग किया करते थे। उसके बाद इब्ने तैमिया अबू बक्र बिन अबू क़ुहाफ़ा की जिस्मानी बहादुरी को साबित करने के लिये, अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की काफ़िरों और मुश्रिकों के साथ हैरत अंगेज़ व आश्चर्य जनक जंगी कारनामों और बहादुरी के मुक़ाबले में, निम्न लिखित घटना का वर्णन करते हुए इस तरह लिखते हैं:
बुख़ारी व मुस्लिम ने अपनी किताबों में एक हदीस को इस तरह से लिखा है:
उरवा बिन ज़ुबैर कहते हैं: मैंने अम्र बिन आस के बेटे अब्दुल्लाह से पूछा: मुश्रिकों का रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के साथ सबसे सख़्त रवैय्या किस चीज़ के बारे में था?
उसने उत्तर दिया: एक दिन रसूले ख़ुदा (स) नमाज़ पढ़ रहे थे कि उक़बा बिन अबी मुईत आया और उसने आं हज़रत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की अबा को आप की मुबारक गर्दन में लपेट कर सख़्ती से दबाने लगा। इसी समय अबू बक्र आये और उक़बा का कंधा पकड़ कर उसे किनारे कर दिया और कहा कि क्या तुम उस इंसान को मारना चाहते हो जो कहता है कि ख़ुदा मेरे पालने पालने वाला है।
हम इब्ने तैमीया की इस बात का फ़ैसला न्यायप्रिय व इंसाफ़वर लोगों के ऊपर छोड़ते हैं। वह ख़ुद इस हदीस से अबू बक्र की बहादुरी का फ़ैसला कर लेंगे।
जो कुछ बयान किया गया वह अबू बक्र की शुजाअत व बहादुरी की विशेषता व ख़ूबी को साबित करने के लिये था, जो विशेषता अहले सुन्नत के इजमा (एकमत होने) के अनुसार पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी व मुसलमानों के ख़लीफ़ा में आवश्यक पाई जानी चाहिये।
अबू बक्र का आदिल होना
अबू बक्र की ख़िलाफ़त के दौर में बे शुमार ऐसी घटनाएं मिलती हैं जिन से साबित होता है कि उनके अंदर न्याय व इंसाफ़ नही पाया जाता था जैसे:
1. हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के घर पर हमला।
2. फ़िदक नाम का बाग़ हड़प कर लेना।
अबू बक्र की ख़िलाफ़त का दौर व मालिक बिन नुवैरा के क़त्ल की घटना
अब हम यहां पर एक दूसरी घटना के बारे मे बात करेंगे। जो अबू बक्र की ख़िलाफ़त के ज़माने में, इस्लाम के नूरानी चेहरे पर एक बदनुमा दाग़ की तरह फैल गया था, और वह घटना मालिक बिन नुवैरा के क़त्ल की है।
बनी यरमूअ नाम का क़बीला बड़े और प्रसिद्ध क़बीलों में से एक था। उसके सरदार का नाम मालिक बिन नुवैरा था, मालिक एक महान व आदरनिय व्यक्तित्व के मालिक थे, वह अपने क़बीले के साथ रसूले खुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की सेवा में उपस्थित हुए और इस्लाम को स्वीकार किया। वह लोग उन क़बीलों में से थे जिन्होने जीवन के अंतिम क्षणों तक इस्लाम के साथ वफ़ादारी की।
चूंकि मालिक एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे। इसलिये रसूले ख़ुदा (स) ने उन्हे वहां पर अपना नुमांन्दा बनाया ता कि वह उस जगह के लोगों से ज़कात आदि को ले कर जमा करें और आं हज़रत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की तरफ़ से उसे वहां के ग़रीब लोगों में बाटें और वहां के माल को मदीने लाने की आवश्यकता न पड़े।
जिस समय अबू बक्र सक़ीफ़ा का चुनाव जीत कर ख़लीफ़ा बने तो मालिक ने उनकी बैअत करने से परहेज़ किया और उनके सामने उपस्थित नही हुए।
(इस लिये कि अभी ग़दीरे ख़ुम की घटना को लगभग तीन महीने से ज़्यादा नही गुज़रे थे, जिस में सबने हज्जतुल वेदाअ में हाज़िर हो कर अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम को रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के बाद उनके उत्तराधिकारी व ख़लीफ़ा के तौर पर चुना था और उनके हाथों पर बैअत की थी। इसलिये मालिक बिन नुवैरा जैसे लोगों का अबू बक्र की बैअत न करना एक बुद्धि में आने वाली और ठीक बात लगती है।
अबू बक्र ने इस बहाने से कि मालिक बिन नुवैरा ने ज़कात का माल मदीने नही भेजा है इस लिये वह ज़कात के मुनकिर हो गये हैं, ख़ालिद बिन वलीद को मालिक से जंग करने के लिये भेजा, ख़ालिद अपनी फ़ौज के साथ रात में मालिक और उनके क़बीले के पास पहुचे। उन लोगों ने भी अपने हथियार उठा लिये और मुक़ाबले के लिये तैयार हो गये, नमाज़ के समय उन लोगों ने अपने हथियार ज़मीन पर रखे और नमाज़ पढ़ने में लग गये। ख़ालिद बिन वलीद ने मौक़े से फ़ायदा उठाया और आदेश दिया कि मालिक बिन नुवैरा को गिरफ़तार कर लिया जाये और उनकी गर्दन उड़ा दी जाये।
मालिक ने गिरफ़्तार होने के बाद उनसे कहा: मेरे बारे में इस तरह का आदेश क्यों दे रहे हो?
ख़ालिद ने कहा: तुम मुरतद (दीन से फिर जाना) हो चुके हो।
मालिक ने कहा: कुछ देर पहले हमने तुम्हारे साथ अज़ान कही है और नमाज़ पढ़ी है और अल्लाह की इबादत की है, फिर मैं किस तरह से मुरतद हो गया? कम से कम मुझे मदीने ले चलो ता कि मैं ख़ुद अबू बक्र से बात कर सकूं और उनकी इच्छा को पूरा कर सकूं।
परिणाम यह निकला कि ख़ालिद के आदेश पर मालिक बिन नुवैरा के सर को उड़ा दिया और ख़ालिद बिन वलीद ने उसी रात मालिक की बीवी से कुकर्म (ज़ेना) किया और मालिक और उन के क़बीले बनी यरमूअ के मर्दों के सरों को खाना बनाने के ईंधन के तौर पर प्रयोग किया गया।
मदीने में इस ख़बर के फैलते ही फ़साद हो गया। न केवल यह कि अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम, जो ग़ैरत व सत्यता का प्रताक और अत्याचार के शिकार लोगों के रक्षक हैं, बल्कि उमर बिन ख़त्ताब, सअद बिन वक़्क़ास व तलहा जैसे लोग भी हरकत में आ गये और अबू बक्र के पास गये और ऐसी प्रतिक्रिया पूर्ण रुप से अनुमानित थी, (अगरचे अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के अलावा दूसरे लोगों की प्रतिक्रिया अल्लाह के लिये नही थी, जिसको बयान करने का यहां पर मौका नही है।
एक तरफ़ एक मुसलमान का जान बूझ कर वध करना और दूसरी तरफ़ उसकी बीवी से थोड़ी देर पहले जिसका पती मारा गया है, कुकर्म (ज़ेना) करना, इस बात से बग़ावत की लहर दौड़ गई। जिस समय ख़ालिद बिन वलीद मदीने वापस आया, उमर बिन ख़त्ताब ने उससे कहा कि तू कुकर्मी व व्यभिचारी है इसलिये मैं ख़ुद तूझे पत्थर मार मार मारूंगा।
मदीने में शोर शराबा और हंगामा हुआ तो यह तय पाया कि अबू बक्र इस बारे में कोई फ़ैसला करें तो उन्होने कुछ देर के बाद ख़ालिद बिन वलीद के बारे में शरई हुक्म जारी करने के संबंध में अपना अंतिम फ़ैसला सुनाया।
हां, अबू बक्र ने ख़ालिद के बारे में बहुत सी सख़्त सज़ा सुनाई ता कि कोई दूसरे ऐसी जुर्म के बारे में कभी सोचे भी न सके और वह सज़ा यह थी कि अबू बक्र ने ख़ालिद बिन वलीद की तरफ़ आंख उठा कर देखा और कहा:
ऐ ख़ालिद, मेरी नज़र में तुमने बुरा काम अंजाम दिया है और तुमने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को समझने में ग़लती की है, आज के बाद कभी उस औरत के साथ ज़ेना मत करना, तुम्हे उससे अलग होना पड़ेगा।
सक़ीफ़ा में चुने गये ख़लीफ़ा का अंतिम फ़ैसला जो ख़ुद उनकी ख़िलाफ़त के सही होने की शर्त है, जो ख़ुद चयन करने वालों की दृष्टि में भी न्याय व इंसाफ़ है। इस तरह के बड़े जुर्म की सज़ा यही हुई कि तुमने बुरा काम अंजाम दिया है।
अब यहां पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि जो लोग कष्ठ कल्पना करने वाले ख़ुद को इस समुदाय का धर्म गुरु कहते या समझते हैं और हमेशा अपने अनुयाईयों की धर्म व ज्ञान की मुश्किलों को दूर करने हेतु तैयार रहते हैं, उन्होने इस घटना के बारे में किस तरह से अपने क़लम का प्रयोग किया है।
उन में कुछ का यह कहना है: हमें इस मामले की ख़बर नही है, शायद मालिक बिन नुवैरा की बीवी ने तलाक़ ले लिया था और उसकी इद्दत ख़त्म हो गई थी, लेकिन उसके बाद भी वह मालिक के घर में थी, अत: ख़ालिद बिन वलीद ने शादी शुदा औरत से या ऐसी औरत से जो इद्दत में थी, ज़ेना नही किया है।
कुछ दूसरे इस तरह कहते हैं: शायद मालिक बिन नुवैरा की बीवी के पेट में बच्चा था और मालिक के क़त्ल होने और उसकी बीवी से नज़दीकी करने के दौरान बच्चा पैदा हो चुका होगा। इस लिये परिणाम यह निकला कि यह ज़ेना इद्दत के दिनों में नही हुआ है।
क़ाज़ी अब्दुल जब्बार मोअतज़ेली और इब्ने अब्दुल बर्र जो अल इसतिआब नामक किताब के लेखक हैं, उनके दृष्टिकोण यह है: ख़ालिद बिन वलीद ने इन कामों में जल्दबाज़ी से काम लिया है और जल्दीबाज़ी बहुत बुरी बात है।
वह लोग इस बारे में कि क्यों अबू बक्र ने उसे इस विशेष काम के लिये विशेष आदेश के साथ भेजा और क्यों इस तरह की बुरी हरकत अंजाम देने के बाद भी कोई ख़ास प्रतिक्रिया नही दिखाई? कोई भी बात नही करते हैं, क्योंकि इस तरह के प्रश्न अबू बक्र की ख़िलाफ़त की योग्यता को सवाल के कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
मोलवी अब्दुल अज़ीज़ देहलवी ने, जो तोहफ़ ए इसना अशरिया नामी किताब क लेखक हैं, इसके हल के लिये बहुत ही संक्षिप्त कष्ट कल्पना, दर्द निवारक व बुद्धिमता भरे रास्ते को चुना है और वह यह है कि वह कहते हैं कि ख़ालिद बिन वलीद ने हरगिज़ भी मालिक बिन नुवैरा की बीवी से ज़ेना नही किया था, यह झूट है।
बात यह है कि अगर अहले सुन्नत की इन सारी किताबों से जो इस बात की गवाही देती हैं, यह घटना साबित नही हो पाती है तो वह लोग क्यों इन किताबों को मानते हैं? और अगर यह तय हो जाये कि इन किताबों का कोई ऐतेबार व भरोसा नही है तो फिर इस्लामी इतिहास और शरीयत के ज्ञान को प्राप्त करने के लिये किस चीज़ ओर रुख़ करेंगे?
अबू बक्र का ज्ञान
एक और विशेषता व ख़ूबी जिसे अहले सुन्नत पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी के लिये आवश्यक मानते हैं वह इल्म व इज्तेहाद है। अब हम यहां अबू बक्र के इल्म व ज्ञान के बारे में एक नज़र डालेंगे।
हम इस भाग में उन शास्त्रों पर बहस नही करेंगे जिनका संबंध इस संसार से नही बल्कि दूसरे संसारों से है। जैसे फ़रिश्तों व परियों, जिन्नात, आकाश, सितारे, ग्रह, मंडल, दूसरे ग्रह पर बसने वाले प्राणी व जीवन की विशेषताएं आदि। केवल उन शास्त्रों के बारे में बहस करेंगे कि जिसका जानना एक इस्लामी धर्म गुरु (न कि नबियों के सरदार का उत्तराधिकारी) के लिये अनिवार्य होता है, और अबू बक्र के ज्ञान की श्रेष्ठता की जांच पड़ताल करेंगे।
अहले सुन्नत के बड़े शोधकर्ता जलालुद्दीन सुयूती, जो उनके महान धर्म गुरुओं के नज़दीक बड़े ऊंचा मरतबा रखते हैं, वह अपनी किताब अल इतक़ान फ़ी उलूमिल क़ुरआन में लिखते हैं:
जो कुछ भी पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर के बारे में अबू बक्र से मिलता है सब मिला कर उसकी संख्या दस से आगे नही बढ़ती।
उसके बाद सुयूती अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के ज्ञान के बारे में बात करते हुए लिखते हैं:
अली अलैहिस सलाम का पवित्र क़ुरआन के बारे में ज्ञान इस क़दर ज़्यादा था कि वह जनता के आम सभा में आवाज़ लगाते थे कि ऐ लोगों, पवित्र क़ुरआन के बारे में जो कुछ पूछना चाहते हो, मुझ से पूछ लो, मुझे क़ुरआन की आयतों के नाज़िल होने की ख़ुसूसियात व विशेषताओं के बारे में पता है कि कौन सी आयतें रात में उतरी हैं और कौन सी दिन में, कौन सी आयतें सफ़र में उतरी हैं और कौन सी वतन में नाज़िल हुई हैं।
अबू बक्र एक पर्याप्त समय तक पैग़म्बरे अकरम (स) के साथ रहे, इस लिहाज़ से वह विभिन्न मसलों के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) से हदीसों को नक़्ल या बयान कर सकते हैं। हालांकि इस के बावजूद सुयूती अबू बक्र की जीवनी में हदीस के बारे में लिखते हैं:
अबू बक्र से नक़्ल या बयान होने वाली हदीसों की संख्या अस्सी तक भी नही पहुचेगी।
नबी (स) के इल्म के दरवाज़े के इल्म व ज्ञान पर एक नज़र
इन सारी बातों के बावजूद अहले सुन्नत शोधकर्ताओं ने अपनी विभिन्न तफ़सीर, हदीस, रेजाल, जीवनी व इतिहास की किताबों में बहुत से अवसरों पर अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम की इल्मी श्रेष्ठता के बारे में लिखा है। उदाहरण के तौर पर पवित्र क़ुरआन की एक आयत में इरशाद हो रहा है:
و تعیھا اذن واعیۃ ۔
सीखने वाले होशियार कान इसे समझ लेते हैं।
अहले सुन्नत के सारे मुफ़स्सेरीन ने इस आयत की तफ़सीर में लिखा है:
सीखने या समझने वाले होशियार कानों से मुराद यहां पर अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम हैं और वहीं हैं जो समस्त इल्म व ज्ञान, सत्य व वास्तविकता, धर्मापदेश व नसीहत को ध्यान से सुनने वाले हैं और हक़ीक़त यह है कि उसे अच्छी और पूरी तरह से समझने वाले हैं और उनके समझने में ग़लती नही करते और न ही उन्हे भूलते हैं।
इसी तरह से अहले सुन्नत की तफ़सीर व हदीस की किताबों में कई विभिन्न तरीक़ों से यह आया है कि पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) ने अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के बारे में फ़रमाया:
انا مدینۃ العلم و علی بابھا، فمن اراد المدینۃ فلیات الباب ۔
मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा, जो भी इस शहर में प्रवेश करना चाहता है उसे चाहिये कि वह दरवाज़े से आये।
एक दूसरी जगह पर आं हज़रत (स) ने फ़रमाया:
انا دار الحکمۃ و علی بابھا ۔
मैं बोध व विज्ञान (हिकमत) का घर हूं और अली उसका दरवाज़ा है।
पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) ने एक दूसरी हदीस में फ़रमाया:
انا مدینۃ الفقۃ و علی بابھا ۔
मैं धर्म शास्त्र (फ़िक़ह) का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं।
पैग़म्बरे अकरम (स) ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम को इख़्तेलाफ़ के मौक़ों पर उम्मत के लिये इल्मी मुश्किल को हल करने वाला नियुक्त किया था और आपके हक़ में इरशाद फ़रमाया:
یا علی، انت تبین لامتی ما اختلفوا فیہ من بعدی ۔
ऐ अली, मेरे बाद मेरी उम्मत वाले जिस चीज़ के बारे में इख़्तेलाफ़ करेंगे, तुम उनका झगड़ा सुलझाने वाले हो।
यह वही मक़ाम व मरतबा है जो ख़ुदा वंदे आलम ने पवित्र क़ुरआन में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के लिये मुक़र्रर किया है, इरशाद हो रहा है:
فلا و ربک لا یومنون حتی یحکموک فیما شجر بینھم ثم لا یجدوا فی انفسھم حرجا مما قضیت و یسلموا تسلیما ۔
हरगिज़ नही, आपके ईश्वर की सौगंध वह कभी भी ईमान नही लायेंगे मगर यह कि झगड़े व इख़्तेलाफ़ वाले कामों में, आप को फ़ैसला करने वाला बनायें और आपके फ़ैसले को बिना किसी झिझक व दिली घुटन की भावना के स्वीकार कर लें और उस पर अपना सर झुका लें और पूर्ण रुप से अपने आपको आपके हवाले कर दें।
हां, ईश्वर ने इन ही सारे मक़ामात को इन सारी ताकीदों के साथ (जो पवित्र क़ुरआन की बलाग़त का ज्ञान रखते हैं, अपने नबी (स) के लिये क़रार दिया है और उसी मक़ाम को ईशदूत (स) ने अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के वुजूद में क़रार दिया है।
यही वजह थी कि इब्ने अब्बास कहते हैं:
अगर किसी मसले में कोई बात हज़रत अली अलैहिस सलाम से हम तक पहुचती है तो हम उस बारे में किसी और की बात की प्रतिक्षा नही करते।
इब्ने अब्बास एक दूसरे कथन में फ़रमाते हैं:
अगर इल्म व ज्ञान को दस भागों में बाटा जाये तो उसका नौ भाग अली बिन अबी तालिब के पास और बाक़ी एक भाग सारे सहाबियों, ताबेईन और उम्मत के लोगों के पास होगा और उस एक भाग में भी अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम सबके साथ शरीक होंगे।
हाफ़िज़ नववी कहते हैं: बड़े बड़े सहाबी (अबू बक्र, उमर, उस्मान, अब्दुर रहमान बिन औफ़, सअद बिन अबी वक़्क़ास, तलहा व ज़ुबैर ...) अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम से फ़तवे प्राप्त करते थे और मुश्किल के समय में आप के पास आते थे और यह ऐसी बात है जो सबसे बीच मशहूर थी और जिसे सब जानते थे।
(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)
इब्ने हज़्म अंदुलूसी (इसमें कोई संदेह नही है कि यह नासबी है और अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम की दुश्मनी में बहुत से लोगों से आगे निकल गया है, ने अपनी किताब अल एहकाम फ़ी उसूलिल अहकाम में सहाबा की शरई अहकाम से अज्ञानता व जिहालत की बहुत सी घटनाओं को बयान किया है। ख़ास तौर पर अबू बक्र, उमर, उस्मान, आयशा का नाम के साथ ज़िक्र करता है और उनकी जिहालत की घटनाओं का स्पष्ट लिखा है, लेकिन वह हज़रत अली अलैहिस सलाम के संबंध में लिखता है:
लोग जिस चीज़ के बारे में नही जानते थे उसके लिये अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के पास आते थे और वह उन जाहिलों को अल्लाह का हुक्म बयान किया करते थे।
यह बात भी अवश्य जाननी चाहिये कि इस मामले में उमर बिन ख़त्ताब और उस्मान बिन अफ़्फ़ान की हालत भी न सिर्फ़ यह कि ऐसी ही थी बल्कि इन दोनों की अज्ञानता अबू बक्र से भी बहुत ज़्यादा थी।
अब हम यहां पर एक पवित्र क़ुरआन की एक आयत का ज़िक्र करना चाहेंगे जिस में बहुत ही अच्छी बात बयान हुई है:
افمن یھدی الی الحق ا حق ان یتبع ام من لا یھدی الا ان یھدی فما لکم کیف تحکمون ۔
तो क्या ऐसा इंसान, जो सत्य व हक़ का मार्ग दिखाना चाहता है, बेहतर नही है कि उसकी पैरवी की जाये या ऐसे इंसान की पैरवी की जाये जो ख़ुद पथभ्रष्ठ है मगर यह कि उसे हिदायत का मार्ग दिखाया जाये, अगर ऐसा इंसान मार्गदर्शन बन गया तो तुम्हारा क्या होगा, तुम किस तरह इस बात का फ़ैसला करोगे?
यहां पर उचित होगा कि हम इस बहस के अंत में सही बुख़ारी से एक घटना को बयान करें जिसका संबंध न्याय से भी है और ज्ञान से भी।
अबू बक्र की ख़िलाफ़त के ज़माने में बहरैन से कुछ सामान मदीने लाया गया। जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी जो अबू बक्र के पास दरबार में बैठे हुए थे, वह इस तरह से कहते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) ने स्वर्गवास से पहले मुझ से फ़रमाया था कि जिस समय बहरैन से सामान लाया जायेगा मैं उसमें से कुछ हिस्सा तुम्हे दूंगा।
अबू बक्र ने बिना किसी गवाही या सुबूत के सिर्फ़ उनके कहने पर उनकी मांग को पूरा कर दिया और जितना उन्होने कहा था उन्हे दे दिया।
सबको मालूम है कि किसी ने जाबिर के बारे में उनके मासूम होने का दावा नही किया है लेकिन फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जिनके बारे में बहुत सी ख़ूबियां व फ़ज़ीलत ख़ुद अहले सुन्नत ने अपनी विभिन्न किताबों में लिखी है और यहां तक कि उन हदीसों की बुनियाद पर जो आपकी फ़ज़ीलत में सही बुख़ारी और दूसरी किताबों में आई है, उनकी बुनियाद पर कुछ बड़े उलमा का यह मानना है:
ھی افضل من الشیخین ۔
वह (यानी फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा) अबू बक्र व उमर से अफ़ज़ल थीं।
और जबकि इस बात को वह लोग अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के बारे में नही कहते हैं। इस हाल में कि यह फ़ातेमा अपनी इन सारी फ़ज़ीतलों के साथ दावा करती हैं कि मेरे वालिद ने अपने स्वर्गवास से पहले फ़िदक मुझे दे दिया था और अबू बक्र उनसे गवाह मांगते हैं। जाबिर बिन अब्दिल्लाह अंसारी, मासूम (निष्पाप) नही हैं लेकिन सिर्फ़ सहाबी होने (सही बुख़ारी की व्याख्या करने वालों की कष्ट कल्पना के अनुसार) की बुनियाद पर उनका कथन स्वीकार कर लिया जाता है। इस लिये कि जाबिर के बारे में यह कह देना कि वह नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के ऊपर झूठ बांधेंगे, यह बात कल्पना से परे है, लेकिन फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा) जो इस्मत के मरतबे पर फ़ायज़ हैं, उनसे गवाह व सुबूत तलब किया जाता है।
अच्छा होगा कि अहले सुन्नत के उलमा व बुद्धिजीवि अपनी बुद्धियों और विचारों को एक दूसरे के सामने लायें और क़यामत के दिन तक ग़ौर व विचार करें और देखें कि क्या वह अबू बक्र के इस काम की प्रतिक्रिया की तौजीह के बारे में बुद्धिमता पूर्वक व स्वीकार्य स्पष्टता पेश कर सकते हैं?
क्या उनके पास उनके पहले ख़लीफ़ा के इन दो विभिन्न कामों की अलग अलग प्रतिक्रियाओं के संबंध में चुप कर देने वाला उत्तर पाया जाता है?
स्रोत
1. क़ुरआने करीम।
2. नहजुल बलाग़ा।
3. अल इतक़ान फ़ी उलूमिल क़ुरआन, जलालुद्दीन सुयूती, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान, वर्ष 1416 हिजरी क़मरी।
4. अल एहकाम फ़ी उसूलिल अहकाम, अली बिन मुहम्मद आमदी, प्रसारक दारुल किताब अरबी, बैरूत, लेबनान, दूसरा एडिशन, वर्ष 1406 हिजरी क़मरी।
5. अल इस्तीआब, इब्ने अब्दुल बर, प्रसारक दारुल जैल, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1412 हिजरी क़मरी।
6. उसदूल ग़ाबा, इब्ने असीर जज़री, प्रसारक दारुल कुतुब इल्मिया, बैरूत, लेबनान।
7. अल इसाबा, इब्ने हजरे असक़लानी, प्रसारक दारुल कुतुब इल्मिया, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1415 हिजरी क़मरी।
8. अल इमामतो फ़ी अहम्मिल कुतुबिल कलामिया, सैय्यद अली हुसैनी मीलानी, प्रसारक अल हक़ाइक़, क़ुम, तीसरा एडीशन, वर्ष 1426 हिजरी क़मरी।
9. अंसाबुल अशराफ़, समआनी, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1408 क़मरी।
10. अल बेदाया वन निहाया, हाफ़िज़ अबिल फ़िदा इस्माईल बिन कसीर, प्रसारक दारो एहयाइत तुरासिल अरबी, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1408 हिजरी क़मरी।
11. तारीख़ुल इस्लाम, ज़हबी, प्रसारक दारुल किताब अरबी, बैरूत, पहला एडिशन, वर्ष 1407 हिजरी क़मरी।
12. तारीख़ुल ख़ुलफ़ा, जलालुद्दीन सुयूती, प्रसारक शरीफ़ रज़ी प्रेस, क़ुम, ईरान, पहला एडिशन, वर्ष 1411 हिजरी क़मरी।
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14. तारीख़े तबरी, (तारीख़ुल उमम वल मुलूक) अबू जाफ़र मुहम्मद बिन जरीर तबरी, प्रसारक आलमी सेंटर, बैरूत, लेबनान।
15. तजरीदुल ऐतेक़ाद, शैख़ नसीरुद्दीन तूसी, प्रसारक मकतब आलामे इस्लामी, क़ुम, ईरान, पहला एडिशन, वर्ष 1407 हिजरी क़मरी।
16. तहज़ीबुल असमा ए वल लुग़ात, नववी, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, वर्ष 1416 हिजरी क़मरी।
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19. जामेउल उसूल, इब्ने असीर, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1417 हिजरी क़मरी।
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21. अद दुर्रुन नज़ीद फ़ी मजमूअतिल हफ़ीद, अहमद बिन यहया हरवी, प्रसारक अफ़ग़ानिस्तान।
22. अज़ ज़ुर्रियतुत ताहिरा, मुहम्मद बिन अहमद अंसारी राज़ी दोलाबी, शोधकर्ता सैय्यद मुहम्मद जवाद हुसैनी जलाली, नशरे इस्लामी सेंटर, क़ुम, ईरान, पहला एडिशन, वर्ष 1407 हिजरी क़मरी।
23. अस सोननुल कुबरा, बैहक़ी, प्रसारक दारुल कुतुब इल्मिया, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1414 हिजरी क़मरी।
24. सीर ए आलामुन नबला, ज़हबी, प्रसारक रिसालत सेंटर, बैरूत, लेबनान, नौवा एडीशन, वर्ष 1413 हिजरी क़मरी।
25. शज़रातुज़ ज़हब, इब्ने इमाद, प्रसारक दारुल कुतुबिल इल्मिया, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन।
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27. शरहुल मवाक़िफ़, सैय्यद शरीफ़ जुरजानी, प्रसारक शरीफ़ रज़ी, क़ुम, ईरान, वर्ष 1412 हिजरी क़मरी।
28. शरहे नहजुल बलाग़ा, इब्ने अबिल हदीदे मोतज़ेली, प्रसारक दारो अहयाइल कुतुबुल अरबी, बैरूत, लेबनान, दूसरा एडिशन, वर्ष 1387 हिजरी क़मरी।
29. अत तबक़ातुल कुबरा, इब्ने सअद, प्रसारक दारुल कुतुबिल इल्मिया, बैरूत, लेबनान, दूसरा एडिशन, वर्ष 1418 हिजरी क़मरी।
30. अक़दुस समीन फ़ी तारीख़िल बलदिल अमीन, हाफ़िज़ तक़ीयुदुदीन मुहम्मद बिन अहमद फ़ासी मक्की।
31. उमदतुल क़ारी फ़ी शरहिल बुख़ारी, बदरुद्दीन ऐनी, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान।
32. फ़तहुल बारी फ़ी ,शऱहे सहीहिल बुख़ारी, इब्ने हजर, प्रसारक दारुल कुतुबिल इल्मिया, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1410 हिजरी क़मरी।
33. अल फ़स्लो फ़िल अहवाए वल मेलल वन नेहल, इब्ने हज़्म अंदूलुसी, प्रसारक दारुल कुतुबिल इल्मिया, बैरूत, लेबनान. पहला एडिशन, वर्ष 1416 हिजरी क़मरी।
34. अल काफ़ी, मुहम्मद बिन याक़ूब कुलैनी, प्रसारक दारुल कुतुबिल इस्लामिया, तेहरान, वर्ष 1388 हिजरी क़मरी।
35. अल कामिल फ़ित तारीख़, इब्ने असीर, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1399 हिजरी क़मरी।
36. कंज़ुल उम्माल, मुत्तक़ी हिन्दी, प्रसारक दारुल कुतुबिल इल्मिया, बैरूत, लेबनान, पहली एडिशन, वर्ष 1419 हिजरी क़मरी।
37. अल कवाकिबिद दरारी, किरमानी, प्रसारक दारु एहयातित तुरासिल अरबी, बैरूत, लेबनान, दूसरा एडिशन, वर्ष 1401 हिजरी क़मरी।
38. लिसानुल अरब, जमालुद्दीन मुहम्मद बिन मुकर्रम बिन मंज़ूर अफ़रिक़ी मिस्री, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान।
39. मजमउज़ ज़वायद व मंबउल फ़वायद, हाफ़िज़ नूरुद्दीन अली बिन अबी बक्र हैसमी, प्रसारक दारुल फ़िक्र, बैरूत, लेबनान, वर्ष 1412 हिजरी क़मरी।
40. मुख़्तसरो तारीख़े मदीनते दमिश्क़, इब्ने मंज़ूर, प्रसारक दारुल फ़िक्र, शाम (सीरिया) दमिश्क़, पहला एडिशन, वर्ष 1404।
41. अल मुसतदरको अलस सहीहैन, हाकिम नैशा पुरी, प्रसारक दारुल कुतुबिल इल्मिया, बैरूत, लेबनान, पहला एडिशन, वर्ष 1411।
42. मुसतदरकुल वसायल, मीरज़ा हुसैन नूरी, शोध व प्रसार आलुल बैत सेंटर, बैरूत, लेबनान, दूसरा एडिशन, वर्ष 1408 हिजरी क़मरी।
43. मुसनद अहमद बिन हंबल, प्रसारक दारो एहयाइत तुरासिल अरबी व दारो सादिर, बैरूत, लेबनान, तीसरा एडिशन, वर्ष 1415 हिजरी क़मरी।
44. अल मुसन्नफ़, अबू बक्र अब्दुर रज़्ज़ाक़ बिन हम्माम सनआनी।
45. मिनहाजुस सुन्नतिन नबविया, इब्ने तैमीया हरानी, प्रसारक मकतबा इब्ने तैमीया, क़ाहिरा, मिस्र, दूसरा एडिशन, वर्ष 1409 हिजरी क़मरी।
46. नफ़हातुल अज़हार फ़ी ख़ुलासते अबक़ातिल अनवार, सैय्यद अली हुसैनी मीलानी, प्रसारक अल हक़ायक़, क़ुम, ईरान, दूसरा एडिशन, वर्ष 1426 हिजरी क़मरी।
47. निगाही बे हदीसे सक़लैन, सैय्यद अली हुसैनी मीलानी, प्रसारक अल हक़ायक़, पहला एडिशन, वर्ष 1387 हिजरी शम्सी।
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