क़यामे इमाम हुसैन गैरमुसलमानो की निगाह मे

इतिहास
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हिन्दी तरजुमा

सैय्यद अब्बास इरशाद नक़वी

अर्ज़े नाशिर

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने 61 हिजरी में जो क़ुर्बानी बारगाहे ख़ुदा में पेश की थी वह कोई हादसा नहीं था बल्कि एक मोजिज़ा थी।

हादिसे और मौत में फ़र्क़ है, हादिसा कुछ दिन या कुछ साल गुज़रने के बाद अपना असर खोने लगता है और फिर सदियाँ गुज़रने के बाद दिलो दिमाग़ से ग़ायब हो जाता है मगर मौजिज़ा साल या सदियों से मुतास्सिर नहीं होता बल्कि हर साल और हर सदी में अपनी आबो ताब को क़ायम रखते हुये दिलो दिमाग़ को रौशन रखता है।

वाक़या-ए-करबला एक मौजिज़ा है और इसके मौजिज़ा होने का एक यही सबूत काफ़ी है कि जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता जा रहा है इस वाक़िये की अहमियत और इसके असरात दिलो दिमाग़ को और रौशन करते जा रहे हैं।

इमाम हुसैन (अ0) ने चूंकि मुख़्तलिफ़ क़ौम और कबायल के लोगों के साथ मैदाने करबला में इस्लाम और आलमे इन्सानियत को बचाने के लिये क़ुर्बानी दी थी यही वजह है कि आज भी हर क़ौम और क़बीले के लोग करबला के इस मोजिज़े से मुतास्सिर होते रहते हैं।

आप के सामने जिस किताब को पेश किया जा रहा है वह इसी बात का सबूत है कि किस तरह से हिन्दू, सिक्ख, ईसाई और दूसरे ग़ैर मुस्लिमीन ने इस मोजिज़ा-ए-शहादते इमाम हुसैन (अ0) को महसूस किया और अपने ख़्यालात का इज़हार करते हुए इमामे आली मक़ाम को ख़िराजे अक़ीदत पेश किया।

इस किताब को उर्दू में शाया किया जा चुका है लेकिन चूंकि आज की नौजवान नस्ल हिन्दी ज़बान को आसानी से समझती है इसलिये इस किताब का हिन्दी तर्जुमा "इमाम हुसैन (अ0) ग़ैर मुस्लिमों की नज़र में" अब आप की ख़िदमत में पेश है।

 

 

 


ईसाइयों का ख़िराजे अक़ीदत

मिस्टर जान लिविन्ग

इमाम हुसैन (अ0) दीनदार ख़ुदा परस्त, फ़रोतन और बेमिस्ल बहादुर थे। वो सल्तनत और हुकूमत के लिये नहीं लङे बल्कि ख़ुदा परस्ती के जोश में यज़ीद से इसलिये बेज़ार थे कि वो इस्लाम और दीने मोहम्मदी के ख़िलाफ़ था।

 

मिस्टर वाशिंगटन औरंग

10 मोहर्रमुल हराम 61 हि0 मुताबिक़ 3 अक्तूबर 6850 इस लाजवाब लङाई की तारीख़ है। कई हज़ार फ़ौज के साथ लङने में बहत्तर आदमियों का ज़िन्दा रहना मुहाल था। ज़िन्दगी तलफ हो जाने का यक़ीने कामिल था। निहायत आसानी से मुमकिन था कि हज़रत इमाम हुसैन (अ0) यज़ीद से उसकी तमन्ना के मोआफ़िक़ बैअत करके अपनी जान बचा लेते मगर इस ज़िम्मेदारी के ख़्याल ने जो एक मज़हबी मुस्लेह की तबियत में होती है इस बात का असर न होने दिया और आपको निहायत सख़्त मुसीबत और तकलीफ पर भी एक बेमिस्ल सब्र व इस्तेक़लाल के साथ क़ायम रक्खा। छोटे-छोटे बच्चे का क़त्ल, ज़ख़्मों की तकलीफ़, अरब की धूप, उस धूप में ज़ख़्म और प्यास ये ऐसी तकलीफ़े न थीं जो सल्तनत के शौक़ में किसी आदमी को सब्र के साथ अपने इरादे पर क़ायम रहने दे। (अंजाम कराची)

 

 

मिस्टर कारलायल

(मुसन्निफ़ हीरोज़ एण्ड हीरो वरशिप)

आओ हम देखें कि वाक़ेए करबला से हमें क्या सबक़ मिलता है। सबसे बङा सबक़ यह है कि शुहदा--करबला को ख़ुदा का कामिल यक़ीन था। इसके अलावा उनसे क़ौमी ग़ैरत और हमीयत का बेहतरीन सबक़ मिलता है जो किसी और तारीख़ में नहीं मिलता।

वो अपनी आँखों से इस दुनिया से अच्छी दुनिया देख रहे थे। एक नतीजा यह भी हासिल होता है कि जब दुनिया में मुसीबत और ग़ज़ब वग़ैरह बहुत होता है तो ख़ुदा का क़ानून क़ुर्बानी मांगता है। इसके बाद तमाम राहें साफ़ हो जाती हैं। (अंजाम कराची)

 

 

मिस्टर जेम्स काकरन

(मुसन्निफ़ तारीख़े चीन)

 

दुनिया में रूस्तम का नाम बहादुरी में मश्हूर है लेकिन कई शख़्स ऐसे गुज़रें हैं जिनके सामने रूस्तम का नाम लेने के क़ाबिल नहीं।

बहादुरी में अव्वल दरजा हुसैन इब्ने अली (अ0) का है। क्योंकि मैदाने करबला में रेत पर तशनगी और भूक की हालत में जिस शख़्स ने ऐसा काम किया हो उसके सामने रूस्तम का नाम वही शख़्स लेगा जो तारीख़ से वाक़िफ़ न हो। (अंजाम कराची)

 

मिस्टर आरथर एन-विस्टन

(सी-आई-ए)

इमाम हुसैन अ0 सब्र व इस्तेक़लाल और अख़लाख़ के वो आला जौहर और कमालात मौजूद थे जो आम इन्सानो में नहीं पाये जाते हैं। इस लिये इमाम हुसैन अ0 की ज़ात ख़ुद एक मौजिज़ा है। इमाम हुसैन अ0 की बहादुरी और शुजाअत की मिसाल शायद ही दुनिया कभी पेश कर सके। अक़वामें आलम की तारीख़ कभी कोई ऐसा सूरमा न पेश कर सकी जो हज़ारों से यक्को तन्हा लङा हो और ब-रज़ा-व-रग़बत मरने पर तैयार हो गया हो। (हुसैनी पैग़ाम)

 

 

मिस्टर परमेल पीटर प्रेग

 

इमाम हुसैन अ0 की तारीख़ी हैसियत हम पर एक बार और ये अम्र ज़ाहिर करती है के कोई न कोई ख़ुदाई आवाज़ मौजूद है जिसके मुताबिक़ हर मुल्क के फ़र्द और क़ौम की रहबरी होती रहती है और उसका असर उन पर पङता है।

इमाम हुसैन अ0 ने कामिल इंसानियत के नमूने को दुनिया में पेश करने में कामिल तरीन हिस्सा लिया है। सबसे बालातर उनकी इस्लाही कोशीश है और वह जुर्अत है जिससे उन्होने इस काम का पूरा करने में मसायब का मुक़ाबला किया।  वो समझते थे के रूहानी दुरूस्ती व सिदाक़त को बाला तर रखने में जो क़ुर्बानी झेली जाती है उसकी अज़मत से इंसानी ज़िन्दगी की क़ीमत और बढ़ जाती है। इस बात में ख़ास माअनी है कि अगरचे ख़ुदा के ये सिपाही अपने मक़ासिद के हुसूल के वास्ते माददी दुनिया में जंग करते हैं लेकिन चूंकि एख़लाख़ी व रूहानी दुनिया माददी दुनिया की असास या बुनियाद है और एख़लाख़ी व रूहानी दुनिया माददी दुनिया की रहबरी कर सकती है। इस लिये इन अज़ीमुश्शान इंसानो की शिकस्त भी कुछ दिनों के बाद माददी दुनिया में फ़तह की शक्ल में तब्दील हो जाती है।

इमाम हुसैन अ0 हमें हक़ व सदाक़त के लिये जंग करना सिखाते हैं और यह भी सिखाते हैं कि इंसानो को ख़ुदगरज़ी और जात-पात की वजह से नहीं बल्कि मज़लूमों के हुक़ूक़ कि हिफ़ाज़त के लिये लङना चाहिये जो बेइंसाफ़ी का शिकार हैं।

इमाम हुसैन अ0 की सीरत से हमको यह दर्स भी हासिल होता है कि हमें सदाक़त की हिमायत के वास्ते जंग करना चाहिये, ख़्वाह ऐसा करने से हमको शिकस्त ही क्यों न हो, हमको क़ुर्बानी ही क्यों न देनी पङी।

(इंसाने कामिल)

 

 

सर फ़्रेडरिक जे-गोल्ड

(मशहूर युरोपी मुसन्निफ़)

लोग नये निज़ाम का ज़िक्र करते हैं लेकिन सिर्फ़ वही निज़ाम बाक़ी रहने के क़ाबिल है जिसकी बुनियाद रूहानियत पर हो। उन उसूलों पर जिनकी तालीम ख़ुद इमाम हुसैन अ0 ने दी थी। यानी इन्फ़ेरादी, जमाअती, क़ौमी और बैनुलअक़वामी ज़िन्दगी में रवादारी, आज़ादी तहफ़्फ़ुज़ और इंसाफ़ की तालीम। इस क़िस्म के नये निज़ाम में सल्तनत के ग़ल्बे और जबरो ज़ुल्म का इमकान नहीं रहेगा बल्कि एक मुश्तरक ज़िन्दगी होगी जो एक इंसानी और क़ौमी उख़ुवत क़ायम करेगी। दर हक़ीक़त इमाम हुसैन अ0 एक इंसानी फ़हम व ज़क़ावत का आला नमूना हैं जो तनफ़्फ़ुर, जंग और ज़ुल्म की तारीक दीवारों में से होती हुई रेगिस्तानों और समुन्दरों को अबूर करती हुयी अम्न व अमान का पैग़ाम देती हैं। इमाम हुसैन अ0 की ज़िन्दगी हमारे लिये एक मुफ़ीद और नसीहत आमेज़ सबक़ है। पैग़म्बरे इस्लाम स0 का नवासा और हज़रत अली अ0 का फ़रज़न्द जिन्होंने कुस्तुनतुनियां में बहैसियत एक बहादुर सिपाही के काम सर अंजाम दिया था और बहैसियत एक आदिल हाकिम के हुकूमत की थी। इमाम हुसैन अ0 ने अपने अमल में दिखा दिया कि किस तरह नौजवानों को अपने आबाओ अजदाद के कारनामों का एहतेराम और उनके औसाफ़े हमीदा और जज़्बा-ए-ख़िदमते ख़ल्क़ को जारी रखना चाहिये। (हुसैन दी मार्टर)

 

 

 

सर जार्ज टामस

 

कौन है जो इमाम हुसैन अ0 की हक़ व सदाक़त को बलन्द करने वाली इस लङाई की तारीफ़ किये बग़ैर रह सकेगा। दूसरो को लिये जीने का उसूल, कमज़ोरो और दुखयारों की इमदाद को अपना मक़सदे हयात बनाने की बेनज़ीर मिसाल इमाम हुसैन अ0 की बेलौस शख़्सियत से ज़्यादा रौशन और कहीं नहीं मिल सकती। जिन्होनें अपनी और अपने महबूब तरीन अज़ीज़ो और साथियों की जान की बाज़ी लगा दी लेकिन एक ज़ालिम और ताक़तवर बादशाह के सामने सर झुकाने से इन्कार कर दिया।

हुसैन अ0 ने आज से तेरह सौ साल पहले अपनी जान दी थी, लेकिन उनकी लाफ़ानी रूह आज भी दुनिया में मौजूद है और उनकी शहादत की पाकीज़ा याद हर सान मोहर्रम में ताज़ा कि जाती है। (हुसैन डे रिपोर्ट)

 

डा0 क्रिसटोफ़र डी विक्टर

(मिशन अस्पताल बम्बई)

 

मैंने हज़रत इमाम हुसैन अ0 की ज़िन्दगी और उनके कारनामों का मुतालेआ बहुत गहरी नज़र से किया है। मैंने उनमें ख़ुदावन्दे यसूमसीह की सी मोहब्बत पायी है।

अगर हज़रत मसीह को सलीब पर चढ़ाया गया तो हज़रत इमाम हुसैन अ0 का सर ज़ेबे नेज़ा किया गया। मसीह को हक़ व सदाक़त के लिये सूली पर लटकाया गया और हुसैन अ0 ने भी हक़ और सच्चाई कि मुदाफ़ेअत के लिये अपनी और अपने बच्चों की जान क़ुर्बान की। इस लिये ईसाई फ़िरक़ा हुसैन अ0 से जितनी भी मोहब्बत करे कम है। वो दुनिया में हक़ का बोलबाला करने के लिये पैदा हुए थे और उनके हाथ से हक़ का बोलबाला हो गया। अब जब भी किसी कि ज़ुबान पर हक़ और शुजाअत, ये दोनो नाम आयेंगे तो ना मुमकिन है कि हुसैन अ0 का नाम न आये। हुसैन अ0 की क़ुर्बानी की अज़मत का यह एक ज़िन्दा सबूत है।

काश दुनिया इमाम हुसैन अ0 के पैग़ाम, उनकी तालीम और मक़सद को समझे और उनके नक़्शे क़दम पर चल कर अपनी इस्लाह करे। (बम्बई क्रानिकल)

 

 

डा- एच-डब्लू-बी-मोरनीऊ

 

इमाम हुसैन अ0 उसूने सदाक़त के सख़्ती से पाबंद रहे और और अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हात तक मुस्तिक़िल मिजाज़ और ग़ैर मुताज़लज़िल रहे।

उन्होंने ज़िल्लत पर मौत को तरजीह दी। ऐसी रूहे कभी फ़ना नहीं होती और इमाम हुसैन अ0 आज भी रहनुमायाने इंसानियत की फ़ेहरिस्त में बुलन्द मक़ाम के मालिक है। वो तमाम मुसलमानों के लिये रूहानी पैग़ामे अमल पहुँचाने वाले है। और दूसरे मज़हब के पीरों के वास्ते नमुन-ए-कामिल हैं। वो निडर थे और ख़ुदा परस्ती की मंज़िल में कोई ताक़त उनको ख़ौफ़ नहीं दिला सकती थी। वो अपने नस्बुल ऐन के हासिल करने में सच्चाई के साथ कोशं रहे। (हुसैन दी मार्टर)

 

 

लार्ड हेडले

(लन्दन)

 

हज़रत इमामे हुसैन अ0 ने मैदाने करबला में अनथक जद्दो जहद के साथ लोगों को अहकामे रसूल स00 की तरफ़ मुतावज्जेह किया और यह बताया कि हक़ पर साबित क़दम रहने की सई इन्सान का फ़र्ज़े अव्वलीन है। अगर हुसैन अ0 में सच्चा जज़्बा कारफ़रमा न होता तो अपनी ज़िन्दगी के आख़री लम्हात में उनसे रहमों करम, सब्रो इस्तेक़लाल और हिम्मत व जवां मरदी हरगिज़ अमल में आ ही नहीं सकती थी जो आज सफ़ह-ए-हस्ती पर सब्त है। अगर वो दुनियादार इन्सान होते तो बिला शुब्हा दुश्मन के सामने सरे तसलीम ख़म कर देते। मगर जज़्बे इलाही वा तालीमाते मोहम्मदी का असर ये था कि वो मए तमाम रोफ़क़ा के मौत के घाट उतर गये। लेकिन फिस्क़ो फिज़ूर और ग़ैर इस्लामी उसूल की हिमायत न करना थी न की जब इन्सान उनके कारनामों और शहादत का हाल तारीख़ में पढ़ता है तो उसे हुसैन अ0 की अज़मत और उनकी सीरत का अन्दाज़ा होता है।

मालूम होता है कि हुसैन अ0 ने अपने रोफ़क़ा में भी वही अपना वाला जज़्बा पैदा कर दिया था कि इसका कहीं भी पता नहीं मिलता कि उनके असहाबे ख़ास में से किसी एक ने भी मसायब में उनका साथ छोङा हो।

ये एक दास्ताने ग़म है जिसका ख़ात्मा रूह फ़रसा है। इससे मालूम होता है कि किस तरह एक बलन्द सूरत का हामिल, एक बलन्दो अज़ीम मक़सद के लिये अपनी जान की परवाह नहीं करता, अपने नफ़्स को क़ुर्बान कर देता है मगर उसूल की क़ुर्बानी किसी तौर गवारा नहीं करता। (हुसैन अ0 दी मार्टर)

 

मिस्टर जे-आर-राबिन्सन

 

मेरी ज़िन्दगी का बेशतर हिस्सा तारिख़ के मुताअले में गुज़रा है मगर जो कशीश और मज़लूमीयत मुझे तारीख़े इस्लाम के इस बाब में नज़र आई जो हुसैन अ0 और करबला से मुताल्लिख़ है वह कहीं नहीं देखी। मुसलमानो के पाक नबी स0 के विसाल के बाद उनके नवासे ने जो अज़ीमुश्शान कारनामा अन्जाम दिया वह इस्लामी तालीम की सदाक़त और हुसैन अ0 की अज़मत की बहुत बङी दलील है। इमाम हुसैन अ0 ने सैकङो मुश्किलात के बावजूद अपने उसूलों और इस्लामी निज़ामें हुकूमत कि हिफ़ाज़त की। एक जाबिर ताक़त के सामने सफ़आरा होने की ज़र्रा बराबर झिझक महसूस नहीं की। बङी बहादरी, उलुल अज़मी और ख़न्दा पेशानी के साथ मसायब का मुक़ाबला किया और अपने जांनिसारो के साथ शहीद हो गये।

बिला शुब्हा तारीख़े आलम में ऐसी मिसालें कामयाब हैं बल्कि नायाब हैं और जब हम इस वाक़ेऐ को इस नुक़तए निगाह से देखते हैं तो हुसैन अ0 की अज़मत और भी बढ़ जाती है। कि उन्होंने जितनी तकलीफ़े उठाईं और जिस शदीद मुसीबत के आलम में शहीद हुए इसमें उनका ज़ाती मफ़ाद न था। उन्होने जो कुछ किया ख़ुदा के लिये किया। तस्लीम करना पङता है कि उनसे पहले और उनके बाद अब तक शहीदों में कोई उनके हम पल्ला नहीं गुज़रा। (इत्तेहाद लाहौर)

 

 

मिस्टर डब्लू-सी-टेलर

ज़ालिमो ! बताओ ख़ौफ़नांक क़यामत के दिन तुम क्या जवाब दोगे जब मोहम्मद स00 तुम से सवाल करेंगें। कहाँ है वह साहेबाने क़राबत जिनकी मवद्दत मैंने तुम पर फ़र्ज़ की थी ? जिनमें कि हर फ़र्द की जान मुझे हज़ारों जानों से ज़्यादा अज़ीज़ थी।(यही न) कि बाज़ को भारी भारी ज़ंजीरों में जकङ कर तारीक क़ैदख़ानों में असीर किया और कुछ करबला के बे आबो गयाह सहरा में ज़ख़्मों से चूर खाक में लिथङे पङे है।

जब तख़्ते अदालत के रू-ब-रू तुम्हारा रसूल स00 से सामना होगा तो वो तुमसे इस्तेफ़सार करेंगे। क्या उस शख़्स के ऐहसानात का तरीक़ा-ए-इज़हारे शुक्रगुज़ारी यही है ? जिसका चश्माये फ़ैज़ तुम्हारे लिये निहायत आज़ादी से जारी रहा। (मुस्लिम रिविव्व)

 

 

जस्टिस आरनाल्ड

(बम्बई हाईकोर्ट)

 

रसूले इस्लाम स00 की नस्ल में महज़ तन्हा एक इमाम हुसैन अ0 ही रह गये थे जो अली अ0 और फ़ातेमा स0 के छोटे बेटे थे, उनमें बाप की शुजाअत और बहादुरी कूट कूट कर भरी थी, वह बेहद बहादुर और शरीफ़ ख़्याल इंसान थे। इमाम हुसैन अ0 कूफ़ियों के बार बार तलब करने पर (जिन्होंने इताअत के वादे किये थे) आप एक मुख़्तसर जमाअत के साथ रवाना हुए। इस जमात में उनकी बीवी, उनके बेटे, उनकी बहने और रोफ़ाक़ा में चन्द सवार थे। आप जब अरब के रेगिस्तानों को तय कर गये तो फ़रात के किनारे जो कूफ़े से चंदां दूरी नहीं है दुश्मनों के नरग़े में घिर गये।

हज़रत अली अ0 और हज़रत फ़ातेमा स00 का शरीफ़ ख़्याल फ़रज़न्द रसूले ख़ुदा का प्यारा नवासा शुजाअत और बहादुरी के जौहर दिखाकर नामरदों के दूर के हमलों से ज़ख़्मी होकर शहीद हो गये। दुश्मन उनके नज़दीक जाने जुर्अत नहीं करते थे कि मुबादा इस शेर के पंजे में गिरफ़्तार होकर मौत के सिपुर्द कर दिये जायें।

इमाम हुसैन अ0 का सर तन से जुदा कर लिया गया और कूफ़े में कूचा-ब-कूचा फिराया गया और मुशतहर किया गया। इस जां ग़ुस्ल वाक़ेये ने मेरे दिल को इंतेहा दर्जा तहो बाला कर डाला है। (हुसैनी दुनिया)

 

 

डाक्टर एडवर्ड सील

(मुसन्निफ़-ख़िलाफ़ते बनी उमय्या व बनी अब्बास)

 

इस मुख़्तसर जमाअत का हर फ़र्द यके बाद दीगरे मैदाने कारज़ार में शहीद कर दिया गया। यहा तक कि सिर्फ़ हुसैन अ0 और आपका ख़ुर्द साल फ़रज़न्द जो बहुत कमसिन था बक़ैदे हयात थे। ये बच्चा कौन था? वही मज़लूमें करबला का शशमाहा बच्चा अली असग़र था। जिसकी माँ का दूध ख़ुश्क हो चुका था। सख़्त गरमी में उस पर पानी बन्द था। करबला का रेगिस्तान लू उगल रहा था। बेज़बान मासूम की ज़बान मारे तशनगी के ख़ुश्क थी और नन्हा सा कलेजा कबाब हो रहा था। इधर नरग़ा-ए-आदा में घिरे हुए बाप ने इस आलमें बेकसी में "है कोई जो मेरी मदद करे" कि आवाज़ बुलन्द की। उधर शशमाहे बच्चे ने अपने आप को झूले से गिरा दिया। हाँ! ज़रा देखना भेङियों की टिडडी दिल फ़ौज में बेचैनी पैदा हो गयी, पत्थरों के दिल पसीज गये, ज़ालिम जल्लादों के जिस्मों में रहम व करम की लहरें पैदा हो गयीं और सब ने यक ज़बान होकर कहा, इसे क्यों न पानी दिया जाये।

इधर मज़लूम ने कहा कि अगर तुमको ये ख़्याल पैदा होता है कि इस बहाने से मैं ख़ुद पानी माँग रहा हूँ तो देख लो मैं इसे यहाँ छोङ कर हट जाता हूँ तुम ख़ुद आकर इसे पानी पिला दो।

शिम्र मलऊन को फ़ौज की तब्दीलिए मिजाज़ का इल्म हो गया। उसने हुरमुला को हुक्म दिया कि कलामें हुसैन को क़ता कर दे। हुक्म सुनने की देर थी हुरमुला ने तीन भाल का तीर ऐसा रिहा किया कि मासूम की हल्क़े नाज़ुक़ को चीर कर बाज़ुए हुसैन अ0 में दर आया और बच्चा बाप के हाथों पर मुंक़लिब हो गया। (हुसैनी पैग़ाम)

 

 

जर्मन डाक्टर मीऊर मांबैन

(मुसन्निफ़ सियासते इस्लामिया)

 

इमाम हुसैन अ0 अपने ज़माने की सियासत में आला दर्जा रखते थे बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि अरबाबे दयानत में से किसी शख़्स ने ऐसी मोअस्सर सियासत इख़्तियार नहीं की। आप में सिफ़ते सख़ावत और दीगर महबूब तरीन सिफ़ात थी। उनका मक़सद सल्तनत और सियासत हासिल करना न था। साफ़-साफ़ अपने साथियों से फ़रमाते जाते थे कि जो जाह व जलाल कि हिर्स व तमा में मेंरे साथ जाना चाहता है हो वो मुझसे अलग हो जाये।

आपने बेकसी और मज़लूमियत को इख़्तेयार फ़रमाया। इमाम हुसैन अ0 ने अपनी ज़िन्दगी के आख़री वक़्त में अपने तिफ़ले शीरख़ार के बाब में वो काम किया कि ज़माने के फ़िलास्फ़रों को मुताहय्यर कर दिया।

इमाम हुसैन अ0 के वाक़ेऐ पर बरतरी हासिल कर ली। इमाम हुसैन अ0 का वाक़ेआ आलेमाना, हकीमाना और सियासी हैसियत का था। जिसकी नज़ीर दुनिया ती तारीख़ में नहीं मिल सकती. (हुसैनी दुनिया)

 

 

मिस्टर औसीवर्न

(इस्लाम एंड दी अरब्ज़)

सन् 60 हिजरी में बदबख़्त मोआविया मर गया और उसका लङका यज़ीद तख़्त नशीन हुआ। अपनी तख़्त नशीनी से क़ब्ल ही यज़ीद ने मोमनीन को बदनाम कर रखा था। वो एलानिया शराब नोशी करता था। शिकारी कुत्तों,बाज़ और दीगर नजीस जानवरों का बेहद शायख़ था। इस रिंद मशरब और ज़ालिम की तख़्त नशीनी में बहुत सी ऐसी रस्में जारी हो गयी जो कूफ़े के अरबाबे दयानत के लिये न क़ाबिले बर्दाश्त थीं। अहले दमिश्क़ अपने इस पेशवा के इत्तेबाअ में सङको पर एलानिया शराब पीते थे और मिस्ल उसके सभी अपने वक़्त को महबूबाने शीरीं अदा की मोहब्बत में सर्फ़ करते थे।

क्या ये मज़हब की सरीह तौहीन न थी? ये सल्तनत और ख़लीफ़ाए वक़्त से तसादुम का मौक़ा न था? इमाम हुसैन अ0 की पाक रूह को ज़रूर सदाक़त के जज़्बात से मुतास्सिर होना चाहिये था जबकि आपने देखा के ज़ुल्म के एक ख़ौफ़नाक देवता ने ग़ुस्ताख़ी के साथ मज़हबी जामे को ज़ेबे तन किया है। (हुसैनी पैग़ाम)

 

 

फ़ादर पलामिश एस-जे

(पी-एच-डी डी-सी बम्बई)

बुलन्द मरतबा इन्सानों के बुलन्द मरतबा कारनामें हमें अरफ़ा व आला ज़िन्दगी बसर करने कि तलक़ीन करते हैं कि किसी बुज़ुर्ग की याद मनाना ख़ुद हमारे लिये सूद मंद है। वो मिसालें जो शोहदा ने अपनी हयात में अपना सब कुछ क़ुर्बान करके पेश फ़रमायीं हैं हमारे लिये ऐसा नमूना है जिनको पेशेनज़र रख कर हम दुनियां में क़ौमो को बेहतर और क़ाबिले फ़ख़्र ज़िन्दगी गुज़ारने की तलख़ीन कर सकते हैं।

इमाम हुसैन अ0 की क़ुर्बानी यक़ीनन तारीख़ का एक अज़ीमुश्शान वाक़ेआ है जिसने सदाक़त को किज़्ब पर फ़तह हासिल करने में मदद पहुँचायी। (हुसैनी पैग़ाम)

 

 

कैप्टन एल-एच-नेबलेट जे-पी

(डिप्टी कलेक्टर)

हुसैन अ0 ने जामे शहादत पीकर इस्लाम को सफ़हा-ए-हस्ती से महो होने से बचा लिया। मोहर्रम की अहमियत समझने के लिये वाक़ेआते मा सबक़ पर नज़र डालनी ज़रूरी है।

सदियां गुज़र गई के सरदारे कुफ़्फ़ार के पोते यज़ीद पलीद ने इमाम हुसैन अ0 से तलबे बैअत की। आपने इन्कार किया और फ़रमाया कि मैं ख़ुदाऐ बुज़ुर्ग व बरतर के सिवा किसी के सामने सर नहीं झुका सकता। इस दौरान में यज़ीद की ज़्यादतियों से आजिज़ आकर अहले कूफ़ा ने इमाम हुसैन अ0 को बुलावा भेजा कि वहाँ आकर उसके मज़ालिम से गुलू ख़लासी करें। आपने मन्ज़ूर फ़रमाया और मय अन्सार व रोफ़ाक़ा के रवाना हो गये।

जब आप करबला के मैदान में पहुँचे तो एक फ़ौजे कसीर ने आपको बढ़ने से रोका। इस फ़ौज का सरदार हुर था और फ़ौज में तेतिस हज़ार आदमी थे। यकुम से हफ़्तुम मोहर्रम तक आप बराबर अफवाजे आदा को समझाते रहे ज़ुल्म व सितम और नाहक़ कुशतो ख़ून से बाज़ आये लेकिन उन्होंने एक ना सुनी। उन पर आपके दलाएल का असर नहीं हुआ। जब आप हर तरह से ऐहतमामे हुज्जत फ़रमा चुके और आपको यक़ीने कामिल हो गया कि लङाई होना लाज़मी है और एक फ़ौजे कसीर के मुक़ाबले में आपको फ़तह नहीं हो सकती और आप मय अन्सार व अइज़्ज़ा के शहीद हो जायेंगे। ख़ुसूसन इस वजह से के यज़ीद का हुक्म जारी हो चुका था कि सरे हुसैन अ0 उसके सामने हाज़िर किया जाये आपने चौदह घण्टे की मोहलत माँगी जोकि मिल गई।

शबे आशूर आपने तमाम अन्सार व रोफ़क़ा का जमा किया और एक पुरदर्द लहजे में एक तुलानी तक़रीर फ़रमाई जिसमें बाद अज़ पन्दो नासाएह आपने फ़रमाया कि कल सख़्त से सख़्त मुसीबत का सामना है। मैं तुम सब को मुतानब्बे कर देता हूँ। बाद ख़त्में तक़रीर आपने वह काम किया जिसकी मिसाल सफ़हा-ए-आलम में मिलना नामुमकिन है। और जिससे ज़ाहिर होता है कि आपको इन्सानी कमज़ोरी का किस क़द्र एहसास था और किस दर्जा आप सख़ी और रफ़ीक़-उल-क़ल्ब थे। जज़्बाए ईसार आप में किस हद तक मौजूद था। आप ने फ़रमाया के ख़ेमों के तमाम चिराग़ गुल कर दिये जायें और जिसका जहाँ भी चाहे वह उस दरवाज़े से चला जाये। मैंने अपनी बैअत तुम से उठा ली है। दूसरे दिन जब सफ़ेदी-ए-सहर आसमान पर हवैदा हुआ तो सब के सब 72 जाँनिसार जामे शहादत पीने पर कमर बस्ता नज़र आये।

आपकी ख़लील फ़ौज का ज़िक्र ही क्या। एक एक करके आपके तमाम अन्सार मैदाने जंग में काम आये। तमाज़ते आफ़ताब तेज़ तर हो रही थी, प्यास का ग़ल्बा ज़्यादा हो रहा था। लेकिन ख़ेमों में पानी का एक क़तरा भी मय्यसर न था। आपके शीर ख़्वार बच्चे ने सूखी ज़बान दिखाकर तलबे आब की। उसको हाथों पर लिये हुए आप मैदाने जंग में आए और अशक़िया से पानी तलब किया मगर जवाब में एक तीर हल्क़े असग़र को छेदता हुआ गुज़र गया और वह बच्चा तङप कर इमाम के हाथों में राही मुल्के बक़ा हुआ। आप क़ल्बे लश्कर में आये बहुत से अश्क़िया को फ़ना-फिन-नार किया। सैकङों लाशे मैदान में पङे हुए और सैकङों ज़ख़्मी मैदान में एङियाँ रगङ रहे थे, इमामे मज़लूम ज़ख़्मों से चूर-चूर थे। आख़िर कार नरग़ा-ए-आदा में घिर गये। ज़ख़्मों की कसरत से घोङे पर से गिरकर फ़रशे ज़मीन पर आ गये और जामे शहादत नोश फ़रमाया।

आपकी शहादत के बाद आपके हरम क़ैद कर लिये गये। ख़ेमों में आग लगा दी गई और तरह-तरह की मुसीबतें उठाना पङी। उस शहादते उज़मा की याद हर साल माहे मोहर्रम मे मनाई जाती है। (सरफ़राज़ लखनऊ)

 

 

मिस्टर जे-ऐ-सिम्सन

(स्पेशल मजिस्ट्रेट आगरा आनरेरी सिक्रेट्री इंडियन क्रिश्चयन एसोसिएशन)

आज तेरह सौ साल बाद भी हम क़ुर्बानि-ए-इमाम हुसैन अ0 को उतना ही मोअस्सिर पाते हैं जितना कि किसी ज़बरदस्त जंग के ख़ात्मे पर मैदाने कारज़ार में ख़ूने शोहदा की सुर्ख़ी इन्सानी दिलों को लरज़ा देती है।

तारिख़े इस्लाम की यह जंग तमाम जंगो पर फ़ौक़ियत रखती है। जंगे नैनवा बज़ाहिर आले रसूल स0 की शहादत पर ख़त्म हुई। इन्सानी ख़ून के क़ीमती जौहर पानी से ज़्यादा अरज़ाँ हुए। सग़ीर व कबीर, तिफ़ले शीरख़्वार और परदा नशीन मस्तूरात तीन यौम तक भूख, प्यास और सहरीई तकलीफ़ का शिकार रहीं। बेरहमी, दरंदगी और सफ़्फ़ाक़ी की तमाम हदें, ज़ुल्म व सितम की तमाम रस्में मैदाने करबला में तमाम हुई। इमामे आली मक़ाम सब्रे अय्यूब को भी शर्मसार कर देने वाले सब्र के साथ सीना सिपर होकर उन तमाम मज़ालिम का मुक़ाबला करते रहे। लेकिन जब बातिल सर चढ़ने लगा, इन्सानियत की जगह दरिन्दगी ने ले ली और इस्लाम के हरे भरे बाग़ में फ़िस्क़ो फ़िज़ूर की आंधियां चलने लगीं तो हुसैन अ0 ने महसूस किया की अब इस बाग़ को सींचने की ज़रूरत है। दीने मुस्तफ़वी की तकमील एक ज़बरदस्त क़ुर्बानी की मोहताज है। जुर्अत व बहादुरी, सब्र व रज़ा इस्तेक़लाल और हिम्मते मर्दाना लेकर हुसैन अ0 मैदाने कारज़ार में आये अपनी मुट्ठी भर फ़ौज के साथ हज़ारो की फ़ौज के सामने डट गये और इन्सानो के रूप में छिपे हुए दरिन्दों को बता दिया कि हक़ और इन्साफ़ को कभी शिकस्त नहीं होती, मर्द ज़िल्लत की ज़िन्दगी पर मौत को तरजीह देता है और आज़ादी को जान से प्यारा रखता है और सबसे बहादुर वह है जो ख़ुद हँसता हुआ मरकर अपनी क़ौम और जमाअत को तबाही से बचा ले जो हक़ परस्ती की राह में अपने ख़ून की क़ीमत न समझे, अपने ज़मीर और अपनी आज़ादी को दुनियां की किसी भी क़ीमत पर न बेचे।

वाक़ेऐ करबला आज भी दुनिया के हर इन्सान को बिला लेहाज़ क़ौमो मिल्लत यह दर्स देता है कि ज़िल्लत की ज़िन्दगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है। जो हक़ व सदाक़त में क़ुर्बान हुआ वो ज़िन्दा-ए-जावेद हो गया। बक़ा सिर्फ़ सच्चाई को हासिल है।

हुसैन अ0 की क़ुर्बानी क़ौमो की बक़ा और जेहादे आज़ादी के लिये एक मिशअल है जो अबदुलआबाद तक रौशन रहेगी। हुसैन अ0 की शहादत शिकस्त नहीं बल्कि इस्लाम की न मिटने वाली फ़तह है। इस्लाम इस गेरां क़द्र क़ुर्बानी पर फ़ख़्र करता रहेगा। ख़ुशबख़्त है वो क़ौम जिस में इमाम हुसैन अ0 जैसा जांबाज़ मुजाहिद पैदा हुआ।

कर दिया ख़ूने शहादत से ज़मी को लाल रंग

यूँ ही मिलती आयी हैं इस्लाम को आज़ादीयाँ

(हुसैनी पैग़ाम)

 

स्वामी कलजुगा नन्द मुसाफ़िर

हज़रत इमाम हुसैन अ0 की तरफ़ दुनिया के इस जज़्बे व कशिश का सबब क्या है? बात यह है कि कशिश दो चीज़ों से पैदा होती है। एक हुस्न दूसरा एहसान। हज़रत इमाम हुसैन अ0 में यह दोनो चीज़े पायी जाती हैं। हुस्न से मुराद यहाँ हुस्ने अख़लाख है जो हुस्ने सूरत से ज़्यादा जाज़िब है आपके अख़लाख का यह आलम था कि दुश्मनों को भी आप में कोई बुराई दिखाई नहीं देती।

आपका एहसान! उसका क्या पूछना। हज़रत इमाम हुसैन अ0 ग़रीब न थे मगर उनका पैसा ग़रीबों पर सर्फ़ होता था। वह ख़ुद फ़ाक़ा करते थे। रानियाँ घर में चक्की पीसती थीं और बच्चे भूखे सोते थे मगर पब्लिक के मफ़ाद का पैसा वो अपने ज़ाती मफ़रद में नहीं लाते थे। उन्होंने मैदाने करबला में चार सबक़ दिये।

(1)    ऐ लोगो! तुम सब भाई भाई हो!

(2)    ऊँच नीच की कोई तफ़रीक़ नहीं, इन तफ़रीक़ों को मिटा दो।

(3)    सच्चाई के रास्ते पर मरते दम तक क़ायम रहो।

(4)    ज़ालिम के ज़ुल्म का मुक़ाबला करो यहाँ तक कि उसके तख़्त को उलट दो।

दुनिया अगर आपकी इन तालीमात पर अमल करे तो कोई वजह नहीं कि तमाम झगङे बखेङे ख़त्म न हो जायें।

तमाम मुसीबतें इस लिये हैं कि एक दूसरे को पस्त और हक़ीर समझा जाता है, छूत छात का ख़्याल छाया हुआ है। (हुसैन अ0 डे रिपोर्ट)

 

गिबन

इमाम हुसैन अ0 ने अपने असहाब पर ज़ोर दिया कि वो (मैदाने करबला से) फ़ौरन हटकर अपनी (जानों की) हिफ़ाज़त करें। लेकिन तमाम (आइज़्ज़ा और असहाब) ने अपने प्यारे और जान से ज़्यादा अज़ीज़ इमाम को तन्हा छोङने से इन्कार कर दिया। इमाम हुसैन अ0 को दुआ करके और जन्नत का यक़ीन दिलाकर उनकी हिम्मत अफ़्ज़ाई की। रोज़े आशूर की हौलनाक सुबह को इमाम हुसैन अ0 घोङे पर सवार हुए आपके एक हाथ में तलवार और दूसरे में क़ूराने मजीद था। आपके साथ शोहदा का बहादुर और सख़ी गिरोह सिर्फ़ बत्तीस सवार और चालिस प्यादों पर मुशतमिल था।

(डिकलाइन एण्ड फ़ाल आफ रोमन अम्पायर। सफ़्हा 287)

यही मुसन्निफ़ एक दूसरे मुक़ाम पर लिखता है:

हज़रत इमाम हुसैन अ0 का पुरदर्द वाक़ेआ एक दूर दराज़ मुल्क में रूनुमां हुआ, यह वाक़ेआ और संगदिल अफ़राद को भी मुत्तासिर कर देता है। अगरचे कोई कितना ही बेरहम हो मगर इमाम हुसैन अ0 का नाम सुनते ही उसके दिल में एक जोश और हमदर्दी पैदा हो जायेगी।

 

शिल्डर

(एक मशहूर मग़रिबी मुफ़क्किर)

इमाम हुसैन अ0 अपनी छोटी सी जमात के साथ रवाना हुए। आपका मक़सद शानों शौक़त और ताक़त व दौलत हासिल करना न था। आप एक बुलन्द और अज़ीमुश्शान क़ुर्बानी पेश कि दुश्मनों से मुक़ाबला करना ( दुश्मन की तादात की कसरत की वजह से) बहुत दुशवार है और यह कि वह सिर्फ़ उनसे ही लङने ही के लिये नहीं बल्कि उनको शहीद करने के लिये जमा हुए है। बावजूद ये कि (हुसैन अ0 और हुसैन अ0 के) बच्चो पर पानी बन्द कर दिया गया। लेकिन वह दहक़ते हुए आफ़ताब के नीचे, तपते हुए रेगिस्तान पर अज़म व इस्तेक़लाल का पहाङ बने हुए क़ायम रहे। उनमें से कोई एक लम्हे के लिये भी न घबराया बल्कि निहायत बहादुरी से सख़्त और शदीद मुसीबतों का बग़ैर हिचकिचाहट के मुक़ाबला करता रहा।

 

 

 

डा0 क्रिस्टोफ़र

काश दुनिया इमाम हुसैन अ0 के पैग़ाम, उनकी तालीम और मक़सद को समझे और उनके नक़्शे क़दम पर चलकर अपनी इस्लाह करे।

 

के-सी-जान

(अमेरीकी इतिहासकार)

इमाम हुसैन अ0 को क़ुदरत ने इतना बेपनाह सब्र अता कर दिया था कि उनके इस्तेक़लाल की मिसाल किसी दूसरे इन्सान में नहीं मिल सकती। आपका अज़्म व इरादा पहाङ की तरह मज़बूत था और आप जो कुछ कहते थे वह करके दिखाते थे और जो कुछ करते थे उसे पाऐ तकमील तक पहुँचाते थे। आपकी पामरदी बहादुरी रहती दुनिया तक तारीख़ में सुनहरे हरफ़ों से तहरीर होगी मगर आपकी तकालीफ़ व मुश्किलात मसाएब व आलाम ख़ून से लिखे जायेंगे।

 

 

के-एल-रलियाराम

(हिन्दुस्तानी ईसाई रहनुमा)

उस शख़्स की ज़िन्दगी के बारे में, मैं क्या कहुँ जो रूऐ ज़मीन पर हक़ व सदाक़त का अलम बुलन्द करने वाला पहला फ़र्द है। इमाम हुसैन अ0 की शहादत का वाक़ेआ किसी एक क़ौम से मुताल्लिक़ नहीं है। इमाम अ0 अपनी बुलन्द सीरत का इज़हार फ़रमाकर आने वाली क़ौमो के सामनें साबित व इस्तेक़लाल,. सब्र व सुकून और हक़ पसन्दी का एक कामिल नमूना रख गये हैं ताकि आने वाने लोग उनकी क़ुर्बानी को सामने रख कर ज़ालिमों और जफ़ाकारों के सामने सरे तस्लीम ख़म न करें। करबला के मैंदान में इमाम हुसैन अ0 की सीरत के वो-वो जौहर खुले हैं जिन पर ग़ौर करके इन्सान अंगुशबदंदां रह जाता है। इस चौहदवीं सदी में जबकि दुनिया इन्सानियत और सदाक़त से सैकङों कोस दूर हट गई है, आपकी बुलन्द सीरत क़ौमों के लिये मिसअले हिदायत का काम दे सकती है। इमाम अ0 ने चूंकि हक़ व सदाक़त के एक आफ़ाक़ी उसूल के लिये जान दी इस लिये हर क़ौम व मज़हब के लोग आपकी मज़लूमियत और फ़िदाकारी पर आँसू बहाते हैं। दुनिया से सैकङों सल्तनतें मिट गयी, हज़ारों बङे बङे इन्सान पैवंदे ज़मीन हो गये कि आज कोई उनका नाम भी नहीं लेता। लेकिन इमाम हुसैन अ0 ने अपनी क़ुर्बानी से तारीख़ पर ऐसा नक़्श छोङा जो अपनी पाएदारी से जरीदाऐ आलम पर हमेशा के लिये सबत हो गया है। दुनिया बदल जायेगी, इल्म ज़ाहिर के आबो रंग में तग़य्युर आ जायेगा लेकिन ज़ालिम व मज़लूम बाक़ी रहेंगे और जहाँ भी हक़ व सदाक़त जब्र और ज़ुल्म के बरसरे पैकार होगी वहाँ हुसैन अ0 और यज़ीद को याद किया जायेगा। हर दौर में यज़ीद पैदा होते रहेंगे लेकिन इमाम हुसैन अ0 जैसा सदाक़त पसन्द, बुलन्द सीरत इन्सान अब पैदा न होगा। इमाम हुसैन अ0 के उसूल की हमागीरी एक ऐसा वाक़ेआ है जिस पर तमाम क़ौमो के इत्तेहाद की बुनियाद रखी जा सकती है।

(मुल्तान में एक जलसे के ख़ेताब का ऐख़तेबास)

 

 

डब्लू-डच-बरन

(सद्र इंडियन इंस्टीटयूट आफ़ आरकीटेक्टस)

 

उन लोगों के साथ शमूलियत मेरे लिये बाएसे फ़ख़्र व इंबेसात है जो इमाम हुसैन अ0 डे की सूरत में दुनिया के अज़ीम तरीन हीरो और सदाक़त के अलमबरदार शहीद की तेरह सौ साला याद मना रहे हैं। दुनिया रफ़्ता-रफ़्ता उन अक़दार का इरफ़ान हासिल करेगी जो बेलौस क़ुर्बानी और सच्चाई के उसूलों को बुलन्द रखते हुए हज़रत इमाम हुसैन अ0 के जान देने में मुज़मर है। वक़्त के साथ दुनिया वालों को इमाम हुसैन अ0 की मारेफ़त का शऊर हासिल होता रहेगा और इन्सानियत की बक़ा के लिये उनकी क़ुर्बानी की अहमियत रोज़ बरोज़ बढ़ती चली जायेगी।

 

रिवर एंड फ़ादर पेले

(प्रिंस्पल ज़ेवियर कालेज बम्बई)

अज़ीम लोगों के अज़ीम कारनामें हम सब को अपनी ज़िन्दगी बेहतर से बेहतर और ज़्यादा बामक़सद तरीक़े से गुज़ारने पर माएल करते हैं। उन शहीदों की सीरत की मिसालें जिन्होंने सच्चाई के रास्ते में अपनी जानें क़ुर्बान कर दी इस लिये पेश की जाती हैं ताकि दुनिया के लोग बेहतर और बामक़सद ज़िन्दगी गुज़ारने का तरीक़ा सीख लें। हज़रत इमाम हुसैन अ0 बिला शक व शुब्हा तारीख़े आलम में अपनी क़ुर्बानी के ज़रीऐ वह मुक़ाम हासिल कर चुके हैं जहाँ उनके नक़्शे क़दम पर चलने वाले बातिल के मुक़ाबले में हक़ की दायमी फतह की ज़मानत बन सकते हैं।

 

 

 

 

जी-बी- एडवर्ड

तारीख़े इस्लाम में एक बाकमाल हीरो का नाम आता है जिसको हुसैन अ0 कहा जाता है। यह मोहम्मद स00 का नवासा, अली और फ़ातमां स00 का बेटा हुसैन अ0 लातादाद सिफ़ात और औसाफ़ का मालिक है जिसके अज़ीम व आला किरदार ने इस्लाम को ज़िन्दा किया और दीने ख़ुदा में नई रूह डाली। हक़ तो यह है कि अगर इस्लाम का यह बहादुर मैदाने करबला में अपनी शुजाअत के जौहर न दिखाता और एक पलीद व लईन की हुक्मरान की इताअत क़बूल कर लेता तो आज मौहम्मद स00 के दीन का नक़्शा कुछ और ही नज़र आता, न तो क़ुर्आन होता न ईमान, न रहम व इंसाफ़, न करम न वफ़ा बल्कि यूँ कहना चाहिये कि इन्सानियत का निशान तक ना दिखाई देता। हर जगह वहशत व बरबरीयत व दरिंदगी नज़र आती।

(इख़तेबास अज़ हिस्ट्री आफ़ इस्लाम)

 

एफ़-सी- बेन्जामिन

(बरतानवी ईसाई मोअर्रिख़ व मुसन्निफ़)

इस्लाम के जांबाज़ हीरो और मोहम्मदे अरबी के महबूब तरीन नवासे इमाम हुसैन इब्ने अली अ0 के नामे पाक में इतना तक़द्दुस है कि उनका इस्मे मुबारक सुन कर मुख़ालेफ़ीने इस्लाम के सर एक दफ़ा तो ज़रूर ख़म हो जाते है और ये शहीदे आज़म हुसैन अ0 का एक ऐसा एजाज़ है जिससे किसी को इन्कार की मजाल नहीं।

 

 

एस गिलबर्ट

पैग़म्बरे अरबी हज़रत मौहम्मद स00 के लाडले नवासे और ख़लीफ़ा-ए-बरहक़ जनाबे अली अ0 के साहबज़ादे हुसैन अ0 को करबला के जंगल में जिस बेदर्दी से मारा गया, इनके अज़ीज़ों, इनके बेटों और इनके साथियों को जिस बेरहमी से ज़ुल्म व जफ़ा की कुन्द छुरी से ज़िब्हा किया गया वो इस्लामी तारीख़ का इतना बङा स्याह दाग़ है जो क़यामत तक नहीं मिट सकता। किस क़द्र अफ़सोस का मक़ाम है वो हुसैन अ0 जिसके नाज़ रसूल स00 ने उठाये और जिसको जन्नत की बादशाहत सौंपी गई, उसको काफ़िरों और मुशरिक़ो ने नहीं बल्कि कलमा गो मुसलमानों ने तहे तेग़ करके उसका सर नैज़े पर चढ़ाया। यज़ीदियों के ज़ुल्मों सितम कि ऐसी मिसाल तारीख़े आलम में बहुत कम मिलेगी।

 

 

 

प्रोफ़ेसर ब्राऊन

(मुसन्निफ़ तारीख़े अदबियाते ईरान)

इमाम हुसैन अ0 का क़त्ल, मदीने की ताराजी और मक्के का मुहासिरा, इन तीन तारीख़ी चीरा दस्तीयों में से पहली चीरादस्ती ऐसी थी जिसने तमाम दुनिया को लरज़ा बरअंदाम कर दिया और कोई भी शख़्स जिसके सीने में जज़्बात हैं उस दर्दनांक कहानी को सुन कर बेचैन हुए बग़ैर न रह सकेगा।

 

 

प्रोफ़ेसर एन-व्हाईट

(जर्मन मोअर्रिख़)

इमाम हुसैन अ0 की शहादत न मिटने वाला लाफ़ानी कमाल है और इतनी तारीफ़ के लायक़ है कि ख़ुदा के फ़रिश्ते भी उनकी सताइश नहीं कर सकते। ख़ुदा ने अपने कलाम में जा ब जा आपकी मदद की है।

(पावर आफ़ इस्लाम)

 

 

परसी साटिक्स

(मुसन्निफ़ तारीख़-ए-परेशिया)

माहे मोहर्रम 61 हि0 की दसवीं को इमाम हुसैन अ0 की मुख़्तसर जमाअत मरते दम तक जंग करने पर आमादा रही। उनकी बहादुरी के मुक़ाबले पर कोई बहादुर नज़र में नहीं समाता।

 

 

नतशे

(मशहूर जर्मन फलसफ़ी)

तख़लीख़ की मेराज ज़ोहद व तक़वे की बुज़ुर्गी में हैं पर शुजाअत तख़लीख़ का ताज है। ज़ोहद, तक़वा और शुजाअत का संगम ख़ाकी इन्सान के उरूज की इंतेहा है जिसका ज़वाल कभी नहीं आयेगा। उस कसौटी पर परखा जाये तो इमामे आली मक़ाम ने बा मक़सद और अज़ीमुश्शान क़ुर्बानी देकर ऐसी मिसाल पेश की जो दुनिया की क़ौमो के लिये हमेशा रहनुमा रहेगी।

 

 

वाल्टर फ्रिंन्ज

करबला वाले हुसैन अ0 के सिवा तारीख़ में ऐसी कोई भी हस्ती नज़र नहीं आती जिसने बनीनवे इन्सान पर ऐसे माफ़ौक़ल फितरत असारात छोङे हो। ज़गो में फ़तह हासिल करने का तरीक़ा जो इमामे आली मक़ाम ने कायनात के मज़लूमों को सिखाया है कि ख़ुदा पर कामिल यक़ीन रक्खो, हक़ की ख़ातिर बातिल से टकराने के लिये सीसा पिलाई हुई दीवार बन जाओ तो फ़तह तुम्हारे साथ है। आने वाने दिन तुम्हारे इस अमल को ज़मीन से निकलने वाले कभी न ख़त्म होने वाले ख़ज़ाने की मानिन्द देखते रहेंगे।

 

 

प्रिंसपल सीन

वाक़ेआए करबला में इन्सानी तारीख़ पर नाक़ाबिले महो आसार छोङे हैं। इस्लाम में सेहत बख़्श इस्लाहात और पाकीज़ा तरीक़ए हयात इससे आये है और अइम्म-ए-अहलेबैत अ00 ने सक़ाफ़ते इस्लामियां को बनाने में क़ुर्बानी दी है और इस के ज़रिये से मशरिक़ व मग़रिब की तहज़ीब पर ताक़तवर आसार डाले हैं।

 

 

मारकोटस

(मशहूर युरोपी मुसन्निफ़)

वो इमाम बनकर आया। वह इसकी सवारी कर रहा था जो रिसालत ज़ेबे सर करके तशरीफ़ लाया और रिसालत यह कह रही है "मै हुसैन से हूँ और हुसैन मुझसे है"। हुसैन जन्नत के सरदार हैं और जन्नत में सिर्फ़ वही शख़्स दाखिल होगा जो हुसैन अ0 का आशिक़ और मुहिब होगा। बहरक़ैफ़ ईसाई होने के बावजूद हमें यह मानना पङेगा कि जिस इमामत से इश्क़ किये बग़ैर कोई मुसलमान जन्नत में दाख़िल नहीं हो सकता वो अपने मरतबे की फ़ज़ीलत के बारे में कुछ ऐसे राज़ अपने अन्दर रखती है जिनको रिसालत ही ख़ूब समझ सकती है।

 

 

डाक्टर मुरकुस

(मशहूर मुसन्निफ़ व मोअर्रिख़)

मुसलमानों को इमाम हुसैन अ0 और उनकी तालीमात की पूरी पैरवी करनी चाहिये और उनके मिशन को ज़िन्दा रखना चाहिये। हुसैन अ0 की यादगार जिस क़द्र ऐहतेमाम और कररो फ़र से मनाई जाये कम है। यह वह हुसैन अ0 है जिसने दीने ख़ुदा को अ-बदी ज़िन्दगी बख़्शी। ये वह हुसैन अ0 है जिसने हर मज़हब व मिल्लत पर अज़ीम एहसान किया। ये वह हुसैन अ0 है जिसने इन्सानियत को हैवानियत में तब्दील होने से बचा लिया। इस लिये एहले इस्लाम का फ़र्ज़ है कि बिला इम्तियाज़ गरोह व फ़िरक़ा हुसैन अ0 के नाम को अबद तक ज़िन्दा रक्खें। और यह बात कभी न भूलें कि जो क़ौम अपने पेशवा और रहनुमा के नाम और काम को ज़िन्दा नहीं रखती वो एक दिन दुनिया से मिट जाती है।

 

 

आर-जे-विल्सन

(मशहूर युरोपी दानिशवर)

मैं इस्लाम की अज़ीमतरीन शख़सीयत हुसैन इब्ने अली अ0 का इसी तरह एहतेराम करता हूँ जिस तरह मसीह इब्ने मरियम का। हुसैन अ0 ने करबला के तपते हुए रेगज़ार में जिस शुजाअत व बसालत का इज़हार किया उसकी नज़ीर मशहीर शुजाआने आलम में तो दरकिनार अंबिया व मुरसलीन की पाकीज़ा ज़िन्दगियों में भी नहीं मिलती। मैदाने नैनवा में उन्होंने ख़ुदादाद क़ूवत व बहादुरी का जो लोहा मनवाया है उसकी मिसाल दुनिया कभी न उससे पेशतर देखी और न कभी सुनी। इससे साफ़ मालूर होता है कि हुसैन अ0 में एक ऐसा जौहर था जो ख़ुदा तआला के सिवा कोई किसी को अता नहीं कर सकता और आपके किरदार से साफ़ वाज़ेह होता है कि आपकी तख़लीक़ उसी नूरे ख़ुदा वन्दी से हुई थी जिस नूर से मोहम्मद स0 और अली अ0 को ख़ल्क़ फ़रमाया गया था और इसलिये मोहम्मद रसूल अल्लाह स00 ने आपकी शान में फ़रमाया कि "हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ"।

 

 

यान-बेची-हान

दुनिया के बेशुमार मशहूर पहलवानों, ताक़तवरों और बहादुरों की शुजाअत व जवांमर्दी के क़िस्से अहले आलम की नोके ज़बान पर हैं। लेकिन सातवीं सदी में एहले अरब में एक ऐसा बहाहुर हीरो भी गुज़रा है जिसके शुजाआना कारनामों ने जरी से जरी और दिलावर से दिलावर इन्सानो को भी हैरत से उँगलियाँ चबाने पर मजबूर कर दिया। इस जुर्अत मन्द  दिलावर का नामेनामी हुसैन इब्ने अली अ0 है। हक़ीकत यह है कि अरब के इस हीरो ने घर बार लुटा दिया, अपने बच्चे अज़ीज़ व अक़ारिब ज़िब्हा करवा डाले और अपना सर भी कट वा दिया लेकिन न तो शैतान की इताअत क़ुबूल की और न अपने दीन पर आँच आने दी।

 

 

वान क्रोहा

दर ह़कीक़त हुसैन अ0 के क़ूवते बाज़ू में ख़ुदा की क़ूवत काम कर रही थीं इस लिये की वो ख़ुदा का था और ख़ुदा उसका था। उसने करबला में जान देकर अपने दीन ही की हिफ़ाज़त नहीं की बल्कि इन्सानियत की हिफ़ाज़त की, ख़ुदा की बेइन्तेहा रहमतें नाज़िल हों उस शुजा इन्सान पर जिसने इन्सानियत के मरतबे को फ़र्श से उठा कर अर्श तक पहुँचा दिया और ज़ुल्म व सितम को हमेंशा के लिये ख़त्म कर दिया।

 

 

एफ़-सी-ओडोनिल

अगरचे यह कहा जाता है कि वो अपने मक़सद की हिफ़ाज़त के लिये ख़ुदा-ए-ताअला के रास्ते में क़ुर्बान हो गये। यह ठीक है कि उन्होंने अल्लाह के दीन को बचाते हुए सर धङ की बाज़ी लगा दी और ऐसी फ़िदाकारी दिख़ाई जिसका नमूना दुनिया की किसी तारीख़ में नहीं मिलता। अगर आप मज़हब और इन्सानियत को महफ़ूज़ रखने और सरबुलन्द करने के लिये जान न देते तो आज न तो कहीं दीने हक़ का निशान नज़र आता न कहीं इन्सानियत का सुराग़ मिलता।

 

 

कर्नल हैरीसन

क्या दुनिया में कोई ऐसी हस्ती भी गुज़री है जो हक़ व सदाक़त की हिमायत में अपने मुटठी भर साथियों को लेकर हज़ारों बातिल परस्तों के मुक़ाबले में निकल ख़ङी हुयी हो और इसी ने अपने ने अपने दीन की नामूस बचाने के लिये हर चीज़ क़ुर्बान कर दी हो। यक़ीनन दुनिया ऐसी मिसाल पेश करने से आजिज़ व क़ासिर है। ये बुज़ुर्ग हस्ती हुसैन इब्ने अली अ0 की है जिसने अपना सब कुछ लुटा कर, अपने बच्चे कटवा कर और अपना सर देकर अपने नाना का और अपने दीन का नाम अर्श पर उछाला।

 

 

 

कोशां फ़ोहू

ये अज़ीम तरीन इन्सान है "उसका किरदार मुहरयरूल उकूल है" उसकी सीरत लासानी है। वो नैनवा का शहीद है, वो करबला का मज़लूम है, उसकी दास्ताने मज़लूमियत सुनी नहीं जा सकती। वो भूका प्यासा मारा गया, उसने दुनिया वालों को दिखाया की तसलीम व रज़ा इसका नाम है, ईसार व क़ुर्बानी इसे कहते हैं। तमाम आलमे कौनो मकां का यह इमाम अपने अन्दर बेपनाह ख़ुदाई क़ुव्वत रखता है। यही वजह है कि आज हुसैन इब्ने अली अ0 का नाम सारी दुनिया के लोग अदब व ऐहतेराम से लेते हैं और उसका इस्मेगिरामी सुन कर ताज़ीम से सर झ़ुका देते हैं।

 

 


हिन्दु दरबारे हुसैनी में


पंडित जवाहर लाल नेहरू

तारीख़ का एक सबक़ आमोज़ वाक़ेआ वो अज़ीम व जावेदानी असर है जो करबला के ग़म अंगेज़ सानिहे से दुनियाऐ इस्लाम पर मुरत्तब हुआ। ताज्जुब ख़ेज़ अम्र यह है कि उन तवील ईसाईयों में करोंङो नफ़ूस पर ये अज़ीमुश्शान असर जारी रहा और लातादाद अफ़राद की हमदर्दियां हासिल करता रहा। लेकिन फिर भी यह यह अम्र ताज्जुब ख़ेज़ नहीं है, इसलिये की किसी ख़ास मक़सद के लिये क़ुर्बानी नवे इन्सान पर हमेशा असर अंदाज़ होती रही है।

क़ुर्बानी जिस क़द्र पुरख़ुलूस और जिसका मक़सद जितना आला होगा उतना ही उसकी सदाऐ बाज़गश्त ज़माने के गुंबद में गूंजती चली जाएगी और मर्दों औरतों की ज़िन्दगियों पर उसका असर होता रहेगा।

यह लाज़मी अम्र है कि एक ग़मअंगेज़ वाक़ेआ हमारे जज़्बाते ग़म को उभारे ताकि हम उस जज़्बाऐ ग़म मे एक जज़्बाऐ कामरानी भी नमुदार है। यानि इंतेहाई मुख़ालिफ़ माहौल में इन्सानी क़ूवते इरादी की फ़तह और यूँ शिकस्तो ग़म से फ़तह मन्दी और मसर्रत पैदा होती है। इसलिये यह बहुत अच्छा है कि हम इसे याद रक्ख़े और इससे हिदायत व सबक़ हासिल करते रहें। (सरफ़राज़ लखनऊ)

 

 

महात्मा गांधी

(1)    मैने करबला की अलमनांक दास्तान उस वक़्त पढ़ी जबकि मैं नौजवान ही था। उसने मुझे दमबख़ुद और महसूर कर दिया। (पैग़ामे इस्लाम)

(2)    मैं अहले हिन्द के सामने कोई नई बात पेश नहीं करता। मैंने करबला के हीरो की ज़िन्दगी का बखूबी मुतालेआ किया है और उससे मुझे यक़ीन हो गया है कि हिन्दोस्तान की अगर नजात हो सकती है तो हमको हुसैनी उसूलों पर अमल करना चाहिये। (हुसैनी दुनिया)

(3)    बहैसियत शहीद के इमाम हुसैन अ0 की मुक़द्दस क़ुर्बानी मेंरे में सना व सिफ़त का लाजवाब जज़्बा पैदा करती है। क्योंकि उन्होंने तशनगी की अज़ीयत और मौत को अपने लिये और अपने बच्चों और तमाम ख़ानदान के लिये गवारा कर लिया लेकिन ज़ालेमाना क़ुवतों के सामने सर नहीं झुकाया। मेरा अक़ीदा ये है कि इस्लाम की तरक़्क़ी उसके मानने वालों की तलवारों की रहीने मिन्नत नहीं  है बल्कि उसके अपने औलियाऐ कराम की क़ुर्बानीयों का नतीजा है। (रज़ाकार लाहौर)

 

 

डा0 राजेन्द्र प्रसाद

करबला का वाक़ेआ-ए-शहादत इन्सानी तारीख़ का वह वाक़ेआ है जिसे कभी फ़रामोश नहीं किया जा सकता और जो दुनिया के करोङो मर्दों और औरतों की ज़िन्दगी पर असर डालता है और डालता रहेगा। हिन्दुस्तान में इस वाक़ेए की याद बङी संजीदगी से मनाई जाती है जिसमें न सिर्फ़ मुसलमान हिस्सा लेते है बल्कि ग़ैर मुस्लिम अफ़राद भी मिसावियाना दिलचस्पी का इज़्हार करते हैं। उन शौहदा की ज़िन्दगियाँ ऐसे ज़माने में जब कि हम इस मुल्क में जंगे आज़ादी में मसरूफ़ हैं और क़ौम व वतन की ख़ातिर क़ुर्बानियाँ पेश करते हैं हमारे लिये मिनार-ए-रौशनी की हैसियत रखते है। (शिया लाहौर)

 

 

सर राधा कृशनन

इमाम हुसैन अ0 ने अपनी क़ुर्बानीयों और ईसार से दुनिया पर साबित कर दिया है कि दुनिया में हक़ व सदाक़त को ज़िन्दा और पाइन्दा रखने के लिये हथियारों और फ़ौजों की बजाये जानों की क़ुर्बानी पेश करके कामयाबी हासिल हो सकती है। उन्होंने दुनिया के सामने एक बेमिसाल नज़ीर पेश की है।

आज हम उस बहादुर फ़िदाई और इन्सानयत को ज़िन्दा रखने वाले अज़ीमुश्शान इन्सान की याद मनाते हुए अपने दिलों में फ़ख़्र व मुबाहात का जज़्बा महसूस करते हैं।

इमाम हुसैन अ0 ने हमें बता दिया कि हक़ व सदाक़त के लिये अपना सब कुछ क़ुर्बान किया जा सकता है। (पयामें इस्लाम)

 

 

मिस्टर गोखले

(साबिक़ सद्र इंडियन नेशनल कांग्रेस)

अगर इमाम हुसैन अ0 की अपनी शहादत से इस्लाम के उसूल को अज़सरेनौं ज़िन्दा न करते तो इस्लाम मिट जाता और अगर इस्लाम का वजूद होता भी तो बे उसूल मज़हब की हैसियत से, जिसके अन्दर बङी आसानी से वो बुराईयां फैल जातीं जिनका रिवाज यज़ीद और उस ज़माने के मुसलमानों की रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में हो गया था। (हुसैनी दुनिया)

 

 

पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त

(साबिक़ वज़ीरे दाख़ेला हिन्दुस्तान)

इमाम हुसैन अ0 की ज़ात इस ज़ुल्मत और तारीकी में एक मनाराऐ नूर की हैसियत रखती है। उनकी शहादत इन्सानियत को दरसे बसीरत देती रहेगी और उसको वहशीयाना क़ुवत और बहीमियत के मुक़ाबले में सिबाते क़दम अता फ़रमाएगी।

जब भी इन्सान के लिये उन लाफ़ानी ख़ूबियों के तहफ़्फ़ुज़ का मौक़ा आयेगा जो इन्सानी तवद्दुन का जुज़वे ला यनफिक़ है। उस वक़्त यही शहादत उचे टिडडी दल दुशवारियों का मुक़ाबला करने की ताब व ताक़त देगी।

(पैग़ामे इस्लाम)

 

बाबू पुरषोत्तम दास टण्डन

(साबिक़ स्पीकर यूपी ऐसेम्बली)

शहादते इमाम हुसैन अ0 हमेशा मेरे लिये एक अलमया-ए-कशिश रखती है। उस ज़माने में भी जब कि मैं कमसिन बच्चा था मैं उस अज़ीम वाक़ेऐ की याद मनाने की अहमियत को समझता था। इतनी बुलन्द क़ुर्बानी ने जैसे कि इमाम हुसैन अ0 ने पेश की है इन्सानियत को हद दर्जा बुलन्द कर दिया है। उनकी याद मनाने और क़ायम रखने के क़ाबिल है। (हुसैन अ0 डे रिपोर्ट लखनऊ)

 

 

 

बी जी खैरो

(साबिक़ वज़ीरे आला सूबा-ए-बम्बई)

इमाम हुसैन अ0 ने जो सबक़ सिखाया है वो हमारी ज़िन्दगी के लिये चिराग़े राह है।

ये तो आसान है कि हक़ और सच्चाई के लिये अपनी जान दे दी जाये मगर ये मुश्किल है कि हज़ारो दुशमनों के मुक़ाबले चन्द गिने चुने साथियों और रिश्तेदारों को लेकर उनका मुक़ाबला किया जाये और यके बाद दीगरे अपनी आँख के सामने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को क़त्ल होता हुआ देखा जाये।

जो सबक़ हुसैन अ0 ने तेरह सौ बरस पहले सिखाया था वह सबक़ आज तक हम सिखने की कोशिश कर रहे हैं। हिन्दुओं का कोई बङा पंडित या आलम उस वक़्त तक हक़ीक़ी मानों में आलम या पंडित नहीं हो सकता जब तक कि वह हुसैन अ0 के उस पैग़ाम और उसूल को न जानें।

इमाम हुसैन अ0 सिर्फ मुसलमानों ही के नहीं बल्कि हिन्दुओं के भी हैं और हिन्दु और मुसलमान उनके नक़्शे क़दम पर चल कर ज़ुल्म व सितम के ख़िलाफ़ सीना सिपर हो सकते हैं। (शिया लाहौर)

 

 

डाक्टर रवीन्द्र नाथ टैगौर

हुसैन अ0 ने क्या सिखाया ?

ये माददी दुनिया जिसमें हम रहते हैं, उस वक़्त अपना तवाज़ुन खो देती है जब उसका रिश्ता मोहब्बत की दुनियां से ख़त्म हो जाता है। ऐसी हालत में हमें निहायत अरज़ां और फ़रोमाया चीज़ों की क़ीमत अपनी रूह से अदा करनी पङती है। सिर्फ उस वक़्त हो सकता है जब माददीयत की मुक़य्यद करने वाली दीवारें हयात की आख़री मंज़िल होने की धमकी देती है।

जब यह होता है तो बङे बङे तनाज़ेअ, हासिदाना फ़ितने और मज़ालिम अपने लिये जगह और मौका तलाश करने के लिये उठ खङे होते हैं हमें उस ख़राबी की दिल गुदाज़ ख़बर मिलती है और हम सदाक़त के महदूद दायरे के अन्दर ही तवाज़ुन क़ायम रखने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं। इसमें हमें नाकामियां होती हैं, उस मौक़े पर सिर्फ़ वही हमारी मदद करता है जो अपनी हयाते नफ़सानी से ये साबित कर दिखलाता है कि हम रूह भी रखते हैं। वो जिसका मसकन मोहब्बत की बादशाहत में है। और फिर जब हम रूहानी आज़ादी हासिल करते हैं तो माददी अशया की मसनवी क़ूव्वतों का ज़ोर हमारी निगाहों में ख़त्म हो जाता है। (मून लाईट लखनऊ)

 

 

 

प्रोफ़ेसर रघुपति सहाय

(फ़िराक़ गोरखपुरी)

सय्यदना इमाम हुसैन अ0 की बुलन्द और पाकीज़ा सीरत महसूस किये जाने की चीज़ है। ऐसे अल्फ़ाज़ का पाना आसान नहीं जो उनके किरदार की अज़मत के मुकम्मल मज़हर हों।

यूँ तो उनकी सीरत, रूहानियत और आँसूओं की सब से ज़्यादा ताबनांक रौशनी करबला के अन्दर चमकती दिखाई देती है लेकिन जो लोग हुसैन अ0 के वाक़ेआऐ करबला से पहले की ज़िन्दगी से वाक़िफ़ हैं उनके लिये उस ज़िन्दगी की बेदाग़ और उस्तवार पाकीज़गी उसकी तशनगी, उसका ख़ुलूस और वक़ार, सदाक़त की चट्टान और सख़्त इम्तेहान के मुक़ाबले की ताक़त। ये बातें इतनीं नुमायां है कि बिला जेहाज़ मज़हबो मिल्लत हर फ़र्द ख़िराजे अक़ीदत पेश करता है।

क्या सिर्फ़ मुसलमान के प्यारे हैं हुसैन

चर्ख़े नौए बशर के तारे हैं हुसैन

इन्सान को बेदार तो हो लेने दो

हर क़ौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन

मुझ जैसे गुनाहगार इन्सान के लिये हुसैन अ0 के एख़लाक़ी कमालात की सही क़द्रो क़ीमत का अंदाज़ा लगाना ग़ालेबन अपनी क़ाबिलियत से बढ़ कर जुर्अत आज़माई के मुतरादिफ़ होगा। हुसैन अ0 दुनिया के बङे से बङे ख़ुदा रसीदा ऋषियों और शहीदों के हम पल्ला हैं। (सरफ़राज़ लखनऊ)

 

 

पंडित गोपीनाथ अमन देहलवी

इमाम हुसैन अ0 ने जो बात कही, सीधी साधी और सच्ची कही, उन्होंने चालबाज़ियों से काम न लिया। आख़िर हुसैन अ0 और उनके साथी शहीद हो गये। ये सवाल पैदा होता है कि शिकस्त किसकी हुयी? इसे दो फ़िक़्रो में कहा जा सकता है कि हुसैन अ0 के जिस्म की और यज़ीद के इरादों की। ज़ाहिर बीन उसे हुसैन अ0 की शिकस्त कहें तो हक़ बीन उसे हुसैन अ0 की फ़तह कहेगी।

हुसैन इब्ने अली अ0 को सलाम जो मुदबिर और हक़ परस्त था।

हुसैन इब्ने अली अ0 को सलाम जो दिलेर होकर मुनकसिरूल-मिजाज़ था।

हुसैन इब्ने अली अ0 को सलाम जिसने इस्लाम को दाख़ली ख़तरों से बचा लिया।

हुसैन इब्ने अली अ0 को सलाम जिसने अपनी जान देकर इन्सानियत का पैग़ाम दुनिया को दिया।

पंडित अमरनाथ जी

(साबिक़ वाईस चांसलर इलाहबाद यूनिवर्सिटी)

तारीख़े इन्सानी के ग़मनांक वाक़ेआत में कोई भी वाक़ेआ इतना दिल ख़राश न होगा जितना करबला के मैदान में जंगे हुसैन अ0 का ख़ात्मा है। वो ऐन सजदे में क़त्ल किये गये और शहादत का दर्जा हासिल कर गये। हमारे नज़दीक क़दीम सुरमाओं के कारनामों को नज़र में रखना बहुत बेहतर है कि वह लोग क्या थे और क्या कर गये।

उनकी कामयाबियाँ रूह की पुरइस्तेख़लाल फतह का बायस है जिनके लिये उन्हें सख़्त इम्तेहान से गुज़रना पङता है। (मून लाईट लखनऊ)

 

मिस्टर नारायन गर्टू

(वाइस चांसलर बनारस यूनिवर्सिटी)

आज की परेशान दुनिया में ज़रूरत है कि हज़रत इमाम हुसैन अ0 की बेमिसाल क़ुर्बानी और ईसार की याद धूम से मनाई जाया करे।

इमाम हुसैन अ0 ने एक बलन्द मक़सद के लिये मौत क़बूल की और ख़ुद को इस्लाम के एक ख़िदमत गुज़ार रखवाले की हैसियत से तारीख़ के सफ़हात में ज़िन्दाए जावेद कर लिया। (हुसैन अ0 डे रिपोर्ट)

 

डा0 जवाहर लाल रोहतगी एम-एल-ए

इमाम हुसैन अ0 जैसे बहादुर किसी ख़ास मुल्क और मज़हब के हीरो नहीं समझे जा सकते।

मैदाने करबला में हुसैन अ0 और उनके रोफ़क़ा की क़ुर्बानियाँ और वह बुलन्द मकासिद जिनके लिये उन्होंने अपनी जाने दीं मौजूदा ज़माने की मुबाररज तलब सब क़ौमो के लिये आँखें खोलने वाले हैं।

मुझे उम्मीद है कि हमारे मुल्क का हर आदमी करबला की तारीख़ के एक एक वरक़ का मुतालेआ करेगा और हुसैन अ0 की क़ुर्बानियों की तक़लीद अपने मुल्क के मफ़ाद के लिये करेगा। (हुसैन अ0 डे रिपोर्ट)

 

 

क़ुंज बिहारी लाल एडवोकेट

(इलाहबाद)

बुलन्द मक़ासिद के लिये जंग करने वाले बुलन्द मरताबत हुसैन अ0 के जज़्बाऐ ईसार व क़ुर्बानी की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। वह पाक इन्सान उन चन्द नुफ़ूस में से था जो हर रोज़ दुनियां को नसीब नहीं होते और जब इस सरज़मीन पर उतरते हैं तो उसे आसमान की तरह बुलन्दी और अज़मत अता कर देते हैं। अपने जायज़ हक़ के लिये लङना और जान दे देना ये अम्र भी कुछ कम दादो तहसीन का मुस्तहक़ नहीं। लेकिन वह इन्सान कितना अज़ीम-उल-मरताबत और क़ाबिले सद तहसीन है जिसने अपने लिये नहीं बल्कि दूसरों के लिये, इस्लाम के लिये और इस्लाम के मुस्तहकम और बुलन्द उसूलों के लिये जंग की और अपनी ही नहीं बल्कि अपने अहलेख़ाना तक की क़ुर्बानी दे दी। वह दुश्मन के मुक़ाबले में कमज़ोर थे, उनकी फ़ौज सिर्फ़ बहत्तर नुफ़ूस पर मुश्तामिल थी वह भी भूके और प्यासे। मगर हुसैन अ0 और उनके साथियों ने जिस इस्तेक़लाल और शुजाअत से जंग लङी उसने साबित कर दिया की उनका मकसद कितना पाकीज़ा, जज़बा कितना नेक और इरादा कितना बुलन्द था।

ऐ ख़ाके करबला तुझ पर ख़ुदा की हज़ार-हज़ार रहमतें हों के तेरे सीने में ख़ुदा की मुक़द्दस अमानत दफ़न है। तेरे ज़र्रों पर मासूम ख़ून के फव्वारे गिरे हैं। (मन्शूर लखनऊ)

 

 

डा0 एस-के-बनर्जी

हुसैन अ0 ने ख़ुद्दारी और न मिटने वाले हक़ के सिलसिले में मक़ावमत करके एक शहीद की मौत मरना और तकलीफ़ उठाना पसन्द किया। दुनिया की तारीख़ के सफ़हात में वह मंज़र सब से ज़्यादा दर्दअंगेज़ है। यह मुक़द्दस हस्ती चटियल और वीरान रेगिस्तान से रवाना हुई और करबला में बहादुराना मुक़ाबला किया। जिसके नतीजे में हुसैन अ0 और उनकी जमाअत के बहादुर अफ़राद को जामे शहादत नोश करना पङा। हसुन अ0 की रूहानी अज़मत का अन्दाज़ा रूह को बेचैन करने वाले उन उसूलों से हो सकता है जिनका मुज़ाहेरा उनके साथियों ने किया, जब नींद, ग़िज़ा और पानी सब के दरवाज़े उन पर मसदूद कर दिये गये थे, उस वक़्त उन्होंने यह ख़्वाब भी न देखा कि वह हुसैन को छोङ कर चले जाऐं, उस वक़्त भी उन्होंने अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ कोई कलमाऐ बद नहीं कहा बल्कि अपने क़ायद के हाथ पर हाथ रख कर उसकी दुआ हासिल करने के मुतमन्बी होकर अपनी जाने दे दीं।

हुसैन अ0 की तालीमात, अमल, पैकार और शहादत ने उन हक़ायक़ और सदाक़ती की तसदीक़ कर दी जिन पर उनके नाना जनाबे रिसालत मआब (स0) ने रौशनी डाली थी।

अपने मक़सद पर मज़बूती से क़ायम रहना, दुनिया के माददी मफ़ाद की परवाह न करना, उनसे क़ताऐ ताल्लुक़ कर लेना और मसाएब में सब्र व इस्तेक़लाल का सबक़ मैदाने करबला में इस तरह दोहराया गया जिस तरह अरब में कभी उसकी तल्क़ीन नहीं की गयी थी। उन्होंने अपने और अपनी औलाद के लिये ग़ैर फ़ानी कामयाबी और लाजवाब शोहरत हासिल कर ली।

करबला के शोहदा की ज़िन्दगी के साथ हुसैन अ0 के बुलन्द नस्बुलऐन का ख़ात्मा नहीं हुआ। ये नस्बुलऐन अक्सर दोहराया गया और दुनिया के हर गोशे में आज भी उसकी याद ताज़ा है। (मुस्लिम रिविव)

 

 

डा0 एस-वी-पशीम-बेकर

(सद्र शोबाए तारीख़ बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी)

हुसैन अ0 तारीख़े आलम में शरीफ़ तरीन सीरत के हामिल हैं। शहादत एक ऐसा तारीख़ी वाक़ेआ है जिसकी अहमियत और अज़मत बढ़ती वली जाती है। इन्सान जिन बङी और अज़ीमुल मरतबत शख़्सीयतों की तारीफ़ करते और उनसे मोहब्बत करते हैं हुसैन अ0 उन पाकीज़ा हस्तियों में से एक हैं। उनमें शरीफ़ ख़्याली, पाकीज़गी, सादगी और ख़ुलूस की सिफ़ात मुजतमअ थी और जो लोग दुनियां में इन्सानी मोहब्बत व इज़्ज़त और अमन व सुकून के ख़्वाहिशमंद हैं उनके लिये ये सिफ़ात एक मुस्तक़िल ज़रीये इन्हाम और हसूले इन्सानियत व रवादारी है और रहेगी। ये तमाम उसूल इमाम हुसैन अ0 की ज़िन्दगी में पाये जाते हैं और इन्ही के लिये उन्होंने शहादत की मौत को अख़्तियार किया।  (मून लाइट लखनऊ)

 

 

डा0 राधा कुमार मुख़र्जी

(अध्यक्ष इसिहास विभाग लखनऊ युनिवर्सिटी)

तारीख़ जिन अज़ीम तरीन किरदारों से वाक़िफ़ है इमाम हुसैन अ0 उनमें से एक हैं। फ़ानी होकर लाफ़ानी तक पहुँच जाना, महदूद होकर लामहदूद को पा लेना यही उनकी ज़िन्दगी थी। वह थे तो एक फ़र्द मगर उन्होंने अपनी हस्ती को वुसअत देकर पूरी कायनात बना दिया। इस तरह वह इन्सनियत की मुजस्सम उम्मीद बन गये। उनकी ज़िन्दगी बताती है कि इन्सान किस तरह देवता हो सकता है। इमाम हुसैन अ0 न किसी अहद के हैं, न किसी मुल्क के। आरज़ी हद बंदियां उनकी अज़मत को महदूद नहीं कर सकती। वह तमाम क़ौमों के हीरों हैं।

ये क्यों?

इसलिये कि वह उस बुलन्द तरीन मेआरे हक़ के लिये उठ ख़ङे हुए जो तमाम नवे इन्सानी के दिल में मुस्तक़िल तौर पर घर किये हुए है। इसी के लिये जियें और इसी के लिये मरें। उनके लिये हक़ या दीन सिर्फ़ किताबों में पढ़ लेने के लिये न था, न इस लिये था कि सिर्फ़ फ़ुर्सत के लम्हों में इतमिनान के साथ उस पर अमल किया जाये।

हक़ तो इसलिये है कि उसे अपनी ज़िन्दगी बना लिया जाये, उसे अपनी रूह में मुस्तक़िल रक्खा जाये। हक़ इमाम हुसैन अ0 के ख़ून में जारी था और उनकी हस्ती का जुज़्वे ला यनफ़िक़ था। हक़ को गोश्त पोस्त वाली ज़िन्दा चीज़ों की तरह माददी तौर पर समझना चाहिये। ये नहीं भूलना चाहिये कि ज़िन्दगी का हर लम्हा हक़ है, उसमें दम भर के लिये भी लग़ज़िश न हो।

इमाम हुसैन अ0 हक़ का ग़ैबी शोला बन कर चमके जिसमें नूर ही नूर था, फैलाव और हरारत थी। उनकी शुजाअत की हरारत ने उनके दुश्मनों को जला- जला कर ख़ाक कर दिया। उनकी बेमिसाल शख़्सियत का ज़ौ-फ़िशाँ नूर आज भी ख़्याल की दुनिया रौशन किये हुए है।

ज़ैल की चन्द एक तफ़सीलात से ज़ाहिर होगा की इमाम हुसैन अ0 क्यों कर अपने तमाम अफ़कार व आमाल में एक एक इन्साने कामिल ठहरते हैं उनके वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत अली अ0 की शहादत उनके हिस्से में आयी थी।

हज़रत अली अ0 ने अपनी ज़िन्दगी उस मक़सद के लिये वक़्फ़ कर दी कि रसूले इस्लाम स00 के उसूलों के मुताबिक़ क़ुर्रए अर्ज़ हक़ व इंसाफ़ की हुकूमत क़ायम कर दें, मगर उनके दुश्मनों की ताक़त बहुत ज़्यादा थी।

रमज़ान 40 हि0 को मस्जिदे कूफ़ा में नमाज़ की हालत में क़ातिल के एक वार नें उन्हें मौत से हमकिनार कर दिया। उन्होंने अपने बेटों को ताक़ीद की थी कि ताग़ूती ताक़त के साथ हक़ की जंग को जारी रक्खें।

तख़्त जो ख़ाली हो गया उसके लिये अहले कूफ़ा की मुत्ताफ़िक़ राय से इमाम हुसैन अ0 का इन्तेख़ाब किया गया मगर अभी उन्हें अपनी फ़ौजों को अज़सरे नौ तरतीब देने का वक़्त भी न मिला था कि दुश्मनों की फ़ौजें उन पर छा गयीं और उन्हें ख़िलाफ़त मुआविया के सिपुर्द करके मदीने में ख़ाना नशीन होना पङा।

मुआविया के बदकार बेटे यज़ीद ने मुआविया के बाद ख़िलाफ़त को ग़स्ब कर लिया। उस शख़्स की  बदअतवारी और मय नोशी पूरे इस्लाम की नफी थी। उसके अहद में हालात तेज़ी से ख़राब होते चले गये। इस्लाम की क़िस्मत में ग़ौर करने के लिये इमाम हुसैन अ0 ही रह गये थे। इस शदीद ग़ौरो फ़िक्र में न उन्हें दिन को चैन था न रात को नींद। आख़िरकार उन्होंने तय कर लिया कि जो भी हो मैं ग़ासिब यज़ीद की फ़ौजो का मुक़ाबला करके हक़ की क़ुर्बान गाह पर अपनी जान की क़ुर्बानी पेश करूगाँ।

अक़ीदे की नाक़ाबिले मुक़ाबला ताक़त ने उकसाया और वह अपने अज़ीज़ो, औरतों और बच्चों की छोटी सी जमाअत को लेकर मदीने से चले, उन्होंने करबला के मैदान में अपने ख़ेमें नस्ब किये और दुश्मन ने दरियाए फ़ुरात से पानी लेने के ज़राऐ मस्दूद कर दिये।

इनफेरादी मुक़ाबले में बनी फ़ात्मा की क़ुवत नाक़ाबिले शिकस्त थी क्योंकि उसमें क़ादिरेमुत्लक़ की दी हुई हरारत शामिल थी। लेकिन दुश्मन के तीर अन्दाज़ों ने एक महफ़ूज़ फ़ासले से एक-एक करके सबको क़त्ल कर डाला यहाँ तक कि रसूले ख़ुदा स0 का नवासा दीन का तन्हा मुहाफ़िज़ रह गया। उन्होंने उनके बेटों और भतीजों को भी उनकी आग़ोश में क़त्ल कर डाला। तब उन्होंने ज़िन्दगी की परवाह किये बग़ैर यज़ीदियों पर हमला करके उन्हें हर तरफ़ से पीछे हटा दिया। लेकिन ज़ख़्मों की कसरत से इमाम हुसैन अ0 ग़श खाकर ज़मीन पर पहुँचे। एक क़ातिल ने उनका सर काट लिया और उनकी लाश को घोङों की टापों से पामाल कर दिया।

उसूलों की पैरवी में ऐसी ज़बरदस्त क़ुर्बानी तारीख़ में अपना जवाब नहीं रखती। इमाम हुसैन अ0 इन्सानियत के एक बहुत बङे हीरो हैं। ज़िनकी याद को हर ज़माने और हर मुल्क में मनाना चाहिये, वह अब भी एक ज़िन्दा ताक़त हैं जिससे मुनासिब मौक़ो पर हमें मदद माँगना चाहिये और जिसकी याद इस तरह मनानी चाहिये जिस तरह फ़ितरत अपने मआरकों की याद मनाती है। ग़ैर फ़ानी अज़मत के एजाज़ में यादगारी तक़रीबों को गर्दिश में रहना चाहिये। सूरज की तरह, चाँद की तरह, मौसमों की तरह। उसी बाक़ायदगी के साथ। उसी तकरार के साथ, यही तरीक़ा है जिससे फ़ानी इन्सान अपने अन्दर ग़ैर फ़ानी जलवा देख सकता है।

(हुसैन अ0 डे रिपोर्ट लखनऊ)

 

प्रोफ़ेसर आत्मा राम एम-ए

(होशियारपूर)

ऐसी फ़िज़ा में जबकि हिन्दू मुस्लिम कशीदगी अपने उरूज पर है, एक ग़ैर मुस्लिम का एक मुस्लिम रहनुमा को ख़ेराजे अक़ीदत पेश करना, बज़ाहिर ताज्जुब ख़ेज़ है और मुमकिन है मेरे हिन्दू भाई मेरे इस फ़ेल को अच्छी नज़र से न देखें मगर उनके पास उसका क्या इलाज है कि हुसैन अ0, जिसे मैं ख़ेराजे अक़ीदत पेश कर रहा हूँ अपनी मुनफ़रिद शख़्सीयत, अपनी उलुलअज़मी, अपने बुलन्द और पाकीज़ा मक़ासिद, अपने किरदार और अपनी हिम्मत व हौंसले की वजह से तारीख़े इस्लाम ही नहीं तारीख़े आलम में बेनज़ीर हैसियत का मालिक है।

दुनिया के बङे-बङे इन्सानों और खास तौर पर शोहदाए आलम की ज़िन्दगियों पर नज़र डालो और बताओ की मक़ासिद की पाकीज़गी, इरादों की बुलन्दी, बे ख़ौफ़ी और मसायब का मर्दानावार मुक़ाबला करने वाला कोई और शहीद नज़र आता है ?

जिन हालात में तकालिफ़ की शिद्दत और तवालत में हुसैम इब्ने अली अ0 ने अपना इम्तेहान दिया और कामयाबी हासिल की, ऐसा सनद याफ़ता कोई और है?

फिर उसमें क्या ताज्जुब है अगर मैं ग़ैर मुस्लिम होते हुए एक मुस्लिम शहीद की बारगाह में नज़रानाऐ अक़ीदत पेश कर रहा हूँ जो दर हक़ीक़त सिर्फ़ मुस्लिम शहीद ही नहीं बल्कि शहीदे  इन्सानियत है।

काश इस बदक़िस्मत मुल्क के हम बदक़िस्मत वासी हिन्दू मुसलमान के बजाऐ इन्सान के नुक़ताऐ निगाह से ग़ौर करना सीखें।

काश हम महदूद मफ़ाद के बजाऐ वसीअ मफ़ाद को पेशे नज़र रक्खें तो हम बिलातफ़रीक़े मज़हबो मिल्लत हुसैन अ0 के सामने सरे नियाज़ झुका देंगे, और इस तरह हक़ीक़ी माअनों में उस अज़ीमुश्शान इन्सान की याद मनायेंगे जो अपनी ज़ात के लिये नहीं बल्कि सारी इन्सानियत के लिये शहीद हो गया। (ज़मींदार लाहौर)

 

 

प्रोफ़ेसर विश्म्भर नाथ सक्सेना एम-ए

(हैदराबाद सिंध)

मोहम्मद स00 और हुसैन अ0 अगर तारीख़े इस्लाम से इन दो नामों के निकाल दीजिये तो कुछ बाक़ी ही नहीं रहता। अव्वल उज़-ज़िक्र ने अमल कर दिखाया। अव्वल उज़ ज़िक्र ने आवाज़ दी और सानीउज़ ज़िक्र ने लब्बैक कहा।

इस्लाम मजमुआ है दो अल्फ़ाज़ इल्म और अमल का। मोहम्मद स00 इल्म थे और हुसैन अ0 अमल, इन दोनों के मजमुऐ से इस्लाम की तारीख़ बनती है अगर हुसैन अ0 अपने ख़ून से मोहम्मद स00 के इल्म को अमल न बनाते तो बाज़ मोतारेज़ीन के नज़दीक दीन का अमली पहलू कमज़ोर रह जाता।

किस क़द्र अज़ीम और मुक़द्दस था वह इन्सान जिसने अपना ख़ून देकर दीन की तकमील कर दी और मोतारेज़ीन को ऐतराज़ का मौक़ा ने देने के लिये अपनी जान देने गवारा कर लिया।

काश मेरे हिन्दू भाई ग़ौर करें और देखे कि वह मज़हब कैसे बातिल हो सकता है जिसके परस्तारों में ये रूह कारफ़र्मा है कि अपनी जान देकर अपने मज़हब की सदाक़त साबित करते हैं और जिसके मामूली पैरो ही नहीं बल्कि उसके अकाबिर, बानी-ए-मज़हब के नवासे और दूसरे रिश्तेदार तक वक़्त आने पर क़ुर्बानी से गुरेज़ नहीं करते। हुसैन अ0 और उनके साथियों ने जो क़ुर्बानियाँ दीं और हौलनांक मसायब उन्होंनें सहे वह तारीख़ में अपनी मिसाल नहीं रख़ते।

उन्होंनें जिस हिम्मत, इस्तेक़लाल और बहादुरी से हक़ के ख़ातिर बातिल से जंग लङी, ये जान लेने के बावजूद की अंजामेकार हम क़त्ल कर दिये जायेंगे, वह इस क़ाबिल है कि सारा आलम उससे सबक़ सीखे और अपनी ज़िन्दगियों को उस साँचे में ढाल दे जिसमें हुसैन अ0 की ज़िन्दगी ढली थी। अगर यूँ हो जाये तो हर तरफ़ आशती का राज हो जाये। (अलअमान देहली)

 

 

प्रोफ़ेसर एस-सी-सेन

वाक़ेआत को मद्दे नज़र रखते हुए कुछ क़ाबिले हैरत नहीं कि ऐसी शहादत जो हुसैन अ0 की ज़िन्दगी का आख़री और मुमताज़ तरीन कारनामा था आलमे इस्लाम में हर साल जोश व मोहब्बत और ग़म व अंदोह का वो बङा ज़बरदस्त तुफ़ान बर्पा कर दे जिसका आलमगीर मुज़ाहेरा मोहर्रम में किया जाता है।

मुबारक है वह क़ौम जिसकी गोद में ऐसा अदीमुल मिसाल हीरो पैदा हुआ और क़ाबिले सदफ़ख़्र हैं वो लोग जो ऐसी ज़ात की क़ुर्बानियों को ज़िन्दा-ए-जावेद बनाने की पुरख़ुलूस कोशिश करें और जिन उसूलों के ख़ातिर ये क़ुर्बानियाँ दी गयीं उनको नमुनाऐ हयात तसव्वुर करते हुये अपनी ज़िन्दगी को अपने मुताबिक़ चलाने की भरपूर ख़्वाहिश रखते हों। (सरफ़राज़ लखनऊ)

 

प्रोफ़ेसर राजकुमार शर्मा

(लुधियाना)

हुसैन अ0 की ज़िन्दगी और मौत दोनों क़ाबिले रश्क और इल्मे इन्सानियत के लिये एक नमूना है। वह ज़िन्दा रहे तो एक पाकबाज़ इन्सान की हैसियत से। अगर वह यज़ीद की बेअत करके उसे अपना ख़लीफ़ा तसलीम कर लेते तो दुनिया की कौन सी नेमत थी जो उनके क़दमों में न डाल दी जाती और वह कौन सा मनसब था जो यज़ीद उन्हें न देता। इस सूरत में वह दुनियावी जहा व सरवत तो हासिल कर लेते लेकिन नेक नामी के साथ हमेंशा की ज़िन्दगी से महरूम रह जाते।

उन्होंने यज़ीद की बैअत न की और दुनियवी जहा व सरवत और आरज़ी इमारत व मनासिब को ठोकर मार दी, क्योंकि ऐसे शख़्स की बैअत उनकी जैसी अज़ीमुलमरताबत हस्ती के शायानेशान न थी। वह इसके ख़िलाफ़ सफ़ आरा हो गये क्योंकि वह उन्हें एक ऐसे काम के लिये मजबूर कर रहा था जो इस्लाम की रूह का ख़ात्मा कर देने वाला था। उन्होंने अपनी रूह का ख़ात्मा गवारा कर लिया मगर अपने मज़हब की रूह का फ़ना होना गवारा न किया जिसका नतीजा यह हुआ कि न इस्लाम फ़ना हुआ और न हुसैन अ0, हुसैन अ0 भी ज़िन्दा रहे और इस्लाम भी। (इत्तेहाद लाहौर)

 

 

प्रोफ़ेसर बी-बी मोज़मदार एम-ए

(अध्यक्ष इतिहास विभाग पटना यूनीवर्सिटी)

इमाम हुसैन अ0 की अहम ज़िन्दगी का अहम सबक़ यह है कि बातिल को बहादुरी के साथ रोकना चाहिये, और जबकि दूसरे लोग ख़ामोशी से यज़ीद के मज़ालिम से इत्तेफ़ाक़ कर रहे थे उस वक़्त इमाम हुसैन अ0 ने उसके ख़िलाफ़ बहादुरी के साथ उठने का इरादा फ़रमाया। आपकी अच्छी तरह अपने क़वी दुश्मन के मुक़ाबले में अपनी ज़ाहरी ताक़त का इल्म था। मगर यह अम्र बनी उमय्या की बदअमली के ख़िलाफ़ ऐहतेजाज में मानेअ न हुआ। आपको ख़तरात का इल्म था मगर आपके लिये नामुमकिन था कि अपनी ज़िन्दगी में दुनयावी आराम की ख़ातिर बातिल से सुलह कर लेते। आपको मौत और अज़ीयतों से ख़ौफ़ न था। अपने और अज़ीज़ो के सख़्त मसायब से आपके इरादे मुताज़लज़िल न हुये क्योंकि आपको इल्म था कि हर चीज़े फ़ानी हैं बाजुज़ "ज़ाते बारी" कि जिसने अपनी क़ुदरते कामला से तमाम चीज़ो को पैदा किया और जिनको वह अपनी ताक़त से फ़ना कर देगा।

मैदाने करबला में उस ज़िन्दगी का आग़ाज़ देखा जो इमाम हुसैन अ0 के लिये ग़ैरफ़ानी है और ज़ुल्म व इस्तेब्दाद पर हक़्क़ानियत की फ़तह है। हर मज़हब में शोहदा मौजूद हैं मगर सिवाए इस्लाम के किसी और मज़हब को इमाम हुसैन अ0 जैसा शहीद मयस्सर न हुआ, जिसकी शहादत बनी नवे इन्सान के लिये दायमी इफ़ादीयत रखती हो। (हुसैन अ0 दी मारटर)

 

 

प्रोफ़ेसर नापटा अमीका एम-ए

(बनारस यूनीवर्सिटी)

उस नाज़ुक मौक़े पर इमाम हुसैन अ0 ने जो हज़रत अली अ0 के दूसरे बेटे थे इस्लाम के मुक़द्दस पैग़ाम और रवायत को अपनी बेनज़ीर शहादत से बचा लिया। करबला में आपकी क़ुर्बानी ने आपकी ज़बरदस्त एख़लाख़ी ताक़त का सबूत दिया और इस्लाम को अस्ल हालत में रख लिया। आप इस्लाम और मक़सदे इस्लाम के लिये खङे हुए थे और मज़हब के आला उसूलों में आप इंसाफ़, मसावत व उख़वत, एख़लाख़ी और रूहानी ज़िन्दगी के मुजस्समें थे।

बुराईयों और हुक्काम के बूरे कामों के ख़िलाफ़ इन्क़ेलाब की रूह लोगों में पैदा हो गई। उसका लाज़मी नतीजा मज़हब व सियासत में इस्लाह व इन्क़ेलाब था। लोगों के ख़्यालात और ख़िदमात फिर एक मरतबा आला मंज़िल पर पहुँच गये जिस्से उनकी ज़िन्दगी में यकगुना तरक़्क़ी हुई। एक हद तक आपकी शहादत उनकी नजात और उनके ज़वाल को रफ़ा करने का बायस हुई। बनी उमय्या के पास आला मक़ासिद और पैग़ाम न था। उनकी ज़ाहरी फ़ुतुहात उनकी फ़ौजी ताक़त और क़ातिलाना तरीक़ो का नतीजा थी। वे औरतों और बच्चो तक का लेहाज़ न करते थे। फ़ात्मा स00 के लाल ने अपनी शहादत से उन बुनाईयों को दूर किया और अपनी बेनज़ीर और आला मिसाल पेश करके इस्लाम की सच्ची तालीमात को बचा लिया। (हुसैनी दुनिया)

 

 

 

पंडित व्यास देव

(एम-ए, एल-एल-बी, पी-एच-डी)

कुछ साल गुज़रे मैंनें एक मातमी जुलूस देखा था। ये मंज़र मेरे लिये बहुत ही दर्दनांक था। मैनें इरादा कर लिया कि मैं इस मसअले का पूरा मुताअलेआ करूगां।

मैनें क़दीम तारीख़ी वाक़ेऐ को ख़ुद पढ़ा और दीगर मज़ाहिब की किताबों में देखा। मेरा ख़्याल है कि अगर एक साहेबे दिल हसद व तास्सुब से दूर होकर और मज़हबी कीना को छोङकर वाक़ेऐ करबला पर ग़ौर करे तो यह कहे बग़ैर नहीं रह सकता कि इमाम हुसैन अ0 की ज़ाते गिरामी की मिसाल किसी दूसरे मज़हबो मिल्लत में नहीं मिल सकती।

सिर्फ़ चन्द घंटो में हुसैन अ0 की बहत्तर क़ुर्बानियां (जिसमें हुसैन अ0 के भाई, भतीजे, लङके और चन्द निहायती पुरख़ुलूस दोस्त शामिल थे।) हमें यह सबक़ सिखाती हैं कि इन्सान को अगर कोई बङी ताक़त जाबेराना और नाजायज़ तरीक़े से दबाना चाहे तो इन्सान चाहे कितना ही कमज़ोर हो उसका मुक़ाबला करे और अपनी इज़्ज़त और हक़ूक़ के लिये फ़ना हो जाऐ। अपने अहलो अयाल को क़ुर्बान कर दे मगर ज़िल्लत से ज़िन्दा रहना गवारा न करे।

इमाम हुसैन अ0 जानते थे कि यज़ीदी फ़ौज के मुक़ाबले में उनकी फ़ौजी क़ुवत कुछ भी नहीं मगर फिर भी उन्होंने इरादा कर लिया था कि वह ज़ुल्म व सितम की बुनियाद को हमेशा के लिये मफक़ूद कर देंगे।

हुसैन अ0 के छ: माह के बच्चे की क़ुर्बानी देना ज़ाहिर करता है कि उनको ममलिकत और जाह व इक़बाल की ख़्वाहिश न थी बल्कि उनका मक़सद बहुत आला व अरफा था और यक़ीनी तौर पर वह अपने मिशन में कामयाब हुए।

मेरा ख़्याल है कि अगर दुनिया के तमाम मज़ाहिब इमाम हुसैन अ0 के पैरो हो जाये तो दुनिया के तमाम झगङे ख़त्म हो जायें।

इमाम हुसैन अ0 ने यज़ीद से यह नहीं कहा कि मैनें जंग इस लिये की है कि अगर मुझे फ़तह हासिल हुई तो मैं अरब का नाम हुसैनाबाद रक्खूंगा। आप जंग हक़ और इस्लाम की सरबुलन्दी के लिये और ज़ुल्म व सितम को मिटा देने के लिये थी।

हुसैन अ0 का वाक़ेआ बताता है कि जब तुम जायज़ मुतालबे के लिये क़दम बढ़ाओगे तो तुम्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पङेगा। (जद्दो जहद)

 

 

पंडित चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु

हुसैन अ0 को जब हम इन्सानी नुक़ताऐ नज़र से देखते हैं तो आप में उन तमाम सिफ़ात को नुमाया पाते हैं जिन से इन्सान इन्साने कामिल बन जाता है। हुसैन अ0 को हम हर पहलू से कामिल पाते हैं और यह कह उठते है कि हुसैन अ0 एक ऐसा अनमोल हीरा हैं जिसे जिस पहलू से देखो बे ऐब व बेश क़िमत है। हुसैन अ0 वह ख़ुशनुमा गुलाब हैं जिसका हर जुज़ अपनी ख़ुबसूरती और ख़ुशबू से दिल को ख़ींच लेता है। हुसैन अ0 एक ऐसा खरा सोना हैं जिसे जितने परखा जाये ख़ुसरंग निकलता आयेगा। हुसैन अ0 वह आफ़ताब हैं जिसमें हर रंग मौजूद है और वाक़ेअ करबला एक ऐसा वाक़ेआ है जिसमें बाप, बेटा, भाई, बहन, बीवी, शौहर, दोस्त व अक़रूबा सब के फ़रायज़ की हद बन्दी का अमली नमूना है। उसमें दीनी व दुनियावी ज़िन्दगी का कामिल नक़्शा मौजूद है। बल्कि उसमें सियासी जद्दोजहद और सियासी मुश्किलात का भी नुमाया हल मौजूद है।

अगर ग़ौर से देखा जाये तो दीन व दुनिया का कोई ऐसा सवाल नहीं जिसे इमामे हुसैन अ0 ने अपने कारनामों से हल न कर दिया हो। हज़रत हुसैन अ0 का कोई काम अधूरा नहीं, हर काम मुकम्मल है, क्योंकि कामिल इन्सान का हर फ़ेल कामिल होता है। ( शहीदे इन्सानियत)

 

 

दीवान बहादुर के-एम झवेरी

(साबिक़ चीफ़ डीन फ़ेकल्टी आफ़ ला मुम्बई)

एक अज़ीम मिशन के लिये ख़ुदा की एक मुख़्तसर फ़ौज बातिल के असाफ़िर से टकराई और वक़्ती तौर पर बातिल की फ़ौज को फतह भी नसीब हुई।

इमाम हुसैन अ0 जानते थे कि जंग का नतीजा क्या होगा फिर वह यज़ीद से क्यों लङे?

उन्होंने हक़ व सदाक़त की ख़ातिर जंग की। उस तमाम अहद में उनकी मिसाल तारीकी में नूर की शमां बन कर रौशनी फैला रही है। (हुसैनी दुनिया)

 

मुंशी प्रेमचन्द

(मशहूर अफ़साना निगार)

मारकाए करबला दुनिया की तारीख़ में पहली आवाज़ है और शायद आख़री भी, जो मज़लूमों की हिमायत में बुलन्द हुई और जिसकी सदा आज तक फ़िज़ाऐ आलम में गूंज रही है।

हुसैन अ0 को ख़िलाफ़त की मोहब्बत कूफ़े में नहीं लाई थी, न वह जंग के इरादे से आये थे। अगर उन्हें यज़ीद से जंग करनी होती तो वह लावोलश्कर लेकर आते। हुक्मरानी और मुल्कगीरी की हवस उनको न थी। न ये हवस उनके नफ़्से आली को डांवाडोल कर सकती थी। वह कूफ़ियों की दावत पर महज़ अम्रे हक़ की दस्तगीरी के लिये आये और जानबूझ कर आये। इस मारके का अंजाम उनसे पोशीदा न था। वह ख़ूब जानते थे की करबला की ख़ाक ग़ुबार बन कर उङेगी। लेकिन वह आली हिम्मत सदाये दर्द सुनकर दिल पर क़ाबु न रख सकते थे।

ये मारका ईसार और क़ुर्बानी की ज़िन्दा-ए-जावेद दास्तान है। एक तरफ कुल सत्तर या बहत्तर ज़ी रूह हैं जिनमें ज़्यातर बूढ़े, ज़ईफ़ हुसैन अ0 के बच्चे और बीमार हैं। दुसरी तरफ़ एक कसीर फ़ौज है (टिडडी दल) सामाने हर्ब से लैस। अगर हुसैन अ0 के ईसार और क़ुर्बानी के लेहाज़ से ये सानेहा बेमिसाल है तो शायद मुख़ालेफीने हुसैन अ0 की दग़ा व फ़रेब बहीमियत और नफ़सानियत के ऐतबार से बेनज़ीर है।

कूफ़े के ज़ालिमों! तुमनें सरवत और जागीर, मरतबा और मनसब हासिल करनें के लिये उस पाक नफ़्स बुज़ुर्ग के साथ दग़ा की जो सिर्फ़ तुम्हारी सदाऐ दर्द सुनकर तुम्हारी हिमायत करने के लिये सर बकफ़न होकर आया था। न वह सल्तनत रही, न वह सरवत रही, न वह मरतबा और न वह मनसब, तुम्हारी हडिडयां तक पेवन्दे ख़ाक हो गई। तुम्हारी पेशानी पर कलंक का टीका अभी तक लगा हुआ है और क़यामत तक लगा रहेगा।

तुमने किस के साथ दग़ा की? हुसैन अ0 के साथ जो तुम्हारे नबी के नवासे थे, मकरूहाते रोज़गार से अलग, ख़्वाहिशात से दूर। तुम्हारी दग़ा ने दुनिया में कितना बङा इन्क़ेलाब पैदा कर दिया क्या तुम इसे जानते हो? (सरफ़राज़ लखनऊ)

 

 

स्वामी शंकराचार्य

कमोबेश जुमला मज़ाहिब के रहबरान ने इशाअते मज़हब में क़ुर्बानियां पेश की हैं लेकिन जैसा कि हुसैन अ0 की क़ुर्बानियों में असर देखा ऐसा मैने किसी भी क़ुर्बानी में नहीं देखा और यही वह चीज़ है जिसने इस्लाम को बाक़ी रख लिया वरना आज दुनिया में इस्लाम का नाम लेने वाला कोई भी मौजूद न होता। (शिया लाहौर)

 

 

बाबू काली बदआमबर जी नीशानाथ राय

सातवीं सदी ईसवी के आख़िर में जबकि यज़ीद फ़रमानरवाये दमिश्क़ की सरकरदगी में अवाम के एक गिरोह ने इस्लामी मक़सद के ख़िलाफ़ अलमे बग़ावत बुलन्द किया तो मुत्तक़ी व परहेज़गार हुसैन अ0 ने मज़हब व सदाक़त की हिमायत के लिये करबला के मैदान में शुजाअत व बहादुरी के साथ अपनी जान की क़ुर्बानी  पेश कर दी। माद्दी तौर पर यज़ीद को फ़तह हासिल हुई लेकिन रूहानी हैसियत से उसकी यह फ़तह शिकस्त साबित हुई। वह इस्लाम को जो सूरत देना चाहता था वो सूरत व बुनियाद बहुत जल्द मादूम हो गई।

हुसैन अ0 की शहादत का नतीजा फ़तह व कामरानी की सूरत में निकला और इस्लाम यानि सच्चे और हक़ीक़ी इस्लाम ने अज़सरे नौ नशोनुमा हासिल की।

फ़ख़्रे इन्सानियत हस्तियों का ये मज़हबी फ़रीज़ा रहा है कि वह अवाम कि दिमाग़ी तरबियत व तालीम का सामान बहम पहुँचाये, वह उस राह में दुनियां के रंज और मसायब का कोई लेहाज़ नही रखते। कृष्ण जी ने एक शिकारी के हाथों जान गंवाई। मसीह की ज़िन्दगी का ख़ात्मा भी अफ़सोसनांक हुआ लेकिन मज़हब के मुताल्लिक़ उन्होंने जो रास्ता दिखाया वह अब तक इन्सानों को मनफेअत पहुँचा रहा है।

मुक़द्दस हुसैन अ0 की अलम अंग़ेज़ क़ुर्बानी ने ज़लालत की तारीकी का ख़ात्मा कर दिया और नई रौशनी फैला दी। वह क़ुर्बानी आज हज़ारों मुस्लिमों और ग़ैर मुस्लिमों में इस जज़्बे को मोहर्रिक कर रही है कि फ़रायज़ अदा करने में जान के जाने और मौत के आने की परवाह नहीं करना चाहिये। आज जबकि क़ौमियत की रूह बेदार हो रही है हमको दुआ करनी चाहिये की इसमें और इज़ाफ़ा हो। (हुसैन अ0 दी मार्टर)

 

 

ऐ-के-आचार्य

(जर्नलिस्ट मद्रास)

इमाम हुसैन अ0 की अज़मत का इससे बढ़कर और क्या सबूत हो सकता है कि तक़रीबन साढ़े तेरह सौ साल से उनकी याद में करोङो इन्सान आँसू बहा रहे हैं। और सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि रह मज़हब व मिल्लत के लोग उन्हें ख़ेराजे अक़ीदत पेश करते हैं।

बलन्द नसब, आलातरीन शख़्सीयत,ऐख़लाख़ी ऐक़्तेदार की हिफ़ाज़त और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मुस्तक़ील मिजाज़ी से डट जाना। यह वह ख़ुसूसियात हैं जिनकी मौजूदगी से हज़रत हुसैन अ0 को हमेशा की ज़िन्दगी हासिल हुई।

इमाम हुसैन अ0 ने सख़्त से सख़्त मुश्किलात का मुक़ाबला किया। अपनी आँखों के सामने अपने जवान और शीरख़्वार बच्चों को ज़िबह होता देखा मगर अपने मौक़िफ़ पर चट्टान की तरह डटे रहे और आख़ीर में अपनी मुसीबत ज़दा ख़्वातीन और बीमार बेटे को ख़ुदा के सहारे छोङ कर ख़ुद भी ख़ून के समन्दर में तैर कर पार उतर गये।

उन मसायब को तसव्वुर करके जो इमाम हुसैन अ0 को पेश आये इन्सानी हिम्मत जवाब दे देती है। आफ़रीन है उस अज़ीम इन्सान पर जो उन तमाम मराहिल से बङी पामरदी और इस्तेक़लाल से गुज़र गया।

ऐसे अज़ीम इन्सान की याद में सरे अक़ीदत ख़म कर देना हर इन्सान के लिये बायेसे फ़ख़्र है जो दुनिया से ज़ुल्म व इस्तेबदाद, गुनाह व फ़िस्क़ व फ़िज़ूर का ख़ात्मां चाहता है।

काश आज भी दुनिया हज़रत इमाम हुसैन अ0 के बताये हुए रास्ते पर चले तो ज़ुल्म व सितम और फ़िस्ख़ व फ़िज़ूर का ख़ात्मा हो जाये। (मक़ामें हुसैन अ0)

 

 

जे-आर गोडे एडवोकेट

(बम्बई)

दुनिया में हुसैन अ0 के अलावा और भी बहुत से इन्सान शहीद हुए, हुसैन अ0 पहले शहीद न थे मगर जब हम उन वाक़ेआत पर नज़र डालते हैं जिनसे हज़रत इमाम हुसैन अ0 को गुज़रना पङा और उन मक़ासिद पर ग़ौर करते हैं जिनके लिये हुसैन अ0 ने अपनी और अपने साथियों की जाने क़ुर्बान की तो तसलीम करना पङा है कि हुसैन अ0 से बढ़कर कोई शहीद दुनिया की इब्तेदा से लेकर आज तक पैदा ही नहीं हुआ।

उन्होंने हक़ की इशाअत, इन्सानियत की बक़ा, इस्लामी उसूलों की हिफ़ाज़त और मुलूक़ियत के ख़ात्में के लिये जो जद्दो जहद की और ऐसी शदीद तक्लीफ़े बर्दाश्त की जिनसे अम्बिया भी शाज़ो नादिर ही दो चार हुए होंगे। इसलिये कोई वजह नहीं के उन्हें तारीख़े आलम का अज़ीम किरदीर क़रार न दिया जाये और उनकी क़ुर्बानियों को फ़रामोश कर दिया जाये। उनकी पाकीज़ा ज़िन्दगी, उनकी आला तालीम, उनकी अज़्म व अमल और इस्तेक़लाल व शुजाअत रहती दुनिया तक इन्सानियत की रहनुमाई करती रहेगी। वो रौशनी की मिनार हैं, मंज़िल के मुतालाशी उनसे रौशनी हासिल करके मंज़िल की तरफ़ बढ़ते रहेंगे। (मक़ामे हुसैन (अ))

 

 

 

लाला दीनानाथ

(एडीटर वीर भारत)

बुज़ुर्ग हस्तियाँ ख़्वाह उनका ताल्लुक़ किसी भी मज़हब से हो हमारे नज़दीक वाजेबुल ऐहतेराम हैं और ग़ैर मज़हब के रहनुमा की इज़्ज़त करना एक ऐसा वस्फ है जो हिन्दुओं को अपने ऋषिओं से विरसे में मिला है। यही वजह है कि ब्रहमा समाज जैसी सोसायटियाँ हिन्दुओं में क़ायम हुयीं और अब भी हिन्दुओं की सरपरस्ती और मदद से चल रहीं हैं।

अंदरी हालात अगर हम अरब के इस शहीदे आज़म को ख़ेराजे तहसीन अदा करते हैं तो उसका मक़सद मुसलमानों को ख़ुश करना नहीं बल्कि दर हक़ीक़त एक अज़ीमुश्शान शख़्सियत का मुतालेआ करना और इन्सानियत के तयीं अपना फ़र्ज़ अदा करना है। (पैग़ामे इस्लाम)

 

 

सी-एस-रंगा आर्य

(साबिक़ एम-एल-ए)

अगर हुसैन अ0 की ज़िन्दगी और क़ुर्बानी के मक़सदे आला को समझ लिया जाये तो हर हिन्दु, शिया, सुन्नी और हर अंग्रेज़ बिल्कुल उस नतीजे पर पहुँचेगा कि पस्त सियासत हुसैन अ0 की नज़र में बेकार थी। अपने दुश्मन की फ़ौज में तफ़रिखा अन्दाज़ी या फूट डालने की कोशिश का ख़्याल भी उनके दिमाग़ में न था, वो अपने ही साथियों को फ़रमाते थे कि मुतफ़र्रिक़ हो जाओ और मेरे साथ अपनी जान न दो। मगर उनके मुटठी भर असहाबे बा वफ़ा के क़दमों को जुंबीश न हुई और उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की आख़री साँसो तक उनका साथ दिया। मौत की तलख़ी और हयात की शीरीन भी उनको अपने आक़ा से जुदा न कर सकी इसलिये की वह लोग हुसैन अ0 में तजल्लियाते इलाही का मुशाहेदा कर रहे थे।

हुसैन अ0 दुनियावी मक़सद रखते ही न थे। बस उनका मक़सद यह था मुस्तक़बिल में तारीक और यज़ीद परस्त दुनिया के लिये एक मिसाली इन्सान, एक नूरे हिदायत और एक ग़ैर फ़ानी रहनुमां साबित हों। उन्होंने मौत को ख़ुद दावत नहीं दी बल्कि यज़ीद की बैअत और अपने ज़मीर का ख़ून करके ज़िन्दा रहना उन्हें गवारा न था इस लिये कि वह ना अहल, फ़ासिक़ और इस्लाम से कोसों दूर था।

वह बा ख़ुशी किनाराकशी कर लेते अगर यज़ीद शैतान का बन्दा न होता बल्कि हुसैन अ0 की तरह ख़ुदा का बरगुज़ीदा बन्दा होता।

अगर हुसैन अ0 को हुकूमत मिलती तो उनकी हुकूमत ज़मीन पर आसमानी की हुकूमत होती। ताहुम मरने के बाद भी वह ऐसी हुकूमत कर रहें हैं जो कोई हुक्मरान नहीं कर सकता। वो लाजवाब तक़्तो ताज के मालिक हैं, वो हमारे ग़ैर फ़ानी बादशाह हैं। उन्होंने फ़ितरते इन्सानी का ग़ैर महदूद वुसअत अता फ़रामाई है। हुसैन अ0 के वफ़ादार आसमान के सितारों की तरह जगमगा रहें हैं। नस्ले इन्सानी जब तक सफ़हए हस्ती से ख़ुद न मिट जाये उनके कारनामों को फ़रामोश नहीं कर सकती। (मून लाईट)

 

 

हिज़ हाईनेस महाराजा जीवाजीराव सिंध्या

(ग्वालियर)

आज से तेरह सौ साल क़ब्ल करबला के ख़ूनी मैदान में जो हौलनांक और दर्दअंगेज़ सानेहा वजूद में आया था उसकी यादगार हर साल मोहर्रम के महीनें में सारी दुनिया में मनाई जाती है। रसूले ख़ुदा स00 के प्यारे नवासे इमाम हुसैन अ0 ने ज़ालिम के मुक़ाबले का पुख़्ता इरादा कर लिया था। वो जौर व ताअददी के सामने सर झुकाने को तैयार न थे, उनमें अक़ीदे और ज़मीन की पुख़्तगी थी, उन्होंने एक बङी और ताक़तवर फ़ौज का दन्दाशिकन मुक़ाबला किया, वह और उनके साथी उस जंग में शहीद हुए।

दुश्मन के ज़ुल्म व सितम का मुक़ाबला आपने ख़ुदा के इंसाफ़ पर ऐतमाद रखते हुए अपने अटल इरादे, अपनी बुलन्द हीम्मती और उस मुस्तहक़म अक़ीदे से किया कि चाहे उस वक़्त जो कुछ भी हो मगर आख़िर फ़तह सदाक़त को नसीब होगी।

तारीख़े इस्लाम का यादगार ये वाक़ेआ, अक़ायद के ऐख़तेलाफ़ और नस्ल व रंग और मज़हब के तंग नज़रीयात से बालातर है और इस क़ाबिल है कि नस्ले इन्सानी उसको अपने दिलों में जागुज़ीं करे और क़ुर्बानियों की परवाह किये बग़ैर अदाये फ़र्ज़ की अहमियत को समझ ले।

उन्हीं जज़्बात के तहत उस अज़ीमुश्शान हीरो की ख़िदमते आलिया में उसकी बरसी के मौक़े पर हदियाए ख़ुलूस पेश करता हूँ।

मुझे यक़ीन है कि उस ज़िन्दा-ए-जावेद शहीदे आज़म की क़ुर्बानी हमेशा उन लोगों के दिलों में जोश और ताज़गी पैदा करती रहेगी जो इंसाफ़, आज़ादी और इज़्ज़त व आबरू के लिये अपनी जानें देने से गुरेज़ नहीं करते।

(हुसैनी पैग़ाम बम्बई)

 

राजा महेश्वर दयाल सेठ

(एम-एल-सी, ताल्लुक़ेदार कोटर)

इस बङी और शानदार क़ुर्बानी का क्या भेद है।

ज़ाहिरी और इजमाली नुक़तऐ नज़र से वाक़ेआत को देखकर ये लोग महसुस करते हैं कि हुसैन अ0 ने भूख, प्यास, दुख, दर्द और रंज व ग़म की तकालीफ़ बर्दाश्त की, लेकिन जब हम इन वाक़ेआत पर ज़रा ग़ौर और बलन्द ख़्याली और रूहानी नुक़ताऐ नज़र से ग़ौर करते हैं तो यही मालूम होता है कि एक बङी आत्मा उनमें मौजूद थी और वह एक बङी आत्मा में थे।

हुसैन अ0 ने एक अज़ीमुल मरतबत और शानदार क़ुर्बानी हक़ और इन्सानियत की हिफ़ाज़त के लिये पेश की। उनकी शहादत इन्सानियत के लिये मुसलसल दर्स है कि हक़ व इंसाफ़ कभी दबाये नहीं जा सकते और बिल आख़िर फ़तह ख़िरफ़त पाते हैं। तारीख़े इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम के बाद वह सबसे बङी हस्ती कहे जा सकते हैं। सदाक़त, इंसाफ़ और फ़र्ज़ की क़ुर्बानगाह पर उन्होंनें तेरह सौ साल पहले उन्होंने अपने आप को भेंट चढ़ाया लेकिन एक बलन्द और आला मफ़हूम में वो आज भी ज़िन्दा हैं और फ़र्ज़ शिनासी, जुर्रत और हुब्बुल वतनी के पैग़ाम के साथ हमेंशा ज़िन्दा रहेंगे। (हुसैन अ0 डे रिपोर्ट)

 

 

महाराजा सर हरकिशन प्रसाद

हज़रत इमाम हुसैन अ0 की शहादत एक ऐसा वाक़ेआऐ अज़ीम है जो न कभी पहले हुआ और न तारीख़ बाद में उसका मुक़बिला ला सकी। मलल मा फ़िह और उनकी तारीख़ अगर इसी तरह क़ुबूल कर ली जाये जिस तरह इस वक़्त हमारे सामने मौजूद है तब भी उनका कोई शहीद या सिलसिलाए शोहदा मुश्किल से हमारे शहीद की अज़मत व शराफ़ते आमाल का मुक़ाबला कर सकेगा। औलियाए मज़ाहिब और उनकी तकलीफ़े हुसैन अ0 के अंबोहे मसायब पर ग़लत अंदाज़े नज़र से भी थर्रा जायेगी। किसी सलीब ज़दा जिस्म की चन्द कीलें हुसैन अ0 के जिस्में अक़दस में लगने वाले बेशुमार तीरों और नैज़ों की अनियों के सामने बे हक़ीक़त होगी।

इस हक़ीक़त की तारीख़ दुश्मनों ही की ज़बान और क़लम ने हमारे हवाले की, हुसैन अ0 का दोस्त वाक़ेआनिगार कोई ज़िन्दा न छोङा गया। अगर कोई वाक़ेआ निगारी कर सकता तो अली इब्नुल हुसैन अ0 या मुक़द्दराते इस्मत कर सकती थीं, लेकिन इमाम ज़ैनुलआबेदीन अ0 अपनी क़ैद से बहुत पहले बिस्तरे अलालात पर मोक़य्यद थे और परदा नशीन बीबीयाँ हुसैन अ0 की ज़िन्दगी तक बैरूनी हालात से बहुत कुछ बेख़बर थी। लेकिन हुसैन अ0 की शहादत के बाद न सिर्फ़ अली इब्नुल हुसैन अ0 अपने बिस्तरे अलालत से ख़ैंचे गये कि वह उसके बाद के वाक़ेआत देखे बल्कि मुक़द्दराते इस्मत व तहारत ने भी ये दिखाया कि हमें अपने तक़ाज़ाये ग़ैरत के ख़िलाफ़ आलम की निगाहें देखती होंगी।

इमाम हुसैन अ0 की शहादत ने तारीखे इस्लाम पर आम इससे कि वह गुज़िश्ता हो या आइन्दा ऐसी रौशनी डाली है जिससे वाक़ेआत का असली रंग मालूम हो गया और साबित हो गया कि दुश्मनों ने ख़ानदाने रिसालत मिटा देने के लिये किस क़द्र शर्मनांक कोशिश की थी। कोई घर आलम में ऐसा तबाह व बर्बाद न हुआ होगा जैसा कि ख़ानदाने रिसालत तबाह व बर्बाद हुआ।

सहराऐ करबला में हवा क्या बुरी चली

पानी तलब किया तो गले पर छुरी चली

दुनिया में कोई छोटा सा लश्कर इस शान से दुश्मन के मुक़ाबले में ख़ङा नहीं हुआ, जैसे हुसैन अ0 के ये चन्द बच्चे, जवान और बूढ़े रोफ़क़ा ख़ङे थे। उस ज़मीन पर ऐसा वक़्त और इत्तेफाक़ पैदा नहीं हुआ जिसमें इतने टिडडी दल लश्कर के मुक़ाबले में बावजूद गर्मी व प्यास की शिददत के ये छोटा सा लश्कर मुतमईन और मुंतज़िर खङा था। शायद ही किसी लश्कर को अपनी शिक्सत और किसी सिपाही को अपने क़त्ल का ऐसा यक़ीन हो जैसा हुसैन अ0 के लश्कर और सिपाहियों को था और शायद ही कोई लश्कर इस यक़ीन के बाद इस इस्तेक़लाल इस शान और शहादत के शौक़ में अपनी मौत का ऐसा मुन्ताज़िर हो और उनकी ये बेख़ौफ़ी, मसायब पर सब्र व इस्तेक़लाल और जान से लापरवाही न होती अगर वजह ऐसी अज़ीम न होती और शायद बावजूद वजह के भी दुनिया का यह हैरत अंगेज़ वाक़ेआ, वाक़ेऐ की सूरत में न आता अगर मरकज़ ऐसा न होता जैसे हुसैन अ0 थे। इब्ने साअद के लश्कर की ताअदाद कम से कम तीस हज़ार और इमाम हुसैन अ0 के लश्कर की ताअदाद ज़्यादा से ज़्यादा बहत्तर नफ़ूस पर थी।

लश्करे हुसैनी के एक-एक जांबाज़ सिपाही ने अपने दिल को सिपाहीयाना होश में बल्कि शहादत के जोश में और मौत की जल्दी के लिये दुश्मनों पर दे मारा, असहाबे हुसैन अ0 हज़ारो काफ़िरों को ख़ाक व ख़ून में आलूदा करके आलमें राहत की तरफ़ रूख़सत हो गये और आख़ीरकार हुसैन अ0 ने भी जामें शहादत नोश फ़रमाया। बहादुरी में दर्जा अव्वल हुसैन इब्ने अली अ0 का है। उन्होंने भूक व प्यास के बावजूद हज़ार हा दुश्मनों का सामना यको तन्हा किया। उन पर बहादुरी का ख़ात्मां है।

हक़ीक़तन आपको क़त्ल करके हुसैन अ0 के दुश्मनों ने तकबीरो तहलील को क़त्ल कर डाला। हज़रत मौलाना रूम ने तारीख़ का मिसरा क्या ख़ूब फ़रमाया है।

सरदी रा बुरीद बैद 61 हि0 (सरफ़राज़ लखनऊ)

 

 

दीवान बहादुर हर बिलास शारदा

(एफ़-आर-एस-एल)

हज़रत इमाम हुसैन अ0 इस्लाम के मशाहीर की सफ़ में एक बलन्द मरतबत हीरो का कर्जा रखते हैं। आपने जो बलन्द और आला क़ुर्बानी पेश की और जिस स्प्रिट में सदाक़त और इज़्ज़त के लिये अपनी जान दी वह इस बात की रौशन मिसाल है कि एक इन्सान जिसके दिल में आलातरीन जज़्बाते ख़िदमाते नवेइन्सानी मुतहरिक हो क्या कुछ कर सकता है और उसे क्या करना चाहिये।

हज़रत इमाम हुसैन अ0 की ज़िन्दगी एशिया और अफ़रीक़ा के करोङों मुसलमानों की ज़िन्दगी और करेक्टर को सही रास्ते पर ला रही है और उन्हें बता रही है कि ज़िन्दगी के इन शदाएद व मसायब का किस तरह सामना करना चाहिये जिनसे मर्दो और औरतों को आये दिन दोचार होना पङता है और जिनमें तहज़ीबे नौ की बदौलत रोज़ बरोज़ इज़ाफ़ा होता दिखाई देता है।

इमाम हुसैन अ0 के शुजाआना कारनामों के मुताल्लिक़ दुनिया को जितना ज़्यादा मालूमात हासिल होती जायेगी और उनके हालात को जिस क़द्र ज़्यादा नश्र किया जायेगा हम सब लोंगों के लिये उतना ही सूदमन्द होगा।

इसलिये कि हुसैन अ0 की ज़िन्दगी और शहादत से हम यह सबक़ हासिल कर सकेंगे कि हम अपनी ज़िन्दगी का मेआर किस तरह बलन्द कर सकते हैं। ( हुसैन अ0 दी मार्टर)

 

 

किशन प्रसाद

न फ़क़त दुनियाऐ इस्लाम बल्कि अज़ आग़ाज़ ता अंजाम कोई मिसाल दुनिया में वाक़ाये रूह फ़रमाये अरज़े नैनवा के मिस्ल ढूढ़े से भी न मिलेगी। ये सानेहा अपनी नवहययत और अहमियत के लेहाज़ से अपनी मिसाल ख़ुद ही हो सकता है। वाक़ेआये करबला ही एक ऐसा वाक़ेआ है जिसके जज़्दात पर नज़र डालने से इन्सान को तहज़ीबे एख़लाख़ का पूरा मैदान हाथ आता है। मज़लूम इमाम हुसैन अ0 ने जिस इस्तेक़लाल और मज़बूत इरादे के साथ दुनिया में सदाक़त और हक़ का अलम गाङा वह सिर्फ़ उसी की ज़ात से हो सकता था जिस को ख़ुदा ने ऐसा बहादुर दिल दिया हो।

 

 

महाराजा होलकर आफ़ इंदौर

आज जिस जलसे को तमाम अक़वाम व मज़हब के लोग मुश्तरका तरीक़े से कर रहे हैं जिसमें इमाम हुसैन अ0 के इस कारनामें से सबक़ हासिल करेंगे जिसमें आपने आज़ादी के लिये वहशीयाना ताक़त का मुक़ाबला करते हुए अपनी जान की बाज़ी लगाकर वह अज़ीमुश्सान क़ुर्बानी दिखाई जिसने हक़ और इंसाफ़ को दुनियां में क़ायम कर दिया।

अगर तमाम मुल्क में इस क़िस्म के जलसे होने लगें तो मुझे यक़ीन है कि तमाम क़ौमों और मज़हबों में इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ हो जायेगा।

 

 

हिज़ हाईनेस सर नटवर सिंह

(महाराजा आफ़ पोरबन्दर)

क़ुर्बानियों के ज़रिये तहज़ीबों का इरतेक़ा होता है। हज़रत इमाम हुसैन अ0 की न सिर्फ़ मुसलमानों के लिये बल्कि पूरी नस्ले इन्सानी के लिये एक क़ाबिले फ़ख़्र कारनामे की हैसीयत रखती है। मौजूदा दौर में जबकि ज़ाती व नस्ली नफ़रतें अपने उरूज पर हैं और क़त्ल व ग़ारत का बाज़ार हर तरफ़ गर्म है क्या हम सर के बल तबाही के ग़ार में नहीं गिर रहे? कोई अपाऐ नहीं सिवाऐ इसके कि हज़रत इमाम हुसैन अ0 की शहादते उज़्मा को मशअले राह बनाया जाये। हमारी ज़िन्दगी में अम्न व सुकून सिर्फ़ और सिर्फ़ हज़रत इमाम हुसैन अ0 और उनके रफ़ीक़ो की क़ुर्बानियों को पेशे नज़र रखते हुए हक़ व सदाक़त के रास्ते पर क़दम आगे बढ़ाने ही में मुज़मर है। हज़रत इमाम हुसैन अ0 ने अपना सब कुछ एक आला मक़सद के लिये क़ुर्बान कर दिया। उन्होंने जान दे दी लेकिन इन्सानियत के रहनुमा उसूलों पर आँच नहीं आने दी। दुनिया की तारीख़ में ऐसी दूसरी मिसाल नज़र नहीं आती है। हज़रत इमाम हुसैन अ0 की क़ुर्बानी के ज़ेरे क़दम अम्न व मसर्रत दोबारा बनीनवे इन्सान को हासिल हो सकते हैं बशर्ते कि इन्सान उनके नक़्शे क़दम पर चलने की कोशिश करे।

 

 

पंडित सुन्दर लाल

(हिन्दू आलिम रहनुमा और मुसन्निफ़)

तारीख़ के आला मक़ासिद के लिये और हक़ व सदाक़त के रास्ते में बहुत सी क़ुर्बानियों के वाक़ेआत को महफ़ूज़ किया है। इन में सबसे बलन्द क़ुर्बानी हज़रत इमाम हुसैन अ0 की है जो तेरह सौ साल क़ब्ल करबला के मैदान में पेश की गई थी। गुज़िश्ता तेरह सौ साल में जिस तरह हर मुसलमान हुक्मरान बादशाह ने सिर्फ़ अपनी ताक़त के ज़रिये अपनी हुकूमत को इस्लामी कहलवाया है उस से इस्लाम इब्तेदा में ही ख़त्म हो जाता अगर इमाम हुसैन अ0 और उनकी मुख़तसर सी जमाअत अपने ख़ून का नज़राना पेश करके इस्लाम को मुकम्मल तबाही से न बचा लेती। मेरी प्रर्थना यह है कि उनकी और उनके कारनामों की याद हम सब को मुतास्सिर करने के लिये हो और हम में मोहब्बत और यगानगत के जज़्बात पैदा कर सके।

हमें एक दूसरे के जज़्बात और ख़्यालात की क़द्र करनी चाहिये और अपनी कोताहियों पर भी नज़र रखनी चाहिये। उनकी याद मनाने से हमारा तज़किये नफ़्स होना चाहिये ताकि हमारे दिलों में से बुग़्ज़ व हसद और इन्तिक़ाम की ख़्वाहिशात मिट जायें और गुनाहगार अपने गुनाहों से तौबा करलें।

 

 

मेला राम फरानी

इस्लाम के बहादुरों ने अहले दुनिया के जिस क़िस्म की शुजाअतों के लासानी नमूने दिखाये है वो इन्सानी अक़्लो और फ़हमों को गुम कर देने वाले हैं। मौला मुश्किल कुशा अली इब्ने अबी तालिब अ0 की शुजाअत किसी से पोशीदा नहीं है। फिर हुसैन अ0 की बहादुरियाँ और क़ुर्बानी ऐसी नहीं कि जिन्हें भुलाया जा सके। करबला के ख़ौफनांक मैदान में आपने जो दिलावरी दिखाई उसके नज़ीरे नायाब हैं। अहलेबैत अ0 के तमाम अफ़राद की बेमिसाल बहादुरियाँ और क़ुर्बानियाँ तारीख़ में मज़कूर हैं। ग़रज़ की तारीख़ों में ऐसी बेबाकी और जुर्रतमन्दी के नमूने बिल्कुल ही नादिर व नायाब हैं।

 

 

जी-आर-गोदी

(मशहूर हिन्दुस्तानी एडवोकेट)

इमाम हुसैन अ0 पहले शहीद नहीं हैं अगर हम आपकी शहादत को उस ज़ावियाऐ निगाह से देखें तो हमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आयेगी लेकिन अगर हम उन वाक़ेआत को देखें जिनसे इमाम अ0 को दोचार होना पङा और उन मक़ासिद पर ग़ौर करें जिनके लिये इमाम हुसैन अ0 और उनके साथियों ने अपनी जाने क़ुर्बान की तो उस वक़्त ये तसलीम करना पङेगा कि इमाम हुसैन अ0 से बङा शहीद दुनिया की इब्तेदा से लेकर आज तक पैदा नहीं हुआ। आपने हक़ की राह, इन्सानियत की बक़ा, इस्लामी उसूलों की हिफ़ाज़त और मुलूक़ियत के ख़ात्में के लिये जद्दो जहद की और शदीद तकलीफ़ें बर्दाश्त की। यही वजह है कि आप तारीख़े आलम के अज़ीम किरदार हैं आपकी तालीम, अज़्म व इस्तेक़लाल और शुजाअत रहती दुनिया तक इन्सानियत की रहनुमाई लिये रौशन मीनार है।

 

 

राईट आनरऐबिल एम-आर-जियारकर

(जज फ़ीडरलकोर्ट इंडिया)

कई बरस से मेरी ये तमन्ना थी कि हिन्दू मुसलमान एक दुसरे के मुक़द्दस अय्याम और पैग़म्बरों का दिन मिलझुल कर मनाया करें। तेरह सौ साला हुसैन अ0 डे पर मेरी तमन्ना पूरी होती हुई नज़र आई और मैं बारगाहे हुसैनी में अपना नज़राने अक़ीदत पेश करता हूँ।

मुझे यह भी तवक़्क़ो है कि मुसलमान साल ब साल इस अज़ीम तरीन क़ुर्बानी की याद मनाते हुऐ इस मेआरे हक़ व सदाक़त को भी सामने लायेंगे जिस ने पूरी बनीनवे इन्सान के लिये तरक़्क़ी और कामयाबी का दरवाज़ा खोल दिया।

 

 

दीवान बहादुर कृष्ण लाल

(साबिक़ चीफ़ जस्टिस मुम्बई)

मुझे हुसैन अ0 डे की तक़रीबात में से एक की सदारत का मौक़ा मिला और मैंने देखा कि हज़ारो सामेईन अदब व ऐहतेराम से तक़रीर सुन रहे हैं। सामेईन की तवज्जो के मेरे नज़दीक दो सबब हो सकते हैं। अव्वल यह कि करबला के वाक़ेआत इन्तेहाई अलमनांक है और हर सुनने वाला उनमें मुतास्सिर होता है। दोयम ये कि मारकाऐ करबला में हक़ और बातिल का मुक़ाबला हुआ और बज़ाहिर फ़तह बातिल क़ुवत को होई थी। आख़ीर इमाम हुसैन अ0 ने यज़ीदी फ़ौज का मुक़ाबला क्यों किया जबकि वह जानते थे कि नतीजा क्या होगा? ये सवाल लोगों की तवज्जो अपनी तरफ़ ख़ींचता है। उसके साथ यह हक़ीक़त कि इमाम हुसैन अ0 ने अपने गिनती के चन्द साथियों के साथ हज़ारों की तादाद पर मुश्तमिल फ़ौज से मुक़ाबला किया, किसी दुनियावी मक़सद के लिये नहीं बल्कि हक़ व सदाक़त का मेआर क़ायम करने के लिये। ये मिसाली क़ुर्बानी एक मशाल की तरह रहती दुनिया तक अंधेरों में बनीनवे इन्सान की रहनुमाई करती रहेगी।

 

 

डा0 जे-ऐ-कोलाको

(साबिक़ मेअर बम्बई)

इमाम हुसैन अ0 अब दुनिया में मौजूद नहीं लेकिन उनके कारनामें हमारे सामने हैं। उनकी याद हममें सच्चाई की तहरीक पैदा करती है और बातिल से मुक़ाबला करने के लिये हमारे हौसले बुलन्द करती है। हक़ व सदाक़त के रास्ते में मुश्किलात व मसायब बर्दाश्त करने की ताब पैदा करती है। सिर्फ़ मुसलमानों के लिये ही नहीं बिला इम्तियाज़ क़ौम व मज़हब व मिल्लत तमाम इन्सानों के लिये इमाम हुसैन अ0 की क़ुर्बानी एक ऐसा नमुनऐ अमल है जो ज़िन्दगी के रास्तों की तारीकियों को क़यामत तक के लिये दूर करने और रहनुमाई करने के लिये काफ़ी है।

 

 

बाबू राजेन्द्र प्रसाद

मैं हज़रत इमाम हुसैन अ0 की बङी क़द्र करता हूँ और उन्हें इन्सानियत का अलमबरदार तसव्वुर करता हूँ। बिला तफरीक़े मज़हब इमाम हुसैन अ0 की क़ुर्बानी सब को दर्से सदाक़त देती है।

 

 

महात्मा गांधी

शहीद की हैसियत से इमाम हुसैन अ0 की मुक़द्दस क़ुर्बानी ने मेरे दिल में सना व सिफ़त का लाजवाब जज़्बा पैदा किया है। क्योंकि आप ने भूख व प्यास की तकलीफ़ और मौत को अपने और अपने बच्चों और खानदान के लिये पसन्द किया मगर ज़ालिम क़ूवतों के सामने सर नहीं झुकाया।

 

 

 

श्री स्वामी गुंजानन्द

(सद्र अछूत लीग ढाका)

हम ख़ुश हैं कि अछूत लोग जो इस मुल्क के अस्ल बाशिन्दे थे यज़ीदियों की बङी कोशिशों के बावजूद मिट न सके और सदक़ा इमाम हुसैन अ0 का है। यही वजह है कि हम इमाम हुसैन अ0 के मक़ाम को समझते हैं, परखते हैं और उनकी क़द्र करते हैं।  उनकी मज़लूमित की दास्तान और उनके ज़िक्र को ग़ौर से सुनते हैं, समझते हैं और परखते हैं। आज दुनियां के बङे-बङे मुल्क और हुकूमतें अम्न की दावत दे रहीं हैं। सब से ज़्यादा अमेरीका अम्न का प्रचार करना चाहता है। इमाम हुसैन अ0 के पैग़ाम को अगर अमरीका अपना ले तो दुनिया में अम्न व अमान क़ायम हो सकता है और हर तरह की बेचैनी दूर हो सकती है। जिस तरह इमाम हुसैन अ0 ने बदी और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ अपना हक़्क़ानी परचम बलन्द किया था। यज़ीद ने उनसे कहा था बैअत कर लो। ये बात क्या थी? इस बैअत के माअनी सनद या सर्टिफ़िकेट देना था कि यज़ीद जो बुराईयां कर रहा है और जो बेइंसाफ़ियाँ कर रहा है हज़रत इमाम हुसैन अ0 उसकी सनद दे दें के वो जायज़ हैं। मगर हज़रत इमाम हुसैन अ0 ने सर देना मन्ज़ूर किया बदी की इजाज़त न दी और इन्साफ़ को हाथ से जाने न दिया।

आज ये ऐतराज़ किये जाते हैं कि हज़रत इमाम हुसैन अ0 मजलिस बर्पा की जाती है, उनकी याद में मरसिये पढ़े जाते हैं और बाजे बजाये जाते हैं। अस्ल हक़ीक़त यह है कि यज़ीद और उसके मानने वाले साथी चाहते थे कि इमाम हुसैन अ0 का नाम मिट जाये। लेकिन हम उसके मुक़ाबले में आज भी डंके की चोट पर हज़रत इमाम हुसैन का नाम ले रहे हैं। उसके बरअक्स यज़ीद के लिये कहीं ठिकाना नहीं, उसका चिराग़ जलाने वाले कोई नहीं।

आज मशरिक़ी बंगाल में 55 लाख के क़रीब अछूत रहते हैं, वहाँ जो क़ौमे आबाद हैं उन्हें सख़्त ज़रूरत है कि इमाम हसैन अ0 के मिशन को क़ायम करके उनके मुबारक उसूलों को फैलाते जायें। इसी तरह चटगाम के इलाक़े में भी बङी ज़रूरत है बल्कि जिस तरह घरों में यादे इमाम अ0 की मजलिस क़ायम होती है उसी तरह मैदानों में भी बरमला जलसे किये जायें और अलम बुलन्द करके कहा जायें कि हम अली अ0 की गवर्मेन्ट क़ायम करेंगे। इमाम हुसैन अ0 नाम ही भलाई और इंसाफ़ का है। नेकी और बदी हमेशा आपस में लङती रही है। हमारा फ़र्ज़ है कि हम बदी मिटायें और नेकी को फैलायें।

 

 

मिसेज़ सरोजनी नायडू

हज़रत इमाम हुसैन अ0 ने आज से तेरह सौ साल क़ब्ल दुनियां के सामने जो पैग़ाम और उसूल पेश किया था वो इतना बेनज़ीर और मुकम्मल था कि आज हम उसकी यादगार मना रहे हैं। मेरे पास ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं और न दुनिया की कोई ऐसी फ़सीह व बलीग़ ज़बान है जिसके ज़रिये मैं उन जज़्बाते अक़ीदत को बयान कर सकूँ जो उस शहीदे आज़म के लिये मेरे दिल में पाये जाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन अ0 सिर्फ़ मुसलमानों के नहीं बल्कि रब्बुलआलमीन के सारे बन्दों के लिये हैं।

मैं मुसलमानों को मुबारकबाद देती हूँ के उनमें एक ऐसा बुलन्द इन्सान गुज़रा है जिसे दुनियाँ की हर क़ौम यकसां तरीक़े सा मानती है और उसकी इज़्ज़त करती है।

आपने हुसैन डे कमेटी बम्बई के नाम अपने पैग़ाम में कहा:

करबला का दर्दनांक सानेहा आज भी वैसा ही ताज़ा, वैसा ही दर्दअंगेज़ और वैसा ही असर ख़ेज़ है जैसा कि उस रोज़ था जब इस्लाम का यह बहतरीन रहबर शहीद किया गया था। तेरह सौ साल बाद भी इमाम हुसैन अ0 कि मिसाल हक़ व हुर्रियत की तलाश रखने वालों की रहनुमाई के लिये रौशनी का मिनार बनी हुई है। उनकी ज़ात तमाम ऐख़तेलाफ़ात से बालातर है, वक़्त और ज़माने की क़ैद से आज़ाद है और बुराईयों के मुक़ाबले में सदाक़त की फ़तह का लाफ़ानी निशान है।

आपने हैदराबाद दक्षिण मे इजलास यादगारे हुसैनी के मौक़े पर जो पैग़ाम भेजा वो हस्बे ज़ैल है।

जब लोग मरते हैं तो उनकी याद भी मौसम ख़ेज़ा पत्तों की तरह ग़ायब हो जाती है और ख़त्म हो जाती है लेकिन हज़रत इमाम हुसैन अ0 क़िस्मते इन्सानी की उन नादिर और मुंनतख़ेबा हस्तियों में से हैं जिनके नाम उफ़क़े तारीख़ पर एक सितारे की तरह जगमगा रहे हैं। शायद की किसी और हस्ती को इस्लाम के उस हरदिल अज़ीज़ रहनुमा की तरफ़ ऐसी ग़ैरफ़नी शौक़त और हुस्न नसीब हुआ हो। शायद ही कोई क़िस्सा इतना आलमनांक और दिलदोज़ हो जितना की वाक़ेआऐ करबला है, जो आज तेरह सदियों के बाद भी लाखो करोङो इन्सानों को ख़ून के आँसू रूलाने की क़ाबलियत रखता है। तेरह सदियों के बाद भी उस मुक़द्दस शहादत की अज़मत व शौक़त ज़ुल्म व बातिल के ख़िलाफ़ कशमाकश की आलातरीन निशानी है और इन्सानी आज़ादी और हक़ परस्ती की राह में सब से बढ़ी हुई इन्सानी क़ुर्बानी भी।

 

 

 

 

हुसैन अ0 से सिक्खों की अक़ीदत

 


 

महाराजा जगजीत सिंह बहादुर

(वाली कपूर थला)

इंसानी तारीख़ में शहीदों का मरतबा बहुत बलन्द है और शोहदा चाहे वह किसी मुल्क या क़ौम के हों हर मज़हब व क़ौम के लिये क़ाबिले इज़्ज़त हैं। कोई पाबन्दे उसूल हरगिज़ ये कह नहीं सकता कि शहीद किसी ख़ास क़ौम या ज़माने का रहनुमा हैं। बल्कि शहीदों की रौशन मिसालें हर फ़र्दे बशर के लिये सबक़ आमोंज़ हैं और इसी नुक़ताऐ नज़र से हज़रत इमाम हुसैन अ0 की शहादत के वाक़ेआत सारी दुनिया के लिये क़ाबिले मुतालेआ हैं।

मुझे यक़ीन है कि हज़रत इमाम हुसैन अ0 की शुजाअत याद रखने के लिये सिख, हिन्दू, ईसाई दिल से शामिल होंगे। मेरा ये पैग़ाम मामूली या रस्मी पैग़ाम नहीं बल्कि मेरे ख़्यालात का सही अक्स है। (रज़ाकार लाहौर)

 

 

सरदार ख़नाँ सिंह, एम-ए

(प्रोफ़ेसर लुधियाना कालेज)

सिख क़ौम की रवायत हमेशा से बहादुरी और शुजाअत से वाबस्ता रही है इसलिये कोई वजह नहीं कि वो दूसरे मज़हब के बहादूरों की इज़्ज़त न करे। इमाम हुसैन अ0 की इज़्ज़त करना तो सिक्खों के नज़दीक एक लाज़मी अम्र है। उन्होंने करबला के मैदान में अपने मुटठी भर साथियों की हमराही में टिडडी दल लश्कर का जिस पामर्दी से मुक़ाबला किया और बङी से बङी मुश्किल को जिस तरह हँस खेलकर बर्दाश्त किया उसने उनका मरतबा इस क़द्र बुलन्द कर दिया के वह बहादुरानें आलम में मुमताज़ जगह परा फ़ायज़ हैं। उन्होंने अपनी और अपने अहले ख़ानदान हत्ता कि शीरख़्वार बच्चे की जान तक क़ुर्बान करना गवारा कर लिया मगर ज़ुल्म व सितम और फ़िस्क़ व फ़िज़ूर के आगे सरे तस्लीम ख़म करना गवारा न किया।

उन्होंने हक़ की ख़ातिर बङी मर्दानगी से जंग की। कौन कहता है कि वह दुश्मनों के मुक़ाबले में शिकस्त खा गये। शिकस्त तो उनके दुश्मनों को हुई जिन पर आज तक दुनिया लानत भेज रही है और फ़तह हज़रत इमाम हुसैन अ0 की हुई जिन की ग़ुलामी का दावा बङे-बङे फ़रमानरवायाने आलम फ़ख़्र से करते हैं। (सरोश बम्बई)

 

 

सरदार जसवंत सिंह एम-ए

(लन्दन)

हज़रत इमाम हुसैन अ0 ने अपने लिये नहीं बल्कि दूसरों के लिये जान दी। उनकी क़ुर्बानी शहीदों में सबसे ज़्यादा बुलन्द है। उन्होंने अपनी क़ुर्बानी किसी ख़ुदग़र्ज़ाना मक़सद के लिये पेश नहीं की थी बल्कि सिर्फ़ हक़ व इंसाफ़ को बुलन्द करने के लिये दी थी।

दुनियां की तारीख़ में बेशुमार लङाईयां लङी गयीं लेकिन करबला की लङाई अपनी अहमियत के लेहाज़ से बेहद नुमांया जंग थी। क्योंकि यहाँ हम को यह दिखाई देता है कि नेकी और बदी की क़ूव्वतें अपने इन्तेहाई दरजा-ए-कमाल पर पहुँच कर एक दूसरे के ख़िलाफ़ सफ़ आरा थीं।

हज़रत इमाम हुसैन अ0 सदाक़त और फ़र्ज़ शनासी का मुजस्समा थे। जो सख़्तियाँ उनको बर्दाश्त करना पङीं वह इतनी अंदोहनांक हैं कि एक संग दिल को भी तोङ देती हैं लेकिन हुसैन अ0 के क़दम को अदाऐ फ़र्ज़ में ज़रा भी लग़ज़िश नहीं हुई। उन्होंने निहायत बहादुरी से मौत का मुक़ाबला किया। लेकिन क्या हुसैन अ0 मर गये? नहीं वह आज भी ज़िन्दा हैं। वह गिरे नहीं बल्कि बलन्द हो गये और तब से अब तक और ज़्यादा बलन्द हो चुके हैं। हुसैन अ0 ज़िन्दा हैं और आख़ेरत तक ज़िन्दा रहेंगे। अलबत्ता यज़ीद जो यह समझता था कि वह अपनी क़ुवत की बदौलत जो कुछ चाहे कर सकता है, ख़त्म हो गया। (हुसैन अ0 डे रिपोर्ट लखनऊ)

 

 

सरदार करतार सिंह एम-ए-एल-एल-बी

(एडवोकेट हाईकोर्ट पटियाला)

बज़ाहिर मुसलमान औसतन ग़रीब हैं लेकिन मुसलमान सबसे ज़्यादा अमीर हैं क्योंकि हुसैन अ0 जैसी शख़्सियत उन्हें विरसे में मिली। अगर आप हुसैन अ0 को भूल जायें तो उसका नतीजा नुकसान ही नुकसान होगा।

हज़रत मोहम्मद सुस्तफ़ा स00 से पहले दुनया इस नुक़्ते से नाआशना और बेगाना महज़ थी। जज़्बाऐ शहादत मुसलमानों ने ही दुनियां को दिया। उन्होंने उसे लफ़्ज़ की हैसियत से ही दुनिया के सामनें पेश नहीं किया बल्कि उसे अमली जाअमा भी पहनाया और उस सिलसिले में बेहतरीन नमूना शहादते शोहदाये करबला है।

हुसैन अ0 ने अपनी क़ुर्बानी और शहादत से उन्हें ज़िन्दा कर दिया और उन पर हिदायत की मोहर लगा दी। हुसैन अ0 का उसूल अटल है और अटल रहेगा। हुसैन अ0 ने जो क़िला तैयार किया है उसे कोई गिरा नहीं सकता। क्योंकि यह क़िला पत्थर और चूने नहीं बल्कि इन्सानी ज़िन्दगी और ख़ून से तैयार किया गया है। हुसैन अ0 ज़माने की सियासी बातों के नब्ज़ शनास थे, करबला के मैदान में हुसैन अ0 ने जो हरबे इस्तेमाल किये वह इन्साफ़, प्रेम और क़ुर्बानी हैं। हुसैन अ0 का कैरक्टर बरतर व बाला है। हुसैन अ0 इंसाफ, प्रेम और क़ुर्बानी के देवता हैं। (हुसैनी दुनिया)

 

 

सरदार सन्त सिंह

(एडीटर इन्साफ़ व प्रेसीडेन्ट यू पी सेन्ट्रल सिख दीवान)

हर हक़ शनास शख़्स जिसे ख़ुदा ने अक़्ले सलीम अता की है वो वाक़ेआते करबला के ग़ैर जानिबदाराना मुताअले के बाद इस नतीजे पर पहुँचे बग़ैर नहीं रह सकता कि हज़रत इमाम हुसैन अ0 ने जो जंग लङी वह उनकी ज़ाती न थी, बल्कि इन्सानियत व हक़ परस्ती की हिमायत की जंग थी। हज़रत ज़ाती तौर पर जंग और ख़ूं रेज़ी को पसन्द न करते थे। इसी वजह से जब उन्होंने मदीने में जंग की साज़िशो के आसार देखे तो मक्का तशरीफ़ ले गये और जब मक्के में जंग के बादल मंडराते हुए पाये तो कूफ़े चले गये। हज के अय्याम में, जबकि इस्लामी दुनिया मक्के मुनव्वरा की ज़ियरत के लिये उमङ रही हो मक्के से वापसी कोई आसान काम न था। हज़रत को ख़िलाफ़े मामूल हाजियों ने वापस जाते देखा तो उनके हैरत व इस्तेजाब की कोई हद न रही और अक्सर हाजी बेऐख़्तियार कह उठे कि या हज़रत यह क्या माजरा है कि इस्लामी दुनिया तो हस्बे माअमूल हज के लिये मक्के की तरफ़ आ रही है और आप ख़िलाफ़े मामूल मक्के से वापिस जा रहें हैं? लेकिन हज़रत जंग के हामी न थे इसलिये उन्होंने जंग की साअते बद को टालने  के लिये हज जैसे अहम फ़र्ज़ की अदायगी से महरूम रहना भी गवारा कर लिया और हाजियों की हैरत और परेशानी को दूर करने के लिये हज़रत ने नेहायत ख़न्दा पेशानी के साथ फ़रमाया: मैं ख़ुदा की राह में क़ुर्बान होने जा रहा हूँ।

नरमीं, मतानत और सनजीदगी हज़रत के विरसे में आयी थी जबकि मुख़ालेफ़ीन ज़ुल्म, फ़िरऔन मिजाज़ और तकब्बुर में दुनिया का रिकोर्ड मात कर रहे थे। अपने इस आख़री वक़्त में भी हज़रत ने नरमी, मतानत और सनजीदगी के औसाफ़ को हाथ से न छोङा और यहाँ तक कि मुलायमियत की इन्तेहा कर दी कि अपने एक पैग़ाम के ज़रिये से आपने मक्के या मदीने में गोशानशीन होने या यज़ीद की सल्तनत से बाहर किसी मुल्क में जाने की आमादगी ज़ाहिर की। लेकिन उस वक़्त ज़ालिम यज़ीद और उसके हवारी हज़रत इमाम हुसैन अ0 और उनके अज़ीज़ व अक़ारिब के ख़ून के प्यासे थे। इसलिये उन्होंने "बैअत" या "क़त्ल" का जवाब देकर हज़रत इमाम हुसैन अ0 की उस शरीफ़ाना पेशकश को भी ठुकरा दिया।

अब आख़री मौक़े पर इमाम हुसैन अ0 के सामने सिवाये इस के कोई चारा ना रह गया था कि यातो वह भी दुनिया के दीगर कमज़ोर और बुज़दिल इन्सानों की तरह यज़ीद जैसे फ़िरऔन व बदकार से बैअत करके महज़ अपनी ज़ाती जाह व हशमत के लिये अपने बुज़ुर्गो और दीने इस्लाम की नामूस को ख़तरे में डाल दें या हक़ व सदाक़त के रास्ते पर शहीद होकर आइन्दा दुनिया के लिये शम्मा-ए-हिदायत साबित हों।

चुनान्चे हज़रत ने अपनी जान और अपने साथियों और अज़ीज़ व अक़ारिब को भेंट चढ़ाकर शहादत और क़ुर्बानी की वो नज़ीर क़ायम कर दी जिस के मुतालेऐ से आज तेरह सौ साल बाद भी एक पत्थर से पत्थर दिल इन्सान के रोंगटे खङे हो जाते हैं।

मुख़ालेफ़ीन यह समझे हुए थे कि हज़रत इमाम हुसैन अ0, उनके भाई हज़रत अब्बास अ0, उनके नन्हें भान्जों, भतीजों और छ: माह के शीरख़्वार बच्चे अली असग़र अ0 को तहे तेग़ करके उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन अ0 की इमामत को हमेशा के लिये ख़त्म कर दिया है। लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं था कि जिसे मिटाने के मन्सूबे वह बांध रहे हैं उसे मिटाना आसान नहीं है और जल्द ही वो वक़्त आयेगा जब चौरंगे आलम में हज़रत इमाम हुसैन अ0 की इमामत का डंका बजेगा।

यज़ीदी और उसके हवारियों को इस बात का वहम हो गया था कि वह हज़रत के रोफ़क़ा और पैरवों की लाशों को टापों से पामाल करके बरबरीयत की ऐसी मिसाल क़ायम कर रहे हैं जिस के ख़ौफ़ से आइन्दा दुनिया में हज़रत इमाम हुसैन अ0 का कोई नाम लेवा बाक़ी न रहेगा।

लेकिन वह यह नहीं जानते थे कि हज़रत के रोफ़क़ा और पैरवों की पामाली और उनके एक-एक क़तरे ख़ून से लाखो नहीं बल्कि करोङो ऐसे अक़ीदतमन्द पैदा होगें जो दुनिया के कोने-कोने में हज़रत इमाम हुसैन अ0 और उनके रोफ़क़ा की क़ुर्बानियों पर फ़ख़्र करते हुए उनकी सना के नग़में गाया करेगें।

यज़ीदियों के सर पर भूत सवार था कि वह अहले हरम की तौहीन व तज़लील करके और क़ाबिले परस्तिश ख़्वातीन को अज़ीयतें देकर एक ऐसे वहशीयाना हरबे को इस्तेमाल में ला रहें हैं कि जिस की वहशत से आइन्दा किसी औरत को यज़ीदियों के ज़ुल्म व जुर्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की जुर्रत न हो सकेगी और हमेशा के लिये  बिला ख़ौफ़ो ख़तर चैन से ख़िलाफ़त की बांसुरी बजाते रहेंगे।

गुमराह यज़ीदियों को यह मालूम न था कि जिन मोअज़्ज़िज़ ख़्वातीन अहले हरम की तौहीन व तज़लील करके वह आज ख़ुशियाँ मना रहें हैं, उनकी मसायब अंगेज़ियाँ एक दिन ऐसा रंग लायेंगी कि हर घर में उन बहादुर ख़्वातीन की बेनज़ीर क़ुर्बानीयों के न सिर्फ़ गुन गाये जाया करेंगे बल्कि आईन्दा दुनिया में जाबिर यज़ीद और उसके हवारियों का कोई ना लेवा भी बाक़ी न रहेगा।

मज़हबे इस्लाम के मौजूदा उरूज व तरक़्क़ी में हज़रत इमाम हुसैन अ0 और उनके अज़ीज़ व अक़ारिब व रोफ़क़ा की शानदार क़ुर्बानियों का राज़ मुज़म्मिर है। इस वजह से हज़रत का नाम तमाम दुनिया में आज भी इज़्ज़त व ऐहतेराम से लिया जाता है और जब तक दुनिया क़ायम है शहादत और क़ुर्बानी के शैदाई हज़रत इमाम हुसैन अ0 की याद उसी ख़ुलूस और सदाक़त से मनाते रहेंगे जिस तरह हम मना रहे हैं।

(इजलास यादगारे हुसैनी- मुनक़्क़ेदा लखनऊ)

 

 

कुवंर महेन्द्र सिंह हेदी

(सहर देहलवी)

तशनाकामी बेकसी ग़ुरबत फ़रेबे दुश्मनां

नोके ख़न्जर, बारिशे पैकां बलाऐ ख़ूंचकां

 

है दमें शमशीर से भी तेज़ तर राहे जहां

हर क़दम इक मरहला है हर नफ़्स इक इम्तेहां

 

ज़िन्दगी फिर अहले दिल की है अब आसानी तलब

ये वह मय है जिसका हर क़तरा है क़ुर्बानी तलब

 

फ़ितरते आदम को कर देती है क़ुर्बानी बलन्द

दिल पे ख़ुल जाती है उसके नूर से हर राह बन्द

 

मेहरो मय होते हैं उसकी ख़ाके पा से अरजुमन्द

है फ़रिश्तों के गुलूऐ पाक से उसकी कमन्द

 

सर वह जिसमें ज़ौकें क़ुर्बानी हो झुक सकता नहीं

सिर्फ़ तिनकों से बङा सैलाब रूक सकता नहीं

 

गुलशनें सिदक़ो सफ़ा का लालऐ रंगी हुसैन

शम्में आलम मशअलें दुनिया चराग़ें दीं हुसैन

 

सर से पा तक सर ख़ही अफ़सान-ए- ख़ूनी हुसैन

जिस पे शाहों की ख़ुशी क़ुर्बान वो ग़मगीं हुसैन

 

मतलाऐ नूरे महो परवीं है पेशानी तेरी

बाज लेती है हर इक मज़हब से क़ुर्बानी तेरी

 

जाद-ए आलम में है रहबर तेरा हर नक़्शे क़दम

सायाऐ दामन है तेरी परवरिश गाहे ईरम

 

बाद-ए हस्ती का हस्ती से तेरी है कैफ़ो कम

उठ नही सकता तेरे आगे सरे लौहो क़लम

 

तूने बख़्शी है वह रफ़अत एक मुश्ते ख़ाक को

जो बई सरकरदगी हासिल नहीं अफ़लाक़ को

 

साथी-ए-बज़्में हक़ीक़त नग़मा-ए-साज़े मजाज़

नाज़ के आइना-ए-रौशन में तस्वीरे नियाज़

 

दीद-ए-हक़ बीं, दिल-ए-आगाह, निगाह-ए-पाकबाज़

रौनक़े शाहे अजम ऐ ज़ीनते सुब्हे हिजाज़

 

तूने बख़्शी हर दिले मर्दा को शम्मे हयात

जिसके परतों से चमक उठ्ठी जबीने कायनात

 

बारिशे रहमत का मुशदेह बाबे हिकमत की किलीद

रोज़े रौशन की बशारत, सुब्हे रंगी की नवीद

 

हर निज़ामें कोहना को पैग़ामे आईने जदीद

ऐ कि है तेरी शहादत अस्ल में मर्गे यज़ीद

 

तेरी मज़लूमी ने ज़ालिम को किया यूँ बे निशां

ढ़ुंढ़ता फिरता है उसकी हड्डियों को आसमां

 

हर गुले रंगी शहीदे ख़न्जरे जौरे ख़िज़ां

हर दिले ग़मगीं हलाके नशतरे आहो फ़ुग़ां

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सरदार ज्ञानी गुरमुख सिंह

हज़रत इमाम हुसैन अ0 शहीदों के सरताज थे। हज़रत इमाम हुसैन अ0 जैसे महापुरूष मैदाने जंग में मजबूरन लङाई करने आये हैं। आपने हैरत अंगेज़ तरीक़े से दिल हिला दिये और हमको इन्सानियत के गुर सिखाये। आज भी इमाम अ0 के नक़्शे क़दम पर चलने और उनके उसूलों को मानने की बेइन्तेहां ज़रूरत है क्योंकि बदी और बुराई ने इन्सान को फिर से परेशान कर रखा है। जो सच्चाई हज़रत इमाम हुसैन अ0 ने दुनिया के सामने रखी थी। सैकङों साल गुज़रे के बावजूद आज भी उसकी उतनी ही ज़रूरत है जितनी कि पहले थी। अगर हज़रत इमाम हुसैन अ0 अमल करने का सबक़ न देते तो सैकङों साल गुज़रने के बाद भी ज़िन्दगी की तस्वीर नुमाया न होती।

 

 

स्वतेजा सिंह

हजरत इमाम हुसैन अ0 ने आख़री दम तक नमाज़ नहीं छोङी, उनकी सही याद मनाने का तरीक़ा यही है कि उनके उसूलों पर अमल किया जाये।

 

 

महेन्द्र सिंह

हज़रत इमाम हुसैन अ0 करबला के मैदान में शहीद होकर ये साबित कर दिया कि हक़ हमेशा ज़िन्दा रहेगा और बातिल फ़ना होने वाला है।

 

 

 

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