प्रस्तावना
यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मानव समाज व संस्कृति पर सदैव आसमानी धर्मो का प्रभाव रहा है। पिछली शताब्दी के बारे में कहा जाता है कि इस में मानव “वही” को छोड़ कर “बुद्धि” की ओर उन्मुख हुआ है। परन्तु वास्तविक्ता यह है कि मनुष्य के बौद्धिक जीवन का मूल भी धर्म मे ही पाया जाता है।
इस समय यहूदी, इसाई व इस्लाम धर्म ही संसार के मुख्य तथा जीवित धर्म हैं। इस समय संसार में सबसे अधिक इसाई धर्म के अनुयायी पाये जाते हैं। तथाअनुयाईयों की सख्या के आधार पर इस्लाम धर्म द्वितीय स्थान पर है।
इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है और इस धर्म को हज़रत मुहम्मह (स.) के द्वारा मानव जाती के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस्लाम धर्म अपने प्रारम्भिक चरण से अब तक तीव्र गति से विकास की ओर उन्मुख है। बीसवी शताब्दी को तो इस्लाम के तीव्र विकास की शताब्दी समझा गया था। परन्तु इक्कीसवी शताब्दी को तो “इस्लामी शताब्दी”की ही संज्ञा दे दी गयी है।
आदरनीय आदम अलैहिस्सलाम के जन्म के समय से ही अल्लाह की ओर से मानव जाति के लिए “वही” व “मार्ग दर्शन” का कार्य शुरू हो गया था। आदरनीय आदम (अ.) अल्लाह के प्रथम पैगम्बर थे। उनके पश्चात एक के बाद एक नबी आते रहे और समय की माँग के अनुसार अल्लाह की ओर से मिलने वाले संदेश को मानवता तक पहुँचाते रहे।
वैसे तो सभी आसमानी धर्मों मे व्यापक स्तर पर एकता पायी जाती है। परन्तु हर नये धर्म में इतनी अच्छाइयाँ पायी जाती हैं कि वह अपने से पहले वाले धर्म को निरस्त कर देता है। और इस्लाम तो वह धर्म है जिसके सम्बन्ध में पिछले समस्त धर्मों ने अपने – अपने अनुयाईयों को अवगत कराया है कि इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है। अर्थात इस्लाम के बाद मानव पर अल्लाह की ओर से आने वाली वही के द्वार बन्द हो गये हैं। प्रकृतिक रूप से इस्लाम धर्म मे इतनी व्यापकता पाई जाती है कि वह अनंत काल तक मानव की समस्त आवश्यक्ताओं की पूर्ति कर सकता है। चाहे मानव जाति में कितने ही परिवर्तन क्यों न आजायें। इस लेख में जो कुछ भी कहा गया है वह इस्लाम धर्म के मूल भूत तत्वों और पैगम्बर के अहलेबैते द्वारा वर्णित शिया सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। यह लेख जहाँ मुसलमानों के लिए गर्व होगा वहीं अन्य धर्मों के अनुयाईयों के लिए भी विचारनीय होगा।
इस्लाम का शाब्दिक अर्थ “समर्पण” है। और क़ुरआन की भाषा में इसका अर्थ “अल्लाह के आदेशों के सम्मुख समर्पित”होना है। यह इस्लाम शब्द का आम अर्थ है।
क़ुरआने करीम इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म को इस अर्थ मे मान्यता नही देता। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 19 में वर्णन हुआ कि “इन्ना अद्दीना इन्दा अल्लाहि अलइस्लाम” अनुवाद–अल्लाह के समक्ष केवल इस्लाम धर्म ही मान्य है।
इस्लाम की दृष्टि में इस बात का महत्व है कि इस पवित्र आस्था में विश्वास रखते हुए नेक कार्य किये जाये। अर्थात केवल अपने आपको इस आस्था से सम्बन्धित कर देना ही पर्याप्त नही है।
सूरए बक़रा की आयत न. 62 में वर्णन हो रहा है कि “ इन्ना अललज़ीना आमनू व अल लज़ीना हादू व अन्नसारा व अस्साबिईना मन आमना बिल्लाहि व अलयौमिल आखिरि व अमिला सालिहन फ़लहुम अजरुहुम इन्दा रब्बिहिम वला खौफ़ुन अलैहिम वला हुम यहज़नूना” अनुवाद— केवल दिखावे के लिए ईमान लाने वाले लोगो, यहूदी, ईसाइ व साबिईन [हज़रत यहिया को मान ने वाले] में से जो लोग भी अल्लाह और क़ियामत पर वास्तविक ईमान लायेंगे और नेक काम करेंगे उनको उनके रब (अल्लाह) की तरफ़ से सवाब (पुण्य) मिलेगा और उनको कोई दुखः दर्द व भय नही होगा।
परन्तु इन सब बातों के होते हुए भी वर्तमान समय में दीने मुहम्मद (स.) ही इस्लाम का मूल रूप है। अन्य आसमानी धर्म केवल दीने मुहम्मदी से पूर्व ही अपने समय में इस्लाम के रूप में थे, जो अल्लाह की इबादत ओर उसके सामने समर्पण की शिक्षा देते थे।
जैसे कि क़ुऱाने करीम के सूरए बक़रह की आयत न. 133 में वर्णन होता है कि “अम कुन्तुम शुहदाआ इज़ हज़र याक़ूबा अलमौतु इज़ क़ाला लिबनीहि मा तअबुदूना मिन बअदी क़ालू नअबुदु इलाहका व इलाहा आबाइका इब्राहीमा व इस्माईला व इस्हाक़ा इलाहन वाहिदन व नहनु लहु मुस्लीमूना ”
अनुवाद—- क्या तुम उस समय उपस्थित थे जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया ? और उन्होंने अपनी संतान से पूछा कि मेरे बाद किसकी इबादत करोगे ? तो उन्होने उत्तर दिया कि आपके और आपके पूर्वजो इब्राहीम, इस्माईल व इस्हाक़ के अल्लाह की जो एक है और हम उसी के सम्मुख समर्पण करने वाले हैं।)
इसी प्रकार इस्लामें मुहम्मदी (स.) पूर्व के समस्त आसमानी धर्मों की सत्यता को भी प्रमाणित करता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की आयत न. 136 में वर्णन होता है कि
“ क़ूलू आमन्ना बिल्लाहि व मा उन्ज़िला इलैना व मा उन्ज़िला इला इब्राहीमा व इस्माईला व इस्हाक़ा व यअक़ूबा वल अस्बाति वमा ऊतिया मूसा व ईसा वमा ऊतिया अन्नबीय्यूना मिन रब्बिहिम, ला नुफ़र्रिक़ु बैना अहादिम मिनहुम व नहनु लहू मुस्लिमूना।”
अनुवाद— ऐ मुस्लमानों तुम उन से कहो कि हम अल्लाह पर और जो उसने हमारी ओर भेजा और जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और याक़ूब की संतान की ओर भेजा गया ईमान ले आये हैं। और इसी प्रकार वह चीज़ जो मूसा व ईसा और अन्य नबीयों की ओर भेजी गयी इन सब पर भी ईमान ले आये हैं। हम नबीयों में भेद भाव नही करते और हम अल्लाह के सच्चे मुसलमान (अर्थात अल्लाह के सम्मुख समर्पण करने वाले) हैं।
इसी आधार वह लोग जिनको इस्लाम के वास्तविक मूल तत्वों के बारे में नही बताया गया या जिनको बताया गया परन्तु वह समझ नही सके, जिसके फल स्वरूप वह हक़ (इस्लाम) से दूर ही रहे इस्लामी दृष्टिकोण से क्षम्य हैं।
इस्लाम वह धर्म है जिसका वादा सभी आसमानी धर्मों ने किया
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए हज की 78वी आयत में अल्लाह ने कहा है कि “ व जाहिदू फ़िल्लाहि हक़्क़ा जिहादिहि, हुवा इजतबाकुम वमा जआला अलैकुम फ़िद्दीनि मिन हरजिन, मिल्लता अबीकुम इब्राहीमा हुवा सम्माकुमुल मुस्लिमीना मिन क़ब्लु व फ़ी हाज़ा लियकूनुर्रसूलु शहीदन अलैकुम व तकूनू शुहदाअ अलन्नासि, फ़अक़िमुस्सलाता व आतुज़्ज़काता व आतसिमु बिल्लाहि, हुवा मौलाकुम फ़ा नेमल मौला व नेमन्नसीर।”
अनुवाद— और अल्लाह के बारे में इस तरह जिहाद करो जो जिहाद करने का हक़ है उसने तुम्हे चुना है और (तुम्हारे लिए) दीन में कोई सख्ती नही रखी है यही तुम्हारे दादा इब्राहीम का दीन है अल्लाह ने तुमको इस किताब में और इससे पहली (आसमानी) किताबों में मुसलमान के नाम से पुकारा है। ताकि रसूल तुम्हारे ऊपर गवाह रहे और और तुम लोगों के आमाल (अच्छे व बुरे काम) पर गवाह रहो अतः अब तुम नमाज़ स्थापरित करो और ज़कात दो और अल्लाह से सम्बन्धित हो जाओ वही तुम्हारा मौला(स्वामी) है और वही सबसे अच्छा मौला(स्वामी) और सहायक है।
दीने मुहम्मद इस्लाम के विशेष अर्थ में प्रयोग होता है।
अर्थात इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है जो हज़रत मुहम्मद स. के द्वारा समपूर्ण मानव जाती के लिए भेजा गया है। तथा इस्लाम का संविधान अनंतकाल तक अल्लाह पर ईमान, उसकी इबादत और उन समस्त चीज़ों को जो अल्लाह एक इंसान के जीवन में चाहता है दर्शाता रहेगा।
मानव जाति हज़रत मुहम्मद स. के पैगम्बर पद पर नियुक्ति के समय तक इतनी सक्षम व योग्य हो गया थी कि अल्लाह के पूर्ण दीन (इस्लाम) को ग्रहण कर सके और उसको अल्लाह के प्रतिनिधियों से समझ कर अनंतकाल तक अपना मार्ग दर्शक बनाये।
इस्लाम की शिक्षाऐं किसी विशेष स्थान या वर्ग विशेष के लिए नही हैं बल्कि इस्लाम क़ियामत (प्रलय) तक सम्पूर्ण मानव जाती के लिए मार्ग दर्शक है। क्योंकि इस्लाम ने मानव जीवन के समस्त संदर्भों पर ध्यान दिया है। अतः इस्लाम इतनी व्यापकता पाई जाती है कि मानव को समाजिक या व्यक्तिगत स्तर पर, भौतिक व आत्मिक विकास के लिए जिन चीज़ों की आवश्यक्ता होती हैं वह सब चीज़े इस में उपलब्ध है।
इस्लाम की शिक्षाओं को इन तीन भागो में विभाजित किया जा सकता हैक- एतिक़ादाती (आस्था से सम्बंधित)
ख- अखलाक़ियाती (सदाचार से सम्बंधित)
ग- फ़िक़्ही (धर्म निर्देशों से सम्बंधित)
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि नबी ने कहा है कि ज्ञान केवल तीन हैं आयाते मुहकिमह (आस्थिक), फ़रिज़ाए आदिलह (सदाचारिक) और सुन्नतुन क़ाइमह(फ़िक़्ह = धार्मिक निर्देश)
[उसूले काफ़ी 1/32]
“ एतिक़ादात” (धार्मिक आस्थाऐं) धर्म के मूल भूत तत्वों और अन्य शिक्षाओं का आधार हैं। इस्लाम धर्म की आस्थाऐं भी अन्य आसमानी धर्मों की तरह तौहीद नबूवत व मआद हैं।
क- तौहीद अर्थात अद्वैतवाद या एक इश्वरवादिता में विश्वास
ख- नबूवत अर्थात अल्लाह द्वारा भेजे गये नबीयों(प्रतिनिधियों) पर विश्वास
ग- मआद अर्थात इस संसार के जीवन की समाप्ति के बाद परलोकिय जीवन पर विश्वास।
क- तौहीद (अद्वैतवाद या एक इश्वरवाद)
यह धर्म की आधारिक शिक्षा है यह अल्लाह के एक होने पर ईमान के बाद अल्लाह की पूर्ण रूप से इबादत के साथ पूरी होती है। इस्लाम ने मानव की उतपत्ति का मुख्य उद्देश केवल इबादत को ही माना है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए ज़ारियात की आयत न. 56 में वर्णन हुआ कि “मा ख़लक़्तुल जिन्ना वल इंसा इल्ला लियअबुदूना।”
अनुवाद –मैंने जिन्नों और इंसानों को केवल इबादत के लिए पैदा किया है। अर्थात मानव की उतपत्ति का उद्देश्य केवल इबादत है।
इस्लाम केवल उतपत्ति में ही अद्वैतवाद[1] का ही समर्थक नही है बल्कि रबूबियत तकवीनी[2] और रबूबियत तशरीई[3] मे भी अद्वैतवाद का समर्थक है।
अल्लाह की रबूबियते तशरीई के काऱण नबूवत की आवश्यक्ता पड़ती है क्योंकि संचालन का कार्य आदेशों व निर्देशों के बिना नही हो सकता और इन आदेशों व निर्देशो को इंसानों तक पहुँचाने के लिए प्रतिनिधि की आवश्यक्ता है। इस्लाम में इन्ही प्रतिनिधियों को नबी (पैगम्बर) कहा जाता है।
अर्थात उन नबियों के अस्तित्व पर विश्वास रखना जो “वही” व इलहाम के द्वारा इंसानों के लिए अल्लाह से संदेश पाते हैं। यहाँ पर “वही” से तात्पर्य वह संदेश है जो विशेष शब्दों के रूप में नबियों की ज़बान व दिल पर जारी (विद्यमान) होता है।
परन्तु नबियों पर “वही” व “इलहाम” शब्दों के बिना भी हुआ है। इस्लामी विधान में इस प्रकार के संदेशों (बिना शब्दों के प्राप्त होने वाले संदेशों ) को हदीसे क़ुदसी कहा जाता है।
हदीसे क़ुदसी अल्लाह का एक ऐसा संदेश है जो अल्लाह के शब्दों में प्राप्त न हो कर मानव को नबी के शब्दों में प्राप्त हुआ है। यह संदेश क़ुरान के विपरीत है क्योंकि क़ुरआन के शब्द व आश्य दोनों ही अल्लाह की ओर से है।
प्रत्येक धर्म में “वही” एक आधारिक तत्व है। और वह धर्म जिसके नबी पर की गयी “वही” बाद की उलट फेर से सुरक्षित रही वह धर्म “इस्लाम” है। तथा अल्लाह ने इस सम्बन्ध में प्रत्य़क्ष रूप से वादा किया है कि वह क़ुरआन के संदेश को सुरक्षित रखेगा। जैसे कि क़ुराने करीम के सूरए हिज्र की आयत न. 9 में वर्णन हुआ है कि
“इन्ना नहनु नज़्ज़लना अज़्ज़िक्रा व इन्ना लहु लहाफ़िज़ून”
अनुवाद– हमने ही इस क़ुरान को नाज़िल किया है (आसमान से भेजा है) और हम ही इसकी रक्षा करने वाले हैं।
इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि क़ुरआन में कोई फेर बदल नही हुई है। और इसी प्रकार हदीसें भी इस विषय पर प्रकाश डालती हैं।
वर्णन योग्य बात यह है कि इस्लाम भी अन्य आसमानी धर्मों की तरह(उन धर्मों को छोड़ कर जिनमें फेर बदल कर दी गयी है) नबीयों को मासूम मानता है। और “वही” को इंसानों तक पहुँचाने के सम्बंध मे किसी भी प्रकार की त्रुटी का खण्डन करता है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए नज्म की आयत न. 3 और 4 में वर्णन होता है कि
“व मा यनतिक़ु अनिल हवा इन हुवा इल्ला वहीयुन यूहा।”
अनुवाद–वह (नबी) अपनी मर्ज़ी से कोई बात नही कहता वह जो भी कहता है वह “वही” होती है।
क़ुरआन एक आसमानी किताब है और इसमें वह सब चीज़े मौजूद हैं जिनका इस्लाम वर्णन करता है। इस किताब में उन चीज़ों का भी वर्णन है जो इस समय मौजूद हैं और उन चीज़ों का भी वर्णन है जो भविषय में पैदा होंगी। परन्तु मानव के कल्याण के लिए आवश्यक है उन समस्त चीज़ो के बारे में ज्ञान प्राप्त करे जो वर्तमान में मौजूद हैं या जो भविषय में पैदा होंगी।
क़ुरआन जिन चीज़ों का वर्णन करता है उनके सम्बंध में कभी एक शिक्षक के रूप मे शिक्षा देता है और जो मानव नही जानते उनको सिखाता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए निसा की आयत न. 113 में वर्णन हुआ है कि-
“ व अनज़लल्लाहु अलैकल किताबा वल हिकमता व अल्लमका मा लम तकुन तअलम, व काना फ़ज़लुल्लाहि अलैका अज़ीमन। ”
अनुवाद— अल्लाह ने आप पर किताब व हिकमत (बुद्धिमत्ता) को उतारा और आप जिन चीज़ों के बारे में नही जानते थे उन सब का ज्ञान प्रदान किया। और आप पर अल्लाह की बहुत बड़ी अनुकम्पा है।
और कभी एक सचेत करने वाले के रूप में मानव की प्रकृति में छिपी हुई चीज़ों को मानव के सम्मुख प्रस्तुत करता है, और उसको निश्चेतना से बाहर निकालता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अंबिया की आयत न. 10 मे वर्णन होता है कि–
“लक़द अनज़लना इलैकुम किताबन फ़ीहि ज़िक्रु कुम, अफ़ला तअक़िलून।”
अनुवाद– हमने तुम्हारी ओर एक किताब भेजी जिसमें तुम्हारे लिए चेतना है, क्या तुम इतनी भी अक़्ल नही रखते।
मनुष्यों की आत्मा की शुद्धि व प्रशिक्षण भी नबियों की एक ज़िम्मेदारी है। और यह भी “वही” से ही सम्बंधित है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलबक़रा की आयत न. 151 में वर्णन हुआ है कि “कमा अरसलना फ़ीकुम रसूलन मिनकुम यतलू अलैकुम आयातिना व युज़क्किकुम व युअल्लिमुकुमुल किताबा वल हिकमता व युअल्लिमुकुम मा लम तकुनू तअलमून।”
अनुवाद–जिस तरह हमने तुम्हारे पास तुम्ही में से एक पैगम्बर भेजा जो तुम्हारे सामने हमारी आयतों को पढ़ता है, तुम्हारी आत्माओं को पवित्र करता है और तुमको किताब व हिकमत (बुद्धि मत्ता) की शिक्षा देता है और वह सब कुछ बताता है जो तुम नही जानते।
शायद इंसानों के दिलों में संतोष पैदा करना भी आत्मा के प्रशिक्षण के अन्तर्गत ही आता है जैसे कि क़ुरआने करीम ने इस ओर संकेत भी किया है। क़ुरआने करीम के सूरए अलहूद की आयत न.120 में वर्णन होता है कि—
“व कुल्लन नक़ुस्सु अलैका मिन अम्बाइर्रुसुलि मा तुसब्बितु बिहि फ़ुआदका।”
अनुवाद–और हम आप के (सामने) पराचीन रसूलों की घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं ताकि तुम्हारे दिल में संतोष पैदा हो जाये।
शिक्षा व सचेत करने के अन्तर्गत ज्ञान के तीनों क्षेत्रों अक़ाईद (आस्था) अख़लाक़ (सदाचार) फ़िक़्ह (धर्म निर्देश) आ जाते हैं। और मानव इन तीनो क्षेत्रों में ही अल्लाह की अनुकम्पा का इच्छुक है।
अल्लाह स्वयं भी इंसान का आदर करता है और इसके आदर का आग्रह भी करता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलइसरा की आयत न. 70 में वर्णन होता है कि“ लक़द कर्रमना बनी आदमा व हमलनाहुम फ़िल बर्रि वल बहरि व रज़क़नाहुम मिनत्तय्यिबाति व फ़ज़्ज़लनाहुम अला कसीरिम मिम मन ख़लक़ना तफ़ज़ीलन।”
अनुवाद– और हम ने मानव जाती को को आदर प्रदान किया और उनको पानी व पृथ्वी पर चलने के लिए सवारियाँ तथा पवित्र भोजन प्रदान किया और बहुतसे प्राणी वर्गों पर उनको वरीयता दी।
यह सब उन गुणों के कारण है जो मानव की रचना में छिपे हुए हैं। और इन गुणों में सर्व श्रेष्ठ गुण यह है कि मानव में संसार की वास्तविकता को समझने और परखने की शक्ति पायी जाती है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलक़ की आयत न. 1-5 में वर्णन हुआ है कि “इक़रा बिस्मि रब्बिका अल्लज़ी ख़लक़ * ख़लाक़ल इंसाना मिन अलक़ *इक़रा व रब्बुकल अकरम * अल्लज़ी अल्लमा बिल क़लम * अल्लमल इंसाना मा लम याअलम।”
अनुवाद– उस अल्लाह का नाम ले कर पढ़ो जिसने पैदा किया। उसने इंसान को जमे हुए ख़ून से पैदा किया। पढ़ो और तुम्हारा पालने वाला (अल्लाह) बहुत करीम (दयालु) है। जिसने क़लम (लेखनी) के द्वारा शिक्षा दी। और इंसान को वह सब कुछ बता दिया जो वह नही जानता था।
परन्तु यह सब होते हुए भी इंसान अल्लाह की सहायता का इच्छुक है। ताकि मूर्खता व घमंड की खाई में न गिर सके। अल्लाह ने इंसान की प्रधानता से सम्बंधित क़ुरआन की उपरोक्त वर्णित आयात का वर्णन करने फौरन बाद कहा कि—
“कल्ला इन्नल इंसाना लयतग़ा * अन राहु इसतग़ना * ”
अनुवाद– निःसन्देह इंसान सरकशी करता है। वह अपने बारे में यह विचार रखता है कि उसे किसी चीज़ की आवश्यक्ता नही है।
बाद में वर्णित यह दोनों आयते इंसान की कमज़ोरी की ओर संकेत करती है। और क़ुरआने करीम की अन्य आयतें इंसान के सम्बंध में इस प्रकार वर्णन करती हैं।
“ इन्नहु काना ज़लूमन जहूलान ”
(सूरए अहज़ाब आयत न.72)
अनुवाद–वह बहुत ज़ालिम व जाहिल था।
“ इन्नल इंसाना लज़लूमुन कफ़्फ़ारुन”
(सूरए अल इब्राहीम आयत न.34)
अनुवाद–इंसान ज़ालिम व शुक्र न करने वाला है।
“ काना अल इंसानु अजूलन”
(सूरए अल असरा आयत न. 11)
अनुवाद– इंसान बहुत जल्दबाज़ था।
“ व ख़ुलिक़ल इंसानु ज़ईफ़न”
(सूरए अन्निसा आयत न.28)
अनुवाद–इंसान को कमज़ोर पैदा किया गया है।
“ इन्नल इंसाना ख़ुलिक़ा हलूअन”
(सूरए अल मआरिज आयत न. 19)
अनुवाद–निःसन्देह इंसान को लालची पैदा किया गया है।
पूर्ण रूप से संसार की वास्तविक्ता को जानने में इंसान के सम्मुख जहाँ एक ओर अक़ले नज़री[4] व अक़्ले अमली[5] की कमज़ोरियाँ व्याप्त हैं वही दूसरी ओर रूह(आत्मा) की कमज़ोरियाँ उसे घेरे है। जिन के कारण–
1- वह सूक्ष्मता के साथ यह नही जानता कि उसकी भलाई किन चीज़ों में है।
2- वह अपने अन्दर पाये जाने वाले एहसास पर पूर्ण रूप से विश्वास नही कर सकता।
उपरोक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि इंसान को “वही” की आवश्यक्ता है। और “वही” दो प्रकार से इंसान की सहायता करती है।
1- धर्म शिक्षा के द्वारा।
2- इंसाने कामिल[6] प्रस्तुत करके।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अहज़ाब की आयत न. 21 में वर्णन हुआ है कि “ लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवतुन हसनतुन”अनुवाद— निः सन्देह रसूल का जीवन तुम्हारे लिए एक आदर्श था।
ग- मआद अर्थात इन बातों पर विश्वास होना कि —
1- इंसान का जीवन केवल इस संसार तक सीमित नही है। बल्कि क़ियामत(प्रलय) के दिन समस्त इंसान फिर से जीवित किये जायेंगे। और कभी न समाप्त होने वाले अपने नये जीवन को प्रारम्भ करेंगे।
पैगम्बर स. ने कहा है कि “ मा ख़ुलिक़तुम लिल फ़नाए बल ख़ुलिक़तुम लिल बक़ाए व इन्नमा तनक़ुलूना मिन दारिन इला दारिन।”
(बिहार उल अनवार6/249)
अनुवाद—तुमको विनाश के लिए नही बल्कि सदैव बाक़ी रखने के लिए पैदा किया गया है। बस मृत्यु के द्वारा एक घर से दूसरे घर में परिवर्तित हो जाते हो।
बल्कि इस्लामी शिक्षाओं में संसार व परलोक के अलावा एक बरज़ख[7] नामक जीवन का भी वर्णन हुआ है जो कि संसार व परलोक के मध्य का जीवन काल है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलमुमिनून की आयत न. 100 मे वर्णन हुआ है कि–
“व मिन वराइहिम बरज़ख़ुन इला यौमिन युबअसूना। ”
अनुवाद—और इसके बाद बरज़ख़ है जो क़ियामत के दिन तक रहेगा।
इस आधार पर इंसान का जीवन जन्म से शुरू हो कर निरन्तर चलता रहता है।
2- संसार परलोक की खेती है।
क्योंकि पैगम्बरे इस्लाम स. ने कहा है कि “अद्दुनिया मज़रअतुन आख़िरति।”
अनुवाद — संसार परलोक की खेती है।
(अवालियुल लआली 1/267)
“मआद”जिसका सभी धर्म वर्णन करते हैं, वह इस बात को उजागर करती है कि इंसान का परलोकीय जीवन इस संसार के कार्यों पर आधारित है। यह संसार एक ऐसा स्थान है जहाँ पर इंसान अपने जीवन के मार्ग को स्वयं अपनी मर्ज़ी से चुनता है। इंसान इस संसार में अल्लाह द्वारा प्रदान किये गये अक़्ल व “वही” के पैमाने पर परख कर पवित्रता या अपवित्रता के आधार पर दिल से जिस मार्ग को चुनता है, वह मार्ग इस बात को निश्चित करता है कि उसका परलोकीय जीवन किस प्रकार का होगा।
अमीरूल मोमिनीन अ. ने कहा कि “इन्ना अलल्लाहा जअलद्दुनिया दारा अलआमालि व जअला अल आखिरता दारा अलजज़ाइ वल क़रारि।”
अनुवाद—अल्लाह ने संसार को अमल (कार्य करने) के लिए बनाया और परलोक को उन कार्यों का फल तथा अमरता प्रदान करने के लिए बनाया।
(बिहारूल अनवार32/46)
बल्कि परलोकीय जीवन इंसान के संसारिक कार्यों का ही रूप है। या (यह कहा जा सकता है कि परलोकीय जीवन में इंसान के कार्य वास्तविकता का रूप धारण कर लेंगे।)
क़ुरआने करीम के सूरए ज़लज़ला की आयत न. 7-8 में कहा गया है कि—
“फ़मन यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन खैरन यरहु व मन यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन शर्रन यरहु।”
अनुवाद– जिस ने एक कण के बराबर भी कोई अच्छाई की वह उस अच्छाई को देखेगा और जिसने एक कण के बराबर कोई बुराई की है वह उस बुराई को देखेगा।
परन्तु अल्लाह की अनुकम्पा व दया इंसान के अच्छे कार्यों को उसका दस गुना करके दिखा सकती है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अल अनाम की आयत न. 160 में वर्णन होता है कि—
“ मन जाआ बिल हसनति फ़लहु अशरु अमसालिहा।”
अनुवाद– जो अच्छा कार्य करेगा उसको उस कार्य का दस गुना फल मिलेगा।
संसार की एकता व उद्देश्यपूर्णता बुद्धिमत्ता पर आधारित
आसमानी धर्मों के “तौहीदी दृष्टिकोण” के अनुसार यह संसार एक इरादे से उतपन्न हुआ है और उसी के द्वारा संचालित हो रहा है। उस (अल्लाह) के इरादे से जो ज्ञानी, बुद्धिमान, सत्य व भलाई चाहने वाला है। इसी आधार पर इस संसार के समस्त अंशों में एकता विद्यमान है। इसी एकता के अनुकरण के कारण इस संसार का कोई भी अंश अल्लाह से सम्बंध स्थापित किये बिना इस संसार के अन्य अंशों को नही जान सकता। और क्योंकि इस संसार में एक अख़लाक़ी निज़ाम[8](व्यवस्था) व्याप्त है। अतः इंसान के अच्छे व बुरे कार्य उसके संसारिक व परलोकीय जीवन पर प्रभाव डालते हैं।
संसार पर बुद्धिमत्ता पूर्ण एकता का अधिपत्य
इस्लाम मे इस बात की ओर विशेष रूप से ध्यान को आकर्षित करा गया है। और इसी कारण इंसान के आध्यात्मिक जीवन के सुधार के लिए जो नीतियाँ बनाई गयीं है। उन में इस बात को ध्यान में रखा गया है कि यह नितियाँ आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ समाजिक व व्यक्तिगत स्तर पर मानव के भौतिक जीवन के विकास में भी सहायक हो। अतः वह प्रत्येक आदेश जो इंसान के भौतिक जीवन के किसी अंश के सम्बन्ध में जारी होता है वह आस्था के मूल तत्वों, सदाचार व आध्यात्मिकता से परिपूर्ण होता है। और यह अल्लाह की एक सुन्नत[9] है।
इस्लाम धर्म की उतपत्ति अरब के हिजाज़ प्रान्त के मक्के नामक शहर में हुई। और इस धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) हैं। मक्का वह पवित्र शहर है जिसमें हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह की इबादत के लिए “काबे” नामक एक विशाल इबादत गाह का निर्माण किया था। हज़रत मुहम्द स. हिजाज़ के विश्व विख्यात व शक्तिशाली कबिले “क़ुरैश” से सम्बन्धित थे। और क़ुरैश क़बीले में आपका परिवार “बनी हाशिम” के नाम से पहचाना जाता था जो अपने सद्व्यवहार के लिए प्रसिद्ध था।
सन् 610 ई. में हज़रत मुहम्मद स. ने पैगम्बरी के पद को ग्रहण किया। और इसी के साथ इस्लाम प्रचार का कार्य आरम्भ हो गया। प्रारम्भ में तो हज़रत मुहम्मद स. ने केवल अपने परिवार व क़बीले से ही इस्लाम धर्म को स्वीकार करने की याचना की। परन्तु बाद में इस्लाम प्रचार ने विस्तृत रूप धारण कर लिया। और सार्वजनिक स्तर पर लोगों को इस्लाम की ओर बुलाया जाने लगा। हज़रत मुहम्मद (स). की नबूवत का सबसे अधिक विरोध क़ुरैश के उन लोगों ने किया जो बनी हाशिम से ईर्श्या रखते थे और यह विरोध इतना अधिक था कि इसके प्रभाव बाद में भी शेष रहे।
इस्लाम धर्म 13 वर्ष की समय सीमा में मक्के में धीरे धीरे विकसित होता रहा। और जब क़ुरैश व उनके समर्थकों की शत्रुता के कारण पैगम्बर ने मक्के से मदीने की ओर हिजरत[10] की तो इस विकास में और भी अधिक तीव्रता आ गयी । और अन्त में पैगम्बर (स.) व उनके साथियों के 23 वर्षीय निरन्तर प्रयास के फल स्वरूप पूरे अरब वासियों ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया और मुसलमान हो गये।
इसी समय सीमा में “शियायाने अली” नामक एक विचारधारा का उद्य हुआ। शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों ने पैगम्बर (स.) की बहुतसी ऐसी हदीसों का वर्णन किया है जिनसे यह ज्ञात होता है कि उस समय इस विचार धारा को मान्यता प्राप्त थी। जैसे—
इब्ने असाकिर ने एक रिवायत में जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह के इस कथन का उल्लेख किया है कि “कुन्ना इन्दा रसूलिल्लाह (स.) फ़अक़बला अलीयुन (अ.) फ़क़ालन नबीय्यु (स.) वल्लज़ी नफ़्सी बियदिहि ! इन्ना हाज़ा व शियतहु लहुम फ़ाइज़ूना यौमल क़ियामति व नज़लत “इन्ना अल लज़ीना आमिनू व अमिलुस्सालिहाति उलाइका हुम ख़ैरुल बरिय्याति” फ़काना असहाबुन्नबिय्यि (स.) इज़ा अक़बला अलीयुन क़ालू जाआ खैरुल बरिय्याति।”
अनुवाद– जाबिर कहते हैं कि हम नबी (स.) के पास बैठे हुए थे कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम आये और नबी (स.) ने कहा कि “मैं उसकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि जिसके अधिकार में मेरी जान है कि क़ियामत के दिन यह (अली अ.) और इनके शिया सफ़ल होने वाले हैं। उस समय यह आयत नाज़िल हुई कि- निःसन्देह जो लोग ईमान लाये और उन्होंने अच्छे कार्य किये वह सब खैरि बरिय्यह हैं। इसके बाद से अली (अ.) जब भी असहाब के किसी समूह के पास जाते थे तो असहाब कहते थे कि खैरुल बरिय्यह आगये हैं।”
(दुर्रे मनसूर 6/589 दारुल फ़िक्र द्वारा प्रकाशित)[11]
इतिहास ने पैगम्बर (स.) के बहुतसे ऐसे साथियों का वर्णन किया है जिनको शियायाने अली (अ.) के रूप में जाना जाता था जैसे –अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास, फ़ज़्ल बिन अब्बास, क़सम बिन अब्बास, अक़ील बिन अबी तालिब, सलमाने फ़ारसी, मिक़दाद, अबुज़र, अम्मारि यासिर, अबुअय्यूब अन्सारी, उबई बिन कअब, सअद इब्ने इबादह, मुहम्मद बिन अबि बक्र इत्यादि इसी समूह में आते हैं।
( इस सम्बन्ध में असदुल ग़ाब्बत[12], अल इस्तियाब[13], अल असाबा[14] सुन्नी सम्प्रदाय की किताबें व दरजातुर्रफ़िय्यह, असलुश्शियत व उसूलुहा, फ़सूलुल मुहिम्मह शिया सम्प्रदाय की किताबें हैं।)
इस विचार धारा की उतपत्ति का कारण यह था कि एक ओर तो अपनी धार्मिक विशेषताओं के कारण हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैगम्बर (स.) के समीप विशिष्ठ स्थान प्राप्त था। तथा दूसरी ओर पैगम्बर (स.) ने हज़रत अली (अ.) को अपना उत्तराधिकारी बनाने की वसीयतें की थी।
परन्तु क़ुरैश के वह व्यक्ति जो बनी हाशिम से पुराने समय से ईर्श्या रखते थे। उनको यह बात स्वीकारीय नही थी और बहुत से अवसरों पर उनके द्वारा अली (अ.) का विरोध करने से यह बात पैगम्बर (स.) के जीवन में ही व्यक्त हो चुकी थी। पैगम्बर ने अली (अ.) के साथ क़ुरैश के व्यवहार की कई बार भर्त्सना भी की। जैसे—
यमन के धर्म युद्ध के अवसर पर पैगम्बर (स.) के साथियों के एक गिरोह (ख़ालिद पुत्र वलीद व उसके मित्र) अली (अ.) के सेनानेतृत्व के मामले को लेतकर पैगम्बर की सेवा में पहुँचा। पहले तो पैगम्बर ने उनकी बात पर कोई ध्यान नही दिया परन्तु जब उन्होने इस बात को कई बार दोहराया तो पैगम्बर उन पर क्रोधित हो गये और कहा कि “ मा तुरीदूना मिन अली ? ”अर्थात तुम लोग अली के सम्बन्ध में क्या विचार रखते हो?और इसके फ़ौरन बाद कहा कि “इन्ना अलीयन मिन्नी व अना मिन्हु व हुवा वलियुन कुल्लि मुमिनिन बअदी।”
अनुवाद– निःसन्देह अली मुझ से है और मैं अली से हूँ । और वह मेरे बाद समस्त मोमिनों के मौला हैं।
(मुसनदे अहमद[15] 4/438 व सही तिरमिज़ी[16] 5/296)
इन विरोधों का लाभ यह हुआ कि बहुत से लोगों लगाव हज़रत अली (अ.) की ओर होगा। जैसे कि दूसरे खलीफ़ा ने इस सम्बन्ध में गवाही भी दी है, जब उन्होनें इब्ने अब्बास से कहा कि ऐ अब्बास के पुत्र ! क्या तुम जानते हो कि वह क्या बात थी जिसके कारण पैगम्बर के बाद तुम्हारी बैअत नही हुई ? वह यह पसंद नही करते थे कि तुम लोग नबूवत की तरह खिलाफ़त को भी अपने पास रखो और अपनी क़ौम पर प्रभाव जमाओ। अतः क़ुरैश ने खिलाफ़त पर अपना अधिकार जमा लिया और यह एक सफ़ल व अच्छा कार्य था।
इसके बाद उमर ने कहा कि “मैंनें सुना है कि तुम यह कहते हो कि ख़िलाफ़त को हम से ईर्श्या के कारण बलपूर्वक छीन लिया गया। ”
इब्ने अब्बास ने उत्तर दिया कि “तुमने जो यह कहा है कि बलपूर्वक छीन लिया गया इसमें कोई सन्देह नही है इसको तो आलिम व जाहिल हर व्यक्ति जानता है। और तुमने यह जो कहा है कि यह ईर्श्या के कारण था तो यह बात सही है क्योंकि तुम जानते हो कि आदम से ईर्श्या की गई और हम उसी आदम के पुत्र हैं जिनसे ईर्श्या की गई थी।”
( अल कामिल फ़ित्तारीख़,[17] 3/24शरहे इब्ने अबिल हदीद[18] 3/107 तारीख़े बग़दाद[19] 2/97)
उपरोक्त वर्णित उमर की इस बात चीत का वर्णन याक़ूबी ने भी किया है और उसने यह भी लिखा है कि अन्त में उमर ने कहा कि “ ऐ इब्ने अब्बास!अल्लाह की क़सम आपके चचा के पुत्र अली खिलाफ़त पद के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति हैं। परन्तु क़ुरैश तो उनको देखना भी पसंद नही करते।”
(मरूजुज़्ज़हब[20] 2/137)
हिजाज़ (अरब) की वह भूमी जहाँ पर क़बीला प्रथा का अधिपत्य था, पैगम्बर के सम्मुख इस प्रकार की ईर्श्या व विरोध का पाया जाना कोई आश्चर्य जनक बात नही है।
शिया 12 व्यक्तियों की इमामत में विश्वास रखते हैं जिनमें पहले इमाम हज़रत अली (अ.) हैं, और शेष 11 इमाम पैगम्बर की संतान से हैं। और शियों का विशवास है कि बारहवे इमाम जीवित हैं और परोक्ष रूप से जीवन यापन कर रहे हैं।
शिया सम्प्रदाय विशेष रूप से दो बातों पर बल देता है।
1- ज्ञान के क्षेत्र में अहलेबैत[21]के संरक्षण (विलायत) को आवश्यक मानता है
और यह पैगम्बर (स.) की बहुत सी हदीसों से सिद्ध है।
आयते ततहीर- “इन्नमा युरीदुल्लाहु लियुज़हिबा अनकुमुर्रिजसा अहला अलबैति व युताह्हिरा कुम ततहीरन।”
अनुवाद– ऐ अहलिबैत बस अल्लाह का इरादा यह है कि तुम से हर प्रकार की बुराई को दूर रखे और तुम को इस तरह पवित्र रखे जो पवित्र रखने का हक़ है।
(सूरए अहज़ाब आयत न. 33)
शिया व सुन्नी दोनों सम्प्रदायों की हदीसों से सिद्ध है कि यह आयत पैगम्बर (स.) के अहलिबैत के सम्बन्ध में नाज़िल हुई है।
हदीसे सक़लैन- क़ालन नबी (स.) या अय्युहन्नासु इन्नी तारिकुन फ़ीकुम मा इन अख़ज़्तुम बिहि लन तज़िल्लू –किताबल्लाहि व इतरती अहला बैती।
अनुवाद–ऐ लोगो मैं तुम्हारे मध्य दो चीज़े छोड़ कर जा रहा हूँ एक अल्लाह की किताब दूसरे मेरे अहलिबैत अगर तुम इन दोनों से सम्बन्धित रहे तो कभी भी भटक नही सकते।
(कनज़ुल उम्माल 1/44, मुसनदे अहमद5/ 17,26, मुस्तदरके हाकिम[22] 3/109,148 थोड़े से फ़र्क़ के साथ)
हदीसे सफ़ीनेह-क़ालन नबी (स.) “अला इन्नः मस्ला अहलुबैती फ़ीकुम मिस्लु सफ़ीनति नूह मन रकिबाहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”
अनुवाद– पैगम्बर (स.) ने कहा कि जानलो कि निः सन्देह मेरे अहलिबैत तुम्हारे बीच नूह की किश्ती के समान हैं। जो इस पर सवार होगा वह मुक्ति प्राप्त करेगा और जो इस पर सवार नही होगा वह डूब जायेगा।
(मुस्तदरक 3/151)
यह और इनके जैसी अन्य बहुतसी हदीसें, और बहुतसी वह हदीसें जिनका वर्णन क़ुरआन की आयतों की तफ्सीर (व्याख्या) के लिए किया गया इस बात को सिद्ध करती हैं कि पैगम्बर के अहलिबैत इंसानों के लिए हुज्जत हैं। और धर्मिक व्याख्यानों के अनुसार वह मासूम भी हैं। मासूम अर्थात वह व्यक्ति जिससे किसी भी स्थिति में किसी भी प्रकार की कोई ग़लती न हो।
शिया मज़हब पैगम्बर (स.) के अहलिबैत के स्थान की महत्ता के विश्वास में विशेष स्थान रखता है। और वह इस लिए कि शिया मज़हब ही केवल वह मज़हब है जो आइम्माए अतहार (अ.) की विलायत और हिदायत में विश्वास रखता है। और जिसने इस्लामी अहकाम (निर्देशों) का वर्णन करके और समय व स्थान की आवश्यक्ता अनुसार उनको निरन्तर अनुकूलता बनाए रखकर और इसी प्रकार इमामों को हर समय में एक इंसाने कामिल के रूप में प्रस्तुत करके अल्लाह व इंसानों के बीच अल्लाह की हिदायत के सम्बन्ध को सदैव सुरक्षित रखा है। और अल्लाह की विलायत को हमेशा मौजूद माना है।
अन्य धर्मों व इस्लाम के दूसरे मज़हबों में इस (इमामत) आस्था व विश्वास के न होने के कारण उन धर्मो या मज़हबो ने जीवन के बहुतसे क्षेत्रों पर रौशनी नही डाली है। और इन मज़ाहबों में ऐसे मार्ग दर्शकों के अभाव में जिन पर “वही” आती हो सम्स्याओं के समाधान हेतू स्वंय विचार विमर्श करना पड़ा है। और इतिहास इस बात का साक्षी है कि इंसान ने जब भी “वही” को छोड़ कर अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहा वह सामाजिक बिखराओ व पथभ्रष्टिता का कारण बना और बर्बादी के अलावा कुछ भी हाथ नही आया। हमारे लिए यही अधिक है कि वर्तमान समय में हम संसार को सबक़ लेने की दृष्टि से देखें। सिर्फ़ शिया मज़हब ही वह मजहब है जो आइम्मा-ए-मासूमीन से सम्बन्धित होने के कारण निरन्तर “वही” के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करता रहा है।
हमें धर्म के सम्बन्ध में पैगम्बर (स.) के मासूम अहलिबैत की लाखों हदीसें (पवित्र कथन) प्राप्त हुई हैं। और शियों के होज़े इल्मिया(धार्मिक शिक्षण केन्द्र) कि जिनका शिलान्यास अहलिबैत (अ.) के हाथों से हुआ 1300 वर्ष से निरन्तर इन हदीसों के प्रसार, गहरे अध्ययन और प्रकाशन में व्यस्त है।
2- अहलेबैत के सियासी संरक्षण (विलायत) को आवश्यक मानता है।
शिया मज़हब की यह अवधारणा है कि पैगम्बर (स.) ने खिलाफ़त व इस्लामी समाज की इमामत बिना किसी अन्तर के हज़रत अली (अ.) और उनके बाद उनके 11 मासूम बेटों की ओर हस्तान्त्रित की है। और यह मूर्खता पूर्ण ईर्श्या का फल था कि खिलाफ़त ने दूसरा रंग ले लिया और दीने इस्लाम की खिलाफ़त वास्तविक ख़लीफ़ा के हाथों में न जा सकी।
इस दावे को पैगम्बर (स.) का एक कथन सिद्ध करता है जो कि अल्लाह के आदेश से कहा गया है।
हदीसे मंज़िलत
मुहम्मद इस्माईल बुख़ारी ने अपनी किताब सही बुखारी में पैगम्बर (स.) की इस हदीस का वर्णन किया है कि “इन्ना रसूलल्लाह (स.) ख़रजा इला ग़ज़वति तबूकिन व ख़रजा अन्नासु मअहु फ़क़ाला लहु अलीयुन अख़रजु मअक ? फ़क़ाला ला फ़बका अलीयुन फ़क़ाला लहु रसूलुल्लाहि (स.) अमा तरज़ा अन तकूनु मिन्नी बिमनज़लति हारूना मिन मूसा इल्ला इन्नहु ला नबीया बअदी ? इन्नहु ला यमबग़ी अन यज़हबा इल्ला व अन्ता ख़लीफ़ती।”
अनुवाद–पैगम्बर(स.) तबूक नामक धर्म युद्ध के लिए निकले और उनके साथ अन्य लोग भी निकले , पैगम्बर(स.) से अली (अ.) ने कहा कि क्या मैं आपके साथ
चलूँ ? पैगम्बर ने कहा कि नही। (यह सुनकर) अली अ. रोने लगे तब पैगम्बर(स.) ने अली (अ.) से कहा कि क्या तुम इस बात से राज़ी नही हो कि तुमको मेरे समीप वही स्थान प्राप्त है जो स्थान हारून को मूसा के समीप प्राप्त था, इसके अलावा कि मेरे बाद कोई नबी नही है। बस जिस तरह हारून मूसा के साथ नही गये और उनके ख़लीफ़ा बन कर रहे इसी प्रकार आप भी मेरे ख़लीफ़ा के रूप में यहाँ पर रहें।
(सही बुख़ारी[23] 5/ बाबि फ़ज़ाइलि असहाबुन्नबी 24/ बाबि मनाक़िबि अली , सही मुस्लिम[24] बाबि फ़ज़ाइलि अली 120,121)
हदीसे ग़दीर अहमद ने ज़ैद पुत्र अरक़म के हवाले से उल्लेख किया है कि उसने कहा कि “नज़लना माअर रसूलिल्लाह (स.) बिवादिन युक़ालु लहु वादियि ख़ुम, फ़अमरा बिस्सलाति फ़सल्लाहा बिहुजैर क़ाला फ़ख़तबना व ज़ल्ला लिरसूलिल्लाहि (स.) बिसूबिन अला शजरतिन समरतिन मिन अश्शम्सि फ़क़ाला अलस्तुम तअलमूना अवा लस्तुम तशहदूना अन्नी अवला बिकुल्लि मुमिनिन मिन नफ़सिहि ? क़ालू बला क़ाला फ़मन कुन्तु मौलाहु फ़अलीयुन मौलाहु अल्लाहुम्मा वालि मन वालाहु व आदि मन आदाहु।”
अनुवाद–हम रसुलूल्लाह के साथ एक स्थान पर पहुँचे जिसे ख़ुम कहा जाता था। रसूलुल्लाह (स.) ने नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया और हमने गर्मी में नमाज़ पढ़ी । वह कहता है कि इसके बाद रसूल ने एक ख़ुत्बा (भाषण) दिया और रसूलुल्लाह को धूप से बचाने के लिए एक पेड़ पर कपड़ा डाल कर साया किया गया। बस रसूलुल्लाह ने कहा कि क्या तुम नही जानते क्या तुम गवाही देते हो कि मैं मोमिनीन पर उनसे ज़्यादा अधिकार रखता हूँ ?सबने उत्तर दिया कि हाँ (आप सब पर उनसे अधिक अधिकार रखते हैं) रसूल (स.) ने कहा कि जिस जिस का मैं मौला[25] हूँ उस उस के अली मौला हैं। ऐ अल्लाह तू उसको मित्र रख जो अली को मित्र रखे और तू उससे शत्रुता रख जो अली से शत्रुता रखे।
(मुसनदे अहमद 4/372, सवाइक़ुल मुहर्रिक़ह[26] 43,44, मुस्तदरके हाकिम 3/109)
यह जानना आवश्यक है कि ग़दीरे ख़ुम की घटना आयते बलाग़ के नाज़िल होने के बाद घटित हुई। इस आयत में अल्लाह ने कहा है कि “या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिका व इन लम तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नासि इन्ना अल्लाहा ला यहदि अल क़ौमल काफ़ीरीना।”
(सूरए माइदह आयत न.67)
अनुवाद — ऐ पैगम्बर आप उस संदेश की घोषणा कर दीजिये जो आपके अल्लाह की ओर से आप पर उतारा जा चुका है। और यदि आपने ऐसा न किया तो यह इसके समान है कि आपने अपनी पैगम्बरी का कोई संदेश नही पहुँचाया।
और जब अली अलैहिस्सलाम की मौलाइयत की घोषणा कर दी तो आयते इकमाले दीन नाज़िल हुई जिसमें अल्लाह ने कहा कि “अल यौमा यइसल लज़ीना कफ़रू मिन दीनिकुम फ़ला तख़शव हुम व इख़शवनि अल यौमा अकमलतु लकुम दीनाकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुम अल इस्लामा दीनन।”
(सूरए माय़दह आयत 3)
अनुवाद — आज के दिन काफ़िर तुम्हारे दीन से मायूस हो गये अतः तुम उनसे न डरो और मुझ से डरो। आज मैने तुम्हारे दीन का पूर्ण कर दिया, और अपनी नेअमतों को भी पूरा कर दिया। और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसंदीदा बना दिया।
उपरोक्त वर्णन जो इतिहास, बुद्धि, आयत व सुन्नी सम्प्रदाय की रिवायतों के आधार पर हुआ है यह एक सारांश है। अपितु इस सम्बन्ध में बहुत अधिक साक्ष्य मौजूद हैं।
इस्लाम धर्म के सभी सम्प्रदाय इस सम्बन्ध में उलझे हुए कि यह कैसे सम्भव है कि पैगम्बर ने अपने बाद के लिए उम्मत की इमामत की समस्या को हल न किया हो, जबकि वह उम्मत की ओर से सदैव चिंतित रहते थे ?
यह एक छोटासा संकेत कि “यह बात असम्भव है” इस बात के महत्व को बढ़ाता है कि पैगम्बर ने खलीफ़ा की नियुक्ति की है और उम्मत को बग़ैर इमाम के नही छोड़ा है।
उपरोक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि शियत वास्तव में एक ऐसी विचारधारा है जो अपने अन्दर निरन्तरा लिए हुए है और इसके मार्ग दर्शक पैगम्बर (स.) हैं। दूसरे शब्दों में शियत इस्लाम का एक ऐसा व्याख्यान है जो पैगम्बर द्वारा प्रशिक्षित लोगों (अहलिबैत) के द्वारा हम को प्राप्त हुआ है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम नें अपने शियों को लिखे गये एक पत्र में यह लिखा है कि “बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम मिन अब्दिल्लाहि अली अमीरिल मुमिनीन इला शीअतिहि मिनल मुमिनीना व हुवा इस्मुन शर्रफ़हु अल्लाहु फ़ी अल किताबि फ़इन्नहु यक़ूलु “व इन्ना मिन शीअतिहि लिइब्राहीमा ” व अन्तुम शीअतिन नबीय्यी मुहम्दिन… इस्मुन ग़ैरु मुख़तस्सिन व अमरुन ग़ैरु मुबतदइन।”
(मुस्तदरक नहजुल बलाग़ह2/29)
अर्थात मेरा अनुसरण पैगम्बर का अनुसरण है, क्योकि पैगम्बर ने मुझे अपना उत्तराधिकारी बनाया है। शिया शब्द केवल मेरे कुछ साथियों जैसे अबुज़र, मिक़दाद, सलमान व अम्मार से विशेष नही है। बल्कि यह शिया शब्द हर उस व्यक्ति पर सत्य आता है जो मुहम्मद (स.) और उनके उत्तराधिकारी पर ईमान रखता है।
सक़ीफ़ेह की घटना के कारण आइम्मा-ए अतहार (अहलिबैत) की विलायत प्रत्यक्ष रूप से क्रियान्वित न हो सकी। और अफ़सोस है कि क्योँकि बनी उमैय्यह व बनी अब्बास को यह भय था कि कहीँ ऐसा न हो कि अहले बैत का वर्चस्प स्थापित हो जाये इस लिए अहलिबैत की इल्मी मरजीअत की ओर से भी लापरवाही की गई। अर्थात ज्ञान के क्षेत्र में भी इनसे सम्पर्क स्थापित नही किया गया। यहाँ तक कि शियों के इमामों (पैगम्बर के अहलिबैत) ने एक प्रकार से अपना पूरा जीवन तक़िय्यह में व्यतीत किया और सब शहीद हुए।
आज शिया सम्प्रदाय की प्रार्थना यह है कि जैसे कि हम सब जानते हैं कि खिलाफ़त के मामले में जो कुछ भी हुआ, जैसे भी हुआ, वह आज समाप्त हो चुका है। अब यह चाहिए कि कम से कम अहलिबैत अलैहिमुस्सलाम की इल्मी मरजिअत को जीवित रखा जाये और उनके इल्म को प्रसारित किया जाये। हमारा विश्वास है कि इस्लामी समाज, बहुतसी समस्याओं से केवल इस लिए उन्मुख है क्योँकि वह अहलिबैत अलैहिमुस्सलाम के इल्म से वंचित है। अगर इस्लाम उस नक़्शे पर चलता जो पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने बनाया था तो आज पूरा संसार इस्लामी हिदायत (मार्ग दर्शन) से लाभान्वित हो रहा होता।
वह मासूम इमाम जो एक के बाद एक पैगम्बर (स.) के उत्तराधिकारी बनते रहे 12 हैं। और बारहवे इमाम अब तक जीवित हैं तथा परोक्ष रूप से जीवन यापन कर रहे हैं। जिस प्रकार हज़रत पैगम्बर (स.) ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने बाद के लिए इमाम नियुक्त किया इसी प्रकार हज़रत अली (अ.) ने भी अपने बाद के लिए इमाम नियुक्त किया और यह प्रक्रिया आगे तक चलती रही अर्थात हर इमाम अपने से बाद वाले इमाम का परिचय कराता रहा।
इसके अलावा कुछ ऐसी रिवायतें (उल्लेख) मिलती हैं जिनमें पैगम्बर (स.) ने अपने बाद आने वाले इमामों की संख्या का वर्णन किया और कुछ रिवायतें ऐसी भी पायी जाती हैं जिनमें अपने बाद आने वाले इमामों के नाम भी स्पष्ट किये हैं। और उनकी इमामत के बारे में आग्रह भी किया है।
यहाँ पर सुन्नी सम्प्रदाय की किताबों से दो हदीसें उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा रही हैं।
1- बुख़ारी ने जाबिर पुत्र समुरह के हवाले से वर्णन किया है कि है “ समितु रसूलल्लाहि (स.) यक़ूलु –यकूनु इस्ना अशरा अमीरन फ़क़ाला कलिमतन लम् असमाहा फ़क़ाला अबी इन्नहु क़ाला कुल्लुहुम मिन क़ुरैशिन।”
(सही बुख़ारी 9/ किताबुल अहकाम /बाब 51बाबि उस्तिख़लाफ़)
अनुवाद– जाबिर ने कहा कि मैनें पैगम्बर से सुना कि उनहोंने कहा कि [मेरे बाद]बारह इमाम होंगे और इसके बाद एक वाक्य और कहा जिसको मैं सुन नही सका। मेरे पिता ने कहा कि पैगम्बर ने कहा था कि वह सब इमाम क़ुरैश से होंगे।
2- तिरमिज़ी जाबिर की इस रिवायत का उल्लेख इस प्रकार करता है “क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) यकूनु मिन बअदी इस्ना अशरा अमीरन।”
(सही तिरमिज़ी 2/45)
अनुवाद — जाबिर ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि मेरे बाद बारह इमाम होंगे।
और अहमद ने इस रिवायत का उल्लेख इस प्रकार किया है कि “यकूनु लिहाजिहिल उम्मति इस्ना अशरा ख़लीफ़तन।”
(मुसनदि अहमद 5/86-108)
अनुवाद–पैगम्बर ने कहा कि इस उम्मत के लिए बारह ख़लीफ़ा होंगे।
यह रिवायत और इसी जैसी अन्य रिवायतें विभिन्न रूपों में वर्णित हुई है। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या बारह ख़लीफ़ा या इमाम शिया मज़हब के इमामों के अलावा किसी दूसरे मज़हब के इमामों पर भी चरितार्थ होते हैं ?
यनाबिउल मवद्दत नामक किताब में इस प्रकार वर्णन हुआ है कि “अन मुजाहिदिन अन इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अनहुमा क़ाला क़दिमा यहूदी युक़ालु लहु नअसलुन क़ाला या मुहम्मद ! असअलुका अन अशयाआ तुलजलिजु फ़ी सदरी……. फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) इन्ना वसीय्यी अलीयुब्नु अबी तालिब व बाअदहु सिब्ताया अल हसनु वल हुसैनु ततलुहु तिसअता आइम्मता मिन सुलबि अलहुसैनि क़ाला या मुहम्मद ! फ़सम्मिहिम ली क़ालाइज़ मज़ल हुसैनु फ़इब्नहु अलीयुन फ़इज़ा मज़ा अली फ़इब्नुहु मुहम्मदुन फ़इज़ा मज़ा मुहम्मदुन फ़इब्नुहु जअफ़रुन फ़इज़ा मज़ा जअफ़रुन फ़इब्नुहु मूसा फ़इज़ा मज़ा मूसा फ़इब्नुहु अलीयुन फ़इज़ा मज़ा अली फ़इब्नुहु मुहम्मदुन फ़इज़ा मज़ा मुहम्मदुन इब्नुहु अलीयुन फ़इज़ा मज़ा अलीयुन इब्नुहु हसनु फ़इज़ा मज़ा हसनु फ़इब्नुहु मुहम्मदुन अलमहदी फ़हवलाइ इस्ना अशरा इला अन क़ाला व इन्ना अस्सानि अशरा मिन वुलदी यग़ीबु हत्ता ला युरा व याति अला उम्मति बिज़मनिन ला यबक़ा मिन अल इस्लामि इल्ला इस्मुहु व ला यबक़ा मिन अल क़ुरआनि इल्ला रस्मुहु फ़हीनाइज़िन याज़ुन अल्लाहु तबारका व तअला लहु बिल ख़ुरूजि फ़यज़हरु अल्लाहु अलइस्लामा बिहि व युजद्दिदुहु।”
अनुवाद– मुजाहिद ने इब्ने अब्बास (रजियल्लाहु अनहुमा) से उल्लेख किया है कि उन्होंने कहा कि नासल नाम का एक यहूदी पैगम्बर (स.) के पास आया और कहा कि ऐ मुहम्मद कुछ प्रश्न हैं जो मेरे हृदय मे उथल पुथल मचाये हैं मैं चाहता हूँ कि उनके बारे मैं आपसे पूछूँ, (इसके बाद उसने कुछ प्रश्न किये और उनके उत्तर प्राप्त किये उन्हीं प्रश्नों में एक प्रश्न पैगम्बर के उत्तराधिकारी के बारे में भी था।) जिसका उत्तर पैगम्बर ने इस प्रकार दिया कि मेरे उत्तराधिकारी अली हैं और उनके बाद मेरे धेवते हसन और हुसैन हैं और उनके बाद हुसैन के 9 बेटे मेरे उत्तराधिकारी होंगे। उस यहूदी ने कहा कि उनके नाम भी बताओ पैगम्बर ने कहा कि हुसैन के बाद उनके बेटे अली और अली के बाद उनके बेटे मुहम्मद और मुहम्मद के बाद उनके बेटे जाफ़र और जाफ़र के बाद उनके बेटे मूसा और मूसा के बाद उनके बेटे अली और अली के बाद उनके बेटे मुहम्मद और मुहम्मद के बाद उनके बेटे अली और अली के बाद उनके बेटे हसन और हसन के बाद उनके बेटे मुहम्मद महदी यह बारह व्यक्ति हैं। यहाँ तक कहा कि मेरी संतान से बारहवा इमाम परोक्ष हो जायेगा, और जब इस्लाम नामत्र के लिए रह जायेगा और क़ुरआन केवल एक रीति रिवाज बनकर रह जायेगा उस समय अल्लाह उनको प्रत्यक्ष होने की अनुमति देगा ताकि वह इस्लाम को जीवित करें।
(समाप्त)
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