अर्ज़े नाशिर
हिन्दुस्तानी मुस्लिम बिरादरी और खुसूसी तौर पर शिया मुस्लिम समाज में तारीखे इस्लाम पर मबनी कोई ऐसी जामेय और मुफस्सिल किताब मेरी नज़रों से नहीं गुज़री थी जिसकी सिर्फ एक ही जिल्द में किसी मुसन्निफ या मोअल्लिफ ने इब्तेदाये आफरीनिश से ख़िलकते आदम (अ.स.) तक और ख़िलकते हज़रत आदम (अ.स.) से ख़ातिमुल अम्बिया तक तमाम अम्बिया व मुरसलीन (अ.स.) नीज़ हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबुतालिब से इमामुल अस्र वल ज़मां (अ.ज.फ़.श.) तक तमाम अइम्म-ए-मासूमीन (अ.स.) के तारीख़ी व तफ़सीली और मुस्तनद व मोतबर हालात मुजतमा किए हों। लिहाजा मेरी दिली ख्वाहिश व कोशिश यह थी कि उर्दू ज़बान में कोई ऐसी किताब मंज़रे आम पर लायी जाए जिसकी एक ही जिल्द मौजूदा इस्लामी तकाज़ो और वक़्त की इस अहम जरुरत को पूरा कर सके।
खुदा का शुक्र है कि मोहक़क़िक़ बसीर जनाब फ़रोग़ काज़मी ने मेरे इस कर्ब को महसूस किया और इन्तेहाई मेहनत, लगन, तहकीक व जुस्तजू के बाद “तारीख़े इस्लाम” के उन्वान से यह किताब मुकम्मल करके मेरे ख़्वाब को ताबीर से हमकिनार कर दिया।
तक़रीबन नौ सौ सफ़हात पर मुशतमिल यह ज़ख़ीम किताब यकीनन जनाब फरोग काज़मी का इन्फे़रादी कारनामा है जिसके दामन में इस्लामी तारीख़ से मुतअल्लिक सब कुछ है।
मुझे मसर्रत है कि मैं इस गिरां कद्र किताब की इशाअत का शरफ हासिल कर रहा हूँ और इसके साथ ही दुआगो हूँ कि परवरदिगारे आलम इसकी मकबूलियत व कामयाबी के दोश बदोश मोहतरम फरोग काज़मी की तौफीकात में भी इज़ाफ़ा फ़रमाए।
वाज़ेह हो कि हमनें हिन्दीदां तबके के लिए इसको चार भागों में विभाजित कर दिया है। पहला भाग नबियों के हालात पर आधारित है, दूसरे भाग में हज़रते मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के हालात और तीसरे भाग में हज़रत अबु-बक्र की ख़िलाफ़त से शुरु होकर हज़रते उस्मान की ख़िलाफ़त के हालात तक रखा गया है। किताब की ज़ख़ामत को मद्दे नज़र रखते हुए चौथा और आख़िरी हिस्सा हज़रत अली (अ.स.) से जुहूरे इमाम तक के हालात पर आधारित है।
हमें उम्मीद है कि हिन्दीदां हज़रात हमारी इस कोशिश को सराहेंगे।
वस्सलाम।
सै0 अली अब्बास तबातबाई
रुस्तम नगर, दरगाह हजरत अब्बास
अब्बास बुक एजेन्सी, लखनऊ-3
फ़ेहरिस्त
अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.)
हज़रत अली (अ.स.) का तर्ज़े हुकूमत
क़ारदाद तहकीम और हक़मैन का फ़ैसला
मदीना, मक्का दमिश्क़ और कूफा की इज्तेमाई हालत
इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत से पहले
मुआविया बिन यज़ीद का इन्हेराफ़े ख़िलाफ़त
हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) का सलाम
आले रसूल (स.अ.) पर वलीद के मज़ालिम
मंसूर अब्बासी का इस्तेबदादी दौर
(1) अबु मुहम्मद उबैदुल्लाह अल-मेहदी बिल्लाह
(2) अबुल-क़ासिम मुहम्मद नज़ार क़ाएम बेअमरिल्लाह बिन मेहदी बिल्लाह
(3) अबु-ताहिर इस्लमाईल अल-मंसूर बिल्लाह बिन क़ाएम बेअमरिल्लाह
(4) अबु-तमीम मआद मअज़ुद्दीनुल्लाह बिन मंसूर बिन क़ाएम
(5) अबु-मंसूर नज़ार अल-अज़ीज़ु बिल्लाह बिन मआज़
(6) अबुल हुसैन अल-हाकिम बेअमरिल्लाह बिन अज़ीज़
(7) अबु मअद अल-ज़ाहिर लि-एज़ाज़दीनुल्लाह बिन हाकिम
(8) अबु तमीम मअद अल-मुस्तनसिर बेअमरिल्लाह बिन ज़ाहिर
(9) अबुल कासिम अहमद अल-मुस्तअली बिल्लाह बिन मुस्तन्सिर
(10) अबु अली मंसूर अल-अम्र बि-अहकामिल्लाह बिन मुस्तअली
(11) अबुल मैमून अब्दुल मजीद अल-हाफ़िज़ुद्दीन
(12) अबु मंसूर इस्माईल अज़-ज़ाफ़िर लेअअदाईल्लाह बिनुल हाफ़िज़
(13) अबुल कासिम ईसा अल-फ़ाएज़ बेअमरिल्लाह बिन ज़ाफ़र
(13) अबु मोहम्मद अब्दुल्लाह अल-आज़िदुदीनिल्लाह बिन युसूफ़
सलातीने अब्बासिया और इमाम (अ.स.)
अली बिन सालेह तालक़ानी का वाक़िआ
आपके ख़िलाफ़ शिकायतें और गिरफ़्तारी
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की ज़िम्मेदारियां
हज़रत ईसा (अ.स.) बिन मरियम का नुजूल
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अपना तअर्रूफ़
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आप शायद यकीन न करें लेकिन ये एक हक़ीक़त है कि नाम व नमूद और शोहरत तलबी का अनसिर मेरी सरिश्त तबियत में नहीं है, इसलिए मुझे अपने बारे में लिखते हुए एक अजीब सी उलझन हो रही है और यही सबब है कि मैंने अपनी किसी किताब में अपना तअर्रूफ़ नहीं कराया।
अल-खुलफा हिस्सा अव्वल व दोम, तफसीरे कर्बला, हज़रत आएशा की तारीख़ी हैसियत, जदीद शरीयत, सैय्यदा सकीना, फ़ितना वहाबियत और “हक़ीक़त तबर्रा” के बाद “तफ़सीरे इस्लाम” के उन्वान से मेरी ये किताब जो दरअस्ल हज़रत आदम (अ.स.) से इमाम अस्र (अ.स.) तक के मोतबर व मुस्तनद हालात व वाक़िआत का तारीख़ी निचोड़ है, जब तहक़ीक़ व तालीफ के मराहिल तय करके मुकम्मल हुई और उसकी तकमील का इल्म मेरे कुछ क़रीबी और करम फ़रमां दोस्तों को हुआ तो उन्होंने मुझे ये मुखलिसाना मशविरा दिया कि इस किताब में, मैं अपनी ज़िन्दगी के इजमाली हालात शामिल करूं ताकि मेरे बाद आने वाला ज़माना अगर मुझे तलाश करना चाहे तो उसे मायूसी न हो। बाज़ अहबाब की तरफ से इस मुखलिसाना मशविरे का लहजा ऐसा तहकुमाना था कि जिसके सामने मेरी जुराएते इन्कार हवा हो गई और बिल आख़िर मैं इस अम्र पर मजबूर हो गया कि अपनी दास्ताने ज़िन्दगी का वह आईना दुनिया के सामने रख दूं जिसे हालात व हवादिस की तेज़ व तुन्द आंधियों ने गुबार आलूद बना दिया है।
उत्तर प्रदेश के शोहरए आफाक़ ज़िला रायबरेली का मशहूर व मारूफ कस्बा “सलोन” मेरा आबाई वतन है, जहां मैं 24 दिसम्बर सन् 1928 को तग़य्युराते ज़माना के तूफ़ान खेज़ पेड़ों की तफ़रीह का सामान बन कर एक ज़मींदार और आसूदा हाल सय्य्यद घराने में पैदा हुआ।
ख़ानदानी रिवायत के मुताबिक पांच बरस की उम्र में मेरे तालीमी सिलसिले का आगाज़ र्कुआने मजीद से हुआ और सातवें साल मेरे वालिद ने मुझे एक मक़ामी सरकारी स्कूल में दाखिल कर दिया जहां मैं ब-जाबता उर्दू और फारसी की तालीम हासिल करने लगा। यहां तक कि सन् 1943 में मैंने आठवीं दर्जा का इम्तेहान (जिसे अब जूनियर हाईस्कूल कहा जाता है) इम्तियाज़ी नम्बरों से पास किया। उसके बाद मेरा दाखिला ज़िला रायबरेली के फिरोज़ गांधी इण्टर कालेज में हुआ और वहीं से मैंने हाई स्कूल का इम्तेहान देकर यू.पी. में अव्वल पोज़ीशन हासिल की।
उस ज़माने में उर्दू ज़बान तमाम सरकारी दफ़ातिर में राएज थी और उसकी कद्र व मंज़िलत भी थी इसलिए मैंने इसी ज़बान को मलहूज़े ख़ातिर रखा और सन् 1946 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से “अदीब” और 1947 में “अदीब माहिर” का इम्तेहान देकर कामयाबी से हमकिनार हुआ। उसके बाद वह तालीम जिसका इख़्तेताम काबिले जिक्र व काबिले क़द्र सनदों पर होता है, मेरे हिस्से में नहीं आई। क्योंकि उसी साल 15 अगस्त को हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ और आज़ादी मिलते ही पूरे मुल्क की फिज़ां मुकद्दर हो गयी। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के दरमियान तकसीमे हिन्द की नाकिस पॉलिसी मफ़ाद परस्ती, रस्साकशी और शोबदाबाज़ी ने हिन्दुओं, सिक्खों और मुसलमानों के दरमियान नफ़रत और फिरक़ापरस्ती की एक दीवार खड़ी कर दी जिसकी वजह से लोग एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गए और चारों तरफ क़त्ल व गारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म हो गया। लाखों बेगुनाह इन्सानों को मौत के घाट उतार दिया गया। बेशुमार औरतें अपने सुहाग से महरूम हो गयीं, लातादाद मासूम बच्चे यतीमी की गोद में चले गए और हज़ारों खानदान आंसुओं में डूब गए।
इन कर्बनाक और अफ़सोस नाक हालात में जिन बदनसीब तालिबे इल्मों का तालीमी सिलसिला मुनक़ता हुआ, उनमें से एक मैं भी था क्योंकि दीगर वालिदैन की तरह मेरे वालिदैन भी ये नहीं चाहते थे कि मैं उनकी नज़रों से दूर रह कर अपनी तालीम जारी रखूं या अपने इकतेसाबी ज़ौक़ की तसकीन का सामान फराहम करूं।
ग़रज़ कि तालीम की राह में अदीब माहिर की सनद मेरी आख़िरी मंज़िल थी जिसे उबूर करके मैं उमूरे ज़मीनदारी में अपने वालिद का हाथ बटाने लगा। लेकिन बदकिस्मती से ये सिलसिला भी ज़्यादा दिनों तक जारी न रह सका क्योंकि सन् 1952 में हुकूमत ने रातों रात ज़मीनदाराना निज़ाम को ख़त्म कर दिया था और सुबह जब आंख खुली थी तो दो बीगा ज़मीन भी मेरे घराने में नहीं रह गयी थी। इसलिए कि खुद काश्त की सारी ज़मीनें काश्तकारों के पास बटाई पर थीं और उन ज़मीनों पर उन लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया था। चुनांचे क़ब्ज़ा हटाने के लिए बेदख़ली, दुरूस्ती कागजात और फौजदारी के मुक़दमात चले और इसका सिलसिला 1956 तक जारी रहा।
उन मुक़द्दमात में कामयाबी के नतीजे में जो ज़मीनें हाथ आयीं उन्हें बेचकर मेरे वालिद ने पाकिस्तान जाने का कस्द किया, क्योंकि उस ज़माने में मुसलमान खोखरा पार के रास्ते से बेतहाशा पाकिस्तान की तरफ़ भाग रहे थे मैं वालिदे मोहतरम के इस फैसले से मुतफ्फिक नहीं था इसलिए मैंने पाकिस्तान जाने से साफ इन्कार कर दिया। वालिद साहब मेरे इस इन्कार पर काफी बरहम हुए क्योंकि पाकिस्तान के चक्कर में रही सही ज़मीनों के साथ घर का सारा असासा भी बिक चुका था। लेकिन उसके बावजूद उन्होंने मेरा फैसला कुबूल करते हुए अपना फैसला बदल दिया।
फिर भी मैं अपने वतन में न ठहर सका क्योंकि काश्तकारों और पट्टीदारों से मुकद्दमों के दौरान रंजिशें इस क़द्र बढ़ चुकी थीं कि हर वक़्त मेरी जान को ख़तरा लाहक़ रहता था इसलिए मजबूरन मैंने अपने वतन से तकरीबन 15 किलोमीटर के फासले पर वाके़ कस्बा मुस्तफ़ाबाद (ऊँचाहार) को अपना मसकन करार देकर वहां एक मकान तामीर कराया जहां मेरी शादी सै० दिलदार हुसैन नक़वी की साहबज़ादी रईस फ़ातिमा से हो चुकी थी।
सन् 1958 में कस्बा सलोन से मेरा वतनी रिश्ता हमेशा के लिए उस वक़्त टूट गया जब ज़बूँ हाली और परेशानी की बिना पर मेरे वालिद ने भी उसे खैराबाद कहकर लखनऊ को आबाद किया।
वालिदे मोहतरम जब लखनऊ आए तो मुझे भी मुस्तफ़ाबाद से लखनऊ आना पड़ा, क्योंकि ज़मीनदारी के ख़ातमे के बाद मेरे वालिद मुस्तकिल बीमार रहने लगे थे और मेरी वालिदा हाई ब्लेडप्रेशर की शिकार थीं, नीज़ मेरे अलावा उनकी देखभाल करने वाला कोई न था।
लखनऊ आने के बाद मैं टिम्बर की एक बड़ी फर्म मेसर्ज़ हुकम चन्द खन्ना एण्ड सन्स में ब-हैसियत मैनेजर मुलाज़िम हो गया और चन्द साल मुलाज़िमत करने के बाद किराए पर एक आरा मशीन लेकर मैंने अपना कारोबार खुद शुरू किया जिसमें अल्लाह ने खातिर ख़्वाह मुझे कामयाबी व तरक़्क़ी अता की यहां तक कि बच्चों की तालीम भी मुकम्मल हुई और वह अपनी अपनी पसन्द के मुताबिक कारोबार से भी लग गए।
सन् 1960 में मेरे वालिदे माजिद का इन्तेकाल हुआ और सन् 1961 में वालिदा भी इस दुनिया से रूख़्सत हो गयीं। मगर चूंकि लखनऊ का आबो-दाना मेरा मुक़द्दर बन चुका था इसलिए मैंने इस शहर को नहीं छोड़ा।
मेरी उम्र इस वक़्त तक़रीबन 70 साल की है। इन सत्तर बरसों में मेरी आंखों ने एक तहज़ीब का ज़वाल और फिर वह कैफियत जो एक दुनिया के ख़त्म हो जाने और दूसरी दुनिया के पैदा होने से नमूदार होती है, देखी है।
शेअर व शायरी से मेरा फिक्री रिश्ता बहुत पुराना है। सन् 1946 में जब मेरी उम्र सिर्फ चौदह बरस की थी तब भी मैं टूटे-फूटे अशआर कह लिया करता था जिनमें अकसर मुहमल और बाज़ नामौज़ू शेर भी होते थे, लेकिन बाज़-बाज़ शेर मज़मून आफ़रीनी, बन्दिशे अल्फाज़ और कैफ़ियत के लिहाज़ से बहुत अच्छे भी होते थे।
सन् 1948 में मैंने नाखुदाए सुख़न हज़रत नूह नानूरी के कारवाने तलामिज़ा में शमूलियत इख़्तेयार की और रफ़्ता-रफ़्ता मेरी शायरी पर शबाब व निखार आने लगा। ये वह ज़माना था जब अनीस व दबीर, आतिश व नसिख, जलाल व असीर और सरशार व नसीम के शहर लखनऊ में सफ़ी, अज़ीज़, आरज़ू और साक़िब वग़ैरा का सिक्का चल रहा था और आले रज़ा, आनन्द नरायन मुल्ला, सिराज, मंजर नीज़ असर वग़ैरा के साथ-साथ सालिक, सै० नवाब अफसर, निहाल रिज़वी, इरम, महज़र, शारिब और तनवीर वग़ैरा अपनी खुशफिक्री व खुशगोई से खुद को लखनऊ स्कूल की नुमाइंदगी का बोझ उठाने के काबिल बन चुके थे।
अदबी नशिस्तों के साथ साथ मैंने बड़े मुशएरों में भी काफी शिरकत की है लेकिन उस दौर के मुशाएरे फिक्री सुख़न के संजीदा मुज़ाहिरों पर मबनी होते थे जबकि मौजूदा दौर में सुरीली आवाज़ गुलूकारी और स्टेज की अदाकारी बड़ा शाएर होने की दलील है।
गुज़िश्ता दौर में शाएर के लिए बुलन्द ख़्याली, खुशफ़िक्री और रुमूज़े शायरी से वाकफ़ियत ज़रूरी थी। उन शोअरा को जिन्हें ज़बान व बयान या रमूज़े शायरी की दौलत नसीब नहीं हुई उन्हें बैसाखियों की तलाश होती हैं और आज कल के दौर में तफ़रीह, माली मफ़ाद, गिरोह बन्दी और गुलूकारी वग़ैरा ऐसी ही बैसाखियां हैं।
यह बात भी वाज़ेह करूं कि मेरा मज़ाक़ शायरी अपने हम असरों से क़द्रे अलग है क्योंकि मैं अपने ग़मों का इलाज फ़रयाद से नहीं बल्कि अज़्म व हौसले से करता हूं और ग़ज़ल में वारदाते क़ल्बी के अलावा मसाएले हयात, व दावते अमल और इस्लाह और तनकीद को मौजूए सुख़न करार देता हूं जिसका सुबूत मेरा एक मजमूआ “बरक़ व बारां” भी है।
मेरे अशआर में लब व रूख़्सार की हिकायतें कम होती हैं। इसका एक ख़ास सबब यह है कि मेरा नज़रिया तर्की पसन्द मुसन्नेफ़ीन के नज़रियात से मुतासिर व हमआहंग है। चुनांचे मेरी शायरी में ज़बान व बयान की एहतियात के साथ अवामी मसाएल पर गौर व फिक्र, हक़ तलफियों पर एहतेजाज और हालात हाज़िरा पर तबसिरों का उनसुर बदर्जाए अतम कारफ़रमा है और मैं ग़ज़ल वह नाज़ुक सिन्फ़े सुख़न तसव्वुर करता हूं जिसमें तासीर व कैफियत को बरकरार रखते हुए बड़ी से बड़ी बात और अज़ीम से अज़ीम मसाएल को आसानी से नज़्म किया जा सकता है और फन को मजरूह किए बगैर हालात व नज़रियात की भरपूर तर्जुमानी की जा सकती है। बशर्ते यह कि अलामतों के इन्तेखाब में सलीकामन्दी और फनकाराना महारत से काम लिया जाए।
लेकिन इन तमाम शायरी उमूर के साथ एक हक़ीक़त यह भी है कि बचपन से मेरा फिक्री रुजहान व इरादाती और जमालियाती शायरी की ब-निसबत मजहबी शायरी की तरफ ज़्यादा रहा है। यानी कसाएद मनक़बत, सलामों और नौहों के मैदान में तबा आज़माई मेरा महबूब तरीन मशगला था जो आज भी बरकरार है और यही वजह है कि मेरा अपना कोई शायरी मजमूआ उर्दू अकादमी या फख़रूद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी के तवस्सुल से अब तक शाया नहीं हो सका।
शायरी के अलावा अफसाना निगारी भी एक ज़माने में मेरा मैदान रहा है। चुनांचे मेरे बहुत से अफ़साने मुल्क के मुम्ताज़ और नामवर जरीदों में इशाअत पज़ीर हुए और अवाम से दादे तहसीन हासिल की। मेरे क़लम की शोखियां इसी अफसाना निगारी और शायरी की मरहूने मिन्नत है।
मेरे घर का माहौल भी चूंकि कद्रे मज़हबी था इसलिए बाप दादा की ख़रीदी हुई मज़हबी किताबों के मुतालिए का शरफ भी मुझे हासिल हुआ यहां तक कि हजारों किताबें मेरी नज़र से गुज़री और मैंने उनसे हस्बे इस्तेताअत इस्तेफादा किया। चुनांचे मज़हब के नाम पर आज तक जो भी कलमी सरमाया कारेईन केराम की ख़िदमत में पेश कर सका हूं वह इसी बुनियादी मुतालिए का फ़ैज़ है।
मेरा ददिहाली और ननिहाली सिलसिलए सादात से वाबस्ता है लेकिन बग़ैर किसी पस व पेश के मैं ये बात भी वाज़ेह करूं कि मेरे ख़ानदान की छठी पुश्त मैं ताजदारे अवध नवाब मुहम्मद अली शाह के वज़ीरे आज़म शरफुद्दौला मुजफ्फरूल मुल्क मुहम्मद इब्राहीम खां मुस्तकीमे जंग की भी एक साहबज़ादी ब्याहीं थीं जो सुन्नी से शिया हो गयीं थीं।
सन् 1961 के बाद से मेरा कारवाने हयात दो बीबियों के दरमियान से गुज़रा है और इसका बुनियादी सबब यह है कि फख़्रे खानदाने गुफरानमआब मौलाना सै० कल्बे हुसैन (कब्बन) साहब क़िब्ला ने 1961 में नाज़िम साहब के इमामबाड़े में बेवा से अक़द और यतीमों की परवरिश के फ़ज़ाएल को उन्वान करार देकर एक वलवला ख़ेज़ मजलिस पढ़ी थी जिससे मुतअसिर होकर मैंने अपनी पहली बीवी की रजामन्दी से मौलाना मौसूफ़ के ज़रिए एक बेवा से अक़्द कर लिया था जिसके नतीजे में चार अदद यतीम बच्चे भी मुझे मिल गए थे जिनकी परवरिश व परदाख्त का शरफ मुझे हासिल हुआ। उनके इन्तेकाल के बाद मैंने फिर एक बेवा मोहतरमा आलिया बेगम बिन्ते सै० अबुल हसन साहब मरहूम से अक़्द किया और तीन यतीम बच्चों की तालीम व तरबियत और परवरिश व परदाख़्त की ज़िम्मेदारी मुझ पर आएद हुई जिसे मैं ब-हुस्न व ख़ूबी अन्जाम दे रहा हूं।
इस मामले में मैं इन्तेहाई खुश नसीब हूं कि मेरी बीवियों के दरमियान किसी क़िस्म का लड़ाई झगड़ा कभी नहीं। माशाअल्लाह दोनों ही इताअत गुज़ार और फ़रमांबरदार हैं।
मेरी पहली बीवी क़स्बा मुस्तफ़ाबाद जिला रायबरेली में रहती हैं जो अब मेरा वतन बन चुका है और मौजूदा दूसरी बीवी मेरे साथ मेरे जाती मकान 392/60 मैदान एल.एच.खां लखनऊ में रहती हैं और वही मेरे बाद इस मकान की वारिस करार पायेंगी।
कारेईने कराम को अगर किताबत की कोई ग़लती नज़र आए तो इसे दरगुज़र फ़रमाए। यह किताब क्या है? कैसी है? इसका फैसला आप खुद करेंगे।
वस्सलाम
फ़रोग़ काज़मीं
इब्ने सै० ख़ादिम हुसैन
392/60 मैदान एल.एच.खां
लखनऊ-3
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अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.)
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आपकी शख़्सियत, आलमे इस्लाम की वह हमागीर व आफाक़ी और मोजिज़ाती व करामाती शख़्सियत है जिसकी अज़मत व फजीलत के कसीदे र्कुआन में मौजूद हैं। आप पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के चचाज़ाद भाई, हकीकी वारिस व जानशीन, बिन्ते पैग़म्बर (स.अ.) हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के शौहर, इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ.स.) नीज़ हज़रत ज़ैनब व उम्मे कुलसूम के पिदरे बुजुर्गवार और हज़रत अबुतालिब व फ़ातिमा बिन्ते असद के बेटे थे।
विलादत
तारीखों और हदीसों से पता चलता है कि आपकी नूरी तख़लीक नूरे मुहम्मदी के साथ हज़रत आदम (अ.स.) की खिलकत से चौदह हज़ार साल क़ब्ल हो चुकी थी लेकिन इन्सानी शक्ल में आपका ज़हूर नमूदार 13 रजब सन् 30 आमुल फील मुताबिक सन् 600 ईसवी बरोज़ जुमा खानए काबा में हुआ। शाह वलीउल्लाह मोहद्दिस का कहना है कि:-
“रिवायते मुतावातिरा से साबित है कि अमीरुल मोमेनीन (हज़रत) अली (अ.स.) रोज़े जुमा 13 रजब सन् 30 आमुल फील वस्ते काबा में फ़ातिमा बिन्ते असद के बतन से पैदा हुए। आपसे पहले या आपके बाद ख़ानए काबा में कोई पैदा नहीं हुआ।”
हाकिम नैशापूरी का बयान है कि:-
“अख़बार मुतावातिरा से साबित है कि हज़रत अली (अ.स.) करमुल्लाह वजहहू वसते खानए काबा में फ़ातिमा बिन्ते असद के बतन से मुतवल्लिद हुए।”
अहदे जदीद के मुवर्रिख़ अब्बास महमूद का कहना है कि:-
“अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) काबे के अन्दर पैदा हुए और ख़ुदा ने उन्हें बुतों के साए से दूर रखा। गोया उस मक़ाम पर आपकी विलादत खानए काबा के नये दौर का आगाज़ और अल्लाह की परस्तिश का एलान थी।”
ख़ानए काबा में आपकी विलादत का वाक़िआत यूं बयान किया जाता है कि आपकी मादरे गिरामी फ़ातिमा बिन्ते असद को जब दर्दे ज़ेह महसूस हुआ तो वह ख़ानए काबा के करीब तशरीफ लायीं और उसका तवाफ़ करके पुश्ते दीवार से टेक लगा कर खड़ी हो गयीं। दुआ के लिए हाथ उठाए, मुज़तरिब निगाहों से आसमान को देखा और बारगाहे इलाही में अर्ज़ परदाज़ हुई ऐ परवरदिगार ! मैं तुझ पर, तेरे नबियों पर और तेरी नाज़िल की हुई किताबों पर ईमान रखती हूँ, तू इस बाबरकत घर, इस घर के मेमार (ख़लीलुल्लाह) और इस मौलूद के सदके में जो मेरे शिकम में है मुझ पर इस मुश्किल को आसान कर दे। मुझे यकीन है कि यह मौलूद तेरे जलाल व अज़मत की निशानियों में से एक रौशन निशानी है और तू ज़रूर मेरी मुश्किल आसान करेगा।
उधर दुआ शर्फे कुबूलियत से हमकिनार हुई और इधर ख़ानए काबा की दीवार शक़ हुई। फ़ातिमा बिन्ते असद बेझिझक काबे के अन्दर दाखिल हो गयीं। उसके बाद दीवारे काबा फिर अपनी असली हालत पर पलट आई गोया उसमें कभी शिगाफ़ पड़ा ही न था।
विलादत के बाद हज़रत अली (अ.स.) ने आंखे नहीं खोलीं जिसकी बिना पर बिन्ते असद के दिल में यह ख्याल पैदा हुआ कि शायद बच्चा बिनाई से महरूम है। मगर तीसरे दिन जब रसूल अकरम (स.अ.) तशरीफ लाए और उन्होंने अपनी आगोशे मुबारक में लिया तो आपने आंखे खोलकर जमाले रिसालत पर पहली नज़र डाली और अस-सलामु अलै-क या रसूलुल्लाह (स.अ.) कहक़र आसमानी सहीफों की तिलावत की। भाई ने भाई को गले से लगाया और अपनी ज़बाने अकदस दहने इमामत में दे दी। अल्लामा अर्दबेली का बयान है कि ज़बाने रिसालत से बारह चश्में जारी हुए और अली (अ.स.) अच्छी तरह सेर व सेराब हो गए इसीलिए उस दिन को यौमुत-तरविया कहा जाता है क्योंकि तरविया के मानी सेराबी के हैं।
इसी तरह तकरीबन तमाम मोआर्रिखीन व मोहद्देसीन ने ख़ानए काबा में हजरत अली (अ.स.) की विलादत का एतराफ़ किया है अलबत्ता कुछ मुतअस्सिब लोगों ने इस हक़ीक़त को तस्लीम करने के बावजूद अली (अ.स.) की दुश्मनी में इस फजीलत पर पर्दा डालने की बेसूद कोशिश भी की हैं ताकि यह इम्तेयाज़ी व इन्फेरादी खुसूसियत ख़त्म हो जाए और यह शरफ, शरफ न रहे। लिहाज़ा कभी यह तावील की गयी कि ख़ानए काबा में पैदा हो जाना कौन सी शरफ की बात है जबकि उस दौर में वह महज़ एक बुत खाना था और चारों तरफ से बुतों में घिरा हुआ था।
इस कज फ़हमी का जवाब यह है कि अगर किसी मस्जिद को मिस्मार करके मन्दिर में तब्दील कर दिया जाए तो वह जगह मस्जिद के तकददुस से खारिज नहीं हो सकती बल्कि उसकी हुरमत व तक़द्दुस से बदस्तूर बरकरार रहती है। इसी तरह बुतों के वजूद से ख़ानए काबा की तौकीर व हुरमत पर हर्फ नहीं आता। चुनांचे जब उसे आलमे इस्लाम का क़िब्ला करार दिया गया तो उस वक़्त भी इसमें बुत मौजूद थे मगर वह इसके क़िब्लेकरार पाने में माने न हो सके।
इस जाहिलाना तावील का जवाब यह है कि यह नज़रिया उन ओलमा व मोअर्रिखीन की तसरीहात के ख़िलाफ़ है जिन्होंने खुले लफ़्ज़ों में यह एतराफ किया है कि हज़रत अली (अ.स.) से पहले या उनके बाद ख़ानए काबा में कोई दूसरा शख्स पैदा ही नहीं हुआ। फिर ख़ानए काबा के अन्दर या उसके हुदूद में विलादत बाअसे शरफ़ है तो मुसलमान के लिए है न कि किसी काफिर के लिए? लिहाजा अगर कोई काफिर अचानक व हादसाती तौर पर काबे में पैदा भी हो जाए तो यह विलादत उसके लिए सबबे इफ़्तेख़ार व बाअसे एजाज़ नहीं हो सकती क्योंकि कुफ्ऱ के साथ इस किस्म के इम्तियाजात मूरिदे फ़ख़्र करार नहीं पा सकते। अगर कुफ्र की हालत में ज़ियारते रसूल (स.अ.) या हज व तवाफ़े काबा वजेह शरफ़ नहीं तो अन्दरूने काबा किसी काफ़िर की विलादत वजहे शरफ़ व इफ़्तेख़ार क्यों कर हो सकती है।
हज़रत अली (अ.स.) न तो महकूमे कुफ्र थे और न ही (मआज़-अल्लाह) काफ़िर पैदा हुए क्योंकि यह एक नाकाबिले तरदीद हक़ीक़त है कि बतने मादर से आग़ोशे लहद तक हज़रत अली (अ.स.) की हयाते ज़ाहिरी का कोई लम्हा कुफ़ व शिक्र की कसाफ़तों से आलूदा नहीं था। फिर जिन लोगों ने हकीम बिन हज़ाम की विलादत का अफसाना बयान किया है उन्होंने भी इस वाक़िए को एक इत्तेफ़ाक़ी हादिसा करार दिया है जिसकी न कोई अहमियत है और न किसी शरफ़ व बरतरी को साबित किया जा सकता है।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
मोअर्रिखीन का बयान है कि आपके वालिदे बुजुर्गवार हज़रत अबुतालिब (अ.स.) ने आपका नाम अपने जद कु़सय बिन कलाब के नाम पर “ज़ैद” और वालिदा जनाबे फ़ातिमा बिन्ते असद ने अपने बाप के नाम पर असद रखा जबकि हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) ने अल्लाह के नाम पर आपका नाम अली (अ.स.) तजवीज़ फ़रमाया और इसी नाम से आप मशहूर हुए।
आपकी मादरे गिरामीं का रखा हुआ एक नाम हैदर भी है। इस नाम के मुतअल्लिक रिवायतों में है कि जब आप गहवारे में थे और आपकी वालिदा कहीं किसी काम से गयी हुई थीं तो एक अज़दहे ने आप पर हमला करना चाहा लेकिन आपने गहवारे से हाथ बढ़ाकर उसका जबड़ा पकड़ लिया और कल्ला चीर कर रख दिया। मां ने वापस होकर जब यह मंज़र देखा तो फ़रमाया “ये मेरा बच्चा हैदर है।” इस नाम की तस्दीक उस रजज से भी होती है जो अपने फ़तहे ख़बर के मौके पर मरहब के सामने पढ़ा था। आपकी कुन्नियत व अलक़ाब बे शुमार हैं कुन्नियत में अबुल हसन व अबुतुराब और अलक़ाब में मुर्तुजा, मुश्किल-कुशा, हाजत रवां, अमीरुल मोमेनीन, यदुल्लाह, नफसुल्लाह, ऐनुल्लाह, वजहुल्लाह, नफसे रसूल (स.अ.) और साक़िए कौसर वगैरा ज़्यादा मशहूर हैं।
परवरिश व परदाख़्त
हज़रत अली (अ.स.) ने नबूव्वत की छांव में आंखे खोलीं, रिसालत की तजल्ली रेज़ फ़िज़ाओं में पले और बढ़े, पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के सायाए तरबियत में परवान चढ़े और ख़लवत व जलवत नीज़ सफ़र व हज़र में साये की तरह ताजदारे रिसालत के दोश बदोश रहे। उन्हीं के मकतबे रुश्द व हिदायत में तालीम व तरबियत की मंजिलें तय करके बाबे शहरे इल्म कहलाए। उन्हीं के किरदार व अमल के नुकूश को निगाह व दिल में जगह दी और उन्हीं के कमाले तरबियत के नतीजे में उरूज के इस नुक़्तए आख़िर तक पहुंचे कि हर बुलन्दी आपकी गुज़रगाह में गर्दे राह बन गयी।
हुलिया व सरापा
मियाना कद, मजबूत जिस्म, खुलता हुआ गंदुमीं रंग, मुतानासिब, हसीन और दिलकश ख़दो खाल, मुतबस्सिम चेहरा, अज़म व ईकान की तजल्लियों से लबरेज, बड़ी और सियाह आंखे, रौशन व कुशादा पेशानी और उस पर सजदए ख़ालिक़ का दमकता हुआ निशान, सुतवान नाक, मोती की तरह चमकते हुए दंदाने मुबारक, घने अबरू, सुराही दार गर्दन, चौड़ा सीना, घनी दाढ़ी, पिण्डलियां कलाईयां, कोहनिया और शाने पर गोश्त, बाजूओं की मछलियां उभरी हुईं और शेर के कन्धों के मानिन्द कन्धों की हड्डियां चौड़ी व मुस्तहक़म। आपके होंटों पर मुस्कुराहट खिला करती थी मगर चेहरे से हैबत व जलाले इलाही भी आशकार रहता था। आप ख़िज़ाब का इस्तेमाल नहीं करते थे।
आदत व अतवार
अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) शुगुफ़्ता मिजाज़, मोहब्बत व इखलास के पैकर, शराफत का मुजस्समा, ग़रीबों और नादारों के हमदर्द, यतीमों के गमख़्वार और अखलाके नबवी का मुकम्मल नमूना थे। हर अमीर व ग़रीब से खन्दा पेशानी के साथ पेश आते। गुलामों से अज़ीज़ों का सा बर्ताव करते, मजदूरों की मदद करते। खुद नुमाई व खुद बीनी से दूर रहते और आम इन्सानों की तरह सअदा व मशक्कत आमेज़ ज़िन्दगी बसर करते। मामूली खाना खाते और मामूली लिबास पहनते। अपनी जूतियां खुद टाँकते, कपड़ों में पेवन्द खुद लगाते और बाज़ार से घरेलू अशिया की ख़रीदारी के फराएज़ खुद अंजाम देते। खेतों और बाग़ों में एक मज़दूर की तरह काम करते, दरख़्त लगाते और उनकी आबकारी करते। अगर कहीं से कुछ माल हाथ आ जाता तो उसे समेट कर रखने के बजाए ग़रीबों और मिस्कीनों में तकसीम कर देते। हाजतमन्दों की हाजत रवाई और मुश्किल में गिरफ्तार लोगों की मुशकिल कुशाई करते। रंग व नस्ल की तफ़रीक़ आपको कतई गवारा न थी। बुग्ज़ व कीना और इन्तेकामी जज़्बात को पास फटकने भी नहीं देते थे। हैरत अंगेज़ हद तक अफ़व व दर गुज़र से काम लेते। मजहबी व दीनी मामलात में सख़्त थे और अदल व इन्साफ़ का दामन कभी हाथ से छूटने नहीं पाता था। आपकी रात का बेशतर हिस्सा मुनाजात व नवाफिल में बसर होता था। ताक़ीबाते सुबह के बाद उनसे लोग र्कुआन व फ़िकह का दर्स लेते थे। ख़ौफे ख़ुदा का यह आलम था कि जब आप मेहराबे इबादत में खड़े होते तो रीशे मुबारक आंसूओं से तर हो जाया करती थी।
मुआविया के दरबार में ज़रार बिन जमरा एक मर्तबा उससे मिलने गए तो उसने कहा, तुम्हें तो अली बिन अबीतालिब (अ.स.) की सोहबत में रहने और उन्हें करीब से परखने का मौका मिला है, कुछ उनके बारे में बयान करो। ज़रार ने मसलहतन टालना चाहा मगर जब मुआविया का इसरार हद से बढ़ा तो उन्होंने कहा:-
“खुदा की कसम ! अली (अ.स.) के इरादे पहाड़ों की तरह ठोस व मुस्तहक़म और हौसले आसमानों की तरह बुलन्द थे। वह जो बात कहते वह अटल और फैसले कुन होती। उनकी गुफ़्तुगू से उलूम व मआरिफ के सोते फूटते और शीरी कलामी से हिकमत व दानाई के नग़में उभरत थे। हर वक़्त उनकी पुरनूर आंखें गौरो फिक्र के समन्दर में गर्क रहती थीं। तमाम मामलात में अदल व इन्साफ से काम लेते थे। वह इन्तेहाई सादगी पसन्द थे मामूली खाना खाते थे और मामूली लिबास पहनते थे और जब कोई शख़्स उनसे कुछ पूछता था तो वह उसे तसल्ली बख़्श जवाब से मुतमईन कर देते थे। ख़ुदा की कसम, कुरबत व नज़दीकी के बावजूद उनकी हैबत और जलालत के सामने हमारी ज़बान न खुलती और लबकुशाई की जुरअत न होती। बड़े से बड़े ताकतवर को यह मजाल न थी कि वह बेराहे रवी के मामले में आपकी हमदर्दी या ताईद हासिल कर सके। जब मेहराबे इबादत में नमाज़ के लिए खड़े होते तो इस तरह गिरया फ़रमाते जैसे कोई ग़मज़दा रोता है। दुनिया और उसकी फ़रेबकारियों से आपको बेहद नफरत थी। उसके बारे में अकसर फ़रमाते कि ऐ दुनिया ! जा किसी और को अपने दामे फ़रेब में गिरफ़्तार कर, मैं तो तुझे तीन बार तलाक़ दे चुका हूं जिसके बाद रूजू की गुंजाईश नहीं। तेरी अहमियत कुछ नहीं है क्योंकि तेरी उम्र भी चन्द रोज़ा है। अफ़सोस कि सफर तवील, रास्ते वहशत नाक और ज़ादे राह बहुत मुख़्तसर है।”
यह वह आवाज़े हक़ थी जो अमीरे शाम ऐसे बदतरीन दुश्मन के दरबार में बुलन्द हुई जहां सैकड़ों की तादाद में हुकूमत के हाशिया बरदार और दौलत के परस्तार जमा थे मगर किसी की ज़बान तरदीद के लिए न खुल सकी। तारीख़ तो यह बताती है कि बहुत से लोग धाड़े मार मार कर रो रहे थे और मुआविया ऐसे सफ़्फ़ाक व चालाक दुश्मन की आंखे भी डबडबाई हुईं थीं। यह था हज़रत अली (अ.स.) के हुस्ने अमल और हुस्ने सीरत का मक़नातीसी असर जिसने दुश्मनों के दिलों को भी मोम कर दिया और महफ़िल की चहल पहल सकूत व इज़तेराब के दरिया में गर्क हो गयी।
इल्मी हैसियत
इमाम शाफई इब्ने अब्बास से रिवायत करते हैं कि:
“इल्म व हिकमत के दस दर्जों में से नौ हज़रत अली (अ.स.) को मिले हैं और दसवें दर्जे में तमाम दुनिया के ओलमा हैं और उसमें भी हज़रत अली (अ.स.) को औवलियत व फौकियत हासिल है।”
अबुल फिदा का बयान है कि:
“हज़रत अली (अ.स.) इल्मुन नास बिल र्कुआन वस-सुनन थे यानी तमाम इल्मों से ज़्यादा उन्हें हदीस व र्कुआन का इल्म था।”
खुद रसूल अकरम (स.अ.) ने भी हज़रत अली (अ.स.) के इल्मी मदारिज पर बार बार रौशनी डाली है। कभी आपने फ़रमायाः “अना मदीनतुल इल्म व अलीयुन बाबुहा” कभी कहा “अना दारूल हिकम-त व अलीयुन बाबुहा” और कभी आपने इरशाद फ़रमायाः “इल्मुल मुती अली बिन अबी तालिब।”
हज़रत अली (अ.स.) ने भी अपने बारे में बताया कि इल्मी नुकतए नज़र से मेरा मर्तबा क्या है। चुनांचे एक मक़ाम पर आपने फ़रमाया कि रसूलुल्लाह (स.अ.) ने मुझे इल्म के हज़ार बाब तालीम फ़रमाए और मैंने हर बाब से दस हज़ार बाब पैदा किए। एक मक़ाम पर इरशाद फ़रमाया कि रसूलुल्लाह (स.अ.) ने मुझे इल्म इस तरह भराया है जैसे कबूतर अपने बच्चे को दाना भराता है। एक मक़ाम पर फ़रमायाः जो पूछना चाहो वह मेरी ज़िन्दगी में मुझसे पूछ लो वरना फिर तुम्हें इल्मी मामलात से बहरामन्द करने वाला कोई न मिलेगा। एक मक़ाम पर फ़रमायाः आसमान के बारे में मुझसे पूछो, ज़मीन के रास्तों से ज़्यादा मुझे आसमानी रास्तों का इल्म है। एक मौके पर फ़रमायाः अगर मेरे लिए मसन्दे कज़ा बिछा दी जाए तो मैं तौरेत वालों का तौरैत से, इंजील वालों का इंजील से, जुबूर वालों का जुबूर से और र्कुआन वालों का र्कुआन से फैसला कर दूंगा। एक मौके़ पर आपने फ़रमाया कि खुदा की क़सम मुझे इल्म है कि र्कुआन की कौन सी आयत कहां नाज़िल हुई है और मैं यह भी जानता हूं कि दिन में कौन सी आयत नाज़िल हुई रात में कौन सी आयत उतरी, कौन सी खुश्की में नाज़िल हुई और कौन सी तरी में।
ओलमा का बयान है कि इब्ने अब्बास ने एक रात हज़रत अली (अ.स.) से यह ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि बिस्मिल्लाह की तफ़सीर बयान फ़रमाएं। चुनांचे आपने पूरी रात तफसीर बयान की और जब सुबह हो गयी तो फ़रमायाः ऐ इब्ने अब्बास ! मैं बिस्मिल्लाह की तफसीर इतनी बयान कर सकता हूं कि इसकी तहरीर सत्तर ऊँटों पर बार हो जाए, बस मुख़्तसर यह समझ लो कि जो र्कुआन में है वह सूरए हम्द में है, जो सूरए हम्द में है वह बिस्मिल्लाह-हिर-रहमा-निर्रहीम में है और जो बिस्मिल्लाह-हिर-रहमा-निर्रहीम में है वह बाए बिस्मिल्लाह में है और जो बाए बिस्मिल्लाह में है वह उस नुक्ते में है जो “बा” के नीचे दिया जाता है और ऐ इब्ने अब्बास वह नुक़्ता मैं हूँ।
अल्लामा शेख सुलेमान क़ंदोजी लिखते हैं कि बिस्मिल्लाह की तफसीर सुनकर इब्ने अब्बास ने कहा, खुदा की कसम ! मेरा और तमाम सहाबा का इल्म अली (अ.स.) के इल्म के मुकाबिले में इस तरह है जैसे सात समन्दरों के मुकाबिले में पानी का एक क़तरा।
शरए मवाक़िफ़, रियाजुन-नुज़्रा और अरहजुल मतालिब वग़ैरा में है कि सरकारे दो आलम ने इरशाद फ़रमाया:-
“जो शख़्स आदम (अ.स.) को उनके इल्म के साथ, नूह (अ.स.) को उनके फ़हम के साथ, इब्राहीम (अ.स.) को उनके हिल्म के साथ, यहिया (अ.स.) को उनके जोहद के साथ और मूसा (अ.स.) को उनकी हैबत के साथ देखना चाहता है उसे चाहिए कि अली (अ.स.) को देखे।”
ओलमाए इस्लाम के अलावा दानिशवराने अहले फिरंग ने भी हज़रत अली (अ.स.) की इल्मीं सलाहियतों का भरपूर एतराफ़ किया है। चुनांचे मिस्टर एयर विंग का कहना है कि हज़रत अली (अ.स.) ही वह पहले ख़लीफ़ा हैं जिन्होंने उलूम व फनून को वुसअत देकर इसे बुलन्द किया। आप शेअर व सुख़न पर भी मुकम्मल दस्तरस रखते थे। आपके हकीमाना मकूले हजारों की तादाद में लोगों के ज़बांजद हैं और मुख़्तलिफ़ ज़बानों में उनके तर्जुमें भी हो चुके हैं।
ओकली का बयान है कि अली (अ.स.) की अक़ल और हिकमत व दानाई की शोहरत तमाम मुसलमानों में बिल इत्तेफाक है जिसको सब तस्लीम करते हैं। आपके “सद कलेमात” अभी तक महफूज़ हैं जिनका अरबी से तुर्की ज़बान में तर्जुमा हो चुका है। आपका एक दीवान भी है जिसका नाम “अनवारूल अकवाल” है। आपकी मशहूर तरीन तसनीफ “जफ़र व जामा” है जो एक बईदुल फ़हम रस्मुल ख़त में आदाद व हिन्दसों पर मुश्तमिल है और यह हिन्दी से उन तमाम अज़ीमुश शान वाक़िआत की निशानदेही करते हैं जो इब्तेदाए इस्लाम से क़यामत तक ज़हूर पज़ीर होने वाले हैं मगर यह तसनीफ सिर्फ आपके खानदान में है और पढी नहीं जा सकती अलबत्ता इमाम जाफ़र सादिक़़ (अ.स.) इसके कुछ हिस्सों की तशरीह व तफसीर में कामयाब हुए हैं और बारहवें इमाम (अ.स.) इसकी तशरीहात को मुकम्मल करेंगे।
आपकी तसनीफात बेशुमार हैं जिनमें से कुछ की फेहरिस्त आयानुल शिया में इस तरह मरकूम हैः
(1) तंजील के मुताबिक र्कुआन मजीद को हज़रत अली (अ.स.) ने जमा किया और इसके असबाब, नजूले आयात और मकामात का भी जिक्र किया।
(2) किताबुल अला जिसमें र्कुआने मजीद के 60 किस्म के उलूम का तजकिरा है।
(3) किताब जामिया
(4) किताब जफर
(5) सहीफतुल फराएज़
(6) किताब फ़ी ज़कात
(7) अबवाबुल फिका
(8) किताबुल फ़िक्ह
(9) मालिके अशतर के नाम तहरीरी हिदायात
(10) मुहम्मद बिन हनफिया के नाम वसीयत
(11) मसनदे अली (अ.स.)
(12) सहीफा अलविया
इन किताबों के अलावा मुख़्तलिफ़ ओलमा ने जिन किताबों में आपका कलाम जमा किया है उनमें नहजुल बलाग़ा माएतल कुल्लमा दस्तूर मआमुल हिकम, ममियाते अली (अ.स.), कलाएदुल हिकम व फाएदुल कलेम, जवाहरूल मतालिब, इम्सालुल ईमाम अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) और सिफ़्फ़ीन वग़ैरा काफी मशहूर है। इनके अलावा अशरफुल उलूम आप ही के कलाम से माख़ूज़ है। यह किताब इल्मुल हयात से मुतअल्लिक है और आप ही इसकी इब्तेदा और इन्तेहा हैं।
ओलमाए केराम ने इस बात की सराहत भी की है कि इल्मे कलाम, इल्मे ख़िताबत, इल्मे फ़साहत व बलागत, इल्मुल अशआर, इल्मे उरूज़ व कवाफी, इल्मे अदब, इल्मे किताबत, इल्मे फलसफ़ा इल्मे मनतिक, इल्मे हिन्दसा, इल्मे नजूम, इल्मे हिसाब और इल्मे तिब वग़ैरा में अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को इन्तेहाई कमाल हासिल था।
गोशा नशीनी
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) और जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की वफ़ात के बाद हालात की करवटों और माहौल की तलख़ियों ने हज़रत अली (अ.स.) को यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि आप आईन्दा ज़िन्दगी किस उस्लूब और किस ढंग से गुज़ारें चुनांचे आप इस नतीजे पर पहुंचे कि दुश्मनाने आले मुहम्मद (स.अ.) को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और गोशा नशीनी इख़्तेयार कर लेना चाहिए ताकि इस्लाम और मुसलमानों में इख़्तेलाफ़ व इन्तेशार की सूरत न पैदा हो।
आपका यह फ़ैसला फ़रमाने पैग़म्बर (स.अ.) की रौशनी में था क्योंकि हुज़ूरे अकरम (स.अ.) को इन हालात की मुकम्मल आगाही थी और उन्होंने आपको सब कुछ बता दिया था। अल्लामा इब्ने हजर का बयान है कि खुदावन्दे आलम ने अपने नबी (स.अ.) को उन तमाम उमूर से बाख़बर कर दिया था जो उनके बाद रूनुमा होने वाले थे और उन हालात व हादसात से मुत्तेला फ़रमा दिया था जिनमें अली (अ.स.) मुबतिला हुए।
रसूले अकरम (स.अ.) ने फ़रमा दिया था कि ऐ अली (अ.स.) ! मेरे बाद तुम्हें सख़्त सदमात पहुंचेंगे, तुम उस वक़्त तंग दिल न होना और सब्र का दामन हाथ से न छोड़ना। जब तुम देखना कि मेरे सहाबा ने दुनिया इख़्तेयार कर ली है तो तुम उस वक़्त दीन का तहफ्फुज़ करना और आख़िरत पर नज़र रखना।
यही वजह है कि हजरत अली (अ.स.) तमाम मसाएब व आलाम बर्दाश्त करते रहे मगर तलवार नहीं उठाई। गोशानशीनी इख़्तेयार करके र्कुआन जमा करने में मसरूफ रहे और वक़्तन फ-वक़्तन अपने मशविरों से इस्लाम को सरफ़राज़ करते रहे। अल्लामा इब्ने अबिल हदीद लिखते हैं कि जब हज़रत उमर ने चाहा कि वह खुद ईरान व रोम की जंग में जाएं तो हज़रत अली (अ.स.) ही ने उन्हें मुफीद मशविरा दिया जिसे उन्होंने ब-शुक्रिया कुबूल किया और अपने इरादे से बाज़ रहे। हज़रत उस्मान को भी हज़रत अली (अ.स.) ने कीमती मशविरे दिए अगर वह कुबूल कर लेते तो उन्हें हवादिस व आफात का सामना न करना पड़ता। मौलवी अब्दुल्लाह अम्रतसरी का कहना है कि हज़रत उमर के तदब्बुर का राज़ यह था कि वह हर मामले में हज़रत अली (अ.स.) से मशविरे ले लिया करते थे। मिस्टर अमीर अली अपनी किताब तारीखे इस्लाम में रकम तराज़ हैं कि हज़रत उमर के दौर में रफहे आम के जितने भी काम हुए वह सब हज़रत अली (अ.स.) के मशविरों के मरहूने मिन्नत हैं खुद हजरत उमर का यह बहुत मशहूर कौल है कि “अगर अली (अ.स.) न होते तो उमर हलाक हो जाता।”
बैअत और ख़िलाफ़त
अपने बारह साला दौरे हुकूमत में हज़रत उस्मान की बेएतेदालियों और बदउन्वानियों ने मुसलमानों को झिंझोड़ा और ग़लत कयादत को आज़माने और उसके संगीन नताएज भुगतने के बाद उनकी आंखें खुलीं और उनमें यह एहसास पैदा हुआ कि कयादत की बाग डोर किसी ऐसे शख़्स के हाथों में होना चाहिए जो इस्लामी मम्लेकत की दौलत समेट कर रखने के बजाए मुसलमानों की फलाह व बहबूद और अवामी मफादात पर नज़र रखे चुनांचे कत्ले उस्मान के बाद जब मसनदे ख़िलाफ़त खाली हुआ तो अकाबेरीने सहाबा नीज़ आम मुसलमानों की नज़रें हज़रत अली (अ.स.) की तरफ उठने लगीं।
हज़रत उस्मान अगर आम हालात में फ़ितरी तबई मौत मरते तो सकीफाई व शरई निज़ाम के तहत ख़िलाफ़त ने जो रूख इख़्तेयार किया था उसे देखते हुए कतअन यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि ख़िलाफ़त अपने अस्ल मरकज की तरफ फिर पलट कर आयेगी और हज़रत अली (अ.स.) को तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होने का मौका दिया जाएगा। इसलिए कि हज़रत उस्मान के गिर्द व पेश ऐसे लोगों का जमघटा था जिन्हें अवामी मफ़ाद के बजाए अपने जाती मफ़ाद की ज़्यादा फिक्र थी और वह लोग इस्लामी कयादत को अपने मफ़ाद में इस्तेमाल करने के आदी हो चुके थे। लिहाज़ा वह कब गवारा करते कि कोई ऐसा शख़्स बरसरे इक़्तेदार आए जो उनके बिगड़े हुए तौर व तरीकों पर पहरा लगाए। यकीनन मुआविया, अम्रे आस और उस्मानी उम्माल व हुक्काम जो अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की मुतावाजिन सीरत से बख़ूबी वाक़िफ़़ थे उनके इक़्तेदार की राह में रूकावट पैदा करते और उन्हें उम्मुल मोमेनीन हज़रत आयशा की भी हिमायत व ताईद हासिल होती जो बड़ी हद तक मुल्की सियासत पर असर अन्दाज़ और हज़रत अली (अ.स.) के मुखालेफीन की सफे अव्वल में थीं। शर्त यह कि यह लोग हज़रत उस्मान को नई बज़्मे शूरा की तशकील का मशविरा देते और ऐसी सूरत इख़्तेयार करते कि ख़िलाफ़त उन्हीं के अफ़राद में महदूद होकर रह जाती। या हज़रत उस्मान शूरा के चक्कर में पड़े बगैर किसी को नामज़द कर जाते जिसका जवाज़ सीरते शेख़ैन पर अमल की पाबन्दी कुबूल करने के बाद पैदा हो चुका था। मगर हालात की करवट ने उन्हें ये मौका ही नहीं दिया कि वह ख़िलाफ़त के बारे में कोई लाहए अमल मुरत्तब करते या कोई ख़ास हिदायत जारी करते और अगर करते भी तो इस हंगामे में उनकी कौन सुनता जबकि पूरा इस्लामी मआशिरा उनके ख़ून का प्यासा था और लोग उन्हें क़त्ल करने पर तुले हुए थे जो आख़िरकार हो के रहा।
अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) ने रसूले अकरम (स.अ.) के बाद एक तवील अर्से जिस ज़ब्त व तहम्मुल, बेनफ़्सी व बेग़र्ज़ी और सब्र व सुकूत के आलम में गुज़ारा और जिस एतदाल पसन्दी व उसूल परस्ती का सुबूत दिया वह दिलों को मुतअस्सिर किए बगैर नहीं रह सकता था। चुनांचे इस तअस्सुर ने आम मुसलमानों के ज़ेहनों और नज़रिए को बदला और उन लोगों ने हर तरफ नज़र दौड़ाने के बाद यह फैसला किया कि उम्मत की कयादत के लिए अली बिन अबी तालिब (अ.स.) से बेहतर कोई शख़्स नहीं है।
ग़रज़ कि मुहाजेरीन व अन्सार के नुमायां अफराद मस्जिद नबवी में जमा हुए और बइत्तेफाक राए यह फैसला किया कि हज़रत अली (अ.स.) से ख़िलाफ़त का कारोबार संभालने की दरख्वास्त की जाए। इस फ़ैसले के बाद एक नुमाइन्दा वफद जिसमें तलहा व ज़ुबैर भी शामिल थे हज़रत अली (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उनसे ख़िलाफ़त की बागडोर अपने हाथों में लेने की दरख्वास्त की। आपने इस पेशकश को कुबूल करने में तवक्कुफ से काम लिया और फ़रमाया कि मैं तुम लोगों के मामले में दखील होना नहीं चाहता, मेरे बजाए किसी और को अपना अमीर मुकर्रर कर लो और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। उन लोगों ने कहा, हम आपसे ज़्यादा किसी को ख़िलाफ़त का हक़दार नहीं समझते और न साबेका खिदमात के लिहाज़ से आपसे कोई मुक़द्दम है और न ही आपसे ज़्यादा कराबत में कोई रसूलुल्लाह (स.अ.) से करीबतर है।
आपने फिर इन्कार किया। मगर वह लोग मुसलसल इसरार व इल्तेजा के साथ आपको आमादा करने की कोशिशें करते रहे और जब यह देखा कि आप किसी तरह ख़िलाफ़त कुबूल करने पर राज़ी नहीं हो रहे हैं तो वह गिड़गिड़ा कर कहने लगे:-
“हम आपको ख़ुदा का वास्ता देते हैं। क्या आप देख नहीं रहे हैं कि हम किस आलम में हैं और क्या आप इस्लाम के मुकाबिले में उभरते हुए फ़ितनों से बेख़बर हैं।”
जब लोगों का इसरार हद से ज़्यादा बढ़ा और हज़रत अली (अ.स.) ने सोचा कि हालात लाख नासाज़गार सही मगर इतमामे हुज्जत के बाद अब फ़राएज़ की अदाएगी से पहलू तही नहीं की जा सकती तो आपने फ़रमायाः
“मुझे मंजूर है मगर यह अच्छी तरह जान लो कि यह मंजूरी उसी सूरत में है कि मैं तुम्हें उस राह पर चलाऊंगा जिसे मैं बेहतर समझूंगा।”
यह शर्त अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) के उसूलों की फतह थी जिसके सामने मुसलमानों ने हथियार डाल दिए और बेचूं व चरा उसे तस्लीम कर लिया और क्यों न करते? सच्चे और सही उसूलों की पासदारी दूसरों को अपने आगे झुकने पर मजबूर कर दिया करती है।
अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की इस मंजूरी के बाद 25 जिलहिज सन् 35 हिजरी को जुमे के दिन मस्जिदे नबवी में उमूमी बैअत का एहतेमाम किया गया। आप बैतुल शरफ से निकल कर मस्जिदे नबवी में दाखिल हुए और खचाखच भरे हुए मजमे के दरमियान से गुजर कर मिम्बरे रसूल (स.अ.)के पास उस मक़ाम पर बैठ गए जहां पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) तशरीफ फ़रमां हुआ करते थे। इसके बाद बैअत का सिलसिला शुरू हो गया और तलहा व जुबैर ने बैअत की इब्तेदा की। जैसा कि अल्लामा दयार बकरी ने लिखा है कि सबसे पहले तलहा और जुबैर ने बैअत की फिर दूसरे लोगों ने हाथ बढ़ाया।
जंगे ओहद में तलहा का एक हाथ नाकारा हो गया था। चुनांचे जब हबीब बिन ज़ुहैब ने उन्हें बैअत करते हुए देखा तो कहा एक हाथ वाले ने बैअत की इब्तेदा की है ख़ुदा ही ख़ैर करे।
उसके बाद लोग बैअत के लिए टूट पड़े और असहाबे बद्र में भी कोई शख़्स बाकी न रहा जिसने ब-रज़ा व रग़बत अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की बैअत न की हो जैसा कि अल्लामा इब्ने हजर मक्की ने तहरीर फ़रमाया है कि:
“अहले बद्र में कोई भी बाक़ी न रहा, सबके सब हज़रत अली (अ.स.) के पास आए और कहा हम आपसे ज़्यादा किसी को ख़िलाफ़त का हक़दार नहीं समझते, हाथ बढ़ाइए ताकि हम बैअत करें, चुनांचे उन्होंने बैअत की।”
इन बैअत कुनन्देगान में सिर्फ मदीने ही के लोग न थे बल्कि यमन, मिस्र और इराक़ के बाशिन्दे भी शामिल थे। इस तरह मुत्तफेका तौर पर आपकी बैअत तस्लीम कर ली गयी।
जब बैअत हो चुकी तो साबित बिन कैस ने अन्सार के जज्बात की तर्जुमानी करते हुए कहा:-
“ऐ अमीरूल मोमेनीन (अ.स.)! ख़ुदा की क़सम अगरचे वह लोग (अबू बक्र व उमर व उस्मान) हुकूमत में आपसे साबिक़ थे मगर दीन के मामलात में आप पर सबक़त न ले जा सके। अगर कल वह (हुकूमत के मामले में) आपसे आगे बढ़ गए थे तो आज आप भी उसी मक़ाम पर आ गए हैं। उनके होते हुए भी न आपका मर्तबा ढ़का छिपा था न आपकी मंज़िलत पोशीदा थी। वह लोग बहुत से उमूर में आपके मोहताज थे और आप अपने इल्म की बिना पर किसी के मोहताज न थे बल्कि सब पर भारी थे।”
यकीनन इस बैअत के मौके पर अन्सार ने बड़ा इन्हेमाक ज़ाहिर किया मगर इसके साथ यह भी हुआ कि उनमें जो लोग उस्मानी गिरोह से तअल्लुक रखते थे उन्होंने बैअत से गुरेज़ किया। चुनांचे हस्सान बिन साबित, कअब बन मालिक, मुस्लिमा बिन मुख़ल्लिद, मुहम्मद बिन मुस्लिमा, अबु सईद खु़दरी, नोमान बिन बशीर, ज़ैद बिन साबित, फ़ज़ाला बिन उबैद और कअब बिन जराअ वग़ैरा ने बैअत नहीं की।
उनके अलावा कदामा बिन मज़ऊन, अब्दुल्लाह बिन सलाम, मुगैरा बिन शेबा, सअद बिन अबी वकास, सहीब बिन सिनान, सलमा बिन वक़्शी, अब्दुल्लाह बिन उमर, उसामा बिन ज़ैद और वहबान बिन सैफी वग़ैरा ने किनाराकशी इख़्तेयार की और अपने घरों में बैठे रहे। यह लोग भी हज़रत उस्मान से वाबस्ता रह चुके थे और यही वाबस्तगी उनके लिए बैअत से माने रही।
अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) ने किसी को भी बैअत पर मजबूर नहीं किया और न किसी पर दबाव डाला और न किसी पर सख़्ती की बल्कि जिसने ब-रज़ा व रग़बत बैअत के लिए हाथ बढ़ाया उससे बैअत ले ली और जिसने अलैहदगी इख़्तेयार करना चाही उससे मुतालिबा न किया। अलबत्ता अब्दुल्लाह बिन उमर और सअद बिन अबी विकास से आपने बैअत न करने का सबब ज़रूर दरयाफ़्त किया क्योंकि उनके तेवरों से ज़ाहिर हो रहा था कि वह बैअत से अलैहदा रहक़र दूसरों को भी रोकेंगे जिससे शरअंगेजी को सर उठाने का मौक़ा फ़राहम होगा।
हज़रत अली (अ.स.) के इस्तेफ़सार पर सअद ने जवाब में कहा कि जब दूसरे लोग यानी अब्दुल्लाह बिन उमर वग़ैरा बैअत कर लेंगे तो मैं भी बैअत कर लूंगा और अगर बैअत न भी करूं तो भी आपकी मुख़ालिफ़़त नहीं करूंगा। चुनांचे आपने दोबारा सअद से कुछ नहीं कहा और उन्हें उनकी मर्ज़ी पर छोड़ दिया। लेकिन अब्दुल्लाह बिन उमर ने जब बैअत से इन्कार किया तो आपने फ़रमाया कि तुम इस बात की जमानत दो कि मुल्क के नज़्म व नस्क में रख़ना अन्दाजी करके फिज़ा को मुकद्दर बनाने की कोशिश नहीं करोगे। उसने ज़मानत देने से इन्कार किया जिस पर मालिके अशतर बरहम हो गए और उन्होंने कहाः या अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) मुझे इजाज़त दीजिए कि मैं इसका सर उड़ा दूं। आपने फ़रमाया कि तुम इससे कोई तअर्रुज़ नहीं करोगे, यह बचपन में भी कज खुल्क व कज फ़हम था और आज भी कज फहम है, मैं खुद इसका ज़ामिन हूँ।
बहरहाल, अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) की बैअत से दीनी व दुनियावी इक़तेदार एक मरकज़ पर जमा हो गया। दुनियावी इक़्तेदार को हुकूमत से और दीनी इक़्तेदार को ख़िलाफ़त से ताबीर किया जाता है। हुकूमत की तशकील में अवामी इन्तेखाब कार फ़रमा हो सकता है मगर ख़िलाफ़त में न तो इन्तेखाब का दख़ल होता है और न किसी खुद साख़्ता उसूल के मातहत उसे किसी के सुपुर्द किया जा सकता है। बल्कि ख़िलाफ़त अल्लाह की जानिब से उसके एहकाम के इजरा व निफ़ाज़ के लिए वजूद में आती है और जो नबूव्वत की तरह अवाम के चुनाव पर मुन्हसिर नहीं होती। इसलिए कि इस्लाम का कोई जुज़वी व फौरी हुक्म भी ऐसा नहीं है जिसे अवाम की राए पर छोड़ा गया हो तो ख़िलाफ़त ऐसे अहम मामले को जिस पर हयात मिल्ली और बक़ाए दीन का इन्हेसार है, अवाम की राए पर क्योंकर छोड़ा जा सकता है? इस एतबार से अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की ख़िलाफ़त जो नसूसे क़तईया से साबित है, अवाम की राए और उनकी बैअत पर मौकूफ़ न थी। इस मरहले पर जिस ख़िलाफ़त की पेशकश आपके सामने की गयी वह सिर्फ एक इन्तेखाबी उसूल के तहत इक़्तेदार की मुन्तक़ली थी जिसे जमहूरी ख़िलाफ़त से ताबीर किया जाता है। इसीलिए अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने शूरा के मौके़ पर इसे कुबूल करने से सरीहन इन्कार कर दिया था और कत्ले उस्मान के बाद मुसलमानों के बेहद इसरार पर इसे कुबूल करने पर रजामन्द भी हुए तो महज़ इस मकसद के तहत कि आप इन ज़िम्मेदारियों और फ़राएज़ को अंजाम दे सकें जो जानशीने रसूल (स.अ.) या इमाम की हैसियत से आप पर आएद होते थे। चुनांचे एक खुतबे में आप फ़रमाते हैं कि:
अगर बैअत करने वालों की मौजूदगी और मदद करने वालों के वजूद से मुझ पर हुज्जत तमाम न हो गयी होती और वह अहद न होता जो अल्लाह ने ओलमा से ले रखा है कि वह जुल्म की शिकमपुरी और मज़लूम की गुरसंगी पर चैन व सुकून से न बैठेंगे तो मैं ख़िलाफ़त की बाग डोर उसी के कन्धे पर डाल देता और उसके आख़िर को भी उसी प्याले से सेराब करता जिस प्याले से उसके अव्वल को सेराब किया था।
पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) के बाद अगरचे आप ज़ाहिरी इक़्तेदार से अलैहदा रहे मगर ख़िलाफ़ते इलाही के मनसबे जलीला से एक लम्हा के लिए भी आपको अलैहदा तसव्वुर नहीं किया जा सकता बल्कि इक़्तेदार व अदमे इक़तेदार दोनों ही सूरतों में आप ख़लीफ़ए रसूल (स.अ.) और इमामे मनसूस होने की हैसियत से वाजिबुल इताअत थे। इस ज़ाहिरी ख़िलाफ़त से सिर्फ इतना हुआ कि जो लोग आपको काबिले इताअत नहीं समझते थे वह भी इताअत पर मजबूर हो गए।
दुनियावी इक़्तेदार दुनिया परस्तों के लिए औज व सरबुलन्दी का सबब हो तो हो, मगर अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) की क़द्रो मंज़िलत उससे बाला तर है कि हुकूमत व इक़्तेदार उनके लिए वजहे शरफ़ व इफ़्तेख़ार बन सके। इस ज़ाहिरी ख़िलाफ़त से पहले न आप में कोई कमी थी और न उसके बाद आपकी मंज़िलत में कोई इज़ाफा हुआ। जहां हर बुलन्दी सर झुकाती हो वहां ताज व तख़्त की बुलन्दी रफ़अत का सामान मोहय्या नहीं करती और जहां इमामत का जौहर ज़ियाबार हो वहां शहंशाहियत का कर्राेफ़र जीनत में अफ़ज़ा नहीं होता। चुनांचे सअसअ बिन सौहाने अबदी ने बैअत के मौके पर आपसे मुखातिब होकर कहा, खुदा की कसम ऐ अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) ! आपने ख़िलाफ़त को जीनत अता की है उसने आपको ज़ीनत नहीं दी, आप उसे बुलन्दी पर ले गए हैं उसने आपका पाया बुलन्द नहीं किया। ख़िलाफ़त को आपकी ज़रूरत थी, आपको इसकी ज़रूरत नहीं थी।
इमाम अहमद इब्ने हम्बल भी यही फ़रमाते हैं कि:
“ख़िलाफ़त ने अली (अ.स.) के लिए जीनत का सामान नहीं किया बल्कि खुद अली (अ.स.) ने ख़िलाफ़त को जीनत दी है।”
बैअत शिकनी
अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के हाथ पर बैअत करने वालों में कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने बैअत के मौके पर तो बड़ी सरगर्मी दिखाई मगर बाद में बैअत से मुन्हरिफ़ होकर तख़रीब कारी पर उतर आए। इन तख़रीब कारों में तलहा व जुबैर के नाम सरे फेहरिस्त हैं जिन्होंने मजमए आम में अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की बैअत की मगर जब उन्हें अपने तवक्कोआत में मायूसी नज़र आई तो बैअत तोड़कर अलग हो गए और बैअत शिकनी के जवाज़ में यह शाखसाना खड़ा किया कि हमने तलवार के साये में बैअत की थी और अगर बैअत न करते तो क़त्ल कर दिए जाते।
हज़रत अली (अ.स.) की बैअत जिन नासाज़गार हालात में हुई उन्हें निगाह में रखते हुए कोई भी अकलमन्द और इन्साफ पसन्द शख़्स यह बावर करने के लिए तैयार नहीं हो सकता कि जिस अज़ीम हस्ती ने मुसलमानों के बेहद इसरार पर ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारियां कुबूल की हों वह बैअत के मामलात में जब्र व तशद्दुद का तरीका भी इख़्तेयार कर सकती है। फिर तलहा और जुबैर के अलावा और लोग भी तो थे जिन्होंने बैअत से इन्कार किया था आख़िर उन्हें जब्र व तशद्दुद का निशाना क्यों नहीं बनाया गया या बैअत के लिए उनके सरों पर तलवारें क्यों नहीं लटकायीं गयीं? यह खुसूसी तशद्दुद तलहा व जुबैर ही के साथ क्यों? अगर यह कहा जाए कि उन दोनों हज़रात से बैअत हासिल करने में यह मसलहत कारफ़रमां थी कि उनके असरात की बिना पर उन्हें पाबन्द करना इस्तेहकामे हुकूमत के लिए ज़रूरी था तो यहीं मसलेहत अब्दुल्लाह बिन उमर और सअद बिन अबी वक़ास के बारे में भी मलहूज़े ख़ातिर होना चाहिए थी और उन्हें भी इसी तरह बैअत के लिए मजबूर किया जाना चाहिए था जबकि यह दोनों हज़रत तलहा व जुबैर से असरात व रसूख और ताकतवर व तवानाई के मामले में किसी तरह भी कम न थे। जब उन पर सियासी इस्तेहकाम की बुनियाद पर जब नहीं किया गया तो तलहा व ज़ुबैर पर जब्र व तशद्दुद या तलवार की साया फिगनी के क्या मानी हो सकते हैं?
हक़ीक़त सिर्फ़ यह है कि हज़रत उमर ने जो शूरा कायम किया था उसके रूक्न तलहा व जुबैर भी थे इसलिए उनका ज़ेहन भी ख़िलाफ़त के तसव्वुर से खाली न था। चुनांचे कत्ले उस्मान के सिलसिले की तमामतर कोशिशें इसी मकसद के हुसूल का नतीजा थीं मगर उन लोगों ने जब यह देखा कि लोग हज़रत अली (अ.स.) की ख़िलाफ़त पर बज़िद हैं और उनके अलावा किसी की बैअत पर रजामन्द नहीं हैं तो उन लोगों ने भी राये आम्मा का रूख देखकर पेश कदमीं की और अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की बैअत कर ली और दूसरे ही दिन यह मुतालिबा किया कि उन्हें कूफा व बसरा की इमारत दे दी जाए लेकिन हज़रत अली (अ.स.) ने यह गवारा न किया कि उन इलाकों को जो हुकूमत के मुहासिल का सरचश्मा थे, उनकी बढ़ती हुई हिर्स व हवस की आमाजगह बनने दें। चुनांचे आपने यह कहक़र इन्कार कर दिया कि मैं तुम्हारे मामलात में जो बेहतर समझंूगा वह करूंगा। फिलहाल तुम दोनों का मेरे पास ही रहना बेहतर है।
तलहा व जुबैर अपनी इस महरूमी व नाकामी का बदला लेना चाहते थे मगर मदीने की फिज़ा इस हंगामा आराई के लिए साज़गार न थी क्योंकि अहले मदीना कत्ले उस्मान के सिलसिले में उनका किरदार देखे हुए थे अलबत्ता मक्के में यह तहरीक कामयाब हो सकती थी क्योंकि उम्मुल मोमेनीन आयशा के अलावा साबिक गवर्नर मरवान बिन हक़म और मदीने से निकल खड़े होने वाले दीगर बनी उमय्या वहां जमा हो चुके थे। चुनांचे उन दोनों ने भी मक्के जाने का फैसला किया और हज़रत अली (अ.स.) से कहा कि हम लोग उमरे की नियत से मक्के जाना चाहते हैं लिहाजा हमें इजाज़त मरहमत की जाए। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) उनके तेवरों को फौरन भांप गए कि यह लोग बैअत की जकड़ बन्दियों से आज़ाद होकर मक्के को अपनी जौलानियों और शोरिशों का मरकज़ बनाना चाहते हैं, लिहाजा आपने फ़रमायाः खुदा की कसम, इनका इरादा उमरे का नहीं है बल्कि यह लोग फ़रेबकारी और गद्दारी पर उतर आए हैं।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने उन्हें बहुत कुछ समझाया बुझाया कि तुम लोगों का मक्के जाना मुनासिब नहीं है मगर यह अपनी जिद पर अड़े रहे और बराबर इसरार करते रहे। आख़िरकार आपने उनसे दोबारा बैअत लेकर उन्हें मक्के जाने की इजाजत दे दी और यह लोग वहां पहुंचकर हज़रत आयशा के गिरोह में शामिल हो गए।
हज़रत अली (अ.स.) का तर्ज़े हुकूमत
इस हक़ीक़त से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) के बाद “राये आम्मा” के जिस कमज़ोर पहलू पर इस्लामी हुकूमत की बुनियाद रखी गयी थी वह कैसर व किसरा के तर्ज़े जहां बानी का पेश खेमा साबित हुई और अल्लाह की हाकिमियत की जगह शख़्सी हुकूमत ने ले ली। हालांकि इस्लाम में आमरियत, मलूकियत और शख़्सी हुकूमत की कोई गुंजाईश नहीं है और न एक इन्सान को दूसरे इन्सान पर हुकूमत करने का कोई हक़ हासिल है। इसलिए कि हुकूमते इलाही का मेयार न ताक़त व सरवत है और न ऐसे अवाम की हमनवाई किं जिनकी अकसरियत खुदगर्जी और मफ़ादपरस्ती का शिकार होती है बल्कि “कारसाज़े मुतलक़” जिसे अपने नुमाईन्दे की हैसियत से हाकिम मुकर्रर करता है वही इस्लामी ममलेकत का सरबराह होता है। वही इलाही हाकमियत की असास पर हुकूमत की तशकील करता है और वही अल्लाह के एहकाम व क़वानीन को अवाम पर नाफ़िज़ करता है।
इस्लामी हुकूमत सिर्फ मुस्लिम अफ़राद के बरसरे इक़तेदार आ जाने का नाम नहीं है बल्कि इस निज़ामे हयात के एहिया का नाम है जिसे रसूले अकरम (स.अ.) ने नाफ़िज़ किया और अगर कोई अपने बाद एक नाकाबिल तरमीम दस्तूर लाहए अमल के ख़िलाफ़ हुकूमत की तशकील अमल में लाता है तो वह लाख मुस्लिम सही इस्लामी हुक्मरां कहलाने का मुस्तहक़ नहीं है। चुनांचे मुआविया, यज़ीद, मरवान, अब्दुल मलिक, और इसी तरह दूसरे फ़रमांरवाओं की हुकूमतों को इस्लामी हुकूमत से ताबीर नहीं किया जा सकता बल्कि यह हुकूमतें इस्लामी हुकूमत का आईनादार होने के बजाए हरकुली व कै़सरी हुकूमतों का नमूना थीं जिन्हें इस्लामी हुकूमत कहना इस्लामी तर्जे हुकूमत से बेखबरी की दलील है।
हजरत अली (अ.स.) की हुकूमत सही मानों में इस्लामी हुकूमत थी और आपने हुकूमत की जिम्मेदारी इसी शर्त पर कुबूल की थी कि इसे मिन्हाजे नबूव्वत पर चलाने और इस्लामी कालिब में ढालने में दख़ल अन्दाज़ होने की कोशिश कोई न करे। चुनांचे आपने हालात की तब्दीली और इन्सानी मिज़ाजों की तग़ैयुर पज़ीरी के बावजूद हुकूमते रब्बानिया के तकाज़ों के मुताबिक हुकूमत की तशकील की और रसूलुल्लाह (स.अ.) के तर्ज़े जहां बानी पर अपनी हुकूमत की बुनियाद व असास रखी। अगरचे आपका दौरे हुकूमत मुख़्तसर और इन्तेहाई मुख़्तसर और वह भी शोरिशों और हंगामों की आमाजगह बन गया था मगर इस मुख़्तसर अर्से में भी आपने इस्लामी हुकूमत के ख़द व खाल को इस तरह उभारा कि दौरे नबवी की तस्वीर अहले दुनिया की आंखों के सामने फिर गयी या यूं कहा जाए कि मुसलमानों के इसरार पर आपने इक़तेदार अपने हाथों में लेकर तमाम पर्दों को उठा दिया जो इस्लामी हुकूमत पर डाल दिए गए थे।
अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) की इस्लामी हुकूमत का पूरा पसमंज़र हक़ के क़याम और बातिल के इस्तेहसाल पर मबनी था। चुनांचे आपने अपने दौरे इक़तेदार में उन्हीं दो चीज़ों को मलहूज़े ख़ातिर रखा और अपना अहदे हुकूमत हक़ की सरबुलन्दी और बातिल की सरकूबी के लिए वक़्फ़ कर दिया नीज़ इस्लामी एहकाम के इजरा और अख़लाक़ी अक़दार के तहफ्फुज ही को मकसदे अव्वलीन करार दिया और जबकि इक़तेदार के मुकाबिले में उसूल व आईन की कोई क़द्र व क़ीमत न थी, इस्लामी उसूलों को पामाल किया जा रहा था और अगर कोई कानून जाती मफ़ाद से मुतसादिम होता उसे तावीलात का हदफ़ बना लिया जाता था, आपने किसी क़ीमत पर सही उसूलों से इन्हेराफ गवारा न किया और न मुख़ालिफ़त की तेज़ व तुन्द आंधियां आपके मौकफ में तब्दीली पैदा कर सकीं। आप न सिर्फ अपने मौक़फ़ पर मजबूती से जमे रहे बल्कि अपने तर्जे अमल से मुनजमिद तबीयतों में हरकत व अमल का जज़्बा पैदा कर दिया और इस्लामी तालीमात से लोगों को रूशनास करके जेहनी इन्केलाब की राह हमवार कर दी।
आपने पैहम हंगामों और मुतावातिर ख़ाना जंगियों के बावजूद इस्लामी खुतूत पर मुस्लिम मुआशरे की अज़ सेर नौ तशकील की। रिफ़ाहे आम्मा के काम अंजाम दिए, रिआया की शिकायतें सुनीं, इस्तेहसाल की रोक-थाम की, नारवां बन्दिशों को ख़त्म करके लोगों को आज़ादी की फ़िज़ा में सांस लेने का मौक़ा फराहम किया, तामीरी अनासिर की हौसला अफजाई की, तख़रीबी कूव्वतों का मुकाबला किया, आमाल की कारगुज़ारियों का हर पहलू से जाएजा लिया, खिराज व जकात के कारिन्दों के दायएकार और मुआशरे के मुख़्तलिफ तबकात के हुकूक व फराएज का तअय्युन किया और नस्ली, मुल्की तफरीक व इम्तेयाजात को ख़त्म करके मुआशरती अदल को बढ़ावा दिया।
अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) के पेशेनज़र एक ऐसा मिसाली व मेयारी मआशिरा था जिसमें ज़ुल्म व इस्तेबदाद, सरमायादारी व इस्तेहसाल और ख़यानत व रिश्वत की कोई गुंजाईश न हो और निजामें हुकूमत हक़ व इन्साफ, मसावात व मअशियत, इज्तेमाई व इन्फेरादी फलाह और इस्लामी अक़दार पर मबनी हो। चुनांचे आप ख़ुद भी उन्हीं खुतूत पर कारबन्द रहे और अपने आमाल को भी वक्तन फ-वक्तन तहरीरन मुतावज्जे फ़रमाते रहे। इन तहरीरों में सरे उन्वान तकवा व परहेजगारी की हिदायत और यौमे हिसाब की याद दहानी होती ताकि तकवा उनके दिलों में अज़मते इलाही का एहसास और आख़िरत की याद उनमें अमल का जज़्बा पैदा करे।
यूँ तो आपका हर तहरीरी फ़रमान एक दफ़तरे हिदायत होता था मगर मालिके अशतर को वालीए मिस्र मुकर्रर करते वक्त जो दस्तावेज लिख दी वह इलहामी तालीमात की आईनादार और दस्तूरी शिकों पर इस हद तक हावी है कि आज तक ज़ेहने इन्सानी उसके आगे नहीं सोच सका और न मजीद इत्तेफाक मराहिल तय करके उसमें बुनियादी तौर पर किसी शिक का इज़ाफ़ा कर सकेगा। इसकी जामईयत पर तबसिरा करते हुए जार्ज जुर्दाक मसीही ने लिखा है कि आपके अहदनामों में से यह एक अज़ीम मंशूरे हिदायत है जो शहरियत व मदनीयत के क़वानीन का जामे और आमतुन नास के हुकूक और ख़्वास के हुदूदेकार पर हावी हैं।
हज़रत अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) ने इस दस्तावेज़ में मुआशिरत के अदना तबके से लेकर आला तबके तक एक एक के हुकूक व फराएज़ वजाहत से बयान फ़रमाए हैं और मज़दूरों, सनअतकारों, ताजिरों, लश्करियों, काज़ियों, मुशीरों, वज़ीरों और इक्तेसाब माशियत से दरमान्दा अफ़राद के हुकूक का तअय्युन किया है और सीग़ए मालियात, मुम्लिकती मुआहेदात, दाख़िला व ख़ारिजा तअल्लुकात, अहले इस्लाम और जिम्मियों के शहरी व मुआशरती हकूक, नीज़ सियासी व मआशी निज़ाम, अदलिया व इन्तेज़ामियां के क़याम और क़ज़ावत व उम्माल और उनके मातहत अमला के फाएज़ पर रौशनी डाली है। यह मंशूर हिदायत अपनी अफादियत व हमागीरीं के एतबार से किसी ख़ास अहद ख़ास दौर, किसी ख़ास तबके, ख़ास मुल्क और किसी खास वक़्त के लिए मखसूस नहीं है बल्कि आज भी यह जमहूरी व गैर जमहूरी ममलेकत उससे यकसा फाएदा उठा सकती है। अगर अमने आलम और तहफ्फुज हुकूक की आवाज़ बुलन्द करने वाली हुकूमतें उसे अपना लाहए अमल करार दे लें तो न ज़मींदारों काश्तकारों में कशमकश हो सकती है न ही मज़दूर की हक़ तलफ़ी और सरमाया कार के ज़ुल्म का सवाल पैदा हो सकता है और न दौलत की गैर मुतावाजी तक़सीम से मआशी नाहमवारी जन्म ले सकती है।
ग़रज़ कि अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की हुकूमत व सियासत एैन इस्लामी हुकूमत व सियासत थी और चूंकि इस्लामी सियासत एक ऐसा निज़ाम है जिसमें ज़िन्दगी के तमाम शोबों को दीन से वाबस्ता कर दिया गया है। इसलिए आपकी हुकूमत का कोई शोबा ख़्वाह वह मईशत से मुतअल्लिक हो या मआशिरत से, हाकिम से मुतालिक हो या रिआया से, दीन के तसव्वुर और हुदूद से खारिज नहीं किया जा सकता।
गवर्नरों की तक़र्रुरी
तमददुनी इरतेक़ा और मअशरती बुलन्दी हुकूमत की तशकील से वाबस्ता है। ख्वाह वह शख़्सी हुकूमत हो या जमहूरी, इस्लामी हो या गैर इस्लामी हुकूमत ही के ज़रिए इन्सानी मआशरे में नज़्म व नस्ख़ पैदा किया जा सकता है और इसी के ज़रिए बदनज़्मी का इन्सेदाद, इन्सानी हुकूक का एहतेराम और मुल्की इस्लाहात का निफ़ाज़ मुमकिन है। मुल्क का नज़्म व ज़ब्त और उसकी शीराज़ाबन्दी सरबराहे ममलेकत के तदब्बुर और उम्माल की इन्तेज़ामी सलाहियतों और अमली कारगुज़ारियों का नतीजा होती है। हुकूमत के इन्तेज़ामी व इस्लाही उमूर का निफ़ाज़ उन्हीं हुक्काम व अम्माल के ज़रिए अमल में आता है और उन्हीं के ज़रिए रिआया को मुल्की क़वानीन व ज़वाबित का पाबन्द बनाया जाता है। उन हुक्काम व उम्माल का तक़रूर मुल्क के मुख़्तलिफ़ सूबों में सरबराहे मुम्लिकत की सवाबदीद से होता है।
अगर हुकूमते इस्लामी है तो यही हुक्काम व उम्माल उन उमूर के अलावा जो इस्लामी व ग़ैर इस्लामी हुकूमत में मुशतरिक होते हैं, जिज़ए व ज़कात की वसूलियाबी, ताज़िरात के इजरा, इस्लामी एहकाम के निफाज़ और दीनी व अख़्लाक़ी तरबियत की अंजामदेही के ज़िम्मेदार भी होते हैं।
यह भी एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि अवाम अपने हुक्काम के तर्जे अमल से मुतअस्सिर होते हैं और वही तौर व तरीके इख़्तेयार करते हैं जो उनके हुक्काम का होता है। अगर वह नेक सीरत बुलन्द किरदार और इस्लामी तालीमात का अमली नमूना हैं तो अवाम में भी हुस्ने अमल का जज़्बा पैदा होता है और अगर खुदग़रज़, रिश्वतखोर और इस्तेहसाल पसन्द है तो रिआया भी खुदगर्जी की राह पर चलने लगती है और तमाम इन्सानी व अख़लाकी कद्रों को अपने जाती मफ़ाद पर कुर्बान करके मुल्क की फ़िज़ा को मुकदर बना देती है। जिसका नतीजा बदअमनी, बेइत्मेनानी और हुकूमत की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं होता। इसलिए मुल्क की बका और अवाम की फलाह व बहबूद का तकाजा है कि हुक्काम व उम्माल की तक़र्रुरी सूझबूझ और बारीक बीनी से काम लिया जाए और उनके आदात व अतवार में परख लिए जाए।
हज़रत अली (अ.स.) ने अपने दौरे हुकूमत में किलीदी ओहदे उन्हीं लोगों के सुपुर्द किए जिनकी अमानतदारी, दियानतदारी और रास्तगोई पर आपको पूरा भरोसा था जैसा कि अल्लामा इब्ने अब्दुल बिर रकमतराज़ हैं कि हज़रत अली (अ.स.) उन्हीं लोगों को वाली व हाकिम मुकर्रर करते थे जो अमानतदार और दियानतदार होते थे। चुनांचे आपने अब्दुल्लाह को यमन का, सईद को बहरैन का समाआ को तहामा का, औन को यमामा का, कसम को मक्के का कैस को मिस्र का, उस्मान बिन हुनैफ़़ को बसरा का, अम्मार बिन शहाब को कूफ़े का और सुहैल बिन हुनैफ को शाम का गवर्नर मुकर्रर किया।
लोगों ने आपको मशविरा दिया कि मुआविया को मसलेहतन अपनी जगह पर रहने दें मगर आपने इसे कुबूल न फ़रमाया और कसम खाई कि मैं हक़ से मुनहरिफ उमूर पर अमल न करूंगा। एहसानुल्लाह अब्बासी अपनी तारीखे इस्लाम में लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने सीधे तौर पर जवाब दिया कि मैं बुरे लोगों को उम्मते रसूल (स.अ.) पर हुक्मरां नहीं रख सकता।
बहरहाल तक़र्रूरी के बाद अब्दुल्लाह बिन अब्बास यमन की तरफ रवाना हुए और वहां पहुंच कर उन्होंने गवर्नरी का ओहदा संभाल लिया मगर याली बिन उमय्या ने जो हज़रत उस्मान की तरफ से वहां का गवर्नर था, यह चालाकी की कि अपनी माजूली की ख़बर सुनते ही ख़ज़ाने का सारा माल समेट कर वहां से भाग निकला और मक्के में आकर हज़रत अली (अ.स.) के मुख़ालिफ़ीन (आयशा, तलहा और जुबैर वग़ैरा) से मिल गया। इब्ने असीर व इब्ने ख़लदून का कहना है कि उसने साठ हज़ार दीनार और छः सौ ऊँट हज़रत आयशा की ख़िदमम में भी पेश किए और कहा कि आप अली (अ.स.) से जंग की तैयारियां करें। उन्हीं ऊँटों में “असकर” नामी वह तवीलुल कामत और मलऊन ऊँट भी था जिस पर सवार होकर हज़रत आयशा, हज़रत अली (अ.स.) के मुक़ाबले में सफ़आरा हुईं।
कैस बिन सअद ने भी मिस्र में अपना मंसब संभाला मगर फिर्क़ा-ए-उस्मानिया ने इताअत से इन्कार किया। इस फिर्के़ के लोगों का मुतालिबा कि जब तक उस्मान के कातिलों को कैफ़रे किरदार तक नहीं पहुंचाया जाएगा हम अली (अ.स.) की इताअत कुबूल नहीं करेंगे। यह मुख़ालिफत अब्दुल्लाह इब्ने अबी सरह की तख़रीबी कोशिशों का नतीजा थी जो कैस से पहले मिस्र का गवर्नर था और क़त्ले उस्मान की ख़बर सुनकर मुआविया की गोद में बैठ गया।
उस्मान बिन हुनैफ़ ने जब बसरे का कारोबार संभाला तो वहां एक फिर्क़े ने इताअत की और एक ने बगावत इख़्तेयार की। अब्दुल्लाह बिन आमिर साबिक गवर्नर ने याली बिन उमय्या की तरह बसरे के बैतुलमाल का सारा असासा समेटा और वह भी हज़रत आयशा के गिरोह में शामिल हो गया। ब-रिवायते कामिल उसने भी हज़रत अली (अ.स.) से लड़ने के लिए हज़रत आयशा को काफी माल दिया।
अमारा बिन शहाब जब कूफ़े के लिए रवाना हुए तो रास्ते में मंज़िल ज़बाला पर तलीहा बिन ख़्वैलद और काकाअ बिन अम्र से उनकी मुलाकात हुई। उन लोगों ने अमारा से कहा कि अहले कूफा ख़ूने उस्मान का क़सास चाहते हैं और अबू मूसा अशरी के अलावा किसी की इमारत करने पर तैयार नहीं है। यह सुनकर अमारा मदीने वापस आ गए और अबू मूसा अशरी अपनी जगह बदस्तूर बरक़रार रहे।
सुहैल बिन हुनैफ़ शाम के लिए रवाना होकर जब तबूक के करीब पहुंचे तो उन्हें एलिया के मुक़ाम पर चन्द शामी सवार मिले जिन्होंने उनसे पूछा कि तुम कौन हो? सुहैल ने कहा हज़रत अली (अ.स.) ने मुझे शाम का गवर्नर बना कर भेजा है। उन्होंने कहा, उलटे वापस चले जाओ क्योंकि हम लोग न अली (अ.स.) की ख़िलाफ़त पर राज़ी हैं न तुम्हारी इमारत पर। तमाम अहले शाम अली (अ.स.) से ख़ूने उस्मान का बदला लेना चाहते हैं। चुनांचे सुहैल भी वापस आ गए और मुआविया अपनी जगह गवर्नर की हैसियत से बरकरार रहा।
अब्दुल्लाह बिन आमिर हज़रमी ने मक्के के हज़ारों लोगों को भड़का कर अली (अ.स.) की मुख़ालिफत पर जमा कर लिया था और बनी उमय्या भी उससे आकर मिल गए थे इस तरह उसने हज़रत आयशा के परचम के तले मुख़ालेफ़ीन का एक मज़बूत महाज़ कायम कर लिया था। उन तमाम नासाज़गार हालात को नज़र में रखते हुए हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) को अबू मूसा ने तो जवाब भेज दिया मगर मुआविया ख़ामोश रहा। तीन माह बाद उसने एक मोहर बन्द लिफ़ाफ़ा अपने सफीर के हाथ भेजा। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब उसे खोला तो उसमें कोई ख़त न था। सफीर से आपने पूछा, यह क्या मामला है? उसने कहा, मैं एक ऐसे शख़्स के पास से आ रहा हूं जो क़सासे उस्मान की आड़ में आपसे जंग चाहता है और हालत यह है कि उसने उस्मान का ख़ून आलूद कुर्ता दमिश्क के मिम्बर पर डाल रखा है जिसके नीचे सत्तर हजार आदमी हर वक़्त मसरूफ़े गिरया रहते हैं।
इब्ने कतीबा का बयान है कि इस मौके़ पर हज़रत अली (अ.स.) ने शाम पर चढ़ाई का फ़ैसला कर लिया था और अदी बिन हातिम व ज़ैद बिन हुज़ैफ़ा ने अपने अपने क़बीलों से तेरह हज़ार सवारों और नौ हजार प्यादों की एक जमीयत को हज़रत अली (अ.स.) के साथ शाम की मुहिम पर जाने के लिए आमादा भी कर लिया था मगर यह लश्कर कुशी आयशा तलहा और जुबैर की बगावत की वजह से मुलतवी कर दी गयी।
जंगे जमल
तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होते ही हज़रत अली (अ.स.) ने सबसे पहला काम जो किया वह हज़रत उस्मान के क़त्ल की तहकीकात से मुतअलिक था। मगर चूंकि नाएला जौजा, उस्मान कातिलों के बारे में कोई सुबूत मुहय्या न कर सकीं और चश्मदीद गवाह फ़राहम न हो सके इसलिए आपकी तरफ से फौरी तौर पर मुजरिमों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई मुम्किन न हो सकी। फिर भी अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) अपने तहकीकाती मौकफ पर जमे रहे और अभी आप किसी फैसलाकुन नतीजे पर पहुंचने भी न पाये थे कि सरज़मीने मक्का से साज़िशों और शोरिशों की सदाये बाज़गश्त सुनाई दी।
हज़रत आयशा जो कत्ले उस्मान के बाद फिर मक्के से मदीने की तरफ रवाना हो चुकीं थीं, हज़रत अली (अ.स.) के हाथ पर मुसलमानों की तरफ से बैअत की ख़बर सुनकर मक्के की तरफ वापस पलट गयीं और उन्होंने तलहा, जुबैर, अब्दुल्ला और याला बिन उमय्या के मशविरों से “इन्तेकामे ख़ूने उस्मान” के नाम पर एक साज़िशी तहरीक की बुनियाद डाल दी और हज़रत अली (अ.स.) पर उस्मान के क़त्ल का इल्ज़ाम आयद करके लोगों को वरग़लाना और भड़काना शुरू कर दिया और इस बात का एलान आम करा दिया कि अली (अ.स.) से लड़ने जाने के लिए जिसके पास सवारी न हो वह हमें मुत्तेला करे हम उसकी सवारी का बन्दोबस्त करेंगे।
उस वक़्त हज़रत अली (अ.स.) के दुश्मनों की कमी न थी। किसी को आपसे बुग्ज़े लिल्लाही था, कोई जंगे बद्र में अपने अज़ीज़ों के क़त्ल से मुतअस्सिर था और किसी को प्रोपेगन्डों के ज़रिए मुतअस्सिर कर दिया गया था। ग़रज़ यह कि हज़रत आयशा की आवाज़ पर बेशुमार अफराद जमा हो गए और यह तय पाया कि सबसे पहले बसरे पर छापा मारकर उसे ताख़त व ताराज किया जाए। चुनांचे आप उन्हीं चारों तलहा व जुबैर वग़ैरा के मैमना व मैसारा पर मुश्तामिल एक लश्कर लेकर बसरा की तरफ रवाना हो गयीं। हज़रत आयशा का यह लश्कर जब “जातुल अर्क़” के मक़ाम पर पहुंचा तो मुग़ैरा बिन शैबा और सईद बिन आस के लश्करियों से मुलाकात की और उनसे कहा कि अगर तुम लोग ख़ूने उस्मान का इन्तेक़ाम चाहते हो तो तलहा व जुबैर को क़त्ल कर डालो क्योंकि उस्मान के अस्ल क़ातिल यही लोग हैं जो अब तुम लोगों के तरफदार बन गए हैं।
मोअर्रिख़ीन का बयान है कि जब उम्मुल मोमेनीन आयशा की सवारी “हव्वाब” के मक़ाम पर पहुंची तो उन्होंने कुत्तों के भौंकने की आवाजें सुनीं। पूछा यह कौन सी जगह है? किसी ने कहा इसे हव्वाब कहते हैं। हज़रत आयशा ने उम्मुल मोमेनीन उम्मे सलमा की याद दिलाई हुई हदीस का हवाला देते हुए कहा कि मैं अब अली (अ.स.) से लडने नहीं जाऊँगी क्योंकि रसूलुल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया था कि मेरी एक बीवी पर हव्वाब के कुत्ते भौंकेगे जो हक़ पर न होगी। मगर अब्दुल्लाह बिन जुबैर ने झूटी गवाहियों के ज़रिए यह यकीन दिला कर कि यह हव्वाब नहीं है, उन्हें आगे बढ़ने पर मजबूर कर दिया।
बिलआख़िर उम्मुल मोमेनीन वारिदे बसरा हुईं और वहां के अलवी गवर्नर उस्मान बिन हुनैफ़ पर शबखून मारा और चालीस आदमियों को मस्जिद में क़त्ल करा दिया नीज़ उस्मान बिन हुनैफ को गिरफ़्तार कराके उनके सर, दाढ़ी, मूछों, भवों और पलकों के बाल नुचवा डाले और चालीस कोड़ों की सजा दी। जब उनकी मदद के लिए हकीम बिन जबला आए तो सत्तर आदमियों समेत उन्हें भी क़त्ल करा दिया। उसके बाद बैतुलमाल पर कब्ज़ा करने के लिए सत्तर आदमी और मौत के घाट उतार दिए। यह वाक़िआत 25 रबीउस सानी सन् 36 हिजरी का है।
हकीम बिन जबला और उनके साथियों को मौत के घाट उतारने के बाद तलहा व जुबैर वग़ैरा ने चाहा कि उस्मान बिन हुनैफ़ का भी ख़ातिमा कर दें जो उस वक़्त उनकी हिरासत में थें। उस्मान ने उनके तेवरों और इरादों को भांप लिया। उन्होंने कहा कि अगर तुमने मुझे क़त्ल कर दिया तो याद रखो कि मेरा भाई सुहैल बिन हुनैफ़ मदीने में मौजूद है। वह मेरे ख़ून के बदले तुम्हारे पूरे खानदान को मौत के घाट उतार देगा। तलहा वग़ैरा ने जब उस्मान की यह गुफ़्तुगू सुनी तो उन्हें अपने घर वालों, अज़ीज़ों और रिश्तेदारों की जानों का ख़तरा लाहक़ हुआ और इसी ख़तरे के पेशे नज़र उन्होंने उस्मान को छोड़ दिया। वह जान बचाकर बसरा से निकल खड़े हुए और किसी न किसी तरह मक़ाम ज़ीकार पर अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) की ख़िदमत में पहुंच गए। आपने जब उस्मान बिन हुनैफ़ की हालतेजार देखी तो आबदीदा हो गए और जब उस्मान ने बसरा के हालात और असहाबे जमल के मज़ालिम की दास्तान सुनाई तो आपका चेहरा गुस्से से सुर्ख़ हो गया।
अब बसरे की तरफ आपकी रवानगी नागुजीर हो गयी थी। चुनांचे उसी वक़्त आपने लश्कर की सफ़ बन्दी की, मैमना और मैसरा को तरतीब दिया और बीस हज़ार का लश्कर लेकर इस शान से रवाना हुए कि सत्तर बद्री सहाबा और चार सौ बैअते रिज़वान में शिरकत करने वाले असहाब आपके हमरकाब थे।
देखने वालों का बयान है कि जब यह सिपाह बसरे के करीब पहुंची तो सबसे पहले अन्सार का एक दस्ता नमूदार हुआ जिसका परचम अबू अय्यूब अन्सारी के हाथ में था। उसके बाद एक हज़ार सवारों का एक दस्ता सामने आया जिसके सिपह सालार खुज़ैमा बिन साबित अन्सारी थे। फिर एक दस्ता और नज़र आया जिसका अलम अबुक़तादा बिन रबई उठाए थे। फिर एक हज़ार बूढ़ों और जवानों का जमघटा दिखाई दिया जिनकी पेशानियां सजदों के निशानों से जौबार थीं और चेहरों पर ख़शीयते इलाही की नक़ाबें पड़ी थीं। ऐसा मालूम होता था कि जलाले किबरिया के सामने मौकफे हिसाब में खड़े हैं। उनका सिपह सालार सर पर अम्मामा बांधे, सफ़ेद लिबास में मलबूस और घोड़े पर सवार बुलन्द आवाज़ से कुआन मजीद की तिलावत करता जा रहा था, यह हज़रत अम्मारे यासिर थे। फिर एक अज़ीम दस्ता नमूदार हुआ जिसका अलम कैस बिन सअद बिन अदी के हाथ में था। फिर एक बड़ा दस्ता दिखाई दिया जिसका काएद सियाह अम्मामा बांधे, सफेद लिबास पहने और खुश जमाल ऐसा कि निगाहें उसके गिर्द तवाफ़ कर रही थीं, यह अब्दुल्लाह बिन अब्बास थे। उसके बाद असहाबे पैग़म्बर (स.अ.) का अम्बोहे कंसीर नज़र आया जिसमें रंगारंग के फरहरे लहरा रहे थे। नैज़ों की वह कसरत थी कि एक दूसरे में गुथे जा रहे थे और एक बुलन्द व बाला अलम इम्तियाज़ी शान लिए आगे-आगे उसके पीछे जलालत व अज़मत के पहरों में एक सवार जिसके बाज़ू भरे हुए और निगाहें ज़मीन पर गड़ी हुई थीं, हैबत व विक़ार का यह आलम था कि कोई नज़र उठा कर देख न सकता था, यह असदुल्लाह ग़ालिब हज़रत अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) थे जिनके दायें बायें रसूल (स.अ.) के दोनों नवासे इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) और आगे आगे फ़तह व ज़फर का परचम लिए मुहम्मदे हनफिया (अ.स.) आहिस्ता आहिस्ता कदम उठा रहे थे। पीछे जवानाने बनी हाशिम, असहाबे बद्र, अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और उम्मुल मोमेनीन उम्मे सलमा के साहबज़ादे अम्र बिन अबी सलमा थे।
जब लश्कर शुमाली बसरे के मुक़ामे ज़ाविया पर पहुंचा तो अमीरूल मोमेनीन अली बिन अबी तालिब (अ.स.) घोड़े से उतर पड़े, आपने चार रकअत नमाज़ अदा की और सजदे से सर उठाया तो ज़मीन आंसूओं से तर थी, ज़बान पर यह अल्फ़ाज़ जारी थे कि ऐ अर्श व फ़र्श के परवरदिगार! यह बसरा है इसकी भलाई से हमारा दामन भर और इसके शर से अपनी पनाह में रख।
आपने उस मक़ाम से चन्द खुतूत मुख़्तलिफ कासिदों के ज़रिए आयशा, तलहा और जुबैर के पास रवाना किए जिनमें उन्हें हरब व पैकार और ख़ानाजंगी से बाज़ रहने की हिदायत थी लेकिन उन लोगों की समझ में कुछ न आया और अपनी जिद पर अड़े रहे।
मैदाने कारज़ार
“ज़ाविया” के मक़ाम से आगे बढ़कर आप उस मैदान में उतर पड़े जहां तीस हज़ार का मुख़ालिफ़़ लश्कर ठाठे मार रहा था। आपकी फ़ौजों ने भी लश्करे ग़नीम के बिलमुकाबिल पड़ाव डाल दिया और जब तमाम लश्करी अपनी अपनी जगह बैठ गए तो आपने अपनी सिपाह को हिदायत देते हुए फ़रमाया:-
“जब तक दुश्मन की तरफ से जंग की इब्तेदा न हो तुम में से कोई आगे न बढ़े और जब तक उसकी तरफ से हमला न हो तुममे से कोई किसी पर वार न करे। फतह की सूरत में किसी भागने वाले का पीछा न किया जाए, किसी ज़ख़्मीं को क़त्ल न किया जाए, किसी के हाथ पैर न काटे जाएं, किसी लाश की बेहुरमती न की जाए, किसी साहबे तौकीर की पर्दा दरी न की जाए और किसी औरत को गुज़न्द न पहुंचाई जाए।”
जब यह हिदायत दे चुके तो अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) गैर मुसल्लह हालत में घोड़े पर सवार हुए और सफों से बाहर निकल कर जुबैर को ललकारा कि कहां है? आपकी आवाज़ ही सुनकर जुबैर का दम बाहर आ गया। पहले तो वह हिचकिचाया। फिर ज़िरह बख़तर और आलाते हर्ब व ज़र्ब से आरास्ता होकर सहमा सहमा हज़रत के करीब आया तो आपने फ़रमायाः ऐ जुबैर! क्या इरादा है? आख़िर बसरे में यह धमा चौकड़ी क्यों मचा रखी है? जुबैर ने जवाब दिया, ख़ूने उस्मान के क़सास की ख़ातिर। आपने फ़रमाया: “हैरत है तुम मुझसे ख़ूने उस्मान का क़सास चाहते हो हालांकि तुम्हीं लोगों ने उन्हें क़त्ल किया है। ख़ुदा उन लोगों पर मौत को मुसल्लत करे जो उस्मान पर सख़्ती और तशद्दुद को रवा रखे हुए थे।”
फिर फ़रमाया:
“ऐ जुबैर ! क्या तुमने रसूलुल्लाह (स.अ.) को यह फ़रमाते नहीं सुना कि तुम मुझसे जंग करोगे और मेरे हक़ में जालिम होगे।”
जुबैर ने कहा, बेशक रसूलुल्लाह (स.अ.) ने यह फ़रमाया था। इतने में जुबैर की नज़र अम्मार यासिर पर पड़ी जो अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लश्कर में मौजूद थे और जिनके बारे में पैग़म्बर (स.अ.) ने फ़रमाया था कि ऐ अम्मार! तुम्हें एक बागी गिरोह क़त्ल करेगा यहीं से जुबैर ने जंग से दस्तबरदार होने का फैसला कर लिया और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से कहा, अब मैं नहीं लडूंगा। चुनांचे वह मुरझाए हुए चेहरे और थके हुए क़दमों के साथ हज़रत आयशा के पास आए और कहा कि इस जंग में न मेरी अकल काम करती है और न मेरी बसीरत मेरा साथ देती है लिहाजा मैं अली (अ.स.) के ख़िलाफ़ जंग में हिस्सा नहीं लूंगा। आयशा ने कहा, कैसी उखड़ी उखड़ी बातें करते हो। आख़िर तुम्हें यह क्या हो गया है? मालूम होता है कि तुम फरज़न्दाने अब्दुल मुत्तलिब की चमकती हुई तलवारों और लहराते हुए फरहरों से खौफ़ज़दा हो गए हो।
हज़रत आयशा ने जुबैर को लाख तसल्ली दी मगर वह नहीं माने और मैदान छोड़कर खड़े हुए और बसरा से सात फरसख के फासले पर अम्र बिन जरमूज़ के हाथों मारे गए।
जुबैर का यह इक़दाम बजाए खुद एक सबूत है कि उन्होंने अपने साबिका मौकफ को गलत समझा। क्योंकि पहला मौकफ़ सही हो तो दूसरा इक़दाम सही नहीं हो सकता और अगर यह दूसरा इक़दाम दुरूस्त था तो पहला इक़दाम लामुहाला गलत होगा। यह हो ही नहीं सकता कि अली (अ.स.) से जंग करना भी दुरूस्त हो और जंग न करना भी दुरूस्त हो। जुबैर के इस इक़दाम ने यह भी साबित कर दिया कि उनकी तरह तलहा और आयशा का मौकफ़ भी गलत था।
जुबैर के बाद हज़रत अली (अ.स.) ने चाहा कि तलहा पर भी हुज्जत तमाम कर दें चुनांचे उन्हें मुखातिब करते हुए आपने फ़रमाया, ऐ तलहा ! तुम रसूल (स.अ.) की जौजा को तो जंग के मैदान में लाए हो लेकिन अपनी बीवी को घर में छोड़ आए हो। क्या तुमने मेरी बैअत नहीं की?
जब तलहा ने कोई जवाब नहीं दिया तो आप अपने लश्कर में वापस आए और र्कुआन लेकर फ़रमाया कि तुममें कौन वह मुजाहिद है जो यह र्कुआन लेकर दुश्मनों की सफ में जाए और उन्हें इस किताबे ख़ुदा पर अमल पैरा होने की दावत दे और इसका वास्ता देकर उन्हें फ़ितना अंगेज़ी से मना करे। मगर यह समझ लो कि वह मौत के मुंह में जा रहा है।
कूफ़े का एक हक़शिनास नौजवान मुस्लिम बिन अब्दुल्लाह मजाशी खड़ा हुआ और उसने कहा, या अमीरुल मोमेनीन ! इस खि़दमत पर आप मुझे मामूर फ़रमाएं। आपने दुआए ख़ैर दी और र्कुआन उसके हवाले किया, उसने उसे बोसा देकर हाथों पर बुलन्द किया और दुश्मनों की तरफ रवाना हुआ और उन्हें सहीफ़ए इलाही पर अमल की दावत दी नीज़ उसका वास्ता देकर फितना अंगेज़ियों से बाज़ रहने की तलकीन की मगर उसकी आवाज़े सदा ब-सहरा साबित हुई और किसी ने कोई तवज्जो न की। इतने में हज़रत आयशा के एक गुलाम ने आगे बढ़कर उस पर तलवार का वार किया और उसके दोनों हाथ काट दिये। उसने र्कुआन को सीने से लगाया मगर दुश्मनों की तरफ से इतने तीर मारे गए कि र्कुआन छलनी छलनी हो गया और उसके साथ ही मुस्लिम मजाशी की शहादत भी हो गयी। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब यह इस्लाम सोज़ मंज़र देखा तो फ़रमाया:-
“अब उन लोगों से जंग के जवाज़ में कोई शुब्हा नहीं है।”
मुखालेफीन की तरफ से जंग की इब्तेदा हो चुकी थी। अब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लिए मैदान में उतरे बग़ैर कोई चाराकार न था। चुनांचे आप अज़्म व इस्तेकलाल के साथ उठ खड़े हुए। पैग़म्बर (स.अ.) की ज़िरह ज़ेबे तन की, सर पर अमामा बांधा, जुल्फ़िकार हाथ में ली, लश्कर तरतीब दिया, मैमने पर मालिके अशतर और मैसरे पर अम्मार यासिर को मामूर किया और फ़रमाया, मेरे बेटे मुहम्मद को बुलाओ।
मुहम्मदे हनफिया हाज़िर हुए। आपने रसूलुल्लाह (स.अ.) का सियाह अलम अकाब उनके सुपुर्द करते हुए फ़रमाया, बेटा आगे बढ़ो और दुश्मनों पर हमला करो। मुहम्मद अलम लेकर मैदान की तरफ़ रवाना हुए मगर इस कसरत से तीर आ रहे थे कि उनके लिए आगे बढ़ना दुश्वार हो गया और वह ठिठक कर एक मक़ाम पर खड़े हो गए। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब मुहम्मद के हौसलों में तज़लज़ुल देखा तो पुकार के फ़रमाया, मुहम्मद ! आगे क्यों नहीं बढ़ते ! कहा, बाबा तीरों की बौछार में आगे बढ़ने का कोई रास्ता भी तो हो। ज़रा तवक्कुफ़ फ़रमाईये कि तीरों का ज़ोर कुछ कम हो जाए। फ़रमाया, नहीं, इन्हीं तीरों और सिनानों के अन्दर घुस कर हमला करो। इब्ने हनफिया कुछ और आगे बढ़े मगर तीर अन्दाज़ों ने इस तरह घेरा डाला कि क़दम रोक लेने पड़े। यह देखकर फातहे ख़बर का चहरा सुर्ख हुआ, पेशानी पर गैज की शिकनें उभरीं और आगे बढ़कर तलवार का दस्ता मुहम्मद की पुश्त पर मारा। फिर आसतीनों को चढ़ाकर इस तरह हमला किया कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक दुश्मन की सफ़ों में तहलका मच गया। जिधर मुड़े वहीं सफ खाली थी और जिधर का रूख किया लाशें तड़पने लगीं और सर तनों से जुदा हो होकर घोड़ों से टकराने लगे। जब सफ़ों को तहो बाला करके अपने मरकज़ की तरफ पलटे तो मुहम्मद बिन हनफिया से फ़रमाया, देखो बेटा ! इस तरह जंग की जाती है। यह कहक़र फिर अलम मुहम्मद के हाथ में दिया और कहा, अब आगे बढ़ो। मुहम्मद बिन हनफिया दुश्मनों पर टूट पड़े। दुश्मन भी बरछियां तोलते और नैज़े हिलाते हुए सामने आए मगर शेर दिल बाप के जरी बेटे ने परे के परे उलट दिये, मैदाने कारज़ार को लालाज़ार बना दिया और कुश्तों के ढेर लगा दिए।
इस हंगामए दारो गीर में मरवान बिन हक़म तलहा की ताक में था कि किसी सूरत से उन्हें क़त्ल करके ख़ूने उस्मान का बदला चुका लिया जाए क्योंकि वह जानता था कि तलहा और जुबैर ही उस्मान के अस्ल क़ातिल हैं और इस हंगामा आराई की भी पूरी ज़िम्मेदारी उन्हीं पर आयद होती है। इस इन्तेकामी जज़्बे के अलावा तलहा को ठिकाने लगाने में मरवान का एक सिपाही मकसद भी कारफ़रमा था, वह समझ रहा था कि जब तक तलहा जिन्दा हैं ख़िलाफ़त का बनी उमय्या की तरफ फिर मुन्तकिल होना एक दुश्वार ही नही बल्कि नामुम्किन अम्र है।
जुबैर तो मैदान छोड़कर जा चुके थे अलबत्ता उसने तलहा को मौत के घाट उतारने का मौका ढूंढ निकाला और जंग की इस गर्म बाज़ारी में अपने गुलाम की आड़ लेकर वह ज़हर आलूदा तीर उन पर चलाया जो उनकी पिण्डली को चीरता हुआ घोड़े के शिकम में दर आया। घोड़ा जख्मी होने के बाद भाग खड़ा हुआ और एक ख़राबे में रूका जहां तलहा ने दम तोड़ दिया। इब्ने सअद का बयान है कि:-
“जमल के दिन मरवान बिन हक़म ने तलहा को जो आयशा के पहलू में खड़े थे, तीर मारा जो उनकी पिण्डली में लगा। उसके बाद मरवान ने कहा, ख़ुदा की कसम अब मुझे उस्मान के क़ातिल की तलाश नहीं रह गयी।”
अल्लामा अब्दुल बिर याकूबी, इब्ने असाकिर, इब्ने असीर और इब्ने हजर मक्की वग़ैरा ने तहरीर किया है कि ओलमा के दरमियान इस अम्र में इख़्तेलाफ नहीं है कि मरवान ही ने जमल में तलहा को क़त्ल किया था हालांकि कातिल व मकतूल दोनों एक ही जमाअत से तअल्लुक रखते थे।
हक़ीक़त यह है कि जंग से जुबैर की दस्तबरदारी या तलहा के मारे जाने से असहाबे जमल के इरादों, हौसलों और वलवलों में कोई फर्क नहीं आया। वह लोग इसी जोश व खरोश के साथ मैदान में डटे रहे। इसका सबब यह था कि उनकी नजरों में जंग का मरकजी किरदार हज़रत आयशा थीं और उन्हीं से उनकी तमाम तर अकीदतें वाबस्ता थीं। इन्तेहा यह थी कि लोग हज़रत आयशा के ऊँट की मेंगनिया उठाकर उन्हें सूंघते और यह कहते कि यह हमारी मादरे गिरामी के ऊँट की मेंगनियां हैं इनसे मुश्क व अंबर की खुशबू आती है।
हज़रत आयशा के लश्कर का अलम खुद उनका तवीलुल कामत ऊँट था इसलिए असहाबे जमल की नज़रों में उसका भी वही मर्तबा और एहतराम था जो अलम का होता है। हमा वक़्त वह लोग उसके चारों तरफ हिसार बांधे खड़े रहते थे और जिस तरह लश्कर के अलम की हिफाज़त की जाती है उसी तरह उस ऊँट की हिफाज़त करते थे यहां तक कि उसकी मेहार थाम कर क़त्ल हो जाना उनके नज़दीक बाअसे शरफ, सबबे इफ़्तेख़ार ओर ज़रियाए निजात था।
ग़रज़ कि मारका-ए-कारज़ार पूरी तरह गर्म था, हर तरफ ख़ून की बारिश हो रही थी, हज़रत अली (अ.स.) के जाबाज़ मुजाहेदीन सफों पर सफें उलट रहे थे और मुखालेफीन बदहवासी के आलम में इधर उधर भाग रहे थे कि अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने मैमने पर मालिके अशतर को और मैसरे पर हाशिम बिन अतबा को हमला करने का हुक्म दिया और यह दोनों अपने अपने दस्तों के साथ इस शिद्दत से हमलाावर हुए कि मैमने के क़दम उखड़ गए और मैसरा अपनी जगह से हटकर कलबे लश्कर से मिल गया। मैमने का सरदार हिलाल बिन वकी मालिके अशतर की तलवार से क़त्ल हुआ तो लश्करी भाग कर हज़रत आयशा के गिर्द पनाह लेने पर मजबूर हुए चुनांचे ऊँट के चारों तरफ लड़ाई शुरू हो गयी। बनी असद और बनी नाजिया के लोग ऊँट के गिर्द घेरा डाले उसकी हिफ़ाज़त कर रहे थे और तीरों व तलवारों के वार अपने सीनों और सरों पर रोक रहे थे। ज़मख़शरी का बयान है कि सरों पर तलवारें पड़ने से ऐसी आवाज़ आती थी जैसे कपड़ा धोने के पटरे पर चोट पड़ने की आवाज़ होती है।
अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) ने जब देखा कि जंग अभी फ़ैसलाकुन मरहले में दाख़िल नहीं हुई तो आपने बज़ाते खुद मैदान में उतरने का फ़ैसला किया और मुहम्मद बिन हनफिया, इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) के हमराह अन्सार व मुहाजेरीन का एक दस्ता लेकर उठ खड़े हुए। पहले तो आपने मैदाने कारज़ार का जाएजा लिया फिर मुहम्मद (स.अ.) से फ़रमाया कि बढ़ो और सफ़ों को चीरते हुए उस मक़ाम पर पहुंचो जहां आयशा का ऊँट खड़ा है। मुहम्मद (स.अ.) आगे बढ़े ही थे कि दुश्मनों ने उन्हें फिर तीरों का निशाना बनाया। यह हाल देखकर अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) खुद आगे बढ़े और शेर की तरह दुश्मनों पर टूट पड़े। जुल्फ़िकार की बिजलियां कौंदने लगीं और लाशों के ढेर लगने लगे। मोअतज़ली का कहना है कि आपने इस तरह हमला किया जैसे कोई भूखा शेर भेड़ और बकरियों पर हमलावर होता है।
जब अफ़वाज मुख़ालिफ़़ की तमाम सफें दरहम बरहम हो गयीं तो आप फिर अपने मरकज़ की तरफ पलटे। चन्द लम्हे तवक्कुफ़ फ़रमाया और फिर दोबारा हमला करने के इरादे से उठ खड़े हुए। मुहम्मद बिन हनफिया, अम्मार यासिर और अदी बिन हातिम वग़ैरा ने अर्ज़ किया कि या अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ! आप ठहरें, हम मैदान में जाते हैं मगर आपने कोई जवाब न दिया। चेहरा ग़ैज़ व गज़ब से तमतमा रहा था, आंखों से शरारे निकल रहे थे और सीने से शेर के गुर्राने की सी आवाजें आ रहीं थीं। अब किसमें हिम्मत थी जो बिफरे हुए शेर से कुछ कहता लिहाज़ा सब खामोश रहे। इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) ने इजाज़त चाही आपने फ़रमाया, अभी नहीं। और दोबारा फिर दुश्मनों की तरफ झपट पड़े और सफ़ों के अन्दर घुसकर इस तरह तलवार चलाई कि मैदान लाशों से पट गया।
साहबे जुल्फ़िकार के दो ही पुरज़ोर हमलों से असहाबे जमल के हौसले पस्त हो चुके थे और उन पर शिकस्त के आसार तारी हो चुके थे मगर मैदान छोड़ना उनके लिए उस वक़्त तक नामुम्किन था जब तक आयशा का ऊँट उनके दरमियान खड़ा था। उसकी भी यह कैफियत थी कि उसके झोल और उम्मुल मोमेनीन के कजावा में तीर इस तरह पेवस्त थे जिस तरह सियाही के बदन में कांटे होते हैं और वह उस ख़ूनी हंगामें की ताब न लाकर इस तरह घूम रहा था जिस तरह चक्की घूमती है।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने महसूस किया कि जब तक ऊँट मैदान में खड़ा है, जंग का ख़ातिमा नहीं हो सकता क्योंकि अहले बसरा किसी को ऊँट के पास फटकने नहीं देते। चुनांचे आपने उसे मैदान से हटाने का तहय्या किया और क़बील-ए-नखा व हमदान के जवां मर्दों को लेकर आगे बढ़े। जुल्फ़िकार चमकी, परे टूटे और आप अपने हमराहियों समैत ऊँट के पास पहुंच गए। फिर एक शख्स बजीर बिन दलजा नजफ़ी को हुक्म दिया कि ऊँट की कवचें काट दो। बजीर ने ऊँट की पिछली टांगों पर तलवार लगाई। एक मुहीब आवाज़ फ़िज़ा में गूंजी और ऊँट पहलू के बल ज़मीन पर ढ़ेर हो गया। ऊँट का गिरना था कि मेहारकशों के हौंसले पस्त हो गए, एक आम भगदड़ मच गयी। किसी को किसी का होश न था। लाशों और कराहते हुए ज़ख़्मों को कुचलते रौंदते लोग जिधर समझ में आ रहा था मुंह उठाए हुए भाग रहे थे। मुख़्तसर यह कि देखते ही देखते सारा मैदान खाली हो गया।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने मुहम्मद बिन अबु बक्र को हुक्म दिया कि हौदज के पास जाकर उसकी हिफ़ाज़त करें। थोड़ी देर बाद आप खुद भी हौदज के क़रीब तशरीफ़ लाए और फ़रमाया, आयशा ! तुमने हुरमते रसूल (स.अ.) को पामाल कर दिया। फिर मुहम्मद से फ़रमाया, इन्हें अब्दुल्लाह बिन हुनैफ़ ख़ुज़ाई बसरी के मकान में ठहराएं। मसूदी का बयान है कि इस जंग में हज़रत आयशा की फ़ौज के तेरा हज़ार और हज़रत अली (अ.स.) की फौज के पांच हज़ार अफ़रादं काम आए।
मुवर्रिखीन का बयान है कि फ़तह के बाद अब्दुर्रहमान बिन अबु बक्र ने हज़रत अली (अ.स.) की बैअत कर ली। मसूदी और आसिम कूफी ने लिखा है कि हज़रत अली (अ.स.) ने मुत्तइद आदमियों के ज़रिए उम्मुल मोमेनीन आयशा को यह पैग़ाम दिया कि वह जल्द अज जल्द मदीने वापस चली जाएं लेकिन उन्होंने एक न सुनी। आख़िरकार बरिवायत रौज़तुल एहबाब व जैबुल सियर व आसिमे कूफ़ी आपने हज़रत इमाम हसन (अ.स.) को भेजा और यह कहलाया कि अगर तुम अब जाने में ताख़ीर करोगी तो मैं तुम्हे जौजियते रसूल (स.अ.) से ख़ारिज कर दूंगा जिसका इख़्तेयार रसूलुल्लाह (स.अ.) की तरफ से मुझको हासिल है। यह सुन वह मदीने जाने पर तैयार हुई। हज़रत अली (अ.स.) ने चालीस औरतों को मर्दाना लिबास में उनकी हिफाज़त पर मामूर फ़रमाया और बिन अबु बक्र मुहम्मद को हुक्म दिया कि उन्हें मंजिले मकसूद तक पहुंचा दो।
उसके बाद आपने बसरा के बैतुलमाल का जाएज़ा लिया और जो असासा उसमें से बरामद हुआ उसे मुसलमानों पर तक़सीम कर दिया और अब्दुल्लाह बिन अब्बास को वहां का गवर्नर मुकर्रर करके 16 रजब सन् 36 हिजरी यौमें दोशम्बा कूफ़े की तरफ रवाना हो गए। वहां पहुंचकर कुछ दिन आपने क़याम किया और दौराने क़याम कूफे, इराक, खुरासान, मन मिस्र और हरमैन के इन्तेज़ामी उमूर का जाएजा लिया।
दारूल ख़िलाफ़त
जंगे जमल के बाद इस अन्देशे के तहत कि मुआविया इराक़ और फ़ारस पर कहीं अपना तसल्लुत न जमा ले, अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबी तालिब (अ.स.) ने कूफ़े को दारूल खि़लाफ़त करार दिया।
ख़ुरासान व सीस्तान की बग़ावत
जमल ही के बाद सीस्तान में बग़ावत हुई। आपने रबी बिन कास अनबरी को चार हजार सिपाह के साथ रवाना किया। बगावत को सख़्ती से कुचल दिया गया और सीस्तान पर मुकम्मल तसल्लुत हो गया। इसी साल मर्व (खुरासान) के लोगों ने सरकशी इख़्तेयार की। उनकी सरकूबी के लिए आपने ख़ालिद बिन करायरबूई या ख़ालिद बिन ज़रीफ़ को मामूर किया। वह मुख़्तसर सी फ़ौज लेकर वहां गए और मर्व के बाशिन्दों पर काबू हासिल किया।
जंगे सिफ़्फ़ीन
यह जंग दरियाए फुरात के मग़रिबी जानिब “यरक़ा” और “बालिस” के वस्त में वाके़ सिफ़्फ़ीन के मक़ाम पर अमीरे शाम मुआविया और अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के दरमियान सन् 37 हिजरी में रूनुमा हुई।
इस जंग का ज़ाहिरी सबब ख़ूने उस्मान का क़सास था मगर हक़ीक़तन इसकी असलियत यह थी कि मुआविया जो हज़रत उमर के दौर से शाम का खुद मुख़्तार हुक्मरान चला आ रहा था, हज़रत अली (अ.स.) के हाथ पर बैअत करके हुकूमत व इक़तेदार से दस्तब्रदारी पर तैयार न था इसलिए क़त्ले उस्मान से उसने फाएदा उठाया जैसा कि बाद के वाक़िआत से पता चलता है कि हुकूमत में इस्तेहकाम पैदा कर लेने के बाद फिर उसने ख़ूने उस्मान के सिलसिले में कभी कोई अमली क़दम नहीं उठाया, न कोई आवाज़ बुलन्द की और न ही कभी भूले से क़ातिलान का नाम लिया।
तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होने के बाद अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) को इब्तेदा ही से उसकी तरफ से सरकशी व बग़ावत का अन्देशा था। चुनांचे जब आप जंगे जमल से फ़ारिग होकर 22 रजब सन् 36 हिजरी को वारिदे कूफा हुए तो जरीर बिन अब्दुल्लाह बजली के ज़रिए मुआविया को यह तहरीरी पैग़ाम भेजा कि तमाम मुहाजेरीन व अन्सार मेरे हाथ पर बैअत कर चुके हैं इसलिए तुम भी इताअत कुबूल करो और अगर कत्ले उस्मान के बारे में तुम्हें शिकायत हो तो बैअत के बाद इसका मुकदमा मेरे रूबरू पेश करो ताकि मैं किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स.अ.) की रौशनी में इसका फ़ैसला करूंगा। मगर मुआविया ने कोई जवाब देने के बजाए जरीर को मक्कारी से रोक लिया और अम्रे आस से मशविरा करने के बाद बग़ावत के नाम पर ख़ूने उस्मान के क़सास का शाखसाना खड़ा करके शाम के सर-बरआवुर्दा लोगों के ज़रिए वहां के तंग नजर, नाफ़हम और जाहिल अवाम को यह यकीन दिलाया कि हज़रत उस्मान के क़त्ल की अस्ल ज़िम्मेदारी हज़रत अली (अ.स.) पर आएद होती है। और वही मुहासेरीन को पनाह देने वाले और उनकी हौसला अफजाई करने वाले हैं। इसके साथ उसने यह नफसियाती हरबा भी इस्तेमाल किया कि उस्मान का ख़ून आलूद पैरहन और उनकी बीवी नाएला की कटी हुई उंगलियों का हार बना कर दमिश्क की जामा मस्जिद के मिम्बर पर लटका दिया जिसके गिर्द सत्तर हज़ार शामी गिरया व मातम में मसरूफ़ हो गए। जब मुआविया ने शामियों के जज़्बात को इस हद तक भड़का दिया कि वह कटने मरने और जान देने पर आमादा हो गए तो उसने उनसे क़सासे ख़ूने उस्मान पर बैअत ली और हर्ब व पैकार के सामान की फ़राहमी में मसरूफ हो गया। उसके बाद हज़रत अली (अ.स.) के क़ासिद जरीर बिन अब्दुल्लाह को भी उसने वहां से रूख़्सत कर दिया।
जरीर बिन अब्दुल्लाह ने वापस आकर जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को तमाम वाक़िआत व हालात से मुत्तेला किया तो आप भी मुआविया के ख़िलाफ़ जंगी इक़दाम पर मजबूर हुए। आपने उक़बा बिन अम्र अन्सारी को अपना नाएब मुकर्रर किया और वादिए नख़ीला को फौजी छांवनी करार देकर खुद भी वहां खै़माज़न हो गए। मालिक बिन हबीब यरबई को कूफे में इस अम्र पर मामूर फ़रमाया कि वह बाहर से आने वाले जंग आज़माओं को नख़ीला की तरफ़ भेजते रहें। फिर आपने मुख़्तलिफ़ सूबों के उम्मालों को लिखा कि वह जंगी साजो सामान और फ़ौजों के साथ फ़ौरन पहुंचे। चुनांचे बसरा से अब्दुल्लाह बिन अब्बास, इस्फ़हान से मुखनिफ़ बिन सलीम, हमदान से सईद बिन वहब, रै से रबी बिन कसीम असदी और दूसरे उम्माल अपनी अपनी फ़ौजों के साथ नख़ीला पहुंच गए नीज़ कूफ़े और अतराफ़ व जवानिब के शमशीरजन भी आपके परचम तले जमा हो गए। इस तरह आपके लश्कर की तादाद चौरासी हज़ार तक पहुंच गयी जिसमें बैअते रिजवान और बद्री सहाबा की भी एक जमीयत शामिल थी।
जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को यह इत्तेला फ़राहम हुई कि शामी फौजें इराकी सरहदों की तरफ़ बढ़ना शुरु हो गयी हैं तो आपने आठ हज़ार का एक फौजी दस्ता ज़ियाद बिन नजर हारसी और चार हज़ार का एक दस्ता शरी बिन हारिस के जेरे कयादत सरहदों की हिफाज़त और दुश्मन की कूव्वत व ताकत का अन्दाजा लगाने के लिए रवाना किया और उन्हें ये हिदायत फ़रमा दी कि जब तक मेरा हुक्म न पहुंचे या दुश्मन जंग की इब्तेदा न करे तुम छेड़छाड़ न करना।
इस हरावल दस्ते की रवानगी के चौथे दिन आपने अपने लश्कर को सात हिस्सों पर तकसीम किया और हर हिस्से पर एक अफ़सर मुकर्रर कर दिया ताकि नज़्म व ज़ब्त बरकरार रहे। इसके बाद आप 5 शव्वाल सन् 36 हिजरी को एक अज़ीम लश्कर अपने हमराह लेकर ख़ुद भी नख़ीला से रवाना हुए। कूफा व हिल्ला के दरमियान “बरस” के मक़ाम पर नमाज़े मग़रिब अदा करके रात गुजारी और नमाज़े सुबह के बाद नहरे क़बीन को पार करके बैआ में क़याम फ़रमाया ताकि लोग दोपहर के खाने से फ़ारिग हो जाएं। फिर यहां से रवाना होकर बाबुल और देर काब होते हुए जब आप सरज़मीने कर्बला पर वारिद हुए तो उसे देखकर आप पर हुज्न व मलाल तारी हुआ और आंखों में आंसू आ गए। कुछ लोगों ने वजह पूछी तो आपने वाक़िआते कर्बला बयान किए और उन मक़ामात की निशानदेही की जो फरज़न्दे रसूल (स.अ.) इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके अईज़्ज़ा व अन्सार के ख़ून से रंगीन होने वाले थे। कर्बला से रवाना होकर आप साबात में क़याम पजीर हुए। साबात के करीब दरियाए दजला के किनारे शहरे मदाएन था, वहां से बारह सौ अफ़राद आपके लश्कर में शामिल हुए। मदाएन ही से आपने मअक़िल बिन कैस की मातहती में तीन हज़ार का एक दस्ता आगे रवाना किया और उसे हिदायत की कि तुम मूसल और नसीबैन की तरफ से होते हुए रका के मक़ाम पर मुझसे मिलो। और आप मदाएन से चल कर बहरे सीर होते हुए अन्बार पहुंचे। वहां दो दिन क़याम के बाद आपने दरियाए फुरात को उबूर किया और आगे बढ़कर करक़ीसा के करीब पहुंचे तो देखा कि ज़ियाद और शुरैह भी अपने अपने दस्तों के साथ वहां मौजूद हैं। वहां से उन्हें साथ लेकर आप आगे रवाना हो गए और जब शहर रका के करीब पहुंचे तो नहरे बलीग के किनारे पड़ाव डाला। मअक़िल बिन कैस भी जिन्हें आपने मदाएन से रवाना किया था, अपने दस्ते के साथ रक़्क़ा पहुंच गए।
रक़्क़ा दरियाए फुरात के मशरिकी किनारे पर वाके था और यहां की आबादी उस्मानियों पर मुश्तामिल थी। उसी मक़ाम पर समाक बिन मख़रमा असदी भी बनी असद के आठ सौ आदमियों के साथ मुकीम था। यह लोग अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) से मुनहरिफ होकर मुआविया के पास जाने के लिए कूफ़े से निकल खड़े हुए थे। उन लोगों ने जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लश्कर को देखा तो दरिया पर बने हुए कश्तियों के पुल को तोड़ दिया ताकि अलवी लश्कर फुरांत को अबूर करके आगे न बढ़ सके। मगर मालिके अशतर ने उन्हें डराया धमकाया तो खौफ़ज़दा होकर उन्होंने पुल को फिर जोड़ दिया और अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) दरिया उबूर करके लश्कर समेत गरबी किनारे पर उतर गए।
हालात से आगाही के लिए अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) ने यहां से ज़ियाद बिन नज़र और शुरैह बिन हारिस को बतौरे हरावल शाम की तरफ रवाना किया। जब मंज़िलें तय करते हुए यह दोनों फ़सीले रोम के क़रीब पहुंचे तो देखा कि अबुल उला आवर सलमी पच्चीस हजार शामियों के साथ वहां पड़ाव डाले पड़ा है। उन दोनों ने फौरन हारिस बिन जमहान के ज़रिए अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को हालात और तादाद अफ़वाज से मुत्तेला किया ! आपने मालिक बिन अशतर की सरकिरदगी में तीन हज़ार जाबाज़ों का एक दस्ता और रवाना किया और मालिके अशतर को यह हिदायत दी कि तुम वहां पहुंच कर ज़ियाद और शुरैह के दस्तों की भी कमान अपने हाथ में ले लेना और जब तक दुश्मन हमलावर न हों जंग में अपनी तरफ से पहल न करना। ग़रज़ कि मालिके अशतर ने वहां पहुंचकर ज़ियाद और शुरैह के दस्तों को अपने दस्तें में ज़म किया और शामियों से कुछ फासले पर खेमा ज़न हो गए।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की हिदायत के मुताबिक़ मालिके अश्तर ने अपनी तरफ से कोई छेड़छाड़ नहीं की मगर जब रात की तारीकी मुहीत हुई तो अबुल उला आवर ने उन पर शबख़ून मारा। मालिक की तरफ से तलवारें निकल आयीं और चन्द झड़पों के बाद अबुल उला आवर अपने हमराहियों समेत पीछे हटने पर मजबूर हो गया।
जंग की इब्तेदा हो चुकी थी। सुबह होते ही मालिके अशतर और हाशिम बिन अतबा कुछ सवारों और प्यादों को लेकर मैदान में डट गए। उधर से अबुल उला आवर भी सवारों और प्यादों को लेकर मुक़ाबले गया। जंग छिड़ गयी, सवारों ने सवारों पर और प्यादों ने प्यादों पर हमला कर दिया। कुछ देर तलवारें चलती रहीं बिल आख़िर शामियों का मशहूर शहसवार अब्दुल्लाह बिन मंज़िर अपने चन्द सवारों के साथ मारा गया और अबुल आवर हज़ीमत उठाने के बाद एक महफूज़ मक़ाम पर जाकर ठहरा। मालिके अशतर ने उसे अपने मुक़ाबले के लिए ललकारा मगर वह सामने आने की जुराअत न कर सका और अपना लश्कर लेकर अफ़ीह की तरफ भाग खड़ा हुआ जहां मुआविया और उसका लश्कर खै़माजन था।
मुआविया ने जब इराक़ी फ़ौजों की आमद और झड़पों का हाल सुना तो अुबल आवर और सुफ़ियान बिन अम्र से कहा कि तुम दोनों जंग का मैदान तलाश करों चुनांचे उन्होंने सिफ़्फ़ीन का इन्तेख़ाब किया और मुआविया लश्कर के साथ वहां पहुंच गया।
सिफ़्फ़ीन के मैदान में पहुंचते ही उसने सबसे पहला काम यह किया कि अबुल आवर को हुक्म दिया कि दस हज़ार शामियों को लेकर दरियाए फुरात पर मुसल्लत हो जाओ और जो इराकी पानी लेने आए उसे रोक दो।
अम्रे आस ने मुआविया के इस हुक्म की मुख़ालिफ़त करते हुए कहा, ऐ मुआविया अली (अ.स.) और उनके साथी जबकि उनके हाथों में चमकती हुई तलवारें भी हैं कभी प्यासे नहीं रहेगे। बेहतर यह है कि तुम उन्हें पानी से न रोको और खुद से पहरा उठा लो वरना वह तुम्हें पहरा उठा लेने पर मजबूर कर देंगे। उस पर मुआविया ने कहा, ख़ुदा की कसम, उन्हें पानी नहीं दिया जाएगा यहां तक कि प्यासे मर जाएं जिस तरह उस्मान प्यासे दुनिया से सिधारे।
इस बन्दिशे आब के दूसरे रोज़ अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) भी अपने लश्कर समेत वहां पहुंच गए। आपने मुआविया को कहलवाया कि वह पानी पर से पहरा उठा ले मगर उसने इन्कार किया। आख़िरकार इराकियों ने तलवारें खींच लीं और शामियों पर हमला करके फुरात पर क़ब्ज़ा कर लिया। मोअर्रिखीन का बयान है कि कब्ज़ा करने वालों में इमाम हुसैन (अ.स.) और हज़रत अब्बास (अ.स.) बिन अली (अ.स.) ने बड़ी जुरअत व शुजाअत और दिलेरी व जांबाज़ी का मुज़ाहिरा किया।
जब यह मरहला तय हो गया तो अमीरूल मोमेनीन ने बशर बिन अम्र अन्सारी, सईद बिन कैस हमदानी शीस बिन रबई तमीमी को फिर मुआविया के पास इस ग़रज़ से भेजा ताकि वह उसे जंग के नशेब व फ़राज़ समझाएं मसालेहत व बैअत पर आमादा करें। मगर उसने जवाब दिया कि हम किसी तरह ख़ूने उस्मान को रायगां नहीं होने देंगे और अब हमारा फ़ैसला तलवार ही करेगी। चुनांचे माहे ज़िलहिज सन् 36 हिजरी में फ़रीकैन के दरमियान जंग की ठन गयी और दोनों तरफ के लोग मैदान में उतर आये। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से मैदान में आने वाले हुज्र बिन अदी, शबस बिन रबई, खालिद बिन मोअम्मर, ज़ियाद बिन नज़र, ज़ियाद बिन ख़सफा तमीमी, सईद बिन कैस, कैस बिन सईद और मालिक बिन अश्तर थे। मुआविया की तरफ से अब्दुर्रहमान बिन खालिद मखज़ूमीं, अबुल आवर सलमी, हबीब बिन मुस्लिमा फहरी, अब्दुल्लाह बिन जुलकलाअ हमीरी, अब्दुल्लाह बिन उमर बिन ख़त्ताब, शरजील बिन समत कन्दी और हमज़ा बिन मालिक वग़ैरा थे। जब मोहर्रम का महीना शुरू हो गया तो जंग का सिलसिला रोक देना पड़ा यकुम सफ़र चहार शंबा से फिर जंग शुरू हो गई और दोनों तरफ की फौजें तलवारों, नैज़ों, तीरों और दूसरे जंगी हथियारों से लैस होकर एक दूसरे के सामने सफ आरा हो गयीं। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से अहले कूफा के सवारों पर मालिके अश्तर, प्यादों पर अम्मार बिन यासिर और अहले बसरा के सवारों पर सुहैल बिन हुनैफ़, प्यादों पर कैस बिन सअद मुतअय्यन हुए और लश्कर की अलमदारी हाशिम बिन अतबा के सुपुर्द की गयी और सिपाहे शाम के मैमने पर इब्ने ज़ुल कुलाअ, मैसरे पर हबीब बिन मुसलेमा, सवारों पर अम्र बिन आस और प्यादों पर ज़आक बिन कैस अमीर मुकर्रर हुए।
पहले दिन मालिके अश्तर ने अपने दस्ते के साथ मैदान संभाला और उधर से उनके मुकाबिले के लिए हबीब बिन मुस्लिमा अपनी फौज लेकर निकला और दोनों तरफ से खूंरेज़ जंग हुई, दिन भर नैज़ों से नैज़े और तलवारों से तलवारें टकराती रहीं।
दूसरे दिन हाशिम बिन अतबा सिपाह अलवी के साथ मैदान में आए। दूसरी तरफ से अबुल आवर सवार व प्यादे लेकर आया और जब दोनों तरफ की फ़ौजें बिल मुक़ाबिल हुईं तो सवारों पर सवार प्यादों पर प्यादे टूट पड़े और शाम तक एक दूसरे पर वार करते रहे।
तीसरे दिन अम्मार यासिर और ज़ियाद बिन नज़र एक दस्ता फौज के साथ मैदान में आए। शामियों की तरफ से अम्रे आस कसीर फ़ौज लेकर बढ़ा। ज़ियाद ने फौज मुख़ालिफ के सवारों पर और अम्मार यासिर ने प्यादों पर इस जोश व ख़रोश के साथ हमला किया कि दुश्मनों के क़दम उखड़ गए और वह ताब न लाकर अपनी क़याम गाहों की तरफ पलट गए।
चौथे दिन मुहम्मद बिन हनफिया अपने फ़ौजी दस्ते के साथ मैदान में आए। उधर से अब्दुल्लाह बिन उमर शामियों के लश्कर के साथ बढ़ा और दोनों फौजों में घमासान की लड़ाई हुई।
पांचवें दिन अब्दुल्लाह बिन अब्बास आगे बढ़े और उधर से वलीद बिन अतबा सामने आया। अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने बड़ी जुराअत व पामर्दी से हमले किए और शुजाअत के वह जौहर दिखाए कि दुश्मन मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ।
छठे दिन कैस बिन सअद अन्सारी फौज लेकर मैदान में उतरे। उनके मुकाबिले में जुल-कुलाअ अपना दस्ता लेकर बढ़ा और ऐसा घमासान का रन पड़ा कि क़दम क़दम पर लाशें तड़पने लगीं। आख़िरकार रात के अंधेरे ने दोनों लश्करों को जुदा कर दिया।
सातवें दिन मालिके अशतर फिर निकले और उनके मुकाबिले के लिए हबीब बिन मुस्लिमा फिर आगे बढ़ा और वक़्त जोहर तक मारका-ए-कारज़ार गर्म रहा जिसके नतीजे में फ़ौज मुख़ालिफ़़ के बड़े बड़े सूरमा मौत के घाट उतर गए।
आठवें दिन अमीरूल मोमेनीन हजरत अली (अ.स.) बिन अबी तालिब (अ.स.) खुद लश्कर के जिलो में निकले और इस तरह हमला किया कि मैदान में ज़लज़ला आ गया। आप सफों को और दुश्मनों को रौंदते दोनों सफों के दरमियान आकर खड़े हुए और मुआविया को ललकारा। जिस पर वह अम्र बिन आस को लिए हुए जब कुछ करीब आया तो आपने फ़रमाया: बुज़दिल मुसलमानों को क्यों कटवाता है, तू ख़ुद मेरे मुकाबले में निकल आ और फिर जो अपने हरीफ़ पर ग़ालिब आ जाए वह ख़िलाफ़त को संभाल ले। इस पर अम्र बिन आस ने मुआविया से कहा, बात तो इन्साफ की है, हिम्मत करो और मुकाबिला करके ख़िलाफ़त के बारे में फ़ैसला कर लो। मुआविया ने कहा, मैं अली (अ.स.) की तलवार से वाक़िफ़ हूं तेरे कहने सुनने में आकर अपनी जान नहीं गंवा सकता। यह कहक़र वह वापस पलट गया।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने सिफ़्फ़ीन के मैदान में जिस बेजिगरी से हमले किए उसे एजाज़ी कूव्वत का ही करिश्मा कहा जा सकता है। चुनांचे जब आप मैदान में ललकारते हुए निकले तो दुश्मन की सफें अबतरी व सरासीमगी के आलम में मुन्तशिर हो जातीं और बड़े-बड़े सूरमा भी आपके मुकाबले में आने से हिचकिचाने लगते। इसीलिए आप मुतअदिद बार दूसरों के लिबास में हमलावर हुए ताकि दुश्मन पहचान न सके और मुक़ाबले पर तैयार हो जाए। चुनांचे एक मर्तबा अब्बास बिन रबिया के मुकाबिले में शामियों की तरफ से ग़राज़ बिन अदहम निकला, दोनों हर्ब व पैकार के हाथ दिखाते रहे लेकिन कोई अपने हरीफ़ को शिकस्त न दे सका। इतने में अब्बास को उसकी ज़िरह का एक हलका ढ़ीला दिखाई दिया। उन्होंने बड़ी चाबुकदस्ती से उसे अपनी तलवार की नोक में पिरो लिया और झटका देकर ज़िरा फाड़ दी। फिर ताक कर ऐसा वार किया कि तलवार उसके सीने के अन्दर उतर गयी। इराकियों ने नारा तकबीर बुलन्द किया। इस आवाज़ पर मुआविया चौंका और जब उसे यह मालूम हुआ कि ग़़राज़ मारा गया तो पेच व ताब खाने लगा और उसने शामियों से पुकार कर कहा कि तुम में कौन है जो अब्बास का काम तमाम कर दे। इस पर क़बीलए लख़म के दो शमशीरज़न उठ खड़े हुए और उन्होंने अब्बास को अपने मुक़ाबले के लिए ललकारा। अब्बास ने कहा, मैं अपने अमीर से इजाज़त लेकर आता हूं। और यह कहक़र अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) के पास इजाज़त के लिए हाज़िर हुए। आपने उन्हें रोककर उनका लिबास खुद पहन लिया और उन्हीं के घोड़े पर सवार होकर मैदान में आ गए। दुश्मनों में से एक फील मस्त की तरह चिंघाड़ता हुआ आगे बढ़ा और आप पर हमलावर हुआ। आपने उसका वार ख़ाली देकर इस सफाई से उसकी कमर पर तलवार लगाई कि उसके दो टुकड़े हो गए। उसके बाद दूसरा निकला वह भी चश्मे ज़दन में ढ़ेर हो गया। फिर आपने दूसरों को मुक़ाबले के लिए आवाज़ दी मगर तलवार के वार से लोग समझ गए कि अब्बास के भेस में ख़ुद अली बिन अबी तालिब (अ.स.) हैं इसलिए किसी को मुक़ाबले में आने की हिम्मत न हुई।
तारीखों में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने कई बार अपना लिबास बदलकर दुश्मनों पर हमला किया एक मर्तबा इब्ने अब्बास का लिबास ज़ेबे तन किया, एक बार अब्बास बिन रबिया का भेस बदला, एक मर्तबा अब्बास बिन हारिस का लिबास पहना और जब करीब बिन सबाअ मुकाबले के लिए निकला तो अपने फरजन्दे अब्बास का लिबास पहनकर दुश्मनों पर हमला किया।
नवें दिन मैमना अब्दुल्लाह बिन बदील और मैसरा अब्दुल्ला बिन अब्बास के ज़ेरे कमान था। क़ल्बे लश्कर में खुद अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) रौनक अफरोज़ थे। सिपाहे शाम की कयादत हबीब बिन मुस्लिमा कर रहा था। जब दोनों फौजें एक दूसरे के मुकाबिल हुई तो नियामों से तलवारें निकल पड़ीं। लोग एक दूसरे पर झपट पड़े और मैदान में ख़ून बरसने लगा। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) का लश्कर बनी हमदान के हाथों में गर्दिश कर रहा था। चुनांचे जब कोई तलवार खाकर गिरता था तो दूसरा बढ़ कर अलम उठा लेता था। पहलेकरीब बिन शुरैह ने अलम बुलन्द किया उनके शहीद होने पर शरजील बिन शुरैह ने, फिर मुरशिद बिन शुरैह ने, फिर हीरा बिन शुरैह ने, फिर नदीम बिन शुरैह ने अलम संभाला और उन सब भाईयों के मारे जाने के बाद आमिर बिन बशीर ने बढ़कर अलम लिया। उनके बाद हारिस बिन बशीर ने और फिर वहब बिन करीब ने अलमदारी के फ़राएज़ अंजाम देते हुए मौत को गले लगाया।
आज की जंग में दुश्मन का सारा ज़ोर मैमने पर था और उसके हमले इतने शदीद थे कि इराक़ी लश्कर मैदान छोड़ के पीछे हटने लगा और मैमने के सरदार अब्दुल्लाह बिन बदील के साथ सिर्फ़ दो तीन सौ आदमी रह गए। अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) ने जब यह सूरते हाल देखी तो मालिक अशतर से फ़रमाया कि ज़रा उन्हें पुकारों और कहो कि कहां भागे जा रहे हो, अगर ज़िन्दगी का वक़्त पूरा हो चुका है तो भाग कर भी मौत से नहीं बच सकते। इधर मैमने की हज़ीमत से क़ल्बे लशकर का मुतअस्सिर होना ज़रूरी था इसलिए आप अपने एक गुलाम केसान को जिलों में लिए आगे बढ़ रहे थे कि बनी उमय्या के अहमर नामी एक गुलाम ने केसान का काम तमाम कर दिया। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब यह देखा तो अहमर की ज़ेरह का दामन पकड़ कर ऊपर उठा लिया और इस कूव्वत से ज़मीन पर पटका कि उसके जोड़ व बन्द अलग हो गए, और इमाम हसन (अ.स.) व मुहम्मदे अनफिया ने बढ़ कर ठिकाने लगा दिया।
इधर मालिके अशतर की आवाज़ पर भागने वाले फिर पलट आए और जम कर इस तरह हमला किया कि दुश्मन को ढकेलते हुए उस मक़ाम पर पहुंच गए जहां अब्दुल्लाह बिन बदील दुश्मनों में घिरे हुए थे। जब उन्होंने अपने आदमियों को देखा तो उनके हौसले फिर जवान हो गए। वह तलवार लिए हुए मुआविया के खेमें की तरफ लपके और सात शामियों को मौत के घाट उतारते हुए मुआविया की क़यामगाह तक पहुंच गए। मुआविया ने देखा तो घबरा कर उसने पथराव का हुक्म दिया जिसके नतीजे में आप निढाल होकर गिर पड़े और शामियों ने हुजूम करके आपको शहीद कर दिया। मालिके अशतर ने यह देखा तो कबील-ए-हमदान और बनी मज़ाह के जंग जूओं के हमराह मुआविया पर हमला करने की ग़रज़ से आगे बढ़े और उसके गिर्द हलका करने वाले हिफाज़ती दस्तों को मुन्तशिर करना शुरू किया। जब उसके पांच हलकों में से एक हलका मुन्तशिर होने के लिए रह गया तो मुआविया भागने पर तैयार हुआ मगर लोगों के कहने सुनने से फिर रूक गया।
ग़रज़ कि एक तरफ मालिके अशतर मसरूफे पैकार थे और दूसरी तरफ अम्मार यासिर और हाशिम बिन अतबा की तलवारें मैदाने कारजार में कोहराम बरपा किए हुए थीं। जिस तरफ भी यह लोग रूख करते परे साफ़ हो जाते। मुआविया ने जब उनके हाथों शामियों को पसपा होते हुए देखा तो अपनी ताज़ा दम फौजें उनकी तरफ झोंक दीं जिसके नतीजे में अबु आदिया मर्री ने हज़रत अम्मार यासिर पर नैज़ा मारा और इब्ने जून ने तलवार मार कर आपको शहीद कर दिया।
अम्मार यासिर की शहादत से मुआविया की फ़ौज में हलचल मच गयी क्योंकि लोग उनके मुत्तालिक पैग़म्बर (स.अ.) का यह इरशाद सुन चुके थे कि अम्मार को एक बागी गिरोह क़त्ल करेगा और उनकी शहादत से पहले जुल-कुलाअ ने अम्रे आस से भी कहा था कि मैं अम्मार यासिर को अली (अ.स.) के साथ देख रहा हूं, कहीं वह बागी गिरोह हम ही तो नहीं। जिस पर अम्र ने कहा था कि आख़िर में अम्मार हमारे साथ मिल जाएंगे। मगर जब वह अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से जिहाद करते हुए शहीद हुए तो मुआविया ने लोगों से यह कहना शुरू किया कि अम्मार के कातिल हम नहीं बल्कि ख़ुद अली (अ.स.) हैं जो उन्हें अपने साथ लेकर यहां आए हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने यह पुर फ़रेब जुमला सुना तो फ़रमाया तो फिर हमज़ा के क़ातिल रसूलुल्लाह (स.अ.) थे जो उन्हें मैदाने ओहद में लेकर गए थे। ग़रज़ कि इस मारके में हाशिम बिन अतबा भी काम आ गए जो हारिस बिन मुंज़िर के हाथ से शहीद हुए।
जब ऐसे-ऐसे जांनिसार खत्म हो चुके तो अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) ने क़बील-ए-हमदान और रबिया के जवांमर्दों से फ़रमाया कि तुम लोग मेरे नज़दीक तलवार, नैज़ा और जिरह के मानिन्द हो उठो और इन बाग़ियों को कैफ़रे किरदार तक पहुंचा दो। चुनांचे क़बील-ए-रबिया व हमदान के बारह हज़ार नबर्द आज़मा शमशीर बकफ़ उठे, हसीन बिन मुंज़िर ने लश्कर का अलम संभाला और दुश्मनों पर टूट पड़े। सर कट कट कर गिरने लगे और लाशों के ढ़ेर जा-बजा लगना शुरू हो गए।
लैलतुल हरीर
जंग के मैदान में बनी हमदान व बनी रबिया के जवां मों के हमले तमाम तर कूव्वतों के साथ जारी थे मैमना और मैसरा अब्दुल्लाह और मालिके अशतर के कब्ज़े में था कि दिन सिमटने लगा और रात की तारीकी के साथ वह बला ख़ेज़ रात नमूदार हुई जो तारीख में लैलतुल हरीर के नाम से मशहूर है। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के बातिल शिकन नारों से एक तरफ तो हिम्मत व शुजाअत की लहरें दौड़ रही थीं और दूसरी तरफ मुखालेफीन के दिल हिल रहे थे। जंग का यह हाल था कि नैज़ों की अनिया टूट चुकी थीं और तीर अन्दाज़ों के तरकश खाली हो चुके थे। सिर्फ तलवारों के सरों पर पड़ने की आवाजें सुनाई देती थीं और कुश्तों के पुश्ते लग रहे थे। यहां तक कि सुबह होते होते मकतूलीन की तादाद तीस हज़ार तक पहुंच गयी। शामियों पर शिकस्त के आसार ज़ाहिर हो चुके थे और वह मैदान छोड़ कर भागने ही वाले थे कि अम्रे आस की तजवीज़ पर माविया की तरफ से अचानक पांच सौ र्कुआन नैज़ों पर बुलन्द कर दिए गए और जंग का सारा नक्शा बदल दिया गया। ख़ून बरसाती हुई तलवारें थम गयीं, फ़रेबकारी व मक्कारी कामयाब हो गयी और बातिल के अक़दार का रास्ता हमवार हो गया।
यह जंग यकुम सफ़र सन् 37 हिजरी से शुरू होकर 10 सफ़र सन् 37 हिजरी बरोज़ जुमा ख़त्म हो गयी। सिफ़्फ़ीन में फ़ौजों का क़याम एक सौ दस दिन रहा और नब्बे मारके पेश आए। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लश्कर से 25 हज़ार अफ़राद शहीद हुए जिनमें अस्सी असहाबे बद्र और तिरसठ बैअते रिज़वान में शरीक होने वाले सहाबी भी शामिल हैं। मुआविया के लश्कर से 45 हज़ार आदमी मारे गए जिनमें 600 सिर्फ़ हज़रत अली (अ.स.) की तलवार से क़त्ल हुए।
क़ारदाद तहकीम और हक़मैन का फ़ैसला
जब अहले इराक़ की ख़ून आशाम तलवारों ने शामियों की कमर तोड़ दी और मुतावातिर हमलों ने उनके हौसले पस्त और वलवले ख़त्म कर दिए तो अम्र बिन आस ने मुआविया को यह चाल सुझाई कि र्कुआन को नैज़ों पर बुलन्द करके उसे हक़म ठहराने का नारा लगाया जाए जिसका नफ़सियाती असर यह होगा कि कुछ लोग जंग को रोकना चाहेंगे और कुछ जारी रखना चाहेंगे। इस तरह हम अली (अ.स.) के लश्कर में फूट डलवा कर जंग को किसी दूसरे मौके के लिए मुलतवी कर सकेंगे। चुनांचे र्कुआन नैज़ों पर बुलन्द कर दिए गए जिसका नतीजा यह हुआ कि चन्द सरफिरों ने तमाम लश्कर में इन्तेशार व अबतरी पैदा कर दी और सअदा लौह मुसलमानों की सरगर्मियां फ़तह के करीब पहुंच कर सर्द पड़ गयीं और बग़ैर सोचे समझे यह आवाज़ें बुलन्द होने लगीं कि हमें जंग पर र्कुआन के फैसले को तरजीह देना चाहिए।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब र्कुआन को आला-ए-कार बनते देखा तो फ़रमाया, ऐ लोगों ! इस मक्र व फ़रेब में न आओ दुश्मन शिकस्त से बचने के लिए तुम्हें धोका दे रहा है। न र्कुआन से उसका कोई तअल्लुक है और न ही दीन व मज़हब से उसे कोई लगाव है। हमारी जंग का तो मक़सद ही यही था कि लोग र्कुआन का एहतराम करें और उसके एहकाम पर अमल पैरा हों। खुदा के लिए इन दुश्मनों की फरेबकारियों और मक्कारियों के जाल में न फंसो, अज़्म व हिम्मत और वलवलों के साथ आगे बढ़ो और दम तोड़ते हुए दुश्मन को खत्म कर दो। मगर बातिल का यह हरबा कारगर हो चुका था चुनांचे लोग सरकशी पर उतर आए। सअद बिन फ़िदकी तमीमी और ज़ैद बिन हसीन ताई दोनों बीस हज़ार आदमियों के साथ आगे बढ़े और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से कहा, ऐ अली (अ.स.)! अगर आपने र्कुआन की आवाज़ पर लब्बैक न कही तो हम आपका भी वही हालं करेंगे जो उस्मान का किया था। आप फौरन जंग ख़त्म कराएं और र्कुआन के फ़ैसले के सामने सर ख़म कर दें। आपने बहुत कुछ समझाने बुझाने की कोशिश की लेकिन शैतान र्कुआन का जामा पहने हुए सामने खड़ा था, उसने एक न चलने दी। और उन लोगों ने अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को मजबूर कर दिया कि वह किसी को भेज कर मालिके अशतर को मैदाने जंग से वापस बुला लें।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने ब-हालते मजबूरी यज़ीद बिन हानी को मालिके अशतर के बुलाने के लिए भेजा। मालिक ने जब यह सुना तो वह चकरा गए और कहा कि यह हंगाम मोर्चा छोड़ कर अलग होने का नहीं है, अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से कहो कुछ देर तवक्कुफ़ फ़रमाएं, मैं “नवेदे फ़तह” लेकर हाज़िर होता हूं। यज़ीद बिन हानी ने पलट कर यह पैग़ाम दिया तो लोगों ने गुल मचाया कि आपने चुपके से उन्हें जंग पर जमे रहने के लिए कहलवाया है। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने फ़रमाया मैंने जो कुछ कहा है वह तुम्हारो सामने की बात है, अलग से मैं कोई पैग़ाम क्यों देता। उस पर लोगों ने कहा कि आप फिर यज़ीद को भेजें, अगर इस मर्तबा मालिक ने आने में हीला हवाला किया तो फिर आपको भी जान से हाथ धोना पडेगा।
ग़रज़ आपने इब्ने हानी को फिर मालिक के पास भेजा और कहलवाया कि फ़ितना उठ खड़ा हुआ है, लिहाजा जिस हालत में हो फ़ौरन चले आओ। चुनांचे इब्ने हानी ने जाकर मालिक से कहा कि तुम्हे फ़तह अज़ीज़ है या अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की जान! अगर उनकी जान अज़ीज़ है तो इस जीती हुई जंग से दस्तबर्दार होकर उनके पास पहुंचो। मालिक फ़तह व कामरानियों को छोड़कर हसरत व यास की हालत में जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो वहां एक हड़बोंग मचा हुआ था और हालात इस तरह पलटा खा चुके थे कि उन्हें सुधारना मुम्किन न था। चुनांचे जंग बन्दी के बाद तय यह पाया कि दोनों फ़रीक़ में से एक एक हक़म मुन्तख़ब कर लिया जाए ताकि वह र्कुआन व सुन्नत के मुताबिक ख़िलाफ़त का फैसला करें।
शामियों ने अम्र बिन आस को अपना नुमाईन्दा मुन्तखब किया और इराकियों की तरफ से मआसिर बिन फिदकी, अशअस बिन कैस, यज़ीद बिन हसीन, और उनके हमख़्याल लोगों ने अबू मूसा अशरी का नाम पेश कर दिया। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब अबू मूसा का नाम सुना तो फ़रमाया कि मुझे अबू मूसा पर एतबार नहीं है, मैं यह हक़ नुमाईन्दगी इब्ने अब्बास को देना चाहता हूं। मगर बरगश्ता लोगों ने आपकी एक न सुनी और अबू मूसा ही के नाम पर अड़ गए। आख़िरकार आपने फ़रमाया कि जो तुम लोगों के जी में आए वह करो। वह दिन भी दूर नहीं है कि तुम खुद अपनी इस बेराह रवी की बदौलत अपने हाथ काटोगे।
हक़मैन की नामजदगी के बाद जब अहदनामा लिखा जाने लगा तो अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के नाम से पहले “अमीरुल मोमेनीन” लिखा गया जिस पर अम्रे आस मोअतरिज़ हुआ और उसने कहा कि अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की लफ़्ज़ काट दी जाए क्योंकि हम उन्हें अमीरुल मोमेनीन समझते तो यह जंग ही क्यों करते? अशअस बिन कैस और उसके हंवारीन ने भी अम्र आस की हमनवाई की और कहा कि इस लफ़्ज़ के काट देने में हमारा नुकसान ही क्या है अखनफ बिन कैस ने हज़रत अली (अ.स.) से कहा कि आप लफ़्ज़ अमीरूल मोमेनीन के काटने की इजाजत हरगिज़ न दें ख़्वाह इसके नतीजे में कुश्त व खून की नौबत ही क्यों न आए, आज यह लफ़्ज़ काट दी गयी तो फिर इमारत पलट कर कभी आपकी तरफ नहीं आयेगी।
बात रफ्ता रफ्ता जब ज़्यादा बढ़ी और हंगामा आराई का अन्देशा लाहक़ हुआ तो हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैंने जबकि हुदैबिया के दिन सुलहनामा लिखा और आँहज़रत (स.अ.) के इस्मे मुबारक साथ लफ़्ज़े रसूलउल्लाह (स.अ.) तहरीर की तो कुफ़्फ़ार का नुमाईन्दा सुहैल भी मोअतरिज हुआ था और उसने कहा था कि हम उन्हें अल्लाह का रसूल कब मानते हैं लिहाजा लफ़्ज़े रसूलुल्लाह (स.अ.) मिटा दी जाए और उसके बजाए मुहम्मद (स.अ.) बिन अब्दुल्लाह लिखा जाए। मैंने तअम्मुल किया तो रसूलुल्लाह ने फ़रमायाः
“जो यह कहता है वही लिख दो और एक दिन तुम्हें भी ऐसा ही वाक़िआत पेश आयेगा और तुम बेबस व मजबूर होगे।”
उस पर अम्र ने कहा, क्या आप हमें वैसा ही काफिर समझते हैं जैसे कि वह थे आपने फ़रमाया, ऐ नाबेगा के बेटे ! तुम कब फासिकों के दोस्त और मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे तुम अपनी जनने वाली मां ही के मुशाबेह हो।
अम्रे आस ने कहा कि आज के बाद हम न एक जगह बैठेगे और न ही एक दूसरे का मुंह देखने के रवादार होंगे। आपने फ़रमाया मैं भी यही चाहता हूं कि ख़ुदावन्दे आलम हमारी महफ़िलों और मजलिसों को तुम ऐसे लोगों से पाक व साफ़ रखे।
बहरहाल जब लफ़्ज़े अमीरूल मोमेनीन काट दी गयी और अज़ सर नौ तहरीर लिखी जाने लगी तो हज़रत अली (अ.स.) से कहा गया कि क्या आप यह इकरार करते हैं कि मुआविया और अहले शाम मुसलमान हैं? आपने फ़रमाया, मैं मुआविया और उसके साथियों के बारे में यह तस्लीम नहीं करता कि वह मोमिन व मुस्लिम हैं लेकिन मुआविया अपने साथियों के बारे में जो चाहे लिखे जिस चीज़ का चाहे इकरार करे और जो नाम चाहे तजवीज़ करे।
आख़िर कार सुलह नामा तहरीर किया गया जो हस्बज़ेल शराएत व दफआत पर मुश्तमिल था।
(1) हक़मैन इस अम्र के पाबन्द होंगे कि वह र्कुआन की रू से फ़ैसला करें। और अगर किताबे ख़ुदा से किसी नतीजे पर न पहुंच सकें तो सुन्नते रसूल (स.अ.) की रौशनी में फैसला करें।
(2) हक़मैन जो भी फैसला करेंगे, दोनों फरीक उसके पाबन्द होंगे बशर्त यह कि फैसला किताब व सुन्नत की बुनियाद पर किया गया हो।
(3) हक़मैन को इसी माहे रमज़ान के आख़िर तक फैसला कर देना चाहिए और अगर मुद्दत में तौसीअ की ज़रूरत हो तो वह खुद ही इत्तेफ़ाके़ राय से मुकर्ररा मुद्दत में इजाफा के मजाज़ होंगे।
(4) अगर फैसले के लिए शहादतों की ज़रूरत महसूस हुई तो फरीकैन शहादतें मोहय्या करेंगे।
(5) फैसले तक जंग बन्द रहेगी और दोनों फ़रीक हक़मैन की जान व माल की हिफाजत करेंगे।
(6) अगर फैसले से क़ब्ल किसी हक़म का इन्तेकाल हो जाए तो उसकी जमाअत उसकी जगह दूसरा हक़म मुन्तख़ब करेगी।
(7) फैसले के मक़ाम का तअय्युन इराक़ व शाम के दरमियान किया जाएगा।
जब यह मुआहिदा ज़ब्ते तहरीर में लाया जा चुका तो इराकियों ने तहकीम के ख़िलाफ़ सरगोशियां शुरू कीं। चुनांचे अशअस बिन कैस ने जब मुख़्तलिफ़़ कबाएल के परचमों तले जाकर मुआहिदे की इबारत पढ़ कर सुनाई तो लोगों के दिलों में नफरत के जज़्बात शिद्दत से भड़क उठे और वही लोग जो थोड़ी देर पहले तहकीम के मानने पर जोर दे रहे थे मुख़ालिफ़त पर आमादा हो गए। बनी अनज़ा ने मुआहिदे की तहरीर सुनी तो उनमें से दो भाईयों ज़ाद और मादान ने ला-हुक-म इल-ल लिल्लाह “हक़म सिर्फ अल्लाह है” का नारा बुलन्द किया और तलवार लेकर मैदान में निकल आए और आख़िरकार क़त्ल हो गए। बनी मुराद ने यह तहरीर सुनी तो सालेह बिन शक़ीक़ ने कहा कि हक़म अल्लाह के लिए मखसूस है ख़्वाह मुशरेकीन को नागवार गुज़रे। बनी रासिब को यह तहरीर पढ़ कर सुनाई गयी तो उन्होंने कहा कि अल्लाह के दीन में लोगों को हक़म करार नहीं दिया जा सकता।
इस तहकीम की मुख़ालिफ़त करने वालों में अकसरियत बनी तमीम की थी। जब उन्होंने यह तहरीर सुनी तो उरवा बिन अदिया ने अशअस से कहा, क्या तुमने दीन में लोगों को हक़म करार दे लिया है? ऐ अशअस अगर यही होना था तो हमारे मकतूलीन क्यों क़त्ल हुए। फिर वह तलवार लेकर अशअस पर हमलावर हुआ। अशअस ने तेज़ी से सवारी का रूख मोड़ा और उसके हाथ से बचकर निकल भागा।
इस जंगबन्दी और मुआहिदा-ए-तहकीम के नतीजे में इराकियों की यकजहती ख़त्म हो गयी और हर तरफ फ़ितना उठ खड़ा हुआ। मोहरिज़ बिन खु़नैस ने हालात को बिगड़ते देखा तो अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि या अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ! क्या इस मुआहिदे को ख़त्म करने की कोई सूरत नहीं है? मुझे अन्देशा है कि इसके नतीजे में एक फ़ितन-ए-अज़ीम बरपा होगा और इसको सुबकी व परेशानी का सामना करना पड़ेगा। आपने मोहरिज़ से जवाब में फ़रमाया कि क्या मुहाहिदा तहरीर हो जाने के बाद हम अहद शिकनी करें जो किसी तरह जाएज़ नहीं है?
जब मुआहिदे की पाबन्दी करते हुए अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने हथियार रख दिए तो निफ़ाक़ के जरासीम बगावत व सरकशी की सूरत में उभर आए और अलवियों व उस्मानियों के अलावा एक तीसरा गिरोह वजूद में आ गया। दीगर लोग भी इस नई तहरीर के हामी हो गए जिनमें वह अफ़राद भी शामिल हो गए जो जंग जारी रखने पर इसरार कर रहे थे और वह भी शरीक हो गए जो तहकीम के मनवाने में पेश-पेश थे। और वह नारा जो वक़्ती जोश के नतीजे में दो भाईयों की ज़़बान से निकला था उस गिरोह का जमाअती नारा बन गया। चुनांचे जब लश्कर की वापसी अमल में आई तो लोगों के तेवर चढ़े हुए थे और आंखे ग़ैज़ व गज़ब से उबली पड़ रहीं थीं। लोगों को यह सदमा था कि जंग की जीती हुई बाज़ी अपने हाथों से गंवा दी और कुछ को यह ग़म था कि तहकीम को क्यों तस्लीम किया गया। आपस में फूट तो पड़ ही चुकी थे जब लश्कर कूफ़ा के करीब पहुंचा तो उसमें से बारह हज़ार अफ़राद ने शहर में दाखिल होने से इन्कार कर दिया और लश्कर से अलैहदा होकर कूफ़े के करीब हरूरा के मक़ाम पर ख़ेमाजन हो गए और ला-हुक-म इल-ल लिल्लाह की बुनियाद पर उन्होंने एक मुस्तकिल और ख़तरनाक महाज़ कायम कर लिया। यह जमाअत ख्वारिज और हरूरिया के नाम से मौसूम हुई और जमाअती तन्ज़ीम के पेशे नज़र उन्होंने शीस बिन रबई को अमीरे लश्कर और इब्ने कव्वा को इमामे जमाअत मुकर्रर कर लिया। अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) ने उनकी सरकशी और नाफ़रमानियों के बावजूद उन पर किसी किस्म की सख्ती नहीं की बल्कि आपने उन्हें इफहाम व तफहीम और दलील व बुरहान से काएल करने का लाहए अमल तरतीब दिया और बड़ी कददो काविश जद्दो-जेहद और बहस मुबाहिसे के बाद अपने घरों में आने के लिए मजबूर कर दिया चुनांचे यह लोग कूफे में दाखिल होने को तो हो गए मगर अपनी कज-फहमी के नतीजे में जो नज़रिया कायम कर चुके थे उसी पर अड़े रहे और जैसे-जैसे हक़मैन के फैसले का वक़्त करीब आता गया उनकी शरअंगेज़ियां और फितना परवाज़ियां ज़ोर पकड़ती गईं। उनके तेवरों से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि वह इफहाम व तफ़हीम के हुदूद से तजावुज़ करके अब तेग़ व सिना के बल बूते पर फ़ैसला करना चाहते हैं।
13 माहे सफ़र सन् 37 हिजरी में तहकीम की करारदाद मंजूर हुई और माहे शाबान सन् 37 हिजरी में दोनों हक़म अबू मूसा और अम्रे आस मआन और वादिए मूसा के दरमियान “अज़रह” के मक़ाम पर जमा हुए और क़रारदाद के तहत दोनों जमाअतों के चार चार सौ आदमी भी पहुंच गए। शामी वफद का क़ाएद अबुल आवर सलमी था और इराक़ी वफद के सरबराह अब्दुल्लाह बिन अब्बास और शुरैह बिन हानी थे।
इस इज्तेमा से क़ब्ल मुआविया ने अब्दुल्लाह बिन उमर, अब्दुल्लाह बिन जुबैर, अबुल जहम बिन हुज़ैफ़ा और अब्दुर्रहमान बिन अब्दे यगूस को तहरीर किया था कि तुम लोग जंगे सिफ़्फ़ीन में तो शरीक नहीं हो सके लेकिन तुम्हें एक मुबस्सिर की हैसियत से अज़रह में पहुंचना चाहिए ताकि तहकीम की कार्यवाही को अपनी आंखों से देख सको। चुनांचे यह लोग कार्रवाई शुरू होने से पहले पहुंच गए। उनके अलावा अब्दुर्रहमान बिन अबू बक्र, सअद बिन अबी विकास और मुग़ैरा बिन शैबा भी तहकीम का जाएज़ा लेने के लिए आ गए। फैसला सादिर करने से पहले हक़मैन का बाहमी तबादलए ख्यालात के ज़रिए किसी मुत्तफे़का फैसले पर पहुंचना ज़रूरी था। चुनांचे वह दोनों एक मक़ाम पर जमा हुए और थोड़ी देर की बातचीत के बाद अम्रे आस ने अबू मूसा को इस पर राजी कर लिया कि हज़रत अली (अ.स.) और मुआविया दोनों को माज़ूल करके मुसलमानों को यह इख़्तेयार दे दिया जाए कि वह शूरा के ज़रिए जिसे चाहें अपना ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर लें।
इस तसफिए के बाद जब दोनों अलग हुए तो इब्ने अब्बास ने अबू मूसा से कहा, ऐ अबू मूसा! मुझे ऐसा मालूम होता है कि जो फैसला मुत्तफेक़ा तौर पर तुम्हारे दरमियान हुआ है अम्र इसका पाबन्द नहीं रहेगा। वह इन्तेहाई होशियार और चालाक है, तुम्हें ज़रूर फरेब देगा। लिहाज़ा जब एलान का मौका आए तो पहले उसी को एलान करने देना फिर बाद में तुम एलान करना। अबू मूसा ने कहा, हम जिस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हुए हैं उसमें किसी धोखा, फरेब, या हेरफेर की गुंजाईश नहीं है।
ग़रज़ कि दूसरे दिन शाम व इराक़ के नुमाईन्दे, मुबस्सेरीन और दोनों सालिस जामा मस्जिद में जमा हुए। अम्रे आस ने चालाकी और होशियारी से काम लेते हुए अबू मूसा से कहा कि मैं आप पर सबक़त को खिलाफ़े अदब समझता हूं लिहाज़ा पहले आप एलान फ़रमाएं। अबू मूसा ने यह ख़्याल किया कि यह इज़्ज़त व मंज़िलत इसकी बुज़ुर्गी की वजह से है इसलिए वह इब्ने अब्बास की बातों को नज़र अन्दाज़ कर गया और बड़ी तमकनत से झूमता हुआ उठा, मिम्बर पर पहुंचा और मजमे को मुखातिब करते हुए कहा ! ऐ मुसलमानों ! हमने यह फैसला किया है कि अली बिन अबीतालिब (अ.स.) और मुआविया दोनों को माजूल करके यह हक़ मुसलमानों को दे दिया जाए कि जिसे चाहें वह अपना ख़लीफ़ा मुन्तख़ब कर लें लिहाजा मैं दोनों को माजूल करता हूं। यह कहक़र अबू मूसा मिम्बर से उतरा तो अम्रे आस की बारी आई। उसने कहा, ऐ मुसलमानों ! तुमने सुना कि अबू मूसा ने अली (अ.स.) को ख़िलाफ़त से माजूल कर दिया है, अब रहा मुआविया तो उसके माज़ूल करने का सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि वह उस्मान के वली, उनके ख़ून के क़सास के ख़्वाहाँ और उनकी नियाबत व जॉनशीनी के अहल हैं, लिहाजा मैं उन्हें बरकरार रखता हूं।
अम्रे आस का यह कहना था कि हर तरफ हंगामा मच गया। धोखेबाज़ी, फ़रेबकारी, और जालसाजी काम आ गयी और मुआविया के उखड़े हुए क़दम फिर से जम गए। अबू मूसा लाख चीखते चिल्लाते रहे कि मेरे साथ धोखा हुआ है मगर किसी ने एक न सुनी।
यह था इस तहकीम का मुख़्तसर सा खुलासा कि जिसकी असास व बुनियाद र्कुआन व सुन्नत पर रखी गयी थी मगर क्या यह र्कुआन सुन्नत का फ़ैसला था? या इन फ़रेबकारियों का नतीजा था जो इक़तेदार परस्त लोग अपने इक़तेदार को बरक़रार रखने के लिए काम में लाते हैं। काश कि तारीख़ के इन वाक़िआत को मुस्तकबिल के लिए मशअले राह बनाया जाए और र्कुआन व सुन्नत को हुसूले इक़तेदार व जाह तलबी का ज़रिया न बनने दिया जाए।
ख़्वारिज
ख़ारजियत के जरासीम रसूलुल्लाह (स.अ.) के ज़माने में ही पैदा हो चुके थे जो अन्दर ही अन्दर बढ़ते और फैलते रहे। यह लोग इस्लाम का लबादा ओढ़कर इस्लाम के ख़िलाफ़ साजिशें करते, तख़रीबी कार्यवाईयों में बढ़ चढ़ के हिस्सा लेते और उनकी गुस्ताखियों का यह आलम था कि रसूले अकरम (स.अ.) की दियानत व अदालत पर भी हमला करने से न चूकते। चुनांचे आँहज़रत (स.अ.) ने ग़ज़वए हुनैन का माले ग़नीमत जब वादिए ज़ाराना में तकसीम फ़रमाया और नौ मुस्लिमों की दिल जूई के लिए अपने हिस्से खुम्स में से उन्हें औरों की निसबत ज़्यादा दिया तो इस गिरोह की एक फर्द जुल-खवीसरा तमीमी ने गुस्ताख़ाना लहजे में आँहज़रत (स.अ.) से कहा कि आप अदल व इन्साफ़ करें जिस पर आपने फ़रमाया कि अगर मैं अदल नहीं करूंगा तो फिर कौन करेगा? हज़रत उमर भी उसकी इस गुस्ताखी पर बिगड़े और कहा, या रसूलुल्लाह (स.अ.)! हम इसे क़त्ल क्यों न कर दें? आँहज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया, छोड़ो इसे, इसके जैसे और लोग भी हैं अगर तुममें से कोई उनकी नमाज़ों को और इनके रोज़ों के मुकाबिले में अपने रोज़ों को देखेगा तो अपनी नमाजों और रोजों को पस्त व हक़ीर समझेगा। यह दीन से इस तरह निकल जाएंगे जिस तरह तीर शिकार को चीर कर निकल जाता है।
यह लोग बज़ाहिर शआएरे इस्लाम और एहकामे दीन के पाबन्द और रोज़ा, नमाज़ और तिलावते र्कुआन के दिलदाद थे मगर इस्लाम की रूह से नाआशना और दीन की हक़ीक़त से बेख़बर थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) का इनके बारे में यह इरशाद है कि मेरी उम्मत दो फ़िरक़ों में बट जाएगी और इन दो में से एक और फ़िरक़ा निकल खड़ा होगा जिसके लोग सर मुंडवाए, मूछें कटवाए और पिंडलियों तक तहबन्द बांधे होंगे। वह र्कुआन की तिलावत करेंगे मगर र्कुआन उनके हलक से नीचे नहीं उतरेगा और उन्हें वह शख़्स क़त्ल करेगा जो मुझे और अल्लाह को सबसे ज़्यादा महबूब होगा।
यह ख़्वारिज अरब के सहराई और बद्दूई बाशिन्दे थे। जिन पर सहराईयत और बद्दूईयत का रंग गालिब था। यह तबीयतन शोरिश पसन्द, फ़ितना परदाज़ और क़त्ल व गारतगरी के आदी थे। पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) के बाद उन्हें मुसलसल व मुख़्तलिफ़ जंगों में ढकेला जाता रहा और यह जंग व केताल के इतने आदी व खूंगर हो चुके थे कि जब कुछ न बन पड़ता तो आपस ही में लड़ते झगड़ते रहते। हक़ीक़त यह है कि इनकी जंगी मसरूफ़ियात ने इन्हें इतना मौका ही न दिया कि वह इस्लाम की तालीमात से बहरावर होते और उसके अख़्लाक़ व आदाब का असर लेते। फ़तहे इराक़ के बाद जब सरहदों की हिफाज़त के लिए कूफ़ा व बसरा की बुनियादें रखी गयीं तो उनकी आबदकारी के लिए ऐसे ही लोगों की ज़रूरत थी जो फ़ितरतन व तबीयतन जंगी ख़ूबू रखते हों। चुनांचे उन लोगों को यहां आबाद किया गया और यह लोग बेहतर मुस्तकबिल की उम्मीद में यहां बस गए मगर शहरी ज़िन्दगी इख़्तेयार करने के बावजूद इज्तेमाई ज़िन्दगी से मानूंस न हो सके और इन्फ़ेरादियत व कबाएली असबियत जो बद्दूई ज़िन्दगी का ख़ास्सा है उनमें रची बसी रही। जब अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) को दुश्मन के मुकाबिले में फ़ौज की ज़रूरत महसूस हुई तो यह लोग जो साबेका हुकूमतों में जंगी ख़िदमात के आदी थे, आपकी आवाज़ पर भी उठ खड़े हुए और आपके मुखालेफ़ीन से लड़े। यह हक़ की ताईद और दीन की हिमायत के जज़्बे के ज़ेरे असर न था बल्कि इसमें असबियत, पैकार आराई और माद्दी मकासिद कारफ़रमां थे।
ख्वारिज में ज़्यादातर बनी तमीम और अरब के मवाली शामिल थे और उनके सरदार भी उमूमन बनी तमीम ही के अफ़राद थे। चुनांचे अब्दुल्लाह बिन अबाज़, उरवा बिन अदिया, मस्तूरिद बिन सअद, अबू बिलाल मुरदास बिन अदिया और मसअर बिन फ़िदकी वग़ैरा इसी क़बीले से ताल्लुक रखते थे।
क़ब्ल इस्लाम बनी तमीम मजूसी थे और फ़क्र व इफ़्लास की बिना पर लड़कियों को जिन्दा दफन कर दिया करते। चुनांचे कैस बिन आसिम तमीमी जब इस्लाम लाया तो उसने पैग़म्बर (स.अ.) से कहा, या रसूलुल्लाह (स.अ.)! मैंने ज़मानए जाहेलियत में अपनी आठ बेटियों को दफन किया था।
पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) के बाद उनकी अकसरियत इस्लाम से मुनहरिफ होकर मुरतद हो गयी और नबूव्वत की मशहूर मुद्दई सजाह बिन्ते हारिस भी इसी क़बीले से थी जिसने इस्लाम में रखना अन्दाज़ी करके इन्तेशार व इख़्तेलाफ को हवा दी। बनी तमीम के इस क़ौमी मिज़ाज को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनके दिलों में इस्लाम रासिख न हुआ था जिसके नतीजे में उनका बातिनी निफ़ाक़ कभी इरतेदाद और कभी खु़रूज की सूरत में ज़ाहिर होता रहा। और आख़िरकार उनकी खुद सरी व शूरा पुश्ती ने उन्हें अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के मुकाबले में लाकर खड़ा कर दिया।
जंगे नहरवान
अबू मूसा अशअरी ने अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की बरतरफी और अम्रे आस ने इस बरतरफी के मुआविया के तकरूर का जो खेल खेला और जिस तरह र्कुआन व सुन्नत के तकाज़ों को नज़र अन्दाज़ किया, नीज़ अहद व पैमान की धज्जियां उड़ाई वह तारीख पर नज़र रखने वालों से पोशीदा नहीं है।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लिए हक़मैन का फैसला ख़िलाफ़े तवक्को न था बल्कि वह तहकीम की करारदाद को ब-रूएकार लाने वाले अफ़राद को देखकर समझ रहे थे कि यह दोनों मुआविया की तरफ़दारी और उसके इक़्तेदार का तहफ्फुज़ करेंगे। अगरचे ख़्वारिज फ़ैसल-ए-तहकीम से पहले आपको जंगी इक़दाम पर मजबूर करते रहे मगर आपने मुआहेदा की ख़िलाफ़़वर्जी गवारा न की और जब हक़मैन ने अपने हदूदेकार से तजावुज़ करके कातिलाने उस्मान के बारे में फैसला करने के बजाए ख़िलाफ़त का फैसला कर दिया और इस सिलसिले में न र्कुआन की तरफ रूजू किया न सुन्नते रसूल (स.अ.) को पेशे नज़र रखा तो आपने शामियों से दोबारा जंग का फैसला किया, क्योंकि अब आपके सामने दो सूरतें थीं, या तो आप बातिल के सामने सर झुका दें या फिर शाम पर दोबारा हमला करें। पहली सूरत आपके लिए मुम्किन ही न थी कि हक़ को पामाल होते देखें, ख़ामोश रहें और दुनिया को यह तअस्सुर दें कि हक़मैन ने जो फ़ैसला किया है वह किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स.अ.) के मुताबिक़ है। एक यही सूरत थी कि लश्कर तरतीब देकर शाम की तरफ फिर कदम बढ़ाएं ताकि मुआविया की फ़रेबकारी और हक़मैन की अहद शिकनी आलम आशकारा हो जाए। चुनांचे आपने ख़्वारिज को भी इस जंगी इक़दाम में शमूलियत की दावत दी जो शाम पर हमलावर होने के लिए बेचैन थे। आपने यज़ीद बिन हसीन और अब्दुल्लाह बिन वहब को तहरीर फ़रमाया कि हमने जिन दो आदमियों को हक़म बनाया था उन्होंने किताबे खुदा और सुन्नते रसूल (स.अ.) की ख़िलाफ़वर्जी की है। लिहाजा अब हमारा मौकफ़ वही है जो तहकीम से पहले था, तुम लोग तआवुन करो ताकि हम अपने मुश्तरका दुश्मन की तरफ़ फिर क़दम बढ़ाएं और उससे जंग करें, यहां तक कि खुदा हमारे और उनके दरमियान फ़ैसला कर दे।
यज़ीद व अब्दुल्लाह ने जवाब में लिखा कि आपने तहकीम को मान कर कुफ्र का इरतेकाब किया है लिहाजा आप अगर तौबा कर लें तो हम आपका साथ देंगे वरना आपसे जंग करेंगे।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब देखा कि ख़्वारिज बेहूदा कुफ़्तनी और सरकशी पर आमादा हैं और साथ देने को तैयार नहीं हैं तो उन्हें नजर अन्दाज़ कर दिया और अफ़वाज की फ़राहमीं में मसरूफ हो गए। जब फ़ौजें मुनज़्ज़म और जंगी तैयारियां मुकम्मल हो चुकीं तो कुछ लोगों ने कहा कि हमें पहले ख़्वारिज को ठिकाने लगा देना चाहिए जिनकी सरकशी ब-तदरीज बढ़ती जा रही है, उसके बाद शाम की तरफ़ पेश कदमी मुनासिब होगी। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया अभी उनको उनके हाल पर छोड़ दो, पहले शाम की तरफ बढ़ो, बाद में उन्हें भी देख लिया जाएगा। लोगों ने आपकी इस बात से इत्तेफ़ाक़ किया लेकिन लश्कर अभी अपनी जगह से हरकत भी न करने पाया था कि ख़्वारिज की शोरिश अंगेज़ियों और फ़ितना परदाजियों ने क़त्ल व गारत गरी की सूरत इख़्तेयार कर ली और लूट मार का बाज़ार गर्म कर दिया। उन्होंने नहरवान के आमिल अब्दुल्लाह बिन जुन्दब और उसकी कनीज़ को उस बच्चे समेत जो उसके शिकम में था, ज़िबह कर डाला और उसके साथ ही बनी तय की तीन औरतों को और भी क़त्ल कर दिया। यह ख़बर सुनकर जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने हारिस बिन मुर्रा को हालात की हक़ीक़त मालूल करने के लिए भेजा तो वह भी क़त्ल कर दिए गए। अब उन बागियों को कैफ़रे किरदार तक पहुंचाना ज़रूरी था। चुनांचे अलवी लश्कर नहरवान की तरफ चल पड़ा। वहां पहुंचकर अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने ख़्वारिज को यह पैग़ाम भेजा कि जिन लोगों ने अब्दुल्लाह बिन जुन्दब और बेगुनाह औरतों को क़त्ल किया है उन्हें हमारे हवाले कर दिया जाए ताकि हम उनसे क़सास लें। उन्होंने इस पैग़ाम का जवाब यह दिया कि हम सबने मिल उन्हें क़त्ल किया है और हमारे नज़दीक तुम सबका खून मुबाह है। इस पर भी अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जंग की इब्तेदा नहीं की बल्कि आपने अबू अय्यूब अन्सारी के ज़रिए उन्हें जो शख़्स अलवी परचम के साए में आ जायेगा या बागियों से अलाहिदा होकर मदाएन या कूफ़े चला जाएगा इसके लिए अमान है।
अबू अय्यूब अन्सारी के एलान का असर यह हुआ कि फरवा बिन नौफ़िल अशजई ने कहा कि हमें नहीं मालूम कि हम किस बिना पर अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से आमादा पैकार हैं। यह कहक़र पांच सौ आदमियों समैत वह बागियों से अलाहिदा हो गया। उसके बाद और लोग भी गिरोह दर गिरोह छटना शुरू हो गए और कुछ अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से आकर मिल गए। इन बागियों की कुल तादाद चार हज़ार और ब-रिवायते तबरी दो हज़ार आठ सौ रह गयी। यह लोग किसी सूरत से राहे रास्त पर न आए बल्कि मारने और मरने पर तैयार हो गए। उसके बाद भी अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने उन्हें जंग के हौलनाक नताएज से आगाह किया लेकिन वह लोग इस क़द्र जोश में भरे हुए थे कि इज्तेमाई तौर पर अलवी लश्कर पर टूट पड़े। आख़िरकार इधर से भी तलवारें निकल आईं। लड़ाई हुई और अंजामकार सिर्फ नौ आदमियों के अलावा जिन्होंने अपनी जानें भागकर बचाई थीं ख़्वारिज में से एक मुतनफ्फिस भी जिन्दा न बच सका। इस जंग में मशहूर मुनाफिक व खारजी “जुल-सदिया” भी मारा गया जिसके एक हाथ की जगह लम्बा सा पिस्तान था। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लश्कर के आठ अफराद दर्जाए शहादत पर फाएज़ हुए। यह जंग 6 सफ़र सन् 37 हिजरी में लड़ी गयी।
इल्तवाए जंगे शाम
जंगे नहरवान के बाद अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) ने अपने लश्कर के सरदारों को जमा करके उनसे फ़रमाया कि ख़ुदा ने तुम्हें ख्वारिज के मुकाबले में फ़तह व कामरानी से हमकिनार कर दिया, अब तुम लोग शाम की मुहिम के लिए तैयार हो जाओ और दुश्मन से लड़कर सुर्खुरूई हासिल करो। अशअस बिन कैस वग़ैरा ने सुस्ती व काहिली का मुज़ाहिरा किया और कहा कि हमारे तीर ख़त्म हो चुके हैं, तलवारें कुन्द हो चुकी हैं और नैज़े बेकार हो चुके हैं, लिहाज़ा कुछ दिनों के लिए कूफे तशरीफ ले चलिए ताकि हम वहां आराम भी कर लें और हथियारों की दुरूस्ती भी कर लें, फिर ताज़ा दम होकर दुश्मन से लड़ेंगे। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने वापसी की मुख़ालिफ़त की और फ़रमाया कि हमारी असल मंज़िल शाम है, इस अम्र में मज़ीद ताख़ीर खिलाफे मसलहत होगी। मगर वह लोग किसी तरह न माने और आपको वापसी पर मजबूर कर दिया।
जब आप वारिदे कूफा हुए तो लश्कर के बहुत से सरदारों और लश्करियों ने आपका साथ छोड़ दिया। इसके अलावा और भी फ़ितने उठ खड़े हुए जिनकी वजह से मुल्क का नज़्म व नसक दरहम बरहम होने लगा इसलिए शाम पर लश्करकुशी इल्तेवा में पड़ गयी।
महारबाते ख़्वारिज
तहकीम के बाद हज़रत अली (अ.स.) की मुख़ालिफ़त में ख़्वारिज ने सर उठाया तो बनी नाज़िया का एक ख़ारजी ख़रीत बिन राशिद अपने क़बीले को लेकर नज़्म व नसक को दरहम बरहम करने की ग़रज़ से कूफ़े से निकल खड़ा हुआ और लूटमार करता हुआ मदाएन की तरफ चल पड़ा।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने उसकी सरकूबी के लिए ज़ियाद बिन हफ़सा को एक सौ तीस आदमियों की एक जमीयत के साथ रवाना किया। चुनांचे मदाएन के क़रीब जब एक दूसरे का आमना सामना हुआ तो दोनों फ़रीक एक दूसरे पर तलवारें लेकर टूट पड़े। दो चार झड़पों के बाद रात का अन्धेरा फैला तो ख़्वारिज अपने पांच लाशे मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।
ज़ि़याद को जब मालूम हुआ कि भागे हुए ख़ारिज बसरे की राह पर गामजन हैं तो वह भी अपने आदमियों के साथ बसरे की तरफ चल पड़ा, वहां पहुंचकर ख़बर मिली कि वह लोग अहवाज़ की तरफ चले गए हैं। सिपाह की किल्लत की वजह से ज़ियाद ने अपने क़दम रोक लिए और इसकी इत्तेला अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को दी। आपने ज़ियाद को वापस बुलाया और मअक़िल बिन कैस रियाही को दो हज़ार नबर्द आज़माओं के हमराह अहवाज़ की तरफ रवाना किया और वालीए बसरा अब्दुल्लाह बिन अब्बास को तहरीर फ़रमाया कि बसरा से दो हज़ार शम्शीर ज़न मअक़िल की मदद के लिए भेज दो। चुनांचे बसरे का दस्ता भी मअक़िल के दस्ते से अहवाज़ में मिल गया लेकिन खरीत अपने साथियों को लेकर रामहरमज़ की पहाड़ियों के करीब उससे जाकर भिड़ गए। इस झड़प में ख़्वारिज के तीन सौ सत्तर आदमी मारे गए बाकी भाग खड़े हुए। मअक़िल ने अपने इस कारगुज़ारी और दुश्मन के फरार की इत्तेला जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को दी तो आपने तहरीर फ़रमाया कि तुम अभी उनका पीछा करो और इस तरह उन्हें कैफ़र किरदार तक पहुंचाओ कि फिर सर उठाने के काबिल न रहें।
इस फ़रमान के बाद मअक़िल अपना लश्कर लेकर आगे बढ़े और बहरे फ़ारस के साहिल पर उन्हें फिर घेर लिया जहां ख़रीत ने बहुत से लोगों को अपना हमनवा बना लिया था और अच्छी खासी जमीयत तैयार कर ली थी। मअक़िल ने पहले अमान का झण्डा बुलन्द किया और एलान किया कि जो लोग इधर उधर से ख़रीत के गिरोह में शामिल हो गए हैं वह अलाहिदा हो जाएं, उनसे कोई तअरुज़ न किया जाएगा। इस एलान से दूसरे लोग छट गए सिर्फ खरीत और उसका क़बीला रह गया जिससे जंग हुई और देखते ही देखते एक सौ अड़सठ बागी तहे तेग़ कर दिए गए। ख़रीत से नोमान बिन सहबान ने दो दो हाथ किए और आख़िरकार उसे मार गिराया। जिसके गिरते ही बागियों के क़दम उखड़ गए। उसके बाद मअक़िल ने उनकी क़यामगाहों पर छापा मारा ृऔर जितने मर्द, औरतें और बच्चे मिले उन्हें जमा किया, उनमें जो मुसलमान थे उनसे बैअत लेकर उन्हें रिहा कर दिया और जो मुरतद हो गए थे उनसे इस्लाम कुबूल करने के लिए कहा चुनांचे एक बूढ़े नसरानी के अलावा सबने इस्लाम कुबूल करके छुटकारा हासिल किया और बूढ़े नसरानी को क़त्ल कर दिया गया। बनी नाजिया के जिन ईसाइयों ने इस बग़ावत में हिस्सा लिया था उन्हें उनके अहल व अयाल समेत जिनकी तादाद पांच सौ थी, मअक़िल ने कैद कर लिया।
मअक़िल उनकैदियों को लिए हुए जब ईरान के एक शहर “अर्दशेर ख़रा” पहुंचे तो कैदियों ने वहां के हाकिम मसक़िला बिन हीरा से फरयाद की और उसके सामने चीखे चिल्लाए कि उनकी रिहाई की कोई सूरत की जाए। मसकिला ने मअक़िल से कहलाया कि उन ृकैदियों को हमारे हाथ बेच दो। मअक़िल ने मंजूर किया और पांच लाख दिरहम में कैदियों को उसके हाथ बेच दिया। मुसक़िला ने पांच किस्तों में रकम की अदाएगी का वादा करके एक लाख दिरहम की पहली किस्त तो अदा कर दी उसके बाद वह खामोश होकर बैठ रहा यहां तक कि जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से बक़िया किस्तों का मुतालिबा किया गया तो वह भाग कर मुआविया के पास चला गया और मुआविया ने उसे तबरिस्तान का हाकिम बना दिया।
खरीत के अलावा भी मुख़्तलिफ़ गिरोह मुख़्तलिफ़ औकात में बगावत व तख़रीब कारी पर आमादा हुए मगर इराकी दस्तों ने उन्हें शिकस्त देकर मुन्तशिर कर दिया। चुनांचे रबीउस सानी सन् 38 हिजरी में अशरिस बिन औफ शैबानी ने अलमे बगावत बुलन्द करके वसकरा से अन्बार की तरफ दो सौ की जमीयत के साथ रूख किया जिसके मुकाबिले में अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने अबरिश बिन हसान को तीन सौ आदमियों के साथ भेजा। जंग हुई जिसमें अशरिस मारा गया और इस जमाअत के लोग भाग खड़े हुए।
जमादिल ऊला सन् 38 हिजरी में हिलाल बिन अलफा और उसके भाई ने दो सौ अफ़राद के साथ खुरूज किया। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से उनकी सरकूबी के लिए मअक़िल बिन कैस मामूर हुए। उन्होंने मासबज़दान में हिलाल और उसके भाई को क़त्ल करके उन्हें कैफ़रे किरदार तक पहुंचाया।
जमादुल आख़िर सन् 38 हिजरी में अशहब बिन बशीर ने एक सौ अस्सी आदमियों को लेकर ख़ुरूज किया। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के हुक्म से जारिया बिन कुद़्दामा ने उसे ठिकाने लगाया और उस पूरे गिरोह को मौत के घाट उतार दिया।
माहे रजब सन् 38 हिजरी में सईद बिन क़फ़ल तैमी ने बगावत का परचम बुलन्द किया और सअद बिन मसूद हाकिम मदाएन ने उसे तहे तेग़ कर दिया। और माहे रमज़ान सन् 38 हिजरी में अबु मरियम सअदी तमीमी ने शहर ज़ोर में खुरूज किया जिसे अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) ने बदस्ते खुद कैफर किरदार तक पहुंचाया। उन ख़ारजियों की अकसरियत तलवार के घाट उतर गयी, सिर्फ पचास आदमी बाकी बच गए थे जिन्हें जख्मी हालत में कूफ़े लाया गया और उनका इलाज व मुआलिजा किया गया। यह ख़्वारिज की सबसे ज़्यादा जरी और सरकश जमाअत थी।
वाक़िआते मिस्र
मसनदे खिलाफ़त पर मुत्मकिन होने के बाद अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) ने कैस बिन सअद बिन एबादा को मिस्र का गवर्नर मुकर्रर किया था मगर बाद में हालात कुछ ऐसे पैदा हो गए कि उन्हें माज़ूल करके मुहम्मद बिन अबू बक्र को वालीए मिस्र मुकर्रर करना पड़ा। कैस बिन सअद की रविश यह थी कि वह उस्मानी गिरोह के ख़िलाफ तशद्दुद आमेज़ कदम उठाना मसलहत के ख़िलाफ़ समझते थे मगर मुहम्मद बिन अबू बक्र का रवय्या उससे मुख़्तलिफ़ था। उन्होंने एक माह तक तो खामोशी इख़्तेयार की। उसके बाद उस्मानियों को यह वार्निंग दे दी कि अगर तुम हमारी इताअत नहीं करोगे तो तुम्हारा यहां रहना दूभर हो जाएगा। इस पर उन लोगों ने मुहम्मद के ख़िलाफ़ एक महाज़ कायम कर लिया और अन्दर अन्दर उन्होंने रेशा दवानिया शुरू कर दीं। तहकीम की करारदाद के बाद यह लोग खुल कर सामने आ गए और इन्तेक़ाम का नारा लगाकर शर व फ़साद फैलाने लगे यहां तक कि मिस्र की सारी फिज़ा को मुकद्दर करके रख दिया। हज़रत अली (अ.स.) को जब इन बिगड़े हुए हालात का पता चला तो आपने मुहम्मद बिन अबू बक्र की जगह मालिक बिन हारिस अशतर को मिस्र की इमारत देकर रवाना किया ताकि वह मुख़ालिफ़ अनासिर पर काबू हासिल करें और नज़्म व नसक को बिगड़ने न दें।
जब मुआविया को अपने जासूसों के ज़रिए मालूम हुआ कि मालिके अशतर को मिस्र की इमारत देकर भेजा जा रहा है तो वह परेशान हुआ इसलिए कि वह अम्र बिन आस से मिस्र की इमारत का वादा किए हुए था। चुनांचे उसने चाहा कि मालिक के मिस्र पहुंचने से पहले ही उनका खातिमा कर दिया जाए। इस ख़्याल के तहत उसने कुलजुम इलाक़े के एक बाज गुज़ार जाएस्तार को पैग़ाम भिजवाया कि अली (अ.स.) ने मालिके अशतर को मिस्र का आमिल मुक़र्रर किया है, अगर तुम उन्हें मेरे रास्ते से हटा दो तो जब तक मेरी और तुम्हारी ज़िन्दगी है तुमसे ख़िराज नहीं लिया जाएगा।
जाएसतार मुआविया के हुक्म की तामील के लिए कुलजुम पहुंच गया। जब मालिके अशतर मिस्र जाते हुए वहां पहुंचे तो उसने बड़ी गर्म जोशी से उनका इस्तेकबाल किया और आदाब मेज़बानी के बाद उसने मालिक की ख़िदमत में शहद का शरबत पेश किया जिसमें तेज़ किस्म के ज़हर की आमेज़श थी। मालिक ने शरबत तो पी लिया मगर पीते ही हालत गैर हो गयी। मुंह से ख़ून जारी हुआ और कर्ब व इज़्तेराब की करवटे बदलने के बाद उन्होंने आलमे मुसाफ़ेरत में दम तोड़ दिया। जब मुआविया को इस वाकिए की इत्तेला दी गयी तो उसने मिम्बर पर खड़े होकर कहा कि अली (अ.स.) के दो हाथ थे। एक अम्मार यासिर और दूसरे मालिक अशतर, एक सिफ्फ़ीन में कता हो गया और एक जाएसतार ने काट लिया।
मालिक की शहादत का हाल जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को मालूम हुआ तो आप बेहद रंजीदा व मलूल हुए और इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैहे राजेऊन के बाद फ़रमाया कि मालिक हमारे दोस्त, खैर ख़्वाह और दुश्मनों के हक़ में शमशीर थे, ख़ुदा उन पर अपनी रहमत नाज़िल करे।
मालिके अशतर का रिश्ता-ए-हयात कता करने के बाद मुआविया ने अपने मुशीरों अम्र आस, बुस्र बिन इरतात, जिहाक बिन कैस, जबीब बिन मुस्लिमा, अब्दुर्रहमान बिन खालिद, अबुल आवर सलमी और शरजील बिन सिमत कुन्दी को तलब किया और उनसे सलाह व मशविरे के बाद उसने छः हज़ार का एक लश्कर अम्रे आस की सरकिरदगी में मिस्र पर धावा बोलने के लिए रवाना कर दिया।
मुहम्मद बिन अबू बक्र ने जब दुश्मन की इस यलगार को देखा तो अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को कुमक के लिए लिखा। जवाब आया कि तुम अपने आदमियों को जमा करो, मैं तुम्हारे लिए मजीद कुमक भेज रहा हूं। चुनांचे मुहम्मद ने चार हज़ार जांबाज़ों को अपने परचम के नीचे जमा किया और उन्हे दो हिस्सों में तकसीम कर दिया। एक हिस्सा अपने पास रखा और एक हिस्से का सिपहसालार बशीर बिन किनआन को बनाकर दुश्मनों की रोक थाम के लिए आगे भेज दिया। जब बशीर बिन किनआन का फ़ौजी दस्ता दुश्मन के सामने ख़ेमाजन हो गया तो उनकी मुख़्तलिफ़ जमाअतों ने उन पर छापे मारने शुरू कर दिए जिन्हें यह लोग अपनी जुराअत व हिम्मत से रोकते रहे। आख़िरकार मुआविया बिन हुदैज कुन्दी ने पूरी फौज के साथ हमला कर दिया मगर उन सरफ़रोशों ने तलवारों से मुंह न मोड़ा और दुश्मन का मुकाबिला करते हुए शहीद हो गए। इस शिकस्त का असर यह हुआ कि मुहम्मद बिन अबू बक्र के साथी हिरासां हो गए और उनका साथ छोड़कर हट गए। मुहम्मद ने जब अपने को बेयार व मददगार और तन्हा पाया तो उन्होंने भाग कर एक खराबे में पनाह ली मगर एक शख़्स के ज़रिए दुश्मनों को उनका पता चल गया और उन्होंने इस हालत में मुहम्मद को घेर लिया कि यह प्यास से जांबलब थे। मुहम्मद ने दुश्मनों से पानी की ख़्वाहिश की मगर उन्होंने पानी देने से इन्कार कर दिया और इसी तशन्गी के आलम में उन्हें शहीद कर दिया और उनकी लाश को एक गधे की खाल में रख कर जला दिया।
बाज़ मुवर्रिख़ीन ने लिखा है कि मुहम्मद के जिस्म में अभी जान बाक़ी थी कि उन्हें गधे की खाल में रख कर जला दिया गया। मुहम्मद बिन अबू बक्र ने अट्ठाइस बरस की उम्र में शहादत पाई। कूफ़े से उनकी मदद के लिए अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की हिदायत के मुताबिक मालिक बिन कअब अरजी दो हज़ार आदमियों को लेकर निकल चुके थे मगर उनके पहुंचने से पहले मिस्र पर दुश्मनों का क़ब्ज़ा हो चुका था।
वाक़िआते बसरा
जब मुहम्मद बिन अबू बक्र शहीद कर दिए गए और मिस्र पर मुआविया को क़ब्ज़ा व इक़तेदार हासिल हो गया तो उसने अब्दुल्लाह बिन आमिर हज़रमीं को बसरे की तरफ रवाना किया ताकि अहले बसरा को फिर से कत्ले उस्मान के इन्तेकाम के लिए आमादा करे। चुनांचे वह शाम से बसरा आया ओर बनी तमीम की पुश्त पनाही में उन्हीं के यहां फ़रोकश हुआ। यह वह ज़माना था कि हाकिमे बसरा अब्दुल्लाह बिन अब्बास ज़ियाद बिन उबैदा को अपना कायम मक़ाम बना कर मुहम्मद बिन अबू बक्र की ताज़ियत के लिए कूफे गए हुए थे।
जब बसरे की फिजा बिगड़ने लगी तो ज़ियाद ने अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) को तमाम हालात व वाक़िआत से आगाह किया। आपने कूफे के बनी तमीम को बसरे की मुहिम पर आमादा करना चाहा मगर उन्होंने खामोशी इख़्तेयार की और कोई जवाब न दिया।
हज़रत अली (अ.स.) ने जब उनकी इस कमज़ोरी और पस्त हिम्मती महसूस की तो आपने एक मजमे में उन्हें मुखातिब करते हुए फ़रमाया कि पैग़म्बर (स.अ.) के ज़माने में हम यह नहीं देखते थे कि हमारे हाथों से क़त्ल होने वाले हमारे ही भाई और अज़ीज़ होते हैं बल्कि जो हक़ से टकराता था हम उससे टक्कर लेने के लिए तैयार हो जाते थे। अगर तुम्हारी तरह हम भी गफलत व बेअमली की राह पर चलते तो न दीन की बुनियादें मज़बूत होतीं और न इस्लाम परवान चढ़ता।
अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की इस तक़रीर के नतीजे में ऐन बिन सबिया तैयार हुए मगर वह बसरे पहुंच कर दुश्मन की तलवार से शहीद हो गए। फिर हजरत अली (अ.स.) ने जारिया बिन कुदामा को पचास अफ़राद के हमराह बनी तमीम के पास रवाना किया। उन्होंने अपने क़बीले को समझाने बुझाने की सर तोड़ कोशिशें कीं मगर वह लोग राहे रास्त पर आने के बजाए गालम गलौज पर और हाथापाई पर उतर आये। यह सूरते हाल देखकर जारिया ने ज़ियाद और बनी अज़द को अपनी मदद के लिए पुकारा। उन लोगों के पहुंचते ही इब्ने आमिर अपनी जमाअत लेकर निकल आया। कुछ देर तक फरीकैन के दरमियान तलवारें चलती रहीं बिलआख़िर इब्ने आमिर शिकस्त खाकर सत्तर आदमियों समेत भागकर उसने सबील सअदी के घर में पनाह ली। जारिया ने सबील के घर को चारों तरफ से घेर लिया और उसमें आग लगवा दी। जब शोले बुलन्द होने लगे तो इब्ने आमिर और उसके साथी सरा सीमा होकर अपनी जानें बचाने के लिए हाथ पैर मारने लगे मगर फरार में कामयाब न हो सके। कुछ जलकर खाक हो गए, कुछ दीवार के नीचे दब कर मर गए और कुछ क़त्ल कर दिए गए।
मुआविया का यह इक़दाम सीनाजोरी अम्न दुश्मनी और हवसे मुल्कगीरी का नतीजा था जिसका ख़ामियाज़ा उसे बदतरीन शिकस्त की सूरत में भुगतना पड़ा और जिस क़बीलए बनी अज़द पर उसे इत्मेनान व भरोसा था वही कबीला ज़ियाद की पनाहगाह और जारिया का कूव्वते बाज़ू साबित हुआ और आख़िकार दुश्मन को इस तरह कुचला कि सफ़हए हस्ती पर उसका नाम व निशान तक न छोड़ा।
मुआविया का यह इक़दाम बे-सोचे समझे या वक़्ती इश्तेआल अंगेज़ियों के ज़ेरे असर न था बल्कि सोच बिचार और सलाह व मशविरे के बाद अमल में लाया गया था।
मुआविया के जारहाना हमले
बसरे की शिकस्त व हज़ीमत के बाद मुआविया को इस अम्र का अन्दाज़ा हो गया कि इराक़ के शहरों पर हमला करके कामयाबी हासिल करना मुश्किल है। चुनांचे उसने सरहदी कब्ज़ों और फौजी कैम्पों पर क़त्ल व ग़ारतगरी का सिलसिला शुरू कर दिया और देखते ही देखते शादाब व खुशहाल बस्तियां वीरानियों में बदल गयीं और हर तरफ बेगुनाहों के ख़ून का एक सैलाब उठ खड़ा हुआ।
इन तबाहकारियों का मकसद यह था कि हज़रत अली (अ.स.) के हुदूदे सल्तनत में इन्तेशार व बदअम्नी फैलाकर नज़्म व ज़ब्त के एतबार से उसे कमज़ोर से कमज़ोर तर कर दिया जाए और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को उन्हीं शोरिशों और हंगामों में उलझाए रखा जाए ताकि वह किसी वक़्त अपनी बिखरी हुई कूव्वत व ताकत को समेट कर उसके मुकाबले में खड़े न हो सकें।
चुनांचे सन् 38 हिजरी में मुआविया ने नोअमान बिन बशीर को दो हज़ार की जमीयत के साथ ऐनुल तमर पर हमला करने की ग़रज़ से भेजा। यहां हज़रत अली (अ.स.) का एक असलहा खाना भा था जिसके निगरां मालिक बिन कअब अरजी थे। जब उन्हें नोअमान की पेश क़दमों का पता चला तो उन्होंने अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को सूरते हाल से मुत्तेला करते हुए उनसे फ़ौजी कुमक भेजने की दरख्वास्त की। मालिक की इस दरखास्त पर अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) एक हज़ार का लश्कर अदी बिन हातिम की सरकर्दगी में ऐनुल तमर की तरफ रवाना ही करने वाले थे कि मालिक बिन कअब का पैगाम आया कि हमने दुश्मनों को अपनी सरहद से निकाल दिया है लिहाजा अब कुमक की ज़रूरत नहीं है। हुआ यह कि मालिक ने इस ख़्याल से कि कहीं अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से मदद पहुंचने में ताख़ीर न हो जाए अब्दुल्लाह बिन हवज़ा अज़दी को कुरजा बिन कअब और मख़नफ़ बिन सलीम के पास भेजकर उनसे मदद तलब की जिस पर मख़नफ ने अपने बेटे अब्दुर्रहमान की कयादत में पचास आदमियों का एक मुख़्तसर सा दस्ता भेज दिया। जब अस्र के वक़्त यह दस्ता ऐनुल तमर के क़रीब पहुंचा तो देखा कि मालिक और उनके साथी दीवार से टेक लगाये खड़े हैं और तलवारों की न्यामें तोड़कर मरने मारने पर आमादा हैं।
नोअमान बिन बशीर ने जब इस दस्ते को देखा तो यह समझा कि यह मुकद्दमतुल जैश है और उसके अक़ब में फौज आ रही है। उसने वापसी के इरादे से फौरन रूख मोड़ा और भाग खड़ा हुआ। मालिक ने पीछा किया और उसके तीन सौ आदमियों को मौत के घाट उतार दिया।
इसी सन् 38 हिजरी में मुआविया ने सुफियान बिन औफ गामदी को छः हज़ार के लश्कर के साथ अन्बार और मदाएन पर हमला करने की ग़रज़ से भेजा और उसे ये ताकीद भी कर दी कि वह हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) के फौजी ठिकानों को ख़ास तौर से निशाना बनाए और उन्हें तबाह व बर्बाद कर दे। सुफ़ियान ने हस्बे हिदायत मुआविया पहले हीत अन्बार का रूख किया। हीत के आमिल कुमैल बिन ज़ियाद नखई थे। वह यह सुनकर करकीसिया में कुछ शामी जमा हो गए हैं जो हीत पर हमला करना चाहते है, शहर को खाली छोड़कर उनके तअक्कुब में जा चुके थे हालांकि अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की तरफ से उन्हें यह इजाज़त न थी कि वह अपना मरकज़ छोड़कर इधर उधर हों। इसका नतीजा यह हुआ कि सुफियान का लश्कर बिला मज़ाहेमत हीत से गुज़र कर अन्बार की तरफ बढ़ा। यहां पांच सौ आदमियों का एक दस्ता शहर की हिफाज़त पर मामूर रहता था मगर इत्तेफ़ाक़ से उस वक्त सिर्फ दो सौ ही आदमीं थे बाक़ी इधर उधर जा चुके थे। सुफियान ने वहां के नौजवानों को पकड़ कर उनसे फ़ौज की तादाद मालूम कर ली और अपने लश्कर को लेकर आगे बढाया। इधर से अशरिस बिन हसान जो फौजी दस्ते के अफ़सर आला थे अपने गिने चुने साथियों को लेकर मैदान में निकल आए और लड़ते हुए अपने साथियों के साथ शहीद हो गए। अब शामियों को रोकने वाला कोई न था। चुनांचे उन्होंने एक एक घर को लूटा, औरतों के जेवरात उतरवाए और जो कुछ हाथ आया वह समेट कर चलते बने।
इसी साल मुआविया ने अब्दुल्लाह बिन मसअदा फ़ज़ारी को एक हज़ार सात सौ आदमियों के साथ तैमा की तरफ रवाना का और उसे हुक्म दिया कि वह मक्के और मदीने तक बढ़ता चला जाए चुनांचे वह रवाना हुआ और उसके कौम व कबीले के लोग भी उसके परचम तले जमा हो गए। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को जब मालूम हुआ तो आपने मुसय्यब बिन नजीया फ़ज़ारी को दो हज़ार के लश्कर पर मामूर करके उसके मुकाबले को भेजा। जब मुआविया की फ़ौज लूट मार और क़त्ल व गारतगरी करती हुई तैमा के मक़ाम पर पहुंची तो उधर से अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) का लश्कर भी पहुंच गया। दोनों से सुबह ने एक दूसरे को देखकर तलवारें सूंत लीं ओर जंग छिड़ गई जो वक्ते जोहर तक जारी रही। मुसय्यब ने इब्ने मसअदा पर जो उसी का हम क़बीला था तलवार का वार करते हुए चुपके से कहा कि भाग कर अपनी जान बचा ले। चुनांचे फ़ौज का एक दस्ता लेकर वह एक किले में महसूर हो गया और बक़िया लश्कर शाम की तरफ भाग खड़ा हुआ। जब इब्ने मसअदा को क़िला बन्द हुए तीन दिन गुज़र गए तो किले को आग लगा देने की तजवीज़ हुई चुनांचे दरवाजे पर लकड़ियां जमा करके आग लगा दी गयी। इब्ने मसअदा ने जब यह हाल देखा तो उसने मुसय्यब से कहा कि क्या तुम अपने कौम व कबीले के लोगों को जला दोगे? उस पर मुसय्यब नें आग बुझाने का हुक्म दे दिया चुनांचे आग बुझा दी गयी। उसके बाद उसने अपने साथियों से कहा कि मुझे जासूसों ने ख़बर दी है कि शाम का एक लश्कर हमारी तरफ बढ़ रहा है। उस पर सब लोग एक जगह सिमट गए इब्ने मसअदा ने इस मौके से फायदा उठाया और अपने लश्कर समेत शाम की तरफ निकल भागा। जब इब्ने मसअदा के फ़रार का हाल लश्करियों को मालूम हुआ तो अब्दुर्रहमान बिन शबीब ने मुसय्यब से कहा कि तुमने अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के ख़िलाफ़ दुश्मन से साज़ बाज़ कर रखी है और तुम्हारा रवय्या सरासर मुनाफिकाना है।
इसी साल मुआविया ने ज़हाक बिन कैस फहरी को चार हज़ार के हमराह हीरा की तरफ़ भेजा और उसे हुक्म दिया कि इन बादिया नशीन अरबों को क़त्ल करें जो हज़रत अली (अ.स.) की इताअत कुबूल कर चुके हों। चुनांचे वह आबादियों को रौंदता और बस्तियों को वीरान व बर्बाद करता हुआ सालबिया तक पहुंच गया और हाजियों के एक काफिले पर हमला करके उनका सारा माल व असबाब लूट लिया। फिर वाक़िस और शराफ़ की तरफ़ होता हुआ क़तकताना की तरफ बढ़ा और यहां अम्र बिन उमैस बिन मसूद और उनके साथियों को उसने क़त्ल कर दिया।
जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को इत्तेला हुई तो आपने चार हज़ार का एक लश्कर हुज्र बिन अदी की क़यादत में उसकी सरकूबी के लिए रवाना किया। तदमिर के क़रीब दोनों लश्करों में मुढभेड़ हुई। जहाक के 16 आदमीं और हुज्र के दो आदमीं मारे गए और जब रात का अन्धेरा छाया तो ज़हाक अपना लश्कर लेकर भाग निकला और हुज्र बिन अदी कूफ़ा वापस आ गए।
इसी साल मुआविया की तरफ से यज़ीद बिन शजरा हादी अय्यामे हज में मक्के आया ताकि इमारते हज के फ़राएज़ अंजाम दे और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के मुकर्रर कर्दा आमिल को वहां से निकाल कर मुआविया के लिए लोगों से बैअत ले। जब आमिले मक्का क़सम बिन अब्बास को यज़ीद बिन शजरा तीन हज़ार सवारों पर मुश्तामिल उसके लश्कर की आमद का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने अहले मक्का को यज़ीद के मुकाबिले पर हमवार करना चाहा मगर उनकी आवाज़ सदा ब-सहरा साबित हुई कोई शख़्स लब्बैक कहने के लिए आगे न बढ़ा।
जब क़सम बिन अब्बास ने साकनाने मक्का को तआवुन से पहलू तही करते देखा तो उन्होंने इरादा किया कि मक्के से बाहर निकल कर किसी घाटी में पनाह ले लें और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से फौजी कुमक तलब करें। लेकिन अबु सईद खुदरी ने मक्का छोड़ने की मुख़ालिफ़त की और कहा कि जो सूरते हाल होगी उससे निपटा जाएगा। कसम उस पर रजामन्द हो गए और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को मदद के लिए तहरीर किया।
यज़ीद बिन शजरा “यौमे तरविया” से दो दिन पहले मक्के पहुंच गया था। उसने अबु सईद ख़ुदरी को बुला कर कहा कि क़सम बिन अब्बास से कहिए कि वह हज व नमाज़ की इमामत से अलग हो जाएं और मैं भी अलग हो जाता हूं। लोगों को यह इख़्तेयार दे दिया जाए कि वह जिसे चाहें मुन्तख़ब कर लें। क़सम बिन अब्बास अपनी कमज़ोरी और दुश्मन की कूव्वत व ताक़त को देखते हुए मसलहतन रजामन्द हो गए और लोगों ने इमामते नमाज़ व इमारते हज के लिए शैबा बिन उस्मान को मुन्तख़ब कर लिया। जब हज तमाम हो गया तो इब्ने शजरा शाम की तरफ चल दिया। इसी अस्ना में अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) का भेजा हुआ लश्कर मअक़िल बिन कैस की क़यादत के साथ वारिदे मक्का हुआ और जब उसे शामियों के निकल जाने का हाल मालूम हुआ तो लश्करियों ने तअक्कुब किया और यज़ीद बिन शजरा के चन्द आदमियों को असीर कर लिया। उसके बाद कूफ़े वापस पलट आए।
इसी साल मुआविया ने अब्दुर्रहमान क़बास को जज़ीरए बिलाद पर चढ़ाई के लिए भेजा। जब जज़ीरा के आमिल शबीब बिन आमिर को ख़बर हुई तो उन्होंने कुमैल बिन ज़ियाद को जो हीत के वाली थे, दुश्मन के हमलावर होने की ख़बर दी। कुमैल छः सौ सवारों का एक दस्ता लेकर चल पड़े़ और जब अतराफे जज़ीरा में पहुंचे तो दुश्मन की सिपाह से मुढभेड़ हो गयी। कुमैल ने शामियों की एक अच्छी खासी तादाद को मौत के घाट उतार दिया। आख़िरकार अब्दुर्रहमान बिन क़बात अपने बचे खुचे हमराहियों को लेकर भाग निकला।
इसी साल मुआविया ने बुस्र बिन अरतात को जो इन्तेहाई ज़ालिम व सफ़्फ़ाक और दरिन्दा सिफत इन्सान था, हिजाज़ की तरफ रवाना किया जिसने हिजाज़ से लेकर यमन तक हज़ारों बेगुनाह को तहे तेग कर दिया। कबीलों के कबीले ज़िन्दा आग में जलवा दिए और छोटे छोटे बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को जब इसकी सफ़्फ़ाकियों और खूंरेज़ियों का इल्म हुआ तो आपने उसकी सरकूबी के लिए लश्कर रवाना करना चाहा मगर बाहम जंगों की वजह से लोग जी छोड़ बैठे थे और सरगर्मी के बजाए उनमें बददिली पैदा हो चुकी थी। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने उन्हें ग़ैरत दिलाकर जंग पर आमादा करने की कोशिश भी की मगर लोग तैयार न हुए। आख़िरकार जारिया बिन क़ुदामा ने आपकी आवाज़ पर लब्बैक कही और दो हज़ार के लश्कर के साथ बुस्र बिन इरतात के तअक्कुब में रवाना हुए और उसका पीछा करके उसे अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के हुदूदे सल्तनत से बाहर निकाल दिया।
इन वाक़िआत से दो बातों का पता चलता है। अव्वल यह कि कूफ़े में जहां अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के मुख़़िलस शिया और जांनिसार थे वहां ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो ख़ारिजी ज़हनियत के हामिल थे। यह लोग फ़ितना व इन्तेशार पैदा करके हुकूमत को कमज़ोर बनाने की फिक्र में लगे रहते थे। एक तरफ उनकी दो रूखी और बेराह रवी दाख़िली इन्तेशार की सूरत इख़्तेयार किए हुए थी और दूसरी तरफ शामियों के जारेहाना हमले अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लिए मुस्तकिल परेशानी व दर्दे सरी का सबब बने हुए थे। इस दो तरफा इन्तेशार और हंगामें आराईयों के दरमियान आपने जिस हद तक हालात पर काबू रखा वह आपकी आला सियासत और गैर मामूली इन्तेज़ामी सलाहियत का वाज़ेह सुबूत है।
दूसरे यह कि मुआविया की तरफ से किए गए यह जारेहाना हमले उसकी बगावत व सरकशी का नतीजा थे। बागी के जुल्म के ख़िलाफ़ तलवार उठाना किसी तरह आईन अमन पसन्दी व सुलह जोई के ख़िलाफ़ नहीं समझा जा सकता बल्कि यह मज़लूम का फ़ितरी व कुदरती हक़ है और अगर इस हक़ से लोगों को महरूम कर दिया जाए तो दुनिया में ज़ुल्म व इस्तेबदाद की रोक थाम और इन्सानी हुकूक के तहफ्फुज की कोई सूरत ही बाकी न रहे। इसीलिए कुदरत ने बाग़ी के ख़िलाफ़ तलवार उठाने की इजाजत दी है कि “इनमें से अगर एक जमाअत दूसरी जमाअत पर ज़ुल्म व ज़्यादती करे तो तुम उस जुल्म व ज़्यादती करने वाली जमाअत से लड़ो। यहां तक कि वह हुक्मे ख़ुदा की तरफ पलट आये।”
शहादत
सन् 40 हिजरी में जंगे नहरवान के बाकी मान्दा ख़्वारिज मक्के में जमा हुए। उन्होंने नहरवान के कुश्तों पर अपने तअस्सुरात ज़ाहिर करते हुए कहा कि हमारे भाईयों के ख़ून की जिम्मेदारी अली (अ.स.), मुआविया और अम्रे आस पर आयद होती है लिहाज़ा उन तीनों को क़त्ल करके अपने मकतूलीन का इन्तेक़ाम लिया जाए। सबने इस पर इत्तेफ़ाक़ किया और बर्क़ बिन अब्दुल्लाह ने मुआविया को, अम्र बिन बक्र तमीमी ने अम्र आस को और अब्दुर्रहमान बिन मुल्जिम ने हज़रत अली (अ.स.) को क़त्ल करने का बीड़ा उठाया। और यह तय किया कि एक ही दिन और एक ही वक़्त में हमला होना चाहिए ताकि उनसे एक को दूसरे के बारे में ख़बर न हो। चुनांचे दिन और वक़्त की ताईन के बाद बर्क़ बिन अब्दुल्लाह दमिश्क की तरफ, अम्र बिन बक्र मिस्र की तरफ और इब्ने मुल्जिम कूफ़े की तरफ चल दिया।
इस ख़तरनाक काम के लिए माहे रमज़ान की उन्नीसवीं शब और नमाज़े सुबह का वक़्त मुकर्रर किया गया था। चुनांचे मुकर्ररा तारीख़ पर बर्क़ बिन अब्दुल्लाह दमिश्क आया और जब जामा मस्जिद में सुबह की जमाअत खड़ी हुई तो वह भी पहली सफ़ में मुआविया के अक़ब में खड़ा हो गया। मुआविया जब रूकू के लिए झुका तो उसने तलवार का वार किया जो उसके अक़बी हिस्से पर पड़ा। घाव चूंकि मामूली था इसलिए चन्द दिनों में भर गया और हमलावर गिरफ़्तार कर लिया गया। अम्र बिन बक्र मिस्र में आकर ठहरा ताकि वक़्त मुकर्ररा पर वह अम्रे आस का क़त्ल करे मगर इत्तेफाक ऐसा हुआ कि अम्र आस दर्दे कौलंज में मुबतिला हो गया और उसने अपनी जगह ख़ारिजा बिन हजाफ़ा सहमी को नमाज़ पढ़ाने के लिए भेज दिया। अम्र बिन बक्र अन्धेरे में उसे पहचान न सका और उसने अम्रे आस समझ कर ख़ारिजा को क़त्ल कर दिया। उसे पकड़ कर लोग अम्रे आस के पास लाए। अम्रे आस ने खारिजा के ख़ून के बदले उसे क़त्ल कर दिया।
अब्दुर्रहमान बिन मुल्जिम आख़िर माहे शाबान में कूफे आया और बनी किन्दा में ख़्वारिज के यहां ठहरा मगर उसने अपने इरादे को पोशीदा रखा। इसी अस्ना में उसकी मुलाक़ात एक ख़ारजिया औरत क़ुत्ताम बिन्ते अखज़र तमीमी से हुई। देखते ही वह उस पर फ़रेफता हो गया और जब उसे मालूम हुआ कि वह बे-शौहर के है तो उससे निकाह की ख़्वाहिश की। क़ुत्ताम का बाप और एक भाई जंगे नहरवान में मारा गया था। चुनांचे वह हज़रत अली (अ.स.) से इन्तेक़ाम लेना चाहती थी मगर कामयाबी की कोई सूरत नज़र न आती थी। इब्ने मुल्जिम की इस ख़्वास्तगारी से उसके दिल में इन्तेक़ाम की दबी हुई चिंगारी फिर भड़क उठी। उसने कहा मैं तुम्हारे साथ निकाह पर राज़ी हूं मगर मेरा महेर तीन हज़ार दिरहम, एक गुलाम, एक कनीज़ और हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) का क़त्ल है। इब्ने मुल्जिम हज़रत अली (अ.स.) के क़त्ल का इरादा करके आया ही था मगर बज़ाहिर उसने हैरत व इस्तेजाब आमेज़ लहजे में कहा, अली (अ.स.) को क़त्ल करना आसान काम नहीं है। क़ुत्ताम ने कहा तुम अचानक हमला करके उनका काम तमाम कर सकते हो। इब्ने मुल्जिम ने जब देखा कि क़ुत्ताम उसके ख़्यालात व नज़रियात से पूरी तरह हम आहंग है तो उसने अपना राज़ ज़ाहिर कर दिया और कहा कि मैं इसी इरादे से यहां आया हूं। क़ुत्ताम ने कहा, फिर हिम्मत व जुराएत से काम लो मैं भी अपने क़बीले के काबिले एतमाद लोगों से कहूंगी कि वह इस काम में तुम्हारी मदद करें। चुनांचे उसने विरदान बिन मजालिद को उसकी मदद पर आमादा किया और इब्ने मुल्जिम ने शबीब बिन बुहैरा अशजई को अपना मुआविन और अशअस बिन कैस को अपना हमराज़ बना लिया और हमले के दिन और वक़्त का इन्तेज़ार करने लगा।
अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) इस माहे रमजान में बारी बारी अपनी औलाद और अब्दुल्लाह बिन जाफ़र के यहां रोजा इफ्तार फ़रमाते, गिजा बहुत कम हो चुकी थी। पूछा जाता तो आप फ़रमाते कि मैं चाहता हूं कि जब मैं दुनिया से उठूं तो खाली पेट उठूँ।
उन्नीसवीं शब को अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) अपनी दुख़्तर उम्मे कुलसूम के यहां तशरीफ़ फ़रमां थे। उन्होंने जौ की दो रोटियां एक प्याला दूध और नमक आपकी खि़दमत में पेश किया। आपने खाने को देखा तो फ़रमायाः मैंने कभी गवारा नहीं किया कि दस्तरख़्वान पर बःयक वक़्त दो चीजें हों। चुनांचे आपने दूध का प्याला हटा दिया और नमक के साथ चन्द लुक्में तनावुल फ़रमां लिए।
खाने से फारिग होकर हस्बे मामूल इबादत में मशगूल हो गए मगर बार-बार सहन में आते, आसमान पर नज़र करते और फ़रमाते, ख़ुदा की कसम यही वह रात है जिसका मुझसे वादा किया गया है।
आपकर्ब व इज़्तेराब की हालत में सूरए यासीन की तिलावत फ़रमाते कभी इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैहे राजेऊन कहते और कभी फ़रमाते कि परवरदिगार ! मेरी मौत को बा-बरकत करार दे। उम्मे कुलसूम ने यह कैफियत देखी तो कहा बाबा! आज आप इतने परेशान हाल क्यो हैं? फ़रमाया ! बेटी आखि़रत की मंज़िल दरपेश है। उम्मे कुलसूम की आंखों में आंसू आ गए। कहा बाबा जान! आज आप मस्जिद में तशरीफ़ न ले जाएं। जोदा बिन हबीरा मौजूद हैं, उन्हें हुक्म दीजिए कि वह नमाज़ पढ़ा दें। फ़रमाया, कज़ाए इलाही से बचने की कोई सूरत नहीं है
अभी कुछ रात बाकी थी इब्ने सिबाज मोअजि़्ज़न ने हाज़िर होकर नमाज़ के लिए अर्ज़ किया। अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) उठ खड़े हुए और जब सहने खाना में आए तो घर में पली हुई बत्तखों ने चीखते चिल्लाते हुए अपनी मिन्क़ारों ने आपका दामन थाम लिया। इमाम हसन (अ.स.) ने जब उन्हें हटाना चाहा तो आपने फ़रमाया, इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो, मुम्किन है कुछ देर के बाद शेवनों व मातम की आवाजें बुलन्द हों। फिर आपने उम्मे कुलसूम से फ़रमायाः कि बेटी यह बेज़बान जानवर हैं, इनके आब व दाने का ख़्याल रखना। जब आप दरवाज़े के करीब पहुंचे तो पटका कमर में कस कर बांधा और दो शेर पढ़े जिनका मफहूम यह है किः
“मौत के लिए कमर कस लो इसलिए कि मौत आने वाली है। जब मौत तुम्हारे सामने हो तो बेताबी का मुज़ाहिरा न करो।”
उसके बाद आप मस्जिद में तशरीफ लाए। चन्द रकअतें नमाज़ की पढ़ीं और ताक़ीबात से फारिग हुए तो खूंरेज़ सहर नमूदार हो चुकी थी। गुलदस्त-ए-अज़ान पर खड़े होकर आपने अज़ान दी। यह आपकी आख़िरी अज़ान थी जो मस्जिद से बुलन्द हुई और कूफ़े के हर घर में सुनी गई। अज़ान के बाद आप मस्जिद में सोए हुए लोगों को बेदार करने लगे, उन्हीं में इब्ने मुल्जिम भी था जो औंधा पड़ा सो रहा था। आपने फ़रमाया कि यह शैतान का तरीका है दाहिनी करवट सोना चाहिए जो मोमिन का शेआर है या बायें करवट सोना चाहिए जो हुकमा का अन्दाज़ है या पीठ के भल सोना चाहिए जो अन्बिया का तर्जे अमल है। लोगों को बेदार करने के बाद आप मेहराबे इबादत में खड़े हो गए और जब नाफिलए सुबह की पहली रकअत के सजदे से सर उठाया तो शबीब बिन बुहैरा ने आप पर तलवार से हमला किया मगर तलवार सतून मस्जिद से टकराई फिर इब्ने मुल्जिम ने ज़हर में बुझी हुई तलवार सर पर मारी जिससे आपका सरे मुबारक शिगाफ़्ता हो गया। आपने फ़रमाया “काबे के रब की कसम, मैं कामयाब हो गया।
आसमान कांपा, ज़मीन लरज़ी, मस्जिद के दरवाजे आपस में टकराए और ज़मीन व आसमान के दरमियान मुनादी ने यह निदा दी कि आज रुक्ने हिदायत मुन्हदिम हो गया, अली-ए-मुर्तुजा (अ.स.) क़त्ल कर दिए गए और वसी-ए-पैग़म्बर (स.अ.) शहीद कर दिए गए। इस आवाज़ ने कूफ़े की आबादी को लरर्जा बर अन्दाम कर दिया, तमाम शहर कांप उठा और लोग जूक दर जूक घरों से बाहर निकल पड़े।
इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) सरासीमा व परेशान हाल मस्जिद की तरफ दौड़े जहां लोग फूट फूट कर रो रहे थे। रसूल (स.अ.) के नवासों ने आगे बढ़कर देखा कि मेहराबे मस्जिद ख़ून से तर है और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) खाक व खून में ग़लतां फर्शे मस्जिद से मिटटी उठा उठा कर सर के ज़ख्म पर डाल रहे हैं। आपको मेहराबे इबादत से सहन में लाया गया। इमाम हसन (अ.स.) ने कातिल के बारे में पूछा तो फ़रमाया कि मुझे इब्ने मुल्जिम ने क़त्ल किया है। इतने में बाबे किन्दा की तरफ से एक शोर बुलन्द हुआ और इब्ने मुल्जिम गिरफ्तार करके लाया गया। मजमा ग़म व गुस्से से बेकाबू हो रहा था, आंखों से ग़ैज़ व ग़ज़ब की चिंगारियां निकल रहीं थीं और हर शख्स उस पर लअनत व मलामत कर रहा था। जब उसे इमाम हसन (अ.स.) के सामने लाया गया तो आपने फ़रमाया, बदबख़्त तूने अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को क़त्ल कर दिया, क्या यह उन एहसानात का बदला था जो उन्होंने हमेशा तुम पर किए हैं? इब्ने मुल्जिम सर झुकाए खामोश खड़ा रहा और उसने किसी बात का जवाब न दिया।
अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने गशी से आंखें खोल कर उसे देखा और फ़रमाया कि ऐ इब्ने मुल्जिम ! क्या मैं तेरा अच्छा इमाम न था? क्या मेरे एहसानात भुला दिए जाने के काबिल थे? इस पर इब्ने मुल्जिम ने कहा, मैं अपने लिए दोज़ख का सामान कर चुका हूं फिर भी मुझे कोई पशेमानी नहीं है। उसके बाद आपने इमाम हसन (अ.स.) की तरफ रूख किया और फ़रमाया कि ऐ फरजन्द! अगर मैं जिन्दा बच गया तो मुझे इख़्तेयार होगा कि मैं उसे सजा दूं या माफ करूं और इस ज़रबत के नतीजे में चल बसा तो तुम क़सास लेना और ज़रबत के बदले एक ही ज़रबत लगाना और जब क़त्ल हो जाए तो इसके हाथ पैर न काटना।
उसके बाद लोग हाथों पर उठाकर घर में लाए जहां एक कोहराम बरपा था। इमाम हसन (अ.स.) ने दूध का एक प्याला आपकी ख़िदमत में पेश किया। आपने कुछ पिया और फ़रमाया कि इब्ने मुल्जिम को भी दूध का शरबत दो। इस अर्से में शहर भर के तबीब जमा हो गए थे। उनमें माहिर जर्राह असीर बिन अम्र सकूनी भी था उसने ज़ख़्म का जाएजा लेने के बाद कहा कि अब जांबर होने की कोई सूरत नहीं है क्योंकि ज़हर आलूद तलवार से मग़ज़े सर भी मुतअस्सिर हुआ है और जिस्म में भी ज़हर फैल चुका है।
उन्नीसवीं और बीसवीं की रात इन्तेहाई कर्ब व इज़्तेराब के आलम में गुज़री और जब बीसवीं माहे रमज़ान की रात का दो तिहाई हिस्सा गुज़र चुका तो आपकी हालत दीगर गों हो गयी, पेशानी पर मौत का पसीना आया, आपने कलम-ए-शहादत ज़बान पर जारी किया और रूहे अतहर आलम कुदस की तरफ परवाज़ कर गयी, तकवा व रास्तबाज़ी का चिराग गुल हो गया, इल्म व अमल के आफ़ताब को गहन लग गया और दुनिया तीरा व तार हो गयी।
इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) ने गुस्ल दिया, इस तरह कि इमाम हुसैन पानी डाल रहे थे और इमाम हसन गुस्ल दे रहे थे। एक रिवायत में है कि मुहम्मदे हनफ़िया पानी डाल रहे थे और हसनैन (अ.स.) गुस्ल देते जाते थे। गुस्ल के बाद उस काफूर से जो पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) के गुस्ल बच गया था हुनूत किया गया, सफेद पारचों का कफ़न पहनाया गया और अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की वसीयत के मुताबिक़ फ़रज़न्दाने अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) रात में जनाज़ा लेकर दफ़न के लिए कूफ़े के ग़रबी सिमत हीरा की तरफ चल पड़े। जब सरज़मीने नजफ़ पर पहुंचे तो जनाज़ा ज़मीन पर रख दिया। इमाम हसन (अ.स.) ने नमाज़ जनाज़ा ब-जमाअत अदा की उसके बाद सफेद पहाड़ों के दरमियान एक मुक़ाम से मिटटी हटाई तो क़ब्र तैयार मिली। हसनैन (अ.स.), मुहम्मद हनफिया और अब्दुल्लाह बिन जाफ़र कब्र में उतरे और नअशे अकदस को सुपुर्दे खाक करके वहां की ज़मीन बराबर कर दी। वक्ते शहादत अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की उम्र 63 साल की थी।
क़ातिलों का अंजाम
अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) के क़त्ल में चार अफ़राद अब्दुर्रहमान बिन मुल्जिम, क़ुत्ताम बिन्ते अखजर, शबीब बिन बुहैरा और वरदान बिन मजालिद शरीक थे। हादस-ए-क़त्ल के बाद जब मस्जिद में शोर बुलन्द हुआ और लोग मेहराब की तरफ बढ़े तो वरदान भाग कर अपने घर आ गया था। उसके एक अज़ीज़ को जब यह मालूम हुआ कि क़त्ल में यह भी शरीक था उसने तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। इब्ने मुल्जिम को अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के सुपुर्द लहद किए जाने तक हिरासत में रखा गया। जब इमाम हसन (अ.स.) दफ़्न से फारिग होकर आए तो उसे तलब किया और उसके क़त्ल का हुक्म दिया। चुनांचे एक ही ज़रबत में वह अपने कैफ़रे किरदार को पहुंच गया। हशीम बिन्ते असूद नख़ीया ने कहा कि इसकी लाश मेरे हवाले कर दी जाए चुनांचे उसकी लाश उसे दे दी गई और उसने आग रौशन करके उसे जला दिया। उसके बाद बिफरे हुए हुजूम ने कुत्ताम के घर की तरफ़ रूख किया और उसे टुकड़े टुकड़े करके नज़रे आतिश कर दिया और सारा माल व असबाब लूट लिया।
शबीब बिन बुहैरा लोगों की भीड़ में शामिल होकर किसी तरह बच निकला था। जब मुआविया बरसरे इक़तेदार आने के बाद कूफ़े आया तो शबीब उसके पास आया और तक़र्रुब हासिल करने के लिए कहा कि मैं अली (अ.स.) को क़त्ल करने में इब्ने मुल्जिम का शरीके कार था। मुआविया ने जब यह सुना तो घबराकर उठ खड़ा हुआ और उसके कबीले वालों को यह पैग़ाम भिजवा दिया कि अगर मैंने शबीब को फिर यहां देखा तो किसी को जिन्दा नहीं छोडूंगा लिहाज़ा इसे कूफ़े से बाहर निकाल दो। ग़रज़ कि वह रात के अंधेरे में कूफ़े से निकल गया और जब मुग़ैरा कूफ़े का हाकिम हुआ तो उसके लश्कर के मुकाबले में अपने साथियों समेत मारा गया।
अज़वाज व औलादें
आपने मासूम-ए-कौनैन हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की हयात में कोई अक़्द नहीं किया उसके बाद आपने नौ औरतों से अक़्द फ़रमाया और वक्ते शहादत आपकी चार बीवियां इमामा, लैला, असमा और उम्मुल बनीन मौजूद थीं। आपने दस बेटे और अटठ्ारह बेटियां छोड़ीं। लेकिन आपकी नस्ल पांच बेटों इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ.स.), मुहम्मद हनफिया, हज़रत अब्बास (अ.स.) और उमर बिन अली से बढ़ी और फूली फली।
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हज़रत इमाम हसन (अ.स.)
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तअर्रुफ़
हज़रत इमाम हसन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) और मोहसिने इस्लाम हज़रत खदीजतुल कुबरा (स.अ.) के नवासे, अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) व सय्यदतुन निसा हज़रत फ़ातिमा (स.अ.) के फ़रज़न्द और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.), जनाबे जैनब (स.अ.) व उम्मे कुलसूम (स.अ.) के हकीकी बड़े भाई थे। आप 15 रमज़ान सन् 3 हिजरी की शब में ब-मक़ाम मदीना-ए-मुनव्वरा मुतवल्लिद हुए और आपको भी खुदावन्दे आलम ने मासूम, मनसूस, अफ़ज़ले काएनात और आलिमे इल्मे लदुन्नी करार दिया।
विलादत के बाद आपका इस्मे गिरामी हमज़ा तजवीज़ हो रहा था लेकिन बहुक्मे खुदा पैग़म्बरे इस्लाम ने मूसा (अ.स.) के वज़ीर हारून (अ.स.) के फरज़न्दों (शब्बरो शब्बीर) के नाम पर आपका नाम हसन (अ.स.) और बाद में आपके भाई का नाम हुसैन (अ.स.) रखा।
माहिरे इल्मुल नसब अल्लामा अबुल हुसैन (अ.स.) का कहना है कि परवरदिगारे आलम ने फ़ातिमा (स.अ.) के दोनों शहज़ादों का नाम अहले आलम की निगाहों से पोशीदा रखा था। यानी उनसे पहले पूरी काएनात में हसन और हुसैन के नाम से कोई मौसूम नहीं हुआ था। आलामुल वरा की रिवायत के मुताबिक़ मुहम्मद (स.अ.) और अली (अ.स.) के नामों के साथ यह नाम भी लौहे महफूज़ में तहरीर थे। ब-रिवायते बिहारूल अनवार इमाम हसन (अ.स.) की विलादत के बाद जिबरील ने उन्हें एक सफेद पारचे में लपेट कर जिस पर हसन लिखा हुआ था, पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) की ख़िदमत में पेश किया तो रसूले करीम (स.अ.) बेइन्तेहा खुश हुए और उनके दहने मुबारक में अपनी ज़बाने अकदस दे दी जिसे आप चूसने लगे। उसके बाद सरकारे दो आलम (स.अ.) ने आपके दाहिने कान में अज़ान और बाएं कान में इक़ामत कहने के बाद यह दुआ फ़रमाई कि खुदाया ! इस मौलूद और इसकी औलाद को अपनी पनाह में रखना।
विलादत के सातवें दिन पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) ने खुद दस्ते मुबारक से आपका अक़ीक़ा किया और बालों के वज़न के मुताबिक चांदी तसद्दुक की। अल्लामा कमालुद्दीन का बयान है कि अक़ीक़े के मौके पर दुम्बा ज़िबह किया गया। बाज़ मुवर्रिख़ीन ने लिखा है कि आँँहज़रत (स.अ.) ने आपका ख़तना भी कराया लेकिन मेरे नज़दीक यह दुरूस्त नहीं है क्योंकि हर इमाम का मख़तून पैदा होना किताबों से भी साबित है और अक़्ल भी इसे तस्लीम करती है।
कुन्नियत व अलक़ाब
आपकी कुन्नियत अबू मुहम्मद थी। अलक़ाबे कसीरा में सिब्त व सय्य्यद और तय्यब व तक़ी ज़्यादा मशहूर हैं। मुहम्मद बिन तलहा शाफ़ई का कहना है कि आपको सय्य्यद का लकब पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने अता किया था। आशूरा से पता चलता है कि आपका लकब नासेह और अमीन भी था। र्कुआन मजीद ने आपको फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) का दर्जा दिया है और जा-बजा अपने दामन में आपके तज़किरे को जगह दी है।
आप और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.)
महबूबे किरदगार ने बेशुमार अहादीस आपकी फजीलत में इरशाद फ़रमाई हैं। चुनांचे एक हदीस में आपने फ़रमाया कि जो शख़्स हसनैन (अ.स.) को दोस्त रखता है वह मुझे और अली (अ.स.) को दोस्त रखता है और जो मुझे और अली (अ.स.) को दोस्त रखता है वह खुदा को दोस्त रखता है। एक हदीस में आपने फ़रमाया कि हसन (अ.स.) व हुसैन (अ.स.) जवानाने जन्नत के सरदार हैं और उनके वालिदे बुजुर्गवार (हज़रत अली (अ.स.)) उन दोनों से बेहतर हैं।
एक सहाबी का बयान है कि मैंने रसूलुल्लाह (स.अ.) को इस हाल में देखा है कि वह एक कन्धे पर इमाम हसन (अ.स.) और दूसरे कन्धे पर इमाम हुसैन (अ.स.) को बिठाये हुए लिए जा रहे हैं और बारी बारी दोनों साहबज़ादों का मुंह चूमते जाते हैं। एक सहाबी का बयान है कि एक दिन आँँहज़रत (स.अ.) मसरूफे नमाज़ थे कि हसनैन (अ.स.) आपकी पुश्त पर सवार हो गए। किसी ने रोकना चाहा तो हज़रत ने इशारे से मना फ़रमाया। एक सहाबी का कहना है कि उस दिन से मैं इमाम हसन (अ.स.) को बहुत ज़्यादा अज़ीज़ रखने लगा हूं जिस दिन उन्हें पैग़म्बर (स.अ.) की गोद में बैठकर उनकी दाढ़ी से खेलते देखा है। अबु नईम ने अबू बक्र से रिवायत की है कि एक दिन आँँहज़रत (स.अ.) नमाज़े जमाअत पढ़ा रहे थे कि इमाम हसन आ गए और वह दौड़़कर पुश्ते पैग़म्बर (स.अ.) पर सवार हो गए। यह देखकर पैग़म्बर (स.अ.) ने निहायत एहतियात व नर्मी के साथ सजदे से सर उठाया। इमाम निसाई ने अब्दुल्लाह बिन शद्दाद से रिवायत की है कि एक दिन नमाज़े इशा पढ़ाने आँहज़रत (स.अ.) तशरीफ लाए तो आपकी आगोश में इमाम हसन (अ.स.) भी थे। आप नमाज़ में मशगूल हो गए और सजदे को इतना तूल दिया कि मैं समझा, शायद आप पर वही नाज़िल हो रही है। इख़्तेतामे नमाज़ पर जब आपसे इसका ज़िक्र किया गया तो आपने फ़रमाया कि मेरा फ़रज़न्द मेरी पुश्त पर आ गया था। एक सहाबी का बयान है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) एक दिन इमाम हसन (अ.स.) को अपने कांधे पर बैठाए हुए कहीं जा रहे थे कि एक शख़्स ने कहा क्या अच्छी सवारी है, यह सुनकर आपने फ़रमाया यह क्यों नही कहते कि क्या अच्छा सवार है।
बचपन के वाक़िआत
(1) अल्लामा मजलिसी (रह.) रकम तराज़ हैं कि इमाम हसन (अ.स.) कमसिनी के आलम में अपने नाना पर नाजिल होने वाली वही को अपनी वालिदा माजिदा से मिन व अन बयान कर दिया करते थे। एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने भी ख्वाहिश ज़ाहिर की और फ़रमाया, ऐ बिन्ते रसूल (स.अ.)! मेरा दिल भी चाहता है कि मैं हसन (अ.स.) की वही तर्जुमानी करते हुए देखूं और सुनूँ। सैय्यदा आलमिया (स.अ.) ने वक़्त मुकर्रर किया। चुनांचे मुकर्ररा वक़्त से पहले ही अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) बैतुल शरफ़ में तशरीफ़ लाए और एक गोशे में छुपकर बैठ गए। हस्बे मामूल इमाम हसन (अ.स.) घर में दाखिल हुए और मां की गोद में बैठकर वही सुनाने लगे लेकिन चन्द ही लम्हों बाद आप चुप हो गए। मां ने खामोशी की वजह पूछी तो कहने लगे, मादरे गिरामीं ! आज न जाने क्यों ज़बान में लुकनत और बयान में रूकावट पैदा हो रही है, ऐसा लगता है कि बाबा जान मुझे देख रहे हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने जब यह सुना तो दौड़कर इमाम हसन (अ.स.) को गोद में उठा लिया और बेसाख़्ता प्यार करने लगे।
(2) मुहम्मद बिन इस्हाक़ ने रिवायत की है कि एक मर्तबा अबू सुफ़ियान पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) से कोई मुहाहिदा लिखवाने के मामले में हज़रत अली (अ.स.) से सिफारिश का ख़्वास्तगार हुआ। आपने फ़रमाया, यह मुम्किन न होगा। मायूस होकर उसने इमाम हसन (अ.स.) से सिफारिश की ख़्वाहिश की। आप उस वक़्त खेल रहे थे, दौड़कर अबू सुफ़ियान की दाढ़ी पकड़ ली और उसकी नाक मरोड़ते हुए फ़रमाया, कलमए शहादत ज़बान पर जारी करो, तुम्हारे लिए सब कुछ हाज़िर है। यह देखकर अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) बेहद मसरूर व लुत्फ़ अन्दोज़ हुए।
(3) अल्लामा इब्ने हजर और इमाम सियुती ने लिखा है कि इमाम हसन (अ.स.) एक दिन मस्जिदे नबवी से गुज़रे तो आपने देखा कि हज़रत अबू बक्र मिम्बरे रसूल (स.अ.) पर बैठे हुए हैं। आप बर्दाश्त न कर सके, करीब जाकर फ़रमाया कि मेरे बाप के मिम्बर से नीचे उतरो, यह तुम्हारे बैठने की जगह नहीं है। यह सुनकर वह मिम्बर से नीचे उतर आए और रोने लगे।
(4) मुनाकिब इब्ने शहरे आशोब में ब-हवाला शरहे अख़बारे काज़ी नोअमान मरकूम है कि एक मर्तबा एक साएल हज़रत अबू बक्र की ख़िदमत मे आया और सवाल किया कि मैंने हालते एहराम में शुतुरमुर्ग के अण्डे भून कर खाए हैं, बताईये मुझ पर क्या कफ़्फ़ारा वाजिब हैं? सवाल का जवाब चूंकि उनके बस में नहीं था इसलिए पेशानी-ए-ख़िलाफ़त पर निदामत का पसीना आ गया। फ़रमाया कि इस साएल को अब्दुर्रहमान बिन औफ़ के पास ले जाओ। चुनांचे वह उनके पास लाया गया और जब उसने सवाल दोहराया तो वह भी चकरा गए और कहने लगे कि इसका हल अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) के अलावा और किसी के पास नहीं है। ग़रज़ वह साएल हज़रत अली (अ.स.) के पास लाया गया, आपने फ़रमाया, मेरे दोनों छोटे बच्चे जो सामने नज़र आ रहे हैं उनसे पूछ ले। वह साएल इमाम हसन (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जे हुआ और मसला दोहराया। आपने फ़रमाया तूने जितने अण्डे खाए हैं उतनी ही ऊँटनियां लेकर उन्हें हामला करा और उनसे जो बच्चे पैदा हों उन्हें बनाम ख़ानए काबा हदिया कर दे। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने फ़रमाया, बेटा ! जवाब तो दुरूस्त है लेकिन यह बताओ क्या ऐसा नहीं है कि कुछ हमल जाया हो जाते हैं और कुछ बच्चे मर जाते हैं? अर्ज़ की बाबा जान! यह भी होता है कि कुछ अण्डे गन्दे भी निकल जाते हैं। यह सुनकर साएल कह उठा जनाबे सुलेमान बिन दाऊद (अ.स.) ने भी अपने अहद में ऐसा ही जवाब दिया था। बेशक आप इमाम और वारिसे रसूल (स.अ.) हैं।
(5) शाहे रोम का फरिस्तादा एक मर्तबा कुछ सवालों के साथ मुआविया के दरबार में आया। जब वह जवाब देने से कासिर रहा तो उसने उसे खुफिया तौर पर अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के पास भेज दिया। वह हाज़िरे ख़िदमत हुआ और उसने कहा कि आप इल्मे नबूव्वत के वारिस हैं, यह बताइये कि:-
(1) हक़ व बातिल में कितना फासला है?
(2) ज़मीन व आसमान तक कितनी मसाफ़त है?
(3) मशरिक व मग़रिब में कितनी दूरी है?
(4) कौसो व क़ज़ा क्या चीज़ है?
(5) मुखन्नस किसे कहते हैं?
(6) और वह दस चीजें कौन सी हैं जिनको ख़ुदा ने एक दूसरे पर फौकियत दी है?
आपने सवाल सुने और मुस्कुराए और फ़रमाया कि इन सवालों के जवाबात मेरे दोनों बेटे हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) में से किसी एक पूछ ले। वह इमाम हसन (अ.स.) की तरफ़ मुतवज्जे हुआ और जो अपने भाई हुसैन (अ.स.) के साथ अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) के आगोश में तशरीफ़ फ़रमां थे।
आपने फ़रमाया (1) हक़ व बातिल में बस इतना फ़ासला है जितना कि कान और आंख के दरमियान है। ऐ शख़्स ! आंख से देखा हुआ हक़ और यकीनी है जबकि कान से सुना हुआ बातिल व मोहताजे तहक़ीक़ है। (2) ज़मीन व आसमान के दरमियान इस क़द्र दूरी है कि मज़लूम की आह और आंख की रौशनी वहां तक पहुंच जाती है। (3) मशरिक व मग़रिब में इतना फ़ासला है कि सूरज एक दिन में उसे तय कर लेता है। (4) कौस व क़ज़़ा असल में “कौस” खुदा है इसलिए कि “क़ज़ा” शैतान का नाम है। इसका ज़ाहिर होना फ़रावानी रिज्क और अहले ज़मीन के लिए सुकून व अमान की अलामत है। अगर यह खुश्क मौसम में नमूदार होती है तो बारिश का पेश खेमा समझी जाती है और बारिश के अय्याम में निकलती है तो ख़त्मे बारां की अलामत शुमार की जाती है। (5) मुख़न्नस वह है कि जिसके मुत्तलिक यह न मालूम हो कि वह मर्द है या औरत? उसके जिस्म में दोनों आजा हों। इसका तरीका यह है कि ता-हदे बुलूग इन्तेज़ार करें। अगर मोहतलिम हो तो मर्द और हाएज़ हो या पिस्तान उभर आयें तो औरत है। (6) और वह दस चीजें जिन्हें एक दूसरे पर फौकियत है यह है कि पत्थर एक सख़्त तरीन शय है मगर उससे ज़्यादा सख़्त लोहा है जो पत्थर को काट देता है। लोहे से ज़्यादा सख़्त आग है जो उसे पिघला देती है। आग से ज़्यादा सख़्त पानी है जो उसे बुझा देता है। पानी से ज़्यादा सख़्त अब्र है जो उसे अपने कांधों पर उठाये फिरता है। उससे ज़्यादा सख़्त हवा है जो एक झटके में अब्र को उड़ा ले जाती है। हवा से ज़्यादा सख़्त वह फ़रिश्ता है जिसकी वह महकूम है। उससे ज़्यादा सख़्त मल्कुल मौत है जो हवा के फ़रिश्ते की भी रूह कब्ज़ करेगा। मल्कुल मौत से सख़्त “मौत” है जो मल्कुल मौत को भी न छोड़ेगी और मौत से ज़्यादा सख़्त हुक्मे खुदा है जो उसे चाहता है टाल देता है।
यह सुन साएल हैरत ज़दा रह गया और उसने कहाः परवरदिगार! जिस घर के बच्चे ऐसे हैं उस घर के बुजुर्गों की मंज़िलत को बस तू ही समझ सकता है।
(6) अली बिन इब्राहीम कुम्मी ने अपनी तफ़सीर में तहरीर फ़रमाया है कि जब हज़रत अली (अ.स.) के मुकाबले में मुआविया की चीरा दस्तियों और रीशा दवानियों की इत्तेला शाहे रोम को हुई तो उसने दोनों फ़रीक को लिखा कि मेरे पास एक-एक नुमाईन्दा भेज दें। चुनांचे हज़रत अली (अ.स.) की तरफ से इमाम हसन (अ.स.) और मुआविया की तरफ से यज़ीद की रवानगी अमल में आई। यज़ीद ने वहां पहुंच कर शाह रोम के हाथों को बोसा दिया और इमाम हसन (अ.स.) ने दस्तबोसी के बजाए यह फ़रमाया कि खुदा का शुक्र है कि मैं यहूदी, नसरानी और मजूसी वग़ैरा नहीं हूं। शाह रोम आपकी इस जुराअत व हिम्मत पर शशदर रह गया। इसके बाद उसने चन्द तस्वीरें निकालीं और यजीद को दिखाते हुए कहा, इन मुबारक चेहरों को पहचानते हो? उसने कहा, मैं एक को भी नहीं पहचानता और न बता सकता हूं कि यह तस्वीरें किसकी हैं फिर उसने वह तस्वीरें इमाम हसन (अ.स.) की तरफ बढाईं। आपने हज़रत आदम (अ.स.), नूह (अ.स.), इब्राहीम (अ.स.), इस्माईल (अ.स.), शुऐब (अ.स.) और यहिया (अ.स.) की तस्वीरें देखकर उनके चेहरों को तो पहचान लिया लेकिन एक तस्वीर देखकर रोने लगे बादशाह ने पूछा, यह तस्वीर किसकी है? फ़रमाया, यह मेरे जद (नाना) की तस्वीर है।
उसके बाद शाहे रोम ने दोनों से सवाल किया कि वह कौन जानदार हैं जो अपनी मां के पेट से पैदा नहीं हुए? यज़ीद जवाब देने से कासिर रहा। इमाम हसन (अ.स.) ने फ़रमाया, वह सात जानदार हैं जो शिकमे मादर से मतुवल्लिद नहीं हुए। अव्वल हज़रत आदम (अ.स.), दूसरे हज़रत हव्वा, तीसरे हज़रत इब्राहीम (अ.स.) का दुम्बा जो इस्माईल (अ.स.) के जगह कुर्बानी के लिए जन्नत से आया, चौथे हज़रत सालेह (अ.स.) का नाका, पांचवे इबलीस, छठे हज़रत मूसा का अज़दहा और सातवें वह कव्वा जिसने हाबील को काबील के दफ़्न का तरीका बताया। यह जवाब सुनकर बादशाह हज़रत हसन (अ.स.) की इल्मी सलाहियतों पर शशदर रह गया। उसने आपकी बड़ी इज्ज़त की और तोहफे तहाएफ़ देकर वहां से रूख़्सत किया और यज़ीद को मुआविया के नाम एक ख़त दिया जिसमें तहरीर था कि अली (अ.स.) या उनके खानवादे के ख़िलाफ़ तेरी रीशा दवानियों नादुरूस्त हैं।
हज़रत इमाम हसन (अ.स.) के बचपन के वाक़िआतत को ज़ब्ते तहरीर में लाने के लिए एक ज़खीम किताब की ज़रूरत है। इसलिए इख़्तेसार को मद्दे नज़र रखते हुए मैं सिर्फ इन्हीं वाक़िआत पर इकतेफ़ा करता हूं।
इबादत व रियाज़त
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का इरशाद है कि इमाम हसन (अ.स.) ज़बर्दस्त आलिम, बेमिस्ल फ़क़ीह और आबिदे शब ज़िन्दादार थे। जोहद तकवा आपका तुर्राए इम्तियाज़ था, हाजतमन्दों की हाजत रवाई और बेवाओं, यतीमों और नादारों की ख़बरगीरी व किफ़ालत आपका शेआर। आपने हमेशा पैदल और अकसर पा-बरहना चलकर हज किए। ख़ौफे ख़ुदावन्दी का यह हाल था कि जब आप वज़ू करते तो चेहरे का रंग ज़र्द हो जाता और जब मेहराबे इबादत में खड़े होते तो कांपने लगते थे। अकसर मौत, अज़ाबे इलाही, फिशारे कब्र और सिराते मुस्तकीम वग़ैरा का तज़किरा फ़रमाते तो इस क़द्र रोते कि रीशे मुबारक आंसूओं से तर हो जाया करती थी। इमाम शाफेई का बयान है कि दो बार आपने अपना सारा माल राहे ख़ुदा में तकसीम कर दिया और कई बार ऐसा भी हुआ कि निस्फ़ माल तकसीम किया। आप एक अज़ीम ज़ाहिद व परहेज़गार थे।
अकसर मुवर्रिख़ीन ने यह वाक़िआ तहरीर किया है कि एक मर्तबा एक शख़्स ने अपनी बदहाली और नादारी का हाल बयान करते हुए आपके सामने दस्ते सवाल दराज़ किया। चुनांचे आपने पचास हज़ार दिरहम और पांच सौ दीनार उसे अता किए और फ़रमाया कि मज़दूर लाकर इसे उठवा ले जाओ, उसके बाद आपने मज़दूर की मज़दूरी के एवज़ अपना चोगा भी बख़्श दिया। नुरूल अबसार में है कि एक मर्तबा आपने एक साएल को नमाज़ में दुआ करते हुए सुना कि “खुदाया मुझे दस हज़ार दिरहम अता फ़रमा।” आपने घर पहुंचकर उस नमाजी साएल को उसकी मतलूबा रकम भिजवा दी।
इस्लामी ख़िदमात
पच्चीस साल की मुसलसल हक़ तलफ़ी और गोशा नशीनी के बाद मुसलमानों ने जब ज़ाहिरी ख़लीफ़ा की हैसियत से तस्लीम किया और उसके बाद जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान के मारके हुए तो हर मारके में इमाम हसन (अ.स.) अपने वालिदे बुजुर्गवार के दोश बदोश ही नहीं रहे बल्कि बाज़ मारकों में आपने कारहाए नुमायां अंजाम दिए। चुनांचे जंगे सिफ़्फ़ीन के मौके पर जब अबू मूसा अशरी की रीशा दवानियां बेनक़ाब हुई तो हज़रत अली (अ.स.) ने आपको अम्मार यासिर के हमराह कूफ़े भेजा जहां आपकी एक ही तकरीर ने अबू मूसा की साज़िशी बिसात को पलटकर तमाम तर रीशा दवानियों पर पानी फेर दिया। “अख़बारूल तिवाल” की रिवायत कहती है कि एक ही दिन में नौ हजार छः सौ पचास जांबाजों का लश्कर हज़रत अली (अ.स.) की हिमायत में मुआविया से जंग के लिए कूफ़े से निकल खड़ा हुआ।
जमल की जंग में शिकस्त व हज़ीमत के बाद उम्मुल मोमेनीन आएशा ने जब मदीने वापस जाने के लिए इन्कार किया तो अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने आप ही को उनके पास भेजा कि समझा बुझाकर उन्हें मदीने रवाना करें। चुनांचे अपनी इस कोशिश में आपकामयाब हुए।
बाज़ मुवर्रिख़ीन ने लिखा है कि इमाम हसन (अ.स.) जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन में अलमदारे लश्कर भी थे। आपने तहकीम के मुहाहिदे पर भी दस्तख़त किए थे और नहरवान की जंग में भी नुमायां ख़िदमात अंजाम दी थीं।
बैअत व ख़िलाफ़त
जिस वक़्त अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) की शहादत वाके हुई उस वक़्त हज़रत इमाम हसन (अ.स.) की उम्र 37 साल की थी। ब-रिवायत इब्ने असीर तजहीज़ व तदफ़ीन के बाद अब्दुल्लाह बिन अब्बास की तहरीक पर सबसे पहले सअद बिन इबादा अन्सारी ने आपके हाथ पर बैअत की। उसके बाद चालीस हज़ार मुसलमानों ने आपकी बैअत से मुशर्रफ़ होकर अपनी वफादारियों को आपकी ख़िलाफ़त से वाबस्ता किया और सुलह व जंग दोनों हालतों में साबित क़दम रहने और साथ देने की यक़ीन देहानी कराई।
इस तकमिल-ए-बैअत के बाद जब निज़ामे हुकूमत आपने अपने हाथों में लिया तो उस वक़्त जमाना इन्तेहाई पुर-आशोब था। हज़रत अली (अ.स.) जिनकी तलवार और शुजाअत की धाक तमाम अरब में बैठी हुई थी, दुनिया से रूख़्सत हो चुके थे। हालात और माहौल के साथ-साथ इस्लामी मुआशिरा बिगड़ चुका था, सोए हुए फ़ितने बेदार हो चुके थे और हर तरफ साजिशों की खिचड़ी पक रही थी। यहां तक कि खुद कूफ़े शहर के अन्दर रीशा दवानियों और तख़रीब कारियों का बाजार गर्म था और अशअस बिन कैस, अम्र बिन हरीस नीज़ शीस बिन रबई ऐसे लोग भी एनाद व फ़साद पर आमाद थे। मुआविया ने जांबजा अपने जासूस मुक़र्रर कर दिए थे जो उसकी हिदायत के मुताबिक मुसलमानों में फूट डलवाते और इख़्तेलाफ़ व इफ़्तेराक़ का बीज बोते। चुनांचे कूफ़े में एक कसाई के घर से क़बीलए बनी हमीर का एक शख्स और बसरे में मुहल्ला बनी सलीम से क़बीलए कैन का एक शख़्स गिरफ़्तार हुआ। पूछताछ के बाद दोनों ने यह एतराफ किया कि हाकिमे शाम मुआविया की तरफ से उन्हें इमाम (अ.स.) की नक़्ल व हरकत पर नज़र रखने और यहां के हालात से उसे मुत्तेला करने के लिए उन्हें मामूर किया गया है।
इसके अलावा मुआविया की सियासी चालों ने कूफ़े के बड़े-बड़े लोगों को बड़ी-बड़ी रकमें देकर तोड़ लिया था। उसने अशअस बिन कैस, हज्र बिन अलहज्र, शीस बिन रबई, और उमर बिन हरीस के पास अलग अलग पैग़ामात भी भेजे कि जिस तरह भी मुम्किन हो इमाम हसन (अ.स.) को क़त्ल करा दो। और जो मनचला इस काम को अंजाम देगा उसे मैं दो लाख दिरहम इनाम दूंगा, फौज की सरदारी अता करूंगा और अपनी किसी लड़की से उसका निकाह करूंगा।
यह तमाम हालात व वाक़िआत ऐसे थे कि इमाम की तरफ से उनके ख़िलाफ़ तदारुकी एकदाम ज़रूरी था। चुनांचे आपने बहुत सोच विचार के बाद मुआविया को एक ख़त लिखा। जिसमें तहरीर फ़रमाया कि तुमने हमारी मम्लेकत में अपने जासूसों को मुअय्यन किया है ताकि वह मुसलमानों के दरमियान इफ़्तेराक का बीज बोएं और उन्हें गुमराह करके हमारे ख़िलाफ़ बगावत पर आमादा करें। उसके अलावा तुम हमारे क़त्ल की सई में भी मसरूफ हो जिससे अन्दाज़ा होता है कि हमारी हुकूमत व ख़िलाफ़त तुम्हारे दिल में कांटे की तरह खटक रही है और तुम, हमसे जंग करना चाहते हो।
इस खत के बाद इमाम (अ.स.) और मुआविया के दरमियान तहरीरी गुफ़्तुगू जारी रही। चुनांचे तबादलए मकतूबी के खुसूसी और अहम निकात पर गौर व फिक्र करने के बाद इमाम इस नतीजे पर पहुंचे कि मुआविया को महज़ अली (अ.स.) ही की जात से दुश्मनी न थी वरना शहादत के बाद वह खत्म हो जाती। उसे तो आले रसूल (स.अ.) से अज़ली और अबदी अदावत है जिसे वह मुस्तकिल तौर पर जारी रखना चाहता है ताकि वह इस्लाम के, खद व खाल को मस्ख करके उसके बुनियादी उसूलों को बदल दे। आपने यह नतीजा भी अख़्ज़ किया कि उसके मुनाफ़िकाना किरदार को बेनकाब और उसकी तख़रीब कारियों और रीशा-दवानियों को ख़त्म करने के लिए एक फैसला कुन जंग बहरहाल ज़रूरी है। लेकिन आपके सामने मुआविया की कूव्वत व ताकत के बिल-मुकाबिल एक जांबाज़, सरफरोश और वफादार लश्कर की तैयारी का भी मसला था जो फिलहाल इसलिए मुम्किन न था कि जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान के मारकों ने आपके वालिदे बुजुर्गवार के असहाब और जांनिसारों को थका दिया था। उन्होंने पांच साल तक तलवारें न्याम में नहीं रखी थीं लिहाजा वह मज़ीद जंग के लिए आमादा न थे। चुनांचे आपने जब उन्हें जंग की दावत दी तो उन्होंने सुस्ती, काहिली और तरद्दुद का मुज़ाहिरा किया। लेकिन उसके बावजूद आप हिम्मत न हारे और फ़ौजों की फ़राहमीं की कोशिशों में मसरूफ़ रहे यहां तक कि एक बड़ा लश्कर तैयार करने में कामयाब हो गए।
अभी आप शाम की तरफ कूच का इरादा ही कर रहे थे कि मुआविया साठ हज़ार का लश्कर लेकर बग़दाद से दस फ़रसख के फासले पर वाके “मस्कन” के मुक़ाम पर आ धमका। इमाम (अ.स.) को जब मुआविया की इस पेश क़दमी का इल्म हुआ तो आप भी अपनी फ़ौजों के साथ उसकी तरफ बढ़े और कूफ़े से रवाना होकर “साबात” के मक़ाम पर पड़ाव डाला और वहां से कैस बिन सअद की कयादत में बारह हज़ार फौजियों पर मुश्तमिल एक दस्ता मुआविया की पेश क़दमों को रोकने के लिए रवाना कर दिया, बक़िया फ़ौज आपके साथ साबात में खेमाज़न रही।
इस मुहिम के लिए आपने जो लश्कर तैयार किया था उसमें मुख़्तलिफ़़ किस्म के लोग शामिल थे।
(1) हज़रत अली (अ.स.) के मानने वाले।
(2) ख्वारिज जो मुआविया के साथ लड़ने के लिए हर किसी का साथ देने पर आमादा थे।
(3) लालची लोग जो माले ग़नीमत के भूखे थे।
(4) वह लोग जो क़बाएली तअस्सुब का शिकार थे और अपने सरदारों के कहने पर आए थे।
क़बाएली सरदारों ने अपने आपको मुआविया के हाथ बेच दिया था क्योंकि मुआविया ने उनमें से अकसर के नाम ख़तूत लिखकर इमाम हसन (अ.स.) को छोड़ने और अपनी तरफ़ आने की दावत दी थी। चुनांचे अकसर ने मुआविया की इस दावत पर लब्बैक कही और उसके साथ वादा किया कि वह आपको ज़िन्दा या शहीद करके मुआविया के सामने पेश कर देंगे। ग़ालिबन यही वजह थी कि साबात से रवानगी से क़ब्ल इमाम (अ.स.) ने अपने लश्करियों के एखलास और साबित क़दमों को जानने व परखने के लिए फ़रमायाः
“लोगों ! तुमने मुझसे इस शर्त पर बैअत की थी कि सुलह और जंग दोनों हालतों में मेरा साथ दोगे। बखुदा मुझे किसी से बुग्ज़ व अदावत नहीं है, न मेरे दिल में किसी को परेशान करने का कोई ख़्याल है। मैं सुलह को जंग से और मोहब्बत को अदावत से बेहतर समझता हूं।”
मगर लोग इमाम (अ.स.) के इस ख़िताब का मतलब गलत समझे। उन्हें यह गुमान हुआ कि आप अमीरे शाम मुआविया से सुलह की तरफ माएल हैं और ख़िलाफ़त से दस्तबरदारी का इरादा रखते हैं !
इसी वक़्फ़े में इमाम (अ.स.) के लश्कर की कसरत से मुतअसिर होकर मुआविया ने अम्रे आस के मशविरे पर कुछ लोगों को इमाम (अ.स.) के लश्कर में और कुछ को कैस बिन सअद के लश्कर में भेज कर एक दूसरे के ख़िलाफ़ प्रोपगण्डा करा दिया। इमाम (अ.स.) के लश्कर में जो साज़िशी मुआविया की तरफ़ से शामिल हुए उन्होंने कैस बिन सअद के मुतअल्लिक यह शोहरत कर दी कि उसने मुआविया से सुलह कर ली है और कैस के लश्कर में जो साज़िशी घुस गए थे उन्होंने यह मशहूर कर दिया कि इमाम (अ.स.) ने सुलह कर ली है। इस ग़लत अफ़वाह का नतीजा यह हुआ कि बदगुमानी के साथ दोनों लश्करों में बग़ावत फैल गयी। इधर इमाम (अ.स.) के लश्कर में जो ख़्वारिज थे उन्होंने भी यह कहना शुरू किया कि ( माज़ अल्लाह) इमाम हसन (अ.स.) भी अपने बाप अली (अ.स.) की तरह काफ़िर हो गए हैं। अंजाम कार आप ही के लश्करी आपके खेमे पर टूट पड़े, आपका सारा असबाब लूट लिया, आपके नीचे से मुसल्ला खींच लिया और आपके दोशे मुबारक से रिदा उतार ली। मजबूर होकर आप मदाएन की तरफ निकल खड़े हुए जहां के गवर्नर सईद थे। लेकिन ख़ारजियों ने पीछा न छोड़ा और रास्ते में “जराह बिन कैसर” नामी एक ख़ारजी ने आप पर हमला कर दिया। खंजर आपकी रान पर पड़ा जिससे गहरा ज़ख़्म पड़ा और हड्डी तक मुतअस्सिर हो गयी। ग़रज़ कि मदाएन में रहक़र आपने इलाज कराया और ठीक हो गए।
मुआविया ने आपकी इन मजबूरियों से फाएदा उठाया और अब्दुल्लाह बिन आमिर की कयादत में बीस हज़ार का एक लश्कर आपसे बरसरे पैकार होने के लिए मदाएन की तरफ रवाना कर दिया।
इमाम (अ.स.) अपने बाक़ी मानिन्दा जांनिसार व मुखलेसीन और वालीए मदाएन के आदमियों पर मुश्तमिल एक लश्कर लेकर शामियों से मुकाबिले के लिए निकलने ही वाले थे कि वहां भी मुआविया के हवारीन ने यह मशहूर कर दिया कि अब्दुल्लाह बिन आमिर के अक़ब में अमीरे शाम का एक अज़ीम लश्कर और आ रहा है। चुनांचे इस शोहरत ने इमाम (अ.स.) के लश्करियों के हौसले पस्त कर दिए और वह राहे फ़रार तलाश करने लगे।
अब आपके सामने सिर्फ एक यही मन्तिक़ी रास्ता था कि इस्लाम के तहफ्फुज़, दीने हक़ की बका और मुसलमानों की जानों को बचाने के लिए सुलह की तलवार मुआविया की गर्दन पर रख दें और वक़्ती तौर पर जंग से किनारा कशी करके मुआविया की तखरीबी सरगर्मियों, रीशा-दवानियों और मक्कारियों से लोगों को रूशानास कराएं, अस्ल हक़ीक़त को बेनकाब करें और मुसलमानों के मुर्दा ज़मीरों को झिंझोड़ कर उन्हें ख़्वाबे गफलत से बेदार करें क्योंकि मुआविया को इस्लाम से दूर का भी तअल्लुक न था, उसके उम्माल भी इस्लाम दुश्मन थे मगर उसके बावजूद हर तरफ यही ढ़िढ़ोरा पीटा जाता था कि मुआविया की हुकूमत इस्लामी हुकूमत है और र्कुआन व इस्लाम की बुनियाद पर उस्तवार है। मुआविया के हवारीन उसे ख़लीफ़तुल मुसलेमीन के रूप में पेश करते थे और इस तरह सादा लौह अवाम की ताईद हासिल करते थे। यह रविश इस्लाम के लिए इन्तेहाई ख़तरनाक थी क्योंकि हालात अगर इसी सतह पर बरकरार रहते तो फिर चन्द नस्लों के बाद इस्लाम का नाम भी न रहता।
इस ख़तरे को सिर्फ़ मुआविया की रीशा-दवानियों पर सुलह की ज़र्ब लगाकर और उसके असली चेहरे को बेनकाब करके टाला जा सकता था और यह मकसद खुद मुआविया की ज़बान से पूरा हो गया कि उसने कूफ़े में अपनी एक तक़रीर के दौरान यह कहक़र अपने जुर्म का एतराफ़ कर लिया कि
“लोगों ! यह न समझना कि मैंने नमाज़ व रोज़ा की खातिर तुमसे जंग की है बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि मैंने तुम लोगों पर सिर्फ हुकूमत करने और तुम पर मुसल्लत होने के लिए यह जंगी इक़दामात किए हैं।”
इमाम हसन (अ.स.) की दूर रस निगाहों में मज़कूर वाक़िआत और अपने साथियों की गद्दारी को देखते हुए किसी तरह का कोई जंगी इक़दाम मुनासिब नहीं था लेकिन उसके साथ यह भी आपके पेशे नज़र था कि बातिल की तक़वीयत का धब्बा मेरे दामन पर न आए। चुनांचे मुआविया ने जब आपसे मुंह मांगे शराएत पर सुलह की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो आपने भी सोचा कि अब मसालेहत से इन्कार करना शख़्सी इक़्तेदार की ख़्वाहिश के सिवा और कुछ नहीं है। लिहाजा आखि़री जवाब देने से पहले आपने अपने तमाम साथियों को जमा किया और तक़रीर फ़रमाईः
“आगाह रहो कि तुमसे खूंरेज़ लड़ाईयां हो चुकी जिनमें बहुत से लोग क़त्ल हो चुके हैं। कुछ सिफ़्फ़ीन में कुछ नहरवान में, जिसका मुआवेजा तुम आज भी तलब करते हो। अब अगर हम मुआविया के पैग़ामे सुलह को कुबूल न करें और उससे तलवारों के बल बूते पर फैसला कर लें और अगर तुम्हें अपनी जानें अज़ीज़ हैं तो हम सुलह की पेशकश को कुबूल करके तुम्हारी मर्ज़ी पर अमल करें।”
जवाब में लोगों ने चीख चीख कर कहना शुरू कर दिया हम ज़िन्दगी चाहते हैं, आप सुलह कर लें। चुनांचे आपने सुलह की शरारत मुरत्तब करके मुआविया के पास भेज दिया।
सुलह नामा और उसकी शर्तें
25 रबीउल अव्वल सन् 41 हिजरी को कूफ़े के करीब फ़रीकैन का इज्तेमा हुआ, सुलहनामा तहरीर किया गया जिस पर फ़रीक़ैन के दस्तख़त हुए और गवाहियां सब्त हुईं। उसके बाद मुआविया ने अपने लिए आम बैअत का एलान कर दिया और इस साल का नाम सिनतुल जमाअत रखा। सुलह की शर्तें मुन्दर्जा ज़ैल थींः
(1) मुआविया किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स.अ.) पर अमल करेगा। (इससे ज़ाहिर होता है कि मुआविया किताबे खुदा और सुन्नते रसूल (स.अ.) पर अमल पैरा नहीं था।)
(2) मुआविया को अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा नामजद करने का हक़ न होगा।
(3) इराक, हिजाज़ और यमन के लोगों को ख़्वाह वह किसी भी मज़हब से मुतअल्लिक हों हुकूमत की तरफ से अमान हासिल रहेगी और मुआविया को उनके गुज़िश्ता आमाल से कोई सरोकार न होगा और न वह किसी शख़्स से गुज़िश्ता दुश्मनी की बिना पर इन्तेकाम लेगा और न ही वह इराकियों पर जुल्म व तशद्दुद करेगा। (इससे ज़ाहिर है कि इमाम (अ.स.) इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ थे कि मुआविया जंगे सिफ़्फ़ीन के मकतूलीन का इन्तेकाल लेगा और शीयाने अली (अ.स.) पर क़त्ल व गारतगरी का बाज़ार गर्म करेगा।)
(4) मुआविया को यह हक़ हासिल न होगा कि वह अपने आपको अमीरूल मोमेनीन या खलीफतुल मुसलमीन कहलाए। (यह इस बात की तरफ इशारा है कि वह ख़लीफ़ा नहीं है उसकी हुकूमत ग़स्बी है।)
(5) अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) हज़रत अली (अ.स.) की शान में जो नाज़ेबा कलमात मस्जिदों और मिम्बरों से इस्तेमाल किए जाते हैं उन्हें तर्क कर दिया जाएगा।
(6) शीयाने अली (अ.स.) जहां भी होंगे उन्हें अमान होगी और मुआविया उन्हें सताने से बाज़ रहेगा। (यह दफा शीयाने अहलेबैत (अ.स.) को उनकी इस्तेकामत और वफ़ादारी का इनाम है।)
(7) जंगे जमल व सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली (अ.स.) की तरफ से शहीद होने की औलादों में ख़िराज की रक़म से दस लाख दिरहम तकसीम किए जाएंगे।
(8) इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके ख़ानदाने अहलेबैत (अ.स.) के किसी शख़्स पर बिल एलान या मग़फ़ी तौर पर किसी किस्म का ज़ुल्म व सितम और जब्र व तशद्दुद नहीं किया जाएगा और इस्लामी सरज़मीन पर किसी फर्द को ख़ौफ़ व हिरास के आलम में नहीं रखा जाएगा।
इन शराएत को मददे नज़र रखते हुए क्या कोई अक़लमंद इन्सान यह नतीजा अख़्ज़ कर सकता है कि इमाम हसन (अ.स.) ने मुआविया से मुसालेहत और उसके ख़िलाफ़ जिहाद से किनाराकशी इख़्तेयार की? उसके बरअक्स तारीखें गवाह हैं कि सुलहनामा तकमील के बाद मुआविया ने सुलह की किसी शर्त पर अमल नहीं किया बल्कि जंग के ख़त्म होते ही सियासी इक़्तेदार के बाद मुआविया इराक़ में दाखिल हुआ और नखीला (जो कूफ़ा की सरहद है) में नमाज़े जुमा के बाद यह एलान किया कि इमाम हसन (अ.स.) से जंग का मेरा यह मकसद नहीं था कि तुम लोग इबादत करो, नमाजें पढ़ो, रोज़े रखो, हज करो या जकात अदा करो बल्कि मेरा मकसद यह था कि मेरी हुकूमत तुम पर मुसल्लत हो जाए जो सुलह के बाद पूरा हो चुका।
उन्हीं तमाम साजिशों, रीशा-दवानियों और फ़ितना अंगेज़ियों का माहासल है कर्बला की जंग है। यह वाज़ेह रहे कि “सुलह और जंग” दो मुतज़ाद चीजें हैं। कलामे अरब में सुलह का लफ़्ज़ उस वक़्त इस्तेमाल होता है जब फ़साद बाकी न रहे और “मुसालिहा” उस करारदाद को कहते हैं जिससे निज़ाअ दूर हो जाए और सुलह अहले सियासत के नज़दीक उसको कहते हैं जिसकी कुछ शर्तों पर जंगबन्दी अमल में लाई जाए और जंग उसे कहते हैं जिसके दामन में सुलह इम्कान न हो। सुलह का इम्कान जंग के मफ़क़ूद होने पर और जंग का इम्कान सुलह के फ़ुक़दान पर होता है और उस इम्कान और अदमे इम्कान के समझने का हक़ सिर्फ साहबे मामलों को होता है। यही वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने सुलह के मौके पर हुदैबिया में सुलह की और जंग के मवाके पर बेशुमार जिहाद किए। हज़रत अली (अ.स.) ने भी सुलह की मंज़िल में ख़ामोशी और गोशा-नशीनी इख़्तेयार की और जंग की मंज़िल में जमल व सिफ़्फ़ीन का कारनामा अंजाम दिया। इमाम हसन (अ.स.) के लिए जंग मुम्किन नहीं थी इसलिए आपने सुलह और इमाम हुसैन (अ.स.) के लिए सुलह मुम्किन न थी इसलिए उन्होंने ने जंग की। दोनों के हालात भी मुतफ़र्रिक और जुदा-जुदा थे। मुआविया की तरफ से इमाम हसन (अ.स.) के सामने सिर्फ ख़िलाफ़त से दस्तबरदारी का मसला था, बैअत का सवाल नहीं था। इसलिए उन्होंने सीरते पैग़म्बर (स.अ.) पर अमल पैरा होकर खूंरेज़ी और जंग के मुकाबिले में खिलाफ़त से दस्तबरदारी को तरजीह दी ताकि अम्न व अमान दरहम बरहम न हो और मुसलमानों का सुकून क़ाएम रह सके। इमाम हुसैन (अ.स.) के सामने एक फासिक व फाजिर और ज़ालिम व जाबिर हुक्मरां के नापाक हाथों पर बैअत का सवाल था। चुनांचे आपने हालात का जाएजा लिया और इस्लाम को ख़तरे में देखकर यज़ीद के सवाले बैअत को सख़्ती से ठुकरा दिया और जंग पर आमादा हो गए। अगर यजीद का बाप मुआविया इमाम हसन (अ.स.) से बैअत तलब करता तो हालात कुछ भी होते लेकिन वह वही करते जो उनके भाई हुसैन (अ.स.) ने किया।
सुलह की शरारत पर गौर व फिक्र करने से यह अम्र वाज़ेह हो जाता है कि इमाम हसन (अ.स.) अपने मकसद में कामयाब थे जिसके लिए आप मुआविया से जंग चाहते थे। हालांकि आप सुलह के बाद गोशानशीन हो गए थे और हुकूमत मुआविया के कब्ज़े में चली गयी थी लेकिन आपके लिए कौम की रहनुमाई और इज्तेमाई उमूर की दिलचस्पियों को तर्क करके सुकून व आराम की ज़िन्दगी गुज़ारना भी मुम्किन न था चुनांचे सुलह के बाद भी आपने वह लाइए अमल इख़्तेयार किया जिससे मुआशिरे को आईन्दा इन्केलाब के लिए आमादा किया जा सके। अगर हम यह ख़्याल करें कि इमाम हसन (अ.स.) ने जंग की ज़हमतों से बचने के लिए सुलह का रास्ता इख़्तेयार किया तो यह हमारी बहुत बड़ी भूल और ग़लत फ़हमी होगी। आपने अपने आराम के लिए सुलह नहीं की बल्कि इसलिए सुलह की थी कि नये सिरे से जिहाद शुरू किया जा सके और फिलहाल जंग के भड़कते हुए शोलों से अपने शियों और मुसलमानों को महफूज़ रखा जा सके। चुनांचे जब सुलेमान बिन सुर्द ख़ुज़ाई ने एक वफ़्द की क़यादत करते हुए आपसे दरयाफ़्त किया कि “हमें तअज्जुब है कि आपने मुआविया से सुलह क्यों की जबकि आपकी हिमायत में चालीस हज़ार आदमीं सिर्फ कूफे के लड़ने के लिए मौजूद थे।” तो आपने फ़रमाया, आप हमारे शिया हैं और हमारे मोहिब्बों में से हैं। अगर मैं दुनिया, ताक़त और हुकूमत के लिए जंग करता तो मुआविया मुझ से ज़्यादा बाअसर और ताक़तवर हरगिज़ न था। मेरी मुसालेहत का मकसद सिर्फ मुसलमानों की जान बचाना है। आप अल्लाह की रिज़ा व मशीयत पर राज़ी हो जाएं और मामलात अल्लाह के सुपुर्द कर दें। घरों में बैठ जाएं और जंग से परहेज़ करें ताकि सालेह अफ़राद अम्न व अमान में रहें और लोग फ़ासिक व फाजिर के शर से महफूज़ रहें।
आपने हुज्र बिन अदी को जवाब में यह फ़रमाया, मैंने लोगों से अकसरियत को मुसालेहत के लिए आमादा और जंग से दामन कश देखा। मैं नहीं चाहता था कि लोगों को मजबूर किया जाए लिहाजा मैंने मुआविया से मुसालेहत कर ली ताकि हमारे मानने वाले चन्द मखसूस लोग क़त्ल न हो जाएं और मैंने मुनासिब समझा कि जंग को किसी ख़ास मौके के लिए मुल्तवी कर दिया जाए क्योंकि अल्लाह के पास हर दिन के लिए एक तकदीर मुकर्रर है।
इमाम (अ.स.) के इस जवाब से तीन बातों की वजाहत होती है। अव्वल यह कि इमाम की फ़ौजी अकसरियत मुसालेहत के हक़ में थी। दूसरे ये कि इमाम खुसूसन अपने शियों और उमूमन तमाम मुसलमानों को क़त्ल व गारत गरी से बचाना चाहते थे। तीसरे यह कि इमाम जंग के लिए उस ख़ास वक्त के मुन्तज़िर थे जिसमें लोग इन्केलाब लाने पर क़ादिर हों।
अली बिन मुहम्मद बिन बशीर हमदानी से आपने फ़रमायाः मुआविया के साथ मुसालेहत से मेरा मकसद यह था कि तुम क़त्ल होने से बच जाओ क्योंकि मेरे साथी जंग पर आमादा न थे। इन हालात में हम अगर मुआविया के साथ पहाड़ों और दरख़्तों पर भी जंग करते तो भी हुकूमत उसके हवाले करने के अलावा कोई चारा न था।
सुलह करके इमाम (अ.स.) ने लोगों को एक मौका भी फ़राहम किया कि अज़ खुद वह मुआविया की हुकूमत को समझें और उसके मज़ालिम को महसूस करें। इसके साथ ही आप हुकूमत की तरफ से अहकामे शरीयत की पामाली पर लोगों की तवज्जो भी मबज़ूल कराते रहे।
इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने वालिदे बुजुर्गवार की शहादत के बाद अपने बड़े भाई इमाम हसन (अ.स.) के साथ पेश आने वाले उन हादसात की बुनियाद पर हमें मुस्तकबिल की इमारत तामीर करना है। चुनांचे अली बिन मुहम्मद जब इमाम हसन (अ.स.) की गुफ़्तुगू से मायूस होकर आपकी ख़िदमत में आया तो आपने फ़रमायाः उन्होंने यह दुरूस्त फ़रमाया है कि जब तक मुआविया जिन्दा है तुम लोगों को अपने घरों से नहीं निकलना चाहिए।
इमाम हसन (अ.स.) की शहादत के बाद भी इमाम हुसैन (अ.स.) का यही मौकफ़ रहा। चुनांचे अहले इराक़ ने आपको मुआविया के ख़िलाफ़ जब जंग की दावत दी तो जवाब में आपने फ़रमायाः जब तक मुआविया ज़िन्दा है तुम लोग घरों में रहो और अपने को मूरिदे इल्ज़ाम ठहराने से परहेज़ करो।
इस इत्तेहाद अमल और नज़रियात में यकजहती के बावजूद बनी उमय्या और उनके बहीख्वाहों ने यह ग़लत शोहरत दी कि सुलह के बारे में इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.)में बाहमी इख़्तेलाफ़े राए है, हालांकि इमाम हुसैन (अ.स.) कौल, अमल और मसलक में अपने भाई इमाम हसन (अ.स.) के साथ बिलकुल उसी तरह मुत्तफिक व मुत्तहिद थे जिस तरह हज़रत अली (अ.स.) हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) के साथ।
दूसरा मोर्चा
सुलह नामे की तकमील के बाद जब इमाम हसन (अ.स.) अपने भाई इमाम हुसैन (अ.स.), अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और अपने अहल व अयाल को लेकर कूफा से मदीना तशरीफ लाए तो वहां आपने अपने जिहाद को एक दूसरे मोर्चे पर जारी रखा और दस साल क़याम के दौरान मिन जुमला और बहुत से कामों के मुन्दर्जा ज़ैल उमूर अन्जाम दिए।
(1) इस्लामी सकाफ़त व तालीमात की तबलीग़ और नश्र व इशाअत का यह तरीक़ा-ए-कार अपनाया कि आपने पुर एतेमाद दानिशवरों, मोहद्दिसों और रावियों को जमा करके सुलह की हक़ीक़त, मुआविया की असलियत और इस्लाम की नौईयत से उन्हें आगाह किया। तारीख़ ने उन दानिशवरों, मोहद्दिसों और रावियों के नामों को ज़ब्त कर लिया है।
(2) समाजी मुश्किलात व इक़्तेसादियात के हल तलाश किए, इन्सानी इक़्तेदार का तहफ्फुज़ किया, जुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलन्द कीं और मजलूमों की हिमायत की।
(3) मुजाहेदीने इस्लाम की सरपरसती की और मुआविया के पन्जए इस्तेबदाद से फरार इख़्तेयार करने वालों के लिए पनाहगाहें मोहय्या कीं।
(4) “शियाने अली” के नाम से एक सियासी तन्ज़ीम क़ाएम की और उसकी कयादत व सरबराही खुद अपने हाथो मे रखी। इस तन्ज़ीम के बारे में डाक्टर ताहा हुसैन का बयान है किः “जिस रोज़ कूफा के कुछ अफराद मदीना आकर इमाम हसन (अ.स.) की ख़िदमत मे शरफयाब हुए और इमाम ने उनकी बातों को सुनकर कुछ अहकामात सादिर किए और कुछ मनसूबे बनाए उसी रोज़ शियाने अली पर मुश्तमिल एक मुनज़्ज़म सियासी गिरोह तशकील हुआ और उस गिरोह की कयादत खुद इमाम हसन (अ.स.) ने संभाली। मदीना से वापस आकर अमाऐदीन कूफ़ा ने उस सियासी तन्ज़ीम की तशकील और उसके मनसूबों से लोगो को बाख़़बर किया और बताया कि यह सुलह वक्ती है। हमें आईन्दा मुनासिब मौके पर जिहाद के लिए तैयार रहना चाहिए। इस तन्ज़ीम के मनसूबे बहुत वाज़े थे, किसी किस्म की पेचीदगी न थी। दारूल खि़लाफ़ा में मुआविया के काले करतूतों को इफ़शा करने के लिए इमाम हसन (अ.स.) का सफ़रे दमिश्क भी इसी तन्ज़ीम से मरबूत था। (अल फितनतुल कुबरा )
(5) मुआविया और उसके हवारियों से इस तरह के मुबाहिसे जिनके ज़रिए हक़ और बातिल में इम्तेयाज़ पैदा हो।
बारहा ऐसा हुआ कि इमाम हसन (अ.स.) जब मुआविया के रूबरू होते तो उसके करतूतों पर एतेराज़ और उसकी तहकीर करते। आपने मुआविया के साथ के एक मशहूर व मारूफ मुबाहिसा मे अम्र बिन उस्मान, अम्र बिन आस, एताबा बिन अबूसुफ़ियान, वलीद बिन अक़बा, अबी मुईत और मुग़ैरा बिन शैबा की मौजूदगी में मुआविया को दंदान शिकन जवाबात दिए और उसे जलील किया। चुनांचे जब इमाम (अ.स.) की गुफ़्तगू ख़त्म हो गयी और इस्लामी मसाएल वाज़े हो गए और मुनाफिको की रीशा-दवानियों का पता चल गया और इमाम चले गए तो मुआविया ने हाज़िरीन को खि़ताब करते हुए कहा, मै तुम लोगों से पहले भी कहता था कि तुम इस शख़्स को ज़लील नही कर सकते, उसने तुम सबको ज़लील किया और दुनिया मेरी आखों के सामने तारीक कर दी।
मुआविया इमाम हसन (अ.स.) की इस किस्म की जद्दो जहेद और आपके असरात से खाएफ़ था। चुनांचे मदीने के सफर में उसने अपने मुशीरकारों से कहा कि समझ में नहीं आता कि कौन सी तदबीर इख़्तेयार करूँ कि जिससे इमाम हसन (अ.स.) के असारात व एहतेराम को ख़त्म कर सकूँ। उन मुशीरकारों ने उसे मशवरा दिया कि हर जुमे को मिम्बर से वह इमाम की शान मे गुस्ताख़ियाँ करें। चुनांचे पहले ही जुमा में इमाम (अ.स.) ने भरे मजमें में मुआविया को वह जवाबात दिए कि वह पेचो ताब खाता हुआ मिम्बर से नीचे आ गया।
सुलह के नताएज
(1) सुलह के बाद इमाम हसन (अ.स.) के तर्ज़े अमल ने शामी हुकूमत की इस्लाम नवाज़ी का पर्दा चाक कर के रफ़्ता-रफ़्ता उस हक़ीक़त को आशकार कर दिया कि इस्लाम पनाही का नारा और इस्लाम के नाम पर इमाम हसन (अ.स.) के साथ जंग का दावा महज़ एक ढोंग था। मुआविया ने हिमायत हासिल करने के लिए मुसलमानों को फरेब दिया था।
(2) अगर उस वक़्त जंग हो जाती तो ज़्यादा वही लोग शहीद होते जो इमाम हसन (अ.स.) के जानिसार और बावफ़ा असहाब थे। हक़ीक़ी शिया मौत के घाट उतार दिए जाते और मुआविया के चेहरे पर पड़ी हुई नकाब को नोचकर फेंकने वाला कोई ना होता। यही वह सच्चे शिया थे जिन्होंने मुआविया की मक्कारियों और फ़रेब कारियांे से मुसलमानो को रुशनास कराया।
(3) इस सुलह के बाद मुआविया की हुकूमत के ख़िलाफ़ इमाम हसन (अ.स.) और आपके असहाब की जद्दो जहद ने उसके काले करतूतों को दुनिया पर ज़ाहिर कर दिया और इन्केलाब हुसैनी के लिए रास्ता हमवार किया। और इन्केलाब ने हुकूमत उमवी को क़यामत तक के लिए रूसवा कर दिया।
ऐसा मालूम होता है कि इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) ने एक अज़ीम इन्कलाब को मनजिले तकमील तक पहुचाने के लिए मुख़्तलिफ़ उमूर को आपस मे बाँट लिया था और हर एक ने एक अहम रोल अपने जिम्मे ले लिया था इमाम हसन (अ.स.) एक हलीम व हकीम और साबिर व शाकिर का किरदार अदा करें और इमाम हुसैन (अ.स.) एक अज़ीम इन्केलाबी की सूरत मे सामने आए। इस तरह दोनो भाई मिल कर एक ही मनसूबे को दवाम व इस्तेहकाम से हमकिनार करें। चुनांचे वाक़िअ-ए-साबात व कर्बला के बाद लोग बनी उमय्या के किरदारों के बारे में सोचने पर मजबूर हो गए और इस हक़ीक़त से बखूबी वाक़िफ़ हो गए कि बनी उमय्या इस्लाम दुश्मन है जो इस्लाम की नकाब पहन कर मुसलमानों के दरमियान घुस आए थे।
शहादत
तारीख़ों से पता चलता है कि इमाम हसन (अ.स.) को मुआविया ने मुख़्तलिफ़ तरीकों से मजमुई तौर पर छः बार ज़हर के ज़रिए शहीद कराने की मज़मूम कोशिशें कीं जो इस्लामी तारीख़ का एक ज़बर्दस्त आलमिया और मुआविया की अय्यारी व मक्कारी की मोहक़म दलील है।
इसके ज़ैल में मुवर्रेखीन का बिल इत्तेफ़ाक़ बयान है . सुलह के बाद इमाम हसन (अ.स.) मुस्तकिल तौर पर मदीने मे फरोकश हो गए थे मगर मुआविया को यह फिक्र लाहक़ रही कि किसी तरकीब से इमाम की ज़िन्दगी का चिराग़ गुल कर दिया जाए ताकि वह सुलहनामे की शर्ताें के ख़िलाफ़ अपने फ़ासिक व फाजिर बेटे यजीद की वली अहदी का रास्ता हमवार कर सके। चुनांचे उसने मरवान बिन हिकम (गर्वनर मदीना) और मोहम्मद बिन अशअस बिन कैस किन्दी को एतमाद मे लेकर अपना राज़दार बनाया और इन दोनों के ज़रिए इमाम हसन (अ.स.) की जौजा जोअदा बिन्त अशअस को हमवार कर के उससे वादा किया कि अगर वह इमाम (अ.स.) को ज़हर देकर उनका काम तमाम करने में कामयाब हो गई तो वह इसे एक लाख दिरहम नकद देगा नीज़ अपने बेटे यज़ीद से उसका निकाह कर देगा।
इस इज्माल की तफसील यूं है कि वाली-ए-मदीना मरवान बिन हिकम को मुआविया ने यह हुक्म दे रखा था कि जिस तरह भी मुम्किन हो वह इमाम हसन (अ.स.) का काम तमाम कर दे। चुनांचे उसने मोहम्मद बिन अशअस (जो जोअदा का हकीक़ी भाई था) के मशवरे पर “अलयसूनिया” नामी रूमी दल्लाला को तलब किया और उसके हाथ जोअदा बिन्ते अशअस को वह ज़हर भेजा जो मुआविया ने खूसुसी तौर पर इमाम (अ.स.) को शहीद कराने के लिए रूम से मंगवाया था। जोअदा मुनासिब वक़्त और मौके की मुन्तज़िर रही और आख़िरकार 28 सफ़र सन् 50 हिजरी की शब में जबकि इमाम (अ.स.) अपनी ख़्वाब गाह में महवे ख़्वाब थे और करीब ही जनाब ज़ैनब व उम्मे कुलसूम भी सो रही थी। वह खामोशी से उठी, दबे पावँ इमाम की ख़्वाब गाह में दाख़िल हुई और उस पानी में वह ज़हर मिला कर वापस चली आई जो इमाम के पीने के लिए उनके सरहाने रखा था।
अभी कुछ ही वक्फ़ा गुज़रा था कि इमाम (अ.स.) की आखें खुली। आपने जनाबे ज़ैनब को आवाज़ दी, जब वह बेदार हुई तो फ़रमायाः ऐ बहन ज़ैनब ! अभी अभी मैने अपने नाना रसूल खुदा (स.अ.) अपने पिदर बुजुर्गवार अली मुर्तज़ा (अ.स.) और मादरे गिरामी फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) को ख़्वाब में देखा है। वह फ़रमा रहे थे कि ऐ हसन (अ.स.)! कल तुम हमारे पास होगे। इसके बाद आपने वजू के लिए पानी तलब किया और वजू करने के बाद उस पानी को पिया जो आपके सरहाने रखा हुआ था ! इधर पानी हलक के नीचे उतरा, उधर ज़हर ने अपना काम शुरू किया। जब आपको तकलीफ़ की शिद्दत और बेचैनी महसूस हुई तो आपने फ़रमायाः यह कैसा पानी था कि जिसने मेरा कलेजा पारा पारा कर दिया।
इस सानहे की इत्तेला इमाम हुसैन (अ.स.) को दी गयी। वह दौड़ते हुए आए और भाई की हालत गैर देखकर रोने लगे। इमाम हसन (अ.स.) ने उन्हे गले से लगाया, तसल्ली दी और चन्द वसीयतें की नीज़ अपने बच्चो को हुसैन (अ.स.) के सिपुर्द किया, उसके बाद ज़ैनब व उम्मे कुलसूम को अपने क़रीब बुलाकर उनके सरों पर हाथ फेरा और आँखें बन्द कर ली।
थोड़ी देर के बाद खून की उलटी हुई और जिगर के बहत्तर टुकड़े तश्त में आ गए। रूह जिस्मे अतहर से परवाज़ कर गयी और आप अपने नाना और वालिदैन की ख़िदमत में पहुँच गए। घर में कोहराम मच गया और मदीना के दर व दीवार से नौहा व मातम की आवाज़ें बुलन्द होने लगी।
तारीख़ की सराहत यह है कि आपकी शहादत के फौरन बाद मरवान ने जोअदा बिन्त अशअस को दो औरतों और एक मर्द के हमराह मुआविया के पास रवाना कर दिया। मुआविया ने उसके हाथ पांव बंधवाए और यह कहक़र दरियाए नील मे डलवा दिया कि जब तूने इमाम हसन (अ.स.) के साथ वफा न की तो यज़ीद के साथ क्या वफा करेगी।
इमाम (अ.स.) का ज़हर से शहीद किया जाना इस बात की खुली हुई दलील है कि आप उम्मते मुस्लेमा की नशअते सानिया के लिए मुसलसल सरगर्मे अमल थे और सुलह के बावजूद उमवी हुकूमत को आप के वजूद से ख़तरा लाहक़ था और उमवी घराना आपकी जात से एक नये इन्केलाब का ख़तरा महसूस कर रहा था।
मुआविया का सजदए शुक्र
इमाम हसन (अ.स.) की ख़बरे शहादत जब दमिश्क पहुँची तो मुआविया उस वक़्त दरबार में था, सुनते ही नारए तकबीर बुलन्द कर के अपनी मसर्रत व शादमानी का इज़हार किया और सजदए शुक्र में गिर पड़ा। उसके देखा देखी दरबार वाले भी नारए तकबीर बुलन्द कर के खुशियाँ मनाने लगे। जब इनकी आवाज़े मुआविया की बीवी बिन्ते करजा ने सुनी तो पुछा कि किस बात पर यह खुशी मनाई जा रही है? मुआविया ने जवाब दिया कि इमाम हसन (अ.स.) की शहादत हो गयी है इसी खुशी मे मैने नारए तकबीर बुलन्द कर के सजदए शुक्र अदा किया है। उसने कहाः वाए हो तुम पर कि फ़रज़न्दे रसूल क़त्ल किया जाए और दरबार में खुशी मनाई जाए।
तजहीज़ व तकफ़ीन
इमाम हसन (अ.स.) की शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने आपको गुस्ल व कफन दिया, नमाज़ जनाज़ा पढ़ी और उनकी वसीयत के मुताबिक उन्हें पैग़म्बर अकरम (स.अ.) के पहलू में दफ़्न करने की गरज़ से अपने कांधो पर रौजए मुबारक तक ले गए। अभी वहाँ आप पहुंचे ही थे कि हज़रत आएशा की सरबराही मे मरवान बिन हिकम और बनी उमय्या के कुछ दीगर अफ़राद ने आगे बढ़कर मुज़ाहिमत की और पहलूए रसूल (स.अ.) मे दफ़्न करने से रोका यह सुनकर बाज़ लोगों ने कहा, ऐ आएशा! तुम्हारा भी अजीब हाल है, कभी ऊँट पर सवार होकर दामादे रसूल (स.अ.) से जंग करती हो, कभी खच्चर पर सवार होकर फ़रज़न्द रसूल (स.अ.) के दफ़्न में मुज़ाहिमत करती हो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मगर वह एक न मानीं और अपनी ही ज़िद पर अड़ी रही यहा तक कि बात बढ़ गयी। आपके इशारे पर बनी उमय्या के अफ़राद ने आले मोहम्मद पर तीरों की बौछार कर दी और यहां तक तीर बरसाए कि सत्तर तीर इमाम हसन (अ.स.) के जनाज़े में पेवस्त हो गए आख़िर ब-हालते मजबूरी आपकी मय्यत को जन्नतुल बक़ी में लाकर दफ़्न कर दिया गया। वक्ते शहादत आपकी उम्र 47 साल की थी।
अज़वाज व औलादें
उमवी दौर की वज़ई (जाली) रिवायतों के तहत बाज़ नाफ़हम मुवर्रेखीन ने हज़रत इमाम हसन (अ.स.) पर कसरत अज़वाज का इल्ज़ाम आएद किया है जो महज़ एक इत्तेहाम है। हक़ीक़त बस इतनी है कि आपने अपनी ज़िन्दगी में कुल 6 अक़्द फ़रमाए और वक्ते शहादत पन्द्रह बेटे-बेटियाँ छोड़कर दुनिया से रूख़्सत हुए जिनकी तफसील मुन्दर्जा ज़ैल हैः
ज़ैद बिन हसन और उनकी दो बहनें उम्मुल हसन व उम्मुल हुसैन, उम्मे बशीर बिन्ते अबू मसउद अकबा बिन अम्र बिन सलबिया खिज़रिजया के बतन से थी। हसन बिन हसन की मां खूला बिन्ते मंजूर फ़ज़ारिया थी। अम्र बिन हसन और उनके दो भाई कासिम और अब्दुल्लाह की वालिदा उम्मे वलद थी। बाज़ मुवर्रेखीन का कहना है कि अब्दुर्रहमान भी उम्मे वलद के बतन से थे। हुसैन बिन हसन जिनका लकब असरम था और उनके भाई तलहा नीज़ एक बहन फ़ातिमा बिन्त हसन की वालिदा उम्मे इस्हाक बिन्ते तलहा बिन उबैदुल्लाह थी। उम्मे अब्दुल्लाह, फ़ातिमा उम्मे सलमा और रुकय्या इमाम हसन (अ.स.) की यह चारों बेटिया मुख़्तलिफ़ मांओं से थी।
आपकी नस्ल ज़ैद और हसने मुसन्ना से चली। जनाबे ज़ैद बड़े मुत्तकी, परहेज़गार और सदकाते रसूल (स.अ.) के आमिल थे। उन्होंने 60 साल की उम्र पायी और सन् 120 हिजरी मे इन्तेकाल फ़रमाया। जनाब हसन मुसन्ना भी बड़े जलीलुल क़द्र अलिम, फाजिल और सदकाते अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के मुतवल्ली थे। आपकी शादी इमाम हुसैन (अ.स.) की साहबज़ादी जनाब फ़ातिमा से हुई थी। आपने कर्बला की जंग मे भी शिरकत की थी और बेइन्तेहा ज़ख़्मी होकर मकतूलों मे दब गए थे। चुनांचे जिस वक़्त सरकाटे जा रहे थे उस वक़्त आपके मामूँ अबू हस्सान ने आपको ज़िन्दा पाकर उमरे सअद से ले लिया था। आपको ख़लीफ़ा सुलेमान बिन अब्दुल मलिक ने ज़हर दिया और आपने 52 साल की उम्र में इन्तेकाल फ़रमाया। आपकी शहादत के बाद आपकी जौजा एक साल तक आपकी कब्र पर ख़ेमाजन रही। इमाम (अ.स.) के तीन बेटे और भी कर्बला में शहीद हुए जो अब्दुल्लाह, क़ासिम और अम्र के नामों से मौसूम थे।
बनी उमय्या का तारीख़ी जाएज़ा
उमय्या बिन अब्दुश शम्स की नस्ल बनी उमय्या के नाम से याद की जाती है जो पस्ता कद, चुंधा, करनजा और इन्तेहाई बदशकल इन्सान था और उसके चहरे से हर वक़्त नहूसत टपका करती थी। हस्सान बिन साबित ने उसकी औलाद अब्दुश शम्स होने से इंकार किया है।
बनी उमय्या की दो बड़ी शाखें हुई। एक शाख़ के मशहूर अफ़राद में हर्ब, अबूसुफियान, मुआविया और यज़ीद वग़ैरा मशहूर अफ़राद गुज़रे है।
गुज़िशता सफ़हात मे हम तहरीर कर चुके है कि बनी हाशिम से बनी उमय्या की अदावत व मुख़ालिफ़त की वजह यह थी कि उमय्या का बाप अब्दुस शम्स और बनी हाशिम के मूरिस आला हाशिम दोनों जुड़वा पैदा हुए थे इस तरह कि एक की उंगली दुसरे के पेशानी से चिपकी हुई थी जिसे तलवार से काटकर अलग किया गया था। चुनांचे नजूमियो ने उसकी ताबीर दी थी कि इनमें हमेशा आपस मे खूँनरेज़ी होती रहेगी।
यह हिकायत अपनी हक़ीक़त के एतेबार से कुछ सही लेकिन इस सच्चाई से इंकार नही किया जा सकता कि बनी हाशिम से बनी उमय्या हमेशा बरसरे पैकार रहे और यह सिलसिला आख़िर वक़्त तक क़ाएम रहा।
तारीख़ में खुद हाशिम और अब्दुस शम्स मे मुनाज़िअत या जंग की कोई मिसाल नही मिलती लेकिन अब्दुस शम्स के बाद उमय्या की तरफ से मुखासिमत की इब्तेदा नज़र आती है जब वह हाशिम से मुकाबले की कोशिश में न काम हुआ और उसने एक शिकस्त खुर्दा फ़रीक़ की तरह तसादुम का सिलसिला जारी रखा।
इसके बाद हर दौर, हर ज़माने में बनी उमय्या बनी हाशिम से बरसरे पैकार रहे। यहाँ तक कि मक्का में आफ़ताबे हिदायत तुलू हुआ और सारी दुनिया इसके नूर से जगमगाने लगी, इन्सानी जाबतए हयात मुरत्तब हुआ, तहज़ीब व तमद्दुन की राहें हमवार हुई और इन्सान को इन्सानियत की रौशनी मिलने लगी लेकिन इस बदबख़्त क़ौम पर जाहिलियत की तारीकी बदस्तूर मुसल्लत रही। यह हमेशा रसूल (स.अ.) की रिसालत और अल्लाह की वहदानियत के मुन्किर हैं जिसके नतीजे में खुद हुजू़र (स.अ.) को इनसे मुतअअद्दिद लड़ाईयाँ लड़नी पड़ीं। अल्लाह के रसूल (स.अ.) ने दस बरस तक सख़्त तरीन मुशकिलात व मसाएब का सामना कर के उन्हें पस्पा किया था और उनकी कूव्वतों को तोड़ा था। हज़रत अली (अ.स.) की तलवार ने मुख़्तलिफ़ इस्लामी मारको में उन्हें कैफ़रे किरदार तक पहुँचा कर उनकी हालतों को मुर्दा बना दिया था। इस्लाम और पैग़म्बर के खि़लाफ़ शमशीर ज़नी में महारत रखने वाले उनके बाजू शल हो गए थे उनके पुर तमकनत चेहरे हसरत व यास की धूप में झुलस कर सियाह पड़ गए थे। मायूसियों और नाकामियों ने उनके जिस्मों का सारा लहू निचोड़ कर उन्हें लागर बना दिया था। यह इक़्तेसादी व माली बोहरान का शिकार हो चुके थे, परेशानी व ज़बूंहाली उनका मुक़द्दर बन चुकी थी, उनके हौसले पस्त हो चुके थे और उनमें इतनी सकत नहीं रह गयी थी कि यह लोग अपनी हिरस व तमा के लिए या हुसूले मकसद के लिए दोबारा अपने हाथों को दराज़ करते। इसलिए “मरता क्या न करता” के उसूल पर अमल पैरा होकर फतहे मक्का के बाद जबरन व कहरन दायरए इस्लाम में कदम रखना ही पड़ा और चूंकि इस क़ौम ने मजबूरियों की बिना पर इस्लाम कुबूल किया था इसलिए हमेशा नाकिसुल इस्लाम रही।
पैग़म्बरी दौर में इस गिरोह का सरदार मुआविया का बाप अबू सुफ़ियान था जो इस्लाम के दबदबे और शिकोह से मुतअसिर होकर मुसलमान तो हो गया था लेकिन उसकी नफसियाती हालत वही रही जो एक शिकस्त खुर्दा हरीफ की होती है। नफरत, दुश्मनी, गुस्सा, जज़्बए इन्तेक़ाम और उसके साथ ही वह ख़ौफ़ जिसके नतीजे में वह खुलकर अपनी अदावत का इज़हार तो न कर सकता था मगर बराबर मौके की तलाश में रहा करता था कि किस तरह इस्लाम को नुकसान पहुंचाए। उसकी कोशिश हमेशा यही रही कि वह इस्लाम को ख़त्म न कर सके तो कम अज़ कम उन खुसूसियाते इम्तेयाज़ी को तब्दील कर दे जो उसने क़ाएम किए हैं। मगर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की ज़िन्दगी में कामयाबी नामुम्किन थी इसलिए वह इस्लाम के ख़िलाफ़ मुनाफिकाना हर्बे इस्तेमाल करता रहा। यहां तक कि सन् 2 हिजरी आई और बद्र का मारका हुआ। इस जंग में बनी उमय्या को बहुत ज़्यादा नुकसानात से दो चार होना पड़ा। अबू सुफ़ियान को अली बिन अबीतालिब (अ.स.) के हाथों महज़ अपने बेटे हंज़ला के क़त्ल पर ही मातम नहीं करना पड़ा बल्कि उसका एक दूसरा बेटा उमर कैद भी हुआ। इसके अलावा उसकी बीवी हिन्दा को अपने बाप अतबा, चचा शैबा और भाई वलीद का मातम करना पड़ा और यह लोग भी अली (अ.स.) ही के हाथों क़त्ल हुए उस मौक़े पर मुआविया क़त्ल और गिरफ़्तारी दोनों से बच गया था क्योंकि वह मैदान छोड़कर भाग निकला था।
अब अबू सुफ़ियान की अदावत इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ बामे उरूज पर क्यों न पहुंचती क्योंकि बद्र के मारके न शिर्क की वह इमारत मुतजलज़िल कर दी थी जिसके साए में अबू सुफ़ियान की ज़िन्दगी बसर हुई थी। चुनांचे हर मुम्किन तरीके से उसने मुशरेकीन के दिलों में पैग़म्बर (स.अ.) के ख़िलाफ़ अदावत की आग भड़काई, उसने कुफ्फार को मना कर दिया कि वह अपने मकतूलीन पर न रोएं और न ही उनका मातम करें। शोअरा को रोक दिया कि वह मकतूलीन का मरसिया न कहें। यह इसलिए किया गया कि पैग़म्बर (स.अ.) के ख़िलाफ़ ग़म व गुस्सा और ग़ैज़ व गज़ब की आग मुशरेकीन के दिलों में सर्द न होने पाए। सन् 3 हिजरी में ओहद की जंग वाके़ हुई। उसमें अबू सुफ़ियान ने खुसूसी तैय्यारियां की थीं और उसकी फौज में ख़ानदाने कनाना के अफ़राद और तहामा के बाशिन्दगान भी शामिल थे। अबू सुफ़ियान की बीवी मक्के की दूसरी औरतों के साथ इस जंग में ढ़ोल बजा बजा कर सिपाहियों की हिम्मत अफ़ज़ाई कर रही थी। उसके इन्तेकामी जज़्बात का अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि जब रसूल (स.अ.) के चचा जनाबे हमज़ा शहीद हुए तो इन्तेकाम में अपनी सिन्फ बल्कि इन्सानियत से गुज़र गयी। उसने बरबरियत का यह सुबूत दिया कि जनाबे हमज़ा का पहलू चाक करके उनका जिगर निकलवाया और उसे चबा गयी।
इस वाकिए से एनाद और दुश्मनी का अन्दाज़ा बखूबी किया जा सकता है जो इस ख़ानदान के मर्दों और औरतों के दिलों में बनी हाशिम, पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) और इस्लाम के लिए पाया जाता था।
सन् 5 हिजरी में बनी उमय्या ने आखि़री कोशिश यह की कि जितनी जमाअतें अरब में इस्लाम के ख़िलाफ़ मोहय्या हो सकती थीं उन सबको मुत्ताहिद किया। यहूदियों को भी साज़बाज़ करके अपने साथ मिलाया और इज्तेमाई ताकत से उस जंग के लिए आए जो तारीख़ में जंगे अहज़ाब के नाम से मशहूर है। इस जंग में भी उन्हें शिकस्त का मुंह देखना पड़ा और उनका माया नाज़ सूरमा अम्र बिन अब्दवुद हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) के हाथों मारा गया। ग़रज़ कि अबू सुफ़ियान को अपनी तबाही व बर्बादी के साथ मक्के वापस जाना पड़ा। अब मुकाबला और लश्कर कुशी की हिम्मत ख़त्म हो चुकी थी मगर दिल में इन शिकस्तों से जो घाव पड़े थे वह कभी न भर सके।
यह फितरी बात है कि इन्सान शिकस्त खुर्दा और बेबस हो जाने पर सर झुका सकता है, हाथ रोक सकता है, हथियार डाल सकता है, ज़बान बन्द कर सकता है लेकिन अपने दिल की कैफियात में तब्दीली नहीं पैदा कर सकता। क्या वह नफरत और दुश्मनी जो बामे उरूज तक पहुंच गयी थी मोहब्बत और अक़ीदत में तब्दील हो सकती थी? लिहाजा वह दुश्मन जो फुंकारें मारता हुआ अज़दहे की तरह रसूल (स.अ.) के सामने मौजूद था, फतहे मक्के के बाद मारे आस्तीन बनकर पहले से ज़्यादा खतरनाक साबित हुआ। यही सबब था कि हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि यह लोग इस्लाम नहीं लाए बल्कि इस्लाम के सामने इन्होंने अपने हथियार डाल दिए थे। और रसूल (स.अ.) ने फ़रमाया कि हमारा सबसे बड़ा दुश्मन बनी उमय्या का क़बीला है। (निसाहे काफिया, पेज 26)
मुआविया बिन अबू सुफ़ियान
मुआविया के परदादा उमय्या ने एक शामी लड़की से जिना की जिसके नतीजे में ज़कवान (अबू उमर ) नाम का एक लड़का पैदा हुआ। उसके बाद उमय्या की बीवी ज़कवान के तसर्रुफ़ में आ गयी और मां बेटों के इश्तेराक से एक लड़का मुसाफ़िर नाम का पैदा हुआ। इस तरह बतनी लिहाज़ से मुसाफिर ज़कवान का भाई और नुत्फे के लिहाज़ से उसका बेटा था।
मुसाफ़िर ने जब जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा और नफ़सानी ख्वाहिशात ने उसकी पासबानी की तो उसकी निगाहे इन्तेखाब हिन्दा पर पड़ी जो माशूका में तब्दील हो गयी। यहां तक कि हिन्दा हामिला हुई और जब हमल ज़ाहिर हुआ तो मुसाफिर छोड़ कर फरार हो गया। अबू सुफ़ियान के दिल व दिमाग पर भी हिन्दा का हुस्न व शबाब छाया हुआ था। उसने मौका गनीमत जान कर हिन्दा के बाप से माले कसीर के एवज़ उसकी ख्वास्तगारी की। बाप ने अपनी बदनामी और रूस्वाई, का ख़्याल करते हुए अबू सुफ़ियान की इस दरख्वास्त को मंजूर कर लिया और दौरे जाहिलियत की रस्म के मुताबिक हिन्दा का निकाह अबू सुफ़ियान से हो गया। और फिर निकाह के तीसरे महीने मुआविया कलमए कुफ़ पढ़ता हुआ बतने मादर से बरामद हो गया।
ज़मख़शरी, असमई और इब्ने हिशाम ने मुआविया को चारियारी बताया है। उनका कहना है कि मुआविया मुसाफिर, अबू सुफ़ियान, अम्मारा और अब्बास की तरफ़ मनसूब है मगर कलबी ने लिखा है कि मुआविया सिर्फ अम्र के बेटे मुसाफिर का बेटा है जो अबू सुफ़ियान की तरफ़ मनसूब हो गया।
अमीरुल मोमेनीन अली बिन अबीतालिब (अ.स.) ने मुआविया को “नसीक” फ़रमाया है जिसके माने मुत्तहिम-उन-नसब के हैं। इमाम हसन (अ.स.) का इरशाद है कि “मैं उस फ़र्श को जानता हूं जिस पर मुआविया पैदा हुआ है।” इस क़ौल की तशरीह में इब्ने जौज़ी का कहना है कि इमाम (अ.स.) के इस कौल में चारियारी इशारा पिन्हा है जिसमें अबू सुफ़ियान, अम्मारा, मुसाफिर और अब्बास की तरफ़ मनसूब किया गया है।
मुहम्मद बिन अबू बक्र ने मुआविया को लईन बिन लईन कहा है और हज़रत आएशा ने भी मुआविया पर लअनत की है और उसकी बहन उम्मे हबीबा को दुख्तरे जने जिनाकार कहा है। इसकी वजह यह सकती है कि बनी उमय्या की फ़ाहिशा और पेशावर औरतें उस दौर में शिनाख़्त के लिए अपने घरों पर मखसूस झन्डे लगाती थीं चुनांचे उसी क़बीले की जिन मशहूर औरतों का बाज़ारे इस्मत फ़रोशी हर वक़्त गरम रहता था उनमें मुआविया की मां हिन्दा, मुआविया की दादी हमामा, अम्रे आस की मां नाबेगा और मरवान की मां ज़रका का नाम तारीख में नुमाया है।
तबरी की रिवायत के मुताबिक हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) ने भी मुआविया, उसके बाप और उसके भाई पर लअनत की है।
मसूदी ने मुतरिब बिन मुग़ैरा बिन शैबा का बयान नक़्ल किया है कि मैं अपने वालिद के हमराह शाम गया और जब मुआविया से मुलाकात हुई तो बातचीत के दौरान मेरे वालिद ने उससे बनी हाशिम के लिए इल्तेफात की दरख्वास्त की। मुआविया ने कहा अफ़सोस कि बनी तमीम में एक भाई (अबू बक्र ) ने हुकूमत पाई और हुक्मरां हुए लेकिन उनकी हुकूमत ख़त्म हो गयी और उसके साथ ही उनका नाम भी खत्म हो गया। फिर बनी अदी में से एक भाई (उमर) ने हुकूमत हासिल की मगर वह भी ख़त्म हो गयी और उनका नाम भी मिट गया। उनके बाद हमारे खानदानी भाई (उस्मान) तख्ते इक़्तेदार पर आए और आख़िरकार अपने आमाल के नतीजे में क़त्ल कर दिए गए और उनकी हलाकत के साथ उनका नाम भी हलाक हो गया। सिर्फ़ उनके कारे बद का तज़केरा रह गया लेकिन हाशमी भाई (रसूलुल्लाह (स.अ.)) का नाम रोजाना पांचों वक़्त अज़ान में पुकारा जाता है। इस नाम के बाकी रहने से हमारा कोई फाएदा नहीं है, लिहाजा क्यों न इसे हमेशा के लिए दफ़्न कर दिया जाए।
मुतज़क्किरा बाला वाक़िआत से मुआविया की नसबी हक़ीक़त, उसकी अय्याराना फ़ितरत, उसकी ज़लील व पस्त ज़हनियत, उसकी मुनाफिक़त और इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) से उसकी नफ़रत व अदावत का पता चलता है।
हुसूले इक़तेदार के बाद मुआविया ने मुसलमानों पर मज़ालिम और गुण्डागर्दी का जो बाजार गर्म कर रखा था उसकी मिसाल तारीख़ के अवराक़ मे नही मिलती। चुनांचे इसके एक गवर्नर सुफ़ियान बिन औफ़ ग़ामदी का बयान है कि मुआविया ने मुझे एक बड़े खूंख़ार लश्कर की कयादत सिपुर्द करते हुए कहा कि तुम फुरात के किनारे किनारे चलते रहना यहाँ तक कि हौत से आगे बढ़ जाना। वहाँ किसी लश्कर से सामना हो तो उस पर हमला कर देना वरना और आगे निकल जाना और अंबार पर हमला करते हुए मदाएन पहुँच जाना। यह हमले इराक़ियों मे खौफ़ व दहशत पैदा करेगे और जो खौफ़ज़दा हों उन्हें हमारा हमनवा बनाने की कोशिश करना और वह न माने तो उन्हें क़त्ल कर देना। और सुनो जिस इलाके से तुम गुज़रना उसे तबाह व बर्बाद कर देना और वहाँ के लोगों का सारा माल व असबाब लूट लेना क्योकि माल का लूटना क़त्ल के मुतरादिफ है बल्कि उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक है।
ज़हाक बिन कैस फ़हरी को कूफा की तरफ रवाना किया और कहाः
“जो भी अली (अ.स.) का चाहने वाला मिले उस पर हमला करो और उसे क़त्ल कर दो।”
जहाक रवाना हुआ। उसने लोगों का माल मता सब लूट लिया और जो उसे मिला क़त्ल कर दिया। सअलबिया पहुँच कर उसने हाजियों पर हमला किया और उनका सामान लूट लिया। अब्दुल्लाह बिन मसऊद के भाई अम्र और उसके साथियों को तहे तेग़ कर दिया।
बुस्र बिन अरतात को हिजाज व यमन की तरफ रवाना किया और कहाः तू मदीना रवाना हो जा और वहाँ के लोगों पर हमला करके उनका सारा माल व मता लूट ले और उन्हें शहर बदर कर दे फिर किसी ऐसे शहर मे दाख़िल हो जा जहाँ के लोग अली (अ.स.) के इताअत गुज़ार हों, उन्हें मेरी बैअत पर राज़ी कर और अगर वह इन्कार करे तो उन्हे क़त्ल कर दे।
बुस्र ने मक्का और मदीना पर हमला कर के तीस हज़ार मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया। यह तादाद उन लोगों के अलावा है जिन्हें जिन्दा आग में जलाया गया।
कूफ़ा में शियाने अली (अ.स.) की अकसरीयत थी, वहाँ मुआविया ने ज़ियाद बिन सुमैया को गवर्नर की हैसियत से मुसल्लत किया। यह शख़्स हज़रत अली (अ.स.) के अहद में कूफ़े में रह चुका था और वहां के शियों से वाक़िफ़ था। चुनांचे उसने उन्हें चुन चुन कर क़त्ल किया, उनके हाथ पैर काटे, आखें निकाली और दरख़तों पर लटका कर उन्हें सूली दे दी और जो बच गए उन्हे मुल्क बदर कर दिया।
मुआविया ने अपने गवर्नरो के नाम भी यह फ़रमान जारी किया कि जो शख़्स भी अली (अ.स.) की मोहब्बत का मुजरिम करार पाए उसे क़त्ल कर दो और उसके घर को मिसमार व तबाह कर दो।
इस फ़रमान के बाद मज़ालिम की तारीख़ का जो बाब खुला उसे बयान करने के लिए पत्थर का दिल चाहिए। इन अफ़सोस नाक वाकिआत को इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की ज़बान से सुनिए आप फ़रमाते हैः
हमारे शिया हर शहर में मारे गए और सिर्फ शक की बिना पर उनके हाथ पाव क़ता कर दिए गए। हर वह शख़्स जुल्म व सितम का शिकार हुआ जो हमारी जमाअत में शामिल था। उन्हें क़त्ल किया गया, उनका माल व असबाब लूट गया। उनके घरों को तबाह व बर्बाद किया गया और यह सिलसिला उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद के दौर तक जारी रहा।
मुआविया ने बसरा में समरा बिन जुन्दब को वाली मुकर्रर किया। उसने क़त्लो गारत गरी की इन्तेहा कर दी। उसके मकतूलों की तादाद नाकाबिले शुमार बताई गयी है अबूसवार अदवी का कहना है कि समरा ने एक ही सुबह को मेरी क़ौम के ऐसे 47 अफ़राद क़त्ल किए जिन्हांेने र्कुआन जमा किया था।
मुआविया के हुक्म से अब्दुल्लाह बिन अब्बास के दो कमसिन बच्चे मां की गोद में जिबह कर डाले गए। मुआविया ने शोहदाए ओहद की क़ब्रों पर से नहर निकाली और उनकी लाशों को मुन्तकिल किया। लाशांे को निकालने मे एक बेलचा हज़रत हमजा के पैरों में लगा जिससे ख़ून ताज़ा जारी हो गया था। मुआविया ही ने मालिके अशतर को जहर से शहीद कराया। मुआविया ही ने मोहम्मद बिन अबू बक्र को गधे की खाल मे रखवा कर ज़िन्दा जलवा दिया। मुआविया ही ने सहाबीए रसूल (स.अ.) अम्र बिन हुमक़ को क़त्ल कराया और मुआविया ही ने सन् 56 हिजरी मे उम्मुल मोमेनीन आएशा को एक कुंए में ज़िन्दा दर-गोर करके उसमें चूना भरवाया और फिर पत्थरों से पटवा दिया।
गरज़ कि मुआविया की ज़ालिमाना व जाबिराना फितरत व तीनत और उसके करियहुल मंज़र किरदार की आईनादारी के लिए बस इतना ही काफी है कि वह हज़रत अली (अ.स.), इमाम हसन (अ.स.), उम्मुल मोमेनीन आएशा, अम्मार यासिर, मालिके अशतर, अब्दुर्रहमान बिन ख़ालिद और मुहम्मद बिन अबू बक्र वगैरा का मुसल्लमुत सुबूत कातिल है।
यज़ीद बिन मुआविया
बाज़ मुवर्रिखीन का बयान है कि आँहज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया कि मेरे नवासे हुसैन (अ.स.) का कातिल मुआविया बिन अबू सुफ़ियान के सुल्ब से होगा। मुखबिरे सादिक़ की इस ख़बर को सुनने के बाद मुआविया ने एक मुद्दत तक औरतों से मुलाकात व मुकारबत तर्क कर दी थी। कज़ाए कार कि एक मर्तबा मुआविया पर सफ़र के दौरान शहवत का ऐसा भूत सवार हुआ कि जिसका इलाज होकमा व अतिब्बा के नज़दीक मुकारबते निस्वानी के सिवा कुछ न था। चुनांचे जब उस शैतानी मर्ज़ की शिद्दत से उसकी जान पर बनने लगी तो उसके हवारीन ने काफ़ी दौड़ धूप के बाद एक सहराई लड़की मैसून बिन्ते बहदिल कल्बी को तलाश किया और उसके बाप को इस बात पर रज़ामन्द किया कि वह मुआविया से मैसून का अक़्द कर दे। ग़रज़ कि अक़्द हुआ और अक़्द के बाद इसी अफ़रा तफ़री और आरजी धर पकड़ के आलम में यज़ीद का नुतफा मुस्तकर हुआ।
मुआविया उसे अपने साथ दमिश्क ले आया मगर एक सहराई औरत होने की वजह से मैसून शहरी ज़िन्दगी और मोहज़्ज़ब सोसाईटी से नफ़रत करती थी, उसे अपना क़बीला, अपना जंगल और उसमें चरती हुई भेड़ बकरियां हर वक़्त याद आती रहती थीं और वह हर लम्हा अपनी हमजोलियों और सहेलियों के ख्यालों में खोई रहती थी।
मुआविया को यकीन था कि मैसून कै़सर व किसरा का ठाट बाट और शाहाना माहौल की नैरंगियों को देखकर लुत्फ अन्दोज़ और महज़ूज़ होगी और हर वक़्त उनकी मोहब्बत का दम भरेगी मगर उसका यह यकीन उस वक़्त मायूसी में बदल गया जब उसने उससे अपनी बेज़ारी और नफरत का इज़हार किया जिसके नतीजे में उसे मैसून से इज़़्देवाजी रिश्ता मुन्क़ता करना पड़ा। अल्लामा दमीरी लिखते हैं कि:
जब मैसून बिन्ते बहदिल कलबी मदरे यज़ीद से मुआविया की मुलाकात हुई तो वह बखुद से उसे अपने हमराह लाया। मैसून बेहद खुबसूरत और साहबे जमाल थी। मुआविया दिल व जान से उस पर फ़रेफ़्ता था मगर वह उससे नफरत करती थी। उसने मुआविया की हजो में अशार कहे जिसमें उसको अलज अलूक (नाक छिदे हुए बछड़े) से तशबीह दी और बुरा भला कहा। मुआविया को जब यह बात मालूम हुई तो वह नाराज़ हुआ और उसने कहा, मैं तुझको तीन बार तलाक़ देता हूं तू यहां से चली जा। चुनांचे वह अपने क़बीले में चली गयी और वहीं यज़ीद पैदा हुआ जिसे दो साल बाद मुआविया फिर अपने साथ ले आया।
मुवर्रिख़ अबुल फिदा रक़म तराज़ हैं:-
“यज़ीद की मां मैसून बिन्ते बहदिल कलबिया थी। वह अपनी मां के साथ जंगल में रहता था। मुआविया ने यज़ीद की मां को इसलिए छोड़ा था कि एक रोज़ वह कुछ अशआर पढ़ रही थी जिनका मतलब यह था कि काश मैं अपने गरीब व नादार चचा ज़ाद भाई के साथ ब्याही जाती तो उसे मैं इस मुस्टण्डे (मुआविया) के मुक़ाबिल में बेहतर समझती। मुआविया ने यह सुना तो वह बरहम हुआ और उससे कहा कि अगर तुझे मेरे साथ रहना मंजूर नहीं है तो अपने क़बीले में चली जा। चुनांचे वह चली गयी।”
अरब के मशहूर मुवर्रिख़ अबूसी मंसूरी अपनी किताब “तारीख ज़बीदतुल फिक्रा” में लिखते हैं:-
“मैसून के अशआर का मफ़हूम यह था कि मैं अपनी अबा के मोटे कपड़े को लेबासे हाए फाखि़रा से ज़्यादा पसन्द करती हूं और कुशादा महल से मुझे अपना वह घर ज़्यादा अज़ीज़ है जिसमें हवा मुश्किल से आती है। मुझे कीड़े मकोड़ों की आवाज़ें इस क़स्र में गूंजने वाली साज़ व नग़मा की आवाज़ों से ज़्यादा महबूब है। मैं उस कुत्ते को इस महल की हज़ारों बिल्लियों से बेहतर समझती हूं जो लोगों की पासबानी करता है और मैं अपने क़बीले के एक नौजवान व शरीफ़ इन्सान को इस काफिर के मुकाबिले में ज़्यादा अज़ीज़ महबूब रखती हूं। मैसून के मुंह से यह हजो सुनकर मुआविया ने उसे तलाक दे दी और उसे उसके घर भेज दिया।”
मुतज़क्किरा बाला मुवर्रिखीन के मज़कूरा इक़्तेबासात से ज़ाहिर होता है कि यज़ीद की मां एक सेहराई औरत थी जो मुआविया से नफ़रत करती थी क्योंकि उसकी नज़र में वह काफिर, साज़ व नगमे का दिलदादा और बिल्लियों का रसिया था। लिहाज़ा मैसून ने उसकी हजो में अशआर पढ़े और उसने बरअफरोख़्ता होकर उसे तलाक दे दी। मगर साहबे नासिखुल तवारीख़ इस तलाक का सबब कुछ और ही बताते हैं वह लिखते हैं कि:
“मैसून के बाप बहदिल का एक गुलाम था जिसका नाम सफ्फाह था। मैसून उसी गुलाम से हामला होकर मुआविया के घर में आई। चूंकि उसका हमल अभी पूरी तरह ज़ाहिर न हुआ था इसलिए यह राज़ पोशीदा रहा। यहां तक कि उसने एक लडके को जन्म दिया तो मुआविया ने उसे अपना लड़का जानकर उसका नाम यज़ीद रखा। यह सिलसिला कुछ दिन तक चलता रहा और जब मुआविया व मैसून में कशीदगी पैदा हुई तो मुआविया ने उसे तलाक दे दी और वह फिर अपने क़बीले में चली गयी।”
मुआविया और मैसून के दरमियान नफ़रत कशीदगी, तलाक़ और अलाहेदगी की असल वजह यही मालूम होती है वरना ज़बानी मताअन या हजोईया अशआर जन व शौहर के दरमियान मुफ़ारेकत, तलाक और जुदाई का ज़रिया नहीं बन सकते और न ही ख़्वानगी उमूर में कोई मर्द अपनी बीवी के बारे में नाजाएज़ तअल्लुकात का हतमी सुबूत फ़राहम किए बगैर उससे किनारा कशी इख़्तेयार करता है।
अल्लामा दमीरी की रिवायत पर गौर करने से पता चलता है कि तलाक़ के बाद मुआविया मैसून पर फिर काबिज़ व मुतसर्रिफ हो गया था, न हलाला हुआ न निकाहे सानी। चुनांचे इस शरई खिलाफवर्जी और दोबारा तसर्रुफ़ के नतीजे में यज़ीद का हमल करार पाया।
बहरहाल जिस नौईयत और जिस एतबार से भी देखा जाए यज़ीद की विलादत जाएज़ तरीके से साबित नहीं होती। अगर तलाक़ के बाद यज़ीद का नुतफ़ा करार पाता है तो भी हराम और अगर सफ्फाह की शिरकत पर यकीन कर लिया जाए तो भी हराम दर हराम।
यज़ीद के नानिहाली क़बीले के बूद व बाश चूंकि नज्द के जंगलों में थी और यज़ीद भी वहीं पैदा हुआ इसलिए उसका अख़लाक़ी और तहज़ीबी रिश्ता अरब की मोहज़्ज़ब सोसाईटी से मुनकता रहा। उसके नानिहाल में न कोई पढ़ा लिखा था और न शाईस्तगी और तहज़ीब से बहरामन्द, न ही उनका ऐसे लोगों के साथ इत्तेहाद व इरतेबात था जिसकी वजह से यजीद के लिए तालीम व तरबियत का रास्ता हमवार होता। यह ज़रूर था कि शफ़क़त पिदरी के तहत मुआविया कभी-कभी उसको अपने पास बुला लेता था मगर उसके सेहराई अख़लाक़ व आदाब को यह आरज़ी सोहबत कहां तक दुरूस्त करती। लिहाज़ा यज़ीद के खूंखार जालिम और दरिन्दा सिफ़त होने की एक वजह यह भी थी कि उसकी परवरिश व परदाख़्त काफी मुद्दत तक सेहराई माहौल में हुई थी और जंगल की आब व हवा ने उसकी तीनत से इन्सानी जौहर निकाल कर हैवानियत के तमाम अज्ज़ा कूट कूट कर भर दिए थे।
यज़ीद को शाएराना ज़ौक़ विरासत में मिला था। चूंकि मुआविया के हक़ में यज़ीद की मां मैसून की हजोईया शायरी इस हक़ीक़त की ग़म्माज़ है कि वह एक साहबे तर्ज़ शाएरा थी और उधर मुआविया भी शाएरी में माहिराना दस्तरस रखता था इसलिए इस जौहर का यज़ीद की तरफ मुन्तकिल होना तअज्जुब ख़ेज़ हरगिज़ नहीं है। मुस्तजाद यह कि शराब व कबाब और इश्क व मुहब्बत की हसीन व रंगीन महफ़िलों ने उसके मज़ाके सुख़न दो आत्शा बना के उसकी फिक्र में एक ख़ास तनव्वो और आशिकाना रंग भर दिया था। यज़ीद के बेशतर अशआर कुफ्ऱ व इल्हाद के मज़ामीन से भरे पड़े हैं। जिनकी चन्द मिसालें मुन्दर्जा ज़ैल हैं:-
(1) अगर दीने मुहम्मदी में शराब हराम करार दिया गया है तो मसीही दीन में दाखिल होकर पिया करो।
(2) ख़ुदा ने यह नहीं कहा कि जहन्नुम उनके लिए है जो शराब पीते हैं बल्कि खुदा ने यह कहा है कि जहन्नुम उन लोगों के वास्ते है जो नमाजें पढते हैं।
(3) शराब के हरीफों से कहा कि वह गानों की सदाएं सुनें और शराब पिएं। मुझे अजान की आवाज़ से ज़्यादा सारंगी और सितार की आवाजें पसन्द हैं। हूरों के एवज़ शीरों की परी मुझे ज़्यादा अज़ीज़ है।
(4) मैं ऐसी शराब में मस्त होकर मुहम्मद (स.अ.) का सामना करना चाहता हूं जिसका असर मेरी हड्डियों तक पहुंच गया हो।
ग़रज़ कि यज़ीद के दीवान में कितने ही ऐसे अशआर मौजूद हैं जिनसे उसकी शराबखोरी, कुफ्ऱ व इल्हाद और इस्लाम व ईमान का पता चलता है।
यज़ीद पर लअनत का जवाज़
· यज़ीद कत्ले हुसैन (अ.स.) का हुक्म देने वाला और उस पर राज़ी व खुश था इसलिए वह लअनते अबदी का मुस्तहक़ है।
· यज़ीद दुश्मने खुदा, शराबी, तारिकुस सलात, ज़ानी, फ़ासिक, मुहर्रमाते इलाही का हलाल करने वाला और नवासए रसूल (स.अ.) का कातिल था इसलिए क़ाबिले लअनत है।
· अल्लाह ताला यज़ीद पर लअनत करे और उसके साथ ही ज़ियाद और इब्ने ज़ियाद पर भी।
· उम्मुल मोमेनीन आएशा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया कि छः अशख़ास ऐसे हैं जिन पर मैंने भी लअनत की और अल्लाह ने भी, और वह यह हैंः
(1) जो अल्लाह की किताब में तहरीफ या इजाफा करे।
(2) जो मर्ज़ी-ए-इलाही का मुनकिर हो।
(3) जो जुल्म और जब्र से मखलूके ख़ुदा पर मुसल्लत हो जाए और जिसे अल्लाह ने ज़िल्लत दी है उसे इज़्ज़त बख़्शे और जिसे अल्लाह ने इज़्ज़त दी है उसे जलील करे।
(4) जो अल्लाह के हरमे पाक को बेहुरमत करे।
(5) जो मेरी इतरत से दुश्मनी रखे।
(6) जो मेरी सुन्नत और सलवात का तारिक हो। मज़कूरा हदीस की रौशनी में अगर मुआविया और यज़ीद के ज़िन्दगियों को देखा जाए तो मालूम होगा कि उनके अन्दर बहुत सी लअनती बातें जमा हो गयीं थीं।
· महमूद बिन सुलेमान कफ़वी अपनी किताब “एलानुल अख़बार” में तहरीर फ़रमाते हैं कि यज़ीद पर लअनत इसलिए जाएज़ है कि उसका कुफ्ऱ तवातुर से साबित है।
मज़कूरा ओलमा के अलावा भी ओलमाए अहले सुन्नत की एक बहुत बड़ी तादाद यज़ीद को काफ़िर समझती है और उसे काबिले लअनत गर्दानती है जिनमें से कुछ मखसूस ओलमा के नाम हम अपनी किताब “तफ़सीरे कर्बला” में तहरीर कर चुके हैं।
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मदीना, मक्का दमिश्क़ और कूफा की इज्तेमाई हालत
मदीना
मदीना की सरज़मीन इसलिए आमाजगाहे शरफ़ है कि रसूल अल्लाह (स.अ.) की दावत पर यहां के लोगों ने इस्लाम लाने में सबक़त की। और यह शहर 25 साल तक मुसलमानों के मामलात “हल व फ़सल” का मरकज़ बना रहा। मक्का से हिजरत इख़्तेयार करने के बाद आँहज़रत (स.अ.) ने अपने क़याम की खातिर उसे मुन्तख़ब फ़रमाया। यहां के लोगों ने समीमे कल्ब से आपका इस्तेकबाल व खैर मक़दम किया और आपकी मदद की। लेकिन आपकी वफात सन् 11 हिजरी के बाद यहाँ के लोगों में गैर मुतवक्के़ तौर पर ज़बर्दस्त तब्दीलियाँ आ गयी थी। उनका एहसास मर चुका था और इसके साथ ही बेहिसी व ईमान की कमज़ोरी उनके वजूदे हयात पर मुसल्लत हो चुकी थी। गालिबन यही वजह थी की इस शहर के अवाम को इब्ने कव्वा ने मुआविया से इन अल्फ़ाज़ मे मुतअर्रिफ कराया हैः “यहाँ के लोग हरीस, शरपन्द और फ़ितना अंगेज़ी में बहुत आगे है मगर इसके नताएज बर्दाश्त करने में इन्तेहाई कमजोर, काहिल, सुस्त और नाकारा है।” इब्ने कव्वा की यह राए दुरूस्त है या ना दुरूस्त, यह एक अलग मौजू है। लेकिन मुन्दर्जा ज़ैल हकाएक से इन्कार नहीं किया जा सकता।
1- रसूल (स.अ.) की वफ़ात के बाद आपकी बेटी पर मसाएब व आलाम के पहाड़ तोड़े गए और उनका घर जलाया गया। मगर अहले मदीना की तरफ से ग़म व गुस्से का कोई मुजाहेरा तारीख में नज़र नहीं आता।
2- अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) ने मुसलसल 25 बरस तक रूह फरसा और जान लेवा हालात का मुकाबला किया मगर मदीना वालों ने आपके साथ हमदर्दी, मोहब्बत और ग़मख़्वारी का इज़हार नहीं किया।
3- हज़रत इमाम हसन (अ.स.) के जनाज़े पर तीर बरसाए गए मगर अहले मदीना ने किसी किस्म की कोई सदाए एहतेजाज बुलन्द नहीं की।
4- हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ने यजीद के मुतालबा-ए-बैअत को ठुकरा कर जब सफ़रे गुरबत इख़्तेयार किया तो अहले मदीना ने इमाम का साथ देने से सिर्फ गुरेज़ ही नहीं किया बल्कि वह एक तमाशाई बने रहे।
5- कर्बला में इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद भी अहले मदीना ने इन्तेकामें खूने हुसैन (अ.स.) के सिलसिले मे अपने किसी कर्ब या बेचैनी का मुजाहेरा नहीं किया जबकि ईराक में तूफान व तलातुम बरपा था और सूरतेहाल इन्तेहाई हैजानज़दा थी।
6- सादाते बनी फ़ातिमा पर बनी उमय्या के आख़िर दम तक, फिर इसके बाद बनी अब्बास के दौर में मजालिम का अलम नाक सिलसिला जारी रहा मगर अहले मदीना ने उनकी कोई मदद नहीं की।
7- हज़रत इमाम ज़ैनुल आबदीन (अ.स.) से लेकर इमाम अली नक़ी (अ.स.) तक तमाम मुकद्दस व बर गुज़ीदा हस्तियाँ जो इक़्तेदार इस्लामी की मुहाफ़िज़ और ख़ानवादए नबूव्वत की चश्मो चिराग थीं, अपने अपने इब्तेदाई दौर में इसी मदीने में क़याम पज़ीर हैं और यहीं किसी को ज़हर दिया गया, किसी को शहीद किया गया और किसी को क़ैद किया गया, किसी को जिला वतन किया गया मगर क्या अहल मदीना ने उनकी हिफ़ाज़त का कोई इक़दाम किया? नहीं, हरगिज़ नहीं।
इन मज़कूरा हालात व वाक़िआत के बावजूद अगर हम यह मफ़रुजा क़ाएम करें कि इमाम हुसन (अ.स.) मदीना ही में मुक़ीम रहते और सफ़रे गुरबत न इख़्तेयार करते तो वहां के लोग उनकी हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देते तो यह महज़ खुश फ़हमी, खुदफ़रेबी और तारीख़ी हकाएक से बेख़बरी का नतीजा होगा जबकि हालात व वाक़िआत की इज्तेमाई कैफियत यह शक्ल इख़्तेयार कर चुकी थी कि अगर इमाम (अ.स.) मदीना ही में तशरीफ़ फ़रमा रहते तो हिजाज़ की सरज़मीन पर आपका खून बहा दिया जाता।
मक्का
मक्का के बारे में सय्यद जाफ़र शहीदी का तबसेरा निहायत मुनासिब है। आप फ़रमाते है कि:-
“यह शहर ज़माना जाहिलीयत में और फिर इस्लामी दौर में एक मुमताज़ हैसियत रखता था। यह मुसलमानों का क़िब्ला हाजियांे की ज़ियारतगाह और खुदाए ताला का दारूल अमान था। वहां रसूले अकरम (स.अ.) के रिश्तेदारों का एक गिरोह ज़िन्दगी बसर कर रहा था। लेकिन उन लोगों ने अपने को सन् 61 हिजरी के हादसा-ए-कर्बला से अलग रखा और उनकी कैफियत तकरीबन इस खूनी मंज़र के तमाशियों की सी हो गयी।
इमाम हुसैन (अ.स.) की तहरीक से मक्के के लोगों के अलग थलग रहने के कई असबाब थे। पहला सबब यह था कि इब्ने जुबैर ने एक तवील अर्से से मक्के को अपना हेडक्वाटर बना रखा था और मक्के व हिजाज़ के बहुत से लोग उसकी तरफ माएल हो गए थे। दूसरा सबब यह था कि मुआविया ने अपने आख़िरी सालों में और बिलखुसूस उस वक़्त से जब उसने यज़ीद को अपना वली अहद और जानशीन मुकर्रर करने का फैसला किया था, मुहाजेरीन व अन्सार और दीगर सहाबा की औलाद की दिलजोई और एहतराम में कोई कसर उठा न रखी थी। चुनांचे मुआविया के बाद अगर इस शहर के लोग यज़ीद और शाम की हुकूमत की जानिब कोई ख़ास मैलान नहीं रखते थे ताहम दूसरे मसलहत पसन्दों की तरह वह भी इन्तेज़ार में थे कि देखें अंजाम क्या होता है? क्योंकि तारीख बताती है कि इमाम हुसैन (अ.स.) जब मक्के से आज़िमे इराक़ हुए उस वक़्त बजुज़ दो तीन अशख़ास के जिन्होंने बज़ोम खुद ख़ैर ख़्वाही के तौर पर उन्हें वहां जाने से बाज़ रखना चाहा किसी ने मुवफ़िकत या मुख़ालिफ़त में एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा।
जब अब्दुल्लाह बिन जुबैर को मालूम हुआ कि इमाम हुसैन (अ.स.) ने इराक़ जाने का क़तई फैसला कर लिया है तो उसने भी इत्मेनान की सांस ली। मालूम होता है कि इब्ने जुबैर और उसके साथी इमाम हुसैन (अ.स.) के मक्के में रहने से चन्दां खुश नहीं थे। इसका सुबूत उन अशआर से मिलता है जो अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने उस मौके़ पर इब्ने जुबैर से मुखातिब होकर कहे थे कि “अब जबकि तेरे लिए मैदान खाली हो गया है और कोई झगड़ा बाकी नहीं तो सुकूने क़ल्ब से जो तेरे जी में आए वह कर।”
दमिश्क़
इस सूबे के लोग जिस दिन से मुसलमान हुए थे उन्होंने अपने आपको ख़ालिद बिन वलीद, मुआविया बिन अबू सुफ़ियान और जहाक बिन कैस के ज़ेरे तसल्लुत देखा था। उनमें से बेशतर ने दीनदार मुसलमानों का जो नमूना देखा वह यही लोग थे और वह र्कुआन मजीद के अहकाम को उन्हीं हाकिमों और वालियों और उनके मुसाहबों की रौशनी में जानते पहचानते थे। मुआविया ने अपने बेटे से शामियों के बारे में कहा था कि शाम के लोगों को अपने आगे आगे रखो। अगर तुम्हें किसी दुश्मन का ख़ौफ़ हो तो उन्हें दुश्मन के ख़िलाफ़ जंग के लिए भेज दो। लेकिन जो काम उनके सुपुर्द किया जाए जब वह उसे अंजाम दे चुकें तो उन्हें शाम से बाहर मत रहने दो, उन्हें फ़ौरन उनके घरों में वापस भेज दो ताकि वह बेगानों की आदत न इख़्तेयार कर सकें।
इसी मुख़्तसर क़ौल से जो उस सरज़मीन के लोगों की ज़ेहनियत और मुआविया की दूर अन्देशी का आईनादार है, उमवियों की हिमायत में उन लोगों की साबित क़दमी और मेयार का बखूबी अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
मुन्दर्जा ज़ैल दास्तान पर नज़र डालिए जो तारीखी हक़ीक़त के बजाए लतीफे से ज़्यादा मिलती जुलती है, अगर असल दास्तान वज़ई भी हो तो भी यह यकीनी तौर पर दुरूस्त है कि शाम के लोग इस्लामी निज़ामे हुकूमत, अहकामे दीन और रसूले अकरम (स.अ.) के ख़ानदान के बारे में किस क़द्र बेइल्म और नावाक़िफ़ थे। अब्दुल्लाह बिन अली ने शाम के कुछ मशाएख, सफ्फाह के पास भेजे और कहला भेजा कि यह इस मुल्क के अकलमन्द लोग हैं। यह सभी क़सम खाते हैं कि जब तक आप अमीर नहीं बन गए हमें कोई इल्म नहीं था कि बनी उमय्या के अलावा रसूले अकरम (स.अ.) के कोई ऐसे रिश्तेदार भी हैं जो उनसे विरसा पा सकें।
सन् 18 हिजरी से जब उमर बिन ख़त्ताब ने दमिश्क की हुकूमत मुआविया के सुपुर्द की सन् 60 हिजरी तक 42 साल होते हैं। इस दौरान में जो लोग मदीने से दमिश्क़ गए उनके नामों की फेहरिस्त पर जब हम नज़र डालते हैं तो पता चलता है कि वह बिल उमूम कुरैश और मुज़री हैं। उन लोगों ने जो खुद रईसाना ज़िन्दगी के खुगर हो गए थे जब रोम की रही सही शान व शौकत देखी तो उससे मरऊब होने के साथ साथ उस पर फरेफ़्ता भी हो गए। इस ठाट बाट पर माएल होने पर जब ख़लीफ़ा उमर ने बाजपुर्स की तो जवाब में मुआविया ने जो कुछ कहा उससे पता चलता है कि इब्तेदा में ही वह इस्लाम के तौर तरीकों से मुन्हरिफ़ होकर शाहंशाना हुकूमत के तर्जे अमल पर फरेफ़्ता हो गया था। जब एक इलाके का हाकिम और अमीर अपने लिए यूं दरबार सजाए तो कुदरती तौर पर उसके मातहत भी उसकी तकलीद करेंगे।
सन् 35 हिजरी से, जब उस्मान को मदीने में क़त्ल कर दिया गया और हजरत अली (अ.स.) खलीफ़ा बने तो मुआविया ने लोगों को यह बात बावर करा दी कि उस्मान के क़त्ल में अली (अ.स.) का हाथ है। फिर जब मुआविया इस क़त्ल का इन्तेकाम लेने उठ खड़ा हुआ और उसने हज़रत अली (अ.स.) से कातिलाने उस्मान की हवालगी का मुतालिबा किया तो वह ऐसा करने पर आमादा न हुए इस तरह हज़रत अली (अ.स.) से शामियों की दुश्मनी ने दीनी रंग इख़्तेयार कर लिया।
जब हम शाम की कैफ़ियत का मुकाबिला इराक और हिजाज़ में करते हैं और मुआविया और उसके बेटे यज़ीद के लिए शामियों की गै़र मशरूत हिमायत को देखते हैं तो एक बार फिर इब्ने कव्वा का कौल सही मालूम है जिसने कहा था:
“दूसरों के मुकाबिले में शाम के लोग अपने इमाम के ज़्यादा फ़रमाबरदार हैं।”
इसी फ़रमाबरदारी और बेचूं व चरा इताअत की खातिर हज़रत अली (अ.स.) अपने लोगों से दुखी रहते थे और फ़रमाते थे:
“मैं इस बात पर तैयार हूं कि तुममे से दस आदमीं दे दूं और इसके बदले में मुआविया के हिमायतों में से एक आदमी ले लूं।”
यह शहर सअद बिन अबी विक़ास ने फ़ौजियों के क़याम की ख़ातिर सन 17 हिजरी में आबाद किया था। लेकिन ज़्यादा मुद्दत नहीं गुज़री कि असहाबे रसूल (स.अ.) और दूसरे लोग भी वहां मुन्तकिल हो गए। फिर जैसे-जैसे मशरिक की जानिब फुतूहात का दाएरा वसीअ होता गया मफ़तूहा इलाकों के बहुत से लोग भी कूफ़े आते गए।
जंगे बसरा के बाद अमीरुल मोमेनीन हजरत अली (अ.स.) ने कूफ़े को अपना मरकज़ करार दिया और उस वक्त से यह शहर इस्लामी शहरों में खुसूसी अहमियत का हामिल हो गया। उस वक़्त शहर में तरह तरह के लोग आबाद थे और उनमें हर गिरोह के मकासिद, मोतेकदात और जज्बात दूसरे गिरोहों से मुख़्तलिफ़ थे।
इधर मफतूहा इलाकों के वह लोग जिन्होंने कोई हुनर या इल्म हासिल कर रखा था, रुतबा और मक़ाम हासिल करने के लिए रफ्ता-रफ्ता कूफ़े में आने लगे और चूंकि उन लोगों से हर गिरोह इस्लामी फुतूहात से पहले मुख़्तलिफ़ अकीदों और फलसफों की जानिब रागिब था लिहाजा उनके कूफे में यकजा होने से बहस व मुबाहिसा का बाज़ार गर्म हो गया।
बाज़ रिवायत जिनके बारे में हमें यह नहीं मालूम कि वह किस हद तक सही हैं, उनसे पता चलता है कि सन् 35 हिजरी ता सन् 40 हिजरी के दौरान कूफ़े में मसला कज़ा व क़द्र के बारे में बहस व मुबाहिसा बड़े जोरों पर था। इस बहस का मौजू यह होता था कि लोग अपने अफ़आल में खुद मुख़्तार हैं या मजबूर? यह तो सबको मालूम है कि उन बहसों के रिवाज से मुसलमानों में कितने ही इख़्तेलाफात पैदा हो गए थे। जो लोग वादीए फुरात के दूसरे मकामात से इस शहर में आए वह भी अपनी ज़ेहनियत के लिहाज से सरजमीन हिजाज के बाशिन्दों जैसे न थे। शदीद एहसासात का शिकार होना, वक्ती तौर पर जोश में आना, नताएज पर नज़र न रखना, जल्दबाजी में फैसले करना और फिर जल्द ही पशेमान हो जाना उन लोगों की खुसूसियात थीं। उस्मान बिन अफ्फान की ख़िलाफ़त के खातमे से लेकर उस वक़्त तक जब ख़िलाफ़त का मरकज़ बगदाद मुन्तकिल हो गया और एक नया कबीला मुसलमानों की सियासत पर हावी हो गया तो कूफ़े के लोग आराम से नहीं बैठे। जब कोई ज़ालिम या क़ाबिल हाकिम उन पर मुसल्लत हो जाता तो वह अपने घरों में रूपोश हो जाते और खामोश बैठे रहते और जब उन्हें यह मालूम होता कि हुकूमत कमज़ोर है तो वह गिरोह बन्दी और साजिशों में मसरूफ हो जाते, बगावत पर उतर आते और हंगामा बरपा कर देते। यूं मालूम होता है कि एक शाएर ने अपने शहर के बाज़ लोगों के बारे में जो कुछ कहा है वह अहले कूफ़ा की इस जमाअत पर सादिक़़ आता है। यानी “वह ज़ालिम और बदख़्वाह के सामने आजिज़ और मिस्कीन हैं और आजिज़ व मिस्कीन के सामने ज़ालिम व बदख़्वाह हैं।”
जब मुआविया ने इब्ने कव्वा से पूछा कि इस्लामी शहरों के लोगों के इख्तेलाफ़ और सिफात कैसे हैं? तब उसने कूफ़े के लोगों के बारे में कहा, किसी काम के मुतअल्लिक आपस में मुत्तफिक हो जाते हैं और फिर टोलियों की शक्ल में उससे ला-तअल्लुक हो जाते हैं।
सन् 22 हिजरी से सन् 75 हिजरी तक जबकि अब्दुल मलिक बिन मरवान ने हज्जाज बिन यूसुफ़ को इस शहर का वाली बनाया और उसने अपनी सख़्त बल्कि वहशत नाक सियासत से लोगों को सांस लेना दुश्वार कर दिया, इस मुददत के अलावा बहुत कम ऐसे साल नज़र आते हैं जब कूफ़ा शोरिशों, हंगामों और गिरोह बन्दियों से बाज़ रहा हो। उन लोगों की इस मतलून मिज़ाजी के पेशे नज़र ही मुआविया ने यज़ीद को नसीहत की थी कि अगर इराकी तुझसे हर रोज़ एक आमिल को माज़ूल करने को कहें तो उनका कहा मान लेना क्योंकि एक हाकिम को हटाना एक लाख तलवारों का सामना करने से ज़्यादा आसान है। ऐसा मालूम होता है मुआविया उन लोगों का अंजाम वाज़ेह तौर पर देख रहा था। क्योंकि जब उसने यज़ीद को इमाम हुसैन (अ.स.) के बारे में वसीयत की तो कहाः
“जिन्होंने हुसैन (अ.स.) के बाप को क़त्ल किया और उनके भाई को बेबस किया। मुझे उम्मीद है कि वह हुसैन (अ.स.) से भी तुझे नुकसान पहुंचाने से बाज़ रखेंगे।”
यह कहा जा सकता है कि अगर कूफ़े के बेशतर लोगों ने जंग बसरा में हज़रत अली (अ.स.) की मदद की और बाद में जंगे सिफ़्फ़ीन में उनका साथ दिया तो इसकी वजह उनकी यह ख़्वाहिश थी कि इस्लामी ख़िलाफ़त का मरकज़ हिजाज़ से इराक़ मुन्तकिल हो जाए ताकि वह इम्तेयाज़ हासिल करके शाम पर कारी जर्ब लगा सकें।
शामियों और इराकियों की रकाबत कोई नई चीज़ न थी। उन दोनों इलाकों के लोगों के इख़्तेलाफ में क़बाएली झगड़ों के अलावा सियासी और इक़्तेसादी वजूह भी कारफ़रमां थे। इराक़ बहरे हिन्द की तिजारत में दरमियानी वास्ते का काम देता था जबकि बहरे रोम पर शाम का कंट्रोल था और इराक़ दो तिजारती शाहराहों को एक कड़ी के मानिन्द जोड़ता था। दूसरी तरफ हीरा के बादशाह किस्राए ईरान के तफ़ीली और शाम के ग़सानी हुक्मरां कैसरे रोम के मातहत थे। इन दो अज़ीम सल्तनतों की रकाबत ने भी इन दोनों इलाकों के दरमियान दुश्मनी की आग भड़काने में अहम रोल अदा किया था।
उनकी यह रिक़ाबत इस्लाम के बाद भी कायम रही और बिलखुसूस जब कूफा मरकज़े ख़िलाफ़त बन गया तो इराकियों को अपनी दीरीना आरज़ू पूरी होती नज़र आई, ताहम एक नुक्ते को नज़र अन्दाज़ नहीं करना चाहिए और वह यह कि शाम के लोग अपने हाकिम की इताअत में बहुत ही मुख़लिस और साबित क़दम थे जबकि इराक़ के लोग हुकूमत के कामों में बेजा दखल देकर अपनी वक्ती फ़ैसलों को मन्सूख़ करके अपने ख़लीफ़ा के लिए मुश्किलात पैदा करते थे। वही लोग जिन्होंने महीनों हज़रत अली (अ.स.) का साथ दिया और फ़तह के करीब पहुंच गए आख़िर वक्त अपने इमाम (अ.स.) की बात सुनने के बजाए अम्रे आस की चाल में आ गए। चुनांचे जब उसने र्कुआन नैज़े पर बुलन्द किया और उन्हें उसका फैसला कुबूल करने को कहा तो उन लोगों ने हज़रत अली (अ.स.) को मजबूर कि वह शामियों की बात मान लें। हालांकि अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने उन्हें बहुत समझाया कि अम्रे आस और मुआविया ने र्कुआन को जंग से फ़रार का बहाना बनाया है। लेकिन उन्होंने सुनी अनसुनी कर दी। फिर जब उनके इसरार पर सालसी का फ़ैसला हुआ और शाम के सालिस ने इराक़ के सालिस को धोखा दिया तो कूफियों ने इस शिकस्त को अपने लिए एक बहुत बड़ी शर्मनाक चीज़ समझा और उन्होंने फौरन ही इमाम (अ.स.) से कहा कि मुआविया से अज़ सर नौ जंग शुरू कर दें जबकि आपने उससे एक साल के लिए जंग बन्दी का पैमान बांधा था और आप इसको तोड़ना नहीं चाहते थे। यह बात उनके एक बड़े गिरोह पर बहुत गरां गुज़री और नतीजे के तौर पर वह गिरोह हज़रत अली (अ.स.) से अलग हो गया जो ख़्वारिज के नाम से मशहूर हुआ। हज़रत अली (अ.स.) जब अहले कूफ़ा के उलट फेर, हठधर्मी और आक़िबत नाअन्देशी देखते तो फ़रमाते “शामी अपने झूठ में मुतफ़्फ़िक अलर-राए हैं और तुम अपनी सच्चाई में बिखरे हुए हो, मैं इस बात पर तैयार हूं कि तुम में से दस आदमीं देकर मुआविया के हिमायतियों में से एक आदमी ले लूँ।”
इसमें कोई शक नहीं कि पाकबाज़ मुसलमानों का एक गिरोह जो इतना छोटा भी न था, वह भी उस शहर में मौजूद था। जाबिर हाकिमों के हाथों पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) की सुन्नत तब्दील किए जाने की बिना पर उन लोगों का पैमान-ए-सब्र लबरेज़ हो चुका था, वह दिल ही दिल में कुढ़ते रहते और चाहते थे कि एक आदिल इमाम उठे और कई साल से जो बिदअतें पैदा हो गयी हैं उनका खातिमा कर दे। ताहम अगर बड़ी अकसरियत इस किस्म का दावा करती भी थी तो यह जंगे सिफ़्फ़ीन में शिकस्त समेत तमाम साबिका शिकस्तों के इन्तेक़ाम और मुज़रियों से यमानियों का बदला लेने की आड़ थी। कोई क्या कह सकता है कि इनमें कुछ अशख़ास ऐसे भी हों जिन्होंने बचपन में अपनी माओं की गोद में लखमियों और गसानियों के क़िस्से सुने हों और उनके इरादे के बग़ैर एक ख़फ़ीफ़ से ख़्याल ने उन्हें अपने दूर दराज़ माज़ी के नज़दीक कर दिया हो।
जिन लोगों ने इमाम हुसैन (अ.स.) को ख़त लिखकर उन्हें इराक बुलाया और मदद का वादा किया वह सब के सब अपने दिलों में दीन का दर्द नहीं रखते थे। यह दावत बज़ाहिर थी लेकिन उसके पीछे उनकी बहुत सी सियासत अग़राज़ भी पोशीदा थीं। यानी इराक़ शाम पर कारी जर्ब लगाना चाहता था और मुम्किन होता तो ख़िलाफ़त का मरकज़ दमिश्क़ से कूफ़े मुन्तकिल करना चाहता था।
सन् 35 हिजरी में इराक़ और मिस्र के इन्साफ़ तलब लोगों के बहुत से गिरोह ख़लीफ़ा उस्मान से एहतेजाज करने के लिए मदीने पहुंचे और इस तरह इस्लाम में पहला फ़ितना बरपा हुआ। ताहम सन् 60 हिजरी में इराक़ के अलावा कहीं भी कोई जोश व खरोश देखने में नहीं आया। क्यों? इसकी वजह यह थी कि इस सदी की दूसरी चौथाई में इस्लामी मआशरा तबाही के गहरे ग़ार में गिर चुका था। आख़िरकार अहले कूफ़ा ने शाम के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी। उनकी यह बगावत तेज़ व तुन्द जज़्बात की पैदावार और शोला बार तकरीरों का नतीजा थी जिसमें मुख़ालिफ़़ फ़रीक़ की ताकत उसके आमिलों की महारत और सबसे बढ़ कर बग़ावत करने वालों की साबित क़दमों या कमज़ोरी पर कोई तवज्जो नहीं दी गयी।
कर्बला का जुग़ाफियाई पस मंज़र
जो ज़मीन कर्बला के नाम से मौसूम है वह दरअस्ल उन क़रियों और ज़मीनी टुकड़ों का मजमूआ है जो उस ज़माने में एक दूसरे से मुलहक़ थे। अरब में छोटे छोटे अरजी क़तआत मुख़्तलिफ़ नामों से मौसूम हुआ करते थे। चुनांचे जब उन्हें उनकी खुसूसियात के एतबार से देखा जाता तो वह कई मक़ाम मुतसव्विर होते और जब उनके बाहमी कुर्ब पर नज़र की जाती तो वह एक क़रार पाते और यही वजह है कि एक मुक़ाम का वाक़िआत दूसरे मक़ाम से मंसूब किया जा सकता था। जैसा कि अल्लामा शहरिस्तानी ने अपनी किताब “नहज़तुल हुसैन” में तहरीर किया है कि कर्बला के महल्ले वकूअ के जो बहुत से नाम मशहूर हैं मसलन नैनवा, गाज़िरया और शत्ते फुरात वग़ैरा, उन्हें एक ही जगह के मुतअदिद नाम नहीं समझना चाहिए बल्कि वह मुतअद्दि जगहें थीं जो बाहमीं इत्तेसाल की वजह से एक ही समझी जा सकती थी, इसलिए महल्ले वकूअ वाक़िए के एतबार से हर एक का नाम तअर्रुफ़ के मौके़ पर जिक्र कर दिया जाना दुरूस्त है।
नैनवां
यह एक गांव था। उसके पहलू में ग़ाज़िरया था जो क़बीलए बनी असद की एक शाख गाज़िरा से निस्बत रखता था और इसमें यही लोग आबाद थे। गालिबन यह वह ज़मीन है जो अब हुसैनिया के नाम से मौसूम है। इस जगह सफिया नामी एक छोटा सा गांव था और यहीं पर एक क़ता उफतादा आराजी कर्बला के नाम से थी जो अब मौजूदा शहर कर्बला का मशरिकी व जुनूबी हिस्सा है। इसी से मुत्तसिल “अकर बाबिल” नाम का एक क़रिया था जो ग़ाज़िरयात के शुमाल व मग़रिब में वाके था। जहां अब खंडरात के आसार पाए जाते हैं। यह क़रिया दरियाए फुरात के किनारे आबाद था और टीलों में घिरा होने की वजह से एक केती की हैसियत रखता था। इसी के मुकाबिल ग़ाज़िरयात के दूसरी तरफ “नवादीस” नाम का एक मक़ाम था जो इस्लामी फतूहात से पहले कब्रिस्तान था। इसी के वस्त में हीर नाम की एक ज़मीन थी जो अब “हाएर” के नाम से मारूफ है और इसी ज़मीन पर इमाम हुसैन (अ.स.) की कब्रे मुबारक है।
“हीर” एक वसी मैदान की शक्ल में था जो तीन तरफ से पहलू ब-पहलू टीलों से घिरा हुआ था। इन टीलों का सिलसिला शुमाल व मगरिब की जानिब से जिधर हरमे हुसैनी का बाबुल सदर और मिनारा अब्द है, शुरू होकर मगरिब की जानिब बाबे ज़ैनबिया के हुदूद तक पहुंचता था और वहां से ख़म होकर दरे किब्ला के मक़ाम पर आकर ख़त्म हो जाता था। उन टीलों के इज्तेमा से एक निस्फ हिलाली दाएरा की शक्ल बनती थी। इस दाएरे में दाखिल होने का रास्ता उस तरफ़ से था जिधर से रौज़ए हज़रत अब्बास (अ.स.) में जाने का रास्ता है।
तहकीकाती इन्केशाफ़ से अब तक यह बात पाई गयी है कि इन मकानात के आसार जो कब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) के गिर्द हैं शुमाली और मग़रिबी सिम्त की ज़मीन की बुलन्दी पर हैं और नशेब में अलावा नर्म मिट्टी के और कुछ नहीं है, इससे मालूम होता है कि इस मक़ाम की क़दीमी सूरत ऐसी ही थी कि मशरिक की तरफ से हमवार और शुमाल व मगरिब की तरफ से हिलाली शक्ल में बुलन्द व नाहमवार और यही वह दाएरा है जहां मज़लूमे कर्बला हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) को घेर के शहीद किया गया था।
फुरात
जिसे हम दरियाए फुरात कहते हैं उसका बराहे रास्त तअल्लुक कर्बला की सरज़मीन से नहीं था, बल्कि वह हिल्ला और मसीब वग़ैरा से गुज़र कर कूफ़े के बैरूनी हिस्से को सेराब करता था लेकिन उसकी एक शाख मकामें रिज़वानिया के पास से अलग होकर कर्बला के शुमाली व मशरकी रेगिस्तानों से होती हुई उस मक़ाम से गुज़रती थी जहां अब अलमदारे हुसैनी हज़रत अबुल फ़ज़लिल अब्बास (अ.स.) का रौज़ए मुबारक और अबदी आरामगाह है। यह छोटी सी नहर, नहरे अलक़मा के नाम से मारूफ थी और उसे अपनी असल के एतबार से फुरात भी कह दिया जाता था।
तफ़
तफ़ के माने हैं नहर का किनारा, खुसूसी तौर पर दरियाए फुरात के इस किनारे को तुफ़ कहा जाता था जो जुनूबी पहलू में बसरा से हीत तक था। इसी मुनासिबत से अलकमा के इस किनारे को भी तुफ़ कहा जाने लगा जिसमें कर्बला वाके थी। इसी वजह से कर्बला के वाक़िए को “वाकिअतुत तुफ़” कहा जाता है और कर्बला को शत्ते फुरात के नाम से भी याद किया जाता है।
इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत से पहले
तिबरानी ने हज़रत आएशा से नक़्ल किया है कि उन्होंने कहा:
“रसूलुल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया कि जिबरईल ने मुझे ख़बर दी है कि मेरा फ़रज़न्द हुसैन (अ.स.) मेरे बाद ज़मीन तुफ़ (कर्बला) पर क़त्ल किया जाएगा। और मेरे पास खाके तुर्बत लाए जहां हुसैन (अ.स.) का मरक़द होगा।”
अबू दाऊद हाकिम ने उम्मुल फ़ज़़्ल बिन्ते हारिस से रिवायत की है किः-
“रसूलुल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया कि मेरे पास जिबरईल आए और यह ख़बर दी कि मेरी उम्मत मेरे बाद मेरे हुसैन (अ.स.) को क़त्ल करेगी और उन्होंने कुछ ख़ून आलूद सुर्ख़ मिट्टी मुझे दी।”
अहमद बिन हम्बल ने रिवायत की है:-
“नबी अकरम (स.अ.) ने फ़रमाया कि मेरे घर पर एक ऐसा फरिश्ता आया जो पहले कभी नहीं आया था, मुझसे कहा कि आपका नवासा हुसैन (अ.स.) कर्बला में तीन दिन का भूखा प्यासा क़त्ल किया जाएगा। फिर उसने सुर्ख़ मिट्टी मुझे दी।”
अबु नईम और बैहिक़ी ने अनस से रिवायत की है कि:-
“पानी का फ़रिश्ता रसूले अकरम (स.अ.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ, इतने में हुसैन (अ.स.) भी आ गए और रसूलुल्लाह (स.अ.) के शानों पर सवार हो गए, मलक ने कहा या रसूलुल्लाह (स.अ.) ! आप हुसैन (अ.स.) को महबूब रखते हैं मगर अफ़सोस कि आपकी उम्मत इसे क़त्ल कर देगी अगर आप चाहें तो वह जगह दिखा दूं। फिर उस फ़रिश्ते ने ज़मीन पर एक ज़र्ब लगाई और कर्बला का मंज़र रसूलुल्लाह (स.अ.) के सामने आ गया। फिर एक मुट्ठी खाक रसूल (स.अ.) ने उम्मे सलमा की गोद में डाल दी और फ़रमाया इसे हिफ़ाज़त से रखो। “मैंने रसूलुल्लाह (स.अ.) को यह फ़रमाते सुना है कि मेरा फ़रज़न्द हुसैन (अ.स.) उस ज़मीन पर जिसे कर्बला कहते हैं क़त्ल किया जाएगा और तुम लोगों में जो उस वक्त मौजूद हों उन्हें लाज़िम है कि उसकी मदद करें। अनस कर्बला पहुंचे और हुसैन (अ.स.) की नुसरत में क़त्ल हुए।”
यहिया हज़रमीं ने अबु नईम से इखराज किया है कि वह सफ़रे सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली (अ.स.) के हमराह थे, जब आप नैनवा के मुकाबिल पहुंचे तो फ़रमाया मेरा फरज़न्द हुसैन (अ.स.) शत्ते फुरात पर क़त्ल होगा और यहीं उसकी कब्र होगी जिस पर ज़मीन व आसमान गिरया करेंगे।
यह आसमानी ख़बरें और इरशादाते नबवी मुवर्रिख़ीन की किताबों में मशहूर व मुतवातिर हैं जिनसे इन्कार की गुंजाईश नहीं है तफ़सील के लिए मोअल्लिफ की किताब “तफ़सीरे कर्बला” का मुतालिआ फ़रमाएं।
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हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.)
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आप पैग़म्बर (स.अ.) इस्लाम और जनाबे खदीजतुल कुबरा के नवासे, मोहसिने इस्लाम जनाब अबूतालिब (अ.स.) व फ़ातिमा बिन्त असद (अ.स.) के पोते, अली (अ.स.) मुर्तजा (अ.स.) व फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के बेटे और इमाम हसन (अ.स.) व जनाब ज़ैनब (स.अ.) व उम्मे कुलसूम (स.अ.) के हकीकी भाई थे। आपकी नस्ल से नौ इमाम मुतवल्लिद हुए इसलिए आपको “अबुल अइम्मा” भी कहा जाता है।
आप जब बतने मादर में थे तो उम्मुल फ़ज़ल बिन्त हारिस ने ख़्वाब मे देखा कि पैग़म्बर (स.अ.) इस्लाम के जिस्म मुबारक से एक टुकड़ा जुदा होकर उनकी गोद में आ गया है। इस ख़्वाब को उन्होंने आँहज़रत (स.अ.) से बयान किया तो आपने फ़रमाया की अनक़रीब मेरी बेटी फ़ातिमा के बतन से एक फ़रज़न्द पैदा होगा जिसकी परवरिश तुम्हारी आगोश मे होगी चुनांचे ऐसा ही हुआ और इमाम हुसैन (अ.स.) सिर्फ छः माह की मुद्दते हमल में तीसरी शाबान सन् 4 हिजरी को मदीना-ए-मुनव्वरा मे मुतवल्लिद हुए। इस तारीख़ पर ओलमाए इमामिया मुत्तफिक व मुत्तहिद है जबकि ओलमाए अहले सुन्नत की बीशतर किताबों मे तारीखे विलादत पाँचवी शाबान मरकूम हैं।
विलादत के बाद हज़रत रसूल खुदा (स.अ.) तशरीफ़ लाए आपने हुसैन (अ.स.) को गोद में लिया, प्यार किया, दाहिने कान में अज़ान और बाएं कान मे इक़ामत कही, फिर दुआए ख़ैर फ़रमा कर हुसैन (अ.स.) नाम रखा और अपनी ज़बान बच्चे के दहन में दे दी। चुनांचे इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का इरशाद है कि इमाम हुसैन (अ.स.) ने किसी भी औरत का दूध नहीं पिया। सरवरे काएनात खुद तशरीफ लाते थे और इमाम के दहन में अपनी ज़बान दे देते थे जिसे वह चूसते रहते थे यहाँ तक कि इतने सेर व सेराब हो जाते थे कि फिर तीन दिन तक आब व ग़िजा की हाजत न होती थी। इस तरह हुसैन (अ.स.) का गोश्त रसूल (स.अ.) के गोश्त से रुईदा हुआ और खून रसूल (स.अ.) के ख़ून से पैदा हुआ।
तरबीयत
इमाम हुसैन (अ.स.) की विलादत के बाद आगोशे रिसालत दो बच्चों की तरबियत व परवरिश का मरकज़ और शख़्सियत साज़ी का गहवारा बनी। एक हसन (अ.स.) और दूसरे हुसैन (अ.स.) इन दोनों बच्चों की आंखों के सामने एक तरफ़ नाना का उस्वा-ए-हुस्ना था, दूसरी तरफ इस्लाम की बक़ा और तहफ्फुज़ की खातिर अपने बाप के मुजाहेदाना कारनामे और तीसरी तरफ़ तालीमाते पैग़म्बर (स.अ.) की रौशनी में मां की अमली ज़िन्दगी और किरदार।
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के कौल से यह बात वाज़ेह हो चुकी कि हुसैन इब्ने अली (अ.स.) का नशो नुमा रसूल (स.अ.) अरबी के लोआबे दहन से हुआ। हर दूसरे तीसरे दिन पैग़म्बर (स.अ.) तशरीफ़ लाते थे और अपनी ज़बाने मुबारक हुसैन (अ.स.) के मुहं मे देकर उन्हें सेर व सेराब करते। इस सेराबी का असर यह होता कि फिर इमाम को तीन दिन तक आब व गिज़ा की हाजत न होती यहा तक कि चालीस दिन रिजाअत के पूरे हो गए और जिस्म हुसैनी का गोश्त व पोस्त, रग व रेशे और हड्डिया सब के सब मोहम्मदी बन गए और हुसैन (अ.स.) जिस्मानी हैसियत से रसूल (स.अ.) की तस्वीर बन गए। या बा अल्फाज़े दीगर यूं कहा जाए कि मोहम्मद (स.अ.) ने चालीस दिन में हुसैन (अ.स.) को मोहम्मद बना दिया। और अपने इस इतमामे रिसालत पनाही को हुजूर (स.अ.) ने उम्मत के सामने मुख़्तसरन यूं वाज़ेह किया कि “हुसैन मिन्नी व अना मिनल हुसैन” चुनांचे यही वह जिस्म था जो मैदान कर्बला में था।
एक तरफ हुसैनी शऊर की पुख़्तगी अपनी इन्तेहाई कमसिनी के बावजूद अपने घरों के नूरानी व रूहानी माहौल को बा-बसीरत निगाहों से देख रही थी कि रात दिन इबादत व जिक्रे इलाही की आवाज़़े, तकबीर की सदाएं, वही का नजूल, फरिश्तों की आमद व रफ़्त, गजवात के तज़किरे, बकाए इस्लामी की तदबीर, मजलूमों की दाद रसी, गरीबों की ख़बर गीरी, तज़किया-ए-नफ़्स के अमली इक़दाम और मकारिम अख़लाक़ की तकमील मेरे नाना, बाप और मां का नसबुल ऐन है। दूसरी तरफ पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की किरदार साज़ रिसालत ने हुसैन (अ.स.) को अपने औसाफ़ व कमालात का आईना बना कर इसमें अपनी सीरत का पूरा अक्स उतार दिया।
उन्हीं जात व सिफ़ात की बुलंदियों का नतीजा यह था कि रसूल (स.अ.) हुसैन के साथ ग़ैर मामूली मोहब्बत व शफ़क़त रखते थे और आप दूसरों से भी उनकी जात से मोहब्बत की ताकीद फ़रमाते थे। आपका कौल था कि जिसने हुसैन (अ.स.) से मोहब्बत रखी उसने मुझसे मोहब्बत रखी और जिसने उन्हें दुश्मन रखा उसने मुझे दुश्मन रखा मगर इन तमाम बातों के बावजूद हुसैन (अ.स.) की बुलन्द निगाही यह मुशाहिदा भी कर रही थी कि नाना बेशक हमसे इन्तेहाई मोहब्बत फ़रमाते है लेकिन हमसे ज़्यादा अपने दीन इस्लाम और उसके आईन व शरीयत को अज़ीज़ रखते है यहाँ तक कि अगर दीन और शरीयत पर कोई वक़्त आ जाए तो हमें उस पर निसार करने से गुरेज़ नहीं करेंगे।
सन् 10 हिजरी में नसारए नजरान से रूहानी मुकाबले के लिए पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.) इस शान से तशरीफ़ ले गए कि आपके हाथ में अली इब्न अबीतालिब का हाथ था, हसन (अ.स.) व हुसैन (अ.स.) आगे आगे थे और फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) आपके पीछे थीं। नजरान वाले यह नूरानी मंज़र देखकर ताब न ला सके और शिकस्त खाकर खिराज देने पर आमादा हो गए।
ज़ाहिर है कि रसूल (स.अ.) तन्हा भी इस मुहिम को सर कर सकते थे, फिर र्कुआन की सराहत के मुताबिक आप अपने अहलेबैत (अ.स.) को ले जाने पर क्यो मामूर हुए? इसका मकसद सिर्फ हक़ के कामिल नुमाईन्दों का दुनिया से तअर्रूफ़ था। गोया अभी से इन हस्तियों पर हक़ की ज़िम्मेदारी का बोझ डाला जा रहा था और कारे रिसालत मे अमली तौर पर शरीक कर के यह साबित किया जा रहा था कि इन्हीं ज़वाते मुकद्दिसा से तहफ्फुजे इस्लाम की उम्मीद की जा सकती है। उसके अलावा रसूल (स.अ.) के इस अमल से यह बात वाज़ेह हो गयी कि इस्लाम की नुसरत के मौके पर मर्द, औरत, जवान और बच्चा कोई भी मुस्तसना नहीं हो सकता।
पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) की जौहर शिनासी इस राज सरबस्ता से बखूबी आगाह थी कि आपकी तालीमात की हिफाज़त किन लोगों के ज़रिया हो सकती है, इसलिए मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर आप अपनी उम्मत को इस अम्र से आगाह करते रहे कि मेरे अहलेबैत (अ.स.) की पैरवी मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। कभी फ़रमाया कि मैं तुम में दो गरां कद्र चीजें छोड़े जा रहा हूं, एक र्कुआन और दूसरे मेरे अहलेबैत (अ.स.)। जब तक तुम इनसे तमस्सुक रखोगे गुमराही से महफूज़ रहोगे। कभी कहा, मेरे अहलेबैत (अ.स.) की मिसाल कश्तीए नूह (अ.स.) की सी है। जो इस पर सवार हुआ उसने निजात पाई और जो इससे मुन्हरिफ़ हुआ वह दरियाए हलाकत में गर्क हुआ। कभी खुसूसियत के साथ हसन व हुसैन (अ.स.) के बारे में फ़रमाया कि यह दोनों जवानाने जन्नत के सरदार हैं और कभी फ़रमाया कि मेरे यह दोनों फ़रज़न्द “इमाम” और वाजिबुल इताअत हैं ख़्वाह खड़े हों या बैठे हों। एक वक़्त आयेगा जब इनमें से एक सुलह करके ख़ामोश बैठेगा और दूसरा मैदाने जिहाद में खड़ा होगा।
अफ़सोस कि अपने नवासों की इस तरबियत, मोहब्बत और शफकत के लिए रसूले अकरम (स.अ.) की उम्र तूलानी न हो सकी और सन् 11 हिजरी में आप दुनिया से रूख़्सत हो गए। उसके बाद हसनैन (अ.स.) सन् 40 हिजरी तक अपने पिदरे बुज़ुर्गवार के साथ रहे और जब अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) भी शहीद कर दिए गए तो सन् 50 हिजरी तक इमाम हुसैन (अ.स.) अपने बड़े भाई इमाम हसन (अ.स.) के ज़ेरे साया रहे।
यज़ीद की वली अहदी
गुज़िश्ता सफ़हात में हम तहरीर कर चुके हैं कि इमाम हसन (अ.स.) ने सुलह के बाद खुद को तख़्ते ख़िलाफ़त से दस्तबरदार कर लिया था और आपने सब्र व सकूत इख़्तेयार कर लिया था लेकिन इसके बावजूद मुआविया को इस बात का यकीन था कि इमाम हसन (अ.स.) की ज़िन्दगी में यज़ीद की वली अहदी एक मुश्किल व मुहाल अम्र है। चुनांचे उसके नज़दीक इमाम हसन (अ.स.) के वजूद को एलाने वली अहदी से पेशतर ख़त्म करना ज़रूरी था और वह अपने इस मकसद में जोअदा बिन्ते अशअस के जरिए कामयाब भी हो गया।
मगर अपने फासिक व फाजिर बेटे यज़ीद मलऊन के अफ़आले बद व आमाले कबीहा की वजह से मुआविया को यह अन्देशा भी था कि मुसलमान यज़ीद की वली अहदी को कुबूल करने पर तैयार न होंगे और उन्हें इस अम्र पर तैयार करना एक दुश्वार गुज़ार मरहला है।
मुआविया इस बात से भी फिक्रमन्द था कि कहीं अहले शाम अब्दुर्रहमान बिन ख़ालिद बिन वलीद को ख़लीफ़ा न तस्लीम कर लें जिनके वालिद के कारनामें रोमियों के मुकाबिले में शामियों के ज़बाँ ज़द थे। लिहाज़ा उसने उन्हें रास्ते से हटाने की यह तदबीर की कि इब्ने असाल के ज़रिए ज़हर दिलवा कर उनकी ज़िन्दगी का खातिमा करा दिया। यह वाक़िआ सन् 46 हिजरी का है।
मुआविया के हवारीन व मुक़र्रेबीन को इस अम्र का बखूबी अन्दाज़ा था कि यह इसकी दिली तमन्ना है कि वह यज़ीद को अपना वली अहद नामज़द कर दे मगर उसे उसके बरूए कार लाने की कोई इमकानी सूरत नज़र न आती थी। चुनांचे सबसे पहले जिसने मुआविया के इस जमूद को तोड़ा और उसे अमल में तब्दील किया उसका नाम मुग़ैरा बिन शैबा है जो मुआविया की तरफ से कूफ़े का गवर्नर था।
उसके बाद मुआविया ने इस अहम मामले में मशविरे की ग़रज़ से ज़ियाद बिन अबीह को एक ख़त तहरीर किया और अपना मुद्दआ ज़ाहिर किया। ज़ि़याद को मुआविया की इस ख़्वाहिश का अन्दाज़ा पहले ही से था। चुनांचे उसने अपने ख़ास महरम राज़ उबई बिन कअब को फौरी तौर पर तलब किया और उससे कहा कि ख़लीफ़तुल मुसलमीन का यज़ीद को अपना वली अहद बनाने और उसके जैल में मुसलमानों से बैअत लेने का ख़्याल है मगर चूंकि यज़ीद एक आवारा, बदकिरदार, बदमिजाज़, अय्याश खुदसर और मुतलकुल एनान इन्सान है इसलिए उन्हें यज़ीद के लिए मुसलमानों की तरफ से नफरत व बेज़ारी का ख़दशा है। और यह खदशा मेरे ख़्याल में दुरूस्त है। लिहाजा तुम खलीफतुल मुसलमीन के पास जाओ और उन्हें मेरा यह पैग़ाम दो कि वह इस काम में उजलत न करें और बहुत सोच समझ कर कदम उठाएं। ज़ियाद ने उबई बिन कअब के हाथ इसी मजमून का एक मकतूब भी मुआविया के पास इरसाल किया कि इस मामले में ताजील मुनासिब नहीं है। ज़ियाद और उबैई के दरमियान यह बात भी ठहरी कि यज़ीद से मिलकर यह कहा जाए कि अगर राए आम्मा को अपने हक़ में हमवार करना चाहते हो तो उन बातों को तर्क करो जो उमूमन मुसलमानों को नापसन्द हैं। उबैई मकतूब व पैग़ाम लेकर रवाना हुआ और मुआविया व यज़ीद से मिलकर उन्हें उसने ज़ियाद के मशविरे से मुत्तेला किया।
सन् 46 हिजरी या सन् 50 हिजरी में मुग़ैरा बिन शैबा का इन्तेकाल हुआ और सन् 53 हिजरी में ज़ियाद भी रिहलत कर गया तो मुआविया के दिल में यह ख़्याल पैदा हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि ख़ास ख़ास खैरख्वाह एक एक करके राही-ए-मुल्के अदम हो जाएं और बाद में मेरी आवाज़ महज़ सदा ब-सेहरा साबित हो। चुनांचे उसने एक तहरीरी फ़रमान लिखकर मजम-ए-आम में यज़ीद की वली अहदी का एलान कर दिया और रिआया से उसकी इताअत का इक़रार ले लिया।
वाक़िआत बताते हैं कि मुग़ैरा बिन शैबा ने बड़ी हद तक यज़ीद की वली अहदी पर राए आम्मा को हमवार कर लिया था और ज़ियाद बिन अबीह ने भी अपनी जाती राय के बावजूद बसरा के अवाम को काफी हद तक तैयार कर लिया था जिसकी वजह से वहां मुख़ालिफ़त का इम्कान न था। शाम मुआविया का अपना मुल्क था। वहां एक अब्दुर्रहमान बिन खालिद की तरफ से मुख़ालिफ़त की लहर उठ सकती थी लेकिन उन्हें पहले ख़त्म किया जा चुका था। दूसरे सईद बिन उस्मान थे। उन्होंने यज़ीद की वली अहदी पर अपनी नापसंदीदगी का इज़हार किया लेकिन मुआविया ने उनकी मुंह भराई करके उन्हें खुरासान का हाकिम बना दिया लिहाज़ा वह भी ख़ामोश हो गए। शाम और इराक़ से फ़रागत के बाद मुआविया ने एक हज़ार शामियों के साथ मदीने की तरफ कूच किया जहां हुसैन (अ.स.) बिन अली (अ.स.), अब्दुल्लाह बिन अब्बास, अब्दुर्रहमान बिन अबू बक्र, अब्दुल्लाह बिन उमर और अब्दुल्लाह बिन जुबैर वग़ैरा मुआविया की वली अहदी से मुन्हरिफ़ थे। मुआविया उन्हें अपनी ताकत व सितवत से भी मरऊब करना चाहता था और दौलत व सरवत से भी। चुनांचे जब वह उन्हें डराने, धमकाने और ख़ौफ़ज़दा करने में नाकाम रहा तो उसने दौलत का हर्बा इस्तेमाल किया। उसने एक लाख दिरहम के एवज़ अब्दुर्रहमान बिन अबू बक्र की हिमायत को ख़रीदना चाहा मगर उन्होंने यह कहक़र इन्कार कर दिया कि हम दिरहम व दीनीर के लिए अपना दीन नहीं बेचते। फिर उसने अब्दुल्लाह बिन उमर के पास भी एक कसीर रकम भेजी। उन्होंने भी यह कहक़र उसे कुबूल करने से इन्कार कर दिया कि मेरा दीन दौलत से ज़्यादा कीमती है। इसी तरह इमाम हुसैन (अ.स.) ने भी मुआविया की इस अहमक़ाना पेशकश को ठुकराते हुए उसकी ज़रदारी को उसके मुंह पर मार दिया।
ग़रज़ कि मदीने में अपनी नाकामी के बाद मुआविया अपने दिल में शर्मसारी और ग़म व गुस्से का तूफान लिए मक्के की तरफ रवाना हुआ और वहां मनासिके हज से फ़राग़त के बाद इमाम हुसैन (अ.स.), अब्दुर्रहमान बिन अबू बक्र, अब्दुल्लाह बिन उमर और इब्ने जुबैर को जो हज के मौके पर वहां मौजूद थे, हमवार करने की एक आख़िरी कोशिश और की लेकिन जब यह कोशिश भी राएगां गयी तो वह अपना सा मुंह लेकर शाम की तरफ रवाना हो गया और सन् 60 हिजरी में यह हसरत लिए हुए दुनिया से चल बसा।
सलीब का करिश्मा
मुआविया की मौत से मुतअल्लिक एक दिलचस्प रिवायत अल्लामा रागिब इस्फहानी की किताब “मुहाज़रात” में मरकूम है जिससे पता चलता है कि मुआविया की मौत भी ग़ैर इस्लामी नौईयत की थी। चुनांचे अल्लामा रकम तराज़ हैं कि जब मुआविया बीमार पड़ा तो एक तबीब ने दवा के साथ उसे तसल्ली दी कि तुम ठीक हो जाओगे। ग़रज़ कि वह वक़्ती तौर पर अच्छा हो गया लेकिन दोबारा फिर बीमार हो गया। इस बार एक नसरानी उसके पास आया और कहने लगा कि मेरे पास एक ऐसा तावीज़ है जो हर मर्ज को दूर करता है। मुआविया ने वह तावीज़ लेकर गले में पहन लिया। इत्तेफाक से पहले वाले तबीब का गुज़र फिर हुआ। उसने मुआविया को देखकर कहा कि अब यह यक़ीनन मर जाएगा। चुनांचे उसी रात को वह मर गया। लोगों ने तबीब को घेरा और उससे पूछा कि तुमने यह क्यों कर जाना कि मुआविया मर जाएगा। उसने कहा कि मैंने अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के इस क़ौल को सुन रखा था कि मुआविया के गले में जब तक सलीब नहीं पड़ेगी वह नहीं मरेगा। लिहाजा जो तावीज़ वह पहने हुए था उस पर मैंने सलीब का निशान देख लिया था, इसलिए मुझे यकीन हो गया कि वह ज़रूर मर जाएगा।
यकीन है कि मुआविया ईसाई और नसरानी महशूर होगा क्योंकि वह हज़रत अली (अ.स.) का दुश्मन था और यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की हदीस है कि जो अली (अ.स.) को अज़ीयत देगा वह बरोज़े क़यामत यहूदी या नसरानी महशूर होगा।
इन्कारे बैअत
मुआविया के बाद जब यज़ीद मलऊन हाकिम की हैसियत से मुसलमानों पर मुसल्लत हुआ तो सबसे पहला काम उसने यह किया कि वाली-ए-मदीना वलीद बिन अतबा को एक ख़त लिखा, जिसमें मर्गे मुआविया की ख़बर के बाद यह तहरीर था कि हुसैन (अ.स.) बिन अली (अ.स.), अब्दुल्लाह बिन उमर और अब्दुल्लाह बिन जुबैर को उस वक़्त तक न छोड़ो जब तक उनसे मेरी बैअत न ले लो।
यज़ीद के इस ख़त ने वलीद को चक्कर में डाल दिया। उसे यह फिक्र दामनगीर हुई कि किस तरह इस काम को अंजाम दिया जाए क्योंकि वह इमाम (अ.स.) की अज़मत और बुलन्द व बाला शख़्सियत से बख़ूबी वाक़िफ़ था और उसे यकीन था कि रसूल (स.अ.) का नवासा एक फ़ासिक व फाजिर और बद किरदार की बैअत कभी नहीं करेगा। चुनांचे उसने मरवान से मशविरा किया। उसने कहा, इससे क़ब्ल कि मुआविया के मरने की ख़बर लोगों में आम हो, हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह बिन जुबैर वग़ैरा को इसी वक़्त तलब करो और उनसे बैअत का मुतालिबा करो और अगर वह इन्कार करें तो उन्हें क़त्ल कर दो। क्योंकि मर्गे मुआविया की ख़बर आम होते ही अहले मदीना हुसैन (अ.स.) की बैअत पर मुत्तहिद हो जाएंगे और फितना खड़ा हो जाएगा।
वलीद समझ रहा था कि मरवान के इस मशविरे पर अमल आसान नहीं है, ताहम उसने हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और अब्दुल्लाह बिन उमर को बुलवाया। जिस वक़्त वलीद का फरिस्तादा पहुंचा उस वक़्त इमाम (अ.स.) मस्जिद में इब्ने जुबैर के साथ तशरीफ़ फ़रमा थे। आपने फ़रमाया कि तुम चलो और अपने अमीर से कहो कि हम अभी आते हैं। जब फरिस्तादा चला गया तो इब्ने जुबैर ने पूछा, हमें क्यों बुलवाया गया है? इमाम (अ.स.) ने फ़रमायाः शायद मुआविया मर गया है और वलीद चाहता है कि इससे क़ब्ल कि लोग उसकी मौत से आगाह हों हमसे यज़ीद की बैअत ले लें। इब्ने जुबैर ने कहा, मेरा भी यही ख़्याल है, अब क्या होना चाहिए? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं अपने खानदान के मुसल्लह नौजवानों के साथ जाऊँगा और जो होना होगा वह हो जाएगा।
चुनांचे इमाम तशरीफ ले गए और बनी हाशिम के दिलेरों से फ़रमाया कि तुम दरवाज़े पर खड़े होकर मेरे वापस आने का इन्तेज़ार करो। मैं अन्दर जाता हूं और अगर मेरी आवाज़ बुलन्द हो तो तुम भी अन्दर आ जाना और मेरा दिफ़ा करना। उसके बाद इमाम (अ.स.) अन्दर दाखिल हुए। वलीद ने मर्गे मुआविया की ख़बर देने के बाद आपसे ख़त का मुद्दआ बयान किया और बैअत का तालिब हुआ। इमाम (अ.स.) ने पुरसुकून लहजे में फ़रमायाः
“मेरा जैसा शख़्स खुफिया तौर पर बैअत नहीं कर सकता, सुबह होने दो, जब अहले मदीना जमा हों तो मुझे भी बुला लेना, फिर देखना कि क्या होता है।”
इमाम (अ.स.) का यह दानिशमन्दाना जवाब सुनकर वलीद ने कहा कि ठीक है, मैं आपकी इस तजवीज पर गौर करके फिर ज़हमत दूंगा, फिलहाल आप तशरीफ ले जाएं। इस पर मरवान ने कहा, ऐ वलीद ! क्या ग़ज़ब करता है, अगर हुसैन (अ.स.) इस वक़्त बग़ैर बैअत किए चले गए तो फिर इन पर काबू पाना मुहाल है। मकसद यह था कि अगर बैअत न करें तो हुसैन (अ.स.) को क़त्ल कर दो।
मरवान की यह गुफ़्तुगू सुनते ही इमाम हुसैन (अ.स.) उठ खड़े हुए और फ़रमाया:ऐ ज़रका के पिसर ! तेरी यह मजाल कि तू मेरे क़त्ल का हुक्म देता है और अपनी पस्ती का सुबूत फ़राहम करता है। फिर वलीद की तरफ़ मुखातिब हुए और फ़रमाया:
“यज़ीद मलऊन एक फ़ासिक व फाजिर, शराबख़ोर और ज़लील इन्सान है, मुझ जैसा शख़्स उसकी बैअत हरगिज़ नहीं कर सकता।”
इन कलेमात के साथ आप वलीद के घर से बाहर निकल आए और इस तरह आपने एक ताक़तवर और ज़ालिम व जाबिर उमवी हुकूमत के ख़िलाफ़ केताल का एलान फ़रमा दिया।
मदीने से हिजरत
इमाम हुसैन (अ.स.) जब सलामती के साथ वलीद के घर से चले आए तो उसने इब्ने जुबैर को तलब किया। मगर उन्होंने ख़ौफ़ या मसलहत की बिना पर वहां जाना मुनासिब न समझा और जब रात हुई तो अपने मखसूसीन के हमराह पर्दाए शब में किसी खुफिया रास्ते से मदीना छोड़ कर मक्के की तरफ रवाना हो गए। वलीद ने उसी वक़्त एक ख़त यजीद को रवाना किया जिसमें इमाम हुसैन (अ.स.) की तरफ से इन्कारे बैअत और इब्ने जुबैर की तरफ से मदीना छोड़ देने की रूदाद तहरीर थी। यज़ीद की तरफ से जवाब आया कि फिलहाल हुसैन (अ.स.) बिन अली (अ.स.) का सर काट कर मेरे पास भेज दे, इसक एवज़ मैं तुझे माले कसीर और मंसबे आली अता करूंगा।
इमाम (अ.स.) को जब यह ख़बर मिली और तशवीश व इज़्तेराब में मुबतिला हुए तो र्कुआन ने कहा:
“बड़े-बड़े आदमी तुम्हारे बारे में मशविरा करते हैं कि वह तुम्हें क़त्ल कर दें, तुम भाग निकलो, तुम्हारे लिए मेरी यही नसीहत है।” (सूरये कसस: आयत 20)
हो सकता है कि इमाम (अ.स.) ने इसी र्कुआनी आयत की रौशनी में मदीना छोड़ने का फ़ैसला किया हो। कुछ सही। बहरहाल हालात की नौईयत इस क़द्र संगीन और जानलेवा थी कि इमाम (अ.स.) के लिए अब मदीने में क़याम मुम्किन न था। चुनांचे आपने सब्र व तहम्मुल के साथ तर्के वतन का इरादा किया और नाना की कब्र पर तशरीफ ले गए। अपना दर्दे दिल बयान किया और बेइन्तेहा रोए। जब सुबहे सादिक़़ नमूदार होने लगी तो घर तशरीफ़ लाए।
इमाम (अ.स.) ने दूसरी रात फिर जागकर मुनाजात में बसर की। रूख़्सते आख़िर के लिए अपनी मां की कब्र पर गए उन्हें सलाम किया, कब्र से जवाबे सलाम आया। फिर अपने भाई हसने मुज्तबा (अ.स.) की लहद पर हाजिरी व गिरया व ज़ारी के बाद नाना रसूले खुदा (स.अ.) के मज़ारे मुकद्दस पर आए और तुरबत से लिपट कर मसरूफ़े गिरया हुए। रात के किसी हिस्से में आंख लग गयी। ख़्वाब में देखा कि पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) मलाएका की जमाअत के साथ तशरीफ़ लाए हैं और आपने इमाम (अ.स.) का सर अपने सीने पर रखा, गर्दन और पेशानी का बोसा दिया और फ़रमाया, ऐ फरज़न्द ! मेरी उम्मत के ज़ालिम व मुन्हरिफ लोग अनकरीब तुझे तीन दिन का भूखा प्यासा कर्बला में क़त्ल कर देंगे। उस वक़्त तुम सब्र से काम लेना और बेटा ! हम तुम्हारे इन्तेज़ार में हैं।
गरज़ की इमाम (अ.स.) जब बेदार हुए और दौलत सरा में तशरीफ लाए तो अपने मुतअल्लेकीन से अपना ख़्वाब बयान किया। फिर आपने सफर का इरादा किया और 28 रजब सन् 60 हिजरी को मदीने से मक्के की तरफ चल पड़े। आपके साथ आपके अइज़्ज़ा, जवानाने बनी हाशिम, मुखद्दराते इस्मत व तहारत नीज़ छोटे-छोटे बच्चे भी थे। सिर्फ एक साहबजादी (फ़ातिमा सुगरा (स.अ.)) जिनकी उम्र उस वक़्त सात साल की थी बवजहे अलालत आपके साथ नहीं जा सकीं। उनकी तीमारदारी के लिए आपने हज़रत अब्बास (अ.स.) की मादरे गिरमीं उम्मुल बनीन को छोड़ा और फ़रीज़ए ख़िदमत जनाब उम्मे सलमा के सुपुर्द भी किया।
इमाम (अ.स.) की हिजरत के बाद मदीना तारीक था इसलिए कि उसका आफ़ताब उसकी आंखों से ओझल हो चुका था, रौज़ए रसूल (स.अ.) बेचिराग था इसलिए कि उसका नूर महवे सफ़र था, कब्रे फ़ातिमा वीरान थी इसलिए कि उसकी रौनक जा चुकी थी, हसने मुज्तबा (अ.स.) की लहद सोगवार थी इसलिए कि उनका भाई हमेशा के लिए उनसे बिछड़ चुका था।
मक्का में वरूद व क़याम
इमाम (अ.स.) शबे जुमा तीसरी माहे शाबान सन् 60 हिजरी को अपने कारवाने तहारत के साथ वारिद मक्का हुए “शेअबे अली बिन अबी तालिब” में आपने क़याम किया और चार माह तक वही सकूनत पज़ीर रहे।
अब्दुल्लाह बिन जुबैर आपसे दो चार दिन पहले मक्का पहुँच चुके थे लिहाजा अहले मक्का उनकी तरफ़ मुल्तफ़ित थे लेकिन जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ लाए तो लोग इब्ने जुबैर को नज़र अन्दाज़ कर के आपकी तरफ मुतवज्जे हो गए। यह बात इब्न जुबैर की नागवारी का सबब बनी और उन्हे यह अन्दाज़ा हो गया कि हुसैन बिन अली (अ.स.) की मौजूदगी में उनका कोई असर क़ाएम नही हो सकता इसलिए वह भी मसलहतन सुबह व शाम इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िरी देने लगे। तबरी और इब्ने असीर का बयान है कि इमाम हुसैन (अ.स.) की जात, इब्ने जुबैर के लिए तमाम मखलूक से ज़्यादा गरां थी क्यांेकि वह यह अच्छी तरह जानते थे कि मक्का में जब तक इमाम क़याम फ़रमा है एक भी शख़्स मेरा ताबे नहीं हो सकता।
इमाम (अ.स.) भी इब्न जुबैर के इस अंदरूनी कर्ब को महसूस कर रहे थे। आख़िरकार एक दिन आपने हाज़रीने मजलिस से फ़रमायाः अब्दुल्लाह बिन जुबैर को इसके अलावा और कोई तमन्ना नही कि मैं हिजाज़ से निकल कर इराक़ की तरफ़ चला जाऊँ। चुनांचे अहले कूफ़ा की तलबी पर जब आपने इराक़ जाने का क़स्द किया तो इब्ने अब्बास ने कहा, आपने इराक़ जाने का फ़ैसला कर के इब्ने जुबैर का मकसद पूरा कर दिया।
तारीख शाहिद है कि मक्का में इमाम (अ.स.) का क़याम एक पनाह गुज़ीन और पुरअम्न शहरी की हैसियत से आरजी था मगर इसके बावजूद यज़ीद बहरहाल आपको क़त्ल करा देना चाहता था क्योकि आप ही इस्लाम के हक़ीक़ी वारिस और रसूल (स.अ.) के सच्चे जानशीन थे। चुनांचे उसने वैसे ही इंतेजामात भी किए थे कि हुसैन (अ.स.) अगर मदीना से निकले तो मक्का में क़त्ल हो जाए वरना फिर कूफा में उन्हंे शहीद किया जा सके। और यही वजह थी कि शहादत इमाम (अ.स.) से क़ब्ल जितने भी यजीदी अफ़सर भेजे गए उन सबकी कोशिश यही रही कि आपको किसी तरह घेर कर कूफ़ा ले जाए ताकि वहाँ आसानी से क़त्ल किया जा सके क्योकि कूफे़ के बाशिन्दे अकीदा व अकीदत से आरी थे और उनकी अक़ले भी मोटी थीं। मक्का में क़याम के दौरान यज़ीद की तरफ से आपके क़त्ल का यह इंतेज़ाम किया गया कि तीन सौ ख़ंजर ब-कफ़ खारजियों को हाजियो के भेस मे उमरे सअद के साथ मक्का रवाना किया गया ताकि वह हज के मौके़ पर आपका काम तमाम कर दें।
इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में जो ख़तूत अहले कूफ़ा की तरफ से भेजवाए या भेजे गए और जिन्हें शरई रंग दिया गया वह ऐसे अफ़राद के नामो से थे जिनसे इमाम ब-ज़ाते खुद मुतअरिफ थे। शाह अब्दुल अजीज़ मुहद्दिस देहलवी का कहना है कि यह ख़तूत हर जमाअत की तरफ से भेजवाए गए थे। अल्लामा इब्ने हजर मक्की ने तहरीर किया है कि खुतूत भेजने वाले आम अहले कूफा थे और तबरी का बयान है कि इस वक़्त दो चार घरों के अलावा कूफे़ में किसी अलवी शिया का घर नहीं था। इस्फ़हानी अपनी किताब “नूरूल एैन” में रक़म तराज है कि अहले कूफ़ा ने इमाम हुसैन (अ.स.) की ख़िद़मत में जो ख़तूत इरसाल किए उनका माहसल सिर्फ यह था कि यज़ीद हम पर जुल्म कर रहा है। आप यहाँ तशरीफ़ ले आएं ताकि हम आपकी बैअत कर के यज़ीद से जंग कर सकें।
इमाम (अ.स.) ने जवाब मे तहरीर फ़रमाया कि तुम्हारे ख़तूत से तुम्हारी मज़लूमी का पता चलता है लिहाज़ा अब मेरी यह ज़िम्मेदारी है कि मैं तुम्हारी आवाज़ पर मदद के लिए पहुँचूं और इंशाअल्लाह मैं जल्द आऊंगा।
इमाम आली मक़ाम की शराफ़ते नफ़्स और ग़ै़रत का तकाजा भी यही था कि आप आमरियत व इस्तेबदादियत के बिल-मुकाबिल मज़लूमियत का साथ देते। चुनांचे आपने अहले कूफ़ा के एख़लास और उनके हालात का जाएजा लेने के लिए अपने चचा जाद भाई मुस्लिम बिन अक़ील को एक मकतूब के साथ नुमाईंदा व सफीर की हैसियत से कूफ़े की तरफ रवाना कर दिया।
हज़रत मुस्लिम की शहादत
इमाम के नुमाईन्दए खुसूसी के मंसब पर फाएज़ होकर जनाब मुस्लिम बिन अक़ील मक्का से कूफे़ की तरफ रवाना हुए। पहले आप मदीना गए वहां मस्जिदे नबवी में नमाज़ जढ़ी, फिर मरक़दे रसूल (स.अ.) की ज़ियारत से फ़राग़त के बाद अपने घर गए। रात में वही क़याम किया और नमाज़ शब में मसरूफ़ रहे। फिर फरीज़ए सहरी अदा कर के अपने अईज़्ज़ा व अरूबा से रूख़्सत हुए उसके बाद अपने दो बच्चों मोहम्मद व इब्राहीम को लिया और दो अरब रहबरों कैस व अब्दुर्रहमान के साथ जो रास्तों से वाक़िफ़ थे, कूफ़े की तरफ चल पड़े। और वारिद कूफा होकर आपने मुख़्तार बिन अबू उबैदा सकफी के यहा क़याम फ़रमाया।
जब आपकी आमद की खबर शहर में फैली तो लोग जमाअतों और टोलियों की शक्ल मे आने लगे और आपके हाथ पर इमाम (अ.स.) की गाएबाना बैअत का सिलसिला शुरू हो गया जो बतदरीज बढ़ता रहा यहा तक कि बैअत करने वालो की तादाद के बारे मे मुवर्रेख़ीन ने जो अपनी राये ज़ाहिर की है वह ज़्यादा से ज़्यादा तमाम अहले कूफा उससे कम एक लाख, फिर अस्सी हज़ार और सबसे कम अठ्ठारह हजार अफराद पर मुशतमिल है और यही आखिरुज़ ज़िक्र तादाद मेरे नज़दीक दुरूस्त है।
जनाबे मुस्लिम ने अहले कूफा की तरफ से अपने वालेहाना इस्तेकबाल, इमाम (अ.स.) की बैअत में सबक़त और हालात की खुशगवारी को देखा तो आपने इमाम (अ.स.) की ख़िदमत मे ख़त रवाना किया कि हालात साज़गार हैं, आपका यहाँ आना मुनासिब होगा।
इधर यज़ीद को जब कूफ़े में आपकी आमद और अहले कूफ़ा की तरफ़ से आपके हाथ पर इमाम (अ.स.) की गाएबाना बैअत का हाल मालूम हुआ तो उसने हाकिमे कूफा नोअमान बिन बशीर को माजूल कर के इब्ने ज़ियाद को हाकिम की हैसियत से अहले कूफ़ा पर मुसल्लत कर दिया।
यह शख़्स बड़ा ही ज़ालिम और तशद्दुद पसंद था। आते ही उसने शहर भर मे एक ख़ौफ़ व दहशत का माहौल पैदा कर दिया जिसके नतीजे में अहले कूफ़ा जनाबे मुस्लिम का साथ छोड़कर अलग हो गए। 8 जिलहिज्जा को मअक़िल नामी एक गुलाम की मुख़बिरी पर तीन हज़ार की तादाद पर मुश्तमिल इब्ने ज़ियाद के एक लश्कर ने मोहम्मद बिन अशअस की कयादत में जनाबे मुस्लिम की क़याम गाह को घेर लिया। आपने एक यादगार और तारीख साज़ जंग की और पूरे लश्कर को मार भगाया। दोबारा फिर हमला किया गया, आपने फिर मुकाबला कर के दुश्मनों को भागने पर मजबूर कर दिया। आपकी शुजाअत दिलेरी और कूव्वत व ताकत का यह आलम था कि इब्ने ज़ियाद के फौजियों को पकड़ कर आसमान की तरफ़ उछाल देते थे जिसके नतीजे मे ज़मीन पर गिरकर उसकी हड्डिया पसलियां चूर चूर हो जाती थीं और जिस तरफ आप हमला करते थे लोग इस तरह भागते थे जिस तरह शेर के हमलावर होने पर भेड़ंे और बकरियां भागती है।
जब दुश्मन किसी तरह आप पर काबू हासिल करने में कामयाब न हुए तो मोहम्मद बिन अशअस ने आपको धोखा देने के लिए यह तदबीर इख़्तेयार की कि रास्ते में एक गहरा गड्ढा खुदवा कर उसको ख़शो खाशाक से बंद कर दिया और अपने सिपाहियों को हुक्म दिया कि वह पीछे हटकर मुस्लिम को आगे बढ़ने का मौका दें।
उधर आप दुश्मनों पर मुतावातिर हमलों पर हमले करते हुए जोशो खरोश के साथ आगे बढ़ रहे थे कि अचानक उस गढ्ढे में गिर गए। फिर क्या था! बुज़दिल फौजी आप पर टूट पड़े और आपको बेबस कर के गिरफ़्तार कर लिया। इसके बाद आपको इब्ने ज़ियाद के सामने पेश किया गया। उसके हुक्म से आपको दारूल अमारा की छत पर ले जाए गए और वहाँ क़त्ल कर के सर काट लिया गया और आपके जिस्म को छत से नीचे फेंक दिया गया। आपके क़त्ल हो जाने के बाद आपके दोनों बच्चे भी क़त्ल कर के दरियाए फुरात मे डाल दिए गए। यह वाक़िआ 9 जिलहिज्जा सन् 60 हिजरी का है। वक़्ते शहादत आपकी उम्र 28 साल की थी।
सफ़रे कर्बला और शहादत
हम तहरीर कर चुके है कि यज़ीद मलऊन इमाम हुसैन (अ.स.) को हज के मौके पर मक्का में क़त्ल करा देना चाहता था। इमाम यह नहीं चाहते थे कि मेरी वजह से मक्का मे खूँरेज़ी हो और खानए काबा की हुरमत बर्बाद हो। चुनांचे अभी हज को दो रोज़ बाकी थे कि 8 ज़िलहिज्जा को आप अपने जुमला अहल व अयाल और अइज़्ज़ा के साथ मक्का-ए-मुअज्जमा से कूफ़े की तरफ रवाना हो गए।
रास्ते मे मनज़िले ज़बाला पर आपको ख़बर मौसूल हुई कि जनाबे मुस्लिम अपने दो बच्चो के साथ शहीद कर दिए गए मगर सब्र व इस्तेकलाल के साथ आपने अपना सफर जारी रखा। मनजिले तय करने के बाद मनजिल “ज़ू-हशम” “पर हुर बिन यज़ीद रियाही का रिसाला सद्दे राह हुआ जो प्यास से जाँबल्ब था। उसके साथ इमाम ने रहम व करम का वह मुज़ाहिरा किया जो दुनियाए इंसानियत मे यादगार रहेगा। तमाम अफ़वाज को प्यासा देखकर जितना पानी साथ था वह सब पिला दिया और उन बे-आब रास्तों में अपने अहले हरम और बच्चों की प्यास के लिहाज़ से पानी का कोई जखीरा महफूज़ न रखा। इसके बाद भी यज़ीदी फौज ने अपने हाकिम की हिदायत के मुताबिक आपके साथ जुल्म व तशद्दुद का सुलूक रवा रखा और आपको आगे बढ़ने या वापस जाने से रोक दिया। बिल आख़िर इमाम अपने अतफाल व अहले हरम के साथ हुर की तजवीज़ के मुताबिक एक ग़ैर मारूफ रास्ते से रवाना हुए। आपकी निगरानी के लिए हुर का रिसाला भी आपके साथ रहा यहाँ तक कि दूसरी मोहर्रम सन् 61 हिजरी को वारिदे कर्बला हुए।
वाएज़ काशफ़ी और अल्लामा अर्दबेली का बयान है कि जैसे ही इमाम हुसैन (अ.स.) ने ज़मीने कर्बला पर क़दम रखा वह ज़र्द हो गयी ओर एक ऐसा गुबार उठा कि आपका सरे मुबारक ख़ाक आलूदा हो गया। यह देखकर असहाब डर गए और हज़रत ज़ैनब व हज़रत उम्मे कुलसूम रोने लगीं। माएतीन में है कि उस दिन एक सहाबी ने मिस्वाक के लिए बेरी के एक दरख़्त से शाख़ काटी तो उससे खून ताज़ा जारी हो गया।
आपके ख़ेमें फुरात के किनारे नस्ब किए गए तो हुर ने मुज़ाहिमत की और कहा कि ख़ैमों को फुरात से दूर नस्ब कीजिए। उस पर अली (अ.स.) के शेर अब्बास (अ.स.) को जलाल आ गया। इमाम (अ.स.) ने अपनी बहन जैनब की मदद से अब्बास (अ.स.) का गुस्सा फुरो किया फिर तीन मील या बा-रिवायत पाँच मील की दूरी पर ख़ैमे नस्ब किए गए।
दूसरे दिन उमरे सअद की सरकर्दगी में एक बड़ा लश्कर कर्बला पहुँचा। उसके बाद मुसलसल यज़ीदी अफवाज की आमद का सिलसिला शुरू हो गया। तमाम रास्ते बन्द कर दिए गए और इमाम को चारों तरफ से घेरकर यज़ीद की बैअत पर इसरार किय जाने लगा। मगर इस्तेबदादी ताकत की तमाम तर नुमाईशें और ईजा रसानियों की तमाम सूरतें आपको एक फासिक व फाजिर बादशाह की बैअत पर मजबूर न कर सकीं। आठवी मोहर्रम को उमरे सअद ने इमाम (अ.स.) से फिर कहा कि अब भी वक़्त है यज़ीद की बैअत कर लीजिए मगर आपके अज़्म व इस्तेकलाल मे कोई फर्क न आया। आपने बैअत से साफ़ इंकार करते हुए फ़रमाया कि मुझको वापस जाने दो कि मैं मक्का या मदीना मे गोशानशीन हो जाऊँ। अगर यह मुमकिन न हो तो इजाज़त दो कि मै यज़ीद की सल्तनत से निकल कर हिन्द या किसी दूसरे मुल्क में चला जाऊँ। और अगर यह भी मुमकिन न हो तो मुझे यज़ीद के पास ले चलो ताकि मैं उससे खुद गुफ़्तगू कर लूँ।
दूसरी ही मोहर्रम से फुरात पर फ़ौजों के पहरे बिठा दिए गए थे। सातवीं से इमाम (अ.स.) के ख़ेमो में क़हते आब था। आपके अहले हरम और छोटे-छोटे बच्चे प्यास की शिद्दत से तड़प रहे थे मगर इमाम (अ.स.) की नज़र में यज़ीद की बैअत अब भी उसी तरह गैर मुमकिन थी जिस तरह पहले थी। यहाँ तक कि नवीं मोहर्रम की सुबह नमुदार हुई और सुलह व बैअत के तमाम इमकानात उस वक़्त ख़त्म हो गए जब शिम्र इस हुक्म के साथ वारिदे कर्बला हुआ कि हुसैन (अ.स.) अगर गैर मशरूत तौर पर यज़ीद की इताअत. कुबूल नहीं करते तो उनसे जंग करो। यह फ़रमान इब्ने ज़ियाद की तरफ से उमरे सअद के नाम था जिसके पहुँचने पर तीसरे पहर यज़ीदी अफ़वाज ने ख़्यामे हुसैनी की तरफ़ पेशकदमी की और असहाबे हुसैन (अ.स.) पर हमला किया। किसी जवाबी इक़दाम से पेशतर आपने चाहा कि एक रात की मोहलत मिल जाए ताकि यह आखि़री रात इबादते इलाही में बसर हो सके नीज़ इसके अलावा असहाब व अन्सार को जंग का क़तई फ़ैसला हो जाने के बाद अपने तर्जे अमल पर गौर करने का एक मौक़ा और फ़राहम हो जाए। चुनांचे आपने एक रात की मोहलत ली। अपने असहाब को एक मरकज़ पर जमा किया और शमें गुल करते हुए शब की तारीकी में फ़रमायाः
“मैंने अपने असहाब से ज़्यादा बावफ़ा और बुलन्द हौसला असहाब नहीं देखे। खुदा तुम सबको जज़ाए ख़ैर दे, कल का दिन कुर्बानियों का दिन है और दुश्मन के साथ हमारा फैसला होने वाला है। मैं तुम्हें आज़ादी देता हूँ और तुम पर से अपनी बैअत उठाये लेता हूं। रात ढल रही है, इस तारीकी से फाएदा उठाओ और जहां चाहो चले जाओ और अगर हो सके तो तुम में से हर शख़्स मेरे ख़ानदान के एक एक फर्द का हाथ पकड़कर अपने साथ लेता जाए। यह यजीदी सिर्फ मेरी जान के दुश्मन हैं। मुझे यकीन है कि जब यह मुझे क़त्ल कर लेंगे तो फिर दूसरों का पीछा नहीं करेंगे।”
मगर इमाम (अ.स.) के वफादारों और जांनिसार साथियों ने अपनी जगह से जुम्बिश तक न की बल्कि सभी ने एक ज़बान होकर कहा कि अगर हम क़त्ल किए जाएं और फिर ज़िन्दा किए जाएं तो आपकी नुसरत व रिफ़ाक़त से न मुंह मोड़ेंगे और न आखि़री सांस तक आपका साथ छोड़ेगे।
आशूर की रात ख़त्म हुई। दसवीं मुहर्रम को सुबह से अस्र तक की मुद्दत में उन बहादुरों ने जो कहा था उसे कर दिखाया और इस इस्तेकलाल, वफादारी और बहादुरी के साथ इमाम (अ.स.) की नुसरत में दुश्मनों से जंग की जो तारीख़ में यादगार है। इन जांनिसारों में हबीब बिन मज़ाहिर, मुस्लिम बिन औसजा, सुवैद बिन अम्र, अनस बिन हारिस और अब्दुर्रहमान बिन अब्दु रब ऐसे साठ, सत्तर और अस्सी बरस के बूढ़े भी थे, कुछ नौजवान भी थे, बुरैर हमदानी, किनाना बिन अतीक़ सअलबी, नाफ़ेअ बिन हिलाल और हंज़ला बिन असद ऐसे हुफ़्फ़ाजे र्कुआन भी थे, ओलमा व रावियाने हदीस भी थे, आबिदे शब ज़िन्दादार भी थे और ऐसे शुज़ाआन रोज़गार भी थे जिनकी शुजाअत के कारनामें लोगों की ज़बान पर थे।
जब मददगारों में कोई बाकी न रहा तो अज़ीज़ों की बारी आई। इमाम (अ.स.) ने सबसे पहले अपने जवान बेटे अली अकबर (अ.स.) को जो शबीहे पैग़म्बर (स.अ.) भी थे, दुश्मनों से जंग के लिए मैदान में भेजा। अली अकबर (अ.स.) ने यादगार जिहाद करके अपनी जान दीने ख़ुदा पर निसार की। इमाम (अ.स.) को शबीहे रसूल (स.अ.) की जुदाई का बेहद सदमा हुआ मगर अमल की राह में आपके हौसलों और वलवलों में कोई फर्क न आया। अकील की औलाद, अब्दुल्लाह बिन जाफ़र के फ़रज़न्द एक एक करके रूख़्सत हुए। इमाम हसन (अ.स.) के यतीम फ़रज़न्द कासिम की जुदाई आप पर इन्तेहाई गरां गुज़री मगर इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने बुजुर्ग मर्तबा भाई की वसीयत पर अमल करते हुए कासिम को भी रूख़्सत कर दिया। आख़िरी मरहले में फ़रज़ंदाने अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) ने दीने हक़ की बका के लिए अपनी जाने कुर्बान कीं। जब कोई न रहा तो अलमदार की बारी आई कमरे बनी हाशिम अबुल फ़ज़लिल अब्बास (अ.स.) को इमाम (अ.स.) किसी तरह इजाजत न देते थे क्योंकि उनके दोश पर इस्लाम का अलम लहरा रहा था। बच्चों की प्यास और जोशे जिहाद से मजबूर होकर आख़िरकार अलमदार ने भाई से इजाज़त ली और पानी लाने के लिए सूखी हुई मश्क अपने साथ लेकर फुरात की तरफ मुतवज्जे हुए। आपने अलम की हिफ़ाज़त भी की, दुश्मनों से मुकाबला भी किया, फ़ौज को हटाकर नहर का रास्ता भी साफ़ किया और मश्क में पानी भी भर लिया मगर अफ़सोस कि यह पानी ख़्यामे हुसैनी तक पहुंचने भी न पाया था कि बहादुर व बावफ़ा अलमदार के शाने कलम हुए, मश्क तीर से छिदी, पानी ज़मीन पर बहा और अब्बास (अ.स.) की कूव्वत ख़त्म हो गयी। गुरज़ के सदमें से ज़मीन की तरफ झुके और अलम आपके हाथ से फ़र्शे ख़़ाक पर आ गया। हुसैन (अ.स.) की कमर टूट गयी मगर हिम्मत नहीं टूटी।
अब मैंदाने जिहाद में हुसैन (अ.स.) के सिवा कोई न था। चुनांचे आप भी बीबियों से रूख़्सत हुए, मैदान में तशरीफ़ लाए और यास व नामुरादी और पीरी व ज़ईफी के आलम में बहादुरी के वह जौहर दिखाए जिसकी मिसाल तारीखे आलम पेश करने से क़ासिर हैं। आप दुश्मनों से मसरूफ पैकार थे कि यकायक ख़ेमों से रोने की आवाजें बुलन्द हुईं। इमाम (अ.स.) वापस आए और देखा कि आपका शशमाहा बच्चा अली असग़र प्यास की शिददत से दम तोड़ रहा है। इमाम (अ.स.) को अपनी बेगुनाही और यजीदियों की शकावत के इज़हार का एक मौका और मिला। आपने बच्चे को हाथों पर लिया, अबा का साया किए हुए मैदान में आए और बुलन्दी पर खड़े होकर दुश्मनों से फ़रमाया यह मासूम बच्चा प्यास से जांबलब है, इसकी मां का दूध भी खुश्क हो चुका है, अगर एक क़तरा पानी इसके हलक में टपका दो तो इसकी जान बच जाए।
यह ऐसा दिल ख़राश मंज़र था कि वह पत्थर दिल जो औन व मुहम्मद की कमसिनी, अली अकबर की नौजवानी और इमाम (अ.स.) की ज़ईफी से मुतअस्सिर न हो सके थे आख़िरकार पसीज गए और लोग मुंह फेर कर रोने लगे। उमरे सअद मलऊन ने जब यह देखा कि फ़ौज में इन्तेशार का अन्देशा है तो उसने हुरमुला मलऊन को हुक्म दिया कि हुसैन (अ.स.) के कलाम को क़ता कर दे। उस मलऊन ने तीन भाल का तीर चिल्लए कमान में जोड़ा और पूरी कूव्वत से उसे रेहा कर दिया। तीर अली असग़र की गर्दन पर लगा और हुसैन (अ.स.) के बाज़ू को तोड़कर निकल गया।
यह आखि़री हदिया बारगाहे इलाही में पेश करके इमाम (अ.स.) फिर मैदाने कारज़ार में आए। आप तीन दिन के भूखे प्यासे से थे, आपने दिन भर अईज़्ज़ा, असहाब और अन्सार की लाशें उठाई थीं, बहत्तर ज़ख़्म सीने पर खाए हुए थे, भाई के ग़म में कमर शिकस्ता हो चुकी थी। औलाद की शहादत ने कलेजे को पाश पाश कर दिया था मगर आपने नुसरते इस्लाम के लिए तलवार जब न्याम से निकाली तो मैदाने कारज़ार में ख़ून बरसने लगा लोगों को अली (अ.स.), हमज़ा और जाफ़र की जंग याद आ गयी। फिर वह मंज़िल भी आई जब ज़ख़्मों और तीरों की कसरत से आप घोड़े पर संभल न सके। अर्शे जीन से फ़र्शे ज़मीन पर तशरीफ लाए। शिम्र मलऊन बदबख़्त खंजर लेकर आगे बढ़ा। ज़मीन कांपने लगी, आसमान लरज़ने लगा और क़यामत आ गयी। इमाम हुसैन (अ.स.) का सर तन से क्या जुदा हुआ गोया रसूल ख़ुदा (स.अ.) का सर कलम हो गया।
उसके बाद आपका सरे मुबारक नैज़े पर बुलन्द किया गया। दुश्मनों ने तकबीर का नारा लगाया, फतह के बाजे बजने लगे। शहीदों की लाशें घोड़ों के सुमों से पामाल की जाने लगीं। माल व असबाब लूट लिया गया। बीबियों के सरों से चादरें छीन ली गईं और ख़ैमों में आग लगा दी गई बीमार व ग़मज़दा सय्यदे सज्जाद (अ.स.) को ख़ारदार तौक व बेड़ियों में जकड़ा गया और अरब के शरीफ़ तरीन खानदान की शहजादियाँ असीर कर ली गईं। यज़ीदियों ने अपने कुश्तों को दफ़्न किया और शोहदा की लाशे बेगोरो कफ़न छोड़ कर कैदियों के साथ कूफ़े व शाम की तरफ रवाना हो गए। जालिमों के चले जाने के बाद क़बील-ए-बनी असद के लोगो ने 12 मोहर्रम को शालों को दफ़्न किया।
तारीखें बताती हैं कि असीराने कर्बला का क़ाफिला जब कूफ़े की तरफ रवाना हुआ तो यज़ीदियों ने शहीदों के सरो को नैज़ांे पर आगे आगे रखा। अहले हरम को बेमक़ना व चादर ऊंटू की बरहना पीठ पर सवार किया और मेहार इमाम के बीमार बेटे सय्यदे सज्जाद के हाथों में देकर उन्हें पुरखार रास्तों से पा-बरहना चलने पर मजबूर किया।
अशक़िया रास्ते भर तरह तरह की ज़िल्लतें और अज़ीयतें पहुँचाते रहे। शकावत की इन्तेहा यह थी कि अगर इमाम ज़ैनुल आबदीन (अ.स.) थक कर कही बैठ जाते या पाँव मे चुभे हुए कांटे निकालने के लिए कहीं ठहर जाते तो उन्हें ताज़ियानों से अज़ीयत दी जाती और अगर बीबियाँ अपने अज़ीज़ों के सरों को देखकर नाला व फरयाद करतीं तो जालिम उन्हें नेज़ों की अनियाँ चुभोते थे। यहाँ तक कि जब असीरों का यह काफिला दमिश्क पहुँचा तो उन्हे इन्तेहाई जिल्लत व ख़्वारी के साथ बाजारों और आबाद रास्तों से यज़ीद के दरबार तक ले जाया गया। मुस्तज़ाद यह कि यज़ीद ने भी उनकी ज़िल्लत में कोई दकीका उठा नहीं रखा। आख़िरकार उन्हें एक ऐसे कैदख़ाने में कैद कर दिया जहाँ रात की ओस और दिन की धूप पड़ती थी। उसी क़ैदखाने में हुसैन (अ.स.) की लख़्ते जिगर सकीना अपने बाबा के ग़म में दुनिया से रूख़्सत हो गई।
अहले हरम साल भर दमिश्क में कैद रहे। उसके बाद रिहाई नसीब हुई तो यह लुटा हुआ काफ़िला मदीने की सिम्त रवाना हुआ और 8 रबीउल अव्वल सन् 62 हिजरी को मदीना में दाखिल हुआ।
हक़ की हिफ़ाज़त और उसूलों की हिमायत में अकसर कुर्बानियाँ पेश की गयीं मगर इमाम हुसैन (अ.स.) ने कर्बला के मैदान में जो कुर्बानी पेश की उसकी मिसाल दुनिया की तारीख में नहीं मिलती। इमाम मज़लूम की शहादत ने ज़मीरों को बेदार किया, दिलों को बदला और ज़ेहनी इन्केलाब की राहे हमवार कीं। इस वाक़िए से पहले किसी की मजाल नहीं थी कि यज़ीद को बुरा भला कह सके या अमवी हुकूमत पर अंगुश्त नुमाई कर सके लेकिन इस वाक़िए के बाद यज़ीद का नाम मुसलमानों की नज़र में लअनत बन गया। उसके मुंह पर लोग उसे बुरा भला कहते थे और वह खामोशी से सुनता था। यज़ीद के बाद उसका बेटा सल्तनत का वारिस हुआ वह उपने बाप के अफ़आल पर इतना शर्मिंदा था कि चंद ही रोज़ में हुकूमत से दस्तबर्दार होकर खाना नशीन हो गया और तीन माह खाना नशीनी के बाद ख़ाक के पर्दे मे हमेशा के लिए रूपोश हो गया।
यह इमाम हुसैन (अ.स.) ही की शहादत का असर था कि यज़ीद दुनिया की नज़र से गिर गया। लोगों के दिल उसकी तरफ़ से फिर गए यहां तक कि उसकी ज़बर्दस्त सल्तनत थोड़े ही ज़माने में सफ़ह-ए-हस्ती से मिट गयी और सिर्फ तारीख़ के दामन का दाग़ बन कर रह गयी।
इमाम हुसैन (अ.स.) की दर्दनाक शहादत ने हर उस शख़्स के ज़मीर में एहसासे जुर्म व गुनाह की ज़बर्दस्त लहर दौड़ा दी जिसने आपके साथ अहद व पैमान बांधने के बाद इस्तेताअत के बावजूद आपकी मदद न की। इस एहसासे जुर्म के दो पहलू हैं। एक तरफ से यह एहसास, गुनाहगार को गुनाह का कफ़्फ़ारा अदा करने का बाएस बनता है और दूसरी तरफ उसके दिल में उन लोगों के ख़िलाफ़ नफरत व अदावत पैदा होती है जिन्होंने उसको इस गुनाह पर आमादा किया। और यही वजह है कि शहादते हुसैन (अ.स.) कई बग़ावतों का सबब बनी जिनका मकसद आपकी मदद न करने का कफ़्फ़ारा अदा करना नीज़ उमवियों से इन्तेकाम लेना था। एहसासे गुनाह की आग हमेशा तारीख में इन्केलाब का मोहर्रिक बनती रही है इसी लिए मौका मिलते ही उमवियों के ख़िलाफ़ बगावतें हुई और उन्हें तहे-तेग कर दिया गया। मुख़्तार का कारनामा इस अम्र का बय्यन सुबूत है।
बेशक इमाम हुसैन (अ.स.) को शहीद कर दिया गया मगर इससे यज़ीद की हुकूमत खुद तहे-तेग हो गयी। हुसैन (अ.स.) की लाश पर घोड़े दौड़ाए गए मगर उसका नतीजा यह हुआ कि खुद यज़ीद का इक़्तेदार पामाल हो गया। हुसैन (अ.स.) की मय्यत बेकफ़न व दफ़न छोड़ दी गयी मगर इसका अंजाम यह हुआ कि खुद यज़ीद का जबरूत दफन हो गया। हुसैन (अ.स.) का माल व असबाब लूटा गया मगर उसका माहसल यह हुआ कि खुद यज़ीद की हमीयत व ग़ैरत का सरमाया लुट गया। हुसैन (अ.स.) के अहलेबैत को बेपर्दा किया गया मगर उससे खुद यज़ीद की बेग़ैरती का पर्दा फाश हो गया। हुसैन (अ.स.) और यज़ीद की जंग दरअसल हक़ व बातिल की जंग थी जिसमें हक़ की फ़तेह हुई। इस्लाम और कुफ़ की जंग थी जिसमें इस्लाम गालिब आया। इन्सानियत व शैतनत की जंग थी जिसमें मैदान इन्सानियत के हाथ रहा। और सब्र व जुल्म की जंग थी जिसमें सब्र कामयाब हुआ।
शहादत के बाद
अहमद बैहिकी ने इब्ने अब्बास से रिवायत की है कि एक दिन ठीक दोपहर में हमने रसूल अल्लाह (स.अ.) को परेशान हाल व गुबार आलूद देखा। आपके हाथ में एक शीशा था जिसमें ख़ूने ताज़ा था। मैंने पूछा या रसूलुल्लाह (स.अ.)! आपका यह क्या हाल है? फ़रमाया, हुसैन (अ.स.) और उनके असहाब क़त्ल हो गए और यह मेरे हाथ में उनका ख़ून है। बाद क़त्ल हुसैन (अ.स.) मैंने शुमार किया तो वह दिन वही था जिसकी निशांदेही रसूलुल्लाह (स.अ.) ने की थी।
हाकिम व बैहिकी ने उम्मे सलमा से रिवायत की है कि उन्होंने फ़रमाया कि मैंने रसूलुल्लाह (स.अ.) को ख़्वाब में यूं देखा कि सरे मुबारक पर खाक पड़ी हुई है। मैंने पूछा या रसूलुल्लाह (स.अ.) ! यह मैं आपको किस हाल में देख रही हूं? हज़रत ने फ़रमाया, मैं अभी मकतले हुसैन (अ.स.) से वापस आ रहा हूं।
बैहिकी व अबू नईम ने बुसरा अज़दिया से नक़्ल किया है कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) क़त्ल हुए तो आसमान से ख़ून बरसा और जब हम लोगों ने सुबह को देखा तो घड़े, मटके और तमाम जरूफ़ ख़ून से भरे हुए थे।
बैहिकी व अबू नईम ने जहरी से नक़्ल किया है कि यौमे कत्ले हुसैन (अ.स.) बैतुल मुकद्दस से जो पत्थर उठाया जाता था उसके नीचे से ख़ूने ताजा निकलता था।
बैहिकी ने उम्मे हबान से रिवायत की है कि क़त्ले इमाम हुसैन (अ.स.) के बाद तीन दिन तक दुनिया हम पर तारीक रही। अगर कोई शख़्स अपने चेहरे पर ज़ाफ़रान मलता था तो उसका चेहरा जल जाता था और बैतुल मुकददस का जो भी पत्थर पलटा जाता था उसके नीचे से ताज़ा ख़ून उबलता था।
बैहिक़ी ने अली बिन मुसह्हर से रिवायत की है कि उन्होंने कहा कि मेरी दादी कहती हैं इमाम हुसैन (अ.स.) के क़त्ल हो जाने के बाद कई दिन तक आसमान ने गिरया किया है।
अबू नईम ने तरीक़ सुफ़ियान से उनकी दादी का क़ौल नक़्ल किया है कि दो आदमियों ने कत्ले हुसैन (अ.स.) का मुशाहिदा किया और उनकी मदद से दस्तकश रहे। उनमें से एक और दूसरे का हाल यह हुआ कि वह पानी से भरी मश्क पी जाता था मगर प्यास नही बुझती थी।
अबू नईम ने मजीद इब्ने जाबिर से रिवायत की है कि वह कहते हैं कि मेरी मां ने सुना कि एक जिन्न हुसैन (अ.स.) पर यूं नौहा कर रहा था कि इमाम हुसैन (अ.स.) के ग़म को मैं गमगीन होकर पहुंचा रहा हूं अपनी क़ौम तक। वह बेशक सब्र व इस्तेकलाल के एक पहाड़ थे।
अबू नईम ने लहीआ के तरीक़ से अबू कन्बल का कौल नक़्ल किया है कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) क़त्ल हो गए तो लोगों ने आपके सर को काट लिया और पहली ही मंज़िल में बैठकर शराब पीने लगे। उस वक़्त लोहे का एक क़लम ज़ाहिर हुआ और ख़ून से उसने एक शेर लिखा जिसका मफ़हूमयह था कि जिस उम्मत ने इमाम हुसैन (अ.स.) को क़त्ल किया, क्या वह उम्मीद कर सकती है कि क़यामत के दिन हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) उसकी शिफाअत करेंगे?
अल्लामा जलालुद्दीन सुईती तारीखे खुलफ़ा में फ़रमाते हैंः
“शहादत के हंगामे के वक़्त दुनिया में सात दिन अंधेरा रहा। धूप का रंग पीला नज़र आता था, सितारे टूटते थे। आपकी शहादत 10 मुहर्रम सन् 61 हिजरी को हुई, उस दिन सूरज गहना गया था और मुसलसल छः माह तक आसमान के किनारे सुर्ख रहे, बाद में वह सुर्ख़ी रफ़्ता रफ़्ता जाती रही लेकिन उफ़क़ की सुर्ख़ी अब तक मौजूद है जो शहादते हुसैन (अ.स.) से पहले मौजूद न थी। बाज़ लोग कहते हैं कि रोज़े शहादते हुसैन (अ.स.) बैतुल मुक़द्दत का जो पत्थर पलटा जाता था उसके नीचे ताज़ा ख़ून दिखाई देता था।”
ज़हरी का बयान है कि जो लोग कर्बला में इमाम हुसैन (अ.स.) के मुकाबले में थे वह बग़ैर अज़ाबे इलाही देखे और बुरे नतीजों को पहुंचे हुए दुनिया से न गए। उनमें से काफी क़त्ल हो गए, बहुतेरे अंधे हो गए और बहुतेरों का चेहरा सियाह हो गया और कुछ प्यास से तड़प कर मर गए।
अज़वाज व औलादें
शेख मुफीद (र.ह.) ने हज़रत इमाम (अ.स.) की पांच बीवियों और छः बच्चों का तज़किरा किया है। चुनांचे वह लिखते हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) के छः बच्चे हैंः
1- अली बिन हुसैन (अ.स.) अकबर (इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)) जिनकी मादरे गिरामीं शाहे ज़नान (शहर बानो) बिन्ते केसरा यज़्दजुर्द थीं।
2- अली बिन हुसैन (अ.स.) असग़र (अली अकबर) इनकी मादरे गिरामीं जनाबे लैला बिन्ते अबू मुर्रा बिन उरवा बिन मसूद सकफ़िया थीं।
3- जाफ़र बिन हुसैन (अ.स.) इनकी वालिदा क़ज़ाइया थीं। जाफ़र इमाम हुसैन (अ.स.) की हयात में इन्तेकाल फ़रमा गए थे।
4- अब्दुल्लाह बिन हुसैन (अ.स.) (अली असगर) और सकीना बिन्ते हुसैन (अ.स.) इनकी वालिदा जनाबे रबाब बिन्ते इमरउल कैस बिन अदी कलबिया माअदिया थीं।
5- फ़ातिमा बिन्तुल हुसैन (अ.स.)। आपकी वालिदा उम्मे इस्हाक बिन्ते तलहा बिन अब्दुल्लाह तैमिया थीं।
शेख मुफीद के इस क़ौल को ओलमा के एक गिरोह ने तस्लीम किया है लेकिन उन्होंने सय्यदे सज्जाद (अ.स.) को अली औसत और अली बिन हुसैन (अ.स.) को अली अकबर से ताबीर किया है। अहसनुल मक़ाल में है कि इब्ने ख़शाब व इब्ने शहर आशूब ने इमाम (अ.स.) की औलादों की तादाद 9 बताई थी। और शेख अली बिन ईसा अर्दबेली ने दस औलादों का तज़किरा किया है।
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इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)
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आप सैय्यदुश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के बेटे, अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबीतालिब (अ.स.) के पोते, पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के चौथे जानशीन और सिलसिलए इस्मत की छठी कड़ी हैं। आपकी मादरे गिरामी बानो (शाहे ज़नान) ईरान के बादशाह यज्दजुर्द बिन शहरयार बिन परवेज़ बिन हरमिज़ बिन नौशेरवाने आदिल की साहबज़ादी थीं।
शेख मुफीद का बयान है कि हरीस बिन जाबिर हनफी को अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) ने अपने दौरे खिलाफ़त में मशरिकी बिलाद का हाकिम व वाली बनाकर भेजा था। उन्होंने ईरान पर फ़तहयाबी हासिल करने के बाद बादशाह यज़्दजुर्द की दो लड़कियों शहर बानो और केसरान बानो या कीहान बानो को कैदी की हैसियत से अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) की ख़िदमत में रवाना किया था। आपने शहर बानो के इस्लाम क़बूल करने के बाद उनकी शादी अपने फ़रज़न्द हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) से कर दी और केसरान बानो का अक़्द मुहम्मद बिन अबू बक्र से कर दिया। शहज़ादी शहर बानो के बतन से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मुतवल्लिद हुए और केसरान बानो के बतन से क़ासिम बिन मुहम्मद बिन अबू बक्र की विलादत हुई। इस तरह इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और कासिम बिन मुहम्मद दोनों आपस में खाला ज़ाद भाई थे। अल्लामा मजलिसी (र.ह.) रक़म तराज़ हैं कि जब जनाबे शहर बानो कैद होकर ईरान से मदीने के लिए रवाना हो रही थीं तो ख़्वाब में जनाबे रिसालते. मआब (स.अ.) ने उन मोहतरमा का अक़्द हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ पढ़ दिया था।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) 15 जमादुस सानिया सन् 38 हिजरी यौमे जुमा ब-मक़ाम मदीना-ए-मुनव्वरा में मुतवल्लिद हुए। बाज़ मुवर्रिख़ीन ने आपकी तारीख़े विलादत 15 जमादिल ऊला भी तहरीर की है। दमए साकेबा में है कि आपकी विलादत के बाद आपकी वालिदा का इन्तेकाल हालते निफास ही में हो गया था।
ओलमा का बयान है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) इल्म, जोहद, तक़वा और इबादत वग़ैरा में अपने पिदरे बुजुर्गवार हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की जीती जागती तस्वीर थे। नुरूल अबसार में इब्ने मुसय्यब से मरवी है कि हमने आपसे ज़्यादा मुत्तकी, परहेज़गार, इबादत गुज़ार और फकीह नहीं देखा। अल्लामा दमीरी का कहना है कि आप बहुत ही अज़ीम आलिम और फुकहाए अहलेबैत (अ.स.) में बेमिस्ल व बेनज़ीर थे।
नाम कुन्नियत और अलक़ाब
आपका इस्मे गिरामी अली, कुन्नियत अबू मुहम्मद, अलक़ाब अबुल कासिम और अबुल हसन थी। आपके अलक़ाब बेशुमार हैं जिनमें ज़ैनुल आबेदीन, सैय्यदुस साजेदीन, सज्जाद, आबिद और जुस-सफ़नात वग़ैरा ज़्यादा मशहूर हैं। “ज़ैनुल आबेदीन” लक़ब के बारे में ओलमा का बयान है कि एक शब आप नमाज़े तहज्जुद में मशगूल थे कि शैतान अज़दहे के भेस में सामने आया और उसने आपके पाए मुबारक का अंगूठा मुंह में रखकर उसे चबाना शुरू किया लेकिन आपके रुझाने इबादत को मुन्तशिर न कर सका, यहां तक कि जब नमाज़ तमाम हुई तो आपने उस मलऊन के मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया और लअनत के असा से उसे दूर हटा दिया। उस वक़्त हातिफे़ ग़ैबी ने तीन बार “अनता ज़ैनुल आबेदीन” की सदा दी और कहा बेशक आप इबादत गुज़ारों की जीनत हैं। उसी वक़्त से आपका लकब ज़ैनुल आबेदीन हुआ। अल्लामा शहर आशोब का कहना है कि उस अज़दहे के दस सर थे, उसकी आंखें अंगारों की तरह सुर्ख़ और दांत आरे की धार की तरह तेज़ थे और वह मुसल्ले के क़रीब से जमीन फाड़ कर बरामद हुआ था।
ज़हबी ने इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) के हवाले से तहरीर फ़रमाया है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को “सज्जाद” इसलिए कहा जाता है कि आप हर अम्रे ख़ैर के बाद सजदा किया करते थे जिसकी वजह से आपके मवाज़ेह सजूद पर ऊँटों के घट्टो के मानिन्द घट्टे पड़ जाया करते थे जिन्हें साल में कई बार कटवाना पड़ता था इसीलिए आपका लकब सज्जाद और जुस-सफ़नात हुआ। मुल्ला मुबीन लखनवी रकम तराज़ हैं कि आप हुस्न व जमाल में भी अपनी मिसाल आप थे। कशिश, वजाहत और दबदबे का यह हाल था कि जो शख़्स भी आपको एक नज़र देख लेता वह इज्ज़त व एहतेराम के लिए मजबूर हो जाता था।
शाने इबादत
अल्लामा तबरसी का बयान है कि आपकी जुमला रातें इबादते इलाही में बसर होती थीं जिसकी वजह से आपके जिसमें मुबारक का रंग ज़र्द हो गया था और ख़ौफ़ ख़ुदा में गिरया व ज़ारी के सबब आंखों पर वरम रहता था। मुहम्मद बिन तलहा शाफ़ई का कहना है कि जब आप नमाज़ के लिए मुसल्ले पर खड़े होते तो कांपने लगते थे। लोगों ने इस थरथरी की वजह पूछी तो आपने फ़रमाया कि ख़ुदा की जलालत व हैबत मुझ पर यह कैफियत तारी कर देती है। इब्ने तलहा शाफ़ई ने यह भी लिखा है कि जिस वक्त आप वज़ू के क़स्द से बैठते थे तो आपका चेहरा मुतग़य्यर हो जाता था। घर वालों ने एक दिन वजह दरयाफ़्त की तो फ़रमाया कि उस वक़्त मेरी पूरी तवज्जो अपने माबूद की तरफ होती है इसलिए उसके ख़ौफ़ से मेरा यह हाल हो जाता है।
यह रिवायत भी मशहूर है कि इमाम (अ.स.) एक दिन मसरूफे नमाज़ थे कि इसी अस्ना में इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) खेलते-खेलते अचानक कुंए में गिर गए। उनकी मां बेचैन होकर रोने लगीं और कहने लगीं ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.)! मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) गर्क हो गए। लेकिन इस हादसे के बावजूद इमाम बदस्तूर नमाज में मशगूल रहे और जब नमाज़ तमाम हुई तो निहायत सुकून व इत्मेनान के साथ कुंए के क़रीब तशरीफ लाए और हाथ बढ़ाकर बच्चे को निकाल लिया।
सवाएक़े मोहर्रिका में है कि आप शब व रोज़ में नमाज़ की एक हज़ार रकअतें अदा करते थे। और कशफुल ग़ुम्मा में है कि आपके सजदों का कोई शुमार न था इसीलिए आपके आज़ाए सुजूद ऊँटों के घट्टों के मानिन्द हो जाया करते थे जिन्हें साल में कई मर्तबा कटवाना पड़ता था।
मनसबे इमामत
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अगरचे वक़्ते विलादत ही से मनसबे इमामत पर फाएज़ थे लेकिन असल ज़िम्मेदारी आप पर आशूर की दोपहर के बाद से आएद हुई जब आपके वालिदे बुजुर्गवार हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) मैदाने कर्बला में दर्जए शहादत पर फाएज़ होकर हयाते ज़ाहिरी से महरूम हो गए।
इस हक़ीक़त से इन्कार नामुम्किन है कि दीगर अईम्मए ताहेरीन (अ.स.) की बनिसबत आपको ज़्यादा सख़्त दौर का सामना करना पड़ा क्योंकि वफाते रसूल (स.अ.) के बाद शुरू होने वाला इन्हेराफ उस ज़माने में अपने नुक्तए उरूज पर पहुंच रहा था। शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) के बाद हुक्मरानों की हक़ीक़त मुसलमानों के सामने फिक्री और अमली लिहाज से खुल चुकी थी और उम्मते मुसलिमा के सामने उमवी हुकूमत की कोई बात ढकी छिपी नहीं रह गयी थी क्योंकि लोगों ने बनी उमय्या की मज़मूम और करीहुल मंज़र हक़ीक़त को आज़मा कर देख और समझ लिया था।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने अपनी ज़िन्दगी में अपने जद अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) के दौर की मुश्किलात का मुशाहिदा किया। आप अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की शहादत से तीन साल क़ब्ल मुतवल्लिद हुए जब जमल का मारका दरपेश था। उसके बाद आप मुख़्तलिफ़़ मुश्किलात में इमाम हसन (अ.स.) के साथ रहे। फिर अपने पिदरे बुजुर्गवार इमाम हुसैन (अ.स.) के अलमनाक मसाएब में शरीक रहे और आख़िर में आपको बराहे रास्त मुश्किलात व मसाएब का सामना करना पड़ा। आपकी मुसीबतों में इजाफा उस वक़्त हुआ जब आपने अपनी आंखों से बनी उमय्या के सिपाहियों को मस्जिदे नबवी में घोड़े बांधते देखा, उसकी बेहुरमती व पामाली देखी और मुस्तज़ाद यह कि उन गुमराहों ने शहरे मदीना और मस्जिदे नबवी की हुरमत की पामाली को हलाल और जाएज़ क़रार दिया। यह दौर इमाम (अ.स.) की ज़िन्दगी का सख़्त तरीन दौर और यह ज़माना दीगर इमामों की बनिसबत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के लिए ज़्यादा सख़्त आज़माईश व इब्तेला का ज़माना था।
इस मारका-ए-दारोगीर में लोगों का क़त्ल इन्तेहाई मामूली सी बात थीं लाशों से इन्तेकाम लेना, दरख्तों पर सूली चढ़ाना, हाथ पांव काटना और दीगर जिस्मानी अज़ीयतें देना रोज़मर्रा का मामूल बन चुके थे।
इस पुरआशोब और पुरख़तर दौर में इमाम (अ.स.) को एक ऐसे तरीक़-ए-कार और लाहए अमल की ज़रूरत थी जिसके तहत आप माहौल की संगीनी का सामना कर सकें। इसके अलावा इस्लामी शरीयत के मुहाफिज़ और ज़िम्मेदार की हैसियत से आपके लिए यह भी ज़रूरी था कि उमवी हुक्काम की साज़िशों और उनकी तरफ से की जाने वाली शदीद ख़तरात को पेशे नज़र रखें और इस बात को मलहूज़ रखें कि वह इन्तेक़ाम लेने के लिए बहाना ढूंढ़ रहे हैं। इन्हीं बातों की बिना पर आपने दुआओं की रविश अपनाई और कसरत के साथ इस रविश से इस्तेफादा किया। आपकी दुआएं दावते फ़िक्र पर मबनी हैं और इन दुआओं में उस दौर के वाक़िआत की तस्वीर कशी होती है।
यह दुआएं इस्लाम की अज़ीम मिशन और उम्मत की तामीरे नौ के लिए अपने दामन को लतीफ नुकात से लबरेज़ किए हुए हैं। अगरचे आपने इन दुआओं के अल्फ़ाज़ और मतालिब की अदाएगी में इन्केलाब, तहरीक और तशदुद के ज़िक्र से गुरेज़ फ़रमाया है लेकिन यह रविश दर हक़ीक़त इन्केलाब और पुर तशद्दुद तहरीर से भी ज़्यादा कारगर थी। आप देख रहे थे कि अगर अफ़कार व नज़रियात के इज़हार में वाज़ेह और बराहे रास्त तरगीब की राह अपनाई गयी तो हुकूमत की तरफ से सख़्त मुजाहेमत का सामना करना पड़ेगा। चुनांचे आपने अपना मुद्दआ ज़ाहिर करने के लिए बारगाहे इलाही में दुआ और शिकायत की राह अपनाई। इस तरह आपने लोगों को तरगीब दी और जो कुछ कहना चाहते थे उसको उन दुआओं के ज़रिए लोगों तक पहुंचाया।
इन उमूर व मक़ासिद की इशाअत के लिए आपके घर और मस्जिद के मदरसे को मरकज़ी हैसियत हासिल थी जहां आपके गिर्द शार्गिदों का हुजूम होता था। बाद में आपके यही शागिर्द इस्लामी तहज़ीब के मेमार नीज़ इस्लामी अफ़कार, तालीमात और अदब के अलमबरदार बनकर आपके मिशन व नज़रियात को अवाम में रूशिनास कराते थे। आपने ओलमा नीज़ मुख़्तलिफ़ उलूम व फनून में अहादीस रिवायत करने वालों की तरतीब में अहम किरदार अदा किया। उन लोगों ने आपसे सहीफ़ा-ए-सज्जादिया जैसी किताब नक़्ल की जो ज़बूरे आले मुहम्मद (स.अ.) के नाम से मशहूर है और एक इल्मी व फ़िक्री ख़ज़ाना है।
दूसरी मुहर्रम सन् 61 हिजरी आप अपने वालिद बुजुर्गवार हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ वारिदे कर्बला हुए। उस सरज़मीन पर क़दम रखते ही आप अलील हो गए और आपकी अलालत ने वह शिद्दत इख़्तेयार की कि आप यौमे आशूर तक इस काबिल न हो सके कि दुश्मनों से लड़कर दर्जाए शहादत पर फाएज़ होते ताहम हर मौके पर आपने जज्बए नुसरत को बरूएकार लाने की सई बलीग की। जब किसी की आवाज़े इस्तेग़ासा आपके कानों तक पहुंचती तो आप उठ बैठते और मर्ज़ की शिद्दत के बावजूद मैदाने कारज़ार में जाने की कोशिश की। अपने पिदरे बुजुर्गवार के इस्तेग़ासा पर तो आप ख़ैमे से बाहर निकल आए और एक चोबे खेमा लेकर मैदान की तरफ़ बढ़े। अचानक इमाम हुसैन (अ.स.) की नज़र आप पर पड़ी तो उन्होंने मैदाने केताल से ज़ैनब (स.अ.) को आवाज़ दी “बहन सय्यदे सज्जाद को रोको, वरना नस्ले रसूल (स.अ.) का खातिमा हो जाएगा।” चुनांचे ज़ैनब (स.अ.) का यह बहुत बड़ा कारनामा है कि शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) के बाद जब खै़मों में आग लगाई गयी तो सय्यदे सज्जाद (अ.स.) को जो ग़शी की हालत में एक खै़में में पड़े थे अपनी पुश्त पर उठाकर बाहर र्लाइं और इमाम के तहफ्फुज़ का अहम फ़रीज़ा अदा किया।
जब ग्यारहवीं मोहर्रम की सुबह नमूदार हुई तो नबी जादियां रस्सियों में जकड़ी हुई थीं और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के हाथों में हथकड़ियां, पैरों में बेड़ियां और गले में लोहे का ख़ारदार तौक़ पड़ा हुआ था। आपसे कहा गया कि “उठो और इब्ने ज़ियाद के दरबार में चलो।” आपने तमाम मुख़द्देराते इस्मत व तहारत को नाकों पर सवार किया और ज़ोफ़ व नक़ाहत के आलम में सारबानी के फ़राएज़ अंजाम देते हुए दाखिले कूफा हुए और वहां अहले हरम के हमराह सात दिन तक क़ैद की सऊबतें बर्दाश्त कीं। उसके बाद वहां से शाम की तरफ रवाना हुए और 16 मंज़िलें तय करके 36 दिन की मुसाफ़त के बाद 16 रबीउल अव्वल सन् 61 हिजरी को दमिश्क पहुंचे जहां यज़ीद ने आपको तमाम मुख़द्देरात के साथ एक कैदख़ाने में कैद कर दिया। कैदख़ाना भी ऐसा था कि जहां न कोई छत थी न साया। दिन की धूप और रात की शबनम ने चेहरों को मुतगय्यर कर दिया था।
एक साल बाद जब कैद से रिहाई मिली तो आप अपनी फुफियों और बहनों के साथ पलट कर 20 सफ़र सन् 62 हिजरी को फिर कर्बला पहुंचे। आपके पिदरे बुजुर्गवार इमाम हुसैन (अ.स.) का सर भी आपके साथ था, उसे जिस्मे अकदस से मुलहक़ किया और वहां से चलकर लुटे हुए काफ़िले के साथ 8 रबीउल अव्वल सन् 62 हिजरी को वारिदे मदीना हुए। वहां के लोगों ने इन्तेहाई रंज व गम और गिरया व जारी के साथ आपका इस्तेकबाल किया और पन्द्रह दिन तक नौहा व मातम होता रहा। दमिश्क में आप पर मसाएब के वह पहाड़ तोड़े गए जिनका तसव्वुर मुहाल है। यही वजह थी कि जब आपसे कोई पूछता कि सबसे ज़्यादा मुसीबत आप पर कहां पड़ी तो आप तीन मर्तबा कहते “अश-शाम अश-शाम अश-शाम।”
कर्बला का वाक़िआत न सिर्फ तारीख़े इस्लाम बल्कि तारीखे आलम का इन्तेहाई ग़म-आगीं और अन्दोहनाक वाक़िआ है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) इस होश रुबा और रूह फरसा वाक़िए के दौरान अपने बाप के साथ रहे और बाप की शहादत के बाद खुद भी इस अलमिया की सख़्तियों से इस तरह दो चार हुए कि जब तक जिन्दा रहे मातम करते रहे यहां तक कि इस वाक़िए के बाद तमाम उम्र आपको किसी ने मुस्कुराते या हंसते नहीं देखा। इस ग़मअंगेज़ वाक़िए से मुतअल्लिक आपने जाबजा जो खुतबात इरशाद फ़रमाये हैं उनका तर्जुमा दर्जे ज़ैल है।
जब असीराने कर्बला का काफिला दाखिले कूफा हुआ तो आपने अहले कूफा को ख़ामोश रहने का इशारा किया। चुनांचे सब खामोश हो गए तो आपने फ़रमायाः
“ऐ लोगों! तुम में जो शख्स मुझे नहीं पहचानता वह पहचान ले कि मैं अली बिनुल हुसैन बिन अली बिन अबीतालिब (अ.स.) हूं। मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसकी बेहुरमती की गयी, जिसको तीन दिन का भूखा प्यासा फुरात के किनारे ज़िबह कर दिया गया, जिसका माल व असबाब लूटा गया और जिसके अहल व अयाल क़ैद कर लिए गए। मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसकी लाश को पामाल करके बेकफ़न छोड़ दिया गया। मेरे बाप की यह शहादत मेरे शरफ़ के लिए काफी है लेकिन तुम लोग ज़रा सोचो और ग़ौर करो कि तुम्हीं लोगों ने मेरे वालिद को ख़़त लिखा, उनके साथ अहद व पैमान किया, उनकी गाएबाना बैअत की और फिर तुम्हीं लोगों ने उन्हें धोखा दिया और तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद कर दिया। तुम्हारा बुरा हो कि तुमने खुद अपनी हलाकत का सामान किया। तुम किस मुंह से रसूलुल्लाह (स.अ.) का सामना करोगे और तुमसे रसूले खुदा (स.अ.) जब इस शहादते उज़्मा के बारे में सवाल करेंगे तो रोजे महशर उन्हें क्या जवाब दोगे?””
(2) जब आप दरबारे यज़ीदी में अहले हरम के साथ दाखिल हुए और आपको मस्जिदे दमिश्क के मिम्बर पर जाने का मौका मिला तो आपने निहायत फसीह व बलीग और तारीख साज़ खुतबा देते हुए फ़रमायाः-
“जालिमों! मुझे पहचानों कि मैं कौन हूं? मैं अली बिनुल हुसैन बिन अली बिन अबीतालिब (अ.स.) हूं, मैं उसका फरज़न्द हूं कि जिसने पा-प्यादा हज किए, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसने तवाफ़े काबा किया, मैं उसका फरज़न्द हूं जिसकी इस्मत व तहारत पर र्कुआन गवाह है, मैं सरदारे जवानाने जन्नत का पिसर हूं, मैं ज़मज़म व सफ़ा का फरज़न्द हूं मैं रसूलुल्लाह (स.अ.) की दुख़्तर फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) का बेटा हूं, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसे तुम लोगों ने पसे गर्दन से जिबह कर डाला, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिस पर तुम लोगों ने पानी बन्द किया, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जो प्यासा दुनिया से उठा, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जो बेदर्दी से कर्बला में शहीद किया गया, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसके अस्हाब व अन्सार को तुमने पेवन्दे ख़ाक कर दिया, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसकी लाश तीन दिन तक जलती हुई ज़मीन पर पड़ी रही, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसे कफ़न तक न मिला, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसका सर नोके नैज़ा पर बुलन्द किया गया, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जिसके अहले हरम की बेहुरमती की गयी और उन्हें असीर करके सर-बरहना दर बदर फिराया गया, मैं उसका फ़रज़न्द हूं जो बेयार व मददगार था, मैं मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) का फ़रज़न्द हूं मैं रसूले खुदा (स.अ.) का लख़्ते जिगर हूं, मैं अली-ए-मुर्तुजा का नूरे नज़र हूं।”
ऐ लोगों! ख़ुदा ने हमें पांच चीजों में फ़ज़ीलत बख़्शी है। अव्वल यह कि हमारे ही घर में फरिश्तों की आमद व रफ़्त रही और हम ही वारिसे नबूव्वत व रिसालत हैं। दूसरे यह कि हमारी ही शान में र्कुआन की आयतें नाज़िल हुई और हम हीं ने लोगों को हिदायत का रास्ता दिखाया। तीसरे यह कि शुजाअत हमारे ही घर की कनीज़ है, हम किसी कूव्वत व ताकत से मरऊब व मुतअस्सिर नही होते। चौथे यह कि हम ही सिराते मुस्तकीम और हिदायत का मरकज़ हैं और हम ही सरचश्मए उलूम हैं और पांचवे यह कि ज़मीनों और आसमानों में हमारे मरतबे बुलन्द व बाला हैं, अगर हम न होते तो खुदावन्दे आलम इस दुनिया को पैदा ही न करता। हमारे दोस्त रोज़े महशर शादकाम होंगे और हमारे दुश्मन बदबख़्ती में मुबतिला होंगे।
तारीख़ बताती है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का यह खुतबा सुनकर लोग दहाड़े मार मार कर रोने लगे और पीटने लगे। जब उनकी आवाजें बेसाख्ता बुलन्द होने लगीं तो यज़ीद मलऊन घबराया कि कहीं कोई फ़ितना न खड़ा हो जाए। चुनांचेे उसने मोअजि़्ज़न को हुक्म दिया कि अज़ान के ज़रिए इमाम (अ.स.) के सिलसिलए कलाम को मुनक़ता कर दे। मोअज्जिन ने अज़ान शुरू की और कहा अल्लाहु अकबर। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि बेशक अल्लाह सबसे अज़ीम और बुजुर्ग व बरतर है। फिर मोअजि़्ज़न ने कहा अशहदु अन ला इला-ह इल-लल्लाह। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा और कोई माबूद नहीं है। फिर मोअजि़्ज़न ने कहा अशहदु अन-न मुहम्मदन रसूलुल्लाह। यह सुनकर इमाम (अ.स.) रो पड़े और यज़ीद को मुखातिब करते हुए फ़रमाया कि ऐ यज़ीद ! मैं तुझे ख़ुदा का वास्ता देकर पूछता हूं, सच बता कि हज़रत मुहम्मद (स.अ.) मेरे नाना थे या तेरे? यज़ीद ने कहा, आपके। फ़रमाया, फिर क्यों तूने उनके अहलेबैत (अ.स.) को बेजुर्म व ख़ता क़त्ल कराया? यज़ीद के पास इसका कोई जवाब न था। चुनांचे वह बदबख़्त ख़ामोशी से उठा और यह कहक़र अपने महल में चला गया कि मुझे नमाज़ से कोई वास्ता नहीं है।
उसके बाद मिनहाल बिन उमर खड़े हुए और उन्होंने पूछा कि ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.)! यह आपका क्या हाल है? फ़रमाया मिनहाल ! ऐसे शख़्स का हाल क्या पूछते हो जिसका बाप निहायत बेदर्दी से शहीद कर दिया गया हो, जिसके मददगार ख़त्म कर दिए गए हों। जो अपनी फुफ़ियों और बहनों को मजमए आम में असीर व सरबरहना देख रहा हो, ऐ मिनहाल ! तुम देख रहे हो कि मैं बेडियों और ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ एक कैदी हूं। न मेरा यहां कोई नासिर न मददगार। हम पर जुल्म किया गया, हम पर मुसीबतों के पहाड़ तोड़े गए और हमें कैद करके दयार ब-दयार फिराया गया। अभी इमाम मिनहाल से इतना ही कहने पाए थे कि चारों तरफ से फिर शोर व गिरया बुलन्द हुआ। करीब था कि लोग यज़ीद के ख़िलाफ बगावत की आग भड़का देते कि उसने उस शख्स को बुलवाया जिसने इमाम (अ.स.) को मिम्बर तक ले जाने की सई की थी और उससे कहा कि तेरा बुरा हो कि तूने उन्हें मिम्बर पर बिठाकर मेरी सल्तनत ख़त्म करना चाहता है? उसने कहा, बखुदा मुझे नहीं मालूम था कि यह लड़का इतनी बुलन्द गुफ़्तुगू करेगा। यज़ीद ने कहा कि क्या तू नहीं जानता कि यह अहलेबैते नबूव्वत हैं? यह सुनकर मोअजि़्ज़न भी खामोश न रह सका और उसने कहा, ऐ यजीद ! जब तू यह जानता था कि यह आले रसूल (स.अ.) हैं तो इन्हें क़त्ल क्यों किया। मोअज्जिन की गुफ़्तुगू सुनकर यज़ीद इतना बरहम हुआ कि उसने उसकी गर्दन ज़दनी का हुक्म दिया और चन्द ही लम्हों में उसका सर तन से जुदा कर दिया गया।
मक़त्ल अबी मख़नफ़ में है कि एक साल तक कैदखान-ए-शाम की सऊबतें बर्दाश्त करने के बाद जब आले रसूल (स.अ.) की रिहाई अमल में आई और यह काफिला कर्बला होता हुआ मदीने की तरफ रवाना हुआ तो करीब मदीना पहुंचकर इमाम (अ.स.) ने अहले मदीना को मुख़ातिब करते हुए फ़रमाया:-
“ऐ मदीने वालों! आगाह हो जाओ कि हुसैन बिन अली (अ.स.) अपने अज़ीज़ों और बावफ़ा असहाब व अन्सार के साथ तीन दिन के भूखे प्यासे मैदाने कर्बला में शहीद कर दिए गए। इस अज़ीम शहादत से इस्लाम की दीवारें शिगाफ़्ता हो गईं और शरीयते मुहम्मदी का शीराज़ा बिखर गया। ऐ लोगों! जुर्रियते रसूल (स.अ.) कैदी बनाकर शोहदा के सरों के साथ कूफ़े व शाम के बाज़ारों में बेपर्दा फिराई गयी और उनकी इज़्ज़त व हुरमत को पामाल किया गया।
ऐ साकिनाने मदीना! मैं तुम्हें आगाह करता हूं कि हुसैन बिन अली (अ.स.) की शहादत पर ज़मीन व आसमान ने गिरया किया, समन्दरों की मौजों ने सोग मनाया, पहाड़ों और सहराओं ने मातम किया और मलाएका ने आंसू बहाए। हमारी हालत यह थी कि हम जंजीरों और रस्सियों में जकड़े हुए शहर ब-शहर फिराए जाते थे गोया हमें तुर्क व दैलम की औलाद समझ लिया गया था। हालांकि हम बेगुनाह थे। हमने कोई जुर्म नहीं किया था और न ही हम किसी बुराई के मुरतकिब हुए थे लेकिन इसके बावजूद हम पर मज़ालिम और तशद्दुद के पहाड़ तोड़े गए। ख़ुदा की कसम, अगर रसूलुल्लाह (स.अ.) भी उन जालिमों को मना करते तो वह उनकी बात भी न मानते और वही करते जो उन्होंने किया है।”
तारीख़ का बयान है कि सय्यदे सज्जाद (अ.स.) के इस खुतबे को सुनकर लोग दहाड़ें मार मार कर रो रहे थे। उसके बाद यह लुटा हुआ काफ़िला जब शहर में दाखिल हुआ तो सबसे पहले जनाबे ज़ैनब (स.अ.) व उम्मे कुलसूम गिरया व ज़ारी करती हुई पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के रौज़ए अकदस पर पहुंची और रसूल अल्लाह (स.अ.) को पुरसा देने के बाद फ़रमाया, नाना जान! आपकी उम्मत ने पंजेतन की आख़िरी यादगार का खातिमा कर दिया। ऐ नाना! आपकी इतरत कैद करके शहरों शहरों बेपर्दा फिराई गयी और आपकी इज़्ज़त व हुरमत पामाल की गयी। तारीखें गवाह है कि जनाबे ज़ैनब (स.अ.) के इस नाले व फरयाद से मरकदे रसूल (स.अ.) हिलने लगा और लहदे अक़दस से गिरया व शैवन की आवाज़ें बुलन्द होने लगीं थीं।
वाक़िअ-ए-हुर्रा
यज़ीद की ज़ालिमाना सुल्तानी और उसके गवर्नरों के जुल्म व तुग़यान ने जब पूरे आलमे इस्लाम को अपनी लपेट में ले लिया और इमाम हुसैन (अ.स.) शहीद कर दिए गए तो अहले मदीना का एक वफ़्द यज़ीद की गैर इस्लामी रविश और उसके फिस्क व फुजूर का जाएजा लेने की ग़रज़ से दमिश्क रवाना हुआ। वहां पहुंच कर उन लोगों ने आंखों से देखा कि वह रात दिन शराबखोरी, बदकिरदारी, अय्याशी, केमारबाज़ी नीज़ कुत्तों और बिल्लियों से खेलकूद में मशगूल रहता है और इस्लाम या इस्लामी उमूर से उसका कोई तअल्लुक नहीं है तो उनके होश उड़ गए। चुनांचे जब इस वफ्द के मिम्बरान पलट कर मदीने आए तो उन्होंने अहले मदीना को यज़ीद की बदलियों और बदकिरदारियों से आगाह किया और कहा कि जो शख़्स औलादे रसूल (स.अ.) का कातिल हो, तारिकुल सलात हो, शराब पीता हो, मोहर्रमात से हमबिस्तरी करता हो और कुत्तों व बिल्लियों से दिल बहलाता हो वह ख़िलाफ़त के लाएक हरगिज़ नहीं है।
ऐनी मुशाहिदात पर मबनी इस सच्ची रिपोर्ट का नतीजा यह हुआ कि यज़ीद मलऊन के ख़िलाफ़ गम व गुस्से की एक आग भड़क उठी। उससे मुन्हरिफ होकर लोगों ने अब्दुल्लाह बिन हंज़ला की बैअत कर ली और उमवी गवर्नर उस्मान बिन मुहम्मद बिन अबू सुफ़ियान को मरवान बिन हिकम और दीगर बनी उमय्या समेत मदीने से निकाल बाहर किया।
यज़ीद को जब उन हालात की ख़बर हुई तो उसने अहले मदीना के उस दुरूस्त अक़दाम को बग़ावत से ताबीर करते हुए उनकी सरकूबी के लिए उमर बिन सईद को भेजना चाहा मगर उसने इन्कार कर दिया। फिर उसने इब्ने ज़ियाद को इस काम पर मामूर करना चाहा मगर उसने भी यह कहक़र इन्कार कर दिया कि खूने हुसैन का धब्बा मेरे दामन पर क्या कम है अब मैं अहले मदीना के खून से अपने हाथों को रंगना नही चाहता। आख़िर में यजीद ने मुस्लिम बिन उक़बा को जो जुल्म तशद्दुद और खूनरेज़ी की बिना पर “मसरफ” के नाम से मशहूर था, अहले मदीना पर मुअय्यन कर के इसकी सरबराही मे शामियों का एक अजीम लश्कर रवाना किया। मदीना वालों ने “बाबुत-तैबा” के करीब हुर्रा के मक़ाम पर शामियों का मुकाबला किया और घमासान की जंग हुई मगर चूंकि शामी अफ़वाज की तादाद बहुत ज़्यादा थी इसलिए अहले मदीना को शिकस्त से दो चार होना पड़ा यहाँ तक कि जब काफी लोग क़त्ल हो गए तो उन्हांेने मैदान छोड़कर मस्जिदे नबवी और रौज़ए रसूल (स.अ.) में पनाह ली मगर यज़ीदियों ने उन्हें यहाँ भी न छोड़ा, वह अपने घोड़ों समेत मस्जिद में घुस आए और क़त्ल व गारत गरी का बाज़ार गर्म कर दिया। इस कत्ले आम के ज़ैल में तारीख़ का बयान है कि मस्जिदे नबवी और कब्रे रसूल इंसानी खून में डूब गयी थी। मदाएनी ने ज़हरी से रिवायत से की है कि सात सौ अकाबेरीन व अमाएदीन कुरैश व अन्सार के अलावा हाफिजे र्कुआन व सहाबा समेत दस हज़ार आज़ाद मर्द, औरतें और गुलाम मकतूल हुए जबकि मसउदी का कहना है कि मशहूर लोगों में मकतूलीन की तादाद चार हज़ार की थी।
मदीना को तख़्त व ताराज करने के बाद मुसलिम बिन उक़बा ने मस्जिदे नबवी मे घोड़े बधवाए, लोगों के घरों को लूट लिया, औरतों और बच्चो को कैदी बनाया और शामियों के हक़ में अहले मदीना की औरतों को तीन दिन तक मुबाह रखा जिसके नतीजे मे हज़ारों की तादाद मे नाजाएज़ बच्चे पैदा हो गए।
तारीख़ मे यह वाक़िआ “वाक़िए हुर्रा” के नाम से मशहूर है जो 27 ज़िलहिज्जा सन् 63 हिजरी में ज़हूर पज़ीर हुआ और इस्लाम के लिए इन्तेहाई ख़तरनाक व तबाहकुन साबित हुआ। इस जुल्म व तशद्दुद के बाद तमाम अहले मदीना से यज़ीद की बैअत लेकर उन्हें गुलाम बनाया गया और जिसने यज़ीद की गुलामी से इंकार किया उसका सर उतार लिया गया। इस हंगामए रूस्वाई, से सिर्फ़ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का घराना महफूज़ रहा, क्योकि दमिश्क से रवानगी के वक़्त यजीद ने मुस्लिम बिन उक़बा को यह ताकीद कर दी थी कि तमाम अहले मदीना से बैअत लेना मगर अली (अ.स.) बिन हुसैन को न छेड़ना वरना वह भी बैअत के सवाल पर अपने बाप का किरदार अदा करेगें और एक नया हंगामा खड़ा हो जाएगा।
शामियों के इस हमले से मदीना की दर्सगाहें, शिफाख़ाने और रिफाहे आम्मा से मुतअल्लिक दीगर बुहत सी इमारतें तबाह व बर्बाद हो गई थीं और जो बच गयी थी उन्हें आबाद करने वाला कोई नहीं था। काफी अरसा गुज़र जाने के बाद इमाम ज़ैनुल आबदीन (अ.स.) के पोते इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने अपने जददे बुजुर्गवार हज़रत अली (अ.स.) के मकतब को फिर जारी किया।
मुवर्रिखीन का बयान है “वाक़िए हुर्रा” के बाद मदीना एक उजड़ी हुई बसती की शक्ल में रह गया था। चुनांचे मंसूर अब्बासी जब अपने दौर में ज़ियारत के लिए आया तो उसे एक रहनुमा की ज़रूरत पड़ी जो उन मकामात की निशानदही करता जहाँ इब्तेदाई ज़माने के बुजुर्गाने इस्लाम इकामत पजीर थे।
अबुल फ़िदा का बयान है कि सन् 64 हिजरी में मदीना की मुहिम सर कर के मुस्लिम बिन उक़बा मक्के की तरफ रवाना हुआ, मगर चूँकि वह बीमार हो गया था इसलिए रास्ते ही में चल बसा और मरने से क़ब्ल वह अपना जानशीन हसीन बिन नुमैर को बना गया। हसीन बिन नुमैर जब वारिदे मक्का हुआ तो उसने अब्दुल्लाह बिन जुबैर का मुहासिरा किया, खानए काबा पर संग बारी की ख़बर मशहूर हुई जिसे सुनकर वह अपनी फौजों के साथ शाम की तरफ रवाना हो गया।
फ़ितनए इब्ने जुबैर
अब्दुल्लाह बिन जुबैर जो आले रसूल (स.अ.) का सख़्त तरीन दुश्मन था। सन् 3 हिजरी में हज़रत अबू बक्र की बेटी और हज़रत आएशा की बड़ी बहन अस्मा के बतन से पैदा हुआ। उसे ख़िलाफ़त की बड़ी हवस व तमन्ना थी जिसकी बिना पर उसने जमल का मैदान कारज़ार गर्म करने में अहम किरदार अदा किया था।
हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद सन् 61 हिजरी में अहले मक्का ने और सन् 64 हिजरी में यमन वग़ैरा के मुसलमानों ने उसकी बैअत कर ली थी। मसऊदी का बयान है कि जब उसकी कूव्वत व ताकत बढ़ गयी तो उसने मोहम्मद हनफिया, इब्ने अब्बास और दीगर बनी हाशिम से भी बैअत का मुतालिबा किया और जब उन लोगो ने इंकार किया तो बरसरे मिम्बर उसने उन्हे गालियां दी और अपने खुतबों से रसूलुल्लाह का नाम ख़ारिज कर दिया।
इस गालम गलौज और तूफाने बदतमीज़ के बाद भी जब उन लोगों ने बैअत न की तो उसने मोहम्मद इब्ने हनफ़िया और इब्ने अब्बास को दीगर पंद्रह बनी हाशिम के साथ कैद कर दिया और कैदख़ाने के दरवाज़े पर लकड़िया जमा कर के कहा कि अगर तुम लोग बैअत नहीं करोगें तो हम तुम्हें ज़िन्दा ही आग मे जलवा देगें मगर उसकी नौबत न आने पायी थी कि मुख़्तार ने उन कैदियों की मदद के लिए अब्दुल्लाह जदली की सरबराही मे एक फ़ौज भेज दी जिसने उन मोहतरम अफराद को बचा लिया और कैदख़ाने से निकाल के ताएफ़ पहुँचा दिया। इन्हीं हालात के तहत इमाम ज़ैनुल आबदीन (अ.स.) अकसर व बेशतर इस “फ़ितनए इब्ने जुबैर” का ज़िक्र फ़रमाया करते थे।
मुआविया बिन यज़ीद का इन्हेराफ़े ख़िलाफ़त
यज़ीद बिन मुआविया सन् 64 हिजरी में जब अपने मज़मूम कारनामों और सियाह आमालों के साथ दुनिया से रूख़्सत हुआ तो इस वसीअ व अरीज़ हुकूमत के हुदूदे अरबा तीन हिस्सों पर तकसीम हो गए। शाम मे उसके बेटे मुआविया की बैअत अमल में आयी जबकि हिजाज़ व यमन में अब्दुल्लाह बिन जुबैर और इराक़ में उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद ख़लीफ़ा बन बैठे।
मुआविया बिन यज़ीद चूँकि एक सलीमुत-तबा और इंसाफ पसन्द नौजवान था और अपने खानदान की बेराह रवी ख़ताकारियांे और बुराइयांे को नफरत की निगाह से देखता था नीज़ आले रसूल (स.अ.) को मुस्तहक़े ख़िलाफ़त समझता था। इसलिए चालीस रोज़ या बाज़ रिवायत के मुताबिक तीन या पांच माह के बाद उसने अपने बाप की ग़ासिबाना ख़िलाफ़त को ठुकरा दिया।
इस ज़िम्न में तारीख़ी सराहत यह है कि ख़िलाफ़त का मंसूबा छोड़ने से पहले एक दिन वह मिम्बर पर गया और कुछ देर तक ख़ामोश बैठा रहा।
फिर उसने हाज़रीन को मुखातिब करते हुए कहा:-
लोगों ! मेरे दिल में तुम लोगों पर हुकूमत की कोई तमन्ना नहीं है। मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ कि मेरे दादा मुआविया ने इस ख़िलाफ़त के लिए जिस बुलन्द व बुजूर्ग हस्ती से जंग की वह उससे कहीं ज़्यादा उस मन्सब की हक़दार व सज़ावार थी। और इसमें शक नहीं कि हज़रत अली इब्ने अबी तालिब नहीं सिर्फ़ मेरे दादा मुआविया बल्कि तमाम असहाबे पैग़म्बर (स.अ.) में सबसे अफ़ज़ल व बरतर थे। वह पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.) के भाई दामाद और हकीकी जानशीन थे। उनके बेटे हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) जवानाने जन्नत के सरदार, उम्मते मुसलिमा में सबसे अफ़ज़ल और परवरदाए रसूल (स.अ.) थे। ऐसे बूजुर्ग अफ़राद से मेरा दादा और बाप जिस तरह सरकशी पर आमादा हुआ तुम लोग खूब जानते हो और मेरे बाप व दादा की वजह से तुम लोग जिस गुमराही मे पड़े उससे भी तुम बाख़बर नहीं हो। इसमें कोई शक नहीं कि मेरे दादा को अपने इरादे व मक़सद में कामयाबी हुई और उसके सारे दुनियावी काम बन गए मगर जब मौत ने उसे अपने शिकंजे मे जकड़ा तो वह अपने आमाल में इस तरह गिरफ़्तार होकर दुनिया से गया कि आज अपनी कब्र में अकेला पड़ा अपने करतूतों की सजा भुगत रहा है और जो शैतनत व फ़िरऔनियत उसने इख़्तेयार कर रखी थी उसका अंजाम अपनी आखों से देख रहा है। फिर यह ख़िलाफ़त मेरे बाप यज़ीद के सिपुर्द हुई तो जिस गुमराही व ज़लालत में मेरा दादा था उसी गुमराही व जलालत में पड़कर मेरा बाप भी ख़लीफ़ा बन बैठा, हालाँकि वह अपनी इस्लाम कश बातों, दीन सोज़ हरकतों और अपनी सियाह कारियों की वजह से उस गुमराही पर आमादा हो गया और उसने अपने बुरे कामों को अच्छा समझा। उसने दुनिया में जो अंधेर किया उससे सारा ज़माना वाक़िफ़़ है। वह अल्लाह से बग़़ावत और सरकशी पर आमादा हो गया और हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) से उसने ऐसी दुश्मनी की कि आँहज़रत (स.अ.) की औलाद का खून बहा दिया मगर उसकी मुद्दत कम रही और आख़िरकार उसका जुल्म उसकी मौत के साथ ख़त्म हो गया अब वह अपने गुनाहों की ज़ंजीर में जकड़ा हुआ कब्र में पड़ा है और अपने आमाल की सजा भुगत रहा है, मगर कब? जब किसी निदामत का कोई फाएदा नहीं। काश यह मालूम हो जाता कि वहाँ उसने कौन सा बहाना तराशा है।
उसके बाद मुआविया बिन यज़ीद पर गिरया तारी हो गया और वह देर तक रोता रहा। जब दिल पर कुछ काबू हासिल हुआ तो बोला कि अब मैं अपने ज़ालिम व जाबिर खानदाने बनी उमय्या का तीसरा ख़लीफ़ा बनाया गया हूँ। भाईयों ! मुझ में इतनी सकत व सलाहियत नहीं है कि मैं अपने बाप दादा और तुम लोगों के गुनाहों का बोझ उठा सकूँ और खुदा मुझे वह दिन न दिखाए कि मैं बुरे आमाल के साथ उसकी बारगाह मे पहुंुचूँ। मैं चाहता हूं कि उस सिलसिले में तुम्हारी रहबरी करूँ और बता दूँ कि यह मन्सब किसके लिए ज़ेबा है। सुनो! इमाम ज़ैनुल आबदीन (अ.स.) मौजूद हैं, उनमें किसी तरह का कोई ऐब नहीं निकाला जा सकता, वह इस ख़िलाफ़त के हक़दार और मुस्तहक़ है। तुम लोग उनसे राबता क़ाएम करो और उन्हें रजामन्द करो, हालांकि मैं यह जानता हूं कि वह इस ख़िलाफ़त को किसी कीमत पर कुबूल नहीं करेंगे। और अगर तुम लोग मेरी इस राए से मुत्तफ़िक नहीं हो तो तुम्हें इख़्तेयार है जिसे चाहो अपना ख़लीफ़ा मुन्तख़ब कर लो और बादशाह बना लो। मैने तुम्हारी गर्दनों से अपनी बैअत उठा ली।
जिस मिम्बर पर मुआविया बिन यज़ीद यह खुतबा दे रहा था उसके नीचे मरवान बिन हक़म भी बैठा हुआ था। खुतबा ख़त्म होते ही वह बोला कि क्या हज़रत उमर की सुन्नत जारी करने का इरादा है? क्या जिस तरह उन्होंने अपने बाद ख़िलाफ़त को शूरा के हवाले किया था, तुम भी उसे शूरा के सिपुर्द करना चाहते हो? उस पर मुआविया बिन यज़ीद ने कहा, आप मेरे पास से चले जाएं। आप मुझे मेरे दीन में धोखा देना चाहते है। खुदा की कसम ! अगर ख़िलाफ़त कोई नफा की चीज है तो मेरे बाप ने उससे सख़्त नुकसान उठाया और गुनाहों का जखीरा मुहय्या किया और अगर ख़िलाफ़त कोई वबाल की चीज़ है तो मेरे बाप को उससे जिस कद्र बुराई हासिल हुई है वह काफी है।
यह कहक़र मुआविया मिम्बर से नीचे उतर आया। फिर उसकी मां और दूसरे रिश्तेदार जब उसके पास गए तो देखा कि वह फूट फूट कर रो रहा है। उसकी मां ने कहा, काश तू हैज़ ही में मर जाता और इस दिन की नौबत न आती मुआविया ने कहा, खुदा की कसम काश ऐसा ही होता। फिर कहा, अगर मेरे परवरदिगार ने मुझ पर रहम न किया तो मेरी निजात किसी तरह नहीं हो सकती।
मुआविया की इस गुफ़्तुगू के बाद बनी उमय्या के सरबरआवर्दा लोग उसके उस्ताद उमर मक़सूस की तरफ़ मुतवज्जे हुए और उससे कहने लगे कि तुमने ही मुआविया को यह सबक पढ़ाया है और उसे ख़िलाफ़त से अलाहिदा किया है और तुम ही ने अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) की मोहब्बत उसके दिल में रासिख़ की है यहां तक कि मुआविया ने हम लोगों के जो उयूब और मज़ालिम बयान किए हैं उन सबका बाएस सिर्फ तुम्हारी ही जात है। उमर मक़सूस ने जवाब दिया, ख़ुदा की कसम! यह सब कुछ मेरी वजह से नहीं हुआ न इन तमाम बातों का मुझसे कोई वास्ता व सरोकार है बल्कि वह बचपन ही से आले रसूल (स.अ.) की मोहब्बत लेकर पैदा हुआ है। लेकिन उन लोगों ने बेचारे उमर मक़सूस का कोई उज्ऱ नहीं सुना और कब्र खोदकर ज़िन्दा दफ़्न कर दिया।
मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन अपनी किताब तारीखुल इस्लाम में लिखते हैं कि उसके बाद बनी उमय्या के लोगों ने मुआविया बिन यज़ीद को भी ज़हर देकर ख़त्म कर दिया। उसकी उम्र उस वक़्त 21 साल 18 यौम की थी। उसकी ख़िलाफ़त का ज़माना चार माह और ब-रिवायते चालीस यौम शुमार किया जाता है। मुआविया सानी के साथ बनी उमय्या की सुफ़ियानी शाख़ की हुकूमत का ख़ातिमा हो गया और मरवानी शाख़ की दाग़बेल पड़ गयी।
मुवर्रिख़ इब्नुल वर्दी अपनी तारीख में रकम तराज़ हैं कि मुआविया बिन यज़ीद के मरने के बाद शाम में बनी उमय्या ने मुत्तफिक़ा तौर पर मरवान बिन हिकम को ख़लीफ़ा बना लिया। मरवान की हुकूमत सिर्फ़ एक साल क़ाएम रही। फिर उसके इन्तेकाल के बाद उसका बेटा अब्दुल मलिक बिन मरवान ख़लीफ़ा करार दिया गया।
अब्दुल मलिक बिन मरवान
मरवान बिन हिकम की मौत के बाद सन् 65 हिजरी में उसका बेटा अब्दुल मलिक शाम व मिस्र का फ़रमाँरवा तस्लीम किया गया। यह इन्तेहाई बख़ील, बेरहम, ज़ालिम, सफ़्फ़ाक, दगाबाज़, मुफ़सिद और बेईमान बादशाह था। इब्तेदाई दौर में अब्दुल्लाह बिन जुबैर और मुख़्तार बिन अबू उबैदा सकफी उसकी राह में रोड़ा थे लेकिन सन् 73 हिजरी में अपनी ताकत और तशद्दुद में इज़ाफ़े की बिना पर यह तमाम ममालिके इस्लामिया का तन्हा ताजदार बन गया।
इब्ने जुबैर से मारका आराई में उमवी जनरल हज्जाज बिन यूसुफ ने चूंकि नुमायां किरदार अदा किया था इसलिए अब्दुल मलिक ने पहले उसे हिजाज़ का गवर्नर बनाया, फिर उसके बाद सन् 75 हिजरी में उसने इराक, फ़ारस, सीस्तान, किरमान और खुरासान को भी उसकी हुकूमत में शामिल कर दिया।
हज्जाज बिन यूसुफ़ ने अपनी हिजाज़ की गवर्नरी के ज़माने में अहले मदीना पर जिनमें असहाबे रसूल (स.अ.) भी शामिल थे, बड़े-बड़े मज़ालिम किए। इराक़ में अपनी हुकूमत व गवर्नरी के दौरान उसने पांच लाख बन्दगानें ख़ुदा का ख़ून बहाया था और उसकी वफ़ात के वक़्त तक़रीबन पचास हज़ार मर्द व ज़न कैदख़ानों में पड़े हुए उसकी जान को रो रहे थे। बेछत का कैदख़ाना उसी की ईजाद है।
इब्ने ख़लकान का बयान है कि अब्दुल मुल्क बिन मरवान जिस क़द्र ज़ालिम व सफ़्फ़ाक था उतने ही ज़ालिम व सफ़्फ़ाक उसके गवर्नर भी थे। चुनांचे इराक़ में हज्जाज खुरासान में मोलिब हिजाज़ में हश्शाम बिन इस्माईल, मिस्र में उसका बेटा अब्दुल्लाह, यमन में हज्जाज का भाई मुहम्मद बिन यूसुफ और जज़ीरा में मुहम्मद बिन मरवान, यह सबके सब इन्तेहाई ज़ालिम और सफ्फाक थे। मसूदी का कहना है कि खूंरेज़ी के मामले में अब्दुल मलिक के आमिल उसी के नक्शे कदम पर चलते थे और अपने मतलब बरारी के लिए सब कुछ कर गुज़रते थे।
मुतअदिद मुवर्रिख़ीन ने लिखा है कि हज्जाज बिन यूसुफ ने जिस वक़्त मदीने में तबाही मचाई थी उसी ज़माने में अब्दुल मलिक बिन मरवान ने उसे हुक्म दिया था कि अली (अ.स.) बिन हुसैन (अ.स.) को गिरफ़्तार करके शाम भेज दिया जाए। चुनांचे आपको ज़ंजीरों में जकड़ कर कैद कर दिया गया।
रौज़तुल एहबाब में ज़हरी से मरवी है कि आमिले मदीना ने अब्दुल मलिक के हुक्म से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को तौक़ व जंजीर पहना कर कैद किया ताकि वह उन्हें निगेहबानों की हिरासत में अब्दुल मलिक के पास रवाना करे। मैंने इमाम (अ.स.) से मिलने की इजाज़त चाही और जब आमिल से इजाज़त मिल गयी तो कैदख़ाने के अन्दर जाकर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से मिला और अर्ज़ किया कि काश आपकी जगह मैं कैद होता। आपने फ़रमाया कि ऐ ज़हरी ! यह न समझो कि इस क़ैद से मुझे कुछ ज़हमत है। अगर मैं चाहूं तो अभी रिहा हो सकता हूं। इमाम (अ.स.) का यह कहना था कि मैंने देखा कि उनके जिस्म से जंजीरें और बेडियां अलाहिदा हो गयीं। फिर आपने फ़रमाया कि ऐ ज़हरी! मैं दो मंज़िल से ज़्यादा इन लोगों के साथ नहीं जाऊँगा। थोडी देर बाद मैं उन्हें अलविदा कहक़र चला आया। चौथे दिन मैंने देखा कि जो लोग इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को अपनी हिरासत में ले गए थे वही लोग मदीने वापस आकर आपकी तलाश में सरगरदां हैं। मैंने उन लोगों से जब हक़ीक़त दरयाफ़्त की तो उन्होंने बताया कि हम लोग एक मंज़िल में मुक़ीम थे, रात भर अली (अ.स.) बिन हुसैन (अ.स.) की निगरानी करते रहे मगर जब सुबह हुई तो हमने उन्हें न पाया। अलबत्ता बेड़ियां और जंजीरें वहां पड़ी हुई थीं। इस वाक़िए के चन्द रोज़ बाद जब मैं अब्दुल मलिक के दरबार में हाज़िर हुआ तो उसने मुझसे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का हाल दरयाफ़्त किया। मुझे जो हालात मालूम थे वह मैंने बयान किए। अब्दुल मलिक ने कहा जिस दिन मेरे गुमाशतों की हिरासत से अली बिन हुसैन (अ.स.) का गाएब होना बयान किया जाता है उसी दिन मेरे पास आए और कहने लगे कि तू क्यों मेरे पीछे पड़ा है? मैंने कहा कि मेरी ख़्वाहिश है कि आप मेरे पास रहें। उन्होंने कहा ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता। बस इतना कहक़र वह चले गए। वल्लाह मुझ पर ऐसी हैबत तारी थी कि मेरे बदन के रोंगटे खड़े हो गए थे जिसके सबब मैं उनसे कुछ न कह सका।
इस गुफ़्तुगू के बाद ज़हरी ने अब्दुल मलिक से कहा कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पर किसी किस्म का कोई इल्ज़ाम नहीं है, न वह हुकूमत के मामलात से कोई दिलचस्पी रखते हैं बल्कि वह खालिस अल्लाह वाले हैं और अल्लाह के सिवा उन्हें किसी से कोई मतलब नहीं है। अल्लामा इब्ने हजर मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि ज़हरी की इन बातों से मुतअस्सिर होकर अब्दुल मलिक ने हज्जाज बिन यूसुफ़ को लिखा कि वह बनी हाशिम को सताने और उनका खून बहाने से इज्तेनाब करे। क्योंकि बनी उमय्या के अकसर ताजदार उन्हें सताकर बहुत जल्द तबाह व बर्बाद हो गए।
ज़हरी की रिवायत और अब्दुल मलिक बिन मरवान के बयान व तर्ज़े अमल से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की करामत व जलालत का पता चलता है नीज़ इस अम्र की वज़ाहत भी होती है कि आप हुकूमत व जाहतलबी से क़तई बेनियाज़ थे।
बुनियादे काबा
अब्दुल मलिक बिन मरवान ने सन् 71 हिजरी में इराक़ पर लश्कर कुशी करके मुसअब बिन जुबैर को क़त्ल किया। फिर सन् 72 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ को एक लश्करे कसीर के साथ मक्के रवाना किया ताकि वह अब्दुल्लाह बिन जुबैर को क़त्ल कर दे। मक्के पहुंचकर हज्जाज ने अब्दुल्लाह बिन जुबैर से जंग की। इब्ने जुबैर ने भी शामियों से जमकर मुकाबला किया जिसके नतीजे में मुतअद्दि लड़ाईयां हुईं। आख़िर में मुक़ाबले की ताब न लाकर इब्ने जुबैर बैतुल्लाह में महसूर हो गए।
हज्जाज ने इब्ने जुबैर को बाहर निकालने के लिए पहले तो ख़ानए काबा पर पत्थर बरसाए मगर जब उसे संगबारी से कामयाबी न हुई तो ख़ानए काबा का मग़रिबी हिस्सा उसने खुदवा डाला यहां तक कि उसकी बुनियाद को भी मिस्मार कर दिया। इब्ने जुबैर जमादिल-आख़िर सन 73 हिजरी को मारा गया। शैख सदूक़ अपनी किताब एललुश शराए में तहरीर फ़रमाते हैं कि इस इन्हेदामे काबा के मौके पर लोग उसकी मिट्टी तक उठाकर ले गए और काबा को इस तरह लूटा कि उसकी कोई पुरानी शय बाकी न रही।
अब्दुल्लाह बिन जुबैर के क़त्ल के बाद हज्जाज ने अज़ सरे नौ ख़ानए काबा की तामीरी का प्रोग्राम मुर्त्तब किया और काम शुरू हो गया। अभी तामीर की इब्तेदा ही हुई थी कि एक ख़ौफ़नाक अज़दहा बरामद हुआ और वह ऐसी जगह बैठ गया जिस जगह से तामीरी काम को आगे बढ़ना था। लोगों ने इस वाक़िए की इत्तेला हज्जाज को दी और बताया कि अज़दहा किसी तरह भी अपनी जगह छोड़ने को तैयार नहीं है और तमाम तदबीरें नाकाम हो गयी हैं तो वह घबराया। उसने लोगों को जमा करके उनसे मशविरा किया कि अब क्या करना चाहिए? जब लोग इसका हल तलाश करने से कासिर रहे तो एक शख्स ने कहा कि आज कल फरज़न्दे रसूल (स.अ.) इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) यहां आए हुए हैं, बेहतर है कि उनसे राबता क़ाएम किया जाए क्योंकि उनके अलावा यह मसला दूसरा कोई हल नहीं कर सकता। चुनांचे हज्जाज ने आपसे राबता क़ाएम किया और तमाम हालात से मुत्तेला फ़रमाया। आपने फ़रमाया, ऐ हज्जाज तूने तो ख़ान-ए-काबा को अपनी मीरास समझ लिया है और हज़रत इब्राहीम के संगे बुनियाद को पाश पाश कर दिया है। ख़ुदावन्दे आलम तुझे उस वक़्त तक ख़ान-ए-काबा की तामीर में कामयाब न होने देगा जब तक तू उसका लूटा हुआ सामान वापस नहीं करेगा। यह सुनकर उसने एलान किया कि ख़ान-ए-काबा से मुतअल्लिक जो भी जिस किसी के पास हो वह फ़ौरन उसे वापस करे। चुनांचे लोगों ने मिट्टी, पत्थर और दीगर लूटा हुआ सामान लाकर ढ़ेर कर दिया। जब सारा असासा जमा हो गया तो इमाम (अ.स.) उस अज़दहे के पास तशरीफ़ ले गए। आपको देखते ही वह हटकर दूसरी तरफ चला गया। आपने उसकी बुनियाद उस्तवार की और हज्जाज से फ़रमाया कि अब इसके ऊपर तामीर का काम शुरू करो चुनांचे उसी बुनियाद पर ख़ानए काबा की तामीर हुई। और जब हजरे असवद नस्ब करने की मंज़िल आई तो जो भी आबिद व जाहिद और आलिम व फकीह उसे नस्ब करता था वह अपनी जगह ठहरता न था। बिल आख़िर इमाम (अ.स.) बुलाए गए और आपने बिस्मिल्लाह कहक़र उसे अपने मक़ाम पर नस्ब कर दिया।
मोतियों की बरसात
एक मर्तबा हज के मौके पर अब्दुल मलिक बिन मरवान मक्का-ए-मोअज़्ज़मा आया। इधर से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) भी वहां पहुंचे। मनासिके हज के दौरान दोनों का साथ हो गया। इमाम (अ.स.) आगे-आगे चल रहे थे। यह बात अब्दुल मलिक को नागवार गुज़री, उसने आपसे कहा, क्या मैंने आपके बाप को क़त्ल किया है जो आप मेरी तरफ मुतवज्जे नहीं होते? आपने फ़रमाया, जिसने मेरे बाप को क़त्ल किया है उसने अपनी दुनिया व आख़िरत दोनों ख़राब कर ली है। क्या तेरे दिल में भी यही हौसला है। उसने कहा नहीं। मेरा मकसद यह है कि आप मेरे पास तशरीफ़ लाएं ताकि मैं आपके साथ कुछ माली सुलूक कर सकूं। आपने फ़रमाया, मुझे माले दुनिया की हाजत नहीं है, मेरा कफ़ील व मददगार सिर्फ मेरा ख़ुदा है और वह मुझे मेरी ज़रूरत से ज़्यादा अता करता है। यह कहक़र आपने उस जगह ज़मीन पर अपनी चादर बिछा दी और बैतुल्लाह की तरफ इशारा करके फ़रमाया, मेरे मालिक! इस रिदा को भर दे। इमाम (अ.स.) की ज़बाने मुबारक से इन दुआईया कलमात का निकलना था कि रिदाए मुबारक पर आसमान से मोती बरसने लगे यहां तक कि आपकी चादर मोतियों से भर गयी। आपने उन मोतियों को राहे ख़ुदा में दे दिया।
लाल व जवाहिर
अल्लामा मजलिसी (र.ह.) ने तहरीर फ़रमाया है कि साकिनाने बलख़ में से एक शख़्स जो सिदक़े दिल से आले मुहम्मद (स.अ.) का शैदाई था, हर साल हज्जे बैतुल्लाह से मुशर्रफ हुआ करता था और जब वह हज की गरज़ से मक्के आता था तो दो चार दिन के लिए मदीने जाकर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़ियारत का शरफ़ भी हासिल किया करता था। एक मर्तबा जब वह हज और ज़ियारते इमाम (अ.स.) से फ़ारिग होकर वापस अपने वतन आया तो उसकी बीवी ने कहा कि तुम हमेशा तोहफे तहाएफ़ लेकर अपने इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में बारियाब होते हो मगर उन्होंने आज तक तुम्हें कुछ न दिया। उसने कहा, तौबा करो, तुम्हारे लिए यह कलमात ज़ेब नहीं देते। वह इमामे ज़माना हैं, मालिके दीन व दुनिया हैं, फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हैं और वह तुम्हारी यह बात सुन रहे होंगे। शौहर की इस बात पर खामोश हो गयी। अगले साल जब वह शख़्स हज से फारिग होकर इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में ज़ियारत की गरज़ से हाज़िर हुआ तो आपने उसे अपने साथ दस्तरख्वान पर बैठाकर खाना खिलाया। जब इमाम (अ.स.) की मईयत में वह खाना खा चुका तो उसने चाहा कि इमाम (अ.स.) के हाथ धुलाए। आपने फ़रमाया कि तू मेहमान है, यह काम तेरा नहीं है। उसने इसरार किया और हाथ धुलाने लगा, यहां तक कि जब तश्त पानी से भर गया तो आपने पूछा, यह क्या है? उसने कहा मौला! यह पानी है। आपने फ़रमाया, गौर से देख। उसने जब ग़ौर से देखा तो तश्त याकूते सुर्ख से लबरेज़ था। आपने फ़रमाया, इसे फर्श पर उलट दे। उसने वह तश्त उलट दिया और दोबारा फिर आपके दस्ते मुबारक पर पानी डालने लगा, इस मर्तबा ज़मर्रूदे सब्ज़ से वह तश्त भर गया। तीसरी बार हाथ का धोवन मोतियों में तब्दील हो गया तो आपने फ़रमाया जब तुम अपने घर जाना तो इसे लेते जाना और अपनी बीवी को दे देना और उससे कहना कि हमारे पास और कुछ माले दुनिया नहीं है। वह शख़्स बेहद शर्मिन्दा हुआ और बोला, मौला मेरी बीवी की यह बात आपको किसने बताई। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, हमें ख़ुदा की तरफ से सब कुछ मालूम हो जाता है। उसके बाद वह उस लाल व जवाहिर की सौगात को लिए अपनी बीवी के पास जब इमाम (अ.स.) से रूख़्सत होकर पहुंचा तो उससे सारा वाक़िआ बयान किया। उसने कहा, अगर ज़िन्दगी रही तो अगले साल चलकर मैं इमाम की ज़ियारत करूंगी। मगर जब दूसरे साल उसकी बीवी इमाम (अ.स.) की ज़ियारत के लिए उसके साथ अपने वतन से रवाना हुई तो रास्ते में मर गयी। वह शख्स रंजीदा व मलूल तन्हा इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और सारा वाक़िआ बयान किया। आपने दो रकअत नमाज़ पढ़कर दुआ की और फ़रमाया, जाओ तुम्हारी बीवी जिन्दा हो गयी। वह फौरन ही वापस पलटा तो बीवी को जिन्दा व सलामत पाया। वह उसे लेकर फिर इमाम (अ.स.) की ज़ियारत को पलटा। जब वह हाज़िरे ख़िदमत हुई तो उसने कहा, ख़ुदा की कसम ! यही वह इमाम हैं जिन्होंने मल्कुल मौत से मेरे मुतअल्लिक यह फ़रमाया था कि इसकी रूह को इसके जिस्म में वापस करो, यह मेरी ज़ाएरा है और मैंने अपने परवरदिगार से इसकी उम्र 30 साल बढ़वा ली है।
बदकिरदार हाजियों के चेहरे
इमामुल हदीस ज़हरी का बयान है कि एक मर्तबा हज के मौके़ पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास मक़ामे अराफात में खड़ा मैं हाजियों के हुजूम को देख रहा था कि अचानक मेरे मुंह से निकला कि मौला! कितने लाख हाजी हैं और कितना ज़बर्दस्त मजमा है। यह सुनकर इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मेरे क़रीब आओ। जब मैं क़रीब गया तो आपने मेरे चेहरे पर हाथ फेरकर फ़रमाया कि “अब देखो।” मैंने देखा तो दस हज़ार आदमियों एक के तनासुब से मुझे इन्सान नज़र आए बाकी सब के सब कुत्ते, सुअर और भेड़ि़ए की शक्ल में दिखाई दिए। यह देखकर मेरी हैरानी की कोई इन्तेहा न रही। आपने मेरे इस्तेजाब को देखकर फ़रमाया जो लोग दुरूस्त नीयत व अकीदा के बगैर हज करते हैं उनका यही हश्र होता है। ऐ जहरी ! हमारी मोहब्बत और नेक नीयती के बगैर सारे आमाल बेकार हैं।
अब्दुल मलिक का जानशीन बेटा एक मर्तबा अपने बाप के साथ हज्जे बैतुल्लाह के लिए मक्का-ए-मोअज्ज़मा आया और मनासिके हज के दौरान तवाफ़ से फारिग होकर वह हजरे असवद को बोसा देने के लिए आगे बढ़ा मगर मुसलसल कोशिशों के बाद भी वह इज़्देहाम की वजह से वहां तक न पहुंच सका। आख़िरकार थक हारकर एक कुर्सी पर बैठ गया और मजमे के छटने का इन्तेज़ार करने लगा। हश्शाम बिन अब्दुल मलिक के हवारीन उसे अपने घेरे में लिए हुए थे कि अचानक एक तरफ से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बरामद हुए। तवाफ़ के बाद आपने जैसे ही हजरे असवद की तरफ़ रूख किया मजमा इधर उधर हटने लगा। हाजियों ने अपने दरमियान इमाम (अ.स.) के लिए रास्ता बनाया और आपने हजर असवद तक पहुंच कर शर्ते इस्लाम अदा की। हश्शाम जो मजमा मुन्तशिर होने के इन्तेज़ार में कुर्सी पर बैठा हुआ था इमाम (अ.स.) की यह क़द्र व मंज़िलत देखकर हसद की आग में जल भुन कर ख़ाक हो गया और उसके हवारीन इस शाने इमामत को देखकर हैरतज़दा रह गए। किसी मुंह चढ़े ने हश्शाम से पूछा कि हुज़ूर यह कौन है जिसकी हैबत व जलालत से लोग इधर उधर हट गए। हश्शाम ने इस ख़ौफ़ से कहीं ऐसा न हो, अहले शाम अली बिन हुसैन (अ.स.) की तरफ़ माएल हो जाएं, कहा मैं इस शख़्स को नहीं पहचानता। अरब का मशहूर शाएर फ़रज़दक़ उस मजमे में मौजूद था। हश्शाम का तजाहुले आरिफ़ाना देखकर वह उसे बर्दाश्त न कर सका। उसने शामियों को मुखातिब करते हुए कहा, इस शख़्स को मैं जानता व पहचानता हूं, मुझसे सुनो कि यह कौन है? यह कहक़र उसने इर्तेजालन और फिल-बदीह एक अज़ीमुशशान क़सीदा पढ़ना शुरू किया, जिसका उर्दू तर्जुमा हस्बे ज़ैल है:-
“यह वह शख़्स है जिसको ख़ान-ए-काबा और हिल्ल व हरम सब पहचानते हैं, जिसके कदमों की चाप को ज़मीने बतहा भी महसूस कर लेती है।”
“यह उस शख़्स का फ़रज़न्द है जो तमाम बन्दगाने ख़ुदा में अफ़ज़ल माना जाता है और यह खुद भी परहेज़गार पाक सीरत और सरदारे क़ौम है।”
“यह वह शख़्स है जिसको देखकर कुरैश कह उठते हैं कि इसी के मकारिमे अखलाक पर करम की इन्तेहा होती है।”
“यह वह शख़्स है जिसकी औज व अज़मत तक रसाई से मुसलमानाने अरब व अजम कासिर है।”
“यह वह है कि जब हजरे असवद के इस्तेलाम को जाता है तो वह खुद बढ़ कर उसके हाथों से मुतमस्सिक हो जाता है।”
“यह वह है कि जिसके जद का मर्तबा तमाम अम्बिया के मरातिब से बुलन्द व बाला है और जिसके जद की उम्मत हर नबी पर फौकीयत रखती है।”
“यह वह है जिसकी जबीने मुबारक से नूरे हिदायते आफ़ताब की रौशनी की तरह फैलकर तमाम आलम को मुनव्वर करता है।”
“ऐ हश्शाम! अगर तू नहीं जानता तो जान ले कि यह फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) का फ़रज़न्द है और इनके जद खातिमुल मुरसलीन है।”
“यह वह है कि जिसको ख़ुदा ने अज़ल से शरफ़ अता किया है और जिसका फ़ज़ल, कलमे कुदरत से लौह पर मरकूम है।”
“यह वह है जिसे तेरा तजाहुले आरिफ़ाना कोई ज़रर नही पहुंचा सकता इसलिए कि अरब व अजम के सभी लोग उसे अच्छी तरह जानते और पहचाने हैं।”
“यह वह है कि जिसके दोनों हाथ मखलूके आलम के लिए अबरे करम हैं।”
“यह वह फय्याज़ शख़्स है जो दूसरों का बोझ उठाता रहता है और उसकी शीरीं ज़बानी से उसका फ़ैज़ व इनाम और ज़्यादा शीरीं हो जाता हैं”
“यह वह रास्तबाज़, आक़िल, और मेहमान नवाज़ शख़्स है जिसकी जात से कभी वादा खिलाफी नहीं होती।”
“यह शख़्स उन लोगों में से है जिनकी दोस्ती ईमान और दुश्मनी कुफ्ऱ है और जिनकी कुरबत निजात की दस्तावेज़ है।”
“अगर परहेज़गारों का शुमार किया जाए तो यही लोग इमाम हैं।”
“कोई सख़ी इनकी सख़ावत को छू नहीं सकता और कोई क़ौम इनके मरतबे को पहुंचे नही सकती।”
“यह शख़्स उन लोगों में से है जिनके तुफैल में मुसीबतें दफ़ा होती हैं और जिनकी बरकत से नेअमतों में इजाफा होता है।”
“यह शख़्स उन लोगों में से है जिनका तज़किरा खुदा के तज़किरे के बाद हर आगाज़े कलाम के लिए ज़रूरी है।”
“सच तो यह है कि जो शख़्स ख़ुदा को पहचानता है वह इन्हें भी पहचानता है क्योंकि इन्हीं के घर से उम्मत ने दीन व ईमान पाया है।”
हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने जब फ़रज़दक के यह अशआर सुने तो वह इस क़द्र ग़ज़बनाक हुआ कि उसने उस अज़ीम शाएर को गिरफ़्तार करके इस्फहान के मक़ाम पर कैद कर दिया। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जब फरज़दक की कैद का हाल मालूम हुआ तो आपने बारह हज़ार दिरहम उसके पास भेजा लेकिन उसने यह कहक़र उस रकम को लेने से इन्कार कर दिया कि मैंने माले दुनिया के लिए यह क़सीदा नहीं कहा। उसके इस इन्कार पर इमाम (अ.स.) ने कहलवा भेजा कि हम आले रसूल (स.अ.) जो चीज़ किसी को दे देते हैं उसे वापस नहीं लेते। तुम इस हकीर रक़म को कुबूल कर लो, खुदा तुम्हारी नीयत का अज्र तुम्हें अलग से देगा। चुनांचे इमाम (अ.स.) की बात का एहतराम करते हुए वह दिरहम कुबूल कर लिए।
हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी
आप कूफ़े के रहने वाले थे। जनाब मुस्लिम बिन अक़ील जब इमाम हुसैन (अ.स.) के खुसूसी नुमाईन्दे की हैसियत से कूफा में आए तो उन्होंने आप ही के यहां क़याम फ़रमाया था।
जनाबे मुख्तार को इब्ने ज़ियाद ने आले रसूल (स.अ.) से मुहब्बत के जुर्म में कैद कर दिया था। शहादते हुसैन (अ.स.) के बाद जब आपको कैद से रिहाई मिली तो कातिलाने हुसैन (अ.स.) से बदला लेने का अज़्म किया और रफ़्ता-रफ़्ता नबर्द आज़माओं का एक बड़ा लश्कर तैयार करके सन् 66 हिजरी में कूफे पर काबिज़़ हो गए।
आपने किताबे ख़ुदा, सुन्नत रसूल (स.अ.) और इन्तेकामे ख़ूने हुसैन (अ.स.) पर लोगों से बैअत ली और बड़ी मुस्तैदी से चुन-चुन के कातिलाने हुसैन (अ.स.) से इन्तेकाम लेना शुरू कर दिया। मुल्ला मुबीन अपनी किताब वसीलतुल निजात में रकम तराज़ हैं कि मुख्तार ने जब शिम्र मलऊन को क़त्ल किया तो उसकी लाश को उसी तरह घोड़ों की टापों से पामाल कराया जिस तरह उसने इमाम हुसैन (अ.स.) की लाश को पामाल किया था। खूली का सर काट के उसकी लाश को आग में जलवा दिया। उमर इब्ने सअद और उसके बेटे अफ़सह को तड़पा तड़पा कर मारा और उनकी लाशों को एक दरख़्त पर लटका दिया ताकि लोग इबरत हासिल करें। इब्ने ज़ियाद उस वक़्त मूसल का गवर्नर था, उसे गिरफ़्तार करने के लिए मुख़्तार ने इब्राहीम बिन मालिके अशतर को एक बड़ी फ़ौज के साथ मामूर किया। शदीद जंग के बाद इब्ने ज़ियाद इब्राहीम के हाथों क़त्ल हुआ। इब्राहीम ने उसका सरकाट कर मुख़्तार के पास रवाना कर दिया और जिस्म को आग में जलवा दिया। मुवर्रिख़ीन का बयान है कि जब इब्ने ज़ियाद का सर जनाबे मुख़्तार के सामने रखा गया तो किसी तरफ से एक सांप बरामद हुआ जो उसके मुंह की तरफ से घुसता था और कान की तरफ से बाहर निकलता था।
मुत्तअिद बार उस सांप ने यही किया, उसके बाद खुद बखुद गाएब हो गया। बाज़ ने यह भी लिखा है कि जनाबे मुख़्तार ने इब्ने ज़ियाद का सर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ख़िदमत में रवाना किया और जिस वक़्त वह सर पहुंचा और इमाम (अ.स.) ने देखा तो सजदए शुक्र अदा किया और जनाबे मुख़्तार के हक़ में दुआएं कीं तारीखों से पता चलता है कि उसी दिन से अहले हरम ने मज़लूमे कर्बला का सोग बढ़ा दिया और कत्ले इब्ने ज़ियाद की खुशी में कंघी की, सर में तेल डाला और आंखों में सफ़रमा लगाया।
फिर जनाबे मुख़्तार के हुक्म से कै़स बिन अशअस की गर्दन ज़दनी अमल में आई। बहदिल बिन सलीम (जिसने एक अंगूठी के लिए इमाम हुसैन (अ.स.) की उंगलियां काट ली थीं) के हाथ पांव काटे गए जिसकी वजह से वह मलऊन मौत से हमकिनार हुआ। हकीम बिन सलीम (जिसने अलमदारे कर्बला हज़रत अबुल फ़ज़लिल अब्बास (अ.स.) को शहीद किया था) के जिस्म को तीरों से छलनी कर दिया गया जिससे उसकी मौत हो गयी। उसी के साथ यज़ीद बिन सालिक, इमरान बिन खालिद, अब्दुल्लाह बजली, अब्दुल्लाह बिन कैस, ज़ुरआ बिन शरीक, सबीह शामी और सिनान बिन अनस वग़ैरा को भी मौत के घाट उतार दिया गया। रौज़तुस सफा में है कि उमर भी और हज्जाज भी उन्हीं लोगों के साथ गिरफ़्तार होकर क़त्ल हुआ।
मिनहाल बिन उमर से रिवायत है कि मैं उसी दौरान हज के लिए गया तो वहां इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से मेरी मुलाकात हुई। गुफ़्तुगू के दौरान उन्होंने मुझसे दरयाफ़्त किया कि हुरमुला बिन काहिल असदी का क्या हाल हुआ। मैंने कहा वह जिन्दा था। आपने आसमान की तरफ हाथ उठाकर उसके हक़ में बददुआ की और फ़रमाया, ख़ुदाया! उसे भी आतिशे तेग़ का मज़ा चखा। जब मैं कूफे वापस आया और मुख़्तार से इमाम (अ.स.) की बद्दुआ का तज़किरा किया तो उन्होंने सजदए शुक्र अदा किया क्योंकि हुरमुला अपने कैफ़रे किरदार को पहुंच चुका था।
जनाबे मुख़्तार ने ख़ून हुसैन (अ.स.) के इन्तेक़ाम में जिन लोगों को मौत के घाट उतारा उनकी मजमूई तादाद अस्सी हजार तीन सौ तीस बताई जाती है।
हज़रत मुख़्तार ने अब्दुल मलिक बिन मरवान के दौरे ख़िलाफ़त में कातिलाने हुसैन (अ.स.) पर खुरूज किया और उन्हें कैफ़रे किरदार तक पहुंचाया। अल्लामा मसूदी का बयान है कि इस मकसद के लिए जनाबे मुख़्तार ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की बैअत करना चाही थी मगर आपने बैअत लेने से इन्कार कर दिया।
शहीदे सालिस अल्लामा नुरूल्लाह शूस्तरी (र.ह.) रकम तराज़ हैं कि अल्लामा हिल्ली ने मुख़्तार को मक़बूल लोगों में शुमार किया हैं। इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने जनाबे मुख्तार के कारनामों पर नुकता चीनियों के बारे में मना किया है और इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) ने उनके लिए दुआए मगफिरत की है। अल्लामा मजलिसी (र.ह.) फ़रमाते हैं कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी की कारगुज़ारियों पर ख़ुदा का शुक्र अदा किया है।
सहीफा-ए-कामिला
यह किताब इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की दुआओं का मजमूआ है। यह पहली सदी की तस्नीफ़ है। इसमें बेशुमार उलूम व फुनून के जौहर मौजूद हैं। इसे ओलमाए इस्लाम ने ज़बूरे आले मुहम्मद और इंजील अहलेबैत (अ.स.) से ताबीर किया है और इसकी फ़साहत व बलागत को देखकर इसे कुतुब आसमानी का दर्जा दिया गया है।
उमर बिन अब्दुल अज़ीज़
अब्दुल मलिक बिन मरवान के मरने के बाद सन् 86 हिजरी में उसका बेटा वलीद तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुआ। हज्जाज बिन यूसुफ की तरह इन्तेहाई जालिम व जाबिर था। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ जो वलीद का चचा जाद भाई था, उसी के अहद में हिजाज़ का गवर्नर मुकर्रर हुआ। यह बड़ा मुनसिफ़ मिज़ाज आमिल था। इसके अहदे गवर्नरी में हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) के रौज़ए अक़दस की एक दीवार गिराई गयी थी। चुनांचे जब उसकी मरम्मत का सवाल उठा और इसकी ज़रूरत महसूस हुई कि किस मुकद्दस हस्ती के हाथ से इसकी इब्तेदा की जाए तो उसने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को तमाम लोगों पर तरजीह दी। उसने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को फिदक वापस किया और इसी ने अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) को मिम्बर से नाज़ेबा अल्फ़ाज़ कहने की वह बिदअत ख़त्म की जो मुआविया के दौर से जारी थी।
आपकी शहादत
आपके दौर में सुलहे इमाम हसन (अ.स.) के बाद बनी उमय्या की हुकूमत क़ाएम हुई और सन् 60 हिजरी तक मुआविया बिन अबू सुफ़ियान बादशाह रहा। उसके बाद उसका फ़ासिक व जाबिर बेटा यज़ीद सन् 64 हिजरी तक हुक्मरां रहा। सन् 64 हिजरी में यज़ीद का बेटा मुआविया और मरवान बिन हक़म बरसरे इक़्तेदार रहे। सन् 65 हिजरी से 86 हिजरी तक मरवान का बेटा अब्दुल मलिक बादशाहे वक्त रहा। सन् 86 हिजरी में अब्दुल मलिक के बाद वलीद बिन अब्दुल मलिक जब तख़्त नशीन हुआ तो सन् 96 हिजरी तक उसने हुकूमत की। उसी ने 25 मुहर्रमुल हराम सन् 65 हिजरी (सन 714 ई0) को आपके रूहानी इक़्तेदार की वजह से आपको ज़हर दे दिया जिससे आप दर्जा-ए-शहादत पर फाएज़ हो गए। इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने नमाज़ जनाज़ा पढ़ाई और आप जन्नतुल बक़ी में दफ़्न हुए। शहादत के वक़्त आपकी उम्र 57 बरस की थी। तारीख़ से पता चलता है कि आपकी शहादत के बाद आपका नाका भी आपकी कब्र पर नाला व फरयाद करता हुआ तीन रोज़ में मर गया।
औलादें
आपके कुल पन्द्रह औलादें थीं जिनमें ग्यारह बेटे इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.), अब्दुल्लाह, हसन, जैद, उमर, अब्दुर्रहमान, सुलेमान, अली, मुहम्मद असग़र और हुसैन असग़र थे। उनके अलावा चार बेटियां थीं जिनके नाम ख़दीजा, फ़ातिमा अलिया और उम्मे कुलसूम तारीख़ की किताबों में मरकूम हैं।
जनाबे जैद शहीद
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की औलादों में इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) के बाद सबसे नुमायां और अजीमुल मर्तबत शख़्सियत जनाबे जैद की है। आप सन् 80 हिजरी में मुतविल्लद हुए और सन 121 हिजरी में हश्शाम बिन अब्दुल मलिक के मज़ालिम व इस्तेबदाद से तंग आकर अपने हमनवाओं को तलाश करने लगे। आख़िरकार य कुम सफ़र सन् 122 हिजरी को चालीस हज़ार कूफियों की एक जमीयत लेकर मैदान में उतर आए। लेकिन जंग के दौरान ही कूफियों ने आपका साथ छोड़ दिया।
आपका साथ छोड़कर कूफियों के अलाहिदा हो जाने की वजह इमाम अबू हनीफा की बैअत शिकनी बताई जाती है क्योंकि उन्होंने पहले जनाबे ज़ैद की बैअत कर ली थी मगर जब हश्शाम ने उन्हें अपने दरबार में बुलाकर इमामे आज़म का ख़िताब दिया तो वह जनाबे ज़ैद की बैअत तोड़कर हुकूमत के साथ हो गए और इसी सबब से इमाम अबू हनीफा के मानने वाले भी आपसे अलग हो गए। इसके अलावा यह वजह भी थी कि उस वक़्त कूफे़ में चन्द अफ़राद के अलावा कोई शिया भी न था, जितने थे वह सब हज़रत उस्मान या मुआविया के मानने वाले थे। ग़रज़ कि इसी जंग के दौरान जनाबे ज़ैद की पेशानी पर एक तीर लगा, जिसने आपको संभलने न दिया, आप ज़मीन पर तशरीफ लाए, आपके एक गुलाम से आपको उठाकर एक घर में पहुंचा दिया। मगर ज़ख़्म कारी होने की वजह से इलाज के बावजूद आप जांबर न हो सके। आपके ख़ादिमों ने गुस्ल व कफ़न और नमाज़े मय्यत के बाद आपको खुफिया तौर पर दफ़्न और आपकी कब्र पर से पानी जारी कर दिया ताकि इसका पता न चल सके लेकिन दुश्मनों ने सुराग रसानी करके लाश कब्र से निकाल ली और सर काट कर हश्शाम बिन अब्दुल मलिक के पास भेज दिया। उसके बाद आपके जिस्म को नज़रे आतिश करके उसकी राख दरियाए फुरात में बहा दी गयी। वक़्ते शहादत आपकी उम्र 42 साल की थी।
जनाबे ज़ैद के चार बेटे थे जिनमें जनाबे यहिया बिन ज़ैद की दास्ताने शुजाअत सोने के हरूफ से लिखी जाने के काबिल है। आप दादिहाल की तरफ से हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और ननिहाल की तरफ से जनाबे मुहम्मद बिन हनफिया की यादगार थे इसलिए नस्ले रसूल (स.अ.) में होने की वजह से आपको क़त्ल करने की कोशिश की गयी। आपने अपनी जान बचाने की गरज़ से एक यादगार जंग की। बिल आख़िर सन् 125 हिजरी में आप शहीद कर दिए गए। फिर वलीद के हुक्म से आपका सर काटा गया और हाथ पांव क़ता किए गए। उसके बाद आपकी लाश एक दरख़्त से लटका दी गयी। फिर एक अर्से के बाद उसे उतार कर जलाया गया और हड्डियों को हथौड़ियों से कूट कूट कर रेज़ा रेज़ा किया गया। फिर उसे एक बोरे में भरकर कश्ती के ज़रिए दरियाए फुरात में जा बजा डाल दिया गया। ख़लीफ़ए वक़्त वलीद चूंकि खानवादए रिसालत व इमामत के ख़ून का प्यासा था इसलिए जनाबे ज़ैद के एक दूसरे साहबज़ादे जनाबे ईसा बिन ज़ैद की ज़िन्दगी तकय्ये और रूपोशी की हालत में गुज़री। आपने कूफ़ा में आबपाशी का काम शुरू किया और वहीं एक औरत से शादी कर ली लेकिन उससे आपने अपना हसब नसब ज़ाहिर नहीं किया था। उस औरत के बतन से एक बेटी पैदा हुई जो बड़ी होकर शादी के काबिल हुई उसी दौरान आपने एक इन्तेहाई दौलतमन्द और मालदार बेहश्ती के यहां मुलाज़िमत इख़्तेयार कर ली जिसके एक लडका भी था। उस बेहिश्ती ने जनाबे ईसा की बीवी को अपने लड़के का पैगाम दिया। वह खुश हुई कि मालदार घराने से बेटी का रिश्ता आया है। जब जनाबे ईसा घर आए तो बीवी ने कहा, मेरी लड़की की तकदीर चमक उठी क्योंकि मालदार घराने से पैग़ाम आया है। यह सुनकर जनाबे ईसा सख़्त मुतफक्किर हुए उन्होंने खुदा से दुआ की खुदावन्दे आलम ! एक सय्यद की लड़की ग़ैर सय्यद के यहां ब्याही जाए इससे बेहतर है कि तू मेरी लड़की को दुनिया से उठा ले। लड़की बीमार हुई और अचानक उसी दिन इन्तेकाल कर गयी। उसके इन्तेकाल पर आप रो रहे थे कि आपके एक दोस्त ने आपसे कहा, इतने शुजा और बहादुर होकर आप रो रहे हैं। कहा, इसके मरने पर नहीं रो रहा हूं बल्कि मैं अपनी बेबसी पर गिरया कर रहा हूं कि हालात ऐसे हैं कि मैं इससे यह भी न बता सका कि मैं सय्यद और तू सैदानी है।
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इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.)
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इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) सिलसिला-ए-इस्मत की सातवीं कड़ी पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के पांचवे जानशीन और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के साहबज़ादे थे। आपकी विलादत यकुम रजबुल मुरज्जब सन् 57 हिजरी को शबे जुमा उम्मे अब्दुल्लाह फ़ातिमा बिन्ते इमाम हसन (अ.स.) के बतने मुबारक से मदीना-ए-मुनव्वरा में हुई।
अल्लामा मजलिसी (र.ह.) फ़रमाते हैं कि विलादत के बाद आपको हज़रत आदम (अ.स.) की तरह तीन बार छींके आईं, उसके बाद आपने आसमान की तरफ रूख किया और हम्दे ख़ुदा की। आप नाफ़ बुरीदा, ख़तना शुदा और जुमला आलाईशों से पाक व साफ़ मुतविल्लद हुए।
ओलमा का यह मुतफे़क्क़ा बयान है कि आप मां और बाप दोनों की तरफ से अलवी और नजीबुल तरफै़न थे। यह नसबी शरफ और किसी को नहीं मिला। अल्लामा इब्ने हजर मक्की फ़रमाते हैं कि आप इल्म व जोहद और इबादत व रियाज़त में अपने वालिद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की जीती जागती तस्वीर थे। मुहम्मद बिन तलहा शाफ़ई का कहना है कि आप इल्म व अमल, जोहद व तक़वा परहेज़गारी व तहारते नफ़्स और दीगर महासिन व फ़ज़ाएल में इस ऊरुज व मंज़िलत पर फाएज़ थे कि यह तमाम सिफात उनकी तरफ इन्तेसाब से मुम्ताज़ करार पाए। साहबे रौजतुस-सफा का बयान है कि आपके फ़ज़ाएल कलम बन्द करने के लिए एक अलाहिदा किताब दरकार है।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
“लौहे महफूज़” और पैग़म्बरे इस्लाम की तअय्युन के मुताबिक आपका इस्मे गिरामी “मुहम्मद” और कुन्नियत “अबुजाफ़र” थी। अलक़ाब में बाक़िर, हादी और शाकिर वग़ैरा ज़्यादा मशहूर हैं। आपको बाक़िर के लक़ब से इसलिए मुलक्क़ब किया गया कि आपने उलूम व मअरिफ़ को नुमायाँ किया और एहकाम व हिक्मते इलाही के वह सरबस्ता रुमूज़ आशकार किए जो फ़िक्रे इन्सानी की निगाहों से पोशीदा थे। जौहरी का बयान है कि “तवस्सो फिल इल्म” को बकरा कहते हैं इसीलिए इमाम मुहम्मद बिन अली (अ.स.) को बाक़िर के लकब से मुलक़्क़ब किया गया। इब्ने जौज़ी का कहना है कि कसरते सजूद की वजह से चूंकि आपकी पेशानी वसी थी इसलिए आपको बाक़िर कहा जाता है और एक वजह यह भी थी कि जामियत इल्मिया की बिना पर आपको यह लकब दिया गया। शहीदे सालिस अलैहिर्रहमा का कहना है कि आँहज़रत (स.अ.) ने इरशाद फ़रमाया है कि इमाम मुहम्मद बाक़िर उलूम व मअरिफ़ को इस तरह शिगाफ़्ता कर देंगे जिस तरह ज़िराअत के लिए ज़मीन शिगाफ़्ता की जाती है।
इबादत गुज़ारी
आप अपने आबा व अजदाद की तरह इबादत गुज़ार थे। आपकी रातें नमाज़ों में और दिन रोज़ों की हालत में गुज़रते थे। मुकम्मल तौर पर आपकी ज़िन्दगी जाहिदाना थी। हमेशा बोरिए पर बैठते थे। जो हदिया आता था उसे फुकरा व मसाकीन पर तक़सीम कर देते थे। ग़रीबों पर बेहद शफ़क़त व मेहरबानी फ़रमाते थे। सब्र व शुक्र, तवाज़ो और फ़रुतनी और करम नवाज़ी व सिलए रहमी वग़ैरा में अपनी मिसाल आप थे। आप फ़क़ीरों की बड़ी क़द्र करते थे, उन्हें अच्छे नामों से याद फ़रमाते थे। आपके दर से कोई फ़क़ीर खाली नहीं जाता था। आप हर जुमे को एक दीनार सदका देते थे और फ़रमाते थे कि जुमे के दिन का दिया हुआ सदका कई गुना हो जाता है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) का सलाम
मुवर्रिख़ीन का बयान है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) एक दिन इमाम हुसैन (अ.स.) को अपनी गोद में लिए हुए प्यार कर रहे थे कि इसी अस्ना में आपके सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी हाज़िरे ख़िदमत हुए। उन्हें देखकर आँँहज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया, ऐ जाबिर ! मेरे इस फ़रज़न्द की नस्ल से एक बच्चा पैदा होगा जो इल्म व हिक्मत के ख़ज़ाने लुटायेगा और मेरे नाम पर उसका नाम होगा। ऐ जाबिर! तुम उसका ज़माना पाओगे और उस वक़्त तक ज़िन्दा रहोगे जब तक उसका ज़हूर नहीं होगा। ऐ जाबिर! जब तुम उससे मिलना तो उसे मेरी तरफ़ से सलाम कहना।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के इस पैग़ाम को जाबिर ने अपने हाफ़िज़े में महफूज़ कर लिया और इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की तशरीफ़ आवरी का इन्तेज़ार करने लगे यहां तक कि चश्मे इन्तेज़ार पत्थरा गयी और आंखों का नूर जाता रहा। जब तक बीनाई ने साथ दिया आप महफ़िल महफ़िल, मजलिस मजलिस उन्हें तलाश करते रहे। जब आंखों की रौशनी रूख़्सत हो गयी तो ज़बान से पुकारना शुरू किया और आपकी ज़बान पर हर वक्त इमाम का नाम रहने लगा। इसी आलम में माह व साल गुज़रते रहे, बिलआख़िर वह वक़्त भी आया जब आप पैगामे अहमदी व सलामे मुहम्मदी इमाम तक पहुँचाने में कामयाब हो गए। रावी का बयान है कि हम लोग जाबिर बिन अब्दुल्लाह के पास बैठे हुए थे कि इतने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) तशरीफ लाए। आपके साथ आपके फ़रज़न्द इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) भी थे। इमाम सज्जाद (अ.स.) ने अपने फ़रज़न्द से फ़रमाया कि चचा जाबिर के सर का बोसा दो। उन्होंने तामील की। जाबिर ने उनको अपने सीने से लगाया और कहा, ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.)! आपको आपके जद हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने सलाम कहा है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, ऐ जाबिर ! उन पर और तुम पर मेरी तरफ़ से भी सलाम हो। उसके बाद जनाब जाबिर ने आपसे अपनी शिफाअत के लिए ज़मानत की दरख़्वास्त की। आपने मंजूर फ़रमाया और कहा कि मैं तुम्हारे जन्नत में जाने का ज़ामिन हूं।
बचपन का हज
अल्लामा जामी रक़म तराज़ हैं कि रावी का बयान है कि मैं एक मर्तबा हज्जे बैतुल्लाह के लिए जा रहा था कि मेरा गुज़र एक ख़तरनाक और तारीक जंगल से हुआ। मैं आराम की ग़रज़ से एक दरख़्त के नीचे बैठ गया। अभी थोड़ा वक़्फ़ा गुज़रा था कि अचानक एक सात बरस का बच्चा मेरे क़रीब आकर ठहर गया और उसने मुझे सलाम किया। जवाबे सलाम देने के बाद मैंने उससे पूछा कि आप इस पुरख़तर जंगल में तन्हा किधर जाने का इरादा है, नीज़ आपके पास ज़ादे राह क्या है? उसने इन्तेहाई मतानत आमेज़ लहजे में जवाब दिया कि मैं ख़ुदा की तरफ से आ रहा हूं और उसकी तरफ़ जाने का इरादा है। सुनो, मेरा ज़ादे राह तक़वा है। मैंने नाम व नसब की सराहत चाही तो फ़रमाया कि मैं अरबी-उन-नस्ल और कुरैशी हूं। मेरा नाम मुहम्मद बिन अली बिन हुसैन बिन अली बिन अबीतालिब (अ.स.) है। यह कहक़र वह बच्चा नज़रों से गाएब हो गया। फिर पता न चला कि वह आसमान की तरफ परवाज़ कर गया या ज़मीन में समा गया।
शाहाने वक़्त
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) मुआविया बिन अबू सुफ़ियान के अहदे हुकूमत में मुतवल्लिद हुए। सन् 60 हिजरी से सन् 64 हिजरी तक उसका बेटा यज़ीद बिन मुआविया हुक्मरां रहा। उसके मरने के बाद सन् 64 हिजरी में मुआविया बिन यज़ीद और मरवान बिन हक़म ने हुकूमत की। सन् 65 हिजरी से 86 हिजरी तक मरवान का बेटा अब्दुल मलिक तख़्ते इक़्तेदार पर मुतमक्किन रहा, सन् 86 हिजरी से सन् 66 हिजरी तक वलीद बिन अब्दुल मलिक बादशाह रहा। उसी ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को ज़हर दिया। उसके बाद सुलेमान बिन अब्दुल मलिक, उमर बिन अब्दुल अज़ीज़, यजीद बिन अब्दुल मलिक, और हश्शाम बिन अब्दुल मलिक बादशाहे वक़्त रहे।
इल्मी हैसियत
अल्लामा तबरसी का बयान है कि इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) को इल्म ज़ोहद और शरफ़ में तमाम दुनिया पर फ़ौकियत हासिल थी। इल्मे र्कुआन, इल्मे आसार, इल्मे सुनन और हर किस्म के उलूम व हुक्म में आपसे अफज़ल व बेहतर कोई न था हत्ता कि आले रसूल (स.अ.) में भी अबुल अईम्मा हज़रत अली (अ.स.) के अलावा मुज़ाहिर-ए-उलूम के मामलें में आपका हमसर कोई न हुआ। बड़े-बड़े सहाबा और अज़ीमुल मर्तबत फुकहा व मुम्ताज़ व नुमायां ताबेईन आपके सामने जानूए अदब तह करते थे। आपको जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी के ज़रिए जब रसूल अल्लाह (स.अ.) ने सलाम कहलवाया था तो यह भी फ़रमाया था कि मेरा यह फ़रज़न्द बाक़िरूल उलूम होगा और इल्मी गुत्थियों को इस तरह सुलझायेगा कि दुनिया हैरत ज़दा रह जाएगी।
अल्लामा शेख मुफ़ीद और अल्लामा शिबलन्जी का कहना है कि इल्मे दीन, इल्मे हदीस, इल्मे सुनन, इल्मुल सीरत तफ़सीरे र्कुआन और फ़नून व अदब वग़ैरा के जितने ज़ख़ीरे इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की ज़ाते अक़दस से ज़ाहिर हुए इतने इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) की औलादों में किसी के ज़रिए ज़हूर पज़ीर नहीं हुए।
अल्लामा इब्ने हजर मक्की फ़रमाते हैं कि आपके इल्मी फु़यूज़ व बरकात और कमालात व एहसानात से उस शख़्स के अलावा जिसकी बसीरत ज़ाएल हो गयी हो, जिसका दिमाग ख़राब हो गया हो और जिसकी तीनत व तबियत फासिद हो गयी हो, कोई शख़्स इन्कार नहीं कर सकता। आपके जोहद व तक़वा, उलूम व मआरिफ़, इबादात व रियाज़ात और आपके हिदायात व कलमात इस कसरत से हैं कि उनका एहसास नामुम्किन है। इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) का खुद इरशाद है कि हमें हर चीज़ का इल्म दिया गया है और परिन्दों व ताएरों तक की ज़बानें सिखाई गयी हैं।
रौज़तुस सफा में है कि इमाम ने फ़रमाया, ख़ुदा की क़सम ! हम ज़मीन व आसमान पर ख़ाजिने इल्म और ख़ुदा की हुज्जत हैं। हम ही शजर नबूव्वत व मअदिने हिक्मत हैं। वह्ी हमारे घर में नाज़िल हुई और फ़रिश्ते हमारी चौखट पर आते रहे। यही वजह है दुनिया के अरबाबे इक़्तेदार हम से हसद रखते हैं।
लिसानुल वाएज़ीन में अबु मरियम अब्दुल ग़फ़्फ़ार से रिवायत है कि मैं एक दिन इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ परदाज़ हुआ कि मौला! कौन सा इस्लाम बेहतर है? फ़रमाया, जिससे किसी मोमिन को तकलीफ़ न पहुंचे। फिर पूछा, कौन से ख़ुल्क बेहतर है? फ़रमाया सब्र करना और माफ़ कर देना। फिर पूछा कौन सा मोमिन कामिल है? फ़रमाया जिसके अख़्लाक बेहतर हों। पूछा कौन सा जिहाद बेहतर है? फ़रमाया, जिसमें जिस्म का सारा खून बह जाए। पूछा कौन सी नमाज़ बेहतर है? फ़रमाया, जिसका कुनूत तवील हो। पूछा, कौन सा सदका बेहतर है? फ़रमाया जिसके देने से नाफ़रमानी व सरकशी से निजात हासिल हो। फिर पूछा, दुनियावी ताजदारों के पास आने जाने और उनकी सोहबत में बैठने के बारे में आपका क्या हुक्म है? फ़रमाया, मैं इसे अच्छा नहीं समझता क्योंकि बादशाहों के पास आमदो रफ़्त से इन्सान में दुनियावी मोहब्बत, मौत से फरामोशी का जज़्बा और रिज़ाए इलाही की किल्लत पैदा होती है। कहा, फिर मैं न जाऊँ? फ़रमाया, मैं तलबे दुनिया से मना नहीं करता, अलबत्ता गुनाह तलबी से ज़रूर रोकता हूं।
हिदायत व इरशादात
मुहम्मद बिन तलहा शाफई ने इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की हिदायत व फरामूदात व इरशादात की जो मुख़्तसर फ़ेहरिस्त मतालिबुल सुऊल में नक़्ल की है वह मुन्दर्जा जै़ल हैः
(1) दुनिया के बारे में इमाम (अ.स.) का इरशाद है कि दुनिया की तरफ़ से बेनियाज़ रहो क्योंकि दुनिया एक छोड़ी हुई सवारी, उतरा हुआ कपड़ा और इस्तेमाल की हुई औरत के मानिन्द है। मोमिन कभी उसकी. चमक दमक से मुतअस्सिर नहीं होता न उसकी कोशिश उसे अपनी तरफ़ मुतावज्जे कर सकती है।
(2) मोमिन के बारे में फ़रमाया कि मोमिन को तक़वा इख़्तेयार करना चाहिए क्योंकि वह उसे हर वक़्त मुतनब्बे और बेदार रखता है।
(3) गुरूर व तकब्बुर के बारे में फ़रमायाः गुरूर व तकब्बुर बुरी शय है यह इन्सान की अक़ल को घटाता है।
(4) एक हज़ार आबिदों से वह एक आलिम बेहतर है जो अपने इल्म से लोगों को फ़ाएदा पहुंचा रहा हो।
(5) मेरे चाहने वाले वह लोग हैं जो अल्लाह की इताअत करते हैं।
(6) आंसूओं की बड़ी क़ीमत है, रोने वाला बख़्शा जाता है और जिसके रूख़्सार पर आंसू होते हैं वह कभी रूसवा नहीं होता।
(7) सुस्ती और काहिली या ज़्यादा तेज़ी बुराईयों की कुंजी है।
(8) दुआ से क़ज़ा भी टल जाती है।
(6) नेकी बेहतरीन ख़ैरात है।
(10) बदतरीन ऐब वह है कि इन्सान को दूसरी की आंख का तिन्का तो दिखाई दे और अपनी आंख की शहतीर नज़र न आए, यानी दूसरों के छोटे-छोटे ऐब तो दिखाई दें मगर अपने बड़े-बड़े गुनाहों की परवाह न हो।
(11) वह बदतरीन इन्सान है जो दूसरों को अमल की तरग़ीब दे और खुद अमल से आरी हो।
(12) जो खुशहाली में तुम्हारा साथ दे और तंगदस्ती की हालत में तुम से दूर रहे वह तुम्हारा दोस्त नहीं हो सकता।
अल्लामा शिबलन्जी रक़म तराज़ हैं कि इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया:-
(1) जब कोई नेअमत मयस्सर हो तो कहोः अलहम्दु लिल्लाह और जब कोई तकलीफ पहुंचे तो कहोः ला हौ-ल वला कूव्व-त इल्ला बिल्लहि और जब रोज़ी तंग हो तो कहो अस्तग़फ़िरुल्लाह।
(2) दिल को दिल से राह होती है। जितनी मुहब्बत तुम्हारे दिल में होगी उतनी ही तुम्हारे भाईयों और दोस्तों के दिल में होगी।
(3) तीन चीजें खुदा ने तीन चीज़ों में पोशीदा रखी हैं। अव्वल अपनी रज़ा अपनी इताअत में दूसरे अपनी नाराज़गी अपनी मासियत में और तीसरे अपनी दोस्ती अपने वली में। यानि किसी की फ़रमांबरदारी को हक़ीर न समझों मुम्किन है इसी में ख़ुदा की रज़ा हो, किसी गुनाह को मामूली न जानों मुम्किन है खुदा उससे नाराज़ हो जाए और किसी शख़्स को हक़ीर न समझो मुम्किन है कि वही अल्लाह का वली हो।
अहादीस अईम्मा में है कि इमाम (अ.स.) ने फ़रमायाः
(1) इन्सान को जितनी अक़ल दी गयी है उसी के मुताबिक क़यामत में उससे सवाल व जवाब होगा
(2) एक नफा पहुंचाने वाला आलिम सत्तर हज़ार आबिदों से बेहतर है।
(3) इल्म की ज़कात यह है कि दूसरों को तालीम दी जाए।
(4) र्कुआने मजीद के बारे में तुम जितना जानते हो इतना ही बयान करो।
(5) इल्म हासिल करने के बाद उसे फैलाओ, इसलिए कि उसे महदूद रखने से शैतान का ग़लबा होता है।
(6) मोअल्लिम और मुतअल्लिम का सवाब बराबर है।
(7) दीनी रास्ता दिखाने वाला और रास्ता पाने वाला दोनों सवाब की मीज़ान में बराबर हैं।
(8) जाते इलाही वह है जो अक़ल इन्सानी में समा न सके।
(9) ख़ुदा हमेशा से है और हमेशा रहेगा।
(10) ख़ुदा की ज़ात के बारे में बहस न करो वरना हैरान हो जाओगे।
(11) ज़मीन हुज्जते ख़ुदा के बग़ैर बाकी नहीं रह सकती।
(12) ख़ुदा की जात फ़हम व इदराक से बालातर है।
(13) इमाम के बग़ैर उम्मत की मिसाल उस भेड़ के गल्ले की सी है जिसका कोई निगरां न हो।
(14) मौत की दो किस्में हैं, एक महतूम, दूसरे मौकूफ़। दूसरी से खुदा के सिवा कोई वाक़िफ़़ नहीं है।
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) से रूह की हक़ीक़त व माहियत के बारे में पूछा गया तो आपने फ़रमाया, रूह हवा के मानिन्द मुतहर्रिक है और यह रीह से मुश्तक है। हम जिन्स होने की वजह से इसे रूह कहा जाता है। यह रूह जो जानदारों की ज़ात के साथ मख़सूस है तमाम रीहों से पाकीज़ा तर है। रूह मख़लूक और मसनूअ है और एक जगह से दूसरी जगह मुन्तकिल होने वाली है। वह ऐसी लतीफ़ शय है। जिसमें न किसी क़िस्म की गरानी व संगीनी है और न सुबकी। वह एक बारीक और रफीक़ शय है जो कालिब कसीफ में पोशीदा है और उसकी मिसाल उस मश्क जैसी है जिसमें हवा भर दो तो वह फूल जाएगी लेकिन उसके वज़न में इजाफा न होगा। रूह बाकी रहती है और जिस्म से निकल जाने के बाद भी फना नहीं होती, अलबत्ता नफ़ख़े सूर के बाद यह फ़ना हो जाएगी।
जामी ने लिखा है कि इन्सानों की तरह जिन्न भी आपसे अमली फाएदा उठाया करते थे। चुनांचे रावी का बयान है कि इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) को एक दिन मैंने बारह अजनबी चेहरों के झुरमुट में देखा तो पूछा कि यह कौन लोग हैं? आपने फ़रमाया कि यह जिन्न हैं जो मेरे पास शरई मसाएल मालूम करने की ग़रज़ से अकसर आते रहते हैं।
हुबाबा वालिया ने रिवायत की है कि मैंने एक शख़्स को “बाब” और “हजर” के दरमियान एक बुलन्द मक़ाम पर देखा। लोग उससे पेचीदा मसाएल पूछ रहे थे और मुश्किलात का हल दरयाफ़्त कर रहे थे। वह उस वक़्त वहां से न उठे जब तक हज़ार सवालों के जवाब न दे चुके। जब उठ कर अपनी क़यामगाह की जानिब रवाना हुए तो एक मुनादी बुलन्द आवाज़ में कह रहा था, लोगों! यह “नूरे रौशन” है। उधर कुछ लोग कह रहे थे कि यह कौन है? बाज़ लोगों ने जवाब दिया, यह मुहम्मद बिन अली बाक़िर हैं जो उलूम की मूशगाफ़ी करने वाले हैं, यह अली बिन हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब (अ.स.) के बेटे मुहम्मद हैं।
हज के अय्याम में इराक, खुरासान और दीगर मक़ामात के हज़ारों मुसलमान आपसे शरई मसाएल का हल पूछते और आपसे इस्लामी तालीमात के हर शोबे से मुतअल्लिक सवालात करते थे। यह सारी बातें अवाम के साथ आपके राबते और मुसलमानों के दिलों में आपके गहरे असर व नफूज़ और आपके साथ लोगों के लगाव की दलील है।
बाज़ शवाहिद से मालूम होता है कि आलमे इस्लाम में आपकी अवामी कयादत गिरोह बन्दियों और क़बाएली इम्तियाज़ की तकसीम कारियों से मावरा थी। आप किसी एक क़ौम या जमाअत के रहबर न थे बल्कि दाएर-ए-इस्लाम में दाख़िल होने वाले नये गिरोह भी आपकी रहबरी का एतराफ़ करते थे और रूहानी तौर पर आपसे मुन्सलिक होते थे।
अवाम के साथ बाहमी लगाव और उनके दरमियान वसीअ असर व नफूज़ का यह मुक़ाम इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) को उनकी कोशिशों और कुर्बानियों के नतीजे में मिला जिनका मुज़ाहिरा मरहले अव्वल के अईम्मा ने किया था।
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) उलूमे इस्लामी के हवाले से आलमे इस्लाम के वाहिद मलजा व मावा थे। आपका मदरसा हज़ारों ओलमा व मुहद्देसीन की तरबियतगाह था। जाबिर जोअफ़ी का बयान है कि अबुजाफ़र (बाक़िर) ने मेरे लिए सत्तर हज़ार अहादीस बयान कीं। मुहम्मद बिन मुस्लिम का कहना है कि जब भी कोई मुश्किल मसअला पेश आता तो मैं इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) से सवाल करता यहां तक कि तीस हज़ार हदीसें आपसे पूछीं।
इब्ने शहर आशोब ने इमाम (अ.स.) से हदीसे नक़्ल करने वालों में बाक़ी माँदा असहाबे रसूल (स.अ.), बड़े बड़े ताबेईन और चीदा-चीदा मुस्लिम फुकहा का नाम लिया है मसलन सहाबा में जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी, ताबेईन में जाबिर जोअफी और कीसान, सख़्तियानी, फुकहा में जहरी और ज़ाई, इमाम अबु हनीफा, इमाम मालिक, इमाम शाफई, ज़्याद बिन मन्ज़र और मुसन्नेफीन में तबरी, बिलाजरी, सलामी और ख़तीब जैसे मुवर्रिख़ीन वग़ैरा।
इस्लामी सिक्कों की इब्तेदा
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की सलाह से अब्दुल मुल्क बिन मरवान ने सन् 75 हिजरी में इस्लामी सिक्का जारी किया। उससे क़ब्ल इस्लामी मुमालिक में ईरान व रोम का सिक्का चलता था।
अल्लामा दमीरी के हवाले से इस तफ़सील का इजमाल यह है कि ज़माना-ए-साबिक़ में जो कागज वग़ैरा मुमालिके इस्लामिया में इस्तेमाल होते थे वह मिस्र में तैयार हुआ करते थे जहां उस वक़्त नसरानियों की हुकूमत थी। वहां के काग़ज़ पर जो ट्रेडमार्क होता था उसमें रोमी ज़बान में “अब, इब्ने और रूहुल कुदस” लिखा होता था। और यही चीज़ हर इस्लामी दौर में राएज थी मगर चूंकि अब्दुल मलिक बड़ा चालाक, ज़हीन और होशियार था लिहाजा उसने तर्जुमा करा के गवर्नर मिस्र को लिखा कि तुम रूमी ट्रेडमार्क को मतरूक व क़दग़न कर दो और आईन्दा तैयार होने वाले कपड़ों और काग़ज़ पर “कलम-ए-तौहीद” का ट्रेडमार्क इस्तेमाल करो। चुनांचे इस हुक्म पर अमल दरआमद किया गया। जब इस नये मार्क का इल्म कै़सरे रोम को हुआ तो उसे बेहद नागवार गुज़रा। उसने तोहफे तहाएफ़ भेजकर अब्दुल मलिक बिन मरवान को लिखा कि काग़ज़ वग़ैरा पर जो ट्रेडमार्क पहले था उसे बदस्तूर जारी रहने दो। अब्दुल मलिक ने उसके तोहफे वापस कर दिए और कोई जवाब न दिया। कैसरे रोम ने तहाएफ़ को दोगुना करके फिर भेजा और लिखा कि तुमने मेरे तहाएफ़ को कम समझ कर वापस कर दिया इसलिए अब इज़ाफ़ा करके भेज रहा हूं इसे कुबूल कर लो और अपना ट्रेडमार्क वापस ले लो। लेकिन अब्दुल मलिक ने फिर वापस कर दिया और कोई जवाब न दिया। तीसरी मर्तबा जब कैसरे रोम का सफीर फिर वापस गया तो तैश में आकर उसने अब्दुल मलिक को लिखा कि तुमने मेरे तहाएफ वापस कर दिए और मेरे किसी खत का जवाब न दिया जिससे अन्दाज़ा होता है कि तुमने हमें ज़लील समझा। मैं क़सम खाता हूं कि अगर तुमने अब भी रोमी ट्रेडमार्क को अज़ सर नौ राएज न किया तो मैं तुम्हारे रसूल (स.अ.) की शान में गालियां दिरहम व दीनार पर नक़श कराके तमाम मुमालिके इस्लामिया में राएज करा दूंगा और तुम कुछ न कर सकोगे।
अब्दुल मलिक बिन मरवान ने जब कैसरे रोम के इस ख़त को पढ़ा तो वह दम बखुद रह गया और उसके हाथ के तोते उड़ गए। उसने फौरन तमाम ओलमा और माहेरीने सियासत को तलब किया और उनसे कहा कि इस मसअले का कोई ऐसा हल तलाश करो कि जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। सभों ने आपसे में सर जोड़ कर काफी देर तक गौर व खौज़ किया लेकिन वह कोई ऐसा हल न निकाल सके जो काबिले अमल क़रार पाता। जब अब्दुल मलिक इन्तेहाई परेशान हुआ तो उसके कर्ब व इज़तेराब को महसूस करते हुए उसके वज़ीरे आज़म इब्ने जंबाअ ने कहा, आप यह जानते हुए कि इस अहम मौके पर इस्लाम की मुश्किल कुशाई कौन कर सकता है, उसकी तरफ रूख क्यों नहीं करते? अब्दुल मलिक ने कहा, खुदा तुमसे समझे, यह क्यों नहीं बताते कि वह कौन है? उसने कहा, मेरा इशारा फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की तरफ़ है। अब्दुल मलिक ने कहा, ख़ुदा की कसम ! तुमने सही रहबरी की है। चुनांचे उसने उसी वक़्त आमिले मदीना को ख़त लिखा कि इस वक़्त इस्लाम पर एक सख़्त मुसीबत आ गयी है और इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) के बगैर इसका दफ़िया मुम्किन नहीं। लिहाजा जिस तरह भी हो सके उन्हें राज़ी करके मेरे पास भेज दो। इस सिलसिले के सारे मसारिफ हुकूमत के ज़िम्मे होंगे।
यह ख़त मदींने इरसाल करने के बाद अब्दुल मलिक ने शहंशाहे रोम के सफ़ीर को नज़र बन्द कर दिया और हुक्म दिया कि जब तक मैं इस मसअले को हल न कर सकूं इसे जाने न दिया जाए।
चूंकि शाहे रोम की तरफ से यह मामला इस्लाम की तज़लील और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की इहानत का था इसलिए अब्दुल मलिक का ख़त दस्तयाब होते ही अपनी अज़ीम ज़िम्मेदारियों के तहत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) उठ खड़े हुए और मदीने से रवाना होकर अब्दुल मलिक के दरबार में पहुंच गए। इस्तेक़बाल के बाद उसने सारा वाक़िआत और अपना मुद्दआ बयान किया। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, इस मसअले का हल इन्तेहाई आसान है। तुम इसी वक़्त कारीगरों और हक्क़ाक़ को जमा करो और उनसे दिरहम व दीनार ढ़लवा कर मम्लेकते इस्लामिया में राएज करो। उसने पूछा, उनकी शक्ल व सूरत क्या होगी? फ़रमाया, सिक्के के एक तरफ कलम-ए-तौहीद और दूसरी तरफ पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) का इस्मे मुबारक और सन् हिजरी लिखा जाए। उसके बाद इमाम (अ.स.) ने उसके औज़ान बताए और फ़रमाया कि दिरहम के तीन सिक्के उस वक़्त राएज हैं, एक बग़ली जो दस मिसकाल के होते हैं। दूसरे समरी जो छः मिसकाल के हैं और तीसरा सिक्का पांच मिसकाल का है। यह तीनों सिक्के मिलाकर 21 मिसकाल हुए। उसको तीन पर तक़सीम कर दिया जाए तो हासिल तकसीम सात मिसकाल पर तमाम होगा। उसी सात मिसकाल के दस दिरहम बनाओ और उसी सात मिसकाल के सोने की क़ीमत के दीनार तैयार कराओ जिसका खुर्दा दस दिरहम कार पाए। दिरहम का नक़्श चूंकि फ़ारसी में है। लिहाज़ा इसे फ़ारसी ही में रहने दो और दीनार का सिक्का रोमी हुरूफ़ में कन्दा है लिहाज़ा इसे रोमी ज़बान में ही कन्दा कराओ और ढालने की मशीन शीशे की होना चाहिए ताकि सब सिक्के हम वज़न तैयार हो सकें।
अब्दुल मलिक ने आपके हुक्म के मुताबिक जब सिक्के ढ़लवा लिए और रात दिन की मेहनत से जब सारे इन्तेजामात मुकम्मल हो गए तो वह इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और दरयाफ़्त किया कि अब क्या करूं? आपने फ़रमाया कि इन सिक्कों को तमाम ममालिके इस्लामिया में राएज कर दो और उसके साथ ही एक सख़्त हुक्म नाफ़िज़ कर दो कि तमाम रोमी सिक्के ख़िलाफ़े कानून करार दिए गए हैं, उनकी जगह उन्हें नये इस्लामीं सिक्कों को इस्तेमाल किया जाए और जो शख़्स इस हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेगा उसे सख़्त सजा दी जाएगी और इस सज़ा में क़त्ल की सज़ा भी शामिल होगी।
अब्दुल मलिक ने इमाम (अ.स.) के इस मशविरे पर अमल के बाद शहंशाह रोम के सफीर को रिहा कर दिया और उससे कहा कि अपने बादशाह से कह देना कि हमने अपने सिक्के ढ़लवा कर राएज कर दिए हैं और तुम्हारे सिक्कों को गैर कानूनी करार दे दिया है, अब तुम से जो बन पड़े वह कर लो।
सफीर रिहा होकर जब कैसरे रोम के पास पहुंचा और उसने सारे वाक़िआत बयान किए तो वह हैरत ज़दा रह गया और बड़ी देर तक सोचता रहा। लोगों ने कहा ऐ बादशाह! तूने तो कहा था कि मुसलमानों के पैग़म्बर (स.अ.) की शान में सिक्कों पर गालियां कन्दा कराऊँगा, अब इस पर अमल क्यों नहीं करते? उसने कहा, अब गालिया कन्दा कराके क्या करूं, सारे मनसूबे पर पानी फिर गया, अब मुसलमानों के मुमालिक में मेरा सिक्का नहीं चलता।
आले रसूल (स.अ.) पर वलीद के मज़ालिम
अब्दुल मलिक बिन मरवान के मरने के बाद सन् 86 हिजरी में जब उसका बेटा वलीद हुक्मरां हुआ तो पांच बरस बाद सन् 91 हिजरी में वह हज की ग़रज़ से मक्के आया और फिर हज से फारिग होकर मदीने पहुंचा। वहां एक दिन वह मिम्बरे रसूल (स.अ.) से खुतबा दे रहा था कि अचानक उसकी नज़र हज़रत इमाम हसन (अ.स.) के साहबजादे हसन मुसन्ना पर पड़ी जो खान-ए-फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) में बैठे हुए थे। खुतबे से फराग़त के बाद उसने मदीने के वाली उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ को तलब किया और उनसे कहा कि तुमने ख़ानवाद-ए-रिसालत के अफ़राद को अब तक उस मकान में क्यों रहने दिया और निकाल बाहर क्यों नहीं किया? उन लोगों से यह मकान ख़ाली करा लो और उन्हें कुछ मुआवेजा देकर उसे मस्जिद में शामिल कर लो। आईन्दा उन लोगों को मैं इस घर में न देखूं। आले मुहम्मद (स.अ.) ने घर छोड़ने से इन्कार किया। इस पर वलीद ने हुक्म दिया कि मकान को उन लोगों पर गिरा दो। लोगों ने ज़बर्दस्ती सामान निकाल कर फेंकना और उजाड़ना शुरू कर दिया। मजबूरन यह खानवादा घर से निकल कर बैरूने मदीना सुकूनत पज़ीर हुआ। कुछ दिनों के बाद यही बर्ताव हफ़सा बिन्ते उमर के साथ करना चाहा मगर जब इसकी इत्तेला वलीद को हुई तो उसने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ को लिखा कि औलादे उमर की रज़ा जूई को मलहूज़ खातिर रखो, अगर वह मकान छोड़ने पर राज़ी नहीं हैं तो उन पर किसी तरह का दबाव डालने की ज़रूरत नहीं है।
सन् 96 हिजरी में जब वलीद मर गया तो उसका भाई सुलेमान बिन अब्दुल मलिक तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुआ और दो साल आठ माह की बादशाही के बाद दुनिया से रूख़्सत हो गया। यह वह ज़माना था कि हज़रत अली (अ.स.) के नाम पर अगर किसी बच्चे का नाम रखा जाता था तो वह क़त्ल कर दिया जाता था। सन् 99 हिजरी में जब उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ख़लीफ़ा हुआ तो उसके दौर में ख़ानवाद-ए- रिसालत के लोगों को कद्रे सुकून मयस्सर रहा। ख़लीफ़ा होते ही उसने उस बिदअत को जो सन् 41 हिजरी से बनी उमय्या ने हज़रत अली (अ.स.) पर सब्बो-शतम की सूरत में जारी कर रखा था, अपने सुल्तानी फ़रमान के ज़रिए रोक दिया और खुम्स बनी हाशिम को देना शुरू कर दिया। उसी ने अपने अहदे गवर्नरी में बागे फ़िदक इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को वापस किया था जैसा कि तहरीर किया जा चुका है। उसके बाद सन् 101 हिजरी में यज़ीद बिन अब्दुल मलिक और फिर सन् 105 हिजरी में हश्शाम बिन अब्दुल मलिक बादशाहे वक़्त मुकर्रर हुआ। हश्शाम बिन अब्दुल मलिक इन्तेहाई खुदसर, सरकश, हरीस, मुतअस्सिब, सख़्त मिजाज, चालबाज़, कज़-रु और कमज़र्फ़ फ़रमां रवा था। यह हद दर्जा मतलून और शक्की था। कभी किसी पर भरोसा या किसी का एतबार नहीं करता था। अकसर सिर्फ शक व शुब्हे की बिना पर अपने मुलाज़िमों को क़त्ल करा देता था। हुकूमत के अहम ओहदों पर यह उन्हीं लोगों को फाएज़ करता था जो खुशामदी हों। चुनांचे उसने खालिद बिन अब्दुल्लाह कसरी को सन् 105 हिजरी से सन् 120 हिजरी तक पन्द्रह साल मुसलसल इराक़ का गवर्नर रखा। कसरी का हाल यह था कि वह हश्शाम को रसूलुल्लाह (स.अ.) से अफ़ज़ल कहता था और इसी बात का प्रोपेगण्डा भी करता था।
हश्शाम बिन अब्दुल मलिक आले मुहम्मद (स.अ.) का बदतरीन दुश्मन था। उसी ने ज़ैदे शहीद को निहायत बेदर्दी से क़त्ल कराया था और उसी ने अपने ज़माना-ए-वली अहदी में फ़रज़दक शाएर को इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की मदह के जुर्म में असकलान के मक़ाम पर कैद किया था जैसा कि हम तहरीर कर चुके हैं।
तख़्ते सल्तनत पर बैठने के बाद हश्शाम हज की ग़रज़ से मक्के गया। वहां उसने इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) को देखा कि मस्जिदुल हराम में तशरीफ फ़रमां हैं और लोगों को पन्द व नसीहत से बहरावर कर रहे हैं। यह देखकर दुश्मनी ने उसके दिल में अंगड़ाई ली। उसने सोचा कि इमाम (अ.स.) को ज़लील करे चुनांचे इसी ख़्याल के तहत उसने अपने फरिस्तादे से कहा कि जाकर मुहम्मद बिन अली (अ.स.) से कहो कि ख़लीफ़ा पूछ रहे हैं कि हश्र के दिन आख़िरी फैसले से क़ब्ल लोग क्या खाएंगे। उसने जाकर इमाम (अ.स.) के सामने ख़लीफ़ा का यह सवाल पेश किया। आपने फ़रमाया जहां हश्र व नश्र होगा वहां मेवों के दरख्त भी होंगे, वह लोग उन्हीं चीज़ों का इस्तेमाल करेंगे। हश्शाम ने जवाब सुनकर कहा, यह बिल्कुल गलत है क्योंकि हश्र में लोग अपनी अपनी मुसीबतों और परेशानियों में मुब्तिला होंगे। उनको खाने पीने का होश कहाँ होगा? फरिस्तादे ने हश्शाम की यह गुफ़्तुगू जब इमाम (अ.स.) के सामने नक़्ल की तो आपने उससे फ़रमाया कि अपने ख़लीफ़ा से पूछो कि तुमने र्कुआन भी पढ़ा है या नहीं? क्या र्कुआन में यह नहीं है कि जहन्नुम वाले जन्नत वालों से कहेंगे कि हमें पानी और कुछ नेअमत दे दो कि हम भी खा पी लें, उस वक़्त वह जवाब देंगे कि काफ़िरों पर जन्नत की नेअमतें हराम हैं तो जब जहन्नुम में भी लोग खाना पीना नहीं भूलेंगे तो हश्र व नश्र में कैसे भूल जाएंगे जहां जहन्नुम से कम सख़्तियां होंगी और वह उम्मीद व बीम की हालत में जन्नत व दोज़ख़ के दरमियान होंगे। यह सुनकर हश्शाम कोई जवाब न दे सका और वह खुद अपनी नज़रों में जलील हो गया।
असीरी और रिहाई
अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा और सय्य्यद इब्ने ताऊस का मुशतरेका बयान है कि अपने अहदे हुकूमत के आख़िरी अय्याम में जब हश्शाम बिन अब्दुल मलिक हज्जे बैतुल्लाह के लिए जब मक्के आया तो वहां इमाम बाक़िर (अ.स.) और उनके जॉनशीन इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) भी मौजूद थे। एक दिन इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) ने मजमए आम में एक ख़ुतबा इरशाद फ़रमाया जिसमें दीगर बातों के अलावा यह भी फ़रमाया कि हमीं रूए ज़मीन पर ख़लीफ़ए खुदा उसकी हुज्जत हैं, हमारा दोस्त जन्नत की नेअमतों से बहरावर होंगा और हमारा दुश्मन जहन्नुम में जाएगा
इस खुतबे की इत्तेला हश्शाम को दी गयी। वहां तो वह ख़ामोश रहा लेकिन जब हज से फ़रागत हासिल करके वापस दमिश्क़ पहुंचा तो उसने हाकिमे मदीना को यह फ़रमान जारी किया कि जैसे भी मुम्किन हो मुहम्मद (अ.स.) बिन अली (अ.स.) और जाफ़र (अ.स.) बिन मुहम्मद (अ.स.) को मेरे पास फ़ौरन रवाना करो। चुनांचे यह दोनों बाप बेटे दमिश्क पहुंचे। पहले तो तीन दिन तक हश्शाम ने आपसे मुलाक़ात ही नहीं की, चौथे दिन उन्हें भरे दरबार में तलब किया गया। जब यह दाख़िले दरबार हुए तो हश्शाम ने इमाम बाक़िर (अ.स.) से कहा कि मैं आपकी तलबी का मक़सद बाद में बताऊँगा पहले आप हमारे तीर अन्दाज़ों के साथ तीर अन्दाज़ी का मुकाबला करें। इस बेहूदा हरकत के ज़रिए हश्शाम को इमाम (अ.स.) की तौहीन व तज़लील मक़सूद थी। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि अब मैं ज़ईफ़ हो चुका हूं लिहाज़ा इस शुग़ले तिफलाना से मुझे माफ़ करो। उसने कहा यह नामुम्किन है, जो मेरा हुक्म है उस पर आपको अमल करना ही होगा। फिर उसने एक तीर व कमान आपको दिलवा दी। ग़रज़ कि उसके इसरार पर मजबूर होकर इमाम (अ.स.) ने मुसलसल कई तीर चलाए जो एक दूसरे को चीरते हुए ठीक निशाने पर पड़ते रहे। तीर अन्दाज़ी का यह फ़न देखकर हश्शाम हैरान व शशदर रह गया।
उसके बाद इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ हश्शाम! याद रख, हम मअदिने रिसालत हैं, हमारा मुक़ाबला किसी अम्र में कोई नहीं कर सकता और न हम किसी के ज़लील करने से ज़लील होते हैं। ख़ुदावन्दे आलम ने हमें जो इज़्ज़त व फज़ीलति दी है उसमें हम मुनफरिद हैं।
इमाम (अ.स.) की इस बात पर हश्शाम आपे से बाहर हो गया और उसके दिल में गैज़ व ग़ज़ब की आग यहां तक भड़की कि उसने उसी वक़्त इमाम (अ.स.) को कैद करने का हुक्म दे दिया और इमाम (अ.स.) अपने साहबज़ादे के हमराह कैदखाने में डाल दिए गए।
कैदखाने में दाख़िले के बाद इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने कै़दियों के रूबरू हश्शाम और उसके जुल्म व इस्तेबदाद के ख़िलाफ़ वह तक़रीर की कि कैदखाने के अन्दर एक ऐसा कोहराम बरपा हो गया जिसने बाहर के लोगों को भी अपनी लपेट में ले लिया। यह सूरतेहाल देखकर कैदख़ाने का निगेहबान घबराया हुआ हश्शाम की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उसने कहा, अगर मुहम्मद (अ.स.) बिन अली (अ.स.) को कैदखाने में रखा गया तो सारी ममलेकत का निज़ाम दरहम बरहम हो जाएगा। क्योंकि जो तकरीर उन्होंने कैदियों के सामने की है उसका असर बाहर के लोगों पर भी पड़ रहा है, नीज़ उनके कैद किए जाने पर अवाम में हुकूमत के ख़िलाफ़ बरंहमी व बरगश्तगी की एक लहर उठ खड़ी हुई।
यह सुनकर हश्शाम ख़ौफ़ज़दा हुआ और उसने आपकी रिहाई का हुक्म दे दिया लेकिन उसके साथ ही उसने इब्राहीम बिन अब्दुल मलिक वाली-ए-मदीना को एक ख़त भी लिखा कि इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) जब वारिदे मदीना हों तो किसी तरकीब से उन्हें ज़हर दिलवा दो। और मेरे इस ख़त को सीग़ए राज़ में रखो।
वालिए मदीना ने हश्शाम के ख़त को सीग़ए राज़ में रखा और मौक़ा व महल देखकर इमाम (अ.स.) को उसने एक दिन दारूल अमारा में तलब किया। जब आप तशरीफ लाए तो शरबत के ज़रिए उसने ज़हर आपके जिस्म में दाख़िल कर दिया जिसके नतीजे में बतारीख 7 ज़िलहिज्जा सन् 114 हिजरी को दोशम्बे के दिन मदीना-ए-मुनव्वरा में आपकी शहादत हो गयी।
अपनी शहादत से क़ब्ल आपने तमाम उलूम व असरारे इमामत इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) को वदियत किए और फ़रमाया कि मेरी कब्र चार उंगल से ज़्यादा ऊँची न रखना। उसके बाद आपकी रूह जिस्मे अतहर से परवाज़ कर गयी।
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने आपको गुस्ल व कफ़न दिया, नमाज़े जनाज़ा पढ़ी और जन्नतुल बक़ी में सुपुर्दे खाक कर दिया। वक्ते शहादत आपकी उम्र 57 साल की थी। मगर अफ़सोस कि 8 शव्वाल सन् 1343 हिजरी को अब्दुल अज़ीज़ बिन शाह सऊद मलऊन ने आपकी कब्र मुतह््हर को मिस्मार व मुन्हदिम कर दिया। इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन
अज़वाज व औलादें
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की चार बीवियों से सात औलादें पैदा हुईं। उम्मे फ़रवा बिन्ते कासिम बिन मुहम्मद बिन अबू बक्र के बतन से हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और अब्दुल्लाह फतेह मुतवल्लिद हुए। उम्मे हकीम बिन्ते असद बिन मुग़ीरा के बतन से इब्राहीम व अब्दुल्लाह पैदा हुए। लैला के बतन से अली और ज़ैनब की विलादत हुई और आपकी चौथी बीथी जिनका नाम भी उम्मे फ़रवा था, उनके बतन से एक साहबज़ादी सलमा मुतवल्लिद हुईं।
ओलमा व मुवर्रिख़ीन का बयान है कि आपकी नस्ल इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) से चली क्योंकि उनके अलावा और किसी बेटे से कोई औलाद नहीं हुई।
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इमाम जाफ़र सादिक़़ (अ.स.)
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इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) अब्दुल मलिक बिन मरवान के अहदे इस्तेबदाद में बतारिख़ 17 रबीउल अव्वल सन् 83 हिजरी (सन् 702 ई0) को दोशम्बे के दिन जनाबे उम्मे फ़रवा बिन्ते कासिम बिन मुहम्मद बिन अबू बक्र के बतन से मदीना-ए-मुनव्वरा में पैदा हुए। आपकी तारीख़े विलादत बड़ी फजीलतों की हामिल है। अहादीस में है कि इस तारीख को रोज़ा रखना एक साल के रोज़ों के बराबर है।
आपका इस्मे गिरामी “जाफ़र” कुन्नियत अबु अब्दुल्लाह, अबु इस्माईल और अलक़ाब सादिक़़, साबिर, फाज़िल और ताहिर वग़ैरा हैं। अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा रकम तराज़ हैं कि आँँहज़रत (स.अ.) ने अपनी ज़िन्दगी ही में आपको सादिक़़ के लक़ब से मुलक़्क़ब फ़रमाया और इसकी वजह यह थी कि अहले आसमान के नज़दीक आपका लक़ब पहले ही से “सादिक़” था।
इमाम फ़ख़रुद्दीन राजी, आरिफ़ समदानी, अली हमदानी और शाह अब्दुल अज़ीज़ मोहद्दिस देहलवी की तहरीरों से मुस्तफाद होता है कि आप अपने आबा व अजदाद की तरह मासूम और महफूज़ थे और आपने इब्तेदाए उम्र से आख़िरे उम्र तक कोई गुनाह नहीं किया।
अल्लामा इब्ने तलहा शाफई का बयान है कि आप अहलेबैत (अ.स.) और सादात की अज़ीम तरीन फर्द थे। आपकी जाते ताहिरा से र्कुआन मजीद की तफ़ासीर व मआनी व मतालिब के चश्मे फूटते थे और आप ही से इल्मी कमालात व अजाएबात का ज़हूर व इन्केशाफ़ होता था। इब्ने हजर मक्की फ़रमाते हैं कि ओलमा ने आपसे इस क़द्र नक़्ले उलूम किया है जिसकी मिसाल नहीं मिलती। मुल्ला जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि आपके उलूम का एहातए फ़हम व इदराक से बुलन्द तर है। अल्लामा शिबलंजी का कहना है कि आयाने अईम्मा में से एक जमाअत मसलन यहिया बिन सईद, इब्ने जुरैह, इमाम मालिक, इमाम सुफ़ियान सूरी, सुफ़ियान बिन अय्यना, अय्यूब सजिस्तानी और इमाम अबू हनीफा वग़ैरा ने आपसे हदीसें नक़्ल की हैं।
शाहाने वक़्त
आपकी विलादत के वक़्त अब्दुल मलिक बिन मरवान बादशाह था। उसके बाद वलीद, सुलेमान, उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल मलिक, हश्शाम, वलीद बिन यज़ीद, यज़ीदुल नाक़िस, इब्राहीम बिन वलीद और मरवानुल हिमार बित-तरतीब तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुए। मरवानुल हिमार के बाद उमवी सल्तनत का चिराग गुल हो गया और बनी अब्बास इक़्तेदार पर काबिज़ हो गए। बनी अब्बास का पहला फ़रमां रवा अबुल अब्बास हुआ। उसके बाद मंसूर अब्बासी ने तख़्ते हुकूमत संभाला और उसी मंसूर ने अपनी शाही के तीसरे साल की इब्तेदा में इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को ज़हर से शहीद करा दिया।
जाफ़री मुनाज़िरा
इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) बेशुमार इल्मी दीनी मुनाज़िरे किए हैं और क़दरियों, दहरियों, काफ़िरों नीज़ यहूदियों व नसरानियों को हमेशा शिकस्ते फ़ाश दी है। अब्दुल मलिक बिन मरवान की ज़िन्दगी के आखि़री अय्याम एक क़दरिया फिकेऱ् का मुनाज़िर उसके दरबार में आया और ओलमाए इस्लाम से मुनाज़िरे का ख़्वाहिश मन्द हुआ। अब्दुल मलिक ने अपने ओलमा को तलब करके उन्हें हुक्म दिया कि वह इस क़दरिए से मुनाज़िरा करें ओलमा ने उससे काफ़ी ज़ोर आज़माई की मगर उसे शिकस्त न दे सके। आख़िरकार तमाम ओलमाए इस्लाम जब आजिज़ आ गए तो अब्दुल मलिक ने इस सूरते हाल से निपटने के लिए इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) से दरख़्वास्त की। इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) अपने तीन या चार साल के फ़रज़न्द इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) को लिए हुए दमिश्क पहुंचे। मजलिसे मुनाज़िरा मुनअक़िद की गयी। आपने उस क़दरिए मुनाज़िर से फ़रमाया कि तुम पहले मेरे इस कमसिन बच्चे से मुनाज़िरा करो और इसे शिकस्त दो फिर मुझ से भी मुनाज़िरा कर लेना। उसने मुतअजज़िबाना लहजे में कहा, यह बच्चा और मुनाज़िरा ! इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, यह तुझ पर बहुत भारी है। क़दरिया मुनाज़िर ने कहा, अगर आपका यही इसरार है तो यह बच्चा मुझसे जो पूछना चाहता है वह पूछे।
चूंकि क़दरियों का यह एतकाद है कि बन्दा ही सब कुछ है, ख़ुदा बन्दों के मामलात में कोई दख़ल नहीं देता और न कुछ कर सकता है। यानी ख़ुदा के हुक्म और कज़ा व क़दरिया इरादे को बन्दों के किसी अम्र में दख़ल नहीं है इसलिए इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) ने इस पहल की ख्वाहिश पर फ़रमाया कि तुम सूरए हम्द पढ़ो। उसने पढ़ना शुरू किया। जब वह ईयाका नअबुदु व ईयाका नसतईन तक पहुंचा जिसका तर्जुमा यह है कि “मैं सिर्फ तेरी ही इबादत करता हूं और तुझ ही से मदद चाहता हूं” तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, ठहर जाओ। पहले मुझे इस बात का जवाब दो कि जब तुम्हारे अकीदे के मुताबिक तुम्हारे किसी मामले में ख़ुदा को दख़ल देने का कोई हक़ नहीं है तो फिर उससे मदद क्यों मांगते हो? यह सुनकर वह हैरत में पड़ गया और कोई जवाब न दे सका। बिलआख़िर उसने अपनी शिकस्त तस्लीम कर ली और मजलिसे मुनाज़िरा बरख़्वास्त हो गयी और अब्दुल मलिक बेहद ख़ुश हुआ।
अबु शाकिर दैसानी का वाक़िआ
अबु शाकिर दैसानी जो दहरिया और लामज़हब था, एक दिन इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर होकर कहने लगा कि क्या आप ख़ुदा की तरफ मेरी रहबरी करते हुए उसका तअरूफ़ करा सकते हैं? इमाम (अ.स.) ने मोर का एक अण्डा हाथ में लेकर फ़रमाया इस अण्डे को गौर व फ़िक्र की नज़र से देखो और सोचो कि इसके अन्दर बहती हुई ज़र्दी और सफ़ेदी के इश्तेराक से रंग बिरंग के ताएर क्यों कर पैदा होते हैं? क्या तुम्हारी अक्ले सलीम इस बात को तस्लीम नहीं करती कि इस अण्डे को मुन्फरिद और अछूते अन्दाज़ में बनाने वाला और इससे ताएर का पैदा करने वाला कोई न कोई ज़रूर है। इमाम (अ.स.) का यह जवाब सुनकर वह खामोश हो गया और अपनी दहरियत से बाज़ आया।
इसी दैसानी का वाक़िआ है कि एक दफा इसने इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) से यह सवाल किया कि क्या यह मुम्किन है कि ख़ुदा सारी दुनिया को एक अण्डे में समो दे और न अण्डा टूटे न दुनिया घटे? आपने फ़रमाया बेशक ख़ुदा हर शय पर कादिर है। उसने कहा कोई मिसाल? फ़रमाया कि मिसाल के लिए आंखों की पुतलियां काफी हैं, उनमें सारी दुनिया समा जाती है न पुतलियां बढ़तीं हैं न दुनिया घटती है।
अबु हनीफ़ा
इमाम अबू हनीफा अपनी कुन्नियत से मशहूर हुए। आपका असल नाम नोअमान बिन साबिस था। आप अजमी थे, सन् 80 हिजरी में कूफ़े में पैदा हुए और सन् 150 हिजरी में फौत हो गए। आपको अब्दुल मलिक बिन मरवान ने “इमामे आज़म” का खिताब दिया था। उसके बाद हारून रशीद अब्बासी के अहद में आपको काफ़ी उरूज हासिल हुआ। आपने सन् 123 हिजरी में जनाबे जैदे शहीद के हाथों पर बैअत की थी लेकिन बाद में अलाहिदगी इख़्तेयार करके हुकूमते वक़्त के साथ हो गए थे। चूंकि आप इस्लाम के मामलात में क़यासी जोड़ तोड़ के जरिए तोड़ फोड़ किया करते थे इसलिए अकाबिर मोहद्देसीन बुख़ारी, इमाम मुस्लिम, निसाई, तिरमज़ी, इब्ने माजा और अबु दाऊद वग़ैरा ने आपकी रिवायात पर भरोसा नहीं किया।
यह तारीख़ी हक़ीक़त है कि इमाम अबू हनीफा, इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) और इमाम ज़ाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के शागिर्द थे लेकिन इब्ने तैमिया ने इस अम्र का मुन्केराना शुब्हा ज़ाहिर किया है जिसे रद करते हुए मौलवी शिबली नोअमानी रकम तराज़ हैं कि:-
“अबु हनीफा एक मुद्दत इस्तेफादे की ग़रज़ से इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर रहे और फ़िकह व हदीस के मुतअल्लिक बहुत बड़ा जखीरा हज़रत ममदूह का फैज़े सोहबत था। इमाम साहब ने उनके फ़रज़न्दे रशीद हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़़ (अ.स.) की फ़ैज़े सोहबत से भी बहुत कुछ फाएदा उठाया जिसका ज़िक्र उमूमन तारीख में पाया जाता है। इब्ने तैमिया ने इससे इन्कार किया है और इसकी वजह यह ख़्याल की है कि इमाम अबू हनीफा हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) के मुआसिर व हमअस्र थे इसलिए उनकी शागिर्दी क्योंकर इख़्तेयार कर सकते हैं। लेकिन यह इब्ने तैमिया की गुस्ताखी और खीरा चश्मी है। इमाम अबू हनीफा लाख मुज्तहिद और फ़क़ीह हों लेकिन फ़ज़्ल व कमाल और उलूम व मआरिफ़ में उनको इमाम जाफ़र सादिक़़ (अ.स.) से क्या निसबत। हदीस व फ़िक़ह बल्कि तमाम मज़हबी उलूम अहलेबैत (अ.स.) के घर से निकले हैं।”
तारीखें बताती हैं कि इमाम अबू हनीफा अकसर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ करते थे और होता यह था कि इमाम (अ.स.) उनका इम्तिहान लेकर उन्हें फाएदा पहुंचा दिया करते थे। एक दफ़ा का जिक्र है कि अबू हनीफा इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो आपने पूछा, ऐ अबु हनीफा! मैंने सुना है कि तुम दीनी मसाएल में क़यास से काम लिया करते हो? कहा हां। आपने फ़रमाया कि ऐसा न किया करो क्योंकि दीन में क़यास करना इब्लीस का काम है और उसी ने क़यास की पहल की है। फिर आपने फ़रमाया, अच्छा यह बताओ कि वह कौन सा कलमा है जिसका पहला हिस्सा कुफ़ और दूसरा हिस्सा ईमान है? अबु हनीफा ने ला-इल्मी का इज़हार किया। आपने फ़रमाया, वही कलमा है जो तुम पढ़ा करते हो। सुनो, ला इलाहा कुफ्ऱ है इल-लल्लाह ईमान है। फिर आपने पूछा, औरत कमज़ोर है या मर्द, नीज़ यह कि हालते हमल में औरत को हैज़ क्यों नहीं आता? अबु हनीफा ने कहा, यह तो मालूम है कि औरत कमज़ोर है लेकिन यह नहीं मालूम कि आलमे हमल में हैज़ क्यों नहीं आता। फ़रमाया, अगर औरत कमज़ोर है तो क्या वजह है कि मीरास में उसका एक हिस्सा और मर्द को दो हिस्सा दिया जाता है? कहा, मुझे नहीं मालूम। आपने फ़रमाया कि औरत का नफ़क़ा मर्द पर है और हुसूले आज़ूका उसी के ज़िम्मे है इसलिए उसका हिस्सा दोहरा है और औरत को हमल में हैज़ इसलिए नहीं आता कि वह बच्चे के शिकम में दाखिल होकर उसकी गिज़ा बनता है।
एक दफ़ा इमाम (अ.स.) ने पूछा कि यह बताओ कि अक़्लमन्द कौन है? उन्होंने जवाब दिया जो अच्छे और बुरे में इम्तियाज़ और दोस्त व दुश्मन में तमीज़ कर सके। फ़रमाया, यह सिफ़त तो जानवरों में भी होती है, वह एक दूसरे को प्यार भी करते हैं और मारते भी हैं। यानी अच्छे और बुरे को वह भी जानते हैं कहा, फिर आप ही फ़रमाएं। आपने फ़रमायाः अक़्लमन्द वह है जो दो नेकियों और दो बुराईयों के दरमियान यह इम्तियाज़ कर सके कि कौन सी नेकी तरजीह के काबिल है और कौन सी बुराई कम है।
औसाफ़ व आदात
इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) इसी सिलसिलए इस्मत की एक कड़ी थे जिसे ख़ल्लाके आलम ने तमाम बनी नौए इन्सान के लिए नमूना-ए-कामिल बना कर भेजा। आपके औसाफ ज़िन्दगी के हर शोबे में बुलन्द व मेयारी हैसियत के हामिल थे। ख़ास-ख़ास औसाफ व आदात जिन के बारे में मोअर्रिख़ीन ने हज़ारों वाक़िआत नक़्ल किए हैं, मेहमान नवाजी खैर व खैरात, गुरबा व मसाकीन की खुफिया तौर पर ख़बरगीरी, अईज़्ज़ा के साथ हुस्ने सुलूक और सब्र व तहम्मुल पर मबनी हैं।
इरशादात व फ़रमूदात
हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के इरशादात व फरमूदात, का बेश-बहा सरमाया अगर दामने क़िरतास में समेटा जाए तो एक अज़ीम व ज़ख़ीम किताब मुरत्तब हो सकती है। इख़्तेसार के पेशे नज़र हम यहां अल्लामा शिबलिंजी के हवाले से सिर्फ इन इरशादात व अक़वाल पर इकतेफ़ा करते हैं जो ज़रूरी हैं।
इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया:-
(1) नेक इन्सान वह है जो आलमे तन्हाई में खुद को दुनिया की तरफ से बेनियाज़ और ख़ुदा की तरफ झुका हुआ महसूस करे
(2) जो शख़्स किसी मोमिन की दिलजूई करता है तो ख़ुदावन्दे आलम उस पर एक फ़रिश्ता मामूर फ़रमाता है जो उसकी तरफ़ से उसकी ज़िन्दगी में इबादत करता है और उसके मरने पर उसकी कब्र में मूनिस, मंज़िले शिफाअत में शफीअ और जन्नत के रास्ते का रहबर होता है।
(3) नेकी का कमाल यह है कि इसमें उजलत करो।
(4) अमले खैर को नेक नीयती से अंजाम देना सआदत है।
(5) तौबा में ताख़ीर नफ़्स का धोखा है।
(6) मरज़, फ़क़ीरी, दुश्मनी और आग की किल्लत को कसरत समझना चाहिए।
(7) किसी के साथ बीस दिन तक रहना अज़ीज़दारी के मुतारादिफ़ है।
(8) शैतान के ग़लबे से बचने के लिए लोगों पर एहसान करो
(9) लड़की अल्लाह की रहमत और लड़का नेअमत है
(10) परवरदिगारे आलम हर नेकी पर सवाब अता करता है और हर नेअमत पर सवाल करेगा।
(11) जो तुम्हें इज़्ज़त की निगाह से देखे तुम भी उसकी इज़्ज़त करो और जो ज़लील समझें उससे दूरी इख़्तेयार करो।
(12) बख़्शिश से हाथ रोकना ख़ुदा से बदज़नी है।
(13) दुनिया में लोग वालदैन के ज़रिए मुताआरिफ़ होते हैं और आख़िरत में आमाल के ज़रिए पहचाने जाएंगे।
(14) जो अल्लाह की दी हुई नेअमतों पर क़िनाअत करेगा वह मुस्तग़नी रहेगा।
(15) जो दूसरों की दौलत पर नज़र रखेगा वह हमेशा फ़क़ीर रहेगा
(16) जो किसी पर नाहक़ तलवार खींचेगा वह खुद मकतूल होगा।
(17) जो किसी को बेसबब रूसवा करे वह खुद भी रूसवा होगा।
(18) जो शख़्स बेवकूफों से राह व रसम रखेगा वह जलील होगा
(19) चुगल ख़ोरी से बचो क्यों कि यह लोगों के दिलों में अदावत का बीज बोती है।
(20) हक़ बात कहो ख़्वाह अपने ही ख़िलाफ़ क्यों न हो।
(21) जब कोई नेअमत मिले तो ज़्यादा शुक्र करो ताकि इज़ाफ़ा हो।
(22) जब रोज़ी तंग हो तो इस्तेग़फ़ार करो ताकि रिज्ख़ के दरवाजे खुलें।
(23) जो शख़्स किसी को बेपर्दा करेगा वह खुद भी बरहना होगा।
(24) रंज व गम से निजात हासिल करने के लिए ला हौ-ल वला कूव्व-त इल्ला बिल्ला हिल अलीयिल अज़ीम चालीस मर्तबा रोजाना कहो।
अमली व फिक्री सरगर्मियां
इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) ने अपनी सरगर्मियों को एलानिया सियासी अमल से अलाहिदा रखा। उम्मत की सफों में आपने अपनी तहरीक की दागबेल अज़ीम अमली जद्दो जेहद और बुलन्द पाया फ़िक्री दर्सगाह के ज़रिए डाली। आपके मदरसे से बड़े-बड़े फुकहा व मुफक्केरीन फ़ारिगुल तहसील होकर निकले। इस तरह इमाम (अ.स.) अपने बाद उम्मत के लिए अपने नज़रियाती शागिर्दों मसलन हश्शाम बिन हिकम, मोमिने ताक, मुहम्मद बिन मुस्लिम और ज़ुरारा बिन अअयुन वग़ैरा की सूरत में एक अज़ीम इल्मी सरमाया छोड़ गए। चुनांचे आपकी इल्मी व तहज़ीबी तहरीक को ज़बर्दस्त वुसअत मिली और तमाम मुस्लिम इलाकों पर छा गयी। लोगों ने आपसे कसीर मिकदार में उलूम नक़्ल किए और उन्हें हर जगह पहुंचाया, इस तरह आपकी शोहरत तमाम बिलादे इस्लामिया में फैल गई। जाहिज़ का बयान है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने सारी दुनिया में इल्म व हिक्मत के दरिया बहा दिए और उन उलूम के दरवाज़े खोले जिन से लोग बेख़बर थे।
अपनी एलानिया पॉलीसियों और खुल्लम खुल्ला इल्मी व फिक्री सरगर्मियों के पसे पर्दा इमाम (अ.स.) का हदफे इस्लामी नज़रियात और निज़ाम के बारे में लोगों की जिहालत को दूर करना, इलहादी रुझहानात का मुक़ाबला करना, गुमराह लोगों के बेतुके सवालात व एतराज़ात के जवाबात देना, नीज़ इस्लाम के पेचीदा मसाएल को हल करना था। इन मक़ासिद की तकमील के ज़ैल में आपने दो तरह के उसलूब अपनाए। एक एलानिया टकराव का असलूब और दूसर तामीरी असलूब।
एलानिया टकराव का अमली इज़हार उस वक़्त हुआ जब आप मफ़ाद परस्तों, सियासी अग़राज़ के तहत इस्लाम और उम्मते मुहम्मदी की हक़ीक़ी रूह को पामाल करे वाले अनासिर के मुकाबिले में सख़्ती से डट गए। आपने उमूवी और अब्बासी दौर में जनम लेने वाले बातिल नज़रियात, खतरनाक रुझहानात क़ौमी, मज़हबी और कबाएली झगड़ों का जमकर मुकाबेला किया, यह नज़रियात व रुझहानात, यूनानी, फारसी और हिन्दी किताबों के तर्जुमों की शक्ल में जहूर पज़ीर हुए जिसका नतीजा यह हुआ कि इस्लाम के मुकाबले में कुछ मुख़ालिफ जमाअतों के लिए फ़िजा साज़गार हो गयी। उनमें गालियों और ज़न्दीक की जमाअतें जाली व फ़र्ज़ी हदीसें गढ़ने वाले अहलुर-राये और अहले तसव्वुफ़ ख़ास तौर पर काबिले जिक्र हैं। इमाम (अ.स.) ने अमली व फिक्री मैदान में सबका जम कर मुकाबला किया, उन्हें शिकस्त दी और उन्हें पछाड़ कर किनारे लगाया।
तामीरी असलूब, इस्लामी अकाएद व नज़रियात को मुशतहिर करने और उसके एहकाम व उसूल की तरसीख़ के लिए की जाने वाली मुसलसल अमली व फ़िक्री जद्दो जेहद की सूरत में सामने आया। जिसके जै़ल में इमाम (अ.स.) ने इस्लामी अकाएद की मफ़ाहीम और शरीयत के एहकाम की तरवीज की मुसलमानों में अमली शऊर बेदार किया और ओलमा की एक कसीर जमाअत को तरतीब देकर तैयार किया कि वह अहले इस्लाम के दरमियान तब्लीगी अमूर अंजाम दें। मदीना-ए-मुनव्वरा को आपने इल्मी मरकज़ करार दिया और मस्जिदे नबवी में दर्स व तदरीस का सिलसिला शुरू करके तमाम उलूम व फुनून पर सैर हासिल बहसें कीं और अपने अकाएद व नज़रियात से लोगों को रूशिनास कराया। आपके शागिर्दों में इस्लामी मज़ाहिब के अईम्मा मलिक बिन अनस, सुफ़ियान बिन सूरी, इब्ने अअयुन, मुहम्मद बिन शैबानी, यहिया बिन सईद वग़ैरा का नाम भी किताबों में मिलता है। उनके अलावा फ़ुकहा ओलमा और मुहद्देसीन में अय्यूब सजिस्तानी, शैबा बिन हज्जाज और अब्दुल मलिक बिन जुरैह वग़ैरा शामिल हैं जिनकी मजमूई तादाद चार हज़ार से ज़्यादा बताई जाती है।
तसनिफ़ात
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने बेपनाह इल्मी, क़लमी और तकरीरी सरमाया से दुनिया वालों को फैज़याब किया है और इल्मे दीन, इल्मे मनतिक, इल्मे फलसफा, इल्मे हैयत, इल्मे अज्साम, इल्मे अअजा, इल्मे तबीयात, इल्मे फाल, इल्मे कीमिया, इल्मे तिब्ब और इल्मे इलाहियात वग़ैरा पर मुतअद्दि किताबें, बेशुमार रिसाले और लातादाद मकाले छोड़े हैं। आपकी तसानीफ़ में किताबे “जफ़र व जामे” और “अहलीलिजिया” काफी मशहूर हैं।
“जफ़र व जाम” के बारे में अल्लामा दमीरी का कहना है कि इस किताब में अज़ल से अबद तक रूनुमा होने वाले तमाम हालात व हवादिस का तज़किरा मौजूद है। अल्लामा अरबली और अल्लामा जामी का बयान है कि इमाम (अ.स.) ने खुद फ़रमाया है कि ख़ुदा की तरफ से हमें तमाम उलूम के साथ इल्हामी सलाहियात और मलाएका की गुफ़्तुगू को सुनने और समझने की कूव्वत भी अता की गयी है। इमाम (अ.स.) की किताब अहलीजिया के इक़तेबासात अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा ने बिहारूल अनवार की जिल्द दोम में नक़्ल फ़रमाए हैं जो एक हिन्दुस्तानी फलसफी से गुफ्तगू की शक्ल में इल्मुल कलाम और इल्मुल इलाहियात के बेमिस्ल नमूनों पर मुश्तमिल है।
दीगर अईम्मए ताहेरीन (अ.स.) की तरह इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) भी चरिन्दों और परिन्दों वग़ैरा की ज़बान से वाक़िफ़ थे। चुनांचे जब कोई चरिन्दा, परिन्दा और दरिन्दा आपस में कोई बात करता तो उसे आप बख़ूबी समझ लिया करते थे और अकसर व बेशतर उन्हीं की ज़बान में तकल्लुम भी फ़रमाया करते थे।
मनाक़िबे इब्ने शहरे आशोब और बिहारूल अनवार में है कि एक ईसाई ने इमाम (अ.स.) से तिब्ब के बारे में सवाल करते हुए जिस्मे इन्सानी की बनावट और तशकील के बारे में दरयाफ़्त किया तो जवाब में आपने फ़रमाया कि ख़ल्लाके आलम ने इन्सान के जिस्म में बारह वस्ल, दो सौ अड़तालिस हड्डियां और तीन सौ साठ रगें पैदा की हैं। रगें तमाम जिस्म को ख़ून से सेराब करती हैं, हड्डियां जिस्म को, गोश्त हड्डियों को आसाबे गोश्त को रोके रहते हैं।
किताबुल ख़साएस में मरकूम है कि एक मशहूर व मारूफ हिन्दुस्तानी तबीब मंसूर अब्बासी के दरबार में आया तो ख़लीफ़ा ने अपनी जान छुड़ाने की ग़रज़ से उस तबीब को इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पास भेज दिया। आपने उससे तशरीहुल अज्साम के बारे में उन्नीस सवालात किए मगर अपने फन में माहिराना दस्तरस के बावजूद वह किसी सवाल का भी जवाब न दे सका। बिलआख़िर आपने तशरीह फ़रमाई और वह कलमा पढ़कर मुसलमान हो गया।
मंसूर अब्बासी का इस्तेबदादी दौर
बनी उमय्या का चिरागे इक़्तेदार गुल होने के बाद सन् 132 हिजरी में बनी अब्बास का पहला फ़रमाँरवा सफ़्फ़ाह बिन अब्दुल्लाह अब्बासी तख़्त नशीन हुआ। उसने चार-चार साल छः माह हुकूमत की और जब दुनिया से रूख़्सत होने लगा तो वक्ते इन्तेकाल अपने भाई मंसूर अब्बासी को अपना वारिस व जॉनशीन नामज़द कर गया। उस मौके पर मंसूर हज्जे बैअतुल्लाह की ग़रज़ से मक्के मोअज्जमा में था। वापस आकर सन् 137 हिजरी में उसने कारोबारे हुकूमत अपने हाथों में लिया।
मंसूर अब्बासी एक मुन्तज़िम व मुदबिर फ़रमाँरवा ज़रूर था मगर उसके साथ ही वह इन्तेहाई संगदिल, ज़ालिम, खूंखार, सफ़्फ़ाक, दगाबाज़, मतलून मिज़ाज और शक़ी भी था। जिस शख्स को अपना मुख़ालिफ़ या दुश्मन समझ लेता था उसे वह ज़िन्दा नहीं छोड़ता था। यहां तक कि वह अपने मोहसिनों को भी तहे तेग़ कर देता था। चुनांचे तारीखी शवाहिद से पता चलता है कि अबु सलमा खिलाल का क़त्ल उसी की रीशा-दवानियों का नतीजा था और उसी ने अबु मुस्लिम ख़ुरासानी को भी तलवार के पानी में गर्क़ कर दिया था। जिसने उसके भाई सफ़्फ़ाह को तख्ते हुकूमत पर बैठाया था।
इससे ज़ाहिर है कि जाह व मनसब और इक़्तेदार व हुकूमत के लिए जो अपने मोहसिनों का नहीं था उससे आले अबूतालिब के लिए राहत रसानी की क्या उम्मीद की जा सकती थी हालांकि यह एक मुसल्लमा हक़ीक़त है कि वाक़िए कर्बला के बाद से इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) की औलादें दुनियावी उमूर से किनारा कश रहीं लेकिन इस किनाराकशी के बावजूद उनके रूहानी इक़्तेदार का परचम हमेशा सरबुलन्द रहा। यही चीज़ मंसूर के लिए तकलीफ का सबब और हसद व अदावत का बाएस थी। चुनांचे उसने आले अबूतालिब (अ.स.) पर मज़ालिम के बड़े-बड़े पहाड़ तोड़े, उनकी जाएदादें ज़ब्त कीं और बेजा जब्र व तशद्दुद के ज़रिए उन्हें करब व इज़्तेराब में मुबतिला रखा।
सादात व शीयाआने हैदरे कर्रार भी मंसूर की ज़ालिमाना रविश और तशद्दुद आमेज़ तौर तरीक़ों से हर वक्त ख़ौफज़दा रहते थे। उसने हज़ारों मुहिब्बाने आले रसूल (स.अ.) को क़त्ल किया, हज़ारों को सूलियों पर चढ़ा दिया और हज़ारों को दीवारों में ज़िन्दा चुनवा दिया। शरहे शाफिया में है कि उस शक़ी ने ज़ुर्रियते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) में से एक हज़ार से ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा। इमाम मालिक को उसने इसलिए ताज़ियाने लगवाये कि उन्होंने एक मौके पर सादात की हिमायत में बैअत की थी। इमाम अबू हनीफा को कैद करके सन् 150 हिजरी में इसलिए ज़हर दिलवाया कि वह इब्तेदा में ज़ैदे शहीद की बैअत के मुजरिम थे।
तमाम मोअर्रिख़ीन ने लिखा है कि मंसूर के इस्तेबदादी दौर में सबसे ज़्यादा तबाही व बर्बादी हसनी सादात पर आई और उन्हें ढूंढ ढूंढ़ कर क़त्ल किया गया। जब मुसलसल आलाम व मसाएब से सब्र व तहम्मुल का पैमाना लबरेज़ हो गया तो इमाम हसन (अ.स.) की औलाद में उनके पोते जनाबे अब्दुल्लाह को यह फिक्र हुई कि सादात को अब्बासियों के पंजए इस्तेबदाद से किस तरह आज़ाद कराया जाए? चुनांचे वह मंसूर के ख़िलाफ़ लोगों को उभारने लगे। जनाबे अब्दुल्लाह के दो बेटों मुहम्मद नफ़्से ज़किया और इब्राहीम ने भी उनकी इस कोशिश में उनका साथ दिया। इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) को जब जनाबे अब्दुल्लाह और उनके बेटों की सरगर्मियों का हाल मालूम हुआ तो आपने वक़्त और माहौल की नजाकतों को मद्दे नज़र रखते हुए उन्हें मना किया मगर उनका जोश कम न हुआ। बिलआख़िर मंसूर की तरफ से सादात हसनी की गिरफ़्तारी के लिए एक फौज भेजी। तक़रीबन सत्तर आदमी जिनमें नौजवान, बूढ़े और कमसिन बच्चे शामिल थे, गिरफ़्तार कर लिए गए। मुवर्रिख़ीन का बयान है कि जब यह सितम रसीदा काफिला हाथों में हथकडियां, पैरों में बेड़ियां और गलों में खारदार तौक़ पहन कर लाग़र ऊँटों की बरहना पुश्त पर शर्म व हिजाब से गर्दनें नीचीं किए हुए मदीने से रवाना हुआ तो देखने वाले उनकी बेगुनाही, मजबूरी और बेबसी पर चीखें मार मार कर रो दिए। तारीख कामिल में है कि जब इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) को अपने कुन्बे की गिरफ़्तारी का हाल मालूम हुआ तो वह बेचैन हो गए, मस्जिदे नबवी के दरवाज़े पर खड़े थे कि मज़लूम सादात का काफिला उधर से गुज़रा। इमाम (अ.स.) ने जब यह हाल देखा कि किसी के पैर में जंजीर है, किसी की मुश्कें कसी हैं, किसी के गले में तौक़ है और किसी के पैर ऊँटों के पेट से बंधे हैं तो आपकी आंख में ज़ारो क़तार आंसू आ गए और आपने फ़रमाया कि ख़ुदा की क़सम! आज के बाद से हुरमते हरमे ख़ुदा और रसूल महफूज नहीं है। अल्लामा मजलिसी रकम तराज़ हैं कि इस वाक़िए का इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) के दिल पर इतना गहरा असर हुआ कि आप बीमार पड़ गए और बीस दिन बुख़ार में मुब्तला रहे।
मंसूर उस वक़्त कूफ़े में था। कैदी उसके सामने पेश किए गए। उसने उन सादात को एक ऐसे कैदखाने में रखा जहां न रौशनी थी न हवा का गुज़र। नतीजा यह हुआ कि चन्द ही रोज़ में उन कैदियों ने यके बा दीगरे दम तोड़ना शुरू कर दिया। सितम बालाए सितम यह कि जो कैदी मौत से हमकिनार होता था उसका जसदे खाकी उसी कैदखाने में बेगुस्ल व कफ़न पड़ा रहता था। मय्यतों के सड़ने से वहां की फ़िज़ा गन्दी और ज़हरीली हो गयी और दो चार कैदी रोज मरने लगे। जो लोग बच गए उन्होंने उस कैदखाने में बड़ी इबरत नाक ज़िन्दगी बसर की। लेकिन उन तमाम मसाएब के बावजूद ग़रीब सादात यादे खुदा से ग़ाफ़िल न थे, उन्हें बस नमाज़ों और कलामे पाक की तिलावत से काम रहता था। चूंकि कैदखाने की तारीकी में वक़्त का कुछ पता न चलता था इसलिए उन्होंने अपनी तिलावत को पांच हिस्सों पर तकसीम कर लिया था और उसी की मुनासबत से नमाज़ पढ़ते थे।
जनाबे अब्दुल्लाह की गिरफ़्तारी के बाद उनके दोनों पिसरान मुहम्मद नफ़्से ज़कीया और इब्राहीम रूपोश हो गए थे और सहराई अरब का भेंस बदल कर रहने लगे थे। फिर रफ़्ता रफ़्ता उन्होंने एक मुख़्तसर सी फ़ौज तैयार करके मंसूर पर चढ़ाई की और मदीने पर कब्ज़ा कर लिया। मगर चन्द ही दिनों के बाद मंसूर के फ़ौजियों ने घेर कर नफ़्से ज़किया को शहीद कर दिया और उनका सर काट कर मंसूर के पास भेज दिया। उस शक़ी ने उसको ख़्वान में रख कर कैदखाने में उनके बूढ़े बाप अब्दुल्लाह के पास भिजवा दिया। जनाबे अब्दुल्लाह उस वक्त नमाज़ में मशगूल थे। चुनांचे कैदखाने का दरबान वह सर उनके मुसल्ले के पास रख कर चला आया। नमाज़ से फारिग होकर जनाबे अब्दुल्लाह ने बेटे के सर को जब तारीकी के धुंधलके में देखा तो सीने से बेसाख़्ता एक आह निकली, सर को कलेजे से लगाया और फ़रमाया, शाबाश, बेटा! बेशक तुम वादा वफ़ा करने वालों में हो जिनकी तारीफ खुदा ने र्कुआन में की है। ऐ मेरे लाल! तुम्हारी तलवार ने तुम्हें ज़िल्लत से बचाया और तुम्हारी परहेज़गारी ने तुम्हें गुनाहों से महफूज़ रखा। अब ख़ुदा के यहां तुम्हारे और मंसूर के दरमियान इन्साफ होगा। जनाबे अब्दुल्लाह ने यह कहक़र एक ठण्डी सांस ली और दम तोड़ दिया।
जनाबे अब्दुल्लाह के दूसरे साहबजादे इब्राहीम किसी तरह बच निकले थे। वह मुद्दतों इधर उधर भटकते रहे और आख़िरकार फिर एक फौज तैयार करके हमलावर हुए और मिस्र की हुकूमत हासिल कर ली। फिर वह अपने लश्कर के साथ मिस्र से कूफे की तरफ बढ़े। “अलहमरा” के मक़ाम पर मंसूर की फ़ौजों से मुडभेड़ हो गयी और खूंरेज़ जंग के नतीजे में फ़रीक मुख़ालिफ़ के सैकड़ों आदमी मारे गए। इब्राहीम की फतह के आसार नुमाया हो चुके थे कि शिकस्त खुर्दा दुश्मन ने अचानक पलट कर फिर हमला कर दिया। यह हमला इस क़द्र सख़्त था कि इब्राहीम की फौज तितर बितर हो गयी। मजबूरन तलवार लेकर खुद भी मैदान में कूद पड़े और कुछ देर तक हाशमीं पैकार के जौहर दिखाते रहे मगर कहां तक? आख़िरकार दुश्मन ने चारों तरफ से घेर लिया और आप दर्जए शहादत पर फाएज़ हो गए। यह वाक़िआत 25 जीकाद सन् 145 हिजरी का है।
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के साथ भी मंसूर का रवय्या हमेशा मुआनिदाना रहा। चुनांचे मोअर्रिखीन मंसूर अब्बासी के एक मुकर्रिबे बारगाह का यह बयान नक़्ल करते हैं कि मैं एक दिन मंसूर को मुताक्किर व परेशान हालत में देखकर सबब तफक्कुर दरयाफ़्त किया। मंसूर ने कहा, मैंने अलवियों की जमाअतों को हत्तल इमकान फ़ना के घाट उतार दिया लेकिन उनका पेशवा अब तक बाकी है। मैंने पूछा वह कौन है? उसने कहा “जाफ़र बिन मुहम्मद (अ.स.)” मैंने कहा जाफ़र बिन मुहम्मद तो ऐसे शख़्स हैं जिन्हें उमूरे दुनिया से कोई सरोकार नहीं है, वह तो हमेशा इबादत व रियाज़त में मशगूल रहते हैं, उनकी तरफ से आप क्यों मुताक्किर हैं? मंसूर ने कहा, मैं जानता हूं कि तू दिल में उनके लिए नर्म गोशे और हमदर्दी का जज़्बा रखता है मगर मैंने कसम खाई है कि आज रात होने से पहले उनकी तरफ से भी मुतमईन हो जाऊँ। यह कहक़र उसने जल्लाद को हुक्म दिया कि जब जाफ़र बिन मुहम्मद (अ.स.) को लोग मेरे रूबरू हाज़िर करें और मैं अपने सर पर हाथ रखूं तो फौरन उनका सर उड़ा देना। ग़रज़ कि थोड़ी देर बाद जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ लाए तो वह उस वक़्त कुछ पढ़ रहे थे। जब मंसूर की नज़र उन पर पड़ी तो वह कांपने लगा और इस्तेकबाल करके उन्हें अपनी मसनद पर बैठा लिया और अन्जान बन कर पूछने लगा कि यब्ना रसूल अल्लाह (स.अ.) ! आपकी तशरीफ़ आवरी का सबब क्या है? फ़रमाया, तेरी तलबी पर लाया गया हूं। मंसूर ने कहा कि अगर कोई हाजत हो तो बयान फ़रमाएं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मेरी हाजत यही है कि आईन्दा तेरी तरफ़ से मेरी तलबी न हो। यह कहक़र आप उठ खड़े हुए और मंसूर दरबार से निकल आए। जल्लाद कब्ज़ए शमशीर पर अपना हाथ रखे मंसूर का मुंह तकता ही रह गया।
दरबारी शेर
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की मोजिज़ नुमाई को शिकस्त देने और भरे दरबार में ज़लील करने के लिए मंसूर अब्बासी ने बाबुल से सत्तर जादूगरों को बुलवाया और उनसे कहा कि जाफ़र बिन मुहम्मद को मैंने तलब किया है जिस वक़्त वह दरबार में दाखिल हों, तुम लोग कोई ऐसा करिश्मा दिखाना जो उनकी जिल्लत व रूस्वाई, का सबब हो। ग़रज़ कि इमाम (अ.स.) जब दरबार में तशरीफ़ लाए तो उन्होंने देखा कि सत्तर मसनूई शेर दो-रुया कतार में खड़े हैं। आपने उन शेरों को हुक्म दिया कि अपने अपने मालिकों को निगल लो। शेरों में हरकत पैदा हुई और उन्होंने सब काहिनों को निगल लिया। इमाम (अ.स.) की यह एजाज़ी कूव्वत देखकर मंसूर कांपने लगा और हैरत ज़दा रह गया। माथे का पसीना पोंछते हुए बोला ऐ फ़रज़न्द रसूल (स.अ.)! इन शेरों को हुक्म दीजिए कि काहिनों को उगल दें वरना मेरी सख़्त रूस्वाई, ज़िल्लत और बदनामी होगी। आपने फ़रमाया, अगर मूसा (अ.स.) के असा ने सांपो को उगल दिया होता तो मैं भी इन शेरों को काहिनों को उगल देने का हुक्म देता।
क़त्ल की आख़िरी कोशिश
इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) पर मंसूर का जब कोई बस न चला और उनकी रूहानी ताक़त से वह तंग आ गया तो उसने आपको क़त्ल कराने की आख़िरी कोशिश यह की कि सौ ऐसे अफ़राद तलाश करके इकट्ठा किए जो इन्तेहाई जाहिल, दरिन्दा सिफ़त और कुन्दए नातराश थे। उन्हें माल व दौलत का लालच देकर इस अम्र पर राजी किया कि जब इमाम (अ.स.) की तरफ़ इशारा किया जाए तो वह उन पर टूट पड़ें और उन्हें क़त्ल कर दें। चुनांचे जब सारा इन्तेज़ाम मुकम्मल हो गया तो उस शक़ी ने रात के वक़्त सादिक़ आले मुहम्मद (स.अ.) को तलब किया। जब आप दरबार में दाखिल हुए और उन लोगों की नज़रें आप पर पड़ीं जो तलवारें सूंते खड़े थे वह सब के सब अपनी तलवारें फेंक कर आपके क़दमों पर गिर पड़े। मंसूर ने जब यह हाल देखा तो वह भी बेहद ख़ौफ़ज़दा हुआ और इमाम (अ.स.) से कहने लगा, ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) ! आपने रात के वक्त तशरीफ़ आवरी की ज़हमत क्यों की? ग़रज़ कि इमाम (अ.स.) जब दरबार से अपनी क़यामगाह पर चले आए तो मंसूर ने उन वहशियों से जिन्हें उसने इमाम (अ.स.) के क़त्ल पर मामूर किया था, पूछा कि तुम लोगों ने जाफ़र बिन मुहम्मद (स.अ.) को क़त्ल क्यों नहीं किया? उन्होंने जवाब दिया कि तू हमारे हाथों से उस शख़्स को क़त्ल कराना चाहता है जो इमामे ज़माना है और हमारी परवरिश व ख़बरगीरी करता है। मंसूर ने जब यह ना तो इस अंदेशे के तहत कि कहीं यह लोग उसे तलवार के घाट न उतार दें, उसने रातों रात उन लोगों को माल व मनाल देकर वहां से रूख़्सत कर दिया।
आपकी शहादत
तारीख़ों से पता चलता है कि मंसूर ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को मुतअद्दि बार ज़हर के ज़रिए शहीद कराने की कोशिश की मगर चूंकि मशीयते ईज़दी की तरफ से अय्यामे हयात बाकी थे इसलिए आप मौत की दस्तरस से महफूज़ रहे। अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा का बयान है कि आख़िरी मर्तबा आपको अंगूर के ज़रिए कैदखाने में जहर दिया गया जिससे आपकी शहादत वाके़ हुई। शेख मुफीद फ़रमाते हैं कि 65 साल की उम्र में आपको मंसूर ने गिरफ्तार करके कैदखाने में ज़हर के ज़रिए शहीद करा दिया और आप 15 शव्वाल सन् 148 हिजरी को इस दुनिया से रूख़्सत हो गए। आपकी शहादत के बाद इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) ने आपको गुस्ल व कफ़न दिया, नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और जन्नतुल बक़ी में सुपुर्दे खाक कर दिया। अल्लामा शिबलंजी का कहना है कि आप अपने वालिदे बुजुर्गवार के पहलू में मदफून हुए।
औलादें
सादिक़ आले मुहम्मद (अ.स.) की मुख़्तलिफ़ बीवियों से सात बेटे जनाबे इस्माईल, इमाम मूसा काज़िम (अ.स.), अब्दुल्लाह, इस्हाक, मुहम्मद, अब्बास और अली थे। इन बेटों के अलावा तीन बेटियां भी थीं जिनका जिक्र तारीख में उम्मे फ़रवा, असमा और फ़ातिमा के नामों से मौजूद है। आप ही की औलाद से फ़ातिमी ख़ुलफ़ा हैं जिनकी हुकूमत व सल्तनत का चिराग़ दो सौ साल यानी सन् 267 हिजरी से 567 हिजरी तक रौशन रहा। ज़रूरी है कि इन खुलफा का इजमाली तज़किरा भी कर दिया जाए।
ख़ुलफ़ाए फ़ातमिया
तीसरी सदी हिजरी के आख़िर में अलवियों की हुकूमत आलमे वजूद में आई और देखते ही देखते बिलादे इस्लामिया के मग़रिबी हिस्से पर बगदाद से इन्दलीस तक मुहीत हो गयी। मुवर्रिख़ीन का कहना है कि हुदूदे अरबिया के लिहाज़ से बनी उमय्या और अब्बासियों के बाद यह सबसे बड़ी हुकूमत थी जो ढ़ाई सौ बरस से कुछ ज़्यादा अर्से तक अलवी खानदान में बरकरार रही और चौदहवें ताजदार आज़िद पर 567 हिजरी में ख़त्म हुई।
यही सलातीन अलविया ख़ुलफाए फातमिया के नाम से मशहूर हैं और यह सब के सब इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की नस्ल से थे। बाज़ ईसाई मुवर्रिख़ीन ने उन्हें अपने मवाक़िफ़ में कट्टर और मुतअस्सिब लिखा है।
इसकी वजह बज़ाहिर यह मालूम होती है कि यह अलवी खुलफाए अब्बासी खुलफा से ज़्यादा एहकामे शरीयत के पाबन्द और मुत्तकी व परहेज़गार थे।
इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के बड़े साहबजादे जनाबे इस्माईल अपने वालिद की हयात ही में मुहम्मद नामी एक फ़रज़न्द छोड़ कर दुनिया से रूख़्सत हो गए थे। उन्हें मुहम्मद से अब्दुल्लाह रजी मुतवल्लिद हुए जो अहमद अलूफ़ी के वालिदे माजिद थे। अहमद अलूफ़ी के बेटे हुसैन तकी और उनके बेटे अब्दुल्लाह मेहदी हुए जो खुलफ़ाए फ़ातिमया के मूरिसे आला व बुजुर्ग थे। इसी वजह से इस ख़ानदान को इस्माईलिया कहा जाता है फ़िरक़ा इसना अशरी उन्हें “शिश इमामी” भी कहता है क्योंकि यह लोग बारह अर्इ्रम्मए ताहेरीन में सिर्फ छः इमामों की इमामत को मानते हैं और इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) के बाद इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) को इमाम नहीं मानते बल्कि जनाब इस्माईल के बेटे मुहम्मद को इमाम मानते हैं और इस अम्र के काएल हैं कि कि इमामत जनाबे इस्माईल ही की औलाद में क़यामत तक मुन्हसिर रहेगी। चुनांचे हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी बोहरों और आगाख़ानी खोजों का यही अक़ीदा है।
मुवर्रिख़ीन जाकिर हुसैन रकम तराज़ हैं कि 21 रबीउल अव्वल सन् 267 हिजरी (सन् 606 ई0) को अलवियों की हुकूमत क़ाएम हुई और इन्तेहाई उरूज के ज़माने में बहरे जुल्मात से सहराए शाम तक और बहरे रोम से सेहराए आज़म अफ्रीका तक फैल गयी। चुनांचे मराकिश, अल-जज़ाएर, तोनिस, तराबलिस, बरका, मिस्र शाम, हिजाज़, यमन, जज़ीरा सकीला और बहीरा रोम के बाज़ जज़ीरे उसमें शामिल थे बल्कि बग़दाद व मूसल तक में एक साल तक अलवियों के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया।
इन ताजदारों को उलूम व फ़नून का शौक ब-हद्दे कमाल था और खुद भी एक से एक आलिम व फाजिल थे। उन्होंने मिस्र में तुर्की की वह राहें खोल लीं जो पहले मुम्किन न हो सकती थी। एक अंग्रेज़ मुवर्रिख़ लिखता कि ख़ानदाने फातिमया की दौलत व हशमत, शान व शौकत और तिजारत बहरे रोम की खुशहाली का सबब साबित हुई। ज़ैल में इस ख़ानदान के ताजदारों का मुख्तसर हाल पेशे ख़िदमत है।
(1) अबु मुहम्मद उबैदुल्लाह अल-मेहदी बिल्लाह
सन् 260 हिजरी में कूफ़े की सरज़मीन पर मुतवल्लिद हुए। आप ही ने हुकूमते फातिमया की बुनियाद रखी। बनी फ़ातिमा को खारजियों के दस्तबुर्द से महफूज़ रखने के लिए कैरवान के क़रीब एक मजबूत व मुस्तहक़म किला तामीर कराया और एक शहर आबाद किया जिसका नाम मेहदिया रखकर उसे दारूल हुकूमत करार दिया और मिस्र व मराकश वगैरा को ज़ेर करके अपनी हुकूमत में शामिल किया। उसके बाद इन्दलीस पर चढ़ाई का इरादा कर ही रहे थे कि रेहलत फ़रमा गए। अल्लामा सेतवी का कहना है कि आपने दादगुस्तरी और फय्याज़ी के साथ हुकूमत की और अवाम के दिल आपकी तरफ झुके रहते थे। बहरहाल आपने 24 साल तक तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन रह कर 15 रबीउल अव्वल सन् 322 हिजरी को 63 साल की उम्र में इन्तेकाल फ़रमाया और अपने आबाद कर्दा शहर मेहदिया में मदफून हुए।
(2) अबुल-क़ासिम मुहम्मद नज़ार क़ाएम बेअमरिल्लाह बिन मेहदी बिल्लाह
सन् 280 हिजरी में पैदा हुए और 15 रबीउल अव्वल सन् 322 हिजरी को हुकूमत का कारोबार संभाला। आप इन्तेहाई जंगजू, बहादुर और आज़मूदा कार थे। जंग के मैदान में अकसर फौजियों की क़यादत खुद करते थे। आप पहले फातिमी फ़रमानरवां हैं जिसने बहरे रोम पर इक़तेदार हासिल करने की ग़रज़ से जंगी जहाजों का एक ज़बर्दस्त बेड़ा तशकील दिया। सन् 227 हिजरी में मग़रिबे अक़सा की बगावत फरो की और “रीफ़” के बनवादरीस को अपना मुतीअ बनाया।
इटली के कज्जाक अकसर व बेशतर फातिमी बन्दरगाहों पर लूट मार किया करते थे जिसके रद्दे अमल में आपकी फौजें इटली को ताराज करती हुई बहरी रास्ते से जनेवा तक पहुंच गयीं और उसे फ़तह करके वहां के लोगों को गिरफ़्तार कर लिया। वापसी में उसी फ़ौजी बेड़े ने “सारडेना” पर हमला करके फिरगिंयों को शिकस्त दी फिर करकीसिया पहुंच कर अब्बासियों के बहरी जहाज़ों को नज़रे आतिश कर दिया। सन् 333 हिजरी में आपके एक गुलाम ज़ैदान ने इसकन्दरिया फ़तह किया। उसके बाद अहले सकलिया ने बग़ावत की और कुसतुनतुनिया से रोमी बेड़े को अपनी मदद के लिए तलब किया मगर वहां के फ़ातिमी गवर्नर ने उसे सख़्ती से कुचल कर रोमी बेड़े को तबाह कर दिया। इसी दौरान 54 साल 6 माह की उम्र में क़ाएम बेअमरिल्लाह का इन्तेकाल हो गया। आपने 12 साल 7 माह हुकूमत की। आपके दौरे हुकूमत में अबू यज़ीद ख़ारजी ने अलमे बगावत बुलन्द क्या जिसका सिलसिला एक मुद्दत दराज़ तक चलता रहा।
(3) अबु-ताहिर इस्लमाईल अल-मंसूर बिल्लाह बिन क़ाएम बेअमरिल्लाह
मुवर्रिख़ीन का कहना है कि आप इन्तेहाई दिलेर, बहादुर, मुस्तईद, मुस्तकिल मिज़ाज, खुश अख़्लाक और अक़लमन्द फ़रमाँरवा नीज़ एक बुलन्द पाया अदीब, अज़ीम शाएर और बेमिसाल ख़तीब थे। आपने उस वक़्त अनान हुकूमत हाथ में ली जब अबू यज़ीद की बगावत से मुल्क में हर तरफ एक कोहराम बरपा था। इन्दलीस के उमवी ख़लीफ़ा नासिर ने मग़रिबे अक़सा पर कब्ज़ा कर लिया था। चन्द क़िले बन्द शहरों और पायए तख़्ते मेहदिया के अलावा कुछ बाकी न रह गया था। आपने तख़्ते हुकूमत पर क़दम रखते ही सख़्त कोशिशों के बाद अबू यज़ीद और उसकी बग़ावत का ख़ातिमा किया और जो मुमालिक हाथ से निकल चुके थे उन पर दोबारा तसल्लुत हासिल किया।
आप सन् 302 हिजरी ब-मक़ाम कैरवान में पैदा हुए। 13 शव्वाल सन् 334 हिजरी को तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुए और सात साल सोलह यौम बरसरे इक़तेदार रह कर 36 साल की उम्र में इस दुनिया से रूख़्सत हुए।
(4) अबु-तमीम मआद मअज़ुद्दीनुल्लाह बिन मंसूर बिन क़ाएम
आप 11 रमज़ानुल मुबारक सन् 316 हिजरी को “मेहदिया” शहर में पैदा हुए। शव्वाल सन् 341 हिजरी में तख़्ते हुकूमत पर मुम्तकिन हुए और 23 साल 6 माह हुक्मरां रहक़र 45 साल 7 माह की उम्र में 15 रबीउल अव्वल सन् 365 हिजरी को सफ़रे आखि़रत इख़्तेयार किया।
आपके बारे में मुवर्रिख़ीन का कहना है कि इन्तेहाई होशमन्द और बासलाहियत फ़रमारवां थे। मुख़ालेफीन ने भी आपको सखी, दाना, मुस्तईद, बहादुर, आदिल, मुनसिफ मिजाज, करीमुल अखलाक, फलसफा और साइंस का माहिर, उलूम व फुनून का मुरब्बी और साहबुर्राए तस्लीम किया है।
आपने मुल्क के अन्दरूनी फसादात और हंगामों पर काबू हासिल करके अमन के उसूलों पर इन्तेज़ामी उमूर की बुनियाद रखी। क़वाएद व जवाबित मुरत्तब किए, फौजी बेड़े को अज़ सरे नौ तरतीब दिया और सनअत व हिरफ़त और तिजारत को बढ़ावा दिया। आपके अहद में लोग बेफिक्री और खुशहाली की ज़िन्दगी बसर करते थे। इब्ने खलदून का कहना है कि मआजुद्दीनुल्लाह चूंकि रहम दिल, नर्म मिज़ाज और करीमुन -नफस फ़रमाँरवा थे और ख़ुदा ने उन्हें अजीब व गरीब सलाहियतें व क़ाबलियतें अता की थीं इसलिए दोस्तों के अलावा दुश्मन भी उनके मद्दाह व मोअतरिफ थे। उनके ज़माने में मिस्र, अस्कनदरिया, मक्का और मदीना वग़ैरा तमाम मकामात अब्बासियों के कब्ज़े से निकल कर उनकी हुकूमत में शामिल हो गए। उन्हीं का आबाद किया हुआ काहिरा अब तक मिस्र का दारूल ख़िलाफा है। उनके अहदे हुकूमत में सन 348 हिजरी के ख़ातमें तक मिस्र से बहरे वकियानूस तक इलाका फ़ातमियों के ज़ेरे तसल्लुत हो गया और सन् 351 हिजरी से 354 हिजरी तक जज़ीरा सकलिया से रोमियों का सफाया कर दिया गया। अब्बांसियों का सिक्का कल-अदम करार पाया और फ़ातमीं सिक्का जारी हुआ। उन्हीं के दौर में जामए अज़हर की बुनियाद पड़ी जो दुनिया की सबसे बड़ी इस्लाम यूनिवर्सिटी है। सन् 364 हिजरी में मिस्र में पहली बार जश्ने ग़दीर इन्तेहाई शान व शौकत के साथ मनाया गया। अज़ान में हय्या अला ख़ैरिल अमल फिर से जारी हुआ और नमाज़ में बिस्मिल्लाह - हिर्रहमा - निर्रहीम पढ़ा जाने लगा। नीज़ मिम्बरों से अहलेबैत (अ.स.) के फ़ज़ाएल बयान किए जाने लगे।
(5) अबु-मंसूर नज़ार अल-अज़ीज़ु बिल्लाह बिन मआज़
आप 14 मुहर्रमुल हराम सन् 344 हिजरी को मेहदिया में पैदा हुए, 15 रबीउस सानी सन् 365 हिजरी को तख़्त नशीन हुए और 21 साल 5 माह मसन्दे इक़तेदार पर रह कर 28 रमज़ान सन् 386 हिजरी में 42 साल 9ै माह की उम्र में इन्तेकाल फ़रमाया।
आप एक कामयाब हुक्मरां होने के साथ साथ रहम व करम और जूद व सखा के पैकर, अकील व हलीम और साबिर व कसीरूल अफ़व थे। अपने दुश्मनों पर भी रहम व करम करते थे और अकसर उन्हें माल व ज़र भी दिया करते थे। आपको इमारतों की तामीर का बड़ा शौक था। चुनांचे मिस्र में आपकी यादगार बहुत सी इमारतें हैं आपके अहद में हमस, हमात, शीराज़ और हलब वग़ैरा फ़तह होकर फातमीं सल्तनत में शामिल हुए। मूसल, मदाएन, कूफ़ा और अन्बार वग़ैरा में आपके नाम का सिक्का और खुतबा जारी हुआ। मुवर्रिख़ीन का बयान है कि आपके अहद में लोगों के दिन ईद और रातें शबेबरात की तरह गुज़रती थीं।
(6) अबुल हुसैन अल-हाकिम बेअमरिल्लाह बिन अज़ीज़
23 रबीउल अव्वल सन् 375 हिजरी को क़ाहिरा में पैदा हुए। 28 रमज़ान सन् 386 हिजरी को तख़्त नशीन हुए और 25 साल 26 दिन हुकूमत करके 36 साल 7 माह की उम्र में 27 शव्वाल सन् 411 हिजरी को इन्तेकाल फ़रमाया।
आप 11 साल की उम्र में बादशाह हुए। शरियत के सख़्त पाबन्द थे। औरतों के लिए पर्दा लाज़मीं करार दिया। काहिरा में मस्जिदे अज़हर बनवाई। निहायत सखी, कवी, शुजा, मुनसिफ, आलिम, आबिद और साहबे करामत थे। हबीबुस-सियर में है कि यह ख़लीफ़ा बड़ा ही आदिल और ख़ुदा तरस था। उसने मदरसे बनवाए उनके लिए जागीरें वक़्फ़ कीं। दर्स व तदरीस के लिए आलिम और फ़क़ीह मुकर्रर किए। लोगों को आम इजाज़त थी कि जिसका दिल चाहे बादशाह से बराहे रास्त मिल कर अपनी शिकायात पेश करे। इल्मे हैयत पर उसकी किताब चार जिल्द में थी।
(7) अबु मअद अल-ज़ाहिर लि-एज़ाज़दीनुल्लाह बिन हाकिम
10 रमज़ानुल मुबारक सन् 365 हिजरी को काहिरा में मुतवल्लिद हुए। 4 जीकाद सन् 411 हिजरी में तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुए और 15 साल 10 माह हुकूमत करने के बाद 32 साल की उम्र में वफात पाई।
मुवर्रिख़ एहसानुल्लाह अब्बासी रकम तराज़ हैं कि यह बड़ा नेक दिल व नेक नाम बादशाह था। इसके दौर में इस्माईलिया मज़हब को उरूज हासिल हुआ। कैसरे रोम से सुलह हुई और उसने अपने मुल्क में मुसलमानों को “ज़ाहिर” के नाम का खुतबा पढ़ने की इजाज़त दे दी। कुसतुनतुनिया में एक बड़ी मस्जिद तामीर हुई और उसमें मोअजि़्ज़न मुकर्रर किया गया। हबीबुस-सियर में है कि आप अपने आबा व अजदाद की तरह मुनसिफ मिज़ाल और नेक सीरत थे। साहबे रौज़तुल सफ़ा का कहना है कि आपके दौर में तमाम फ़ितने फ़रो हो गए थे लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि आप ही के अहद से फातमी सल्तनत का इन्हेतात शुरू हो गया।
(8) अबु तमीम मअद अल-मुस्तनसिर बेअमरिल्लाह बिन ज़ाहिर
आप माहे जमादुस सानिया सन् 420 हिजरी में ब-मक़ाम काहिरा मुतवल्लिद हुए। सन् 427 हिजरी में तख़्त नशीन हुए और 60 साल 4 माह फ़रमाँरवा रहक़र 18 ज़िलहिज सन् 487 हिजरी को 67 साल की उम्र में इन्तेकाल किया।
मोअर्रिख़ अब्बासी का बयान है कि क़ाएम बिल्लाह अब्बासी ने वालिए अफ्रीक़ा से साज़िश करके उनको नुकसान पहुंचाना चाहा लेकिन उसकी हिकमत कारगर न हो सकी और उसके बदले में मुस्तन्सिर के इशारे पर “बसासीरी” ने क़ाएम को बग़दाद में कैद करके साल भर तक मुस्तन्सिर का नाम बग़दाद के खुतबे में क़ाएम रखा। मुस्तन्सिर के अहद में अब्बासियों का ख़ातिमा हो जाता लेकिन तुग़रल बेग ने बसासीरी को मगलूब कर दिया और क़ाएम बिल्लाह को एजाज़ के साथ फिर तख़्त पर बैठा दिया और इसी सिले में अपने लिए “रूकनुद्दीन” का ख़िताब हासिल किया।
सन् 476 हिजरी में इस्माईलियों के पेशवा हसन बिन सबाह ताजिरों के भेस में मुस्तन्सिर के पास आए और उनकी तरफ से खुरासान व बिलादे अजम में दाई मुकर्रर हुए। हसन बिन सबाह ने पहले खुफिया तौर पर फिर एलानिया इस्माईली नजरियात की तबलीग़ की फिर किलों पर कब्ज़ा करके उन्होंने हुकूमत क़ाएम कर ली।
(9) अबुल कासिम अहमद अल-मुस्तअली बिल्लाह बिन मुस्तन्सिर
20 रमज़ान सन् 467 हिजरी में विलतद हुई। 18 जिलहिज सन् 487 हिजरी को तख़्त नशीन हुए। 7 साल तीन माह बरसरे इक़तेदार रहक़र 17 सफ़र सन् 465 हिजरी में 28 साल की उम्र में दुनिया से रूख़्सत हुए।
मुस्तन्सिर बेअमरिल्लाह ने अपनी ज़िन्दगी में अपने बड़े साहबज़ादे नज़ार को अपना वली अहद मुकर्रर किया था। मगर नज़ार में और वज़ीरे आज़म अफ़ज़ल में बाहमी रंजिश थी इसलिए अफज़ल ने नज़ार के बजाये मुस्तअली को ख़लीफ़ा बना दिया। इसी वजह से नज़ार और अफ़ज़ल में जंग हुई और नज़ार गिरफ़्तार करके मुस्तअली के हवाले कर दिए गए। नज़ारी इस्माईलियों का कहना है कि नज़ार के फ़रज़न्द हादी कैद से निकल कर अजम की तरफ चले गए थे और वहां से “मूत” के इस्माईली इमाम पैदा हुए। उस वक़्त से इस्माईलियों के दो फिर्के हो गए। एक नज़ारी फिर्क़ा जो नज़ार और उनकी औलाद को इमाम मानता है यानि हसन बिन सबाह के मुकल्लिद और हिन्दुस्तान व पाकिस्तान के आगाखानी ख़ोजे। दूसरे वह जो मुस्तअली और उनकी औलाद को इमाम तस्लीम करते हैं यानि शिया बोहरे।
(10) अबु अली मंसूर अल-अम्र बि-अहकामिल्लाह बिन मुस्तअली
13 मुहर्रमुल हराम सन् 490 हिजरी को पैदा हुए। 17 सफ़र सन् 495 हिजरी को तख़्तनशीन हुए और 26 साल 8 माह हुकूमत करके 34 साल की उम्र में 3 ज़ीक़ाद सन् 524 हिजरी को वफ़ात पा गए।
आपके अहद में ईसाइयों से बड़ी-बड़ी लड़ाईयां हुईं जिनमें मुसलमान फतहयाब हुए। जवान होकर आपने वज़ीरे आज़म अफ़ज़ल को क़त्ल करा दिया। आप हाफिजे र्कुआन भी थे और आपके दौरे हुकूमत में खुशहाली का दौर दौरा था।
बोहरों का एतकाद है कि आपने अपने एक खुर्दसाल साहबज़ादे “अबुल कासिम तय्यब” को छोड़कर इन्तेकाल किया और उनकी निगरानीं के लिए अपने चचा ज़ाद भाई अब्दुल मजीद मैमून बिन अबुल क़ासिम मुस्तन्सिर को उनका वली मुकर्रर किया। मगर दो साल बाद हाफिज़ खुद ख़लीफ़ा बन गए और तय्यब ने रूपोशी इख़्तेयार कर ली। चुनांचे बोहरे फिर्के के लोग उन्हें इमाम तय्यब की नस्ल दर नस्ल इमाम का हर ज़माने में मौजूद होना वाजिब जानते हैं और यही उनका अक़ीदा है।
(11) अबुल मैमून अब्दुल मजीद अल-हाफ़िज़ुद्दीन
मुहर्रम सन् 467 हिजरी में पैदा हुए। 3 जीकाद सन् 524 हिजरी कों तख़्त नशीन हुए और 16 साल 7 माह हुकूमत करके 77 साल की उम्र में 5 जमादुल सानिया सन् 544 हिजरी को इन्तेकाल कर गए।
आप सिर्फ नाम के हुक्मरां थे। आपका वज़ीरे आज़म “अहमद” जुमला उमूरे सल्तनत पर हावी था और उसी का हुक्म चलता था। अहमद अकाएद के लिहाज़ से इसना अशरी था। बाज़ मुवर्रिख़ीन ने लिखा है कि हाफ़िज़ ने भी मज़हब इसना अशरी का इज़हार कर दिया था। अहमद ने बारहवें इमाम हज़रत मुहम्मद मेहदी (अ.स.) के नाम का सिक्का और खुतबा भी जारी कर दिया था। 15 मुहर्रम सन् 526 हिजरी को अहमद क़त्ल कर दिया गया और सन् 526 हिजरी में हाफिज़ का भी इन्तेकाल हो गया।
(12) अबु मंसूर इस्माईल अज़-ज़ाफ़िर लेअअदाईल्लाह बिनुल हाफ़िज़
5 रबीउस सानी सन् 527 हिजरी को पैदा हुए। 5 जमादुस सानिया सन् 544 हिजरी में तख्त नशीन हुए और 4 साल 7 माह बाद 15 मुहर्रमुल हराम सन् 546 हिजरी को 21 साल 6 माह की उम्र में क़त्ल कर दिए गए। आप अपने दौरे हुकूमत में बेबस व मजबूर थे। आपके वज़ीर तमाम उमूरे सल्तनत पर हावी थे। चारों तरफ बगावतों और साजिशों ने सर उठा रखा था जिसका नतीजा आपके क़त्ल की सूरत में ज़ाहिर हुआ।
(13) अबुल कासिम ईसा अल-फ़ाएज़ बेअमरिल्लाह बिन ज़ाफ़र
21 मुहर्रम सन् 544 हिजरी को पैदा हुए। पांच साल की उम्र में 15 मुहर्रम सन् 546 हिजरी को तख़्त नशीन हुए और 11 साल 6 माह की उम्र में 15 रजब सन् 555 हिजरी को इन्तेकाल कर गए।
मुवर्रिख़ एहसानुल्लाह अब्बासी का बयान है कि फाएज़ के दौर में भी अहले फ़िरंग से जंगे हुईं जिसके नतीजे में मुल्क का काफी हिस्सा फातमियों के हाथ से निकल गया। सालेह बिन ज़रबक फाएज़ का वज़ीरे आज़म था जो फाजिल, सखी, आलिम, अदीब और शाएर था। उसने ख़िलाफ़ते अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के मौज़ू पर हज़रत अली (अ.स.) की हिमायत में एक ज़बर्दस्त किताब लिखी है जिसका नाम “अल एतमाद फिल रद्दे अला अहलुल एनाद” है। उसने ख़िलाफ़ते अली (अ.स.) को हक़ बजानिब क़रार देने के लिए लोगों से मुतअद्दि मुनाज़िरे भी किए।
अल्लामा मुकरेज़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि सालेह बिन ज़रबक अरमनी कौम के इसना अशरी मज़हब का एक फ़कीर था। एक दिन ज़ियारते अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) के लिए नजफे अशरफ़ गया और वहां उसे मनसबे विज़ारते उज़्मा पर फाएज़ होने की बशारत हुई। चुनांचे वह विज़ारते उज़्मा पर फाएज़ होकर कुछ दिनों बाद मिस्र का बादशाह बन गया।
(13) अबु मोहम्मद अब्दुल्लाह अल-आज़िदुदीनिल्लाह बिन युसूफ़
20 मुहर्रमुल हराम सन् 546 हिजरी को पैदा हुए। 17 रजब सन् 555 हिजरी को तख़्त नशीन हुए और 11 साल छः माह हुकूमत के बाद 21 साल की उम्र में 10 मुहर्रम सन् 567 हिजरी को इन्तेकाल कर गए। उनके अहद में अहले फ़िरंग से मुतअद्दि लड़ाईयां हुईं और फ़िरगिंयों ने मिस्र पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन वाली-ए-शाम ने मिस्रियों की मदद को फ़ौज भेज दी जिसने अहले फ़िरंग को वहां से निकाल बाहर किया। आज़िद ने एक सुन्नी शख़्स सलाहुद्दीन यूसुफ़ को अपना वज़ीर बना लिया था जिसने गद्दारी की और तमाम उमूर सल्तनत पर हावी होकर ख़लीफ़ा को बेदख़ल कर दिया। आज़िद की मौत के बाद सलातीने अलविया असमाए अलिया का ख़ातिमा हो गया और सल्तनते फातमिया का वह सितारा जो 270 साल से ज़ौफ़ेगन था, गुरूब हो गया।
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इमाम मूसा काज़िम (अ.स.)
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इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के सातवें जॉनशीन और सिलसिलए इस्मत की नवीं कड़ी हैं। आप 7 सफ़र सन् 128 हिजरी मुताबिक 10 नवम्बर सन् 745 हिजरी बरोज़ हफ़्ता मक्के और मदीना के दरमियान वाक़े “अबवा” नामी एक क़स्बे में जनाब हमीदा खातून बिन्ते सअद बुरेरी के बतन से मुतवल्लिद हुए।
आपकी वालिदा-ए-माजिदा एक बाअज़मत, बरगुज़िदा और बुलन्द पाया ख़ातून थीं जिनके बारे में इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया है कि आप दुनिया में हमीदा और आख़िरत में महमूदा हैं। अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा रक़म तराज़ हैं कि हमीदा खातून तमाम निस्वानी आलाईशों से पाक व साफ़ थीं। जिनातुल खुलूद में है कि आप इन्तेहाई खुबसूरत, खुश जमाल, मुत्तकी, परहेज़गार, इबादत व इताअत गुज़ार और वफादार बीबी थीं।
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) भी अपने आबा व अजदाद की तरफ जुमला सिफाते हसना से मुत्तसिफ़, तमाम दुनिया की ज़बानों से वाक़िफ़ और इल्मे ग़ैब से आगाह थे। अल्लामा इब्ने हजर मक्की का बयान है कि आप उलूम, मआरिफ, फ़ज़ाएल और कमालात में इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) के हकीकी वारिस और जॉनशीन थे। इब्ने तलहा शाफई का कहना है कि आप इन्तेहाई औज मंज़िलत के हामिल, इमामे वक़्त और अज़ीम तरीन मुज्तहिद थे। जबकि अल्लामा शिबली ने लिखा है कि आप हुज्जते ख़ुदा थे। आपकी रातें इबादते इलाही में और दिन रोज़ों में गुज़रते थे।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
आपके वालिदे बुजुर्गवार ने आपका नाम मूसा रखा। कुन्नियत अबुल हसन, अबु इब्राहीम, अबु अली और अबु अब्दुल्लाह थी। अलक़ाब में काज़िम, अब्दुस-सालेह, नफ्से ज़किया, साबिर, अमीन और बाबुल हवाएज वग़ैरा हैं लेकिन आपका मशहूर तरीन लकब काज़िम है। क्योंकि आप हलीम व बुर्दबार होने के साथ-साथ अपने दुश्मनों को माफ़ करने वाले और गुस्से को ज़ब्त करने वाले भी थे। इसके अलावा आप हल्लाले मुश्किलात भी थे। चुनांचे ख़तीब बग़दादी का कहना है कि जब मुझ पर कोई सख़्त मुश्किल पड़ती थी तो मैं इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के रौज़े पर जाकर दुआ करता था और वह मुश्किल हल हो जाती थी।
तरबियत
आपकी हयाते ताहिरा के बीस साल अपने वालिदे बुजुर्गवार के सायाए तरबियात में गुज़रे। एक तरफ ख़ुदा के दिए हुए फितरी कमाल के जौहर और दूसरी तरफ उस बाप की तरबियत जिसने पैग़म्बर (स.अ.) के बताये हुए मकारिमे अख़्लाक़ की भूली हुई याद को ताज़ा करके इस तरह अपना लिया कि उसका नाम “मिल्लते जाफ़रिया” हो गया।
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) का बचपन, और जवानी का काफी हिस्सा उसी मुकद्दस आगोश में परवान चढ़ा, यहां तक कि आपके फ़ज़ाएल व कमालात सारी दुनिया पर रौशन हो गए और सादिक़े आले मुहम्मद (स.अ.) ने आपको जॉनशीन मुकर्रर फ़रमा दिया। हालांकि आपके बड़े भाई भी मौजूद थे मगर ख़ुदाई मनसब मीरास का तरका नहीं होता बल्कि वह जाती कमालात पर मुन्हसिर होता है। सिलसिलए मासूमीन (अ.स.) में इमाम हसन (अ.स.) के बाद बजाए उनकी औलाद के इमाम हुसैन (अ.स.) का इमाम होना और औलादे इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) में बजाए फ़रज़न्दे अकबर के इमामत इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) की तरफ मुन्तकिल होना इस बात की दलील है कि मेयारे इमामत में नसबी विरासत को मद्दे नज़र नहीं रखा गया।
शाहाने वक़्त
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) मरवानुल हिमार उमवी के अहद में मुतवल्लिद हुए। उसके बाद सन् 132 हिजरी में सफ़्फ़ाह अब्बासी ख़लीफ़ा हुआ। सन् 136 हिजरी में मंसूर दवानिकी तख्ते हुकूमत पर मुत्मक्किन हुआ। सन् 157 हिजरी में मेहदी बिन मंसूर फ़रमाँरवा हुआ। सन् 166 हिजरी में हादी अब्बासी तख़्त व ताज का मालिक बना और 170 हिजरी में हारून रशीद ख़लीफ़ा हुआ। उसने 183 हिजरी में इमाम को ज़हर के ज़रिए कैदखाने में शहीद करा दिया।
सलातीने अब्बासिया और इमाम (अ.स.)
अपने वालिदे बुजुर्गवार की शहादत के बाद सन् 146 हिजरी में जब इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) मनसबे इमामत पर फाएज़ हुए तो उस वक़्त मंसूर दवानिकी बरसरे इक़्तेदार था। यह वही जालिम व जाबिर बादशाह था जिसकी रूदादे जुल्म व जौर मुख़्तसरन हमगुज़िश्ता सफ़हात में तहरीर कर चुके हैं इसी हुक्मरां के अहद में ला-तादाद सादात मज़ालिम और तशद्दुद का निशाना बने, बेशुमार तलवार के घाट उतर गए, हज़ारों दीवारों में चुनवा दिए गए और न जाने कितनों ने कैदखानों में दम तोड़ दिया। इन्तेहा यह कि ख़ुद इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) की जाते अकदस भी उसकी ज़ालिमाना रीशा-दवानियों से महफूज़ न रह सकी और बिल आख़िर उसने उन्हें भी ज़हर से शहीद करा दिया।
उन नासाज़गार हालात में इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) को अपने जॉनशीन इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के बारे में भी यह अन्देशा था कि हाकिमे वक़्त उन्हें जिन्दा नहीं छोड़ेगा। चुनांचे इकदामे तहफ्फुज़ के तहत आपने आख़िरी वक़्त एक अख़लाक़ी बोझ मंसूर के कांधों पर यह डाल दिया कि अपनी जाएदाद मन्कूला की बका और देखभाल के लिए एक पांच रूकनी इन्तेज़ामिया कमेटी तशकील दी और उसका मुन्तज़िमे आला मंसूर को नामजद फ़रमाकर मुहम्मद बिन सुलेमान हाकिमे मदीना, अपने भाई अब्दुल्लाह फ़तह, इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) और उनकी वालिदा हमीदा खातून को उसका मिम्बर बना दिया।
इसमें कोई शक नहीं कि इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) की इस तदबीरे तहफ्फुज ने मंसूर की ज़ालिमाना रविश को अख़्लाकियात की जंजीरों में जकड़ दिया। चुनांचे उसे जब आपकी दर्दनाक शहादत की ख़बर मिली तो पहले उसने मसलहतन रंज व गम का इज़हार किया फिर कहा अब सादिक़े आले मुहम्मद (स.अ.) का वारिस कौन है? उसके बाद उसने हाकिमे मदीना को एक ख़त लिखा कि अगर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने किसी को अपना वारिस मुकर्रर किया है तो फौरन उसे क़त्ल कर दो। हाकिमे मदीना ने जवाब में तहरीर किया कि सादिक़़ आले मुहम्मद (स.अ.) ने अपने पांच वारिस मुकर्रर किए हैं जिनमें सबसे पहला नाम आप ही का है। मंसूर मुतहय्यर व शशदर रह गया। बड़ी देर तक ख़ामोश रहा फिर सोचने और समझने के बाद बोला कि ऐसी सूरत में यह लोग क़त्ल नहीं किए जा सकते। उसके बाद दस बरस तक मंसूर जिन्दा रहा मगर उसने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) से किसी किस्म का कोई ताअरुज़ नहीं किया।
सन् 158 हिजरी के आख़िर में मंसूर जब दुनिया से रूख़्सत हो गया तो उसका बेटा मेहदी तख़्त नशीन हुआ। शुरू में उसने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) का पास व लिहाज़ और एहतेराम किया मगर दो ही साल के बाद उसके दिल में भी बनी फ़ातिमा से अदावत व मुख़ालिफ़त का जज़्बा उभरा। चुनांचे सन् 164 हिजरी में जब वह हज की ग़रज़ से मक्के गया तो वापसी में वह इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) को अपने साथ वहां से बग़दाद लाया और क़ैद कर दिया। आप बग़दाद के कैदख़ाने में एक साल तक कै़द रहे। फिर न जाने क्या सोच कर उसने आपको रिहा कर दिया और एक साल के बाद आप वारिदे मदीना हुए।
मेहदी के बाद उसका भाई हादी तख्ते हुकूमत पर बैठा और सिर्फ एक साल एक माह हुकूमत करके रूख़्सत हो गया। अल्लामा तबरिसी ने लिखा है कि इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) जिस वक़्त दर्जेेए इमामत पर फाएज हुए उस वक्त आपकी उम्र बीस बरस की थी।
अख़्लाक़ व औसाफ़
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) उस मुक़द्दस सिलसिले की एक फर्द थे जिसको परवर दिगारे आलम ने बनी नौए इन्सान के लिए मेयारे कमाल करार दिया था। इसलिए उनमें से हर एक अपने वक़्त में बेहतरीन अख़्लाक़ व औसाफ़ का मुरक़्क़ा था। यह एक हक़ीक़त है कि बाज़ अफराद में बाज़ औसाफ़ इतने मुम्ताज़ नज़र आते हैं कि सबसे पहले इन्सान की नज़र उन पर पड़ती है। चुनांचे सातवें इमाम में तहम्मुल व बर्दाश्त और गुस्सा ज़ब्त करने की सिफ़त इतनी नुमायां थी कि आपका लकब काज़िम करार पाया जिसके मानी ही गुस्से को पीने वाला है। किसी ने आपको कभी तुर्श-रूई या सख्ती से बात करते नहीं देखा और इन्तेहाई नासाज़गार हालात में भी मुस्कुराते हुए नज़र आए।
इल्मी और दीनी ख़िदमात
यह एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि आपको इन्तेहाई पुर-आशोब ज़माना मिला था। न उस वक़्त वह इल्मी दरबार क़ाएम रह सकता था जो इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के ज़माने में क़ाएम रह चुका था न किसी ज़रिए से दीन की तब्लीग़ व इशाअत मुम्किन थी। ताहम मदीने में क़याम के दौरान ओलमा, फुकहा और मोहद्देसीन की एक कसीर तादाद (जो आपके वालिदे बुजुर्गवार के शार्गिदों पर मुश्तमिल थी) आपके गिर्द जमा हो गयी थी। लिहाजा आपने ज़बर्दस्त हौसले और तवानाई के साथ उन लोगों को इस्लामी फ़िक़ह और तालिमात से माला माल किया। अहकामे शरीयत के बहुत से मजमूए आप ही से मनसूब हैं जो फ़िक़ह व हदीस की बड़ी-बड़ी किताबों की सूरत में मुददवुन हो चुके हैं। ओलमा और रावियाने अहादीस हमेशा आपके साथ रहते थे और आपकी हदीसों, इल्मी बहसों और नज़रियात को लिखते जाते थे। चुनांचे सय्य्यद इब्ने ताऊस ने रिवायत की है कि आपके अस्हाब व ख़्वास आपकी मजालिस में इसी तरह हाज़िर होते थे कि उनकी आस्तीनों में आबनूस या आमले की तख्तियां होती थीं। जब भी कोई जुमला इमाम (अ.स.) की ज़बान से निकलता था या किसी मामले में आप फ़तवा सादिर फ़रमाते थे तो वह लोग उसे लिख लेते थे। उन ओलमा ने आपसे हर किस्म के उलूम नक़्ल किए हैं अगरचे वह उलूम एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं मगर उनका दामन निहायत वसीअ है।
आपकी इल्मी खिदमात तमाम आलमे इस्लाम में क़द्रो मंज़िलत की निगाह से देखी जाने लगीं और आपका अता कर्दा इल्मी सरमाया ओलमा के ज़रिए नस्ल दर नस्ल मुन्तकिल होता चला गया। बा-ज़ाते खुद आपको तस्नीफ़ात का मौक़ा नहीं मिला लेकिन फिर भी आप उस तरफ मुतवज्जे रहे। आपकी एक तस्नीफ़ जिसका ज़िक्र किताबों में मिलता है वह मसन्दे इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) है।
हारून रशीद अब्बासी
15 रबीउल अव्वल सन् 170 हिजरी को मेहदी का बेटा हारून रशीद अब्बासी तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुआ उसने अपना वज़ीरे आज़म यहिया बिन खालिद मक्की को बनाया और इमाम अबु हनीफा के शागिर्द अबु यूसुफ़ को काजीयुल कुज़ात का दर्जा दिया।
ज़हबी ने लिखा है कि हारून रशीद लह्व व लआब और अय्याशी का दिलदादा था। इब्ने खलदून का कहना है कि यह अपने दादा मंसूर दवानिकी की तस्वीर था और उसके नक्शे कदम पर चलता था। बस फ़र्क़ इतना था कि मंसूर बख़ील था और यह सख़ी था। मुख़्तलिफ़ मुवर्रिख़ीन का बयान है कि हारून रशीद पहला ख़लीफ़ा है जिसने मौसीकी और राग रागनी के ज़रिए हुसूले रिज़्क को शरीफाना पेशा करार दिया और इल्म मौसिकी का माहिर अबु इस्हाक़ इब्राहीम मूसली उसका दरबारी मोसिक़ी कार था। साहबे हबीबुस-सियर ने तहरीर फ़रमाया है कि यह पहला इस्लामी बादशाह था जिसने शतरंज का शौक किया और मैदान में गेंदबाजी की।
हारून रशीद की पेशानी पर सादात कुशी का भी बदनुमा दाग़ है। अल्लामा सुईती ने तारीखुल खुलफ़ा में तहरीर फ़रमाया है कि हारून रशीद अपने बाप की लौंडी पर आशिक़ हो गया और उसके साथ अपने नफ़्स की तस्कीन चाही। उसने कहा, मैं तुम्हारे बाप के पास रह चुकी हूं तुम्हारे लिए हलाल नहीं हूं। हारून ने अबु यूसुफ से फ़तवा तलब किया, उसने कहा आप इसकी बात क्यों मानते हैं? मुम्किन है कि वह झूठ बोल रही हो। चुनांचे इस फ़तवे के सहारे उसने अपने बाप की मदखू़ला से बदफ़ेली की। अल्लामा सुईती ने यह भी लिखा है कि हारून रशीद ने एक लौंडी ख़रीद कर उसी रात उसके साथ बिला इस्तेबरा जिमा करना चाहा। काज़ी अबु यूसुफ ने कहा कि उसे अपने किसी लड़के को हिबा करके इस्तेमाल कर लीजिए। इस फ़तवे की उजरत अबु यूसुफ ने एक लाख दिरहम ली थी।
मुवर्रिख ज़ाकिर हुसैन ने अपनी किताब तारीखुल इस्लाम में ब-हवालए सहाहुल अख़बार तहरीर किया है कि हारून रशीद का दर्जा सादात कशी में मंसूर से कम न था। उसने सन् 176 हिजरी में नफ़्से ज़किया के भाई यहिया को जिन्दा दीवार में चुनवा दिया था। उसी ने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) को जहर से शहीद किया और उसी ने दूसरी सदी हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) की कब्र पर हल चलवाया और निशान के लिए क़ब्रे अकदस पर जो बेरी का दरख़्त था उसको कटवा दिया। जब इन वाक़िआत की इत्तेला जरीर बिन अब्दुल हमीद को हुई तो उन्होंने कहा कि रसूले खुदा (स.अ.) की इस हदीस लअनल्लाहु कातिअस सिदरते। यानि बेरी का दरख़्त काटने वाले पर ख़ुदा की लअनत का मतलब अब वाज़ेह हुआ।
अली बिन सालेह तालक़ानी का वाक़िआ
इब्ने शहर आशूब ने खालिद बिन समां से रिवायत की है कि एक दिन हारून रशीद ने अली बिन सालेह तालकानी नामी एक शख़्स को तलब किया और उससे पूछा, क्या तुम वहीं शख़्स हो जिसे बादल चीन से उठा कर तालकान ले आए थे। कहा, हां। हारून ने कहा बताओ क्या वाक़िआ है, और यह क्योंकर मुम्किन हुआ? तालक़ानी ने कहा, मैं कश्ती के ज़रिए समुन्द्र का सफ़र तय कर रहा था। मेरी कश्ती जब उस मक़ाम पर पहुंची जिसकी गहराई सबसे ज़्यादा थी तो वह टूट गयी। तीन दिन तक मैं एक तख़्ते पर पड़ा रहा और मौजें उसे मुतावातिर थपेड़े देती रहीं यहां तक कि मैं उस साहिल से हमकिनार हुआ जिससे कुछ फासले पर एक खुशनुमा बाग़ था। मैं उस बाग़ में दाखिल हुआ और एक दरख़्त के नीचे लेट कर सो गया। अभी थोड़ी ही देर गुज़री थी कि कानों में एक मुहीब और ख़ौफ़नाक आवाज़ आई। बेदार हुआ तो देखा कि दो घोड़े आपस में लड़ रहे है। ऐसे खुबसूरत घोड़े मैंने कभी नहीं देखते थे। उन घोड़ों ने जब मुझे देखा तो जस्त लगा कर समुन्द्र में कूद गए। उसके बाद मैंने एक अजीबुल ख़िलकत परिन्दे को देखा जो आकर मेरे क़रीब बैठ गया था। मैं दरख़्तों की आड़ में छिपता छिपाता उसके करीब पहुंचा तो वह मुझसे दूर होने लगा। मैं भी चलता रहा यहां तक कि वह एक पहाड़ के गार के करीब पहुंच कर आसमान की तरफ परवाज़ कर गया। मैं उस ग़ार की तरफ बढ़ा तो मुझे तस्बीह व तहलील और तिलावते र्कुआन मजीद की आवाजें सुनाई दीं। दहाने पर पहुंचा तो किसी ने कहा, ऐ अली बिन सालेह! ग़ार के अन्दर आ जाओ। उस सदा में इतनी कशिश थी कि ख़ौफ़ व दहशत के बावजूद मैं उस ग़ार में दाखिल हो गया। वहां एक खद्दर पोश नूरानी शख़्सियत पर मेरी नज़र पड़ी। मैंने सलाम किया, उन्होंने सलाम का जवाब देने के बाद फ़रमाया कि ऐ पिसर सालेह तुम कश्ती पर समुन्द्र का सफ़र तय कर रहे थे और तुम्हारी कश्ती टूट कर बिखर गयी थी। मैं उस वक़्त को भी जानता हूं जब तुमने तूफानों और मौजों से निजात पाई और एक बाग़ में दाखिल होकर दो खूबसूरत चीजें देखीं। मैं यह भी जानता हूं कि तुमने परिन्दे का पीछा किया और वह तुम्हें यहां तक ले आया। अब तुम बैठ जाओ, मालूम होता है कि भूख की शिद्दत तुम्हें परेशान कर रही है। मैंने अर्ज़ की, बेशक मैं कई रोज़ का भूखा हूं। उन्होंने अपने लबों को जुंबिश दी और एक ख़्वान कपड़े से ढका हुआ हाज़िर हो गया। फ़रमाया, अल्लाह की तरफ से जो रिज़्क आया है इसे तनावुल करो। मैंने, शिकम सेर होकर खाना खाया। ऐसा लज़ीज़ खाना फिर मयस्सर न हुआ। उन बुजुर्ग ने मुझे पानी पिलाया और मेरे हाथ धुलवाए। थोड़ी देर आराम के बाद जब मुझमें कुछ तकवियत पैदा हुई तो उन बुजुर्गवार ने मुझसे पूछा कि क्या तुम अपने वतन जाना चाहोगे? मैंने कहा, मेरा वतन बहुत दूर है और मुझमें सफ़र की कूव्वत नहीं, मैं क्योंकर रास्ता तय करूंगा? फ़रमाया घबराओ नहीं, हम अपने दोस्तों की मुश्किलें हल किया करते हैं, यह कहक़र उन्होंने मुसल्ला बिछाया, दो रकअ्त नमाज़ पढ़ी और दुआ के लिए हाथ उठा दिए। नागाह बादलों के झुरमुट नमूदार होने लगे और देखते ही देखते ग़ार के दहाने पर छा गए। उन बुजुर्गवार ने बादल के एक टुकड़े से पूछा, कहां का इरादा है? उसने उस सरज़मीन का नाम लिया जिस पर आबकारी के लिए वह खुदा की तरफ से मुअय्यन हुआ था। जब वह हवा के दोश पर अपनी मंज़िल की तरफ़ परवाज़ कर गया तो दूसरा टुकड़ा सामने आया और वह भी अपनी मंज़िल का पता बता कर रवाना हो गया। फिर तीसरा टुकड़ा आया, उसने कहा, मैं तालक़ान के लिए मामूर हुआ हूं। उन बुजुर्ग ने मेरी तरफ़ इशारा करके फ़रमाया कि इस बन्दए मोमिन को भी लेता जा। फिर वह अब ज़मीन के बराबर हो गया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर उसके दोश पर सवार कर दिया। मैंने वक़्ते रूख़्सत उन बुजुर्गवार को ख़ुदाए वहदहू ला-शरीक की क़सम और मुहम्मद व आले मुहम्मद (स.अ.) का वास्ता देकर पूछा के आप कौन हैं और आपका इस्मे गिरामीं क्या है? इरशाद फ़रमायाः ऐ अली बिन सालेह! मैं अल्लाह की ज़मीन पर उसकी तरफ से हुज्जत हूं और मेरा नाम मूसा बिन जाफ़र (अ.स.) है। उसके बाद उन्होंने बादल को परवाज़ का हुक्म दिया और वह बुलन्द होकर हवा के दोश पर चल पड़ा। ग़रज़ कि मैं थोड़ी देर के बाद अपने वतन तालकान में था और उस सड़क पर उतरा जहां मेरा मकान वाके था।
यह सुनकर हारून रशीद को अन्देशा पैदा हुआ कि अगर यह वाक़िआ अवाम में शोहरत पा गया तो इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) की फजीलतें और भी रौशन हो जाएंगी। चुनांचे उसने जल्लाद को हुक्म दिया और अली बिन सालेह तालकानी की गर्दन उड़ा दी गयी।
गिरफ़्तारी और रिहाई
मुवर्रिख़ीन का बयान है कि मसन्दे इक़्तेदार पर आने के बाद ख़लीफ़ा हारून रशीद ने सन् 173 हिजरी में पहला हज किया और हज से फ़ारिग होकर मदीने आया। फिर ज़ियारत की ग़रज़ से रौज़-ए-रसूल (स.अ.) पर हाज़िर हुआ। तमाम अमाएदीन व अकाबरीने शहर, बड़े बड़े रूअसा, फौज के आला हुक्काम और हुकूमत के ओमरा सभी उसके साथ थे। उस मौके पर हारून ने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) को भी तलब कर लिया था, क्योंकि उसे अपने इफ़्तेख़ार का मुज़ाहिरा मकसूद था। चुनांचे उसने कब्र मुतह्हर की तरफ़ रूख करके कहाः “ऐ मेरे इब्ने अम्म! आप पर हारून का सलाम हो।” इमाम (अ.स.) ने फ़रमायाः “सलाम हो आप पर ऐ मेरे पिदरे बुज़र्गवार! यह सुनना था कि हारून आपे से बाहर हो गया क्योंकि इमाम (अ.स.) ने फ़ख़्र व अज़मत में अपनी सबक़त साबित कर दी थी ! चुनांचे उसने ग़ैज़ व गज़ब और कीना भरे लहजे में कहाः “आपने हम से ज़्यादा रसूलुल्लाह (स.अ.) से कुरबत का दावा क्यों किया? इमाम (अ.स.) ने दो टूक और दन्दान शिकन जवाब देते हुए फ़रमाया, अगर रसूल अल्लाह (स.अ.) हयात होते और तुमसे तुम्हारी बेटी की ख़्वास्तगारी करते तो क्या तुम उसे कुबूल करते? हारून ने जवाब दिया, सुब्हान अल्लाह यह तो अरब व अजम के रूबरू मेरे लिए सबबे इफ़्तेख़ार होता। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, लेकिन रसूल अल्लाह (स.अ.) मुझसे मेरी बेटी न मांग सकते हैं और न मैं दे सकता हूं क्योंकि रसूल अल्लाह (स.अ.) हमारे बाप हैं न कि तुम्हारे, इसी लिए हम तुम्हारी निसबत आँहज़रत (स.अ.) से ज़्यादा नज़दीक हैं। इस दलील पर हारून के चेहरे का रंग ज़र्द हो गया और खिसयाहट में उसने इमाम (अ.स.) को अपने हमराह ले जाकर कैद कर दिया। कैदखाने में आप मसाएब व आलाम से दो चार थे और तरह तरह की सख़्तियां जारी थीं कि एक शब हारून ने ख्वाब में देखा कि हज़रत अली (अ.स.) तशरीफ लाए हैं, उनके हाथ में एक तीशां है और वह फ़रमा रहे हैं कि मेरे फ़रज़न्द को कैद से रिहा कर दे वरना मैं अभी तुझे कैफ़रे किरदार तक पहुंचा दूंगा। उस ख्वाब के बाद हारून की आंख खुली तो वह घबराया, और ख़ौफ़ज़दा हुआ और उसने इमाम (अ.स.) की रिहाई का हुक्म दिया। गर्ज कि कैदख़ाने से रिहाई के बाद आप मदीना-ए-मुनव्वरा पहुंचे और बदस्तूर अपने फ़राएजे इमामत की अदाएगी में मशगूल हो गए।
इमाम (अ.स.) की सरगर्मियां
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) ने अपनी जद्दो जेहद के तरीक़-ए-कार को दो मुख़्तलिफ़ हिस्सों में मुन्क़सिम कर रखा था। पहला तरीका हुकूमत से इज्तेनाब और गुरेज़ का था जिसकी सूरत यह थी कि आप अपने हामियों को हुकूमत से कतए तअल्लुक करने और उससे किसी क़िस्म का रब्त या लेन देन न रखने का हुक्म देते थे। मुकाबिले की यह रविश अगरचे बराहे -रास्त टकराव और जंग व जदल के बजाए बाईकाट और गुरेज़ की मज़हर थी लेकिन मुसलेहाना इक़दाम से इज्तेनाब अपनी जगह खुद इस्लाम और इस्लामी इक़दाम की हिफ़ाज़त के लिए एक अज़ीम और मुसबत काम था। क्योंकि मुन्हरिफ हुक्मरां इस्लाम की ग़लत और बदनुमा तस्वीर पेश कर रहे थे। चुनांचे अहलेबैत (अ.स.) से तअल्लुक रखने वाली कयादत के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि इस्लाम की हक़ीक़ी तस्वीर और उसका ताबनाक, चेहरा सामने लाएं और अमलन यह साबित करें कि हुकूमते वक़्त और इस्लाम के दरमियान किसी तरह का कोई रब्त नहीं है। यूं इस्लाम नज़रियाती तौर पर इन्हेराफ के गर्दाब से बाहर निकला, हालांकि ततबीक और अमल के मरहले में वह तहरीफात का शिकार रहा।
बाज शीयी तंजीमें निहायत मुन्तज़िम तर्ज पर चल रही थीं। अईम्मा के बाज़ साथियों के पास शियों के नामों की खुफिया फिहरिस्तें मौजूद थीं। उस दौर की हुकूमतों ने उन तक रसाई हासिल करने की कोशिशें कीं लेकिन वह कामयाब न हो सकीं। बहरहाल उन मुन्तज़िम जमाअतों ही ने हुकूमत की नज़रों और पाबन्दियों से दूर रहते हुए तमाम इस्लामी इलाकों में मकतबे तशय्यो को फैलाने के लिए काम किया, यहां तक कि यह मकतब एक अज़ीम ताकत की तशकील इख़्तेयार कर गया और शियों को हुकूमते वक़्त के सामने झुकना एक मुश्किल काम हो के रह गया और हुक्कामे वक़्त उनके आगे आजिज़ व मजबूर हो के रह गए। चुनांचे इमाम रज़ा (अ.स.) के हालात में आप मुशाहिदा करेंगे किस तरह मामून इमाम (अ.स.) की तरफ़ रूजू होने पर मजबूर हुआ और किस तरह उन्हें अपना वली अहद बनाया। खुलासा यह कि इस खुफिया तरीक़ा-ए-कार के ज़रिए इमाम (अ.स.) ने अपना हक़ लोगों पर वाज़ेह किया, अपने असहाब और हामियों को माहौल की कसाफ़त से महफूज़ रखा, उनकी सरपरस्ती की, उनके लिए तरीक़ा-ए-कार वजअ किए और उनकी बेदारी व आगाही में इज़ाफ़ा करने, उनकी इमदाद करने और अपने दीनी मिशन को आगे बढ़ाने के लिए मुनासिब और पाएदार इक़दाम फ़रमाए।
इमाम (अ.स.) के ख़ुफ़िया तरीक़ा-ए-कार के दो पहलू थे। अव्वल यह कि इन्केलाबी तहरीकों की ताईद और उनके लिए काम करने वाले मुख़लिस अफ़राद खुसूसन आले रसूल (स.अ.) की इन्केलाबी शख़्सियात के ज़ेरे परचम अम्र बिल मारूफ़ व नही अज़ मुन्कर के लिए चलने वाली तहरीकों की मदद इस बात का अन्दाज़ा “अलमिया फतह” के बारे में आपके मौक़फ़ से होता है जिसकी कयादत हुसैल बिन अली (अ.स.) हसन बिन अली (अ.स.) बिन अबीतालिब (अ.स.)ने की थी। उन तहरीकों को किसी न किसी शक्ल में इमाम (अ.स.) की रजामन्दी और इजाज़त हासिल थी और यह उनसे मरबूत सरगर्मियों की ज़ाहिरी शक्ल थी।
दूसरे शियों की कयादत व निज़ामत का पहलू था। इमाम (अ.स.) इस तरीक़ा-ए-कार के ज़रिए फिक्री, नज़रियाती और अमली लिहाज़ से एक ख़ास रास्ते पर लगाना चाहते थे ताकि वह तहरीक हक़ के लिए उम्मते मुस्लिमा के दरमियान एक मुस्तहक़म कूव्वत की शक्ल इख़्तेयार कर लें। क्योंकि इस तारीक दौर के शिया नाकाबिले बर्दाश्त तकालीफ़ और आज़माईशों के नज़र अपने मसाएब व आलाम नीज़ अपनी शिकायतों के बयान के लिए तमाम राहें मसदूद पाते थे। यहां तक कि उनमें से बाज़ अफ़राद ने दीवारों पर लिखने की राह इख़्तेयार कर ली थी, ताकि वह अवामुन्नास तक अपनी बात पहुंचा सकें और उन्हें यह बता सकें कि शियों पर जुल्म व सितम के क्या-क्या पहाड़ टूट रहे हैं।
एलानिया फ़आलियत और सरगर्मियों की बदौलत इमाम (अ.स.) को इस्लामी अकाएद व एहकाम के बारे में लोगों की जिहालत को दूर करने और इलहादी नज़रियात व एतराज़ात का बराहे रास्त जवाब देने का मौक़ा फ़राहम हुआ। इन इलहादी नज़रियात को वह तहरीकें मुशतहिर कर रही थीं जो जदीद गैर इस्लामी नज़रियात की इस्लामी दुनिया में आमद के साथ वजूद में आई थीं। यह मसअला इमाम (अ.स.) को दरपेश उन अज़ीम मुश्किलात में से एक था जो इमाम और आपके अहदाफ़ के दरमियान एक ख़लीज पैदा कर रही थीं। इसलिए इमाम (अ.स.) ने उन बातिल नज़रियात का मुकाबिला करने और मुख़ालिफ़े इस्लाम नज़रियात को बातिल साबित करने के लिए फौरी इक़दाम किया।
इमाम (अ.स.) बाज़ औकात दीगर इस्लामी मज़ाहिब के काएदीन और ओलमा के साथ एलानिया बहस व मुबाहिसा करने के लिए इक़दाम फ़रमाते थे ताकि नज़रिय-ए-इमामत और अपनी पॉलिसियों को दलीलों से साबित कर सकें। यह मुनाज़िरे सरेआम बरपा होते थे और उनमें हश्शाम बिन हक़म, हश्शाम बिन सालिम और मोमिन ताक़ जैसे आपके असहाब हिस्सा लेते थे। इमाम (अ.स.) और आपके साथियों के मज़बूत दलाएल और फैसला कुन बराहीन का नतीजा मुसलमानों के दरमियान शिया नज़रियात के फैलाव की सूरत में बरामद हुआ।
इस अम्र में शक व शुब्हा की गुंजाईश नहीं कि उन दोनों मैदानों में इमाम (अ.स.) की फआलियत आपको अपने इस हदफ से नज़दीक करती थी जो इमामत के इल्मी मकाम, उसके उसूलों पर आपको हासिल उबूर, आपकी फिक्री कूव्वत और आपकी तहरीक के लिए उम्मत के दरमियान मौजूदा साज़गार फ़िज़ा का तकाज़ा था।
फ़िदक की वापसी का मामला
सिब्ते इब्ने जौजी हनफी रकम तराज़ हैं कि एक दिन हारून रशीद ने हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) से कहा कि अगर आप फ़िदक की जाएदाद को वापस लेना चाहें तो मैं उसे देने के लिए तैयार हूं। आपने फ़रमाया कि मैं इस शर्त पर कुबूल कर सकता हूं कि फिदक को अपने मुकम्मल हुदूदे अरबा के साथ वापस किया जाए। उसने पूछा कि उसके हुदूद क्या हैं? फ़रमाया, पहली हद उसकी अदन है, दूसरी समरक़न्द है, तीसरी अफ़रीक़ है और चौथी हद जज़ाएर अरमीना का साहेली इलाका है। यह सुनकर हारून आपे से बाहर हो गया, आतिश ग़ैज़ भड़कने लगी, कहने लगा कि फिर हमारे लिए क्या बचा? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, इसीलिए तो मैंने उसे कुबूल करने से इन्कार किया था। इस वाक़िए के बाद हारून रशीद ने इमाम (अ.स.) के क़त्ल का फ़ैसला कर लिया और मौके की ताक में रहने लगा।
आपके ख़िलाफ़ शिकायतें और गिरफ़्तारी
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) की सरगर्मियों के बारे में बाज़ रिपोर्टें चुगलखोरों के ज़रिए हारून तक पहुंचती रहती थीं। यह अम्र उसके गैज़ व ग़ज़ब और एनाद में इज़ाफ़ा का सबब बनता था। एक बार उसको ख़बर पहुंचाई गयी कि इमाम (अ.स.) के लिए आलमे इस्लाम के मुख़्तलिफ़़ हिस्सों से बेशुमार दौलत बतौरे ख़िराज वसूल की जाती है और आपके कई बैतुलमाल हैं। यहिया बरमकी ने इमाम (अ.स.) के बारे में हारून रशीद से यह झूठ बोल कर उसके दिल में कीना व अदावत की आग भड़काई कि वह हुसूले ख़िलाफत के लिए सरगर्मे अमल हैं और उन्होंने तमाम मुसलमान इलाकों में अपने हामियों को खुतूत लिखे हैं कि वह लोगों को हुकूमते वक्त के ख़िलाफ़ बगावत पर उकसाएं। यह सुनना था कि हारून का ग़ैज व ग़ज़ब इश्तेआल की हदों से गुज़र गया और उसने इमाम (अ.स.) की गिरफ़्तारी का हुक्म जारी कर दिया एक जमाअत मदीना रवाना की गई, जब उस जमाअत के लोग गिरफ़्तारी की गरज़ से इमाम (अ.स.) के घर पहुंचे तो मालूम हुआ कि आप रौज़ए रसूल (स.अ.) पर हैं उन लोगों ने सरकारे दो आलम (स.अ.) के तक़द्दुस का भी ख़्याल न किया, नालैने पहने हुए रौज़े के अन्दर दाखिल हुए और हालते नमाज़ में इमाम (अ.स.) को गिरफ़्तार कर लिया। यह वाक़िआ 20 शव्वाल सन् 176 हिजरी का है।
इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) ने तकरीबन सोलह साल तक कैदखाने में ज़िन्दगी गुज़ारी और दौराने कैदे सख़्त तरीन मसाएब व आलाम बर्दाश्त किए यहां तक कि आप कैद की सुऊबतों से तंग आ गए और मुद्दत की तवालत से बेहद रंजीदा व मलूल हुए। हुकूमत आपको मुख़्तलिफ़ ज़िन्दानों में मुन्तकिल करती रही और इस खौफ से कि कहीं आपका राबिता किसी शिया के साथ बरक़रार न हो सरकारी पुलिस के हुक्काम और मोहक़मा जासूसी के अफ़सरान आपकी निगरानी करते रहे।
कैद की तवील मुद्दत ने इमाम (अ.स.) की सेहत को भी मुतअस्सिर किया यहां तक कि आपके जिस्मे मुबारक का सारा गोश्त घुल गया था, सिर्फ रगें और हड्डियां रह गयीं थीं चुनांचे जब आप सजदा करते तो मालूम होता कि गोया ज़मीन पर कोई कपड़ा पड़ा हुआ है।
मोअर्रिखीन का बयान है कि हारून रशीद ने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) को बसरा में एक साल तक कैद रखने के बाद वाली-ए-बसरा को एक ख़त लिखा जिसमें उसने तहरीर किया कि “मूसा बिन जाफ़र (अ.स.)” को क़त्ल करके उनका किस्सा तमाम कर दे। हाकिमे बसरा ने अपने मुशीरों से मशविरा करके जवाब में हारून को लिखा कि इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के अन्दर एक साल की मुद्दत में मैंने कोई बुराई नहीं देखी। वह दिन रात नमाज़ व रोज़ा में मशगूल रहते हैं, हुकूमत और अवाम के हक़ में दुआए ख़ैर करते हैं और मुल्क की फलाह व बहबूद के ख़्वाहिशमन्द हैं। मैं उनके क़त्ल में अपने अंजाम की बर्बादी और अपनी आक़िबत की तबाही देख रहा हूं। लिहाज़ा इस गुनाहे अज़ीम के इरतेकाब से मुझे माफ़ रखा जाए। इस ख़त की वसूलियाबी के बाद हारून रशीद ने आख़िर में यह काम सन्दी बिन शाहिक के सुपुर्द किया और उसी मलऊन से ज़हर दिलवा कर आपको शहीद करा दिया। ज़हर ख़्वानी के बाद आप तीन दिन जांकनी के आलम में तड़पते रहे और आख़िर कार 25 रजब सन् 183 हिजरी यौमे जुमा को दर्जए शहादत पर फाएज़ हो गए। वक़्ते शहादत आपकी उम्र 55 साल की थी।
शहादत के बाद आपका जसदे अतहर, हथकड़ियों और बेड़ियों समेत कैदखाने से निकाल कर बग़दाद के पुल पर डाल दिया गया। बादशाह हारून मलऊन के ख़ौफ़ से लोग उस पुल की तरफ जाने की हिम्मत न करते थे। ताहम सुलेमान बिन जाफ़र की कयादत में शियों की एक जमाअत ने आपकी लाशे मुबारक को दुश्मनों से मुज़ाहिमत के बाद छीन कर गुस्ल व कफ़न का इन्तेज़ाम किया और निहायत तुज़्क व एहतेशाम से जनाज़ा लेकर चले। उन लोगों के गरीबान गमे इमाम (अ.स.) में चाक थे। यह लोग इन्तेहाई ग़म व अलम के साथ जनाज़े को लिए हुए जब मक़बरा-ए-कुरैश में पहुंचे तो देखा कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) बाएजाज़े इमामत वहां तशरीफ फ़रमां हैं। उन्होंने नमाज़ पढ़ाई और अपने वालिदे बुज़ुर्गवार को सुपुर्दे ख़ाक किया। तदफ़ीन के बाद जब इमाम रज़ा (अ.स.) मदीने वापस तशरीफ़ लाए और शहादत की ख़बर आम हुई तो एक कोहराम बरपा हो गया और ताज़ियत का सिलसिला मुद्दतों तक जारी रहा।
औलादें
मुवर्रिख़ीन का कहना है कि मुख़्तलिफ़ बीवियों से आपके 19 बेटे और 18 बेटियां थीं जिनके नाम दर्ज ज़ैल हैं।
बेटे: (1) हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) (2) इब्राहीम (3) अब्बास (4) कासिम (5) इस्माईल (6) जाफ़र (7) हारून (8) हसन (9) अहमद (10) मुहम्मद (11) हमजा (12) अब्दुल्लाह (13) इसहाक (14) अबीदुल्लाह (15) जैद (16) हसन (17) फज़ल (18) हुसैन (19) सुलेमान।
बेटियां: (1) फ़ातिमा (2) कुबरा (3) फ़ातिमा सुगरा (4) अलीमा (5) रूकय्या सुगरा (6) कुलसूम (7) उम्मे जाफ़र (8) लुबाबा (6) ज़ैनब (10) खदीजा (11) आलिया (12) आमिना (13) हुस्ना ( 14 ) बरीहा (15) उम्मे सलमा (16) मैमूना (17) उम्मे कुलसूम (18) उम्मे अबीहा या उम्मे अब्दुल्लाह और बकौले उम्मे अस्मा।
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इमाम अली रज़ा (अ.स.)
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आप बतारीख़ 11 ज़ीक़ाद सन् 153 हिजरी बरोज़ पंजशम्बा बमुक़ाम मदीना-ए-मुनव्वरा जनाब उम्मुल बनीन उर्फ नजमा खातून के बतन से मुतवल्लिद हुए। ओलमा का बयान है कि आपकी वालिदा-ए-माजिदा एक मुत्तकी परहेज़गार, बरगुज़ीदा और पाकबाज़ अजमी खातून थीं। बाज़ ने यह भी तहरीर किया है कि नजमा खातून हुस्न व जमाल और जोहद व तकवे में अपनी मिसाल आप थीं।
अल्लामा अब्दुर्रहमान जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) की बातें हिकमत आमेज़, उनका हर अमल सालेह और किरदार महफूज़ अनिल ख़ता था, नीज़ रूए ज़मीन पर आपकी मिसाल न थी। हबीबुस-सियर में है कि आप अशरफ़े मखलूके ज़माना थे। मौलवी मुहम्मद मुबीन अपनी किताब में रकम तराज़ हैं कि “माकान वमा याकून” का इल्म आपको अपने आबा व अजदाद से विरासतन मिला था। मुहम्मद बिन तलहा शाफई का बयान है कि आप बारह इमामों में तीसरे अली हैं। आपका ईमानी जज़्बा मंज़िले उरूज पर था। आपका कस्रे फ़ज़ीलत इन्तेहाई बुलन्द था। आपकी शाने इमामत इन्तेहा को पहुंची हुई थी। आपके इमकानाते करम निहायत वसीअ थे। आपके मददगार बेशुमार और आपके बराहीन शरफ बख़ूबी रौशन व मुनव्वर थे। मुख़्तसर यह कि सिफ़ाते हुस्ना की तमाम मंज़िलों में आपका दर्जा बहुत बुलन्द था।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
लौहे महफूज़ के मुताबिक आपके वालिदे बुजुर्गवार इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) ने आपका नाम “अली” रखा। रज़ा का लकब इसलिए मशहूर हुआ कि आपसे खुदा और रसूल (स.अ.), अईम्मए ताहेरीन (अ.स.) और मुवाफेकीन व मुखालेफीन सभी राज़ी थे। कुन्नियत अबुल हसन थी। अलक़ाब में साबिर, जकी, रज़ी, वली और वसी वग़ैरा मरकूम हुए हैं।
तरबियत
आपकी तरबियत व नशो नुमा अपने वालिद इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के ज़ेरे साया हुई और इसी मुक़द्दस माहौल पचपन व जवानी की मुतअदिद मंज़िलें तय हुईं हालांकि आपकी ज़िन्दगी के चन्द साल ऐसे भी नज़र आते हैं जब आपके वालिदे बुजुर्गवार कैद की सख्तियों में थे मगर उसके बावजूद 25 बरस तक आपको अपने बाप के सायाए शफ़क़त में रहने का मौका दस्तयाब हुआ।
शाहाने वक़्त
आप मंसूर दवानिक़ी के इस्तेबदादी दौर में मुतवल्लिद हुए। सन् 158 हिजरी में मेहदी अब्बासी सन् 166 हिजरी में हादी अब्बासी सन् 170 हिजरी में हारून रशीद सन् 164 हिजरी में अमीन अब्बासी सन् 168 हिजरी में मामून रशीद बित-तरतीब सलातीन वक़्त होते रहे। आपने अपनी आंखों से हर एक का ज़माना देखा और आपके पिदरे बुजुर्गवार नीज़ औलादे अली (अ.स.) व फ़ातिमा (स.अ.) पर जो मज़ालिम हुए उन पर रंजीदा और कबीदा खातिर रहे यहां तक कि सन् 230 हिजरी में आपको ज़हर देकर शहीद कर दिया गया।
हारूनी तशद्दुद
तारीखों की सराहत है कि इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) की शहादत के बाद भी हारून रशीद मलऊन दस बरस तक तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन रहा। यकीनन इमाम रज़ा (अ.स.) का वजूद भी उसकी ज़ालिमाना फितरत के लिए नाकाबिले बर्दाश्त था। मगर चूंकि इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) की शहादत से उसकी हुकूमत बदनाम हो चुकी थी और वह खुद भी लोगों की नज़रों में जलील हो चुका था इसलिए बज़ाहिर उसने इमाम रज़ा (अ.स.) के ख़िलाफ़ कोई कातिलाना इक़दाम नहीं किया। लेकिन उन्हें सताने और अज़ीयतें पहुंचाने में किसी किस्म की कोई कमी नहीं की। चुनांचे इमाम (अ.स.) के मनसबे इमामत पर फाएज़ होते ही उसने उनका घर लुटवा लिया और औरतों के ज़ेवरात और कपड़े तक उतरवा लिए।
मुवर्रिख़ीन का बयान है कि इमाम रज़ा (अ.स.) जब ओहदे इमामत पर फाएज़ हो चुके तो हारून रशीद मलऊन ने ईसा जलूदी की मातहती में एक बड़ी फौज मदीने रवाना की और उसे हुक्म दिया कि अली (अ.स.) व फ़ातिमा (स.अ.) की तमाम औलादों को बिल्कुल तबाह बर्बाद कर दिया जाए, उनके घरों में आग लगा दी जाए, उनका सारा माल व असबाब लूट लिया जाए और उन्हें इस तरह मफ़लूक व मफ़लूज कर दिया जाए कि फिर आईन्दा उनके उभरने का सवाल ही पैदा न हो। चुनांचे ईसा जलूदी ने मदीने पहुंचकर सादात के घरों को लूट लिया और उन्हें तबाह व बर्बाद करके उनके घरों को नज़रे आतिश कर दिया। उस बरबरियत और तशद्दुद के बाद वह इमाम रज़ा (अ.स.) के दौलतकदे पर पहुंचा और उसने ख़्वाहिश की कि हुक्मे हारून के मुताबिक़ ख़ानए इमाम (अ.स.) में दाखिल होकर अपने हाथों से औरतों के जेवरात और कपड़े उतारे। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, यह कभी नही हो सकता, मैं खुद सारा सामान लाकर तेरे हवाले किए देते हूं। उसके बाद आप घर के अन्दर तशरीफ़ ले गए और तमाम ज़ेवरात, कपड़े, बच्चों के कानों के बुन्दे, नीज़ सारा असासा लाकर उस शक़ी के सुपुर्द कर दिया और वह मलऊन सारा सामान लेकर बग़दाद रवाना हो गया। अल्लामा मजलिसी ने इस लूट मार और तशद्दुद का सबब मुहम्मद बिन जाफ़र (अ.स.) का हुकूमत के साथ अदमे तआउन बताया है। हारून रशीद मलऊन की ज़िन्दगी का आख़िरी ज़माना उसके दोनों बेटों “मुहम्मद अमीन” और “मामून रशीद” की बाहमी राबतों की वजह से ही करब व इज़्तेराब और कशमकश के आलम में गुज़रा। “अमीन” बहुत पहली बीवी से था जो शाही खानदान से मंसूर दवानिकी की पोती थी इसलिए अरब के सरदार उसके हमनवा थे और “मामून” एक अजमी कनीज़ से था इसलिए दरबार का अजमी तबका उसका तरफ़दार था। दोनों की हरीफाना रस्साकशी हारून के लिए सौहाने रूह बनी हुई थी। चुनांचे उसने इस तनाज़ो का तसफिया ममलेकत की तकसीम के साथ इस तरह किया कि दारूल सल्तनत बग़दाद और उससे मुतआल्लिक अरबी मुमालिक मसलन शाम, मिस्र हिजाज़, यमन वग़ैरा अमीन के नाम कर दिया और मशरिकी मुमालिक मसनल ईरान, खुरासान और तुरकिस्तान वग़ैरा मामून को दे दिया। मगर यह बटवारा तो उस वक़्त कारगर होता जब दोनों फ़रीक़ “जियो और जीने दो” के उसूलों पर अमल पैरा होते।
यह एक मुसल्लमा अम्र है कि जहां इक़तेदार की हवस कारफ़रमां होती है और एक ही घर में दो भाई एक दूसरे के मद्दे मुकाबिल होते हैं वहां टकराव और तसादुम भी नागुज़ीर होता है चुनांचे यही हुआ कि हारून की आंख बन्द होते ही दोनों भाईयों के दरमियान जंग के शोले भड़क उठे यहां तक कि चार साल मुसलसल खूंरेज़ियों के बाद मामून को गलबा हासिल हुआ और उसका भाई अमीन तलवार के घाट उतार दिया गया।
यह बिल्कुल दुरूस्त है कि हारून रशीद मलउन के दौरे हुकूमत में इमाम रज़ा (अ.स.) ने अपनी इमामत के दस बरस गुज़ारे और तारीख़ यह भी बताती है कि ईसा जलूदी के जुल्म व इस्तेबदाद और लूट मार के बाद हारून रशीद फिर किसी तशद्दुद के लिए इमाम (अ.स.) की तरफ मुतवज्जे नहीं हुआ। मुम्किन है कि उसकी दो वजहें रही हों। अव्वल यह कि वह अपनी दस साला ज़िन्दगी के अय्याम में आले बरमका के इस्तेहसाल और राफे बिन लैस के गदर व फसाद के इन्सेदाद में, जो समरक़न्द के इलाके से नमूदार होकर हुदूदे अरब तक फैल चुका था, हमा वक़्त व हमा तन मसरूफ़ रहा। दूसरे यह कि वह अपने बेटों के दरमियान तकसीम ममलेकत के बाद इस क़द्र बेबस, मजबूर और कमज़ोर हो गया था कि अपनी मर्ज़ी व इख़्तेयार से कोई काम नहीं कर सकता था। सिर्फ नाम का बादशाह बना बैठा था और अपनी ज़िन्दगी के दिन इन्तेहाई उसरत और तंगी में बसर कर रहा था। इसकी दलील सबाह तबरी का वह बयान है जिसमें उसने कहा है कि हारून जब खुरासान जाने लगा तो मैं भी नहरवान तक उसकी मुशायेअत में गया। रास्ते में उसने मुझसे कहा कि ऐ सबाह! इसके बाद फिर तुम मुझे ज़िन्दा न पाओगे। मैंने कहाः अमीरुल मोमेनीन! ऐसा न सोचें, इन्शाअल्लाह सलामत रवी के साथ आप इस सफ़र से वापस पलट कर आयेंगे। यह सुनकर हारून ने कहा, शायद तुम्हें मेरा हाल नहीं मालूम। फिर वह रास्ता काट कर एक सिम्त मुझे एक दरख़्त के नीचे ले गया और वहां से अपने ख़्वासों को हटाकर अपना पैरहन उतारा तो मैंने देखा कि एक रेशम का टुकड़ा उसके शिकम पर लिपटा हुआ है जो गर्दन से नाफ़ तक उसके जिस्म को मज़बूती से जकड़े हुए है। यह दिखा कर उसने कहाः मैं अर्से से बीमार हूं और निस्फ़ बदन फोड़ा बन चुका है मगर किसी से अपना हाल नहीं कह सकता। मेरे बेटों में हर एक का गुमाशता मुझ पर मुकर्रर है। यह लोग मेरी सांसे गिनते रहते हैं और यह नहीं चाहते कि मैं एक लम्हे भी ज़िन्दा रहूं। अगर तुम्हें यकीन नहीं तो मैं तुम्हारे सामने उनसे अपनी सवारी का घोड़ा तलब करता हूं तुम देखना कि यह लोग ऐसा लागर टट्टू मेरे पास लायेंगे कि जिस पर सवार होकर मैं और ज़्यादा बीमार हो जाऊँ। फिर उसने घोड़ा तलब किया तो वाकई ऐसा अड़ियल और लागर टट्टू लाया गया जो उसके शायाने शान न था। मगर वह उस पर बेचूं व चरा सवार हो गया और मुझको वहां से रूख़्सत करके खुद जरजान की तरफ चल पड़ा।
गालिबन यही वह मजबूरियां थीं कि हारून इमाम अली रज़ा (अ.स.) की तरफ मुतवज्जे नहीं हो सका। वरना वह बा-इख़्तेयार होता और उसे फुरसत होती तो वह अपनी ज़ालिमाना व जाबिराना सरिश्त के तशद्दुद आमेज़ तकाजों को भूलने वाला न था। मगर उसके अपने ही दस्तो-पा अपने इख़्तेयार में न थे, कर ही क्या सकता था। आख़िर कार जीक़ुन-नफस, मजबूरी, नादारी और बेइख़्तेयारी की ग़ैर मुतहम्मिल मुसीबतों की ताब न लाकर वह खुरासान पहुंचने के बाद सन् 183 हिजरी में मर गया।
हारून रशीद के दोनों बेटों मामून और अमीन के बारे में मोअर्रिखीन का कहना है कि मामून सूझबूझ रखने वाला अच्छे कैरेक्टर का आदमीं था लेकिन अमीन एक अय्याश बदकिरदार, लाउबाली और रंगीन मिज़ाज इन्सान था। उसने अपनी सल्तनत के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात से मसखरे, बाजीगर, नजूमी और ज्योतिषी इकट्ठा कर रखे थे। उसने ख़ूबसूरत व हसीन तवाएफों, नाज़ुक अन्दाम ख़्वाजा सराओं और उम्दा गाने वालियों को जमा करके एक नाटक कम्पनी तैयार की थी जो दरबारे आम में अपने फन के मुज़ाहिरे किया करती थी। सुईती ने इब्ने जरीर से नक़्ल किया है कि अमीन अपनी बीवियों और कनीजों को छोड़ कर ख्वाजा सराओं से लवातत करता था।
“अमीन” के क़त्ल बाद “मामून” तकरीबन चार साल तक “मरव” में क़याम पज़ीर रहा। हुकूमत का निज़ाम उसने फ़ज़्ल बिन सुहैल के सुपुर्द कर रखा था और ख़ुद आलिमों से बहस व मुबाहिसा में हमा वक़्त मसरूफ रहता था। उसके दरबार में अकसर बड़े-बड़े मारकतुल आरा मुनाज़िरे भी हुआ करते थे। अल्लामा शिबली रकम तराज़ हैं कि मामून का एक मशहूर मुनाज़िरा जिसमें उसका दावा था कि तमाम सहाबा में हज़रत अली (अ.स.) अफ़ज़ल व बरतर हैं, बड़े मारके का मुनाज़िरा है। काजी यहिया बिन अकसम और चालीस बड़े फुकहा इस दावे के मुख़ालिफ़ थे। इधर मामून तन्हा सब के मुक़ाबिल था। मुनाज़िरा के वक़्त हाकिमी और महकूमी का पर्दा उठा दिया गया था और हर शख्स को गुफ़्तुगू में पूरी आजादी हासिल थी। सुबह से दो पहर तक दोनों फ़रीक़ ने दादे सुख़्न दी मगर इन्साफ़ यह है कि मैदान मामून के हाथ रहा। यह मुनाज़िरा किताबुल अक़्द में मज़कूर है और हक़ यह है कि वह मामून की वुसअते नज़र, जौदते जेहन कसरते मालूमात हुस्ने बयान और ज़ोर तकरीर का एक हैरत अंगेज़ मुरक्का है।
उसी ज़माने में नस्र बिन शीस अक़ीली ने बगावत का परचम बुलन्द किया और शाही अफ़वाज को थका मारा। उसने इराक़ में भी गुण्डों और बदमाशों के ज़रिए लूट मार का बाज़ार गर्म कर दिया। यहां तक कि कूफा, बसरा, मक्का और मदीना से यमन के इलाक़ों तक एक ख़ाना जंगी की सूरत पैदा हो गयी।
यह हालात देखकर हज़रत अली (अ.स.) और जाफ़रे तय्यार के बाज़ ख़ानदानी नौनेहालों ने सोचा कि शायद उनके हुकूक की वापसी का वक़्त आ गया है। चुनांचे जमादिस सानिया सन् 166 में अब्बासियों के ख़िलाफ़ मुहम्मद बिन इब्राहीम-अल-हुसैन तबातबाई की शोरिशों का आग़ाज़ हुआ जिसकी बाग डोर अबुल सरा यासीर बिन मंसूर के हाथों में थी।
इब्ने तबातबाई मदीने से कूफ़े की जानिब रवाना हुआ ताकि वह अब्बासियों के ख़िलाफ़ बगावत पर लोगों को हमवार कर सके। कूफियों ने जब उसे अहलेबैत (अ.स.) की तरफ दावत देते और इस बात का अहद करते देखा कि आईन्दा हुकूमत र्कुआन, सुन्नत और सीरते अली (अ.स.) के मुताबिक़ होगी तो वह उसके इर्द गिर्द जमा हो गए।
इब्ने तबातबाई ने मकतबे अलवी के पैरोकार की अवामी ताक़त के बल बूते पर एलाने जिहाद किया। इस बात की हक़ीक़त इस्लामी दुनिया में अबुल सराया की बग़ावत के ख़िलाफ़ होने वाले शदीद रद्दे अमल से मालूम होती है। इब्ने तबातबाई के क़याम का पहला रद्दे अमल यह था कि उसके इन्केलाबी लश्कर के सामने अब्बासियों की तरफ से बग़ावत को दबाने के लिए भेजे गए तमाम लश्कर शिकस्त खा गए। वही अहले कूफ़ा जिन्होंने सैय्यदुश्-शोहदा हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ फ़रेबकारी से काम लिया था और ज़ैद बिन अली को चन्द साथियों के साथ मैदाने जंग में तन्हा छोड़ दिया था, फिर पूरे अज़म व शुजाअत के साथ इब्ने तबातबाई की तहरीक की हिमायत में मर्दाना वार उठ खड़े हुए। उन्होंने कूफ़े के गवर्नर हसन बिन सुहैल की फ़ौजों को शिकस्त देकर तमाम जुनूबी इराक़ पर कब्ज़ा कर लिया और वालीए कूफ़ा को निकाल बाहर किया। रफ़्ता रफ़्ता यह इन्केलाबी चारों तरफ फैल गए और उन्होंने इराक़, बसरा, मदाएन और यमन के बहुत से शहरों और करियों पर अपना तसल्लुत जमा लिया। अब अलवियों की कूव्वत व ताकत इतनी बढ़ गयी थी कि इब्ने तबातबाई का खातिमा होने के बाद भी उसकी तरफ़ से मुकर्रर कर्दा वाली अपने-अपने ज़ेरे असर इलाकों में हुकूमत करते रहे। यमन में इब्राहीम बिन मूसा बिन जाफ़र ने अलमे बग़ावत बुलन्द किया और मामून के गवर्नर को निकाल बाहर करने के बाद साहबे इक़्तेदार हो गया। मक्के में हुसैन बिन हसन अफतिस ने क़याम किया। बसरा में ज़ैद बिन मूसा ने तहरीक उठाई और उन्होंने अब्बासियों के मकानों में इस कसरत से आग लगाई कि “ज़ैदुन्नार” के नाम से मशहूर हो गए। उन्होंने अब्बासियों के अलावा भी दीगर ताजिरों के बेशुमार अमवाल पर क़ब्ज़ा कर लिया। आख़िरकार अली बिन सईद शाही लश्कर के साथ उनके मुकाबिले पर आया। ज़ैद ने उससे अमान तलब की। इब्ने सईद ने ज़ैद को अमान देने के बाद गिरफ़्तार कर लिया और हसन बिन सुहैल के पास रवाना कर दिया। उसने उनकी गर्दन ज़दनी का हुक्म दे दिया और ज़ैद तलवार के घाट उतार दिए गए।
उसके बाद अब्बासी वज़ीरे आज़म फ़ज़्ल बिन सुहैल ने हरसमा को अबुल सराया की सरकूबी पर मामूर किया और अबुल सराया नहरवान के क़रीब शिकस्त खाकर मारा गया। लेकिन उसके मरने के बाद हिजाज़ में लोगो ने मुहम्मद बिन जाफ़र को अपना अमीर बना लिया और पूरी मम्लेकते अब्बासियो में ख़ाना जंगी फैल गयी
शायद यही वह नागुफ़्ता बेह और हौसला शिकन हालात थे जिनके तहत मजबूर होकर मामून रशीद ने इमाम रज़ा (अ.स.) को अपना वली अहद बनाने का फैसला किया क्योंकि इसी तदबीर पर अमल पैरा होकर अलवियों की बगावत और उनकी चाबुकदस्ती को रोका जा सकता था। अरकाने बज़्मे मुशावरत ने मामून को क्या मशविरे दिए? यह एक अलग बात है लेकिन वज़ीरे आज़म फज़्ल बिन सुहैल ने इस तजवीज़ की मुख़ालिफ़त की और कहा कि इस तरह हुकूमत व ख़िलाफ़त खानदाने अब्बासिया से बनी हाशिम की तरफ़ मुन्तकिल हो जाएगी और औलादे अली (अ.स.) को उसका हक़ वापस मिल जाएगा। मामून ने कहा कुछ सही, मेरा फ़ैसला अटल है और मैं इस पर अमल करूंगा। यह सुनकर फ़ज़्ल बिन सुहैल खामोश हो गया। इतने में हज़रत अली (अ.स.) के एक मोअजि़्ज़ज़ व बुज़ुर्ग सहाबी सुलेमान बिन इब्राहीम खड़े हुए और उन्होंने कहा, ऐ मामून! मुझे ख़ौफ़ है कि तू इमाम अली रज़ा (अ.स.) के साथ कहीं वह सुलूक न करे जो कूफियों ने इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ किया था? मामून ने कहा, आप ये क्या सोच रहे हैं? ऐसा कभी नहीं हो, सकता। मैं उनकी अज़मत से वाक़िफ़ हूं, जो उन्हें अज़ीयत देगा वह क़यामत में खुदा और रसूल (स.अ.) को क्या मुंह दिखाएगा? अबु मख़नफ़ का बयान है कि मामून ने र्कुआन पर हाथ रख कर यह कसम खाई कि मैं औलादे पैग़म्बर (स.अ.) पर कोई ज़ुल्म नहीं करूंगा। अबुल फ़िदा का कहना है कि सुलेमान ने तमाम लोगों को इमाम (अ.स.) के तहफ्फुज़ की कसम देने के बाद वफ़ादारी की बैअत ली और एक बैअत नामा तहरीर करके चालीस हज़ार लोगों से उस पर दस्तख़त लिये। फिर इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में मदीने आए लेकिन इमाम (अ.स.) ने वह बैअत नामा देखकर फ़रमाया कि ऐ सुलेमान! इस दावत में मुझे अपनी मौत नज़र आ रही है।
इमाम रज़ा (अ.स.) ने सुलेमान से जिस अन्देशे का इज़हार फ़रमाया उसकी हक़ीक़त उभर कर उस वक्त सामने आई जब मामून की तरफ से वली अहदी की पेशकश को ठुकरा दिया। चुनांचे किताबुल इरशाद की रिवायत है कि मामून ने आपको तलब किया और वली अहदी के मसअले में आपसे कहा, मैं चाहता हूं कि ख़िलाफ़त आपके हवाले कर दूं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, मुझे इससे माफ़ रख क्योंकि यह मेरे बस का नहीं। मामून ने कहा, तो फिर अपने बाद आपको वली अहद बनाता हूं। फ़रमाया, मुझे इस अम्र से भी माफ़ रख। इस इन्कार पर मामून ने ताहुक्माना लहजे में कहा, उमर बिन ख़त्ताब ने अपने बाद ख़िलाफ़त का फैसला छः अफ़राद पर मुश्तामिल कमेटी के हवाले किया जिनमें एक आपके जद अली बिन अबी तालिब (अ.स.) भी थे। उसके साथ ही उमर ने यह हुक्म भी दिया कि उनमे से जो भी मुख़ालिफ़त करे उसकी गर्दन उड़ा दी जाए। आपको भी मेरी बात कुबूल करनी होगी। मैं इसे नागुज़ीर और ज़रूरी समझता हूं।
इस्फ़हानी की रिवायत से पता चलता है कि मामून और इमाम रज़ा (अ.स.) के दरमियान एक गुफ़्तुगू और भी हुई जिसके दौरान मामून ने आपको पहले खिलाफ़त की पेशकश की लेकिन आपने इन्कार फ़रमाया। फिर उसने वली अहदी के बारे में अपना ख्याल ज़ाहिर किया लेकिन आपने इन्कार फ़रमाया। उस वक़्त मामून रशीद ने कहाः आपका यह रवय्या मुझे पसन्द नहीं है, ऐसा लगता है कि आप मेरी सितवत से बेखौफ हो गए हैं। ख़ुदा की कसम, अगर आप अपनी मर्ज़ी से वली अहदी कुबूल न करेंगे तो मैं आपको मजबूर करूंगा और अगर फिर भी आप न माने तो आपकी गर्दन उड़ा दूंगा।
इस धमकी से मामून का मौकफ़ वाज़ेह है। दरअस्ल वह यह चाहता था कि अपनी ख़िलाफ़त को शरई सांचे में ढाल कर उसे शोरिशों और बगावतों से महफूज़ रखे और इमाम (अ.स.) के ज़रिए इस्तेहकाम बख़्शे। क्योंकि अब्बासी ख़िलाफ़त के हामी अनासिर भी उसकी ख़िलाफ़त को मशकूक नज़रों से देख रहे थे। इसकी वजह यह थी कि उसने अपने भाई और “कानूनी ख़लीफ़ा” अमीन को क़त्ल किया और उसके साथ बदसुलूकी की। उसका कटा हुआ सर भी मामून के पास लाया गया था। इन हकाएक ने अब्बासी इक़्तेदार के हामियों की नज़र में मामून की ख़िलाफ़त के जवाज़ को मशकूक बना दिया। इसी बिना पर उसकी मरकज़ियत व कूव्वत पर लोगों का एतमाद मुतजलज़िल हुआ और उसकी ख़िलाफ़त सबके नजदीक मुसल्लम न रही और अब्बासियों की नज़र में मामून ने अपना मक़ाम खो दिया। रहे हज़रत अली (अ.स.) के वफादार अवामी हलके तो वह अब्बासियों की ख़िलाफ़त को सिरे से तस्लीम ही न करते थे। उनकी नज़र में किसी भी अब्बासी ख़लीफ़ा की ख़िलाफ़त व हुकूमत जाएज़ न थी। चुनांचे मामून भी इस हक़ीक़त को मानता पर मजबूर हुआ कि जिस ख़िलाफ़त पर उसका जाबिराना कब्ज़ा है उसको बचाने के लिए ज़रूरी है कि उसे शरई सांचे में ढाल दिया जाए। मामून का दरपर्दा मंसूबा यह था कि बज़ाहिर ख़िलाफ़त से दस्त बरदार होकर उसे इमाम (अ.स.) के हवाले कर दिया जाए और जब बगावत फ़ुरो हो जाए और उस पर शरई रंग चढ़ जाए तो फिर वापस ले लिया जाए। लेकिन इमाम (अ.स.) ने मामून की चाल को भांप लिया और समझ लिया कि वह आपकी अवामी मकबूलियत से इस्तेफादा करना नीज़ आपके वफादार अवामी हलक़ों और उनकी सियासी कूव्वत को निहायत मक्कारी से अपने मफ़ादात के लिए इस्तेमाल करना चाहता है मामून का यह लाहए अमल तीन मक़ासिद पर मुश्तामिल था। (1) इमाम (अ.स.) को अपने और अब्बासियों के दरमियान सियासी सौदेबाज़ी का वसीला बनाना। (2) अपने और अलवियों के दरमियान भी यही काम अंजाम देना। (3) अपने और खुरासान के शियों के दरमियान यही खेल खेलना। चुनांचे जब मामून ने अपनी इस चाल को अमली जामा पहनाना चाहा तो इमाम रज़ा (अ.स.) ने उससे फ़रमायाः-
“क्या ख़िलाफ़त का लिबास खुदा ने तुम्हें पहनाया है? अगर ऐसा है तो फिर तुम्हें हक़ नहीं पहुंचता कि इसे उतार कर मेरे हवाले कर दो और अगर यह ख़ुदा की अता कर्दा नहीं है तो इस सूरत में जो चीज़ तुम्हारी है ही नहीं उसे तुम क्यों कर मुझे दे सकते हो।”
मामून अपने जाती मफादात और सियासी अगराज के तहत वली अहदी के इस मंसूबे को तमाम नक़ाएस से पाक भी रखना चाहता था इसीलिए उसने एक ऐसे मुखलिस इन्सान के रूप में अपने को पेश किया जो दिल की गहराईयों से अपने बाद हुकूमत इमाम (अ.स.) के हवाले करने का ख़्वाहिशमन्द हो। चुनांचे उसने दर्जे ज़ैल इक़दामात किएः
(1) अपने भाई मोअतमिन को वली अहदी से बर तरफ़ किया।
(2) अपनी बेटी उम्मे हबीबा का निकाह इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ कर दिया।
(3) अब्बासियों की अलामत सियाह रंग को तर्क करके अलवियों के सबज़ रंग को इख़्तेयार किया।
(4) अपनी हुकूमत के सरकर्दा अफराद फौज के अमाएदीन और बनी अब्बास को इमाम (अ.स.) की बैअत करने का हुक्म दिया।
(5) इमाम रज़ा (अ.स.) के नाम के सिक्के ढलवाए।
इन तमाम बातों के बावजूद इमाम रज़ा (अ.स.) का मामून की हुकूमत में शमूलियत से इन्कार इस अम्र की दलील है कि आप उसके तमाम इरादों से बखूबी आगाह थे। चुनांचे उसने जब आपको वली अहदी कुबूल करने पर मजबूर कर दिया तो आपने उसके जब्र को मख़फ़ी न रखा और एलान किया कि आपने अपनी मर्ज़ी से वली अहदी कुबूल नहीं कि बल्कि जब्र व इकराह और मौत की धमकी के नतीजे में हामी भरी है जैसा कि हरवी का बयान है कि वल्लाह ! इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने अपनी मर्ज़ी से यह इक़दाम नहीं किया बल्कि आपको मजबूर करके कूफ़े और फिर वहां से बसरा के रास्ते से “मरव” ले जाया गया।
ख़िलाफ़त से इन्कार क्यों?
इमाम (अ.स.) की वली अहदी पर गुफ़्तुगू के आख़िर में एक सवाल यह भी पैदा होता है कि जब मामून ने ख़िलाफ़त की पेशकश की तो आपने उसे कुबूल करने से इन्कार क्यों किया? क्या यह आपके उसूलों और इक़दाम को अमली शक्ल देने का मुनासिब मौका न था? आपने किस बिना पर उस मौके को ठुकराया?
इस सवाल का सीधा सा जवाब यह है कि मामून ने ख़िलाफ़त की पेशकश की तो इमाम (अ.स.) की नज़र में वह काबिले एतमाद न था। दूसरे यह कि अगर आप ज़मामे ख़िलाफ़त अपने हाथ में लेते तो आपके ऊपर तमाम आलमे इस्लाम के उमूर को चलाने की ज़िम्मेदारी आएद होती और इस काम के लिए एक आगाह व बेदार तबके की ज़रूरत थी जो इस्लाम के निज़ामे हयात के तमाम जुज़ियात को मुकम्मल अख़्लास और अमानतदारी के साथ नाफ़िज़ करने का अहल होता। इमाम (अ.स.) भी ऐसे ही लोगों का तबका तैयार करने की ख़्वाहिश रखते थे। अगरचे इमाम (अ.स.) के हामी गर्मतरीन जज़्बात से सरशार थे मगर अभी वह इस दर्जे को नहीं पहुंचे थे कि आपके मिशन से गहरी और सही मानों में आगाही के आमिल कहलाए जा सकते। इमाम (अ.स.) को फ़क़त ज़ाहिरी तब्दीली मकसूद न थी बल्कि अस्ल ज़रूरत ऐसी दाख़िली तब्दीली की थी जो मुखलिसाना आगाही व बेदारी की बुनियादों पर उस्तवार हो।
क्या इमाम (अ.स.) के लिए यह मुम्किन था कि आप इन्हेराफ और करप्शन की मुंह बोलती तस्वीर अब्बासी ब्यूरियोकेसी और सरकारी मशीनरी का सहारा लेते और उनके ज़रिए अहकामे इस्लाम के निफ़ाज़ की उम्मीद रखते? ज़ाहिर है कि यह सूरते हाल किसी तरह से काबिले कुबूल और माकूल नहीं थी।
रहा आपकी वली अहदी कुबूल करने का मसअला, तो जैसा कि हम पहले ही ज़िक्र कर चुके है कि यह इख़्तेयारी काम न था बल्कि जब्र व इकराह और पुरअसरार सियासी दबाव के तहत आप पर मुसल्लत किया गया था और आप निहायत कर्ब और दुख के साथ इस मुसीबत को झेलते रहे क्योंकि आपको इल्म था कि मामून का मकसद पुरआशोब हालात के हाथों गिरते हुए अपने अक़दार को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करना था।
मामून ने वली अहदी का यह खेल बाज़ सियासी मक़ासिद के हुसूल के लिए खेला था क्योंकि इस खेल पर हुकूमत के मुतअद्दि मसाएल का हल मौकूफ़ था। वह इमाम (अ.स.) के साथ अपने रवय्ये में मुखलिस न था।
इमाम (अ.स.) को अपने वतन से दूर पाबन्दियों की तलखियां झेलना पड़ीं। आपको एक ख़ास किस्म की नज़रबन्दी और पाबन्दी का सामना करना पड़ा। यह नज़रबन्दी ज़िन्दान की सलाखों के पीछे इस तरह न थी जिस तरह हारून रशीद ने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) को कैद कर रखा था। बल्कि आप पुरशिकोह महलात में ख़ादिमों और मुलाज़िमों की एक जमाअत की मईयत में नज़रबन्द थे जो दरअस्ल मामून के जासूस थे। ताजातरीन खबरों से दरबारे ख़िलाफ़त को मुत्तेला करते और इमाम (अ.स.) के पैरोकारों को आपसे मिलने नहीं देते थे।
आपकी हर दिलअज़ीज़ी और मकबूलियत
कसरत से इस अम्र के तारीख़ी शवाहिद मौजूद हैं कि इमाम (अ.स.) की जाते बा-सिफ़ात और पाक व पाकीज़ा शख़िसयत अवामुन्नास में बेहद मकबूल और हर दिलअज़ीज़ थी। चुनांचे मामून के वज़ीरे आज़म फ़ज़्ल बिन सुहैल ने जब एक वफ़्द को कूफे भेजा कि वह वहां के अवाम से इमाम (अ.स.) की वली अहदी पर बैअत हासिल करें तो अहले कूफ़ा ने यह कहक़र इन्कार किया कि हम इमाम (अ.स.) की वली अहदी नहीं बल्कि उनकी ख़िलाफ़त पर बैअत करना चाहते हैं।
मामून खुद भी अकसर व बेशतर हुकूमत में पेश आने वाली अहम मुश्किलात का हल तलाश करने की ग़रज़ से अपने को इमाम (अ.स.) की तरफ़ रूजू करता था। उसने एक मर्तबा इमाम (अ.स.) को बुला कर यह गुज़ारिश की कि आप अपने शियों को हुकूमत के मामलात में ख़ामोश रहने के लिए खुतूत लिखें क्योंकि शिया हर जगह उसकी हुकूमत पर तन्कीद किया करते थे।
फज़्ल बिन सुहैल के क़त्ल के मौके पर भी अवाम के दरमियान इमाम (अ.स.) की मकबूलियत व मंज़िलत वाजेह हुई क्योंकि उसके क़त्ल के बाद यह अफ़वाहें फैल गयीं थीं कि इस क़त्ल में मामून का हाथ है। चुनांचे अवाम मुश्तईल होकर बाहर निकल पड़े और उन्होंने दारूल खिलाफ़ा का मुहासिरा कर लिया ताकि अपने ग़ैज़ व गज़ब और जज़्बए इन्तेकाम का इज़हार करें। उस वक्त मामून मजबूर हुआ कि वह अपने महल के अकबी दरवाज़े से निकल कर करीब ही वाके इमाम रज़ा (अ.स.) के घर में दाखिल हुआ और उनसे इस मुश्किल में मदद तलब करे। उसने इमाम (अ.स.) से मिन्नत समाजत की कि वह लोगों के जज़्बात को किसी तरह ठण्डा करें। इमाम (अ.स.) अवाम के सामने ज़ाहिर हुए और उनके एक ही इशारे पर बिफरा हुआ मजमा अपनी जगह रूक गया उसके बाद लोग इधर उधर मुन्तशिर हो गए। यह तमाम बातें इस बात की मोहक़म दलील हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) को अवाम और मुआशिरे के दरमियान बेपनाह मकबूलियत और एक अज़ीम मक़ाम हासिल था।
इमाम रज़ा (अ.स.) के मन्कूलात व इरशादात बेशुमार हैं जिन्हें हम मुख़्तसरन नक़्ल करते हैं। आप फ़रमाते हैं कि:-
(1) जुमे के दिन रोज़ा रखना दस रोज़ों के बराबर है।
(2) जो शख़्स किसी औरत का मेहर न अदा करे या मज़दूर की मज़दूरी रोके, वह बख़्शा न जाएगा।
(3) खाने की इब्तेदा नमक से करनी चाहिए क्योंकि उससे सत्तर बीमारियां दूर होती हैं।
(4) मसूर सत्तर अम्बिया की खुराक है इससे इन्सान का दिल नर्म होता है और आंसू बनते हैं।
(5) जो शख़्स दुनिया में ज़्यादा खाता है वह क़यामत के दिन भूखा उठेगा।
(6) जहन्नुम में पेटूओं और जिनाकारों की कसरत होगी।
(7) बच्चों के लिए मां के दूध से बेहतर कोई गिज़ा नहीं है।
(8) जिस घर में सिरका होगा वह कभी मोहताज न होगा।
(9) मक्का सुफ़रा को दुरूस्त करता है, बलगम को दूर करता है और पुट्ठो को मज़बूत करता है।
(10) शहद में शिफा है।
(11) पड़ोसियों के साथ सिलए रहम और अच्छा सुलूक करने से माल में ज़्यादती होती है ।
(12) इमाम हुसैन (अ.स.) के कातिल बख़्शें न जाएंगे।
(13) हसन व हुसैन (अ.स.) जवानाने जन्नत के सरदार हैं और उनके पिदरे बुजुर्गवार उन दोनों से बेहतर हैं।
(14) अहलेबैत (अ.स.) की मिसाल सफीनए नूह (अ.स.) जैसी है। जो उस पर सवार हो गया निजात पायेगा।
(15) हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) क़यामत के दिन साके अर्श पकड़ कर ख़ूने हुसैन (अ.स.) का फैसला चाहेंगी। उस दिन उनके हाथ में इमाम हुसैन (अ.स.) का खून भरा पैराहन होगा वग़ैरा वग़ैरा।
देबल का मरसिया
आशूर का दिन था। इमाम रज़ा (अ.स.) अपने चन्द असहाब के हलके में सर झुकाए हुए ख़ामोश और रंजीदा व मलूल बैठे थे। आपकी आंखों से ज़ारो क़तार आंसू जारी थे कि इतने में अरब का मशहूर व मारूफ शाएर देबल ख़ुजाई ने इज़्ने बारयाबी तलब किया। आपने फ़रमाया आओ, हम तुम्हारा इन्तेज़ार ही कर रहे थे। फिर आपने खड़े होकर उसका इस्तेकबाल किया और अपने पहलू में बैठाया। उसके बाद फ़रमाया, ऐ देबल! आज यौमे आशूर है और यह दिन हमारे लिए इन्तेहाई रंज व गम का दिन है लिहाज़ा मैं चाहता हूं कि तुम मेरे जद्दे मज़लूम हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के मसाएब के बारे में कुछ शेर पढ़ो। ऐ देबल! हमारे जद की मुसीबत पर रोने या रूलाने वाले का अज्र खुदा पर वाजिब है और ऐ देबल ! जिस शख़्स की आंखे हमारे जद के ग़म में नम होंगी वह बरोज़े क़यामत हमारे साथ महशूर होगा।
यह कहक़र इमाम (अ.स.) ने अपनी जगह से उठ कर पर्दे का इन्तेज़ाम किया और मुख़द्दराते इस्मत को बुला कर वहां बैठाया। उसके बाद आपने देबल से फ़रमाया अब मेरे जद नामदार का मरसिया शुरू करो। देबल का बयान है कि मैंने मरसिया पढ़ना शुरू किया। मेरी आंखों से बेइख़्तेयार आंसू जारी थे और आले मुहम्मद में एक अज़ीम कोहराम बरपा था। मासूमए कुम यानी इमाम अली रज़ा (अ.स.) की हमशीरा इस क़द्र रोई कि आपको ग़श आ गया। (बिहारूल अनवार)
इस इज्तेमाई तरीके से तज़किरए मज़लूमे कर्बला का इस्तेलाही नाम “मजलिस” है जो इमाम रज़ा (अ.स.) ही की एक हदीस से माख़ूज़ है। इसका सिलसिला अहदे इमाम रज़ा (अ.स.) में मदीने से मरव तक जारी रहा।
तारीख़ों से इस बात की निशानदेही होती है कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) को अपने दौर में दीगर इस्लामी उमूर की तब्लीग के साथ वाक़िआते कर्बला और कारनामए हुसैनी की इशाअत का भी मौक़ा फ़राहम हुआ जिसकी बुनियाद इससे क़ब्ल इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) और इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) क़ाएम कर चुके थे मगर वह जमाना ऐसा था कि सिर्फ ओलमा और रूहानी पेशवा ही इन इमामों की ख़िदमत में हाज़िर हो सकते थे। अवामुन्नास की रसाई इसलिए मुहाल थी कि तमाम शिया मुआशिरा अब्बासी हुक्मरानों के जुल्म व इस्तेबदाद का शिकार था और किसी की यह हिम्मत न थी कि वह आले रसूल (स.अ.) से अपनी अक़ीदत व मुहब्बत का इज़हार कर सके। इमाम रज़ा (अ.स.) दीनी व रूहानी पेशवा भी थे, इमामे वक़्त भी थे और वली अहद सल्तनत भी थे इसलिए आपके दरबार में बारयाब होने वालों का दाएरा बहुत वसीअ था। आप खुद भी इमाम हुसैन (अ.स.) के मसाएब व आलाम को याद करके रोया करते थे और दूसरों को भी तरगीब देते थे कि आले रसूल (स.अ.) के मसाएब याद करो और असराते ग़म को ज़ाहिर करो। आपने खुद भी अमली तौर पर मजलिसों का इन्एकाद किया जिनमें कभी आप खुद जाकिर होते थे, कभी रय्यान बिन शैब, कभी अब्दुल्लाह बिन साबित और कभी देबल ख़ुज़ाई ऐसे शाएर अपने हर शेर पर जन्नत में एक बैत के हक़दार होते थे।
आपकी शान में देबल का क़सीदा
देबल का पूरा नाम अबु अली देबल बिन अली बिन ज़रीन था। सन् 148 हिजरी में पैदा हुए और सन् 245 में ब-मुक़ाम मशूश इन्तेकाल कर गए। उनके लातादाद अशआर मदहे आले मुहम्मद (स.अ.) में मौजूद हैं।
अल्लामा शिबलिन्जी का बयान है कि देबल ख़ुज़ाई एक दिन दारूल सल्तनत मरव में इमाम रज़ा (अ.स.) से मिले और उन्होंने कहा कि हुज़ूर मैंने आपकी मदह में 120 अशआर पर मुश्तामिल एक कसीदा लिखा है, मेरी तमन्ना यह है कि मैं उसे सबके हुज़ूर ही सुनाऊँ। इमाम (अ.स.) ने इजाज़त दे दी। जब देबल क़सीदा सुना चुके तो आपने सौ अशरफियों की एक थैली उन्हें अता फ़रमाई। देबल ने शुक्रिया अदा करने के बाद उसे वापस करते हुए कहा, मौला ! इस क़सीदा का सिला मुझे आख़िरत में चाहिए, फिलहाल आप अपने जिस्म मुबारक से उतरे हुए कपड़ों में से मुझे कुछ इनायत फ़रमाए तो यह अतिया मेरी दिली ख्वाहिश के मुताबिक होगा। आपने एक जुब्बा अता करते हुए फ़रमाया कि इस रकम को भी कुबूल कर लो, यह तुम्हारे काम आयेगी। देबल ने उसे ले लिया और मरव से इराक जाने वाले काफिले के हमराह रवाना हुए। रास्ते में डाकूओं ने काफिले पर हमला करके सब साज़ व सामान लूट लिया और कुछ लोगों को गिरफ़्तार भी कर लिया जिनमें एक देबल थे। जब माल के तक़सीम का वक़्त आया तो उन डाकुओं ने देबल ही का एक शेर पढ़ा। देबल ने पूछा यह किस का शेर है? उन्होंने कहा, होगा किसी शाएर का। देबल ने कहा यह मेरा शेर है उसके बाद उन्होंने सारा क़सीदा सुनाया। जिसे सुनने के बाद उन्होंने सारा माल वापस कर दिया और सबको छोड़ दिया मगर वह जुब्बा जो इमाम (अ.स.) ने देबल को मरहमत फ़रमाया था, ज़बर्दस्ती डाकूओं ने देबल से छीन लिया और हज़ार अशरफी उसकी कीमत देबल को दे दी।
तसानीफ़
इमाम रज़ा (अ.स.) की मशहूर तसानीफ के ज़ैल में ओलमा ने सहीफ़तुर रिज़ा, सहीफ़तुर रिज़विया, तिबुर रिज़ा, और मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) के हवाले दिए हैं और उन किताबों को आपकी खुसूसी तसानीफ़ में शामिल किया है। सहीफ़तुर रिज़ा का ज़िक्र अल्लामा मजलिसी, अल्लामा तबरिसी और अल्लामा जमख़शरी ने किया है। उसका उर्दू तर्जुमा हकीम इकराम रज़ा लखनवी ने तबा कराया था जो अब तक़रीबन नापैद है। सहीफ़तुर रिज़विया का तर्जुमा मौलवी शरीफ़ हुसैन बरेलवी ने किया है। यह किताब भी नापैद हो चुकी है। तिबुर रिज़ा का ज़िक्र अल्लामा मजलिसी और शेख मुन्तखबुद्दीन ने किया है। इसकी शरह फ़ज़लुल्लाह अली रावन्दी ने लिखी है। इसी को रिसाला-ए-जहबिया भी कहते है, इसका तर्जुमा मौलाना हकीम मकबूल अहमद साहब किब्ला मरहूम ने भी किया था। मसन्दे इमाम रज़ा (अ.स.) का ज़िक्र तफ़सील के साथ कशफुल जनून में है जिसे अल्लामा अब्दुल्लाह अम्रतसरी ने अपनी किताब अरहजुल मतालिब के पेज 454 पर नक़्ल किया है।
इमाम रज़ा (अ.स.) ने माउल्लहम बनाने और मोसमयात के बारे में जो अफ़ादा फ़रमाया है उसका ज़िक्र दमए साकेबा वग़ैरा में मौजूद है।
कालीन के शेर
इमाम अली रज़ा (अ.स.) के ज़मानाए वली अहदी में एक दफ़ा शदीद तरीन कहत पड़ा। मामून ने आपसे कहा, दुआ फ़रमाईए कि ख़ुदावन्दे आलम नज़ूले बारां कर दे। मुल्क की हालत अबतर हो चुकी है और भूख व प्यास की शिद्दत से लोग मौत से हमकिनार हो रहे हैं। आपने फ़रमाया, मैं दोशम्बे के दिन तलबे बारां के लिए निकलूंगा, मुझे अपने परवरदिगार से बड़ी तवक्को है, इन्शाअल्लाह बारिश होगी और कहत से ख़ल्के ख़ुदा को निजात मिलेगी। ग़रज़ कि वक़्त मुकर्ररा पर इमाम (अ.स.) सहरा की तरफ गए। वहां आपने मुसल्ला बिछाया और बाद नमाज़ बारगाहे अहदियत में दुआ की। अभी दुआ ख़त्म न हुई थी कि खुन्फ हवा के झोंके चले, आसमान पर बादल छाया, बूंदें पड़ने लगीं और इस क़द्र पानी बरसा कि सारा इलाका जल थल हो गया।
इस इस्तेजाबते दुआ और करामते ख़ास की वजह से इमाम (अ.स.) के हासिदीन जल भुन कर ख़ाक हो गए उन्होंने इमाम (अ.स.) की तज़लील का मंसूबा तैयार कर लिया। चुनांचे एक दिन उन्हीं हासिदों में से एक ने भरे दरबार में आपसे कहा कि लोग आपके बारे में न जाने क्या क्या खुराफात नश्र किया करते हैं और आपकी मंज़िलत बढ़ाने की फिक्र में लगे रहते हैं और वह यह चाहते हैं कि आपका मर्तबा बादशाह के मर्तबे से बुलन्द कर दें। अब यह कहा जा रहा है कि आपने बारिश करा दी। मैं कहता हूं कि जब बारिश अर्से से नहीं हुई थी तो उसे होना ही था। इसमें आपकी करामत का क्या दखल है? अगर वाकई ख़ुदा ने आपको मोजिज़ात व करामात से नवाज़ा है तो इस दरबारी कालीन पर बने हुए दोनों शेरों को मुजस्सम करके इन्हें हुक्म दीजिए कि वह मुझे फाड़ खाएं। उस बदबख़्त की बातें सुनकर आपने ज़रा तवक्कुफ़ फ़रमाया जैसे अपने ख़ालिक़ की बारगाह में कुछ अर्ज़ कर रहें हों। उसके बाद उस दरबारी कालीन पर बने हुए दोनों मसनूई शेरों की तरफ मुतवज्जे हुए और फ़रमाया, इस फ़ासिक व फाजिर को चीर फाड़ कर इस तरह खा जाओ कि इसका वजूद बाकी न रहे।
इमाम (अ.स.) की ज़बान पर इन कलमात का जारी होना था कि दोनों शेरों की तस्वीरें मुजस्सम हो गयीं और उन्होंने दहाड़ते हुए उस शख़्स पर हमला कर दिया जिसका नाम हमीद बिन मेहरान था। उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए और खा गए। यह हंगामा देखकर मामून बेहोश हो गया था। इमाम (अ.स.) उसे होश में लाए और शेरों को हुक्म दिया कि अपनी अस्ली सूरत की तरफ पलट जाओ। चुनांचे वह फिर कालीन के मसनुई शेर बन गए।
आपकी शहादत
इस हक़ीक़त से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मामून रशीद ने हालात की रौशनी में जिस तरह अपने भाई अमीन की मातहती कुबूल की और फिर उसे क़त्ल कर दिया। जिस तरह उसने फ़ज़्ल बिन सुहैल को अपना मोअतमिद बनाने के बाद हमाम में उसे क़त्ल करा दिया, जिस तरह उसने ताहिर को वजीर बनाया और उसकी वजह से ख़िलाफ़त का इस्तेकरार हासिल किया फिर उसे मौत के घाट उतार दिया। बिल्कुल उसी तरह उसने अपनी ग़रज़ और ज़रूरत के तहत इमाम रज़ा (अ.स.) को अपना वली अहद बनाया, उनके साथ अपनी बेटी उम्मे हबीबा की शादी की और ज़रूरत ख़त्म होने के बाद अपने हाथों से ज़हर देकर शहीद कर दिया।
इस्लामी तारीख़ की रौशनी में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की वफ़ात, जनाबे फ़ातिमा (स.अ.) के मसाएब व आलाम, इमाम हसन (अ.स.) पर नारवां मज़ालिम, वाकिए कर्बला का पस मंज़र नीज़ दीगर अईम्मए ताहिरीन (अ.स.) के साथ शाहाने वक़्त के सुलूक नीज़ कैद व बन्द और शहादत का बग़ौर तजज़िया करने से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि हुकूमत व इक़्तेदार के लिए क्या क्या मज़ालिम किए जा सकते हैं और कैसी कैसी हस्तियों को मौत के घाट उतारा जा सकता है। तारीखें गवाह है कि मामून की दादी ने अपने बेटे हादी जो ख़लीफ़ा था, 26 साल की उम्र में ज़हर दिलवा कर मार दिया। मामून के बाप हारून रशीद ने अपने वज़ीरों के खानदान बरमका को तबाह व बर्बाद कर दिया। मरवान की बीवी ने अपने ख़ावन्द को बिस्तरे ख़्वाब पर दो तकियों से गला घुटवा कर मार दिया। वलीद बिन अब्दुल मलिक ने फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को ज़हर से शहीद करा दिया। हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) को ज़हर दिया। मंसूर दवानिकी ने सादिक़ आले मुहम्मद (स.अ.) को ज़हर से शहीद किया। हारून रशीद अब्बासी ने इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) का ज़हर के ज़रिए खातमा किया। इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) को मोअतसिम बिल्लाह ने उम्मुल फ़ज़्ल बिन्ते मामून के ज़रिए ज़हर दिलवाया। मोअतमिद अब्बासी ने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को जहर दिया। ग़रज़ कि हुकूमत व इक़्तेदार की ख़ातिर आले रसूल (स.अ.) के क़त्ल पर हर अलमिया जन्म लेता रहा। औरंग ज़ेब ने अपने बाप को कैद में रखा और अपने भाई को क़त्ल कराया और उसी ने काजी नुरूल्लाह शूस्तत्री को भी मौत के घाट उतारा। बहरहाल इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ भी इसी तरह का हादसा पेश आया।
अबुस सल्त हरवी का बयान है कि इमाम रज़ा (अ.स.) ने एक दिन मुझसे फ़रमाया कि ऐ अबुस सल्त! कल मामून मुझे तलब करेगा। जब मैं उसके पास जाने लगूं और मेरे सर पर कोई चादर या तौलिया हो तो मुझ से कलाम न करना। दूसरे दिन सुबह मैंने देखा कि मामून का कासिद आया और इमाम (अ.स.) उसके साथ रवाना हुए। आपके सरे अकदस पर तौलिया या तौलिए की तरह का कोई कपड़ा था। मैंने हस्बुल हुक्म उनसे कोई कलाम नहीं किया और आप तशरीफ ले गए। कुछ दरबारियों का कहना है कि उस वक़्त मामून के सामने अंगूरों से भरा हुआ एक तश्त रखा था। मरासिमे ताज़ीम अदा करने के बाद उसने इमाम (अ.स.) को अपने पास बैठाया और कहा ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.)! आपके लिए मैंने यह “खुसूसी अंगूर” मंगवाए हैं। इससे बेहतर अंगूर आपने न खाए होंगे। आपने फ़रमाया, जन्नत के अंगूर इससे कहीं बेहतर हैं। फिर मामून ने एक खोशा इमाम (अ.स.) की तरफ बढ़ाते हुए कहा लीजिए तनावुल फ़रमाएं। आपने फ़रमाया ऐ बादशाह! इन अंगूरों की तरफ मेरा दिल रूजू नहीं होता, लिहाजा मुझे माफ़ कर। मामून ने सख़्त इसरार किया और कहा, क्या आपको मुझ पर भरोसा नहीं है? आख़िर इन अंगूरों से गुरेज़ क्यों? ग़रज़ कि मामून के इसरार पर इमाम (अ.स.) ने वह ख़ोशा उसके हाथ से ले लिया और उसमें से तीन दाने आपने तनावुल फ़रमा लिए। खाते ही उन्सुरे वजूद में एक इन्केलाब पैदा हुआ और आप उठ खड़े हुए। मामून ने कहा, हज़रत कहां चले? फ़रमाया जहां तूने भेजा है वहां जा रहा हूं।
अबुस सल्त कहते हैं कि इमाम (अ.स.) दरबार से उठ कर अपने मसकन पर तशरीफ़ लाए और मुझसे फ़रमाया कि दरवाजा बन्द कर दो। फिर आप बिस्तर पर लेट गए। आपका बिस्तर पर लेटना था कि मेरा दिल धड़कने लगा। मुख़़्तलिफ किस्म के ख़्यालात ने मुझे घेर लिया। मैं रंज व अलम की तस्वीर बना बैठा था कि नागाह घर के अन्दर एक खुबसूरत शहज़ादे को देखा मैंने हैरत व इस्तेजाब के लहजे में उससे पूछा, दरवाज़ा तो बन्द है, आपको घर में किसने पहुंचा दिया, आप कौन हैं? फ़रमाया, मुझे इस बन्द मकान में वही लाया है जो चश्मे जंदन में मुझे मदीने से यहां तक लाया है, मैं मुहम्मद तक़ी हूं और अपने वालिदे बुजुर्गवार की आख़िरी ख़िदमत के लिए हाज़िर हुआ हूं। इमाम रज़ा (अ.स.) ने आपको देखते ही अपने सीने से लगा लिया, पेशानी का बोसा दिया और आहिस्ता-आहिस्ता कुछ बातें करने लगे। अभी थोड़ी ही देर गुज़री थी कि इमाम रज़ा (अ.स.) की रूहे मुबारक जिस्मे अकदस से परवाज़ कर गयी। आपके साहबज़ादे इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) ने गुस्ल व कफ़न और हुनूत का इन्तेज़ाम फ़रमाया। जब गुस्ल व कफ़न के बाद मय्यत तैयार हो गयी तो मामून भी अपने अफ़सरान व हुक्काम के झुरमुट में वारिद हुआ। “मुहम्मद बिन अली (अ.स.) “ने नमाज़ पढ़ाई और इमाम रज़ा (अ.स.) का जनाज़ा हारून रशीद की कब्र के सरहाने दफ़न कर दिया गया। मुहम्मद बिन तलहा शाफई लिखते हैं कि तजहीज़ व तदफ़ीन के बाद मामून इमाम मुहम्मद नक़ी (अ.स.) से मिलने का ख़्वाहिशमन्द था मगर आप वहां से फौरी तौर पर मदीने के लिए रवाना हो गए।
अल्लामा नेअमतुल्लाह जज़ाएरी अपनी किताब तज़किरतुल मासूमीन में रक़म तराज़ हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत के बाद जो ख़बर सबसे पहले आम हुई वह थी कि मामून ने इमाम (अ.स.) को जहर देकर शहीद कर दिया। अल्लामा तबरसी ने लिखा है कि मामून ने इमाम रज़ा (अ.स.) को ज़हर आलूदा अंगूर खिलाया जिससे आपकी शहादत वाके़ हुई।
जिलाउल अयून, अनवारे नोअमानिया और जिन्नातुल खुलूद में है कि इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत 23 जीकादा सन् 203 हिजरी को बामक़ाम तूस वाक़े हुई। उस वक्त आपके पास अज़ीज़ व अकारिब या औलाद में से कोई न था। एक तो आप मदीने से गरीबुल वतन होकर आए थे दूसरे आलमे गुरबत में दुनिया से रूख़्सत भी हुए इसीलिए आपको गरीबुल गुरबा कहा जाता है।
तादादे औलाद
इमाम रज़ा (अ.स.) की तादाद औलाद में सख़्त इख़्तेलाफ है। अल्लामा मजलिसी ने बिहारूल अनवार में कई अकवाल नक़्ल करने के बाद तहरीर फ़रमाया, आपके दो फ़रज़न्द इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) और मूसा थे। अनवारून नोअमानिया में और अनवारूल हुसैनिया में तीन औलादें मरकूम हैं। नुरूल अबसार, जिन्नातुल खुलूद और रौजतुल अहबाब में आपकी औलादों की तादाद पांच फ़रज़न्दों और बेटी पर मुश्तामिल बताई गयी है। कंजुल अन्साब में है कि आपके आठ बेटे इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.), हादी, अली नकी, हुसैन, याकूब, इब्राहीम, फ़ज़ल और जाफ़र थे। शेख मुफीद अलैहिर्रहमा इरशाद में, अल्लामा तबरसी आलामुल वुरा में और काज़ी नुरूल्लाह शूस्तत्री मजालिसुल मोमेनीन में रकम तराज़ हैं कि औलादों में इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) के अलावा कोई न था। इब्ने शहर आशूब ने भी तहरीर फ़रमाया है कि आपके फ़रज़न्द सिर्फ इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) हैं। अल्लामा शेख अब्बास कुम्मी ने भी तहरीर किया है कि इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) के अलावा इमाम रज़ा (अ.स.) के कोई और फ़रज़न्द न था। मेरी तहक़ीक़ के मुताबिक इब्ने शहर आशोब वाली रिवायत दुरूस्त है।
मासूमा-ए-कुम
कुम ईरान का वह अज़ीम व कदीम खित्ता है जो सन् 83 हिजरी में आबाद हुआ। मोअर्रिखीन व मोहक्क़िक़ीन ने इस शहर की वजह तस्मिया के बारे में मुख़्तलिफ़ ख्यालात का इज़हार किया है। बाज़ का ख़्याल है कि यहां की सरज़मीन एक नख़लिस्तान की शक्ल में सैकड़ों साल से उफ़तादा पड़ी थी। कुछ लोग इधर उधर से आकर उस मक़ाम पर ठहरे। उन्होंने दरख़्तों और झाड़ियों को काट कर अपने खेमे नस्ब किए और मकानात बनाए। फिर उस जगह का नाम “कूता” रखा। जिससे “कुम” हुआ और फिर बाद में कुम कहा जाने लगा। बाज़ का कहना है कि जनाबे नूह (अ.स.) की कश्ती चक्कर लगाती हुई थोड़ी देर के लिए इस मक़ाम पर ठहर गई थी इसलिए उसका नाम कुम पड़ा और बाज़ का ख़्याल है कि जब हज़रत हुज्जत जुहूर फ़रमाएंगे। तो इस शहर के बाशिन्दे इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर होंगे, उनके साथ क़ाएम रहेंगे और उनकी मदद करेंगे इसलिए इसका नाम कुम रखा गया है। बहरहाल मेरा तहकीकी नज़रिया यह है कि इस शहर से मग़रिबी जानिब 40 किलोमीटर की दूरी पर “कुम” नामी एक पहाड़ी थी उसी की मुनासिबत से उसका नाम कुम रखा गया जो रफ्ता रफ्ता कुम हो गया।
कुम की सरजमीन बड़ी फजीलतों की हामिल है। अल्लामा मजलिसी का कहना है कि “यौमे-अलस्त” इसी ज़मीन ने सबसे पहले हज़रत अली इब्ने अबीतालिब (अ.स.) की विलायत का इक़रार किया था इसी लिए खुदा वन्दे आलम ने जन्नत के दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा इसकी तरफ़ खोल दिया है। सादिक़े आले मुहम्मद (स.अ.) का इरशाद है कि कुम की मिट्टी बड़ी मुकद्दस है, उसके बाशिन्दे हम से और हम उनसे हैं। आपने यह भी फ़रमाया कि कुम हमारे शियों और दोस्तों का गढ़ है, अगर अहले कुम न होते तो दीन की तरक़्क़ी में रूकावट पैदा होती। अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) का इरशाद है कि कुम आले मुहम्मद (स.अ.) का मरकज़े सुकून और शियों का मलजा व मावा है।
सादिक़े आले मुहम्मद (स.अ.) इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) का यह भी इरशाद है कि काबा की वजह से मक्का, रसूल (स.अ.) की वजह से मदीना, अली (अ.स.) की वजह से नजफ़ और हम आले मुहम्मद (स.अ.) की वजह से कुम मोहतरम है। अनक़रीब इस शहर में हमारी औलाद में से एक मोअज़्ज़मा दफ़्न होगी जिनका नाम फ़ातिमा होगा।
अल्लामा मजलिसी रकम तराज़ हैं कि जनाबे फ़ातिमा बिन्ते इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) उस ज़माने में यहां तशरीफ लायीं जब सन् 200 हिजरी में अब्बास फ़रमांरवा मामून रशीद ने उनके हक़ीक़ी भाई इमाम रज़ा (अ.स.) को दारूल ख़िलाफा “मरव” में जबरन तलब कर लिया था। इस वाक़िए के एक साल बाद भाई की मोहब्बत में बेचैन होकर हज़रत फ़ातिमा मदीने से निकल खड़ी हुई और मराहिले सफर तय करती हुई जब “सावा” के मक़ाम पर पहुंची तो अलील हो गयी। जब आपकी अलालत का हाल कुम के रईस मूसा बिन खुज़ाज बिन सअद कुम्मी को मालूम हुआ तो वह फौरन हाज़िरे ख़िदमत हुए और उन्होंने अर्ज़ किया कि ऐ ख़्वाहरे इमाम (अ.स.) ! आप यहां से कुम तशरीफ़ ले चलें। आपने दरयाफ़्त किया कि कुम यहां से कितनी दूर है? मूसा ने कहा, दस फ़रसख का फासला है। फ़रमाया, फिर मुझे ले चलो। चुनांचे मूसा बिन ख़ुज़ाज नाके की मेहार थामे हुए निहायत अदब व एहतेराम के साथ आपको कुम में अपने घर तक ले आए और वहां आप क़याम फ़रमा हुईं। अभी आपकी अलालत का सिलसिला जारी था कि अचानक आपको अपने भाई इमाम रज़ा (अ.स.) की ख़बरे शहादत मौसूल हुई। यह अन्दोहनाक हादसा आपकी मौत का सबब बन गया और कुम पहुंचने के ठीक सत्तरहवें दिन अपने भाई के गम में इस दुनिया से रूख़्सत हो गयीं। मस्तूराते कुम के ज़रिए मूसा बिन ख़ुज़ाज ने गुस्ल व कफ़न का इन्तेज़ाम किया और आपका जनाज़ा एक ताबूत में रखकर “बाबलान” के मक़ाम पर तदफीन के लिए ले जाया गया जहां कुदरती तौर पर एक सरदाब तैयार था। कब्र में मय्यत उतारने के लिए बात चली कि “कौन उतारे?” आख़िर कार तय पाया कि कादिर नामी आपका खादिम मर्दे मोमिन और सालेह है, आपको कब्र में उतारे। इतने में लोगों ने देखा कि सहरा की तरफ से दो नकाब पोश नमूदार हुए और जनाज़े के करीब आकर ठहर गए। उन्होंने नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई, कब्र में उतरे और तदफीन के बाद वापस चले गए। उसके बाद यह न मालूम हो सका कि कौन थे?
मूसा बिन ख़ुजाज ने आपकी कब्र पर बोरिए का एक छप्पर बनवा दिया था। फिर जनाब ज़ैनब बिन्ते इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) ने उस पर एक कुब्बा तामीर कराया। उसके बाद मुख़्तलिफ़़ अदवारे शाही में इस रौज़ए अतहर की तामीर व तज़ईन अमल में आती रही।
सादिक़ आले मुहम्मद (स.अ.) इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) का इरशाद है कि कुम के ज़ाएरीन पर जन्नत वाजिब है। नीज़ आपने यह भी फ़रमाया है कि मासूमा-ए-कुम की शिफाअत से कसीर तादाद में शिया दाखिले जन्नत होंगे।
इमाम रज़ा (अ.स.) से भी एक रिवायत है कि मेरी हमशीरा फ़ातिमा की रेहलत क़ुम में होगी और जो शख़्स उनके रौज़े की जियारत से मुशर्रफ होगा उसके लिए जन्नत यकीनी है।
एक रिवायत में है कि अली बिन इब्राहीम ने अपने बाप से उन्होंने सअद से सअद ने अली बिन मूसा (अ.स.) से रिवायत की है, वह फ़रमाते हैं ऐ सअद! तुम्हारे शहर में हमारी एक कब्र है। सईद ने कहा, मासूमा-ए-कुम की? फ़रमाया हां। ऐ सअद जो शख्स उनके हक़ को पहचान कर उनकी ज़ियारत करेगा उस पर जन्नत वाज़िब है।
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इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.)
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आप बतारीख 10 रजबुल मरज्जब सन् 165 हिजरी को शबे जुमा मदीना-ए-मुनव्वरा में मतूलिद हुए। आपकी वालिदा जनाबे खि़ज़रान उर्फ सकीना ख़ातून उम्मुल मोमेनीन मारिया किब्तिया के कबीले से एक पाकबाज़, बाअज़मत और बरगुज़िदा खातून थीं। बाज़ ओलमा की किताबों में आपका नाम “सकीना” के बजाये “सकीबा” तहरीर है जो किताबत की ग़लती का नतीजा मालूम होता है।
अगरचे सिन व साल के लिहाज़ से इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) अईम्मए ताहिरीन (अ.स.) में सब से छोटे थे लेकिन आपकी कद्र व मंजिलत बहुत बड़ी थी। उलूम व मआरिफत की हमागीरी के साथ आप सिफ़ात व कमालात की उस बुलन्दी पर फाएज़ थे जहां बड़े-बड़े जय्यद ओलमा और अजीमुल मरतबत फुकहा पर भी न मार सकते थे।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
आपके वालिद बुजुर्गवार इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने आपका नाम अपने जद हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के नाम पर “मुहम्मद” रखा था। आपकी कुन्नियत अबु जाफ़र थी। अलक़ाब में जव्वाद तकी, मुख़्तार, मुर्तुजा, काने और आलिम वग़ैरा हैं मगर तकी आपका मशहूर तरीन लकब है। शेख मुफीद अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं कि आपको तक़ी इसलिए कहा जाता है कि आपका तक़वा शोहरए आफ़ाक़ था नीज़ आप खुदा से इस क़द्र डरते थे कि जब नमाज़ के लिए मुसल्ले पर खड़े होते तो आप पर लरज़ा तारी हो जाता था।
सलातीने वक़्त
अब्बासी फ़रमाँरवा अमीन बिन हारून रशीद के अहद में आप मुतवल्लिद हुए। कमसिनी ही में अपने वालिद के कातिल मामून रशीद का इस्तेबदादी दौर देखा उसके बाद सन् 218 हिजरी में मोअतसिम अब्बासी तख़्त हुकूमत पर मुतमक्किन हुआ और उसी ने आपको सन् 220 हिजरी में ज़हर दिलवाकर शहीद करा दिया।
नशो नुमा और तरबियत
यह एक अन्दोहनाक हक़ीक़त है कि इमाम तक़ी (अ.स.) को अपने मुशफ़िक बाप के ज़ेरे साया तरबियत हासिल करने का बहुत ही कम मौका फ़राहम हुआ। अभी आपकी उम्र का पांचवां साल था कि मामून रशीद ने आपके वालिद की वली अहदी का शाखसाना खड़ा करके उन्हें हमेशा के लिए आपसे जुदा कर दिया। लेकिन आपके अज़ीम बाप ने इसी पांच बरस की मुख़्तसर सी मुददत में आपकी तरबियत का फ़रीज़ा इस तरह अंजाम दिया कि इमाम के तमाम रुमूजे़ सरबस्ता आप पर आशकार हो गए और इल्म व मअरिफ़त की तजल्लियों से आपका कस्र वजूद जगमगाने लगा। या यूं कहा जाए कि इस क़लील तरीन मुददत में बाप ने अपने बेटे को अपने जैसा इमाम बना दिया और कमसिन होने के बावजूद आप इस मनसब पर फाएज़ हो गए जो ख़ुदा की तरफ से इमामत के लिए मखसूस है।
जब आपकी ज़िन्दगी का आठवां साल शुरू हुआ तो मामून ने आपके पिदरे बुज़ुर्गवार को अंगूर में ज़हर देकर शहीद कर दिया। अब यतीमी के लिबास में आपकी सोगवार हयात उस हौसला शिकन मोड़ पर थी जहां एक तरफ़ ग़म व आलाम के जान लेवा थपेड़े थे और दूसरी तरफ इस्लाम की बका और तहफ्फुज़ का गहरा एहसास। चुनांचे आपने इसी कमसिनी की हालत में अपने ग़ैर मामूली ज़ब्त व तहम्मुल और पाएदार व मोहक़म जद्दो जेहद के ज़रिए अपनी इमामत का आगाज किया। यकीनन यह आपके अहद तफूलियत का एक इन्तेहाई अहम और मोजिज़ाना पहलू है जिसकी अहमियत व हक़ीक़त आपकी ज़ात से मामून की दिलचस्पी नीज़ आपको हुकूमत से मरबूत रखने की उसकी कोशिश और साज़िशों से ज़ाहिर होती है।
अन्दाज़े हयात
इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) की पूरी ज़िन्दगी अपने वालिद की पॉलिसियों को जारी रखने और बिगड़े हुए इस्लामी मुआशिरे के लिए मसलहताना इक़दामात में गुज़री। गालिबन यही वजह थी कि मामून रशीद ने अपनी शातिराना और सफ़्फ़ाकाना चालों पर अमल पैरा होकर खुद को आपका सच्चा खैरख़्वाह, हमदर्द और मोहिब ज़ाहिर किया। उसने अपनी बेटी उम्मुल फज़्ल की शादी भी आपके साथ कर दी ताकि वह आपकी हतमी ताईद हासिल कर सके नीज़ उसने आपसे यह दरख्वास्त भी की कि वह मदीने के बजाए दारूल ख़ुलफ़ा में सकूनत व इक़ामत इख़्तेयार करें। लेकिन इमाम (अ.स.) ने उसकी इस दरख़्वास्त को ठुकरा दिया ताकि उसकी जानिब से आपकी ताईद हासिल करने की चाल को आप खाक में मिला दें।
इमाम (अ.स.) की तरफ से यह इक़दाम मामून की ख़िलाफ़त से इन्कार और दूसरों के लिए इस अम्र का इशारा था कि उसकी हुकूमत नाजाएज़ और गासिबाना है। इसके अलावा यह इक़दाम आपकी तरफ से आपकी इमामत का इस्बात नीज़ आपके अहदाफ़ और हुकूमत के मक़ासिद में इख़्तेलाफ़ की दलील भी था। अगर इमाम (अ.स.) मामून का कहना मान लेते और दारूल ख़ुलफ़ा में इकामत पजीर हो जाते तो गोया यह बात दोनों के लाहए अमल में इत्तेहाद व हमआहंगी से इबारत होती और लोग यह समझते कि इन दोनों में कोई तज़ाद नहीं है। चुनांचे फिक्री मंसूबा बन्दी और नज़रियात व अकाएद के हवालों से लोगों के दरमियान बेदारी व आगाही पैदा करने में आप अपने वालिद की रविश पर इस्तेकलाल के साथ गामजन रहे। आपके पास बग़दाद और दीगर शहरों से ओलमा व फुकहा जमा होते थे ताकि वह अपने मसाएल आपसे दरयाफ़्त करें और आपसे हिदायत व रहनुमाई हासिल करें।
अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा का बयान है कि मामून रशीद की तरफ से इमाम रज़ा (अ.स.) का वली अहद मुकर्रर किया जाना ही अब्बासियों के लिए नागवारी व कबीदा ख़ातिरी का सबब था मुस्तजाद यह कि जब उन्हें ये भनक मिल कि अब मामून की निगाहे इल्तेफ़ात इमाम मुहम्मद तकी (अ.स.) पर मरकूज़ हैं और वह उन्हें अपना दामाद बनाने की सोच रहा है तो वह बिफर गए। उन्होंने एक खुसूसी इजतेमा में तय किया कि चन्द सरबर-आवर्दा लोगों का एक वफ़्द मामून से मिले और बात चीत के जरिए उसे अपने इरादों से बाज़ रखने की कोशिश करे। चुनांचे कुछ लोगों ने मामून से मुलाकात की और उससे कहा, आपने इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ जो तरीका इख़्तेयार किया वही हमें नापसन्द था मगर चूंकि वह शरफ़ व फ़ज़ीलत और औसाफ़ व कमालात की बिना पर काबिले एहतेराम थे, लिहाज़ा हमने उनके ख़िलाफ़ लबकुशाई नहीं की। यहां तक कि वह दुनिया से रूख़्सत हो गए। अब यह मालूम हुआ है कि आप “मुहम्मद” की तरफ़ मुलतफित हैं जो अभी बिल्कुल ही कमसिन हैं। बड़े बड़े ओलमा पर एक बच्चे को तरजीह देना और ज़रूरत से ज़्यादा सर चढ़ाना आप पर ज़ेब नहीं देता फिर यह ख़बर भी गश्त कर रही है कि आप “उम्मुल फ़ज़्ल” का निकाह भी मुहम्मद (अ.स.) बिन अली (अ.स.) के साथ करना चाहते हैं।
मामून ने जवाब दियाः मुहम्मद कमसिन ज़रूर हैं मगर इस हक़ीक़त से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह सिफात व कमालात में अपने बाप के जॉनशीन हैं और वह बड़े बड़े ओलमा जिनकी तरफ तुम्हारा इशारा है, इल्म व फ़ज़ीलत में उनका मुकाबिला नहीं कर सकते। अगर तुम लोग चाहो तो किसी मुनाज़िरे के ज़रिए मुहम्मद बिन अली (अ.स.) का इम्तेहान भी ले सकते हो। मैं वादा करता हूं कि अगर मैदाने मुनाज़िरा में वह शिकस्त खा गए तो तुम्हारी हर बात मान लूंगा।
मामून की तरफ़ से यह जवाब, सिर्फ जवाब ही न था बल्कि एक खुला चैलेंज भी था जिस पर मजबूर होकर उन लोगों ने मुनाज़िरा की दावत मंज़ूर कर ली और इमाम (अ.स.) से बहस व मुबाहिसा के लिए बग़दाद के सबसे बड़े आलिम यहिया बिन अकसम का नाम अपनी तरफ से पेश कर दिया।
इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) मदीने में फ़रोकश थे। मामून ने खुसूसी क़ासिद के ज़रिए उन्हें बग़दाद तलब किया और मुनाज़िरे की तारीख़ का एलान कर दिया गया। हर शख़्स इस ग़ैर मुतवाजिन मुकाबिले को देखने के लिए बेचैन था जिसमें एक तरफ नौ साल का बच्चा था और दूसरी तरफ एक आज़मूदा कार और शोहरा आफ़ाक़ क़ाज़ीयुल कुज़ात। चुनांचे वक़्त मुकर्रर पर चारों तरफ से लोग उमंड पड़े और शाही दरबार के अज़ीमुश्शान हाल में तिल डालने को भी जगह न रही। तारीखें गवाह है कि उस मौके पर अकाबेरीन व मोअज़्ज़ेज़ीन शहर के अलावा नौ सौ कुर्सियां सिर्फ ओलमा और फुकहा के लिए मख़्सूस की गयीं थीं।
मामून ने इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) की मसन्द अपने पहलू बिछाई थी और सामने यहिया बिन अकसम की नशिस्तगाह थी। मजमा सकूत के आलम में गुफ़्तगू का मुन्तज़िर था कि यहिया बिन अकसम ने मामून की तरफ मुखातिब होकर तंज़ आमेज़ लहजे में कहा, हुजूर! अगर आप इजाज़त मरहमत फ़रमाएं तो मैं इन साहिबजादे से कुछ पुछूँ? मामून ने कहा, तुमको अबु जाफ़र से इजाजत तलब करना चाहिए। यह सुनकर यहिया इमाम (अ.स.) की तरफ मुतवज्जे हुआ और उसने कहा, क्या आप इजाज़त देते हैं कि मैं आपसे फ़िकही मसाएल में कोई हलका फुलका सवाल करूं? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, जो चाहो पूछो। यहिया ने कहा, यह बताईये कि अगर कोई शख़्स एहराम की हालत में शिकार करे तो उसका क्या हुक्म है? यह सुनकर इमाम (अ.स.) मुस्कुरा दिए और फ़रमाया, ऐ यहिया! तुम्हारा यह सवाल ही मोहमल है। इसके ज़ैल में यह भी देखने की ज़रूरत है कि शिकारी आज़ाद था या गुलाम? उसने शिकार “हिल” में किया है “हरम” में? वह हुक्म से आगाह था या जाहिल? बच्चा था या बूढ़ा? यह उसका पहला शिकार था या इससे पहले भी वह शिकार कर चुका था? जानबूझ कर उसने शिकार किया है या ग़लती से? शिकार परिन्दा था या कुछ और? छोटा था या बड़ा? शिकारी अपने इस फेल पर खुश था या नादिम? शिकार रात के वक़्त किया गया या दिन में? शिकारी का एहराम हज का था या उमरे का?
यहिया बिन अकसम खुद भी फ़िकही मसाएल पर गहरी नज़र रखता था मगर अपने सवाल के ज़ैल में इमाम (अ.स.) की ज़बान से यह गुफ़्तुगू सुनकर हक्का बक्का रह गया। उसकी पेशानी पर निदामत का पसीना करवटें लेने लगा, ज़बान गुंग हो गयी और उसके चेहरे पर हैबत व शिकस्त के ऐसे आसार नुमायां हुए कि दरबार में तालियां बज गयीं। (मनाकिब, जिल्द-3, पेज-512)
उसके बाद मामून की दरख़्वास्त पर इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) ने यहिया बिन अकसम और दीगर मौजूद ओलमा के इस्तेफ़ादा को नज़र में रखते हुए इस सवाल के ज़ैल में यह वजाहत फ़रमाई कि अगर शिकार करने वाला एहराम बांधने के बाद “हिल” में शिकार करे और वह परिन्दा हो तो उसका कफ़्फ़ारा एक बकरी है। अगर “हरम” में ऐसा शिकार किया गया है तो दो बकरियां हैं। और अगर किसी बहुत छोटे परिन्दे को हिल में मारा है तो कफ़्फ़ारे में दुम्बे का वह बच्चा है जो दूध छोड़ चुका हो, अगर हरम किया है तो उस परिन्दे की कीमत और एक दुन्बा कफ़्फ़ारे में देगा। और अगर वह शिकार चौपाया है तो उसकी मुख़्तलिफ़ सूरतें हैं। अगर गधे को हलाक किया है तो एक गाये, शुतुरमुर्ग है तो एक ऊँट और हिरन है तो बकरी का कफ्फ़ारा वाजिब होगा। यह हिल में किए गए शिकार का कफ़्फ़ारा है लेकिन अगर “हरम” में यह फेल सरज़द हुए हैं तो कफ़्फ़ारा दोगुना हो जाएगा। एहराम अगर उमरे का है तो मक्के में बशक्ले कुर्बानी कफ़्फ़ारा वाजिबुल अदा होगा नीज़ अगर हज का एहराम है तो मिना में कुर्बानी करेगा। इस मसले में आलिम व जाहिल दोनों बराबर हैं। आज़ाद शख़्स अपना कफ़्फ़ारा ख़ुद अदा करेगा। गुलाम का कफ़्फ़ारा उसका मालिक देगा। और जो अपने इस फेल पर नादिम होगा वह आख़िरत में अज़ाब से बच जायेगा वरना इसरार की सूरत में अज़ाब में मुबतिला होना ज़रूरी है। यह वजाहत सुनकर हर तरफ से मरहबा व अहसन्त की सदायें बुलन्द होने लगीं, यहिया बिन अकसम ने अपनी शिकस्त तस्लीम कर ली थोड़ी देर बाद महफ़िल बरखास्त हो गयी।
आपका अक़्द
यहिया बिन अकसम से तारीख साज़ मुनाज़िरे के बाद इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) एक साल तक दारूल हुकूमत बग़दाद में शाही मेहमान रहे और इसी क़याम के दौरान मामून रशीद ने अपनी बेटी उम्मुल फ़ज़्ल का निकाह आपके साथ कर दिया। तारीखी शवाहिद से पता चलता है कि उसने इस मौके पर तमाम हाज़रीने बज़्म मुनाज़िरे को भी मदऊ किया था लेकिन ओलमा की एक जमाअत का यह ख़्याल है कि मुनाज़िरे के जलसे में ही यह तक़रीब अंजाम पज़ीर हुई, रिआया को इनाम व इकराम से नवाजा गया और हाज़रीन की तवाज़ो हलवे से की गयी और मेहरे फातिमी के बमोजिब पांच सौ दिरहम पर अक़्द हुआ।
दुनिया का दस्तूर है कि लड़की के घर वाले अगर साहबे सरवत होते हैं तो बेशतर वालिदैन की ख्वाहिश यह होती है कि जहां वह हैं, वहीं उनकी नज़रों के सामने लड़की और दामाद भी रहे। चुनांचे इमाम (अ.स.) से मामून ने भी अपनी ख़्वाहिश का इजहार किया कि आप मदीने की सुकूनत तर्क करके बग़दाद ही में क़याम फ़रमाएं और शाहाना ठाट बाट से ज़िन्दगी के दिन बसर करें। मगर इमाम (अ.स.) की ग़ैरत को यह कब गवारा था? आपने मामून की इस ख़्वाहिश को सख्ती से ठुकरा दिया और शाही महल छोड़ कर अलग एक मकान में रहने लगे, यहां तक कि यह सिलसिला एक साल तक जारी रहा। जब मामून ने देखा कि इमाम (अ.स.) पर उसका यह हरबा कारगर न होगा तो मजबूर होकर उसने साल बाद “उम्मुल फ़ज़्ल” को शाही इन्तेज़ाम व एहतेमाम के साथ रूख़्सत किया और इमाम उन्हें लिए हुए वारिदे मदीना हुए। यह पहला उसूली इख़्तेलाफ़ था जो इमाम (अ.स.) और मामून के दरमियान रूनुमा हुआ।
मदीने पहुंच कर इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) अपने फराएज़े मनसबी की अंजाम देही में मशगूल हो गए। पन्द व नसीहतें और तबलीग़ व हिदायत के अलावा आपने अख़्लाकियात का दर्स देना भी शुरू कर दिया जो आपका खानदानी तुर्रए इम्तियाज़ था। हाजत मन्दों की हाजत रवाई, ग़रीबों, नादारों बेवाओं और यतीमों की दरपर्दा ख़बरगीरी, मेहमान की खातिरदारी, तशनगाने इल्म व मअरिफ़त के लिए चश्मए इमामत की फ़ैज़ रसानी और अपने मुख़ालेफीन के साथ भी खन्दा पेशानी से पेश आना आपकी सीरत का नुमायां पहलू था। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद मामून अब भी इस खुश फहमी में मुबतिला था कि कमसिनी में शरफे दामादी के साथ भरपूर शाही इल्तेफात इमाम (अ.स.) के तौर व तरीकों को बदल देगा यह खुशफहमी बेसबब न थी, इसकी तह में वह दीरीना मक़सद कार फ़रमा था जिसकी बाज़याबी के लिए मामून ने अपनी तमाम तर नवाजिशों और करम फ़रमाईयों को इमाम (अ.स.) की जात से वाबस्ता कर रखा था।
उमवी और अब्बासी ताजदारों को आले रसूल (स.अ.) से जो इख़्तेलाफ था, वह तारीख़ की निगाहों से पोशीदा नहीं है। हर फ़रमाँरवा की कोशिश यही रही कि माद्दी इक़्तेदार के मुकाबिले में रूहानियत का वह ताक़तवर मरकज़ जो मदीने में क़ाएम है किसी तरह ख़त्म हो जाए। इसीलिए वह घबरा घबरा कर मुख़्तलिफ किस्म की तदबीरें इख़्तेयार करते रहते थे। चुनांचे इमाम हुसैन (अ.स.) से बैअत का मुतालिबा और इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी एक ही सिलसिल-ए-सियासत की दो कड़ियां हैं। बस ज़ाहिरी फर्क इतना है कि एक की साख्त मुआनिदाना है और दूसरे की इरादतमन्दाना, मगर दोनों का मकसद एक है। इमाम हुसैन (अ.स.) ने मुतालिबए बैअत को ठुकरा दिया तो वह क़त्ल कर दिए गए और इमाम रज़ा (अ.स.) वली अहद होने के बावजूद हुकूमते माद्दी के मक़ासिद से हट कर चले तो उन्हें ज़हर के ज़रिए खामोश कर दिया गया।
अब मामून के लिए यह मौका इन्तेहाई क़ीमती था क्योंकि इमाम रज़ा (अ.स.) का जॉनशीन एक 8-9 बरस का बच्चा था जो तीन चार साल पहले ही अपने बाप से जुदा कर दिया गया था। हुकूमते वक़्त की सियासी सूझ बूझ यह कहती थी कि इस बच्चे को अपनी तरफ मोड़ लेना निहायत आसान है। उसके बाद रूहानियत का वह मरकज़ जो हुकूमत के मुकाबिले में ख़ामोश, साकिन और ख़तरनाक है, हमेशा के लिए खुद ख़त्म हो जाएगा। मगर जब मामून ने यह देखा कि वही 9 बरस का बच्चा उसका दामाद बन जाने के बावजूद अपने मौकफ़ और उसूलों पर सख्ती से कारबन्द है तो वह सर पकड़ कर बैठ गया।
उमूर ख़ानादारी और इज़्देवाजी ज़िन्दगी में उम्मुल फ़ज़्ल को इमाम (अ.स.) ने उन्हीं हुदूद में रखा जिन हुदूद में आपके बुजुर्गों ने अपनी बीवियों को रखा था। आपने मुतलक इस बात की परवा न की कि आपकी बीवी एक शहंशाहे वक़्त की बेटी है। चुनांचे उम्मुल फ़ज़्ल के होते हुए भी आपने हज़रत अम्मार यासिर की नस्ल में एक मोहतरम खातून से अक़्द फ़रमाया जो बाद में इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मां बनीं। इमाम (अ.स.) के इस इक़दाम से यह नतीजा भी बरामद होता है कि अगर उम्मुल फज़्ल किसी मज़हबी खुसूसियत की हामिल या इमाम (अ.स.) की तरफ से किसी खुसूसी बर्ताव की मुस्तहक़ होतीं तो उनकी ज़िन्दगी में इमाम (अ.स.) दूसरा अक़्द न फ़रमाते। जिस तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने हज़रत खदीजा (स.अ.) और हज़रत अली (अ.स.) ने जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की मौजूदगी में दूसरा अक़्द नहीं किया। महज़ एक बादशाह की बेटी होने की बिना पर इमाम (अ.स.) की तरफ से किसी इम्तियाज़ का दिया जाना इस इस्लामी रूह के मुनाफी था जिसके आप मुहाफिज़ थे, इसलिए आपने उसके ख़िलाफ़ तर्ज़े अमल इख़्तेयार करना अपना फ़रीज़ा समझा।
ज़ाहिर है कि इमाम (अ.स.) का अक़्दे सानी उम्मुल फ़ज़्ल के लिए करब व इज़्तेराब का सबब बना होगा। चुनांचे उसने अपने बाप मामून इस बारे में एक शिकायती ख़त लिखा जिसे पढ़कर मामून को भी सदमा हुआ मगर उसे अपने किए को निभाना था इसलिए उसने जवाब में उम्मुल फज़्ल को तहरीर किया कि “मैंने तुम्हारा अक़्द अबु जाफ़र के साथ इसलिए नहीं किया कि किसी हलाल अम्र को उन पर हराम कर दूं, ख़बरदार! मुझ से अब कभी इस किस्म की शिकायत न करना।”
इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) के इस अक़्दे सानी पर तबसिरा करते हुए अल्लामा शेख हुसैन बिन अब्दुल वह्हाब रकम तराज़ हैं कि एक दिन जब उम्मुल फ़ज़्ल ने इमाम की जौजए सानी को देखा तो उसके दिल में हसद के शोले भड़कने लगे और उसने मामून को कुछ इस अंदाज़ से ख़त लिखा कि वह इमाम (अ.स.) के क़त्ल पर आमादा हो गया मगर क़त्ल न कर सका।
आपकी शहादत
इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) को मामून की ज़िन्दगी में हुकूमत की तरफ से कोई ख़दशा न था। अगर कुछ उलझनें और परेशानियां थीं तो वह उम्मुल फज़्ल के इन्हेराफ व इख़्तेलाफ़ और उन शिकायती खुतूत की वजह से थीं जिन्हें वह आए दिन आपके ख़िलाफ़ अपने बाप के पास भेजा करती थीं।
इस इख़्तेलाफ़़ व इन्हेराफ़ का ख़ास सबब हज़रत अम्मार यासिर के ख़ानदान में इमाम (अ.स.) का वह अक़्द था जो आपने मोहतरमा समाना ख़ातून यासिरी के साथ फ़रमाया था और जिनके बतन से इमाम अली नकी (अ.स.). की विलादत हुई थी।
मामून रशीद के इन्तेकाल के बाद सन् 218 हिजरी में उसका भाई और उम्मुल फ़ज़्ल का चचा “मोअतमिन” जो इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत के बाद सल्तनत का वली अहद क़रार दिया जा चुका था, तख़्तनशीन हुआ और मोअतसिम बिल्लाह अब्बासी के नाम से मशहूर हुआ।
मोअतसिम के दिल में अबुतालिब (अ.स.) की दुश्मनी भी थी, इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी का दाग़ भी था और इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) के साथ भतीजी की शादी का इख़्तेलाफी गम भी, जिसकी बिना पर वह मामून की तरफ से इमाम (अ.स.) को दामाद बनाए जाने के फैसले पर इख़्तेलाफ़ व एहतेजाज में बनी अब्बास के नुमाईन्दे की हैसियत से पहले ही पेश-पेश रह चुका था।
“उम्मुल फ़ज़्ल” भी अपने चचा की इस मुख़ालिफ़ाना रविश से वाक़िफ़ थी। चुनांचे उसे जब अपने वालिद की वफात और चचा की तख़्तेनशीनी का हाल मालूम हुआ तो उसकी तरफ से खुतूत नवीसी की रफ़्तार बढ़ गयी और उसने अपने बाप की तरह चचा के पास भी शिकायती खुतूत भेजना शुरू कर दिए। मोअतसिम को भी एक बहाना हाथ आया लिहाज़ा उसने वाली-ए-मदीना अब्दुल मलिक को लिखा कि इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) और उम्मुल फ़ज़्ल को फौरी तौर पर बगदाद रवाना कर दो।
इस हुक्मे शाही के मौसूल होते ही अब्दुल मलिक ने इमाम (अ.स.) को मजबूर किया और आप अपने फ़रज़न्द इमाम अली नक़ी (अ.स.) और उनकी वालिदा को मदीने में छोड़ कर उम्मुल फ़ज़्ल के हमराह बग़दाद रवाना हुए।
मुल्ला मुबीन फ़िरंगी महली रकम तराज़ हैं कि जब मदीने से चलने लगे तो अपने फ़रज़न्द इमाम अली नक़ी (अ.स.) को अपना वसी और ख़लीफ़ा करार देकर उलूमे इलाही और आसारे रिसालत पनाही उनके सुपुर्द फ़रमाया।
ग़रज़ कि आप मदीने से रवाना होकर नवीं मुहर्रमुल हराम सन् 220 हिजरी को बग़दाद पहुंचे जहां 12 मुहर्रम को मोअतसिम ने आपको कैद कर दिया। एक साल तक आपने क़ैद की सुऊबत सिर्फ जुर्म की पादाश में बर्दाश्त कीं कि आपने उम्मुल फ़ज़्ल के होते हुए दूसरी शादी क्यों की? आप कमालाते इमामत के हामिल क्यों हैं? और आपको ख़ुदा ने यह शरफ क्यों अता किया? बाज़ ओलमा ने लिखा है कि कैदखाने में आप पर इस क़द्र सख़्तियां और कड़ी निगरानीं थी कि आप अकसर अपनी ज़िन्दगी से बेज़ार हो जाते थे। बिल आख़िर 29 जीकाद सन् 220 हिजरी को मोअतसिम ने उम्मुल फज़्ल ही के हाथों अंगूर में ज़हर दिलवाकर आपका काम तमाम कर दिया और आप दर्ज-ए-शहादत पर फाएज़ हो गए।
तारीखें बताती हैं कि उम्मुल फ़ज़्ल ने कैदखाने में जब आपको अंगूर खिलाया और ज़हर आपके वजूदे हस्ती पर असर अन्दाज़ होने लगा तो आपने फ़रमाया, ऐ उम्मुल फ़ज़्ल! ख़ुदा तुझे ऐसे मरज़ में मुबतिला करेगा जिसकी मरहम पट्टी भी मुम्किन न होगी।
शेख़ अब्बास कुम्मी का बयान है कि इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) की शहादत के बाद उम्मुल फज़्ल की शर्मगाह में नासूर हो गया। हुक्मा और अतिब्बा ने बहुत एलाज किया मगर कुछ फाएदा न हुआ, यहां तक कि वह मोअतसिम के महल से भाग खड़ी हुई और ईलाज पर अपनी पूरी दौलत खर्च करने के बाद भीख मांगने पर मजबूर हो गयी। आख़िर कार बदतरीन हालत में हलाक हुई और दुनिया व आख़िरत दोनों गंवा बैठी।
कशफुल ग़ुम्मा पेज-121, सवाएक मोहरिक़ा पेज-123, रौजतुस सफा जिल्द-3, पेज-16, आलामुल वरा पेज-205, इरशाद पेज-480, अनवारे नोअमानिया पेज-127 और अनवारूल हसनिया वग़ैरा में मरकूम है कि इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) 25 साल 3 माह 12 यौम की उम्र में कैदखाने के अन्दर मोअतसिम के ज़हर से शहीद हुए।
अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा का कहना है कि आपकी शहादत के बाद इमाम अली नक़ी (अ.स.) बा एजाज़े इमामत मदीने से बग़दाद पहुंचे तजहीज़ व तकफ़ीन में शरीक हुए, नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और अपने जद नामदार इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के पहलू में दफ़्न कर दिया।
चूंकि आपके दादा का लकब “काज़िम” और आपका लकब “जव्वाद” भी था इसलिए इस शहर को काज़मैन और उसके स्टेशन को “जवादीन” कहा जाता है।
रौजए काजमैन मुख़्तलिफ़ तामीरी अदवार से गुजर कर शाह इस्माईल सफ़वी के हाथों सन् 666 हिजरी (सन् 1520 ई०) में मुकम्मल हुआ और मुहम्मद शाह क़ाचार ने सन् 1856 ई० में इसे जवाहरात से मुरस्सा किया।
औलादें
आम ओलमा का ख़्याल है कि आपकी चन्द बीवियों में सिर्फ समाना खातून के बतन से दो बेटे इमाम अली नकी (अ.स.) व मूसा मुबरक़ा और दो बेटियां जनाबे फ़ातिमा व जनाबे इमामा मुतवल्लिद हुई। शेख मुफीद ने उन औलादों के साथ एक साहबज़ादी हकीम खातून का तज़किरा किया है जबकि शेख अब्बास कुम्मी अलैहिर्रहमा ने आपकी औलादों की तादाद चार बेटे इमाम अली नक़ी (अ.स.), मूसा मुबरक़ा, हुसैन व इमरान नीज़ चार बेटियां फ़ातिमा, ख़दीजा, उम्मे कुलसूम और हकीमा खातून पर मुश्तामिल बताई है। आपकी किसी और बीवी से कोई औलाद नहीं थी।
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इमाम अली नक़ी (अ.स.)
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इल्म व हिकमत, जूद व सख़ा, तहारते नफ़्स, बुलन्दी-ए-किरदार और दीगर जुमला सिफ़ाते हसना में आप अपने वालिद इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) की जीती जागती तस्वीर थे। आपकी विलादत बतारीख़ 5 रजबुल मुरज्जब सन् 214 हिजरी को शबे सहशम्बा मदीना-ए-मुनव्वरा में हुई। आपकी वालिदा जनाबे समाना खातून हज़रत अम्मार यासिर के ख़ानदान से एक पाकबाज़ व बुलन्द मर्तबा खातून थीं। शेख अब्बास कुम्मी अलैहिर्रहमा ने जनाबुल खुलूद के हवाले से तहरीर फ़रमाया है कि वह मोअज्जमा हमेशा मुस्तहब रोज़े रखतीं थीं और जोहद व तकवा में अपनी मिसाल आप थीं।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
आपके वालिद ने आपका नाम “अली” रखा था। कुन्नियत अबुल हसन थी। आपके अलक़ाब बेशुमार हैं जिनमें नकी, हादी और अस्करी वग़ैरा ज़्यादा मशहूर हैं।
सलातीने वक़्त
आप मामून रशीद अब्बासी के दौरे हुकूमत में मुतवल्लिद हुए। सन् 218 हिजरी में मोअतसिम बिल्लाह अब्बासी बादशाह हुआ। सन् 227 हिजरी में वासिक बिन मोअतसिम तख्त नशीन हुआ। सन् 232 हिजरी में मुतवक्किल अब्बासी ने अनाने हुकूमत हाथ में ली। सन् 247 हिजरी में मुतवक्किल का बेटा मुन्तसिर हुकूमत का वारिस बना। उसके बाद सन् 248 हिजरी में मुस्तईन और फिर सन् 252 हिजरी में जुबैर बिन मुतवक्किल (मोअतज़ बिल्लाह) फ़रमाँरवा क़रार दिए गए।
उबैदुल्लाह जुनैदी का वाक़िआ
यह एक मुसल्लमा और नाकाबिले तरदीद हक़ीक़त है कि अईम्मए ताहिरीन (अ.स.) ख़ुदावन्दे आलम की तरफ से इल्म व हिकमत के ख़जानों की कुंजियां लेकर दुनिया में वारिद हुए। इसलिए उन्होंने किसी के सामने जानूए अदब तह नहीं किया और न उन्हें दुनिया में किसी से इल्म हासिल करने की ज़रूरत महसूस हुई। ज़ाती इल्म व हिकमत के अलावा मज़ीद शरफे़ कमाल की तहसील यह अपने आबा व अजदाद से करते रहे। यही वजह है कि इन्तेहाई कमसिनी की हालत में भी यह दुनिया के बड़े-बड़े आलिमों को भी इल्मी शिकस्त देने में कामयाब रहे और जब किसी ने अपने आपको उनसे बेहतर समझने की कोशिश की तो वह ज़लील हो गया।
अल्लामा मसूदी का बयान है कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को छः, साल की उम्र में पूरी तरह मरजियत हासिल हो गयी थी। यह देखकर दुश्मनाने आले मुहम्मद (स.अ.) को फिक्र पैदा हुई कि किसी तरह इस मराजियत व मरकज़ियत को ख़त्म किया जाए। चुनांचे कुछ हासिदीन व मुखालिफ़ीन उठ खड़े हुए और उन्होंने उमर बिन फरहा रजई के ज़रिए हुकूमते वक़्त से राबिता क़ाएम किया। उस वक़्त मोअतसिम बिल्लाह अब्बासी फ़रमाँरवा था। उसने तय किया कि अली (अ.स.) बिन मुहम्मद (अ.स.) को किसी ऐसे आलिम की सरपस्ती में दे दिया जाए जो उन्हें अपने नज़रियात व अकाएद के मुताबिक़ तालीम देने के साथ साथ उनके शियों और अक़ीदतमन्दों पर भी नज़र रखे ताकि दोनों एक दूसरे से मिलने न पाएं।
ग़रज़ कि हुकूमत की तरफ से इराक़ का सबसे बडा आलिम और अदीब उबैदुल्लाह जुनैदी, जो आले मुहम्मद (स.अ.) की दुश्मनी में मशहूर था, इस काम के लिए माकूल मुशाहिरे पर मुकर्रर किया गया और उससे हिदायत कर दी गयी कि कोई शिया इमाम अली नक़ी (अ.स.) से मिलने न पाए। उसके साथ ही मोअतसिम ने गवर्नरे मदीना को भी लिखा कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को उबैदुल्लाह जुनैदी के हवाले कर दे और उन्हें उसके साथ रहने पर मजबूर कर दे।
जुनैदी ने इमाम (अ.स.) को क़स्र “सरबा” में रखा जहां शाम होते ही दरवाजा बन्द कर दिया जाता था और मिसले पहरेदार खड़े हो जाते थे। इस तरह आपके मानने वालों का सिलसिला आपसे मुन्क़ता हो गया और लोग आपकी ज़ियारत नीज़ दीनी इस्तेफ़ादे से महरूम हो गए।
रावी का बयान है कि मैंने एक दिन जुनैदी से कहा, तुम्हारे “हाशमी गुलाम” का क्या हाल है? उसने मुंह बनाकर जवाब दिया “उन्हें गुलामे हाशमी न कहो वह रईस हाशमीं हैं।” ख़ुदा की कसम ! इस कमसिनी में मुझसे कहीं ज़्यादा वह इल्म रखते हैं। सुनो! मैं अपनी पूरी कोशिश के बाद जब इल्म का कोई बाब उनके सामने पेश करता हूं तो वह उसमें ऐसे मुख़्तलिफ़ अबवाब खोल देते हैं कि मैं हैरान रह जाता हूं। तुम लोग यह समझ रहे हो कि मैं उन्हें तालीम दे रहा हूं लेकिन ख़ुदा की क़सम हक़ीक़त यह है कि मैं खुद उनसे तालीम हासिल कर रहा हूं। ख़ुदा की क़सम! वह हाफ़िज़े र्कुआन ही नहीं बल्कि उसकी तावील व तन्जील से भी वाक़िफ़ हैं और मुख़्तसर यह है कि वह तमाम रूए ज़मीन पर बसने वाले ओलमा में सबसे अफ़ज़ल व बरतर हैं। मेरे बस में नहीं कि मैं उन्हें पढ़ा सकूं।
उसके बाद जुनैदी ने मोअतसिम को लिखा कि इमाम अली नकी (अ.स.) को तालीम देना मेरे ख़्याल में आफ़ताब को चिराग दिखाने के मुतरादिफ़ है लिहाज़ा मैं ख़िदमत से सुबुकदोशी चाहता हूं।
इल्मुल बातिन व इल्मुल ग़ैब
इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने बुजुर्गों की तरह इल्मे बातिन व इल्मे गैब से भी वाक़िफ़ व आगाह थे जिसकी बिना पर आप अपने हामियों को मुस्तक़बिल के हालात व वाक़िआत से बाख़बर कर दिया करते थे। नीज़ आपकी यह कोशिश भी रहती थी कि हत्तल इम्कान उन्हें कोई गुज़न्द न पहुंचने पाए। चुनांचे मुहम्मद बिन फ़रहा रजमी का बयान है कि इमाम अली नकी (अ.स.) ने एक मर्तबा मुझे तहरीर फ़रमाया कि तुम अपने तमाम मामलात और खानगी निज़ाम को दुरूस्त करके अपने असलहों को संभाल लो। मैंने हुक्मे इमाम (अ.स.) की तामील की लेकिन यह न समझ सका कि यह हुक्म मुझे क्यों दिया गया है? चन्द दिनों के बाद मिस्र की पुलिस ने मेरे घर पर छापा मारा और मुझे गिरफ़्तार करके ले गयी। उसके बाद कैदखाने में डाल दिया गया और आठ साल तक उसी में पड़ा रहा। एक दिन इमाम (अ.स.) का ख़त फिर पहुंचा जिसमें तहरीर था कि “ऐ मुहम्मद बिन फ़रहा! तुम मग़रिब की सिम्त मत जाना।” मैं हैरान हुआ कि क़ैद की हालत में जब मेरा किसी तरफ जाना मुम्किन ही नहीं तो इमाम (अ.स.) ने यह क्यों तहरीर फ़रमाया? मेरे इस इस्तेजाब में अभी तख़फ़ीफ़ भी न होने पाई थी कि तीसरे दिन मेरी रिहाई का हुक्म आया और मैं क़ैद से छुटने के बाद इमाम (अ.स.) के हुक्म के मुताबिक मग़रिब की तरफ़ नहीं गया। चन्द दिनों बाद इमाम (अ.स.) की तरफ से मुझे एक तीसरा ख़त मौसूल हुआ जिसमें लिखा था कि अनक़रीब तुम्हारा माल तुम्हें वापस मिल जाएगा। चुनांचे ऐसा ही हुआ।
एक दिन इमाम अली नक़ी (अ.स.) अली बिन हसीब नामी शख़्स के साथ कहीं जा रहे थे कि रास्ते में अली बिन हसीब चन्द क़दम आपसे आगे बढ़ कर बोले, हुज़ूर! आप भी क़दम बढ़ाईये। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, ऐ इब्ने हसीब! तुम्हें पहले जाना है, तुम जाओ। इस वाक़िए के चौथे दिन इब्ने हसीब दुनिया से रूख़्सत हो गए।
अबु अय्यूब नामीं एक शख्स ने इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में एक अरीज़ा भेजा जिसमें उसने ख्वाहिश ज़ाहिर की कि मेरी बीवी हामिला है, आप दुआ फ़रमाएं कि लड़का पैदा हो। आपने जवाब में तहरीर फ़रमाया कि बाज़ लड़कियां लड़कों से बेहतर हुआ करतीं हैं, तुम्हें सजदए शुक्र अदा करना चाहिए। चुनांचे कुछ दिनों बाद अबु अय्यूब के यहां लड़की पैदा हुई।
अबु हाशिम से रिवायत है कि मैं सन् 227 हिजरी में इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर था कि किसी ने आकर कहा, हुजूर! तुर्कों की फौज गुज़र रही है। इमाम अली नकी (अ.स.) ने मुझसे फ़रमाया, चलो उन लोगों से मुलाक़ात करें। हम लोग लश्करियों के पास गए। इमाम (अ.स.) ने एक तुर्की को मुख़ातब करके उससे देर तक गुफ़्तुगू की। उसके बाद उस तुर्की ने आपके क़दमों का बोसा लिया। मैंने उस तुर्की से सवाल किया कि वह कौन सी चीज़ थी जिसने तुझे इमाम (अ.स.) का गिरवीदा बना दिया। उसने कहा, इमाम (अ.स.) ने मुझको उस नाम से मुख़ातब किया था जिसका जानने वाला मेरे बाप के अलावा और कोई न था। (माखूज़ अज़ कशफुल ग़ुम्मा पेज—122–125)
हिन्दी ज़बान
अबु हाशिम से मरवी है कि मैं एक दिन इमाम अली नक़ी (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो आपने हिन्दी ज़बान में मुझसे गुफ़्तुगू फ़रमाई जिसका जवाब मैं न दे सका। मुझ पर शर्मिन्दगी और शर्मसारी के आसार मुर्त्तब हुए जिन्हें महसूस करते हुए इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, क्या तुम हिन्दी ज़बान सीखना चाहते हो? मैंने रजामन्दी ज़ाहिर की तो आपने एक संगरेज़ा उठा कर अपने मुंह में रखा, फिर मुझे देते हुए फ़रमाया, इसे चूसो। मैंने उस संगरेज़े को चूसा तो मैं तिहत्तर ज़बानों का आलिम बन गया जिनमें हिन्दी ज़बान भी शामिल थी।
इस्मे आज़म
अल्लामा कुलैनी उसूले काफ़ी में रक़म तराज़ हैं कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया कि इस्मे आज़म के तिहत्तर हुरूफ़ में सिर्फ एक हरफ हज़रत सुलेमान (अ.स.) के वसी आसिफ बरख़िया को वदीयत किया गया था जिसके ज़रिए उन्होंने तख़्ते बिल्ख़ीस चश्मे ज़दन में मुल्के सबा से मंगवा लिया था और ज़मीन सिमट कर उस तख़्त को क़रीब ले आई थी। खुदा वन्दे आलम ने हमें इस्मे आज़म के बहत्तर हुरूफ़ वदीगत किए हैं और एक हरफ जो कुल्लियतन इल्मे ग़ैब से मुतअल्लिक़ है, अपने पास रखा है। ग़रज़ कि ख़ुदा ने हमें अपने ख़जाना-ए-ग़ैब से वह चीजें अता की हैं जो अहले दुनिया के लिए हैरत अंगेज़ व तअज्जुब खेज़ हैं।
चार अहम रोज़े
शेख अबु जाफ़र तूसी “मिसबाह” में तहरीर फ़रमाते हैं कि इस्हाक़ बिन अब्दुल्लाह अलवी इमाम अली नक़ी (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। इमाम (अ.स.) ने उन्हें देखकर फ़रमायाः मैं जानता हूं कि तुम्हारे बाप और चचा के दरमियान यह बहस छिड़ी हुई है। कि साल के वह कौन से रोज़े हैं जिनका रखना सवाबे अज़ीम है। उसने कहा मौला ! बिल्कुल यही बात है। आपने फ़रमाया सुनोः वह चार रोज़े जो सवाबे अज़ीम के हामिल हैं उनकी तारीखे बित-तरतीब इस तरह हैं। (1) 17 रबीउल अव्वल, यौमे विलादत पैग़म्बरे अकरम मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) (2) यौमे बेअसत व मेराज यानी 27 रजबुल मुरज्जब (3) 25 ज़ीक़ादा क्योंकि इस तारीख को ज़मीन का फ़र्श बिछाया गया और सफीना-ए-नूह कोहे जूदी पर ठहरा (4) 18 ज़िलहिज यौमे ग़दीर, जिस दिन आँहज़रत (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को अपना जॉनशीन करार देकर मजमए आम में उसका एलान फ़रमाया। ऐ इस्हाक! जो शख़्स यह रोज़े रखता है उसके सत्तर साला गुनाह बख़्शे जाते हैं।
मुतवक्किल का इस्तेबदादी दौर
मुवर्रिखीन की नज़रों में यज़ीद बिन मुआविया को जो मक़ाम हासिल है वही मुक़ाम मुतवक्किल का भी है। यह इस कद्र मनहूस फ़रमाँरवां था कि उसके ज़मानए इक़्तेदार में बड़ी-बड़ी आफतें नाज़िल हुईं। बहुत से इलाकों में ज़लज़ले आए, जमीनें धंस गयी, मुख़्तलिफ शहरों में आग लगी और हज़ारों मकानात जल कर खाक हो गए। आसमान से हौलनाक आवाजें सुनाई दीं, बादे समूम चली जिससे लाखों इन्सान और लातादाद मवेशी हलाक हो गए, आसमान से बेशुमार तारे टूटे और दस-दस रतल के वज़नी पत्थर बरसे।
यज़ीद की तरह मुतवक्किल भी ज़ालिम, सफ़्फ़ाक, शराबी, ज़ानी, बदकिमाश और बदकिरदार बादशाह था। उसके दरबार में चार हज़ार कनीज़ें थीं जिनके साथ मुजामेअत के ज़रिए वह अपने शैतानी नफ़्स की तस्कीन का सामान फ़राहम किया करता था।
अल्लामा दमीरी का बयान है कि मुतवक्किल हज़रत अली (अ.स.) और उनके अहलेबैत (अ.स.) का बदतरीन दुश्मन था और दरबारे आम में अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की मुनाफ़िक़त किया करता था। एक दिन उसकी इस हरकत पर उसके बेटे मुस्तनसिर ने उसे टोका तो उसने उसे एक मोटी सी गाली दी और इस मज़मून का शेर पढ़ा कि जो नौजवान अपने चचा की औलादों का तज़किरा सुनकर गज़बनाक हुआ है उसका सर अभी अपनी मां की शर्मगाह के अन्दर है।
इब्ने असीर का कहना है कि मुतवक्किल आले अबुतालिब (अ.स.) से बुग्ज़ व एनाद रखता था और ऐसा सख़्त दुश्मन था कि जिस शख़्स के बारे में उसे यह मालूम हो जाता कि वह हज़रत अली (अ.स.) और उनके अहलेबैत (अ.स.) को दोस्त रखता है तो उसकी कोशिश यह होती थी कि उसका माल व असबाब छीन कर उसे क़त्ल करा दे। उसके नदीमों में एबादा नामी एक हिजड़ा था जो अपने पेट पर तकिया बांध कर हज़रत अली (अ.स.) की नकलें उतारता और मज़हका उड़ाता, जिसे देखकर मुतवक्किल मसरूर व खुश होता, दाद देता और क़हक़हे बुलन्द करता।
तारीख़ बताती है कि मुतवक्किल मलऊन खुद भी बहुत बड़ा मसखरा था और मुख़्तलिफ़ किस्म की बेहूदा हरकतें किया करता था। चुनांचे उसने अपने तमस्खुराना जौक की तस्कीन के लिए तरह-तरह के दरिन्दे और हशरातुल अर्ज़ पाल रखे थे। जब उस पर मसख़रे पन का भूत सवार होता तो वह किसी दरबारी महफिल में शेर छोड़ देता जिससे सरासीमगी फैल जाती कभी किसी की आस्तीन में सांप दाखिल कर देता और जब काट लेता तो तिरयाक़ के ज़रिए उसका मदावा करता। कभी मटकों में बिच्छू भरवा कर सरे दरबार उन्हें फोड़ देता जिससे हर तरफ़ भगदड़ मच जाती।
मुवर्रिख़ अबुल फ़िदा का बयान है कि एक दिन मुतवक्किल ने इब्ने सक्कीत नामी एक शाएर से पूछा कि मेरे बेटे मोअतज़ और मोईद बेहतर हैं या अली (अ.स.) के बेटे हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.)? इब्ने सक्कीत ने जवाब दिया, कहां हसन (अ.स.) व हुसैन (अ.स.) और कहां तेरे बेटे! मैं तो उन्हें हसनैन (अ.स.) के गुलाम कम्बर के बराबर भी नहीं समझा। यह जवाब सुनकर मुतवक्किल ने इब्ने सक्कीत की ज़बान गुद्दी से खिंचवा ली।
मुतवक्किल के दौर का एक बदतरीन कारनामा आले रसूल (स.अ.) के मज़ाराते मुकद्दसा की मिस्मारी तबाही और बेहुरमती है। सन् 236 हिजरी में उसने “वीरज” नामी एक नौ मुस्लिम यहूदी को इस काम पर मामूर किया कि वह कर्बला जाकर वहां की ज़मीन को क़ाबिले काश्त बनाए और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) व दीगर शोहदा की कब्रों पर हल चलवा कर उन्हें मिस्मार व हमवार कर दे नीज़ नहरे अलकमा को काट कर उसका पानी उनकी तरफ मोड़ दे ताकि किसी क़ब्र का नाम व निशान तक न रहे। चुनांचे वह नौ मुस्लिम यहूदी जिसे बानियाने इस्लाम का सही तारूफ भी न था, पूरे साज़ व सामान के साथ कर्बला की तरफ रवाना हुआ और वहां पहुंच कर उसने दो सौ जरीब ज़मीन जुतवा डाली लेकिन जब सैय्यदुश शोहदा की कब्र मुतह्हर की बारी आई तो हलों को खींचने वाले ऊँटों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया और तमाम तर कोशिशों के बावजूद जब उन्होंने क़दम आगे न बढ़ाया तो “वीरज” ने मजबूर होकर कुछ मज़दूर पेशा सहराई बदुओं को तलब किया और चाहा कि फावड़ों और कुदालों से कब्रे हुसैनी को मिस्मार करा दे मगर उन बद्दुओ ने यह कहक़र उस काम को अंजाम देने से इन्कार कर दिया कि यह फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) और शहीद हैं, र्कुआने मजीद इन्हें ज़िन्दा बताता है, हम लोग ऐसी नाजाएज़ हरकत कतई नहीं कर सकते। ग़रज़ कि जब वीरज अपने मकसद में किसी तरह कामयाब न हुआ तो उसने नहर का किनारा काट कर पानी को इमाम हुसैन (अ.स.) के मज़ारे अकदस की तरफ मोड़ दिया ताकि वह उसे बहा ले जाए। मगर उसकी इस तदबीर पर भी उस वक़्त पानी फिर गया जब उसने देखा कि पानी अपनी रवानी के साथ इधर उधर से बह रहा है और वह जगह जहां इमाम हुसैन (अ.स.) की कब्रे मुबारक है बिल्कुल सूखी पड़ी है। आज भी वह ज़मीन जहां पानी फैला हुआ था हाएर के नाम से मौसूम है।
अल्लामा सुईवी तहरीर फ़रमाते हैं कि मुतवक्किल के इस फ़ेल से मुसलमानों में सख़्त हैजान फैला। लोगों ने उसकी मज़म्मत की, शाएरों ने उसकी हजो में अअशार कहे और दीवारों पर उसके लिए गालियां लिखी गयीं। एक शाएर के तीन शेरों का तर्जुमा इस तरह हैः-
“खुदा की क़सम ! बनी उमय्या ने अपने नबी (स.अ.) के नवासे को कर्बला में भूखा प्यासा क़त्ल किया तो बनी अब्बास ने भी उन पर जुल्म में कोई कमी नहीं की और उनकी कब्रों को खुदवा कर उसी तरह इरतेकाबे जुल्म उन्होंने भी किया है। बनी अब्बास को यह सदमा था कि वह इमाम हुसैन (अ.स.) के क़त्ल में शरीक न हो सके। तो उन्होंने इस सदमें की आग बुझाने के लिए इमाम हुसैन (अ.स.) की हड्डियों पर धावा बोल दिया।”
मुतवक्किल ने अपने पन्द्रह साला दौरे हुकूमत में मुतअद्दि बार यह कोशिश की कि इमाम हुसैन (अ.स.) की कब्रे मुबारक का नाम व निशान मिट जाए मगर जब हर बार नाकामी व बदनामी का सामना करना पड़ा तो एक हुक्म के ज़रिए उसने आले रसूल (स.अ.) के मजाराते मुक़द्दसा पर ज़ियारत की पाबन्दी आएद कर दी। चुनांचे ज़ाएरीन जब कर्बला की तरफ रूख करते तो उन्हें रास्ते ही में लूट लिया जाता, गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया जाता, उनकी आंखें फोड़ दी जातीं, हाथ पैर काट दिए जाते और जो उन मज़ालिम पर फरयाद के लिए लब खोलता उसे मौत के घाट उतार दिया जाता।
मुवर्रिख़ीन का बयान है कि कर्बला के चारों तरफ एक मील की दूरी पर मुतवक्किल ने पहरे बैठा दिए थे और तमाम शाह राहों पर फ़ौजी चौकियां क़ाएम कर दी थीं ताकि इन्सान तो इन्सान है, कब्र इमाम हुसैन (अ.स.) तक किसी परिन्दे की भी रसाई मुम्किन न हो। मगर उन पाबन्दियों, सख़्तियों और मज़ालिम के बावजूद सर से कफन बांधे हुए ज़ाएरीन का उमड़ता हुआ सेलाब मुतवक्किल की शहंशाहियत को रौंदता हुआ आगे बढ़ता ही रहा।
चुनांचे शेख तूसी अलैहिर्रहमा का बयान है कि मुतवक्किल के हुक्म के मुताबिक जब अब्बासी फ़ौजों ने कर्बला वालों को इमाम (अ.स.) की ज़ियारत से रोकना चाहा तो मरऊब होने के बजाए उन लोगों ने मुकाबिले का प्रोग्राम बना लिया और अपनी जानों पर खेल कर अतराफ व जवानिब से दस हज़ार अफ़राद अब्बासियों से लड़ने के लिए जमा हो गए और उन्होंने फौज के सरदार से कहा कि जब तक हम में से एक शख्स भी ज़िन्दा है उस वक्त तक ज़ियारत का सिलसिला बन्द नहीं हो सकता। हमारे बाद हमारी औलादें और नस्लें इस सुन्नते ज़ियारत को अदा करेंगी। बेहतर होगा कि तुम लोग हमें रोकने और हमसे उलझने की कोशिश न करो और मुतवक्किल से कह दो कि वह शराब के नशे में ऐसी हरकत न करे जिसकी बिना पर हमें मुज़ाहिमत के लिए मजबूर होना पड़े। ग़रज़ कि बाईमान मुसलमानों के यह तेवर देखकर फ़ौज का सरदार वापस गया और मुतवक्किल को उन तमाम हालात से आगाह किया तो उसने ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली।
मुतवक्किल के सब्ब व शत्म का सिलसिला सिर्फ हज़रत अली (अ.स.) और हसनैन (अ.स.) तक महदूद न था बल्कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की कुदसी सिफ़ात बेटी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) को भी बुरा भला कहता था और उसका यही फ़ेल उसके क़त्ल का सबब बना। चुनांचे अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा रकम तराज़ हैं कि:-
”इब्ने हशीश कहता है कि अबुल फ़ज़ल ने बयान कियाः एक दिन मुतवक्किल के बेटे मुस्तन्सिर ने अपने बाप को जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) पर सब्ब व शत्म करते सुना तो उसके बारे में उसने एक फकीह से सवाल किया। उसने कहा कि इसका क़त्ल वाजिब है लेकिन जो शख्स अपने बाप को क़त्ल करता है उसकी उम्र बहुत कम हो जाती है। मुस्तन्सिर ने कहा, अगर बाप के क़त्ल में अल्लाह और रसूल (स.अ.) की इताअत और फ़रमाबरदारी है तो मुझे इसकी परवा नहीं कि मेरी उम्र कम हो जाए। चुनांचे उसने मुतवक्किल को क़त्ल कर दिया और उसके बाद सिर्फ सात माह ज़िन्दा रहा।”
अल्लामा शेख़ जवाब मानिया ने तहरीर फ़रमाया है कि:-
“जब मुस्तन्सिर ने अपने बाप को जनाब सिददीक़ा-ए-ताहिरा (स.अ.) की शान में गुस्ताखियां और सब्ब व शत्म करते सुना तो उसने बाज़ फुकहा से इस बारे में सवाल किया, उन्होंने जवाब दिया कि मुतवक्किल का क़त्ल वाजिब है मगर जो अपने बाप को क़त्ल करता है उसकी उम्र कम हो जाती है ........... उसके बाद मुस्तन्सिर ने मुतवक्किल को क़त्ल कर दिया।”
“ज़िक्र किया गया है कि मुस्तन्सिर ने अपने बाप (मुतवक्किल) को क़त्ल करने लिए ओलमा व फुकहा की एक जमाअत से मशविरा लिया और उन्हें उसके तौर व तरीकों से आगाह किया तो उन्होंने कहा इसका क़त्ल जाएज़ है।”
बहरहाल इन तारीख़ी शवाहिद से ज़ाहिर है कि मुतवक्किल को उसके सियाह आमाल के साथ उसके बेटे मुस्तन्सिर की तलवार ने दुनिया से रूख़्सत कर दिया और उसके साथ ही अब्बासियों के एक तारीक दौर का खातिमा हो गया।
मुतवक्किल का बर्ताव
मुतवक्किल के दौर में इमाम अली नक़ी (अ.स.) को इन्तेहाई सख़्त और तल्ख़ हालात से दो चार होना पड़ा क्योंकि आपके साथ उसकी अदावत आलम आशकारा थी और वह आपके हामियों (जिनकी तादाद में रोज़ बरोज़ इज़ाफ़ा हो रहा था) का पीछा पकड़ने और तशददुद करने में मशहूर था। इमाम (अ.स.) के हामियों में इस इज़ाफे का असर हुक्मरां तबके पर भी पड़ने लगा। यहां तक कि इस मसअले की संगीनी का एहसास मुतवक्किल को हुआ और उसने मजीद ख़तरात से बचने के लिए बयक वक़्त दो रास्ते अपनाए। अव्वल यह कि इमाम (अ.स.) के हामियों और असहाब का क़ला क़मा करने और उन्हें दबाने के लिए कार्रवाई नीज़ उनकी मजीद तज़लील व तख़वीफ और हर किस्म के शीयी आसार को ख़त्म करने के लिए इक़दाम, जैसे कि कब्रे हुसैन (अ.स.) पर हल चलवा कर उसके आसार को मिटा देने की कोशिश।
दूसरे ये कि इमाम (अ.स.) को उनके हामियों से जुदा रखना ताकि उनका शीराज़ा बिखर जाए और वह मायूस हो जाएं। इस तरह इमाम (अ.स.) के अक़ीदत मन्दों का मसअला ही ख़त्म हो जाए।
मुतवक्किल ने देखा कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) का उसकी नज़रों से दूर मदीने में रहना ख़तरे से खाली नहीं है तो उसने आपको सामरा लाने का हुक्म दिया ताकि वह इमाम (अ.स.) को उनके हामियों और वफादारों से दूर अपनी निगरानी में रख सके। चुनांचे उसने इमाम (अ.स.) को एक ख़़त लिखा जिसमें आपको सामरा तशरीफ लाने की दावत दी और यह इख़्तेयार दिया कि आप अपने ख़ानदान और चाहने वालों में जिसे चाहें अपने साथ ले आएं।
इस तरह उसने एक ऐसी रविश इख़्तेयार की जिसे साबेका फ़रमाँरवा भी अपना चुके थे और जिसका मुज़ाहिरा मामून ने इमाम रज़ा (अ.स.) और इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) के मामले में किया था, ताकि उम्मते मुस्लिमा उसके ख़िलाफ़ न उठ खड़ी हो। चुनांचे वह ख़त मुतवक्किल ने अपनी फ़ौज के एक सरदार यहिया बिन हरशिमा के हाथ इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में रवाना किया और सिपाहियों की एक जमाअत भी उसके साथ रवाना की।
मुतवक्किल ने यहिया बिन हरशिमा को हुक्म दिया कि इमाम (अ.स.) को सामरा आने की दावत देने से पहले उनके घर की तलाशी ले और कोई ऐसा सुबूत तलाश करे जिसके ज़रिए उनहें हुकूमत के खिलाफ़ इक़दाम और साज़िश के इल्ज़ाम में फंसाया जा सके।
जब अहले मदीना को मुतवक्किल की बदनीयती का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने इब्ने हरशिमा के इक़दाम की मज़म्मत में आवाज़ बुलन्द की। यहां तक कि उसने लोगों को खामोश करने की कोशिशें कीं और कसमें खायीं कि वह इमाम (अ.स.) को किसी किस्म का गुज़न्द पहुंचाने पर मामूर नहीं हुआ। इब्ने हरशिमा का बयान है कि उसके बाद मैंने इमाम (अ.स.) के घर की तलाशी ली लेकिन वहां मसाहिफ़, दुआओं और इल्मी किताबों के अलावा कुछ न मिला। ग़रज़ कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने फ़रज़न्द इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के साथ (जो अभी बच्चा थे) इब्ने हरशिमा की हमराही में सामरा तशरीफ़ ले गए और वहां पहुंचने के दूसरे दिन या तीसरे दिन मुतवक्किल ने आपको बुलाया। मुतवक्किल के नदीमों ने आपका इस्तेकबाल किया, मुतवक्किल ने भी आपकी ताज़ीम की। फिर आपको एक घर में मुन्तकिल किया जिसे पहले ही से आपके लिए आरास्ता किया जा चुका था। मुतवक्किल ने अपनी इस पुरफरेब रविश के ज़रिए अपने सियासी मनसूबे और इमाम (अ.स.) के ख़िलाफ़ अपनी अन्दुरूनी अदावत पर पर्दा डालने की कोशिश की। उसने इमाम (अ.स.) को बुलाकर सामरा में जबरी क़याम पर मजबूर किया और आपको दरबारे ख़िलाफ़त की निगरानी में रखा ताकि आपकी हर जुंबिश पर वह अपनी मर्ज़ी को मुसल्लत कर सके।
इमाम अली नक़ी (अ.स.) भी एहतियातन व मसलहतन ज़ाहिर करते थे कि गोया आप अब्बासी हुकूमत के इस सुलूक और बर्ताव से मुतमईन हैं। आप उनकी महफ़िलों और मजलिसों में शिरकत फ़रमाते थे और उनकी मईयत में बाहर निकलते थे। लेकिन आपकी यह पॉलिसी हुकूमत के आगे अपने उसूलों से दस्तबरदारी और चश्म पोशी की बिना पर न थी, क्योंकि इमाम (अ.स.) जैसे बाउसूल इन्सान से यह काम मुम्किन न था। अगर आप अपने उसूलों के मसले में किसी क़िस्म की चश्म पोशी या नर्मी का मुज़ाहिरा करते तो यह आलमे इस्लाम के अज़ीम मुफादात के खिलाफ़ इक़दाम महसूब होता। नीज़ अगर हुकूमत देखती कि इमाम (अ.स.) ने अपने मौकफ़ से दस्तबरदारी इख़्तेयार की है तो आपको उनके नज़दीक अज़ीम मर्तबा और मक़ाम हासिल होता। आपकी शदीद निगरानी न होती और आपको सामरा में जबरी रिहाईश पर मजबूर न किया जाता।
इमाम (अ.स.) के घर पर पड़ने वाले मुसलसल और अचानक छापे इस बात की दलील हैं कि आपके ख़िलाफ़ तमाम शिकायतें हमेशा नाकाम रहती थीं और आपकी सरगर्मियों के बारे में कोई बात हुकूमत को मालूम नहीं होती थी। जासूस हर मर्तबा यही ख़बर लाते कि आपके यहां ख़तरे वाली कोई चीज़ बाकी पाई नहीं गयी। यूं मुतवक्किल दोबारा सुकून की सांस लेता और इमाम (अ.स.) के एहतेराम का बज़ाहिर सिलसिला जारी रखता।
जब भी इमाम (अ.स.) के घर की तलाशी होती तो आप हुकूमत की नज़र में खुद को मशकूक बनाने वाली चीज़ों को पोशीदा रखने में कामयाब रहते। हालांकि आपके पास मुख़्तलिफ़ जगहों से अमवाल और ख़ुतूत की आमद का सिलसिला जारी रहता था और लोगों से आपके दरपर्दा रवाबित भी थे। जब आप हुकूमत की नज़र में ममनूअ किसी अम्र के बारे में बात करना चाहते तो रमूज़ व इशारों पर मुश्तामिल तफ़हीम का एक मखसूस और खुफिया तरीका अपनाते थे।
जब आपके घर छापा पड़ता तो आप ऐसी रविश इख़्तेयार करते जिससे बेपरवाई, सुकून और अपनी बेगुनाही का इज़हार होता। आप तलाशी लेने वाले अहलेकारों की मदद भी फ़रमाते थे। मसलन उनके लिए चिराग फ़राहम करते और घर के कमरे उनको दिखाते। इस तरह उन्हें यह बावर कराते कि आप किसी गैर मामूली सरगर्मी में मुलव्विस नहीं हैं।
इमाम (अ.स.) के घर पर कई बार छापे मारे गए। एक बार मुतवक्किल के पास आपके ख़िलाफ़ “बतहानी” की शिकायत और बदगोई के नतीजे में छापा पड़ा। उसने मुतवक्किल को बताया था कि आपके घर में दौलत और असलहे मौजूद है। मुतवक्किल ने फौरी तौर पर “सईद” नामी एक शख़्स को रात के वक़्त छापा मारने और दौलत व असलहा ज़ब्त करने का हुक्म दिया। सईद एक सीढ़ी लेकर इमाम (अ.स.) के घर की तरफ चला और सड़क की तरफ़ ये घर की छत पर चढ़ा और तारीक़ी में घर के अन्दर उतरा। इतने में इमाम (अ.स.) ने निहायत पुर सुकून लहजे में सईद को मुखातिब करते हुए फ़रमाया, ऐ सईद ! ठहरो, मैं तुम्हारे लिए रौशनी का इन्तेज़ाम करता हूं। सईद का कहना है कि इतने में मेरे पास एक चिराग लाया गया। मैं उसकी रौशनी में नीचे उतरा। फिर मैंने देखा कि एक चटाई पर आपका मुसल्ला बिछा हुआ है और आप किब्ला रूख बैठे हैं। आपने फ़रमाया, हर कमरे को अच्छी तरह देख लो। मैं कमरे में दाख़िल हुआ उनकी तलाशी ली लेकिन मुझे वहां कोई चीज़ न मिली।
और एक मौके पर मुतवक्किल को ख़बर मिली कि इमाम (अ.स.) के पास कुम से माल आया है। उसने अपने वज़ीर “फ़तहा बिन खाकान” को हालात पर नज़र रखने और नताएज से बाख़बर रखने का हुक्म दिया। वज़ीर ने अपने एक मुलाज़िम को जिसका नाम अबू मूसा था, इमाम (अ.स.) के पास भेजा ताकि वह क़रीब से हालात का जाएज़ा ले और उसे मुत्तला करे।
उन पुर आशोब हालात के बावजूद अपनी ज़िम्मेदारियों के तहत चूंकि इमाम (अ.स.) को अपना मिशन जारी रखना था और उसके साथ ही अपनी और अपने असहाब पर आएद होने वाली पाबन्दियों के ख़िलाफ़ टकराव से परहेज़ भी करना था इसलिए आपने अपने तरीक़े कार को दो हिस्सों पर तक़सीम किया जिसका पहला हिस्सा उम्मत की बेदारी और इल्मी मंसूबों पर अमल दरआमद का जुज़ था। इस सिलसिले में आपने उन सवालात और एतराज़ात के जवाबात देने के लिए इक़दाम फ़रमाया जो हुकूमते वक़्त की तरफ से आपको लोगों की नज़रों से गिराने की ग़रज़ से बतौरे चैलेंज किए जाते थे। मिसाल के तौर पर एक मर्तबा मुतवक्किल ने “इब्ने सिक्कीत” से कहा कि वह उसकी मौजूदगी में इमाम (अ.स.) से पेचीदा और मुश्किल तरीन सवालात करे। चुनांचे इब्ने सिक्कीत ने आपसे चन्द ऐसे सवालात किए जो उसकी दान्सित में मुश्किल और पेचीदा थे लेकिन इमाम (अ.स.) इस चैलेंज में कामयाबी से हमकिनार हुए। यहां तक यहिया बिन अकसम ने मुतवक्किल से कि मेरे ख़्याल में मेरे सवालों के बाद “अली (अ.स.) बिन मुहम्मद (अ.स.) “से मज़ीद सवालात न किए जाएं तो बेहतर है क्योंकि मेरे सवालों के बाद जो भी सवालात होंगे वह उनसे आसान ही होंगे और इमाम (अ.स.) की अमली सलाहियतों के मुज़ाहिरे से राफ़ज़ियों को तक़वियत मिलेगी।
तरीक़ा-ए-कार का दूसरा हिस्सा शियों के अज़ीम काएद की हैसियत से उनकी सरपरस्ती, उनकी ज़रूरतें पूरी करने, उनकी फिक्री व अमली तरबियत और उनके एतमाद को मज़बूत बनाने पर मुश्तामिल था जिसके लिए इमाम (अ.स.) ने मुसलसल जद्दो जेहद जारी रखी। ताकि वह पा-मर्दी से मुश्किलात और रूकावटों का मुकाबिला कर सकें।
अब्बासी हुक्काम ने इमाम (अ.स.) के इक़दामात को नाकाम बनाने के लिए अमली मैदान में आपका मुकाबिला करके शिकस्त देने की कोशिश की लेकिन इमाम (अ.स.) ने उनके सवालात और चैलेंजों का जवाब देकर इस कोशिश को नाकाम बना दिया।
रहा यह सवाल कि इमाम (अ.स.) ने मुतवक्किल की दावत पर सामरा जाना और उसके साथ रहना क्यों कुबूल किया? तो इस सिलसिले में इमाम (अ.स.) के मौक़फ़ की तफ़सीर यह की जा सकती है कि आपको ज़बर्दस्त दबाव और जब्र व तशद्दुद का सामना करना पड़ा यहां तक कि आपको क़त्ल की धमकी भी दी गयी। अगर आप मुतवक्किल की दावत को ठुकरा देते तो यह हुकूमत को अपने ख़िलाफ़ भड़काने और उसकी मुख़ालिफ़त का इज़हार करने के मुतरादिफ़ होता।
तारीखों से पता चलता है कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को सामरा बुलाने के बाद मुतवक्किल ने पहले तो “खानुल सालीक” में रखा फिर उसके बाद एक दूसरे मक़ाम पर मुन्तकिल करने के बाद आपको उम्र भर के लिए नज़र बन्द कर दिया। अल्लामा शिबलिन्जी रकम तराज़ हैं कि मुतवक्किल आपके साथ ज़ाहिर दारी ज़रूर करता था लेकिन आपका सख़्त दुश्मन था। उसने हीलासाज़ी और धोखेबाज़ी से आपको बुलाया और सताने, तबाह करने नीज़ मसाएब व आलाम में मुबतिला करने के दर-पै रहा।
इब्ने हजर मक्की का बयान है कि मुतवक्किल ने आपको जबरन बुला कर सामरा में नज़र बन्द रखा और ता ज़िन्दगी बाहर न निकलने दिया।
आपकी सीरत
इमाम अली नक़ी (अ.स.) की सीरत और अख़्लाक़ व कमालात वही थे जो सिलसिल-ए-इस्मत की हर फर्द का ख़ास्सा थे। कैदखाना हो या नज़रबन्दी का आलम, असीरी का अहद हो या आज़ादी का ज़माना, हर वक्त हर हाल में यादे इलाही, इबादते खुदा, सिबाते कदम, सब्र व इस्तेकलाल, मसाएब के हुजूम में भी माथे पर शिकन का न होना, दुश्मनों के साथ ख़न्दाँ पेशानी से पेश आना, ग़रीबों, मोहताजों और हाजतमन्दों की हाजत रवाई करना यही वह औसाफ़ हैं जो इमाम अली नकी (अ.स.) की सीरत में नुमाया नज़र आते हैं।
कैद व नज़रबन्दी के ज़माने में जहां भी आप रहे, आपके मुसल्ले के सामने एक कब्र खुदी हुई तैयार रहती थी। देखने वालों ने जब उस पर हैरत का इज़हार किया तो आपने फ़रमाया कि मैं मौत की तरफ से ग़ाफ़िल न होने के लिए यह कब्र अपनी निगाहों के सामने रखता हूं।
इमाम (अ.स.) का यह जवाब दर हक़ीक़त एक ज़ालिम ताक़त को उसके बातिल मुतालिब-ए-इताअत और इस्लाम की हक़ीक़ी तालिमात की नश्र व इशाअत के तर्क कर देने की ख़्वाहिश का एक अमली जवाब था। जिसका मतलब यह था कि एक ज़ालिम फ़रमाँरवा मेरी जान तो ले सकता है मगर अपनी हुकूमत की ग़लत पॉॅलीसियों के आगे मुझे झुकने पर मजबूर नहीं कर सकता।
इसके अलावा दुनियावी साजिशों में शिरकत या हुकूमत के ख़िलाफ़ किसी बेमहल व नारवा इक़दाम के धब्बों से आपका दामने किरदार इस तरह साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ था कि दारूल हुकूमत में मुस्तकिल क़याम और हुकूमत की तरफ़ से सख़्त तरीन जाजूसी के बावजूद आपके ख़िलाफ़ कभी कोई इल्ज़ाम दुरूस्त साबित नहीं हो सका और कभी वक़्त के फ़रमाँरवाओं को कोई दलील आपके ख़िलाफ़ तशद्दुद के जवाज़ की न मिल सकी। हालांकि हुकूमते अब्बासिया की बुनियादें मुतज़लज़िल हो चुकी थीं और रोज़ाना एक नया फ़ितना खड़ा होने लगा था। अगर आप चाहते तो अपने हामियों को उभार कर उस मौके़ पर अपने लिए आज़ादी का सामान फ़राहम कर लेते। यह वह ज़माना था कि मुतवक्किल से खुद उसके बेटे की मुख़ालिफ़त, उसके एक इन्तेहाई मोअतमद गुलाम “बाग़र रोमी “उसके बाद मुस्तईन के दौरे हुकूमत में यहिया बिन अम्र अलवी का कूफ़े में खुरूज और हसन बिन ज़ैद का इलाक़ा-ए-तबरिस्तान पर काबिज़ हो जाना, दारूल सल्तनत में तुर्की गुलामों की बगावत मुस्तईन का सामरा छोड़कर बग़दाद की तरफ भागना और किला बन्द हो जाना और फिर कुछ दिनों के बाद मोअतज़ के हाथ से उसका क़त्ल हो जाना, मुअय्यद की ज़िन्दगी का खातिमा और मौफ़क का बसरा में कैद किया जाना ग़रज़ कि इन तमाम हंगामीं हालात, शोरिशों और झगड़ों के दरमियान इमाम (अ.स.) बड़ी आसानी से कैद की जंजीरें तोड़ सकते थे लेकिन इमाम (अ.स.) का अपने मौकफ़ पर साबित क़दम रहना और तमाम मज़कूर हालात से ख़ुद को अलाहिदा रखना यहां तक कि अराकीने हुकूमत को आपके बारे में शुब्हा तक न पैदा हो, कूव्वते इरादी की मेराज नहीं तो फिर क्या है? इसका अहम पहलू यह भी था कि इमाम (अ.स.) अब्बासियों की हुकूमत को नाजएज़ समझते हुए भी इस तरह के इत्तेफ़ाक़ी मवाक़े से फाएदा उठाना अपनी हक़्क़ानियत व सदाकत की तौहीन और अपने मेयार अमली की तज़लील समझते थे। और शायद यही वजह थी कि आप तमाम मामलात में ख़ामोश और किनाराकश रहते यहां तक कि मुतवक्किल के बाद शाही के मुख़्तलिफ़ अदवार आपकी नज़रों से गुज़रे और हुकूमत की बाग डोर मुस्तन्सिर और मुस्तईन के हाथों से गुज़रती हुई सन् 252 हिजरी में मोअतज़ बिल्लाह के ज़ालिम हाथों में पहुंच गयी।
शहादत
मोअतज़ बिल्लाह भी अपने बाप मुतवक्किल की तरह ज़ालिम व जाबिर था। उसने अपनी ख़ानदानी रविश को नहीं छोड़ा और इमाम अली नक़ी (अ.स.) के साथ उसने वही सुलूक रखा रखा जो उसके बाप मुतवक्किल का था मगर चूंकि कान का कच्चा था इसलिए लोगों के भड़काने और कहने सुनने में आकर इमाम (अ.स.) की ज़िन्दगी का दुश्मन हो गया। आख़िरकार उसी ने आपको ज़हर दे दिया और 3 रजबुल मुरज्जब सन् 254 हिजरी यौमे दोशम्बा आप दर्ज-ए-शहादत पर फाएज़ हो गए। अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा का बयान है कि आपकी वफ़ात इन्तेहाई कसमापुर्सी की हालत में हुई और इन्तेकाल के वक़्त आपके पास कोई न था। गुस्ल व कफ़न के बाद इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने आपकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और आप सामरा में ही दफ़्न कर दिए गए।
इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन
अज़वाज व औलादें
इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मुख़्तलिफ़ बीवियों से एक बेटी आयशा बिन्ते अली और चार बेटेे इमाम हसन अस्करी (अ.स.), हुसैन बिन अली, मुहम्मद बिन अली और जाफ़र बिन अली मुतवल्लिद हुए। लेकिन आपकी नस्ल आपके सिर्फ़ दो फ़रज़न्दों जाफ़र बिन अली और इमाम हसन अस्करी (अ.स.) से बाक़ी व जारी है।
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इमाम हसन अस्करी (अ.स.)
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आप बतारीख़ 10 रबीउस् सानी सन् 232 हिजरी बरोज़े जुमा जनाबे हदीसा खातून के बतन से मदीना-ए- मुनव्वरा में मुतवल्लिंद हुए। आपकी वालिदा-ए-माजिदा के बारे में अल्लामा मजलिसी का कहना है कि वह मोहतरमा अफ़ीफ़ा, करीमा, संजीदा और साहबे तकवा थीं। अल्लामा शेख अब्बास कुम्मी अलैहिर्रहमा ने जिन्नातुल खुलूद के हवाले से तहरीर फ़रमाया है कि आप अपने इलाके की शहजादी थीं। उनकी फ़जीलत के लिए यही काफ़ी है कि वह इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की वफ़ात के बाद शियों की पनाहगाह और दादरस थीं।
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) इल्म व मअरिफ़त, सख़ावत व शुजाअत और तमाम सिफ़ात व कमालात में अपने वालिद के विरसादार थे। मुहम्मद बिन तलहा शाफई का बयान है कि आपको ख़ुदावन्दे आलम ने जिन फ़ज़ाएल व मनाकिब और कमालात व बुलन्दी से सरफ़राज़ किया है उनमें मुकम्मल दवाम मौजूद है। न वह नज़र अन्दाज़ किए जा सकते हैं और न उन पर कोहनगी आ सकती है। आपका अहम शरफ़ यह भी है कि इमाम मेहदी (अ.स.) आप ही के इकलौते फ़रज़न्द हैं जिन्हें परवरदिगारे आलम ने तवील उम्र अता की है।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
आपके वालिद इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने आपका नाम “हसन” रखा। आपकी कुन्नियत अबु मुहम्मद थी और आपके अलक़ाब कसीरा में अस्करी, हादी, ज़की, सिराज और इब्नुल रज़ा ज़्यादा मशहूर हैं।
आपका लकब अस्करी इसलिए ज़्यादा मशहूर है कि “सुर्रा-मन-राआ” के जिस मोहल्ले में आप रहते थे उसे अस्कर कहा जाता था और इसकी बज़ाहिर वजह यह थी कि जब मोअतसिम बिल्लाह ने उस मक़ाम पर लश्कर जमा किया था और खुद भी क़याम पज़ीर था तो लोग अस्कर कहने लगे थे। नीज़ एक रिवायत यह भी है कि ख़लीफ़ा-ए-वक़्त ने एक मर्तबा इमामे ज़माना को नव्वे हज़ार के लश्कर का मुआईना कराया था और आपने अपनी दो उंगलियों के दरमियान अपने खुदाई लश्कर का मुआईना करा दिया था उन्हीं वजहों की बिना पर उस मुक़ाम का नाम अस्कर हो गया था जहां इमाम अली नक़ी (अ.स.) और इमाम हसन अस्करी (अ.स.) मुद्दतों रह कर अस्करी मशहूर हो गए।
सलातीने वक़्त
आप वासिक बिल्लाह बिन मोअतसिम के दौर में मुतवल्लिद हुए। सन् 233 हिजरी में मुतवक्किल खलीफ़ा हुआ जो हज़रत अली (अ.स.) और उनकी औलादों का सख़्त तरीन दुश्मन था। सन् 247 हिजरी में मुस्तन्सिर तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन हुआ और एक साल बाद सन् 248 हिजरी में मुस्तईन फ़रमाँरवा हुआ। सन् 252 हिजरी में मोअतज़ बिल्लाह ने हुकूमत की बाग डोर संभाली और उसने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को ज़हर देकर शहीद किया। सन् 255 हिजरी में मेहदी तख़्त पर बैठा। सन् 256 हिजरी में मोअतमद ख़लीफ़ा हुआ। उन तमाम खोलफा ने आपके साथ वही सुलूक किया जो आले मुहम्मद (स.अ.) के साथ इब्तेदा से होता रहा।
इल्मी सलाहियतें
शेख़ मुफीद अलैहिर्रहमा का बयान है कि आप इल्म व हिकमत, अक़्ल व फ़हम, इस्मत व तहारत, सख़ावत व शुजाअत और इबादत व रियाज़त में तमाम अहले दुनिया से अफ़ज़ल व अकमल थे। अल्लामा कुलैनी ने तहरीर फ़रमाया है कि आप तमाम ज़बानों से वाक़िफ़ थे और हर ज़बान में गुफ़्तुगू किया करते थे। इल्मे रिजाल, इल्मे अन्साब और इल्मे हवादिस में आपको खुसूसी मलका हासिल था। चुनांचे आप अकसर फ़रमाया करते थे कि हम वह हैं जिन्हें ख़ुदा ने साहबे कलम करार दिया है। ओलमा का बयान है कि आप लिखते-लिखते जब नमाज़ के लिए चले जाते तो आपका क़लम खुद बखुद चलता रहता था और आपका मुद्दआ ब-हुक्मे इलाही सफहए क़िरतास पर मरकूम होता रहता था। आपके इल्मी कारनामों में एक अहम कारनामा र्कुआन मजीद की तफ़सीर है जो “तफ़सीरे इमाम हसन अस्करी (अ.स.)” के नाम से मौसूम व मशहूर है। यह तफ़सीर उलूमे र्कुआनी और अहकामे नबवी का एक बेमिसाल ज़ख़ीरा है।
आपके ज़र्रीन अक़वाल
(1) नेक बन्दों को दोस्त रखने में सवाब है।
(2) बेसबब हंसना जिहालत की दलील है।
(3) जब किसी के पास से गुज़रो तो उसे सलाम करो।
(4) महज़ नमाज़ रोज़ा ही इबादत नहीं बल्कि यह भी इबादत है कि ख़ुदा के बारे में गौर व फिक्र और सोच विचार करे
(5) हसद और गीबत बदतरीन शय हैं।
(6) गुस्सा हर बुराई की कुंजी है।
(7) हासिद और कीना परवर को कभी दिली सुकून नहीं मिलता।
(8) बेहतरीन मुत्तकी और परहेजगार वह है जो गुनाहों से मुतलकन दूरी इख़्तेयार करे।
(9) बेहतरीन इबादत गुज़ार वह जो फ़राएज़ अदा करता है।
(10) जो दुनिया में बोओगे वही आखि़रत में काटोगे।
(11) मौत तुम्हारी ज़िन्दगी के साथ है।
(12) एक मोमिन दूसरे मोमिन के लिए बरकत है।
(13) बेवकूफ़ का दिल उसके मुंह में होता है।
(14) दुनिया की तलाश में कोई फ़रीज़ा न गंवा देना।
(15) शक की बिना पर तहारत में ज्यादती गैर ममदूह है।
(16) कोई कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो जब वह हक़ का दामन छोड़ देगा तो ज़लील व ख़्वार हो जाएगा।
(17) जिसके साथ हक़ है वही दुनिया का बड़ा इन्सान है।
(18) जाहिल की दोस्ती मुसीबत है।
(19) रंजीदा व ग़मगीन के सामने हंसना बेअदबी है।
(20) वह चीज़ मौत से बदतर है है जो तुम्हें मौत से बेहतर नज़र आए।
(21) तवाज़ो ऐसी नेअमत है जिस पर हसद नहीं किया जा सकता।
(22) हर मुसीबत के पसमंज़र में राहत व नेअमत है।
(23) दिल का अंधा होना हमारी मुवद्दत से गाफिल होना है।
(24) दीन के बारे में परहेज़गारी को शेआर बनाओ।
(25) मौत और ख़ुदा के ज़िक्र से कभी ग़ाफ़िल न रहो।
(26) जो शख़्स दुनिया से दिल का अन्धा उठेगा वह आखि़रत में भी अन्धा रहेगा।
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने अपने वालिदे बुजुर्गवार इमाम अली नकी (अ.स.) के साथ मिलकर हालात व मुश्किलात का मुकाबिला किया। आपने अपनी ज़िन्दगी का बेशतर हिस्सा अब्बासी दारूल हुकूमत में गुज़ारा और तमाम हालात व मसाएल में अपने पिदरे बुजुर्गवार का साथ दिया। उनकी शहादत के बाद जब आपने इमामत की ज़िम्मेदारियां संभालीं तो उस वक़्त आपकी उम्र 22 साल की थी।
आपके दौर में नये-नये हालात और मसाएल रूनुमा हुए जिनकी बिना पर अब्बासी इक़्तेदार में इस क़द्र कमज़ोरी पैदा हुई कि हुकूमत की बागडोर गुलामों और तुर्कों के हाथ में चली गयी। हुकूमत की इस कमज़ोरी के तहत यह तवक्को थी कि इमाम (अ.स.) और आपके साथियों के ख़िलाफ़ डराव, धमकाव की पॉलीसियों में भी कमी वाके़ होगी मगर यह तवक्को पूरी न हुई। बल्कि उसके बरअक्स डराने और धमकाने की पॉलिसी सख़्त तर हो गयी। यहां तक कि मोअतमिद के ज़माने में अपने नुकतए उरूज पर पहुंच गयी। इसकी वजह यह थी कि इमाम (अ.स.) की सरगर्मियों से न सिर्फ ख़लीफ़ा ख़ाएफ़ और परेशान था बल्कि वसीअ सतह पर लोगों का एक ख़ास तबका भी इस ख़ौफ़ में उसके साथ था।
इस वसीअ तबके ने इमाम (अ.स.) और आपके फिक्री, सियासी और मज़हबी लाहए अमल की हमेशा मुख़ालिफ़त की। क्योंकि आपका लाहए अमल ख़लीफ़ा की पॉलीसियों से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ और उनकी ज़िद था। यही वजह थी कि उन दो मुतज़ाद पॉलीसियों के दरमियान हमेशा कशमकश रही और हुक्मरानों की यह कोशिश रही कि इमाम (अ.स.) की कयादत और आपके लाहए अमल को सियासी और इज्तेमाई मैदान से हज़्फ़ किया जाए और मामूली सी हरकत या सरगर्मी का मुहासिबा किया जाए। यहां तक कि बेबुनियाद शिकायतों और मामूली ख़बरों की बुनियाद पर भी मुवाखिजा होता था।
मुतवक्किल ने आपको कैद किया, लेकिन वजह न बताई। ज़ाहिर है कि इसकी वजह हसद, अदावत, दुश्मनी और चुगलखोरों की शिकायतों के अलावा और क्या हो सकती थी? इससे क़ब्ल भी मुतवक्किल और उसके आबा व अजदाद के हाथों इमाम (अ.स.) के आबा व अजदाद को जिला वतनी, कैद व बन्द, क़त्ल और दीगर मज़ालिम का सामना करना पड़ा था। रिवायत है कि आप मोअतमिद के हाथों ज़हर से शहीद हुए।
इन हक़ाएक़ की रौशनी में गुज़रते वक़्त के साथ-साथ ज़ुल्म और दबाव की शिद्दत में कमी कोई तवक्को नहीं की जा सकती थी बल्कि उसके बरअक्स तारीख हमें यह बताती है। कि वक़्त के साथ-साथ मज़ालिम में भी इजाफा होता चला गया। और दर हक़ीक़त इमाम (अ.स.) के साथ रोज़ अफ़जूँ दुश्मनी और मुख़ालिफ़त ही इमाम मेहदी (अ.स.) के पर्द-ए-ग़ैबत में चले जाने का बुनियादी सबब है।
अईम्मा के बारे में अब्बासियों की सियासत और रविश इमाम रज़ा (अ.स.) ही के दौर से वाज़ेह थी। उनका मक़सद इमामों को दरबारे ख़िलाफ़त से जबरन मुन्सलिक रखना, उनकी मुसलसल निगरानी को यकीनी बनाना और इस तरह उनका राबिता अपने हामियों और पैरुकारों से क़ता करना था।
मक्र व फ़रेब की यह सियासत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के साथ भी रवा रखी गयी क्योंकि हुकूमत के बहुत से मफ़ादात इस कार्रवाई से वाबस्ता थे। चुनांचे इमाम हसन अस्करी (अ.स.) को भी सामरा में ठहरने नीज़ हर जुमेरात और सोमवार को दरबारे ख़िलाफ़त में हाज़री के लिए मजबूर किया गया। लेकिन इमाम (अ.स.) ने अपने बाप दादा की तरह हुक्काम के साथ हुकूमत के मामले में एक मोहतात तरीका इख़्तेयार किया और अपनी अन्दरूनी पॉलीसियों को ज़ाहिर न होने दिया। हुकूमत के साथ आप के रवाबित हस्बे मामूल रहे और आप अपने आबा व अजदाद की रविश पर कारबन्द रहे।
एहतियात व गुरेज़ की इस पॉलिसी ने आपको हुक्काम के सामने इज़्ज़त व एहतेराम का रफीअ मुक़ाम दिया। इस हक़ीक़त का अन्दाजा उस दौर के वज़ीरों के साथ आपके रवाबित से होता है। इमाम (अ.स.) ने अपनी शख़्सियत और अज़मत की धाक अहलेबैत के सख़्त तरीन दुश्मनों पर भी बैठा दी थी। चुनांचे खुलफा का एक वज़ीर अब्दुल्लाह बिन यहिया बिन ख़ाक़ान इमाम (अ.स.) के बारे में कहता हैः-
“मैंने सामरा में हसन (अ.स.) बिन अली (अ.स.) बिन मुहम्मद (अ.स.) बिन अली रज़ा (अ.स.) के मानिन्द किसी अलवी को नहीं पाया जो विकार व संजीदगी, इफ़्फ़त व निजाबत नीज़ हाशिम और अहलेबैत (अ.स.) के नज़दीक इज़्ज़त, जलालत और एहतराम के लिहाज़ से आपका हम पल्ला हो। आपके खानदान वाले आपको अपने सिन रसीदा बुजुर्गों और साहबे हैसियत हस्तियों पर तरजीह देते थे।”
मज़कूरा वज़ीर के इस कलाम से उसकी नज़र में इमाम (अ.स.) के एहतेराम व इकराम का अन्दाज़ा होता है। एक मर्तबा इमाम (अ.स.) ने उससे मुलाकात की और एक मुख़्तसर सी नशिस्त में उसके रूबरू हुए। यह इस मक़सद से था कि ताकि लोगों को समझाएं कि आपका वज़ीर के पास खड़ा होना हुक्मरानों के मज़ालिम पर तन्क़ीद की ग़रज़ से है और आपका मकसद सिर्फ और सिर्फ हक़ की हिमायत है ख़्वाह जहां भी हो। क्योंकि आपके नज़दीक मसअला एक उम्मत और एक दीन का था जिसके मुकाबिले में ज़ाती अदावतों और इख़्तेलाफ़़ की कोई हैसियत न थी।
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) बाज़ मसाएल में ख़ामोशी इख़्तेयार फ़रमाते थे और सराहत के साथ किसी मुसबत या मनफ़ी रद्दे अमल का इज़हार नहीं करते थे जैसा कि “जंगी तहरीक” के क़ाएद के साथ आपका रवय्या रहा। यह शख़्स आपसे मनसूब होने का दावेदार था लेकिन उसकी तहरीक अहलेबैत (अ.स.) की पॉलीसियों की मज़हर न थी क्योंकि इस तहरीक के हाथों बहुत से लोगों का कत्ले आम हुआ, अमवाल लूटे गए, शहर जलाए गए और औरतों की असीरी अमल में लाई गई। यह सारे इकदामात तालिमाते इस्लामी के ख़िलाफ़ थे।
इस तहरीक की रविश के बारे में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) का मौक़फ़ उनकी रद्द और मज़म्मत पर मबनी था क्योंकि इस तहरीक के हाथों इस्लामी अहकाम के मुनाफ़ी किरदार व अफ़आल का मुज़ाहिरा हुआ था लेकिन इमाम (अ.स.) ने सकूत और ख़ामोशी का मुज़ाहिरा किया और उनके अफ़आल की मज़म्मत न की और न तफ़सीलात को छेड़ा। अगर आप ऐसा करते तो आपके इस रद्दे अमल से हुकूमते वक़्त की ताईद होती। मुख़्तसर यह कि इमाम (अ.स.) जंगी तहरीक से इस्तेफ़ादा कर रहे थे क्योंकि यह तहरीक हुकूमत को कमज़ोर बनाने का बाएस थी।
अपनी इल्मी पॉलीसियों के अमली इज़हार का सुबूत देते हुए इमाम (अ.स.) ने इलहादी नज़रियात और एतराजात के दन्दान शिकन जवाबात दिए। आपने मुनाज़िरों और अमली बहसों की सूरत में इज़हारे हक़ फ़रमाया और उसके साथ साथ आपने अमली बयानात और किताबों की तालीफ वगैरा का भी सिलसिला जारी रखा। अपनी इस कोशिश के ज़रिए एक तरफ आपने उम्मत के नज़रियाती और फिक्री तशख्खुस और मक़ाम को बरक़रार रखने का बन्दोबस्त किया तो दूसरी जानिब उन फिक्री लहरों का मुकाबिला किया जो मकतबे इस्लामी के लिए ख़तरे का बाएस बन चुकी थीं।
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) अपने वसीअ और हमागीर इल्म की बिना पर जदीद मसाएल व मुश्किलात और उनकी अहमियत अफ़ज़ाईश को बख़ूबी महसूस कर सकते थे। नीज़ उनके ख़ातमे के लिए मंसूबाबंदी पर भी कादिर थे। चुनांचे आपके क़यामे मदीना के दौरान जब इस ज़माने के एक इराकी फलसफी “अबू यूसुफ़ बिन याकूब बिन इस्हाक़ किन्दी” ने र्कुआनी आयात व तालिमात के अन्दर तज़ाद को साबित करने के लिए एक किताब लिखी तो आपने अपने मौकफ का सुबूत देते हुए इस मसअले पर तवज्जो दी। अपने एक शागिर्द के ज़रिए उससे राबिता क़ाएम किया और उसकी कोशिशों पर पानी फेर दिया और उससे इस नजरियाती ग़लती को तस्लीम करा लिया। इसका नतीजा यह निकला कि उसने तौबा की और अपनी किताब जला डाली।
इमाम (अ.स.) का तीसरा मौकफ़ अपने हामी अनासिर की सरपरस्ती व हिमायत करना, उनकी फिक्री बेदारी में इज़ाफ़ा करना नीज़ उन्हें इस्तेहाकाम व तरक़्क़ी की इस मंज़िल पर पहुँचाना था कि कारज़ारे हयात में एक बाईमान दस्ते की शक्ल इख़्तेयार कर लें। आप अकसर व बेशतर उन्हें ख़बरदार किया करते थे कि वह अब्बासियों के जाल में न फंसें। उसके अलावा हुक्मरानों के जालिमाना रवय्ये की बिना पर पेश आने वाली इक़्तेसादी व मुआशरती मुश्किलात व मसाएल में आप उनकी दस्तगीरी भी फ़रमाते थे। आपने मुहम्मद बिन अली समरी को, जो आपके ख़ास साथी और ग़ैबते सुगरा के दौरान आपके फ़रज़न्द इमाम मेहदी (अ.स.) के चौथे नाएब थे खबरदार किया कि यह एक गुमराह कुन आज़माईश का दौर है लिहाज़ा तुम होशियार रहना।
इमाम (अ.स.) अपने असहाब और हामियों को उस वक़्त तक तकय्ये की हालत में रहने और तुन्द व तेज़ सरगर्मियों से बचने की तलक़ीन करते थे जब तक हालात साज़गार न हों। आप उन्हें कैदखानों के अन्दर भी एहतियात बरतने का हुक्म देते थे। चुनांचे एक मर्तबा आपके कई असहाब गिरफ़्तार हुए और “सालेह बिन वसीफ़” की निगरानी में रखे गए। गिरफ़्तार होने वालों में अबु हाशिम जाफ़री, दाऊद बिन क़ासिम, हसन बिन मुहम्मद अक़ीक़ी और इब्राहीम अमरी वग़ैरा थे। इमाम (अ.स.) ने उनहें जिन्दान के अन्दर मौजूद एक शख़्स के ज़रिए मोहतात रहने का पैगाम दिया जो खुद को अलवी ज़ाहिर करता था लेकिन दर हक़ीक़त वह अलवी न था। आपने उन्हें मुत्तेला किया कि इस शख़्स के लिबास में एक ख़त पोशीदा है जो उसने ख़लीफ़ा को लिखा है ताकि उसे उनके दरमियान होने वाली बातों से आगाह करे। चुनांचे जब अबु हाशिम जाफ़री वग़ैरा ने उसकी तलाशी ली तो उन्हें वह ख़त मिल गया।
अपने असहाब के बारे में आपकी पॉलीसियों में से एक, उनकी आम मादी जरूरतों के तहत माली इमदाद फराहम करना थी। आपके पास मुख़्तलिफ़ मुस्लिम इलाकों से जहां आपके अक़ीदत मन्द पाए जाते थे काफ़ी माल पहुंचता था और यह काम उन इलाकों में फैले हुए आपके वकीलों के ज़रिए अंजाम पाता था। इमाम (अ.स.) इस अम्र को हुकूमत की नज़रों से पोशीदा रखने की भरपूर कोशिश करते और मुख़्तलिफ़ तरीके इख़्तेयार फ़रमाते थे।
हम मुशाहिदा कर सकते हैं कि इमाम (अ.स.) पाबन्दियों और निगरानियों बावजूद किस तरह अमवाल को जमा करने और उनको अपनी सवाब दीद के मुताबिक मुनासिब उमूर में खर्च करने में कामयाब होते थे। और वह भी इस तरह कि हुकूमत अपनी पूरी कोशिश के बावजूद उन सरगर्मियों के बारे में कुछ न जान सकती थी। अगर उन अमवाल में से कुछ के बारे में हुकूमत को सुराग भी मिला तो वह बाज़ लोगों की बद एहतियाती की बिना पर हुआ।
अब्बासी हुकूमत ने इमाम (अ.स.) के असहाब और हामियों के मामलें में इन्तेहाई सख़्त मौकफ इख़्तेयार किया। अब्बासियों ने आपके लाहए अमल को नाकाम बनाने और आपके साथियों को मुतफ़र्रिक करने के लिए ज़बर्दस्त कोशिश की। इस कोशिश में माल व दौलत के ज़रिए ज़मीरों का सौदा करना भी शामिल है। उसके मुकाबिले में इमाम (अ.स.) ने असहाब के मामले में नसीहतों और रहनुमाई का रास्ता अपनाया। और अपने साथियों से फ़रमाया:-
“वह नादार जो हमारा साथ दे उस तवनगर से बेहतर है जो हमारे मुखालिफ़ीन का साथी हो। हमारे दुश्मनों के साथ ज़िन्दा रहने से हमारा साथ देते हुए क़त्ल हो जाना बेहतर है। हम उन लोगों के लिए पनाहगाह हैं जो हमारे पास पनाह चाहते हैं और उन लोगों के लिए हिदायत का चिराग हैं जो हमसे रहनुमाई के ख़्वाहिश मन्द हैं। जो लोग हमारे ज़रिए हिफाजत तलाश करें, हम उनके मुहाफिज़ हैं। जो हम से मोहब्बत करेगा वह जन्नत के बुलन्द दर्जात में हमारे साथ होगा और जो हमसे मुन्हरिफ होगा उसकी मंज़िल जहन्नुम है।”
ग़ैबत की तैयारियां
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) को इस अम्र का बखूबी इल्म था कि आपका फ़रज़न्द ब-हुक्मे ख़ुदा ज़मीन पर निज़ामें हुकूमते इलाहिया क़ाएम करके उसे पूरी दुनिया में नाफ़िज़ करने, महरूमों और कमज़ोरों की मदद करने और उनके ख़ौफ़ व हिरास को सुकून व इत्मीनान में बदलकर फ़कत खुदाए यगाना की परसतिश को बाकी रखने के लिए पर्द-ए-ग़ैब में जाएगा। चुनांचे आप अपनी ज़िम्मेदारी समझते थे कि अपने बेटे की ग़ैबत के लिए फ़िज़ा हमवार करें क्योंकि लोग ज़ाहिरी और हिस्सियाती मअरिफ़त व इदराक के आदी हो चुके थे। लिहाज़ा महसूसात के आदी अफ़राद का वुसअते फिक्री से हमकिनार होना एक मुश्किल काम था।
इमाम (अ.स.) के दौर का मुआशिरा फिक्री व रूहानी इन्हेराफ व ज़वाल के बाएस ईमान की गहराई और फिक्री बुलन्दी के इस मक़ाम तक पहुंचने से आजिज़ था। ख़ास कर उन हालात में जबकि इमाम (अ.स.) की ग़ैबत का मसअला उम्मत की तारीख में एक बिल्कुल ही नया तर्जुबा था। इमाम आखिरूज जमां के बारे में गुज़िश्ता पेशीनगोईयां नीज़ तअद्दुद व तसलसुल के साथ मरवी सही और मुतवातिर अहादीस का सिलसिला रसूले अकरम (स.अ.) पर ख़त्म होता था। उन्हें सहाह के मोअल्लिफ़ीन ने भी नक़्ल किया है जो उस दौर या उससे भी गुज़िश्ता अदवार के लोग थे और उनमें बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद बिन हम्बल वग़ैरा भी शामिल थे।
“नज़रियए इन्तेज़ार” को आम लोगों के दिलों में रासिख करने में अहादीस को बड़ा दख़ल था। उसके अलावा उन अहादीस पर लोगों का अकीदा भी, उनके ईमान की गहराई, फिक्री वुसअत और मज़हबी एतकाद के मुताबिक था। लेकिन उन सब बातों के बावजूद यह रिवायात फक़त इसी हद तक इमाम (अ.स.) के लिए मुआविन थीं कि यह लोगों को एक तरफ तो नज़रिए ग़ैबत को मानने पर आमादा करती थीं और दूसरी तरफ इस बात को वाज़ेह करती थीं कि वह साहबे हस्ती आपके फ़रज़न्द हज़रत मेंहदीं (अ.स.) हैं।
हज़रत मेहदी (अ.स.) के वालिद की हैसियत से इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी लोगों से यह मनवाना था कि ग़ैबत का मरहला आ चुका है और उसके मज़हर आपके फ़रज़न्द हज़रत मेंहदीं (अ.स.) हैं। यकीनन यह एक कठिन मरहला था क्योंकि आम लोगों के ईमान और नज़रियात को ग़ैबत के बारे में अचानक धचका लगने वाला था। इसकी वजह यह थी कि किसी आम शख़्स का एक चीज़ पर गैर मोअय्यना मुद्दत के लिए ईमान रखना, जबकि उसकी ज़िन्दगी में उसके असरात मुरत्तब न हों, और बात है लेकिन किसी ऐसे ग़ैबी अम्र पर ईमान रखना जिसे उसके एतकाद के मुताबिक उसकी ज़िन्दगी में अमली जामा पहनना हो, दूसरी बात है। यह मसअला इस बात का मुतकाजी था कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) इस फिक्री बोहरान और ज़ेहनी धचके की शिद्दत को कम करते हुए बग़ैर किसी शक व तरदीद के लोगों को मज़कूरा अम्र को कुबूल करने पर आमादा करने के लिए हत्तल मक़दूर सई फ़रमाते। नीज़ अपने असहाब और हामियों को इस हक़ीक़त से वाबस्ता रहने का ख़ूगर बनाते। ख़ास कर उन हालात में जबकि आप एक ऐसी बेदार नस्ल की तरबियत के ख़्वाहां थे जो आने वाली नस्लों की तरबियत के लिए बुनियादी किरदार अदा करती और अपनी कोशिशों से ग़ैबते सुग़रा व ग़ैबते कुबरा की तारीख रक़म करती।
जब हम इन मसाएल, इन संगीन हालात जिनका आप और आपके असहाब को सामना करना पड़ा नीज़ महदवियत के इन्केलाबी नज़रिया की तरवीज जो हुक्काम की नज़र में उनके वजूद के लिए ख़तरनाक और उनकी हुकूमत के ख़िलाफ़ बगावत व नाफ़रमानी से इबारत था, की अहमियत पर नज़र करते हैं तो यह बात मुकम्मल तौर पर वाज़ेह हो जाती है कि इमाम (अ.स.) को किस क़द्र बारीक बीनी के साथ मंसूबा बन्दी करते हुए अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने की ज़रूरत थी, नीज़ यह कि इस नज़रिय-ए-ग़ैबत की तरफ दावत देने का काम किस क़द्र मुश्किल था।
इस मकसद के हुसूल के लिए इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने दो उसूलों को अपनी सरगर्मियों का महवर करार दिया। अव्वल यह कि चन्द मख़सूस अफ़राद के अलावा बाकी तमाम लोगों की नज़रों से हज़रत मेंहदीं (अ.स.) को पोशीदा रखना। दूसरे यह कि नज़रिय-ए-ग़ैबत से लोगों को आगाह करना, इस सिलसिले में उन्हें अपनी शरई ज़िम्मेदारियों से बाख़बर बनाना और ग़ैबत के तकाज़ों का आशना और ख़ूगर बनाना।
इस दूसरे उसूल के तहत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने अपने फ़रमूदात और बयानात से लोगों को मुस्तफीद किया। यह इक़दाम उन फ़रमूदात और तालीमात के सिलसिले की एक कड़ी था जिनके ज़रिए रसूले अकरम (स.अ.) और अईम्मए मासूमीन (अ.स.) ने बशारतें दीं थीं।
इस बारे में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के बयानात तीन तरह के हैंः-
(1) आम बयान। मसलन इमाम (अ.स.) के ज़हूर और आपकी आलमगीर हुकूमत के क़याम के बाद आपकी सिफ़ात व खुसूसियात का ज़िक्र। जैसा कि आपने अपने साथी के सवाल का जवाब देते हुए फ़रमायाः
“जब वह क़याम करेंगे तो अपने इल्म (इल्मे लदुन्नी) की बिना पर लोगों के फैसले करेंगे, जिस तरह हज़रत दाऊद (अ.स.) फ़ैसले किया करते थे और उन्हें गवाहों की ज़रूरत न होगी।
(2) “नज़रिय-ए-महदवियत” का तकाज़ा हालात को बदलता है। इस हक़ीक़त के ज़ैल में आपने फ़रमायाः
“जब हज़रत मेहदी (अ.स.) खुरूज करेंगे तो वह मसाजिद के अन्दर तामीर शुदा खुसूसी मिम्बरों और हिफ़ाज़ती मेहराबों को गिराने का हुक्म देंगे।”
वाजेह रहे कि इस किस्म के मेहराब खोलफ़ा की हिफाजत और लोगों पर उनके रोब व दबदबे में इज़ाफ़ा की ग़रज़ से बनाए जाते थे।
(3) अपने असहाब और हामियों की आम रहनुमाई, ताकि उन्हें नज़रियाते ग़ैबत के आम पहलूओं से रूशिनास किया जा सके, नीज़ मुआशिरती लिहाज से उन्हें इस तरह तैयार करना कि वह मुस्तकबिल में इमाम (अ.स.) की ग़ैबत व जुदाई से पैदा होने वाले तलख हालात का सामना करने के काबिल हो जाएं। चुनांचे इस सिलसिले में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) इब्ने बाबवैय के नाम अपने एक मकतूब में फ़रमायाः
“तुम पर लाज़िम है कि तुम सब्र व तहम्मुल के साथ क़यामे मेहदी का इन्तेज़ार करो। क्योंकि रसूल अल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया है कि मेरी उम्मत का सबसे बेहतरीन अमल हज़रत मेंहदीं (अ.स.) का इन्तेज़ार है। हमारे शिया मुसलसल गम व अन्दोह का शिकार रहेंगे यहां तक कि मेरे बेटे का ज़हूर होगा और वह ज़मीन को अदल व इन्साफ़ से उसी तरह भर देगा जिस तरह ज़ुल्म व जौर से भरी होगी। ऐ अबुल हसन बिन अली! तुम भी सब्र का मुज़ाहिरा करना और हमारे शियों को भी सब्र की तलक़ीन करना। ज़मीन अल्लाह की है, वह अपने बन्दों जिसे चाहता है उसका मालिक बनाता है।”
ज़ाहिर है कि अगर क़ब्ल अज़ वक़्त तैयारी के बग़ैर ग़ैबत वाके़ होती तो यह अम्र लोगों में एक ग़ैर मुतवक़्क़े बोहरान पैदा करता लिहाज़ा इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने उम्मत को ज़ेहनी तौर पर आमादा व बेदार करने के लिए एक खास तरीक़-ए-कार अपनाया ताकि लोग मज़कूरा उसलूब को बगैर किसी हैरत व इस्तेजाब के आसानी से कुबूल कर लें और इस सिलसिले में गैर मुनासिब एतराज़ात न करें।
इस नज़रिया की तैयारी और मंसूबाबंदी की इब्तेदा इमाम अली नक़ी (अ.स.) के दौर में हो चुकी थी। चुनांचे आपने अकसर मोअतके़दीन से फ़क़त ख़ुतूत और दस्तख़त शुदा तहरीरों के ज़रिए राबिता रखना शुरू कर दिया था। नीज़ उनकी नज़रों से पोशीदा रहने लगे थे ताकि अपने शियों को बतदरीज मज़कूरा रविश का आदी बनाएं। इस तरह अमली तौर पर आपके असहाब व मोअतके़दीन को ख़त व किताबत के ज़रिए राबिता क़ाएम करने और सवालात पूछने की आदत हो गयी। इसी तरह इमाम हसन अस्करी (अ.स.) का अपने हामियों के उमूर को अपने नुमाईन्दों और वकीलों के ज़रिए चलाना भी नज़रिय-ए-ग़ैबत के लिए फ़िज़ा को साज़गार बनाने का एक तरीका था।
शहादत
मुवर्रिख़ीन का बयान है कि ख़लीफ़ा मोअतमिद अब्बासी ने इमाम हसन अस्करी (अ.स.) को ज़हर दिलवाया जिसके नतीजे में आप बतारीख 8 रबीउल अव्वल सन् 260 हिजरी बरोज़ जुमा दर्ज-ए-शहादत पर फाएज़ हो गए। उस वक़्त आपकी उम्र 28 साल की थी।
आपकी ख़बरे शहादत का आम होना था कि सामरा में हर तरफ एक कोहराम बरपा हो गया और हर घर से नाला व शैवन की सदाएं होने बुलन्द लगीं। शहर में हड़ताल हो गयी, तमाम दुकानें बन्द हो गयीं और चारों तरफ़ से लोग इमाम (अ.स.) की क़यामगाह की तरफ दौड़ पड़े जिनमें अराकीने हुकूमत और सरकारी मुलाजे़मीन भी शामिल थे।
गुस्ल व कफ़न के बाद इन्तेहाई शान व शौकत से आपका जनाज़ा उठाया गया और उस मक़ाम पर लाकर रखा गया जहां नमाज़े मय्यत का एहतेमाम किया गया था। आपके भाई जनाबे जाफ़रे तव्वाब नमाज़ पढ़ाने की ग़रज़ से आपके जस्दे अक़दस के करीब पहुंचे ही थे कि अचानक हज़रत मेहदी (अ.स.) नमूदार हुए और उन्होंने अपने चचा को हटाकर नमाज़ पढ़ाई। उसके बाद आपको आपके वालिद इमाम अली नक़ी (अ.स.) के पहलू में दफ़्न कर दिया गया।
अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा का बयान है कि तदफ़ीन के बाद मोअतमिद के फौजियों ने इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के घर की तलाशी ली और औरतों को गिरफ़्तार कर लिया। इस तलाशी का मकसद हज़रत मेहदी (अ.स.) की जुस्तुजू थी ताकि उन्हें क़त्ल करके सिलसिल-ए-इमाम को मुन्क़ता कर दिया जाए।
जनाबे नरजिस ख़ातून
जनाब नरजिस खातून की शान व शौकत, शरफ व मंज़िलत और अज़मत व जलालत के बारे में इतना ही कहना काफी है कि ख़ुदावन्दे आलम ने आप नज़ूले हज़रत हुज्जत (अ.स.) के लिए वसीला बनाया और आप ही इस “नूरे इलाही” की अमीन क़रार पाईं जो दुनिया को अदल व इन्साफ़ से इस तरह भर देगा जिस तरह कि वह जुल्म व जौर से भरी होगी।
आपके मुख़्तलिफ़ नामों में ज़्यादा मशहूर नाम “नरजिस खातून” है। चुनांचे शियों की ज़्यादतर किताबों और रिवायतों में आपका इस्मे गिरामी “नरजिस” ही पाया जाता है। ओलमाए अहले सुन्नत में भी मुल्ला जामी ने शवाहिदुल नबूवत में, ख़्वाजा मुहम्मद पारसाने फसलुल ख़िताब में, शेख अब्दुल हक़ मोहद्दिस ने मनाक़िबे अइम्मए अतहार में और मुहम्मद ख़ावन्द शाह ने रौज़तुस सफ़ा जिल्द सोम में आपका नाम “नरजिस खातून” तहरीर किया है।
“नरजिस” फारसी लफ़्ज़ “नरगिस” का मआरब है जो आंख के मजाज़ी मानों में भी इस्तेमाल होता है। बाज़ ओलमा का ख़्याल है कि आपकी आंखें चूंकि बहुत ख़ूबसूरत और पुरकशिश थीं इसलिए इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने आपका नाम “नरजिस” रखा था।
नरजिस खातून के अलावा आपका दूसरा नाम “सैक़ल” भी था। चुनांचे शेख सदूक ने अपनी किताब एकमालुद्दीन और इतमामुन नेअमत में ऐसी रिवायतें दर्ज की हैं जिनसे आपके नाम “सैक़ल” (रौशन, चमकदार) का पता चलता है। शहीदे अव्वल ने अपनी किताब दुरुस में, अल्लामा जमालुद्दीन ने रौज़तुल एहबाब में और अल्लामा कमालुद्दीन बिन तलहा शाफई ने मतालिबुस सुऊल में आपका पहला नाम “सैकल” ही मरकूम फ़रमाया है जिससे यह नतीजा निकलता है कि उन हज़रात नज़दीक यही नाम दुरूस्त था।
बिहारूल अनवार में ग़यास बिन अहमद से मरवी है कि हज़रत मेंहदीं (अ.स.) की मादरे गिरामीं “रेहाना” हैं जिनका नाम “नरजिस ख़ातून” भी था और जिन्हें सैकल और सौसन भी कहा जाता है। नीज़ आपका नाम सैकल इस्तेकरार हमल के बाद हुआ।
इस रिवायत से यह अन्दाज़ा होता है कि आपका इस्मे गिरामीं “नरजिस खातून” था लेकिन जब इमाम (अ.स.) का हमल आपके बतने मुबारक में मुस्तकर हुआ तो इस “नूर” की मुनासिबत से आपका नाम सैकल हुआ। नीज़ आपको “रेहाना” भी कहा जाता था।
शेख़ अब्बासी कुम्मी ने अपनी किताब मुन्तहल-आमाल में आपका नाम “मलीका” तहरीर फ़रमाया है जबकि बिहारूल अनवार में मुहम्मद बिन मूसा वाली रिवायत से पता चलता है कि आपका नाम “हकीमा” भी था। हालांकि जनाबे हकीमा इमाम अली नकी (अ.स.) की बहन थीं जिन्होंने जनाबे नरजिस खातून की तालीम व तरबियत के फ़राएज़ अंजाम दिए थे। लिहाज़ा इसकी कोई वजह समझ में नहीं आती कि उन्होंने आपका नाम अपने नाम पर रखा हो।
“तारीखुल ग़ैबत” के मुतालए से पता चलता है कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने अक़्द के बाद उस बरगुज़ीदा खातून के मुख़्तलिफ़ नाम रखे थे। और बार बार उन नामों की तब्दीली के पस मंज़र में एक ख़ास मक़सद कारफ़रमा था और वह यह था कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) जानते थे कि यह ख़ातून हज़रत मेहदी (अ.स.) की मां बनने वाली हैं। नीज़ यह कि उन्हें कुछ मुद्दत के लिए हुक्काम की तरफ से जुल्म व तशद्दुद और कैद व बन्द का सामना करना पड़ेगा। लिहाज़ा इमाम (अ.स.) ने उनकी और उनके फ़रज़न्द की ज़्यादा हिफ़ाज़त के पेश नज़र एहतियाती तदबीरें इख़्तेयार कीं। आपकी कोशिश यह थी कि हुक्कामे वक़्त को यह न मालूम हो कि जिसे उन्होंने कैद कर रखा है उसका नाम उन नामों में से कौन सा है? उनमें से कौन हामिला हैं और कौन हज़रत मेंहदीं (अ.स.) की मां हैं? क्योंकि हुक्काम का यही ख़्याल था कि मुख़्तलिफ नाम मुख़्तलिफ़ ख़्वातीन के हैं। वह इस बात से गाफ़िल थे कि एक ही खातून के कई मुख़्तलिफ़़ नाम भी हो सकते हैं।
इमाम आख़िरूज़ ज़मा (अ.स.) के बारे में पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.) के दौर से लेकर इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के ज़माने तक मुख़्तलिफ़ तरीकों से रिवायत होने वाली अहादीस की बिना पर हुक्मरानों को इजमाली तौर पर यह तो मालूम था कि आपकी विलादत का ज़माना करीब है लेकिन उन्हें आपकी तारीखे विलादत का इल्म न था क्योंकि आपकी विलादत को छिपाने के लिए मुकम्मल एहतियात व राज़दारी से काम लिया गया था इसी बिना पर इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत के अय्याम में हुक्मरां तबके की जानिब से हामिला औरतों के बारे में निगरानी के अहकाम सादिर हुए और काशानए इस्मत व तहारत की मस्तूरात को गिरफ़्तार किया गया। इसलिए कि हज़रत मेहदी (अ.स.) की विलादत उनकी हुकूमतों के लिए मौत का परवाना थी।
जनाबे नरजिस खातून अपने बाप “यशूआ” की तरफ से कै़सरे रोम की पोती और मां की तरफ से नस्बी बुनियाद पर हज़रत ईसा के वसी जनाबे शमऊन की नवासी थीं। काशानए इस्मत में आपके वरूद का हाल मुवर्रिख़ीन ने इस तरह बयान किया हैः-
अबू अय्यूब अन्सारी सहाबी-ए-रसूल (स.अ.) की नस्ल में बशर बिन सुलेमान नामी एक बुरदा फ़रोश था जो इमाम अली नक़ी (अ.स.) का सहाबी भी था और सामरा में उनका पड़ोसी भी। उसका कहना है कि एक दिन इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने अपने ख़ादिम “काफूर” के ज़रिए मुझे तलब किया और फ़रमाया, ऐ बशर तुम अन्सार की नस्ल से हो, तुम्हारी रगों में अबु अय्यूब अन्सारी का ख़ून है, इसलिए तुम्हारी मोहब्बत, दोस्ती और वफादारी पर मुझे भरोसा है। मैंने एक ख़ास शरफ़ से मुशर्रफ करने के लिए तुम्हें तलब किया है और वह शरफ़ एक कनीज़ की खरीदारी से मुतअल्लिक है जिसके लिए मैं तुम्हें भेजना चाहता हूं। क्या तुम इस काम को राज़दाराना तौर पर अंजाम दे सकोगे? मैंने कहा मौला! मेरी जान आप पर कुर्बान, आप मुझे हुक्म दें। उसके बाद हज़रत ने रोमी ज़बान में तहरीर शुदा मकतूब के साथ दो सौ बीस अशरफ़ियों की एक थैली मेरे हवाले करते हुए फ़रमाया कि तुम इसे लेकर बग़दाद चले जाओ। जब तुम वहां दरिया-ए-फुरात के मग़रिबी घाट पर पहुंचोगे तो तुम्हें बुरदा फ़रोशों की चन्द कश्तियां नज़र आएंगी और उनमें बराए फ़रोख्त कुछ कनीज़ें होंगी जिनके इर्द गिर्द खरीदारे अरब नौजवानों, सरदारों और बनी अब्बास के वकीलों की एक भीड़ जमा होगी।
उन बुरदा फ़रोशों में उमर बिन यज़ीद नामीं एक शख़्स होगा जिसकी कश्ती में सिर्फ़ एक ही नक़ाब पोश कनीज़ होगी और वह किसी के हाथ बिकने पर तैयार न होगी। यहां तक कि बनी अब्बास के वकीलों में से एक शख़्स उमर बिन यज़ीद से कहेगा कि तीन सौ दीनार के एवज़ इस कनीज़ को मेरे हाथ फ़रोख़्त कर दे। उसकी ज़बान से यह कलमात सुनकर कनीज़ अरबी ज़बान में उसे मुखातिब करते हुए जवाब देगी कि ऐ शेख ! अपना माल क्यों बर्बाद करता है? अगर तू हज़रत सुलेमान का तख़्त व ताज भी लाकर मेरे क़दमों में डाल देगा तो मैं तेरी तरफ़ रग़बत नहीं कर सकती। कनीज़ के इस जवाब पर उमर बिन यज़ीद अफ़सुरदा ख़ातिर होकर उससे कहेगा कि जब कोई ख़रीदार तेरी तरफ मुतवज्जे होता है तो उसके हाथ बिकने से तू साफ़ इन्कार कर देती है, आख़िर मैं कौन सा तरीका इख़्तेयार करूं? वह जवाब देगी, ऐ उमर बिन यज़ीद ! इस अम्र में परेशान न हो और जल्दी न कर। मुझे जिस ख़रीदार का इन्तेज़ार है वह अनक़रीब मेरे बारे में तुझसे बात करने वाला है।
ऐ बशर ! उस वक़्त तुम उस बुरदा फ़रोश को मेरा ख़त देना और कहना कि इस कनीज़ के नाम यह एक सय्यद का ख़त है, इसे दे दो ताकि वह अच्छी तरह पढ़ ले और सोच समझ ले। अगर खुशी-खुशी रजामन्द हो गयी तो मैं खरीदारी के लिए उनकी तरफ से वकील हूं।
बशर का बयान है कि जब उमर बिन यज़ीद बुरदा फ़रोश ने वह ख़त उन मोअज़्ज़मा को दिया और उन्होंने पढ़ा तो उनकी आंखों में आंसू भर आए। उन्होंने निहायत नर्मी से उमर बिन यज़ीद से कहा, तू इस ख़रीदार के हाथ मुझे फ़रोख्त कर दे, मैं राज़ी हूं। ग़रज़ कि इमाम (अ.स.) ने जो थैली मुझे दी थी उसी रक़म पर मामला ठहरा और मैं कीमत अदा करके उन मोहतरमा को अपने साथ अपनी क़यामगाह पर ले आया। मैंने देखा कि वह इन्तेहाई खुश हैं और इमाम (अ.स.) के ख़त को बार-बार आंखों से लगातीं हैं। मैंने इस्तेजाब के आलम में पूछा, जिसे आप जानतीं भी नहीं हैं उसकी तहरीर से इतनी रग़बत व अक़ीदत क्यों? जवाब में उन्होंने फ़रमाया, बशर! तुम्हारा आरिफ़ाना जौक़ अभी नामुम्किन है, मेरी रूदाद सुनो।
मेरा नाम मलिका है। मैं यशूआ की बेटी और कै़सरे रोम की पोती हूं। मेरी मां का सिलसिल-ए-नसब हज़रत ईसा (अ.स.) के वसी शमऊन बिन हमून पर मुन्तही होता है। मैं तुम्हें एक अजीब अम्र से आगाह करना चाहती हूं, और वह यह है कि जब मैं तेरह बरस की थी तो मेरे दादा कै़सरे रोम ने चाहा कि मेरा अक़्द अपने भतीजे से करे। चुनाँनचे उसने तीन सौ हवारीने ईसा (अ.स.), तीन सौ ओलमाए नसारा, सात सौ अमाएदीन व अकाबरीन व सरदाराने कबाएल और चार हज़ार अराकीने हुकूमत और ओहदेदाराने लश्कर को जमा किया और वह तख़्त मंगवाया जो चालीस पायों पर नसब था और जिसे उसने हीरे जवाहारात से मुरस्सा करके उसकी बुलन्दी पर बुतों और सलीबों को रखा था। ग़रज़ कि जब वह तख़्ते ज़री दरबार में लाकर रख दिया गया तो उसने अपने भतीजे को उस पर बैठाया और पादरियों को हुक्म दिया कि वह शादी से मुतअल्लिक मज़हबी रूसूम अंजाम दें।
ऐ बशर! अभी ओलमाए नसारा उस तख़्त जरी की बुलन्दी पर नसब शुदा बुतों के सामने इंजील के औराक़ खोल कर खड़े हुए थे कि क़स्रे सुल्तानी में ज़लज़ला आ गया, तमाम बुत औंधे मुंह ज़मीन पर गिर पड़े, तख़्ते ज़र्रीन के तमाम पाए चकना चूर हो गए और दुल्हा मियां भी तख़्त के नीचे गिर कर बेहोश हो गए। तमाम हाज़िरीने दरबार पर ख़ौफ़ व दहशत का आलिम तारी हो गया और वह बदहवास होकर इधर उधर भागने लगे। ओलमाए नसारा के भी चेहरे मुतग़य्यर हो गए यहां तक कि उनके सबसे बड़े आलम ने कै़सरे रोम से कहा, ऐ बादशाह! हमें इस तजवीज की अंजाम देही से माफ़ रख, क्योंकि यह हालात दीने मसीह के ज़वाल व इज़्मेहलाल पर दलालत करते हैं !
ऐ बशर! टोलमाए नसारा की इस मअज़िरत पर मेरे दादा ने रंजीदा होकर कहा, सतूनों को एक मर्तबा फिर से क़ाएम करो और तख़्त पर बुतों को फिर से रखो और इस बदबख़्त दुल्हा के भाई को मेरे पास लाओ ताकि इस लड़की की शादी मैं उसके साथ कर दूं। शायद यह नहूसतें तुम्हारे सरों से टल जाएं। चुनांचे दोबारा आराईश हुई और जब ओलमा ने इंजील के औराक़ खोले तो फिर पहला सा हादसा रूनुमा हुआ। लोग परागन्दा हो गये और मेरा दादा मग़मूम व महजून दरबार से उठ कर हरम सरा में चला गया।
उसी रात मैंने ख़्वाब में देखा कि कैसरे रोम के महल में जहां पर तख़्त नस्ब किया गया था वहीं पर हज़रत मसीह (अ.स.) ने अपने हवारियों की एक जमात के साथ नूर का एक मिम्बर नस्ब किया और उसी दरमियान पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.), उनके वसी और दीगर कुछ बुजुर्गवार क़स्र में दाखिल हुए हज़रत मसीह (अ.स.) ने आगे बढ़ कर उनका इस्तेकबाल किया। आनहज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया, ऐ रूहुल्लाह ! मैं इसलिए आया हूं कि आपके वसी शमून की बेटी मलिका की ख़्वास्तगारी अपने फ़रज़न्द इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के लिए करूं। हज़रत मसीह (अ.स.) ने शमून की तरफ देखा और फ़रमाया कि यह बात तुम्हारे लिए बाएसे शरफ़ है कि तुम अपने रिश्ते को आले मुहम्मद (स.अ.) के रिश्ते से मुन्सलिक कर दो। शमून ने फ़रमाया कि “मैंने कर दिया।” उसके बाद तमाम हज़रात बालाए मिम्बर तशरीफ़ ले गए। आनहज़रत (स.अ.) ने निकाह का खुतबा पढ़ा और अपने फ़रज़न्द हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) से मेरा अक़्द कर दिया। हज़रत मसीह और उनके हवारीन में से बहुत से लोग इस अक़्द के गवाह क़रार पाए। उसके बाद जब मैं बेदार हुई तो मेरा सारा जिस्म कांप रहा था। मैंने उस ख़्वाब का ज़िक्र किसी से नहीं किया इसलिए कि मेरे भाई और बाप वग़ैरा कहीं मुझे मार न डालें। यहां तक कि इसी कशमकश और उलझन में मैं सख़्त बीमार पड़ गयी और शहरों में कोई ऐसा तबीब बाकी न रहा जिसको मेरे बाप ने बुला कर मेरा ईलाज न कराया हो, मगर कोई फाएदा न हुआ। जब मेरा बाप मेरी ज़िन्दगी से मायूस हो गया तो मुझसे कहा, ऐ बेटी! तेरे दिल में कोई ख़्वाहिश हो तो मुझसे बयान कर, मुम्किन है मैं उसे पूरी कर सकूं। मैंने कहा, सेहत के दरवाज़े मेरे लिए बन्द हैं, अगर आप मुसलमान कैदियों को कैद से आज़ाद कर दे तो मुम्किन है कि हज़रत मसीह (अ.स.) और उनकी मां “मरियम” मुझे फिर सेहत अता करें। मेरे बाप ने मेरी फ़रमाईश पूरी कर दी। मैं सेहतयाब होने लगी और कुछ खाना पीना भी शुरू कर दिया। मेरी यह कैफियत देखकर मेरा बाप भी खुश हुआ और वह उसी दिन से मुसलमानों की इज्ज़त व तकरीम करने लगा।
इस वाक़िए के चौदह दिनों बाद मैंने फिर ख्वाब में देखा कि बिन्ते रसूल (स.अ.) हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) और हज़रत मरियम (अ.स.) हवारीने जन्नत के साथ मेरी मिज़ाज पुरसी को तशरीफ लायीं। हज़रत मरियम (अ.स.) ने फ़रमाया, ऐ मलिका ! यह सैय्यदा जनाने आलमियाँ तेरे शौहर की जद्दा-ए- माजिदा हैं। बस मैंने उन मासूमा का दामन पकड़ लिया और इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के न आने की शिकायत की। आपने फ़रमाया कि चूंकि अभी तू दीने नसारा की पाबन्द है और मुशरिका है इसलिए हसन अस्करी (अ.स.) तुझे अपनी ज़ियारत से मुशर्रफ़ नहीं कर सकते। अगर तू खुदा की खुशनूदी, मसीह (अ.स.) व मरियम (अ.स.) की रजामन्दी और हसन अस्करी (अ.स.) से मुलाक़ात की तालिब है तो कलम-ए-तौहीद ज़बान पर जारी कर। मैने कलम-ए-तौहीद ज़बान पर जारी किया तो उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया और फ़रमाया कि अब मेरे बेटे हसन अस्करी (अ.स.) की जियारत तुझे होती रहेगी।
उसके बाद मुझे इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की जियारत ख़्वाब में नसीब हुई। मैंने उनसे इतने दिनों तक न आने का शिकवा किया। दूसरी शब फिर आपको ख़्वाब में देखा और यही शिकवा किया तो आपने फ़रमाया कि मेरे आने में ताख़ीर तेरे मुशरिक होने के सबब से थी, अब जबकि तू दायर-ए-इस्लाम में दाखिल हो गयी है तो हर शब में मेरी जियारत होगी। उस वक़्त से रोजाना ख़्वाब में मैं अपने आका की जियारत करती हूं।
बशर का बयान है कि मैंने पूछा कि आप असीरों में क्यों कर शामिल हो गयीं। मलिका खातून ने कहा कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने एक शब मुझे यह हुक्म दिया कि मेरा दादा कै़सर फुलां रोज़ मुसलमानों से लड़ने के लिए एक लश्कर भेजेगा, तू अपनी हैयत तब्दील करके कुछ कनीज़ों के साथ उनमें मिल जा। मैंने इमाम (अ.स.) के इस हुक्म की तामील की और मुसलमानों के हाथों गिरफ़्तार होकर यहां तक पहुंची और अब जो मेरा हाल है वह तुम देख रहे हो कि मैं अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ रही हूं।
बशर कहता है कि मैं उन मोअज्ज़मा को अपने हमराह बड़े अदब व एहतराम के साथ लाया और इमाम अली नक़ी (अ.स.) की ख़िदमत में पेश किया तो उन्होंने उन खातून से पूछा कि तुमने इस्लाम की इज़्ज़त और नसरानियत की ज़िल्लत को कैसा पाया? कहा, ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.)! जिस चीज़ को आप मुझ से बेहतर जानते हैं उसके बारे में मैं क्या अर्ज़ करूं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, मैं तुम्हारा इकराम करना चाहता हूं, बताओ कि मैं तुम्हे दस हज़ार दीनार दे दूं या एक मुज़दा सुना कर तुम्हारे दिल को खुश कर दूं? मोअज्ज़मा ने कहा, मैं मुज़दा सुनना चाहती हूं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि तुम्हारे बतन से एक खुश जमाल फ़रज़न्द मुतवल्लिद होगा जो तमाम मम्लेकत अरज़ी का मालिक होगा और ज़मीन को उसी तरह अदल व इन्साफ़ से भर देगा जिस तरह कि वह जुल्म व जौर से भरी होगी। बशर का बयान है कि मोहतरमा ने यह मुज़दा सुनते ही सजदए शुक्र में अपनी पेशानी रख दी।
उसके बाद इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने अपनी बहन हकीमा खातून को तलब फ़रमाया और उनसे कहा, यह वही ख़ातून हैं जिनके बारे में मै अकसर आपसे तज़किरा किया करता। यह सुनकर हकीमा खातून ने जनाबे नरजिस ख़ातून को गले से लगाया और हुक्मे इमाम (अ.स.) के मुताबिक इस्लामी तालीमात से सरफ़राज़ करने के लिए अपने साथ ले गयीं !
रिवायत ख़त्म हुई। यह खुली हुई बात है कि जनाबे नरजिस खातून बतौरे कनीज़ इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के काशानए इस्मत व तहारत में दाखिल हुई थीं और यह भी मुसल्लम है कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के पास आने से क़ब्ल आप जनाबे हकीमा खातून के ज़ेरे तरबियत रहीं। लेकिन जब तक यह न तहकीक हो जाए कि वह कौन सी जंग थी जिसमें आप असीर होकर आयीं उस वक़्त तक इस रिवायत के बारे में इज़हारे ख्याल या किसी किस्म का कोई तबसिरा मुनासिब नहीं है।
अलबत्ता इस मौके पर यह वजाहत ज़रूरी समझता हूं कि गुलाम और कनीज़ भी आज़ाद इन्सानों की तरह आदम (अ.स.) व हव्वा (अ.स.) की औलाद हैं और उन्हें भी इन्सानियत के ख़ज़ाने से उतना ही हिस्सा मिला है जितना कि आज़ाद कहलाने वालों को हासिल है, फर्क़ सिर्फ इतना है कि हालात ने उन्हें असीरी की ज़ंजीरों में जकड़ दिया और वह दूसरों के पाबन्द हो गए। इसी पाबन्दी का लिहाज़ रखते हुए इस्लाम ने अज़ राहे तरह्हुम उनके लिए बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ कम कर दी मगर उसने यह नहीं किया कि उनकी इन्सानी अज़मत या समाजी मरातिब में कोई फ़र्क पैदा किया हो। इस्लाम ने तो उन्हें “गुलाम” के बजाए अपना “बेटा” और “कनीज़” के बजाए “बेटी” कहने की तालीम दी और इस तरह उन्हें घर का एक रूक्न बना दिया।
बनी अब्बास में ज़्यादातर खुलफा ऐसे गुज़रे हैं जिनकी माएं कनीज़ थीं मगर उनकी शख़्सियत व हैसियत में कोई फर्क नहीं आया। मिसाल के तौर पर तारीखे तबरी जिल्द चहारूम (मतबूआ नवल किशोर) के हवाले से चन्द फ़रमाँरवाओं की माओं के बारे में मुलाहिजा फ़रमाएं:
(1) मामून रशीद की मां कनीज़ थी जिसका नाम “मरजाना” था।
(तबरी, जिल्द-4 पेज-794)
(2) मोअतसिम बिल्लाह की मां भी वही मरजाना थी।
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(3) वासिक बिल्लाह की मां एक रोमी कनीज़ थी।
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(4) मुतवक्किल की मां भी कनीज़ थी जिसका नाम “सुजाह” था।
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(5) मुस्तन्तसिर की मां भी एक रोमी कनीज़ थी।
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(6) मुस्तईन की मां भी कनीज़ थी जिसका नाम “रया” था।
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(7) मोअतज़ बिल्लाह की मां भी कनीज़ थी जिसका नाम “नसखिद” था।
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(8) मेहदी बिल्लाह की मां भी एक रोमी कनीज़ थी
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(9) मोअतमद बिल्लाह की मां भी कनीज़ थी जिसका नाम “क़ीतान” था।
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(10) मुक़्तदर बिल्लाह की मां भी कनीज़ थी।
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(11) मुकतफी बिल्लाह की मां भी एक कनीज़ थी जिसका नाम “जहीक” था।
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(12) मुत्तकी बिल्लाह की मां भी कनीज़ थी।
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(13) काहिर बिल्लाह की मां भी रोमी कनीज़ थी जिसका नाम “ज़लूमा” था।
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(14) मुतीअ बिल्लाह की मां भी रोमी कनीज़ थी जिसका नाम “मशाल” था।
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(15) तआला बिल्लाह की मां भी एक कनीज़ थी जिसका नाम “अबीर” था।
(तबरी, जिल्द-4 पेज-797)
(16) क़ाएम बिल्लाह की मां भी एक रोमी कनीज़ थी जिसका नाम “बदरूलबहर” था।
(तबरी, जिल्द-4 पेज-797)
यह सब ख़ुलफा तक़रीबन यके बाद दीगरे गुज़रे हैं, सिर्फ मामून रशीद और क़ाएम बिल्लाह के दरमियान चार ख़ुलफा ऐसे गुज़रे हैं जिनका नाम इस फेहरिस्त में नहीं है क्योंकि माओं के मुतअल्लिक तारीख में कोई तफ़सील नहीं मिलती। बहरहाल इस फेहरिस्त से अन्दाज़ा होता है कि अहले इस्लाम की मुआशिरत व तमद्दुन में कनीज़ों का विकार आज़ाद औरतों से किसी तरह कम न था। मैंने अमदन सलातीने अब्बासिया की इस फेहरिस्त पर इकतेफ़ा की है वरना इस ज़िम्न में हज़रत इस्माईल (अ.स.) की वालिदा हज़रत हाजिरा, फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हज़रत इब्राहीम (अ.स.) की मां उम्मुल मोमेनीन मारिया क़िबतिया की मिसाल भी पेश की जा सकती है जिनकी कनीज़ी उनके शरफ़ व मंज़िलत और मरातिब की बुलन्दी पर क़तअन असर अन्दाज़ न हो सकी। बस इसी तरह जनाबे नरजिस खातून की अज़मत व फ़ज़ीलत पर उनकी कनीज़ी का कोई असर नहीं पड़ता। बल्कि वाक़िआत को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि अल्लाह की नज़र में आपका विकार और मर्तबा हज़रत मूसा (अ.स.) की मादरे गिरामी से कुछ कम न था।
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इमाम मेहदी (अ.स.)
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हज़रत आदम (अ.स.) की ख़िलक़त से क़ब्ल, अनवारे ख़म्सए मुक़द्दसा के साथ, दीगर अईम्मए ताहिरीन (अ.स.) की तरह आपका नूर भी खल्क हो चुका था। ज़ाहिरी तौर पर आप 15 शाबानुल मोअज़्ज़म सन 255 हिजरी शबे जुमा बवक़्ते सुबहे सादिक़़ आलमे वजूद में तशरीफ लाए। बाज़ ओलमा ने आपका सने विलादत सन् 256 हिजरी और मादए तारीख “नूर” बताया है।
आपकी विलादत ब-सआदत के बारे में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की फुफी जनाबे हकीमा खातून का बयान है कि मैं एक दिन हस्बे मामूल इमाम (अ.स.) के घर गयी तो उन्होंने फ़रमाया, ऐ फुफी! आप आज यहीं क़याम फ़रमाएं, इसलिए कि खुदावन्दे आलम नरजिस खातून के बतन से मुझे एक फ़रज़न्द अता करने वाला है। मैंने कहा, मैं तो नरजिस में कुछ भी हम्ल के आसार नहीं पाती। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, ऐ फुफी ! नरजिस का हाल मादरे मूसा (अ.स.) जैसा है, जिस तरह हज़रत मूसा (अ.स.) का हम्ल उनकी विलादत से क़ब्ल ज़ाहिर नहीं हुआ, उसी तरह मेरे इस फ़रज़न्द का हम्ल भी बवक्ते विलादत ज़ाहिर होगा।
जनाबे हकीमा खातून फ़रमाती हैं कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की ख़्वाहिश पर मैंने उस शब उन्हीं के घर में क़याम किया और आधी रात के बाद नमाज़े तहज्जुद में मशगूल हो गयी। नरजिस खातून भी उठीं और वज़ू करके वह भी नमाज़ के मुसल्ले पर बैठ गयीं। उन्हें ठीक ठाक देखकर मेरे दिल में यह ख्याल पैदा हुआ कि सहर का वक़्त क़रीब है और इमाम (अ.स.) ने जो फ़रमाया था वह अभी तक ज़ाहिर नहीं हुआ। इस ख्याल का पैदा होना था कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने अपने हुजरे से फ़रमाया, ऐ फुफी! मायूस होने की ज़रूरत नहीं है, हुज्जते खुदा के ज़हूर का वक़्त बहुत करीब है। इमाम (अ.स.) के इस कहने पर मैं नरजिस खातून के हुजरे की तरफ़ गयी। देखा कि उनका चेहरा मुतगय्यर है सारा जिस्म कांप रहा है। यह कैफियत देखकर मैं तेजी से आगे बढ़ी और उन्हें अपने सीने से लगा लिया नीज़ “कुल हो वल्लाह, इन्ना अन्ज़लना और आयतल कुर्सी” वग़ैरा पढ़ कर उन पर दम करने लगी। अभी चन्द लम्हें भी न गुज़रे थे कि मैंने देखा कि सारा घर रौशन व मुनव्वर है और एक मौलूद सजदए ख़ालिक़ में पड़ा है जिसके दाहिने बाज़ू पर जाअल हक्क़ु व ज़हेकुल बातिलु इन्नल बातिला काना ज़हूका मनकूश है, जिसका मतलब यह है कि “हक़ आया, बातिल गया और बातिल तो जाने ही वाला था।”
उसके बाद जनाबे हकीमा खातून फ़रमातीं हैं कि मैंने मौलूद को गोद में उठा लिया क्योंकि वह विलादत की तमाम तर आलाईशों से पाक व साफ था। इतने में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने अपने हुजरे से आवाज़ दी ऐ फुफी ! मेरे फ़रज़न्द को मेरे पास लाईए। मैं ले गयी। आपने उसे अपनी गोद में बैठाया। सर पर हाथ फेरा, पेशानी को बोसा दिया, दाहिने कान में अज़ान और बाएं कान में इक़ामत कही और अपनी ज़बान मौलूद के दहन में दे दी। जब वह सेर व सेराब हो चुका तो आपने फ़रमाया, कुछ पढ़ो। मौलूद ने बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम कहक़र र्कुआने मजीद की एक आयत पढ़ी जिसका उर्दू तर्जुमा यह है कि:-
“हम चाहते हैं कि ज़मीन पर जो लोग कमज़ोर हैं उन पर एहसान करें उन्हें पेशवा बनाएं, मालिक क़रार दें और उन्हें रूए ज़मीन पर पूरी कुदरत अता करें।” (सूरा कसस, आयत-5)
फिर मौलूद ने हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) पर दुरुद भेजा और कहा, मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है, मेरे नाना मुहम्मद (स.अ.) खुदा के रसूल (स.अ.) और दादा अली-ए-मुर्तजा (अ.स.) हुज्जते खुदा हैं।
उसके बाद जनाबे हकीमा खातून फ़रमातीं हैं कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) अभी मौलूद से महवे गुफ्तगू थे कि बहुत से ताएरों ने आसमान से उतर कर उन्हें घेर लिया। उन्होंने एक ताएर से फ़रमाया, इस बच्चे को ले जाओ और इसकी हिफ़ाज़त करो, यहां तक कि खुदा इसके बारे में कोई हुक्म दे। जब वह ताएर मौलूद को लेकर परवाज़ कर गया और जनाबे नरजिस ख़ातून को इस वाक़िए की ख़बर हुई तो मलूल व कबीदा ख़ातिर हुई, इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया, घबराओ नहीं, अनक़रीब तुम्हारा फ़रज़न्द तुम्हारे पास आयेगा और तुम्हारे दिल को राहत व शादमानी देगा। चुनांचे तीसरे दिन मैंने देखा कि सब्ज़ कपड़े से ढका हुआ बच्चा गहवारे में सो रहा है और उसके जिस्म से ऐसी खुशबू फूट रही है जिसका तसव्वुर जन्नत के गुलज़ारों में भी मुम्किन नहीं है। मैंने इमाम हसन अस्करी (अ.स.) से पूछा, जिस ताएर के सुपुर्द आपने मौलूद को किया था वह कौन था? फ़रमाया, वह जिबरईल (अ.स.) थे और उनके साथ दीगर ताएर मलाएका थे जो ख़ुदा की तरफ से पैग़ामे तहनियत लेकर आए थे।
नाम, कुन्नियत और अलक़ाब
आपका इसमे गिरामी “मुहम्मद (अ.स.)” है। ओलमा का बयान है कि आपका यह नाम खुद पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने अपने नाम की मुनासिबत से तजवीज़ फ़रमाया था। आपकी कुन्नियत “अबुलक़ासिम” और “अबु अब्दुल्लाह” है। आपके अलक़ाब मेहदी, हुज्जतुल्लाह, साहबुल अम्र, साहबुल अस्र वज़ ज़मान, अल क़ाएम, अल बाकी और अल मुन्तज़र हैं। “मुन्तज़र” का लकब आपकी विलादत से 1420 साल क़ब्ल हज़रत दानियाल (अ.स.) पैग़म्बर (स.अ.) ने तजवीज़ फ़रमाया था। आपका इस्मे मुबारक ज़बाने पर जारी करने की सख़्त मुमानियत है। चुनांचे हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) भी इस अम्र में लोगों को सख़्ती से मना फ़रमाते थे, जैसा कि उस्मान बिन सईद अमरी ने जब आपका नाम पूछा तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि इस मसअले में जुस्तुजू से परहेज़ करो।
हुलिया-ए-मुबारक
ओलमा का बयान है कि आपका रंग गंदुमी, कद मियाना, पेशानी चौड़ी और कुशादा, नाक बारीक व बुलन्द, आंखें बड़ी और अबरू घने और एक दूसरे से मिले हुए हैं। आपका चेहरा इन्तेहाई नूरानी हैं। रूख़्सार के दाहिनी तरफ़ एक तिल है जो सितारे की तरह चमकता रहता है। सीना कुशादा, शाने खुले हुए हैं जिन पर आपकी जुल्फें पड़ी रहतीं हैं। आपकी पुश्त पर मोहरे इमामत है जिस तरह हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) की पुश्त मुबारक पर मोहरे नबूव्वत थी। आपकी शक्ल व शबाहत, ख़साएल व शमाएल और अक़वाल व अफ़आल में हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के मुशाबेह हैं।
अल्लामा तबरसी फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) में बहुत से अमिबया के हालात व कैफ़ियात नज़र आते हैं। हज़रत नूह (अ.स.), हज़रत मूसा (अ.स.), हज़रत इब्राहीम (अ.स.), हज़रत ईसा (अ.स.), हज़रत अय्यूब (अ.स.), हज़रत यूनुस (अ.स.) और हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के सिफ़ात व कमालात से आपकी जात आरास्ता व पैरास्ता है। ग़ैबत के बाद हज़रत यूनुस (अ.स.) की तरह आपका ज़हूर होगा। यानी जिस तरह वह अपनी कौम की नज़रों से गाएब होकर ज़ईफ़ी के बावजूद नौजवान थे। इसी तरह वक्ते ज़हूर आपकी उम्र भी चालीस साल की होगी और हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) की तरह आप भी साहबुस सैफ़ होंगे।
मन्सबे इमामत
हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) ने पांच बरस की उम्र तक अपने वालिद इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के ज़ेरे साया रह कर उनकी सरगर्मियों का मोहतात दौर देखा और सन् 260 हिजरी में उनकी शहादत के बाद मन्सबे इमामत पर फाएज़ हुए। आपकी कम उम्री कोई तअज्जुब खेज़ मरहला नहीं है क्योंकि इमामतएक ग़ैर मामूली खुदाई अतिया है जिसे वह अपने मखसूस बन्दों में जिसे चाहता है अता करता है। और जो शख़्स इमामत की शराएत का हामिल होता है उसे उस मन्सबे जलीला पर सरफ़राज़ करता है बिल्कुल इसी तरह कि जिस तरह हज़रत यहिया (अ.स.) को बचपने में नबूव्वत अता हुई।
इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की ज़िम्मेदारियां
हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत के बाद इमाम हसन अस्करी (अ.स.) को उनके बारे में दो तरह की जिम्मेदारियों का सामना करना पड़ा। अव्वल यह कि उम्मते मुस्लिमा और अपने हामियों के दरमियान अपने बेटे के वजूद को साबित करना। चुनांचे आपने हुकूमते वक़्त की तरफ से मोहतात रह कर मुसलमानों, खास कर अपने मोअतके़दीन के दरमियान “वजूदे मेहदी” को साबित किया ताकि आईन्दा इस किस्म के मोहमल ख़यालात की नफ़ी की जा सके कि हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) का कोई वजूद ही न था या इमाम हसन अस्करी (अ.स.) का कोई बेटा न था। दूसरे यह कि अपने बेटे के बारे में हिफ़ाज़ती इक़दामात, क्योंकि हुकूमत आपको क़त्ल करने के लिए बहुत तगो-दू का मुज़ाहिरा कर रही थी। और इस सिलसिले में उसने अपने हुक्काम, अफ़सरान और जासूसों को पूरी तरह चौकन्ना कर दिया था क्योंकि हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) का वजूद उनकी नज़र में मौत का परवाना था जैसा कि हम तहरीर कर चुके हैं।
इन दोनों मक़ासिद के हुसूल और अपने फ़रज़न्द से मुतअल्लिक ज़िम्मेदारियों की अदाएगी के लिए इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के इख़्तेयार कर्दा मज़कूरा बाला मौकफ़ में मज़ीद मुश्किलात और पेचीदगियां हुकूमत की तरफ़ से आपकी मुसलसल निगरानी के सबब से थीं, क्योंकि मुसलमानों के एक बड़े तबके के काएद और हुकूमत मुख़ालिफ़ महाज़ की नुमाईयां शख़्सियत होने की हैसियत से आपके ऊपर हुकूमत की कड़ी नज़र थी।
इन हालात के पेशे नज़र इमाम हसन अस्करी (अ.स.) इस मुश्किल मरहले से कामयाबी के साथ गुज़रने के लिए यह मंसूबा बनाया कि हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत का एलान न किया जाए और ऐसा ज़ाहिर किया जाएगा कि गोया कुछ हुआ ही न हो।
अपने बेटे की विलादत को पोशीदा रखने में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की क़ामयाबी की एक वजह यह भी थी कि आपने अपने असहाब से बिल-मुशाफिह मिलना तर्क कर दिया था और फक़त ख़त व किताबत के ज़रिए राबिता रखते थे। दूसरी वजह यह थी कि आपके हामी आपके नुमाईन्दों के ज़रिए आपसे रवाबित रखने के तरीकों के आदी हो गए थे। मुख़्तसर यह कि आप अपने नूरे चश्म को हुक्कामे वक़्त के शर से महफूज़ रखने में कामयाब हुए। इमाम (अ.स.) हर उस शख़्स को जो आपके फ़रज़न्द की विलादत से आगाह हो, इस अम्र को मख़्फ़ी रखने का हुक्म देते थे। चुनांचे आपने अहमद बिन इस्हाक को एक ख़त में लिखा, मेरे फ़रज़न्द हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत हो चुकी है लेकिन यह ख़बर आम लोगों से मख़्फ़ी और तेरे दिल में पोशीदा रहे।
अपने वफादार साथियों के दरमियान हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत के बारे में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की तरफ से सबसे बड़ा एलान वह था जो आपने अपनी शहादत से चन्द दिन क़ब्ल किया था, और इस एलान के वक़्त आपकी महफिल में चालीस मुखलिस अफ़राद मौजूद थे। उनमें मुहम्मद बिन उस्मान, मुआविया बिन हकीम और मुहम्मद बिन अय्यूब वग़ैरा भी शामिल थे। आपने उस महफ़िल में अपने फ़रज़न्द का तआरूफ कराते हुए फ़रमाया:-
“यह मेरे बाद तुम्हारे इमाम (अ.स.) और मेरे जॉनशीन हैं। यह वही क़ाएम हैं जिनके इन्तेज़ार में लोग बेचैन हैं। जब ज़मीन जुल्म व जौर से भर जाएगी तो यह खुरूज करेंगे और उसे अदल व इन्साफ़ से भर देंगे।”
जाफ़र बिन अली की मुखबिरी
जाफ़र इमाम हसन अस्करी (अ.स.) का भाई, इमाम अली नक़ी (अ.स.) का बेटा था। जब वह जवान हुआ तो इस्लामी तालीमात से मुन्हरिफ होकर उसने लह्व व लअब, शराब नोशी और बेहयाई का रास्ता अपनाया। इमाम अली नक़ी (अ.स.) अपने असहाब को उससे दूर रहने की तलकीन फ़रमाते और उसके बारे में फ़रमाते कि यह मेरे लिए उसी तरह है जिस तरह हज़रत नूह (अ.स.) के लिए नमरूद था या उनका बेटा, जिसके लिए परवर दिगारे आलम ने फ़रमाया कि ऐ नूह (अ.स.)! इसका तअल्लुक तेरे घराने से नहीं है बल्कि यह बदकारी का एक नमूना है।
रिवायत से पता चलता है कि जाफ़र ने इमाम मेहदी (अ.स.) के ख़िलाफ़ तीन तरह के मुआनिदाना इक़दामात किए जो हस्बेज़ैल हैं:-
(अ) अपने भाई इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के बाद इमामत का दावा किया।
(ब) यह दावा भी किया कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) का कोई शरई वारिस नहीं है और वह खुद इमाम के तरके का हक़दार है।
(स) जब हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) ने अपने हक़ पर दलील क़ाएम की तो उसने हुक्काम को आपकी मौजूदगी का पता दिया। जिसके नतीजे में हुकूमत की तरफ से तशद्दुद, पकड़ धकड़ और वसीअ तलाश का सिलसिला शुरू हुआ और इस तरह इमाम (अ.स.) का खानवादा जुल्म व तशद्दुद का निशाना बना लेकिन उसके बावजूद अराकीने हुकूमत इमाम (अ.स.) की खोज लगाने में नाकाम रहे।
जब जाफ़र ने हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के खुफिया वजूद के बारे में ख़लीफ़ए वक़्त मोअतमिद बिल्लाह से मुख़बिरी की तो उसने फौरी तौर पर अपने तुन्दख़ू अफसरों और सिपाहियों को इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के घर की तलाशी का हुक्म दिया। इस हुक्म की बिना पर घर का कोना-कोना छान डाला गया लेकिन जब कुछ हासिल न हुआ तो मोअतमिद के आदमियों घर का साज़ व सामान लूटने का क़स्द किया। चुनांचे जब वह सामान लूटने में मसरूफ हुए तो हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) उनकी आंखों में धूल झोंक कर इस तरह बाहर निकल गए जैसे शबे हिजरत पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) कुफ्फारे मक्का के नरगे से निकलने में कामयाब हुए थे।
यह भी हो सकता है कि हुकूमत के अफ़सरों को खुद इस बात का इल्म न रहा हो कि वह किसे तलाश कर रहे हैं? क्योंकि इमाम (अ.स.) के बारे में उनका तसव्वुर मुबहम और ग़ैर यकीनी था इसलिए बईद नहीं कि लूट खसोट के दौरान उन्होंने बच्चे की मौजूदगी की तरफ कोई तवज्जो ही न दी हो और आप सुकून व इत्मीनान के साथ बाहर निकलने में कामयाब हो गए हों।
ग़रज़ कि घर का सारा सामान लूटने के बाद मोअतमिद के आदमियों ने अपनी कारकर्दगी को नुमायां करने के लिए इमाम (अ.स.) की मादरे गिरामी हज़रत नरजिस खातून को गिरफ़्तार कर लिया और मज़ीद तहकीकात के लिए आला अफसरों के पास भेज दिया ताकि वह उनसे उस बच्चे के बारे में मालूमात फ़राहम करें जिसकी निशानदेही जाफ़र ने की थी। चुनांचे जब नरजिस खातून से पूछा गया तो उन्होंने किसी बच्चे को जनम देने से इन्कार किया और इस बात पर साबित क़दम रहीं कि राज़ आशकार न होने पाए। उन्होंने हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की तरफ से हुकूमत की तवज्जो हटाने के लिए यह दावा भी किया कि वह हामिला हैं। इस इन्केशाफ़ ने हुक्मरान तबके़ के नज़रिए को तब्दील करके उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आप जिस हम्ल का दावा कर रहीं हैं कहीं वह वही मतलूबा बच्चा तो नहीं जिसकी तलाश में वह सरगदाँ और परेशान हैं? चुनांचे उन्होंने बच्चे की विलादत तक जनाबे नरजिस ख़ातून की निगरानी पर इक्तेफ़ा की ताकि विलादत के बाद उस बच्चे से निपटा जा सके। हालांकि अपने इस दावे की बदौलत जनाबे नरजिस खातून ने आलाम व मसाएब और मज़ालिम व तशद्दुद की मुख़्तलिफ़ शक्लें बर्दाश्त कीं। हुक्काम ने आपकी मुसलसल और सख़्त निगरानी शुरू कर दी और काज़ी इब्ने अबी शराब की ख्वातीन के साथ उनकी हिरासत में रखा। लेकिन जब हम्ल की मुद्दत जाने के बाद भी कोई नतीजा बरामद न हुआ और नरजिस ख़ातून दो गुज़र साल तक इसी आलम में मुकय्यद रहीं तो आख़िरकार मजबूर होकर उन्हें रिहा कर दिया गया। मुवर्रिख़ीन का बयान है कि इस कैद के दौरान आप पर मसाएब व आलाम का जो सिलसिला जारी रहा उसने आपके खद व खाल को इस तरह मुतअस्सिर किया था कि चेहरे में तब्दीली के आसार पैदा हो गए थे।
ग़ैबते सुग़रा
सन् 260 हिजरी में ग़ैबते सुगरा की इब्तेदा हुई और उसका सिलसिला सन् 326 हिजरी तक जारी रहा। लेकिन हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की इस ग़ैबत से मुराद यह नहीं कि आपने अपने हामियों और उनके मसाएल व मुश्किलात से दूरी इख़्तेयार कर ली थी। बल्कि हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के मफ़ादात और हालात के तकाज़ों के तहत एक बेमिस्ल रहनुमा की हैसियत से मुकम्मल तवज्जो के साथ उम्मत और अपने हामियों पर नज़र रखे हुए थे और फिक्री व अमली मैदानों में आपका राबिता उनके साथ बरक़रार था।
इमाम (अ.स.) अपने बाज़ बरगुज़िदा असहाब से बराहे रास्त मिलते थे और उन्हें इस अम्र की ताकीद भी फ़रमाते थे कि वह अपनी इस मुलाकात का हाल लोगों में बयान करें लेकिन उसके साथ ही इस बात का ख्याल भी रखें कि ऐसी कोई बात ज़बान पर न आए जिससे कि हुक्मरां तबके को आपका सुराग मिले। आप अपने काबिले एतमाद नुमाईन्दों के ज़रिए अपनी ख़िदमत में पहुंचने वाले मसाएल का जवाब देते और लोगों को मुतमईन करते थे।
आपके नुमाईन्दों के अलावा दीगर अफ़राद की रसाई आप तक मुम्किन न थी सिवाए उन लोगों के जिनके बारे में यह तय हो कि वह मुख़लिस और असरार की हिफाज़त करने वाले हैं। आप उन्हें यह हुक्म देते थे कि आपका असली नाम वह न लें बल्कि उसके बदले में क़ाएम, अल-अज़ीम, अल-हुज्जत और साहिबुज़ ज़मान वग़ैरा के लकब से याद करें। क्योंकि, अगर हुक्काम को नाम का इल्म होता तो वह इसकी तशहीर करते और अगर जगह का इल्म होता तो उसकी निशानदेही करते। इमाम के यके बाद दीगरे अपनी इक़ामतगाह को बदलते रहते थे लेकिन इसकी ख़बर किसी को न होती।
इमाम (अ.स.) की गिरफ्तारी हुकूमत के बड़े अहदाफ़ में शामिल थी क्योंकि हुक्काम की नज़रों में इमाम (अ.स.) का वजूद उनकी हुकूमत के लिए ख़तरनाक था इसलिए आपको गिरफ्तार करने के लिए कार्रवाईयों का सिलसिला शुरू किया गया और अब्बासी हुक्काम ने इस सिलसिले के ज़ैल में तीन मर्तबा दहशत आमेज़ कार्रवाईयां कीं और आपके घर पर छापे मार कर मुकम्मल तलाशी का हुक्म दिया।
तमाम हुक्काम की मुस्तकिल सियासत यह रही कि इमाम (अ.स.) की खुफिया इक़ामतगाह का पता लगाने और आपको गिरफ्तार करने के लिए मुसलसल जुस्तुजू और गैर मामूली एहतियात से काम लिया जाए। लेकिन 19 साल तक एक तरफ़ से आपके नुमाईन्दों की सरगर्मियों और दूसरी जानिब से हुकूमत की मुसलसल जुस्तजू आमेज़ कोशिशों के नतीजे में एक नई चीज़ सामने आई और वह यह कि इमाम (अ.स.) की सिफ़ारत व नियाबत का मसला खुलकर हुकूमत के सामने आया और यह बात वाज़ेह हो गयी कि इमाम (अ.स.) के नाएबीन खुफिया तौर पर इमाम (अ.स.) के लिए अमवाल जमा करने में मसरूफ़ हैं। इसके अलावा हुकूमत को इस बात का भी यकीन हो गया कि शियों की निगेहबानी और रहनुमाई करने वाली एक आगाह क़यादत भी मौजूद है। इस अहम और जदीद हक़ीक़त के पेशे नज़र ख़लीफ़ा मोअतज़िद तख़्ते खिलाफ़त पर बैठते ही इस नतीजे पर पहुंचा कि उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी इमाम (अ.स.) की गिरफ़्तारी के लिए फौरी तौर पर अज़ सर नौ छापों का सिलसिला शुरू करना है। चुनांचे हुकूमत के कारिन्दों और जासूसों ने एक मुकम्मल प्लान तैयार किया ताकि मोअतज़िद को इमाम (अ.स.) की इक़ामतगाह और आपके वहां मख़्फ़ी होने के बारे में बाख़बर कर सकें। इधर मोअतज़िद ने तीन अफराद को हुक्म दिया कि वह अलग-अलग सामरा का सफ़र करें। उसने एक मुहल्ला और घर की निशानदेही भी की और यह कहा कि इस घर पर छापा मारो और जो भी इस घर में मिले उसका सर लेकर मेरे पास हाज़िर हो जाओ।
मोअतज़िद ने इन तीनों अफ़राद को अस्ल मकसद से आगाह नहीं किया और यह नहीं बताया कि वह दर हक़ीक़त हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की गिरफ़्तारी पर मामूर हैं ताकि उसकी हुकूमत पर बदनामी का दाग़ न लगे और दूसरों को इसकी ख़बर न हो।
बहरहाल मोअतज़िद के हुक्म के मुताबिक कार्रवाई शुरू हुई। उन्होंने सामरा जाकर मतलूबा घर पर धावा बोला और उसका चप्पा-चप्पा छान मारा। हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) उसी घर में मौजूद थे मगर सरकारी कारिन्दे आपकी तरफ़ मुतवज्जे न हो सके। यह एक मोजिज़ा था। इस वाक़िए का ज़िक्र तफ़सील के साथ तारीख में हुआ है।
मोअतज़िद ने यह सोचा कि यह छापा सिपाहियों की कम तादाद और खुफिया होने की बिना पर नाकाम हुआ है। इसलिए उसने बड़े पैमाने पर हमले का मंसूबा तैयार किया। चुनांचे बिहारूल अनवार के मोअल्लिफ ने इस वाक़िए को यूं बयान किया है।
“इसके बाद मोअतज़िद ने सिपाहियों की एक बड़ी जमाअत रवाना की। जब वह घर में दाखिल हुए तो तहख़ाने से तिलावते र्कुआन की आवाज़ आ रही थी। वह तहख़ाने के दरवाजे पर जमा हो गए और पहरा देने लगे ताकि तहख़ाने के अन्दर कोई आने जाने न पाए। लश्कर का सरदार इस इन्तेज़ार में खडा रहा कि पूरा लश्कर पहुंच जाए। इसी दौरान इमाम (अ.स.) तहख़ाने से निकल कर बाहर आए और सिपाहियों के दरमियान से निकल गए जो दरवाज़े पर मौजूद थे। जब इमाम (अ.स.) उनकी नज़रों से ओझल हो गए तो सरदार ने सिपाहियों से कहा, तहख़ाने के अन्दर उतरो। सिपाही बोले क्या वह तुम्हारे सामने से नहीं गुज़रे? सरदार ने कहा, मैंने तो नहीं देखा लेकिन तुमने उन्हें क्यों छोड़ा? बोले, हम लोग यह समझे कि आपने उन्हें देखा है।
लुत्फ़ की बात यह है कि उन सिपाहियों ने इमाम (अ.स.) को पकड़ने के लिए कोई बरवक़्त इक़दाम न किया बल्कि उलटे दरवाज़े पर खड़े आपकी मुहाफ़िज़त करते रहें। इससे हम इमाम (अ.स.) के अन्दर बरवक़्त इक़दाम की सलाहियत, हुस्ने तदबीर और अलताफ़े इलाही के जलवों का मुशाहिदा करते हैं।”
ठोस अमली तंज़ीम
अहादीस और तारीख़ी हवालों के मजमूई मुतालए से मालूम होता है कि इमाम (अ.स.) अपने हामियों और पैरोकारों के साथ रवाबित के सिलसिले में एक ठोस अमली और तंज़ीमी ढांचे से इस्तेफादा फ़रमाते थे। हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) बजाते खुद इस तंज़ीम के सरबराह थे और अपनी सरगर्मियां खुफ़िया तरीके से अंजाम देते थे।
आप अपने नाएबीन के लिए बराहे रास्त अहकाम व फ़रामीन सादिर फ़रमाते थे और उन्हें अपनी तालीमात से नवाज़ते रहते थे। यह नाएबीन आपके और दूर दराज़ इलाकों में मुकीम दीगर नुमाईन्दों के दरमियान राबिता बरकरार रखने का ज़रिया थे। गोया यह मज़कूरा नाएबीन और इमाम (अ.स.) के हामी अवामी हलकों के दरमियान राबिते के लिए एक पुल की हैसियत रखते थे।
इमाम (अ.स.) किसी शख्स को अपना नाएब ख़ास मुकर्रर करते वक़्त उसके इख़्लास की गहराई, कूव्वते बर्दाश्त और साबित क़दमी को पेशे नज़र रखते थे ताकि वह हुक्काम के हाथों गिरफ़्तार होने की सूरत में साबित कदम रहे। यह शर्त नहीं थी कि आपका नाएब सिर्फ आलिम या फकीह हो क्योंकि नियाबत आपके हुक्काम को आगे पहुंचाने के लिए एक वसीले और ज़रिए का नाम था। इसीलिए इल्म व फ़क़ाहत के लिहाज़ से अफ़ज़ल अफ़राद की मौजूदगी के बावजूद यह ओहदा किसी मफज़ूल और कमतर दर्जे के हामिल शख़्स को देना दुरूस्त था बशर्ते यह कि उसमें इखलास और कूव्वते इरादी ज़्यादा हो।
एक मर्तबा बाज़ लोगों ने इस सिलसिले में “अबु सुहैल नौबख़्ती” से कहा कि क्या वजह है कि इमाम (अ.स.) की नियाबत शेख़ अबुल कासिम “हुसैन बिन रौह” को मिली और तुम्हें न मिली? नौबख़्ती ने कहा कि इमाम बेहतर जानते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए? मैं ऐसा शख़्स हूं कि मुख़ालेफ़ीन से रूबरू होकर उनसे बहस व मुबाहिसा करता हूं। अगर अबुल क़ासिम हुसैन बिन रौह की तरह मुझे यह इल्म होता कि इमाम (अ.स.) कहां हैं और हुकूमत मुझ पर दबाव डालती तो शायद मैं उसे आपका पता बता देता। लेकिन “अबुल क़ासिम” वह हस्ती हैं कि अगर हज़रत हुज्जत उनके दामन के नीचे पोशीदा हों तब भी वह आपके बारे में कुछ न बतायेंगे ख़्वाह उनके टुकड़े-टुकड़े क्यों न कर दिए जाएं।
इस तंज़ीम के अन्दर इमाम (अ.स.) के नाएबीने ख़ास की ज़िम्मेदारियों का दाएरा-ए-कार वसीअ और हमागीर था। लेकिन दीगर वकीलों और नुमाईन्दों का दाएरा-ए-कार अपने-अपने इलाकों तक महदूद था। उनकी ज़िम्मेदारी नाएबे ख़ास के उमूर में आसानी पैदा करना और उन्हें वुसअत देना थी, ख़ास कर उन हालात में जबकि खुफिया सरगर्मियों की राह में मौजूदा मुश्किलात की बिना पर आज़ादी के साथ जद्दो जहद नहीं हो सकती थी और न ही अवाम के दरमियान मौजूदा हामी अनासिर के साथ बराहे रास्त और आज़ाद रवाबित बरक़रार रखे जा सकते थे। मगर उसके साथ ही इमाम (अ.स.) के हामियों की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद तक आपकी तालीमात और हिदायात पहुंचाने के लिए उन नुमाईन्दों की सरगर्मियां सबसे ज़्यादा मोअस्सिर थीं। उन मुख़्तलिफ़ दर्जात व मदारिज पर मुश्तामिल तंज़ीमी ढांचे के अन्दर नुमाईन्दों की मौजूदगी के नज़रिए ने नाएबे ख़ास और उसके नाम को ख़ुफ़िया व पोशीदा रखने में अहम किरदार अदा किया। चुनांचे जो शख्स भी इमाम (अ.स.) के वफ़ादार हलकों से मुलहक़ होता वह आपके नुमाईन्दों में से सिर्फ किसी एक के साथ अपना राबिता बरकरार रख सकता था। उसे इमाम (अ.स.) के नाएबे ख़ास के नाम, उसके कामों और उसकी रिहाईशगाह का कोई इल्म न होता था।
लोगों के शरई वजूबात और अमवाल इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में पहुंचते थे जो अवलन सफ़ीरों और सानियन नुमाईन्दों के तवस्सुत से मुनासिब उमूर में ख़र्च होते थे। उन अमवाल का कुछ हिस्सा बराहे रास्त इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में पहुंचता था और कुछ हिस्सा आपके नाएबीने ख़ास इस्लामी अहकाम और उसूलों के मुताबिक अपनी सवाबदीद से मुनासिब उमूर में खर्च करते थे। नाएबीन इमाम (अ.स.) की एक ज़िम्मेदारी इमाम (अ.स.) और दीगर लोगों के दरमियान सवाल व जवाब के तबादले का काम अंजाम देना भी थी। उन सवालों में फिक़ह और अकाएद से मुतअल्लिक सवालात के अलावा इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में पेश होने वाले दीगर मसाएल भी शामिल थे।
नुव्वाबे अरबा
नुव्वाबे अरबा या सुफ़ारए अरबा से मुराद वह चार हस्तियां हैं जो ग़ैबते सुगरा के दौरान इमाम (अ.स.) के नाएबीने ख़ास की हैसियत से सरगर्मे अमल थीं। उन चारों हज़रात के नाम तारीख़ी तसलसुल व तरबियत के लिहाज़ से इस तरह हैं:-
(1) उस्मान बिन सईद उमरी
(2) मुहम्मद बिन उस्मान उमरी
(3) हुसैन बिन रौह नौबख़्ती
(4) अली बिन मुहम्मद समरी
इन चारों की ज़िन्दगी के बाद ग़ैबते सुगरा का दौर भी ख़त्म हुआ और ग़ैबते कुबरा का दौर शुरू हुआ। इन नाएबीन ने इमाम (अ.स.) की कयादत में आपके हामियों की फिक्री व अमली रहनुमाई, उनके दरमियान पैग़ाम रसानी, नीज़ आपके खुतूत पहुंचाने और शियों की मुश्किलात हल करने के सिलसिले में इन्तेहाई तनदेही और खुश उस्लूबी से अपनी ज़िम्मेदारियां अंजाम दीं। उनकी सरगर्मियां इस क़द्र पोशीदा और खुफिया थीं कि अब्बासी हुक्काम को उनकी भनक भी न मिलती थी। जिन असबाब के तहत उन नाएबीन ने मज़कूरा तरीके अपनाया वह उमूर दर्ज ज़ैल हो सकते हैंः
(अ) अलवियों से ख़ौफ़ की बिना पर हुकूमत का उनके सरदारों और बुजुर्गों की एक बड़ी जमाअत को जुल्म व तअद्दी का निशाना बनाना। मिसाल के लिए अलवियों की वह तादाद काफी है जो अब्बासी हुक्मरानों के हाथों तहे तेग़ हुई और जिसका तज़किरा अबुल फरह इस्फ़हानी ने मकातिलित तालिबीन में किया है। अल्लामा तूसी रक़म तराज़ हैं कि मोअतज़िद की तलवार ख़ून आशाम थी और उसका दौर जुल्म व जौर और खूंरेज़ी से इबारत था।
(ब) घुटन और बेचैनी का वह माहौल जिसका सामना इमाम (अ.स.) के हामियों और नाएबीने अरबा को करना पड़ा, हालत यहां तक पहुंची थी कि इमाम (अ.स.) के पहले नाएबे ख़ास “उस्मान बिन सईद” इमाम (अ.स.) के अमवाल को घी की मश्कों में छुपाकर मुन्तकिल किया करते थे। क्योंकि वह हुकूमत की सख़्तगीरी से वाक़िफ़ थे।
(स) इमाम (अ.स.) की गैर मामूली और मुसलसल तलाश, आपको गिरफ्तार करने के लिए अनथक जद्दो जहद और आपके घर पर मुसलसल व मुनज्ज़म छापे। ग़रज़ कि जब इमाम (अ.स.) के साथ हुकूमत का रवय्या यह था तो आपके मोअतकेदीन और हामियों की तो बात ही और थी।
इमाम (अ.स.) के नाएबीन उन अमवाल की वसूली और तकसीम में राबिते का काम अंजाम देते थे जो इमाम (अ.स.) के मोअतके़दीन मुख़्तलिफ़ इलाकों से आपकी ख़िदमत में इरसाल करते थे। उनके वफूद मुख़्तलिफ़ इलाकों से अमवाल और सवालात लेकर नाएबीन के पास पहुंचते और अमवाल को उनके हवाले करते। फिर अपने सवालात के जवाबात और मुश्किलात का हल दरयाफ़्त करके वापस जाते थे।
बाज़ रिवायतें बतातीं हैं कि ग़ैबत के इब्तेदाई बरसों में लोग अमवाल को सामरा ले जाते थे जहां उनको वसूल करके इमाम (अ.स.) तक पहुंचाने के लिए कोई ज़िम्मेदार फर्द मौजूद होता था और यह काम आपके नाएब की रहनुमाई में होता था। जैसा कि “अबू जाफ़र उमरी” और “दीनवर” के वाक़िआत से ज़ाहिर है। उसके बाद यह सिलसिला ख़त्म हो गया और नाएबीन खुद अमवाल को वसूल करके रसीदे देते रहे।
अमवाल की वसूली और तक़सीम का काम हुकूमत की नज़रों से छुपाकर अंजाम पाता था। उसका इज़हार बहुत ही कम मौकों पर होता था। आम तौर पर तक़सीम का काम तिजारत की शक्ल में होता था। मिसाल के तौर पर जिस शख़्स तक कोई माल पहुंचाना मकसूद होता उसको क़र्ज़ ख़्वाह ज़ाहिर किया जाता। इस तर्जे अमल का मकसद यह था की हुकूमत के शकूक में इज़ाफ़ा न होने पाए। चुगलखोरों के साथ मुख़्तलिफ़ मौकों पर इमाम (अ.स.) के नुमाईन्दे मुख़्तलिफ़ तरीकों से निपटते थे। मसलन एक बार अब्बासी वज़ीर अब्दुल्ला बिन सुलेमान को यह इत्तेला फराहम हुई कि इमाम मेहदी (अ.स.) के नुमाईन्दे बग़दाद और दीगर मकामात पर इमाम (अ.स.) के लिए काम कर रहे हैं। वज़ीर को मशविरा दिया गया कि वह हर नुमाईन्दे के पास अपना एक आदमी भेजे जो यह ज़ाहिर करे कि उसके पास इमाम (अ.स.) की ख़िदमत में भेजने के लिए कुछ माल मौजूद है। इस तरह जो नुमाईन्दा उस माल को वसूल करेगा वह रंगे हाथों गिरफ़्तार हो जाएगा। वज़ीर ने इस साज़िशी मशविरे को अमली जामा पहनाया लेकिन इससे क़ब्ल इमाम (अ.स.) की हिदायात आपके नुमाईन्दों को मिल चुकी थी। चुनांचे हर एक ने नुमाईन्दगी से बेतअल्लुकी का इज़हार किया और अंजान बन गया। इस तरह वज़ीर का मंसूबा नाकाम हो गया और कोई भी नुमाईन्दा हुक्काम के जाल में न फंस सका।
इमाम (अ.स.) के नाएबीने ख़ास की दीगर सरगर्मियों में मुश्किल मसाएल को हल करना और नज़रियाती बहसों में हिस्सा लेना भी शामिल था। उसका मकसद अपने हम मसलकों की रहनुमाई या ग़ैर इस्लामी नज़रियात और एतराज़ात को दलीलों से बातिल साबित कर के इस्लाम का दिफाअ करना था।
नाएबीने खुसूसी के अहदाफ़
इमाम मेहदी (अ.स.) की “नियाबत” के मुतालिए से दो मकासिद की निशानदेही होती हैः-
(1) ग़ैबते कुबरा के तसव्वुर को लोगों के ज़ेहनों में रासिख करना। ताकि अचानक ग़ैबते कुबरा के वाके़ हो जाने से इमाम (अ.स.) के हामियों और मोअतक़िदों को धचका न लगे। अगर क़ब्ल अज वक़्त तैयारियों के बगैर ग़ैबते कुबारा वाके़ होती तो शायद यह अम्र इमाम (अ.स.) के वजूद से इन्कार का बाएस होता। उन्हीं बातों के पेशे नज़र इमाम अली नक़ी (अ.स.) और इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने उम्मत की नज़रों से पोशीदा रहने की पॉलिसी अपनाई थी। इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने इस अमल में इजाफा किया, यानि ज़्यादा अर्से तक लोगों की नज़रों से पोशीदा रहे। इसी तरह इमाम मेहदी (अ.स.) ने भी बतदरीज इस अम्र में मजीद इज़ाफ़ा किया। आपकी खुसूसी नियाबत का ज़माना भी इस मरहलेदार और तदरीजी पॉलीसी की एक कड़ी था जिसका मक़सद लोगों के ज़ेहनों में आहिस्ता-आहिस्ता आमादगी की लहर पैदा करना था।
(2) नुमाईन्दों के ज़रिए इमाम (अ.स.) के हामियों की देखभाल और उनके दरमियान इरतेबात का काम लेना ताकि इमाम (अ.स.) की ग़ैबते कुबरा के बाद उनके मफादात महफूज़ रहें और उनके उमूर बदस्तूर चलते रहें।
आपके नाएबीने खुसूसी ने इस सिलसिले में अपनी ज़िम्मेदारियों को बड़ी खुबसूरती से निभाया, क्योंकि उन्होंने इमाम (अ.स.) के हामियों के मफ़ादात में इन्तेहाई जॉफ़िशानी से पेचीदा तरीन सियासी व समाजी माहौल में काम किया।
इमाम मेहदी (अ.स.) की खुसूसी नियाबत का सिलसिला 66 साल तक जारी रहा और यही ग़ैबते सुगरा का ज़माना है। इस पूरी मुददत में पहले नाएबे ख़ास “उस्मान बिन सईद “की मुददते नियाबत पांच साल, दूसरे नाएब “मुहम्मद बिन उस्मान” की मुददत चालीस साल, तीसरे नाएब “हुसैन बिन रौह” की इक्कीस साल और उनके बाद आख़िरी और चौथे नाएब “अली बिन मुहम्मद समरी” की मुददते नियाबत तीन साल की थी।
जब सन् 326 हिजरी में ग़ैबते सुगरा का दौर ख़त्म हुआ तो उस वक़्त इमाम मेहदी (अ.स.) की उम्र 74 साल की थी जिनमें पांच साल आपने अपने पिदरे बुजुर्गवार के साथ गुज़ारे और 66 साल ग़ैबते सुगरा में बसर हुए। उसके बाद ग़ैबते कुबरा का दौर शुरू हुआ और यह सिलसिला उस वक़्त तक जारी रहेगा जब तक खुदावन्दे आलम आपको जहूर व खुरूज की इजाज़त नहीं देगा।
जिस तरह हज़रत ईसा (अ.स.) चौथे आसमान पर, हज़रत इदरीस (अ.स.) जन्नत में, हज़रत खिज़्र (अ.स.) व इलयास (अ.स.) दरियाए रोम व फ़ारस के दरमियान पानी के क़स्र में इक़ामत पज़ीर हैं, उसी तरह इमाम मेहदी (अ.स.) जज़ीरए ख़िज़रा में अपनी औलाद व असहाब समेत क़याम फ़रमां हैं और वहीं से ब-एजाज़ तमाम काम अंजाम देते हैं और हर जगह पहुंचते रहते हैं। यह जजीरा दरियाए इन्दलिस के दरमियान वाके़ हैं और निहायत सरसब्ज़ व शादाब मक़ाम है। इन्दलिस वाले उसे “जज़ीरए रफ़्ज़ा” कहते हैं क्योंकि इसमें सारी आबादी शियों की है।
दरियाए इन्दलिस वह दरिया है जिसके मशरिक में चीन, मग़रिब में यमन, शुमाल में हिन्दुस्तान और जुनूब में दरियाए मुहीत वाके है। इस बहरे अबयज़ व अखज़र का तूल दो हज़ार फ़रसख और अरज़ पांच सौ फ़रसख है। इसमें बहुत से जज़ीरे आबाद हैं जिनमें एक सरान्दीप भी है। तबरसी का कहना है कि इमाम मेहदी (अ.स.) जिस मकान में रहते हैं उसे “बैतुल हम्द” कहते हैं।
ज़हूर की अलामतें
अरबाबे इस्मत के इरशादात के मुताबिक इमाम मेहदी (अ.स.) के ज़हूर से पहले जो बेशुमार अलामतें ज़ाहिर होंगी उनमें से चन्द का तज़किरा दर्जे जै़ल है:
(1) ओलमा गुमराह और कारियान र्कुआने फासिख होंगे।
(2) फुकहा फ़ितना परवर होंगे।
(3) दुनिया के एवज़ दीन को फरोख्त किया जाएगा।
(4) ख़ुदा और रसूल (स.अ.) के माल को माले ग़नीमत समझा जाएगा।
(5) सदका व ख़ैरात से नाजायज फाएदा उठाया जाएगा।
(6) शराब नोशी और क़त्ल व गारतगरी आम होगी।
(7) 15 शाबान को सूरज ग्रहण और उसी माह के आख़िर में चांद ग्रहण होगा।
(8) सूरज मशरिक के बजाए मग़रिब से निकलेगा।
(9) मक्के और मदीने के दरमियान “लुद” के मक़ाम पर ज़मीन धंस जाएगी।
(10) मशरिक़ से एक सितारा तुलू होगा जिसकी रौशनी मग़रिब तक होगी।
(11) आसमान पर एक सुर्ख़ी नमूदार होगी जो सूरज पर छा जाएगी।
(12) मशरिक से आग का एक शोला बुलन्द होगा जो मग़रिब तक फैलकर दुनिया को तहस नहस कर देगा।
(13) मिस्र पर अरबों का और खुरासान पर बनी किन्दा का परचम लहरायेगा।
(14) शाम तबाह व बर्बाद हो जाएगा।
(15) फुरात का पानी कूफ़े के बाज़ारों और गली कूचों में दाखिल होगा।
(16) साठ अफ़राद नबूव्वत का दावा करेंगे।
(17) बनी अब्बास का एक शख़्स हलूला के मक़ाम पर नज़रे आतिश किया जाएगा।
(18) आसमान से एक मुहीब आवाज़ आयेगी जिसे तमाम दुनिया के लोग सुनेंगे।
(19) चीटिंयों और टिड्डियों की कसरत होंगी।
(20) मस्जिदें आबाद मगर हिदायत याफ़्ता अफराद से ख़ाली होंगी।
(21) र्कुआन का सिर्फ़ नाम रह जाएगा।
(22) नसारा मुख़्तलिफ़़ ममालिक पर हुक्मरानी करेंगे।
(23) अबू सुफ़ियान की नस्ल से एक ज़ालिम शख़्स पैदा होगा जो अरब व शाम पर हुक्मरानी करेगा और सत्तर हजार सादात उसके हाथों क़त्ल होंगे।
(24) नसारा और मुसलमानों के दरमियान खूंरेज़ जंग होगी जिसमें नसारा ग़लबा हासिल करके मुसलमानों का कत्ले आम करेंगे।
(25) औरतें मर्दों के और मर्द औरतों के मुशाबेह होंगे।
(26) औरतें घोड़ों और साईकिलों पर सवारी करेंगी।
(27) ख़्वाहिशाते नफ़सानी की लोग पैरवी करेंगे।
(28) मुसलमानों में सूदखोरी आम होगी।
(29) झूठ को हलाल समझा जाएगा।
(30) ज़ुल्म करके लोग फ़ख़्र करेंगे।
(31) इग़लाम बाज़ी अपने शबाब पर होगी।
(32) तलाक़ का रिवाज आम होगा।
(33) झूठी गवाही कुबूल की जाएगी।
(34) मस्जिदे कूफा की दीवार तबाह कर दी जाएगी।
(35) सियाह आंधिया चलेंगीं।
(36) सारी दुनिया जुल्म व जौर से भर जाएगी।
(37) ज़लज़लों की कसरत होगी।
(38) अच्छाई और बुराई में कोई इम्तियाज़ न होगा।
(39) ख़ौफे खुदा लोगों के दिलों से निकल जाएगा।
(40) बदअहदी आम होगी।
(41) नक्श व निगार से मस्जिदों को मुज़य्यन करके उनके मीनारों को बुलन्द किया जाएगा।
(42) नमाज़ियों की कसरत होगी मगर उनके दिल खुलूस से आरी होंगे।
(43) अक़लमन्द बेवकूफ समझा जाएगा।
(44) जिनाकारी आम होगी।
(45) मर्द अपनी जौजा की कमाई खायेगा औरतों की दलाली करने वाले शरीफ़ और मोअजि़्ज़ज़ समझे जाएंगे और गुनाह के लिए पर्दा-ए-शब की ज़रूरत न होगी।
(46) औरतें मर्दों पर हुक्मरां होगी, रिश्वत खोरी का बाजार गर्म होगा और नज़्म व नस्ख की हालत अबतर होगी।
(47) रक़्स व नग़मे का जोर होगा और आलाते ग़िना से लोग दिल बहलायेंगे।
(48) दीन अन्धा कर दिया जाएगा और र्कुआन एक कुहना किताब समझी जाएगी।
(49) हज रियाकारी व मक्कारी पर मबनी होगा नीज़ बैतुल्लाह का एहतेराम उठ जाएगा।
(50) लोग इमाम (अ.स.) की नियाबत का दावा करेंगे।
(51) ज़िक्रे अहलेबैत (अ.स.) लोगों पर बार होगा।
(52) औलादें नाफ़रमान पैदा होंगी।
(53) काज़ी हुक्मे शरा के ख़िलाफ़ फैसले करेंगा।
(54) नाप-तोल में कमी लोगों का ज़रिया-ए-मआश होगी।
(55) लोगों की उम्र कलील और तमन्नाएं कसीर होंगी।
(56) शरपरसन्द और जराएम पेशा लोग हाकिम होंगे।
(57) लिबास पर फ़ख़्र व मुबाहात किया जाएगा।
(58) ओमरा शतरंज खेलेंगे।
(59) मालदार लोग फ़क़ीरों से दूर भांगेंगे।
(60) नाजाएज़ बच्चों की पैदाईश में कसरत होगी।
(61) हुकूमते शाम हमस, फिलिस्तीन, उर्दन और कंसरीन पर ग़ालिब आ जाएगी।
(62) मुख़्तलिफ़ मकामात पर ज़मीनें धंस जाएगी।
(63) मस्जिदों में आलाते सौत (लाउड स्पीकर वग़ैरा) नस्ब होगें और उसके ज़रिए अज़ान की आवाज़ें बुलन्द होंगी।
(64) यमन से “हसन” नामी एक बादशाह खुरूज करेगा।
(65) क़ज़वीन में एक काफ़िर की हुकूमत होगी और तकरीब से “औफ़ सलमा” नामी एक शख़्स खुरूज करेगा।
(66) करकिया में जंगे अज़ीम होगी जिसमें लाखों इन्सान मौत के घाट उतर जाएंगे।
(67) इस्लामी ममालिक पर नसारा का तसल्लुत होगा और बेशुमार कलीसे तामीर किए जाएंगे।
(68) औरतों के बाल ऊँट के कोहान की तरह उनके सरों पर होंगे।
(69) कुफ़्फ़ार के हाथों मुसलमानों का कत्ले आम होगा।
(70) तिब्बत की वजह से हिन्दुस्तान तबाह व बर्बाद होगा, तिब्बत की तबाही व बर्बादी चीन के हाथों होगी।
(71) दुनिया में हबशियों की हुकूमतें क़ाएम होंगी, मिस्र में अमीरूल ओमरा का क़याम होगा और अरबों की हुकूमत हो जाएगी।
(72) यतीमों और बेवाओं का माल खाने वालों की हम्द व सताईश होगी, वाएज़ और ख़तीब मिम्बरों पर तक़वा का ज़िक्र करेंगे लेकिन वह खुद अमल से बेगाना व बेबहरा होंगे।
शाने ज़हूर
अबू हुरैरा का बयान है कि आनहज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया:-
“इमाम मेहदी (अ.स.) एक करिया “करआ” से जो मदीने से मक्के की तरफ़ तीस मील की दूरी पर वाक़े होगा, बरामद होकर मक्का-ए-मोअज्ज़मा से ज़हूर करेंगें। उनके बदन पर मेरी ज़िरह होगी, सर पर मेरा अम्मामा होगा और कमर में मेरी तलवार होगी। बादल उन पर साया फ़िगन होगा और एक फ़रिश्ता आवाज़ देता होगा कि यही इमाम मेहदी (अ.स.) हैं। इनका इत्तेबा करो।”
एक रिवायत में है कि “जिबरीले अमीन” आपके नक़ीब होंगे और हवा उनकी आवाज़ को काएनात के गोशे गोशे में पहुंचा देगी जिसे सुनकर बा-ईमान लोग आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जाएंगे।
लुगाते सरवरी के मोअल्लिफ रक़म तराज़ हैं कि आप कसबा खैरवान नमूदार होंगे। सादिक़़ आले मुहम्मद (स.अ.) इमाम जाफ़रे सादिक़़ (अ.स.) का इरशाद है कि इमाम मेहदी (अ.स.) के ज़हूर के मुतअल्लिक किसी वक़्त का तअय्युन फ़िल हक़ीक़त अपने आपको इल्मे ग़ैब में ख़ुदा का शरीक क़रार देना है। वह अचानक मक्के में ज़हूर करेंगे। उनके सर पर ज़र्द रंग का अम्मामा होगा, हाथ में जुल्फ़िक़ार, बदन पर रिसालत मआब (स.अ.) की चादर और पांव में उन्हीं की नालैने मुबारक होगी। उनके साथ भेड़ों का एक गल्ला होगा ताकि कोई उन्हें पहचान न सके। इसी हालत में वह तने तन्हा ख़ान-ए-काबा में वारिद होंगे और जिस वक़्त सारी दुनिया पर शब की तारीकी मुहीत होगी और अहले आलम महवे ख़्वाब होंगे, उस वक़्त आसमान से मलाएका सफ़ बा-सफ़ उनकी ख़िदमत में हाज़िर होंगे। जिबरईले अमीन (अ.स.) व मीकाईल (अ.स.) मुज़दए इलाही सुनाएंगे और कहेंगे कि आपका हुक्म तमाम दुनिया पर जारी व सारी है। यह बशारत सुनकर इमाम (अ.स.) ख़ुदा का शुक्र अदा करेंगे और मक़ामे इब्राहीम (अ.स.) व हजरे असवद के दरमियान खड़े होकर निदा देंगे कि जो लोग मेरे बुजुर्गों और मेरे मख़्सूसीन से हैं और जिन्हें हक़ तआला ने मेरी मदद पर मामूर किया है, वह आ जाएं। यह निदा मग़रिब से मशरिक तक तमाम काएनात में गूंजेगी जिसे सुनकर चश्मे ज़दन में इमाम मेहदी (अ.स.) के गिर्द 313 अफ़राद जमा हो जाएगें जो नक़ीब कहलाएंगे। फिर एक नूर ज़मीन से आसमान तक बुलन्द होगा जिससे तमाम काएनात रौशन व मुनव्वर हो जाएगी। उसके बाद इमाम (अ.स.) अपने उन तीन सौ तेरह नासिरों को नमाज़ सुबह पढ़ायेंगे और नमाज़ से फ़रागत के बाद ख़ान-ए-काबा की दीवार से टेक लगा कर खड़े होंगे और अपना हाथ खोलेंगे जो मूसा (अ.स.) के यदे बैज़ा के मानिन्द होगा। नीज़ आप फ़रमाएंगे। कि जो इस हाथ पर बैअत करेगा गोया उसने “यदुल्लाह” पर बैअत की। सबसे पहले हज़रत ईसा (अ.स.) आसमान से उतर कर इमाम (अ.स.) की बैअत से मुशर्रफ होंगें। उनके बाद जिबरईल (अ.स.), मीकाईल (अ.स.) और दीगर मलाएका बैअत करेंगे। फिर वह 313 अफ़राद बैअत करेंगे जो आपके नक़ीब कहलाएंगे। यह तमाम वाक़िआत तुलूए आफ़ताब से पहले अंजाम पज़ीर होंगे। फिर जब सूरज उभरेगा तो आसमान से एक मुनादी निदा देगा कि ऐ गिरोहे ख़लाएक! यह इमाम मेहदी (अ.स.) हैं, इनकी बैअत करो। यह आवाज़ सुनकर दुनिया के हर गोशे से जूक़ दर जूक़ जो लोग ज़ियारत के लिए रवाना होंगे। उसके बाद सिर्फ अल्लाह का नाम होगा और इमाम (अ.स.) का काम। जो मुख़ालिफत करेगा उस पर आसमान से आग बरसेगी और जलाकर खाकिस्तर कर देगी।
ओलमा का बयान है कि आपकी हुकूमत में सत्तर वज़ीर होंगे जिनमें यूशा बिन नून, सलमाने फारसी, अबू दुजाना अन्सारी, मिकदाद बिन असवद, मालिके अशतर, असहाबे कहफ़ से सात और क़ौमे मूसा (अ.स.) के पन्द्रह अफ़राद शामिल होंगे।
अब्दुर्रहमान जामी का कहना है कि आप जानवरों की ज़बान से भी वाक़िफ़ होंगे। नीज़ आप इन्सानों और जिनों के दरमियान अदल व इन्साफ करेंगे। अल्लामा तबरसी का बयान है कि आप हज़रत दाऊद (अ.स.) के उसूल पर अहकाम जारी फ़रमाएंगे। अल्लामा हमूयनी का कहना है कि आपके जिस्म का साया न होगा।
अल्लामा शेख मुफीद, अल्लामा सय्यद अली, अल्लामा तबरिसी और अल्लामा शिबलिन्जी रक़म तराज़ हैं कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने इस अम्र की वज़ाहत फ़रमाई है कि आप “ताके सीना” में ज़हूर फ़रमाएंगे। जो 1,3,5,7 और 9 से मिलकर बनेगा। नीज़ आपका यौम “यौमे आशूरा” होगा। मुल्ला जव्वाद साबाती का कहना है कि इमाम मेहदी (अ.स.) बतारीख़ 10 मुहर्रमुल हराम, यौमे जुमा बवक़्ते सुबह सादिक़ ज़हूर फ़रमाएंगे। सादिक़ आले मुहम्मद (स.अ.) इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का इरशाद है कि इमाम मेहदी (अ.स.) का ज़हूर अस्र के वक़्त होगा।
यौमे विलादत से ता ब-ज़हूर आपकी उम्र कितनी होगी? खुदा ही बेहतर जानता है लेकिन यह अम्रे मुसल्लमा है कि जिस वक़्त आप ज़हूर फ़रमाएंगे उस वक़्त हज़रत ईसा (अ.स.) की तरह आपकी उम्र मुबारक बज़ाहिर चालीस साल की होगी।
आपके परचम पर “अल-बैअतुल्लाह” तहरीर होगा और आप अपने दस्ते मुबारक पर ख़ुदा के वास्ते बैअत करेंगे नीज़ तमाम काएनात में सिर्फ इस्लाम का परचम लहरायेगा।
ज़हूर के बाद
ज़हूर के बाद जब हज़रत ईसा (अ.स.), तमाम मलाएका, नीज़ वह 313 खुशनसीब अफ़राद (जो आपकी आवाज़ पर “लब्बैक ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.)” कहक़र हाज़िरे ख़िदमत हो चुके होंगे) आपके हाथ पर अल्लाह की बैअत कर चुकेगें तो ब-हुक्मे खुदा जिबरईल, ख़ानए काबा के सहन में एक “नूर” का मिम्बर नस्ब करेंगे जिस पर जलवा अफ़रोज़ होकर पैग़म्बर (स.अ.) के लहजे में आप खुतबा इरशाद फ़रमाएंगे और अहले ईमान को बैअते आम की दावत देंगे।
आपकी इस दावत पर दस हज़ार अफ़राद बैअत से सरफ़राज़ होंगे जिन्हें अपने हमराह लेकर आप ख़ान-ए-काबा से कूफ़े की तरफ इस अन्दाज़ से रवाना होंगे कि सर पर रसूल अल्लाह (स.अ.) का अम्मामा होगा, तन पर जिरह होगी, दाहिने हाथ में बरहना जुल्फ़िक़ार होगी और बाएं हाथ में मूसा (अ.स.) का असा होगा जो अजदहे का काम करेगा। ग़रज़ कि जब आप वारिदे कूफा होंगे तो कई हज़ार का एक गिरोह आपकी मुख़ालिफ़त में उठ खड़ा होगा और कहेगा कि हमें बनी फ़ातिमा की ज़रूरत नहीं है, आप वापस जाएं। अहले कूफा की इस मुख़ालिफ़त के नतीजे में जुल्फ़िक़ार को जुंबिश होगी और तमाम मुन्केरीन का किस्सा आने-वाहिद में पाक हो जाएगा। जब तमाम मुनाफ़िकीन और दुश्मनाने आले मुहम्मद (स.अ.) का ख़ातिमा हो जाएगा तो आप एक मिम्बर पर तशरीफ़ फ़रमा होकर वाक़िआते कर्बला बयान फ़रमाएंगे जिस पर इस क़द्र गिरया होगा कि ज़मीन व आसमान से रोने की आवाज़ें बुलन्द होंगी और मुसलसल कई घण्टों तक यह सिलसिला जारी रहेगा। फिर आप हुक्म देंगे कि मशहदे हुसैन (अ.स.) तक नहरे फुरात काट कर लाई जाए और एक मस्जिद तामीर की जाए जिसके एक हज़ार दर हों। चुनांचे आपके हुक्म की तामील होगी। उसके बाद आप अपने नाना हज़रत रसूले खुदा (स.अ.) की ज़ियारत के लिए मदीना-ए-मुनव्वरा तशरीफ़ ले जाएंगे। एक रिवायत में है कि आप जिस तरफ़ भी तशरीफ ले जाएंगे आपको देखकर ज़मीन अपने तमाम ख़ज़ाने उगल देगी।
शाह रफीउद्दीन रकम तराज़ हैं कि इमाम मेहदी (अ.स.) इल्मे लुदनी के मालिक होंगे। जब मक्के से आपका ज़हूर होगा और उसकी शोहरत अतराफ़ व अकनाफ़े आलम में फैलेगी तो अफ़वाजे मक्का व मदीना आपकी ख़िदमत में हाज़िर होंगी और शाम व इराक़ व यमन के औलिया व औसिया के साथ अरब की फ़ौजें जमा हो जाएंगीं तो आप उन तमाम लोगों में इस ख़ज़ाने को तकसीम करेंगे जो काबे से बरामद होगा। इसी असना में एक खुरासानी शख़्स एक अज़ीम लश्कर लेकर आपकी मदद को मक्के की तरफ पेश क़दमीं करेगा। रास्ते में उस खुरासानी लश्कर के कमांडर मंसूर से नसरानी फौज की टक्कर होगी और खुरासानी लश्कर नसरानी फ़ौज को पस्पा करके हज़रत की ख़िदमत में पहुंच जाएगा। उसके बाद एक सुफ़ियानी शख़्स जो बनी कल्ब से होगा, इमाम (अ.स.) से लड़ने के लिए एक अज़ीम लश्कर रवाना करेगा। लेकिन जब वह लश्कर मक्के के क़रीब पहुंचेगा और एक पहाड़ के दामन में ख़ैमाज़न होगा तो ब-हुक्मे ख़ुदा ज़मीन शक़ होकर उसे निगल लेगी। फिर वह सुफियानी नसारा से साज़बाज़ करके एक ज़बर्दस्त फौज फ़राहम करेगा जिसमें अस्सी निशान होंगे और हर निशान के बारह हज़ार अफ़राद होंगे। इस अज़ीम तरीन लश्कर का मरकज़ी मक़ाम शाम होगा।
हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) भी जब मदीना-ए-मुनव्वरा होते हुए दमिश्क पहुंचेगे तो सुफ़ियानी की कयादत में नसरानी फ़ौजें आपसे मुकाबिले के लिए सफ़ आरा होंगी। नतीजे में घमासान का रन पड़ेगा जिसमें लाखों नसरानी तहे तेग़ होंगे और इमाम (अ.स.) को फतेह कामिल होगी यहां तक कि एक नसरानी भी रूए ज़मीन पर बाकी नहीं रहेगा। उसके बाद इमाम (अ.स.) अपने लश्करियों को इनामात से नवाज़ेंगे और उन मुसलमानों को वापस बुला लेंगे जो नसरानी ताजदारों के जुल्म व जौर की वजह से शाम से हिजरत कर गए थे।
उसके बाद आप मक्का-ए-मोअज्जमा वापस तशरीफ़ ले जाएंगे और मस्जिदे सहला में क़याम फ़रमाएंगे। वहां अपने क़याम के दौरान आप मस्जिदुल हराम की अज़ सरे नौ तामीर करेंगे और तमाम बिदअतों का ख़ातिमा करके हर सुन्नत क़ाएम करेंगे। निज़ामे आलम दुरूस्त करेंगे और तमाम बड़े शहरों में फौजें रवाना करेंगे और इन्तेज़ामी उमूर की देखभाल के लिए वज़ीरों का तक़र्रुर फ़रमाएंगे।
उसके बाद आप तमाम मोमेनीन और क़ाफ़ेरीन को जिन्दा करेंगे। उसका मकसद यह होगा कि मोमेनीन आपकी ज़ियारत से शाद होंगे और काफेरीन व कातेलीन से बदला लिया जाएगा। उन ज़िन्दा किए जाने वालों में काबील से लेकर उम्मते मुहम्मदिया के फिरऔन तक शामिल होंगे। फिर उनके किए का पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा। जो जो मज़ालिम उन्होंने किए हैं उनका मज़ा चखेंगे और फिर मौत से हमकिनार होंगे। उन जालिमों में यजीद बिन मुआविया सबसे पहले गिरफ़्तार करके इमाम हुसैन (अ.स.) की ख़िदमत में पेश किया जाएगा जो इन्तेकाम के लिए ब-हुक्मे ख़ुदा तशरीफ़ ला चुके होंगे।
हज़रत ईसा (अ.स.) बिन मरियम का नुजूल
उन्हीं मज़कूरा हालात में एक दिन नमाज़ सुबह के वक़्त और बाज़ रिवायतों के मुताबिक नमाज़े अस्र के हंगाम हज़रत ईसा बिन मरियम (अ.स.) दो फरिश्तों के हमराह जामा मस्जिद के मशरिकी मिनारे पर नुजूल फ़रमाएंगे। वहां हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) उनका इस्तेकबाल करेंगे और उनसे फ़रमाएंगे कि आप नमाज़ पढ़ाएं। हज़रत ईसा (अ.स.) कहेंगेः ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) ! खुदा ने आपको बुलन्द तरीन मरातिब पर फाएज़ किया है लिहाज़ा नमाज़ की इमामत आप अंजाम दें। चुनांचे इमाम (अ.स.) हज़रत ईसा (अ.स.) के बिछाए हुए मुसल्ले पर खड़े होकर नमाज़ पढ़ाएंगे और हज़रत ईसा (अ.स.) आपके पीछे नमाज पढेंगे और आपकी तसदीक फ़रमाएंगे। उस वक़्त हज़रत ईसा (अ.स.) की उम्र चालीस साल की मालूम होगी। वह इस दुनिया में शादी करेंगे और उनकी दो औलादें होंगी जिनमें एक का नाम “अहमद” और दूसरे का “मूसा “होगा।
दज्जाल का खुरूज
“दज्जाल” लफ़्ज़ “दजल” से मुशतक है जिसके मानी झूठ बोलने वाले और फरेबकार के हैं। उसका अस्ल नाम “साएफ” बाप का नाम “साएद” और मां का नाम “काहता” उर्फ “क़ुतामा” था।
यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के दौर में मदीने से तीन मील की दूरी पर वाके “तैहा” नामीं एक गांव में बरोज़े चहार शम्बा बवक्ते गुरूबे आफ़ताब पैदा हुआ। पैदा होते ही इस क़द्र तेज़ी से बढ़ने लगा कि रात भर में तीन गज़ का हो गया और जब तीन साल का हुआ तो उसके कदो कामत से आसारे बलूगियत नुमायां होने लगे। उसकी दाहिनी आंख फूटी थी और बांईं आंख पेशानी के ऊपर चमक रही थी जिसकी पुतली पर “काफ़, फ़े और रे” तहरीर था नीज़ पेशानी पर सिरयानी रस्मुल ख़त में “अल-काफिर बिल्लाह” लिखा हुआ था।
दस साल की उम्र में शद्छाद और नमरूद की तरह उसने खुदाई का दावा किया। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) चूंकि उसके हालात पर नज़र रखे हुए थे इसलिए उन्होंने जनाबे सलमान फारसी और चन्द सहाबा को साथ लिया और दज्जाल के पास तबलीग़ की नियत से पहुंच गए। उसने आप पर हमला करना चाहा मगर सलमान फ़ारसी ने आगे बढ़कर उसे ज़ख़्मीं कर दिया।
जब उस बदबख़्त पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की तबलीग व हिदायत का कोई असर न हुआ और वह किसी तरह काबू में न आया तो सरकारे दो आलम (स.अ.) ने उसे उसके हाल पर छोड़कर मदीने की तरफ़ मराजियत फ़रमाई। लेकिन उसने पहाड़ के मानिन्द एक संगे गरां आपकी राह में हाएल कर दिया। यह देखकर हज़रत जिबरईल (अ.स.) आसमान से नाज़िल हुए और उन्होंने वह पत्थर हटा कर रास्ता साफ़ किया। अभी आप मदीने पहुंचे ही थे कि दज्जाल एक लश्करे अज़ीम लेकर आपसे मुकाबिले के लिए मदीने के क़रीब जा पहुंचा। जब आनहज़रत (स.अ.) को उन हालात से आगाही हुई तो आपने ख़ुदा की बारगाह में दुआ की कि परवरदिगार ! इसे जब तक ज़िन्दा रखना मकसूद हो उस वक़्त तक के लिए इसे कहीं कैद कर दे। दुआ कुबूल हुई, जिबरईले अमीन (अ.स.) आए और उन्होंने उसकी गुद्दी पकड़ कर उसे उठा लिया और जज़ीरए तबरिस्तान में ले जाकर कैद कर दिया।
मुवर्रिख़ीन का कहना है कि जिबरईले अमीन (अ.स.) जब उसे उठाकर ले जाने लगे तो उसने दोनों हाथ ज़मीन पर मार कर तहतुल सरा की दो मुट्ठी खाक उठा ली और उसे जज़ीरए तबरिस्तान में छिड़क दिया। कहा जाता है कि जब यह ख़ाक हुज़ूरे अकरम (स.अ.) की वफ़ात से 670 साल बाद तमाम आलम में फैल जाएगी तो उसी वक़्त से क़यामत के आसार ज़ाहिर होने लगेंगे। रिवायात से पता चलता है कि ज़हूरे हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के 18 दिन बाद दज्जाल खुरूज करेगा। ज़हूर से पहले तीन साल तक इतना शदीद क़हेत पड़ेगा कि सारी दुनिया मौत के दहाने पर पहुंच जाएगी लेकिन ज़हूर के बाद खूब बारिश होगी और तेज़ी के साथ सारे हालात सुधर जाएंगे। उसके बाद अचानक दज्जाल के खुरूज का गुलगुला उठेगा और वह हिन्दुस्तानी पहाड़ कोहे अबु क़बीस या हिमालिया की चोटी पर नमूदार होगा और वहां से आवाज़ देगा कि मैं ख़ुदा हूं, मेरी इताअत करो।
दज्जाल की यह आवाज़ मशरिक से मग़रिब तक तमाम दुनिया में सुनी जाएगी। फिर वह तीन दिन या ब-रिवायते चालीस दिन उसी पहाड़ पर मुकीम रहक़र एक अज़ीम लश्कर तैयार करेगा और लश्कर की तैयारी के बाद इस्फ़हान के एक गांव “यहूदिया” से खुरूज करेगा। जिन्न, देवज़ादों और शैतानों पर मुश्तामिल उसके लश्कर की तादाद सत्तर लाख होगी। वह एक गधे पर सवार होगा जिसका बालाई हिस्सा सुर्ख़ हाथ पांव सियाह और सुम सफेद होगा। उसके दोनों कानों के दरमियान चालीस गील का फासला होगा। वह 60 मील लम्बा और 21 मील ऊँचा होगा, नीज़ उसके क़दमों का फ़ासला एक मील का होगा। और खिलक़त कसीर बैठी होगी। उसके दाहिनी तरफ़ एक पहाड़ उसके साथ साथ चलेगा जिसमें नहरें, मेवेजात और हूरों की जगह खुबसूरत औरतें होंगी। नीज़ उसके बाईं तरफ़ भी एक पहाड़ होगा जिसमें साँप बिच्छू और मुख़्तलिफ़ किस्म के हशरातुल अर्ज़ भरे होंगे। वह लोगों को उन्हीं चीज़ों के ज़रिए बहकायेगा और कहेगा कि मैं ख़ुदा हूं जो मेरा हुक्म मानेगा और मेरी इताअत करेगा उसे जन्नत में रखूंगा और जो मेरे हुक्म से सरताबी करेगा उसे जहन्नुम में डाल दूंगा।
ग़रज़ कि चालीस दिन तक इसी हालत से दुनिया का चक्कर लगाने के बाद वह कूफ़े पहुंचेगा। इमाम मेहदी (अ.स.) भी अपने जॉनिसारों के साथ वहां पहुंच कर उससे बरसरे पैकार होंगे। घमासान की जंग होगी। आख़िरकार कूफ़े से शाम तक फैले हुए दज्जाल के लश्कर को इमाम (अ.स.) इस तरह तहे तेग़ करेंगे कि उनका वजूद ही सफ़हए हस्ती से ख़त्म हो जाएगा और दज्जाल भी इमाम (अ.स.) के हाथों से जुमे के दिन “लुद” के मुक़ाम पर मारा जाएगा।
मुवर्रिख़ीन का बयान है कि दज्जाल, उसके गधे और उसके लश्करियों का ख़ून दस मील तक कुर्रए अर्ज़ पर इस तरह फैलेगा जैसे कि उमंडता हुआ सैलाब लहरें लेता है। बाज़ रिवायात में है कि इमाम (अ.स.) के हुक्म से हज़रत ईसा (अ.स.) दज्जाल को क़त्ल करेंगे।
याजूज माजूज का खुरुज
याजूज माजूज हज़रत नूह (अ.स.) के बेटे “याफिस” की औलाद से हैं। यह दोनों चार सौ क़बीलों के सरदार व सरबराह हैं। उनकी तादाद का कोई अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। मखलूकात में मलाएका के बाद उन्हीं को कसरत हासिल है। उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जिसकी एक हज़ार औलादें न हों। उनकी तादाद तीन किस्मों पर मुश्तमिल है।
(1) वह जो ताड़ से भी ज़्यादा लम्बे हैं।
(2) वह जिनकी लम्बाई और चौड़ाई बराबर है। उनकी मिसाल एक तवीलुल कामत और मोटे ताज़े हाथी से दी जा सकती है।
(3) वह, जो अपना एक कान बिछाते हैं और दूसरा ओढ़ते हैं। उनके सामने पहाड़, पत्थर और लोहा वग़ैरा कोई चीज़ नहीं है। यह हज़रत नूह (अ.स.) के ज़माने में कुर्रए अर्ज़ के मक़ाम पर पैदा हुए जहां से पहले पहल सूरज तुलूअ हुआ था। यह लोग जब अपने मसकन से बाहर निकलते थे तो आस-पास की खेती बाड़ी, हाथी, घोड़ा, ऊँट और इन्सान ग़रज़ कि जो सामने होता उसे खा जाते थे। जब “सिकन्दर जुलकरनैन” अपने ज़मान-ए-इक़्तेदार में उस मक़ाम तक पहुंचे और वहां की मखलूक ने आपको सारे हालात से आगाह किया और उनसे दरख्वास्त की कि हमें इस बला से बचाईये तो उन्होंने दो पहाड़ों के दरमियान दो सौ गज़ ऊँची और साठ गज़ चौड़ी लोहे की दीवार तामीर करके उस रास्ते को बुलन्द कर दिया जिधर से यह अजीबुल ख़िलक़त मखलूक निकल कर बाहर आती थी। यही दीवार सद्दे सिकन्दरी कहलाती है। इसकी तामीर के बाद याजूज माजूज की ग़िज़ा सांप करार पाई जो आसमान से बरसते हैं। यह इमाम मेहदी (अ.स.) के ज़हूर तक उसी मक़ाम पर महसूर रहेंगे और ज़हूरे इमामे ज़माना (अ.स.) के बाद खुरूज करेंगे और सारी दुनिया में फैल जाएंगे। उस वक़्त लाखों जानें ज़़ाया होंगीं और दुनिया की कोई शय खाने पीने के काबिल न रहेगी। यह लोग इतने सरकश और जंगजू होंगे कि आसमान की तरफ़ तीर फेंक कर आसमानी मखलूक को मारने का हौसला करेंगे। उसी दौरान इमाम मेहदी (अ.स.) की दुआ से खुदावन्दे आलम एक बीमारी की शक्ल में उन पर अपना अज़ाब नाज़िल करेगा, जो रात भर में उनका काम तमाम कर देगा। फिर उनके मुर्दों को खाने के लिए “उनक़ा” नामी एक ताएर पैदा होगा जो ज़मीन को उनकी गंदगी से साफ़ करेगा।
आपका दौरे हुकूमत
इमाम मेहदी (अ.स.) की मुद्दते हुकूमत क्या होगी? इस अम्र में सख़्त इख़्तेलाफ़़ है। शेख मुफीद ने इरशाद के पेज 533 पर 7 साल और पेज 537 पर 19 साल तहरीर फ़रमाया है। आलामुल वुरा के पेज 365 पर 19 साल है। मिशकात में 8 और 6 साल हैं जबकि अहादीस और ओलमा से इस्तेम्बात के बाद शेख सुलेमान कंदूज़ी ने यनाबिउल मुवद्दत के पेज 433 पर 20 साल मरकूम किया जो मेरे नज़दीक ज़्यादा क़रीने क़यास है। अलबत्ता इस बीस साल की मुद्दत का एक साल दस साल के बराबर होगा।
मोअर्रिख़ीन का बयान है कि आपका दारूल हुकूमत “शहरे कूफ़ा” क़रार पाएगा। मक्के में आपका एक नाएब रहेगा। आपके अहकाम की नश्रगाह मस्जिदे कूफ़ा होगी। बैतुलमाल मस्जिदे सहला में होगा और आपका ख़लवत-कदा नज़फे अशरफ में होगा।
आपके अहदे हुकूमत में हर तरफ़ मुकम्मल अम्न व अमान होगा, किसी को किसी से कोई ख़तरा लाहक़ न होगा। भेड़, बकरी, गाय और शेर सब एक दूसरे से बेख़ौफ़ होकर एक घाट पर पानी पिएंगे। गुनाहगारों के इरतेकाब से लोग दामन कश हो जाएंगे। मज़लूमों के साथ इन्साफ होगा और जालिमों को उनके जुल्म की सज़ा दी जाएगी। इस्लाम के पैकर में एक नई रूह पैदा होगी, तमाम मज़ाहिब ख़त्म हो जाएंगे और पूरी दुनिया में इस्लाम का डंका बचेगा। ग़रज़ कि इमाम (अ.स.) अपने अदल व इन्साफ़ से दुनिया को उसी तरह भर देंगे जिस तरह कि वह जुल्म व जौर से लबरेज़ होगी।
हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के अहदे ज़हूर में क़यामत से पहले ज़िन्दा होने को “रजअत” कहते हैं। इसका मतलब यह है कि जहूरे इमाम (अ.स.) के बाद हज़रत रसूले खुदा (स.अ.), जुमला अईम्मए ताहिरीन (अ.स.) और उनके मुख़्लेसीन व मोमेनीन दुनिया में फिर पलट कर आएंगे और ज़ालिमीन व मुनाफे़कीन भी फिर ज़िन्दा किए जाएंगे। उसके बाद जालिमों को जुल्म का बदला और मज़लूमों को इन्तेक़ाम का मौक़ा दिया जाएगा। खुसूसी तौर पर इमाम हुसैन (अ.स.) का मुकम्मल बदला लिया जाएगा और उन्हें क़यामत में अज़ाबे अकबर से पहले रजअत के दौरान अज़ाबे असग़र का मज़ा चखना होगा। यानी जुल्फ़िेकार कर्बला के ज़ालिमों में से किसी को भी माफ़ नहीं करेगी। इमाम मेहदी (अ.स.) के अहद में जो लोग जिन्दा किए जाएंगे उनकी तादाद चार हज़ार होगी।
उसके बाद हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की मुद्दते हुकूमत ब-हुक्मे इलाही ख़त्म होगी और अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) निज़ामे काएनात पर हुक्मरां होंगे जिनकी तरफ र्कुआन मजीद में “दाब्बतुल अर्ज़” की सूरत में इशारा है। आपके दौर में शैतान मलऊन एक अज़ीम जंग के बाद रसूले अकरम (स.अ.) के हाथों नहरे फुरात पर क़त्ल होगा।
अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) की हुकूमत पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के ज़ेरे निगरानी होगी जिसका सिलसिला एक रिवायत के मुताबिक आठ हज़ार साल तक क़ाएम रहेगा। दीगर अईम्मए ताहिरीन (अ.स.) आपकी हुकूमत में वज़ीरों की हैसियत से तमाम दुनिया का इन्तेज़ाम व इन्सेराम फ़रमाएंगे और दौरे रिसालत की तरह इस्लाम की जवानी फिर पलट आयेगी।
मोअतबर रिवायत से पता चलता है कि काएनात पर आले मुहम्मद (स.अ.) की हुक्मरानी उस वक़्त तक क़ाएम रहेगी जब तक दुनिया के फ़ना होने में चालीस रोज़ बाकी रहेंगे।
इसका मतलब यह है कि यह चालीस दिन की मुद्दत से मुर्दों के निकलने, हथ व नश्र, हिसाब व किताब, सूर फूंकने और दीगर लवाज़िम क़यामते कुबरा के लिए होगी। उसी के साथ यह किताब ब-फ़ैज़े मुहम्मद व आले मुहम्मद (स.अ.) तमाम हुई।
वस्सलाम
फ़रोग़ काज़मीं
29 मुहर्रमुल हराम
सन् 1417 हिजरी
17 जून सन् 1996
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