क़ुरआने मजीद की क्या अहमियत है?

कुरआन मजीद
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अ. क़ुरआने मजीद ज़िन्दगी के मजमूई प्रोग्राम की ज़मानत देता है।

 

आ. क़ुरआने मजीद नबुव्वत की सनद है।

 

अ. क़ुरआने मजीद इंसानी ज़िन्दगी के मजमूई प्रोग्राम की ज़मानत देता है।

 

चुँकि दीने इस्लाम जो हर दूसरे दीन व मज़हब से बढ़ कर इंसानी ज़िन्दगी की सआदत और ख़ुशहाली की ज़मानत देता है, क़ुरआने मजीद के ज़रिये ही मुसलमानों तक पहुचा है। इसी तरह इस्लाम के दीनी उसूल जो ईमानी, ऐतेक़ादी, अख़लाक़ी और अमली क़वानीन की कड़ियाँ है, उन सब की बुनियाद क़ुरआने मजीद है। अल्लाह तआला फ़रमाता है: इसमें शक नही कि यह किताब क़ुरआने मजीद उस राह की हिदायत करता है जो सबसे ज़्यादा सीधी है। (सूरह बनी इसराईल आयत 9) और फिर फ़रमाता है: और हमने तुम पर किताब (क़ुरआने मजीद) नाज़िल की हर चीज़ को वाजे़ह तौर पर बयान करती है और उस पर रौशनी डालती है।

(सूरह नहल आयत 89)

 

पस वाज़ेह है कि क़ुरआने मजीद में दीनी अक़ाइद के उसूल, अख़लाक़ी फ़ज़ाइल और अमली क़वानीन का मजमूआ बहुत ज़्यादा आयात में बयान किया गया है कि उन आयतों को यहाँ दर्ज करने की ज़रुरत नही है।

 

दूसरा मुफ़स्सल बयान

 

मुनदरजा बाला चंद तफ़सीलात में ग़ौर करने के बाद इंसानी ज़िन्दगी के प्रोग्रामों पर मबनी जो क़ुरआने मजीद में लिखे हुए है, उनके हक़ीक़ी मअना को अच्छी तरह समझा जा सकता है।

 

1. इंसान अपनी ज़िन्दगी में कामयाबी, ख़ुशहाली और सआदत के अलावा और कोई मक़सद नही रखता। (ख़ुशहाली और सआदत ज़िन्दगी की एक ऐसी सूरत है कि इंसान हमेशा उस की ख़्वाहिश और आरज़ू रखता है जैसे आज़ादी, फ़लाह व बहबूद और ज़रिया ए मआश में ज़ियादती वग़ैरह)

 

और कभी कभी ऐसे अशख़ास नज़र आते हैं जो अपनी सआदत और ख़ुशहाली को नज़र अंदाज़ कर देते हैं जैसे बाज़ औक़ात एक शख़्स ख़ुदकुशी करके अपनी ज़िन्दगी को ख़त्म कर लेता है या ज़िन्दगी की दूसरी लज़्ज़तों को चश्मपोशी कर लेता है, अगर ऐसे लोगों की रूही हालत पर ग़ौर करें तो देखेगें कि यह लोग अपनी फिक्र और नज़रिये के मुताबिक़ ख़ास वुजूहात में ज़िन्दगी की सआदत को परखते और जाँचते हैं और उनही वुजूहात और अनासिर में सआदत समझते हैं। जैसे जो शख़्स ख़ुदकुशी करता है वह ज़िन्दगी की सख़्तियों और मुसीबतों की वजह से अपने आप को मौत के मुँह में तसव्वुर करते हैं और जो कोई ज़ोहद व रियाज़त में मशग़ूल हो कर ज़िन्दगी की लज़्ज़तों को अपने लिये हराम कर लेता है वह अपने नज़िरये और तरीक़े में ही ज़िन्दगी की सआदत को महसूस करता है।

 

पस हर इंसान अपनी ज़िन्दगी में सआदत और कामयाबी को हासिल करने के लिये जिद्दो जहद करता है ख़्वाह वह अपनी हक़ीक़ी सआदत की तशख़ीस में ठीक हो या ग़लत।

 

2. इंसानी ज़िन्दगी की जिद्दो जहद हरगिज़ प्रोग्राम के बग़ैर अमल में नही आती, यह बिल्कुल वाज़ेह और साफ़ मसला है और अगर किसी वक़्त यह मसला इंसान की नज़रों से छिपा रहता है तो वह बार बार की तकरार की वजह से है, क्योकि एक तरफ़ तो इंसान अपनी ख़्वाहिश और अपने इरादे के मुताबिक़ काम करता है और जब तक मौजूदा वुजूहात के मुताबिक़ किसी काम को ज़रुरी नही समझते उसको अंजाम नही देता यानी किसी काम को अपने अक़्ल व शुऊर के हुक्म से ही करता है और जब तक उसकी अक़्ल और उसका ज़मीर इस काम की इजाज़त नही देते, उस काम को शुरु नही करता, लेकिन दूसरी तरफ़ जिन कामों को अपने लिये अंजाम देता है उनसे मक़सद अपनी ज़रुरियात को पूरा करना होता है लिहाज़ा उसके किरदार व अफ़आल में ब राहे रास्त एक ताअल्लुक़ होता है।

 

खाना, पीना, सोना, जागना, उठना, बैठना, जाना, आना वग़ैरह सब काम एक ख़ास अंदाज़े और मौक़ा महल के मुताबिक़ अंजाम पाते हैं। कहीं यह काम ज़रुरी होते हैं और कहीं ग़ैर ज़रुरी। एक वक़्त में मुफ़ीद और दूसरे वक़्त में ज़रर रसाँ या ग़ैर मुफ़ीद। लिहाज़ा हर काम उस अक़्ल व फिक्र और इंसानी शुऊर के ज़रिये अंजाम पाते हैं जो आदमी में मौजूद है। इसी तरह हर छोटा और बड़ा काम उसी कुल्ली प्रोग्राम के मुताबिक़ करता है।

 

हर इंसान अपने इनफ़ेरादी कामों में एक मुल्क की मानिन्द है जिसके बाशिन्दे मख़्सूस क़वानीन, रस्मो रिवाज में ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और उस मुल्क की मुख़्तार और हाकिम ताक़तों का फ़र्ज़ है कि सबसे पहले अपने किरदार को उस मुल्क के बाशिन्दों के मुताबिक़ बनायें और फिर उनको नाफ़िज़ करें।

 

एक मुआशरे की समाजी सर गरमियाँ भी इनफ़ेरादी सर गरमियों की तरह होती हैं लिहाज़ा हमेशा की तरह एक तरह के क़वानीन, आदाब व रुसूम और उसूल जो अकसरियत के लिये क़ाबिले क़बूल हों, उस समाज में हाकिम होने चाहिये। वर्ना समाज के अजज़ा अफ़रा तफ़री और हरज व मरज के ज़रिये बहुत थोड़ी मुद्दत में दरहम बरहम हो जायेगें।

 

बहरहाल अगर समाज मज़हबी हो तो हुकूमत भी अहकामे मज़हब के मुताबिक़ होगी और अगर समाज ग़ैर मज़हबी और मुतमद्दिन होगा तो उस समाज की सारी सर गरमियाँ क़ानून के तहत होगीं। अगर समाज ग़ैर मज़हबी और ग़ैर मुतमद्दिन होगा तो उसके लिये मुतलक़ुल एनानऔर आमेराना हुकूमत ने जो क़ानून बना कर उस पर ठूँसा होगा या समाज में पैदा होने वाली रस्म व रिवाज और क़िस्म क़िस्म के अक़ाइद के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करेगा।

 

पस हर हाल में इंसान अपनी इनफ़ेरादी और समाजी सर गरमियों में एक ख़ास मक़सद रखने के लिये नागुज़ीर है लिहाज़ा अपने मक़सद को पाने के लिये मुनासिब तरीक़ा ए कार इख़्तियार करने और प्रोग्राम के मुताबिक़ काम करने से हरगिज़ बेनियाज़ नही हो सकता।

 

क़ुरआने मजीद भी इस नज़रिये की ताईद व तसदीक़ फ़रमाता है: तुम में से हर शख़्स के लिये एक ख़ास मक़सद है जिसके पेशे नज़र काम करते हो पस हमेशा अच्छे कामों में एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर कोशिश करो ता कि अपने आला मक़सद को हासिल कर सको।

(सूरह बक़रा आयत 148)

 

बुनियादी तौर पर क़ुरआने मजीद में दीन का मतलब तरीक़ा ए ज़िन्दगी है और मोमिन व काफ़िर हत्ता कि वह लोग जो ख़ालिक़ (ख़ुदावंद) के मुकम्मल तौर पर मुन्किर हैं वह भी दीन के बग़ैर नही रह सकते हैं क्योकि इंसानी ज़िन्दगी एक ख़ास तरीक़े के बग़ैर नही रह सकती ख़्वाह वह तरीक़ा नबुव्वत और वही की तरफ़ से हो या बनावटी और मसनुई क़ानून के मुताबिक़, अल्लाह तआला उन सितमगारों के बारे में जो ख़ुदाई दीन से दुश्मनी रखते हैं और किसी भी तबक़े से ताअल्लुक़ रखते हों फ़रमाता हैं:

 

जो ख़ुदा की राह से लोगों को हटाते और रोकते हैं और उसमें जो फ़ितरी ज़िन्दगी की राह है (ख़्वाह मख़ाह) उसको तोड़ मोड़ कर अपने लिये अपनाते हैं। (सूरह आराफ़ आयत 45)

 

 

3. ज़िन्दगी का बेहतरीन और हमेशगी तरीक़ वह है जिसकी तरफ़ इंसानी फ़ितरत रहनुमाई करे, न वह कि जो एक फ़र्द या समाज के अहसासात से पैदा हुआ हो। अगर फ़ितरत के हर एक ज़ुज़ का गहरा और बग़ौर मुतालआ करें तो मालूम होगा कि हर ज़ुज़ ज़िन्दगी का एक मक़सद और ग़रज़ व ग़ायत लिये हुए है जो अपनी पैदाईश से लेकर उस ख़ास मक़सद की तरफ़ मुतवज्जे है और अपने मक़सद को पाने के लिये नज़दीक तरीन और मुनासिब तरीन राह की तलाश में है, यह ज़ुज़ अपने अंदरुनी और बेरुनी ढाँचें में एक ख़ास साज़ व सामान से आरास्ता है जो उसके हक़ीक़ी मक़सूद और गुनागूँ सर गरमियों का सर चश्मा शुमार होता है। हर जानदार और बेजान चीज़ फ़ितरत की यही रवय्या और तरीक़ा कार फ़रमा है।

 

जैसे गेंहू का पौधा अपनी पैदाईश के पहले दिन से ही जब वह मिट्टी से अपनी सर सब्ज़ और हरी भरी पत्ती के साथ दाने से बाहर निकलता है तो वह (शुरु से ही) अपनी फ़ितरत की तरफ़ मुतवज्जे होता है यानी यह कि वह एक ऐसे पौधा है जिसके कई ख़ोशे हैं और अपनी फ़ितरी ताक़त के साथ उनसुरी अजज़ा को ज़मीन और हवा से ख़ास निस्बत से हासिल करता है और अपने वुजूद की हिस्सा बनाते हुए दिन ब दिन बढ़ता और फैलता रहता है और हर रोज़ अपनी हालत को बदलता रहता है। यहाँ तक कि एक कामिल पौधा बन जाता है जिसकी बहुत सी शाख़ें और ख़ोशे होते हैं फिर उस हालत को पहुच कर अपनी रफ़तार और तरक़्क़ी को रोक लेता है।

 

एक अख़रोट के पेड़ का भी ब ग़ौर मुतालआ करें तो मालूम होगा कि वह भी अपनी पैदाईश के दिन से लेकर एक ख़ास मक़सद और हदफ़ की तरफ़ मुतवज्जे है यानी यह कि वह एक अखरोट का पेड़ है जो तनू मंद और बड़ा है लिहाज़ा अपने मक़सद तक पहुचने के लिये अपने ख़ास और मुनासिब तरीक़े से ज़िन्दगी की राह को तय करता है और उसी तरह अपनी ज़रुरियाते ज़िन्दगी को पूरा करता हुआ अपने इंतेहाई मक़सद की तरफ़ बढ़ता रहता है। यह पेड़ गेंहू के पौधे का रास्ता इख़्तियार नही करता जैसा कि गेंहू का पौधा भी अपने मक़सद को हासिल करने में अख़रोट के पेड़ का रास्ता इख़्तियार नही करता।

 

तमाम कायनात और मख़लूक़ात जो इस ज़ाहिरी दुनिया को बनाती है। उसी क़ानून के तहत अमल करती हैं और कोई वजह नही है कि इँसान इस क़ानून और क़ायदे से मुसतसना हो। (इंसान अपनी ज़िन्दगी में जो मक़सद और ग़रज़ व ग़ायत रखता हो उसकी सआदत उसी मक़सद को पाने के लिये है और वह अपने मुनासिब साज़ व सामान के साथ अपने हदफ़ तक पहुचने की तगो दौ में मसरुफ़ है।) बल्कि इंसानी ज़िन्दगी के साज़ व सामान की बेहतरीन दलील यह है कि वह भी दूसरी सारी कायनात की तरह एक ख़ास मक़सद रखता है जो उसकी ख़ुश बख़्ती और सआजत की ज़ामिन है और अपने पूरे वसायल और कोशिश के साथ इस राहे सआदत तक पहुचने की जिद्दो जहद करता है।

 

लिहाज़ा जो कुछ ऊपर अर्ज़ किया गया है वह ख़ास इंसानी फ़ितरत और आफ़रिनिशे जहान के बारे में है कि इंसान भी सी कायनात का एक अटूट अंग है। यही चीज़ इँसान को उसकी हक़ीक़ी सआदत की तरफ़ रहनुमाई करती है। इसी तरह सबसे अहम पायदार और मज़बूत क़वानीन जिन पर चलना ही इंसानी सआदत की ज़मानत है, इँसान की रहनुमाई करते हैं।

 

गुज़श्ता बहस की तसदीक़ में अल्लाह तआला फ़रमाता है:

 

हमारा परवरदिगार वह है जिसने हर चीज़ और हर मख़्लूक़ को एक ख़ास सूरत (फ़ितरत) अता फ़रमाई, फिर हर चीज़ को सआदत और ख़ास मक़सद की तरफ़ रहनुमाई की।

(सूरह ताहा आयत 50)

 

फिर फ़रमाता है:

वह ख़ुदा जिसने मख़्लूक़ के अजज़ा के जमा करके (दुनिया को) बनाया और वह ख़ुदा जिसने हर चीज़ का ख़ास अंदाज़ मुक़र्रर किया, फिर उसको हिदायत फ़रमाई। (सूरह आला आयत 2,3)

 

फिर फ़रमाता है:

क़सम अपने नफ़्स की और जिसने उसको पैदा किया और फिर उसने नफ़्स को बदकारी और परहेज़गारी का रास्ता बताया। जिस शख़्स ने अपने नफ़्स की अच्छी तरह परवरिश की, उसने निजात हासिल की और जिस शख़्स ने अपने नफ़्स को आलूदा किया वह तबाह व बर्बाद हो गया।

(सूरह शम्स आयत 7,10)

 

फ़िर ख़ुदा ए तआला फ़रमाता है: अपने (रुख़) आपको दीन पर उसतुवार कर, पूरी तवज्जो और तहे दिल से दीन को क़बूल कर, लेकिन ऐतेदाल पसंदी को अपनी पेशा बना और इफ़रात व तफ़रीत से परहेज़ कर, यही ख़ुदा की फ़ितरत है और ख़ुदा की फ़ितरत में तब्दीली पैदा नही होती। यही वह दीन है जो इंसानी ज़िन्दगी का इंतेज़ाम करने की ताक़त रखता है। (मज़बूत और बिल्कुल सीधा दीन है।) (सूरह रुम आयत 30)

 

फिर फ़रमाता है:

दीन और ज़िन्दगी का तरीक़ा ख़ुदा के सामने झुकने में ही है। उसके इरादे के सामने सरे तसलीम को ख़म करने है यानी उसकी कुदरत और फ़ितरत के सामने जो इंसान को एक ख़ास क़ानून की तरफ़ दावत देता है।

(सूरह आले इमरान आयत 19)

 

और दूसरी जगह फ़रमाता है:

जो कोई दीने इस्लाम के बग़ैर यानी ख़ुदा के इरादे के बग़ैर किसी और दीन की तरफ़ रुजू करे तो उसका वह दीन या तरीक़ा हरगिज़ क़ाबिले क़बूल नही होगा। (सूरह आले इमरान आयत 85)

 

मुनदरेजा बाला आयत और ऐसी ही दूसरी आयात जो इस मज़मून की मुनासेबत में नाज़िल हुई है उनका नतीजा यह है कि ख़ुदा ए तआला अपनी हर मख़लूक़ और मिन जुमला इंसान को एक ख़ास सआदत और फ़ितरी मक़सद की तरफ़ यानी अपनी फ़ितरत की तरफ़ रहनुमाई करता है और इंसानी ज़िन्दगी के लिये हक़ीक़ी और वाक़ई रास्ता वही है जिसकी तरफ़ उस (इंसान) की ख़ास फ़ितरत दावत करती है लिहाज़ा इंसान अपनी फ़रदी और समाजी ज़िन्दगी में क़वानीन पर कारबंद है क्यो कि एक हक़ीक़ी और फ़ितरी इंसान की तबीयत उसी की तरफ़ रहनुमाई करती है न कि ऐसे इंसानो को जो हवा व हवस और नफ़्से अम्मारा से आलूदा हों और अहसासात के सामने दस्त बस्ता असीर हों।

 

फ़ितरी दीन का तक़ाज़ा यह है कि इंसानी वुजूद का निज़ाम दरहम बरहम न होने पाए और हर एक (जुज़) को हक़ बखूबी अदा हो लिहाज़ा इंसानी वुज़ूद में जो मुख़्तलिफ़ और मुताज़ाद निज़ाम जैसे मुख़्तलिफ़ अहसासाती ताक़तें अल्लाह तआला ने बख़्शी हैं वह मुनज़्ज़म सूरत में मौजूद हैं, यह सब क़ुव्वतें एक हद तक दूसरे के लिये मुज़ाहिमत पैदा न करें, उनको अमल का इख़्तियार दिया गया है।

 

और आख़िर कार इंसान के अंदर अक़्ल की हुकूमत होनी चाहिये न कि ख़्वाहिशाते नफ़्सानी और अहसासात व जज़्बात का ग़लबा और समाज में इंसानों के हक़ व सलाग पर मबनी हुकूमत क़ायम हो न कि एक आमिर और ताक़तवर इंसान की ख़्वाहिशात और हवा व हवस के मुताबिक़ और नही अकसरियत अफ़राद की ख़्वाहिशात के मुताबिक़, अगरचे वह हुकूमत एक जमाअत या गिरोह की सलाह और हक़ीक़ी मसलहत के ख़िलाफ़ ही क्यो न हो।

 

मुनजरेजा बाला बहस से एक और नतीजा अख़्ज़ किया जा सकता है और वह यह है कि तशरीई (शरअन व क़ानूनन) लिहाज़ से हुकूमत सिर्फ़ अल्लाह की है और उसके बग़ैर हुकूमत किसी और की हक़ नही है।

 

सरवरी ज़ेबा फ़क़त उस ज़ाते बे हमता को है

हुक्म राँ है एक वही बाक़ी बुताने आज़री (इक़बाल)

 

कि फ़रायज़, क़वानीन, शरई क़वानीन बनाए या तअय्युन करे, क्योकि जैसा कि पहले बयान किया जा चुका है सिर्फ़ नही क़वानीन और क़वाइद इंसानी ज़िन्दगी के लिये मुफ़ीद हैं जो उसके लिये फ़ितरी तौर पर मुअय्यन किये गये हों यानी अंदरुनी या बेरुनी अनासिर व अवामिल और इलल इंसान को उन फ़रायज़ की अंजाम दही की दावत करें और उसको मजबूर करें जैसे उनके अंजाम देने में ख़ुदा का हुक्म शामिल हो क्यो कि जब हम कहते हैं कि ख़ुदा वंदे आलम इस काम को चाहता है तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने इस काम को अंजाम देने का तमाम शरायत और वुजूहात को पहले से पैदा किया हुआ है लेकिन कभी कभी यह वुजूहात और शरायत ऐसी होती हैं कि किसी चीज़ की जबरी पैदाईश की मुजिब और सबब बन जाती है जैसे रोज़ाना क़ुदरती हवादिस का वुजूद में आना और इस सूरत में ख़ुदाई इरादे को तकवीनी इरादा कहते हैं और कभी यह वुजुहात व शरायत इस क़िस्म की हैं कि इंसान अपने अमल को इख़्तियार और आज़ादी के साथ अंजाम देता है जैसे खाना, पीना वग़ैरह और इस सूरत में उस अमल को तशरीई इरादा कहते हैं। अल्लाह तआला अपने कलाम में कई जगह पर इरशाद फ़रमाता है:

 

ख़ुदा के सिवा कोई और हाकिम नही है और हुकूमत सिर्फ़ अल्लाह के वास्ते हैं।

(सूरह युसुफ़ आयत 40, 67)

 

इस तमहीद के वाज़ेह हो जाने के बाद जान लेना चाहिये कि क़ुरआने मजीद इन तीन तमहीदों के पेशे नज़र कि इंसान अपनी ज़िन्दगी में एक ख़ास मक़सद और ग़रज़ व ग़ायत रखता है। (यानी ज़िन्दगी की सआदत) जिसको अपनी पूरी ज़िन्दगी में हासिल करने के लिये जिद्दो जेहद और कोशिश करता है और यह कोशिश बग़ैर किसी प्रोग्राम के नतीजे में नही होगी। लिहाज़ा उस प्रोग्राम को भी ख़ुदा की किताबे फ़ितरत और आफ़रिनिश में ही पढ़ना चाहिये। दूसरे लफ़्ज़ों में उसको ख़ुदाई तालीम के ज़रिये ही सीखा जा सकता है।

 

क़ुरआने मजीद ने उन तमहीदों के पेशे नज़र इंसानी ज़िन्दगी के प्रोग्राम की बुनियाद इस तरह रखी है:

 

क़ुरआने मजीद ने अपने प्रोग्राम की बुनियाद ख़ुदा शिनासी पर रखी है और इसी तरह मा सिवलल्लाह से बेगानगी को शिनाख़्ते दीन की अव्वलीन बुनियाद क़रार दिया है।

 

इस तरह ख़ुदा को पहचनवाने के बाद मआद शिनासी (रोज़े क़यामत पर ऐतेक़ाद जिस दिन इंसान के अच्छे बुरे कामों का बदला और एवज़ दिया जायेगा।) का नतीजा हासिल होता है और उसको एक दूसरा उसूल बनाया। उसके बाद मआद शिनासी से पैयम्बर शिनासी का नतीजा हासिल किया, क्योकि अच्छे और बुरे कामों का बदला, वही और नबूवत के ज़रिये इताअत, गुनाह, नेक व बद कामों के बारे में पहले से बयान शुदा इत्तेला के बग़ैर नही दिया जा सकता, जिसके बारे में आईन्दा सफ़हात में रौशनी डालेगें।

 

इस मसले को भी एक अलग उसूल के ज़रिये बयान फ़रमाया, मुनजरजा बाला तीन उसूलों यानी मा सिवलल्लाहा की नफ़ी पर ईमान, नबूवत पर ऐतेक़ाद और मआद पर ईमान को दीने इस्लाम के उसूल में कहा है।

 

उसेक बाद दूसरे दर्जे पर अख़लाक़े पसंदीदा और नेक सिफ़ात जो पहले तीन उसूलों के मुनासिब हों और एक हक़ीक़त पसंद और बा ईमान इंसान को उन सिफ़ाते हमीदा से मुत्तसिफ़ और आरास्ता होना चाहिये, बयान फ़रमाया। फिर अमली क़वानीन जो दर अस्ल हक़ीक़ी सआदत के ज़ामिन और अख़लाक़े पसंदीदा को जन्म दे कर परवरिश देते हैं बल्कि उस से बढ़ कर हक़ व हक़ीक़त पर मबनी ऐतेकादात और बुनियादी उसूलों को तरक़्क़ी व नश व नुमा देते हैं, उनकी बुनियाद डाली और उसके बारे में वज़ाहत फ़रमाई।

 

क्योकि शख़्स जिन्सी मसायल या चोरी, ख़यानत, ख़ुर्द बुर्द और धोखे बाज़ी में हर चीज़ को जायज़ समझता है उससे किसी क़िस्म की पाकीज़गी ए नफ़्स जैसी सिफ़ात की हरगिज़ तवक़्क़ो नही रखी जा सकती या जो शख़्स माल व दौलत जमा करने का शायक़ और शेफ़ता है और लोगों के माली हुक़ूक़ और क़र्ज़ों की अदायगी की तरफ़ हरगिज़ तवज्जो नही करता। वह कभी सख़ावत की सिफ़त से मुत्तसिफ़ नही हो सकता या जो शख्स ख़ुदा तआला की इबादत नही करता और हफ़्तो बल्कि महीनों तक ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल रहता है वह कभी ख़ुदा और रोज़े क़यामत पर ईमान और ऐसे ही एक आबिद की सिफ़ात रखने से क़ासिर है।

 

पस पसंदीदा अख़लाक़, मुनासिब आमाल व अफ़आल के सिलसिले से ही ज़िन्दा रहते हैं। चुनाँचे पसंदीदा अख़लाक़, बुनियादी ऐतेक़ादात की निस्बत यही हालत रखते हैं जैसे जो शक़्स किब्र व गुरुर, ख़ुद ग़रज़ी और ख़ुद पसंदी के सिवा कुछ नही जानता तो उससे ख़ुदा पर ऐतेक़ाद और मक़ामे रुबूबियत के सामने ख़ुज़ू व ख़ुशू की तवक़्क़ो नही रखी जा सकती। जो शख़्स तमाम उम्र इंसाफ़ व मुरव्वत और रहम व शफ़क़त व मेहरबानी के मअना से बेखबर रहा है वह हरगिज़ रोज़े क़यामत सवाल व जवाब पर ईमान नही रख सकता।

 

ख़ुदा वंदे आलम, हक़्क़ानी ऐतेक़ादात और पसंदीदा अख़लाक़ के सिलसिले में ख़ुद ईमान और ऐतेक़ाद से वाबस्ता है, इस तरह फ़रमाता है:

 

ख़ुदा वंदे तआला पर पुख़्ता और पाक ईमान बढ़ता ही रहता है और अच्छे कामों को वह ख़ुद बुलंद फ़रमाता है यानी ऐतेकादात को ज़्यादा करने में मदद करता है।

(सूरह फ़ातिर आयत 10)

 

और ख़ुसूसन अमल पर ऐतेक़ाद के सिलसिले में अल्लाह तआला यूँ फ़रमाता है:

 

उसके बाद आख़िर कार जो लोग बुरे काम करते थे उनका काम यहाँ तक आ पहुचा कि ख़ुदा की आयतों को झुटलाते थे और उनके साथ मसख़रा पन करते थे।

(सूरह रुम आयत 10)

 

 

क़ुरआने मजीद हक़ीक़ी इस्लाम की बुनियादों को तीन हिस्सों में तक़सीम करता है

 

मुख़तसर यह कि क़ुरआने मजीद हक़ीक़ी इस्लाम की बुनियादों को कुल्ली तौर पर मुनजरता ज़ैल तीन हिस्सों में तक़सीम करता है:

 

1. इस्लामी उसूल व अक़ायद जिन में दीन के तीन उसूल शामिल हैं: यानी तौहीद, नबूवत और क़यामत और इस क़िस्म के दूसरे फ़रई अक़ायद जैसे लौह, कज़ा, क़दर, मलायका, अर्श, कुर्सी, आसमान व ज़मीन की पैदाईश वग़ैरह।

 

2. पसंदीदा अख़लाक़

 

3. शरई अहकाम और अमली क़वानीन जिनके मुतअल्लिक़ क़ुरआने मजीद ने कुल्ली तौर पर बयान फ़रमाया है और उनकी तफ़सीलात और ज़ुज़ईयात को पैग़म्बरे अकरम (स) ने बयानात या तौज़ीहात पर छोड़ दिया है और पैग़म्बरे अकरम (स) ने भी हदीसे सक़लैन के मुताबिक़ जिस पर तमाम इस्लामी फ़िरक़े मुत्तफ़िक़ हैं और मुसलसल उन अदाहीस को नक़्ल करते रहे हैं, अहले बैत (अ) को अपना जानशीन बनाया है।[1]

 

 

ब. क़ुरआने मजीद नबूवत की सनद है।

 

क़ुरआने मजीद चंद जगह वज़ाहत से बयान फ़रमाता है कि यह (क़ुरआन) ख़दा का कलाम है यानी यह किताब उनही मौजूदा अल्फ़ाज़ के साथ अल्लाह तआला की तरफ़ से नाज़िल हुई है और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी इनही अल्फ़ाज़ में इसको बयान फ़रमाया है।

 

इस मअना को साबित करने के लिये कि क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम है और किसी इंसान का कलाम नही, बार बार बहुत ज़्यादा आयाते शरीफ़ा में इस मौज़ू पर ज़ोर दिया गया है और क़ुरआने मजीद को हर लिहाज़ से एक मोजिज़ा कहा गया है जो इंसानी ताक़त और तवानाई से बहुत बरतर है।

 

जैसा कि ख़ुदा ए तआला इरशाद फ़रमाता है:

या कहते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने ख़ुद क़ुरआन को बना (घड़) कर उसे ख़ुदा से मंसूब कर दिया है, यही वजह है कि वह उस पर ईमान नही लाते। पस अगर वह ठीक कहते हैं तो उस (क़ुरआन) की तरह इबादत का नमूना लायें (बनायें)।

(सूरह तूर आयत 33, 34)

 

और फिर फ़रमाता है:

ऐ रसूल कह दो कि अगर (सारे जहान के) आदमी और जिन इस बात पर इकठ्ठे और मुत्तफ़िक़ हों कि क़ुरआन की मिस्ल ले आयें तो (नामुम्किन) उसके बराबर नही ला सकते अगरचे (उस कोशिश में) वह एक दूसरे की मदद भी करें।

(सूरह बनी इसराईल आयत 88)

 

और फिर फ़रमाता है:

क्या यह लोग कहते हैं कि उस शख़्स (तुम) ने उस (क़ुरआन) को अपनी तरफ़ से घड़ लिया है तो तुम उन से साफ़ साफ़ कह दो कि अगर तुम (अपने दावे में) सच्चे हो तो (ज़्यादा नही) ऐसी ही दस सूरतें अपनी तरफ़ से घड़ के ले आओ।

(सूरह हूद आयत 13)

 

और फिर फ़रमाता है:

आया यह लोग कहते हैं कि इस क़ुरआन को रसूल ने झूट मूठ बना कर ख़ुदा से मंसूब कर दिया है, पस ऐ रसूल उन से कह दो कि उसकी मानिन्द सिर्फ़ एक ही सूरह लिख कर ले आएँ।

(सूरह युनुस आयत 38)

 

और फिर (उन लोगों का) पैग़म्बरे अकरम (स) से मुक़ाबला करते हुए फ़रमाता है:

 

और जो चीज़ (क़ुरआन) हम ने अपने बंदे पर नाज़िल की है अगर तुम्हे उसमें शक व शुब्हा है तो ऐसे इंसान की तरह जो लिखा पढ़ा नही और जाहिलियत के माहौल में उस की नश व नुमा हुई है, इस तरह का एक क़ुरआनी सूरह लिख कर ले आओ।

(सूरह बक़रा आयत 23)

 

और फिर इख़्तिलाफ़ और तज़ाद न रखने के मुतअल्लिक़ बराबरी और मुक़ाबला करते हुए फ़रमाया है:

आया यह लोग कुरआन पर ग़ौर नही करते और अगर यह क़ुरआन ख़ुदा के अलावा किसी और की तरफ़ से नाज़िल हुआ होता तो उसमे बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ पाये जाते क्योकि इस दुनिया में हर चीज़ में तग़य्युर और तरक़्क़ी पज़ीरी के क़ानून में शामिल है और वह इख़्तिलाफ़ अजज़ा और अहवाल से मुबर्रा नही होती और अगर क़ुरआन इंसान का बनाया हुआ होता तो जैसा कि तेईस साल के अरसे में थोड़ा थोड़ा नाज़िल होता रहा तो यह क़ुरआन) इख़्तिलाफ़ात और तज़ादात से मुबर्रा नही हो सकता था और इस तरह हरगिज़ यकसाँ न होता।

(सूरह निसा आयत 82)

 

क़ुरआने मजीद जो इन फ़ैसला कुन और पुख़्ता अंदाज़ से ख़ुदा का कलाम होने का ऐलान और उसका सबूत फ़राहम करता है। अव्वल से लेकर आख़िर तक साफ़ तौर पर हज़रत मुहम्मद (स) का अपने रसूल और पैग़म्बर के तौर पर तआरुफ़ कराता है और इस तरह आँ हज़रत (स) के नबूवत की सनद लिखता है। इसी बेना पर कई बार ख़ुदा के कलाम में पैग़म्बरे अकरम को हुक्म दिया जाता है कि अपनी नबूवत व पैग़म्बरी के सबूत में ख़ुदा की शहादत यानी क़ुरआने मजीद की रौ से अपनी नबूवत का ऐलान करें:

ऐ नबी कह दें कि मेरे और तुम्हारे दरमियान, मेरी नबूवत और पैग़म्बरी के मुतअल्लिक़ ख़ुद ख़ुदा की शहादत काफ़ी है।

(सूरह रअद आयत 43)

 

एक और जगह (क़ुरआने मजीद) में ख़ुदा वंदे करीम की शहादत के अलावा फ़रिश्तों की शहादत भी है:

 

लेकिन ख़ुदा वंदे तआला ने जो चीज़ तुझ पर नाज़िल की है उसके मुतअल्लिक़ ख़ुद भी शहादत देता है और फ़रिश्ते भी शहादत देते हैं और सिर्फ़ ख़ुदा वंदे तआला की शहादत काफ़ी है।

(सूरह निसा आयत 166)

 


क़ुरआने मजीद की तालीम के मुतअल्लिक़

 

1. क़ुरआने मजीद एक आलमी किताब है।

 

2. क़ुरआने मजीद एक कामिल और मुकम्मल किताब है।

 

3. क़ुरआने मजीद ता अबद और हमेशा बाक़ी रहने वाली किताब है।

 

4. क़ुरआने मजीद अपना आप सुबूत है।

 

5. क़ुरआने मजीद दो पहलू रखता है, यानी ज़ाहिरी और बातिनी।

 

6. क़ुरआने मजीद क्यों ज़ाहिरी और बातिनी दो तरीक़ों से बयान हुआ है?

 

7. क़ुरआने मजीद के अहकाम मोहकम और मुतशाबेह हैं।

 

8. इस्लामी मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में मोहकम व मुतशाबेह के क्या मअना हैं।?

 

9. क़ुरआने के मोहकम व मुतशाबेह में अहले बैत के तरीक़े।

 

10. क़ुरआने मजीद में तावील व तंज़ील मौजूद हैं।

 

11. मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में तावील के मअना।

 

12. क़ुरआने मजीद की रू से तावील के हक़ीक़ी मअना क्या हैं?

 

13. क़ुरआने मजीद में नासिख़ व मंसूख़ मौजूद हैं।

 

14. क़ुरआने मजीद में जरय व इंतेबाक़।

 

15. क़ुरआने मजीद की तफ़सीर, उस की पैदाईश और तरक़्क़ी।

 

16. इल्में तफ़सीर और मुफ़स्सेरीन के तबक़ात।

 

17. शिया मुफ़स्सेरीन के तरीक़े और उन के तबक़े।

 

18. ख़ुद क़ुरआने मजीद किस क़िस्म की तफ़सीर को कबूल करता है।

 

19. नतीजा ए बहस

 

20. तफ़सीर का नमूना ख़ुद क़ुरआने मजीद की रू से ।

 

21. पैग़म्बर (स) के बयान और आईम्मा (अ) की नज़र में हुज्जीयत के मअना।

 

 

1. क़ुरआने मजीद एक आलमी किताब है।

 

क़ुरआने मजीद अपने मतालिब में उम्मतों में से एक ख़ास उम्मत जैसे उम्मते अरब या क़बीलों में एक ख़ास क़बीले या गिरोह यानी मुसलमानों से ही मुख़्तस नही है बल्कि क़ुरआने ग़ैर मुसलिम गिरोहों से भी इसी तरह बहस करता है जैसा कि मुसलमानों के हुक्म देता है। क़ुरआने मजीद अपने बहुत ज़्यादा ख़ुतबों में कुफ़्फ़ार, मुशरेकीन, अहले किताब, यहूदियों, ईसाईयों और बनी इसराईल के बारे में बहस करता है और इन गिरोहों में से हर के साथ ऐहतेजाज करते हुए उनको शिनाख़्ते हक़ीक़ी की तरफ़ दावत देता है। इस तरह क़ुरआने मजीद उन गिरोंहों में से हर गिरोह के साथ ऐहतेजाज करता है और उनको दावत देता है और अपने ख़िताब को उनके अरब होने पर मुख़्तस और महदूद नही करता। चुँनाचे मुश्रिकों और बुत परस्तो के बारे में फ़रमाता है:

 

पस अगर उन्होने तौबा कर ली और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी तो वह दीन में तुम्हारे भाई हैं।

(सूरह तौबा आयत 11)

 

और अहले किताब के बारे में यानी यहूदी, ईसाई और मजूसी जो अहले किताब में शुमार होते हैं। ऐ नबी कह दो कि अहले किताब ख़ुदा के कलाम की तरफ़ लौट आएँ कि हमारे और तुम्हारे दरमियान मसावी तौर पर क़बूल हो जाये। (मसावी तौर पर ख़ुदा के कलाम को क़बूल कर लें) और यह वह है कि ख़ुदा वंदे तआला के सिवा किसी और की परस्तिश न करें और न ही उसका शरीक़ क़रार दें और हम में से बाज़ लोग दूसरी चीज़ों को अपना ख़ुदा न बताएँ।

(सूरह आले इमरान आयत 64)

 

हम देखते हैं कि हरगिज़ यह नही फ़रमाया कि मुशरेकीने अरब तौबा कर लें और न ही फ़रमाया कि जो अहले किताब अरबी नस्ल से ताअल्लुक़ रखते हों।

 

हाँ तुलूए इस्लाम के आग़ाज़ में जब कि यह दावत ज़ज़ीरतुल अरब से बाहर नही फ़ैली थी तो फ़ितरी तौर पर क़ुरआनी ख़ुतबात उम्मते अरब ही से मंसूब किये जाते थे लेकिन हिजरत के छ: साल बाद जब यह दावत बर्रे अज़ीम अरब में फैल गई तो उस वक़्त यह ख़्याल बातिल हो गया।

 

उन आयात के अलावा दूसरी आयात भी हैं जो अवाम को दावते इस्लाम देती हैं जैसे आयते करीमा:

 

मुझ पर वही नाज़िल हुई है इसलिये कि तुम को नसीहत करुँ और डराऊँ उन लोगों को इस नसीहत और क़ुरआन पर ईमान रखते हैं।

(सूरह अनआम आयत 19)

 

यह क़ुरआन दुनिया वालों के लिये नसीहत और याद दहानी के अलावा और कोई चीज़ नही है।

(सूरह क़लम आयत 52) (सूरह साद आयत 87)

 

और आयते करीमा:

 

बेशक यह आयत बुज़ुर्ग तरीन आयात में से एक है जब कि इंसान को ख़ुदा से डराती है।

(सूरह मुदस्सिर आयत 35, 36)

 

तारीख़ी लिहाज़ से भी इस्लाम मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब मसलन बुत परस्तों, यहूदियों, ईसाईयों और ऐसे ही बाज़ दूसरी उम्मतों के अफ़राद मसलन सलमाने फ़ारसी, सुहैबे रूमी और बेलाले हबशी जैसी शख़्सीयतों के ज़रिये भी साबित हो चुका है।

 

2. क़ुरआने मजीद एक कामिल व मुकम्मल किताब है

क़ुरआने मजीद मुकम्मल और कामिल किताब है जो इंसानी मक़ासिद पर मुश्तमिल है और इस मक़सद को कामिल तरीन सूरत में बयान करता है क्योकि इंसानी मक़ासिद जो हक़ीक़त पसंदी से लबरेज़ हैं। मुकम्मल जहान बीनी और अख़लाक़ी उसूल और अमली क़वानीन को ब रुए कार लाने पर मुश्तमिल है जो जहान बीनी के लिये ज़रुरी और लाज़िमी है। अल्लाह तबारक व तआला इस की तारीफ़ में फ़रमाता है:

 

ऐतेक़ाद और ईमान की हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है और अमल में सिराते मुसतक़ीम की तरफ़।

(सूरह अहक़ाफ़ आयत 30)

फिर एक जगह तौरात और इंजील के ज़िक्र में फ़रमाता है:

 

हमने तुम पर बरहक़ किताब नाज़िल की कि जो (इससे पहले) इसके वक़्त में मौजूद है उसकी तसद़ीक़ करती है और उसकी निगहबान भी है और फिर क़ुरआने मजीद ने गुज़िश्ता पैग़म्बरों और अंबिया की शरीयतों से मुक़ाबला करते हुए फ़रमाया:

 

उस (मुहम्मद) ने तुम्हारे लिये दीन का वही तरीक़ा और रास्ता मुक़र्रर किया है जिस (पर चलने) का नूह को हुक्म दिया गया था और (ऐ रसूल) उसकी हमने तुम्हारे पास वही भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया गया।

(सूरह शूरा आयत 13)

और फिर जामे तौर पर फ़रमाता है:

 

हमने यह किताब आहिस्ता आहिस्ता और ब तदरीज तुम पर नाज़िल की और यह किताब हर चीज़ को बयान करती है।

(सूरह नहल आयत 89)

 

मुनदरजा बाला आयात की नतीजा यह है कि क़ुरआने मजीद दर अस्ल तमाम इलहामी और आसमानी किताबों के मक़ासिद पर मुश्तमल है बल्कि उन से ज़्यादा (मौज़ूआत इसमें आयें हैं।) और हक़ीक़त में हर वह चीज़ कि इंसान अपनी सआदत और ख़ुश क़िस्मती की राह तय करने में इस पर ईमान, ऐतेक़ाद और अमल करता है और इस चीज़ का मोहताज है। इस किताब में मुकम्मल और कामिल तौर पर बयान किया गया है।

 

3. क़ुरआने मजीद ता अबद और हमेशा बाक़ी रहने वाली किताब है।

गुज़िश्ता बाब में इस मौज़ू पर जो हमने बहस की है वह इस दावे को साबित करने के लिये काफ़ी है क्योकि वह बयान जो एक मक़सद और मतलब के बारे में मुकम्मल और मुतलक़ है। ऐतेबार और दुरुस्ती के लिहाज़ से एक ख़ास ज़माने में महदूद नही हो सकता और क़ुरआने मजीद अपने बयान को मुकम्मल और मुतलक़ जानता है और कमाल से बढ़ कर कोई और चीज़ नही हो सकती। अल्लाह तआला फ़रमाता है:

 

क़ुरआन एक क़ाते बयान है जो हक़ और बातिल को आपस में जुदा करता है और इसमें बेहूदा बात और यावा गोई हरगिज़ नही है।

(सूरह तारिक़ आयत 13, 14)

 

इसी तरह ईमानी और ऐतेक़ादी उलूम भी पाक हक़ीक़त और मुकम्मल वाक़ेईयत होते हैं और अख़लाक़ी उसूल और अमली क़वानीन जो ऊपर बयान किये गये हैं, उन ही मुस्तक़ित हक़ायक़ के नतीजे की पैदावार हैं और ऐसी चीज़ ज़माने गुज़रने के साथ साथ ना तो मिट सकती है और न ही मंसूख़ की जा सकती है।

 

अल्लाह तआला फ़रमाता हैं:

हमने क़ुरआने मजीद को हक़ (ठीक) नाज़िल किया और यह भी बिल्कुल हक़ (ठीक) नाज़िल हुआ है (अपने हुदूस व बक़ा में हक़ से अलग नही हुआ है।)

(सूरह बनी इसराईल आयत 105)

 

और फिर फ़रमाता है:

आया हक़ के अलावा (बग़ैर गुमराही और ज़लालत के सिवा कोई और चीज़ मौजूद है?( यानी हक़ को छोड़ने के बाद सिवाए गुमराही के और कुछ नही रहता।

(सूरह युनुस आयत 32)

 

एक और जगह अपने कलामे पाक में तफ़सील से फ़रमाता है:

 

हक़ीक़त में क़ुरआन बहुत ही अज़ीज़ किताब है जो तमाम अतराफ़ से महफ़ूज़ रखने वाली किताब है यानी हर ज़ुल्म और हमले को अपनी ताक़त से देफ़ा करती है बातिल न ही सामने और न ही पीछे से इस पर हमला कर सकता है यानी न इस वक़्त और न ही आईन्दा मंसूख़ होने वाली किताब नही है।

(सूरह सजदा आयत 42)

 

अलबत्ता अहकामे क़ुरआनी की हिदायत के बारे में बहुत सी बहसे की जा चुकी हैं और हो सकती हैं लेकिन इस मौज़ू से ख़ारिज हैं क्योकि यहाँ हमारा मक़सद सिर्फ़ मुसलमानों के सामने क़ुरआने मजीद की अहमियत और वक़अत को पहचनवाना है जैसा कि ख़ुद क़ुरआन (अपने बारे में) बयान फ़रमाता है।

 

4. क़ुरआने मजीद ख़ुद ही अपना सुबूत है।

क़ुरआने मजीद जो कि पुख़्ता कलाम है तमाम मामूली बातों का तरह अपने मअना से मुराद दरयाफ़्त करता है और हरगिज़ अपने बयान और सुबूत में मुबहम नही है ज़ाहिरी दलील की रू से भी क़ुरआने मजीद के तहतुल लफ़्ज़ी मअना उसके अरबी अल्फ़ाज़ से मुताबेक़त रखते हैं और क़ाबिले फ़हमाईश हैं लेकिन यह दावा कि ख़ुद क़ुरआन अपने सुबूत और बयान में मुबहम नही है इसका सुबूत यह है कि जो शख़्स भी लुग़ात से वाक़ेफ़ीयत रखता हो वह आयते करीमा के मअना और फ़िक़रात को आसानी से समझ सकता है। इसी तरह जैसा कि अरबी ज़बान और कलाम के मअना समझ लेता है इस के अलावा क़ुरआन में बहुत सी आयात देखने में आती हैं कि उन में एक ख़ास गिरोह और जमाअत मसलन बनी ईसराईल मोमिनीन, कुफ़्फ़ार और कभी आम इंसानों के ख़िताब करते हुए अपने बयानात और मक़ासिद को उनके सांमने रखता है (उन से मुख़ातिब होता है।[2]) या उन से अहतिजाज करता है और फ़ैसला कुन अँदाज़ में उन से कहता है कि अगर उन्हे किसी क़िस्म का शक व शुबहा की क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम नही है तो उस की मानिन्द (आयात) बना कर या लिख कर लायें। ज़ाहिर है कि वह अल्फ़ाज़ या कलाम जो आम इंसानों के लिये क़ाबिले फ़हम न होगा वह बे मअना है। इसी तरह इंसान ऐसी चीज़ या कलाम लाएँ जिसके मअना क़ाबिले फ़हमाईश न हो तो वह हरगिज़ क़ाबिले क़बूल नही हो सकता। इस के अलावा ख़ुदा वंदे तआला फ़रमाता हैं:

 

आया क़ुरआन में गौर नही करते और उसकी आयतों पर ग़ौर व ख़ौज़ नही करते या उनके दिलों पर ताले पड़े हुए हैं।

(सूरह मुहम्मद आयत 24)

 

और फिर फ़रमाया है:

भला यह क़ुरआन में ग़ौर क्यों नही करते। अगर यह ख़ुदा के सिवा और का (कलाम) होता तो इसमें (बहुत सा) इख़्तिलाफ़ पाते।

 

इन आयात की रू से तदब्बुर को जो कि फ़हम की ख़ासियत रखता है, कबूल करता है और इसी तरह यही तदब्बुर आयात में इख़्तिलाफ़ात जो इब्तेदाई और सतही तौर पर सामने आते हैं वज़ाहत से हल कर देता है और ज़ाहिर है कि उन आयात के मअना वाज़ेह न होते तो उनमें तदब्बुर और ग़ौर और इसी तरह ज़ाहिरी इख़्तिलाफ़ात ग़ौर व फिक्र के ज़रिये हल करने का सवाल ही पैदा न होता।

 

लेकिन क़ुरआन की ज़ाहिरी हुज्जत की नफ़ी के बारे में दलील बे मअना है क्योकि इस क़िस्म का कोई सुबूत फ़राहम नही होता। सिर्फ़ यह कि बाज़ लोगों ने कहा है कि क़ुरआने मजीद के मअना समझने के लिये फ़कत पैग़म्बरे अकरम (स) की अहादीस और बयानात या अहले बैत (अ) के बयानात की तरफ़ रुजू करना चाहे।

 

लेकिन यह बात भी क़ाबिल क़बूल नही क्योकि पैग़म्बर अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) के बयानात का सबूत तो क़ुरआन से हासिल करना चाहिये। बेना बर ईन कैसे ख़्याल किया जा सकता है कि क़ुरआने मजीद के सुबूत में उन अफ़राद के बयानात काफ़ी हों बल्कि रिसालत और इमामत को साबित करने के लिये क़ुरआने मजीद की तरफ़ रुजू करना चाहिये जो नबूवत की सनद है।

 

अलबत्ता जो कुछ और बयान किया गया है उसका मतलब यह नही पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) अहकामे शरीयत की तफ़सीलात और इस्लामी क़वानीन की जुज़ईयात बयान करने के ओहदा दार नही जो ज़ाहिरी तौर पर क़ुरआने मजीद से साबित नही होते। (जिन उमूर की वज़ाहत की ज़रुरत है।)

 

और इसी तरह यही अफ़राद क़ुरआन की तालीम देने वाले मुअल्लिम हैं जैसा कि मुनदरजा ज़ैल आयात से साबित होता है:

 

और हम ने तुझ पर ज़िक्र (क़ुरआन) नाज़िल किया है ता कि यह चीज़ जो तुझ पर नाज़िल की है (अहकाम) उसको लोगों के सामने बयान और वज़ाहत करो।

(सूरह नहल आयत 44)

 

जो चीज़ पैग़म्बरे अकरम (स) तुम्हारे लिये लाये हैं यानी जिस चीज़ का उन्होने हुक्म दिया है उसको मानो और कबूल करो और जिस चीज़ से उन्होने मना किया है उस से बाज़ रहो।

(सूरह हश्र आयत 7)

 

हम ने किसी भी पैग़म्बर को नही भेजा मगर इस लिये कि ख़ुदा के हुक्म की इताअत करें।

(सूरह निसा आयत 64)

 

ख़ुदा वह है जिस ने अनपढ़ (उम्मी) जमाअत में से एक पैग़म्बर को पैदा किया जो ख़ुदा की आयतों को उन के लिये तिलावत करता है और उन को पाक करता है और उनको किताब (क़ुरआन) और हिकमत (इल्म व दानिश) की तालीम देता है।

(सूरह जुमा आयत 2)

 

इन आयात के ब मुजिब पैग़म्बरे अकरम (स) शरीयत की तफ़सीलात और जुज़ईयात की वज़ाहत करते हैं और क़ुरआने मजीद के ख़ुदाई मुअल्लिम हैं और हदीसे मुतावातिरे सक़लैन के मुताबिक़ प़ैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) को ख़ुदा वंदे आलम ने मुख़्तलिफ़ ओहदों पर अपना नायब और जानशीन बनाया है। इस का मतलब यह भी नही कि दूसरे अफ़राद जिन्होने हक़ीक़ी मुअल्लिमों और उस्तादों से क़ुरआने मजीद के मआनी को सिखा है। क़ुरआने मजीद की आयतों के ज़ाहिरी मआनी को नही समझ सकते।

 

5. क़ुरआन ज़ाहिरी और बातिनी पहलू रखता है।

अल्लाह तआला अपने कलाम में फ़रमाता है:

सिर्फ़ ख़ुदा की इबादत व परस्तिश करो और उसके अलावा किसी चीज़ को इबादत में उसका शरीक न क़रार दो।

(सूरह निसा आयत 36)

 

ज़ाहिरी तौर पर इस आयत का मतलब मामूली बुतों की परस्तिश से मना करना है। चुनाचे फ़रमाता है:

नापाकियों से परहेज़ करो, जो बुत हैं। (बुत पलीद हैं और उनकी इबादत से परहेज़ करो।)

(सूरह हज आयत 30)

 

लेकिन ब ग़ौर मुतालआ और तजज़ीया व तहलील करने से मालूम होता है कि बुतों की पूजा इस लिये मना है कि उस का इंतेहाई मक़सद मा सिवलल्लाह के सामने अपनी सर झुकाना और ख़ुज़ू व ख़ुशू करना है और माबूद का बुत होना कोई ख़ुसुसियत नही रखता। जैसा कि अल्लाह तआला शैतान को उसकी इबादत कहते हुए फ़रमाता है:

 

आया मैने तुम्हे हुक्म नही दिया कि शैतान की परस्तिश न करो ऐ बनी आदम।

(सूरह यासीन आयत 60)

 

एक और तजज़ीया से मालूम होता है कि इताअत और फ़रमा बरदारी में ख़ुद इंसान और दूसरों (ग़ैरों) के दरमियान कोई फ़र्क़ नही है। जैसा कि मा सिवलल्लाह की इबादत और इताअत नही करनी चाहिये। ऐसे ही ख़ुदा ए तआला के मुक़ाबले में ख़्वाहिशाते नफ़्सानी की पैरवी भी नही करनी चाहिये जैसा कि खुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

 

आया तुम ने ऐसे शख़्स को देखा है कि (उसने) अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशात को अपना ख़ुदा बनाया हुआ है।

(सूरह जासिया आयत 23)

 

एक और ब ग़ौर तजज़ीए और मुतालए से मालूम होता है कि अल्लाह तआला के बग़ैर हरगिज़ किसी और चीज़ की तरफ़ तवज्जो ही नही करनी चाहिये ताकि ऐसा न हो कि ख़ुदा ए तआला से इंसान ग़ाफ़िल हो जाये क्योकि मा सिवलल्लाह की तरफ़ तवज्जो का मतलब उस चीज़ को मुस्तक़िल (ख़ुदा से अलग) जानना है और उसके सामने एक क़िस्म की नर्मी और ख़ुज़ू व ख़ुशू ज़ाहिर करना है और यही अम्र इबादत और परस्तिश की रुह या बुनियाद है। अल्लाह तबारक व तआला फ़रमाता है:

 

क़सम खाता हूँ हमने बहुत ज़्यादा जिनों और इंसानो को जहन्नम के लिये पैदा किया है। यहाँ तक फ़रमाता है। वह हमेशा ख़ुदा से ग़ाफ़िल है।

 

जैसा कि इस आयते करीमा से ज़ाहिर होता है व ला तुशरेकू बिहि शैय्या। सबसे पहले तो यह बात ज़हन में आती है कि बुतों की पूजा नही करना चाहिये लेकिन अगर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि इसका मतलब यह है कि इंसान ख़ुदा के फ़रमान के बग़ैर किसी और की परस्तिश और इबादत न करे और फिर अगर ज़्यादा ग़ौर व ख़ौज़ करें तो इस का मतलब यह होगा कि इंसान हत्ता कि अपनी मर्ज़ी से भी किसी की इताअत और पैरवी न करे। इससे और आगे बढ़े तो यह हासिल होगा कि ख़ुदा वंदे तआला से ग़फ़लत और मा सिवलल्लाह की तरफ़ तवज्जो हरगिज़ नही करनी चाहिये।

 

इसी तरह अव्वल तो एक आयत के सादा और इब्तेदाई मअना ज़ाहिर होते हैं फिर (उन पर ग़ौर करने से) वसी मअना नज़र आते हैं और उन वसी मअनो के अंदर दूसरे वसी मअना पोशीदा होते हैं जो पूरे क़ुरआन में जारी है और उन्ही मअनों में गौर व फिक्र के बाद पैग़म्बरे अकरम (स) की मशहूर व मारुफ़ हदीस, जो बहुत ज़्यादा अहादीस व तफ़सीर की किताबों में नक़्ल हुई है, के मअना वाज़ेह हो जाते हैं। यानी बेशक क़ुरआन के लिये ज़ाहिर भी हैं और बातिन भी और उसके बातिन के भी बातिन हैं जिन की तादाद सात तक हैं।

(तफ़सीरे साफ़ी मुक़द्दमा 8 और सफ़ीनतुल बिहार माद्दा ए ब त न)

 

लिहाज़ा जो कुछ ऊपर बयान किया गया है उससे मालूम होता है कि क़ुरआने मजीद का एक ज़ाहिरी पहलू है और एक बातिनी पहलू। यह दोनो पहलू कलाम (क़ुरआने मजीद) के मुताबिक़ और उससे मिलते हैं, सिवा ए इसके कि यह दोनो मअना तूल के लिहाज़ से हम मअना और हम मुराद हैं न ग़रज़ के लिहाज़, न तो लफ़्ज़ का ज़ाहिरी इरादा (पहलू) बातिन की नफ़ी करता है और न ही बातिन इरादा (पहलू) ज़ाहिरी पहलू का मानेअ होता है।

 

[1] . देखिये अबक़ात हदीसे सक़लैन, इस किताब में मज़कूरा हदीस को सैकड़ों बार ख़ास व आम तरीक़ों से नक़्ल किया गया है।

[2] . मिसाल के तौर पर बहुत सी आयते पेश की जा सकती हैं।


 

6. क़ुरआने मजीद ने क्यों दो तरीक़ों यानी ज़ाहिरी और बातिनी तौर पर बयान फ़रमाया है?

1. इंसान ने अपनी ज़िन्दगी में जो कि सिर्फ़ दुनियावी और आरेज़ी ज़िन्दगी है, अपनी हयात का ख़ैमा एक बुलबुले की तरह माद्दे (material) से उसका हमेशा वास्ता है।

 

उसके अँदरुनी और बेरुनी हवास भी माद्दे और माद्दियात (materialism) में मशग़ूल हैं और उसके अफ़कार भी महसूस मालूमात के पाबंद हैं। खाना, पीना, चलना, आराम करना और आख़िर कार उसकी ज़िन्दगी की सारी सरगर्मियाँ माद्दे के इर्द गिर्द घूमती रहती हैं और उसके अलावा कोई और फ़िक्र ही उसके ज़ेहन में नही आती।

 

और कभी कभी जबकि बाज़ मानवीयात को मसलन दोस्ती, दुश्मनी, बुलंद हिम्मती और आला ओहदा और ऐसे ही दूसरी चीज़ों का तसव्वुर करता है तो उन अकसर तसव्वुरात को सिर्फ़ माद्दी मेयार पर परखता और अंजाम देता है मसलन कामयाबी की मिठाई को खान्ड, शकर और मिठाई के साथ जज़्ब ए दोस्ती को मक़नातीस की कशिश के साथ और बुलंद हिम्मती को मकान और मक़ाम की बुलंदी के साथ या एक सितारे की बुलंदी से और मक़ाम व ओहदे को पहाड़ की बुलंदी के साथ तसव्वुर करता है।

 

बहरहाल अफ़कार और इफ़हाम, मानवीयात के मतालिब को हासिल करने की शक्ती में जो माद्दी दुनिया से बहुत बड़ी है, बहुत ही फ़र्क़ रखते हैं और उन के लिये कई मरहले हैं। फ़िक्र व शऊर, मानवीयात को तसव्वुर और महसूस करने की ताक़त और शक्ती नही रखते। एक और दूसरी फ़िक्र इससे ऊपर के मरहले की है। इसी तरह यहाँ कि इस फिक्र व फ़हम तक रसाई हो जाये जो वसी तरीन ग़ैर माद्दी मानवीयात को हासिल करने ताक़त रखता हो।

 

बहरहाल एक फ़हम की ताक़त मानवी मतालिब को समझने के लिये जिस क़दर भी ज़्यादा होगी। उसी निस्बत से उसकी दिलचस्बी माद्दी दुनिया और उसके धोके बाज़ मज़ाहिर की तरफ़ कमतर होगी और उसी तरह जितनी भी माद्दियात की तरफ़ दिलचस्बी कमतर होगी मानवी मतालिब को हासिल करने की ताक़त ज़्यादा हो जायेगी। इसी तरह इंसान अपनी इंसानी फ़ितरत के साथ सब के सब उन मतालिब को समझने की क़ाबेलियत रखते हैं और अगर अपनी क़ाबिलियत को ज़ाया न करें तो तरबीयत के क़ाबिल हैं।

 

2. ग़ुज़िश्ता बयानात से यह नतीजा हासिल होता है कि फ़हम व शुऊर के मुख़्तलिफ़ मराहिल की मालूमात को ख़ुद उस मरहले से कमतर नही लाया जा सकता वर्ना उसका नतीजा बिल्कुल बर अक्स होगा। ख़ुसूसन ऐसी मानवीयात जो माद्दे और जिस्म की सतह से बहुत बाला तर हैं अगर बे पर्दा और साफ़ साफ़ अवाम को बताई जायें जिन का फ़हम व शुऊर दर हक़ीक़त महसूसात से आगे नही बढ़ता तो इस (कोशिश) का मतलब और मक़सद बिल्कुल फ़ौत हो जायेगा। (यानी इसका कोई फ़ायदा नही होगा।)

 

हम यहाँ पर मज़हब और सनवीयत का ज़िक्र कर सकते हैं। जो शख़्स गहरे ग़ौर व फ़िक्र के साथ हिन्दी वेदाओं के उपानिशाद के हिस्से पर सोच विचार करे और उस हिस्से के अतराफ़ व जवानिब (इर्द गिर्द) के बयानात पर भी ग़ौर करे और उनको एक दूसरे के साथ मिला कर उसकी तफ़सीर करे तो मालूम होगा कि उसका मतलब और मक़सद भी तौहीद के सिवा और यकता परस्ती के अलावा कुछ नही है लेकिन बद क़िस्मती से चूँकि बे पर्दा और साफ़ साफ़ बयान हुआ है लिहाज़ा जब ख़ुदा ए वाहिद की तौहीद का नक़्शा जो उपानिशादों में पेश किया गया है उस पर आमयाना सतह पर अमल दर आमद होता है तो बुत परस्ती और मुख़्तलिफ़ ख़ुदाओं पर ऐतेराफ़ व ऐतेकाद के सिवा कुछ भी हासिल नही होता।

 

पस बहरहाल मा फ़ौकुल आदत और माद्दे के असरार को दुनिया वालों के सामने ब पर्दा बयान नही करना चाहिये बल्कि ऐसे बयानात पर्दे के अंदर बयान करने चाहियें।

 

3. जबकि दूसरे मज़ाहिब में बाज़ लोग दीन के फ़वायद से महरूम है मसलन औरत, हिन्दू, यहूदी, ईसाई मज़ाहिब में आम तौर पर मुक़द्दस किताबों के मआरिफ़ और तालिमात से महरूम है लेकिन इस्लाम किसी शख़्स या सिन्फ़ के भी मज़हबी फ़वायद से महरुमियत का क़ायल नही है बल्कि ख़ास व आम, मर्द व औरत, सियाह व सफ़ीद, सब के सब मज़हबी इम्तियाज़ात को हासिल कर में मुसावी और बराबर हैं, जैसा कि ख़ुदा वंदे क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

 

मैं किसी अमल करने के अमल को ज़ाया नही करता। तुम सब मर्द व औरत एक ही क़िस्म के हो।

(सूरह आले इमरान आयत 195)

 

ऐ इंसानों, हम ने तुम्हे मर्द व औरत की शक्ल में पैदा किया है और फिर तुम्हे छोटे बड़े गिरोहों और क़बीलों में तक़सीम कर दिया है ताकि एक दूसरे को पहचानों, पस जो शख़्स तुम में से परहेज़ गार होगा ख़ुदा के नज़दीक सब से अज़ीज़ होगा।

(सूरह हुजरात आयत 13)

 

इस मुक़द्दमे को बयान करने के बाद हम यह कहते है कि क़ुरआने मजीद ने अपनी तालिमात मे सिर्फ़ इंसानियत को मद्दे नज़र रखा है, यानी हर इंसान को इस लिहाज़ से कि वह इंसान है क़ाबिले तरबीयत और क़ाबिले तरक़्क़ी समझा है, लिहाज़ा अपनी तालिमात को इंसानी दुनिया में आम और वसी रखा है।

 

चूँकि मानवीयात को समझने के लिये ज़हनों में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ है और जैसा कि ज़ाहिर है कि मआरिफ़े आलिया की तफ़सीर ख़तरे से ख़ाली नही है इसी लिये क़ुरआने मजीद ने अपनी तालिमात को सादा तरीन तरीक़े से जो आम फ़हम है और सादा व आम ज़बान में अवाम तक पहुचा है और बहुत सी सादा ज़बान में बात कही है।

 

अलबत्ता इस तरीक़े का नतीजा यह होगा कि मआरिफ़े आलिया मानवी सादा और आम ज़बान में बयान हो और अल्फ़ाज़ के ज़ाहिरी मअना और फ़रायज़ वाज़ेह तौर पर महसूस हों और मानवीयात ज़वाहिर के पीछे छुपे हुए हों और पर्दे के पीछे आम फ़हम हों और इसी तरह हर शख़्स अपने शुऊर व फ़हम और अक़्ल के मुताबिक़ उन मानवीयात के मअना से मुस्तफ़ीज़ हों। अल्लाह तआला अपने कलाम में फ़रमाता हैं:

 

बेशक हमने इस क़ुरआन को अरबी ज़बान में नाज़िल किया है ताकि शायद तुम उसमें ग़ौर व फ़िक्र करो और बेशक यह क़ुरआन हमारे पास उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में हैं। इस क़दर बुलंद मरतबे पर है जहाँ अक़्ले इंसानी नही पहुच सकती। इसकी आयात बहुत मोहकम व पुख़्ता है जिन में इंसाना फ़हम को हरगिज़ दख़ल नही है।

(सूरह ज़ुखरुफ़ आयत 3, 4)

 

फिर एक और मिसाल जो हक़ व बातिल और ज़हनों की गुंजाईश के बारे में लाता है उसमें यूँ फ़रमाता है:

 

ख़ुदा ने आसमान से पानी नाज़िल फ़रमाया पस यह पानी मुख़्तलिफ़ रास्तों में उनकी गुँजाईश के मुताबिक़ जारी हो गया।

(सूरह राद आयत 17)

 

और पैग़म्बरे अकरम (स) एक मशहूर हदीसे शरीफ़ में यूँ फ़रमाते हैं:

हम पैग़म्बर लोगों के साथ उनकी अक़्ल के मुताबिक़ बात करते हैं।

 

इस तरीक़े और बहस से जो दूसरा नतीजा अख़्ज़ किया जा सकता है वह यह है कि क़ुरआने मजीद के ऐसे बयानात जिनमें पोशिदा असरार मख़्फ़ी हों मिसाल का पहलू हासिल कर लेते हैं। यानी ख़ुदाई मआरिफ़ की निस्बत जो इँसानों के फ़हम व शऊर से बाला तर हैं उन के बारे में अमसाल मौजूद हैं जो इन मआरिफ़ को अच्छी तरह समझाने के लिये लाई गई हैं। अल्लाह तआला फ़रमाता है:

 

और बेशक हम लोगों के लिये इस क़ुरआन में हर क़िस्म की मिसाल लाएँ हैं लेकिन अकसर इँसानों ने इन को क़बूल नही किया और क़ुफ़राने नेमत किया।

(सूरह इसरा आयत 89)

 

और फिर फ़रमाता है:

और अगरचे हम लोगों के लिये बहुत सी मिसालें लाते हैं लेकिन वह उन में ग़ौर नही करते सिवाए उन लोगों के जो आलिम (समझदार) हैं।

(सूरह अनकबूत आयत 43)

 

लिहाज़ा क़ुरआने मजीद बहुत सी मिसालों को बयान करता है लेकिन मुनदरजा बाला आयात और जो कुछ इस मज़मून में आया है, काफ़ी है।

 

नतीजे के तौर पर हमें यूँ कहना चाहिये कि मआरिफ़े आलिया के बारे में जो क़ुरआने के हक़ीक़ी मक़ासिद हैं, मिसालों के ज़रिये बयान किया गया है।

 

7. क़ुरआने मजीद में मोहकम व मुतशाबेह मौजूद है

 

ख़ुदा वंदे तआला अपने कलामे मजीद में फ़रमाता है:

क़ुरआन ऐसी किताब है जिसकी आयात बहुत मोहकम (पुख़्ता, सिक़ह) हैं।

(सूरह हूद आयत 1)

 

और फिर फ़रमाता है:

अल्लाह तआला ने बेहतरीन बात (अल्फ़ाज़, क़ुरआन) नाज़िल फ़रमाई है जिसकी आयात आपस में मुशाबेह और शबीह और दो दो हैं। इस किताब के बाइस जो लोग खडुदा से डरते हैं (ख़ौफ़ से) उनकी खालें उतर जाती हैं और क़ुरआन को सुन कर उन पर लरज़ा तारी हो जाता है।

सूरह ज़ुमर आयत 23

 

फिर फ़रमाता है:

ख़ुदा वह है जिसने तुझ पर किताब नाज़िल फ़रमाई जबकि उसकी बाज़ आयात मोहकम हैं जो इस किताब की उम्मुल किताब, बुनियाद, माँ और मरजा हैं और बाज़ आयात मुतशाबेह हैं लेकिन जिन लोगों के दिलों में कजरवी है और इस्तेकामत से इंहेराफ़ की तरफ़ मायल हैं वह उस किताब की मुतशाबेह आयात की पैरवी करते हैं ता कि लोगों को फ़रेब और धोखा दे सकें और इस तरह फ़ितना बरपा करें इस लिये उसकी तावील बनाना चाहते हैं हालाकि उसकी तावील भी ख़ुदा के सिवा कोई नही जानता लेकिन जो लोग अपने इल्म में साबित क़दम हैं वह मुतशाबेह आयात के बारे में कहते हैं कि हम उन पर ईमान रखते हैं चूँकि यह सब आयात ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुई हैं।

 

जैसा कि वाज़ेह है कि क़ुरआन की पहली आयत उसके पुख़्ता (मोहकम) होने का सुबूत फ़राहम करती है और अलबत्ता उसका मतलब यह है कि किताब (क़ुरआन) हर क़िस्म के ऐब व नक़्स और ख़लल व बुतलान से मुबर्रा है और दूसरी आयत तमाम क़ुरआन को मुतशाबेह के तौर पर मुतआरिफ़ कराती है और उससे मुराद यह है कि क़ुरआनी आयात ख़ूब सूरती, उसलूब, हलावत, लहजे और ख़ारिक़ुल आदत बयान के लिहाज़ से यकसाँ हैं और पूरे क़ुरआन की यही हालत हैं।

 

और तीसरी आयत जो इस बाब में हमारे पेशे नज़र है, क़ुरआने मजीद को दो क़िस्मों यानी मोहकम व मुतशाबेह में तक़सीम करती हैं और कुल्ली तौर पर क़ुरआने मजीद से यूँ नतीजा निकलता है:

 

पहली बात तो यह कि मोहकम वह आयत है जो अपनी दलील व बुरहान और सुबूत में मोहकम व पुख़्ता हो और उसके मअना व मतलब में किसी किस़्म का शक व शुबहा मौजूद न हो यानी हक़ीक़ी मअना के अलावा कोई और मअना उससे अख़्ज़ न किये जा सकें और मुतशाबेह उसके बर ख़िलाफ़ है।

 

और तीसरी बात यह है कि हर मोमिन जो अपने ईमान में रासिख़ और साबित क़दम है उसका ईमानी फ़र्ज यह है कि आयात मोहकमात पर ईमान लाये और अमल करे और इसी तरह मुतशाबेह आयात पर भी ईमान लाये लेकिन उन पर अमल करने से परहेज़ करे। सिर्फ़ वह लोग जिसके दिल मुनहरिफ़ और ईमान टेढ़े हैं वह मुतशाबेह आयात की अवाम को फ़रेब और धोखा देने के लिये तावीलें बना बना कर उन प अमल करते हैं और उनकी पैरवी करते हैं।

 

8. मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में मोहकम और मुतशाबेह के मआनी

उलामा ए इस्लाम के दरमियान मोहकम और मुतशाबेह के मआनी में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ मौजूद है और उन मुख़्तलिफ़ अक़वाल में तहक़ीक़ से इस मसले के बारे में तक़रीबन बीस अक़वाल मिल सकते हैं।

 

अवायले इस्लाम से लेकर आज तक जो मसला मुफ़स्सेरीन के लिये क़ाबिले क़बूल रहा है वह यह है कि मोहकमात वह आयात हैं जिनके मआनी वाज़ेह हैं और असली मआनी के अलावा कोई मअना उन से नही लिये जा सकते और इँसान उन के बारे में किसी शक व शुबहे में नही पड़ता। इस क़िस्म की आयात पर ईमान लाना और अमल करना फ़र्ज़ है और मुतशाबेह वह आयात हैं जिन के ज़ाहिरी मअना मुबहम हैं और ऐसी आयात के हक़ीक़ी मअना उनकी तावील में मुज़मर हैं जो सिर्फ़ ख़ुदा ही जानता है और इंसान की अक़्ल उन तक नही पहुच सकती। इस क़िस्म की आयात पर ईमान तो लाना चाहिये लेकिन उन की पैरवी और उन पर अमल करने से परहेज़ करना चाहिये।

 

उलामा ए अहले सुन्नत के दरमियान भी यही क़ौल मशहूर है और उलामा ए शिया भी इसी पर मुत्तफ़िक़ हैं लेकिन उलामा ए शिया मोतक़िद हैं कि मुतशाबेह आयात की तावील पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्मा ए अहले बैत (अ) भी जानते हैं और आम मुसलमान और मोमिन जो मुतशाबेह आयात की तावील को समझने से क़ासिर हैं, उन का इल्म ख़ुदा, पैग़म्बर और आईम्मा पर छोड़े दें।

 

यह क़ौल अगरचे अकसर मुफ़स्सेरीन के दरमियान जारी और काबिले क़बूल है लेकिन चंद लिहाज़ से इस सूरह आले इमरान की 7 वी आयते करीमा के मत्न और उसी जैसी दूसरी क़ुरआनी आयात के उसलूब पर मुनतबिक़ नही है।

 

सबसे पहले तो यह कि क़ुरआने मजीद में इस क़िस्म की आयतें जो अपने मदलूल (मअना) को तशख़ीस देने में आजिज़ हूँ, उन का नाम तक नही है। उसके अलावा जैसा कि क़ुरआने मजीद अपने आप को नूर, हादी, बयान जैसी सिफ़ात से याद करता है लिहाज़ा उसकी आयात हक़ीक़ी मअना और मुराद को वाज़ेह करने में ना रसा या मुबहम नही है।

 

इसके अलावा यह आयते करीमा:

क्या क़ुरआने मजीद में ग़ौर नही करते और अगर यह क़ुरआन ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से नाज़िल हुआ होता तो उसमें बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ मौजूद होता। क़ुरआने मजीद में ग़ौर व फ़िक्र करना हर क़िस्म के इख़्तिलाफ़ को ख़त्म करने और मिटाने वाला कहा गया है। हालाकि जैसा कि मसल मशहूर है कि आयते मुतशाबेह में आने वाले इख़्तिलाफ़ात को किसी भी तरह से क़ाबिले हल नही है।

 

मुमकिन है कि यह कहा जाये कि आयाते मुतशाबेहात से मक़सद और मुराद वही हुरुफ़े मुक़त्तेआ (हुरूफ़े मुख़फ़्फ़फ़) हैं जो कि बाज़ सूरों के शुरु में आते हैं जैसे अलिफ़ लाम मीम, अलिम लाम रा, हा मीम, वग़ैरह। जिन के हक़ीक़ी मअना को तशख़ीस देने का कोई तरीक़ा ही नही है।

 

लेकिन यह याद रखना चाहिये कि आयते करीमा में आयाते मुतशाबेह को आयाते मोहकम के मुक़ाबले में मुतशाबेह कहा गया है, इसकी वजहे तसमीया यह है कि मुनदर्जा बाला आयात मदलूलाते लफ़्ज़ी (लफ़्ज़ी मआनी) की तरह मअना रखती हो लेकिन हक़ीक़ी और अस्ल मअना, ग़ैर हक़ीक़ी मअना के साथ मुशतबह हो जायें और बाज़ सूरों के शुरु में आने वाले मुख़फ़्फ़फ़ अल्फ़ाज़ या हुरुफ़ इस क़िस्म के लफ़्ज़ी मअना नही रखते।

 

इस के अलावा उस आयत के ज़ाहिरी मअना यह हैं कि मुनहरिफ़ लोग आयाते मुतशाबेहात से अवाम को गुमराह करने और फ़रेब देने के लिये ना जायज़ फ़ायदा उठाते हैं और इस्लाम में यह सुनने में नही आया कि कोई शख़्स सुरों के आग़ाज़ में आने वाले हुरुफ़े मुक़त्तेआ या मुख़फ़्फ़फ़ हुरुफ़ की तावील करते हुए इस क़िस्म का फ़ायदा उठाये और जिन लोगों ने इस क़िस्म की तावील कर के फ़ायदा उठाया है उन्होने न सिर्फ़ उन ही अल्फ़ाज़ से बल्कि तमाम क़ुरआन की तावील कर के इस क़िस्म का फ़ायदा उठाने की कोशिश की है।

 

बाज़ लोगों ने कहा है कि मज़कूरा आयत में मुतशाबेह की तावील एक मशहूर क़िस्से की तरफ़ इशारा करती है जिसके ब मूजिब यहूदियों ने कोशिश की है कि सुरों के आग़ाज़ में आने वाले हुरुफ़े मुक़त्तेआत या मुख़फ़्फ़फ़ हुरुफ़ से इस्लाम की बक़ा और दवाम की मुद्दत को समझें और पैग़म्बरे अकरम (स) ने यके बाद दीगरे ऐसे मुख़फ़्फ़फ़ या आग़ाज़ी हुरुफ़ पढ़ कर उन के हिसाब को ग़लत बना दिया था। [1]

 

यह बात बिल्क़ुल बेहूदा है क्योकि इस क़िस्से या रिवायत के सही होने के बारे में बाज़ यहदियों ने बहुत कुछ लिखा है और कहा है और उसी महफ़िल में उस का जवाब भी सुन लिया है और यह क़िस्सा इस क़दर क़ाबिले अहमियत नही है कि आयते करीमा में मुतशाबेह की तावील के मसले पर ज़ौर दिया जाता।

 

इस के अलावा यहूदियों की बात में किसी क़िस्म का फ़ितना व फ़साद भी नही था क्योकि अगर एक दीन हक़ीक़ी हो तो अगरचे वह वक़्ती और क़ाबिले मंसूख़ भी क्यों न हो फिर भी उस की हक़्क़ानियत पर कोई हर्फ़ नही आ सकता। जैसा कि इस्लाम से पहले आसमानी अदयान की यही हालत रही है लेकिन वह सब के सब हक़ीक़ी दीन थे।

 

तीसरे, इस बात की वजह यह है कि आयते करीमा में लफ़्ज़े तावील के मअना और मदलूले ज़ाहिरी मअना के बर अक्स आये हों और इसी तरह आयते मुतशाबेह से मख़सूस हों, यह दोनो मतलब ठीक नही हैं और आईन्दा बहस में जो तावील और तंज़ील के बाब में आयेगी, हम इस के बारे में वज़ाहत से बयान करेंगें कि क़ुरआने मजीद में लफ़्ज़े तावील मअना और मदलूल के पैराए में नही आया कि कोई दूसरा लफ़्ज़ उसका लुग़वी बदल बन सके और दूसरे यह कि तमाम क़ुरआनी आयात चाहे वह मोहकम हों या मुतशाबेह, उनकी तावील हो सकती है न कि सिर्फ़ आयाते मुतशाबेह की। और तीसरे यह कि आयते करीमा में लफ़्ज़े आयाते मोहकमाते को जुमल ए हुन्ना उम्मुल किताब के साथ बयान किया गया है और इस के मअना यह है कि आयाते मोहकमात किताब के असली मतालिब पर मुशतमिल है और बक़िया आयात के मतालिब उन की शाख़ें (फ़ुरुआत) हैं। इस मतलब का वाज़ेह मक़सद यह है कि आयाते मुतशाबेह अपने मअना व मुराद के लिहाज़ से आयाते मोहकमात की तरफ़ लौट जायें यानी आयाते मुतशाबेह के मआनी की वज़ाहत के लिये उन को आयातो मोहकमात की तरफ़ रुजू करना चाहिये और आयाते मोहकमात की मदद से उन के हक़ीक़ी मअना व मुराद को समझना चाहिये।

 

लिहाज़ा क़ुरआने मजीद में कोई ऐसी आयत जिस के हक़ीक़ी मअना को हासिल न किया जा सके मौजूद नही है और क़ुरआनी आयात या बिला वास्ता मोहकमात में शामिल हैं जैसे ख़ुद आयात मोहकमात और या बा वास्ता मोहकम हैं जैसे मुतशाबेहात वग़ैरह की तरह, लेकिन हुरुफ़े मुक़त्तेआ (मुख़फ़्फ़फ़) जो सूरों के आग़ाज़ में मौजूद हैं उन के लफ़्ज़ी मअना हरगिज़ मालूम नही हैं। इस तरह यह हुरुफ़ आयाते मोहकमात और मुतशाबेहात दोनो क़िस्मों में नही लाए जा सकते।

 

इस मतलब को समझने के लिये यह आयते करीमा:

तो क्यो लोग क़ुरआन में (ज़रा भी) ग़ौर नही करते या (उन के) दिलों पर ताले (लगे हुए) हैं ।

(सूरह मुहम्मद आयत 24)

 

और इसी तरह यह आयते करीमा:

तो क्यो यह लोग क़ुरआन में भी ग़ौर नही करते और (यह ख़्याल नही करते कि) अगर ख़ुदा के सिवा और की तरफ़ से (आया) होता तो ज़रुर उसमें बड़ा इख़्तिलाफ़ पाते।

सूरह निसा आयत 82 से इस्तेफ़ादा किया जा सकता है।

 

9. क़ुरआन की मोहकम और मुतशाबेह आयात के बारे में आईम्म ए अहले बैत (अ) के नज़रियात

जैसा कि आईम्म ए अहले बैत (अ) के मुख़्तलिफ़ बयानात से नतीजा हासिल होता है वह यह है कि ऐसी मुतशाबेह आयत जिसके हक़ीक़ी मअना बिल्कुल समझ से बाहर से बाहर हों, हरगिज़ क़ुरआने मजीद में मौजूद नही है बल्कि अगर हर आयत अपने हक़ीक़ी मआनी में मुस्तक़िल न हो तो दूसरी आयात के ज़रिये उसके हक़ीक़ी मआनी को समझा जा सकता है और यह तरीक़ा मुतशाबेह आयात को आयाते मोहकमात की तरफ़ रुजू कराना है जैसा कि यह आयते करीमा:

ख़ुदा अपने तख़्त पर बैठा है।

(सूरह ताहा आयत 5)

 

और इस आयते करीमा में: तेरा ख़ुदा आ गया।

(सूरह फ़ज्र आयत 24)

 

जाहिरी तौर पर (ख़ुदा की) ज़िस्मानियत और माद्दियत का पता देती है लेकिन इन दो आयाते करीमा को इस आयत: कोई चीज़ ख़ुदा के मानिन्द नही है।

 

सूरह शूरा आयत 11 की तरफ़ रुजू करने से मालूम हो जाता है कि ख़ुदा वंदे आलम के बैठने और आने की तरफ़ जो इशारा हुआ है वह ज़ाहिरी मअना यानी एक जगह पप बैठने और एक जगह से दूसरी जगह हरकत करने से बिल्कुल अलग है।

 

पैग़म्बरे अकरम (स) क़ुरआने मजीद की तारीफ़ में फ़रमाते हैं:

 

बेशक क़ुरआन इस लिये नाज़िल नही हुआ कि बाज़ आयात के ज़रिये तसदीक़ करे। पस जिस चीज़ को तुम ने समझ लिया है उस पर अमन करो और जिस चीज़ के मुतअल्लिक़ तुम्हे शक व शुबहा हो उस पर ईमान लाओ।

(तफ़सीरे दुर्रुल मंसूर जिल्द 1 पेज 8)

 

और अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं:

क़ुरआने मजीद के बाज़ हिस्से बाज़ दूसरे हिस्सों के बारे में शहादत देते हैं और बाज़ हिस्सों के बाइस दूसरे हिस्से मुनतबिक़ हो जाते हैं।

(नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 131)

 

आठवे इमाम हज़रत अली रेज़ा (अ) फ़रमाते हैं:

क़ुरआने मजीद की आयाते मोहकमात वह हैं जिन पर अमल किया जा सकता है और मुतशाबेह आयात वह हैं कि अगर कोई शख़्स उन को न जानता हो तो उन में मुशतबह होगा।

(तफ़सीरे अयाशी जिल्द 1 पेज 162)

 

एक और रिवायत में है कि मोहकम व मुतशाबेह के दरमियान एक निस्बत मौजूद है और मुमकिन है एक आयत एक मौज़ू के बारे में मोहकम हो और वही आयत दूसरे मौज़ू या मतलब के बारे में मुतशाबेह हो।

 

और आठवे इमाम (अ) एक दूसरी जगह पर इस तरह फ़रमाते हैं:

 

जिस शख़्स ने क़ुरआने मजीद की मुतशाबेह आयात को मोहकमात की तरफ़ रुजू कर दिया वह राहे रास्त पर हिदायत हासिल कर गया। फिर फ़रमाया:

 

बेशक हमारी हदीसें भी मुतशाबेह हैं जैसा कि क़ुरआने मजीद में मुतशाबेह मौजूद है पस उन मुतशाबेहात को मोहकमात की तरफ़ ले जाओ और सिर्फ़ अकेली मुतशाबेह आयत की पैरवी न करो क्योकि गुमराह हो जाओगे।

 

जैसा कि मालूम है यह रिवायात और ख़ुसूसन आख़िरी रिवायत इस मौज़ू में वाज़ेह है कि मुतशाबेह एक ऐसी आयत है जो अपने हक़ीक़ी मअना को वाज़ेह करने में मुस्तक़िल न हो और दूसरी मोहकमात आयात के ज़रिये वाज़ेह होती है। यह बात सही नही है मुतशाबेह आयात को समझाना या उस के मआनी तक पहुचा ही नही जा सकता।

 


 

10. क़ुरआने मजीद तावील व तंज़ील रखता है

तावीले क़ुरआन का लफ़्ज़ क़ुरआने मजीद में तीन बार मुख़्तलिफ़ आयात में आया है:

मोहकम व मुतशाबेह आयात जो पहले नक़्ल की जा चुकी हैं।

 

लेकिन जिनके दिलों में कजरवी है और इस्तेक़ामत से इंहेराफ़ की तरफ़ मायल हैं वही मुतशाबेह आयात की पैरवी करते हैं ता कि लोगों को फ़रेब और धोखा दे सकें और इस तरह फ़ितना बरपा करें, इस लिये कि उसकी तावील बनाना चाहते हैं हाला कि उस की तावील ख़ुदा के सिवा कोई नही जानता।

(सूरह आले इमरान आयत 7)

 

1. मैं क़सम खाता हूँ, उन लोगों के लिये हम ने ऐसी किताब नाज़िल की है कि उस में हर चीज़ की बुनियाद को इल्म व दानिश के मुताबिक़ तफ़सील से बयान किया गया है, यह किताब उन लोगों के लिये रहमत और हिदायत है जो ईमान लाये हैं। यह लोग शर्मिदा नही हैं बल्कि काफ़िर और वह लोग जो ख़ुदा की आयतों और क़यामत के दिन पर ईमान नही रखते, उस दिन के मुनतज़िर हैं, जब उन आयात की तावील और उन के हाल व अहवाल (मौत और क़यामत के दिन) सामने आयेगें और अंजामें कार को मुलाहिजा करेगें। जो लोग उस दिन को भूले हुए हैं उस दिन शर्मिन्दगी औप हसरत के साथ अफ़सोस करेंगें कि ख़ुदा के रसूल और पैग़म्बर अपने रौशन और वाज़ेह दलायल के साथ आये और हमारे लिये उनकी वज़ाहत की। (काश हम उस वक़्त मुख़ालिफ़त व करते)

 

2. आयते करीमा व मा काना हाज़ल क़ुरआनो अय युफ़तरा यहाँ तक कि फ़रमाता है।

 

यह क़ुरआन इफ़रता नही है यहाँ तक कि फ़रमाता है: बल्कि उन लोगों ने उस को झुटलाया है जिस चीज़ का उन को बिल्कुल इल्म नही जबकि अभी तक उस की तावील उन के लिये वाज़ेह नही हुई, इसी तरह जो लोग उन से पहले थे उन्होने भी ख़ुदा की आयात की झुटलाया था। ऐ रसूल तुम देखते हो कि उन ज़ालिमों का अंजाम क्या होगा और वह किस तरह हलाक होगें।

(सूरह युनुस 37, 39)

 

बहरहाल तावील का लफ़्ज़ औल से निकला है जिसके मअना रुजू के हैं और तावील से मुराद वह चीज़ है जिस की तरफ़ वह आयत फिरती या रूजू करती है और तावील के मुक़ाबले में तंज़ील के मअना वाज़ेह हैं याना तहतुल लफ़्ज़ी मअना है।

 

11. मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में तावील के मअना

मुफ़स्सेरीन और उलामा ए केराम, तावील के मअना में शदीद इख़्तिलाफ़ रखते हैं और अक़वाल व अहादीस की पैरवी में तावील के बारे में दस से ज़्यादा अक़वाल देखने में आते हैं लेकिन उन सब अक़वाल में से दो ज़्यादा मशहूर हैं:

 

1. उलामा ए क़दीम तावील को तफ़सीर के मुतरादिफ़ समझते थे लिहाज़ा तमाम क़ुरआनी आयात का तावील मौजूद है लेकिन आयते करीमा के मुताबिक़:

 

मुतशाबेहात की तावील ख़ुदा के सिवा कोई नही जानता।

 

इस लिहाज़ से बाज़ उलामा ए क़दीम ने कहा है कि क़ुरआन की मुतशाबेह आयात वही हुरुफ़े मुक़त्तेआ (हुरुफ़े मुखफ़्फ़फ़) हैं जो बाज़ सूरों के शुरु में आयें हैं क्योकि क़ुरआने मजीद में ऐसी ऐसी आयत जिसके मअना अवाम पर वाज़ेह न हों। हुरुफ़े मुक़त्तेआ के अलावा कोई नही है लेकिन हमने पिछले अध्याय में इस अक़ीदे के मंसूख़ होने के बारे में काफ़ी वज़ाहत की है।

 

बहरहाल इस मौज़ू क पेशे नज़र कि क़ुरआने मजीद की बाज़ आयात की तावील जानने के बारे में ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ मंसूब नही करता। और क़ुरआने मजीद में कोई ऐसी आयत जिसके मअना सब पर मजहूल हों, मौजूद नही है और हुरुफ़े मुक़त्तेआ भी मुतशाबेह आयात में नही आते, यह वाज़ेह करता है कि उलामा ए जदीद के पेशे नज़र यह क़ौल बातिल और मंसूख व मतरुक है।

2. उलामा ए जदीद के क़ौल के मुताबिक़ तावील के मअना उन ज़ाहिरी मअना के बर अक्स जो ज़ाहिरी तौर पर कलाम से हासिल होते हैं। बेना बर ईन तमाम क़ुरआनी आयात तावील नही रखतीं लिहाज़ा मुतशाबेह आयात ही है जो तावील रखती हैं और उन के मअना, जाहिरी मअना के बर अक्स हैं जिन का इल्म ख़ुदा के सिवा किसी को नही है। जैसा कि आयात में में ख़ुदा के बैठने, मर्ज़ी आने, ग़ज़बनाक होने, अफ़सोस करने और दूसरी माद्दी तारीफ़ात को ख़ुदा से मंसूब किया गया है। और ऐसे ही दूसरी आयात जिन के बारे में पैग़म्बरों और अंबिया ए मासूम को गुनाहों से मंसूब किया गया है।

 

यह मज़हब इस क़दर अमली वाक़े हुआ है कि हाले हाज़िर में तावील, ज़ाहिरी मअना के बर अक्ल एक हक़ीक़ते सानिया बन गई है और क़ुरआनी आयात की तावील कलामी झगड़े यानी इल्मे कलाम में ज़ाहिरी लिहाज़ से और ज़ाहिर के बर अक्स उन के मअना करना एक ऐसा तरीक़ा बन गया है कि ख़ुद यह तरीक़ा तनाकुज़ से ख़ाली और मुबर्रा नही है।[2]

 

यह क़ौल अगरचे बहुत मशहूर है लेकिन ठीक और सही नही है और क़ुरआनी आयात के साथ मुनतबिक़ नही है क्योकि:

1. सूरह आराफ़ की यह 53वी आयते करीमा, सूरह युनुस की 39 वी आयते करीमा, जो पिछले बाब में बयान हो चुकी हैं। उन से ज़ाहिर होता है कि सारा क़ुरआन तावील रखता है न कि सिर्फ़ आयाते मुतशाबेहात जैसा कि इस क़ौल में कहा गया है।

2. इस क़ौल की बुनियाद यह है कि क़ुरआन में ऐसी आयात मौजूद हों जिन के हक़ीक़ी मअना मुशतबेह और अवाम पर मजहूल हों और ख़ुदा के सिवा कोई शख़्स उन से वाक़िफ़ न हो और ऐसा कलाम जो अपने मआनी के वाज़ेह करने के लिये गुँग और मुफ़हम हो उस को बलीग़ कलाम नही कहा जा सकता। फिर यह कैसे हो सकता है कि वह कलाम अपनी फ़साहत व बलाग़त के लिहाज़ से दुनिया के मुक़ाबले के लिये लतब करे और अपनी बरतरी का ऐलान करे।

3. यह है कि इस क़ौल के मुताबिक़ क़ुरआनी हुज्जत (दलील व बुरहान) ख़त्म नही हो जाती क्योकि इस आयते करीमा (सूरह निसा आयत 82) के मुताबिक़, क़ुरआने मजीद इंसानी कलाम नही है, दूसरी दलीलों में से एक दलील यह है कि उस की आयात के दरमियान (अगरचे यह आयात बहुत ज़्यादा फ़ासल ए ज़मानी और ख़ास औज़ा व अहवाल और माहौल के मुताबिक़ नाज़िल हुई हैं।) मअना और मदलूल के लिहाज़ से उन में किसी क़िस्म का इख़्तिलाफ़ मौजूद नही जो ज़ाहिरी तौर पर मालूम हो बल्कि अगर हो भी तो आयात में ग़ौर करने से ख़त्म हो जाता है।

4. यह है कि उसूली तौर पर मोहकम व मुतशाबेहात की तावील के मअना ज़ाहिरी मअना के बर ख़िलाफ़ हों कोई दलील ही नज़र नही आती। वह तमाम क़ुरआनी आयात जिन में तावील का लफ़्ज़ आया है उन से मक़सद इस क़िस्म के मआनी नही है। जैसे क़िस्स ए युसुफ़ में तीन जगह तावील का लफ़्ज़ आया है जिस का मतलब ख़्वाब की ताबीर है और ज़ाहिर है कि ख़्वाब की ताबीर उस के ज़ाहिरी मअना के बर ख़िलाफ़ नही है बल्कि एक ऐसी ख़ारेजी ऐनी हक़ीक़त है जो ख़्वाब में देखी गई है जैसा कि हज़रते युसुफ़ ने ख़ुद को और अपने माँ बाप, बहन भाईयों को सजदा करने को सूरज, चाँद और सितारों की शक्ल में देखा था। [3]

 

और जैसा कि मिस्र के बादशाह ने उस मुल्क में सात साला क़हत और ख़ुश्क साली को लाग़र और कमज़ोर गायों की शक्ल में मुशाहेदा किया था कि सात फ़रबा और मोटी गायों को खा रही है और इसी तरह सात सब्ज़ खोशे और सात ख़ुश्क खोशे देखे थे और जैसा कि क़ैद में हज़रत युसुफ़ के साथियों में से एक ने सूली को दूसरे ने बादशाह की साक़ी गरी को अँगूरों के गुँछों के निचोड़ने और अपने सर पर रोटियों का टोकरा उठाने और फिर परिन्दों का उन रोटियों के नोचने और खाने की हालत में देखा था।

 

इसी तरह सूरह कहफ़ (आयत 71,72) से हज़रत मूसा और हज़रत ख़िज़्र के क़िस्से हैं, उसके बाद कि हज़रत ख़िज़्र कश्ती को सूराख़ कर देते हैं, फिर एक बच्चे को मार देते हैं और एक दीवार को तामीर करते हैं और हर मरहले पर हज़रत मूसा ऐतेराज़ करते हैं। फिर हज़रते ख़िज़्र उन सब कामों का जवाब देते हैं और ख़ुदा वंदे आलम के हुक्म और अम्र के मुताबिक़ उन कामों की हक़ीक़त को बयान करते हैं, इस अमल को तावील कहा गया है और ज़ाहिर है कि हक़ीक़ते कार और उसका असली मक़सद जो ज़ाहिरी अमल की सूरत में सामने आया है, उसके मअना काम की रूह और हक़ीक़त हैं। जिनको तावील कहा गया है और उन कामों के मअना, ज़ाहिरी मअना के बर अक्स नही है, इसी तरह अल्लाह तआला वज़्न और पैमाने के बारे में फ़रमाता हैं:

 

और जब तुम किसी चीज़ को पैमाने और वज़्न से नापते हो तो उस को पूरी तरह से नापो और वज़्न करो और पैमाने को अच्छी तरह से पुर करो और सही तराज़ू से वज़्न करो क्योकि यही तरीक़ा बेहतर है और तावील के लिहाज़ से ठीक भी है।

(सूरह बनी इसराईल आयत 35)

 

इस से मालूम होता है कि कैल (पैमाने) और वज़्न से मुराद ख़ास इक़्तेसादी हालत है जो ज़रुरियाते ज़िन्दगी में लेन देन और नक़्ल व इंतेक़ाल के ज़रिये बाज़ार में पैदा होती है और इस मअना में तावील वज़्न और पैमाने के ख़िलाफ़ नही बल्कि एक मानवी और ज़ाहिरी हक़ीक़त है जो वज़्न और पैमाने की सूरत में बयान हुई है और उस की ठीक सूरत अमल के अंजाम देने में ज़ाहिर होती है।

 

इसी तरह एक और जगह फ़रमाता है:

पस अगर एक चीज़ के बारे में तुम झगड़ा या इख़्तिलाफ़ हो जाये तो उस को ख़ुदा की तरफ़ पलटा दो.... और यही बेहतर है और तावील के लिहाज़ से भी सही है।

 

ज़ाहिर है कि तावील से मुराद झगड़े को हल करने के लिये ख़ुदा और रसूल की तरफ़ रूजू करना है और इस का मक़सद समाज और मुआशरे की वहदत व यगानगत को मज़बूत करना और समाज में मानवी और रुही इत्तेहाद पैदा करना है। यह भी एक ख़ारजी हक़ीक़त है न कि झगड़े को हल करने के बर अक्ल कोई और मअना हों।

 

इसी तरह चंद एक दूसरी मिसालें और हैं जिन में तावील का लफ़्ज़ क़ुरआने मजीद में आया है और कुल मिला कर 16 बार ज़िक्र हुआ है और उन तमाम मिसालों में से किसी में भी तावील के मअना को ज़ाहिरी मअना के बर अक्स नही लिया जा सकता बल्कि एक दूसरे मअना हैं (जिसे अगली फ़स्ल में वज़ाहत से बयान किया जायेगा।) लफ़्ज़े तावील आयाते मोहकमात और मोतशाबेहात में आया है लिहाज़ा तावील का लफ़्ज़ मुनदर्जा बाला आयात में ज़ाहिरी मअना के बर ख़िलाफ़ कोई दूसरे मअना नही देता।

 

12. क़ुरआने मजीद की इस्तेलाह में तावील के क्या मअना है?

क़ुरआने मजीद में ऐसी आयाते शरीफ़ा जिन में तावील का लफ़्ज़ आया है और उन में बाज़ आयात को पिछले बाब अबवाब में नक़्ल कर चुके हैं, उन से जो नतीजा निकलता है वह यह है कि तावील के मअना के लिहाज़ से लफ़्ज़ी मअना में इस्तेमाल नही हुआ है जैसा कि सूर ए युसुफ़ में ख़्वाबों की ताबीर के बारे में नक़्ल हुआ है और उन ख़्वाबों की तावील की गई है कि ऐसा लफ़्ज़ जो ख़्वाब की तशरीह करे हरगिज़ ख़्वाब की तावील में लफ़्ज़ी सुबूत फ़राहम नही करता ख़्वाह वह ज़ाहिरी मअना के बर अक्स ही क्यो न हो।

 

और ऐसे ही हज़रत मूसा (अ) और हज़रते ख़िज़्र के वाकये में क़िस्से का लफ़्ज़ उस की तावील पर दलालत नही करता जो हज़रत ख़िज़्र (अ) ने हज़रते मूसा (अ) के लिये बयान किये था। इसी तरह यह आयते शरीफ़ा व औफ़ुल कैला इज़ा किलतुम व ज़िनु बिल क़िसतासिल मुस्तक़ीम। (37,17) यह दो फ़िक़रे किसी मख़सूस इक़्तेसादी हालत का लफ़्ज़ी सुबूत फ़राहम नही करते लिहाज़ा उन की तावील करना ज़रुरी है।

 

इसी तरह सूरह निसा की 59 वी आयते शरीफ़ा अपनी तावील पर लफ़्ज़ी सुबूत, जो वहदते इस्लामी है, नही रखता और अगर तमाम आयात पर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि हक़ीक़त यही है।

 

बल्कि ख़्वाबों के बारे में, ख़्वाब की ताबीर एक ख़ारेजी हक़ीक़त है जो एक ख़ास शक़्ल में ख़्वाब देखने वाले शख़्स के सामने जलवा गर होती है, इसी तरह हज़रते मूसा (अ) और हज़रते ख़िज़्र के क़िस्से में वह तावील जो हज़रते ख़िज़्र ने बयान की, एक ऐसी हक़ीक़त है कि अंजाम शुदा काम इस हक़ीक़त से सर चश्मा हासिल करता है और ख़ुद वही काम एक तरह की तावील में मुज़मर है। वह आयत जो वज़्न और पैमाने के सही होने पर हुक्म देती है उसकी तावील एक हक़ीक़त और मसलहत है कि यह फ़रमान उस नुक्ते पर तकिया करता है और एक तरह से इस हक़ीक़त को साबित और मुकम्मल करता है और यह आयते शरीफ़ा जिस में झगड़ों को ख़ुदा और रसूल की तरफ़ ले जाने का हुक्म है उस में भी यही अम्र और हक़ीक़त पोशिदा है।

 

लिहाज़ा हर चीज़ की तावील एक ऐसी हक़ीक़त है कि वह चीज़ उस से सर चश्मा हासिल करती हो और वह चीज़ हर तरह से उस का मुकम्मल सुबूत और कामिल निशानी है जैसा कि तावील करने वाला हर शख़्स ख़ुद ज़िन्दा और मौजूद तावील है और तावील का ज़हूर भी साहिबे तावील के साथ मुमकिन है।

 

यह मतलब क़ुरआने मजीद में भी जारी है क्योकि यह मुक़द्दस किताब एक सिलसिल ए हक़ायक़ और मानवीयात से सर चश्मा हासिल करती है जो माद्दे और जिस्मानियत की क़ैद से आज़ाद और हिस व महसूस के मरहले से बहुत बाला तर है और अल्फ़ाज़ व इबारात के क़ालिब में जो हमारी माद्दी ज़िन्दगी का महसूल है, इससे बहुत बुलंद और वसी है।

 

यह हक़ायक़ और मानवीयात अपनी हक़ीक़त के ऐतेबार से लफ़्ज़ी क़ालिब में मही समा सकते, सिर्फ़ वह उमूर जो ग़ैब की तरफ़ से अंजाम पाते हैं वह यह है कि उन अल्फ़ाज़ के साथ दुनिया ए इंसानी को मुतनब्बेह किया गया है कि हक़ पर ज़ाहिरी ऐतेक़ादात और अपने नेक कामों के ज़रिये अपने आप को सआदत और ख़ुश बख़्ती हासिल करने के लिये मुसतईद करें, क्योकि सिवा ए इस के कि अपनी आँख़ों से मुशाहेदा करके वाक़ेईयत और हक़ीक़त को समझें, कोई और रास्ता या चारा नही है। क़यामत का दिन ख़ुदा वंदे आलम से मुलाक़ात का दिन है, जिस दिन यह हक़ायक़ मुकम्मल तौर पर खुल कर सामने आयेगें जैसा कि सूर ए आराफ़ की 2 आयात और सूर ए युनुस की आयते शरीफ़ा इस बात का सुबूत फ़राहम करती है।

 

अल्लाह तआला इस अम्र की तरफ़ इशारा करते हुए इरशाद फ़रमाता है:

 

इस किताबे मुबीन की क़सम, हमने इस क़ुरआन को अरबी ज़बान में नाज़िल किया है ताकि तुम इसमें ग़ौर व फ़िक्र करो और यक़ीनन यह किताब हमारे पास उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में मौजूद है। इस का मरतबा बहुत बुलंद है इतना कि आम लोग इस को हरगिज़ नही समझ सकते और इस की आयात बहुत ही पुख़्ता है इतनी कि इंसानों की अक़्लों की रसाई वहाँ तक नही है।

(सूरह ज़ुख़रुफ़ आयत 2, 4)

 

आयते शरीफ़ा के आख़िरी हिस्से की तावील अपने मअना से मुताबेक़त के लिहाज़ से जैसा कि बयान किया गया है, वाज़ेह है और ख़ुसूसन इस लिहाज़ कि ख़ुदा वंदे आलम ने फ़रमाया है: लअल्लकुम तअक़ेलून यह नही फ़रमाया कि लअल्लकुम तअक़िलूनहू (शायद इस में ग़ौर करो) क्योकि तावील की शिनाख़्त जैसा कि मोहकम व मुतशाबेह आयात (उसकी तावील सिवा ए ख़ुदा वंदे आलम के कोई नही जानता) में फ़रमाया है, अहले इंहेराफ़ को मुतशाबेह आयात की पैरवी करने पर सरज़निश और मलामत करते हुए अल्लाह तआला फ़रमाता है कि उनकी पैरवी करने से फ़ितना बरपा करना चाहते हैं और उनकी तावील बनाना चाहते हैं लेकिन यह नही फ़रमाया कि तावील पैदा करते हैं।

 

पस क़ुरआने मजीद की तावील वह हक़ीक़त यह हक़ायक़ हैं कि उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में ख़ुदा के पास मौजूद हैं और इल्मे ग़ैब से इख़्तेसास रखते हैं।

 

फिर एक और जगह इसी मज़मून के क़रीब करीब इरशाद फ़रमाता है:

 

पस क़सम हैं सितारों का हालत की और यक़ीनन यह ऐसी क़सम है कि अगर तुम (इस में) ग़ौर करो तो बहुत बड़ी क़सम है कि यह क़ुरआने मजीद बहुत ही मोहतरम है जिस के असरार महफ़ूज़ और पोशिदा हैं। (लौहे महफ़ूज़ या उम्मुल किताब में) यह ऐसी किताब है कि उन लोगों के सिवा जो पाक व मुतह्हर हैं उस को छू नही सकते। यह किताब परवर दिगारे आलम की तरफ़ से नाज़िल हुई है।

(सूरह वाक़ेया आयत 75 से 80)

 

जैसा कि ज़ाहिर है यह आयाते करीमा क़ुरआने मजीद के लिये दो तरह के मरतबों या रुतबों को साबित करती है। पहला मरतबा यह है कि इस किताब के पोशिदा मक़ाम को कोई शख़्स छू या मस नही कर सकता और हर क़िस्म के मस से महफ़ूज़ है और मक़ामे तंज़ील यह है कि आम लोगों के लिये क़ाबिले फ़हम है। (यानी एक पोशिदा मअना है कि उस को कोई शख़्स जान नही सकता और दूसरे आम मअना हैं कि हर शख़्स उस को समझ सकता है।)

 

जो नतीजा मुनदर्जा बाला आयात से या गुज़श्ता आयात से हासिल होता है वह इल्लल मुतह्हरून की इसतिसना है यानी सिवा ए उन लोगों के जो क़ुरआने करीम की हक़ीक़त और तावील से बा ख़बर हैं। (उन के अलावा कोई शख़्स उस को छू नही सकता) और यह सुबूत इस आयते शरीफ़ा से कि अल्लाह के सिवा किसी को तावील का इल्म नही है, के मज़मून की नफ़ी के मनाफ़ी नही है क्योकि दो आयात के बा हमीं इंज़ेमाम से ताबेईयत और इस्तिक़लाल का नतीजा हासिल होता है यानी इस का मतलब यह है कि ख़ुदा वंदे आलम उन हक़ायक़ के साथ अपने इल्म में मुस्तकिल है और उस के सिवा उन हक़ायक़ को कोई नही समझ सकता मगर ख़ुदा वंदे आलम की इजाज़त और तालीम के साथ।

 

जैसा कि इल्में ग़ैब है जो बहुत ज़्यादा आयात के मुताबिक़ सिर्फ़ ख़ुदा वंद से मख़सूस है लेकिन एक आयत में बाज़ लोग उस के बरगुज़िदा और पसंदीदा है और इस क़ायदे से मुसतसना है।

 

इरशाद होता है:

और सिर्फ़ अल्लाह तआला ही इल्में ग़ैब को जानता है और उस के सिवा कोई दूसरा इल्में ग़ैब से वाक़िफ़ नही है मगर वह बरगुज़िदा रसूल जिन पर वह राज़ी है।

(सूरह जिन आयत 27)

 

इस कलाम से मजमूई तौर पर यह नतीजा निकलता है कि इल्मे ग़ैब सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम से मख़सूस है और उस के अलावा कोई दूसरा ग़ैब को नही जान सकता मगर उस के इज़्न और इजाज़त से।

 

हाँ, क़ुरआने मजीद की इन आयात के मुताबिक़ ख़ुदा वंद के पाक बंदे क़ुरआन की हक़ीक़त और असरार को समझ सकते हैं और इस आयते करीमा:

 

ख़ुदा वंद चाहता है कि हर क़िस्म की ना पाकी और पलीदी को पैग़म्बरे अकरम (स) और उन के अहले बैत (अ) और ख़ानदाने रिसालत से दूर कर के तुम को हर ऐब से पाक और मुबर्रा कर दे। (सूरह अहज़ाब आयत 33), की रू से जो मुतवातिर अख़बार या अहादीस के मुताबिक़ अहले बैते पैग़म्बर के हक़ में नाज़िल हुई है। पैग़म्बरे अकरम और ख़ानदाने रिसालत ख़ुदा वंदे आलम के पाक बंदों में से हैं और क़ुरआनी तावील का इल्म रखते हैं।

 

13. क़ुरआने मजीद नासिख़ और मंसूख़ का इल्म रखता है।(1)

 

क़ुरआने मजीद में अहकाम पर मबनी आयात के दरमियान बाज़ ऐसी आयात मौजूद है कि जो नाज़िल होने के बाद पहले नाज़िल शुदा अहकामी आयात की जगह ले लेती हैं। जिन पर इस से पहले अमल होता था लिहाज़ा इन आयात के नाज़िल होने के साथ ही पहले मौजूद अहकाम ख़त्म हो जाते हैं, इस तरह पहली आयात मंसूख़ हो जाती हैं और बाद में आने वाली आयात जो पहली आयात पर हाकिम बन कर आई हैं उन को नासिख़ कहा जाता है। जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) की बेसत के आग़ाज़ में मुसलमानों के हुक्म मिला था कि दूसरी अहले किताब क़ौमों के साथ बा हमीं मुफ़ाहेमत और मेल जोल से ज़िन्दगी बसर करें। चुँनाचे अल्लाह तआला फ़रमाता हैं:

 

[1]. तफ़सीरे अयाशी जिल्द 1 पेज 16, तफ़सीरे क़ुम्मी जिल्द 1 सूरह बक़रा और तफ़सीरे नुरुस सक़लैन जिल्द 1 पेज 22

 

[2]. क्योकि तावील के मअना का बयान, इस ऐतेराफ़ के साथ कि ख़ुदा के सिवा कोई तावील के मअना नही जान सकता, मुतनाकिज़ है लेकिन इस बात को ऐहतेमाल के साथ बयान करते हैं।

 

[3]. हज़रते युसुफ़ का ख़्वाब सूरह युसुफ़ की दूसरी आयत में बयान हुआ है। (जब हज़रते युसुफ़े ने अपने बाप से कहा, ऐ मेंरे बाप मैने ख़्वाब में देखा है कि गयारह सितारे, चाँद सूरज, मुझे सजदा कर रहे हैं।) और इस आयत की तावील आयत नम्बर 100 में हज़रत युसुफ़ की ज़बानी बयान की गई है। (चंद सालों की जुदाई के बाद हज़रत युसुफ़ के माँ बाप और भाई उन से मिलने के लिये पहुचे और हज़रत युसुफ़ ने उन को तख़्त पर बैठाया और उन के माँ बाप और भाई हज़रत युसुफ़ के सामने सजदा रेज़ हो गये। उस वक़्त हज़रत युसुफ़ ने फ़रमाया, ऐ मेरे माँ बाप यह मेरे ख़्वाब की तावील है।)

 


 

और मिस्र के बादशाह का ख़्वाब सूरह युसुफ़ की 43वी आयत में बयान हुआ है। (बादशाह ने देखा कि सात कमज़ोर और लाग़र गायें, सात मोटी और फ़रबा गायों को खा रही है और इसी तरह सात ख़ुश्क ख़ोशे, सात सब्ज़ और रस भरे खोशे को खा रहे हैं। और उस की तावील आयत नम्बर 47 से 49 में हज़रत युसुफ़ की ज़बानी बयान हुई है। (हज़रत युसुफ़ ने फ़रमाया,) सात साल मुतवातिर खेती बाड़ी करें और जो कुछ हासिल हो उस को महफ़ूज़ रखें और किफ़ायत शियारी से काम लें और थोड़ा खायें, उसके बाद सात साल सख़्त क़हत साली और ख़ुश्क साली आयेगी और जो कुछ तुम ने पहले सात साल में कमाया और महफ़ूज़ किया होगा उन सात सालों में ख़त्म हो जायेगा और फिर उस के बाद आठवे साल बारिश होगी और लोग ख़ुशहाल हो जायेगें।

 

और क़ैद में हज़रत युसुफ़ के साथ रहने वाले क़ैदियों के ख़्वाब सूरह युसुफ़ की 36 वी आयत में बयान हुए हैं। (हज़रत युसुफ़ के साथ दो जवान जो बादशाह के ग़ुलाम थे, एक ने हज़रत युसुफ़ से कहा कि मैने ख़्वाब में देखा है कि अंगूर के ख़ोशों को निचोड़ रहा हूँ और दूसरे ने कहा कि मैने ख़्वाब में देखा है कि अपने सर पर रोटियों की टोकरी उठाए हुए हूँ और परिन्दे, चीलें और कौवें उसे खा रहे हैं। उन ख़्वाबों की ताबीर हज़रत युसुफ़ की ज़बानी सूरह युसुफ़ की 41वी आयत में बयान हुई है कि हज़रते युसुफ़ ने ख़्वाबों की ताबीर करते हुए फ़रमाया, ऐ मेरे क़ैदी साथियों तुम में से पहला बादशाह का साक़ी बनेगा और दूसरा फ़ाँसी पर चढ़ेगा और परिन्दे उस के सर को खायेगें।)

 

 

14. क़ुरआने मजीद में जर्य और इंतेबाक़

इस बात के पेशे नज़र कि क़ुरआने मजीद एक ऐसी किताब है जो सब के लिये और हमेशा बाक़ी रहने वाली है और उस की छुपी हुई बातें भी ज़ाहिर बातों की तरह जारी हैं और मुस्तक़बिल और माज़ी के साथ भी ज़मान ए हाल की तरह से हैं। जैसे एक किताब की आयतें जो नाज़िल होने के ज़माने में मुसलमानों के लिये फ़रायज़ मुअय्यन करती हैं, नाज़िल होने के बाद उन मोमिनों के लिये जो पहले मोमिनों जैसी शर्तें रखते हों, किसी कमी ज़ियादती के बिना फ़रायज़ को मुअय्यन करती हैं। ऐसी आयतें जो मुख़्तलिफ़ सिफ़त रखने वाले लोगों की तारीफ़ या उन की बुराई करती हैं या उन को ख़ुशखबरी सुनाती या ख़ुदा वंद से डराती हैं। जो लोग मुस्तक़बिल या हर ज़माने में वही सिफ़ात रखते हों और जहाँ कहीं भी हों, वह उन ही आयतों की लिस्ट में आते हैं।

 

लिहाज़ा एक आयत का नाज़िल होना उसी आयत से मख़सूस नही होगा यानी जो आयत एक ख़ास शख़्स या फ़र्द के बारे में नाज़िल हुई है वह अपने नाज़िल होने के बारे में सीमित नही है बल्कि उन्ही ख़ुसूसियात और सिफ़ात में शामिल होगीं जो किसी शख़्स या फ़र्द के बारे में आयेगीं वह आयत उन के अनुसार भी होगी और यह ख़ुसूसियात वही हैं जिन के रिवायात के लिहाज़ से जर्य (जारी होना) कहा जाता है।

 

पाँचवेँ इमाम, इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) एक रिवायत में फ़रमाते हैं कि अगर ऐसा हो कि एक आयत जब एक क़ौम के बारे में नाज़िल हुई है और क़ौम मर गई है तो उस आयत का मफ़हूम भी ख़त्म हो जायेगा तो क़ुरआन में कोई चीज़ बाक़ी नही रहेगी लेकिन क़ुरआन तो जब तक आसमान और ज़मीन बाक़ी हैं जारी है और रहेगा। लिहाज़ा हर क़ौम के लिये एक आयत है जो उस को पढ़ती है उस से अच्छा और बुरा फ़ायदा उठाती है।[i]

 

कुछ दूसरी हदीसों[ii] में क़ुरआने मजीद के बातिन यानी क़ुरआने मजीद के इंतेबाक़ को भी जो वज़ाहत (तफ़सीर) के ज़रिये पैदा होता है जर्य में शामिल किया जाता है।

 


 

15. क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ की तफ़सीर, उस की शुरुवात और तरक़्क़ी

क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ व इबारात और बयानात की तफ़सीर उस के नाज़िल होने के ज़माने से ही शुरु गो गई थी और ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) क़ुरआन की तालीम उस के मअनों के बयानात और आयतों के मक़सद की वज़ाहत किया करते थे जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है:

 

हम ने तुम पर किताब नाज़िल की है ताकि जो कुछ हम ने नाज़िल किया है उस को लोगों के लिये बयान करो। (सूरह नहल आयत 44)

 

और फिर फ़रमाया:

ख़ुदा वंद वह है जिस ने उम्मी (अनपढ़) लोगों में से एक नबी भेजा कि उस की आयतों को लोगों के लिये पढ़ कर सुनाता है और उन के नफ़्सों को पाक करता है और उन को किताब और हिकमत की तालीम देता है। (सूरह जुमा आयत 2)

 

आँ हज़रत (स) के ज़माने में आप के हुक्म से कुछ लोग क़ुरआने मजीद की क़राअत, ज़बानी याद करना और उस को महफ़ूज़ रखने की कोशिशों में लगे रहते थे जिन को क़ुर्रा (क़ारी) कहा जाता था। आँ हज़रत (स) की वफ़ात के बाद आप के सहाबा और उन के बाद सब मुसलमान क़ुरआने मजीद की तफ़सीर में मशग़ूल और मसरुफ़ रहे और आज तक मसरुफ़ हैं।

 

16. तफ़सीर का इल्म और मुफ़स्सेरीन के तबक़ात

पैग़म्बरे अकरम (स) की वफ़ात के बाद कुछ सहाबा जैसे ऊबई बिन काब, अब्दुल्लाह बिन मसऊद, जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी, अबू सईद ख़िदरी, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, अनस बिन मालिक, अबू हुरैरा, अबू मूसा, और सबसे मशहूर अब्दुल्लाह बिन अब्बास क़ुरआन की तफ़सीर में मशग़ूल थे।

 

तफ़सीर में उन का तरीक़ ए कार यह था कि कभी कभी क़ुरआन की आयतों के मआनी से मुतअल्लिक़ जो कुछ जो कुछ उन्होने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सुना था कि उस को रिवायत और हदीस के पैराए में नक़्ल किया करते थे।[iii] यह हदीसें क़ुरआन के शुरु से लेकर आख़िर तक लगभग 240 से ज़्यादा हैं। जिन में से बहुत सी ग़ैर मुसतनद और ज़ईफ़ हदीसें भी शामिल हैं और बाज़ का मत्न क़ाबिले इंकार है और कभी कभी आयतों की तफ़सीर से मुतअल्लिक़ (इंफ़ेरादी तौर पर) इज़हारे ख़्याल किया गया है बग़ैर इसके कि आँ हज़रत से उस को मंसूब करें। इस तरह अपने ख़्यालात और मतालिब को मुसलमानों पर ठूँसा गया है।

 

अहले बैत के मुतअख़्ख़िर मुफ़स्सेरीन और उलामा इस क़िस्म की रिवायात और अहादीस को तफ़सीर में अहादीसे नबवी में शुमार करते थे क्योकि (उनके ख़्याल के मुताबिक़) सहाबा ने क़ुरआने मजीद को इल्म ख़ुद रिसालत माँब (स) से सीखा था और बईद है कि ख़ुद उन्होने उस में कमी बेशी की हो।

 

लेकिन उस से मुतअल्लिक़ कोई कतई दलील नही है इस के अलावा बहुत ज़्यादा ऐसी रिवायतें भी हैं जो आयतों के असबाबे नुज़ूल और तारीख़ों क़िस्सों में दाख़िल गई हैं और इसी तरह उन्ही रिवायाते सहाबा में बहुत से यहूदी उलामा जो मुसलमान हो गये थे जैसे काबुल अहबार वग़ैरह की बहुत सी अदाहीस शामिल हो गई हैं लेकिन किसी सनद के बग़ैर।

 

इसी तरह इब्ने अब्बास अकसर औक़ात आयतों के मअना को वाज़ेह करने के लिये शेरों से मिसालें लाते थे जैसा कि नाफ़ेअ बिन अरज़क़ के सवालात के जवाबात में इब्ने अब्बास से एक रिवायत में आया है कि उन्होने 200 से ज़्यादा सवालात के जवाब में अरबी शेरों से मिसाल देते हैं और सुयूती अपनी किताब अल इतक़ान[iv] में 190 सवालात लाये हैं। इसी तरह ऐसी रिवायात और अहादीस जो मुफ़स्सेरीन सहाबा से हम तक पहुची हैं उन को अहादीसे नबवी में शामिल नही किया जा सकता और उन में सहाबा की नज़री मुदाख़ेलत की नफ़ी भी नही की जा सकती है। लिहाज़ा मुफ़स्सेरीन सहाबा पहले तबक़े में आते हैं।

 

दूसरा तबक़ा: दूसरा तबक़ा ताबेईन का गिरोह है जो मुफ़स्सेरीन सहाबा के शागिर्दों में से हैं जैसे मुजाहिद[v], सईद बिन जुबैर, इकरमा, ज़हाक और इसी तबक़े के दूसरे मुफ़स्सेरीन जैसे हसन बसरी, अता बिन अबी रियाह, अता बिन अबी मुस्लिम, अबुल आलिया, मुहम्मद बिन काब क़रज़ी, क़तादा, अतिया, ज़ैद बिन अस्लम और ताऊस यमानी वग़ैरह।

 

तीसरा तबक़ा: तीसरा तबक़ा दूसरे तबक़े शागिर्दों पर मबनी है जैसे रबी बिन अनस, अब्दुल रहमान बिन ज़ैद बिन असलम, अबू सालेह कलबी वग़ैरह, तफ़सीर में ताबेईन का तरीक़ ए कार यह था कि आयतों की तफ़सीर को भी पैग़म्बरे अकरम (स) से बराहे रास्त या सहाबा से नक़्ल करते हैं और कभी आयतों के मआनी को बग़ैर किसी से मंसूब किये लिख देते थे। वह अपने इज़हारे राय पर ऐतेराज़ करते थे बाद के मुफ़स्सेरीन ने उन अक़वाल को अहादीसे नबवी में दर्ज किया। ऐसी रिवायात व अहादीस को मौक़ूफ़ा कहते हैं। क़दीम मुफ़स्सेरीन उन्ही दो तबक़ो पर मुशतमिल हैं।

 

चौथा तबक़ा: यह तबक़ा पहले तबक़े के मुफ़्सेरीन की तरह है जैसे सुफ़ायन बिन ओनैया, वकी बिन जर्राह, शोअबा बिन हुज्जाज, अब्द बिन हमीद वग़ैरह और मशहूर मुफ़स्सिर इब्ने जरीर तबरी इसी तबक़े से ताअल्लुक़ रखते हैं।

 

इस गिरोह का तरीक़ ए कार भी ऐसा था कि सहाबा और ताबेईन के अक़वाल को रिवायात की सूरत में अपनी तालीफ़ात में दाख़िल कर लेते थे लेकिन इंफ़ेरादी नज़र और राय से परहेज़ करते थे। उन में से सिवाए इब्ने जरीरे तबरी के जो अपनी तफ़सीर में कभी कभी अक़वाल में से बाज़ को तरजीह देते थे और उस पर इज़हारे ख़्याल किया करते थे। मुतअख़्ख़िर तबक़ा उन ही में से शुरु होता है।

 

पाँचवा तबक़ा: इस गिरोह में ऐसे लोग शामिल हैं जो अहादीस व रिवायात को सनद के बग़ैर ही अपनी तालीफ़ात में दर्ज कर लेते थे और सिर्फ़ नक़्ले अकवाल पर ही क़नाअत करते थे।

 

कुछ उलामा का क़ौल है कि तफ़सीर की तरतीब और तंज़ीम में गड़बड़ यहीं से शुरु हुई है और उन तफ़ासीर में बहुत ज़्यादा अक़वाल किसी सनद और सेहत व ऐतेबार के बग़ैर दाख़िल हो गये हैं और सनद की सही तशख़ीस सहाबा और ताबेईन से मंसूब की गई है। इस हरज मरज के सबब बहुत ज़्यादा अक़वाल तफ़सीरों में दाख़िल हो गये हैं जिन से अक़वाल की सेहत व सनद मुतज़लज़ल हो कर रह गई है।

 

लेकिन अगर कोई शख़्स रिवायते मुअनअन[vi] (इंतेसाबी) पर ग़ौर व फ़िक्र करे तो कोई शक व शुबहा नही रखेगा कि उन रिवायात व अदाहीस में बनावटी (जाली हदीसें) बहुत ज़्यादा हैं। मुदाफ़ेअ और मुतनाक़िज़ अक़वाल एक सहाबी या ताबेई से मंसूब किये गये हैं और ऐसे क़िस्से और हिकायतें जो बिल्कुल झूठी हैं, उन रिवायतों में बहुत ज़्यादा देखी जा सकती हैं। आयतों के असबाबे नुज़ूल और नासिख़ व मंसूख़ के बारे में वह रिवायतें जो क़ुरआनी आयात के सियाक़ व सबाक़ के मुताबिक़ नही हैं। एक दो नही जिन से चश्म पोशी की जा सके। यहाँ तक कि इमाम बिन हंबल (जो ख़ुद इस तबक़े के वुजूद में आने से पहले थे) ने फ़रमाया है कि तीन चीज़ों की बुनियाद नही है।

(1) लड़ाई

(2) ख़ूनरेज़ जंग

(3) तफ़सीरी रिवायतें। और ऐसे ही इमाम शाफ़ेई का बयान है कि इब्ने अब्बास से मरवी हदीसों में से सिर्फ़ 100 हदीसें साबित शुदा है।

 

छठा तबक़ा: इस जमाअत में ऐसे मुफ़स्सेरीन शामिल हैं जो मुख़्तलिफ़ उलूम की पैदाईश और तरक़्क़ी के बाद पैदा हुए हैं और हर इल्म के माहेरीन ने अपने मख़सूस अंदाज़े फ़न के ज़रिये क़ुरआन की तफ़सीर शुरु की। इल्मे नहव के माहेरीन ने नहव के ज़रिये जैसे ज़ुजाज़, वाहिदी और अबी हय्यान[vii] जिन्होने क़ुरआनी आयात पर ऐराब लगाने के मौज़ू पर बहस की है, फ़साहत व बलाग़त के मौज़ू पर अल्लामा ज़मख़शरी[viii] ने अपनी किताब अल कश्शाफ़ में इज़हारे ख़्याल किया है। इल्मे कलाम के माहेरीन ने इल्मे कलाम के ज़रिये अपनी किताब की वज़ाहत की है जैसे इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में, आरिफ़ों मे इरफ़ान के ज़रिये जैसे इब्ने अरबी और इब्ने रज़्ज़ाक़े काशी ने अपनी अपनी तफ़सीरों में, इल्मे अख़बार (हदीस) के आलिमों के अख़बार (अहादीस व रिवायात) नक़्ल कर के जैसे सालबी ने अपनी तफ़सीर में, फ़क़ीहों ने फ़िक़ह के वसीले से जैसे क़ुरतुबी और बाज़ दूसरे हज़रात ने भी मख़लूत तफ़सीरें, उलूमे मुतफ़र्रेक़ा के बाब में लिखी हैं जैसे तफ़सीरे रुहुल बयान, तफ़सीरे रुहुल मआनी और तफ़सीरे नैशा पुरी वग़ैरह।

 

आलिमे तफ़सीर के लिये उस गिरोह की ख़िदमत यह हुई कि फ़ने तफ़सीर उस इंजेमाद और रुकूद की हालत से बाहर आ गया जो पहले पाँच तबक़ों में मौजूद था और इस तरह एक नये मरहले में दाख़िल हो गया जो बहस व तमहीस का मरहला था। अगर कोई शख़्स निगाहे इंसाफ़ से देखे तो मालूम होगा कि इस तबक़े की तफ़सीरी बहसों में इल्मी नज़रियात क़ुरआन पर ठूँसने की कोशिश की गई है लेकिन ख़ुद क़ुरआनी आयात पर उन मज़ामीन के लिहाज़ से बहस नही हुई है।

 

17. शिया मुफ़स्सेरीन और उनके मुख़्तलिफ़ तबक़ात का तरीक़ ए कार

जिन गिरोहों के मुतअल्लिक़ पहले ज़िक्र किया गया है कि वह अहले सुन्नत के तबक़ात के मुफ़स्सेरीन से ताअल्लुक़ रखते हैं और उन का तरीक़ ए कार एक ख़ास रविश पर मबनी है जो शुरु से ही तफ़सीर में जारी हो गई थी और वह है अदाहीसे नबवी का सहाबा केराम और ताबेईन के अक़वाल के साथ मामला, जिन में मुदाख़ेलते नज़रिया ऐसे ही है जैसे नस्से क़ुरआन के मुक़ाबले में इज्तेहाद हो, यहाँ तक कि उन रिवायात में जालसाज़ी, तज़ाद, तनाकुज़ आशकार होने लगा और ऐसे ही बनावट और जाल के ज़रिये उन मुफ़स्सेरीन को मुदाख़ेलते नज़रिया का बहाना हाथ आ गया।

 

लेकिन वह तरीक़ ए कार जो शियों ने क़ुरआनी तफ़सीर में अपनाया है वह मुनदरजा बाला रविश के बर ख़िलाफ़ है, लिहाज़ा इख़्तिलाफ़ के नतीजे में मुफ़स्सेरीन की तबक़ा बंदी भी दूसरी तरह की है।

 

शिया हज़रात क़ुरआने मजीद की नस्से शरीफ़ा के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) की हदीस को क़ुरआनी आयात की तफ़सीर में हुज्जत समझते हैं और सहाब ए केराम और ताबेईन के अक़वाल के बारे में दूसरे तमाम मुसलमानों की तरह बिल्कुल किसी हुज्जत के क़ायल नही है अलबत्ता सिवाए पैग़म्बरे अकरम (स) से मंसूब अहादीस के बग़ैर, उस के अलावा शिया हज़रात हदीसे मुतवातिर की तरतीब से अहले बैत (अ) और आईम्म ए अतहार के अक़वाल को पैग़म्बरे अकरम (स) की अहादीस की कड़ियाँ जान कर उन को हुज्जत समझते हैं। इस तरह तफ़सीरी अहादीस व रिवायात को नक़्ल और बयान करने के लिये सिर्फ़ ऐसी रिवायात पर इक्तेफ़ा करते हैं जो फ़क़त पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से नक़्ल हुई हों, लिहाज़ा उन के मुनदर्जा ज़ैल तबक़ात हैं:

 

पहला तबक़ा: इस गिरोह में वह लोग मौजूद हैं जिन्होने रिवायाते तफ़सीर को पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से सीखा है और अपने उसूल में बे तरतीबी साबित कर के उन की रिवायत शुरु कर दी है। जैसे ज़ोरारा, मुहम्मद बिन मुस्लिम[ix], मारुफ़ और जरीर वग़ैरह।

 

दूसरा तबक़ा: यह हज़रात तफ़सीर की किताबों के मुअल्लिफ़ और मुफ़स्सिर हैं। जैसे फ़ुरात बिन इब्राहीम, अबू हमज़ा सुमाली, अयाशी, अली बिन इब्रहीम क़ुम्मी और नोमानी, साहिबे तफ़सीर हैं। उन हज़रात का शिव ए कार अहले सुन्नत के चौथे तबक़े के मुफ़स्सेरीन की तरह यह था कि लिखी हुई रिवायात को जो पहले तबक़े से हाथ लगी हों, सनदों के साथ अपने तालीफ़ात में दर्ज करते थे और उन में हर क़िस्म की नज़री दख़ालत से परहेज़ करते थे।

 

इस अम्र के पेशे नज़र कि आईम्म ए तक दस्तरसी का ज़माना बहुत तूलानी था जो तक़रीबन तीन सौ साल तक जारी रहा, फ़ितरी तौर पर उन दोनो तबक़ों को ज़माने के लिहाज़ के एक दूसरे से अलग करना मुश्किल है क्योकि यह आप में घुल मिल गये हैं और इसी तरह जो लोग रिवायात व अहादीस को असनाद और दस्तावेज़ात के बग़ैर दर्ज करें बहुत कम थे। इस बारे में नमूने के तौर पर तफ़सीरे अयाशी का नाम लिया जा सकता है कि जिस में से अयाशी के एक शागिर्द ने उन की तालीफ़ में से हदीसों की सनदों और दस्तावेज़ों को इख़्तिसार के सबब निकाल दिया था और उस का तैयार किया हुआ नुस्ख़ा अयाशी के नुस्ख़े की जगह रायज हो गया था।

 

तीसरा तबक़ा: यह गिरोह अरबाबे उलूमे मुतफ़र्रेक़ा पर मुश्तमिल है जैसे सैयद रज़ी अपनी अदबीयत के लिहाज़ से, शेख़ तूसी कलामी तफ़सीर के लिहाज़ से, जो तफ़सीरे तिबयान के नाम से मशहूर है और सदुरल मुतअल्लेहीन शिराज़ी[x] अपनी फ़लसफ़ी के लिहाज़ से मैबदी गुनाबादी अपनी इरफ़ानी तफ़सीर के लिहाज़ से, शेख़ अब्दे अली जुवैज़ी, सैयद हाशिम बैहरानी, फ़ैज़ काशानी, तफ़सीर नुरुस सक़लैन में, बुरहान और साफ़ी वग़ैरह, जिन्होने बाज़ दूसरी तफ़ासीर में से उलूम जमा किये हैं। शेख़ तबरसी अपनी तफ़सीर मजमउल बयान में, जिस में उन्होने लुग़त, नहव, क़राअत, कलाम और हदीस वग़ैरह के लिहाज़ से बहस की है।

 

18. ख़ुद क़ुरआने मजीद कैसी तफ़सीर कबूल करता है?

इस सवाल का जवाब पिछले बाबों से मालूम हो जाता है क्योकि एत तरफ़ तो क़ुरआने मजीद ऐसी किताब, जो उमूमी और हमेशगी है और तमामों इँसानों को ख़िताब करते हुए अपने मक़ासिद की तरफ़ रहनुमाई और हिदायत करती है। इस तरह सब इंसानों के चैलेंज करती हैं (कि इस तरह की किताब ला कर दिखाओ) और अपने आप को नूर (नूरानी करने वाली) और हर चीज़ को वाज़ेह बयान करने वाली किताब कह कर तआरुफ़ कराती है अतबत्ता अपने वाज़ेह और रौशन होने में दूसरों की मोहताज नही है।

 

क़ुरआने मजीद यह भी चैलेंज करता है कि यह किसी इंसान का कलाम नही है और फ़रमाता है[xi] कि क़ुरआन यकसाँ कलाम है जिस में किसी क़िस्म का फ़र्क़ नही। (इस की आयात में) और जो फ़र्फ़ ज़ाहिरी तौर पर लोगों को लोगों को नज़र आता है वह लोग अगर क़ुरआन में ग़ौर व फ़िक्र और तदब्बुर करें तो हल हो जाता है और अगर यह क़ुरआन खुदा का कलाम न होता तो हरगिज़ इस क़िस्म का न होता और अगर ऐसा कलाम अपने मक़ासिद के रौशन होने में किसी कमी, चीज़ या आदमी का मोहताज होता तो यह दलील और बुरहान पूरी नही हो सकती थी क्योकि अगर कोई मुख़ालिफ़ या दुश्मन ऐसे इख़्तिलाफ़ी मसायल दरयाफ़्त करे जो ख़ुद की क़ुरआन की लफ़्ज़ी दलालत के ज़रिये हल न हो और किसी दूसरे ग़ैरे लफ़्ज़ी तरीक़े से हल हों जैसे पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ रुजू करने से हल हो सकें तो आँ हज़रत क़ुरआनी शवाहिद के बग़ैर ही उन को हल कर दें यानी आयत का मतलब ऐसा और यूँ हैं तो इस सूरत में वह मुख़ालिफ़ शख़्स जो आँ हज़रत की इस्मत और सदाक़त का मोतरिफ़ नही है वह अगर क़ाने और मुतमईन नही हो सकेगा। दूसरे अल्फ़ाज़ में पैग़म्बरे अकरम (स) का बयान और इख़्तिलाफात को हल करना और वह भी क़ुरआनी शहादत और दलील के बग़ैर तो वह सिर्फ़ ऐसे शख़्स के लिये मुफ़ीद और क़ाबिले क़बूल होगा जो नबूवत और आँ हज़रत (स) की इस्मत और पाकी पर ईमान रखता हो। लेकिन इस आयते शरीफ़ा में, क्या वह लोग क़ुरआन में ग़ौर व फिक्र नही करते अगर यह क़ुरआन खुदा के अलावा किसी और जानिब से आया होता तो इस में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ पाते। (सूरह निसा आयत 82) एक एहितजाज और उन लोगों की तरफ़ इशारा और दावत है जो नवूबत और आँ हज़रत (स) की इस्मत व तहारत पर ईमान नही रखते। लिहाज़ा आँ हज़रत का बयान जो क़ुरआनी सुबूत के बग़ैर हो उन पर सादिक़ नही आया।

 

दूसरी तरफ़ क़ुरआने मजीद ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) के बयान और तफ़सीर पर और पैग़म्बरे अकरम (स) अपने अहले बैत की तफ़सीर की ताईद करते हैं।

 

इन दो दीबाचों का नतीजा यह है कि क़ुरआने मजीद में बाज़ आयात बाज़ दूसरी आयात के साथ मिल कर तफ़सीर होती हैं और पैग़म्बरे अकरम (स) और आप के अहले बैत (अ) की हालत क़ुरआने मजीद के बारे में मासूम उस्तादों जैसी है। जो अपनी तालीम में हरगिज़ ख़ता नही करते हैं। लिहाज़ा जो तफ़सीर वह करते हैं वह क़ुरआने मजीद की आयात को बा हम ज़म कर के तफ़सीर करने से कोई फ़र्क़ नही रखती।

 

 

 

 

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[i]. तफ़सीरे अयाशी, क़ुम, हिस्स ए अव्वल, पेज 10

 

[ii]. पिछला हवाले के पहले हिस्से का 11 वा पेज, फ़ुज़ैल की हदीस इमाम बाक़िर (अ) से

 

[iii]. आख़िर इतक़ान, सुयूती, क़ाहिरा, 1370 हिजरी

 

[iv]. अल इतक़ान पेज 120, 133

 

[v]. मुजिहद मशहूर मुफ़स्सिर, वफ़ात 100,103 हिजरी क़मरी। (तहज़ीबुल अस्मा नोवी)

 

सईद बिन जुबैर, मशहूर मुफ़स्सिर और इब्ने अब्बास के शागिर्द जो हुज्जाज बिन युसुफ़ के हाथों 94 हिजरी में शहीद हुए। (तहज़ीब)

 

इकरमा, इब्ने अब्बास, के शागिर्द और ग़ुलाम जो सईद बिन जो सईद बिन जुबैर का शागिर्द था।

 

ज़हाक, इकरमा के शागिर्दों में से थे। (लिसानुल मीज़ान)

 

हसन बसरी, मशहूर ज़ाहिद और मुफ़स्सिर 110 हिजरी में वफ़ात पाई। (तहज़ीब)

 

अता बिन अबी रियाह, फ़क़ीह और मशहूर मुफ़स्सिर जो इब्ने अब्बास के शागिर्दों में से थे वफ़ात 115 हिजरी। (तहज़ीब)

 

अता बिन अबी मुस्लिम, ताबेईन में से थे और इब्ने जुबैर के शागिर्द थे। वफ़ात 133 हिजरी। (तहज़ीब)

 

अबुल आलिया, आईम्म ए मुफ़स्सेरीन मे से थे जो ताबेईन में शुमार होते थे। पहली सदी हिजरी में ज़िन्दा थे।

 

मुहम्मद बिन काबे करज़ी, मशहूर मुफ़स्सिर और यहूदी नस्ल में से थे उन का ताअल्लुक़ बनी क़ुरैज़ा से था। पहली सदी हिजरी में ज़िन्दा थे।

 

क़तादा, फ़ने तफ़सीर के बुज़ुर्गों में से शुमार होते हैं, हसने बसरी और इकरमा के शागिर्दों में से थे। वफ़ात 117 हिजरी। (तहज़ीब)

 

अतिया, किताबे लिसान के लेखक, उन का ज़िक्र इब्ने अब्बास ने किया है। (लिसान)

 

ज़ैद बिन असलम, उमर बिन ख़त्ताब के ग़ुलाम, मशहूर फ़क़ीह और मुफ़स्सिर थे वफ़ात 136 हिजरी।

 

ताऊस यमानी, अपने ज़माने के मशहूर आलिम और इब्ने अब्बास के शागिर्द थे वफ़ात 106 हिजरी।

1. रिवायते मौक़ूफ़ा, ऐसी हदीस को कहते हैं जिस का रावी मालूम न हो या उस का ज़िक्र न किया गया हो।

2. अबू सुफ़यान बिन ओनैया मक्की, ताबेईन के दूसरे तबक़े ताअल्लुक़ रखते थे और अपने ज़माने के उलामा और मुफ़स्सेरीन में से थे वफ़ात 198 हिजरी (तहज़ीब)

 

वकी बिन जर्राह, ताबेईन के दूसरे तबक़े में से थे, क़ुरआन के मुफ़स्सिर थे। वफ़ात 197 हिजरी। (हिजरी)

 

शोअबा बिन हुज्जाज बसरी, ताबेईन के दूसरे तबक़े में शुमार होते थे, मुफ़स्सिरे क़ुरआन थे वफ़ात 160 हिजरी।

 

अब्द बिन हमीद, साहिबे तफ़सीर और ताबेईन के दूसरे तबक़े से ताअल्लुक़ रखते थे। दूसरी सदी हिजरी में ज़िन्दा थे।

 

इब्ने जरीर तबरी, मुहम्मद बिन जरीर बिन यज़ीद तबरी अहले सुन्नत के मशहूर तरीन उलामा में से थे। वफ़ात 310 लिज़ानुल मीज़ान)

 

[vi]. ऐसी रिवायत या हदीस को कहते हैं कि जो कई वसीलों से पैग़म्बरे अकरम (स) से मंसूब होती हो। यानी रावी कहता है कि मैं ने यह हदीस फ़लाँ से सुनी है, उस ने फ़लाँ से और उस ने फ़लाँ से......वग़ैरह।

 

[vii]. ज़ुज्जाज, इल्में नहव के आलिम, वफ़ात 310 हिजरी। (रैहानतुल अदब)

 

वाहिदी, मुफ़स्सिर और इल्मे नहव के मुफ़स्सिर वफ़ात 468 हिजरी। (रैहानतुल अदब)

 

अबू हय्यान अंदलुसी, नहव के आलिम, मुफ़स्सिर और क़ारी, 745 हिजरी में मिस्र में वफ़ात पाई। (रैहानतुल अदब)

 

[viii]. ज़मख़शरी, उलामा ए अदब में मशहूर हैं, उनकी किताब तफ़सीरे क़श्शाफ़ बहुत मारुफ़ है। वफ़ात 538 हिजरी। (कश्फ़ुज़ ज़ुनून)

 

इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी, मुतकल्लिम और मशहूर मुफ़स्सिर, साहिबे तफ़सीरे मफ़ातिहुल ग़ैब वफ़ात 606 हिजरी। (कश्फ़ुज़ ज़ुनून)

 

अब्दुर्रज्ज़ाक़ काशी, छठी सदी हिजरी के मशहूर आरिफ़ उलामा में से हैं। वफ़ात 720, 751 हिजरी। (रैहानतुल अदब)

 

अहमद बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम, साहिबे तफ़सीर सालबी वफ़ात 726, 727 हिजरी। (रैहानतुल अदब)

 

मुहम्मद बिन अहमद बिन अबी बकर, वफ़ात 668 हिजरी। (रैहानतुल अदब)

 

तफ़सीरे रुहुल बयान, तालीफ़ शेख़ इस्माईल हक़्क़ी इस्लामबुली। वफ़ात 1137 (मुलहक़ात क़श्फ़ुज़ ज़ुनून)

 

तफ़सीरे रुहुल मआनी, तालीफ़ शहाबुद्दीन मुहम्मद आलूसी बग़दादी। वफ़ात 127 हिजरी। (मुलहक़ाते कश्फ़ुज़ ज़ुनून)

 

ग़रायबुल क़ुरआन के नाम से एक तफ़सीर है जो निज़ामुद्दीन हसनी क़ुम्मी नैशापुरी की तालीफ़ है। वफ़ात 728 हिजरी। (मुलहक़ाते कश्फ़ुज़ ज़ुनून)

 

[ix]. ज़ोरारा और मुहम्मद बिन मुस्लिम दोनो शिया फ़क़ीह थे। पाँचवे और छठें इमाम के ख़ास असहाब में से थे मारुफ़ और जरीर छठे इमाम के ख़ास असहाब थे।

 

फ़ुरात बिन इब्राहीम कूफ़ी साहिबे तफ़सीर हैं, (रैहानतुल अदब) अबू हमज़ा सुमाली फ़क़ीह, चौथे और पाँचवे इमाम के ख़ास शागिर्दों में से थे।

 

अयाशी, मुहम्मद बिन मसऊद कूफ़ी समरकंदी, शिया उलामा में से हैं जो तीसरी सदी हिजरी में ज़िन्दा थे। (रैहानतुल अदब)

 

अली बिन इब्राहीम क़ुम्मी शिया मुहद्देसीन में से थे, तीसरी सदी के आख़िर और चौथी सदी के शुरु में ज़िन्दगी बसर की। (रैहानतुल अदब)

 

नोमानी, मुहम्मद बिन इब्राहीम नोमानी, शियों के बड़े उलामा और शेख़ कुलैनी के शागिर्दों में से थे और चौथी सदी हिजरी के शुरु में ज़िन्दा थे। (रैहानतुल अदब)

 

सैयद रज़ी, शियों के बड़े फ़ोक़हा में से हैं, जो शेर व अदब के लिहाज से अपने ज़मानों वालों में मुम्ताज़ थे। नहजुल बलाग़ा की तालीफ़ हैं। आपने 404 हिजरी या 406 हिजरी में वफ़ात पाई। (रैहानतुल अदब)

 

शेख़ुत तायफ़ा मुहम्मद बिन हसन तूसी, जो मुम्ताज़ शिया उलामा में से हैं, किताब तहज़ीब और इस्तिबसार जो कि चार मुसतनद शिया किताबों में से हैं उन की तालीफ़ात हैं। 460 हिजरी में वफ़ात पाई।

 

[x]. सदरुल मुतअल्लेहीन मुहम्मद बिन इब्राहीम शीराज़ी, मशहूर फ़लसफ़ी थे, आप ने 1050 हिजरी में वफ़ात पाई। आप की तालीफ़ात में असरारुल आयात और मजमूज ए तफ़ासीर शामिल हैं। (रौज़ात और रैहानतुल अदब)

 

मैबदी गुनाबादी, सैयद हाशिम बहरानी (साहिबे बुरहान, चार जिल्दों में वफ़ात 1107 हिजरी)

 

फ़ैज़ काशानी, मुल्ला मोहसिन जिन्होने तफ़सीरे साफ़ी और असफ़िया लिखी। (वफ़ात 1091 हिजरी) (रैहानतुल अदब)

 

फ़ज़्ल बिन हसन तबरसी अहम शिया उलामा में से हैं जो साहिबे तफ़सीरे मजमउल बयान हैं। यह तफ़सीर 10 जिल्दों में हैं। आप ने 548 हिजरी में वफ़ात पाई।

 

[xi]. सूर ए निसा आयत 82

 

 


 

19. बहस का नतीजा

वह नतीज जो पिछले बाब से हासिल होता है वह यह है कि क़ुरआने मजीद की हक़ीक़ी तफ़सीर, वह तफ़सीर जो आयत में ग़ौर व ख़ौज़ और एक आयत को दूसरी आयत के साथ मिला कर पढ़ने से हासिल होती है दूसरे अल्फ़ाज़ में क़ुरआनी आयात की तफ़सीर के लिये हमारे सामने तीन तरीक़े हैं:

 

1. एक आयत की अलग तफ़सीर इन तमाम इल्मी व ग़ैर इल्मी मुक़द्दमों के साथ जो हमारे सामने मौजूद हैं।

 

2. एक आयत की तफ़सीर रिवायत व हदीस की मदद से कि जो आयत के ज़ैल में एक मासूम (पैग़म्बर या अहले बैत) से हम तक पहुची है।

 

3. आयत की तफ़सीर तदब्बुर और ग़ौर व फ़िक्र की मदद से और आयत के मअना तमाम मरबूत आयात से हासिल करना और हत्तल इमकान रिवायात से इस्तेफ़ादा करना।

 

तीसरा तरीक़ा वही है जिस के बारे में पिछले बाब में हम ने नतीजा अख़्ज़ किया है और वह ऐसा तरीक़ा है कि पैग़म्बरे अकरम (स) और आप के अहले बैत (अ) अपनी तालिमात में उस की तरफ़ इशारा करते रहे हैं। जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) फ़रमाते हैं कि और बेशक यह आयात बाज़ दूसरी आयात की तसद़ीक में आई हैं। और अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) फ़रमातै हैं कि क़ुरआने मजीद की बाज़ आयात बाज़ दूसरी आयात को बयान करती हैं और बाज़ आयात बाज़ दूसरी आयात के बारे में शहादत देती हैं।

 

मुन्दरजा बाला बयान से वाज़ेह होता है कि यह तरीक़ा उस तरीक़े से जुदा है जो मशहूर हदीसे नबवी, जो शख़्स अपने अक़ीदे और नज़रिये के तहत क़ुरआन की तफ़सीर करता है वह अपना मकान आग में बनाता है, के मुताबिक़ अपनी अक़ीदे से क़ुरआन की तफ़सीर को मना किया गया है। क्योकि इस तरीक़े में कुरआने मजीद की तफ़सीर ख़ुद क़ुरआन की आयात से होती हैं न कि मुफ़स्सिर की अपनी राय और अक़ीदे के साथ।

 

पहला तरीक़ा क़ाबिल ऐतेबार नही है और हक़ीक़त में तफ़सीर अपनी मर्ज़ी और राय के मुताबिक़ है मगर यह कि तीसरे तरीक़े के साथ मुताबिक़त करे।

 

दूसरा तरीक़ा क़ाबिल ऐतेबार नही है जो उलामा ए इस्लाम अवायले इस्लाम में अंजाम देते थे और सदियों तक रायज रहा और उस पर अमल दर आमद होता रहा। (जैसा कि पिछले बाबों में ज़िक्र किया गया है।) और अब तक अहले सुन्नत मुफ़स्सेरीन में जारी और रायज है।

 

यह तरीक़ा हा महदूद ज़रुरतों के मुक़ाबले में बहुत महदूद है क्योकि 6 हज़ार कुछ सौ क़ुरआनी आयात में हमारे लिये सैकड़ों और हज़ारों इल्मी और ग़ैर इल्मी सवालात पैदा होते हैं। हमें इन सवालात और मुश्किलात का हल कहाँ से हासिल करना चाहिये?

 

आया रिवायात और अहादीस की तरफ़ रुजू करना चाहिये?

इस सूरत में ऐसी रिवायत और अहादीस जिन की तादाद दो सौ पचास अहादीस तक भी नही पहुचती और सब की सब अहले सुन्नत के ज़रिये हम तक पहुची हैं और उन में बहुत सी हदीसें ज़ईफ़ हैं और बाज़ दूसरी क़ाबिल इंकार है और ऐसी अहादीस जो शिया ज़रियों और अहले बैत की ज़बानी हम तक पहुची हैं अगर इन को नज़र में रखें तो इन की तादाद हज़ारों तक पहुचती है। इन के दरमियान बहुत ज़्यादा अहादीस क़ाबिले ऐतेबार मिल सकती हैं। लेकिन बहरहाल हा महदूद सवालात का जवाब देने के लिये काफ़ी नही है और इस के अलावा बहुत ज़्यादा क़ुरआनी आयात भी हैं। जिन के बारे में ख़ास और आम तरीक़ों से कोई हदीस नही मिलती।

 

आया उन मुश्किलात को हल करने के लिये उन को मुनासिब आयात की तरफ़ रुजू करना चाहिये जो इस तरीक़े में मना हैं?

 

या बहस से बिल्कुल परहेज़ करना चाहिये और अपनी इल्मी ज़रुरत से चश्म पोशी कर लेनी चाहिये? इस सूरत में आयते शरीफ़ा:

 

हम ने तुम पर यह किताब (क़ुरआन) नाज़िल की ता कि हर चीज़ की हक़ीक़त को वाज़ेह करे यानी हक़ को बातिल से जुदा करे।

 

सूरज से ज़्यादा रौशन दलील के क्या मअना होगें? सूर ए निसा और सूर ए मुहम्मद की यह आयाते शरीफ़ा और सूर ए साद की 29 वी आयत जिस का यह मतलब है कि यह किताब बहुत मुबारक है जो हम ने तुम पर नाज़िल की है, इस लिये कि उस की आयत पर ग़ौर करें और साहिबे अक़्ल लोग इस को बयान करें और सूर ए मोमिनून की 68 वी आयते शरीफ़ा आया उन्होने इस बयान पर ग़ौर नही किया है या उन की तरफ़ कोई नई चीज़ नाज़िल हुई है जो उन के आबा व अजदाद की तरफ़ पहले कभी नाज़िल नही हुई थी। उन आयात के मअना क्या होगें?

 

मुसल्लेमा अहादीस जो पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से हम से पहुची हैं और लोगों को उन (पर ग़ौर व फिक्र करने) की ताकीद और वसीयत की गई है कि मुश्किलात व इख़्तिलाफ़ात पेश आने पर क़ुरआन मजीद की तरफ़ रुजू करें, उन का असर क्या होगा?

 

बुनियादी तौर पर इस तरीक़े की बेना पर क़ुरआने मजीद पर ग़ौर व फिक्र करने का मसला जो बहुत सी आयात के मुताबिक़ एक उमूमी फ़र्ज़ है, क्या इस के कुछ मअना नही है?

 

इसी तरह आम तरीक़े से पैग़म्बर अकरम (स) की अहादीस में और ख़ास तरीक़े से, (अख़बारे मुतावातिर) जो पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) की तरफ़ से अहादीस को किताबुल्लाह (क़ुरआन) की तरफ़ रुजू करने में फ़र्ज़ हुआ है, इल अहादीस के मुताबिक़ हदीस को क़ुरआने मजीद के मुताबिक़ होना चाहिये, अगर मुताबेक़त करे तो उस पर अमल होना चाहिये अगर मुख़ालिफ़ हो तो उस को रद्द करना चाहिये।

 

ज़ाहिर है कि इन अहादीस का मज़मून उसी वक़्त ठीक होगा जब क़ुरआनी आयात अपने मदलूल (मअना) पर दलालत करती हो और उस मदलूल का मा हसल, जो हक़ीक़त में आयत की तफ़सीर है, काबिल ऐतेमाद हो और अगर ऐसा हो कि आयत के मआनी के मा हसल यानी तफ़सीर को ख़ुद हदीस तशकील दे। (कि ठीक है या नही) तो इस सूरत में किताब (क़ुरआन) की तरफ़ रुजू करने और हासिल शुदा मआनी ठीक और सही नही होगें।

 

यह अहादीस बेहतरीन गवाह हैं कि क़ुरआने मजीद की आयात पूरे कलाम की तरह मआनी पर दलालत करती है और रिवायात के अलावा भी मुस्तकिल तौर पर हुज्जत हैं।

 

पस जो चीज़ पिछली बहसों से वाज़ेह होती है वह यह है कि एक मुफ़स्सिर का फ़र्ज़ यह है कि पैग़म्बर अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) की उन अहादीस पर ग़ौर व ख़ौज़ करे जो क़ुरआने मजीद की तफ़सीर में दाख़िल हो गई हैं और उन के तरीक़ों से आशना हों। उस के बाद क़ुरआन व सुन्नत की रौशनी में क़ुरआने मजीद की तफ़सीर करें और उन अहादीस व रिवायात को जो आयत के मज़मून के मुताबिक़ हों, सिर्फ़ उन्ही पर अमल करें।

 

20. क़ुरआन से क़ुरआन की तफ़सीर का नमूना

खुदावंदे आलम अपनी किताब में कई जगह फ़रमाता है कि हर चीज़ का पैदा करने वाला ख़ुदा है। (सूर ए ज़ुमर आयत 65) जिस चीजॉ को शय या चीज़ कहा जाता है वह ख़ुदा के अलावा है। यही मज़मून क़ुरआने मजीद में चार बार आया है और उस के लिहाज़ से जो चीज़ भी दुनिया में मख़लूक़ फ़र्ज़ की जाये वह ख़ुदा ने ही पैदा की है और उस की ज़िन्दगी भी ख़ुदा से वाबस्ता है।

 

अलबत्ता इस नुक्ते को भी नही भूलना चाहिये कि क़ुरआने मजीद सैकड़ो आयात में इल्लत व मालूम की तसदीक़ करता है और हर फ़ाइल के फ़ेल को ख़ुद उस के फ़ाइल से निस्बत देता है। चीज़ों से असरात को जैसे आग के जलाने, ज़मीन से खेती उगाने, आसमान से बारिश बरसाने और ऐसे ही दूसरे आमाल, जो इंसान के इख़्तियारी फ़ेल हैं उन को इंसान सें मंसूब करता है।

 

नतीजे के तौर पर हर काम को अंजाम देने वाला शख़्स इस काम का साहिब या मालिक है लेकिन ज़िन्दगी देने वाला और हर चीज़ को पैदा करने वाला, हक़ीक़ी साहिबे कार सिर्फ़ ख़ुदा ही है और बस,

 

अल्लाह तआला ने अपनी मख़लूक और आफ़रिनिश को उमूमियत देने के बाद, फ़रमाता है कि वह ख़ुदा जिसने हर चीज़ को बहुत ख़ूब सूरत पैदा किया है, मुनदर्जा बाला आयात के इंज़ेमाम के मुताबिक़, ख़ूब सूरती के अलावा और कोई सिफ़त नही रखतीं। (हर चीज़ ज़ेबा और ख़ूब सूरत है)

 

और इस नुक्ते से भी ग़ाफ़िल नही होना चाहिये कि क़ुरआने मजीद बहुत ज़्यादा आयात में अच्छाई को बुराई के मुक़ाबले में और फ़ायदे को नुक़सान के मुक़ाबले में और उसी तरह अच्छे को बुरे के मुक़ाबले में और ख़ूब सूरत को बदसूरत के मुक़ाबले में बयान करता है।

 

और बहुत से कामों, मज़ाहिर क़ुदरत को अच्छा और बुरा कह कर पुकारता है लेकिन हक़ीक़त में यह बुराईयाँ आपस में मुक़ाबला करने से पैदा होती हैं लिहाज़ा इन का वुजूद क़यासी और निसबी है न कि नफ़्सी (ज़ाती)। जैसे साँप और बिछ्छू बुरे जानवर हैं लेकिन इंसानों और हैवानात की बनिस्बत, जिन को उन के डंकों से नुक़सान पहुचता है न कि पत्थर और मिट्टी की बनिस्बत, तल्ख़ मज़ा और मुर्दार की बदबू क़ाबिले नफ़रत है लेकिन इंसान के ज़ायक़े और सूघने की बनिस्बत न कि किसी दूसरी चीज़ की। बाज़ अख़लाक़ और किरदार भी बुरे हैं लेकिन इंसानी समाज की अर्थ व्यवस्था की बनिस्बत न कि हर निज़ाम की बनिस्बत और न ही समाजी निज़ाम से अलग हो कर।

 

हाँ तो अगर मुक़ाबले और निस्बत से चश्म पोशी कर ली जाये तो इस सूरत में हर चीज़, जिस चीज़ को भी देखेगें, ख़ूब सूरती, हैरत अंगेज़ और चौंधिया देने वाले अजीब करिश्मों के सिवा कुछ नज़र नही आयेगा और इस दुनिया का ख़ूब सूरत जलवा इंसानी बयान और तारीफ़ से बाहर हैं क्योकि ख़ुद तारीफ़ और बयान भी। इसी दुनिया का हिस्सा हैं।

 

दर हक़ीक़त इस आयत की मक़सद यह है कि लोगों को बुराईयों से हटा कर सिर्फ़ ख़ूबियों और अच्छाईयों की तरफ़ मायल करें और कुल्ली और उमूमी तौर पर ज़हनों को अरास्ता कर दे।

 

इस तालीम को हासिल करने के बाद हम सैक़ड़ों क़ुरआनी आयात का मुशाहिदा करते हैं कि अपने भिन्न भिन्न के बयानात के ज़रिये इस दुनिया की मौजूदात को अलग अलग, गिरोह गिरोह, जुज़ई और कुल्ली निज़ामों को जिन के मुताबिक़ वह हुकूमत करते हैं ख़ुदा वंदे आलम की निशानियों के तौर पर तआरुफ़ कराते हैं और अगर उन पर गहराई से ग़ौर व फिक्र करें तो वह अल्लाह तआला का रास्ता दिखाने वाली हैं।

 

पिछली दो आयतों के पेशे नज़र हमें यह मालूम होता है कि यह अदुभुत ख़ूब सूरती जो सारी दुनिया को घेरे हुए है वही ख़ुदाई ख़ूबसूरती जो आसमान व ज़मीन की निशानियों के ज़रिये दिखाई देती है और इस दुनिया के तमाम अजज़ा एक ऐसा दरिचा हैं जिन से दिलनशीन और असीमित फ़ज़ा बाहर निकलती है लेकिन यह अजज़ा ख़ुद व ख़ुद कोई चीज़ नही है।

 

इस तरह क़ुरआने मजीद दूसरी आयात में हर कमाल और जमाल को ख़ुदा वंदे आलम से मुतअल्लिक़ शुमार करता है जैसा कि इरशाद होता है कि वह (ख़ुदा) ज़िन्दा है उस के अलावा कोई ख़ुदा नही है। (सूर ए मोमिन आयत 65), समस्त ताक़त और शक्ति अल्लाह के लिये हैं। (सूर ए बक़रह आयत 165), वास्तव में सारी इज़्ज़तें ख़ुदा को जचती हैं। (सूर ए निसा आयत 139) या सूर ए रूम की 54 वी और सूर ए इसरा की पहली आयतें के मअना के अनुसार या सूर ए ताहा की 8 वी के अनुसार ख़ुदा वह है जिस के बग़ैर और कोई ख़ुदा नही है, हर अच्छा नाम उसी का है। इन आयतों के अनुसार सारी ख़ूबसूरतियाँ जो इस दुनिया में पाई जाती हैं उन सब की हक़ीक़त ख़ुदा वंद की तरफ़ से है लिहाज़ा दूसरों के लिये सिर्फ़ मजाज़ी और वक़्ती हैं।

 

इस बयान की ताईद में क़ुरआने मजीद एक और बयान के ज़रिये वज़ाहत करता है कि दुनिया के हर मज़हर में जमाल व कमाल महदूद और सीमित है हैं और ख़ुदा वंद तआला के लिये ना महदूद और असीमित। हमने हर चीज़ को एक ख़ास अंदाज़े के साथ पैदा किया है। (सूरए क़मर आयत49), हर चीज़ हमारे सामने एक ख़ज़ाने है, हम ने इस ख़ज़ाने को बग़ैर एक मुअय्यन अंदाज़े के जम़ीन पर नही भेजते। (सूर ए हिज्र आयत 21)

 

इंसान इस क़ुरआनी हक़ीक़त को क़बूल करने से अचानक अपने आप को एक ना महदूद जमाल व कमाल के सामने देखेगा कि हर तरफ़ से उस को घेर हुए है और उस के मुक़ाबले में किसी क़िस्म का ख़ला नही पाया जाता है और हर जमाल व कमाल और हत्ता कि अपने आप को जो कि ख़ुद उन्ही आयतों (निशानियों) में से एक है, भूल कर उसी (ख़ुदा) का आशिक़ हो जायेगा। जैसा कि इरशाद होता है कि जो लोग ख़ुदा पर ईमान लाये हैं वह ख़ुदा की निस्बत ज़्यादा महर व मुहब्बत रखते हैं। (सूर ए बक़रह आयत 165)

 

और यही वजह है कि चुँकि महर व मुहब्बत का ख़ास्सा है अपने इस्तिक़लाल और इरादे को ख़ुदा के सामने तसलीम करते हुए ख़ुदा की कामिल सर परस्ती के तहत चला जाता है।

 

चुँनाचे अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ख़ुदा मोमिनों का सर परस्त और वली है। (सूर ए आले इमरान आयत 68) और अल्लाह तआला ने भी जैसा कि वादा किया है, ख़ुद इंसानों की रहबरी और क़यादत करता है। ख़ुदा मोमिनों का सरपरस्त है और उन को अंधेरों से निकाल कर रौशनी की तरफ़ रहनुमाई करता है। (सूर ए बक़रह आयत 257)

 

और इस आयते करीमा के अनुसार, आया वह शख़्स मर गया था जो हम ने उस को ज़िन्दा किया और उसको नूर और रौशनी दिखाई कि वह उस रौशनी के साथ लोगों के दरमियान चलता फिरता है (सूर ए इनआम आयत 122) और इस आयत के मुताबिक़ और ख़ुदा ने उस के दिलों में ईमान को क़ायम और साबित कर दिया है और उन को अपनी रूह या ईमान से मदद दी है। उन को एक नई रुह और नई ज़िन्दगी बख़्शता है और एक नूर यानी ख़ास हक़ीक़त बिनी का मलका उस को अता कर देता है ता कि सआदत मंदाना ज़िन्दगी को समाज में तशख़ीस दे। (सूर ए मुजादेला आयत 22)

 

और दूसरी आयते शरीफ़ा इस नूर को हासिल करने के बारे में वज़ाहत करती है, ऐ ईमान वालो, परहेज़गार बनो और ख़ुदा के पैग़म्बर पर ईमान लाओ ताकि ख़ुदावंदे तआला अपनी रहमत से तुम्हे दुगुना दे और तुम्हारे लिये नूर लाये ताकि तुम उस नूर के साथ राह पर चलो। (सूर ए हदीद आयत 28)

 

और पैग़म्बरे अकरम (स) पर ईमान लाने को दूसरी आयात में उन के सामने सरे तसलीम ख़म करने और उन की पैरवी करने का हुक्म दिया गया है जैसा कि इरशाद होता है कि ऐ नबी कह दीजिये कि अगर तुम्हे ख़ुदा से मुहब्बत है तो मेरी पैरवी करो ता कि ख़ुदा तुम से मुहब्बत करे। पैरवी और इताअत की बुनियाद एक दूसरी आयते शरीफ़ा में वज़ाहत फ़रमाता है। जो लोग इस पैग़म्बर की इताअत और पैरवी करते हैं जो उम्मी है और जो कोई तौरेत और इंजील में लिखे हुए सुबूत को पैदा करना चाहता है, तौरेत और इंजील में भी इस (नबी) का ज़िक्र आया है उन को अच्छी बातों का तरफ़ दावत देता है और बुरी बातों से मना करता है और इसी तरह पाक चीज़ों को उन के लिये हलाल और नापाक और पलीद चीज़ों को उन के लिये हराम करता है और उन से सख़्तियों और हर क़िस्म की पाबंदियों को दूर करता है यानी उन को आज़ादी बख़्शता है। (सूर ए आराफ़ आयत 157)

 

पैरवी और इताअत के बारे में उस से भी वाज़ेह तर बयान एक और आयते शरीफ़ा में जो पहली आयत की तफ़सीर भी करती है और उसे वाज़ेह भी करती है, अपने चेहरों को दीन के लिये मज़बूत रखो, ऐतेदाल की हालत में रहो, दीन में ऐतेदाल के साथ साबित क़दम रहो, यह ख़ुदा की फ़ितरत है जिस पर इंसानों को पैदा किया गया है (उसी पर साबित क़दम रहो) ख़ुदा की फ़ितरत में कोई तब्दीली नही है, यही वह दीन है जो इंसानी समाज का बख़ूबी इंतेज़ाम कर सकता है। (सूर ए रूम आयत 30)

 

इस आयते शरीफ़ा के मुताबकि इस्लाम का मुकम्मल प्रोग्राम फ़ितरत के तक़ाज़ों पर मबनी है दूसरे अल्फ़ाज़ में ऐसी शरीयत और क़वानीन है जिन की तरफ़ इंसानी फ़ितरत रहनुमाई करती है। (यानी एक क़ुदरती और फ़ितरी इंसान की फ़ितरी ज़िन्दगी तमाम बुराईयों से पाक हो।) जैसा कि एक जगह पर इरशाद होता है कि मुझे क़सम है इंसानी नफ़्स की जो अपने कमाल में पैदा किया गया है लेकिन इस को शर का इलहाम भी दिया गया है, इन आयात की क़सम जिस ने अपने नफ़्स को गुनाहों से पाक रखा यक़ीनन गुनाहों से निजाता पैदा करेगा और जिस ने नफ्स को गुनाहों से आलूदा किया वह यक़ीनन घाटे में रहेगा। (सूरए शम्स आयत 7,10)

 

कुरआने मजीद वाहिद आसमानी किताब है जो सब से पहले इंसानी सआदत मंदाना ज़िन्दगी को फ़ितरी और पाक इंसान की ज़िन्दगी को बे लाग ज़िन्दगी के बराबर समझती है और दूसरे तमाम तरीक़ों के ख़िलाफ़ जो इंसान की ख़ुदा परस्ती (तौहीद) के प्रोग्राम को ज़िन्दगी के प्रोग्राम से जुदा और अलग करते हैं, दीन के प्रोग्राम को ही ज़िन्दगी का प्रोग्राम कहती है और इस तरह इंसान के तमाम इंफ़ेरादी और समाजी पहलू में मुदाखिलत करते हुए हक़ीक़त बिनी पर मबनी, (ख़ुदा परस्ती और तौहीद) अहकाम को जारी करती है। दर अस्ल अफ़राद को दुनिया और दुनिया को अफ़राद के हवाले करती है और दोनो को ख़ुदा के हवाले। कुरआने मजीद ख़ुदा के बंदों और अवलिउल्लाह के लिये उन के यक़ीन और ईमान के मुताबिक़ बहुत ज़्यादा मानवी ख़वास का ज़िक्र करता है। जिस का बयान इस बाब में समा नही सकता।

 

21. पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्मा (अ) के बयानात के हुज्जत होने के मअना

 

क़ुरआन मजीद के अपने सबूत के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) और आप के अहले बैत (अ) का बयान जैसा कि पिछले बाबों में आया है क़ुरआनी आयात की तफ़सीर में हुज्जत रखता है। यह हुज्जत पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) की ज़बानी वाज़ेह बयान के मुतअल्लिक़ है और ऐसे ही अहादीसे क़तईउस सुदुर में इन के बयातान वाज़ेह तौर पर आये है लेकिन ग़े कतई हदीस जिस हदीस को इस्तेलाह में ख़बरे वाहिद कहते हैं और इस का सबूत मुसलमानों के दरमियान मुख़्तलिफ़ हैं, वह उस शख़्स की राय पर मबनी है जो क़ुरआन की तफ़सीर करता है। अहले सुन्नत के दरमियान एक तौर से ख़बरे वाहिद जिस को हदीसे सही कहा जाता है उस पर मुकम्मल तौर पर अमल करते हैं और शियों के दरमियान जिस चीज़ को, जो अब इल्मे उसूल के ज़रिये साबित और मुसल्लम हैं यह है कि ख़बरे वाहिद जो क़ाबिले ऐतेबार तरीक़े से जारी हुई हो अहकामे शरई में हुज्जत है और अगर इस के ख़िलाफ़ हो तो इस पर यक़ीन नही किया जा सकता। इस मसले में तहक़ीक़ करने के लिये इल्मे उसूल की तरफ़ रूजू करना चाहिये।

 

नोट:

 

इस बेना पर कि तफ़सीर के मअना आयत से हासिल शुदा मअना ही हैं और इस बहस को तफ़सीर बहस भी कहा जाता है आयत के हासिल शुदा मअना में तासीर रखती हो, लेकिन वह बहसें जो आयत से हासिल शुदा मअना में असर नही रखती जैसे बाज़ लुग़वी, क़राअती, बदीई मबाहिस वग़ैह इस क़िस्म की बहसें क़ुरआन की तफ़सीर नही हो सकतीं।

 

 

क़ुरआने मजीद की वही (अल्लाह का संदेश)

 

अ. क़ुरआने मजीद की वही (अल्लाह का संदेश) को बारे में मुसलमानों का आम अक़ीदा

 

ब. वही और नबुव्वत के बारे में मौजूदा लिखने वालों की राय

 

स. ख़ुद क़ुरआने मजीद इस बारे में क्या फ़रमाता है:

 

1. अल्लाह का कलाम

 

2. जिबरईल और रुहुल अमीन

 

3. फ़रिश्ते और शैतान

 

4. ज़मीर की आवाज़

 

5. दूसरी वज़ाहत के मुतअल्लि़क़

 

ह. ख़ुद क़ुरआने मजीद वही और नबुव्वत के बारे में क्या फ़रमाता हैं:

 

1. आम हिदायत और इँसानी हिदायत

 

2. राहे ज़िन्दगी तय करने में इंसानी विशेषताएँ

 

3. इंसान किस लिहाज़ से समाजी है?

 

4. इख़्तिलाफ़ात का पैदा होना और क़ानून की ज़रुरत

 

5. क़ानून की तरफ़ इंसान की हिदायत और रहनुमाई करने के लिये अक़्ल काफ़ी नही है।

 

6. इंसानी हिदायत का अकेला रास्ता वही (अल्लाह की ओर से आने वाला संदेश) है।

 

7. मुश्किलात और उन के जवाबात

 

8. वही का रास्ता हर तरह से ग़लती और ख़ता से ख़ाली है।

 

9. हमारे लिये वही की वास्तविकता ना मालूम है।

 

10. क़ुरआन की वही की कैफ़ियत

 

अ. क़ुरआने मजीद की वही के बारे में मुसलमानों का आम अक़ीदा

क़ुरआने मजीद ने तमाम दूसरी इलहामी और पवित्र किताबों जैसे तौरेत और इंजील आदि से ज़्यादा आसमानी वही, वही भेजने वाले और वही लाने वाले के बारे में लिखा है और यहाँ तक कि वही की कैफ़ियत के बारे में भी लिखा है।

 

मुसलमानों का आम अक़ीदा अलबत्ता अक़ीदे की बुनियाद वही क़ुरआने मजीद का ज़ाहिरी पहलू है। क़ुरआन के बारे में यह है कि क़ुरआने मजीद अपने बयान के अनुसार अल्लाह का कथन है जो एक बड़े फ़रिश्ते के ज़रिये जो आसमान का रहने वाला है, नबी ए इस्लाम पर नाज़िल हुआ है।

 

उस फ़रिश्ते का नाम जिबरईल और रुहुल अमीन है जिस ने अल्लाह के कथन को तेईस वर्ष की ज़माने में धीरे धीरे इस्लाम के दूत तक पहुचाया और उस के अनुसार आँ हज़रत (स) को ज़िम्मेदारी दी कि वह आयतों के लफ़्ज़ों और उस के अर्थ को लोगों के सामने तिलावत करें और उस के विषयों और मतलब को लोगों को समझाएँ और इस तरह अक़ीदे की बातें, समाजी और शहरी क़ानून और इंसानों की अपनी ज़िम्मेदारियों को, जिन ज़िक्र क़ुरआने मजीद करता है, उस की तरफ़ दावत दें।

 

अल्लाह के इस मिशन का पैग़म्बरी और नबुव्वत है। इस्लाम के नबी ने भी इस दावत में बिना किसी दख़्ल और कमी बेशी और रिआयत के अपनी ज़िम्मेदारी को निभाया।

 

ब. वही और नबुव्वत के बारे में मौजूदा लिखने वालों का राय

अकसर मौजूदा दौर के लेखक, जो विभिन्न मज़हबों और धर्मों के बारे में तहक़ीक़ में कर रहे हैं, उन की राय क़ुरआनी वही और नबुवत के बारे में इस तरह हैं:

 

पैग़म्बरे अकरम (स) समाज के बहुत ही ज़हीन इंसान थे जो इंसानी समाज को इंहेतात, वहज़त गरी और ज़वाल से बचाकर उस को तमद्दुन और आज़ादी के गहवारे में जगह देने के लिये उठ खड़े हुए थे ताकि समाज को अपने पाक और साफ़ विचार की तरफ़ यानी एक जामें और मुकम्मल दीन की तरफ़ जो आपने ख़ुद मुरत्तब किया था, दावत दे।

 

कहते हैं कि आप बुलंद हिम्मत और पाक रुह के मालिक थे और एक तीरा व तारीक माहौल में ज़िन्दगी बसर करते थे। जिसमें सिवाए ज़बरदस्ती, ज़ुल्म व सितम, झूठ और हरज मरज के अलावा और कोई चीज़ दिखाई नही देती थी और ख़ुद ग़र्ज़ी, चोरी, लूटपाट और दहशतगर्दी के अलावा कोई चीज़ मौजूद नही थी। आप हमेशा इन हालात से दुखी होते थे और जब कभी बहुत ज़्यादा तंग आ जाते थे तो लोगों से अलग होकर एक गुफ़ा में जो तिहामा के पहाड़ों में थी कुछ दिनों तक अकेले रहते थे और आसमान, चमकते हुए तारों, ज़मीन, पहाड़, समुन्दर और सहरा आदि जो प्रकृति के रुप हैं जो इंसान के वश में किये गये हैं, उन की तरफ़ टुकटुकी बाँध कर देखते रहते थे और इस तरह इँसान की ग़फ़लत और नादानी पर अफ़सोस किया करते थे जिसने इंसान को अपनी लपेट में ले रखा था ताकि उसे इस क़ीमती जीवन की ख़ुशियों और सफ़लताओं से दूर करके उन को दरिन्दों और जानवरों की तरह गिरी हुई ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर करे दे।

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) लगभग चालीस साल तक इस हालत को अच्छी तरह समझते रहे और मुसीबत उठाते रहे, यहाँ तक कि चालीस साल की उम्र में एक बहुत बड़ा मंसूबा बनाने में कामयाब हो गये ताकि इंसान इन बुरे हालात से निजात दिलाएँ जिसका नतीजा हैरानी, परेशानी, आवारगी, ख़ुदगर्ज़ी और बे राहरवी था और वह दीने इस्लाम था जो अपने ज़माने की आलातरीन और मुनासिब तरीन हुकूमत थी।

 

पैग़म्बरे अकरम (स) अपने पाक विचार को ख़ुदा का कलाम और ख़ुदा की वही तसव्वुर करते थे कि ख़ुदा वंदे आलम ने आप की पाक फ़ितरत रुह के ज़रिये आप से हमकलाम होता था और अपनी पाक और ख़ैर ख़्वाह रुह को जिस से यह अफ़कार निकलते थे आप के पाक दिल में समा जाते थे और उस को रुहुल अमीन जिबरईल, फ़रिशत ए वही कहते हैं। कुल्ली तौर पर ऐसी क़ुव्वतें जो ख़ैर और हर क़िस्म की खुशबख़्ती की तरफ़ दावत देती है उनको मलाएका और फ़रिश्ते कहा जाता है और वह क़ुव्वतें जो शर और बदबख़्ती की तरफ़ दावत देती हैं उन को शयातीन और जिन कहा जाता है। इस तरह पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने फ़रायज़ को नबुव्वत और रिसालत का नाम दिया, जो जम़ीर की आवाज़ के मुताबिक़ थे और उन के अनुसार इंसानों को इंक़ेलाब की दावत देते थे।

 

अलबत्ता यह वज़ाहत उन लोगों की है जो इस दुनिया के लिये एक ख़ुदा के अक़ीदे के क़ायल हैं और इंसाफ़ की रु से इस्लाम के दीनी निज़ाम के लिये महत्व के क़ायल हैं लेकिन वह लोग जो इस दुनिया के लिये किसी पैदा करने का अक़ीदा नही रखते हैं वह नबुव्वत, वही, आसमानी फ़रायज़, सवाब, अज़ाब, स्वर्ग और नर्क जैसी बातों को धार्मिक राजनिती और दर अस्ल मसलहत आमेज़ झूठ समझते हैं।

 

वह कहते हैं कि पैग़म्बर इस्लाह पसंद इंसान थे और उन्होने दीन की सूरत में इंसानी समाज की भलाई और बेहतरी के लिये क़वानीन बनाए और चुँकि गुज़िश्ता ज़माने के लोग जिहालत और तारीकी में ग़र्क़ और तवह्हुम परस्ती पर मबनी अक़ीदों के साए में मबदा और क़यामत को महफ़ूज़ रखा है।

ख़ुद क़ुरआन मजीद इस के बारे में क्या फ़रमाता है?

 

जो लोग वही और नबुव्वत की तंज़ीम को गुज़िश्ता बयान के मुताबिक़ तौजीह करते हैं वह ऐसे दानिशवर हैं जो माद्दी और तबीईयाती उलूम के साथ दिलचस्बी और मुहब्बत रखते हुए जहाने हस्ती की हर एक चीज़को फ़ितरी और क़ुदरती क़वानीन की इजारा दारी में ख़्याल करते हैं और आख़िरी गिरोहे हवादिस की बुनियाद को भी फ़ितरी फ़र्ज़ करता है। इस लिहाज़ से मजबूरन आसमानी मज़ाहिब और अदयान को ही इजतेमाई मज़ाहिर समझेगें और इस तरह तमाम इजतेमाई मज़ाहिर से जो नतीजा हासिल होगा उस पर ही परखेगें। चुँनाचे अगर इजतेमाई नवाबिग़ (ज़हीन इंसान) में से कोई एक जैसे कौरवश, दारयूश, सिकन्दर वग़ैरह अपने आप को ख़ुदा की तरफ़ से भेजा हुआ और अपने कामों को आसमानी मिशन और अपने फ़ैसलों को ख़ुदाई फ़रमान को तौर पर तआरुफ़ कराएँ तो गुज़िश्ता बाब में आने वाली बहस के अलावा और कोई वज़ाहत नही हो सकेगी।

 

हम इस वक़्त यहाँ दुनिया ए मा वरा को साबित नही करना चाहते और उन दानिशवरों को भी नही कहते कि हर इल्म सिर्फ़ अपने इर्द गिर्द को मौज़ूआत पर ही राय दे सकते हैं और माद्दी उलूम जो माद्दे के आसार और ख़वास से बारे में बहस करते हैं वह यक़ीनी या ग़ैर यक़ीनी तौर पर मा वरा में मुदाख़लत रखते हैं।

 

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