सुरः फ़ातिहः
(सूरऐ फातिहः मक्का मे नाज़िल हुआ और इस मे 7 आयते और 1 रूकू है।)
ख़ुदा के नाम से (शुरु करता हूँ) जो बड़ा मेहरबान और रहम करने वाला है।(1)
सब तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए (सजावर) है जो सारे जहान का पालने वाला (2)
बड़ा मेहरबान रहम वाला(3)
रोज़े जज़ा का मालिक है(4)
ख़ुदाया हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ से ही मदद चाहते है(5)
तू हमको सीधी राह पर साबित(4) क़दम रख़(6)
उनकी राह जिन्हे तूने (अपनी) नेअमत अता की है न उनकी राह जिन पर तेरा गज़ब ढ़ाया गया और न गुमराहों की।(7)
सूरः बक़रः
(सूरऐ बक़रः मक्का मे नाज़िल हुआ और इस मे 286 आयते और 40 रूकू है।)
ख़ुदा के नाम से (शुरु करता हूँ) जो बड़ा मेहरबान और रहम करने वाला है।
अलीफ़ लाम मीम (1)
वह क़िताब (है) जिस (के किताबे ख़ुदा होने) में कुछ भी शक नहीं (ये) परहेज़गारों की रहनुमा है(2)
जो गैब पर ईमान लाते हैं और (पाबंदी से) नमाज़ अदा करते हैं और जो कुछ हमने उन को दिया है उसमें से (राहे ख़ुदा में) ख़र्च करते हैं(3)
और जो कुछ तुम पर (ऐ रसूल) और तुम से पहले नाज़िल किया गया है उस पर ईमान लाते हैं और यही आख़िरत का भी यक़ीन रखते हैं(4)
यही लोग अपने परवरदिगार की हिदायत पर (आमिल) हैं और यही लोग अपनी दिली मुरादें पाऐंगे(5)
बेशक जिन लोगों ने कुफ्र इख़तेयार किया उन के लिये बराबर है (ऐ रसूल) ख़्वाह तुम उन्हें डराओ या न डराओ वह ईमान नही लाऐंगे(6)
उन के दिलों पर और उन के कानों पर (नज़र करके) ख़ुदा ने तस्दीक़(3) कर दी है कि (ये ईमान न लाएंगे) और उन की आँखों पर परदा (पड़ा हुआ) है और उन्हीं के लिये (बहुत) बड़ा अज़ाब है(7)
और बाज़ लोग ऐसे भी हैं जो (ज़बान से तो) कहते हैं कि हम ख़ुदा पर और क़यामत पर ईमान लाए हालांकि वह (दिल से) ईमान नहीं लाए।(8)
ख़ुदा को और उन लोगों को जो ईमान लाए धोका देते हैं, हालांकि वह आप(4) अपने ही को धोका देते हैं और कुछ शऊर नहीं रखते(9)
उनके दिलों में मर्ज़ था ही अब ख़ुदा ने उन के मर्ज़ को बढ़ा दिया (2) और चूँकि वह लोग झूठ बोला करते थे इस लिये उन पर तकलीफदेह अज़ाब है(10)
और जब उन से कहा जाता है कि मुल्क में फ़साद न करते फ़िरो (तो) कहते हैं के हम तो सिर्फ़ इस्लाह करते हैं(11)
ख़बरदार(5) हो जाओ बेशक यही लोग फ़सादी हैं लेकिन समझते नहीं(12)
और जब उनसे कहा जाता है कि जिस तरह और लोग ईमान लाएं हैं तुम भी ईमान लाओ तो कहते हैं क्या हम भी उसी तरह ईमान लाऐं जिस तरह और बेवकूफ़ लोग ईमान लाऐं, ख़बरदार हो जाओ यही लोग बेवकूफ़ हैं लेकिन नहीं जानते(13)
और जब इन लोगों से मिलते हैं जो ईमान ला चुके तो कहते हैं हम तो ईमान ला चुके, और जब अपने शैतानों के साथ तख़लिया तो कहतें हैं हम तुम्हारे साथ हं हम तो (मुसलमानों को) बनाते(5) हैं(14)
(वह क्या) बनाएंगे) ख़ुदा उनको बनाता है और उन को ढ़ील देता है कि वह अपनी सरकशी में गिलतां पेचा रहे(15)
यही वह लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीद की फिर न उनकी तिजारत(1) ही ने कुछ नफ़ा दिया और न उन लोगों ने हिदायत ही पाई(16)
उन लोगों की मिस्ल (तो) उस शख़्स की सी मिस्ल है जिसने (रात के वक्त मज़में में) भड़कती हुई आग रोशन की फिर जब आग (के शोले) ने उसके गिरदोपेश खूब उजाला कर दिया तो ख़ुदा ने उनकी रोशनी ले ली और उनको घने अन्धेरे में छोड़ दिया कि अब उन्हें कुछ सुझाई नहीं देता(17)
ये लोग बहरे,गूंगे,अंधे हैं कि फिर अपनी गुमराही से बाज़ नहीं आ सकते,(18)
या (उनकी मिस्ल(3) ऐसी है) हो जैसे आसमानी बारिश जिस में तारीकियां, गरज बिजली हो मौत के ख़ौफ़ से कड़क के मार अपने कानों में उंगलियां दिये लेते हैं हालांकि खुदा काफिरों को (इस तरह) घेरे हुए है (के उसुक नहीं सकते)(19)
क़रीब है कि बिजली उनकी आंखों को चुन्धिया दे जब उन के आगे बिजली चमकी तो उस रोशनी में चल खड़े हुए और जब उन पर अंधेरा छा गया तो (ठिठक के) खड़े हो गऐ, और अगर ख़ुदा चाहता तो यूं भी उन के देखने सुनने की कूवतें छीन लेता, बेशक ख़ुदा हर चीज़ पर क़ादिर है।(20)
ऐ लोगों अपने परवरदिगार की इबादत करो जिस ने तुम को और उन लोगों को जो तुम से पहले थे, पैदा किया अजब(1) नहीं तुम परहेज़गार बन जाओ(21)
जिस ने तुम्हारे लिये ज़मीन को बिछौना और आसमान को छत बनाया और आसमान से पानी बरसाया फिर उसी ने तुम्हारे खाने के लिये बाज़ फल पैदा किये पस किसी को ख़ुदा को हमसर न बनाओ हालांकि तुम खूब जानते हो(22)
और अगर तुम लोग इस कलाम से जो हम ने अपने बन्दे (मुहम्मद) पर नाज़िल किया है शक में पड़े हो पस अगर तुम सच्चे हो(2) तो तुम (भी) एक ऐसा ही सूरः बना लाओ और ख़ुदा के सिवा जो तुम्हारे परवरदिगार हों उनको (भी) बुलालों(23)
पस अगर तुम ये नहीं कर सकते हो और हरगिज़ नहीं कर सकोगे, तो उस आग से डरो जिस के ईंधन आदमी और पत्थर होंगे और काफ़िरों के लिए तैयार की गयी है(24)
और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक काम किए उन को (ऐ पैग़म्बर) खुश ख़बरी दे दो कि उन के लिए (बेहिश्त के) वह बाग़ात हैं जिन के नीचे नहरें जारी हैं जब उन्हें उन (बाग़ात) का कोई मेवा ख़ाने को मिलेगा तो कहेंगे ये तो वही (मेवा) है जो पहले भी हमें ख़ाने को मिल चुका है (क्योंकि) उन्हीं मिलती जुलती(1) सूरत व रंग के (मेवे) मिला करेंगे और बेहिश्त में उनके लिए साफ सुथरी बीवियां होंगी और ये लोग उस (बाग) में हमेशा रहेंगे(25)
बेशक ख़ुदा मच्छर या उससे भी बढ़कर (हक़ीर चीज़ की) कोई मिस्ल बयान करने में नहीं झेपता, पस जो लोग ईमान ला चुके हैं वह तो ये यक़ीन जानते हैं (ये मिस्ल) बिल्कुल ठीक है (और) उनके परवरदिगार की तरफ से है (अब रहे) वह लोग जो काफ़िर हैं पस वह बोल उठते हैं कि ख़ुदा का इस मिस्ल से क्या मतलब है, ऐसी मिस्ल से ख़ुदा बहुतेरों को गुमराही में छोड़ देता है और ऐसी ही (मिस्ल) से बहुतेरों की हिदायत करता है मगर गुमराही में छोड़ता भी है(2)(26)
तो ऐसे बदकारो को जो लोग ख़ुदा के अहदों पैमान को मज़बूत हो जाने के बाद तोड़ डालते हैं और जिनकी (ताअल्लुक़ात) का ख़ुदा ने हुक्म दिया है। उन को तोड़ देते हैं और मुल्क में फ़साद करते फ़िरते हैं, यही लोग घाटा उठाने वाले हैं(27)
(हाए) क्यों कर तुम ख़ुदा का इन्कार कर सकते हो। हालांके तुम (माओं के पेट में) बेजान थे तो इसी ने तुमको जिन्दा किया फिर वही तुमको मार डालेगा, फिर वही तुमको (दोबारा क़यामत मे) ज़िन्दा करेगा, फिर उसी की तरफ़ लौटाए जाओगे(28)
वही तो वह (ख़ुदा) है जिसने तुम्हारे नफ़े (फायदे) के लिए ज़मीन की कुल चीज़ों को पैदा किया, फिर आसमान के (बनाने) की तरफ़ मुतवज्जे हुआ तो सात आसमान हमवार (व मुस्तहकम) बना दिये, और वह (ख़ुदा) हर चीज़ से (ख़ूब) वाक़िफ़ है(29)
और (ऐ रसूल उस वक़्त को याद करो) जब तुम्हारे परवरदिगार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं (अपना) एक नायब(1) ज़मीन पर बनाने वाला हूँ तो (फ़रिश्ते ताअज्जुब से) कहने लगे क्या तू ज़मीन में ऐसे शख़्स को पैदा करेगा जो ज़मीन में फ़साद(2) और ख़ूनरेज़ियां करता फिरे हालांकि (अगर ख़लीफ़ा बनाना है तो हमारा ज़्यादा हक़ है) क्यों कि हम तेरी तारीफ़ व तस्बीह करते हैं, और तेरी पाकीज़गी साबित करते हे तब ख़ुदा ने फरमाया इसमें तो शक नहीं के जो मैं जानता हूं तुम नहीं जानते(30)
और (आदम की हक़ीक़त ज़ाहिर करने की ग़रज से) आदम को सब चीज़ों के नाम सिख़ा दिए फिर उन फ़रिश्तों के सामने पेश किया और फ़रमाया के अगर तुम(3) अपने (अपने दावे में के हम मुस्तहक़ ख़िलाफ़त हैं) सच्चे हों तो मुझे उन चीज़ों के नाम बताओ(31)
तब फरिश्तों ने (आजिज़ी से) अर्ज़ की तू (हर ऐब से) पाक व पाकीज़ा है, हम तो जो कुछ तूने बताया है उस के सिवा कुछ नहीं जानते तू बड़ा जानने वाला, मसलहतों का पहचाने वाला है(32)
(उस वक्त ख़ुदा ने आदम को) हुक्म दिया के ऐ आदम इन फरिश्तों को उन सब चीज़ों के नाम बता दो- पस जब आदम ने फरिश्तों को उन चीज़ों के नाम बता दिये तो ख़ुदा ने (फ़रिश्तों की तरफ़ ख़िताब करके) फ़रमाया क्यों, मैं तुम से न कहता था के मैं आसमानों और ज़मीनों के छिपे हुऐ राज़ को जानता हूँ, और जो कुछ तुम अब ज़ाहिर करते हो और जो कुछ तुम छिपाते थे (वह सब) जानता हूँ(33)
और (उस वक्त को याद करो) जब हमने फ़रिश्तों से कहा के आदम को सज्दा करो तो सब के सब झुक गऐ मगर शैतान ने इन्कार किया और ग़रुर में आ गया और काफ़िर हो गया(34)
और हमने(1) आदम से कहा ऐ आदम। तुम अपनी बीबी समेत बहिश्त में रहा सहा करो और जहां तुम्हारा जो चाहे उस में से ब-फ़राग़त खाओ (पियो) मगर उस दरख़्त के पास भी न जाना (वरना) फिर तुम अपना नुक़सान करोगे,(35)
तब शैतान ने आदम व हव्वा को (धोका देकर) वहां से डगमगाया (और) आख़िर को उन को जिस (ऐश व राहत) में थे उन से निकाल फेंका और हमने कहा (ऐ आदम व हव्वा) तुम (ज़मीन पर) उतर पड़ो तुम नें से एक का एक दुश्मन होगा और ज़मीन में तुम्हारे लिये एक ख़ास वक़्त (क़यामत) तक ठहरा और ठिकाना है-(36)
फिर आदम ने अपने परवरदिग़ार से (माअज़रत के) चन्द अल्फ़ाज़(1) सीखे पस ख़ुदा ने उन (अल्फ़ाज़ की बरकत से) आदम की तौबा कूबुल करली, बेशक वह बड़ा माफ करने वाला मेहरबान है(37)
और (जब) आदम को ये हुक्म दिया था के यहां से उतर पड़ो (तो भी कह दिया था) के अगर तुम्हारे पास मेरी तरफ से हिदायत आए तो (उसकी पैरवी करना क्योंकि) जो लोग मेरी हिदायत पर चलेंगे उन पर (क़यामत में) न कोई ख़ौफ़ होगा और न वह रंजीदा होंगे(38)
और (ये भी याद रखो) जिन लोगों ने कुफ्र इख़तेयार किया और हमारी आयतों को झूटलाया तो वही जहन्नुमी हैं और हमेशा दोज़ख़ में ही पड़े रहेंगे(39)
ऐ बनी इस्राईल (याकूब की औलाद) मेरे उन अहसानात को याद करो जो तुम पर पहले कर चुके हैं और तुम मेरे अहदो इक़रार (ईमान) को पूरा करो तो मैं भी तुम्हारे अहद (सवाब) को पूरा करूंगा, और मुझ ही से डरते रहो(40)
और जो (कुरआन) मैंने नाज़िल किया वह उस किताब (तौरैत) की (भी) तस्दीक़ करता है जो तुम्हारे पास है और तुम सब से पहले उस के इन्कार पर मौजूद न हो जाओ और मेरी आयतों के बदले थोड़ी क़ीमत(2) (दुनयावी फ़ाएदा) न लो और मुझ ही से डरते रहो(41)
और हक़ को बातिल के साथ न मिलाओ और हक़ बात को छिपाओ नहीं हालांके तुम जानते हो(42)
और पाबन्दी से नमाज़(1) अदा करो और ज़कात दिया करो और जो लोग (हमारे सामने) इबादत के लिये झुकते हैं उन के साथ तुम भी झुका करो(43)
तुम और लोगों से तो नेकी करने को कहते हो और अपनी ख़बर नहीं लेते हालांके तुम किताब ख़ुदा को (बराबर) रटा करते हो तुम तो क्या (इतना भी) नहीं समझते(44)
और (मुसीबत के वक़्त)(2) सब्र और नमाज़ का सहारा पकड़ो और अलबत्ता नमाज़ दूभर तो है मगर उन ख़ाकसारों पर (नहीं) जो बख़ूबी जानते हैं(45)
कि अपने परवरदिगार की बारगाह में हाज़िर होंगे और ज़रुर उसकी तरफ लौट जाएंगे(46)
ऐ बनी इस्राईल(3) मेरी उन नेअमतों को याद करो जो मैं ने पहले तुम्हे दिये और ये (भी तो सोचो) कि हम ने तुम को सारे जहान के लोगों से बढ़ा दिया।(47)
और उस दिन से डरो (जिस दिन) कोई शख़्स किसी की तरफ से न फिदया हो सकेगा और न उस की तरफ से कोई सिफारिश मानी जाएगी और न उस का कोई मुआवज़ा लिया जाएगा और न वह मदद पहुँचाएगें(48)
और (उस वक़्त को याद करो) जब हमने तुम्हें (तुम्हारे बुर्जुगों को) क़ौमे फिरऔन(4) (के पंजे) से छुड़ाया जो तुम्हे बड़े बज़े दुख देके सताते थे तुम्हारे लड़कों पर छुरी फेरते थे और तुम्हारी औरतों को (अपनी ख़िदमत के लिये) ज़िन्दा रहने देते थे और इस में तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से (तुम्हारे सब्र की) सख्त आज़माइश थी(49)
और वह (वक्त याद करो) जब हम ने तुम्हारे लिये दरिया(1) को टुकड़े टुकड़े किया और हम ने तुम को तो छुटकारा दिया और फ़िरऔन के आदमियों को तुम्हारे देखते देखते डुबो दिया(50)
और (वह वक्त भी याद करो) जब हमने मूसा से(2) चालीस रातों का वाअदा किया था और तुम लोगों ने उनके जाने के बाद एक बछड़े को (परसतिश के लिये खुदा) बना लिया हालांकि तुम अपने ऊपर जुल्म जोत रहे थे(51)
फिर हम ने इसके बाद भी तुमसे दरगुज़र की ताके तुम शुक्र करो(52)
और (वह वक्त भी याद करो) जब मूसा को किताब (तौरैत) अता की और हक़ व बातिल को जुदा करने वाला कानून (इनायत किया) ताके तुम हिदायत पाओ(53)
और (वह वक़्त भी याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा के ऐ मेरी क़ौम तुन ने बछड़े को (ख़ुदा) बना के अपने ऊपर बड़ा सख़्त जुल्म किया तो अब (इसके सिवा कोई चारा नहीं के) तुम अपने ख़ालिक की बारगाह में तौबा करो और वह ये है कि अपने को क़त्ल कर डालो तुम्हारे परवरदिगार के नज़दीक तुम्हारे हक़ में यही बेहतर है, फिर जब तुम ने ऐसा किया तो ख़ुदा ने तुम्हारी(3) तौबा कुबूल करली, बेशक वह बड़ा माफ करने वाला मेहरबान है(54)
और (वह वक्त भी याद करो) जब तुमने मूसा से कहा था के ऐ मूसा हम तुम पर उस वक़्त तक हरगिज़ ईमान न लाऐंगे जब तक हम ख़ुदा को ज़ाहिर ब ज़ाहिर न देख ले उस पर तुम्हें बिजली ने ले डाला, और तुम तकते ही रह गऐ(55)
फिर तुम्हें तुम्हारे मरने के बाद जिला उठाया ताके तुम शुक्र करो(56)
और हम ने तुम पर अब्र (बादल) का(1) साया किया और तुम पर मन व सलवा(3) उतारा और (ये भी तो कह दिया था के) जो सुथरी न नफीस रोज़ियाँ तुम्हे दी हैं उन्हें (शौक़ से) खाओ और उन लोगों ने हमारा तो कुछ बिगाड़ा नहीं मगर अपनी ही जानों पर सितम ढ़ाते रहे(57)
और (वह वक्त याद करो) जब हमने तुम से कहा के उस गाँव (औरीज़) में जाओ और उस में से जहां चाहो फरागत से खाओ (पिओ) और दरवाज़े पर सजा करते हुए और ज़बान से हत्ता(3) (बख़शिश) कहते हुए आओ तो हम तुम्हारी ख़ताएँ बक़्श देंगे और हम नेकी करने वालों की नेकी (सवाब) बढ़ा देंगे(58)
तो जो बात उनसे कही गई थी उसे शरीरों ने बदल कर दूसरी बात कहनी शुरु कर दी तब हम ने उन लोगों पर जिन्होंने शरारत की थी उन की बदकारी की वजह से आसमानी बला नाज़िल की(59)
और (वह वक़्त भी याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिए(5) पानी मांगा। तो हम ने कहा (ऐ मूसा) अपनी लाठी पत्थर पर मारो (लाठी मारते ही) उसमें बारह चश्मे फूट निकले और सब लोगों ने अपना-अपना घाट बख़ूबी जान लिया (और हमने आम इजाज़त दे दीकि) ख़ुदा की दी हुई रोज़ी से खाओ पिओ और मुल्क़ में फ़साद न, करते फिरो,(60)
और (वह वक़्त भी याद करो)(1) जब तुम ने (मूसा से) कहा कि ऐ मूसा हम से एक ही ख़ाने पर न रहा जाएगा, तो आप हमारे लिए अपने परवरदिगार से दुआ कीजिए कि जो चीज़ें ज़मीन से उगती हैं जैसे साग पात, तरकारी और ककड़ी और गेहूँ (या लहसुन) और मसूर और प्याज़ (मन व सल्वा) की जगह पैदा करें मूसा ने कहा क्या तुम ऐसी चीज़ को जो हर तरह से बेहतर है अदना चीज़ से बदलना चाहते हो, तो किसी शहर में उतर पड़ों फिर तुम्हारे लिए जो तुम ने मांगा है सब मौजूद है और उन पर रुसवाई और मोहताजी की मार पड़ी और न लोगों ने कहरे ख़ुदा की तरफ पल्टा खाया यह सब इस सबब से हुआ के वह लोग खुदा की निशानियों से इन्कार करते थे और पैगम्बरों को नाहक़ नाहक़ शहीद करते थे, और इस वजह से (भी) के वह नाफ़रमानी और सरकशी किया करते थे(61)
बेशक मुसलमानों(2) और युहूदियों और नसरानियों और ला मज़हबों में से जो कोई ख़ुदा और रोज़े आख़रत पर ईमान लाए और अच्छे अच्छे काम करता रहे तो उन्हीं के लिए उन का अज्र व सवाब उनके ख़ुदा के पास है और न (क़यामत में) उन पर किसी का ख़ौफ़ होगा और वह रन्जीदा दिल होंगे(62)
और (वह वक़त याद करो) जब(1) हम ने (तामिले तौरेत का) तुम से इक़रार लिया और हम ने तुम्हारे सर पर तूर से (पहाड़ को) लाकर लटकाया और कह दिया के तौरैत जो हम ने तुम को दी है उसको मज़बूत पकड़े रहो और जो कुछ इसमें है उसको याद रखो ताके तुम परहेज़गार बनो(63)
फिर उसके बाद तुम अपने अहद व पैमान से फिर गए पस अगर तुम पर खुदा का फज़्ल और उसकी मेहरबानी न होती तो तुमने सख्त घाटा उठाया होता(64)
और अपनी क़ौम से उन लोगों की हालत तो तुम बख़ूबी जानते हो जो शन्बा (शनिवार) के दिन अपनी हद से गुज़र गए (के बावजूद मुमानअत शिकार खेलने निकले) तो हम ने उन से कहा के तुम रान्दे गए बन्दर बन जाओ(2)(65)
(और वह बन्दर हो गए) पस हमने इस वाक़ये को उन लोगों के वास्ते जिन के सामने हुआ था और जो इस के बाद आने वाले थे अज़ाब करार दिया और परहेज़ गारों के लिए नसीहत(66)
और (वह वक्त याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि ख़ुदा तुम लोगों को ताकीदी हुक्म करता है कि तुम एक गाय(3) ज़िब्हा करो वह लोग कहने लगे क्या तुम हम से दिल लगी करते हो, मूसा ने कहा मैं ख़ुदा से पनाह मांगता हूँ कि मैं जाहिल बनूं(67)
(तब) वह कहने लगे कि (अच्छा) तुम अपने ख़ुदा से दुआ करो कि वह हमें बात बता कि वह गाय कैसी हो, मूसा ने कहा बेशक ख़ुदा फ़रमाता है कि वह गाय न तो बहुत बूढ़ी हो और न बछिया बल्कि उन में से औसत दरजे की हो, गरज़ जो तुम को हुक्म दिया गया है उसको बजा लाओ(68)
वह कहने लगे (वाह) तुम अपने ख़ुदा से दुआ करो कि हमें यह तो बता दे कि उसका रंग आख़िर क्या हो मूसा ने कहा बेशक ख़ुदा फ़रमाता है कि वह गाय ख़ूब गहरे ज़र्द रंग की हो कि देखने वाले उसे देख कर खुश हो जाँए(69)
तब कहने लगे कि तुम अपने ख़ुदा से दुआ करो कि हमें ज़रा यह तो बता दें कि वह (गाय) कैसी हो (वह) गाय तो (और गायों) में मिल जुल गयी और अब ख़ुदा ने चाहा तो हम ज़रुर (उसका) पता लगा लेंगे(70)
मूसा ने कहा ख़ुदा ज़रुर फरमाता है कि वह गाय न तो इतनी सधाई हुई हो कि ज़मीन जोते और न खेती सींचे भली चंगी एक रंग कि उस में कोई धब्बा तक न हो, वह बोले अब (जाके) ठीक ठीक बयान किया ग़रज़ उन लोगों ने वह गाय हलाल की हालांकि उनसे उम्मीद न थी कि वह ऐसा करेंगे(71)
और जब तुमने एक शख़्स को मार डाला और तुम में उसकी बाबत फूट पड़ गयी कि एक दूसरे को क़ातिल बनाने लगा, और जो तुम छिपाते थे ख़ुदा को सका ज़ाहिर करना मंजूर था(72)
पस हमने कहा कि उस गाय का कोई टुकड़ा ले कर उस (की लाश) पर मार दियो ख़ुदा मुर्दे को ज़िन्दा करता है(1) और तुम को अपनी कुदरत की निशानियां दिखा देता है ताकि तुम समझो(73)
फिर इसके बाद तुम्हारे दिल सख़्त हो गए, पस वह मिस्ल पत्थर के (सख़्त) थे या उससे बी ज़्यादा करख़्त क्योंकि पत्थरों में बाअज़ तो ऐसे होते हैं कि उन से नहरें जारी हो जाती हैं और बाज़ ऐसे होते हैं कि उन में दरार पड़ जाती हैं और उन में से पानी निकल पड़ता है। और बाज़ पत्थर तो ऐसे होते हैं कि ख़ुदा के ख़ौफ़ से गिर पड़ते हैं और जो कुछ तुम कर रहे हो उससे ख़ुदा ग़ाफ़िल नहीं हैं(74)
(मुसलमानों) क्या तुम यह लालच रखते हो कि वह तुम्हारा (सा) ईमान लाएंगे हालाँकि उन में का एक गिरोह (साबिक़ में) ऐसा था कि ख़ुदा का कलाम सुनता था और अच्छी तरह समझने के बाद उलट फेर कर देता था, हालाँकि वह खूब जानते थे(75)
और जब उन लोगों से मुलाक़ात करते हैं जो ईमान लाए तो कह देते हैं कि हम तो ईमान ला चुके और उनसे बाज़ के साथ तख़लिया करते हैं तो कहते हैं कि जो कुछ ख़ुदा ने तुम पर (तौरेत) में ज़हिर कर दिया है क्या तुम (मुसलमानों को) बता दोगे ताकि उसके सबब से (कल) तुम्हारे ख़ुदा के पास तुम पर हुज्जत लाएं(76)
क्या तुम (इतना भी) नहीं समझ़ते लेकिन क्या वह लोग (इतना भी) नहीं जानते कि वह लोग जो कुछ छिपाते हैं या ज़ाहिर करते हैं ख़ुदा सब कुछ जानता है(77)
और कुछ उनमें ऐसे अनपढ़ हैं कि वह किताब ख़ुदा को अपने मतलब की बातों के सिवा कुछ नहीं समझते औऱ वह फ़क़त ख्याली बातें किया करते हैं(78)
पस वाए हो उन लोगों पर जो अपने हाथ से किताब(1) लिखते हैं फ़िर (लोगों से) कहते (फिरते) हैं कि यह ख़ुदा के यहां से आई है ताकि इसके ज़रिए से थोड़ी सी क़ीमत (दुनियावी फ़ायदा) हासिल करें पस अफसोस है उन पर कि उनके हाथों ने लिखा और फिर अफसोस है उन पर कि वह ऐसी कमाई करते हैं(79)
और कहते हैं कि गिनती के चन्द दिनों के सिवा हमें आग छूएगीं भी तो नहीं (ऐ रसूल) इन लोगों से कहो कि क्या तुमने ख़ुदा से कोई इक़रार ले लिया है कि फिर वह किसी तरह अपने इक़रार के ख़िलाफ हरगिज़ न करेगा या बेसमझे बूझे ख़ुदा पर तूफान जोड़े हो(80)
हाँ (सच तो यह है कि) जिस ने बुराई हासिल की और उस के गुनाहों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया है वही लोग तो दोज़ख़ी हैं और वही (तो) इसमें हमेशा रहेंगे(81)
और जो लोग ईमानदार हैं और उन्होंने अच्छे काम किये हैं वही लोग जन्नती हैं कि हमेशा जन्नत में रहेंगे(82)
और (वह वक्त याद करो) जब हम ने बनी इस्राईल से (जो तुम्हारे बुर्ज़ुग ते) अहदो पैमान लिया था कि ख़ुदा के सिवा किसी की इबादत न करना और मां बाप(1) और कराबत दारों और यतीमों और मोहताजों(2) के साथ अच्छे सलूक करना और लोगों के साथ अच्छी तरह (नरमी) से बातें करना और बराबर नमाज़ पढ़ना और ज़कात देना फिर तुम में से थोड़े आदमियों के सिवा (सब के सब) फिर गए और तुम लोग हो ही इक़रार से मुंह फेरने वाले(83)
और (वह वक़्त) याद करो) जब हमने तुम (तुम्हारे बुर्ज़गों) से अहद लिया कि आपस में खूँरेज़ियाँ न करना और न अपने लोगों को शहर बद्र करना तो तुम (तुम्हारे बुजुर्गों) ने इक़रार किया था और तुम भी उस की गवाही देते हो (के हां ऐसा हुआ था(84)
फिर वही लोग तो तुम हो कि आपस में एक दूसरे का क़त्ल करते हो और अपनों में से एक जत्थे के नाहक़ और ज़बरदस्ती हिमायती बन कर दूसरों को शहर बदर करते हो (और लुत्फ़ तो यह है कि) अगर वही लोग क़ैदी बन कर तुम्हारे पास (मदद मांने) आँए तो उनको तावान दे कर छुड़ा लेते हो हालांके उनका निकलना ही तुम पर हराम किया गया था तो फ़िर क्या तुम (किताब ख़ुदा की) बाअज़ बातों पर ईमान रखते हो और बाअज़ से इन्कार करते हो पस तुम में से जो लोग ऐसा करेंगे उनकी सज़ा इसके सिवा और कुछ नहीं कि ज़िन्दगी भर की रुसवाई हो और (आख़िरक़ार) क़यामत के दिन बड़े सख़्त अज़ाब की तरफ़ लौटा दिये जाएं और जो कुछ तुम लोग करते हो ख़ुदा उससे ग़ाफ़िल नहीं है(85)
यही वह लोग हैं जिन्होंने आख़ेरत के बदले दुनिया की ज़िन्दगी खरीद की पस न उन के अज़ाब ही में तख़लीफ़ की जाएगी और न वह लोग किसी तरह की मदद दिये जाऐंगे(86)
और यह तहक़ीक़ी बात है कि हमने मूसा को किताब (तौरैत) दी और उनके बाद बहुत से पैग़म्बरों को उनके क़दम व क़दम ले चले और मरयम के बेटे ईसा को (भी बहुत से) वाज़ेह व रौशन मौजिज़े दिये और पाक रुह (जिबरईल) के ज़रिये से उनकी मदद की क्या तुम इस क़दर बद दिमाग़ हो गए कि जब कोई तुम्हारे पास तुम्हारी नफसानी खाहिश के ख़िलाफ़ कोई हुक्म लेकर आया तो तुम अकड़ बैठे फिर तुम ने बाअज़ पैग़म्बरों को तो झुटलाया और बाअज़ को जान से मार डाला(87)
और कहने लगे कि हमारे दिलों पर गिलाफ़ चढ़ा हुआ है(1) (ऐसा नहीं) बल्कि उनके कुफ्र की वजह से ख़ुदा ने उन पर लानत की है पस कम ही लोग ईमान लाते हैं(88)
और जब उनके पास ख़ुदा की तरफ़ से किताब (कुरआन) आई और वह उस (किताब तौरेत) की जो उनके पास है तसदीक़ भी करती है और इससे पहले (इसकी उम्मीद पर) काफिरों पर फ़तहयाब होने की दुआएं(2) मांगते थे पस जब उनके पास वह चीज़ जिसे पहचानते थे, आ गई तो लगे इन्कार करने पस काफ़िरों पर ख़ुदा की लानत है(89)
क्या ही बुरा है वह काम जिस के मुक़ाबले में (इतनी बात पर) वह लोग अपनी जाने बेचे बैठै हैं कि ख़ुदा अपने बंदों में से जिस पर चाहे अपनी इनायत से किताब नाज़िल किया करे इस रश्क से जो कुछ ख़ुदा ने नाज़िल किया है सब का इंकार कर बैठे पस इन पर ग़ज़ब पर ये ग़ज़ब टूट पड़ा और काफ़िरों के लिये (बड़ी) रुसवाई का अज़ाब है(90)
और जब उनसे कहा गया कि जो (कुरआन) ख़ुदा ने नाज़िल किया है उस पर ईमान लाओगे तो कहने लगे कि हम तो इसी किताब (तौरे) पर ईमाल लाए हुए हैं जो हम पर नाज़िल की गयी थी और उस किताब (कुरआन) को जो उसके बाद (आई) है नहीं मानते हालाँकि वह (कुरआन) हक़ है और उस किताब (तौरैत) की जो उनके पास है तसदीक़ भी करती है (मगर इस किताब कुरआन का जो इसके बाद आई है इंकार करते हैं) (ऐ रसूल) उन से यह तो पूछो कि तुम (तुम्हारे बुजुर्ग) अगर ईमानदार थे(91)
तो फिर क्यों ख़ुदा के पैग़म्बरों को साबिक़ में क़त्ल करते थे और तुम्हारे पास मूसा तो वाज़ेह व रोशन मौजिज़े लेकर आ ही चुके थे फिर भी तुम ने उनके बाद बछड़े को ख़ुदा ही बना लिया और उससे तुम अपनी ही ऊपर जुल्म करने वाले थे(92)
और (वह वक्त याद करो) जब हमने तुमसे अहद लिया और कोहे तूर को (तुम्हारी अदूल हुक्मी से) तुम्हारे सर पर लटकाया और (हमने कहा कि यह किताब तौरैत) जो हमने दी है मज़बूती से लिये रहो और (जो कुछ इसमें है) सुनों तो कहने लगे सुनो तो (सही लेकिन) हम उसको मानते नहीं उनकी बेईमानी की वजह से (गोया) बछड़े की उल्फ़त घोल के उन के दिलों में पिला दी गयी (ऐ रसूल) उन लोगों से कह दो कि अगर तुम ईमानदार थे(93)
तो तुम को तुम्हारा ईमान क्या ही बुरा हुक्म करता था (ऐ रसूल) इन लोगों से कह दो कि अगर ख़ुदा के नज़दीक आख़िरत का घर (बहिश्त) ख़ास तुम्हारे वास्ते है और लोगों के वास्ते नहीं है पस अगर तुम सच्चे हो तो मौत की आरजू करो (ताकि जल्दी बेहिश्त में जाओ)(94)
लेकिन वह इन (आमाल बद) की वजह से जिन को इन के हाथों ने पहले आगे भेजा है हरगिज़ मौत की आरज़ू न करेंगे और ख़ुदा ज़ालिमों से ख़ूब वाक़िफ़ हैं(95)
और (ऐ रसूल) तुम इन (ही) को ज़िन्दगी का सब से ज़्यादा हरीस पाओगे मुशरिकों में से हर एक शख़्स चाहता है कि काश उस को हज़ार बरस की उम्र दी जाती हालाँकि अगर इतनी तूलानी उम्र दी भी जाए तो वह (ख़ुदा के) अज़ाब से छुटकारा देने वाली नहीं, और जो कुछ वह लोग करते हैं ख़ुदा उसे ख़ूब देख रहा है(96)
(ऐ रसूल उन लोगों से) कह दो कि जो जिबराईल(1) का दुश्मन है (उसका ख़ुदा दुश्मन है) क्योंकि उस फ़रिश्ते ने ख़ुदा के हुक्म से (उस कुरआन को) तुम्हारे दिल पर डाला है ओर वह उन किताबों की भी तस्दीक करता है जो (पहले नाज़िल हो चुकी हैं और अब) उसके सामने मौजूद हैं और ईमानदारों के वास्ते खुशख़बरी है(97)
जो शख़्स ख़ुदा और उसके फ़रिश्तों और उस उसके रसूलों और (ख़ास कर) जिबराईल व मिकाईल का दुश्मन हो तो बेशक ख़ुदा भी (ऐसे) काफ़िरों का दुश्मन है(98)
और (ऐ रसूल) हमने तुम पर ऐसी निशानियां नाज़िल की हैं जो वाज़ेह और रोशन हैं और ऐसे नाफ़रमानों के सिवा उन का कोई इन्कार नहीं कर सकता(99)
और उनकी यह हालत है कि जब कभी कोई अहद किया तो उनमें से एक फ़रीक़ न तोड़ ड़ाला बल्कि इनमें से अक्सर तो ईमान ही नहीं रखते(100)
और जब उन के पास ख़ुदा की तरफ़ से रसूल (मुहम्मद स.अ.व.व.) आया और वह उस (किताब तौरैत) की जो न के पास है तस्दीक़ भी करता है तो उन अहले किताब के एक गिरोह ने किताब ख़ुदा को अपने पसे पुश्त फेंक दिया गोया वह लोग कुछ जानते ही नहीं(101)
और उस मंतर(1) के पीछे पड़ गए जिसको सुलेमान के ज़माना-ए-सल्तनत में शयातीन जपा करते थे हालांके सुलेमान अ0 ने कुफ़्र इख़्तेयार नहीं किया लेकिन शैतानों ने कुफ़्र इख़्तेयार किया कि वह लोगों को जादू सिखाया करते थे और वह चीज़ें जो हारूत व मारूत दोनों फरिश्तों पर बाबुल(2) में नाज़िल की गई थी हालांकि ये दोनो फ़रिश्तें किसी को सिखाते न थे जब तक ये न कह देते कि हम दोनों तो फक़त (ज़रया) आज़माइश हैं पस तो (उस पर अमल करके) बे ईमान न हो जाना उस पर भी उनसे वह (टोटके) सीखते थे जिन की वजह से मिया बीबी में तफरक़ा(3) डाल दे हालांकि बग़ैर इज़्ने ख़ुदा वन्दी वह अपनी इन बातों से किसी को ज़रर नहीं पहुंचा सकते थे और ये ऐसी बातें सीखते थे जो ख़ुद उन्हीं को नुक़्सान पहुँचाती थी और (कुछ) नफ़ाअ पहुँचाती थी बावजूद वह यक़ीनन जान चुके थे कि जो शख़्स इन (बुराईयों) का ख़रीदार हुआ और वह आख़िरत में बे नसीबी है और बे शुबहा (मुआवज़ा) बहुत ही बुरा है जिस के बदले उन्होंने अपनी जानों को बेचा काश (इसे कुछ सोचे) समझे होते(102)
और अगर वह ईमान लाते और (जादू वगैरह से) बच कर परहेज़गार बनते तो ख़ुदा की दरगाह से जो सवाब मिलता वह इस से कहीं बेहतर होता, काश ये लोग (इतना तो) समझते(103)
ऐ ईमानदारों तुम (रसूल को अपनी तरफ मुतवज्जेह करना चाहो तो) राऐना(1) (हमारी रिआयत कर) न कहा करो बल्कि उन्ज़ुरना (हम पर नज़र तवज्जो फ़रमा) कहा करो और (जी लगाकर) सुनते रहो और काफ़िरों के लिए दर्दनाक अज़ाब है(104)
(ऐ रसूल) अहले किताब में से जिन लोगों ने कुफ़्र इख्तेयार किया वह मुशरकीन ये नहीं चाहते हैं कि तुम पर तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से भलाई (वही) नाज़िल की जावे और (इन का तो इसमें कुछ इजारा नहीं) ख़ुदा जिस को चाहता है अपनी रहमत के लिए ख़ास कर लेता है और ख़ुदा बड़ा फ़ज़्ल (करने) वाला है(105)
(ऐ रसूल) हम जब कोई आयत मन्सूख़ करते हैं(2) या (तुम्हारे ज़ेहन से) मिटा देते हैं तो इससे बेहतर या वैसी ही (और) नाज़िल भी कर देते हैं क्या तुम नहीं जानते कि बेशुबहा ख़ुदा हर चीज़ पर क़ादिर है(106)
क्या तुम नहीं जानते कि आसमान व ज़मीन की सल्तनत बेशुबहा ख़ास ख़ुदा ही के लिये है और ख़ुदा के सिवा तुम्हारा न कोई सरपरस्त है न मददगार(107)
(मुसलमानों) क्या तुम चाहते हो कि तुम भी अपने रसूल से वैसे ही (बे ढंगे) सवालात करो जिस तरह साबिक़ ज़माने में मूसा से (बेतुके) सवालात किये गये थे और जिस शख़्स ने ईमान के बदले कुफ़्र इख़्तेयार किया वह तो यक़ीनी सीधे रास्ते से भटक गया(108)
(मुसलमानों) अहले किताब में से अक्सर लोग अपने दिली हसद की वजह से यह ख़्वाहिश(1) रखते हैं कि तुमको ईमान लाने के बाद फ़िर काफ़िर बना दें (और लुत्फ़ तो यह है कि) उन पर हक़ ज़ाहिर हो चुका है इसके बाद (भी यह तमन्ना बाक़ी है) पस तुम माफ करो और दरगुज़र करो यहां तक कि ख़ुदा अपना (कोई और) हुक्म भेजे बेशक ख़ुदा हर चीज़ पर क़ादिर है(109)
और नमाज़ पढ़ते रहो और ज़कात देते जाओ और जो कुछ भलाई अपने लिये (ख़ुदा के यहां) पहले भेज दोगे उस (के सवाब) को मौजूद पाओगे, जो कुछ तुम करते हो उसे ख़ुदा ज़रुर देख रहा है(110)
और (यहूद) कहते हैं कि यहूद (के सिवा) और (नसार कहते हैं कि) नसारा के सिवा कोई बहिश्त में जाने ही न पाएगा यह इन के ख़याली(1) पुलाव हैं ऐ रसूल। तुम इनसे कहो कि भला अगर तुम सच्चे हो कि हम ही बेहिश्त में जाएंगे तो अपनी दलील पेश करो(111)
हां अलबत्ता जिस शख़्स ने ख़ुदा के आगे अपना सर झुका दिया।और अच्छे काम भी करता ह तो उसके लिये उसके परवरदिगार के यहां उसका बदला (मौजूद है) और आख़ेरत में ऐसे लोगों पर न किसी तरह का ख़ौफ़ होगा और न ऐसे लोग ग़मगीन होंगे(112)
और यहूद कहते हैं कि नसारा का मज़हब कुछ (ठीक) नहीं और निसारी कहते हैं के यहूद का मज़हब कुछ (ठीक) नहीं हालांकि यह दोनों फ़रीक़ किताबे ख़ुदा पढ़ते रहते हैं इसी तरह इन्हीं की सी बाते वह (मुश्रकीन अरब) भी किया करते हैं जो (ख़ुदा के अहकाम) कुछ नहीं जानते तो जिस बात में यह लोग पड़े झगड़ते हैं (दुनिया में तो तय न होगा) क़यामत के दिन ख़ुदा उन के दरमियान ठीक फ़ैसला कर देगा(113)
और इससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो ख़ुदा की मस्जिदों में उसका नाम लिए जाने से (लोगों को) रोके(2) और उनकी बरबादी के दरपे हो, ऐसा ही को इसमें जाना मुनासिब नहीं मगर सहमें हुए ऐसे ही लोगों के लिए दुनियां में रुसवाई है और ऐसे ही लोगों के लिए आख़ेरत में बड़ा भारी अज़ाब है(114)
(तुम्हारे मस्जिद में रोकने से क्या होता है क्योंकि सारी ज़मीन) ख़ुदा ही की है (क्या) पूरब (क्या) पश्चिम बस जहां कहीं (क़िब्ले की तरफ़) रुख़ करलो(1) वहीं खुदा का सामना है बेशक ख़ुदा बड़ी गुन्जाइश वाला और खूब वाक़िफ़ है(115)
और यहूद कहने लगे कि ख़ुदा औलाद रखता है हालांकि वह (इस बख़ेडे से) पाक हैं बल्कि जो कुछ ज़मीन व आसमान में है सब उसी का है(116)
और सब उसी के फ़रमा बरदार हैं (वही) आसमान व ज़मीन का मूजीद है और जब किसी काम का करना ठान लेता है तो उस की निस्बत कह देता है कि हो जा पस वह (खुद ब खुद) हो जाता है(117)
और जो (मुशरेकीन) कुछ नहीं जानते कहते हैं कि ख़ुदा हमसे (ख़ुद) कलाम क्यों नहीं करता, या हमारे पास (ख़ुद) कोई निशानी क्यों नहीं आती, इसी तरह इन्हीं की सी बातें वह लोगकर चुके हैं जो इन से पहले थे इन सब के दिल आपस में मिलते जुलते हैं जो लोग यक़ीन रखते हैं इनको तो अपनी निशानियां साफ़ तौर पर दिखा चुके(118)
(ऐ रसूल) हम ने तुमको दीने हक़ के साथ (बेहिश्त की) ख़ुशख़बरी देने वाला, और (अज़ाब से) डराने वाला (बना कर) भेजा है और दोज़ख़ियों के बारे में तुम से कुछ न पूछा जायेगा(119)
और (ऐ रसूल) न तो यहूदी कभी तुम से रज़ामन्द होंगे न नसारा यहां तक कि तुम उनके मज़हब की पैरवी करो (ऐ रसूल) उन से कह दो कि बस ख़ुदा ही की हिदायत तो हिदायत है (बाक़ी ढ़कोसला है) और अगर तुम इसके बाद भी कि तुम्हारे पास इल्म (कुरआन) आ चुका है इन की ख़्वाहिश पर चले तो (याद रहे कि फिर) तुमको ख़ुदा (के ग़ज़ब) से बचाने वाला न कोई सरपरस्त होगा मददगार(120)
जिन लोगों को हम ने किताब (कुरआन) दी है वह लोग इसे इस तरह पढ़ते रहते हैं जो इस के पढ़ने का हक़ है यही लोग इस पर ईमान लाते हैं और जो इससे इन्कार करते हैं वही लोग घाटे में हैं,(121)
ऐ बनी इस्राईल मेरी उन नेअमतों को याद करो जो मैंने तुम को दी हैं और यह के मैंने तुमको सारे जहान पर फ़ज़ीलत दी(122)
और उस दिन से डरो जिस दिन कोई शख़्स किसी की तरफ़ से न फ़िद्या हो सकेगा और न उस की तरफ़ से कोई मुआवज़ा क़बूल किया जायेगा, और न कोई सिफ़ारिश ही फ़ाएदा पहुंचा सकेगी और न वह लोग मदद दिए जावेंगे(123)
(ऐ रसूल बनी इस्राईल को वह वक़्त भी याद दिलाओ) जब इब्राहीम को उनके परवर दिगार ने चन्द बातों(1) में आज़माया और उन्होंने पूरा कर दिया तो ख़ुदा ने फ़रमाया मैं तुमको (लोगों का) पेशवा(2) बनाने वाला हूँ (हज़रत इब्राहीम ने) अर्ज़ की और मेरी औलाद मे से फ़रमाया (हा मगर) मेरे इस ओहदे पर ज़ालिमों में से कोई शख़्स फ़ाएज़ नहीं हो सकता(124)
(ऐ रसूल वह वक्त भी याद दिलाओ) जब हमने खाना-ए-काबा को लोगों के सवाब और पनाह की जगह क़रार दी और (हुक्म दिया) कि इब्राहीम की (इस) जगह को नमाज़ की जगह बनाओ और इब्राहीम व इस्माईल से ऐहदो पैमान लिया कि मेरे (इस) घर को तवाफ़ और एतक़ाफ़ और रुकूअ और सजदा करने वालों के वास्ते साफ़ सुथरा रखो(125)
और (ऐ रसूल वह वक्त भी याद दिलाओ) जब इब्राहीम ने दुआ मांगी के ऐ मेरे परवर दिगार इस शहर को पनाह व अमन का शहर बना, और इसके रहने वालों में से जो ख़ुदा और रोज़े आख़ेरत पर ईमान लाए उस को तरह तरह के फ़ल खाने को दे, ख़ुदा ने फ़रमाया (अच्छा मगर) जो कुफ्र इख़्तेयार करेगा उसको दुनियां में चन्द रोज़ (उन चीज़ों से) फ़ाएदा उठाने दूंगा फिर (आख़ेरत में) उसको मजबूर करके दोज़ख़ की तरफ़ खींच ले जाऊंगा और वह बहुत बुरा ठिकाना है(126)
और (वह वक्त भी याद दिलाओ) जब इब्राहीम व इस्माईल ख़ाने काबा की बुनयादें बुलन्द कर रहे थे (और दुआ मांगते जाते थे कि) ऐ हमारे परवरदिगार। हमारी (ये ख़िदमत) क़बूल कर बेशक तू ही (दुआ) सुनने वाला (और नीयत का) जानने वाला है(127)
(और) ऐ हमारे पालने वाले तू हमें अपना फ़रमाबरदार बंदा बना और हमारी औलाद से एक गिरोह (पैदा कर) जो तेरा फ़रमाबरदार हो, और हमको हमारे हज की जगहे दिखा दे और हमारी तौबा कूबूल कर, बेशक तू ही बड़ा तौबा कूबूल करने वाला मेहरबान है(128)
(और) ऐ हमारे पालने वाले मक्के वालों में इन्हीं में से एक रसूल को भेज जो उन को तेरी आयतें पढ़ कर सुनाए और आसमानी किताब और अक़्ल की बातें सिखाए और उन (के नफूस) को पाक़ीज़ा कर दे बेशक तू ही ग़ालिब और साहिबे तदबीर है(129)
और कौन है जो इब्राहीम के तरीक़े से नफ़रत करे मगर जो अपने को अहमक़(1) बनाए, और बेशक हम ने उन को दुनिया में भी मुन्ख़तब कर लिया, और वह ज़रुर आख़ेरत में भी अच्छो ही में से होंगे(130)
जब उन से उनके परवरदिगार ने कहा इस्लाम कूबूल करो तो अर्ज़ की सारे जहां के परवरदिगार पर इस्लाम लाया(131)
और इसी तरीक़े की इब्राहीम ने अपनी औलाद से वसीयत की और याकूब ने (भी) कि ऐ फ़रज़न्दों ख़ुदा ने तुम्हारे वास्ते इस दीन (इस्लाम) को पसन्द फ़रमाया है पस तुम हरगिज़ न मरना मगर मुस्लमान ही होकर(132)
(ऐ यहूद) क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब याकूब के सर पर मौत आ ख़ड़ी हुई उस वक्त उन्होंने अपने बेटों सेकहा कि मेरे बाद किसीक इबादत करोगे कहने लगे हम आपके माअदूद और आपके बाप(1) दादाओं इब्राहीम व इस्माईल व इसहाक़ के माअबूदे यक्ता ख़ुदा की इबादत करेंगे और हम उसी के फ़रमाबरदार हैं(133)
(ऐ यहूद) वह लोग थे जो चल बसे जो उन्होंने कमाया उनके आगे आया और जो तुम कमाओगे तुम्हारे आगे आएगा, और जो कुछ भी वह करते थे उसकी पूछ गछ तुम से नहीं होगी(134)
(यहूदी ईसाई मुसलमानों से) कहते हैं कि यहूदी या नसरानी हो जाओ तो राहे रास्त पर आ जाओगे (ऐ रसूल इनसे) कह दो कि हम इब्राहीम के तरीक़े पर हैं जो बातिल से कतरा कर चलते थे और मुशरेकीन से न थे(135)
(और ऐ मुसलमानों तुम ये) कहो कि हम तो ख़ुदा पर ईमान लाए हैं और उस पर जो हम पर नाज़िल किया गया (कुरआन) और जो (सहीफ़े) इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक़ व याकूब और औलादे याकूब पर नाज़िल हुए थे उन पर और जो (किताब) मूसा व ईसा को दी गई (उस पर) और जो और पैग़म्बरों को न के परवरदिगार की तरफ़ से उन्हें दिया गया (उस पर) हम तो उनमें से किसी (एक) में भी तफ़रीक़ नहीं करते और हम तो ख़ुदा ही के फ़रमाबरदार हैं(136)
पस अगर यह लोग भी इसी तरह ईमान लाए हैं जिस तरह तुम तो अलबत्ता राहे रास्ते पर आ गये और अगर वह इस तरीक़े से मुंह फेर लें तो बस वह सिर्फ़ तुम्हारी ज़िद ही पर है तो (ऐ रसूल) उन (के शर) से बचाने को तुम्हारे लिये खुदा काफ़ी होगा और वह (सबक़ी हालत) खूब जानता (और) सुनता है(137)
(मुसलमानों से कहो कि) रंग तो ख़ुदा ही का रंग है जिसमे तुम रंगे गये और ख़ुदाई रंग से बेहतर कौन रंग होगा और हम तो इसी की इबादत करते हैं(138)
(ऐ रसूल) तुम इनसे पूछो कि क्या तुम हमसे ख़ुदा के बारे में झगड़ते हो हालाँकि वही हमारा (भी) परवरदिगार है और (वही) तुम्हारा भी परवरदिगार है हमारे लिये है हमारी कारगुज़ारियाँ और तुम्हारे लिये तुम्हारी कारसतानियां और हम तो निरे ख़रे उसी के हैं(139)
क्या तुम कहते हो कि इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक़ व औलादे याकूब सबके सब यहूदी या नसरानी थे (ऐ रसूल इनसे) पूछो तो कि तुम ज़्यादा वाक़िफ़ हो या ख़ुदा, और इससे बढ़कर कौन ज़ालिम होगा जिसके पास ख़ुदा की तरफ़ से गवाही (मौजूद) हो (कि वह यहूदी न थे) और फ़िर वह छिपाए और जो कुछ तुम करते हो ख़ुदा इससे बेख़बर नहीं(140)
ये वह लोग थे जो सिधार चुके जो कुछ कमा गये उनके लिये था और जो कुछ तुम कमाओगे तुम्हारे लिये होगा और जो कुछ वह कर गुज़रे उसकी पूछ-गछ तुमसे न होगी।(141)
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