मासूमा ऐ क़ुम हजरत फातेमा मासूमा

इतिहासिक शख्सीयते
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आप का इस्मे मुबारक फ़ातिमा है! आप का मशहूर लक़ब "मासूमा" है!

आप के पिता शियों के सातवें इमाम हज़रत मूसा इब्न जाफ़र (अ:स) हैं और आप की माता हज़रत नजमा ख़ातून हैं और यही महान स्त्री आठवें इमाम (अ:स) की भी माता हैं! बस इसी वजह से हज़रत मासूमा (स:अ) और इमाम रज़ा (अ:स) एक माँ से हैं!

आप की विलादत पहली ज़िल'क़ाद 173 हिजरी क़ो मदीना मुनव्वरा में हुई!

अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे की बचपने ही में आप अपने शफीक़ बाप की शफ़क़त से महरूम हो गईं! आप के वालिद की शहादत हारुन के क़ैदख़ाना बग़दाद में हुई!

बाप की शहादत के बाद आप अपने अज़ीज़ भाई हज़रत अली इब्न मूसा अल-रज़ा (अ:स) की देख रेख में आ गयीं!

200 हिजरी में मामून अब्बासी के बेहद इसरार और धमकियों की वजह से इमाम (अ:स) सफ़र करने पर मजबूर हुए! इमाम (अ:स) ने ख़ुरासान के इस सफ़र में अपने अजीजों में से किसी एक क़ो भी अपने हमराह न लिया!

इमाम (अ:स)  की हिजरत के एक साल बाद भाई के दीदार के शौक़ में और रिसालत ज़िंबी और पयामे विलायत की अदाएगी के लिये आप (स:अ) ने भी वतन क़ो अलविदा कहा और अपने कुछ भाइयों और भतीजों के साथ ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हुईं!

हर शहर और हर मोहल्ले में आप का ज़बरदस्त स्वागत हो रहा था, और यही वो वक़्त था के आप अपनी फूफी हज़रत ज़ैनब (स:अ) की सीरत पर अमल करके मज़लूमियत के पैग़ाम और अपने भाई की ग़ुरबत मोमिनीन और मुसलमान तक पहुंचा रहीं थीं और अपनी व अहलेबैत की मुखाल्फ़त का इज़हार बनी अब्बास की फ़रेबी हुकूमत से कर रहीं थीं, यही वजह थी की जब आप का क़ाफ्ला सावाह शहर पहुंचा तो कुछ अहलेबैत (अ:स) के दुश्मनों (जिन के सरों पर हुकूमत का हाथ था) रास्ते में रुकावट बन गए और हज़रत मासूमा (स:अ) के कारवां से ईन बदकारों ने जंग शुरू कर दी! इस जंग में कारवां के तमाम मर्द शहीद कर दिए गए, और एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत मासूमा (स:अ) क़ो भी ज़हर दिया गया!

इस तरह हज़रत मासूमा (स:अ) इस अज़ीम ग़म के असर से या ज़हर के असर से बीमार हो गयीं और अब हालात ऐसे हो गए की ख़ुरासान तक के सफ़र क़ो जारी रखना बहुत कठिन हो गया! इसी कारण सावाह शहर से क़ुम शहर तक जाने का निर्णय लिया गया! जब आप ने पूछा की सावाह शहर से शहरे क़ुम का कितना फ़ासला है जिसके जान्ने के बाद आप ने कहा मुझे क़ुम शहर ले चलो, इसलिए की मैंने अपने वालिदे मोहतरम से सुना है के इन्हों ने फ़रमाया, शहरे क़ुम हमारे शियों का मरकज़ (केंद्र) है!

इस ख़ूशी की ख़बर सुनते ही, क़ुम के लोगों और अमीरों में एक ख़ूशी की एक लहर दौड़ गयी और वो सब के सब आप के स्वागत में दौड़ पड़े! मूसा इब्न ख़ज़'रज जो के अशारी ख़ानदान के एक बुज़ुर्ग थे इन्हों ने आपके नाक़े की मेहार (ऊँट का लगाम) क़ो आगे बढ़ कर थाम लिया! और बहुत से लोग जो सवार और पैदल भी थे किसी परवाने की तरह इस कारवां का चारों तरफ़ चलने लगे! 23  रबी उल-अव्वल 201 हिजरी वो अज़ीम-उष-शान तारीख़ थी जब आपके पाक क़दम क़ुम की सरज़मीन पर आये! फिर इस मोहल्ले में जिसे आज कल मैदाने मीर के नाम से याद किया जाता है हज़रत (स:अ) की सवारी मूसा इब्न ख़ज़'रज के घर के सामने बैठ गयी, जिस के नतीजे में आप की मेजबानी और आव-भगत का सबसे पहला शरफ़ मूसा इब्न ख़ज़'रज क़ो मिल गया!

इस अज़ीम हस्ती ने सिर्फ 17  दिन इस शहर में ज़िंदगी गुज़ारी और ईन दिनों में आप अपने ख़ुदा से राज़ो-नियाज़ की बातें करतीं और इस की इबादत में मशगूल रहीं!

मासूमा (स:अ) की इबादतगाह और क़याम'गाह मदरसा-ए-सतिय्याह थी, जो आज कल "बैतूल नूर" के नाम से मशहूर है, यहाँ अब हज़रत (स:अ) के अक़ीदतमंदों की ज़्यारतगाह बनी हुई है!

आख़िर'कार रबी उस-सानी के दसवें दिन और एक कौल/रिवायत के मुताबिक़ 12 वें दिन, सन 201 हिजरी में, क़ब्ल इसके के आप की आँखें अपने भाई की ज़्यारत करतीं, ग़रीब-उल-वतनी में बहुत ज़्यादा ग़म देखने और उठाने के बाद, बंद हो गयीं!

क़ुम की सरज़मीन आप के ग़म में मातम कदा हो गयी! क़ुम के लोगों ने काफ़ी इज़्ज़त व एहतराम के साथ आप के जनाज़े क़ो बाग़े बाबिलान जो इस वक़्त शहर के बाहर था ले गए और वहीँ दफ़न का इंतज़ाम किया, जहाँ आज आपकी क़ब्रे अतहर बनाई गयी! अब जो सबसे बड़ी मुश्किल कौम वालों के लिये थी वोह यह थी की ऐसा कौन बा-कमाल शख्स हो सकता है जो आप के जिसमे-अतहर क़ो सुपर्दे लहद करे! अभी लोग यह सोच ही रहे थे की नागाह दो सवार जो नक़ाबपोश थे क़िबला की जानिब से नज़र आने लगे और बहुत बदी सर'अत के साथ वोह मजमा के क़रीब आये, नमाज़ पढ़ने के बाद इनमें से एक बुज़ुर्गवार क़ब्र में उतरे और दुसरे बुज़ुर्गवार ने जिसमे अतहर क़ो उठाया और इस क़ब्र में उतरे हुए बुज़ुर्गवार के हवाले किया ताकि उस नूरानी पैकर क़ो सुपुर्दे ख़ाक करे!

यह दो शख्सीयतें हुज्जते परवर'दिगार थीं, यानी इमाम रज़ा (अ:स) और हज़रत इमाम जवाद (अ:स) थे क्योंकि मासूमा (स:अ) की तज्हीज़ो-तकफ़ीन एक मासूम ही अंजाम देता है, तारीख़ में ऐसी मिसालें मौजूद हैं, उदाहरण स्वरुप हज़रत ज़हरा (स:अ) के जिसमे अतहर की तज्हीज़ो-तकफ़ीन हज़रत अली (अ:स) के हाथों अंजाम पायी, इसी तरह हज़रत मरयम (स:अ) क़ो हज़रत ईसा (अ:स) ने स्वयं ग़ुस्ल दिया!

हज़रत मासूमा (स:अ) के जिसमे अतहर की तद्फीन की बाद मूसा इब्न ख़ज़'रज ने एक हसीरी सायेबान आप की क़ब्रे अतहर पर डाल दिया! इसके बाद हज़रत ज़ैनब (स:अ) जो इमाम जवाद (अ:स) की औलाद में से थीं इन्हों ने 256  हिजरी में पहला गुम्बद अपनी अज़ीम फूफी की क़ब्रे अतहर के लिये निर्माण कराया!

इस अलामत की वजह से इस अज़ीम खातून की तुर्बते पाक मोहिब्बाने-अहलेबैत (अ:स) के लिये क़िबला हो गयी जहाँ नमाज़े मोवद'दत अदा करने के लिये मोहिब्बाने अहलेबैत जूक़ दर जूक़ आने लगे! आशिक़ाने विलायत और इमामत के लिये यह बारगाह "दारुल-शिफ़ा" हो गयी जिस में बेचैन दिलों क़ो सुकून मिलने लगा! मुश्किल'कुशा की बेटी, लोगों क़ो बड़ी बड़ी मुश्किलों की मुश्किल'कुशाई करती रहीं और न'उम्मीदों के लिये उम्मीद का केंद्र बन गयीं!

 

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