हमारी कहानियाँ

कुछ शुबहात
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दुनिया में इंसानों के दरमियान सही तबलीग़ न होने की वजह से ही ग़लत रस्म व रिवाज और अक़ीदे जन्म लेते हैं और ऐसी ऐसी मज़हकाख़ेज़ बातें वजूद में आती हैं जिनका मज़हब और अक़ल व मंतिक़ से दूर का भी वासता नहीं होता और यह बातें अकसर तौहीद के मनाफ़ी या उससे मुतासादिम होती हैं।

दूसरे मज़ाहिब की निसबत शिया मज़हब ने अक़ल व मनतिक़ को अहमियत देकर इफ़रात व तफ़रीत के बजाए ऐतदाल की ताकीद की है।

अशाएरा या अहले हदीस के यहाँ सिर्फ़ हदीस काफ़ी है चाहे कैसी ही क्यों न हो, अक़ल का कोई दख़ल नहीं है, जबकि मोतज़ला के यहाँ अक़ल ही सब कुछ है, यह लोग हदीस की तावील भी अपनी अक़ल के मुताबिक़ कर ड़ालते हैं, लेकिन शियों के यहाँ ऐतदाल पाया जाता है।

मगर दुनिया परसतों ने ऐतदाल को नज़र अनदाज़ करते हुऐ ऐसी ऐसी बातें बनाम दीन समाज में रायज करदीं जो अक़ल व मनतिक़, किताब व सुन्नत दोनों के मनाफ़ी होती हैं और अवाम इनही को दीन समझने लगते हैं--- अगर कोई मुसलेह इस्लाह की बात करता है तो अवाम यह समझते हैं कि दीन की मुख़लफ़त हो रही है लेहाज़ा इस्लाही तहरीक की मुख़ालफ़त शुरु कर दी जाती है, अवाम तो अवाम हैं लेकिन जब बाज़ नाम निहाद मौलवी इस्लाही तहरीकों की मुख़ालफ़त करते हैं तो हालात और भी बदतर होजाते हैं और मुआशरे को नाक़ाबिले तलाफ़ी नुक़सान पहुँचने लगता है।

किया समाज में कजफि़क्री की इससे बड़ी कोई मिसाल होसकती है कि हमारा समाज आइम्मा ए मासूमीन अलैहेमुस्सलाम की तालीम की हुई दुओं के बजाऐ मनघड़त कि़स्से कहानियों से हाजत तलब करता है! इसी लिए तो कि़स्से कहानियों की बाढ़ सी आई हुई है, जिनमें से चंद मशहूर यह हैंः

जनाबे सैय्यदा की कहानी, दस बीबयों की कहानी, चटपट बीबी की कहानी, सुगत अम्मां बीबी शहरबानो की कहानी, तीसरे चाँद की कहानी, बीबी सगट की कहानी, हज़रत अब्बास की कहानी, मौला मुशिकलकुशा की कहानी, जनाबे उम्मे कुलसूम की कहानी और अब आागई सोलह सैय्यदों की कहानी।

बुकसेलर हज़रात तो समाज के बजाए अपना फ़ाएदा देखते हैं लेहाज़ा वह तो ऐसी किताबें शाया करते हैं जो ज़्यादा बिकने वाली हों चाहे समाज का कुछ भी हश्र हो।

इन सब कहानियों में जनाबे सैय्यदा की उस कहानी का किताबों में ज़रुर तज़करा मिलता है जिस में जनाबे सैय्यदा यहूदी के यहाँ शादी में तशरीफ़ ले गई थीं और जन्नती लिबास ज़ेबेतन फ़रमाया था--- लेकिन उसमें भी बहुत सी बातें बढ़ाली गई हैं, अलबत्ता सनद के लिहाज़ से यह भी ज़ईफ़ है कियोंकि इसके रावी का नाम मालूम नहीं है। अल्लामा मजलिसी ने भी बिहारुल अनवार की जिल्द 43 पेज 30 (मतबुआ बैरुत ) में इस वाक़ेए को ‘‘रुवेआ‘‘ से शुरु किया है जिसका मतलब यह है कि ‘‘रिवायत की गई है‘‘ और जो क़ौल क़ीला से और रिवायत रुवेआ से शुरु होती है वह सनद के ऐतबार से ज़ईफ़ मानी जाती है।

बाक़ी जो कहानियाँ हैं वह अवाम ही में से किसी की गढ़ी हुई हैं क्योंकि कहानी कहते ही उसे हैं जो गढ़ी गई हो, चूँकि अवाम में इल्मी शऊर नहीं होता इस लिऐ उनके गढ़े हुऐ कि़स्से कहानियाँ भी उनही के जैसी होती हैं जिस पर किसी तबसरे की ज़रुरत नहीं है, लेकिन अफ़सोस तो उस नाम निहाद तालिबे इलम पर है जो वतने अज़ीज़ और रिशते नाते वालों को छोड़ कर इलमे दीन हासिल करने के लिए सीरया पहुँचा और उस पर दीन का पैसा भी ख़र्च हुआ लेकिन उसने अपनी किसी जि़म्मेदारी को महसूस नहीं किया और माल के लालच में 16 सैय्यदों की कहानी गढ़ ड़ाली ।

यूँ तो यह कहानी किसी सुन्नी की लिखी हुई है, क्योंकि सबसे पहले चमन बुक डिपो , 914 गली चाह शीरीं, फ़राश ख़ाना, देहली से यह कहानी छपी थी लेकिन इस तालिबे इलम ने शायद लफ़ज़ों में फ़ेर बदल करके इसे अपने नाम से शाया कराया है, क्योंकि अपने मुक़ददमे में पेज 4 पर लिखा इस तालिबे इलम ने ख़ुद ऐतराफ़ किया है किः

जिस वक़्त इस अज़ीम कहानी या अज़ीम मोअजज़े का मुझ को पढ़ने का शरफ़ हासिल हुआ तो मुझको मुतालेऐ के बाद बड़ी ख़ुशी महसूस हुई और मैंने उसी वक़्त यह फ़ैसला किया कि सही है कि यह अज़ीम मोअजज़ा या कहानी अपने मुकम्मल मफ़हूम के साथ मौजूद है लेकिन अगर मज़ीद तरतीब के साथ इसको बारे दीगर अलफ़ाज़ी व अदबी नुक़ताए नज़र से शाया कर दिया जाए तो बेहतर होगा।

इस तालिबे इलम ने कहानी के आखि़र में अपना इलमी बयान देकर जिहालत व गुमराही का सबूत ही दे दिया, यह मनगढ़त कहानी और इस पर नाम निहाद इलमी बयान किताबचे की शक्ल में मार्च 2007 में सीरया से शाया हुआ है।

मुझे ताअज्जुब है! किया सीरया में हौज़ा ए इलमिया पर किसी बुज़ुर्ग आलिमे दीन की नज़ारत नहीं है ? ताकि तुल्लाबे अज़ीज़ दीन व मज़हब के खि़लाफ़ किसी फ़आलियत में शरीक न हों।

कहानी तो यह भी लायक़े तबसरा न थी लेकिन ऐक तालिबे इलम ने अवाम को गुमराह करना चाहा है लेहाज़ा उससे मुताअल्लिक़ चंद नुकात क़ारेईन की कि़दमत में पेश करना ज़रुरी हैः

1- कोई भी तालीफ तहक़ीक़ पर मबनी होती है यानी एक लिखने वाला जब कोई बात लिखता है तो इस्तदलाली, अक़ली, मनतक़ी और मुसतनद होती है, लेकिन 16 सैय्यदों की कहानी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जैसे इस कहानी की इबतदा इस तरह होती हैः

किसी शहर में एक बादशाह रहता था ---

यहाँ सवाल यह पैदा होता है कि उस शहर का नाम किया था? किस मुल्क में था ? वह बादशाह किस मज़हब का मान्ने वाला था ? इस कि़स्म की कोई भी मालूमात नहीं दी गई है, जबकि यह सारी मालूमात ज़रुरी थीं।

2- इस कहानी के पेज 4, 5 पर:

इस मनगढ़त कहानी को ‘‘अज़ीम मोअजज़ा या कहानी ‘‘ लिखा है।

एक तालिबे इलम से बईद है कि वह ऐसी बात लिखे जो जाहिले मुतलक़ के अलावा कोई नहीं लिख सकता, मोअजज़ा और करामत सिर्फ़ अंबिया और आईम्मा अलैहेमुस्सलाम से मख़्सूस है, यह कौनसा मोअजज़ा है जो मनगढ़त कहानी के बराबर हो गया ? और इस तालिबे इलम ने पेज 5 पर यह बात कहाँ से लिख दी कि ‘‘ जो भी (इस मनगढ़त ) कि़स्से को सुने वह अपनी मुरादें मुहम्मद व आले मुहम्मद (स0अ0) के सदक़े में पाएगा---मुहम्मद व आलेमुहम्मद (अ0स0) तो झूठ से नफ़रत करते हैं तो फि़र इस झूठे कि़स्से से किस तरह मुरादें पूरी करेंगे ? सोचने की बात है!

3- इस मनगढ़त कि़स्से में लिखा है: ‘‘साईल ने मुँह फेर लिया और बादशाह से वह थाली लिए बग़ैर चल दिया---साईल से इनकार की वजह पूछी तो साईल ने कहा कि मैं बांझ घरों से कुछ नहीं लेता‘‘

अगर साईल को यह मालूम था कि बादशाह बे औलाद है और बेऔलाद के हाथ से भीक नहीं लेना चाहिए, तो वह बादशाह के यहाँ आया कियों ? और अगर उसे मालूम नहीं था कि बादशाह बे औलाद है तो भीक लिए वापस कियों चला गया जबकि किसी ने उसे बताया भी न था कि बादशाह बेऔलाद है ?!

दूसरे यह कि इस्लाम ने बेऔलाद को कभी भी मनहूस नही समझा है बलिकी यह हमारे समाज पर ग़ैरों का असर है जिस से हम बेऔलाद को मनहूस समझते हैं, इसी वजह से साईल ने भी बेऔलाद को मनहूस समझा---या तो साईल ख़ुद ग़ैर शिया था या वह ग़ैर शियों के कलचर से मुताअस्सिर था, दोनों सूरतों में साईल अल्लाह या वली अल्लाह का नुमाइंदा नहीं होसकता और नाम निहाद तालिबे इलम ने अपने ‘‘इलमी बयान‘‘ के पेज 21 पर बग़ैर तहक़ीक़ किए साइल को अल्लाह और वलीउल्लाह का नुमाइंदा लिख दिया ?!

4- इस कि़स्से में लिखा है किः

‘‘शाही लिबास को उस (बादशाह) ने अपने तन से उतार दिया और उसके एवज़ में फ़क़ीरी लिबास पहन कर अपनी बीवी से यह कहता हुआ कि अगर रब्बुलइज़्ज़त मेरी इज़्ज़त रखेगा (यानी साहिबे औलाद करेगा) तो वापस आऊँगा, महल से जंगल की तरफ़ निकल गया‘‘

औलाद का ना होना बेइज़्ज़ती नहीं है, दूसरे यह कि इस्लाम के नुक़ता ए निगााह से अहल व अयाल और कारोबारे जि़ंदगी को छोड़ कर जंगल में चले जाना बहुत बुरा है और यह ईसाइयों का तरीक़ा है, कऱ्ुआने मजीद में इरशाद होता है:

और रोहबानियत (लज़्ज़ात से कनारा कशी) इन (ईसाइयों) लोगों ने ख़ुद ऐक नई बात निकाली थी हमने उनको इसका हुकम नहीं दिया था (सुरा ए हदीद, आयत 27)

पैग़म्बरे इस्लाम सल्ललाहो अलैहे व आलेहिवस्सलम को जब यह इत्तला दी गई कि असहाब के एक गिरोह ने दुनिया और और दुनिया की तमाम चीज़ों को छोड़ दिया है और गोशा नशीन होकर इबादत में मशग़ूल होगया है तो आंहज़रत ने शदीद सरज़निश करते हुऐ फ़रमाया किः

मैं तुम्हारा पैगम्बर हूँ लेकिन मैंने दुनिया को तर्क नहीं किया है।

(नहजुलबलाग़ा की सैर, पेज 292, तालीफ़ शहीद मुतहरी )

इसके अलावा जब उस्मान बिन मज़ऊन अपने बेटे की वफ़ात से हद दर्जा रंजीदा हुए और करोबारे जि़ंदगी छोड़ कर मस्जिद में सिर्फ़ इबादत करने लगे और इसकी ख़बर रसूले इस्लाम को पहुँची तो आपने फ़रमायाः

ऐ उस्मान! अल्लाह तबारक व तआला ने हमारे लिए रोहबानियत (तर्के दुनिया) का हुकम नहीं दिया है, बतहक़ीक़ मेरी उम्मत के लिए जिहाद (कोशिश) करते रहना ही रोहबानियत है।

यानी ना उम्मीद होकर नहीं बैठना चाहिए बलकि अल्लाह की राह में बराबर कोशिश करते रहना चाहिए, चाहे यह कोशिश तलवार के साथ हो या क़लम के साथ, ज़बान से हो या किसी और ज़रिए से--- जो लोग कारोबारे जि़ंदगी छोड़ कर सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करना चाहते थे, रसूले ख़ुदा (स0अ0) ने उनकी भी सरज़निश फ़रमाई तो फिर वह वह बादशाह ! जो पूरी रिआया का जि़म्मेदार होता है और बजाए मस्जिद के जंगल में जा रहा था सरज़निश का और भी ज़्यादा हक़दार था, ऐसे आदमी को जिसने इस्लाम के फ़लसफ़ा ए हयात की मुख़लफ़त की हो उसे इस तालिबे इल्म ने अपने नाम निहाद इल्मी बयान में पेज 22 पर बग़ैर जहक़ीक़ किए मोमिन होने की सनद भी दे की ?

5- इस कि़स्से में लिखा है कि: रास्ते में 16 सैय्यद तशरीफ़ फ़रमा थे ---

लेकिन यह नहीं लिखा कि यह 16 सैय्यद कौन थे ? किस इमाम की औलाद थे ? वहाँ पर किया कर रहे थे ? शिया थे या सुन्नी ? किस मुलक के किस शहर से इनका तआल्लुक़ था ? और किया यह 16 सैय्यद इल्मे ग़ैब भी जानते थे ? और इनकी तादाद 16 ही कियों थी ? यह तमाम बातें तहक़ीक़ तलब हैं।

नाम निहाद तालिबे इलम ने अपने इलमी बयान में पेज 21 पर साइल के बारे में तो लिख दिया किः बादशाह के दरवाज़े पर आने वाला यह साइल इल्मे ग़ैब भी रखता था।

लेकिन 16 सैय्यदों के बारे में न लिखा कि यह भी इल्मे ग़ैब जानते थे या नहीं ? हालाँकि साइल के बारे में भी झूठ बोल कर गुमराह करने की कोशिश की है वरना इलमे ग़ैब तो सिर्फ़ अल्लाह के पास है, इरशाद होता है:

और उस (ख़ुदा) के पास ग़ैब की कुंजियाँ हैं जिनको उसके सिवा कोई नहीं जानता (सूरा ए इनाम, आयत 60)

अब रहा सवाल यह कि ख़ुदा के अलावा नबी या इमाम भी तो इल्मे ग़ैब जानते हैं, तो यह चीज़ ख़ुदावंदे आलम ने उन्हें असलहे के तौर पर अता की है और अल्लाह ही अपनी मरज़ी से उसे इस्तेमाल कराता है ,उसकी मिसाल बिला तशबीह इस तरह दी जा सकती है कि: पुलिस को जो असलहा मिलता है वह चाहे किसी भी शकल में हो उसे पुलिस अपनी मरज़ी से नहीं चला सकती बलकि अपने हाकिम के हुक्म से इस्तेमाल करती है।

यह मिसाल हुज्जातूल इस्लाम मोहसिन क़राअती साहब ने क़ुम में एक क्लास में हमें बताई थी, जब उनसे यह सवाल किया गया था किः आठवें इमाम (अ0स0) ने ज़हर आलूद अंगूर क्यों नोश फ़रमाए, जबकि आप को इल्मे ग़ेब से मालूम था कि यह अंगूर ज़हर आलूद हैं ?

तो मोसूफ़ ने जवाब में यही कहा था कि आइम्मा (अ0स0) को ख़ुदा वंदे आलम ने इल्मे ग़ैब असलहे के तौर पर दिया है जब उसकी मरज़ी होती है इल्मे ग़ैब से इस्तफ़ादा करते हैं और जब उसकी मरज़ी नहीं होती तो फिर इल्में ग़ैब से इस्तफ़ादा नहीं करते, हो सकता है जब ज़हर आलूद अंगूर नोश फ़रमाए हों ख़ुदा की मरज़ी से इल्मे ग़ैब से इस्तेफादा न किया हो।

6 - इस कि़स्से में पेज 18 पर लिखा है कि:

कल पंद्रहवीं तारीख़ है, तुम क़ुर्बतन इलल्लाह ग़ुस्ल करना और सहरी खाकर सोलहवीं का रोज़ा रखना और चार रकअत नमाज़ 16 सैय्यदों के नाम से अदा करना ---

क्या अल्लाह के अलावा किसी और के नाम की नमाज़ अदा करना जायज़ है? नहीं ! इबादत सिर्फ़ ख़ुदा के लिए मख़सूस है और उसी के नाम पर होती है, इरशाद होता है:

और उसके लिए निरी खरी इबादत करके उस से दुआ मांगो (सूराए आराफ़, आयत29)

यानी अगर दूआ भी मांगनी हो तो अल्लाह से और उसकी ख़ालिस इबादत के बाद, न जाने तालिबे इल्म ने यह बात कैसे लिख दी किः

चार रकअत नामाज़ 16 सैय्यदों के नाम की अदा करना --- 7 - इस फ़रज़ी कि़स्से में लिखा है कि (16 सैय्यदों ने कहा):

और 5 पैसे की मिठाई मंगाकर हमारी कहानी सुन्ना ---

बिलफ़रज़ अगर कोई आदमी इस नाम निहाद तालिबे इल्म के बहकाए में आकर 16 सैय्यदों की कहानी सन्ने लगे तो कितने पैसे की मिठाई मंगाए ? क्योंकि 5 पैसे का सिक्का तो चल नहीं रहा है और न ही 5 पैसे की मिठाई कोई दुकानदार देने पर राज़ी होगा !

8 - इस कि़स्से में:

सैय्यद भी 16, रोज़ा रखने की तारीख़ भी 16, रोज़ा रखने के महीने भी 16 तहरीर किए हैं

जिस से इस बात का पता चलता है कि यह कहानी किसी सुन्नी की लिखी हुई है, हमारे यहाँ किसी भी अमले ख़ैर में अदद की यह मुमासेलत नहीं बताई गई है, बलकि ख़ुलूसे नियत पर ज़ोर दिया गया है।

अदद की मुमासेलत पर अहले सुन्नत के यहाँ ज़ोर दिया जाता है, जैसे रबीउल सानी की 11 तारीख़ को इनके यहाँ शैख़ अबदुलक़ादिर जीलानी की फ़ातेहा आती है चँुकि यह फ़ातेहा 11 तारीख़ को आती है इस लिए इसे ग्यारहवीं शरीफ़ कहते हैं और जिन चीज़ों पर फ़ातेहा आती है वह भी अदद के एतबार से 11 होती हैं जैसे रोटी भी 11, कबाब भी 11 कोफ़ते भी 11, केले भी 11, आम भी 11, फि़रनी की प्यालियाँ भी 11 और फ़ातेहा कहने और खाने वाले भी 11 होते हैं।

यह कहानी सबसे पहले चमन बुक डिपो देहली से छपी थी यह अहले सुन्नत का इदारा है लेकिन इस इदारे ने इतनी एहतियात ज़रुर की थी कि इसकी किताब के ऊपर इख़्तराई दासतान (गढ़ा हुआ कि़स्सा) लिख दिया था लेकिन शियों ने इतनी भी ज़हमत न की --- इसके बाद जलालपुर जि़ला अम्बेडकर नगर से बज़ाहिर एक मौलवी साहब ने इसे छपवाया और अब सीरया से भी इत्तफ़ाक़न एक मौलवी साहब ने ही छपवाया है।

9 - इस कि़स्से में लिखा है किः

बुढ़ीया ने जवाब में फ़रमाया कि सब 16 सैय्यदों के नाम पर रोज़ा रखने की बरकत का नतीजा है (जो ममकान और माल व दौलत मुझे मिला है )

इस्लाम में सिर्फ़ अल्लाह के नाम पर रोज़ा रखना जायज़ है इसके अलावा किसी के नाम पर रोज़ा रखना सही नहीं है।

दूसरे यह कि अल्लाह के नाम पर माहे रमज़ान के 30 रोज़े रखने वाले ग़रीब मुस्लमान भी सहरी, अफ़तारी और आख़रत के सवाब के हक़दार होते हैं, बेहतरीन मकानों और दौलत के मालिक नहीं बनते, तो फि़र 16 सैय्यदों के नाम पर रोज़ा रखने से बुढ़ीया किस तरह मालदार बन गई ! वह भी एक ही दिन में ? !

इस मुंह बोले तालिबे इल्म ने ऐसा लिख कर मोमेनीन को ख़ुदा से दूर करने की भरपूर कोशिश की है, अगर कोई ग़ुरबत का मारा मुस्लमान माल के लालच में बजाए ख़ुदा के 16 सैय्यदों के नाम पर रोज़ा रख ले तो इसका अज़ाब इसी तालिबे इल्म को होगा।

10 - इस कि़स्से में लिखा है किः

लकड़हारा मिठाई मंगवाकर कहानी सुन्ना भूल गया --- (जिसकी वजह से लकड़हारे के हाथ में लोटा शहज़ादे का कटा हुआ सर बन गया और क़ातिल समझ कर बादशाह ने लकड़हारे को क़ैद में ड़ाल दिया) अभी क़ैदख़ाने में इसको कुछ ही दिन गुज़रे थे कि इसने ख़्वाब में देखा कि वही 16 सैय्यद उससे कह रहे हैं कि ऐ ग़ाफि़ल! तूने मिठाई मंगाकर हमारी कहानी नहीं सुनी ---

यह भी अजीब बात है कि अकसर हमारी कहानियों के हीरो लकड़हारे साहब ही होते हैं, बहर हाल इस्लाम में भूल चूक पर कोई सज़ा नहीं मिलती है, जैसे नमाज़ के वाजेबात में से बाज़ उसके रुक्न हैं यानी अगर इन्सान उन्हें बजा न लाए तो चाहे ऐसा करना जानबूझ कर हो या भूले से हो नमाज़ बातिल हो जाती है। ( तौज़ीहुल मसाइल, आयातुल्लाह सीसतानी, मसला न0 951)

नमाज़ का वाजिब रुक्न छूट जाने पर भी सज़ा नहीं है सिर्फ़ नमाज़ दोबारा पढ़नी पड़ेगी --- तो फि़र 16 सैय्यदों की मनगढ़त कहानी भूले से या जानबूझ कर न सुन्ना किस लिए सज़ा का बाइस हो सकता है।

10 - इस कि़स्से में:

झूठे वाक़ेआत पर 5 जगह मुहम्मद व आले मुहम्मद (अ0स0) पर दुरुद भी भेजा गया है।

किया इस काम से अहलेबैत (अ0स0) ख़ुश होंगे ? ! नहीं बलकि नाराज़ होंगे, क्योंकि इसी दुरुद का सहारा लेकर अहले सुन्नत के गढ़े हुए कि़स्से को शियों में रिवाज देने की कोशिश की जा रही है और साथ ही तक़ददुस भी बख़्शा जा रहा है वरना जो कि़स्सा चमन बुक डिपो देहली या जलालपुर से छपा है उसमें तो ऐक जगह भी दुरुद नहीं है।

11 - इस कि़स्से के पेज 18 पर लिखा है:

लकड़हारे ने जवाब दिया कि: में मिठाई मंगाकर 16 सैय्यदों की कहानी सुना कर मिठाई तक़सीम करना भूल गया था , जिसकी वजह से मुझ पर अज़ाब नाजि़ल हुआ।

ख़ुदावंदे आलम ने गुनाहों पर अज़ाब का वादा फ़रमाया है, मिठाई तक़सीम न करना या भूल जाना गुनाह नहीं है ता फि़र 16 सैय्यद किस तरह अज़ाब नाजि़ल कर सकते हैं। किया उन्हें यह इखि़्तयार है कि किसी पर अज़ाब नाजि़ल करें !?

16 नहीं अगर 16 करोड़ सैय्यद भी मिल कर चाहें कि किसी पर तो इस सूरत में अज़ाब नाजि़ल करें नहीं कर सकते क्योंकि यह काम अल्लाह तआला से मख़सूस है और यह इखि़्तयार सिर्फ़ अल्लाह तआला को है, इरशाद होता है कि:

(ख़ुदा हर चीज़ पर क़ादिर है) जिस पर चाहे अज़ाब करे जिस पर चाहे रहम करे । (सूरा ए अनकबूत, आयत 21)

12 - 16 सैय्यदों की मनगढ़त कहानी में कहीं भी किसी लफ़ज़ से यह बू नहीं आती कि लकड़हारे या उस कहानी के किसी दूसरे किरदार ने अहलेबैत (अ0स0) का वास्ता देकर दूआ की हो ? ! तो फि़र बज़ोअमे ख़ुद इल्मी बयान में पेज 24 पर यह बात कहाँ से लिखदी:

16 सैय्यदों की इस मुबारक कहानी में बादशाह के बाद बुढि़या और बुढि़या के बाद लकड़हारे की मुराद का पूरा होना आलमे इन्सानियत को इस बात की तरफ मुतवज्जेह करता है कि जो भी इन्सान सच्चे दिल से मुहम्मद व आले मुहम्मद (अ0स0) का दामन थामता है --- तो ख़ुदावंदे आलम उसकी तलब को रद्द नहीं करता?

इस कि़स्म की कहानियों को शिया समाज में रायज कराने के पीछे उस शिया दुश्मन ताक़त का हाथ तलाश करना चाहिए जिसने यह अहद किया हुआ है कि: ऐसे शिया अफ़राद को तलाश करके उनकी माली मदद की जाए जो अपनी तहरीरों के ज़रिए शिया अक़ायद और मराकिज़ पर ज़रब लगाऐं --- (दीन और सीयासत, तालीफ़ सै0 पैग़म्बर अब्बास नौगांवी, पेज 189 )

ऐसी कहानी पढ़कर दुआऐं मांगना, अहलेबैत (अ0स0) के तरीक़ाए दुआ से बिल्कुल मुख़तलिफ़ है, हमें अहलेबैत (अ0स0) से मुहब्बत भी है और हम उनके तरीक़ाए दुआ को भी नहीं अपनाते ?!

जैसा दुआ का तरीक़ा हमारे रहबरों (अ0स0) ने बताया है ऐसा तो किसी भी मज़हब के पेशवाओं ने नहीं बताया, मगर यह हमारी बदकि़स्मती नहीं तो और क्या है कि हम ने उस तरीक़े को छोड़ कर ग़ैरों का तरीक़ा अपना लिया है।

इस क़ौम को किया कहिए जिसके पास ऐसे इमाम व रहबर हों जिनकी दुआऐं और मुनाजातें क़ुबूलियते दुआ की ज़मानत हों और वह फि़र भी उनसे फ़ाएदा न उठाऐं, इमाम अली (अ0स0) की दुआए मशलूल और दुआऐ कुमैल की तालीम हमारे लिए न थी? क्या इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ0स0) की दुआओं का मजमूआ सहीफ़ाए सज्जादिया हमारे लिए नहीं है?  क्या दुआऐ नूर व दुआऐ नुदबा से हमें फ़ायदा नहीं पहुँचेगा?  क्या जि़यारते आशूरा का अमल करके हाजत पूरी होने की ज़मानत छठे इमाम (अ0स0) ने नहीं ली है?  अगर एैसा है तो फि़र शिया समाज में आइम्मा (अ0स0) से मनसूब दुआओं और मुनाजातों को छोड़ कर अवाम की गढ़ी हुई कहानियों के ज़रिए हाजत तलब कियों की जाती है! ?

क्या यही अहलेबैत (अ0स0) की पैरवी है ? क्या कभी आपने सुना और पढ़ा है कि हमारे आइम्मा या फ़ोक़ाहा ने इन कहानियों के ज़रिए हाजत तलब की हो ? अगर ऐसा नहीं है तो फि़र हम किस की पैरवी कर रहे हैं ? किस के नक़शे क़दम पर चल रहे हैं ? क्या हम इन मनगढ़त कहानियों के ज़रिऐ आले मुहम्मद (अ0स0) से दूर नहीं हो रहे हैं ?

आइए हम सब मिल कर यह कोशिश करें कि शिया समाज में आइम्मा ए मासूमीन (अ0स0) से मनसूब दुआओं और मुनाजातों को रिवाज दें ताकि समाज की दीनी व दुनियावी तमाम परेशानियाँ दूर हो जाऐं।

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