जानवरों को धीरे-धीरे कष्ट देकर क्यों ज़बह करते हैं?

कुछ शुबहात
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जानवरों को ज़बह करने के इस्लामी तरीके़ पर जिसे ‘ज़बीहा’ कहा जाता है, बहुत से लोगों ने आपत्ति की है। इस संबंध में हम निम्न बिन्दुओं पर विचार करते हैं जिनसे यह तथ्य सिद्ध होता है कि ज़बह करने का इस्लामी तरीक़ा मानवीय ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी श्रेष्ठ है—


जानवर को ज़बह करने का इस्लामी तरीक़ा

इस्लामी तरीके़ से जानवर को ज़बह करने हेतु निम्न शर्तें पूरी करना आवश्यक है—


जानवर को तेज़ छुरी से ज़बह करना चाहिए ताकि उसे कम से कम पीड़ा हो।


जानवर को गले की तरफ़ से ज़बह करना चाहिए इस प्रकार कि हलक़ (कण्ठ, Throat) और गर्दन की ख़ूनवाली नसें कट जाएँ, मगर गर्दन के ऊपर का हिस्सा, जिसका संबंध रीढ़ की हड्डी से है, न कटे। सिर को अलग करने से पहले ख़ून को पूर्णरूप से बहने देना चाहिए क्योंकि उसमें जीवाणु होते हैं। अगर रीढ़ की हड्डी वाले हिस्से को जानवर के मरने से पहले काट दिया जाएगा तो इस स्थिति में सारा ख़ून निकलने से पहले ही वह मर जाएगा और ख़ून उसके मांस में जम जाएगा जिसके कारण मांस स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाएगा।


ख़ून कीटाणुओं और जीवाणुओं का स्रोत है।

रक्त में कीटाणु, जीवाणु, विषाणु इत्यादि पाए जाते हैं, इसलिए ज़बह करने का इस्लामी तरीक़ा अधिक स्वच्छ होता है क्योंकि अधिकांश ख़ून जिसमें कीटाणु, जीवाणु इत्यादि पाए जाते हैं, जो मांस खाने वाले के लिए अनेक रोगों का कारण बनते हैं, इस प्रक्रिया से बह जाते हैं।


मांस लंबे समय तक ताज़ा रहता है।

दूसरे ढंग की अपेक्षा इस्लामी ढंग से ज़बह किया हुआ मांस लंबे समय तक ताज़ा रहता है, क्योंकि मांस में ख़ून की मात्रा लगभग नहीं के बराबर बाक़ी रह जाती है।


जानवर पीड़ा महसूस नहीं करते।

गर्दन की नली को तेज़ी से काटने से मस्तिष्क से जुड़ी नाड़ी की तरफ़ रक्त का बहाव बंद हो जाता है। यह नाड़ी पीड़ा का स्रोत है। अतः जानवर पीड़ा अनुभव नहीं करता। मरते समय जानवर संघर्ष करता है, कराहता है और लात मारता है ऐसा पीड़ा के कारण नहीं होता बल्कि शरीर से रक्त बह जाने के कारण पट्ठों के सुकड़ने और फैलने से होता है।

 

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