शफाअत के नियम

अकीदाऐ क़यामत
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जैसा कि संकेत किया गया शफाअत करने या शफाअत पाने के लिए मूल शर्त ईश्वर की अनुमति है जैसा कि सूरए बक़रा की आयत 255 में कहा गया हैः

 

और कौन है जो उसकी अनुमति के बिना उसके पास सिफारिश करता हैं।

 

इसी प्रकार सूरए युनुस की आयत 3 में कहा जाता हैः

 

कोई भी सिफारिश करने वाला नही है सिवाए उसकी अनुमति के बाद।

 

 

 

इसी प्रकार सूरए ताहा की आयत 109 मे आया हैः

 

और उस दिन किसी की सिफारिश का लाभ नही होगा सिवाएं उसकी कृपालु ईश्वर ने अनुमति दी होगी और जिस बात को पसन्द करता होगा।

 

 

 

और सूरए सबा की आयत हैं

 

उसके निकट सिफारिश का लाभ नही होगा सिवाए उसकी जिसे उसन अनुमति दी।

 

 

 

इन आयतों से सामूहिक रूप से ईश्वर की अनुमति की शर्त सिध्द होती है किंतु जिन लोगो की अनुमति प्राप्त होगी उनकी विशेषताओ का पता नही चलता.

 

किंतु ऐसी बहुत सी आयत है जिनकी सहायता से सिफारिश पाने और करने वालो की कुछ विशेषताओं का पता लगाया जा सकता हैं। जैसा कि सूरए ज़ोखरूफ की आयत 86 मे आया हैः

 

और वे ईश्वर को छोड़ कर जिन लोगो को बुलाते है वे सिफारिश के स्वामी नही हैं सिवाए उसके जिसने सत्य की गवाही दी और वे लोग जानकारो मे से हैं।

 

शायद सत्य की गवाही देने वाले से यहॉ आशय, कर्मो की गवाही देने वाले वह लोग हों जिन्हे मनुष्य के दिल की बातो का ज्ञान होता हैं और मनुष्य के व्यवहार और उसके महत्व  व सत्यता के बारे मे गवाही दे सकता हो। इस से यह भी समझा जा सकता हैं कि सिफारिश करने वाले पास ऐसा ज्ञान होना चाहिए कि जिस के बल पर वह सिफारिश पाने की योग्यता रखने वाले लोगो को जान सके और इस प्रकार की विशेषता रखने वालो मे निश्चित रूप से जिन लोगो का नाम लिया जा सकता हैं वह ईश्वर के वह विशेष दास हैं जिन्हे पापों से पवित्र बताया हैं।

 

 

 

दूसरी ओर, बहुत सी आयतो से यह समझा जा सकता हैं कि जिन लोगो को सिफारिश प्राप्त होनी होगी, उन से प्रसन्न होना भी आवश्यक हैं। जैसा कि सूरए अंबिया की आयत 28 में कहा गया हैः

 

 

 

और वे किसी की सिफारिश नही करेगें सिवाए उसकी जिस से ईश्वर प्रसन्न होगा।

 

 

 

इसी प्रकार सूरए अन्नज्म में आया हैः

 

 

 

और आकाशो मे कितने ऐसे फरिश्ते हैं जिन की सिफारिश का कोई लाभ नही होगा सिवाए इसके कि ईश्वर ने उन्हे जिस के लिए चाहा अनुमति दी हो और जिस से प्रसन्न हुआ हो।

 

 

 

स्पष्ट है कि सिफारिश पाने वालो से ईश्वर के प्रसन्न होने का अर्थ यह नही है कि उन लोगो के सारे काम अच्छे होगें क्योकि अगर ऐसा होगा तो फिर उन्हे सिफारिश की आवश्यकता ही न होती बल्कि इस का आशय यह हैं कि ईश्वर धर्म व ईमान की दृष्टि से उन से प्रसन्न हो जैसा कि हदीसों मे भी इस विचार की पुष्टि की गई है।

 

 

 

इसके साथ ही कुछ आयतो मे उन लोगों की विशेषताओ का भी वर्णन किया गया हैं जिन्हे सिफारिश मिल नही सकती हैं जैसा कि सुरए शोअरा की आयत 100 में अनेकेश्वादियों की इस बात का वर्णन है कि हमारी सिफारिश करने वाला कोई नही हैं। इसी प्रकार सूरए मुद्दस्सिर की आयत 40 से लेकर 48 तक में वर्णन किया गया है कि पापियों से नर्क में जाने का कारण पूछा जाएगा और वे उत्तर में नमाज़ छोड़ने, निर्धनों की सहायता न करने तथा क़यामत जैसे विश्वासो के इन्कार का नाम लेगें और फिर कुरआन में कहा गया है कि उन्हे सिफारिश करने वालो की सिफारिशों से भी कोई लाभ नही होगा। इस आयत से समझा जा सकता है कि अनेकेश्वरवादी और प्रलय व कयामत का इन्कार करने वाले कि जो  ईश्वर की उपासना नही करते और आवश्यकता रखने वालो की सहायता नही करते तथा सही सिध्दान्तो का पालन नही करते, वे किसी भी स्थिति मे सिफारिश के पात्र नही बनेगें। और इस बात के दृष्टिगत कि संसार में पैगम्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम द्वारा अपने अनुयाईयो के पापो को माफ करने कि ईश्वर से प्रार्थना भी एक प्रकार की शफाअत व सिफारिश है तो फिर पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की शिफाअत व सिफारिश में विश्वास रखने वाले के लिए उनकी सिफारिश का कोई प्रभाव वही होगा, यह समझा जा सकता है कि शिफाअत का इन्कार करने वाला भी सिफारिश का पात्र नही बन सकता और इस बात की पुष्टि हदीसों से भी होती हैं।

 

 

निष्कर्ष यह निकला की मुख्य सिफारिश करने वाले के लिए ईश्वर की अनुमति के साथ ही साथ स्वंय पवित्र होना भी आवश्यक है तथा इसी प्रकार उसमे इस बात की योग्यता हो कि वह लोगो की वास्तविकता तथा अवज्ञा व कर्तव्य पालन की भावना का ज्ञान प्राप्त कर सके और इस प्रकार के लोग ही ईश्वर की अनुमति से लोगो की सिफारिश कर सकते है जो निश्चित रूप से ईश्वर के योग्य व चयनित दास ही होगें दूसरी ओर यह सिफारिश उन्ही लोगों को प्राप्त होगी जो सिफारिश की योग्यता रखते होगे जिस के लिए ईश्वर की अनुमति के साथ, इस्लाम के आवश्यक व मूल सिध्दान्तो मे मृत्यु तक विश्वास व आस्था आवश्यक है।।

 

(स्रोत: इस्लाम के मूल सिध्दांत)

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