मोहकम और मुतशाबेह का मतलब

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उलामा ए इस्लाम के दरमियान मोहकम और मुतशाबेह के मआनी में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ मौजूद है और उन मुख़्तलिफ़ अक़वाल में तहक़ीक़ से इस मसले के बारे में तक़रीबन बीस अक़वाल मिल सकते हैं।

अवायले इस्लाम से लेकर आज तक जो मसला मुफ़स्सेरीन के लिये क़ाबिले क़बूल रहा है वह यह है कि मोहकमात वह आयात हैं जिनके मआनी वाज़ेह हैं और असली मआनी के अलावा कोई मअना उन से नही लिये जा सकते और इँसान उन के बारे में किसी शक व शुबहे में नही पड़ता। इस क़िस्म की आयात पर ईमान लाना और अमल करना फ़र्ज़ है और मुतशाबेह वह आयात हैं जिन के ज़ाहिरी मअना मुबहम हैं और ऐसी आयात के हक़ीक़ी मअना उनकी तावील में मुज़मर हैं जो सिर्फ़ ख़ुदा ही जानता है और इंसान की अक़्ल उन तक नही पहुच सकती। इस क़िस्म की आयात पर ईमान तो लाना चाहिये लेकिन उन की पैरवी और उन पर अमल करने से परहेज़ करना चाहिये।

उलामा ए अहले सुन्नत के दरमियान भी यही क़ौल मशहूर है और उलामा ए शिया भी इसी पर मुत्तफ़िक़ हैं लेकिन उलामा ए शिया मोतक़िद हैं कि मुतशाबेह आयात की तावील पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्मा ए अहले बैत (अ) भी जानते हैं और आम मुसलमान और मोमिन जो मुतशाबेह आयात की तावील को समझने से क़ासिर हैं, उन का इल्म ख़ुदा, पैग़म्बर और आईम्मा पर छोड़े दें।

यह क़ौल अगरचे अकसर मुफ़स्सेरीन के दरमियान जारी और काबिले क़बूल है लेकिन चंद लिहाज़ से इस सूरह आले इमरान की 7 वी आयते करीमा के मत्न और उसी जैसी दूसरी क़ुरआनी आयात के उसलूब पर मुनतबिक़ नही है।

सबसे पहले तो यह कि क़ुरआने मजीद में इस क़िस्म की आयतें जो अपने मदलूल (मअना) को तशख़ीस देने में आजिज़ हूँ, उन का नाम तक नही है। उसके अलावा जैसा कि क़ुरआने मजीद अपने आप को नूर, हादी, बयान जैसी सिफ़ात से याद करता है लिहाज़ा उसकी आयात हक़ीक़ी मअना और मुराद को वाज़ेह करने में ना रसा या मुबहम नही है।
इसके अलावा यह आयते करीमा:

क्या क़ुरआने मजीद में ग़ौर नही करते और अगर यह क़ुरआन ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से नाज़िल हुआ होता तो उसमें बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ मौजूद होता। क़ुरआने मजीद में ग़ौर व फ़िक्र करना हर क़िस्म के इख़्तिलाफ़ को ख़त्म करने और मिटाने वाला कहा गया है। हालाकि जैसा कि मसल मशहूर है कि आयते मुतशाबेह में आने वाले इख़्तिलाफ़ात को किसी भी तरह से क़ाबिले हल नही है।

मुमकिन है कि यह कहा जाये कि आयाते मुतशाबेहात से मक़सद और मुराद वही हुरुफ़े मुक़त्तेआ (हुरूफ़े मुख़फ़्फ़फ़) हैं जो कि बाज़ सूरों के शुरु में आते हैं जैसे अलिफ़ लाम मीम, अलिम लाम रा, हा मीम, वग़ैरह। जिन के हक़ीक़ी मअना को तशख़ीस देने का कोई तरीक़ा ही नही है।

लेकिन यह याद रखना चाहिये कि आयते करीमा में आयाते मुतशाबेह को आयाते मोहकम के मुक़ाबले में मुतशाबेह कहा गया है, इसकी वजहे तसमीया यह है कि मुनदर्जा बाला आयात मदलूलाते लफ़्ज़ी (लफ़्ज़ी मआनी) की तरह मअना रखती हो लेकिन हक़ीक़ी और अस्ल मअना, ग़ैर हक़ीक़ी मअना के साथ मुशतबह हो जायें और बाज़ सूरों के शुरु में आने वाले मुख़फ़्फ़फ़ अल्फ़ाज़ या हुरुफ़ इस क़िस्म के लफ़्ज़ी मअना नही रखते।

इस के अलावा उस आयत के ज़ाहिरी मअना यह हैं कि मुनहरिफ़ लोग आयाते मुतशाबेहात से अवाम को गुमराह करने और फ़रेब देने के लिये ना जायज़ फ़ायदा उठाते हैं और इस्लाम में यह सुनने में नही आया कि कोई शख़्स सुरों के आग़ाज़ में आने वाले हुरुफ़े मुक़त्तेआ या मुख़फ़्फ़फ़ हुरुफ़ की तावील करते हुए इस क़िस्म का फ़ायदा उठाये और जिन लोगों ने इस क़िस्म की तावील कर के फ़ायदा उठाया है उन्होने न सिर्फ़ उन ही अल्फ़ाज़ से बल्कि तमाम क़ुरआन की तावील कर के इस क़िस्म का फ़ायदा उठाने की कोशिश की है।

बाज़ लोगों ने कहा है कि मज़कूरा आयत में मुतशाबेह की तावील एक मशहूर क़िस्से की तरफ़ इशारा करती है जिसके ब मूजिब यहूदियों ने कोशिश की है कि सुरों के आग़ाज़ में आने वाले हुरुफ़े मुक़त्तेआत या मुख़फ़्फ़फ़ हुरुफ़ से इस्लाम की बक़ा और दवाम की मुद्दत को समझें और पैग़म्बरे अकरम (स) ने यके बाद दीगरे ऐसे मुख़फ़्फ़फ़ या आग़ाज़ी हुरुफ़ पढ़ कर उन के हिसाब को ग़लत बना दिया था। [1]

यह बात बिल्क़ुल बेहूदा है क्योकि इस क़िस्से या रिवायत के सही होने के बारे में बाज़ यहदियों ने बहुत कुछ लिखा है और कहा है और उसी महफ़िल में उस का जवाब भी सुन लिया है और यह क़िस्सा इस क़दर क़ाबिले अहमियत नही है कि आयते करीमा में मुतशाबेह की तावील के मसले पर ज़ौर दिया जाता।

इस के अलावा यहूदियों की बात में किसी क़िस्म का फ़ितना व फ़साद भी नही था क्योकि अगर एक दीन हक़ीक़ी हो तो अगरचे वह वक़्ती और क़ाबिले मंसूख़ भी क्यों न हो फिर भी उस की हक़्क़ानियत पर कोई हर्फ़ नही आ सकता। जैसा कि इस्लाम से पहले आसमानी अदयान की यही हालत रही है लेकिन वह सब के सब हक़ीक़ी दीन थे।

तीसरे, इस बात की वजह यह है कि आयते करीमा में लफ़्ज़े तावील के मअना और मदलूले ज़ाहिरी मअना के बर अक्स आये हों और इसी तरह आयते मुतशाबेह से मख़सूस हों, यह दोनो मतलब ठीक नही हैं और आईन्दा बहस में जो तावील और तंज़ील के बाब में आयेगी, हम इस के बारे में वज़ाहत से बयान करेंगें कि क़ुरआने मजीद में लफ़्ज़े तावील मअना और मदलूल के पैराए में नही आया कि कोई दूसरा लफ़्ज़ उसका लुग़वी बदल बन सके और दूसरे यह कि तमाम क़ुरआनी आयात चाहे वह मोहकम हों या मुतशाबेह, उनकी तावील हो सकती है न कि सिर्फ़ आयाते मुतशाबेह की। और तीसरे यह कि आयते करीमा में लफ़्ज़े आयाते मोहकमाते को जुमल ए हुन्ना उम्मुल किताब के साथ बयान किया गया है और इस के मअना यह है कि आयाते मोहकमात किताब के असली मतालिब पर मुशतमिल है और बक़िया आयात के मतालिब उन की शाख़ें (फ़ुरुआत) हैं। इस मतलब का वाज़ेह मक़सद यह है कि आयाते मुतशाबेह अपने मअना व मुराद के लिहाज़ से आयाते मोहकमात की तरफ़ लौट जायें यानी आयाते मुतशाबेह के मआनी की वज़ाहत के लिये उन को आयातो मोहकमात की तरफ़ रुजू करना चाहिये और आयाते मोहकमात की मदद से उन के हक़ीक़ी मअना व मुराद को समझना चाहिये।

लिहाज़ा क़ुरआने मजीद में कोई ऐसी आयत जिस के हक़ीक़ी मअना को हासिल न किया जा सके मौजूद नही है और क़ुरआनी आयात या बिला वास्ता मोहकमात में शामिल हैं जैसे ख़ुद आयात मोहकमात और या बा वास्ता मोहकम हैं जैसे मुतशाबेहात वग़ैरह की तरह, लेकिन हुरुफ़े मुक़त्तेआ (मुख़फ़्फ़फ़) जो सूरों के आग़ाज़ में मौजूद हैं उन के लफ़्ज़ी मअना हरगिज़ मालूम नही हैं। इस तरह यह हुरुफ़ आयाते मोहकमात और मुतशाबेहात दोनो क़िस्मों में नही लाए जा सकते।

इस मतलब को समझने के लिये यह आयते करीमा:

तो क्यो लोग क़ुरआन में (ज़रा भी) ग़ौर नही करते या (उन के) दिलों पर ताले (लगे हुए) हैं ।

(सूरह मुहम्मद आयत 24)
और इसी तरह यह आयते करीमा:

तो क्यो यह लोग क़ुरआन में भी ग़ौर नही करते और (यह ख़्याल नही करते कि) अगर ख़ुदा के सिवा और की तरफ़ से (आया) होता तो ज़रुर उसमें बड़ा इख़्तिलाफ़ पाते।

(सूरह निसा आयत 82) से इस्तेफ़ादा किया जा सकता है।

 

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