एक बार अब्दुल मलिक बिन मरवान के दरबार मे क़दरिया मुनाज़िर आया और उसने बादशाह के उलामा से मनाज़रे की माँग की। बादशाह के दरबारी उलामा ने उस से बहसो मुबाहेसा शूरू किया और कुछ ही घंटो मे वो सब के सब उस मनाज़िर से हार गये।
बादशाह को मालूम था कि ऐसे वक्त मे कहा रूजू किया जाऐ लिहाज़ा उसने पहली फुरसत मे इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की खिदमत मे खत लिख कर , आपको दीने पैयम्बर का वास्ता दे कर बुलवा भेजा। इमाम ने ज़रूरते वक्त को समझते हुऐ इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम को शाम रवाना कर दिया।
जिस वक्त अब्दुल मलिक ने देखा कि इमाम बाकिर अलैहिस्सलाम के बदले इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम तशरीफ लाऐ है तो कहने लगा कि आप अभी कमसिन है और वो बड़ा पुराना मनाज़ेरे करने वाला है। कही ऐसा न हो कि आप भी उलामा की तरह शिकस्त खा बैठे। इसी लिऐ मुनासिब नही है कि मजलिसे मुनाज़ेरा दोबारा रखी जाऐ।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इरशाद फरमाया कि बादशाह तू घबरा मत , अगर खुदा ने चाहा तो मै सिर्फ चंद मिन्टो मे मुनाज़ेरा खत्म कर दूँगा।
अल ग़रज़ सब लोग आ गऐ और मुनाज़ेरा शूरू हुआ।
और क्यो कि कदरीयो का ये अक़ीदा है कि खुदा बंदो के आमाल मे कोई दखल नही रखता और बंदे जो कुछ करते है खुद करते है लिहाज़ा इमाम ने उसके पहल करने की खाहिश पर फरमाया कि मै तुम से सिर्फ एक बात कहना चाहता हूँ और वो ये है कि तुम सूरऐ हम्द पढ़ो।
उस कदरियो के बुज़ुर्ग मनाज़िर और आलिम ने सूरऐ हम्द पढ़ना शूरू की और जब वो इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तईन पर पहुँचा कि जिसका तरजुमा ये है कि मैं सिर्फ तेरी ही इबादत करता हूँ और तुझ ही से मदद माँगता हूँ।
तो इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फरमायाः ठहर जाओ और मुझे इसका जवाब दो कि जब तुम्हारे अक़ीदे के मुताबिक़ खुदा को किसी मामले मे दखल देने का हक़ नही है तो फिर उससे मदद क्यो माँगते हो।
ये सुनकर वो खामोश हो गया और कोई जवाब न दे पाया।
और मजलिसे मुनाज़ेरा वही तमाम हो गई औऱ बादशाह बेहद खुश हुआ।
(तफसीरे बुरहान जिल्द न. 1 पेज न. 33)
अब्दुल मलिक बिन मरवान के दौर मे इमाम सादिक़ का एक मुनाज़ेरा
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