(नहजुल बलाग़ा)
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम
नहजुल बलाग़ा अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब अ.स. के कलाम का वह मशहूर तरीन संयोजन है जिसे सैय्यद रज़ी रहमतुल्लाह अलैह ने चौथी शताब्दी के अंत में संकलित किया तथा इस किताब को तीन हिस्सो मे तक़सीम किया गया है :
1. खुतबाते इमाम अली (उपदेश)
2. इमाम अली के मकतूब (पत्र)
3. इमाम अली के अक़वाल (कथन)
और यहा हम तीसरे हिस्से को पेश कर रहे है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 1-20
1. फ़ित्ना व फ़साद में उस तरह रहो जिस तरह ऊंट का वह बच्चा जिसने अभी अपनी उम्र के दो साल ख़त्म किये हैं के न तो उसकी पीठ पर सवारी की जा सकती है और न उसके थनों से दूध दोहा जा सकता है।
2. जिसने लालच को अपनी आदत बनाया, उसने अपने को हलका किया और जिसने अपनी परेशान हाली का इज़हार किया वह ज़िल्लत पर आमादा हो गया, और जिसने अपनी ज़बान को क़ाबू में न रखा उसने ख़ुद अपनी बेवक़अती का सामान कर लिया।
3. बुख़ल नंग व आर है, और बुज़दिली नुक़्स व ऐब है, और ग़ुरबत मर्दे अक़्लमंद व दाना की ज़बान को दलाएल की क़ूवत दिखाने से आजिज़ बना देती है और मुफ़लिस अपने शहर में रह कर भी ग़रीबुल वतन होता है और इज्ज़ व दरमान्दगी मुसीबत है और सब्र शुजाअत है और दुनिया से बेताल्लुक़ी बड़ी दौलत है और परहेज़गारी एक बड़ी सिपर है।
4. तस्लीम व रज़ा बेहतरीन मसाहेब और इल्म शरीफ़ तरीन मीरास है और अमली दमली औसाफ़े नौ बनू खि़लअत हैं और फ़िक्र साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ आईना है।
5. अक़्लमन्द का सीना उसके भेदों का मख़ज़न होता है, और कुशादा रूई मोहब्बत व दोस्ती का फन्दा है और तहम्मुल व बुर्दबारी ऐबों का मदफ़न है (या इस फ़िक़रे के बजाए हज़रत ने यह फ़रमाया) सुलह व सफ़ाई ऐबों को ढांपने का ज़रिया है।
6. जो शख़्स अपने को बहुत पसन्द करता है वह दूसरों को नापसन्द हो जाता है और सदक़ा कामयाब दवा है और दुनिया में बन्दों के जो आमाल हैं वह आख़ेरत में उनकी आंखों के सामने होंगे।
((( क़ुरान में इरशादे इलाही यूं है उस दिन लोग गिरोह गिरोह (क़ब्रों से) उठ खड़े होंगे ताके वह अपने आमाल को देखें तो जिसने ज़र्रा बराबर भी नेकी की होगी उसे देख लेगा और जिसने ज़र्रा बराबर भी बुराई की होगी वह उसे देख लेगा)))
7. यह इन्सान ताअज्जुब के क़ाबिल है के वह चर्बी से देखता है, और गोश्त के लोथड़े से बोलता है और हड्डी से सुनता है और एक सूराख़ से सांस लेता है।
8. जब दुनिया किसी की तरफ़ मुतवज्जेह हो जाती है तो यह दूसरे के महासिन (नेकीयां) भी उसके हवाले कर देती है और जब उससे मुंह फिराती है तो उसके महासिन भी ले लेती है।
(((-यह इल्मुल इज्तेमाअ का नुक्ता है जहां इस हक़ीक़त की तरफ़ तवज्जो दिलाई गई है के ज़माना ऐबदार को बेऐब भी बना देता है और बेऐब को ऐबदार भी बना देता है और दोनों का फ़र्क़ दुनिया की तवज्जो है जिसका हुसूल बहरहाल ज़रूरी है।)))
9. लोगों के साथ ऐसा मेल-जोल रखो के अगर मर जाओ तो लोग गिरया करें और ज़िन्दा रहो तो तुम्हारे मुश्ताक़ रहें।
(((यह भी बेहतरीन इज्तेमाई नुक्ता है जिसकी तरफ़ हर इन्सान को मुतवज्जो रहना चाहिये)))
10. जब दुश्मन पर क़ुदरत हासिल हो जाए तो मुआफ़ कर देने ही को इस क़ुदरत का शुक्रिया क़रार दो।
(((यह अख़लाक़ी तरबीयत है के इन्सान में ताक़त का ग़ुरूर नहीं होना चाहिये)))
11. आजिज़ तरीन इन्सान वह है जो दोस्त बनाने से भी आजिज़ हो और उससे ज़्यादा आजिज़ वह है जो रहे पुराने दोस्तों को भी बरबाद कर दे।
12. जब नेमतों का रूख तुम्हारी तरफ़ हो तो नाशुक्री के ज़रिये उन्हें अपने तक पहुंचने से भगा न दो।
(((परवरदिगारे आलम ने यह एख़तेलाफ़ी निज़ाम बना दिया है के नेमतों की तकमील शुक्रिया ही के ज़रिये हो सकती है लेहाज़ा जिसे भी इसकी तकमील दरकार है उसे शुक्रिया का पाबन्द होना चाहिये)))
13. जिसे क़रीबी छोड़ दें उसे बेगाने मिल जाएंगे।
14. हर फ़ित्ने में पड़ जाने वाला क़ाबिले इताब नहीं होता।
(((जब साद बिन अबी वक़ास, मोहम्मद इब्ने मुसल्लेम और अब्दुल्लाह इब्ने उमर ने असहाबे जमल के मुक़ाबले में आपका साथ देने से इन्कार किया तो इस मौक़े पर यह जुमला फ़रमाया, मतलब यह है के यह लोग मुझसे ऐसे मुनहरिफ़ हो चुके हैं के उन पर न मेरी बात का कुछ असर होता है और न उन पर मेरी इताब व सरज़न्श (नाराज़गी) कारगर साबित होती है)))
15. सब मुआमले तक़दीर के आगे सरनिगूँ हैं यहाँ तक के कभी तदबीर के नतीजे में मौत हो जाती है।
16. पैग़म्बर सल्लल्लाहो अजलैहे वआलेही वसल्लम की हदीस के मुताल्लिक़ के “बुढ़ापे को (खि़ज़ाब के ज़रिये) बदल दो, और यहूद से मुशाबेहत इख़्तेयार न करो’ आप (अ0) से सवाल किया गया तो आपने फ़रमाया के पैग़म्बर पैग़म्बर सल्लल्लाहो अजलैहे वआलेही वसल्लम ने यह उस मौक़े के लिये फ़रमाया था जबके दीन (वाले) कम थे और अब जबके इसका दामन फै़ल चुका है, और सीना टेक कर जम चुका है तो हर शख़्स को इख़्तेयार है।
(((मक़सद यह है के चूंके इब्तिदाए इस्लाम में मुसलमानों की तादाद कम थी इसलिये ज़रूरत थी के मुसलमानों की जमाअती हैसियत को बरक़रार रखने के लिये उन्हें यहूदियों से मुमताज़ रखना जाए, इसलिये आँहज़रत ने खि़ज़ाब का हुक्म दिया के जो यहूदियों के हाँ मरसूम नहीं है, इसके अलावा यह मक़सद भी था के वह दुश्मन के मुक़ाबले में ज़ईफ़ व सिन रसीदा दिखाई न दें)))
17-उन लोगों के बारे में के जो आपके हमराह होकर लड़ने से किनाराकश रहे, फ़रमाया उन लोगों ने हक़ को छोड़ दिया और बातिल की भी नुसरत नहीं की।
(((यह इरशाद उन लोगों के मुताल्लुक़ है के जो अपने को ग़ैर जानिबदार ज़ाहिर करते थे जैसे अब्दुल्लाह बिन उमर, साद इब्ने अबी वक़ास, अबू मूसा अशअरी, अहनफ़ इब्ने क़ैस, और अन्स इब्ने मालिक वग़ैरह, बेशक इन लोगों ने खुल कर बातिल की हिमायत नहीं की, मगर हक़ की नुसरत से हाथ उठा लेना भी एक तरह से बातिल को तक़वीयत पहुंचाना है इसलिये इनका शुमार मुख़ालेफ़ीने हक़ के गिरोह ही में होगा।)))
18- जो शख़्स उम्मीद की राह में बगटूट दौड़ता है वह मौत से ठोकर खाता है।
19- ब-मुरव्वत लोगों की लग्ज़िशों से दरगुज़र करो (क्योंके) इनमें से जो भी लग्ज़िश खाकर गिरता है तो अल्लाह उसके हाथ में हाथ देकर उसे ऊपर उठा लेता है।
20- ख़ौफ़ का नतीजा नाकामी और शर्म का नतीजा महरूमी है और फ़ुरसत की घड़ियां (तेज़रौ) अब्र की तरह गुज़र जाती हैं, लेहाज़ा भलाई के मिले हुए मौक़ों को ग़नीमत जानो।
(((जो बिला वजह ख़ौफ़ज़दा हो जाएगा वह मक़सद को हासिल नहीं कर सकता है और जो बिला वजह शर्माता रहेगा वह हमेशा महरूम रहेगा। इन्सान हर मौक़े पर शर्माता ही रहता तो नस्ले इन्सानी वजूद में न आती।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 21-40
21- हमारा एक हक़ है जो मिल गया तो ख़ैर वरना हम ऊँट पर पीछे ही बैठना गवारा कर लेंगे चाहे सफ़र कितना ही तवील क्यों न हो।
सय्यद रज़ी - यह बेहतरीन लतीफ़ और फ़सीह कलाम है के अगर हक़ न मिला तो हम ज़िल्लत का सामना करना पड़ेगा के रदीफ़ में बैठने वाले आम तौर से ग़ुलाम और क़ैदी वग़ैरा हुआ करते हैं।
(((यानी हम हक़ से दस्तबरदार होने वाले नहीं हैं जहां तक ग़ासिबाना दबाव का सामना करना पड़ेगा करते रहेंगे)))
22-जिसे उसके आमाल के पीछे हटा दें उसे नसब आगे नहीं बढ़ा सकता है।
23-बड़े-बड़े गुनाहों का कुफ़्फ़ारा यह है के इन्सान सितम रसीदा की फ़रयादरसी करे और रंजीदा इन्सान के ग़म को दूर करे।
(((सितम रसीदा वह भी है जिसके खाने पीने का सहारा न हो और वह भी है जिसके इलाज का पैसा या स्कूल की फ़ीस का इन्तेज़ाम न हो)))
24- फ़रज़न्दे आदम (अ0)! जब गुनाहों के बावजूद परवरदिगार की नेमतें मुसलसल तुझे मिलती रहें तो होशियार हो जाना।
(((अक्सर इन्सान नेमतों की बारिश देख कर मग़रूर हो जाता है के शायद परवरदिगार कुछ ज़्यादा ही मेहरबान है और यह नहीं सोचता है के इस तरह हुज्जत तमाम हो रही है और ढील दी जा रही है वरना गुनाहों के बावजूद इस बारिशे रहमत का क्या इमकान है? )))
25-इन्सान जिस बात को दिल में छिपाना चाहता है वह उसकी ज़बान के बेसाख़्ता कलेमात और चेहरे के आसार से नुमायां हो जाती है।
(((ज़िन्दगी की बेशुमार बातें हैं जिनका छिपाना उस वक़्त तक मुमकिन नहीं है जब तक ज़बान की हरकत जारी है और चेहरे की ग़ुम्माज़ी (हाव-भाव) सलामत है, इन दो चीज़ों पर कोई इन्सान क़ाबू नहीं कर सकता है और उनसे हक़ाएक़ का बहरहाल इन्केशाफ़ हो जाता है)))
26- जहां तक मुमकिन हो मर्ज़ के साथ चलते रहो (और फ़ौरन इलाज की फ़िक्र में लग जाओ)
27- बेहतरीन ज़ोहद - ज़ोहद का मख़फ़ी रखना और इज़हार न करना है (के रियाकारी ज़ोहद नहीं है निफ़ाक़ है)
28- जब तुम्हारी ज़िन्दगी जा रही है और मौत आ रही है तो मुलाक़ात बहुत जल्दी हो सकती है।
29- होशियार रहो होशियार! के परवरदिगार ने गुनाहों की इस क़द्र पर्दापोशी की है के इन्सान को यह धोका हो गया है के शायद माफ़ कर दिया है।
30- आपसे ईमान के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के ईमान के चार सुतून हैं, सब्र, यक़ीन, अद्ल, और जेहाद
((वाज़ेह रहे के इस ईमान से मुराद ईमाने हक़ीक़ी है जिस पर सवाब का दारोमदार है और जिसका वाक़ेई ताल्लुक़ दिल की तस्दीक़ और आज़ा व जवारेह के अमल व किरदार से होता है वरना वह ईमान जिसका तज़किरा “या अय्योहल्लज़ीना आमलू” में किया गया है इससे मुराद सिर्फ़ ज़बानी इक़रार और अदआए ईमान है वरना ऐसा न होता तो तमाम एहकाम का ताल्लुक़ सिर्फ़ मोमेनीन मुख़लेसीन से होता और मुनाफ़ेक़ीन इन क़वानीन से यकसर आज़ाद हो जाते)))
फ़िर सब्र के चार शोबे हैं - शौक़, ख़ौफ़, ज़ोहद और इन्तज़ारे मौत, फ़िर जिसने जन्नत का इश्तेयाक़ पैदा कर लिया उसने ख़्वाहिशात को भुला दिया और जिसे जहन्नम का ख़ौफ़ हासिल हो गया उसने मोहर्रमात से इजतेनाब किया, दुनिया में ज़ोहद इख़्तेयार करने वाला मुसीबतों को हलका तसव्वुर करता है और मौत का इन्तेज़ार करने वाला नेकियों की तरफ़ सबक़त करता है।
(((सब्र का दारोमदार चार चीज़ो पर है, इन्सान रहमते इलाही का इश्तेयाक़ रखता हो, और अज़ाबे इलाही से डरता हो ताके इस राह में ज़हमतें बरदाश्त करे, इसके बाद दुनिया की तरफ़ से लापरवाह हो और मौत की तरफ़ सरापा तवज्जो हो ताके दुनिया के फ़िराक़ को बरदाश्त कर ले और मौत की सख़्ती के पेशे नज़र ही सख़्ती को आसान समझ ले)))
यक़ीन के भी चार शोबे हैं - होशियारी की बसीरत, हिकमत की हक़ीक़त रसी, इबरत की नसीहत और साबिक़ बुज़ुर्गों की सुन्नत, होशियारी में बसीरत रखने वाले पर हिकमत रोशन हो जाती है और हिकमत की रोशनी इबरत को वाज़ेह कर देती है और इबरत की मारेफ़त गोया साबिक़ अक़वाम से मिला देती है।
(((यक़ीन की भी चार बुनियादें हैं, अपनी हर बात पर मुकम्मल एतमाद रखता हो, हक़ाएक़ को पहचानने की सलाहियत रखता हो, दीगर अक़वाम के हालात से इबरत हासिल करे और सॉलेहीन के किरदार पर अमल करे, ऐसा नहीं है तो इन्सान जेहले मरकब में मुब्तिला है और इसका यक़ीन फ़क़त वहम व गुमान है यक़ीन नहीं है।)))
अद्ल के भी चार शोबे हैं - तह तक पहुंच जाने वाली समझ, इल्म की गहराई, फ़ैसले की वज़ाहत और अक़्ल की पाएदारी।
जिसने फ़हम की नेमत पा ली वह इल्म की गहराई तक पहुंच गया और जिसने इल्म की गहराई को पा लिया वह फ़ैसले के घाट से सेराब होकर बाहर आया और जिसने अक़्ल इस्तेमाल कर ली उसने अपने अम्र में कोई कोताही नहीं की और लोगों के दरम्यान क़ाबिले तारीफ़ ज़िन्दगी गुज़ार दी।
जेहाद के भी चार शोबे हैं, अम्रे बिल मारूफ़, नहीं अनिल मुनकर, हर मक़ाम पर सिबाते क़दम और फ़ासिक़ों से नफ़रत व अदावत। लेहाज़ा जिसने अम्रे बिल मारूफ़ किया उसने मोमेनीन की कमर को मज़बूत कर दिया और जिसने मुनकरात से रोका उसने काफ़िरों की नाक रगड़ दी, जिसने मैदाने क़ताल में सिबाते क़दम का मुज़ाहेरा किया वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया और जिसने फ़ासिक़ों से नफ़रत व अदावत का बरताव किया परवरदिगार इसकी ख़ातिर इसके दुश्मनों से ग़ज़बनाक होगा और उसे रोज़े क़यामत ख़ुश कर देगा।
(((जेहाद का इन्हेसार भी चार मैदानों पर है, अम्रे बिल मारूफ़ का मैदान, नहीं अनिल मुनकर का मैदान, क़त्ताल का मैदान और फ़ासिक़ों से नफ़रत व अदावत का मैदान, इन चारों मैदानों में हौसलाए जेहाद नहीं है तो तन्हा अम्र व नहीं से कोई काम चलने वाला नहीं है और न ऐसा इन्सान वाक़ेई मुजाहिद कहे जाने के क़ाबिल है)))
और कुफ्ऱ के भी चार सुतून हैं, बिला वजह गहराइयों में जाना, आपस में झगड़ा करना, कजी और इन्हेराफ़ और इख़्तेलाफ़ और अनाद। जो बिला सबब गहराई में डूब जाएगा वह पलट कर हक़ की तरफ़ नहीं आ सकता है और जो जेहालत की बिना पर झगड़ा करता रहता है वह हक़ की तरफ़ से अन्धा हो जाता है, जो कजी का शिकार हो जाता है उसे नेकी बुराई, और बुराई नेकी नज़र आने लगती है और वह गुमराही के नशे में चूर हो जाता है और जो झगड़े और अनाद में मुब्तिला हो जाता है उसके रास्ते दुश्वार, मसाएल नाक़ाबिले हल और बच निकलने के तरीक़े तंग हो जाते हैं।
(((कुफ्ऱ इनकारे ख़ुदाई की शक्ल में हो या इन्कारे रिसालत की शक्ल में इसकी असास शिर्क पर हो या इन्कार हक़ाएक़ व वाज़ेहाते मज़हब पर, हर क़िस्म के लिये चार में से कोई न कोई सबब ज़रूर होता है, या इन्सान उन मसाएल की फ़िक्र में डूब जाता है जो उसके इमकान से बाहर हैं। या सिर्फ़ झगड़े की बुनियाद पर किसी अक़ीदे को इख़्तेयार कर लेता है या इसकी फ़िक्र में कजी पैदा हो जाती है और या वह अनाद और ज़िद का शिकार हो जाता है, और खुली हुई बात यह है के इनमें से हर बीमारी वह है जो इन्सान को राहे रास्त पर आने से रोक देती है और इन्सान सारी ज़िन्दगी कुफ्ऱ ही में मुब्तिला रह जाता है, बीमारी की हर क़िस्म के असरात अलग-अलग हैं लेकिन मजमूई तौर पर सबका असर यह है के इन्सान हक़रसी से महरूम हो जाता है और ईमान व यक़ीन की दौलत से बहरामन्द नहीं हो पाता है।)))
इसके बाद शक के चार शोबे हैः कट हुज्जती, ख़ौफ़, हैरानी और बातिल के हाथों सुपुर्दगी, ज़ाहिर है के जो कट हुज्जती को शोआर बना लेगा उसकी रात की सुबह कभी न होगी और जो हमेशा सामने की चीज़ों से डरता रहेगा वह उलटे पांव पीछे ही हटता रहेगा, जो शक व शुबह में हैरान व सरगर्दां रहेगा उसे शयातीन अपने पैरों तले रौंद डालेंगे और जो अपने को दुनिया व आख़़ेरत की हलाकत के सुपुर्द कर देगा वह वाक़ेअन हलाक हो जाएगा।
(((शक ईमान व कुफ्ऱ के दरम्यान का रास्ता है जहां न इन्सान हक़ का यक़ीन पैदा कर पाता है और न कुफ्ऱ ही का अक़ीदा इख़्तेयार कर सकता है और दरम्यान में ठोकरें खाता रहता है और इस ठोकर के भी चार असबाब या मज़ाहिर होते हैं, या इन्सान बिला सोचे समझे बहस शुरू कर देता है, या ग़लती करने के ख़ौफ़ से परछाइयों से भी डरने लगता है, या तरद्दुद और हैरानी का शिकार हो जाता है या हर पुकारने वाले की आवाज़ पर लब्बैक कहने लगता हैः
“चलता हूँ थोड़ी दूर हर एक राहरौ के साथ, पहचानता नहीं हूं की राहबर को मैं’)))
31. ख़ैर का अन्जाम देने वाला असल ख़ैर से बेहतर होता है और शर का अन्जाम देने वाला असल शर से भी बदतर होता है।
32. सख़ावत करो लेकिन फ़ुज़ूल ख़र्ची न करो और कमखर्ची इख़्तेयार करो लेकिन कंजूसी मत बनो।
33. बेहतरीन मालदारी और बेनियाज़ी यह है के इन्सान उम्मीदों को तर्क कर दे।
34. जो लोगों के बारे में बिला सोचे-समझे वह बातें कह देता है जिन्हें वह पसन्द नहीं करते हैं, लोग उसके बारे में भी वह कह देते हैं जिसे जानते तक नहीं हैं।
35. जिसने उम्मीदों को आज़ाद किया उसने अमल को बरबाद किया।
(((इसमें कोई शक नहीं है के यह दुनिया उम्मीदों पर क़ायम है और इन्सान की ज़िन्दगी से उम्मीद का शोबा ख़त्म हो जाए तो अमल की सारी तहरीक सर्द पड़ जाएगी और कोई इन्सान कोई काम न करेगा लेकिन इसके बाद भी एतदाल एक बुनियादी मसला है और उम्मीदों की दराज़ी बहरहाल अमल को बरबाद कर देती है के इन्सान आखे़रत से ग़ाफ़िल हो जाता है और आख़ेरत से ग़ाफ़िल हो जाने वाला अमल नहीं कर सकता है।)))
36- (शाम की तरफ़ जाते हुए आपका गुज़र अम्बार के ज़मींदारों के पास से हुआ तो वह लोग सवारियों से उतर आए और आपके आगे दौड़ने लगे तो आपने फ़रमाया) यह तुमने क्या तरीक़ा इख़्तेयार किया है? लोगों ने अर्ज़ की के यह हमारा एक अदब है जिससे हम शख्सियतों का एहतेराम करते हैं, फ़रमाया के ख़ुदा गवाह है इससे हुक्काम को कोई फ़ायदा नहीं होता है और तुम अपने नफ़्स को दुनिया में ज़हमत में डाल देते हो और आख़ेरत में बदबख़्ती का शिकार हो जाओगे और किस क़द्र ख़सारे के बाएस है वह मशक़्क़त जिसके पीछे अज़ाब हो और किस क़द्र फ़ायदेमन्द है वह राहत जिसके साथ जहन्नम से अमान हो।
(((इस इरशादे गिरामी से साफ़ वाज़ेह होता है के इस्लाम हर तहज़ीब को गवारा नहीं करता है और इसके बारे में यह देखना चाहता है के इसका फायदा क्या है और आखि़रत में इसका नुक़सान किस क़द्र है, हमारी मुल्की तहज़ीब में फ़र्शी सलाम करना, ग़ैरे ख़ुदा के सामने रूकूअ की हालत तक झुकना भी है जो इस्लाम में क़तअन जाएज़ नहीं है, किसी ज़रूरत से झुकना और है और ताज़ीम के ख़याल से झुकना और है, सलाम ताज़ीम के लिये होता है, लेहाज़ा इसमें रूकूअ की हुदूद तक जाना सही नहीं है)))
37-आपने अपने फ़रज़न्द इमाम हसन (अ0) से फ़रमायाः बेटा मुझसे चार और फ़िर चार बातें महफ़ूज़ कर लो तो उसके बाद किसी अमल से कोई नुक़सान न होगा।
(((चार और चार का मक़सद शायद यह है के पहले चार का ताल्लुक़ इन्सान के ज़ाती औसाफ़ व ख़ुसूसियात से है और दूसरे चार का ताल्लुक़ इज्तेमाई मुआमलात से है और कमाले सआदतमन्दी यही है के इन्सान ज़ाती ज़ेवरे किरदार से भी आरास्ता रहे और इज्तेमाई बरताव को भी सही रखे)))
बेहतरीन दौलत व सरवत अक़्ल है और बदतरीन फ़क़ीरी हिमाक़त, सबसे ज़्यादा वहशतनाक अम्र ख़ुद पसन्दी है और सबसे शरीफ़ हस्बे ख़ुश एख़लाक़ी, बेटा! ख़बरदार किसी अहमक़ की दोस्ती इख़्तेयार न करना के तुम्हें फ़ायदा भी पहुंचाना चाहेगा तो नुक़सान पहुंचा देगा और इसी तरह किसी बख़ील से दोस्ती न करना के तुम से ऐसे वक़्त में दूर भागेगा जब तुम्हें इसकी शदीद ज़रूरत होगी और देखो किसी फ़ाजिर का साथ भी इख़्तेयार न करना के वह तुमको हक़ीर चीज़ के एवज़ भी बेच डालेगा और किसी झूटे की सोहबत भी इख़्तेयार न करना के वह मिस्ले सराब है जो दूर वाले को क़रीब कर देता है और क़रीब वाले को दूर कर देता है।
(((दूसरे मुक़ाम पर इमाम अलैहिस्सलाम ने इसी बात को आक़िल व अहमक़ के बजाए मोमिन और मुनाफ़िक़ के नाम से बयान फ़रमाया है और हक़ीक़ते अम्र यह है के इस्लाम की निगाह में मोमिन ही को आक़िल और मुनाफ़िक़ ही को अहमक़ कहा जाता है, वरना जो इब्तिदा से बेख़बर और इन्तिहा से ग़ाफ़िल हो जाए न रहमान की इबादत करे और न जन्नतत के हुसूल का इन्तेज़ाम करे इसे किस एतबार से अक़्लमन्द कहा जा सकता है और उसे अहमक़ के अलावा दूसरा कौन सा नाम दिया जा सकता है यह और बात है के दौरे हाज़िर में ऐसे ही अफ़राद को दानिशमन्द और दानिशवर कहा जाता है और उन्हीं के एहतेराम के तौर पर दीन व दानिश की इस्तेलाह निकाली गई है के गोया दीनदार, दीनदार होता है और दानिश्वर नहीं। और दानिशवर दानिशवर होता है चाहे दीनदार न हो और बेदीनी ही में ज़िन्दगी गुज़ार दे)))
38-मुस्तहबाते इलाही में कोई क़ुरबते इलाही नहीं है अगर उनसे वाजिबात को नुक़सान पहुंच जाए।
(((मक़सद यह है के परवरदिगार ने जिस अज्र व सवाब का वादा किया है और जिसका इन्सान इस्तेहक़ाक़ पैदा कर लेता है वह किसी न किसी अमल ही पर पैदा होता है और मर्ज़ कोई अमल नहीं है, लेकिन इसके अलावा फ़ज़्ल व करम का दरवाज़ा खुला हुआ है और वह किसी भी वक़्त और किसी भी शख़्स के शामिले हाल किया जा सकता है, इसमें किसी का कोई इजारा नहीं है।)))
39- अक़्लमन्द की ज़बान उसके दिल के पीछे रहती है और अहमक़ का दिल उसकी ज़बान के पीछे रहता है।
सय्यद रज़ी- यह बड़ी अजीब व ग़रीब और लतीफ़ हिकमत है जिसका मतलब यह है के अक़्लमन्द इन्सान ग़ौर व फ़िक्र करने के बाद बोलता है और अहमक़ इन्सान बिला सोचे समझे कह डालता है गोया के आक़िल की ज़बान दिल की ताबेअ है और अहमक़ का दिल उसकी ज़बान का पाबन्द है।
40-अहमक़ का दिल उसके मुंह के अन्दर रहता है और अक़्लमन्द की ज़बान उसके दिल के अन्दर।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 41-60
41- अपने एक सहाबी से एक बीमारी के मौक़े पर फ़रमाया “अल्लाह ने तुम्हारी बीमारी को तुम्हारे गुनाहों के दूर करने का ज़रिया बना दिया है के ख़ुद बीमारी में कोई अज्र नहीं है लेकिन यह बुराइयों को मिटा देती है और इस तरह झाड़ देती है जैसे दरख़्त से पत्ते झड़ते हैं, अज्र व सवाब ज़बान से कुछ कहने और हाथ पांव से कुछ करने में हासिल होता है और परवरदिगार अपने जिन बन्दों को चाहता है उनकी नीयत की सिदाक़त और बातिन की पाकीज़गी की बिना पर दाखि़ले जन्नत कर देता है।
सय्यद रज़ी- हज़रत ने बिलकुल सच फ़रमाया है के बीमारी में कोई अज्र नहीं है के यह कोई इस्तेहक़ाक़ी अज्र वाला काम नहीं है, एवज़ तो उस अमल पर भी हासिल होता है जो बीमारियों वग़ैरह की तरह ख़ुदा बन्दे के लिये अन्जाम देता है लेकिन अज्र व सवाब सिर्फ़ उसी अमल पर होता है जो बन्दा ख़ुद अन्जाम देता है और मौलाए कायनात ने इस मक़ाम पर एवज़ और अज्र व सवाब के इसी फ़र्क़ को वाज़ेह फ़रमाया है जिसका इदराक आपके इल्मे रौशन और फ़िक्र साएब के ज़रिये हुआ है।
(((-मक़सद यह है के परवरदिगार ने जिस अज्र व सवाब का वादा किया है और जिसका इन्सान इस्तेहक़ाक़ पैदा कर लेता है वह किसी न किसी अमल ही पर पैदा होता है और मर्ज़ कोई अमल नहीं है, लेकिन इसके अलावा फ़ज़्ल व करम का दरवाज़ा खुला हुआ है और वह किसी भी वक़्त और किसी भी शख़्स के शामिले हाल किया जा सकता है, इसमें किसी का कोई इजारा नहीं है।)))
42- आपने ख़बाब बिन अलारत के बारे में फ़रमाया के ख़ुदा ख़बाब इब्ने अलारत पर रहमत नाज़िल करे। वह अपनी रग़बत से इस्लाम लाए, अपनी ख़ुशी से हिजरत की और बक़द्रे ज़रूरत सामान पर इक्तेफ़ा की। अल्लाह की मर्ज़ी से राज़ी रहे और मुहाहिदाना ज़िन्दगी गुज़ार दी।
(((-हक़ीक़ते अम्र यह है के इन्सानी ज़िन्दगी का कमाल यह नहीं है के अल्लाह से राज़ी हो जाए, यह काम निस्बतन आसान है के वह (अल्लाह) जल्दी राज़ी होने वाला है। कभी मामूली अमल से भी राज़ी हो जाता है और कभी बदतरीन अमल के बाद भी तौबा से राज़ी हो जाता है। सबसे मुश्किल काम बन्दे का ख़ुदा से राज़ी हो जाना है के वह किसी हाल में ख़ुश नहीं होता है और इक़तेदारे फ़िरऔन व दौलते क़ारून पाने के बाद भी या मग़रूर हो जाता है या ज़्यादा का मुतालेबा करने लगता है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने ख़ेबाब के इसी किरदार की तरफ़ इशारा किया है के वह इन्तेहाई मसाएब के बावजूद ख़ुदा से राज़ी रहे और एक हर्फ़े शिकायत ज़बान पर नहीं लाए और ऐसा ही इन्सान वह होता है जिसके हक़ में तौबा की बशारत दी जा सकती है और वह अमीरूल मोमेनीन (अ0) की तरफ़ से मुबारकबाद का मुस्तहक़ होता है।)))
43- ख़ुशाबहाल उस शख़्स का जिसने आख़ेरत को याद रखा, हिसाब के लिये अमल किया। बक़द्रे ज़रूरत पर क़ानेअ रहा और अल्लाह से राज़ी रहा।
44- अगर मैं इस तलवार से मोमिन की नाक भी काट दूं के मुझसे दुश्मनी करने लगे तो हरगिज़ न करेगा और अगर दुनिया की तमाम नेमतों मुनाफ़िक़ पर उण्डेल दूँ के मुझसे मोहब्बत करने लगे तो हरगिज़ न करेगा। इसलिये के इस इक़ीक़त का फ़ैसला नबीए सादिक़ की ज़बान से हो चुका है के “या अली (अ0)! कोई मोमिन तुमसे दुश्मनी नहीं कर सकता है और कोई मुनाफ़िक़ तुमसे मोहब्बत नहीं कर सकता है।”
45- वह गुनाह जिसका तुम्हें रन्ज हो, अल्लाह के नज़दीक उस नेकी से बेहतर है जिससे तुममें ग़ुरूर पैदा हो जाए।
(((अगरचे गुनाह में कोई ख़ूबी और बेहतरी नहीं है, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है के गुनाह के बाद इन्सान का नफ़्स मलामत करने लगता है और वह तौबा पर आमादा हो जाता है और ज़ाहिर है के ऐसा गुनाह जिसके बाद एहसासे तौबा पैदा हो जाए उस कारे ख़ैर से यक़ीनन बेहतर है जिसके बाद ग़ुरूर पैदा हो जाए और इन्सान अख़्वाने शयातीन की फ़ेहरिस्त में शामिल हो जाए)))
46- इन्सान की क़द्र व क़ीमत उसकी हिम्मत के एतबार से होती है और उसकी सिदाक़त उसकी मर्दान्गी के एतबार से होती है, शुजाअत का पैमाना हमीयत व ख़ुद्दारी है और उफ़्फ़त का पैमाना ग़ैरत व हया।
(((क्या कहना उस शख़्स की हिम्मत का जो दावते ज़ुलशीरा में सारी क़ौम के मुक़ाबले में तनो तन्हा नुसरते पैग़म्बर (स0) पर आमादा हो गया और फ़िर हिजरत की रात तलवारों के साये में सो गया और मुख़्तलिफ़ मारेकों में तलवारों की ज़द पर रहा और आखि़रकार तलवार के साये ही में सजदए आखि़र भी अदा कर दिया, इससे ज़्यादा क़द्रो क़ीमत का हक़दार दुनिया का कौन सा इन्सान हो सकता है)))
47- कामयाबी दूर अन्देशी से हासिल होती है और दूर अन्देशी फ़िक्र व तदब्बुर से। फ़िक्र व तदब्बुर का ताल्लुक़ इसरार की राज़दारी से है।
48-शरीफ़ इन्सान के हमले से बचो, जब वह भूका हो और कमीने के हमले से बचो जब उसका पेट भरा हो।
49-लोगों के दिल सहराई जानवरों जैसे है। जो उन्हें सधा लेगा उसकी तरफ़ झुक जाएंगे।
(((मक़सद यह है के इन्सान दिलों को अपनी तरफ़ माएल करना चाहता है तो उसका बेहतरीन रास्ता यह है के बेहतरीन अख़लाक़ व किरदार का मुज़ाहेरा करे ताके यह दिले वहशी राम हो जाए वरना बदएख़लाक़ी और बदसुलूकी से वहशी जानवर के मज़ीद भड़क जाने का ख़तरा होता है इसके राम हो जाने का कोई तसव्वुर नहीं होता है।)))
50-तुम्हारा ऐब उसी वक़्त तक छिपा रहेगा जब तक तुम्हारा मुक़द्दर साज़गार है।
51- सबसे ज़्यादा माफ़ करने का हक़दार वह है जो सबसे ज़्यादा सज़ा देने की ताक़त रखता हो।
52- सख़ावत वही है जो इब्तेदाअन की जाए वरना मांगने के बाद तो शर्म व हया और इज़्ज़त की पासदारी की बिना पर भी देना पड़ता है।
(((मक़सद यह है के इन्सान सख़ावत करना चाहे और उसका अज्र व सवाब हासिल करना चाहे तो उसे साएल के सवाल का इन्तेज़ार नहीं करना चाहिये के सवाल के बाद तो यह शुबह भी पैदा हो जाता है के अपनी आबरू बचाने के लिये दे दिया है और इस तरह इख़लासे नीयत का अमल मजरूह हो जाता है और सवाब इख़लासे नीयत पर मिलता है, अपनी ज़ात के तहफ़्फ़ुज़ पर नहीं।)))
53- अक़्ल जैसी कोई दौलत नहीं है और जेहालत जैसी कोई फ़क़ीरी नहीं है अदब जैसी कोई मीरास नहीं है और मशविरा जैसा कोई मददगार नहीं है।
(((आज मुसलमान तमाम अक़वामे आलम का मोहताज इसीलिये हो गया है के उसने इल्म व फ़न के मैदान से क़दम हटा लिया है और सिर्फ़ ऐश व इशरत की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहता है, वरना इस्लामी अक़्ल से काम लेकर बाबे मदीनतुल इल्म से वाबस्तगी इख़्तेयार की होती तो बाइज़्ज़त ज़िन्दगी गुज़ारता और बड़ी-बड़ी ताक़तें भी उसके नाम से दहल जातीं जैसा के दौरे हाज़िर में बाक़ायदा महसूस किया जा रहा है।)))
54-सब्र की दो क़िस्में है, एक नागवार हालात पर सब्र और एक महबूब और पसन्दीदा चीज़ों के मुक़ाबले में सब्र।
55- मुसाफ़िर में दौलतमन्दी हो तो वह भी वतन का दर्जा रखती है और वतन में ग़ुर्बत हो तो वह भी परदेस की हैसियत रखता है।
56- क़नाअत वह सरमाया है जो कभी ख़त्म होने वाला नहीं है।
सय्यद रज़ी - यह फ़िक़रा रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है (और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है, अली (अ0) बहरहाल नफ़्से रसूल (स0) हैं।)
(((कहा जाता है के एक शख़्स ने सुक़रात को सहराई घास पर गुज़ारा करते देखा तो कहने लगा के अगर तुमने बादशाह की खि़दमत में हाज़िरी दी होती तो इस घास पर गुज़ारा न करना पड़ता तो सुक़रात ने फ़ौरन जवाब दिया के अगर तुमने घास पर गुज़ारा कर लिया होता तो बादशाह की खि़दमत के मोहताज न होते, घास पर गुज़ारा कर लेना इज़्ज़त है और बादशाह की खि़दमत में हाज़िर रहना ज़िल्लत है।)))
57- माल ख़्वाहिशात का सरचश्मा है।
(((इसमें कोई शक नहीं है के ज़बान इन्सानी ज़िन्दगी में जिस क़द्र कारआमद है उसी क़द्र ख़तरनाक भी है, यह तो परवरदिगार का करम है के उसने इस दरिन्दे को पिन्जरे के अन्दर बन्द कर दिया है और उस पर 32 हज़ार पहरेदार बिठा दिये हैं लेकिन यह दरिन्दा जब चाहता है ख़्वाहिशात से साज़बाज़ करके पिन्जरे का दरवाज़ा खोल लेता है और पहरेदारों को धोका देकर अपना काम शुरू कर देता है और कभी कभी सारी क़ौम को खा जाता है।)))
58- जो तुम्हें बुराइयों से डराए गोया उसने नेकी की बशारत दे दी।
59- ज़बान एक दरिन्दा है, ज़रा आजाद कर दिया जाए को काट खाएगा।
60- औरत एक बिच्छू के मानिन्द है जिसका डसना भी मज़ेदार होता है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 61-80
(((इस फ़िक़रे में एक तरफ़ औरत के मिज़ाज की तरफ़ इशारा किया गया है जहां इसका डंक भी मज़ेदार मालूम होता है)))
61- जब तुम्हें कोई तोहफ़ा दिया जाए तो उससे बेहतर वापस करो और जब कोई नेमत दी जाए तो उससे बढ़ाकर उसका बदला दो लेकिन इसके बाद भी फ़ज़ीलत उसी की रहेगी जो पहले कारे ख़ैर अन्जाम दे।
62- सिफ़ारिश करने वाला तलबगार के बाल-व-पर के मानिन्द होता है।
63- अहले दुनिया उन सवारों के मानिन्द हैं जो ख़ुद सो रहे हैं और उनका सफ़र जारी है।
64- अहबाब का न होना भी एक ग़ुर्बत है।
65- हाजत का पूरा न होना ना-अहल से मांगने से बेहतर है।
(((-इन्सान को चाहिये के दुनिया से महरूमी पर सब्र कर ले और जहां तक मुमकिन हो किसी के सामने हाथ न फैलाए के हाथ फैलाना किसी ज़िल्लत से कम नहीं है।)))
66- मुख़्तसर माल देने में भी शर्म न करो के महरूम कर देना इससे ज़्यादा कमतर दर्जे का काम है।
67- पाक दामनी फ़क़ीरी की ज़ीनत है और शुक्रिया मालदारी की ज़ीनत है।
(((मक़सद यह है के इन्सान को ग़ुरबत में अज़ीफ़ और ग़ैरतदार होना चाहिये और दौलतमन्दी में मालिक का शुक्रगुज़ार होना चाहिये के इसके अलावा शराफ़त व करामत की कोई निशानी नहीं है।)))
68-अगर तुम्हारे हस्बे ख़्वाहिश काम न हो सके तो जिस हाल में रहो ख़ुश रहो। (के अफ़सोस का कोई फ़ायदा नहीं है)
(((बाज़ ओरफ़ा ने इस हक़ीक़त को उस अन्दाज़ से बयान किया है के “मैं उस दुनिया को लेकर क्या करूं जिसका हाल यह है के मैं रह गया तो वह न रह जाएगी और वह रह गई तो मैं न रह जाऊंगा)))
69- जाहिल हमेशा अफ़रात व तफ़रीत का शिकार रहता है या हद से आगे बढ़ जाता है या पीछे ही रह जाता है (के उसे हर का अन्दाज़ा ही नहीं है)
70- जब अक़्ल मुकम्मल होती है तो बातें कम हो जाती हैं (क्यूं की आक़िल को हर बात तोल कर कहना पड़ती है)
71- ज़माना बदन को पुराना कर देता है और ख़्वाहिशात को नया, मौत को क़रीब बना देता है और तमन्नाओं को दूर, यहां जो कामयाब हो जाता है वह भी ख़स्ताहाल रहता है और जो इसे खो बैठता है वह भी थकन का शिकार रहता है।
(((माले दुनिया का हाल यही है के आ जाता है तो इन्सान कारोबार में मुब्तिला हो जाता है और नहीं रहता है तो उसके हुसूल की राह में परेशान रहता है)))
72- जो शख़्स अपने को क़ाएदे मिल्लत बनाकर पेश करे उसका फ़र्ज़ है के लोगों को नसीहत करने से पहले अपने नफ़्स को तालीम दे और ज़बान से तबलीग़ करने से पहले अपने अमल से तबलीग़ करे और यह याद रखो के अपने नफ़्स को तालीम व तरबियत देने वाला दूसरों को तालीम व तरबियत देने वाले से ज़्यादा क़ाबिले एहतेराम होता है।
73- इन्सान की एक-एक सांस मौत की तरफ़ एक-एक क़दम है।
74- हर शुमार होने वाली चीज़ ख़त्म होने वाली है (सांसें) और हर आने वाला बहरहाल आकर रहेगा (मौत) ।
75- जब मसाएल में शुबह पैदा हो जाए तो इब्तिदा को देखकर अन्जामे कार का अन्दाज़ा कर लेना चाहिये।
76- ज़र्रार बिन हमज़ा अलज़बाई माविया के दरबार में हाज़िर हुए तो उसने अमीरूल मोमेनीन (अ0) के बारे में दरयाफ़्त किया?
(((बाज़ हज़रात ने इनका नाम ज़रार बिन ज़मरह लिखा है और यह इनका कमाले किरदार है के माविया जैसे दुश्मने अली (अ0) के दरबार में हक़ाएक़ का एलान कर दिया और इस मशहूर हदीस के मानी को मुजस्सम बना दिया के बेहतरीन जेहाद बादशाहे ज़ालिम के सामने कलमए हक़ का इज़हार व ऐलान है)))
ज़र्रार ने कहा के मैंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है के रात की तारीकी में मेहराब में खड़े हुए रेशे मुबारक को हाथों में लिये हुए ऐसे तड़पते थे जिस तरह सांप का काटा हुआ तड़पता है और कोई ग़म रसीदा गिरया करता है, और फ़रमाया करते थे-
‘ऐ दुनिया, ऐ दुनिया! मुझसे दूर हो जा, तू मेरे सामने बन संवर कर आई है या मेरी वाक़ेअन मुश्ताक़ बन कर आई है? ख़ुदा वह वक़्त न लाए के तू मुझे धोका दे सके, जा मेरे अलावा किसी और को धोका दे, मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है, मैं तुझे तीन मरतबा तलाक़ दे चुका हूँ जिसके बाद रूजूअ का कोई इमकान नहीं है, तेरी ज़िन्दगी बहुत थोड़ी है और तेरी हैसियत बहुत मामूली है और तेरी उम्मीद बहुत हक़ीर शै है” आह ज़ादे सफ़र किस क़द्र कम है , रास्ता किस क़द्र तूलानी है, मन्ज़िल किस क़द्र दूर है और वारिद होने की जगह किस क़द्र ख़तरनाक है।
((( खुली हुई बात है के जब कोई शख़्स किसी औरत को तलाक़ दे देता है तो वह औरत भी नाराज़ होती है और उसके घरवाले भी नाराज़ रहते हैं। अमीरूल मोमेनीन (अ0) से दुनिया का इन्हेराफ़ और अहले दुनिया की दुश्मनी का राज़ यही है के आपने उसे तीन मरतबा तलाक़ दे दी थी तो इसका कोई इमकान नहीं था के अहले दुनिया आपसे किसी क़ीमत पर राज़ी हो जाते और यही वजह है के पहले अबनाए दुनिया ने तीन खि़लाफ़तों के मौक़े पर अपनी बेज़ारी का इज़हार किया और उसके बाद तीन जंगों के मौक़े पर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया लेकिन आप किसी क़ीमत पर दुनिया से सुलह करने पर आमादा न हुए और हर मरहले पर दीने इलाही और उसके तालीमात को कलेजे से लगाए रहे।)))
77- एक मर्दे शामी ने सवाल किया के क्या हमारा शाम की तरफ़ जाना क़ज़ा व क़द्रे इलाही की बिना पर था (अगर ऐसा था तो गोया कोई अज्र व सवाब न होगा) तो आपने फ़रमाया के “शायद तेरा ख़याल यह है के इससे मुराद क़ज़ाए लाज़िम और क़द्रे हतमी है के जिसके बाद अज़ाब व सवाब बेकार हो जाता है और वादा व वईद का निज़ाम मोअत्तल हो जाता है, ऐसा हरगिज़ नहीं है, परवरदिगार ने अपने बन्दों को हुक्म दिया है तो उनके इख़्तेयार के साथ और नहीं की है तो उन्हें डराते हुए। उसने आसान सी तकलीफ़ दी है और किसी ज़हमत में मुब्तिला नहीं किया है। थोड़े अमल पर बहुत सा अज्र दिया है और उसकी नाफ़रमानी इसलिये नहीं होती है के वह मग़लूब हो गया है और न इताअत इसलिये होती है के उसने मजबूर कर दिया है। उसने न अम्बिया को खेल करने के लिये भेजा है और न किताब को अबस नाज़िल किया है और न ज़मीन व आसमान पर उनकी दरम्यानी मख़लूक़ात को बेकार पैदा किया है। यह सिर्फ़ काफ़िरों का ख़याल है और काफ़िरों के लिये जहन्नम में वील है।’
(आखि़र में वज़ाहत फ़रमाई के क़ज़ा अम्र के मानी में है और हम उसके हुक्म से गए थे न के जब्र व इकराह से)
78- हर्फ़े हिकमत जहां भी मिल जाए ले लो के ऐसी बात अगर मुनाफ़िक़ के सीने में दबी होती है तो वह उस वक़्त तक बेचैन रहता है जब तक वह निकल न जाए और मोमिन के सीने में जाकर दूसरी हिकमतों से मिलकर बहल जाती है।
79- हिकमत मोमिन की गुमशुदा दौलत है लेहाज़ा जहाँ मिले ले लेना चाहिये, चाहे वह मुनाफिक़ो से ही क्यों न हासिल हो।
80- हर इन्सान की क़द्र व क़ीमत वही नेकियां हैं जो उसमें पाई जाती हैं।
सय्यद रज़ी-यह वह कलमए क़ुम्मिया है जिसकी कोई क़ीमत नहीं लगाई जा सकती है और उसके हमपल्ला कोई दूसरी हिकमत भी नहीं है और कोई कलम इसके हम पाया भी नहीं हो सकता है।
((( यह अमीरूल मोमेनीन (अ0) का फ़लसफ़ाए हयात है के इन्सान की क़द्र व क़ीमत का ताअय्युन न उसके हसब व नसब से होता है और न क़ौम व क़बीले से, न डिग्रियाँ उसके मरतबे को बढ़ा सकती हैं और न ख़ज़ाने उसको शरीफ़ बना सकते हैं, न कुर्सी उसके मेयार को बलन्द कर सकती हैं और न इक़्तेदार उसके कमालात का ताअय्युन कर सकता है, इन्सानी कमाल का मेयार सिर्फ़ वह कमाल है जो उसके अन्दर पाया जाता है। अगर उसके नफ़्स में पाकीज़गी और किरदार में हुस्न है तो यक़ीनन अज़ीम मरतबे का हामिल है वरना उसकी कोई क़द्र व क़ीमत नहीं है।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 81-100
81- मैं तुम्हें ऐसी पांच बातों की नसीहत कर रहा हूँ के जिनके हुसूल के लिये ऊंटों को एड़ लगाकर दौड़ाया जाए तो भी वह उसकी अहल हैं।
ख़बरदार! तुममें से कोई शख़्स अल्लाह के अलावा किसी से उम्मीद न रखे और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरे और जब किसी चीज़ के बारे में सवाल किया जाए और न जानता हो तो लाइल्मी के एतराफ़ में न शरमाए और जब नहीं जानता है तो सीखने में न शरमाए और सब्र इख़्तेयार करे के सब्र ईमान के लिये वैसा ही है जैसा बदन के लिये सर और ज़ाहिर है के उस बदन में कोई ख़ैर नहीं होता है जिसमें सर न हो।
(((सब्र इन्सानी ज़िन्दगी का वह जौहर है जिसकी वाक़ेई अज़मत का इदराक भी मुश्किल है। तारीख़े बशरीयत में उसके मज़ाहिर का हर क़दम पर मुशाहेदा किया जा सकता है। हज़रत आदम (अ0) जन्नत में थे, परवरदिगार ने हर तरह का आराम दे रखा था, सिर्फ एक दरख़्त से रोक दिया था लेकिन उन्होंने मुकम्मल क़ूवते सब्र का मुज़ाहिरा न किया जिसका नतीजा यह हुआ के जन्नत से बाहर आ गए और लम्हों में “ग़ुलामी” से “शाही” का फासला तय कर लिया।
सब्र और जन्न्नत के इसी रिश्ते की तरफ़ क़ुरआने मजीद ने सूरए दहर में इशारा किया है “जज़ाहुम बेमा सबरू जन्नतंव व हरीरन” अल्लाह ने उनके सब्र के बदले में उन्हें जन्नत और हरीरे जन्नत से नवाज़ दिया। )))
82- आपने उस शख़्स से फ़रमाया जो आपका अक़ीदतमन्द तो न था लेकिन आपकी बेहद तारीफ़ कर रहा था “मैं तुम्हारे बयान से कमतर हूँ लेकिन तुम्हारे ख़याल से बालातर हूँ” (यानी जो तुमने मेरे बारे में कहा है वह मुबालेग़ा है लेकिन जो मेरे बारे में अक़ीदा रखते हो वह मेरी हैसियत से बहुत कम है)
(((यही वजह है के रसूले अकरम (स0) के बाद मौलाए कायनात के अलावा जिसने भी “सलूनी” का दावा किया उसे ज़िल्लत से दो-चार होना पड़ा और सारी इज़्ज़त ख़ाक में मिल गई।)))
83- तलवार के बचे हुए लोग ज़्यादा बाक़ी रहते हैं और उनकी औलाद भी ज़्यादा होती है।
84-जिसने नावाक़फ़ीयत का इक़रार छोड़ दिया वह कहीं न कहीं ज़रूर मारा जाएगा।
85- बूढ़े की राय, जवान की हिम्मत से ज़्यादा महबूब होती है, या बूढ़े की राय जवान के ख़तरे में डटे रहने से ज्यादा पसन्दीदा होती है।
(((इसमें कोई शक नहीं है के ज़िन्दगी के हर मरहलए अमल पर जवान की हिम्मत ही काम आती है काश्तकारी, सनअतकारी से लेकर मुल्की दिफ़ाअ तक सारा काम जवान ही अन्जाम देते हैं और चमनाते ज़िन्दगी की सारी बहार जवानों की हिम्म्मत ही से वाबस्ता है लेकिन इसके बावजूद निशाते अमल के लिये सही ख़ुतूत का तअय्युन बहरहाल ज़रूरी है और यह काम बुज़ुर्ग लोगों के तजुर्बात ही से अन्जाम पा सकता है, लेहाज़ा बुनियाद हैसियत बुज़ुर्गों के तजुर्बात की है और सानवी हैसियत नौजवानों की हिम्मते मर्दाना की है, अगरचे ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिये यह दोनों पहिये ज़रूरी हैं।)))
86- मुझे उस शख़्स के हाल पर ताज्जुब होता है जो अस्तग़फ़ार की ताक़त रखता है और फ़िर भी रहमते ख़ुदा से मायूस हो जाता है।
87- इमाम मोहम्मद बाक़ीर (अ0) ने आपका यह इरशादे गिरामी नक़्ल किया है के “रूए ज़मीन पपर अज़ाबे इलाही से बचाने के दो ज़राए थे, एक को परवरदिगार ने उठा लिया है (पैग़म्बरे इस्लाम स0) लेहाज़ा दूसरे से तमस्सुक इख़्तेयार करो। यानी अस्तग़फ़ार- के मालिके कायनात ने फ़रमाया है के “ख़ुदा उस वक़्त तक उन पर अज़ाब नहीं कर सकता है जब तक आप मौजूद हैं, और उस वक़्त तक अज़ाब करने वाला नहीं है जब तक यह अस्तग़फ़ार कर रहे हैं”
सय्यद रज़ी- यह आयते करीमा से बेहतरीन इसतेख़राज और लतीफ़तरीन इस्तनबात है।
88- जिसने अपने और अल्लाह के दरम्यान के मामलात की इस्लाह कर ली, अल्लाह उसके और लोगों के दरम्यान के मामलात की इस्लाह कर देगा और जो आख़ेरत के काम की इस्लाह कर लेगा अल्लाह उसकी दुनिया के काम की इस्लाह कर देगा। और जो अपने नफ़्स को नसीहत करेगा अल्लाह उसकी हिफ़ाज़त का इन्तेज़ाम कर देगा।
(((उमूरे आख़ेरत की इस्लाह का दायरा सिर्फ़ इबादात व रियाज़ात में महदूद नहीं है बल्कि इसमें ववह तमाम उमूरे दुनिया शामिल हैं जो आखि़रत के लिये अन्जाम दिये जाते हैं के दुनिया आख़ेरत की खेती है और आख़ेरत की इस्लाह दुनिया की इस्लाह के बग़ैर मुमकिन नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह होता है के आख़ेरत वाले दुनिया को बराए आखि़रत इख़्तेयार करते हैं और दुनियादार इसी को अपना हदफ़ और मक़सद क़रार दे लेते हैं और इस तरह आखि़रत से यकसर ग़ाफ़िल हो जाते हैं।)))
89- मुकम्मल आलिमे दीन वही है जो लोगों को रहमते ख़ुदा से मायूस न बनाए और उसकी मेहरबानियों से ना उम्मीद न करे और उसके अज़ाब की तरफ़ मुतमईन न बना दे।
90- यह दिल उसी तरह उकता जाते हैं जिस तरह बदन उकता जाते हैं लेहाज़ा उनके लिये नई-नई लतीफ़ हिकमतें तलाश करो।
91- सबसे हक़ीर इल्म वह है जो सिर्फ़ ज़बान पर रह जाए और सबसे ज़्यादा क़ीमती इल्म वह है जिसका इज़हार आज़ा व जवारेह से हो जाए।
(((अफ़सोस के दौरे हाज़िर में इल्म का चर्चा सिर्फ़ ज़बानों पर रह गया है और क़ूवते गोयाई ही को कमाले इल्म को तसव्वुर कर लिया गया है और इसका नतीजा यह है के अमल व किरदार की कमी होती जा रही है और लोग अपनी ज़ाती जेहालत से ज़्यादा दानिशवरों की दानिशवरी और अहले इल्म के इल्म की बदौलत तबाह व बरबाद हो रहे हैं।)))
92- ख़बरदार, तुममें से कोई शख़्स यह न कहे के ख़ुदाया मैं फ़ित्ने से तेरी पनाह मांगता हूँ। के कोई शख़्स भी फ़ित्ने से अलग नहीं हो सकता है। अगर पनाह मांगना है तो फ़ित्नों की गुमराहियों से पनाह मांगो इसलिये के परवरदिगार ने अमवाल और औलाद को भी फ़ित्ना क़रार दिया है और इसके मानी यह हैं के अमवाल और औलाद के ज़रिये इम्तेहान लेना चाहता है ताके इस तरह रोज़ी से नाराज़ होने वाला क़िस्मत पर राज़ी रहने वाले से अलग हो जाए जबके वह उनके बारे में ख़ुद उनसे बहेतर जानता है लेकिन चाहता है के इन आमाल का इज़हार हो जाए जिनसे इन्सान सवाब या अज़ाब का हक़दार होता है के बाज़ लोग लड़का चाहते हैं लड़की नहीं चाहते हैं और बाज़ माल के बढ़ाने को दोस्त रखते हैं और शिकस्ताहाली को बुरा समझते हैं।
सय्यद रज़ी - यह वह नादिर बात है जो आयत “इन्नमा अमवालोकुम” की तफ़सीर में आपसे नक़्ल की गई है।
(((यह उस आयते करीमा की तरफ़ इशारा है के परवरदिगार सिर्फ़ मुत्तक़ीन के आमाल को क़ुबूल करता है, और उसका मक़सद यह है के अगर इन्सान तक़वा के बग़ैर आमाल अन्जाम दे तो आमाल देखने में बहुत नज़र आएंगे लेकिन वाक़ेअन कसीर कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं। और इसके बरखि़लाफ़ अगर तक़वा के साथ अमल अन्जाम दे तो देखने में शायद वह अमल क़लील दिखाई दे लेकिन वाक़ेअन क़लील न होगा के दरजए क़ुबूलियत पर फ़ाएज़ हो जाने वाला अमल किसी क़ीमत पर क़लील नहीं कहा जा सकता है।)))
93-आपसे ख़ैर के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के ख़ैर, माल और औलाद की कसरत नहीं है, ख़ैर इल्म की कसरत और हिल्म की अज़मत है और यह है के लोगों पर इबादते परवरदिगार से नाज़ करो, लेहाज़ा अगर नेक काम करो तो अल्लाह का शुक्र बजा लाओ और बुरा काम करो तो अस्तग़फ़ार करो, और याद रखो के दुनिया में ख़ैर सिर्फ़ दो तरह के लोगों के लिये है, वह इन्सान जो गुनाह करे तो तौबा से उसकी तलाफ़ी कर ले और वह इन्सान जो नेकियों में आगे बढ़ता जाए।
94- तक़वा के साथ कोई अमल क़लील नहीं कहा जा सकता है, के जो अमल भी क़ुबूल हो जाए उसे क़लील किस तरह कहा जा सकता है।
(((यह उस आयते करीमा की तरफ़ इशारा है के परवरदिगार सिर्फ़ मुत्तक़ीन के आमाल को क़ुबूल करता है, और इसका मक़सद यह है के अगर इन्सान तक़वा के बग़ैर आमाल अन्जाम दे तो यह आमाल देखने में बहुत नज़र आएंगे लेकिन वाक़ेअन कसीर कहे जाने के क़ाबिल नहीं हैं, और इसके बरखि़लाफ़ अगर तक़वा के साथ अमल अन्जाम दे तो देखने में शायद वह अमल क़लील दिखाई दे लेकिन वाक़ेअन क़लील न होगा के दरजए क़ुबूलियत पर फ़ाएज़ हो जाने वाला अमल किसी क़ीमत पर क़लील नहीं कहा जा सकता है।)))
95- लोगों में अम्बिया से सबसे ज़्यादा क़रीब वह लोग होते हैं जो सबसे ज़्यादा उनके तालीमात से बाख़बर हों, यह कहकर आपने आयत शरीफ़ की तिलावत फ़रमाई “इब्राहीम (अ0) से क़रीबतर वह लोग हैं जो उनकी पैरवी करें, और यह पैग़म्बर (स0) है और साहेबाने ईमान हैं।” इसके बाद फ़रमाया के पैग़म्बर (स0) का दोस्त वही है जो उनकी इताअत करे, चाहे नसब के एतबार से किसी क़द्र दूर क्यों न हो और आपका दुश्मन वही है जो आपकी नाफ़रमानी करे चाहे क़राबत के ऐतबार से कितना ही क़रीब क्यों न हो।”
96- आपने सुना के ख़ारेजी शख़्स नमाज़े शब पढ़ रहा है और तिलावते क़ुरान कर रहा है तो फ़रमाया के यक़ीन के साथ सो जाना शक के साथ नमाज़ पढ़ने से बेहतर है।
(((यह इस्लाहे अक़ीदा की तरफ़ इशारा है के जिस शख़्स को हक़ाएक़ का यक़ीन नहीं है और वह शक की ज़िन्दगी गुज़ार रहा है उसके आमाल की क़द्र व क़ीमत ही क्या है, आमाल की क़द्र व क़ीमत का ताअय्युन इन्सान के इल्म व यक़ीन और उसकी मारेफ़त से होता है, लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के जितने अहले यक़ीन हैं सबको सो जाना चाहिये और नमाज़े शब का पाबन्द नहीं होना चाहिये के यक़ीन की नीन्द शक के अमल से बेहतर है।
ऐसा मुमकिन होता तो सबसे पहले मासूमीन (अ0) इन आमाल को नज़र अन्दाज़ कर देते जिनके यक़ीन की शान यह थी के अगर परदे उठा दिये जाते जब भी यक़ीन में इज़ाफ़े की गुन्जाइश नहीं थी।)))
97- जब किसी ख़बर को सुनो तो अक़्ल के मेयार पर परख लो और सिर्फ़ नक़्ल पर भरोसा न करो के इल्म के नक़्ल करने वाले बहुत होते हैं और समझने वाले बहुत कम होते हैं।
(((आलमे इस्लाम की एक कमज़ोरी यह भी है के मुसलमान रिवायात के मज़ामीन से एक दम ग़ाफ़िल है और सिर्फ़ रावियों के एतमाद पर रिवायात पर अमल कर रहा है जबके बेशुमार रिवायात के मज़ामीन खि़लाफ़े अक़्ल व मन्तिक़ और मुख़ालिफ़े उसूल व अक़ाएद हैं और मुसलमान को इस गुमराही का एहसास भी नहीं है।)))
98- आपने एक शख़्स को कलमा इन्ना लिल्लाह ज़बान पर जारी करते हुए सुना तो फ़रमाया के इन्नालिल्लाह इक़रार है के हम किसी की मिल्कियत हैं और इन्नल्लाहा राजेऊन एतराफ़ है के एक दिन फ़ना हो जाने वाले हैं।
99- एक क़ौम ने आपके सामने आपकी तारीफ़ कर दी तो आपने दुआ के लिये हाथ उठा दिये, ख़ुदाया तू मुझे मुझसे बेहतर जानता है और मैं अपने को इनसे बेहतर पहचानता हूँ लेहाज़ा मुझे इनके ख़याल से बेहतर क़रार दे देना और यह जिन कोताहियों को नहीं जानते हैं उन्हें माफ़ कर देना।
(((ऐ काश हर इन्सान इस किरदार को अपना लेता और तारीफ़ों से धोका खाने के बजाए अपने काम की इस्लाह की फ़िक्र करता और मालिक की बारगाह में इसी तरह अर्ज़ करता जिस तरह मौलाए कायनात ने सिखाया है मगर अफ़सोस के ऐसा कुछ नहीं है और जेहालत इस मन्ज़िल पर आ गई है के साहेबाने इल्म आम लोगो की तारीफ़ से धोका खा जाते हैं और अपने को बाकमाल तसव्वुर करने लगते हैं जिसका मुशाहेदा ख़ोतबा की ज़िन्दगी में भी हो सकता है और शोअरा की महफ़िलों में भी जहां इज़हारे इल्म करने वाले बाकमाल होते हैं और तारीफ़ करने वालों की अकसरीयत उनके मुक़ाबले में बेकमाल, मगर इसके बाद भी इन्सान तारीफ़ से ख़ुश होता है और मग़रूर हो जाता है।)))
100- हाजत रवाई तीन चीज़ों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होती है 1. अमल को छोटा समझे ताके वह बड़ा क़रार पा जाए 2. उसे पोशीदा तौर पर अन्जाम दे ताके वह ख़ुद अपना इज़हार करे 3. उसे जल्दी पूरा कर दे ताके ख़ुशगवार मालूम हो।
(((ज़ाहिर है के हाजत पूरी होने का अमल जल्द हो जाता है तो इन्सान को बेपनाह मसर्रत होती है वरना इसके बाद काम तो हो जाता है लेकिन मसर्रत का फ़िक़दान रहता है और वह रूहानी इम्बेसात हासिल नहीं होता है जो मुद्दआ पेश करने के फ़ौरन बाद पूरा हो जाने में हासिल होता है)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 101-120
101- लोगों पर एक ज़माना आने वाला है जब सिर्फ़ लोगों की बुराई बयान करने वाला मुक़र्रबे बारगाह हुआ करेगा और सिर्फ़ फ़ाजिर (पतीत) को ख़ुश मिज़ाज समझा जाएगा और सिर्फ़ मुन्सिफ़ को कमज़ोर क़रार दिया जाएगा, लोग सदक़े को ख़सारा, सिलए रहम को एहसान और इबादत को लोगों पर बरतरी का ज़रिया क़रारे देंगे, ऐसे वक़्त में हुकूमत औरतों के मशविरे, बच्चों के इक़्तेदार और ख़्वाजा सराओं (किन्नरों) की तदबीर के सहारे रह जाएगी।
(((अफ़सोस के अहले दुनिया ने इस इबादत को भी अपनी बरतरी का ज़रिया बना लिया है जिसकी तशरीह इन्सान के ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ और जज़्बए बन्दगी के इज़हार के लिये हुई थी और जिसका मक़सद यह था के इन्सान की ज़िन्दगी से ग़ुरूर और शैतनत निकल जाए और तवाज़ोअ व इन्केसार उस पर मुसल्लत हो जाए।)))
(((बज़ाहिर किसी दौर में भी ख़्वाजा सराओं को मुशीरे ममलेकत की हैसियत हासिल नहीं रही है और न उनके किसी मख़सूस तदब्बुर की निशानदेही की गई है, इसलिये बहुत मुमकिन है के इस लफ़्ज़ से मुराद वह तमाम अफ़राद हों जिनमें इन लोगों की ख़सलतें पाई जाती हैं और जो हुक्काम की हर हाँ में हाँ मिला देते हैं और उनकी हर रग़बत व ख़्वाहिश के सामने सरे तस्लीम ख़म कर देते हैं और उन्हें ज़िन्दगी के अन्दर व बाहर हर शोबे में बराबर का दख़ल रहता है।)))
102-लोगों ने आपकी चादर को बोसीदा देखकर गुज़ारिश कर दी तो आपने फ़रमाया के इससे दिल में ख़ुशू और नफ़्स में एहसासे कमतरी पैदा होता है और मोमेनीन इसकी इक़्तेदा भी कर सकते हैं, याद रखो दुनिया और आख़ेरत आपस में दो नासाज़गार दुश्मन हैं और दो मुख़्तलिफ़ रास्ते, लेहाज़ा जो दुनिया से मोहब्बत और ताल्लुक़ ख़ातिर रखता है वह आख़ेरत का दुश्मन हो जाता है और जो रास्ता एक से क़रीबतर होता है वह दूसरे से दूरतर हो जाता है, फिर यह दोनों आपस में एक-दूसरे की सौत जैसी हैं।
103- नौफ़ बकाली कहते हैं के मैंने एक शब अमीरूल मोमेनीन (अ0) को देखा के आपने बिस्तर से उठकर सितारों पर निगाह की और फ़रमाया के नौफ़! सो रहे हो या बेदार हो? मैंने अर्ज़ की के हुज़ूर जाग रहा हूँ, फ़रमाया के नौफ़! ख़ुशाबहाल इनके जो दुनिया से किनाराकश हों तो आख़ेरत की तरफ़ रग़बत रखते हों, यही वह लोग हैं जिन्होंने ज़मीन को बिस्तर बनाया है और ख़ाक को फ़र्श, पानी को शरबत क़रार दिया है और क़ुरान व दुआ को अपने ज़ाहिर व बातिन का मुहाफ़िज़, इसके बाद दुनिया से यूँ अलग हो गए जिस तरह हज़रत मसीह (अ0)।
(((इस मक़ाम पर लफ़्जे़ क़र्ज़ इशारा है के निहायत मुख़्तसर हिस्सा हासिल किया है जिस तरह दांत से रोटी काट ली जाती है और सारी रोटी को मुंह में नहीं भर लिया जाता है के इस कैफ़ियत को ख़ज़म कहते हैं, क़र्ज़ नहीं कहते हैं)))
नौफ़! देखो दाऊद (अ0) रात के वक़्त ऐसे ही मौक़े पर क़याम किया करते थे और फ़रमाते थे के यह वह वक़्त है जिसमें जो बन्दा भी दुआ करता है परवरदिगार उसकी दुआ को क़ुबूल कर लेता है, मगर यह के सरकारी टैक्स वसूल करने वाला, लोगों की बुराई करने वाला, ज़ालिम हुकूमत की पुलिस वाला या सारंगी और ढोल ताशे वाला हो।
सय्यद रज़ी – इरतेबतः सारंगी को कहते हैं और कोबत के मानी ढोल के हैं और बाज़ हज़रात के नज़दीक इरतबा ढोल है और कोबा सारंगी।
((( अफ़सोस की बात है के बाज़ इलाक़ो में बाज़ मोमिन अक़वाम की पहचान ही ढोल ताशा और सारंगी बन गई है जबके मौलाए कायनात (अ) ने इस कारोबार को इस क़द्र मज़मूम क़रार दिया है के इस अमल के अन्जाम देने वालों की दुआ भी क़ुबूल नहीं होती है। इस हिकमत में दीगर अफ़राद का तज़किरा ज़ालिमों के ज़ैल में किया गया है और खुली हुई बात है के ज़ालिम हुकूमत के लिये किसी तरह का काम करने वाला पेशे परवरदिगार मुस्तजाबुद् दावात नहीं हो सकता है, जब वह अपने ज़रूरियाते हयात को ज़ालिमों की मदद से वाबस्ता कर देता है तो परवरदिगार अपना करम उठा लेता है।)))
104-परवरदिगार ने तुम्हारे ज़िम्मे कुछ फ़राएज़ क़रार दिये हैं लेहाज़ा ख़बरदार उन्हें ज़ाया न करना और उसने कुछ हुदूद भी मुक़र्रर कर दिये हैं लेहाज़ा उनसे तजावुज़ न करना। उसने जिन चीज़ों से मना किया है उनकी खि़लाफ़वर्ज़ी न करना और जिन चीज़ों से सुकूत इख़्तेयार फ़रमाया है ज़बरदस्ती उन्हें जानने की कोशिश न करना के वह भूला नहीं है।
105-जब भी लोग दुनिया संवारने के लिये दीन की किसी बात को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं तो परवरदिगार उससे ज़्यादा नुक़सानदेह रास्ते खोल देता है।
106- बहुत से आलिम हैं जिन्हें दीन से नावाक़फ़ीयत ने मार डाला है और फ़िर उनके इल्म ने भी कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाया है।
(((यह दानिश्वराने मिल्लत हैं जिनके पास डिग्रियों का ग़ुरूर तो है लेकिन दीन की बसीरत नहीं है, ज़ाहिर है के ऐसे अफ़राद का इल्म तबाह कर सकता है आबाद नहीं कर सकता है)))
107- इस इन्सान के वजूद में सबसे ज़्यादा ताज्जुबख़ेज़ वह गोश्त का टुकड़ा है जो एक रग से आवेज़ां कर दिया गया है और जिसका नाम क़ल्ब है के इसमें हिकमत के सरचश्मे भी हैं और इसकी ज़िदें भी हैं के जब उसे उम्मीद की झलक नज़र आती है तो लालच ज़लील बना देती है और जब लालच में हैजान पैदा होता है तो हिरस बरबाद कर देती है
(((इन्सानी क़ल्ब को दो तरह की सलाहियतों से नवाज़ा गया है, इसमें एक पहलू अक़्ल व मन्तिक़ का है और दूसरा जज़्बात व अवातिफ़ का, इस इरशादे गिरामी में दो पहलू की तरफ़ इशारा किया गया है और इसके मुतज़ाद ख़ुसूसियात की तफ़सील बयान की गई है।)))
और जब मायूसी का क़ब्ज़ा हो जाता है तो हसरत मार डालती है और जब ग़ज़ब तारी होता है तो ग़म व ग़ुस्सा शिद्दत इख़्तेयार कर लेता है और जब ख़ुशहाल हो जाता है तो हिफ़्ज़ मा तक़द्दुम (आने वाले खतरे से बचना) को भूल जाता है और जब ख़ौफ़ तारी होता है तो एहतियात दूसरी चीज़ों से ग़ाफ़िल कर देती है और जब हालात में वुसअत पैदा होती है तो ग़फ़लत क़ब्ज़ा कर लेती है, और जब माल हासिल कर लेता है तो बेनियाज़ी सरकश बना देती है और जब कोई मुसीबत नाज़िल हो जाती है तो फ़रयाद रूसवा कर देती है और जब फ़ाक़ा काट खाता है तो बलाए गिरफ़्तार कर लेती है और जब भूक थका देती है तो कमज़ोरी बिठा देती है और जब ज़रूरत से ज़्यादा पेट भर जाता है तो शिकमपुरी की अज़ीयत में मुब्तिला हो जाता है, मुख़्तसर यह है के हर कोताही नुक़सानदेह होती है और हर ज़्यादती तबाहकुन।
108-हम अहलेबैत (अ0) वह नुक़्तए एतदाल हैं जिनसे पीछे रह जाने वाला आगे बढ़कर उनसे मिल जाता है और आगे बढ़ जाने वाला पलट कर मुलहक़ हो जाता है।
(((शेख़ मोहम्मद अब्दहू ने इस फ़िक़रे की यह तशरीह की है के अहलेबैत अलै0 इस मसनद से मुशाबेहत रखते हैं जिसके सहारे इन्सान की पुश्त मज़बूत होती है और उसे सुकूने ज़िन्दगी हासिल होता है, वसता के लफ़्ज़ से इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है के तमाम मसनदें इसी से इत्तेसाल रखती हैं और सबका सहारा वही है, अहलेबैत (अ0) उस सिराते मुस्तक़ीम पर हैं जिनसे आगे बढ़ जाने वालों को भी उनसे मिलना पड़ता है और पीछे रह जाने वालों को भी। )))
109- हुक्मे इलाही का निफ़ाज़ वही कर सकता है जो हक़ के मामले में मुरव्वत न करता हो और आजिज़ी व कमज़ोरी का इज़हार न करता हो और लालच के पीछे न दौड़ता हो।
110-जब सिफ़्फ़ीन से वापसी पर सहल बिन हनीफ़ अन्सारी का कूफ़े में इन्तेक़ाल हो गया जो हज़रत के महबूब सहाबी थे तो आपने फ़रमाया के “मुझसे कोई पहाड़ भी मोहब्बत करेगा तो टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। मक़सद यह है के मेरी मोहब्बत की आज़माइश सख़्त है और इसमें मसाएब की हमले हो जाते है जो शरफ़ सिर्फ़ मुत्तक़ी और नेक किरदार लोगों को हासिल होता है जैसा के आपने दूसरे मौक़े पर इरशाद फ़रमाया है।
111-जो हम अहलेबैत (अ0) से मोहब्बत करे उसे जामाए फ़क़्र (गुरबत का लिबास) पहनने के लिये तैयार हो जाना चाहिये।
सय्यद रज़ी- “बाज़ हज़रात ने इस इरशाद की एक दूसरी तफ़सीर की है जिसके बयान का यह मौक़ा नहीं है”
(((मक़सद यह है के अहलेबैत (अ0) का कुल सरमायाए हयात दीन व मज़हब और हक़ व हक़्क़ानियत है और उसके बरदाश्त करने वाले हमेशा कम होते हैं लेहाज़ा इस राह पर चलने वालों को हमेशा मसाएब का सामना करना पड़ता है और इसके लिये हमेशा तैयार रहना चाहिये।)))
112- अक़्ल से ज़्यादा फ़ायदेमन्द कोई दौलत नहीं है और ख़ुदपसन्दी से ज़्यादा वहशतनाक कोई तन्हाई नहीं है, तदबीर जैसी कोई अक़्ल नहीं है और तक़वा जैसी कोई बुज़ुर्गी नहीं है हुस्ने अख़लाक़ जैसा कोई साथी नहीं है और अदब जैसी कोई मीरास नहीं है, तौफ़ीक़ जैसा कोई पेशरौ नहीं है और अमले सालेह जैसी कोई तिजारत नहीं है, सवाब जैसा कोई फ़ायदा नहीं है और शहादत में एहतियात जैसी कोई परहेज़गारी नहीं है, हराम की तरफ़ से बेरग़बती जैसा कोई ज़ोहद नहीं है और तफ़क्कुर जैसा कोई इल्म नहीं है और अदाए फ़राएज़ जैसी कोई इबादत नहीं है और हया व सब्र जैसा कोई ईमान नहीं है, तवाज़ोह जैसा कोई हसब नहीं है और इल्म जैसा कोई शरफ़ नहीं है, हिल्म जैसी कोई इज्ज़त नहीं है और मशविरे से ज़्यादा मज़बूत कोई पुश्त पनाह नहीं है।
113- जब ज़माना और अहले ज़माना पर नेकियों का ग़लबा हो और कोई शख़्स किसी शख़्स से कोई बुराई देखे बग़ैर बदज़नी पैदा करे तो उसने उस शख़्स पर ज़ुल्म किया है और जब ज़माना और अहले ज़माना पर फ़साद का ग़लबा हो और कोई शख़्स किसी से हुस्ने ज़न क़ायम करे तो गोया उसने अपने ही को धोका दिया है।
114-एक शख़्स ने आपसे मिज़ाजपुरसी कर ली तो फ़रमाया के इसका हाल क्या होगा जिसकी बक़ा ही फ़ना की तरफ़ ले जा रही है और सेहत ही बीमारी का पेशख़ेमा है और वह अपनी पनाहगाह से एक दिन गिरफ़्त में ले लिया जाएगा।
115- कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेकियां देकर गिरफ़्त में लिया जाता है और वह पर्दापोशी ही से धोके में रहते हैं और अपने बारे में अच्छी बात सुनकर धोका खा जाते हैं और देखो अल्लाह ने मोहलत से बेहतर कोई आज़माइश का ज़रिया नहीं क़रार दिया है।
116- मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो गए हैं- वह दोस्त जो दोस्ती में ग़ुलू से काम लेते हैं और वह दुश्मन जो दुश्मनी में मुबालेग़ा करते हैं।
117- फ़ुरसत को छोड़ देना रन्ज व ग़म की वजह बनता है। (((इन्सानी ज़िन्दगी में ऐसे मक़ामात बहुत कम आते हैं जब किसी काम का मुनासिब मौक़ा हाथ आ जाता है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस मौक़े से फ़ायदा उठा ले और उसे ज़ाया न होने दे के फ़ुर्सत का निकल जाना इन्तेहाई रन्ज व अन्दोह का बाएस हो जाता है)))
118- दुनिया की मिसाल सांप जैसी है जो छूने में इन्तेहाई नर्म होता है और इसके अन्दर ज़हरे क़ातिल होता है। फ़रेब मे आने वाला जाहिल इसकी तरफ़ माएल हो जाता है और साहेबे अक़्ल व होश इससे होशियार रहता है। (((अक़्ल का काम यह है के वह चीज़ो के बातिन पर निगाह रखे और सिर्फ़ ज़ाहिर के फ़रेब में न आए वरना सांप का ज़ाहिर भी इन्तेहाई नर्म व नाज़ुक होता है जबके उसके अन्दर का ज़हर इन्तेहाई क़ातिल और तबाहकुन होता है)))
119- आपसे क़ुरैश के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो आपने फ़रमाया के बनी मख़ज़ूम क़ुरैश का महकता हुआ फ़ूल हैं, उनसे गुफ़्तगू भी अच्छी लगती है और उनकी औरतों से रिश्तेदारी भी महबूब है और बनी अब्द शम्स बहुत दूर तक सोचने वाले और अपने पीछे की बातों की रोक थाम करने वाले हैं। लेकिन हम बनी हाशिम अपने हाथ की दौलत के लुटाने और मौत के मैदान में जान देने वाले हैं, वह लोग अदद में ज़्यादा मक्रो फ़रेब में आगे और बदसूरत हैं और हम लोग फ़सीह व बलीग़, मुख़लिस और रौशन चेहरा हैं।
120-इन दो तरह के आमाल में किस क़द्र फ़ासला पाया जाता है, वह अमल जिसकी लज़्ज़त ख़त्म हो जाए और उसका वबाल बाक़ी रह जाए और वह अमल जिसकी ज़हमत ख़त्म हो जाए और अज्र बाक़ी रह जाए। (((दुनिया व आखि़रत के आमाल का बुनियादी फ़र्क़ यही है के दुनिया के आमाल की लज़्ज़त ख़त्म हो जाती है और आखि़रत में इसका हिसाब बाक़ी रह जाता है और आख़ेरत के आमाल की ज़हमत ख़त्म हो जाती है और इसका अज्र व सवाब बाक़ी रह जाता है)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 121-140
121-आपने एक जनाज़े में शिरकत फ़रमाई और एक शख़्स को हंसते हुए देख लिया तो फ़रमाया “ऐसा मालूम होता है के मौत किसी और के लिये लिखी गई है और यह हक़ किसी दूसरे पर लाज़िम क़रार दिया गया है और गोया के जिन मरने वालों को हम देख रहे हैं वह ऐसे मुसाफ़िर हैं जो अनक़रीब वापस आने वाले हैं के इधर हम उन्हें ठिकाने लगाते हैं और उधर उनका तरका खाने लगते हैं जैसे हम हमेशा रहने वाले हैं, इसके बाद हमने हर नसीहत करने वाले मर्द और औरत को भुला दिया है और हर आफ़त व मुसीबत का निशाना बन गए हैं।” (((इन्सान की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है के वह किसी मरहले पर इबरत हासिल करने के लिये तैयार नहीं होता है और हर मन्ज़िल पर इस क़द्र ग़ाफ़िल हो जाता है जैसे न इसके पास देखने वाली आंख है और न समझने वाली अक़्ल, वरना इसके मानी क्या हैं के आगे-आगे जनाज़ा जा रहा है और पीछे लोग हंसी मज़ाक़ कर रहे हैं या सामने मय्यत को क़ब्र में उतारा जा रहा है और हाज़िरीने कराम दुनिया के सियासी मसाएल हल कर रहे हैं, यह सूरते हाल इस बात की अलामत है के इन्सान बिल्कुल ग़ाफ़िल हो चुका है और उसे किसी तरह का होश नहीं रह गया है।)))
122-ख़ुशाबहाल उसका जिसने अपने अन्दर तवाज़ोह की अदा पैदा की, अपने कस्ब को पाकीज़ा बना लिया, अपने बातिन को नेक कर लिया, अपने अख़लाक़ को हसीन बना लिया, अपने माल के ज़्यादा हिस्से को राहे ख़ुदा में ख़र्च कर दिया और अपनी ज़बानदराज़ी पर क़ाबू पा लिया। अपने शर को लोगों से दूर रखा और सुन्नत को अपनी ज़िन्दगी में जगह दी और बिदअत से कोई निस्बत नहीं रखी।
सय्यद रज़ी- बाज़ लोगों ने इस कलाम को रसूले अकरम (स0) के हवाले से भी बयान किया है जिस तरह के इससे पहले वाला कलामे हिकमत है।
123- औरत का ग़ैरत करना कुफ्ऱ है और मर्द का ग़ुयूर होना ऐने ईमान है। (((इस्लाम ने अपने मख़सूस मसालेह के तहत मर्द को चार शादीयों की इजाज़त दी है और इसी को आलमी मसाएल का हल क़रार दिया है लेहाज़ा किसी औरत को यह हक़ नहीं है के वह मर्द की दूसरी शादी पर एतराज़ करे या दूसरी औरत से हसद और बेज़ारी का इज़हार करे के यह बेज़ारी दरहक़ीक़त उस दूसरी औरत से नहीं है इस्लाम के क़ानूने अज़वाज से है और क़ानूने इलाही से बेज़ारी और नफ़रत का एहसास करना कुफ्ऱ है इस्लाम नहीं है। इसके बरखि़लाफ़ औरत को दूसरी शादी की इजाज़त नहीं दी गई है लेहाज़ा शौहर का हक़ है के अपने होते हुए दूसरे शौहर के तसव्वुर से बेज़ारी का इज़हार करे और यही उसके कमाले हया व ग़ैरत और कमाले इस्लाम व ईमान के बराबर है।)))
124-मैं इस्लाम की वह तारीफ़ कर रहा हूँ जो मुझसे पहले कोई नहीं कर सका है, इस्लाम सुपुर्दगी है और सुपुर्दगी यक़ीन, यक़ीन तस्दीक़ है और तस्दीक़ इक़रार, इक़रार अदाए फ़र्ज़ है और अदाए फ़र्ज़ अमल।
125- मुझे कंजूस के हाल पर ताज्जुब होता है के उसी फ़क़्र में मुब्तिला हो जाता है जिससे भाग रहा है और फिर उस दौलतमन्दी से महरूम हो जाता है जिसको हासिल करना चाहता है, दुनिया में फ़क़ीरों जैसी ज़िन्दगी गुज़ारता है और आख़ेरत में मालदारों जैसा हिसाब देना पड़ता है, इसी तरह मुझे मग़रूर आदमी पर ताज्जुब होता है के जो कल नुत्फ़ा (वीर्य) था और कल मुरदार हो जाएगा और फ़िर अकड़ रहा है, मुझे उस शख़्स के बारे में भी हैरत होती है जो वजूदे ख़ुदा में शक करता है हालांके मख़लूक़ाते ख़ुदा को देख रहा है और उसका हाल भी हैरतअंगेज़ है जो मौत को भूला हुआ है हालां के मरने वालों को बराबर देख रहा है, मुझे उसके हाल पर भी ताज्जुब होता है जो आख़ेरत के इमकान का इन्कार कर देता है हालांके पहले वजूद का मुशाहेदा कर रहा है, और उसके हाल पर भी हैरत है जो फ़ना हो जाने वाले घर को आबाद कर रहा है और बाक़ी रह जाने वाले घर को छोड़े हुए है।
126- जिसने अमल में कमी की वह रंज व अन्दोह में हर हाल मे मुब्तिला होगा और अल्लाह को अपने उस बन्दे की कोई परवाह नहीं है जिसके जान व माल में अल्लाह का कोई हिस्सा न हो। (((कंजूसी और बुज़दिली इस बात की अलामत है के इन्सान अपने जान व माल में से कोई हिस्सा अपने परवरदिगार को नहीं देना चाहता है और खुली हुई बात है के जब बन्दा मोहताज होकर मालिक से बेनियाज़ होना चाहता है तो मालिक को उसकी क्या ग़र्ज़ है, वह भी क़तअ ताल्लुक़ कर लेता है।)))
127- सर्दी के मौसम से इब्तिदा में एहतियात करो और आखि़र में इसका ख़ैर मक़दम करो के इसका असर बदन पर दरख़्तों के पत्तों जैसा होता है के यह मौसम इब्तिदा में पत्तों को झुलसा देता है और आखि़र में शादाब बना देता है।
128- अगर ख़़ालिक़ की अज़मत का एहसास पैदा हो जाएगा तो मख़लूक़ात ख़ुद ब ख़ुद निगाहों से गिर जाएगी।
129- सिफ़्फ़ीन से वापसी पर कूफ़े से बाहर क़ब्रिस्तान पर नज़र पड़ गई तो फ़रमाया, ऐ वहशतनाक घरों के रहने वालों! ऐ वीरान मकानात के बाशिन्दों! और तारीक क़ब्रों में बसने वालों, ऐ ख़ाक नशीनों, ऐ ग़ुरबत, वहदत और वहशत वालों! तुम हमसे आगे चले गए हो और हम तुम्हारे नक़्शे क़दम पर चलकर तुमसे मुलहक़ होने वाले हैं, देखो तुम्हारे मकानात आबाद हो चुके हैं, तुम्हारी बीवियों का दूसरा अक़्द हो चुका है और तुम्हारे अमवाल तक़सीम हो चुके हैं। यह तो हमारे यहाँ की ख़बर है, अब तुम बताओ के तुम्हारे यहाँ की ख़बर क्या है? इसके बाद असहाब की तरफ़ रूख़ करके फ़रमाया के “अगर इन्हें बोलने की इजाज़त मिल जाती तो तुम्हें सिर्फ़ यह पैग़ाम देते के बेहतरीन ज़ादे राह तक़वाए इलाही है।” (((इन्सानी ज़िन्दगी के दो जुज़ हैं एक का नाम है जिस्म और एक का नाम है रूह और इन्हीं दोनों के इत्तेहाद व इत्तेसाल का नाम है ज़िन्दगी और इन्हीं दोनों की जुदाई का नाम है मौत। अब चूंकि जिस्म की बक़ा रूह के वसीले से है लेहाज़ा रूह के जुदा हो जाने के बाद वह मुर्दा भी हो जाता है और सड़ गल भी जाता है और इसके अज्ज़ा मुन्तशिर होकर ख़ाक में मिल जाते हैं, लेकिन रूह ग़ैर माद्दी होने की बुनियाद पर अपने आलिम से मुलहक़ हो जाती है और ज़िन्दा रहती है यह और बात है के इसके तसर्रूफ़ात इज़्ने इलाही के पाबन्द होते हैं और उसकी इजाज़त के बग़ैर कोई तसर्रूफ़ नहीं कर सकती है, और यही वजह है के मुर्दा ज़िन्दों की आवाज़ सुन लेता है लेकिन जवाब देने की सलाहियत नहीं रखता है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इसी राज़े ज़िन्दगी की नक़ाब कुशाई फ़रमाई है के यह मरने वाले जवाब देने के लाएक़ नहीं हैं लेकिन परवरदिगार ने मुझे वह इल्म इनायत फ़रमाया है जिसके ज़रिये मैं यह एहसास कर सकता हूँ के इन मरनेवालों के ला शऊर में क्या है और यह जवाब देने के क़ाबिल होते तो क्या जवाब देते और तुम भी इनकी सूरते हाल को महसूस कर लो तो इस अम्र का अन्दाज़ा कर सकते हो के इनके पास इसके अलावा कोई जवाब और कोई पैग़ाम नहीं है के बेहतरीन ज़ादे राह तक़वा है।)))
130- एक शख़्स को दुनिया की मज़म्मत करते हुए सुना तो फ़रमाया - ऐ दुनिया की मज़म्मत करने वाले और इसके फ़रेब में मुब्तिला होकर इसके महमिलात से धोका खा जाने वाले! तू इसी से धोका भी खाता है और इसी की मज़म्मत भी करता है, यह बता के तुझे इस पर इल्ज़ाम लगाने का हक़ है या इसे तुझ पर इल्ज़ाम लगाने का हक़ है, आखि़र इसने कब तुझसे तेरी अक़्ल को छीन लिया था और कब तुझको धोका दिया था? क्या तेरे आबा-व-अजदाद की कहन्गी की बिना पर गिरने से धोका दिया है या तुम्हारी माओं की ज़ेरे ख़ाक ख़्वाबगाह से धोका दिया है? कितने बीमार हैं जिनकी तुमने तीमारदारी की है और अपने हाथों से उनका इलाज किया है और चाहा है के वह शिफ़ायाब हो जाएं और हकीमो से रुजू भी किया है। उस सुबह के हंगाम जब न कोई दवा काम आ रही थी और न रोना धोना फ़ायदा पहुंचा रहा था, न तुम्हारी हमदर्दी किसी को फ़ायदा पहुंचा सकी और न तुम्हारा मक़सद हासिल हो सका और न तुम मौत को दफ़ा कर सके। इस सूरते हाल में दुनिया ने तुमको अपनी हक़ीक़त दिखला दी थी और तुम्हें तुम्हारी हलाकत से आगाह कर दिया था (लेकिन तुम्हें होश न आया)। याद रखो के दुनिया बावर करने वाले के लिये सच्चाई का घर है और समझदार के लिये अम्न व आफ़ियत की मन्ज़िल है और नसीहत हासिल करने वाले के लिये नसीहत का मक़ाम है, यह दोस्ताने ख़ुदा के सुजूद की मन्ज़िल और मलाएका-ए आसमान का मसला है। यहीं वहीए इलाही का नुज़ूल होता है और यहीं औलियाए ख़ुदा आखि़रत का सौदा करते हैं जिसके ज़रिये रहमत को हासिल कर लेते हैं और जन्नत को फ़ायदे में ले लेते हैं, किसे हक़ है के इसकी मज़म्मत करे जबके उसने अपनी जुदाई का एलान कर दिया है और अपने फ़िराक़ की आवाज़ लगा दी है और अपने रहने वालों की सुनानी सुना दी है। अपनी बला से इनके इब्तिला का नक़्शा पेश किया है और अपने सुरूर से आखि़रत के सुरूर की दावत दी है, इसकी शाम आफ़ियत में होती है तो सुबह मुसीबत में होती है ताके इन्सान में रग़बत भी पैदा हो और ख़ौफ़ भी। उसे आगाह भी कर दे और होशियार भी बना दे, कुछ लोग निदामत की सुबह इसकी मज़म्मत करते हैं और कुछ लोग क़यामत के रोज़ इसकी तारीफ़ करेंगे, जिन्हें दुनिया ने नसीहत की तो उन्होंने उसे क़ुबूल कर लिया, इसने हक़ाएक़ बयान किये तो उसकी तस्दीक़ कर दी और मोएज़ा किया तो इसके मोएज़ा से असर लिया।
131-परवरदिगार की तरफ़ से एक मलक मुअय्यन है जो हर रोज़ आवाज़ देता है के ऐ लोगो! पैदा करो तो मरने के लिये, जमा करो तो फ़ना होने के लिये और तामीर करो तो ख़राब होने के लिये (यानी आखि़री अन्जाम को निगाह में रखो) (((भला उस सरज़मीन को कौन बुरा कह सकता है जिस पर मलाएका का नुज़ूल होता है, औलियाए ख़ुदा सजदा करते हैं, ख़ासाने ख़ुदा ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और नेक बन्दे अपनी आक़ेबत बनाने का सामान करते हैं, यह सरज़मीन बेहतरीन सरज़मीन है और यह इलाक़ा मुफ़ीदतरीन इलाक़ा है मगर सिर्फ़ उन लोगों के लिये जो इसका वही मसरफ़ क़रार दें जो ख़ासाने ख़ुदा क़रार देते हैं और इससे इसी तरह आक़ेबत संवारने का काम लें जिस तरह औलियाए ख़ुदा काम लेते हैं, वरना इसके बग़ैर यह दुनिया बला है बला, और इसका अन्जाम तबाही और बरबादी के अलावा कुछ नहीं है।)))
132-दुनिया एक गुज़रगाह है मन्ज़िल नहीं है, इसमें लोग दो तरह के हैं, एक वह शख़्स है जिसने अपने नफ़्स को बेच डाला और हलाक कर दिया और एक वह है जिसने ख़रीद लिया और आज़ाद कर दिया।
133-दोस्त उस वक़्त तक दोस्त नहीं हो सकता जब तक अपने दोस्त के तीन मवाक़े पर काम न आए मुसीबत के मौक़े पर, उसकी ग़ैबत में, और मरने के बाद।
134- जिसे चार चीज़ें दे दी गईं वह चार से महरूम नहीं रह सकता है, जिसे दुआ की तौफ़ीक़ मिल गई वह क़ुबूलियत से महरूम न होगा और जिसे तौबा की तौफ़ीक़ हासिल हो गई वह क़ुबूलियत से महरूम न होगा, अस्तग़फ़ार हासिल करने वाला मग़फ़ेरत से महरूम न होगा और शुक्र करने वाला इज़ाफ़े से महरूम न होगा। सय्यद रज़ी इस इरशादे गिरामी की तस्दीक़ आयाते क़ुरआनी से होती है के परवरदिगार ने दुआ के बारे में फ़रमाया है “मुझसे दुआ करो मैं क़ुबूल करूंगा, और अस्तग़फ़ार के बारे में फ़रमाया है “जो बुराई करने के बाद या अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करने के बाद ख़ुदा से तौबा करेगा वह उसे ग़फ़ूरूर्रहीम पाएगा” शुक्र के बारे में इरशाद होता है “अगर तुम शुक्रिया अदा करोगे तो हम नेमतों में इज़ाफ़ा कर देंगे” और तौबा के बारे में इरशाद होता है “तौबा उन लोगों के लिये है जो जेहालत की बिना पर गुनाह करते हैं और फ़िर फ़ौरन तौबा कर लेते हैं, यही वह लोग हैं जिनकी तौबा अल्लाह क़ुबूल कर लेता है और वह हर एक की नीयत से बाख़बर भी है और साहेबे हिकमत भी है।” (((इस बेहतरीन बरताव में इताअत, उफ़्फत, तदबीरे मन्ज़िल, क़नाअत, अदम मुतालेबात, ग़ैरत व हया और तलबे रिज़ा जैसी तमाम चीज़ें शामिल हैं जिनके बग़ैर अज़द्वाजी ज़िन्दगी ख़ुशगवार नहीं हो सकती है और दिन भर ज़हमत बरदाश्त करके नफ़्क़ा फ़राहम करने वाला शौहर आसूदा व मुतमईन नहीं हो सकता है)))
135-नमाज़ हर मुत्तक़ी के लिये वसीलए तक़र्रूब है और हज हर कमज़ोर के लिये जेहाद है, हर शै की एक ज़कात होती है और बदन की ज़कात रोज़ा है, औरत का जेहाद शौहर के साथ बेहतरीन बरताव है।
136-रोज़ी के नूज़ूल का इन्तेज़ाम सदक़े के ज़रिये से करो।
137- जिसे मुआवज़े का यक़ीन होता है वह अता में दरियादिली से काम लेता है।
138- ख़ुदाई इमदाद का नुज़ूल बक़द्रे ख़र्च होता है (ज़ख़ीराअन्दोज़ी और फ़िज़ूल ख़र्ची के लिये नहीं)
139- जो मयानारवी से काम लेगा वह मोहताज न होगा।
140- मुताल्लेक़ीन की कमी भी एक तरह की आसूदगी है।
(((इसमें कोई शक नहीं है के तन्ज़ीमे हयात एक अक़्ली फ़रीज़ा है और हर मसले को सिर्फ़ तवक्कल बख़ुदा के हवाले नहीं किया जा सकता है, इस्लाम ने अज़्दवाजी कसरते नस्ल पर ज़ोर दिया है, लेकिन दामन देख कर पैर फैलाने का शऊर भी दिया है लेहाज़ा इन्सान की ज़िम्मेदारी है के इन दोनों के दरम्यान से रास्ता निकाले और इस अम्र के लिये आमादा रहे के कसरते मुताल्लिक़ीन से परेशानी ज़रूर पैदा होगी और फिर परेशानी की शिकायत और फ़रयाद न करे।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 141-160
141-मेल मोहब्बत पैदा करना अक़्ल का आधा हिस्सा है।
142- हम व ग़म ख़ुद भी आधा बुढ़ापा है।
143- सब्र बक़द्रे मुसीबत नाज़िल होता है और जिसने मुसीबत के मौक़े पर रान पर हाथ मारा, गोया के अपने अमल और अज्र को बरबाद कर दिया। (हम्ज़ सब्र है हंगामा नहीं है, लेकिन यह सब अपनी ज़ाती मुसीबत के लिये है)
144- कितने रोज़ेदार हैं जिन्हें रोज़े से भूक और प्यास के अलावा कुछ नहीं हासिल होता है और कितने आबिद शब ज़िन्दावार हैं जिन्हें अपने क़याम से शब बेदारी और मशक़्क़त के अलावा कुछ हासिल नहीं होता है, होशमन्द इन्सान का सोना और खाना भी क़ाबिले तारीफ़ होता है।
(((मक़सद यह है के इन्सान इबादत को बतौरे रस्म व आदत अन्जाम न दे बल्कि जज़्बाए इताअत व बन्दगी के तहत अन्जाम दे ताके वाक़ेअन बन्दाए परवरदिगार कहे जाने के क़ाबिल हो जाए वरना शऊरे बन्दगी से अलग हो जाने के बाद बन्दगी बे अर्ज़िश होकर रह जाती है।)))
145- अपने ईमान की निगेहदाश्त सदक़े से करो और अपने अमवाल की हिफ़ाज़त ज़कात से करो, बलाओं के तलातुम को दुआओं से टाल दो। (((सदक़ा इस बात की अलामत है के इन्सान को वादाए इलाही पर एतबार है और वह यह यक़ीन रखता है के जो कुछ उसकी राह में दे दिया है वह ज़ाया होने वाला नहीं है बल्कि दस गुना, सौ गुना, हज़ार गुना होकर वापस आने वाला है और यही कमाले ईमान की अलामत है)))
146- आपका इरशादे गिरामी जनाबे कुमैल बिन ज़ियाद नख़ई से कुमैल कहते हैं के अमीरूल मोमेनीन (अ0) मेरा हाथ पकड़कर क़ब्रिस्तान की तरफ़ ले गए और जब आबादी से बाहर निकल गए तो एक लम्बी आह खींचकर फ़रमायाः ऐ कुमैल बिन ज़ियाद! देखो यह दिल एक तरह के ज़र्फ़ हैं लेहाज़ा सबसे बेहतरीन वह दिल है जो सबसे ज़्यादा हिकमतों को महफ़ूज़ कर सके। अब तुम मुझसे उन बातों को महफ़ूज़ कर लो, लोग तीन तरह के होते हैं ख़ुदा रसीदा आलिम, राहे निजात पर चलने वाला तालिबे इल्म और अवामुन्नास का वह गिरोह जो हर आवाज़ के पीछे चल पड़ता है और हर हवा के साथ लहराने लगता है, इसने न नूर की रोशनी हासिल की है और न किसी मुस्तहकम सुतून का सहारा लिया है। (((इल्म व माल के मरातब के बारे में यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जो है के माल की पैदावार भी इल्म का नतीजा होती है वरना रेगिस्तानी इलाक़ों में हज़ारों साल से पेट्रोल के ख़ज़ाने मौजूद थे और इन्सान इनसे बिलकुल बेख़बर था, इसके बाद जैसे ही इल्म ने मैदाने इन्केशाफ़ात में क़दम रखा, बरसों के फ़क़ीर अमीर हो गए और सदियों के फ़ाक़ाकश साहेबे माल व दौलत शुमार होने लगे))) ऐ कुमैल! देखो इल्म माल से बहरहाल बेहतर होता है के इल्म ख़ुद तुम्हारी हिफ़ाज़त करता है और माल की हिफ़ाज़त तुम्हें करना पड़ती है। माल ख़र्च करने से कम हो जाता है और इल्म ख़र्च करने से बढ़ जाता है, फ़िर माल के नताएज व असरात भी इसके फ़ना होने के साथ ही फ़ना हो जाते हैं। ऐ कुमैल बिन ज़ियाद! इल्म की मारेफ़त एक दीन है जिसकी इक़्तेदा की जाती है और उसी के ज़रिये इन्सान ज़िन्दगी में इताअत हासिल करता है और मरने के बाद ज़िक्रे जीमल फ़राहम करता है, इल्म हाकिम होता है और माल महकूम होता है। कुमैल! देखो माल का ज़ख़ीरा करने वाले जीतेजी हलाक हो गए और साहेबाने इल्म ज़माने की बक़ा के साथ रहने वाले हैं, इनके अजसाम नज़रों से ओझल हो गए हैं लेकिन इनकी सूरतें दिलों पर नक़्श हैं, देखो इस सीने में इल्म का एक ख़ज़ाना है, काश मुझे इसके ठिकाने वाले मिल जाते। हाँ मिले भी तो बाज़ ऐसे ज़हीन जो क़ाबिले एतबार नहीं हैं और दीन को दुनिया का आलाएकार बनाकर इस्तेमाल करने वाले हैं और अल्लाह की नेमतों के ज़रिये उसके बन्दों और उसकी मोहब्बतों के ज़रिये उसके औलिया पर बरतरी जतलाने वाले हैं या हामेलाने हक़ के इताअत गुज़ार तो हैं लेकिन इनके पहलुओं में बसीरत नहीं है और अदना शुबह में भी शक का शिकार हो जाते हैं। याद रखो के न यह काम आने वाले हैं या सिर्फ़ माल जमा करने और ज़ख़ीरा अन्दोज़ी करने के दिलदादा हैं, यह दोनों भी दीन के क़तअन मुहाफ़िज़ नहीं हैं और इनसे क़रीबतरीन शबाहत रखने वाले चरने वाले जानवर होते हैं और इस तरह इल्म हामेलाने इल्म के साथ मर जाता है। लेकिन इसके बाद भी ज़मीन ऐसे शख़्स से ख़ाली नहीं होती है जो हुज्जते ख़ुदा के साथ क़याम करता है चाहे वह ज़ाहिर और मशहूर हो या ख़ाएफ़ और पोशीदा, ताके परवरदिगार की दलीलें और उसकी निशानियां मिटने न पाएं। लेकिन यह हैं ही कितने और कहाँ हैं? वल्लाह इनके अदद बहुत कम हैं लेकिन इनकी क़द्र व मन्ज़िलत बहुत अज़ीम है। अल्लाह उन्हीं के ज़रिये अपने दलाएल व बय्येनात की हिफ़ाज़त करता है ताके यह अपने ही जैसे अफ़राद के हवाले कर दें अैर अपने इमसाल के दिलों में बो दें। उन्हें इल्म ने बसीरत की हक़ीक़त तक पहुंचा दिया है और यह यक़ीन की रूह के साथ घुल मिल गए हैं, उन्होंने इन चीज़ों को आसान बना लिया है जिन्हें राहत पसन्दों ने मुश्किल बना रखा था और उन चीज़ों से उन्स हासिल किया है जिनसे जाहिल वहशत ज़दा थे और इस दुनिया में इन अजसाम के साथ रहे हैं जिनकी रूहें मलाएआला से वाबस्ता हैं, यही रूए ज़मीन पर अल्लाह के ख़लीफ़ा और उसके दीन के दाई हैं। हाए मुझे उनके दीदार का किस क़द्र इश्तियाक़ है! कुमैल! (मेरी बात तमाम हो चुकी) अब तुम जा सकते हो। (((यह सही है के हर सिफ़त उसके हामिल के फ़ौत हो जाने से ख़त्म हो जाती है और इल्म भी हामिलाने इल्म की मौत से मर जाता है लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस दुनिया में कोई दौर ऐसा भी आता है जब तमाम अहले इल्म मर जाएं और इल्म का फ़िक़दान हो जाए, इसलिये के ऐसा हो गया तो एतमामे हुज्जत का कोई रास्ता न रह जाएगा और एतमामे हुज्जत बहरहाल एक अहम और ज़रूरी मसला है लेहाज़ा हर दौर में एक हुज्जते ख़ुदा का रहना ज़रूरी है चाहे ज़ाहिर बज़ाहिर मन्ज़रे आम पर हो या ग़ैबत में हो के एतमामे हुज्जत के लिये इसका वजूद ही काफ़ी है, इसके ज़हूर की शर्त नहीं है।)))
147-इन्सान अपनी ज़बान के नीचे छुपा रहता है।
148- जिस शख़्स ने अपनी क़द्र व मन्ज़िलत को नहीं पहचाना वह हलाक हो गया।
149- एक शख़्स ने आपसे नसीहत का तक़ाज़ा किया तो फ़रमाया “उन लोगों में न हो जाना जो अमल के बग़ैर आख़ेरत की उम्मीद रखते हैं और तूलानी उम्मीदों की बिना पर तौबा को टाल देते हैं, दुनिया में बातें ज़ाहिदों जैसी करते हैं और काम राग़िबों जैसा अन्जाम देते हैं, कुछ मिल जाता है तो सेर नहीं होते हैं और नहीं मिलता है तो क़नाअत नहीं करते हैं, जो दे दिया गया है उसके शुक्रिया से आजिज़ हैं लेकिन मुस्तक़बिल में ज़्यादा के तलबगार ज़रूर हैं, लोगों को मना करते हैं लेकिन ख़ुद नहीं रूकते हैं, और उन चीज़ों का हुक्म देते हैं जो ख़ुद नहीं करते हैं। नेक किरदारों से मोहब्बत करते हैं लेकिन इनका जैसा अमल नहीं करते हैं और गुनहगारों से बेज़ार रहते हैं लेकिन ख़ुद भी उन्हीं में से होते हैं, गुनाहों की कसरत की बिना पर मौत को नापसन्द करते हैं और फिर ऐसे ही आमाल पर क़ाएम भी रहते हैं जिनसे मौत नागवार हो जाती है, बीमार होते हैं तो गुनाहों पर शरमिंदा हो जाते हैं और सेहतमन्द होते हैं तो फिर लहू व लोआब (बुराईयो) में मुब्तिला हो जाते हैं। बीमारियों से निजात मिल जाती है तो अकड़ने लगते हैं और आज़माइश में पड़ जाते हैं तो मायूस हो जाते हैं, कोई बला नाज़िल हो जाती है तो बशक्ले मुज़तर दुआ करते हैं और सहूलत व आसानी फ़राहम हो जाती है तो फ़रेब खाऐ हुए होकर मुंह फेर लेते हैं। इनका नस उन्हें ख़्याली बातों पर आमादा कर लेता है लेकिन वह यक़ीनी बातों में इस पर क़ाबू नहीं पा सकते हैं दूसरों के बारे में अपने से छोटे गुनाह से भी ख़ौफ़ज़दा रहते हैं और अपने लिये आमाल से ज़्यादा जज़ा के उम्मीदवार रहते हैं, मालदार हो जाते हैं तो मग़रूर व मुब्तिलाए फ़ित्ना हो जाते हैं और ग़ुरबतज़दा होते हैं तो मायूस और सुस्त हो जाते हैं। अमल में कोताही करते हैं और सवाल में मुबालेग़ा करते हैं ख़्वाहिशे नफ़्स सामने आ जाती है तो गुनाह फ़ौरन कर लेते हैं और तौबा को टाल देते हैं, कोई मुसीबत लाहक़ हो जाती है तो इस्लामी जमाअत से अलग हो जाते हैं। इबरतनाक वाक़ेआत बयान करते हैं लेकिन ख़ुद इबरत हासिल नहीं करते हैं, नसीहत करने में मुबालेग़ा से काम लेते हैं लेकिन ख़ुद नसीहत नहीं हासिल करते हैं। क़ौल में हमेशा ऊंचे रहते हैं और अमल में हमेशा कमज़ोर रहते हैं, फ़ना होने वाली चीज़ों में मुक़ाबला करते हैं और बाक़ी रह जाने वाली चीज़ों में सहलअंगारी से काम लेते हैं। वाक़ेई फ़ायदे को नुक़सान समझते हैं और हक़ीक़ी नुक़सान को फ़ायदा तसव्वुर करते हैं।
(((मौलाए कायनात (अ0) के इस इरशादे गिरामी का बग़ौर मुतालेआ करने के बाद अगर दौरे हाज़िर के मोमेनीने कराम, वाएज़ीने मोहतरम, ख़ोतबाए शोला नवा, शोअराए तूफ़ान अफ़ज़ा, सरबराहाने मिल्लत, क़ायदीने क़ौम के हालात का जाएज़ा लिया जाए तो ऐसा मालूम होता है के आप हमारे दौर के हालात का नक़्शा खींच रहे हैं और हमारे सामने किरदार का एक आईना रख रहे हैं जिसमें हर शख़्स अपनी शक्ल देख सकता है और अपने हाले ज़ार से इबरत हासिल कर सकता है।))) मौत से डरते हैं लेकिन वक़्त निकल जाने से पहले अमल की तरफ़ सबक़त नहीं करते हैं, दूसरों की इस गुनाह को भी अज़ीम तसव्वुर करते हैं जिससे बड़ी गुनाह को अपने लिये मामूली तसव्वुर करते हैं और अपनी मामूली इताअत को भी कसीर शुमार करते हैं जबके दूसरे की कसीर इताअत को भी हक़ीर ही समझते हैं, लोगों पर तानाज़न रहते हैं और अपने मामले में नर्म व नाज़ुक रहते हैं, मालदारों के साथ लहू व लोआब को फ़क़ीरों के साथ बैठ कर ज़िक्रे ख़ुदा से ज़्यादा दोस्त रखते हों, अपने हक़ में दूसरों के खि़लाफ़ फ़ैसला कर देते हैं और दूसरों के हक़ में अपने खि़लाफ़ फ़ैसला नहीं कर सकते हैं। दूसरों को हिदायत देते हैं और अपने नफ़्स को गुमराह करते हैं, ख़ुद इनकी इताअत की जाती है और ख़ुद मासीयत करते रहते हैं अपने हक़ को पूरा-पूरा ले लेते हैं और दूसरों के हक़ को अदा नहीं करते हैं। परवरदिगार को छोड़कर मख़लूक़ात से ख़ौफ़ खाते हैं और मख़लूक़ात के बारे में परवरदिगार से ख़ौफ़ज़दा नहीं होते हैं। सय्यद रज़ी- अगर इस किताब में इस कलाम के अलावा कोई दूसरी नसीहत न भी होती तो ही कलाम कामयाब मोअज़त, बलीग़ हिकमत और साहेबाने बसीरत की बसीरत और साहेबाने फिक्रो नज़र की इबरत के लिये काफ़ी था।
(((दौरे हाज़िर का अज़ीमतरीन मेयारे ज़िन्दगी यही है और हर शख़्स ऐसी ही ज़िन्दगी के लिये बेचैन नज़र आता है, काफ़ी हाउस, नाइट क्लब और दीगर लगवियात के मक़ामात पर सरमायादारों की मसाहेबत के लिये हर मतूसत तबक़े का आदमी मरा जा रहा है और किसी को यह शौक़ नहीं पैदा होता है के चन्द लम्हे ख़ानाए ख़ुदा में बैठ कर फ़क़ीरों के साथ मालिक की बारगाह में मुनाजात करे और यह एहसास करे के उसकी बारगाह में सब फ़क़ीर हैं और यह दौलत व इमारत सिर्फ़ चन्द रोज़ा तमाशा है वरना इन्सान ख़ाली हाथ आया है और ख़ाली हाथ ही जाने वाला है, दौलत आक़बत बनाने का ज़रिया थी अगर उसे भी आक़बत की बरबादी की राह पर लगा दिया तो आख़ेरत में हसरत व अफ़सोस के अलावा कुछ हाथ आने वाला नहीं है।)))
150- हर शख़्स का एक अन्जाम बहरहाल होने वाला है चाहे शीरीं हो या तल्ख़।
151- हर आने वाला पलटने वाला है और जो पलट जाता है वह ऐसा हो जाता है जैसे था ही नहीं।
152- सब्र करने वाला कामयाबी से महरूम नहीं हो सकता है चाहे कितना ही ज़माना क्यों न लग जाए।
153- किसी क़ौम के अमल से राज़ी हो जाने वाला भी उसी के साथ शुमार किया जाएगा और जो किसी बातिल में दाखि़ल हो जाएगा उस पर दोहरा गुनाह होगा, अमल का भी गुनाह और राज़ी होने का भी गुनाह।
154- अहद व पैमान की ज़िम्मेदारी उनके हवाले करो जो कीलो की तरह मुस्तहकम और मज़बूत हों।
155- उसकी इताअत ज़रूर करो जिससे नावाक़फ़ीयत क़ाबिले माफ़ी नहीं है, (यानी ख़ुदाई मन्सबदार)।
156- अगर तुम बसीरत रखते हो तो तुम्हें हक़ाएक़ दिखलाए जा चुके हैं और अगर हिदायत हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें हिदायत दी जा चुकी है और अगर सुनना चाहते हो तो तुम्हें पैग़ाम सुनाया जा चुका है।
157- अपने भाई को तम्बीह करो तो एहसान करने के बाद और उसके शर का जवाब दो तो लुत्फ़ व करम के ज़रिये।
(((खुली हुई बात है के इन्सान अगर सिर्फ़ तम्बीह करता है और काम नहीं करता है तो उसकी तम्बीह का कोई असर नहीं होता है के दूसरा शख़्स पहले ही बदज़न हो जाता है तो कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं होता है और नसीहत बेकार चली जाती है, इसके बरखि़लाफ़ अगर पहले एहसान करके दिल में जगह बना ले और उसके बाद गुनाह करे तो यक़ीनन नसीहत का असर होगा और बात ज़ाया व बरबाद न होगी।)))
158- जिसने अपने नफ़्स को तोहमत के मवाक़े पर रख दिया उसे किसी बदज़नी करने वाले को मलामत करने का हक़ नहीं है।
(((अजीब व ग़रीब बात है के इन्सान उन लोगों से फ़ौरन बेज़ार हो जाता है जो उससे बदगुमानी रखते हैं लेकिन इन हालात से बेज़ारी का इज़हार नहीं करता है उसकी बिना पर बदगुमानी पैदा होती है जबके इन्साफ़ का तक़ाज़ा यह है के पहले बदज़नी के मक़ामात से इज्तेनाब करे और उसके बाद उन लोगों से नाराज़गी का इज़हार करे जो बिला सबब बदज़नी का शिकार हो जाते हैं।)))
159- जो इक़्तेदार हासिल कर लेता है वह जानिबदारी करने लगता है।
160- जो अपनी बात को बड़ा समझेगा वह हलाक हो जाएगा और जो लोगों से मशविरा करेगा वह उनकी अक़्लों में शरीक हो जाएगा।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 161-180
161- जो अपने राज़ को पोशीदा रखेगा उसका इख़्तेयार उसके हाथ में रहेगा।
162- फ़क़ीरी सबसे बड़ी मौत है।
163- जो किसी ऐसे शख़्स का हक़ अदा कर दे जो इसका हक़ अदा न करता हो तो गोया उसने उसकी परस्तिश कर ली है।
(((मक़सद यह है के इन्सान के अमल की कोई बुनियाद होनी चाहिये और मीज़ान और मेयार के बग़ैर किसी अमल को अन्जाम नहीं देना चाहिये अब अगर कोई शख़्स किसी के हुक़ूक़ की परवाह नहीं करता है और वह इसके हुक़ूक़ को अदा किये जा रहा है तो इसका मतलब यह है के अपने को इसका बन्दाए बेदाम तसव्वुर करता है और इसकी परस्तिश किये चला जा रहा है।)))
164- ख़ालिक़ की गुनाह के ज़रिये मख़लूक़ की इताअत नहीं की जा सकती है।
165- अपना हक़ लेने में ताख़ीर कर देना ऐब नहीं है, दूसरे के हक़ पर क़ब्ज़ा कर लेना ऐब है।
((( इन्सान की ज़िम्मेदारी है के ज़िन्दगी में हुक़ूक़ हासिल करने से ज़्यादा हुक़ूक़ की अदायगी पर तवज्जो दे के अपने हुक़ूक़ को नज़रअन्दाज़ कर देना न दुनिया में बाएसे मलामत है और न आख़ेरत में वजहे अज़ाब है लेकिन दूसरों के हुक़ूक़ पर क़ब्ज़ा कर लेना यक़ीनन बाएसे मज़म्मत भी है और वज्हे अज़ाब व अक़ाब भी है।)))
166- ख़ुद पसन्दी ज़्यादा अमल से रोक देती है।
(((खुली हुई बात है के जब तक मरीज़ को मर्ज़ का एहसास रहता है वह इलाज की फ़िक्र भी करता है लेकिन जिस दिन वरम को सेहत तसव्वुर कर लेता है उस दिन से इलाज छोड़ देता है, यही हाल ख़ुद पसन्दी का है के ख़ुदपसन्दी किरदार का वरम है जिसके बाद इन्सान अपनी कमज़ोरियों से ग़ाफ़िल हो जाता है और उसके शुबह में अमल ख़त्म कर देता है या रफ़्तारे अमल को सुस्त बना देता है और यही चीज़ इसके किरदार की कमज़ोरी के लिये काफ़ी है।)))
167- आखि़रत क़रीब है और दुनिया की सोहबत बहुत मुख़्तसर है।
168- आंखों वालों के लिये सुबह रौशन हो चुकी है।
169- गुनाह का न करना बाद में मदद मांगने से आसानतर है।
((( मसल मशहुर है के परहेज़ करना इलाज करने से बेहतर है के परहेज़ इन्सान को बीमारियों से बचा सकता है और इस तरह उसकी फ़ितरी ताक़त महफ़ूज़ रहती है लेकिन परहेज़ न करने की बिना पर अगर मर्ज़ ने हमला कर दिया तो ताक़त ख़ुद ब ख़ुद कमज़ोर हो जाती है और फिर इलाज के बाद भी वह फ़ितरी हालत वापस नहीं आती है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के गुनाहों के ज़रिये नफ़्स के आलूदा होने और तौबा के ज़रिये इसकी ततहीर करने से पहले उसकी सेहत का ख़याल रखे और उसे आलूदा न होने दे ताके इलाज की ज़हमत से महफ़ूज़ रहे।)))
170-अक्सर औक़ात एक खाना कई खानों से रोक देता है।
171- लोग उन चीज़ों के दुश्मन होते हैं जिनसे बेख़बर होते हैं।
172- जो विभिन्न सुझावो का सामना करता है वह ग़लती के स्थान को जान लेता है।
(((इसका एक मतलब यह भी है के मशविरा करने वाला ग़लतियों से बचा रहता है के उसे किसी तरह के उफ़कार हासिल हो जाते हैं और हर शख़्स के ज़रिये दूसरे की फ़िक्र की कमज़ोरी का भी अन्दाज़ा हो जाता है और इस तरह सही राय इख़्तेयार करने में कोई ज़हमत नहीं रह जाती है।)))
173- जो अल्लाह के लिये ग़ज़ब के सिनान को तेज़ कर लेता है वह बातिल के सूरमाओं के क़त्ल पर भी क़ादिर हो जाता है।
174- जब किसी अम्र से दहशत महसूस करो तो उसमें फान्द पड़ो के ज़्यादा ख़ौफ़ व एहतियात ख़तरे से ज़्यादा ख़तरनाक होती है।
175- रियासत का वसीला दिल का बड़ा होना है।
176- बद अमल की सरज़न्श के लिये नेक अमल वाले को अज्र व इनआम दो।
(((हमारे मुआशरे की कमज़ोरियों में से एक अहम कमज़ोरी यह है के यहाँ बदकिरदारों पर तन्क़ीद तो की जाती है लेकिन नेक किरदार की ताईद व तौसीफ़ नहीं की जाती है, आप एक दिन ग़लत काम करें तो सारे शहर में हंगामा हो जाएगा लेकिन एक साल तक बेहतरीन काम करें तो कोई बयान करने वाला भी न पैदा होगा, हालांके उसूली बात यह है के नेकी के फैलाने का तरीक़ा सिर्फ़ बुराई पर तन्क़ीद करना नहीं है बल्कि उससे बेहतर तरीक़ा ख़ुद नेकी की हौसला अफ़ज़ाई करना है जिसके बाद हर शख़्स में नेकी करने का शऊर बेदार हो जाएगा और बुराइयों का क़ला क़मा हो जाएगा)))
177-दूसरे के दिल से शर को काट देना है तो पहले अपने दिल से उखाड़कर फेंक दो।
178- हटधर्मी सही राय को भी दूर कर देती है।
179- लालच हमेशा हमेशा की ग़ुलामी है।
(((यह इन्सानी ज़िन्दगी की अज़ीमतरीन हक़ीक़त है के हिर्स व लालच रखने वाला इन्सान नफ़्स का ग़ुलाम और ख़्वाहिशात का बन्दा हो जाता है और जो शख़्स ख़्वाहिशात की बन्दगी में मुब्तिला हो गया वह किसी क़ीमत पर इस ग़ुलामी से आज़ाद नहीं हो सकता है, इन्सानी ज़िन्दगी की दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यह है के इन्सान अपने को ख़्वाहिशाते दुनिया और हिर्स व लालच से दूर रखे ताके किसी ग़ुलामी में मुब्तिला न होने पाए के यहाँ “शौक़ हर रंग रक़ीब सरो सामान” हुआ करता है और यहाँ की ग़ुलामी से निजात मुमकिन नहीं है।)))
180-कोताही का नतीजा शर्मिन्दगी है और होशियारी का समरह सलामती।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 181-200
181- हिकमत से ख़ामोशी में कोई ख़ैर नहीं है जिस तरह के जेहालत से बोलने में कोई भलाई नहीं है। (((इन्सान को हर्फे हिकमत का एलान करना चाहिये ताके दूसरे लोग उससे इस्तेफ़ादा करें और हर्फ़े जेहालत से परहेज़ करना चाहिये के जेहालत की बात करने से ख़ामोशी ही बेहतर होती है, इन्सान की इज़्ज़त भी सलामत रहती है और दूसरों की गुमराही का भी कोई अन्देशा नहीं होता है)))
182- जब दो मुख़्तलिफ़ दावतें दी जाएं तो दो में से एक यक़ीनन गुमराही होगी।
183- मुझे जब से हक़ दिखला दिया गया है मैं कभी शक का शिकार नहीं हुआ हूँ।
184- मैंने न ग़लत बयानी की है और न मुझे झूठ ख़बर दी गई है, न मैं गुमराह हुआ हूँ और न मुझे गुमराह किया जा सका है।
185- ज़ुल्म की इब्तिदा करने वाले को कल निदामत से अपना हाथ काटना पड़ेगा।
(((अगर यह दुनिया में हर ज़ुल्म करने वाले का अन्जाम है तो उसके बारे में क्या कहा जाएगा जिसने आलमे इस्लाम में ज़ुल्म की इब्तिदा की है और जिसके मज़ालिम का सिलसिला आज तक जारी है और औलादे रसूले अकरम (स0) किसी आन भी मज़ालिम से महफ़ूज़ नहीं है)))
186-जाने का वक़्त (मौत) क़रीब आ गया है।
187-जिसने हक़ से मुंह मोड़ लिया वह हलाक हो गया।
188- जिसे सब्र निजात नहीं दिला सकता है उसे बेक़रारी मार डालती है।
((( दुनिया में काम आने वाला सिर्फ़ सब्र है के इससे इन्सान का हौसला भी बढ़ता है और उसे अज्र व सवाब भी मिलता है, बेक़रारी में उनमें से कोई सिफ़त नहीं है और न उससे कोई मसला हल होने वाला है, लेहाज़ा अगर किसी शख़्स ने सब्र को छोड़कर बेक़रारी का रास्ता इख़्तेयार कर लिया तो गोया अपनी तबाही का आप इन्तेज़ाम कर लिया और परवरदिगार की मईत से भी महरूम हो गया के वह सब्र करने वालों के साथ रहता है, जज़अ व फ़ज़अ करेन वालों के साथ नहीं रहता है।)))
189-ताज्जुब है! खि़लाफ़त सिर्फ़ सहाबियत की बिना पर मिल सकती है लेकिन अगर सहाबियत और क़राबत दोनों जमा हो जाएं तो नहीं मिल सकती है।
सय्यद रज़ी - इस मानी में हज़रत का यह शेर भी हैः “अगर तुमने शूरा से इक़्तेदार हासिल किया तो यह शूरा कैसा है जिसमें मुशीर ही सब ग़ायब थे। और अगर तुमने क़राबत से अपनी ख़ुसूसियत का इज़हार किया है तो तुम्हारा ग़ैर तुमसे ज़्यादा रसूले अकरम (स0) के लिये औला और अक़रब है।”
190-इन्सान इस दुनिया में वह निशाना है जिस पर मौत अपने तीर चलाती रहती है और वह मसाएब की ग़ारतगरी की जूला निगाह बना रहता है, यहाँ के हर घूंट पर उच्छू है और हर लुक़्मे पर गले में एक फन्दा है इन्सान एक नेमत को हासिल नहीं करता है मगर यह के दूसरी हाथ से निकल जाती है और ज़िन्दगी के एक दिन का इस्तेक़बाल नहीं करता है मगर यह के दूसरा दिन हाथ से निकल जाता है। हम मौत के मददगार हैं और हमारे नफ़्स हलाकत का निशाना हैं, हम कहां से बक़ा की उम्मीद करें जबके शब व रोज़ किसी इमारत को ऊंचा नहीं करते हैं मगर यह के हमले करके उसे मुनहदिम कर देते हैं और जिसे भी यकजा करते हैं उसे बिखेर देते हैं।
(((किसी तरह का कोई इज़ाफ़ा नहीं है बल्कि एक दिन ने जाकर दूसरे दिन के लिये जगह ख़ाली है और इसकी आमद की ज़मीन हमवार की है तो इस तरह इन्सान का हिसाब बराबर ही रह गया, एक दिन जेब में दाखि़ल हुआ और एक दिन जेब से निकल गया और इसी तरह एक दिन ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाएगा)))
191- फ़रज़न्दे आदम! अगर तूने अपनी ग़िज़ा से ज़्यादा कमाया है तो गोया इस माल में दूसरों का ख़ज़ान्ची है।
(((यह बात तयशुदा है के मालिक का निज़ामे तक़सीम ग़लत नहीं है और उसने हर शख़्स की ताक़त एक जैसी नहीं रखी है तो इसका मतलब यह है के उसने दुनिया के गोदामो में हिस्सा सबका रखा है लेकिन सबमें उन्हें हासिल करने की यकसां ताक़त नहीं है बल्कि एक को दूसरे के लिये वसीला और ज़रिया बना दिया है तो अगर तुम्हारे पास तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा माल आ जाए तो इसका मतलब यह है के मालिक ने तुम्हें दूसरों के हुक़ूक़ का ख़ाज़िन बना दिया है और अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है के इसमें किसी तरह की ख़यानत न करो और हर एक को उसका हिस्सा पहुंचा दो।)))
192- दिलों के लिये रग़बत व ख़्वाहिश, आगे बढ़ना और पीछे हटना सभी कुछ है लेहाज़ा जब मीलान और तवज्जो का वक़्त हो तो उससे काम ले लो के दिल को मजबूर करके काम लिया जाता है तो वह अन्धा हो जाता है।
193-मुझे ग़ुस्सा आ जाए तो मैं उससे तस्कीन किस तरह हासिल करूँ ? इन्तेक़ाम से आजिज़ हो जाऊँगा तो कहा जाएगा के सब्र करो और इन्तेक़ाम की ताक़त पैदा कर लूँगा तो कहा जाएगा के काश माफ़ कर देते (ऐसी हालत में ग़ुस्से का कोई फ़ायदा नहीं है।)
((आप इस इरशादेगिरामी के ज़रिये लोगों को सब्र व तहम्मुल की नसीहत करना चाहते हैं के इन्तेक़ाम आम तौर से क़ाबिले तारीफ़ नहीं होता है, इन्सान मक़ाम इन्तेक़ाम में कमज़ोर पड़ जाता है तो लोग मलामत करते हैं के जब ताक़त नहीं थी तो इन्तेक़ामक लेने की ज़रूरत ही क्या थी और ताक़तवर साबित होता है तो कहते हैं के कमज़ोर आदमी से क्या इन्तेक़ाम लेना है, मुक़ाबला किसी बराबर वाले से करना चाहिये था, ऐसी सूरत में तक़ाज़ाए अक़्ल व मन्तक़ यही है के इन्सान सब्र व तहम्मुल से काम ले और जब तक इन्तेक़ाम फ़र्ज़े शरई न बन जाए उस वक़्त तक इसका इरादा भी न करे और फिर जब मालिके कायनात इन्तेक़ाम लेने वाला मौजूद है तो इन्सान को इस क़द्र ज़हमत बरदाश्त करने की क्या ज़रूरत है)))
194- एक कूड़ाघर से गुज़रते हुए फ़रमाया - “यही वह चीज़ है जिसके बारे में कंजूसी करने वालों ने कंजूसी किया था” या दूसरी रिवायत की बिना पर “जिसके बारे में कल एक दूसरे से रश्क कर रहे थे, (यह है अन्जामे दुनिया और अन्जामे लज़्ज़ाते दुनिया)
195- जो माल नसीहत का सामान फ़राहम कर दे वह बरबाद नहीं हुआ है।
196- यह दिल इसी तरह उकता जाते हैं जिस तरह बदन, लेहाज़ा इनके लिये लतीफ़ तरीन हिकमतें फ़राहम करो।
197-जब आपने ख़वारिज का यह नारा सुना के “ख़ुदा के अलावा किसी के लिये हुक्म नहीं है’ तो फ़रमाया के “यह कलमए हक़ है” लेकिन इससे बातिल मानी मुराद लिये गए हैं।
198- बाज़ारी लोगों की भीड़ भाड़ के बारे में फ़रमाया के - यही वह लोग हैं जो इकट्ठा हो जाते हैं तो ग़ालिब आ जाते हैं और फ़ैल जाते हैं तो पहचाने भी नहीं जाते हैं। और बाज़ लोगों का कहना है के हज़रत ने इस तरह फ़रमाया था के - जब जमा हो जाते हैं तो नुक़सानदेह होते हैं और जब फ़ैल हो जाते हैं तभी फ़ायदेमन्द होते हैं। तो लोगों ने अर्ज़ की के जमा हो जाने में नुक़सान तो समझ में आ गया लेकिन फ़ैलने में फ़ायदे के क्या मानी हैं? तो फ़रमाया के सारे कारोबार वाले अपने कारोबार की तरफ़ पलट जाते हैं और लोग उनसे फ़ायदा उठा लेते हैं जिस तरह मेमार अपनी इमारत की तरफ़ चला जाता है, कपड़ा बुनने वाला कारख़ाने की तरफ़ चला जाता है और रोटी पकाने वाला तनूर की तरफ़ पलट जाता है।
(((इसमें कोई शक नहीं है के अवामी ताक़त बहुत बड़ी ताक़त होती है और दुनिया का कोई निज़ाम इस ताक़त के बग़ैर कामयाब नहीं हो सकता है और इसीलिये मौलाए कायनात ने भी मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर इनकी अहमियत की तरफ़ इशारा किया है और इन पर ख़ास तवज्जो देने की हिदायत की है, लेकिन अवामुन्नास की एक बड़ी कमज़ोरी यह है के इनकी अकसरीयत अक़्ल व मन्तक़ से महरूम और जज़्बात व अवातिफ़ से मामूर होती है और इनके अकसर काम सिर्फ़ जज़्बात व एहसासात की बिना पर अन्जाम पाते हैं और इस तरह जो निज़ाम भी इनके जज़्बात व ख़्वाहिशात की ज़मानत दे देता है वह फ़ौरन कामयाब हो जाता है और अक़्ल व मन्तक़ का निज़ाम पीछे रह जाता है लेहाज़ा हज़रत ने चाहा के इस कमज़ोरी की तरफ़ भी मुतवज्जो कर दिया जाए ताके अरबाबे हल व ओक़द हमेशा उनके जज़्बाती और हंगामी वजूद पर एतमाद न करें बल्कि इसकी कमज़ोरियों पर भी निगाह रखें।)))
199-आपके पास एक मुजरिम को लाया गया जिसके साथ तमाशाइयों का हुजूम था तो फ़रमाया के “उन चेहरों पर फिटकार हो जो सिर्फ़ बुराई और रूसवाई के मौक़े पर नज़र आते हैं।
(((आम तौर से इन्सानों का मिज़ाज यही होता है के जहां किसी बुराई का मन्ज़र आता है फ़ौरन उसके गिर्द जमा हो जाते हैं, मस्जिद के नमाज़ियों का देखने वाला कोई नहीं होता है लेकिन क़ैदी का तमाशा देखने वाले हज़ारों निकल आते हैं और इस तरह इस जमा होने का कोई मक़सद भी नहीं होता, आापका मक़सद यह है के यह जमा होने वाला मजमा इबरत हासिल करने के लिये होता तो कोई बात नहीं थी मगर अफ़सोस के यह सिर्फ तमाशा देखने के लिये होता है और इन्सान के वक़्त का इससे कहीं ज़्यादा अहम मसरफ़ मौजूद है लेहाज़ा उसे इससी मसरफ़ में सर्फ़ करना चाहिये।)))
200- हर इन्सान के साथ दो मुहाफ़िज़ फ़रिश्ते रहते हैं लेकिन जब मौत का वक़्त आ जाता है तो दोनों साथ छोड़ कर चले जाते हैं गोया के मौत ही बेहतरीन सिपर हैं।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 201-220
201-जब तल्हा व ज़ुबैर ने यह तक़ाज़ा किया के हम बैअत कर सकते हैं लेकिन हमें शरीके कार बनाना पड़ेगा ? तो फ़रमाया के हरगिज़ नहीं, तुम सिर्फ़ क़ूवत पहुंचाने और हाथ बटाने में शरीक हो सकते हो और आजिज़ी और सख़्ती के मौक़े पर मददगार बन सकते हो।
202- लोगों! उस ख़ुदा से डरो जो तुम्हारी हर बात को सुनता है और हर राज़े दिल का जानने वाला है और इसस मौत की तरफ़ सबक़त करो जिससे भागना भी चाहो तो वह तुम्हें पा लेगी और ठहर जाओगे तो तुम्हारी गिरफ्त में ले लेगी और तुम उसे भूल भी जाओगे तो वह तुम्हें याद रखेगी।
203- ख़बरदार किसी शुक्रिया अदा न करने वाले की नालायक़ी तुम्हें कारे ख़ैर से बद्दिल न बना दे, हो सकता है के तुम्हारा शुक्रिया वह अदा कर दे जिसने इस नेमत से कोई फ़ायदा भी नहीं उठाया है और जिस क़द्र कुफ्ऱाने नेमत करने वाले ने तुम्हारा हक़ ज़ाया किया है उस शुक्रिया अदा करने वाले के शुक्रिया के बराबर हो जाए और वैसे भी अल्लाह नेक काम करने वालों को दोस्त रखता है।
(((अव्वलन तो कारे ख़ैर में शुक्रिया का इन्तेज़ार ही इन्सान के एख़लास को मजरूह बना देता है और उसके अमल का वह मरतबा नहीं रह जाता है जो खुदा की राह मे काम करने वाले लोगो का होता है जिसकी तरफ़ क़ुराने मजीद ने सूराए मुबारका दहर में इशारा किया है इसके बाद अगर इन्सान फ़ितरत से मजबूर है और फ़ितरी तौर पर शुक्रिया का ख़्वाहिशमन्द है तो मौलाए कायनात ने इसका भी इशारा दे दिया के हो सकता है के यह कमी दूसरे अफ़राद की तरफ़ से पूरी हो जाए और वह तुम्हारे कारे ख़ैर की क़द्रदानी करके शुक्रिया की कमी का तदारूक कर दें।)))
204- हर ज़र्फ़ (जगह) अपने सामान के लिये तंग हो सकता है, लेकिन इल्म का ज़र्फ़ इल्म के एतबार से बड़ा होता जाता है।
(((इल्म का ज़र्फ़ अक़्ल है और अक़्ल ग़ैर माद्दी होने के एतबार से यूँ भी बेपनाह वुसअत की मालिक है, इसके बाद मालिक ने इसमें यह सलाहियत भी रखी है के जिस क़द्र इल्म में इज़ाफ़ा होता जाएगा उसकी वुसअत किसी मरहले पर तमाम होने वाली नहीं है।)))
205-सब्र करने वाले का उसकी क़ूवते बर्दाश्त पर पहला अज्र यह मिलता है के लोग जाहिल के मुक़ाबले में इसके मददगार हो जाते हैं।
206- अगर तुम हक़ीक़त मे बुर्दबार नहीं भी हो तो बुर्दबारी का इज़हार करो के बहुत कम ऐसा होता है के कोई किसी क़ौम की शबाहत इख़्तेयार करे और उनमें से न हो जाए।
207- जो अपने नफ़्स का हिसाब करता रहता है वहीं फ़ायदे में रहता है और जो ग़ाफ़िल हो जाता है वहीं ख़सारे में रहता है। ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाला अज़ाब से महफ़ूज़ रहता है और इबरत हासिल करने वाला साहबे बसीरत होता है, बसीरत वाला फ़हीम होता है और फ़हीम ही गवर्नर हो जाता है।
208- यह दुनिया मुंहज़ोरी दिखाने के बाद एक दिन हमारी तरफ़ बहरहाल झुकेगी जिस तरह काटने वाली ऊंटनी को अपने बच्चे पर रहम आ जाता है इसके बाद आपने इस आयते करीमा की तिलावत फ़रमाई - “हम चाहते हैं के इन बन्दों पर एहसान करें जिन्हें रूए ज़मीन में कमज़ोर बना दिया है और उन्हें पेशवा क़रार दें और ज़मीन का वारिस बना दें।
(((यह एक हक़ीक़त है के किसी भी ज़ालिम में अगर अदना इन्सानियत पाई जाती है तो उसे एक दिन मज़लूम की मज़लूमियत का बहरहाल एहसास पैदा हो जाता है और उसके हाल पर मेहरबानी का इरादा करने लगता है चाहे हालात और मसालेह उसे इस मेहरबानी को मन्ज़िले अमल तक लाने से रोक दें, दुनिया कोई ऐसी जल्लाद व ज़ालिम नहीं है जिसे दूसरे को हटाकर अपनी जगह बनाने का ख़याल हो लेहाज़ा एक न एक दिन मज़लूम पर रहम करना है और ज़ालिमों को मन्ज़रे तारीख़ से हटाकर मज़लूमों को कुर्सीए रियासत पर बैठाना है यही खुदा का इरादा है और यही वादाए क़ुरानी है जिसके खि़लाफ़ का कोई इमकान नहीं पाया जाता है)))
209- अल्लाह से डरो उस शख़्स की तरह जिसने दुनिया छोड़कर दामन समेट लिया हो और दामन समेट कर कोशिश में लग गया हो, अच्छाइयों के लिये वक़्फ़ए मोहलत में तेज़ी के साथ चल पड़ा हो और ख़तरों के पेशे नज़र तेज़ क़दम बढ़ा दिया हो और अपनी क़रारगाह, अपने आमाल और काम के नतीजे पर नज़र रखी हो।
(((यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के तक़वा किसी ज़बानी जमाख़र्च का नाम है और न लिबास व ग़िज़ा की सादगी से इबारत है, तक़वा एक इन्तेहाई मन्ज़िले दुश्वार है जहां इन्सान को अलग अलग दरजो से गुज़रना पड़ता है, पहले दुनिया को छोड़ना पड़ता है, इसके बाद दामने अमल को समेट कर शुरू करना होता है और अच्छाइयों की तरफ़ तेज़ क़दम बढ़ाना पड़ते हैं, अपने काम के नतीजे पर निगाह रखना होती है और ख़तरात से बचने का इन्तेज़ाम करना पड़ता है, यह सारे मराहेल तय हो जाएं तो इन्सान मुत्तक़ी और परहेज़गार कहे जाने के क़ाबिल होता है।)))
210-सख़ावत इज़्ज़त व आबरू की निगेहबान है और बुर्दबारी अहमक़ के मुंह का बंद है, माफ़ी कामयाबी की ज़कात है और भूल जाना ग़द्दारी करने वाले का बदला है और मशविरा करना ऐने हिदायत है, जिसने अपनी राय ही पर एतमाद कर लिया उसने अपने को ख़तरे में डाल दिया। सब्र हवादिस का मुक़ाबला करता है और बेक़रारी ज़माने की मददगार साबित होती है। बेहतरीन दौलतमन्दी तमन्नाओं का छोड़ना है। कितनी ही ग़ुलाम अक़्लें हैं जो अमीरो की ख़्वाहिशात के नीचे दबी हुई हैं, तजुर्बात को महफ़ूज़ रखना तौफ़ीक़ की एक क़िस्म है और मोहब्बत एक खुदसाख्ता क़राबत है और ख़बरदार किसी रन्जीदा हो जाने वाले पर एतमाद न करना।
(((इस कलमए हिकमत में मौलाए कायनात (अ0) ने तेरह मुख़्तलिफ़ नसीहतों का ज़िक्र फ़रमाया है और इनमें हर नसीहत इन्सानी ज़िन्दगी का बेहतरीन जौहर है, काश इन्सान इसके एक-एक फ़िक़रे पर ग़ौर करे और ज़िन्दगी की तजुर्बागाह में इस्तेमाल करे तो उसे अन्दाज़ा होगा के एक मुकम्मल ज़िन्दगी गुज़ारने का ज़ाबेता क्या होता है और इन्सार किस तरह दुनिया व आख़ेरत के ख़ैर को हासिल कर लेता है।)))
211-इन्सान का ख़ुदपसन्दी में मुब्तिला हो जाना ख़ुद अपनी अक़्ल से हसद करना है।
212- आँखों के ख़स व ख़ाशाक और रन्जो अलम पर चश्मपोशी करो हमेशा ख़ुश रहोगे।
(((हक़ीक़ते अम्र यह है के दुनिया के हर ज़ुल्म का एक इलाज और दुनिया की हर मुसीबत का एक तोड़ है जिसका नाम है सब्र व तहम्मुल, इन्सान सिर्फ़ यह एक जौहर पैदा कर ले तो बड़ी से बड़ी मुसीबत का मुक़ाबला कर सकता है और किसी मरहले पर परेशान नहीं हो सकता है, रंजीदा व ग़मज़दा ही रहते हैं जिनके पास यह जौहर नहीं होता है और ख़ुशहाल व मुतमईन वही रहते हैं जिनके पास यह जौहर होता है और वह उसे इस्तेमाल करना भी जानते हैं)))
213- जिस दरख़्त की लकड़ी नर्म हो उसकी शाख़ें घनी होती हैं
(लेहाज़ा इन्सान को नर्म दिल होना चाहिये)।
(((कितना हसीन तजुर्बए हयात है जिससे एक देहाती इन्सान भी इस्तेफ़ादा कर सकता है के अगर परवरदिगार ने दरख़्तों में यह कमाल रखा है के जिन दरख़्तों की शाख़ों को घना बनाया है उनकी लकड़ी को नर्म बना दिया है तो इन्सान को भी इस हक़ीक़त से इबरत हासिल करनी चाहिये के अगर अपने एतराफ़ मुख़लेसीन का मजमा देखना चाहता है और अपने को बेसाया दरख़्त नहीं बनाना चाहता है तो अपनी तबीयत को नर्म बना दे ताके इसके सहारे लोग इसके गिर्द जमा हो जाएं और इसकी शख़्सियत एक घनेरे दरख़्त की हो जाए।)))
214-मुख़ालेफ़त सही राय को भी बरबाद कर देती है।
215- जो मन्सब पा लेता है वह दस्त दराज़ी करने लगता है।
((( किस क़द्र अफ़सोस की बात है के इन्सान परवरदिगार की नेमतों का शुक्रिया अदा करने के बजाए कुफ्ऱाने नेमत पर उतर आता है और उसके दिये हुए इक़्तेदार को दस्तदराज़ी में इस्तेमाल करने लगता है हालांके शराफ़त व इन्सानियत का तक़ाज़ा यही था के जिस तरह उसने साहबे क़ुदरत व क़ूवत होने के बाद इसके हाल पर रहम किया है इसी तरह इक़्तेदार पाने के बाद यह दूसरों के हाल पर रहम करे।)))
216-लोगों के जौहर (गुण) हालात के बदलने में पहचाने जाते हैं।
217- दोस्त का हसद करना मोहब्बत की कमज़ोरी है।
218- अक़्लों की तबाही की बेश्तर मन्ज़िलें हिर्स व लालच की बिजलियों के नीचे हैं।
(((हिर्स व लालच की चमक-दमक बाज़ औक़ात अक़्ल की निगाहों को भी खै़रा कर देती है और इन्सान नेक व बद के इम्तियाज़ से महरूम हो जाता है, लेहाज़ा दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यही है के अपने को हिर्स व लालच से दूर रखे और ज़िन्दगी का हर क़दम अक़्ल के ज़ेरे साया उठाए ताके किसी मरहले पर तबाह व बरबाद न होने पाए।)))
219- यह कोई इन्साफ़ नहीं है के सिर्फ़ ज़न व गुमान के एतमाद पर फ़ैसला कर दिया जाए।
((ज़न व गुमानः शक, एतमादः भरोसा))
220- रोज़े क़यामत के लिये सबसे खराब सफ़र का सामान ख़ुदा के बन्दो पर ज़ुल्म है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 221-240
221- करीम आदमी का बेहतरीन अमल जानकर भी अन्जान बन जाना है।
222- जिसे हया ने अपना लिबास ओढ़ा दिया उसके ऐब को कोई नहीं देख सकता है।
223- ज़्यादा ख़ामोशी हैबत का सबब बनती है और इन्साफ़ से दोस्तों में इज़ाफ़ा होता है, फ़ज़्ल व करम से क़द्र व मन्ज़िलत बलन्द होती है और तवाज़ोअ से नेमत मुकम्मल होती है दूसरों का बोझ उठाने से सरदारी हासिल होती है और इन्साफ़ पसन्द किरदार से दुश्मन पर ग़लबा हासिल किया जाता है, अहमक़ के मुक़ाबले में बुर्दबारी दिखाने से दोस्त ल मददगारो में इज़ाफ़ा होता है।
(((इस नसीहत में भी ज़िन्दगी के सात मसाएल की तरफ़ इशारा किया गया है और यह बताया गया है के इन्सान एक कामयाब ज़िन्दगी किस तरह गुज़ार सकता है और उसे इस दुनिया में बाइज़्ज़त ज़िन्दगी के लिये किन उसूल व क़वानीन को इख़्तेयार करना चाहिये।)))
224- हैरत की बात है के हसद करने वाले जिस्मों की सलामती पर हसद क्यों नहीं करते हैं
(दौलतमन्द की दौलत से हसद होता है और मज़दूर की सेहत से हसद नहीं होता है हालांके यह उससे बड़ी नेमत है)।
225- लालची हमेशा ज़िल्लत की क़ैद में गिरफ़्तार रहता है।
(((लालच में दो तरह की ज़िल्लत का सामना करना पड़ता है, एक तरफ़ इन्सान नफ़सियाती ज़िल्लत का शिकार रहता है के अपने को हक़ीर व फ़क़ीर तसव्वुर करता है और अपनी किसी भी दौलत का एहसास नहीं करता है और दूसरी तरफ़ दूसरे अफ़राद के सामने हिक़ारत व ज़िल्लत का इज़हार करता रहता है के शायद इसी तरह किसी को उसके हाल पर रहम आ जाए और वह उसके मुद्दआ के हुसूल की राह हमवार कर दे।)))
226- आपसे ईमान के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के ईमान दिल का अक़ीदा, ज़बान का इक़रार और जिस्म के आज़ा व जवारेह के अमल का नाम है।
(((अली (अ0) वालों को इस जुमले को बग़ौर देखना चाहिये के कुल्ले ईमान ने ईमान को अपनी ज़िन्दगी के सांचे में ढाल दिया है के जिस तरह आपकी ज़िन्दगी में इक़रार, तस्दीक़ और अमल के तीनों रूख़ पाए जाते थे वैसे ही आप हर साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल देखना चाहते हैं और इसके बग़ैर किसी को साहेबे ईमान तस्लीम करने के लिये तैयार नहीं हैं और खुली हुई बात है के बेअमल अगर साहबे ईमान नहीं हो सकता है तो कुल्ले ईमान का शीया और उनका मुख़लिस कैसे हो सकता है।)))
227- जो दुनिया के बारे में रन्जीदा होकर सुबह करे वह दरहक़ीक़त क़ज़ाए इलाही से नाराज़ है और जो सुबह उठते ही किसी नाज़िल होने वाली मुसीबत का शिकवा शुरू कर दे उसने दरहक़ीक़त परवरदिगार की शिकायत की है, जो किसी दौलतमन्द के सामने दौलत की बिना पर झुक जाए उसका दो तिहाई दीन बरबाद हो गया, और जो शख़्स क़ुरान पढ़ने के बावजूद मरकर जहन्नम वासिल हो जाए गोया उसने खुदा की निशानीयो का मज़ाक़ उड़ाया है, जिसका दिल मोहब्बते दुनिया मे खो जाए उसके दिल में यह तीन चीज़ें पेवस्त हो जाती हैं- वह ग़म जो उससे जुदा नहीं होता है, वह लालच जो उसका पीछा नहीं छोड़ती है और वह उम्मीद जिसे कभी हासिल नहीं कर सकता है।
(((इस मक़ाम पर अज़ीम नुकाते ज़िन्दगी की तरफ़ इशारा किया गया है लेहाज़ा इन्सान को उनकी तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये और सब्र व शुक्र के साथ ज़िन्दगी गुज़ारनी चाहिये, न शिकवा व फ़रयाद शुरू कर दे और न दौलत की ग़ुलामी पर आमादा हो जाए, क़ुरान पढ़े तो उस पर अमल भी करे और दुनिया में रहे तो उससे होशियार भी रहे)))
228- क़ेनाअत से बड़ी कोई सल्तनत और हुस्ने अख़लाक़ से बेहतर कोई नेमत नहीं है, आपसे दरयाफ़्त किया गया के “हम हयाते तय्यबा इनायत करेंगे।” इस आयत में हयाते तय्यबा से मुराद क्या है? फ़रमाया क़ेनाअत।
((क़ेनाअतः जितना मिल जाऐ उतने पर राज़ी हो जाना))
229- जिसकी तरफ़ रोज़ी का रूख़ हो उसके साथ शरीक हो जाओ के यह दौलतमन्दी पैदा करने का बेहतरीन ज़रिया और ख़ुश नसीबी का बेहतरीन क़रीना है।
230 आयते करीमा “इन्नल्लाहा या मोरो बिल अद्ल”में अद्ल इन्साफ़ है और एहसान फ़ज़्ल व करम। (((हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन का बयान है के मेरे इस्लाम में मज़बूती उस दिन पैदा हुई जब यह आयते करीमा नाज़िल हुई और मैंने जनाबे अबूतालिब से इस आयत का ज़िक्र किया और उन्होंने फ़रमाया के मेरा फ़रज़न्द मोहम्मद (स0) हमेशा बलन्दतरीन अख़लाक़ की बातें करता है लेहाज़ा इसकी पैरवी और इससे हिदायत हासिल करना तमाम क़ुरैश का फ़रीज़ा है।)))
231- जो आजिज़ हाथ से देता है उसे साहेबे इक़तेराद हाथ से मिलता है।
सय्यद रज़ी- जो शख़्स किसी कारे ख़ैर में मुख़्तसर माल भी ख़र्च करता है परवरदिगार उसकी जज़ा को अज़ीम व कसीर बना देता है, यहाँ दोनों “यद” से मुराद दोनों नेमतें हैं, बन्दे की नेमत को यदे क़सीरा कहा गया है और ख़ुदाई नेमत को यदे तवीला, इसलिये के अल्लाह की नेमतें बन्दों के मुक़ाबले में हज़ारों गुना ज़्यादा होती हैं और वही तमाम नेमतों की असल और सबका मरजअ व मन्शा होती हैं।
232- अपने फ़रज़न्द इमाम हसन (अ0) से फ़रमाया- तुम किसी को जंग की दावत न देना लेकिन जब कोई ललकार दे तो फ़ौरन जवाब दे देना के जंग की दावत देने वाला बाग़ी होता है और बाग़ी बहरहाल हलाक होने वाला है।
(((इस्लाम का तवाज़ुन अमल यही है के जंग में पहल न की जाए और जहां तक मुमकिन हो उसको नज़रअन्दाज़ किया जाए लेकिन इसके बाद अगर दुश्मन जंग की दावत दे दे तो उसे नज़र अन्दाज़ भी न किया जाए के इस तरह उसे इस्लाम की कमज़ोरी का एहसास पैदा हो जाएगा और उसके हौसले बलन्द हो जाएंगे, ज़रूरत इस बात की है के उसे यह महसूस करा दिया जाए के इस्लाम कमज़ोर नहीं है लेकिन पहल करना इसके एख़लाक़ी उसूल व आईन के खि़लाफ़ है)))
233- औरतों की बेहतरीन ख़सलतें जो मर्दों की बदतरीन ख़सलतें शुमार होती हैं, उनमें ग़ुरूर, बुज़दिली और कंजूसी है के औरत अगर मग़रूर होगी तो कोई उस पर क़ाबू न पा सकेगा और अगर बख़ील होगी तो अपने और अपने शौहर के माल की हिफ़ाज़त करेगी और अगर बुज़दिल होगी तो हर पेश आने वाले ख़तरे से ख़ौफ़ज़दा रहेगी।
(((यह तफ़सील इस अम्र की तरफ़ इशारा है के यह तीनों सिफ़ात उन्हीं बलन्दतरीन मक़ासिद की राह में महबूब हैं वरना ज़ाती तौर पर न ग़ुरूर महबूब हो सकता है और न कंजूसी व बुज़दिली। हर सिफ़त अपने मसरफ़ के एतबार से ख़ूबी या ख़राबी पैदा करती है। और औरत के यह सिफ़ात इन्हीं मक़ासिद के एतबार से पसन्दीदा हैं मुतलक़ तौर पर यह सिफ़ात किसी के लिये भी पसन्दीदा नहीं हो सकते हैं)))
234- आपसे गुज़ारिश की गई के मर्दे आक़िल की तौसीफ़ फ़रमाएं तो फ़रमाया के आक़िल वह है जो हर चीज़ को उसकी जगह पर रखता है, अर्ज़ किया गया फिर जाहिल की तारीफ़ क्या है- फ़रमाया यह तो मैं बयान कर चुका।
सय्यद रज़ी - मक़सद यह है के जाहिल वह है जो हर चीज़ को बेमहल रखता है और इसका बयान न करना ही एक तरह का बयान है के वह आक़िल की ज़िद है।
235-ख़ुदा की क़सम यह तुम्हारी दुनिया मेंरी नज़र में कोढ़ी के हाथ में सुअर की हड्डी से भी बदतर है। (((एक तो सुअर जैसे नजिसुल ऐन जानवर की हड्डी और वह भी कोढ़ी इन्सान के हाथ में। इससे ज़्यादा नफ़रत अंगेज़ चीज़ दुनिया में क्या हो सकती है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इस ताबीर से इस्लाम और अक़्ल दोनों के तालीमात की तरफ़ मुतवज्जो किया है के इस्लाम नजिसुल ऐन से इज्तेनाब की दावत देता है और अक़्ल मोतादी इमराज़ के मरीज़ों से बचने की दावत देती है। ऐसे हालात में अगर कोई शख़्स दुनिया पर टूट पड़े तो न मुसलमान कहे जाने के क़ाबिल है और न साहेबे अक़्ल।)))
236-एक क़ौम सवाब की लालच में इबादत करती है तो यह ताजिरों की इबादत है और एक क़ौम अज़ाब के ख़ौफ़ से इबादत करती है तो यह ग़ुलामों की इबादत है, अस्ल वह क़ौम है जो शुक्रे ख़ुदा के उनवान से इबादत करती है और यही आज़ाद लोगों की इबादत है।
237- औरत सरापा शर है और इसकी सबसे बड़ी बुराई यह है के इसके बग़ैर काम भी नहीं चल सकता है। (((बाज़ हज़रात का ख़याल है के हज़रत का यह इशारा किसी “ख़ास औरत” की तरफ़ है वरना यह बात क़रीने क़यास नहीं है के औरत की सिन्फ़ को शर क़रार दिया जाए और उसे इस हिक़ारत की नज़र से देखा जाए “ला बदमिनहा” इस रिश्ते की तरफ़ इशारा हो सकता है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है और उनके बग़ैर ज़िन्दगी को अधूरा और नामुकम्मल क़रार दिया गया है। और अगर बात उमूमी है तो औरत का शर होना उसकी ज़ात या उसके किरदार के नुक़्स की बुनियाद पर नहीं है बल्कि उसकी बुनियाद सिर्फ़ उसकी ज़रूरत और उसके सरापा का इन्सानी जिन्दगी पर तसल्लत है के मर्द किसी वक़्त भी उससे बेनियाज़ नहीं हो सकता है और इस तरह अकसर औक़ात उसके सामने सरे तस्लीम ख़म करने के लिये तैयार हो जाता है। ज़रूरत इस बात की है के मर्द उसके अन्दर पाए जाने वाले जज़्बात और एहसासात की संगीनी की तरफ़ मुतवज्जो रहे और यह ख़याल रखे के इसके जज़्बात व ख़्वाहिशात के आगे सिपरअन्दाख़्ता हो जाना पूरे समाज और मुआशरे की तबाही का बाएस हो सकता है। इसके शर होने में एक हिस्सा उसके जज़्बात व ख़्वाहिशात का है और एक हिस्सा उसके वजूद की ज़रूरत का है जिससे कोई इन्सान बेनियाज़ नहीं हो सकता है और किसी वक़्त भी इसके सामने सिपरअन्दाख़्ता हो सकता है।)))
238- जो शख़्स काहेली और सुस्ती से काम लेता है वह अपने हुक़ूक़ को भी बरबाद कर देता है और जो चुग़लख़ोर की बात मान लेता है वह दोस्तों को भी खो बैठता है।
239- घर में एक पत्भर भी ग़स्बी लगा हो तो वह उसकी बरबादी की ज़मानत है।
सय्यद रज़ी - इस कलाम को रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है के दोनों का सरचश्माए इल्म एक ही है।
240- मज़लूम का दिन (क़यामत) ज़ालिम के लिये उस दिन से सख़्ततर होता है जो ज़ालिम का मज़लूम के लिये होता है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 241-260
241- अल्लाह से डरते रहो चाहे मुख़्तसर ही क्यों न हो और अपने और उसके दरम्यान पर्दा रखो चाहे बारीक ही क्यों न हो।
242- जब जवाबात की कसरत हो जाती है तो अस्ल बात गुम हो जाती है।
243- अल्लाह का हर नेमत में एक हक़ है जो उसे अदा कर देगा अल्लाह उसकी नेमत को बढ़ा देगा और जो कोताही करेगा वह मौजूदा नेमत को भी ख़तरे में डाल देगा।
244-जब ताक़त ज़्यादा हो जाती है तो ख़्वाहिश कम हो जाती है।
(((जब फ़ितरत का यह निज़ाम है के कमज़ोर आदमी में ख़्वाहिश ज़्यादा होती है और ताक़तवर इस क़द्र ख़्वाहिशात का हामिल नहीं होता है तो सियासी दुनिया में भी इन्सान का तर्ज़े अमल वैसा ही होना चाहिये के जिस क़द्र ताक़त व क़ूवत में इज़ाफ़ा होता जाए अपने को ख़्वाहिशाते दुनिया से बे नियाज़ बनाता जाए और अपने किरदार से साबित कर दे के उसकी ज़िन्दगी निज़ामे फ़ितरत से अलग और जुदागाना नहीं है)))
245- नेमतों के ज़वाल से डरते रहो के हर बेक़ाबू होकर निकल जाने वाली चीज़ वापस नहीं आया करती है।
246- जज़्बए करम क़राबतदारी से ज़्यादा मेहरबानी का वजह होता है।
247- जो तुम्हारे बारे में अच्छा ख़याल रखता हो उसके ख़याल को सच्चा करके दिखला दो।
(((ह|य इन्सानी ज़िन्दगी का इन्तेहाई हस्सास नुक्ता है के इन्सान आम तौर से लोगों को हुस्ने ज़न में मुब्तिला कर उससे ग़लत फ़ायदा उठाने की कोशिश करता है और उसे यह ख़याल पैदा हो जाता है के जब लोग शराबख़ाने में देख कर भी यही तसव्वुर करेंगे के तबलीग़े मज़हब के लिये गए थे तो शराब ख़ाने से फ़ायदा उठा लेना चाहिये हालांके तक़ाज़ाए अक़्ल व दानिश और मुक़तज़ाए शराफ़त व इन्सानियत यह है के लोग जिस क़द्र शरीफ़ तसव्वुर करते हैं उतनी शराफ़त का इसाबात करे और उनके हुस्ने ज़न को सूए ज़न में तब्दील न होने दें)))
248- बेहतरीन अमल वह है जिस पर तुम्हें अपने नफ़्स को मजबूर करना पड़े।
(((इन्सान तमाम आमाल को नफ़्स की ख़्वाहिश के मुताबिक़ अन्जाम देगा तो एक दिन नफ़्स का ग़ुलाम होकर रह जाएगा लेहाज़ा ज़रूरत है के ऐसे अमल अन्जाम देता रहे जहां नफ़्स पर जब्र करना पड़े और उसे इसकी औक़ात से आश्ना बनाता रहे ताके उसके हौसले इस क़द्र बलन्द न हो जाएं के इन्सान को मुकम्मल तौर पर अपनी गिरफ़्त में ले ले और फिर निजात का कोई रास्ता न रह जाए।
249- मैंने परवरदिगार को इरादों के टूट जाने, नीयतों के बदल जाने और हिम्मतों के पस्त हो जाने से पहचाना है।
250- दुनिया की तल्ख़ी आख़ेरत की शीरीनी है और दुनिया की शीरीनी आख़ेरत की तल्ख़ी है।
251- अल्लाह ने ईमान को लाज़िम क़रार दिया है शिर्क से पाक करने के लिये, और नमाज़ को वाजिब किया है ग़ुरूर से बाज़ रखने के लिये, ज़कात को रिज़्क़ का वसीला क़रार दिया है और रोज़े को आज़माइशे इख़लास का वसीला, जेहाद को इस्लाम की इज़्ज़त के लिये रखा है और अम्रे बिलमारूफ़ को अवाम की मसलेहत के लिये, नहीं अनिल मुन्किर को बेवक़ूफ़ों को बुराइयों से रोकने के लिये वाजिब किया है और सिलए रहम अदद में इज़ाफ़ा करने के लिये, क़सास ख़ून के तहफ़्फ़ुज़ का वसीला है और हुदूद का क़याम मोहर्रमात की अहमियत के समझाने का ज़रिया, शराब ख़्वारी को अक़्ल की हिफ़ाज़त के लिये हराम क़रार दिया है और चोरी से इज्तेनाब को इफ़त की हिफ़ाज़त के लिये लाज़िम क़रार दिया है। तर्के ज़िना का लज़ूम नसब की हिफ़ाज़त के लिये और तर्के लवात की ज़रूरत नस्ल की बक़ा के लिये है, गवाहियों को इन्कार के मुक़ाबले में सबूत का ज़रिया क़रार दिया गया है और तर्के कज़्ब को सिद्क़ की शराफ़त का वसीला ठहरा दिया गया है क़यामे अम्न को ख़तरों से तहफ़्फ़ुज़ के लिये रखा गया है और इमामत को मिल्लत की तन्ज़ीम का वसीला क़रार दिया गया है और फ़िर इताअत को अज़मते इमामत की निशानी क़रार दिया गया है।
(((यह इस्लाम का आलमे इन्सानियत पर उमूमी एहसान है के उसने अपने क़वानीन के ज़रिये इन्सानी आबादी को बढ़ाने का इन्तेज़ाम किया है और फ़िर हराम ज़ादों की दर आमद को रोक दिया है। ताके आलमे इन्सानियत में शरीफ़ अफ़राद पैदा हों और यह आलम हर क़िस्म की बरबादी और तबाहकारी से महफ़ूज़ रहे, इसके बाद इसका सिन्फ़े निसवां पर ख़ुसूसी एहसान यह है के इसने औरत के अलावा जिन्सी तस्कीन के हर रास्ते को बन्द कर दिया है, खुली हुई बात है के इन्सान में जब जिन्सी हैजान पैदा होता है तो उसे औरत की ज़रूरत का एहसास पैदा होता है और किसी भी तरीक़े से ज बवह हैजानी माद्दा निकल जाता है तो किसी मिक़दार में सुकून हासिल हो जाता है और जज़्बात का तूफ़ान रूक जाता है, अहले दुनिया ने इस माद्दे के एख़राज के मुख़्तलिफ़ तरीक़े ईजाद किये हैं अपनी जिन्स का कोई मिल जाता है तो हम जिन्सी से तस्कीन हासिल कर लेते हैं और अगर कोई नहीं मिलता है तो ख़ुदकारी का अमल अन्जाम दे लेते हैं और इस तरह औरत की ज़रूरत से बेनियाज़ हो जाते हैं और यही वजह है के आज आज़ाद मुआशरों में औरत अज़ो मोअतल होकर रह गई है और हज़ार वसाएल इख़्तेयार करने के बाद भी इसके तलबगारों की फ़ेहरिस्त कम से कमतर होती जा रही है। इस्लाम ने इस ख़तरनाक सूरतेहाल से मुक़ाबला करने के लिये मुजामेअत के अलावा हर वसीलए तस्कीन को हराम कर दिया है ताके मर्द औरत के वजूद से बेनियाज़ न होने पाए और औरत का वजूद मुआशरे में ग़़ैर ज़रूरी न क़रार पा जाए। अफ़सोस के इस आज़ादी और अय्याशी की मारी हुई दुनिया में इस पाकीज़ा तसव्वुर का क़द्रदान कोई नहीं है और सब इस्लाम पर औरत की नाक़द्री का इल्ज़ाम लगाते हैं, गोया उनकी नज़र में उसे खिलौना बना लेना और खेलने के बाद फेंक देना ही सबसे बड़ी क़द्रे ज़ाती है।)))
252- किसी ज़ालिम से क़सम लेना हो तो इस तरह क़सम लो के वह परवरदिगार की ताक़त और क़ूवत से बेज़ार है अगर इसका बयान सही न हो के अगर इस तह झूठी क़सम खाएगा तो फ़ौरन मुब्तिलाए अज़ाब हो जाएगा आर अगर ख़ुदाए वहदहू लाशरीक के नाम की क़सम खाई तो अज़ाब में उजलत न होगी के बहरहाल तौहीदे परवरदिगार का इक़रार कर लिया।
253- फ़रज़न्दे आदम (अ0)! अपने माल में अपना वसी ख़ुद बन और वह काम ख़ुद अन्जाम दे जिसके बारे में उम्मीद रखता है के लोग तेरे बाद अन्जाम दे देंगे।
254- ग़ुस्सा जुनून की एक क़िस्म है के ग़ुस्सावर को बाद में शरमिंदा होना पड़ता है और शरमिंदा न हो तो वाक़ेअन उसका जुनून मुस्तहकम है।
255-बदन की सेहत का एक ज़रिया हसद की क़िल्लत भी है।
256-ऐ कुमैल! अपने घरवालों को हुक्म दो के अच्छी ख़सलतों को तलाश करने के लिये दिन में निकलें और सो जाने वालों की हाजत रवाई के लिये रात में क़याम करें। क़सम है उस ज़ात की जात हर आवाज़ की सुनने वाली है के कोई शख़्स किसी दिल में सुरूर वारिद नहीं करता है मगर यह के परवरदिगार उसके लिये उस सुरूर से एक लुत्फ़ पैदा कर देता है के इसके बाद अगर इस पर कोई मुसीबत नाज़िल होती है तो वह नशेब में बहने वाले पानी की तरह तेज़ी से बढ़े और अजनबी ऊंटों को हंकाने की तरह उस मुसीबत को हंका कर दूर कर दे।
257-जब तंगदस्त हो जाओ तो सदक़े के ज़रिये अल्लाह से व्यापार करो।
258-ग़द्दारों से वफ़ा करना अल्लाह के नज़दीक ग़द्दारी है, और ग़द्दारों के साथ ग़द्दारी करना अल्लाह के नज़दीक ऐने वफ़ा है।
259- कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेमतें देकर रफ़्ता रफ़्ता अज़ाब का मुस्तहक़ बनाया जाता है और कितने ही लोग ऐसे हैं जो अल्लाह की परदापोशी से धोका खाए हुए हैं और अपने बारे में अच्छे अलफ़ाज़ सुनकर फ़रेब में पड़ गए और मोहलत देने से ज़्यादा अल्लाह की जानिब से कोई बड़ी आज़माइश नहीं।
सय्यद रज़ी- कहते हैं के यह कलाम पहले भी गुज़र चुका है मगर यहाँ इसमें कुछ उमदा और मुफ़ीद इज़ाफ़ा है।”
फ़स्ल
इस फ़स्ल में हज़रत के उन कलेमात को नक़्ल किया गया है जो मोहताजे तफ़सीर थे और फिर उनकी तफ़सीर व तौज़ीह को भी नक़्ल किया गया है।
1-जब वह वक़्त आएगा तो दीन का यासूब अपनी जगह पर क़रार पाएगा और लोग उसके पास इस तरह जमा होंगे जिस तरह मौसमे ख़रीफ़ के क़ज़अ
सय्यद रज़ी-यासूब उस मुरदार को कहा जाता है जो तमाम काम का ज़िम्मेदार होता है और कज़अ बादलों के उन टुकड़ों का नाम है जिनमें पानी न हो।
(((यासूब शहद की मक्खियों के सरबराह को कहते हैं और “यासूबुद्दीन” (हाकिमे दीन व शरीअत) से मुराद हज़रत हुज्जत (अ0) हैं।
2- यह खतीब शहशह (सासा बिन सौहान अबदी) — शहशह उस ख़तीब को कहते हैं जो खि़ताबत में माहिर होता है और ज़बानआवरी या रफ़्तार में तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसके अलावा दूसरे मुक़ामात पर शहशह बख़ील और कन्जूस के मानी में इस्तेमाल होता है।
3- लड़ाई झगड़े के नतीजे में क़ोहम होते हैं। —क़ोहम से मुराद तबाहियाँ हैं के यह लोगों को हलाकतों में गिरा देती हैं और उसी से लफ़्ज़े “कहमतुल अराब”निकला है, जब ऐसा महत पड़ जाता है के जानवर सिर्फ़ हड्डियों का ढांचा रह जाते हैं और गोया यह उस बला में ढकेल दिये जाते हैं या दूसरे एतबार से क़हतसाली इनको सहराओं से निकालकर शहरों की तरफ़ ढकेल देती है।
4-जब लड़कियां नस्सुलहक़ाक़ (नस्स- आखि़री मन्ज़िल को कहा जाता है) तक पहुँच जाएँ तो उनके लिये दो हयाली रिश्तेदार ज़्यादा हक़ रखते हैं।
नस्सतुलरजल- यानी जहाँ तक मुमकिन था उससे सवाल कर लिया, सस्सुलहकाक़ से मुराद मन्ज़िले इदराक है जो बचपने की आखि़री हद है और यह इस सिलसिले का बेहतरीन कनाया है जिसका मक़सद यह है के जब लड़कियां हद्दे बलूग़ तक पहुंच जाएं तो दो हयाली रिश्तेदार जो महरम भी हों जैसे भाई और चचा वग़ैरह उसका रिश्ता करने के लिये माँ के मुक़ाबले में ज़्यादा हक़ (उलूवियत) रखते हैं और हक़ाक़ से माँ का इन रिश्तेदारों से झगड़ा करना और हर एक का अपने को ज़्यादा हक़दार साबित करना मुराद है जिसके लिये कहा जाता है “हाक़क़तह हकाक़न” - “जादेलतह जेदाला”।
और बाज़ लोगों का कहना है के नस्सुल हक़ाक़ कमाले अक़्ल है जब लड़की इदराक की उस मन्ज़िल पर होती है जहां उसके ज़िम्मे फ़राएज़ व एहकाम साबित हो जाते हैं और जिन लोगों ने नस्सुल हक़ाएक़ नक़्ल किया है। इनके यहाँ हक़ाएक़ हक़ीक़त की जमा है यह सारी बातें अबू उबैदुल कासिम बिन सलाम ने बयान की हैं लेकिन मेरे नज़दीक औरत का क़ाबिले शादी और क़ाबिले तसर्रूफ़ हो जाना मुराद है के हक़ाएक़ हिक़्क़ा की जमा है और हिक़्क़ा वह ऊँटनी है जो चैथे साल में दाखि़ल हो जाए और उस वक़्त सवारी के क़ाबिल हो जाती है और हक़ाएक भी हिक़्क़ा ही के जमा के तौर पर इस्तेमाल होता है और यह मफ़हूम अरब के असलूबे कमाल से ज़्यादा हम आहंग है।
5- ईमान एक लुम्ज़ा की शक्ल में ज़ाहिर होता है और फिर ईमान के साथ यह लुम्ज़ा भी बढ़ता रहता है। (लुम्ज़ा सफ़ेद नुक़्ता होता है जो घोड़े के होंट पर ज़ाहिर होता है)
6- जब किसी शख़्स को देने ज़नून मिल जाए तो जितने साल गुज़र गए हों उनकी ज़कात वाजिब है।
ज़नून उस क़र्ज़ का नाम है जिसके कर्ज़दार को यह न मालूम हो के वह वसूल भी हो सकेगा या नहीं और इस तरह तरह-तरह के ख़यालात पैदा होते रहते हैं और इसी बुनियाद पर हर ऐसे अम्र को ज़नून कहा जाता है जैसा के अश्या ने कहा हैः “वह जुद ((जुद- सहरा के पुराने कनवीं को कहा जाता है और ज़नून उसको कहा जाता है जिसके बारे में यह न मालूम हो के इसमें पानी है या नहीं)) ज़नून है जो गरज कर बरसने वाले अब्र की बारिश से भी महरूम हो, उसे दरियाए फ़ुरात के मानिन्द नहीं क़रार दिया जा सकता है जबके वह ठाठें मार रहा हो और किश्ती और तैराक दोनों को ढकेल कर बाहर फेंक रहा हो”
7- आपने एक लशकर को मैदाने जंग में भेजते हुए फ़रमाया- जहां तक मुमकिन हो औरतों से आज़ब रहो ((यानी उनकी याद से दूर रहो)), उनमें दिल मत लगाओ और उनसे मुक़ारेबत मत करो के यह तरीक़ए कार बाज़ुए हमीयत में कमज़ोरी और अज़्म की पुख़्तगी में सुस्ती पैदा कर देता है और दुश्मन के मुक़ाबले में कमज़ोर बना देता है और जंग में कोशिशे वुसई से रूगर्दां कर देता है और जो उन तमाम चीज़ों से अलग रहता है उसे आज़ब कहा जाता है, आज़ब या उज़ू़ब खाने पीने से दूर रहने वाले को भी कहा जाता है।))
8-वह उस यासिर फ़ालिज के मानिन्द है जो जुए के तीरों का पांसा फेंककर पहले ही मरहले पर कामयाबी की उम्मीद लगा लेता है —
“यासिरून” वह लोग हैं जो नहर की हुई ऊंटनी पर जुए के तीरों का पांसा फेंकते हैं और फ़ालिज उनमें कामयाब हो जाने वाले को कहा जाता है। “फ़लज अलैहिम” या “फलजहुम” उस मौक़े पर इस्तेमाल होता है जब कोई ग़ालिब आ जाता है जैसा के रिज्ज़ ख़्वाँ शाएर ने कहा हैः “जब मैंने किसी फ़ालिज को देखा के वह कामयाब हो गया”
9- “जब अहमरअरबास होता था (दुश्मन का ख़तरा बढ़ जाता था) तो लोग रसूले अकरम की पनाह में रहा करते थे और कोई शख़्स भी आपसे ज़्यादा दुश्मन से क़रीब नहीं होता था।”
(((पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का कमाले एहतेराम है के हज़रत अली (अ0) जैसे अश्जअ अरब ने आपके बारे में यह बयान दिया है और आपकी अज़मत व हैबत व शुजाअत का एलान किया है, दूसरा कोई होता तो उसके बरअक्स बयान करता के मैदाने जंग में सरकार हमारी पनाह में रहा करते थे और हम न होते तो आपका ख़ात्मा हो जाता लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) जैसा साहबे किरदार इस अन्दाज़ का बयान नहीं दे सकता है और न यह सोच सकता है। आपकी नज़र में इन्सान कितना ही बलन्द किरदार और साहेबे ताक़त व हिम्मत क्यों न हो जाए, सरकारे दो आलम (अ0) का उम्मती ही शुमार होगा और उम्मती का मर्तबा पैग़म्बर (स0) से बलन्दतर नहीं हो सकता))) इसका मतलब यह है के जब दुश्मन का ख़तरा बढ़ जाता था और जंग की काट शदीद हो जाती थी तो मुसलमान मैदान में रसूले अकरम (स0) की पनाह तलाश किया करते थे और आप पर नुसरते इलाही का नुज़ूल हो जाता था और मुसलमानों को अम्न व अमान हासिल हो जाता था। अहमरअरबास दर हक़ीक़त सख़्ती का केनाया है जिसके बारे में मुख़्तलिफ़ अक़वाल पाए जाते हैं और सबसे बेहतर क़ौल यह है के जंग की तेज़ी और गर्मी को आगणन के तश्बीह दी गई है जिसमें गर्मी और सुखऱ्ी दोनों होती हैं और इसका मवीद सरकारे दो आलम (स0) का यह इरशाद है के आपने हुनैन के दिन क़बीलए बनी हवाज़न की जंग में लोगों को जंग करते देखा तो फ़रमाया के अब वतीस गर्म हो गया है यानी आपने मैदाने कारज़ार की गर्म बाज़ारी को आग के भड़कने और उसके शोले से तश्बीह दी है के वतीस उस जगह को कहते हैं जहाँ आग भड़काई जाती है।
260- जब आपको इत्तेला दी गई के माविया के असहाब ने अम्बार पर हमला कर दिया है तो आप ब-नफ़्से नफ़ीस निकल कर नख़ीला तक तशरीफ़ ले गए और कुछ लोग भी आपके साथ पहुंच गए और कहने लगे के आप तशरीफ़ रखें। हम लोग उन दुश्मनों के लिये काफ़ी हैं तो आपने फ़रमाया के तुम लोग अपने लिये काफ़ी नहीं हो दुश्मन के लिये क्या काफ़ी हो सकते हो? तुमसे पहले जनता हुक्काम के ज़ुल्म से फ़रियादी थी और आज मैं जनता के ज़ुल्म से फ़रयाद कर रहा हूँ, जैसे के यही लोग क़ाएद हैं और मैं जनता हूँ। मैं हलक़ाबगोश हूँ और यह फ़रमान रवा।
जिस वक़्त आपने यह कलाम इरशाद फ़रमाया जिसका एक हिस्सा ख़ुतबे के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है तो आपके असहाब में से दो अफ़राद आगे बढ़े जिनमें से एक ने कहा के मैं अपना और अपने भाई का ज़िम्मेदार हूँ। आप हुक्म दें हम तामील के लिये तैयार हैं, आपने फ़रमाया के मैं जो कुछ चाहता हूँ तुम्हारा उससे क्या ताल्लुक़ है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 261-280
261-कहा जाता है के हारिस बिन जोत ने आपके पास आकर यह कहा के क्या आपका यह ख़्याल है के मैं असहाबे जमल को गुमराह मान लूँगा ? तो आपने फ़रमाया के हारिस! तुमने अपने नीचे की तरफ़ देखा है इसलिये हैरान हो गए हो, तुम हक़ ही को नहीं पहचानते हो तो क्या जानो के हक़दार कौन है और बातिल ही को नहीं जानते हो तो क्या जानो के बातिल परस्त कौन है? हारिस ने कहा के मैं सईद बिन मालिक और अब्दुल्लाह बिन उमर के साथ गोशानशीन हो जाऊंगा तो आपने फ़रमाया के सईद और अब्दुल्लाह बिन उमर ने हक़ की मदद की है और न बातिल को नज़रअन्दाज़ किया है (न इधर के हुए न उधर के हुए)
(((यह बात उस शख़्स से कही जाती है जिसकी निगाह इन्तेहाई महदूद होती है और अपने ज़ेरे क़दम चीज़ो से ज़्यादा देखने की सलाहियत नहीं रखता है वरना इन्सान की निगाह बलन्द हो जाए तो बहुत से हक़ाएक़ का इदराक कर सकती है, हारिस का सबसे बड़ा ऐब यह है के उसने सिर्फ़ उम्मुल मोमेनीन की ज़ौजियत पर निगाह की है और तलहा व ज़ुबैर की सहाबियत पर, और ऐसी महदूद निगाह रखने वाला इन्सान हक़ाएक़ का इदराक नहीं कर सकता है। हक़ाएक़ का मेयार क़ुरान व सुन्नत है जिसमें ज़ौजा को घर में बैठने की तलक़ीन की गई है और इन्सान को बैअत शिकनी से मना किया गया है। हक़ाएक़ का मेयार किसी की ज़ौजियत या सहाबियत नहीं है, वरना ज़ौजाए नूह (अ0) और ज़ौजाए लूत (अ0) को क़ाबिले मज़म्मत न क़रार दिया जाता और असहाबे मूसा की सरीही मज़म्मत न की जाती।”)))
262- बादशाह का साथ बैठने वाला शेर का सवार होता है के लोग उसके हालात पर रश्क करते हैं और वह ख़ुद अपनी हालत को बेहतर पहचानता है।
(((हक़ीक़ते अम्र यह है के मसाहेबत की ज़िन्दगी देखने में इन्तेहाई हसीन दिखाई देती है के सारा अम्र व नहीं का निज़ाम बज़ाहिर मसाहेब के हाथ में होता है लेकिन उसकी वाक़ई हैसियत क्या होती है यह उसी का दिल जानता है के न साहेबे इक़्तेदार के मिज़ाज का कोई भरोसा होता है और न मसाहेबत के ओहदए इक़्तेदार का। रब्बे करीम हर इन्सान को ऐसी बलाओं से महफ़ूज़ रखे जिनका ज़ाहिर इन्तेहाई हसीन होता है और वाक़ेई इन्तेहाई संगीन और ख़तरनाक।)))
263- दूसरों के पसमान्दगान से अच्छा बरताव करूं ताके लोग तुम्हारे पसमान्दगान के साथ भी अच्छा बरताव करें।
264- होकमा का कलाम दुरूस्त होता है तो दवा बन जाता है और ग़लत होता है तो बीमारी बन जाता है।
265- एक शख़्स ने आपसे मुतालबा किया के ईमान की तारीफ़ फ़रमाएं, तो फ़रमाया के कल आना तो मैं मजमए आम में बयान करूंगा ताके तुम भूल जाओ तो दूसरे लोग महफ़ूज़ रख सकें इसलिये के कलाम भड़के हुए शिकार के मानिन्द होता है के एक पकड़ लेता है और एक के हाथ से निकल जाता है
(मुफ़स्सल जवाब इससे पहले ईमान के शोबों के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है।)
266-फ़रज़न्दे आदम! उस दिन का ग़म जो अभी नहीं आया है उस दिन पर मत डालो जो आ चुका है के अगर वह तुम्हारी उम्र में शामिल होगा तो उसका रिज़्क़ भी उसके साथ ही आएगा।
267- अपने दोस्त से एक महदूद हद तक दोस्ती करो, कहीं ऐसा न हो के एक दिन दुश्मन हो जाए और दुश्मन से भी एक हद तक दुश्मनी करो शायद एक दिन दोस्त बन जाए (तो शर्मिन्दगी न हो)।
(((यह एक इन्तेहाई अज़ीम मुआशेरती नुक्ता है जिसका अन्दाज़ा हर उस इन्सान को है जिसने मुआशरे में आंख खोल कर ज़िन्दगी गुज़ारी है और अन्धों जैसी ज़िन्दगी नहीं गुज़ारी है। इस दुनिया के सर्द व गर्म का तक़ाज़ा यही है के यहाँ अफ़राद से मिलना भी पड़ता है और कभी अलग भी होना पड़ता है लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्लमन्दी यही है के ज़िन्दगी में ऐसा एतदाल रखे के अगर अलग होना पड़े तो सारे इसरार दूसरे के क़ब्ज़े में न हों के उसका ग़ुलाम बन कर रह जाए और अगर मिलना पड़े तो ऐसे हालात न हों के शर्मिन्दगी के अलावा और कुछ हाथ न आए।)))
268- दुनिया में दो तरह के अमल करने वाले पाए जाते हैं, एक वह है जो दुनिया ही के लिये काम करता है और उसे दुनिया ने आख़ेरत से ग़ाफ़िल बना दिया है। वह अपने बाद वालों के फ़क़्र से ख़ौफ़ज़दा रहता है और अपने बारे में बिल्कुल मुतमईन रहता है, नतीजा यह होता है के सारी ज़िन्दगी दूसरों के फ़ायदे के लिये फ़ना कर देता है और एक शख़्स वह होता है जो दुनिया में उसके बाद के लिये अमल करता है और उसे दुनिया बग़ैर अमल के मिल जाती है। वह दुनिया व आख़ेरत दोनों को पा लेता है और दोनों घरों का मालिक हो जाता है। ख़ुदा की बारगाह में सुरख़ुरू हो जाता है और किसी भी हाजत का सवाल करता है तो परवरदिगार उसे पूरा कर देता है।
(((दौरे क़दीम में इसका नाम दूर अन्देशी रखा जाता था जहां इन्सान सुबह व शाम मेहनत करने के बावजूद न माल अपनी दुनिया पर सर्फ़ करता था और न आख़ेरत पर। बल्कि अपने वारिसों के लिये ज़ख़ीरा बनाकर चला जाता था, इस ग़रीब को यह एहसास भी नहीं था के जब उसे ख़ुद अपनी आक़ेबत बनाने की फ़िक्र नहीं है तो वोरसा को उसकी आक़ेबत से क्या दिलचस्पी हो सकती है, वह तो एक माले ग़नीमत के मालिक हो गए हैं और जिस तरह चाहेंगे उसी तरह सर्फ़ करेंगे।)))
269- रिवायत में वारिद हुआ है के उमर बिन ख़त्ताब के दौरे हुकूमत में उससे ख़ानाए काबा के ज़ेवरात की कसरत का ज़िक्र किया गया और एक क़ौम ने यह तक़ाज़ा किया के अगर आप उन ज़ेवरात को मुसलमानों के लशकर पर सर्फ़ कर दे तो बहुत बड़ा अज्र व सवाब मिलेगा, काबे को उन ज़ेवरात की क्या ज़रूरत है? तो उन्होंने इस राय को पसन्द करते हुए हज़रत अमीर (अ0) से दरयाफ़्त कर लिया। आपने फ़रमाया के यह क़ुरान पैग़म्बरे इस्लाम पर नाज़िल हुआ है और आपके दौर में अमवाल की चार क़िस्में थीं। एक मुसलमान का ज़ाती माल था जिसे हस्बे फ़राएज़ वोरसा में तक़सीम कर दिया करते थे। एक बैतुलमाल का माल था जिसे मुस्तहक़ीन में तक़सीम करते थे। एक ख़ुम्स था जिसे उसके हक़दारों के हवाले कर देते थे और कुछ सदक़ात थे जिन्हें उनके महल पर सर्फ़ किया करते थे। काबे के ज़ेवरात उस वक़्त भी मौजूद थे और परवरदिगार ने उन्हें इसी हालत में छोड़ रखा था न रसूले अकरम (स0) उन्हें भूले थे और न उनका वजूद आपसे पोशीदा था, लेहाज़ा आप उन्हें इसी हालत पर रहने दें जिस हालत पर ख़ुदा और रसूल ने रखा है, यह सुनना था के उमर ने कहा आज अगर आप न होते तो मैं रूसवा हो गया होता और यह कहकर ज़ेवरात को उनकी जगह छोड़ दिया।
270-कहा जाता है के आपके सामने दो आदमियों को पेश किया गया जिन्होंने बैतुलमाल से माल चुराया था। एक उनमें से ग़ुलाम और बैतुलमाल की मिल्कियत था और दूसरा लोगों में से किसी की मिल्कियत था। आपने फ़रमाया के जो बैतुलमाल की मिल्कियत है उस पर कोई हद नहीं है के माले ख़ुदा के एक हिस्से ने दूसरे हिस्से को खा लिया है लेकिन दूसरे पर शदीद हद जारी की जाएगी जिसके बाद उसके हाथ काट दिये गए।
271-अगर इन फिसलने वाली जगहों पर मेरे क़दम जम गए तो मैं बहुत सी चीज़ों को बदल दूंगा
(जिन्हें पहले वाले ख़ोलफ़ा ने ईजाद किया है और जिनका सुन्नते पैग़म्बर (स0) से कोई ताल्लुक़ नहीं है।)
272- यह बात यक़ीन के साथ जान लो के परवरदिगार ने किसी बन्दे के लिये इससे ज़्यादा नहीं क़रार दिया है जितना किताबे हकीम में बयान कर दिया गया है चाहे उसकी तदबीर कितनी ही अज़ीम, उसकी जुस्तजु कितनी ही शदीद और उसकी तरकीबें कितनी ही ताक़तवर क्यों न हों और इसी तरह वह बन्दे तक उसका मक़सूम पहुंचने की राह में कभी हाएल नहीं होता है चाहे वह कितना ही कमज़ोर और बेचारा क्यों न हो। जो इस हक़ीक़त को जानता है और उसके मुताबिक़ अमल करता है वही सबसे ज़्यादा राहत और फ़ायदे में रहता है और जो इस हक़ीक़त को नज़रअन्दाज़ कर देता है और इसमें शक करता है वही सबसे ज़्यादा नुक़सान में मुब्तिला होता है, कितने ही अफ़राद हैं जिन्हें नेमतें दी जाती हैं और उन्हीं के ज़रिये अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और कितने ही अफ़राद हैं जो मुब्तिलाए मुसलबत होते हैं लेकिन यही इब्तिला उनके हक़ में बाएसे बरकत बन जाता है। लेहाज़ा ऐ फ़ायदे के तलबगारों! शुक्र में इज़ाफ़ा करो और अपनी जल्दी कम कर दो और अपने रिज़्क़ की हदों पर ठहर जाओ।
(((यह सूरतेहाल बज़ाहिर ख़ानए काबा के साथ मख़सूस नहीं है बल्कि तमाम मुक़द्दस मुक़ामात का यही हाल है के उनके ज़ीनत व आराइश के असबाब अगर ज़रूरी है, लेकिन अगर उनकी कोई अफ़ादियत नहीं है तो उनके बारे में ज़िम्मेदार इन शरीअत से रूजू करके सही मसरफ़ में लगा देना चाहिये। बक़ौल शख़्से बिजली के दौर में मोमबत्ती और ख़ुशबू के दौर में अगरबत्ती के तहफ़्फ़ुज़ की कोई ज़रूरत नहीं है, यही पैसा इसी मुक़द्दस मक़ाम के दीगर ज़ुरूरियात पर सर्फ़ किया जा सकता है।)))
273- ख़बरदार अपने इल्म को जेहल न बनाओ और अपने यक़ीन को शक न क़रार दो। जब जान लो तो अमल करो और जब यक़ीन हो जाए तो क़दम आगे बढ़ाओ। (((इमाम अलैहिस्सलाम की नज़र में इल्म और यक़ीन के एक मख़सूस मानी हैं जिनका इज़हार इन्सान के किरदार से होता है। आपकी निगाह में इल्म सिर्फ़ जानने का नाम नहीं है और न यक़ीन सिर्फ़ इत्मीनाने क़ल्ब का नाम है बल्कि दोनों के वजूद का एक फ़ितरी तक़ाज़ा है जिससे उनकी वाक़ईयत और असालत का अन्दाज़ा होता है के इन्सान वाक़ेअन साहेबे इल्म है तो बाअमल भी होगा और वाक़ेअन साहेबे यक़ीन है तो क़दम भी आगे बढ़ाएगा। ऐसा न हो तो इल्म जेहल कहे जाने के क़ाबिल है और यक़ीन शक से बालातर कोई शै नहीं है।)))
274- लालच जहां वारिद कर देती है वहां से निकलने नहीं देती है और यह एक ऐसी ज़मानतदार है जो वफ़ादार नहीं है के कभी कभी तो पानी पीने वाले को सेराबी से पहले ही उच्छू लग जाता है और जिस क़द्र किसी मरग़ूब की क़द्र व मन्ज़िलत ज़्यादा होती है उसके खो जाने का रन्ज ज़्यादा होता है। आरज़ूएं दीदाए बसीरत को अन्धा बना देती हैं और जो कुछ नसीब में होता है वह बग़ैर कोशिश के भी मिल जाता है। (((लालच इन्सान को हज़ारों चीज़ों का यक़ीन दिला देती है और उससे वादा भी कर लेती है लेकिन वक़्त पर वफ़ा नहीं करती है और बसावक़ात ऐसा होता है के सेराब होने से पहले ही उच्छू लग जाता है और सेराब होने की नौबत ही नहीं आती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्ल व मवानिश यही है के इन्सान लालच से इज्तेनाब करे और बक़द्रे ज़रूरत पर इक्तिफ़ा करे जो बहरहाल उसे हासिल होने वाला है।)))
275- ख़ुदाया मैं इस बात से पनाह चाहता हूँ के लोगों की ज़ाहेरी निगाह में मेरा ज़ाहिर हसीन हो और जो बातिन तेरे लिये छिपाए हुए हूँ वह क़बीह हो, मैं लोगों के दिखावे के लिये उन चीज़ों की निगेहदाश्त करूं जिन पर तू इत्तेलाअ रखता है। के लोगों पर हुस्ने ज़ाहिर का मुज़ाहेरा करूं और तेरी बारगाह में बदतरीन अमल के साथ हाज़ेरी दूँ। तेरे बन्दों से क़ुरबत इख़्तेयार करूं और तेरी मर्ज़ी से दूर हो जाऊं। (((आम तौर से लोगों का हाल यह होता है के अवामुन्नास के सामने आने के लिये अपने ज़ाहिर को पाक व पाकीज़ा और हसीन व जीमल बना लेते हैं और यह ख़याल ही नहीं रह जाता है के एक दिन उसका भी सामना करना है जो ज़ाहिर को नहीं देखता है बल्कि बातिन पर निगाह रखता है और इसरार का भी हिसाब करने वाला है। मौलाए कायनात (अ0) ने आलमे इन्सानियत को इसी कमज़ोरी की तरफ़ मुतवज्जो करने के लिये इस दुआ का लहला इख़्तेयार किया है जहां दूसरों पर बराहे रास्त तन्क़ीद भी न हो और अपना पैग़ाम भी तमाम अफ़राद तक पहुंच जाए। शायद इन्सानों को यह एहसास पैदा हो जाए के अवामुन्नास का सामना करने से ज़्यादा अहमियत मालिक के सामने जाने की है और इसके लिये बातिन का पाक व साफ़ रखना बेहद ज़रूरी है।)))
276- उस ज़ात की क़सम जिसकी बदौलत हम शबे तारीक के उस बाक़ी हिस्से को गुज़ार दिया है जिसके छंटते ही एक चमकता हुआ दिन ज़ाहिर होगा ऐसा और ऐसा नहीं हुआ है।
277- थोड़ा अमल जिसे पाबन्दी से अन्जाम दिया जाए उस कसीर अमल से बेहतर है जिससे आदमी उकता जाए।
278- जब नवाफ़िल फ़राएज़ को नुक़सान पहुंचाने लगें तो उन्हें छोड़ दो।
((( तक़द्दुस मआब हज़रात के लिये यह बेहतरीन नुसख़ए हिदायत है जो इज्तेमाअ और अवामी फ़राएज़ से ग़ाफ़िल होकर मुस्तहबात पर जान दिये पड़े रहते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास नहीं करते हैं और इसी तरह ये उन साहेबाने ईमान के लिये सामाने तम्बीह है जो मुस्तहबात पर इतना वक़्त और सरमाया सर्फ़ कर देते हैं के वाजेबात के लिये न वक़्त बचता है और न सरमाया। जबके क़ानूनी एतबार से ऐसे मुस्तहबात की कोई हैसियत नहीं है जिनसे वाजेबात मुतास्सिर हो जाएं और इन्सान फ़राएज़ की अदाएगी में कोताही का शिकार हो जाए।))))
279-जो दौरे सफ़र को याद रखता है वह तैयारी भी करता है।
280- आंखों का देखना हक़ीक़त में देखना शुमार नहीं होता है के कभी कभी आंखें अपने अश्ख़ास को धोका दे देती हैं लेकिन अक़्ल नसीहत हासिल करने वाले को फ़रेब नहीं देती है।
(((इन्सानी इल्म के तीन वसाएल हैं एक उसका ज़ाहेरी एहसास व इदराक है और एक उसकी अक़्ल है जिस पर तमाम ओक़लाए बशर का इत्तेफ़ाक़ है और तीसरा रास्ता वहीए इलाही है जिस पर साहेबाने ईमान का ईमान है और बेईमान उस वसीले इदराक से महरूम हैं। इन तीनों में अगरचे वही के बारे में ख़ता का कोई इमकान नहीं है और इस एतबार से इसका मरतबा सबसे अफ़ज़ल है लेकिन ख़ुद ववही का इदराक भी अक़्ल के बग़ैर मुमकिन नहीं है और इसस एतबार से अक़्ल का मरतबा एक बुनियादी हैसियत रखता है और यही वजह है के कुतुब अहादीस में किताबुल अक़्ल को सबसे पहले क़रार दिया गया है और इस तरह उसकी बुनियादे हैसियत का ऐलान किया गया है।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 281-300
281- तुम्हारे और नसीहत के दरम्यान ग़फ़लत का एक परदा हाएल रहता है।
282-तुम्हारे जाहिलों को दौलते फ़रावां दे दी जाती है और आलिम को सिर्फ़ मुस्तक़बिल की उम्मीद दिलाई जाती है।
283- इल्म हमेशा बहाना बाज़ों के बहानो को ख़त्म कर देता है।
(((अगर इन्सान वाक़ेअन आलिम है तो इल्म का तक़ाज़ा यह है के उसके मुताबिक़ अमल करे और किसी तरह की बहानाबाज़ी से काम न ले जिस तरह के दरबारी और सियासी ओलमा दीदा व दानिस्ता हक़ाएक़ से इन्हेराफ़ करते हैं और दुनियावी मफ़ादात की ख़ातिर अपने इल्म का ज़बीहा कर देते हैं, ऐसे लोग क़ातिल और रहज़न कहे जाने के क़ाबिल हैं, आलिम और फ़ाज़िल कहे जाने के लाएक़ नहीं है।)))
284- जिसकी मौत जल्दी आ जाती है वह मोहलत का मुतालबा करता है और जिसे मोहलत मिल जाती है वह टाल-मटोल करता है।
285- जब भी लोग किसी चीज़ पर वाह-वाह करते हैं तो ज़माना उसके वास्ते एक बुरा दिन छुपाकर रखता है।
286- आपसे क़ज़ा व क़द्र के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के यह एक तारीक रास्ता है इस पर मत चलो और एक गहरा समन्दर है इसमें दाखि़ल होने की कोशिश न करो और एक राज़े इलाही है लेहाज़ा इसे मालूम करने की ज़हमत न करो।
(((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस्लाम किसी भी मौज़ू के बारे में जेहालत का तरफ़दार है और न जानने ही को अफ़ज़लीयत अता करता है, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है के अकसर लोग उन हक़ाएक़ के मुतहम्मल नहीं होते हैं लेहाज़ा इन्सान को उन्हीं चीज़ों का इल्म हासिल करना चाहिये जो उसके लिये क़ाबिले तहम्मुल व बर्दाश्त हो इसके बाद अगर हुदूदे तहम्मुल से बाहर हो तो पड़ लिख कर बहक जाने से नावाक़िफ़ रहना ही बेहतर है।)))
287-जब परवरदिगार किसी बन्दे को ज़लील करना चाहता है तो उसे इल्म व दानिश से महरूम कर देता है।
288- गुज़िश्ता ज़माने में मेरा एक भाई था, जिसकी अज़मत मेरी निगाहों में इसलिये थी के दुनियां उसकी निगाहों में हक़ीर थी और उस पर पेट की हुकूमत नहीं थी। जो चीज़ नहीं मिलती थी उसकी ख़्वाहिश नहीं करता था और जो मिल जाती थी उसे ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करता था। अकसर औक़ात ख़ामोश रहा करता था और अगर बोलता था तो तमाम बोलने वालों को चुप कर देता था। साएलों की प्यास को बुझा देता था और बज़ाहिर आजिज़ और कमज़ोर था लेकिन जब जेहाद का मौक़ा आ जाता था तो एक शेर बेशाए शुजाअत और अश्दरवादी हो जाया करता था। कोई दलील नहीं पेश करता था जब तक फै़सलाकुन न हो और जिस बात में बहाने की गुन्जाइश होती थी उस पर किसी की मलामत नहीं करता था जब तक उज्ऱ सुन न ले। किसी दर्द की शिकायत नहीं करता था जब तक इससे सेहत न हासिल हो जाए। जो करता था वही कहता था और जो नहीं कर सकता था वह कहता भी नहीं था। अगर बोलने में उस पर ग़लबा हासिल भी कर लिया जाए तो सुकूत में कोई उस पर ग़ालिब नहीं आ सकता था। वह बोलने से ज़्यादा सुने का ख़्वाहिशमन्द रहता था। जब उसके सामने दो तरह की चीज़ें आती थीं और एक ख़्वाहिश से क़रीबतर होती थी तो उसी की मुख़ालेफ़त करता था। लेहाज़ा तुम सब भी इन्हीं अख़लाक़ को इख़्तेयार करो और उन्हीं की फ़िक्र करो और अगर नहीं कर सकते हो तो याद रखो के क़लील का इख़्तेयार कर लेना कसीर के तर्क कर देने से बहरहाल बेहतर होता है।
(((बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह वाक़ेअन किसी शख़्सियत की तरफ़ इशारा है जिसके हालात व कैफ़ियात का अन्दाज़ा नहीं हो सका है और बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह एक आईडियल और मिसालिया की निशानदेही है के साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल होना चाहिये और अगर ऐसा नहीं है तो इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करना चाहिये ताके इसका शुमार वाक़ेअन साहेबाने ईमान व किरदार में हो जाए।)))
289-अगर ख़ुदा नाफ़रमानी पर अज़ाब की वईद न भी करता जब भी ज़रूरत थी के शुक्रे नेमत की बुनियाद पर उसकी नाफ़रमानी न की जाए।
(((ज़रूरत नहीं है के इन्सान सिर्फ़ अज़ाब के ख़ौफ़ से मोहर्रमात से परहेज़ करे बल्कि तक़ाज़ाए शराफ़त यह है के नेमते परवरदिगार का एहसास पैदा करके उसकी दी हुई नेमतों को हराम में सर्फ़ करने से इज्तेनाब करे)))
290-अश्अस बिन क़ैस को उसके फ़रज़न्द का पुरसा देते हुए फ़रमाया - अश्अस! अगर तुम अपने फ़रज़न्द के ग़म में महज़ून हो तो यह उसकी क़राबत का हक़ है। लेकिन अगर सब्र कर लो तो अल्लाह के यहाँ हर मुसीबत का एक अज्र है।
अश्अस! अगर तुमने सब्र कर लिया तो क़ज़ा व क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम अज्र के हक़दार होगे और अगर तुमने फ़रयाद की तो क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम पर गुनाह का बोझ होगा।
अश्अस! तुम्हारे लिये बेटा मसर्रत का सबब था जबके वह एक आज़माइश और इम्तेहान था और हुज़्न का बाएस हो गया जबके इसमें सवाब और रहमत है।
(((यह इस बात की अलामत है के बेटे के मिलने पर मसर्रत भी एक फ़ितरी अम्र है और इसके चले जाने पर हुज़्न व अलम भी एक फ़ितरी तक़ाज़ा है लेकिन इन्सान की अक़्ल का तक़ाज़ा यह है के मसर्रत में इम्तेहान को नज़रअन्दाज़ न करे और ग़म के माहौल में अज्र व सवाब से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))
291- पैग़म्बरे इस्लाम (स0) के दफ़्न के वक़्त क़ब्र के पास खड़े होकर फ़रमाया- सब्र आम तौर से बेहतरीन चीज़ है मगर आपकी मुसीबत के अलावा, और परेशानी व बेक़रारी बुरी चीज़ है लेकिन आपकी वफ़ात के अलावा, आपकी मुसीबत बड़ी अज़ीम है और आपसे पहले और आपके बाद हर मुसीबत आसान है।
(((इसका मतलब यह नही के सब्र या जज़्अ व फ़ज़्अ की दो क़िस्में हैं और वह कभी जमील होता है और कभी ग़ैरे जीमल, बल्कि ये मुसीबत पैग़म्बरे इस्लाम (स0) की अज़मत की तरफ़ इशारा है के इस मौक़े पर सब्र का इमकान ही नहीं है जिस तरह दूसरे मसाएब में जज़्अ व फ़ज़्अ का कोई जवाज़ नहीं है और इन्सान को उसे बरदाश्त ही कर लेना चाहिए।)))
292- बेवक़ूफ़ की सोहबत मत इख़्तेयार करना के वह अपने अमल को ख़ूबसूरत बनाकर पेश करेगा और तुमसे भी वैसे ही अमल का तक़ाज़ा करेगा।
293- आपसे मशरिक़ व मग़रिब के फ़ासले के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के आफ़ताब का एक दिन का रास्ता।
294- तुम्हारे दोस्त भी तीन तरह के हैं और दुश्मन भी तीन क़िस्म के हैं। दोस्तों की क़िस्में यह हैं के तुम्हारा दोस्त, तुम्हारे दोस्त का दोस्त और तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन और इसी तरह दुश्मनों की किस्में यह हैं- तुम्हारा दुश्मन, तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त।
(((यह उस मौक़े के लिये कहा गया है के दोनों की दोस्ती की बुनियाद एक हो वरना अगर एक शख़्स एक बुनियाद पर दोस्ती करता है और दूसरा दूसरी बुनियाद पर मोहब्बत करता है तो दोस्त का दोस्त हरगिज़ दोस्त शुमार नहीं किया जा सकता है जिस तरह के दुश्मन के दुश्मन के लिये भी ज़रूरी है के दुश्मनी की बुनियाद वही हो जिस बुनियाद पर यह शख़्स दुश्मनी करता है वरना अपने अपने मफ़ादात के लिये काम करने वाले कभी एक रिश्तए मोहब्बत में मुन्सलिक नहीं किये जा सकते हैं।)))
295- आपने एक शख़्स को देखा के वह अपने दुश्मन को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है मगर उसमें ख़ुद उसका नुक़सान भी है तो फ़रमाया के तेरी मिसाल उस शख़्स की है जो अपने सीने में नैज़ा चुभो ले ताके पीछे बैठने वाला हलाक हो जाए।
296- इबरतें कितनी ज़्यादा हैं और उसके हासिल करने वाले कितने कम हैं।
297- जो लड़ाई-झगड़े में हद से आगे बढ़ जाए वह गुनहगार होता है और जो कोताही करता है वह अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करता है और इस तरह झगड़ा करने वाला तक़वा के रास्ते पर नहीं चल सकता है (लेहाज़ा मुनासिब यही है के झगड़े से परहेज़ करे)
298- उस गुनाह की कोई उम्र नहीं है जिसके बाद इतनी मोहलत मिल जाए के इन्सान दो रकअत नमाज़ अदा करके ख़ुदा से आफ़ियत का सवाल कर सके (लेकिन सवाल यह है के इस मोहलत की ज़मानत क्या है)
299- आपसे दरयाफ़्त किया गया के परवरदिगार इस क़द्र बेपनाह मख़लूक़ात का हिसाब किस तरह करेगा? तो फ़रमाया के जिस तरह उन सबको रिज़्क़ देता है। दोबारा सवाल किया गया के जब वह सामने नहीं आएगा तो हिसाब किस तरह लेगा? फ़रमाया जिस तरह सामने नहीं आता है और रोज़ी दे रहा है। (((इन्सान के ज़ेहन में यह ख़यालात और शुबहात इसीलिये पैदा होते हैं के वह उसकी रज़ाक़ियत से ग़ाफ़िल हो गया है वरना एक मसलए रिज़्क़ समझ में आ जाए तो मसलए मौत भी समझ में आ सकता है और मसलए हिसाब व किताब भी। जो मौत दे सकता है वह रोज़ी भी दे सकता है और जो रोज़ी का हिसाब रख सकता है वह आमाल का हिसाब भी कर सकता है)))
300- तुम्हारा क़ासिद तुम्हारी अक़्ल का तर्जुमान होता है और तुम्हारा ख़त तुम्हारा बेहतरीन तर्जुमान होता है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 301-320
301- शदीदतरीन बलाओं में मुब्तिला हो जाने वाला उससे ज़्यादा मोहताजे दुआ नहीं है जो फ़िलहाल आफ़ियत में है लेकिन नहीं मालूम है के कब मुब्तिला हो जाए।
(((इन्सान की फ़ितरत है के जब मुसीबत में मुब्तिला हो जाता है तो दुआएं करने लगता है और दूसरों से दुआओं की इल्तिमास करने लगता है और जैसे ही बला टल जाती है दुआओं से ग़ाफ़िल हो जाता है और इस नुक्ते को अकसर नज़रअन्दाज़ कर देता है के इस आफ़ियत के पीछे भी कोई बला हो सकती है और मौजूदा बला से बालातर हो सकती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए दानिशमन्दी यही है के हर हाल में दुआ करता रहे और किसी वक़्त भी आने वाली मुसीबतों से ग़ाफ़िल न हो के उसके नतीजे में यादे ख़ुदा से ग़ाफ़िल हो जाए।)))
302- लोग दुनिया की औलाद हैं और माँ की मोहब्बत पर औलाद की मलामत नहीं की जा सकती है। (((इन्सान जिस ख़ाक से बनता है उससे बहरहाल मोहब्बत करता है और जिस माहौल में ज़िन्दगी गुज़ारता है उससे बहरहाल मानूस होता है, इस मसले में किसी इन्सान की मज़म्मत और मलामत नहीं की जा सकती है लेकिन मोहब्बत जब हद से गुज़र जाती है और उसूल व क़वानीन पर ग़ालिब आ जाती है तो बहरहाल क़ाबिले मलामत व मज़म्मत हो जाती है और इसका लेहाज़ रखना हर फ़र्दे बशर का फ़रीज़ा है वरना इसके बग़ैर इन्सान क़ाबिले माफ़ी नहीं हो सकता है)))
303- फ़क़ीर व मिस्कीन दर हक़ीक़त ख़ुदाई फ़र्सतादा है लेहाज़ा जिसने उसको मना कर दिया गोया ख़ुदा को मना कर दिया और जिसने उसे अता कर दिया गोया क़ुदरत के हाथ में दे दिया।
304- ग़ैरतदार इन्सान कभी ज़िना नहीं कर सकता है
(के यही मुसीबत उसके घर भी आ सकती है)।
305- मौत से बेहतर मुहाफ़िज़ कोई नहीं है।
306- इन्सान औलाद के मरने पर सो जाता है लेकिन माल के लुट जाने पर नहीं सोता है।
सय्यद रज़ी- मक़सद यह है के औलाद के मरने पर सब्र कर लेता है लेकिन माल के छिनने पर सब्र नहीं करता है। (((इसका मक़सद तान व तन्ज़ नहीं है बल्कि इसका मक़सद यह है के मौत का ताल्लुक़ क़ज़ा व क़द्रे इलाही से है लेहाज़ा इस पर सब्र करना इन्सान का फ़रीज़ा है लेकिन माल का छिन जाना ज़ुल्म व सितम और ग़ज़ब व नहब का नतीजा होता है लेहाज़ा इस पर सुकूत इख़्तेयार करना और सुकून से सो जाना किसी क़ीमत पर मुनासिब नहीं है और यह इन्सानी ग़ैरत व शराफ़त के खि़लाफ़ है लेहाज़ा इन्सान को इस नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये)))
307- बुज़ुर्गों की मोहब्बत भी औलाद के लिये क़राबत का दरजा रखती है और मोहब्बत क़राबत की इतनी मोहताज नहीं जितनी क़राबत मोहब्बत की मोहताज होती है। (मक़सद यह है के तुम लोग आपस में मोहब्बत और उलफ़त रखो ताके तुम्हारी औलाद तुम्हारे दोस्तों को अपना क़राबतदार तसव्वुर करे)
308- मोमेनीन के गुमान से डरते रहो के परवरदिगार हक़ को साहेबाने ईमान ही की ज़बान पर जारी करता रहता है।
309-किसी बन्दे का ईमान उस वक़्त तक सच्चा नहीं हो सकता है जब तक ख़ुदाई ख़ज़ाने पर अपने हाथ की दौलत से ज़्यादा एतबार न करे।
310- हज़रत ने बसरा पहुंचने के बाद अनस बिन मालिक से कहा के जाकर तल्हा व ज़ुबैर को वह इरशादाते रसूले अकरम (स0) बताओ जो हज़रत (स0) ने मेरे बारे में फ़रमाए हैं तो उन्होंने पहलू तही की और फिर आकर यह बहाना कर दिया के मुझे वह इरशादात याद नहीं रहे! तो हज़रत (अ0) ने फ़रमाया अगर तुम झूठे हो तो परवरदिगार तुम्हें ऐसे चमकदार दाग़ की मार मारेगा के उसे दस्तार भी नहीं छिपा सकेगी।
सय्यद रज़ी- इस दाग़ से मुराद बर्स है जिसमें अनस मुब्तिला हो गए और ताहयात चेहरे पर नक़ाब डाले रहे। (((जनाब शेख़ मोहम्मद अब्दहू का बयान है के उससे इस इरशादे पैग़म्बर (स0) की तरफ़ इशारा था जिसमें आपने बराहेरास्त तल्हा व ज़ुबैर से खि़ताब करके इरशाद फ़रमाया था के तुम लोग अली (अ0) से जंग करोगे और उनके हक़ में ज़ालिम होगे और इब्ने अबील हदीद का कहना है के यह उस मौक़े की तरफ़ इशारा है जब पैग़म्बर (स0) ने मैदाने ग़दीर में अली (अ0) की मौलाइयत का एलान किया था और अनस उस मौक़े पर मौजूद थे लेकिन जब हज़रत ने गवाही तलब की तो अपनी ज़ईफ़ी और क़िल्लते हाफ़िज़े का बहाना कर दिया जिस पर हज़रत ने यह बद्दुआ दे दी और अनस उस मर्जे़ बर्स में मुब्तिला हो गए जैसा के इब्ने क़तीबा ने मुआरिफ़ में नक़्ल किया है।)))
311- दिल भी कभी माएल होते हैं और कभी उचाट हो जाते हैं, लेहाज़ा जब माएल हों तो उन्हें मुस्तहबात पर आमादा करो वरना सिर्फ़ वाजेबात पर इक्तिफ़ा कर लो (के ज़बरदस्ती अमल से कोई फ़ायदा नहीं है जब तक इख़लासे अमल न हो)।
(((इन्सानी आमाल के दो दरजात हैं पहला दरजा वह होता है जब अमल सही हो जाता है और तकलीफे़ शरई अदा हो जाती है लेकिन निगाहे क़ुदरत में क़ाबिले क़ुबूल नहीं होता है यह वह अमल है जिसमें जुमला शराएत व वाजेबात जमा हो जाते हैं लेकिन इख़लासे नीयत और एक़बाले नफ़्स नहीं होता है लेकिन दूसरा दरजा वह होता है जिसमें इक़बाले नफ़्स भी होता है और अमल क़ाबिले क़ुबूल भी हो जाता है। हज़रत (अ0) ने इसी नुक्ते की तरफ़ इशारा किया है के फ़रीज़ा बहरहाल अदा करना है लेकिन मुस्तहबात का वाक़ेई माहौल उसी वक़्त पैदा होता है जब इन्सान इक़बाले नफ़्स की दौलत से मालामाल हो जाता है और वाक़ेई इबादते इलाही की रग़बत पैदा कर लेता है)))
312- क़ुरान में तुम्हारे पहले की ख़बर तुम्हारे बाद की पेशगोई और तुम्हारे दरम्यानी हालात के एहकाम सब पाए जाते हैं।
313- जिधर से पत्थर आए उधर ही फेंक दो के शर का जवाब शर ही होता है।
314- आपने अपने कातिब अब्दुल्लाह बिन अबी राफ़ेअ से फ़रमाया - अपनी दवात में सौफ डाला करो और अपने क़लम की ज़बान लम्बी रखा करो सतरों के दरम्यान फ़ासला रखो और हर्फ़ों को साथ मिलाकर लिखा करो के इस तरह ख़त ज़्यादा खूबसूरत हो जाता है।
315- मैं मोमेनीन का सरदार हूँ और माल फ़ाजिरों का सरदार होता है।
सय्यद रज़ी- यानी साहेबाने ईमान मेरा इत्तेबाअ करते हैं और फ़ासिक़ व फ़ाजिर माल के इशारों पर चला करते हैं जिस तरह शहद की मक्खियाँ अपने यासूब (सरदार) का इत्तेबाअ करती हैं।
316- एक यहूदी ने आप पर तन्ज़ कर दिया के आप मुसलमानों ने अपने पैग़म्बर (स0) के दफ़्न के बाद ही झगड़ा शुरू कर दिया, तो आपने फ़रमाया के हमने उनकी जानशीनी में इख़्तेलाफ़ किया है, उनसे इख़्तेलाफ़ नहीं किया है। लेकिन तुम यहूदियों के तो पैर नील के पानी से ख़ुश्क नहीं होने पाए थे के तुमने अपने पैग़म्बर (स0) ही से कह दिया के “हमें भी वैसा ही ख़ुदा चाहिये जैसा उन लोगों के पास है” जिस पर पैग़म्बर ने कहा के तुम लोग जाहिल क़ौम हो।
(((यह अमीरूल मोमेनीन (अ0) की बलन्दीए किरदार है के आपने यहूदियों के मुक़ाबले में इज़्ज़ते इस्लाम व मुस्लेमीन का तहफ़्फ़ुज़ कर लिया और फ़ौरन जवाब दे दिया वरना कोई दूसरा शख़्स होता तो उसकी इस तरह तौजीह कर देता के जिन लोगों ने पैग़म्बर की खि़लाफ़त में इख़्तेलाफ़ किया है वह ख़ुद भी मुसलमान नहीं थे बल्कि तुम्हारी बिरादरी के यहूदी थे जो अपने मख़सूस मफ़ादात के तहत इस्लामी बिरादरी में शामिल हो गए थे)))
317- आपसे दरयाफ़्त किया गया के आप बहादुरों पर किस तरह ग़लबा पा लेते हैं तो आपने फ़रमाया के मैं जिस शख़्स का भी सामना करता हूँ वह ख़ुद ही अपने खि़लाफ़ मेरी मदद करता है।
सय्यद रज़ी- यानी उसके दिल में मेरी हैबत बैठ जाती है।
(((यह परवरदिगार की वह इमदाद है जो आज तक अली (अ0) वालों के साथ है के वह ताक़त, कसरत और असलहे में कोई ख़ास हैसियत नहीं रखते हें लेकिन इसके बावजूद उनकी दहशत तमाम आलमे कुफ्ऱ व शिर्क के दिलों पर बैठी हुई है और हर एक को हर इन्के़लाब व एक़दाम में उन्हीं का हाथ नज़र आता है।)))
318- आपने अपने फ़रज़न्द मोहम्मद हनफ़िया से फ़रमाया - फ़रज़न्द! मैं तुम्हारे बारे में फ़क़्र व तंगदस्ती से डरता हूँ लेहाज़ा उससे तुम अल्लाह की पनाह मांगो के फ़क़्र दीन की कमज़ोरी, अक़्ल की परेशानी और लोगों की नफ़रत का सबब बन जाता है।
319- एक शख़्स ने एक मुश्किल मसला दरयाफ़्त कर लिया तो आपने फ़रमाया समझने के लिये दरयाफ़्त करो उलझने के लिये नहीं के जाहिल भी अगर सीखना चाहे तो वह आलिम जैसा है और आलिम भी अगर सिर्फ़ उलझना चाहे तो वह जाहिल जैसा है।
320- अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने आपके नज़रिये के खि़लाफ़ आपको मशविरा दे दिया तो फ़रमाया के तुम्हारा काम मशविरा देना है। इसके बाद राय मेरी है लेहाज़ा अगर मैं तुम्हारे खि़लाफ़ भी राय क़ायम कर लूँ तो तुम्हारा फ़र्ज़ है के मेरी इताअत करो।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 321-340
321- रिवायत में वारिद हुआ है के जब आप सिफ़्फ़ीन से वापसी पर कूफ़े वारिद हुए तो आपका गुज़र क़बीलए शबाम के पास से हुआ जहाँ औरते सिफ़्फ़ीन के मक़तूलीन पर गिरया कर रही थीं, और इतने में हर्ब बिन शरजील शबामी जो सरदारे क़बीला थे हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो गए तो आपने फ़रमाया के तुम्हारी औरतों पर तुम्हारा बस नहीं चलता है जो मैं यह आवाज़ें सुन रहा हूँ और तुम उन्हें इस तरह की फ़रयाद से मना क्यों नहीं करते हो। यह कहकर हज़रत (अ0) आगे बढ़ गए तो हर्ब भी आपकी रकाब में साथ हो लिये, आपने फ़रमाया के जाओ वापस जाओ। हाकिम के साथ इस तरह पैदल चलना हाकिम के हक़ में फ़ित्ना है और मोमिन के हक़ में बाएसे ज़िल्लत है।
(((इस्लामी रिवायात की बिना पर मुर्दा पर गिरया करना या बलन्द आवाज़ से गिरया करना कोई ममनूअ और हराम अमल नहीं है बल्कि गिरया सरकारे दो आलम (स0) और अम्बियाए कराम (अ0) की सीरत में दाखि़ल है लेहाज़ा हज़रत की मोमानेअत का मफ़हूम यह हो सकता है के इस तरह गिरया नहीं होना चाहिये जिससे दुश्मन को कमज़ोरी और परेशानी का एहसास हो जाए और उसके हौसले बलन्द हो जाएं या गिरया में ऐसे अल्फ़ाज़ और अन्दाज़ शामिल हो जाएं जो मर्ज़ीए परवरदिगार के खि़लाफ़ हों और जिनकी बिना पर इन्सान अज़ाबे आख़ेरत का मुस्तहक़ हो जाए। हाकिम के लिये फ़ित्ना का मक़सद यह है के अगर हाकिम के मग़रूर व मुतकब्बिर हो जाने और महकूम के मुब्तिलाए ज़िल्लत हो जाने का ख़तरा है तो यह अन्दाज़ यक़ीनन सही नहीं है लेकिन अगर हाकिम इस तरह के अहमक़ाना जज़्बात से बालातर है और महकूम भी सिर्फ़ उसके इल्म व तक़वा का एहतेराम करना चाहता है तो कोई हर्ज नहीं है बल्कि आलिम और मुत्तक़ी इन्सान का एहतेराम ऐने इस्लाम और ऐने दियानतदारी है।)))
322- नहरवान के मौक़े पर आपका गुज़र ख़वारिज के मक़तूलीन के पास से हुआ तो फ़रमाया के तुम्हारे मुक़द्दर में सिर्फ़ तबाही और बरबादी है जिसने तुम्हें वरग़लाया था उसने धोका ही दिया था। लोगों ने दरयाफ़्त किया के यह धोका उन्हें किसने दिया है? फ़रमाया गुमराहकुन शैतान और नफ़्से अम्मारा ने, उसने तमन्नाओं में उलझा दिया और गुनाहों के रास्ते खोल दिये और उनसे ग़लबे का वादा कर लिया जिसके नतीजे में उन्हें जहन्नुम में झोंक दिया।
323- तन्हाई में भी ख़ुदा की नाफ़रमानी से डरो के जो देखने वाला है वही फ़ैसला करने वाला है।
(((जब यह तय है के रोज़े क़यामत फ़ैसला करने वाला और अज़ाब देने वाला परवरदिगार है तो मख़लूक़ात की निगाहों से छिप कर गुनाह करने का फ़ायदा ही क्या है। फ़ायदा तो उसी वक़्त हो सकता है जब ख़ालिक़ की निगाह से छिप सके या फ़ैसला मालिक के अलावा किसी और के इख़्तेयार में हो जिसका कोई इमकान नहीं है। लेहाज़ा आफ़ियत इसी में है के इन्सान हर हाल में गुनाह से परहेज़ करे और अलल एलान या ख़ुफ़िया तरीक़े से गुनाह का इरादा न करे।)))
324- जब आपको मोहम्मब बिन अबुबक्र की शहादत की ख़बर मिली तो फ़रमाया के मेरा ग़म मोहम्मद पर उतना ही है जितनी दुश्मन की ख़ुशी है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के दुश्मन का एक दुश्मन कम हुआ है और मेरा एक दोस्त कम हो गया है।
325- जिस उम्र के बाद परवरदिगार औलादे आदम (अ0) के किसी बहाना को क़ुबूल नहीं करता है। वह साठ साल है।
326- जिस पर गुनाह ग़लबा हासिल कर ले वह ग़ालिब नहीं है के शर के ज़रिये ग़लबा पाने वाला भी मग़लूब ही होता है।
327- परवरदिगार ने मालदारों के माल में ग़रीबों का रिज़्क़ क़रार दिया है लेहाज़ा जब भी कोई फ़क़ीर भूका होगा तो उसका मतलब यह है के ग़नी ने दौलत को समेट लिया है और परवरदिगार रोज़े क़यामत इसका सवाल ज़रूर करने वाला है।
328- बहाना व माज़ेरत से बेनियाज़ी सच्चे उज्ऱ पेश करने से भी ज़्यादा अज़ीज़तर है।
((( माज़ेरत करने में एक तरह की निदामत और ज़िल्लत का एहसास बहरहाल होता है लेहाज़ा इन्सान के लिये अफ़ज़ल और बेहतर यही है के अपने को इस निदामत से बे नियाज़ बना ले और कोई ऐसा काम न करे जिसके लिये बाद में माज़ेरत करना पड़े।)))
329- ख़ुदा का सबसे मुख़्तसर हक़ यह है के उसकी नेमत को उसकी गुनाह का ज़रिया न बनाओ। (((दुनिया में कोई करीम से करीम और मेहरबान से मेहरबान इन्सान भी इस बात को गवारा नहीं कर सकता है के वह किसी के साथ मेहरबानी करे और दूसरा इन्सान उसी मेहरबानी को उसकी नाफ़रमानी का ज़रिया बना ले और जब मख़लूक़ात के बारे में इस तरह की एहसान फ़रामोशी रवा नहीं है तो ख़ालिक़ का हक़ इन्सान पर यक़ीनन मख़लूक़ात से ज़्यादा होता है और हर शख़्स को इस करामत व शराफ़त का ख़याल रखना चाहिये के जब इसका सारा वजूद नेमत परवरदिगार है तो इस वजूद का कोई एक हिस्सा भी परवरदिगार की गुनाह और मुख़ालेफ़त में सर्फ़ नहीं किया जा सकता है।)))
330- परवरदिगार ने होशमन्दों के लिये इताअत का वह मौक़ा बेहतरीन क़रार दिया है जब काहिल लोग कोताही में मुब्तिला हो जाते हैं (मसलन नमाज़े शब)।
331- बादशाह रूए ज़मीन पर अल्लाह का पासबान होता है।
332- मोमिन के चेहरे पर बशाशत होती है और दिल में रंज व अन्दोह। उसका सीना कुशादा होता है और मुतवाज़ोह, बलन्दी को नापसन्द करता है और शोहरत से नफ़रत करता है। उसका ग़म तवील होता है और हिम्मत बड़ी होती है और ख़ामोशी ज़्यादा होती है और वक़्त मशग़ूल होता है। वह शुक्र करने वाला, सब्र करने वाला, फ़िक्र में डूबा हुआ, दस्ते तलब दराज़ करने में बख़ील, ख़ुश अख़लाक़और नर्म मिज़ाज होता है। उसका नफ़्स पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है और वह ख़ुद ग़ुलाम से ज़्यादा मुतवाज़ेह होता है।
((( इस मुक़ाम पर मोमिन के चैदा सिफ़ात का तज़किरा कर दिया गया है ताके हर शख़्स उस आईने में अपना चेहरा देख सके और अपने ईमान का फै़सला कर सके (1) वह अन्दर से महज़ून होता है लेकिन बाहर से बहरहाल हश्शाश बश्शाश रहता है। (2) उसका सीना और दिल कुशादा होता है। (3) उसके नफ़्स में ग़ुरूर व तकब्बुर नहीं होता है। (4) वह बलन्दी को नापसन्द करता है और शोहरत से कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। (5) ख़ौफ़े ख़ुदा से रन्जीदा रहता है (6) उसकी हिम्मत हमेशा बलन्द रहती है। (7) हमेशा ख़ामोश रहता है और अपने फ़राएज़ के बारे में सोचता रहता है। (8) अपने शब व रोज़ को फ़राएज़ की अदायगी में मशग़ूल रखता है। (9) मुसीबतों में सब्र और नेमतों पर शुक्रे परवरदिगार करता है। (10) फ़िक्रे क़यामत व हिसाब व किताब में ग़र्क़ रहता है। (11) लोगों पर अपनी ज़रूरियात के इज़हार में कंजूसी करता है। (12) मिज़ाज और तबीयत के एतबार से बिल्कुल नर्म होता है (13) हक़ के मामले में पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। (14) ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ में ग़ुलामों जैसी कैफ़ियत का हामिल होता है।)))
333- अगर बन्दए ख़ुदा मौत और उसके अन्जाम को देख ले तो उम्मीदवार उसके फ़रेब से नफ़रत करने लगे।
334- हर शख़्स के उसके माल में दो तरह के शरीक होते हैं एक वारिस और एक हवादिस।
(((यह इशारा है के इन्सान को एक तीसरे शरीक की तरफ़ से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये और वह है फ़क़ीर और मिस्कीन के मज़कूरा दोनों शरीक अपना हक़ ख़ुद ले लेते हैं और तीसरे शरीक को उसका हक़ देना पड़ता है जो इम्तेहाने नफ़्स भी है और वसीलए अज्र व सवाब भी है।))
335- जिससे सवाल किया जाता है वह उस वक़्त तक आज़ाद रहता है जब तक वादा न कर ले।
336- बग़ैर अमल के दूसरों को दावत देने वाला ऐसा ही होता है जैसे बग़ैर चिल्लए कमान के तीर चलाने वाला।
337- इल्म की दो क़िस्में हैं- एक वह होता है जो तबीअत में ढल जाता है और एक वह होता है जो सिर्फ़ सुन लिया जाता है और सुना सुनाया उस वक़्त तक काम नहीं आता है जब तक मिज़ाज का जुज़अ न बन जाए। (((दूसरा मफ़हूम यह भी हो सकता है के एक इल्म इन्सान की फ़ितरत में कर दिया गया है और एक इल्म बाहर से हासिल होता है और खुली हुई बात है के जब तक फ़ितरत के अन्दर वुजदान सलीम और उसकी सलाहियतें न हों बाहर के इल्म का कोई फ़ायदा नहीं होता है और उससे इस्तेफ़ादा अन्दर की सलाहियत ही पर मौक़ूफ़ है।)))
338- राय की दुरूस्ती दौलते इक़बाल से वाबस्ता है- इसी के साथ आती है और इसी के साथ चली जाती है (लेकिन दौलत भी मुफ़्त नहीं आती है इसके लिये भी सही राय की ज़रूरत होती है)। (((यानी दुनिया का मेयार सवाब व ख़ताया है के जिसके पास दौलत की फ़रावानी देख लेते हैं समझते हैं के उसके पास यक़ीनन फ़िक्रे सलीम भी है वरना इस क़द्र दौलत किस तरह हासिल कर सकता था। इसके बाद जब दौलत चली जाती है तो अन्दाज़ा करते हैं के यक़ीनन उसकी राय में कमज़ोरी पैदा हो गई है वरना इस तरह की ग़ुर्बत से किस तरह दो-चार हो सकता था।)))
339- पाक दामानी फ़क़ीर की ज़ीनत है और शुक्र मालदारी की ज़ीनत है। (((हक़ीक़ते अम्र यह है के न फ़क़ीरी कोई ऐब है और न मालदारी कोई हुस्न और हुनर, ऐब व हुनर की दुनिया इससे ज़रा मावेरा है और वह यह है के इन्सान फ़क़ीरी में इफ़्फ़त से काम ले और किसी के सामने दस्ते सवाल दराज़ न करे और मालदारी में शुक्रे परवरदिगार अदा करे और किसी तरह के ग़ुरूर व तकब्बुर में मुब्तिला न हो जाए।)))
340- मज़लूम के हक़ में ज़ुल्म के दिन से ज़्यादा शदीद ज़ालिम के हक़ में इन्साफ़ का दिन होता है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 341-360
341- लोगों के हाथ की दौलत से मायूस हो जाना ही बेहतरीन मालदारी है (के इन्सान सिर्फ़ ख़ुदा से लौ लगाता है)। (((यह इज़्ज़ते नफ़्स का बेहतरीन मुज़ाहेरा है जहाँ इन्सान ग़ुरबत के बावजूद दूसरों की दौलत की तरफ़ मुझकर नहीं देखता है और हमेशा इस नुक्ते को निगाह में रखता है के फ़क़्र व फ़ाक़ा से सिर्फ़ जिस्म कमज़ोर होता है लेकिन हाथ फैला देने से नफ़्स में ज़िल्लत और हिक़ारत का एहसास पैदा होता है जो जिस्म के फ़ाक़े से यक़ीनन बदतर और शदीदतर है। )))
342- बातें सब महफ़ूज़ रहती हैं और दिलों के राज़ों का इम्तेहान होने वाला है। हर नफ़्स अपने आमाल के हाथों गरो है और लोगों के जिस्म में नुक़्स और अक़्लों में कमज़ोरी आने वाली है मगर यह के अल्लाह ही बचा ले। उनमें के साएल उलझाने वाले हैं और जो अब देने वाले बिला वजह ज़हमत कर रहे हैं क़रीब है के उनका बेहतरीन राय वाला भी सिर्फ़ ख़ुशनूदी या ग़ज़ब के तसव्वुर से अपनी राय से पलटा दिया जाय और जो इन्तेहाई मज़बूत अक़्ल व इरादे वाला है उसको भी एक नज़र मुतास्सिर कर दे या एक कलमा उसमें इन्क़ेलाब पैदा कर दे।
343- ऐ लोगो! अल्लाह से डरो के कितने ही उम्मीदवार हैं जिनकी उम्मीदें पूरी नहीं होती हैं और कितने ही घर बनाने वाले हैं जिन्हें रहना नसीब नहीं होता है कितने माल जमा करने वाले हैं जो छोड़ कर चले जाते हैं और बहुत मुमकिन है के बातिल से जमा किया हो या किसी हक़ से इन्कार कर दिया हो या हराम से हासिल किया हो और गुनाहों का बोझ लाद लिया हो तो उसका वबाल लेकर वापस हो और इसी आलम में परवरदिगार के हुज़ूर हाज़िर हो जाए जहां सिर्फ़ रन्ज और अफ़सोस हो और दुनिया व आख़ेरत दोनों का ख़सारा हो जो दरहक़ीक़त खुला हुआ ख़सारा है।
344- गुनाहों तक रसाई का न होना भी एक तरह की पाकदामनी है। (((इसमें कोई शक नहीं है के गुनाहों के बारे में शरीअत का मुतालेबा सिर्फ़ यह है के इन्सान उनसे इज्तेनाब करे और उनमें मुब्तिला न होने पाए चाहे उसका सबब उसका तक़द्दुस हो या मजबूरी। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है के अपने इख़्तेयार से गुनाहों का तर्क कर देने वाला मुस्हक़े अज्र व सवाब भी हो सकता है और मजबूरन तर्क कर देने वाला किसी अज्र व सवाब का हक़दार नहीं हो सकता है)))
345- तुम्हारी आबरू महफ़ूज़ है और सवाल उसे मिटा देता है लेहाज़ा यह देखते रहो के किसके सामने हाथ फ़ैला रहे हो और आबरू का सौदा कर रहे हो।
346- इस्तेहक़ाक़ से ज़्यादा तारीफ़ करना ख़ुशामद है और इस्तेहक़ाक़ से कम तारीफ़ करना आजिज़ी है या हसद।
347- सबसे सख़्त गुनाह वह है जिसे गुनाहगार हल्का क़रार दे दे। (((ग़ैर मासूम इन्सान की ज़िन्दगी के बारे में गुनाहों के इमकानात तो हमा वक़्त रहते हैं लेकिन इन्सान की शराफ़ते नफ़्स यह है के जब कोई गुनाह सरज़द हो जाए तो उसे गुनाह तसव्वुर करे और इसकी तलाफ़ी की फ़िक्र करे वरना अगर उसे ख़फ़ीफ़ और हलका तसव्वुर कर लिया तो यह दूसरा गुनाह होगा जो पहले गुनाह से बदतर होगा के पहला गुनाह नफ़्स की कमज़ोरी से पैदा हुआ था और यह ईमान और अक़ीदे की कमज़ोरी से पैदा हुआ है।)))
348- जो अपने ऐब पर निगाह रखता है वह दूसरों के ऐब से ग़ाफ़िल हो जाता है और जो रिज़्क़े ख़ुदा पर राज़ी रहता है वह किसी चीज़ के हाथ से निकल जाने पर रन्जीदा नहीं होता है। जो बग़ावत की तलवार खींचता है ख़ुद उसी से मारा जाता है और जो अहम काम को ज़बरदस्ती अन्जाम देना चाहता है वह तबाह हो जाता है। लहरों में फान्द पड़ने वाला डूब जाता है और ग़लत जगहों पर दाखि़ल होने वाला बदनाम हो जाता है। जिसकी बातें ज़्यादा होती हैं उसकी ग़लतियाँ भी ज़्यादा होती हैं। जिसकी ग़लतियां ज़्यादा होती हैं उसकी हया कम हो जाती है और जिसकी हया कम हो जाती है उसका तक़वा भी कम हो जाता है और जिसका तक़वा कम हो जाता है उसका दिल मुर्दा हो जाता है और जिसका दिल मुर्दा हो जाता है वह जहन्नुम में दाखि़ल हो जाता है। जो लोगों के ऐब को देख कर नागवारी का इज़हार करे और फिर उसी ऐब को अपने लिये पसन्द कर ले तो उसी को अहमक़ कहा जाता है। क़नाअत एक ऐसा सरमाया है जो ख़त्म होने वाला नहीं है। जो मौत को बराबर याद करता रहता है वह दुनिया के मुख़्तसर हिस्से पर भी राज़ी हो जाता है और जिसे यह मालूम होता है के कलाम भी अमल का एक हिस्सा है वह ज़रूरत से ज़्यादा कलाम नहीं करता है।
349- लोगों में ज़ालिम की अलामात होती हैं अपने से बालातर पर गुनाह करने के ज़रिये ज़ुल्म करता है। अपने से कमतर पर ग़लबा व क़हर के ज़रिये ज़ुल्म करता है और फ़िर ज़ालिम क़ौम की हिमायत करता है। ((( यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के सिर्फ़ ज़ुल्म करना ही ज़ुल्म नहीं है बल्कि ज़ालिम की हिमायत भी एक तरह का ज़ुल्म है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस ज़ुल्म से भी महफ़ूज़ रहे और मुकम्मल आदिलाना ज़िन्दगी गुज़ारे और हर शै को उसी मुक़ाम पर रखे जो उसका महल और मौक़ा है।)))
350- सख़्तियों की इन्तेहा ही पर कशाइशे हाल पैदा होती है और बलाओं के हलक़ों की तंगी ही के मौक़े पर आसाइश पैदा होती है।
(((मक़सद यह है के इन्सान को सख्तियो और तंगियों में मायूस नहीं होना चाहिये बल्कि हौसलों को बलन्द रखना चाहिये और सरगर्म अमल रहना चाहिये के क़ुराने करीम ने सहूलत को तंगी और ज़हमत के बाद नहीं रखा है बल्कि उसी के साथ रखा है।)))
351- अपने बाज़ असहाब से खि़ताब करके फ़रमाया - ज़्यादा हिस्सा बीवी बच्चों की फ़िक्र में मत रहा करो और अगर यह अल्लाह के दोस्त हैं तो अल्लाह इन्हें बरबाद नहीं होने देगा और अगर उसके दुश्मन हैं तो तुम दुश्मनाने ख़ुदा के बारे में क्यों फ़िक्रमन्द हो। (मक़सद यह है के इन्सान अपने दाएरे से बाहर निकल कर समाज और मुआशरे के बारे में भी फ़िक्र करे। सिर्फ कुएं का मेंढक बनकर न रह जाए) (((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इन्सान अहल व अयाल की तरफ़ से यकसर ग़ाफ़िल हो जाए और उन्हें परवरदिगार के रहम व करम पर छोड़ दे, परवरदिगार का रहम व करम माँ-बाप से यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन माँ-बाप की अपनी भी एक ज़िम्मेदारी है इसका मक़सद सिर्फ़ यह है के बक़द्रे वाजिब खि़दमत करके बाक़ी मामलात को परवरदिगार के हवाले कर दे और उनकी तरफ़ सरापा तवज्जो बनकर परवरदिगार से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))
352- बदतरीन ऐब यह है के इन्सान किसी ऐब को बुरा कहे और फिर उसमें वही ऐब पाया जाता हो।
353- हज़रत के सामने एक शख़्स ने एक शख़्स को फ़रज़न्द की मुबारकबद देते हुए कहा के शहसवार मुबारक हो, तो आपने फ़रमाया के यह मत कहो बल्कि ह कहो के तुमने देने वाले का शुक्रिया अदा किया है लेहाज़ा तुम्हें यह तोहफ़ा मुबारक हो। ख़ुदा करे के यह मन्ज़िले कमाल तक पहुंचेे और तुम्हें इसकी नेकी नसीब हो।
354- आपके गवर्नरो में से एक शख़्स ने अज़ीम इमारत तामीर कर ली तो आपने फ़रमाया के चान्दी के सिक्कों ने सर निकाल लिया है। यक़ीनन तामीर तुम्हारी मालदारी की ग़माज़ी करती है।
355- किसी ने आपसे सवाल किया के अगर किसी शख़्स के घर का दरवाज़ा बन्द कर दिया जाए और उसे तन्हा छोड़ दिया जाए तो उसका रिज़्क़ कहाँ से आएगा? फ़रमाया के जहाँ से उसकी मौत आएगी।
356- एक जमाअत को किसी मरने वाले की ताज़ियत पेश करते हुए फ़रमाया - यह बात तुम्हारे यहाँ कोई नई नहीं है और न तुम्हीं पर इसकी इन्तेहा है। तुम्हारा यह साथी सरगर्मे सफ़र रहा करता था तो समझो के यह भी एक सफ़र है। इसके बाद या वह तुम्हारे पास वारिद होगा या तुम उसके पास वारिद होगे।
357- लोगों! अल्लाह नेमत के मौक़े पर भी तुम्हें वैसे ही ख़ौफ़ज़दा देखे जिस तरह अज़ाब के मामले में हरासाँ देखता है के जिस शख़्स को फ़राख़दस्ती हासिल हो जाए और वह उसे अज़ाब की लपेट न समझे तो उसने ख़ौफ़नाक चीज़ से भी अपने को मुतमईन समझ लिया है और जो तंगदस्ती में मुब्तिला हो जाए और उसे इम्तेहान न समझे उसने इस सवाब को भी ज़ाया कर दिया जिसकी उम्मीद की जाती है। ((( मक़सद यह है के ज़िन्दगानी के दोनों तरह के हालात में दोनों तरह के एहतेमालात पाए जाते हैं। राहत व आराम में इमकाने फ़ज़्ल व करम भी है और एहतेमाले मोहलत व इतमामे हुज्जत भी है और इसी तरह मुसीबत और परेशानी के माहौल में एहतेमाल एताब व अक़ाब भी है और एहतेमाल इम्तेहान व इख़्तेबार भी है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के राहतों के माहौल में इस ख़तरे से महफ़ूज़ हो जाए के इस तरह भी क़ौमों को अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और परेशानियों के हालात में इस रूख़ से ग़ाफ़िल न हो जाए के यह इम्तेहान भी हो सकता है और इसमें सब्र व तहम्मुल का मुज़ाहेरा करके अज्र व सवाब भी हासिल किया जा सकता है। )))
358- ऐ हिर्स व लालच के असीरों! अब बाज़ आ जाओ के दुनिया पर टूट पड़ने वालों को हवादिसे ज़माना के दांत पीसने के अलावा कोई ख़ौफ़ज़दा नहीं कर सकता है। ऐ लोगों! अपने नफ़्स की इस्लाह की ज़िम्मेदारी ख़ुद सम्भाल लो और अपनी आदतों के तक़ाज़ों से मुंह मोड़ लो।
(((मक़सद यह है के ख़्वाहिशात के असीर न बनो और दुनिया का एतबार न करो। अन्जामकार की ज़हमतों से होशियार रहो और अपने नफ़्स को अपने क़ाबू में रखो ताके बेजा रुसूम और महमिल आदात का इत्तेबाअ न करो)))
359- किसी की बात के ग़लत मानी न लो जब तक सही मानी का इमकान मौजूद है। (((काश हर शख़्स इस तालीम को इख़्तेयार कर लेता तो समाज के बेशुमार मफ़ासिद से निजात मिल जाती और दुनिया में फ़ित्ना व फ़साद के अकसर रास्ते बन्द हो जाते मगर अफ़सोस के ऐसा नहीं होता है और हर शख़्स दूसरे के बयान में ग़लत पहलू पहले तलाश करता है और सही रूख़ के बारे में बाद में सोचता है)))
360- अगर परवरदिगार की बारगाह में तुम्हारी कोई हाजत हो तो उसकी तलब का आग़ाज़ रसूले अकरम (स0) पर सलवात से करो और उसके बाद अपनी हाजत तलब करो के परवरदिगार इस बात से बालातर है के उससे दो बातों का सवाल किया जाए और वह एक को पूरा कर दे और एक को नज़रअन्दाज़ कर दे।
(((यह सही है के रसूले अकरम (स0) हमारी सलवात और दुआए रहमत के मोहताज नहीं हैं लेकिन इसके यह मानी हरगिज़ नहीं है के हम अपने अदाए शुक्र से ग़ाफ़िल हो जाएं और उनकी तरफ़ से मिलने वाली नेमते हिदायत का किसी शक्ल में कोई बदला न दें वरना परवरदिगार भी हमारी इबादतों का मोहताज नहीं है तो हर इन्सान इबादतों को नज़़र अन्दाज़ करके चैन से सो जाए। सलवात का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होता है के इन्सान परवरदिगार की नज़्रे इनायत का हक़दार हो जाता है और इस तरह इसकी दुआएं क़ाबिले क़ुबूल हो जाती हैं।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 361-380
361- जो अपनी आबरू को बचाना चाहता है उसे चाहिये के लड़ाई झगड़े से परहेज़ करे।
362- किसी बात के इमकान से पहले जल्दी करना और वक़्त आ जाने पर देर करना दोनों ही हिमाक़त है।
363- जो बात होने वाली नहीं है उसके बारे में सवाल मत करो के जो हो गया है वही तुम्हारे लिये काफ़ी है।
364-फ़िक्र एक शफ़्फ़ाफ़ आईना है और इबरत हासिल करना एक इन्तेहाई मुख़लिस मुतनब्बेह करने वाला है। तुम्हारे नफ़्स के अदब के लिये इतना ही काफ़ी है के जिस चीज़ को दूसरों के लिये नापसन्द करते हो उससे ख़ुद भी परहेज़ करो।
(((इसमें कोई शक नहीं हे के फ़िक्र एक शफ़्फ़ाफ़ आईना है जिसमें ब-आसानी मजहूलात का चेहरा देख लिया जाता है और अहले मन्तक़ ने इसकी यही तारीफ़ की है के मालूमात को इस तरह मुरत्तब किया जाए के इससे मजहूलात का इल्म हासिल हो जाए, लेकिन सिर्फ़ मुस्तक़बिल का चेहरा देख लेना ही कोई हुनर नहीं है। अस्ल हुनर और काम इससे इबरत हासिल करना है के इन्सान के हक़ में इबरत से ज़्यादा मुख़लिस नसीहत करने वाला कोई नहीं है और यही इबरत है जो उसे हर बुराई और मुसीबत से बचा सकती है वरना इसके अलावा कोई यह कारे ख़ैर अन्जाम देने वाला नहीं है।)))
365-इल्म का मुक़द्दर अमल से जुड़ा है और जो वाक़ेई साहेबे इल्म होता है वह अमल भी करता है। याद रखो के इल्म अमल के लिये आवाज़ देता है और इन्सान सुन लेता है तो ख़ैर वरना ख़ुद भी रूख़सत हो जाता है।
(((बिला शक व शुबह इल्म एक कमाल है और मजहूलात का हासिल कर लेना एक हुनर है लेकिन सवाल यह है के इसे ब-कमाल और साहबे हुनर किस तरह कहा जा सकता है जो यह तो दरयाफ़्त कर ले के फ़लाँ चीज़ में ज़हर है मगर इससे इज्तेनाब न करे। ऐसे शख़्स काो तो मज़ीद अहमक़ और नालाएक़ तसव्वुर किया जाता है। इल्म का कमाल यही है के अफ़सान इसके मुताबिक़ अमल करे ताके साहेबे इल्म और साहेबे कमाल कहे जाने का हक़दार हो जाए वरना इल्म एक वबाल हो जाएगा और अपनी नाक़द्री से नाराज़ होकर रूख़सत भी हो जाएगा। सिर्फ़ नामे इल्म बाक़ी रह जाएगा और हक़ीक़ते इल्म ख़त्म हो जाएगी।)))
366- ऐ लोगो! दुनिया का सरमाया एक सड़ा भूसा है जिससे वबा फैलने वाली है लेहाज़ा इसकी चरागाह से होशियार रहो। इस दुनिया से चल चलाव सुकून के साथ रहने से ज़्यादा फ़ायदेमन्द है और यहाँ का बक़द्रे ज़रूरत सामान सरवत से ज़्यादा बरकत वाला है। यहाँ के दौलतमन्द के बारे में एक दिन एहतियाज लिख दी गई है और इससे बे नियाज़ रहने वाले को राहत का सहारा दे दिया जाता है। जिसे इसकी ज़ीनत पसन्द आ गई उसकी आंखों को अन्जामकारिया अन्धा कर देती है और जिसने इससे शग़फ़ को शोआर बना लिया उसके ज़मीर को रन्ज व अन्दोह से भर देती है और यह फ़िक्रें इसके नुक़्तए क़ल्ब के गिर्द चक्कर लगाती रहती हैं बाज़ इसे मशग़ूल बना लेती हैं और बाज़ महज़ून बना देती हैं और यह सिलसिला यूँ ही क़ायम रहता है यहाँ तक के इसका गला घोंट दिया जाए और उसे फ़िज़ा (क़ब्र) में डाल दिया जाए जहाँ दिल की दोनों रगें कट जाएँ। ख़ुदा के लिये इसका फ़ना कर देना भी आसान है और भाइयों के लिये इसे क़ब्र में डाल देना भी मुश्किल नहीं है। मोमिन वही है जो दुनिया की तरफ़ इबरत की निगाह से देखता है और पेट की ज़रूरत भर सामान पर गुज़ारा कर लेता है। इसकी बातों को अदावत व नफ़रत के कानों से सुनता है, के जब किसी के बारे में कहा जाता है के मालदार हो गया है तो फ़ौरन आवाज़ आती है के नादार हो गया है। और जब किसी को बक़ा के तसव्वुर से मसरूर किया जाता है तो फ़ना के ख़याल से रन्जीदा बना दिया जाता है और यह सब उस वक़्त है जब अभी वह दिन नहीं आया है जिस दिन अहले दुनिया मायूसी का शिकार हो जाएंगे।
367- परवरदिगारे आलम ने इताअत पर सवाब और गुनाह पर अक़ाब इसीलिये रखा है ताके बन्दों को अपने ग़ज़ब से दूर रख सके और उन्हें घेरकर जन्नत की तरफ़ ले आए।
368- लोगों पर एक ऐसा दौर भी आने वाला है जब क़ुरान में सिर्फ़ नुक़ूश बाक़ी रह जाएंगे और इस्लाम में सिर्फ़ नाम बाक़ी रह जाएगा। मस्जिदें ततामीरात के एतबार से आबाद होंगी और हिदायत के एतबार से बरबाद होंगी। उसके रहने वाले और आबाद करने वाले सब बदतरीन अहले ज़माना होंगे। उन्हीं से फ़ित्ना बाहर आएगा और उन्हीं की तरफ़ ग़लतियों को पनाह मिलेगी। जो इससे बचकर जाना चाहेगा उसे इसकी तरफ़ पलटा देंगे और जो दूर रहना चाहेगा उसे हँकाकर ले आएंगे। परवरदिगार का इरशाद है के मेरी ज़ात की क़सम मैं इन लोगों पर एक ऐसे फ़ित्ने को मुसल्लत कर दूँगा जो साहबे अक़्ल को भी हैरतज़दा बना देगा और यह यक़ीनन होकर रहेगा। हम उसकी बारगाह में ग़फ़लतों की लग्ज़िशों से पनाह चाहते हैं।
(((शायद के हमारा दौर इस इरशादे गिरामी का बेहतरीन मिस्दाक़ है जहाँ मसाजिद की तामीर भी एक फ़ैशन हो गई है और इसका इज्तेमाअ भी एक फ़ंक्शन होकर रह गया है। रूहे मस्जिद फ़ना हो गई है और मसाजिद से वह काम नहीं लिया जा रहा है जो मौलाए कायनात के दौर में लिया जा रहा था। जहाँ इस्लाम की हर तहरीक का मरकज़ मस्जिद थी और बातिल से हर मुक़ाबले का मन्सूबा मस्जिद में तैयार होता था। लेकिन आज मस्जिदें सिर्फ़ हुकूमतों के लिये दुआए ख़ैर का मरकज़ हैं और उनकी शख्सियतों के प्रोपेगन्डा का बेहतरीन प्लेटफ़ार्म हैं, रब्बे करीम इस सूरतेहाल की इस्स्लाह फ़रमाए।)))
369-कहा जाता है के आप जब भी मिम्बर पर तशरीफ़ ले जाते थे तो ख़ुतबे से पहले यह कलेमात इरशाद फ़रमाया करते थेः
लोगों! अल्लाह से डरो, उसने किसी को बेकार नहीं पैदा किया है के खेल कूद में लग जाए और न आज़ाद छोड़ दिया है के लग़्वियात करने लगे। यह दुनिया जो इन्सान की निगाह में आरास्ता हो गई है यह उस आखि़रत का बदल नहीं बन सकती है जिसे बुरी निगाह ने क़बीह बना दिया है जो फ़रेब ख़ोरदा दुनिया हासिल करने में कामयाब हो जाए वह इसका जैसा नहीं है जो आख़ेरत में अदना हिस्सा भी हासिल कर ले।
370-इस्लाम से बलन्दतर कोई शरफ़ नहीं है और तक़वा से ज़्यादा ब-इज़्ज़त कोई इज़्ज़त नहीं है। परहेज़गारी से बेहतर कोई पनाहगाह नहीं है और तौबा से ज़्यादा कामयाब कोई शिफ़ाअत करने वाला नहीं है। क़नाअत से ज़्यादा मालदार बनाने वाला कोई ख़ज़ाना नहीं है और रोज़ी पर राज़ी हो जाने से ज़्यादा फ़क़्र व फ़ाक़ा को दूर करने वाला कोई माल नहीं है। जिसने बक़द्रे किफ़ायत सामान पर गुज़ारा कर लिया उसने राहत को हासिल कर लिया और सुकून की मन्ज़िल में घर बना लिया। ख़्वाहिश रन्ज व तकलीफ़ की कुन्जी और तकलीफ़ व ज़हमत की सवारी है। हिरस तकब्बुर और हसद गुनाहों में कूद पड़ने के असबाब व मोहर्रकात हैं और शर ततमाम बुराइयों का जामा है।
372- आपने जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी से फ़रमाया के जाबिर दीन व दुनिया का क़याम चार चीज़ों से है - वह आलिम जो अपने इल्म को इस्तेमाल भी करे और वह जाहिल जो इल्म हासिल करने से इन्कार न करे। वह सख़ी जो अपनी नेकियों में कंजूसी न करे। और वह फ़क़ीर जो अपनी आख़ेरत को दुनिया के एवज़ फ़रोख़्त न करे। लेहाज़ा (याद रखो) अगर आलिम अपने को बरबाद कर देगा तो जाहिल भी उसके हुसूल से अकड़ जाएगा और अगर ग़नी अपनी नेकियों में कंजूसी करेगा तो फ़क़ीर भी आख़ेरत को दुनिया के एवज़ बेचने पर आमादा हो जाएगा। जाबिर! जिस पर अल्लाह की नेमतें ज़्यादा होती हैं उसकी तरफ़ लोगों की एहतियाज भी ज़्यादा होती है लेहाज़ा जो शख़्स अपने माल में अल्लाह के फ़राएज़ के साथ क़याम करता है वह उसकी बक़ा व दवाम का सामान फ़राहम कर लेता है और जो उन वाजेबात को अदा नहीं करता है वह उसे ज़वाल व फ़ना के रास्ते पर लगा देता है। (((इस फ़िक़रे में सलामती और बराअत का मफ़हूम यही है के मुनकेरात को बुरा समझना और उससे राज़ी न होना इन्सान की फ़ितरते सलीम का हिस्सा है जिसका तक़ाज़ा अन्दर से बराबर जारी रहता है लेहाज़ा अगर उसने बेज़ारी का इज़हार कर दिया तो गोया फ़ितरत के सलीम होने का सबूत दे दिया और उस फ़रीज़े से सुबुकदोश हो गया जो फ़ितरते सलीम ने उसके ज़िम्मे आयद किया था वरना अगर ऐसा भी न करता तो उसका मतलब यह था के फ़ितरते सलीम पर ख़ारेजी अनासिर ग़ालिब आ गए हैं और उन्होंने बर अल ज़िम्मा होने से रोक दिया है)))
372-इब्ने जरीर तबरी ने अपनी तारीख़ में अब्दुर्रहमान बिन अबी लैला से नक़्ल किया है जो हज्जाज से मुक़ाबला करने के लिये इब्ने अश्अस से निकला था और लोगों को जेहाद पर आमादा कर रहा था के मैंने हज़रत अली (अ0) (ख़ुदा स्वालेहीन में उनके दरजात को दृ का सवाब इनायत करे) से उस दिन सुना है जब हम लोग शाम वालों से मुक़ाबला कर रहे थे के हज़रत ने फ़रमायाः ईमान वालों! जो शख़्स यह देखे के ज़ुल्म व तअदी पर अमल हो रहा है और बुराइयों की तरफ़ दावत दी जा रही है और अपने दिल से इसका इन्कार कर दे तो गोया महफ़ूज़ रह गया और बरी हो गया, और अगर ज़बान से इन्कार कर दे तो अज्र का हक़दार भी हो गया के यह सिर्फ़ क़ल्बी इन्कार से बेहतर सूरत है और अगर कोई शख़्स तलवार के ज़रिये इसकी रोकथाम करे ताके अल्लाह का कलमा बलन्द हो जाए और ज़ालेमीन की बात पस्त हो जाए तो यही वह शख़्स है जिसने हिदायत के रास्ते को पा लिया है और सीधे रास्ते पर क़ायम हो गया है और उसके दिल में यक़ीन की रोशनी पैदा हो गई है।
372- (इसी मौज़ू से मुताल्लिक़ दूसरे मौक़े पर इरशाद फ़रमाया) बाज़ लोग मुन्किरात का इन्कार दिल, ज़बान और हाथ सबसे करते हैं तो यह ख़ैर के तमाम शोबों के मालिक हैं और बाज़ लोग सिर्फ़ ज़बान और दिल से इन्कार करते हैं और हाथ से रोक थाम नहीं करते हैं तो उन्होंने नेकी की दो ख़सलतों को हासिल किया है और एक ख़सलत को बरबाद कर दिया है और बाज़ लोग सिर्फ़ दिल से इन्कार करते हैं और न हाथ इस्तेमाल करते हैं और न ज़बान तो उन्होंने दो ख़स्लतों को ज़ाया कर दिया है और सिर्फ़ एक को पकड़ लिया है। और बाज़ वह हैं जो दिल, ज़बान और हाथ से भी बुराइयों का इन्कार नहीं करते हैं ततो यह ज़िन्दों के दरम्यान मुर्दा की हैसियत रखतते हैं और याद रखो के जुमला आमाल ख़ैर मय जेहादे राहे ख़ुदा, अम्रे बिल मारूफ़ और नहीं अनिल मुनकर के मुक़ाबले में वही हैसियत रखते हैं जो गहरे समन्दर में लोआबे दहन के ज़र्रात की हैसियत होती है। और इन तमाम आमाल से बलन्दतर अमल हाकिम ज़ालिम के सामने कलमए इन्साफ़ का एलान है। (((तारीख़े इस्लाम में इसकी बेहतरीन मिसाल अब्ने अलसकीत का किरदार है जहाँ उनसे मुतवक्किल ने सरे दरबार यह सवाल कर लिया के तुम्हारी निगाह में मेरे दोनों फ़रज़न्द मोतबर और मोईद बेहतर हैं या अली (अ0) के दोनों फ़रज़न्द हसन (अ0) और हुसैन (अ0)। तो इब्ने अली अलसकीत ने सुलतान ज़ालिम की आंखों में आंखें डालकर फ़रमाया के हसन (अ0) और हुसैन (अ0) का क्या ज़िक्र है, तेरे फ़रज़न्द और तू दोनों मिलकर अली (अ0) के ग़ुलाम क़म्बर की जूतियों के तस्मे के बराबर नहीं हैं। जिसके बाद मुतवक्किल ने हुक्म दिया के इनकी ज़बान को गुद्दी से खींच लिया जाए और इब्ने अबी अलसकीत ने निहायत दरजए सुकूने क़ल्ब के साथ इस क़ुरबानी को पेश कर दिया और अपने पेशरौ मीसमे तम्मार, हजर बिन अदमी, अम्रो बिन अलहमक़, अबूज़र, अम्मार यासिर और मुख़्तार से मुलहक़ हो गए।)))
374-अबू हनीफ़ा से नक़्ल किया गया है के मैंने अमीरूल मोमेनीन (अ0) को यह फ़रमाते हुए सुना है के सबसे पहले तुम हाथ के जेहाद में मग़लूब होगे उसके बाद ज़बान के जेहाद में और उसके बाद दिल के जेहाद में मगर यह याद रखना के अगर किसी शख़्स ने दिल से अच्छाई को अच्छा और बुराई को बुरा नहीं समझा तो उसे इस तरह उलट-पलट दिया जाएगा के पस्त बलन्द हो जाए और बलन्द पस्त हो जाए।
375- हक़ हमेशा संगीन होता है मगर ख़ुशगवार होता है और बातिल हमेशा आसान होता है मगर मोहलक होता है।
376- देखो! इस उम्मत के बेहतरीन आदमी के बारे में भी अज़ाब से मुतमईन न हो जाना के अज़ाबे इलाही की तरफ़ से सिर्फ़ ख़सारे वाले ही मुतमईन होकर बैठ जाते है और इसी तरह इस उम्मत के बदतरीन के बारे में भी रहमते ख़ुदा से मायूस न हो जाना के रहमते ख़ुदा से मायूसी सिर्फ़ काफ़िरों का हिस्सा है।
(वाज़ेह रहे के इस इरशाद का ताल्लुक़ सिर्फ़ इन गुनहगारों से है जिनका अमल उन्हें सरहदे कुफ्ऱ तक न पहुंचा दे वरना काफ़िर तो बहरहाल रहमते ख़ुदा से मायूस रहता है)
377- कंजूसी उयूब की तराम बुराइयों का जामअ है और यही वह ज़माम है जिसके ज़रिये इन्सान को हर बुराई की तरफ़ खींच कर ले जाता है।
378- इब्ने आदम! रिज़्क़ की दो क़िस्में हैं एक रिज़्क़ वह है जिसे तुम तलाश कर रहे हो और एक रिज़्क़ वह है जो तुमको तलाश कर रहा है के अगर तुम उस तक न पहुंचोगे तो वह तुम्हारे पास आ जाएगा। लेहाज़ा एक साल के हम व ग़म को एक दिन पर बरबाद न कर दो। हर दिन के लिये उसी दिन की फ़िक्र काफ़ी है, इससके बाद अगर तुम्हारी उम्र में एक साल बाक़ी रह गया तो हर आने वाला दिन अपना रिज़्क़ अपने साथ लेकर आएगा और अगर साल बाक़ी नहीं रह गया है तो साल भर की फ़िक्र की ज़रूरत ही क्या है। तुम्हारे रिज़्क़ को तुमसे पहले कोई पा नहीं सकता है और तुम्हारे हिस्से पर कोई ग़ालिब आ नहीं सकता है बल्कि जो तुम्हारे हक़ में मुक़द्दर हो चुका है वह देर से भी नहीं आएगा।
सय्यद रज़ी- यह इरशादे गिरामी इससे पहले भी गुज़र चुका है मगर यहां ज़्यादा वाज़ेह और मुफ़स्सल है लेहाज़ा दोबारा ज़िक्र कर दिया गया है।
(((इसका यह मक़सद हरगिज़ नहीं है के इन्सान मेहनत व मशक़्क़त छोड़ दे और इस उम्मीद में बैठ जाए के रिज़्क़ की दूसरी क़िस्म बहरहाल हासिल हो जाएगी और इसी पर क़नाअत कर लेगा। बल्कि यह दरहक़ीक़त उस नुक्ते की तरफ़ इशारा है के यह दुनिया आलमे असबाब है यहाँ मेहनत व मशक़्क़त बहरहाल करना है और यह इन्सान के फ़राएज़े इन्सानियत व अब्दीयत में शामिल है लेकिन इसके बाद भी रिज़्क़ का एक हिस्सा है जो इन्सान की मेहनत व मशक़्क़त से बालातर है और वह इन असबाब के ज़रिये पहुंच जाता है जिनका इन्सान तसव्वुर भी नहीं करता है जिस तरह के आप घर से निकलें और कोई शख़्स रास्ते में एक ग्लास पानी या एक प्याली चाय पिला दे, ज़ाहिर है के यह पानी या चाय न आपके हिसाबे रिज़्क़ का कोई हिस्सा है और न आपने इसके लिये कोई मेहनत की है। यह परवरदिगार का एक करम है जो आपके शामिले हाल हो गया है और उसने इस नुक्ते की वज़ाहत कर दी के अगर ज़िन्दगानी दुनिया में मेहनत नाकाफ़ी भी हो जाए तो रिज़्क़ का सिलसिला बन्द होने वाला नहीं है। परवरदिगार के पास अपने वसाएल मौजूद हैं वह इन वसाएल से रिज़्क़ फ़राहम कर देगा। वह मोसब्बेबुल असबाब है, असबाब का पाबन्द नहीं है।)))
379- बहुत से लोग ऐसे दिन का सामना करने वाले हैं जिससे पीठ फिराने वाले नहीं हैं और बहुत से लोग ऐसे हैं जिनकी क़िस्मत पर सरे शाम रश्क किया जाता है और सुबह होते उन पर रोने वालियों का हुजूम लग जाता है।
380- गुफ़्तगू तुम्हारे क़ब्ज़े में है जब तक इसका इज़हार न हो जाए। इसके बाद फिर तुम इसके क़ब्ज़े में चले जाते हो। लेहाज़ा अपनी ज़बान को वैसे ही महफ़ूज़ रखो जैसे सोने चान्दी की हिफ़ाज़त करते हो। के बाज़ कलेमात नेमतों को सल्ब कर लेते हैं और अज़ाब को जज़्ब कर लेते हैं।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 381-400
381- जो बात नहीं जानते हो उसे ज़बान से मत निकालो बल्कि हरर वह बात जिसे जानते हो उसे भी मत बयान करो के अल्लाह ने हर अज़ो बदन के कुछ फ़राएज़ क़रार दिये हैं और उन्हीं के ज़रिये रोज़े क़यामत हुज्जत क़ायम करने वाला है।
382- इस बात से डरो के अल्लाह तुम्हें मासीयत के मौक़े पर हाज़िर देखे और इताअत के मौक़े पर ग़ायब पाए के इस तरह ख़सारा वालों में शुमार हो जाओगे। अगर तुम्हारे पास ताक़त है तो उसका इज़हार इताअते ख़ुदा में करो और अगर कमज़ोरी दिखलाना है तो उसे गुनाह के मौक़े पर दिखलाओ।
383- दुनिया के हालात देखने के बावजूद इसकी तरफ़ रूझान और मीलान सिर्फ़ जेहालत है और सवाब के यक़ीन के बाद भी नेक अमल में कोताही करना ख़सारा है। इम्तेहान से पहले हर एक पर एतबार कर लेना आजिज़ी और कमज़ोरी है।
384- ख़ुदा की निगाह में दुनिया की हिक़ारत के लिये इतना ही काफ़ी है के इसकी गुनाह इसी दुनिया में होती है आौर इसकी असली नेमतें इसको छोड़ने के बग़ैर हासिल नहीं होती हैं।
385- जो किसी शै का तलबगार होता है वह कुल या जुज़ बहरहाल हासिल कर लेता है।
386- वह भलाई भलाई नहीं है जिसका अन्जाम जहन्नम हो और वह बुराई बुराई नहीं है जिसकी आक़ेबत जन्नत हो। जन्नत के अलावा हर नेमत हक़ीर है और जहन्नुम से बच जाने के बाद हर मुसीबत आफ़ियत है।
387- याद रखो के फ़क़्र व फ़ाक़ा भी एक बला है और इससे ज़्यादा सख़्त मुसीबत बदन की बीमारी है और इससे ज़्यादा दुश्वारगुज़ार दिल की बीमारी है। मालदारी यक़ीनन एक नेमत है लेकिन इससे बड़ी नेमत सेहते बदन है और इससे बड़ी नेमत दिल की परहेज़गारी है। (((यह नुक्ता उन ग़ोरबा और फ़ोक़रा के समझने के लिये है जो हमेशा ग़ुरबत का मरसिया पढ़ते रहते हैं और कभी सेहत का शुक्रिया नहीं अदा करते हैं जबके तजुर्बात की दुनिया में यह बात साबित हो चुकी है के अमराज़ का औसत दौलतमन्दों में ग़रीबों से कहीं ज़्यादा है और हार्ट अटैक के बेशतर मरीज़ इसी ऊंचे तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं। बल्कि बाज़ औक़ात तो अमीरों की ज़िन्दगी में ग़िज़ाओं से ज़्यादा हिस्सा दवाओं का होता है और वह बेशुमार ग़िज़ाओं से यकसर महरूम हो जाते हैं।
सेहते बदन परवरदिगार का एक मख़सूस करम है जो वह अपने बन्दों के शामिलेहाल कर देता है लेकिन ग़रीबों को भी इस नुक्ते का ख़याल रखना चाहिये के अगर उन्होंने इस सेहत का शुक्रिया न अदा किया और सिर्फ़ ग़ुरबत की शिकायत करते रहे तो इसका मतलब यह है के यह लोग जिस्मानी एतबार से सेहतमन्द हैं लेकिन रूहानी एतबार से बहरहाल मरीज़ हैं और यह मर्ज़ नाक़ाबिले इलाज हो चुका है। रब्बे करीम हर मोमिन व मोमेना को इस मर्ज़ से निजात अता फ़रमाए।)))
388- जिसको अमल पीछे हटा दे उसे नसब आगे नहीं बढ़ा सकता है। या (दूसरी रिवायत में) जिसके हाथ से अपना किरदार निकल जाए उसे आबा व अजदाद के कारनामे फ़ायदा नहीं पहुंचा सकते हैं।
389- मोमिन की ज़िन्दगी के तीन औक़ात होते हैं- एक साअत में वह अपने रब से राज़ व नियाज़ करता है और दूसरे वक़्त में अपने मआश की इस्लाह करता है और तीसरे वक़्त में अपने नफ़्स को उन लज़्ज़तों के लिये आज़ाद छोड़ देता है जो हलाल और पाकीज़ा हैं। किसी अक़्लमन्द को यह ज़ेब नहीं देता है के अपने घर से दूर हो जाए मगर यह के तीन में से कोई एक काम हो - अपने मआश की इस्लाह करे, आख़ेरत की तरफ़ क़दम आगे बढ़ाए, हलाल और पाकीज़ा लज़्ज़त हासिल करे।
390- दुनिया में ज़ोहद इख़्तेयार करो ताके अल्लाह तुम्हें इसकी बुराइयों से आगाह कर दे और ख़बरदार ग़ाफ़िल न हो जाओ के तुम्हारी तरफ़ से ग़फ़लत नहीं बरती जाएगी।
391- बोलो ताके पहचाने जाओ इसलिये के इन्सान की शख़्सियत इसकी ज़बान के नीचे छुपी रहती है।
392- जो दुनिया में हासिल हो जाए उसे ले लो और जो चीज़ तुमसे मुंह मोड़ ले तुम भी उससे मुंह फेर लो और अगर ऐसा नहीं कर सकते हाो तो तलब में मयानारवी से काम लो।
393- बहुत से अलफ़ाज़ हमलों से ज़्यादा असर रखने वाले होते हैं। (((इसी बुनियाद पर कहा गया है के तलवार का ज़ख़्म भर जाता है लेकिन ज़बान का ज़ख़्म नहीं भरता है। और इसके अलावा दोनों का बुनियादी फ़र्क़ यह है के हमलों का असर महदूद इलाक़ों पर होता है और जुमलों का असर सारी दुनिया में फैल जाता है जिसका मुशाहेदा इस दौर में बख़ूबी किया जा सकता है के हमले तमाम दुनिया में बन्द पड़े हैं लेकिन जुमले अपना काम कर रहे हैं और मीडिया सारी दुनिया में ज़हर फैला रहा है और सारे आलमे इन्सानियत को हर जहत और एतबार से तबाही और बरबादी के घाट उतार रहा है।)))
394- जिस पर इक्तिफ़ा कर ली जाए वही काफ़ी हो जाता है। (((हिरस व हव सवह बीमारी है जिसका इलाज क़नाअत और किफ़ायत शआरी के अलावा कुछ नहीं है। यह दुनिया ऐसी है के अगर इन्सान इसकी लालच में पड़ जाए तो मुल्के फ़िरऔन और इक़्तेदारे यज़ीद व हज्जाज भी कम पड़ जाता है और किफ़ायत शआरी पर आ जाए तो जौ की रोटियाँ भी उसके किरदार कर एक हिस्सा बन जाती हैं और वह निहायत दरजए बेनियाज़ी के साथ दुनिया को तलाक़ देने पर आमादा हो जाता है और फ़िर रूजू करने का भी इरादा नहीं करता है।)))
395- मौत हो लेकिन ख़बरदार ज़िल्लत न हो। कम हो लेकिन दूसरों को वसीला न बनाना पड़े। जिसे बैठकर नहीं मिल सकता है उसे खड़े होकर भी नहीं मिल सकता है। ज़माना दोनों का नाम है- एक दिन तुम्हारे हक़ में होता है तो दूसरा तुम्हारे खि़लाफ़ होता है लेहाज़ा अगर तुम्हारे हक़ में हो तो मग़रूर न हो जाना और तुम्हारे खि़लाफ़ हो जाए तो सब्र से काम लेना। (((यहाँ बैठने से मुराद बैठ जाना नहीं है वरना इस नसीहत को सुनकर हर इन्सान बैठ जाएगा और मेहनत व मशक़्क़त का सिलसिला ही मौक़ूफ़ हो जाएगा बल्कि इस बैठने से मुराद बक़द्रे ज़रूरत मेहनत करना है जो इन्सानी ज़िन्दगी के लिये काफ़ी हो और इन्सान उससे ज़्यादा जान देने पर आमादा न हो जाए के इसका कोई फ़ायदा नहीं है और फ़िज़ूल मेहनत से कुछ ज़्यादा हासिल होने वाला नहीं है।)))
396- बेहतरीन ख़ुशबू का नाम मुश्क है जिसका वज़्न इन्तेहाई हलका होता है और ख़ुशबू निहायत दरजा महकदार होती है।
397- फ़ख़्र व सरबलन्दी को छोड़ दो और तकब्बुर व ग़ुरूर को फ़ना कर दो और फिर अपनी क़ब्र को याद करो।
398- फ़रज़न्द का बाप पर एक हक़ होता है और बाप का फ़रज़न्द पर एक हक़ होता है। बाप का हक़ यह है के बेटा हर मसले में इसकी इताअत करे मासियते परवरदिगार के अलावा और फ़रज़न्द का हक़ बाप पर यह है के उसका अच्छा सा नाम तजवीज़ करे और उसे बेहतरीन अदब सिखाए और क़ुराने मजीद की तालीम दे।
399- चश्मे बद- फ़सोंकारी, जादूगरी और फ़ाल नेक यह सब वाक़ईयत रखते हैं लेकिन बदशगूनी की कोई हक़ीक़त नहीं है और यह बीमारी की छूत छात भी बेबुनियाद अम्र है। ख़ुशबू, सवारी, शहद और सब्ज़ा देखने से फ़रहत हासिल होती है। (((काश कोई शख़्स हमारे मुआशरे को इस हक़ीक़त से आगाह कर देता और इसे बावर करा देता के बद शगूनी एक वहमी अम्र है और इसकी कोई हक़ीक़त व वाक़ईयत नहीं है और मर्दे मोमिन को सिर्फ़ हक़ाएक़ और वाक़ेयात पर एतमाद करना चाहिये। मगर अफ़सोस के मुआशरे का सारा कारोबार सिर्फ़ औहाम व ख़यालात पर चल रहा है और शगूने नेक की तरफ़ कोई शख़्स मुतवज्जेह नहीं होता है और बदशगूनी का एतबार हर शख़्स कर लेता है और इसी पर बेशुमार समाजी असरात भी मुरत्तब हो जाते हैं और मुआशेरती फ़साद का एक सिलसिला शुरू हो जाता है।)))
400- लोगों के साथ एख़लाक़ियात में क़ुरबत रखना उनके शर से बचाने का बेहतरीन ज़रिया है।
(((चूंके हर इन्सान की ख़्वाहिश होती है के लोग उसके साथ बुरा बरताव न करें और वह हर एक के शर से महफ़ूज़ रहे लेहाज़ा इसका बेहतरीन तरीक़ा यह है के लोगों से ताल्लुक़ात क़ायम करे और उनसे रस्म-राह बढ़ाए ताके वह शर फैलाने का इरादा ही न करें। के मुआशरे में ज़्यादा हिस्सए शर इख़तेलाफ़ और दूरी से पैदा होता है वरना क़ुरबत के बाद किसी न किसी मिक़दार में तकल्लुफ़ ज़रूर पैदा हो जाता है।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 401-420
401- एक शख़्स ने आपके सामने अपनी औक़ात से ऊंची बात कह दी, तो फ़रमाया तुम तो पर निकलने से पहले ही उड़ने लगे और जवानी आने से पहले ही बिलबिलाने लगे।
सय्यद रज़ी- शकीर परिन्दे के इब्तिदाई परों को कहा जाता है और सक़ब छोटे ऊंट का नाम है जबके बिलबिलाने का सिलसिला जवाने के बाद शुरू होता है।
(((बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके पास इल्म व फ़ज़्ल और कमाल व हुनर कुछ नहीं होता है लेकिन ऊंची महफ़िलों में बोलने का शौक़ ज़रूर रखते हैं जिस तरह के बाज़ ख़ोतबा कमाले जेहालत के बावजूद हर बड़ी से बड़ी मजलिस से खि़ताब करने के उम्मीदवार रहते हैं और उनका ख़याल यह होता है के इस तरह अपनी शख़्सियत का रोब क़ायम कर लेंगे और यह एहसास भी नहीं होता है के रही सही इज़्ज़त भी चली जाएगी और मजमए आम में रूसवा हो जाएंगे।
अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने ऐसे ही अफ़राद को तम्बीह की है जो क़ब्ल अज़ वक़्त बालिग़ हो जाते हैं और बलूगे़ फ़िक्री से पहले ही बिलबिलाने लगते हैंं।)))
402- जो मुख़तलिफ़ चीज़ों पर नज़र रखता है उसकी तदबीरें उसका साथ छोड़ देती हैं।
403- आपसे दरयाफ़्त किया गया के “लाहौला वला क़ूवता इल्ला बिल्लाह” के मानी क्या हैं? तो फ़रमाया के हम अल्लाह के साथ किसी चीज़ का इख़्तेयार नहीं रखते हैं और जो कुछ मिल्कियत है सब उसी की दी हुई है तो जब वह किसी ऐसी चीज़ का इख़्तेयार देता है जिसका इख़्तेयार उसके पास हमसे ज़्यादा है तो हमें ज़िम्मेदारियां भी देता है और जब वापस ले लेता है तो ज़िम्मेदारियों को उठा लेता है।
404- आपने देखा के अम्मार यासिर मग़ीरा बिन शैबा से बहस कर रहे हैं तो फ़रमाया अम्मार! उसे उसके हाल पर छोड़ दो। उसने दीन में से इतना ही हिस्सा लिया है जो उसे दुनिया से क़रीबतर बना सके और जानबूझ कर अपने लिये काम को मुश्तबा बना लिया है ताके उन्हीं शुबहात को अपनी लग्ज़िशों का बहाना क़रार दे सके। (((इब्ने अबी अल हदीद ने मख़ीरा के इस्लामम की यह तारीख़ नक़्ल की है के यह शख़्स एक क़ाफ़िले के साथ सफ़र में जा रहा था एक मक़ाम पर सब को शराब पिलाकर बेहोश कर दिया और फिर क़त्ल करके सारा सामान लूट लिया। इसके बाद जब यह ख़तरा पैदा हुआ के वोरसा इन्तेक़ाम लेंगे और जान का बचाना मुश्किल हो जाएगा तो भागकर मदीने आ गया और फ़ौरन इस्लाम क़ुबूल कर लिया के इस तरह जान बचाने का एक रास्ता निकल आएगा। यह शख़्स इस्लाम व ईमान दोनों से बेबहरा था। इस्लाम जान बचाने के लिये इख़्तेयार किया था और ईमान का यह आलम था के बरसरे मिम्बर “कुल्ले ईमान” को गालियाँ दिया करता था और इसी बदतरीन किरदार के साथ दुनिया से रूख़सत हो गया जो हर दुश्मने अली (अ0) का आखि़री अन्जाम होता है।)))
405- किस क़द्र अच्छी बात है के मालदार लोग अज्रे इलाही की ख़ातिर फ़क़ीरों के साथ तवाज़ो से पेश आएं लेकिन इससे अच्छी बात यह है के फ़ोक़रा ख़ुदा पर भरोसा करके दौलतमन्दों के साथ तमकनत से पेश आएं। (((तकब्बुर और तमकनत कोई अच्छी चीज़ नहीं है लेकिन जहाँ तवाज़ोअ और ख़ाकसारी में फ़ितना व फ़साद पाया जाता हो वरना तकब्बुर और तमकनत का इज़हार बेहद ज़रूरी हो जाता है। फ़ोक़रा के तकब्बुर का मक़सद यह नहीं है के ख़्वाह म ख़्वाह अपनी बड़ाई का इज़हार करें और बेबुनियाद तमकनत का सहारा लें, बल्कि इसका मक़सद यह है के अग़नेया के बजाए परवरदिगार पर भरोसा करें और उसकी के भरोसे पर अपनी बेनियाज़ी का इज़हार करें ताके ईमान व अक़ीदे में इस्तेहकाम पैदा हो और अग़नेया भी तवाज़ो और इन्कार पर मजबूर हो जाएं और इस तवाज़ो से उन्हें भी कुछ अज्र व सवाब हासिल हो जाए)))
406- परवरदिगार किसी शख़्स को अक़्ल इनायत नहीं करता है मगर यह के एक दिन उसी के ज़रिये से हलाकत से निकाल लेता है।
407- जो हक़ से टकराएगा हक़ बहरहाल उसे पछाड़ देगा।
408- दिल आँखों का सहीफ़ा है।
409- तक़वा तमाम एख़लाक़ियात का रास व रईस है।
410- अपनी ज़बान की तेज़ी उसके खि़लाफ़ इस्तेमाल न करो जिसने तुम्हें बोलना सिखाया है और अपने कलाम की फ़साहत का मुज़ाहेरा उस पर न करो जिसने रास्ता दिखाया है।
411- अपने नफ़्स की तरबीयत के लिये यही काफ़ी है के उन चीज़ों से इज्तेनाब करो जिन्हें दूसरों के लिये बुरा समझते हो।
412- इन्सान जवाँमर्दों की तरह सब्र करेगा वरना सादा लौहों की तरह चुप हो जाएगा।
413- दूसरी रिवायत में है के आपने अश्अस बिन क़ैस को उसके बेटे की ताज़ियत पेश करते हुए फ़रमाया के बुज़ुर्गों की तरह सब्र करो वरना जानवरों की तरह एक दिन ज़रूर भूल जाओगे।
414- आपने दुनिया की तौसीफ़ करते हुए फ़रमाया के यह धोका देती है, नुक़सान पहुंचाती है और गुज़र जाती है, अल्लाह ने इसे न अपने औलिया के सवाब के लिये पसन्द किया है और न दुश्मनों के अज़ाब के लिये, अहले दुनिया उन सवारों के मानिन्द हैं जिन्होंने जैसे ही क़याम किया हंकाने वाले ने ललकार दिया के कूच का वक़्त आ गया है और फिर रवाना हो गए।
415- अपने फ़रज़न्द हसन (अ0) से बयान फ़रमाया - ख़बरदार दुनिया की कोई चीज़ अपने बाद के लिये छोड़कर मत जाना के इसके वारिस दो ही तरह के लोग होंगे। या वह होंगे जो नेक अमल करेंगे तो जो माल तुम्हारी बदबख़्ती का सबब बना है वही उनकी नेकबख़्ती का सबब होगा और अगर उन्होंने गुनाह में लगा दिया तो वह तुम्हारे माल की वजह सी बदबख़्त होंगे और तुम उनकी गुनाह के मददगार शुमार होगे और इन दोनों में से कोई ऐसा नहीं है जिसे तुम अपने नफ़्स पर तरजीह दे सकते हो।
सय्यद रज़ी- इस कलाम को एक दूसरी तरह भी नक़्ल किया गया है के “यह दुनिया जो आज तुम्हारे हाथ में है कल दूसरे इसके अहल रह चुके हैं और कल दूसरे इसके अहल होंगे और तुम इसे दो में से एक के लिये जमा कर रहे हो या वह शख़्स जो तुम्हारे जमा किये हुए को इताअते ख़ुदा में सर्फ़ करेगा तो जमा करने की ज़हमत तुम्हारी होगी और नेकबख़्ती उसके लिये होगी। या वह शख़्स होगा जो गुनाह में सर्फ़़ करेगा तो उसके लिये जमा करके तुम बदबख़्ती का शिकार होगे और इनमें से कोई इस बात का अहल नहीं है के उसे अपने नफ़्स पर मुक़द्दम कर सको और उसके लिये अपनी पुश्त को गराँबार बना सको लेहाज़ा जो गुज़र गए उनके लिये रहमते ख़ुदा की उम्मीद करो और जो बाक़ी रह गए हैं उनके लिये रिज़्क़े ख़ुदा की उम्मीद करो।”
(((इमाम हसन (अ0) से खि़ताब कसले की अहमियत की तरफ़ इशारा है के इतनी अज़ीम बात का समझना और उससे फ़ायदा उठाना हर इन्सान के बस का काम नहीं है वरना इमामे हसन (अ0) जैसी शख़्सियत का इन्सान इन नुकात की तरफ़ तवज्जो दिलाने का मोहताज नहीं है और इनका काम ख़ुद ही आलमे इन्सानियत को उन हक़ाएक़ से बाख़बर करना और उन नुकात की तरफ़ मुतवज्जोह करना है। बहरहाल मसल इन्तेहाई अहम है के इन्सान को अपनी आक़बत के लिये जो कुछ करना है वह अपनी ज़िन्दगी में करना है, मरने के बाद दूसरों से उम्मीद लगाना एक वसवसए शैतानी है और कुछ नहीं है, फिर माल भी परवरदिगार ने दिया है तो उसका फ़ैसला भी ख़ुद ही करना है, चाहे ज़िन्दगी में सर्फ़ कर दे या उसके मसरफ़ का तअय्युन कर दे वरना फ़ायदा दूसरे अफ़राद उठाएंगे और वबाल उसे बरदाश्त करना पड़ेगा।)))
416- एक शख़्स ने आपके सामने अस्तग़फ़ार किया “अस्तग़फ़ेरूल्लाह” तो आपने फ़रमाया के तेरी माँ तेरे मातम में बैठे। यह असतग़फ़ार बलन्दतरीन लोगों का मक़ाम है और इसके मफ़हूम में छः चीज़ें शामिल हैं- 1. माज़ी पर शर्मिन्दगी 2. आइन्दा के लिये न करने का अज़्मे मोहकम 3. मख़लूक़ात के हुक़ूक़ का अदा कर देना के इसके बाद यूँ पाकदामन हो जाए के कोई मवाख़ेज़ा न रह जाए। 4. जिस फ़रीज़े को ज़ाया कर दिया है उसे पूरे तौर पर अदा कर देना। 5- गोश्त (अकल) हराम से नशो नुमा पाता रहा है इसको ग़म व अन्दोह से पिघलाओ यहाँ तक के खाल को हड्डियों से मिला दो के फिर से इन दोनों के दरम्यान नया गोश्त पैदा हो। 6- अपने जिस्म को इताअत के रन्ज से आश्ना करो जिस तरह उसे गुनाह की शीरीनी से लज़्ज़त अन्दोज़ किया है तो अब कहो “अस्तग़फ़ेरूल्लाह”।
417- हिल्म व तहम्मुल एक पूरा क़बीला है।
418- बेचारा आदमी कितना बेबस है मौत उससे नेहाँ, बीमारियाँ उससे पोशीदा और उसके आमाल महफ़ूज़ हैं मच्छर के काटने से चीख़ उठता है, उच्छू लगने से मर जाता है और पसीना इसमें बदबू पैदा कर देता है।
419- वारिद हुआ है के हज़रत अपने असहाब के दरम्यान बैठे हुए थे, के उनके सामने से एक हसीन औरत का गुज़र हुआ जिसे उन लोगों ने देखना शुरू किया जिस पर हज़रत ने फ़रमाया- इन मर्दों की आंखें ताकने वाली हैं और यह नज़र बाज़ी इनकी ख़्वाहिशात को बराँगीख़्ता करने का सबब है। लेहाज़ा अगर तुममें से किसी की नज़र ऐसी औरत पर पड़े जो उसे अच्छी मालूम हो तो उसे अपनी ज़ौजा की तरफ़ मुतवज्जो होना चाहिये क्यूंके यह औरत भी औरत के मानिन्द है यह सुनकर एक ख़ारेजी ने कहा के ख़ुदा इस काफ़िर को क़त्ल करे यह कितना बड़ा फ़क़ीह है, यह सुनकर लोग उसे क़त्ल करने उठे, हज़रत ने फ़रमाया के ठहरो! ज़्यादा से ज़्यादा गाली का बदला गाली से हो सकता है, या इसके गुनाही ही से दरगुज़र करो।
420- इतनी अक़्ल तुम्हारे लिये काफ़ी है के जो गुमराही की राहों को हिदायत के रास्तों से अलग करके तुम्हें दिखा दे।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 421-440
421- अच्छे काम करो और थोड़ी सी भलाई को भी हक़ीर न समझो, क्योंके छोटी सी नेकी भी बड़ी और थोड़ी सी भलाई भी बहुत है। तुममें से कोई शख़्स यह न कहे के अच्छे काम के करने में कोई दूसरा मुझसे ज़्यादा सज़ावार है, वरना ख़ुदा की क़सम ऐसा ही होकर रहेगा। कुछ नेकी वाले होते हैं और कुछ बुराई वाले, जब तुम नेकी या बदी किसी एक को छोड़ दोगे तो तुम्हारे बजाय इसके अहल इसे अन्जाम देकर रहेंगे।
422-जो अपने अन्दरूनी हालात को दुरूस्त रखता है ख़ुदा उसके ज़ाहिर को भी दुरूस्त कर देता है और जो दीन के लिये सरगर्मे अमल होता है अल्लाह उसके दुनिया के कामों को पूरा कर देता है और जो अपने और अल्लाह के दरम्यान ख़ुश मआमलेगी रखता है ख़ुदा उसके और बन्दों के दरम्यान के मामलात ठीक कर देता है।
423- हिल्म व तहम्मुल ढांकने वाला परदा और अक़्ल काटने वाली तलवार है। लेहाज़ा अपने अख़लाक़ के कमज़ोर पहलू को हिल्म व बुर्दबारी से छुपाओ और अपनी अक़्ल स ख़्वाहिशे नफ़सानी का मुक़ाबेला करो।
424- बन्दों की मनफ़अत रसानी के लिये अल्लाह कुछ बन्दगाने ख़ुदा को नेमतों से मख़सूस कर लेता है लेहाज़ा जब तक वह देते दिलाते रहते हैं, अल्लाह उन नेमतों को उनके हाथों में बरक़रार रखता है और जब इन नेमतों को रोक लेते हैं तो अल्लाह उनसे छीनकर दूसरों की तरफ़ मुन्तक़िल कर देता है।
425- किसी बन्दे के लिये मुनासिब नहीं है के वह दो चीज़ों पर भरोसा करे। एक सेहत और दूसरे दौलत। क्योंके अभी तुम किसी को तन्दरूस्त देख रहे थे, के वह देखते ही देखते बीमार पड़ जाता है और अभी तुम उसे दौलतमन्द देख रहे थे के फ़क़ीर व नादार हो जाता है।
426- जो शख़्स अपनी हाजत का गिला किसी मर्दे मोमिन से करता है, गोया उसने अल्लाह के सामने अपनी शिकायत पेश की। और जो काफ़िर के सामने गिला करता है गोया उसने अपने अल्लाह की शिकायत की।
427- एक ईद के मौक़े पर फ़रमाया ईद सिर्फ़ उसके लिये है जिसके रोज़ों को अल्लाह ने क़ुबूल किया हो, और उसके क़याम (नमाज़) को क़द्र की निगाह से देखता हो, और ह रवह दिन के जिसमें अल्लाह की गुनाह न की जाए, ईद का दिन है।
428- क़यामत के दिन सबसे बड़ी हसरत उस शख़्स की होगी जिसने अल्लाह की नाफ़रमानी करके माल हासिल किया हो, और उसका वारिस वह शख़्स हुआ हो जिसने उसे अल्लाह की इताअत में सर्फ़ किया हो के यह तो इस माल की वजह से जन्नत में दाखि़ल हुआ और पहला उसकी वजह से जहन्नुम में गया।
429- लेन देन में सबसे ज़्यादा घाटा उठाने वाला और दौड़ धूप में सबसे ज़्यादा नाकाम होने वाला वह शख़्स है जिसने माल की तलब में अपने बदन को बोसीदा कर डाला हो। मगर तक़दीर ने उसके इरादों में उसका साथ न दिया हो। लेहाज़ा वह दुनिया से भी हसरत लिये हुए गया, और आख़ेरत में भी उसकी पादाश का सामना किया।
430- रिज़्क़ दो तरह का होता है- एक वह जो ढूंढता है और एक वह जिसे ढूंढा जाता है। चुनांचे जो दुनिया का तलबगार होता है, मौत उसको ढूंढती है यहां तक के दुनिया से उसे निकाल बाहर करती है और जो शख़्स आख़ेरत का ख़्वास्तगार होता है दुनिया ख़ुद उसे तलाश करती है यहां तक के वह उसके तमाम व कमाल अपनी रोज़ी हासिल कर लेता है।
431-दोस्ताने ख़ुदा वह हैं के जब लोग दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं तो वह उसके बातिन पर नज़र करते हैं और जब लोग उसकी जल्द मयस्सर आ जाने वाली नेमतों में खो जाते हैं तो वह आख़ेरत में हासिल होने वाली चीज़ों में मुनहमिक रहते हैं और जिन चीज़ों के मुताल्लिक़ उन्हें यह खुटका था के वह उन्हें तबाह करेंगी, उन्हें तबाह करके रख दिया और जिन चीज़ों के मुताल्लिक़ उन्होंने जान लिया के वह उन्हें छोड़ देने वाली हैं उन्हें उन्होंने ख़ुद छोड़ दिया और दूसरों के दुनिया ज़्यादा समेटने को कम ख़याल किया, और उसे हासिल करने को खोने के बराबर जाना। वह उन चीज़ों के दुश्मन हैं जिनसे दूसरों की दोस्ती है और उन चीज़ों के दोस्त हैं जिन चीज़ों से औरों को दुश्मनी है। उनके ज़रिये से क़ुरान का इल्म हासिल हुआ और क़ुरान के ज़रिये से उनका इल्म हासिल हुआ और इनके ज़रिये से किताबे ख़ुदा महफ़ूज़ और वह उसके ज़रिये से बरक़रार हैं। वह जिस चीज़ की उम्मीद रखते हैं, उससे किसी चीज़ को बलन्द नहीं समझते और जिस चीज़ से ख़ाएफ़ हैं उससे ज़्यादा किसी शै को ख़ौफ़नाक नहीं जानते।
432-लज़्ज़तों के ख़त्म होने अैर पादाशों के बाक़ी रहने को याद रखो।
433- आज़माओ के उससे नफ़रत करो।
सय्यद रज़ी- फ़रमाते हैं के कुछ लोगों ने इस फ़िक़रे की जनाब रिसालत मआब (स0) से रिवायत की है मगर इसके कलामे अमीरूल मोमेनीन (अ0) होने के मवीदात में से है वह जिसे सालब ने बयान किया है। वह कहते हैं के मुझसे इब्ने आराबी ने बयान किया के मामूं ने कहा के अगर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने यह न कहा होता के “आज़माओ के इससे नफ़रत करो” तो मैं यूँ कहता के दुश्मनी करो उससे ताके आज़माओ।
434- ऐसा नहीं के अल्लाह किसी बन्दे के लिये शुक्र का दरवाज़ा खोले और (नेमतों की) अफ़ज़ाइश का दरवाज़ा बन्द कर दे और किसी बन्दे के लिये दुआ का दरवाज़ा खोले और दरे क़ुबूलियत को उसके लिये बन्द रखे, और किसी बन्दे के लिये तौबा का दरवाज़ा खोले और मग़फ़ेरत का दरवाज़ा उसके लिये बन्द कर दे।
435- लोगों में सबसे ज़्यादा वह करम व बख़्शिश का वह अहल है जिसका रिश्ता अशराफ़ से मिलता हो।
436- आपसे दरयाफ़्त किया गया के अद्ल बेहतर है या सख़ावत! फ़रमाया के अद्ल तमाम काम को उनके मौक़े व महल पर रखता है और सख़ावत उनको उनकी हदों से बाहर कर देती है। अद्ल सबकी निगेहदाश्त करने वाला है, और सख़ावत उसी से मख़सूस होगी जिसे दिया जाए, लेहाज़ा अद्ल सख़ावत से बेहतर व बरतर है।
437- लोग जिस चीज़ को नहीं जानते उसके दुश्मन हो जाते हैं।
438- ज़ोहद की मुकम्मल तारीफ़ क़ुरान के दो जुमलों में है। इरशादे इलाही है “जो चीज़ तुम्हारे हाथ से जाती रहे, उस पर रन्ज न करो और जो चीज़ ख़ुदा तुम्हें दे उस पर इतराओ नहीं” लेहाज़ा जो शख़्स जाने वाली चीज़ पर अफ़सोस नहीं करता और आने वाली चीज़ पर इतराता नहीं है, उसने ज़ोहद को दोनों सिम्तों से समेट लिया।
439- नीन्द दिन की महम्मों में बड़ी कमज़ोरी पैदा करने वाली है।
440- हुकूमत लोगों के लिये आज़माइश का मैदान है।
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 441-460
441- तुम्हारे लिये एक शहर दूसरे शहर से ज़्यादा हक़दार नहीं (बल्कि) बेहतरीन शहर वह है जो तुम्हारा बोझ उठाए।
442- जब मालिके अश्तर रहमल्लाह की ख़बरे शहादत आई तो फ़रमाया मालिक! और मालिक क्या शख़्स था, ख़ुदा की क़सम अगर वह पहाड़ होता तो एक कोहे बलन्द होता, और अगर वह पत्थर होता तो एक संगे गराँ होता, के न तो उसकी बलन्दियों तक कोई सुम पहुंच सकता और न कोई परिन्दा वहाँ तक पर मार सकता।
सय्यद रज़ी- फ़न्दा उस पहाड़ को कहते हैं जो दूसरे पहाड़ों से अलग हो।
443- वह थोड़ा सा अमल जिसमें हमेशगी हो उस ज़्यादा से बेहतर है जो दिल तन्गी का बाएस हो।
444- अगर किसी इन्सान में कोई अच्छी ख़सलत पाई जाती है तो उससे दूसरी ख़सलतों की भी तवक़्क़ो की जा सकती है। (((चूंके अच्छी ख़सलत शराफ़ते नफ़्स से पैदा होती है लेहाज़ा एक ख़सलत को भी देखकर यह अन्दाज़ा किया जा सकता है के इस शख़्स में शराफ़ते नफ़्स पाई जाती है और यह शराफ़ते नफ़्स जिस तरह इस एक ख़सलत पर आमादा कर सकती है उसी तरह दूसरी ख़सलतें भी पैदा कर सकती है के एक दरख़्त में एक ही मेवा नहीं पैदा होता है।)))
445- ग़ालिब बिन सासा (पिदरे फ़रज़दक़) से गुफ़्तगू के दौरान फ़रमाया - तुम्हारे बेशुमार ऊंटों का क्या हुआ? उन्होंने कहा के हुकू़क़ की अदायगी ने फ़ैला कर दिया। फ़रमाया के यह बेहतरीन और क़ाबिले तारीफ़ रास्ता है।
(((इब्ने अबी अल हदीद का बयान है के ग़ालिब फ़रज़दक़ को लेकर हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ तो आपने ऊँटों के बारे में भी सवाल किया और फ़रज़दक़ के बारे में भी सवाल किया तो ग़ालिब ने कहा के यह मेरा फ़रज़न्द है और इसे मैंने ‘ोर व अदब की तालीम दी है। आपने फ़रमाया के ऐ काश तुमने क़ुराने मजीद की तालीम दी होती, जिसका नतीजा यह हुआ के यह बात दिल को लग गई और उन्होंने अपने पैरों में ज़न्जीरें डाल लीं और उन्हें उस वक़्त तक नहीं खोला जब तक सारा क़ुरान हिफ़्ज़ नहीं कर लिया।)))
446-जो एहकाम को दरयाफ़्त किये बग़ैर तिजारत करेगा वह कभी न कभी सूद में ज़रूर मुब्तिला हो जाएगा।
(((यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के फ़िक़ की ज़रूरत सिर्फ़ सलवात व सयाम के लिये नहीं है बल्कि इसकी ज़रूरत ज़िन्दगी के हर शोबे में है ताके इन्सान बुराइयों से महफ़ूज़ रह सके और लुक़्मए हलाल पर ज़िन्दगी गुज़ार सके वरना फ़िक़ के बग़ैर तिजारत करने में भी सूद का अन्देशा है और सूद से बदतर इस्लाम में कोई माल नहीं है जिसका एक पैसा भी हलाल नहीं कहा गया है।)))
447-जो छोटे मसाएब को भी बड़ा ख़याल करेगा उसे ख़ुदा बड़े मसाएब में भी मुब्तिला कर देगा। (((इन्सान का हुनर यह है के हमेशा मसाएब का मुक़ाबला करने के लिये तैयार रहे और बड़ी से बड़ी मुसीबत भी आ जाए तो उसे हक़ीर व मामूली ही समझे ताके दीगर मसाएब को हमला करने का मौक़ा न मिले वरना एक मरतबा अपनी कमज़ोरी का इज़हार कर दिया तो मसाएब का हुजूम आम हो जाएगा और इन्सान एक लम्हे के लिये भी निजात हासिल न कर सकेगा)))
448- जिसे उसका नफ़्स अज़ीज़ होगा उसकी नज़र में ख़्वाहिशात बेक़ीमत होंगी (के उन्हीं से इज़्ज़ते नफ़्स की तबाही पैदा होती है) (((ख़्वाहिश उस क़ैद का नाम है जिसका क़ैदी ता हयात आज़ाद नहीं हो सकता है के हर क़ैद का ताल्लुक़ इन्सान की बैरूनी ज़िन्दगी से होता है और ख़्वाहिश इन्सान को अन्दर से जकड़ लेती है जिसके बाद कोई आज़ाद कराने वाला भी नहीं पैदा होता है और यही वजह है के जब एक मर्द हकीम से पूछा गया के दुनिया में तुम्हारी ख़्वाहिश क्या है? तो उसने बरजस्ता यही जवाब दिया के बस यही के किसी चीज़ की ख़्वाहिश न पैदा हो।)))
449- इन्सान जिस क़द्र भी मिज़ाह करता है उसी क़द्र अपनी अक़्ल का एक हिस्सा अलग कर देता है। (((मिज़ाह एक बेहतरीन चीज़ है जिससे इन्सान ख़ुद भी ख़ुश होता है और दूसरों को भी ख़ुशहाल बनाता है लेकिन इसकी शर्त यही है के मिज़ाह बहद्दे मिज़ाह हो और इसमें ग़लत बयानी, फ़रेबकारी, ईज़ाए मोमिन, तौहीने मुसलमान का पहलू न पैदा होने पाए और हद से ज़्यादा भी न हो वरना हराम और बाएसे हलाकत व बरबादी हो जाएगा।)))
450- जो तुम्हारी तरफ़ रग़बत करे उससे किनाराकशी ख़सारा है और जो तुमसे किनाराकश हो जाए उसकी तरफ़ रग़बत ज़िल्लते नफ़्स है।
451- मालदारी और ग़ुरबत का फ़ैसला परवरदिगार की बारगाह में पेशी के बाद होगा।
452-ज़ुबैर हमेशा हम अहलेबैत (अ0) की एक फ़र्द शुमार होता था यहाँ तक के उसका मख़सूस फ़रज़न्द अब्दुल्लाह नमूदार हो गया।
453- आखि़र फ़रज़न्दे आदम का फ़ख़र व मुबाहात से क्या ताल्लुक़ है जबके इसकी इब्तिदा नुत्फ़ा है और इन्तेहा मुरदार। वह न अपनी रोज़ी का इख़्तेयार रखता है और न अपनी मौत को टाल सकता है।
(((इन्सानी ज़िन्दगी के तीन दौर होते हैं: इब्तेदा, इन्तेहा, वसत और इन्सान का हाल यह है के वह इब्तिदा में एक क़तरए नजिस होता है और इन्तेहा में मुरदार हो जाता है, दरम्यानी हालात यक़ीनन ताक़त व क़ूवत और तहारत व पाकीज़गी के होते हैं लेकिन इसका भी यह हाल होता है के अपना रिज़्क़ अपने हाथ में होता है और न अपनी मौत अपने इख़्ितयार में होती है ऐसे हालात में इन्सान के लिये तकब्बुर व ग़ुरूर का जवाज़ कहाँ से पैदा होता है। तक़ाज़ाए शराफ़त व दयानत यही है के जिसने पैदा किया है उसी का शुक्रिया अदा करे और उसकी इताअत में ज़िन्दगी गुज़ार दे ताके मरने के बाद ख़ुद भी पाकीज़ा रहे और वह ज़मीन भी पाकीज़ा हो जाए जिसमें दफ़्न हो गया है।)))
454- आपसे दरयाफ़्त किया गया के सबसे बड़ा शाएर कौन था?
तो फ़रमाया के सारे शोअरा ने एक मैदान में क़दम नहीं रखा के सबक़ते अमल से उनकी इन्तिहाए कमाल का फ़ैसला किया जा सके लेकिन अगर फ़ैसला ही करना है तो बादशाहे गुमराह (यानी अम्र अल क़ैस)।
455- क्या कोई ऐसा आज़ाद नहीं है जो दुनिया के इस चबाए हुए लुक़्मे को दूसरों के लिये छोड़ दे? याद रखो के तुम्हारे नफ़्स की कोई क़ीमत जन्नत के अलावा नहीं है लेहाज़ा इसे किसी और क़ीमत पर बेचने का इरादा मत करना।
(((दुनिया वह ज़ईफ़ा है जो लाखों के तसरूफ़ में रह चुकी है और वह लुक़्मा है जिसे करोड़ों आदमी चबा चुके हैं, क्या ऐसी दुनिया भी इस लाएक़ होती है के इन्सान इससे दिल लगाए और इसकी ख़ातिर जान देने के लिये तैयार हो जाए। इसका तो सबसे बेहतरीन मसरफ़ यह होता है के दूसरों के हवाले करके अपनी जन्नत का इन्तेज़ाम कर ले जहां हर चीज़ नई है और कोई नेमत इस्तेमाल शुदा नहीं है।)))
456- दो भूके ऐसे हैं जो कभी सेर नहीं हो सकते हैं- एक तालिबे इल्म और एक तालिबे दुनिया।
457-ईमान की अलामत यह है के सच नुक़सान भी पहुंचाए तो उसे फ़ायदा पहुंचाने वाले झूट पर मुक़द्दम रखो और तुम्हारी बातें तुम्हारी अमल से ज़्यादा न हों और दूसरों के बारे में बात करते हुए ख़ुदा से डरते रहो।
(((यक़ीनन ईमान का तक़ाज़ा यही है के सच को झूट पर मुक़द्दम रखा जाए और मामूली मफ़ादात की राह में इस अज़ीम नेमते सिद्क़ को क़ुरबान न किया जाए लेकिन कभी कभी ऐसे मवाक़ेअ आ सकते हैं जब सच का नुक़सान नाक़ाबिले बरदाश्त हो जाए तो ऐसे मौक़े पर अक़्ल और शरअ दोनों की इजाज़त है के कज़्ब का रास्ता इख़्तेयार करके उस नुक़सान से तहफ़्फ़ुज़ का इन्तेज़ाम कर लिया जाए जिस तरह के क़ातिल किसी नबी बरहक़ की तलाश में हो और आपको उसका पता मालूम हो तो अपके लिये शरअन जाएज़ नहीं है के पता बताकर नबीए बरहक़ के क़त्ल में हिस्सादार हो जाएं।)))
458- (कभी ऐसा भी हो सकता है के) क़ुदरत का मुक़र्रर किया हुआ मुक़द्दर इन्सान के अन्दाज़ों पर ग़ालिब आ जाता है यहाँ तक के यही तदबीर बरबादी क सबब बन जाती है।
सय्यद रज़ी- यह बात दूसरे अन्दाज़ से पहले गुज़र चुकी है।
459- बुर्दबारी और सब्र दोनों जुड़वाँ हैं और इनकी पैदावार का सरचश्मा बलन्द हिम्मती है।
(((यह ग़लत मशहूर हो गया है के मजबूरी का नाम सब्र है, सब्र मजबूरी नहीं है, सब्र बलन्द हिम्मती है, सब्र इन्सान को मसाएब से मुक़ाबला करने की दावत देता है, सब्र इन्सान में अज़ाएम की बलन्दी पैदा करता है, सब्र पिछले हालात पर अफ़सोस करने के बजाय अगले हालात के लिये आमादगी की दावत देता है। “इन्ना एलैहे राजेऊन”)))
460- ग़ीबत करना कमज़ोर आदमी की आख़री कोशिश होती है। (((ग़ीबत के मानी यह हैं के इन्सान के उस ऐब का तज़किरा किया जाए जिसे वह ख़ुद पोशीदा रखना चाहता है और उसके इज़हार को पसन्द नहीं करता है। इस्लाम ने इस अमल को फ़साद की इशाअत से ताबीर किया है और इसी बिना पर हराम कर दिया है लेकिन अगर किसी मौक़े पर ऐब के इज़हार न करने ही में समाज या मज़हब की बरबादी का ख़तरा हो तो बयान करना जाएज़ बल्के बाज़ औक़ात वाजिब हो जाता है जिस तरह के इल्मे रिजाल में मरावियों की तहक़ीक़ का मसला है के अगर उनके उयूब पर पर्दा डाल दिया गया तो मज़हब के तबाह व बरबाद हो जाने का अन्देशा है और हर झूठा शख़्स रिवायात का अम्बार लगा सकता है।)))
इमाम अली के अक़वाल (कथन) 461-479
461- बहुत से लोग अपने बारे में तारीफ़ ही से मुब्तिलाए फ़ित्ना हो जाते हैं।
462- दुनिया दूसरों के लिये पैदा हुई है और अपने लिये नहीं पैदा की गई है।
(((दुनिया की तख़लीक़ मक़सूद बिलज़ात नहीं है वरना परवरदिगार इसको दाएमी और अबदी बना देता। दुनिया को फ़ना करके आख़ेरत को मन्ज़रे आम पर ले आना इस बात की दलील है के उसकी तख़लीक़ आख़ेरत के मुक़दमे के तौर पर हुई है अब अगर कोई शख़्स इसे क़ुरबान करके आख़ेरत कमा लेता है तो गोया उसने सही मसरफ़ में लगा दिया वरना अपनी ज़िन्दगी भी बरबाद की और मौत को भी सही रास्ते पर नहीं लगाया।)))
463- बनी उमय्या में सबका एक ख़ास मैदान है जिसमें दौड़ लगा रहे हैं वरना जिस दिन इनमें इख़्तेलाफ़ हो गया तो उसके बाद बिज्जू भी उन पर हमला करना चाहेगा तो ग़ालिब आ जाएगा।
सय्यद रज़ी - मिरवद अरवाद से मिफ़अल के वज़्न पर है और अरवाद के मानी फ़ुरसत और मोहलत देने के हैं जो फ़सीहतरीन और अजीबतरीन ताबीर है जिसका मक़सद यह है के उनका मैदाने अमल यही मोहलते ख़ुदावन्दी है जिसमें सब भागे चले जा रहे हैं वरना जिस दिन यह मोहलत ख़त्म हो गई सारा निज़ाम दरहम व बरहम होकर रह जाएगा।
464- अन्सारे मदीना की तारीफ़ करते हुए फ़रमाया - ख़ुदा की क़सम इन लोगों ने इस्लाम को उसी तरह पाला है जिस तरह एक साला बच्चे नाक़ा को पाला जाता है अपने करीम हाथों और तेज़ ज़बानों के साथ।
465- आंख एक़ब का तस्मा है।
सय्यद रज़ी - यह एक अजीब व ग़रीब इसतआरा है जिसमें इन्सान के एक़ब को ज़र्फ़े को तशबीह दी गई है और उसकी आंख को तस्मा से तश्बीह दी गई है के जब तस्मा खोल दिया जाता है तो बरतन का सामान महफ़ूज़ नहीं रहता है। आम तौर से शोहरत यह है के पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का कलाम है लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) से भी नक़्ल किया गया है और इसका ज़िक्र किताबुल मुक़तज़ब में बाबुल फ़ज़ बिल हुरूफ़ में किया है।
(((मक़सद यह है के इन्सान की आंख ही उसकी तहफ़्फ़ुज़ का ज़रिया है सामने से हो चाहे पीछे से। लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस नेमते परवरदिगार की क़द्र करे और इस बात का एहसास करे के यह एक आंख न होती तो इन्सान का रास्ता चलना भी दुश्वार हो जाता। हमलों से तहफ़्फ़ुज़ तो बहुत दूर की बात है।)))
466- लोगों के काम का ज़िम्मेदार एक ऐसा हाकिम बना जो ख़ुद भी सीधे रास्ते पर चला और लोगों को भी उसी रास्ते पर चलाया। यहाँ तक के दीन ने अपना सीना टेक दिया।
(((शेख़ मोहम्मद अब्दा का ख़याल है के यह सरकारे दो आलम (स0) के किरदार की तरफ़ इशारा है के जब आपका इक़्तेदार क़ायम हो गया तो आपने लोगों को हक़ के रास्ते पर चलाना शुरू किया और इसका नतीजा यह हुआ के इस्लाम ने अपना सीना टेक दिया और उसे इस्तेक़रार व इस्तेक़लाल हासिल हो गया।)))
467- लोगों पर एक ऐसा सख़्त ज़माना आने वाला है जिसमें मवस्सर अपने माल में इन्तेहाई कंजूसी से काम लेगा हालांके उसे इस बात का हुक्म नहीं दिया गया है और परवररिदगार ने फ़रमाया है के “ख़बरदार आपस में हुस्ने सुलूक को फ़रामोश न कर देना।” इस ज़माने में अशरार ऊंचे हो जाएंगे और अख़्यार को ज़लील समझ लिया जाएगा। मजबूर व बेकस लोगों की ख़रीद व फ़रोख़्त की जाएगी हालांके रसूले अकरम (स0) ने इस बात से मना फ़रमाया है।
(((यहाँ मजबूर व बेकस से मुराद वह अफ़राद हैं जिनको ख़रीद व फ़रोख़्त पर मजबूर कर दिया जाए के इस्लाम ने इस तरह के मामले को ग़लत क़रार दिया है और इस शरा को ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया है। लेकिन अगर इन्सान को मामले पर मजबूर न किया और वह हालात से मजबूर होकर मामला करने पर तैयार हो जाए तो फ़िक़ही एतबार से इसमें कोई हर्ज नहीं है के इसमें इन्सान की रिज़ामन्दी शामिल है चाहे वह रज़ामन्दी हालात की मजबूरी ही से पैदा हुई हो)))
468- मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो जाएंगे - हद से आगे बढ़ जाने वाला दोस्त और ग़लत बयानी और अफ़तरपरवाज़ी करने वाला दुश्मन।
सय्यद रज़ी - यह इरशाद मिस्ल इस कलामे साबिक के है के “मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो गए ग़ूलू करने वाला दोस्त और अनाद रखने वाला दुश्मन”
469- आपसे तौहीद और अदालत के मफ़हूम के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के तौहीद यह है के उसकी वहमी तसवीर न बनाई जाए और अदालत यह है के इसके हकीमाना अफ़आल को मुतहम न किया जाए।
470- हिकमत की बात से ख़ामोशी इख़्तेयार करना कोई ख़ूबी नहीं, जिस तरह जेहालत के साथ बात करने में कोई भलाई नहीं है।
471-बारिश के सिलसिले में दुआ करते हुए फ़रमाया “ख़ुदाया, हमें फ़रमाबरदार बादलों से सेराब करना न के दुश्वारगुज़ार अब्रों से।
सय्यद रज़ी- यह इन्तेहाई अजीब व ग़रीब फ़सीह कलाम है जिसमें हज़रत ने गरज चमक और आन्धियों से भरे हुए बादलों को सरकश ऊँटों से तशबीह दी है जो दूहने में मुतीअ और सवारी में फ़रमाबरदार हों।
472-आपसे अर्ज़ किया गया के अगर आप अपने सफ़ेद बालों का रंग बदल देते तो ज़्यादा अच्छा होता ? फ़रमाया के ख़ेज़ाब एक ज़ीनत है लेकिन हम लोग हालाते मुसीबत में हैं (के सरकारे दोआलम (स0) का इन्तेक़ाल हो गया है)
(((इसमें कोई शक नहीं है के ख़ेज़ाब भी सरकारे दो आलम (स0) की सुन्नत का एक हिस्सा था और आप इसे इस्तेमाल फ़रमाया करते थे चुनांचे एक मरतबा हज़रत ने सरकार (स0) से अर्ज़ की के या रसूलल्लाह! इजाज़त है के मैं भी आपके इत्तेबाअ में ख़ेज़ाब इस्तेमाल करूं तो फ़रमाया नहीं उस वक़्त का इन्तेज़ार करो जब तुम्हारे मोहासिन तुम्हारे सर के ख़ून से रंगीन होंगे और तुम सजदए परवरदिगार में होगे। यह सुनकर आपने अर्ज़ की के या रसूलल्लाह इस हादसे में मेरा दीन तो सलामत रहेगा? फ़रमाया बेशक! जिसके बाद आप मुस्तक़िल उस वक़्त का इन्तेज़ार करने लगे और अपने को राहे ख़ुदा में क़ुरबान करने की तैयारी में मसरूफ़ हो गए।)))
473- राहे ख़ुदा में जेहाद करके शहीद हो जाने वाला इससे ज़्यादा अज्र का हक़दार नहीं होता है जितना अज्र उसका है जो इख़्तेयारात के मावजूद इफ़फ़त से काम ले के अफ़ीफ़ व पाकदामन इन्सान क़रीब है के मलाएकाए आसमान में शुमार हो जाए।
(((यह बात तय शुदा है के राहे ख़ुदा में क़ुरबानी एक बहुत बड़ा कारनामा है और सरकारे दो आलम (स0) ने भी इस शहादत को तमाम नेकियों के लिये सरे फ़ेहरिस्त क़रार दिया है लेकिन इफ़्फ़त एक ऐसा अज़ीम ख़ज़ाना है जिसकी क़द्र व क़ीमत का अन्दाज़ा करना हर एक के बस का काम नहीं है ख़ुसूसियत के साथ दौरे हाज़िर में जबके अज़मत का तसव्वुर ही ख़त्म हो गया है और दामाने किरदार के दाग़ों ही को सबबे ज़ीनत तसव्वुर कर लिया गया गया है वरना इफ़्फ़त के बग़ैर इन्सानियत का कोई मफ़हूम नहीं है और वह इन्सान, इन्सान कहे जाने के क़ाबिल नहीं है जिसमें इफ़्फ़ते किरदार न पाई जाती हो। अफ़ीफ़ुल हयात इन्सान मलाएका में शुमार किये जाने के क़ाबिल इसीलिये है के इफ़फ़ते किरदार मलाएका का एक इम्तियाज़ी कमाल है और उनके यहाँ तरदामनी का कोई इमकान नहीं है लेकिन इसके बाद भी अगर बशर इस किरदार को पैदा कर ले तो इसका मरतबा मलाएका से अफ़ज़ल हो सकता है। इसलिये के मलाएका की इफ़फ़त क़हरी है और इसका राज़ इन जज़्बात और ख़्वाहिशात का न होना है जो इन्सान को खि़लाफ़े इफ़फ़त ज़िन्दगी पर आमादा करते हैं और इन्सान इन जज़्बात व ख़्वाहिशात से मामूर है लेहाज़ा वह अगर इफ़्फ़ते किरदार इख़्तेयार कर ले तो इसका मरतबा यक़ीनन मलाएका से बलन्दतर हो सकता है।)))
474- क़नाअत वह माल है जो कभी ख़त्म होने वाला नहीं है।
सय्यद रज़ी- बाज़ हज़रात ने इस कलाम को रसूले अकरम (स0) के नाम से नक़्ल किया है।
475- जब अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने जि़याद अबीह को फ़ारस और उसके एतराफ़ पर क़ायम मुक़ाम बना दिया तो एक मरतबा पेशगी ख़ेराज वसूल करने से रोकते हुए ज़ियाद से फ़रमाया के ख़बरदार- अद्ल को इस्तेमाल करो और बेजा दबाव और ज़ुल्म से होशियार रहो के दबाव अवाम को ग़रीबुलवतनी पर आमादा कर देगा और ज़ुल्म तलवार उठाने पर मजबूर कर देगा।
476- सख़्त तरीन गुनाह वह है जिसे इन्सान हलका तसव्वुर कर ले।
477- परवरदिगार ने जाहिलों से इल्म हासिल करने का अहद लेने से पहले ओलमा से तालीम देने का अहद लिया है।
478- बदतरीन भाई वह है जिसके लिये ज़हमत उठानी पड़े।
सय्यद रज़ी - यह इस तरह के तकलीफ़ से मशक़्क़त पैदा होती है और वह शर है जो उस भाई के लिये बहरहाल लाज़िम है जिसके लिये ज़हमत बरदाश्त करना पड़े।
479-अगर मोमिन अपने भाई से एहतेशाम करे तो समझो के उससे जुदा हो गया।
सय्यद रज़ी‘- चश्महु अहशमहू उस वक़्त इस्तेमाल होता है जब यह कहना होता है के उसे ग़ज़बनाक कर दिया या बक़ौले शर्मिन्दा कर दिया इस तरह एहतशमहू के मानी होंगे “उससे ग़ज़ब या शरमिन्दगी का तक़ाज़ा किया- ज़ाहिर है के ऐसे हालात में जुदाई लाज़मी है।
(((यह हमारे अमल की आखि़री मन्ज़िल है जिसका मक़सद अमीरूल मोमेनीन (अ0) के मुन्तख़ब कलाम का हिन्दी में शाया करना था और ख़ुदा का शुक्र है के उसने हम पर यह एहसान किया के हमें आप (अ0) के मुक़द्दस कलेमात को बक़द्रे मुकम्मल करने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमाई। हमारी तौफ़ीक़ सिर्फ़ परवरदिगार से वाबस्ता है और उसी पर हमारा भरोसा है, वही हमारे लिये काफ़ी है और वही हमारा कारसाज़ है और यह काम माहे रजब 1432 हिजरी में इख़्तेताम को पहुंचा है (माहे रजब में ही मौलाए कायनात हज़रत अली (अ0) की विलादत के मौक़े पर एक कोशिशे मेहनत है) अल्लाह हमारे सरदार हज़रत ख़ातेमुल मुरसलीन और सिलसिलए हिदायत के सरचश्मों पर रहमत नाज़िल करे। व आख़ेरु दावाना अनिल हम्द)))
(टाइपिंग वग़ैरा की ग़लतियों के लिये माज़ेरत ख़ाँ हूँ)
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