लेखक- हुज्जतुल इस्लाम मोहसिन क़राती
अनुवादक- सैयद क़मर ग़ाज़ी
पहला हिस्सा- नमाज़ की अहमियत
1-नमाज़ सभी उम्मतों मे मौजूद थी
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) से पहले हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की शरीअत मे भी नमाज़ मौजूद थी। क़ुरआन मे इस बात का ज़िक्र सूरए मरियम की 31 वी आयत मे मौजूद है कि हज़रत ईसा (अ.स.) ने कहा कि अल्लाह ने मुझे नमाज़ के लिए वसीयत की है। इसी तरह हज़रत मूसा (अ. स.) से भी कहा गया कि मेरे ज़िक्र के लिए नमाज़ को क़ाइम करो। (सूरए ताहा आयत 26)
इसी तरह हज़रत मूसा अ. से पहले हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम भी नमाज़ पढ़ते थे जैसे कि सूरए हूद की 87वी आयत से मालूम होता है। और इन सबसे पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम थे। जो अल्लाह से अपने और अपनी औलाद के लिए नमाज़ क़ाइम करने की तौफ़ीक़ माँगते थे।
और इसी तरह हज़रत लुक़मान अलैहिस्सलाम अपने बेटे को वसीयत करते हैं कि नमाज़ क़ाइम करना और अम्रे बिल मअरूफ़ व नही अज़ मुनकर को अंजाम देना।
दिल चस्प बात यह है कि अक्सर मक़ामात पर नमाज़ के साथ ज़कात अदा करने की ताकीद की गई है। मगर चूँकि मामूलन नौजवानों के पास माल नही होता इस लिए इस आयत में नमाज़ के साथ अम्र बिल माअरूफ़ व नही अज़ मुनकर की ताकीद की गई है।
2-नमाज़ के बराबर किसी भी इबादत की तबलीग़ नही हुई
हम दिन रात में पाँच नमाज़े पढ़ते हैं और हर नमाज़ से पहले अज़ान और इक़ामत की ताकीद की गई है। इस तरह हम
बीस बार हय्या अलस्सलात (नमाज़ की तरफ़ आओ।)
बीस बार हय्या अलल फ़लाह (कामयाबी की तरफ़ आओ।)
बीस बार हय्या अला ख़ैरिल अमल (अच्छे काम की तरफ़ आओ)
और बीस बार क़द क़ामःतिस्सलात (बेशक नमाज़ क़ाइम हो चुकी है)
कहते हैं। अज़ान और इक़ामत में फ़लाह और खैरिल अमल से मुराद नमाज़ है। इस तरह हर मुसलमान दिन रात की नमाज़ों में 60 बार हय्या कह कर खुद को और दूसरों को खुशी के साथ नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जेह करता है। नमाज़ की तरह किसी भी इबादत के लिए इतना ज़्याद शौक़ नही दिलाया गया है।
हज के लिए अज़ान देना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी थी, मगर नमाज़ के लिए अज़ान देना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। अज़ान से ख़ामोशी का ख़ात्मा होता है। अज़ान एक इस्लामी फ़िक्र और अक़ीदा है।
अज़ान एक मज़हबी तराना है जिसके अलफ़ाज़ कम मगर पुर मअनी हैं
अज़ान जहाँ ग़ाफ़िल लोगों के लिए एक तंबीह है। वहीँ मज़हबी माहौल बनाने का ज़रिया भी है। अज़ान मानवी जिंदगी की पहचान कराती है।
3-नमाज़ हर इबादत से पहले है
मखसूस इबादतें जैसे शबे क़द्र, शबे मेराज, शबे विलादत आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम, शबे जुमा,रोज़े ग़दीर, रोज़े आशूरा और हर बा फ़ज़ीलत दिन रात जिसके लिए मख़सूस दुआऐं व आमाल हैं वहीँ मख़सूस नमाज़ों का भी हुक्म है। शायद कोई भी ऐसा मुक़द्दस दिन नही है जिसमे नमाज़ की ताकीद ना की गई हो।
4-नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में पाई जाती हैं
अगरचे जिहाद ,हज ग़ुस्ल और वज़ु की कई क़िस्मे हैं,मगर नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में हैँ। अगर हम एक मामूली सी नज़र अल्लामा मुहद्दिस शेख़ अब्बास क़ुम्मी की किताब मफ़ातीहुल जिनान के हाशिये पर डालें तो वहां पर नमाज़ की इतनी क़िसमें ज़िक्र की गयीं है कि अगर उन सब को एक जगह जमा किये जाये तो एक किताब और वजूद मे आ सकती है। हर इमाम की तरफ़ एक नमाज़ मनसूब है जो दूसरो इमामो की नमाज़ से जुदा है। मसलन इमामे ज़मान की नमाज़ अलग है और इमाम अली अलैहिमस्सलाम की नमाज़ अलग है।
5-नमाज़ व हिजरत
जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से अर्ज़ किया कि ऐ पालने वाले मैंने इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए अपनी औलाद को बे आबो गयाह(वह सूखा इलाक़ा जहाँ पर पीनी की कमी हो और कोई हरयाली पैदा न होती हो।) मैदान मे छोड़ दिया है। हाँ नमाज़ी हज़रात की ज़िम्मेदारी ये भी है कि नमाज़ को दुनिया के कोने कोने मे पहुचाने के लिए ऐसे मक़ामात पर भी जाऐं जहां पर अच्छी आबो हवा न हो।
6-नमाज़ के लिए मुहिम तरीन जलसे को तर्क करना
क़ुरआन मे साबेईन नाम के एक दीन का ज़िक्र हुआ। इस दीन के मानने वाले सितारों के असारात के क़ाइल हैं और अपनी मख़सूस नमाज़ व दिगर मरासिम को अनजाम देते हैं और ये लोग जनाबे याहिया अलैहिस्सलाम को मानते हैं। इस दीन के मान ने वाले अब भी ईरान मे खुज़िस्तान के इलाक़े मे पाय़े जाते हैं। इस दीन के रहबर अव्वल दर्जे के आलिम मगर मग़रूर क़िस्म के होते थे। उन्होने कई मर्तबा इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से गुफ़्तुगु की मगर इस्लाम क़बूल नही किया। एक बार इसी क़िस्म का एक जलसा था और उन्ही लोगों से बात चीत हो रही थी। हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की एक दलील पर उनका आलिम लाजवाब हो गया और कहा कि अब मेरी रूह कुछ न्रम हुई है और मैं इस्लाम क़बूल करने पर तैयार हूँ। मगर उसी वक़्त अज़ान शुरू हो गई और हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम जलसे से बाहर जाने लगें, तो पास बैठे लोगों ने कहा कि मौला अभी रूक जाइये ये मौक़ा ग़नीमत है इसके बाद ऐसा मौक़ा हाथ नही आयेगा।
इमाम ने फ़रमाया कि नही, “पहले नमाज़ बाद मे गुफ़्तुगु” इमाम अलैहिस्सलाम के इस जवाब से उसके दिल मे इमाम की महुब्बत और बढ़ गई और नमाज़ के बाद जब फिर गुफ़्तुगु शुरू हुई तो वह आप पर ईमान ले आया।
7-जंग के मैदान मे अव्वले वक़्त नमाज़
इब्ने अब्बास ने देखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम जंग करते हुए बार बार आसमान को देखते हैं फिर जंग करने लगते हैं। वह इमाम अलैहिस्सलाम के पास आये और सवाल किया कि आप बार बार आसमान को क्यों देख रहे है? इमाम ने जवाब दिया कि इसलिए कि कहीँ नमाज़ का अव्वले वक़्त न गुज़र जाये। इब्ने अब्बास ने कहा कि मगर इस वक़्त तो आप जंग कर रहे है। इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि किसी भी हालत मे नमाज़ को अव्वले वक़्त अदा करने से ग़ाफ़िल नही होना चाहिए।
8- अहमियते नमाज़े जमाअत
एक रोज़ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम ने नमाज़े सुबह की जमाअत मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम को नही देखा तो, आपकी अहवाल पुरसी के लिए आप के घर तशरीफ़ लाये। और सवाल किया कि आज नमाज़े जमाअत मे क्यों शरीक न हो सके। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने अर्ज़ किया कि आज की रात अली सुबह तक मुनाजात मे मसरूफ़ रहे। और आखिर मे इतनी ताक़त न रही कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ सके, लिहाज़ा उन्होने घर पर ही नमाज़ अदा की। रसूले अकरम स. ने फ़रमाया कि अली से कहना कि रात मे ज़्यादा मुनाजात न किया करें और थोड़ा सो लिया करें ताकि नमाज़े जमाअत मे शरीक हो सकें। अगर इंसान सुबह की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ने की ग़र्ज़ से सोजाये तो यह सोना उस मुनाजात से अफ़ज़ल है जिसकी वजह से इंसान नमाज़े जमाअत मे शरीक न हो सके।
9-नमाज़ को खुले आम पढ़ना चाहिए छुप कर नही
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मोहर्रम की दूसरी तारीख को कर्बला मे दाखिल हुए और दस मोहर्रम को शहीद हो गये।इस तरह कर्बला मे इमाम की मुद्दते इक़ामत आठ दिन है। और जो इंसान कहीँ पर दस दिन से कम रुकने का क़स्द रखता हो उसकी नमाज़ क़स्र है। और दो रकत नमाज़ पढ़ने मे दो मिनट से ज़्यादा वक़्त नही लगता खास तौर पर ख़तरात के वक़्त। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम रोज़े आशूरा बार बार ख़ैमे मे आते जाते थे। अगर चाहते तो नमाज़े ज़ोहर को खैमे मे पढ़ सकते थे। मगर इमाम ने मैदान मे नमाज़ पढ़ने का फैसला किया। और इसके लिए इमाम के दो साथी इमाम के सामने खड़े होकर तीर खाते रहे ताकि इमाम आराम के साथ अपनी नमाज़ को तमाम कर सकें। और इस तरह इमाम ने मैदान मे नमाज़ अदा की। नमाज़ को ज़ाहिरी तौर पर पढ़ने मे एक हिकमत पौशीदा है। लिहाज़ा होटलों, पार्कों, हवाई अड्डों, वग़ैरह पर नमाज़ ख़ानो को कोनों मे नही बल्कि अच्छी जगह पर और खुले मे बनाना चाहिए ताकि नमाज़ को सब लोगों के सामने पढ़ा जा सके।(क्योकि ईरान एक इस्लामी मुल्क है इस लिए होटलों, पार्कों, स्टेशनों, व हवाई अड्डो पर नमाज़ ख़ाने बनाए जाते हैं। इसी लिए मुसन्निफ़ ने ये राय पेश की।) क्योंकि दीन की नुमाइश जितनी कम होगी फ़साद की नुमाइश उतनी ही ज़्यादा बढ़ जायेगी।
10-मस्जिद के बनाने वाले नमाज़ी होने चाहिए
सुराए तौबाः की 18वी आयत में अल्लाह ने फ़रमाया कि सिर्फ़ वही लोग मस्जिद बनाने का हक़ रखते हैं जो अल्लाह और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखते हों, ज़कात देते हों और नमाज़ क़ाइम करते हों।
मस्जिद का बनाना एक मुक़द्दस काम है लिहाज़ा यह किसी ऐसे इंसान के सुपुर्द नही किया जासकता जो इसके क़ाबिल न हो। क़ुरआन का हुक्म है कि मुशरेकीन को मस्जिद बनाने का हक़ नही है। इसी तरह मासूम की हदीस है कि अगर ज़ालिम लोग मस्जिद बनाऐं तो तुम उनकी मदद न करो।
11-शराब व जुए को हराम करने की वजह नमाज़ है
जबकि जुए और शराब मे बहुत सी जिस्मानी, रूहानी और समाजी बुराईयाँ पाई जाती है। मगर क़ुरआन कहता है कि जुए और शराब को इस लिए हराम किया गया है क्योंकि यह तुम्हारे बीच मे कीना पैदा करते हैं,और तुमको अल्लाह की याद और नमाज़ से दूर कर देते हैं। वैसे तो शराब से सैकड़ो नुक़सान हैं मगर इस आयत मे शराब से होने वाले समाजी व मानवी नुक़सानात का ज़िक्र किया गया है। कीने का पैदा होना समाजी नुक़सान है और अल्लाह की याद और नमाज़ से ग़फ़लत मानवी नुक़सान है।
12-इक़ामए नमाज़ की तौफ़ीक़ हज़रत इब्राहीम की दुआ है
सूरए इब्राहीम की 40वी आयत में इरशाद होता है कि “पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बनादे।” दिलचस्प यह है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सिर्फ़ दुआ ही नही की बल्कि इस आरज़ू के लिए मुसीबतें उठाईं और हिजरत भी की ताकि नमाज़ क़ाइम हो सके।
13-इक़ामए नमाज़ पहली ज़िम्मेदारी
सूरए हिज्र की 41 वी आयत मे क़ुरआन ने ब्यान किया है कि बेशक जो मुसलमान क़ुदरत हासिल करें इनकी ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है। खुदा न करे कि हमारे कारोबारी अफ़राद की फ़िक्र सिर्फ मुनाफा कमाना, हमारे तालीमी इदारों की फ़िक्र सिर्फ़ मुताखस्सिस अफ़राद की परवरिश करना और हमारी फ़िक्र सिर्फ़ सनअत(प्रोडक्शन) तक महदूद हो जाये। हर मुसलमान की पहली ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है।
14-नमाज़ के लिए कोई पाबन्दी व शर्त नही है।
सूरए मरियम की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि----
इस्लाम के सभी अहकाम व क़वानीन मुमकिन है कि किसी शख्स से किसी खास वजह से उठा लिए जायें। मसलन अँधें और लंगड़े इंसान के लिए जिहाद पर जाना वाजिब नही है। मरीज़ पर रोज़ा वाजिब नही है। ग़रीब इंसान पर हज और ज़कात वाजिब नही है।
लेकिन नमाज़ तन्हा एक ऐसी इबादत है जिसमे मौत की आखिरी हिचकी तक किसी क़िस्म की कोई छूट नही है। (औरतों को छोड़ कर कि उनके लिए हर माह मख़सूस ज़माने मे नमाज़ माफ़ है)
15-नमाज़ के साथ इंसान दोस्ती ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की 83वी आयत मे हुक्मे परवर दिगार है कि -------
“नमाज़ी को चाहिए लोगों के साथ अच्छे अन्दाज़ से गुफ़्तुगु करे।”हम अच्छी ज़बान के ज़रिये अमलन नमाज़ की तबलीग़ कर सकते हैं। लिहाज़ा जो लोग पैगम्बरे इस्लाम स. के अखलाक़ और सीरत के ज़रिये मुसलमान हुए हैं उनकी तादाद उन लोगों से कि जो अक़ली इस्तिदलाल(तर्क वितर्क) के ज़रिये मुसलमान हुए हैं कहीं ज़्यादा है। कुफ़्फ़ार के साथ मुनाज़रा व मुबाहिसा करते वक़्त भी उनके साथ अच्छी ज़बान मे बात चीत करने का हुक्म है। मतलब यह है कि पहले उनकी अच्छाईयों को क़बूल करे और फ़िर अपने नज़रीयात को ब्यान करे।
16-अल्लाह और क़ियामत पर ईमान के बाद पहला वाजिब नमाज़ है
क़ुरआन मे सूरए बक़रा के शुरू मे ही ग़ैब पर ईमान( जिसमे ख़ुदावन्दे मुतआल क़ियामत और फ़रिश्ते सब शामिल हैं) के बाद पहला बुन्यादी अमल जिसकी तारीफ़ की गई है इक़ाम-ए-नमाज़ है।
17-नमाज़ को सब कामो पर अहमियत देने वाले की अल्लाह ने तारीफ़ की है
क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 37वी आयत में अल्लाह ने उन हज़रात की तारीफ़ की है जो अज़ान के वक़्त अपनी तिजारत और लेन देन के कामों को छोड़ देते हैं। ईरान के साबिक़ सद्र शहीद रजाई कहा करते थे कि नमाज़ से यह न कहो कि मुझे काम है बल्कि काम से कहो कि अब नमाज़ का वक़्त है। ख़ास तौर पर जुमे की नमाज़ के लिए हुक्म दिया गया है कि उस वक़्त तमाम लेन देन छोड़ देना चाहिए। लेकिन जब नमाज़े जुमा तमाम हो जाए तो हुक्म है कि अब अपने कामो को अंजाम देने के लिए निकल पड़ो। यानी कामों के छोड़ने का हुक्म थोड़े वक़्त के लिए है। ये भी याद रहे कि तब्लीग़ के उसूल को याद रखते हुए लोगों की कैफ़ियत का लिहाज़ रखा गया है। क्योंकि तूलानी वक़्त के लिए लोगों से नही कहा जा सकता कि वह अपने कारोबार को छोड़ दें।लिहाज़ा एक ही सूरह( सूरए जुमुआ) मे कुछ देर कारोबार बन्द करने के ऐलान से पहले फ़रमाया कि “ऐ ईमान वालो” ये ख़िताब एक क़िस्म का ऐहतेराम है। उसके बाद कहा गया कि जिस वक़्त अज़ान की आवाज़ सुनो कारो बार बन्द करदो न कि जुमे के दिन सुबह से ही। और वह भी सिर्फ़ जुमे के दिन के लिए कहा गया है न कि हर रोज़ के लिए और फ़िर कारोबार बन्द करने के हुक्म के बाद फ़रमाया कि “ इसमे तुम्हारे लिए भलाई है” आखिर मे ये भी ऐलान कर दिया कि नमाज़े जुमा पढ़ने के बाद अपने कारो बार मे फिर से मशगूल हो जाओ। और “नमाज़” लफ़्ज़ की जगह ज़िकरुल्लाह कहा गया हैइससे मालूम होता है कि नमाज़ अल्लाह को याद करने का नाम है।
18-नमाज़ को छोड़ने वालों, नमाज़ से रोकने वालों और नमाज़ से ग़ाफिल रहने वालों की मज़म्मत
कुछ लोग न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते हैं।
क़ुरआन मे सूरए क़ियामत की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि कुछ लोग ऐसें है जो न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते है। यहाँ क़ुरआन ने हसरतो आह की एक दुनिया लिये हुए अफ़राद के जान देने के हालात की मंज़र कशी की है।
बाज़ लोग दूसरों की नमाज़ मे रुकावट डालते हैं।
क्या तुमने उसे देखा जो मेरे बन्दे की नमाज़ मे रुकावट डालता है। अबु जहल ने फैसला किया कि जैसे ही रसूले अकरम सजदे मे जाऐं तो ठोकर मार कर आप की गर्दन तोड़ दें। लोगों ने देखा कि वह पैगम्बरे इसलाम के क़रीब तो गया मगर अपने इरादे को पूरा न कर सका। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? तुम ने जो कहा था वह क्यों नही किया? उसने जवाब दिया कि मैंने आग से भरी हुई खन्दक़ देखी जो मेरे सामने भड़क रही थी( तफ़सीर मजमाउल ब्यान)
कुछ लोग नमाज़ का मज़ाक़ उड़ाते हैं।
क़ुरआन मे सूरए मायदा की आयत न.58 मे इस तरह इरशाद होता है कि जिस वक़्त तुम नमाज़ के लिए आवाज़(अज़ान) देते हो तो वोह मज़ाक़ उड़ाते हैं।
कुछ लोग बेदिली के साथ नमाज़ पढ़ते हैं
क़ुरआन के सूरए निसा की आयत न.142 मे इरशाद होता है कि मुनाफ़ेक़ीन जब नमाज़ पढते हैं तो बेहाली का पता चलता है।
कुछ लोग कभी तो नमाज़ पढ़ते हैं कभी नही पढ़ते
क़ुरआन करीम के सूरए माऊन की आयत न.45 मे इरशाद होता है कि वाय हो उन नमाज़ीयो पर जो नमाज़ को भूल जाते हैं और नमाज़ मे सुस्ती करते हैं। तफ़सीर मे है कि यहाँ पर भूल से मतलब वोह भूल है जो लापरवाही की वजाह से हो यानी नमाज़ को भूल जाना न कि नमाज़ मे भूलना कभी कभी कुछ लोग नमाज़ पढ़ना ही भूल जाते हैं। या उसके वक़्त और अहकाम व शरायत को अहमियत ही नही देते। नमाज़ के फ़ज़ीलत के वक़्त को जान बूझ कर अपने हाथ से निकाल देते हैं। नमाज़ को अदा करने में सवाब और छोड़ने मे अज़ाब के क़ाइल नही है। सच बताइये कि अगर नमाज़ मे सुस्ती बरतने से इंसान वैल का हक़ दार बन जाता है तो जो लोग नमाज़ को पढ़ते ही नही उनके लिए कितना अज़ाब होगा।
कुछ लोग अगर दुनियावी आराम से महरूम हैं तो बड़े नमाज़ी हैं। और अगर दुनिया का माल मिल जाये तो नमाज़ से ग़ाफ़िल हो जाते हैँ।
अल्लाह ने क़ुरआने करीम के सूरए जुमुआ मे इरशाद फ़रमाया है कि जब वह कहीँ तिजारत या मौज मस्ती को देखते हैं तो उस की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं।और तुमको नमाज़ का ख़ुत्बा देते हुए छोड़ जाते हैं। यह आयत इस वाक़िए की तरफ़ इशारा करती है कि जब पैगम्बरे इस्लाम नमाज़े जुमा का ख़ुत्बा दे रहे थे तो एक तिजारती गिरोह ने अपना सामान बेंचने के लिए तबल बजाना शुरू कर दिया। लोग पैगम्बरे इस्लाम के खुत्बे के बीच से उठ कर खरीदो फरोख्त के लिए दौड़ पड़े और हज़रत को अकेला छोड़ दिया। जैसे कि तारीख मे मिलता है कि हज़रत का ख़ुत्बा सुन ने वाले सिर्फ़ 12 अफ़राद ही बचे थे।
19-नमाज़ के लिए कोशिश
* अपने बच्चो को मस्जिद की खिदमत के लिए छोड़ना
क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 35 मे इरशाद होता है कि “कुछ लोग अपने बच्चों को मस्जिद मे काम करने के लिए छोड़ देते हैं।” जनाबे मरियम की माँ ने कहा कि अल्लाह मैं ने मन्नत मानी है कि मैं अपने बच्चे को बैतुल मुक़द्दस की खिदमत के लिए तमाम काम से आज़ाद कर दूँगी। ताकि मुकम्मल तरीक़े से बैतुल मुक़द्दस मे खिदमत कर सके। लेकिन जैसे ही बच्चे पर नज़र पड़ी तो देखा कि यह लड़की है। इस लिए अल्लाह की बारगाह मे अर्ज़ किया कि अल्लाह ये लड़की है और लड़की एक लड़के की तरह आराम के साथ खिदमत नही कर सकती। मगर उन्होने अपनी मन्नत को पूरा किया। बच्चे का पालना उठाकर मस्जिद मे लायीं और जनाबे ज़करिया के हवाले कर दिया।
* कुछ लोग नमाज़ के लिए हिजरत करते हैं, और बच्चों से दूरी को बर्दाशत करलेते हैं
क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की आयत न.37 मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बाल बच्चो को मक्के के एक सूखे मैदान मे छोड़ दिया। और अर्ज़ किया कि अल्लाह मैंने इक़ामे नमाज़ के लिए ये सब कुछ किया है। दिलचस्प बात यह है कि मक्का शहर की बुन्याद रखने वाला शहरे मक्का मे आया। लेकिन हज के लिए नही बल्कि नमाज़ के लिए क्योंकि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे काबे के चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ा जाना तवाफ़ और हज से ज़्यादा अहम था।
* कुछ लोग इक़ामए नमाज़ के लिए ज़्यादा औलाद की दुआ करते हैं
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की चालीसवी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम ने दुआ की कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वालो मे से बना दे। नबीयों मे से किसी भी नबी ने जनाबे इब्राहीम की तरह अपनी औलाद के लिए दुआ नही की लिहाज़ा अल्लाह ने भी उनकी औलाद को हैरत अंगेज़ बरकतें दीँ। यहाँ तक कि रसूले अकरम भी फ़रमाते हैं कि हमारा इस्लाम हज़रत इब्राहीम की दुआ का नतीजा है।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपनी बाल बच्चों पर दबाव डालते हैं
क़ुरआने करीम में इरशाद होता है कि अपने खानदान को नमाज़ पढने का हुक्म दो और खुद भी इस(नमाज़) पर अमल करो।इंसान पर अपने बाद सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपने बाल बच्चों की है। लेकिन कभी कभी घरवाले इंसान के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं तो इस हालत मे चाहिए कि बार बार उनको इस के करने के लिए कहते रहें और उनका पीछा न छोड़ें।
• कुछ लोग अपना सबसे अच्छा वक़्त नमाज़ मे बिताते हैं
नहजुल बलाग़ा के नामा न. 53 मे मौलाए काएनात मालिके अशतर को लिखते हैं कि अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ मे सर्फ़ करो। इसके बाद फरमाते हैं कि तुम्हारे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं।
• कुछ लोग दूसरों मे नमाज़ का शौक़ पैदा करते हैं।
कभी शौक़ ज़बान के ज़रिये दिलाया जाता है और कभी अपने अमल से दूसरों मे शौक़ पैदा किया जाता है।
अगर समाज के बड़े लोग नमाज़ की पहली सफ़ मे नज़र आयें, अगर लोग मस्जिद जाते वक़्त अच्छे कपड़े पहने और खुशबू का इस्तेमाल करें,
अगर नमाज़ सादे तरीक़े से पढ़ी जाये तो यह नमाज़ का शौक़ पैदा करने का अमली तरीक़ा होगा। हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे बुज़ुर्ग नबीयों को खानाए काबा की ततहीर(पाकीज़गी) के लिए मुऐयन किया गया। और यह ततहीर नमाज़ीयों के दाखले के लिए कराई गयी। नमाज़ीयों के लिए हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे अफ़राद से जो मस्जिद की ततहीर कराई गयी इससे हमारी समझ में यह बात आती है कि अगर बड़ी बड़ी शख्सियतें इक़ाम-ए-नमाज़ की ज़िम्मेदीरी क़बूल करें तो यह नमाज़ के लिए लोगों को दावत देने मे बहुत मोस्सिर(प्रभावी) होगा।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपना माल वक़्फ़ कर देते हैं
जैसे कि ईरान के कुछ इलाक़ो मे कुछ लोगों ने बादाम और अखरोट के कुछ दरख्त उन बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दिये जो नमाज़ पढने के लिए मस्जिद मे आते हैं। ताकि वह इनको खायें और इस तरह दूसरे बच्चों मे भी नमाज़ का शौक़ पैदा हो।
• कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए सज़ाऐं बर्दाशत करते हैं। जैसे कि शाह(इस्लामी इंक़िलाब से पहले ईरान का शासक) की क़ैद मे रहने वाले इंक़िलाबी मोमेनीन को नमाज़ पढ़ने की वजह से मार खानी पड़ती थी।
* कुछ लोग नमाज़ के क़याम के लिए तीर खाते हैं
जैसे कि जनाबे ज़ुहैर व सईद ने रोज़े आशूरा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने खड़े होकर इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए तीर खाये।
*कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए शहीद हो जाते हैं
जैसे हमारे ज़माने के शौहदा-ए-मेहराब आयतुल्लाह अशरफ़ी इस्फ़हानी, आयतुल्लाह दस्ते ग़ैब शीराज़ी, आयतुल्लाह सदूक़ी, आयतुल्लाह मदनी और आयतुल्लाह तबा तबाई वग़ैरह।
* कुछ अफ़राद नमाज़ पढ़ते हुए शहीद हो जाते हैं
जैसे मौला-ए-`काएनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम।
20-नमाज़ छोड़ने पर दोज़ख की मुसीबतें
क़ियामत मे जन्नती और दोज़खी अफ़राद के बीच कई बार बात चीत होगी। जैसे कि क़ुरआने करीम मे सूरए मुद्दस्सिर मे इस बात चीत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि“ जन्नती लोग मुजरिमों से सवाल करेंगें कि किस चीज़ ने तुमको दोज़ख तक पहुँचाया? तो वह जवाब देंगें कि चार चीज़ों की वजह से हम दोज़ख मे आये (1) हम नमाज़ के पाबन्द नही थे।(2) हम भूकों और फ़क़ीरों की तरफ़ तवज्जुह नही देते थे।(3) हम फ़ासिद समाज मे घुल मिल गये थे।(4) हम क़ियामत का इन्कार करते थे।”
नमाज़ छोड़ने के बुरे नतीज़ों के बारे मे बहुत ज़्यादा रिवायात मिलती है। अगर उन सबको एक जगह जमा किया जाये तो एक किताब वजूद मे आ सकती है।
21-नमाज़ छोड़ने वाले को कोई उम्मीद नही रखनी चाहिए।
अर्बी ज़बान मे उम्मीद के लिए रजाअ,अमल,उमनिय्याह व सफ़ाहत जैसे अलफ़ाज़ पाये जाते हैं मगर इन तमाम अलफ़ाज़ के मअना मे बहुत फ़र्क़ पाया जाता है।
जैसे एक किसान खेती के तमाम क़ानून की रियायत करे और फिर फ़सल काटने का इंतेज़ार करे तो यह सालिम रजाअ कहलाती है(यानी सही उम्मीद)
अगर किसान ने खेती के उसूलों की पाबन्दी मे कोताही की है और फ़िर भी अच्छी फ़सल काटने का उम्मीदवार है तो ऐसी उम्मीद अमल कहलाती है।
अगर किसान ने खेती के किसी भी क़ानून की पाबन्दी नही की और फिर भी अच्छी फ़सल की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को उमनिय्याह कहते हैं।
अगर किसान जौ बोने के बाद गेहूँ काटने की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को हिमाक़त कहते हैं।
अमल व रजा दोनो उम्मीदें क़ाबिले क़बूल है मगर उमनिय्याह और हिमाक़त क़ाबिले क़बूल नही हैँ। क्योंकि उमनिय्याह की क़ुरआन मे मज़म्मत की गई है। अहले किताब कहते थे कि यहूदीयों व ईसाइयों के अलावा कोई जन्नत मे नही जा सकता। क़ुरआन ने कहा कि यह अक़ीदा उमनिय्याह है। यानी इनकी ये आरज़ू बेकार है।
खुश बख्ती तो उन लोगों के लिए है जो अल्लाह और नमाज़ से मुहब्बत रखते हैं और अल्लाह की इबादत करते हैँ। बे नमाज़ी अफ़राद को तो निजात की उम्मीद ही नही रखनी चाहिए।
22- तमाम इबादतों के क़बूल होने का दारो मदार नमाज़ पर है।
नमाज़ की अहमियत के बारे मे बस यही काफ़ी है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मिस्र मे अपने नुमाइंदे मुहम्मद इब्ने अबी बकर के लिए लिखा कि लोगों के साथ नमाज़ को अव्वले वक़्त पढ़ना। क्योंकि तुम्हारे दूसरे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं। रिवायत मे यह भी है कि अगर नमाज़ कबूल हो गई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल हो जायेंगी, लेकिन अगर नमाज़ क़बूल न हुई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल नही की जायेंगी। दूसरी इबादतो के क़बूल होने का नमाज़ के क़बूल होने पर मुनहसिर होना(आधारित होना) नमाज़ की अहमियत को उजागर करता है। मिसाल अगर पुलिस अफ़सर आपसे डराइविंग लैसंस माँगे और आप उसके बदले मे कोई भी दूसरी अहम सनद पेश करें तो वह उसको क़बूल नही करेगा। जिस तरह डराइविंग के लिए डराइविंग लैसंस का होना ज़रूरी है और उसके बग़ैर तमाम सनदें बेकार हैं। इसी तरह इबादत के मक़बूल होने के लिए नमाज़ की मक़बूलियत भी ज़रूरी है। कोई भी दूसरी इबादत नमाज़ की जगह नही ले सकती।
23- नमाज़ पहली और आखरी तमन्ना
कुछ रिवायतों मे मिलता है कि नमाज़ नबीयों की पहली तमन्ना और औलिया की आखरी वसीयत थी। इमामे जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है कि आपने अपनी ज़िंदगी के आखरी लम्हात मे फ़रमाया कि तमाम अज़ीज़ो अक़ारिब को बुलाओ। जब सब जमा हो गये तो आपने फ़रमाया कि “हमारी शफ़ाअत उन लोगों को हासिल नही होगी जो नमाज़ को हलका और मामूली समझते हैं।”
24-नमाज़ अपने आप को पहचान ने का ज़रिया है
रिवायत मे है कि जो इंसान यह देखना चाहे कि अल्लाह के नज़दीक उसका मक़ाम क्या है तो उसे चाहिए कि वह यह देखे कि उसके नज़दीक अल्लाह का मक़ाम क्या है।(बिहारूल अनवार जिल्द75 स.199 बैरूत)
अगर तुम्हारे नज़दीक नमाज़ की अज़ान अज़ीम और मोहतरम है तो तुम्हारा भी अल्लाह के नज़दीक मक़ाम है। और अगर तुम उसके हुक्म को अंजाम देने मे लापरवाही करते हो तो उसके नज़दीक भी तुम्हारा कोई मक़ाम नही है। इसी तरह अगर नमाज़ ने तुमको बुराईयों और गुनाहों से रोका है तो यह नमाज़ के क़बूल होने की निशानी है।
25 क़ियामत मे पहला सवाल नमाज़ के बारे मे
रिवायत मे है कि क़ियामत के दिन जिस चीज़ के बारे मे सबसे पहले सवाल किया जायेगा वह नमाज़ है।(बिहारूल अनवार जिल्द 7 स.267 बैरूत)
दूसरा हिस्सा- नमाज़ का फ़लसफ़ा
26 नमाज़ अल्लाह की याद है।
अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो।
एक मख़सूस तरीक़े से अल्लाह की याद जिसमे इंसान के बदन के सर से पैर तक के तमाम हिस्से शामिल होते हैं।वज़ू के वक़्त सर का भी मसाह करते हैं और पैरों का भी, सजदे मे पेशानी भी ज़मीन पर रखी जाती है और पैरों के अंगूठे भी। नमाज़ मे ज़बान भी हरकत करती है और दिल भी उसकी याद मे मशग़ूल रहता है। नमाज़ मे आँखे सजदह गाह की तरफ़ रहती हैं तो रुकू की हालत मे कमर भी झूकी रहती है। अल्लाहो अकबर कहते वक़्त दोनों हाथ ऊपर की तरफ़ उठ ही जाते हैं। इस तरह से बदन के तमाम हिस्से किसी न किसी हालत मे अल्लाह की याद मे मशग़ूल रहते हैं।
27-नमाज़ और अल्लाह का शुक्र
नमाज़ के राज़ो मे से एक राज़ अल्लाह की नेअमतों का शुक्रियाअदा करना भी है। जैसे कि क़ुरआन मे ज़िक्र हुआ है कि उस अल्लाह की इबादत करो जिसने तुमको और तुम्हारे बाप दादा को पैदा किया।अल्लाह की नेअमतों का शुक्रिया अदा करना बड़ी अहमियत रखता है। सूरए कौसर मे इरशाद होता है कि हमने तुम को कौसर अता किया लिहाज़ा अपने रब की नमाज़ पढ़ा करो। यानी हमने जो नेअमत तुमको दी है तुम उसके शुक्राने के तौर पर नमाज़ पढ़ा करो। नमाज़ शुक्र अदा करने का एक अच्छा तरीक़ा है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसका हुक्म खुद अल्लाह ने दिया है। तमाम नबियों और वलीयों ने इस तरीक़े पर अमल किया है। नमाज़ शुक्रिये का एक ऐसा तरीक़ा है जिस मे ज़बान और अमल दोनो के ज़रिया शुक्रिया अदा किया जाता है।
28 नमाज़ और क़ियामत
क़ियामत के बारे मे लोगों के अलग अलग ख़यालात हैं।
क- कुछ क़ियामत के बारे मे शक करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा
अगर तुम क़ियामत के बारे मे शक करते हो।
ख- कुछ लोग क़ियामत के बारे मे गुमान रखते हैं जैसे कि क़ुरआन
ने कहा है कि वह लोग गुमान करते हैं कि अल्लाह से मुलाक़ात
करेंगे।
ग- कुछ लोग क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं।
घ- कुछ लोग क़ियामत का इंकार करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि (वह लोग कहते है कि) हम क़ियामत के दिन को झुटलाते हैं।
ङ- कुछ लोग क़ियामत पर ईमान रखते हैं मगर उसे भूल जाते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत के दिन को भूल गये हैं।
क़ुरआन ने शक करने वालों के शक को दूर करने के लिए दलीलें दी हैं। क़ियामत का इंकार करने वालों से सवाल किया है कि बताओ तुम्हारे मना करने की दलील क्या है? और भूल जाने वालों को बार बार तंबीह की है ताकि वह क़ियामत को न भूलें। और क़ियामत पर यक़ीन रखने वालों की तारीफ़ की है।
नमाज़ शक को दूर करती है और ग़फ़लत को याद मे बदल देती है। क्योँकि नमाज़ मे इंसान 24 घँटे मे कम से कम 10 बार अपनी ज़बान से अल्लाह को मालिकि यौवमिद्दीन(क़ियामत के दिन का मालिक) कह कर क़ियामत को याद करता है।
29- नमाज़ और सिराते मुस्तक़ीम
हम हर रोज़ नमाज़ मे अल्लाह से सिराते मुस्तक़ीम पर गामज़न रहने की दुआ करते हैं। इंसान को हर वक़्त एक नयी फ़िक्र लाहक़ होती है। दोस्त दुशमन, अपने पराये, सरकशी पर आमादा अफ़राद, और शैतानी वसवसे पैदा करने वाले लोग, नसीहत, शौक़, खौफ़, वहशत, और परोपैगंडे के तरीक़ो से काम लेकर इंसान के सामने एक से एक नये रास्ते पेश करते हैं।और इस तरह मंसूबा बनाते हैं कि अगर इंसान को अल्लाह की तरफ़ से मदद ना मिले तो हवाओ हवस के इन रास्तो मे उलझ कर रह जाये। और मुखतलिफ़ तरीक़ो के बीच उलझन का शिकार होकर सिराते मुस्तकीम से भटक जाये।
ऐहदि नस्सिरातल मुस्तक़ीम यानी हमको सिराते मुस्तक़ीम(सीधे रास्ते पर) पर बाक़ी रख।
सिराते मुसतक़ीम यानी
1- वह रास्ता जो अल्लाह के वलीयों का रास्ता है।
2- वह रास्ता जो हर तरह के खतरे और कजी से पाक है।
3- वह रास्ता जो हमसे मुहब्बत करने वाले का बनाया हुआ है।
4- वह रास्ता जो हमारी ज़रूरतों के जानने वाले ने बनाया है।
5- वह रास्ता जो जन्नत से मिलाता है।
6- वह रास्ता जो फ़ितरी है।
7- वह रास्ता कि अगर उस पर चलते हुए मर जायें तो शहीद कहलाऐं।
8- वह रास्ता जो आलमे बाला से वाबस्ता और हमारे इल्म से दूर है।
9- वह रास्ता जिस पर चल कर इंसान को शक नही होता।
10-वह रास्ता जिस पर चलने के बाद इंसान शरमिन्दा नही होता।
11-वह रास्ता जो तमाम रास्तों से ज़्यादा आसान, नज़दीक, रोशन और साफ़ है।
12-वह रास्ता जो नबियों, शहीदों, सच्चे और नेक लोगों का रास्ता है।
यही तमाम चीज़े सिराते मुस्तक़ीम की निशानियाँ हैं। जिनका पहचानना बहुत मुशकिल काम है।इस पर चलने और बाक़ी रहने के लिए हमेशा अल्लाह से मदद माँगनी चाहिए।
30-नमाज़ शैतानो से जंग है
हम सब लफ़्ज़े महराब को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। यह लफ़्ज़ क़ुरआन मे जनाबे ज़िक्रिया अलैहिस्सलाम की नमाज़ के बारे मे इस्तेमाल हुआ है। (सूरए आले इमरान आयत न. 38, 39) यहाँ पर नमाज़ मे खड़े होने को महराब मे क़ियाम से ताबीर किया गया है। महराब का मअना जंग की जगह है। लिहाज़ा महराबे नमाज़ मे क़ियाम और नमाज़ शैतान से जंग है।
31- महराब जंग की जगह
अगर इंसान दिन मे कई बार किसी ऐसी जगह पर जाये जिसका नाम ही मैदाने जंग हो, जहाँ पर शैतानों, शहवतो, ताग़ूतों, सरकशों और हवस से जंग होती हो तो इस ताबीर का इस्तेमाल एक फ़र्द या पूरे समाज की ज़िंदगी मे कितना ज़्यादा मोस्सिर होना चाहिए।
इस बात को नज़र अन्दाज़ करते हुए कि आज के ज़माने मे ग़लत रस्मो रिवाज की बिना पर इन महराबों को दुल्हन के कमरों से भी ज़्यादा सजाया जाने लगा है।इन ज़रो जवाहिर और फूल पत्तियों की नक़्क़ाशी ने तो मामले को बिल्कुल बदल दिया है। यानी महराब को शैतान के भागने की जगह के बजाए, उसके पंजे जमाने की जगह बना दिया जाता है।
एक दिन पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैह से फ़रमाया कि इस पर्दे को मेरी नज़रो के सामने से हटा दो। क्योंकि इस पर बेल बूटे बने हैं जो नमाज़ की हालत मे मेरी तवज्जुह को अपनी तरफ़ खीँच सकते हैं।
लेकिन आज हम महराब को संगे मरमर और नक़्क़ाशी से सजाने के लिए एक बड़ी रक़म खर्च करते हैं। पता नही कि हम मज़हबी रसूम और मेमारी के हुनर के नाम पर असल इस्लाम से क्यों दूर होते जा रहे हैं? इस्लाम को जितनी ज़्यादा गहराई के साथ बग़ैर किसी तसन्नो के पहचनवाया जायेगा उतना ही ज़यादा कारगर साबित होगा। सोचिये कि हम इन तमाम सजावटों के ज़रिये कितने लोगों को नमाज़ी बनाने मे कामयाब हुए। अगर मस्जिद की सजावट पर खर्च होने वाली रक़म को दूसरी अहम बुन्यादी ज़रूरतों को पूरा करने मे खर्च किया जाये तो बहुतसे लोग मस्जिद और नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जाह होंगे।
32-सुस्त लोग भी शामिल हो जाते हैं
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जमाअत के फ़लसफ़े को ब्यान करते हुए फ़रमाया कि “नमाज़े जमाअत का एक असर यह भी है कि इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है और वह भी साथ मे शामिल हो जाते हैं।” मिसाल के तौर पर जब हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम आता है तो आपके मुहिब ऐहतराम के लिए खड़े हो जाते हैं। इनको खड़े होता देख कर सुस्त लोग भी ऐहतरामन खड़े हो जाते हैं।इस तरह इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है।
33- हज़रत मूसा अलै. को सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अपनी बीवी के साथ जारहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ। जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया। यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा ताल्लुक़ है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है। हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।
34- नमाज़ को छोड़ना तबाही का सबब बनता है
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि नबीयों के बाद कुछ लोग उनके जानशीन बने उन्होने नमाज़ को छोड़ दिया और शहवत परस्ती मे लग गये।
इस आयत मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि उन्होने पहले नमाज़ को छोड़ा और बाद मे शहवत परस्त बन गये। नमाज़ एक ऐसी रस्सी है जो बंदे को अल्लाह से मिलाए रखती है। अगर यह रस्सी टूट जाये तो तबाही के ग़ार मे गिरना यक़ीनी है। ठीक इसी तरह जैसे तस्बीह का धागा टूट जाने पर दाने बिखर जाते हैं और बहुत से गुम हो जाते हैं।
35- तमाम अदयान की इबादत गाहों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए हज की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि अगर इंक़िलाबी मोमेनीन अपने हाथों मे हथियार लेकर फ़साद फैलाने वालों और तफ़रक़ा डालने वालों से जंग न करें, और उन्हें न मारे तो ईसाइयों, यहूदीयों और मुसलमानो की तमाम इबादतगाहें वीरान हो जायें।
अगर अल्लाह इन लोगों को एक दूसरे से दफ़ ना करता तो दैर, कलीसा, कनीसा और मस्जिदें जिन मे कसरत के साथ अल्लाह का ज़िक्र होता है कब की वीरान होगईं होतीं। बहर हाल अगर इबादत गाहों की हिफ़ाज़त के लिए खून भी देना पड़े तो इनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए।
दैर--- आबादी से बाहर बनाई जाने वाली इबादतगाह जिसमे बैठ कर ज़ाहिद लोग इबादत करते हैं।
कलीसा--- ईसाइयों की इबादतगाह
कनीसा---- यहूदीयों की इबादतगाह और यह इबरानी ज़बान के सिलवसा लफ़्ज़ का अर्बी तरजमा है।
मस्जिद----मुसलमानो की इबादतगाह
36- तहारत और दिल की सलामती
जिस तरह इस्लाम मे नमाज़ पढ़ने के लिए वज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम जैसी ज़ाहिरी तहारत ज़रूरी है। इसी तरह नमाज़ की क़बूलियत के लिए दिल की तहारत की भी ज़रूरत है। क़ुरआन ने बार बार दिल की पाकीज़गी की तरफ़ इशारा किया है। कभी इस तरह कहा कि फ़क़त क़लबे सलीम अल्लाह के नज़दीक अहमियत रखता है।
इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “क़लबे सलीम उस क़ल्ब को कहते हैं जिसमे शक और शिर्क ना पाया जाता हो।”
हदीस मे मिलता है “कि अल्लाह तुम्हारे जिस्मों पर नही बल्कि तुम्हारी रूह पर नज़र रखता है।”
क़ुरआन की तरह नमाज़ मे भी ज़ाहिर और बातिन दोनो पहलु पाये जाते हैं। नमाज़ की हालत मे हम जो अमल अंजाम देते हैं अगर वह सही हो तो यह नमाज़ का ज़ाहिरी पहलु है। और यहीँ से इंसान की बातिनी परवाज़(उड़ान) शुरू होती है।
वह नमाज़ जो मारफ़त व मुहब्बत की बुनियाद पर क़ाइम हो।
वह नमाज़ जो खुलूस के साथ क़ाइम की जाये।
वह नमाज़ जो खुज़ुअ व खुशुअ के साथ पढ़ी जाये।
वह नमाज़ जिसमे रिया (दिखावा) ग़रूर व तकब्बुर शामिल न हो।
वह नमाज़ जो ज़िन्दगी को बनाये और हरकत पैदा करे।
वह नमाज़ जिसमे दिल हवाओ हवस और दूसरी तमाम बुराईयों से पाक हो।
वह नमाज़ जिसका अक्स मेरे दिमाग़ मे बना है। जिसको मैंने लिखा और ब्यान किया है। लेकिन अपनी पूरी उम्र मे ऐसी एक रकत नमाज़ पढ़ने की सलाहिय्यत पैदा न कर सका।(मुसन्निफ़)
तीसरा हिस्सा - नमाज़ के मानवी पहलु और मतालिब
37- नमाज़ और सच्चाई
अगर कोई इंसान किसी को पसंद करता है, तो उससे बात करना भी पसंद करता है। बस वह लोग जो अल्लाह से दोस्ती का दावा तो करते हैं, मगर नमाज़ मे दिल चस्पी नही रखते वह अपने दावे मे सच्चे नहीँ हैं। नमाज़ उन बातों के आज़माने का ज़रिया है जो इंसान अपनी ज़बान से कहता है। यही वजह है कि मुनाफ़िक़ की नमाज़ उसके दूसरे तमाम आमाल की तरह सच्चाई से खाली होती है।
38-नमाज़ और ज़ीनत
जहाँ इस्लाम ने नमाज़ को हज़ूरे क़ल्ब यानी जवज्जुह के साथ पढ़ने का हुक्म दिया है। और इसको मोमिन की निशानियों मे से एक निशानी बताया है। और कहा है कि अगर नमाज़ तवज्जुह के साथ न पढ़ी गयी तो क़बूल नही की जायेगी। या यह कि नमाज़ का सिर्फ़ वही हिस्सा क़बूल किया जायेगा जो तवज्जुह के साथ पढ़ा गया होगा। इस बात का भी हुक्म दिया गया है कि नमाज़ पढ़ने के लिए अपना पाको पाकीज़ा बेहतरीन लिबास पहनो और खुशबु का इस्तेमाल करो और इतमिनान के साथ नमाज़ को अदा करो।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम जब नमाज़ के लिए मस्जिद की तरफ़ जाते थे, तो इस तरह से अपने को ज़ीनत देते थे, कि देखने वाले आपसे कहते थे, कि ऐसा लगता है कि आप दुल्हन के कमरे मे जा रहे हैं।
यह सुन कर इमाम फ़रमाते कि “नही मैं तमाम अच्छाइयों और ज़ेबाईयों के खालिक़ से मुलाक़ात के लिए जा रहा हूँ।”
औरतों के लिए अच्छा है कि जब वह नमाज़ पढ़ा करें तो अपने ज़ेवरों को पहन लिया करें।
39- नमाज़ एक ऐसा मुआमला है जिसमे फ़ायदा ही फायदा है
अल्लाह फ़रमाता है कि तुम मुझे याद करो मैं तुमको याद रखूँगा। हमारे याद करने से अल्लाह को कोई फ़ायदा नही है। मगर अल्लाह जब हमें याद करता है तो इसकी मेहरबानीयाँ हमको नसीब हो जाती हैं। वह हमारे गुनाहों को माफ़ कर देता है। हमारी मुश्किलों को आसान कर देता है और हमारी दुआओं को क़बूल करता है। उसकी मेहरबानियाँ हमारे लिए बहुत अहमियत रखती हैं। बस नमाज़ मे अल्लाह को याद करने का मतलब यह है कि हम ने एक बेक़ीमत चीज़ के बदले एक क़ीमती चीज़ हासिल करली है। हमने उस को याद किया है जिसको हमारी याद से कोई फ़ायदा नही पहुँचता। इसलिए कि अल्लाह क़ुरआने करीम मे इरशाद फ़रमा रहा है कि अल्लाह तमाम दुनिया वालों से बेनियाज़ है।(यानि अल्लाह को दुनिया वालों से किसी चीज़ की ज़रूरत नही है।) लेकिन हमने अल्लाह को याद करके अल्लाह को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर लिया है। और हक़ीक़त भी यही है कि हमने तमाम कमालात को पालिया है। लिहाज़ा नमाज़ एक फ़ायदेमन्द मुआमला है और अल्लाह ने खुद हमको इसकी दावत दी है।
40-नमाज़ और सुकून
रूही सुकून व आराम एक ऐसा मस्ला है जिसको इल्म और सनअत(उत्पादन) पर मबनी(आधारित) यह दुनिया अभी तक हल नही कर सकी है। हर रोज़ नफ़्सियाती बीमारीयों की तादाद मे इज़ाफ़ा हो रहा है और दवा का इस्तेमाल हर दिन बढ़ता जा रहा है। कोई भी चीज़ इंसान को सुकून नही देती सिर्फ़ अल्लाह की याद, उसकी मुहब्बत और उसकी ज़ात पर ईमान व तवक्कुल से इंसान के दिल को आराम व सुकून मिलता है।
नमाज़ अल्लाह की याद है और फ़क़त अल्लाह की याद से दिल को सुकून मिलता है। हम सब ऐसे इंसानों को जानतें हैं, जिनके पास इल्म, दौलत और ताक़तो क़ुदरत सभी कुछ मौजूद है। मगर उनको वह आराम व सुकून हासिल नही है, जिसकी एक इंसान को ज़रूरत होती है। और इनके मुक़ाबिल वह लोग भी हैं जिनके पास माल दौलत नही है मगर फ़िर भी वह मुत्मइन हैं और सुकून से रहते हैं। इसकी वजह यह है कि वह अल्लाह पर ईमान रखते हैं। वह एक खास अक़ीदा नज़रिया और फ़िक्र रखते हैं । और हर अच्छे बुरे हादसे को सहन करते हैं।
अल्लाह की याद से दिलों को सुकून मिलता है। और अल्लाह की याद का सबसे अच्छा तरीक़ा नमाज़ है। आज की इस दुनिया मे इंसान के पास इल्म और महारत की कमी नही है बल्कि उसके पास जिस चीज़ की कमी है उसका नाम सुकून है। आज के इस दौर मे न तो बड़ी ताक़तों को आराम हासिल है और ना ही दौलतमंद अफ़राद को राहत है। जहाँ मुनाफ़िक़ लोग बेचैन हैं वहीँ दौलत के पुजारी दरबारी उलमा भी सुकून से नही हैं। हाँ अगर हमने इस दौर मे किसी को सुकून से देखा है तो वह इमाम खुमैनी रिज़वानुल्लाह अलैह की ज़ात थी। जब वह फ़रवरी 1979 मे फ़्राँस से ईरान आरहे थे तो हवाई जहाज़ मे एक प्रेस रिपोरटर ने सवाल किया कि आप इस वक़्त कैसा महसूस कर रहे हैं? आप ने फ़रमाया कि “कुछ भी नही।” जबकि हालात यह थे कि अभी शाह की सरकार बाक़ी थी और हवाई जहाज़ को मार गिराने का खतरा था। इमाम खुमैनी ने अपने वसीयत नामे मे भी लिखा है कि ” मैंपुर सुकून क़ल्ब के साथ अल्लाह की बारगाह मे जारहा हूँ।” यह दिल का सुकून माल दौलत या ताक़त और शौहरत से नही मिलता बल्कि यह सुकून अल्लाह से राबते के नतीजे मे हासिल होता है। और अल्लाह से राबते का सबसे अच्छा तरीक़ा नमाज़ है।
41- नमाज़ यानी ईमान
शुरू मे 15 साल तक मुसलमानो ने बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ नमाज़ पढ़ी। और जब क़िबला काबे की तरफ़ बदला गया(क़िबले के बदलने के कुछ सबब सूरए बक़रा मे ब्यान किये गये हैं।) तो मुसलमानो को यह फ़िक्र हुई कि हमने जो नमाज़े बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख करके पढ़ी हैं उनका क्या होगा? जब उन्होने इस बारे मे पैगम्बर से सवाल किया तो क़ुरआन की यह आयत नाज़िल हुई कि अल्लाह तुम्हारे ईमान को ज़ाय(बर्बाद) नही करेगा। क्योँकि उन्होने अपनी नमाज़ों के बारे मे सवाल किया था लिहाज़ा होना तो यह चाहिए था कि उनको जवाब दिया जाता कि तुम्हारी पहली नमाज़ें सही हैं। अल्लाह तुम्हारी नमाज़ों को ज़ाय(बर्बाद) नही करेगा। मगर अल्लाह ने यह आयत नाज़िल की कि अल्लाह तुम्हारे ईमान को ज़ाय (बर्बाद) नही करेगा। इसका मतलब यह है कि नमाज़ ईमान है और नमाज़ को तर्क(छोड़ना) करना ईमान को तर्क करना है।
42-नमाज़ और अल्लाह की बुज़ुर्गी
नमाज़ मे सबसे पहला वाजिब जुमला अल्लाहु अकबर है।( यानी अल्लाह सबसे बड़ा है।) और जो अल्लाह को बड़ा मान लेगा उसके सामने दुनिया की हर चीज़ छोटी हो जायेगी।
जैसे जब कोई हवाई जहाज़ मे बैठ कर आसमान की तरफ़ ऊँचाई पर पहुँचता है तो ज़मीन पर बने बड़े बड़े घर महल्ले और शहर छोटे छोटे नज़र आने लगते हैं। और जैसे जैसे उसकी ऊँचाई बढ़ती जाती है ज़मीन उसको छोटी नज़र आने लगती है। इसी तरह जिसकी नज़र मे अल्लाह की बुज़ुर्गी होगी उसकी नज़र मे ग़ैरों की कोई अहमियत नही रह जायेगी। ताक़त, माल, मक़ाम,शोहरत कुछ भी उसकी नज़र मे नही समायेगा।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम नहजुल बलाग़ा मे मुत्तेक़ीन के सिफ़ात ब्यान करते हुए फ़रमाते हैं कि “जिस वक़्त भी मोमिनीन की आँखों मे अल्लाह की बुज़ुर्गी समा जायेगी, उसी वक़्त अल्लाह के अलावा हर चीज़ को छोटा समझने लगेगें।”
अगर हमारी नज़रों मे दुनिया की कोई अहमियत न रहे तो उससे हमारा लगाव भी खुद ही कम हो जायेगा। और इस तरह हम मालो मक़ाम के लिए जराइम मे मुबतला न होंगें।
इमाम खुमैनी रिज़वानुल्लाह अलैह फरमाया करते थे कि“अमरीका कोई नुक़्सान नही पहुँचा सकता।” यह सिर्फ़ एक नारा नही था बल्कि उन्होने अपनी उम्र इस अक़ीदे के साथ गुज़ारी थी कि अल्लाह सबसे बड़ा है। लिहाज़ अमरीका उनकी नज़र मे कुछ भी नही था।उनके सामने हर हादसा मामूली था।
आशूर के दिन हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने फ़रमाया कि ऐ परवर दिगार हमारी इस छोटी सी कुर्बानी को क़बूल फ़रमा। कर्बला मे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत एक बहुत बड़ा हादसा है। लेकिन जिन की नज़रों मे अल्लाह की बुज़ुर्गी हो वह इस बड़े हादसे को भी मामूली और छोटा समझते हैं।
और जब बनी उमैय्या के हाकिम ने आप से सवाल किया कि कर्बला मे आपने क्या देखा? तो हज़रत ज़ैनब ने फ़रमाया कि हमने अच्छाई के अलावा कुछ नही देखा। आरिफ़ हज़रात की नज़रें देखती हैं कि अल्लाह के तमाम काम हिकमत तरबीयत और अच्छाई लिये हुए होते हैं।
43-नमाज़ और इख्लास
नमाज़ मे अव्वल से आखिर तक क़सदे क़ुर्बत नमाज़ के सही होने के लिए शर्त है। अगर हम नमाज़ पढ़ते वक़्त कोई हरकत या नमाज़ के वाजिब और मुस्तहब्बात मे से एक लफ़्ज़ भी ग़ैरे खुदा के लिए अंजाम दें तो नमाज़ बातिल हो जाती है। इसी तरह अगर नमाज़ की जगह या नमाज़ का वक़्त किसी ग़ैरे खुदा के लिए मुऐयन करें तो इस हालत मे भी नमाज़ बातिल है। यहाँ तक कि वह शक्ल और हालत जो हम नमाज़ के वक़्त बनाते हैं अगर वह भी अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए है तो नमाज़ बातिल है।
लिहाज़ा नमाज़ इस हालत मे इबादत शुमार होगी जब उसमे कोई भी क़स्द अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए न हो। और यह क़स्दे कुर्बत अव्वले नमाज़ से आखिरे नमाज़ तक बाक़ी रहे।
ज़ाहिर है कि अगर इंसान हर रोज़ दुनिया के लगाव और इसकी चमक दमक को अपने दिल से दूर करके अपनी रूह की रस्सी को अल्लाह की ज़ात के साथ बाँध ले। और उसके साथ इस तरह राज़ो नियाज़ करे कि अल्लाह के अलावा कोई दूसरा उसके दिल मे दाखिल न हो सके तो समझो कि उसने एक बड़ी कामयाबी हासिल कर ली है।
हम नमाज़ मे इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तःईन कह कर यह ऐलान करते हैं कि हम तेरी खालेसाना इबादत करते हैं। और इस इखलास को खुद अल्लाह की ज़ात से चाहते हैं।
44- नमाज़ आज़माइश का पैमाना है
क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की आयत न. 45 मे इरशाद होता है कि अल्लाह के खाशेअ( ) बंदों के अलावा दूसरे सब लोग नमाज़ को बार समझते हैं। लिहाज़ा अगर हम किसी वक़्त नमाज़ को बार महसूस करने लगें तो हमको यह समझ लेना चाहिए कि हम अल्लाह के लिए खुज़ुओ खुशुअ नही रखते। और खुज़ुओ खुशुअ का खत्म हो जाना तकब्बुर और लापरवाही की निशानी है।
रमज़ानुल मुबारक मे पढ़ी जाने वाली दुआ-ए-सहर जो हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अबु हमज़ा सुमाली को तालीम फ़रमाई थी। इसमे नमाज़ की अहमियत पर इन जुमलों के साथ रोशनी डाली गई है।
ऐ मेरे अल्लाह मैं नमाज़ के वक़्त अपने अन्दर खुशी क्यो महसूस नही करता।
शायद तूने मुझे अपनी बारगाह से निकाल दिया है।
शायद बेहूदा बातें करने की वजह से मेरी तोफ़ीक़ मे कमी हो गई है।
शायद तू मुझे सच्चा नही मानता है।
शायद बुरे लोगों की दोस्ती ने मेरे ऊपर (ग़लत) असर डाला है।
हर हालत मे नमाज़ को बोझ महसूस करना खतरे की निशानी है।
44- नमाज़ करम का दरवाज़ा है
अल्लाह के अलावा दूसरे अफ़राद के यहाँ या तो करम पाया ही नही जाता या फिर उनका करम बहुत कम है। अकसरन लोग दूसरों पर ऐहसान व करम नही करते। और अगर किसी के खुशामदें करने की वजह से किसी पर करम करते हैं तो उनका अपना माल कम हो जाता है। मगर अल्लाह के लुत्फ़ो करम की कोई हद नही है। उसके लुत्फ़ का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है। उसने खुद इस दरवाज़े मे दाखिल होने की दावत दी है।वह अपने लुत्फ़ की हदूद मे दाखिल होने वाले अफ़राद से खुश होता है।वह बग़ैर किसी रिशवत या हदिया के सबकी सुनता है।
अल्लाह से राबिता करने के लिए न किसी वक़्त की क़ैद है न किसी खास जगह की। न किसी क़ानून की ज़रूरत है न किसी सिफ़ारिश की। उससे राबते के लिए कोई शर्त नही है। बस यही काफ़ी है कि सच्चे दिल के साथ उससे राबिता करें। अपने गुनाहों का इक़रार करें और उस से मदद माँगें।
46-नमाज़ तकरार नही मेराज है
कुछ लोगों का मानना है कि नमाज़ तकरार के अलावा कुछ भी नही है। यह खयाल ग़लत है। सच्चाई यह है कि नमाज़ तरक़्क़ी का ज़ीना(सीढ़ी)है। नमाज़ को जितने सच्चे दिल के साथ पढ़ा जायेगा उतनी ही ज़्यादा बलन्दीयाँ हासिल होती जायेंगी। देखने मे रुकू व सजूद तकरारी अमल लगते हैं मगर हक़ीक़त यह है कि नमाज़ उस खुदाल की तरह है जिससे कुँआ खोदा जाता है। जब खुदाल को बार बार ज़मीन पर मारा जाता है तो देखने मे यह लगता है कि यह काम तकरार हो रहा है। मगर हक़ीक़त यह है कि खुदाल का हर वार हमको पानी से क़रीब करता जाता है। जैसे जैसे इंसान सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है वह आसमान से क़रीब होता जाता है।
आप क़ुरआन को जितना ज़्यादा पढ़ेगें उतने ही ज़्यादा मतालिब हासिल करेंगे। खुशबूदार फूल को आप जितना ज़्यादा सूँघेंगे उतनी ही ज़्यादा लज़्ज़त हासिल करेंगे। हज के सफ़र मे जितना ज़्यादा भाग दौड़ करेंगे उतने ही ज़्यादा राज़ो से आगाही हासिल करेंगे। बहर हाल नमाज़ देखने मे एक तकरारी काम मालूम होता है मगर हक़ीक़त मे इंसान को बलंदी अता करती है।
चौथा हिस्सा - नमाज़ के तरबीयती पहलू
47-नमाज़ और तबीअत (प्रकृति)
नमाज़ फ़क़त एक क़लबी (दिली) राबते का नाम नही है। बल्कि यह एक ऐसा अमल है जो लोगों के साथ मिल कर तबीअत(प्रकृति) से फ़ायदा हासिल करते हुए अंजाम दिया जाता है। जैसे नमाज़ के वक़्त को जानने के लिए आसमान की तरफ़ देखना चाहिए। क़िबले की सिम्त को जानने के लिए सितारों को देखना चाहिए। पानी की तरफ़ ध्यान देना चाहिए कि पाक साफ़ खालिस और हलाल हो। मिट्टी पर दिक़्क़त करनी चाहिए कि इसमे तयम्मुम और सजदे के सही होने के शरायत हैं या नही। अल्लाह की इबादत तबीअत के बग़ैर नही हो सकती। रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम सहर मे आसमान की तरफ़ नज़रे उठाते और सितारों को देखते हुए फ़िक्र करते और फ़रमाते कि ऐ पालने वाले तूने इनको बेकार पैदा नही किया। और इसके बाद नमाज़ मे मशग़ूल हो जाते। तबीअत (प्रकृति) मे ग़ौरो फ़िक्र अल्लाह को पहचान ने का एक ज़रिया है।
फ़ारसी का मशहूर शाइर सादी कहता है कि हमारे साँस लेने के अमल मे जब यह साँस अन्दर की तरफ़ जाता है तो ज़िन्दगी के लिए मददगार बनता है और जब यही साँस पलट कर बाहर आता है तो सुकून का सबब बनता है। बस इस तरह हर साँस मे दो नेअमतें मौजूद हैँ। और हर नेअमत पर अल्लाह का शुक्र वाजिब है।
हक़ीक़त भी यही है कि अगर साँस हमारे बदन मे दाखिल न हो तब भी हम ज़िन्दा नही रह सकते। और अगर यही साँस वापस बाहर न आये तब भी हम ज़िन्दा नही रह सकते। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “हर साँस मे हज़ारो नेअमतें हैं क्योँकि दरख्तों के पत्ते भी इंसान के साँस लेने मे मददगार होते हैं। अगर दरख्त कार्बनडाइ आक्साइड को ओक्सीज़न मे न बदलें तो क्या हम साँस ले सकेंगें ? बल्कि समन्द्रो के मगर मच्छ भी इंसान के साँस लेने के अमल मे मददगार होते हैं। क्योँकि समुन्द्रो मे हर दिन रात लाखों छोटे बड़े जानवर मरते हैं। अगर यह मगर मच्छ उनको खाकर पीनी को साफ़ न करें तो पानी बदबूदार हो जायेगा। और पानी के सड़ने की हालत मे इंसान के लिए साँस लेना बहुत मुशकिल हो जायेगा।” अब आप ग़ौर फ़रमाये कि हमारे साँस लेने के अमल मे दरख्तों के पत्ते और समुन्द्रो के मगर मच्छ तक मदद करते हैं। मगर अफ़सोस कि हम तबीअत के राज़ों से वाक़िफ़ नही हैं।
इस्लामी नज़रिये के मुताबिक़ तबीअत(प्रकृति) मे ग़ौरो फ़िक्र एक बड़ी इबादत है। जैसे मिट्टी, पानी, आसमान और दरख्तों वग़ैरह मे ग़ैरो फ़िक्र करना। लेकिन नमाज़ मे तबीअत से फ़ायदा हासिल करने के ज़राय को महदूद कर दिया गया है। जैसे मर्द नमाज़ मे सोने की चीज़ो और रेशमी लिबास को इस्तेमाल नही कर सकते। अल्लाह की बारगाह मे तकब्बुर आमेज़ लिबास पहन कर जाना इन्केसारी के खिलाफ़ है। नमाज़ के बीच मे खाना पीना इबादत के लिए ज़ेबा नही है। ज़मीन पर सजदा करना इबादत है मगर खाने पीने की चीज़ों पर सजदा करना शिकम परस्ती है इबादत नही है। तबीअत मे ग़ौरो फ़िक्र करना सही है मगर तबीअत मे डूब जाना सही नही है। तबीअत राह को तै करने की निशानी है ठहरने या डूबने की जगह नही है। समुन्द्रों का पानी किश्ती को उस पर तैराने के लिए होता है किश्ती मे भर कर उसे डुबाने के लिए नही। सूरज इस लिए है कि लोग उस से रोशनी हासिल करें इस लिए नही कि लोग उसकी तरफ़ देख कर अपनी आखों की रोशनी खत्म कर लें।
48-नमाज़ और तालीम
अगर नमाज़ी यह चाहता है कि उसकी नमाज़ बिलकुल सह हो तो उसे चाहिए कि कुछ न कुछ इल्म हासिल करे। जैसे क़ुरआन को पढ़ने का इल्म, नमाज़ के अहकाम का इल्म, क़िबले की पहचान, तहारत वज़ू ग़ुस्ल और तयम्मुम के तरीक़ों का इल्म, नमाज़ के मुक़द्दमात और शर्तों का इल्म, मस्जिद मे जाने और ठहरने के मसाइल का इल्म, नमाज़ के वाजिबात मे शक करने की सूरत मे नमाज़ के सही होने या बातिल होने का इल्म, नमाज़ के किसी जुज़ के छुट जाने की हालत मे नमाज़ के सही होने या दोबारा पढ़ने का इल्म। यह सब तालीमात फ़िक़्ह और इल्म के बाज़ार को पुर रौनक़ बनाती हैं।
49- नमाज़ और अदब
अगर कोई इंसान अज़ान की आवाज़ सुन कर भी नमाज़ की तरफ़ से लापरवाह रहे तो ऐसा है कि उसने एक तरह से नमाज़ की तौहीन की है। हम को इस्लाम ने इस बात की ताकीद की है कि नमाज़ मे अदब के साथ खड़े हों। दोनों हाथ रानों पर हों, निगाह सजदागाह पर हो, लिबास साफ़ सुथराऔर खुशबू मे बसा हो। और अगर नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जाये तो सब लोगों के साथ रहना ज़रूरी है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी रुक्न को दूसरों से पहले या बाद मे अंजाम नही देना चाहिए। इमामे जमाअत से पहले रुकू या सजदे मे नही जाना चाहिए, बल्कि किसी ज़िक्र को भी इमाम से पहले शुरू नही करना चाहिए। यह सब हुक्म इंसान के अन्दर अदब को मज़बूत बनाते हैं। मुहब्बत, माअरिफ़त और इताअत पर मबनी (आधारित) यह अदब उस ज़ात के सामने है जो क़ाबिले इबादत है। जिसमे न दिखावा पाया जाता और न बनावट। जो चापलूसी और खुशामद को पसंद नही करता है। (नमाज़ के इसी अदब को नज़र मे रखते हुए) रसूले अकरम ने फ़रमाया कि “जो इंसान सजदे को बहुत तेज़ी के साथ अँजाम देता है वह कव्वे के ज़मीन पर ठोंग मारने के बराबर है।”
50-नमाज़ मानवी अहमियत को ज़िन्दा करते हैं
जहाँ इमामे जमाअत के लिए आदालत और सहीहुल क़राअत(क़ुरआन के सूरोह का सह पढ़ने वाला) होने वग़ैरह की शर्तें हैं वहीँ हदीस मे यह भी है कि अगर लोग किसी इंसान को इमामे जमाअत के ऐतबार से दिल से पसंद ना करते हों मगर वह फिर भी इमामे जमाअत के फ़रीज़े को अंजाम देता रहे तो उसकी नमाज़ क़बूल नही है।
जो लोग नमाज़े जमाअत की पहली सफ़ मे खड़े होते हैं उन के लिए इस्लाम ने कुछ सिफ़ात ब्य़ान किये हैं। यह सिफ़ात मानवी अहमियत को ज़िन्दा करते हैं। इस से इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि समाज के जो लोग इमामत तक़वे और अदालत से ज़्यादा करीब है उनको ही समाज मे मोहतरम और पेशरो होना चाहिए।
51-नमाज़ की आवाज़ पैदा होने की जगह से कब्र तक
शरीअत ने ताकीद की है कि बच्चे के पैदा होने के बाद उसके कानों मे अज़ान और इक़ामत कही जाये। और मरने के बाद दफ़्न के वक़्त उसकी नमाज़े जनाज़ा को वाजिब किया है। पैदाइश के वक़्त से दफ़्न होने तक किसी भी दूसरी इबादत को नमाज़ की तरह इंसान पर लाज़िम नही किया गया है।
52-नमाज़ मुशकिलों का हल
हदीस मे है कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वा आलिहि वसल्लम और अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिमस्सलाम के सामने जब कोई मुश्किल आती थी तो फ़ौरन नमाज़ पढ़ते थे।
53-नमाज़ सिखाना माँ बाप की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी
रिवायत मे ब्यान किया गया है कि बच्चों को नमाज़ याद कराना माँ बाप की सबसे अहम जिम्मेदारी है। माँ बाप को चाहिए कि जब बच्चा तीन साल का हो जाये तो इसको ला इलाहा इल्लल्लाह जैसे कलमात याद करायें। और फिर कुछ वक़्त के बाद उसको अपने साथ नमाज़ मे खड़ा करें। इस तरह उसको आहिस्ता आहिस्ता नमाज़ के लिए तैयार करें। क़ुरआन मे है कि उलुल अज़्म रसूल अपने बच्चों की नमाज़ के बारे मे बहुत ज़्यादा फ़िक्रमंद थे। क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की 132वी आयत मे अल्लाह ने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से फ़रमाया कि अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म दो।
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 55वी आयत मे जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की तारीफ़ करते हुए फरमाया कि वह अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म देते थे।
क़ुरआने करीम के सूरए लुक़मान की 17वी आयत मे यह ज़िक्र मिलता है कि जनाबे लुक़मान अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को वसीयत की कि नमाज़ पढ़ो और लोगो को अच्छाईयों की तरफ़ बुलाओ।
क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम अल्लाह से दुआ करते थे कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बना दे।
54-नमाज़ और अल्लाह के ज़िक्र को छोड़ने के बुरे नतीजे
नमाज़ अल्लाह का ज़िक्र है और जो इंसान अल्लाह के ज़िक्र से भागता है वह बहुत बुरी ज़िन्दगी गुज़ारता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की 124वी आयत मे इरशाद हो रहा है कि “जो मेरे ज़िक्र से भागेगा वह सख्त ज़िन्दगी गुज़ारेगा और हम क़ियामत मे ऐसे इंसान को अँधा महशूर करेंगे।”
मुमकिन है आप कहें कि बहुत से लोग नमाज़ नही पढ़ते लेकिन फिर भी अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। मगर आप ज़रा उनकी ज़िन्दगी मे झाँक कर तो देखें कि उनमे आराम, सुकून, प्यार, मुहब्बत और पाकीज़गी पायी जाती है या नही? जब वह दुनियावी परेशानियों का शिकार होते हैं तो चारो तरफ़ से मायूस होकर किस तरह मजबूरी के साथ बैठ जाते हैं। वह दूसरे लोगों को किस निगाह से देखते हैं? तक़वे और अदालत को वह क्या समझते हैं? उन की रूह किस चीज़ से वाबस्ता रहती है ? अपने मुस्तक़बिल (भविषय) से वह कितना मुत्मइन हैं ? आप देखें कि ज़हनी परेशानियाँ, घरेलू उलझनें, जल्दबाज़ी के फैसले, आसाब की कमज़ोरियाँ, बेचैनियाँ, बद गुमानिया, अपने आपको तन्हा समझना, फ़ितना फ़साद, जराइम की बढ़ती तादाद, बच्चों का घरों से भागना, तलाक़ की बढ़ती हुई तादाद, खौफ़ व हिरास वग़ैरह बेनमाज़ी समाज मे ज़्यादा है या नमाज़ी समाज मे।
55-नमाज़ और तवक्कुल
नमाज़ मे हम बार बार बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम को पढ़ते हैं। बिस्मिल्लाह का हर्फ़े बा अल्लाह से मदद माँगने और उस पर तवक्कुल करने की तरफ़ इशारा करता है। अल्लाह की याद से शुरू करना इस बात की निशानी है कि हम उस की ताक़त से मदद चाहते हैं। और उसी पर भरोसा करते हैं।
उसकी याद उससे मुहब्बत की निशानी है।
बस अल्लाह को याद करना चाहिए दूसरों कों नही।
अल्लाह से वाबस्ता रहना चाहिए दूसरों से नही।
बस अल्लाह से वाबस्तगी होनी चाहिए बड़ी ताक़तों और बुतों सेनही।
56-नमाज़ एक रूहे अज़ीम
इंसान नमाज़ मे उस अल्लाह की हम्द व सना (तारीफ़ प्रशंसा) करता है जो पूरी दुनिया को चलाता है। जो सब रहमतों व बरकतों का मरकज़ है, जो रोज़े जज़ा(क़ियामत का दिन) का मालिक है। जो इंसान इन तमाम सिफ़ात वाले अल्लाह की हम्दो सना करता है वह कभी भी किसी ताक़त के सामने नही झुक सकता और न ही किसी दूसरे की हम्दो सना कर सकता। जो ज़बान सच्चे दिल से अल्लाह की हम्दो सना करती है वह कभी भी किसी नालायक़ की तारीफ़ नही कर सकती।
हमे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह क़ौल(कथन) हमेशा याद रखना चाहिए कि आप ने फ़रमाया कि “जो इंसान हज़रत रसूले इस्लाम से वाबस्ता हो और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की आग़ोश मे पला हो वह कभी भी यज़ीद की बैअत नही करेगा।”
सिर्फ़ अल्लाह की हम्दो सना करनी चाहिए क्योँकि वह तमाम दुनिया का पालने वाला है वह रहमान और रहीम है वह क़ियामत के दिन का मालिक है।
दूसरे लोगों की क्या हैसियत है कि मैं उनकी तारीफ़ करूँ। खास तौर पर हर मुसलमान तो जानता ही है कि अगर किसी ज़ालिम की तारीफ़ की जाये तो अर्शे इलाही काँप जाता है।
अल्लाह की हम्दो सना हमारे अन्दर वह ताक़त पैदा करती है कि हम उसके अलावा किसी दूसरे की हम्द करने के लिए तैयार नही होते। यह ताक़त हम नमाज़ और अल्लाह की हम्द से ही हासिल कर सकते हैं।
अफ़सोस कि हमने नमाज़ को तवज्जुह के साथ नही पढ़ा और नमाज़ के हक़ीक़ी मज़े को नही चखा।
57-नमाज़ और विलायत
सिरातल लज़ीनः अनअमतः अलैहिम कह कर हम अल्लाह से यह चाहते हैं कि अल्लाह हमको उन लोगों के रास्ते पर चलाता रह जिन के ऊपर तूने अपनी नेअमतों को नाज़िल किया है। उन के रास्ते को हमारे लिए नमूना-ए-अमल बना जिन्होने तुझ को पहचान कर तुझ से इश्क़ किया। जो तेरी राह पर चले और साबित क़दम रहे। और किसी भी हालत मे तुझ से जुदा नही हुए।
क़ुरआने करीम के सूरए निसा की 69वी आयत मे उन चार गिरोह का ज़िक्र किया गया है जिन पर अल्लाह की नेअमतें नाज़िल हुईं। जो इस तरह हैं---
1-अम्बियाँ 2-शोहदा 3-सिद्दीक़ीन 4- सालेहीन
इंसान नमाज़ मे इन ही चार गिरोह से विलायत, इश्क़, मुहब्बत और दोस्ती का ऐलान करता है। हक़ीक़ी नेअमत का मतलब है अल्लाह पर ईमान रखते हुए उस से राबिता करना, उसकी खुशी की खातिर उसकी राह मे क़दम उठाना और शहीद हो जाना है। वरना माद्दी (भौतिक) नेअमतें तो जानवरों को भी मिल जाती है।
यह मानवी (आध्यात्मिक) मक़ाम ही है जो इंसान को अहम(महत्वपूर्ण) बनाता है। वरना जिस्म के लिहाज़ से तो इंसान बहुतसी मख़लूक़ात से कमज़ोर है। जैसे कि अल्लाह ने क़ुरआन मे भी फ़रमाया है कि ख़िलक़त के लिहाज़ से तुम ज़्यादा क़वी हो या आसमान?
आज की इस दुनिया मे तमाम इजादात (अविष्कार) इंसान की ज़िन्दगी को आराम दायक बनाने के लिए हो रही हैं। अच्छे इंसान बनाने की किसी को भी फ़िक्र नही है। मगर हम नमाज़ मे अल्लाह से ऐसे लोगों के रास्ते पर चलते रहने की दुआ करते हैं जिनको हक़ीक़ी नेअमतें मिल चुकी हैं।
58-नमाज़ इल्म के साथ
अल्लाह आसमान पर रहने वालों और परिन्दों की नमाज़ और तस्बीह के बारे में फ़रमाता है कि उन की नमाज़ और तस्बीह इल्म के साथ है। एक दूसरी जगह फ़रमाता है कि नशे की हालत मे नमाज़ न पढ़ो ताकि तुम को यह मालूम रहे कि नमाज़ मे क्या कह रहे हो। यह जो कहा जाता है कि आलिम की इबादत जाहिल आबिद की इबादत से बेहतर है। यह इस बिना पर कहा जाता कि आलिम इल्म के साथ इबादत करता है।
इस्लाम मे ताजिरों(व्यापारियों) को इस बात की ताकीद की गयी है कि पहले हराम और हलाल के मसाइल को जानो फिर तिजारत करो।
नमाज़ की तालीम के वक़्त भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नमाज़ के राज़ों को नई नस्लो के सामने ब्यान किया जाये ताकि वह इल्म और माअरिफ़त के साथ नमाज़ पढ़ सके।
59-नमाज़ और तंबीह (डाँट डपट)
नमाज़ को रिवाज देने(प्रचलित करने) के लिए समाजी दबाव भी डाला जा सकता है। जैसे रसूले अकरम (स.) के ज़माने मे मैदाने जंग से भागने वाले मुनाफ़ेक़ीन पर समाजी दबाव डाला गया जिसका ज़िक्र क़ुरआने करीम के सूरए तौबा की 83वी आयत मे किया गया है “ कि ऐ रसूल जब इन मुनाफ़ेक़ीन मे से कोई मरे तो उसकी नमाज़े जनाज़ा मत पढ़ाना और न ही उसकी कब्र पर खड़े होना।”
मैं कभी नही भूल सकता कि ईरान इराक़ की जंग के दौरान एक जवान ने वसीयत की थी कि अगर मैं शहीद हो जाऊँ तो मुझे उस वक़्त तक दफ़्न न करना जब तक आपस मे लड़े हुए ये दो गिरोह आपस मे मेल न कर लें। ( अस्ल वाक़िआ यह है कि यह शहीद जिस जगह का रहने वाला था उस जगह पर मोमेनीन को दो गिरोह के दरमियान किसी बात पर इख्तिलाफ़ हो गया था और दोनो ही गिरोह किसी तरह भी आपस मे मेल करने के लिए तैयार नही थे।)
इस जवान ने अपने मुक़द्दस खून के ज़रिये मोमिनीन के दरमियान सुलह कराई। जब कि वह यह भी कह सकता था कि अगर मैं शहीद हो जाऊँ तो फलाँ इंसान या गिरोह को मेरे जनाज़े मे शामिल न करना। और इस तरह वह फ़ितने और फ़साद को और फैला सकता था, मगर उसने इसके बजाये दो गिरोह के बीच सुलह का रास्ता इख्तियार किया।
60-नमाज़ और हाजत
जहाँ पर बुराईयाँ ज़्यादा हैं वहाँ पर नमाज़ की ज़रूरत भी ज़्यादा है। जैसे इंसान रात मे सोता है और बुराईयोँ वग़ैरह मे मशग़ूल नही रहता इस लिए इशा से सुबह तक रात मे किसी नमाज़ को वाजिब नही किया गया। मगर चूँकि दिन मे इंसान को हवाओ हवस, मक्कारी, अय्यारी, ना महरमों के चेहरों के जलवे और दूसरी तमाम शैतानी ताक़तें चारों तरफ़ से घेरे रहती हैं और इनसे बचने के लिए इंसान को दिन मे मानवियत (अध्यात्म) की ज़्यादा ज़रूरत है। इसी लिए क़ुरआने करीम के सूरए हूद की 114वी आयत मे कहा गया कि दिन के अव्वल और आखरी हिस्से मे नमाज़ पढ़ा करो। और सूरए बक़रा की 238वी आयत मे दो पहर की नमाज़ की ताकीद इन अलफ़ाज़ मे की गई है कि तमाम नमाज़ों खास तौर पर नमाज़े ज़ोहर की हिफ़ाज़त करो। और मुनाफ़ेक़ीन की तरह गर्मी को नमाज़े जमाअत छोड़ने का बहाना न बनाओ। (यानी दूसरी नमाज़ों को भी पढ़ो और नमाज़े ज़ोहर को भी पढ़ो)
चूँकि छुट्टी के दिनों मे इंसान खाली होता है। और खाली वक़्त मे बुराईयोँ का खतरा ज़्यादा रहता है इस लिए जुमे और ईद के दिन नमाज़ की ज़्यादा ताकीद की गई है।
क्योंकि लड़कियों के मिज़ाज मे लताफ़त और नज़ाकत पाई जाती है और लतीफ़ व ज़रीफ़ चीज़ो पर बुराईयोँ की गर्द जल्द असर अन्दाज़ हो जाती है। इस वजह से लड़कियों पर 9 साल की उम्र से ही नमाज़ वाजिब कर दी गई है।
जब इंसान की मुश्किलात बढ़ जायें तो ऐसे वक़्त मे ज़्यादा नमाज़ पढ़ने की ताकीद की गई है। अगर यह कहा जाये तो ग़लत ना होगा कि नमाज़ों के वक़्त को हमारी रूही व नफ़सीयाती नज़ाकतों और ज़रूरतों को ध्यान मे रख कर मुऐयन किया गया।(वल्लाह आलम)
61-नमाज़ गुनाहो के सैलाब के मुक़ाबिले मे एक मज़बूत बाँध
जहाँ नमाज़ क़ाइम होती है वहाँ से शैतान फ़रार कर जाता है। और जहाँ पर नमाज़ का सिलसिला खत्म हो जाता है वहाँ से कमालात(अच्छाईयाँ) भी खत्म हो जाते हैँ।
क़ुरआन फ़रमाता है कि “यक़ीनन नमाज़ गुनाहों और बुराईयों से रोकती है।” फिर यह कैसे मुमकिन है कि एक नमाज़ी सुस्त हो, उसका लिबास या मकान ग़सबी हो, उसका बदन और उसकी ग़िज़ा नजिस हो। वह अपनी नमाज़ को सही तौर पर अंजाम देने के लिए मजबूर है कि कुछ चीज़ों से दूरी इख्तियार करे। अल्लाह से राबिते के नतीजे मे इंसान को ऐसी पाकीज़ा रूह हासिल होती है कि वह गुनाह करते हुए शर्माने लगता है।
आपने कहीँ देखा कि कोई मस्जिद से निकल कर जुआ खेलना गया हो।
या कोई मस्जिद से निकल कर किसी फ़साद फैलाने वाली जगह पर गया हो। या कोई मस्जिद से निकल कर किसी के घर मे चोरी करने के इरादे से दाखिल हुआ हो। इसके बर अक्स अगर नमाज़ खत्म हो जाये तो हर तरीक़े की बुराई, शहवत व फ़साद फैलने का खतरा है।
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि “अम्बियां के बाद उनकी जगह पर एक ग़ैरे सालेह नस्ल आई जिसने नमाज़ न पढ़ने, या देर से पढ़ने, या कभी पढ़ने और कभी न पढ़ने के सबब नमाज़ को ज़ाय(बर्बाद) कर दिया और अपनी शहवतों मे गिरफ़्तार हो गये।”
रसूले अकरम (स.) ने फ़रमाया कि “साठ साल के बाद ऐसे अफ़राद बाग-डोर संभालेंगें जो नमाज़ को जाय कर देंगें।” शायद उपर वाली आयत ने जो मफ़हूम ब्यान किया है वह तारीख को नज़र मे रखते हुए ब्यान किया है। (तफ़्सीरे नमूना)
नमाज़ अल्लाह और बन्दों के बीच अल्लाह की रस्सी है।
नमाज़ ईमान को चमकाती है और अल्लाह के साथ बन्दों के राबिते को मज़बूती अता करती है।
नमाज़ अल्लाह से मुहब्बत की निशानी है। क्योंकि जो जिससे मुहब्बत रखता है, वह उससे ज़्यादा से ज़्यादा बातें करना चाहता है।
हदीस मे है कि “ताअज्जुब है ऐसे लोगों पर जो अल्लाह से मुहब्बत का दावा तो करते हैं मगर सहर के वक़्त तन्हाई मे उसके साथ राज़ो नियाज़ और मुनाजात नही करते।”
अगर इंसान का राबिता अल्लाह के वलीयों से खत्म हो जाये तो इंसान ताग़ूत के कब्ज़े मे चला जाता है। और अगर इंसान अल्लाह पर भरोसा नही करता तो ग़ैरो को हाथों बिक जाता है और उनके मज़दूर की सूरत मे उनकी पनाह मे जिन्दगी बसर करता है। और अगर दिल और ईमान का रिश्ता अल्लाह से टूट जाये तो ग़ैरों के साथ रिश्ता जुड़ जाता है।
नमाज़ से अल्लाह और बन्दें का राबिता मज़बूत होता है।
नमाज़ से अल्लाह का रहमो करम बन्दे को हासिल होता है।
नमाज़ से इंसान क़ियामत को याद रखता है।
नमाज़ के ज़रिये इंसान पर यह बात रोशन हो जाती है कि उसको उन लोगों के रास्ते पर चलना है जिन पर अल्लाह ने अपनी नेअमतों को नाज़िल किया। और उन लोगों के रास्ते से बचना है जो गुमराह रहे या अल्लाह के ग़ज़ब का निशाना बने।
62- वक़्त की पाबन्दी नमाज़ की बुनियाद पर
क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 58वी आयत मे उन नौ जवानो को जो अभी बालिग़ नही हुए है वालदैन के ज़रिये पैग़ाम दिया जा रहा है कि “नमाज़े सुबह से पहले, नमाज़े इशा के बाद, और ज़ोहर के वक़्त अपने वालदैन के पास(उनके कमरे मे) उनकी इजाज़त के बग़ैर न जाओ।” क्योंकि इस वक़्त इंसान आराम की ग़रज़ से अपने कपड़ो को उतार देता है।
यह बात क़ाबिले तवज्जुह है कि बच्चों के लिए इजाज़त की पाबन्दी नमाज़े सुबह,ज़ोह्र व इशा के वक़्त को ध्यान मे रख कर की गई है।
कितना अच्छा हो कि हम अपने मुलाक़ात के वक़्त को भी इसी तरह मुऐयन करें जैसे नमाज़े ज़ोहर से पहले या नमाज़े इशा के बाद इस तरह हम वक़्त के साथ साथ समाज मे नमाज़ को रिवाज देने मे(प्रचलित करने मे) कामयाब हो जायेंगें।
63- नमाज़ से गुनाह माफ़ होते हैं
क़ुरआने करीम के सूरए हूद की 114वी आयत मे नमाज़ के हुक्म के साथ ही साथ इस बात का ऐलान हो रहा है कि बेशक नेकियाँ बुराईयों (गुनाहो) को खत्म कर देती हैं।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “अगर गुनाह के बाद दो रकत नमाज़ पढ़कर अल्लाह से उस गुनाह के लिए माफ़ी माँगी जाये तो उस गुनाह का असर खत्म हो जाता है।”(नहजुल बलाग़ा कलमाते हिकमत299)
रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वा आलिहि वसल्लम फ़रमाते हैं”कि दो नमाज़ो के बीच होने वाला गुनाह माफ़ कर दिया जाता है।” (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 10 पेज206)
इस तरह वह गुनाह जो अल्लाह की याद से ग़फ़लत की वजह से होते हैं, नमाज़ और इबादत की वजह से माफ़ हो जाते हैं। क्योंकि नमाज़ अल्लाह के साथ मुहब्बत और राबते का ज़रिया है। इस तरह माअसियत (गुनाह) की जगह मग़फ़िरत (अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली माफ़ी) ले लेती है।
64- नमाज़ और तालीम का तरीक़ा
तदरीजी(पग पग) तालीम का तरीक़ा वह सुन्नत है जिसको इस्लाम ने भी अपनाया है। और खास तौर पर इबादात मे इसका ज़िक्र किया है।
इस्लाम की तरबीयत से मुताल्लिक़ रिवायात मे हुक्म दिया गया है कि बच्चे को तीन साल तक बिल्कुल आज़ाद रखना चाहिए। इसके बाद उसको ला इलाहः इल्लल्लाह सात बार याद कराना चाहिए। और जब बच्चा तीन साल सात महीने और बीस दिन का हो जाये तो उसको मुहम्मदुर रसूलुल्लाह याद कराना चाहिए। और जब वह पूरे चार साल का हो जाये तो उसको मुहम्मद और आलि मुहम्मद पर सलवात भेजना सिखाना चाहिए। और जब वह पाँच साल का हो जाये और दाहिने, बाँयें हाथ को समझने लगे तो उसको क़िबला रुख बिठाकर सजदा करना सिखाना चाहिए। और जब वह छः साल का हो जाये तो उसको पूरी नमाज़ याद करा देनी चाहिए।
सातवे साल के आखीर मे उसको हाथ और चेहरा धोना(वज़ू करना) सिखाना चाहिए। और नौवे साल के आखिर मे उसकी नमाज़ के बारे मे संजीदगी(गंभीरता) से काम लेना चाहिए और अगर वह नमाज़ पढ़ने से बचना चाहे तो उसके साथ सख्ती का बर्ताव(व्वहार) करना चाहिए।
65- नमाज़ और शहीदों की याद
सजदा करने के लिए सबसे अच्छी चीज़ खाके शिफ़ा (हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कब्र की मिट्टी) है। और इसकी खास तौर पर ताकीद की गई है। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हमेशा खाके कर्बला पर सजदा करते थे। खाके शिफ़ा पर सजदा करने से बंदा अल्लाह से ज़्यादा क़रीब होता है। और बन्दे और माबूद के दरमियान के पर्दे हट जाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कब्र की मिट्टी से बनी तस्बीह को अपने पास रखने के लिए अहादीस मे ताकीद की गई है। और यहाँ तक ज़िक्र किया गया है कि इस तस्बीह को अपने पास रखना सुबहानल्लाह कहने के बराबर है।
पाँचवा हिस्सा- नमाज़ के समाजी पहलू
66-नमाज़ और शहादतैन
हर नमाज़ की दूसरी रकत मे तशःहुद पढ़ा जाता है। जिसमे हम अल्लाह की वहदानियत (उसके एक होने) और हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की रिसालत की गवाही देते हैं।
हर रोज़ इंसान पर वाजिब है कि वह पाँच मर्तबा अल्लाह की तौहीद व हज़रत मुहम्मद स. की रिसालत का इक़रार करे। और यह इस लिए है ताकि कि इंसान अपने रास्ते से न भटके और दीनो मकतब और उसके साहिब को न भूले। और मुहम्मद वा आलि मुहम्मद पर सलावात भेजे और इस अमल के ज़रिये अल्लाह और फ़रिशतों के साथ हो जाये।
क्योंकि क़ुरआन मे इरशाद होता है कि अल्लाह और फ़रिशते नबी पर सलवात भेजते हैं। जब अल्लाह और फ़रिश्ते नबी पर सलवात भेजते हैं तो फ़िर हम क्यों न भेजें। क्या उन्होने हमको निजात नही दी है? क्या आप नही देखते कि जिन लोगो ने अपने नबीयों को भुला दिया है वह किस तरह ग़फ़लत की खाई मे जा गिरे हैं।
सलाम हो पैगम्बरे अकरम और आप की आले पाक पर जिन्होने हमको निजात अता की।
67- पाबन्दी से नमाज़ पढ़ना इंसान को महफ़ूज़ रखता है
क़ुरआने करीम के सूरए मआरिज की 20 से 23 तक की आयात मे इरशाद होता है कि उन लोगों को छोड़ कर जो अपनी नमाज़ो को पाबन्दी के साथ पढ़ते हैं। दूसरे इंसान जब मुशकिल मे फसतें हैं तो बेसब्रे हो जातें हैं। और जब उनको खैर (नेअमतें) हासिल होता है तो वह कँजूस बन जाते हैं दूसरों को कुछ नही देते।
अल्लाह की बेइन्तिहा ताक़त के साथ हमेशा राबिता रखने से इंसान को ताक़त हासिल होती है। इससे इंसान का तवक्कुल का जज़बा बढ़ता है जिसके नतीजे मे इंसान को ऐसी ताक़त मिलती है कि फिर वह किसी भी हालत मे शिकस्त को क़बूल नही करता। जाहिर सी बात है कि यह सिफ़ात उन लोगों मे पैदा होते हैँ जो अपनी नमाज़ों को तवज्जुह के साथ पाबन्दी से पढ़ते हैं। मौसमी नमाज़ पढ़ने वाले लोगों इन सिफ़ात को हासिल नही कर पाते।
68- नमाज़ और सलाम
अल्लाह के नेक बंदों पर सलाम हो। हर मुसलमान चाहे वह ज़मीन के किसी भी हिस्से पर रहता हो उसे चाहिए कि दिन मे पाँच बार अपने हम फ़िक्र अफ़राद को सलाम करे। जैसे कि नमाज़ मे है अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन।(हम पर सलाम हो और अल्लाह के तमाम नेक बंदों पर सलाम हो।)
यहाँ पर मालदारों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।
यहाँ पर हाकिमों और ताक़तवरों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।
यहाँ पर रिश्तेदारों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।
यहाँ पर हम ज़बान हम क़ौम हम वतन लोगों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।
बल्कि यहाँ पर है अल्लाह के नेक बंदों को सलाम करने की तालीम दी जा रही है। यहाँ पर मकतबे हक़ के तरफ़दारो को सलाम करने की तालीम दी जा रही है।
हमारी खारजी सियासत(बाह्य नीति) नमाज़ के दो जुम्लों ग़ैरिल मग़ज़ूबि अलैहिम वलज़्ज़ालीन और अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन से तय होती है।
जो इंसान दिन मे पाँच बार अल्लाह के बंदो को सलाम करता हो वह कभी भी न उनको धोका दे सकता है और न ही उनके साथ मक्कारी कर सकता है।
69-नमाज़ और समाज
नमाज़ की अस्ल यह है कि उसको जमाअत के साथ पढ़ा जाये। और जब इंसान नमाज़े जमाअत मे होता है तो वह एक इंसान की हैसियत से इंसानो के बीच और इंसानों के साथ होता है। नमाज़ का एक इम्तियाज़ यह भी है कि नमाज़े जमाअत मे सब इंसान नस्ली, मुल्की, मालदारी व ग़रीबी के भेद भाव को मिटा कर काँधे से काँधा मिलाकर एक ही सफ़ मे खड़े होते हैं। नमाज़े जमाअत इमाम के बग़ैर नही हो सकती क्योंकि कोई भी समाज रहबर के बग़ैर नही रह सकता। इमामे जमाअत जैसे ही मस्जिद मे दाखिल होता है वह किसी खास गिरोह के लिए नही बल्कि सब इंसानों के लिए इमामे जमाअत है। इमामे जमाअत को चाहिए कि वह क़ुनूत मे सिर्फ़ अपने लिए ही दुआ न करे बल्कि तमाम इंसानों के लिए दुआ करे। इसी तरह समाज के रहबर को भी खुद ग़रज़ नही होना चाहिए। क्योंकि नमाज़े जमाअत मे किसी तरह का कोई भेद भाव नही होता ग़रीब,अमीर खूबसूरत, बद सूरत सब एक साथ मिल कर खड़े होते हैं। लिहाज़ा नमाज़े जमाअत को रिवाज देकर नमाज़ की तरह समाज से भी सब भेद भावों को दूर करना चाहिए। इमामे जमाअत का इंतिखाब लोगों की मर्ज़ी से होना चाहिए। लोगों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किसी को इमामे जमाअत मुऐयन करना जायज़ नही है। अगर इमामे जमाअत से कोई ग़लती हो तो लोगों को चाहिए कि वह इमामे जमाअत को उससे आगाह करे। यानी इस्लामी निज़ाम के लिहाज़ से इमाम और मामूम दोनों को एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।
इमामे जमाअत को चाहिए कि वह बूढ़े से बूढ़े इंसान का ख्याल रखते हुए नमाज़ को तूल न दे। और यह जिम्मेदार लोगों के लिए भी एक सबक़ है कि वह समाज के तमाम तबक़ों का ध्यान रखते हुए कोई क़दम उठायें या मंसूबा बनाऐं। मामूमीन(इमाम जमाअत के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले अफ़राद) को चाहिए कि वह कोई भी अमल इमाम से पहले अंजाम न दें। यह दूसरा सबक़ है जो अदब ऐहतिराम और नज़म को बाक़ी रखने की तरफ़ इशारा करता है। अगर इमामे जमाअत से कोई ऐसा बड़ा गुनाह हो जाये जिससे दूसरे इंसान बा खबर हो जायें तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह फ़ौरन इमामे जमाअत की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाये। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि समाज की बाग डोर किसी फ़ासिक़ के हाथ मे नही होनी चाहिए। जिस तरह नमाज़ मे हम सब एक साथ ज़मीन पर सजदा करते हैं इसी तरह हमे समाज मे भी एक साथ घुल मिल कर रहना चाहिए।
इमामे जमाअत होना किसी खास इंसान का विरसा नही है। हर इंसान अपने इल्म तक़वे और महबूबियत की बिना पर इमामे जमाअत बन सकता है। क्योंकि जो इंसान भी कमालात मे आगे निकल गया वही समाज मे रहबर है।
इमामे जमाअत क़वानीन के दायरे मे इमाम है। इमामे जमाअत को यह हक़ नही है कि वह जो चाहे करे और जैसे चाहे नमाज़ पढ़ाये। रसूले अकरम ने एक पेश नमाज़ को जिसने नमाज़े जमाअत मे सूरए हम्द के बाद सूरए बक़रा की तिलावत की थी उसको तंबीह करते हुए फ़रमाया कि तुम लोगों की हालत का ध्यान क्यों नही रखते बड़े बड़े सूरेह पढ़कर लोगों को नमाज़ और जमाअत से भागने पर मजबूर करते हो।
70- नमाज़ और इत्तिलाते उमूमी(सामान्य ज्ञान)
आज की दुनिया मे बहुत से ऐसे इदारे हैं जो इत्तिलाते उमूमी हासिल करने के लिए इतनी बड़ी बड़ी रक़में खर्च करते हैं कि अगर आम इंसान इस रक़म के बारे मे सुने तो ज़हनी सरसाम मे मुबतिला हो जाये।
नमाज़े जमाअत का क़ियाम, वज़ू कर के अल्लाह के घर मे लोगों का एक बड़ी तादाद (संख्या) मे इबादत के लिए जमा होना, इस्लाम का एक ऐसा निज़ाम है जिसके ज़रिये इंसान को लोगों के खयालात, दुख दर्द, इंसानी समाज की परेशानियों, कमियों और दुश्मनों के दुष प्रचारों और उनसे होने वाले नुक़्सानात को रेकने के तरीक़ों, और ताज़ा खबरों पर आलिम व मुत्तक़ी इमामे जमाअत की ज़बान से तजज़िया वा तहलील सुन कर नयी जानकारी हासिल करने का मौक़ा मिलता है। इसी तरह नमाज़े जमाअत के ज़रिये नमाज़ मे शरीक होने वाले अफ़राद के हालात से आगाही हासिल करने, नमाज़े जमाअत मे शरीक होने वाले मरहूम लोगों के लिए इसाले सवाब करने, समाज के ग़रीब लोगों की मदद व भलाई के लिए क़दम उठाने, समाजिक मुश्किलात के हल के लिए मोमिनीन को आपस मे मिलकर अल्लाह से दुआ करने और मदद माँगने का मौक़ा मिलता है।
और इन तमाम मुक़द्दस कामों को किसी धूम धाम के बग़ैर बिल्कुल सादे तरीक़े से अंजाम दिया जा सकता है।
71- नमाज़ और रहबरी
दूसरे तमाम जलसों की तरह नमाज़े जमाअत के लिए भी एक रहबर (इमाम) की ज़रूरत है। इमामे जमाअत को चुनते वक़्त लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे इमामे जमाअत का चुनाव करे जिनमे इल्म तक़्वा अहलियत व क़ाब्लियत जैसे कमालात पाये जाते हों। और इससे समाज को इस बात की आदत पड़ेगी कि वह हर किसी की रहबरी को क़बूल नही करेगा। और क्योंकि इमामे जमाअत अल्लाह और बंदों के दरमियान वास्ता है। लिहाज़ा इंसान को चाहिए कि वह किसी फ़ासिक़ व फ़ाजिर को अपने और अल्लाह के बीच वास्ता न बनाए। जो इंसान खुद गुनाहों मे मुबतिला हों वह मुझे उस नमाज़ से किस तरह आगाह कर सकते हैं जो बुराईयों और हराम कमों से रोकती है। लिहाज़ा इमामे जमाअत के लिए ज़रूरी है कि वह एक आलिम, मुत्तक़ी, बाकमाल और आज़ाद इंसान हो।
ना हर रस्सी का सहारा लिया जा सकता है और ना हर सीढ़ी से ऊपर चढ़ा जा सकता है।
क्या हमारा इमाम हमारे और अल्लाह के दरमियान राबिता नही है ?
इमामे जमाअत का चुनाव इंसान को हर रोज़ हक़ीक़ी इमामत व रहबरी की तरफ़ मुतवज्जेह करता है। जब मस्जिद मे चंद लोगों की रहबरी के लिए कमालात का होना ज़रूरी है तो फिर पूरी उम्मत की रहबरी के लिए किसी इंसाने कामिल का होना ज़रूरी है। इसी लिए ताकीद की गयी है कि उस इंसान के पीछे नमाज़ पढ़ो जिसके ईमान और अदालत के बार मे इतमिनान हो।
अगर किसी इंसान को इमामे जमाअत बनाकर चंद लोग उस के पीछे नमाज़ पढ़ ले तो इस हालत मे इमामे जमाअत को चाहिए कि वह अपने चाल चलन का दूसरे लोगों से ज्यादा ध्यान रखे। जो शख्स अपने आपको दूसरों का इमाम बनाए उसको चाहिए कि दूसरों से पहले अपनी इस्लाह करे। इस तरह नमाज़े जमाअत के क़ाइम होने से बहुत से लोगों की इस्लाह होगी। और चूँकि मोज़्ज़िन के लिए खुश आवाज़ और इमामे जमाअत के लिए क़राअत से कामिल तौर पर आगाह होना ज़रूरी है। लिहाज़ा अगर नमाज़े जमाअत क़ाइम होगी तो समाज मे अच्छी आवाज़, क़राअत और इमामे जमाअत व मोज़्ज़िन की तरबियत का काम भी शुरू होगा।
72- नमाज़ और बेदारी
इस्लाम समाज मे मानवी (आध्यात्मिक) गर्मी पैदा करना चाहता है। नमाज़ के लिए जल्दी करो और अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ बढ़ो जैसे नारे इस लिए हैं कि अज़ान की मुक़द्दस आवाज़ को सुनने के बाद इस्लामी समाज मे एक खास गर्मी पैदा हो। लोग अपने कामों को छोड़े आपसी इख्तिलाफ़ात को भुला कर वहदत के बंधन मे बंध जायें। और इंसान ग़फ़लत से निकल कर यादे इलाही मे मशग़ूल हो जाये। हक़ीक़ी मोमिन वही है जिसके दिल मे अल्लाह की याद से लरज़ा पैदा हो जाये। जो इंसान अज़ान की आवाज़ सुनने के बाद भी लापरवा रहता है उसकी मिसाल उस बच्चे जैसी है जो अपने बाप की आवाज़ सुन कर भी लापरवाई बरतता है।
73- नमाज़ और नज़्म
नमाज़ के वक़्त का मुऐयन होना, नमाज़े जमाअत की सफ़ों का मुनज़्ज़म, एक साथ सजदा करना, एक साथ उठना बैठना, एक साथ दुआ करना,वक़्त से पहले नमाज़ न पढ़ना, नमाज़ को उसके मुऐयन वक़्त मे ही पढ़ना वग़ैरह नमाज़ की ऐसी बातें हैं जो नमाज़ी की ज़िंदगी को मुनज़्ज़म (व्यवस्थित) बना देती हैं।
74- नमाज़ और क़िबला
नमाज़ी को चाहिए कि वह क़िबले की तरफ़ रुख कर के खड़ा हो। उसे चाहिए कि हर दिन अपनी राह को रोशन करे। उसका क़िबला पाक व सादा होना चाहिए। उसका क़िबला वह होना चाहिए जो अल्लाह ने मुऐयन किया है। अपनी मर्ज़ी से बनाया हुआ या किसी ताग़ूती ताक़त का मुऐयन किया हुआ न हो। क्योंकि हर जगह व हर सिम्त मे क़िबला होने की सलाहियत नही है। क़िबला मुसलमानो की पहचान का ज़रिया है इसी वजह से मुसलमानों को अहले क़िबला ( क़िबले वाले) कहा जाता है। यह मुसलमानों को दूसरों से जुदा करता है। मुसलमान चाहे किसी भी नस्ल से हो वह चाहे किसी भी मकतबे फ़िक्र से ताल्लुक़ रखता हो उसकी जहतो सिम्त एक होनी चाहिए। अगर माल दौलत या मंसब किसी वक़त हमारे दिल को किसी दूसरी तरफ़ खीँच कर ले जाये तो हमे चाहिए कि नमाज़ के वक़्त अपने अपने दिल को हर तरफ़ से हटा कर अपनी राह व सिम्त को मुऐयन कर लें। क्योंकि जिस इंसान ने अपना रुख अल्लाह के घर की तरफ़ कर लिया वह अपने दिलो जान को भी साहिबे खाना (अल्लाह) की तरफ़ तवज्जुह के लिए तैय्यार करता है।
हमारा क़िबला खाना-ए-काबा है। यह ज़मीन का वह हिस्सा है जो सबसे पहले इस लिए बनाया गया कि इंसान यहाँ पर इबादत करें। यह वह घर हैं जिसका तमाम नबियों ने तवाफ़ (चक्कर लगाना) किया। यह वह घर है जिसके स्तूनों को जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे जनाबे इस्माईल अलैहिस्सलाम की मदद से बलंद किया। इस घर के तमाम दरवाज़े हमेशा सब के लिए खुले रहने चाहिए। यहां पर कोई भी किसी को रोकने का हक़ नही रखता। यह घर तमाम लोगों के लिए मुक़द्दस है। लिहाज़ा इसमे आने जाने की तमाम लोगों को आज़ादी होनी चाहिए चाहे वह किसी भी मुल्क का रहने वाला हो।
75-नमाज़ और सफ़ाई
नमाज़ी के लिबास और बदन का पाक होना ज़रूरी है। अगर निजासत का एक ज़र्रा भी उसके लिबास या जिस्म पर मौजूद हो तो(कुछ खास हालतों को छोड़ कर) नमाज़ बातिल है। जो नमाज़ी यह जानता है कि अगर नमाज़ पढ़ने से पहले मिस्वाक कर ली जाये तो नमाज़ की हर रकत का सवाब सत्तर रकत के बराबर हो जाता है तो वह कभी भी नमाज़ से पहले मिस्वाक करना नही भूलता। जो नमाज़ी यह जानता है कि जनाबत की हालत मे नमाज़ बातिल है। तो वह नमाज़ से पहले ग़ुस्ल की फ़िक्र करता है। और ग़ुस्ल की फ़िक्र उसको हमाम बनाने की तरफ़ मुतवज्जेह करती है। और हमाम का बन जाना उसके ज़्यादा पाक साफ़ रहने का ज़रिया बनता है।
यह जो नमाज़ीयो से कहा जाता है कि वज़ू के लिए सिर्फ़ 750 मिली लीटर तक पानी इस्तेमाल करो इससे ज़्यादा इसराफ़ है। वह यह समझता है कि वज़ू का पानी एक बार इस्तेमाल होना चाहिए वरना होज़ या किसी बड़े बरतन से वज़ू करने मे इतना पानी सर्फ़ नही होता। इससे इस बात की तरफ़ भी तवज्जुह हो जाती है कि किसी को भी यह हक़ नही है कि वज़ू या ग़ुस्ल के बहाने मुऐयन मिक़दार से ज़्यादा पानी बहाये।
76- नमाज़ और वक़्फ़
नमाज़ की वजह से समाज मे मस्जिद बनाने, मस्जिद बनाने के लिए माली मदद करने, वक़्फ़ करने, और हुनरे मेमारी (बन्नाई) जैसी फ़िक्रे पैदा होती हैं। तारीखे इंसानियत मे लाखो बिघे ज़मीन, दुकाने और दिगर अमवाल (सम्पत्ति) मस्जिदों के लिए वक़्फ़ हुए हैं। यह अल्लाह की राह मे एक ऐसा दाइमी सदक़ा और समाज़ी खिदमत है जो सिर्फ़ नमाज़ और मस्जिद के ज़रिये लोगों को हासिल होता है।
इसके अलावा वक़्फ़ दौलत के तआदुल (समन्वय) मे भी अहम किरदार अदा करता है। वक़्फ़ एक ऐसा चिराग़ है जो इंसान की आखेरत को रौशन करता है। वक़्फ़ के ज़रिये इंसान वह मालकियत हासिल कर लेता है जो उसके मरने के बाद भी बाक़ी रहती है। वक़्फ़ अपनी क़ौम और मस्लक से मुहब्बत की निशानी है।
77- नमाज़ और दोस्त का इन्तिखाब
इंसान को अपनी समाजी ज़िंदगी मे दोस्त की ज़रूरत है। यह बात किसी से छुपी हुई नही है कि इंसान पर दोस्ती के अच्छे और बुरे असरात ज़रूर पड़ते हैं। और मस्जिद अच्छे दोस्त तलाश करने का बेहतरीन मरकज़ (केन्द्र) है। क्योंकि इंसान मस्जिद मे अल्लाह की इबादत के लिए जाते हैं लिहाज़ा छल कपट, धोके दड़ी और खुद नुमाई (अपने व्यक्तित्व का प्रदर्शन) को त्याग कर मस्जिद मे जाते हैं। इंसान को चाहिए कि इन नमाज़ियों मे से अपने लिए एक अच्छे दोस्त का इन्तिखाब करे। अगर एक इंसान नमाज़ी नही है तो हम उससे क्यों दोस्ती करें ? जो अल्लाह के साथ दोस्ती का रिशता न बना सका वह हमारा दोस्त किस तरह बन सकता है। जो अल्लाह की मेहरबानियों को भूल गया वह मेरे नेक सुलूक को किस तरह याद रखेगा। जिसने मोमेनीन के साथ वफ़ादारी न की हो उसके बारे मे आपको कैसे यक़ीन है कि वह आप से वफ़ादारी करेगा ?
हदीस मे है कि नमाज़ और मस्जिद की एक बरकत यह भी है कि इनके ज़रिये अच्छे दोस्त मिलते हैं।
78-नमाज़ और शरीके हयात (जीवन साथी) का इन्तिखाब
इस्लाम मे इस बात की ताकीद की गई है कि अगर कोई इंसान मस्जिद मे नही जाता और जमाअत से नमाज़ नही पढ़ता या उज़्रे शरई() के बगैर इबादत और इत्तेहादे उम्मत को नज़र अंदाज़ करता है। तो ऐसे इंसान का बाय काट करना चाहिए और एक अच्छे शरीके हयात की शक्ल मे उसका चुनाव नही करना चाहिए। अगर सिर्फ़ इसी ताकीद पर अमल कर लिया जाये तो मस्जिदें नमाज़ियों से भर जायेंगीं। क्योंकि जब जवान यह समझ जायेंगें कि मस्जिद और मुस्लेमीन को छोड़ने पर उनको समाज मे जुदागाना ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ेगी तो वह कभी भी मस्जिद को फ़रामोश नही करेंगें।
79- नमाज़ और आपसी इमदाद
नमाज़ की एक बरकत यह भी है कि मस्जिदों मे लोग एक दूसरे की मदद करते हैं। समाज के ग़रीब लोग मस्जिदों मे जाते हैं और अपनी मुश्किलात को लोगों से कहते हैं। और इस मुक़द्दस मकान मे उनकी मुश्किलें हल होती हैं। यह काम रसूले अकरम (स.) के ज़माने से समाज मे राइज (प्रचलित) है। क़ुरआने करीम ने भी इस चीज़ को नक़्ल किया है कि एक फ़क़ीर मस्जिद मे दाखिल हुआ और लोगों से मदद की गुहार की। लेकिन जब किसी ने उसकी तरफ़ तवज्जुह न दी तो उसने रो-रो कर अल्लाह की बारगाह मे फ़रियाद की। हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ रहे थे उन्होने उसको इशारा किया वह आगे आया और हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने रुकु की हालत मे अपनी अंगूठी उस फ़क़ीर को अता की। इसी मौक़े पर क़ुरआन की यह आयत नाज़िल हुई कि “तुम लोगों का वली अल्लाह उसका रसूल और वह लोग हैं जो नमाज़ को क़ाइम करते हैं और रुकु की हालत मे ज़कात देते हैं।”जब लोगों ने इस आयत को सुना दौड़ते हुए मस्जिद मे आये कि देखें यह आयत किस की शान मे नाज़िल हुई है। वहाँ पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को देख कर समझ गये कि यह आयत इन्ही की शान मे नाज़िल हुई है।
बहरहाल नमाज़ की बरकत से हमेशा मस्जिदों से महाज़े जंग और ग़रीब फ़क़ीर लोगों की मदद होती रही है और आइंदा भी होती रहेगी। मस्जिदों से ही मुसलमान महाज़े जंग पर गये हैं। ईरान का इस्लामी इंक़िलाब भी मस्जिदों से ही शुरू हुआ था।
लोगों के मस्जिदों मे जमा होने की वजह से हासिल होने वाली बरकतों को चन्द लाईने लिख कर पूरी तरह समझाना मुंमकिन नही है।
क़ुरआन मे कई बार नमाज़ और इंफ़ाक़, नमाज़ और ज़कात, नमाज़ और क़ुर्बानी का एक साथ ज़िक्र किया गया है। और हदीस मे भी आया है कि “ज़कात ना देने वाले की नमाज़ क़बूल नही है।”
80- नमाज़ और हलाल माल
नमाज़ी के लिए ज़रूरी है कि उसका लिबास, नमाज़ पढ़ने की जगह, वज़ू और ग़ुस्ल मे इस्तेमाल होने वाला पानी इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ (अनुसार) हासिल किया गया हो। यानी ये सब चीज़ें हलाल हों। अगर वज़ू या ग़ुस्ल मे इस्तेमाल होने वाले पानी एक क़तरा भी हराम तरीक़े से हासिल किया गया हो या नमाज़ी के लिबास का एक बटन या धागा भी ग़सबी हो तो नमाज़ बातिल है। दिलचस्प बात यह है कि अगर हम यह चाहते हैं कि हमारी दुआ और नमाज़ क़बूल हो तो हमे हलाल ग़िजा खानी चाहिए।
जिस तरह हवाई जहाज़ को उड़ने के लिए मखसूस पैट्रोल की ज़रूरत है। इसी तरह इंसान को मानवी (आध्यात्मिक) उड़ान के लिए हलाल गिज़ा की ज़रूरत है।
81- नमाज़ और बराबरी व यकजहती
नमाज़ मे जिस तरह दिल और ज़बान हमाहंग रहते हैं इसी तरह पेशानी और पैर के अंगूठे आपस मे हमाहंग रहते हैं। दोनों के लिए ज़रूरी है कि सजदा करते वक़्त दोनों खाक़ पर हों।
नमाज़ में औरत और मर्द सभी शिरकत करते हैं। और औरतों को छोड़ कर सभी लोग छोटे हों या बड़े, ग़ुलाम हों या आज़ाद, फ़क़ीर हों या मालदार सब एक सफ़ मे खड़े होते हैं। और यह ईमान की बुनियाद पर इत्तेहाद और बराबरी की एक प्रैक्टिकली नुमाइश है। नमाज़े जमाअत इंसानों में इंसानों के साथ रहने की आदत पैदा कराती है।
नमाज़ के ज़रिये कई क़िसमों की यकजहती व बराबरी वजूद मे आती है। मसलन लोगों की यकजहती, पेशों की यकजहती, रंगों की यकजहती, नस्लों की यकजहती, हुनर और पेशों की यकजहती वग़ैरह वग़ैरह। यानी नमाज़े जमाअत एक बड़े और मानवी मक़सद के लिए मुक़द्दस जगह पर हर रोज़ होने वाला एक सादा मगर अज़ीम (महान) इजतेमा (सम्मेलन) है। और इस इजतेमा की खासियत यह है कि यह बग़ैर कुछ खर्च किये मुंअक़िद (आयोजित) होता है।
82- नमाज़ और इन्तिज़ाम
अगर कभी नमाज़ पढ़ते वक़्त इमामे जमाअत के सामने कोई ऐसी मजबूरी आ जाये कि वह नमाज़ को पूरा न सके तो उनके पीछे खड़े लोगों मे जो ज़्यादा नज़दीक होता है वह नमाज़ की इमामत की ज़िम्मेदारी अपने काँधोँ पर ले लेता है। और यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि इस्लामी प्रोग्राम किसी एक इंसान के चले जाने से दरहम बरहम नही होने चाहिए। बल्कि ऐसा इन्तिज़ाम होना चाहिए कि अगर एक इंसान बीच से चला जाये तो निज़ाम(व्यवस्था) पर कोई असर न पड़े। यानी अहम (महत्वपूर्ण) बात मक़सद को मज़बूती अता करना है चाहे पेशवा अपनी ज़ाती मजबूरीयों की वजह से बदलते रहें।
83- नमाज़ और अवामी निगरानी
अगर इमाम जमाअत या मोमेनीन मे से कोई नमाज़ की रकतों के बारे मे शक करे तो एक दूसरे की मदद से अपने शक को दूर कर सकते हैं।
मसलन अगर इमामे जमाअत को शक हो कि तीन रकत पढ़ी हैं या चार, तो अगर वह देखे कि लोग सजदे के बाद खड़े हो गये हैं तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह भी खड़ा हो जाये। और शक वाली रकत को तीसरी ही रकत तस्लीम करे।
नमाज़े जमाअत की बरकतों मे से एक यह भी है कि आपसी शको शुबहात दूर हो जाते हैं, एक दूसरे पर इत्मिनान बढ़ता है। इससे यह सबक़ भी हासिल होता है कि शक व शुबहे की हालत मे साहिबे ईमान अवाम की तरफ़ भी रुजुअ करना चाहिए और इमाम और मामूम (पीछे रहने वाले) दोनो को एक दूसरे का ध्यान रखना चाहिए।
84- नमाज़ और मुहब्बत
जो मुहब्बत मस्जिद के नमाज़ीयो के दरमियान पायी जाती है ऐसी मुहब्बत किसी दूसरी जगह पर देखने को नही मिलती। मस्जिद के नमाज़ियों का मिज़ाज यह बन जाता है कि अगर एक नमाज़ी दो तीन दिन न आये तो आपस मे एक दूसरे से उसके बारे मे पूछने लगते हैं। और अगर वह मरीज़ होता है तो उसकी अयादत के लिए जाते हैं। अगर वह किसी मुश्किल मे घिरा होता है तो उसकी मुश्किल को हल करते हैं। लिहाज़ा मस्जिद के नमाज़ियों को तन्हाई का ऐहसास नही होता। अगर किसी के कोई भाई या बेटा न हो और वह नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद मे जाता हो तो उसको ऐसा लगने लगता है कि सब उसके भाई बेटे हैं।
अकसर देखा गया है कि जब कोई नमाज़ी इस दुनिया से जाता है तो उसके जनाज़े मे एक बड़ी तादाद मे लोग शिरकत करते हैँ और इज़्ज़तो एहतिराम के साथ उसको दफ़्न करते है। उसके लिए जो मजलिसें की जाती हैं उनमे भी रोनक़ होती है। यह सब उस दिली मुहब्बत की निशानी है जो मस्जिद के नमाज़ियों मे आपस मे पैदा हो जाती है।
अगर कोई नमाज़ी हज करके आये या उसके यहाँ बेटे या बेटी की शादी हो तो वह इन मौक़ों पर अपने दिल मे मुहब्बत की एक खास गर्मी महसूस करता है। वह अपनी खुशी व ग़मी मे लोगों को अपना शरीक पाता है। नमाज़ियों के दरमियान पायी जाने वाली इस मुहब्बत का किसी दूसरी चीज़ से मुक़ाबला नही किया जा सकता।
85- नमाज़ व इज़्ज़त
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने महल्ले मे कभी कोई ग़लत काम नही करते क्योंकि लोग उनको और उनके रिश्तेदारों को पहचानते हैं। लेकिन अगर यही लोग किसी ऐसी जगह पर पहुँच जाये जहाँ पर इनको कोई न पहचानता हो तो वही ग़लत काम अंजाम देना उनके लिए मुश्किल नही होता। नमाज़ मे शिरकत करने से इंसान मस्जिद, इस्लाम और लोगों से वाबस्ता हो जाता है। और इंसान ऐसा मुत्तक़ी बन जाता है कि हत्तल इमकान (यथावश) ग़लतीयों से बचता है। क्योंकि वह जानता है कि एक छोटी सी ग़लती की वजह से भी उसकी इज़्ज़त व आबरू खाक मे मिल सकती है।
लेकिन वह लोग जो मस्जिद इस्लाम और अवाम से दूर रहते हैं उनके लिए ग़लत काम अंजाम देना कोई मुश्किल काम नही है। क्योंकि वह लोगों के दरमियान मज़हबी हवाले से कोई पहचान या मक़ाम ही नही रखते जिसके लुट जाने का उन्हें खौफ़ हो।
86- नमाज़ समाज की इस्लाह (सुधार) करती है
अल्लाह ने नमाज़ के क़ाइम करने के हुक्म के साथ साथ फ़रमाया है कि हम इस्लाह चाहने वालों के बदले को ज़ाय (बर्बाद) नही करेगें। इससे माअलूम होता है कि अगर नमाज़ की ज़ाहिरी और बातिनी तमाम शर्तों का लिहाज़ रखा जाये और नमाज़ को सही तरीक़े से क़ाइम किया जाये तो समाज की इस्लाह होगी।
नमाज़ी हक़ीक़त मे एक मुस्लेह (सुधारक) इंसान है। इबादत कोने मे बैठ कर नही बल्कि समाज की इस्लाह के साथ करनी चाहिए। नमाज़ियों को चाहिए कि समाज से तमाम बुराईयों को दूर करें।
87- नमाज़ और सियासत
बहुतसी रिवायात मे मिलता है कि अगर इंसान तमाम उम्र मुक़द्दस शहर मक्के मे रहकर खाना-ए-काबे मे नमाज़ें पढ़े लेकिन अल्लाह की तरफ़ से भेजे हुए इमामों को ना माने तो उसकी नमाज़ क़बूल नही होगी।
आज के मुस्लमानो की मुश्किल यही है कि वह नमाज़ तो पढ़ते हैं मगर उनके इमाम डरपोक दूसरों से वाबस्ता और उनके ही बनाए हुए हैं। उन्होने इक़्तेदार पर क़ब्ज़ा कर लिया है जबकि उनमे इलाही नुमाइंदों की कोई निशानी नही पायी जाती। वह ज़बान से तो कहते हैं कि ऐ अल्लाह हमको सिराते मुस्तक़ीम की हिदात कर मगर अमली (प्रैक्टिकली) तौर पर वह दूसरी राहों पर चलते हैं।
88- नमाज़ और मशवरत
क़ुरआने करीम के सूरए शूरा मे मोमेनीन के सिफ़ात ब्यान करते हुए इरशाद होता है कि उनके काम मशवरों की बुनियाद पर होते हैं और वह नमाज़ को क़ाइम करते हैं।
इस आयत से मालूम होता है कि जो लोग मशवरा कमैटी मे हैं चाहे वह किसी भी शोबे (विभाग) से हों उनको नमाज़ क़ाइम करने की ज़िम्मे दारी की तरफ़ भी मुतवज्जेह होना चाहिए। अगर आपस मे मशवरा करना मुहिम (महत्वपूर्ण)है तो नमाज़ इस मशवरे से भी ज़्यादा मुहिम है। जहाँ मशवरा कमैटी के मेम्बरों के चुनाव के लिए वोट बक्सों को भरने के लिए बड़ी बड़ी रक़मे खर्च की जाती हैं वहाँ मस्जिदो को भरने के लिए भी थोड़ी बहुत कोशिश ज़रूर करनी चाहिए।
89- नमाज़े जमाअत मुसल्लह दुशमनों के सामने
हम क़ुरआने करीम के सूरए निसा की आयत न.102 में पढ़ते हैं कि ऐ रसूल जब तुम लोगों के दरमियान हो तो नमाज़ क़ाइम करो। लेकिन जब तुम्हारे सामने मुसल्लह दुश्मन हो तो पहली सूरत तो यह है कि सब लोग आपकी इक़्तदा न करें (यानी कुछ लोग आपके पीछे नमाज़ पढ़े और बाक़ी दुश्मन से हिफ़ाज़त करें) और दूसरी सूरत यह है कि जो लोग आपकी इक़्तेदा करें उनको चाहिए कि अपने हथियारों के साथ आपकी इक़्तेदा करें। और आपसी भेद भाव को रोकने के लिए यह होना चाहिए कि पहली रकत मे एक दस्ता आपकी इक़्तेदा करे और दूसरी रकत जल्दी से जुदागाना पढ़ कर नमाज़ को तमाम कर के हिफ़ाज़त कर रहे दस्ते की जगह पहुँच जाये। ताकि हिफ़ाज़त करने वाला दस्ता नमाज़ की दूसरी रकत मे आपकी इक़्तेदा करे। ताकि जमाअत भी न छुटे और दुमन की तरफ़ से ग़फ़लत भी न रहे। और इस्लामी सिपाहियों के बीच भेद भाव भी पैदा न होने पाये। मुसलमानों को चाहिए कि अपनी जगह बदलते वक़्त इतनी तेज़ी करें कि दूसरी रकत मे शरीक हो जायें।
इससे ज़ाहिर होता है कि सिपाहियों का पहले से बावज़ू होना और जंग की हालत मे नमाज़ के मसाइल से आगाह होना ज़रूरी है।
इस आयत का मफ़हूम फ़िल्मी कहानी मे बदलने के क़ाबिल है। क्योंकि यह दिलचस्प भी है और जंग की हालत मे इबादत के तरीक़े को भी ब्यान करता है। इसमे नमाज़े जमाअत की अहमियत, काम की फुर्ती, अदालत, भेद भाव का खात्मा, अल्लाह की तरफ़ तवज्जुह और दुशमन से ग़ाफ़िल न होना सभी कुछ तो ब्यान किया गया है।
90-मस्जिद मे माल और औलाद के साथ जाना चाहिए
क़ुरआने करीम के सूरए कहफ़ की 46वी आयत में इरशाद होता है कि माल और औलाद दुनिया की ज़ीनत है।
और सूरए आराफ़ की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि जब भी मस्जिद मे जाओ तो ज़ीनत के साथ जाओ। यानी अपनी औलाद को भी मस्जिद से आशना करो और थोड़ा माल भी अपने साथ ले कर जाओ। ताकि अगर वहाँ पर कोई फ़क़ीर हो तो उसकी मदद कर सको।(अलबत्ता मस्जिद मे ज़ीनत से मुराद अच्छा और साफ़ लिबास, खुशबु, आराम सुकून, अच्छे इमामे जमाअत का चुनाव वग़ैरह भी हो सकते हैं)
91-नमाज़ इस्लामी भाई चारे के लिए शर्त है
क़ुरआने करीम के सूरए तौबा मे अल्लाह कुफ़्फ़ार और मुशरेकीन का तअर्रुफ़ करा कर और उनकी साज़िशों व बुरे इरादों से आगाह करने के बाद फ़रमाता है कि लेकिन अगर वह तौबा करें नमाज़ पढ़ने लगें और अपने माल की ज़कात दें तो वह आपके दीनी भाई हैं। इस आयत मे दीनी भाई बनने के लिए एक शर्त इक़ाम-ए-नमाज़ को भी रखा गया है।
92- कुफ़्फ़ार आपकी नमाज़ से खुश नही हैं
तफ़सीरे नमूना में सूरए मायदा की 58 वी आयत के तहत लिखा गया है कि तमाम यहूदी और कुछ ईसाइ जब अज़ान की आवाज़ सुनते थे या मुसलमानों को नमाज़ मे खड़ा देखते थे तो उनका मज़ाक़ उड़ाते थे। इसी लिए क़ुरआन ने उनके साथ दोस्ती से मना किया है।
93- नमाज़ का मज़ाक़ बनाना पूरे दीन का मज़ाक़ बनाना है
रिफ़ाह और सवीद नाम के दो मुशरेकीन ने पहले इस्लाम क़बूल किया और बाद मे मुनाफ़ेक़ीन के साथ हो गये। कुछ मुसलमान उनके पास आने जाने लगे तो सूरए मायदा की 57 और 58वी आयतें नाज़िल हुई कि ऐ मोमेनीन जो तुम्हारे दीन का मज़ाक़ उड़ाये उनसे दोस्ती न करो। क्योंकि जब तुम अज़ान देते हो तो वह मज़ाक़ बनाते हैं। आपस मे मिली हुई इन दो आयतों मे पहले फ़रमाया गया कि वह तुम्हारे दीन का मज़ाक़ बनाते हैं। बाद मे कहा गया कि अज़ान का मज़ाक़ उड़ाते हैं। इससे मालूम होता है कि नमाज़ दीन का निचौड़
नमाज़ का मज़ाक़ बनाने वालों से दोस्ती करने का किसी भी मुसलमान को हक़ नही है लिहाज़ा न उनसे दोस्ती की जाये और न ही उन से किसी क़िस्म का रबिता रखा जाये।
94- बेनमाज़ीयों से मुहब्बत न करो
सूरए इब्राहीम की 37 वी आयत मे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की दुआ इस तरह ब्यान की गयी है कि उन्होंनें कहा कि ऐ पालने वाले मैंने अपनी ज़ुर्रियत (संतान) को इस सूखे पहाड़ी इलाक़े मे इस लिए बसाया कि वह नमाज़ क़ाइम करें। बस तू भी लोगों के दिलों मे इनकी मुहब्बत डाल दे।
जो लोग नमाज़ क़ाइम करने के लिए किसी भी जगह का सफ़र करें और इस सिलसिले मे हर तरह की सख्तियाँ बर्दाश्त करें तो शुक्र करने वाला अल्लाह उनका शुक्रिया अदा करता है। और लोगों के दिलों मे उनकी मुहब्बत डाल देता है।
लेकिन जो लोग नमाज़ क़ाइम करने के लिए कोई क़दम नही उठाते चाहे वह जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की औलाद से ही क्यों न हो इस बात का हक़ नही रखते कि लोग उनसे मुहब्बत करे।
95- नमाज के अलावा किसी भी अमल के लिए इतनी तारीखी गवाहीयाँ नही है
खुद रसूले अकरम (स.), आइम्माए मासूमीन अलैहिमुस्सलाम, असहाब, मोमेनीन व मुस्लेमीन ने मिनारों की बलंदियों, मकानों की छतों, मदरसों, रेडियो और टेलीवीज़नों से गाँवों और शहरों मे चाहे वह किसी भी क़ार्रे(द्वीपों) के रहने वाले हों वह चाहे औरत हो मर्द, बच्चे हों या बूढ़े अज़ाने कहीँ हैं। और जिन्होने भी इंसानी तारीख मे अज़ान और इक़ामत कही है उन्होने इस बात की गवाही दी है कि नमाज़ सबसे अच्छा अमल है। सबने गवाही दी है कि नमाज़ कामयाबी है। दुनिया मे कभी भी किसी भी अच्छे काम के लिए इतने लोगों ने गवाहियाँ नही दी हैं।
96- घरों के नक़्शे और नमाज़
शहरो को बसाने और घरों को बनाने के लिए नक़्शे बनाते वक़्त नमाज़ और क़िबले के मसाइल को भी ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि सूरए युनुस की आयत न.87 मे इरशाद होता है कि अपने घरों को क़िबला क़रार दो और नमाज़ को क़ाइम करो। (क़िबला क़रार दो यानी क़िबला रुख बनाओ)
हमने मूसा व हारून से कहा कि बनी इस्राईल के रहने की मुश्किलात को दूर करो। अपनी क़ौम के रहने के लिए घर बनाओ और उनको बिखराओ व दरबदरी से बचाओ। घर का मालिक बनने के बाद उनके अन्दर वतन और हिफ़ाज़ते वतन का जज़बा पैदा होगा। लेकिन ध्यान रहे कि शहर बसाते वक़्त अपने घरों को क़िबला क़रार दो ताकि नमाज़ के क़ाइम करने मे कोई परेशानी न हो।
ईरान के वह शहर जिनकी नक़्क़ाशी शेख बहाई ने की हैं उनमे सड़कों और गलियों को इस तरह बनाया गया है कि वह सीधी क़िबले की सिम्त हैं। (क़िबले के दूसरे मअना भी हैं मगर नमाज़ के हुक्म को ध्यान मे रखते हुए यही माना सबसे अच्छे हैं।
97- अल्लाह के नुमाइंदे नमाज़ीयों का किसी से सौदा नही करते
क़ुरैश के कुछ बड़े लोगों ने रसूले अकरम (स.) से कहा कि अगर तुम अपने पास से अपने ग़रीब सहबियों को भगा दो तो हम आपके पास बैठने लगेगें। फ़ौरन आयत नाज़िल हुई कि ऐ पैगम्बर उन्हीं लोगों के साथ रहो जो सुबह शाम अल्लाह के नाम का जाप करते हैं। मालदार लोगों को खुश करने के लिए अल्लाह का ज़िक्र करने वाले ग़रीब लोगों को अपने पास से दूर मत करना। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि सुबाह शाम अल्लाह का ज़िक्र करने वालों से मुराद नमाज़ी लोग हैं।
छटा हिस्सा - क़ुरआनी नुकात
98-नमाज़ और क़ुरआन
नमाज़ का बाक़ी रहना क़ुरआन का बाक़ी रहना है। क्योंकि हर नमाज़ी मजबूर है कि हर रोज़ अपनी सतरह रकत नमाज़ों मे दस मर्तबा सूरए हम्द पढ़े। और क्योंकि सूरए हम्द मे सात आयात हैं इस लिए हर रोज़ क़ुरआन की सत्तर आयात पढ़ने पर मजबूर है। और हम्द के बाद जो दूसरी सूरत पढ़ता है उसमे भी चन्द आयात हैं। मसलन अगर सूरए तौहीद को ही पढ़ा जाये तो इसमे पाँच आयात हैं। इस तरह अगर दस रकतों मे यह दस बार पढ़ी जाये तो पचास आयात की तिलावत और होगी। इस तरह एक नमाज़ी दिन रात मे तक़रीबन 120 आयात की तिलावत करेगा। हर रोज़ इतनी आयात की तिलावत से एक तो क़ुरआन महजूरियत से बचाता है। दूसरे यह कि समाज मे क़ुरआन और इंसान के दरमियान राबिता बढ़ाता है। अब आगे बढ़ते हैं कि कभी कभी इंसान सूरए तौहीद की जगह किसी दूसरी सूरत को भी पढ़ता है जो क़ुरआन की सूरतों के हिफ़्ज़ करने का सबब बनता है। इसके अलावा क़ुरआने करीम मे कई मक़ामात पर क़ुरआन और नमाज़ का ज़िक्र एक साथ हुआ है। मसलन सूरए फ़ातिर की 29वी आयत मे इरशाद होता है कि जो क़ुरआन की तिलावत करते हैं और नमाज़ क़ाइम करते हैं। सूरए आराफ़ की 170वी आयत मे इरशाद होता है कि वह लोग क़ुरआन से तमस्सुक रखते हैं और नमाज़ क़ाइम करते हैं। यह सही है कि क़ुरआन और नमाज़ ज़ाहिर और बातिन मे एक साथ हैं।
99- नमाज़ फ़रिश्तों से शबाहत रखती है
क़ुरआने करीम के एक सूरेहह का नाम साफ़्फ़ात है इस सूरेह की पहली आयत मे अल्लाह ने सफ़ मे खड़े फ़रिश्तों की क़सम खाई है। इसके अलावा दूसरे कई मक़ाम पर अल्लाह ने फ़रिश्तों की सफ़ो और उनके हमेशा इताअत के लिए तैय्यार रहने का ज़िक्र किया है। क़ुरआने करीम के एक दूसरे सूरेह का नाम सफ़ है इस सूरेह मे उन मुजाहिदों की तारीफ़ की गई है जो सफ़ बांध कर अल्लाह की राह मे जिहाद करते हैं। ये दो लफ़्ज़ सफ़ व साफ़्फ़ात जो क़ुरआने करीम के दो सुरोह के नाम है इस बात की तरफ़ तवज्जुह दिलाते हैं कि क़ुरआन मे नज़्मो ज़ब्त पाया जाता है। बहर हाल इंसान नमाज़ की सफ़ों मे खड़े होकर उन फ़रिश्तों से शबाहत पैदा कर लेता है जो बहुत लम्बी सफ़ों मे खड़े हैं।
100-नमाज़ का ज़िक्र पूरे क़ुरआने मे है
क़ुरआने करीम के सबसे बड़े सूरेह सूरए बक़रा मे भी इन अलफ़ाज़ में नमाज़ का ज़िक्र मिलता है कि “मुत्तक़ी लोग नमाज़ क़ाइम करते हैं।” और क़ुरआने करीम के सबसे छोटे सूरेह सूरए कौसर मे भी नमाज़ का ज़िक्र मिलता है कि “ अब जबकि हमने आपको कौसर अता कर दिया तो आप अपने पालने वाले की नमाज़ पढ़ो और क़ुर्बानी दो।” क़ुरआन के सबसे पहले नाज़िल होने वाले सूरेह मे भी नमाज़ का ज़िक्र है और सबसे आखिर मे नाज़िल होने वाले मे भी नमाज़ का तज़केरा किया गया है। क़ुरआने करीम मे अस्सी से ज़्यादा मुक़ाम पर नमाज़ का ज़िक्र किया गया है।
101-नमाज़ तमाम इबादतों के साथ
* नमाज़ का जिक्र रोज़ों के साथ--- सूरए बक़रा की 45वी आयत मे इरशाद होता है कि नमाज़ और सब्र के ज़रिये मदद हासिल करो। तफ़सीरों मे सब्र से मुराद रोज़ों को लिया गया है। * नमाज़ का ज़िक्र ज़कात के साथ-- जैसे कि सूरए तौबा की 71वी आयत मे ज़िक्र होता है कि वह लोग नमाज़ क़ाइम करते हैं और ज़कात देते हैं। * नमाज़ का ज़िक्र हज के साथ-- जैसे कि सूरए बक़रा की 121 वी आयत मे इरशाद होता है कि मक़ामे इब्राहीम पर नमाज़ पढ़ो।(यानी हज के दौरान मुक़ामे इब्रहीम पर नमाज़ पढ़ो) * नमाज़ का ज़िक्र जिहाद के साथ-- इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आशूर के दिन नमाज़ पढ़ी मुजाहिदों के सिफ़ात ब्यान करते हुए क़ुरआने करीम मे ज़िक्र हुआ कि वह हम्द और इबादत करने वाले हैं। * नमाज़ का ज़िक्र अम्रे बिल मारूफ़ के साथ— जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए लुक़मान की 17वी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे लुक़मान अलैहिस्सलाम अपने बेटे से कहते हैं कि ऐ बेटे नमाज़ क़ाइम करो और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर करो।(अच्छाइयों की तरफ़ बुलाओ और बुराईयों से रोको) * नमाज़ का ज़िक्र समाजी अदालत के साथ— जैसे कि सूरए आराफ़ की 29वी आयत मे ज़िक्र हुआ है कि ऐ मेरे रसूल कह दीजिए कि मुझको मेरे पालने वाले ने हुक्म दिया है कि अदालत क़ाइम करूँ। और तुम इबादत के वक़्त अपनी तवज्जुह को उसकी तरफ़ करो। * नमाज़ का ज़िक्र क़ुरआन की तिलावत के साथ--- जैसे कि सूरए फ़ातिर की 29वी आयत मे ज़िक्र हुआ है कि वह किताब(क़ुरआन) की तिलावत करते हैं और नमाज़ क़ाइम करते हैं। * नमाज़ का ज़िक्र मशवरे के साथ— जैसे कि सूरए शूरा की 38वी आयत मे इरशाद होता है कि वह नमाज़ क़ाइम करते हैं और अपने कामों को मशवरे से अंजाम देते हैं। नमाज़ का ज़िक्र कर्ज़ देने के साथ भी क़ुरआन मे हुआ है।
102-नमाज़ और रहमत
नमाज़ मे लफ़्ज़े रहमत काफ़ी इस्तेमाल हुआ है। हम बिस्मिल्लाह मे भी अर्रहमान और अर्रहीम कहते हैं और अल्हम्दो लिल्लाहि रब्बिल आलमीन के बाद भी अर्रहमान अर्रहीम कहते हैं। और अल्हम्द पढ़ने के बाद भी दूसरे सूरेह से पहले बिसमिल्लाह मे अर्रहमान अर्रहीम पढ़ते हैं। अगर हर रोज़ 60 मर्तबा दिल से लफ़्ज़े रहमत की तकरार की जाये तो पूरे समाज का जज़बा-ए-रहमत जोश मे आजायेगा। और अगर यह जज़बा-ए-रहमत जोश मे आजाये तोआपसी मदद, मुहब्बत, भलाई और एक दूसरे की ग़लतियों को माफ़ करना वग़ैरह समाज मे रिवाज पायेगा(प्रचलित हो जायेगा)। और जिन लोगों के दरमियान एक दूसरे के लिए मदद और रहमत का जज़बा पैदा हो जाता है वह अपने अन्दर बड़ी रहमतों के हासिल करने की सलाहियत पैदा कर लेते हैं।
103- नमाज़ और बराअत (दूरी)
हम नमाज़ मे गुमराह और मग़ज़ूब (जिन पर अल्लाह ने ग़ज़ब नाजिल किया) लोगों से दूर रहने के लिए से दुआ करते हैं। क़ुरआन मे बहुत से ऐसे लोगों व क़ौमों का ज़िक्र किया गया है जिन पर अल्लाह का ग़ज़ब नाज़िल हुआ जैसे फ़िरोन, क़ारून, अबुलहब, मुनाफ़ीक़ीन, बे अमल आलिम, सूद खाने वाले यहूदी और वह तन परवर लोग जो दुनिया परस्त और क़ानून मे काट छाँट करने वाले दनिशवरो के पीछे रहते हैं। इन गिरोहों के लिए क़ुरआन मे लानत व ग़ज़ब जैसे लफ़्ज़ इस्तेमाल हुए हैं और इन को गुमराह गिरोह की शक्ल मे पहचनवाया गया है। चाहे अल्लाह ने इन पर दुनिया मे ग़ज़ब नाज़िल न किया हो। गुमराह और मग़ज़ूब लोगों की भी कई क़िस्में हैं मगर इस छोटीसी किताब में उन का ज़िक्र मुनासिब नही है।
104- नमाज़ और तस्बीह
हम रुकू और सजदों मे तीन बार सुबहानल्लाह या एक एक बार सुबहाना रब्बियल आला व बिहम्दिहि या सुबहाना रब्बियल अज़ीमि व बिहम्दिहि कह कर अल्लाह की तस्बीह करते हैं। हम को खाक के ज़र्रों, पत्थरों, पेड़ पौधो और सितारों से पीछे नही रहना चाहिए। क्योँकि क़ुरआने करीम मे इरशाद होता है कि हर चीज़ अल्लाह की तस्बीह करती लिहाज़ जब सब अल्लाह की तस्बीह करते हैं तो हम क्यों न करें। दुनिया का हर ज़र्रा अल्लाह की तस्बीह करता है क़ुरआन के मुताबिक़ ये बात और है कि हम उन की तस्बीह को समझ नही पाते। हम क़ुरआन मे पढ़ते हैं कि हुदहुद(एक परिन्दे का नाम) ने जनाबे सुलेमान अलैहिस्सलाम से फ़रियाद की कि एक इलाक़े मे लोग सूरज की पूजा करते हैं और उस इलाक़े पर एक औरत हकूमत करती है। जब हुद हुद तौहीद व शिर्क को जान सकता है और इनकी अच्छाई व बुराई को समझ सकता है और औरत व मर्द के दरमियान फ़र्क़ कर सकता है और इन सब की रिपोर्ट जनाबे सुलेमान अलैहिस्सलाम को दे सकता है तो क्या वह सुबहानल्लाह नही कह सकता ? क्या क़ुरआन मे इस बात का ज़िक्र नही है कि एक चयूँटी ने दूसरी चयूँटीयों से कहा कि अपने सुराखों मे चली जाओ। यह सुलेमान और उनका लशकर है कहीँ ऐसा न हो कि वह ग़फ़लत मे तुम्हे कुचल डाले। यह कैसे हो सकता है कि जो चयूँटी इंसानों के नाम तक जानती हो वह सुबहानल्लाह न कह सके ?
105- नमाज़ का एक नाम क़ुरआन भी है
सूरए असरा की 78वी आयत मे इरशाद होता है“ कि अव्वले ज़ोह्र से आधी रात तक चार नमाज़े पढ़ो (ज़ोहर, अस्र, मग़रिब व इशा) और क़ुरआने फ़ज्र यानी सुबाह की नमाज़ भी पढ़ो” यहाँ पर सुबाह की नमाज़ के लिए लफ़्ज़े क़ुरआन को इस्तेमाल किया गया है। शिया व सुन्नी रिवायात के मुताबिक़ सुबाह की नमाज़ वह नमाज़ है जिसके पढ़ने पर रात वाले फ़रिश्ते भी गवाही देते हैं और दिन वाले फ़रिश्ते भी।
106-नमाज़ और तहारत
अल्लाह ने क़ुरआन मे वज़ू, ग़ुस्ल और तयम्मुम के बहुतसे सबब ब्यान किये हैं जैसे---- 1- ताकि तुम्हे पाक करे (सूरए मायदा आयत 6) 2- ताकि अल्लाह तुम पर अपनी नेअमतों को तमाम करे।(सूरए मायदा आयत 6) 3- ताकि तुम शुक्र गुज़ार बन जाओ।(सूरए मायदा आयत 6) 4- अल्लाह पाकीज़ा लोगों से मुहब्बत करता है। जब ज़ाहिरी पाकीज़गी के ज़रिये ये तमाम चीज़ें हासिल हो सकती हैं तो अगर दिल निफ़ाक़, रियाकारी, शक, शिर्क, कँजूसी, हिर्स और लालच जैसी बुराईयों से पाक हो जाये तो इसका इंसान पर कितना अच्छा असर पड़ेगा। मानवी पाकीज़गी कितनी अहम है ! अल्लाह पाक रहने वालों की तारीफ़ करते हुए कहता है कि “उस मस्जिद मे नमाज़ पढ़ा करो जहाँ के लोग पाक रहना पसंद करते हों।”
107- नमाज़ इमामत के बराबर है
क़ुरआने करीम मे दो बार “वा मिन ज़ुर्रियती”( और मेरी औलाद को भी) का इस्तेमाल हुआ है। और दोनो बार यह जुम्ला जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़बाने मुबारक पर आया है। एक बार उस वक़्त जब जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम इम्तेहान मे कामयाब हुए और उनको इमाम बनाया गया तो उन्होंने फ़ौरन अल्लाह से अर्ज़ किया कि और मेरी औलाद मे भी इमाम बनाना। लेकिन उनको जवाब मिला कि ज़ालिम को इमाम नही बनाया जायेगा।( यानी आपकी औलाद मे जो ज़ालिम होगा उसको इमाम नही बनाया जायेगा) दूसरी बार नमाज़ क़ाइम करने की दुआ करते वक़्त अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह मेरी औलाद को भी नमाज़ क़ाइम करने वाला बनाना। इस तरह इमामत का ओहदा मिलने पर और क़ियामे नमाज़ की दुआ करते वक़्त अपनी औलाद को याद रखा और अल्लाह से चाहा कि यह दोनों चीज़े मेरी औलाद को हासिल हों। इससे मालूम होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे नमाज़ का मक़ाम इमामत के बराबर है।
सातवाँ हिस्सा - नमाज़ के आदाब
108- नमाज़ और लिबास
रिवायात मे मिलता है कि आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम नमाज़ का लिबास अलग रखते थे। और अल्लाह की खिदमत मे शरफ़याब होने के लिए खास तौर पर ईद व जुमे की नमाज़ के वक़्त खास लिबास पहनते थे। बारिश के लिए पढ़ी जाने वाली नमाज़ (नमाज़े इस्तसक़ा) के लिए ताकीद की गयी है कि इमामे जमाअत को चाहिए कि वह अपने लिबास को उलट कर पहने और एक कपड़ा अपने काँधे पर डाले ताकि खकसारी व बेकसी ज़ाहिर हो। इन ताकीदों से मालूम होता है कि नमाज़ के कुछ मखसूस आदाब हैं। और सिर्फ़ नमाज़ के लिए ही नही बल्कि तमाम मुक़द्दस अहकाम के लिए अपने खास अहकाम हैं।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को भी तौरात की आयात हासिल करने के लिए चालीस दिन तक कोहे तूर पर मुनाजात के साथ मखसूस आमाल अंजाम देने पड़े।
नमाज़ इंसान की मानवी मेराज़ है। और इस के लिए इंसान का हर पहलू से तैयार होना ज़रूरी है। नमाज़ की अहमियत का अंदाज़ा नमाज़ के आदाब, शराइत और अहकाम से लगाया जासकता है।
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने अपना वह लिबास जिसमे आपने दस लाख रकत नमाज़े पढ़ी थी देबल नाम के शाइर को तोहफ़े मे दिया। क़ुम शहर के रहने वाले कुछ लोगों ने देबल से यह लिबास खरीदना चाहा मगर उन्होने बेंचने से मना कर दिया। देबल वह इंक़िलाबी शाइर है जिन्होनें बनी अब्बास के दौरे हुकुमत मे 20 साल तक पौशीदा तौर पर जिंदगी बसर की। और आखिर मे 90 साल की उम्र मे एक रोज़ नमाज़े सुबह के बाद शहीद कर दिये गये।
109- नमाज़ और दुआ
क़ुनूत मे पढ़ी जाने वाली दुआओं के अलावा हर नमाज़ी अपनी नमाज़ के दौरान एहदिनस्सिरातल मुस्तक़ीम कह कर अल्लाह से बेहतरीन नेअमत “हिदायत” के लिए दुआ करता है। रिवायात मे नमाज़ से पहले और बाद मे पढ़ी जाने वाली दुआऐं मौजूद हैं जिनका पढ़ना मुस्तहब है। बहर हाल जो नमाज़ पढ़ता वह दुआऐं भी करता है।
अलबत्ता दुआ करने के भी कुछ आदाब हैं। जैसे पहले अल्लाह की तारीफ़ करे फिर उसकी मखसूस नेअमतों जैसे माअरिफ़त, इस्लाम, अक़्ल, इल्म, विलायत, क़ुरआन, आज़ादी व फ़हम वगैरह का शुक्र करते हुए मुहम्मद वा आलि मुहम्मद पर सलवात पढ़े। इसके बाद किसी पर ज़ाहिर किये बग़ैर अपने गुनाहों की तरफ़ मुतवज्जेह हो कर अल्लाह से उनके लिए माफ़ी माँगे और फिर सलवात पढ़कर दुआ करे। मगर ध्यान रहे कि पहले तमाम लोगों के लिए अपने वालदैन के लिए और उन लोगों के लिए जिनका हक़ हमारी गर्दनों पर है दुआ करे और बाद मे अपने लिए दुआ माँगे।
क्योंकि नमाज़ मे अल्लाह की हम्दो तारीफ़ और उसकी नेअमतों का ब्यान करते हुए उससे हिदाय और रहमत की भीख माँगी जाती है। इससे मालूम होता है कि नमाज़ और दुआ मे गहरा राबिता पाया जाता है।
110- नमाज़ के लिए क़ुरआन का अदबी अंदाज़े ब्यान
सूरए निसा की 161 वी आयत मे अल्लाह ने दानिशमंदो, मोमिनों, नमाज़ियों और ज़कात देने वालोंकी जज़ा(बदला) का ज़िक्र किया है। लेकिन नमाज़ियों की जज़ा का ऐलान करते हुए एक मखसूस अंदाज़ को इख्तियार किया है।
दानिशमंदों के लिए कहा कि “अर्रासिखूना फ़िल इल्म”
मोमेनीन के लिए कहा कि “अलमोमेनूना बिल्लाह”
ज़कात देने वालों के लिए कहा कि “अलमोतूना अज़्ज़कात”
नमाज़ियों के बारे मे कहा कि “अलमुक़ीमीना अस्सलात”
अगर आप ऊपर के चारों जुमलों पर नज़र करेंगे तो देखेंगे कि नमाज़ियों के लिए एक खास अंदाज़ अपनाया गया है। जो मोमेनीन, दानिशमंदो और ज़कात देने वालो के ज़िक्र मे नही मिलता। क्योंकि अर्रासिखूना, अलमोमेनूना, अल मोतूना के वज़न पर नमाज़ी लोगों का ज़िक्र करते हुए अल मुक़ीमूना भी कहा जा सकता था। मगर अल्लाह ने इस अंदाज़ को इख्तियार नही किया। जो अंदाज़ नमज़ियों के लिए अपनाया गया है अर्बी ज़बान मे इस अंदाज़ को अपनाने से यह मअना हासिल होते हैं कि मैं नमाज़ पर खास तवज्जुह रखता हूँ।
सूरए अनआम की 162वी आयत मे इरशाद होता है कि “अन्ना सलाती व नुसुकी” यहाँ पर सलात और नुसुक दो लफ़ज़ों को इस्तेमाल किया गया है। जबकि लफ़ज़े नुसक के मअना इबादत है और नमाज़ भी इबादत है। लिहाज़ा नुसुक कह देना काफ़ी था। मगर यहाँ पर नुसुक से पहले सलाती कहा गया ताकि नमाज़ की अहमियत रोशन हो जाये।
सूरए अनआम की 73 वी आयत मे इरशाद होता है कि “हमने अंबिया पर वही नाज़िल की कि अच्छे काम करें और नमाज़ क़ाइम करें।” नमाज़ खुद एक अच्छा काम है मगर कहा गया कि अच्छे काम करो और नमाज़ क़ाइम करो। यहाँ पर नमाज़ का ज़िक्र जुदा करके नमाज़ की अहमियत को बताया गया है।
111- खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ना ईमान की पहली शर्त
सूरए मोमेनून की पहली और दूसरी आयत मे इरशाद होता है कि बेशक मोमेनीन कामयाब हैँ (और मोमेनीन वह लोग हैं) जो अपनी नमाज़ों को खुशुअ के साथ पढ़ते हैं।
याद रहे कि अंबिया अलैहिमस्सलाम मानना यह हैं कि हक़ीक़ी कामयाबी मानवियत से हासिल होती है। और ज़ालिम और सरकश इंसान मानते हैं कि कामयाबी ताक़त मे है।
फिरौन ने कहा था कि “ आज जिसको जीत हासिल हो गयी वही कामयाब होगा।” बहर हाल चाहे कोई किसी भी तरह लोगों की खिदमत अंजाम दे अगर वह नमाज़ मे ढील करता है तो कामयाब नही हो सकता ।
112- नमाज़ और खुशी
सूरए निसा की 142वी आयत मे मुनाफ़ेक़ीन की नमाज़ के बारे मे इरशाद होता है कि वह सुस्ती के साथ नमाज़ पढ़ते हैं। यानी वह खुशी खशी नमाज़ अदा नही करते। इसी तरह सूरए तौबा की 54वी आयत मे उस खैरात की मज़म्मत की गयी है जिसमे खुलूस न पाया जाता हो। और इसकी वजह यह है कि इबादत और सखावत का असल मक़सद मानवी तरक़्क़ी है। और इसको हासिल करने के लिए मुहब्बत और खुलूस शर्त है।
113- नमाज़ियों के दर्जात
(अ) कुछ लोग नमाज़ को खुशुअ (तवज्जुह) के साथ पढ़ते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम ने सूरए मोमेनून की दूसरी आयत मे ज़िक्र किया है “कि वह खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ते हैं।” खुशुअ एक रूहानी और जिसमानी अदब है।
तफ़्सीरे साफ़ी मे है कि एक बार रसूले अकरम (स.) ने एक इंसान को देखा कि नमाज़ पढ़ते हुए अपनी दाढ़ी से खेल रहा है। आपने फ़रमाया कि अगर इसके पास खुशुअ होता तो कभी भी इस काम को अंजाम न देता।
तफ़्सीरे नमूना मे नक़ल किया गया है कि रसूले अकरम (स.) नमाज़ के वक़्त आसमान की तरफ़ निगाह करते थे और इस आयत
(मोमेनून की दूसरी आयत) के नाज़िल होने के बाद ज़मीन की तरफ़ देखने लगे।
(ब) कुछ लोग नमाज़ की हिफ़ाज़त करते हैं।
जैसे कि सूरए अनआम की आयत न.92 और सूरए मआरिज की 34वी आयत मे इरशाद हुआ है। सूरए अनआम मे नमाज़ की हिफ़ाज़त को क़ियामत पर ईमान की निशानी बताया गया है।
(स) कुछ लोग नमाज़ के लिए सब कामों को छोड़ देते हैं।
जैसे कि सूरए नूर की 37वी आयत मे इरशाद हुआ है। अल्लाह के ज़िक्र मे ना तो तिजारत रुकावट है और ना ही वक़्ती खरीदो फ़रोख्त, वह लोग माल को ग़ुलाम समझते हैं अपना आक़ा नही।
(द) कुछ लोग नमाज़ के लिए खुशी खुशी जाते हैं।
(य) कुछ लोग नमाज़ के लिए अच्छा लिबास पहनते हैं ।
जैसे कि सूरए आराफ़ की 31वी आयत मे अल्लाह ने हुक्म दिया है “कि नमाज़ के वक़्त जीनत इख्तियार करो।”
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना मस्जिद को पुररौनक़ बनाना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना नमाज़ का ऐहतिराम करना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना लोगों का ऐहतिराम करना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना वक़्फ़ और वाक़िफ़ दोनों का ऐहतिराम है। लेकिन इस आयत के आखिर मे यह भी कहा गया है कि इसराफ़ से भी मना किया गया है।
(र) कुछ लोग नमाज़ से दायमी इश्क़ रखते हैं।
जैसे कि सूरए मआरिज की 23वी आयत मे इरशाद हुआ है कि “अल्लज़ीना हुम अला सलातिहिम दाइमून।”“वह लोग अपनी नमाज़ को पाबन्दी से पढ़ते हैं।” हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि यहाँ पर मुस्तहब नमाज़ों की पाबंदी मुराद है। लेकिन इसी सूरेह मे यह जो कहा गया है कि वह लोग अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं। यहाँ पर वाजिब नमाज़ों की हिफ़ाज़त मुराद है जो तमाम शर्तों के साथ अदा की जाती हैं।
(ल) कुछ लोग नमाज़ के लिए सहर के वक़्त बेदार हो जाते हैं।
जैसे कि सूरए इस्रा की 79वी आयत मे इरशाद होता है कि “फ़तहज्जद बिहि नाफ़िलतन लका” लफ़्ज़े जहूद के मअना सोने के है। लेकिन लफ़्ज़े तहज्जद के मअना नींद से बेदार होने के हैँ।
इस आयत मे पैग़म्बरे अकरम (स.) से ख़िताब है कि रात के एक हिस्से मे बेदार होकर क़ुरआन पढ़ा करो यह आपकी एक इज़ाफ़ी ज़िम्मेदारी है। मुफ़स्सेरीन ने लिखा है कि यह नमाज़े शब की तरफ़ इशारा है।
(व) कुछ लोग नमाज़ पढ़ते पढ़ते सुबह कर देते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम मे आया है कि वह अपने रब के लिए सजदों और क़ियाम मे रात तमाम कर देते हैं।
(श) कुछ लोग सजदे की हालत मे गिरिया करते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम मे इरशाद हुआ है कि सुज्जदन व बुकिय्यन।
अल्लाह मैं शर्मिंदा हूँ कि 15 शाबान सन् 1370 हिजरी शम्सी मे इन तमाम मराहिल को लिख रहा हूँ मगर अभी तक मैं ख़ुद इनमे से किसी एक पर भी सही तरह से अमल नही कर सका हूँ। इस किताब के पढ़ने वालों से दरखवास्त है कि वह मेरे ज़ाती अमल को नज़र अन्दाज़ करें। (मुसन्निफ़)
114- नमाज़ हम से गुफ़्तुगु करती है
क़ुरआन और रिवायात मे मिलता है कि आलमे बरज़ख और क़ियामत मे इंसान के तमाम आमाल उसके सामने पेश कर दिये जायेंगे। नेकियोँ को खूबसूरत पैकर मे और बुराईयोँ को बुरे पैकर मे पेश किया जायेगा। खूब सूरती और बदसूरती खुद हमारे हाथ मे है। रिवायत मे मिलता है कि जो नमाज़ अच्छी तरह पढ़ी जाती है उसको फ़रिश्ते खूबसूरत पैकर मे ऊपर ले जाते हैं। और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझको इसी तरह हिफ़्ज़ करे जिस तरह तूने मुझे हिफ़्ज़ किया।
लेकिन वह नमाज़ जो नमाज़ की शर्तों और उसके अहकाम के साथ नही पढ़ी जाती उसको फ़रिश्ते सयाही की सूरत मे ऊपर ले जाते हैं और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझे इसी तरह बर्बाद करे जिस तरह तूने मुझे बर्बाद किया।
(किताब असरारूस्सलात लेखकः इमाम खुमैनी र.अ)
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