आलमे बरज़ख़

अक़ीदे
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 (लेखकः शहीदे मेहराब आयतुल्लाह सैय्यद दस्तग़ैब शीराज़ी)

अनुवादकःमुहम्मद बाक़िरूल बाक़िरी जौरासी

अर्ज़े मुतारज्जिम (उर्दू)

इस्लामी जम्हूरिये ईरान से जिन किताबों की इशाअत का सिलसिला जारी है उनमें में बेशतर अपनी इफ़ादियत के लिहाज़ से पूरा हक़ रखती हैं कि उनके तरजुमे हज़राते मोमिनीन और अफ़रादे मिल्लत के सामने पेश किये जाऐं लेकिन मेरे लिये बायसे हसरत है ये बात कि अपनी रोज़ ब रोज़ गिरती हुई सेहत, बढ़ती हुई ज़ईफ़ी और घटती हुई बीनाई की वजह से अब किसी ज़ख़ीम किताब का तरजुमा हाथ में लेने की हिम्मत नहीं होती। फ़िलहाल शहीदे मेहराब आयतुल्लाह सैय्यद अब्दुलहुसैन दस्तग़ैब की एक निस्बतन मुख़्तसर किताब बरज़ख़ का तरजुमा हदियाऐ नाज़िरीन करता हूँ। मुझे पूरा यक़ीन है कि अगर तवज्जोह के साथ इसका मुतालिआ किया जाये तो हम जैसे गुनाहगारों की दुनिया और दीन दोनों की इस्लाह में इससे पूरी मदद मिलेगी और हम अपनी मुजरिमाना ग़फ़लतों से आलूदा ज़िन्दगी को भयानक बरज़ख़ी अन्जाम से बचा सकते हैं, अगर ज़िन्दगी और सेहत ने कुछ दिनों का मौक़ा और दिया तो इन्शाल्लाह बाज़ दूसरी किताबों के तरजुमे भी पेश करने की सआदत हासिल करूँगा, वरना दुआऐ मग़फ़िरत का उम्मीदवार हूँगा।

इन्शाल्लाह.

वस्सलाम

आसी मुहम्मद बाक़िरूल बाक़िरी जौरासी

अर्ज़े नाशिर

अल्लाह के फ़ज़्ल, रसूल और आले रसूल के करम से हमारी जानिब से अब तक बेशुमार किताबें उर्दू और हिन्दी में शाया की जा चुकी हैं जिनसे हज़ारों मोमिनीन इस्लाह और इल्म हासिल कर रहे हैं। वक़्त की ज़रूरत, मोमिनीन के इसरार और नौजवानों की दिलचस्पी को देखते हुए बाज़ उर्दू किताबों का हिन्दी में तर्जुमा किया गया जो बेहद पसन्द किया गया ये किताब बरज़ख़  जो निहायत अहम मौज़ू से ताल्लुक़ रखती है आयतुल्लाह दस्तग़ैब की किताब बरज़ख़ के उर्दू तरजुमे का हिन्दी तरजुमा है कोशिश की गई है कि आसान से आसान ज़बान में किताब के पैग़ाम को अवाम के ज़ेहनों तक पहुँचा दिया जाये। उम्मीद है कि मोमिनीन पिछली किताबों की तरह इसको भी पसन्द फ़रमाऐंगें और बारगाहे इलाही में दुआ करके हमारी मेहनत को क़ुबूल फ़रमाऐंगें।

 वस्सलाम

सैय्यद अली अब्बास तबातबाई

 


 

मुक़दमा

अक़ीदाऐ मआद आफ़रीनशे आलम का हमअस्र

अक़ीदा ए माद अक़्ल का एक हतमी फ़ैसला है और इसका ऐतेक़ाद आफ़रीनशे आलम के साथ साथ चलता रहा है गुज़िशता लोगों के हालात और ज़माना ए माक़ब्ल की तारीख़ के तज़किरों में हम पढ़ते हैं कि बाज़ क़बाएल ज़िन्दगी के ज़रूरी वसाएल इस ख़्याल से मुर्दे के साथ दफ़्न किया करते थे कि आइन्दा क़यामत के रोज़ जब ये मुर्दा ज़िन्दा हो तो ख़ास ख़ास ज़रूरियाते ज़िन्दगी इसके पास मौजूद हों।

 

आसमानी मज़ाहिब का बुनियादी रूक्न

अक़ीदाऐ मब्दा के बाद आसमानी मज़ाहिब का दूसरा रूक्न अक़ीदाऐ मआद रहा है इसका सबब मालूम है कि पैग़म्बरों की दावत ओ तबलीग़ की बुनियाद मानावीयत, ऐतेक़ादे उलूहियत और खुलासा ये कि सवाब ओ अक़ाब और ख़ुदा की तरफ़ बाज़गश्त पर क़ायम हैं क्योंकि अक़ाएद हो या इख़लाक़ या अहकाम हमेशा मसअले का मानवी और बातिनी पहलू साहबाने शरीयत के पेशे नज़र रहा है। मुक़द्दस दीने इस्लाम ने तमाम आदियान में कामिल तरीन होने की बिना पर इस बारे में भी दूर रस सिफ़ारिशात की हैं और इस क़ज़िये का मानवी रूख़ एक वसीतर आलमे आख़िरत के ऐतेबार से पेश करता है। मौत को छोटी क़यामत का नाम देकर उसी वक़्त से सवाब ओ अज़ाब का दरवाज़ा ख़ुला हुआ क़रार देता है इज़ा मातल रजुल क़ामता क़यामत नीज़ क़ुराने मजीद ख़ुदा की तरफ़ बाज़गश्त को लक़ाए ख़ुदा यानी मौत ही के वक़्त से याद दिलाता है और मौत की ख़्वाहिश को औलियाऐ ख़ुदा की निशानी बताता है। ( सूराए जुमा आयतः- 6)

 

मौत और बरज़ख़ को क़रीब देखने की तासीर

मौत के साथ ही शुरू होने वाली आलमे बरज़ख़ की सज़ा और जज़ा और पादाशे अमल को अपने क़रीब देखने का अशख़ास के अक़ीदे, इख़लाक़ और अमल पर मुसबत असप पड़ता है कुछ नादान लोग रोज़े क़यामत का अक़ीदा रखने के बावजूद अपने लावबालीपन की जेहत से उज़्र तराशी करते हुऐ कहते है कि अभी क़यामत तक क्या है? यानी हो सकता है कि क़यामत हज़ारों साल बाद आये लेकिन जब बरज़ख़ का सिलसिला मौत के वक़्त से ही शुरू हो जाता है तो चन्द साल से ज़्यादा नहीं कि इन्सान अपने अक़ीदो और अख़लाक़ और आमाल का अन्जाम देख लेता है।

"अशहदो अन्नल मौत हक़" लिहाज़ा इस अम्र की तरफ़ पूरी तवज्जोह रखनी चाहिये कि अपने फ़राएज़ और ज़िम्मेदारियों के बरख़िलाफ़ किसी फ़ेल का मुरातकिब न हो, क्योंकि बहुत ही जल्द उसका नतीजा सामने आने वाला है।

 

बरज़ख़ की याद देहानी में तहज़ीबे नफ़्स और इस्लाह का अन्दाज़

शहीदे बुज़ुर्गवार आयतुल्लाह सैयद अब्दुलहुसैन दस्तग़ैब जो इमामे उम्मत के इरशाद के मुताबिक़ मुअल्लिमे इख़लाक़, तहज़ीबे नफ़्स के माहिर और इन्सानों को राहे हक़ दिखाने वाले थे। इस्लाहे नुफ़ूस, लोगों को ग़फ़लतों से होशियार करने और उन्हें गुनाहों से बाज़ रखने के लिये मौत और बरज़ख़ की सज़ाओं की याद दिहानी करना के ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेफ़ादा फ़रमाते थे और तफ़्सीर या अक़ाएद या इख़लाक़ की बहसों में मुख़्तलिफ़ मुनासिबतों के साथ आलमे बरज़ख़ की अज़मत का जिसकी वुसअत इस क़दर है जैसी इस आलमे दुनिया की रहमे मादर की तन्गी के मुक़ाबिले में ज़िक्र करते थे और इसके सवाब ओ अज़ाब की अज़मत ओ बुज़ुर्गी के असरात को सुनने या पढ़ने वालों के दिलों में बख़ूबी नक़्श कर देते थे ताकि उन्हें हक़ीक़ी और लाज़िमी तौर से यक़ीन हो जाऐ कि दुनिया की जल्द ख़त्म हो जाने वाली ख़ुशी और राहत, बरज़ख़ और क़यामत के ग़ैर मामूली रन्ज ओ मुसीबत के मुक़ाबिले में कोई हक़ीक़त नहीं रखती बल्की इसके बरअक्स दुनिया के चन्द रोज़ा रन्ज और ज़हमत का तहम्मुल वाक़ियन वज़्न और क़द्रो क़ीमत रखता है क्योंकि उसके पीछे एक तूलानी राहत ओ आराम है वो इन हक़ाएक़ को समझाने के लिये सादा ओ दिलनशीन और मूसिर बयानात के ज़रिये मुतादिद अख़बार ओ आयात और दास्तानों से फ़ायदा उठाते थे और आलमे बरज़क़ के बारे में उन सच्ची हिक़ायतों और हक़ीक़ी हालात ओ वाक़ेयात को सुबूत ओ शहादत में पेश करते थे जो मोतबर किताबों में दर्ज हैं और अफ़राद के नुफ़ूस और क़ुलूब पर कमा हक़्क़हू असर अन्दाज़ हो सकते हैं।

 

डराने और ख़ुशख़बरी देने के चन्द नमूने

डराने और ख़ौफ़ दिलाने के मौक़े पर उस मोमिन की हिक़ायत का हवाला देते थे जो बग़दाद के एक यहूदी का कुछ क़र्ज़दार था और उसके नतीजे में यहूदी की उँगली की बरज़ख़ी आग ने उसे जला दिया था और वो मुद्दतों बिस्तरे बीमारी पर पड़ा रहा था या उस आग का जो ज़ालिम की क़ब्र को इस तरह जला रही थी कि सभी ने ये जान लिया कि ये माददी और दुनयावी आग नहीं है ज़ालिम को डराने के लिये ज़िक्र फ़रमा रहे थे।

ख़ुशख़बरी के मक़ाम पर और आमाले ख़ैर का शौक पैदा करने के लिये भी उन अख़बार और अहादीस और रवायत से इस्तेफ़ादा फ़रमाते थे जिनका एक नमूना हम हज़रते पैग़म्बरे ख़ुदा की इस हदीस में देखते हैं कि "मैने हज़रते हमज़ा और हज़रते जाफ़रे तय्यार को बरज़ख़ी बहिशत में बरज़ख़ी मेवों से लुत्फ़अन्दोज़ होते हुए देखा है" और वो तीन चीज़ें जो तमाम चीज़ों से ज़्यादा बरज़ख़ में काम आती है यानी हज़रत अली (अ.स) की मोहब्बत, मुहम्मद ओ आले मोहम्मद अलैहुम्मुसलातो वस्सलाम पर सलवात भेजने और पानी पिलाने को बयान फ़रमाते थे और इन शवाहिद का ज़िक्र करने के बाद सुनने या पढ़ने वालों को इन नेकियों की तरफ़ दावत देते और रग़बत दिलाते थे। खुलासा ये कि इन बुज़ुर्गवार के आसार और जूदअसर और फ़सीह ओ बलीग़ बयानात पर ग़ौर करने के बाद शायद ही कोई शख़्स ऐसा हो जिसके हालात में इन्क़ेलाब न पैदा हो ये किताब जो बरज़ख़ और आख़िरत के मसअले में इन शहीदे बुज़ुर्गवार के इरशादात का एक इन्तेख़ाब है जनाबे सुक़्क़तुल इस्लाम आक़ाइ हाज शैख़ हसन सिदाक़त के तवस्सुत से मुरत्तिब हुई है और जिस तरह ये उन बुज़ुर्गवार के ज़मानाऐ हयात में नशरो इशाअत के काम में उनकी पुर खुलूस अयानत करते थे उनकी शहादत के बाद उसमें इज़ाफ़ा हो गया है। ख़ुदा उन्हें मज़ीद तौफ़ीक़ात अता फ़रमाये और इस तरह के आसारे बाक़िया को उनकी नशरो इशाअत में हाथ बटाने वालों के लिये ज़ख़ीराए आख़िरत क़रार दे, और उन शहीदों सईद और उनके मोहतरम हमराहों को मुक़र्रर ग़रीक़े रहमत फ़रमाये।

 

बेऔनहू व करमहू

सैय्यद हाशिम दस्तग़ैब

बिस्मिल्ला हिर्ररहमा निर्ररहिम

लोगो के हक़ अदा न करने पर अज़ाबे बरज़ख़

मोतबर किताब "मिस्बाहुल हरमैन" में लिखा हुआ है कि एक नेक इन्सान शैख़ अब्दुल ताहिर ख़ुरासानी अपनी उम्र के आख़री अय्याम में इस इरादे से मक्का ए मोअज़्ज़मा रवाना हो गये कि वहीं रहेंगे और वहीं मरेंगे उसी ज़माने में एक शख़्स जवाहरात और नक़द रक़्म से भरी हुई एक थैली अमानत रखने के लिये किसी मोअतमद अमीन की तलाश में था।

लोगों ने शैख़ की तरफ़ उसकी रहनुमाइ की और बताया के मक्का ए मोअज़्ज़मा में ये बहुत दयानतदार और लायक़े ऐतमाद इन्सान है चुनाँचे उसने अपनी अमानत उनके सुर्पुद करदी, चन्द रोज़ के बाद शैख़ का इन्तेक़ाल हो गया और अमानत रखने वाला जब अपनी अमानत वापस लेने आया तो मालूम होने के बाद कि अब वो इस दुनिया में नहीं है उनके वारिसों के पास पहुँचा लेकिन उन लोगों ने बताया के हम को अमानत के बारे में कोई इल्म नहीं है उसने अपना सर पीट लिया कि अब वो क्या करे क्योंकि वो बिल्कुल मुफ़लिस हो चुका है और उसके सामने कोई रास्ता नहीं है उसने सुन रखा थी कि मोमिनीन की मुक़द्दस रुहें वादिउस्सलाम में रहती हैं और वो आज़ाद और एक दूसरे से मानूस हैं लिहाज़ा उसने तवस्सुल इख़्तियार करने की कोशिश शुरू की और दुआ की कि बारेऐलाह! कोई ऐसी सूरत पैदा करदे कि मैं उस मय्यत को देख सकूं और उससे अपने माल का पता मालूम कर सकूँ।

इसी तरह एक मुद्दत गुज़रने के बाद बाज़ बाख़बर हज़रात के सामने सूरते वाक़ेया पेश की और कहा ये क्या बात है कि मैं हर चन्द तवस्सुल क़ायम करने की कोशिश करता हूँ लेकिन उनसे मूलाक़ात नहीं होती? उन्होंने जवाब दिया कि शायद वो उन मक़ामात पर हों जो अश्क़िया और गुनाहगारों के लिये मख़सूस हैं और मुमकिन है कि वो यमन की वादिये बरहूत में हो वो एक हैबतनांक वादी है जिसमें वहशतनांक मक़ामात हैं और मुक़र्रर नक़्ल हुआ है कि उससे दहशतनांक आवाज़ें सुनी जाती हैं ख़ुलासा ये कि मौला ए कायनात हज़रत अली (अ.स) के जवार में वादीउस्सलाम जिस क़दर रहमते इलाही का महल्ले ज़हूर और पाकीज़ा रूहों का मसकन है उसी क़दर वादीउल बरहूत अशक़िया और अरवाहे ख़बीसा का मज़हर और क़यामगाह है। -1

(1- मुअल्लिफ़ शहीद की किताबे मआद में वादिउस्सलाम और वादीउलबरहूत में रूहों के बरज़ख़ी मक़ाम के बारें में तफ़्सील से बहस की गई है इस किताब के दूसरे हिस्से में जो बरज़ख़ से मुताल्लिक़ है उसका मुतालिआ किया जा सकता है।)

वो शख़्स वहाँ के लिये रवाना हो गया और रोज़ा दुआ और तवस्सुलात में मशग़ूल हुआ यहाँ तक की एक रोज़ शैख़ अब्दुल ताहिर का मुशाहिदा किया उसने पूछा कि आप ही शैख़ अब्दुल ताहिर हैं? उन्होंने कहा हाँ! और क्या तुम वही शख़्स नहीं हो जो मक्के में रहता था? उसने कहा कि क्यों नहीं फिर पूछा कि मेरी अमानत कहाँ है और तुम्हारे सर पर ऐसी मुसीबत क्यों नाज़िल हुई? उन्होंने जवाब दिया कि तुम्हारी अमानत मैंने एक कूज़े में रख के घर के फ़ुलाँ हिस्से में ज़ेरे ज़मीन दफ़्न कर दी थी उसके बाद तुम नहीं आये ताकि तुम्हारे सुर्पुद कर दूँ यहाँ तक कि मैं दुनिया से रूखसत हो गया, जोओ और मेरे वारिसों को पता बता के अपनी अमानत उनसे ले लो।

 

वह गुनाह जो बरज़ख़ में गिरफ़्तारी के वजह हैं

रही ये बात कि मैं बद बख़्त यहाँ किस वजह से गिरफ़्तार हुआ हूँ तो मेरे तीन गुनाह इस बदबख़्ती का सबब बने (हक़ीक़त ये है कि दूसरों के हुक़ूक़ मुर्ग़ के पाँव में पत्थर  की मानिन्द है जो उसे परवाज़ करने की इजाज़त नहीं देता करबलाऐ मोअल्ला और मशहदे मुक़द्दस के सफ़र करने के बाद ये शख़्स मक्का ए मुअज़्ज़मा का मुजाविर होकर दुनिया से इन्तेक़ाल करता है लेकिन हुक़ूक़े इसको इस तरह से मजबूर बना देते हैं कि मरने के बाद उसे अहलेबैत (अ.स) की ख़िदमत में नहीं पहुँचने देते हैं न वादिउस्सलाम न मक्का और मदीना, जिस्म जहाँ भी हो रूह गिरफ़्तार है और उसे आलमे मलकूत की तरफ़ बढ़ने नही देती).

 

शैख़ के क़ौल के मुताबिक तीन हुक़ूक़

शैख़ अब्दुल ताहिर की रूह ने कहा- पहला गुनाह जो मुझ से बताया गया ये था कि तुमने ख़ुरासान में क़त्ऐ रहम किया और मक्के में क़याम कर लिया! क़तऐ रहम हराम है तुमने अपनी क़ौम और अक़रूबा की रियायत नही की कुछ लोग अपनी औलाद या वालैदैन के ज़रूरी इख़राजात के कफ़ील नहीं होते और इसकी परवाह नहीं करते कि ये लोग किसी परेशानी में तो मुब्तिला नहीं है ख़ुद दूसरे शहर में रहते हैं और उनके है हालात की ख़बर नहीं लेते यक़ीनन वो मुजरिम हैं।

दूसरा ये कि मैंने एक दीनार ग़ैर शख़्स को अदा कर दिया था, इस किताब में जो इबारत तहरीर है शायद उसका मतलब ये है कि उन्हें एक दीनार किसी मुस्तहक़ तक पहुँचाने के लिये दिया गया था लेकिन उन्होंने मसामिहा किया और मुस्तहक़ को न देकर एक ग़ैरे मुस्तहक़ को दे दिया और हक़दार को महरूम करना हराम है।

 

आलिम की इहानत और उसकी सख़्त उक़ूबत

और तीसरा ये कि मेरे मकान के क़रीब एक आलिम रहता था मैंने उसकी इहानत की थी आलिम तुम्हारे ऊपर हक़ रखता है और तुम्हारा दीन उससे वाबस्ता है वो क़ौम और मुआशरे पर ज़िन्दगी का हक़ रखता है अगर किसी आलिम की कोई इहानत हो गई तो जनाबे रिसालतमआब की मशहूर हदीस है कि आँहज़रत ने फ़रमाया "जो किसी आलिम की इहानत करे उसने मेरी इहानत की" अगर कुछ लोग इस तरफ़ मुतावज्जे नहीं है और किसी आलिम से बेअदबी य उसकी बेहुरमती करते है तो उन्होंने उसके हक़ का कुफ़रान किया है और उन्हें उसकी जवाबदेही करना होगी। ख़ुदावन्द! अगर तू हमारे साथ अपने अद्ल से मामला करेगा तो हम क्या करेंगे?-1

(1.वमन अदलोका मुहरबी)

परवरदिगार! हमारा ख़ौफ़ तेरे अद्ल से है। या इलाही! हमारे साथ अपने फ़ज़्ल ओ करम से मुआमला करना क्योंकि हमारे अन्दर तेरे मामलाऐ अद्ल की ताक़त नहीं है।-2

(2.जल्लत अन युख़ाफ़ा मिनकल अदल व अन युरजा मिन्नाकलएहसान वल फ़ज़ल)

 

मौत के वक़्त हमसायों से माफ़ी चाहना

मुस्तहब है कि कोई शख़्स ये महसूस करे कि उसकी मौत क़रीब आ गई है तो अपने हमसायों, हमनशीनों और हमसफ़रों से हुक़ूक़ की मुआफ़ी तलब करें ये न कहो कि मैने ऐसा और वैसा एहसान किया है क्योकि तुमने अक्सर मवाक़े पर हक़्क़े हमसायगी के ख़िलाफ़ अमल किया है, बलन्द आवाज़ से ख़िताब किया है और हमसायों को परेशान किया है जो तुम्हें अब याद नहीं है, सोहबत और हम नशीनी का हक़ भी फ़रामोश मत करो हमसफ़री का हक़ भी इसी रियायत के साथ समझ में आता है ।

 

हज़रत अली (अ.स) और यहूदी की हमसफ़री का लिहाज़

मरवी है कि मौला अली अलैहिस्सलाम एक सफ़र में कूफ़े की तरफ़ तशरीफ़ ला रहे थे असनाऐ राह मे एक शख़्स हज़रत के साथ हो गया इसी दौरान हज़रत ने उसका नाम, तौर तरीक़ा और मज़हब दरयाफ़्त किया तो उसने बताया कि मैं कूफ़े के क़रीब फ़ुलाँ क़रिये का रहने वाला हूँ और मेरा मज़हब यहूदी है तो हज़रत ने फ़रमाया मैं भी कूफ़े का बाशिन्दा हूँ और मुसलमान हूँ दोनों साथ साथ चलते रहे और यहूदी बातें करता रहा यहाँ तक कि एक दोराहे पर पहुँच गऐ यहाँ से एक रास्ता कूफ़े को और एक यहूदी के गाँव को जाता था यहूदी के साथ हज़रत भी उसके गाँव के रास्ते पर चलते रहे एक बार यहूदी मुतावज्जे हुआ और कहा की आप कूफ़े नहीं जा रहे हैं? आप ने फ़रमाया क्यों नही! उसने कहा कूफ़े का रास्ता दूसरी तरफ़ था शायद आपने तवज्जोह नहीं की? आप ने फ़रमाया मैं उसी मुक़ाम पर मुतावज्जेह था लेकिन चूँकि मैं तुम्हारा हमसफ़री था लेहाज़ा चाहा कि सोहबत की रियायत करूँ और चन्द क़दम तुम्हारी मशायत करूँ।

यहूदी ने ताअज्जुब के साथ पूछा कि ये आपका ज़ाती मसलक है या आप के दीन का तरीक़ा? और इस तरह से हुक़ूक़ का लेहाज़ क्या आपके मज़हब से ताअल्लुक़ रखता है? आप ने फ़रमाया यही हमारा मसलक़ और दीन है। यहूदी ग़ौरे फ़िक्र में पड़ गया कि ये कैसा दीन है जो इस हद तक हुक़ूक़ की रियायत करता है? दूसरे रोज़ कूफ़े आया तो देखा कि मस्जिदे कूफ़ा के क़रीब वही कल वाला अरब मोजूद है और लोगों का कसीर मजमा उसके चारों तरफ़ हल्क़ा किये हुए उसके इकराम व एहतेराम में मसरूफ़ है उसने पूछा की ये कौन बुज़ुर्गवार हैं? तो लोगों ने बताया कि ख़लीफ़ातुल मुस्लेमीन और अमीरुलमोमिनीन हैं, उसने अपने दिल में सोचा के ये बुज़ुर्ग मुसलमानों के रईस और सरदार थे जिन्होंने कल मेरे साथ इस क़दर तवाज़ोह और इन्केसार का सुलूक किया था, चुनाँचे उसने हज़रत के हाथों और पाँव पर बोसे दिये और मुसलमान होकर आपके शियों में शामिल हो गया।

 

मज़ालिम सिरात में और जहन्नुम के ऊपर

अगर कोई शख़्स अदाऐ हुक़ूक़ की ज़िम्मेदारी पूरी न करे और इसी हालत में दुनिया से उठ जाये तो क़यामत और सिरात में मज़ालिम की उक़ूबत में गिरफ़्तार होगा मतलब कि वज़ाहत के लिये मुक़दमें के तौर पर सिरात के बारे में कुछ मतालिब अर्ज़ करता हूँ सिरात के लग़वी मानि रास्ते के हैं लेकिन इस्तेलाह और जो कुछ शरेह मुक़द्दस में वारिद हुआ है और जिसका ऐतेमाद हर मुस्लिम पर वाजिब है और जिसे ज़रूरीयाते दीन में शुमार किया जाता है (सुरा ए मोमेनून 23 आयत 74) इसके मुताबिक़ इससे जहन्नम के ऊपर एक पुल मुराद है।

 

सिराते जहन्नम के ऊपर एक पुल

ख़ातेमुल अम्बिया हज़रत रसूले ख़ुदा सलल्लाहो वा आलेहि वसल्ल्म से मन्क़ूल है कि हज़रत ने फ़रमाया जब क़यामत बरपा होगी तो जहन्नम को मैदाने हश्र की तरफ़ ख़ींच कर लाया जायेगा (सुराए फ़ज्र आयतः- 23) उसकी एक हज़ार मिहारें होगीं और हर मिहार एक लाख ग़लाज़ ओ शदाद यानी सख़्त व दुरश्त फ़रिश्तों के हाथों में होगी जिस वक़्त उसे ख़ींचेगें तो जहन्नम से एक शोला बलन्द होगा जो तमाम ख़लाएक़ को घेर लेगा सभी लोग (वअनफ़सा व रब्बे नफ़्सी) कहेगें यानी ख़ुदा वन्दा मेरी फ़रियाद को पहुँच! सिवा हज़रते ख़त्मुल अम्बिया के कि आप कहेगें "रब्बे उम्मती" यानी ख़ुदा वन्दा मेरी उम्मत की फ़रियाद को पहुँच! दरहक़ीक़त पैग़म्बरे ख़ुदा ऐसे पिदरे मेहरबान हैं जिन्हें ख़ुदा ने पाक व पाकीज़ा क़रार दिया है और जो अपनी उम्मत की नीजात के लिये कोशाँ हैं।

अब हम रवायत का आख़री हिस्सा पेश करते हैं कि जब जहन्नम को लाया जाऐगा तो उसके ऊपर एक पुल क़ायम किया जाऐगा और जन्नत तक पहुँचने के लिये सबको उस पर से गुज़रना होगा।

 

तीन हज़ार साल सिरात के ऊपर

ये सही है कि बहिश्त का रास्ता सिरात है लेकिन अब अजीब ओ ग़रीब रास्ता है। हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  से मरवी है कि सिरात तीन हज़ार साल की राह है एक हज़ार साल बलन्दी की तरफ़ जाने के लिये, एक हज़ार साल नशेब की तरफ़ उतरने के लिये और एक हज़ार साल संगलाख़ रास्ते के लिये दरकार होंगे जिसमें बिच्छू और दूसरे जानवर भी होंगे अलबत्ता सिरात से गुज़रने का अन्दाज़ यकसाँ न होगा हर शख़्स अपने अक़ाएद और आमाले सालेह के नूर की मिक़दार के मुताबिक़ इस पर से गुज़रेगा।

 

सिरात के अक़ीदे और आमाल का नूर

सिरात में कोई ख़ास नूर नहीं है बल्कि वो तारीक है और वहाँ कोई आफ़ताब या महताब काम नहीं कर रहा है सिवा जमाले मोहम्मदी के, क़यामत के रोज़ सिर्फ़ नूरे मोहम्मदो आले मोहम्मद (अ.स) यानी इनका नूरे विलायत ही मदद करेगा हर शख़्स का नूरे विलायत ही ख़ुद उसके हमराह होगा नमाज़, रोज़ा, तिलावते क़ुरआन, जिक्रे ख़ुदा और इख़लास का नूर हर तरफ़ से रौशनी फैलाऐगा और सामने और दोनो पहलूओं के अतराफ़ को रौशन और मुनव्वर कर देगा (सूराऐ हदीद 58, आयतः- 12) लेकिन इस हद तक जिस मिक़दार में यहाँ नूर हासिल किया होगा एक शख़्स का नूर वहाँ तक होगा जहाँ तक नज़र काम करती है दूसरे का एक फ़रसख़ और तीसरे का सिर्फ़ इतना की अपने क़दमों के पास देख सके। मरवी है कि एक शख़्स का नूर इतना कम होगा कि सिर्फ उसका अगूठा रौशनी देगा और वो सिरात पर से गिरता पड़ता हुआ गुज़रेगा।

 

ये तवील रास्ता बग़ैर नूर के कैसे तय होगा

ये दुरूस्त है कि वुज़ू ओ ग़ुस्ल और इबदत का नूर भी है जो तमाम आज़ाओ जवार से ज़ाहिर होगा बशर्ते कि गुनाह की तारीकी उसके आगे हायल न हो जाऐ ये तीन हज़ार साल की मुसाफ़त होगी इसको बग़ैर रौशनी के क्यों कर तय किया जा सकता है? तुम जितना नूर भी अपने साथ ले जा सको कम ही है वही नूर जो तुम्हें अपने साथ क़ब्र में ले जाना चाहिये।

 

 

 

सिरात भी शऊर रखती है

आलमे दुनिया के बर ख़िलाफ़ आलमे आख़िरत के जुमला मौजूदात हिस और शऊर के हामिल होते हैं। ज़मीने क़यामत शऊर रखती है, सिरात हिस ओ शऊर और फ़हम ओ इदराक रखती है जो यहाँ की चीज़ों में नहीं है। जो शख़्स सिरात पर क़दम रक्खेगा अगर मोमिन है तो उसके नीचे की जगह साफ़ ख़ुन्क और कुशादा होगी और सिरात शाद और मसरूर होगी और जब कोई काफ़िर या गुनाहगार उस पर पाँव रक्खेगा तो सिरात लरज़ने लगेगी, क़ुरान मजीद में है कि आलमे आख़िरत एक मुकम्मल ज़िन्दगी है (सूरा ए अन्काबूत, 29 आयतः- 64) और तमाम आलमे आख़िरत पर हयात का तसल्लुत है। सिरात अशख़ास को पहचानती है चुनाँचे जब उसको एहसास होता है कि एक मुतीय और फ़रमाबरदार बन्दा उस पर से गुज़र रहा है तो उसके लिये हमवार ओ उस्तवार हो जाती है और जब ये जान लेती है कि कोई गुरेज़पा बन्दा है तो उसके क़दमों की नीचे काँपने लगती है यहाँ तक कि आगे चलकर बाल से ज़्यादा बारीक, तलवार की धार से ज़्यादा तेज़ और अंधेरी रात से ज़्यादा तारीक हो जाती है उसमें अक़बात और घटियाँ हैं जिनमें से बहस की मुनासिबत से हम ती घटियों का ज़िक्र करते हैं।

 

वहशतनाक और सच्चे ख़्वाब

हाजी नूरी अलैहिर्रहमा की किताब मुस्तदरिकुल वसाएल में बुज़ुर्ग मशाएख़ में से एक बुज़ुर्गवार से मन्क़ूल है कि उन्होंने फ़रमाया कि हमारे गाँव में एक मस्जिद है जिसके मुतव्वली मुहम्मद इब्ने अबी हज़ीना हैं ये शैख़ साहब मस्जिद के मुतव्वली भी थे और मुदर्रिस भी हर रोज़ मुअय्यना वक़्त पर मस्जिद में आते थे और वहीं दर्स भी देते थे एक रोज़ काफ़ी इन्तेज़ार के बाद भी नहीं आये तो लोगों ने किसी शख़्स को दरयाफ़्त करने के लिये भेजा मालूम हुआ कि शैख़ बिस्तर पर पड़े हुए हैं। हम सब लोग उनकी अयादत के लिये पहुँचे तो देखा कि वो शबख़्वाबी के लिबास में पड़े हुए हैं और एक बड़े तौलिये से अपने जिस्म को सर से पाँव तक छुपाए हुए नाला ओ फ़रियाद में मसरूफ़ हैं कि मैं जला, मैं जला, हम लोगों ने हाल पूछा तो बताया कि सिवा रानों के सर से पाँव तक मेरा जिस्म जल रहा है, हम पूछा कि आप कैसे जल गये? तो कहा कि गुज़िशता रात मैं सो रहा था आलमे ख़्वाब में देखा कि क़यामत बरपा है, जहन्नम को लाया गया है और उसके ऊपर पुल (सिरात) क़ायम किया गया है ताकि लोग उसपर से गुज़रगें।

चुनाँचे मैं भी उन्हीं लोगों में से था जिन्हें उसपर से चलना था मेरी इब्तेदाई रफ़्तार तो ठीक थी लेकिन मैं जिस क़दर आगे बढ़ता था रास्ता दुशवार और मेरे पाँव के नीचे बारीक से बारीक तर होता जा रहा था मैं काँप रहा था यहाँ तक की रफ़्ता रफ़्ता वो रास्ता बहुत ही बारीक हो गया मेरे क़दमों के नीचे बहुत ही तारीक और स्याह आग शोलाज़न थी जो पहाड़ों की चोटियों के मानिन्द बुलन्द हो रही थी मेरा पाँव लड़खड़ाता था तो अपने को दूसरों पाँव से सभांलता था, आख़िरकार नौबत इस हद तक पहुँची कि मैं गिर गया और आग के शोले ने मुझे नीचे की तरफ़ ख़ींचा कोई चीज़ ऐसी नज़र नहीं आ रही थी जिसका मैं सहारा ले सकता जितना भी इधर उधर हाथ मार रहा था न कोई जाएपनाह मिलती थी न कोई फ़रियाद रस था नागाह मेरे दिल में यह गुज़रा कि क्या हज़रत अली (अ.स) फ़रियाद रस नहीं हैं?

हज़रत से वाबस्तगी ने अपना काम किया और मैंने कहा या अली! जैसे ही ये जुमला मेरे दिल और ज़बान पर जारी हुआ हज़रत अली (अ.स) के नूर को अपने बालाऐ सर महसूस किया सर उठा कर देखा तो आप पुले सिरात के ऊपर इस्तादा नज़र आये मुझसे फ़रमाया कि अपना हाथ मुझे दो मैंने हाथ बढ़ाया तो आपने भी हाथ बढ़ाया और आग एक किनारे से हट गई हज़रत का दस्ते करम आया और उसने मुझे आग की कशिश से निजात देकर ऊपर निकाल लिया और मेरी रानों पर हाथ फेरा मैं भी उसी वहशत के आलम में बेदार हुआ तो मेरा जिस्म जल रहा था सिवाए उस मक़ाम के जहाँ हज़रत ने हाथ रक्खा था।

उन्होंने तौलिये को अलग किया तो उनकी रान के कुछ हिस्से तो सालिम थे बक़िया सारा जिस्म जला हुआ था उन्होंने तीन महीने तक मुसलसल इलाज किया तब किसी तरह सेहतयाब हुए जब उनसे किसी मजलिम में इसके मुताल्लिक़ दरयाफ़्त किया जाता था और वो इस वाक़िये की तफ़्सील बयान करते थे तो हौल की वजह से उन्हें बुख़ार आ जाता था।

 

कौन सारी ज़िन्दगी सिराते मुस्तक़ीम पर है

बिहारूल अनवार जिल्दे सोम में मरवी है कि अव्वलीन ओ आख़ेरीन में से कोई शख़्स बग़ैर मशक़्क़त के सिरात से नहीं गुज़रेगा सिवा ख़त्मुल अन्बिया हज़रते मुहम्मदे मुस्तफ़ा (स.अ.व.व)  और आपके अहलेबैत (अ.स) के आँहज़रत ने ख़ुद फ़रमाया है कि या अली कोई शख़्स सिरात से बग़ैर ज़हमत के नहीं गुज़रगे सिवा मेरे और तुम्हारे और तुम्हारे फ़रज़न्दों के यही चौदह पाक ओ पाकीज़ा नूर हैं जो बग़ैर किसी लग़ज़िश के गुज़र जाऐंगे और बक़िया ख़लाएक़ में से कोई शख़्स गिरने से नहीं बचेगा कौन है जो तकलीफ़े शरई की इब्तेदा से अपनी उम्र के आख़री लम्हात तक दयानत की सिराते मुस्तक़ीमम पर क़ायम रहा हो? कौन है जिसके ऊपर कोई ऐसा दिन गुज़रा हो जिसमें उससे लग़ज़िश न हुई हो? कौन है जो बन्दगी के तौर ओ तरीक़े से एक लहजे के लिये भी मुन्हारिफ़ न हुआ हो और उससे दूर न रहा हो?

 

तशख़ीस बाल से ज़्यादा बारीक और अमल तलवार से ज़्यादा तेज़

कितने ज़्यादा दिन ऐसे हैं जो सुब्ह से शाम तक इन्हेराफ़ और ख़ुदा की नाफ़रमानी में गुज़रते हैं ये ख़ुदा की इताअत और बन्दगी के ख़ते मुस्तक़ीम पर नहीं बल्कि मुकम्मल तौर पर हवा ओ हवस की राह पर होते हैं और इन्सान अपने मक़सदे हयात से हज़ारों फ़रसख़ दूर चला जाता है दर हॉलांकि ख़ुद उसको तवज्जोह नहीं होती वो दरमियानी मंज़िल जो शरह और उसपर अमल का रास्ता है दर हक़ीक़त उसकी तशख़ीस करना बान से भी ज़्यादा बारीक है और उस पर अमल करना तलवार से ज़्यादा तेज़ धार वाला है।

 

हर शख़्स को जहन्नम से सदमा पहुँचेगा

खुलासा यह है कि सभी लोग जहन्नम से गुज़रेगें और हर शख़्स उससे किसी न किसी सूरत में ज़हमत से दो चार होगा। पुले सिरात से उबुर के वक़्त हौले जहन्नम, आग के शोले, दिल की तपिश और इन्तेहाई ख़ौफ़ ओ हिरास का सामना होगा दोज़ख़ से ऐसी आग बलन्द होगी जो सभी को घेर लेगी और पैग़म्बर को भी लरज़ा बर अन्दाम कर देगी हम नहीं जानते कि हमारे ऊपर क्या गुज़रेगी हर शख़्स घुटनों के बल सर निगूँ हो जाऐगा (सूराऐ जासिया आयतः- 72)

हर शख़्स "रब्बे नफ़्सी" की सदा बलन्द करेगा यानी ख़ुदा वन्दा मेरी फ़रियाद को पहुँच! और आख़िरकार निजात नेकूकार के लिये है (सूराऐ मरियम आयतः- 72) दूसरे अल्फ़ाज़ में अगर कोई शख़्स ये ख़्याल करे कि सिरात से फ़रार और निजात हासिल कर लेगा तो ये मुहाल है सिरात बहिश्त का रास्ता है जिसके नीचे जहन्नम है इस पर से वही शख़्स गुज़र सकता है जो इस दुनिया में मज़ालिम से मुबर्रा और महफ़ूज़ रहा हो।

 

आख़िरत के मतालिब तसव्वुर के क़ाबिल नहीं

ये अर्ज़ किया जा चुका है कि आलमे आख़िरत के हालात किसी वक़्त भी इस दुनिया वालो की अक़्ल ओ दिमाग़ में नहीं आ सकते और ये अम्रे मोहल्लात में से है इन्सान जब तक दुनिया में है जहन्नम और बहिश्त की हक़ीक़त को समझने से क़ासिर है लफ़्ज़ों में इश्तेराक़ से इतना  होता है कि मानी और मतालिब की एक सूरत का तसव्वुर कर लेता है दरहाँलांकि हक़ीक़ते मतलब इससे कहीं बालातर है मसअलन जब कहा जाता है कि आतिशे जहन्नम तो नाम और लफ़्ज़ के इश्तेराक़ की वजह से इन्सान उस आग की तरफ़ मुतावज्जेह हो जाता है जो लकड़ी से पैदा होती है जब कहा जाता है कि जहन्नम के साँप और अज़दहे तो इसी दुनिया के गज़न्दों की मिसाल ज़ेहन में आती है चूँकि इन्हें पहले से महसूस कर चुका है लिहाज़ा इन्हीं का तसव्वुर करता है।

आतिशे जहन्नम मोमिन की दुआ पर आमीन कहती है

दुनिया की आग हिस्स और शऊर नहीं रखती लेकिन दोज़ख़ देखने और सुन्नत की सलाहियत रखती है यहाँ तक कि बात भी कर सकती है मरवी है जिस वक़्त कोई बन्दा कहता है "आएतेक़नी मिन्ननार" यानी ख़ुदाया मुझे आतिशे जहन्नम से निजात फ़रमा तो जहन्नम आमीन कहता है ये हक़ीक़त है कि जो शख़्स दोज़ख़ के शर से ख़ुदा की पनाह चाहता है और उसके लिये दुआ करता भी करता है तो ख़ुद जहन्नम उसके लिये आमीन कहता है उसी तरह जिस तरह कोई शख़्स बहिश्त के लिये दुआ करे तो ख़ुद बहिश्त उसके लिये आमीन कहती है इसी सूरत में हूरूलऐन के बारे में भी है कि जिस वक़्त कोई मोमिन दुआ करता है "वज़वजनी मिनल हूरूलऐन" यानी ख़ुदाया मेरे साथ हूर की तरवीज फ़रमा तो ख़ुद हूरूलऐन भी आमीन कहती है।

 

जहन्नम कहता है अभी मेरे पास जगह है

जहन्नम की आग जब दूर से गुनाहगारों को देखती है तो पेचो ताब खाती है, ग़ैज़ में आती है और नारा मारती है (सूराऐ फ़ुरक़ान आयतः- 12) दोज़ख़ की आग क़ाबिले ख़िताब है क़ुराने मजीद में इरशाद है जिस रोज़ हम जहन्नम से कहेगें कि आया तू भर गई है? तो वो कहेगी क्या इससे ज़्यादा और भी है? (सूराऐ काफ़ आयतः- 30)

क्या अभी कोई मुजरिम बाक़ी है? बाज़ मुफ़स्सरीन ने इस मक़ाम पर जहन्नम के निगाहबानों को मुराद लिया है और ये समझे हैं कि ख़ुदा का ख़िताब उन फ़रिश्तों से होगा जो जहन्नम पर मामूर है लेकिन ये ज़ाहिरे आयत के ख़िलाफ़ है क्योंकि दूसरी दूसरी आयतों में भी दोज़ख़ के शऊर और इदराक का अन्दाज़ा होता है जैसा कि इससे क़ब्ल बयान हो चुका है अगर कोई जाहिल ये ख़्याल करता है कि आतिशे जहन्नम सिर्फ़ कुफ़्फ़ार और दुश्मनाने अहलेबैत के लिये है दूसरों को इससे कोई वास्ता नहीं और ये मोमिनीन के लिये नहीं है तो उसे जान लेना चाहिये कि अव्वलन यही कब ज़रूरी है कि हर शख़्स बाईमान दुनिया से उठे? क्या तुम्हें इसका ख़ौफ़ नहीं है कि शैतान तुम्हारे ईमान को ग़ारत कर दे? दूसरे अगर फ़र्ज़ कर लिया जाऐ कि तुम्हें ईमान ही के ऊपर मौत आई तो क्या तुम ये नहीं जानते कि जहन्नम के सात तबक़े हैं? ये तो मुसल्लेमात में से है और नस्से क़ुरानी से साबित है (सूराऐ हज्र आयतः- 44)

पहला तबक़ा जिसका अज़ाब दूसरे तबक़ात से कम है उन गुनाहगारों के लिये है जो बरज़ख़ में गुनाहों से पाक नहीं हुए और अज़ाब क़यामत पर उठा रक्खा गया।

 

दोज़ख़ में अज़ाब के दर्जे मुख़्तलिफ़ हैं

हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत के बाज़ लोग पिन्डलियों तक बाज़ रानों तक बाज़ कमर तक एक गिरोह अपनी गरदनों तक और कुछ लोग अपने सारे जिस्म के साथ आग में ग़र्क़ होगें (बिहारूल अनवार जिल्दे सोम)

इसी तरह फ़रमाया कि जहन्नमी अफ़राद में से जिस शख़्स का अज़ाब कम से कम होगा उसके पाँव में आग के ऐसे जूते पहनाऐ जाऐंगे कि उनके असर से उनका दिमाग़ ख़ौलने लगेगा हम बहुत दूर हैं मंज़िले निजात से हमारे ईमान के आसार कहाँ हैं? हमारा ख़ौफ़ ओ रिज़ा कहाँ हैं?

 

तीन हज़ार साल तक फूँकने के बाद आतिशे दोज़ख़ का रंग

बावजूद ये कि ख़ुदावन्दे आलम ने हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  से मग़फ़िरत का सरीही वादा फ़रमाया है (सूराऐ फ़तह आयतः- 2) और ख़ुद आँहज़रत भी रहमतो मग़फ़िरत का मज़हर हैं लेकिन इसके बाद भी आपकी क्या हालत थी और आपके दिल में जहन्नम का कितना ख़ौफ़ था, अबूबसीर कहते हैं कि मैं इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ किया, आक़ा! मेरे दिल में कसावत पैदा हो गई है आपने फ़रमाया कि एक रोज़ जिबरईले अमीन हज़रते ख़त्मुल अन्बिया के पास नाज़िल हुए, वो हमेशा बश्शाश और मुत्ताबस्सिम रहते थे लेकिन उस रोज़ अफ़सुरदा और महजून ओ दिलगिरफ़्ता थे और ग़मों अन्दोह के आसार उनके चहरे से ज़ाहिर थे हज़रते रसूले ख़ुदा ने उनसे फ़रमाया ये आज तुम रंजीदा और ग़मग़ीन क्यों नज़र आ रहे हो? उन्होंने अर्ज़ किया या रसूल्लाह! जहन्नम को फूंकने और धौंकने का सिलसिला आज तमाम हुआ, आँहज़रत ने फ़रमाया ये फूंकने का क्या मामला है? तो जिबरीले अमीन ने अर्ज़ किया कि परवरदिगार के हुक्म से जहन्नम को एक हज़ार साल तक फूंगा गया यहाँ तक कि उसका रंग सफ़ेद हो गया फिर एक हज़ार साल तक फूंका गया और वो सुर्ख़ हो गया उसके बाद मज़ीद एक हज़ार साल तक फूँका गया और उसकी आग स्याह हो गई जो फ़रिश्ते इस काम पर मामूर थे वो अब फ़ारिग़ हुए हैं मै इसी आग के हौल से ग़मगीन हूँ पैग़म्बरे ख़ुदा रोने लगे तो एक फ़रिश्ता नाज़िल हुआ और अर्ज़ किया कि ख़ुदा ने वादा फ़रमाया है कि आपको हर उस गुनाह से महफ़ूज़ रखेगा जो आतिशे जहन्नम का मूजिब हो।

 

ज़क़्क़ूम हन्ज़ल से भी ज़्यादा तल्ख़

क़रआने करीम में ख़ुदा वन्दे आलम ने बार बार ख़बर दी है की दोज़ख़ में गुनाहगारों की ख़ूराक ज़क़ूम होगी (सूराऐ हाम दुख़्ख़ान आयतः- 43) ये एक ऐसा दरख़्त है जिसका फल हन्ज़ल से भी ज़्यादा कडुवा होता है इतना तल्ख़ कि उसका सिर्फ़ एक ज़र्रा इस सारे आलम पर तक़सीम किया गया, मुरदार की लाश से भी ज़्यादा गन्दा और बदबूदार होता है उसकी ज़ाहिरी शक्ल भी बहुत ही वहशत अंगेज़ और मुहीब है जिस वक़्त गले से नीचे उतरता है तो जोश मारता है लेकिन भूख की तकलीफ़ इस क़द्र शदीद होती है कि जहन्नमी उसे खाने पर मजबूर हो जाते हैं ये बड़ा फ़िशार और तकलीफ़ है कि जिसे रफ़ा करने के लिये ज़कूम खाना पड़ेगा दोज़ख़ की दूसरी ग़िज़ाओं में ग़स्लीन और जरीअ भी हैं

(मज़ीद तशरीह के लिये किताब "मआद" हिस्साऐ पंजुम मुलाहिज़ा हो)।

 

खौलता हुआ पानी जो चेहरे के गोश्त को गला देता है

दोज़ख़ की पीने वाली चीज़ों की जानिब भी इशारा कर दूँ मिन्जुमला उनके सदीद है जिसके मुताल्लिक़ बताया गया है कि वो ज़िनाकार औरतों की गन्दगी है जो बहुत ही गर्म, खौलती हुई इन्तेहाई बदबूदार और मुताफ़िन है ये एक सैलाब की तरह बह रही होगी और दोज़ख़ियों पर इस क़दर प्यास ग़ालिब होगी कि उसी से पियेंगें और फ़रियाद करेगें कि हमको पिलाओ (सूराऐ कहफ़ आयतः- 29)

इसी तरह पीने वाली चीज़ों में हमीम है जो इस क़दर गर्म है कि जब उसका जाम पिलाने के लिये लाऐगें तो वो अभी मुँह में दाख़िल न होगा कि उसकी गर्मी की शिद्दत से चेहरे का तमाम गोश्त गिर जाऐगा।

 

मोमिनीन यक़ीन करते हैं

कुफ़्फ़ार जब सुनते हैं तो कहते हैं कि ये सब रूस्तम और अस्फ़न्दयार की दास्तानों की मानिन्द अफ़साने हैं (सूराऐ इन्आम आयतः- 25) लेकिन ऐसा नहीं है कुरआन हक़ है, क़यामत और बहिश्त ओ दोज़ख़ हक़ है (सूराऐ अल्हाक़ा आयतः- 1) मोमिनीन जिस वक़्त सुनते हैं तो यक़ीन करते हैं जिस वक़्त उनके सामने क़ुरआने मजीद की आयतें पढ़ी जाती हैं तो उनके ईमान में इज़ाफ़ा हो जाता है (सूराऐ इन्फ़ाल आयतः- 2)

 

दोज़ख़यों का लिबास आग का होगा

"सराबीलाहुम मिन क़तरान" क़ुरआने मजीद में मुतादिद मक़ामात पर ख़बर दी गई है कि दोज़ख़ी आग का लिबास पहनेगें (सूरऐ हज आयतः19) और जिस तरह जेलख़ानो मे क़ैदियों को एक मख़सूस लिबास पहनाया जाएगा जो आग का बना होगा दोज़ख़ के ख़ूसूसियात और उसके अज़ाब की कैफ़ियत भी सुनने की ज़रूरत है सत्तर हाथ की ज़ंजीर जहन्नमी के गले में डाली जाऐगी और उसके बाद उसे आग में घसीटा जाऐगा। (सूराऐ अल्हाक़्क़ा आयतः-33)

 

ख़ौफ़े आतिश से हज़रत अली (अ.स) का रोना

ये हज़रत अली (अ.स) थे जो शब के दरमियान ग़श कर जाते थे और ऐसे अज़ाबों से ख़ुदा की अमान चाहते थे आप अपनी मुनाजातों में अर्ज़ करते हैं "इलाही असअलोकल अमान यौमल यनफ़ा माल वल बुनून अलअमन अतिअल्लाह बेक़ल्बे सलीम" यानी ख़ुदाया मैं रोज़े क़यामत के लिये तुझसे अमनो अमान तलब करता हूँ जिस रोज़ माल ओ औलाद कोई फ़ायदा न पहुँचाऐंगे सिवा उस शख़्स के जो सालिम दिल के साथ आऐं।

 

अज़ाबे जहन्नम के चन्द नमूने

जहन्नमी ज़ंजीरों का एक हल्क़ा भी अगर इस दुनिया में लाया जाए तो सारे आलम को जला दे अज़ाब के शोबों में से जहन्नम के निगाहबान हैं जो बहुत तुन्दखू, कजख़ुल्क़, मुहीब और वहशतनाक है जिस वक़्त दोज़ख़ी आतिशे जहन्नम से बाहर आने की कोशीश करेंगे तो फिर उसी में पलटा दिये जायेंगे (सूराऐ हज आयतः- 22)। मरवी है कि दोज़ख़ी सत्तर साल तक उसमें धसंते चले जाऐंगे उसके बाद ऊपर आने के लिये हाथ पाँव मारेंगे और जब ऊपर पहुँचने के क़रीब होंगे तो दोज़ख़ के मामूरीन और पहरेदार अपने आहनी गुर्ज़ (जिनको मक़्मआ कहते हैं और उसकी जमा मक़ामा है सूराऐ हज आयतः- 21) उनके सरों पर मार के फ़िर उसी में वापस कर देंगे।

 

दोज़ख़ियों के सरों पर जहन्नम के गुर्ज़

ये कोई ज़ईफ़ रवायत नहीं है बल्कि कुरआने मजीद की सरीही ख़बर है कि जो सर अपनी ज़िन्दगी में ख़ुदा के सामने न झुके और सरकशी करे दरहक़ीक़त वही जहन्नमी गुर्ज़ों का सजावार है जो उसके ऊपर मारे जायेंगे। हज़रतें रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) से मरवी है कि जिबरीले अमीन ने आँहज़रत को ख़बर दी कि अगर उनका एक गुर्ज़ इस आलम के पहाड़ों पर मारा जाऐ तो ज़मीन के सातवें तबक़ तक रेज़ा रेज़ा कर दें।

 

अहले सलम जहन्नम में नहीं जाऐंगे

दरअस्ल एक सरकश आदमी ही ऐसी उक़ूबतों का सज़ावार है जहन्नम सरकशों का मक़ाम है वरना अगर कोई शख़्स साहबे सलम है और उसने ख़ुदा के सामने सरे तसलीम ख़म कर दिया है तो उसको जहन्नम से क्या वास्ता? अलबत्ता जो लोग सरकश और नाफ़रमान हैं और कुरआनी ताबीर के मुताबिक़ "उतुल" यानी बदखू और ज़ालिम वग़ैरा है। (सूराऐ क़लम आयतः- 13)

तो क्या क़यामत में उनके बदन भी उनके नफ़्सों के मानिन्द सख़्त, ज़ख़ीम और दुरूशत हो जाऐंगे जहन्नमियों के जिस्म उनके दिलों की तरह सख़्त होगें क्योंकि दुनिया में उनके दिल पत्थरों से ज़्यादा सख़्त थे (सूराऐ बक़र आयतः- 74)

चूँकि क़यामत में उनके बदन भी उनके दिलों की मानिन्द हो जायेंगे लिहाज़ा कोई शख़्स ये ईरादा ओ ऐतेराज़ न करे कि उनके कमज़ोर जिस्म के लिये इतने सख़्त अज़ाब क्योंकर मुमकिन है?

 

उनके दिलों की तरह उनके सख़्त जिस्म

किताब किफ़ायतुन मुवहेदीन में मज़कूर है कि अहले अज़ाब की सत्तर जिल्दें होगीं और हर जिल्द की सख़ामत चालीस हाथ होगी जो सरकश नफ़्स दुनिया में क़ुरानी आयत का असर क़ुबूल नहीं करता था क़यामत में उसका जिस्म भी इसी तरह सख़्त हो जाऐगी और रवायत में एक दूसरी ताबीर भी बयान की गई है कि उसके दाँत कोहे ओहद के बराबर हो जाऐंगे वही सख़्त और नफ़्स और दिल उसके बदन में ज़ाहिर होगा जो क़ुरान से मुतास्सिर नहीं होता था दरहाँलाकि पानी पत्थर को मुतास्सिर और शिग़ाफ़्ता कर देता है (सूराऐ बक़र आयतः- 74) वो कहता है कि मौत है क़यामत है लेकिन उसकी कोई परवाह नहीं करता उसकी सलाबत और सगंदिली इस हद तक पहुँच जाती है कि इमाम हुसैन (अ.स) ये फ़रमाते हैं कि तुम इस शीरख़ार बच्चे को लेकर ख़ुद ही पानी पिला दो लेकिन वो यज़ीद के इनामो इकराम को तरजीह देता है।

 

आख़िरत में बातिन का ग़लबा ज़ाहिरी सूरत पर

आख़िरत में सूरत के ऊपर अन्दरूनी कैफ़ियत का ग़लबा होता है यानी ज़ाहिरी हैसियत बातिनी हक़ीक़त के मुताबिक़ होती है और जो कुछ दिल में है बदन भी उसी का नमूना बन जाता है जिस से क़ल्बी हालत ज़ाहिर हो जाती है (सूराऐ तारिक़ आयतः- 9)। जो दिल इतने रफ़ीक़ और नाज़ुक है कि इन अज़ाबों का बयान सुनने का ताक़त नहीं रखते उनके जिस्म भी फूल की तरह लतीफ़ हो जाते हैं चुनाँचे बहिशती लोग भी ऐसे ही हैं, वो ये बात सुनने की ताब नहीं रखते कि इमाम हुसैन (अ.स) के शीरख़ार बच्चे का नाज़ुक गला सैहशोबा तीर का निशाना बनाया गया।

 

जन्नत और जहन्नम अगर मौजूद हैं तो कहाँ हैं ?

सवाल किया जाता है कि आया बहिशत और जहन्नम इस वक़्त भी मौजूद है ? और अगर हैं तो कहाँ हैं? ये सवाल रवायतों के अन्दर भी पाया जाता है और इमाम हुसैन (अ.स) ने इसका जवाब भी दिया है कि हाँ बहिशत और जहन्नम आज भी मौजूद हैं, रही ये बात की ये दोनो मक़ाम कहा है ? तो रवायत के मुताबिक़ आपने इस तरह ताबीर फ़रमाई है कि बहिशत सातवें आसमान के ऊपर और जहन्नम ज़मीन के नीचे है। बाज़ हज़रात ने ये भी फ़रमाया है कि "वल बहरूल मस्जूर" (यानी क़सम है ख़ौलते हुऐ समन्दर की)  इसी की तरफ़ इशारा कर रहा है यानी ज़मीन की अन्दरूनी आग बाहर आ जाएगी। बहिश्त और जहन्नम की मौजीदगी पर जो शवाहिद दलालत करते हैं उन्हीं से वो रवायत और अख़बार भी हैं जो मेराज के बारे में वारिद हैं। आपने अक्सर सुना होगा कि रसूलेख़ुदा ने फ़रमाया "मैं शबे मेराज जन्नत में पहुँचा और जिबरईल ने मुझे बहिशती सेब दिया जिसे मैंने खा लिया और वही हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.व.व)  का माददाऐ तख़लीक़ बना।

 

जहन्नम में ख़ुनूद सिर्फ़ कुफ़्फ़ार के लिये है

साहेबाने ईमान को ये ख़ुशख़बरी भी देता चलूं कि जो शख़्स एक ज़र्रा बराबर भी ईमान अपने हमराह ले जाऐगा वो हमेशा जहन्नम में नहीं रहेगा बल्कि आख़िरकार एक रोज़ उससे बाहर आऐगा ख़ुलूद यानी हमेशा दोज़ख़ में रहना मआन्दीन और कुफ़्फार ओ मुशरिक़ीन के लिये है (दुआऐ कुमैल)। अगर कोई मोमिन अपने गुनाहों से तौबा किये बग़ैर मर गया और बरज़ख़ या क़यामत की उक़ूबतों से पाक नहीं हुआ तो उस वक़्त तक जहन्नम में रहेगा जब तक पाक न हो जाए लेकिन कितनी मुद्दत तक रहेगा ? तो ये उसके उन गुनाहों की मिक़दार पर मुन्हसिर है जिन्हें वो अपने साथ ले गया है ख़ुलासा ये कि तुमने इस दुनिया में अपने को जैसा बनाया  होगा वैसा ही वहाँ देखोगे अगर अपने को भेड़िया बनाया है, जानवर बनाया है, लोमड़ी बनाया है तो आख़िरत में भी यही सूरत होगी अगर यहाँ फ़रिशता ख़सलत रहे हो तो वहाँ भी फ़रिशता बन के उठोगे और जब तक फ़रिशता सिफ़्त न बनोगे तुम्हारे लिये मलकूत अलैहा और जन्नत में जगह नहीं है। इन्सान जब तक फ़रिशते की सीरत इख़्तेयार नहीं करेगा गिरोह दर गिरोह मलाएका उसकी ज़ियारत को नहीं आऐगें (सूराऐ राद आयतः- 23)

क़ब्र की पहली शब और उसके बाद दीगर आलमों में उसका हश्र उसी सूरत पर होगा जिसके साँचे में अपने को ढाला है।

 

नकीर और मुनकर ही बशीर और मुब्बश्शिर हैं

आपने अक्सर सुना होगा कि क़ब्र में पहली शब दो फ़रिश्ते मय्यत से बाज़ पुर्सी के लिये आते हैं जिनके नाम नकीर और मुनकर हैं यानी ज़रर पहुँचाने वाले और बेचैन करने वाले नकीर और मुनकर किस के लिये हैं ? उस शख़्स के लिये जो आदमी न बना मर गया लेकिन जिसने आदमीयत इख़्तियार की उसके लिये नकीर और मुनकर नहीं हैं बल्कि बशीर और मुब्बश्शिर हैं यानी ख़ुशखबरी देने वाले। माहे रजब की दुआ है "वरऐनी मुब्बश्शिरा वा बशीरा वला तरीनी मुनकिरा व नकीरा" यानी ख़ुदावन्दा! क़ब्र की पहली शब मुझे मुनकिर और नकीर को न दिखाना बल्कि मुब्बश्शिर और बशीर को दिखाना, दर अस्ल दो फ़रिश्तों से ज़्यादा नहीं हैं उस मोमिन इन्सान के लिये जिसने यहाँ अपनी इस्लाह करली है बशीर और मुब्बश्शिर हैं और उसके ग़ैर के लिये जिसने वहाँ के लिये साज़ो सामान मुहय्या नहीं किया नकीर और मुनकिर। अब ये ख़ुद तुम्हारे हाथ में है कि तुम कैसे बनते हो ? "ला दारूल मुरअः बादुल मौत यस्कुनहाः इल्ललती काना क़ब्ललमौत बाईनहाफ़ाइबनाहा ब ख़ैरा ताबा मिसकन्नहाः वइन बनाहा बश्शरा ख़ाबा हावीहा" इस बारे में चन्द जाज़िब नज़र अशआर मिलते हैं जो अमीरूलमोमिनीन हज़रत अली (अ.स) से मन्सूब हैं हर शख़्स की मौत के बाद उसका साज़ो सामान वही है जो उसने यहाँ तैय्यार किया है अब उसने अपने लिये जैसा घर तामिर किया हो, सिर्फ़ दो बालिश्त का, लाम्बा चौड़ा या हद्दे नज़र तक तवील ओ अरीज़, अगर उसने अपने वुजूद में वुस्अत पैदा की होगी तो उसके लिये कोई ज़िक और तन्गी नहीं है मौत के बाद इन्सान की फ़राग़त और फ़राख़ी इस आलम में उसकी वुस्अते क़ल्ब और सीने की कुशादगी की ताबे है।

 

लोग सीरतों के मुताबिक़ सूरतों पर महशूर होगें

तफ़्सीरे क़ुम्मी में आयते मुबारिका कि "यौमा यनफ़िक़ फ़िस्सूर फ़तातूना अफ़वाज़न" (यानी जिस रोज़ सूर फूँका जाऐगा बस तुम लोग गिरोह दर गिरोह आओगे) के ज़िम्न में रवायत है कि हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  से पूछा गया कि ये आयत काफ़िरों के बारे में है या मुसलमानों के? तो हज़रत ने फ़रमाया कि मुसलमानों के बारे में जिनकी दस सिफ़्तें मैदाने महशर में वारिद होगीं, कुछ बन्दरों की सूरत में, कुछ सूअरों की सूरत में एक गिरोह औंधे मुँह एक गिरोह अन्धा एक गिरोह अपनी ज़बानों को चाबता होगा और उनसे पीप जारी होगा वग़ैरह

(अरबी मत्न और तरजुमा और रवायत की फ़ारसी तशरीह शहीदे दस्तग़ैब की किताब "मआद" में मुलाहिज़ा हो)

और एक गिरोह ऐसा भी महशूर होगा कि उनके चेहरे चौदहवीं रात के चाँद की मान्निद चमक रहे होंगे ये फ़रिशतों की तरह अहले महशर से बलन्द मक़ाम पर चल रहे होंगे।

ख़ुलासा ये है कि हर शख़्स अपनी अन्दुरूनी हालत के मुताबिक़ महशूर होगा यानी उसका बातिन जिस नौवियत का होगा उसका ज़ाहिर भी उसी का नमूना होगा अगर उसने अपने अन्दर फ़रिशतों की ख़सलतें पैदा की हैं तो रोज़े क़यामत मलाएका से बेहतर हुस्न ओ जमाल का मालिक होगा अगर दरिन्दा सिफ़्त रहा है और ख़श्म ओ शहवतरानी की आदत इख़्तियार की है तो इसी महशूर रवायत के मुताबिक़ इरशाद है कि कि लोग ऐसी सूरतों में महशर में वारिद होगें कि बन्दर और सूअर भी उनसे ख़ूबसूरत है (यहश्शरूलनास अला सूरता हुस्ना इन्दोहा क़िरदा वल ख़नाज़ीर) वो अपनी शक्लों से इस क़द्र वहशतज़दा होगें कि आरज़ू करेगें कि जल्द से जल्द उन्हें क़ारे जहन्नम में डाल दिया जाए ताकि लोग ये मन्ज़र न देखें वो किस क़दर मुजतरिब होगें कि दोज़ख़ उनके लिये आसाइश की जगह होगी ? हाँ जो शख़्स दरिन्दा ख़सलत रहा है वो ऐसा है गोया कुत्ता है जो अपने दाँतों से काट रहा है वो अपनी ज़बान और क़लम से चीरता फ़ाड़ता है, नीशज़नी करता है उसे अपनी तक़रीर ओ तहरीर के ज़रिये किसी की आबरू रेज़ी और दिलअज़ारी करने में बाक नही होता ख़ुलासा ये कि क़यामत में हर शख़्स की शक्ल उसके बातिनी कैफ़ियात और मलक़ात के मानिन्द होगी ताकि उसका बातिन जो कुछ भी हो अगर इन्सान हो तो बेहतरीन शक्ल में अगर हैवान हो तो बदतरीन सूरात में महशूर हो।

 

आख़िरत का अज़ाब दुनियावी अज़ाब से अलग है

मआद के बारे में मालूमात हासिल करने का एक फ़ायदा ये है कि इन्सान ये समझ ले कि आलमे आख़िरत का अज़ाब ओ उक़ाब दुनिया की उक़ूबतों के मान्निद नहीं है मसअलन किसी शख़्स को गिरफ़्तार करके लाते हैं उसे क़ैदख़ाने में डाल देते हैं और तागूत और सरकश और ज़ालिम हुक्काम के ज़माने की मान्निद उसके नाख़ून उखाड़ देते हैं तो ये एक दूसरी सूरते हाल है और इसका आलम दुनियावी उक़ूबतों के साथ मक़ालीसा और मुवाज़िना नहीं किया जा सकता है आमाल के मुजस्सम होने को भी हम उनवान नहीं बनाना चाहते इसी तरह वो आग है जो ख़ुद इन्सान की ज़ात से शोलावर होती है

(सूराऐ बक़र आयतः- 24)

ख़ुलासा ये कि हम जिस क़दर भी चाहें कि जहन्नम और उसके अज़ाबों का अपने ज़ेहन में तस्सवुर करें कामयाब न होंगे इजमाली तौर पर सिर्फ़ इस क़दर जान लेना चाहिये कि वो यहाँ की तरह नहीं है और उनकी कैफ़ियत और ख़ुसूसियात का इल्म भी ज़रूरियाते मज़हब में से नही है कि उनका ज़ानना और उनका अक़ीदा रखना लाज़िमी हो।

 

ख़्वाब बरजख़ी सवाब और अज़ाब का नमूना है

आयत "मनामकुम बिललैल वन नहार" के सिलसिले में उसले काफ़ी के अन्दर एक और अहम नुक्ता ये है कि एहलाम, रोया, और ख़्वाब इन्सानों के अन्दर इब्तेदाऐ ख़िल्क़त से नहीं थे यहाँ तक कि एक पैग़म्बर जब अपनी उम्मत पर मबऊस हुऐ तो उन्होंने हर चन्द बरज़ख़, क़ब्र के सवाल ओ जवाब और अज़ाब ओ उक़ाब के बारे में उन्हें बताया लेकिन लोगों ने क़ुबूल नहीं किया वो कहते थे मुर्दे से सवाल ओ जवाब कैसा? वो तो ख़ाक होकर फ़ना हो जाता है इस पर ख़ुदाऐ ताला ने सारी उम्मत को ख़्वाब देखने की सलाहियत अता की हर शख़्स ने एक मुख़्तलिफ़ और जदीद क़िस्म का मख़्सूस ख़्वाब देखा जब एक दूसरे से मिलता था तो कहता था कि मैंने कल शब ख़्वाब में कुछ चीज़ें देखीं लेकिन बेदार हुआ तो कुछ भी न था दूसरा कहता है कि मैंने इस से बालातर और अहम मनाज़िर देखे जब बेदार हुआ तो कोई चीज़ न थी जब उन्होंने अपने पैग़म्बर से इसका तज़किरा किया तो उन्होंने फ़रमाया कि ख़ुदाऐ अज़्ज़ व जल तुम को समझाना चाहता है कि आदमी मौत के बाद ख़्वाब की हालत में रह सकता है लेकिन उसका ये जिस्म ख़ाक के नीचे एक तूलानी नींद में होगा या ख़ुदा ना ख़्वास्ता नाले और फ़रियाद कर रहा होगा। (बिहारूल अनवार जिल्दः- 3)

मआनी उल अख़बार में वारिद है कि हज़रते रसूलेख़ुदा (स.अ.व.व)  ने फ़रमाया कि मैं बेअसत से क़ब्ल अपने चचा अबूतालिब (अ.स) की भेड़ें चराया करता था मैं कभी कभी देखता था कि भेड़ें बग़ैर किसी हादसे के उछल के सकते में आ जाती थीं और थोड़ी देर के लिये चरना छोड़ देती थीं चुनाँचे मैंने जिबरीले अमीन से इसका सबब पूछा तो उन्होंने कहा कि जिस वक़्त आलमे बरज़ख़ में किसी मय्यत के नाले ओ फ़रियाद की आवाज़ बलन्द होती है तो उसे जिन्नात ओ इन्सान के अलावा सभी सुनते हैं ये जानवर मुर्दों के नालों की आवाज़ से मुतावहिश होते हैं ख़ुदाऐ ताला ने अपनी हिकमते बालिग़ा से मुर्दों की इस आवाज़ को ज़िन्दों से पोशीदा रखा है ताकि उनका ऐश खराब न हो।

 

 

मुर्दे ज़िन्दों से इल्तेमास करते हैं

अगर आदमी अपने घरवालों और रिश्तेदारों के नाला ओ फ़रियाद और आह ओ ज़ारी की आवाज़े सुन ले तो ज़िन्दा नहीं रह सकता, ये भी ख़ुदा की एक हिकमत है कि कोई शख़्स मरने वालों की हालत से आगाही न रखता हो, उस वक़्त सिर्फ़ ख़ुदा ही जानता है कि मरने वाले किस क़दर नाले किस क़दर आह ओ ज़ारी और हमसे तुमसे किस क़दर इल्तिजाऐं करते हैं और ख़ास तौर पर शबे क़दर में इल्तिमासे दुआ करते हैं ये इल्तिमासे दुआ उस तरह का नहीं होता जैसा हम लोग आपस में एक दूसरे से करते हैं हमारा इल्तिमास एक तरह का रस्मी फ़रमाइश और ख़्वाहिश होती है लेकिन मय्यत का इल्तेमास गदाइ, ख़ुशामद और तज़्ज़रओ ओ ज़ारी है रवायत में है कि हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  ने गिरया किया और फ़रमाया कि अपने मुर्दों पर रहम करो बिलख़ुसूस माहे रमज़ान में वो तुम से कहते हैं कि हमने भी रमज़ान के महीने गुज़ारे और शबे क़दरों से गुज़रे लेकिन उनकी क़दर न जानी और ये हमारे हाथों से निकल गई तुम भी हमारे पास आने वाले हो लेकिन अभी तक माहे रमज़ाने तुम्हारी दस्तरस में है हमारे लिये भी कुछ फ़िक्र करो। (सफ़ीनतुल बिहार जिल्दः- 2 सफ़्हाः-556)

वो इस तरह से इल्तेमास और इल्तेजा करते हैं कि उसने हज़रत रसूले ख़ुदा को भी रूला दिया है कभी कभी ऐसा होता है कि आदमी कुछ वहशतनांक ख़्वाब देखता है नाले और आह ओ फ़ुग़ाँ करता है लेकिन जो शख़्स उसके पहलू में होता है वो भी नहीं सुनता या ख़ुशी से इस क़द्र हँसता है कि अगर आलमे बेदारी में हो तो उसके क़हक़हे की आवाज़ काफ़ी दूर तक जाती लेकिन जो शख़्स उसके पहलू में है वो भी महसूस नहीं करता। जब तुम अपने बाप की क़ब्र पर जाते हो तो कुछ भी नहीं सुनते लेकिन ख़ुदा जानता है कि वो बेचारा इस वक़्त किन मुसीबतों और फ़रियादो ज़ारी में है या इन्शाल्लाह किन मर्सरतों और बहजतों और सरूर से लुत्फ़अन्दोज़ है इहलाम यानी ख़्वाब देखने में एक हिकमत ये भी है कि इन्सान मौत के बाद दोबारा ज़िन्दा होने पर ग़ौर करे इसलिये कि मौत के बाद पेश आने वाले हालात का एक नमूना भी ख़्वाबों में देखता है।

 

 

मैं कनीज़ों को आज़ाद करता हूँ ताकि जहन्नम में न जाऊँ

लिखा है कि मदीनऐ मुनव्वरा की एक साहबे हैसियत औरत मस्जिदे नबवी में पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.व.व)  के पीछे नमाज़ पढ़ने के लिये हाज़िर हुई आँहज़रत ने नमाज़ में ये आयत पढ़ी जिसका मफ़हूम ये है कि "दरहक़ीक़त जहन्नम उनकी वादागाह है जो शख़्स (कुफ़्र के साथ मरे) उसकी जगह जहन्नम है उसके सात दरवाज़े या सात तबक़े हैं और हर गिरोह के लिये जहन्नम के दरों में से एक एक दर है (सूराऐ हूजर आयतः- 43-45) वो औरत बाईमान थी पैग़म्बर की ख़िदमत में हाज़िर हुई और शिद्दत से गिरया करने के बाद अर्ज़ किया या रसूलल्लाह! इस आयत ने मुझे बहुत डराया  है और मैं बहुत बेचैन हूँ मैं क्या करू कि ये जहन्नम के दरवाज़े मेरे लिये न खोले जाऐं ? आपने ख़ुद ही फ़रमाया कि सदक़ा आतिशे जहन्नम से बचाने वाली एक सिपर है (अस्सद्क़ातो जुन्नता मिन्ननार- सफ़ीनतुल बिहार जिल्द- 2) या रसूलल्लाह मैंने माले दुनिया से सात कनीज़ें ख़रीदी हैं उनके अलावा और कुछ नहीं रखती (यानी अपनी सारी दौलत उन कनीज़ों की ख़रीदारी में सर्फ़ कर दी है) मैं जहन्नम का हर दरवाज़ा अपने ऊपर बन्द करने के लिये एक एक कनीज़ को राहे ख़ुदा में आज़ाद करती हूँ या रसूलल्लाह आप मुझे इत्मीनान दिलाऐं कि जहन्नम की आग मुझ को न जलाऐगी।

आलमे बरज़ख़ में बहुत ख़ौफ़ और ख़तरे हैं

किताब "मन ला यहज़रूल फ़क़ी" में इमाम मूसा काज़िम (अ.स) के एक ख़ास सहाबी से ये क़ौल मन्क़ूल है कि मैंने अपने आक़ा से एक ऐसी हदीस सूनी है कि जब तक ज़िन्दा रहूँगा ये हदीस मुझको ख़ौफ़ ज़दा रक्खेगी इसने मेरा सुकून और आराम छीन लिया है अब दुनिया की कोई सख़्त से सख़्त मुसीबत भी पेश आ जाऐ तो मुझ पर असर नहीं कर सकती क्योंकि मैने एक ऐसी आग हासिल की है जिसकी मौजूदगी में कोई दूसरी आग दिल पर असर अन्दाज़ नहीं होती। एक रोज़ मैं हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.स) की ख़िदमत में हाज़िर था तो आपने (रिक़्क़ते क़ल्ब के सिलसिले में) फ़रमाया जब तुम किसी मय्यत को दफ़्न करना चाहो तो जनाज़े को एक ही बार में क़ब्र में न ले जाओ अगर मर्द है तो जनाज़े को क़ब्र की पाएतीं की जानिब रख दो और अगर औरत है तो क़िब्ले की सिम्त में उसे तीन बार उठाओ बारी बारी कुछ क़रीब ले जाकर रक्खो और तीसरी बार में क़ब्र में उतारो "फ़इन्ना क़ब्रा अहवाला" इस लिये कि क़ब्र के लिये बहुत से ख़ौफ़ हैं आलमे बरज़ख़ के मराहिल बड़े हौलनाक हैं लेकिन हमारे दिलों में किस क़दर क़सावत पैदा हो चुकी है।

रावी कहता है मैं उम्र के आख़री दम तक इस सोज़िश में मुब्तिला रहूँगा लेकिन बातों के बावजूद हम कोई असर क़ुबूल नहीं करते हैं जो शख़्स इन मतालिब को क़िस्सा कहानी समझता है वो हज्जाज की मानिन्द इन्तेहाई क़सासुल क़ल्ब आदमी है।

 

अगर मैं सिरात से गुज़र गया

एक मर्तबा एक मुनाफ़िक़ शख़्स ने जनाबे सलमान से जो अव्वलुल मुस्लिमीन थे और जिनका लक़ब सलमाने मोहम्मदी है उनकी हुकूमत और मदाएन की गर्वनरी के ज़माने में कहा सलमान! ये तुम्हारी सफ़ेद दाढ़ी बेहतर है या (माज़अल्लाह) कुत्ते की दुम ? ये सलमान थे कोई बच्चा नहीं थे फिर भी ये बात सुनने के बाद आप जोश व ग़ुस्से में नहीं आए बल्कि इन्तेहाई मुलायमियत के साथ फ़रमाया अगर मैं पुले सिरात से गुज़र जाऊँ तो मेरी दाढ़ी बेहतर है अगर गिर जाऊँ तो कुत्ते की दुम बेहतर है।

 चूँकि आख़िरत उनके नज़दीक़ बहुत बहुत अज़ीम चीज़ थी लिहाज़ा ये फ़िक़रे और मज़ाहमतें उनके लिये मक्खी की भनभनाहट से ज़्यादा वक़्अत नहीं रखती थी जो मोमिन के क़ल्ब और रूह पर कोई असर नहीं डालतीं, जो शख़्स ख़ुद बुज़ुर्ग और बुज़ुर्ग को पहचान ने वाला होता है उसके नज़दीक़ माददी ज़िन्दगी छोटी और हक़ीर हो जाती है जब तक तुम ख़ुद बुज़ुर्ग न बनोगे बुज़ुर्ग तक नहीं पहुँच सकते अगर बफ़र्ज़े मुहाल पहुँच भी जाओ तो तुम ख़ुद फ़रारा इख़्तियार करोगे उस बुज़ुर्ग मन्ज़िल से कोई फ़ायदा न उठा सकोगे और इदारेकात ओ मआरिफ़ के रूहानी फ़यूज़ ओ बरकात से बहरामंद न हो सकोगे इसका रास्ता भी सब्र ही है।

(किताबे ईमान सः- 271)

 

ख़ुदाई आग से जली हुई क़ब्रे यज़ीद (ल0)

चन्द सदियाँ क़ल्ब मोअर्रेख़ीन लिखते हैं कि हमारे ज़माने में एक ख़राबा और वीराना है जिसके मुतालिक़ मशहूर है कि यहाँ यज़ीद की क़ब्र है और इसका तजरूबा हुआ है कि जो शख़्स इस राह से गुज़रे और कोई हाजत रखता हो तो एक पत्थर या ढेला यहाँ फेंक दे उसकी हाजत पूरी हो जाऐगी इसी वजह से ये एक मुज़बला बन गया है। अब हमारे ज़माने में तो क़ब्र की वो जगह भी मौजूद नहीं है जिस वक़्त बनी अब्बास शाम में पहुँचे तो बनी उमय्या की तमाम क़ब्रों को खोद के उनके जनाज़ों को जला दिया था। यज़ीद की क़ब्र के अन्दर एक क़ददे आदम लम्बाई में खुदाई आग से जली हुई राख की सिर्फ़ एक लकीर मौजूद थी लिहाज़ा मुवस्सिक़ मुअर्रिख़ीने आम्मा की तहरीर के मुताबिक़ उसे पुर कर दिया गया और वो चन्द साल पहले तक एक ख़राबे की सूरत में रहा लेकिन अब तो ख़राबा भी नहीं हैं। (सूराऐ इन्आम आयतः- 25, किताब ईमानः- सः316)

 

तीन वक़्तों में ज़मीन के तीन नाले

यही ज़मीन जिस पर तुम रास्ता चलते हो बज़ाहिर शऊर और गोयाई की ताक़त नहीं रखती लेकिन इसका बातिन मोमिन और काफ़िर को पहचानता है क्या तुमने नहीं सुना है कि ज़मीन तीन औक़ात में तीन क़िस्म के लोगों से नाला करती है ? एक उस वक़्त जब किसी मज़लूम का ख़ून उस पर बहाया जाता है, दूसरे उस वक़्त जब उस पर ज़िना की रूतूबत गिराई जाती है और तीसरे उस वक़्त जब कोई शख़्स तुलूऐ सुब्ह से तुलूऐ आफ़ताब तक सोता रहे और दो रकअत नमाज़ पढ़ने के लिये न उठे।

(अलहरम -------------- बैनलतुलूऐन, लिआलीअल अख़बार सफ़्हाः- 585)

 रवायत में है कि जिस वक़्त मोमिन के जनाज़े को क़ब्र में उतार कर चले जाते हैं तो क़ब्र (यानी ख़ुद ज़मीन) बात करती है क़ब्र की मलूकूती क़ूवत मोमिन से कहती है कि ऐ मोमिन ! तू मेरे ऊपर रास्ता चलता था तो मैं फ़ख़्र करती थी क्योंकि तू मेरे ऊपर ख़ुदा की इबादत करता था और मुझे शाद करता था मैं कहती थी कि तू मेरे शिकम में आऐगा तो मैं इसकी तलाफ़ी करूँगी अब ये मेरी तलाफ़ी का मौक़ा है मलकूते क़ब्र हदे निगाह तक वुस्अत पैदा कर देता है । (मद्उलबसर)

और इसके  बरअक्स अगर वो तारिकुस्सलात था तो मुलकूते क़ब्र कहता है कि तू मेरे ऊपर रास्ता चलता था तो मैं तेरी वजह से फ़रियाद करती थी अब इसकी तलाफ़ी का मौक़ा है चुनाँचे वो इस क़द्र तंग हो जाती है जैसे किसी दिवार में मेंख़ ठोक दी जाऐ किस क़दर सख़्त है ये फ़िशार जिसमें ये ग़रीब मुब्तला है।

(बिहारूल अनवार जिल्दः- 3)

 

मलकूते क़ब्र के लिये नूर और फ़र्श

ये ख़्याल न करो कि अश्या में शऊर नहीं है या आलम के दरो दिवार में तो शऊर ओ इदराक और नुत्क़ हर जगह फैला हुआ है लेकिन मलकूत में नहीं है ताकि जो लोग वहाँ हैं वो सुन सकें जो लोग आलमे बरज़ख़ में जा चुके हैं वो वहाँ मौजूदात की गुफ़्तुगू और आवाज़ें सुनकर उनके नुत्क़ को समझते हैं वो ज़माना आने वाला है जब ज़मीन की आवाज़ को तुम ख़ुद भी सुनोगे जिस वक़्त तुम्हारी क़ब्र तुम से कहेगी "नम नौमतुल उरूस" अगर मोमिन मर्द है तो कहेगी दामादों की मानिन्द आराम से सो जाओ और अगर औरत है तो कहेगी दुल्हनों की तरह सो जाओ, बेसबब नहीं है कि माहे सयाम की रातों में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स) किस तरह ये कहते है "अबकी नुतलमतल क़ब्री" यानी मैं अपनी क़ब्र की तारीकी के लिये रोता हूँ "लम अफ़रशहू बिल अमल सिस्सालेह" जिसके लिये मैंने अमले सालेह का कोई फ़र्श नहीं भेजा है, न मैंने अपनी क़ब्र के लिये ईमान का नूर भेजा है न तक़्वा की रौशनी, मेरी क़ब्र के लिये तो मलकूते क़ब्र का ही फ़र्श होगा मैं कहना चाहता हूँ कि अपनी क़ब्र के ज़ाहिर को नहीं बल्कि उसकी अन्दरूनी और हक़ीक़ी मंज़िल को आरास्ता करो ख़्वाह उसका ज़ाहिर एक ख़राबा हो सड़ी हुई मिट्टी हो या किरमानी फ़र्श और ये सब बग़ैर अमले सालेह के अन्जाम नहीं पा सकता जो काम तुम ने ख़ुदा के लिये किया है गोया अपनी क़ब्र के हुजरे के मुज़य्यन किया है। (किताबे मआरिफ़े अज़ क़ुरान सफ़्हाः- 83 ता 85)

 

तीन गिरोहों की हसरत बहुत सख़्त होगी

तुमने ये रवायत सुनी होगी कि तीन गिरोह ऐसे हैं जिनकी हसरत क़यामत में सबसे ज़्यादा होगी। अव्वल हर वो आलिम और वाऐज जिसके इल्म और नसीहत पर दूसरों ने तो अमल किया लेकिन वो ख़ुद दुनिया से बेअमल उठा वो क़यामत के रोज़ जब ये देखेगा कि दूसरें लोग उसके वाज़ और इल्म की बरकत से जन्नती बन गये लेकिन ख़ुद उसको जन्नत में लिये जा रहे हैं तो किस क़दर ख़िजालत होगी ? वो आरज़ू करेगा की उसे जल्द से जल्द जहन्नम में डाल दिया जाऐ ताकि लोग उसे न देखें, दूसरे वो मालदार जिसने अपने माल से फ़ायदा नहीं उठाया और उसे छोड़ कर चला गया लेकिन उसके वारिसों ने उसे ख़ैरात और नेक आमाल में सर्फ़ किया ज़हमतें उसने उठाईं और फ़ायदा दूसरों ने हासिल किया और कल भी उसकी हसरत उसके साथ होगी, और तीसरा वो आक़ा है जो अपने बेअमली की वजह से अज़ाब में मुब्तला होगा लेकिन उसका ग़ुलाम सवाब के आलम में होगा। (लेआलिअल अख़बार स.2 हाः 29)

ये वो रूहानी अज़ाब है जो अज़ाबे जहन्नम से क़त्ऐ नज़र और उस से भी बदतर है ज़िन्दगी भर तो वो ये कहता रहा कि मैं आक़ा हूँ मैं मालिक हूँ और मक़दूम हूँ मेरे पास नौकर और कनीज़ें हैं लेकिन अब उन्हीं ख़िदमत गुज़ारों को देखता है कि दरअस्ल आक़ा और मक़दूम वही हैं और ख़ुद बद बख़्त और पस्त ओ ज़लील है।

 

रहमे मादर और आलमे दुनिया, दुनिया और बरज़ख़ की मान्निद

एक और सूरत इबरत हासिल करने की ये है कि जब हम रहमे मादर में थे उस वक़्त अगर हम से कहा जाता कि इस महदूद चहारदिवारी के बाहर एक ऐसी वसीय दुनिया मौजूद है जिसका क़यास इस तंग मकान के साथ नहीं किया जा सकता वहाँ तरह तरह की खाने और पीने की चीज़ें पैदा होती हैं जो इस ग़िज़ा से कोई निस्बत नहीं रखतीं जो यहाँ तुम्हें नाफ़ के ज़रिये हासिल होती हैं तो क्या हम उन मतालिब को सही तौर से समझ सकते हैं?

इसी तरह ये भी जान लो और समझ लो कि आलमे बरज़ख़ में तुम्हारी मंज़िल ऐसी ही होगी जैसे शिकमे मादर के मुक़ाबिले में ये आलमे दुनिया है जब तुम पैदा होते है और शिकमे मादर से बाहर आते हो तो एक ऐसे आलम में वारिद होते हो जिसे न तुम्हारी आँखों न देखा था और न कानों ने सुना था यहाँ तक कि तुम्हारे दिल में इसका तस्सवुर भी न गुज़रा था ये नूर दर नूर और लज़्ज़त दर लज़्ज़त है और हर तरफ़ आसारे जमाल मुशाहिदा किये जा सकते हैं।

(सराऐ दीगर सफ़्हाः- 342)

 

मुहब्बत या ग़ुस्से के साथ क़ब्ज़े रूह

जब ख़ुदा मौत देता है और क़ब्ज़े रूह का वक़्त आता है तो लोगों की रूहे दो तरीक़ों से निकाली जाती हैं बाज़ की मेहर ओ मुहब्बत और रहमत के साथ, और बाज़ की क़हर ओ ग़ज़ब और शिद्दत के साथ अलबत्ता दोनों के लिये कुछ मरातिब और दरजात हैं यहाँ तक कि इरशादे बारी तआला है कि "इज़राईल (मलकुल मौत) के मुआविन फ़रिशते कुफ़्फ़ार की जानें निकालने के लिये आतिशीं हरबों के साथ आते हैं

(सूराः- 47 आयतः- 27)

और उनकी रूहें उन्हीं आग के हरबों से क़ब्ज़ करते हैं।

मेहरबानी और रहमत के साथ जान निकालने के भी कई दर्जें हैं इस हद तक कि फ़रिशते बहिशती फूलों का गुलदस्ता अपने साथ लाते हैं।

(सूराऐ नहल आयतः-28)

ये जन्नत की ख़ुशबुऐं और इनआमात ओ इकरामात जिस मरने वाले के लिये मुहय्या किये जाते हैं वो किस क़दर मसरूर होता है। मलकुल मौत बहुत ही ख़ुबसूरत शक्ल में आते हैं और हर शख़्स के लिये नई सूरत में हाज़िर होते हैं उनकी शक्लो सूरत ख़ुद उस मरने वाले के जमाल के मुताबिक़ होती है ताकि जिस क़दर उसका जमाल हो उसी क़दर उनका हसीन जलवा सामने आए। इस से बालातर ये बात भी कह दें कि हज़रत अली (अ.स) का अन्दाज़ भी यही है कि तुमने अपने अन्दर जिस क़दर जमाल पैदा किया होगा अच्छी सिफ़्तें इख़्तियार की होंगी आलमे वुजूद में मर्दानावार ज़िन्दगी बसर की होगी दूसरों के साथ नेक सुलूक किया होगा अपनी उम्र में जिस क़दर साबिर बाविक़ार हलीम ओ बुर्दबार और शाकिर रहे होंगे और अक़्ल ओ दानाई का हुस्न हासिल किया होगा उसी के मुताबिक़ अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) को देख़ोगे चुनाँचे अगर ख़ुदा न ख़्वास्ता अपनी शक़ावत, बदमिज़ाजी, क़सावते क़ल्ब और बदहाली की मुनासिबत से मलकुल मौत की सख़्ती और दुरशती का सामना करना पड़ा तो ख़ुदा ना कर्दा हज़रत अली (अ.स) के क़हर ओ ग़ज़ब की सूरत भी देखना होगी। तुम्हारी क़ब्र की सूरते हाल भी यही है नकीर और मुनकर के बारे में ये ख़्याल न करो कि दोनों फ़रिशतें एक ही हालत में आते हैं ऐसा नहीं है ये शख़्स की बाली पर आते हैं ख़ुद उसी मय्यत के हालात ओ किरदार के मुताबिक़ आते हैं ये दोनों मलक हैं लेकिन ख़ुद तुम्हारी वज़ा के नमूने हैं।

तुम दुआ में पढ़ते हो कि ख़ुदा वन्दा! मैं बशीर और मुब्बश्शिर को देखूँ लेकिन देखना ये होगा की तुम्हें क्या बन के रहना है ? आया सारी उम्र आदमी बन के गुज़ारी या दरिन्दा बनके? ये दोंनो फ़रिश्ते बाज़ अशख़ास की की क़ब्रों में इन्तेहाई सख़्त ओ दुरश्त और मुहीबतरीन शक्लों में आते हैं उनके बाल ज़मीन पर ख़ींचते होगे, उनके देहनों से अज़दहे की मानिन्द आग के शोले होगें, उनकी आँखें ख़ून से लबरेज़ काँसों के मानिन्द और  आग उगलती हुई यानी ख़ुद मय्यत के बातिन के मुताबिक़ किस क़दर शरीर, बेहूदा, मूज़ी, मुर्गसिफ़्त और चीते की सी ख़सलत का हामिल था ये शख़्स ? बहरहाल जो कुछ भी था अपनी उफ़्तादे तबा के मुताबिक़ था बहुत ही अजीब है आलमे मलकूत और बरज़ख़।

ये सारी चीज़ें हक़ाएक़ हैं और हमारे ही बातिन और मलकूत आमाल, जो सूरत इख़्तियार करके ज़ाहिर होते हैं।

मोमिन के लिये बशीर और मुब्बश्शिर हैं जो उसे परवरदिगार की बेइन्तेहा रहमतों और सवाबों की बशारत देते हैं।

(वराऐनी मुबश्शरन वा बशीरा, दुआऐ माहे रजब, बन्दगी राज़े आफ़रीनश सफ़्हाः- 684)

सवालः- एक शख़्स एक हज़ार साल क़ब्ल मर चुका है और एक शख़्स आज मरता है तो क्या आलमे बरज़ख़ दोनों के लिये यकसाँ है ? और साथ ही मिसाली जिस्म की तौज़ीह भी फ़रमाइये।

जवाबः-आलमे बरज़ख़ में क़यामते कुबरा तक रूहों के ठहरने की मुद्दत यक़ीनन मुख़्तलिफ़ है लेकिन रूहें बरज़ख़ में क़यामत तक मोअत्तल नहीं हैं बल्कि या तो बरज़ख़ी रहमतों से बहरामंद हैं (अगर वो गुनाहों से पाक होकर उठे हैं) या बरज़ख़ी अज़ाबों में गिरफ़्तार हैं लेकिन अगर कोई मरने वाला मुस्तज़अफ़ीन में से था यानी हक़ ओ बातिल का तमीज़ की क़ुदरत नहीं रखता था या जिस तरह चाहिये उस पर हुज्जत तमाम नहीं हुई थी जैसे वो लोग जो बलादे कुफ़्र में रहते हैं और मज़ाहिब के इख़्तिलाफ़ में कोई आगाही नहीं रखते या अगर उससे बाख़बर भी हैं तो दूसरे मुल्कों या शहरों में जाने और दीने हक़ का तजस्सुस करने की ताक़त और सलाहियत नहीं रखते इसी तरह नाबालिग़ बच्चे और मजनून अशख़ास तो ऐसे लोगों के लिये बरज़ख़ में कोई सवाल और अज़ाब ओ सवाब न होगा और इनका मामला क़यामत पर उठा रक्खा जाएगा ताकि वहाँ ख़ुदा ए तआला उनके साथ अपने अदल या फ़ज़्ल के ज़रिये मामला फ़रमाए।

क़ालिब मिसाली से मुराद वो जिस्म है जिस से मरने के बाद रूह अपना ताअल्लुक़ क़ायम करती है वो ऐसा जिस्म है जो सूरत में दुनियावी जिस्म के मानिन्द है। चुनाँचे हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स) से मरवी है कि आपने फ़रमाया "लौ रायतेही लेक़लत हवहवा बे ऐनेही" यानी अगर तुम उसे बरज़ख़ में देखोगे तो कहोगे, ये तो बे ऐनेही वही शख़्स है यानी शक़्ल ओ सूरत के लिहाज़ से जिस क़द्र दुनिया के मुताबिक़ है लेकिन माददे की हैसियत से मुकम्मल सफ़ाई और लताफ़त रखता है।

अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा बिहार में फ़रमाते हैं कि ये लताफ़त में जिन्न और मलाएका से मुशाबे है नीज़ फ़रमाते है कि रवायत और अख़बार में वुस्अते क़ब्र, रूह की हरकत, हवा में उसकी परवाज़ और अपने घर वालों के दीदार के बारे में जो कुछ वारिद हुआ है वो सब इसी जिस्म से मुताल्लिक़ है।

बाज़ मुहक़्क़ेकीन ने लताफ़त के लिहाज़ से बरज़ख़ी जिस्म को उस सूरत से तशबीह दी जो आईने में मुनअकिस होती है सिवाऐ इसके कि आईने की सूरत का वुजूद दूसरे वुजूद के ज़रिये क़ायम है और फ़हम ओ इदराक से महरूम होता है।

(82 पुरसिश सः- 115).

 

तीन चीज़े बरज़ख में बहुत काम आती है

एक रोज़ हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  ने मसर्रत के साथ इरशाद फ़रमाया कि मैंने हमज़ा सैय्यदुश्शोहदा और जाफ़रे तय्यार इन दोनों अज़ीज़ शहीदों को देखा कि बहिश्ती अंगूरों का एक तबक़ उनके सामने रक्खा हुआ था उन्होंने उनमें से कुछ खाया फिर वो बहिशती रूतब बन गये ऐसे रूतब जिनमें न गुठली होती है न कोई सक़्ल न गरानी और उनकी मुशक जैसी ख़ुशबू कई फ़रसख़ तक जाती है।

आँहज़रत ने फ़रमाया कि मैंने उनसे पूछा इस मक़ाम पर कौन सी चीज़ें तुम्हारे लिये तमाम चीज़ों से बेहतर हैं? तो हमज़ा ने कहा कि तीन चीज़े ऐसी हैं जो बरज़ख़ में बहुत ही फ़रहत अंगेज़ हैं अव्वल अली इब्ने अबीतालिब (अ.स) की मुहब्बत (ख़ुदावन्दा! तू हमारे दिलों में अली इब्ने अबीतालीब (अ.स) की मुहब्बत को बढ़ा दे जो दूध की तरह उतर जाऐ और जानों के साथ बाहर आए) दोम मुहम्मद ओ आले मोहम्मद अलैहुमस्सलातो वस्सलाम पर सलवात भेजना और सोम (तीसरी) किसी प्यासे को पानी पिलाना । अगर कोई तशनालब सामने आ जाए तो उसकी तशनगी दूर करो ये बरज़ख़ में तुम्हारे बहुत काम आऐगा। जो शख़्स एक दिल को ख़ुन्क करेगा कल उसकी क़ब्र में उसका दिल ख़ुन्क होगा।

 

बख़ील का बरज़ख़ी फ़िशार ऐसा है जैसे दीवार में मेख

हमें चाहिये कि अपनी पिछली कोताहियों से तौबा करें कितने ही मवाक़े ऐसे आऐ कि कारे ख़ैर और दाद ओ दहिश करना हमारा फ़रिज़ा था लेकिन हमने नहीं किया हम कितनी आग अपनी क़ब्र के लिये भेज चुके हैं दूसरों के हालात पर ग़ौर न करो बल्कि ख़ुद अपनी ख़बर लो कि तुमने अपनी हद के अन्दर रहते हुए किस शख़्स के बारे में कितने बुख़्ल से काम लिया है और अपनी क़ब्र को तंग किया है जब मौत आ जाऐगी तो वहाँ कोई फ़राख़ी और वुस्अत न होगी बल्कि जैसा रवायत बताती है बख़ील आदमी का फ़िशार इतना सख़्त होगा जैसे कोई मेख़ दीवार में ठोंक दी जाए।

 

दुनिया में हम्माल और बरज़ख़ में बादशाह

एक हिक़ायत मेरे ज़ेहन में आई जो एक बुज़ूर्ग इन्सान से मन्क़ूल है कि मैंने एक रात वाक़ेयी तौर पर बरज़ख़ी जन्नत का एक मन्ज़र देखा वहाँ मैंने एक आलीशान महल देखा जिसके रास्ते बहुत बड़े थे, सरबाफ़लक़ दरख़्त लगे हुए थे और तरह तरह के मेवे और अश्याए ख़ुरद ओ नोश मुहय्या थीं उस इमारत के बालाख़ाने पर एक बुज़ुर्ग इन्तेहाई अज़मतो विक़ार के साथ बैठे हुए थे मैं ये हालात देखकर सोचने लगा कि ग़ालेबन इनका हमारी दुनिया से तआल्लुक़ नहीं है और हैरत में पड़ गया कि ख़ुदाया! ये कौन शख़्स है ? मैनें ख़ुदा की बरगाह में दुआ की कि मुझे उसकी हक़ीक़त से आगाह फ़रमा दे नागाह ख़ुद उन्हीं बुज़ुर्ग ने आवाज़ दी कि "अनल हम्माल" मैं दुनिया में बार बरदारी (क़ुली) का काम करता था और पीठ पर बोझ लाद कर इधर से उधर पहुँचाता था जो लोगों के नज़दीक़ एक पस्त और हक़ीर तरीन पेशा है।

 

वो आग जो क़ब्र से शोलाज़न हुई

दारूस्सलाम ईराक़ में क़ाचारी के दरबार के एक रूकन के बारे में ये वाक़ेया दर्ज है (हतके हुरमत के ख़्याल से उस दरबारी का नाम नहीं ले रहा हूँ) कि उसका जनाज़ा तेहरान से क़ुम लाए उसके लिये एक हुजरा हासिल किया और क़ब्र पर एक क़ारी मोअय्यन किया नागहाँ उस क़ारी ने देखा कि क़ब्र से आग के शोले बाहर निकल रहे हैं लिहाज़ा उसने वहाँ से फ़रार इख़्तियार किया उसके बाद लोग उस चीज़ की तरफ़ मुतावज्जे हुए कि क़ालीन और जो कुछ हुजरे में था सब जल गया है लेकिन इस अन्दाज़ से कि सभी ने ये समझ लिया कि ये दुनियावी हरारत नहीं थी बल्कि उसकी क़ब्र की आग ऊपर तक आ गई थी। उसकी क़ब्र आग से इस तरह भर गई थी कि उसका असर बाहर तक पहुँच रहा था।

तुमने आग के बीज बोए हैं लेकिन उनसे फूल हासिल करना चाहते हो अगर तुम्हारी क़ब्र के ऊपर एक हज़ार गुलदस्तें भी सजा दिये जाऐं तो उससे तुम्हारी बातिनी कसाफ़तों पर क्या असर पड़ता हैं? अलबत्ता इस तरह हम अपने दिल ख़ुश कर लेते हैं। ख़ुदा के लुत्फ़ ओ करम के उम्मीदवार रहो ऐसा न हो कि तुम्हारे ऊपर ग़ुरूर मुसल्लत हो जाए इन्सान को हमेशा उम्मीद ओ बीम के दरमियान रहना चाहिये मुमकिन है ख़ुदा की नज़रे लुत्फ़ हो जाए।

 

ग़ुस्से को ज़ब्त करना आग के ऊपर पानी डालना है

ग़ुस्सा ज़ब्त करने की मलकूती सूरत क़ब्र की आग पर पानी डालना है। ग़ैज़ ओ ग़ज़ब की हालत में अपने ऊपर क़ाबू रक्खो, अपनी ज़ात को बेलगाम न छोड़ो अपने सुकून और आसाइश की हिफ़ाज़त करो उठो और अपनी राह लो, पानी पी लो, अपनी हालत में तग़य्युर पैदा करो, सुनी हुई बात को अनसुनी कर दो वरना कहीं ऐसा न हो कि क़त्ए रहम के मुरतकिब हो जाओ, सिलाऐ रहम के ज़रिये अपनी आतिशे क़ब्र को सर्द करो! खुलासा ये कि हर गुनाह पुले सिरात से नीचे गिरने है, बहिश्त की राह सुल्ह ओ सफ़ाई है, जहन्नम का रास्ता निज़ा, जंग ओ जिदाल और तैश में आना है अब ये तुम ख़ुद जानते हो कि कौन सा रास्ता चलना चाहिये। (सूराऐ दहर आयतः- 3), बग़ैर एहसान जताने और अज़ीयत देने के सख़ावत और जूदो करम राहे बहिश्त है, जन्नत तक आने के लिये सिरात की सहूलत इसी में है कि जहाँ तक मुमकिन हो अपनी ज़बान से अच्छी बात कहो, अमानतदार बनो और इसके उसके ऐब को छुपाओ अलबत्ता उसके बरख़ेलाफ़ दोज़ख़ का रास्ता है। अगर तुम चाहते हो कि ख़ुदा के क़हर ओ ग़ज़ब से दूर रहो तो ख़ुद अपने को ग़ज़ब से दूर रक्खो।

मरवी है कि एक शख़्स अज़ाब और आतिशे जहन्नम में घिरा होगा उस हालत में आवाज़ आऐगी कि मेरे पास इसकी एक अमानत है चूँकि इसने मेरे लिये अपने ग़ुस्से को फ़रो किया था लिहाज़ा आज इसकी तलाफ़ी का दिन है।

 

पोशीदा सदक़ा और अज़ाब के ख़ौफ़ से गिरया

जो चीज़ें तुम्हारी आतिशे क़ब्र को ख़ामोश करती हैं उनमें से एक "सदक़ातुल सिर" है यानी ख़ुदा की राह में पोशीदा तरीक़े से सदक़ा और ख़ैरात देना जिसकी ताबीर इस तरह की गई है कि देने वाले के हाथ की ख़बर दूसरे हाथ को भी न हो कुजा और से भी ज़िक्र न करे यहाँ तक कि ख़ुद अपने से भी न कहे और हदीसे नफ़्स न करे यानी इसको बिल्कुल फ़रामोश कर दे।

मिनजुमला चीज़ों के जो आग को ख़ामोश करती हैं,  आँसू का वो क़तरा है जो तुमने ख़ौफ़े ख़ुदा से गिराया हो अपनी बुराइयां याद करो, तरह तरह के अज़ाब ओ उक़ाब का तसव्वुर कर अगर तुम्हारे दिल पर ख़ौफ़ तारी हो जाए, जिस्म में लरज़ा पैदा हो जाए और ख़ुदा के इस ख़ौफ़ से आँसू का एक क़तरा भी गिर जाए तो ये अज़ाब के भड़कते हुए शोलों को ख़ामोश कर देगा।

 

नफ्स परस्ती सिरात से दूर ले जाती है

इस नफ्स परस्ती और ख़ुदगरज़ी का मतलब भी सिरात से गिर जाना है, आया तुमने उस शख़्स को देखा है जिसने अपनी ख़्वाहिशे नफ़्स को अपना ख़ुदा बना लिया है (सूराऐ जासिया आयतः- 25), नफ्स परस्ती इन्सान को क़अरे जहन्नम की तरफ़ ख़ींचती है (सूराऐ क़ारिया आयतः- 9) जो शख़्स ये कहता है मेरा दिल चाहता है, अपने दिल की हवस के पीछे दौड़ता है और हराम ओ हलाल का लिहाज़ नहीं करता उसकी आक़िबत और अन्जाम ये है कि वो आग का रास्ता इख़्तियार कर लेता है और ख़ुदा की बन्दगी और राहे रास्त को छोड़ देता है। सूराऐ यासीन में ख़ुदा की बन्दगी को सिराते मुस्तक़ीम बताया गया है, एक बन्दे की तरह ज़िन्दगी बसर करो, गरदनकशी न करो, अपने को आज़ाद मुतलक़ और मुस्तक़िल हैसियत का मालिक न समझो, और ख़ुदा की मुतलक़ हाकमियत को समझो।

 

गुनाहगार हक़ीक़ी ग़ासिब है

जिस हस्ती ने तुम्हें ज़बान अता फ़रमाई है उसने उसके इस्तेमाल के लिये कुछ हुदूद भी मोअय्यन फ़रमाये हैं, हक़ीक़ी ग़ासिब कौन है ? वो शख़्स है जो ख़ुदा के इस अतिये और अमानत से फ़ोहश बातें करता है, तोहमत लगाता है बग़ैर इल्म के बात कहता है और लोगों की आबरू रेज़ी करता है ये सारी तस्सरूफ़ात ग़ासिबाना हैं ये तुम्हारे ख़ुदा की मिल्क है इस पर तुम्हारे तस्सरूफ़ात और इख़्तियारात महदूद हैं इसे मुकम्मल तौर पर इसके हक़ीक़ी मालिक के ज़ेरे असर होना चाहिये। (किताब फ़ातिहलतुल किताब सफ़्हाः- 68, 85, 151, 247 से 250, 294)

जहन्नम दुशमनाने अली (अ.स) के लिये है

इरशाद है कि अगर तमाम ख़िलक़त अली (अ.स) की दोस्ती पर जमा होती (और अली (अ.स) की दोस्ती के साथ दुनिया से जाती) तो ख़ुदा जहन्नम को पैदा ही न करता। यक़ीनन जहन्नम दुशमनाने अली (अ.स) के लिये है। अगर तुम पूछते हो अली (अ.स) के दोस्त तौबा के साथ मरते हैं और ख़ुद मोहब्बते अली (अ.स) इस दुनिया से तौबा के साथ उठने की मुजिब है अगर ये फ़र्ज़ कर लिया जाए कि यहाँ से कोई शख़्स आलूदा गया तो बरज़ख़ में पाक हो जाता है।

 

अली (अ.स) का दोस्त जहन्नम में नहीं रहेगा

मुहक़िक़्क़े क़ुम्मी फ़रमाते हैं कि जहन्नम में ख़ुलूद यानी आग में हमेशा रहना उनके लिये है जो अली (अ.स) के दोस्त नहीं हैं और शायद हदीस के मानी भी यही हो कि अली (अ.स) की दोस्ती के साथ कोई गुनाह उसे हमेशा जहन्नम में नहीं रोकता उसके लिये कोई ऐसा ख़तरा नहीं है जो आग में रहने का सबब बने ख़्वाह ये रिहाई तीस हज़ार साल बाद हो।

 

बहिश्त और दोज़ख़ की कुंजियाँ अली (अ.स) के हाथ में

अख़्तबे ख़्वारज़मी और सालबी ने लिखा है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  ने फ़रमाया कल क़यामत के रोज़ मेरे लिये एक बहुत वसीय मिम्बर नस्ब किया जाएगा जिसमें सौ ज़ीने होगें सबसे बलन्द ज़ीने पर मैं बैठूँगा दूसरे ज़ीने पर अली (अ.स) होंगे और सबसे नीचे वाले ज़ीने पर दो फ़रिश्ते बैठे होंगे उनमें से एक कहेगा कि ऐ महशर वालों! मैं रिज़वान ख़ाज़िने बहिश्त हूँ और बहिश्त की कुंजी में पास है ख़ुदा ने मुझे हुक्म दिया है कि ये जन्नत की कुंजी हज़रत मोहम्मद (स00) को पेश करदूँ और दूसरा कहेगा कि मैं मालिके दरोग़ाए जहन्नम हूँ और मुझे भी हुक्म दिया है कि दोज़ख़ की कुंजी हज़रत मोहम्मद (स00) के सुपूर्द कर दूँ आँहज़रत का इरशाद है कि मैं उन्हें लेकर अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) को दे दूगाँ और ख़ुदाऐ तआला के क़ौल "अलक़या फ़ी जहन्नम कुल्ला कुफ़्फ़ार उनीद" (सूराऐ क़ाफ़ आयतः- 24) (यानी अलक़या या मुहम्मद (स00) व अली (अ.स) फ़ी जहन्नम) का मतलब ये है कि ऐ मुहम्मद (स.अ.व.व)  और ऐ अली (अ.स) तुम हर सरकश काफ़िर को दोज़ख़ में डाल दो। (किताब इमामत सफ़्हाः- 68, 72).

बुर्ज़ुगाने दीन क़यामत की बरहनगी से डरते हैं

किताब मुआलिमुल ज़ुल्फ़ा में है कि पैग़म्बरे अकरम सलल्लाहो वा आलेही वस्सलम ने फ़रमाया क़यामत के रोज़ जब औरतें महशूर होगीं बरहना होगीं इस पर जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.व.व)  ने गिरया करना शरु किया और फ़रमाती थीं "वा फ़ज़ीहता" उस वक़्त जिबरईले अमीन पैग़म्बर पर नाज़िल हुए और अर्ज़ किया कि ख़ुदा हज़रते ज़हरा (स.अ.व.व)  को सलाम कहता है और फ़रमाता है कि हम हज़रते ज़हरा (स.अ.व.व)  के ज़ामिन हैं कि उन्हें रोज़े क़यामत दो बहिश्ते हुल्ले पहनाए जाऐगें। अमीरूलमोमिनीन (अ.स) की मादरे गिरामी हज़रते फ़ातिमा बिन्ते असद जो एक ऐसी बीबी थीं जिन्हें विलादते फ़रज़न्द के मौक़े पर ख़नाए काबा के अन्दर बुलाया गया और तीन शबाना रोज़ वहाँ मेहमान रहीं और जो पैग़म्बर के लिये माँ की हैसियत रखती थी क़यामत की बरहन्गी से ख़ौफ़ज़दा होकर हज़रते रसूले ख़ुदा के सामने रोने लगीं और आँहज़रत से पनाह तलब करके ख़्वाहिश की कि आप उन्हें अपने पैराहन के एक पारचे का कफ़न दें। उम्मुलमोमिनीन हज़रते ख़दीजातुल कुबरा (स.अ.व.व)  जब सफ़रे आख़िरत के लिये आमादा हुईं तो जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.व.व)  को जो उस वक़्त सात साल की थीं पैग़म्बरे ख़ुदा की ख़िदमत में भेजा और कहा कि अपने बाप से कहो कि मेरी माँ कहती है आपसे मेरी ख़्वाहिश और दरख़ास्त ये है कि मुझे अपने पैराहन का कफ़न दें ताकि महशर में बालिबास उठूँ........ ये हैं रोज़े क़यामत से बुज़ुर्गाने दीन के ख़ौफ़ का एक नमूना वो दिन जो बहुत सख़्त है और जिसके बारे में ख़ुदा इरशाद फ़रमाता है जिस रोज़ अल्लाह की तरफ़ से एक बुलाने वाला एक ज़िश्त और नापसन्दीदा अमर के लिये बुलाएगा, नुकर माद्दाए इन्कार से है, जिस चीज़ को इन्सान ख़िलाफ़े मामूल और बुरी जानता है और वो उसे ख़ौफ़ो इज़्तेराब में मुब्तिला करती है उसे नुकर कहा जाता है (एक क़िरअत सुकूने क़ाफ़ के साथ भी है) और उन दो फ़रिश्तों को भी जो कुफ़्फ़ार के लिये क़ब्र की पहली शब में आते हैं इसी मुनासिबत से नकीर और मुनकर कहा जाता है चुनाँचे मरहूम फ़ैज़ और दीगर हज़रात का क़ौल है कि फ़रिश्तों का आना मय्यत के अमल के मुताल्लिक़ है अगर मरने वाला नेकूकार है तो बशीर और मुब्बश्शिर वरना नकीर और मुनकर होते हैं वही दोनों फ़रिश्तें मोमिन के लिये अच्छी सूरत में बशारत के लिये और काफ़िर और फ़ासिक़ के लिये ख़ौफ़नाक सूरतो हैबत में अज़ाबे इलाही से डराने के लिये आते हैं वरना हैं दोनों तरह के फ़रिश्ते एक ही जैसे हज़रत ईज़राईल जो दरहक़ीक़त हैं एक ही लेकिन नेको के लिये बेहतरीन सूरत में और बदों के लिये बदतरीन और मुहीबतरीन सूरतो हयत में आते हैं।

मेरी ग़रज़ नकर की मुनासिबत से है ये आयत गुनाहगारों के बारे में है जो ऐसे अम्र की जानिब बुलाए जाऐगें जो इज़तिराब और फ़रियाद ओ ज़ारी पैदा करने वाला है और वो रोज़े हिसाब का हौल है।

(किताब हक़ाएक़े अज़ कुरान सः-57)

 

बिखरी हुई टिडिडयाँ

दरहक़ीक़त उनकी आँखें ख़ाशे और झुकी हुई होंगी ख़ुश्बू एक क़ल्बी अम्र है जिसका सरचश्मा दिल है और इसका असर आज़ा ओ ज़वारे से ज़ाहिर होता है ख़ुशूव सबसे ज़्यादा आँखों से नुमाया होता है क्योंकि दीगर आज़ा के मुक़ाबले क़ल्ब का आँख से रब्त ज़्यादा है हर शख़्स की ख़ुशी और ग़म और शर्म ओ हया को उसकी आँखों में पढ़ा जा सकता है इसी बिना पर ख़ुदाए तआला ख़ुशूव को आँखों से निस्बत देता है जबकि ये दरअस्ल क़ल्ब से मरबूत है, चूँकि ज़िल्लत और बदबख़्ती के आसार भी आँखों पर तारी होते हैं लिहाज़ा फ़रमाता है कि उनकी आँखें ख़ाशे और झुकी हुई होगी "वो क़ब्रों से बाहर आएगें" अजदास जदस की जमा है जिसके मानी क़ब्र के हैं "दर हाँलाकि वो बिखरी हुई टिडिडयों की मानिन्द होंगे" ये टिडिडयों के ख़ुसूसियात में से हैं कि वो परवाज़ के वक़्त ग़ैरे मुनज़्ज़म और सरगरदाँ होती हैं लेकिन तुमने देखा होगा कि वो बाहमी तन्ज़ीम ओ तरतीब के साथ दरो दीवार पर टूट पड़ती है और तमाम चीज़ों को खा जाती हैं और इसी सबब से उनमें से अक्सर हलाक भी हो जाती हैं, ख़ुदाए तआला क़ब्रों से बाहर आने के वक़्त इन्सानों की हालत को टिडिडयों से तशबीह देता है क्योंकि वो हैरतज़दा होगें ऐसी चीज़ें देखेगें जो कभी न देखी होंगी और ऐसी जगह जाऐंगे जहाँ कभी न गये होंगे उस वक़्त अव्वालीन ओ आख़िरीन सभी जमां होंगे।

 

वो लोग जो मुज़्तरिब न होंगे

हाँ सिर्फ़ कुछ लोग ऐसे होंगे जिन्हें कोई इज़्तेराब न होगा वही लोग जिन्होंने ईमान और अमले सालेह इख़्तियार किया है और ख़ुदाए तआला ने उनके दिलों में सकीना और क़रार को जागुज़ीं किया है (हुवल लज़ी अनज़लस्सकीना फ़ी क़ुलूबिल मोमिन) और वो इसी हालत के साथ दुनिया से रूख़सत हुए हैं अगर कोई शख़्स यहाँ अक़ीदे और अमल के लिहाज़ से मुताज़लज़िल है तो यक़ीन रक्खो कि उसे आख़िरत में भी इज़ितराब लाहक़ होगा (मन काना फ़ी हाज़ा अमा फ़हुवा फ़ील आख़िरते अमा) चूँकि वो इधर या उधर किसी जानिब मुस्तक़िल नही है लिहाज़ा अगर अक़ीदे के इज़तेराब के साथ मर गया तो इसी तरह मैदाने महशर में भी मुज़तरिब वारिद होगा।

(किताब हक़ाएक़े अज़ क़ुरान सफ़्हाः- 60)

 

क़यामत का अज़ाब बहुत सख़्त है

"वस्साआ औदा वा अम्र" ताकीद के लिये ख़ुदाए तआला फ़रमाता है कि क़यामत "औहा" है, जिस ख़ौफ़नाक और मुज़तरिब करने वाली मुसीबत से फ़रार और ख़लासी का कोई रास्ता न हो उसे वहिया कहते हैं और अदहा इसका फ़ेलुत तफ़ज़ील है यानी हर वो सख़्ती और ग़ैरे मामूली अज़ाब जिसका दुनिया में मुशाहिदा होता है, क़यामत उससे कहीं ज़्यादा सख़्त है अगर कोई शख़्स इन बलाओं में मुब्तिला होगा तो दुनिया के अज़ाब को भूल जाएगा जैसे किसी के साँप ने डस लिया हो तो वो फिर मच्छर के काटने की परवाह नहीं करता है।

(किताब हक़ाएक़े अज़ क़ुरान सफ़्हाः- 196 )

 

तालिबाने हुक़ूक़ और क़यामत

तुमने क़यामत की हौलनाकियों के बारे में क़ुराने मजीद में बार बार पढ़ा होगा कि रोज़े क़यामत एक ऐसा दिन है जिसमें हर फ़र्दे बशर को बलन्द किया जाऐगा ताकि सब लोग उसे देख सकें उसके बाद एक मुनादी निदा करेगा जो शख़्स इस शख़्स पर कोई हक़ रखता हो वो आ जाए! उस वक़्त अपने हुक़ूक़ तलब करने वाले उसकी  तरफ़ रूख़ करेगें जिन लोगों के बारे में शायद ज़ाती तौर पर उसे ख़ुद भी ऐहतेमाल न होगा कि मैंने इनके हुक़ूक़ अदा नहीं किये हैं उसके गिर्द जमा हो जाएगें उसने किसी की आबरू रेज़ी की होगी, किसी की ग़ीबत की होगी किसी का माल खाया होगा या किसी का क़र्ज़दार होगा और उसे भूल गया होगा ये सब उससे अपने हक़ का मुतालिबा करेगें इस बेचारे को उन्हें अपनी नेकियों में से देना होगा नमूने के तौर पर रवायतों में वारिद है कि एक दिरहम माल के एवज़ मक़बूल नमाज़ों की सात सौ रक्अतें देना होंगी अब इससे बड़ी और मुसीबत और क्या होगी। अम्मारा मुर से बना है जिसके मानी है तल्ख़, और अम्मुर के माना हैं बहुत ही तल्ख़ तुम इस दुनिया में जिस नागवार औऱ तल्ख़ चीज़ का तसव्वुर कर सको क़यामत में उससे भी ज़्यादा तल्ख़ है इस क़दर तल्ख़ कि भाई भाई से, बेटा माँ बाप से, ज़ौजा शौहर से, शौहर ज़ौजा से फ़रार करेगा (यौमा यफ़्फ़रूल मुरा मिन अख़ीहू व उम्महू व अबीहू व साहबतहू व बनीहू) इस ख़ौफ़ से कहीं ये अपने हक़ का मुतालिबा न कर बैठे

(किताब हक़ाएक़े अज़ क़ुरान सः 196)

 

जिस्म के आज़ा की शहादत

क़यामत का एक मौक़फ़ आज़ा ओ जवारेह का बोलना है हर शख़्स के आज़ा उसके अफ़आल की गवाही देगें और इस पर क़ुराने मजीद की नस मौजूद है।

(असुन्नतहुम वा ऐदहुम वा अरजलहुम बिमा कानू यालेमून. सुराः- 24 आयतः- 24)

बल्कि जिस वक़्त वो शख़्त ऐतेराज़ करेगा कि तुम मेरे ख़िलाफ़ क्यों गवाही दे रहे हो ? तो वो कहेगें ये हम अपने इख़्तियार से नहीं कह रहे हैं बल्कि हमें ख़ुदा ने गोयाई दी है। (क़ालू अन्तक़ल्लाहिल लज़ी अन्तुक़ कुल्ला शैइन. सूराः- 41, आयतः- 20) किताब हक़ाएक़े अज़ क़ुरान सः- 197.

 

आग और गुमराही मुजरेमीन के लिये

"इन्नल मुजरेमीना फ़ी ज़लालिन वसअर" यानी मुशरेकीन यक़ीनन गुमराही और आग में हैं अगरचे लुग़त के मुताबिक़ मुजरिम गुनाहगार के मानी में हैं लेकिन आयाते माक़ल्ब का तरीक़ा बताता है कि यहाँ मुशरिक मुराद है यानी मुशरेकीन हक़ से गुमराही में हैं (फ़ी ज़लालिन मिनल हक़) दुनिया के अन्दर उनकी तमाम हरकतें दो रोया हैं यानी वो अपने ही गिर्द ताना बाना बुनते हैं उनसे कोई मुसबत अमल नहीं होता जो उनकी पेशरफ़्त का बाएस बने उनकी तमाम क़ूवते ग़ौर ओ फ़िक्र दौलत जमा करने और जाह ओ मनसब और शोहरत ओ रियासत हासिल करने के लिये वक़्फ़ होती है जिसका नतीजा ख़ुदा की राह से गुमराही है "सुअर" जुनून के मानी में हैं और मुमकिन है दोनों से दुनिया के अन्दर ज़लाल ओ सुअर मुराद हो और उनसे जुनून के मानी मुराद लिये गये हों यानी मुशरेक़ीन गुमराही में हैं और दीवाने हैं चुनाँचे बिहारूल अनवार के अन्दर हज़रते रसूलेख़ुदा (स.अ.व.व)   से एक रवायत मनक़ूल है जिसका ख़ुलासा ये है कि हज़रत रसूलेख़ुदा की एक दीवाने से मुलाक़ात हुई आपने उसका हाल पूछा लोगों ने कहा कि ये दीवाना है तो आँहज़रत ने फ़रमाया "बल हुवा मसाब" बल्कि मुसीबत ज़दा है और एक बला में गिरफ़्तार है "इनामल मजनूना मन असरद्दुनिया अल्लल आख़िरा" दर अस्ल मजनून तो वो शख़्स हैं जो दुनिया को आख़िरत पर इख़्तियार करता है।

 

निजात का रास्ता खो देते हैं

ज़लाल व सअर के दूसरे मानी ये हैं कि दोनों आख़िरत से मुताल्लिक़ है। क़यामत के रोज़ मुशरेक़ीन बहिशत के रास्ते से भटके हुए हैं और उसे हासिल नहीं कर सकते (सूराः- 57 आयतः- 13).

"यौमा यस्हबूना फ़िन्नारे अला वजूहहुम" यानी जिस रोज़ मुशरिकीन मुँह के बल आग में झोंक दिये जाऐगें वो ऐसा दिन होगा कि मुशरिक़ीन को ख़ींचते हुए आग की तरफ़ ले जाऐंगे और उन्हें मुँह के बल उसमें गिरा देंगे चूँकि वो दुनिया में हक़ से रूगरदानी करते थे लिहाज़ा कल क़यामत के रोज़ उन्हें जहन्नम में औंधे मुँह डाल दिया जाऐगा और उन से कहा जाऐगा कि "ज़ूक़ूमस्सक़र" यानी चक्खो जहन्नम का मज़ा।

 

चक्खो आतिशे जहन्नम का मज़ा

सकर जहन्नम का नाम है इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स) से मरवी है कि आपने फ़रमाया कि जहन्नम में एक बयाबान है जिसे सक़र कहते हैं (इन्ना फ़ी जहन्नमा वादियो यक़ालुल लहुस सक़र) और दूसरी रवायत में इरशाद है कि सक़र जहन्नम का एक तबक़ा है इसने ख़ुदा से एक साँस लेने की इजाज़त माँगी है जब उसे इजाज़त मिल गई तो उसने एक ऐसी साँस ख़ींची कि जहन्नम के शोले भड़क उठे ये बाते कोई क़िस्सा कहानी नहीं हैं बल्कि ऐसी हक़ीक़ते हैं जो हमे झंझोड़ कर रख दें ताकि हम ऐसे ख़तरनांक मवाक़िफ़ के बारें में ग़ौर व फ़िक्र से काम लें और इनसे अम्न ओ अमान हासिल करने की कोशीश करें जब तक कि मौत के वक़्त मलाएकाऐ रहमत का मुशाहिदा न कर लें और रहमते ख़ुदा की आवाज़ न सुन लें कि हमें बहिश्त में तलब किया जा रहा है (या अयताहन नफ़सुल मुतमइन्ना तुरजाइ इल्ला रबेहे राज़ीयतम मरज़ीया फ़दख़ुली फ़ी इबादी  वदख़ुली जन्नती) हमें आराम से न बैठना चाहिये बल्कि हमेंशा ख़ौफ़ के आलम में रहना चाहिये कि ख़ुदा न ख़्वास्ता दुनिया से बग़ैर ईमान के उठें और बग़ैर तौबा किये हुए मर जाए आया कोई शख़्स भी ये इत्मीनान रखता है कि बेहतरीन हालात में उसकी मौत आएगी?

(किताब हक़ाएक़े अज़ क़ुरान सः- 200)

 

क़यामत में मुन्तशिर अज्ज़ा फ़िर जमा किये जाऐंगे

अजीब बात ये है कि अज्ज़ा व ज़र्रात दोबारा मुन्तशिर हो जाते हैं जिस वक़्त चावल या गेहूँ बाप के गले से नीचे तो जिस्म के तमाम अज्ज़ा और ज़र्रात में मुन्क़सिम और मुन्तशिर हो जाता है फिर उसे दस्ते क़ुदरत बाप के सुल्ब में यक्जा कर देता है और ये माददाऐ तौलीद के मख़ज़न से रहमे मादर में मुन्तक़िल होता है "तुम देखते हो कि हमने किस तरह से मुताफ़्ररिक़ ज़र्रात को जमा कर दिया उनमें से कुछ दुरूस्त हालत में आगये उसके बाद मुन्तशिर और परागन्दा ज़र्रात को फ़िर जमा करेंगे"

क़ुराने मजीद के इस मतलब को बार बार याद दिलाया गया है "कह दो! कि उसे वही हस्ती ज़िन्दा करेगी जिसने उसे पहली बार पैदा किया है"

(सूराः- 34 आयतः- 16).

क़ुदरत का वही हाथ जिसने इब्तेदा में मुताफ़्ररिक़ ज़र्रात को जमा किया है इन्तेशार के बाद उन्हें दोबारा जमा फ़रमाऐगा तुम्हारे सामने इस तरह से मआद का नमूना पेश किया जाता है आया तुम फिर भी ताअज्जुब करते हो ? और कहते हो "आया जब हम मर जाऐगे और ख़ाक हो जाऐंगे तो उसके बाद दोबारा ज़िन्दा किये जाएगें ? (सूराः 37, आयतः79) किताबे बन्दगी राज़े आफ़रीनश जिल्द अव्वल सः- 141).

 

मौत के बाद ज़मीन की ज़िन्दगी

अगर अब भी कोई तरदुद् या शुबा बाक़ी हो तो अपनो पाँव के नीचे ज़मीन का मुशाहिदा करो और देखो की सर्दी के मौसम में किस तरह मौत की हालत में रहती है और नबातात ख़ुश्क लकड़ी की सूरत इख़्तियार कर लेते हैं लेकिन मौसमें बाहार के शुरू होते ही उसको एक नई ज़िन्दगी अता होती है उससे आसारे हयात की बारिश होने लगती है और तरह तरह के पेड़ पौधे रंग बिरंगे मेवों के साथ पैदा होने लगते हैं ये है मौत के बाद की ज़िन्दगी।

(किताब राज़े आफ़रीनश जिल्दः- 1, सः- 141)

 

ख़ुदा ने जहन्नमियों को पैदा ही क्यों फ़रमाया

दूसरी बात ये कि जब ख़ुदा जानता था कि ये मख़लूक़ सआदत और नेकबख़्ती का रास्ता नहीं इख़्तियार करेगी तो उसे पैदा ही क्यों फ़रमाया ? ऐ इन्सान! मजमूई तौर पर तेरी ये चूँ ओ चरा तेरी हद से आगे है तुझे कहना ये चाहिये कि मैं नहीं जानता और ख़िलक़त के बुनियाद राज़ को समझने में क़ासिर हूँ न ये कि ऐतेराज़ करे और हिकमते इलाहिया का मुनकिर हो जाए अलबत्ता इस शुब्हे के जवाब में सिर्फ़ एक सादा सी मिसाल के ज़रिये बात को वाज़ेह करता हूँ अगर कोई साहबे इख़्तेदार और करीमुन्नफ़्स बादशाह अपने मुल्क में बसने वाले अफ़राद की तादाद के मुताबिक़ अपने ख़ज़ाने में तरह तरह के लिबास, माल ओ ज़र और जवारात वग़ैरा जमा करके उसके बाद अपने ख़ज़ाने, अपने महल और अपने मेहमानख़ाने के दरवाज़े खौल दे और आम तौर से इजाज़त दे दे कि जो शख़्स आना चाहे आ सकता है दर हाँलाकि ये जानता हो कि  इधर उधर कुछ ऐसे लोग भी लगे हुए हैं जो चाहते हैं कि इन मोहताजों को मोहताजख़ाने में ही मश्ग़ूल रक्खे लिहाज़ा इस तरह ज़रूरतमन्दों की एक जमाअत महरूम रह जाएगी मसअलन किसी ने आवाज़ दी कि वहाँ न जाओ, ऐसा कोई ऐलान नहीं हुआ है चन्द लोग तो उन बदबख़्तों की बात सुनते और चन्द लोग नहीं सुनते हैं ऐसी सूरत में जबकि बादशाह जानता है कि कुछ लोग ख़राबानशीनीं अख़्तियार करेंगे तो क्या अपने ख़ज़ाने के दरवाज़े बन्द करद दे ? उसका काम तो दावत देना और नेमतों को हर तरफ़ पहुँचाना है अब अगर चन्द अफ़राद नहीं आते तो ख़ुद उन्हीं का नुकसान है। (किताबे बन्दगी राज़े आफ़रीनश जिल्दः- 1 सः- 177).

 

अस्ल ग़रज़ रहमत और फ़ज़्ल को वुस्अत देना है

ऐ इन्सान! ख़ुदा जुमला अफ़रादे बशर को पज़ीराई के लिये दावत देता है हाँलांकि पहले ही से जानता है कि सब नहीं आऐंगें।

(इन्ना हदैनाहुस्सबील इम्मा शाकिरऊँ व इम्मा क़फ़ूरा. सूराः- 76, आयतः- 3).

गर जुमला कायनात काफ़िर गरदन्द............ बर दामने किबरियाश नशीनद गरद....

यानी  अगर सारी कायनात काफ़िर हो जाए तब भी उसकी दामने किबरीयाई पर गर्द नहीं पड़ेगी। इस मक़ाम पर एक लतीफ़ नुक़्ता और चन्द हक़ाएक़ हैं अगर ये सारे अफ़रादे बशर न आएं बल्कि सिर्फ़ एक शख़्स आ जाए तो ख़ुदा की क़ुदरतो रहमत और करामतो अज़मत के ज़हूर के लिये के काफ़ी है। मेरी ग़रज़ ये है कि रब्बुलइज़्ज़त की शान आमादा करना और दावते आम देना है अलबत्ता मख़लूक़ को चाहिये कि अपने इख़्तियार से आऐं और ग़नी होकर पलटें और ये ज़ौर ज़बरदस्ती से और ऐसे इख़्तियार से भी नहीं हों जिसमें शैतान का तसल्लुत काम कर रहा हो और हवा और हवस का हुजूम हो। बाज़ लोग इस मुक़ाम पर ये भी कहते हैं कि ये सब छोड़ दो दुनिया गुज़रती जा रही है नक़्द को हाथ से न दो, कौन मुर्दा ज़िन्दा हुआ ? यानी फ़ुक़रा मोहताज ख़ाने को ना छोड़ आलमे माददा ओ तबीयत और दुनिया की मसर्रतो और ख़ुशियों को तरक न करो तुम्हें आख़िरत और बहिश्त से क्या सरोकार तुम्हें तो ये चाहिये कि हैवानात के जवार में रहो तुम्हे जवारे मोहम्मद ओ आले मोहम्मद (अ.स) से क्या काम, ये है शैतान और उसकी सदा अब चूँकि ये शैतानी बातें हैं और बेशतर लोग उसकी बातें सुनते भी हैं तो क्या ख़ुदा अपनी बारगाहे फ़ज़्ल ओ करम को सबके लिये बन्द करदे तुम ये नहीं कह सकते कि ख़ुदा जानता था कि ये और वो नहीं आऐंगें तो उन्हें क्यों पैदा किया ये बचकाना बातें हैं हम आलमे ख़िलक़त के असरार में ख़्यालआराई नहीं कर सकते जिससे ये समझ सकें कि मलकुलमुलूक ने इस ख़िलक़त में कौन कौन सी हिकमतें और असरार ओ रमूज़ पोशीदा रखें हैं और इसमें कौन सी मसलेहतें कारफ़रमा हैं जिन्हें वो ख़ुद जानता है या उसकी दरगाह की मुर्क़रब हस्तियाँ ।

 

उमरे साद और मुल्के रै की शैतानी आवाज़

उमरे साद का मामला क्या था ? मुल्के रै के लिये एक नफ़्सानी आवाज़ और शैतानी दावत कि अगर तू करबला जाए और इमाम हुसैन (अ.स) से जंग करे तो हुकूमते रै तेरे क़ब्ज़ें में आ जाएगी उसने बहिश्त के लिये हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  की इतनी कसीर दावतों में से एक को भी क़ुबूल नहीं किया सिर्फ़ शैतानी दावत पर लब्बैक कही और वो भी किस तरह कि  इसे अपने ख़्याल में दुरूस्त क़रार देता है और मरज़ीए इलाही पर इस तरह क़लम फैरता है कि हुसैन (अ.स) को क़त्ल करके अपना मतलब हासिल करेगा उसके बाद अगर आख़िरत भी कोई चीज़ है तो तौबा कर लेगा रहमानी और शैतानी निदाऐं क़यामत तक के लिये थीं और हैं औ रहेगी ये दोनो निदाऐं हर शख़्स के लिये हैं बल्कि हर फ़र्द के लिये रोज़मर्रा ये दो क़िस्म की निदाऐं बाक़ी हैं।

(किताबे ज़िन्दगी राज़े आफ़रीनश सः 179).

 

मौत क़ुदरते ख़ुदावन्दी का नमूना

इस कल्मे की मिस्ल या इससे बालातर हज़रत अली (अ.स) का इरशाद है कि जनाज़ों की मानिन्द को मोऐज़ा नहीं है (वक़फ़ा व अआज़ा बिल मौत आयनतमूहाः- नहजुल बलाग़ा) अगर तुम देखना चाहते हो कि क़ुदरत सिर्फ़ ज़ाते ख़ुदावन्दी के लिये है तो जाँकनी के वक़्त पर ग़ौर करो (या मन फ़िल क़ुबूरे इबरतेही या मन फ़िल ममाते क़ुदरतेही, जौशन कबीर) क्यों कि तुम ख़ुद भी इस मंज़िल से गुज़रने वाले हो एक पहलवान हर तरह की क़ुदरत की क़ुदरत रखने के बावजूद अब तक मक्खी को भी नहीं उड़ा सकता बोलने की पूरी सलाहियत रखता था लेकिन इस वक़्त कल्माए "लाइलाहा इल्लाह" कहना चाहता है मगर नहीं कह सकता या वसीयत करना चाहता है और नहीं कर सकता है तो शदीद दुशवारी के साथ (ला यस्तइउना तवसीयता वला इला अहलहुम यरजाऊन). इसके अलावा और कोई क़ुदरत भी इसके पास नहीं है बल्कि रोज़े अव्वल ही से नहीं थी वो आरज़ू करता है कि अपने घर पहुँच जाऐं लेकिन नहीं पहुँच सकता और किसी सहरा में किसी सवारी पर या किसी गली कूचे में मौत से दोचार होता है वो जितनी भी तमन्नाऐं रखता हैं उन पर कोई दूसरा इरादा कारफ़रमा है। तुम क्या हो ? और पहले से भी कुछ नहीं थे आज तुम्हारा इश्तेबाह और ग़लतफ़हमी खुल के सामने आ रही है तुम किस लिये इबरत हासिल नहीं करते कितनी ज़्यादा मशीनें और इंजन के ज़रिये चलने वाली सवारियाँ ऐसी हैं जो अपने मालिक के लिये वबाले जान और क़ातिल बन गईं कितनी ही इमारते ऐसी हैं जिन्हें तामीर करने वालों ने पूरी जांकही और मेहनत के साथ तामीर किया लेकिन उनके अन्दर से उनके जनाज़े निकालें गये अब तुम इस दुनिया के मज़ीद इश्तियाक़ और वाबस्तगी में कमी करो और आलमे बाक़ी के मुशताक़ बनो ख़ुदा किस किस तरह से मुतानब्बे और मुतावज्जे करता है लेकिन ये बशर इबरत हासिल करने के लिये तैय्यार नहीं (मा अक्सरूल इबर अक़्लुल ऐतेबार).

 

बनी हाशिम के नाम इमामे हुसैन (अ.स) का ख़त

गोया कि दुनिया दरअस्ल थी ही नहीं (वाक़ियन जिसने चालीस पचास साल की उम्र पाई हो वो ऐसा है कि अभी आया हो) लेकिन आख़िरत के लिये क़तअन फ़ना नहीं है हमेशा से थी और अब भी है ये इमाम हुसैन (अ.स) हैं जिनका दिल दूसरे आलम की तरफ़ मुतावज्जे है, आपने करबला पहुँचने के मौक़े पर भी इन्हीं मज़ामीन का ख़त लिखा है (किताब क़ामिलुज़्ज़ियारात में रवायत है कि हज़रते सैय्यदुश्शुहदा ने एक ख़त अपने भाई हज़रते मुहम्मदे हनफ़िया को और दीगर बनी हाशिम को इस तरह लिखा "बिस्समिल्लाहिर्रमानिर्रहीम मिनल हुसैन इब्ने अली इला मुहम्मद इब्ने अली वमन क़ब्लहू मिन बनी हाशिम अम्मा बाद कानद दुनिया लम तकुन वा कानल आख़िरते लम तज़ला वस्सलाम ) ख़ुदावन्दा! वास्ता इमाम हुसैन (अ.स) का तू हमें अपनी बक़ा व शौक़ और आख़िरत की मुहब्बत इनायत फ़रमा। इमाम हुसैन (अ.स) मौत के इतने ज़्यादा मुश्ताक़ हैं कि चाहते हैं जल्द अज़ जल्द अपने नाना पैग़म्बरे ख़ुदा, अपने पिदरे बुज़ुर्गवार अली ए मुरतज़ा (अ.स), अपनी माँ हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.व.व)  और अपने भाई हज़रते हसने मुजतबा (अ.स) से जा मिलें हज़रते याक़ूब हज़रते यूसूफ़ की मुलाक़ात के किस क़दर मुशताक़ थे इसी तरह हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) भी अपने छुटे हुए अक़रूबा को देखने के लिये बेचैन हैं और बाद को आपने इससे आगाह भी फ़रमा दिया कि मैं करबलाई हूँ जो शख़्स करब ओ बला की हवस रखता हो तो बिस्मिल्लाहः- सलल्लाहो अलैका या अबा अब्दुल्लाह! (जिस वक़्त इमाम ने मक्के से रवानगी का क़स्द फ़रमाया तो ये ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया "अलहम्दो लिल्लाह वा लाहौला विला क़ूवते इल्ला बिल्लाह वा सल्लाहो अला रसूलेही ख़तुल मौत अला वलेगे आदमा फ़ख़तुल क़लादत अला जीदुल फ़ता वमा औलेहनी इला इस्लाम फ़ी इश्तियाक़ा याक़ूबा इला यूसूफ़....... इला आख़िर नफ़्सुल महमूम सफ़्हाः- 87). किताब बन्दगी राज़े आफ़रीनश सः- 257 ता 259.

 

बरज़ख़ में अज़ादारे हुसैन की फ़रियादरसी

तीसरा मौक़फ़ बरज़ख़ है यानी क़ब्र से क़यामत तक, रूह के बदने मिसाली से मुताल्लिक़ होने के बाद अगर मरने वाला नेकूकारों में से है तो उसका मज़हर जवारे अमीरूलमोमिनीन अलैहिस्सलाम में वादिउस्सलाम है और अगर अशिक़या और बदकारों में से हो तो उसका महल्ले ज़हूर वादिये बरहूत में है अगर वो मुकम्मल तौर से पाक ओ पाकीज़ दुनिया से उठा है तो बरज़ख़ राहत के अन्दर मसर्रतो शादमानी और लज़्ज़त के आलम में है और अगर गुनाह या हुक़ूक़ुन्नास और मज़ालिम से आलूदा है तो दीवार में ठोंकी हुई मेख़ की मानिन्द फ़िशार में है आया कोई शख़्स ये दावा कर सकता है कि वो इस दुनिया से हतमि तौर पर पाकबाज़ उठेगा और बन्दों का किसी तरह का हक़ उसके ज़िम्मे न रह जाएगा ? आया उसने अपनी सारी ज़िन्दगी में किसी की आबरूरेज़ी नहीं की है ? किसी की ग़ीबत नहीं की है ? इन तमाम सूरतों में राहे चाराऐ तदबीर क्या है ? इस हदीसे मुबारक में है इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) फ़रमाते हैं "वइन्नल मौज़ः क़ल्बहू फ़ीनल यफ़रा फ़ी" यानी जिस शख़्स का दिल हमारी मुसीबत में बेचैन हो तो मौत के वक़्त उसे ऐसी फ़रहत नसीब होगी जो क़यामे क़यामत तक बाक़ी रहेगी यानी उसे आलमे बरज़ख़ में कोई रंज ओ ग़म न होगा ।

(किताब सैय्यदुश्शोहदा अलैहिस्सलाम सः 83)

 

महशर में इमाम हुसैन (अ.स) के ज़ेरे साया

इमाम हुसैन (अ.स) पर गिरया करने का अच्छा असर क़यामत में भी ज़ाहिर होगा वरना ज़ाहिर है कि रोज़े क़यामत कैसा दिन है तुम इस दिन के बारे में आयते क़ुरानी के ज़रिये कम ओ बेश वाक़फ़ियत रखते ही होगे ख़ुदा ऐसे दिन की "फ़ज़्ऐ अकबर" यानी सबसे बड़ा ख़ौफ़ ओ हिरास से ताबीर फ़रमाता है इस रोज़ वहशतो इज़ितराब सभी को अपनी गिरफ़्त में ले लेगा और कोई शख़्स ऐसा न होगा जो मुज़्तरिब न हो (इन्ना ज़लज़लता साआ शैइन अज़ीम यौमा तरौनहा तज़हल कुल्ला मरज़ा अम्मा अरज़िअत वताज़ा कुल्ला ज़ात हमला हम्लुहा) रोज़े क़यामत अम्नो अमान के लिये इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से एक हदीसे मुबारक मनक़ूल है कि "मन तरका सइ फ़ी हवाएजे फ़ी यौमुल आशूरा" यानी रोज़े आशूर जो शख़्स अपने उमूर मुअत्तल रक्खे यानी कस्बे माश और अपने दीगर कामों के पीछे न जाऐ (जैसा कि बनी उमय्या अपनी कोर चशमी से इस दिन को मुतबर्रिक जानते थे) और अपनी रोज़ाना मइशत के लिये भी कोई काम अन्जाम न दे तो ख़ुदाए तआला उसकी दुनिया ओ आख़िरत की हाजतें बर लाएगा और जिस शख़्स के लिये रोज़े आशूरा हुज़्न ओ अन्दोह का दिन हो तो उसके लिये हमारा शाहिद भी जुमला है कि "जाअल्लाहो यौमुल क़यामत यौमुस्सुरूर" यानी इसके एवज़ फ़रदाए क़यामत जो सबके लिये हौल और ख़ौफ़ का दिन होगा उसके लिये ख़ुशी और सुरूर का दिन होगा। एक और सख़्त मौक़फ़ हिसाब का मौक़फ़ है उस वक़्त का तसव्वुर करो जब ख़ुदा फ़रमायेगा कि तुम ख़ुद अपना नामाए आमाल पढ़ो (किताबुका बेनफ़्सोका अल यौमे हसीबा) उस वक़्त हर शख़्स अपने छोटे से छोटे अमल को भी देखेगा अगर अमल नेक है तो उसकी जज़ा भी नेक और अगर बद है तो उसका बदला भी बुरा दिया जायेगा (फ़मन यामल मिसक़ाला ज़र्रातन ख़ैरन यरा वमन यामल मिसक़ाला ज़र्रतन शर्रन यरा) रही ये बात की मौक़फ़े हिसाब पर कितनी देर ठहरना होगा ? तो इसमें अशख़ास के हालात की मुनासिबत से फ़र्ख़ होगा जीस शख़्स का हिसाब तूल ख़ीचेगा तो ये चीज़ ख़ुद ही उसके लिये एक मुसीबत और सख़्त रूहानी अज़ाब होगी, क्योंकि वो बेचारा इस जाँगुसल ज़ेहनी करब में मुब्तला होगा कि न जाने उसका अन्जाम कैसा होने वाला है ? वो नहीं जानता कि आया वो बहिश्ती है कि जहन्नमी ? लेकिन कुछ अफ़राद ऐसे भी हैं कि रवायत की नस के मुताबिक़ उस मुद्दत तक जब लोग हिसाब में मुब्तिला होगें ये अर्श के साये में रहेंगे और ये इमाम हुसैन (अ.स) के अज़ादार हैं ये उस वक़्त हज़रते सय्यदुश्शोहदा (अ.स) के जवार में होगें जब दूसरे लोग हिसाब देने की अज़ीयत झेल रहे होगें ये अपने आक़ा की ख़िदमत यानी हक़ीक़ी जन्नत की नेमतों से बहरामंद होंगे।

(किताबः- सैय्यदुश्शोहदा सः 84)

 

तकमीले ख़िलक़त के बाद रूह फूँकना

इसी बिना पर ख़ुदा के लिये एक दूसरी ख़िलक़त ज़रूरी है, आलमे मिसाली और बरज़ख़ या क़यामत के अवालिम फ़ख़रूद्दीन राज़ी अपनी तफ़्सीर में निशाते सानिया या दूसरी ख़िलक़त के बारें में कहते हैं कि निशाता उख़रा इबादत है, रहम के अन्दर जनीन की की तकमील के बाद उसके बदन में रूह फूँकने से............ ख़ुदाऐ तआला ने इन्सान को पहले ख़ाक से फ़िर नुत्फ़े से उसके बाद फ़िर अल्क़े से उसके बाद मज़ग़े से दुरूस्त किया उसके बाद हड्डी पैदा की और उसके बाद हडडी पर गोश्त चढ़ाया और जब ये जिस्मानी साख़्त चार माह की मुद्दत में पूरी हुई तो उस वक़्त दूसरी तख़लीक़ की जो इन्सान की रूह थी।

(सूराः- 23 आयतः- 15)

इस मुक़ाम पर कहते हैं कि ये मानी ज़्यादा मुनासिब हैं कि हम रहम के अन्दर नुत्फ़े के इन्ऐक़ाद को बदन की तकमील तक निशाते ऊला और रूहे इन्सानी की ख़िलक़त को निशाते उख़रा समझें इस लिये कि इससे क़ब्ल की आयतें रूह की जिहत के बग़ैर सिर्फ़ ख़िलक़ते जिस्म के बारें में हैं।

(किताबे तफ़्सीर सूराऐ नजम (मैराज) सफ़्हाः- 270)

 

ज़िनाकार का बरज़ख़ी अज़ाब

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) ने भी ये फ़रमाया है कि जो शख़्स किसी मुसलमान या यहूदी या नसरानी या मजूसी, आज़ाद या कनीज़ से हरामकारी करे और उसकी तौबा न करे बल्कि इस गुनाह पर इसरार के साथ दुनिया से उठे तो ख़ुदाए तआला उसपर क़ब्र में अज़ाब के ऐसे तीन सौ दरवाज़े खोलता है कि हर दरवाज़े से आग के साँप, बिच्छू और अज़दहे बरामद होते हैं उसके बाद फ़रमाते हैं कि वो रोज़े क़यामत तक जलता रहेगा।

(किताब गुनाहानेकबीरा जिल्द अव्वल सफ़्हाः- 202)


सहराऐ महशर में ज़िनाकार की बदबू

और जब वो अपनी क़ब्र से बाहर आएगा तो उसकी बदबू से लोगों को अज़ीयत होगी, चुनाँचे वो उस शदीद बदबू से पहचान लिया जाऐगा और लोग जान लेंगे कि ये ज़िनाकार है यहाँ तक कि हुक्म दिया जाएगा कि उसे लाज़िमी तौर से आग में डाल दिया जाए। ख़ुदावन्दे आलम ने महर्रमात को क़तअन तौर से हराम फ़रमाया है और उनके लिये हुदूद मुअयन फ़रमाए हैं पस कोई शख़्स ख़ुदा से ज़्यादा ग़ैरतमंद नही है और ये ग़ैरत इलाहिया ही का नतीजा है कि फ़ोहश कामों को हराम फ़रमाया है। (तफ़्सील के लिये देखें वसाएले शिया)

 

मैं तुम्हारे लिये बरज़ख़ से डरता हूँ

उमरू बिन यज़ीद से मरवी है कि मैंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से अर्ज़ किया कि मैंने आपका ये क़ौल सुना है कि हमारे तमाम शिया बहिशत में होंगे ख़्वाह उनके गुनाह कैसे ही हों हज़रत ने फ़रमाया मैंने सही कहा है, ख़ुदा की क़सम वो सब के सब बहिश्ती हैं मैंने कहा मैं आप पर फ़िदा हो जाऊ हक़ीक़तन गुनाह तो बहुत हैं और बड़े बड़े बहुत हैं फ़रमाया लेकिन क़यामत में उस रोज़ पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.व.व)  या आपके वसी की शिफ़ाअत से तुम सब के सब बहिश्त में होगे लेकिन ख़ुदा की क़सम मैं तुम्हारे लिये बरज़ख़ से डरता हूँ मैंने अर्ज़ किया बरज़ख़ क्या चीज़ है ? तो आपने फ़रमाया बरज़ख़ क़ब्र है मौत के वक़्त से रोज़े क़यामत तक। (किताब काफ़ी)

 

 

कल आँसूओं के बदले ख़ून रोऐंगे

पैग़म्बरे अकरम (स00) ने इब्ने मसऊद के लिये अपनी वसीयतों में फ़रमाया कि गुनाह को छोटा न समझो और गुनाहाने कबीरा से परहेज़ करो क्योंकि क़यामत के रोज़ जब बन्दा अपने गुनाह को देखेगा तो उसकी आँख़ों से पीप और ख़ून जारी होगा। ख़ुदा फ़रमाता है क़यामता वो दिन है जिसमें हर शख़्स अपने नेक और बद अमल को अपने सामने मौजूद पाएगा और आरज़ू करेगा कि काश इसके और उसके गुनाहों के दरमियान लम्बा फ़ासला होता। (बिहारूल अनवार जिल्दः- 17)

और हज़रत रसूलेख़ुदा (स.अ.व.व)  से भी मरवी है कि एक बन्दा अपने गुनाहों में से एक गुनाह के लिये सौ साल तक क़ैद में रक्खा जाऐगा।

(किताब काफ़ी) (किताब गुनाहाने कबीरा जिल्दः- 1 सः- 13)

 

पहले अपने बरज़ख़ को तय करे

काम उस मंज़िल तक पहुँचना चाहिये कि ख़ुदबीनी से कोई वास्ता न रह जाए ख़ुदा की याद उसके वुजूद के अन्दर ऐसा अमल करे कि ख़ुद उसकी अपनी शख़्सीयत दरमियान से हट जाए और वो अपनी ख़ुदी से निजात पा जाए इस तरह जिस वक़्त उसकी मौत आएगी तो वो अपने बरज़ख़ से पहले ही गुज़र चुका होगा और ऐसे मक़ाम पर पहुँच चुका होगा जहाँ ओलियाए ख़ुदा की मंजिल होगी और जिनके सरदार हज़रते सैय्यदुश शुहदा अबू अब्दुल्लाहिल हुसैन अलैहिस्सलाम  से असहाब होंगे। शुहदाए करबला अर्श के नीचे इमाम हुसैन (अ.स) की हुज़ूरी में इस क़दर मसरूर हैं कि ख़ुद हूरें उन्हें पैग़ाम भेजती हैं कि हम तुम्हारे मुशताक़ हैं लेकिन जवाब देते हैं कि हम हुसैन (अ.स) का जवार कैसे छोड़ सकते हैं।

 

जवारे हुसैन (अ.स) में अताए इलाही

इमाम हुसैन (अ.स) की बारगाह में हाज़री इस क़द्र फ़रहत बख़्श है कि वो हूरों की परवाह नहीं करते। मुहब्बत का आलम भी अजीब है ये वही अताया ए इलाही और अज़ीम इनायतें हैं (ऐना मवाहिबकल हनयत ऐना मनाऐकल सुन्नत-  दुआए अबूहमज़ा शुमाली) जिन्होंने किसी के दिल में भी ख़तूर नहीं किया है न सिर्फ़ यें कि किसी आँख ने नहीं देखा है और किसी कान ने नहीं सुना है बल्कि किसी दिल से भी नहीं गुज़री है। (अद्दतल इबादिउल सालिहीन माला ऐना ज़ारत वला इज़ना समेअत वला ख़तर अला क़ल्बे बशर)

बिल आख़िर मक़ामे ज़िक्र यहाँ तक पहुँचता है कि ख़ुद अपनी शख़्सियत फ़रामोश हो जाती है ज़िक्र मुस्तक़िल सूरत इख़्तियार कर लेता है हत्ता की अपने लिये कोई ख़ुदी नहीं आती ।

 

 

हिज़क़ील ने किस चीज़ से इबरत हासिल की

मरवी है कि जब हज़रत दाऊद (अ.स) से तरके औला सरज़द हुआ तो वो पहाड़ों और बियाबानों में रोते और नाला ओ फ़रियाद करते हुए चलते रहते थे यहाँ तक कि एक ऐसे पहाड़ पर पहुँचे जिसके अन्दर एक ग़ार था और उसमे एक इबादत गुज़ार पैग़म्बर हज़रत हिज़क़ील मुक़ीम थे उन्होंने जब पहाड़ों और  हैवानात की आवाज़े सुनी तो समझ लिया कि हज़रत दाऊद आए हैं (क्योंकि हज़रत दाऊद जिस वक़्त ज़बूर पढ़ते थे तो सभी उनके साथ नालों में शरीक हो जाते थे) हज़रत दाऊद (अ.स) ने उनसे कहा कि क्या आप इजाज़त देते हैं कि मैं ऊपर आ जाँऊ ? उन्होंने कहा कि आप गुनाहगार हैं।  हज़रत दाऊद (अ.स) ने रोना शुरू किया तो हज़रत हिज़क़ील को वही पहुँची के दाऊद को उनके तरके औला पर सरज़निश न करो, और मुझसे आफ़ियत तलब करो, क्योंकि मैं जिस शख़्स को उसके हाल पर छोड़ देता हूँ वो ज़रूर किसी ख़ता में मुब्तिला हो जाता है। चुनाँचे हज़रत हिज़क़ील, हज़रत दाऊद का हाथ पकड़ के उन्हें अपने साथ ले आए हज़रत दाऊद ने कहा "ऐ हिज़क़ील! तुमने कभी किसी गुनाह का क़स्द किया है ? उन्होंने कहा नहीं!, उन्होंने फ़िर पूछा कभी तुम्हारे अन्दर उजुब और ख़ुदपसन्दी पैदा हुई ? उन्होंने कहा नहीं। फिर दरयाफ़्त किया आया दुनिया और उसकी ख़्वाहिशों की तरफ़ कभी आपका दिल मायल हुआ ? उन्होंने कहा हाँ । हज़रत दाऊद ने पूछा कि आप इस चीज़ का इलाज किस चीज़ से करते हैं ? तो उन्होंने जवाब दिया मैं इस शिग़ाफ़ में दाख़िल हो जाता हूँ और जो कुछ वहाँ है उससे इबरत हासिल करता हूँ हज़रत दाऊद उनके हमराह उस शिग़ाफ़ में दाख़िल हुए तो देखा कि एक आहनी तख़्त बिछा हुआ है जिस पर कुछ बोसीदा हड्डीयाँ हैं और उसी तख़्त के पास लोहे की एक तख़्ती रक्खी है हज़रत दाऊद ने लोहे को पढ़ा तो उसमें लिखा हुआ था मैं अरदाइ बिन शलम हूँ मैंने हज़ार साल बादशाही की, हज़ार शहर बसाए और हज़ार कुवाँरी लड़कियों को अपने तसर्रूफ़ में लाया लेकिन बिल आख़िर मेरा अन्जाम ये हुआ कि ख़ाक मेरा बिस्तर है पत्थर मेरा तकिया हैं और साँप और चूँटियां मेरे हमसाए हैं पस जो शख़्स मुझे देखे वो दुनिया का फ़रेब न खाए ।

(ऐनुल हयातः- अल्लामा मजलिसी सफ़्हा 172)

 

जिसकी आख़िरी ख़्वाबगाह चन्द मुट्ठी ख़ाक है

ये थी एक बादशाह की सरगुज़्शत और उसका अन्जाम, बहरहाल मोमिन को चाहिये कि अपने को तल्क़ीन करे कि बिलफ़र्ज़ मैंने शैतान और नफ़्स की बात सुनी हवा और हवस के जाल में फ़ँसा और दुनिया और उसकी मसर्रतों के पीछे दौड़ा ये सरगर्मी कब तक ? अगर कोई शख़्स अपनी ज़ात के लिये बहुत ज़्यादा हाथ पाँव मारे तो क्या उसे मौत न आएगी ? मैं चाहे जिस क़दर जान लड़ाऊँ उस बादशाह की मानिन्द नहीं हो सकता, लेकिन उसका अन्जाम भी निगाहों के सामने है।

आँके रा ख़्वाबगी आख़िर दो मुशते ख़ाक अस्त

गो चे हाजत कि बर अफ़लाक कशी ऐवाँ रा

यानी जिसकी आख़ीर ख़्वाबगाह दो मुट्ठी ख़ाक है उससे कहो कि तुझे ये फ़लक बोस महल बनाने की क्या ज़रूरत है ?

मेरी अर्ज़ याददहीनी और नसीहत है अगर इन्सान अपने को बिल्कुल आज़ाद छोड़ दे और मुतानब्बे न करे तो उसका नफ़्स बेलगाम हो जाता है। उसे चाहिये कि कोह (पहाड़) के मानिन्द रहे उकाह (घांस) के मानिन्द नहीं कि एक वसवसे की वजह से शैतान के पीछे चलने लगे उसे अपने ज़ाहिरी ज़र्क़ ओ बर्क़ से चश्मपोशी करके अपने अन्जाम कार को देखना चाहिये।

(किताब इस्तेआज़ा सः 84)

 

ज़ियारते क़ुबूर ख़ुद तुम्हारे लिये है

ये बहरहाल ज़रूरी है कि ख़ुद तुम्हारे वुजूद के अन्दर एक वाज़ ओ नसीहत करने वाला मौजूद रहे शरहे मुक़द्दस में ज़ियारते क़ुबूर और बिलख़ुसूस वालेदैन की क़ब्रों की ज़ियारत के लिये जो इस क़द्र ताक़िद की गई है वो किस लिये है ? इस मक़ाम से जब तुम फ़ातिहा पढ़ते हो तो उन्हें पहुँच जाता है और सदक़ा जहाँ से भी दो वो उस से बहरामन्द होते हैं। लेकिन इरशाद है कि अपने बाप की क़ब्र पर जाओ क्योंकि वो दुआ क़ुबूल होने का मुक़ाम है उसका सबसे बड़ा फ़ायदा ख़ुद तुम्हारे लिये है कि तुम उस बात पर मुतावज्जेह रहो कि तुम्हारे बाप नहीं रहे इसी तरह तुम भी न रहो गे और जल्द या ब-देर उनसे जा मिलोगे दो रोज़ा दुनिया का फ़रेब न खाओ और वसवसो को अपने दिल में जगह न दो खुलासा ये कि ग़फ़लत में न रहो।

(किताब इस्तेआज़ाः- सः- 86)

 

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स. अ.) शोहदाए ओहद की क़ब्रों पर

सिद्दीक़ाए कुबरा जनाबे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा के हालात में वारिद है कि आप पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व)  कि वफ़ात के बाद उन मुसीबतों की वजह से जो आप को पहुँची बीमार हो गईं उसके बावजूद हर दो शन्बे और पंचशन्बे को अमीरूलमोमिनीन हज़रत अली (अ.स) से इजाज़त लेकर ओहद में अपने चचा हमज़ा और दीगर शोहदाए ओहद की क़ब्रों पर तशरीफ़ ले जाती थीं, ख़ुद रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  भी मर्ज़उलमौत की हालत में बावजूद ये कि बुख़ार में मुब्तला थे और चलने की ताक़त नहीं रखते थे फिर भी फ़रमाते थे कि मेरी बग़लों में हाथ देकर मुझे क़बरिस्ताने बक़ी तक पहुँचा दो। ख़ुदा वन्दा ! हमें भी अहले ज़िक्र और नसीहत याफ़्ता अफ़राद में क़रार दे।

(किताब इस्तेआज़ाः- 86)

 

बरज़ख़

यानी मौत के वक़्त से क़यामत तक इन्सानी हयात "वमन वराएहुम बरज़ख़ इला यौमा याबेसून" (सूराः 23 आयतः- 100)

तर्जुमाः- और उनकी मौत के बाद बरज़ख़ है उस रोज़ तक जब वो उठाए जाएगें।  इस बात को यक़ीन के साथ जान लेना चाहिये कि कोई इन्सान मौत से निस्त ओ नाबूद नहीं होता मौत इन्सान की रूह और जिस्म के दरमियान जुदाई का नाम है और उससे रूह का जिस्म से मुकम्मल क़त्ऐ ताल्लुक़ हो जाता है, इस जुदाई के बाद जस्त मुर्दा मिट्टी के अन्दर फ़ासिद और मुन्ताशिर हो जाता है और बिल आख़िर बिल्कुल ख़ाक हो जाता है रूह उसकी जुदाई के दौरान एक लतीफ़ जिस्म के साथ रहती है जो शक्ल ओ सूरत में इसी माद्दी जिस्म की मानिन्द होता है लेकिन शिद्दते लताफ़त की वजह से हैवानी आँखों से देखा नहीं जा सकता। इस अम्र पर यक़ीन रखना चाहिये कि मौत के बाद अकाएद और आमाल के बारे में पुरसिश हो सवालात होंगे लिहाज़ा उन्के जवाबाद के लिये आमादा और मुस्तइद रहना चाहिये लेकिन उनकी कैफ़ियत और तफ़सील जानना ज़रूरी नहीं है साथ ही यक़ीन रखना चाहिये कि बरज़ख़ में फ़ी जुमला सवाब ओ उक़ाब भी हैं यानी अक़ाएद ओ किरदार के असरात से बहरामन्दी हासिल रहना चाहिये यहाँ तक कि क़यामते कुबरा में मुकम्मल सवाबे इलाही और बहीशते जावेदानी तक रसाई हो या पनाह बख़ुदा हमेशा के अज़ाब में गिरफ़्तारी हो, बहुत से मोमिनीन ऐसे हैं जिनका किरदार अच्छा नहीं रहा उनका हिसाब इसी बरज़ख़ी अज़ाब से इस तरह बराबर हो जाता है कि क़यामत में उनके लिये कोई सज़ा नहीं है। (हालाते बरज़ख़ की तफ़सील किताब "मआद" में लिखी जा चुकी उस तरफ़ रूजू करें।)

यक़ीन मज़कूर के लिये लाज़िम है कि अक़ाएदे हक़्क़ा की पुख़्तगी और इस्तेकाम में इस तरह सई करें कि वो दिल में मज़बूती से जगह पकड़ लें ताकि पुरसिश और सवाल के वक़्त मब्हूत और हैरान न हों नीज़ जल्द से जल्द और ज़्यादा से ज़्यादा वाजिबात और मुस्तहिबात में से हर अमले ख़ैर बजा लाने की कोशिश करें।

ख़ुलासा ये कि मौत के बाद की ज़िन्दगी के लिये नेक आमाल की काश्तकारी से एक लहज़े के लिये भी ग़ाफ़िल न बैठें क्योंकि वक़्त बहुत तंग और फ़स्ल काटने का वक़्त बहुत क़रीब है एक इन्सान और उसके आमाल के नताएज के दरमियान सिवा मौत के और कोई चीज़ हायल नहीं है और वो भी हर लहज़ा इन्सान को ख़ौफ़ ज़दा कर रही है।

यक़ीन क़यामत पर यानी उस दिन पर जिसमें तमाम अव्वालीन ओ आख़िरीन अफ़रादे बशर दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाऐंगे और सब एक जगह जमा होंगे जिस रोज़ आफ़ताब और महताब में कोई रौशनी न होगी जिस रोज़ पै दर पै ज़लज़लों के नतीजों में पहाड़ रेज़ा रेज़ा और रेगे बियाबान के मान्निद नर्म हो जाऐगें जिस रोज़ ज़मीन और आसमान बदल किये जाऐगें जिस रोज़ इन्सानों की एक जमाअत मुकम्मल अमनो अमान, शादमानी और सफ़ेद रौशन चहरों के साथ आऐगी और उन लोगों के नामाए आमाल उनके दाहिने हाथ में होंगे और दूसरा गिरोह इन्तेहाई शिद्दत ओ इज़तेराब, रंज ओ अन्दोह और स्याहरूई का हामिल होगा और उनके नामाए आमाल उनके बाऐं हाथों में होंगे।

ये वही दिन होगा जिसे ख़ुदावन्दे आलम ने बरज़ख़ बताया है और ये ऐसा हौलनांक होगा कि बुर्ज़ुगेदीन भी इसे याद करके ख़ौफ़ज़दा, ग़मगीन, गिरयाँ और नाला हो जाते थे और हक़ीक़त ये है कि हर बेदार दिल रखने वाला इन्सान जब क़ुराने मजीद में इसके हालात और औसाफ़ को पढ़ता है और ग़ौर करता है तो उसका सुकून ओ क़रार रूख़सत हो जाता है उसका दिल दुनिया और उसकी ख़्वाहिशों से हट जाता है और उस रोज़ के हौल से ख़ुदा की पनाह माँगता है। इस बात का जानना कोई ज़रूरी नहीं है कि क़यामत कब बरपा होगी ? इसी तरह इसके बाज़ ख़ुसूसियात और कैफ़ियत का जानना न ज़रूरी है न फ़ायदेमंद बल्कि उनके बारे में सवालात करना बेजा है क्योंकि ये ख़ुदाए तआला के मख़्सूस उलूम मे से है अलबत्ता उस रोज़ के जिन मवाक़िफ़ की तस्रीह क़ुराने मजीद में मौजूद है उनका जानना लाज़िम बल्कि उनपर यक़ीन करना वाजिब है और उन मवाक़िफ़ से इबारत है मीज़ान, सिरात, हिसाब, शिफ़ाअत, बहिश्त और दोज़ख़ जैसा कि आइन्दा ज़िक्र होगा।

(किताब क़ल्बे सलीम सफ़्हाः- 247)

 

बरज़ख़

लुग़त में बरज़ख़ के माने ऐसे परदे और हायल के हैं जो दो चीज़ों के दरमियान वाक़े हो और उन दोनों को एक दूसरे से मिलने न दे मसअलन दरियाए शोर व शीरीं में दोनों मौजें मार रहे हैं लेकिन ख़ुदाए तआला ने उनके दरमियान एक ऐसा मानेय क़रार दिया है कि उनमें से एक दूसरे पर हावी नहीं हो सकता (मरजल बहरैने यलततक़ियान बैनाहुमा बहज़ख़ुल यबग़ियान, सूरा रहमान)

और इसी को बरज़ख़ कहते हैं लेकिन इस्तेलाह के मुताबिक़ बरज़ख़ एक ऐसा आलम है जिसे ख़ुदावन्दे आलम ने दुनिया और आख़िरत के दरमियान क़ायम फ़रमाया है ताकि ये दोनों अपनी अपनी ख़ुसूसियत और कैफ़ियत के साथ बाक़ी रहें ये दुनियावी और उख़रवी ऊमूर के माबैन एक आलम है बरज़ख़ में सर का दर्द, दाँतो का दर्द या दूसरे अमराज़ और दर्द मौजूद नहीं हैं ये सब इस आलमे माददी के तरकीबात का लाज़िमा हैं अलबत्ता उस जगह मुजर्रदात हैं जिनका माद्दे से ताअल्लुक़ नहीं है लेकिन वो सरीही तौर से आख़िरत भी नहीं है यानी गुनाहगारों के लिये ज़ुल्मते महज़ और इताअत गुज़ारों के लिये नुरे महज़ नहीं है। लोगों ने इमाम (अ.स) से सवाल किया कि बरज़ख़ का ज़माना कौन है ? तो फ़रमाया मौत के वक़्त से उस वक़्त तक जब लोग क़ब्रों से उठेगें (मन हैना मौतहू इला यौमा यबसेऊन- बिहारूल अनवार) और क़ुराने मजीद में इरशाद है "और उनके पीछे एक बरज़ख़ है रोज़े क़यामत तक"

(वमन राऐहुम बरज़क़ इला यौमा यबसेऊन- किताबे मआद सफ़्हाः- 30)

 

आलमे मिसाली- बदने मिसाली

बरज़ख़ को आलमे मिसाली भी कहते हैं क्योंकि वो इसी आलम के मानिन्द है लेकिन सिर्फ़ सूरत और शक्ल के लिहाज़ से अलबत्ता माद्दे और ख़्वास व ख़ुसूसियात के लिहाज़ से फ़र्ख़ रखता है मौत के बाद हम एक ऐसे आलम में वारिद होते हैं कि ये दुनिया उसके मुक़ाबले में ऐसी ही महदूद है जैसे शिकमे मादर इस दुनिया की निस्बत से।

बरज़ख़ में तुम्हारा बदन भी बदने मिसाली है यानी शक्ल के ऐतेबार से तो इसी मद्दी जिस्म के मुताबिक़ है लेकिन उसके अलावा जिस्म और मद्दा नहीं है जिम मक़ाम पर भी क़याम करे हर चीज़ को देखता है उसके लिये दीवार के इस तरफ़ और उस तरफ़ का कोई सवाल नहीं है। इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) फ़रमाते हैं कि अगर तुम उस बदने मिसाली को देखो तो कहोगे कि ये तो बिल्कुल वही दुनियावी जिस्म है (लौरायतालकुलता हौहौ) ।

(बिहारूल अनवार) इस वक़्त अगर तुम अपने बाप को ख़्वाब में देखो तो इसी दुनियावी बदन का मुशाहिदा करोगे लेकिन उनका जिस्म और माददा तो क़ब्र के अन्दर है ये सूरत और बदन मिसाली है- बरज़ख़ी जिस्म।

वो आँखें रखता है, वो उन्हीं माददी आँख़ो का हमशक्ल हैं लेकिन उनमे चर्बी वग़ैरा नहीं है उनमें दर्द नहीं होता क़यामे क़यामत तक देखती रहेंगी वो बख़ूबी देख सकती हैं न इन आँखों की तरह कभी कमज़ोर होती हैं न ऐनक वग़ैरा की ऐहतियाज रखती हैं हुक्मा और मुताकल्लेमीन उसको उस तस्वीर से तश्बीह देते हैं जो आएने में नज़र आती है लेकिन उसी सूरत में कि उसके अन्दर दो शर्ते पाई जाती हों, एक क़याम बिन लज़्ज़ात यानी उस तरह कि ख़ुद अपने वजूद से क़ायम हो न कि आइने और दिगर इदराक ओ शऊर के ज़रिये बदने मिसाली अपनी ज़ात पर क़ायम और फ़हमो शऊर का हामिल होता है उसकी मिसाल वही ख़्वाब है जो तुम देखते हो कि एक चश्मे ज़दन में तवील मुसाफ़ते तय कर लेते हो कभी मक्के पहुँच जाते हो और कभी मशहदे मुक़द्दस, इस आलम में ऐसी तरह तरह की खाने पीने और नोश करने की चीज़ें, ज़ेबा और दिलरूबा सूरतें और नग़मे मौजूद हैं जिनमें से किसी एक पर भी दुनिया वाले दस्तरस नहीं रखते लेकिन मिसाली जिस्मों के अन्दर बसने वाली रूहें उन तमाम चीज़ों से बहरा अन्दाज़ होती और रिज़्क़ हासिल करती हैं।

(सूराए आले इमरान आयतः- 179)

अलबत्ता उस आलम में ख़ुर्द ओ नौश की अशिया और दीगर नेमतें सभी लतीफ़ हैं और उनका मददे से कोई तआल्लुक़ नहीं है इसी बिना पर जैसा कि रवायतों में वारिद हुआ है मुमकिन है कि एक ही चीज़ मोमिन के इरादे के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ सूरतों मुबददिल हो जाए मसअलन ज़र्द आलू मौजूद हो लेकिन वो शफ़तालू चाहता है तो शफ़तालू बन जाए ये सब तुम्हारे इरादे पर मुन्हसिर होगा चुनाँचे एक रवायत में रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) से मनक़ूल है कि आँहज़रत ने फ़रमाया मैंने अपने चचा सैय्युश शोहदा हमज़ा को (बादे शहादत) देखा कि उनके सामने जन्नत के अनार का एक दबक़ रखा हुआ है और वो उनमें से नौश फ़रमा रहें हैं नागहाँ वो अनार अंगूर हो गऐ और उन्होंने नौश फ़रमयाए फिर मैंने देखा कि दफ़अतन वो अंगूर रूतब की सूरत में आ गऐ (बक़िया रवायत का खुलासा ये है कि आँहज़रत ने फ़रमाया कि मैंने अपने चचा से पूछा कि यहाँ कौन सी चीज़ मूवस्सिर और नतीजा ख़ेज़ होती है ? तो उन्होंने कहा तीन चीज़ें ज़्यादा काम आती हैं अव्वल प्यासे को पानी पिलाना दोम आप और आपकी आल पर सलवात भेजना सोम अली (अ.स) की मोहब्बत ) मेरा मक़सद एक चीज़ का मुख़्तलिफ़ सूरतों में बदल जाना है क्योंकि वो माददा नहीं और लतीफ़ है ।

(किताबे मआद)

 


तासीर और तास्सुर की शिद्दत

इस दुनिया पर आलमे बरज़ख़ की बरतरी और इम्तियाज़ी ख़ुसूसियात में से तासीर की क़ुव्वत है हिकमते इलाहिया के बारे में एक इल्मी बयान हो चुका है जो आम इन्सानों के सामने पेश करने की चीज़ नहीं है लिहाज़ हम इस मौज़ू की तरफ़ सिर्फ़ एक इशारा करते हुए आगे बढ़ते हैं। ( मुदरिक यानी इदराक करने वाला और इदराक होने वाला जिस क़दर ज़्यादा लतीफ़ होगा इदराक भी ज़्यादा क़वी होगा)

ये मेवे, शीरीनियाँ और लज़्ज़तें जो हम चखने और खाने से हासिल करते हैं आलमे बरज़ख़ के मेवों, शीरीनियों और लज़्ज़तों में से सिर्फ़ एक क़तरा हैं इनकी अस्ल ओ बुनियाद उसी मुक़ाम पर है- अगर हुरैन की सूरत का एक गोशा भी खुल जाए तो आँखें खीरा हो जाऐं हूर का नूर अगर इस आलम में आ जाऐ तो आफ़ताब के नूर पर ग़ालिब आ जाए हक़ ये है कि जमाले मुतलक़ उसी जगह पर है, परवरदिगारे आलम क़ुराने मजीद में फ़रमाता हैः

जो कुछ ज़मीन पर है उसे हमने उसके लिये ज़ीनत क़रार दिया है लेकिन ऐसी ज़ीनत जो बाएसे इम्तिहान है (सूराः-18, आयतः- 6)

ताकि छोटे को बड़े से और नादान बच्चे को अक़्लमन्द से तमीज़ दी जा सके और मालूम हो जाए कि कौन शख़्स इस बग़ीचे से शाद ओ मसरूर होता है और कौन इसके फ़रेब में नहीं आता बल्के लज़्ज़ते हक़ीक़ी, जमाले वाक़ई और सच्ची ख़ुशी की तलाश में रहता है।

इजमाली तौर पर मेरा मक़सदे बयान ये है कि तासीर की शिद्दत और क़ूवत आलमे बरज़ख़ में है जिसका इस दुनिया पर क़यास नहीं किया जा सकता बाज़ अवक़ात उस आलम की हक़ीक़त ओ असलियत के कुछ नमूने सामने भी आ जाते हैं जो दूसरों के लिये बायसे इबरत हैं मिनजुमला उनके मरहूम निराक़ी ने ख़्ज़ाएन में अपने एक मूवस्सिक़ और मोतमद दोस्त का ये बयान नक़्ल किया है कि मुझे अपनी जवानी की उम्र में अपने बाप और चन्द रफ़ीक़ों के हमराह अस्फ़ेहान में ईदे नौरोज़ के मौक़े पर दीद और बाज़दीद के लिये जाना था चुनाँचे एक सहशन्बा को अपने एक रफ़ीक़ की बाज़दीद के लिये गया जिसका मकान क़बरिस्तान के क़रीब था लोगों ने कहा कि वो घर में नहीं हैं, हम लोग एक लम्बा रास्ता तय करके आय थे लिहाज़ा ख़स्तगी दूर करने के लिये और अहले क़ुबूर की ज़ियारत करने के लिये क़ब्ररिस्तान में चले गये और वहाँ थोड़ी देर के लिये बैठ गये रफ़ीक़ों में से एक शख़्स ने क़रीब की एक क़ब्र की तरफ़ रूख़ करके मिज़ाह के तौर पर कहा कि ऐ साहबे क़ब्र ! ईद का ज़माना है क्या आप हमारा ख़ैर मक़दम नहीं करेंगे ? नागहाँ एक आवाज़ आई कि एक हफ़्ते बाद सहशन्बे को इसी जगह आप सब लोग हमारे महमाने होंगे इस आवाज़ से हम सभी को वहशत पैदा हो गई और हमने ख़्याल किया कि आईन्दा सहशन्बे से ज़्यादा ज़िन्दा नहीं रहेगें लिहाज़ा अपने कामों की दुरूस्ती और वसीयत वग़ैरा में मशग़ूल हो गए लिहाज़ा मौत के आसार ज़ाहिर नहीं हुए सहशन्बे को थोड़ा दिन चढ़ने के बाद हम लोग जमा हुए और तय किया कि उसी क़ब्र पर चलना चाहिये शायद उस आवाज़ से हमारी मौत मुराद नहीं थी जिस वक़्त हम क़ब्र पर पहुँचे तो हम में से एक शख़्स ने कहा ऐ साहबे क़ब्र ! अब अपना वादा पूरा करो ! एक आवाज़ आई कि तशरीफ़ लाईये (इस जगह ये बात क़ाबिले तवज्जोह है कि ख़ुदाए तआला कभी कभी निगाहों के सामने हायल और माने दीदारे बरज़ख़ी के परदे हटा देता है ताकि इबरत हासिल हो) उस वक़्त हमारी आँख़ों के सामने का मन्ज़र बदल गया और मलकूती आँख खूल गई हमने देखा कि एक इन्तेहाई सरसब्ज़ ओ शादाब और ख़ुशनुमा बाग़ ज़ाहिर हुआ, उसमे साफ़ ओ शफ़ाफ़ पानी की नहरें जारी हैं, दरख़्तों पर हर क़िस्म के और हर फ़स्ल के मेवे मौजूद हैं और उन पर तरह तरह के ख़ुशअलहान परिन्दे नवासन्जी कर रहे हैं बाग़ के दरमियान हम एक शानदार और आरास्ता इमारत में पहुँचे तो वहाँ एक शख़्स इन्तेहाईं हुस्न ओ जमाल और सफ़ाई के साथ बैठा हुआ था और बहुत ही ख़ुबसूरत ख़ादिमों की एक जमाअत उसकी ख़िदमत में मसरूफ़ थी जब उसने हमको देखा तो अपनी जगह से उठ के उज़्रख़्वाही की वहाँ हमने अनवाओ अक़साम की शीरीनियाँ, मेवे और ऐसी चीज़े देखीं जिन्हें कभी दुनिया में न देखा था बल्कि उनका तसव्वुर भी नहीं किया था।

मेरा अस्ल मक़सूद उनका ये जूमला है कि जिस वक़्त हमने उन्हें खाया तो वो इतने लज़ीज़ थे कि हमने कभी ऐसी लज़्ज़त नहीं चक्खी थी और हम जिस क़दर भी खाते थे सेर नहीं होते थे यानी फिर भी खाने की ख़्वाहिश बाक़ी रहती थी मुख़्तलिफ़ अक़साम के दीगर मेवे और शीरीनियाँ भी लाई गईं और साथ ही तरह तरह की दूसरी ग़िज़ाऐं भी मौजूद थी जिनके ज़ाएक़े मुख़्तलिफ़ थे।

एक साएत के बाद हम लोग उठे कि देखें अब क्या सूरत पेश आती है उस शख़्स ने बाग़ के बाहर तक हमारी मशायत की मेरे बाप ने उससे पूछा कि तुम कौन हो कि ख़ुदाए तआला ने तुम्हें ऐसी वसीअ और शानदार जगह इनायत फ़रमाई है कि अगर चाहो तो सारी दुनिया को अपना मेहमान बना सकते हो और ये कौन सी जगह है ? उसने कहा मैं तुम्हारा हमवतन और फ़ुलाँ मोहल्ले का फ़ुलाँ क़स्साब हूँ हम लोगों ने कहा इतने बुलन्द दरजात और मक़ामात मिलने का सबब क्या है ? उसने जवाब दिया कि दो सबब थे एक ये कि मैंने अपनी दुकानदारी में कभी कम नहीं तौला था और दूसरा ये कि मैंने अपनी सारी ज़िन्दगी में कभी अव्वल वक़्त की नमाज़ तरक नहीं की थी अगर गोश्त को तराज़ू में रख चूका होता था और मोअज़्ज़िन कि सदाए "अल्लाहो अकबर" बलन्द होती थी तो मैं उसे वज़न नहीं करता था और नमाज़ के लिये मस्जिद चला जाता था इसी लिये मरने के बाद मुझे ये मक़ाम दिया गया है। गुज़िश्ता हफ़्ते जब तुमने वो बात कही थी तो उस वक़्त तक मुझे दावत देने की इजाज़त हासिल न थी चुनाँचे इस हफ़्ते के लिये मैंने इज़्न हासिल किया। इसके बाद हम लोगों में से हर फ़र्द ने अपनी मुद्दते उम्र के बारे में सवाल किया और उसने जवाब दिया। मिनजुमला इनके एक उस्तादे मकतब के लिये कहा कि तुम नव्वे साल से ज़्यादा की उम्र पाओगे चुनाँचे वो अभी ज़िन्दा हैं और मेरे लिये कहा कि तुम फ़ुलाँ कैफ़ियत और हालत में रहोगे और तुम्हारी ज़िन्दगी में अब मज़ीद दस पन्द्रह साल बाक़ी रह गऐ हैं उसके बाद हमने ख़ुदा हाफ़िज़ कहा और उसने हमारी मशायत की हमने फ़िर पलटना चाहा तो दफ़अतन नज़र आया कि हम उसी पहली जगह क़ब्र के ऊपर बैठे हुए हैं।

(किताबे मआद सफ़्हाः 32)

 

हालाते आख़िरत के बारे में एक रवायत

जिस वक़्त मौलाऐ मुतक़्कीयान अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) की मादरे गिरामी जनाबे फ़ातिमा बिन्ते असद (स.अ.) ने वफ़ात पाई तो अमीरूल मोमिनीन रोते हुए हज़रत पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.व.व) के पास आए और कहा कि मेरी माँ ने इस दुनिया से इन्तेक़ाल फ़रमाया हज़रत रसूले ख़ुदा ने फ़रमाया कि मेरी माँ ने रेहलत की है इस लिये की वो मोअज़्ज़मा पैग़म्बर से बहुत ही मुहब्बत करती थी और एक मुद्दत तक आँ हज़रत के साथ बिल्कुल माँ की तरह सुलूक किया था। कफ़न देने के वक़्त आँ हज़रत अपना पैराहन लाए और फ़रमाया कि उन्हें पहना दिया जाए क़ब्र के अन्दर ख़ुद थोड़ी देर के लिये लेटे और दुआ फ़रमाई फिर दफ़्न के बाद सिरहाने खड़े हुए और कुछ देर बाद बलन्द आवाज़ से फ़रमाया "अबनोका अबनोका वला अक़ील वला जाफ़र" लोगों ने पैग़म्बरे ख़ुदा से पूछा कि इन आमाल का सबब क्या था ? तो फ़रमाया कि एक रोज़ क़यामत की बरहनगी का ज़िक्र हुआ तो फ़ातिमा बिन्ते असद रोने लगीं और मुझ से ख़्वाहिश की मैं अपना पैराहन उन्हें पहनाऊँ वो फ़िशारे क़ब्र से भी ड़रती थीं इसी वजह से मैं उनकी क़ब्र में लेट गया था और दुआ की थी (ताकि ख़ुदा उन्हें फ़िशारे क़ब्र से महफ़ूज़ रक्खे) लेकिन मैंने जो ये कहा था कि (अबनोका..........) तो उसका सबब ये था कि जब फ़रिश्ते ने उनसे ख़ुदा के बारें में सवाल किया तो उन्होंने कहा अल्लाह, पैग़म्बर के बारे में पूछा तो कहा मोहम्मद ! लेकिन जब इमाम के बारे में सवाल हुआ तो उन्हें जवाब में तरदुद हुआ इसी लिये मैंने कहा कह दो तुम्हारा फ़रज़न्द अली, न जाफ़र और न अक़ील

(मालूम होता है कि ये बात इस लिये पेश आई कि ये वाक़िया ग़दीरे ख़ुम और ख़ीलाफ़ते अमीरूल मोमिनीन के सरीही ऐलान से क़ब्ल पेश आया था)  (इस रवायत की सेहत मोहताजे जुस्तुजू है क्योंकि जनाबे फ़ातिमा बिन्ते असद जैसी ख़ातूने इमामत ओ रिसालत पनाह के लिये मुमकिन ही नहीं कि वो हज़रत अली (अ.स) की माँ होने के बावजूद इस मंज़िल से गुज़रें जबकि आम मुहिबे अहलेबैत की शान इस से बुलन्द है और रसूल के लिये ये मुमकिन ही नहीं की वो इमामते अली के ऐलान के लिये मना फ़रमाऐं जबकि ये एक वाजबी अम्र हैः- हिन्दी मुतारज्जिम)

इस मक़ाम पर काफ़ी गुफ़्तगू और वाज़ ओ नसीहत की जा सकती है हज़रते फ़ातिमा बिन्ते असद जैसी जलीलुल क़दर औरत अज़ीमुलमरतबत ख़ातून ऐसी मोहतरम बीबी जो शरीफ़तरीन मक़ाम ख़ानाऐ काबा में तीन रोज़ तक ख़ुदा की मेहमान रह चुकी थीं ऐसी मुख़्तदरा जिनका शिकमे मुबारक हज़रत अमीरूलमोमिनीन के जिस्मे मुत्ताहर की परवरिश का अहल और महल था और ये दूसरी औरत थीं जो पैग़म्बरे ख़ुदा पर ईमान लाईं थीं अपनी तमामतर इबादतों के बावजूद आख़िरत की सख़्तियों से इस क़दर ड़रती थीं और रसूले ख़ुदा स00 भी उनके साथ ऐसा मुआमला फ़रमाते हैं तो हमें सोचना चाहिये कि हमारा क्या हाल होगा ?

अब हम अपने अस्ल मतलब पर वापस आते हैं कि मुख़बिरे सादिक़ यानी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.व.व) फ़रमाते हैं कि सवाल ओ जवाब फ़िशारे क़ब्र और बरहन्गी, क़यामत वग़ैरा बरहक़ हैं।

(किताब मआद सफ़्हाः 42)

 

जिस्मानी बदन में रूह की तासीर

हर चन्द बरज़ख़ में नेमत वा ख़ुशहाली या अज़ाब व उक़ाब रूह के लिये होता है लेकिन रूह की क़ूवत के तहत बदने ख़ाकी भी मुतास्सिर होता है जैसा कि कभी कभी हयाते रूहानी की शिद्दत के असर से ये बदन क़ब्र के अन्दर भी बोसीदा नहीं होता और हज़ारों साल गुज़रने के बाद भी तरो ताज़ा रहता है। इस मौज़ू के शवाहिद भी बहुत हैं मसअलन इब्ने बाबुविया अलैहिर्रहमा के डेढ़ सौ साल बाद क़ब्ल तक़रीबन फ़तेह अली शाह के दौर में जब तामीराती काम चल रहा था और उस सिलसिले में लोग सरदाब के अन्दर दाख़िल हुए तो देखा कि उन बुज़ुर्गवार का जनाज़ा बिल्कुल तरो ताज़ा है और कफ़न भी क़तअन बोसीदा नहीं हुआ है बल्कि उससे ज़्यादा अजीब बात ये थी कि नौ सौ साल से ज़्यादा गुज़रने के बाद भी आपके नाख़ूनों से हिना का रंग बरतरफ़ नहीं हुआ था इसी तरह किताब "रौज़ातुल जिन्नात" में लिखते हैं कि "1238" के दौरान बारिश की वजह से शैख़ सुदूक़ अलैहिर्रहमा के मक़बरे में रख़ना और ख़राबी पैदा हो गई थी लिहाज़ा लोगों ने चाहा कि उसकी इस्लाह और तामीर कर दें चुनाँचे जब क़ब्रे मुबारक के सरदाब में पहुँचे तो देखा कि उनका जिस्मे मुताहर क़ब्र के अन्दर बिल्कुल सही और सालिम है दरहाँलाकि वो तनो मंद और तन्दरूस्त थे और उनके नाख़ूनों पर ख़िज़ाब का असर था ये ख़बर तेहरान में मशहूर हो गई और फ़तह अली शाह के कानो तक पहुँची तो ख़ुद बादशाह उल्मा की एक जमाअत और अपने अरकाने दौलत के हमराह तहक़ीक़ के लिये गया और उस वाक़िये की सूरते हाल उसी तरह पाई जिस तरह सुनी थी चुनाँचे बादशाह ने हुक्म दिया कि उस शिग़ाफ़ या सूराख़ को बन्द करके इमारत की तजदीद और आईनाबंदी की जाए ।

(किताबे मआद सफ़्हाः- 43)

 

बरज़ख़ कहाँ हैं ?

मुमकिन है कि बाज़ लोगों के ज़ेहन में ये सवाल पैदा हो कि इस क़दर तूल और तफ़्सील के साथ आलमे बरज़ख़ कहाँ वाक़ेअ है ? यक़ीनन हमारी अक़्ल इस की हक़ीक़त को समझने से क़ासिर है अलबत्ता रवारयत में कुछ तशबीहें वारिद हुईं हैं मिसाल के तौर पर ज़मीनों और आसमानों समेत ये सारा आलमे दुनिया आलमें बरज़ख़ की निस्बत से ऐसा ही है जैसे किसी बियाबान के अन्दर कोई अंगूठी पड़ी हो जब तक इन्सान इस दुनिया में है सेब के अन्दर एक कीड़े या शिकमे मादर के अन्दर एक बच्चे की मानिन्द है जिस वक़्त उसे मौत आजाती है और आज़ाद हो जाता है तो कहीं और नहीं चला जाता बल्कि क़तअन इसी आलमे वुजूद में रहता है लेकिन उसकी महदूदियत ख़त्म हो जाती है इसलिये कि ज़मानो मकान की क़ैद नहीं होती, ये क़यूद तो इस दुनिया यानी आलमे माददा और तबीयत की चीज़ें हैं।

अगर शिकमे मादर के अन्दर बच्चे से कहा जाए कि तुम्हारे इस मसकन से बाहर एक ऐसी वसीए दुनिया मौजूद है जिसके मुक़ाबिले में ये शिकमे मादर कोई हक़ीक़त नहीं रखता तो वो इसको समझने से क़ासिर होगा।

इसी तरह हमारे लिये अवालिमे आख़िरत क़ाबिले इदराक है कि कोई शख़्स नहीं जानता कि उसके लिये कौन सी चीज़ें मुहय्या की गईं हैं। (सूराः- 32 आयतः-127)

हाँ इतना ज़रूरी है कि चूँकि मुख़बिरे सादिक़ ने ख़बर दी है लिहाज़ा हम भी उसकी तस्दीक़ करते हैं, आलमे बरज़ख़ इस दुनिया पर मुहीत है जिस तरह ये दुनिया रहमे मादर का एहाता किये हुए है और इससे बेहतर ताबीर नहीं की जा सकती। (किताबे मआद सफ़्हाः- 50)

 

रूहें आपस में मुहब्बत करती हैं

असबग़ बिन नबाता कहते हैं कि मैंने अपने मौला अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम को देखा कि कूफ़े के दरवाज़े में सहरा की जानिब रूख़ किये खड़े हैं और गोया किसी से गुफ़्तगू फ़रमा रहे हैं लेकिन मैंने किसी दूसरे को नहीं देखा मैं भी खड़ा हो गया यहाँ तक कि काफ़ी देर तक ख़ड़ा रहने से थक कर बैठ गया और जब थकान दूर हुई तो दोबारा ख़ड़ा हो गया इसी तरह फिर थक कर बैठा और खड़ा हुआ लेकिन अमीरूलमोमिनीन (अ.स) उसी तरह खड़े और गुफ़्तगू में मसरूफ़ रहे मैंने अर्ज़ किया या अमीरूलमोमिनीन किस से गुफ़्तगू फ़रमा रहे हैं? तो फ़रमाया कि मेरी ये बात चीत मोमिनीन के साथ उन्सो मुहब्बत है मैंने अर्ज़ किया मोमिनीन ? तो फ़रमाया हाँ ! जो लोग इस दुनिया से चले गये हैं वो यहाँ मौजूद हैं मैंने अर्ज़ किया सिर्फ़ रूहें हैं या उनके अजसाम भी हैं ? फ़रमाया रूहें हैं, अगर तुम उन्हें देख सकते हो तो देखते कि किस तरह आपस में हल्क़ा बाँधे हुए बैठे हैं एक दूसरे से उन्स ओ मोहब्बत रखते हैं बातें करते हैं और ख़ुदा को याद करते हैं। (किताबे मआदः- 50- 51)

 

वादिउस्सलाम रूहों का घर हैं

दीगर अहादीस में वारिद हुआ है कि दुनिया के मशरिक़ ओ मग़रिब में जो मोमिन भी रहलत करता है उसकी रूह क़ालिबे मिसाली में जगह पाने के बाद जवारे अमीरूल मोमिनीन (अ.स) में वादिउस्सलाम के अन्दर ज़ाहिर हती है बअल्फ़ाज़े दीगर नजफ़े अशरफ़ मलकूते उलिया की नुमाईशगाह है जैसा कि काफ़िर के लिये सहराऐ बरहूत है ये यमन के अन्दर एक हैबतनाक वादी है जिसमें न घास उगती है न कोई परिन्दा वहाँ से गुज़रता है यही मलकूते सिफ़ला का महल्ले ज़ुहूर है तुमने हज़रत अली (अ.स) के जवार मे जवार में रहने की अहमियत का जो ज़िक्र सुना है वो रूहानी मुजावरत के बारे में है हर चन्द उसका बदन दूर हो अमीरूल मोमिनीन से नज़दीकी सिर्फ़ इल्म और अमल के ज़रिये मुमकिन है किसी शख़्स से अगर एक गुनाह सरज़द होता है तो वो उसी के अन्दाज़े के मुताबिक़ आप से दूर हो जाता है अगर रूह हज़रत अली (अ.स) के साथ हो तो जस्दे ख़ाकी भी नजफ़े अशरफ़ में दफ़्न होता है और कितनी बेहतर है ये अज़ीम मआदत लेकिन ख़ुदा न करे कि किसी का जिस्म तो नजफ़े अशरफ़ पहुँच जाए लेकिन उसकी रूह वादिये बरहूत में अज़ाब झेल रही हो। इसी बिना पर पूरी कोशिश करना चाहिये कि रूहानी इत्तीसाल क़वी रहे अलबत्ता जिस्म का वादिउस्सलाम में दफ़्न होना भी बेअसर नहीं है बल्कि पूरी तासीर रखता है क्योंकि ये भी हज़रत अमीरूल मोमिनीन की इनायत से एक तरह का तवस्सुल है।

हज़रत अमीरूल मोमिनीन की इनायत के ज़ैल में किताबे मदीनतुल मआजिज़ के अन्दर मनक़ूल है कि एक रोज़ मौलाऐ मुतक़्क़ीयान अपने चन्द असहाब के साथ दरवाज़ाऐ कूफ़ा की पुश्त पर तशरीफ़ फ़रमा थे, आपने एक मरतबा नज़र उठाई और फ़रमाया जो कुछ मैं देख रहा हूँ तुम लोग भी देख रहे हो ? लोगों ने अर्ज़ किया नहीं या अमीरूल मोमिनीन ! आपने फ़रमाया कि मैं देख रहा हूँ कि दो शख़्स एक जनाज़े को ऊँट पर रखे हुए ला रहे हैं उन्हें यहाँ पहुँचने में तीन दिन लगेंगे तीसरे रोज़ हज़रत अली (अ.स) और आपके असहाब इस इन्तेज़ार में बैठे हुए थे कि देखें क्या सूरते हाल पेश आती है सबने देखा कि दूर से एक ऊँट ज़ाहिर हुआ जिसके ऊपर एक जनाज़ा रक्खा हुआ था एक शख़्स ऊँट की मिहार पकड़े हुए है और एक शख़्स ऊँट के पीछे चल रहा है। जब क़रीब पहुँचे तो हज़रत ने पूछा ये जनाज़ा किस का है और तुम लोग कौन हो और कहाँ से आ रहे हो ? उन्होंने अर्ज़ किया कि हम लोग यमन के रहने वाले हैं और ये जनाज़ा हमारे बाप का है उन्होंने वसीयत की थी कि मुझे ईराक़ की तरफ़ ले जाना और कूफ़े में दफ़्न करना, हज़रत ने फ़रमाया, आया तुम लोगों ने इसका सबब भी दरयाफ़्त किया था ? उन्होंने कहा कि हाँ ! हमारा बाप कहता था कि वहाँ एक ऐसी हस्ती दफ़्न होगी जो अगर सारे अहले महशर की शफ़ाअत करना चाहे तो कर सकती है। हज़रत अली (अ.स) ने फ़रमाया, सच कहा उसने, फिर दो मरतबा फ़रमाया मैं वही हूँ !

मुहद्दिसे क़ुम्मी ने मफ़ातिहुल जिनान के अन्दर इस बारे में कि जो शख़्स हज़रते अमीरूलमोमिनीन की क़ब्रे मुबारक की पनाह ले तो उस से बहरामंद होगा, एक अच्छी और मुनासिब मसल बयान की है, इमसाले अरब में है कि कहते हैं "अहम्मा मिन मजीरूल जराद" यानी अपनी पनाह में आने वाले के लिये फ़ुलाँ शख़्स की हिमायत टिडडियों को पनाह देने वाले से ज़्यादा है और किस्सा इसका ये है कि क़बीलाए तै का एक बदिया नशीन शख़्स जिसका नाम बदलज इब्ने सवेद था एक रोज़ अपने ख़ेमे में बैठा हुआ था उसने देखा कि क़बीलाऐ तै के लोगों का एक गिरोह आया जो अपने हमराह कुछ ज़ुरूफ़ और बड़े थैले भी लाया था, उसने पूछा क्या ख़बर है ? उन्होंने कहा, तुम्हारे ख़ेमे के चारो तरफ़ बेशुमार टिडडियाँ उतरी हैं हम उन्हें पकड़ ने के लिये आये हैं, मदलज ने ज्यों ही ये बात सुनी उठकर अपने घोड़े पर सवार हुआ, नैज़ा हाथ में लिया और कहा, ख़ुदा की क़सम जो शख़्स भी इन टिडडियों ताअरूज़ करेगा मैं उसे क़त्ल कर दूगाँ आया ये टिडडियाँ मेरे जवार और मेरी पनाह में होंगी और तुम उन्हें पकड़ लोगे ? ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता वो इसी तरह से बराबर उनकी हिमायत करता रहा, यहाँ तक कि धूप तेज़ हुई और टिडडियाँ वहाँ से उड़ के चली गईं उस वक़्त उसने कहा कि ये टिडडियाँ मेरे जवार से चली गईं अब तुम जानों या वो जानें -- -- चुनाँचे फ़ी जुमला ये बदीही अम्र है कि अगर कोई शख़्स अपने मौलाऐ कायनात के जवार में पहुँचा दे और आप से पनाह तलब करे तो क़तअन आपकी हिमायत से फ़ैज़याब होगा। (किताबे मआद सफ़्हाः- 51)

 

क़ब्र से रूह का ताअल्लुक़ बहुत गहरा है

मुहद्दिसे जज़ाएरी अनवारे नोमानिया के आख़री सफ़्हात में कहते हैं कि अगर तुम कहो कि जब रूहें क़ालिबे मिसाली में और वादिउस्सलाम के अन्दर हैं तो उनकी क़ब्रों पर जाने का हुक्म किस लिये दिया गया है ? और वो अपने को ज़ायर किस तरह समझ लेती हैं दर हाँलाकि वो यहाँ मौजूद नहीं हैं ? तो हम जवाब में कहेंगे कि इमामे जाफ़र सादिक़ (अ.स) से रवायत है कि रूहें हर चन्द वादिउस्सलाम में हों लेकिन क़ब्रों के मक़ामात उनके अहाताऐ इल्मिया के अन्दर होते हैं जिनकी वजह से वो अपने क़ुबूर पर आने वालों और ज़ियारत करने वालों को जान लेती हैं, इमाम ने अरवाह की तशबीह आफ़ताब से दी है यानी जिस तरह आफ़ताब ज़मीन पर नहीं बल्कि आसमान पर है लेकिन उसकी शुआऐं ज़मीन के हर मक़ाम का अहाता किये हुऐं हैं इसी तरह अरवाह का एहातऐ इल्मिया है हक़ीर कहता है कि जिस तरह शुआऐं आफ़ताब का ज़हूर उस मक़ाम पर क़तअन दीगर मक़ामात से ज़्यादा होता है जहाँ कोई आईना और बिल्लौर मौजूद हो उसी रूह की तवज्जो और एहाता अपनी क़ब्र पर दूसरी जगह से ज़्यादा होता है क्यों कि उस बदन से उसकी दिलचस्पी और तआल्लुक़ होना ही चाहिये जिसने सालहा साल उसके लिये काम किया है और इसी बयान से उस शख़्स का जवाब भी मिल जाता है जो ये कहता है कि इमाम तो हर जगह हाज़िर ओ नाज़िर हैं लिहाज़ा उनकी क़ब्रे मुबारक की ज़ियारत के लिये जाना क्या ज़रूरी है ? क्योंकि इस मक़ाम और दीगर मक़ामात में कोई फ़र्क़ नही पड़ता।

इसमें कोई शक नहीं कि आइम्मा और बुर्ज़ुगे दीन की क़ब्रों के मक़ामात हमेशा उनकी अरवाहे मुक़द्दसा के लिये मुरिदे तवज्जो, बरकतों और ख़ुदा की रहमतों के लिये महल्ले नुज़ूल और मलाएका की आमद ओ रफ़्त की मंज़िलें हैं अगर कोई शख़्स चाहता है कि उसे इन बुर्ज़गाने दीन के बाबे करम से पूरा फ़ैज़ हासिल हो तो उसे चाहिये कि इन मक़ामाते मुक़द्दसा से ग़ाफ़िल न रहे और जिस तरह से हो सके अपने को वहाँ तक पहुँचाऐ। (किताबे मआद सफ़्हाः 53)

 

दूसरा शुब्हा और उसका जवाब

बाज़ लोग एक और दूसरा शुब्हा पैदा करते हैं और कहते हैं कि मरने के बाद जब इन्सान की रूह एक बदने मिसाली के नाम से एक लतीफ़ बदन इख़्तियार कर लेती है जो इसी बदन की मानिन्द होता है (जैसा कि बयान हो चुका है) इसी बदन के साथ सवाब ओ उक़ाब का सामना करता है हाँलाकि जब इन्सान ने अपने माद्दी और ख़ाकी जिस्म के साथ इबादत की है तो क्या वजह है कि उसका दूसरे बदन को मिले ? या इसी क़ब्र के अन्दर बोसीदा और सड़े हुए जस्दे ख़ाकी के ज़रिये गुनाह किये हैं तो वो बदने मिसाली के लिये अज़ाब में मुब्तला हो? इस सवाल के चन्द जवाब पेश किये जाते हैः

जैसा कि अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा बयान फ़रमाते हैं बदने मिसाली कोई ख़ारजी चीज़ नहीं है जिसे मौत के बाद क़ब्र पर लाया जाए और मसअलन उससे कहा जाए कि रूह के साथ रहो अब तुम ही उसका बदन हो! बल्कि बदने मिसाली एक लतीफ़ बदन है जो इस वक़्त भी इन्सान के साथ है हर रूह दो बदन रखती है एक लतीफ़ और एक कसीफ़ उसने इबादत भी दोनों के साथ की है और मासियत भी दोनो के साथ, ये समझाने के लिये कि ख़्वाबे माददी की हालत में दोनों एक दूसरे से जुदा रहते हैं इस तरफ़ मुतावज्जे करना बेमहल न होगा कि इन्सान जो कुछ ख़्वाब में देखता है वो इसी मिसाली बदन के ज़रिये होता है रास्ता चलना और गुफ़्तगू करना सब बदने मिसाली से अन्जाम पाता है, एक चशमे ज़दन में करबला पहुँच जाता है, मशहद चला जाता है और सारे मशरिक़ और मग़रिब का सफ़र कर सकता है इसके लिये कोई हदबन्दी नहीं है इसी बिना पर मदने मिसाली हमेशा इन्सान के साथ रहता है। मजलिसी अलैहिर्रहमा का ये बयान बहुत मुहक़िक़ाना है और इसके लिये कसरत से शवाहिद भी मौजूद हैं।

दूसरी सूरत ये है कि रूहें इन्सानी मौत के बाद उसके दुनयावी जिस्म के मिस्ल एक सूरत इख़्तियार कर लेती है, न ये कि एक ख़ारजी बदन से मुताल्लिक़ होती है बल्कि रूह की सूरत जिस्मे इन्सानी की हम शक्ल होती है अब तुम उसे ख़्वाह बदने मिसाली कहो या क़ल्बे बरज़ख़ी या रूह लेकिन चूँकि ये लतीफ़ है लिहाज़ा उन्सरी और माददी आँख इसका मुशाहिदा नहीं कर सकती मुख़्तसर ये कि ये रूह थी जिसने दुनिया में मासियत की और यही रूह बाद को अज़ाब में भी मुब्तला की जाऐगी, अब ये बदने मिसाली से वाबस्ता हो या बज़ाते ख़ुद मुस्तक़िल हो और फिर क़यामत में इसी माद्दी जिस्म के साथ महशूर हो जैसा कि आईन्दा ज़िक्र होगा। (किताबे मआद सफ़्हाः- 53)

 

बरज़ख़ का सवाब ओ अज़ाब क़ुरआन में

(1).अन्नारो यारेजूना अलैहा--------- इल्ला आख़िर सूराः- 40, आयतः- 49, यानी वो सुब्ह शाम आग के ऊपर पेश किये जाऐगें और जिस रोज़ क़यामत बरपा होगी (तो हुक्म होगा की) आले फ़िरऔन को सख़्त तरीन अज़ाब में दाख़िल करो मिन जुमला उन आयात के जो क़ुराने मजीद में अज़ाबे बरज़ख़ पर दलालत करती हैं ये आयऐ शरीफ़ा भी है जो फ़िरऔन वालों के बारे में हैं।

जब फ़िरऔन के साथी दरियाऐ नील में ग़र्क होकर हलाक हुए उसी वक़्त से हर सुब्ह शाम आग के ऊपर पेश किये जाते हैं यहाँ तक कि क़यामत क़ायम हो और वो सख़्त तरीन अज़ाब में दाख़िल किये जाऐं। इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) का इरशाद है कि क़यामत में सुब्ह शाम नहीं है ये बरज़ख़ के बारे में है और हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  से मरवी है कि जहन्नम में उसे उसकी जगह उसे बरज़ख़ में हर सुब्ह ओ शाम दिखाई जाती है अगर वो अज़ाब पाने वालों में से हैं और अगर अहले बहिश्त में से हैं तो बहिश्त में उसकी जगह की निशानदही की जाती है और कहा जाता है कि ये है तुम्हारी क़यामगाह क़यामत में।

(2). फ़अम्मल लज़ीना शक़्वा फ़िन्नार -------------------- इला आख़िर (सूराः- 11, आयतः- 105 से 108). यानी जो लोग बदबख़्ती और शक़ावत वाले हैं वो जब तक ज़मीन ओ आसमान बरक़रार रहे आग में रहेंगे, उनके लिये सख़्त फ़रियाद और आह ओ नाला है सिवा इसके कि जो तुम्हारा परवरदिगार चाहे दर हक़ीक़त तुम्हारा परवरदिगार जो चाहता है करता है लेकिन जो लोग नेक बख़्त हैं जब तक आसमान और ज़मीन बरक़रार है वो बहिश्त में रहेंगे........... इमाम (अ.स) फ़रमाते हैं ये आयत बरज़ख़ के बारे में है और यहाँ बरज़ख़ी अज़ाब ओ सवाब मुराद है वरना क़यामत में तो कोई आसमान नहीं है "इज़ा समाऐ इन्शक़्क़त" और ज़मीन भी बदल दी जाऐगी फिर ये ज़मीन बाक़ी न रहेगी "यौमा तब्बदिल्लुल अर्ज़ ग़ैरूल अर्ज़ वस्समावात वा बरज़ुल्लाहअल वाहिदुल क़हहार"।

(3).क़ीला अदख़ुलल जन्नता क़ाला या लैता.................... इला आख़िर (सूरा- यासीन आयतः- 26 वा 27). ये आयते मुबारक हबीबे नज्जार मोमिने आले फ़िरऔन के बारे में है जब उन्होंने अपनी क़ौम को पैग़म्बरों की पैरवी करने की तरफ़ दावत दी तो लोगो ने उन्हें डराया धमकाया (जैसा कि तफ़्सीरे सूरा ऐ यासीन में है) और बिल आख़ीर उन्हें सूली पर चढ़ाया और क़त्ल कर दिया यहाँ तक कि वो सवाबे इलाही में पहुँचे और मरने के बाद कहा कि काश मेरी क़ौम वाले जान लेते कि मेरे परवरदिगार ने मुझे बख़्श दिया और बलन्द मरतबा लोगों में क़रार दिया है इस मक़ाम पर ख़ुदा का इरशाद है कि उनसे कहा गया कि बहिश्त में दाख़िल हो जाओ इमाम (अ.स) फ़रमाते हैं "यानी बरज़ख़ जन्नत में है" और दूसरी रवायत में जन्नते दुनियावी (यानी बहिशते क़यामत से पस्त जन्नत) से ताबीर फ़रमाई है और फ़िल जुमला आयते मुबारक का ज़ाहिर ये है कि जब मोमिने आले फ़िरऔन शहीद हुए तो बिला फ़ासला बहिश्ते बरज़ख़ी में दाख़िल हुए और चूँकि उनकी क़ौम अभी दुनिया में थी लिहाज़ा उन्होंने कहा कि काश मेरी क़ौम जानती कि ख़ुदा ने मुझे कैसी नेमतें और अतियात इनायत फ़रमाऐं हैं तो वो तौबा कर लेती और ख़ुदा की तरफ़ रूजू करती।

(4).वमन आरज़ा मिन ज़िक्री.................. इला आख़िर (सूराए ताहा आयतः- 124) जिसने यादे ख़ुदा से रूर्गदानी की यक़ीनन उसके लिये सख़्त और अज़ीयत नाक ज़िन्दगी है और हम उसे क़यामत के रोज़ औंधा महशूर करेंगे- ज़्यादा तर मुफ़स्सरीन का क़ौल है कि मइशते ज़न्क से अज़ाबे क़ब्र और अज़ाबे बरज़ख़ की तरफ़ इशारा है और ये मतलब इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ.स) से मरवी है।

(5).हत्ता इज़ा जाआ........................ इला याबेसून (सूराए मोमिनून आयतः- 100) यानी यहाँ तक कि उनमें (यानी कुफ़्फ़ार में) से किसी फ़र्द की मौत आती है तो वो अर्ज़ करता है कि परवरदिगार ! मुझे दुनिया में वापस कर दे ताकि मैंने जो परवोगुज़ाश्त की है उसमें कोई नेक अमल बजा लाऊँ तो उसके जवाब में कहा जाता है कि ऐसा नहीं होगा (यानी तुम वापस नहीं जा सकते हो)। वो दरअस्ल ऐसी बात कहता है जिसका कोई फ़ायदा नहीं है और उन लोगों के पीछे आलमे बरज़ख़ है उस रोज़ तक जब वो उठाए जाऐंगे लाज़मी तौर से ये आयत इस बात पर बख़ुबी दलालत कर रही है कि दुनयावी ज़िन्दगी के बाद और हयाते आख़िरत और क़यामत से पहले इन्सान एक और ज़िन्दगी रखता है जो इन दोनों ज़िन्दगीयों के दरमियान हद्दे फ़ासिल है और उसे आलमे बरज़ख़ या आलमे क़ब्र का नाम दिया जाता है फ़ी जुमला मज़कूरा आयत और दीगर आयतों में मजमूई तौर से ग़ौर और तद्दबुर के बाद यह बात साबित और वाजेह होती है कि रूहे इन्सीनी एक ऐसी हक़ीक़त है जो बदन के अलावा है और रूह का बदन के साथ एक तरह का इत्तेहाद है जो इरादे और शऊर के ज़रिये बदन का इन्तेज़ाम चलाती है और इन्सान की शख़्सियत रूह से है बदन से नहीं कि वो मौत के बाद ख़त्म हो जाए और अज्ज़ाए बदन के मुन्तशिर हो जाने के साथ वो भी फ़ना हो जाए बल्कि इन्सान की हक़ीक़त और शख़्सियत (रूह) बाक़ी रहती है और एक सआदत ओ हयाते जावेदानी या शक़ावते अब्दी में बसर करती है इस आलम में उसकी सआदत ओ शक़ावत मलकात और इस दुनियामें उसके आमाल से वाबस्ता है न कि उसके जिस्मानी पहलूओं और इज्तेमाई ख़ुसूसियात से हुक्माऐ इस्लाम ने भी ये साबित करने के लिये कि रूह जिस्म के अलावा है और मौत से निस्त ओ नाबूद नहीं होती और उसके अहकाम जिस्म के अहकाम से जुदागाना हैं, अक़्ली दलीलें क़ायम की हैं लेकिन ख़ुदा और रसूल और आइम्माऐ ताहिरीन (अ.स) के अक़वाल के बाद हमें उनकी एहतियाज नहीं है और ये मतलब हमारे लिये आफ़ताब से भी ज़्यादा रौशन है।

(6).बरज़ख़ी जन्नत के बारे में जो आयतें नाज़िल हुईं मिन्जुमला उनके सुराऐ फ़ज्र का आख़िरी हिस्सा भी है जिसमें इरशादे ख़ुदा वन्दे आलम है कि "या अय्यो हतुल नफ़सुल मुतमइन्ना इरजई इला रब्बेका राज़ियतुन मरज़िया फ़दख़्ली फ़ी इबादी वा अदख़्ली जन्नती"।

इसमें नफ़्से मुतमईन रखने वाले से मौत के वक़्त ख़िताब होता है कि "दाख़िले बहिश्त हो जाओ" यहाँ बरज़ख़ी जन्नत के साथ ताबीर की गई है और इसी तरह "मेरे बन्दों (के ज़ुमरे) में दाख़िल हो जा" यानी मोहम्मद ओ आले मोहम्मद (अ.स) की ख़िदमत में हाज़िर हो जा इनके अलावा दीगर आयतें भी हैं जिनमें सरीहन या कनायेतन बरज़ख़ी बहिशत या जहन्नम के बारे में ज़िक्र हुआ है लेकिन इस क़दर काफ़ी है।

 

बरज़ख़ी सवाब ओ अज़ाब रवायतों में

आलमे बरज़ख़ में सवाब ओ उक़ाब से मुताल्लिक़ रवायतें कसरत से हैं यहाँ चन्द रवायत पर इक्तेफ़ा की जाती है अली इब्ने इब्राहीमे क़ुम्मी से और उन्होंने हज़रते अमीरूल मोमिनीन (अ.स) से रवायत की है कि हज़रत अली (अ.स) ने फ़रमाया जिस वक़्त आदमी दुनिया के आख़री और आख़िरत के पहले रोज़ के दरमियान होता है तो उसका माल, औलाद और अमल उसके सामने मुजस्सम होते हैं वो अपने माल की तरफ़ रूख़ करता है और कहता है ख़ुदा की क़सम मैं तेरे बारे में हरीस और बख़ील था अब तेरे पास मेरा हिस्सा किस क़दर है ? वो कहता है सिर्फ़ अपने कफ़न के मुताबिक़ मुझसे ले लो। इसके बाद वो अपने फ़रज़न्दों की तरफ़ मुतावज्जे होता है कि ख़ुदा की क़सम मैं तुम्हें अज़ीज़ रख़ता था और तुम्हारा हामी और मददगार था अब तुम्हारे पास मेरा हिस्सा क्या है ? वो कहते हैं हम तुम्हें तुम्हारी क़ब्र तक पहुँचा के उसमें दफ़्न कर देंगे। उसके बाद वो अमल की तरफ़ देखता है और कहता है ख़ुदा की क़सम मैंने तेरी तरफ़ इल्तेफ़ात नहीं की और तू मेरे ऊपर गराँ था अब तेरी जानीब से मेरा हिस्सा कितना है ? तो वो कहता है कि मैं क़ब्र और क़यामत में तुम्हारा हमनशीं रहूँगा यहाँ तक कि मैं और तुम दोनों तुम्हारे परवरदिगार के सामने पेश किये जाऐंगे अगर ये शख़्स ख़ुदा का दोस्त है तो इसका अमल इन्तेहाई नफ़ीस ख़ुशबू, इन्तेहाई हुस्न ओ जमाल और एक बेहतरीन लिबास वाले शख़्स की सूरत में इसके पास आता है और कहता है बशारत हो तुमको रूह ओ रेहान और ख़ुदा की बहिश्ते नईम की ओर तुम्हारा आना मुबारक हो ! ये शख़्स पूछता है कि तुम कौन हो तो वो कहता है कि मैं तुम्हारा अमले सालेह हूँ अब दुनिया से जन्नत की तरफ़ रवाना हो! ये अपने ग़ुस्ल देने वालों को पहचानता है और अपना जिस्म संभालने वाले को क़सम देता है कि इसे जल्द अज़ जल्द हरकत दे फिर जब क़ब्र में दाख़िल होता है तो दो फ़रिश्तें जो क़ब्र के अन्दर इम्तिहान लेने के लिये आते हैं ज़मीन को अपने दाँतों से शिग़ाफ़ कर देते हैं उनकी आवाज़ बादल की सख़्त गरज की मानिन्द होती है और उनकी आँखें बिजली की तरह तड़पती हैं इससे कहते हैं कि तुम्हारा परवरदिगार कौन है ? तुम्हारा पैग़म्बर कौन है ? और तुम्हारा दीन क्या है ? ये कहता है मेरा परवरदिगार ख़ुदा है, मेरे पैग़म्बर मोहम्मद (स.अ.व.व)  हैं और मेरा मज़हब इस्लाम है ! वो कहते हैं ख़ुदा तुमको इस चीज़ में साबित क़दम रखे जिसको तुम दोस्त रखते हो और जिस से राज़ी हो ये वही बात है जिसके बारे में ख़ुदा ने इशारा फ़रमाया है "यसबतल्लाहुल लज़ीना आमेनू बिल क़ौलइस्साबित फ़लि हयातुत दुनिया वा फ़िल आख़िर" इसके बाद उसकी क़ब्र को वहाँ तक वसीय कर देते हैं जहाँ तक नज़र काम करती है उसमें जन्नत का एक दरवाज़ा खोल देते हैं और कहते हैं "रौशन आँखों के साथ सो जाओ जिस तरह एक ख़ुशनसीब और कामयाब नौजवान सोता है" ये वही चीज़ है जिसके लिये ख़ुदा फ़रमाता है "असहाबुल जन्नता ख़ैरा मुस्तक़्क़रा वा अहसना मुक़ीलन"।

लेकिन अगर दुश्मने ख़ुदा हो तो उसका अमल बदतरीन लिबास और शदीद तरीन बदबू के साथ इसके पास आता है और कहता है "बशारत हो तुझको दोज़ख़ के खौलते हुए पानी और जहन्नम में दाख़िल होने की" वो अपने ग़ुस्ल देने वाले को देखता है और अपना जिस्म संभालने वाले को क़सम देता है कि इसे अपने हाल पर छोड़ दे जिस वक़्त उसे क़ब्र में दाख़िल करते हैं तो आज़माईश करने वाले क़ब्र में आते हैं उसका कफ़न ख़ींच लेते हैं और उससे कहते हैं कि तेरा परवरदिगार कौन है ? तेरा पैग़म्बर कौन है ? और तेरा दीन क्या है ? वो कहता है नहीं जानता ! वो कहते हैं तू न जाने और हिदायत न पाए फिर एक आहनी असा से उस पर एक ऐसी ज़र्ब लगाते हैं सिवा जिन्नात और इन्सानों के दुनिया की हर मुताहर्रिक़ मख़लूक़ उसके असर से वहशतज़दा हो जाती है उसके बाद आतिशे जहन्नम का एक दरवाज़ा उस पर खोल दिया जाता है और उस से कहा जाता है कि बदतरीन हालत में सो ! उसे ऐसे तंग मकान में जगह दी जाती है जो नैज़े के फल के उस सूराख़ की मानिन्द होती है जिसमें नैज़े की आख़िरी नोक नस्ब की जाती है और उस पर इस क़दर सख़्त फ़िशार होता है कि उसका भेजा उसके नाख़ूनों और कानों से बाहर आता है ख़ुदा उस पर साँपों और बिछुओ और हशरातुल अर्ज़ को मुसल्लत फ़रमाता है कि उसे डसें और डंक मारें और यही हालत क़ायम रहेगी यहाँ तक कि ख़ुदा उसे उसकी क़ब्र से उठाए वो इतने शदीद अज़ाब में होगा कि जल्द क़यामत बरपा होने की आरज़ू करेगा।

नीज़ इमालीऐ शैख़े तूसी में इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से एक हदीस मनक़ूल है जिसके आख़िर में इमाम (अ.स) ने फ़रमाया है कि "जिस वक़्त ख़ुदा मरने वाले की रूह क़ब्ज़ फ़रमाता है और उसकी रूह को असली (दुनियावी) सूरत के साथ बहिश्त में दाख़िल फ़रमाता है तो ये वहाँ खाती और पीती है और जिस वक़्त कोई ताज़ा रूह उसके सामने आती है तो ये उसको उसी सूरत में पहचानती है जो सूरत उसकी दुनिया में थी।

दूसरी हदीस में फ़रमाया कि मोमिनीन की रूहें एक दूसरे से मुलाक़ात करती हैं, आपस में सवाल ओ जवाब करती और एक दूसरे को पहचानती हैं इस हद तक कि अगर तुम किसी वक़्त उनमें से किसी को देखो तो कहोगे कि हाँ ये तो वही शख़्स है।

एक हदीस में इरशाद है कि रूहें अपने जिस्मानी सिफ़ात के साथ जन्नत के एक बाग़ में क़याम करती हैं एक दूसरे को पहचानती हैं और एक दूसरे से सवाल करती हैं जिस वक़्त कोई नई रूह उनके पास वारिद होती है तो कहती हैं "इसे अभी मौक़ा दो (और अपने हाल पर छोड़ दो) क्योंकि ये एक अज़ीम हौल (यानी मौत की वहशत) से गुज़र कर हमारी तरफ़ आ रही है इसके बाद इससे पूछती है "फ़ुलाँ शख़्स क्या हुआ और फ़ुलाँ शख़्स किस हाल में है ? अगर ये रूह कहती है कि जब मैं आई तो ज़िन्दा था तो उसके बारे में उम्मीद करती हैं (कि वो भी हमारे पास आऐगी) लेकिन अगर कहती है कि वो दुनिया से गुज़र चुका था तो कहती है कि वो गिर गया ये इस बात की तरफ़ इशारा है कि चूँकि वो नहीं आया लिहाज़ा यक़ीनन दोज़ख़ में गया है।

बिहारूल अनवार जिल्द तीन में किताबे काफ़ी वग़ैरा से चन्द रवायतें नक़्ल की गई हैं जिनका खुलासा ये है कि रूहें आलमे बरज़ख़ में अपने अहलेख़ाना और अक़रूबा की ज़ियारत ओ मुलाक़ात और दरयाफ़्ते हाल के लिये आती हैं बाज़ रोज़ाना, बाज़ दो रोज़ में एक बार, बाज़ तीन रोज़ में एक बार, बाज़ हर जुमे को, बाज़ महीने में एक मरतबा, बाज साल में एक मरतबा और ये इख़्तिलाफ़ हालात के तफ़ावुत, उनके मकान की वुस्अत ओ फ़राख़ी और ज़ीक़ ओ तंगी और उनकी आज़ादी और गिरफ़्तारी के ऐतेबार से है।

एक रवायत में है कि मोमिन अपने घर वालों की सिर्फ़ वही चीज़ें और हालात देखता है जो बेहतर और उसके लिये बाएसे मर्सरत हों और अगर कोई ऐसी बात होती है जिस से उसे रंज या तकलीफ़ पहुँचे तो वो उस से छुपा दी जाती है और काफ़िर की रूह सिवा बदी और उसको अज़ीयत पहुँचाने वाले उमूर दे दूसरी कोई चीज़ नहीं देखती है। (किताबे मआद सफ़्हा 58 से 61)

 


हौज़े कौसर बरज़ख़ में

मुतादिद किताबों में (किताबे इख़्तेसास, बसाएरूल दरजात, बिहारूल अनवार जिल्दः- 3 सफ़्हाः- 152 और माआलिमुल ज़ुल्फ़ा वग़ैरा) अब्दुल्लाह इब्ने सनान से मरवी है कि मैंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से हौज़े कौसर के बारे में पूछा तो हज़रत ने फ़रमाया, उसका तूल इतना है जितना बसरे सनआऐ यमन तक का फ़ासला- मैंने इस पर तआज्जुब किया तो हज़रत ने फ़रमाया क्या तुम चाहते हो की मैं तुम्हें उसकी निशान देही करूँ ? मैंने अर्ज़ किया हाँ ऐ मौला ! हज़रत मुझको मदीने से बाहर ले गए और पाँव ज़मीन पर मारा फिर मुझसे फ़रमाया, देखो ! (मलकूती परदा इमाम के हुक्म से मेरी आँखों के सामने से हट गया) मैंने देखा कि एक नहर ज़ाहिर हुई जिसके दोनो सिरे निगाहों से ओझल थे अलबत्ता जिस मक़ाम पर मैं और इमाम इस्तादा थे वो एक जज़ीरे की मानिन्द था मुझको ऐसी नहर नज़र आई जिसके एक तरफ़ पानी बह रहा था जो बर्फ़ से ज़्यादा सफ़ेद था और दूसरी तरफ़ दग्ध का धारा था ये भी बर्फ़ से ज़्यादा सफ़ेद था और इन दोनो के दरमियान ऐसी शराब जारी थी जो सुर्ख़ी और लताफ़त में याक़ूत की मानिन्द थी और मैंने कभी दूग्ध और पानी के दरमियान इस शराब से ज़्यादा कोई ख़ूबसूरत और ख़ुशनुमा चीज़ नहीं देखी थी मैंने कहा मैं आप पर फ़िदा हो जाऊँ ये नहर कहाँ से निकली है ? फ़रमाया कि ये उन चश्मों से हैं जिनके बारे में ख़ुदा वन्दे आलम क़ुरआने मजीद में फ़रमाता है कि बहिशत में एक चशमा दूध का, एक चशमा पानी का और एक चशमा शराब का है वही इस नहर में जारी होते हैं इसके दोनो किनारों पर दरख़्त थे और हर दरख़्त के दरमियान एक हूरया थी जिसके बाल उसके सर से झूल रहे थे कि मैंने हरगिज़ इतने हसीन बाल नहीं देखे थे हर एक के हाथ में एक ज़र्फ़ था कि मैंने इतने ख़ूबसूरत ज़र्फ़ भी क़तअन नही देखे थे, ये दुनियावी ज़ुरूफ़ में से नहीं थे उसके बाद हज़रत उनमें से एक के क़रीब तशरीफ़ ले गये और इशारा फ़रमाया कि पानी लाओ ! इस हूरिया ने ज़र्फ़ को उस नहर से पुर करके आपको दिया और आपने नौश फ़रमाया फिर मज़ीद पानी के लिये इशारा फ़रमाया और उसने दूबारा ज़र्फ़ को भरा जिसे हज़रत ने मुझे इनायत फ़रमाया और मैंने भी पिया.. मैंने इस से क़ब्ल कभी ऐसा ख़ुशगवार, लतीफ़ और लज़ीज़ कोई मशरूब नहीं चखा था उससे मुश्क की ख़ुश्बू आ रही थी मैंने अर्ज़ किया, मैं आप पर फ़िदा हो जाऊँ जो कुछ मैंने आज देखा है इससे पहले हरगिज़ नहीं देखा था और मेरे वहम ओ गुमान में भी नहीं था कि ऐसी कोई चीज़ हो सकती है, हज़रत ने फ़रमाया ख़ुदा वन्दे आलम ने हमारे शियों के लिये जो कुछ मोहय्या फ़रमाया है उसमें सबसे कम तर ये चीज़ है जब मरने वाला इस दुनिया से जाता है तो उसकी रूह को इस नहर की तरफ़ ले जाते हैं वो इसके बाग़ों में चहलक़दमी करता है उसकी ग़िज़ाऐं इस्तेमाल करता है और इसकी मशरूबता पीता है और जब हमारा दुशमन मरता है तो उसकी रूह को वादिये बरहूत में ले जाते हैं जहाँ वो हमेशा इसके अज़ाब में मुब्तला रहता है, उसका ज़क़्क़ूम (थोहड़ का फ़ल) उसे खिलाते हैं और उसका हमीम (खौलता हुआ पानी) उसके हलक़ में उडेलते हैं पस ख़ुदा की पनाह माँगों उस वादी से। मिन जुमला उन अशख़ास के जिन्होंने इस आलम में बरज़ख़ी बहिश्त को देखा है हज़रत सैय्यदुश शोहदा (अ.स) के असहाब भी हैं जिन्हें हज़रत ने शबे आशूरा इसका मन्ज़र दिखाया था। बिहारूल अनवार में जिल्दः- 3 में इमामे मोहम्मद बाक़िर (अ.स) से मरवी है कि कोई मोमिने मतूफ़ी इस दुनिया से नहीं है लेकिन ये कि उसे आख़री साँस में हौज़े कौसर का ज़ाएक़ा चख़ाया जाता है और कोई काफ़िर नहीं मरता है लेकिन ये कि उसे हमीमे जहन्नम का मज़ा चखाया जाता है।

 

बरहूत बरज़ख़ी जहन्नम का मज़हर

जैसा कि बयान हो चुका है वादिउस्सलाम नेकबख़्त और सआदत मंद रूहों के ज़हूर और जमा होने का मक़ाम है और बरहूत जो एक ख़ुश्क बेआब ओ गियाह बियाबान है बरज़ख़ी दोज़ख़ का मज़हर और कसीफ़ ओ ख़बीस अरवाह का महल्ले अज़ाब है। इसके बारे में एक रवायत पेश करता हूँ ताकि मतलब ज़्यादा वाज़ेह हो जाए। एक रोज़ एक शख़्स हज़रते ख़ातेमुल अन्बिया (स.अ.व.व)  की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अपनी वहशत का इज़हार करते हुए अर्ज़ किया कि मैंने एक अजीब चीज़ देखी है आँ हज़रत ने फ़रमाया क्या देखा है ? इसने अर्ज़ किया कि मेरी ज़ौजा सख़्त अलील हुई तो लोगों ने कहा कि अगर इसे कुऐं का पानी पिलाओ जो वादिये बरहूत में है तो ये उससे सेहतयाब हो जाएगी (बाज़ जिल्दी अमराज़ मादनी पानी से दूर हो जाते हैं) चूँनाचे मैं तैय्यार हुआ अपने साथ एक मश्क और एक प्याला लिया ताकि उस  प्याले से मश्क में पानी भरूँ जब वहाँ पहुँचा तो एक वहशतनाक सहरा नज़र आया बावजूदे कि मैं बहुत डरा लेकिन दिल को मज़बूत करके उस कुऐं को तलाश करने लगा नागहाँ ऊपर की तरफ़ से किसी चीज़ ने ज़ंजीर की मानिन्द आवाज़ दी और नीचे आ गई मैंने देखा कि एक शख़्स है जो कह रहा है कि मुझे सेराब कर दो वरना मैं हलाक हुआ ! जब मैंने सर बलन्द किया ताकि उसे पानी का प्याला दूँ तो देखा कि एक शख़्स है जिसकी गर्दन में ज़ंजीर पड़ी हुई है ज्यों ही मैंने उसे पानी देना चाहा उसे ऊपर की तरफ़ ख़ींच लिया गया यहाँ तक कि आफ़ताब के क़रीब पहुँच गया मैंने दो मरतबा मश्क में पानी भरना चाहा लेकिन देखा कि वो नीचे आया और पानी माँग रहा है मैंने उसे पानी का ज़र्फ़ देना चाहा तो उसे फिर ऊपर ख़ींच लिया गया और आफ़ताब के क़रीब पहुँचा दिया गया जब तीन मरतबा यही इत्तेफ़ाक़ हुआ तो मैंने मशक का दहाना बाँध लिया और उसे पानी नहीं दिया मैं उस अम्र से ख़ौफ़ज़दा होकर हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हुआ हूँ ताकि इसका राज़ मालूम कर सकूँ हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  ने फ़रमाया कि वो बदबख़्त क़ाबील था। (फ़तौअत लहू नफ़्सा क़त्ला अख़ीय फ़असबह मिनल ख़ासिरीन। सूराः- 5, आयतः-33) (यानी हज़रत आदम का बेटा जिसने अपने भाई हाबील को क़त्ल किया था) और वो रोज़े क़यामत तक इसी अज़ाब में गिरफ़्तार रहेगा यहाँ तक कि आख़िरत में जहन्नम के सख़्त तरीन अज़ाब में मुब्तला किया जाऐगा।

किताब नूरूल अबसार में सैय्यद नूरूल शबलख़ी शाफ़ई ने अबुल क़ासिम बिन मुहम्मद से रवायत की है कि उन्होंने कहा मैंने मस्जिदुल हराम में मक़ामे इब्राहीम पर कुछ लोगों को जमा देखा तो उनसे पूछा क्या बात है ? उन्होंने बताया कि एक राहिब मुसलमान होकर मक्काए मोअज़्ज़मा आया है और एक अजीब वाक़िया सुनाता  है मैं आगे बढ़ा तो देखा कि एक अज़ीमुल जुस्सा बूढ़ा शख़्स पशमीने का लिबास और टोपी पहने बैठा हुआ है वो कहता था कि मैं समन्दर के किनारे अपने दैर में रहता था एक रोज़ समन्दर की तरफ़ देख रहा था कि एक बहुत बड़े गिध से मुशाबेह परिन्दा आया और पत्थर के ऊपर बैठ के क़ै की जिससे एक आदमी को जिस्म का चौथाई हिस्सा ख़ारिज हुआ और वो परिन्दा चला गया थोड़ी देर के बाद फिर आया और दूसरे चौथाई हिस्से को क़ै करके उगला इसी तरह चार बार में इन्सान के सारे आज़ाअ को उगल दिया जिन से एक पूरा आदमी बन के खड़ा हो गया मैं इस अजीब अम्र से हैरत में था कि देखा वही परिन्दा फिर आया और उस आदमी के चौथाई हिस्से को निगल कर चला गया इसी तरह चार बार में पूरे आदमी को निगल कर उड़ गया मैं मुताहय्यन था कि ये क्या माजरा है और ये शख़्स कौन है ? मुझको अफ़सोस था कि उस से पूछा क्यों नहीं दूसरे रोज़ फिर यही सूरते हाल नज़र आई और जब चौथी दफ़ा की क़ै के बाद वो शख़्स मुकम्मल आदमी बन के खड़ा हुआ तो मैं अपने सोमये से दौड़ा और ख़ुदा की क़सम दी कि बताओ तुम कौन हो ? उसने कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने कहा मैं तुम्हे उस ज़ात की क़सम देता हूँ जिसने तुम्हे पैदा किया है बताओ तुम कौन हो ? उसने कहा मैं इब्ने मुल्जिम (लानतुल्लाह अलैह) हूँ, मैंने कहा तुम्हारा क्या क़िस्सा है ? और इस परिन्दे का क्या मामला है ? उसने कहा मैंने अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) को क़त्ल किया है और ख़ुदा ने इस परिन्दे को मेरे ऊपर मुसल्लत कर दिया है कि जिस तरह तुमने देखा है मुझ पर अज़ाब करता रहे। मैं सोमऐ से बाहर आया और लोगों से पूछा कि अली इब्ने अबी तालिब कौन हैं ? मुझसे बताया गया कि हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैही वा आलेही वस्सलम के इब्ने अम और वसी हैं चुनाँचे मैंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और हज्जे बैतुलहराम और ज़ियारते क़ब्रे रसूल से मुशर्रफ़ हुआ। (किताबे मआद सफ़्हाः- 63)

 

अक़्ल मआद और ख़ैर ओ शर को समझती है

ख़ुदाए तआला ने अक़्ल के जो ख़ुसूसियात और आसार इन्सान को अता फ़रमाये हैं उनमें से एक ये भी है कि वो अपनी मआद को समझ सकती है चुनाँचे एक बुर्ज़ग के क़ौल के मुताबिक़ अगर फ़र्ज़ कर लिया जाए कि वही का वजूद न होता तब भी अक़्ले इन्सानी मआद को दरयाफ़्त कर सकती थी, इस दुनियावी ज़िन्दगी को किसी ग़ायत और मक़सद की हामिल होना चाहिये ताकि इसमें इन्सान अपने तकामुल और इरतिक़ा और सआदत पर फ़ायज़ हो सके। ये ख़ैर ओ शर का इदराक और इसकी सही ताबीर के मुताबिक़ जो रवायत में मनक़ूल है ख़ैरूल ख़ैरीन (यानी दो नेकियों में से बेहतर नेकी) का इदराक कर सकती है (क्योंकि हक़ीक़ी और वाक़ई शर हमारी फ़ितरत में मौजूद नहीं है बल्कि जो कुछ मौजूद है या ख़ैरे महज़ है या उसके ख़ैर होने का जज़्बा ग़ालिब है लेकिन यहाँ इस बहस का मौक़ा नहीं है) ये इस ख़ैर या उस ख़ैर को मालूम कर सकती है और अपनी ज़ाती या किसी दूसरे के अफ़आल में ख़ूबी और बदी की तमीज़ कर सकती है।

(किताबे तौहीद सफ़्हाः- 318)

 

अक़्ले इल्मी और उसका कम या ज़्यादा होना

इसी बिना पर हुक्मा का क़ौल है कि अक़्ल दो शोबे रखती है इल्मी और अमली। अक़्ले इलमी वही है, इदराकात हैं जो इजमाली तौर पर ख़ुदाऐ तआला, उसके अस्मा, सिफ़ाते कमालिया, उसके आसार और ख़्वासे अशया के बारे में हैं। अक़्ल अमली आमाल की ख़ूबी और बदी और कामों के सही ओ फ़ासिद होने का इदराक है यानी ये समझ सकती है कि कौन सा काम बेहतर है ताकि उसे अन्जाम दे और कौन सा काम बुरा है है ताकि उस से बाज़ रहे। अपनी सआदत और शक़ावत के असबाब को समझे क्यों कि ये एक फ़ितरी अमल है और ख़ुदा ने इन्सानी सरिशत में बदीयत फ़रमाया है जो तमाम अफ़रादे बशर को मामूल के मुताबिक़ दिया गया है हर चन्द कि ख़ुदा ने बाज़ इन्सानों को दूसरों से ज़्यादा दिया है और साथ ही उस से काम लेने से उसमे इज़ाफ़ा भी होता है ग़रज़ की इब्तेदा में सब इन्सानों को ये क़ूवत यकसाँ तौर पर दी गई है अगर इसे इस्तेमाल में लाऐं तो तरतीबवार ज़्यादा हो जाती है और अगर इसे मुअत्तल कर दिया यानी इसके क़वानीन ओ हिदायत को बाक़ाएदा तासीर का मौक़ा नहीं दिया तो रफ़्ता रफ़्ता कम हो जाती है ये एक ऐसी ख़िल्क़त है जिसे ख़ुदावन्दे आलम ने अफ़रादे बशर में क़रार दिया है। (फ़ितरूललहुल लती फ़ितरूलनास अलैहा ला तब्दीला ख़ल्क़ल्लाह, सूराः- 30 आयतः- 30) मुब्दा और मआद को पहचानने के लिये फ़ैज़ाने इलाही के वास्ते और वसीले यानी पैग़म्बर और इमाम हैं और इसी तरह अक़्ले इल्मीं के रिश्ते भी।

 

तुमने अपनी आख़िरत के लिये क्या बनाया है?

ला दारूल मुरः बादुल मौत यसकुन्नहा -- इल्लल लती काना क़ब्लल मौत बाइनहा

फ़ाइन बनाहा बख़ैरा ताब मिसकुन्नहा -- वइन बनाहल बशर ख़ाबा ख़ामीहा

यानी आदमी के लिये मौत के बाद कोई घर नहीं है सिवा उसके जो उसने अपनी मौत के क़ब्ल बनाया है (अब तुमने जहाँ तक भी उसके साज़ ओ सामान को दुरूस्त किया हो) अगर उसे नेकी और ख़ैर के साथ तामीर किया है तो ख़ुशाहाल उसका जो अपनी क़ब्र के रूह ओ रेहान मुहय्या करे और उस से फ़ायदा उठाऐ, लेकिन अगर किसी ने उसे बुराईयों और गुनाहो से बनाया है तो उसने अपने लिबास, ख़ुराक, मसकन और हर चीज़ को आग से तैय्यार किया है। (किताबे तौहीद सफ़्हाः- 343)

 

बहिशते बरज़ख़ और बहिशते क़यामत

अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा ने आयऐ मुबारिका की तशरीह करते हुऐ "जन्नतान" (यानी दो जन्नतों) के बारे में एक मुनासिब सूरत का ज़िक्र फ़रमाया है कि मुमकिन है एक जन्नत बरज़ख़ में और दूसरी जन्नत क़यामत में हो । जिस वक़्त से मोमिन की रूह क़ब्ज़ होती है वो बरज़ख़ी जन्नत के नाज़ ओ नअम में रहता है जो अनवा ओ अक़साम की बरज़ख़ी नेमतों के साथ एक वसीए बाग़ है और क़ुरआने मजीद में भी बरज़ख़ी जन्नत के लिये शवाहिद मौजूद हैं ( क़ीला अदख़ल्लल जन्नत क़ाला या लैती क़ौमी यामेलून सूराऐ यासीनः- 36 आयतः- 28 (मज़ीद तफ़्सील के लिये शहीदे मेहराब आयतुल्लाह दस्तग़ैब रह. की किताब "क़ल्बे कुरआन तफ़्सीरे सूराऐ यासीन" में आयऐ मज़कूरा के ज़ैल में, नीज़ किताबे मआद फ़स्ल दोम (बरज़ख़) की तरफ़ रूजू करें) अलावा उस जन्नत के जो क़यामत में होगी और जिसका हमेशा के लिये वादा किया गया है। (किताब बहिशते जावेदाँ सफ़्हाः- 328)

 

बरज़ख़ के बारे में एक शुब्हा

आलमे बरज़ख़ के बारे में ज़िन्दीक़ों ने एक शुब्हा पैदा किया है जो आज भी सुनने में आता रहता है जबकि उसकी अस्ल ओ बुनियाद पुरानी है वो नकीर और मुनकिर के सवालों के बारे में कहते हैं कि हम कोई चीज़ मय्यत के मुँह में रखते हं उसके बाद अगर उसकी क़ब्र को खोलते हैं तो वो चीज़ मय्यत के मुँह में बाक़ी होती है अगर मुर्दे से सवाल हुआ होता तो उसका मुँह जुन्बिश करता और वो चीज़ उसके अन्दर न ठहरती या मसअलन ये कहते हैं कि हम मय्यत में क़ब्र के अन्दर उठने बैठने के आसार नहीं पाते और इसी तरह के दीगर शुब्हात हैं । वो ये भी कहते हैं कि आदमी तो क़ब्र के अन्दर सड़ के फ़ना हो जाता है फिर आलमे बरज़ख़ और क़यामत तक उसके हालात क्या मतलब रखते हैं ? और इस तरफ़ मुसल्लमा रवायत ओ अहादीस में बताया गया है कि क़ब्र में मोमिन से कहते हैं कि देखो ! चुनाँचे उसका आलमे बरज़ख़ सत्तर हाथ और बाज़ मोमिन के लिये सत्तर साल की राह तक वसीय हो जाता है। नीज़ कुराने मजीद में भी आलमें बरज़ख़ के बारे में  सराहत के साथ आयतें मौजूद हैं रही ये बात कि इन शुब्हात के जवाब में क्या कहना है? तो जवाब ये है कि अगर इन्सान अख़बार ओ रवायत के इस्तेमाल से आशना हो जाऐ तो उसके लिये ये मसअला ख़ुद ही हल हो जाएगा। इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) जिस वक़्त आलमे बरज़ख़ के अज़ाब का ज़िक्र फ़रमाते हैं तो रावी अर्ज़ करता है बरज़ख़ क्या है ? हज़रत फ़रमाते हैं कि मौत के वक़्त से क़यामत तक है चुनाँचे क़ब्र का ग़ार आलमे बरज़ख़ और रूह की मंज़िलों में से एक मंज़िल है न ये कि जस्दे ख़ाकी के बोसीदा हो जाने से बरज़ख़ तमाम हो जाता है। अल्लामा मजलिसी रह. फ़रमाते हैं कि जिन रवायतों में क़ब्र का नाम लिया गया है वहाँ आलमे बरज़ख़ मुराद है न कि जिस्मानी क़ब्र और ये जो रवायत में वारिद हुआ है कि ख़ुदा मोमिन की क़ब्र को वुस्अत देता है तो इससे मुराद बरज़ख़ का आलमे रूहानी है क़ब्र की ज़ुल्मत और रौशनी जिस्मानी और माददी नहीं है अफ़सोस ! काश जिस्मानी और माददी होती "अबकी ज़ुल्मता क़ब्री" यानी मैं अपने अमल की तारीकी के लिये रोता हूँ।

एक शख़्स मासूम से उस शख़्स की फ़िशारे क़ब्र के लिये पूछता है जिसे सूली दी गई हो और वो बरसो दार पर लटका रहे तो आप जवाब में फ़रमाते हैं कि जो ज़मीन का मालिक है वही हवा का भी मालिक है ख़ुदा हुक्म देता है कि इसे फ़िशारे क़ब्र से ज़्यादा सख़्त फ़िशार दे (यानी अगर वो इस फ़िशार का मुस्तहक़ हो) चुनाँचे अबूअब्दुल्लाह (अ.स) फ़रमाते हैं "इन्ना रब्बुल अर्ज़ हुवा रब्बुल हवा................ज़ग़तत क़ब्र" बिहारूल अनवार जिल्दः- 3 सफ़्हाः- 182 । एक मुहक़िक़े बुज़ुर्ग का क़ौल है कि अगर कोई शख़्स ख़ुदा, हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  और वहीय पर ईमान रखता हो तो उसके लिये इन मतालिब का क़ुबूल कर लेना आसान है।

ख़्वाब बरज़ख़ का एक छोटा सा नमूना है

दुनिया में आलमे बरज़ख़ का नमूना ख़्वाब देखना है। आदमी ख़्वाब में अजीब अजीब चीज़ों का मुशाहिदा करता है कभी देखता है कि आग के शोलों में जल रहा है और फ़रियाद कर रहा है कि हमें बचाओ ! लेकिन जागने के बाद अपने क़रीब के लोगों से पूछता है कि मेरी आवाज़ सुनी थी? तो वो कहते हैं कि नहीं ! दरहाँलाकि वो ख़ुद ये ख़्याल कर रहा था कि ज़्यादा चीख़ने की वजह से उसके गले में ख़राश आ गई है या ये देखता है कि वो ज़ंजीरों में क़ैद है और दबाव की शिद्दत से उसका दम घुट रहा है वो हर चन्द मदद के लिये पुकारता है लेकिन कोई उसकी फ़रियाद को नहीं पहुँचता इसी तरह ख़ुदा ही जानता है कि मुर्दे किस क़दर नाला ओ फ़रियाद करते हैं लेकिन हम नहीं सुनते यक़ीनन वो एक दूसरी ही जगह है अलबत्ता कभी कभी बातिनी ऊमूर ज़ाहिरी हालात में भी सरायत करते हैं। किताबे काफ़ी में इमाम बहक़्क़े नातिक़ जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से रवायत है कि ख़्वाब ओ रोया इब्तेदाऐ ख़िलक़त में नहीं था अन्बियाऐ साबेक़ीन में से एक नबी जब क़यामत के बारे में गुफ़तगू करते थे तो लोग कुछ सवालात करते थे मसअलन कहते थे मुर्दा किस तरह ज़िन्दा होता है ? चुनाँचे उसी रात जब वो सोये तो कुछ ख़्वाब देखे और सुब्ह को एक दूसरे से बयान किये, नीज़ अपने पैग़म्बर से भी उनका ज़िक्र किया तो उन पैग़म्बर ने फ़रमाया कि तुम्हारे ऊपर ख़ुदा की हुज्जत तमाम हो गई क्योंकि जो कुछ तुमने ख़्वाब में देखा है वो एक नमूना है उसका जो मरने के बाद देखोगे कभी कभी ऊमूरे बातिनी ज़ाहिर में भी असर दिखाते हैं ये जो कहा जाता है कि क़ब्ररिस्तान की ज़ियारत को जाओ, और फ़ातिहा पढ़ो जबकि मुर्दे की रूह ख़ाक के उस नुक़्ते में महदूद नहीं है बल्कि ख़ुदा ही जानता है कि वो कहाँ है लेकिन चूँकि उसका जस्दे ख़ाकी उस नुक़्ताऐ ख़ाक में दफ़्न है लिहाज़ा वो इस मक़ाम से ताल्लुक़ रखती है रवायतों में बताया गया है कि मोमिन की रूह अमीरूलमोमिन अली (अ.स) के जवार में वादिस्सलाम के अन्दर और काफ़िर की रूह बरहूत में रहती है मरने के बाद जिस्म बरज़ख़ी होता है जो दुनियावी जिस्म की तरह कसीफ़ नहीं होता वो किसी माददी साज़ ओ सामान का मोहताज नहीं होता और इस क़दर लतीफ़ होता है कि बाज़ रूहें (अगर क़ैद ओ बन्द में न हों) तो सारे आलम का एहाता कर सकती हैं।

मरहूम शैख़ महमूद ईराक़ी ने अपनी किताब "दारूस्सलाम" के आख़िर में नक़्ल किया है कि सैयदे जलील और आरिफ़े नबील सैय्यद मुहम्मद अली ईराक़ी ने (जो उन लोगों में शुमार होते हैं जिन्होंने हज़रते हुज्जत (अ.स) की ज़ियारत की है) फ़रमाया कि जब मैं अपने बचपने के ज़माने में अपने असली वतन (क़रियऐ करमरूद जो ईराक़ के क़रियों में से है) में रहता था तो एक शख़्स ने जिसके नाम ओ नसब से मैं वाक़िफ़ था वफ़ात पाई और उसे उस क़ब्ररिस्तान में लाकर दफ़्न किया जो मेरे मकान के बिल्कुल सामने था। चालीस रोज़ तक रोज़ाना जब मग़रिब का वक़्त आता तो उसकी क़ब्र से आग के आसार ज़ाहिर होते थे और मैं उसके अन्दर से बराबर जाँसोज़ नालों की आवाज़ें सुना करता था इब्तेदाई दिनों में तो एक शब उसके गिरया ओ ज़ारी और नाला ओ फ़रियाद ने इस क़दर शिद्दत इख़्तियार कर ली कि मैं ख़ौफ़ ओ हिरास की वजह से लरज़ने लगा और मुझ पर ग़शी तारी हो गई, मेरे हमर्दद अशख़ास मुतावज्जे हुऐ और मुझे अपने घर उठा ले गए काफ़ी मुद्दत के बाद मैं अपनी सही हालत पर आया लेकिन उस मय्यत का हाल जो देखा था उस से मुताज्जिब था क्योंकि उसके हालाते ज़िन्दगी ऐसे अन्जाम से मुताबिक़त नहीं रखते थे यहाँ तक कि मालूम हुआ कि वो शख़्स एक मुद्दत तक हुकूमत के दफ़्तर में काम कर चुका था वो ऐसे एक शख़्स से जो सैय्यद भी था मालियात के सिलसिले में इतनी रक़म का सख़्ती से मुतालिबा कर रहा था जिसे अदा करने पर वो सैय्यद क़ादिर नहीं था चुनाँचे उस शख़्स ने उसे क़ैदख़ाने में डाल दिया और मुद्दत तक उसे छत से लटकाए रक्खा। मरहूम ईराक़ी कहते हैं कि मैंने उस मरने वाले शख़्स को देखा था लेकिन रूसवाई के ख़ौफ़ से उसके नाम ओ नसब का ज़िक्र नहीं किया।

उसके बाद कहते हैं कि जनाब सैय्यदे मज़कूर ने नक़्ल किया कि मैं तेहरान से इमामज़ादा हसन (अ.स) की ज़ियारत के लिये एक क़रिये में गया मेरा एक साथी रौज़े के सहन में एक क़ब्र पर बैठा दुआ या ज़ियारत में मशग़ूल था यहाँ तक कि ग़ुरूबे आफ़ताब के वक़्त दफ़्अतन उस क़ब्र के अन्दर से तेज़ गर्मी ज़ाहिर हुई गोया उसके अन्दर किसी लोहार की भठठी जल रही थी और उस क़ब्र की क़रीब ठहरना मुमकिन नहीं था हाज़िरीन के मजमे ने भी इस कैफ़ियत का मुशाहिदा किया जब मैंने क़ब्र की  लौह को पढ़ा तो उस पर एक औरत का नाम नक़्श था। मतलब का ख़ुलासा ये है कि कभी ऐसा भी होता है कि आलमे बरज़ख़ में रूह के अज़ाब की शिद्दत इस जस्दे ख़ाकी पर भी असर अन्दाज़ होती है मिसाल के तौर पर यज़ीद इब्ने माविया अलैहुमुल हाविया की क़ब्र जिस वक़्त बनी अब्बास ने बनी उमय्या की क़ब्र को खुदवाया कि उनके अजसाद को नज़रे आतिश करें तो यज़ीद लानतुल्लाहे अलैह की क़ब्र में राख की एक लकीर के अलावा और कुछ नहीं मिला जो उस लईन के जले हुऐ जसदे ख़ाकी की अलामत थी और इस मतलब के शवाहिद और नमूने भी काफ़ी तादाद में हैं।

 

सिर्फ़ चन्द मवारिद नक़्ल करने पर इक्तेफ़ा

सफ़ीनतुल बिहार जिल्दः- 2 सफ़्हाः- 568 में नक़्ल किया गया है कि जिस ज़माने में माविया के हुक्म से ज़ेरे ज़मीन नहर जारी करने के लिये कोहे ओहद को खोदा जा रहा था तो तीशा हज़रते हमज़ा अलैहिर्रमा की उँगली में लग गया और उस से ख़ून जारी हो गया इसके अलावा जंगे ओहद के दो शहीद उमरू बिन जमूह और अब्दुल्लाह बिन उमरू की क़ब्रे भी नहर के रास्ते में आ रही थीं लिहाज़ा उनके जिस्म भी बाहर निकाले गऐ दरहालाँकि उनके जिस्म बिल्कुल तरो ताज़ा थे जबकि उनकी शहादत और दफ़्न के ज़माने से माविया के दौर तक चालीस साल गुज़र चुके थे चुनाँचे एक और क़ब्र तैयार करके दोनों शहीदों को एक ही क़ब्र में दफ़्न कर दिया गया।

किताब रौज़ातुलजिन्नात में मनक़ूल है कि बग़दाद के बाज़ हुक्काम ने जब देखा कि लोग इमाम मूसा काज़िम (अ.स) की ज़ियारत को आते हैं तो उन्होंने तय किया कि क़ब्रे मुबारक को खुदवा डालें और ये कहा कि हम क़ब्र को खोलते हैं अगर जिस्म ताज़ा हुआ तो ज़ियारत की इजाज़त देगें वरना नहीं ! उनमें से एक शख़्स ने कहा कि शिया अपने उल्मा के बारे में भी यही ऐतेक़ाद रखते हैं और उनके क़रीब ही शियों के एक बड़े आलिम मौहम्मद बिन याक़ूब क़ुलैनी अलैहिर्रमा की क़ब्र भी है लिहाज़ा बेहतर होगा कि शियों के अक़ीदे की सिदाक़त मालूम करने के लिये उन्हीं की क़ब्र को खोद कर देख लिया जाऐ चुनाँचे उनकी क़ब्र खोदी गई और उनका जिस्म बिल्कुल ताज़ा पाया गया और उनके पहलू में एक बच्चे का जसद भी मिला जो मुमकिन है उन्हीं के फ़रज़न्द का हो, बग़दाद के हाकिम ने हुक्म दिया कि इन बुज़ुर्गवार की क़ब्र तामीर करके उस पर एक शानदार क़ुब्बा बना दिया जाए और ये मक़ाम एक ज़ियारतगाह की सूरत में मशहूर हुआ उसी किताब में शैख़ सुदूक़ मौहम्मद इब्ने बाबुविया रह. के करामात का तज़किरा करते हुए लिखते हैं कि उनकी क़ब्र शहरे रै में हज़रत अब्दुल अज़ीम अलै. के क़रीब है और ख़ुद हमारे ज़माने में उनकी ये करामत ज़ाहिर हुई जिसका बहुत से लोगों ने मुशाहिदा किया है कि उन बुज़ुर्गवार का जसद बाक़ी है इस वाक़िये की तफ़सील ये है कि सैलाब आ जाने की वजह से क़ब्र में एक शिग़ाफ़ पैदा हो गया जब लोगों ने उसकी तामीर का इरादा किया तो उस सरदाब का एक मुशाहिदा किया जिसमें आप दफ़्न हैं और आपके जसद को ताज़ा पाया ये ख़बर तेहरान में मशहूर हुई और फ़तह अली शाह क़ाचार के कानों तक पहुँची तो बादशाह ने कहा "मैं इस करामत को क़रीब से देखना चाहता हूँ चुनाँचे ये उल्मा, वुज़्रा, उमरा और अरकाने दौलत की एक जमाअत के साथ सरदाब में पहुँचा और जसदे मुबारक को वैसा ही पाया जैसा लोगों ने देखा और बयान किया था बादशाह ने हुक्म दिया कि इस क़ब्र पर एक पुरशिकोह इमारत तामीर की जाए और वो मक़ाम आज तक एक ज़ियारतगाह है। इब्ने बाबूविया की वफ़ात 381 में हुई और जसद का इन्केशाफ़ 1238 में हुआ इस बिना पर वफ़ात से इन्केशाफ़ तक आठ सौ पचास साल (850) की मुद्दत गुज़र चुकी थी।

ख़ुलासा ये कि आलमे बरज़ख़ और मौत से क़यामत  तक रूहे इन्सानी के हालात ऐतेक़ाद वहीऐ इलाही के तहत है जो क़ुराने मजीद और मुतावतिर रवायात के ज़रिये रसूले ख़ुदा सलल्लाहो अलैहे वा आलेही वस्सलम से हम तक पहँची है जैसा कि बयान हो चुका है मिसाल के तौर पर मलाएका, क़यामत, सिरात, मीज़ान, बहिश्त और दोज़ख़, सब पर बिलग़ैब है और इसका सबब भी वहीऐ इलाही है।

हर तरह के इस्तेबाद और शुब्हे को रफ़्आ करने और बरज़ख़ी सवाब ओ उक़ाब से इस बिना पर इन्कार करने वालों के जवाब के लिये ये क्यों कर हो सकता है कि रूहें सवाब ओ उक़ाब में हो और हम इन से बेख़बर रहें वही अच्छे और बुरे ख़्वाब काफ़ी हैं क्योंकि ख़्वाब में गुफ़्तगू आवाज़ें और जोश ओ ख़रोश सभी  कुछ होता है लेकिन आसपास के लोग नहीं सुनते, और ये कि कभी कभी आलमे रोया में मरने वालों को बेहतरी और ख़ुशहाली या सख़्ती और बदहाली के आलम में देखा तो ख़्वाब देखने वाला इस वाक़िये और हक़ीक़ते अम्र की इत्तेला क़रार नहीं दे सकता क्योंकि बहुत से ख़्वाब अज़गास और एहलाम, शैतानी और वहम की पैदावार होते हैं और उनमे बहुत से पेचीदा और ताबीर के मोहताज होते हैं हाँ ! उनमें से कुछ ख़्वाब सच्चे भी होते हैं जो मुर्दे की मौजूदा हालत के आईनादार होते हैं मसअलन् अगर कोई शख़्स किसी मुर्दे को राहत की हालत में देखे तो ये नहीं कहा जा सकता कि वो हमेशा ही इसी आलम में रहता है क्योंकि इस चीज़ का ऐहतेमाल है कि मुर्दा उस वक़्त अपनी इबादत और नेक कामों के औक़ात की मुनासिबत से फ़ायदा उठा रहा हो लेकिन वही दूसरे वक़्त में अपने ग़लत और नाजायज़ अफ़आल के औक़ात के लिहाज़ से उनके पादाश और सज़ा में गिरफ़्तार हो इसी तरह इसके बरअक्स अगर मय्यत को सकरात और बीमारी के आलम में देखिये तो इस बात का सुबूत नहीं है कि वो मुस्तक़िल तौर से इसी हालत में है इसलिये कि मुमकीन है कि वो शख़्स गुनाहगारी की साअतों के जवाब में मुसीबतें भुगत रहा हो और इसके बाद अपने नेक आमाल की साअतों के एवज़ मसर्रतों आराम के औक़ात से बहरामन्द हो "फ़मन यामल मिसक़ाला ज़र्रतन ख़ैरन यरा वमन यामन मिसक़ाला ज़र्रतन शरअन यरा" इस मतलब को पेश करने की ग़रज़ ये है कि अगर कोई शख़्स किसी मरने वाले को बुरी हालत में देखे तो मायूस न हो और ये ऐहतेमाल पेशेनज़र रक्खे कि हो सकता है इसके बाद उसे ख़ुशहाली नसीब हो और दुआ, सदक़ा और उसकी नियाबत में आमाले सालेह बजा लाकर उसकी निजात के लिये कोशिश करे और अगर मुर्दे को बेहतर हाल में देखे तो इसका यक़ीन न करे कि ये हमेशा इसी हालत में रहेगा और ये ज़िन्दा अफ़राद की दादरसी और मदद से बेनियाज़ हो चुका है। इस तूले कलाम की दूसरी ग़रज़ ये है कि हम ये जान लें कि बरज़ख़ में हमारी सरगुज़शतें बहुत कम किसी के ऊपर ज़ाहिर होती हैं और अगर फ़र्ज़ कर लिया जाए कि मालूम हो भी जाती हैं तो ये कहाँ से मालूम हुआ कि हमारे मुताअल्लेक़ीन हमारे लिये दिलसोज़ी और हमर्ददी के ऊमूर अन्जाम देगें ? लिहाज़ा बेहतर यही है कि जब तक हम ज़िन्दा हैं ख़ुद अपनी फ़िक्र में रहें यानी अपने गुज़िश्ता आमाल का पूरे ग़ौर ओ ख़ौज़ से मुतालिआ करें अगर हम से कोई वाजिब तर्क हुआ है तो उसकी तलाफ़ी करें अपने गुनाहों से तौबा करें और जहाँ तक हो सकें आमाले सालेह में सई ओ कोशिश करें बिल ख़ुसूस वाजिब और मुस्तहब नफ़क़े अदा करें और सफ़रे आख़िरत के साज़ ओ सामान और ज़रूरियात पर तवज्जो रक्खेः-

"अल्ला हुम्मा अरज़ुक़नी अलतज़ फ़ी अन दारूल ग़ुरूर वल इस्तेदादइल मौत क़बला हुलूलुल फ़ौत"

 

मौत ताअल्लुक़ात से क़त्अ कर देती है

एक और अहम मतलब जिसे जान लेना ज़रूरी है ये है कि आलमे बरज़ख़ की सख़तियों में से एक ये भी है कि मरने वाला उन चीज़ों या इन्सानों की जुदाई से मुज़तरिब और बेचैन होता है जिनसे दुनिया में दिलचस्पी और मोहब्बत रखता था मज़ीद वज़ाहत के तौर पर अगर आदमी ने किसी चीज़ से तआल्लुक़ क़ायम कर लिया है तो जिस वक़्त उस से जुदा होता है उस वक़्त तकलीफ़ महसूस करता है मसअलन अगर किसी की ज़ौजा हसीन ओ जमील थी और उसको मौत आ गई तो वो उसकी जुदाई से किस क़दर मुतास्सिर होगा बाज़ औक़ात तो इस क़िस्म के हवादिस कुछ लोगों को दिवानगी की हद तक पहुँचा देते हैं। मेरे एक रिश्तेदार थे (ख़ुदा उन पर रहमत नाज़िल फ़रमाऐ) उनका बीस साल का जवान फ़रज़न्द मियादी बुख़ार में मुब्तिला हुआ और उस पर नाज़अः की हालत तारी हो गई जब बाप ने बेटे की ये कैफ़ियत देखी तो वज़ू किया और पूरी तवज्जो के साथ दुआ की कि ख़ुदावन्दा ! अगर तू मेरे बेटे को उठाना चाहता है तो पहले मुझे उठा ले ! उनकी दुआ क़ुबूल हो गई बाप को मौत आ गई बेटा ज़िन्दा रहा लेकिन मौत के मानी, मौत क्या चीज़ है? मौत यानी फ़िराक़ तुम एक शख़्स को देखते हो कि बीवी बच्चों और दौलत ओ सरवत की जुदाई में तड़पता है ये चीज़ ख़ुदा अपनी जगह पर आलमे बरज़ख़ के मुख़्तलिफ़ अज़ाबों में से एक हैं जिसका नमूना इस दुनिया में भी मौजूद है, हद ये है कि दुनिया में इन्सान अपने को अफ़यून, तम्बाकू नौशी और अख़बारबीनी वग़ैरा का आदी बना लेता है लेकिन बरज़ख़ में इस तरह के मशाग़िल मौजूद नहीं हैं।

मक़सद ये है कि इन्सान को मौत के वक़्त हर तरह के अलाएक़ से दस्तबरदार होना चाहिये ताकि आलमे बरज़ख़ के अन्दर उनके फ़िराक़ की अज़ीयत न बर्दाश्त करना पड़े।

क़ैस इब्ने आसिम बनी तमीम की एक जमाअत के साथ मदीनए मुनव्वरा पहुँचे और हज़रते रसूले ख़ुदा सलल्लाहो अलैही वा आलेही वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िरी का शरफ़ हासिल किया तो आँहज़रत से एक जामे और मुकम्मल मोएज़े की दरख़ास्त की (ज़िम्नी तौर पर ये जान लेना चाहिये कि क़ैस एक बड़े आलिम थे और क़ुबूले इस्लाम से क़ब्ल हुकमा में शुमार होते थे)। आँहज़रत ने फ़रमाया कि हर इज़्ज़त के लिये एक ज़िल्लत है और हर ज़िन्दगी के बाद मौत है और तुमने जो कुछ भी दिया है उसका एक अज्र और एवज़ है। इस इरशाद का मतलब ये है कि इस वक़्त जो काम करना चाहो कर सकते हो इस लिये कि तमाम कामों का हिसाब होगा।

 

 

आलमे बरज़ख़ में सिर्फ़ अमल तुम्हारे साथ है

आलमे बरज़ख़ में जो चीज़ इन्सान का साथ देती है वो सिर्फ़ अमले सालेह है जो इसके क़रीब रहता है और इसकी निगहदाशत करता है और अमल बद है तो इसकी दादरसी नहीं करता और इसे छोड़ता भी नहीं हज़रत अमीरूलमोमिनीन (अ.स) फ़रमाते हैं कि "जो शख़्स मौत के क़रीब होता है वो अपने माल की तरफ़ रूख़ करता है और कहता है कि मैंने तुझे जमा करने में बहुत ज़हमतें और मुसीबतें झेली हैं। माल जवाब देता है कि सिर्फ़ एक कफन के अलावा तुम मुझ से कोई और फ़ायदा नहीं उठा सकते फ़िर अपने फ़रज़न्दों की जानिब रूख़ करता है तो वो भी जवाब देते हैं कि हम सिर्फ़ क़ब्र तक तुम्हारे साथ हैं उसके बाद अपने अमल की तरफ़ रूख़ करता है तो वो कहता है कि मैं तुम्हारा हमेशा साथ दूँगा।

वाअसबरल हुक्म रब्बोका फ़इन्नका बाऐनना

यानी सब्र करो ऐ पैग़म्बर ! अपने परवरदिगार के हुक्म के लिये यक़ीनन तुम हमारी नज़र में हो इस जगह हुक्म से मुराद मुशरेकीन को मोहलत देना, पैग़म्बर की तरफ़ से उन्हें इसलाम की दावत देना और उनकी अज़ीयत रसानी को बर्दाशत करना है, ख़ुदा ने ये नहीं फ़रमाया के मुशरेक़ीन के आज़ारो अज़ीयत पर सब्र करो बल्कि ये फ़रमाया कि ख़ुदा के हुक्म पर सब्र करो ! हालाँकि नतीजा दोनो का एक ही था लेकिन सबब इसका ये था कि आँहज़रत के लिये सब्र आसान हो जाए यानी चूँकि हज़रते रसूले ख़ुदा  अब्दे मुतलक़ और मुहिब्बे सादिक़ थे लिहाज़ा जब आपका माबूद आपको हुक्म दे कि हमारे हुक्म पर सब्र करो यानी जब मैं ऐसा हुक्म दे चुका हूँ कि फ़िलहाल मुशरिक़ीन को मोहलत देता हूँ और उन्हें अज़ाब में गिरफ़्तार नहीं करूगा तो तुम भी दावते इस्लाम से दस्तबरदार न हो और उनकी अज़ीयतों आज़ार पर तहम्मुल से काम लो और इस तरह आप पर सब्र आसान हो जाए ख़ुसूसन "बेऐनना" के फ़िक़रे से साथ। खुलासा ये कि पैग़म्बरे ख़ुदा पर फ़र्ज़ था कि तेरह साल तक मक्काऐ मुअज़्ज़मा में रह के रंजो अलम का सामना फ़रमाऐं और ख़ुदा के लिये तरह तरह के ज़ुल्म ओ सितम बर्दाशत फ़रमाऐं यहाँ तक कि जंगे बद्र में दुशमनों से इन्तेक़ाम लिया जाऐ।

इस लिये कि अगर ये तय किया जाता कि ख़ुदा उन्हें मोहलत न दे और झुट लाने वाले जब इज़ा पहुँचाऐं तो हलाक कर दिये जाएं तो दावते ख़ुदावन्दी बे नतीजा होके रह जाती बल्कि ये ज़रूरी था कि उन्हें काफ़ी मुद्दत तक मोहलत दी जाएं ताकि उनमें से कुछ लोग ईमान ले आऐं और जो लोग कुफ़्र के ऊपर मुसिर हैं उनपर हुज्जत तमाम हो जाऐ और तमाम पैग़म्बरों के बारे में सुन्नते इलाही भी रही है बल्कि गुनाहगारों के बारे में यही दस्तूर है कि ख़ुदा उन्हें मोहलत देता है। रवायत में है कि जब हज़रत मूसा (अ.स) ने फ़िरऔन के बारे में नफ़रीन की तो पूरे चालीस साल की मुद्दत गुज़रने के बाद वो हलाक हुआ ख़ुदा मोहलत तो देता है लेकिन बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जो अपनी इस्लाह के लिये इस मौक़े और मोहलत से फ़ायदा उठा ते हैं। (किताब क़यामत ओ कुरआन सफ़्हाः- 124)

 

 

 

तुम्हारी रूह आलमे बरज़ख़ में रिज़्क़ चाहती है

आओ इस हक़ीक़ी जमाल के लिये ऐहतेराम और कोशीश करो जिसकी असलियत आले मोहम्मद सलवातुल्लाहे अलैहिम अजमईन की मुक़द्दस ज़ातों में है मैदाने हश्र में सूरज और चाँद न होगें वहाँ कोई नूर न चमकेगा सिवा जमाले मोहम्मद सलल्लाहो अलैहे वा आलेही वस्सलम के या उस शख़्स के जो मुहम्मदी बन जाऐ वहाँ रूह का हुस्न ओ जमाल होगा बदन का नहीं अपने ऊपर ऊपर इस क़दर ज़ुल्म न करो और अपनी रूह से ग़ाफ़िल न रहो जिस्मानी आराम ओ आसाईश के लिये इस क़दर वसाएल मोहय्या हैं तो अपनी क़ब्र के लिये भी कोई काम अन्जाम दो ! आलमे बरज़ख़ में ये जिस्म नहीं बल्कि तुम्हारी रूह रिज़्क़ चाहती है कितने अफ़सोस की बात है अगर तुम्हारा लिबास आग से तैय्यार हो (सराबीलहुम मिन क़तरान वतग़शी वजूहूहूमुल, नार सूराः- इब्राहीम आयतः- 50) काश तुम देखते कि आग ने ज़ालिमों को किस तरह जकड़ लिया है ये उन्हीं की ख़सलतों का नतीजा है कि आतिशे अज़ाब ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर रक्खा है।

(किताबः नफ़्से मुतमइन्ना सफ़्हाः- 74)

 

ऐ दीन के हामी बरज़ख़ी जन्नत में आ जा !

आयऐ मुबारक "क़ीला अदख़लल जन्नत" के बारे में चन्द मुफ़स्सिरीन ने लिखा है कि जैसे ही पैग़म्बरों का ये हामी क़त्ल हुआ फ़ौरन उसकी रूहे मुकद्दस को निदा हुई कि बहिश्त में दाख़िल हो जा और रहमते ख़ुदावन्दी का ये हुक्म पहुँचा कि बोस्ताने इलाही में वारिद हो ! अलबत्ता यहाँ आख़िरत और क़यामत की जन्नत नहीं बल्कि बरज़ख़ी जन्नत मुराद है बरज़ख़ी जन्नत उस वक़्त से जब आदमी को मौत आती है क़यामत तक है जिस वक़्त से रूह और बदन के दरमियान जुदाई होती है बरज़ख़ शुरू हो जाता है। (वमन वराऐहुम बरज़ख़ा इला  यौमुल याबेसून, सूराः- 23, आयतः- 100) मौत से क़यामत तक बरज़ख़ यानी एक दरमियानी वास्ता है न वो दुनिया के मिस्ल है, उसकी क़साफ़तो के साथ, न आख़िरत की मानिन्द है उसकी लताफ़तों के साथ, ये एक दरमियानी हद है बरज़ख़ इस वक़्त भी मौजूद है और इसी आलम में है लेकिन उसके परदाए ग़ैब में है, माद्दा और महसूसात से पोशीदा है ये माद्दी जिस्म उसे देख नहीं सकता तुम ख़ुद ग़ौर करो कि हवा मौजूद है और जिस्म मुरक्कब भी है लेकिन आँख उसे नहीं देखती  इसलिये कि वो लतीफ़ है ये मेरी और तुम्हारी आँख का नक़्स नहीं हैं कि सिवा माद्दे और माद्दियात के और किसी शै को नहीं देख सकती अलबत्ता इस जिस्म से अलहादगी के बाद बरज़ख़ी अजसाम भी जो माद्दी नहीं हैं क़ाबिले दीद हो जाते हैं। ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में बहिश्ते आख़िरत के लिये जो वादा फ़रमाया है वो बरज़ख़ी बहिश्त में भी है चुनाँचे रूह के जिस्म से जुदा होते ही उसे बशारत दे दी जाती है कि बहिश्त में आ जा ! शहीद तमाम गुनाहों से पाक हो जाता है और शहादत से बालातर कोई नेकी नहीं है (फ़ौक़ा कुल्ला बरबरा हत्ता यन्तेहा इलल्ल क़त्ला फ़ी सबील्लाह, सफ़ीनतुल बिहार जिल्दः- 2 सः-687, किताब क़ल्बे क़ुरान, सफ़्हाः- 85)

क़ीला अदख़लल जन्नता..................ख़ामेदून, सूराऐ यास आयतः- 26 से 29। यानी (हबीबे नज्जार) से कहा गया कि जन्नत में दाख़िल हो जाओ ! उस वक़्त उन्होंने कहा कि मेरे परवरदिगार ने मुझे बख़्श दिया और मुझे बुज़ुर्ग अफ़राद में से क़रार दिया है काश मेरी क़ौम वाले भी जान लेते और हम ने उनके बाद उनकी क़ौम पर न तो आसमान से कोई लशकर उतारा और न हम (इतनी सी बात के लिये कोई लश्कर) उतारने वाले थे वो तो सिर्फ़ एक चीख़ थी पस वो (चिराग़ की तरह) बुझके रह गऐ। (मुतारज्जिम)

 

मोमिन के लिये उसकी मौत से क़यामत तक बरज़ख़ी जन्नत है

जब मोमिने आले आसीन को और पैग़म्बरों के इस यार ओ मददगार को क़त्ल किया गया तो उनसे कहा गया कि बहिश्त में जाओ ! जब वो दाख़िले बहिश्त हुऐ तो कहा, काश मेरी क़ौम ये जानती कि मेरे परवरदिगार ने मुझे बख़्श दिया है और मुझे बलन्द मरतबा लोगों में से क़रार दिया है दरअस्ल पैग़म्बर और ख़ुदा की तरफ़ दावतत देने वाले उम्मतों के ख़ैरख़्वाह होते हैं चूँकि वो सिवा हमर्ददी के और कोई ग़रज़ नहीं रखते लिहाज़ा चाहते हैं कि ये ख़िलक़त निजात पाऐ और सआदतमन्दी की मंज़िल पर फ़ायज़ हो बावजूद कि लोगों ने उन्हें मारा और क़त्ल किया फिर भी उन्होंने नफ़रीन नहीं की बल्कि दिलसोज़ी और मेहरबानी ही करते रहे और उनकी यही तमन्ना रही कि काश ये बेख़बर लोग जिन्होंने हमारी नसीहतों को क़बूल नहीं किया समझ लेते।

मैंने कहा था कि मेरा मक़सूद बरज़ख़ी जन्नत है जो मोमिन के लिये मौत के वक़्त से रोज़े क़यामत तक है अगर मोमिन हो और कुछ गुनाह भी रखता हो और बग़ैर तौबा के मर जाऐ तो अपनी उम्र की साआतों के हिसाब से बरज़ख़ के अज़ाब में भी रहेगा और सवाब में भी यहाँ तक कि आख़िरकार तसफ़िया हो जाऐ, कभी ऐसा भी होता है कि इसी बरज़ख़ में गुनाहों से पाक हो जाता है और जिस वक़्त मैदाने महशर में वारिद होगा तो उसके ज़िम्मे कोई हिसाब न होगा। आयत "क़ीला अदख़ल्लल जन्नता" के बारे में बाज़ मुफ़स्सिरीन का क़ौल है कि इस मोमिन के क़त्ल की ख़बर पहले ही से दे दी जाना चाहिये थी इसके बाद ये फ़रमाया जाता कि इससे कहा गया............. लेकिन यहाँ क़त्ल का ज़िक्र नहीं हुआ इसका सबब ये है कि इस क़ौल से क़ब्ल इन्हीं आयत से मौत का मफ़हूम हासिल हो जाता है "वमा अनज़लना अला क़ौमेही मिन बादहू" में कल्माऐ मिन बाद............. से ज़ाहिर हो जाता है कि ऐसा उनकी मौत के बाद हुआ और ये ज़रूरी नहीं है कि दोबारा उनके क़त्ल होने का ज़िक्र किया जाऐ।

"या हसरता अलल इबाद......................................... लायरजेऊन"

 

बरज़ख़ में इन्सानों की हालत हक़ीक़तो का इन्केशाफ़ है

आयत "या हसरता अलल इबाद" के सिलसिले में बताया गया है कि हक़ीक़तन इन्सान की हालत बरज़ख़ और क़यामत में ज़ाहिर होगी क्योंकि जो कुछ यहाँ पोशीदा है वहाँ उसका इन्केशाफ़ हो जाऐगा उस वक़्त जिन लोगों ने पैग़म्बरों और ताबेईन के साथ तमस्ख़ुर और इस्तेहज़ा किया था "दआह इलल्लाह" ख़ल्के ख़ुदा को आख़िरत की तरफ़ दावत देने वाले उनसे तमस्ख़ुर करेंगे जिस वक़्त हक़ीक़त ज़ाहिर होती है तो ऐसे लोगों को किस क़दर अफ़सोस और निदामत आरिज़ होती है। क़ुराने मजीद में सारी क़यामत को यौम से ताबीर किया गया है "यौमल आज़फ़ता" "यौमुल क़यामत" "यौमुल वाक़िया" क़यामत में दुनिया के दिनों की तरह आफ़ताब न होगा (इज़्ज़श शम्सा कौरत जम्अश शम्से वल क़मर) (ज़मीने महशर में शम्स ओ क़मर न होंगे)

 


बरज़ख़ में जमाले मुहम्मदी (स.अ.व.व) के अलावा कोई नूर न होगा

इस बिना पर यौम की ताबीर किस लिये है? रोज़ यानी रौशन लैल या शब के मुक़ाबिले में है जो तारीक होती है दुनिया में तारीकी है हक़ीक़त पोशीदा या बातीन के अन्दर छुपी हुई है, हक़ाएक़ आशकार नहीं हैं मौत की इब्तेदा ही से कशफ़े हक़ाएक़ के लिये हक़ीक़ी सुब्ह का आग़ाज़ होता है मसअलन इस दुनिया में तुम हज़रत अली (अ.स) को पहचानने की जितनी कोशीश करोगे कामयाब न होगे इस लिये कि वो हम से पोशीदा हैं लेकिन मौत के साथ ही जब तुम्हारी बरज़ख़ी आँख खुल जाती है तो हज़रत अली (अ.स) की बलन्दी और अज़मत का एक हद तक इदराक कर सकते हो। ख़ुदा का ताक़तवर हाथ, नेक बन्दों पर ख़ुदा की नेमत और बुरे लोंगो पर ख़ुदा का अज़ाब। ("अस्सलामो अला नेमतुल्लाह अलल अबरार वा नक़्मतुल्लाहे अलल फ़ज्जार" ज़ियारते शशुम हज़रते अमीरूल मोमिनीन) ग़रज़ के विलादत के वक़्त से मौत की घड़ी तक रात है और मौत के बाद कशफ़े हक़ीक़त का दिन, हक़ीक़त का इन्केशाफ़ होने दो ! उस वक़्त जो लोग पैग़म्बरों का इस्तेहाज़ा करते थे जब उनकी बलन्दी और बुज़ुर्गी का मुशाहिदा करेंगे और उन उल्मा, साहबाने अमल और औलियाऐ ख़ुदा को देखेगें जिन्हें दुनिया में हिक़ारत की नज़र से देखते थे और उनका मज़ाक़ उड़ाते थे तो उन पर क्या गुज़रेगी ?

 

मरक़द और बरज़ख़ के बारे में एक नुक्ता

लफ़्ज़े मरक़द के बारे में एक नुक्ता ये है कि मरक़द इस्मे मकान यानी महल्ले वुकूउ यानी महल्ले ख़्वाब या ख़्वाबगाह है। क़यामत के रोज़ लोग क़ब्रों से उठने के बाद कहेंगे कि हमें हमारी ख़्वाबगाह से किसने उठा दिया? दरहाँलाकि वो बरज़ख़ में अज़ाब झेल रहे थे (वमन वराएहुम बरज़ख़ा इला यौमा याबेसून सूराऐ मोमेनूनः-23, आयतः- 100)

जो शख़्स दुनिया से जाता है उसे बरज़ख़ में सवाब ओ उक़ाब का सामना होगा, यहाँ तक कि वो अस्ली बहिश्त या असली जहन्नम में पहुँच जाऐ, जो गुनाह वो कर चुका है उनका वबाल झेलता है कितने ही ऐसे हैं जो इसी बरज़ख़ में पाक ओ साफ़ हो जाते हैं इसके बावजूद कहते हैं कि मरक़द, हाँलाकि वो बरज़ख़ में थे।

इसका जो जवाब दिया गया है औऱ दुरूस्त भी है, ये हैं कि कहते हैं जुमला अवालिम अपनी क़ूवत और ज़ौफ़ के पेशे नज़र बेऐनेही ख़्वाब और बेदारी के मिस्ल हैं। ख़ाक के ऊपर ज़िन्दगी बसर करना आलमे बरज़ख़ की मुनासिबत से ऐसा ही है जैसे तुम यहाँ सो रहे हो और वहाँ बेदारी है चूँकि बरज़ख़ की क़ूवते असर दुनिया से बदरजह ज़्यादा है लिहाज़ा सब लोग यहाँ सो रहे हैं जब मौत आती है तब जागते हैं। ("अन्नासो नियामुन इज़ा मातु इन्तबेहु")

ये रवायत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) से है जो लोग मुर्दों के मुताल्लिक़ सच्चे ख़्वाब देख चुके हैं वो इस गुज़ारिश की तस्दीक़ करते हैं। किताब दास्तानाहाऐ शग़ुफ़्ता में इस तरह के काफ़ी नमूने दर्ज हैं इसी तरह हाजी नूरी की किताब "दारूस्सलाम" में भी इसके शवाहीद मौजूद हैं।

 

बरज़ख़ की निस्बत से क़यामत ख़्वाब के बाद बेदारी है

चूँकि बरज़ख़ की निस्बत से क़यामत ख़्वाब के बाद बेदारी है इसकी अस्ली तासीर भी क़यामत में है, बरज़ख़ में सवाब हो या उक़ाब अपनी दरमियानी हद में होता है। वहाँ हर चीज़ दुनिया के मुक़ाबले में बेदारी है लेकिन हयात बाद अज़ मौत के लिहाज़ से ख़्वाब है लिहाज़ा जब इन्सान क़ब्र से सर उठाऐगा तो कहेगा "किसने मुझे बेदार किया है" जब उसकी नज़र जहन्नम के भड़कते हुऐ शोलों पर पड़ेगी जो पहाड़ की तरह बलन्द हो रहे होगें, एक तरफ़ मलाएका, ग़िलाज़ ओ शदाद सारी मख़लूक़ को हिसाब के लिये हाज़िर करने पर मामूर होगें और एक तरफ़ ऐसे चेहरे नज़र आऐंगे जो स्याह पड़ चुके होंगे।

(वज्जहू यौमैज़ा अलैहा ग़ैरहू, सूराऐ अब्सः- 80, आयतः 40).

ऐसी अजीबो ग़रीब चीज़े नज़र आऐगीं जिनकी मिसाले बरज़ख़ में भी मौजूद नहीं थीं, ये चीज़े उस तरह लरज़ा बर अन्दाम कर देंगी- कि सभी लोग ज़ानूओ के बल सर निगू हो जाऐगें। (वतरा कुल्ला उम्मतन जासिया, सूराऐ जासिया) और कहेंगे "रब्बे नफ़्सी" सिवा हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहे वा आलेही वसल्लम के कि आप कहेंगे "रब्बे उम्मती" यानी ख़ुदावन्दा मेरी उम्मत की फ़रियाद को पहुँच ! किसी के पाँओ में खड़े रहने की ताक़त न होगी, हौल की वजह से हामिला औरतों के हमल साक़ित हो जाऐंगे, बच्चों को दूध पिलाने वाली औंरतें अपने बच्चों से ग़ाफ़िल हो जाऐंगी और तुम देखोगे की लोग नशे में बेख़ुद हैं लेकिन वो नशे में न होगें अलबत्ता अज़ाबे ख़ुदा बहुत सख़्त है। (वतज़्अ कुल्ला ज़ाता हमलाहमलोहा वतरन्नास सुकारा वमाहुमबे सुकारा वलाकिन्ना अज़ाबल्लाहे शदीद, सूराऐ हजः- 22, आयतः- 2 )

हम क़यामत के बारे में ऐसी ख़बरें सुनते हैं कि हर चन्द बरज़ख़ में भी अज़ाब होगा लेकिन यहाँ वह अज़ाब क्या चीज़ है? बिच्छू के डंक के मुक़ाबले में मच्छर का डंक क्या हक़ीक़त रखता है? हाँ यह वही पैग़म्बर का वादा है जिन्होंने देखा है और सच फ़रमाया है।

 

आलमे बरज़ख़ में बक़ाऐ अरवाह का सुबूत

जनाब आक़ाऐ सिब्ते ने नक़्ल किया है कि मरहूम आक़ा सैय्यद इब्राहीम शुसत्री जो अहवाज़ के आइम्माऐ जमाअत में से और बहुत मोहतात और मुक़द्दस थे अपने अक़्दे अज़दवाज के बाद सख़्त परेशान और फ़िक्र ओ तहे दस्ती में मुब्तिला हो गऐ यहाँ तक कि अपने और अपने घर वालों के इख़राजात पूरे करने से माज़ूर हो गऐ मजबूर होकर पोशीदा तौर से नजफ़े अशरफ़ चले गऐ और शूसतर के एक तालिबे इल्म के पास मदरसे में रहने लगे, चन्द माह के बाद शूसतर से एक काफ़िला आया और उनको ख़बर दी कि तुम्हारे घर वाले तुम्हारे नजफ़े अशफ़र आने से मुत्तिला हो गऐ हैं और अब तुम्हारी ज़ौजा, माँ बाप और बहने यहाँ आईं हैं ये सुन के मौसूफ़ सख़्त परेशान हो गऐ यहाँ न उनके पास ठहराने की जगह है न माली गुंजाइश, आख़िर क्या करें ? बहरतौर जिस तरह मुमकिन था इधर उधर लोगो से किसी ख़ाली मकान का सुराग लगाना शुरू किया लोगों ने एक दुकानदार का पता दिया कि उसके पास एक ख़ाली मकान की कुँजी मौजूद है ये उसके पास पहुँचे तो उसने कहा, हाँ ! है तो लेकिन वो घर नामुबारक है और जो शख़्स भी उसमे मुक़ीम होता है परेशानी में मुब्तला होकर मौत का शिकार हो जाता है सैय्यद ने कहा कोई हर्ज नहीं है, (अगर मैं मर भी जाऊँ तो उस से बेहतर क्या है? इस फ़िक्रो हलाकत की ज़िन्दगी से जल्द निजात मिल जाऐगी) चुनाँचे मकान की कुँजी हासिल करके उसके अन्दर दाख़िल हुऐ तो देखा कि हर तरफ़ मकड़ी के जाले लगे हुऐ हैं और सारा घर गन्दगी और कूड़े से भरा हुआ है जिससे ज़ाहिर होता है कि उसमें मुद्दतों से किसी की सुकूनत नहीं रही उन्होंने उसे साफ़ करके उसमें घर वालों को ठहराया जब रात को सोऐ तो दफ़्अतन देखा कि एक अरब अच्छे क़िस्म का उक़ाल (ऐसा सर बन्द जो मामूली उक़ालों या सरबन्दों से ज़्यादा संगीन और मुअज़्ज़ि होता है) सर पर बाँधे हुऐ आया और ग़ुस्से में उनके सीने पर चढ़ बैठा और कहा सैय्यद ! तुम क्यों मेरे घर में आऐ ? अब मैं तुम्हारा गला घोंट दूगाँ सैय्यद ने जवाब में कहा मैं सैय्यद और औलादे रसूल हूँ और मैंने कोई ख़ता भी नहीं की है अरब ने कहा ये सब ठीक है लेकिन तुमने मेरे घर में क्यों क़याम किया ? सैय्यद ने कहा अब आप जो कुछ भी हुक्म दें मैं उस पर अमल करूँगा और आप से भी यहाँ रहने की इजाज़त चाहता हूँ अरब ने कहा बेहतर है अब तुम्हारा काम ये है कि तहख़ाने के अन्दर जाओ और उसको पाक साफ़ करने के बाद उसमें गच का जो पलास्टर है उसे उखाड़ो उसके नीचे से मेरी क़ब्र ज़ाहिर होगी उसके कूड़े करकट को बाहर फ़ेंक कर हर शब एक ज़ियारत अमीरूल मोमिनीन (अ.स) की (ग़ालिबन ज़ियारते अमीनुल्लाह बताई थी) पढ़ो और रोज़ाना फ़ुलाँ मिक़दार में (ये मिक़दार नाक़िल के ज़हन से निकल गई थी) क़ुरान की तिलावत किया करो उस वक़्त मकान में रहने की इजाज़त होगी। सैय्यद कहते हैं मैंने इसी तरीक़े से सरदाब फ़र्श को गज से बनाया हुआ था उख़ाड़ा तो क़ब्र नज़र आई मैंने सरदाब को साफ़ किया और हर शब ज़ियारते अमीनुल्लाह और हर रोज़ तिलावते क़ुराने मजीद में मशग़ूल रहता था लेकिन ख़ानगी इख़्राजात की तरफ़ से सख़्त मुसीबत में मुब्तिला था यहाँ तक कि मैं एक रोज़ रौज़ाऐ अक़दस के सहने मुताहिर में बैठा हुआ था कि एक शख़्स ने जिनके मुताल्लिक़ बाद में मालूम हुआ कि वो शैख़ ख़ज़अल से वाबस्ता रईसुस तुज्जार हाजी मारूफ़ बा सरदारे अक़दस थे मुझको देखा, हालात मालूम किये और घर के अफ़राद के तादाद के मुताबिक़ एक एक उसमानी लीरा (तुर्की का सिक्का) दिया और ज़रूरियाते ज़िन्दगी के लिहाज़ से काफ़ी माहवार रक़म मुअय्यन करके उसका क़िबाला (सनद) लिख दिया चुनाँचे उस से मेरी माशी हालत सुधर गई और मैं पूरे तौर पर आसूदा हाल हो गया ये हिक़ायत चन्द दीगर मज़कूरा वाक़ियात की तरह आलमे बरज़ख़ में रूहों की बक़ा और इस दुनिया का हालात ओ कैफ़ियात से उनकी आगाही पर एक गवाहे सादिक़ है उस हिक़ायत से बख़ूबी समझा जा सकता है की रूहे अपने मक़ामे दफ़्न से और क़ब्रों से काफ़ी दिलचस्पी और ताअल्लुक़ रखती हैं इस मतलब की तौज़ीह ये है कि रूहें सालहा साल अपने जिस्मों के साथ रह चुकी होती हैं उनके वसीले से मुख़्तलिफ़ काम अन्जाम देती हैं उलूम ओ मआरिफ़ हासिल करती हैं, इबादते करती हैं नेक आमाल बजा लाती हैं और उसके जवाब मे इन अजसाम की ख़िदमते करती हैं, और उनकी तरबीयत और तदबीरे उमूर में तरह तरह के रंज ओ अलम बर्दाशत करती हैं इसी बिना पर मुहक़्क़ेक़ीन का क़ौल है कि नफ़्स का ताअल्लुक़ बदन के साथ आशिक़ व माशूक़ के दरमियान ताअल्लुक़ और राब्ते के मानिन्द है इसी लिये जब वो मौत के बाद बदन से दूर हो जाता है तो उससे मुकम्मल क़त्ऐ ताअल्लुक़ नहीं करता और जहाँ उसका बदन होता है उस मक़ाम पर ख़ुसूसी नज़र और तवज्जो रखता है चुनाँचे अगर देखता है कि उस मुक़ाम पर कूड़ा और ख़स ओ ख़ाशाक डाला जा रहा है या उस जगह गुनाह और गन्दे काम हो रहे हैं तो वो बहुत रंजीदा होता है और ऐसे बुरे अफ़आल का इरतेकाब करने वालों पर नफ़रीन करता है और इसमें कोई शक नहीं कि रूहों की नफ़रीन बहुत असर रखती है जैसा की मज़कूरा दास्तान में बताया गया है जो लोग उस घर में क़याम करते थे वो कैसी कैसी परेशानियों और मुसीबतों में मुब्तिला होते थे लेकिन वो अपने ख़्याले फ़ासिद में यही समझते थे कि घर मनहूस ओ नामुबारक है अलबत्ता अगर कोई शख़्स क़ब्र को पाक ओ साफ़ रखता है और उसके क़रीब तिलावते क़ुरान जैसे नेक आमाल बजा लाता है तो वो रूहें ख़ुश होती हैं और उसके लिये दुआ करती हैं जैसा कि सैय्यदे मौसूफ़ के बारे में बयान किया गया है कि ज़ियारत और तिलावते क़ुरान की बरकत से उस क़ब्र के नज़दीक उनके लिये कैसी फ़राख़ी और फ़ारगुल बाली हासिल हुई। (किताब दास्तानाहाऐ शगुफ़्त सफ़्हाः- 200)

 

बरज़ख़ के बारे में इमाम मूसा काज़िम (अ.स) का मोजिज़ा

ये वाक़िया लाएक़े ग़ौर ओ फ़िक्र है किताब कशफ़ुल ग़म्मा में जो शियों की मोतबर किताबों में से है इमामे लिखते हैं मैंने बुज़ुर्गाने इराक़ से सुना है कि अब्बासी ख़लीफ़ा का एक बहुत शानदार मुतमव्वुल वज़ीर था जो फ़ौजी और मुल्की मुआमलात की तंज़ीम ओ दुरूस्ती में काफ़ी माहिर और मुस्तइद और ख़लीफ़ा का मन्ज़ूरे नज़र था जव वो मरा तो ख़लीफ़ा ने उसकी ख़िदमत गुज़ारियों की तलाफ़ी के लिये हुक्म दिया कि उसकी मय्यत को हरमे इमाम हफ़तुम के अन्दर ज़रीऐ अक़दस के क़रीब दफ़्न किया जाऐ हरमे मुत्ताहर का मुतावल्ली जो एक मर्दे मुतक़्क़ी इबादत गुज़ार और हरम का ख़ादिम था रात को रिवाक़े मुत्ताहर में क़याम करता था चुनाँचे उसने ख़्वाब में देखा कि उस वज़ीर की क़ब्र शिग़ाफ़्ता हो गई है उसमें से आग के शोले निकल रहे हैं और ऐसा धुआं उठ रहा है जिससे जली हुई हड्डी की बदबू आ रही है यहाँ तक कि सारा हरम धुऐं और आग से भर गया उसने देखा कि इमाम इस्तादा हैं और बलन्द आवाज़ से मुतावल्ली का नाम लेकर फ़रमा रहे हैं कि ( ख़लीफ़ा का नाम लेकर) ख़लीफ़ा से कहो कि तुमने इस ज़ालिम को मेरे क़रीब दफ़्न करके मुझे अज़ीयत पहुँचाई है, मुतावल्ली की आँख खुल गई दरहालाँकि वो ख़ौफ़ की शिद्दत से लरज़ रहा था उसने फ़ौरन सारा वाक़िया तफ़्सील के साथ लिख के ख़लीफ़ा के पास रवाना किया ख़लीफ़ा उसी रात बग़दाद से काज़मैन आया, हरम को लोगों से ख़ाली करा के हुक्म दिया कि वज़ीर की क़ब्र खोदी जाऐ और उसके जसद को बाहर निकाल के दूसरे मक़ाम पर दफ़्न किया जाऐ चुनाँचे जब ख़लीफ़ा के रू ब रू क़ब्र शिग़ाफ़्ता की गई तो उसके अन्दर बाजुज़ जले हुऐ जिस्म की ख़ाकस्तर के और कुछ भी नहीं था।

 

आलमे बरज़ख़ के बारे में चन्द सवालात

उल्माऐ आलाम और सादाते किराम की एक बुज़ुर्ग शख़सियत ने जो शायद अपना नाम ज़ाहिर न करना चाहते हों नक़्ल फ़रमाया है कि मैंने अपने पिदरे अल्लामा को ख़्वाब में देखा और उनसे कुछ सवालात किये और उन्होंने उनके जवाबात दिये।

1. मैंने पूछा कि जो रूहें आलमें बरज़ख़ के अन्दर अज़ाब में मुब्तिला हैं उनका अज़ाब और सख़्तियाँ किस तरह की हैं? उन्हों ने फ़रमाया चूँकि अभी तुम आलमे दुनिया में हो लिहाज़ा मिसाल के तौर पर यही बताया जा सकता है कि जिस तरह तुम किसी कोहिस्तान में एक दर्रे के अन्दर हो और उसके चारों तरफ़ इतने बलन्द पहाड़ हों कि कोई शख़्स उन पर चढ़ने की ताक़त न रखता हो और इस आलम में एक भेड़िया तुम पर हमला करदे जिस से फ़रार कोई रास्ता न हो।

2. फ़िर मैंने दरयाफ़्त किया कि मैंने दुनिया में आपके लिये जो उमूरे ख़ैर आपके लिये अन्जाम दिये हैं वो आप तक पहुँचे या नहीं? और हमारी ख़ैरात से आपको किस तरह से फ़वायद हासिल होतें हैं? फ़रमाया हाँ वो सब हम तक पहुँच गऐ लेकिन उस से फ़ायदा उठाने की कैफ़ियत भी तुम्हारे सामने एक मिसाल के ज़रिये बयान करता हूँ, जिस वक़्त तुम एक ऐसे हम्माम के अन्दर जो बहुत ही गर्म और मजमे के हुजूम से छलक रहा हो वहाँ सांस लेने की कसरत, बुख़ारात और हरारत की वजह से तुम्हें साँस लेना दुशवार हो जाऐ ऐसे आलम में एक गोशे से हम्माम का दरवाज़ा खुल जाए और उस से ख़ुशगवार नसीमे सहरी का ठन्डा झोंका तुम्हारे पास पहुँचे तो तुम किस क़दर मसर्रत ओ राहत ओ आज़ादी महसूस करोगे ? बस तुम्हारी ख़ैरात देखने क बाद यही कैफ़ियत हमारी होती है।

3.जब मैंने अपने बाप को सही ओ सालिम और नूरानी सूरत में पाया और देखा कि सिर्फ़ उनके होंठ ज़ख़्मी हैं और उनसे पीप और ख़ून रिस रहा है तो मैंने उन मरहूम से इसका सबब दरयाफ़्त किया और कहा कि अगर मुझसे कोई ऐसा अमल हो सकता हो जिस से आपके होंठों को फ़ायदा पहुँच सके तो फ़रमाइये ताकि उसे अन्जाम दूँ, उन्होंने जवाब में फ़रमाया कि इसका इलाज सिर्फ़ तुम्हारी अलवीया माँ के हाथ में है क्योंकि इसका बाएस फ़क़त उसकी वो इहानत है जो मैं दुनिया में किया करता था चूकि उसका नाम सकीना है लिहाज़ा जब मैं पुकारता था तो ख़ानम सक्को कहा करता था और वो इस से रंजीदा ख़ातिर होती थी अगर तुम मुझ से राज़ी कर सको तो फ़ायदे की उम्मीद है मोहतरम नाक़िल फ़रमाते हैं कि मैंने ये सूरते हाल अपनी माँ के सामने पेश की तो उन्होंने जवाब में कहा कि हाँ ! तुम्हारे बाप मुझको पुकारते थे तो मेरी तहक़ीर के लिये ख़ानम सक्को कहते थे मुझे जिस से मैं सख़्त आज़ुरदा ख़ातिर और रंजीदा होती थी लेकिन उसका इज़हार नहीं करती थी और उनके ऐहतेराम के पेशेनज़र कुछ नहीं कहती थी अब जबकि वो ज़हमत में मुब्तिला और परेशान हैं तो मैं उन्हें मुआफ़ करती हूँ और उनसे राज़ी हूँ और उनके लिये समीमे क़ल्ब से दुआ करती हूँ। इन तीन सवालात और उनके जवाबात में ऐसे मतालिब पोशीदा हैं जिनका जानना ज़रूरी है और मैं मोहतरम नाज़िरीन को मुतावज्जे करने के लिये मुख़्सर तौर पर उनकी यादआवरी करता हूँ।

 

बरज़ख़ में नेक आमाल बेहतरीन सूरतों में

अक़्ली और नक़्ली दलीलों से साबित और मुसल्लम है कि आदमी मौत से फ़ना नहीं होता बल्कि उसकी रूह माददी और ख़ाकी बदन से रिहाई के बाद एक इन्तेहाईं लतीफ़ से क़ालिब से मुल्हक़ हो जाती है और वो तमाम इदराकात ओ ऐहसासात जो उसे दुनिया में हासिल थे जिसे सुनना, देखना, ख़ुशी और ग़म वग़ैरा उसके साथ रहते हैं बल्कि आलमे दुनिया से ज़्यादा शदीद और क़वी हो जाते हैं और चूँकि जिस्मे मिसाली मुकम्मल सफ़ाई और लताफ़त का हामिल होता है लिहाज़ा माददी आँखे उसे नहीं देखती है यानी ये कम चशमी माददी तरफ़ से है कि वो हवा जैसी चीज़ को भी जिसका जिस्म मुरक़्क़ब है लेकिन चूँकि लतीफ़ है नहीं देख सकती । मौत के बाद से क़यामत तक आदमी की रूह की इस हालत को आलमे मिसाली और बरज़ख़ कहते हैं चुनाँचे क़ुराने मजीद में इरशाद है कि उनके पीछे बरज़ख़ है उस दिन तक जब वो उठाऐ जाऐंगे (वमन वराऐहुम बरज़ख़ा इला यौमल याबेसून, सूराः- 13, आयतः- 100) इस मक़ाम पर चीज़ की याददहानी और जिस पर तवज्जो ज़रूरी है ये है कि जो लोग ख़ुशनसीबी के साथ इस दुनिया से गऐ हैं वो बरज़ख़ में अपने तमाम नेक आमाल और इख़लाक़े फ़ाज़िला का बेहतरीन और इन्तेहाई ख़ूबसूरत शक्लों में मुशाहिदा करते हैं और उनसे फ़ायदा उठा कर शाद ओ मसरूर होते हैं। इसी तरह बदबख़्त नुफ़ूस अपने नाजायज़ अफ़आल, अपनी ख़यानतों गुनाहों और पस्त ओ रज़ील इख़लाक़ को बदतरीन और बहुत ही वहशतनाक सूरतों में देखते हैं और आरज़ू करते हैं कि उनसे दूर रहें लेकिन ये होने वाला नहीं जैसी की उन बुज़ुर्गवार मरहूम के जवाब के जवाब में एक हमलावर भेड़िये से तशबीह दी गई है जिस से फ़रार का कोई रास्ता न हो।

इस आयते मुबारिका में ग़ौर करने की ज़रूरत है "जिस रोज़ हर नफ़्स अपने आमाले नेक को अपनी सामने हाज़िर पाऐगा और अपने बुरे अफ़आल के बारे में आरज़ू करेगा कि काश उसके और उनके (अफ़आले बद) दरमियान लम्बा फ़ासला होता और ख़ुदा तुम्हे अपने उक़ाब से दूर रखना चाहता है और ख़ुदा अपने बन्दों पर मेहरबान है" (यौमा तजुदो कुल्ला नफ़्स........................ वल्लाहो रऊफ़ुन बिल इबाद, सूराः- 3 आयतः- 30) ये भी उसकी मेहरबानी है कि उसने दुनिया ही में ख़तरे का ऐलान फ़रमा दिया ताकि लोग आलमे आख़िरत में फ़िशार और सख़्तियों में गिरफ़्तार होने से बचें। (किताब दास्तानहाए शग़ुफ़्त सफ़्हाः- 312 से 316 )

 

जनाज़े के ऊपर एक कुत्ता बरज़ख़ी सूरत

मोमिन और मुतक़्क़ी और साहबे ईमान बुज़ुर्ग मरहूम डाक्टर अहमद एहसान ने जो बरसो करबलाऐ मुअल्ला में मुक़ीम रहे और अपनी उम्र के आख़री चन्द साल क़ुम के मुजाविर रहे और वहीं उनका इन्तेक़ाल और दफ़्न, कफ़न हुआ तक़रीबन पच्चीस साल क़ब्ल करबला में बयान फ़रमाया कि मैंने एक रोज़ एक जनाज़ा देखा जिसे कुछ लोग तबर्रूक और ज़ियारत के क़स्द से हज़रते सैय्यदुश शोहदा (अ.स) के हरमे मुताहर की तरफ़ ले जा रहे थे मैं भी जनाजा ले जाने वालो मे शामिल हो गया एक बार मैंने देखा कि ताबूत के ऊपर एक ख़ौफ़नाक स्याह कुत्ता बैठा हुआ है मैं हैरतज़दा हो गया और ये जानने के लिये की कोई दूसरा शख़्स उसे देख रहा है या तन्हा मैं ही इस अजीब ओ ग़रीब अम्र का मुशाहिदा कर रहा हूँ अपनी दाहिनी ओर चलने वाले एक शख़्स से पूछा कि जनाज़े के ऊपर जो कपड़ा है वो कैसा है ? उसने कहा कि कशमीरी शाल है ! मैंने कहा कपड़े के ऊपर कुछ और देख रहे हो ? उसने कहा नहीं! यही सवाल मैंने अपने बाऐं तरफ़ वाले से भी किया और यही जवाब मिला तो मैंने समझ लिया कि सिवा मेरे कोई और नहीं देख रहा है, जब हम सहने मुबारक के दरवाज़े तक पहुँचे तो वो कुत्ता जनाज़े से अलग हो गया यहाँ तक कि जब जनाज़े को हरमे मुताहर और सहने मुबारक से बाहर लाए तो फिर उसको जनाज़े के साथ पाया मैं उसके साथ क़ब्ररिस्तान तक गया कि देखूं क्या होता है? मैंने ग़ुस्लख़ाने और तमाम हालात में कुत्ते को जनाज़े से मुतस्सिल पाया यहाँ तक कि जब मय्यत को दफ़्न किया गया तो वो कुत्ता भी उसी क़ब्र में मेरी नज़र से ओझल हो गया।

 

बरज़ख़ में आदमी के किरदार मुनासिब हाल सूरतों में

इसी से मिलता झुलता एक वाक़िया काज़ी सैइदे क़ुम्मी ने अपनी किताब "अर-बइयानात" में उस्तादे कुल शैख़े बहाई आलल्लाहो मक़ामाहू से नक़्ल किया है जिसका ख़ुलासा ये है कि साहबाने मारिफ़त ओ बसीरत में से एक शख़्स अस्फ़ेहान के एक मक़बरे में मुजाविर थे एक रोज़ जनाबे शैख़े बहाई रह. उनकी मुलाक़त को गऐ तो उन्होंनेक कहा कि मैंने गुज़िश्ता रोज़ इस कब्ररिस्तान में चन्द अजीबो ग़रीब उमूर मुशाहिदा किये हैं मैंने देखा कि एक जमाअत एक जनाज़ा लेकर आई और उसे फ़ुलाँ मक़ाम पर दफ़्न करके चली गई थोड़ी देर बाद एक बहुत नफ़ीस ख़ुशबू मेरे मशाम में पहुँची जो दुनियावी ख़ुशबूओं में से नहीं थी मैं मुताहय्यर हुआ और ये मालूम करने के लिये कि ख़ुश्बू कहाँ से आ रही है चारो तरफ़ नज़र दौड़ाई नागाह एक बहुत हसीन ओ जमील सूरत शहाना अन्दाज़ में नज़र आई मैंने देखा कि वो उस क़ब्र के क़रीब गई अभी ज़्यादा देर नहीं गुज़री थी कि दफ़अतन एक गन्दी बदबू जो हर बदबू से ज़्यादा गन्दी और नागवार थी मेरे मशाम में पहुँची जब देखा तो एक कुत्ता नज़र आया जो उसी क़ब्र की तरफ़ जा रहा था और फिर क़ब्र के पास पहुँच के ग़ायब हो गया मैं इस मन्ज़र से हैरत और तआज्जुब में था कि उस ख़ूबसूरत जवान को उसी रास्ते बदहाली और बदहैयती के साथ ज़ख़्मी हालत में वापिस होते हुऐ देखा मैंने उसका तआक़्क़ुब किया और उसके पास पहुँच के हक़ीक़ते हाल दरयाफ़्त की, उसने कहा मैं उस मय्यत का अमले सालेह हूँ और मुझे हुक्म हुआ था कि उसके साथ रहूँ नागाह वो कुत्ता जिसको तुमने अभी देखा है आ गया और वो उसका अमले बद था चूँकि मरने वाले के अफ़आले बद ज़्यादा थे लिहाज़ा वो मुझ पर ग़ालिब आ गया और मुझे उसके साथ नहीं रहने दिया अब मुझे बाहर निकाल देने के बाद उस मय्यत के साथ वही कुत्ता है।

शैख़ फ़रमाते हैं कि ये मुकाशिफ़ा दुरूस्त है क्योंकि हमारा अक़ीदा ये है कि बरज़ख़ में आदमी के आमाल उन्हीं से मुनासिबत रखने वाली सूरतों में उसके साथ रहेंगे और आमाल का मुजस्सम होना और मरने वाले के हालात से मुनासिबत रखने वाली शक्लों में मुशक्कल होना मुसल्लम है चुनाँचे बुज़ुर्गाने मिल्लत ने फ़रमाया है कि रोज़े क़यामत जब परदा हट जाऐगा (यौमा यक्केशफ़ा अन साक़, सूराऐ क़लम आयतः- 42) और हक़ीक़ते ज़ाहिर हो जाऐंगी तो इन्सान अपने मुआमलात को उनकी सही नोवियत में देखे और समझेगा और इस क़दर शर्मिन्दा होगा कि इस चीज़ की आरज़ू करेगा कि उसे जल्द अज़ जल्द दोज़ख़ में डाल दिया जाऐ ताकि इस ख़िजालत की मुसीबत से रिहाई मिल जाऐ।

इस सिलसिले में रवायतों के अन्दर दिगर ताबीरें भी मिलती हैं मिनजुमला उनके ये है कि जिस वक़्त आदमी क़ब्र से सर उठाऐगा और जब हक़ाएक़ मुनकशिफ़ हो जाऐगे तो हर शख़्स समझ लेगा कि उसने अपने मौला और मालिक के रू ब रू क्या कहा है और क्या किया है। उस वक़्त इस क़दर अरक़े निदामत जारी होगा कि उसके बदन का एक हिस्सा उसी पसीने में डूब जाऐगा।

इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) से मरवी है कि किसी नमाज़ ( ज़ौहर, अस्र, मग़रिब, इशा और सुब्ह) का वक़्त ऐसा नहीं है जिसमें एक फ़रिश्ता निदा न करता हो कि ऐ लोगों! ऐ मुसलमानों ! उठो उन आग के शोलों की तरफ़ जिन्हें ख़ुद तुमने अपने लिये भड़काया है पस उनको अपनी नमाज़ से ख़ामोश करो

(किताब राज़गोईये क़ुरान)

 

दुनिया हमारे लिये सज़ावार नहीं है दुनिया में ग़ुलामी से आज़ादी ज़ाहिरी और जल्द गुज़र जाने वाली आज़ादी है ख़ुदा करे हक़ीक़ी और वाक़ेयी आज़ादी नसीब हो, हक़ीक़ी आज़ादी अज़ाब से रिहाई है काश आदमी सिरात से आसानी के साथ गुज़र जाऐ ख़ुदा अपना लुत्फ़ो करम शामिले हाल फ़रमाऐ अपने बन्दे को याद फ़रमाए और उसे बर्क़ की तरह सिरात से गुज़ार दे। हाँ ! "फ़अज़करूनी अज़करकुम" तुम मुझे दुनिया में याद करो ताकि मैं भी तुम्हे क़ब्र में, सिरात में, मीज़ान में, गरज़ के क़यामत में याद रक्खूँ।

 

ख़ुदा के नामों में से एक नाम सलाम भी है

(हुवल्लाहुल लज़ी लाइलाहा इल्ला हुवा मलेकुल क़ुददूस्सलाम अलमोमिन अल मुहीमिन) ख़ुदा अपने पैग़म्बरों को भी हुक्म देता है कि जो लोग हमारी आयतों पर ईमान लाऐं जब वो तुम्हारे पास आऐं तो उन्हें सलाम कहो (इज़ा जआकल लज़ीना.................... नफ़्सहुररहमत, सूराऐ इन्आम आयतः- 54, 38, 54)

 

क़ब्र और बरज़ख़ की कुशादगी इलाही तलाफ़ी

अगर तुम्हारा दिल चाहता है कि तुम्हारी क़ब्र कुशादा हो जाऐ तो अपने मोमिन भाई के हालात का लिहाज़ और रियायत करो ख़ुदाऐ तआला बाज़ अफ़राद की क़ब्रों को इतनी वुस्अत अता फ़रमाता है कि जहाँ तक नज़र काम करती है "मददल बसर" वहाँ तक उनमें फ़राख़ी पैदा हो जाती है यानी बरज़ख़ में उनकी जाऐ क़याम हद्दे निगाह तक वसीय होती है "यफ़सल्लाहो लकुम" यानी ख़ुदा तुम्हें वुस्अत अता फ़रमाए क़यामत मे, सिरात में और बहिश्त में। बहरहाल यफ़सह से मुताल्लिक़ ज़्यादा तफ़सील मज़कूर नहीं है क्योंकि उसकी कैफ़ीयत अशख़ास की नियतों और हिम्मतो के ऐतेबार से मुख़्तलिफ़ होती है। (किताब राज़गोइये क़ुरआन सफ़्हाः- 96, 126)

 

अगर हम बरज़ख़ की ज़ुल्मतों में गिरफ़्तार हुऐ तो फ़रियाद करेंगे

अगर हम बरज़ख़ की ज़ुल्मतों में गिरफ़्तार भी होंगे तो नाला ओ फ़रियाद करेंगे कि ख़ुदावन्दा ! अगरचे हम गुनाहगार हैं लेकिन हज़रत अली (अ.स) के चाहने वाले हैं अगर हम जहन्नम के किसी गोशे में डाल भी दिये गये तो बक़ौल इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स) अहले जहन्नम को बताऐंगे कि हम तुझे (यानी ख़ुदा को) दोस्त रखते हैं (ला ख़बरोना अहलल नार जुब्बा लका) तेरे दोस्तों को दोस्त रखते हैं और हुसैन (अ.स) को दोस्त रखते हैं। रवायत में भी वारिद है कि ऐसे अशख़ास मलाएका से कहेंगे कि मोहम्मद सलल्लाहो अलैहे वा आलेही वस्सलम को हमारा सलाम पहुँचा दो और आँहज़रत को हमारे हाल से आगाह कर दो।

 

 

इमाम हुसैन (अ.स) की इज़्ज़त बरज़ख़ और क़यामत में ज़ाहिर होगी

इज़्ज़त उसी शख़्स के लिये है कि वो जो कुछ चाहे हो जाऐ रवायत के मुताबिक़ उबैद इब्ने क़ाब कहता है कि मैं हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व)  की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो देखा कि हुसैने (अ.स) अज़ीज़ आपके दामन पर बैठे हुऐं हैं और आप उन्हें सूंघ रहे हैं और बोसे दे रहे हैं मैंने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह ! क्या आप हुसैन (अ.स) को बहुत दोस्त रखते हैं ? आँहज़रत ने फ़रमाया (मज़मून रवायते मुबारक) आसमान वाले हुसैन (अ.स) को ज़मीन वालों से ज़्यादा दोस्त रखते हैं दरहक़ीक़त ज़मीन वाले उनकी अज़मत से आगाह नहीं हैं बरज़ख़ और क़यामत में हुसैन (अ.स) की अज़मत और शान आशकार होगी हुसैन (अ.स) की इज़्ज़त और हुकूमत, हुसैन (अ.स) और दीगर आइम्मा का इरादा और सलतनत वहीं ज़ाहिर होगी, ज़िल्लत यज़ीदे मलऊन वालों और हर काफ़िर ओ मुलहिद का हिस्सा है। (किताबे विलायत सफ़्हाः- 74, 165) ऐ इन्सान ! तू फ़ानी नहीं है, हैवान और नबातात के मानिन्द नहीं है कि तेरी ज़िन्दगी का ठिकाना मौत हो तेरा बदन बज़ाहिर फ़ना हो जाता है लेकिन तेरी रूह बाक़ी बक़ाउल्लाह है। जो शख़्स मरता है उसकी मौत के वक़्त से आलमे बरज़ख़ यानी इस दुनिया और क़यामत के दरमियान एक वास्ता है जो क़यामत से मुतास्सिल है इस्लाम की एक अहम तालीम आदमी की शान को पहचनवाना है इन्सान को चाहिये कि ख़ुद अपने को पहचाने जो दिगर तमाम मौजूदात से जुदागाना और रब्बुल आलेमीन की बख़्शीश और करामत की मंज़िल है । (वलक़द करमना बनी आदमा, सूराऐ असरा आयतः- 70)

ख़ुदावन्दे आलम इन्सान की हस्ती पर लुत्फ़े इनायत फ़रमाता है हर चीज़ आदमी पर क़ुरबान है और यही ग़रज़े आफ़रीनश है, क़ुराने मजीद ने इस मतलब की बार बार सराहत की है शैख़ बहाई अलैहिर्रहमा ने कितने लतीफ़ अन्दाज़ में कहा हैः- (तरजुमा)

ऐ दायरऐ इमकान के मरकज़    ::   ऐ आलमे कौनो मकाँ के जौहर

तू जौहरे नासूती का बादशाह है    ::  तू मज़ाहिरे लाहूती का आफ़ताब है

सैकड़ों फ़रिशते तेरे लिये चश्म बराह है  ::    तू यूसुफ़े मिस्र है चाह से बाहर आजा

ताकि मुल्के वुजूद का हाकिम हो जाऐ    ::   और तख़्ते वुजूद का सुल्तान बन जाऐ

(किताब विलायत सफ़्हाः- 202)

 

बरज़ख़ वसीय तर ज़िन्दगी का आलम

क़ुराने मजीद ने हयाते इन्सानी को एक बलन्दतर और मुस्तक़िल ज़िन्दगी क़रार दिया है इस मौत के बाद आलमे बरज़ख़ है (वमन वराऐहुम इला यौमा याबेसून सूराऐ मोमिनून आयतः- 100) बरज़ख़ वास्ते के मानी में है यानी एक ऐसा आलम जो आलमे माददी और आलमे आख़िरत के दरमियान है जिस वक़्त रूह इस क़ालिब से जुदा होती है तो एक दूसरे आलम में दाख़िल होती है, सूराऐ तबारक के आग़ाज़ में इरशादे ख़ुदावन्दी है कि "वो ख़ुदा जिसने मौत और हयात को पैदा किया है" (अल लज़ी ख़लाक़ल मौता वल हयात............. सूराऐ मलक आयतः- 2)

ये ज़रूरी नहीं कि हम इस आयत में तावील की कोशिश करें (और क़ल्क़ को क़द्र के माने में लें और कहें कि ख़ुदा ने मौत और ज़िन्दगी को मुक़द्दर फ़रमाया है)  मौत कोई अम्रे अदमी नहीं बल्कि अम्रे वुजूदी है यानी आदमी की रूह का तकामिल यानी माददी क़ालिब से रूह की रिहाई यानी क़सफ़े जिस्म से जान की आज़ादी और आलमे माददी की क़ैद ओ बन्द से ख़लासी यानी इन्सान की तकमील और उसका आमाल के नतीजे तक पहुँचना। (किताबे विलायत सफ़्हाः- 214).

 

आलमे बरज़ख़ में मोमिन के वुरूद का जशन

दो बुज़ुर्ग आलिमों के हालात में ज़िक्र हुआ है कि उन्होंने आपस में क़ौल ओ क़रार किया था कि हम दोंनो में से जो शख़्स पहले दुनिया से जाऐ वो आलमे बरज़ख़ में अपने हालात से दूसरे को ख़्वाब में मुत्तेला करे, जब उनमें से एक का इन्तेक़ाल हुआ तो एक मुद्दत के बाद वो अपने रफ़ीक़ के ख़्वाब में आऐ उन्होंने पूछा कि तुमने इतने दिनों तक क्यों मुझे याद नहीं किया ? उन्होंने जवाब दिया कि यहाँ हम लोग एक बड़ा जशन मना रहे थे जिस में मैं मसरूफ़ रहा उन्होंने कहा जशन किस लिये ? तो जवाब मिला क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि शैख़े अन्सारी दुनिया से रेहलत करके यहाँ आऐ हैं लिहाज़ा यहाँ चालीस शबों रोज़ का जशन है।

 

अज़ाबे बरज़ख़ मिक़दारे गुनाह के मुताबिक़

"फ़यौमैज़ा लायसअल .................................................... रब्बे अक़ज़ब" यानी उस रोज़ न किसी इन्सान से उसके गुनाहों के बारे में पूछा जाऐगा न किसी जिन से, तो तुम दोनों अपने मालिक की किस किस नेमतों को झुठलाओगे? गुनाहगार लोग तो अपने चेहरों से ही पहचान लिये जाऐंगे बस वो पेशानियों और पाँव से पकड़ लिये जाऐंगे (और जहन्नम में डाल दिये जाऐंगे) आख़िर तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेमत से इन्कार करोगे? उर्दू मुतारज्जिम)। इन आयाते मुबारिका में गुफ़्तगू ये है कि रफ़्ऐ तनाक़िज़ या तआदुदे मकान की सूरत में है कि पहले मौक़फ़ में किसी से उनके गुनाहों के बारे में नहीं पूछा जाता इसलिये कि वो दहशत और वहशत का मौक़फ़ होता है और सवाल ओ हिसाब का मौक़फ़ उसके बाद आता है या तनाक़िज़ रफ़्अ करने की दूसरी सूरत अशख़ास के ताअदुद में है कि रोज़े क़यामत शियों से उनके गुनाहों की बाज़पुरस न होगी क्योंकि वो तौबा के साथ दुनिया से गऐ हैं या बरज़ख़ में अपने गुनाहों की मिक़दार के मुताबिक़ अज़ाब झेल चुके हैं और इस मौज़ू में मुताअदिद रवायतें मनक़ूल है अब देखना ये होगा कि गुनाह कैसा है ? बाज़ गुनाह मुमकिन है एक साल तक और बाज़ एक हज़ार साल तक हिसाब की मुअत्तिली के बाएस हों या मसअलन हूक़्क़ुनास हों कि वाक़ियन उस से डरना चाहिये इसकी मुनासिबत से एक वाक़िया पेश कर रहा हूँ।

 

 

 

 लोगो के हक़ के लिये बरज़ख़ में एक साल की सख़्ती

मरहूम हाज़ी नूरी ने दारूस्सलाम में इस्फ़ेहान के एक बुज़ुर्ग आलिम हाजी सैय्यद मुहम्मद साहब मरहूम से नक़्ल किया है कि उन्होंने फ़रमाया कि मैंने अपने बाप की वफ़ात के एक साल बाद एक रात उन्हें ख़्वाब में देखा और उनसे हाल दरयाफ़्त किया तो उन्होंने फ़रमाया कि अब तक मैं गिरफ़्तार था लेकिन अब आराम से हूँ मैंने ताअज्जुब के साथ पूछा कि आपकी गिरफ़्तारी का सबब क्या था ? तो फ़रमाया कि मैं मशहदी रज़ा सक़्क़ा के अठारह क़िरान (ईरान का एक साबिक़ छोटा सिक्का जिसे अब रियाल कहते हैं) का मक़रूज़ था लेकिन अदाएगी की वसीयत करना भूल गया था लिहाज़ा जिस वक़्त से मुझको मौत आई है अब तक मैं गिरफ़्तार था लेकिन कल मशहदी रज़ा ने मुझे माफ़ कर दिया है इस वजह से अब मैं राहत में हूँ।

जनाब सैय्यद मोहम्मद ने ये ख़्वाब देखने के बाद नजफ़े अशरफ़ से इस्फ़हान में अपने भाईयों को लिखा कि मैंने ऐसा ख़्वाब देखा है उसकी तहक़ीक करो अगर मेरा बाप किसी का क़र्ज़दार है तो उसे अदा कर दो ! चुनाँचे उन्होंने सक़्क़ाऐ मज़कूर को तलाश करके उस से सूरते हाल दरयाफ़्त की, उसने कहा हाँ मेरे अठराह क़ीरान उनके ज़िम्मे वाजिबुलअदा थे लेकिन मरहूम की वफ़ात के बाद मेरे पास उसकी कोई सनद नहीं थी लिहाज़ा मुतालिबा नहीं किया क्योंकि उससे कोई नतीजा न होता यहाँ तक कि इसी तरह से एक साल गुज़र गया तो मैंने सोचा कि बावजूदे कि सैय्यद ने ये कोताही की कि मुझे सनद नहीं दी और वसीयत भी नहीं की लेकिन मैं उनके जद की ख़ातिर उन्हें मुआफ़ करता हूँ ताकि वो अज़ीयत में मुब्तिला न रहें।

उन मरहूम के फ़रज़न्दों ने वो अठारह क़िरान अदा करने की कोशीश की लेकिन मशहदी रज़ा ने क़ुबूल नहीं किया और कहा कि जो चीज़ मैं मुआफ कर चुका हूँ उसे नहीं ले सकता।

ग़रज़ ये कि बरज़ख़ की मुअत्तली गुनाह और हुक़्क़ूनास की नौइयत से वाबस्ता है लेकिन  बहरहाल शियायाने अली (अ.स) बरज़ख़ में पाक हो जाते हैं। (किताब बहिश्ते जावेदाँ सफ़्हाः- 287)

 

अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मादीव वा आले मुहम्मद

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