तारीखे इस्लाम भाग-2 (हालाते रसूले खुदा)

इतिहास
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अरब और उसके क़बीले

मोअर्रेख़ीन की इस्तेलाह में अरबों का शुमार (सामी अक़वाम) यानी साम बिन नूह की औलादों में किया जाता है जो बाबीलोन अशवरियों इबरानियों आरमियों और हबशियों पर मुशतमिल हैं।

   दरअसल यह तमाम क़ौमे एक ही दरख़्त की शाखें हैं, इसकी जड़ें कहीं थी इस बारे में इख़तेलाफ हैं, बाज़ लोग बताते हैं, बाज़ जज़ीरए अरब को तरजीह देते हैं और बाज़ हबशा क़रार देते हैं। इस इख़तेलाफ़ की नौयियत कुछ भी हो मगर यह अमर तसलीम शुद्धा है कि ज़मानये क़दीम में यह तमाम क़ौमे मुनतशिर हो गयी थी, बाबिलों ने अशवरियों के साथ मिल कर इराक़ में सुकूनत एख़तियार की, फ़ीनक़ियों ने शाम का साहिली इलाक़ा आबाद किया, इबरानियों ने फिलिस्तीन और हबशियों ने हब्शा को अपना वतन करार दिया।

 अरब जुग़राफियाई हैसियत से एक जज़ीरा नुमा है जो बर्रे आज़म एशिया के जूनूब व मग़रिब में वाक़े है। शुमाल में इस की सरहदें शाम की जुनूब में भी बहरे हिन्द ने उसे घेर रखा है, मग़रिब में बहरे अहमर है और शाम तक फैला हुआ है, दो हिस्सों में तक़सीम करता है यानि मग़रिबी और मशरिक़ी हिस्सा। मग़रिबी हिस्सा नशेबी इलाक़ा है और इसी लिए यह इलाका ग़ौर (नशेब) या गर्मी ज़ायदा होने की वजह से (तहामा) कहलाता है। मशिरीक़ी हिस्सा कुछ उभरता हुआ इराक़ और समावा तक फैल गया है, मुरतफा होने की वजह से इस इलाके को नजद कहा जाता है और उन दोनों हिस्सों के दरमियान जो इलाका है वह हिजाज कहलाता है इसलिए कि यह दोनों हिस्सो के माबैन हदे फ़ासिल है। वह हिस्सा जो नजद को लेता हुआ यमामा, बहरैन और अमान को भी असने साथ शामिल करता है (अरुज़) कहालाता है इसलिए कि यह यमन और नजद के दरमियान अरज़न फैला हुआ है। हिजाज़ से जुनूबी सिमत में जो मैदानी इलाक़ा है वह यमन कहलाता है इसलिए कि यह खान-ए-काबा से दाहिनी जानिब सर सबज़ो शादाब और बाबरकत है।

इन माज़कूरा इलाक़ों में अदनान, क़हतान का ख़ानदान आबाद है। क़हतानियों ने यमन में रहना शुरू किया जहाँ उनकी शानदार आबादी के साथ उनका रौशन मुस्तक़बिल और तमद्दुन ज़हूर पज़ीर हुआ लेकिन जब आबो हवा रास न आयी तो वह दूसरे इलाकों की तरफ़ मुन्तक़िल हो गये चुनाचे सालेबा बिन अम्र हिजाज़ के इलाक़ों में निकल गये जहाँ उनकी वजह से यहूदियों ने यसरिब पर ग़लबा पाया। (ऊस) और (ख़ज़रिज) यह दोनों क़बीले उसी सालेबा बिन अम्र की नस्ल से हैं। हारिस बिन अम्र जिसकी नस्ल (बनु ख़ज़ाआ) कहलायी हरम की सरज़मीन पर आबाद हुआ, इमरान बिन अम्र ने अमान की राह ली जहाँ उनकी औलाद (अज़अमान) के नाम से मशहूर हुई। नसर बिन अजद ने तहामा को अपना वतन क़रार दिया और उसका क़बीला (इशनूता) कहलाया। जफना बिन अम्र का पेशे दस्ता शाम में ख़ेमा ज़न हुआ उससे ग़सासना पैदा हुए। बनुहम हैरा में रहने लगे उन्हीं में नसर बिन रबिया थे जो हैरा के बादशाहों के जद्दे आला थे। अदनानियों ने हिजाज़ और उससे मुत्तासिल बायें जानिब के सबज़ाज़ार में बूदो बाश इख़तियार की जबकि कुरैश ने मक्का और उसके कुर्ब व जवार को अपने मसकन बनाया। कनाना के क़बायल ने तहामा को, बनुज़ियान ने हीमा व हरान के दरमियानी इलाक़े को और बनी सक़ीफ ने ताएफ़ को पसन्द किया। हवाज़म मशरिकी मक्का में, बनु असद कूफे में और बनु तमीम बसरा में बस गये। बकरस बिन वायल का क़बीता यमामा के साहिली इलाक़ों, बसरा और कूफा के दरमियान आबाद हो गया। मोअर्रेख़ीन ने अक़वामे अरसब को वायिदा, आरबा और मुसतरबा, तीन हिस्सों पर तक़सीम किया है।

पाइदाः- यह वह क़ौमे हैं जिनके हालात नामालूम और आसारे गुमशुदा हैं, तारीख उनके बारे में ऐसे इबहाम से काम लेती है जिससे न तो हक़ीक़त पर रौशनी पड़ती है और न मिजाज़ की तरदीद ही होती है, उसने मशहूर क़बीले आद, समूद, तिसम और जदीस थे जिनके बारे में कुरान का कहना है कि क़ौमे समूद एक सख़्त ग़ैबी आवाज़ के ज़रिये हलाक कर दी गयी और क़ौमे आद पर (बादे सर सर) का अजाब नाज़िल हुआ जिसके नतीजे में वह तबाह व बरबाद हो गयी। तिसम और जदीस के मुतालिक यह ख़्याल किया जाता है कि यह दोनो क़ौमे किसी औरत के चक्कर में आपस में कट मर गयी।

आरबाः- यह वह यमनी बाशिन्दे हैं जिनका नेसब चारब बिन क़हतान से मिलता है और जिन्हें तौरात मे यारह बिन यख़तान कहा गया है, इरबों का ख़्याल है कि यही बुजुर्ग उनकी ज़बान के बानी हैं चुनान्चे उन्हीं पर फ़ख्र करते हुए हसान बिन साबित न कहा था-

(तुमने हमारे बुजुर्ग या अरब से बात करना सीखी तब तुम्हारी ज़बान दुरुस्त हुई और तुम्हारे अन्दर तमददुनी निज़ाम पैदा हुआ वरना इससे पहले तुम्हरी ज़बान गूँगी थी और तुम जानवरों की तरह ब्याबानों में रहा करते थे।)

उन्हीं यमनियों में, हमीर के घराने से ज़ैदुल जमूर, क़सआ और सकासक वगैरा क़ाबिले जिक्र हैं। क़बायल कहलाते में मज़हिज, कुन्दा, हमदान, तह और लहम वग़ैरा मशहूर हैं। लहम की औलाद में मन्ज़र और उसके बेटे हैरा हैं। अज़द से ऊस व ख़ज़रिज मदीने में और ग़सासना शाम में सुकूनत पज़ीर हुए। यमन में हमीर की हुक्मरानी थी और उन्हीं की औलादों में अरसा दराज़ तक मुनहसिर रही।

मुस्तारिबाः- यह हज़रत इस्माईल (अ.स.) की औलादें हैं जो उन्नीसवीं सदी क़बल मसीह, हिजाज़ में आबाद हुयीं और शाहाने जरहम से दामादी के रिश्ते जोड़कर वहां मुस्तक़लन अक़ामत पज़ीर हो गयीं यहां उनकी नस्ल बकसरत फैली जिसे ज़माने के तारीक़ गोशों ने अपने दामन से ऊपर कोई सही नसब नामा नहीं बताती चुनानचे अरबी नस्ल का सही सिलसिलएक नसब अदनान पर ही ख़त्म हो जाता है, शायद इसीलिए रसूले अरबी (स.अ.व.व.) ने भी यह इरशाद फ़रमाया है कि मेरे सिलसिले नसब को अदनान तक पहुँचा कर ख़मोश हो जाया करो।

उन्हीं अदनान की नस्ल में क़सी इब्ने कलाम मुतवल्लिद हुए जो कुरैश कहलाये) क़सी की औलादों में अब्दे मनाफ़ हैं जिनेक सुल्ब से हाशिम मुतवल्लिद हुए। और हाशिम के नूरे नज़र अब्दुल मुत्तिलब हैं, उन्हीं की औलादों में हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के पदरे बुजुर्गवार हज़रत अब्दुल्लाह, अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के वालिदे मोहतरम हज़रत अबुतालिब, और अब्बास वग़ैरा हैं। अलवी ख़ानदान हज़रत अली (अ.स.) से मनसूब हुआ जबकि अब्बासी सिलसिला अब्बास से वाबस्ता है। बनुउमैया, बनुतीम और बनीअदी वग़ैरा यह सब ग़ैर हाशिमी है उन लोगों का ख़ानदान बनु हाशिम से कोई इरतेबात नहीं है। इसके अलावा सिर्फ बनि हाशिम ही का घराना ऐसा है जिसके सर अरबी ज़बान व अदब और दीने इस्लाम का सेहरा है।

अहदे जाहेलियत में अरबों की हालत

किसी मुल्क की आबो हवा का उस मुल्क के बाशिन्दों की ज़िन्दगी, इख़लाक़ी और मुआशी व इजतेमायी निज़ाम पर बहुत पड़ता है और उनकी तबीअतें व आदतें इशी आबो हवा के मुताबिक नशो नुमा पाती है जज़ीरानुमा होने की वजह से अरब की ज़मीन ख़ुश्क, बन्जर और रेगिस्तानी थी। बारिश की क़िल्लत और पानी की अदम फ़राहमी की वजह से न तो वह ज़राअत के काबिल थी और न ही शहरी आबादी के लिए मौजूद थी। ग़ालेबन इसी बिना पर मोअर्रिख़ ने अरब क़ौमों को दो हिस्सों में तक़सीम किया है। एक गिरोह वह था जो भेड़ें और बकरियाँ वग़ैरा पालता था, खाना बदोशी की ज़िन्दगी गुज़ारता थआ और पानी व चारागाहों की जुस्तजुअ में एक मुक़ाम से दूसरे मुक़ाम की तरफ मुन्तक़िल होता रहता था, उसकी हैसियत और मुआशिरत चरवाहों से ज़्यादा नहीं थी। दूसरा गिरोह क़दरे तमद्दुन पसन्द था जो ज़राअत व तिजारत की तरफ़ मायल था और उसका रहन सहन सादगी का मजहर था। लेकिन उन दोनों गिरोह का क़ौमी और समाजी अन्दाज़ तौर तरीक़ा यक़सां था। अंग्रेज़ मोअर्रिख़ हीरो डूटिस लिखता है कि अरब क़ौल के सच्चे और इरादे के पुख़ता होते थे अपने रिश्तेदारों का बड़ा लिहाज़ करते थे. तेज़फहमी, तबियत की ग़वासी, लतिफा गोई और बज़ला सनजी में भी मशहूर थे। हथियारों के इस्तेमाल और शहसवारी में भी क़माल रखते थे, हवास के ऐसे तेज़ थे कि एक मुट्ठी रेत सूँघकर रेगिस्तान के तूल व अर्ज़ का अन्दाज़ा कर लेते थे।

मोअर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि अरबों में जिहालत कूट कूट करस भरी थी. खूँरेजी, ग़ारत गिरी, बेरहमी और रहज़नी वग़ैरा से उन्हें कुदरती मैलान था, कुन्बा परवर ऐसे थे कि उमरें गुज़र जाती मगर कुन्बा बरक़रार रहता था। जिसके बारे में हुक्मा का क़ौल है कि ऊँट का गोश्त खाने की वजह से ऐसा था क्योंकि ऊँट इंतेहाई कीना परवर जानवर होता है, खु़र्द साल बच्चे देवता पर भेंट चढ़ाये जाते थे और लड़कियाँ ज़िन्दा दफ़्न कर दी जाती थीं। मुर्दा जानवरों का गोश्त, उनके लिए उमदा और लजीज़ तरीन ग़िज़ा थी) अलग़र्ज़ इस क़िस्म की क़बीह रसमें और आदतें इश नीम वहशी और आज़ाद मनिश क़ौम में बुरी तरह रिवाज पज़ीर हो गयी थी।)

तारीख़ बताती है अरब का पूरा मुआशरा एक ही रंग में रंगा हुआ था यह लोग ग़ैरुल्लाह की परस्तिश पर ईमान रखते थे। गोह, कच्छुए, मेंढ़क और साँप बिच्छू वग़ैरा तक खा जाते थे, क़हत व खु़शक साली के ज़माने में ऊँटों को ज़ख़्मी करके उनका ख़ून पिया करते थे। केमार बाज़ी बदकारी और शराब नोशी उनका महबूब मशग़ला था। एजाजुल तज़ील में है कि उनकी हराम कारी, बेहयाई और बेशर्मी की यह हालत थी कि कुँवारी लड़कियां और ब्याही औरतें दोनों ही जिना को फख़्र समझ़ती थी और जिस तरह मर्द किसी हसीन तरीन या मशहूर व मारूफ ख़ानदान की औरत से ज़िना करने के बाद अपने इस शैतानी फेल पर फख़्र व मुबाहात करता था और दूसरों से ब्यान करता था उसी तरह औरतें भी किसी नामी या मशहूर खानदान के मर्द से जिना का इरतेकाब करने के बाद अपने इस कारनामे पर फ़ख़्र करती और दूसरी औरतें और मर्द बरहैना हालत में खान-ए-काबा का तवाफ किया करते थे। पाब के मरने के बाद बेटा अपनी सौतेली माओं पर ज़बरदस्ती क़ाबिज़ व मुतसर्रिफ़ हो जाता था। यतीमों और बेवाओं का माल खाने में उन्हें ज़रा भी ताअम्मुल न होता, हक़ हमसायगी कोई चीज़ न था कि जिसका पास व लिहाज़ किया जाता। तालीम व तरबियत की परछाईयाँ भी उन पर न पड़ीं थीं।

(गिबन का कहना है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) के ज़हूर से पहले इन अरबों में सत्तर सौ लड़ाइयाँ हो चुकी और यह लड़ाइयाँ उस किस्म की होती थी कि अगर एक क़बीले का आदमी दूसरे क़बीले के किसी आदमी को क़त्ल कर देता था तो उसका कसास लेने के लिए पचास पचास बरस तक जंग होती रहता थी।)

अबुल फ़िदा ने लिखा है कि- (तमाम क़ौमें आज़दाना गुज़ारा करती थी मगर उनमें ज़रा ज़री सी बात पर खूंरेज़ियां हो जाया करती थी चुनानचे एक दफा बनि तग़लिब की एक औरत बिसवस नामी मेहमान की ऊँटनी एक शख़्स की चरागाह में चली गयी तो उस शख़्स ने ऊँटनी के थन काट दिये उस औरत ने अपने भाँजे से जहाँ वह मुक़ीम थी फ़रयाद की उसने चारगाह वाले को क़त्ल कर दिया। उस पर बनि बकर और बनि तग़लिब में और फिर रफ़्ता रफ़्ता एक दूसरे की हिमायत पर तमाम क़बीलों मे चालीस बरस (सन् 364 से 434 तक) लड़ाई होती रही जो हरब बसूस के नाम से मशहूर है और जिसमें अव्वल से आख़िर तक सत्तर हज़ार आदमी मारे गये। उसी तरह सन् 568 में वाहिस नाम की एक घोड़ी को घुड़ दौड़ में निकलते देख करस किसी शख़्स ने भड़का दिया उस पर चालीस बरस यानी सन् 608 तक जंग जारी रही और क़बीले के क़बीले कट मरे यहाँ तक कि 631 में जब बाज़ क़बीले मुशर्रफ ब-इस्लाम हुए उस वक़्त उस जंग का पूरा पूरा ख़ात्मा हुआ।

अरबी ज़बान

अरबी ज़बान दुनिया की क़दीम तरीन ज़बानों में से है। इस ज़बान की कई क़िस्में थी जिनमें से कुरैश और बनि हमीर की ज़बान सबसे आला और फ़सीह तर मानी जाती थी ख़ासकर कुरैस की ज़बान ख़ालिस अरबी ज़बान तसलीम की जाती थी कुरान का नजूल इसी ज़बान में हुआ है।

अहले अरब लिखना नहीं जानते थे अगर चे हज़रत अय्यूब और बनि हमीर को लिखना आता था। बनि हमीर एक अजीब पेचिदा तर्जे तहरीर रखते थे लेकिन बग़ैर हुकूमत की इजाज़त हासिल किये वह दूसरों को यह तर्ज़े तहरीर सिखाने से क़ासिर थे।

मुरामुर बिन मुर्राह अन्बारी जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से क़बल करीस तर ज़माने में था, अरबी रस्मुल खत का मोजिद है। सैय्यद अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं किः- (अरबी तहरीर का फन शियूअ इस्लाम से जरा ही पहले कुरैशः में राजेय हुआ था। अव्वलन उसे मुरामुर बिन मुर्राह ने ईजाद किया जो हीरा के करीब शहर अम्बार का बाशिन्दा था। अंबार से यह फ़ने तहरीरे हीरा में गया और अबुसुफ़ियान का बाप हीरा जब हैराह गया तो वहाँ उसने अस्लम बिन सदरा नामी एक शख़्स से इस फन को सीखा। फिर वापस आकर उसने अहले मक्का को सिखाया और आनन फानन यह फन कुरैश में फैल गया। हमीरियों का तरज़े तहरीर उससे मुख़तलिफ़ था जिसे ब़कूल इब्ने ख़लक़ान अलमुस्नद कहते थे उसके सब हुरुफ एक दूसरे से जुदा होते थे वह अवामुन-नास को इस फन के सीखने से रोकते थे और बग़ैर उनकी इजाज़त के कोई भी शख़्स उसका इस्तेमाल नहीं कर सकता था। जब इस्लाम शाया हुआ तो यमन में एक शख़स भी ऐसा न था जो लिखना पढ़ना जानता हो। ज़वाले ख़ानदान बनी उमय्या के वक़्त मतरुक कूफ़ी तरज़े तहरीर ने कोई सूरते अख़तियार कर ली थीं जिनमें सबसे आम सूरत का नाम नसख़ था। चौथी सदी के आख़िर और पाँचवी सदी के शुरू में नसख्र के दो बड़े खुश नवीसों अबुल हसन इब्ने बव्वाब और अबुतालिबुल मबारक ने उसे और भी तरक़्क़ी दी। सलाहुद्दीन अय्यूबी के दौरे हुकूमत में हम एक बड़े गोल ख़त का जिक्र सुनते हैं, यही नसख़ की तरक्की याफता सूरत थी और उसे सलस कहते हैं जो ईरानी खत नस्तालीक से मिलता हुआ था।

सैल अपने मुक़द्दमे तरजुमा कुरान ((स.अ.व.व.)21) में लिखता है कि (मुरामुर के हुरूफ़ खते कूफी से बहुत मुशाबेह थे और हमीरी से बिल्कुल मुखतलिफ। अव्वलन कुरान भी उसी खत में लिखा गया था। यह ख़ूबसूरत हुरूफ जो अब देखे जाते हैं उन्हें इब्ने मक़ला वज़ीर मुक़तदर अब्बासी ने रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की वफात के तीन बरस बाद कूफ़ी से ईजाद किये हैं इसी खत को चौथी सदी में अली बिन बव्वाब ने और संवारा मगर जिनसे मौजूदा सूरत में उसे पाया तो तकमील तक पहुँचाया वह ख़लीफा मोतसिम का कातिब दीवान याक़ीत मोतासमी था। इसी वजह से वह खत्तात के नाम से मशहूर है।)

इब्ने ख़लकान (जिल्द अव्वल (स.अ.व.व.) 125 में) लिखता हैः- (लोग हजरत उसमान के मुस्हिफ में कुछ ऊपर चालीस बरस अब्दुल मलिक बिन मरवान के अहद तक पढ़ते रहे लेकिन नुक़्ते न होने की वजह से इराक में तसहीफऴ बहुत होने लगी (यानी मतशाबा हुरूफ कुछ के कुछ पढ़े जाने लगे) उश पर हज्जाज बिन यूसुफ़ के हुक्स से उसके कातिब नसर बिन आसिम या यहिया बिन यामिर ने नुक्ते इजाद किये मगर ज़ेर ज़बर पेश की ग़ल्तियां बाक़ी रही इस लिए बाद में आराब या हरकात को वाज़ेह किया गया)

मुफताउल सआदा जिल्द अव्वल सफ़हा 73 में है कि खते अरबी बनि तय के कबीले बुलान से तीन शख़्सों ने इजाद किया है जो शहर अम्बार गये थे अव्वल उनमें मरामर हैं जसिने हरफों की शक़्लें वजडेह की और नुक्ते लगाये दूसरा अस्लम जिसने वसब व फसल करार दिया, तीसरा आमिर जिसने ज़ेर ज़बर पेश ईजाद किये। उसी किताब के (स.अ.व.व.) 80 में है के नुक़्ते और एराब हज़रत (अ.स.) की तलक़ीन से अबुल असूद वायली ने वाज़ेह किये हैं (और यही बात दुरूस्त मालूम होती है)

ज़मानए कदीम में तरीकए तहरीर यह था कि लोहे या पीतल की तलायी से लकड़ी या मोम की तख़तियों पर लफ़ज़ों को कन्दा किया जाता था। सबसे पहले मिस्रे वालों ने पेपर्स नामी दरख़्त के पत्तों को उन तखतियों के बजाये इस्तेमाल करना शुरू किया और उसी (पेपर्स) से अंग्रेज़ी लफज़ (पेपर) कागज़ के मानों में मुस्तामिल है।

आठवीं सदी ई0 में पहले पहल रुई और रेशम से कागज़ तैयार हुआ। कागज़ की इजाद के बारे में अंग्रेज़ मोवर्रिख़ (गास्टियू लीबान) अपनी किताब तमद्दुम में लिखता है कि अहले यूरोप एक मुद्दत तक सिर्फ चमड़े पर लिखते रहे और यह इस कदर गिरां था कि किताबों की अशाअत बखुबी न हो सकती थी, चन्द रोज में यह इस कदर नायाब हो गया कि यूनान व रोम के राहेबान बड़ी बड़ी कदीम तसनीफानत के हुरूफ छील कर उनक सफ़हों पर अपने मज़हबी रसायल लिखने लगे और अगर अरबों ने कागज़ न ईजाद किया होता तो यह राहेबान कुल तसनीफात को जिन के वह मुहाफिज़ थे तलफ कर देते। स्कोरियल (स्पेन) के कुतुब खाने में जो सूती कागज पर लिखी हुयी सन् 1006 की किताब है वह युरोप के कुतुब खानों में सबसे क़दीम नुसखा है उसके देखने से मालूम होता है कि अरबों ही ने पहले पहल चमड़े के बदले कागज़ का इस्तेमाल किया है। यूरोप की जो सबसे पुरानी तहरीर कागज पर पायी जाती है वह सेण्ट लूई के नाम जानवील के खत है जो सन् 1270 में लिखा गया है।

   मुख़तसर यह कि अरबों ने फसाहत व बलाग़त में अबरी ज़बान को दर्जा-ए-कमाल पर पहुँचा दिया था। इसको वह बहुत बड़ी फज़ीलत समझते थे और उस पर उन्हें बहुत बड़ा फख़्र और नाज़ था। शायरी में भी उन्हें अबूर हासिल था। जो नज़में मेयारी और आला दर्जा की होती थी वह शाही खज़ानों में ऱखी जाती थी। उनमें से वह सात नज़में जो सब-ए-मुअल्लेक़ात के नाम से मशहूर हैं खान-ए-काबा में लटकायीं गयी थीं, यह चूंकि मिस्री रोशनी कपड़े पर सोने के हुरूफ से लिखी हुई थी उस सबब से मज़हब्बात-भी कहलाती थी। मगर कलाम-उल-लाह ने उनका सारा गुरुर तोज़ दिया और वह एक छोटी सी आयत बनाने से भी क़ासिर रहे और बड़े बड़े फ़सीहाने अरब बोल उठे कि यह बशर कलाम नहीं है। इस वजह से कलामुल्लाह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सबसे बड़ा मोजिज़ा करार पाया जो रहती दुनिया तक क़ायम रहेगा।

दौरे जाहिलियत में अरबों की हुकूमत

ज़मान-ए-जाहेलियत में तमाम अहले बादिया (सहरायी अरबों) के यहाँ हुकूमत का अन्दाज़ यकसां था। जो ज़रुरतें आज की मुतदमद्दिन दुनियां में बीसों अफ़राद से पीरी हो सकती हैं वह सब तन्हा एक ही सरदार की जात में जमां हो जाती थीं। वही अमीर या बादशाह भी होता था, वही काज़ी, वही साहबे ख़ज़ाना और वही फौज का सरदार वग़ैरा। ग़र्ज़ कि तमाम कारोबार इसी शख़्से वाहिद की जात से वाबस्ता होते थे। अहले अरब के यहां जो होता था, उसी को अमीर बनाते थे अगर उनमें कई शख़्स उन औसाफ में का इन्तेख़ाब अमल में आता था और जब मुख़तलिफ़ क़बायल मुताफ़िक़ होकर किसी जंग पर आमादा होता और उन्हें एक ऐसा सरदार दरकार होता जो उन सब पर अफसरी करते तो वह तमाम सरदारों के नाम कुरा डालते थे और जिसका नाम निकल आता उसी की बिला उज़्र अपना अफसर मान लेते थे। यह हालत सहरायी और ख़ाना बदोश अरबों की थी जो जंग व जदल और लूट मार के आदी थे उसके बरअक्स जो शहरी और अहले मक्का थे उनके यहाँ खान-ए-काबा का ख़ादिम सरदारी का मुस्तहक़ होता था। लेकिन जब से ख़िदमते बैतुल्लाह कुरैश के घराने में आयी उस वक़्त से लोग हर मुआमले पर अफसर और सरदार शुमार होने लगे।

अरबों में बुत परस्ती का रिवाज़

जमानए जाहेलियत में अहले अरब किसी इलहामी मज़हब को नीहं मानते थे, उन्हे ख़ुदा के वजूद ही से इन्कार था। चूँकि वह गुनाहों के क़ायल भी न थे इसिलए उक़बा में सज़ा व जज़ा का तसव्वुर भी उनके ज़हनों से कोंसो दूर था। उनका अक़ीदा था कि इन्सान का वजूद दुनिया में एक दरख़्त या जानवर के मानिन्द है, वह पैदा होता है और मर जाता है। अक़सर उमें एतदाल पसन्द लोग भी थे जो रूह को ग़ैर फानी शै समझते थे और नेक व बद आमाल पर सज़ा व जज़ा के बारे में यक़ीन रखते थे इसलिए ज़रुरी था कि वह ऐसा तरीक़ा अपनाये जो उनके लिये रुहानी तसकीन का सबब बने लेकिन उनके पास कोई ऐसी तरीक़ा या उसूल न था कि जिस पर कारबन्द हो करस वह अपने लिए तसकीन का सामान फ़राहम करते। इसीलिए उन्होंने इन उसूलो की तरफ तरवज्जो दी जिन पर उनकी हमसाया क़ौमें गामज़न थीं। यही वह असबाब थे जिनकी बिना पर अरबों ने शाम के बुत परस्तों से बुत परस्ती का तौर तरीका सीखा। चुनानचे उमर बिन लाकर खान-ए-काबा में नसब किया और बुत परस्ती का बानी करार पाया।

   उन लोगों ने बहुत से मोतक़िदार अपने ही वतन के इलहामी मज़हबों से और बहुत से ग़ैर मुल्की ख़यालात में अख़ज़ कर लिये थे और फिर उनको अपने तवहुम्मात से ख़ल्त-मल्त करके अपने माअबूदों को दीन व दुनिया के अख़तियारात दे रखे थे। बस फ़र्क सिर्फ़ यह था कि उनके अक़ीदे के मुताबिक दीनवी अख़ितयारात उनके माअबूदों के हाथों में थे और उक़बा के बारे में उनका ख़्याल यह था कि उनके बुत उनके गुनाहों की माफी के लिए ख़ुदा से शिफाअत का जरिया होंगे। चुनाचे ज़हूरे इस्लाम से पहले अरबों में बुत परस्ती की यही कैफीयत थी। जिन बुतों की वह परस्तिश करते थे उनकी तफ़सील मुवर्रेख़ीन की ज़बानी हसबे जैल है।

(1) हुबल- यह बहुत बड़ा बुत था जो खान-ए-काबा के अन्दर दाहिनी तरफ खड़ा किया गया था और ओहद की जंग में अबु सुफियान ने उसी से मदद मांगी थी मगर वह बुरी तरह शिकस्त से दो चार हुआ। फ़तेह मक्का के मौक़े पर हजरत अली0 ने उस बुत को रेज़ा रेज़ा कर दिया।

(2) वुद-यह क़बीलए बनि काअब का बुत था। अम्र बिन अबदउद का माम उसी बुत के नाम से मुश्तक़ है।

(3) सवाये- यह कबीला मजहिज का बुत था।

(4) यागूस- कबीले बनि मुराद का बुत था।

(5) यऊख़- बनि हमदान का बुत था।

(6) नसर- यह भी कबीलए बनि हमदान का बुत था।

(7) उज़्ज़ा- कबीलए बनि ग़तफ़ान का बुत था।

(8) लात- यह एक ग़ैर तराशीदा बुत था जिसके बारसे मे लोगों का ख़्याल था कि इसमें उलूहियत की करिश्मा साज़ियाँ मुजतमा हैं। अरबों की जाहिलाना सरिश्त लात को देवी समझती थीं।

(9) मनात- यह एक बुलन्द क़ामत बुत था। उमर बिन हय्या ने समुन्द्र के किनारे से उसे निस्ब किया था। लात व मनात पर किसी ख़ास क़बीले का हक़ नहीं था बल्कि अरब के तमाम क़बीले उनकी परस्तिश करते थे।

(10)    दवार- नौजवान औरतें इसकी परस्तिश और तवाफ करती थीं.

(11)    असाफ- यह सिफा पर नसब था।

(12)    नायला-मरवा पर था। असाफ व नायला को कुर्बानियां दी जाती थीं।

(13)    नहीक-

(14)    मतअम- यह दोनों बुत भी सिफ़ा व मरवा पर थे।

(15)    जुल्कफीन- यह भी एक बुत था जिसे पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जलवा दिया था।

(16)    ज़ातुल अनवात- यह एक दरख़्त था जिसकी परस्तिश होती थी।

(17)    अबाअब- यह एक बड़ा पत्थर ता जिस पर ऊँटों की कुर्बानी होती थी।

इन तमाम बुतों के अलावा खान-ए-काबा में हज़रत इब्राहीम का मुजस्समा था और उइसके हाथ में कुरान के तीर थे जो इज़लाम कहलाते थे। जनाबे मरयम का भी एक मुजस्मा था जिसमें हज़रत ईसा को आग़ोशे मादर में दिखाया गया था।

अरबों की रवायात से पता चलता है कि वुद, यागूस, सऊक, और नसर मशहूर लोगों के नाम थे जो अय्यामे जाहेलियत में गुज़रे हैं उनकी तस्वीरें पत्थरों पर मुनतकिल करके ख़ान-ए-काबा में रख दी गयीं थीं, एक मुद्दत के बाद उन्हें माअबूदियत का दर्जा दे कर लोग उन्हें पूजने लगते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का ख़ानदानी पस मन्ज़र

हज़रत इस्माईल (अ.स.) के हालात में हम तहरीरस करस चुके हैं कि हुक्में ख़ुदा वन्दी के तहत आप और आपकी वालिदा जनाबे हाजिरा को आपके पदरसे बुजुर्गवार हज़रत इब्राहीम (अ.स.) मक्क-ए-मोअज़्जमा की सर ज़मीन पर छोड़कर अपने वतन शाम वापस चले गये थे। फिर एजाज़े इलाही से वहाँ चश्में ज़मज़म का ज़हूर हुआ और पानी की वजह से क़बीलए जुरहूम वहाँ आकर आबाद हुआ और उसी कबीले की एक पाकीज़ा जुरहमीया ख़ातून से आपकी शादी हुई। उसके बाद आप और आपके वालिद ने मिलकर खान-ए-काबा की तामीर की।

जुरहमिया ख़ातून के बतन से आपकी बारह औलादें हुयीं जो आपके बाद खान-ए-काबा की देख भाल और इन्तेज़ामी उमूर की ज़िम्मेदार क़रार पाई। ग़र्ज़ कि रफ़्ता रफ़्ता आपकी नस्ब मक्का में बढ़ती रही यहाँ तक कि आप ही की नस्ल से फहर नामी एक बुजुर्ग पैदा हुए जिनके बारे में लोगों का ख़्याल है कि यही फहरे कुरैश कहलाये और उन्हीं की औलादें क़बीलए कुरैश के नाम से मौसूम हुयी। नीज़ हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) भी उन्हीं फहर की नस्ल से थे।

कुरैश कौन था। यह एक संजीदा मसअला है उसकी अहमियत पर हम अपनी किताब (अलसख़ुल्फा) हिस्सा अव्वल में ख़ातिर ख़्वाह बहस कर चुके आज़म के ओलमा का यह दावा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने फरमाया था कि मेरे बाद मेरी ख़िलाफत सिर्फ खानदाने कुरैश ही में रहेगी। वग़ैरा वग़ैरा।

कुरैश के बारे मे इल्मे अन्साब के माहेरीन और इ्ल्मे तारीख के मोहक़्क़े क़ीन के दरमियान इख़तेलाफ़ है उनमें एक गिरोह का कहना है कि फहर और उनकी पूरी नस्ल कुरैश है जिसमें हज़रते शैख़ीन भी शामिल हैं जबकि दूसरा गिरोह कहता है कि सिर्फ़ कुसई इब्ने कलाब और उनकी नस्ल कुरैश है जिसमें अबदे मनाफ, अब्दुल मुत्तालिब, जनाबे अब्दुल्लाह, जनाबे अबूतालिब, हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) और हज़रत अली (अ.स.) वग़ैरा है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि शैख़ानी की ख़िलाफ़त के जवाज़ में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की मज़कूरा हदीसों और जनाबे फहर के कुरैश होने का शाख़ाना खड़ा किया गया है वरना तारीख़ी शवाहिद से यह बात आशकार है कि कुरैश का सिलसिला कुसई इब्ने कलाब से शुरू हुआ और वही कुरैश कहलाये जैसा कि अव्वलीन दौर के मुहक़्क़े क़ीन में अल्लामा अबदरबा का कहना है कि क़ुसई इब्ने कलाब ने चूंकि अरबों को एक मरकज़ पर जमां किया था इसलिए वह कुरैश कहलाये। कुरैश का अस्ल तक़र्रिश है और तक़र्रिश के मानी जमा करने वाले के हैं और क़सई को जमां करने वाला कहते हैं।

   इब्ने असीर का कौल है कि जब अरबों को क़सई ने जमा कि तो उन्हें लोग कुरैश कहने लगे। और दूसरे लोगों का ख़्याल है कि जब कुसई इब्ने कलाम रहम के सरदार हुई तो उन्होंने बहुत बेहतर नुमाया काम अन्जाम दिये इसलिए लोग उन्हें कुरैशी कहने लगे और पहली मरतबा क़ुसई का यह नाम रखा गया यह लफ़्ज़ इज़्तेमा से निकला है यानि क़ुसई में अच्छा सिफतें जमा थीं इसलिए उन्हें कुरैश कहा जाता है।

   तबरी का कहना है कि क़ुसई जब रहम (मक्का मोअज्ज़मा) में आकर मुक़ीम हुए तो वहाँ उन्होंने बहुत अच्छे काम किये इसलिए उन्हें लोग कुरैश कहने लगे और वही पहले शख़्स हैं जिन्हें यह नाम दिया गया।

अल्लामा शिबली फ़रमाते हैं कि क़ुसई ने इस क़दर शोहरत और एतबार हासिल किया कि बाज़ लोगों का ब्यान है कि कुरैश का लक़ब अदल उन्हीं को मिला चुनानचे अल्लामा अबदरबा ने अक़दुल फरीद में भी लिखा है और यह भी तसरीह की है कि क़ुसई ने चूँकि ख़ानदान को जमा करके काबे के आस पास बसाया इसलिए उनको कुरैश कहते हैं। क़ुरैश की वजह तसमिय में इख़्तेलाफ़ है बाज़ कहते हैं कि कुरैश के मानी जमा करने के हैं और क़ुसई ने लोगों को जमा करके एक रिश्ते मे मुन्सलिक किया इसिलए कुरैश कहलाये, बाज़ कहते हैं कि एक मछली का नाम है तो तमाम मछलियों को खा जाती, चूँकि क़ुसई बहुत बहुत बड़े सरदार थे इसलिए उन्हें मछली से तशबीह दी गयी।

उमवी हुक्मरान अब्दुल मलिक बिन मरवान ने मुहम्मद बिन जिबरील से पूछा, कुरैश का यह नाम कब से हुआ? उसने कहा जब से लोग अलग अलग रहने के बाद हरम में इकट्ठा हुए क्योंकि तकर्रुश के मानी तजम्मा के हैं। इस जवाब पर अब्दुल मलिक ने कहा मैंने तो आज तक यह नहीं सुना बल्कि यह सुनता आ रहा हूँ कि क़ुरैश क़ुसई ही को कहते हैं और उनसे पहले यह नाम किसी का नहीं हुआ।

मज़कूरा तारीख़ी हवालों से यह बात साबित है कि कुरैश का सिलसिला सिर्फ़ कुसई इब्ने कलाम से शुरू हुआ फहर या उनकी नस्ल से इस कुरैशी सिलसिले का कोई ताल्लुक नहीं है। अब अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का यह क़ौल दुरूस्त है कि (ख़लीफ़ा कुरैश ही से होगा) तो ऐसी सूरत में हज़रात शैख़ीन की ख़िलाफ़त का महल ख़ुद बख़ुद ढेर हो जाता है।

क़ुसी इब्ने कलाब

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का नसब, अदनान तक मोतबर तारीख़ों और अनसाब की किताबों से साबित है जो हज़रत इसमाईल (अ.स.) के फ़र्ज़न्द क़ीदार की नस्ल से थे। तीसरी सदी ई0 में अदनान के बेटे मोइद की उन्नीसवीं पुश्त में एक बुजुर्ग पैदा हुए जिनका नाम फ़हर इब्ने मलिक था, उन्हीं फहर की नस्ल से पाँचवी सदी ई0 में क़ुसई हुए।

क़ुसई का अमल नाम ज़ैद और कुन्नियत अबुल मुग़ीरा थी, वालिदा का नाम फ़ात्मा बिन्ते सईद था। आपकी दो बीवियाँ थी एक का नाम आतिका बिन्ते ख़ालिख़ इब्ने लैक था और दूसरी का नाम हब्बा बिन्ते ख़लील ख़ज़ायी था। यह ख़लील कबीलये बनु ख़ज़ाआ के सरदार और उस दौर में खान-ए-काबा के मुतावल्ली थे। उन्होंने अपनी वफ़ात के वक़्त यह तौलियत अपनी बेटी हब्बा के सुपुर्द करना चाही मगर उन्होंने माकूल उर्ज़ के साथ उसे कुबूल करने से इन्कार कर दिया तो ख़लील ने यह ख़िदमत अपने एक क़रीबी अज़ीज़ व रिश्तेदार अबु ग़बशान ख़ज़ायके सुपुर्द कर दी, उसने इस अज़ीम शरफ को क़ुसइ इब्ने कलाब के हाथों फरोख़्त कर दिया, इस तरह आप खान-ए-काबा के मुन्तज़िम व मुतावल्ली क़रार पाये।

आप एक बुलन्द हौसला, जवां मर्द, नेक चलन, सख़ी और अज़ीमुल मरतबत इन्सान थे। आपके ज़माने में मक्का मुअज़्ज़मा आबादी के लिहाज़ से एबहुत ही मामूली गाँव था, बिखरी हुई और मुन्तशिर हालत में कहीं कहीं झोंपडियाँ और जाबजां डेरे पड़े हुए थे, आपने उन सबको तरतीब के बसाया और जो कबीले पहाड़ों और घाटियों में फैले हुए थे उन्हें समेट कर उस मैदान में जिसे बतहा कहते हैं जमां किया।

मुसलसल जद्दो जहद और जॉफिशानी के बाद आपको मक्के पर इक़तेदार हासिल हो गया और आप की ताजदारी तस्लीम कर ली गयी तो आपने खान-ए-काबा की दोबारा मरम्मत औरस ज़रुरी तामीर करायी, उसके चारों तरफ़ पत्थरों के मकामात बनवाये और मुख़तलिफ़ क़बायल के लोगों को वहाँ आबाद किया, उन पर सालाना टैक्स अदा किये जिसकी रक़म हज के ज़माने में हाजियों की मेज़बानी पर ख़र्च होती थी।

 आपने अपने लिए एक मलह भी तामीर कराया दारूल नदवा बनवाया जो बड़े हाल की शक्ल में था और उसमें अमूरे आम्मा की अन्जाम देही, बाहमी इख़तेलाफ़ात को मदूर करने और ख़ान-ए-काबा के इन्तेज़ामी मुआमलात पर तबादलए ख़्यालात के लिए वक़तन फ़वक़तन अजनलास हुआ करते थे ।

हजाबत यानि ख़ान-ए-काबा की देख भाल और हिफाज़त का ओहदा, सक़ायत व रफ़ादत यानि हाजियों की मेज़बानी और उनके खाने पानी के इन्तेज़ाम का मनसब, क़यादत यानि बवक़्त जदाले फौज की सिपेह सालारी, सिदारत, यानि दारूल नदवा के इजलास में सदर होने का इस्तेहाक़ और लवाए यानि अलमबदारी का मनसब वग़ैरा तमाम अहम तरीन मनासिब आपकी ज़ात से वाबस्ता थे। इस तरह आप जुमला मज़हबी, इसलाही और मुल्की उमूर अपनी ज़ात में जमा करके ताजदारे हज और मज़हबी पेशवा बन गये।

सीरत इब्ने हश्शाम में है किः- (काअब बिन मालिक की औलाद में क़ुसई पहले शख्स हैं जिन्होंने ऐसी हुकूमत पायी जिससे उनकी क़ौम सब उनके ज़ेरे इताअत आ गयी चुनानचे हिजाबत, सक़ायत, रिफादत, दारूल नदवा और लवाए तमाम मनसब उन्हीं से मख़सूस हो गया। उनका फ़रमान क़ौम में एक मज़हबी कानून की तरह वाजिबुल अमल समझा जाता था।)

तबरी लिखता है कि क़ुसई आला मज़हबी उमूर और दीनवी मुआमलात को अपने हाथ में करके दीनवी हाकिम और मज़हबी पेशवा बन गये। वह जो भी करते उसमें किसी की मजाल नहीं थी कि मुख़ालफ़त या एतराज़ करे। मुज़महिल को अज़सरे नो मज़बूत और दुरुस्त किया है। अल्लामा दयार बकरसी फरमाते हैं कि क़ुसई की शान उनकी ज़िन्दगी में भी और उनके मरने पर मक़बूले ख़ास व आम थी, कोई उनके खिलाफ कुछ करता ही नहीं था। क़ुसई ने मक्का में एक कुआँ भी ख़ुदवाया था जिसका नाम अजूल था, यह पहला कुँआ था जो मक्के में खोदा गया।

क़ुसई ने सन् 480 में इन्तेक़ाल किया और मुक़ामे हुजून में दफ़्न हुये इसके बाद आपकी कब्र की ज़ियारत को लोग जाते थे और उसकी बड़ी ताज़ीम करते थे।

जनाबे क़ुसई अगर नबी, रसूल या इमाम न थे लेकिन नूरे मुहम्मदी के हामिल थे इसलिए आसमाने फज़ीलत के आपताब बन गये।

अबदे मनाफ़

जनाबे क़ुसई की छः औलादें थी-(1) अब्दुल दार (2) अबदे मनाफ़ (3) अब्दुल अज़ा (4) अब्दुल क़सा (5) अब्दुल अबद (6) अब्दुल बर्रा।

अबदे मनाफ, क़सी की ज़ौजा सानिया हब्बी बिन्ते खलील ख़ज़ायी के बतन से मुतवल्लिद हुए। आपके वालिद ने आपका नाम मग़ीरा रखा और कुन्नियत अबु शमश करार पायी लेकिन जिस वक्त आप पैदा हुए तो आप की वालिदा ने अपने अक़ीदे के मुताबिक मक्का मोअज़म्मा में एक बुत (मनाफ़) के सामने डाल दिया था इस वजह से अबदे मनाफ कहे जाने लगे।

इससे मालूम हुआ कि क़ुसई ने आपका नाम अबदे मनाफ नहीं रखा जिससे यचह इलज़ाम आयद किया जा सके कि वह भी दूसरे अरबों की तरह बुत परस्ती करते थे। इस लक़ब (अबदे मनाफ) की ज़िम्मेदार क़ुसई की बीवी हब्बा बिन्ते ख़लील ख़ज़ायी हैं इसकी जि़म्मेदारी क़ुसई पर आयद नं होत और न ही आपकी बीवी के इस फेल पर ताज्जुब करना चाहिए क्योंकि जबबाज़ अन्बिया की बिवियाँ ईमन व मारफ़त के आला मदारिज तक नहीं पहुँच सकी तो हब्बा का ज़िक्र ही क्या है। उइसके अलावा यह रवायत हज़रात अहले सुन्नत की है, शियों के ओलमा इसके हमनवा नहीं हैं।

अल्लामा शिबली नेमानी का कहना है कि क़ुसई ने मरते वक़्त हरम मोहतरम तमाम मनासिब अपने बड़े बेटे अब्दुल दार को सुपुर्द किये थे जो अपने तमाम भाईयों में ना अहल था। इक़तेदारे अबदे मनाफ ने हासिल किया और उन्हीं का खानदान रसूल अल्लाह (अ.स.) का ख़ास खानदान है। इस इजमाल की तफ़सील में शम्सुल ओलमा डिप्टी नज़ीर अहमद साहब रक़्स तराज़ हैं कि- कुसई के यूँ तो कई फरज़न्द थे मगर ब लिहाज़े उम्र सबसे बड़े अब्दुल दार और ब-हैसियत फज़्ल व शरफ सबमें मुम्ताज़ अबदे मनाफ थे। अबदे नमाफ अपने वालिद की ज़िन्दगी ही में अज़मत व बुजुर्गी के साथ मशहूर हो गये थे और उनके फज़लों कमालात की दिलचस्प हिकायतें क़बायले अरब की ज़बानों पर रफ़्ता रफ़्ता आने लगीं थी चुनानचे उसी ज़माने में लोगो ने उनके वफूरे करसम और सख़ावत की वजह से उन्हें फैय्याज़ का लक़ब दे दिया था और सख़ावत की वजह से उन्हें फ़ैय्याज़ का लक़ब दे दिया था और क़बाएल में वह इसी लक़ब से पुकारे जाते थे मगर औलादे अकबर होने की वजह से क़ुसई, अब्दुल दार से ज़्यादा मोहब्बत करते थे और इसी मोहब्बत का नतीजा था कि उन्होंने अपनी वफात से क़बल खान-ए-काबा के तमाम ओहदे अब्दुल दार के नमाज़द कर दिये थे बल्कि एक अज़ीम मजमे में इसका ऐलान भी कर दिया था। एहतेज़ार के वक़्त कु़सई ने अब्दुल दार से कहा, बेटा! अगर चे तेरे दूसरे भाई फज़ल व शरफ़ में तुझ पर फौक़ियत रखते हैं- मगर मैंने खान-ए-काबा के तमाम मनासिब तेरे सुपुर्द करके तुझे उनमें मिला दिया है। अब जब तक तू खान-ए-काबा का दरवाज़ा न खोलेगा उनमें का कोई शख़्स उसमें दाख़िल नही हो सकता, जब तक तू लड़ाई का झण्डा नहीं उठायेगा उस वक़्त तक कोई आदमी लड़ाई में नहीं जा सकता। अब तेरे अलावा हज्जाज किसी का पानी नहीं पियेंगे अलग़र्ज़ अब्दुल दार, कुसई के बाद सरदार हुआ मगर बाद में उसने उन तमाम ओहदों में अपने भाई अपने मनाफ को भी शरीक करस लिया।

अल्लामा दयार बकरी ने मूसा बिन अक़बा से रवायत की है कि उसने हजर में एक नविश्ता पाया, जिसमें तहरी था कि (मैं मग़ीरा फरज़न्द क़ुसई हूँ और लोगों को हुक्म देता हूँ कि अल्लाह से डरते रहा करें और सेलए रहम करते रहें!

इस नविश्ते से पता चलता है कि अबदे मनाफ खुद भी इस नाम को पसन्द नहीं करते थे और अपने को मुग़ीरा कहते थे, बुत परस्ती से अलाहिदा थे और ख़ुदाये बरहक़ को ही अपना माअबूद समझते थे अगरस वह ख़ुदा के अलावा किसी को अपना माअबूद समझते तो अल्लाह से डरने या तक़वा इख़तियार करने हिदायदत न करते।

मुल्के शाम के एक मुक़ाम ग़ज़्ज़ह में आपने इन्तेक़ाल फ़रमाया, जहाँ आप तिजारत की ग़र्ज़ से तशरीफ़ लसे गये थे। आपकी शादी आतिका बिन्ते मर्राह सलीम से हुई थी।


हाशिम इब्ने अबदे मनाफ़

अबदे मनाफ़ के चार बेटे थे, जिनमें सबसे बड़े हाशिम और अब्दुल शमस थे क्योंकि यह दोनों तव्वम (जुड़वां) पैदा हुए थे इस तरह कि एक की ऊँगली दूसरे की पेशानी से चस्पा थी जिसे तलवार के ज़रिये अलहैदा किया गया और बे इन्तेहा खून बहा, जिसे नजूमियों ने बाहमी खूँरेज़ जंग से ताबीर किया। यह पेशिन गोई सही साबित हुई और दोनों खानदानों के दरमियान हमेशा मारकये कारज़ार गर्म रहा जिसका इख़तेताम बनि उमय्या का चिराग़ गुल होने के बाद सन् 133 हिजरी में हुआ।

आतिका बिन्ते मर्राह वह खातून है जिनका बतने मुताहर उस गौहरे नायाब का सदफ़ बना, अबदे मनाफ के सबसे छोटे बेटे मुत्तलिब थे जो हाशिम के साथ सुल्बी व बतनी इत्तेहाद रखते थे। आप (हाशिम) का अस्ल नाम (उमरूलउला) और कुन्नियत अबु नज़ला थी। क्योंकि तीर अन्दाज़ी में आपको कमाल हासिल था और यह फन हज़रत इस्माईल (स.अ.व.व.) से विरासतन मिला था।

हाशिम अपने किरदार की बदौलत दिलों पर छा गये, आपके ज़ाती औसाफ ने तमाम कुरैश की अज़मत को सिर्फ मक्का और हिजाज़ में नहीं बल्कि अरब और उसके मज़ाफ़ाती इलाक़ों में भी इस्तेक़लाली हैसियत अता की। अरबों की सोई हुयी मुआशरत को बेदार किया और उनके नज़र के धारे को मोड़ने में अहम रोल अदा किया। आपका हर तारेनफस इस्माईली रिश्ते का मज़हर था और अकसर किसी बशीर की आवाज़ आपके कानों से टकराती थी कि ऐ हाशिम! तुम्हें मुबारक हो कि अशरफे मौजूदात का ज़हूर तुम्हारी ही नस्ल से होगा। ऐसा भी होता था कि तारीकी में आपके जिस्म से शुआयें निकलती थीं।

बरहना जिस्मों को लिबात अता करना, भूकों को शिकम सेर करना, मर्राह सलीमा से हुई थी।

बरहैना जिस्मों को लिबात अता करना, भूकों को शिकम सेर करना, तंगदस्तो की दस्तगीरी करना और क़र्ज़दारों का क़र्जा अदा करना आपका शेवा और मामूल था। इन्तेहा यह थी कि जब आप कोई दावत करते या ख़्वान बिछड़ते तो मेहमानों से जो कुछ बच जाता था वह घर वापस नहीं जाता था बल्कि ग़रिबों और मिस्कीनों में तक़सीम करस दिया जाता था। यही वह ख़त व खाल थे जिन्हें एक नज़र देखने के लिए क़ैसरे रोम और शाहे हबश की गर्दनें बुलन्द रहती थी और वह लोग अपने यहाँ अक़्द के ख़्वासतगार थे मगर आपकी अज़मत ने उसे पस्त समझा।

कुरैश का दौरे इरतक़ा अगर चे क़ुसई इब्ने कलाम के जमाने से शुरू होता है लेकिन वह इब्तेदा थी। उसूल इरतेका के मुताबिक एक ही वक्त में मुम्किन नहीं होती बल्कि कतरसे को गुहर होने तक बहुत से तूफान देखने पड़ते हैं। क़ुसई की लियाकत, सलाहियत और अहलियत का हर साहबे नज़र मोतरिफ़ है उन्होंने अपनी कारगुज़ारी के दौर में गुजिशता गुमशुदा अजमतों को पाने के लिए मुल्क व क़ौम की बहबूदी पर मुनहसिर, तरतीबे निजाम की ख़ातिरस बहुत की कारआमद तदबीरें सोची और बेशतरस को जामेए अमल पहनाने में कामयाब भी हुए लेकिन हक़ीक़त यह है कि आपकी सारी तदबीरे और तजवीज़े हाशिम के हाथों नुक्तए कमाल तक पहुँचीं।

हरम के इन्तेज़ामी मुआमलात के बारे में हाशिम के दादा क़ुसई ही के ज़माने से कुछ शिकायतें चली आ रहीं थीं, अब्दुल दार के दौर में भी शिक़ायते ब-दस्तूर रहीं और रफ्ता रफ्ता जब उनमें अबतरी पैदा हुई तो जनाबे हाशिम ने मदाख़लत ज़रुरी समझी। अगर रहम का मुआमला न होता तो शायद आप यह इक़दाम न करते चुनानचे एक दिन आपने सब भाईयों को जमा किया और जो क़ाबिले इस्लाह उमूर थे उन्हें उनके पास रखा। चूँकि इस इकदाम मे हरम की खिदमत का बे लौस जज़बा कारेफरमां था इसलिए किसी ने मुख़ालिफत नहीं कि बल्कि सब इस बात पर मुतफ्फिक ग़र्ज़ कि हाशिम ने अपनी जमात को रिश्तए इत्तेहाद में मुन्सलिक करने के बाद, बनि अब्दुलदार को हरम की ख़िदमतों से दस्तबरदार होने का पैगा़म भेजा, उन लोगों ने इन्कार किया जिसकी बिना पर बाहम इख़तेलाफ़ात रुनूमां हुए यहाँ तक कि मारकए कारजार गर्म होने की सूरत पैदा होने लगी तो इन शरायत पर मुसालिहात हुई कि सक़ायत, रिफादत और दारूल नदवा के मनासिब हाशिम के पास रहे और हिजाबत व लिवाअ के मुआमलात को बनि अब्दुलदार देखें। इन तीनों ख़िदमतों को जिस खुश असलूबी से जनाबे हाशिम ने अन्जाम दिया वह इस्लाम की तारीख़ में यादगार है।

जनाबे हाशिम की क़ौमी ख़िदमात

कौन नाहमवार ज़हन ऐसा होगा जिसको अरब की बे सरो सामानी और बे माएगी का इल्म न हो। दुनिया जानती है कि इस दौर में यह वह इन्तेहाई मुफ़लिस और नादार थे और अपनी नादारी व बेनवाई की इस्लाह उनके बस की बात न थी और जब तक नादारी दूर न हो तमद्दुन व मुआशरती तरक़्क़ी हासिल नहीं हो सकती। यही वह हालत थी, जिसने जनाबे हाशिम जैसे हमदर्द को खड़े होने पर मजबूर कर दिया। आपने जंग खुरदा ज़ेहनों और दिलों को इकदाम व अमल से आशन किया। सूमसार ख़ौर क़ौम के दिल में नई उमंगों ने अंगड़ाई ली। अरसे दराज के बाद मज़बलों और गन्दगी के खण्डहरों मे नशोनुमा पाने वाले खयालात ने शाहीन के बाल व पर पैदा किये पस्ती, बुलन्दी की तरफ मायल हुई और रफ्ता रफ्ता मफ़लूकुलहाल क़ौम कारोबारी बन गयी। तमाम मशरिक़ी व मग़रीबी मुवर्रेख़ीन का इस अमर पर इत्तेफाक़ है कि परेशान हाल अरबों के दिलों दिमाग में व्योपार का शौक़ जनाबे हाशिम ने पैदा किया उससे क़ब्ल तिजारत बनि कतूरा, बनि सियारा और असहाब मदीन के दरमियान महदूद थीं।

यहाँ यह अमर काबिले तवज्जो है कि जनाबें हाशिम ने इस तारिकी के दौर में क़ौमी इस्लाह व बहबूद के लिए जो शाहराह तजवीज़ की वह आज के दौर में भी रहरवाने रह तर्की के पेशे नज़र हैं लेहाज़ा आसानी से यह नतीजा अख़ज़ किया जा सकता है कि क़ौमी ख़िदमत के लिए तक़रीबन ढेढ़ हज़ार साल क़लब हाशिमी नज़रियात इतने ही बुल-थें जितने कि आज किसी रिफारमर के हो सकते हैं।

अपनी क़ौम को तिजारत के रास्ते पर लाने के लिए जनाबे हाशिम ने अपना सरमाया भी लगाया और उनकी मुन्तशिर जमाअत को रिश्तेए इत्तेहाद में मुनसलिक ककरसे इन्सानियत का गुलदस्ता तैय्यार किया। तिजारत क़ाफिले तरतीब देने के बाद उनकी नक़ल व हरकत के उसूल मुय्यन किये। साल में दो बार मुख़तलिफ़ सिमतों में तिजारती सफर का दस्तूर मुरत्तब किया चुनानचे यह काफिले जाड़ों के दिनों में यमन व हब्शा जाते थे और गर्मियों में शाम और मज़ाफ़ात में तिजारत करते थे। इसी बिना पर जनाबे हाशिम को (ईलाफे कुरैश) कहा जाने लगा। यानि उनकी कोशिशों से बेजान क़ौम रेंगने और दौड़़ने लगी। कुरान ने भी इन समाईये जमीलो को महफूज किया और सूरये कुरैश यह कहता हुआ नाज़िल हुआ कि रसूल (स.अ.व.व.) के जद की बदौलत तुम को आज यह देखना नसीब हुआ, उसके बाद जद्दे हाशिम ने तुममें कुवते अमल बैदा की, सर्दी व गर्मी के दो सफर मुकर्रर करके तुम्हें सर्द व गर्म माहौल से रुशनास कराया, नशेब व फराज़ की ज़िन्दगी से आशना किया, बहशते सरां को मामूरए उलफ़्त बनाया, मुफलिसी व नादारी को शेर शिकमी से बदला, फिर इस कारसाज़ की तरफ क्यों नहीं झुकते? जबीने अबुदियत को उसकी चौहकट पर ख़म क्यों नहीं करते? दादा की बदौलत तुम को माद्दी राहत नसीब हुयी है तो उसके पोते के रूह पर परवर पैगा़म से नफ़से मुतमयिन्ना की मंज़िल पर क्यों नहीं पहुँचते?

इसमें कोश शक नही कि जनाबे हाशिम की कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि थोड़े ही दिनों मे कुरैश के हालात में नुमायां तौर पर तर्की और सुधार हुआ और उसके बाद वह लोग ख़ुद ही कारोबार में हमातन मसरूफ हो गये मगर उशके बावजूद हाशिमी करम उनका कफील व निगरां रहा। तबकाते इब्ने साद में है कि मक्का में कई साल मुतावातिर कहत पड़ा यहाँ मुसीबत को टालने के लिए हाशिम ने शाम का सफर इख़ितयार किया और वहाँ से गल्ला ख़रीदा, रोटियां पकवायी और उन्हं ऊँटों पर लाद कर मक्का की उस मख़लूक के सामने लाये जो मौत के साये में अपनी साँसे गिन रही थी। जिन ऊँटों पर फाख़ा काशों की ज़िन्दगी की बज़ाअत लद कर आयी थी उन्हें ज़िबह किया और उनके गोश्त से क़ोरमा तैयार कराके शाम से लायी हुई रोटियों को उसमें भिगवाया इस तरह सरीद तैयार हुयी जो अहले मक्का की शिकम सेरी का सबब बनी। यही ईसार था जिसने आपको हाशिम का ख़िताब दिया। हशम के माने तोड़ने के हैं और चूँकि आपने रोटियां तुड़वा कर सरीद तैयार कराया था इसलिए हाशिम कहलाये।

ख़ुदा ने आपकी नस्ल को गै़रफानी बुलन्दी अता की, चुनानचे बुख़ारी, मुस्लिम और तिरमिज़ी वग़ैरा में हज़रत आयशा से मरवी है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फरमाया, जिबरील का कहना है कि मैंने तमाम आलम छान डाला मगर किसी को ख़ुदा के हबीब से बेहतर व अफ़ज़ल नहीं पाया और ज़मीन का चप्पा चप्पा देख डाला मगर बनि हाशिम से बेहतर कोई खानदान नहीं मिला। क़ाज़ी अयाज़ ने (शिफाअ) में लिखा है कि ख़ुदा ने औलादे इब्राहीम में इस्माईल को, इस्माईल में कुरैश को और कुरैश में बनि हाशिम को पसन्द किया।

जनाबे हाशिम ने अपनी शादी अपने ही खानदान की एक ख़ातून से की थी मगर जब ज़िन्दगी के अवाखिर मे जब मदीने गये तो वहां क़बीले बनि अदी मेंम नजार की एक खातून से अक़द किया और वहीं अब्दुल मुत्तलिब (शीबा) की विलादत हुई। अब्दुल मुत्तलिब अबी आगोशे मादर ही में थे कि 510 में जनाबे हाशिम ने दुनिया को खैराबाद कहा और शाम में ग़ज्ज़ा के मुक़ाम पर दफ्न हुए।

हज़रत अब्दुल मुत्तलिब

आप हाशिम के जलीलुल क़दर साहब ज़ादे थे, सन् 467 में पैदा हुए वक्ते पैदाइश चूँकि आपके सर में जॉबजां सफेद बाल थे इसलिए आपकी मादरे गिरामी ने आपका नाम शीबा रका जो बाद में शीबतुल हम्द हुआ शीबा को अमद से इसलिए मुज़ाफ किया गया कि आपमें ममदूह होने की बे इन्तेहा अलामतें और सलाहियतें आशकार थीं।

आपके अलक़ाब आमिर, सैय्यदुल बतहा, साक़ियुल हज, साक़ियुल नीस, ग़ैसुल वरा, अबुल सादतुल अशरा और हफिरे ज़मज़म वग़ैरां हैं जो आपकी अज़मत और बुलन्द कारनामों के आईनये दार हैं।

आपका मशहूर व मारूफ नाम अब्दुल मुत्तलिब है जिसकी वजह तसमिया के बारे में कहा जाता है कि जब आप छः बरस या सात साब के थे तो खानदाने अबदे मनाफ का एक शख्स मदीने आया वहाँ उसने देखा कि कुछ नौ उम्र बच्चे तीर अन्दाज़ी में मसरूफ हैं उनमें एक ख़ूबसूरत बच्चा जब तीर चलाता है और वह निशाने पर पड़ता है तो वह कहता है कि मैं रईस बतहा का बेटा हूँ मैं हाशिम का फरज़न्द हूँ। यह सुनकर वह शख़्स क़रीब आया और बच्चे से पूछा कि तुम कौन हो? जवाब मिला कि मैं शीबा बिन हाशिम बिन अबदे मनाफ हूँ। चुनानचे जब वह शख्स मदीने से मक्का आया तो उसने हाशिम के हक़ीक़ी भाई मुत्तलिब से सारा वाक़िया ब्यान किया मुत्तलिब उसी वक़्त एक तेज रफतार नाक़े पर सवार हो कर मदीने आपये और अपने भाई की यादगार को देखा तो तक़ाज़ा-ए-मोहब्बत की बिना पर बे अख़तियार रो पड़े। एक दिन वहाँ क़याम किया और दूसरे दिन अपने भावज की इजाज़त से भतीजे को साथ लेकरस मदीने वापस आये। अहले कुरैश ने शीबा को देखा तो कहने लगे मुत्तलिब अपने हमराह मदीन से गुलाम ले कर आये हैं। गर्ज़ कि उसी दिन से शीबा का नाम अब्दुल मुत्तलिब हुआ जो इस क़दर मशहूर हुआ कि लोग असल मान को भूल गये।

अब्दुल मुत्तलिब की वालिदा सलमा बिन्ते अम्र बिन ज़ैद बनि निजार के क़बीले ख़िज़रिज की एक मुम्ताज़ व पाकबहाज़ खातून थीं जिनकी अज़मत व शरफ के बारे में इब्ने हुश्शाम का कहना है कि (सलमा बिन्ते उमरू अपनी क़ौम में इन्तेहाई शरफ व अज़मत की मालेका थी इसीलिए वह कहा करती थी कि मैं उस वक़्त शादी नहीं करूँगी जब तक मेरा शौहर मेरी यह शर्त कुबूल नहीं करेगा कि वह मुझे मेरे उमूर में खुदमुख़्तार रहने वाले और मेरे मुआमलात में बेजा दखल अन्दाज़ा न करे।)

अल्लामा हलबी तहरीर फरमातें है कि हाशिम अपने एक तिजारती सफर के दौरान मदीने गये तो आप ने सलमा बिन्ते अम्र से इस शर्त पर शादी की कि जब विलादत का मौक़ा आयेगा तो वह अपने मैके में रहेगी। शमसुल ओलमा नज़ीर अहमद साहब फरमाते हैं कि उन्हीं खातून के बतन से एक वावाक़ार लड़का पैदा हुआ जो लोग आगे चलकर शीबतुल हमद और अब्दुल मुत्तलिब के नाम से मशहूर हुआ। यह लड़का अभी दूध पीता था कि हाशिम का पैमानए हयात छलक गया और वह अपने होनहार फरज़न्द को माँ की गोद में छोड़कर आलमे आख़रत का सफर इख़तियार करस गये।

मुवर्रेख़ीन का कहना है कि सात बरस तक अब्दुल मुत्तलिब अपनी वालिदा की आगोशे तरबियत में रहे उसके बाद वह अपने चचा मुत्तलिब के सायए आतफत में पले बढ़े और जवान हुए। ग़र्ज़ उम्र की इब्तेदायी मंज़िलें तय करके जब आप सिनेशऊर को पहुँचे तो फ़ज़ाएल व कमालात और शरफ व बुजुर्गों में अपने बाप हाशिम का आईना बन गये। कहा जाता है कि आप मुजीबुल दवात भी थे। आपने अपने ऊपर शराब समेत तमाम मुनशियात को हराम कर लिया था।

अब्दुल मुत्तलिब पहले शख़्स हैं जिन्होंने इबादत के लिए कोहे हरा का इन्तेख़ाब किया। सियर की किताबों में हैं कि आप माहे रमज़ान में गर छोड़कर कोहे हरा पर चले जाते थे और आलमें तन्हाई में ख़ुदा की वहदानियत, जलाल व अज़मत और सिफात व कमालात पर ग़ौर व फ़िक्र किया करते थे गुरबा व मसाकीन में निहायत व कमालात पर ग़ौर व फ़िक्र किया करते थे गुरबा व मसाकीन में निहायत कुशादा दिली और सेर चश्मी से खाना तक़सीम करते यहाँ तक कि आप के दस्तर ख़्वान से परिन्दों के लिये भी खाना उठाया जाता और पहाड़ की बुलन्दी पर फैला दिया जाता। इसीलिए आप को (मुत्तइमुल तैर) भी कहा जाता था।

तजदीदे ज़मज़म

जनाबे अब्दुल मुत्तलिब की ज़िन्दगी में एक बड़ा वाक़िया दोबारा चाहे ज़मज़म का बरामद होना है। इसके बारे में मोवर्रेख़ीन ने बड़ी बड़ी ज़मज़म का बरामद होना है। इसके बारेमं मोबर्रेख़ीन ने बड़ी बड़ी मूशिगाफ़ियां की हैं मगर असल वाक़िया यह है कि अब्दुल मुत्तलिब को इस अम्र की बशारत हुई कि इस्माईल (अ.स.) की याद को ताज़ा करो और उनके फैज़ को फिर जारी करसो बशारत देने वाले ने इस जगह की निशानदेही भी करस दी जो हवादीसे ज़माने से तहे ख़ाक हो चुकी थी तो आप अपने फरज़नद हारिस को लेकर वहाँ पहुँचे, उस वक़्त आपके यही एक फरज़न्द थे जिनकी वजह से आपकी कुन्नियत अबुल हारिस क़रार पायी। ग़र्ज़ कि आपने अपने फरज़न्द की मदद से उस मुक़ाम को ख़ोदना शुरू किया जब आसारे ज़मज़म नज़र आये और कुरैश को ख़बर हुई तो उन्होंने उस काम मे आपकी इनफ़रादियत को पसन्द नहीं किया, अपनी इशतेराकियत का सवाल उठाया और आमादा फसाद हुए। एक तरफ़ कुल कुरैश थे और दुसरी तरफ जनाबे अब्दुल मुत्तलिब तन्हा। चुनानचे मौक़े की नज़ाकत को नज़र में रखते हुए आपने यह तजवीज़ पैश की कि किसी को हकम बना लो जो वह कहे उस पर हम दोनों अमल करं। फैसला हुआ कि सईद बिन ख़ीसमा काहिन के पास चलो, जो शाम में रहता है वह जो कुछ भी तय कर देगा हम लोग उस पर अमल करेंगे। ग़र्ज़ कि कुरैश के हर क़बीले से एक एक करके 70 आदमी मुनतख़िब हुए दूसरी तरफ आले अबदु मनाफ से तेरह आदमी जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के हमराह हुए और यह क़ाफ़िला चश्मों क़दम के साथ मक़्का से शाम की तरफ रवाना हुआ। अभी दो ही मंज़िलें तय हुयी थीं कि शाम व हिजाज़ के दरमियानी सहरा मे अब्दुल मुत्तालिब और उनके हमराहियों के पास अचानक पानी का ज़खीरा ख़त्म हो गया। हौलनाक सहरा में न तो कोई कुआँ था और नहीं कोई चश्मा था कि पानी की फराहमी मुम्किन हो सकती। प्यास की शिद्दत ने रफ्ता रफ्ता जनाबे अब्दुल मुत्तलिब और उनके साथियों को मौत के दहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। अब ज़िन्दगी और मौत का सवाल था इसलिए जनाबे अब्दुल मुत्तालिब (अ.स.) ने मजबूरन फीरक़े मुख़लिफ़ से पानी तलब किया मगर उन लोगों ने साफ इन्कार कर दिया। इस मायूसी के बाद, जब अब्दुल मुत्तालिब ने यह महसूस किया कि अब मौत यकीनी है तो उन्होंने अपने साथियों से फरमाया कि अब तुम लोगों की क्या राय है? लोगों ने कहा हम आपके हुक्म के पाबन्द है, जो बेहतर हो वह तरीक़ा इख़ितयार करें। फरमाया, मेरे ख़्याल में मुनासिब होगा कि तुम लोगों में हर शख़्स अपने लिए एक क़ब्र तैयार करे और मरने के बाद तमाम साथी उसको उस कब्र में दफ्न करें यहाँ तक कि आख़िर में एक शख़्स रह जायेगा तो उसकी मय्यत का ज़ाया होना तमाम मय्यतों के ज़ाया होने से बेहतर है। इस हुक्म की सब लोगों ने तामिल की और जब कब्र तैयार हो गयी तो मौत की मुन्तज़िर प्यासों की यह जमाअत लबे गोर बैठ गयी। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब ने कहा कि कब्र में पाओं लटका कर बैठने से बेहतर है कि पानी फराहमी की एक आख़िरी कोशिश हम और करें, अगर पानी मयस्सर नहीं होता तो यह कब्रें मौजूद ही हैं। इक़दाम जुस्तुजू का यह आख़िरी क़दम उठाना था कि मसलहते ऐज़दी में आयी और सहरा का जिगर पसीज गया। देखन वालों ने देखा कि जनाबे अब्दुल मुत्तालिब सवार होके चले ही थे कि नाक़े के पाओं के नीचे से आबे हयात उबल पड़ा, पानी का निकलना था कि आपने नारए तकबीर बुलन्द किया। किश्ते ज़िन्दगानी में जान आ गयी, डूबी हुयी नबज़ें उभरने लगी, बैठा हुआ दिल जवान हो गया सभी ने खूब जी भर के पिया और अपनी मशकें भरी। अब्दुल मुत्तालिब ने कुरैश से भी कहा कि तुम लोग भी सेराब हो लो और अपनी मशकें भर लो क्योंकि मंज़िल अभी दूर है और उसके बाद इस सेहरा में पानी का अब सवाल नहीं। (ग़र्ज़ कि उन लोगों ने भी पिया और मशकें भरी लेकिन इस एजाज़े ख़ुदा वन्दी ने उनकी आँख़ें खोल दी उन्होंने कहा, ऐ अब्दुल मुत्तालिब! आबे ज़मज़म के बारे में तुम से झग़ा फुजूल है, ख़ुदा ने ख़ुद फैसला तुम्हारे ही हक में कर दिया और तुम्हें फ़तेह दे दी लेहाज़ा यही से वापस चलो और चाहे ज़मज़म पर शौक़ से क़ब्ज़ा करो हम लोग इससे दस्तबरदार होते हैं। चुनानचे दोनों फ़रीक़ उसी मुक़ाम से पलट आये और चाहे ज़मज़म जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के हक़ में छोड दिया गया।

वापस आने के पाद आपने फिर ख़ुदाई शुरू की। यहाँ तक कि पानी के साथ साथ उसमें से दो अदद सोने की हिरनियां दो जिरेहं और दो तलवारें भी बरामद हुयीं जो क़बीलए जरहम मक्का से तर्क वतन करते वक़्त उसी में छोड़ कर कनकारों और पत्थरों से उसे पाट गया था। हिरनियों, ज़िरहों और तलवारों को देखकर अहले मक्का ने आप पर फिर हुजूम किया और कहा, इसमें हमारा भी हिस्सा है, जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने इन्कार किया मगर जब यह लोग न माने तो आपने फरमाया कि इसका फैसला कुरा या फाल के ज़रिये करलो। उन्होंने पूछा किस तरह? फरमायाः कि दोनों हिरनियां अलग, जिरहें अलग और तलवार अलग रख दी जाये फिर दो तीर खान-ए-काबा की तरफ से, दो तुम्हारी तरफ से और दो हमारी तरफ से उन पर चलाये जायें जिसका तीर जिन चीज़ों पर लगे वह उसे ले जाये। ग़र्ज़ कि इस तजवीज़ पर सब राज़ी हुए चुनानचे जब तीर चलाये गये तो खान-ए-काबा की तरफ से फेंके गये दोनों तीर दोनों हिरनियों पर लगे और जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के दोनों तीर ज़िराह और तलवार पर लगे, मुख़ालेफ़ीन ने जितने तीर चलाये वह सब खाली गये इस तरह उन्हें अब्दुल मुत्तालिब के मुक़ाबले में दूसरी शिकस्त का मुंह देखना पड़ा।

अब्दुल मुत्तालिब ने दोनों तलवारें खान-ए-काबा में बैरूनी फाटक पर लटका दीं और दोनों हिरनियों को तोड़कर उसके टुकड़े खान-ए-काबा के अन्दर आवेज़ान कर दिये। यह पहला सोना था जो जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के हाथों हराम की ज़ीनत बना। तारीख़े कामिल में है कि दोनों हिरनिया उसी तरह खान-ए-काबा में रख दी गय जो बाद में चोरी हो गयीं।

ग़र्ज़ कि चाहे ज़मज़म की तजदीद हयाते अब्दुल मुत्तालिब का बहुत अज़ीम कारनामा है जिसे तारीख़ नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकती। इसके ज़ैल में रूनुमा होने वाली मुख़ालिफ़त से जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने यह भी महसूस किया था कि बात बात पर कुरैश आपसे परसरे पैकार होने की कोशिश करते हैं तो आपने ख़ुदा का बारगाह में यह दुआ की कि ऐ पालने वाले! अगर तू मेरी हिमायत के लिये मुझे दस फरज़न्द अता कर दे तो मैं एक को तेरी राह में कुर्बान कर दूँगा।

यह कलेमात अब्दुल मुत्तालिब की दिल की गहराइयों से निकले थे इस लिए ख़ुदा ने उन्हें शरफे कुबूलियत से सरफराज़ करते हुए आपको दस औलादें अता करस दी जिन्हें तारीख़ हारिस, जुबैर, हजल, ज़रार, मुक़ीम, अबुलहब, अब्दुल्लाह, अबुतालिब, हमज़ा और अब्बास के नामों से याद करती है। यह औलादें मुख़तलिफ़ अज़वाज़ से थी जबकि अबदुल्लाह और अबुतालिब की वालिदा फात्मा बिन्ते उमरू थी।

जनाबे अब्दुल्लाह की कुर्बानी

फरज़न्दाने अब्दुल मुत्तालिब जब जवानी की सरहदों में दाखिल हुए तो आपको ख़ुदा की बारगाह में किये हुए अपने वायदे को वफा करने का ख़्याल आया, चुनानचे आपने अकाबरीने मक्का को जमां किया और उनके सामने अपने फरज़न्दों को तलब ककरे उनसे फरमाया कि तुम सब लोग मुझे दिल व जान से अज़ीज़ हों लेकिन खुदा का हक़ मुक़द्दम है मैंने अपने परवरदिगार से दुआ की थी कि अगर उसने मुझे दस फरज़न्द अता किय तो उनमें से एक को मैं उसकी राह में कुर्बान कर दूँगा। मेरी दुआ उसने कुबूल कर ली है, अब मुझे अपना वादा भी वफा करना है, लेहाज़ा तुम लोगों का इस बारे में क्या ख़्याल है? यह सुनकर सभों ने सुकूत इख़तियार किया लेकिन एक में नूरे रिसालत अब्दुल्लाह जिनकी उम्र अभी सिर्फ ग्यारह साल की थी अपनी जगह से उठ खड़े हुए और उन्होंने वही जवाब दिया जो उनके जद इस्माईल (अ.स.) ने अपने वालिद हज़रत इब्राहीम (अ.स.) को दिया था, फरमायाः बेशक ख़ुदा का हक़ मुक़द्दम है और हम इसके अदा करने पर साबिर व शाकिर और रज़ामन्द हैं।

कमसिन शहज़ादे का यह जज़ब-ए-ईसार देखकर खुद जनाबे अबदुल्लाह का दिल भर आया यहाँ तक कि आपकी रेशे मुबारक आँसूओॆ से तर हो गयी। फिर आपने दीगर फरज़न्दों से दरयाफ्त किया कि तुम लोग इस सिलसिले में क्या कहते हो? सभों ने एक ज़बान हो कर तसलीम व रज़ा का मुज़ाहेरा किया और कहा हम तहे दिल से राज़ी हैं, आप हमसे जिसे चाहे बारगाहे ईज़दी में कुर्बान कर दें। आपने इज़हारे शुक्र किया और फरमाया कि तुम लोग अपनी माओं से रूख़सत हो लो और उन्हें हक़ीक़ते हाल से आगाह भी कर दो।

ग़र्ज़ कि तमाम साहबज़ादे अपनी अपनी माओं से रूख़सत हो करस इकट्ठा हुए। और जनाबे अब्दुल मुत्तालिब उन्हें लेकर खाना-ए-काबा में आये कुरानदाज़ी के ज़रिये अपने ज़बीह का इन्तेख़ाब करना चाहा तो जानिबे आसमान हाथ बुलन्द करके फरमायाः- पालने वाले! तू जानता है कि मैने तेरी बारगाह में दुआ की थी कि अगर दस फरज़न्द मुझे अता हुए तो एक को तेरी बारगाह में कुर्बाह करूँगा, लेहाज़ा अब वक्ता आ गया है, अपने नूर से तारीकी का पर्दा चाक कर दें और नविश्तए वाज़ेह कर दे, मेरे माबूद! तेरी जुमला अमानतें तेरी बारगाह में मौजूद है जिसे चाहे अपने लिए मुन्तखब फरमा ले।

इसके बाद कुरान्दाजी हुई और कुरा जनाबे अब्दुल्लाह के नाम निकला। अब्दुल मुत्तालिब की आँखों में अँधेरा छा गया, सब औलादें गिरया व ज़ारी करने लगीं, सबसे ज़्यादा असर जनाबे अबूतालिब (अ.स.) पर था क्योंकि उनके हक़ीक़ी भाई थे चुनानचे आपने अब्दुल मुत्तलिब से कहा, बाबा जान, क्या यह नहीं हो सकता कि मेरे भाई अब्दुल्लाह के बजाये आप मुझे ज़िबह कर दें? जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने जवाब दिया, बेटा! हुक्मे इलाही के खिलाफ मैं कुछ नहीं कर सकता।

अकाबरीन व अमाएदीने मक्कासे भी यह दर्दनाक मन्ज़र न देखा गया चुनानचे उन लोगों ने भी सैय्यदुल बतहा जनाबे अब्दुल मुत्तालिब से दरख़्वास की कि फिर एक बार कुरानदाज़ी कीजिए शायद किसी और के लिए निकले लेकिन दूसरी बार जब फिर अब्दुल्लाह ही के नाम कुरा निकला तो जनाबे अब्दुल मुत्तालिब (अ.स.) ने मज़ीद ताखीर को अज़्म व इस्तेकलाल के मुनाफी समझा और हामिले नूर रिसालत को ले कर कुर्बान गाह की तरफ रवाना हुए, आपके पीछे पीछे एक अज़ीम मजमा भी चला, कुर्बानगाह में पहुँचकरस आपने जनाबे अब्दुल्लाह को ज़िबह करने की ग़र्ज से लिटाया ही था कि चारों तरफ से फ़रयाद व फुग़ां की आवाजे बुलन्द होने लगीं इतने में मजमे को चीरता हुआ एक बुजुर्ग सामने आया जिस का नाम अकरमा बिन आमिर था। पहले उसने मजमे को इशारे से खामोश किया फिर अर्ज़ किया कि ऐ अब्दुल मुत्तालिब! आप सैय्यदुल बतहा है अगर आप कने अब्दुल्लाह को जबह कर दिया तो यह सुन्नत बन जाएगी और अन्जाम की ज़िम्मेदारी आप पर होगी। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब ने फरमाया कि क्या मैं अपने परवरदिगार को नाराज़ करूँ? अकरमा ने कहा हरगिज़ नहीं। मैं चाहता हूँ कि आप इस मसअले में किसी काहिन से बी मशविरा फरमा ले, शायद अब्दुल्लाह के बचने की कोई तरकीब निकल आये। अकरमा की इस बात पर तमाम हाजेरीन में इत्तेफाक किया और जनाबे अब्दुल मुत्तालिब को मजबूर किया कि इ्कदामें ज़बीह से कबल आप अकरमा की राय पर अमल ज़रुर करें।

शायद मसलेहतन और मशीयते इलाही का तकाजा भी यही था कि आप अकरमा के मशविरे को नजर अन्दाज न करें। बहरहाल एक बड़े मजमे के साथ अकरमा जनाबे अब्दुल मुत्तालिब और जनाबे अब्दुल्लाह को लिए हुए एक काहिन के पास आया और उसको तमाम हालात से मुत्तेला किया। उसने जनाबे अब्दुल्लाह को देखकर कहा इस लड़के का मर्तबा तमाम आलम पर बुलन्द हो कर रहेगा मैं इसकी रेहायी का तरीक़ा बतात हूँ, यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ दैत कितनी है? अकरमा ने कहा दस ऊँट। उसने कहा कि जाओ और दस ऊँट पर कुरा डालो और बराबर दस दस ऊँटों का इज़ाफ़ा करते रहो यहाँ तक कि सौ ऊँट पर कुरानदाज़ी करो, अगर उस पर भी कुरा अब्दुल्लाह ही के नाम निकले तो फिर उन्हें जबहे करना।

दूसरा दिन नमूदार हुआ, हज़रत अब्दुल मुत्तालिब फरज़न्द को साथ लेकर खान-ए-काबा में फिर तशरीफ लाये, सात मर्तबा तवाफ किया, तकमीले मक़सद की दुआ और जो वहाँ मौजूद थे उन्हें मुतावज्जे करते हुए फरमाया कि आज आप लोग मेरी कुर्बानी में दख्ल न दें।)

कुरा की कार्रवायी शुरू हुई पहले दस ऊँटों और अब्दुल्लाह के दरमियान कुरा डाला गया नतीजा जनाबे अब्दुल्लाह के हक़ में रहा, फिर दस दस ऊँटों का इज़ाफ़ा होता रहै और कुरा अब्दुल्लाह ही के नाम निकलता रहा, यहाँ तक कि सी का अदद मुकम्मल हुआ, मशियतें ईज़दी का रूख बदला, हैवानी कसरत इन्सानी वहदत का फ़िदयां नबी, कुरा ऊँटों के नाम निकला लेकिन अब्दुल मुत्तलिब का जज़ब-ए-कुर्बानी अभी मुतमईन नहीं हुआ आपने फरमाया, एक बार और कुरा डाला जाये, शायद कोई फरोगुज़ाश्त हो गयी हो, दूसरी बार फिर कुरा ऊँटों ही पर निकला तो इत्मिनान हासिल हुआ और बारगाहे ईजदी में जनाबे अब्दुल्लाह के बदले सौ ऊँटों की कुर्बानी पेश कर दी गयी। इस कुर्बानी ने इन्सानियत के दर्जे को दस गुना बुलन्द करस दिया क्योंकि पहले दैत दस ऊँटों की थी, अब सौ की हो गयी।

ख़ान-ए-काबा पर हमला

ख़ान-ए-काबा पर अबरहा की फौज कशी, हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के अहद का अहम तरीन वाक़िया है। उसके बारे में मवर्रेख़ीन का ब्यान है कि-अबरहतुल अशरम (यमन का ईसाइ बादशाह) एक हासिद व मुतासिब इन्सान था उसने हसद और तास्सुब की बिना पर खान-ए-काबा की अज़मत व जलालत को कम करने नीज़ उसके विकार को घटाने के लिये यमन के दारूल हुकूमत सनआ में कुलीस नामी एक बहुत बड़ा गिर्जा बनवाया था, अब्ने साद का कहना है कि इस इमारत की तामीर मे सुर्ख, सफेद, जर्द और सियाह पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था और यह इबादत गाह सोने चाँदी से मुजल्ला और हीरे जवाहरात से मुरस्सा थी। उसके दरवाजों पर सोना मढ़ा हुआ था जिन पर ज़रीं गुल मेखें जड़ी थीं और उसके सहन में एक बहुत बड़ा याकूत नसब था जो दुआओं का मरकज़ था। इस अजीमुश्शान इमारत की तैयारी के बाद अबरहा ने अहले यमन को हुक्म दिया था कि तमाम लोग मौसमें हज में खान-ए-काबा के बजाये इसी इबादत गाह का हज और तवाफ किया करेंगे चुनाचे अकसर क़बाएले अरब कई साल तक उसका हज और तवाफ करते रहे। मुनासिक भी यही अदा होते थे और इबादत व रियाज़त के लिए मुतअदि्द अफराद उसमें मोअतकिफ के ओहदों पर मामूर थे।

बैतुल्लाह पर अबरहा की फौजेकशी का सबब अकसर मोअर्रेख़ीन ने यह तहरीर किया है कि क़बीलए बहनि कनान का एक शख़्स मक्के मोअज़्ज़मा से सेनआ गया और वहाँ उसने उस गिरजा घर में रिसायी करके जारूब कशी की खिदमत अन्जाम देने लगा। कुछ दिनों बाद ब उसे एक रात फ़राहम हुआ तो उसने उसमें जॉबजा पैखाना व पेशाब किया और उसके तक़द्दुस को गन्दगी व ग़लाज़त से आलूदा करके वहाँ से भाग खड़ा हुआ। जब अबरहा को ये हाल मालूम हुआ तो वह इन्तेहाई ग़ज़बनाक हुआ और उसने ख्याल किया कि अरब के लोग जिनके दिल काबा की तरफ मायल हैं उस इबादत गाह से अदावत व कदूरत रखते हैं। और जब तक काबा निसमार न होगा इस इमारत की अजमत व बुज़ुर्गी में इज़ाफा मुमकिन नहीं है। चुनानचे वह इसी फिक्र में था कि ख़ान-ए-काबा पर किस अन्दाज़ से हमला किया जाये कि इसी असना में एक वाक़िया और नमूदार हुआ वह यह कि अरबों का अक काफिला तिजारत की ग़रज़ से वहाँ पहुँचा और इत्तेफ़ाक़ से उसी गिरजा से मुलहक पज़ीर हुआ। रात में उन लोगों ने खाना पकाने की गरज से आग रौशन की, हवा तेज थी जिसकी वजह से चिन्गारियां उड़कर इबादत गाह में दाखिल हुई और सारा साज़ व सामान जल कर खाक हो गया। यह हाल देखकर क़ाफ़िला तो वहाँ से फरार हो लिया मगर चूँकि यह नुकसान भी अरबों ही कि वजह से हुआ था इसलिए अबरहा के दिल में इन्तेक़ाम के शोले भड़क उठे और उसने तहय्या कर लिया कि जब तक वह अहले मक्का की इबादत गाह (खान-ए-काबा0 को नेस्त व नाबूद नहीं कर देगा चैन से नहीं बैठेगा। चुनानचे उसने मुकम्मल तैयारी की और एक लाख दरिन्दा सिफत इन्सानों की फौज जिसमें चार सौ जन्गजू हाथी भी शामिल थे लेकर मक्के की तरफ़ चल पड़ा। और फौज़ों का यह सियाह बदल कोह व दश्त को अबूर करता हुआ सरज़मीने बतहा पर वारिद हुआ।

फौजो की कसरत और हाथियों का जमे ग़फीर देखकर अहले मक्का इस क़दर खौफज़दा और परेशान हुए कि जाये आफियत की तलाश में पहाड़ों की तरफ भागने लगे। पासबाने रहम हज़रत अब्दुल मुत्तालिब ने उन्हें तसल्ली व तशफी देते हुए फरमाया कि तुम लोग घबराओ नहीं अल्लाह के घर को कोई नुकसान नहीं पहुँच सकता उसका वही निगेहबान है और उसकी ताक़त व तवानायी के सामने अबरहा की फौज कोई हक़ीक़त व अहमियत नहीं रखती। अगर तुम पहाड़ों के बजाये हरम ही को जाये आफियत बनालो तो तमाम आफतों से महफूज रहोगे। मगर इस तसल्ली व तशफ़्फ़ी और यकीन दहानी के बावजूद लोगों के उखड़े हुए कदम अपनी जगह जम न सके और सब बैतुल्लाह को दुश्मनों के नरग़े में छोड़कर भाग खड़े हुए। सिर्फ किलीद बरबाद काबा अब्दुल मुत्तलिब और आपके घराने के अफ़राद रह गये।

खान-ए-काबा और उसके गिर्द व पेश के माहौल को वीरान व सुनसान देखकर हज़रत अब्दुल मुत्तलिब का दिल तड़प उठा चुनानचे आपने बारगाहे इलाही में अर्ज़ की कि ऐ पालने वाले! अब हमारा तू ही मुईन व मददगार है और खान-ए-काबा तेरा घर है तू ही इसकी हिफाज़त फरमा और तमाम आफ़तों से उसे महफूज़ रख।

इधर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की यह दुआ तमाम हुई और उधर पेशानिए कुदरत पर अबरहा और उसकी फौज के लिए क़हर व ग़ज़ब की शिकने नमूंदार होना शुरू हो गयी।

दूसरे दिन हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को यह इत्तेला मिली की अबरहा के सिपाही आपके ऊँट जिनकी तादाद दो सौ थी ज़बरदस्ती अपनी फौज में हांक ले गये जो मक्के से एक मंज़िल के फासले पर खेमाज़न है तो आपने बड़े पुर एतमाद लहज़े में फरमाया कि मेरे नाक़ों में वह नाक़ें भी शामिल हैं जो अल्लाह की अमानत हैं और जायेरीन हरम की तवाज़े की ख़ातिर मख़सूस हैं मैं बहर हाल वापिस लूंगा। यह कहकर आपने दोश पर रिदा डाली और एक नाक़े पर सवार हो गये। अज़ीज़ों ने पूछा, कहाँ का इरादा है? फ़रमाया, मैं अबरहा से मिलना चाहता हूँ जिसके सिपाहियों ने अल्लाह के माल पर क़ब्जा किया है। लोग सद्देराह हुए मगर उस मुजस्समये इस्तेक़लाल ने कहा, मैं अन्जाम से बाख़बर हूँ 1 मुझे जाने दो।

ग़र्ज कि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब अबरहा के लश्कर की तरफ रवाना हुए और जब वहाँ पहुँचे तो मुख़ालेफ़ीन में एक हलचल मच गयी। जिसने देखा वह दम बखुद और हैरतज़दा रह गया। किसी ने पूछा, ऐ नूरे मुजस्समा! तुम कौन हो? अपने नाम बताया और फरमाया कि मैं अबरहा से मिलना चाहता हूँ। दरबानों ने उसे मुत्तेला किया, उसने बारयाबी की इजाज़त दी लेकिन उसके साथ ही यह हुक्म दिया कि एहतियातन उनके गिर्द फौज की दीवार खड़ी कर दी जाये। चुनानचे सिपाहियों के साथ हाथियों की फौज भी दो रोया खड़ी कर दी गयी, यह हाथी मुसल्लह थे उनके सरों पर आहनी तोपे और सूंड़ों में बरहना तलवारें थी। हाशिम के नूरे नजर जब उनके दरमियान से गुजरने लगा तो उन्हें आज़ाद छोड़ दिया गया ताकि यह जनाबे अब्दुल मुत्तालिब का काम तमाम कर दें मगर अबरहा और उसका सारा लश्कर उस वक़्त मुतहैयर रह गया जब हाथियों के इस झूमते हुए पहाड़ ने हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को बजाये गज़न्द पहुँचाने के आपके सामने सरे नियाज़ खम करके घुटने टेक दिये। नतीजा यह हुआ कि खौफ ज़दा करने वाले खुद ही खौफज़दा हो गये।

इस वाक़िये से बनि हाशिम की अज़मत व जलालत का अन्दाज़ा होता है कि उनमें हजो खिलाफते इलाहिया के मनसब पर फायज़ नहीं थे वह भी बातिल के मुक़ाबले में बहुत ही भारी भरकम थे। बहर हाल, अबरहा ने बढ़कर हज़रत अब्दुल मुत्तलि का इस्तेक़बाल किया, अपने पहलू में बैठाकर ज़हमत कशी का सबब पूछा। आपने फरमाया, तुम्हारे लुटेरे मेरे ऊँट हांक लाये हैं जो मैंने हाजियों क मेहमान नवाज़ी की ग़र्ज से फराहम किये थे, अगर मुनासिब मसझो तो उन्हें वापस कर दो अबरहा ने फौरन उनकी वापसी का हुक्म दिया और वह ऊँट वापस कर दिये गये। फिर अबरहा ने कहा, अगर कोई और हाजत हो तो ब्यान करो।

हाजत के बारे में यह सवाल गोया एक तरह शिकस्त का मुज़ाहिरा था। यक़ीनन इस मौक़े पर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की जगह कोई दूसरा शख़्स होता तो वह खान-ए-काबा के बहारे में ज़रुर कुछ न कुछ कहता मगर आप अपने यक़ीने कामिल के आईने में हरम का दरख़शां मुस्तक़बिल देख रहे थे और यह नहीं चाहते थे कि आइन्दा यह झगड़ा बाकी रहे लेहाज़ा खामोश रहे।

मेरा ख़्याल तो यह है कि दुश्मन के इस्तेक़लात में ख़ुद एक तज़लजुल पैदा हो चुका था और उसे अपनी फ़तेह मशकूक नज़र आ रही थी इसलिए जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की खामोशी देखकर अबरहा ने खुद कहा कि हरम के लिए मुझसे क्यों नही कहते? उसके जवाब मे आपने फरमाया कि उसका एक कारसाज़ है और वह मुझसे ज़्यादा बेहतर जानता है कि उसे क्या करना है?

हालाँकि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब का यह जवाब दरअसल अबरहा के तक़ाज़े का जवाब नहीं था बल्कि उन अल्फाज़ों के ज़रिये आपने वजूदे ख़ुदा और उसकी वहदानियत की पैयाम्बरी की थी। आख़िर में अबरहा ने कहा, अगर आप कहें तो इस शहर से वापस चला जाऊँ?

हाशिम यादगार मुहाफ़िजे काबा का महरमे राज़ था, तक़दीरे काबा से उसके ज़मीर की आवाज़ भला क्यों कर मुतसादिम हो सकती थी, वह अगर कह देता तो अबरहा ज़रुर वापस चला जाता लेकिनअहले मक्का को उन काफिरों के बारे एहसान से दबना पड़ता और काबा की अज़मत ज़ेरे नका़ब रह जाती। ख़लीलुल्लाह की तामीर ज़बीह अल्लाह की मेहनतें दीगर तामिरात की हम पल्ला और अल्लाह की कुदरत व तवानायी मौज़ूये बहस बन जाती, इसलिए हज़रत अब्दुल मुत्तालिब यह कह कर वहाँ से वापस आ गये कि ख़ुदा अपने घर की हिफाज़त खुद करेगा उसके ख़िलाफ़ जो कुछ तुम्हारे दिल में है उसे पूरा करके अपना अन्जाम खुद ही देख लो।

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब खुद तो चले आये मगर दबदबे हाशिमी के ग़ैरफानी नकूश कलबे दुश्मन पर छोड़ आये जिसके असरात अबरहा के इस एतराफ की शक्ल में ज़ाहिर हुए कि जब उसने कहा कि इस शख़्स की ज़बरदस्त हैबत मेरे दिल में बैठ गयी है। चुनानचे उसने अपने हमराइयों से मशविरा लिया कि तुम लोग बताओ कि अब क्या करना चाहिए? लोगों ने तबाही व बरबादी का मशविरा दिया और कहा कि मक्के को लूट लें और खान-ए-काबा को मिसमार कर दें, यही आपके हक़ में बेहतर होगा। ग़र्ज़ अबरहा गय लश्कर अपने तख़रीबी इक़दाम को जमाये अमल पहनाने की ग़र्ज़ से आगे बढ़ा, और हज़रत अब्दुल मुत्तालिब मक्का खाली ककरे कोहे अबुक़बस पर इसलिए चले गये कि मशियते इलाही को अपना हुक्म नाफ़िज़ करने में तरद्दुद न हो, जिस तरह अन्बियाए साबेक़ीन ने इलाही क़हर व ग़ज़ब का निशाना बनाने वाली बस्तियों को छोड़ा था उसी तरह आपने भी मक्का खाली कर दिया।

अल्लाह से नुसरत का तलबगार इधर पहाड़ पर पहुँचा उधर हैवानियत के बल पर मुक़ाबला करने वाली जमाअत हरम की तरफ बढ़ी। मरज़िये कुदरत ने चाहा कि एक बार फिर ग़ाफिलों को चौंका कर इतमामे हुज्जत कर ली जाये, चुनानचे वह कोहे पैकर हाथी जो लश्कर के अलम की जगह था हरम तक पुहँचने से पहले ही एक जगह रूक गया, सारी तदबीरें नाकाम हो गयी मगर वह उस वक़्त तक आगे न बढ़ा जब तक उसका रूख काबे से दूसरी तरफ मोड़ा नहीं गया, लेकिन उसके बावजूद दुश्मनों की समझ में कुछ न आ सका और वह अपने इरादे पर कायम रहे। अलबत्ता इस दरमियान अबरहा ने मसलेहत की एक बार फिर नाकाम कोशिश की और एक मख़सूस क़ासिद जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की ख़िदमत में भेज कर यह कहलाया कि अगर अहले मक्का हमारी इस इबादत गाह का तावान अदा कर दें जो उनकी वजह से जलकर खाक हो गयी है तो हम वापस जाने को तैयार हैं।

जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने फरमाया, बेगुनाह अफराद खताकारों के आमाल के जिम्मेदार नहीं ठहराये जा सकते, रहा हरम का सवाल तो उसके बारे में मैं पहले ही कह चुका हूँ कि जो उसका मुहाफिज़ है वह खुद उसकी हिफाजत करेगा, तुम अपने सरदार से कह दो कि वह हमला करे या वापस चला जाये मुझसे कोई मतलब नही है।

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब का यह फैसला कुन जवाब सुनकर अबरहा आपे से बाहर हो गया चुनानचे उसने हुक्म दिया कि अब मसालिहत की कोशिशें बेकार हैं लेहाज़ा खाना-ए-काबा पर हमला करके उसे तबाह व बरबाद और मिसमार कर दिया जाये।

इस हुक्म के बाद, इधर अबरहा की सरकश अफवाज़ का तूफानी रेला अपने हाथियों को लेकर आगे बढ़ना शुरू हुआ, उधर अज़ाबे इलाही हरकत में आाया, और अबाबिलों के लश्कर ने अबरहा की फौज पर छोटी छोटी कनकरियां बरसा कर उसे जुगाली किया हुआ भुसा बना दिया। इस वाक़िये में क़हरे इलाही की शाने नुजूल भी अजीब व ग़रीब थी। न तो ज़मीन में शक हुयी, न आसमान में आग बरसी और न ही तेज़ व तन्द हवाओं का कोई, तूफान आया बल्कि छोटे छोटे परिन्दों ने मरकज़े ज़ुल्म पर नन्हीं नन्हीं कनकरियां इस तरह बरसायीं कि न हरम को कोई नुक़सान पहुँचा, न काबा की हुरमत पामाल हुई न कोई बेकुसूर हलाक हुआ और न ही कोई कुसूर वार बच सका। यह वाक़िया सन् 571 का है, अबरहा चूँकि महमूद नामी एक तवीलुल क़ामत हाथी पर सवार था इसलिए उसी की मुनासबत से यह साल आमुल फील कहलाया।


मज़लूम की हिमायत

अल्लामा इब्ने असीर रक़म तराज है कि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के पड़ोस में (अज़नियत) नामी एक यहूदी रहता था जो तिजारत पेशा होने की वजह से बहुत मालदार था। हरब बिन उमय्या जो जनाबे अब्दुल मुत्तालिब का मुसाहिब और मुआविया इब्ने अबु सुफियान का दादा था, महज़ इस बात पर उस यहूदी से बुगहज़ व हसद रखता था कि वह इतना मालदार क्यों है? चुनानचे अपने हसद से मजबूर होकर उसने एक दिन कुछ सरफिरे लोगों को इस बात पर आमादा किया कि वह उस यहूदी को क़त्ल कर दें और उसका सारा माल लूट लें, उस पर हज़रत अबु बकर के दादा सगर बिन उमरू बिन काअब तीमी और आमिर बिन अबदे मनाफ ने मिल कर उसे क़त्ल कर डालाय़ वाक़िया की इत्तेला जब हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को हुई तो आपने क़ातिलों का पता चलाने के िलए तफतीश शुरी की यहां तक कि क़त्ल में खुद हरब का हाथ है तो आप उसके पास तशरीफ ले गये और उस पर लानत व मलामत करते हुए फरमाया कि मकतूल के वारिसान को सौ ऊँटनियां बतौरे तवान अदा करो वरना क़ातिलों को मेरे हवाले कर दो। मगर हरब ने दोनों बातें मानने से साफ इन्कार कर दिया। उस पर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब और हरब के दरमियान झगड़ा काफी बढ़ गया दोनों ने एक दूसरे को बुरा भला कहा और अपने को एक दूसरे से अफजल बताया। जब किसी तरह बात ख़त्म न हुई तो फ़रीक़ैन में मुनाजरे की ठहरी और दोनों इस बात पर रज़ा मन्द हुए कि हब्शा चल कर नज्जाशी से इस बात का फैसला कराया जाये कि दोनों में किस का शरफ व मर्तबा ज़्यादा है। चुनानचे दोनों नज्जाशी के पास पहुँचे मगर उसने उनके दरमियान पड़ने से इंकार कर दिया तब उन लोगों ने वापस आकर मक्का में हजरत उमर के दादा नुफ़ैल इब्ने अब्दुल उज्जा को मुनसिफ मुक़र्रर किया, उसने फैसला देते वक़्त हरब बिन उमय्या से कहा ति कुम एक ऐसे अज़ीमुश्शान इन्सान से अपनी हमसरी का दावा करते हो जो शरफ व बुजुर्गी, क़दो क़ामत, शान व शौकत, अज़मत व जलालत और इज़्ज़त व शोहरत में तुम पर फौक़ियत रखता है और इन्साफ की बात तो यह है कि तुम उसके मुक़ाबले में इन्तेहाई पस्त, हक़ीर और ज़लीन हो। यह सुनकर हरब बिन उमय्या को ग़ैज़ आ गया उसने कहा कि यह भी ज़माने का इन्केलाब है कि तुम्हारे ऐसा शख़्स मुनसिफ़ बनाया गया है।

इसके बाद हज़रत अबदुल मुत्तालिब ने हरब को अपनी मुसाहेबत से बाहर निकाल दिया और उससे सौ ऊँटनियाँ बतौरे तावान वसूल करके मक़तूल यहूदी के चचा ज़ाद भाई को दी नीज़ यहूदी का लूटा हुआ सामान भी वापस ले लिया।

वफ़ात व मदफ़न

वक़्ते वफ़ात हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की उम्र क्या थी? इसकी तहक़ीक़ एक दुशवार गुजार मरहला है, बाज़ रिवायतों में 86 साल, बाज़ में 110 साल और बाज़ में 120 साल और 140 साल तक ब्यान की गयी है। डिप्टी नज़ीर अहमद साहब ने 140 साल वाली रिवायत को इख़तियार किया है, अल्लामा मजलिसी अलैह रहमा और मौलवी शिबली नेहमानी ने 86 साल वाले क़ौल को तरजीह दी है। यही तहक़ीक़ मग़रिबी मुर्रेख़ीन की भी है चुनानचे प्रो0 सैडयू ने खुलासा तारीख़ में हज़रत अब्दुल मुत्तालिब का साले विलादत सन् 467 तहरीर किया है और हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) का साले विलादत सन् 571 माना गया है इस तरह आपकी उम्र आन हज़रत (स.अ.व.व.) 8 साल के हुए तो गोया सन् 578 में आपने इन्तेका़ल फरमाया। अगर यह हिसाब दुरुस्त है तो 76 साल की उम्र वाली रवायत यक़ीनन दुरुस्त करार पाती है मगर मुश्किल यह है कि जनाबे हाशिम का साले विलादत उस ज़माने में लोगोंने सन् 510 माना है और यह भी तय शुदा अमर है कि इसी साल जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की विलादत वाक़े हुयी थी इस हिसाब से आपकी उम्र 86 साल क़रार पाती है। मुम्किन है जिन लोगों ने इस ज़माने में जनाबे हाशिम की वफात का ईसवी साल 510 लिखा है अपनी तहक़ीक़ में ग़लती की हो इसलिए कि जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की उम्र का मुसद्देक़ा क़ौल कम अज़ कम 86 साल है इस हिसाब से आपकी विलादत सनव् 467 में साबित होती है और वही जनाबे हाशिम की वफात का साल भी होना चाहिए। मेरे ख़्याल में आपकी वफात बहर हाल सन् 578 में हुयी र आप हुजून में दफन हो गये।

हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्दुल मुत्तलिब

आप हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के छोटे साहब जादे, हज़रत हाशिम के पोते और हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) के पदरे बुजुर्गवार थे, जिनकी कुर्बानी का तज़किरा हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के हालात में हम कर चुके हैं।

शमशुल ओलमा तहरीर फरमाते हैं कि आप निहायत मतीन, संजीदा और शरीफ तबियत के इन्सान थे और न सिर्फ जलालत नसब बल्कि मुकारिमे एख़लाक़ की वजह से कुरैश में इम्तेयाज़ी नज़रों से देखे जाते थे। महासिने आमाल और लुत्फ गुफतार में अपना नज़ीर नहीं रखते थे।

इब्ने असीर का कहना है कि आपकी कुन्नियत अबु क़सम या अबु मुहम्मद या अबु अहमद थी, आप अपने भाईयों में सबसे छोटे मगर अपने वालिद को सबसे ज़्यादा अज़ीज़ थे।

हुस्न व जमान ऐसा था कि हज़रत युसूफ की तरह औरतें आपको देखगर अज़ खुद फ़रेफ़ता हो जाया करती थी और आपको कैफ व निशत से लुत्फ अन्दोज़ी की दावत दिया करती थीं चुनानचे इब्ने असीर एक औरत की कैफियत ब्यान करते हुए रकम तराज़ हैं कि उसने आपको अपनी तरफ रूजू करते हुए कहा कि ऐ जवान! अगर तुम इस वक़्त खुवाहिश पूरी कर दो तो उसके एवज़ तुम्हें सौ ऊँट दे सकती हूँ। उसके जवाब में आपने फरमाया कि हरमा कारी मरते दम तक मुझसे नहीं मुम्किन क्योंकि शरीफ और मोअज़िज़ शख़्स अपनी आबरू और मज़हब दोनों की हिफाज़त का जिम्मेदार होता है।

अल्लामा शिबली नोमानी तहरीर फरमाते है किः- जनाबे अब्दुल्लाह कुर्बानी से बच गये तो अब्दुल मुत्तालिब को उनकी शादी की फिक्र हुई। क़बीलए ज़हरा में हवब बिन अबदे मनाफ की साहब ज़ादी जिनका नाम आमना था क़ुरैश के तमाम खानदानों में मुम्ताज़ थी। जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने उनके साथ अब्दुल्लाह की शादी का पैग़ाम दिया जो मंजूर हुआ और अक़द हो गया। उस वक़्त का दस्तूर था कि दुल्हा शादी के बाद तीन दिन तक अपनी ससुराल में रहता था चुनानचे अब्दुल्लाह भी तीन दिन तक सुसराल में रहे उसके बाद वह अपने घर चले गये उस वक़्त आपकी उम्र 17 साल से कुछ ज़्यादा थी।)

उसके बाद लिखते हैं कि जनाबे अब्दुल्लाह शादी के बिद तिजारत की ग़र्ज़ से शाम की तरफ गये, वापस आते हुए मदीने में ठहरे और बीमार हो कर यही रह गय, अब्दुल मुत्तालिब को यह हाल मालूम हुआ तो उन्होंने अपने बड़े बेटे हारिस को उनकी ख़बरगीरी के लिये भेजा लेकिन जब वह मदीने पहुँचे तो जनाबे अब्दुल्लाह का इन्तेक़ाल हो चुका था, यह खानदान में सबसे ज़्यादा महबूब थे इस लिए पूरे कुनबे को बेहद सदमा हुआ। जनाबे अब्दुल्लाह ने तरके में ऊँट, बकरियाँ और एक कनीज, जिसका नाम उम्मेऐमन था छोड़ी थीं जो बाद में रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) को मिली।

अल्लाहमा इब्ने असीर का कहना है कि उस वक्त जनाबे अब्दु्लाह की उम्र 25 या 28 साल थी और हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) कि विलादत से क़बल आपने इन्तेकाल किया। तारीख़े ख़मीस में है कि मुक़ामें अबुवा में आप दफन हुए।

हज़रत अबुतालिब इब्ने अब्दुल मुत्तालिब

वाक़िये फ़ील से (35) पैंतीस साल क़बल मक्का मोअज़्ज़मा में मुतबल्लिद हुए। तज़किरे निगारों ने आपके नाम में इख़तेलाफ़ किया है। बाज़ का कहना है कि आपका इसमें गिरामी अपने जददे आला के नाम पर अब्दे मनाफ था, बाज़ ने इमरान और बा़ ने शीबा तहरीर किया है।

(अबु तालिब) आपकी कुन्नियत हैं जो आपके साहब ज़ादे जनाबे तालिब के नाम से माअनून व मनसूब हैं और इसी कुन्नियत से सारी दुनिया आपको याद करती है। आपके अलक़ाब शेखुल बतहा, सैय्यदुल बतहा और रइसुल बतहा वग़ैरह है।

तैंतालिस (43) साल तक हज़रत अबुतालिब ऐसी बरगुज़िदा, बुलन्द पाया और अज़ीमुल मर्तबत हस्ती के ज़ेरे साया रह कर अपने तालीम व तरबियत हासिल की, उलूम व मुआरिफ की वादियों को तय किया, मुकारिमे एख़लाक़ और सिफात हसना से मुतसिफ हुए, तहज़ीब व तमद्दुन की बुलन्द क़दरों को ज़िन्दगी का शअर बनाया, और इलमी व अदबी रिफअतों के नुक़तए कमाल पर फायज होकर अपने दौर में एक बुलन्द पाया अदीब, मुम्ताज सुख़न तराज़, अज़ीम मुफक्किर, अदीमुल मिसाल दानिशवर और बेहतरीन क़ायद तस्लीम किये गये।

इलमी अदबी और फिकरी सलाहियतों के साथ आप वजीह सूरत, बुलन्द क़ामत, पुर अज़म, पुर हौसला, पुर विकार, बारोब और भारी भरकम शख़्सियत के मालिक थे। चहरे से हाशिमी जलालत व तमकनत और खदो ख़ाल से कुरैशी सितवत आशकार थी। ज़बान से फ़साहत व बलाग़त के सोते फूटते थे और ब्यान से इल्म व हिक्मत के चश्में उबलते थे, ग़र्ज़ की आप अपने इस्लाफ के आला किरदार का नमूना और औलादे अब्दुल मुत्तालिब में आदात व अतवार के लिहज़ से अपने बाप की सीरत का आईना थे।

 हज़रत अबुतालिब, एतदात पसन्दी, इन्साफ परवरी और हिल्म बरदारी के जौहर से आरास्ता थे। अरबे के नामवर हुक्मा व अदबा आपसे इस्तेफादा करते और इख़लाक़े फ़ाज़िला का दर्स लिया करते थे। चुनानचे एहनिफ बिन क़ैस से जो अरब में हिलम व बुरदबारी के लिहाज़ से सहर-ए-आफाक़ था पूछा गया कि तुमने यह हिलम व बुर्दबारी किस से सीखी? कहा कि क़ैस इब्ने आसिम मुनकरी से, और क़ैस इब्ने आसिम से पूछा गया कि तुमने हिलम व बुर्दबरी का सबक़ किस से लिया? उसने कहा, हकीमे अर अकसीम इब्ने सैफी से, और अकसीम इब्ने सैफी से पूय़ा गया कि तूने हिकमत, रियासत, सरदारी, सरबाही और हिलम व बुर्दबारी के उसूल किससे सीखे हैं तो उसने कहा, सरदारे अरब, और सरापां इल्म व अदब अबुतालिब इब्ने अब्दुल मुत्तालिब से हासिल किये हैं।

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब ने जिस वक़्त दुनिया से सफरे आख़ेरत किया उस वक़्त हज़रत अबुतालिब की उम्र 43 साल की थी और यही वह मौक़ा था जब खान-ए-काबा की तोलियत, मक्के की इमारत, कुरैश की सियासत और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की तरबियत बराहे रास्त आपसे मुतअलिक हुई।

अल्लामा दयार बकरी रक़म तराज़ हैं कि (हाशिम के बाद हाजियों को खाना देने का शरफ़ अब्दुल मुत्तालिब को हासिल हुआ और फिर अब्दुल मुत्तालिब की वफात के बाद जहूरे इस्लाम तक इस अज़ीम ख़िदमत को अबुतालिब अन्जाम देते रहे)

दौलत इस दुनिया में तकमीले मक़सद और हुसूले मनसब के लिए एक बड़ा जरिया है मगर जनाबे अबुतालिब की क़यादत, सरदारी और मन्सबी सर बुलन्दी दौलत की मरहूने मिन्नत नहीं थी बल्कि उनकी फर्ज शनासी, हुस्ने अमल और किरदार की इनफ़ेरादियत ने उन्हें इज़्ज़त व अज़मत और सरदारी के मनसब तक पहुँचाया था।

आप अपने मुआशरे में एक ऐसा निज़ाम बरुये कार लाना चाहते थे कि असासे अदल व इन्साफ पर इस्तवार हो। न किसी की हक़ तलफी हो और न किसी पर बे-जाँ ज्यादती। चुनानचे इसी जज़बे के पेशे नज़र आपने अम्र बिन अलक़मा के खून के सिलसिले में (क़सामत) का तरीक़ा राएज़ किया। इस्लाम ने भी इस तरीक़े कार की अफादियत के पेशे नज़र उसे बरक़रार रखा। इब्ने अबिल हदीद ने तहरीर किया है।

(जमान-ए-जाहेलियत में अबुतालिब ने अम्र बिन अलक़मा के खून के बारे में पहले पहल क़सामत का तरीक़ राएज किया। फिर इस्लाम ने भी उसे आपने एहकाम में जगह दे दी)

दोस्ती ही दुश्मनी, किसी मौक़े पर हज़रत अबुतालिब हक़ व इन्साफ़ का दामन नहीं छोड़ते थे और आम हालात ही में जुल्म व ज़्यादती के खिलाफ़ न थे बल्कि जंग की मारका आराइयों में भी ग़ैर ज़रूरी क़ुश्त व खून के शदीद मुख़ालिफ थे। चुनानचे क़बल इस्लाम कुरैश और कबीलए क़ैस में एक जंग हुई जो हरबे फिजार के नाम से मौसूम है, इस जंग में बनि हाशिम ने भी कुरैश की हिमायत की, हज़रत अबुतालिब जिस दिन उस जंग में शिरकत फरमाते थे उस दिन अपने दुश्मनों के मुक़ाबले में कुरैश का पल्ला भारी रहता था, इसलिए क़ुरैश उनकी शमूलियत को वजहें कामरानी समझते और कहते कि आप बड़े या न लड़ें सिर्फ हमारे दरमियान मौजूद रहें क्योंकि आपकी मौजूदगी में हमा ढ़ारस रहती है और फतहा व जफ़र के आसार नज़र आते हैं। और इल्ज़ाम तराशी से बच कर रहोगे तो मैं तुम्हारी नज़रों से ओझल नहीं रहूंगा।

यह थी हज़रत अबुतालिब की बुलन्द नज़री कि जंग व क़ताल के पुरजोश हंगामों में इन्तेक़ामी और दिमाग़ी इक़दामात के हुदूद में फर्क व फ़ासला बरक़रार रखते हुए जुल्म और ज़्यादती को मायूब नज़रों से देखते थे और सिर्फ इसी हद तक जंग के हामी थे जहाँ तक वह उसूल हर्ब व ज़र्ब के हदों के अन्दर रह कर लड़ी जाये, उसे वहशत, बरबरियत और दरिन्दगी व खूँखारी से ताबीर न किया जा सके।

जौक़े सुख़न

हज़रत-अबुतालिब अपने दौर में सिर्फ एक मुदब्बिर व मुफक्किर और मोअल्लिमे इख़लाक ही न थे बल्कि एक बुलन्द पाया शायर और सुख़नदों भी थे। एक दीवान (दीवाने शेख़उल्ला अबातेह) के अलावा आपको गिरां माया आसकार का एक अजीम ज़खीरा तारीख व सैर की किताबों में बिखरा प़ड़ा है। यूँ तो सरज़मीने अरब शेरो शायरी का गहवारा थीं और अकाज़ के बाज़ारों नीज़ मेलो ठेलो में तफ़ाखुर व ख़ुदसताई की आवाज़ें क़साएद के पैकर में ढ़ल कर गूँजा करती थी मगर मानी व मतालिब के लिहाज़ से आपकी रविश दूसरों से मुख़तलिफ थी। आपके अशआर में न खुद सताई का जज़बा था और न इब्तेदाल व बाज़ारीपन का शायबा, बल्कि रवानी, सादगी, क़नाअत और नज़म व ज़ब्त के साथ उनमें इख़लाकी तालीमात और हक़ परस्ती व हक़ नवाज़ी का दस्र होता था। इसीलिए अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) आपके अशआर को इल्मी व इख़लाक़ी सरमाया समझते हुऐ फरमाते हैं- मेरे वालिद के अशआर पढ़ो और अपनी औलादों को पढ़ाओ, इसलिए कि वह दीने हक़ पर थे और उनके कलाम में इल्म व अदब का बड़ा ज़ख़ीरा है।

यतीमे अब्दुल्लाह की परवरिश व तरबियत

इन तमाम ख़ुसूसियात व इम्तियाज़ के अलावा नस्बी व खानदानी बुलन्दी के लिहाज़ से और रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की तरबियत और इस्लाम के गिरां कदर ख़िदमात के एतबार से भी आपकी अज़मत मुसल्लम है। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने आप ही के दामने आतफत में परवरेश पायी और आप ही के ज़ेरे साया जि़न्दगी का बेशतर हिस्सा बसर किया।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) के वालिदे बुजुर्गवार जनाबे अब्दुल्लाह, आपकी विलादत से पहले ही इन्तेकाल फरमा चुके थे और जब आप छः बरस के हुए तो आप की वालिदा हज़रत आमेना भपी दुनिया से रूख़सत हो गयी। चुनानचे आप अपने दादा हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की आग़ोश शफक्कत में परवरिश पाने लगे लेकिन दो ही बरस गुज़रे थे कि उन्होंने भी सफरे आख़िरत इख़तियार किया मगर क़बबे रेहलत अबुतालिब से यह खुसूसी वसीयत कर गये कि वह आन हज़रत की केफालत व निगेहदाश्त में कोई दक़ीक़ा उठा न रखे हालांकि जनाबे अबुतालिब खुद अपने भतीजे से इतनी मुहब्बत व क़ुरबत रखते थे कि जिसके बाद किसी वसीयत की जरुरत न थी चुनानचे जब उन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के बारे में अपने वालिद की वसीयत को सुना तो फरमायाः बाबा जान! मुहम्मद (स.अ.व.व.) के बारे में वसीयत की ज़रुरत नहीं वह मेरा भतीजा और बेटा है।

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब कसीर औलाद थे और वक़्त आख़िर उनके तमाम अज़ीज़ व अक़ारिब और बेटे उनके गिर्द व पेश जमां थे और उनमें से हर एक ब-आसानी इस बारे कफालत का मुतहम्मिल हो सकता था मगर अपने इन्तेहाई ब-सीरत व दूस अन्देशी से काम लेते हुए तरबीयत व केफालत का जिम्मेदार सिर्फ अबातालिब को क़रार दिया क्योंकि उन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ अबु तालिब के तर्ज़े अमल और बरताव से बखुबी अन्दाज़ा कर लिया था कि जो मुहब्बत और उलफत उन्हें यतीमें अब्दुल्लाह से है वह किसी दूसरे को नहीं है और तरबियत की तकमील के लिए मुहब्बत व शफक्कत के जज़बात बहर हाल ज़रुरी है। लेहाज़ा उनसे बेहतर कोई दूसरा इस ख़िदमत को अन्जाम नहीं दे सकता और बाद के हालात ने यह बता दिया कि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के जो तवक़्क़ोआत जनाबे अबुतालिब से वाबस्ता थे वह ग़लत न थे। इसके अलावा इस अमर से भी इन्तेख़ाब को तक़वियत पहुँची होगी कि अबुतालिब और अब्दुल्लाह में सुबली व बतनी यगानियत भी है लेहाज़ा जिस हमदर्दी और ग़मगुसारी या खुलूस व ईसार की उनसे तवक्क़ों हो सकती है वह दूसरे मुख़तलिफ़ुल बत्न भाईयों से नहीं हो सकती। और यह भी मुम्किन है कि आसमानी सहीफों में आन हज़रत (स.अ.व.व.) के बारे में पेंशिनगोईयों को पढ़कर और हज़रत अबुतालिब में इस्लाम परवरी व ईमान नाज़े मसीहा को उनके सुपुर्द किया हो।

बाज़ मोवर्रेख़ीन का कहना है कि हुज़ूर सरवरे कायनात की परवरिश व परदाख़्त के लिए हजरत अबुतालिब और जुबैर इब्ने अब्दुल मुत्तालिब के दरमियान कुरानदाजी हुयी थी और कुरा हज़रत अबुतालिब के नाम निकला था। एक क़ौल यह भी है कि जब उन दोनों के दरमियान मुआमला दरपेश हुआ तो हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने अबुतालिब का दामन थामा और उन्हीं के किनारे आतेफत में रहने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की।

बहर हाल- यह इन्तेख़ाब किसी बिना पर हुआ हो, इस बात से इन्कार मुम्किन नहीं कि यह अल्लाह के ख़ुसूसी लुतफ़ व करम का नतीजा था और मशीयते ईजदी भी यही चाहती थी कि यह अमानत अबुतालिब ही के सुपुर्द हो और उन्हीं की पाकीज़ा आग़ोश में परवान चढ़े। चुनानचे कुदरत ने आन हज़रत पर जो एहसानात फरमाये उनमें से इस एहसान का खास तौर पर तज़किरा करते हुए फरमाया कि (अलम यज्जेदिक यतीमा फ़ाआवा) (क्या उसने तुम्हें यतीम पाकर पनाह नहीं दी?) मुफसेरीन का इत्तेफाक है कि इस पनाह से मुराद हज़रत अबुतालिब का साया आतेफत और आग़ोशे शफ़क़्कत है।

ग़र्ज जनाबे अबुतालिब ने अपने बाप की वसियत के मुताबिक आन हज़रत (स.अ.व.व.) को अपनी आग़ोशे तरबियत में ले लिया और वह तमाम फराएज़ जो एक मुरर्बी व निगरां के हो सकते हैं इन्तेहाई हुस्न व खूबी से अन्ज़ाम दिये और इस तरह मुहब्बत व दिलसोज़ी से तरबियत की कि हर मोवर्रिख़ के क़लम ने उसका एतराफ किया है। इब्ने साद लिखते हैं कि (अबुतालिब रसूले खुदा (स.अ.व.व.) से बेइन्तहा मुहब्बत करते थे और अपनी औलाद से ज़्यादा उन्हें चाहते थे, अपने पहलू में सुलाते और जब कहीं बहर जाते तो उन्हें अपने साथ ले जाते थे)

हज़रत अबुतालिब ने इब्तेदा ही से सरवरे कोनैन (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी का गहरा मुतालिया किया ता आपके आदात व अतवार और सीरत व किरदार को अच्छी तरह देखा भाला था, फिर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की मिसाली खुददारी और रकऱखाव के बावजूद आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ उनवका शफ़क़्क़त आमेज रवय्या भी धेखा लेहाज़ा वह यह सोचने पर मजबूर थे कि यह बच्चा आम बच्चों की सतह से बुलन्द तर और ग़ैर मामूली अज़मत व रिफअत का मालिक है इसलिए जहाँ आपके रगोपै में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मुहब्बत सरायत किये हुए थी वहाँ अक़ीदत व इरादत से भी उनके दिलका गहवारा खाली नहीं ता, और अक़ीदत व मुहब्बत के यही वह मिले जुले जज़बात थे जिन्होंने आपको हर क़िसम की कुर्बानी पर आमादा कर दिया।


करामाते मुहम्मदी और अबुतालिब

हज़रत अबुतालिब, करामाते मुहम्मदी में जिस करामत का मुशाहिदा सुबह व शाम करते थे वह यह थी कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस्तर खान पर मौजूद होते तो खाना ख़्वाह कितना ही कम क्यों न होता सब शिक्म सेर होकर खाते, फिर भी खाना बच जाता था। इसलिए आपना यह मामूल क़रार दे लिया था कि जब तक आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस्तर खान पर तशरीफ न लाते कोई शख्स उस वक़्त तक खाना न खाता। अगर दस्तर ख्वान से कोई दूध का प्याला उठाता तो यह कहकर आप उसे रोक देते कि पहले मेरे भतीजे मुहम्मद (स.अ.व.व.) को पी लेने दो फिर पीना। चुनानचे हुजूर (स.अ.व.व.) पी लेते तो दूसरे पीते और सबके सब सेराब व शिकम सेर हो जाते। यह देखकर जनाबे अबुतालिब आन हज़रत (स.अ.व.व.) से फरमाते कि तुम बड़े ही बाबरकत हो।

हज़रत अबुतालिब एक मर्तबा आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ कहीं जा रहे थे। जब मुक़ामे अरफा से तीन मील के फासले पर मुक़ाम ज़िलमिजाज़ में पहुँचे तो आपने प्यास महसूस की और आन हज़रत (स.अ.व.व.) से फरमाया कि क्या आस पास कहीं पानी मिल सकता है? आन हज़रत (स.अ.व.व.) अपने नाक़े से उतरे और एक पत्थर पर ठोकर मारी, पानी का धारा बह निकला। फ़रमाया चचा पानी पी लीजिए। जब आप पानी से सेर व सेराब हो चुके तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने दोबारा ठोकर मारी जिससे उबलता हुआ चश्मा ख़ुश्क हो गया।

हज़रत अबुतालिब उन्हीं आसारे ख़ैरो बरकत को देखकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ज़ात अक़दस को अपनी दुआओं का वसीला बनाते और उन्हीं के तवस्सुल से बारगाहे ईजदी में अपनी अर्ज़दाश्त पेश करते। चुनानचे बारिश न होने की वजह से एक दफा मक्का में शदीद कहा पड़ गया, लोग खुशक साली से बेहद परेशान व मुज़तरिब हुए। लात व मनाफ और उज़्ज़ा के सामने फ़रयाद की तदबीरे सोची गयी मगर उनमें से एक बुजुर्ग ने कहा, कहीं भटकर रहे हो? जबकि तुम्हारे दरमियान यादगारे इब्राहीम (अ.स.) औरफरज़न्दे इस्माईल (अ.स.) मौजूद हैं। लोगों ने कहा, क्या उस से मुराद अबुतालिब हैं? उस बुजुर्ग ने कहा, हाँ। बस, यह सुनना था कि सब उठ खड़े हुए और खान-ए-अबुतालिब पर तशगाने हयात का मजमा इकट्ठा हो गया। लोगों ने मुद्दआ बयान किया। अबुतालिब, उठकर हरम सराये गये और कलीदे रहमत की उँगलियां थामे हुए बाहर तशरीफ लाये। फिर खान-ए-काबा का रूख किया और वहाँ पहुँचकर रूकन से तकिया करके बैठ गये, आन हज़रत (स.अ.व.व.) को अपनी गोद में बिठाया और आपकी अंगुश्ते मुबारक को आसमान की तरफ बुलन्द फरमा कर दुआ की। बारिश के कोई आसार न थे लेकिन देखते ही देखते तेज़ व तुंद हवायें चलने लगीं, अबरे रहमत झूम के उठा और इस शिद्दत से बरसा कि सूखी हुई ज़मीने सेराब हो गयी और खुशक दरखतों में हरयाली व शादाबी आ गयी। हज़रत अबुतालिब ने जोश अक़ीदत में एक क़सीदा इस मौके पर रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की शान में फरमाया जो सौ अशआर से जायद पर मुश्तमिल है इसमे आपने फरमाया कि क्या कहना इस नूरे मुजस्सम का कि जिसके रूये अनवर की बरकत से अबरे करम बरस पड़ता है। जो यतीमों की उम्मीद गाह और बेवाओं के लिए जाये पनाह है और हलाक होने वाले जिसके दामने रहमत से मुतामस्सिक हो कर निजात पाकर फज़ले खुदावन्दी के मरकज़ बन जाते हैं।

मज़कूरा वाकियात से पता चलता है कि खानवादहे बनि हाशिम मरजाए खलाएक रहा और इसी सिलसिले इब्राहीमी व इस्माईली की कड़ियों से लोगों की मुश्किलात हल होती रहें। हुकूमत और अमारत उनके क़ब्ज़े में रही हो या न रही हो मगर यह खुसूसियत ज़रुरी थी कि तमाम आलम के लिए यह ख़ानदान चारा साज़ रहा और माद्दी कसाफत उसकी रूहानियत पर असर अन्दाज न हो सकी। खुलपा के दौर में भी उसकी मिसालें मौजूद हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) और हज़रत अबुतालिब का तिजारती सफर

हज़रत अबुतालिब, गेहूँ और इत्रयातके मारूफ ताजिर थे और कुरैश दस्तूरूल अमल के मुताबिक़ ब-ग़रज- तिजारत साल में एक मर्तबा शाम की तरफ जाया करते थे। चुनान्चे जब शाम जाने का वक्त करीब आया तो आपने आनहज़रत (स.अ.व.व.) से भी अपने सफर का तज़किरा किया मगर अपन साथ आपको ले जाने का कोई ख़्याल ज़ाहिर नहीं किया क्योंकि उस वक़्त आन हज़रत (स.अ.व.व.) की उम्र सिर्फ नौ साल की थी और वह दूर दराज़ सफ़र की सऊबतें बर्दाश्त करने क़ाबिल न थे। मगर जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने यह महसूस किया कि चचा उन्हें अपने साथ नहीं ले जाना चाहते तो आप जनाबे अबुतालिब से लिपट गये और साथ चलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। अबुतालिब को भी आपकी जुदाई गवारा न थी इसलिए वह आपको साथ ले जाने पर आमादा हो गये और फरमायाः- (ख़ुदा की क़सम मैं उन्हें अपने साथ ले जाऊँगा, हम कभी एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकते।)

ग़र्ज़ कि आपने हजूरे अकरम (स.अ.व.व.) को साथ लिया और शाम की तरफ रवाना हुए। रास्ते में सरकारे दो आलम का नाक़ा आगे रहता था और अबर का एक टुकड़ा साया किये हुए आपके साथ चलता था। जहाँ पानी नायाब होता वहाँ अबरे करम बरस पड़ता और जहाँ यह काफिला क़्याम पज़ीर होता वहाँ के हौज़ व तालाब पानी से लबरेज़ हो जाते और सूखी वादियां सरसबाज़ व शादाब हो जाती। मंज़िले तय होती रहीं यहाँ तक कि यह काफ़िला वारिदे बसरा हुआ जहाँ जरजीस इब्ने रबिया ने जो बहीरा के नाम से मशहूर था ताजदारे मदीना को देखा और उन तमाम आसार का मुशाहिदा किया जो ख़ातेमुल अन्बिया के लिए मख़सूस थे।

उसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को और क़रीब से देखने के लिए तमाम अहले काफिला की दावत का एहतमाम किया। लेकिन कुरैश जब दावत में शिरकत के लिए वहाँ गये तो आपको साथ नहीं ले गये बल्कि सामान की निगरानी के लिए छोड़ गये। बहीरा ने जब आपको न देखा तो उसने कुरैश से पूछा कि तुम्हारे साथ और भी कोई है? उन्होंने कहा हाँ एक बच्ची है जिसे सामान की निगरानी पर मामूर कर आये हैं। बहीरा ने कहा, उसे ज़रुर बुलवाओ। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) तशरीफ लाये तो उसने आपको सर से पाओं तक ग़ौर से दाख फिर पैराहन हटा कर दोशे मुबारक पर मोहरे नबूवत का मुशाहिदा फरमाया, मेरा बेटा है। बहारी ने कहा, यह आपका बेटा नहीं हो सकता क्योंकि मेरे इल्म की बिना पर इसके वालिद को ज़िन्दा ही न होना चाहिये। जनाबे अबुतालिब ने फरमाया तुम ठीक कहते हो, इसके वालिद मेरे हक़ीक़ी भाई थे जिनका इन्तेक़ाल हो चुका है। बहीरा ने कहा इन्हें वापस ले जाओ और नबी मुरसल हैं। अहले क़ाफिला में से कुछ लोगों ने पूछा कि तुमने यह क्यों कर जाना कि यह नबी व रसूल हैं?कहा, जब तुम्हारा क़ाफिला पहाड़ की बुलन्दी से नीचे उतर रहा था तो मैंने देखा कि तमाम शजर व हजर सर बा सजदा है और जिस तरफ यह बच्चा जाता है अंबर साया किये हुए चलता है, इसके अलावा उसके हस्ब व नस्ब, शक्ल व शुमाएल और खदो खाल का तज़किरा मैंने आसमानी सहीफों मे भी पढ़ा है इसलिए मैं यक़ीन की मंज़िल में हूँ। इस सफर के बाद, सरकारे रिसालत ने फिर कोई सफर नहीं किया और न जनाबे अबुतालिब तहफ्फुज़ के ख़्याल से आपको कहीं बाहर ले गये।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) का अक़द

बचपन के हदुद से तजाउज़ करके पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने जवानी की सरहदों में क़दम रखा तो जनाबे अबुतालिब को आपको रोज़गार और मइश्त की फिक्र हुई। उस वक़्त मक्का में एक मोअज़्जि़ व मालदार ताजिर खातून जनाबे खदीजा बिन्ते खुवैलद थीं जोअपने तिजारती नुमाइन्दे मुख़तलिफ़ शहरों में भेजा करती थीं। आपने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को खदीजा का कारसोबार सँभालने का मशविरा दिया और खुद भी जनाबे खदीजा से सिफारिश की कि वह जिन शरायत पर दूसरों को माल तिज़रत दे कर दीगर शहरों में भेजती हैं उन्हीं शरायत पर मेरे भतीजे को भी माल दिया करें। जनाबे खदीजा ने हज़रत अबुतालिब की यह बात मान ली और शरायत तय करने के बाद काफी मिक़दार में तिजारती माल आन हज़रत (स.अ.व.व.) के हवाले कर दिया। आप कुछ अर्से तक कारोबारी अमूर अंजाम देते रहे और उसमें इन्तेहाई कामयाबी हासिल की। जनाबे खदीजा भी आपको कारोबार से मुतमईन और सच्चाई व इमानदारी से बेहदत मुतासिर हुयीं। आखिर कार उन्होंने आपके पासक किसी जरिये से अक़द का पैग़ाम भिजवाया जिसे आपने अपने पचचा से मशविरे के बाद मंजूर कर लिया। इब्तेदाई मराहिल यह होने के बाद हज़रत अबुतालिब, ने हज़रत हमज़ा, अब्बास और दूसरे बनि हाशिम व अकाबरीने कुरैश को हमराह लिया और सरकारे दो आलम के साथ हज़रत खदीजा के मकान पर आये बज़में अक़द आरास्ता हुई, हज़रत अबुतालिब ने निकाह का खुतबा पढा जिसमें आपने फरमायाः

(तमाम हमद उस अल्लाह के लिये है जिसने हमें जुर्रियते इब्राहीम, नसले इस्माईल, औलादे मआद और सुल्बे मजर से पैदा किया। अपने घर का निगेहबान और हरम का पासबान बनाया और उसे हमारे लिये हज का मुक़ाम और जाये अमन करार दिया, नीज़ हमें लोगों पर हाकिम बनाया। यह मेरे भतीजे मुहम्मद (स.अ.व.व.) बिन अब्दुल्लाह है, जिस शख्स से भी उनका मवाज़ाना किया जायेगा तो शरफे निजाबत और अक़ल व फज़ीलत में उनका मर्तबा भारी रहेगा, अगर चे दौलत उनके पास कम है लेकिन दौलत तो एक ढ़लती, हुई छांव और पलट जाने वाली चीज़ है, खुदा की कसम उसका मुस्तकबिल अज़मत आफरी है और उनसे एक अज़ीम ख़बर का जहूर होगा।

यह खुतबा अगर चे मुख़तसर है मगर उससे हज़रत अबुतालिब के अक़ायद व नज़रियात और सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) के मुतालिक उनके ख़्याल का बड़ी हद तक अन्दाज़ा होता है। उन्होंने खुतबा की इब्तेदा अल्लाह ताला की हमदो सना से की है जिससे उनकी तौहीद परस्ती पर रौशनी प़ड़ती है। हमदो सना के बाद जुरियते इब्राहीमी व नसले इस्माईली से अपनी वाबस्तगी का इज़हार करके खान-ए-काबा की निगरानी, हरम की पासबानी और अमेतुन्नास पर हुक्मरानी का ज़िक्र किया है, इससे सिर्फ यही अमर वाजेह नही होता कि वह नसले इब्राहीमी में से होने की बिना पर इन मनसूबों और उहदों पर फायज़ होते चले आ रहे थे बल्कि इस अमर की भी निशान देही होती हैं कि वह हरम के ओहदों के अलावा उनकी तालिमात के भी विरसेदार थे अगर वह उनकी तालिमात से बेगाना और उनके दीन व आईन से बे तालुक़ होते तो इस इन्तेसाब पर फख़र का कोई मोरिद ही न था। इस शरफ़े इन्तेसा और खुसूसी इम्तेयाज़ के बाद आन हज़रत के कमाले फ़हम व फरासत् और बुलन्दी अक़ल व दानिश का तजकिरा किया है और उनके मुहासिन व कमालात के मुकालबे में माले दुनिया की बेक़दरी व वक़अती को वाजेह किया है इस तरह कि उसे ढ़लते हुए साये से ताबीर किया है यानि जिस तरह साया अपना कोई मुस्तक़िल वजूद नहीं रखता और उसका घटना व बढ़ना किसी दूसरी शै के ताबे होता है इसी तरह माल दुनिया भी ग़ैर मुस्तकिल और आरज़ी है लेहाज़ा इस माल के ज़रिये जो सर बुलन्दी और अज़्ज़त हासिल होगी वह साया के मानिन्द नापायेदार होगी। आख़िर में आपने आन हज़रत से दरख़शिन्दा मुस्तक़बिल, उलूये मंजेलत और आलमगीर नबूवत की तरफ़ इशारा किया है कि वह अनक़रीब आसमाने हिदायत पर न्यैरे दख़शां बनकर चमकेगें और अपनी तालिमात की रौशनी में भटकी हुई इन्सानियत को सिराते मुस्तक़ीम से हमकिनार करेंगे।

इस ख़ुतबे के बाद आपने अकद का सईफा पढ़ा और आन हज़रत को शहजादीये अरब जनाबे ख़दीजा से मुनसलिक कर दिया।

हज़रत अबु तालिब का इस्लामी नज़रिया

जब सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) कारवाने हयात की चालिस मंजिले तय कर चुके तो कुदरत ने जिस मक़सद के लिये ख़लक किया था उसकी तकमील के लिये मामूर फमाया और हिदायते आलम का बारेगिरां उनके काँधों पर रखा। आप कुफ्र व शिरक के घटा टोप अँधेरों में हिदायत का चिराग़ जलाने और इस्लाम का पैग़ाम घर घर पुहँचाने के लिये उठ खड़े हुए। बेअसत के इब्तेदायी सालों में दायरये तबलीग़ महदूद और दावते इस्लाम के इजहार में एहतियात बरती जाती थी। नमाज़ के लिए तन्हाई के मौके ढूंढ़े जाते थे। हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) कभी मकानों में छुप कर इबादत करते और कभी हज़रत अली (अ.स.) को हमराह लेकर पहाड़ों की घाटियों में निकल जाते और वहाँ नमाज़ अदा करते। एक मर्तबा जनाबे अबुतालिब ने उन दोनों भाईयों को पहाड़ की खाई में नमाज़ पढ़ते देख लिया। आपने हज़रत अली (अ.स.) को बुलाया और उनसे पूछा कि यह कौन सा दीन है जो तुमने अख़तियार किया है? आपने कहा, मैं अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद (स.अ.व.व.) बिन अब्दुल्लाह (स.अ.व.व.) के दीन पर हूँ। यह सुन कर जनाबे अबुतालिब ने फरमाया कि (तुम उनसे चिमट रहो यह तुम्हें नेकी व हिदायत का रास्ता बतायेगा)

अगर अबुतालिब, कुफ्र पसन्द और इस्लाम दुश्मन होते तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) से यह ज़रुर कहते कि आप मुझ से पूछे बगै़र, मेरे बच्चे को अपने नये मज़हब की राह पर लगाने वाले और बाप बेटे के दरमियान जहनी व नजरयाती तफरिक़ा डलवाने वाल कौन होते हैं? और हज़रत अली (अ.स.) भी कहते कि तुम इस झगड़े में न पड़ो और अपने बाप के दीन व आईन पर क़ायम रहो। इसिलए कि हर इन्सान अपनी औलाद को अपने ही दीन मज़हब पर देखना पसन्द करता है। मगर जनाबे अबुतालिब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से कुछ पूछने या हज़रत अली0 को मना करने के बजाय उन्हें आन हज़रत (स.अ.व.व.) की पैरवी का हुक्म देते है। यह इस अमर का वाज़ेह सुबूत है कि यह कुफ्फारे मुशरेकीन के मुशरेकाना इबादात व रसूल को पसन्दीदा नजरों से नहीं देखते थे वरना बुत परस्ती के मुक़ाबले में इस तर्ज़ इबादत को अमर ख़ैर से ताबीर न करते और हजरत अली (अ.स.) से यह न कहते कि मोहम्मद (स.अ.व.व.) के मसलक पर मज़बूती से जमें रहो वह तुम्हें नेकी और भलायी के रास्ते पर ले जायेंगे। इस वाकिये से यह हक़ीकत बड़ी हद तक आशकार हो जाती है कि जनाबे अबुतालिब जेहनी तौर पर पूरी तरह इस्लाम से हमआहंग और उसकी पज़ीरायी पर हमातन आमादा थे।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) को दरपर्दा तबलीग़ करते हुए जब तीन बरस गुज़र गये और चौथा साल शुरू हुआ तो एलानिया तबलीगे इस्लाम का हुक्म आया आप ने जनाबे अबुतालिब के मकान पर एक दावत का एहतमाम किया और अपने अजीज व अकारिब को जमा करके उन्हें अल्लाह का पैग़ाम सुनाया कि वह बुतों की परस्तिश छोड़ दें और खुदा की इबादत करें। हज़रत अबुतालिब कुरैश के तेवरों को समझ रहे थे कि वह अपने कदीम रस्में रिवाज़ के खिलाफ कोई आवाज सुनना गवारा नहीं करेगें और आप हज़रत (स.अ.व.व.) के खिलाफ उठ खड़े होंगे लेहाजा आपने यह मुनासिब समझा कि पहले ही उनके गोश गुजार कर दें कि वह इब्ने अब्दुल्लाह को तन्हा व बेसहारा न समझें बल्कि हम उनके दस्त व बाजू बनकर उनके साथ होंगे और हर लम्हा उनके सीने सिपर रहेंगे चुनानचे आपने जज़बए हक परस्ती से शुरू हो कर पुरएतमाद लहजे में फरमाया। (ख़ुदा की कसम जब तक हम ज़िन्दा दुश्ननों से उनकी हिफाज़त करेंगे।)

जब पैग़्बर (स.अ.व.व.) की आवाज़ पर घर की चार दीवारी से निकल कर मक्का की कुफ्र परवर फिज़ा में गूँजी तो रद्दे अमल के तौर पर मुख़ालफ़त के तूफान उठ खड़े हुए जो लोग आँखे बिछाते थे वह आँखे दिखाने लगे और जो फूल बरसाते थे वह आपकी राह में कांटे बिछाने लग। कुरैश ने कदम कदम पर तबलीग़े हक़ की राह में रूकावटें खड़ी की वह कौन सी मुश्किल थी जो आपके रास्ते में हायल न की गयी हो और वह कौन सा हरबा था जो इस्तेमाल न किया गया हो। मगर अज़्मे पैग़म्बर ने किसी मुश्किल को मुश्किल नहीं समझा और आप कुरैश की मवानिदान सरगर्मियों के बावजूद हमातन अपने तबलीग़ी कामों में मसरूफ रहे। कुरैश ने यह हाल देखा तो वह एक वफ़द की शक्ल में अबुतालिब के पास आये और कहा, आप अब्दुल्लाह के बेटे का तौर व तरीक़ा देख रहे हैं उसने चन्द भोले भाले लोगों को बहला फुसलाकर अपने दीन में दाख़िल कर लिया है। हम इस से रूबरू बातें करना चाहते हैं और आप भी उसे मुतनबेह करें कि वह अपना रवय्या बदल दें और इस नये दीन से दस्तबरदार हो जाये। हज़रत अबुतालिब ने कुरैश के खतरनाक तेवरों को भांप लिया। खामोशी से उठ कर आन हज़रत कहना चाहते हैं अगर मुनासिब समझें तो उनकी बात सुन ले वरना जैसा कहें मैं उन्हें जवाब दूँ। आन हज़रत (स.अ.व.व.) बाहर तशरीफ लाये और उनसे पूछा कि क्या कहना चाहते हो? उन्होंने कहा कि हम यह चाहते हैं कि आप हमारे बुतों से न कोई सरोकार रकें न इन्हें बुरा भला कहें और न हमारे दीन पर हमला करें। अगर आपने हमारा यह मुतालिबा मान लिया तो हम आपके किसी काम में दखल अन्दाज़ी नहीं करेगे। वरना- ---------- (आपने फरमाया कि मैं यही तो कहता हूँ कि अल्लाह एक है उसी की इबादत करो और इसे छोड़कर अपने खुदसाख्ता खुदाओं की परस्तिश न करो। और यह मेरा फर्ज़े मनसबी है कि मैं बुत परस्ती की मजम्मत और ख़ुदा परस्ती की तबलीग़ करूँ। अबुतालिब की वजह से कुरैश और तो कुछ कह न सके अलबत्ता यह जरुर कहा, यह तो अजीब बात है। इसके बद सब के सब मुंह लटकाकर चले गये।

इस मौक़े पर हज़रत अबुतालिब ने अपने हुस्ने तदबीर और हिकमते अमली से ऐसा रवय्या एख़तियार किया कि कुरैश के भड़के हुए जज़बात मज़ीद न भडकने पाये। अगर नर्म रूई के बजाये सख़्त रवय्या इख़तियार किया जाता तो दुश्मनी और अनाद की आघ और भड़क उठती और कुफ्फार की तशद्दुद पसन्द तबियतें और सख्ती व तशद्दुद पर उतर आयें। इस मसलहत के अलावा दावते फिक्र का अहम मकसद भी उसकमें शामिल था कि कुरैश चिराग़ पा होने के बजाये ठण्डे दिल से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की बाते सुनें उन पर ग़ौर करें और अपने मोतक़ेदात और उनकी तालिमात का जायेज़ा लेकर हक़ व बातिल का फैसला करे और जिस तरह दीगर मुआमलात में उनकी रास्त गोई व सच ब्यानी तस्लीम करते आये हैं, दीन के बारे में भी उनकी सच्चाई का एतराफ करे और सोचें कि जिस ने चालिस बरस की उम्र तक कभी झूठ नहीं बोला हो वह यकबारगी इतना बड़ा झूट कैसे बोल सकता है कि रिसालत और अल्लाह की नुमायन्दगी का दावा करने लगे, मगर कुरैश अपने अकीदों से दस्तबरदार होने पर तैयार न थे और न ही उनकी मुनजमिद तबियतों में बाआसानी तबदीली हो सकती थी। उन्होंने देखा कि उनके अक़ायद का तहाफ्फुज उसी वक़्त मुम्किन है जब इस दाइये हक का खातमा कर दिया जाये। मगर अबुतालिब के होते हुए उन्हें आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर हमला करने की जुराअत भी तो न थी चुनानचे उन्होंने अबुतालिब की हिमायत व सरपरस्ती को खत्म करने के लिए यह खेल खेला कि कुरैश के एक खूबसूरत नौजवान अमारा इब्ने वलीद को अबुतालिब के पास लाये और कहा कि आप उसे अपना बेटा बना लें और मुहम्मद (स.अ.व.व.) की हिमायत से दस्तबरदार हो जायें। जनाबे अबुतालिब ने उनकी यह अनोखी फरमाइश सुनी तो फरमाया। (यह अच्छा इन्साफ है कि मैं तुम्हारे बेटे को लेकर पालू और अपना बेटा तुम्हारे हवाले कर दूँ ताकि तुम उसे क़त्ल कर दो, खु़दा की क़सम यह कभी नहीं हो सकता।)

कुरैश का यह मुतालिबा इन्सान के फितरी लगाओ, जज़बाये मुहब्बत से बे खबरी या अमदन उससे बेरूखी पर मुबनी था कि अबुतालिब अपने हक़ीक़ी भतीजे को खूँखार दरिन्दों के हवाले कर दें और अजनबी और बेगाने को लेकर उसकी परवरिश करें। एक मामूली सतह का इन्सान भी उसे गवारा नहीं कर सकता, यह जानके अबुतालिब ऐसा बाहिम्मत, इन्सान, जो पनाह मांगने वालों के लिये भी मजबूती और तन्देही से जम जाता हो, वह अपने जिगर बन्द को इस आसानी से खून आशाम तलवारों के सुपुर्द कर दे और अपनी हमीयत, मुरैव्वत और शरफ का कुछ भी पास व लिहाज़ न करे।

 कुरैश की इस पेशकश से उनकी पस्त ज़ेहनियतों का अन्दाज़ा किया जा सकता है कि वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) की दुश्मनी में किस हद तक होश व ख़ेरद के तक़ाज़ों से दूर हो चुके थे कि ऐसे बेतुकी बातों पर उतर आये। यह अमर ग़ौर तलब है कि ऐसे कमफ़िक्र लोगों को समझाना बुझाना और उनके इरादों को नाकाम बनाना कितना दुश्वार था, और इन दुशवारियों को दूर करने में क्या अबुतालिब के अलावा किसी और का भी अमल दखल था? तारीख़ किसी और का नाम बताने से क़ासिर है। ग़र्ज़ कुरैश का यह हरबा नाकाम हो गयचा और उनकी सख़्त और सितम रानियों के बावजूद इस्लाम की आवाज़ दबने के बजाये उभरती ही गयी।

अब कुरैश को यह फ़िक्र लाहक़ हुई कि अगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की आवाज से मुतासिर होकर लोग इसी तरह दायरये इस्लाम में दाखिल होते रहे और यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो एक दिन यह मुख़तसर सी जमाअत मक्का की सियासत पर छा जायेगी और उन्हें पैरों तले रौंद कर उनके इक़तेदार को मलिया मेट कर देगी। जब उन्हें इन्क़ेलाबे नो के जेरे असर अपना इकतेदार नज़र आया तो चन्द बड़े और बुज़ुर्ग अबुतालिब के पास फिर आये और उनसे कहा कि पहली बार हम खामोश होकर चले गये थे मगर अब पैमानए सब्र लबरेज हो चुका है, हम कहाँ तक आपकी बुजुर्गी और अज़मत का लिहाज़ करे, बिल आखिर हमें वह कद़म उठाना ही पड़ेगा जो अब तक इस तवक्कों पर नहीं उठा कि शायद यह आवाज़ दब जाये। अब आप अपने भतीजे को सख्ती से समझा दें कि वह खामोश हो जायें और आसमानी बातों का सिलसिला ख़त्म कर दें वरना आप दरमियान से हट जायें और हमें दो टूक फैसला कर लेने दें। जनाबे अबुतालिब ने जब उनके बिगडे हुए तेवर देखे तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास आये और फरमाया कि सरदारे कुरैश पिर जत्था बाँध कर आये हैं, आप कोई ऐसा तरीक़ा इख़ितयार करें जिससे कि उनके जज़बात मुशतइल न हों, वरना अन्देशा है कि वह अचानक आपको क़त्ल कर देंगे। मैं तन्हा कहाँ तक उनका मुक़ाबला करूँगा। जनाबे अबुतालिब की जबान से यह अल्फाज़ सुन कर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की आँखों में आँसू भर आये और भराई हुई आवाज में आपने फरमायाः- चचा! मैं तो उन्हें नेकी और हक परस्ती की दावत देता हूँ और मेरे मनसब का तक़ाज़ा भी यही है कि मैं उन्हें अल्लाह के एहकाम व पैग़ाम से मुत्तेला करूं, खुदा की कसम, वह लोग मरेे एक हाथ पर चाँद, और दुसरे हाथ पर सूरज रख दें जब भी मैं एलाने हक़ और तबलीग़े इलाही से दस्तबदार नहीं हो सकता। यह कहकर आप वहाँ से चल दिये। अबुतालिब ने जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को जाते देखा तो बूढ़े जिस्म पर लरज़ा तारी हो गया आवाज़ दे कर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) को रोका और खुद एतमादी के साथ फरमायाः- ब्रादर ज़ादे! जाइये और जो समझ में आये वह कीजिये, खुदा की क़सम मैं आपका साथ नहीं छोड़ूंगा।

हज़रत अबुतालिब के इस जवाब से सरवरे क़ायनात (स.अ.व.व.) के आँसूओं का मदावा हो गया, दिल के हौसले बढ़ गये और तन्हाई व बेयारी का एहसास जाता रहा।

इस तजदीदे अहद के बाद हज़रत अबुतालिब ने सरदाराने कुरैश की तरफ रूख किया और उनसे कहा, आप लोग क्यों खडे हैं, जाईये और जो बन पड़े वह कीजिये, खुदा की कसम मेरे भतीजे की ज़बान कभी झूट से आशना नहीं हुई। िस जवाब से रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की सदाक़त और इस्लाम की सच्चाई पर जनाबे अबुतालिब के यक़ीन व इमान का पता चलता है।

कुरैश के उन वफ़दों में अगर चे अबुतालिब को एक वास्ता व ज़रिया ठहराया जाता रहा है मगर वह किसी मौके पर कुफ्फारे कुरैश के मसलक व नज़रिये की ताईद व हमनुवायी करते नज़र नहीं आते अगर वह इन नज़रियात के हमनवा होते तो जहाँ पैग़म्बरे (स.अ.व.व.) को कुरैश का पैग़ाम पहुँचाते थे वहाँ यह भी कह सकते थे कि आप उनके मज़हब के खिलाफ़ कुछ न कहें न उनके बुतों की मज़म्मत करें, मगर तारीख़ यह बताने से क़ासिर है कि आपने किसी मौक़े पर भी आपकी हमनवाई की हो। कुरैश भी उनके तर्ज़े अमल से यह अच्छी तरह समझ गये थे कि उनकी तमाम तर हमदर्दियाँ अपने भतीजे के साथ हैं और उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकी कि वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का नुसरत व हिमायत से दस्तबदार हो कर उनका साथ छोड़ देंगे लेहाज़ा उन्होंने मजीद कुछ कहना सुनना बेसूद समझा और एक माज़ क़ायम करके पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को तरह तरह की अजीयतें देना और सतान शुरू कर दिया। खभी ढ़ेले मारते, कभी कूड़ा फेंकते, कभी काहिन, कभी मजनून और आसेहब ज़दा कहते और जब आप मसरूफे नमाज होते तो मज़ाक उड़ाते।


ख़ून और गोबर

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) एक दिन खान-ए-काबा के पास मसरूफे नमाज थे कि अबुजहल ने हरम में बैठे हुए कुछ लोगों से कहा कि तुम में कौन है जो उनकी नमाज़ को निजासत और गन्दगी से आलूदा कर दे। अबदुल्लाह बबिनज़बरी उठा और खून व गोर ले कर आपके चेहरए अक़दस पर मल दिया। नमाज़ से फारिग़ होकर पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) सीधे अबुतालिब के पास आये। अबुतालिब ने आपकी यह हालत देखी तो उनका खून खौलने लगा। पूछा, किसने यह हरकत की है? फरमाया, अब्दुल्लाह इब्ने अलज़बरी की। जनाबे अबुतालिब ने तलवार हाथ में ली और खान-ए-काबा की तरफ चल पड़े। अब्दुल्लाह इब्ने जबरी और दसूरे लोगों ने जब जनाबे अबुतालिब को बरहैना तलवार के साथ देखा तो उनके होश उड़ गये। आपने गरज कर कहा कि अगर तुम में कोई भी अपनी जगह से हिला तो गर्दन उड़ा दूँगा। उसके बाद आपने खून और गोबर लेकर अबुजहल समैत एक के बाद एक के चहरों पर मला और नफरीन व मलामत करते हुए वापस आये।

आसतीनों के खंजर

एक मर्तबा ऐसा इत्तेफाक़ हुआ कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) शाम तक घर न पलटे तो हज़रत अबुतालिब को फिक्र दामनगीर हुई। क्योंकि इन हालात में यह अन्देशा था कि कुरैश आन हज़रत (स.अ.व.व.) को कहीं गायब न कर दें या कत्ल न कर डालें। जहाँ जहाँ आन हज़रत (स.अ.व.व.) के मिलने का इम्कान था वहाँ वहाँ अपने ढूण्डा मगर कहीं पता न चल सका। आपने तमाम हाशिमी जवानों को बुलाया और उनसे कहा कि तुम लोग अपनी अपनी आसतीनों में तेज़ धार वाले खंजर छिपा कर सरदाराने कुरैश में से एक एक के पहलू में बैठ जाओ और एक शख़्स अबुजहल के पास बैठ जाये। अगर यह पता चले कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) कत्ल कर दिये गयचे हैं तो तुम लोग एक दम उन पर टूट पड़ना और सब को बे दरेग़ क़त्ल कर देना। हाशिमी जवानों ने खंजर सँभाले और कुफ्फाराने कुरैश के सरदारों को अपनी ज़द में ले लिया। जनाबे अबुतालिब इधर पैग़ाम (स.अ.व.व.) की तलाश में सरगर्दां थे कि कोहे सफ़ा की जानिब जानिब से ज़ैद बिन हारिसा आते दिखायी दिये। आपने उनसे पूछा कि तुमने मेरे भतीजे को भी कहीं देखा है? उन्होंने कहा, हाँ मैं उन्हीं के पास से आ रहा हूँ वह कोहे सफ़ा के दामन में तशरीफ़ फ़रमा हैं। कहा उन्हें बुलाकर ले आओ, ख़ुदा की कसम जब तक मैं अपनी आँखों से उन्हें ज़िन्दा व सलामत नहीं देख लूँगा घर नहीं जाऊँगा। ज़ैद ने जाकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जनाबे अबुतालिब की परेशानी का हाल बताया तो आप फौरन वहाँ से उठ कर चचा के पास आये और अपनी सलामती का उन्हें यक़ीन दिलाया।

दूसरे दिन जनाबे अबुतालिब पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) और तमाम हाशिमी जवानो को लेकर सरदाराने कुरैश की बज़म में पहुँचे और अपने जवानों से फरमाया कि कल तुम लोग जो चीज़ छिपाये हुए थे उसे उन सरदारों के सामने ज़ाहिर कर दो। सभों ने अपनी अपनी आसतीनों से खंजर निकाे और उन्हें हवा में बुलन्द कर दिया। कुफ्फारे कुरैश ने पूछा, यह खंजर किस लिए है? हज़रत अबुतालिब ने फरमाया कल दिन भर मेरा भतीजा ग़ायब था, अन्देशा हुआ कि तुम लोगों उसे कहीं क़त्ल तो नहीं कर दिया लेहाज़ा मैंने इन हाशिमी जवानों को तुम पर मुसल्लत कर दिया था कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) के क़त्ल की ख़बर सुनना तो किसी को भी ज़िन्दा न छोड़ना। इन तेज़ धार खंजरों को तुम लोग अच्छी तरह देख भाल लो, खुदा की कसम अगर मेरे भतीजे पर कोई आँच अयी तो मैं तुम में किसी को ज़िन्दा नहीं छोडूँगा। अबुतालिब के यह खूँखार तेवर देख कर कुफ्फारे कुरैश में भगदड़ मच गयी। सारी महफिल तितर बितर हो गयी। भगाने वालों मे अबुजहल सबसे आगे था।

शोअबे अबुतालिब

कुफ़्फ़ारे क़ुरैश और बनी हाशिम में रक़ीबाना चशमक पहले ही से थी। अब उनकी मोआनदाना रविश के नतीजे में इख़तेलाफ़ात की खलिज वसीय से वसीय तर हो गयी और उनकी सारी दुश्मनी व अदावत खुल कर सामने आ गयी। कुरैश का अनाद इस हद तक बढ़ा कि उन्होंने बनि हाशिम से कता मरासिम व तअल्लुक़ात का फैसला कर लिया और उन्हें मजबूर कर दिया कि वह शहर का गोशा छोड़ कर पहाड़ों की घाटियों में पनाह लें। इस ज़ेल में कुफ्फारे मक्का ने मुत्तहिद होकर एक मुआहिदा भी मुरत्तब किया जिसमें यह क़रारदार मरकूम हुई कि कोई शख्स, बनि हाशिम की किसी फर्द से न किसी क़राबत का इज़हार करेगा, न उनके साथ तिजारती तअल्लुकात क़ायम करेगा, न उन के लिए सामने खुर्द नोश फराहम करेगा और न उनसे कोई वासता व ताल्लुक रखेगा जब तक अबुतालिब, मुहम्मद (स.अ.व.व.) इब्ने अब्दुल्लाह को हमारे हवाले न कर दें। यह मुआहिदा मुहर्रम सन् 7 नबवी में मनसूर बिन अकरमा ने लिखा।

शोअबे अबुतालिब, जिस में हाशिमी खानवादा महसूर व नजर बन्द किया गया था, पहाड़ का एक दर्रा था लेकिन यह मुक़ाम भी कुरैश की दस्तरस से महफूज़ न था हर वक़्त यह खतरा लाहक़ रहता कि अचानक किसी सिमत से हमला न हो जाये चुनानचे इस खतरे के पेशे नज़र अपनी रातें जाग कर गुज़ारते थे। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सोने की जगह तब्दील करते रहते थे और आपके बिस्तर पर अपने बच्चों में से किसी को और बिलउमूम अपने छोटे साहबज़ादे हज़रत अली (अ.स.) को सुला दिया करते थे ताकि रात के अँधेरों में हमला हो तो उनको कोई बेटा काम आ जाये मगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर आँच न आने पाये।

यह दौर वह था जब ख़ित्तए अरब में चन्द गिने चुने आदमियों के अलावा बनिये इस्लाम का न कोई हामी था न मददगार, अपने बेगाने सभी मुख़ालिफत पर तुले हुए थे। बस सिर्फ एक अबुतालिब थे जो आपकी हिमायत व पुश्त पनाही में पहाड़ की तरह अपने मौकफ़ पर डटे रहे। न किसी मौक़े पर उनका साथ छोड़ा और न उनकी नुसरत व एआनत से हाथ उठाया। यह अबूतालिब ही की हिमायत व पासदारी का नतीजा था कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) उनकी दस्तरत से बाहर और रेशा दावानियों से महफूज़ रहे ग़र्ज़ की जनाबे अबुतालिब ने मआशी मुकातेआ के बाद अपनी औलाद को खतरे में डालकर आन हजरत (स.अ.व.व.) के तहफ्फुज़ का इन्ते़ज़ाम किया। इसमें शक नहीं कि अगर आप अरब के चीरा दोस्तों और कुरैश के फितना परदाज़ों के नारवां मजालिम को रोकने के लिए खड़े न होते तो मजालिमें कुरैश की तारीख़ मौजूदा तारीख से कहीं ज्यादा दर्दनाक और अलम अंगेज़ होती।

मुखतसर यह है कि मुसलसल तीन बरस तक कुफ्फारे कुरैश की तरफ से यह मुआशी मुकातेआ जारी रहा और (शोअबे) की सऊबतों ने खानवादए बनि हाशिम पर जिस्मानी व रूहानी तकालीफ के अलावा रिजक की उसअतों को भी तंग कर दिया। खाने पीने को कुछ मयस्सर न था। दरख़़तों की पत्तियां शिकम परवरी का ज़रिया थीं, अगर अशयाये खुर्दनी में कोई कुछ भेजना चाहता तो कुरैश मज़ाहेमत करेत। जनाबे खदीजा के भतीजे हकीम बिन हज़ाम को जब यह हाल मालूम हुआ तो उन्होंने गेहूँ की एक बोरी फुफी की ख़िदमत में रवाना की। रास्ते में जिहालत का बोरा (अबुजहल) मिल गया, तसादुम हुआ उसने छीन्ना चाहा तो एक शख़्स अबुल बख़तरी ने उसे समझाया कि अगर एक शख़्स अपनी फुफी को कुछ भेज रहा है तो तुझसे क्या सरोकार? लेकिन वह बोरा जिहालत से इस क़दर लबरेज तथा कि उकी समझ में कुछ न आया बिल आख़िर अबुल बख़तरी ने भी फैसला किया कि उसके मरकज़ को खटखटाने की ज़रुरत है चुनानचे उनके हाथ में कमान थी जिसे उन्होंने इस ज़ोर से अबुजहल के सरपर रसीद कियाकि सतूने जिहालत ज़मीन पर ढ़ेर हो गया और ग़ल्ला की वह बोरी जनाबे खदीजा तक पहुँच गयी। शब व रोज़ इसी तरह गुज़रते रहे। एक दिन हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने अबुतालिब से फरमाया कि चचा! कुरैश के मुआहिदे को दीमक ने चाट चाट कर खत्म कर दिया और अब उसमें खुदा के नाम के अलावा कुछ बाकी नहीं है।

इस ख़बर पर जनाबे अबुतालिब ने इसी तरह यकीन किया जिससे कोई वही का यकीन कर ले। एतमाद का यह आलम कि आपने भतीजे से इसके बाद मज़ीद कुछ पूछने की ज़रूरत महसूस ही न की। दूसरे दिन खानए काबा में आये और सरदाराने कुरैश को मुख़ातिब करते हुए फरमाया कि मेरे भतीजे ने मुझ को खबर दी है कि तुम्हारे मुआहिदे को दीमक चाट गयी और उसमें सिर्फ ख़ुदा का नाम बाकी है। मुआहिदा देखा गया कुफर की तहरीर दीमक चाट चुकी थी और सदाक़ते रसूले अरबी (स.अ.व.व.) के ग़ैरफानी नक़ूश उमर चुके थे। इस वाकिये के बाद बनि हाशिम को शोअब से रिहायी नसीब हुयी।

इख़फाये इस्लाम

इब्तेदाये बेअसत में जबकि दावते इस्लाम मग़फी थी, रसूले अकरम (स.अ.व.व.) मुसलमानों को इज़हारे इस्लाम से खुद मना फरमाते थे और यह तहफ्फुज़ इस्लाम का एक इन्तेहाई हकीमाना तरीक़ा था। इस हिदायत के मुताबिक बहुत से मुसलमान अपने इस्लाम को पोशीदा रखे हुए थे और दूसरा शख़्स उनके ईमान व इस्लाम से आगाह न था। वह लोग इसी हद तक इस्लामी अमूर का लिहाज रखते जहाँ तक उनके हालात इजाज़त देते थे। बल्कि जब इस्लाम एक जमाती और गिरोही शक्ल में उभर कर अपने पैरों पर खड़ो होने की सयी कर रहा था तो उस वक़्त भी कुछ मुसलमान ऐसे थे जो अपने इस्लाम को अपने सीनो में छिपाये हुए थे और वह लोगों के दरमियान एक गैर मुस्लिम की हैसियत से जाने और पहचाने जाते थे, वह अपने हालात की कमजोरियों का बाअज खानदानी मसलहतों की बिना पर अपने ईमान को मगफ़ी रखने पर मजबूर थे। अगर चे वह कुफ्फार के साथ उठते और बैठते ते और बज़ाहिर उन्हीं में शुमार होते थे लेकिन ज़हनी तौर पर वह इस्लामी फ़ात्मा जो सईद इब्ने जैद को ब्याही थी अपने शौहर के साथ इस्लाम इख़तियार कर चुकीं थी मगर वह अपने इस्लाम को मग़फी रखती थीं क्योंकि उनके भाई हज़रत उमर और उनके वालदैन सबके सब काफिर थे) नीज़ उनकी तरफ़ से तशद्दुद का ख़तरा था। इसी तरह नईम इब्ने अब्दुल्लाह जो क़बीलये अदी से थे मुसलमान हो चुके थे मगर अपने कबीले के डर से वह अपने इस्लाम को पोशीदा रखते थे। ग़र्ज़ इसी तरह मुख़तलिफ़ कबीलों के मुतअद्दिद अफ़राद इस्लाम ला चुके थे मगर वह लोग कबायली पाबन्दियों और सख़्त गोरियों की वजह से इस्लाम को पोशिदा रखते थे।

हिजरत के बाद जब मदीने में इस्लामी हुकूमत की तशकील अमल में आ चुकी थी उस वक्त भी मक्का में एक ऐसी जमाअत मौजूद थी जो दरपर्दा इस्लाम की पाबन्द थी। अम्मे रसूल (अ.स.), इब्ने अब्बास भी इसी खुफिया जमाअत की एक फर्द थे। चुनानचे अबु राफे का कहना है कि मैं अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब का गुलाम था और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के अजीज़ों के घरों में इस्लाम जलवा गर हो चुका था, और उम्मे फज़ल (जौजये अब्बास) इस्लाम से मुशर्रफ हो चुके थे हमारा इस्लाम अयां था लेकिन अब्बास का इस्लाम मग़फी था क्योंकि वह क़ौमस को अपना मुख़तलिफ़ बनाने के हक़ में नहीं थे।

यह लोग इस्लाम को पोशीदा रख कर दीने हक की वह ख़िदमात अन्जाम दे रहे थे जो इज़हारे इस्लाम के बाद मु्म्किन न थी। उन्हीं लोगों के ज़रिये कुफ्फारे कुरैश की रेशा दुनियों और नक़ल व हरकत की खबर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) के पास मदीने पुहँची थीं जिनसे इस्लाम का भरपूर मुफाद वाबस्ता था और उन्हीं खबरों की बिना पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.), आइन्दा दर पेश हालात में फायदा उठाते थे और हमेशा उनसे अपना राबता क़ायम रखते थे। अल्लामा इब्ने अब्दुल बर ने अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब के हालात में लिखा है कि वह मुशरेकीन से मुतालिक तमाम खबरे तहरीरन पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के पास भेजते रहते थे जिससे मुसलमानों को बड़ी तक़वियत फराहम होती थी हालांकि अब्बास यह चाहते थे कि वह पैगम्बर (स.अ.व.व.) के पास चले जायें मगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें लिखा कि मक्का में तुम्हारा क़याम मदीने से ज्यादा बेहतर और फायदेमन्द है।)

मालूम हुआ कि उन लोगों का अख़फ़ाये इस्लाम पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की मर्जी और इजाज़त से था अगर यह अख़फ़ा इस्लाम के मनाफी होता तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) इस अमर की कभी इजाज़डत नहीं देते। बहर हाल अख़फ़ाए इस्लाम इस्लाम के मनाफी कतई नहीं हैं और इस्लाम का मगफ़ी रखा जाना, दीने पैगम्बर (स.अ.व.व.) में इसी तरह मोरिदे इबादत व एतमाद है जिस तरह इस्लाम का एलानिया इकरार। और अगर असबाते ईमान के लिए जबानी इकरार व एलाम को जरुरत करार दिया जाये तो यह शर्त हर हाल में ग़ैर ज़रुरी होगी कि वह मख़सूस लफ्ज़ों में हो तो मोतबर है वरना नहीं। जब यह क़ैद ज़रूरी नहीं तो जनाबे अबुतालिब के इकरारे वहदानियत और रिसालत से इन्कार मुम्किन नहीं क्योंकि उन्होंने मुत्ताइद बार मुख़तलिफ़ अल्फाज़ में आन हज़रत की नबूवत का एतराफ किया है।

ईमाने अबुतालिब

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की हिमायत व नफरत में जनाबे अबुतालिब की पामदी, फिदाकारी और जॉनिसारी तारीख़े इस्लामी की वह मुसल्लमा हक़ीक़त है जिससे आज तक किसी को इन्कार की जुराअत न हो सकती। लेकिन अफसोस है कि कुछ लोगों ने इस नफरत और फिदाकारी की अस्ल रूह को मज़मूम करने की कोशिश की है। चुनानचे इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि यह नफरत मज़हबी व एतक़ादी जज़बों के ज़ेरे असर थी बल्कि इस में कराबत दारी और अजीज़दारी के जज़बात कारफरमा थे भला वह क्योंकर उनकी पासदारी व हिमायत न करते?

यह बात इस हद तक तो दुरुस्त है कि आनहज़रत (स.अ.व.व.) अबुतालिब के करीबी परवर्दा खास और हकीकी भाई की यादगार थे और यह भी मुसल्लम है कि अरबों में कराबत दारी का पास व लिहाज़ ज्यादा किया जाता है जैसा कि पैगम्बर की वफात के बा खुलफ़ा के तर्जे अमल से वाजेह है, मगर कितनी ही अजाजदारी व कराबतदारी क्यों न हो कोई शख़्स अपने दीन व इमान और मज़हब के मुकाबले में कराबतदार, अज़ीज़दारी या रिश्तेदारी का ख़्याल नहीं करता। यह जानके अपने अक़ायद के ख़िलाफ़ अवाज़ उठाने में तआव्वुन करे और अपने माबूदों की तज़लील व तौहीन के सिलसिले में हाथ बटायें, मगर जनाबे अबुतालिब का किरदार यह नज़र आता है कि वह बुतों को बुरा भला कहने पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की हौसला अफज़ायी फ़रमाते हैं और इस्लामी अमूर की तबलीग़ में उनका हाथ बटाते हैं। इस तर्जे अमल को किसी तरह कराबतदारी का नतीजा क़रार नहीं दिया जा सकता। और अगर यह मान लिया जाये पैग़म्बर से अबुतालिब की वालहाना अकीदत व मुहब्बत बर बनाये कराबत ती तो सवाल यह पैदा होता है कि इन्सान अपने बेटों से ज़्यादा कराबत रखता है या भतीजे से? ज़ाहिर है कि जो कराबत अपनी औलाद से होती है वह भाई की औलाद से नहीं होती। अगर इस नफरत में नसबी क़राबत का जज़बा कारफ़रमा होता तो जनाबे अबुतालिब अपने बेटों की जि़न्दगी खतरे में डाल कर उन्हें पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बिस्तर पर सोने का हुक्म न देते बल्कि भतीजे के तहाफुज पर औलाद के तहाफुज को मुक़द्दम रखते। तारीख़े आलम में एक भी मिसाल ऐसी पेश नहीं की जा सकती कि किसी ने एक ऐसे शख़स की खातिर जिसके नजरियात को वह बातिल और दावे को गलत समझता हो, महज कराबत की बिना पर अपनी औलाद को हलाकत की आग में दीदा व दानिस्ता ढ़केला हो। इससे साफ ज़ाहिर है कि इस नफ़रत में जो अपनी नौइयत के एतबार से मुनफर्द थी, कराबत का जज़बा यह हरगिज कार-फ़रमा नहीं था बल्कि एक मज़हबी, दीनी, इमानी और रूहानी राबता था जो जनाबे अबुतालिब को पैगम्बर (स.अ.व.व.) की नफरत हिमायत के मुआमले में सरगर्म अमल रखते हुए था। अबुलहब और पैगम्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) के दरमियान भी तो रिश्ता था वह भी आपका चचा था, नसबी कराबत के बिना पर आखिर वह क्यों नफरत व हिमायत के लिये खड़ा नहीं हुआ? इस करीबी रिश्ते की बिना पर वह दुश्मनी और अनाद के मजाहिरों ही से बाज़ रहता। इसी तरह हजरत इब्राहीम और अज़र में रिश्ता था वह भी खीलले खुदा का चचा था, आखिर वह उनकी ईज़ा रसानी के दर पे क्यों हुआ?इस रिश्ते से क़वी तर रिश्ता नूह (अ.स.) और उनके फरज़न्द के दरमियान था, उनके दरमियान मुनाफ़ेरत की खलीज क्यों हायल रही? सिर्फ इस लिये कि उनके दरमियान मज़हबी हम आहंगी न थी। यही हाल जनाबे नूह (अ.स.) और लैत (अ.स.) की बीवियों का भी है। मेरे ख़्याल में हज़रत अबुतालिब की नफरत व हिमायत को कराबत पर महमूल करना एक तरह से उनकी गिरा क़दर काविशों और मेहनतों पर पानी फेरना है।

हज़रत अबुतालिब के इस तर्जे अमल को देखने के बाद कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का हर लम्हा आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत नफरत और हिमायत कर दिया था, हर मुतावाजिन ज़ेहन आसानी से यह फैसला, कर सकता है कि वह पैग़म्बर की सदाकत व रिसालत के क़ायल और कुफ़्फारे मक्का के मुशरेकाना अक़ायद व आमाल से बेज़ार थे। अगर बेजा़र न होते तो रसूल (स.अ.व.व.) की नुसरत व हिमायत में इस तनदेही से आमादा न होते और न उनकी वजह से दुनिया व जहाँ की दुश्मनी मोल लेते। यह वाज़ेह सुबूत है कि उनका दिल इमान की शुआओं से रौशन और सिद्क़ व सफा की ज़ौपाशियों से मुनव्वर था और उनके कलब पर अल्लाह की वहदानियत और रसूल (स.अ.व.व.) की रिसालत के ताबिन्दा नकूश सब्त थे नीज़ वह दिल की गहराइयों से नबूवत की तसदीक कर चुके थे और इसी तसदीक़े क़लबी और यक़ीनी बातनी का नाम ईमान है, जैसाकि काज़ी अज़दुद-दीन ने तहरीर फ़रमाया है कि (हमारे नज़दीक ईमान यह है कि उन चीज़ों में रसूल (स.अ.व.व.) की तसदीक़ की जाये जिनका शरीयत में वारिद होना सराहतन साबित है और यही अकसर आइम्मा का मसलक है जैसे क़ाज़ी बाक़लानी और उस्ताद इसहाक़ असफरायनी वग़ैरा।

जब अकाबरीन ओलमाये जमहूर और मुहके़ीन के नज़दीक क़लबी तसदीक़ और बातनी एतक़ाद ही नाम ईमान है तो फिर हज़रत अबुतालिब के ईमान से इनकार की क्या वजह है? जबकि नशरे इस्लाम, तबलीग़े दीन और नुसरते रसूल (स.अ.व.व.) के सिलसिले में आपका तर्जे अमल और किरादारही आपके कलबी तसदीक और बातनी एतक़ाद का ज़िन्दा सुबुत और ईमान की वाज़ेह शहादत है।

इस तरह हज़रत अबुतालिब के वह बेशुमार अशआर जो मुख़तलिफ़ मवाफ़े पर आपने इरशाद फरमाये हैं, जज़बए ईमान, जोशे अक़ीदत, अतराफे सदाक़त और इस्लाम बीनीये इस्लाम से लाज़वाल मुहब्बत के आईनेदार हैं। यह अशआर अरबी ज़बान में हैं, इख़्तेसार के ख्याल से उर्दू तर्जुमा पर मुबनी चन्द नमूने पेश ख़िदमत हैं, मुलाहेज़ा फरमायें।

(1) जब कुफ्फारे मक्का ने हज़रत अबुतालिब से शिकायत की कि आप अपने भतीजे (मुहम्मद (स.अ.व.व.)) को इस बात से रोकें कि वह हमारे खु़दाओं और हमारे दीन को बुरा भला कहते हैं तो आपने रसूल (स.अ.व.व.) से फरमाया, कि बेटा तुम तबलीग़े हक़ को जारी रखो बाखुदा जब तक मैं जिन्दा हूँ कुफ्फार के हात तुम तक नहीं पहुँच सकते और जब तक मेरे बाजुओं में ताक़त है यह लोग तुम्हें कोई गज़न्द नहीं पहुँचा सकते।

(2) जब कुफ्फारे अहद नामे को दीमक दफ्तर बेमानी की तरह चाट गयीतो हजरत अबुतालिब ने कुरैश को यह कहकर आगाह किया कि बस इसमें अल्लाह का नाम बाकी रह गया है मुनकेरीन को यक़ीन न आया तो आपने उनके जुल्म, ज़िद को अपने अशआर में नज़म किया, जिनमें से बाज़ का मफहूम यह है कि अहद नामा की सरगुज़श्त मुकामे इबरत है जब बे खबरों को उसकी ख़बर दी जाती है तो वह आईना हैरत हो जाता है इस अहद नामें में जो कुफ्र व अनाद की बातें थी उन्हें अल्लाह ने महो कर दिया और मुजस्समए सदाकत (रसूल (स.अ.व.व.) के ख़िलाफ जो जहर उगला गया था वह नक्श बरआब हो कर रह गया है और ख़ुदा का शुक्र है के मुखालेफीन की तमाम बातें साबित हुयीं।

(3) एक शेर में हज़रत रसूल ख़ुदा (स.अ.व.व.) की तरफ से इशारा करके आपने फरमाया, आप अमीन और अल्लाह के अमीन हैं जिसमें झूट की गुंजाइश नहीं, आप बेहूदा बातों से पाक और रास्त गुफतार हैं।

(4) एक शेर में आप फरमाते हैं, आप वही अल्लाह के रसूल (स.अ.व.व.) हैं जिनका हमें इल्म है और आप ही पर रब्बुल इज़्ज़त की तरफ से कुरान नाज़िल हुआ है।

(5) एक शेर में फरमाते हैं, मुझे यक़ीन है कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) का दीन दुनिया के तमाम दीनों से बेहतर है।

(6) एक शेर में फरमाया, परवर दिगारे आलम अपनी नुसरत से उनको दस्तगीरी करे और इस दीन को जो सरासर हक़ है गलबा दे।

इस्लाम की सदाकत, दीनकी हक़ानियत और आन हज़रत (स.अ.व.व.) की रिसालत के सुबूत में हज़रत अबुतालिब के अशआर इस कसरत से हैं कि इब्ने शहर आशोब माजन्दानी ने मुत्शाबिहात अल्कुरान में सुरह हज की आयत वल्यन्सुरन नहू अल्लाह मन यनसराहु) के ज़ैल में तहरीर फ़रमाया है कि हज़रत अबूतालिब के वह अशआर जो उनके ईमान व तसदीक़े रिसालत पर रौशनी डालते है तीन हजार से ज़्यादा है। इब्ने अबिल हदीद ने आपको मुख़तलिफ अशआर दर्ज करने के बाद तहरीर किया है किः

(यह अशआर तवातुर से नक़ल होते आए हैं, अगर मुताफर्रिक़ तौर पर उनमें तवातिर न भी हो तो मज़मूयी तौर पर बहर हाल मुतावातिर है क्योंकि वह एक ही अमर की निशानदेही करते हैं जो उन सबमें कदरे मुशतरक है और वह क़दरे मुशतरक मुहम्मद (स.अ.व.व.) की सदाकत का एतराफ है।)

जब यह सारी हक़ीक़तें आपताब की तरह रौशन व मुनव्वर हैं तो फिर क्या वजह है कि हज़रत अबुतालिब के मसलये ईमन से इन्कार किया जाता है? क्या इस जुर्म की पादाश में कि उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को पाला पोसा और परवान चढ़ाया? क्या इस गुनाह के एवज़ कि उन्होंने कुफ़्फ़ारे क़ुरैश से उनका तहफ़्फुज़ किया? क्या इस कुसूर पर कि उन्होंने मुशरकीन की साजिशों को नाकाम बनाया? क्या इस ख़ता पर कि उन्होंने जान माल औलाद की कुर्बानी तक से दरेग़ नहीं किया? क्या इस जुर्म पर कि उन्होंने अपने अशआर के जरिये पैग़ामे नबूवत अरब के गोशे गोशे में पहुँचाया? अगर इन तमाम बातों का जवाब नफी में है तो फिर ईमाने अबुतालिब के मुआमले में ताअस्सुब और तंग नज़री क्यों? जबिक आइम्मये अहलेबैत में से किसी एक ने भी जनाबे अबुतालिब के ईमान में शक व शुबहा का इज़हार नहीं किया बल्कि सबके सब उनके ईमान पर मुत्तफिक़ व मुत्ताहिद हैं। इस इत्तेफाक़ व इत्तेहाद को इजतेमा अहलेबैत से ताबीर किया जाता है और यह इजतेमाये ओलमाये इस्लाम के नज़डदीक एक मुस्तनिद माअखिज़, हुज्जत और सनद का दर्जा रखता है चुनानचे अबुल कराम अब्दुल इस्लाम इब्ने मुहम्मद तहरीर फरमाते हैं किः

(आइम्मये अहलेबैत इस अमर पर मुत्ताफ़िक़ हैं कि अबुतालिब मुसलमान मरे और जो बात अहलेबैत के मसलब के ख़िलाफ़ हो, वह इस्लाम मे ग़ैर मोअतबर है)

अल्लामा तबरी रकम तराज है कि- (अबुतालिब के ईमान पर अहलेबैत (अ.स.) का इजतेमा साबित है जो हुज्जत और सनद है।)

हज़रत अली अ.स. का इरशाद है। (अबुतालिब उस वक्त तक मौत से हम किनार नहीं हुए जब तक उन्होंने अपनी तरफ से हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) को राज़ी व खुशनूद नहीं कर लिया।

(ताज्जुब है कि अल्लाह ने रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) को यह हुक्म दिया कि वह किसी मुसलान औरत को काफिर के निकाह में न रहने दें और फात्मा बिन्ते असद जो इस्लाम में सबक़त करने वाली ख़्वातीन में से हैं वह मरते दम तक अबुतालिब की ज़ौजियत में रही।)

इस मुक़ाम पर यह अमर मलहूज़ रहे कि फात्मा बिन्ते असद अवाइले बेअसते में इस्लाम से मुशतरफ हुयीं और बादे इस्लाम दस बरस तक हज़रत अबुतालिब (अ.स.)- की ज़ौजियत में रहीं। अगर उन दोनों में मज़हबी इख़तेलाफ़ात होता तो इसका लाज़मी नतीजा यह था कि उनके दरमियान आये दिन तकरार और मज़हबी निजाअ रहती मगर कोई तारीख़ यह नहीं बताती कि उनमें कोई बाहमी झगड़ा या नज़रयाती टकराओ हुआ हो।

इमामे जाफ़रे सादिक (अ.स.) से एक शख़्स ने कहा कि कुछ लोग यह कहते हैं कि हज़रत अबुतालिब काफिर थे तो आपने फरमाया कि वह लोग झूटें हैं वह तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नबूवत का एतराफ व इक़रार करते हुए कहते हैं किः क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हमने मुहम्मद (स.अ.व.व.) को वैसा ही नबी पाया है जैसे कि मूसा (अ.स.) थे जिनका तज़किरा पहली किताबों में मौजूद है।)

इमामे अली रजा (स.अ.व.व.) अबान इब्ने महमूद को इसके एक मकतूब के जवाब में तहरीर फरमायाः- (अगर तुम अबुतालिब के ईमान का इक़रार नहीं करोगे तो तुम्हारी बाज़गश्त दोज़ख़ की तरफ होगी)

इमामे हसन तारीख़ी शवाहिद व अक़वाले आइम्मा की मौजूदगी में ईमाने अबुतालिब पर कुफ्र के पर्दों का डाला जाना हैरत अंगेज़ व ताज्जुब खेज़ है। मेरा ख़्याल तो यह है कि यह सब कुछ इसलिए किया गया कि आप हज़रत अली (अ.स.) के बाप थे। वरना दुनिया रौशनी और तारीकी का फर्क़ ज़रुर महसूस करती और इस के दीनी ज़ौक़ में में कु्फ्र व ईमान का इम्तेयाज़ी शऊर ज़रुर पैदा होता। अगर रौशनी की शुआयें नज़रों को अपनी तरफ़ मुतावज्जे कर रही हों किसी अँधे इन्सान को चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा नज़र आये तो इसके यह माने हरगिज़ नहीं कि कि नूर या रौशनी का वजूद नहीं है वह तो अपनी जगह एक मुसल्लम हकीक़त है, बस इसी तरह अबुतालिब का ईमान भी एक ताबिन्दा हक़ीक़त है इससे वही शख़्स इन्कार कर सकता है जो सूरज की रौशनी और चाँद की चाँदनी से इन्कार का आदी हो या फिर ताअस्सुब की वजह से अँधा हो)

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