नबीऐ अकरम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.)

नबी अकरम व अहलेबैत
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 (चौदह सितारे)

लेखकः नजमुल हसन कर्रारवी

 

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के मुख़्तसर ख़ानदानी हालात

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) हज़रत इब्राहीम (स.अ.) की नस्ल से थे। हज़रत इब्राहीम अहवाज़, बाबुल या ईराक़ के एक क़रये कोसा में तूफ़ाने नूह से 1081 साल बाद पैदा हुए। जब आपकी उम्र 86 साल की हुई तो आपके यहां जनाबे हाजरा से हज़रे इस्माईल पैदा हुए और 90 साल की उम्रें जनाबे सारा से हज़रते इस्हाक़ पैदा हुए। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने दोनों बीवीयों को एक जगह रखना मुनासिब न समझ कर सारा को मैय इस्हाक़ शाम में छोड़ा और हाजरा को इस्माईल के साथ हिजाज़ के शहर मक्का में ख़ुदा के हुक्म से पहुँचा आये। इस्हाक़ (अ.स.) की शादी शाम में और इस्माईल (अ.स.) की मक्का में क़बीलाए जुरहुम की एक लड़की से हुई। इस तरह इस्हाक़ (अ.स.) की नस्ल शाम में और इस्माईल (अ.स.) की नस्ल मक्का में बढ़ी। जब हज़रते इब्राहीम (अ.स.) की उम्र 100 साल की हुई और जनाबे हाजरा का इन्तेक़ाल भी हो गया तो आप मक्का तशरीफ़ लाये और इस्माईल (अ.स.) की मदद से ख़ाना ए काबा की तामीर की। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि यह तामीर हिजरते नबवी से 2793 साल पहले हुई थी। उन्होंने एक ख़्वाब के हवाले से बहुक्मे ख़ुदा अपने बेटे (इस्माईल) को ज़िबह करना चाहा था जिसके बदले में ख़ुदा ने दुम्बा (भेड़) भेज कर फ़रमाया कि तुम ने अपना ख़्वाब सच कर दिखाया। इब्राहीम सुनो ! हम ने तुम्हारे फ़िदये (इस्माईल) को ज़बहे अज़ीम इमामे हुसैन (अ.स.) से बदल दिया है। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि यह वाक़िया हज़रत आदम (अ.स.) के दुनिया में आने के 3435 साल बाद का है। इसके बाद चन्द बातों में आपका इम्तेहान लिया गया जिसमें कामयाबी के बाद आपको दरजाए इमामत पर फ़ाएज़ किया गया। आपने ख़्वाहिश की कि यह ओहदा मेरी नस्ल से मुस्तक़र कर दिया जाय। इरशाद हुआ बेहतर है लेकिन तुम्हारी नस्ल में जो ज़ालिम होंगे वह इस्से महरूम रहेंगे। आपका लक़ब ख़लील अल्लाह था और आप उलुल अज़्म पैग़म्बर थे। आप साहबे शरीयत थे और ख़ुदा की बारगाह में आपका यह दरजा था कि ख़ातेमुल अम्बिया (स.अ.) को आपकी शरीयत के बाक़ी रखते का हुक्म दिया गया। आपने 175 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया और मक़ामे कु़द्स (ख़लील अर रहमान) में दफ़्न किये गये। वफ़ात से पहले आप ने अपना जानशीद हज़रते इस्माईल (अ.स.) को क़रार दिया। अंग्रेज़ इतिहासकारों का कहना है कि हज़रते इस्माईल का जन्म जनाबे मसीह से 1911 साल पहले हुआ था।

हज़रत इस्माईल (अ.स.) के यह ख़ास इमतेआज़ात हैं कि उन्हीं कि वजह से मक्का आबाद हुआ। चाह ज़मज़म बरामद हुआ। हज्जे काबा की इबादत की शुरूआत हुई। 10 ज़िलहिज को ईदे क़ुरबान की सुन्नत जारी हुई। आप का इन्तेक़ाल 137 साल की आयु में हुआ और आप हिजरे इस्माईल मक्का के क़रीब दफ़्न हुए। आपने बारह बेटे छोड़े। आपकी वफ़ात के बाद ख़ाना ए काबा की निगरानी व दीगर खि़दमात आपके पुत्र ही करते रहे। इनके पुत्रों में क़ेदार को विशेष हैसियत हासिल थी ग़रज़ कि अवलादे हज़रत इस्माईल (अ.स.) मक्का मोअज़्ज़ाम में बढ़ती और नशोनुमा पाती रही यहां तक कि तीसरी सदी में एक शख़्स फ़हर नामी पैदा हुआ जो इन्तेहाई बा कमाल था। इस फ़हर की नस्ल से पैग़म्बरे इस्लाम पैदा हुए। अल्लामा तरीही का कहना है कि इसी फ़हर या इसके दादा नज़र बिन कनाना को क़ुरैश कहा जाता है क्यांे कि बहरिल हिन्द से उसने एक बहुत बड़ी मछली शिकार की थी जिसको क़ुरैश कहा जाता था और उसे ला कर मक्का मे रख दिया था जिसे लोग देखने के लिये दूर दूर से आते थे। लफ़्ज़े फ़हर इब्रानी है और इसके मानी पत्थर के हैं और क़ुरैश के मानी क़दीम अरबी में सौदागर के हैं।

 

क़ुसई

पांचवीं सदी इसवी में एक बुज़ुर्ग फ़हर की नस्ल से गुज़रे हैं जिनका नाम क़ुसई था। शिबली नोमानी का कहना है कि उन्हीं क़ुसई को क़ुरैश कहते हैं लेकिन मेरे नज़दीक़ ये ग़लत है क़ुसई का असली नाम ज़ैद और कुन्नियत अबुल मुग़ैरा थी। उनके बाप का नाम कलाब और मां का नाम फातेमा बिन्ते असद और बीबी का नाम आतका बिन्दे ख़ालिख़ बिन लैक था। यह निहायत ही नामवर, बुलन्द हौसला, जवां मर्द, अज़ीमुश्शान बुज़ुर्ग थे। उन्होंने ज़बरदस्त इज़्ज़त व इख़तेदार हासिल किया था यह नेक चलन बा मुरव्वत, सख़ी व दिलेर थे। इनके विचार पवित्र और बेलौस थे। इनके एख़लाक़ बुलन्द, शाइस्ता और मोहज़्ज़ब थे। इनकी एक बीबी हबी बिन्ते ख़लील ख़ेज़ाईं थीं। यह ख़लील बनु ख़ज़आ का सरदार था। इसने मरने के समय ख़ाना ए काबा की तौलीयत हबी के हवाले कर देना चाही, इसने अपनी कमज़ोरी के हवाले से इन्कार कर दिया फिर उसने अपने एक रिश्तेदार अबू ग़बशान ख़ेज़ाई के सुपुर्द की। उसने इस अहम खि़दमत को क़ुसई के हाथो बेच दिया। इस तरह क़ुसई इब्ने क़लाब इस अज़ीम शरफ़ के भी मालिक बन गए। उन्होंने ख़ाना ए काबा की मरम्मत कराई और बरामदा बनवाया। रिफ़ाहे आम के सिलसिले में अनगिनत खि़दमते कीं। मक्का में कुवां खुदवाया जिसका नाम अजूल था। क़ुसई का देहान्त 4800 में हुआ। मरने के बाद उन्हें मुक़ामे हजून में दफ़्न किया गया और उनकी क़ब्र ज़्यारत गाह बन गई। क़ुसई अगरचे नबी या इमाम न थे लेकिन हामिले नूरे मोहम्मदी (स.अ.) थे। यही वजह है कि आसमाने फ़ज़ीलत के आफ़ताब बन गये।

 

अब्दे मनाफ़

क़ुसई के छः बेटे थे जिन में अब्दुलदार सब से बड़ा और अब्दुल मुनाफ़ सब से लाएक़ था। उन्होंने मरते समय बड़े बेटे को तमाम मनासिब सिपुर्द किये लेकिन अब्दे मनाफ़ ने अपनी लेआक़त की वजह से सब में शिरकत हासिल कर ली। यह क़ुरैश के मुस्सलेमुससबूत सरदार बन गये। अब्दे मनाफ़ का असली नाम मुग़ैरा और कुन्नियत अबू अब्दे शम्स थी और माँ का नाम हबी बिन्ते ख़लील था। उन्होंने आमका बिन्ते मरह सलेमह बिन हलाल से शादी की। उन्हें हुसनों जमाल की वजह से क़मर कहा जाता था।  दियारे बकरी का कहना है कि अब्दे मनाफ़ को मुग़ैरा कहते थे। वह तक़वा व सिलाए रहम की तलक़ीन किया करते थे। बाप और बेटे एक ही अक़ीदे पर थे और उन्होंने कभी बुत परस्ती नहीं की। यह भी अपने बाप क़ुसई की तरह मनाक़िब बेहद और फ़ज़ाएले बेशुमार के मालिक और नूरे मोहम्मदी के हामिल थे। उन्होंने मुल्के शाम के मक़ाम ग़ज़वे में इन्तेक़ाल किया।

अब्दे मनाफ़ के जीते जी तो कोई झगड़ा डठा नहीं इनके बाद उनकी अवलाद जिनमें हाशिम, मुत्तलिब अब्दे शम्स और नौफ़िल नुमाया हैसियत रखते थे उन्में यह जज़बा उभर पड़ा कि अब्दुलदार की औलाद से वह मनासिब ले लेने चाहिये जिनके वह अहल नहीं चुनान्चे इन लोगों ने बनी अब्दुलदार से मनासिब की वापसी या तकसीम का सवाल किया उन्होने इन्कार कर दिया। इसके बाद जंग का मैदान हमवार हो गया। बिल आख़िर इस बात पर सुलह हो गई कि रेफ़ायदा सक़ाया की क़यादत बनी अब्दे मुनाफ़ में है और लवा बरदारी का मनसब बनी अब्दुलदार के पास रहे और दारूल नदवा की सदारत मुश्तरका हो।

 

हाशिम

आप का नाम अम्र कुन्नियत अबू नाफ़ला थी। आपके वालिद अब्दे मनाफ़ और वालेदा आतका बिनते मरह अल सलमिया थी। आपको उलू मरतबा की वजह से अम्र अलअला भी कहते थे। आप और अब्दुल शम्स दोनों इस तरह जुडवाँ पैदा हुए थे के इनके पाँव का पन्जा अब्दुल शम्स की पेशानी से चिपका हुआ था जिसे तलवार के ज़रिये अलाहेदा किया गया और बेइन्तेहा ख़ून बहा जिस की ताबीर नुजूमियों ने बाहमी खूंरेज़ जंग से की जो बिल्कुल सही उतरी और दोनो ख़ानदानों के दरमियान हमेशा जंग मुतावरिस रही। जिसका एख़तेताम 133 हिजरी में हुआ । बनी अब्बास (हाशमी) और बनी उमय्या (शम्सी) में ऐसी ख़ूंरेज़ जंग हुई जिसने बनी उमय्या की क़ुव्वत व ताक़त और बुलन्दीए इक़बाल का चिराग़ हमेशा के लिये गुल कर दिया। आप फ़ितरतन सैर चश्म और फ़य्याज़ थे। दौलत मन्दी में भी बड़ी हैसियत के मालिक थे हुजाज की खि़दमत आप की ज़िन्दगी का कारनामा था। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आप को हाशिम इस लिये कहते हैं कि आपने एक शदीद क़हत के मौक़े पर अपनी ज़ाती दौलत से शाम जा कर बहुत काफ़ी केक ख़रीदे थे और उसे ला कर तक़सीम करते हुए कहा कि इसे शोरबा में तोड़ कर खा जाओ। हाशिम के मानी तोड़ने के हैं लेहाज़ा हाशिम कहे जाने लगे। आप ने अपनी शादी अपने ख़ानदान की एक लड़की से की जिससे हज़रत असद पैदा हुए। दूसरी शादी ख़ज़रजियों के एक मश्हूर क़बीले बनी अदी इब्ने नजार यसरब (मदीना) की नजीबुत तरफ़ैन दुख़्तर से की। उसी के बतन से एक बा वेक़ार लड़का पैदा हुआ जो आगे चल कर अब्दुल मुत्तलिब शेबत उल हम्द से पुकारा गया। अब्दुल मुत्तलिब अभी दूध ही पीते थे कि जनाबे हाशिम का इन्तेक़ाल हो गया। आपकी औलाद के मुतअल्लिक़ हज़रत जिबराईल का कहना है कि मैंने मशरिक़ो मग़रिब को छान कर देखा है कि मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) से बेहतर कोई नहीं है और बनी हाशिम से बेहतर कोई ख़ानदान नहीं है। जनाबे हाशिम ने 5100 में बामक़ाम ग़ज़वाए शाम में इन्तेक़ाल फ़रमाया।

 

जनाबे असद

आप हज़रते हाशिम के बड़े बेटे थे, आपकी विलादत 4970 से क़ब्ल हुई थी। आप में इन्सानी हमदर्दी बहद्दे कमाल पहुँची हुई थी। फ़ख़रूद्दीन राज़ी का बयान है कि जनाबे असद ने एक दिन एक दोस्त को सख़्त भूखा पा कर (जो बनी खज़दम से था) अपनी वालेदा से कहा कि इसके लिये खाने का बन्दोबस्त करो, उन्होंने पनीर और आटा वग़ैरा काफ़ी मिक़दार में इसके घर भिजवा कर उसे सुकून बख़्शा फिर इस वा़के़ए से मुताअस्सिर हो कर जनाबे हाशिम ने अहले मक्का को जमा किया और इनमें तिजारत का जज़बा व शौक़ पैदा किया। असद के मानी शेर के हैं। इब्ने ख़ालविया का यह कहना है कि शेर के पांच सौ नाम हैं जिनमें एक असद भी है। शेर भूख और प्यास पर साबिर होता है। अल्लामा तरीही का कहना है कि शेर की अवलाद कम होती है शायद यही वजह थी कि हज़रते असद के अवलाद कम थी बल्कि अवलादे ज़कूर मफ़क़ूद और ग़ालेबन सिर्फ़ फातेमा बिन्ते असद ही थीं जो बाद में हज़रत अली (अ.स.) वालेदा गिरामी क़रार पायीं।

 

जनाबे अब्दुल मुत्तलिब

आप हज़रत हाशिम के नेहायत जलीलउल क़द्र साहबज़ादे थे। 4970 में पैदा हुए वालिद का इन्तेक़ाल बचपने में ही हो चुका था। परवरिश के फ़राएज़ आपके चचा मुत्तलिब के कनारे आतफ़त में अदा हुए और ख़ुश क़िस्मती से आखि़र में अरब के सब से बड़े सरदार क़रार पाए। आपके वालिद ही की तरह आपकी वालेदा भी (जिनका नाम सलमा था) शराफ़त व अज़मत में इन्तेहाई बुलन्दी की मालिक थीं। इब्ने हाशिम का कहना है कि वह वेक़ारे ख़ानदानी की वजह से अपने निकाह को इस शर्त से मशरूत करती थीं कि तौलीद के मौक़े पर अपने मैके में रहूगीं। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब का एक नाम शेबातुल हम्द भी था क्यों कि आप की विलादत के वक़्त आपके सर पर सफ़ेद बाल थे और शेब सफ़ेद सर को कहते हैं। हम्द से उसे मुज़ाफ़ इस लिये किया कि आगे चल कर बे इन्तेहा मम्दूह होने की इनमें अलामतें देखी जा रही थीं। आप सिने शऊर तक पहुँचते ही जनाबे हाशिम की तरह नामवर और मशहूर हो गये। आपने अपने आबाओ अजदाद की तरह अपने ऊपर शराब हराम कर रखी थी और ग़ारे हिरा में बैठ कर इबादत करते थे। आपका दस्तर ख़्वान इतना वसी था कि इन्सानों के अलावा परिन्दों को भी खाना खिलाया जाता था। मुसीबत ज़दों की इमदाद और अपाहिजों की ख़बर गीरी इनका ख़ास शेवा था। आप ने बाज़ ऐसे तरीक़े राएज किये जो बाद में मज़हबी नुक़ताए नज़र से इन्सानी ज़िन्दगी के उसूल बन गये। मसलत इफ़ाए नज़र निकाह मेहरम से इजतेनाब, दुख़्तर कशी की मुमानियत ख़मरो ज़िना की हुरमत और क़ितए यदे सारिक़ के अब्दुल मुत्तलिब का यह अज़ीम कारनामा है कि उन्होंने चाहे ज़मज़म को जो मरूर ज़माने से बन्द हो चुका था फिर ख़ुदवा कर जारी किया।

आपके अहद का एक अहम वाक़ेया काबा ए मोअज़्ज़मा पर लश्कर कशी है। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि अबरहातुल अशरम का ईसाई बादशाह था। उसमें मज़हबी ताअस्सुब बेहद था। ख़ाना ए काबा की अज़मत व हुरमत देख कर आतिशे हसद से भड़क उठा और इसके वेक़ार को घटाने के लिये मक़ामे सनआ में एक अज़ीमुश्शान गिरजा बनवाया। मगर इसकी लोगों की नज़र में ख़ाना ए काबा वाली अज़मत न पैदा हो सकी तो इसने काबे को ढाने का फ़ैसला किया और असवद बिन मक़सूद हबशी की ज़ेरे सर करदगी में एक अज़ीम लशकर मक्के की तरफ़ रवाना कर दिया। क़ुरैश, कनाना, ख़ज़ाआ और हज़ील पहले तो लड़ने के लिये तैय्यार हुए लेकिन लशकर की कसरत देख कर हिम्मत हार बैठे और मक्के की पहाड़ियो में अहलो अयाल समेत जा छिपे। अल बत्ता अब्दुल मुत्तलिब अपने चन्द साथियों समेत ख़ाना ए काबा के दरवाज़े में जा खडे़ हुए और कहा ! मालिक यह तेरा घर है और सिर्फ़ तू ही बचाने वाला है। इसी दौरान में लशकर के सरदार ने मक्के वालों के खेत से मवेशी पकड़े जिनमें अब्दुल मुत्तलिब के 200 ऊँट भी थे। अलग़रज़ अबराहा ने हनाते हमीरी को मक्के वालों के पास भेजा और कहा के हम तुम से लड़ने नहीं आये हमारा इरादा सिर्फ़ काबा ढाने का है। अब्दुल मुत्तलिब ने पैग़ाम का जवाब यह दिया कि हमें भी लड़ने से कोई ग़रज़ नहीं और इसके बाद अब्दुल मुत्तलिब ने अबराहा से मिलने की दरख़्वास्त की। उसने इजाज़त दी यह दाखि़ले दरबार हुए। अबराहा ने पुर तपाक ख़ैर मक़दम किया और इनके हमराह तख़्त से उतर कर फ़र्श पर बैठा। अब्दुल मुत्तलिब ने दौनाने गुफ्तुगू में अपने ऊँटों की रेहाई और वापसी का सवाल किया। उसने कहा तुम ने अपने आबाई मकान काबे के लिये कुछ नहीं कहा। उन्होंने जवाब दिया अना रब्बिल अब्ल वलिल बैत रब्बुन समीनाह मैं ऊँटों का मालिक हूँ अपने ऊँट मांगता हूँ जो काबे का मालिक है अपने घर को ख़ुद बचाऐगा। अब्दुल मुत्तलिब के ऊँट उन को मिल गये और वह वापस आ गये और क़ुरैश को पहाड़ियों पर भेज कर ख़ुद वहीं ठहर गये। ग़रज़ कि अबराहा अजी़मुश्शान लश्कर ले कर ख़ाना ए काबा की तरफ़ बढ़ा और जब इसकी दीवारे नज़र आने लगीं तो धावा बोल देने का हुक्म दिया। ख़ुदा का करना देखिए कि जैसे ही ग़ुस्ताख़ व बेबाक लशकर ने क़दम बढ़ाया मक्के के ग़रबी सिमत से ख़ुदा वन्दे आलम का हवाई लशकर अबा बील की सूरत में नमूदार हुआ। इन परिन्दों की चांेच और पन्जांे में एक एक कंकरी थी। उन्होंने यह कंकरियां अबराहा के लशकर पर बरसाना शुरू कीं। छोटी छोटी कंकरयों ने बड़ी बड़ी गोलियों का काम कर के सारे लशकर का काम तमाम कर दिया। अबराहा जो महमूद नामी सुखऱ् हाथी पर सवार था ज़ख़्मी हो कर यमन की तरफ़ भागा लेकिन रास्ते ही में वासिले जहन्नम हो गया। यह वाक़ेया 5700 का है।

1.सना यमन का दारूल हुकूमत है। उसे क़दीम ज़माने में उज़ाली भी कहते थे। तमाम अरब में सब से उम्दा और ख़ूब सूरत शहर है। अदन से 260 मील के फ़ासले पर एक ज़रख़ेज़ वादी में वाक़े है इसकी आबो हवा मोतादिल और ख़ुश गवार है। इसके जुनूब मशरिक़ में तीन दिन की मसाफ़त पर शहर क़रीब है जिसको सबा भी कहते हैं सना के शुमाल मग़रिब में 60 फ़रसख़ पर सुरह है यहां का चमड़ा दूर दराज़ मुल्कों में तिजारत को जाता है। सना के मग़रिब में बहरे कुल्जुम से एक मन्ज़िल की मसाफ़त पर शहर ज़ुबैद वाक़े है जहां से तिजारत के वास्ते कहवा अतराफ़ में जाता है। ज़ुबैद से 4 मन्ज़िल और सना से 6 मन्ज़िल पर बैतुल फ़क़ीह वाक़े है। ज़ुबैद के शुमाल मशरिक़ में शहर मोहजिम है सना से 6 मन्ज़िल के फ़ासले पर ज़ुबैद के जुनूब में क़िला ए तज़ है। सना के शुमाल में 10 मन्ज़िल की मुसाफ़त पर नज़रान है।

चूकि अबराहा हाथी पर सवार था और अरबों ने इस से पहले हाथी न देखा था नीज़ इस लिये कि बड़े बड़े हाथियों को छोटे छोटे परिन्दों की नन्हीं नन्हीं कंकरियों से बा हुक्मे ख़ुदा तबाह कर के ख़ुदा के घर को बचा लिया इस लिये इस वाक़ये को हाथी की तरफ़ से मन्सूब किया गया और इसी से सने आमूल फ़ील कहा गया। मेंहदी का खि़जा़ब अब्दुल मुत्तलिब ने ईजाद किया है। इब्ने नदीम का कहना है कि आपके हाथ का लिखा हुआ एक ख़त मामून रशीद के कुतुब ख़ाने में मौजूद था। अल्लामा मजलिसी और मौलवी शिब्ली का कहना है कि आपने 82 साल की उम्र में वफ़ात पाई और मक़ामे हुज़ून में दफ़्न हुए। मेरे नज़दीक आपका सने वफ़ात 578 ईसवी है।

 

जनाबे अब्दुल्लाह

आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के बेटे थे। कुन्नियत अबू अहमद थी आपकी वालिदा का नाम फातेमा था जो उमरे बिन साएद बिन उमर बिन मख़्जूम की साहब ज़ादी थी। आपके कई भाई थे जिनमें अबू तालिब को बड़ी अहमियत थी। जनाबे अब्दुल्लाह ही वह अज़ीमुल मर्तबत बुर्ज़ुग हैं जिनको हमारे नबीए करीम के वालिद होने का शरफ़ हासिल हुआ। आप नेहायत मतीन, संजीदा और शरीफ़ तबीयत के इन्सान थे और न सिर्फ़ जलालते निसबत बल्कि मुकारिमें इख़्लाक़ की वजह से तमाम जवानाने क़ुरैश में इम्तियाज़ की नज़रों से देखे जाते थे। मुहासिने आमल और शुमाएले मतबू में फ़र्द थे। हरकात मौजू और लुत्फ़े गुफ़तार में अपना नज़ीर न रखते थे। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब आपको सब से ज़्यादा चाहते थे। एक दफ़ा ज़िक्र है कि अब्दुल मुत्तलिब ने यह नज़र मानी कि अगर ख़ुदा ने मुझे दस बेटे दिये तो मैं इन में से एक राहे ख़ुदा में क़ुर्बान कर दूंगा, और इसकी तकमील में अब्दुल्लाह को ज़ब्ह करने चले तो लोेगों ने पकड़ लिया और कहा कि आप क़ुरबानी के लिये क़ुरा डालें। चुनान्चे बार बार अब्दुल्लाह के ज़ब्ह पर ही क़ुरा निकलता रहा। अब्दुल मुत्तलिब ने सख़्त इसरार के साथ उन्हें ज़ब्ह करना चाहा लेकिन ऊँटों की तादाद बढ़ा कर क़ुरे के लिये सौ तक ले गये बिल आखि़र तीन बार अब्दुल्लाह के मुक़ाबले में सौ ऊँटों पर क़ुरा निकला और अब्दुल्लाह ज़ब्ह से बच गये। उसके बाद आपकी शादी क़बीलाए ज़हरा में वहाब इब्ने अब्दे मनाफ़ की साहब ज़ादी (आमिना) से हो गयी।। शादी के वक़्त जनाबे अब्दुल्लाह की उम्र तक़रीबन 18 साल की थी। आप ने 28 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आप मक्के से बा सिलसिलाए तिजारत मदीना तशरीफ़ ले गये थे वहीं आप का इन्तेक़ाल हो गया और आप मक़ामे अब्वा में दफ़्न किये गये। आपने तरके में ऊँट, बकरियां और एक लौंड़ी छोड़ी जिसका नाम (बरकत) और उर्फ़ उम्मे ऐमन था।

 

हज़रत अबुतालिब

आप हज़रते हाशिम के पोते, अब्दुल मुत्तलिब के बेटे और जनाबे अब्दुल्लाह के सगे भाई थे। आपका असली नाम इमरान था कुन्नियत अबू तालिब थी। आपकी मादरे गेरामी फातेमा बिन्ते अम्र मख़जूमी थीं। शम्सुल उलेमा नज़ीर अहमद का कहना है कि आप अब्दुल मुत्तलिब के अवलादे ज़कूर में सब से ज़्यादा बवक़ार और अक़्ल मन्द थे। अब्दुल मुत्तलिब के बाद पै़ग़म्बरे इस्लाम की परवरिश आपने शुरू की और ता हयात उनकी नुसरत व हिमायत करते रहे। मोल्वी शिब्ली का कहना है कि अबू तालिब का यह तरीक़ा ता जी़स्त रहा कि आं हज़रत (स.अ.) को अपने साथ सुलाते थे और जहां जाते थे साथ ले जाते थे। कुफ़्फ़ारे क़ुरैश और अशरार यहूद से आपने आं हज़रत की हिफ़ाज़त की और उन्हें किसी क़िस्म का ग़ज़न्द नहीं पहुँचने दिया। मुवर्रिख़ इब्ने कसीर का कहना है कि सफ़रे शाम के मौक़े पर एक राहिब की नज़र आप पर पड़ी। उसने इन में बुर्ज़ुगी के आसार देखे और अबु तालिब से कहा कि उन्हें जल्द वापस वतन ले जाओ नहीं तो यहूद इन्हें क़त्ल कर डालेगें। अबू तालिब ने अपना सारा सामाने तिजारत बेच कर के वतन की राह ली। मुवर्रिख़ दयारे बकरी का कहना है कि हज़रत मोहम्मद (स.अ.) जनाबे अबू तालिब की तहरीक से जनाबे ख़दीजा का माल बेचने के लिये शाम की तरफ़ ले जाया करते थे। कुछ दिनों मे ख़दीजा ने शादी की ख़्वाहिश की और निसबत ठहर गयी। जनाबे अबू तालिब ने आं हज़रत (स.अ.) की तरफ़ से ख़ुत्बा ए निकाह पढ़ा अबू तालिब के ख़ुत्बे की शुरूआत इन लफ़्ज़ों मे है। (अल्हम्दो लिल्लाहिल लज़ी जाअल्ना मिन ज़ुर्रियते इब्राहीम) तमाम तारीफ़ें उस ख़ुदा के लिये हैं जिसने हमें ज़ुर्रियते इब्राहीम में क़रार दिया।

चार सौ दीनार सुख्र पर अक़्द हुआ। अक़्द निकाह के बाद हज़रत अबू तालिब बहुत ही ख़ुश हुए। अल्लामा तरही का बा हवाला ए इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) कहना है कि अबू तालिब ईमान के ताहफ़्फ़ुज़ हैं असहाबे क़हफ़ के मानिन्द थे। शमशुल उलमा नज़ीर अहमद का कहना है कि अब्दुल मुत्तलिब और अबू तालिब दीने फ़ितरत को मज़बूती से पकड़े हुए थे। अल्लामा सेवती का कहना है कि अन अबल नबी लम यकुन फ़ीहुम मुशरिक आँ हज़रत (स.अ.) के आबाव अजदाद मे एक शख़्स भी मुशरिक नहीं था। क़ुरआन मजीद में है कि ऐ नबी हम ने तुम को सजदा करने वालों की पुशत में रखा। अबू तालिब के मुताअल्लिक़ शमशुल उलमा नज़ीर अहमद का कहना है कि वह दिल से पैग़म्बर को सच्चा पैग़म्बर और इस्लाम को ख़ुदाई दीन समझते थे। शमशुल उलमा शिब्ली का कहना है कि अबू तालिब मरते वक़्त भी कलमा पढ़ते रहे थे लेकिन बुख़ारी की एक ऐसी मुरसिल रवायत की बिना पर जिसमे मुसय्यब शामिल हैं उन्हें ग़ैर मुस्लिम कहा जाता है। जो क़ाबिले सेहत लाएक़े तसलीम नहीं है। ग़रज़ कि आपके मोमिन और मुसलमान होने पर मुन्सिफ़ मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। अबू तालिब के दो शेर क़ाबिले मुलाहेज़ा हैं।

वदअवतनी व अलमत अनका सदिक़

वलाक़द सदाक़त फ़कनत क़ब्ले अमीना

वलक़द अलमत बाने, दीने मोहम्मद

मन ख़ैरा अदयाने अल बरीहे देना

 

तरजुमा ऐ मोहम्मद (स.अ.) ! तुम ने मुझे इस्लाम की तरफ़ दावत दी और मैं ख़ूब जानता हूँ कि तुम यक़ीनन सच्चे हो क्यों कि तुम इस अहदे नबूवत के इज़हार से क़ब्ल भी लोगों की नज़र में सच्चे रहे हो। मैं अच्छी तरह जाने हुए हूँ कि ऐ मोहम्मद ! तुम्हारा दीन दुनियां के तमाम अदयान से बेहतर है। आपकी बीबी फातेमा बिन्ते असद थीं जो सन् 1 बेसत में ईमान लाईं और 4 हिजरी में बा मुक़ाम मदीना ए मुनव्वरा इन्तेक़ाल फ़रमा गईं और ख़ुद आप का इन्तेक़ाल 85 साल की उम्र में शव्वाल 10 बेसत में हुआ। आपके इन्तेक़ाल के साल को रसूल अल्लाह (स.अ.) ने आमुल हुज़्न से मौसूम कर दिया था।

 

जनाबे अब्बास

आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के चचा थे। आपकी वालेदा फ़तीला थीं। आप रसूले ख़ुदा (स.अ.) से 2 या 3 साल बड़े थे। आपका क़द तवील और बदन ख़ूब सूरत था। आप हिजरत से क़ब्ल इस्लाम लाए थे। आप बड़े साएबुल राय थे। आपने फ़तहे मक्का और ग़ज़वा हुनैन में शिरकत की थी। आप के 10 बेटे और कई बेटियां थीं। आखि़र उम्र में नाबीना हो गये थे। आपने 77 साल की उम्र में बा तारीख़ 12 रजब 32 हिजरी बा मुक़ाम मदीनाए मुनव्वरा में इन्तेक़ाल फ़रमाया और जन्नतुल बक़ी में दफ़न किये गये। आपका मक़बरा खोद डाला गया है लेकिन निशाने क़ब्र अभी भी बाक़ी है। ओअल्लिफ़ ने 19720 में बा मौक़ा हज उसे देखा है।

जनाबे हमज़ा

आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के साहब ज़ादे और आँ हज़रत (स.अ.) के चचा थे। आपकी वालदा का नाम हाला बिन्ते वाहब था जो कि जनाबे आमेना की चचा जा़द बहन थीं। आपने बेसत के छटे साल इस्लाम क़ुबूल किया था। आपने जंगे बद्र में शिरकत की थी और बड़े कारहाय नुमाया किये थे। आप जंगे ओहद में भी शरीक हुए और ज़बर दस्त नबरद आज़माई की। 31 काफ़िरों को क़त्ल करने के बाद आपका पांव फ़िसला और आप ज़मीन पर गिर पड़े। जिसकी वजह से पुश्त से ज़िरह हट गई और मौक़ा पर एक वैहशी नामी हब्शी ने तीर मार दिया और आप दिन बल्कि इसी वक़्त बा तरीख़ 5 शव्वाल 3 हिजरी शहीद हो गये। काफ़िरों ने आप को क़त्ल कर डाला और अमीरे माविया की माँ हिन्दा ने आपका जिगर निकाल कर चबा डाला। इसी लिये अमीरे माविया को अक़ल्लुत अक़बाद कहते हैं। आपकी उम्र 57 साल की थी नमाज़े जनाज़ा रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने पढ़ाई थी। तारीख़ का मशहूर वाक़िया है कि 40 हिजरी में जब अमीरे माविया ने नहर खुदवाई तो शोहदा ए ओहद की क़ब्रे खोदी गईं और इसी सिलसिले में एक तैश (बेलचा) जनाबे हमज़ा के पैर पर लगा जिससे ख़ूने ताज़ा जारी हो गया था।

हज़रत अबू तालिब के बेटे

इब्ने क़तीबा का कहना है कि हज़रत अबू तालिब के चार बेटे थे 1. तालिब, 2. अक़ील, 3. जाफ़र, 4. हज़रत अली (अ.स.) इनमें छोटाई बडा़ई दस साल की थी। दयारे बकरी का कहना है कि दो बहने भी थीं उम्मे हानी और जमाना। तालिब ने जंगे बद्र में मुसलमानों से न लड़ने के लिये अपने को समुन्द्र में गिरा कर डुबा दिया उनकी कोई औलाद नहीं थी। अक़ील आप 590 हिजरी में पैदा हुए थे। आपकी कुन्नियत अबू यज़ीद थी। हुदैबिया के मौक़े पर इस्लाम ज़ाहिर किया और आठ हिजरी में मदीना आ गये आपने जंगे मौतह में भी शिरकत की थी। आप ज़बर दस्त नस्साब थे। आप में अदाए क़रज़ के लिये माविया से मुलाक़ात की थी और बा रवाएते इब्ने क़तीबा तीन लाख अशरफ़ियां हासिल कर ली थीं। आप बड़े हाज़िर जवाब थे। आखि़री उम्र में आप ना बीना हो गये थें आप ने 96 साल की उम्र में 5 हिजरी मुताबिक़ 6700 में इन्तेक़ाल किया। जाफ़र आप सूरतो सीरत में रसूल अल्लाह (स.अ.) से बहुत मुशाबेह थे आपने शुरू ही में ईमान जा़िहर किया था। आपने हिजरत हबशा और हिजरते मदीना दोनों में शिरकत की थी। आपको जमादिल अव्वल 8 हिजरी में जंगें मौता के लियेय भेजा गया। आपने अलम ले कर ज़बर दस्त जंग की। आप के दोनों हाथ कट गये। अलम दांतों से संभाला बिल आखि़र शहीद हो गये। आपके लिये आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया है कि उन्हें इनके हाथों के एवज़ ख़ुदा ने जन्नत में ज़मुरदैन पर अता फ़रमाए हैं और आप फ़रिश्तों के साथ उड़ा करते हैं। आपके शहीद होते ही पैग़म्बरे इस्लाम और फातेमा ज़हरा (स.अ.) असमा बिन्ते उमैस के पास अदाए ताज़ियत के लिये गये। आपने हुक्म दिया की जाफ़र के घर खाना भेजो। आपने 41 साल की उम्र में शहादत पाई। आपके जिस्म पर 90 जख़्म थे। आप ने आठ बेटे छोड़े। जिनकी माँ असमा बिन्ते उमैस थीं। यही अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र ज़्यादा नुमाया थे। यही अब्दुल्लाह हज़रत जै़नब के और मोहम्मद हज़रत उम्मे कुलसूम बिन्ते फातेमा (स.अ.) के शौहर थे। 4. हज़रत अली (अ. स.) थे।

 

 

 


 

पैग़म्बरे इस्लाम अबुल क़ासिम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.)

दो टुकड़े एक इशारे में जिसके क़मर हुआ।

जिस दर पा झुक गई है जबीं आफ़ताब की।।

तफ़सीर उसकी ज़ुल्फ़ है वल लैल की निदा।

क्या शान है, जनाबे रिसालत मआब की।।

निदा कलकत्तवी (पेशावर)

 

ऐ नूर के पुतले तुझे क्या ख़ाक से नसबतं

एहसान तेरा है जो ज़मी पर उतर आया।।

 

ख़ल्लाक़े आालम ने अपने बन्दों की रहबरी और रहमानी के लिये एक लाख चैबीस हज़ार हादी भेजे जिनमें 313 रसूल बाक़ी नबी थे रसूल में पांच उलुल अज़्म थे इन अम्बिया व रसूल पर ईमान ज़रूरी है। उन्हें मासूम मन्सूस आलिमे इल्मे लदुन्नी और अफ़ज़ले कायनात क़रार दिया गया था। यह न सिर्फ़ बतने मादर बल्कि बदवे फ़ितरत में ही नबी बनाए गये थे जिन्हें ख़ल्लाक़े आलम ने अपने नूरे अज़मत व जलाल से पैदा किया था। वह नूरी थे इनके जिस्म का साया न था।

ख़ालिके कायनात ने इनकी नबूवत व रिसालत को दवाम दे कर इस सिलसिले को ख़त्म कर दिया लेकिन चूंकि सिलसिला तख़लीक़ का जारी रहना मुसल्लम था ज़रूरते तबलीग़ की बक़ा लाज़मी थी लेहाज़ा दाना व बीना ख़ुदा ने अपने अज़ली फ़ैसले के मुताबिक़ बाबे नबूवत इमामत का लाअब्दी दरवाज़ा खोल दिया और बारह इमामों के इन असमा की बज़बाने रसूल वज़ाहत करा दी लौहे महफ़ूज़ में लिखे हुए थे। यह नूरी मख्लूक़ भी साय से बे नियाज़ थे। इन्हें भी खुदा ने मासूम मन्सूस आलमे इल्मे लदुन्नी और अफ़ज़ले कायनात क़रार दिया है। यह हुज्जते ख़ुदा भी हैं और इमामे ज़माना भी उसे ख़ुदा ने इस्लाम की हिफ़ाज़त दीन की सियानत कायनात की इमामत और रसूले ख़ुदा (स.अ.) की खि़लाफ़त की ज़िम्मेदारी सौंपी है और इस सिलसिले को क़यामत तक के लिये क़ाएम कर दिया है।

 

आं हज़रत की विलादत बसाअदत

आपके नूरे वजूद की खि़ल्क़त बा रवाएते हज़रत आदम की तख़लीक़ से नौ लाख बरस पहले बा रवाएते 4- 5 लाख क़ब्ल हुई थी। आपका नूरे अक़दस असलाबे ताहेरा और अरहामे मुताहर में होता हुआ जब सुलबे जनाबे अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब तक पहुँचा तो आपका ज़हूरो शहूद बशक्ले इन्सानी बतने जनाबे आमना बिन्ते वहब से मक्काए मोअज़्ज़मा में हुआ।

 

 

आँ हज़रत (स.अ.) की विलादत के वक़्त हैरत अंगेज़ वाक़ेयात का ज़हूर

आपकी विलादत से मुताअल्लिक़ बहुत से उमूर रूनुमा हुए जो हैरत अंगेज़ हैं। मसलन आपकी वालदा माजदा को बारे हमल महसूस नहीं हुआ और वह तौलीद के वक़्त कसाफ़तों से पाक थीं। आप मख़्तून और नाफ़ बुरीदा थे। आपके ज़हूर फ़रमाते ही आपके जिस्म से ऐसा नूर साते हुआ जिससे सारी दुनिया रौशन हो गई। आपने पैदा होते ही दोनों हाथों को ज़मीन पर टेक कर सज्दाए ख़ालिक़ अदा किया। फिर आसमान की तरफ़ सर बुलन्द कर के तकबीर कही और ला इलाहा इललल्लाहो इना रसूलल्लाहे ज़बान पर जारी किया। ब रवायते इब्ने वाजेए अल मतूफ़ी 292 हि0 शैतान को रजम किया गया और उसका आसमान पर जाना बन्द हो गया। सितारे मुसलसल टूटने लगे तमाम दुनिया में ऐसा ज़लज़ला आया कि तमाम दुनिया के कलीसे और दीगर ग़ैर उल्लाह की इबादत करने के मुक़ामात मुन्हदिम हो गये। जादू और कहानत के माहिर अपनी अक़्लें खो बैठे और उनके मुवक्लि मजूस हो गये। ऐसे सितारे आसमान पर निकल आय जिन्हें कभी किसी ने देखा न था। सावा की वह झील जिसकी परसतिश की जाती थी जो काशान में है वह ख़ुश्क हो गई। वादिउस समा जो शाम में है और हज़ार साल से ख़ुश्क पड़ी थी इसमें पानी जारी हो गया। दजला में इस क़दर तगयानी हुई कि इसका पानी तमाम इलाक़ों में फैल गया। महले क़िसरा में पानी भर गया और ऐसा ज़लज़ला आया कि ऐवाने किसरा के 14 कंगूरे ज़मीन पर गिर पड़े और ताक़े किसरा शिग़ाफ़ हो गया और फ़ारस की वह आग जो एक हज़ार साल से मुसलसल रौशन थी फ़ौरन बुझ गई। (तारीख़े अशाअत इस्लाम देवबन्दी सफ़ा 218 तबाअ लाहौर)

   उसी रात को फ़ारस के अज़ीम आलम ने जिसे (मोबज़्ज़ाने मोबज़्ज़न) कहते थे ख़्वाब में देखा कि तुन्द व सरकश और वैहशी ऊँट अरबी घोड़ों को ख़ींच रहे हैं और उन्हे बलादे फ़ारिस में मुताफ़रिक़ करतें हैं। उसने इस ख़्वाब का बादशाह से ज़िक्र किया। बादशाह नवशेरवां किसरा ने एक क़ासिद के ज़रिए से अपने हैराह के गर्वनर नुमान बिन मन्ज़र को कहला भेजा कि हमारे आलम ने एक अजीब व ग़रीब ख़्वाब देखा है तू किसी ऐसे अक़्लमन्द और होशियार शख़्स को मेरे पास भेज दे जो इसकी इतमिनान बख़्श ताबीर दे कर मुझे मुतमईन कर सके। नोमान बिन मन्ज़र ने अब्दुल मसीह बिन उमर अलग़सानी को जो कि बहुत लाएक़ था बादशाह के पास भेज दिया। नवशेरवान ने अब्दुल मसीह से तमाम वाक़ेयात बयान किये और उससे ताबीर की ख़्वाहिश की उसने बड़े ग़ौर व खौज के बाद अर्ज़ कि, ऐ बादशाह शाम में मेरा मामूँ सतीह काहिन रहता है वह इस फ़न का बहुत बड़ा आलिम है वह सही जवाब दे सकता है और इस ख़्वाब की ताबीर बता सकता है। नव शेरवां ने अब्दुल मसीह को हुक्म दिया कि फ़ौरन शाम चला जाए। चुनान्चे वह रवाना हो कर दमिश्क पहुँचा और बा रवायत इब्ने वाज़े बाबे जांबिया में इससे इस वक़्त मिला जब कि वह आलमे एहतिज़ार में था। अब्दुल मसीह ने कान में चीख़ कर अपना मुद्दा बयान किया उसने कहा कि एक अज़ीम हस्ती दुनिया मे आ चुकी है। जब नव शेरवां की नस्ल के 14 मर्दो ज़न हुकमरां कंगूरों के अदद के मुताबिक़ हुकूमत कर चुकेगें तो यह मुल्क इस ख़ानदान से निकल जाऐगा। सुम्मा फ़ज़तन फ़सहू यह कह क रवह मर गया। (रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 सफ़ा 56 , सीरते हलबिया जिल्द 1 सफ़ा 83, हयात अल क़ुलूब जिल्द 2 सफ़ा 46, अल याक़ूबी सफ़ा 9)

 

आपकी तारीख़े विलादत

आपकी तारीख़े विलादत में इख़्तेलाफ़ है बाज़ मुसलमान 2 रबीउल अव्वल बाज़ 6, बाज़ 12 बताते हैं लेकिन जम्हूरे उलमा अहले तशैय्यो और बाज़ उल्मा अहले तसन्नुन 17 रबीउल अव्वल सन् 1 आमुलफ़ील मुताबिक़ 5700 को सही समझते हैं।

अल्लामा मजलिसी (अलैरि रहमा) हयात अल क़ुलूब जिल्द 2 सफ़ा 44 में तहरीर फ़रमाते हैं कि उलमाये इमामिया का इस पर इजमा व इत्तेफ़ाक़ है कि आप 17 रबीउल अव्वल सन् 1 आमुल फ़ील यौमे जुमा शब या बवक़्ते सुबह सादिक़ शुऐब अबी तालीब में पैदा हुए हैं। इस वक़्त नव शेरवां किसरा की हुकूमत का बयालिसवां साल था।

 

 

आपका पालन पोषण और आपका बचपना

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि बारवायते आपके पैदा होने से पहले और बारवायते आप दो माह के भी न होने पाए थे कि आपके वालिद आब्दुल्लाह का इन्तेक़ाल ब मुक़ामे मदीना हो गया क्यों कि वहीं तिजारत के लिये गये थे उन्होंने सिवाए पांच ऊँट और चन्द भेडों और एक हबशी कनीज़ बरकत (उम्मे ऐमन) के और कुछ विरसे में न छोड़ा था। हज़रत आमना को हज़रत अब्दुल्लाह की वफ़ात का इतना सदमा हुआ की दूध सूख गया चूंकि मक्का की आबो हवा बच्चों के वास्ते चन्दा मुवाफ़िक़ न थी इस वास्ते क़रीब की बद्दू औरतों में से दूध पिलाने के वास्ते तलाश की गई। अन्ना के दस्तीयाब होने तक अबू लहब की कनीज़ सूबिया ने आं हज़रत (स.अ.) को तीन चार महीने तक दूध पिलाया। अक़वामे बद्दू की आदत थी कि साल में दो मरतबा मौसमे बहार और मौसमे खि़ज़ां में दूध पिलाने और बच्चे पालने की नौकरी की तलाश में आया करती थीं आखि़र हालीमा सादिया के नसीब ने ज़ोर किया और वह आपको अपने घर ले गईं और आप हलीमा के पास परवरिश पाने लगे। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 2 सफ़ा 32, तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 2 सफ़ा 20)

मुझे इस तहरीर के इस जुज़ से कि रसूले खुदा (स.अ.) को सूबिया और हलीमा ने दूध पिलाया है इत्तेफ़ाक़ नहीं है। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आप में नमू की क़ुव्वत अपने सिन के एतेबार से बहुत ज़्यादा थी जब तीन माह के हुए तो ख़ड़े होने लगे, और जब सात माह के हुये तो चलने लगे आठवें महीने अच्छी तरह बोलने लगे, नवें महीने इस फ़साहत से कलाम करने लगे कि सुन्ने वालों को हैरत होती थी।

हाशिया:-

   1. सतीह एक अजीबउल खि़लक़त इन्सान था। उसके जिस्म में मफ़ासिल यानी जोड़ बन्द न थे। वह उठ बैठ नहीं सकता था, मगर ग़ुस्से के वक़्त उठ बैठता था। उसके बदन में खोपड़ी के सिवा कोई हड्डी न थी। उसके सरो गर्दन न थी और मुँह सीने में था। वह जाबिया में रहता था। जब उसे कहीं ले जाना होता था तो उसे गठरी की तरह बांध लेते थे जब उससे कुछ पूछना मक़सूद होता था तो उसे झींझोड़ते थे फिर वह औंधा हो कर ग़ैब की बाते बताता था। दोनों फ़िरका़ें के उलेमा का बयान है कि वह काहिन था और कहानत के माने ग़ैब की ख़बर देने के हैं। बरवाएते सफ़ीनातुल बिहार उसने हज़रत रसूले करीम (स.अ.) की नबूवत और हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त और हज़रत मेंहदी (अ.स.) की ग़ैबत की ख़बर दी थी। इसकी उम्र ब रवाएते रौज़तुल अहबाब 600 बरस और ब रवाएते हयात अल क़ुलूब 900 बरस की थी। इन दानों उलमा के बयान में फ़रक़ इस लिये है कि इसकी विलादत बन्दे एरम के टूटने के वक़्त हुई थी और बन्दे एरम टूटने को बाज़ मुवर्रेख़ीन साबेक़ीन ने हज़रत मसीह से 302 बरस पहले और बाज़ ने पहली सदी मसीह के आग़ाज में लिखा है।

   मजमा उल बहरीन में है कि काहिन के मानी साहिर के हैं या बाज़ का ख़्याल है कि काहिन के जिन्न ताबे होते हैं। बाज़ का ख़्याल है कि कहानत एक इल्म है जो हिसाब से ताअल्लुक़ रखता है। बाज़ का ख़्याल है कि शैतान जब आसमान पर जाता था तो वहां से ख़बरे लाता था और शैतानी अफ़राद को बताता था। दुनिया में दो बड़े काहन गुज़रे हैं एक शक़ दूसरा सतीह । रसूले करीम (स.अ.) की विलादत के बाद फ़ने कहानत ख़त्म हो गया था।

अगरचे तक़रीबन तमाम मुवर्रेख़ीन ने सूबिया और हलीमा के मुताअल्लिक़ यह लिखा है कि इन औरतों ने हज़रत रसूले करीम (स.अ.) को दूध पिलाया था और थोड़े दिनांे नहीं बल्कि काफ़ी अर्से तक पिलाया था लेकिन मेरे नज़दीक यह दुरूस्त नहीं है क्यांे कि यह दुनिया की किसी तारीख़ मे नहीं है कि किसी नबी को उसकी माँ के अलावा किसी और ने दूध पिलाया हो। हज़रत नूह (स.अ.) से हज़रत ईसा (स.अ.) तक के हालात देखे जाएंे कोई एक मिसाल भी ऐसी न मिलेगी जिससे रसूले ख़ुदा (स.अ.) को हलीमा वग़ैरा के दूध पिलाने की ताईद होती हो और हमे तो ऐसा नज़र आता है कि जैसे क़ुदरत को इस अम्र पर इसरारे शदीद था िकवह अपने नबी को इसकी माँ ही का दूध पिलवाए। मिसाल के लिये हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और हज़रत मूसा (अ.स.) का वाक़िया देख लिजये और अन्दाज़ा लगा लिजये कि किन ना साज़गार हालात व वाक़ेयात में उनकी माओं को दूध पिलाने के लिये उन तक पहुँचाया गया और जब ऐसा देखा कि माँ के पहुँचने में देर हो रही है तो खुद उसी बच्चे के अगूँठे से दूध पैदा कर दिया जैसा कि हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के लिये हुआ। मतलब यह था कि अगर बच्चे को माँ का दूध दस्तयाब न हो सके तो किसी दूसरे तरीक़े से शिकम सेर हो जाए। इन हालात से मेरी समझ में नहीं आता कि अम्बियाए मा साबक़ के तरीक़े और उसूल से हट कर रसूले करीम (स.अ.) को माँ के अलावा किसी दूसरी औरत के दूध पिलाने को क्यों कर तस्लीम कर दिया जाए खुसूसन ऐसी सूरत में जब कि यह तसलीम शुदा हो लहमतुल रेज़ा कुलेहमतुल नसब  दूध से जो गोश्त पैदा होता है वह नसब के गोश्त व पोस्त के मानिन्द होता है। वयहरम मिन रेज़ा मा यहरमा मन नसब और दूध पीने से वह रिश्ता ना जायज़ हो जाता है जो नसब से ना जायज़ होता है। (मफ़रूदाते इमामे राग़िब असफ़हानी सफ़ा 62) और फिर ऐसी सूरत में जब कि मौजूद थी और अहदे रज़ाअत के बाद तक ज़िन्दा रहीं। मैं तो यह समझता हूँ कि आँ हज़रत (स.अ.) को जनाबे आमना ने दूध पिलाया था और सूबीया व हलीमा ने उनकी परवरिश व परदाख़्त की थी।

 मेरे इस नज़रिये को इससे और तक़वीयत पहुँचती है कि ख़ुदा वन्दे आलम हज़रते मूसा (स.अ.) के लिए इरशाद फ़रमाता है कि हर मना एलैह अलमराज़ा मन क़बल हमने दूध पिलाये जाने के सवाल से पहले ही तमाम दाईयों के दूध को मूसा (स.अ.) के लिये हराम कर दिया था। (पारा 20 रूकू 4) यह कैसे मुम्किन है कि ख़ुदा वन्दे आलम हज़रते मूसा (स.अ.) को माँ के अलावा किसी के दूध पीने से बचाने का इतना अहतिमाम करे और फ़ख़रे मूसा (स.अ.) को इस तरह नज़र अन्दाज़ कर दे कि ऐसी औरतें उन्हें दूध पिलाऐं जिनका इस्लाम भी वाज़े नहीं है।

 

आपकी सायाए मादरी से महरूमी

आपकी उमर जब 6 साल की हुई तो सायाए मादरी से महरूम हो गये। आपकी वालेदा जनाबे आमना बिन्ते वहब हज़रत अब्दुल्लाह की क़ब्र की ज़्यारत के लिये मदीना गईं थीं वहां उन्होंने एक महीना क़याम किया जब वापिस आने लगीं तो मुक़ाम अबवा (जो कि मदीने से 22 मील दूर मक्का की जानिब वाक़े है) इन्तेक़ाल फ़रमा गईं और वहीं दफ़न हुईं। आपकी ख़ादेमा उम्मे ऐमन आपको मक्का ले आईं। (रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 सफ़ा 67) जब आपकी उम्र 8 साल की हुई तो आपको दादा अब्दुल मुत्तलिब का 120 साल की उम्र में इन्तेक़ाल हो गया। अब्दुल मुत्तलिब की वफ़ात के बाद आपके बड़े चचा जनाबे अबू तालिब और आपकी चची जनाबे फातेमा बिन्ते असद ने फ़राएज़े तरबियत अन्जाम दिये और इस शान से तरबियत की कि दुनिया ने आपकी हमदर्दी और ख़ुलूस का लौहा मान लिया। हज़रत अब्दुल मुत्तलिब के बाद हज़रत अबु तालिब भी ख़ाना ए काबा के मुहाफ़िज़ और मुतवल्ली और सरदारे कुरैश थे। हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि कोई अरब इस शान का सरदार नहीं हुआ जिस शानों शौकत की सरदारी मेरे पदरे मोहतरम को ख़ुदा ने दी थी। (इन याक़ूबी जिल्द 2 सफ़ा 11)

 

हज़रत अबु तालिब (अ.स.) को हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की वसीयत व हिदायत

बाज़ मुवर्रेख़ीन ने लिखा है कि जब हज़रत अब्दुल मुत्तलिब का वक़्ते वफ़ात क़रीब पहुँचा तो उन्होंने आं हज़रत (स.अ.) को अपने सीने से लगाया और सख़्त गिरया किया और अपने फ़रज़न्द अबु तालिब की तरफ़ मुतावज्जे हो कर फ़रमाया कि, ऐ अबू तालिब यह तेरे हक़ीकी भाई का बेटा है इस दुरे यगाना की हिफ़ज़त करना, इसे अपना नूरे नज़र और लख़्ते जिगर समझना, इसकी सुरक्षा में कोई कमी न रखना, अपने हाथ, ज़बान औन जान व माल से इसकी मदद करते रहना। (रौज़तुल अहबाब)

 

हज़रत अबु तालिब (अ.स.) के तिजारती सफ़रे शाम में आं हज़रत (स.अ.) की हमराही और बहीरा राहिब का वाक़ेया

हज़रत अबू तालिब जो तिजारती सफ़र में अक्सर जाया करते थे जब एक दिन रवाना होने लगे तो आं हज़रत को जिनकी उम्र उस वक़्त बा रवायते तबरी व इब्ने असीर 9 साल और ब रवायते अबुल फ़िदा व इब्ने ख़ल्दून 13 साल की थी, अपने बाल बच्चों में छोड़ दिया और चाहा कि रवाना हो जायें। यह देख कर आं हज़रत (स.अ.) ने इसरार किया कि मुझे अपने साथ लेते चलिये, आपने यह ख्याल करते हुये कि मेरा भतीजा यतीम है उन्हें अपने साथ ले लिया और चलते चलते जब शहरे बसरा के क़रयए कफ़र पहुँचे जो के शाम की सरहद पर 6 मील के फ़ासले पर वाक़े है जो उस वक़्त बहुत बड़ी मन्डी थी और वहां नस्तूरी ईसाई रहते थे। वहां एक नस्तूरी राहिबों के माअबद के पास क़याम किया । राहिबों ने आं हज़रत (स.अ.) और अबू तालिब (अ.स.) की बडी ख़ातिर दारी की फिर उनमें से एक ने जिसका नाम जरजीस और क़ुन्नियत अबू अदास और लक़ब बहीरा राहिब था आपके चेहरा ए मुबारक से आसारे अज़मतों जलालत और आला दर्जे के कमालाते अक़ली और महामदे इख़लाक़ नुमायां देख कर और इन सिफ़ात से मौसूफ़ पा कर जो उसने तौरैत और इन्जील और दूसरी आसमानी किताबों में पढ़ी थीं पहचान लिया कि यही पैग़म्बरे आख़ेरूज़ ज़मान हैं। अभी उसने इज़हारे ख़्याल न किया था कि एक दम बादल को हुज़ूर पर साया करते हुए देखा, फिर शाना खुलवा कर मोहरे नबूवत को देखा उसके बाद फ़ौरन मोहरे नबूवत का बोसा (चूमना) लिया और नबूवत की तसदीक़ कर के अबु तालिब से कहा कि इस फ़रज़न्दे अरजूमन्द का दीन तमाम अरब व अजम में फैलेगा और यह दुनिया के बहुत बड़े हिस्से का मालिक बन जायेगा। यह अपने मुल्क को आज़ाद कराऐगा और अपने अहले वतन को नजात दिलायेगा। ऐ अबू तालिब इसकी बड़ी हिफ़ज़त करना और इसको दुश्मनों के अत्याचार से बचाने की पूरी कोशिश करना, देखो कहीं ऐसा न हो कि यह यहूदियों के हाथ लग जाए। फिर उसने कहा कि मेरी राय यह है कि तुम शाम न जाओ और अपना माल यहीं बेच कर के मक्का वापस चले जाओ चुनान्चे अबु तालिब ने अपना माल बाहर निकाला वह हज़रत की बरकत से आन्न फ़ानन बहुत ज़्यादा नफ़े पर फ़रोख़्त हो गया और अबू तालिब मक्का वापस चले गये। (रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 सफ़ा 71 , तन्क़ीदुल कलाम सफ़ा 30 , एयर दंग सफ़ा 24, तफ़रीउल अज़किया वग़ैरा)

 

आं हज़रत (स.अ.) का मक्के को रूमीयों के इक़्तेदार से बचाना

जस्टिस अमीर अली बा हवाला तारीख़ कासन डी0 परसून लिखते हैं कि हुनूज़ का काबा दोबारा तामीर न हो चुका था कि आपने मक्के मोअज़्ज़मा को इस ख़ुफ़िया साज़िश से बचा लिया जो उसकी आजा़दी को मिटाने के लिये की गई थी जिसमें उस्मान बिन हरीर को बड़ा दख़्ल था। उसने क़ुसतुनतुनया के दयारे के दयारे क़ैसरी में जाकर दीने मसीही क़ुबूल कर लिया था और क़ैसरे रूम से मालो ज़र ले कर हिजाज़ वापस आया था। उसकी कोशिश थी कि मक्के पर यूनानियों का इक़्तेदार क़ायम करा दे। वह ख़ुफ़िया कोशिशें कर रहा था लेकिन उसका यह राज़ खुल गया और उसकी वजह यह थी कि आं हज़रत ने उसका मक़सद अपने ज़राये से मालूम कर लिया था। आखि़र में वह हुज़ूर की कोशिशों से नाकामयाब हो गया। अहले फ़िरंग (यूरोपियन) इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने मौलद व मसकन को कुसतुनतुनया के बादशाहों के क़ब्ज़े से बचा कर मुसलमानों पर बड़ा एहसान किया है जिसकी वजह से वह अब्दी शुक्र गुज़ारी के मुस्तहक़ हैं। यही कुछ इब्ने ख़ल्दून ने भी लिखा है।                             (तन्क़ीदुल कलाम सफ़ा 33)

ख़ाना ए काबा में हजरे असवद को नस्ब करने में आं हज़रत (स.अ.) की हिकमते अमली

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि बेअसते पैग़म्बर से पहले क़ुरैश ने यह फ़ैसला किया था कि ख़ाना ए काबा को ढा़ कर फिर से इसकी तामीर की जाये और उसे बलन्द कर दिया जाये। चुनान्चे इसे गिरा कर उसकी तामीर शुरू कर दी गई फिर जब इमारते हजरे असवद के नस्ब करने की जगह तक पहुँची और उसके नस्ब करने का सवाल पैदा हुआ तो क़ुरैश में शदीद इख़्तेलाफ़ पैदा हो गया हर क़बीले का सरदार यह चाहता था कि इस शरफ़ को वह हासिल करें आखि़रकार बहुत कोशिश के बाद यह तय पाया कि कल जो सब से पहले हरम में दाखि़ल हो उसे हकम (फै़सला करने वाला) बना कर इस झगड़े को ख़त्म किया जाये, वह नस्बे हजर के बारे में जो फ़ैसला दे दे उसकी पाबन्दी हर एक को करना होगी।

   ग़रज़ कि जब सुबह हुई तो हज़रत रसूले करीम (स.अ.) सब से पहले हरम में दाखि़ल हुए लिहाज़ा उन्हीं को हकम बना दिया गया। हज़रत ने फ़रमाया कि एक मज़बूत चादर लाई जाए और उसमें हजरे असवद को रखा जाए और चादर के गोशों को हर क़बीले का सरदार पकड़ कर उसे उठाए और मुक़ामे हजर तक लाए, चुनान्चे ऐसा ही किया गया।

   फिर जब हजरे असवद बैतुल्लाह के क़रीब आ गया तो हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने अपने हाथों से उठा कर उसे नस्ब कर दिया। हुज़ूर (स.अ.) की इस हिकमते अमली से फ़ितनाए अज़ीम का सद्दे बाब हो गया। (तारीख़ अबुल फ़िदा, जिल्द 2 पृष्ठ 26 वा याक़ूबी जिल्द 2 सफ़ा 14)

 

जनाबे ख़दीजा (स.अ.) के साथ आपकी शादी ख़ाना आबादी

जब आपकी उम्र 25 साल की हुई और आपके हुस्ने सीरत, आपकी रास्त बाज़ी (सत्यता) और दयानत की आम शोहरत हो गई और आपको सादिक़ और अमीन का खि़ताब दिया जा चुका तो जनाबे ख़दीजा (स.अ.) बिन्ते ख़ुवेलद ने जो बहुत ही पाकीज़ा नफ़्स, ख़ुश इख़लाक़ और ख़ानदाने क़ुरैश में सब से ज़्यादा दौलत मन्द थीं ऐसे हाल में अपनी शादी का पैग़ाम पहुँचाया जब कि उनकी उम्र 40 साल की थी। शादी का पैग़ाम मंज़ूर हुआ और हज़रत अबू तालिब (अ.स.) ने निकाह पढ़ा। (तलख़ीस सीरतून नबी अल्लामा शिब्ली पृष्ठ 99 लाहौर 19650) मुवर्रेख़ीन इब्ने वाज़ेह अलमतूफ़ी 2920 का बयान है कि हज़रत अबू तालिब ने जो ख़ुतबा ए निकाह पढ़ा था उसकी शुरूआत इस तरह थी।

 अलहम्दो लिल्लाहिल लज़ी जाअल्ना मिन ज़रा इब्राहीम व ज़ुर्रियते इस्माईल तमाम तारीफ़ें उस एक ख़ुदा के लिये हैं जिसने हमें नस्ले इब्राहीम और ज़ुर्रियते इस्माईल से क़रार दिया है। (अल याक़ूबी जिल्द दो पृष्ठ 16 मुद्रित नजफ़े अशरफ़)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज़रत ख़दीजा (स.अ.) का महर 12 औंस सोना और 25 ऊँट मुक़र्रर हुआ जिसे हज़रत अबू तालिब ने उसे समय अदा कर दिया। (मुसलमानाने आलम सफ़ा 38 तबा लाहौर) तवारीख़ में है कि जनाबे ख़दीजा (स.अ.) की तरफ़ से अक़्द पढ़ने वाले उनके चचा अम्र बिन असद और हज़रते रसूले ख़ुदा (स.अ.) की तरफ़ से हज़रत अबू तालिब (अ.स.) थे। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 2 पृष्ठ 87 मुद्रित लाहौर 19620)

   एक रवायत में है कि शादी के समय जनाबे ख़दीजा बाकरा थीं, यह वाक़िया निकाह 5950 का है। मुनाक़िब इब्ने शहरे आशोब में है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.) के साथ ख़दीजा का यह पहला अक़्द था। सीरते इब्ने हशशाम जिल्द 1 पृष्ठ 119 में है जब तक ख़दीजा ज़िन्दा रहीं रसूले करीम (स.अ.) ने कोई अक़्द नहीं किया।

 

कोहे हिरा में आं हज़रत (स.अ.) की इबादत गुज़ारी

तारीख़ में है कि आपने 38 साल की उम्र में (कोहे हिरा) जिसे जबले सौर भी कहते हैं को अपनी इबादत गुज़ारी की मंज़िल क़रार दिया और उसके एक ग़ार में बैठ कर जिसकी लम्बाई 4 हाथ और चैढ़ाई डेढ़ हाथ थी इबादत करते और ख़ाना ए काबा को देख कर लज़्ज़त महसूस करते थे। यू तो दो दो, चार चार शबाना रोज़ वहां रहा करते थे लेकिन माहे रमज़ान सारे का सारा वहीं गुज़ारते थे।

 

आपकी बेअसत

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आं हज़रत (स.अ.) इसी आलमे तनहाई में मशग़ूले इबादत थे कि आपके कानों में आवाज़ आई या मोहम्मद (स.अ.) आपने इधर उधर देखा कोई दिखाई न दिया, फिर आवाज़ आई फिर आपने इधर उधर देखा, नागाह आपकी नज़र एक नूरानी मख़लूक़ पर पड़ी वह जनाबे जिब्राईल थे उन्होंने कहा इक़रा पढ़ो, हुज़ूर ने इरशाद फ़रमाया माइक़रा क्या पढ़ूं ? उन्होनें अर्ज़ की इक़रा बइस्मे रब्बेकल लज़ी ख़लक़ फिर आपने सब कुछ पढ़ दिया क्यांेकि आपको इल्में क़ुरआन पहले से हासिल था। जिब्राईल (अ.स.) के इस तहरीक़े इक़रा का मक़सद यह था कि नुज़ूले क़ुरआन की इब्तेदा हो जाए। उस वक़्त आपकी उम्र 40 साल 1 दिन की थी। उसके बाद जिब्राईल ने वज़ू और नमाज़ की तरफ़ इशारा किया व अरकात की तादाद की तरफ़ भी हुज़ूर को मुतवज्जे किया चुनान्चे हुज़ूरे आला ने वज़ू किया और नमाज़ पढ़ी आपने सब से पहले जो नमाज़ पढ़ी वह ज़ोहर की थी। फिर हज़रत वहां से अपने घर तशरीफ़ लाये और ख़दीजातुल कुबरा और अली बिन अबी तालिब से वाक़िया बयान फ़रमाया। इन दोनों ने इज़हारे ईमान किया और नमाज़े अस्र इन दोनों ने ब जमाअत अदा की। यह इस्लाम की पहली नमाज़े जमाअत थी जिसमें रसूले करीम (स.अ.) इमाम और ख़दीजा (स.अ.) और अली (अ.स.) मासूम थे। आप दरजाए नबूवत पर बदोफ़ितरत ही से फ़ायज़ थे। 27 रजब को मबऊसे रिसालत हुए। (हैयातूल कु़लूब, किताब अलमुनतक़ा, मवाहिबुल दुनिया) इसी तारीख़ के नुज़ूले क़ुरआन की इब्तेदा हुई।

हाशिया हज़रत अली बिन अबी तालिब के साबेकु़ल इस्लाम होने के बारे में इतनी ज़्या रवायत व शवाहिद मौजूद है कि अगर उन्हें जमा किया जाय तो एक किताब बन सकती है। हज़रते रसूले करीम (स.अ.) ने खुद इसकी तसदीक़ फ़रमाई है चुनान्चे दार क़त्नी ने अबू सईद हजरी से इमाम अहमद ने हज़रत उमर से हाकिम ने माअज़ से अक़्ली ने हज़रत आयशा से रवायत की है कि हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अपनी ज़बाने मुबारक से इरशाद फ़रमाया है कि मुझ पर ईमान लाने वालों में सब से पहले अली (अ.स.) हैं। हज़रत अली (अ.स.) खुद इरशाद फ़रमाते हैं :-

        सब क़तकुम इला इस्लाम तरा -- ग़ुलामन माबलग़ता अदान हलमी

मैंने तुम सब से पहले इस्लाम की तरफ़ बढ़ कर उसका ख़ैर मक़दम किया है। यह वाक़िया है उस वक़्त का जब कि मैं बालिग़ भी न हुआ था। शैख़ अल इस्लाम हाफ़िज़ इब्ने हजर असकलानी, तकरीब अल तहज़ीब मुद्रित देहली के पृष्ठ 84 पर कुछ अक़वाल लिखने के बाद लिखते हैं  अलमरजाअनहा अव्वलीन असलम तरजीह उसी को है कि आपने सब से पहले इस्लाम ज़ाहिर किया। अल्लामा अब्दुल रहमान इब्ने ख़ल्दून लिखते हैं कि हज़रत ख़दीजा के बाद हज़रत अली इब्ने अबी तालिब ईमान लाये। (तारीख़ इब्ने ख़ल्दून पृष्ठ 295 मुद्रित लाहौर) मुवर्रीख़ अबुल फ़िदा लिखते हैं कि जनाबे ख़दीजा के अव्वल ईमान लाने में और मुसलमान होने में किसी को इख़्तेलाफ़ नहीं, मगर इख़्तिलाफ़ उनके बाद में है कि बीबी ख़दीजा (स.अ.) के बाद कौन पहले ईमान लाया। साहेबे सीरत और बहुत से अहले इल्म बयान करते हैं कि मर्दों मे सब से पहले हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) 9, 10 या 11 बरस की उम्र में सब से पहले मुसलमान हुए। अफ़ीक़ कन्दी की रवायत से भी इसी की तस्दीक़ होती है जिसमें उन्होंने चशमदीद गवाह की हैसियत से वज़ाहत की है कि मैंने रसूले ख़ुदा (स.अ.) को नमाज़ पढ़ते हुए बेअसत के फ़ौरन बाद इस आलम में देखा कि उनके पीछे जनाबे ख़दीजा और हज़रत अली (अ.स.) खड़े थे उस वक़्त कोई ईमान न लाया था। इस रवायत को अल्लामा बिन अब्दुल जज़री क़रतबी ने इस्तेयाब जिल्द 2 पृष्ठ 225 मुद्रित हैदराबाद दकन में अल्लामा इब्ने असीर जरज़ी ने असद उलग़ाबा जिल्द 3 पृष्ठ 414 मुद्रित मिस्र में अल्लामा इब्ने जरीर तबरी ने तारीख़े क़दीर जिल्द 2 पृष्ठ 212 मुद्रित मिस्र में अल्लामा इब्ने असीर ने तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 20 में दर्ज किया है।

   साहेबे तफ़रीह अल अज़किया ने सबीहतुल महफ़िल से नक़्ल किया है कि दोशम्बे को रसूले ख़ुदा (स.अ.) मबऊसे रिसालत हुए हैं और उसी दिन आखि़रे वक़्त हज़़रत अली (अ.स.) मुशर्रफ़ बा इस्लाम हुए हैं। यही कुछ रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 83 में भी है। अल्लामा अब्दुल बर ने दावा किया है कि बिल इत्तेफ़ाक़ साबित है कि ख़दीजा के बाद सब से पहले हज़रत अली (अ.स.) मुशर्रफ़ ब इस्लाम हुए हैं। अल्लामा इक़बाल कहते है।

        मुस्लिम अव्वल शहे मर्दाने अली -- इश्क़ रा सरमायाए ईमाने अली

वाज़े हो कि हज़रत अली (अ.स.) अज़ल से ही मुसलमान और मोमिन थे, उनके लिये इस्लाम लाने का जुम्ला मुनासिब नहीं है लेहाज़ा जहां कहीं भी तारीख़ में उनके बारे में इस्लाम या ईमान लाने का जुम्ला है इससे इज़हारे इस्लाम वा ईमान समझना चाहिए।

 

दावते ज़ुल अशीरा का वाक़ेया और ऐलाने रिसालत व वज़ारत

बेअसत के बाद आपने तीन साल तक निहायत राज़दारी और पोशीदगी के साथ फ़रायज़ की अदायगी फ़रमायी इसके बाद खुले बन्दों तबलीग़ का हुक्म आ गया। फ़सद अबेमह तोमर तो हुक्म दिया गया है उसकी तकमील करो। मैं इस मक़ाम पर तारीख़ अबुल फ़िदा के इश्क़ तरजुमा की लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ इबारत नक़ल करता हूँ जिसे मौलाना करीम उद्दीन हनफ़ी इंस्पेक्टर मद्रास पंजाब ने 18460 में किया था।

वाज़े हो के तीन बरस तक पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.) दावते तरफ़े इस्लाम ख़ुफ़िया करते रहे मगर जब कि यह आयत नाज़िल हुई वा अनज़र अशीरतेक़ल अक़रबैन यानी डरा अपने कुन्बे वालों को जो क़रीब रिश्ते के हैं। इस वक़्त हज़रत ने बमुजिब हुक्मे ख़ुदा के इज़हार करना दावत का शुरू किया। बाद नाज़िल होने इस आयत के पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.) ने अली से इरशाद किया कि ऐ अली एक पैमाना खाने का मेरे वास्ते तैयार कर और एक बकरी का पैर उस पर छुआ ले और एक बड़ा कासा दूध का मेरे वास्ते ला और अब्दुल मुत्तलिब की औलाद को मेरे पास बुला कर ला ताकि मैं उससे कलाम करूं और सुनाऊँ उनको वह हुक्म जिस पर जनाबे बारी से मामुर हुआ हूँ चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने वह खाना एक पैमाना बामोजिब हुक्म तैयार करके औलादे अब्दुल मुत्तलिब को जो करीब 40 आदमी के थे बुलाया, उन आदमियों में हज़रत के चचा अबु तालिब, हज़रते हमज़ा और हज़रते अब्बास भी थे। उस वक़्त हज़रत अली ने वह खाना जो तैयार किया था ला कर हाज़िर किया। सब खा पी कर सेर हो गये। हज़रत अली ने इरशाद किया कि जो खाना इन सब आदमियों ने खाया है वह एक आदमियों की भूख के लिये काफ़ी था। इसी दौरान हज़रत चाहते थे कि कुछ कहूँ कि अबू लहब जल्दी बोल उठा और यह कहा कि मोहम्मद ने बड़ा जादू किया है। यह सुनते ही तमाम आदमी अलग अलग हो गये थे, चले गये। पैग़म्बरे ख़ुद कुछ कहने न पाये थे यह हाल देख कर जनाबे रिसालत माअब (स.अ.) ने इरशाद किया कि ऐ अली देखा तूने उस शख़्स ने कैसी सबक़त की, मुझको बोलने ही न दिया। अब फिर कल को तैयार कर जैसा कि आज किया था और फिर उनको बुला कर जमा कर। चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने दूसरे रोज़ फिर मुवाफ़िक़े आं हज़रत (स.अ.) खाना तैयार कर के सब लोगों को जमा किया। जब वह खाने से फ़राग़त पा चुके उस वक़्त रसूल अल्लाह (स.अ.) ने इरशाद किया कि तुम लोगों की बहुत अच्छी क़िस्मत और नसीब है क्यों कि ऐसी चीज़ मैं अल्लाह की तरफ़ से लाया हूँ कि उससे तुम को फ़जी़लत हासिल होती है और ले आया हूँ तुम्हारे पास दुनिया और आख़ेरत में अच्छा। ख़ुदा ताअला ने मुझको तुम्हारी हिदायत का हुक्म फ़रमाया है। कोई शख़्स तुम में से इस अम्र का इक़्तेदा कर के मेरा भाई, वसी और ख़लीफ़ा बनना चाहता है, इस वक़्त सब मौजूद थे और हज़रत पर एक हुजूम था और हज़रत अली ने अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह (स.अ.) मैं आपके दुश्मनों को नैज़ा मारूँगा और उनकी आँखें फोड़ दूँगा, पेट चीरूंगा और टांगें काटूगां और आपका वज़ीर हूंगा। हज़रत (स.अ.) ने उस वक़्त हज़रत अली ए मुर्तज़ा की गरदन पर हाथ मुबारक रख कर इरशाद फ़रमाया कि यह मेरा भाई है और मेरा वसी है और मेरा ख़लीफ़ा है तुम्हारे बीच इसकी सुनो और इताअत क़ुबूल करो। यह सुन कर सब क़ौम के लोग मज़ाक़ में हंस कर खड़े हो गये और अबू तालिब से कहने लगे कि अपने बेटे की बात सुन और इताअत कर यह तुझे हुक्म हुआ है। (अल्ख़ पृष्ठ 33 से 36 मुद्रित लाहौर)

 

मुवर्रिख़ अबुल फ़िदा मतूफ़ी 732 हिजरी की तहरीर पर मेरा वज़ाहत नोट

आयए अनज़ेरा अशीरतेकल अक़रबैन के नुज़ूल की तफ़सील हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त बिला फ़सल की बुनियाद क़ाएम करती है। इस पर अमले रसूल फ़ेले रसूल (स.अ.) और क़ौले रसूल (स.अ.) ने साबित कर दिया कि हज़रत अली (अ.स.) ही रसूले करीम (स.अ.) के ख़लीफ़ा ए अव्वल और ख़लीफ़ा ए बिला फ़स्ल हैं उन्हीं को उन्होंने अपना जां नशीन बनाया था जिसकी जिसकी तजदीद अपनी ज़िन्दगी के मुख़तलिफ़ अदवार में फ़रमाते रहे यहां तक कि नस्से सरीह आया ए या अयोहल रसूल बल्लिग़ मा उनज़ेला एलैका मिन रब्बक के ज़रिये से ग़दीरे ख़ुम में हजजे आखि़र के मौक़े पर आख़री ऐलान फ़रमाया और वाज़े कर दिया कि मेेरे बाद अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) ही मेरे जानशीन और ख़लीफ़ा हैं।

मुवर्रिख़ अबू अल फ़िदा ने इस्लाम की इस पहली और बुनियादी दावते तबलीग़ की मुनासिब वज़ाहत फ़रमा दी है और साफ़ लफ़्ज़ों में वाज़े कर दिया कि हज़रत रसूले करीम (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को अपना जानशीन और ख़लीफ़ा इसी बुनियादी दावत के मौक़े पर बना दिया था और लोगों को हुक्म दे दिया था कि फ़ इसमऊ इलहे व अतीयहू इनकी बात कान धर कर सुनो और इनकी इताअत करो।

कुछ कमो बेश लफ़्ज़ों के साथ यह वाक़ेया तारीख़ तबरी जिल्द 2 सफ़ा 217 तारीख़ कामिल बिन असीर जिल्द 2 सफ़ा 122 लुबाब अलतावील जिल्द 5 सफ़ा 106 मुआलिमुत तनज़ील बर हशिया ख़ाज़िन जिल्द 6 सफ़ा 105 ख़साएस निसाई सफ़ा 13, मसनद अहमद बिन हमबल जिल्द 3 सफ़ा 360, कनज़ुल माल जिल्द 6 सफ़ा 397, सीरते इब्ने इसहाक़, तफ़सीर इब्ने हातिम, दलाएल बहीकी, मुनाक़िब इमामे अहमद, मुसन्निफ़ अबू बकर इब्ने अबी शबीता, तारीख़े ख़मीस, तफ़सीर इब्ने मरदूया, तफ़सीर सिराजे मुनीर, तफ़सीर शिबली, तफ़सीरे वाहेदी, हुलयतुल औलिया, ज़ख़ीरतुल आमाल अजली, मुख़्तारे ज़िया मुक़दसी, तहज़ीब अल आसार तिबरी, इकतेफ़ा आसमी, रौज़तुल अलसफ़ा, हबीब अलसैर, मआरिज अल नबूअता मदारिज अल नबूअता अज़ालतुल ख़फ़ा तारीख़े इस्लाम अब्दुल हकीम नशतर जिल्द 1 सफ़ा 44 वग़ैरा में मौजूद है। इन इसलामी किताबों के अलावा इसका तज़किरा अहले फिरगं की तसनीफ़ात में भी है। मुलाहेज़ा हो अपालोजी जान डीवन पोस्ट सफ़ा 5, कारलायल सफ़ा 61 ख़ुल्फ़ा मोहम्मद एयरविंग सफ़ा 3 तारीख़े गिबन जिल्द 3 सफ़ा 499, ओकली सफ़ा 15

दावते ज़ुल अशीरा के सिलसिले में यह अमर क़ाबिले ज़िक्र है कि इस अहम वाक़ेए का ज़िक्र इमाम बुख़ारी ने अपनी सही में नहीं किया जिससे उनकी ज़ेहनियत का पता चलता है नीज़ यह कि जरमन में जो तारीख़े तबरी छपी है इसकी जिल्द 9 सफ़ा 68 में वसी व ख़लीफ़ती के बजाय कज़ा व कज़ा दरज है जिससे अहले मिस्र की तहरीफ़ी जद्दो जेहद का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है, वाज़े हो कि दावते ज़ुल अशीरा का वाक़ेया 4 बेअसत का है।

 

हिजरते हब्शा 5 बेअसत

ऐलाने नबूवत के बाद अरब की ज़मीन और अरब के आसमान यानी अपने पराये सब दुश्मन हो गये। उन दुश्मनों में अबू सुफ़ियान, अबू जेहल और अबू लहब ख़ास थे। उन लोगों ने आप पर गंदगी डालना और आपको जादूगर और मजनून (पागल) कह कर सताना अपना तरीक़ा बना लिया था। बाज़ मुवर्रेख़ीन का कहना है कि दुश्मनों ने एक दफ़ा कम्बल उढ़ा कर मार डालने का इरादा कर लिया था। इस तरह के मसाएब और ज़ुल्म से जब आं हज़रत (स.अ.) और आपके पैरव परेशान हुए और आपने महसूस कर लिया कि मुसलमान की हैसियत से मक्के में ज़िन्दगी के दिन गुज़ारना मुश्किल है तो हिजरते हब्शा का फ़ैसला कर के अपने असहाब को हिकमत का हुक्म दिया चुनान्चे 5 बेअसत में 100 सौ मर्द, औरतों ने हिजरत की और हबश पहुंच गये। हबश का बादशाह नजाशी (1) था जो नस्तूरी फ़िरक़े का ईसाई था। उसने इन लोगों की आओ भगत की और इनका ख़ैर मक़दम किया मगर दुश्मनों ने वहां पहुँच कर कोशिश की कि यह लोग ठहरने न पाएं लेकिन वह कामयाब न हुये।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि इन हिजरत करने वालों में जाफ़रे तय्यार भी थे जो उनमें सरबराह की हैसियत रखते थे। यह लोग 7 हिजरी तक वहीं क़याम करते रहे और फ़तेह ख़ैबर के मौक़े पर वापस आये, उनकी वापसी पर रसूले करीम (स.अ.) ने फ़रमाया था कि मैं हैरान हूँ कि दो ख़ुशियों में से किस को तरजीह दूँ। मैं फ़तेह ख़ैबर की ख़ुशी को अहम समझूं या जाफ़रे तय्यार वग़ैरा की वापसी को अहमियत दूं।

अल ग़रज़ हिजरते हब्शा के सिलसिले में कुफ़्फ़ारे मक्का को जब मालूम हुआ कि यहां के वह बाशिन्दे जो मुसलमान होते हैं चुपके से हबशा चले जाते हैं और वहां आराम से बसर करते हैं तो उनकी दुश्मनी और ज़िद व क़द और बढ़ गयी और उन्होंने बारवायते इब्ने असीर अब्दुल्लाह बिन उमय्या को उमरे आस (2) के साथ नजाशी और अराकीने सलतनत के वास्ते हदिया व तहायफ़ रवाना किया, इन दोनों ने हबशा पहुँच कर नजाशी को मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से भड़काना चाहा मग रवह न भड़का और मुसलमानों की हिमायत करता रहा आखि़रकार यह लोग ख़ायब व ख़ासिर वापस आये।

 

हज़रते रसूले करीम (स.अ.) दारूल अरक़म में 6 बेअसत

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन बा हवाला सीरत इब्ने हश्शाम कहते हैं कि जब मुसलमान हबशा की तरफ़ महाजेरत कर गये तो भी रसूल अल्लाह (स.अ.) बराबर वाअज़ फ़रमाते रहे और नये नये लोग दीने इस्लाम में दाखि़ल होते रहे, कुफ़्फ़ार ने यह देख कर आं हज़रत (स.अ.) को और ज़्यादा सताना शुरू कर दिया नाचार आं हज़रत (स.अ.) अपने बचे हुये असहाब को साथ ले कर अरक़म बिन अबी अरक़म बिन अब्दे मनाफ़ बिन असद के मकान में एक महीने तक रहे। यह मकान कोहे सफ़ा के ऊपर वाक़े था। आप वहां लोगों को इस्लाम की तरफ़ दावत देते थे। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 2 सफ़ा 52)

 

हज़रत रसूले करीम (स.अ.) शोएबे अबी तालिब में (मोहर्रम 7 बेअसत)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जब कुफ़्फ़ारे क़ुरैश ने देखा कि इस्लाम रोज़ ब रोज़ तरक़्क़ी करता चला जा रहा है तो बहुत परेशान हुये। पहले तो कुछ क़ुरैश दुश्मन थे अब सब के सब मुख़ालिफ़ हो गये और बा रवायते इब्ने हश्शाम व इब्ने असीर व तबरी, अबू जेहल बिन हश्शाम, शेबा अतबा बिन रबिया, नसर बिन हारिस, आस बिन वाएल और अक़बा बिन अबी मूईत एक गिरोह के साथ रसूले ख़ुदा (स.अ.) के क़त्ल पर कमर बांध कर हज़रत अबू तालिब के पास आये और साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि मोहम्मद ने एक नये मज़हब की शुरूआत की है और हमारे ख़ुदाओं को हमेशा बुरा भला कहा करते हैं लिहाज़ा उन्हें हमारे हवाले कर दो, हम उन्हें क़त्ल कर दें या फिर आमादा ब जंग हो जाओ। हज़रत अबू तालिब ने उन्हें उस वक़्त टाल दिया और वह लोग वापस चले गये और रसूले करीम (स.अ.) अपना काम बराबर करते रहे। कुछ दिनों के बाद दुश्मन फिर आये और उन्होंने आ कर शिकायत की और हज़रत के क़त्ल पर ज़ोर दिया। हज़रत अबू तालिब ने आं हज़रत से वाक़िया बयान किया, उन्होंने फ़रमाया कि ऐ चचा मैं जो कहता हूँ कहता रहूँगा मैं किसी की धमकी से डर नहीं सकता और न मैं किसी लालच में फंस सकता हूँ। अगर मेरे एक हाथ पर आफ़ताब और दूसरे पर महताब रख दिया जाये तब भी मैं अल्लाह के हुक्म को पहुँचाने में न रूकूगां। मैं जो करता हूँ अल्लाह के हुक्म से करता हूँ वह मेरा मुहाफ़िज़ है। यह सुन कर हज़रत अबू तालिब ने फ़रमाया कि बेटा तुम जो करते हो करते रहो मैं जब तक ज़िन्दा हूँ तुम्हारी तरफ़ कोई नज़र उठा कर नहीं देख सकता। कुछ समय के बाद बा रवायत इब्ने हश्शाम व इब्ने असीर कुफ़्फ़ार ने अबू तालिब (अ.स.) से कहा कि तुम अपने भतीजे को हमारे हवाले कर दो हम उसे क़त्ल कर दें और उसके बदले में एक नवजवान हम से बनी मख़जूम में से ले लो। हज़रत अबू तालिब ने फ़रमाया कि तुम बेवकूफ़ी की बातें करते हो, यह कभी नहीं हो सकता। यह क्यांे कर मुम्किन है कि तुम्हारे लड़के को ले कर उसकी परवरिश करूं और हमारे बेटे को ले कर क़त्ल कर दो। यह सुन कर उनका ग़ुस्सा और बढ़ गया और उनको सताने पर भरपूर तुल गये। हज़रत अबू तालिब (अ.स.) ने उसके रद्दे अमल में बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब से मदद चाही और दुश्मनों से कहला भेजा कि काबा व हरम की क़सम अगर मोहम्मद (स.अ.) के पांव में कांटा भी चुभा तो मैं सब को क़त्ल कर दूगां। हज़रत अबू तालिब के इस कहने पर दुश्मनों के दिलों में आग लग गई और वह आं हज़रत (स.अ.) के क़त्ल पर पूरी ताक़त से तैय्यार हो गये।

हज़रत अबू तालिब ने जब आं हज़रत (स.अ.) की जान को ग़ैर महफ़ूज़ देखा तो फ़ौरत उन लोगों को लेकर जिन्होंने हिमायत का वायदा किया था जिनकी तादाद बरवायते हयातुल क़ुलूब चालीस थी, मोहर्रम 7 बेअसत में शोएबे अबू तालिब के अन्दर चले गये और उसके ऐतराफ़ को महफ़ूज़ कर दिया।

कुफ़्फ़ारे क़ुरैश ने अबू तालिब के इस अमल से मुताअस्सिर हो कर एक अहद नामा मुरत्तब किया जिसमें बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब से मुकम्मल बाईकाट का फ़ैसला था। तबरी में है कि इस अहद नामे को मन्सूर बिन अकरमा बिन हाशिम ने लिखा था जिसके बाद ही उसका हाथ शल (बेकार) हो गया था।

तवारीख़ में है कि शोएब का दुश्मनों ने चारों तरफ़ से भरपूर घिराव कर लिया था और उनको मुकम्मल क़ैद कर दिया था इस क़ैद ने अहले शोएब पर बड़ी मुसिबतें डालीं, जिसमानी और रूहानी तकलीफ़ के अलावा रिज़्क़ की तंगी ने उन्हें तबाही के किनारे पर पहुँचा दिया और नौबत यहां तक पहुँची कि वह दींदार (धर्म पालक) पेड़ों के पत्ते खाने लगे। नाते कुनबे वाले अगरचे चोरी छुपे कुछ खाने पीने की चीज़ें पहुचा देते और उन्हें मालूम हो जाता तो सख़्त सज़ाऐं देते। इसी हालत में तीन साल गुज़र गये। एक रवायत में है कि जब अहले शोएब के बच्चे भूख से बेचैन हो कर चीखते और चिल्लाते थे तो पड़ोसियों की नींद हराम हो जाती थी। इस हालत में भी आप पर वही नाज़िल होती रही और हुज़ूर कारे रिसालत अंजाम देते रहे।

तीन साल के बाद हश्शाम बिन उमर बिन हरस के दिल में यह ख़्याल आया कि हम और हमारे बच्चे खाते पीते और ऐश करते हैं और बनी हाशिम और उनके बच्चे भूखे रह रहे हैं, यह ठीक नहीं है। फिर उसने और कुछ आदमियों को हम ख़्याल बना कर क़ुरैश के जलसे में इस सवाल को उठाया अबू जहल और उसकी बीवी उम्मे जमील जिसे ब ज़बाने क़ुरआन हिमा लतल हतब कहा जाता है ने विरोध (मुख़ालेफ़त) किया लेकिन अवाम के दिल पसीज उठे। इसी दौरान में हज़रत अबू तालिब आ गये और उन्होंने कहा कि मोहम्मद (स.अ.) ने बताया है कि तुमने जो अहद नामा लिखा है उसे दीमक खा गई है और कागज़ के उस हिस्से के सिवा जिस पर अल्लाह का नाम है सब ख़त्म हो गया है। ऐ क़ुरैश बस ज़ुल्म की हद हो गई, तुम अपने अहद नामे को देखो अगर मोहम्मद का कहना सच हो तो इन्साफ़ करो और अगर झूठ हो तो जो चाहे करो।

हज़रत अबू तालिब के इस कहने पर अहद नामा मंगवाया गया और हज़रत रसूले करीम (स.अ.) का इरशाद इसके बारे में बिल्कुल सच साबित हुआ जिसके बाद क़ुरैश शर्मिन्दा हो गये और शोएब का घिराव टूट गया। उसके बाद हश्शाम बिन उमर बिन हरस और उसके चार साथी, ज़ुबैर बिन अबी, उमय्या मख़्ज़ूमी और मुतअम बिन अदी, अबुल बख़्तरी बिन हश्शाम, ज़माअ बिन असवद बिन अल मुत्तलिब बिन असद शोएबे अबू तालिब में गये और उन तमाम लोगों को जो उसमें क़ैद थे उनके घरों में पहुँचा दियाा। (तारीख़े तबरी, तारीखे़ कामिल, रौज़तुल अहबाब) मुवर्रिख़ इब्ने वाज़े जिनका देहांत 292 में हुआ का बयान है कि इस घटना के बाद अस्लम यू मस्ज़िदिन ख़लक़ मिनन नास अज़ीम बहुत से काफ़िर मुसलमान हो गये। (अल याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 25 मुद्रित नजफ़ 1384 हिजरी)

 

रूमियों की हार पर आं हज़रत (स.अ.) की कामयाब पेशीन गोई (8 बेअसत)

मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि 8 बेअसत में ईरानियों ने रूमियों को हरा दिया और चूंकि ईरानी आतिश परस्त और रूमी ईसाई अहले किताब थे इस लिये कुफ़्फ़ारे मक्का को इस वाक़िये से ख़ुशी हुई और मुसलमानों को दुख हुआ। मुसलमानों के दुख को हज़रत रसूल अल्लाह (स.अ.) ने अपनी तसल्ली से दूर किया और उनसे बतौर पेशीन गोई फ़रमाया कि घबराओ नहीं 3 और 9 साल के दरमियान रूमी ईरानियों को शिकस्त दे कर कामयाब हो जायेगें चुनान्चे ऐसा ही हुआ 9 बेअसत गुज़रने से पहले रूमी ईरानियों पर ग़ालिब आये इस पेशीन गोई का ज़िक्र क़ुराने मजीद में मौजूद है। मेरे नज़दीक इस पेशीन गोई की सेहत ने हक़ीक़ते क़ुरान और हक़ीक़ते रिसालत को उजागर कर दिया है।

गिबन और दीगर ईसाई मुवर्रेख़ीन ने लिखा है कि वह लड़ाई जिसमें ईरानियों ने फ़तेह पाई थी 6110 से 6170 तक जारी रही और जिसमें रूमियों ने फ़तेह पाई वह 6220 से 6280 तक रही। ईरानियों ने 6170 तक तमाम एशियाई कोचक और मिस्र फ़तेह कर लिया था और कुसतुनतुनिया से एक मील की दूरी पर पड़ाव डाल दिया था और आगे बढ़ने का ईरादा कर रहे थे सिर्फ़ अबनाए फ़ासक़रस हद्दे फ़ासिल था मगर 6230 में रूमियों ने ईरानियों को भारी शिकस्त दे कर अपने इलाक़े वापिस लेने शुरू कर दिये।

तारीख़े तबरी जिल्द 2 सफ़ा 360 में है कि इस घटना के सम्बन्ध में क़ुरान में लफ़ज़ बज़ा सनीन आया है जिसके मानी दस के हैं यानि फ़तेह दस साल के अन्दर होगी चुनान्चे ऐसा ही हुआ।

 

आपका मोजिज़ा ए शक़ उल क़मर 9 बेअसत

इब्ने अब्बास इब्ने मसूद अनस बिन मालिक हुज़ैफ़ा बिन उमर जिब्बीर बिन मुतअम का बयान है कि शक़ उल क़मर का मोजिज़ा कोहे अबू क़ुबैस पर ज़ाहिर हुआ था जब कि अबू जेहल ने बहुत से यहूदीयों को हमराह ला कर हज़रत से चाँद को दो टुकड़े करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी। यह वाक़िया चैहदवी रात को हुआ था जब कि आपको मौसमें हज में शुऐब अबी तालिब से निकलने की इजाज़त मिल गई थी। अहले सैर लिखते हैं कि यह वाक़िया 9 बेअसत का है। इस मौजिज़े का ज़िक्र तारीख़ फ़रिश्ता में भी है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मुजिब एतक़ादो क़ौलेही इस मौजिज़े के वाक़े होने पर ईमान वाजिब है। (सफ़ीनतुल अल बहार जिल्द 1 सफ़ा 709) इस मोजिज़े का ज़िक्र अज़ीज़ लखनवी मरहूम ने क्या ख़ूब किया है।

                 मोजिज़ा शक़्क़ुल क़मर का है  मदीने से अयाँ

                 मह ने शक़ हो कर लिया है दीन को आग़ोश में

हज़रत अबू तालिब (अ.स.) और जनाबे ख़तीजातुल कुबरा (स.) की वफ़ात 10 बेअसत

हैवातुल हैवान दमीरी में है कि शुऐब अबी तालिब से निकलने के आठ महीने ग्यारह दिन बाद बेअसत माह शव्वाल में हज़रत अबू तालिब ने इन्तेक़ाल किया। बरवायते इब्ने वाज़े इस वक़्त इनकी उम्र 86 साल की थी। (अल याक़ूबी ज. 2 स. 28) कशमीर तवारीख़ में है कि इनकी वफ़ात के तीन दिन बाद जनाबे ख़तीजतुल कुबरा ने भी इन्तेक़ाल फ़रमाया उस वक़्त इनकी उम्र 65 साल की थी। (अल याक़ूबी जिल्द 2 सफ़ा 28)

   उन दो अज़ीम हमर्ददों और मददगारों के इन्तेक़ाल पुर मलाल से हज़रत रसूले करीम (स.अ.) को सख़्त रंज पहुँचा। आपने शदीद रंज व ग़म अैर सदमओ अलम के तअस्सुर में इस साल का नाम आम उल हुज़्न ग़म का साल रख दिया।

   मोमिन क़ुरैश हज़रत अबू तालिब और जनाबे खतीजातुल कुबरा की क़ब्र मक्का के क़ब्रस्तान हजून में एक पहाड़ी पर वाक़े है। यह क़ब्रें पहले गुम्बद वाली न थीं। बा रवायत मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन, मिर्ज़ा असग़र हुसैन, अली फ़सीह लखनवी ने तेरहवीं सदी के वसत में मोमेनीन की मदद से इन पर गुम्बद तैयार कराया था।

   इसी 10 बेअसत में अबू तालिब के इन्तेक़ाल के बाद क़ुरैश ने यह देख कर कि अब इनका कोई मज़बूत हामी और मददगार नहीं है आं हज़रत (स.अ.) पर दस्ते ज़ुल्म व ताअद्दी और भी ज़्यादा दराज़ कर दिया और बनी हाशिम अपने रईस के मर जाने से आपकी कमा हक़्क़हू हिफ़ाज़त व अयानत न कर सके और दुश्मनों की ईज़ा रसाई उरूज को पहुँच गई। बारवायते तारीख़े खमीस हज़रत की यह हालत पहुँच गई कि आपने घर से निकलना छोड़ दिया फिर यह ख़्याल कर के कि ताएफ़ में बनी सक़ीफ़ रहते हैं और वहीं चचा अब्बास की ज़मीन है। ताएफ़ चले जाने का क़स्द कर लिया और अपने ग़ुलाम आज़ाद ज़ैद बिन हारसा को हम्राह ले कर रवाना हो गये। रास्ते में बनी बकर और बनी क़हतान में ठहरना चाहा मगर कोई सूरत नज़र न आई बिल आखि़र ताएफ़ चले गये जो मक्का से सत्तर मील के फ़ासले पर वाक़े है। वहां तवक़्क़ो के खि़लाफ़ सख़्त दुश्मनी का मुज़ाहेरा देखा 10 दिन और बरवायते एक महीना बमुश्किल गुज़रा। बिल आखि़र ग़ुलामी कमीनों और ग़ुन्डों ने आप पर पथराव कर के आपको जख़्मी कर दिया फिर इसी पर इकतिफ़ा नहीं की बल्कि पत्थर मारते हुए फ़सीले शहर से बाहर निकाल दिया। आपके पांव ज़ख़्मी हो गये और ज़ैद का सर फूट गया। एक रवायत में है कि आपके सर पर इतने पत्थर लगे थे कि आपके सर का ख़ून एड़ी से बह रहा था अलग़रज़ वहां से बइरादा ए मक्का रवाना हो कर जब बतने नख़्ला में पहुँचे जो मक्का से एक रात की मसाफ़त पर पहले वाक़े है तो रात को वहीं क़याम किया और क़ुरआन पढ़ने लगे नसीब से यमन जाते हुए जिनों के एक गिरोह ने कलामे ख़ुदा सुना और वह मुसलमान हो गये, फिर आपने ज़ैद को मक्के भेजा कि किसी मददगार का पता लगायें मगर कोई न मिला, अलबत्ता मुतअम बिन अदी ने हामी भरी और आप मक्के वापस आ गये। (रौज़तुल अहबाब)

इसी सन् 10 बेअसत में वफ़ाते ख़दीजा के बाद आं हज़रत (स.अ.) ने सौदा बिन्ते ज़म्आ से निकाह किया और इसी साल हज़रत आयशा बिन्ते अबी बक्र से भी अक़्द फ़रमाया। मोअर्रेख़ीन का कहना है कि उस वक़्त हज़रत आयशा की उम्र 6 साल की थी इसी लिये 1 हिजरी में जब कि नौ 9 साल की हो गईं थी ज़फ़ाफ़ वाक़े हुआ। (रौज़तुल अहबाब)

एक रवायत में हज़रत आयशा का यह क़ौल मिलता है कि मेरी माँ मुझे ककड़ी खिलाती थीं ताकि मैं ज़फ़ाफ़ के का़बिल बन जाऊँ। (सन्न इब्ने माजा, जिल्द 3 अनुवादक बाबुल कशा बल रूत्ब जिल्द 62 पृष्ठ 61)

 

क़बीलाए ख़जरज का एक गिरोह खि़दमते रसूल (स.अ.) में 11 बेअसत

रजब के महीने में एक दिन आं हज़रत (स.अ.) मिना में खड़े थे कि एक दम एक गिरोह एहले यसरब का क़बीलाए खज़रज से हज़रत के पास आया। इस गिरोह में 6 अफ़राद थे। हज़रत ने उनके सामने क़ुराने मजीद की तिलावत की और इस्लाम के महासनि (नियम क़ानून) बयान किये। वह मुसलमान हो गये और उन्होंने यसरब में जा कर काफ़ी तबलीग़ की और वहां के घरों में इस्लाम का चर्चा हो गया।

 

आं हज़रत (स.अ.) की मेराजे जिस्मानी 12 बेअसत

27 रजब बेअसत की रात को ख़ुदा वन्दे आलम ने जिब्राईल को भेज कर बुराक़ के ज़रिये आं हज़रत (स.अ.) को काबा कौसैन की मंज़िल पर बुलाया और वहंा अली बिन अबी तालिब (अ.स.) की खि़लाफ़त व इमामत के बारे में हिदायत दीं। (तफसीरे क़ुम्मी) इसी मुबारक सफ़र और ऊरूज को (मेराज) कहा जाता है। यह सफ़र उम्मे हानी के घर से शुरू हुआ था। पलहे आप बैतुल मुक़द्दस तशरीफ़ ले गये फिर वहां से आसमान की तरफ़ रवाना हुए। मंज़िले आसमानी को तय करते हुये एक ऐसी मंज़िल पर पहुँचे जिसके आगे जिब्राईल का जाना ना मुम्किन हो गया। जिब्राईल ने अर्ज़ की हुज़ूर लौदनूत लता लाहतरक़ता अब अगर एक उंगल भी आगे भढ़ूगां तो जल जाऊगां।

                     

 اگر یک سر موی برتر روم

  بنور تجلی بسوزد پرم

फिर आप बुराक़ पर सवार हो कर आगे बढ़े एक मुक़ाम पर बुराक़ रूक गया और आप  रफ़रफ़ पर बैठ कर आगे रवाना हो गये। यह एक नूरी तख़्त था जो नूर के दरिया में जा रहा था यहां तक कि मंज़िले मक़सूद पर आप पहुँच गये। आप जिस्म समेत गये और फ़ौरन वापस आये। क़ुरान मजीद में असरा बे अब्देही आया है। अब्दा का इतलाक़ जिस्म और रूह दोनों पर होता है। वह लोग जो मेराजे रूहानी के क़ायल हैं ग़ल्ती पर हैं। (शरए अक़ाएदे नस्फ़ी सफ़ा 68) मेराज का इक़रार और उसका एतक़ाद ज़ुरूरियाते दीन से है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि जो मेराज का मुन्किर हो उसका हम से कोई ताअल्लुक़ नहीं। (सफ़ीनतुल बिहार जिल्द 2 पृष्ठ 174) एक रवायत में है कि पहले सिर्फ़ दो नमाज़ें वाजिब थीं। मेराज के बाद पांच वक़्त की नमाज़े मुक़र्रर र्हुइं।

1.  यसरब यानी मदीने में ओस व ख़ज़रज दो अरब क़बीले रहते थे दोनों एक बाप की औलाद थे इनका मसकने क़दीम (निवास स्थान) पुराना यमन था। रसूले करीम (स.अ.) जब तक मदीने नहीं पहुँचे यह शहर यसरब के नाम से मशहूर था ज्योंही रसूले करीम (स.अ.) वहां तशरीफ़ ले गये उसका नाम मदीनातुल रसूल हो गया। फिर बाद में मदीना कहलाने लगा। यह शहर मक्का के शुमाल (उत्तर) की तरफ़ 270 मील की दूरी पर स्थित है।

 

बैअते उक़बा ऊला

इसी सन् 12 बेअसत के हज के ज़माने में उन 6 आदमियों में से जो पिछले साल मुसलमान हो कर मदीने वापस गये थे पांच आदमियों के साथ सात 7 आदमी मदीने वालों में से और आकर मुर्शरफ़ ब इस्लाम हुए। हज़रत की हिमायत का अहद किया। यह बैअत भी उसी उक़बा के मकान में हुई जो मक्के से थोड़े फ़ासले पर उत्तर की ओर स्थित है। मोअर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि इस अहद पर बैअत हुई कि ख़ुदा का कोई शरीक न करो, चोरी न करो, बलात्कार न करो, अपनी औलाद को क़त्ल न करो जब वह बैअत कर चुके तो हज़रत ने मुसअब बिन उमैर बिन हाशिम बुन अब्दे मनाफ़ इब्ने अब्द अल अला को तालीमे क़ुरान और तरीक़ाए इस्लाम बताने के लिये नियुक्त किया।

(तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 2 पृष्ठ 52)

 

बैअते उक़बए (दूसरी)

13 बेअसत के ज़िल्हिज्जा के महीने में मुसअब बिन उमैर 13 मर्द और दो औरतों को मदीने से ले कर मक्के आये और उन्होंने मक़ामे उक़बा पर रसूले करीम (स.अ.) की खि़दमत में उन लोगों को पेश किया वह मुसलमान हो चुके थे उन्होंने भी हज़रत की हिमायत का अहद किया और आपके दस्ते मुबारक पर बैअत की, उनमें (ओस और ख़ज़रज) दोनों के लोग शामिल थे।

 


 

हिजरते मदीना

14 बेअसत मुबाबिक़ 6220 में हुक्मे रसूल (स.अ.) के मुताबिक़ मुसलमान चोरी छिपे मदीने की तरफ़ जाने लगे और वहां पहुँच कर उन्होंने अच्छा स्थान प्राप्त कर लिया। क़ुरैश को जब मालूम हुआ कि मदीने में इस्लाम ज़ोर पकड़ रहा है तो (दारूल नदवा) में जमा हो कर यह सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये। किसी ने कहा मोहम्मद को यहीं क़त्ल कर दिया जाये ताकि उनका दीन ही ख़त्म हो जाये। किसी ने कहा जिला वतन कर दिया जाये। अबू जहल ने राय दी कि विभिन्न क़बीलों के लोग जमा हो कर एक साथ उन पर हमला कर के उन्हें क़त्ल कर दें ताकि क़ुरैश ख़ूं बहा न ले सकें। इसी राय पर बात ठहर गई और सब ने मिल कर आं हज़रत (स.अ.) के मकान का घेराव कर लिया। परवरदिगार की हिदायत के अनुसार जो हज़रत जिब्राईल् के ज़रिये पहुँची आपने अपने बिस्तर पर हज़रत अली (अ.स.) के लिटा दिया और एक मुटठी धूल ले कर घर से बाहर निकले और उनकी आंखों में झोंकते हुए इस तरह निकल गये जैसे कुफ्र से ईमान निकल जाये। अल्लामा शिब्ली लिखते हैं कि यह सख़्त ख़तरे का मौक़ा था। जनाबे अमीर को मालूम हो चुका था कि क़ुरैश आपके क़त्ल का इरादा कर चुके हैं और आज रसूल अल्लाह (स.अ.) का बिस्तरे ख़्वाब क़त्लगाह की ज़मीन है लेकिन फ़ातेहे ख़ैबर के लिये क़त्लगाह फ़र्शे गुल था। (सीरतुन नबी व मोहसिने आज़म सन् 165) सुबह होते होते दुश्मन दरवाज़ा तोड़ कर घर में घुसे तो अली को सोता हुआ पाया। पूछा मोहम्मद कहां हैं ? जवाब दिया जहां हैं ख़ुदा की अमान में हैं। तबरी में है कि अली (अ.स.) तलवार सूंत कर खड़े हो गये और सब घर से निकल भागे। अहयाअल ऊलूम ग़ेज़ाली में है कि अली की हिफ़ाज़त के लिये ख़ुदा ने जिब्राईल और मीकाईल को भेज दिया था, यह दोनों सारी रात अली की ख़्वाबगाह का पहरा देते रहे। हज़रत अली (अ.स.) का फ़रमान है कि मुझे शबे हिजरत जैसी नीन्द आई सारी उम्र न आई थी। तफ़सीरों में है कि इस मौक़े के लिये आयत व मिन्न नासे मन यशरी नाज़िल हुई है। अल ग़रज आं हज़रत (स.अ.) के रवाना होते ही हज़रत अबू बकर ने उनका पीछा किया आपने रात के अन्धेरे में यह समझ कर कि कोई दुश्मन आ रहा है अपने क़दम तेज़ कर दिये। पांव में ठो कर लगी ख़ून बहने लगा, फिर आपने महसूस किया कि इब्ने अबी क़हाफ़ा आ रहे हैं। आप खड़े हो गये। (सही बुख़ारी जिल्द 1 भाग 3 पृष्ठ 69) में है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अबू बकर बिन क़हाफ़ा से एक ऊँट ख़रीदा और मदारिजुल नबूवत में है कि हज़रत अबू बकर ने दो सौ दिरहम में ख़रीदी हुई ऊँटनी आं हज़रत के हाथ 900 नौ सौ दिरहम की बेची इसके बाद यह दोनों ग़ारे सौर तक पहुँचे, यह ग़ार मदीने की तरफ़ मक्के से एक घण्टे की राह पर ढ़ाई या तीन मील दक्षिण की तरफ़ स्थित है। इस पहाड़ की चोटी तक़रीबन एक मील ऊँची है समुन्द्र वहां से दिखाई देता है।

(तलख़ीस सीरतुन नबी पृष्ठ 169 व ज़रक़ानी)

यह हज़रात ग़ार में दाखि़ल हो गये ख़ुदा ने ऐसा किया कि ग़ार के मुँह पर बबूल का पेड़ उगा दिया। मकड़ी ने जाला तना, कबूतर ने अन्डे दे दिये और ग़ार में जाने का शक न रहा। जब दुश्मन इस ग़ार पर पहुँचे तो वह यही सब कुछ देख कर वापस हो गये। अजायब अल क़सस पृष्ठ 257 में है कि इसी मौक़े पर हज़रत ने कबूतर को ख़ानाए काबा पर आकर बसने की इजाज़त दी। इससे पहले और परिन्दों की तरह कबूतर भी ऊपर से गुज़र नहीं सकता था। मुख़्तसर यह कि 1 रबीउल अव्वल सन् 14 बेअसत (जुमेरात) के दिन शाम के वक़्त क़ुरैश ने हज़रत के घर का घेराव किया था। सुबह से कुछ पहले 2 रबीउल अव्वल जुमे के दिन को ग़ारे सौर में पहुँचे। इतवार के दिन 4 रबीउल अव्वल तक ग़ार में रहे। हज़रत अली (अ.स.) आप लोगों के लिये रात में खाना पहुँचाते रहे। चैथे रोज पांच रबीउल अव्वल दोशम्बे के रोज़ अब्दुल्लाह इब्ने अरीक़त और आमिर बिन फ़हीरा भी आ पहुँचे और यह चारों शख़्स मामूली रास्ता छोड़ कर बहरे कुलजुम के किनारे मदीने की तरफ़ रवाना हुए। कुफ़्फ़ारे मदीना ने ईनाम मुक़र्रर कर दिया कि जो शख़्स उनको ज़िन्दा पकड़ कर लायेगा या उनका सर काट कर लाऐगा तो 100 ऊँट ईनाम में दिये जाऐंगे। इस पर सराक़ा इब्ने मालिक आपकी ख़ोज लगाता हुआ ग़ार तक पहुँचा उसे देख कर हज़रत अबू बकर रोने लगे तो हज़रत ने फ़रमाया रोते क्यों हो ख़ुदा हमारे साथ है सराक़ा क़रीब पहुँचा ही था कि उसका घोड़ा उसके ज़ानू तक ज़मीन में धंस गया। उस वक़्त हज़रत रवानगी के लिये बाहर आ चुके थे। उसने माफ़ी मांगी, हज़रत ने माफ़ी दे दी। घोड़ा ज़मीन से निकल आया। वह जान बचा कर भागा और काफ़िरों से कह दिया कि मैंने बहुत तलाश किया मगर मोहम्मद (स.अ.) का पता नहीं मिलता। अब दो ही सूरतें हैं या ज़मीन में समा गये या आसमान पर उड़ गये। (1)

हज़रत का क़बा के स्थान पर पहुँचना 12 रबीउल अव्वल दो शम्बा दो पहर के समय आप क़बा के स्थान पर पहुँचे जो मदीने से दो मील के फ़ासले पर एक पहाड़ी है। आपका ऊँट उस जगह ख़ुद ही रूक गया और आगे न बढ़ा। आप उतर पड़े। वहां के रहने वालों ने ख़ुशी के मारे नारा ए तकबीर बुलन्द किया। आपने यहां एक मस्जिद की बुनियाद डाली।

इसी मक़ाम पर हज़रत अली (अ.स.) भी मक्के से अमानतों की अदायगी से सुबुक दोशी हासिल करने के बाद आं पहुँचे। आपके साथ औरतें और बच्चे थे। औरतें और बच्चे ऊँटों पर सवार थे और हज़रत अली (अ.स.) पैदल थे। इसी वजह से आपके पैरों पर वरम था और बक़ौल इब्ने ख़ल्दून आपके पैरों से ख़ून जारी था। आं हज़रत (स.अ.) की नज़र जब अली (अ.स.) के पैरों पर पड़ी तो आप रोने लगे और लोआबे दहन (थूक) लगा कर अच्छा कर दिया।

मदीने में दाखि़ला मक़ामें क़बा में चार दिन रूकने के बाद आप मदीने की तरफ़ रवाना हुए और 16 रबीउल अव्वल जुमे के दिन मदीने में दाखि़ल हो गये। महल्ले बनी सालिम में नमाज़ का वक़्त आ गया आपने नमाज़े जुमा यहीं अदा फ़रमाई। यह इस्लाम में सब से पहली नमाज़े जुमा थी। यह वही जगह है जहां अब मस्जिदे नबवी है।

मस्जिदे नबवी की तामीर मदीने में दाखि़ले के बाद आपने सब से पहले एक मस्जिद की बुनियाद डाली जो बहुत सादगी के साथ तैयार की गई। उसकी ज़मीन अबू अय्यूब अंसारी ने ख़रीदी और उसमें मज़दूरों की हैसियत से दूसरे असहाब के साथ आं हज़रत (स.अ.) भी काम करते रहे। मस्जिद के साथ साथ हुजरे भी तैयार किये गये और एक चबूतरा जिसे सुफ़्फ़ा कहते थे, यही वह जगह थी जहां नये मुसलमान ठहराये जाते थे। उन्हीं लोगों को अस्हाबे सुफ़्फ़ा कहा जाता था और उनकी परवरिश सदक़े वग़ैरा से की जाती थी।

नमाज़ व ज़कात का हुक्म मस्जिदे नबवी की तामीर के बाद नमाज़ की रकअतों को भी तय कर दिया गया यानी पहले मग़रिब के अलावा सब नमाज़ें दो रकअती थीं फिर 17 रकअतें मुअय्यन कर दी गईं और उनके औक़ाद बता दिये गये। इब्ने ख़ल्दून के अनुसार इसी साल ज़कात भी फ़र्ज़ की गई।

 

एक 1 हिजरी के महत्वपूर्ण वाक़ेयात

अज़ान व अक़ामत

एक हिजरी में अज़ान मुक़र्रर की गई जिसे हज़रत अली (अ.स.) ने हुक्में रसूले ख़ुदा (स.अ.) से बिलाल (र. अ.) को तालीम कर दी और वह मुस्तक़िल मोअजि़्ज़न क़रार पाये और अक़ामत का तक़र्रूर भी हुआ।

 

अक़्दे मवाख़ात (भाईचारा कराना)

हिजरत के 5 या 8 महीने बाद महाजेरीने मक्का की दिलबस्तगी के लिये आं हज़रत (स.अ.) ने 50 महाजिर व अनसार में मवाख़ात (भाई चारगी) क़ायम कर दी जिस तरह एक बार मक्का में कर चुके थे। तारीख़े ख़मीस और रियाज़ुल नज़रा में है कि वहां हज़रत अबू बकर को उमर का तलहा को ज़ुबैर का, उस्मान को अब्दुल रहमान का, हमज़ा को इब्ने हारसा का और अली (अ.स.) को खुद अपना भाई बनाया था। अल्लामा शिब्ली का कहना है कि आं हज़रत (स.अ.) ने इत्तेहादे मज़ाक़ तबीयत और फ़ितरत के लेहाज़ से एक दूसरे को भाई बनाया था। मज़ाके़ नबूवत का इत्तेहाद फ़ितरते इमामत ही से हो सकता है इसी लिये आं हज़रत (स.अ.) ने हर मरतबा अपना भाई अली (अ.स.) को ही चुना यही वजह है कि आं हज़रत (स.अ.) हज़रत अली (अ.स.) से फ़रमाया करते थे।

                  انت اخی فی الدنیا والاخر

                  यानी दुनिया और आख़ेरत दोनों में मेरे भाई हो।

 

 

2 हिजरी के महत्वपूर्ण वाक़ेयात

जनाबे सैय्यदा (स.अ.) का निकाह

15 रजब 2 हिजरी को जनाबे सैय्यदा (स.अ.) का अक़्द हज़रत अली (अ.स.) से हुआ और 19 ज़िलहिज्जा को आपकी रूख़सती हुई। सीरतुन नबी में है कि जब जनाबे सैय्यदा (स.अ.) की शादी की बात चली तो सब से पहले हज़रत अबू बकर फ़िर हज़रत उमर ने पैग़ाम भेजा। कन्ज़ुल आमाल 7 पृष्ठ 113 में है कि इन पैग़ामात से आं हज़रत ग़ज़बनाक हुये और उनकी तरफ़ से मुँह फेर लिया। रियाजु़ल नज़रा जिल्द 2 पृष्ठ 184 में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) से ख़ुद फ़रमाया कि ऐ अली मुझसे ख़ुदा ने कह दिया है कि फातेमा (स.अ.) की शादी तुम्हारे साथ कर दूं, क्या तुम्हें मन्ज़ूर है ? अर्ज़ कि बेशक, अल ग़रज़ अक़्द हुआ और शहनशाहे कायनात ने सय्यदए आलमयान को एक बान की चारपाई, एक चमड़े का गद्दा, एक मशक, दो चक्कियां, दो मिट्टी के घड़े वग़ेरा दे कर रूख़सत किया। इस वक़्त अली (अ.स.) की उम्र 24 साल और फातेमा (स.अ.) की उम्र 10 साल थी।

 

तहवीले काबा

माहे शाबान 2 हिजरी में बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ से क़िबले का रूख़ काबे की तरफ़ मोड़ दिया गया। क़िबला चूंकि आलमे नमाज़ में बदला गया इस लिये आं हज़रत (स.अ.) का साथ हज़रत अली (अ.स.) के अलावा और किसी ने नहीं दिया क्यों कि वह आं हज़रत (स.अ.) के हर फ़ेल या क़ौल को हुक्में ख़ुदा समझते थे इसी लिये आप मक़ामे फ़ख़्र में फ़रमाया करते थे इन्ना मुसल्ली अल क़िबलतैन मैं ही वह हूं जिसने एक नमाज़ बयक वक़्त (एक ही समय) में दो क़िब्लों की तरफ़ पढ़ी।

 

जेहाद

जब क़ुरैश को मालूम हुआ कि रसूले इस्लाम (स.अ.) बख़ैर व ख़ूबी मदीना पहुँच गये और उनका मज़हब दिन दूनी रात चैगनी तरक़्क़ी कर रहा है तो उनकी आख़ों में ख़ून उतर आया और दुनिया अंधेर हो गयी और वह मदिने के यहूदियों के साथ मिल कर कोशिश करने लगे कि इस बढ़ती हुई ताक़त को कुचल दें। इसके नतीजे में हज़रत को मुशरेक़ीन क़ुरैश और यहूदियों के सााथ बहुत सी देफ़ाई (आत्म रक्षक) लडा़ईयां लड़नी पड़ीं जिनमें से अहम मौक़ों पर हज़रत खुद फ़ौजे इस्लाम के साथ तशरीफ़ ले गये ऐसी मुहिमों को ग़ज़वा कहते है और जिन मौकों पर आप असहाब में से किसी को फ़ौज का सरदार बना कर भेज दिया करते थे उनको सरिया कहा जाता है। ग़ज़वात की कुल संख्या 26 है जिनमें बद्र, ओहद, खन्दक़ और हुनैन बहुत मशहूर हैं और सरियों की संख़्या 36 थी जिनमें सबसे मशहूर मौता है जिसमें हज़रते जाफ़रे तय्यार शहीद हुये।

 

जंगे बद्र

मदीना ए मुनव्वरा से तक़रीबन 80 मील पर बद्र एक गांव था। मदीने में ख़बर पहुँची कि क़ुरैश बड़ी आमादगी के साथ मदीने पर हमला करने वाले हैं और सुन्ने में आया कि अबू सुफ़ियान 30 सवारों के साथ हज़ार आदमियों के काफ़िले को ले कर शाम से व्यापार का सामान मक्के लिये जा रहा है और मदीने से गुज़रेगा। हज़रत रसूले खु़दा (स.अ.) 313 साथियों के साथ रवाना हुये और मक़ामे बद्र पर जा उतरे। कु़रैश 950 आदमियों की टोली के साथ अबूू सुफ़ियान से मिलने के लिये रवाना हुये। लड़ाई हुई ख़ुदा ने मुसलमानों को मदद दी, जिससे इनको जीत हुई। 70 कुफ़्फ़ार मारे गये और 70 ही गिरफ़्तार हुए। 36 काफ़िरों को हज़रत अली (अ.स.) ने क़त्ल किया। इस लडा़ई में अबू जेहेल और उसका भाई आस और अतबा, शैबा, वलीद बिन अतबा और इस्लाम के बहुत से दुश्मन मारे गये। इस पहली इस्लमी जंग के अलम बरदार हज़रत अली (अ.स.) थे। क़ैदियों में नसर बिन हारिस और ओक़ब बिन अबी मूईत क़त्ल कर दिये गये और बाक़ी लोगों को ज़रे फ़िदया (फ़िदये का पैसा) ले कर छोड़ दिया गया। हज़रत अबू बक्र ने इस ग़ज़वे में जंग नहीं की। ग़ज़वाए बद्र के बाद कुफ़्फ़ार का घर घर मातम कदा बन गया और मरने वालों के बदले का जज़बा (भावनाएं) मक्के के बूढ़े और जवानों में पैदा हो गया जिसके नतीजे में ओहद की जंग हुयी।

यह जंग रमज़ान के महीने 2 हिजरी में हुई। इसी 2 हिजरी में रोज़े फ़र्ज़ किये गये। ईद उल फ़ित्र के अहकाम (नियम) लागू हुये और ग़ज़वाए बनू क़ैनक़ा से वापसी पर ईद अल अज़हा के आदेश आये और ख़ुम्स वाजिब किया गया।

 

3 हिजरी के अहम वाके़यात

जंगे ओहद

जंगे बद्र का बदला लेने के लिये अबू सुफ़ियान ने तीन हज़ार (3000) की फ़ौज से मदीने पर चढ़ाई की। एक हिस्से का अकरमा इब्ने अबी जेहेल और दूसरे का ख़ालिद बिन वलीद सरदार था। आं हज़रत (स.अ.) के साथ पूरे एक हज़ार आदमी भी न थे। ओहद पर लड़ाई हुई जो मदीने से 6 मील की दूरी पर है। आं हज़रत (स.अ.) ने मुसलमानों को ताकीद कर दी थी कि कामयाबी के बाद भी पुश्त (पीछे) के तीर अंदाज़ों का दस्ता अपनी जगह से न हटे, मुसलमानों की जीत होने को थी ही कि तीर अंदाज़ों का वही दस्ता जिसके हटने को मना किया था ख़ुदा और रसूल (स.अ.) के हुक्म की खि़लाफ़ वरज़ी करके माले ग़नीमत (जंग जीतने पर प्राप्त धन दौलत) की लालच में अपनी जगह से हट गया जिसके नतीजे में निश्चित जीत हार में बदल गई। हज़रत हमज़ा असद उल्लाह शहीद हो गये, मैदान में भगदड़ पड़ गई, बड़े बड़े पहलवान और अपने को बहादुर कहने वाले मैदाने जंग छोड़ कर भाग गये और किसी ने रसूले इस्लाम (स.अ.) की ओर ध्यान न दिया। तारीख़ में है कि तमाम सहाबा रसूले ख़ुदा (स.अ.) को मैदाने में जंग में छोड़ कर भाग गये। बरवायते अल याक़ूबी की पृष्ठ 39 की रवायत के अनुसार केवल तीन सहाबी रह गये जिनमें हज़रत अली (अ.स.) और दो और थे। बुख़ारी की रवायत के अनुसार हज़रत अबू बकर और हज़रत उमर और हज़रत उस्मान भी भाग निकले। दुर्रे मन्शूर जिल्द 2 पृष्ठ 88 कंज़ुल आमाल जिल्द 1 पृष्ठ 238 में है कि हज़रत अबू बकर पहाड़ की चोटी पर चढ़ गये थे वह कहते हैं कि मैं चोटी पर इस तरह उचक रहा था जैसे पहाड़ी बकरी उचकती है। क़ुराने मजीद में है कि यह सब भाग रहे थे और रसूल (स.अ.) चिल्ला रहे थे कि मुझे अकेला छोड़ कर कहां जा रहे हो मगर कोई पलट कर नहीं देखता था। (पारा 4 रूकू 7 आयत 153) एक दुश्मन ने गोफ़ने में पत्थर रख कर आं हज़रत (स.अ.) की तरफ़ फेंका जिसकी वजह से आपके दो दांत शहीद हो गये और माथे पर काफ़ी चोटें आईं। तलवारे लगने के कारण कई घाव भी हो गये और आप (स.अ.) एक गढ़े में गिर पड़े। जब सब भाग रहे थे, उस समय हज़रत अली (अ.स.) जंग कर रहे थे और रसूल (स.अ.) की हिफ़ाज़त भी कर रहे थे। आखि़र कार कुफ़्फ़ार को हटा कर आं हज़रत (स.अ.) को पहाडी़ पर ले गये। रात हो चुकी थी दूसरे दिन सुबह के वक़्त मदीने को रवानगी हुई । इस जंग में 70 मुसलमान मारे गये और 70 ही ज़ख़्मी हुए और कुफ़्फ़ार सिर्फ़ 30 क़त्ल हुये जिनमें 12 काफ़िर अली के हाथ क़त्ल हुये। इस जंग में भी अलमदारी का ओहदा (पद) शेरे ख़ुदा हज़रत अली (अ.स.) के ही सुपुर्द था।

मुवर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत अली (अ.स.) महवे जंग रहे आपके जिस्म पर सोलह ज़र्बे लगीं और आपका एक हाथ टूट गया था। आप बहुत ज़ख़्मी होने के बावजूद तलवार चलाते और दुश्मनों की सफ़ों को उलटते जाते थे। (सीरतुन नबी जि0 1 सफ़ा 277) इसी दौरान में आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया अली तुम क्यांे नहीं भाग जाते ? अर्ज़ की मौला क्या ईमान के बाद कुफ्ऱ इख़्तेयार कर लूँ। (मदारिज अल नबूवत) मुझे तो आप पर क़ुर्बान होना है। इसी मौक़े पर हज़रत अली (अ.स.) की तलवार टूटी थी और जु़ल्फ़ेक़ार दस्तयाब हुई थी। (तारीख़ तबरी जिल्द 4 पृष्ठ 406 व तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 58)

नादे अली का नुज़ूल भी एक रवायत की बिना पर इसी जंग में हुआ था । मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आं हज़रत (स.अ.) के ज़ख़्मी होते ही किसी ने यह ख़बर उड़ा दी कि आं हज़रत (स.अ.) शहीद हो गये। इस ख़बर से आपके फ़िदाई मक़ामे ओहद पर पहुँचे जिनमें आपकी लख़्ते जिगर हज़रत फातेमा (स.अ.) भी थीं।

क्सीर तवारीख़ में है कि दुश्मनाने इस्लाम की औरतों ने मुस्लिम लाशों के साथ बुरा सुलूक किया। अमीरे माविया की मां ने मुसलमान लाशों के नाक कान काट लिये और उनका हार बना कर अपने गले में डाला और अमीर हमज़ा का जिगर निकाल कर चबाया। इसी लिये मादरे माविया हिन्दा को जिगर ख़्वारा (जिगर खाने वाली) कहते हैं।

 

मदीना मातम कदा बन गया

अल्लामा शिब्ली लिखते हैं कि आं हज़रत (स.अ.) मदीने में तशरीफ़ लाये तो तमाम मदीना मातम कदा था। आप जिस तरफ़ से गुज़रते थे घरों से मातम की आवाज़ें आती थीं। आपको इबरत हुई कि सबके रिश्तेदार मातम दारी का फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं लेकिन हमज़ा का कोई नौहा ख़्वां नहीं है। रिक़्क़त के जोश में आपकी ज़बान से बे इख़्तेयार निकला अमा हमज़ा फ़लाबोवा क़ी लहा अफ़सोस हमज़ा को रोने वाला कोई नहीं। अन्सार ने अल्फ़ाज़ सुने तो तड़प उठे। सबने जा कर अपनी औरतों को हुक्म दिया कि वह हुज़ूर के दौलत कदे पर जा कर हज़रत हमज़ा का मातम करें। आं हज़रत (स.अ.) ने देखा तो दरवाज़े पर परदा नशीनान की भीड़ थी और हमज़ा का मातम बलन्द था। इनके हक़ में दुआए ख़ैर की और फ़रमाया कि मैं तुम्हारी हमदर्दी का शुक्र गुज़ार हूँ। (सीरतुन नबी जिल्द न0 1 पृष्ठ न0 283) यह जंग मंगल के दिन 15 शव्वाल 3 हिजरी में हुई। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) पैदा हुए और रसूले ख़ुदा (स.अ.) का निकाह हफ़सा बिन्ते उम्र के साथ हुआ। और ग़ज़्वाए (अहमर अल असद) के लिये आप बरामद हुये। हज़रत अली (अ.स.) अलमबरदार थे।

 

4 हिजरी के अहम वाक़ेयात

मोहर्रम 4 हिजरी में बनी असद ने मदीने पर हमला करना चाहा जिसे रोकने के लिये आपने अबू सलमा को भेजा उन्होंने दुश्मनों को मार भगाया। फिर सुफ़ियान बिन ख़ालिद ने हमले का इरादा किया जिसके मुक़ाबले के लिये अब्दुल्लाह इब्ने अनीस भेजे गये।

 

वाक़ये बैरे मऊना

सफ़र 4 हिजरी में अबू बरा आमिर बिन मालिक क़लाबी की दरख़्वास्त पर आं हज़रत (स.अ.) ने 70 अंसार को तबलीग़ के लिये उन्हीं के साथ रवाना किया। यह लोग मक़ामे बैरे मऊना पर ठहरे जो मदीने से 4 मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है और एक शख़्स आमिर बिन तुफ़ैल के पास भेजा उसने क़ासिद को क़त्ल कर दिया फिर एक बड़ा लश्कर भेज कर मौत के घाट उतार दिया।

 

ग़ज़वा बनी नुज़ैर

उमर बिन उमैया ने क़बीलाए आमिर के दो आदमी क़त्ल कर दिये थे और उनका ख़ून बहा अब तक बाक़ी था। तबरी की रवायत के अनुसार आं हज़रत (स.अ.) उसके मुतालिबे के लिये कुछ असहाब के साथ बनी नुज़ैर के पास गये उन्होंने मुतालिबा तो क़ुबूल कर लिया मगर आपको क़त्ल कर देने का यह ख़ुफ़िया प्रोग्राम बनाया कि एक शख़्स कोठे पर जा कर एक भारी पत्थर आप पर गिरा दे। चुनान्चे उमर बिन हज्जाश यहूदी बाला ख़ाने पर गया हज़रत को इसकी इत्तेला मिल गई और आप वहां से मदीना तशरीफ़ ले आये। बनी नुज़ैर एक क़िले में रहते थे जिसका नाम ज़हरा था। यह क़िला मदीने से 3 मील के फ़ासले पर था। हज़रत ने इसकी इस ग़लत हरकत की वजह से जिला वतनी का हुक्म दे दिया। आपने कहला भेजा कि 10 दिन के अन्दर यह जगह ख़ाली करो। उन्होंने अब्दुल्लाह बिन अबी खि़रजी मुनाफ़िक़ के बहकाने से बात न मानी क़िले का घिराव कर लिया गया आखि़र वह लोग 6 दिन में वहां से भाग गये।

 

ग़ज़वा ज़ातुल रूक़ा

इसी 4 हिजरी जमादिल अव्वल के महीने में क़बीलाए इनमारो साअलबता और ग़त्फ़न ने मदीने पर हमला करना चाहा आं हज़रत (स.अ.) असहाब को ले कर उनको आगे बढ़ने से रोकने के लिये आगे बढ़े लेकिन वह सामने न आये और भाग निकले। इसी मौक़े पर एक शख़्स ने क़त्ल के इरादे से आं हज़रत (स.अ.) से तलवार मांगी थी और आपने दे दी थी, मगर वह क़त्ल की हिम्मत न कर सका। (अबुल फ़िदा जिल्द 2 पृष्ठ 88) इसी 4 हिज़री मे ग़ज़वा बद्र सानी (दूसरी बद्र) भी पेश आया लेकिन जंग नहीं हुई। इस ग़ज़वे में भी हज़रत अली (अ.स.) अलम बरदार थे। इसी साल शाबान के महीने में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) पैदा हुए और उम्मे सलमा (र.) का रसूले करीम (स.अ.) के साथ अक़्द हुआ और फातेमा बिन्ते असद ने वफ़ात पाई।

 

5 हिजरी के अहम वाक़ेयात

जंगे ख़न्दक़ इस जंग को ग़ज़वाए अहज़ाब भी कहते हैं। यह जंग ज़ीका़द 5 हिजरी में वाक़े हुई। इसकी तफ़सील के मुतालुक़ अरबाबे तवारीख़ लिखते हैं कि मदीने से निकाले हुए बनी नुज़ैर के यहूदी जो ख़ैबर में ठहरे हुए थे वह शब व रोज़ और सुबह शाम मुसलमानों से बदला लेने के लिये इसकीमे बनाया करते थे। वह चाहते थे की कोई ऐसी शक्ल पैदा हो जाए कि जिससे मुसलमानों का तुख़म तक न रहे। चुनान्चे उसमें से कुछ लोग मक्का चले गये और अबू सुफ़ियान को बुला कर बनी ग़तफ़ान और क़ैस से रिश्तए अख़ूवत क़ाएम कर लिया और एक मोआहेदे में यह तय किया कि हर क़बीले के सूरमा इकठ्ठा हो कर मदीने पर हमला करें ताकि इस्लाम की बढ़ती हुई ताक़त का क़ला क़मा हो जाए। स्कीम मुकम्मल होने के बाद इसको अमली जामा पहनाने के लिये अबू सुफ़ियान 4 हज़ार का लश्कर ले कर मक्का से निकला और यहूदियों के दीगर क़बाएल ने 6 हज़ार के लश्कर से पेश क़दमी की ग़रज़ कि 10 हज़ार की जमीयात मदीने पर हमला करने के इरादे से आगे बढ़ी।

आं हज़रत को इस हमले की इत्तेला पहले हो चुकी थी इसी लिये आपने मदीने से निकल कर कोहे सिला को पुश्त पर ले लिया और जनाबे सलमाने फ़ारसी की राय से पांच गज़ चैड़ी और पांच गज़ गहरी ख़न्दक खुदवाई और ख़न्दक़ खोदने में खुद भी कमाले जां फ़िशानी के साथ लगे रहे। इस जंग में अन्दरूनी ख़लफ़िशार और मुनाफ़िको की रेशादवानियां भी जारी रहीं। जलालउद्दीन सेवती का कहना है कि अन्दरूनी हालात की हिफ़ाज़त के लिये आं हज़रत (स.अ.) ने अबू बकर फिर उमर को भेजना चाहा लेकिन इन हज़रात के इन्कार कर देने की वजह से हज़रत ने हुज़ैफ़ा को भेजा।

(दुर्रे मन्शूर जिल्द 5 पृष्ठ 185)

ख़न्दक़ की खुदाई का काम 6 रोज़ तक जारी रहा। ख़न्दक़ तैयार हुई ही थी कि कुफ़्फ़ार का एक बड़ लश्कर आ पहुँचा। लश्कर की कसरत देख कर मुसलमान घबरा गये। कुफ़्फ़ार यह हिम्मत तो न कर सके कि मुसलमानों को एक दम से हमला कर के तबाह कर देते लेकिन इक्का दुक्का ख़न्दक़ पर कर के हमला करने की कोशिश करते रहे और यह सिलसिला 20 दिन तक चलता रहा। एक दिन अम्र बिन अबदोवुद जो कि लवी बिन ग़ालिब की नस्ल से था और अरब में एक हज़ार बहादुरों के बराबर माना जाता था ख़न्दक़ फांद कर लश्करे इस्लाम तक आ पहुँचा और हल मिन मुबारिज़ की सदा दी। अम्र बिन अबदोवुद की आवाज़ सुनते ही उमर बिन ख़त्ताब ने कहा कि यह तो अकेला एक हज़ार डाकुओं का मुक़ाबला करता है यानी बहुत ही बहादुर है। यह सुन कर मुसलमानों के रहे सहे होश भी जाते रहे। पैंग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने इसके चैलेंज पर लश्करे इस्लाम को मुख़ातिब कर के मुक़ाबले की हिम्मत दिलाई लेकिन एक नौजवान बहादुर के अलावा कोई न सनका। तारीख़े ख़मीस रौज़तुल अहबाब और रौज़तुल सफ़ा में है कि तीन मरतबा आं हज़रत (स.अ.) ने अपने असहाब को मुक़ाबले के लिये निकलने की दावत दी मगर हज़रत अली (अ.स.) के सिवा कोई न बोला। तीसरी मरतबा आपने अली (अ.स.) से कहा कि यह अम्र अबदवुद है आपने अर्ज़ कि मैं भी अली इब्ने अबी तालिब हूँ।

अल ग़रज़ आं हज़रत (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को मैदान में निकलने के लिये तैयार किया। आपने ज़ेरह पहनाई अपनी तलवार कमर में डाली, अपना अमामा अपने हाथों से अली (अ.स.) के सर पर बांधा और दुआ के लिये हाथ उठा कर अर्ज़ की, ख़ुदाया जंगे बद्र में उबैदा को, जंगे ओहद में हमज़ा को दे चुका हूँ पालने वाले अब मेरे पास अली (अ.स.) रह गये हैं मालिक ऐसा न हो कि आज इनसे भी हाथ धो बैठूं। दुआ के बाद अली (अ.स.) को पैदल रवाना किया और साथ ही साथ कहा बरज़ल ईमान कुल्लहू इल्ल कुफ़्र कुल्लहू आज कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ्र के मुक़ाबले में जा रहा है। (हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 238 व सीरते मोहम्मदिया जिल्द 2 पृष्ठ 102)

अल ग़रज़ आप रवाना हो कर अम्र के मुक़ाबले में पहुँचे। अल्लामा श्ब्लिी का कहना है कि हज़रत अली (अ.स.) ने अम्र से पूछा के क्या सच में तेरा यह क़ौल है कि मैदाने जंग में अपने मुक़ाबिल की तीन बातों में से एक बात ज़रूर क़ुबूल करता है। उसने कहा हां। आपने फ़रमाया कि अच्छा इस्लाम क़ुबूल कर उसने कहा ना मुम्किन फिर फ़रमाया ! अच्छा मैदाने जंग से वापस जा उसने कहा यह भी नहीं हो सकता फिर फ़रमाया ! अच्छा घोड़े से उतर आ और मुझ से जंग कर वह घोड़े से उतर पड़ा, लेकिन कहने लगा मुझे उम्मीद न थी कि आसमान के नीचे कोई शख़्स भी मुझसे यह कह सकता है जो तुम कह रहे हो, मगर देखो मैं तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता। ग़रज़ जंग शुरू हो गई और सत्तर वारों की नौबत आई, बिल आखि़र उसकी तलवार अली (अ.स.) के सिपर काटती हुई सर तक पहुँची। हज़रत अली (अ.स.) ने जो संभल कर हाथ मारा तो अम्र बिन अब्दवुद ज़मीन पर लोटने लगा। मुसलमानों को इस दस्त ब दस्त लड़ाई की बड़ी फ़िक्र थी। हर एक दुआऐं मांग रहा था। जब अम्र से हज़रत अली (अ.स.) लड़ रहे थे तो ख़ाक इस क़दर उड़ रही थी कि कुछ नज़र न आता था गरदो ग़ुबार में हाथों की सफ़ाई तो नज़र न आई हां तकबीर की आवाज़ सुन कर मुसलमान समझे की अली (अ.स.) ने फ़तेह पाई।

अम्र बिन अब्दवुद मारा गया और उसके साथी ख़न्दक़ कूद कर भाग निकले। जब फ़तेह की ख़बर आं हज़रत (स.अ.) तक पहुँची तो आप ख़ुशी से बाग़ बाग़ हो गये। इस्लाम की हिफ़ाज़त और अली (अ.स.) की सलामती की ख़ुशी में आपने फ़रमाया  ज़रबते अली यौमुल ख़न्दक़ अफ़ज़ल मिन इबादतुल सक़लैन आज की एक ज़रबते अली (अ.स.) मेरी सारी उम्मत वह चाहे ज़मीन में बस्ती हो या आसमान में रहती हो की तमाम इबादतों से बेहतर है।

बाज़ किताबों में है कि अम्र बिन अब्द वुद के सीने पर हज़रत अली (अ.स.) सवार हो कर सर काटना ही चाहते थे कि उसने चेहराए अक़दस पर लोआबे देहन से बे अदबी की हज़रत को ग़ुस्सा आ गया, आप यह सोच कर फ़ौरन सीने से उतर आये कि कारे ख़ुदा में जज़्बाए नफ़्स शामिल हो रहा था, जब ग़ुस्सा ख़त्म हुआ तब सर काटा और ज़िरह उतारे बग़ैर खि़दमते रिसालत माआब में जा पहुँचे। आं हज़रत (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को सीने से लगा लिया। जिब्राईल ने बरावायत सुलैमान क़नदूज़ी, आसमान से अनार ला कर तोहफ़ा इनायत किया। जिसमें हरे रंग का रूमाल था और उस पर अली वली अल्लाह लिखा हुआ था।

हज़रत अली (अ.स.) मैदाने जंग से कामयाबो कामरान वापस हुये और अम्र बिन अब्द वुद की बहन भाई की लाश पर पहुँची और खा़ेदो ज़िरह बदस्तूर उसके जिस्म पर देख कर कहा मा क़त्लहा अला कफ़वुन करीम इसे किसी बहुत ही मोअजि़्ज़ज़ (आदरणीय) बहादुर ने क़त्ल किया है। उसके बाद कुछ शेर पढ़े जिनका मतलब यह है कि ऐ अम्र ! अगर तुझे इस क़ातिल के अलावा कोई और क़त्ल करता तो मैं सारी उम्र (जीवन भर) तुझ पर रोती। माआरेजुन नबूवता और रौज़ातुल सफ़ा में है कि फ़तेह के बाद जब हज़रत अली (अ.स.) वापस हुए तो हज़रत अबू बकर और उमर ने उठ कर आपकी पेशानी मुबारक को बोसा दिया।

 

ग़ज़वाए बनी मुस्तलक़ और वाकिए अफ़क़

आं हज़रत (स.अ.) को इत्तेला मिली कि क़बीलाए मुस्तलक़ मदीने पर हमला करना चाहता है। आपने उसे रोकने के लिये 2 शाबान 5 हिजरी को इनकी तरफ़ बढ़े। हज़रत अली (अ.स.) अलमदारे लशकर थे। घमासान की जंग हुई, मुसलमान कामयाब हुए। वापसी के मौक़े पर हज़रत आयशा इसी जंगल में रह गईं। जो बाद में एक शख़्स सफ़वान इब्ने माअतल के साथ ऊँट पर बैठ कर आं हज़रत (स.अ.) तक पहुँची। आं हज़रत (स.अ.) ने इसे महसूस किया और लोगों ने शुकूक का चरचा कर दिया। बारवायत तारीख़े आइम्मा आं हज़रत (स.अ.) को भी शक हो गया था और आप कुछ समय तक कशीदा (नाराज़) रहे फिर फ़रमाया मुझे जहां तक मालूम है मैं अपनी बीवी में सिवाय नेकी और भलाई कुछ नहीं पाता और जिस मर्द यानी सफ़वान इब्ने माअतल के बारे में जो लोग चरचा करते हैं मैं इसमें भी किसी तरह की ख़राबी नहीं पाता, वह बे शक मेरे घर में आमदो रफ़्त रखता था मगर हमेशा मेरे हुज़ूर में। (उम्मेहात अल उम्मा पृष्ठ 166)

इसी 5 हिजरी में ग़ज़वाए बनी क़ुरैज़ा, सरया, सैफ़ अल बहर, ग़ज़वए बनी अयान भी वाक़े हुए हैं और तयम्मुम का हुक्म भी नाज़िल हुआ है और बक़ौल मुहीउद्दीन इब्ने अरबी इसी 5 हिजरी में सफ़रे ख़न्दक़ के मौक़े पर आं हज़रत (स.अ.) ने ख़ुद अज़ान में हय्या अला ख़ैरिल अमल का हुक्म दिया। किबरियत अहमर बर हाशिया अल वियाक़ियत वल जवाहर, जिल्द 1 पृष्ठ 43 व मोअल्लिमे तरजुमा मुस्लिम पृष्ठ 528 व कनज़ुल आमाल जिल्द 4 पृष्ठ 226 वाज़े हो कि हय्या अला ख़ैरिल अमल रसूले करीम (स.अ.) की तशकीले अजां़ का जुज़ है लेकिन हज़रत उमर ने उसे अपने अहद में अज़ान से ख़ारिज (निकाल) कर दिया। मुलाहेज़ा हो (नील अल वतारा, इमामे शोकानी जिल्द 1 पृष्ठ 339 व सही मुस्लिम मुतारज्जिम जिल्द 2 पृष्ठ 10)

 

6 हिजरी के अहम वाक़ेयात

सुलैह हुदैबिया ज़ीक़ाद 6 हिजरी मुताबिक़ 6280 में आं हज़रत (स.अ.) हज के इरादे से मक्के की तरफ़ चले, कु़रैश को ख़बर हुई तो जाने से रोका, हज़रत एक कुएं पर जिसका हुदैबिया नाम था रूक गए और असहाब से जां निसारी की बैअत ली। इसी को बैत अल रिज़वान कहते हैं और बैअत करने वालों को असहाबे सुमरा से ताबीर किया जाता है। क़ुरैश के ऐलची उरवा ने कहा कि इस साल हज से बाज़ आएं और यह भी कहा कि मैं आपके हमराह ऐसे लोग देख रहा हूँ जो ओबाश हैं और जंग से भाग निकलेंगे यह सुन कर हज़रत अबू बकर ने बज़रआलात चूसने की गाली दी। इसके बाद आं हज़रत (स.अ.) बारवायत इब्ने असीर हज़रत उमर को क़ुरैश के पास इस लिये बेजना चाहा कि वह उन्हें समझा बुझा कर सुलह करने पर राज़ी कर लें लेकिन वह ना गए और हज़रत उस्मान को भेजने की राय दी हज़रत उस्मान जो अबू सुफ़ियान के भतीजे थे इनके पास गए इनकी अच्छी तरह आव भगत हुई लेकिन आखि़र में गिरफ़्तार हो गए और जल्दी छूट कर चले गए। आखि़र अम्र क़ुरैश की तरफ़ से पैग़ामे सुलह लाया और हज़रत ने सुलह कर ली। सुलह नामा हज़रत अली (अ.स.) ने लिखा है। तरफ़ैन से शाहदते ले ली गईं। इस सुलह के बाद क़ुरैश बे खटके मुसलमान होने लगे और मक्केे में बिला मज़ाहमत क़ुरान पढ़ा जाने लगा क्यों कि अमन क़ाएम हो गया और रसूल (स.अ.) का नाम लेना जुर्म न रहा। एक दूसरे से मिलने लगे और इस्लाम का नया दौर शुरू हो गया। (तारीखे़ ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 15 और दुर्रे मन्शूर जिल्द 6 पृष्ठ 77 में है कि सुलैह हुदैबिया के बाद हज़रत उमर ने कहा कि मोहम्मद (स.अ.) की नबूवत में जैसा मुझे आज शक हुआ है कभी नहीं हुआ था। यह उन्होंने इस लिये कहा कि वह सुलह पर राज़ी न थे। इब्ने ख़ल्दून का बयान है कि इनके इस तरज़े अमल से हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) सख़्त रंजीदा हुए। (तारीखे़ इब्ने ख़ल्दून पृष्ठ 361)

तारीख़े इस्लाम एहसान उल्लाह अब्बासी में है कि हुदैबिया से वापस होते हुए रास्ते मे सूरा ए इन्ना फ़तैहना लका फ़तैहना मुबीनन नाज़िल हुआ। इसी साल ग़ज़वह ज़ी क़रद, सरया दो मताउल जिन्दल, सरया फ़िदक़, सरया वादिउल क़ुरा और सरया अरनिया भी वाक़े हुये हैं।

इसी 6 हिजरी में हज़रत रसूले करीम (स.अ.) ने ज़ैद बिन हारेसा की ज़ेरे सर करदगी चालीस आदमियों की एक जमाअत हमूम की तरफ़ रवाना की जिसने क़बीलाए मुज़ीना की औरत हलीमा और उसके शौहर को गिरफ़्तार कर के आपकी खि़दमत में हाज़िर किया आपने मियां बीवी दोनों को आज़ाद कर दिया। (तारीख़े कामिल बिन असीर जिल्द 2 पृष्ठ 78 व अल रक़ फ़िल इस्लाम, लेखक अतीक़ुर रहमान उस्मानी जिल्द 1 पृष्ठ 107)

 

7 हिजरी के अहम वाक़ेयात

जंगे ख़ैबर ख़ैबर मदीनए मुनव्वरा से तक़रीबन 50 मील के फ़ासले पर यहूदियों की बस्ती थी। इसके बाशिन्दे यूंही इस्लाम के ऊरूज व इक़बाल से जल भुन रहे थे कि मदीने में जिला वतन यहूदियों ने उनसे मिल कर उनके हौसले बलन्द कर दिये उन्होंने बनी असद और बनी ग़तफ़ान के भरोसे पर मदीने को तबाह व बरबाद कर डालने का मन्सूबा बांधा और उसके लिये मुकम्मल फ़ौजे तैय्यार लीं। जब आं हज़रत (स.अ.) को उनके अज़मो इरादे की ख़बर हुई तो आप 14 सफ़र 7 हिजरी को चैदह सौ (1400) पैदल और दो सौ (200) सवार ले कर फ़ितने को ख़त्म करने के लिये मदीने से बरामद हुए और ख़ैबर में पहुँच कर क़िला बन्दी कर ली और मुसलमान उन्हें घेरे में ले कर बराबर लड़ते रहे लेकिन क़िलै क़मूस फ़तेह न हो सका।

तारीख़े तबरी व ख़मीस और शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 85 में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने क़िला फ़तेह करने के लिये हज़रत उमर को भेजा फिर हज़रत अबू बकर को रवाना किया उसके बाद फिर हज़रत उमर को हुक्मे जिहाद दिया लेकिन यह हज़रात नाकाम वापस आये। (तारीख़े तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 93 में है कि तीसरी मरतबा जब अलमे इस्लाम पूरी हिफ़ज़त के साथ आं हज़रत (स.अ.) की खि़दमत में पहुँच रहा था रास्ते में भागते हुए लश्कर वालों ने सिपहे सालार की बुज़दिली पर इजमा कर लिया और सालारे लश्कर इन लशकरियों को बुज़दिल कह रहा था। इन हालात को देखते हुए आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया! कल मैं अलमे इस्लाम ऐसे बहादुर को दूंगा जो मर्द होगा और बढ़ बढ़ कर हमले करने वाला होगा और किसी हाल में भी मैदाने जंग से न भागे गा। वह ख़ुदा व रसूल को दोस्त रखता होगा और खुदा व रसूल उसको दोस्त रखते होगें और वह उस वक़्त तक मैदान से न पलटे गा जब तक ख़ुदा वन्दे आलम उसके दोनों हाथों पर फ़तेह न दे देगा।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के इस फ़रमाने से अहले इस्लाम में एक ख़ास कैफ़ियत पैदा हो गई और हर एक के दिल में यह उमंग आ मौजूद हुई कि कल अलमे इस्लाम किसी सूरत से मुझे ही मिलना चाहिये। (तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 93 में है कि हज़रत उमर कहते हैं कि मुझे सरदारी का हैसला आज के रोज़ से ज़्यादा कभी न हुआ था। मुवर्रिख़ का बयान है कि तमाम असहाब ने बहुत ही बेचैनी में रात गुज़ारी और सुबह होते ही अपने को आं हज़रत (स.अ.) के सामने पेश किया। असहाब को अगरचे उम्मीद न थी लेकिन बताये हुए सिफ़ात का तक़ाज़ा था कि अली (अ.स.) को आवाज़ दी जाए, कि नागाह ज़बाने रिसालत (स.अ.) से अयना अली इब्ने अबू तालिब की आवाज़ बलन्द हुई, लोगों ने हुज़ूर वह तो आशोबे चश्म में मुब्तिला हैं, आ नहीं सकते। हुक्म हुआ कि जा कर कहो कि रसूले ख़ुदा (स.अ.) बुलाते हैं। पैग़ाम पहुँचाने वाले ने रसूल (स.अ.) की आवाज़ हज़रत अली (अ.स.) के कानों तक पहुँचाइ और आप उठ ख़ड़े हुए। असहाब के कंधों का सहारा ले कर आं हज़रत (स.अ.) की खि़दमत में हाज़िर हुए। आपने अली (अ.स.) का सर अपने ज़ानू पर रखा और बुख़ार उतर गया। लुआबे दहन लगाया आशोबे चश्म जाता रहा। हुक्म हुआ अली मैदाने जंग में जाओ और क़िलाए क़मूस को फ़तेह करो। अली (अ.स.) ने रवाना होते ही पूछा हुज़ूर ! कब तक लडूँ़ और कब वापस आऊँ, फ़रमाया जब तक फ़तेह न हो।

हुक्मे रसूल (स.अ.) पा कर अली (अ.स.) मैदान में पहुँचे। पत्थर पर अलम लगाया। एक यहूदी ने पूछा आपका नाम क्या है फ़रमाया अली इब्ने अबी तालिब उसने अपनों से कहा कि (तौरैत) की क़सम यह शख़्स ज़रूर जीत लेगा क्यों कि इस क़िले के फ़ातेह के जो सिफ़ात तौरैत में बयान किये गये हैं वह बिल्कुल सही हैं इसमें सब सिफ़ात पाए जाते हैं। अल ग़रज़ हज़रत अली (अ.स.) से मुक़ाबले के लिये लोग निकल ने लगे और फ़ना के घाट उतर ने लगे। सब से पहले हारिस ने जंग आज़माई की और एक दो वारों की रद्दो बदल में ही वासिले जहन्नम हो गया। हारिस चूंकि मरहब का भाई था इस लिये मरहब ने जोश में आ कर रजज़ कहते हुए आप पर हमला किया। आपने इसके तीन भाल वाले नैज़े के वार को रोक कर के ज़ुलफ़ेक़ार का ऐसा वार किया कि इससे आहनी खोद, सर और सीने तक दो टुकड़े हो गये। मरहब के मरने से अगरचे हिम्मतें ख़त्म हो गईं थीं लेकिन जंग जारी रही और अन्तर रबी यासिर जैसे पहलवान मैदान में आते और मौत के घाट उतरते रहे। आखि़र में भगदड़ मच गई। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि जंग के बीच में एक शख़्स ने आपके हाथ पर एक ऐसा हमला किया कि सिपर छूट कर ज़मीन पर गिर गई और एक दूसरा यहूदी उसे ले भागा। हज़रत को जलाल आ गया आप आगे बढ़े और क़िला ख़ैबर के आहनी दर पर बायाँ हाथ रख कर ज़ोर से दबा दिया। आपकी उंगलियां उसकी चैखट में इस तरह दर आईं जैसे मोम में लौहा दर आता है। इसके बाद आपने झटका दिया और ख़ैबर के क़िले का दरवाज़ा जिसे चालीस आदमी हरकत न दे सकते थे, जिसका वज़न बरवायत मआरिज अल नबूवत आठ सौ मन और बरवायत रौज़तुल सफ़ा तीन हज़ार मन था उख़ड़ कर आपके हाथ में आ गया और आपके इस झटके से क़िले में ज़लज़ला आ गया और सफ़ीहा बिन्ते हई इब्ने अख़्तब मुहँ के बल ज़मीन पर गिर पड़े। चूंकि यह अमल इन्सानी ताक़त के बाहर था इस लिये आपने फ़रमाया मैंने दरे क़िला ए ख़ैबर को कू़व्वते रब्बानी से उखाड़ा है । उसके बाद आपने उसे सिपर बनाकर जंग की और इसी दरवाज़े को पुल बना कर लशकरे इस्लाम को उस पर उतार लिया। मदारिज अल नबूवा जिल्द 2 पृष्ठ 202 में है कि जब मुकम्मल फ़तेह के बाद आप वापस तशरीफ़ ले गये तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) आपके इस्तेक़बाल के लिये निकले और अली (अ.स.) को सीने से लगा कर पेशानी पर बोसा दिया और फ़रमाया कि ऐ अली (अ.स.) खुदा और रसूल (स.अ.) जिब्राईल व मिकाईल बल्कि तमाम फ़रिश्तें तुम से राज़ी व ख़ुश हैं। अल्लामा शेख़ ख़न्दूज़ी किताब नियाबुल मोअदता में लिखते हैं कि आं हज़रत (स.अ.) ने यह भी फ़रमाया था कि ऐ अली (अ.स.) तुम्हंे ख़ुदा ने वो फ़जी़लत दी है कि अगर मैं उसे बयान करता तो लोग तुम्हारी ख़ाके क़दम तबर्रूक समझ कर उठा कर रखते। तारीख़ में है कि फ़तेह खै़बर के दिन हुज़ूर (स.अ.) को दोहरी ख़ुशी हुई थी। एक फ़तेह ख़ैबर की और दूसरी हबश से मराजेअते जाफ़रे तैयार की। कहा जाता है कि इसी मौक़े पर एक औरत जै़नब बिन्ते हारिस नामी ने आं हज़रत (स.अ.) को भुने हुये गोश्त में ज़हर दिया था और इसी जंग से वापसी में सहाबा के मक़ाम पर रजअते शम्स हुई थी। (शवाहिद अल नबूवतः पृष्ठ 86, 87)

 

हज़रत अली (अ.स.) के लिये रजअते शम्स

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जब आं हज़रत (स.अ.) लश्कर समेत ख़ैबर से वापसी में मक़ामे वादी अल क़रा की तरफ़ जाते हुए मक़ामे सहाबा में पहुँचे और वहां ठहरे हुए थे तो एक दिन आप पर वही के नुज़ूल का सिलसिला ऐेसे वक़्त में शुरू हुआ कि सूरज डूबने से पहले ख़त्म न हुआ। हज़रत रसूले करीम (स.अ.) हज़रत अली (अ.स.) की गोद में सर रखे हुए थे। जब वही का सिलसिला ख़त्म हुआ तो आं हज़रत (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) से पूछा कि ऐ अली तुम ने नमाज़े अस्र भी पढ़ी या नहीं ? अर्ज़ की , मौला ! नमाज़ कैसे पढ़ता, आपका सरे मुबारक ज़ानू पर था और वही का सिलसिला जारी था। यह सुन कर हज़रत रसूले करीम (स.अ.) ने दुआ के लिये हाथ बलन्द किये और कहा कि बारे इलाहा अली तेरी और तेरे रसूल (स.अ.) की इताअत में था इसके लिये सूरज को पलटा दे ताकि यह नमाज़े अस्र अदा कर ले चुनान्चे सूरज पलट आया और अली (अ.स.) ने नमाज़े अस्र अदा की। (हबीब असीर, रौज़ातुल सफ़ा, रौजा़तुल अहबाब, शरहे शफ़ा क़ाज़ी अयाज़, तारीख़े ख़मीस) बाज़ रवायात में है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अली (अ.स.) से फ़रमाया कि सूरज को हुक्म दो वह पलटे गा चुनान्चे अली (अ.स.) ने हुक्म दिया और सूरज पलट आया। अल्लामा अब्दुल हक़ मोहद्दिस देहलवी लिखते हैं यह हदीस रजअते शम्स सही है सुक़्क़ा रावियों से मरवी है। अल्लामा इक़बाल फ़रमाते हैं।

             आं के दर आफ़ाक़, गरद्द बूतुराब ।

             बाज़ गर दानद ज़े मग़रिब आफ़ताब ।।

 

तबलीगी ख़ुतूत

हज़रत को अभी सुलेह हुदयबिया के ज़रिये से सुकून नसीब हुआ ही था कि आपने सात 7 हिजरी में एक मोहर बनवाई जिस पर मोहम्मद रसूल अल्लाह कन्दा कराया। इसके बाद दुनिया के बादशाहों को ख़त लिखे। इन दिनों अरब के इर्द गिर्द चार बड़ी सलतनतें क़ायम थीं।

1. हुकूमते ईरान जिसका असर मध्य ऐशिया से ईराक़ तक फैला हुआ था।

2. हुकूमते रोम जिसमें ऐशियाए कोचक, फ़िलिस्तीन, शाम और यूरोप के बाज़ हिस्से शामिल थे।

3. मिस्र ।

4. हुकूमते हबश जो मिस्री हुकूमत के जुनूब से ले कर बहरे कुलजुम के मग़रबी साहिल पर हिजाज़ व यमन की तरह क़ायम थी और उसका असर सहराए आज़म अफ़रीक़ा के तमाम इलाक़ों पर था।

हज़रत ने बादशाहे हबश नजाशी, शाहे रोम, क़ैसर हरकुल, गर्वरने मिस्र जरीह इब्ने मीना क़िब्ती उर्फ़ मक़वुक़श बादशाहे इरान ख़ुसरो परवेज़ और गर्वनर यमन बाज़ान, वाली दमिश्क हारिस वग़ैरह के नाम ख़ुतूत रवाना फ़रमाये।

आपके ख़ुतूत का बादशाहों पर अलग अलग असर हुआ। नजाशी ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। शाहे इरान ने आपका ख़त पढ़ कर ग़ुस्से के मारे ख़त के टुकड़े कर दिये और ख़त ले कर आने वाले को निकाल दिया और गर्वनरे यमन को लिखा कि मदीने के दीवाने आं हज़रत (स.अ.) को गिरफ़्तार कर के मेरे पास भेज दे। उसने दो सिपाही मदीने भेजे ताकि हुजू़र को गिरफ़्तार करें। हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया, जाओ तुम क्या गिरफ़्तार करो गे, तुम्हें ख़बर भी है तुम्हारा बादशाह इन्तेक़ाल कर गया। सिपाही जो यमन पहुँचे तो सुना की शाहे ईरान मर चुका है। आपकी इस ख़बर देने से बहुत से काफ़िर मुसलमान हो गये। क़ैसरे रोम ने आपके ख़त की ताज़िम की। मिस्र के गर्वनर ने आपके क़ासिद की बड़ी आवभगत की और बहुत से तोफ़ो समेत उसे वापस कर दिया। इन तोहफ़ो में मारिया क़िब्तिया (आं हज़रत की पत्नी) और उनकी बहन शीरीं (जौजा ए हस्सान बिन साबित) एक दुलदुल नामी घोड़ा हज़रत अली (अ.स.) के लिये, याफ़ूर नामी दराज़ गोश माबूर नामी ख़्वाजा सरा शामिल थे।

 

हुसूले फ़िदक़

फ़िदक ख़ैबर के इलाक़े में एक क़रिया (गांव) है। फ़तेह ख़ैबर के बाद आं हज़रत (स.अ.) ने अली (अ.स.) को फ़ेदक वालों की तरफ़ भेजा और हुक्म दिया कि उन्हें दावते इस्लाम दे कर मुसलमान करें। इन लोगों ने इस बात पर सुलह करनी चाही कि आधी ज़मीन आं हज़रत को दे दें और आधी पर ख़ुद क़ाबिज़ रहें। हज़रत ने उसे मंज़ूर फ़रमाया लिया। तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 95 में है कि चूंकि यह फ़ेदक बग़ैर जंगों जेदाल मिला था इस लिये आं हज़रत (स.अ.) की मिलकियत क़रार पाया। दुर्रे मन्शूर जिल्द 7 पृष्ठ 177 में है कि फ़ेदक के क़ब्ज़े में आते ही हुक्मे ख़ुदा नाज़िल हुआ वात जिल क़ुरबा हक़्क़ा अपने क़राबत दार को हक़ दे दो। शरह मवाक़िफ़ के पृष्ठ 735 में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने आताहा फ़ेदक तख़लता फ़ातमा ज़ैहरा (स.अ.) को बतौरे अतिया फ़ेदक़ दे दिया। रौज़तुल सफ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 377, मआरिज अल नबूवता पैरा 4 पृष्ठ 221 में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने तहरीरी तसदीक़ नामा यानी बज़रिये दस्तावेज़ जायदाद फ़ेदक़ जनाबे सैय्यदा (स.अ.) के नाम हिबा कर दी। यही कुछ सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 21, 22, वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 63, फ़तावे अज़ीजी़ पृष्ठ 143, रौज़ातुल सफ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 135 जिल्द 1 पृष्ठ 85 मारिज अल नबूवत मुईन कशफ़ी रूकन 4 पृष्ठ 221, मोअजम अल बलदान में इस ज़मीन को बहुत उपजाऊ बताया गया है और कहा गया है कि यह ज़मीन बहुत से चश्मों से सेराब होती थी। इसमें काफ़ी बागा़त भी थे। अबू दाऊद के किताब ख़ेराज में इसकी आमदनी 4000, चार हज़ार दीनार (अशरफ़ी) सलाना लिखी है।

 

एक वाकेया

इसी साल मक़ामे सहाबा से वापसी में ग़ज़वा वादी अल क़ुरा वाक़े हुआ। यहूदियों से लड़ाई हुई और बहुत सा माले ग़नीमत हाथ आया। इसी साल मुसलमानों के मशहूर हदीस गढ़ने वाले अबू हुरैरा मुसलमान हुए। यह इस्लाम लाने से पहले यहूदी थे। 3 साल अहदे रिसालत में ज़िन्दगी बसर की। आपने 5304 पांच हज़ार तीन सौ चार हदीसे नक़्ल की हैं। शरह मुस्लिम नूरी पृष्ठ 377, सही मुस्लिम जिल्द 2 पृष्ठ 509, अलफ़ारूक़ जिल्द 2 पृष्ठ 105, मीज़ान अल क़ूबरा जिल्द 1 पृष्ठ 71 में है कि अब्दुल्लाह बिन उमर हज़रत आयशा और हज़रत अली (अ.स.) इन्हें झूठा जानते थे।

 

8 हिजरी के अहम वाक़ेयात

जंगे मौता

जंगे मौता उस मशहूर जंग को कहते हैं जिसमें इस्लाम के तीन सरदार एक के बाद एक शहीद हुए। जिनमें विशेष स्थान जाफ़रे तैयार को हासिल था। मौता यह शाम के इलाक़े बल्क़ा का एक क़रिया है। इस जंग का वाके़या यह है कि हुज़ूर (स.अ.) ने इस्लामी दावत नामा दे कर बादशाहों और धनी लोगों की ही तरह शाम के ईसाई हाकिम शरजील बिन अम्र ग़सानी के पास भी भेजा। उसने हुज़ूर (स.अ.) के का़सिद हारिस इब्ने अमीर को मौता के मक़ाम पर क़त्ल कर दिया चूंकि उसने इस्लामी तौहीन के साथ साथ दुनिया के बैनुल अक़वामी क़ानून के खि़लाफ़ किया था लेहाज़ा आँ हज़रत (स.अ.) ने तीन हज़ार की फ़ौज दे कर अपने ग़ुलाम ज़ैद को रवाना किया और यह प्रोग्राम बना दिया कि अगर यह क़त्ल हो जायें तो जाफ़रे तैयार और अगर यह क़त्ल हो जायें तो उनके बाद अब्दुल्लाह इब्ने रवाह अलमदारी करें (यानी सरदारी करें) मैदान में पहुँच कर मालूम हुआ कि मुक़ाबले के लिये एक लाख का लश्कर आया है। हुक्मे रसूल (स.अ.) था लेहाज़ा हज़रते ज़ैद ने जंग की और शहीद हो गये। हज़रत जाफ़र ने अलम संभाला और बहुत ही बहादुरी और बे जिगरी के साथ वह लड़ने लगे फ़ौज मे हलचल डाल दी लेकिन सीने पर 90 ज़ख़्म खा कर ताब न ला सके और ज़मीन पर आ कर गिरे। उनके बाद अब्दुल्लाह इब्ने रवाह ने अलम संभाला और जंग में मशग़ूल हुये, आखि़रकार उन्होंने भी शहादत पाई। फिर और एक बहादुर ने अलम संभाला। कामयाबी के बाद मदीना वापसी हुई। मुसलमानों ख़ास कर आं हज़रत (स.अ.) को इस जंग में तीन सिपाह सालारों के क़त्ल होने का सख़्त मलाल हुआ। जाफ़रे तैयार के लिये आपने फ़रमाया ख़ुदा ने उन्हें जन्नत में परवाज़ के लिये दो ज़मर्रूद के पर अता किये हैं । मुवर्रेख़ीन का कहना है कि इसी लिये आपको जाफ़रे तैयार कहा जाता है। तारीख़े कामिल में है कि आं हज़रत (स.अ.) जब जाफ़र के घर गये तो उनकी बीवी को रोता देख कर अपने घर पहुँचे तो फ़ातेमा (स.अ.) को रोते देखा। हुज़ूर ने सबको तसल्ली दी और जाफ़रे तैयार के घर खाना पकवा कर भिजवाया। यह जंग जमादिल अव्वल 8 हिजरी में वाक़े हुई।

 

ज़ातुल सलासिल

इसी जमादिल अव्वल 8 हिजरी में यह सरिया (जंग) ज़ातुल सलासिल भी वाक़े हुई। आं हज़रत (स.अ.) ने तीन सौ सिपाहीयों के साथ अम्र आस को क़बीलाए फ़ज़ाआ के सर कुचलने के लिये भेजा मगर वह कामयाब न हो सके तो अबू उबैदा बिन जर्राह को रवाना फ़रमाया उन्होंने कामयाबी हासिल की।

 

मिम्बरे नबवी की इब्तेदा

अब से पहले आं हज़रत (स.अ.) के लिये मस्जिद में कोई मिम्बर न था। आप सुतून (ख्म्बे) से टेक लगा कर ख़ुतबा दिया करते थे। आपको लिये आयशा अन्सारिया ने तीन दरजे का मिम्बर अपने रूमी ग़ुलाम बाक़ूम नामी से जो बढ़ई का काम जानता था बनवा दिया।

 

फ़तेह मक्का

सुलैह हुदैबिया की वजह से 10 साल तक आपसी जंगों जेदाल मना होने के बावजूद क़ुरैश के दुश्मन क़बिले बनू बक्र ने आं हज़रत (स.अ.) के दुश्मन क़बीले बनू ख़ज़ाआ पर चढ़ाई कर दी और क़ुरैश की मदद से उन्हें तबाह व बरबाद कर डाला। आखि़रकार हालात से मजबूर हो कर बनी ख़ज़ाआ ने आं हज़रत (स.अ.) से मद्द मांगी। आं हज़रत (स.अ.) ने 10 हज़ार का लश्कर तैयार कर के मक्के का इरादा किया। अबू सुफ़ियान ने जब यह तैयारी देखी तो यह दरख़्वास्त पेश करने के लिये कि सुलह नामा हुदैबिया की तजदीद (रीनीवल) कर दी जाय। मदीने आया और अपनी बेटी उम्मे हबीब रसूल (स.अ.) की पत्नी के घर गया उन्होंने यह कह कर उसे बिस्तरे रसूल (स. अ.)से हटा दिया कि तू काफ़िरो मुशरिक है। (अबुल फ़िदा) फिर आं हज़रत (स.अ.) के पास गया, आपने ख़ामोशी इख़्तेयार की। फिर हज़रत अली (अ.स.) से मिला। उन्होंने भी मुंह न लगाया। फिर हज़रत फातेमा (स.अ.) के पास पहुँचा और इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) के वास्ते से अमान मांगी उन्होंने भी कोई सहारा न दिया। इसके बाद मस्जिद में तजदीदे सुलोह का ऐलान कर के वापस चला गया। हज़रत मोहम्मद (स.अ.) ने पूरे पूरे ध्यान के साथ जंग की ख़ुफ़िया तैयारियां कर लीं मगर यह न ज़ाहिर होने दिया कि किस तरफ़ जाने का इरादा है। इसी ख़ुफ़िया तैयारी की इस्कीम के तहत इस्कीम के तहत आपने मक्के आना जाना बिल्कुल बन्द कर दिया था। आपका ख़्याल था कि अगर मक्के वालों को वक़्त से पहले यह ख़बर मिल जायेगी तो कामयाबी मुश्किल हो जायेगी। मगर एक चुग़लख़ोर सहाबी हातिब इब्ने बलतअः ने जिसके बच्चे मक्के में थे, एक औरत के ज़रिये से हमले का मुकम्मल हाल लिख भेजा। वह तो कहिये हज़रत को इत्तेला मिल गई आपने अली (अ.स.) को भेज कर ख़त वापस करा लिया।

अलग़रज़ 10 रमज़ान 8 हिजरी को आप अन्जान रास्तों से अचानक मक्के पहुँचे और मक्के से चार फ़रसक़ की दूरी पर सरा नतहरान पर पड़ाओ डाला। लश्कर की कसरत का चरचा हो गया। अबू सुफ़ियान हज़रते अब्बास से मशविरे से मुसलमान हो गया। आं हज़रत (स.अ.) ने उसके लिये यह छूट कर दी कि जो उसके घर में फ़तेह मक्का के मौक़े पर पनाह ले उसे छोड़ दिया जाय। अबू सुफ़ियान मक्के वापस गया और उसने आं हज़रत (स.अ.) की तरफ़ से ऐलान कर दिया कि जो मक्के में मेरे मकान में पनाह लेगा महफ़ूज़ रहेगा। जो हथियार लगाये बग़ैर सामने आयेगा उस पर हाथ न उठाया जायेगा। उसके बाद जंग शुरू हुई और थोड़ी सी रूकावट के बाद मक्के पर क़ब्ज़ा हो गया। सरदारे लशकर हज़रत अली (अ.स.) थे। आं हज़रत (स.अ.) क़सवा नामी ऊँट पर सवार हो कर मक्के में दाखि़ल हुए और ज़ुबैर के लगाए हुए इस्लामी झंडे के क़रीब जा कर उतरे। ख़ेमें लगाए गए। आपने क़ुरैश से फ़रमाया बताओ तुम्हारे साथ क्या सुलूक करूं। सबने कहा आप करीम इब्ने करीम हैं हमें माफ़ फ़रमायें। आपने माफ़ी दी और आप सात मरतबा तवाफ़ के बाद दाखि़ले हरमे काबा हो गये और उन तमाम बुतों को अपने हाथ से तोड़ा जो नीचे थे और ऊंचे बुतों को तोड़ने के लिये हज़रत अली (अ.स.) को अपने कंधे पर चढ़ाया। अली (अ.स.) ने तमाम बुतों को तोड़ कर ज़मीन पर फेंक दिया गोया पत्थर के ख़ुदाओं को मिट्टी मे मिला दिया। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जिस जगह मोहरे नबूवत थी और जहां मेराज की शब रसूल (स.अ.) के कांधे पर हाथ रखा हुआ महसूस हुआ था, उसी जगह अली (अ.स.) ने पांव रख कर बुतों को तोड़ा। उनका यह भी बयान है कि हज़रत अली (अ.स.) को रसूल (स.अ.) ने अपनी पीठ पर सवार किया और जिब्राईल (अ.स.) ने बुत तोड़ने के बाद अपने हाथों से उतारा। (तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 92 ज़िन्देगानी मोहम्मद पृष्ठ 77, अजायब अल क़स्स पृष्ठ 278 में है कि काबे में तीन सौ साठ (360) बुत थे।

 

दावते बनी ख़ज़ीमा

मक्काए मोअज़्ज़ेमा फ़तेह हो जाने के बाद आं हज़रत (स.अ.) ने कुछ लोगों को तबलीग़े इस्लाम के लिये क़रीब की जगहों पर भेजा। जिन्में ख़ालिद बिन वलीद भी थे। यह लोग जब बनी ख़ज़ीमा के पास पहुँचे तो उन्होंने अपने मुसलमान होने का यक़ीन दिलाया लेकिन इब्ने वलीद ने कोई परवाह न की और उन पर ग़ैर इख़लाकी़ ज़ुल्म किया। आं हज़रत (स.अ.) ने जब यह ख़बर सुनी तो आपने अपने बरी उज़ ज़िम्मा होने का ऐलान किया और हज़रत अली (अ.स.) को भेज कर हर क़िस्म का तावान अदा किया और ख़ूं बहा दिया। (तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 124)

 

जंगे हुनैन

हुनैन मक्के से तीन मील के फ़ासले पर ताएफ़ की तरफ़ एक वादी का नाम है। फ़तेह मक्का की ख़बर से बनी हवाज़न, बनी सक़ीफ़, बनी हबशम और बनी सअद ने आपस में फ़ैसला किया कि सब मिल कर मुसलमानों से लड़ें। उन्होंने अपना सरदारे लशकर मालिक इब्ने औफ़ नफ़री और अलमदार अबू जरवल को क़रार दिया और वह अपने साथ दरीद इब्ने सम्मा नमी 120 साल का तजरूबे कार सिपाही मशवेरे के लिये पांय हज़ार सिपहियों का लशकर ले कर हुनैन और ताएफ़ के बीच मक़ामे अवतास पर जमा हो गये। जब आं हज़रत (स.अ.) को इस इजतेमा की ख़बर मिली तो आप बारह हज़ार (12,000) या (16, 000) सोलह हज़ार का लशकर ले कर जिसमें मक्के के दो हज़ार (2000) नौ मुस्लिम भी शामिल थे। 6 शव्वाल 8 हिजरी को दुलदुल पर सवार मक्के से निकल पड़े। हज़रत अली (अ.स.) हमेशा की तरह अलमदारे लशकर थे। मैदान में पहुँच कर हज़रत अबू बकर ने कहा कि हम लोग इतने ज़्यादा हैं कि आज शिकस्त नहीं खा सकते। मैदाने जंग में इस तरह के मंसूबे बांधे जा रहे थे कि वह दुश्मन जो पहाड़ों में छुपे हुये थे निकल आये और तीरों नैजो और पत्थरों से ऐसे हमले किये कि बुज़दिलों की जान के लाले पड़ गये। सब सर पर पांव रख कर भागे। किसी को रसूले ख़ुदा (स.अ.) की ख़बर न थी, वह पुकार रहे थे। ऐ बैअते रिज़वान वालों ! कहां जा रहे हो, लेकिन कोई न सुनता था। ग़रज़ कि ऐसी भगदड़ मची कि उसूले जंग शुरू होने से पहले ही हज़रत अली (अ.स.), हज़रते अब्बास, इब्ने हारिस और इब्ने मसूद के अलावा सब भाग गये। (सीरते हलबिया जिल्द 3 पृष्ठ 109) इस मौक़े पर अबू सुफ़ियान कह रहा था कि अभी क्या है मुसलमान समन्दर पार भागें गे।

हबीब अल सियर और रौज़ातुल अहबाब में है कि सब से पहले ख़ालिद इब्ने वलीद भागे उनके पीछे क़ुरैश के नौ मुस्लिम चले, फिर एक एक कर के महजिर व अन्सार ने राहे फ़रार इख़्तेयार की। इसी दौरान में दुश्मनों ने आं हज़रत (स.अ.) पर हमला कर दिया जिसे जां निसारों ने रद्द कर दिया। हालात की नज़ाकत को देख कर रसूल अल्लाह (स.अ.) खुद लड़ने के लिये आगे बढ़े मगर हज़रते अब्बास ने घोड़े की लजाम थाम ली, और मुसलमानो को पुकारा, आप की आवाज़ पर नौ सौ (900) मुसलमान वापस आ गये और दुश्मन भी सब के सब मुक़ाबिल हो गये। घमासान की जंग शुरू हुई, अबू जरवल अलमदारे लशकर ने मुक़ाबिल तलब किया। हज़रत अली (अ.स.) अलमदारे लशकरे इस्लाम मुक़ाबले में तशरीफ़ लाये और एक ही वार में उसे फ़ना के घाट उतार दिया। मुसलमानों के हौसले बढ़े और कामयाब हो गये। सीरत इब्ने हश्शाम, जिल्द 2 पृष्ठ 261 में है कि इस जंग में चार मुसलमान और 70 काफ़िर क़त्ल हुए जिनमें से चालिस 40 हज़रते अली (अ.स.) को हाथ से मारे गये। इस जंग में ग़ैबी इमदाद मिली थी जिसका ज़िक्र क़ुरआने मजीद में है। इसके बाद मक़ामे अवतास में जंग हुई और वहां भी मुसलमान कामयाब हुए। इन दोनों जंगों में काफ़ी माले ग़नीमत हाथा आया। अवतास में असमा बिन्ते हलीमा साबिया भी हाथ आईं।

 

हलीमा सादिया की सिफ़ारिश

जंगे हुनैन की बची हुई फ़ौज ताएफ़ में पनाह गुज़ीन हो गई। आपने शव्वाल 8 हिजरी में इसके मोहासरे का हुक्म दिया और 20 दिन तक मोहासरा (घिराव) जारी रहा। उसके बाद आप ने मोहासरा उठा लिया और मक़ामे जवाना पर चले गये। वहां पांच ज़िकाद को बनी हवाज़न की तरफ़ से दरख़्वास्त आई कि हम आपकी इताअत क़ुबूल करते हैं। आप हमारी औरतें माल वापस कर दीजिये। बनी हवाज़न की सिफ़ारिश में जनाबे हलीमा साबीया भी आई। आं हज़रत (स.अ.) ने उनकी सिफ़ारिश कु़बूल फ़रमाई।


 

9 हिजरी के अहम वाके़यात

फिलिस की तबाही

क़बीलाए बनी तय जिसमें मशहूर सक़ी हातम ताई पैदा हुआ था फिलिस नामी बुत को पूजता था। फ़तेह मक्का के कुछ दिन बाद आं हज़रत (स.अ.) ने 150 डेढ़ सौ सवारों समैत रबीउल अव्वल 9 हिजरी में उसकी तरफ़ हज़रत अली (अ.स.) को भेजा। अदी अब्ने हातम जो सरदारे क़बीला था भाग गया। बहुत सा माले ग़नीमत और क़ैदी हाथ आये। हज़रते अली (अ.स.) ने इन्सान और माल लशकर में बांट दिये और अदी की बहन यानी हातम ताई की बेटी सफ़ाना में बहुत ही इज़्ज़तो एहतेराम के साथ आं हज़रत की खि़दमत मे पहुँचाया। उसने शराफ़ते ख़ानदान का हवाला दे कर रहम की दरख़्वास्त की। आपने उसे आज़ाद कर दिया और किराया दे कर उसको उसके भाई के पास भिजवा दिया। आपके इस हुस्ने इख़्लाक़ी से अदी बहुत प्रभावित हुआ। 10 हिजरी में आकर मुसलमान हो गया।

 

ग़ज़वा ए तबूक़

तबूक़ और दमिश्क के बीच 12 या 14 मंज़िल पर था। हज़रत को ख़बर मिली कि नसारा शाम ने हरक़ुल बादशाहे रूम से चालीस हज़ार (40, 000) फ़ौज मगा कर मदीने पर हमला करने का फ़ैसला किया है। आपने हिफ़ाज़त को ध्यान में रखते हुए पेश क़दमी की। मदीने का निज़ाम हज़रते अली (अ.स.) के सिपुर्द फ़रमाया और 30,000 (तीस हज़ार) फ़ौज ले कर शाम की तरफ़ रवाना हो गये। रवानगी के वक़्त हज़रत अली (अ.स.) ने अर्ज़ की मौला मुझे बच्चों और औरतों में छोड़े जाते हैं। क्या तुम इस पर राज़ी नहीं हो कि मैं उसी तरह अपना जां नशीन बना कर जाऊं जिस तरह जनाबे मूसा आपने भाई हारून को बना कर जाया करते थे। (सही बुख़ारी किताबुल मग़ाज़ी) ऐ अली ख़ुदा का हुक्म है कि मैं मदीने रहूं या तुम रहो। (फ़तेहुल बारी जिल्द 3 पृष्ठ 387) ग़रज़ की आप रवाना हो कर मंज़िले तबूक़ तक पहुँचे। आपने वहां दुश्मनों का 20 दिन तक इन्तेज़ार किया लेकिन कोई भी मुक़ाबले के लिये न आया। दौराने क़याम में अरीब क़रीब में दावते इस्लाम का सिलसिला जारी रहा। बिल आखि़र वापस तशरीफ़ लाये। यह वाक़ेया रजब 9 हिजरी का है।

 

वाक़ऐ उक़बा

तबूक़ से वापसी में एक घाटी पड़ती थी जिसका नाम उक़बा ज़ी फ़तक़ था। यह घाटी सवारी के लिये इन्तेहाई ख़तरनांक थी। अन्देशा यह था कि कहीं ऊंट का पांव फिसल न जाये कि हज़रत को चोट न लगे। इसी वजह से ऐलान करा दिया गया कि जब तक हज़रत का ऊँट गुज़र न जाए कोई भी घाटी के क़रीब न आय। ग़रज़ कि रवानगी हुई हज़रत सवार हुए। हुज़ैफ़ा ने मेहार (ऊँट की रस्सी) पकड़ी, अम्मार हंकाते हुये रवाना हुए। यह हज़रात समझ रहे थे कि निहायत पुर अमन जा रहे हैं नागाह बिजली चमकी और उनकी नज़र कुछ ऐसे सवारों पर पड़ी जो चेहरों को कपड़े से छुपाये हुए थे। हज़रत ने फ़रमाया ऐ हुज़ैफ़ा तुम ने पहचाना यह मुनाफ़िक़ मेरी जान लेना चाहते हैं। फिर आपने सब के नाम बता दिये और कहा किसी से कहना नहीं वरना फ़साद होगा। रौज़तुल अहबाब में है कि वह अकाबिर (बड़े सहाबा) थे।

 

तबलीग़े सूरा ए बराअत

9 हिजरी में आं हज़रत (स.अ.) ने 300 (तीन सौ) आदमियों के साथ हज़रते अबू बकर को हज और तबलीग़े सूरा ए बराअत के लिये भेजा। अभी आप ज़्यादा दूर न जाने पाये थे कि वापस बुला लिये गये और यह सआदत हज़रत अली (अ. स.) के सिपुर्द कर दी गई। हज़रत अबू बकर के एक सवाल के जवाब में फ़रमाया कि मुझे ख़ुदा का यही हुक्म है कि मैं जाऊं या मेरी आल में से कोई जाए। शाह वली उल्लाह कहते हैं कि शेख़ैन दोनों के दोनों मामूर थे मगर माज़ूल (बरखा़स्त) किये गये। क़ुर्रतुल एैन पृष्ठ 234 सही बुखा़री पैरा 2 पृष्ठ 238, कन्ज़ुल आमाल जिल्द 1 पृष्ठ 126, दुर्रे मन्शूर जिल्द 3 पृष्ठ 310, तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 157 से 160 तक, ख़माएसे निसाई पृष्ठ 61, रौज़ौल अनफ़ जिल्द 2 पृष्ठ 328, तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 154, रियाज़ुल नज़रा पृष्ठ 174

 

जंगे वादीउल रमल

वादीउल रमल मदीने से पांच मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है। वहां अरबों की एक बड़ी जमीअत (ग्रुप) ने मदीने पर शब ख़ूं (रात के अंधेरे में चुपके से हमला करना) मारने और अचानक शहर पर क़ब्ज़ा कर के इस्लामी ताक़त को चकना चूर कर देने का मन्सूबा तैयार किया। हज़रत (स.अ.) को जैसे ही ख़बर मिली आपने उनकी तरफ़ एक लशकर भेज दिया और अलमदारी हज़रत अबू बकर के सिपुर्द की। उन्हें हज़ीमत (शिकस्त) हुई। फिर हज़रत उमर को अलमदार बनाया। वह ख़ैर से घर को आ गये। फिर उमर बिन आस को रवाना किया वह भी शिकस्त खा गये। जब का कामयाबी किसी तरह न हुई तो आं हज़रत (स.अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को अलम दे कर रवाना किया। ख़ुदा ने अली (अ.स.) को शानदार कामयाबी अता की। जब हज़रत अली (अ.स.) वापस हुए तो आं हज़रत (स.अ.) ने खुद हज़रत अली (अ.स.) का इस्तेक़बाल किया। (हबीबुस सियर, माआरिज अल नबूवत)

 

वफ़ूद

9 हिजरी में वफ़ूद आना शुरू हुए और आं हज़रत (स.अ.) की वफ़ात से पहले तक़रीबन अरब का बड़ा हिस्सा मुसलमान हो गया। इसी हिजरी मे हुक्मे नजासते मुशरेकीन भी नाज़िल हुआ।

 

वुसूलीए सदक़ात

इसी 9 हिजरी में बनी तय से अदी बिन हातम ताई, बनी हंज़ला से मालिक इब्ने नवेरा, बनी नजरान से हज़रत अली (अ.स.) जज़िया व सदक़ात वुसूल करने गये और माल भिजवाया। (इब्ने ख़ल्दून)

 

10 हिजरी के अहम वाक़ेयात

यमन में तबलीग़ी सरगरमियां 10 हिजरी में आं हज़रत (स.अ.) ने ख़ालिद बिन वलीद को तबलीग़े दीन के ख़्याल से यमन भेजा। यह वहां जा कर छः 6 महीने तक इधर उधर फिरते रहे और कोई काम न कर सके। यानी उनकी तबलीग़ से कोई भी मुसलमान न हो सका तो हज़रत अली (अ.स.) को भेजा गया। आपने ज़ोरो इल्म सलीक़ाए तबलीग़ी की वजह से सारे क़बीलाए हमदान को मुसलमान कर लिया। उसके बाद अहले यमन मुसलसल दाख़ले इस्लाम होने लगे। जब आं हज़रत (स.अ.) को यह शानदार कामयाबी मालूम हुई तो आपने सजदाए शुक्र अदा किया और क़बीलाए हमदान के लिये दुआ की और फ़रमाया ख़ुदा क़बीलाए हमदान पर सलामती नाज़िल करे। (तारीख़े तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 159)

 

यमन में हज़रत अली (अ.स.) की शानदार कामयाबी पर मुख़ालिफ़ों की हासेदाना रविश

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि यमन में ख़ालिद बिन वलीद बिलकुल कामयाब नहीं हुए फिर जब हज़रत अली (अ.स.) को शानदार कामयाबी नसीब हुई तो बाज़ लोगों ने हज़रत अली (अ.स.) पर माले ग़नीमत के सिलसिले में ऐतेराज़ किया।

किताब खि़लाफ़त व इमामत के पृष्ठ 79 लाहौर की छपी, में है जब जनाबे अमीर तबलीग़े अहले यमन के लिये मामूर किये गये थे और आपके खि़लाफ़ कुछ लोगांे की शिकायत सुन कर आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया था कि मुझ से अली (अ.स.) की बुराई न करो। फ़ाफ़हा मिनी राआना मिन्हो व हुव्वद लैकुम बाअदी (अली मुझसे है और मैं अली से हूँ और वह मेरे बाद तुम्हारा हाकिम है ।) बाद अहादीस में अल्फ़ाज़ वहू वलेकुम बाअदी के नहीं पाये जाते और बाज़ में वहू मौला कुल मोमिन व मोमेनात पाये जाते हैं। शिकायत यह थी के जनाबे अमीर ने ख़ुम्स में से एक लौंड़ी चुन ली थी। बुख़ारी की रवायत से मालूम होता है कि यह शिकायत सुन कर रसूल अल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया था फ़ा अन लहा फ़िल ख़ुम्स अक्सर मिन ज़ालेका अली का हिस्सा ख़ुम्स में इससे भी ज़्यादा है। यह हदीस भी अहले तसन्नुन की तमाम मोतबर किताबों में पाई जाती है और इससे जो मंज़िलत जनाबे अमीर (अ.स.) की जा़हिर होती है वह भी किसी से छुपी नहीं है।

 

यमन का निज़ामे हुकूमत इसी 10 हिजरी में बाजा़न हाकिमे यमन ने इन्तेक़ाल किया। उसकी वफ़ात के बाद यमन को विभिन्न भागों में, विभिन्न हाकिमों के सिपुर्द किया गया। 1. सनआ का गर्वनर बाज़ान के बेटे को। 2. हमदान का गर्वनर आमिर इब्ने शहरे हमदानी को। 3. मआरब का हाकिम अबू मूसा अशअरी को। 4. जनद का अफ़सर लाअली इब्ने उमैया को। 5. मुल्को अशरा में ताहिर इब्ने अबी हाला को। 6. नजरान में उमर इब्ने ख़रम को। 7. नजरान, जुम्आ, ज़ुबैद के दरमियान, सईद इब्ने आस को। 8. सकासक व सुकून में अक्काशा इब्ने सौर को मुक़र्रर कर दिया गया।

 

 

असहाब का तारीख़ी इजतेमा

और

तबलीग़े रिसालत की आख़री मंज़िल

हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त का ऐलान

यह एक हक़ीक़त है कि दुनिया के पैदा करने वाले ने इन्तेख़ाबे खि़लाफ़त को अपने लिये मख़सूस रखा है और इसमें लोगों का दस्त रस नहीं होने दिया। फ़रमाता है।

 وربك يخلق ما يشاء ويختار ما كان لهم الخيرة سبحان الله وتعالى عما يشركون

तुम्हारा रब ही पैदा करता है और जिसको चाहता है (नबूवत व खि़लाफ़त) के लिये चुनता है। याद रहे इन्सान को न चुन्ने का हक़ है और न वह इस में ख़ुदा के शरीक हो सकते है। (सूरऐ किसस आयत 68)

यही वजह है कि उसने अपने तमाम ख़ुलफ़ा, आदम से खातम तक खुद मुक़र्रर किये हैं और उनका ऐलान अपने नबियों के ज़रिये से कराया है। (रौज़तुल सफ़ा, तारीखे़ कामिल, तारीखें इब्ने अल वरदी, अराईस शाअल्बी वग़ैरा) और इसमें तमाम अम्बिया के किरदार की मवाफ़ेक़त का इतना लेहाज़ रखा है कि तारीख़ेे ऐलान तक में फ़र्क नहीं आने दिया। अल्लामा बहाई व अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि तमाम अम्बिया ने खि़लाफ़त का ऐलान 18 ज़िलहिज्जा को ही किया है। (जामे अब्बासी व इख़्तेयाराते मजलिसी) इतिहासकारों का इत्तेफ़ाक़ है कि आं हज़रत (स.अ.) ने हज्जतुल विदा के मौक़े पर 18 ज़िलहिज्जा को ग़दीरे खुम के स्थान पर ख़ुदा के हुक्म से हज़रत अली (अ.स.) के जानशीन होने का ऐलान फ़रमाया है।

 

हुज्जतुल विदा

हज़रत रसूले करीम (स.अ.) 25 ज़िकाद 10 हिजरी को हज्जे आखि़र के ईरादे से रवाना हो कर 4 ज़िलहिज को मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचें। आपके साथ आपकी तमाम बीबीयां और हज़रत सैय्यदा सलाम उल्लाहे अलैहा थीं। रवानगी के वक़्त हज़ारों सहाबा साथ रवाना हुए और बहुत से मक्का ही में जा मिले। इस तरह आपके असहाब की तादाद एक लाख चैबीस हज़ार हो गई। हज़रत अली (अ.स.) यमन से मक्का पहुँचे। हुज़ूर (स.अ.) ने फ़रमाया कि तुम क़ुर्बानी और मनासिके हज में मेरे शरीक हो। इस हज के मौक़े पर लोगों ने अपनी आँखों से आं हज़रत (स.अ.) को मनासिके हज अदा करते हुए देखा और मारेकते अलारा ख़ुतबे सुने। जिनमें बाज़ बातें यह थी

1. जाहिलीयत के ज़माने के दस्तूर कुचल डालने के का़बिल हैं।

2. अरबी को अजमी और अजमी को अरबी पर कोई फ़ज़ीलत नहीं।

3. मुसलमान एक दूसरे के भाई हैं।

4. गु़लामों का ख़्याल ज़रूरी है।

5. जाहिलयत के तमाम ख़ून माफ़ कर दिये गये।

6. जाहिलयत के तमाम वाजिबुल अदा बातिल कर दिये गये। ग़रज़ कि हज से फ़रागत के बाद आप मदीने के इरादे से 14 ज़िलहिज को रवाना हुए। एक लाख चैबीस हज़ार असहाब आपके हमराह थे। हज़फ़ा के क़रीब मुक़ामे ग़दीर पर पहुँचते ही आयए बल्लिग़ का नुज़ूल हुआ आपने पालान शुतर का मिम्बर बनाया और बिलाल (र.) को हुक्म दिया कि हय्या अला ख़ैरिल अमल कह कर आवाज़ दें। मजमा सिमट कर नुक्ताए एतिदाल पर आ गया । आपने एक फ़सीह व बलीग़ ख़ुतबा फ़रमाया जिसमें हम्दो सना के बाद अपनी फ़ज़ीलत का इक़रार लिया और फ़रमाया कि मैं तुम में दो गिदां क़द्र चीजें छोड़ जाता हुँ एक क़ुरआन और दूसरे अहले बैत। इसके बाद अली (अ.स.) को अपने नज़दीक बुला कर दोनों हाथों से उठाया और इतना बुलन्द किया कि सफ़ेदी ज़ेरे बग़ल ज़ाहिर हो गई। फिर फ़रमाया मन कुन्तो मौला फ़ा हाज़ा अलीउन मौला जिसका मैं मौला हूँ उसका यह अली भी मौला है। ख़ुदाया अली जिधर मुड़े हक़ को उसी तरफ़ मोड़ देना। फिर अली (अ.स.) के सर पर सियाह अमामा बाधां, लोगों ने मुबारक बादियां देनी शुरू कीं। सब आपकी जां नशीनी से ख़ुश हुए। हज़रत उमर ने भी नुमाया अल्फ़ाज़ में मुबारक बाद दी। जिब्राईल ने भी बाज़बाने क़ुरआन अकमाले दीं और एतिमामे नेमत का मुजदा सुनाया। सीरतुल हलबिया में है कि यह जां नशीनी 18 ज़िलहिज को वाक़े हुई। नूरूल अबसार सफ़ा 78 में है कि एक शख़्स हारिस बिन नोमान फ़हरी ने हज़रत के अमल ग़दीरे खुम पर एतिराज़ किया तो उसी वक़्त आसमान से उस पर एक पत्थर गिरा और वह मर गया।

वाज़े हो कि इस वाक़ेए ग़दीर को इमामुल मुहद्देसीन हाफ़िज़ इब्ने अब्दहु ने एक सौ सहाबा से इस हदीसे ग़दीर की रवायत की है। इमामे जज़री व शाफ़ेई ने इन्हीं सहाबियों से इमाम अहमद बिन हम्बल ने तीस सहाबियों और तबरी ने पछत्तर सहाबियों से रवाएत की है अलावा इसके तमाम अक़ाबिर इस्लाम मसलन ज़हबी सनाई और अली अल क़ारी वग़ैरा से मशहूर और मुतावातिर मानते हैं। महज़ मिनहाजुल उसूल, सिद्दीक़ हसन सफ़ा 13 तफ़सीर साअलबी फ़तेहुल बयान सिद्दीक़ हसन जिल्द 1 सफ़ा 48

 

वाक़ेए मुबाहेला

बख़रान यमन में एक मुक़ाम है वहां ईसाई रहते थे और वहां एक बड़ा कलीसा था। आं हज़रत (स.अ.) ने उन्हें भी दावते इस्लाम भेजी उन्होंने तहक़ीक़े हालात के लिये एक वफ़द ज़ेेरे क़यादत अब्दुल मसीह आक़िब मदीना भेजा। वह वफ़द मस्जिदे नबवी के सहन में आ कर ठहरा। हज़रत से मुबाहेसा हुआ मगर वह क़ाएल न हुए। हुक्मे ख़ुदा नाज़िल हुआ फ़कु़ल तआलो अन्दाअ अब्ना आना ऐ पैग़म्बर उनसे कह दो कि दोनों अपने बेटों अपनी औरतों और अपने नफ़सों को लाकर मुबाहेला करें। चुनान्चे फ़ैसला हो गया और 24 ज़िलहिज 10 हिजरी को पंजेतने पाक झूटों पर लानत करने के लिये निकले। नसारा के सरदारों ने जूँही इनकी शकले देखीं कापने लगे और मुबाहेले से बाज़ आय। ख़ेराज़ देना मन्ज़ूर कर लिया। जज़िया दे कर रेआया बनाना क़ुबूल किया।

(मआरिज अल इरफ़ान सफ़ा 135, तफ़सीर बैज़ावी सफ़ा 74)

 

सरवरे काऐनात के के आख़री लम्हाते ज़िन्दगी

हुज्जतुल विदा से वापसी के बाद आपकी वह अलालत जो बारवाएते मिशक़ात ख़ैबर में दिये हुए ज़हर के करवट लेने से उभरा करती थी, मुस्तमिर हो गई। आप अकसर बीमार रहने लगे, बीमारी की ख़बर आम होते ही झूटे मुद्दई नबूवत पैदा होने लगे जिनमें मुसालमा कज़्ज़ाब असवद अनसी तलहा सुजाह ज़्यादा नुमाया थे लेकिन ख़ुदा ने उन्हें ज़लील किया। इसी दौरान में आपको इत्तेला मिली कि हुकूमते रोम मुसलमानों को तबाह करने को तबाह करने का मन्सूबा तैयार कर रही है। आपने इस ख़तरे के पेश नज़र कि कहीं वह हमला न कर दें। उसामा बिन ज़ैद की सर करदगी में एक लशकर भेजने का फ़ैसला किया और हुक्म दिया कि अली के अलावा अयाने महाजिर व अनसार में से कोई भी मदीने में न रहे और इसी रवानगी पर इतना ज़ोर दिया कि यह तक फ़रमा दिया लाअनल्लाह मन तखलफ़अनहा जो इस जंग में न जायेगा उस पर ख़ुदा की लानत होगी। इसके बाद आं हज़रत (स.अ.) ने असामा को अपने हाथों से तैयार कर के रवाना किया। उन्होंने तीन मिल के फ़ासले पर मुक़ामे ज़रफ़ में कैम्प लगाया और अयाने सहाबा का इन्तेज़ार करने लगे, लेकिन वह लोग न आये। मदारिज अल नबूवत जिल्द 2 सफ़ा 488 व तारीख़े कामिल जिल्द 2 सफ़ा 120, तबरी जिल्द 3 सफ़ा 188 में है कि न जाने वालों में हज़रत अबू बकर व हज़रत उमर भी थे। मदारिज अल नबूवत जिल्द 2 सफ़ा 494 में है कि आखि़र सफ़र में जब कि आपको शदीद दर्दे सर था । आप रात के वक़्त अहले बक़ी के लिये दुआ की ख़ातिर तशरीफ़ ले गए। हज़रत आएशा ने समझा कि मेरी बारी में किसी और बीवी के यहां चले गएं हैं इस पर वह तलाश के लिये निकलीं तो आपको बक़ीया में महवे दुआ पाया। इसी सिलसिले में आपने फ़रमाया क्या अच्छा होता ऐ आयशा कि तुम मुझ से पहले मर जाती और मैं तुम्हारी अच्छी तरह तजहीज़ो तकफ़ीन करता। उन्होंने जवाब दिया कि आप चाहते हैं मैं मर जाऊँ तो आप दूसरी शादी कर लें। इसी किताब के पृष्ठ 495 में है कि आं हज़रत (स.अ.) की तीमार दारी आपके अहले बैत करते थे। एक रवायत में है कि अहले बैत को तीमार दारी में पीछे रखने की कोशिश की जाती थी।

 

वाक़ेए क़िरतास

हुज्जतुल विदा से वापसी पर बामुक़ामे ग़दीरे ख़ुम अपनी जां नशीनी का ऐलान कर चुके थे। अब आखि़री वक़्त में आपने यह ज़रूरी समझते हुए कि उसे दस्तावेज़ी शक्ल दे दें। असहाब से कहा कि मुझे क़लम दवात और कागज़ दे दो ताकि मैं तुम्हारे लिये एक ऐसा नविश्ता लिख दूं जो तुम्हें गुम्राही से हमेशा हमेशा बचाने के लिये काफ़ी हो। यह सुन कर असहाब में आपस में चीमी गोयां होने लगी लोगों के रूजाहनात क़लम दवात दे देने की तरफ़ देख कर हज़रत उमर ने कहा ! अनल रजुल लेहिजर हसबुना किताब अल्लाह यह मर्द हिज़यान बक रहा है। हमारे लिये किताबे ख़ुदा ही काफ़ी है। (सही बुख़ारी पैरा 30 पृष्ठ 842) अल्लामा शिब्ली लिखते हैं रवायत में हजर का लफ़्ज़ है जिसके माने हिज़यान के है।

हज़रत उमर ने आं हज़रत (स.अ.) के इस इरशाद को हिज़यान से ताबीर किया था। (अल फ़ारूक़ पृष्ठ 61) लुग़त में हिज़यान के माने बेहूदा गुफ़तन यानी बकवास के हैं। (सराह जिल्द 2 पृष्ठ 123) शमशुल उलमा मौलवी नज़ीर अहमद देहलवी लिखते हैं जिन के दिल में तमन्नाए खि़लाफ़त चुटकियां ले रही थी उन्होंने तो धींगा मुश्ती से मन्सूबा ही चुटकियों में उड़ा दिया और मज़हामत की यह तावील की कि हमारी हिदायत के लिये क़ुरआन बस काफ़ी है और चूंकि इस वक़्त पैग़म्बर साहब के हवास बजा नहीं हैं, कागज़ क़लम दवात लाना कुछ ज़रूरी नहीं ख़ुदा जाने क्या लिखवा देगें। (उम्मेहातुल उम्मत पृष्ठ 92) इस वाक़ेए से आं हज़रत (स.अ.) को सख़्त सदमा हुआ और आपने झुंझला कर फ़रमाया कूमू इन्नी मेरे पास से उठ कर चले जाओ। नबी के रूबरू शोर ग़ुल इन्सानी अदब नहीं है। अल्लामा तरही लिखते हैं कि ख़ाना ए काबा में पांच लोगों ने हज़रत अबू बकर, हज़रत उमर, अबु उबैदा, अब्दुर्रहमान, सालिम ग़ुलाम हुज़ैफ़ा ने मुत्तफ़िका़ अहदो पैमान किया था कि ला नुज़्दो हाज़ल अमरनीफ़ा बनी हाशिम पैग़म्बर के इन्तेका़ल के बाद खि़लाफ़त बनी हाशिम में न जाने देगें। (मजमुर बहरैन) मैं कहता हूं कौन यक़ीन कर सकता है कि जेशे उसामा में रसूल से सरताबी करने वालों जिसमें लानत तक की गई है और वाक़ेआ क़िरतास हुक्म को बकवास बतलाने वालों को रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने नमाज़ की इमामत का हुक्म दे दिया होगा मेरे नज़दीक इमामते नमाज़ की हदीस ना क़ाबिले कु़बूल है।

 

हाशिया अली क़ारी बर हाशिया नसीम अल रियाज़

वसीयत और एहतिज़ार हज़रत आयशा फ़रमाती हैं कि आख़री वक़्त आपने फ़रमाया मेरे हबीब को बुलाओ। मैंने अपने बाप अबू बकर फिर उमर को बुलाया। उन्होंने फिर यही फ़रमाया तो मैंने अली को बुला भेजा। आपने अली को चादर में ले लिया और आखि़र तक सीने से लिपटाए रहे। (रेआज़ अल नज़रा पृष्ठ 180) मुवर्रिख़ लिखते हैं कि जनाबे सैय्यदा (स.अ.) हसनैन (अ.स.) को तलब फ़रमाया और हज़रत अली को बुला कर वसीयत की और कहा जैश असामह के लिये मैंने फ़लां यहूदी से क़रज़ लिया था उसे अदा कर देना और ऐ अली तुम्हें मेरे बाद सख़्त सदमें पहुँचेंगे तुम सब्र करना और देखो जब अहले दुनियां दुनियां परस्ती करें तो तुम दीन इख़्तेयार किए रहना । (रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 559 मदारिज अल नबूवत जिल्द 2 पृष्ठ 511 व तारीख़ बग़दाद जिल्द 1 पृष्ठ 219) (स. अ.)

हाशिया अली क़ारी बर हाशिया नसीम अल रियाज़ व मदारिज अल नबूअत तबा कानपुर पृष्ठ 542 हबीब उस सियर पृष्ठ 78 व मकतूबात शेख़ अहमद सर हिन्दी मुजद्दि अलिफ़ सानी जिल्द 2 पृष्ठ 61- 62 वग़ैरा में है। उन्हीं कुतूब की रोशनी में शम्शुल उलमा ख़्वाजा हसन निज़ामी देहलवी लिखते हैं इसी बीमारी के ज़माने में एक दिन बहुत से लोग हज़रत (स.अ.) के पास जमा थे आपने इरशाद फ़रमाया लाओ कागज़ मैं तुम को कुछ लिख दूं ताकि तुम मेरे बाद गुमराह न हो जाओ, यह सुन कर हज़रत उमर बोले हज़रत रसूल (स.अ.) पर बुख़ार की तकलीफ़ का ग़लबा है इसके सबब से ऐसा फ़रमाते हैं वसीअत नामे की कुछ ज़रूरत नहीं हमको ख़ुदा की किताब काफ़ी है। (मोहर्रम नामा पृष्ठ 10 तबा देहली)

 

रसूले करीम (स.अ.) की शहादत

हज़रत अली (अ.स.) से वसीयत फ़रमाने के बाद आपकी हालत ग़ैर हो गई। हज़रत फातेमा (स.अ.) जिनके ज़ानू पर सरे मुबारक रिसालत माब (स.अ.) था फ़रमाती हैं कि हम लोग इन्तेहाईं परेशानी में थे कि नागाह एक शख़्स ने इज़्ने हुज़ूरी चाहा, मैंने दाखि़ले से मना कर दिया और कहा ऐ शख़्स यह वक़्ते मुलाक़ात नहीं है इस वक़्त वापस चला जा। इसने कहा मेरी वापसी नामुम्किन है मुझे इजाज़त दीजिए की मैं हाज़िर हो जाऊँ। आं हज़रत (स.अ.) को जो क़दरे अफ़ाक़ा हुआ तो आप (स.अ.) ने फ़रमाया ऐ फातेमा (स.अ.) इजाज़त दे दोे यह मलाकुल मौत है। फातेमा (स.अ.) ने इजाज़त दे दी और वह दाखि़ले ख़ाना हुए। पैग़म्बर की खि़दमत में पहुँच कर अर्ज़ कि मौला यह पहला दरवाज़ा है जिस पर मैंने इजाज़त मांगी है और अब आप (स.अ.) के बाद किसी के दरवाज़े पर इजाज़त तलब न करूंगा। (अजाएब अल क़सस अल्लामा अब्दुल वाहिद पृष्ठ 2882 व रौज़तुल सफ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 216 व अनवार अल क़ुलूब पृष्ठ 188)

अल ग़रज़ मलकुल मौत ने अपना काम शुरू किया हुज़ूर रसूल करीम (स.अ.) ने बतारीख़ 28 सफ़र 11 हिजरी योमे दोशम्बा ब वक्ते दो पहर खि़लअते हयात उतार दिया। (मुवद्दतुल कु़र्बा पृष्ठ 49 , 14 तबा बम्बई 310 हिजरी अहले बैत कराम में रोने का कोहराम मच गया। हज़रत अबू बकर उस वक़्त अपने घर महल्ला सख़ गए हुए थे जो मदीने से एक मील के फ़ासले पर था । हज़रत उमर ने वाक़ेए वफ़ात को नशर होने से रोका और जब हज़रत अबू बकर आ गए तो दोनों सक़ीफ़ा बनी सआदा चले गए जो मदीने से तीन मील के फ़ासले पर था और बातिल मशविरों के लिये बनाया गया था। (ग़यासुल लुग़ात) और उन्हीं के साथ अबू अबीदा भी चले गए जो ग़स्साल थे। ग़रज कि अकसर सहाबा रसूले ख़ुदा (स.अ.) की लाश छोड़ कर हंगामाए खि़लाफ़त में जा शरीक हुए और हज़रत अली (अ.स.) ने ग़ुस्लो कफ़न का बन्दोबस्त किया। हज़रत अली (अ.स.) ने ग़ुस्ल देने में फ़ज़ल इब्ने अब्बास हज़रत का पैराहन ऊँचा करने में अब्बास और क़सम करवट बदलवाने में और उसामा व शकराना पानी डालने में मसरूफ़ हो गए और उन्हीं छः आदमियों ने नमाज़े जनाज़े पढ़ी और इसी हुजरे में आपके जिस्मे अतहर को दफ़्न कर दिया गया। जहां आपने वफ़ात पाई थी। अबू तलहा ने क़ब्र खोदी। हज़रत अबू बकर व हज़रत उमर आपके ग़ुस्लो कफ़न और नमाज़ में शरीक न हो सके क्यांेकि जब यह हज़रात सक़ीफ़ा से वापस आए तो आं हज़रत (स.अ.) की लाशे मुतहर सुपुर्दे खाक की जा चुकी थी। कंज़ुल आमाल जिल्द 3 पृष्ठ 140, अर हज्जुल मतालिब पृष्ठ 670 , अल मुतर्ज़ा पृष्ठ 39 फ़तेहुलबारी जिल्द 6 पृष्ठ 4, वफ़ात के वक़्त आपकी उम्र 63 साल की थी। (तारीख़ अबुल फ़िदा जिल्द 1 पृष्ठ 152)

 

वफ़ात और शहादत का असर

सरवरे कायनात की वफ़ात का असर यूँ तो तमाम लोगों पर हुआ असहाब भी रोए और हज़रत आयशा ने भी मातम किया। (मसनदे अहमद बिन हम्बल जिल्द 6 पृष्ठ 274 व तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 122 व तारीखे़ तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 197) लेकिन जो सदमा हज़रत फ़ातेमा (स.अ.) को पहुँचा इसमें वह मुनफ़रिद थीं। तारीख़ से मालूम होता है कि आपकी वफ़ात से आलमे अलवी और आलमे सिफ़ली भी मुत्तसिर हुए और उनमें जो चीज़ें हैं उनमें भी असरात हुवैदा हुए हैं। अल्लामा ज़मख़्शरी का बयान है कि एक दिन आं हज़रत (स.अ.) ने उम्मे माअबद के वहां क़याम फ़रमाया । आपके वज़ू के पानी से एक पेड़ निकला जो बेहतरीन फल लाता रहा। एक दिन मैंने देखा कि इसके पत्ते झड़े हुए हैं और मेवे गिरे हुए हैं। मैं हैरान हुई कि नागहाँ ख़बरे वफ़ात सरवरे आलम पहुँची। फिर तीस साल बाद देखा गया कि इस में तमाम कांटे उग आए थे। बाद में मालूम हुआ कि हज़रत अली (अ.स.) ने शहादत पाई। फिर मुद्दत मदीद के बाद इसकी जड़ से ख़ून ताज़ा उबलता हुआ देखा गया बाद में मालूम हुआ हज़रत इमामे हुसैन (अ.स.) ने शहादत पाई। इसके बाद वह सूख गया। (अजाएब अल क़सस पृष्ठ 159 बा हवालाए रबीउल अबरार ज़मख़्शरी)

 

आं हज़रत (स.अ.) की शहादत का सबब

यह ज़ाहिर है कि चाहरदा मासूमीन (अ.स.) में से कोई भी ऐसा नहीं जिसने शहादत न पाई हो। हज़रत रसूले करीम (स.अ.) से लेकर इमामे हसन असकरी (अ.स.) तक सब ही शहीद हुए हैं। कोई ज़हर से शहीद हुआ है कोई तलवार से शहीद हुआ। इनमें से एक औरत भी थीं हज़रत फ़ातेमा बिन्ते रसूल (स.अ.) वह ज़र्बे शदीद से शहीद हुईं। इन चैदाह मासूमों में लगभग तमाम की शहादत का सबब वाज़े है लेकिन हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की शहादत के सबब से अकसर हज़रात न वाक़िफ़ हैं इस लिये मैं इस पर रौशनी डालता हूँ।

हुज्जतुल इस्लाम इमाम अबू हामिद मोहम्मद अल ग़ज़ाली की किताब सिरूल आलमीन के पृष्ठ 7 तबा बम्बई 1214 हिजरी और किताब मिशक़ात शरीफ़ के हिस्सा 3 पृष्ठ 58 से वाज़े है कि आपकी शहादत ज़हर के ज़रिए से हुई है और बुख़ारी शरीफ़ की जिल्द 3 तबा मिस्र 1314 हिजरी के हिस्सा अल्लददू पृष्ठ 127 किताब अल तिब से मुस्तफ़ाद और मुस्तमिबत होता है कि आं हज़रत को दवा में मिला कर ज़हर दिया गया था ।

1.तारीख़े तबरी जिल्द 4 पृष्ठ 436 में है कि अन्सार ने जब हज़रत अली (अ.स.) की बैअत करना चाही तो हज़रत उमर ने हज़रत अबू बकर का हाथ पकड़ कर बैअत कर ली और कहा कि आप भी क़रशी हैं और हम में सज़ावार तर हैं।

मेरे नज़दीक रसूले करीम (स.अ.) के बिस्तरे अलालत पर होने के वक़्त के वाक़ेआत व हालात के पेशे नज़र दवा में ज़हर मिला कर दिया जाना गै़र मुतवक़्क़ा नहीं है। अल्लामा मोहसिन फ़ैज़ किताब अलवाफ़ी की जिल्द 1 के पृष्ठ 166 में बा हवाला तहज़ीबुल एहकाम तहरीर फ़रमाते हैं कि हुज़ूर मदीने में ज़हर से शहीद हुए हैं। अलख़ मुझे ऐसा मालूम होता है कि ख़ैबर में ज़हर ख़ूरानी की तशहीर अख़फ़ाए जुर्म के लिए की गई थी।

 

अज़वाज

चन्द कनीज़ों के अलावा जिनमे मारिया और रेहाना भी शामिल थीं आपके ग्यारह बीबीयां थीं जिन में हज़रत ख़दीजा और ज़ैनब बिन्ते ख़जी़मह ने आपकी ज़िन्दगी में वफ़ात पाई थी और नौ 9 बीबीयों ने आपकी वफ़ात के बाद इन्तेक़ाल किया। आं हज़रत (स.अ.) की बीबीयों के नाम निन्मलिखित हैं:-

1.ख़तीजातुल कुबरा, 2. सूदा, 3. आयशा, 4. हफ़सा, 5. ज़ैनब बिन्ते ख़ज़ीमह, 6. उम्मे सलमा, 7. ज़ैनब बिन्ते हजश, 8. जवेरिहा बिन्ते हारिस, 9. उम्मे हबीबा, 10. सफ़िया, 11. मैमूना।

 

औलाद

आपके तीन बेटे थे और एक बेटी थी। जनाबे इब्राहीम के अलावा जो मारिया क़िबतिया के बतन से थे सब बच्चे हज़रत ख़तीजा के बतन से थे हुज़ूर के औलाद के नाम निम्न लिखित हैं:-

1. हज़रत क़ासिम तैय्यब आप बेअसत से पहले मक्का में पैदा हुए और दो साल की उम्र में वफ़ात पा गए।

2. जनाबे अब्दुल्लाह जो ताहिर के नाम से मशहूर थे बेअसत से पहले मक्का में पैदा हुए और बचपन ही में इन्तेक़ाल कर गए।

3. जनाबे इब्राहीम 8 हिजरी में पैदा हुए और 10 हिजरी में इन्तेक़ाल कर गए।

4. हज़रत फ़ातेमा ज़हरा आप पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की इकलौती बेटी थीं। आपके शौहर हज़रत अली (अ.स.) और बेटे हज़रत इमाम हसन (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) थे। फातेमा ज़हरा (स.अ.) की नसल से ग्यारह इमाम पैदा हुए और इन्हीं के ज़रिए से रसूल (स.अ.) की नसल बढ़ी और आपकी औलाद को सयादत का शरफ़ हासिल हुआ और वह क़यामत तक सय्यद कही जायगी।

हज़रत रसूले करीम (स.अ.) इरशाद फ़रमाते हैं कि क़यामत में मेरे सिलसिले नसब के अलावा सारे सिलसिले टूट जायेगें और किसी का रिश्ता किसी के काम न आयेगा। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 93) अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि तमाम अम्बिया की औलाद हमेशा क़ाबिले ताज़ीम समझी जाती रही है। हमारे नबी (स.अ.) इस सिलसिले में सब से ज़्यादा हक़ दार हैं। (रौज़ातुल शोहदा पृष्ठ 404)

इमाम उल मुसलेमीन अल्लामा जलालुद्दीन फ़रमाते हैं कि हज़रत हसनैन (अ.स.) वह क़यामत की औलाद के लिये सयादत मख़सूस है। मर्द हो या औरत जो भी इनकी नस्ल से है वह क़यामत तक सय्यद रहेगा। वयजुब अला इजमा अल ख़लक़े ताज़ीमहुम अब अन और सारी कायनात पर वाजिब है कि हमेशा हमेशा इनकी ताज़ीम करती रहे। (लवायमुल तंज़ीम जिल्द 3 पृष्ठ 3, 4 असआफ़ अल राग़ेबीन बर हाशिया नूर अल अबसार शिबलन्जी पृष्ठ 114 तबा मिस्र)

 

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