पाकतीनत हस्तीये

नबी अकरम व अहलेबैत
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पैगम्बरे इस्लाम (स.) का जीवन परिचय व चरित्र चित्रण

नाम व अलक़ाब (उपाधियां)

आपका नाम मुहम्मद व आपके अलक़ाब मुस्तफ़ा, अमीन, सादिक़,इत्यादि हैं।

 

माता पिता

हज़रत पैगम्बर के पिता का नाम अब्दुल्लाह था जो ;हज़रत अबदुल मुत्तलिब के पुत्र थे। तथा पैगम्बर (स) की माता का नाम आमिना था, जो हज़रत वहाब की पुत्री थीं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत पैगम्बर का जन्म मक्का नामक शहर मे सन्(1) आमुल फील मे रबी उल अव्वल मास की 17वी तारीख को हुआ था।

 

पालन पोषण

हज़रत पैगम्बर के पिता का स्वर्गवास पैगम्बर के जन्म से पूर्व ही हो गया था। और जब आप 6 वर्ष के हुए तो आपकी माता का भी स्वर्गवास हो गया। अतः8 वर्ष की आयु तक आप का पलन पोषण आपके दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने किया।दादा के स्वर्गवास के बाद आप अपने प्रियः चचा हज़रत अबुतालिब के साथ रहने लगे। हज़रत आबुतालिब के घर मे आप का व्यवहार सबकी दृष्टि का केन्द्र रहा। आपने शीघ्र ही सबके हृदयों मे अपना स्थान बना लिया।

 

हज़रत पैगम्बर बचपन से ही दूसरे बच्चों से भिन्न थे। उनकी आयु के अन्य बच्चे गदें रहते, उनकी आँखों मे गन्दगी भरी रहती तथा बाल उलझे रहते थे। परन्तु पैगम्बर बचपन मे ही व्यस्कों की भाँति अपने को स्वच्छ रखते थे। वह खाने पीने मे भी दूसरे बच्चों की हिर्स नही करते थे। वह किसी से कोई वस्तु छीन कर नही खाते थे। तथा सदैव कम खाते थे कभी कभी ऐसा होता कि सोकर उठने के बाद आबे ज़मज़म(मक्के मे एक पवित्र कुआ) पर जाते तथा कुछ घूंट पानी पी लेते व जब उनसे नाश्ते के लिए कहा जाता तो कहते कि मुझे भूख नही है । उन्होने कभी भी यह नही कहा कि मैं भूखा हूं। वह सभी अवस्थाओं मे अपनी आयु से अधिक गंभीरता का परिचय देते थे। उनके चचा हज़रत अबुतालिब सदैव उनको अपनी शय्या के पास सुलाते थे। वह कहते हैं कि मैने कभी भी पैगम्बर को झूट बोलते, अनुचित कार्य करते व व्यर्थ हंसते हुए नही देखा। वह बच्चों के खेलों की ओर भी आकर्षित नही थे। सदैव तंन्हा रहना पसंद करते तथा मेहमान से बहुत प्रसन्न होते थे।

 

विवाह

जब आपकी आयु 25 वर्ष की हुई तो अरब की एक धनी व्यापारी महिला जिनका नाम खदीजा था उन्होने पैगम्बर के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। पैगम्बर ने इसको स्वीकार किया तथा कहा कि इस सम्बन्ध मे मेरे चचा से बात की जाये। जब हज़रत अबुतालिब के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होने अपनी स्वीकृति दे दी। तथा इस प्रकार पैगम्बर(स) का विवाह हज़रत खदीजा पुत्री हज़रत ख़ोलद के साथ हुआ। निकाह स्वयं हज़रत अबुतालिब ने पढ़ा। हज़रत खदीजा वह महान महिला हैं जिन्होने अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को सौंप दी थी।

 

पैगम्बरी की घोषणा

हज़रत मुहम्मद (स) जब चालीस वर्ष के हुए तो उन्होने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की। तथा जब कुऑन की यह आयत नाज़िल हुई कि,,वनज़िर अशीरतःकल अक़राबीन(अर्थात ऐ पैगम्बर अपने निकटतम परिजनो को डराओ) तो पैगम्बर ने एक रात्री भोज का प्रबन्ध किया। तथा अपने निकटतम परिजनो को भोज पर बुलाया.। भोजन के बाद कहा कि मै तुम्हारी ओर पैगम्बर बनाकर भेजा गया हूँ ताकि तुम लोगो को बुराईयो से निकाल कर अच्छाइयों की ओर अग्रसरित करू। इस अवसर पर पैगम्बर (स) ने अपने परिजनो से मूर्ति पूजा को त्यागने तथा एकीश्वरवादी बनने की अपील की। और इस महान् कार्य मे साहयता का निवेदन भी किया परन्तु हज़रत अली (अ) के अलावा किसी ने भी साहयता का वचन नही दिया। इसी समय से मक्के के सरदार आपके विरोधी हो गये तथा आपको यातनाऐं देने लगे।

 

आर्थिक प्रतिबन्ध

मक्के के मूर्ति पूजकों का विरोध बढ़ता गया । परन्तु पैगम्बर अपने मार्ग से नही हटे तथा मूर्ति पूजा का खंण्डन करते रहे। मूर्ति पूजको ने पैगम्बर तथा आपके सहयोगियो पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये। इस समय आप का साथ केवल आप के चचा अबुतालिब ने दिया। वह आपको लेकर एक पहाड़ी पर चले गये । तथा कई वर्षो तक वहीं पर रहकर पैगम्बर की सुरक्षा करते रहे। पैगम्बर को सदैव अपने पास रखते थे। रात्रि मे बार बार आपके स्थान को बदलते रहते थे।

 

हिजरत

आर्थिक प्रतिबन्धो से छुटने के बाद पैगम्बर ने फिर से इस्लाम प्रचार आरम्भ कर दिया। इस बार मूर्ति पूजकों का विरोध अधिक बढ़ गया ।तथा वह पैगम्बर की हत्या का षड़यंत्र रचने लगे। इसी बीच पैगम्बर के दो बड़े सहयोगियों हज़रत अबुतालिब तथा हज़रत खदीजा का स्वर्गवास हो गया। यह पैगम्बर के लिए अत्यन्त दुखः दे हुआ। जब पैगम्बर मक्के मे अकेले रह गये तो अल्लाह की ओर से संदेश मिला कि मक्का छोड़ कर मदीने चले जाओ। पैगम्बर ने इस आदेश का पालन किया और रात्रि के समय मक्के से मदीने की ओर प्रस्थान किया। मक्के से मदीने की यह यात्रा हिजरत कहलाती है। तथा इसी यात्रा से हिजरी सन् आरम्भ हुआ। पैगम्बरी की घोषणा के बाद पैगम्बर 13 वर्षों तक मक्के मे रहे।

 

मदीने मे पैगम्बर को नये सहयोगी प्राप्त हुए तथा उनकी साहयता से पैगम्बर ने इस्लाम प्रचार को अधिक तीव्र कर दिया। दूसरी ओर मक्के के मूर्ति पूजको की चिंता बढ़ती गयी तथा वह पैगम्बर से मूर्तियो के अपमान का बदला लेने के लिये युद्ध की तैयारियां करने लगे। इस प्रकार पैगम्बर को मक्का वासियों से कई युद्ध करने पड़े जिनमे मूर्ति पूजकों को पराजय का सामना करना पड़ा। अन्त मे पैगम्बर ने मक्के जाकर हज करना चाहा परन्तु मक्कावासी इस से सहमत नही हुए। तथा पैगमबर ने शक्ति के होते हुए भी युद्ध नही किया तथा सन्धि कर के मानव मित्रता का परिचय दिया। तथा सन्धि की शर्तानुसार हज को अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दिया। सन् 10 हिजरी मे पैगम्बर ने 125000 मुस्लमानो के साथ हज किया। तथा मुस्लमानो को हज करने का प्रशिक्षण दिया।

 

उत्तराधिकारी की घोषणा

जब पैगम्बर हज करके मक्के से मदीने की ओर लौट रहे थे, तो ग़दीर नामक स्थान पर आपको अल्लाह की ओर से आदेश प्राप्त हुआ, कि हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करो। पैगम्बर ने पूरे क़ाफिले को रुकने का आदेश दिया। तथा एक व्यापक भाषण देते हुए कहा कि मैं जल्दी ही तुम लोगों के मध्य से जाने वाला हूँ। अतः मैं अल्लाह के आदेश से हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करता हूँ। पैगम्बर का प्रसिद्ध कथन कि जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। इसी अवसर पर कहा गया था।

 

हज़रत रसूले अकरम के कथन

१. तुममें सबसे बेहतर वह शख़्स है जो अल्लाह की मासियत (गुनाह) से इज्तेनाब (बचे) करे।

२. अगर तुम से कोई गुनाह सरज़द हो जाए तो उसके बाद नेक काम फ़ौरन करो ताकि (शायद) कुछ तलाफ़ी हो जाये।

३. आपस में मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाना) करो क्योंकि उससे कीना (मन में शत्रुता) ख़त्म होता हैं।

४. तुम्हारा बेहतरीन दोस्त वह शख़्स है जो तुम को नेक काम की तरफ़ मुतावज्जेह करे।

५. तुम्हारा बेहतरीन दोस्त वह शख़्स है जो तुम को तुम्हारी ग़लतियों की तरफ़ तुमको मुतावज्जेह करे।

६. सरवतमन्द वह शख़्स नहीं है जिसके पास माल की फ़रावानी हो बल्कि सरवतमन्द वह है जो लालच में मुबतला न हो।

७. जो शख़्स किसी बेकस व परेशान मेमिन को पनाह दे क़यामत के दिन ख़ुदावन्दा करीम उसे अपनी पनाह में ले लेगा।

८. लोगों से इस तरह मिलो के जब तक ज़िन्दा रहो लोग तुम्हारे पास आना पसन्द करें और जब मर जाओ तो तुम्को याद करके आँसू बहायें।

९. सिल्हे रहम (लोगों से भलाई) तूले उम्र (दीर्घायु) और सरवत का बायस (कारण) है।

१०. ख़ुद पसन्दी (अपने को ऊँचा समझना) से बचो वरना तुम्हारा कोई दोस्त न रह जायेगा।

११. तुम में सबसे नेक शख़्स वह है जो अपने ग़ुस्से को पी जाये और क़ुदरत के बावजूद बुर्दबारी (गंभीरता) से काम ले।

१२. क्या कहना उस शख़्स का जो ऐब (त्रुटियों) की जुस्तजू (ख़ोज) में रहता है और दूसरों के ओयूब (ऐब का बहु) से ग़ाफ़िल है।

१३. अपने बदन को काम और कोशिश (प्रयत्न) पर आमादा करो और हर्गिज़ काहिली और सुस्ती की तरफ़ न जाओ।

१४. आपस में एक दूसरे को तोहफ़े (उपहार) भेजो ताकि आपस में मुहब्बत बढ़े।

१५. जब तुमसे कोई मुलाक़ात के लिये आए तो उसका एहतेराम (आदर) करो।

१६. बुरे से भी नेकी करो ताकि उनकी बुराई से महफ़ूज़ (बचो) रहो।

१७. जो शख़्स दूसरों की ख़ताओं से दरगुज़र करता है ख़ुदावन्दे आलम उसकी ख़ताओ से दरगुज़र करता है।

१८. भाई वह है जो बुरे वक़्त (समय) में काम आये।

१९. ताक़तवर वह है जो अपने नफ़्स पर मुसल्लत (हावी) रहे।

२०. बदतरीन शख़्स वह है जो अपने घर वालों पर बेजा सख़्ती करे।

२१. कोई हसब व नसब ख़ुश अख़लाक़ी (सुशीलता) से बेहतर नहीं।

२२. जो शख़्स लोगों पर रहम नहीं करता ख़ुदा उस पर रहम न करेगा।

२३. हमेशा अच्छी बातें करो ताकि नेकी से याद किये जाओ।

२४. बेहतरीन नेकी लोगों से इत्तेहाद (एकता) क़ायम (स्थापित) करना है।

२५. जो शख़्स ना-मशरू (ग़लत) तरीक़े से किसी चीज़ को हासिल करना चाहता है तो ज़्यादा तर नाकामयाब रहता है और अक्सर परेशानी में मुबतला ही रहता है।

२६. तुम्हारे घर की अच्छाई यह है कि वह तुम्हारे बे बज़ाअत (ग़रीब) रिश्तेदारों और बे-चारे लोगों की मेहमान सरा हो।

२७. लोगों में ज़लील शख़्स वह है जो मख़्लूक़े ख़ूदा (ईशवर के बन्दों) को ज़लील समझे।

२८. अपने बच्चों का एहतेराम (आदर) करो और उनकी अच्छी तरबियत करो।

२९. सच हमेशा आसूदगी का बायस और झूठ हमेशा तशवीश (परेशानी) का मोजिब (कारण)।

३०. ज़रूरतमन्दों की मदद करने से बुरी मौत से निजात मिलती है।

३१. अफ़सोस उस शख़्स पर जिसकी मदह व सना (तारीफ़ ,प्रशंसा) सिर्फ़ उसके शर से महफ़ूज़ रहने के लिए की जाती है।

३२. अफ़सोस उस शख़्स पर जिसके सितम के ख़ौफ़ से लोग उसकी इताअत (आदेशानुपालन) करते हों।

३३. ख़ुदा की लानत हो उन माँ बाप पर जो अपने बच्चों की सही तरबियत (शिक्षा- दीक्षा) न करें और अपने आक़ किये जाने के बायस (कारण) बनें।

३४. जो शख़्स अपने अहद व पैमान (वचन) को पूरा न करे वह मुसलमान नहीं।

३५. ख़ुदा की लानत हो उस शख़्स पर जो ज़िन्दगी का बार (बोझ) दूसरों पर डाले रहे।

३६. जो शख़्स चाहे के लोगों में महबूब रहे उसे गुनाह से इज्तेनाब (बचना) चाहिये।

३७. छोटे बच्चों के साथ बच्चों की तरह बर्ताव (व्यवहार) करो।

३८. नेकी और अच्छाई यह है कि अयादत (बीमार को पूछना) के वक़्त मरीज़ से हाथ मिलाओ मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाना) करो।

३९. बच्चों के जो हक़ूक़ (हक़ का बहु) माँ बाप पर हैं उनमें यह भी है कि उनका ख़ूबसूरत नाम रखें और उनकी नेक तरबियत (शिक्षा- दीक्षा) करें।

४०. इमान वह दरख़्त (पेड़) है जिसके रेशे यक़ीन ,जिसका तना तक़वा ,जिसके शिगोफ़े हया और जिसका फल सख़ावत है।

 

शहादत(स्वर्गवास)

सन् 11 हिजरी मे सफर मास की 28 वी तारीख को तीन दिन बीमार रहने के बाद आपकी शहादत हो गयी। हज़रत अली (अ) ने आपको ग़ुस्लो कफ़न देकर दफ़्न कर दिया। इस महान् पैगम्बर के जनाज़े (पार्थिव शरीर) पर बहुत कम लोगों ने नमाज़ पढ़ी। इस का कारण यह था कि मदीने के अधिकाँश मुसलमान पैगम्बर के स्वर्गवास की खबर सुनकर सत्ता पाने के लिए षड़यण्त्र रचने लगे थे। तथा पैगम्बर के अन्तिम संसकार मे सम्मिलित न होकर सकीफ़ा नामक स्थान पर एकत्रित थे।

 

हज़रत पैगम्बर(स. की चारित्रिक विशेषताऐं

हज़रत पैगम्बर को अल्लाह ने समस्त मानवता के लिए आदर्श बना कर भेजा था। इस सम्बन्ध मे कुऑन इस प्रकार वर्णन करता-लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवःतुन हसनः अर्थात पैगम्बर का चरित्र आप लोगो के लिए आदर्श है। अतः आप के व्यक्तित्व मे मानवता के सभी गुण विद्यमान थे। आप के जीवन की मुख्य विशेषताऐं निम्ण लिखित हैं।

 

सत्यता

सत्यता पैगम्बर के जीवन की विशेष शोभा थी। पैगम्बर (स) ने अपने पूरे जीवन मे कभी भी झूट नही बोला। पैगम्बरी की घोषणा से पूर्व ही पूरा मक्का आप की सत्यता से प्रभावित था। आप ने कभी व्यापार मे भी झूट नही बोला। वह लोग जो आप को पैगम्बर नही मानते थे वह भी आपकी सत्यता के गुण गाते थे। इसी कारण लोग आपको सादिक़(अर्थात सच्चा) कहकर पुकारते थे।

 

अमानतदारी (धरोहरिता)

पैगम्बर के जीवन मे अमानतदारी इस प्रकार विद्यमान थी कि समस्त मक्कावासी अपनी अमानते आप के पास रखाते थे। उन्होने कभी भी किसी के साथ विश्वासघात नही किया। जब भी कोई अपनी अमानत मांगता आप तुरंत वापिस कर देते थे। जो व्यक्ति आपके विरोधि थे वह भी अपनी अमानते आपके पास रखाते थे। क्योंकि आप के पास एक बड़ी मात्रा मे अमानते रखी रहती थीं, इस कारण मक्के मे आप का एक नाम अमीन पड़ गया था। अमीन (धरोहर)

 

सदाचारिता

पैगम्बर के सदाचार की अल्लाह ने इस प्रकार प्रसंशा की है इन्नका लअला ख़ुलक़िन अज़ीम अर्थात पैगम्बर आप अति श्रेष्ठ सदाचारी हैं। एक दूसरे स्थान पर पैगम्बर की सदाचारिता को इस रूप मे प्रकट किया कि व लव कानत फ़ज़्ज़न ग़लीज़ल क़लबे ला नग़ज़्ज़ु मिन हवालीका अर्थात ऐ पैगम्बर अगर आप क्रोधी स्वभव वाले खिन्न व्यक्ति होते, तो मनुष्य आपके पास से भागते। इस प्रकार इस्लाम के विकास मे एक मूलभूत तत्व हज़रत पैगम्बर का सद्व्यवहार रहा है।

 

समय का सदुपयोग

हज़रत पैगम्बर की पूरी आयु मे कहीं भी यह दृष्टिगोचर नही होता कि उन्होने अपने समय को व्यर्थ मे व्यतीत किया हो । वह समय का बहुत अधिक ध्यान रखते थे। तथा सदैव अल्लाह से दुआ करते थे, कि ऐ अल्लाह बेकारी, आलस्य व निकृष्टता से बचने के लिए मैं तेरी शरण चाहता हूँ। वह सदैव मसलमानो को कार्य करने के लिए प्रेरित करते थे।

 

अत्याचार विरोधी

हज़रत पैगम्बर अत्याचार के घोर विरोधि थे। उनका मानना था कि अत्याचार के विरूद्ध लड़ना संसार के समस्त प्राणियों का कर्तव्य है। मनुष्य को अत्याचार के सम्मुख केवल तमाशाई बनकर नही खड़ा होना चाहिए। वह कहते थे कि अपने भाई की सहायता करो चाहे वह अत्याचारी ही कयों न हो। उनके साथियों ने प्रश्न किया कि अत्याचारी की साहयता किस प्रकार करें? आपने उत्तर दिया कि उसकी साहयता इस प्रकार करो कि उसको अत्याचार करने से रोक दो।

 

बुराई के बदले भलाई की भावना

आदरनीय पैगम्बर की एक विशेषता बुराई का बदला भलाई से देना थी। जो उन को यातनाऐं देते थे, वह उन के साथ उनके जैसा व्यवहार नही करते थे। उनकी बुराई के बदले मे इस प्रकार प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे, कि वह लज्जित हो जाते थे।

 

यहाँ पर उदाहरण स्वरूप केवल एक घटना का उल्लेख करते हैं। एक यहूदी जो पैगम्बर का विरोधी था। वह प्रतिदिन अपने घर की छत पर बैठ जाता, व जब पैगम्बर उस गली से जाते तो उन के सर पर राख डाल देता। परन्तु पैगम्बर इससे क्रोधित नही होते थे। तथा एक स्थान पर खड़े होकर अपने सर व कपड़ों को साफ कर के आगे बढ़ जाते थे। अगले दिन यह जानते हुए भी कि आज फिर ऐसा ही होगा। वह अपना मार्ग नही बदलते थे। एक दिन जब वह उस गली से जा रहे थे, तो इनके ऊपर राख नही फेंकी गयी। पैगम्बर रुक गये तथा प्रश्न किया कि आज वह राख डालने वाला कहाँ हैं? लोगों ने बताया कि आज वह बीमार है। पैगम्बर ने कहा कि मैं उस को देखने जाऊगां। जब पैगम्बर उस यहूदी के सम्मुख गये, तथा उस से प्रेम पूर्वक बातें की तो उस व्यक्ति को ऐसा लगा, कि जैसे यह कई वर्षों से मेरे मित्र हैं। आप के इस व्यवहार से प्रभावित होकर उसने ऐसा अनुभव किया, कि उस की आत्मा से कायर्ता दूर हो गयी तथा उस का हृदय पवित्र हो गया। उनके साधारन जीवन तथा नम्र स्वभव ने उनके व्यक्तितव मे कमी नही आने दी, उनके लिए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे स्थान था।

 

दया की प्रबल भावना

आदरनीय पैगम्बर मे दया की प्रबल भावना विद्यमान थी। वह अपने से छोटों के साथ प्रेमपूर्वक तथा अपने से बड़ो के साथ आदर पूर्वक व्यवहार करते थे ।वह अनाथों व भिखारियों का विशेष ध्यान रखते थे उनको को प्रसन्नता प्रदान करते व अपने यहाँ शरण देते थे। वह पशुओं पर भी दया करते थे तथा उन को यातना देने से मना करते थे।

 

जब वह किसी सेना को युद्ध के लिए भेजते तो रात्री मे आक्रमण करने से मना करते, तथा जनता से प्रेमपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश देते थे । वह शत्रु के साथ सन्धि करने को अधिक महत्व देते थे। तथा इस बात को पसंद नही करते थे कि लोगों की हत्याऐं की जाये। वह सेना को निर्देश देते थे कि बूढ़े व्यक्तियों, बच्चों तथा स्त्रीयों की हत्या न की जाये तथा मृत्कों के शरीर को खराब न किया जाये

 

स्वच्छता

पैगम्बर स्वच्छता मे अत्याधिक रूचि रखते थे। उन के शरीर व वस्त्रों की स्वच्छता देखने योग्य होती थी। वह वज़ू के अतिरिक्त दिन मे कई बार अपना हाथ मुँह धोते थे।वह अधिकाँश दिनो मे स्नान करते थे। उनके कथनानुसार वज़ु व स्नान इबादत है। वह अपने सर के बालों को बेरी के पत्तों से धोते और उनमे कंघा करते और अपने शरीर को मुश्क व अंबर नामक पदार्थों से सुगन्धित करते थे। वह दिन मे कई बार तथा सोने से पहले व सोने के बाद अपने दाँतों को साफ़ करते थे। भोजन से पहले व बाद मे अपने मुँह व हाथों को धोते थे तथा दुर्गन्ध देने वाली सब्ज़ियों को नही खाते थे।

 

हाथी दाँत का बना कंघा सुरमेदानी कैंची आईना व मिस्वाक उनके यात्रा के सामान मे सम्मिलित रहते थे। उनका घर बिना साज सज्जा के स्वच्छ रहता था। उन्होने चेताया कि कूड़े कचरे को दिन मे उठा कर बाहर फेंक देना चाहिए। वह रात आने तक घर मे नही पड़ा रहना चाहिए। उनके शरीर की पवित्रता उनकी आत्मा की पवित्रता से सम्बन्धित रहती थी। वह अपने अनुयाईयों को भी चेताते रहते थे कि अपने शरीरो वस्त्रों व घरों को स्वच्छ रखा करो। तथा जुमे (शुक्रवार) को विशेष रूप से स्नान किया करो। दुर्गन्ध को दूर करने हेतू शरीर व वस्त्रो को सुगन्धित करके जुमे की नमाज़ मे सम्मिलित हुआ करो ।

 

दृढनिश्चयता

पैगम्बर मे दृढनिश्चयता चरम सीमा तक पाई जाती थी। वह निराशावादी न होकर आशावादी थे। वह पराजय से भी निराश नही होते थे। यही कारण है कि ओहद नामक युद्ध की पराजय ने उनको थोड़ा भी प्रभावित नही किया। तथा बनी क़ुरैज़ा(अरब के एक कबीले का नाम) द्वारा अनुबन्ध तोड़कर विपक्ष मे सम्मिलित हो जाने से भी उन पर कोई प्रभाव नही पड़ा।बल्कि वह शीघ्रता पूर्वक हमराउल असद नामक युद्ध के लिए तैयार होकर मैदान मे आगये।

 

सावधानी व सतर्कता

पैगम्बर(स.) सदैव सावधानी व सतर्कता बरतते थे। वह शत्रु की सेना का अंकन इस प्रकार करते कि उससे युद्ध करने के लिए कितने व किस प्रकार के हथियारों की आवश्यक्ता है। वह नमाज़ के समय मे भी सतर्क व सवधान रहते थे।

 

मानवता के प्रति प्रेम

पैगम्बर(स.) के हृदय मे समस्त मानवजाति के प्रति प्रेम था। वह रंग या नस्ल के कारण किसी से भेद भाव नही करते थे । उनकी दृष्टि मे सभी मनुष्य समान थे। वह कहते थे कि सभी मनुष्य अल्लाह से जीविका प्राप्त करते हैं। उन्होने जो युद्धों किये उनके पीछे भी महान लक्ष्य विद्यमान थे।वह सदैवे मानवता के कल्याण के लिए ही युद्ध करते थे। पैगम्बर सदैव अपने अनुयाईयों को मानव प्रेम का उपदेश देते थे। पैगम्बर ने मनुष्यों को निम्ण लिखित संदेश दिया

 

1- मानवता की सफलता का संदेश

 

2- युद्ध से पूर्व शान्ति वार्ता का संदेश

 

3- बदले से पहले क्षमा का संदेश

 

4- दण्ड से पूर्व विन्रमता या क्षमा का संदेश

 

उच्चयतम कोटी की नेतृत्व क्षमता।

आदरनीय पैगम्बर को अल्लाह ने नेतृत्व की उच्चय क्षमता प्रदान की थी। उनकी इस क्षमता को अरब जाती की स्थिति को देखकर आंका जा सकता है। उन्होने उस अरब जाती का नेतृत्व किया, जो अपनी मूर्खता व अज्ञानता के कारण किसी को भी अपने से बड़ा नही समझते थे। जो सदैव रक्त पात करते रहते थे। सदाचार उनको छूकर भी नही निकला था। ऐसे लोगों को अपने नेतृत्व मे लेना बहुत कठिन कार्य था। परन्तु इन सब अवगुणो के होते हुए भी पैगम्बर ने अपने कौशल से उनको इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि सब आपके समर्थक बन गये। तथा अपने प्राणो की आहुती देने के लिए धर्म युद्ध के लिए निकल पड़े।

 

आदरनीय पैगम्बर युद्ध के लिए एक से अधिक सेना नायकों का चयन करते तथा गंभीरता पूर्वक उनके मध्य कार्यों व शक्तियों का विभाजन कर नियम बनाते थे।वह राजनीतिक तथा शासकीय सिधान्तों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते थे।उन्होने विभिन्न विभागों की नीव डाली। वह सेनापतियों का चुनाव सुचरित्र को आधार बनाकर करते थे

 

क्षमा दान की प्रबल भावना

आदरनीय पैगम्बर(स.) मे क्षमादान की भावना बहुत प्रबल थी।बदले की भावना उनके अन्दर बिल्कुल भी विद्यमान नही थी। उन्होने अपनी क्षमा भावना का पूर्ण परिचय मक्के की विजय के समय कराया। जब उनके शत्रुओं को बंदी बनाकर उनके सम्मुख लाया गया तो उन्होने यातनाऐं देनेवाले सभी शत्रुओं को क्षमा कर दिया। अगर पैगम्बर(स.) चाहते तो उनसे बदला ले सकते थे परन्तु उन्होने शक्ति होते हुए भी ऐसा नही किया। अपितु सबको क्षमा करके कहा कि जाओ तुम सब स्वतन्त्र हो।

 

उनकी शक्ति शाली आत्मा सदैव क्षमादान को वरीयता देती थी। ओहद नामक युद्ध मे जो पाश्विक व्यवहार उनके चचा श्री हमज़ा पुत्र श्री अब्दुल मुत्तलिब के साथ किया गया(अबु सुफियान की पत्नि व मुआविया की माँ हिन्दा ने उनके मृत्य शरीर से उनका कलेजा निकाल कर खाने की चेष्टा की) उस को देख कर वह बहुत दुखीः हुए। परन्तु पैगम्बर ने उसके परिवार के मृत्य लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नही किया। यहाँ तक कि जब वह स्त्री बंदी बनाकर लाई गई, तो आपने उससे बदला न लेकर उसे क्षमा कर दिया। यही नही अपितु पैगम्बर ने अबुक़ुतादा नामक उस व्यक्ति को भी चुप रहने का आदेश दिया जो उसको अपशब्द कह रहा था।

 

खैबर नामक युद्ध मे जब यहूदियों ने मुसलमानो के सम्मुख हथियार डाल दिये व युद्ध समाप्त हो गया तो यहूदियों ने भोजन मे विष मिलाकर पैगम्बर के लिए भेजा । पैगम्बर को उनके इस षड़यन्त्र का ज्ञान हो गया। परन्तु उन्होने इसके उपरान्त भी यहूदियों को कोई दण्ड नही दिया तथा क्षमा करके स्वतन्त्र छोड़ दिया।

 

तबूक नामक युद्ध से लौटते समय मुनाफिकों के एक संगठन ने पैगम्बर की हत्या का षड़यन्त्र रचा। जब पैगम्बर एक पहाड़ी दर्रे को पार कर रहे थे तो मुनाफिक़ीन ने योजनानुसार आप के ऊँट को भड़का दिया। ताकि पैगम्बर ऊँट से गिर कर मर जाऐं, परन्तु वह विफल रहे। और पैगम्बर ने सब को पहचान लिया परन्तु उनसे बदला नही लिय । तथा अपने दोस्तों के आग्रह पर भी उन के नाम नही बताये।

 

उच्चतम सामाजिक जीवन शैली

पैगम्बर(स.) का सामाजिक जीवन बहुत श्रेष्ठ था वह लोगों के मध्य सदैव प्रसन्नचित्त रहते थे। किसी की ओर घूर कर नही देखते थे। अधिकाँश उन की दृष्टि पृथ्वी पर रहती थी। दूसरों के सामने अपने पैरो कों मोड़ कर बैठते थे। किसी के भी सम्मुख वह पैर नही फैलाते थे। जब वह किसी सभा मे जाते थे तो अपने बैठने के लिए निकटतम स्थान को चुनते थे । वह इस बात को पसंद नही करते थे, कि सभा मे से कोई व्यक्ति उनके आदर हेतू खड़ा हो, या उनके लिए किसी विशेष स्थान को खाली किया जाये। वह बच्चों तथा दासों को भी स्वंय सलाम करते थे। वह किसी के कथन को बीच मे नही काटते थे। वह प्रत्येक व्यक्ति से इस प्रकार बात करते कि वह यह समझता कि मैं पैगम्बर के सबसे अधिक निकट हूँ। वह अधिक नही बोलते थे तथा धीरे धीरे व रुक रुक कर बाते करते थे। वह कभी भी किसी को अपशब्द नही कहते थे। वह बहुत अधिक लज्जावान व स्वाभीमानी थे। जब वह किसी के व्यवहार से दुखित होते तो दुखः के चिन्ह उनके चेहरे से प्रकट होते थे, परन्तु वह अपने मुख से गिला नही करते थे। वह सदैव रोगियों को देखने के लिए जाते तथा मरने वालों के जनाज़ों (अर्थी) मे सम्मिलित होते थे। वह किसी को इस बात की अनुमति नही देते थे कि उनके सम्मुख किसी को अपशब्द कहें जायें।

 

कानून व न्याय प्रियता

कानून का पालन व न्याय प्रियता पैगम्बर(स.) की मुख्य विशेषताएं थीं।हज़रत पैगम्बर अपने साथ दुरव्यवहार करने वाले को क्षमा कर देते थे, परन्तु कानून का उलंघन करने वालों कों क्षमा नही करते थे। तथा कानूनानुसार उसको दणडित किया जाता था। वह कहते थे कि कानून व न्याय सामाजिक शांति के रक्षक हैं। अतः ऐसा नही हो सकता कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कानून को बलि चढ़ा कर पूरे समाज को दुषित कर दिया जाये। वह कहते थे कि मैं उस अल्लाह की सौगन्ध खाकर कहता हूँ जिसके वश मे मेरी जान है कि न्याय के क्षेत्र मे मैं किसी के साथ भी पक्षपात नही करूगां। अगर मेरा निकटतम सम्बन्धि भी कोई अपराध करेगा तो उसे क्षमा नही करूगां और न ही उसको बचाने के लिए कानून को बली बनाऊँगा।

 

एक दिन पैगम्बर ने मस्जिद मे अपने प्रवचन मे कहा कि अल्लाह ने कुऑन मे कहा है कि प्रलय मे कोई भी अत्याचारी अपने अत्याचार के दण्ड से नही बच सकेगा। अतः अगर आप लोगो मे से किसी को मुझ से कोई यातना पहुंची हो या किसी का कोई हक़ मेरे ऊपर बाक़ी हो तो वह मुझ से लेले। उस सभा मे से सबादा पुत्र क़ैस नामक एक व्यक्ति खड़ा हुआ। तथा कहा कि ऐ पैगम्बर जब आप तायिफ़(एक स्थान का नाम) से लौट रहे थे तो आप के हाथ मे एक असा (लकड़ी का ड़डां) था। आप उसे घुमा रहे थे वह मेरे पेट मे लगा जिससे मुझे पीड़ा हुई। आप ने कहा कि मैं सौगन्ध के साथ कहता हूँ कि मैंने ऐसा जान बूझ कर नही किया परन्तु तू फिर भी उसका बदला ले सकता है। यह कह कर आपने अपना असा मंगाया तथा उस असा को सबादा के हाथ मे देकर कहा कि इससे तेरे शरीर के जिस भाग को पीड़ा पहुँची हो, तू इस से मेरे शरीर के उसी भाग को पीड़ा पहुँचा। उस ने कहा कि ऐ पैगमबर मैने आपको क्षमा किया । आपने कहा कि अल्लाह तुझे क्षमा करे। यह थी इस महान् पैगम्बर की न्याय प्रियता तथा सामाजिक क़ानून की रक्षा।

 

जनता के विचारों का आदर

जिन विषयों के लिए कुरऑन मे आदेश मौजूद होता आदरनीय पैगम्बर (स.) उन विषयों मे न स्वयं हस्तक्षेप करते और न ही किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने देते थे। वह स्वयं भी उन आदेशों का पालन करते तथा दूसरों को भी पालन करने पर बाध्य करते थे। क्योकि कुऑन के आदेशों की अवहेलना कुफ्र (अधर्मिता) है। इस सम्बन्ध मे कुऑन स्वयं कहता है कि व मन लम यहकुम बिमा अनज़ालल्लाहु फ़ा उलाइका हुमुल काफ़िरून। अर्थात वह मनुषय जो अल्लाह के भेजे हुए क़ानून के अनुसार कार्य नही करते वह समस्त काफ़िर (अधर्मी) हैं। जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश नही होता था उनमे हस्तक्षेप नही करते थे। उन विषयों मे जनता स्वतन्त्र थी तथा सबको अपने विचर प्रकट करने की अनुमति थी।

 

वह दूसरों के परामर्श का आदर करते तथा परामर्श पर विचार करते थे। बद्र नामक युद्ध के अवसर पर आपने तीन बार अपने साथियों से विचार विमर्श किया । सर्वप्रथम इस बात पर परामर्श हुआ कि कुरैश से लड़ा जाये या इनको इनके हाल पर छोड़ कर मदीने चला जाये। सब ने जंग करने को वरीयता दी । दूसरी बार छावनी के स्थान के बारे मे परामर्श हुआ। तथा इस बार हबाब पुत्र मुनीज़ा की राय को वरीयता दी गयी। तीसरी बार युद्ध बन्धकों के बरे मे मशवरा लिया गया। कुछ लोगों ने कहा कि इन की हत्या करदी जाये, तथा कुछ लोगों ने कहा कि इनको फिदया (धन) लेकर छोड़ दिया जाये। पैगम्बर ने दूसरी राय का अनुमोदन किया। इसी प्रकार ओहद नामक युद्ध मे भी पैगम्बर ने अपने साथियों से इस बात पर विचार विमर्श किया, कि शहर मे रहकर सुरक्षा प्रबन्ध किये जायें या शहर से बाहर निकल कर पड़ाव डाला जाये व शत्रु को आगे बढने से रोका जाये। विचार के बाद दूसरी राय पारित हुई । इसी प्रकार अहज़ाब नामक युद्ध के अवसर पर भी यह परामर्श हुई कि शहर मे रहकर लड़ा जाये या बाहर निकल कर जंग की जाये। काफी विचार विमर्श के बाद यह पारित हुआ कि शहर से बाहर निकल कर युद्ध किया जाये। अपने पीछे की ओर पहाड़ी को रखा जाये तथा सामने की ओर खाई खोद ली जाये, जो शत्रु को आगे बढ़ने से रोक सके ।

 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि सब मुसलमान आदरनीय पैगम्बर को त्रुटि भूल चूक तथा पाप से सुरक्षित मानते थे। तथा उनके कार्यों पर आपत्ति व्यक्त करने को अच्छा नही समझते थे। परन्तु अगर कोई पैगम्बर के किसी कार्य की आलोचना करता तो वह आलोचक को शांति पूर्ण ढंग से समझाते तथा उसको संतोष जनक उत्तर देकर उसके भम्र को दूर करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि सृष्टि के रचियता ने चिंतन आलोचना व दो वस्तुओं के मध्य एक को वरीयता दने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान की है। यह केवल सामाजिक आधार रखने वाले शक्ति शाली व्यक्तियों से ही सम्बन्धित नही है । अतः मनुष्यों से चिंतन व आलोचना के इस अधिकार को नही छीनना चाहिये।

 

शासकीय सद्व्यवहार

वह सदैव प्रजा के कल्याण के बरे मे सोचते थे। पैगम्बर ने स्वंय एक स्थान पर कहा कि -मै जनता कि भलाई का जनता से अधिक ध्यान रखता हूँ। तुम लोगों मे से जो भी स्वर्गवासी होगा तथा सम्पत्ति छोड़ कर जायगा वह सम्पत्ति उसके परिवार की होगी। परन्तु अगर कोई ऋणी होगा या उसका परिवार दरिद्र होगा तो उसके ऋण को चुका ने तथा उसके परिवार के पालन पोषण का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा।

 

पैगम्बर(स.) ने न्याय व दया पर आधारित अपनी इस शासन प्रणाली द्वारा संसार के समस्त शासकों को यह शिक्षा दी कि समाज मे शासक की स्थिति एक दयावान व बुद्धिमान पिता की सी है। शासक को चाहिये कि हर स्थान पर जनता के कल्याण का ध्यान रखे तथा अपनी मन मानी न करे।

 

पैगम्बर वह महान् व्यक्ति हैं जिन्होने बहुत कम समय मे मानव के दिलों मे अपने सद्व्यवहार की अमिट छाप छोड़ी। उन्होने अपने सद्व्यवहार, चरित्र व प्रशिक्षण के द्वारा अरब हत्यारों को शान्ति प्रियः, झूट बोलने वालों को सत्यवादी, निर्दयी लोगों को दयावान, नास्तिकों को आस्तिक, मूर्ति पूजकों को एकश्वरवादी, असभ्यों कों सभ्य, मूर्खों को बुद्धि मान, अज्ञानीयों को ज्ञानी, तथा क्रूर स्वभव वाले व्यक्तियों को विन्रम बनाया।

 

 

प्रियः अध्धयन कर्ताओं आज जबकि मानव समाज आध्यात्मिक पतन की ओर उनमुख है। तथा असदाचारिता, असत्यता ,छल, कपट, द्वेष, भोग विलासिता तथा अमानवियता चारों ओर व्याप्त है। इस पतन को रोकने के लिए अति आवश्यक है कि मानव जाति के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत किया जाये। जिसका अनुसरन करके मानव जाति का कल्याण हो सके।हम विशवास के साथ कहते हैं कि अगर मानवता पूर्णरूप से आदरनीय पैगम्बर मुम्मद साहिब का अनुसरण करे तो कल्याण पासकती है।क्योंकि आदरनीय पैगम्बर मुहम्मद साहिब मे एक आदर्श के समस्त गुण विद्यमान हैं।

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


 

हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं

 

नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

आपका नाम अली व आपके अलक़ाब अमीरुल मोमेनीन, हैदर, कर्रार, कुल्ले ईमान, सिद्दीक़,फ़ारूक़, अत्यादि हैं।

 

माता पिता

आपके पिता हज़रतअबुतालिब पुत्र हज़रत अब्दुल मुत्तलिब व आपकी माता आदरनीय फ़तिमा पुत्री हज़रत असद थीं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

आप का जन्म रजब मास की 13वी तारीख को हिजरत से 23वर्ष पूर्व मक्का शहर के विश्व विख्यात व अतिपवित्र स्थान काबे मे हुआ था। आप अपने माता पिता के चौथे पुत्र थे।

 

पालन पोषण

आप (6) वर्ष की आयु तक अपने माता पिता के साथ रहे। बाद मे आदरनीय पैगम्बर हज़रतअली को अपने घर ले गये।इस प्रकार सात वर्षों तक हज़रतअली पैगम्बर की देखरेख मे प्रशिक्षित हुए। हज़रतअली ने अपने एक प्रवचन मे कहा कि मैं पैगम्बर के पीछे पीछे इस तरह चलता था जैसे ऊँटनी का बच्चा अपनी माँ के पीछे चलता है। पैगम्बर प्रत्येक दिन मुझे एक सद्व्यवहार सिखाते व उसका अनुसरन करने को कहते थे।

 

हज़रत अली सर्वप्रथम मुसलमान के रूप मे

जब आदरनीय मुहम्मद (स0)ने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की तो हज़रतअली वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने आपके पैगम्बर होने को स्वीकार किया तथा आप पर ईमान लाए।

 

महान् सहाबी इब्ने अब्बास ने कहा कि अली वह प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने पैगम्बर के साथ नमाज़ पढ़ी। वह कहते हैं कि सोमवार को आदरनीय मुहम्मद ने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की तथा मंगलवार से हज़रतअली ने उन पीछे नमाज़ पढ़ना आरम्भ कर दिया था।

 

हज़रत अली पैगम्बर के उत्तराधिकारी के रूप मे

हज़रत पैगम्बर ने अपने स्वर्गवास से तीन मास पूर्व हज से लौटते समय ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर अल्लाह के आदेश से सन् 10 हिजरी मे ज़िलहिज्जा मास की 18वी तिथि को हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। परन्तु आदरनीय पैगम्बर के स्वर्ग वास के बाद कुछ लोगों ने षड़यन्त्र रचकर इस पदको स्वंय ग्रहण कर लिया। प्रथम,द्वितीय व तृतीय खलीफ़ाओं के देहान्त के बाद जनता जागरूक हुई। तथा उन्होने 25 वर्ष के अन्तराल के बाद पैगम्बर के वास्तविक उत्तराधिकारी के हाथों पर बैअत की। इस प्रकार हज़रतअली ने ख़िलाफ़त पद को सुशोभित किया।

 

हज़रत अली द्वारा किये गये सुधार

अपने पाँच वर्षीय शासन काल मे विभिन्न युद्धों, विद्रोहों, षड़यन्त्रों, कठिनाईयों व समाज मे फैली विमुख्ताओं का सामना करते हुए हज़रतअली ने तीन क्षेत्रो मे सुधार किये जो निम्ण लिखित हैं।

 

अधिकारिक सुधार

उन्होने अधिकारिक क्षेत्र मे सुधार करके जनता को समान अधिकार प्रदान किये। शासन की ओर से दी जाने वाली धनराशी के वितरण मे व्याप्त भेद भाव को समाप्त करके समानता को स्थापित किया। उन्होंने कहा कि निर्बल व्यक्ति मेरे समीप हज़रत हैं मैं उनको उनके अधिकार दिलाऊँगा व अत्याचारी व्यक्ति मेरे सम्मुख नीच है मैं उनसे दूसरों के अधिकारों को छीनूँगा।

 

आर्थिक सुधार

हज़रत अली ने आर्थिक क्षेत्र मे यह सुधार किया कि जो सार्वजनिक सम्पत्तियां तीसरे ख़लीफ़ा ने समाज के कुछ विशेष व्यक्तियों को दे दी थीं उनसे उनको वापिस लिया। तथा जनता को अपनी नीतियों से अवगत कराते हुए कहा कि मैं तुम मे से एक हूँ जो वस्तुऐं मेरे पास हैं वह आपके पास भी हैं। जो कर्तव्य आप लोगों के हैं वह मेरे भी हैं। (अर्थात मैं आप लोगों से भिन्न नही हूँ न आपसे कम कार्य करता हूँ न आप से अधिक सम्पत्ति रखता हूँ)

 

प्रशासनिक सुधार

हज़रतअली (अ0) ने प्रशासनिक क्षेत्र मे सुधार हेतू दो उपाये किये।

 

(1) तीसरे ख़लीफ़ा द्वारा नियुक्त किये गये गवर्नरो को निलम्बित किया।

 

(2) भ्रष्ट अधिकारियों को पदमुक्त करके उनके स्थान पर ईमानदार व्यक्तियों को नियुक्त किया।

 

इमाम अली व राजकोष

इमाम अली राजकोष का विशेष ध्यान रखते थे, वह किसी को भी उसके हक़ से अधिक नही देते थे। वह राजकोष को सार्वजनिक सम्पत्ति मानते थे। तथा राजकोष के धन को अपने नीजी कार्यो मे व्यय करने को जनता के घरों मे चोरी करने के समान मानते थे। एक बार आप रात्री के समय राजकोष के कार्यों मे वयस्त थे। उसी समय आपका एक मित्र भेंट के लिए आया जब वह बैठ गया और बातें करने लगा तो आपने जलते हुए चिराग़ (दिआ) को बुझा दिया। और अंधेरे मे बैठकर बाते करने लगे। आपके मित्र ने चिराग़ बुझाने का कारण पूछा तो आपने उत्तर दिया कि यह चिराग़ राजकोष का है।और आपसे बातचीत मेरा व्यक्तिगत कार्य है अतः इसको मैं अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए प्रयोग नही कर सकता। क्योंकि ऐसा करना समस्त जनता के साथ विश्वासघात है।

 

हज़रत अमीरूल मोमेनीन अलैहिस्सलाम के कथन

१. जिस चीज़ की काश्त करोगे वही महसूल (हासिल) हासिल होगा और जो अमल करोगे उसकी जज़ा (इनाम) पाओगे।

२. अमानत (धरोहर) की  हिफ़ाज़त (रक्षा) में तसाहुली (काहिली) न करो। अमानत में ख़यानत फ़क़्र और तहीदस्ती (ग़रीबी) का बायस (कारण) है।

३. जिसने क़ुरान को अपना रहनुमा (मार्गदर्शक) बनाया उसकी हिदायत जन्नत की तरफ़ होगी।

४. जो क़ुरान के हराम को हलाल जाने उसका ईमान क़ुरान पर नहीं।

५. मुसलमान मुसलमान का भाई है न उसपर ज़ुल्म करें न उसको सतायें।

६. क्या कहना उस शख़्स का जो अपनी ख़ामियों (कमियों) की तलाश में रहे और दूसरों की कमज़ोरी पर नज़र न करे और जो माल मयस्सर (पास) हो ,उसको गुनाह (पाप) में सर्फ़ (ख़र्च) न करे।

७. जहाँ भी रहो ख़ुदा से डरो हमेशा हक़ बात कहो अगरचे तल्ख़ (कड़वी) हो।

८. हर काम को पहले अन्दाज़ा करके और उसकी तदबीर करके शुरू करो ताकि नफ़रत से महफ़ूज़ (बचे) रहो।

९. अपने वाजेबात (जिसका न करना पाप हो) को पूरा करो ताकि परहेज़गार (बुराइयों से बचने वाले) रहो और मुक़द्देरात इलाही पर राज़ी रहो ताकि सबसे बेनियाज़ रहो।

१०. जो कोई अपने बरादरे मोमिन की हाजत पूरी करेगा ख़ुदावन्दे आलम उसकी बहुत सी हाजतें पूरी करेगा।

११. कितनी बुरी बात है के आदमी मतलब के वक़्त (समय) ख़ाकसार बना रहे और मतलब निकल जाने पर जफ़ाकार (ज़ुल्म करने वाला)।

१२. जितना हक़ तुम दूसरों पर रखते हो उतना ही हक़ वह तुम पर भी रखते हैं।

१३. जब दुश्मन पर फ़त्ह (विजय) पाओ तो कामयाबी (सफ़लता) का शुक्राना यह है के उसे माफ़ (क्षमा) कर दो।

१४. पोशीदा सदक़ा (गुप्तदान) इन्सान के गुनाहों (पापों) की तलाफ़ी (बदल) करता है।

१५. बदतरीन दोस्त (ख़राब दोस्त) वह है जो तुम्हें मासियत (गुनाहों) की तरफ़ मायल (सुझाव) करे।

१६. अपने को उन आमाल के लिये तैयान करो जिसकी ज़रूरत क़यामत (महाप्रलय) के दिन होगी।

१७. अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह शख़्स (मनुष्य) है जो दूसरों की मालूमात (ज्ञान) से अपनी मालूमात (ज्ञान) में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) करे।

१८. हद से ज़्यादा मेज़ाह (मज़ाक़) आबरू (इज़्ज़त) को ख़त्म कर देता है और झूठ शख़्सियत की इज़्ज़त को ज़लील कर देता है।

१९. अजीब बात है कि हासिद (ईष्य्रालु) अपनी तन्दरूस्ती की फ़िक्र नहीं करते।

२०. हमेशा ख़ुदा की याद रखो के वह दिल की नूरानी का बायस (कारण) और इबादत (तपस्या) है।

२१. अपने ईमान को एहसान और बख़्शिश के ज़रिये महफ़ूज़ (बचाये) रखो।

२२. किसी की बुराई को फ़ाश करने वाला (प्रकट करने वाला) बुराई करने वाले की मिस्ल (समान) है और ग़ीबत का सुनने वाला ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई करना) करने वाले के मानिन्द (समान) है।

२३. वह लोग जो बुरे और बदकार हैं वह दूसरों के उयूब (ऐब का बहु) को फ़ाश (प्रकट) किया करते हैं ताकि अपनी ख़ामियों (कमियों) के लिये बहाना मिल जाए।

२४. तीन चीज़ों में कोई शर्मिन्दगी नहीं। मेहमान की ख़िदमत करना ,उस्ताद और बाप के लिये अपनी जगह से उठना और अपने हक़ को तलब करना।

२५. तीन चीज़ें ही ज़िन्दगी को मुसीबत में डाल देती हैं कीना (मन में शत्रुता) ,रश्क (किसी को हानि पहुँचाये बिना उस जैसा बनने की भावना) ,बदमेजाज़ी।

२६. इल्म (ज्ञान) का पूरा फ़ायदा (लाभ) उस वक़्त (समय) हासिल (प्राप्त) होता है जब उसे काम में लायें (प्रयोग में लायें)

२७. जो शख़्स तुम्हारी ख़ामियों (कमियों) पर तुम को मुतावज्जेह करे तुम्हारा दोस्त और जो ख़ामियों को छिपाये वह तुम्हारा दुश्मन (शत्रु)।

२८. हर शख़्स के माल के दो शरीक हैं एक वारिस दूसरे हवादिस (हादिसे का बहु)।

२९. तुम जिसके मरकज़े उम्मीद हो उसका दिल (मन) मत तोड़ो।

३०. जो यतीम (जिनके पिता न हों) बच्चों पर मेहरबानी करता है उसके बच्चों पर मेहरबानी की जाती है।

३१. सब्र (सहनशीलता) व  ज़ब्त (बर्दाश्त) ज़माने की सख़्तियों को आसान कर देता है।

३२. किसी के गिरफ़्तारे बला हो जाने से ख़ुश न हो क्योंकि ख़ुदा जाने फ़लक कज रफ़्तार तुम्हारे साथ क्या करे।

३३. दीनदार वह है जो दूसरों के सितम् तो सह ले मगर कोई उससे सितम न उठाये।

३४. उस शख़्स पर ज़ुल्म करने से ख़बरदार जिसका ख़ुदा के अलावा कोई हमनवा (साथी) नहीं।

३५. दुश्मन पर हमला करने से पहले सोच लो।

३६. बुरों की तारीफ़ करना बहुत बड़ा गुनाह (पाप) है।

३७. जानने के लिये सवाल करो फ़ित्ना बर्पा करने के लिये नहीं।

३८. तुम्हारा बेहतरीन दोस्त वह है जो तुम्को ताअते इलाही (ईश्वरीय भक्ति) पर मजबूर करे।

३९. अपनी बीमारी का इलाज बेकसों की दस्तगीरी (गिरते को थामना) और मदद (सहायता) से करो।

४०. बला के तूफ़ान को इबादत (तपस्या) व दुआ के ज़रिये (द्वारा) दूर करो।

 

हज़रत इमाम अली की शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम अली सन् 40 हिजरी के रमज़ान मास की 19वी तिथि को जब सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए गये तो सजदा करते समय अब्दुर्रहमान पुत्र मुलजिम ने आपके ऊपर तलवार से हमला किया जिससे आप का सर बहुत अधिक घायल हो गया तथा दो दिन पश्चात रमज़ान मास की 21वी रात्री मे नमाज़े सुबह से पूर्व आपने इस संसार को त्याग दिया।

 

समाधि

आपकी शहादत के समय स्थिति बहुत भयंकर थी। चारो ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा यह भय था कि शत्रु कब्र खोदकर लाश को निकाल सकते हैँ। अतः इस लिए आपको बहुत ही गुप्त रूप से दफ़्न कर दिया गया।एक लम्बे समय तक आपके परिवार व घनिष्ठ मित्रों के अतिरिक्त कोई भी आपकी समाधि से परिचित नही था। परन्तु एक लम्बे अन्तराल के बाद अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद के समय मे यह भेद खुल गया कि इमाम अली की समाधि नजफ़ नामक स्थान पर है। बाद मे आपके अनुयाईयों ने आपकी समाधि का विशाल व वैभवपूर्ण निर्माण कराया। वर्तमान समय मे प्रति वर्ष लाखों दर्शनार्थी आपकी समाधि पर जाकर सलाम करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आलिमुहम्मद।।

 

 


 

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं

 

 

नाम व अलक़ाब (उपाधियां)

आप का नाम फ़ातिमा व आपकी उपाधियां ज़हरा ,सिद्दीक़ा, ताहिरा, ज़ाकिरा, राज़िया, मरज़िया,मुहद्देसा व बतूल हैं।

 

माता पिता

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के पिता पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा व आपकी माता हज़रत ख़दीजातुल कुबरा पुत्री श्री ख़ोलद हैं। हज़रत ख़दीजा वह स्त्री हैं,जिन्होने सर्व- प्रथम इस्लाम को स्वीकार किया। आप अरब की एक धनी महिला थीं तथा आप का व्यापार पूरे अरब मे फैला हुआ था। आपने विवाह उपरान्त अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को दे दी थी। तथा स्वंय साधारण जीवन व्यतीत करती थीं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान  

अधिकाँश इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि हज़रत फातिमा ज़हरा का जन्म मक्का नामक शहर मे जमादियुस्सानी (अरबी वर्ष का छटा मास) मास की 20 वी तारीख को बेसत के पांचवे वर्ष हुआ। कुछ इतिहास कारों ने आपके जन्म को बेसत के दूसरे व तीसरे वर्ष मे भी लिखा है।एक सुन्नी इतिहासकार ने आपके जन्म को बेसत के पहले वर्ष मे लिखा है।

 

पालन पोषन

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का पालन पोषन स्वंय पैगम्बर की देख रेख मे घर मे ही हुआ। आप का पालन पोषन उस गरिमा मय घर मे हुआ जहाँ पर अल्लाह का संदेश आता था। जहाँ पर कुऑन उतरा जहाँ पर सर्वप्रथम एक समुदाय ने एकईश्वरवाद मे अपना विश्वास प्रकट किया तथा मरते समय तक अपनी आस्था मे दृढ रहे। जहाँ से अल्लाहो अकबर (अर्थात अल्लाह महान है) की अवाज़ उठ कर पूरे संसार मे फैल गई। केवल हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा वह बालिका थीं जिन्होंने एकईश्वरवाद के उद्दघोष के उत्साह को इतने समीप से देखा था। पैगम्बर ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि उनके अन्दर मानवता के समस्त गुण विकसित हो गये। तथा आगे चलकर वह एक आदर्श नारी बनीं।

 

विवाह

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का विवाह 9 वर्ष की आयु मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ हुआ। वह विवाह उपरान्त 9 वर्षों तक जीवित रहीं। उन्होने चार बच्चों को जन्म दिया जिनमे दो लड़के तथा दो लड़कियां थीं। जिन के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। पुत्रगण (1) हज़रत इमाम हसन (अ0) (2) हज़रत इमाम हुसैन (अ0)। पुत्रीयां (3) हज़रत ज़ैनब (4) हज़रत उम्मे कुलसूम। आपकी पाँचवी सन्तान गर्भावस्था मे ही स्वर्गवासी हो गयी थी। वह एक पुत्र थे तथा उनका नाम मुहसिन रखा गया था।

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का ज्ञान

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के ज्ञान का स्रोत वही ज्ञान व मर्म है, जो आप के पिता को अल्लाह से प्राप्त हुआ था। हज़रत पैगम्बर अपनी पुत्री फ़तिमा के लिए उस समस्त ज्ञान का व्याख्यान करते थे। हज़रत अली उन व्याख्यानों को लिखते व हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा उन सब लेखों को एकत्रित करती रहती थीं। इन एकत्रित लेखों ने बाद मे एक पुस्तक का रूप धारण कर लिया। आगे चलकर यह पुस्तक मुसहफ़े फ़ातिमा के नाम से प्रसिद्ध हुई।

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का शिक्षण कार्य

हज़रत फ़तिमा स्त्रीयों को कुऑन व धार्मिक निर्देशों की शिक्षा देती व उनको उनके कर्तव्यों के प्रति सजग करती रहती थीं। आप की मुख्यः शिष्या का नाम फ़िज़्ज़ा था जो गृह कार्यों मे आप की साहयता भी करती थी। वह कुऑन के ज्ञान मे इतनी निःपुण हो गयी थी कि उसको जो बात भी करनी होती वह कुऑन की आयतों के द्वारा करती थी। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा दूसरों को शिक्षा देने से कभी नही थकती थीं तथा सदैव अपनी शिष्याओं का धैर्य बंधाती रहती थी।

 

एक दिन की घटना है कि एक स्त्री ने आपकी सेवा मे उपस्थित हो कर कहा कि मेरी माता बहुत बूढी है और उसकी नमाज़ सही नही है। उसने मुझे आपके पास भेजा है कि मैं आप से इस बारे मे प्रश्न करू ताकि उसकी नमाज़ सही हो जाये। आपने उसके प्रश्नो का उत्तर दिया और वह लौट गई। वह फिर आई तथा फिर अपने प्रश्नों का उत्तर लेकर लौट गई। इसी प्रकार उस को दस बार आना पड़ा और आपने दस की दस बार उसके प्रश्नों का उत्तर दिया। वह स्त्री बार बार आने जाने से बहुत लज्जित हुई तथा कहा कि मैं अब आप को अधिक कष्ट नही दूँगी।

 

आप ने कहा कि तुम बार बार आओ व अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करो । मैं अधिक प्रश्न पूछने से क्रोधित नही होती हूँ। क्योंकि मैंने अपने पिता से सुना है कि" कियामत के दिन हमारा अनुसरण करने वाले ज्ञानी लोगों को उनके ज्ञान के अनुरूप मूल्यवान वस्त्र दिये जायेंगे। तथा उनका बदला (प्रतिकार) मनुष्यों को अल्लाह की ओर बुलाने के लिए किये गये प्रयासों के अनुसार होगा।"

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा रात्री के एक पूरे चरण मे इबादत मे लीन रहती थीं। वह खड़े होकर इतनी नमाज़ें पढ़ती थीं कि उनके पैरों पर सूजन आजाती थी। सन् 110 हिजरी मे मृत्यु पाने वाला हसन बसरी नामक एक इतिहासकार उल्लेख करता है कि" पूरे मुस्लिम समाज मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा से बढ़कर कोई ज़ाहिद, (इन्द्रि निग्रेह) संयमी व तपस्वी नही है।" पैगम्बर की पुत्री संसार की समस्त स्त्रीयों के लिए एक आदर्श है। जब वह गृह कार्यों को समाप्त कर लेती थीं तो इबादत मे लीन हो जाती थीं।

 

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने पूर्वज इमाम हसन जो कि हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के बड़े पुत्र हैं उनके इस कथन का उल्लेख करते हैं कि "हमारी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा बृहस्पतिवार व शुक्रवार के मध्य की रात्री को प्रथम चरण से लेकर अन्तिम चरण तक इबादत करती थीं। तथा जब दुआ के लिए हाथों को उठाती तो समस्त आस्तिक नर नारियों के लिए अल्लाह से दया की प्रार्थना करतीं परन्तु अपने लिए कोई दुआ नही करती थीं। एक बार मैंने कहा कि माता जी आप दूसरों के लिए अल्लाह से दुआ करती हैं अपने लिए दुआ क्यों नही करती? उन्होंने उत्तर दिया कि प्रियः पुत्र सदैव अपने पड़ोसियों को अपने ऊपर वरीयता देनी चाहिये।"

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक जाप किया करती थीं जिसमे (34) बार अल्लाहु अकबर (33) बार अलहम्दो लिल्लाह तथा (33) बार सुबहानल्लाह कहती थीं। आपका यह जाप इस्लामिक समुदाय मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की तस्बीह के नाम से प्रसिद्ध है। तथा शिया व सुन्नी दोनो समुदायों के व्यक्ति इस तस्बीह को नमाज़ के बाद पढ़ते हैं।

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का धर्म युद्धों मे योगदान

इतिहास ने हज़रत पैगम्बर के दस वर्षीय शासन के अन्तर्गत आपके 28 धर्म युद्धों तथा 35 से लेकर 90 तक की संख्या मे सरिय्यों का उल्लेख किया है। (पैगम्बर के जीवन मे सरिय्या उन युद्धों को कहा जाता था जिन मे पैगम्बर स्वंय सम्मिलित नही होते थे।) जब इस्लामी सेना किसी युद्ध पर जाती तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा इस्लामी सेनानियों के परिवार की साहयता के लिए जाती व उनका धैर्य बंधाती थीं। वह कभी कभी स्त्रीयों को इस कार्य के लिए उत्साहित करती कि युद्ध भूमी मे जाकर घायलों की मरहम पट्टि करें। परन्तु केवल उन सैनिकों की जो उनके महरम हों। महरम अर्थात वह व्यक्ति जिनसे विवाह करना हराम हो।

 

ओहद नामक युद्ध मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अन्य स्त्रीयों के साथ युद्ध भूमि मे गईं इस युद्ध मे आपके पिता व पति दोनो बहुत घायल होगये थे। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने पिता के चेहरे से खून धोया। तथा जब यह देखा कि खून बंद नही हो रहा है तो हरीर(रेशम) के एक टुकड़े को जला कर उस की राख को घाव पर डाला ताकि खून बंद हो जाये। उस दिन हज़रत अली ने अपनी तलवार धोने के लिए हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को दी। इस युद्ध मे हज़रत पैगम्बर के चचा श्री हमज़ा शहीद हो गये थे। युद्ध के बाद श्री हमज़ा की बहन हज़रत सफ़िहा हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के साथ अपने भाई की क्षत विक्षत लाश पर आईं तथा रोने लगीं। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा भी रोईं तथा पैगम्बर भी रोयें।और अपने चचा के पार्थिव शरीर से कहा कि अभी तक आप की मृत्यु के समान कोई मुसीबत मुझ पर नही पड़ी। इसके बाद हज़रत फ़तिमा व सफ़िहा से कहा कि अभी अभी मुझे अल्लाह का संदेश मिला है कि सातों आकाशों मे हमज़ा शेरे खुदा व शेरे रसूले खुदा है। इस युद्ध के बाद हज़रत फातिमा जब तक जीवित रहीं हर दूसरे या तीसरे दिन ओहद मे शहीद होने वाले सैनिकों की समाधि पर अवश्य जाया करती थीं।

 

ख़न्दक नामक युद्ध मे हज़रत फ़तिमा अपने पिता के लिए रोटियां बनाकर ले गयीं जब पैगम्बर ने प्रश्न किया कि यह क्या है? तो आपने उत्तर दिया कि आपके न होने के कारण दिल बहुत चिंतित था अतः यह रोटियां लेकर आपकी सेवा मे आगई। पैगम्बर ने कहा कि तीन दिन के बाद मैं यह पहला भोजन अपने मुख मे रख रहा हूँ।

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक आदर्श पुत्री,पत्नि, व माता के रूप मे

 

आदर्श पुत्री

नौ वर्ष की आयु तक हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता के घर पर रहीं।जब तक उनकी माता हज़रत ख़दीजा जीवित रहीं वह गृह कार्यों मे पूर्ण रूप से उनकी साहयता करती थीं। तथा अपने माता पिता की अज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करती थीं। अपनी माता के स्वर्गवास के बाद उन्होने अपने पिता की इस प्रकार सेवा की कि पैगम्बर आपको उम्मे अबीहा कहने लगे। अर्थात माता के समान व्यवहार करने वाली। पैगम्बर आपका बहुत सत्कार करते थे। जब आप पैगम्बर के पास आती थीं तो पैगमबर आपके आदर मे खड़े हो जाते थे, तथा आदर पूर्वक अपने पास बैठाते थे। जब तक वह अपने पिता के साथ रही उन्होने पैगमबर की हर आवश्यकता का ध्यान रखा। वर्तमान समय मे समस्त लड़कियों को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करते हुए अपने माता पिता की सेवा करें।

 

आदर्श पत्नि

हज़रत फ़तिमा संसार मे एक आदर्श पत्नि के रूप मे प्रसिद्ध हैं। उनके पति हज़रत अली ने विवाह उपरान्त का अधिकाँश जीवन रण भूमी या इस्लाम प्रचार मे व्यतीत किया। उनकी अनुपस्थिति मे गृह कार्यों व बच्चों के प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व वह स्वंय अपने कांधों पर संभालती व इन कार्यों को उचित रूप से करती थीं। ताकि उनके पति आराम पूर्वक धर्मयुद्ध व इस्लाम प्रचार के उत्तर दायित्व को निभा सकें। उन्होने कभी भी अपने पति से किसी वस्तु की फ़रमाइश नही की। वह घर के सब कार्यों को स्वंय करती थीं। वह अपने हाथों से चक्की चलाकर जौं पीसती तथा रोटियां बनाती थीं। वह पूर्ण रूप से समस्त कार्यों मे अपने पति का सहयोग करती थीं। पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद जो विपत्तियां उनके पति पर पड़ीं उन्होने उन विपत्तियों मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सहयोग मे मुख्य भूमिका निभाई। तथा अपने पति की साहयतार्थ अपने प्राणो की आहूति दे दी। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का स्वर्गवास हो गया तो हज़रत अली ने कहा कि आज मैने अपने सबसे बड़े समर्थक को खो दिया।

 

आदर्श माता

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने एक आदर्श माता की भूमिका निभाई उनहोनें अपनी चारों संतानों को इस प्रकार प्रशिक्षत किया कि आगे चलकर वह महान् व्यक्तियों के रूप मे विश्वविख्यात हुए। उनहोनें अपनी समस्त संतानों को सत्यता, पवित्रता, सदाचारिता, वीरता, अत्याचार विरोध, इस्लाम प्रचार, समाज सुधार, तथा इस्लाम रक्षा की शिक्षा दी। वह अपने बच्चों के वस्त्र स्वंय धोती थीं व उनको स्वंय भोजन बनाकर खिलाती थीं। वह कभी भी अपने बच्चों के बिना भोजन नही करती थीं। तथा सदैव प्रेम पूर्वक व्यवहार करती थीं। उन्होंने अपनी मृत्यु के दिन रोगी होने की अवस्था मे भी अपने बच्चों के वस्त्रों को धोया, तथा उनके लिए भोजन बनाकर रखा। संसार की समस्त माताओं को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करे तथा अपनी संतान को उच्च प्रशिक्षण द्वारा सुशोभित करें।

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के गले की माला

एक दिन हज़रत पैगम्बर(स.) अपने मित्रों के साथ मस्जिद मे बैठे हुए थे । उसी समय एक व्यक्ति वहाँ पर आया जिसके कपड़े फ़टे हुए थे तथा उस के चेहरे से दरिद्रता प्रकट थी। वृद्धावस्था के कारण उसके शरीर की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पैगम्बर उस के समीप गये तथा उससे उसके बारे मे प्रश्न किया उसने कहा कि मैं एक दुखिःत भिखारी हूँ। मैं भूखा हूँ मुझे भोजन कराओ, मैं वस्त्रहीन हूँ मुझे पहनने के लिए वस्त्र दो,मैं कंगाल हूँ मेरी आर्थिक साहयता करो। पैगम्बर ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है परन्तु चूंकि किसी को अच्छे कार्य के लिए रास्ता बताना भी अच्छा कार्य करने के समान है। इस लिए पैगम्बर ने उसको हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के घर का पता बता दिया। क्योकि उनका घर मस्जिद से मिला हुआ था अतः वह शीघ्रता से उनके द्वार पर आया व साहयता की गुहार की। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है जो मैं तुझे दे सकूँ। परन्तु मेरे पास एक माला है तू इसे बेंच कर अपनी आवश्य़क्ताओं की पूर्ति कर सकता है। यह कहकर अपने गले से माला उतार कर उस को देदी। य़ह माला हज़रत पैगम्बर के चचा श्री हमज़ा ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को उपहार स्वरूप दी थी। वह इस माला को लेकर पैगम्बर के पास आया तथा कहा कि फ़ातिमा ने यह माला दी है। तथा कहा है कि मैं इसको बेंच कर अपनी अवश्यक्ताओं की पूर्ति करूँ।.

पैगम्बर इस माला को देख कर रोने लगे । अम्मारे यासिर नामक आपके एक मित्र आपके पास बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि मुझे अनुमति दीजिये कि मैं इस माला को खरीद लूँ पैगम्बर ने कहा कि जो इस माला को खरीदेगा अल्लाह उस पर अज़ाब नही करेगा। अम्मार ने उस दरिद्र से पूछा कि तुम इस माला को कितने मे बेंचना चाहते हो? उसने उत्तर दिया कि मैं इसको इतने मूल्य पर बेंच दूंगा जितने मे मुझे पहनने के लिए वस्त्र खाने के लिए रोटी गोश्त मिल जाये तथा एक दीनार मेरे पास बच जाये जिससे मैं अपने घर जा सकूँ। अम्मार यासिर ने कहा कि मैं इसको भोजन वस्त्र सवारी व बीस दीनार के बदले खरीदता हूँ। वह दरिद्र शीघ्रता पूर्वक तैयार हो गया। इस प्रकार अम्मारे यासिर ने इस माला को खरीद कर सुगन्धित किया। तथा अपने दास को देकर कहा कि यह माला पैगम्बर को भेंट कर व मैंने तुझे भी पैगम्बर की भेंट किया। पैगम्बर ने भी वह माला तथा दास हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की भेंट कर दिया । हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने माला को ले लिया तथा दास से कहा कि मैंने तुझे अल्लाह के लिए स्वतन्त्र किया। दास यह सुनकर हंसने लगा। हज़रत फ़तिमा ने हगंसने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मुझे इस माला ने हंसाया क्यों कि इस ने एक भूखे को भोजन कराया, एक वस्त्रहीन को वस्त्र पहनाये एक पैदल चलने वाले को सवारी प्रदान की एक दरिद्र को मालदार बनाया एक दास को स्वतन्त्र कराया और अन्त मे स्वंय अपने मालिक के पास आ गई।

 

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा के कथन

१. जिसने अपनी ज़िन्दगी उन कामों में गुज़ारी जो ख़ुदावन्दे आलम से दूरी का बायस हों तो उसने अपना नुक़सान किया।

२. कपड़े धोना ग़म व ग़ुस्से को ज़ाएल (मिटा देना) कर देता है।

३. क़नाअत (सन्तोष) और इताअते ख़ुदा बेनियाज़ी और इज़्ज़त का बायस (कारण) और गुनाह (पाप) और लालच बदबख़्ती की अलामत (निशानी) है।

४. ईमान और हया का चोली दामन का साथ है अगर इनमें से कोई एक चला जाए तो दूसरे का वुजूद (अस्त्वि) बरक़रार (स्थिर) न रह सकेगा।

५. जो औरत अपने शौहर (पति) को सख़्त और मुश्किल कामों के लिये मजबूर न करे वह जन्नती है और ख़ुदा उससे राज़ी है।

६. जो औरत बिला वजह अपने शौहर (पति) से तलाक़ चाहे बेहिश्त (स्वर्ग) की ख़ुश्बू भी उस पर हराम है।

७. कितने बदबख़्त हैं वह लोग जिसमें अज़्म व पुख़्तगी (द्रढ़ता) न हो और वह अहम (ख़ास) कामों को मेज़ाह (मज़ाक़) में टाल जायें।

८. ज़ौजा (पत्नि) जब अपने शौहर (पति) का हक़ अदा न करे गोया उसने ख़ुदा के हक़ को अदा नहीं किया।

९. वह मर्द जो हवा व हवस (इच्छाओं) के बन्दे (ग़ुलाम) हों वह समाज के लिये बायसे ज़िल्लत हैं।

१०. वह औरत जो अपने शौहर को अज़ीयत (तकलीफ़) दे ख़ुदावन्दे आलम उसके नेक कामों को भी क़ुबूल (स्वीकार) नहीं करे गा।

११. जो औरत पाबन्दे नमाज़ हो और बग़ैर शौहर की इजाज़त के घर से क़दम न निकाले और उसकी फ़रमाबरदार (आज्ञाकारी) रहे ख़ुदावन्दे आलम उसके गुनाहों (पापों) को माफ़ (क्षमा) कर देगा।

१२. तुम्हें क्या हो गया है ?तुम किधर जा रहे हो जबकि क़रानी अहकामात (आज्ञायें) बहुत साफ़ और वाज़ेह (खुली हुई) हैं।

१३. बर्तनों की सफाई और पाकीज़गी ग़िना (मालदारी) और नेमत में इज़ाफ़े का बायस (कारण) है ।

१४. ख़ुदावन्दे आलम ने ईमान को शिर्क (ख़ुदा का शरीक बनाने की प्रक्रिया) से पाकिज़गी का बायस (कारण) और नमाज़ को दिलों से किब्र व निख़्वत (गर्व व घमण्ड) के अज़ाले (दूर होने) का बायस बनाया है।

१५. तज़किया-ए नफ़्स (आत्मा की शुध्दता) के लिये ज़कात वाजिब की और इख़्लास की पुख़्तगी (मज़बूती) के लिए रोज़ा।

१६. हमारी इताअत (आदेशानुपालन) क़ौम की तनज़ीम की बायस (कारण) है और हमारी इमामत क़ौम के इत्तेहाद (एकता) की ज़ामिन है।

१७. इस्लाम की इज़्ज़त जेहाद (इस्लामी संघर्ष) है।

१८. अवाम की मसलैहत अम्रे मारूफ़ (अच्छाई की दावत) में है।

१९. इताअते वालदैन (पिर्त भक्ति) अज़ाबे इलाही (ईशवरीय प्रकोप) से महफ़ूज़ रखती है।

२०. सिल्हे रहम (अच्छा बर्ताव) उम्र (आयु) में इज़ाफ़े का सबब (कारण) है।

२१. क़सास (बदला) ख़ूंरेज़ी (ख़ूनी संघर्ष) को रोक देता है।

२२. नज़्र (वचन) को पूरा करना मग़्फ़रत (बख़्शिश) का सबब है।

२३. शराब इन्सान का आलूदा (ख़राब) कर देती है।

२४. तोहमत (आरोप) लगाने वाला लानत का सज़ावार है।

२५. चोरी बदअम्नी (अशान्ति) फैलाती है।

२६. जो सब्र (सहनशीलता) करता है उसे पूरा पूरा सवाब मिलता है।

२७. ऐ बन्देगाने ख़ुदा तुम अपने नफ़्स (आत्मा) पर अल्लाह के अमीन हो और दूसरी उम्मतों तक उसके पैग़ाम रसां (पहुँचाने वाले) हो।

२८. हज दीन की तक़वियत (ताक़त) का बायस (कारण) है।

२९. अदल व इन्साफ़ (न्याय) दिलों की तन्ज़ीम का ज़रिया (कारण) है।

३०. क़ुराने करीम को तुमने पसे पुश्त (पीछे) डाल दिया है क्या तुम उससे इन्हेराफ़ (मुँह फेरना) के ख़्वाहाँ (इच्छुक) हो।

३१. क़यामत के दिन निदामत (शर्मिन्दगी ,पछतावा) काम आने वाली नहीं।

३२. कल्मे की अस्ल (जड़) इख़लास है उसका मफ़हूम (मतलब) फ़िक्र को रौशनी देता है।

३३. जब मख़लूक़ात परदा-ए ग़ैब में और हिजाबे अदम में थीं उस वक़्त भी मेरे पदरे बुज़ुर्गवार हवादिसे ज़माना और मुक़द्देरात की मुकम्मल मार्फ़त रखते थे।

३४. क्या तुम ज़ालिम से डरते हो जबकि ख़ौफ़ (डर) सिर्फ़ ख़ुदा का होना चाहिये।

३५. बन्दों को दावत दी गई है के शुक्र के ज़रिये नेमतों में इज़ाफ़ा करायें।

३६. ख़ुदा वह है जिसकी आँखों से रोयत (देखना) ,ज़बान से तारीफ़ और ख़्याल से कैफ़ियत का समझ लेना मोहाल (दुशवार) है।

३७. क़ुरान का इत्तेबा (पैरवी) निजात (मुक्ति) का ज़रिया है।

३८. पैग़म्बरे इस्लाम के इस दुनिया से उठते ही तुममें निफ़ाक़ (शत्रुता) ज़ाहिर हो गया और दीन की चादर कोहना (पुरानी) हो गयी।

३९. हज मोमेनीन की सफ़ों को आरास्ता करने का ज़रिया है।

४०. अगर बुख़ार से बचना चाहते हो तो रोज़ाना (प्रतिदिन) दुआए नूर पढ़ो।

 

हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा व पैगम्बर के जीवन के अन्तिम क्षण

क्योंकि हज़रत पैगम्बर(स.) का रोग उनके जीवन के अन्तिम चरण मे अत्याधिक बढ़ गया था।अतः हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा हर समय अपने पिता की सेवा मे रहती थीं। उनकी शय्या की बराबर मे बैठी उनके तेजस्वी चेहरे को निहारती रहती व ज्वर के कारण आये पसीने को साफ़ करती रहती थीं। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता को इस अवस्था मे देखती तो रोने लगती थीं। पैगम्बर से यह सहन नही हुआ। उन्होंने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को संकेत दिया कि मुझ से अधिक समीप हो जाओ। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा निकट हुईं तो पैगम्बर उनके कान मे कुछ कहा जिसे सुन कर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा मुस्कुराने लगीं। इस अवसर पर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का मुस्कुराना आश्चर्य जनक था। अतः आप से प्रश्न किया गया कि आपके पिता ने आप से क्या कहा? आपने उत्तर दिया कि मैं इस रहस्य को अपने पिता के जीवन मे किसी से नही बताऊँगी। पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद आपने इस रहस्य को प्रकट किया।और कहा कि मेरे पिता ने मुझ से कहा था कि ऐ फ़ातिमा आप मेरे परिवार मे से सबसे पहले मुझ से भेंट करोगी। और मैं इसी कारण हर्षित हुई थी।

 

शहादत(स्वर्गवास)

आप अपने पिता के बाद केवल 90 दिन जीवित रहीं। हज़रत पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद जो अत्याचार आप पर हुए आप उनको सहन न कर सकीं तथा स्वर्गवासी हो गईं। इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि जब आप के घर को आग लगायी गई, उस समय आप द्वार के पीछे खड़ी हुई थीं। जब किवाड़ों को धक्का देकर शत्रुओं ने घर मे प्रवेश किया तो उस समय आप दर व दीवार के मध्य भिच गयीं। जिस कारण आपके सीने की पसलियां टूट गयीं, व आपका वह बेटा भी स्वर्गवासी हो गया जो अभी जन्म भी नही ले पाया था। जिनका नाम गर्भावस्था मे ही मोहसिन रख दिया गया था।

 

समाधि

चूँकि जिस समय आपकी शहादत हुई उस समय आपका परिवार बहुत ही भयंकर स्थिति से गुज़र रहा था। चारों ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा आपने स्वंय भी वसीयत की थी कि मुझे रात्री के समय दफ़्न करना तथा कुछ विशेष व्यक्तियों को मेरे जनाज़े मे सम्मिलित न करना। अतः हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने वसीयतानुसार आपको चुप चाप रात्री के समय दफ़्न कर दिया।अतः आपके जनाज़े (अर्थी) मे केवल आपके परिवार के सदस्य व हज़रत अली के विश्वसनीय मित्र ही सम्मिलित हो पाये थे। और दफ़्न के बाद कई स्थानो पर आपकी की कब्र के निशान बनाये गये थे। इस लिए विश्वसनीय नही कहा जासकता कि आपकी समाधि कहाँ पर है। परन्तु कुछ सुत्रों से ज्ञात होता है कि आपको जन्नातुल बक़ी नामक क़ब्रिस्तान मे दफ़्नाया गया था।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

 


हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं

 

माता पिता

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम तथा आपकी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा थीं। आप अपने माता पिता की प्रथम संतान थे।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का जन्म रमज़ान मास की पन्द्रहवी (15) तारीख को सन् तीन (3) हिजरी में मदीना नामक शहर में हुआ था। जलालुद्दीन नामक इतिहासकार अपनी किताब तारीख़ुल खुलफ़ा में लिखता है कि आपकी मुखाकृति हज़रत पैगम्बर से बहुत अधिक मिलती थी।

 

पालन पोषण

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का पालन पोषन आपके माता पिता व आपके नाना हज़रत पैगम्बर (स0) की देख रेख में हुआ। तथा इन तीनो महान् व्यक्तियों ने मिल कर हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम में मानवता के समस्त गुणों को विकसित किया।

 

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की इमामत का समय

शिया सम्प्रदाय की विचारधारा के अनुसार इमाम जन्म से ही इमाम होता है। परन्तु वह अपने से पहले वाले इमाम के स्वर्गवास के बाद ही इमामत के पद को ग्रहन करता है। अतः हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी अपने पिता हज़रत इमाम अली की शहादत के बाद इमामत पद को सँभाला।

जब आपने इमामत के पवित्र पद को ग्रहन किया तो चारो और अराजकता फैली हुई थी। व इसका कारण आपके पिता की आकस्मिक शहादत थी। अतः माविया ने जो कि शाम नामक प्रान्त का गवर्नर था इस स्थिति से लाभ उठाकर विद्रोह कर दिया।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सहयोगियों ने आप के साथ विश्वासघात किया उन्होने धन,दौलत, पद व सुविधाओं के लालच में माविया से साँठ गाँठ करली। इस स्थिति में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सम्मुख दो मार्ग थे एक तो यह कि शत्रु के साथ युद्ध करते हुए अपनी सेना के साथ शहीद होजाये। या दूसरे यह कि वह अपने सच्चे मित्रों व सेना को क़त्ल होने से बचालें व शत्रु से संधि करले । इस अवस्था में इमाम ने अपनी स्थित का सही अंकन किया सरदारों के विश्वासघात व सेन्य शक्ति के अभाव में माविया से संधि करना ही उचित समझा।

 

संधि की शर्तें

1- माविया को इस शर्त पर सत्ता हस्तान्त्रित की जाती है कि वह अल्लाह की किताब (कुरऑन) पैगम्बर व उनके नेक उत्तराधिकारियों की शैली के अनुसार कार्य करेगा।

2- माविया के बाद सत्ता इमाम हसन अलैहिस्सलाम की ओर हस्तान्त्रित होगी व इमाम हसन अलैहिस्सलाम के न होने की अवस्था में सत्ता इमाम हुसैन को सौंपी जायेगी। माविया को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने बाद किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करे।

3- नमाज़े जुमा में इमाम अली पर होने वाला सब (अप शब्द कहना) समाप्त किया जाये। तथा हज़रत अली को अच्छाई के साथ याद किया जाये।

4- कूफ़े के धन कोष में मौजूद धन राशी पर माविया का कोई अधिकार न होगा। तथा वह प्रति वर्ष बीस लाख दिरहम इमाम हसन अलैहिस्सलाम को भेजेगा। व शासकीय अता (धन प्रदानता) में बनी हाशिम को बनी उमैया पर वरीयता देगा। जमल व सिफ़्फ़ीन के युद्धो में भाग लेने वाले हज़रत इमाम अली के सैनिको के बच्चों के मध्य दस लाख दिरहमों का विभाजन किया जाये तथा यह धन रीशी इरान के दाराबगर्द नामक प्रदेश की आय से जुटाई जाये।

 

5- अल्लाह की पृथ्वी पर मानवता को सुरक्षा प्रदान की जाये चाहे वह शाम में रहते हों या यमन मे हिजाज़ में रहते हों या इराक़ में काले हों या गोरे। माविया को चाहिए कि वह किसी भी व्यक्ति को उस के भूत काल के व्यवहार के कारण सज़ा न दे।इराक़ वासियों से शत्रुता पूर्ण व्यवहार न करे। हज़रत अली के समस्त सहयोगियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जाये। इमाम हसन अलैहिस्सलाम, इमाम हुसैन व पैगम्बर के परिवार के किसी भी सदस्य की प्रकट या परोक्ष रूप से बुराई न कीजाये।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के संधि प्रस्ताव ने माविया के चेहरे पर पड़ी नक़ाब को उलट दिया तथा लोगों को उसके असली चेहरे से परिचित कराया कि माविया का वास्तविक चरित्र क्या है।

 

इमाम हसन (अ) के दान देने और क्षमा करने की कहानी।

एक दिन इमाम हसन (अ) घोड़े पर सवार कहीं जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया। इमाम हसन (अ) चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो इमाम हसन (अ) ने उसे मुसकुरा कर सलाम किया और कहने लगेः

ऐ शेख़, मेरे विचार में तुम यहां अपरिचित हो और तुमको धोखा हो रहा है, अगर भूखे हो तो तुम्हें खाना खिलाऊं, अगर कपड़े चाहिये तो कपड़े पहना दूं, अगर ग़रीब हो तो तुम्हरी ज़रूरत पूरी कर दूं, अगर घर से निकाले हुये हो तो तुमको पनाह दे दूं और अगर कोई और ज़रूरत हो तो उसे पूरा करूं। अगर तुम मेरे घर आओ और जाने तक मेरे घर में ही रहो तो तुम्हारे लिये अच्छा होगा क्योंकि मेरे पास एक बड़ा घर है तथा मेहमानदारी का सामान भी मौजूद है।

सीरिया के उस नागरिक ने जब यह व्यवहार देखा तो पछताने और रोने लगा और इमाम को संबोधित करके कहने लगाः मैं गवाही देता हूं कि आप ज़मीन पर अल्लाह के प्रतिनिधि हैं तथा अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि अपना प्रतिनिधित्व किसे प्रदान करे। आप से मिलने से पहले आपके पिता और आप मेरी निगाह में लोगों के सबसे बड़े दुश्मन थे और अब मेरे लिये सबसे से अच्छे हैं।

यह आदमी मदीने में इमाम हसन का मेहमान बना और पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. एवं उनके अहलेबैत का श्रद्धालु बन गया। इमाम हसन (अ) की सहनशीलता व सब्र इतना मशहूर था कि हिल्मुल- हसन अर्थात हसन की सहनशीलता सब की ज़बानों पर रहता था।

 

इबादत

पैग़म्बरे इस्लाम के नाती और हज़रत अली के बेटे इमाम हसन भी अपने नाना और पिता की तरह अल्लाह की इबादत के प्रति बहुत ज़्यादा पाबंद एवं सावधान थे। अल्लाह की महानता का इतना आभास करते थे कि नमाज़ के समय चेहरा पीला पड़ जाता और जिस्म कांपने लगता था, हर समय उनकी ज़बान पर अल्लाह का ज़िक्र व गुणगान ही रहता था।

 

इमाम हसन गरीबो के साथ

इतिहास में आया है कि किसी भी ग़रीब व फ़क़ीर को उन्होने अपने पास से बिना उसकी समस्या का समाधान किये जाने नहीं दिया। किसी ने सवाल किया कि आप किसी मांगने वाले को कभी ख़ाली हाथ क्यों नहीं लौटाते। तो उन्होने जवाब दिया मैं ख़ुद अल्लाह के दरवाज़े का भिखारी हूं,और उससे आस लगाये रहता हूं, इसलिये मुझे शर्म आती है कि ख़ुद मांगने वाला होते हुये दूसरे मांगने वाले को ख़ाली हाथ भेज दूं। अल्लाह ने मेरी आदत डाली है कि लोगों पर ध्यान दूं और अल्लाह की अनुकंपायें उन्हें प्रदान करूं।

 

हज़रत इमामे हसन (अ.स.)  के कथन

१. जो शख़्स (मनुष्य) हराम ज़राये से  दौलत (धन) जमा करता है ख़ुदावन्दे आलम उसे फ़क़ीरी और बेकसी में मुबतला करता है।

२. दो चीज़ो से बेहतर कोई शैय (चीज़) नहीं एक अल्लाह पर ईमान और दूसरे ख़िदमते ख़ल्क (परोपकार)।

३. ख़ामोश सदक़ा (गुप्त दान) ख़ुदावन्दे आलम के ग़ज़ब (प्रकोप) को ख़त्म कर देता है।

४. हमेशा नेक लोगों की सोहबत (संगत) इख़्तेयार (ग्रहण) करो ताकि अगर कोई कारे नेक (अच्छा कार्य) करो तो तुम्हारी सताएश (प्रशंसा) करें और अगर कोई ग़लती हो जाये तो मुतावज्जेह (ध्यान दियालें) करें।

५. जिसने ग़लत तरीक़े से माल जमा किया वह माल ग़लत जगहों पर और नागहानि-ए-हवादिस (अचानक घटित होने) में सर्फ़ होता है।

६. हर शख़्स की क़ीमत उसके इल्म के बराबर है।

७. तक़वा (सँयम ,ईश्वर से भय) से बेहतर लिबास ,क़नाअत (आत्मसंतोष) से बेहतर माल ,मेहरबानी व रहम से बेहतर एहसान मुझे न मिला।

८. बुरी आदतें जाहिलों की मुआशेरत (कुसंग) में और नेक ख़साएल (अच्छी आदतें) अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) की सोहबत (संगत) से मिलते हैं।

९. अपने दिल को वाएज़ व नसीहत (अच्छे उपदेश) से ज़िन्दा रखो।

१०. गुनाहगारों (पापियों) को नाउम्मीद (निराश) मत करो (क्योंकि) कितने गुनाहगार ऐसे गुज़रे जिनकी आक़ेबत ब-ख़ैर हुई।

११. सबसे बेचारा वह शख़्स है जो अपने लिये दोस्त (मित्र) न बना पाये।

१२. जो शख़्स दुनिया की बेऐतबारी को जानते हुए उस पर ग़ुरूर (घमण्ड) करे बड़ा नादान है।

१३. ख़ुश अख़लाक़ (सुशील) बनो ताकि क़यामत (महाप्रलय) के दिन तुम पर नर्मी की जाए।

१४. गुनाहों (पापों) से बचो क्योंकि गुनाह इन्सान को नेकियों से महरूम कर देता है।

१५. हमेशा नेक बात कहो ताकि नेकि से याद किये जाओ।

१६. अल्लाह की ख़ुशनूदी माँ बाप की ख़ुशनूदी के साथ है और अल्लाह का ग़ज़ब उनके ग़ज़ब के साथ है।

१७. अल्लाह की किताब पढ़ा करो और अल्लाह की नाराज़गी और ग़ज़ब से ख़बरदार रहो।

१८. बुख़्ल (कंजूसी) और ईमान एक साथ किसी के दिल में जमा नहीं हो सकता।

१९. किसी इन्सान को दूसरे पर तरजीह (प्राथमिकता) नहीं दी जा सकती मगर दीन या किसी नेक काम की वजह से।

२०. मैने किसी सितमगर को सितम रसीदा के मानिन्द नहीं देखा मगर हासिद (ईर्ष्यालु) को।

२१. अपने इल्म (ज्ञान) को दूसरों तक पहुँचाओ और दूसरों के इल्म (ज्ञान) को ख़ुद हासिल करो।

२२. अपने भाईयें से फ़ी सबीलिल्लाह (केवल ईशवर के लिए) भाई चारा रखो।

२३. नेकियों और अच्छाइयों का अन्जाम उसके आग़ाज़ (प्रारम्भ) से बेहतर है।

२४. अच्छाई से लज़्ज़त बख़्श कोई और मसर्रत नहीं।

२५. अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह है जो लोगों से ख़ुश अख़लाक़ी (सुशीलता) से पेश आती हो।

२६. जिसका हाफ़ेज़ा (याद्दाश्त) क़वी (ताक़तवर) न हो और अपना दर्स (पाठ) पूरे तौर से याद न कर पाता हो उसे चाहिये के वह उस्ताद के बयान करदा मतालिब (मतलब का बहु) पर ग़ौर करे और  अपने पास महफ़ूज़ (सुरक्षित) करे ताकि वक़्ते ज़रूरत काम आये।

२७. जितना मिले उसपर ख़ुश रहना इन्सान को पाकदामनी तक ले जाता है।

२८. नुक़सान उठाने वाला वह शख़्स है जो ओमूरे दुनिया (सांसारिक कार्य) में इस तरह मश्ग़ूल रहे के आख़ेरत (आख़रत) के ओमूर रह जायें।

२९. धोका और मक्र (छल) ख़ासतौर से उस शख़्स के साथ जिसने तुमको अमीन (सच्चा) समझा कुफ़्र है।

३०. गुनाह क़ुबूलियते दुआ में मानेअ और बदख़ुल्क़ी शर व फ़साद का बायस (कारण) है।

३१. तेज़ चलने से मोमिन का वेक़ार (आत्मसम्मान) कम होता है और बाज़ार में चलते हुए खाना पस्ती (नीचता) की अलामत है।

३२. जब कोई तुम्हारा ख़ैर अन्देश (शुभचिन्तक) अक़्लमन्द तुमको कुछ बताये तो उसे क़ुबूल करो और उसकी ख़िलाफ़ वर्ज़ी (विरोध) से बचो क्योंकि उसमें हलाक़त है।

३३. नादानों की बातों की बेहतरीन जवाब ख़ामोशी है।

३४. हासिद (ईर्ष्यालु) को लज़्ज़त ,बख़ील (कंजूस) को आराम और फ़ासिक़ (ईशवरीय आदेशों का मन से विरोध) को एहतेराम (आदर) तमाम लोगों से कम मिलता है।

३५. बेहतरीन किरदार गुर्सना (भूखे) को खाना खिलाना और बेहतरीन काम जाएज़ काम में मशग़ूल (लिप्त) रहना।

३६. जब तुम बुरे काम से परेशान हो और नेक कामों से ख़ुशहाल तो समझ लो के तुम मोमिन हो।

३७. बेहतर यह है के तुम अपने दुश्मन पर ग़लबा (विजय) हासिल (प्राप्त) करने से पहले अपने नफ़्स पर क़ाबू पा लो।

३८. बख़ील (कंजूस) इन्सान अपने अज़ीज़ों (रिश्तेदारों) में ख़ार रहता है।

३९. गुनाहों (पापों) से बचो क्योंकि गुनाह (पाप) इन्सान के हस्नात (अच्छाइयों) को भी तबाह (बर्बाद) कर देता है।

४०. जिसके पास अज़्म (द्रढ़ता) व इरादा है वह दूसरों लोगों के मुक़ाबले में अपने ऊपर मुसल्लत (हावी) है।

 

शहादत (स्वर्गवास)

माविया से सुलह के बाद जबकि इमाम हसन (अ.स.) ने हुकुमत को छोड़ दिया था लेकिन फिर भी माविया का आपके वूजुदे मुबारक को बरदाश्त करना बहुत सख्त था और वैसे भी सिर्फ इमाम हसन (अ.स) ही वो शख्सियत थे कि जो माविया को अपनी मनमानी करने और यज़ीद को अपना जानशीन बनाने और खिलाफत को विरासती करने मे सबसे बड़े मुखालिफ थे और उस दौर मे सिर्फ इमाम हसन (अ.स.) ही वो सलाहियत रखते थे कि जो उम्मत की रहबरी और हिदायत के लिऐ जरूरी थी ।

और सुलह के बाद से ही हमेशा उसकी कोशीश रही कि किसी भी तरह से इमाम हसन (अ.स.) को जल्दी से जल्दी मौत के दामन मे पहुंचा दे लिहाजा पोशीदा तौर पर उसने इस काम के लिऐ मदीने की मस्जिद मे भी कई दफा इमाम हसन (अ.स.) पर हमले कराऐ लेकिन जब इन हमलो का कोई नतीजा नही निकला तो माविया ने इमाम हसन (अ.स) की ज़ौजा जोदा बिन्ते अशअस के ज़रीए आपको ज़हर दिलाकर शहीद करा दिया।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 50 हिजरी मे सफ़र मास की 28 तरीख को हुई।

 

समाधि

जब इमाम हसन (अ.स.) की शहादत का वक्त करीब आया तो आपने अपने भाई इमाम हुसैन (अ.स.) को अपने करीब बुलाया और उन हज़रत से इरशाद फरमायाः ये तीसरी मरतबा है कि मुझे ज़हर दिया गया है लेकिन इस से पहले जहर असर नही कर पाया था औऱ क्यों कि इस बार असर कर गया है तो मै मर जाऊंगा और जब मै मर जाऊं तो मुझे मेरे नाना रसूले खुदा (स.अ.व.व) के पहलु मे दफ्न कर देना क्योंकि कोई भी मुझसे ज्यादा वहाँ दफ्न होने का हक़दार नही है लेकिन अगर मेरे उस जगह दफ्न होने की मुखालिफत हो तो इस हाल मे ख़ून का एक क़तरा भी न बहने देना।

 

और जब इमाम शहीद हो गऐ और उनके जिस्मे अतहर को रसूले खुदा (स.अ.व.व) के रोज़ाऐ मुबारक मे दफ्न करने के लिऐ ले जाया जाने लगा तो मरवान बिन हकम और सईद बिन आस आपके वहा दफ्न होने की मुखालिफत करने लगे और उनके साथ-साथ आयशा भी मुखालिफत करने लगी और कहने लगी कि मै हसन के यही दफ्न होने की बिल्कुल इजाज़त नही दूंगी क्यो कि ये मेरा घर है।

 

इस पर आयशा के भतीजे कासिम बिन मौहम्मद बिन अबुबकर ने कहा कि क्या दोबारा जमल जैसा फितना खड़ा करना चाहती हो?

 

जिस वक्त इमाम के वहा दफ्न की मुखालिफत की जा रही थी तो वो लोग कि जो इमाम की मैय्यत मे शिरकत के लिऐ आऐ हुऐ थे चाहते थे कि मरवानीयो के साथ जंग करे और इस काम के लिऐ इमाम हुसैन (अ.स.) से इजाज़त मांगने लगे लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.) ने इमाम हसन की वसीयत को याद दिलाया और इमाम हसन (अ.स.) को जन्नतुल बकी मे दफ्न कर दिया।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

 

 


हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

माता पिता

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत फ़तिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा हैं। आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जन्म सन् चार (4) हिजरी क़मरी में शाबान मास की तीसरी (3) तिथि को पवित्र शहर मदीनेमें हुआ था।

 

नाम करण

आप के जन्म के बाद हज़रत पैगम्बर(स.) ने आपका नाम हुसैन रखा। तथा आपके माथे पर चुम्बन कर के कहा कि तेरे सम्मुख एक महान् विपत्ति है। अल्लाह तेरी हत्या करने वाले पर लानत करे।

 

उपाधियां

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मुख्य उपाधियां मिस्बाहुल हुदा, सैय्यिदुश शोहदा, अबु अबदुल्लाह व सफ़ीनातुन निजात है।

 

पालन पोषण

इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे। तथा इस समय सीमा में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था। पैगम्बर(स.) इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।

हज़रत पैगम्बर(स.) के स्वर्गवास के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तीस (30) वर्षों तक अपने पिता हज़रत इमामइमाम अली अलैहिस्सलाम के साथ रहे। और सम्स्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग करते रहे।

हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे। तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे । जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गय, व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया और इस्लाम की रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये।

 

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व क़ियाम के उद्देश्य

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----

1—जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।

 

2—एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।

 

3— जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो, आपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।

 

4—एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।

 

इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की ओर संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं-------

 

1-इस्लामी समाज में सुधार।

2-जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।

3-जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।

4-हज़रत पैगम्बर (स.) और हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत (शैली) को किर्यान्वित करना।

5-समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।

6-अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।

 

यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो, जो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।

 

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम

1-बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।

 

2-बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।

 

3-कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुई; कि हमने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।

 

इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।

 

इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।

 

अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।

 

4- इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।

 

5-इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।

 

6-समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के कथन

१. जो शख़्स किसी मोमिन को खाना खिलाता है ख़ुदावन्दे आलम उसे जन्नत के मेवों से नवाज़ेगा।

२. किसी नेक काम को ख़ुदनुमाई (दिखलाना) के लिये अन्जाम मत दो और किसी नेक काम को ख़ेजालत (शर्मिन्दगी) की बिना पर तर्क न करो।

३. जिसे कोई नेमत (अच्छी वस्तु) मिले उसे शुक्र करना चाहिये।

४. किसी इमारत में हराम चीज़ों का इस्तेमाल न करो के वह वीरानी का बायस (कारण) है।

५. जो शख़्स अमानतदार नहीं वह ईमानदार नहीं और जिसे अपने अहद व पैमान का ख़्याल नहीं तो वह दीनदार नहीं।

६. नेक बातें तूले उम्र (दीर्घायु) का बायस (कारण) और ख़ानदान में महबूबियत (जनप्रिय) और जन्नत में दाख़िले का मोजिब (ज़रिया) है।

७. जिस तरह तुम्हें अपने ऊपर ज़ुल्म पसन्द नहीं दूसरों पर ज़ुल्म मत करो।

८. दो चीज़ों की क़ीमत का अन्दाज़ा नहीं किया जाता मगर उनके गुज़र जाने के बाद ,एक जवानी दूसरे तन्दरूस्ती।

९. कितने ग़ैर हैं जो अपनों से बेहतर हैं (और बुरे वक़्त काम आते हैं) ।

१०. बख़ील (कंजूस) लोगों से मशविरा (परामर्श) मत करो वरना वह तुमको भी सख़ावत (दान) व बख़्शिश से रोक देंगे।

११. नेक लोगों की लग़ज़िशों (त्रुटियों) से चश्मपोशी (अनदेखी) करो क्योंकि ख़ुदावन्दे आलम उनका नासिर व मददगार (सहायक) है।

१२. झूठ से बचो क्योंकि झूठ और ईमान में तज़ाद (टकराव) है।

१३. बड़ी अज़ीम है वह मुसीबत जो इन्सान के दीन पर आये।

१४. जो शख़्स अल्लाह के दोस्तों को दोस्त रखता है ,क़यामत (महाप्रलय) के दिन उन्हीं के साथ महशूर होगा (उठाया जायेगा) ।

१५. मुसलमान जब किसी से वायदा करता है तो फिर वायदा ख़िलाफ़ी नहीं करता।

१६. बदख़्वाही (बुरा चाहना) बदगुमानी (बुरा सोचना) चुग़लख़ोरी ,ज़ुल्म व सितम और फ़ालेबद (अभिशाप) कहने से इज्तेनाब (बचो) करो।

१७. तोहफ़ा दोस्ती को परवान चढ़ाता है भाई चारगी में इज़ाफ़ा करता है और कीने (मन में शत्रुता) को ख़त्म करता है।

१८. कितनी ही ऐसी जल्द ख़त्म हो जाने वाली लज़्ज़ात (मज़े) हैं जिनके नतीजे में एक तुलानी (दीर्घकालीन) रन्ज व अफ़सोस हैं।

१९. लोगों से उन मौज़ूआत (विषयों) पर बात करो जिसे वह समझ सकें।

२०. लोगों से ख़ुश अख़लाक़ी (सुशीलता) ,दुरूस्तकारी से मिलो और उन पर ग़ुस्सा करने से बचो।

२१. ईमान वाला ख़ुदावन्दे आलम से दो चीज़ें तलब करता है ,दुनिया में आसूदगी (संतोष) और आख़ेरत में नेमात (परलोक में मनपसन्द वस्तु) ।

२२. मोमिन तमलक़ (चापलूसी) और चापलूसी नहीं करता।

२३. जब तुम्हारा दामन ख़ुद ही गुनाहों (पापों) से और बुराईयों से आलूदा है तो नही अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना) तुम्हारी ज़िम्मेदारी नहीं।

२४. हक़ की पैरवी किये पग़ैर इन्सान की अक़्ल (बुध्दि) कामिल (पूर्ण) नहीं होती।

२५. जिस चीज़ तक पहुँचना मोहाल (दुशवार) है उसकी आरज़ू (इच्छा) मत करो।

२६. डरपोक और गुनाहगार (पापी) हमेशा परेशान रहते हैं।

२७. इज़्ज़त व मसर्रत परहेज़गारी (बुराईयों से बचना) में है।

२८. ईमान वाला इन्सान न ग़लत काम करता है न ही उसे माज़ेरत (पश्चाताप) करना पड़ती है।

२९. इन्सान की इज़्ज़त इसमें है कि वह दूसरों का मोहताज न रहे।

३०. जो तुम्हारा दोस्त (मित्र) होगा वह तुम्हें बुरे कामों से बचायेगा।

३१. मुसलमान से मुजादला (झगड़ा करना) नादानी की अलामत (जिन्ह) है।

३२. जितना काम किया हो उससे ज़्यादा के सिले (बदले या मज़दूरी) की उम्मीद (आशा) मत रखो।

३३. बख़ील (कंजूस) वह है जो सलाम में बुख़्ल (कंजूसी) करे।

३४. मुनाफ़िक़ (जिसका बाहरी व आन्तरिक एक न हो) रोज़ ग़लती करता है और रोज़ उसे माज़ेरत करना पड़ती है। मोमिन न ग़लती करता है न उसे माज़ेरत (क्षमायाचना) की ज़रूरत होती है।

३५. सलाम में सत्तर ( 70)हस्ना (अच्छाईयाँ) उन्हत्तर ( 69)सलाम करने वाले को और एक जवाब देने वाले को।

३६. जब तक कोई सलाम से इब्तेदा (शुरूआत) न करे उसकी बात का जवाब न दो।

३७. लोगों का अपनी ज़रूरेयात में तुम्हारी तरफ़ रूख़ करना अल्लाह की नेमतों में से एक नेमत है उसे ठुकराओ नहीं।

३८. ज़िन्दगी अक़ीदा (विश्वास) और अमले पैयहम (निरन्तर कार्य करना) का नाम है।

३९. मोमिन का क़ौल (कथन) उसकी शख़्सियत (व्यक्तित्व) का आइना होता है।

४०. अपनी ज़रूरत सिर्फ़ तीन तरह के लोगों से बयान करो।

(1).दीनदार, (2).साहिबे मुरव्वत, (3).शराफ़तमन्द।

 

हज़रत इमाम ह़ुसैन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत का सवाब

 

من أتاه ماشیاً کتب الله له به کل خطوة حسنة ومحی عنه سیئة ورفع له درجة

 

अली इब्ने मैमून इमाम जाफ़र सादिक़ से रिवायत बयान करते हैं कि आपने फ़रमायाः ऐ अली! इमाम ह़ुसैन (अ.स) के क़ब्र की ज़ियारत को जाते रहना और किसी भी स्तिथि में उसे मत छोड़ना।

मैंने पूछा कि उनकी ज़ियारत का सवाब क्या है?

इमाम (अ स) ने फ़रमायाः इमाम हुसैन (अ.स) की पैदल ज़ियारत करने वालों के लिए अल्लाह हर क़दम पर एक नेकी लिखता, एक गुनाह मिटाता और एक दर्जा (श्रेणी) बुलंद करता है। और जिस समय इंसान ज़ियारत के लिए जाता है अल्लाह तआला दो फ़रिश्तों को उनके साथ रखता है ताकि उनके मुँह से निकली हुई अच्छी बातों को लिखें और बुरी बातों को न लिखें। और जिस समय इंसान ज़ियारत से पलटता है तो वह फ़िरशते उससे अलग होते हुए कहते हैं ऐ अल्लाह के वली! तुम्हारे गुनाह माफ़ (क्षमा) कर दिये गये और तुम अल्लाह, रसूल और उनके अहलेबैत (अ.) की पार्टी में शामिल हो गये। और जहन्नम की आग न तुम्हें देखेगी और न तुम उसे, और अल्लाह कभी भी तुम्हें जहन्नम की आग का मज़ा नहीं चखायेगा।

मुह़म्मद इब्ने मुस्लिम ने इमाम मुह़म्मद बाक़िर (अ.स) से रियावत की हैः

 

مُرُوا شِیعَتَنَا بِزیَارَةِ قَبْرِ الحُسَیْنِ بْنِ عَلیٍّ علیهما السلام، فَإنَّ إتیَانَهُ مُفْتَرَضٌ عَلَی کُلِّ مُؤْمِنٍ یُقِرُّ لِلحُسَیْنِ بِالإمَامَةِ مِنَ اللّهِ عَزَّ وَجَلَ «»

 

मेरे शियों को हुसैन इब्ने अली (अ.स) की क़ब्र की ज़ियारत का ह़ुक्म दो क्योंकि इमाम की ज़ियारत हर उस मोमिन पर वाजिब है जिसने अल्लाह की तरफ़ से इमामत को स्वीकार किया है।

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ स) से रिवायत है किः

 

مَنْ زَارَ قَبْرَ الحُسَیْنِ لِلّهِ وَ فِی اللّهِ، أعْتَقَهُ اللّه مِنَ النَّارِ، وَآمَنَهُ یَوْمَ الفَزَعِ الأکبَرِ، وَلَمْ یَسئَلِ اللّهَ حَاجَةً مِن حَوَائِجِ الدُّنیَا وَالآخِرَةِ إلّاأعطَاهُ «»

 

जो आदमी इमाम हुसैन (अ.स) की क़ब्र की ज़ियारत अल्लाह के लिए करेगा तो अल्लाह उसे जहन्नम की आग से आज़ाद कर देगा। और क़यामत के दिन अमान देगा। और दुनिया व आख़ेरत में जो भी माँगेगा अल्लाह उसे अता (प्रदान) करेगा।

इमाम जाफर सादिक़ (अ स) ने फ़रमायाः

 

مَنْ لَمْ یَأْتِ قَبْرَ الْحُسَیْنِ حَتَّی یَمُوتَ، کانَ مُنْتَقَصَ الدِّیْنِ، مُنْتَقَصَ الْإیْمانِ، وَإنْ أُدْخِلَ الْجَنَّةَ کانَ دُوْنَ الْمُؤْمِنْیِنَ فی الْجَنَّةِ «»

 

जो आदमी इमाम ह़ुसैन (अ.स) के क़ब्र की ज़ियारत किये बिना मर जाये उसका दीन व ईमान अधूरा है। और अगर जन्नत में चला भी जाये तो उसका दर्जा सभी मोमिनों से नीचे रहेगा।

ह़ज़रत इमाम रज़ा (अ स) ने फ़रमायाः

 

مَنْ زَارَ قَبْرَ الحُسَیْنِ به شطِّ الفُرَاتِ، کَانَ کَمَنْ زَارَ اللّهَ فَوْقَ عَرْشِهِ «»

 

जिसने कर्बला में इमाम ह़ुसैन (अ स) की क़ब्र की ज़ियारत की वह उस इंसान की तरह़ है जिसने आसमान पर अल्लाह की ज़ियारत की है

अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की ज़िरायत करने वालों के पैरों की धूल अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम रह़मत व कृपा के बहुत ऊंचे दर्जे पर हैं, यहाँ तक कि उनकी ज़ियारत करने वालों के पैरों की धूल इंसान को गुमराही व अज़ाब से अज़ाद करके मूक्ति दिलाती है।

अबुल ह़सन जमालुद्दीन अली इब्ने अब्दुल अज़ीज़े ह़िल्ली जो एक लेखक, अहलेबैत के शाएर थे जो कि ह़िल्ला (इराक के एक शहर का नाम) में ज़िन्दगी गुज़ारते थे 750 हिजरी में दुनिया से चले गए और ह़िल्ला मे आपका मक़बरा बहुत मशहूर है।

जैसा कि क़ाज़ी नूरुल्ला शूस्तरी ने किताबुल मजालिस, ज़नूज़ी ने अपनी किताब रियाज़ुलजन्ना मे लिखा है कि वह नासबी (अहलेबैत का दुश्मन उनको बुरा कहने वाला) माँ बाप से पैदा हुआ था उसकी माँ ने मन्नत) मानी थी अगर बेटा पैदा हुआ तो उसे इमाम ह़सैन (अ.स) के ज़ायरों (श्रद्धालुओं) के रास्ते पर लगाए ताकि वह उन्हें लूटके उन्हें क़त्ल करे। जब वह पैदा होकर जवान हुआ उसकी माँ ने मन्नत को पूरा करने लिए उसे ज़ायरों के रास्ते में लगा दिया जिस समय वह कर्बला के नज़दीक मुसय्यब क्षेत्र में पहुँचा ज़ायरों के इंतज़ार में बैठ गया कुछ देर बाद उसकी आँख लग गई वह सो रहा था कि ज़ायरों के क़ाफ़ले गुज़रने के कारण उनके पैरों की धूल उसके जिस्म पर गई उसने सपने में देखा कि क़यामत आ गई है और उसे जहन्नम मे डालने का ह़ुक्म दिया गया लेकिन उस पाक धूल के कारण उसे आग न जला सकी जिसके कारण वह अपनी इस बुरी नियत से डरा और सपने से जागा।

उसके बाद अहलेबैत (अ स) की नौकरी करने लगा और लंबे समय तक कर्बला में इमाम ह़ुसैन (अ स) के ह़रम में सेवा करता रहा और उस समय उसने अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की तारीफ़ करने को अपनी ज़िन्दगी का असली मक़सद बना लिया। [1]

 

शहादत

10 मुहर्रम 61 हिजरी को आपको करबला के मैदान तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद कर दिया गया।

 

समाधी

आपकी समाधी करबला, इराक़ मे है कि जहा हर रोज हजारो चाहने वाले आपकी जियारत करते है।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

 

 


इमामे सज्जाद अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व उपाधियाँ

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधियां सज्जाद व ज़ैनुल आबेदीन हैं। सज्जाद अर्थात अत्यअधिक सजदे करने वाला।  ज़ैनुल आबेदीन अर्थात इबादत की शोभा।

 

माता पिता

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के पिता  हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हैं जो हज़रत इमाम अली के दूसरे पुत्र थे। तथा आपकी माता हज़रत शहरबानो हैं। कुछ इतिहासकारों ने आपकी माता का नाम ग़िज़ाला भी लिखा है।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 38 हिजरी मे जमादुल ऊला मास की पनद्रहवी (15) तारीख को मदीना नामक पवित्र शहर मे हुआ था।

 

तारीख़ के सफ़हात पर ऐसे सरफ़रोशों की कमी नहीं जिन के जिस्म को तो वक्त के ज़ालिमों और जल्लादों ने क़ैदी तो कर दिया लेकिन उन की अज़ीम रुह, उन के ज़मीर को वह क़ैदी बनाने से आजिज़ रहे, ऐसे फ़ौलादी इन्सान जो ज़ंजीरों में जकड़े हुए भी अपनी आज़ाद रुह की वजह से वक्त के फ़िरऔन व शद्दाद को ललकारते रहे, तलवारों ने उन के सर जिस्म से जुदा तो कर दिये लेकिन एक लम्हे के लिये भी उन की रुह को तस्ख़ीर न कर सके, ऐसे इन्सान जिन की आज़ाद रुह, आज़ाद ज़मीर, और आज़ाद फ़िक्र के सामने तेज़ो तुन्द असलहे भी नाकारा साबित हुए.....जब उन की ज़बाने काटी गईं तो उन लोगों ने नोके क़लम से मुक़ाबला किया और जब हाथ हाट दिये गए तो अपने ख़ून के क़तरों से बातिल को ललकारा जब वक़्त के फ़िरऔन जिन की हर ज़माने में शक्लें बदलती होती हैं और मक़्सद एक होता है उन को यूँ डराते हैं कि (हमारी सरपरस्ती क़ुबूल न करने के तौर पर तुम्हारे हाथ पैर काटे जांएगे और फ़ाँसी का फ़न्दा तुम्हारे लिया आमादा है) तो तारीख़ के तसल्सुल में उन सरफ़रोशों का जवाब एक ही रहा है कि (तुम वक्त के फ़िरऔन जो कुछ करना चाहो करो, लेकिन हमारी रुह को क़ैद करना तुम्हारे बस की बात नहीं) तुम मौत की धमकी देते हो और हम उसी मौत को अपनी कामयाबी तुम्हारी शिकस्त समझते हैं।

 

काटी ज़बां तो ज़ख़्मे गुलू बोलने लगा

चुप हो गया क़लम तो लहू बोलने लगा

शहादते हुसैन के बाद भी खानदाने नबी को असीर कर के कूफ़े ले जाया गया तो यज़ीद ने इमामे सज्जाद और दीगर अफ़राद को ज़ंजीरों और हथकड़ियों में ज़रूर जकड़ा, उन पर मसाइब के पहाड़ तोड़े लेकिन यज़ीद और यज़ीदियत के सामने सरे तसलीम ख़म न कर सके, उन की रुह और ज़मीर को क़ैद न कर सके, यज़ीद असीरों से यह तवक़्क़ो रखता था कि अब इन में अहसासे निदामत होगा वह शहीदों की तरह बैअत ठुकरायेंगे नहीं बल्कि मअफ़ी तलब कर के बैअत पर आमादा होंगे लेकिन जूँ जूँ ज़ंजीरों में जकड़े हुए आज़ाद इन्सानों का यह क़ाफ़िला आगे बढ़ता गया यज़ीद की शिकस्त व हुसैन की कामयाबी के आसार रौशन होते गए हालात यज़ीद की मंशा के मुताबिक़ नहीं इमाम हुसैन की तरफ़ से तरतीब दिये गए प्रोग्राम के मुताबिक़ आगे बढ़ रहे थे, क़ाफ़ले की बाग़ डोर इब्ने ज़ियाद के हाथ में नहीं, इमामे सज्जाद के हाथों में थी, हुसैन की असीर बहन और बेटे का हालात पर पूरा क़ाबू था वह अपनी रूहानी ताक़त व शुजाअत की बुनियाद पर अपनी रूहानी आज़ादी व हुर्रियत की बुनियाद पर यज़ीदियत का दायर ए हयात तंग करते जा रहे थे।

 

फ़तहे यज़ीद कैसे शिकस्त में तबदील हुई !

यह कूफ़ा है, यज़ीद की मंन्फ़ी तबलीग़ात की वजह से लोग इस इन्तेज़ार में बैठे हैं कि मअज़ल्ला, दुश्मनाने इस्लाम के बचे खुचे अफ़राद को असीर कर के लाया जा रहा है, लोग यह समझ रहे थे कि दुश्मन को करबला में फ़ौजे यज़ीद ने क़त्ल कर दिया है, खुशी का समा है, इब्ने ज़ियाद ने अपनी ज़ाहिरी फ़तह की खुशी में दरबार को सजा रखा है, इब्ने ज़ियाद का ख़्याल यह था कि इन के सामने वह लोग हैं जिन के सामने सरे तसलीम ख़म करने के अलावा कुछ बाक़ी नहीं बचा है, लेकिन कूफ़े के बाज़ार में जब हुसैन की बहन और बेटे ने अपने तय शुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ लोगों पर हक़ीक़त को रौशन किया तब जाके इब्ने ज़ियाद को अहसास हुआ कि रुहे हुसैन उन की बहन और बेटे के जिस्म में दौड़ रही है और अब भी फ़रियाद कर रही है अब भी हुसैन नारा दे रहे हैं मुझ जैसा यज़ीद जैसे की बैअत नहीं कर सकता है इन्क़िलाबे हुसैन का पहला मरहला यअनी ख़ून व शहादत को शोहदा ने अन्जाम दिया और इन्क़िलाबे हुसैन का दूसरा मर्हला यअनी शहीदों का पैग़ाम पहुचाना इमामे सज्जाद और ज़ैनब की ज़िम्मेदारी है, बाज़ारे कूफ़ा के इस मजमे पर यह वाज़ेह करना है कि जो क़त्ल किये गए हैं वह कोई और नहीं उसी पैग़म्बर की ज़ुर्रीयत है जिन का लोग कलमा पढ़ते हैं और जो लोग असीर किये गए हैं वह भी नबी की ज़ुर्रीयत हैं इमामे सज्जाद को इस मजमे के सामने वाज़ेह करना है कि हुसैन नवास ए रसूल शहीद किये गए हैं, इब्ने ज़ियाद और यज़ीद के मज़ालिम बयान करना और उन के चेहरे से नक़ाब उतारना इमामे सज्जाद की ज़िम्मेदारी है, इमाम ने कूफ़े के इस मजमे को यह अहसास भी दिलाना है कि तुम लोगों ने जिस इमाम को दावत दी थी करबला में उस को यको तन्हा क्यों छोड़ा, जब क़ाफ़िला इस बाज़ार में पहुंचा तो पहले अली की बेटी और फिर इमामे सज्जाद ने ख़ूने हुसैन का पैग़ाम पहुंचाया आप ने मजमे से मुख़ातिब हो कर एक क़ुदरत मन्द और आज़ाद इन्सान की तरह खामोश रहने को कहा और फ़रमाया लोगों! खामोश रहो इस क़ैदी की आवाज़ सुन कर सब लोग ख़ामोश और फिर आप फ़रमाते हैं।

 

लोगों ! जो कोई मुझे पहचानता है, पहचानता है। और जो नहीं पहचानता है वोह जान ले कि मैं अली फ़रज़न्दे हुसैन इब्ने अली इब्ने अबी तालिब हूं मैं उस का बेटा हूं जिस की हुरमत को पायमाल कराया और जिस का माल व सरमाया लूटा गया और जिस की औलाद को असीर किया गया है मैं उस का बेटा हूं जिस का नहरे फ़ुरात के किनारे सर तन से जुदा किया गया है जब कि न उस ने किसी पर ज़ुल्म किया था और न ही किसी को धोका दिया था। ऐ लोगों क्या तुमने उन की बैअत नहीं की ? क्या तुम वही नहीं हो जिन्होंने उन के साथ ख़यानत की ? तुम कितने बद ख़स्लत और बद किरदार हो ?

 

ऐ लोगो! अगर रसूले खुदा तुम से कहें : तुमने मेरे बच्चों को क़त्ल किया, मेरी हुरमत को पायमाल किया, तुम लोग मेरी उम्मत नहीं हो ! तुम किस मुह से उन का सामना करोगे ? (1)

 

इमाम के इस मुख़्तसर मगर दर्द मन्द और दिल सोज़ कलाम ने मजमे में कोहराम बरपा किया हर तरफ़ से नाला व शेवन की सदा बुलन्द होने लगी, लोग एक दूसरे से कहने लगे लोगों हम सब हलाक हुए और यूँ वह मजमा जो तमाशा देखने आया था यज़ीद और इब्ने ज़ियाद का बुग़्ज़ व कीना और उन के साथ नफ़रत लेकर वहाँ से वापस गया और तबलीग़ाते सू की वजह से फ़ैलने वाली अन्धेरा छटने लगा।

 

यज़ीद का आख़री मोर्चा भी फ़तह हुआ।

अहले शाम मुआविया और उमवी लाबी की ग़लत तबलीग़ात की वजह से अहले बैत के बारे में बिल्कुल बेख़बर थे बल्कि अहले बैत की एक उलटी तस्वीर उन के ज़ेहनो में नक़्श थी अहले शाम, अली और आले अली को दुश्मने दीन समझते थे और उमवियों को ही पैग़म्बर का हक़ीक़ी वारिस समझते थे, जब हुसैनी इन्क़ेलाब का पैग़ाम पहुचाने वाला यह क़ाफ़िला शाम पहुंचा तो ज़ंजीरों में जकड़े इमामे सज्जाद के लिये एक सुनहरी मौक़ा हाथ आया कि वह अहले बैत का सही तआरुफ़ अहले शाम को करवायें और उमवी तबलीग़ात का जवाब दें चुनांचे इमामे सज्जाद ने मौक़े को ग़नीमत जानते हुए ऐसा ही क्यों किया, चुनाँचे तारीख़ बताती है कि जब यज़ीद के हुक्म से एक दिन एक ख़तीब मिम्बर पर बैठा और इमामे हुसैन और अली इब्ने अबी तालिब की शान में गुस्ताख़ी की और मुआविया और यज़ीद की मदह सराई की तो इमामे सज्जाद एक आज़ाद और ग़य्यूर मुजाहिद की तरह बुलन्द हुए और ख़तीब से मुख़ातिब हो कर कहा लानत हो तुम पर ऐ ख़तीब ! तुम ने मख़लूक़ को खुश करने के अवज़ खालिक़ के ग़ैज़ व ग़ज़ब को मोल लिया और अपनी जगह जहन्नुम में क़रार दी।

 

और फिर यज़ीद से कहा ! क्या तुम मुझे इन लकड़ी के टुकड़ों (मिम्बर) पर बैठने की इजाज़त देते हो ताकि मैं वोह बातें कहूं जिस में खुदा की मर्ज़ी हो और हाज़रीन के लिये भी सवाब हो ?

 

यज़ीद ने पहले इजाज़त देने से इन्कार किया लेकिन लोगों के इसरार की वजह से वह मजबूर हुआ, इमाम जब मिम्बर पर बैठे तो खुदा की हम्द व सना के बाद एक ऐसा ख़ुत्बा दिया कि हर आँख तर और हर दिल ग़म ज़दा हुआ फ़िर अहले बैत की छ : फ़ज़ीलतों को शुमार किया और फिर लोगों से मुख़ातिब हो कर कहा !

 

लोगों ! जो मुझे पहचानता है वह पहचानता है और जो नहीं पहचानता है मैं खुद को पहचनवाता हूँ मैं मक्का व मिना का बेटा हूँ, मैं ज़म ज़म व सफ़ा का फ़रज़न्द हूँ, मैं उस बुज़ुर्गवार का बेटा हूं जिस ने हज्रे अस्वद को अपनी अबा में उठाया, मैं बेहतरीन इन्सान का बैटा हूँ, मैं उस का बैटा हूँ, जिस को आसमान की सैर में सिद्रातुल मुन्तहा तक ले जाया गया मैं मोहम्मदे मुस्तफ़ा का बैटा हूँ, मैं अली का फ़रज़न्द हूँ, इमाम ने दर्द व जोश के साथ जब इस ख़ुत्बे को जारी रखा तो यज़ीद लरज़ने लगा और फ़ौरन हीले के तौर पर मोअज़्ज़िन से आज़ान देने को कहा मोअज़्ज़िन ने अज़ान शुरु की जब मोअज़्ज़िन ने अशहदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलल्लाह कहा तो इमाम ने यज़ीद की तरफ़ रुख कर के कहा यज़ीद क्या मोहम्मद मेरे जद हैं क्या तेरे ? अगर कहते हो तेरे जद हैं तो झूट बोलते हो और उस के हक़ का इन्कार करते हो और अगर कहते हो कि मेरे जद हैं तो बताओ क्यों उस के बेटों को क़त्ल किया ? क्यों उस के अहले बैत को असीर किया और उस के बच्चों को क्यों आवारा किया ? इस मौक़े पर इमामे सज्जाद ने अपना जामा पारा किया और बुलन्द गिरया करने लगे और लोग भी बुलन्द आवाज़ में फ़रियाद करने लगे ऐसे आलम में मस्जिद में इन्क़ेलाब बरपा हुआ और कुछ लोगों ने नमाज़ पढ़ी और कुछ बग़ैर नमाज़ के बाहर निकले और पूरे शहर में ख़बर गश्त करने लगी इमामे सज्जाद ने अपने जकड़े हुए हाथों से उमवियों की बुनियादों को हिला दिया और अपने दर्द मन्द और दिल सोज़ ख़ुत्बों के ज़रीए इन के चालिस साल के प्रोपगंडे को नाकारा बना दिया और अहले बैत और शोहदा ए करबला की सही तस्वीर लोगों के सामने रख दी, अगर इमामे सज्जाद और ज़ैनब का यह क़ाफ़िला न होता तो यज़ीद शहादते हुसैन को करबला ही तक महदूद कर देता कितना बड़ा जिहाद किया हुसैन के बेटे और बहन जिन्होंने अपनी असीरी में भी यज़ीद व यज़ीदियत को तारीख़ के सामने रुसवा किया और अब उस के नाम के साथ ज़ुल्म, बरबरियत, ख़ूँ ख़्वारी अलावा कुछ नहीं लिखा जाता है। और यहीं पर इमामे सज्जाद की मज़लूमियत का भी पता चलता है कि यह अज़ीम मुजाहिद जिस ने इस इन्क़ेलाबे हुसैन को पाय ए तकमील तक पहुंचाया और पैग़ामे करबला को आम किया जकड़े और रसन बस्ता हाथों के ज़रिये यज़ीदियत की दीवार मुन्हदिम की वह इमाम आज अपने मानने वालों के दरमियान एक बीमार के तौर पर मअरुफ़ है। और उन के कारनामों में सिर्फ़ रोना और गिरया से वाक़िफ़ है और इस तारीख़ी कारनामे से बिल्कुल ग़ाफ़िल हैं जो कि इमाम ने इन्क़ेलाबे हुसैन की हिफ़ाज़त, तरवीज व तबलीग़ के लिये अन्जाम दिया।

 

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के कथन

१. तन्दरूस्ती के वक़्त (समय) बीमारी के लिए और ज़िन्दगी में आख़ेरत (परलोक) के लिए तूशा (सामाग्री) फ़राहम करो।

२. मुस्कर (नशे वाली चीज़ें) चीज़ों से परहेज़ करो क्योंकि यह तमाम बुराईयों की कुंजी है।

३. जो कम रोज़ी पर ख़ुदा से राज़ी होगा ख़ुदावन्दे आलम भी उसके अमले क़लील (कम अमल) पर राज़ी रहेगा।

४. झूठी क़सम माल की नाबूदी (बर्बाद) और तेजारत में अदमे बरकत (बरकत का ख़त्म होना) का बायस (कारण) है।

५. सबसे बेहतर वह शख़्स है जिसकी बातें तुम्हारे इल्म (ज्ञान) में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) करें और तुमको ख़ैर की दावत दें।

६. अपनी औलाद का एहतेराम (इज़्ज़त) करो और उनकी अच्छी तरबियत (शिक्षा दीक्षा) करो।

७. किसी को उस वक़्त तक परहेज़गार न समझा जायेगा जब तक वह शक व शुबाह (संदिग्ध) वाले कामों से इज्तेनाब (बचना) और हराम से बचेगा नहीं।

८. ज़्यादा माल व दौलत से बहुत ख़ुश न हो और किसी हाल में ख़ुदा को न भूलो।

९. हक़ीक़ी मोमिन वह है जो अपने माल में हाजतमन्दो को शरीक करे और लोगों से इन्साफ़ करे।

१०. जिसने तुम पर एहसान किया उसका हक़ तुम पर यह है कि उसका शुक्रिया अदा करो उसके एहसान को भूलो नहीं और उसके नाम को नेक चीज़ों से शोहरत दो।

११. दुनिया की लालच में मुबतला की मिसाल रेशम के उस कीड़े की सी है के जो जितना घूमता है उतना ही अपने को जाल में उलझा लेता है।

१२. अगर तुमसे कोई गुनाह (पाप) सरज़द हो जाये तो फ़ौरन ख़ुदा से तौबा (प्रायश्चित) करो।

१३. जब तुमसे फ़ैसले की तवक़्क़ो (आशा) की जाए तो बहुत होशियार होकर अदालत (न्याय) का ख़्याल रखो।

१४. जो शख़्स अपने और अपने ख़ुदा के दरमियान मामला साफ़ रखता है ख़ुदावन्दे आलम उसके और दूसरें लोगों के दरमियान मामला साफ़ रखता है।

१५. हर शख़्स की क़द्र उसकी ख़ूबियों के बराबर है।

१६. अपने ख़ुदा के अलावा किसी और से उम्मीदवार मत रहो।

१७. ख़ुदावन्दे आलम बेकार आदमी को पसन्द नहीं करता।

१८. जो शख़्स तुमको बुलाये उसकी दावत क़ुबूल (स्वीकार) करो और मरीज़ो की अयादत (बीमार की हालत पूछना) करो।

१९. क़र्ज़ लेने से इज्तेनाब (बचो) करो (क्योंकि) वह रात में अफ़सोस का बायस (कारण) और दिन में ज़िल्लत का बायस है।

२०. जिससे मिलों उसे सलाम करो ताकि ख़ुदावन्दे आलम तुम्हारे अज्र (इनाम) में इज़ाफ़ा करे।

२१. बदबख़्त वह शख़्स है जो तजुर्बा और अक़्ल के फ़वाएद (फ़ायदा का बहु वचन) से महरूम रहे।

२२. तुम चाहे जितना ताक़त व क़ुव्वत ,माल व दौलत में ज़्यादा रहो फिर भी अपने ख़ानदान व क़ौम के मोहताज रहोगे।

२३. दोस्तों का छूट जाना बेकसी है।

२४. छुप कर सदक़ा (गुप्त दान से) देने से ख़ुदावन्दे आलम का ग़ज़ब (ईशवरीय प्रकोप) ज़ाएल (टल जाता है) हो जाता है।

२५. सब्र व रज़ा तमाम ताक़तों से बलन्द है।

२६. बच्चों की ऐसी तरबियत (शिक्षा दीक्षा) करो जो कल मुआशरे (समाज) में उसकी ख़ुबसूरती का बायस (कारण) है।

२७. अल्लाह से नाउम्मीदी (निराशा) का गुनाह बे गुनाहों का ख़ून बहाने से ज़्यादा है।

२८. अपनी औलाद की ऐसी तरबियत (शिक्षा दीक्षा) करो के ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ शोबों में आबरूमन्द और बाइज़्ज़त ज़िन्दगी गुज़ार सकें और तुम्हारे फ़ख़्र (गर्व) का बायस हों।

२९. जो शख़्स अपने घर वालों पर ज़्यादा फ़ेराख़ दिली दिखाता है ख़ुदावन्दे आलम की ख़ुशनूदी उनके शामिल हाल रहती है।

३०. यतिमों पर माँ बाप की तरह रहम करो और यह ख़्याल रहे कि आज जो अमल करोगे कल उसी की जज़ा मिलेगी।

३१. जो शख़्स लोगों पर बहुत मिन्नत (ख़ुशामद) रखता है वह लईम व पस्त है।

३२. ख़ुदावन्दे आलम उस जवान को पसन्द करता है जो अपने नापसन्दीदा आमाल पर नादिम (शर्मिन्दा) हो और तौबा (प्रायश्चित) कर ले।

३३. मोमिन की रातों की इबादत उसका शरफ़ है लोगों में बेनियाज़ी (बेपरवाही) उसकी इज़्ज़त।

३४. क्या कहना उस शख़्स का जो हाज़िर लज़्ज़तों को ग़ाएब नेमतों के हुसूल के लिए छोड़ दे।

३५. ग़रीब वह शख़्स है जिसे मुआशरे (समाज) में अपने साथी न मिल सकें।

३६. आख़री ज़माने में जो चीज़ सबसे कम मिलेगी वह मोरिदे इत्मिनान (विश्वसनीय) दोस्त और हलाल आमदनी है।

३७. ख़ुदावन्दे आलम इस्लाम की उन लोगों से ताईद कराता है जो उसके दाएरे में न भी हों।

३८. उन चीज़ों में मश्ग़ूल रहना जो इन्सान के काम न आने वाली हों सख़्त तरीन ग़लती है।

३९. हासिद (ईर्ष्यालु) कभी बा-इज़्ज़त नहीं हो पाता और कीना परवर (मन में बुराई रखने वाला) अपने ग़ुस्से से मरा करता है।

४०. अज़मत (बढ़ाई) उसी को हासिल है जो लोगों को मेज़ाह (मज़ाक़) का ज़रिया न बनाये उनको धोका न दे और उनकी इज़्ज़त में कमी न करे।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 95 हिजरी मे मुहर्रम मास की पच्चीसवी (25) तिथि को हुई। शहादत का कारण हश्शाम पुत्र अब्दुल मलिक द्वारा रचा गया षड़यन्त्र था। जिसके अन्तर्गत आपको विष पान कराया गया।

 

समाधि

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की समाधि अरब के प्रसिद्ध व पवित्र नगर मदीने के जन्नातुल बक़ी नामक कब्रिस्तान मे है। प्रति वर्ष लाखो श्राद्धालु वहाँ जाकर आपकी समाधि के दर्शन करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व लक़ब (उपाधियां)

आपका नाम मुहम्मद व आपका मुख्य लक़ब बाक़िरूल उलूम है।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 57 हिजरी मे रजब मास की प्रथम तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

माता पिता

हज़रत इमाम बाकिर अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत फ़ातिमा पुत्री हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम हैं।

 

पालन पोषण

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का पालन पोषण तीन वर्षों की आयु तक आपके दादा इमाम हुसैन व आपके पिता इमाम सज्जाद अलैहिमुस्सलाम की देख रेख मे हुआ। जब आपकी आयु साढ़े तीन वर्ष की थी उस समय कर्बला की घटना घटित हुई। तथा आपको अन्य बालकों के साथ क़ैदी बनाया गया। अर्थात आप का बाल्य काल विपत्तियों व कठिनाईयों के मध्य गुज़रा।

 

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का शिक्षण कार्य़

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने अपनी इमामत की अवधि मे शिक्षा के क्षेत्र मे जो दीपक ज्वलित किये उनका प्रकाश आज तक फैला हुआ हैं। इमाम ने फ़िक़्ह व इस्लामी सिद्धान्तो के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य क्षेत्रों मे भी शिक्षण किया। तथा अपने ज्ञान व प्रशिक्षण के द्वारा ज्ञानी व आदर्श शिष्यों को प्रशिक्षित कर संसार के सम्मुख उपस्थित किया। आप अपने समय मे सबसे बड़े विद्वान माने जाते थे। महान विद्वान मुहम्मद पुत्र मुस्लिम, ज़ुरारा पुत्र आयुन, अबु नसीर, हश्शाम पुत्र सालिम, जाबिर पुत्र यज़ीद, हिमरान पुत्र आयुन, यज़ीद पुत्र मुआविया अजःली, आपके मुख्यः शिष्यगण हैं।

 

इब्ने हज्रे हीतमी नामक एक सुन्नी विद्वान इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम के ज्ञान के सम्बन्ध मे लिखता है कि इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने संसार को ज्ञान के छुपे हुए स्रोतो से परिचित कराया। उन्होंने ज्ञान व बुद्धिमत्ता का इस प्रकार वर्नण किया कि वर्तमान समय मे उनकी महानता सब पर प्रकाशित है।ज्ञान के क्षेत्र मे आपकी सेवाओं के कारण ही आपको बाक़िरूल उलूम कहा जाता है। बाक़िरूल उलूम अर्थात ज्ञान को चीर कर निकालने वाला।

 

अब्दुल्लाह पुत्र अता नामक एक विद्वान कहता है कि मैंने देखा कि इस्लामी विद्वान जब इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की सभा मे बैठते थे तो ज्ञान के क्षेत्र मे अपने आपको बहुत छोटा समझते थे। इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम अपने कथनो को सिद्ध करने के लिए कुऑन की आयात प्रस्तुत करते थे। तथा कहते थे कि मैं जो कुछ भी कहूँ उसके बारे मे प्रश्न कर ? मैं बताऊँगा कि वह कुरआन मे कहाँ पर है।

 

इमाम बाक़िर और ईसाई पादरी

एक बार इमाम बाक़िर (अ.स.) ने अमवी बादशाह हश्शाम बिन अब्दुल मलिक के हुक्म पर अनचाहे तौर पर शाम का सफर किया और वहा से वापस लौटते वक्त रास्ते मे एक जगह लोगो को जमा देखा और जब आपने उनके बारे मे मालूम किया तो पता चला कि ये लोग ईसाई है कि जो हर साल यहाँ पर इस जलसे मे जमा होकर अपने बड़े पादरी से सवाल जवाब करते है ताकि अपनी इल्मी मुश्किलात को हल कर सके ये सुन कर इमाम बाकिर (अ.स) भी उस मजमे मे तशरीफ ले गऐ।

थोड़ा ही वक्त गुज़रा था कि वो बुज़ुर्ग पादरी अपनी शानो शोकत के साथ जलसे मे आ गया और जलसे के बीच मे एक बड़ी कुर्सी पर बैठ गया और चारो तरफ निगाह दौड़ाने लगा तभी उसकी नज़र लोगो के बीच बैठे हुऐ इमाम (अ.स) पर पड़ी कि जिनका नूरानी चेहरा उनकी बड़ी शख्सीयत की गवाही दे रहा था उसी वक्त उस पादरी ने इमाम (अ.स )से पूछा कि हम ईसाईयो मे से हो या मुसलमानो मे से?????

इमाम (अ.स) ने जवाब दियाः मुसलमानो मे से।

पादरी ने फिर सवाल कियाः आलिमो मे से हो या जाहिलो मे से?????

इमाम (अ.स) ने जवाब दियाः जाहिलो मे से नही हुँ।

पादरी ने कहा कि मैं सवाल करूँ या आप सवाल करेंगे?????

इमाम (अ.स) ने फरमाया कि अगर चाहे तो आप सवाल करें।

पादरी ने सवाल कियाः तुम मुसलमान किस दलील से कहते हो कि जन्नत मे लोग खाऐंगे-पियेंगे लेकिन पैशाब-पैखाना नही करेंगे? क्या इस दुनिया मे इसकी कोई दलील है?

इमाम (अ.स) ने फरमायाः हाँ, इसकी दलील माँ के पेट मे मौजूद बच्चा है कि जो अपना रिज़्क़ तो हासिल करता है लेकिन पेशाब-पेखाना नही करता।

पादरी ने कहाः ताज्जुब है आपने तो कहा था कि आलिमो मे से नही हो।

इमाम (अ.स) ने फरमायाः मैने ऐसा नही कहा था बल्कि मैने कहा था कि जाहिलो मे से नही हुँ।

उसके बाद पादरी ने कहाः एक और सवाल है।

इमाम (अ.स) ने फरमायाः बिस्मिल्लाह, सवाल करे।

पादरी ने सवाल कियाः किस दलील से कहते हो कि लोग जन्नत की नेमतो फल वग़ैरा को इस्तेमाल करेंगें लेकिन वो कम नही होगी और पहले जैसी हालत पर ही बाक़ी रहेंगे।

क्या इसकी कोई दलील है?

इमाम (अ.स) ने फरमायाः बेशक इस दुनिया मे इसका बेहतरीन नमूना और मिसाल चिराग़ की लौ और रोशनी है कि तुम एक चिराग़ से हज़ारो चिराग़ जला सकते हो और पहला चिराग़ पहले की तरह रोशन रहेगा ओर उसमे कोई कमी नही होगी।

पादरी की नज़र मे जितने भी मुश्किल सवाल थें सबके सब इमाम (अ.स) से पूछ डाले और उनके बेहतरीन जवाब इमाम (अ.स) से हासिल किये और जब वो अपनी कम इल्मी से परेशान हो गया तो बहुत गुस्से आकर कहने लगाः

ऐ लोगों एक बड़े आलिम को कि जिसकी मज़हबी जानकारी और मालूमात मुझ से ज़्यादा है यहा ले आऐ हो ताकि मुझे ज़लील करो और मुसलमान जान लें कि उनके रहबर और इमाम हमसे बेहतर और आलिम हैं।

खुदा कि क़सम फिर कभी तुमसे बात नही करुगां और अगर अगले साल तक ज़िन्दा रहा तो मुझे अपने दरमियान (इस जलसे) मे नही देखोंगे।

इस बात को कह कर वो अपनी जगह से खड़ा हुआ और बाहर चला गया।

 

हज़रते इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के कथन

१. जो शख़्स किसी मुसलमान को धोका दे या सताये वह मुसलमान नहीं।

२. यतीम बच्चों पर माँ बाप की तरह मेहरबानी करो।

३. खाने से पहले हाथ धोने से फ़ख़्र (निर्धनता) कम होता है और खाने के बाद हाथ धोने से ग़ुस्सा (क्रोध) ।

४. क़र्ज़ कम करो ताकि आज़ाद रहो और गुनाह (पाप) कम करो ताकि मौत में आसानी हो।

५. हमेशा नेक काम करो ताकि फ़ायदा उठाओ बुरी बातों से परहेज़ (बचो) करो ताकि हमेशा महफ़ूज़ (सुरक्षित) रहो।

६. ताअत (अनुसरण) व क़नाअत (आत्मसंतोष) बे नियाज़ी (बे परवाही) और इज़्ज़त का बायस है और गुनाह व लालच बदबख़्ती (अभाग्य) और ज़िल्लत का मोजिब (कारण) है।

७. जिस लज़्ज़त में अन्जाम कार पशेमानी हो नेकी नहीं।

८. दुनिया फ़क़त दो आदमियों के लिये बायसे ख़ैर (शुभ होने का कारण) है एक वह जो नेक आमाल में रोज़ इज़ाफ़ा करे ,दूसरा वह जो गुज़िश्ता गुनाहों (भूतकालीन पाप) की तलाफ़ी तौबा (प्रायश्चित) के ज़रिये करे।

९. अक़लमन्द वह है जिसका किरदार (चरित्र) उसकी गुफ़्तार (कथन) की तसदीक़ (प्रमाणित) करे और लोगों से नेकी का बर्ताव (व्यवहार) करे।

१०. बदतरीन शख़्स वह जो अपने को बेहतरीन (अच्छा) शख़्स ज़ाहिर करे।

११. अपने दोस्त के दुश्मनों से रफ़ाक़त (मित्रता) मत करो वरना अपने दोस्त को गवाँ (खो) दोगे।

१२. हर काम को उसके वक़्त (समय) पर अन्जाम (पूरा करो) दो जल्दबाज़ी से परहेज़ (बचो) करो।

१३. बड़े गुनाहों का कफ़्फ़ारा (रहजाना) बेकसों की मदद और ग़मज़दो की दिलजूई में है।

१४. जो दिन गुज़र गया वह तो पलट कर आयेगा नहीं और आने वाले कल पर भरोसा किया नहीं जा सकता।

१५. हर इन्सान अपनी ज़बान के नीचे पोशीदा (छिपा) है जब बात करता है तो पहचाना जाता है।

१६. माहे मुबारक रमज़ान के रोज़े अज़ाबे इलाही के लिये ढाल हैं।

१७. काहिली से बचो (क्योंकि) काहिल अपने हुक़ूक़ (हक़ का बहु वचन) अदा नहीं कर सकता।

१८. तुम में सबसे ज़्यादा अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह है जो नादानों (अज्ञानियों) से फ़रार ( दूर भागे) करे।

१९. बुज़ुर्गों (अपने से बड़ों का) का एहतेराम (आदर) करो क्योंकि उनका एहतेराम (आदर) ख़ुदा की इबादत (तपस्या) के मानिन्द (तरह) है।

२०. सिल्हे रहम (अच्छा सुलूक) घरों की आबादी और तूले उम्र (दीर्घायु) का बायस (कारण) है।

२१. इसराफ़ (अपव्यय) में नेकी (अच्छाई) नहीं और नेकियों में इसराफ़ का वुजूद (अस्तित्व) नहीं।

२२. जिस मामले में पूरी वाक़्फ़ियत (जानकारी) नहीं उसमें दख़्ल मत दो वरना (मौक़े की ताक में रहने वाले) बुरे और बदकिरदार (दुष्कर्मी) लोग तुमकों मलामत का निशाना बनायेंगे।

२३. हमेशा लोगों से सच बोलो ताकि सच सुनों (याद रखो) सच्चाई तलवार से भी ज़्यादा तेज़ है।

२४. लोगों से मुआशेरत (अच्छा रहन सहन) निस्फ़ (आधा) ईमान है और उनसे नर्म बर्ताव आधी ज़िन्दगी।

२५. ज़ुल्म (अन्याय) फ़ौरी (तुरन्त) अज़ाब का बायस है।

२६. नागहानिए हादसात (अचानक घटनायें) से बचाने वाली कोई चीज़ दुआ से बेहतर नहीं ।

२७. मुनाफिक़ (जिसका अन्दरुनी और बाहरी व्यवहार में अन्तर हो ) से भी ख़ुश अख़लाक़ी से बात करो ।

२८. मोमिन से दोस्ती में ख़ुलूस पैदा करो ।

२९. हक़ (सत्य) के रास्ते (पथ) पर चलने के लिए सब्र का पेशा इख़्तियार करो ।

३०. ख़ुदावन्दे आलम मज़लूमों (जिनके साथ अन्याय किया गया हो) की फ़रयाद को सुनता है और सितमगारों (जिन्होंने ज़ुल्म किया हो) के लिए कमीनगाह में है ।

३१. सलाम और ख़ुश गुफ़्तारी गुनाहों से बख़्शिश (मुक्ति) का बायस (कारण) है।

३२. इल्म (ज्ञान) हासिल (प्राप्त) करो ताकि लोग तुम्हें पहचानें और उस पर अमल करो ताकि तुम्हारा शुमार ओलमा (ज्ञानियों) में हो।

३३. इबादते इलाही में ख़ास ख़्याल रखो आमाले ख़ैर (शुभकार्य) में जल्दी करो और बुराईयों से इज्तेनाब (बचो) करो।

३४. जब कोई मरता है तो लोग पूछते हैं क्या छोड़ा लेकिन जब फ़रिश्ते (ईश्वरीय दूत) सवाल करते हैं क्या भेजा ?

३५. बेहतरीन इन्सान वह है जिसका वजूद दूसरों के लिये फ़ायदा रसां (लाभकारी) हो।

३६. क़ायम आले मोहम्मद (अ.स.) वह इमाम हैं जिनको ख़ुदावन्दे आलम तमाम मज़ाहब पर ग़लबा ऐनायत (प्रदान) करेगा।

३७. खाना ख़ूब चबाकर खाओ और सेर होने से पहले खाना छोड़ दो।

३८. ख़ालिस इबादत (सच्चे मन से तपस्या) यह है कि इन्सान ख़ुदा के सिवा किसी से उम्मीदवार न हो और अपने गुनाहों के अलावा किसी से डरे नहीं।

३९. उजलत (जल्दी) हर काम में नापसन्दीदा मगर रफ़े शर (बुराई को दूर करने में) में।

४०. जिस तरह इन्सान अपने लिये तहक़ीराना (अनादर) लहजा नापसन्द करता है दूसरों से भी तहक़ीराना (अनादर) लहजे में गुफ़्तगू (बात चीत) न करे।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 114 हिजरी मे ज़िलहिज्जा मास की सातवीँ (7) तिथि को सोमवार के दिन हुई। बनी उमैय्या के ख़लीफ़ा हश्शाम पुत्र अब्दुल मलिक के आदेशानुसार एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत आपको विष पान कराया गया। शहादत के समय आपकी आयु 57 वर्ष थी।

 

समाधि

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मदीने के जन्नातुल बक़ी नामक कब्रिस्तान मे है। प्रत्येक वर्ष लाखो श्रृद्धालु आपकी समाधि पर सलाम व दर्शन हेतू जाते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व लक़ब(उपाधि)

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का नाम जाफ़र व आपका मुख्य लक़ब सादिक़ है।

 

माता पिता

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत उम्मे फ़रवा पुत्री क़ासिम पुत्र मुहम्मद पुत्र अबुबकर हैं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 83 हिजरी के रबी उल अव्वल मास की 17 वी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का शिक्षा अभियान

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इस्लामी समाज मे शिक्षा केप्रचार व प्रसार हेतू एक महान अभियान शुरू किया। शिक्षण कार्य के लिए उन्होने पवित्र स्थान मस्जिदे नबवी को चुना तथा वहा पर बैठकर शिक्षा का प्रसार व प्रचार आरम्भ किया। ज्ञान के प्यासे मनुष्य दूर व समीप से आकर उनकी कक्षा मे सम्मिलित होते तथा प्रश्नो उत्तर के रूप मे अपने ज्ञान मे वृद्धि करते थे।

 

आप के इस अभियान का मुख्य कारण बनी उमैय्या व बनी अब्बास के शासन काल मे इस्लामी समाज मे आये परिवर्तन थे। इनके शासन काल मे यूनानी, फ़ारसी व हिन्दी भाषा की पुस्तकों का अरबी भाषा मे अनुवाद मे हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप मुसलमानों के आस्था सम्बन्धि विचारो मे विमुख्ता फैल गयी। तथा ग़ुल्लात, ज़िन्दीक़ान, जाएलाने हदीस, अहले राए व मुतासव्वेफ़ा जैसे अनेक संमूह उत्पन्न हुए। इस स्थिति मे हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के लिए अवश्यक था कि इस्लामी समाज मे फैली इस विमुख्ता को दूर किया जाये। अतः हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने ज्ञान के आधार पर समस्त विचार धाराओं को निराधार सिद्ध किया। व समाज मे शिक्षा का प्रसार व प्रचार करके समाज को धार्मिक विघटन से बचा लिया। तथा समाज को आस्था सम्बन्धि विचारों धार्मिक निर्देशों व नवीनतम ज्ञान से व्यापक रूप से परिचित कराया। तथा अपने ज्ञान के आधार पर एक विशाल जन समूह को शिक्षित करके समाज के हवाले किया। ताकि वह समाज को शिक्षा के क्षेत्र मे और उन्नत बना सकें।

 

आपके मुख्य शिष्यों मे मालिक पुत्र अनस, अबु हनीफ़ा, मुहम्द पुत्र हसने शेबानी, सुफ़याने सूरी, इबने अयीनेह, याहिया पुत्र सईद, अय्यूब सजिस्तानी, शेबा पुत्र हज्जाज, अब्दुल मलिक जरीह अत्यादि थे।

 

जाहिज़ नामक विद्वान हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के शिक्षा प्रसार के सम्बन्ध मे लिखते है कि-

 

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने ज्ञान रूपी नदियां पृथ्वी पर बहाई व मानवता को ज्ञान रूपी ऐसा समुन्द्र प्रदान किया जो इससे पहले मानवता को प्राप्त न था। समस्त संसार ने अपके ज्ञान से अपनी प्यास बुझाई।

 

मुनाज़ेरा ए इमाम सादिक़ (अ)

 

इब्ने अबी लैला से मंक़ूल है कि मुफ़्ती ए वक़्त अबू हनीफ़ा और मैं बज़्मे इल्म व हिकमते सादिक़े आले मुहम्मद हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम में वारिद हुए।

 

इमाम (अ) ने अबू हनीफ़ा से सवाल किया कि तुम कौन हो?

 

अबू हनीफ़ा मैं: अबू हनीफ़ा

 

इमाम (अ): वही मुफ़्ती ए अहले इराक़

 

अबू हनीफ़ा: जी हाँ

 

इमाम (अ): लोगों को किस चीज़ से फ़तवा देते हो?

 

अबू हनीफ़ा: क़ुरआन से

 

इमाम (अ): क्या पूरे क़ुरआन, नासिख़ और मंसूख़ से लेकर मोहकम व मुतशाबेह तक का इल्म है तुम्हारे पास?

 

अबू हनीफ़ा: जी हाँ

 

इमाम (अ): क़ुरआने मजीद में सूर ए सबा की 18 वी आयत में कहा गया है कि उन में बग़ैर किसी ख़ौफ़ के रफ़्त व आमद करो।

 

इस आयत में ख़ुदा वंदे आलम की मुराद कौन सी चीज़ है?

 

अबू हनीफ़ा: इस आयत में मक्का और मदीना मुराद है।

 

इमाम (अ): (इमाम (अ) ने यह जवाब सुन कर अहले मजलिस को मुख़ातब कर के कहा) क्या ऐसा हुआ है कि मक्के और मदीने के दरमियान में तुम ने सैर की हो और अपने जान और माल का कोई ख़ौफ़ न रहा हो?

 

अहले मजलिस: बा ख़ुदा ऐसा तो नही है।

 

इमाम (अ): अफ़सोस ऐ अबू हनीफ़ा, ख़ुदा हक़ के सिवा कुछ नही कहता ज़रा यह बताओ कि ख़ुदा वंदे आलम सूर ए आले इमरान की 97 वी आयत में किस जगह का ज़िक्र कर रहा है:

 

व मन दख़लहू काना आमेनन

 

अबू हनीफ़ा: ख़ुदा इस आयत में बैतल्लाहिल हराम का ज़िक्र कर रहा है।

 

इमाम (अ) ने अहले मजलिस की तरफ़ रुख़ कर के कहा क्या अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और सईद बिन जुबैर बैतुल्लाह में क़त्ल होने से बच गये?

 

अहले मजलिस: आप सही फ़रमाते हैं।

 

इमाम (अ): अफ़सोस है तुझ पर ऐ अबू हनीफ़ा, ख़ुदा वंदे आलम हक़ के सिवा कुछ नही कहता।

 

अबू हनीफ़ा: मैं क़ुरआन का नही क़यास का आलिम हूँ।

 

इमाम (अ): अपने क़यास के ज़रिये से यह बता कि अल्लाह के नज़दीक क़त्ल बड़ा गुनाह है या ज़ेना?

 

अबू हनीफ़ा: क़त्ल

 

इमाम (अ): फ़िर क्यों ख़ुदा ने क़त्ल में दो गवाहों की शर्त रखी लेकिन ज़ेना में चार गवाहो की शर्त रखी।

 

इमाम (अ): अच्छा नमाज़ अफ़ज़ल है या रोज़ा?

 

अबू हनीफ़ा: नमाज़

 

इमाम (अ): यानी तुम्हारे क़यास के मुताबिक़ हायज़ा पर वह नमाज़ें जो उस ने अय्यामे हैज़ में नही पढ़ी हैं वाजिब हैं न कि रोज़ा, जब कि ख़ुदा वंदे आलम ने रोज़े की क़ज़ा उस पर वाजिब की है न कि नमाज़ की।

 

इमाम (अ): ऐ अबू हनीफ़ा पेशाब ज़्यादा नजिस है या मनी?

 

अबू हनीफ़ा: पेशाब

 

इमाम (अ): तुम्हारे क़यास के मुताबिक़ पेशाब पर ग़ुस्ल वाजिब है न कि मनी पर, जब कि ख़ुदा वंदे आलम ने मनी पर ग़ुस्ल को वाजिब किया है न कि पेशाब पर।

 

अबू हनीफ़ा: मैं साहिबे राय हूँ।

 

इमाम (अ): अच्छा तो यह बताओ कि तुम्हारी नज़र इस के बारे में क्या है, आक़ा व ग़ुलाम दोनो एक ही दिन शादी करते हैं और उसी शब में अपनी अपनी बीवी से हम बिस्तर होते हैं, उस के बाद दोनो सफ़र पर चले जाते हैं और अपनी बीवियों को घर पर छोड़ देते हैं एक मुद्दत के बाद दोनो के यहाँ एक एक बेटा पैदा होता है एक दिन दोनो सोती हैं, घर की छत गिर जाती है और दोनो औरतें मर जाती हैं, तुम्हारी राय के मुताबिक़ दोनो लड़कों में से कौन सा ग़ुलाम है, कौन आक़ा, कौन वारिस है, कौन मूरिस?

 

अबू हनीफ़ा: मैं सिर्फ़ हुदूद के मसायल में बाहर हूँ।

 

इमाम (अ): उस इंसान पर कैसे हद जारी करोगे जो अंधा है और उस ने एक ऐसे इंसान की आंख फोड़ी है जिस की आंख सही थी और वह इंसान जिस के हाथ में नही हैं और वह इंसान जिस के हाथ नही है उस ने एक दूसरे इंसान का हाथ काट दिया है।

 

अबू हनीफ़ा: मैं सिर्फ़ बेसते अंबिया के बारे में जानता हूँ।

 

इमाम (अ): अच्छा ज़रा देखें यह बताओ कि ख़ुदा ने मूसा और हारून को ख़िताब कर के कहा कि फ़िरऔन के पास जाओ शायद वह तुम्हारी बात क़बूल कर ले या डर जाये। (सूर ए ताहा आयत 44)

 

यह लअल्ला (शायद) तुम्हारी नज़र में शक के मअना में है?

 

इमाम (अ): हाँ

 

इमाम (अ): ख़ुदा को शक था जो कहा शायद

 

अबू हनीफ़ा: मुझे नही मालूम

 

इमाम (अ): तुम्हारा गुमान है कि तुम किताबे ख़ुदा के ज़रिये फ़तवा देते हो जब कि तुम उस के अहल नही हो, तुम्हारा गुमान है कि तुम साहिबे क़यास हो जब कि सब से पहले इबलीस ने क़यास किया था और दीने इस्लाम क़यास की बुनियाद पर नही बना, तुम्हारा गुमान है कि तुम साहिबे राय हो जब कि दीने इस्लाम में रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहि वा आलिहि वसल्लम के अलावा किसी की राय दुरुस्त नही है इस लिये कि ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता है:

 

फ़हकुम बैनहुम बिमा अन्ज़ल्लाह

 

तू समझता है कि हुदूद में माहिर है जिस पर क़ुरआन नाज़िल हुआ है तुझ से ज़्यादा हुदुद में इल्म रखता होगा। तू समझता है कि बेसते अंबिया का आलिम है ख़ुदा ख़ातमे अंबिया अंबिया के बारे में ज़्यादा वाक़िफ़ थे और मेरे बारे में तूने ख़ुद ही कहा फ़रजंदे रसूल ने और कोई सवाल नही किया, अब मैं तुझ से कुछ सवाल पूछूँगा अगर साहिबे क़यास है तो क़यास कर।

 

अबू हनीफ़ा: यहाँ के बाद अब कभी क़यास नही करूँगा।

 

इमाम (अ): रियासत की मुहब्बत कभी तुम को इस काम को तर्क नही करने देगी जिस तरह तुम से पहले वालों को हुब्बे रियासत ने नही छोड़ा।

(ऐहतेजाजे तबरसी जिल्द 2 पेज 270 से 272)

 

इमाम सादिक़ और मर्दे शामी

हश्शाम बिन सालिम कहते है कि एक दिन मै कुछ लोगो के साथ इमाम सादिक़ (अ.स) की खिदमत बैठा था कि एक शामी मर्द ने आपके हुज़ुर मे आने की इजाज़त माँगी और इमाम से इजाज़त लेने के बाद आपके सामने हाज़िर हुआ।

 

इमाम (अ.स) ने फरमायाः बैठ जाओ और उस से पूछाः क्या चाहते हो?

 

शाम के रहने वाले उस मर्द ने इमाम (अ.स) से कहाः सुना है कि आप लोगो के सवालो के जवाब देते है लेहाज़ा मैं भी आप से बहस और मुनाज़ेरा करना चाहता हुँ।

 

इमाम (अ.स) ने फरमायाः किस मौज़ू (विषय) मे?

 

शामी ने कहाः क़ुरआन पढ़ने के तरीक़े के बारे मे।

 

इमाम (अ.स) ने अपने सहाबी और शार्गिद जमरान की तरफ मुँह करके फरमायाः जमरान इस शख्स का जवाब दो।

 

शामी ने कहाः मै चाहता हुँ कि आप से बहस करूँ।

 

इमाम (अ.स) ने फरमायाः अगर जमरान को हरा दिया तो समझो मुझे हरा दिया।

 

शामी ने न चाहते हुऐ भी जनाबे जमरान से मुनाज़ेरा किया अब शामी जो भी सवाल पूछता गया और जनाबे जमरान ने दलीलो के साथ जवाब दिये और आखिर मे उसने हार मान ली।

 

इमाम (अ.स) ने फरमायाः तूने जमरान के इल्म को कैसा पाया?

 

शामी ने जवाब दियाः बहुत जबरदस्त, जो कुछ भी मैने इससे पूछा इसने बहुत अच्छा जवाब दिया।

 

फिर शामी ने कहा कि मैं चाहता हुँ कि लुग़त (शब्दार्थ) और अरबी अदब (व्याकरण) के बारे मे बहस करुँ।

 

इमाम (अ.स) ने अपने सहाबी और शार्गिद अबान बिन तग़लब की तरफ मुँह करके फरमायाः अबान इसका जवाब दो।

 

जनाबे अबान ने भी जनाबे जमरान की तरह उस शख्स के हर सवाल का बेहतरीन जवाब दिया और उस मर्दे शामी को हरा दिया।

 

शामी ने कहाः मैं अहकामे इस्लामी के बारे मे आप से मुनाज़ेरा करन चाहता हुँ।

 

इमाम (अ.स) ने अपने शार्गिद जनाबे ज़ुरारा से कहा कि इससे मुनाज़ेरा करो और ज़ुरारा ने भी शामी के दाँत खट्टे कर दिये और उसे मुनाज़ेरे मे मात दी।

 

शामी ने फिर इमाम (अ.स) से कहा कि मैं इल्मे कलाम (अक़ीदे) के बारे मे आपसे बहस करना चाहता हुँ।

 

इमाम (अ.स) ने मोमीने ताक़ को हुक्म दिया कि उस शामी से मुनाज़ेरा करे।

 

कुछ ही देर गुज़री थी कि मोमीने ताक़ ने उसे शिकस्त दे दी।

 

इसी तरह उस शामी शख्स ने इमाम (अ.स) से अलग अलग विषयो पर मुनाज़ेरे की माँग की और इमाम (अ.स) ने अपने शार्गिदो को उससे मुनाज़ेरे के लिऐ हुक्म दिया और वो मर्दे शामी इमाम (अ.स) के तमाम शार्गिदो से हारता चला गया।

 

और इस खूबसूरत लम्हे पर इमाम (अ.स) के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ती चली गई।

 

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम विद्वानो की दृष्टि मे

 

अबुहनीफ़ा की दृष्टि मे

सुन्नी समुदाय के प्रसिद्ध विद्वान अबु हनीफ़ा कहते हैं कि मैं ने हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से बड़ा कोई विद्वान नही देखा। वह यह भी कहते हैं कि अगर मैं हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्लाम से दो साल तक ज्ञान प्राप्त न करता तो हलाक हो जाता। अर्थात उन के बिना कुछ भी न जान पाता।

 

इमाम मालिक की दृष्टि मे

सुन्नी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान इमाम मालिक कहते हैं कि मैं जब भी हज़रत इमाम सादिक़ के पास जाता था उनको इन तीन स्थितियों मे से किसी एक मे देखता था। या वह नमाज़ पढ़ते होते थे, या रोज़े से होते थे, या फिर कुऑन पढ़ रहे होते थे। वह कभी भी वज़ू के बिना हदीस का वर्णन नही करते थे।

 

इब्ने हजरे हीतमी की दृष्टि मे

इब्ने हजरे हीतमी कहते हैं कि हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से ज्ञान के इतने स्रोत फूटे कि आम जनता भी उनके ज्ञान के गुण गान करने लगी। तथा उनके ज्ञान का प्रकाश सब जगह फैल गया। फ़िक्ह व हदीस के बड़े बड़े विद्वानों ने उनसे हदीसें नक्ल की हैं।

 

अबु बहर जाहिज़ की दृष्टि मे

अबु जाहिज़ कहते हैं कि हज़रत इमाम सादिक़ वह महान् व्यक्ति हैं जिनके ज्ञान ने समस्त संसार को प्रकाशित किया। कहा जाता है कि अबू हनीफ़ा व सुफ़याने सूरी उनके शिष्यों मे से थे। हज़रत इमाम सादिक़ का इन दो विद्वानो का गुरू होना यह सिद्ध करता है कि वह स्वंय एक महानतम विद्वान थे।

 

इब्ने ख़लकान की दृष्टि मे

प्रसिद्ध इतिहासकार इब्ने ख़लकान ने लिखा है कि हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम शियों के इमामिया सम्प्रदाय के बारह इमामो मे से एक हैं। व हज़रत पैगम्बर(स.) के वँश के एक महान व्यक्ति हैं। उनकी सत्यता के कारण उनको सादिक़ कहा जाता है। (सादिक़ अर्थात सत्यवादी) उनकी श्रेष्ठता व महानता किसी परिचय की मोहताज नही है। अबूमूसा जाबिर पुत्र हय्यान तरतूसी उनका ही शिष्य था।

 

शेख मुफ़ीद की दृष्टि मे

शेख मुफ़ीद कहते हैं कि हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने ज्ञान को इतना अधिक फैलाया कि वह जनता मे प्रसिद्ध हो गये। व उनके ज्ञान का प्रकाश सभी स्थानों पर पहुँचा।

 

हज़रत इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.)  के कथन

१. हर बुज़ुर्गी और शरफ़ की अस्ल तवाज़ो है।

२. जिन कामों के लिये बाद में माज़ेरत करना पड़े उनसे परहेज़ (बचो) करो।

३. अपने दिलों (मन का बहु) को क़ुराने मजीद की तिलावत और अस्तग़फ़ार (प्रायश्चित) से नूरानी रखो।

४. अगर कोई तुम पर एहसान करे तो तुम उसके एहसान को चुकाओ और अगर यह न कर सकते हो तो उसके लिये दुआ करो।

५. जिस तरह तुम यह चाहते हो की लोग तुमसे नेकी करें तुम भी दूसरों से नेकी करो।

६. सफ़र (यात्रा) से पहले हमसफ़र (जिसके साथ सफ़र कर रहा है) को और घर लेने से पहले हमसाया (पड़ोसी) को ख़ूब परख लो।

७. किसी फ़क़ीर को ख़ाली वापिस न करो कुछ न कुछ ज़रूर दे दो ।

८. अव्वल वक़्त नमाज़ अदा (पढ़ो) करो अपने दीन के सुतून (खम्भो) को मज़बूत करो।

९. लोगों को ख़ुश करने के लिये ऐसा काम न करो जो ख़ुदावन्दे आलम को नापसन्द हो।

१०. दोस्तों (मित्रों) को हज़र (मौजूदगी) में एक दूसरे से मिलते रहना चाहिये और सफ़र में ख़ुतूत (ख़त का बहु वचन) के ज़रिये राबता (सम्बन्ध) रखना चाहिये।

११. शराबियों से दोस्ती मत करो।

१२. अच्छे काम इन्सान को बूरे वक़्त में बचाते है।

१३. (अगर) आज तुम अपने किसी भाई की मदद करोगे तो कल हज़ारों लोग तुम्हारी मदद करेगें।

१४. मौत की याद बुरी ख़्वाहिशों (इच्छाओं) को दिल से (मन से) ज़ाएल (दूर) करती है।

१५. माँ बाप की फ़रमांबरदारी ख़ुदावन्दे आलम की इताअत (आज्ञा का पालन) है।

१६. हसद ,कीना और ख़ुद पसन्दी (स्वार्थ) दीन के लिये आफ़त हैं।

१७. सिल्हे रहम आमाल को पाकीज़ा (पवित्र) करता है।

१८. ख़ुदावन्दे आलम उस शख़्स पर रहमत करे जो इल्म (ज्ञान) को ज़िन्दा रखे।

१९. ग़ुस्सा हर बुराई का पेशख़ेमा है।

२०. जिसकी ज़बान सच बोलती है उसका अमल भी पाक होता है।

२१. अपने वालदैन (माता पिता) से नेकी करो ताकि तुम्हारी औलाद (बच्चे) तुम से नेकी करें।

२२. ख़ामोंशी से बेहतर कोई चीज़ नहीं है।

२३. कुफ़्र की बुनियाद तीन चीज़ हैं 1.लालच , 2.तकब्बुर (घमण्ड) , 3.हसद।

२४. नेक बातें तहरीर (लिखावट) में लाओ और उसे अपने भाईयों में तक़सीम करो।

२५. मुझे वह शख़्स नापसन्द है जो अपने काम में सुस्ती करे।

२६. हरीस (लालची) मत बनो क्योंकि उससे इन्सान की आबरू चली जाती है और वह दाग़दार हो जाता है।

२७. बदतरीन लग़्ज़िश यह है के इन्सान अपने उयूब (ऐब का बहु वचन) की तरफ़ मुतावज्जेह (ध्यान) न दे।

२८. शराबियों से कोई राबता (सम्बन्ध) न रखो।

२९. जिस घर या जिस नशिस्त में मोहम्मद (स 0)का नाम मौजूद हो वह बा बरकत व मुबारक है।

३०. लिखे हुए कागज़ात को नज़्रे आतिश (जलाओ नहीं) न करो अगर जलाना है तो पहले नविश्त ए जात (लिखे हुए को) को महो (मिटा) कर दो।

३१. कभी गुनाह को कम न समझो मगर गुनाह से इज्तेनाब (बचो) करो।

३२. जिसने लालच को अपना पेशा बनाया उसने ख़ुद को रूसवा (ज़लील) कर लिया।

३३. जल्दबाज़ी हमेशा पशेमानी (पश्चाताप) का बायस (कारण) होती है।

३४. मौत की याद बेतुकी ख़्वाहिशों (व्यर्थ इच्छाओं) को दिल से निकाल देती है।

३५. निजात व सलामती हमेशा (सदैव) ग़ौर व फ़िक्र (सोचविचार) से हासिल (प्राप्त) होती है।

३६. ख़ुदावन्दे आलम की ख़ुशनूदी (ख़ुशी) माँ बाप की ख़ुशनूदी के साथ है।

३७. जो शख़्स कम अक़्लों और बेवकूफ़ों से दोस्ती करता है वह अपनी आबरू ख़ुद कम करता है।

३८. शराब से बचो के यह तमाम बुराईयों की कुंजी है।

३९. मेदा तमाम बुराईयों का ख़ज़ाना है और परहेज़ हर इलाज का पेशख़ेमा है।

४०. जिस तरह ज़्यादा पानी से सब्ज़ा पज़मुर्दा हो जाता है उसी तरह ज़्यादा खाने से दिल मुर्दा हो जाता  है।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 148 हिजरी क़मरी मे शव्वाल मास की 25 वी तिथि को हुई। अब्बासी शासक मँनसूर दवानक़ी के आदेशानुसार आपको विषपान कराया गया जो आपकी शहादत का कारण बना।

 

समाधि

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मदीने के जन्नःतुल बक़ी नामक कब्रिस्तान मे है। यह शहर वर्तमान समय मे सऊदी अरब मे है।

 

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद वा आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व लक़ब (उपाधि)

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का नाम मूसा व आपकी मुख्य उपाधियां काज़िम, बाबुल हवाइज व अब्दे सालेह हैं।

 

माता पिता

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत हमीदा खातून हैं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का जन्म सफ़र मास की सतवी (7) तिथि को सन् 128 हिजरी मे मक्के व मदीने के मध्य स्थित अबवा नामक एक गाँव मे हुआ था।

 

तशकीले हुकूमते इस्लामी का अरमान

 

तारीख़ी और रिवाई हक़ायक़ इस पर शाहिद हैं कि सरकारे मुरसले आज़म (स) और मौला ए कायनात (अ) की अज़ीमुश शान इलाही व इस्लामी हुकूमत के वुक़ू पज़ीर होने के बाद, इसी तरह इलाही अहकाम व हुदूद (दीन व शरीयत) के मुकम्मल निफ़ाज़ व इजरा की ख़ातिर इस्लामी हुकूमत की तशकील का अरमान हमारे हर इमामे मासूम (अ) के दिल में करवटें लेता रहा है। जिस के कसीर नमूने हमें आईम्म ए अतहार (अ) के बयानात व फ़रामीन में जा बजा नज़र आते हैं।

 

मसलन इमाम हसन (अ) अपने सुस्त व बे हौसला साथियों से ख़िताब करते हुए फ़रमाते हैं कि अगर मुझे ऐसे नासिर व मददगार मिल जाते जो दुश्मनाने ख़ुदा से मेरे हम रकाब हो कर जंग करते तो मैं हरगिज़ ख़िलाफ़त मुआविया के पास न रहने देता क्यो कि ख़िलाफ़त बनी उमय्या पर हराम है। [1]

 

इमाम हुसैन (अ) ने भी मुहम्मद हनफ़िया के नाम अपने वसीयत नामे में इसी अज़ीम अरमान का इज़हार यह कह कर फ़रमाया है:

 

ओरिदो अन आमोरा बिल मारूफ़ व अनहा अनिल मुन्कर......। [2]

 

इस्लाहे उम्मत, अम्र बिल मारुफ़, नही अनिल मुन्कर और सीरते रसूल (स) व अमीरुल मोमनीन (अ) का इत्तेबाअ, यह सब दर हक़ीक़त बनी उमय्या की ग़ैर इस्लामी और ज़ालेमाना हुकूमत की नाबूदी और इलाही व इस्लामी हूकूमत के क़याम ही की तरफ़ एक बलीग़ इशारा है।

 

इमाम सादिक़ (अ) ने सदीरे सैरफ़ी के ऐतेराज़ के जवाब में जो कुछ फ़रमाया है उस से भी यह ज़ाहिर होता है कि इस्लामी हुकूमत की तशकील व तासीस आप की दिली तमन्ना व आरजू़ थी।

 

सुदीर कहते हैं कि एक दिन मैं इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की ख़िदमत में हाज़िर हो कर कहने लगा कि आख़िर आप क्यों बैठे हैं? (हुकूमत के लिये क्यों क़याम नही फ़रमाते) आप ने फ़रमाया: ऐ सुदीर, हुआ क्या?

 

मैं ने कहा कि आप अपने दोस्तों और शियों की कसरत तो देखिये। आप ने फ़रमाया कि तुम्हारी नज़र में उन की तादाद कितनी है?

 

मैं ने कहाः एक लाख।

 

आप ने ताअज्जुब से फ़रमायाः एक लाख।

 

मैं ने कहाः जी बल्कि दो लाख।

 

मैं ने अर्ज़ किया जी हाँ.... बल्कि शायद आधी दुनिया।

 

मौला सुदीर के साथ यही गुफ़तुगू करते करते जब मक़ामे यनबअ में पहुचे तो वहाँ आप ने बकरियों के एक गल्ले (रेवड़) को देख कर सुदीर से फ़रमाया: अगर हमारे दोस्तों और शियों की तादाद इस गल्ले के बराबर भी होती तो हम ज़रूर क़याम करते। [3]

 

इस रिवायत से यह अंदाज़ा लगामा मुश्किल नही है कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तासीस की दिली तमन्ना व आरज़ू, असबाब व हालात की ना फ़राहमी की वजह से एक आह और तड़प में बदल कर रह गई थी।

 

अलावा अज़ इन तक़रीबन सारे ही आईम्म ए मासूमीन (अलैहिमुस सलाम) के यहाँ यह अहम और अज़ीम अरमान बुनियादी मक़सद व हदफ़ के तौर पर नुमायां अंदाज़ में नज़र आता है। लेकिन अब हम अपने मौज़ू की मुनासेबत से उस की झलकियां सिर्फ़ इमाम मूसा काज़िम (अ) की हयाते पुर बरकत में देखना चाहते हैं।

 

तारीख़ व सेयर का मुतालआ करने वाले बेहतर जानते हैं कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तशकील के लिये बा क़ायदा जिद्दो जहद इमाम मूसा काज़िम (अ) की ज़िन्दगी में आप से पहले आईम्मा की ब निस्बत, ज़ाहिरन इंतेहाई दुश्वार बल्कि ना मुम्किन मालूम होती है। चूं कि आप का अहदे इमामत, अब्बासी हुकूमत शदायद व मज़ालिम के लिहाज़ से इंतेहाई बहरानी, हस्सास और ख़तरनाक दौर था। ऐसा ख़तरनाक कि आप की हर नक़्ल व हरकत पर हुकूमत की कड़ी नज़र रहती थी, लेकिन क्या कहना ऐसे संगीन और कड़े हालात पर भी यही नही कि इमाम काज़िम ने सिर्फ़ अपने पिदरे बुज़ुर्गवार इमाम सादिक़ (अ) के हौज़ ए इल्म व दानिश की शान व शौकत को बाक़ी रखा। [4] बल्कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तहक़्क़ुक़ के लिये भी आप हमा तन कोशां और फ़आल रहे और आप ने इस की तासीस व तशकील के लिये किसी भी मुमकिना जिद्दो जिहद से दरेग़ नही फ़रमाया। यहाँ तक कि अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद भी यह समझने लगा कि इमाम मूसा काज़िम (अ) और उन के शिया जिस दिन भी ज़रूरी क़ुदरत व ताक़त हासिल कर लेंगें उस दिन उस की ग़ासिब हुकूमत को नाबूद करने में देर नही लगायेगें। [5]

 

हुकूमते इस्लामी की तशकील के सिलसिले में इमाम काज़िम (अ) के बुलंद अहदाफ़ व मक़ासिद का अंदाज़ा, इस मुकालमे से भी ब ख़ूबी लगाया जा सकता है जो मौला और हारून के दरमियान पेश आया है। जिस की तफ़सील कुछइस तरह है कि एक दिन हारून ने (शायद आप को आज़माने और आप के अज़ीम अरमान को परखने के लिये) इस आमादगी का इज़हार किया कि वह फ़िदक आप के हवाले करना चाहता है। आप ने इस पेशकश के जवाब में फ़रमाया कि मैं फिदक लेने को तैयार हूँ मगर शर्त यह है कि उस के तमाम हुदूद के साथ वापस किया जाये।

 

हारून ने पूछा उस के हुदूद क्या हैं? आप ने फ़रमाया कि अगर उस के हुदूद बता दूँ तो हरगिज़ वापस नही करोगे।

 

हारून ने इसरार किया और क़सम खाई कि मैं उसे ज़रूर वापस करूगा, आप हुदूद तो बयान करें, (यह सुन कर) मौला ने हुदूदे फिदक़ इस तरह बयान फ़रमा दें।

 

उस की पहली हद अदन है।

 

दूसरी हद समरकंद है।

 

तीसरी हद अफ़रीक़ा है।

 

चौथी हद अलाक़ाजाते अरमेनिया व बहरे ख़ज़र हैं।

 

यह सुनते ही हारून के होश उड़ गये बहुत बे चैन व परेशान हुआ, ख़ुद को कंट्रोल न कर सका और ग़ुस्से से बोला तो हमारे पास क्या बचेगा? इमाम (अ) ने फ़रमाया: मैं जानता था कि तुम क़बूल नही करोगे इसी लिये बताने से इंकार कर रहा था। [6] इमाम (अ) ने हारून को ख़ूब समझा दिया कि फ़िदक सिर्फ़ एक बाग़ नही है बल्कि इस्लामी हुकूमत के वसीअ व अरीज़ क़लमरौ का एक रमज़ो राज़ है।

 

असहाबे सकीफ़ा ने दुख़्तरे व दामादे रसूल (स) से फिदक छीन कर दर हक़ीक़त अहले बैत (अ)का हक़्क़े हुकूमत व हाकेमियत ग़ज़ब व सल्ब किया था लिहाज़ा अब अगर अहले बैत (अ) को उनका हक़ दे दिया जाये तो इंसाफ़ यह है कि पूरे क़लमरौ ए हुकूमते इस्लामी को उन के सुपुर्द किया जाये।

 

हैरत की बात तो यह है कि सारी इस्लामी दुनिया पर अब्बासी हुकूमत का तसल्लुत व तसर्रुफ़ होने के बावजूद दूर व नज़दीक हर तरफ़ से अमवाले ख़ुम्स और दीगर शरई वुजूहात इमाम की ख़िदमत में पेश किये जाते थे और ऐसा लगता था कि जैसे आप ने संदूक़े बैतुल माल तशकील दे रखा है। [7] जो यक़ीनन इस बात की दलील है कि इस्लामी हुकूमत तशकील देने के लिये आप ने ऐसे इलाही, इस्लामी और अख़लाक़ी किरदार व असबाब अपना रखे थे जो इस्लामी दुनिया के समझदार और हक़ शिनास, हक़ीक़त निगर तबक़ा आप की तरफ़ मुतवज्जे किये हुए थे बल्कि उसे आप का मुतीअ व फ़रमां बरदार बनाये हुए थे। यब और बात है कि हुकूमती पावर उस अज़ीम तबक़े को बा क़ायदा खुलने और उभरने नही दे रहा था।

 

बीबी शतीता

 

इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के ज़माने मे नेशापुर के शियो ने मौहम्मद बिन अली नेशापुरी नामी शख़्स कि जो अबुजाफर खुरासानी के नाम से मशहूर था, को कुछ शरई रकम और तोहफे साँतवे इमाम काज़िम (अ.स) की खिदमत मे मदीने पहुँचाने के लिऐ दी।

 

उन्होंने तीस हज़ार दीनार, पचास हज़ार दिरहम, कुछ लिबास और कुछ कपड़े दिये और साथ ही साथ एक कापी भी दी कि जिस पर सील लगी हुई थी और उसके हर पेज पर एक मसला लिखा हुआ था और उस से कहा था कि जब भी इमाम की खिदमत मे पहुँचो सवालो की कापी इमाम को दे देना और अगले दिन उस कापी को उनसे वापस ले लेना अगर इस कापी की सील नही टूटी तो खुद इस की सील को तोड़ लेना और देख कि इमाम ने बग़ैर सील तोड़े हमारे सवालो के जवाब दिये है या नही? अगर सील तोड़े बग़ैर इन सवालो के जवाब लिख दिये गऐ है तो समझ लेना कि यही इमामे बर हक़ हैं और हमारे माल को लेने के लायक़ है वरना हमारे माल को वापस पलटा लाना।

 

इस तरह खुरासान के शिया ये चाहते थे कि हक़ीकी इमाम को पहचाने और उन पर यक़ीन करे और इसके ज़रीऐ से इमामत का झूठा दावा करने वालो के फरेब और धोके से बचे और जिस वक्त नेशापुर के रहने वालो का ये नुमाइंदा मौहम्मद बिन अली नेशापुरी अपने सफर के लिऐ चलने लगा तो एक बुज़ुर्ग खातून कि जिनका नाम शतीता था और वो अपने ज़माने के नेक और पारसा लोगो से एक थी, मौहम्मद बिन अली नेशापुरी के पास आई एक दिरहम और एक कपड़े का टुकड़ा उसे दिया और कहाः ऐ अबुजाफर मेरे माल मे से ये मिक़दार हक़्क़े इमाम है इसे इमाम की खिदमत मे पहुचां दे।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने उनसे कहाः मुझे शर्म आती है कि इतने थोड़े से माल को इमाम को दूँ।

 

जनाबे शतीता ने उस से कहाः खुदा वंदे आलम किसी के हक़ से शरमाता नही है (यानी ये कि इमाम के हक़ को देना ज़रूरी है चाहे वो कम ही क्यूं न हो) बस यही माल मेरे ज़िम्मे है और चाहती हूँ कि इस हाल मे परवरदिगार से मुलाक़ात करूँ कि हक़्क़े इमाम मे से कुछ भी मेरी गर्दन पर न हो।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने जनाबे शतीता की वो ज़रा सी रकम ली और मदीने चला गया और मदीने पहुँच कर अब्दुल्लाह अफतह1 का इम्तेहान लेकर ये समझ गया कि अब्दुल्लाह अफतह इमामत के क़ाबिल नही है और नाउम्मीदी की हालत मे उसके घर से निकला उसके बाद एक बच्चे ने उसे इमाम काज़िम के घर की तरफ हिदायत की।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने जब इमाम काज़िम (अ.स) की खिदमत मे पहुँचा तो इमाम (अ.स) ने उस से फरमाया कि ऐ अबुजाफर नाउम्मीद क्यो हो रहे हो?? मेरे पास आओ मैं वलीऐ खुदा और उसकी हुज्जत हुँ। मैने कल ही तुम्हारे सवालो के जवाब दे दिये है उन सवालो के मेरे पास लाओ और शतीता की दी हुई एक दिरहम को भी मुझे दो।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैं इमाम काज़िम (अ.स) की बातो और आपकी बताई हुई सही निशानीयो से हैरान हो गया और उनके हुक्म पर अमल किया।

 

इमाम काज़िम (अ.स) ने शतीता के एक दिरहम और कपड़े के टुकड़े को ले लिया और फरमायाः बेशक अल्लाह हक़ से शरमाता नही है और ऐ अबुजाफर शतीता को मेरा सलाम कहना और ये पैसो की थैली कि इसमे चालिस दिरहम हैं, और ये कपड़े का टुकड़ा कि जो मेरे कफन का टुकड़ा है, को भी शतीता को दे देना और उस से कहना कि इस कपड़े को अपने कफन मे रख ले कि ये हमारे ही खेत की रूई से बना हुआ है और मेरी बहन ने इस कपड़े को बनाया है और साथ ही साथ शतीता से कहना कि जिस दिन ये चीज़े हासिल करोगी उसके बाद से उन्नीस दिन से ज़्यादा ज़िन्दा नही रहोगी। मेरे तोहफे के दिये हुऐ चालिस दिरहम मे से सोलह दिरहम खर्च कर लो और चौबीस दिरहम को सदक़े और अपने कफन दफन के लिऐ रख लेना।

 

फिर इमाम काज़िम (अ.स) ने फरमाया कि उस से कहना कि उसकी नमाज़े जनाज़ा मैं खुद पढ़ाऊँगा।

 

और उसके बाद इमाम (अ.स) ने फरमाया कि बाक़ी माल को उनके मालिको को वापस दे देना और सवालो की कापी की सील को तोड़ कर देख कि मैंने उनके जवाबो को बग़ैर देखे दिया है या नही??

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैने कापी की सील को देखा उसे हाथ भी नही लगाया गया था और सील तोड़ने के बाद मैंने देखा सब सवालो के जवाब दिये जा चुके है।

 

जिस वक्त मौहम्मद बिन अली नेशापुरी खुरासान पलटा तो ताज्जुब के आलम मे देखता है कि इमाम काज़िम (अ.स) ने जिन लोगो के माल वापस पलटाऐ है उन सब ने अब्दुल्लाह अफतह को इमाम मान लिया है लेकिन जनाबे शतीता अब भी अपने मज़हब पर बाक़ी है।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैने इमाम काज़िम (अ.स) के सलाम को शतीता को पहुँचाया और वो कपड़ा और माल भी उसे दिया और जिस तरह इमाम काज़िम (अ.स) ने फरमाया था शतीता उन्नीस दिन बाद इस दुनिया से रूखसत हो गई।

 

और जब जनाबे शतीता इंतेक़ाल कर गई तो इमाम (अ.स) ऊँट पर सवार हो कर नेशापुर आऐ और जनाबे शतीता की नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई।

 

आज भी लोग इस मौहतरम खातून को बीबी शतीता के नाम से याद करते है और आपका मज़ारे मुक़द्दस नेशापुर (ईरान) मे मौजूद है कि जहाँ रोज़ाना हज़ारो चाहने वाले आपकी क़ब्र की ज़ियारत के लिऐ आते है।

 

 1.   अब्दुल्लाह अफतह इमाम सादिक का एक बेटा था कि जिसने इमामत का दावा किया था।

 

हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के कथन

१. ग़ाफ़िल तरीन (बेपरवाह) शख़्स वह है जो ज़माने (समय) की गर्दिश और हादसात से इबरत हासिल न करे।

२. जो शख़्स बद अख़लाक़ है (गोया) उसने अपने एक दाएमी (सदैव) अज़ाब में मुबतला कर रखा है।

३. बहादुर वह है जो ग़ुस्से के वक़्त भी बुर्दबार रहे।

४. इल्म तमाम ख़ूबियों का बायस (कारण) और जेहेल (जिहालत) तमाम बुराईयों का मोजिब (कारण) है।

५. माल ख़ुदावन्दे आलम की एक नेमत है और माल से बेहतर बदन की सलामती है और उससे बेहतर तक़्वा ए क़ल्ब है।

६. ज़कात के ज़रिये अपने माल की हिफ़ाज़त (रक्षा) करो सदक़े (ईश्वर के मार्ग में कुछ देना) के ज़रिये बीमारी का इलाज।

७. बुरे लोगों से भी नेकी करो ताकि उनकी बदी (बुराई) से महफ़ूज़ (बचे) रहो (क्योंकि) नेकी से आज़ाद भी बन्दाए बे दाम हो जाता है।

८. दुनिया ख़्वाब है और आख़ेरत (परलोक) बेदारी और उस दरमियान (बीच) ज़िन्दगी एक ख़्वाबे परेशां।

९. बहादुर इन्सान हमेशा ख़ुश व मसरूर रहता है और अपना ज़ेहेन और आसाब पर आक़ेलाना क़ाबू रखता है।

१०. कभी किसी को धोका मत दो क्योंकि यह काम बहुत पस्त लोगों का है।

११. झूठ बदतरीन बीमारी है।

१२. हमेशा हक़ बात कहो और परहेज़गारों (बुराई से बचने वाला) के नासिर व मददगार (सहायक) बनो।

१३. अहमक़ (बेवकूफ़) लोगों से दोस्ती मत करो क्योंकि वह ग़ैरे शऊरी तौर (बेवकूफ़ी से) से तुमको नुक़सान पहुँचायेंगे।

१४. जो अल्लाह से डरता है वह किसी पर ज़ुल्म नहीं करता।

१५. अल्लाह की राह (मार्ग) में अपने जान व माल से जेहाद करो और दुनिया में (आख़ेरत के लिये) ज़ख़ीरा (जमा) कर लो।

१६. सितमगर पर सख़्ती करके मज़लूम के हक़ को उससे दिलवाओ।

१७. दोस्त की लग़्ज़िशों (त्रुटियों) से चश्म पोशी करो और उसे दुश्मनों के हमलों के वक़्त के लिए महफ़ूज़ (बचाये) रखो।

१८. जिसका ईमान अल्लाह पर है वह उस दस्तरख़ान पर नहीं बैठता जहाँ शराब हो।

१९. अगर तुम में से कोई बरादरे मोमिन को दोस्त रखे तो उसे आगाह कर दो।

२०. कारे ख़ैर में जल्दी करो (वरना) किसी दूसरे काम में लग जाओगे।

२१. क्या कहना उस शख़्स का जो अपने हलाल माल से बख़्शिश व इन्फ़ाक़ (व्यय करे) करे।

२२. लोगों से बदगोई (अपशब्द) मत करो (वरना) इस तरह तुम अपने लिये अदावत को दावत दोगे।

२३. जो शख़्स मौक़ा बे मौक़ा अपनी परेशानियों को लोगों से सुनाता है वह अपने को ज़लील करता है।

२४. हरग़िज़ अपने अज़ीज़ों से चश्मपोशी न करो और बेगाने (जिससे जान पहचान न हो) को आश्ना (जानने वाले) पर तरजीह मत दो।

२५. जिसने मियाना रवी और क़नाअत (आत्मसंतोष) को अपनाया उसके लिये नेमत हमेशा बाक़ी रहती है।

२६. हमेशा हक़ गो (सच बोलो) रहो और हक़ को सरीह अन्दाज़ से बयान करो और ख़ुदावन्दे आलम के सिवा किसी और की ख़ुशनूदी के तलबगार न हो।

२७. ख़ुदावन्दे आलम काहिल और सुस्त बन्दे को पसन्द नहीं करता।

२८. सब्र (सहनशीलता) करोगे तो फ़ायदे में रहोगे।

२९. जो इसराफ़ और फ़ुज़ूल ख़र्ची करता है उसके यहाँ नेमत पर ज़वाल आ जाता है।

३०. परहेज़ हर मुसीबत का इलाज है।

३१. सात साल की उम्र के बच्चों को नमाज़ के लिये तैयार करो और उनके बिस्तर जुदा (अलग- अलग) कर दो।

३२. अज़ीम इन्सान (अच्छा मनुष्य) क़ुदरत पाकर अफ़ो (क्षमा) कर देता है अपनी ज़बान को नासज़ा (अपशब्द) कहने से रोकता है और इन्साफ़ (न्याय) का रास्ता इख़्तेयार (ग्रहण) करता है।

३३. कुशादा रवी (अच्छा अख़लाक़) ऐसा नेक काम है जिसमें न कोई ख़र्च है न कोई ज़हमत।

३४. अच्छे दोस्त हासिल करने से इन्सान की इज़्ज़त बढ़ जाती है।

३५. नेकी वह चीज़ है जो सिवाय शुक्राने और ऐवज़ देने के ख़त्म नहीं होती।

३६. वह इज़्ज़त जो तकब्बुर (घमण्ड) से हासिल हो वह ज़िल्लत है।

३७. लोगों से हाजत तलब करना (माँगना) बे-इज़्ज़ती भी है और रिज़्क़ में कमी का बायस (कारण) भी।

३८. जब बाद करो तो झूठ मत बोलो और जब वायदा करो तो वायदा ख़िलाफ़ी न करो।

३९. जब तुम किसी दूसरे के ऐब का ज़िक्र करना चाहो तो पहले अपने ऐब को सोच लो।

४०. मौत आने से पहले उसके लिये तैयार हो जाओ।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को हारून रशीद ने 14 वर्षों तक अपने बन्दीगृह मे बन्दी बनाकर रखा। जहाँ पर आप ने अत्याधिक यातनाऐं सहन की।और अन्त मे रजब मास की 25 वी तिथि को सन्183 हिजरी क़मरी मे बग़दाद नामक शहर मे हारून रशीद के बन्दी गृह मे सन्दी पुत्र शाहिक नामक व्यक्ति ने हारून रशीद के आदेश पर आपको विष मिला भोजन खिला कर आपके संसारिक जीवन को समाप्त कर दिया। शहादत के समय आपकी आयु 55 वर्ष थी।

 

समाधि

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप काज़मैन नामक स्थान पर है। प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आप को सलाम करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व लक़ब (उपाधी)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधि रिज़ा है।

 

माता पिता

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नजमा थीं। आपकी माता को समाना, तुकतम, व ताहिराह भी कहा जाता था।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 148 हिजरी क़मरी मे ज़ीक़ादाह मास की ग्यारहवी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज़माने के राजनीतिक हालात का वर्णन

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत वाला जीवन बीस साल का था जिसको हम तीन भागों में बांट सकते हैं।

1. पहले दस साल हारून के ज़माने में

 

2. दूसरे पाँच साल अमीन की ख़िलाफ़त के ज़माने में

 

3. आपकी इमामत के अन्तिम पाँच साल मामून की ख़िलाफ़त के साथ थे।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का कुछ जीवन हारून रशीद की ख़िलाफ़त के साथ था, इसी ज़माने में अपकी पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत हुई, इस ज़माने में हारून शहीद को बहुत अधिक भड़काया गया ताकि इमाम रज़ा को वह क़त्ल कर दे और अन्त में उसने आपको क़त्ल करने का मन बना लिया, लेकिन वह अपने जीवन में यह कार्य नहीं कर सका, हारून शरीद के निधन के बाद उसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ, लेकिन चूँकि हारून की अभी अभी मौत हुई थी और अमीन स्वंय सदैव शराब और शबाब में लगा रहता था इसलिए हुकुमत अस्थिर हो गई थी और इसीलिए वह और सरकारी अमला इमाम पर अधिक ध्यान नहीं दे सका, इसी कारण हम यह कह सकते हैं कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन का यह दौर काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण था।

लेकिन अन्तः मामून ने अपने भाई अमीन की हत्या कर दी और स्वंय ख़लीफ़ा बन बैठा और उसने विद्रोहियों का दमन करके इस्लामी देशों के कोने कोने में अपना अदेश चला दिया, उसने इराक़ की हुकूमत को अपने एक गवर्नर के हवाले की और स्वंय मर्व में आकर रहने लगा, और राजनीति में दक्ष फ़ज़्ल बिन सहल को अपना वज़ीर और सलाहकार बनाया।

लेकिन अलवी शिया उसकी हुकूमत के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा थे क्योंकि वह अहलेबैत के परिवार वालों को ख़िलाफ़त का वास्तविक हक़दार मसझते थे और, सालों यातना, हत्या पीड़ा सहने के बाद अब हुकूमत की कमज़ोरी के कारण इस स्थिति में थे कि वह हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़े हों और अब्बासी हुकूमत का तख़्ता पलट दें और यह इसमें काफ़ी हद तक कामियाब भी रहे थे, और इसकी सबसे बड़ी दलील यह है कि जिस भी स्थान से अलवी विद्रोह करते थे वहां की जनता उनका साथ देती थी और वह भी हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़ी होती थी।  और यह दिखा रहा था कि उस समय की जनता हुकूमत के अत्याचारों से कितनी त्रस्त थी।

और चूँकि मामून ने इस ख़तरे को भांप लिया था इसलिए उसने अलवियों के इस ख़तरे से निपटने के लिए और हुकूमत को कमज़ोर करने वालों कारणों से निपटने के लिये कदम उठाने का संकल्प लिया उसने सोच लिया था कि अपनी हुकूमत को शक्तिशाली करेगा और इसीलिये उसने अवी वज़ीर फ़ज़्ल से सलाह ली और फ़ैसला किया कि अब धोखे बाज़ी से काम लेगा, उसने तै किया कि ख़िलाफ़ को इमाम रज़ा को देने का आहवान करेगा और ख़ुद ख़िलाफ़त से अलग हो जाएगा।

उसको पता था कि ख़िलाफ़ इमाम रज़ा के दिये जाने का आहवान का दो में से कोई एक नतीजा अवश्य निकलेगा, या इमाम ख़िलाफ़त स्वीकार कर लेंगे, या स्वीकार नहीं करेंगे, और दोनों सूरतों में उसकी और अब्बासियों की ख़िलाफ़त की जीत होगी।

क्योंकि अगर इमाम ने स्वीकार कर लिया तो मामून की शर्त के अनुसार वह इमाम का वलीअह्द या उत्तराधिकारी होता, और यह उसकी ख़िलाफ़त की वैधता की निशानी होता और इमाम के बाद उसकी ख़िलाफ़त को सभी को स्वीकार करना होता। और यह स्पष्ट है कि जब वह इमाम का उत्तराधिकारी हो जाता तो वह इमाम को रास्ते से हटा देता और शरई एवं क़ानूनी तौर पर हुकूमत फिर उसको मिल जाती, और इस सूरत में अलवी और शिया लोग उसकी हुकूमत को शरई एवं क़ानूनी समझते और उसको इमाम के ख़लीफ़ा के तौर पर स्वीकार कर लेते, और दूसरी तरफ़ चूँकि लोग यह देखते कि यह हुकूमत इमाम की तरफ़ से वैध है इसलिये जो भी इसके विरुद्ध उठता उसकी वैधता समाप्त हो जाती।

उसने सोंच लिया था (और उसको पता था कि इमाम को उसकी चालों के बारे में पता होगा) कि अगर इमाम ने ख़िलाफ़त के स्वीकार नहीं किया तो वह इमाम को अपना उत्तराधिकारी बनने पर विवश कर देगा, और इस सूरत में भी यह कार्य शियों की नज़रों में उसकी हुकूमत के लिए औचित्य बन जाएगा, और फ़िर अब्बासियों द्वारा ख़िलाफ़त को छीनने के बहाने से होने वाले एतेराज़ और विद्रोह समाप्त हो जाएगे, और फिर किसी विद्रोही का लोग साथ नहीं देंगे।

और दूसरी तरफ़ उत्तराधिकारी बनाने के बाद वह इमाम को अपनी नज़रों के सामने रख सकता था और इमाम या उनके शियों की तरफ़ से होने वाले किसी भी विद्रोह का दमन कर सकता था, और उसने यह भी सोंच रखा थी कि जब इमाम ख़िलाफ़त को लेने से इन्कार कर देंगे तो शिया और उसने दूसरे अनुयायी उनके इस कार्य की निंदा करेंगे और इस प्रकार दोस्तों और शियों के बीच उनका सम्मान कम हो जाएगा।

मामून ने सारे कार्य किये ताकि अपनी हुकूमत को वैध दर्शा सके और लोगों के विद्रोहों का दमन कर सके, और लोगों के बीच इमाम और इमामत के स्थान को नीचा कर सके लेकिन कहते हैं न कि अगर इन्सान सूरज की तरफ़ थूकने का प्रयत्न करता है तो वह स्वंय उसके मुंह पर ही गिरता है और यही मामून के साथ हुआ, इमाम ने विवशता में उत्तराधिकारी बनना स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह कह दिया कि मैं हुकूमत के किसी कार्य में दख़ल नहीं दूँगा, और इस प्रकार लोगों को बता दिया कि मैं उत्तराधिकारी मजबूरी में बना हूँ वरना अगर मैं सच्चा उत्तराधिकारी होता तो हुकूमत के कार्यों में हस्तक्षेप भी अवश्य करता। और इस प्रकार मामून की सारी चालें धरी की धरी रह गईं

 

हज़रत इमाम रिज़ा की ईरान यात्रा

अब्बासी खलीफ़ा हारून रशीद के समय मे उसका बेटा मामून रशीद खुरासान(ईरान) नामक प्रान्त का गवर्नर था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने अपने भाई अमीन से खिलाफ़त पद हेतु युद्ध किया जिसमे अमीन की मृत्यु हो गयी। अतः मामून ने खिलाफ़त पद प्राप्त किया व अपनी राजधीनी को बग़दाद से मरू (ईरान का एक पुराना शहर) मे स्थान्तरित किया। खिलाफ़त पद पर आसीन होने के बाद मामून के सम्मुख दो समस्याऐं थी। एक तो यह कि उसके दरबार मे कोई उच्च कोटी का आध्यात्मिक विद्वान न था। दूसरी समस्या यह थी कि मुख्य रूप से हज़रत अली के अनुयायी शासन की बाग डोर इमाम के हाथों मे सौंपने का प्रयास कर रहे थे, जिनको रोकना उसके लिए आवश्यक था। अतः उसने इन दोनो समस्याओं के समाधान हेतू बल पूर्वक हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम को मदीने से मरू (ईरान ) बुला लिया। तथा घोषणा की कि मेरे बाद हज़रत इमाम रिज़ा मेरे उत्तरा धिकारी के रूप मे शासक होंगे। इससे मामून का अभिप्राय यह था कि हज़रत इमाम रिज़ा के रूप मे संसार के सर्व श्रेष्ठ विद्वान के अस्तित्व से उसका दरबार शुशोभित होगा। तथा दूसरे यह कि इमाम के उत्तराधिकारी होने की घोषणा से शियों का खिलाफ़त आन्दोलन लगभग समाप्त हो जायेगा या धीमा पड़ जायेगा।

 

इमाम रज़ा अ.स. ने मामून की वली अहदी क्यु क़ुबूल की?

अकसर लोगों के दरमियान सवाल उठता है कि अगर अब्बासी खि़लाफ़त एक ग़ासिब हुकूमत थी तो आखि़र हमारे आठवें इमाम ने इस हुकूमत में मामून रशीद ख़लिफ़ा की वली अहदी या या उत्तरधिकारिता क्यूं कु़बूल की?

इस सवाल के जवाब में हम यहां चन्द बातें पेश करतें हैं कि जिनके पढ़ने के बाद हमारे सामने यह बातें इस तरह साफ़ हो जायेगी जैसे हाथ की पांच उंगलियों की गिनती ।

जनाब मेहदी पेशवाई अपनी किताब सीमाये पीशवायान में इमाम रज़ा के मामून के उत्तराधिकारी बनने के कारण इस तरह लिखते हैः

1. इमाम रज़ा ने मामून के उत्तराधिकारी बनने को उस समय कु़बूल किया कि जब देखा कि अगर आप मामून की बात न मानेंगे तो ख़ुद अपनी जान से भी हाथ धो बैठेगें और साथ ही साथ शियों की जान भी ख़तरे में पड़ जायेगी अब इमाम ने अपने उपर लाज़िम समझा कि ख़तरे को ख़ुद और अपने शियों से दूर करे।

2. इमाम रज़ा का उत्तराधिकारी बनाया जाना भी एक तरह से अब्बासियों का यह मानना भी था कि अलवी (शिया) भी हुकूमत में एक बड़ा हिस्सा रखते हैं।

3. उत्तराधिकारीता क़ुबूल करने की दलीलों में से एक यह भी है लोग ख़ानदाने पैग़म्बर को सियासत के मैदान में हाज़िर समझे और यह गुमान न करे कि ख़ानदानें पैग़म्बर सिर्फ़ उलेमा व फ़ोक़हा है और यह लोग सियासत के मैदान में बिल्कुल नहीं है।

शायद इमाम रज़ा ने इब्ने अरफ़ा के सवाल के जवाब में इसी मतलब की तरफ़ इशारा किया है कि जब इब्ने अरफ़ा ने इमाम से पूछा कि ऐ रसूले ख़ुदा के बेटे आप किस कारण से मामून के उत्तराधिकारी बनें?

तो इमाम ने जवाब दियाः उसी कारण से कि जिसने मेरे जद अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को शूरा में दाखि़ल किया था।

4. इमाम ने अपने उत्तराधिकारीता के दिनों में मामून का असली चेहरा तमाम लोगों के सामने बेनक़ाब कर दिया था और उसकी नियत व मक़सद को उन कामों से कि जिन्हें वो अन्जाम दे रहा था, सब के सामने ला कर लोगों के दिलों से हर शक व शुब्हे को निकाल दिया था। (सीमाये पीशवायान)

 

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और ईद की नमाज़

मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से ईद की नमाज़ पढ़ाने के लिए कहा। इसके पीछे मामून का लक्ष्य यह था कि लोग इमाम रज़ा के महत्व को पहचानें और उनके दिल शांत हो जायें परंतु आरंभ में इमाम ने ईद की नमाज़ पढ़ाने हेतु मामून की बात स्वीकार नहीं की पंरतु जब मामून ने बहुत अधिक आग्रह किया तो इमाम ने उसकी बात एक शर्त के साथ स्वीकार कर ली। इमाम की शर्त यह थी कि वह पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शैली में ईद की नमाज़ पढ़ायेंगे। मामून ने भी इमाम के उत्तर में कहा कि आप स्वतंत्र हैं आप जिस तरह से चाहें नमाज़ पढ़ा सकते हैं।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम की भांति नंगे पैर घर से बाहर निकले और उनके हाथ में छड़ी थी। जब मामून के सैनिकों एवं प्रमुखों ने देखा कि इमाम नंगे पैर पूरी विनम्रता के साथ घर से बाहर निकले हैं तो वे भी घोड़े से उतर गये और जूतों को उतार कर वे भी नंगे पैर हो गये और इमाम के पीछे पीछे चलने लगे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हर १० क़दम पर रुक कर तीन बार अल्लाहो अकबर कहते थे। इमाम के साथ दूसरे लोग भी तीन बार अल्लाहो अकबर की तकबीर कहते थे। मामून इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के इस रोब व वैभव को देखकर डर गया और उसने इमाम को ईद की नमाज़ पढ़ाने से रोक दिया। इस प्रकार वह स्वयं अपमानित हो गया।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान

मामून जो कि इमाम की तरफ़ लोगो की बढ़ती हुई मोहब्बत और लोगों के बीच आपके सम्मान को देख रहा था और आपके इस सम्मान को कम करने और लोगों के प्रेम में ख़लल डालने के लिए उसने बहुत से कार्य किये और उन्हीं कार्यों में से एक इमाम रज़ा और विभिन्न विषयों के ज्ञानियों के बीच मुनाज़ेरा और इल्मी बहसों की बैठकों का जायोजन है, ताकि यह लोग इमाम से बहस करें और अगर वह किसी भी प्रकार से इमाम को अपनी बातों से हरा दें तो यह मामून की बहुत बड़ी जीत होगी और इस प्रकार लोगों के बीच आपकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को कम किया जा सकता था, इस लेख में हम आपके सामने इन्हीं बैठकों में से एक के बारे में बयान करेंगे और इमाम रज़ा (अ) के उच्च कोटि के ज्ञान को आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।

मामून ने एक मुनाज़रे के लिए अपने वज़ीर फ़ज़्ल बिन सहल को आदेश दिया कि संसार के कोने कोने से कलाम और हिकमत के विद्वानों को एकत्र किया जाए ताकि वह इमाम से बहस करें।

फ़ज़्ल ने यहूदियों के सबसे बड़े विद्वान उसक़ुफ़ आज़मे नसारी, सबईयों ज़रतुश्तियों के विद्वान और दूसरे मुतकल्लिमों को निमंत्रण भेजा, मामून ने इस सबको अपने दरबार में बुलाया और उनसे कहाः मैं चाहता हूँ कि आप लोग मेरे चचा ज़ाद (मामून पैग़म्बरे इस्लाम के चचा अब्बास की नस्ल से था जिस कारण वह इमाम रज़ा (अ) को अपना चचाज़ाद कहता था) से जो मदीने आया है बहस करो।

दूसरे दिन बैठक आयोजित की गई और एक व्यक्ति को इमाम रज़ा (अ) को बुलाने के लिये भेजा, आपने उसके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और उस व्यक्ति से कहाः क्या जानना चाहते को कि मामून अपने इस कार्य पर कब लज्जित होगा? उसने कहाः हाँ। इमाम ने फ़रमायाः जब मैं तौरैत के मानने वालों को तौरैत से इंजील के मानने वालों को इंजील से ज़बूर के मानने वालों को ज़बूर से साबईयों को उनकी भाषा में ज़रतुश्तियों को फ़ारसी भाषा में और रूमियों को उनकी भाषा में उत्तर दूँगा, और जब वह देखेगा कि मैं हर एक की बात को ग़लत साबित करूंगा और सब मेरी बात मान लेंगे उस समय मामून को समझ में आएगा कि वह जो कार्य करना चाहता है वह उसके बस की बात नहीं है और वह लज्जित होगा

फिर आप मामून की बैठक में पहुँचे, मामून ने आपका सबसे परिचय कराया और फिर कहने लगाः मैं चाहता हूँ कि आप लोग इनसे इल्मी बहस करें, आपने भी उस तमाम लोगों को उनकी ही किताबों से उत्तर दिया, फिर आपने फ़रमायाः अगर तुम में से कोई इस्लाम का विरोधी है तो वह बिना झिझक प्रश्न कर सकता है। इमरान साबी जो कि एक मुतकल्लिम था उसने इमाम से बहुत से प्रश्न किये और आपने उसे हर प्रश्न का उत्तर दिया और उसको लाजवाब कर दिया, उसने जब इमाम से अपने प्रश्नों का उत्तर सुना तो वह कलमा पढ़ने लगा और इस्लाम स्वीकार कर लिया, और इस प्रकार इमाम की जीत के साथ बैठक समाप्त हुई।

रजा इब्ने ज़हाक जो मामून की तरफ़ से इमाम को मदीने से मर्व की तरफ़ जाने के लिये नियुक्त था कहता हैः इमाम किसी भी शहर में प्रवेश नहीं करते थे मगर यह कि लोग हर तरफ़ से आपकी तरफ़ दौड़ते थे और अपने दीनी मसअलों को इमाम से पूछते थे, आप भी लोगों को उत्तर देते थे, और पैग़म्बर की बहुत सी हदीसों को बयान फ़रमाते थे। वह कहता है कि जब मैं इस यात्रा से वापस आया और मामून के पास पहुंचा तो उसने इस यात्रा में इमाम के व्यवहार के बारे में प्रश्न किया मैंने जो कुछ देखा था उसको बता दिया। तो मामून कहता हैः हां हे ज़हाक के बेटे, आप (इमाम रज़ा) ज़मीन पर बसने वाले लोगों में सबसे बेहतरीन, सबसे ज्ञानी और इबादत करने वाले हैं

 

हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के कथन

१. जब लोग नये नये गुनाहों का इरतेकाब (करना) शुरू कर देंगे तो ख़ुदावन्दे आलम (ईशवर) भी उन्हें नई नई बलाओं (आपत्तियों) में मुबतला करेगा (डालेगा) ।

२. माँ बाप को मोहब्बत भरी निगाहों से देखना इबादत (तपस्या) है।

३. ख़ुशबख़्त वह शख़्स है जो दूसरों की सरगुज़श्त (गुज़रा हुआ) से इब्रत (वह मानसिक खेद जो किसी आदमी को बुरी अवस्था में देखकर होता है) हासिल करे।

४. तुम्हारे अच्छे काम वह हैं जो आख़ेरत (परलोक) को सँवारें।

५. बेहतरीन कारे ख़ैर (अच्छा कार्य) वह है जो दाएमी (हमेशा) हो अगरचे कम हो।

६. जो किसी हाजत मन्द (माँगने वालों) की हाजत रवा (पूरा) करे ख़ुदावन्दे आलम उसके दुनिया व आख़ेरत (परलोक) दोनों आसान करेगा।

७. नेक ओमूर (अच्छे काम) में जल्दी करो ताकि कामयाब रहो (याद रखो) नेक कामों से उम्र (आयु) में बरकत होती है।

८. जो बुज़ुर्गों का एहतेराम (आदर) और ख़ुर्दों (छोटो) पर रहम न करे वह मुझ से नहीं।

९. बख़ील (कंजूस) लोगों की हमनशीनी (संगत) मत इख़्तेयार (ग्रहण) करो क्योंकि जब तुम उनके मोहताज होगे (तो) वह तुम से दूर भागेगा।

१०. जो तकब्बुर (घमण्ड) करेगा वह बेतुका फ़ख़्र करेगा उसे ज़िल्लत के सिवा कुछ और हासिल न होगा।

११. अपने राज़ को सिर्फ़ क़ाबिले ऐतमाद (भरोसेमन्द) लोगों से बताओ।

१२. इल्म से बेहतर कोई ख़ज़ाना नहीं और बुर्दबारी से बेहतर कोई इज़्ज़त नहीं।

१३. अपने दोस्तों और दुश्मनों सबके मामेलात में इन्साफ़ (न्याय) का ख़्याल ज़रूर रखना।

१४. नेक काम अन्जाम दो ताकि क़यामत के दिन नेक जज़ा (इनाम) मिले ।

१५. दुनिया की गुज़रगाह से अपने दाएमी घर (आख़ेरत)के लिए तोशा (सामग्री) लेते चलो ।

१६. किसी भी काम के लिए अव्वले वक़्त नमाज़ तर्क ना करो।

१७. जो अक़्लमन्दों से मश्विरा (परामर्श) करता है गुमराह (ईश्वरीय मार्ग से भटकना) नहीं होता।

१८. ख़ुदावन्दे आलम (ईश्वर) नें गुनाहों (पापों) और बुराईयों पर क़ुफ़्ल (तालें) लगा दिये हैं और उनकी कुँजी शराब और झूट उससे भी बदतर है ।

१९. ख़ानदान वालों से राब्ता (सम्बन्ध) हमेशा (सदैव) ताज़ा रख़ो अगरचे सिर्फ़ सलाम ही से हो ।

२०. माँ बाप को नाराज़ करने से उम्र (आयु) कोताह (कम) हो जाती है ।

२१. कभी अपने दीनी भाई से जेदाल (लड़ाई) या (हद से ज़्यादा) मेज़ाह (मज़ाक़) न करो और उनसे झूठे वादे मत करो ।

२२. नियाज़ मन्दी और हाजत (ऐसी बला है कि) होशियार से होशियार आदमी को भी दलील व बुर्हान (सुबूत) से रोक देती है ।

२३. अमानत (धरोहर) को अपने मालिक की तरफ़ वापिस करो चाहे वो नेक हो या बद ।

२४. हमेंशा अपनी ज़बान और अपनें हाथों से अम्र बिल मारूफ़ (अच्छाई का आदेश) व नहीं अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना) करते रहो और अपने छोटे से छोटे गुनाह (पाप) कम ना समझो ।

२५. आज जबकि तुम्हारा क़द व क़ामत सलामत ,ख़ून गर्म और दिल बेदार हे तो आने वाली सख़्तियों के लिए ख़ूब फ़िक्र (सोच विचार) कर लो ।

२६. अच्छे अख़्लाक़ वाला इन्सान वह है जिससे किसी का दिल न दुखा हो ।

२७. हर शख़्स का दोस्त उसका इल्म (ज्ञान) है दुश्मन उसकी जेहालत (अज्ञानता) ।

२८. मुझे वह दस्तरख़्वान पसन्द नहीं जिस पर सब्ज़ी न हो ।

२९. जो ज़ुबान से अस्तग़फ़ार (प्रायश्चित) करे और दिल से अपने गुनाहों से पशेमान (शर्मिन्दगी) न हो वह गोया अपने साथ मज़ाक़ कर रहा है ।

३०. ज़रुरी है कि तुम हमेशा मोहज़्जब (सभ्य) लोगों से इरतेबात (सम्बन्ध) रखो ।

३१. ज़माना तुम्हारी ज़िन्दगी की डायरी है इसलिए इसमें नेक आमाल (अच्छे कार्य) दर्ज करो (लिखो)।

३२. आलिम (ज्ञानी) मरने के बाद (म्रत्यु पश्चात) भी ज़िन्दा (जिवित) रहता है जाहिल (अज्ञानी) ज़िन्दगी ही में मुर्दा है।

३३. बुरे कामों से बचना नेक कामों की अन्जाम देही (के करने) से बेहतर है।

३४. जब तक भूक न हो दस्तरख़ान पर मत बैठो और शिकम (पेट) सेर होने (भरने) से पहले दस्तरख़ान छोड़ दो।

३५. बीमारों को जब उनका दिल माएल (मन न चाहे) न हो ज़बर्दस्ती ग़िज़ा (खाना) मत दो।

३६. मसर्रत (ख़ुशी) व शादमानी तीन चीज़ों से हासिल होती है , 1.मुवाफ़िक़ शरीके हयात (अपने मिजाज़ की पत्नि) , 2.नेक औलाद , 3.अच्छे दोस्त।

३७. आरज़ू (इच्छा) ख़त्म होने वाली चीज़ नहीं और मौत को भी भुलाये रखती है।

३८. सूद बदतरीन महसूल (जो प्राप्त हुआ हो) है और माले यतीम (जिसके पिता न हों) खाना बदतरीन ग़िज़ा है।

३९. ख़ुदावन्दे आलम सख़ी (बाँटने वाला) है और सख़ी (ईशवरीय इच्छा हेतु बाँटना) को पसन्द करता है।

४०. वाजेबात (जो कार्य ईशवर हेतु अवश्य करना होता है) के बाद ख़ुदावन्दे आलम के नज़दीक़ बेहतरीन काम लोगों को मसर्रत (ख़ुश करना) पहुँचाना है।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 203 हिजरी क़मरी मे सफर मास की अन्तिम तिथि को हुई। जिस दिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम शहीद होने वाले थे उस दिन उन्होंने सुबह की नमाज़ नए वस्त्र पहन कर पढ़ी और उसी स्थान पर बैठे रहे मानो उन्हे किसी अप्रिय घटना के होने का आभास हो गया था। उस दिन उनका चेहरा हर दिन से अधिक दमक रहा था। उनकी आंखे ईश्वर के प्रति अथाह श्रृद्धा का पता दे रही थीं कि अचानक मामून का संदेशवाहक घर के द्वार पर पहुंचा और उसने कहा कि मामून ख़लीफ़ा ने अबुल हसन को बुलाया है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसके साथ चल पड़े। मामून इमाम के स्वागत के लिए निकला और इमाम को अपने विशेष स्थान की ओर ले गया और दोनों लोग आमने सामने बैठ गए किन्तु मामून की आंखें कुछ और ही कह रहीं थीं। उसकी दुस्साहस भरी दृष्टि इस बात का पता दे रही थी कि वह इस समय क्या करना चाह रहा है। मामून जानता था कि उसके समस्त हत्कण्डे, इमाम के प्रति लोगों की श्रृद्धा को न कम कर सके और न ही उसकी सरकार के लिए लाभदायक सिद्ध हुए। वह इस बात से भलिभांति अवगत था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, अत्याचार और आत्महित को स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक सूर्य की भांति इमाम का अस्तित्व अपनी ज्योति बिखेरता रहेगा उस समय तक ख़लीफ़ा के रूप में लोगों के निकट उसका कोई महत्व नहीं होगा। अपने आपसे कहने लगा, सबसे अच्छा समाधान यह है कि अबल हसन को अपने मार्ग से हटा दें। मामून बिना कुछ कहे आगे बढ़ा और एक बड़े से बर्तन से उसने अंगूर का एक गुच्छा उठाया और उसमें से अंगूर का कुछ दाना खाया और फिर आगे बढ़कर उसने इमाम के माथे को चूमा और अंगूर का एक गुच्छा इमाम की ओर बढ़ाते हुए बोला हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र इनसे अच्छे अंगूर मैंने आज तक नहीं देखे। इमाम ने अपनी बोलती हुई आंखों स उत्तर दिया कि स्वर्ग का अंगूर इससे भी अच्छा है। मामून ने फिर कहा अंगूर खाइये।

इमाम ने मना कर दिया, लेकिन मामून ने अत्यधिक आग्रह करते हुए विषाक्त अंगूर इमाम को दिए। इमाम रज़ा के चेहरे पर कड़वी मुस्कुराहट की एक झलक उभरी। अचानक उनके चेहरे का रंग बदलने लगा और उनकी स्थिति बिगड़ने लगी। इमाम, गुच्छे को ज़मीन पर फेंक कर उसी पीड़ा के साथ चल पड़े। इमाम रज़ा के एक अच्छे साथी अबा सल्त ने जब इमाम को देखा तो उनके साथ हो लिए। वह इस महान हस्ती के प्रकाशमयी अस्तित्व से लाभ उठा रहे थे। वह इस बात पर प्रसन्न थे कि इस समय वह पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती के साथ चल रहे हैं। उनकी दृष्टि में इमाम, आतुर हृदय को प्रकाश तथा उन्हें जीवन प्रदान करने वाला है। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का वह कथन याद आ गया जिसमें इमाम ने कहा थाः इमाम धरती पर ईश्वर के अमानतदार उत्तराधिकारी हैं तथा उसके बंदों पर इमाम उसकी हुज्जत व प्रमाण होते हैं। ईश्वर के मार्ग पर चलने का निमंत्रण देने वाले और उसकी ओर से निर्धारित सीमा के रक्षक हैं। वह पापों से दूर और उनका व्यक्तिव दोष रहित है। वह ज्ञान से संपन्न तथा सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। इमाम के अस्तित्व से धर्म में स्थिरता और मुसलमानों का गौरव व सम्मान है। अबा सल्त इसी विचार में लीन थे कि अचानक उनकी दृष्टि इमाम पर पड़ी, समझ गए कि मामून ने अपना अंतिम हत्कण्डा अपनाया। आह भरी और फूट फूट कर रोने लगे लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था अधिक समय नही बीता कि इमाम शहीद हो गए। वह काला दिवस सफ़र महीने का अंतिम दिन वर्ष 203 हिजरी क़मरी था।

उच्च नैतिक मूल्य, व्यापक ज्ञान, ईश्वर पर अथाह व अटूट विश्वास तथा लोगों के साथ सहानुभूति वे विशेषताएं थीं जो इमाम को दूसरों से विशिष्ट करती थीं। वह आध्यात्मिक तथा उपासना सम्बन्धी मामलों पर विशेष ध्यान देते थे। मुसलमानों के मामलों की निरंतर देख रेख करते तथा लोगों की समस्याओं के निदान के लिए बहुत प्रयास करते थे। रोगियों से कुशल क्षेम पूछने तुरंत पहुंचते और बड़ी विनम्रता से आतिथ्य सत्कार करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ज्ञान के अथाह सागर थे। इस्लामी जगत के दूर दूर से विद्वान व बुद्धिजीवी इमाम के पास पहुंच कर अपने ज्ञान की प्यास बुझाते थे। इमाम रज़ा ने अपनी इमामत के काल में बहुत से बुद्धिजीवियों के प्रशिक्षित किया और आज भी क़ुरआन की व्याख्या, हदीस, शिष्टाचार तथा इस्लामी चिकित्सा पद्धति पर इमाम की महत्वपूर्ण रचनाएं मौजूद हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लोगों के सामने इस्लाम की मूल्यवान शिक्षा की व्याख्या करते किन्तु उनके व्यक्तिव का दूसरा आयाम उनका राजनैतिक संघर्ष था।

प्रथम हिजरी शताब्दी के दूसरे अर्ध में इस्लामी शासन ने राजशाही व्यवस्था तथा कुलीन वर्ग का रूप धारण कर लिया और अत्याचारी शासक सत्तासीन हो गए। इमामों ने जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से हैं, उसी समय से शासकों के भ्रष्टाचार के विरद्ध अपना संघर्ष आरंभ कर दिया था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने भी अपने काल में अत्याचार से संघर्ष किया। इसके साथ ही उनके काल की परिस्थितियां कुछ सीमा तक भिन्न थीं। इमाम को एक बड़े एतिहासिक अनुभव तथा एक गुप्त राजनैतिक द्वद्वं का सामना था जिसमें सफलता या विफलता दोनों ही मुसलमानों के भविष्य के लिए निर्णायक थी। इस खींचतान में अब्बासी शासक मामून षड्यंत्र रच मैदान में आ गया। वह एक दिन इमाम रज़ा के निकट आया और उसने इमाम से कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र मैं आपके ज्ञान, नैतिक गुण और सच्चरित्रता से भलिभांति अवगत हूं और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आप इस्लामी नेतृत्व के लिए मुझसे अधिक योग्य हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ईश्वर की अराधना मेरे लिए गौरव की बात है, ईश्वर के प्रति भय द्वारा ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा मोक्ष की आशा करता हूं तथा संसार में विनम्रता द्वारा ईश्वर के निकट उच्च स्थान की प्राप्ति चाहता हूं।

मामून ने कहाः मैंने सत्ता को छोड़ने और इसे आपके हवाले करने का निर्णय किया है।

इमाम रज़ा ने उसके उत्तर में कहाः अगर इस पर तेरा अधिकार है तो वह वस्त्र जिसे ईश्वर ने तुझे पहनाया है उसे उतार कर, तू दूसरे के हवाले करे यह तेरे लिए उचित नहीं है। लेकिन अगर यह ख़िलाफ़त अर्थात इस्लामी सरकार की बागडोर संभालना तेरा अधिकार नहीं है तो तुझे उस चीज़ के बारे में निर्णय करने का अधिकार नहीं है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। तू बेहतर जानता है कि कौन अधिक योग्य है। इमाम का यह दो टूक जवाब मामून के लिए कठोर था किन्तु उसने अपने क्रोध को छिपाने का प्रयास करते हुए कहाः तो फिर हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आपको उत्तराधिकारी अवश्य बनना पड़ेगा।

इमाम रज़ा ने उत्तर दियाः मैं इसे स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करूंगा।

मामून ने कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आप उत्तराधिकारी बनने से इसलिए बचना चाह रहे हैं ताकि लोग आपके बारे में यह कहें कि आप को संसारिक मोह नहीं है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उत्तर दियाः मैं जानता हूं कि तुम्हारे यह कहने के पीछे यह उद्देश्य है कि लोग यह कहने लगें कि अलि बिन मूसर्रिज़ा संसारिक मोह माया से बचे नहीं और ख़िलाफ़त की लालच में उन्होंने अत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया।

अंततः मामून ने इमाम रज़ा को उत्तराधिकारी बनने के लिए विवश कर दिया किन्तु इमाम ने यह शर्त रखी कि वह सरकारी मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस प्रकार इमाम रज़ा ने अपनी सूझ बूझ से लोगों को यह समझा दिया कि मामून की राजनैतिक कार्यवाहियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और सरकारी मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। इसके साथ ही इमाम की नई स्थिति से उनके सम्मान में और वृद्धि हो गई। इमाम रज़ा ने खुले राजनैतिक वातावरण में इतनी समझदारी से कार्य किया कि उनके उत्तराधिकार का काल शीया इतिहास के स्वर्णिम युगों का एक भाग बन गया तथा मुसलमानों की संघर्ष प्रक्रिया के लिए नया अवसर उपलब्ध हो गया। बहुत से लोग जिन्होंने केवल इमाम रज़ा का केवल नाम सुन रखा था उन्हें समाज के योग्य मार्गदर्शक के रूप में पहचानने तथा उनका सम्मान करने लगे कि जो ज्ञान, नैतिक गुणों, लोगों से सहानुभूति रखने तथा पैग़म्बर से निकट होने की दृष्टि से सबसे योग्य व श्रेष्ठ हैं।

अंततः मामून को यह ज्ञात हो गया कि जिस तीर से उसने इमाम की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने का लक्ष्य साधा था वह उसी की ओर पलट आया है इसलिए उसने भी वही शैली अपनाई जो उसके पूर्वज अपना चुके थे। उसने भी अपने काल के इमाम को विष देकर शहीद कर दिया।

 

समाधि

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मशहद मे है। जहाँ पर हर समय लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन व सलाम हेतू एकत्रित रहते हैं। यह शहर वर्तमान समय मे ईरान मे स्थित है।

 

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व अलक़ाब (उपाधियां)

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का नाम मुहम्मद व आपकी मुख्य उपाधियाँ तक़ी व जवाद है।

 

जन्म व जन्म स्थान

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 195 हिजरी क़मरी मे रजब मास की दसवी (10) तिथि को हुआ था।

 

माता पिता

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत सबीका थीं। जिनको ख़ीज़रान भी कहा जाता है।

 

इमामत

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम अपने पिता इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के शहीद हो जाने के बाद बहुत कम आयु में ही इस्लामी जगत के आध्यात्मिक नेता और मार्गदर्शक बन गए। उस समय इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की आयु मात्रा 17 साल थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन इस्लामी ज्ञान और शिक्षाओं को सही रूप में प्रचारित करने में लगा दिया। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने यह बताया कि लोगों से मिलने जुलने और बात करने लिए क्या शैली अपनाई जाए।

 

इमाम तक़ी अ.स. का एक मुनाज़ेरा

इमाम रज़ा अ.स. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी तरह से इमाम तक़ी अ.स. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी  से करना चाहा, इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने गले और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा अ.स. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें। मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते हो? उन लोगों ने कहा ये लड़का नौजवान है और न ही इसके पास कोई इल्मो हिक्मत है तो मामून ने जवाब मे कहा तुम इस ख़ानदान को नहीं पहचानते अगर तुम चाहो तो आज़मा कर देख लो और किसी आलिम को बुला लाओ और इन से बहस करा लो ताकि मेरी बात की सच्चाई रौशन हो जाये।

अब्बासी लोगों ने यह्या बिन अक़सम नामक व्यक्ति को उसके इल्म की शोहरत की वजह से इमाम तक़ी अ.स. से मुनाज़रे के लिये चुना।

मामून ने एक जल्सा रखा कि जिस में इमाम तक़ी अ.स. के इल्म और समझ को तौला जा सकता है। जब सब लोग हाज़िर हो गये तो यह्या ने मामून से पूछाः

क्या आपकी इजाज़त है कि मैं इस लड़के से सवाल करूं?

मामून ने कहा ख़ुद इन से इजाज़त लो, यह्या ने इमाम से इजाज़त ली तो इमाम ने फ़रमायाः जो कुछ भी पूछना चाहता है पूछ ले।

यह्या ने कहाः उस शख़्स के बारे में आप की क्या नज़र है कि जिसने अहराम की हालत में शिकार किया हो?

इमाम  ने फ़रमायाः इस शख़्स ने शिकार को हिल मे मारा है या हरम में?

वो शख़्स अहराम की हालत में शिकार करने की मनाही को जानता था या नहीं जानता था??

उसने जानवर को जान के मारा है या ग़लती से??

ख़ुद वो शख़्स आज़ाद था या ग़ुलाम?

वह शख़्स छोटा था या बड़ा?

पहली बार यह काम किया था या पहले भी कर चुका था?

शिकार परिन्दा था या ज़मीनी जानवर?

छोटा जानवर था या बड़ा?

फिर से इस काम को करना चाहता है या अपनी ग़लती पर शरमिंदा है?

शिकार दिन में किया था या रात में?

अहराम उमरे का था या हज का?

यह्या बिन अक़सम अपने सवाल के अंदर होने वाले इतने सारे सवालों को सुन कर सकते में आ गया, उसकी कम इल्मी और कम हैसियती उसके चेहरे से दिखाई दे रही थी उसकी ज़बान ने काम करना बंद कर दिया था और तमाम मौजूदा लोगों ने उसकी हार को मान लिया था।

मामून ने कहा कि ख़ुदा का शुक्र कि जो मैं ने सोचा था वही हुआ है ओर फिर अपने रिश्तेदारों और ख़ानदान वालों से कहाः क्या अब उस बात को जान गये हो कि जिसे नहीं मान रहे थे?

कुछ देर बाद जलसा ख़त्म हो गया और सिवाये ख़लीफ़ा के ख़ास लोगों के सब लोग चले गये मामून ने इमाम तक़ी अ.स. की तरफ मुंह किया और इमाम के बयान किये हुवे हर एक मसले का जवाब इमाम से मालूम किया।

 

हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के कथन

१. आपस में इत्तेहाद (मेल जोल) क़ायम करने के लिये झूठ भी नापसन्दीदा नहीं है।

२. ख़ुशकिस्मत वह है जो बुज़ुर्गों (अपने से बढ़ों) और नेक लोगों से मेल मिलाप रखे।

३. क्या कहना उस शख़्स का जो लोगों से ख़ुश अख़लाक़ी बर्ते और बुरे वक़्तो में काम आए।

४. वायदे का वफ़ा करना (पूरा करना) और मुआहदे (समझौते) का एहतेराम (सम्मान) करना ईमान का जुज़ (टुकड़ा) है।

५. अगर किसी को कोई चीज़ नहीं मालूम तो मालूम करने में शर्म महसूस न करे क्योंकि हर इन्सान की क़ीमत उसकी मालूमात (ज्ञान) पर है।

६. जो शख़्स इस हाल में सुबह करे कि किसी पर ज़ुल्म का ख़्याल भी दिल में न लाये ख़ुदा उसके गुनाहों को दरगुज़र करेगा।

७. कभी भी ओमूरे ख़ैर (अच्छे कार्य) को मिन्नत (अहसान) जता कर ज़ाया मत करो।

८. अपनी ज़िन्दगी के दौरान हमेशा ओमूरे ख़ैर में मशग़ूल (वयस्त) रहो और दरियाए रहमते ख़ुदा से सेराब होते रहो।

९. पस्त अफ़राद के पास सिवाये यावा सराई (अपनी बड़ाई करना) और नासज़ा कल्मात (बुरे शब्द) के कोइ और हर्बा नहीं है।

१०. आज़ाद वह है जो अपने को ख़्वाहिशाते नफ़्स (आत्मइच्छाओं) से आज़ाद रखे।

११. अपने दुश्मनों से अच्छे अख़लाक़ (शिष्टाचार) का बर्ताव (व्यवहार) करो जल्दी कामयाब (सफ़ल 0होगे।

१२. जो कोई अपने भाई के लिये कुआँ खोदेगा ख़ुद उसका शिकार होता है।

१३. ग़ौर व फ़िक्र (सोच विचार) नूरानियत का बायस (कारण) और ग़फ़लत व बेख़बरी तारीकी लाती है।

१४. सबसे ख़तरनांक मर्ज़ हवा व हवस (इच्छापूर्ति) की पैरवी है।

१५. नेकी (अच्छाई) करो ताकि दूसरे तुमसे नेकी करें दूसरों पर रहम करो ताकि तुम पर रहम किया जाये।

१६. अल्लाह की राह (राह) में काम करते वक़्त (समय) लोगों की सरज़निश (ऐतेराज़) की परवाह मत करो।

१७. जो शख़्स (मनुष्य) दूसरों के ओयूब (ऐब का बहु) पर से परदा उठायेगा नागाह (अचानक) ख़ुद उसके ओयूब बे परदा हो जायेगें।

१८. तहसीले इल्म (ज्ञान प्राप्ती) में अगर कोई लुक़्मा ए अजल (मर जाये) हो जाये तो गोया वह शहीद है।

१९. मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाना) करो इससे दिल के कीने (द्वेष ,वह शत्रुता जो मन में रहे) दूर हो जाते हैं।

२०. इल्म (ज्ञान) बेहतरीन मीरास (नानकार) है और अख़लाक़ (शिष्टाचार) बेहतरीन ज़ेवर है।

२१. नेक अख़लाक़ (सुशीलता) अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) की हमनशीनी (संगत) से हासिल होता है।

२२. बुरी आदतें जाहिलों (अज्ञानियों) की हमनशीनी (संगत) की देन है।

२३. सितमगर के लिये हिसाब का दिन (महाप्रलय) ज़्यादा सख़्त (कठोर) होता है मुक़ाबले में मज़लूम (जिसके साथ अन्याय किया गया हो) पर सितम करने के दिन से।

२४. जो अपनी ख़्वाहेशात (इच्छाओं) का ग़ुलाम हुआ गोया उसने अपने दुश्मन की ख़्वाहेशात (इच्छाओं) को पूरा कर दिया।

२५. जिस शख़्स में जितना अदब होगा ख़ुदावन्दे आलम के नज़दीक़ वह उतना ही मोहतरम होगा।

२६. जिस दस्तरख़ान पर शराब हो उस पर खाना खाना हराम है।

२७. पाकदामनी हवस को कम करती है और सदाक़त रहमते ख़ुदावन्दी का बायस (कारण) होते हैं।

२८. दूसरों की लग़्ज़िशों (त्रुटियों) से चश्मपोशी (अनदेखी) करना बेहतरीन नेकी है और उससे तुम्हारे बुज़र्गी (बड़ापन) भी ज़ाहिर होती है।

२९. ईमान वाला हमेशा कीना (द्वेष) और शक़ावत (ज़ुल्म) से दूर रहता है।

३०. ख़ुद पसन्दी (ख़ुद को अच्छा समझना) हिमाक़त (बेवक़ूफ़ी) व नादानी की अलामत है।

३१. यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी (दायित्व) है के हमेशा हक़ गो (सही बात कहो) रहो अहद व पैमान को पूरा करो अमानत (धरोहर) को अदा करो ख़्यानत (दूसरें के धरोहर के प्रति बेईमानी का विचार) तर्क (छोड़ दो) करो।

३२. हरगिज़ लोगों की ख़ुशनूदी के लिये अल्लाह को ग़ज़बनांक न करना और लोगों से क़ुरबत (क़रीबी) के लिये अल्लाह से दूर मत होना।

३३. एक दूसरे को तोहफ़ा (उपहार) देकर मोहब्बत बढ़ाओ और जो तुम्हें तोहफ़ा (उपहार) दे तुम भी उसे हदिया दो।

३४. कितना बद बख़्त है वह इन्सान जो दुनिया में फ़क़ीर रहे और आख़ेरत (परलोक) में अज़ाबे इलाही (ईश्वरीय प्रकोप) में गिरफ़्तार रहे।

३५. सबसे बड़ा ज़ुल्म व सितम वह है जो इन्सान अपने आइज़्ज़ा (रिश्तेदारों) पर करे।

३६. जब मुस्तहब (जिसके करने में सवाब हो) काम वाजिब ओमूर (जिनके न करने में अज़ाब हो) में रूकावट (बाधा) का बायस (कारण) हों तो उन्हें तर्क (छोड़) कर दो।

३७. सहर (प्रातः) के वक़्त सफ़र शुरू करो बहुत फ़वायद (फ़ायदे का बहु) हासिल होते हैं।

३८. मुश्किलात पर सब्र (सहनशीलता) के ज़रिये क़ाबू हासिल करो क्योंकि बेताबी से अज्र (इनाम) भी ज़ाया (चला जाता) होता है और मुसीबत भी बढ़ जाती है।

३९. जो शख़्स ऐसा काम करे जिससे ज़न व शौहर (मियाँ बीवी) में जुदाई हो जाये उस पर दुनिया व आख़ेरत (परलोक) में ग़ज़बे ख़ुदावन्द (इश्वरीय प्रकोप) रहेगा।

४०. अल्लाह से नज़दीक होने की अलामत है के हमेशा उससे मागें और लोगों से नज़दीक होने के लिये ज़रूरी है के उनसे मागें।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 220 हिजरी क़मरी मे ज़ीक़ादाह मास की अन्तिम तिथि को हुई। आपको अब्बासी शासक मोतासिम के आदेश पर आपकी पत्नि उम्मे फ़ज़्ल ने विष दिया। उम्मे फ़ज़्ल अब्बासी शासक मोतासिम के भाई मामून की पुत्री थी।

 

समाधि

इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप काज़मैन नामक स्थान पर है। जहाँ पर हर समय हज़ारों श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन हेतू उपस्थित रहते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधियाँ हादी व नक़ी हैं।

 

माता पिता

आपके पिता हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत समाना थीं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 212 हिजरी क़मरी मे ज़िल- हिज्जाह मास की (15) वी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

इमामत

जब वर्ष २२० में उनके पिता इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की शहादत हुई तो इमामत अर्थात ईश्वरीय मार्गदर्शन जैसे महान कार्य का दायित्व उनके कांधों पर आ गया।

 

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के कथन

१. ख़ुदपसन्दी इन्सान की बदबख़्ती और हलाकत का सबब है।

२. जो शख़्स नेमाते इलाही (ईश्वरीय ईनाम) का शुक्रगुज़ार करता है उस पर नेमाते इलाही का इज़ाफ़ होता (बढ़ जाता) है।

३. मैं तुम लोगों को वसियत करता हूँ के हमेशा रास्त गो रहना अहद को वफ़ा करना अमानत (धरोहर) को अदा करना और यतीमों ( जिसका पिता न हो) की सरपरस्ती करना।

४. नेक काम मर्गे मफ़ाजात से बचाते हैं।

५. दूसरो के अमवाल (माल का बहु वचन) में लालच न करो ताकि लोग तुम्हें पसन्द करें।

६. नादानी से ज़्यादा कोई फ़ख़्र नहीं और अक़्ल (बुध्दि) से ज़्यादा फ़ायदा रसाँ (लाभ पहुँचाने वाला) कोई माल नहीं।

७. अल्लाह से डरो ताकि दूसरों से भी अमान (सुरक्षा) में रहो।

८. तीन चीज़ें मोहब्बत पैदा करती हैं- 1.मुआशेरत (समाज) में इन्साफ़ , 2.सख़्तियों में हमदर्दी और 3.खुले दिल से लोगों से मोहब्बत ।

९. ख़्वाहिशे नफ़्स (आत्म इच्छा) पर क़ाबू पा लेना दीनदारी की अलामत (चिन्ह) है।

१०. दो रूई (दोहरी बातें) और चुग़लख़ोरी से परहेज़ करो क्योंकि उसी से लोगों के दिलों में किना (द्वेष) पैदा होता है और तुम्हारी शख़्सियत (व्यक्तित्व) घटती जाती है।

११. कभी भी अपने बरादरे दीनि से इन्तेक़ाम (बदला) लेने की कोशिश (प्रयास) न करो अगरचे उसने बदी की हो।

१२. जो शख़्स (मनुष्य) सिर्फ़ अपनी अक़्ल पर भरोसा करे और मशविरा (परामर्श) न करे उससे लग़्ज़िश (त्रुटि) हो सकती है।

१३. जो सच्चा मुसलमान हो परहेज़गार (बुराई से बचने वाला) रहेगा।

१४. ख़ुदा की रहमत है उस पर जिसे जब नेक काम की दावत दी जाये तो क़बूल (स्वीकार) कर ले।

१५. जब तुम से कोई मशविरा (राय) करे तो उसे सही रहनुमाई (उचित मार्गदर्शन) करो।

१६. बेहतरीन सदक़ा यह है कि जो दोस्त जुदाई (प्रथकता) का शिकार हो गये हैं उनमें इस्लाह (शुध्दि) कर दो।

१७. अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) से रहनुमाई हासिल करो और उनके मशविरे से सरताबी न करो वरना पशेमान होना पड़ेगा।

१८. लोगों से इज़्हारे मोहब्बत (प्रेम प्रकट) करो ताकि तुमको भी दोस्त रखें।

१९. क्या कहना उस शख़्स का जो अक़्लमन्दों और दानिशमन्दों (बुध्दिमानों) का हमनशीं (साथी) है।

२०. जो ज़माने से तजुर्बा हासिल करता है वह दुनिया वालों के फ़रेब (धोके) में नहीं आता।

२१. ख़ुशख़ल्की (अच्छा तरीक़ा) और कुशादा रूई (सत्य व्यवहार) दोस्ती का बायस (कारण) और मोहब्बत हासिल करने का ज़रिया है।

२२. जो चीज़ें यहाँ हलाल ज़रिये से हासिल की गईं उसका भी वहाँ हिसाब होगा।

२३. हर चीज़ का एक सुतून (खम्भा) होता है दीन का सुतून इल्म व दानिश (बुध्दि) है।

२४. जो शख़्स ख़ुदपसन्दी और ख़ुदखाँ (अपनी प्रशंसा चाहने वाला) होता है उस पर ग़ुस्सा करने वाले भी ज़्यादा होगें।

२५. छुप कर गुनाह करने से डरो क्योंकि उस वक़्त का देखने वाला ही फ़ैसला करने वाला है।

२६. दूर अन्देश वह है जो फ़ुज़ूल ख़र्ची से बचे और इसराफ़ (दुरूपयोग) से दूर रहे।

२७. जिसके पास अमानत हो वह उसके मालिक तक पहुँचायें।

२८. इलाही नेमात पर ग़ौर करना एक अच्छी इबादत है।

२९. सख़ावत मोहब्बत पैदा करती है और अख़लाक (शिष्टाचार) इन्सान को भी आरास्ता करती है।

३०. कीना परवरी (मन में शत्रुता) पस्ती की अलामत है और इन्सान की अज़मत (बड़ापन) कम करती है।

३१. औलाद जब अपने माँ बाप को मोहब्बत की नज़रों से देखे तो यह इबादत है।

३२. इज़्ज़त के बाद ज़िल्लत उतनी सख़्त है जितना इक़्तेदार मसर्रत आवर।

३३. गुनाहगारों (पापियों) के लिये तौबा (प्रायश्चित) कर लो।

३४. जिसकी निगाहें दूसरे के माल की तरफ़ होती हैं उसका ग़म ज़्यादा और अफ़सोस फ़रावां रहता है।

३५. जब दो मुसलमान आपस में मुलाक़ात करके मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाना) करते हैं तो उनके गुनाह ख़ुश्क पत्तों की तरह गिरते है।

३६. हमेशा दूसरोंक की कामयाबी (सफ़लता) और आक़बत ब-ख़ैर होने की दुआ करो ताकि वह चीज़ें तुम अपने में पाओ।

३७. मेज़ाह (मज़ाक़) वेक़ार (सम्मान) व हैयबत को कम कर देता है जबकि सुकूत (ख़ामोशी) वेक़ार (सम्मान) में इज़ाफ़े (बढ़ाने) का बायस (कारण) है।

३८. जवानों में से जो क़ुदरत रखता हो अज़्दवाज (विवाह) करे क्योंकि अज़्दवाज पाकदामनी का मोजिब (कारण) है।

३९. मालियात (माल का बहु वचन) के ज़मन में हमेशा अपने से नीचे लोगों से मवाज़ना (मुक़ाबला) करो न के बलन्द लोगों से।

४०. आख़ेरत (परलोक) का महसूल अमले सालेह (अच्छा कार्य) हैं और दुनिया का महसूल माल व औलाद।

 

शहादत (स्वर्गवास)

तत्कालीन अब्बासी शासक मोतज़ के आदेश पर एक षडयंत्र के अन्तर्गत ३ रजब २५४ हिजरी क़मरी को इमाम को शहीद कर दिया गया। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत के समाचार ने अत्याचारग्रस्त जनता को बहुत दुखी किया।

उनकी शहादत का समाचार मिलते ही बड़ी संख्या में लोग उनके घर पर एकत्रित हुए और पूरा नगर उनकी शहादत के शोक में डूब गया।

 

समाधि

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप सामर्रा नामक स्थान पर है। जहाँ लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आपको सलाम करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

 

नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम का नाम हसन व आपकी मुख्य उपाधि अस्करी है।

 

जन्म व जन्म स्थान

हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 232 हिजरी क़मरी मे रबि उल आखिर मास की आठवी (8) तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

माता पिता

हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत सलील थी। जिनका नाम कुछ इतिहास कारों ने सोसन व हुदैस भी लिखा है।

 

इमामत

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम 22 साल के थे कि उनके पिता हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम शहीद हुए अतः मुसलमानों के मार्गदर्शन का दायित्व इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम से इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को मिला और उन्होंने ईश्वर के आदेश के अनुसार मानव समाज का सत्य व न्याय के प्रकाशमय मार्ग की ओर नेतृत्व आरंभ कर दिया। यह कालखंड छह साल का रहा। इस अवधि में इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को अत्यधिक रुकावटों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तथा अब्बासी शासकों ने जहां तक उनके बस में था इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम पर अत्याचार किए। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की इमाम या आध्यात्मिक नेतृत्व का समय उनके सुपुत्र के शुभजन्म की भविष्यवाणी के कारण और भी कठिन हो गया था क्योंकि इस नवजात के बारे में भविष्यवाणी कर दी गई थी कि वह संसार से अत्याचार का अंत कर देगा तथा पूरे संसार में न्याय की स्थापना करेगा। इस भविष्यवाणी से अब्बासी शासक बहुत भयभीत थे क्योंकि उन्हें स्वयं भी भलीभांति जानते थे कि वे अत्याचारी शासक हैं। अब्बासी सरकार ने अपने कारिंदों की संख्या बढ़ा दी जो दिन रात चकराते रहते थे और यह प्रयास करते थे कि कोई बच्चा पैदा ही न हो सके और यदि पैदा हो तो तत्काल उसकी हत्या कर दी जाए। इस कड़ी निगरानी के बावजूद हज़रत इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम ईश्वर की कृपा से जन्मे और अपने पिता की शहादत के बाद लोगों की आंखों से ओझल हो गए और आज तक वे आंखों से ओझल हैं। भविष्य में उस समय जिसका ज्ञान केवल ईश्वर को है, वे पुनः प्रकट होंगे और संसार में नास्तिकता तथा अत्याचार का विनाश कर देंगे।

 

इमाम हसन असकरी अ.स. की नसीहते

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने अपने एक शिष्य अबुल हसन अली बिन हुसैन क़ुम्मी को जो अपने समय के विख्यात धर्मगुरू थे जो पत्र लिखा उसमें इस्लामी नियमों के अनुरूप प्रशिक्षित व्यक्तित्व का चित्रण किया है और अपने अनुयायियों से कहा है कि वे इस प्रकार का व्यक्तित्व बनाएं। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने लिखा कि हे महान धर्मगुरू और मेरे विश्वसनीय, ईश्वर तुम्हें सुकर्म करने में सफल बनाए। मैं तुम्हें ईश्वरीय भय की अनुसंशा करता हूं, नमाज़ को आम करने और ज़कात अदा करने की सिफ़ारिश करता हूं। दूसरों के साथ क्षमाशीलता बरतने, क्रोध पर नियंत्रण रखने, और रिश्तेदारों का ध्यान रखने की सिफारिश करता हूं। अपने भाइयों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए मेहनत करो, क़ुरआन से प्रतिबद्ध हो जाओ, अच्छे कामों का आदेश दो और बुरे कामों से रोको।

 

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के कथन

१. मुसलमान वह शख़्स है जिसकी ज़बान और जिसके हाथों से मुसलमान महफ़ूज़ (सुरक्षित) रहें।

२. हर रंज व ग़म और ख़ुशी व मसर्रत की इन्तेहा (हद) है सिवाय जहन्नमियों के रंज व ग़म की जिसकी कोई इन्तेहा (हद) नहीं।

३. जब किसी काम का इरादा करो उसके नताएज (नतीजे का बहु वचन) को सोच लो अगर अच्छा है तो इक़दाम (क़दम बढ़ाओ) करो वरना इज्तेनाब (बचो) करो।

४. मुसलमान वह है जिससे लोगों की जान व माल महफ़ूज़ रहे।

५. सबसे होशियार वह शख़्स है जो अल्लाह से ज़्यादा डरे और उसकी इताअत (आदेशानुपालन) ज़्यादा करे।

६. जो दूसरों की ख़ताओं (त्रुटियों) से दरगुज़र करता है अल्लाह उसके गुनाहों से दरगुज़र करेगा।

७. जो शख़्स ईमान के मज़े को चखना चाहता है वह लोगों से सिर्फ़ अल्लाह के लिये मोहब्बत (प्रेम) करे।

८. किसी मुसलमान के लिये यह रवा नहीं के वह अपने बरादरे इमानी से 3दिन से ज़्यादा (ग़ुस्से की वजह से) मेल मिलाप न रखे।

९. सबसे अहम ज़ख़ीरा मुसीबत से दिनों में सब्र (सहनशीलता) है जो शख़्स सब्र को अपना शआर बना ले फिर उसे हादसे (घटनाओं) का ख़ौफ़ (भय) नहीं।

१०. सब्र (सहनशीलता) और नेकी ,बुर्दबारी और ख़ुश अख़लाकी (सुशीलता) पैग़म्बरों (ईश्वरीय दूत ,अवतार) की सीरत है।

११. इन्सान की यह कितनी बड़ी कमज़ोरी है के दूसरो के ऐब को शुमार करता है और वही चीज़ अपने बारे में भूल जाता है।

१२. किसी कमज़ोर पर ज़ुल्म (अन्याय) करना ज़ुल्म की सबसे बड़ी क़िस्म है।

१३. ख़ुदग़र्ज़ी और ख़ुदपसन्दी नादानी की अलामत है।

१४. अपने माल से अपनी आबरू की हिफ़ाज़त करो यह एक अच्छा काम है।

१५. अक़्लमन्द वह शख़्स है जो आख़ेरत और उक़बा (यमलोक) की फ़लाह (अच्छाई) के लिये कोशां (प्रयत्नशील) रहे।

१६. परहेज़गार (बुराई से बचने वाले) बनों क्योंकि तक़वा (आन्तरिक संयम ,ईशवर से भय) बेहतरीन ख़ज़ाना है और ज़बरदस्त मुहाफ़िज़ है।

१७. क्या कहना उस शख़्स का जो अपने नफ़्स (आत्मा) की इस्लाह (शुध्दि ,त्रुटियों का सुधार) करे और जायज़ जराय (उचित तरीक़े से) से रोज़ी हासिल करे।

१८. झूठों की दोस्ती से बचो क्योंकि उनकी दोस्ती (मित्रता) ऐसा सराब (धोका) है जो दूर की चीज़ को नज़दीक और नज़दीक की चीज़ को दूर दिखाती है।

१९. अपने माल और अपनी रविश (तरीके) में हमआहंगी (मेल मिलाप) रखो यह बुज़ुर्गवारी (बड़ापन) की अलामत है.

२०. (इसका ख़्याल रखो के) तुम्हारें हमनशीं (साथ उठने बैठने वाला) नेक लोग हों और तुम्हारे दोस्त परहेज़गार (बुराई से बचने वाला) हो।

२१. ख़ुदपसन्द शख़्स अपने मलामत करने वालों में इज़ाफ़ा करता रहता है।

२२. पड़ोसियों से ख़ुश अख़लाक़ी (सुशीलता) का बर्ताव (व्यवहार) करो।

२३. हर चीज़ का एक मअदन (खान) होता है तक़वे (आन्तरिक संयम) का मअदन (खान) ख़ुदाशुनास (न्यायवान) लोगों का दिल है।

२४. तमाम बुराईयों की कुंजी गुस्सा (क्रोध) है।

२५. इबादतगुज़ार (तपस्या करने वाला) वह शख़्स है जो वाजेबात (जिसके न करने में पाप हो) को पूरा करे।

२६. अहमक़ (बेवकूफ़) का दिल उसकी ज़बान पर है अक़्लमन्द (बुध्दिमान) की ज़बान उसके दिल में है।

२७. जो शख़्स हक़ से किनारा कशी (दूरी) करता है ज़लील हो जाता है।

२८. हसद और कीना (मन में शत्रुता) इन्सान की मसर्रतों (ख़ुशियों) को ख़त्म करने में सबसे ज़्यादा मोस्सर (प्रभावपूर्ण) है।

२९. तमाम बुराईयों की किलीद (कुंजी) झूठ है झूठ के ज़रिये इन्सान फ़क़्र (ग़रीबी) में मुबतला होता है।

३०. अक़्लमन्द वह है जो इलाही अहकामात (ईशवरीय आदेश) के आगे सर झुकाये ,ऐहतियात और दूरअन्देशी को अपनाये।

३१. होशियार वह है जिसका आज कल से बेहतर हो और बुराईयों के दरवाज़े अपने ऊपर बन्द कर ले।

३२. ख़ुदावन्दे आलम के नज़दीक शराफ़त व बुज़ुर्गी आमाल के ज़रिये है ज़बानी नहीं।

३३. बदतरीन शख़्स वह है जिससे किसी ख़ैर की उम्मीद (आशा) नहीं और उसके शर (बुराई) से अमान (रक्षा) नहीं।

३४. सख़ावत (ईशवरीय मार्ग में धन वितरित करना) बुज़ुर्गी (बड़ापन) की अलामत (चिन्ह) है और पाकदामनी (नेकचलनी ,सदाचार) तमाम ख़ूबियों (अच्छाईयों) का सरचश्मा (स्त्रोत) है।

३५. बेकार व बेतुकी बातों से इज्तेनाब (बचने) करो क्योंकि बात चीत उसी क़द्र काफ़ी है जिससे मफ़हूम (मतलब) अदा हो जाये।

३६. नेक काम बुरी मौत से बचाते है और हर नेक काम सदक़ा (दान) है।

३७. ख़ुदावन्दे आलम ने बदज़बानों पर जन्नत हराम कर दी है और बदख़ुल्क़ी (दुर्व्यवहार) बदबख़्ती की अलामत है।

३८. किसी नादान से अगर नेक काम हो तो उसे क़ुबूल (स्वीकार) कर लो अगर किसी दानिशमन्द (बुध्दिमान) की लग़्ज़िश (त्रुटि) ज़बान पर देखो तो माफ़ कर दो।

३९. ख़ुदावन्दे आलम उस शख़्स को पसन्द नहीं करता जो अपने दुनयावी मामेलात में बड़ाई करे और आख़ेरत (परलोक) के मसाएल में जाहिल हो।

४०. अगर कोई बाइज़्ज़त ज़लील और कोई सरवतमन्द (धनी) ग़रीब हो जाये तो उस पर रहम करो।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम अस्करी की शहादत सन् 260 हिजरी क़मरी मे रबी उल अव्वल मास की आठवी(8) तिथि को हुई।अब्बासी खलीफ़ा मोतामिद अब्बासी ने आपको विष खिलवाया जो आपकी शहादत का कारण बना।

 

समाधि

हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप सामर्रा नामक स्थान पर है। जहाँ पर लाखो श्राद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आप पर सलाम पढ़ते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का परिचय

 

नाम व अलक़ाब

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम हज़रत पैगम्बर(स.) के नाम पर है। तथा आपकी मुख्य़ उपाधियाँ महदी मऊद, इमामे अस्र, साहिबुज़्ज़मान, बक़ियातुल्लाह व क़ाइम हैं।

 

जन्म व जन्म स्थान

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 255हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15वी तिथि को सामर्रा नामक स्थान पर हुआ था। यह शहर वर्तमान समय मे इराक़ देश की राजधानी बग़दाद के पास स्थित है।

 

माता पिता

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नरजिस खातून हैं।

 

पालन पोषण

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का पालन पोषण 5वर्ष की आयु तक आपके पिता की देख रेख मे हुआ। तथा इस आयु सीमा तक आप को सब लोगों से छुपा कर रखा गया। केवल मुख्य विश्वसनीय मित्रों को ही आप से परिचित कराया गया था।

 

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की इमामत

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की इमामत का समय सन् 260 हिजरी क़मरी से आरम्भ होता है। और इस समय आपकी आयु केवल 5वर्ष थी। हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम ने अपनी शहादत से कुछ दिन पहले एक सभा मे जिसमे आपके चालीस विश्वसनीय मित्र उपस्थित थे, कहा कि मेरी शहादत के बाद वह (हज़रत महदी) आपके खलीफ़ा हैं। वह क़ियाम करने वाले हैं तथा संसार उनका इनतेज़ार करेगा। जबकि पृथ्वी पर चारों ओर अत्याचार व्याप्त होगा वह उस समय कियाम करेंगें व समस्त संसार को न्याय व शांति प्रदान करेंगें।

 

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत(परोक्ष हो जाना)

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत दो भागों मे विभाजित है।

 

(1) ग़ैबते सुग़रा

अर्थात कम समय की ग़ैबत यह ग़ैबत सन् 260 हिजरी क़मरी मे आरम्भ हुई और329 हिजरी मे समाप्त हुई। इस ग़ैबत की समय सीमा मे इमाम केवल मुख्य व्यक्तियों से भेंट करते थे।

 

(2) ग़ैबत कुबरा

अर्थात दीर्घ समय की ग़ैबत यह ग़ैबत सन् 329 हिजरी मे आरम्भ हुई व जब तक अल्लाह चाहेगा यह ग़ैबत चलती रहेगी। जब अल्लाह का आदेश होगा उस समय आप ज़ाहिर(प्रत्यक्ष) होंगे वह संसार मे न्याय व शांति स्थापित करेंगें।

 

नुव्वाबे अरबा

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम ने अपनी 69 वर्षीय ग़ैबते सुग़रा के समय मे आम जनता से सम्बन्ध स्थापित करने लिए बारी बारी चार व्यक्तियों को अपना प्रतिनिधि बनाया। यह प्रतिनिधि इमाम व जनता की मध्यस्था करते थे। यह प्रतिनिधि जनता के प्रश्नो को इमाम तक पहुँचाते व इमाम से उत्तर प्राप्त करके उनको जनता को वापस करते थे। इन चारों प्रतिनिधियो को इतिहास मे नुव्वाबे अरबाकहा जाता है। यह चारों क्रमशः इस प्रकार हैं।

 

(1) उस्मान पुत्र सईद ऊमरी यह पाँच वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे।

 

(2) मुहम्मद पुत्र उस्मान ऊमरी यह चालीस वर्ष तक इमाम की सेवा मे रहे।

 

(3) हुसैन पुत्र रूह नो बखती यह इक्कीस वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे।

 

(4) अली पुत्र मुहम्मद समरी यह तीन वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे। इसके बाद से ग़ैबते सुग़रा समाप्त हो गई व इमाम ग़ैबते कुबरा मे चले गये।

 

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम सुन्नी विद्वानों की दृष्टि मे

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम मे केवल शिया सम्प्रदाय ही आस्था नही रखता है। अपितु सुन्नी सम्प्रदाय के विद्वान भी हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम को स्वीकार करते है। परन्तु हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के सम्बन्ध मे उनके विचारों मे विभिन्नता पाई जाती है। कुछ विद्वानो का विचार यह है कि हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम अभी पैदा नही हुए है व कुछ विद्वानो का विचार है कि वह पैदा हो चुके हैं और ग़ैबत मे(परोक्ष रूप से) जीवन यापन कर रहे हैं।

 

सुन्नी सम्प्रदाय के विभिन्न विद्वान अपने मतों को इस प्रकार प्रकट करते है।

(1) शबरावी शाफ़ाई अपनी किताब अल इत्तेहाफ़ मे इस प्रकार लिखते हैं कि शिया महदी मऊद के बारे मे विश्वास रखते हैं वह (हज़रत इमाम) हसन अस्करी के पुत्र हैं और अन्तिम समय मे प्रकट होगे। उनके सम्बन्ध मे सही हादीसे मिलती है। परन्तु सही यह है कि वह अभी पैदा नही हुए हैं और भविषय मे पैदा होगें तथा वह अहलेबैत मे से होंगें।

 

(2) इब्ने अबिल हदीद मोताज़ली शरहे नहजुल बलाग़ा मे इस प्रकार लिखते हैं कि अधिकतर मोहद्देसीन का विश्वास है कि महदी मऊद हज़रत फ़ातिमा के वंश से हैं।मोतेज़ला समप्रदाय के बुज़ुरगों ने उनको स्वीकार किया है तथा अपनी किताबों मे उनके नाम की व्याख्या की है। परन्तु हमारा विश्वास यह है कि वह अभी पैदा नही हुए हैं और बाद मे पैदा होंगें।

 

(3) इज़्ज़ुद्दीन पुत्र असीर 260 हिजरी क़मरी की घटनाओ का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि अबु मुहम्मदअस्करी (इमामे अस्करी) 232 हिजरी क़मरी मे पैदा हुए और 260 हिजरी क़मरी मे स्वर्गवासी हुए। वह मुहम्मद के पिता हैं जिनको शिया मुनतज़र कहते हैं।

 

(4) इमादुद्दीन अबुल फ़िदा इस्माईल पुत्र नूरूद्दीन शाफ़ई कहते है इमाम हादी का सन् 254 हिजरी क़मरी मे स्वर्गवास हुआ। वह इमाम हसन अस्करी के पिता थे। इमाम अस्करी बारह इमामों मे से ग्यारहवे इमाम हैं वह उन इमामे मुन्तज़र के पिता हैं जो 255 हिजरी क़मरी मे पैदा हुए।

 

(5) इब्ने हजरे हीतमी मक्की शाफ़ई अपनी किताब अस्सवाइक़ुल मोहर्रेक़ाह मे लिखते हैं कि इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम सामर्रा मे स्वर्गवासी हुए उनकी आयु 28 वर्ष थी। कहा जाता है कि उनको विष दिया गया। उन्होने केवल एक पुत्र छोड़ा जिनको अबुलक़ासिम मुहम्मद व हुज्जत कहा जाता है। पिता के स्वर्ग वास के समय उनकी आयु पाँच वर्ष थी । लेकिन अल्लाह ने उनको इस अल्पायु मे ही इमामत प्रदान की वह क़ाइमे मुन्तज़र कहलाये जाते हैं।

 

(6) नूरूद्दीन अली पुत्र मुहम्मद पुत्र सब्बाग़ मालकी अपनी किताब मे लिखते है कि इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम की इमामत दो वर्ष दो वर्ष थी ।उन्होने अपने बाद हुज्जत क़ाइम नामक एक बेटे को छोड़ा। जिनका सत्य पर आधारित शासन की स्थापना के लिए इंतिज़ार( प्रतीक्षा) किया जायेगा। उनके पिता ने लोगों से गुप्त रख कर उनका पालन पोषण किया। तथा ऐसा अब्बासी शासक के अत्याचार से बचने के लिए किया गया था।,,

 

(7) अबुल अब्बास अहम पुत्र यूसुफ़ दमिश्क़ी क़रमानी अपनी किताब अखबारूद्दुवल वा आसारूल उवल की ग्यारहवी फ़स्ल मे लिखते हैं कि खलफ़े सालेह इमाम अबुल क़ासिम मुहम्मद इमाम अस्करी के बेटे हैं। जिनकी आयु उनके पिता के स्वर्गवास के समय केवल पाँच वर्ष थी। परन्तु अल्लाह ने उनको हज़रत याहिय की तरह बचपन मे ही हिकमत प्रदान की। वह मध्य क़द सुन्दर बाल सुन्दर नाक व चोड़े माथे वाले हैं।

 

इस से ज्ञात होता है कि इस सुन्नी विद्वान को हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के जन्म पर पूर्ण विश्वास था यहाँ तक कि उन्होने आपके शारीरिक विवरण का भी उल्लेख किया है। और खलफ़े सालेह की उपाधि के साथ उनका वर्णन किया है।

 

(8) हाफ़िज़ अबु अब्दुल्लाह मुहम्मद पुत्र य़ूसुफ़ कन्जी शाफ़ई अपनी किताब किफ़ायातुत तालिब के अन्तिम भाग मे लिखते हैं कि इमाम अस्करी सन् 260 हिजरी मे रबी उल अव्वल मास की आठवी तिथि को स्वर्गवासी हुए व उन्होने एक पुत्र छोड़ा जो इमामे मुन्तज़र हैं।,,

 

(9) ख़वाजा पारसा हनफ़ी अपनी किताब फ़ज़लुल ख़िताब मे इस प्रकार लिखते हैं कि अबु मुहम्द हसन अस्करी ने अबुल क़ासिम मुहम्मद मुँतज़र नामक केवल एक बेटे को अपने बाद इस संसार मे छोड़ा जो हुज्जत क़ाइम व साहिबुज़्ज़मान से प्रसिद्ध हैं। वह 255 हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15 वी तिथि को पैदा हुए व उनकी माता नरजिस थीं।,,

 

(10) इब्ने तलहा कमालुद्दीन शाफ़ई अपनी किताब मतालिबुस्सऊल फ़ी मनाक़िबिर रसूल मे लिखते हैं कि अबु मुहम्मद अस्करी के मनाक़िब (स्तुति या प्रशंसा) के बारे इतना कहना ही अधिक है कि अल्लाह ने उनको महदी मऊद का पिता बनाकर सबसे बड़ी श्रेष्ठता प्रदान की हैं। वह आगे लिखते हैं कि महदी मऊद का नाम मुहम्मद व उनकी माता का नाम सैक़ल है। महदी मऊद की अन्य उपाधियाँ हुज्जत खलफ़े सालेह व मुँतज़र हैं।,,

 

(11) शम्सुद्दीन अबुल मुज़फ़्फ़र सिब्ते इब्ने जोज़ी अपनी प्रसिद्ध किताब तज़किरातुल ख़वास मे लिखते हैं कि मुहम्मद पुत्र हसन पुत्र अली पुत्र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र मूसा पुत्र जाअफ़र पुत्र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र हुसैन पुत्र अली इब्ने अबी तालिब की कुन्नियत अबुल क़ासिम व अबु अबदुल्लाह है। वह खलफ़े सालेह, हुज्जत, साहिबुज्जमान, क़ाइम, मुन्तज़र व अन्तिम इमाम हैं।अब्दुल अज़ीज़ पुत्र महमूद पुत्र बज़्ज़ाज़ ने हमको सूचना दी है कि इब्ने उमर ने कहा कि हज़रत पैगम्बर ने कहा कि अन्तिम समय मे मेरे वंश से एक पुरूष आयेगा जिसका नाम मेरे नाम के समान होगा व उसकी कुन्नियत मेरी कुन्नियत के समान होगी। वह संसार से अत्याचार समाप्त करके न्याय व शाँति की स्थापना करेगा। यही वह महदी हैं।,,

 

(12) अबदुल वहाब शेरानी शाफ़ई मिस्री अपनी प्रसिद्ध किताब अल यवाक़ीत वल जवाहिर मे हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के सम्बन्ध मे लिखते हैं कि वह इमाम हसन की संतान है उनका जन्म सन् 255 हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15वी तिथि को हुआ। वह ईसा पुत्र मरीयम से भेँट करेगें व जीवित रहेगें। हमारे समय (किताब लिखने का समय) मे कि अब 958 हिजरी क़मरी है उनकी आयु 706 वर्ष हो चुकी है।

 

हज़रत हुज्जत (अ.स.) के कथन

१. मेरा वुजूद (अस्तित्व) ग़ैबत में भी लोगों के लिए ऐसा ही मुफ़ीद (लाभकारी) है जैसे आफ़ताब (सूर्य) बादलों के ओट (पीछे) से।

२. मैं ही महदी हूँ मैं ही क़ायमे ज़माना हूँ।

३. मैं ज़मीन को अद्ल (न्याय) व इन्साफ़ से इस तरह भर दूँगा जिस तरह वह ज़ुल्म व जौरर से भर गई है।

४. जो चीज़ तुम्हारे लिये मुफ़िद (लाभकारी) न हो उसके लिये सवाल (प्रशन) मत करो।

५. ज़ुहूर (प्रकटता) में ताजील (शिघ्रता) के लिये दुआ (प्रथना) माँगों क्योंकि उसी में तुम्हारी भलाई है।

६. जो लोग हमारे अमवाल (अमल का बहु वचन) को मुशतबा और मख़लूत (मिलाये हुए) किये हुए हैं जो कोई भी उसमें से ज़र्रा बराबर बिला इस्तहक़ाक (बग़ैर हक़ के) खोयेगा गोया उसने आग से अपना शिकम पुर किया ( पेट भर लिया) ।

७. मैं अहले ज़मीन (धरती पर रहने वालों) के लिये उसी तरह बायसे अमान (शान्ति का कारण) हूँ जिस तरह सितारे अहले आसमान (आसमान पर रहने वालों) के लिये।

८. हमारा इल्म तुम्हारे सारे हालात पर मोहीत (घेरे हुए) है और तुम्हारी कोई चीज़ हम से पोशीदा (छीपी) हुई नहीं।

९. हम तुम्हारी ख़बरगीरी (देखरेख) से ग़ाफ़िल (बेपरवाह) नहीं और न तुम्हारी याद को अपने दिल से निकाल सकते हैं।

१०. हर वह काम करो जो तुम्हें हम से नज़दीक (क़रीब) करे और हर उस अमल से परहेज़ करो (बचो) जो हमारे लिये बारे ख़ातिर और नाराज़गी का सबब हो।

११. तुममे से जो कोई तक़वा ए इलाही (ईशवर का भय) इख़्तेयार (अपनायेगा) करेगा और मुस्तहक़ (हक़दार) तक उसके हुक़ूक़ (हक़ का बहु वचन) पहुँचायेगा वह आने वाले फ़ित्नों (झगड़ों) से महफ़ूज़ रहेगा (बचा रहेगा) ।

१२. अगर हमारे चाहने वाले अपने अहद व पैमान की वफ़ा करते तो हमारी मुलाक़ात में ताख़ीर (देर) न होती और हमारी ज़ियारत उन्हें जल्द नसीब होती.

१३. हमें तुमसे कोई चीज़ दूर नहीं करती मगर वह जो हमें नागवार और नापसन्द है।

१४. हम तुम्हारे अमवाल (माल का बहु वचन ,यह ख़ुम्स की ओर इशारा है) को सिर्फ़ इसलिए क़ुबूल (स्वीकार) करते हैं के तुम पाक हो जाओ हमें जिसका जो चाहे अदा करे जो चाहे अदा न करे क्योंकि जो कुछ ख़ुदावन्दे आलम ने हमें अता फ़रमाया (दिया) है वह उससे बेहतर है जो तुम्हें दिया है।

१५. नमाज़ शैतान को रूसवा (निंदित) कर देती है। नमाज़ पढ़ो और शैतान को रूसवा करो।

१६. जो मेरा इन्कार करे वह मुझसे नहीं और उसका अन्जाम पिसरे नूह (नूह जो नबी थे उनका पुत्र) का अन्जाम है।

१७. मसाएल में हमारे रावियों की तरफ़ रूजु करो क्योंकि वह मेरी तरफ़ से तुम पर हुज्जत (तर्क ,दलील) हैं।

१८. ताज्जुब है उन लोगों की नमाज़ कैसे क़ुबूल होती है जो इन्ना अन्ज़ल्ना की तिलावत नहीं करते (नहीं पढ़ते)।

१९. नमाज़ के लिये जिन सूरतों के फ़ज़ाएल बयान किये गये हैं वह अपनी जगह पर अलबत्ता अगर कोई शख़्स सूरा ए इन्ना अन्ज़लना और सुरा ए क़ुल हो वल्लाह की तिलावत करे तो उसे इन सूरतों का सवाब भी मिलेगा और जिन सूरतों के बदले पढ़ेगा उसका भी।

२०. मलऊन है मलऊन है वह शख़्स जो नमाज़े मग़रिब में इतनी ताख़ीर (देर) करे के तारे ख़ूब खिल जायें।

२१. हमारे अलावा जिसने अपनी हक़्क़ानियत (सच्चाई) का दावा किया वह झूठा है।

२२. क्या लोग यह बात नहीं जानते के नबी (अ.स.)  के बाद उनकी हिदायत (मार्ग दर्शन) के लिये आइम्मा (अ.स.)  का इन्तेज़ाम (प्रबन्ध) किया गया है।

२३. यह लोग कैसे फ़ित्ने (झगड़े) में घिर गये हैं क्या उन्होंने अपने दीन को छोड़ दिया है।

२४. यह लोग हक़ से क्यों अनाद (दुश्मनी) रखते हैं क्या हक़ को पहचानने के बाद उसे भुला दिया है।

२५. क्या तुम नहीं जानते के ज़मीन कभी हुज्जते ख़ुदा (ईशवरीय तर्क ,दलील) से ख़ाली नहीं रहती।

२६. तमाम (सभी) लोग यह बात समझ लें के हक़ हमारे साथ है और हम में है।

२७. मैं रूए ज़मीन पर बक़िय्यतुल्लाह (ईशवरीय चिन्ह) हूँ और दुश्मनाने ख़ुदा (ईशवर के शत्रु) से इन्तेक़ाम (बदला) लूँगा।

२८. जो लोग मेरे ज़ुहूर (प्रकटता) के लिये वक़्त (समय) मोअय्यन (निर्धारित) करते हैं वह झूठे हैं.

२९. छींक का आना मौत से कम से कम 3दिन की ज़मानत है।

३०. मैं ख़ातिमुल औलिया हूँ और मेरे ज़रिये ख़ुदावन्दे आलम मेरे चाहने वालों को बलाओं से निजात (मुक्ति) देगा।

३१. ख़ुदावन्दे आलम ने यह दुनिया बेकार नहीं पैदा की है।

३२. ख़ुदावन्दे आलम ने जिन्हें हिदायत (निर्देश) का ज़रिया बनाया है उनको फ़ज़ीलत भी दी है।

३३. ख़ालिके कायनात (संसार को पैदा करने वाला) ने अपने औलिया (वली का बहु वचन) के ज़रिये दीन को ज़िन्दा किया।

३४. आइम्मा (अ.स.)  को हर गुनाह (प्रत्येक पाप) से पाक और हर बुराई से दूर रखा है।

३५. औलिया इल्म के ख़ज़ाने और हिकमत (दानाई) का मअदन (खान) हैं।

३६. जो इमामत के झूठे दावेदार होंगे उनका नक़्स (कीना) बहुत जल्द मालूम हो जायेगा।

३७. जब हुक्मे ख़ुदा होगा हक़ ज़ाहिर होगा और बातिल मिट जायेगा।

३८. (दादी) फ़ातिमा ज़हरा (स 0)की ज़िन्दगी हमारे लिये नमूना है।

३९. ख़ुदा हम सब का वली (सहायक) है।

४०. जिसने हमारे नुमायन्दे को रद किया उसने गोया मुझे रद्द किया।

 

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद व अज्जिल फ़राजहुम।।

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