शहीदे करबला हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.)

नबी अकरम व अहलेबैत
Typography
  • Smaller Small Medium Big Bigger
  • Default Helvetica Segoe Georgia Times

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) अबुल आइम्मा अमीरल मोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) व सय्यदुन्निसां हज़रत फ़ात्मातुज़ ज़हरा (अ.स.) के फ़रज़न्द और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) व जनाबे ख़दीजातुल कुबरा के नवासे और शहीदे मज़लूम इमाम हसन (अ.स.) के कु़व्वते बाज़ू थे

 

लेखकः मौलाना नजमुल हसन कर्रारवी

 (चोदह सितारे)

 

हुसैन तूने तहे तेग़ , वह किया सजदा ।

कि फ़ख़्र करती है ताअत भी इस इताअत पर ।।

न अब्दियत को फ़क़त , इफ़्तेख़ार है मौला।

उलूहियत भी है नाज़ां , तेरी इबादत पर ।।

साबिर थरयानी (कराची)

यूँही बस तीसरी शाबान को हुरमत चैगनी हो गई ।

मुझे बारह पिला दे , पांचवां साक़ी हुआ पैदा ।।

न क्यों कर , ऐसे बेटे हों नाज़ां  साक़ीए कौसर ।

निहां हैं जिसमें नौ कौसर यह वह इस्मत का है दरिया ।।

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) अबुल आइम्मा अमीरल मोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) व सय्यदुन्निसां हज़रत फ़ात्मातुज़ ज़हरा (अ.स.) के फ़रज़न्द और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) व जनाबे ख़दीजातुल कुबरा के नवासे और शहीदे मज़लूम इमाम हसन (अ.स.) के कु़व्वते बाज़ू थे। आपको अबुल आइम्मातुस सानी कहा जाता है क्यों कि आप ही की नस्ल से नौ इमाम मुतावल्लिद हुए। आप भी अपने पदरे बुज़ुर्गवार और बरादरे आली वक़ार की तरह मासूम मन्सूस अफ़ज़ले ज़माना और आलिमे इल्मे लदुन्नी थे।

 

आपकी विलादत

हज़रत इमाम हसन (अ.स.) की विलादत के पचास रातें गुज़री थीं कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का नुक़ता ए वजूद बतने मादर में मुस्तक़र हुआ था। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं कि विलादते हसन (अ.स.) और इस्तेक़रारे इमाम हुसैन (अ.स.) में तोहर का फ़ासला था। (असाबा नज़लुल अबरार वाक़ेदी) अभी आपकी विलादत न होने पाई थी कि बा रवायते उम्मुल फ़ज़ल बिन्ते हारिस ने ख़्वाब में देखा कि रसूले करीम (स.अ.) के जिस्म का एक टुकड़ा काट कर मेरी आग़ोश में रखा गया है। इस ख़्वाब से वह बहुत घबराई और दौड़ी हुई रसूले करीम (स.अ.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुई कि हुज़ूर आज एक बहुत बुरा ख़्वाब देखा है। हज़रत ने ख़्वाब सुन कर मुस्कुराते हुए फ़रमाया कि यह ख़्वाब तो निहायत ही उम्दा है। ऐ उम्मुल फ़ज़ल इसकी ताबीर यह है कि मेरी बेटी फ़ात्मा के बतन से अन्क़रीब एक बच्चा पैदा होगा जो तुम्हारी आग़ोश में परवरिश पाऐगा। आपके इरशाद फ़रमाने से थोड़ा ही अरसा गुज़रा था कि ख़ुसूसी मुद्दते हमल सिर्फ़ 6 माह गुज़ार कर नूरे नज़र रसूल (स.अ.) इमाम हुसैन (अ.स.) बातारीख़ 3 शाबान सन् 4 हिजरी बमुक़ाम मदीना ए मुनव्वरा बतने मादर से आग़ोशे मादर में आ गये। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 13 व अनवारे हुसैनिया जिल्द 3 सफ़ा 43 बा हवालाए साफ़ी सफ़ा 298, व जामए अब्बासी सफ़ा 59 व बेहारूल अनवार व मिसबाहे तूसी व मक़तल इब्ने नम्मा सफ़ा 2) वग़ैरा, उम्मुल फ़ज़ल का बयान है कि मैं हसबुल हुक्म इनकी खि़दमत करती रही, एक दिन मैं बच्चे को ले कर आं हज़रत (स.अ.) की खि़दमत में हाज़िर हुई। आपने आग़ोशे मोहब्बत में ले कर प्यार किया और आप रोने लगे मैंने सबब दरियाफ़्त किया तो फ़रमाया कि अभी अभी जिब्राईल मेरे पास आए थे वह बतला गए हैं कि यह बच्चा उम्मत के हाथों निहायत ज़ुल्मों सितम के साथ शहीद होगा और ऐ उम्मुल फ़ज़ल वह मुझे इसकी क़त्लगाह की सुखऱ् मिट्टी भी दे गये हैं। (मिशकात जिल्द 8 सफ़ा 140 तबा लाहौर और मसनद इमाम रज़ा सफ़ा 38 में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने फ़रमाया देखो यह वाक़ेया फ़ात्मा (अ.स.) से कोई न बतलाए वरना वह सख़्त परेशान होंगी।

मुल्ला जामी लिखते हैं कि उम्मे सलमा ने बयान किया कि एक दिन रसूले ख़ुदा (स.अ.) मेरे घर इस हाल में तशरीफ़ लाए कि आप के सरे मुबारक के बाल बिखरे हुए थे और चहरे पर गर्द पड़ी हुई थी। मैंने इस परेशानी को देख कर पूछा कि क्या बात है? फ़रमाया मुझे अभी अभी जिब्राईल ईराक़ के मुक़ामे करबला ले गये थे वहां मैंने जाय क़त्ले हुसैन (अ.स.) देखी है और यह मिट्टी लाया हूँ। ऐ उम्मे सलमा (अ.स.) इसे अपने पास महफ़ूज़ रखो, जब यह ख़ून आलूद हो जाय तो समझना कि मेरा हुसैन शहीद हो गया। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 174)

आपका इस्मे गेरामी इमाम शिब्लन्जी लिखते हैं कि विलादत के बाद सरवरे कायनात (स.अ.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) की आंखों में लोआबे दहन लगाया और अपनी ज़बान उनके मूंह में दे कर बड़ी देर तक चुसाया इसके बाद दाहिने कान में अज़ान और बायें में अक़ामत कही फिर दुआए ख़ैर फ़रमा कर हुसैन नाम रखा। (नूरूल अबसार सफ़ा 113) उलेमा का बयान है कि यह नाम इस्लाम से पहले किसी का भी नहीं था। वह यह भी कहते हैं कि यह नाम ख़ुदा ख़ुदा वन्दे आलम का रखा हुआ है। (अरहज्जुल मतालिब व रौज़तुल शोहदा सफ़ा 236) किताब आलाम अल वरा तबरसी में है कि यह नाम भी दीगर आइम्मा के नामों की तरह लौहे महफ़ूज़ में लिखा हुआ है।

 

आपका अक़ीक़ा

इमाम हुसैन (अ.स.) का नाम रखने के बाद सरवरे कायनात (स.अ.) ने हज़रत फ़ात्मा (अ.स.) से फ़रमाया कि बेटी जिस तरह हसन (अ.स.) का अक़ीक़ा किया गया है उसी तरह इसके अक़ीक़े का भी इन्तेज़ाम करो और इसी तरह बालों के हम वज़न चांदी तसद्दुक़ करो जिस तरह हसन (अ.स.) के लिये कर चुकी हो। अल ग़रज एक मेंढा मंगवाया गया और रस्मे अक़ीक़ा अदा कर दी गई। (मतालेबुल सुवेल सफा 241)

बाज़ माअसरीन ने अक़ीक़े के साथ ख़त्ने का ज़िक्र किया है जो मेरे नज़दीक क़तअन ना क़ाबिले क़ुबूल है क्यों कि इमाम का मख़्तून पैदा होना मुसल्लेमात से है।

 

कुन्नियत व अलक़ाब

आपकी कुन्नियत सिर्फ़ अबु अब्दुल्लाह थी अल बत्ता अलक़ाब आपके बे शुमार हैं जिनमें सय्यद, सिब्ते असग़र, शहीदे अकबर और सय्यदुश शोहदा ज़्यादा मशहूर हैं। अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई का बयान है कि सिब्ते और सय्यद ख़ुद रसूले करीम (स.अ.) के मोअय्यन करदा अलक़ाब हैं। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 321)

आपकी रज़ाअत उसूले काफ़ी बाब मौलूदुल हुसैन (अ.स.) सफ़ा 114 में है कि इमाम हुसैन (अ.स.) ने पैदा होने के बाद न हज़रत फ़ात्मा ज़हरा (अ.स.) का शीरे मुबारक नोश किया और न किसी दाई का दूध पिया। होता यह था कि जब आप भूखे होते तो सरवरे कायनात तशरीफ़ ला कर ज़बाने मुबारक दहने अक़दस में दे देते थे और इमाम हुसैन (अ.स.) उसे चूसने लगते थे। यहां तक कि सेरो सेराब हो जाते थे। मालूम होना चाहिये कि इसी से इमाम हुसैन (अ.स.) का गोश्त पोस्त बना और लोआबे दहने रिसालत से हुसैन (अ.स.) परवरिश पा कर कारे रिसालत अंजाम देने की सलाहियत के मालिक बने। यही वजह है कि आप रसूले करीम (स.अ.) से बहुत मुशाबेह थे। (नूरूल अबसार सफ़ा 113)

 

ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से विलादते इमाम हुसैन (अ.स.) की तहनियत व ताज़ियत

अल्लामा हुसैन वाएज़ काशेफ़ी रक़म तराज़ हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) की विलादत के बाद ख़ल्लाक़े आलम ने जिब्राईल को हुक्म दिया कि ज़मीन पर जा कर मेरे हबीब मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) को मेरी तरफ़ से हुसैन (अ.स.) की विलादत पर मुबारक बाद दे दो और साथ ही साथ उनकी शहादते उज़मा से भी उन्हें मुत्तला कर के ताज़ियत अदा कर दो। जनाबे जिब्राईल ब हुक्मे रब्बे जलील ज़मीन पर वारिद हुए और उन्होंने आं हज़रत (अ.स.) की खि़दमत में पहुँच कर तहनियत अदा की। इसके बाद अर्ज़ परदाज़ हुए कि ऐ हबीबे रब्बे करीम आपकी खि़दमत में शाहदते हुसैन (अ.स.) की ताज़ियत भी मिन जानिब अल्लाह अदा की जाती है। यह सुन कर सरवरे कायनात का माथा ठन्का और आपने पूछा कि जिब्राईल माजेरा क्या है? तहनियत के साथ ताज़ियत की तफ़सील बयान करो। जिब्राईल (अ.स.) ने अर्ज़ की एक वह दिन होगा जिस दिन आपके इस चहिते फ़रज़न्द ‘‘ हुसैन ’’ के गुलूए मुबारक पर ख़न्जरे आबदार रखा जायेगा और आपका यह नूरे नज़र बे यारो मद्दगार मैदाने करबला में यक्काओ तन्हा तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद होगा। यह सुन कर सरवरे आलम (अ.स.) महवे गिरया हो गये। आपके रोने की ख़बर ज्यों ही अमीरल मोमेनीन (अ.स.) को पहुँची वह भी रोने लगे आलमे गिरया में दाखि़ले ख़ाना ए सय्यदा हो गए। जनाबे सय्यदा (अ.स.) ने जो हज़रत अली (अ.स.) को रोता देखा तो दिल बेचैन हो गया। अर्ज़ कि अबुल हसन रोने का सबब क्या है? फ़रमाया बिन्ते रसूल (अ.स.) अभी जिब्राईल आये हैं और वह हुसैन की तहनियत के साथ साथ उसकी शहादत की ख़बर भी दे गये हैं हालात से बा ख़बर होने के बाद फ़ात्मा का गिरया गुलूगीर हो गया। आपने हुज़ूर (स.अ.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ कि बाबा जान यह कब होगा? फ़रमाया जब न मैं हूंगा न तुम होगी न अली होंगे न हसन होंगे। फ़ात्मा (अ.स.) ने पूछा बाबा मेरा बच्चा किस ख़ता पर शहीद होगा? फ़रमाया फ़ात्मा (स.अ.) बिल्कुल बे जुर्म व बे ख़ता सिर्फ़ इस्लाम की हिमायत में शहीद होगा। फ़ात्मा (स.अ.) ने अर्ज़ कि बाबा जान जब हम में से कोई न होगा तो इस पर गिरया कौन करेगा और उसकी सफ़े मातम कौन बिछायेगा।

रावी का बयान है कि इस सवाल का हज़रत रसूले करीम (स.अ.) अभी जवाब न देने पाये थे कि हातिफ़े ग़यबी की आवाज़ आई , ऐ फ़ात्मा ग़म न करो, तुम्हारे इस फ़रज़न्द का ग़म अब्द उल आबाद तक मनाया जायेगा और इसका मातम क़यामत तक जारी रहेगा।

एक रवायत में है कि रसूल करीम (स.अ.) ने फ़ात्मा के जवाब में यह फ़रमाया था कि ख़ुदा कुछ लोगों को हमेशा पैदा करता रहेगा, जिसके बूढ़े, बूढ़ों पर और जवान जवानों पर और बच्चे बच्चों पर और औरतें औरतों पर गिरया व ज़ारी करते रहेंगे।

 

फ़ितरूस का वाक़ेया

अल्लामा मज़कूर बाहवालाए हज़रत शेख़ मुफ़ीद अल रहमा रक़म तराज़ हैं कि इसी तहनियत के सिलसिले में जनाबे जिब्राईल बे शुमार फ़रिश्तों के साथ ज़मीन की तरफ़ आ रहे थे। नागाह उनकी नज़र ज़मीन के एक ग़ैर मारूफ़ तबक़े पर पड़ी, देखा कि एक फ़रिश्ता ज़मीन पर पड़ा हुआ ज़ारो क़तार रो रहा है। आप उसके क़रीब गए और आपने उससे माजरा पूछा। उसने कहा ऐ जिब्राईल मैं वही फ़रिश्ता हूँ जो पहले आसमान पर सत्तर हज़ार फ़रिश्तों की क़यादत करता था। मेरा नाम फ़ितरूस है। जिब्राईल ने पूछा तुझे यह किस जुर्म की सज़ा मिली है? उसने अर्ज़ की, मरज़ीए माबूद के समझने में एक पल की देरी की थी, जिसकी यह सज़ा भुगत रहा हूँ। बालो पर जल गए हैं, यहां कुंजे तन्हाई में पड़ा हूँ। ऐ जिब्राईल ख़ुदारा मेरी कुछ मद्द करो। अभी जिब्राईल जवाब न देने पाये थे कि उसने सवाल किया, ऐ रूहुल अमीन आप कहां जा रहे हैं? उन्होंने फ़रमाया कि नबी आख़ेरूज़ ज़मां हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के यहां एक फ़रज़न्द पैदा हुआ है जिसका नाम ‘‘ हुसैन ’’ है। मैं ख़ुदा की तरफ़ से उसकी अदाए तहनियत के लिये जा रहा हूँ। फ़ितरूस ने अर्ज़ कि ऐ जिब्राईल ख़ुदा के लिये मुझे अपने हमराह लेते चलो, मुझे इसी दर से शिफ़ा और नजात मिल सकती है। जिब्राईल उसे साथ ले कर हुज़ूर की खि़दमत में उस वक़्त पहुँचे जब कि इमाम हुसैन (अ.स.) आग़ोशे रसूल (स.अ.) में जलवा फ़रमा रहे थे। जिब्राईल ने अर्ज़े हाल किया। सरवरे कायनात (स.अ.) ने फ़रमाया कि फ़ितरूस के जिस्म को हुसैन (अ.स.) के जिस्म से मस कर दो, शिफ़ा हो जायेगी। जिब्राईल ने ऐसा किया और फ़ितरूस के बालो पर उसी तरह रोईदा हो गये जिस तरह पहले थे। वह सेहत पाने के बाद फ़ख़्रो मुबाहात करता हुआ अपनी मंज़िले असली आसमाने सेयुम पर जा पहुँचा और मिसले साबिक़ सत्तर हज़ार फ़रिश्तों की क़यादत करने लगा।

बाद अज़ शहादते हुसैन (अ.स.) चूँ बरां क़ज़िया मतला शुद ’’

 

यहां तक कि वह ज़माना आया जिसमें इमाम हुसैन (अ.स.) ने शहादत पाई और इसे हालात से आगाही हुई तो उसने बारगाहे अहदियत में अर्ज़ कि ‘‘ मालिक मुझे इजाज़त दी जाय कि मैं ज़मीन पर जा कर दुश्मनाने हुसैन (अ.स.) से जंग करूं। इरशाद हुआ कि जंग की कोई ज़रूरत नहीं अलबत्ता तू सत्तर हज़ार फ़रिश्ते ले कर ज़मीन पर चला जा और उनकी क़ब्रे मुबारक पर सुबह व शाम गिरया ओ मातम किया कर और इसका जो सवाब हो उसे उनके रोने वालों पर हिबा कर दे। चुनान्चे फ़ितरूस ज़मीने करबला पर जा पहुँचा और ता क़याम क़यामत शबो रोज़ रोता रहेगा। ’’ (रौज़तुल शोहदा अज़ 236 ता सफ़ा 238 तबा बम्बई 1385 हिजरी व ग़नीमतुल तालेबीन शेख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) का चमकता चेहरा

मुल्ला जामी रहमतुल्लाह अलैहा तहरीर फ़रमाते हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) को ख़ुदा वन्दे आलम ने वह हुस्न व जमाल दिया कि जिसकी नज़ीर नज़र नहीं आतीं आपके रूए ताबां का यह हाल था कि जब आप जाय तारीक में बैठ जाते थे तो लोग आपके रूए रौशन से शमा ए तारीक़ का काम लेते थे यानी चीज़ रौशन हो जाती थी और लोगों को तारीकी में राहबरी की ज़हमत नहीं होती थी। (शवाहेदुन नबूवत रूकन 6 सफ़ा 174 व रौज़तुल शोहदा बाब 7 सफ़ा 238) शेख़ अब्दुल वासेए इब्ने यहीया वासेई लिखते हैं कि इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) एक दिन रसूल करीम (स.अ.) की खि़दमत में हाज़िर थे यहां तक कि रात हो गई, आपने फ़रमाया मेरे बच्चों अब रात हो गई तुम अपनी माँ के पास चले जाओ। बच्चे हसबुल हुक्म रवाना हो गये। रावी का बयान है कि जैसे यह बच्चे घर की तरफ़ चले एक रौशनी पैदा हो हुई जो उनके रास्ते की तारीकी को दूर करती जाती थी, यहां तक कि बच्चे अपनी माँ की खि़दमत में जा पहुँचे। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) जो इस रौशनी को देख रहे थे इरशाद फ़रमाने लगे। ‘‘ अल हम्दो लिल्लाहिल लज़ी अकरामना अहल्ल बैत ’’ ख़ुदा का शुक्र है कि उसने हम अहले बैत को इज़्ज़त व करामत अता फ़रमाई है। (मुसनदे इमाम रज़ा सफ़ा 32 मतबुआ मिस्र 1341 हिजरी)

 

जनाबे इब्राहीम का इमाम हुसैन (अ.स.) पर क़ुरबान होना उलेमा का बयान है कि एक रोज़ हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) इमाम हुसैन (अ.स.) को दाहिने ज़ानू पर और अपने बेटे जनाबे इब्राहीम को बायें ज़ानू पर बिठाये हुए प्यार कर रहे थे कि नागाह जिब्राईल नाज़िल हुए और कहने लगे इरशादे ख़ुदा वन्दी है कि दो में से एक अपने पास रखो। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) को इब्राहीम पर तरजीह दी और अपने फ़रज़न्द इब्राहीम को हुसैन (अ.स.) पर फ़िदा कर देने के लिये कहा। चुनान्चे इब्राहीम अलील हो कर तीन यौम में इन्तेक़ाल कर गये। रावी का बयान है कि इस वाक़िये के बाद से जब इमाम हुसैन (अ.स.) आं हज़रत (स.अ.) के सामने आते थे तो आप उन्हें आग़ोश में बिठा कर फ़रमाते थे कि यह वह है जिस पर मैंने अपने बेटे इब्राहीम को क़ुरबान कर दिया है। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 174 व तारीख़े बग़दाद जिल्द 2 सफ़ा 204)

 

हसनैन (..) की बाहमी ज़ोर आज़माई

इब्नल ख़शाब शेख़ कमालउद्दीन और मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक मरतबा इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) कमसिनी के आलम में रसूले ख़ुदा (स.अ.) की नज़रों के सामने आपस में ज़ोर अज़माई करने और कुश्ती लड़ने लगे। जब बाहम एक दूसरे से लिपट गए तो रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने इमाम हसन (अ.स.) से कहना शुरू किया, हां बेटा ‘‘ हसन बगीर, हुसैन रा ’’ हुसैन को गिरा दे और चीत कर दे। फ़ात्मा (स.अ.) ने आगे बढ़ कर अर्ज़ कि बाबा जान आप तो बड़े फ़रज़न्द की हिम्मत बढ़ा रहे हैं और छोटे बेटे की हिम्मत अफ़ज़ाई नहीं करते। आपने फ़रमाया कि ऐ बेटी यह तो देखो जिब्राईल खड़े हुए हुसैन से कह रहे हैं ‘‘ बगीर हसन रा ’’ ऐ हुसैन तुम हसन को गिरा दो, और चित कर दो।

(शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 174 व रौज़तुल शोहदा सफ़ा 239 नूरूल अबसार सफ़ा 114 तबा मिस्र)

 

ख़ाके क़दमे हुसैन (अ.स.) और हबीब इब्ने मज़ाहिर

अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि एक दिन रसूले ख़ुदा (स.अ.) एक रास्ते से गुज़र रहे थे आपने देखा कि चन्द बच्चे खेल रहे हैं। आप उनके क़रीब गए और उनमें से एक बच्चे को उठा कर अपनी आग़ोश में बैठा लिया और आप उसकी पेशानी के बोसे देने लगे। एक साहबी ने पूछा, हुज़ूर इस बच्चे में क्या ख़ुसूसियत है कि आपने इस दर्जा क़द्र अफ़ज़ाई फ़रमाई है? आपने इरशाद फ़रमाया कि मैंने इस एक दिन इस हाल में देखा कि यह मेरे बच्चे हुसैन के क़दमों की ख़ाक उठा कर अपनी आंखों में लगा रहा था। बाज़ हज़रात का बयान है कि वह बच्चा आं हज़रत ने जिसको प्यार किया था उसका नाम हबीब इब्ने मज़ाहिर था। (रौज़तुल शोहदा)

पिसरे मुर्तज़ा , इमाम हुसैन -- कि चूँ ऊला न बूदा दर कौनैन

मुस्तफ़ा ऊरा कशीदा बदोश -- मुर्तज़ा, पर वरीदा दर आग़ोश

अक़्ल दर बन्द अहदो पैमाईश -- बूदा जिब्राईल ,महद जुम्बानिश

 

इमाम हुसैन (अ.स.) के लिये हिरन के बच्चे का आना

किताब कनज़ुल ग़राएब में है कि एक शख़्स ने सरवरे काएनात (स.अ.) की खि़दमत में एक बच्चे आहू (हिरन) हदिये में पेश किया। आपने उसे इमाम हसन (अ.स.) के हवाले कर दिया क्यों कि आप बर वक़्त हाज़िरे खि़दमत हो गये थे। इमाम हुसैन (अ.स.) ने जब इमाम हसन (अ.स.) के पास हिरन का बच्चा देखा तो अपने नाना से कहने लगे, नाना जान आप मुझे भी हिरन का बच्चा दीजिए। सरवरे कायनात (स.अ.) इमाम हुसैन (अ.स.) को तसल्ली देने लगे लेकिन कमसिनी का आलम था फ़ितरते इंसानी ने इज़हारे फ़ज़ीलत के लिये करवट ली और इमाम हुसैन (अ.स.) ने ज़िद करना शुरू कर दिया और क़रीब था कि रो पड़ें, नागाह एक हिरन को आते हुए देखा गया जिसके साथ उसका बच्चा था। वह आहू (हिरन) सीधा खि़दमत में आया और उसने बा ज़बाने फ़सीह कहा, हुज़ूर मेरे दो बच्चे थे एक को सय्याद ने शिकार कर के आपकी खि़दमत में पहुँचा दिया और दूसरे को मैं इस वक़्त ले कर हाज़िर हुआ हूँ। उसने कहा मैं जंगल में था कि मेरे कानों में एक आवाज़ आई जिसका मतलब यह था कि नाज़ परवरदा ए रसूल (स.अ.) बच्चा ए आहू के लिये मचला हुआ है जल्द से जल्द अपने बच्चे को रसूल (स.अ.) की खि़दमत में पहुँचा। हुक्म पाते ही मैं हाज़िर हुआ हूँ और हदिया पेशे खि़दमत है। आं हज़रत (स.अ.) ने आहू को दुआ ए ख़ैर दी और बच्चे को इमाम हुसैन (अ.स.) के हवाले कर दिया। (रौज़तुल शोहदा जिल्द 1 सफ़ा 220)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) सीना ए रसूल (स.अ.) पर

सहाबिये रसूल (स.अ.) अबू हुरैरा रावी ए हदीस का बयान है कि, मैंने अपनी आंखों से यह देखा कि रसूले करीम (स.अ.) लेटे हुए हैं और इमाम हुसैन (अ.स.) निहायत कमसिनी के आलम में उनके सीना ए मुबारक पर हैं। उनके दोनों हाथों को पकड़े हुए फ़रमाते हैं, ऐ हुसैन तू मेरे सीने पर कूद चुनान्चे इमाम हुसैन (अ.स.) आपके सीना ए मुबारक कूदने लगे उसके बाद हुज़ूर (स.अ.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) का मूंह चूम कर ख़ुदा की बारगाह में अर्ज़ कि ऐ मेरे पालने वाले मैं इसे बेहद चाहता हूँ, तू भी इसे महबूब रख। एक रवायत में है कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) आं हज़रत (स.अ.) का लोआबे दहन और उनकी ज़बान इस तरह चूसते थे जिस तरह कोई खजूर चूसे। (अरजहुल मतालिब सफ़ा 359, सफ़ा 361, इस्तेआब जिल्द 1 सफ़ा 144, असाबा जिल्द 2 सफ़ा 11 कंज़ुल आमाल जिल्द 7 सफ़ा 104, कंज़ुल अल हक़ाएक़ सफ़ा 59)

 

हसनैन (अ.स.) में ख़ुशनवीसी का मुक़ाबला

रसूले करीम (स.अ.) के शहज़ादे इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) ने एक तहरीर लिखी फिर दोनों आपस में मुक़ाबला करने लगे कि किसका ख़त अच्छा है। जब बाहमी फ़ैसला न हो सका तो फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) की खि़दमत में हाज़िर हुए। उन्होंने फ़रमाया अली (अ.स.) के पास जाओ। अली (अ.स.) ने कहा रसूल अल्लाह से फ़ैसला कराओ। रसूले करीम ने इरशाद किया, ऐ नूरे नज़र इसका फ़ैसला तो मेरी लख़्ते जिगर फ़ात्मा ही करेगी उसके पास जाओ। बच्चे दौड़े हुए फिर मां की खि़दमत में हाज़िर हुए। मां ने गले लगा लिया और कहा ऐ मेरे दिल की उम्मीद तुम दोनों का ख़त बेहतरीन है और दोनों ने बहुत ख़ूब लिखा है लेकिन बच्चे न माने और यही कहते रहे मादरे गेरामी दोनों को सामने रख कर सही फ़ैसला दीजिये। मां ने कहा अच्छा बेटा, लो अपना गुलू बन्द तोड़ती हूँ उसके दाने चुनो, फ़ैसला ख़ुदा करेगा। सात दानों का गुलू बंद टूटा, ज़मीन पर दाने बिखरे, बच्चों ने हाथ बढ़ाए और तीन तीन दानों पर दोनों ने क़ब्ज़ा कर लिया और एक दाना जो रह गया उसकी तरफ़ दोनों के हाथ बराबर से बढ़े। हुक्मे ख़ुदा वन्दे आलम हुआ जिब्राईल दानों के दो टुकड़े कर दो। एक हसन (अ.स.) ने ले लिया और एक हुसैन (अ.स.) ने उठा लिया। मां ने बढ़ कर दोनों के बोसे लिये और कहा क्यों बच्चों मैं न कहती थी कि तुम दोनों के ख़त अच्छे हैं और एक की दूसरे के ख़त पर तरजीह नहीं है। (ख़ासेतुल मसाएब सफ़ा 335) क़ारी अब्दुल वुदूद शम्स लखनवी खलफ़ मौलवी अब्दुल हकीम उस्ताद मौलवी शेख़ अब्दुल शकूर मुदीर अल नजम पाटा नाला लखनऊ, भारत, अपने एक क़सीदे में लिखते हैं।

दोनों भाई एक दिन , मादर से यह कहने लगे।

आप फ़रमाएं कि लिखना किसको बेहतर आ गया।।

सात मोती रख के फ़रमाया , कि जो ज़ाएद उठाये।

एक मोती , दो हुआ , हिस्सा बराबर हो गया।।

 

जन्नत से कपड़े और फ़रज़न्दाने रसूल (स.अ.) की ईद

इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) का बचपन है। ईद आने को है और इन असखि़याये आलम के घर में नये कपड़े का क्या ज़िक्र पुराने कपड़े बल्कि जौ की रोटियां तक नहीं हैं। बच्चों ने मां के गले में बाहें डाल दीं। मादरे गेरामी मदीने के बच्चे ईद के दिन ज़र्क़ बर्क़ कपड़े पहन कर निकलेंगे और हमारे पास नये कपड़े नहीं हैं। हम किस तरह ईद मनायेंगे। माँ ने कहा बच्चों घबराओ नहीं तुम्हारे कपड़े दरज़ी लायेगा। ईद की रात आई , बच्चों ने फिर मां से कपड़ों का तक़ाज़ा किया। माँ ने वही जवाब दे कर नौनिहालों को ख़ामोश कर दिया। अभी सुबह न हो पाई थी कि एक शख़्स ने दरवाज़े पर आवाज़ दी, दरवाज़ा खटखटाया, फ़िज़्ज़ा दरवाज़े पर गईं। एक शख़्स ने एक गठरी लिबास की दी। फ़िज़्ज़ा ने उसे सय्यदा ए आलम की खि़दमत में पेश किया। अब जो खोला तो उसमें दो छोटे छोटे अम्मामे, दो क़बाऐं, दो अबाऐं ग़रज़ की तमाम ज़रूरी कपड़े मौजूद थे। माँ का दिल बाग़ बाग़ हो गया। वह समझ गईं कि यह कपड़े जन्नत से आये हैं लेकिन मुँह से कुछ नहीं कहा। बच्चों को जगाया कपड़े दिये। सुबह हुई, बच्चों ने जब कपड़ों के रंग की तरफ़ नज़र की तो कहा मादरे गेरामी यह तो सफ़ैद कपड़े हैं। मदीने के बच्चे रंगीन कपड़े पहने होंगे। अम्मा जान हमें रंगीन कपड़े चाहिये। हुज़ूरे अनवर (स.अ.) को इत्तेला मिली, तशरीफ़ लाये। फ़रमाया घबराओ नहीं तुम्हारे कपड़े अभी अभी रंगीन हो जायेंगे। इतने में जिब्राईल आफ़ताबा (एक बड़ा और चौड़ा बरतन) लिये हुए आ पहुँचे। उन्होंने पानी डाला, मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के इरादे से कपड़े सब्ज़ और सुखऱ् हो गये। सब्ज़ (हरा) जोड़ा हसन (अ.स.) ने पहना और सुखऱ् जोड़ा हुसैन (अ.स.) ने जे़गे तन किया। माँ ने गले लगाया, बाप ने बोसे दिये, नाना ने अपनी पुश्त पर सवार कर के मेहार के बदले अपनी ज़ुल्फ़ें हाथो में दे दीं और कहा मेरे नौनिहालों, रिसालत की बाग तुम्हारे हाथ में है। जिधर चाहो मोड़ो और जहां चाहो ले चलो। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 189 बेहारूल अनवार) बाज़ उलेमा का कहना है कि सरवरे कायनात बच्चों को पुश्त पर बिठा कर दोनों हाथो पैरों से चलने लगे और बच्चों की फ़रमाईश पर ऊंट की आवाज़ मुंह से निकालने लगे। (कशफ़ुल महजूब)

 

गिरया ए हुसैनी और सदमा ए रसूल (स.अ.)

इमाम शिबलंजी और अल्लामा बदख़्शी लिखते हैं कि ज़ैद इब्ने ज़ियाद का बयान है कि एक दिन आं हज़रत (स.अ.) ख़ाना ए आयशा से निकल कर कहीं जा रहे थे, रास्ते में फ़ात्मा ज़हरा (अ.स.) का घर पड़ा। उस घर में से इमाम हुसैन (अ.स.) के रोने की आवाज़ बरामद हुई। आप घर में दाखि़ल हो गए और फ़रमाया ऐ फ़ात्मा ‘‘ अलम तालमी अन बक़ाराह यूज़ीनी ’’ क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हुसैन (अ.स.) के रोने से मुझे किस क़द्र तकलीफ़ और अज़ीयत पहुँचती है। (नूरूल अबसार सफ़ा 114 व मम्बए अहतमी जिल्द 9 सफ़ा 201 व ज़ख़ाएर अल अक़बा सफ़ा 123) बाज़ उलमा का बयान है कि एक दिन रसूले ख़ुदा (स.अ.) कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक मदरसे की तरफ़ से गुज़र हुआ। एक बच्चे की आवाज़ कान में आई जो हुसैन (अ.स.) की आवाज़ से बहुत ज़्यादा मिलती थी। आप दाखि़ले मदरसा हुए और उस्ताद को हिदायत की कि इस बच्चे को न मारा करो क्यों कि इसकी आवाज़ मेरे बच्चे हुसैन से बहुत मिलती है।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की सरदारीए जन्नत

पैग़म्बरे इस्लाम की यह हदीस मुसल्लेमात और मुतावातेरात में से है कि ‘‘ अल हसन वल हुसैन सय्यदे शबाबे अहले जन्नतः व अबु हुमा ख़ेर मिन्हमा ’’ हसन व हुसैन जवानाने जन्नत के सरदार हैं और उनके पदरे बुज़ुर्गवार इन दोनों से बेहतर हैं। (इब्ने माजा) सहाबी ए रसूल जनाबे हुज़ैफ़ा यमानी का बयान है कि मैंने एक दिन सरवरे कायनात (स.अ.) को बेइन्तेहा ख़ुश देख कर पूछा, हुज़ूर इफ़राते मसर्रत की क्या वजह है? आप ने फ़रमाया ऐ हुज़ैफ़ा ! आज एक ऐसा मलक नाज़िल हुआ है जो मेरे पास इससे पहले नहीं आया था उसने मेरे बच्चों की सरदारिये जन्नत पर मुबारक बाद दी है और कहा है कि ‘‘ अन फ़ातमा सय्यदुन निसाए अहले जन्नतः व अनल हसन वल हुसैन सय्यदे शबाबे अहले जन्नतः ’’ फ़ात्मा जन्नत की औरतों की सरदार और हसनैन जन्नत के मरदों के सरदार हैं। (कन्ज़ुल आमाल जिल्द 7 सफ़ा 107, तारीख़ुल ख़ोलफ़ा सफ़ा 132, असदउल ग़ाबा सफ़ा 12, असाबा जिल्द 2 सफ़ा 12, तिर्मिज़ी शरीफ़, मतालेबुल सुवेल सफ़ा 242, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 114) इस हदीस से सियादते अलविया का मसला भी हल हो गया। क़तए नज़र इसके कि हज़रत अली (अ.स.) में मिसले नबी सियादत का ज़ाती शरफ़ मौजूद था और ख़ुद सरवरे कायनात ने बार बार आपकी सियादत की तसदीक़ सय्यदुल अरब, सय्यदुल मुत्तक़ीन, सय्यदुल मोमेनीन वग़ैरा जैसे अल्फ़ाज़ से फ़रमाई है। हज़रत अली (अ.स.) सरदाराने जन्नत इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) से बेहतर होना वाज़ेह करता है कि आपकी सियादत मुसल्लम ही नहीं बल्कि बहुत बलन्द दरजा रखती है। यही वजह है कि मेरे नज़दीक जुमला अवलादे अली (अ.स.) सय्यद हैं। यह और बात है कि बनी फ़ात्मा के बराबर नहीं हैं।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) आलमे नमाज़ में पुश्ते रसूल (स.अ.) पर

ख़ुदा ने जो शरफ़ इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) को अता फ़रमाया है वह औलादे रसूल (स.अ.) के सिवा किसी को नसीब नहीं। इन हज़रात की ज़िक्र इबादत और उनकी मोहब्बत इबादत यह हज़रात अगर पुश्ते रसूल (स.अ.) पर आलमे नमाज़ में सवार हो जायें तो नमाज़ में कोई ख़लल वाक़े नहीं होता। अकसर ऐसा होता था कि यह नौनेहाले रिसालत पुश्ते रसूल (स. स.) पर आलमे नमाज़ में सवार हो जाया करते थे और जब कोई मना करना चाहता था तो आप इशारे से रोक दिया करते थे और कभी ऐसा भी होता था कि आप सजदे में उस वक़्त तक मशग़ूले ज़िक्र रहा करते थे जब तक बच्चे आपकी पुश्त से ख़ुद न उतर आयें। आप फ़रमाया करते थे, ख़ुदाया मैं इन्हें दोस्त रखता हूँ तू भी इनसे मोहब्बत कर। कभी इरशाद होता था , ऐ दुनिया वालों ! अगर मुझे दोस्त रखते हो तो मेरे बच्चों से भी मोहब्बत करो। (असाबा सफ़ा 12 जिल्द 2, मुसतदरिक इमाम हाकिम व मतालेबुल सुवेल सफ़ा 223)

 

हदीसे हुसैनो मिन्नी

सरवरे कायनात (स.अ.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) के बारे में इरशाद फ़रमाया है कि ऐ दुनिया वालों ! बस मुख़्तसर यह समझ लो कि, ‘‘ हुसैनो मिन्नी व अना मिनल हुसैन ’’ हुसैन मुझ से है और मैं हुसैन से हूँ । ख़ुदा उसे दोस्त रखे जो हुसैन को दोस्त रखे। (मतालेबुल सुवेल, सफ़ा 242, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 114, नूरूल अबसार सफ़ा 113 व सही तिर्मिज़ी जिल्द 6 सफ़ा 307, मुस्तदरिक इमाम हाकिम जिल्द 3 सफ़ा 177 व मस्नदे अहमद जिल्द 4 सफ़ा 972 असदउल ग़ाबता जिल्द 2 सफ़ा 91 कंज़ुल आमाल, जिल्द 4 सफ़ा 221)

 

मकतूबाते बाबे जन्नत

सरवरे कायनात हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) इरशाद फ़रमाते हैं कि शबे मेराज जब मैं सैरे आसमानी करता हुआ जन्नत के क़रीब पहुँचा तो देखा कि बाबे जन्नत पर सोने के हुरूफ़ में लिखा हुआ है। ‘‘ ला इलाहा इल्ललाह मोहम्मदन हबीब अल्लाह अलीयन वली अल्लाह व फ़ात्मा अमत अल्लाह वल हसन वहल हुसैन सफ़ुत अल्लाह व मिनल बुग़ज़हुम लानत अल्लाह ’’

तरजुमाः ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं, मोहम्मद (स.अ.) अल्लाह के हबीब हैं, अली (अ.स.) अल्लाह के वली हैं, फ़ात्मा (स.अ.) अल्लाह की कनीज़ हैं, हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) अल्लाह के बुरगुज़ीदा हैं और उनसे बुग़्ज़ रखने वालों पर ख़ुदा की लानत हैं।

(अरजहुल मतालिब बाब 3 सफ़ा 313 तबा लाहौर 12510)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) और सिफ़ाते हसना की मरकज़ीयत

यह तो मालूम ही है कि इमाम हुसैन (अ.स.) हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के नवासे हज़रत अली (अ.स.) व फ़ात्मा (स.अ.) के बेटे और इमाम हसन (अ.स.) के भाई थे और इन्हीं हज़रात को पंजेतन कहा जाता है, और इमाम हुसैन (अ.स.) पंजेतन के आख़री फ़र्द हैं। यह ज़ाहिर है कि आखि़र तक रहने वाले और हर दौर से गुज़रने वाले के लिये इक़तेसाब सिफ़ाते हसना के इम्कानात ज़्यादा होते हैं। इमाम हुसैन (अ.स.) 3 शाबान 4 हिजरी को पैदा हो कर सरवरे कायनात (स.अ.) की परवरिश व परदाख़्त और आग़ोशे मादर में रहे और कसबे सिफ़ात करते हरे। 28 सफ़र 11 हिजरी को जब आं हज़रत (स.अ.) शहादत पा गये और 3 जमादिउस्सानी को मां की बरकतों से महरूम हो गये तो हज़रत अली (अ.स.) ने तालिमाते इलाहिया और सिफ़ाते हसना से बहरावर किया। 21 रमज़ान 40 हिजरी को आपकी शहादत के बाद इमाम हसन (अ.स.) के सर पर ज़िम्मेदारी आयद हुई। इमाम हसन (अ.स.) हर क़िस्म की इस्तेमदाद व इस्तेयानते ख़ानदानी और फ़ैज़ाने बारी में बराबर के शरीक रहे।

28 सफ़र 50 हिजरी को जब इमाम हसन (अ.स.) शहीद हो गये तो इमाम हुसैन (अ.स.) सिफ़ाते हसना के वाहिद मरक़ज़ बन गए। यही वजह है कि आप में जुमला सिफ़ाते हसना मौजूद थे और आपके तरज़े हयात में मोहम्मद (स.अ.) व अली (अ.स.), फ़ात्मा (स.अ.) और हसन (अ.स.) का किरदार नुमायां था और आपने जो कुछ किया क़ुरआन और हदीस की रौशनी में किया। कुतुबे मक़ातिल में है कि करबला में जब इमाम हुसैन (अ.स.) रूख़्सते आखि़र के लिये ख़ेमे में तशरीफ़ लाये तो जनाबे ज़ैनब ने फ़रमाया था कि ऐ ख़ामेसे आले एबा आज तुम्हारी जुदाई के तसव्वुर से ऐसा मालूम होता है कि मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) अली ए मुर्तुज़ा (अ.स.) फ़ात्मा (स.अ.) हसने मुजतबा (अ.स.) हम से जुदा हो रहे हैं।

 

हज़रत उमर का एतेराफ़े शरफ़े आले मोहम्मद (स.अ.)

अहदे उमरी में अगर चे पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) की आंखें बन्द हो चुकी थीं और लोग मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की खि़दमत और तालिमात को पसे पुश्त डाल चुके थे लेकिन फिर भी कभी कभी ‘‘ हक़ बर ज़बान जारी ’’ के मुताबिक़ अवाम सच्ची बातें सुन ही लिया करते थे। एक मरतबा का ज़िक्र है कि हज़रत उमर मिम्बरे रसूल पर ख़ुत्बा फ़रमा रहे थे। नागाह हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का उधर से गुज़र हुआ। आप मस्जिद में तशरीफ़ ले गये और हज़रत उमर की तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोले ‘‘ अन्ज़ल अन मिम्बर अबी ’’ मेरे बाप के मिम्बर पर से उतर आईये और जाईये अपने बाप के मिम्बर पर बैठिये। हज़रत उमर ने कहा मेरे बाप का तो कोई मिम्बर नहीं है। उसके बाद मिम्बर पर से उतर कर इमाम हुसैन (अ.स.) को अपने हमराह अपने घर ले गये और वहां पहुँच कर पूछा कि साहब ज़ादे तुम्हंे यह बात किसने सिखाई है तो उन्होंने फ़रमाया कि मैंने अपने से कहा है, मुझे किसी ने नहीं सिखाया। उसके बाद उन्होंने कहा मेरे माँ बाप तुम पर फ़िदा हों, कभी कभी आया करो। आपने फ़रमाया बेहतर है। एक दिन आप तशरीफ़ ले गये तो हज़रत उमर को माविया से तनहाई में महवे गुफ़्तुगू पा कर वापस चले गये। जब इसकी इत्तेला हज़रत उमर को हुई तो उन्होंने महसूस किया और रास्ते में एक दिन मुलाक़ात पर कहा कि आप वापस क्यों चले आये थे। फ़रमाया कि आप महवे गुफ़्तुगू थे, इस लिये मैं अब्दुल्लाह इब्ने उमर के हमराह वापस आया। हज़रत उमर ने कहा फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) मेरे बेटे से ज़्यादा तुम्हारा हक़ है। ‘‘ फ़ा अन्नमा अन्ता मातरी फ़ी दो सना अल्लाह सुम अनतुम ’’ इस से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मेरा वुजूद तुम्हारे सदक़े में है।

(असाबा जिल्द 2 सफ़ा 25 कनज़ुल आमाल जिल्द 7 सफ़ा 107 व इज़ालतुल ख़फ़ा जिल्द 3 सफ़ा 80 व तारीख़े बग़दाद जिल्द 1 पेज न. 141)

 

इब्ने उमर का एतराफ़े शरफ़े हुसैनी

इब्ने हरीब रावी हैं कि एक दिन अब्दुल्लाह इब्ने उमर ख़ाना ए काबा के साय में बैठे हुए लोगों से बातें कर रहे थे कि इतने में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) सामने से आते हुए दिखाई दिये इब्ने उमर ने लोगों की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा कि यह शख़्स यानी इमाम हुसैन (अ.स.) अहले आसमान के नज़दीक तमाम अहले ज़मीन से ज़्यादा महबूब हैं। (असाबा जिल्द 2 सफ़ा 15)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की रक़ाब

इब्ने अब्बास के हाथों में सिपहर काशानी लिखते हैं कि एक मरतबा हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) घोड़े पर सवार हो रहे थे। हज़रत इब्ने अब्बास सहाबिये रसूल (स.अ.) की नज़र आप पर पड़ी तो आप ने दौड़ कर हज़रत की रक़ाब थाम ली और इमाम हुसैन (अ.स.) को सवार कर दिया। यह देख कर किसी ने कहा कि ऐ इब्ने अब्बास तुम तो इमाम हुसैन (अ.स.) से उम्र और रिश्ते दोनों में बड़े हो, फिर तुम ने इमाम हुसैन (अ.स.) की रक़ाब क्यों थामी? आपने गु़स्से में फ़रमाया कि ऐ कमबख़्त तुझे क्या मालूम कि यह कौन हैं और इनका शरफ़ क्या है। यह फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हैं, इन्हीं के सदक़े में नेमतों से भरपूर और बहरावर हूँ अगर मैंने इनकी रकाब थाम ली तो क्या हुआ। (नासेख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 45)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की गर्दे क़दम और जनाबे अबू हुरैरा

कौन है जो जनाबे अबू हुरैरा के नाम से वाक़िफ़ न हो आप ही वह हैं जिन पर साबिक़ की हुकूमतों को बड़ा एतमाद था और आप पर एतमाद की यह हद थी कि माविया ने जब अमीरल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के खि़लाफ़ हदीसें गढ़ने की स्कीम बनाई थी तो उन्हीं को इस स्कीम का रूहे रवां क़रार दिया था। (मीज़ान अल बक़रा इमाम शेरानी सफ़ा 21) आप को हज़रत अली (अ.स.) से अक़ीदत भी थी आप नमाज़ हज़रत अली (अ.स.) के पीछे पढ़ते थे और खाना माविया के दस्तरख़्वान पर खाते थे। आप फ़रमाते थे कि इबादत का लुत्फ़ अली (अ.स.) के साथ और खाने का मज़ा माविया के साथ है।

मुवर्रिख़ तबरी का बयान है कि एक मय्यत में इमाम हुसैन (अ.स.) और जनाबे अबू हुरैरा ने शिरकत की और दोनों हज़रात साथ ही चल रहे थे। रास्ते में थोड़ी देर के लिये रूक गये तो अबू हुरैरा ने झट रूमाल निकाल कर हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के पाये मुबारक और तूतियों से गर्द झाड़ना शुरू कर दिया। इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया ऐ अबू हुरैरा ! तुम यह क्या करते हो, मेरे पैरों और जूतियों से गर्द क्यों झाड़ने लगे? आपने अर्ज़ कि ‘‘ दाअनी मिनका फ़लो या लम अलनास मिनका मा अलम लहमलूक अला अवा तक़ाहुम ’’ ‘‘ मौला मुझे मना न किजीये, आप इसी क़ाबिल हैं कि मैं आपकी गर्दे क़दम साफ़ करूं। मुझे यक़ीन है कि अगर लोगों को आपके फ़ज़ाएल और आपकी वह बढ़ाई मालूम हो जाय जो मैं जानता हूँ तो यह लोग आपको अपने कंधों पर उठाये फिरें ’’ (तारीख़े तबरी जिल्द 3 सफ़ा 19 तबअ मिस्र)

 

इमाम हुसैन (..) का ज़ुर्रियते नबी में होना

हज़रत इमाम हसन (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के ज़ुर्रियते नबी में होने पर आयते मुबाहेला गवाह है। रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अबनअना की तामील व तकमील हसनैन (अ.स.) ही से की थी। यह उनके फ़रज़न्दाने रसूल होने की दलीले मोहकम हैं जिसके बाद किसी एतराज़ की गुन्जाईश नहीं रहती। आसिम बिन बहदेला कहते हैं कि एक दिन हम लोग हज्जाज बिन युसूफ़ के पास बैठे हुए थे कि इमाम हुसैन (अ.स.) का ज़िक्र आ गया। हज्जाज ने कहा उनका ज़ुर्रियते रसूल (स.अ.) से कोई ताअल्लुक़ नहीं। यह सुनते ही यहिया बिन यामर ने कहा ‘‘ कुन्बत अहिय्या अल अमीर ’’ अमीर यह बात बिल्कुल ग़लत है और झूठ है वह यक़ीनन जु़र्रियते रसूल (स.अ.) में से हैं। यह सुन कर उसने कहा कि इसका सुबूत क़ुरआने मजीद से पेश करो। ‘‘ अवला क़तलनका क़तलन ’’ वरना तुम्हें बुरी तरह क़त्ल करूंगा। यहिया ने कहा क़ुरआन मजीद में है। ‘‘ व मन ज़ुर्रियते दाऊदो सुलैमान ........ व ज़करया व यहिया व ईसा ’’ इस आयत में ज़ुर्रियते आदम में हज़रते ईसा भी बताये गये हैं जो अपनी मां की तरफ़ से शमिल हुये हैं। बस इसी तरह इमाम हुसैन (अ.स.) भी अपनी मां की तरफ़ से ज़ुर्रियते रसूल (स.अ.) में हैं। हज्जाज ने कहा यह सही है लेकिन मजमें में तुमने मेरी तक़ज़ीब (बे इज़्ज़ती) की है लेहाज़ा तुम्हें शहर बदर किया जाता है। इसके बाद उन्हें ख़ुरासान भेज दिया। (मुस्तदरिक सहीहीन जिल्द 3 सफ़ा 164)

 

करमे हुसैनी की एक मिसाल

इमाम फ़ख़रूद्दीन राज़ी तफ़सीरे कबीर में ज़ेरे आयत ‘‘ अल आदम अल असमा कुल्लेहा ’’ लिखते हैं कि एक एराबी ने खि़दमते इमाम हुसैन (अ.स.) में हाज़िर हो कर कुछ मांगा और कहा कि मैंने आपके जद्दे नामदार से सुना है कि जब कुछ मांगना हो तो चार क़िस्म के लोगों से मांगों। 1. शरीफ़ अरब से, 2. करीम हाकिम से, 3. हामिले क़ुरआन से, 4. हसीन शक्ल वाले से। मैं आपमें यह जुमला सिफ़ात पाता हूँ इस लिये मांग रहा हूँ। आप शरीफ़े अरब हैं। आपके नाना अरबी हैं। आप करीम हैं क्यों कि आपकी सीरत ही करम है। क़ुरआने पाक आपके घर में नाज़िल हुआ है। आप सबीह व हसीन हैं। रसूले ख़ुदा (स.अ.) का इरशाद है कि जो मुझे देखना चाहे वह हसन व हुसैन को देखे। लेहाज़ा अर्ज़ है कि मुझे अतीये से सरफ़राज़ फ़रमाईये। आपने फ़रमाया कि जद्दे नामदार ने फ़रमाया है कि ‘‘ अल मारूफ़ बे क़दरे अल मारफ़ते ’’ मारफ़त के मुताबिक़ अतिया देना चाहिये। तू मेरे सवालात का जवाब दे, 1. बता सब से बेहतर अमल क्या है? उसने कहा अल्लाह पर ईमान लाना। 2. हलाकत से नजात का ज़रिया क्या है? उसने कहा अल्लाह पर भरोसा करना। 3. मरद की ज़ीनत क्या है? कहा ‘‘ इल्म मय हिल्म ’’ ऐसा इल्म जिसके साथ हिल्म हो, आपने फ़रमाया दुरूस्त है। उसके बाद आप हंस पड़े। ‘‘ वरमी बिल सीरते इल्हे ’’ और एक बड़ा कीसा उसके सामने डाल दिया। (फ़ज़ाएल उल ख़मसते मिन सहायसित्ता जिल्द 3 सफ़ा 268)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की एक करामत

तबाक़ात इब्ने सआद जिल्द 5 सफ़ा 107 में है कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) मदीने से मक्के जाने के लिये निकले तो रास्ते में इब्ने मतीह मिल गये। वह उस वक़्त कुआं खोद रहे थे। पूछा मौला कहां का इरादा है? फ़रमाया मक्के जा रहा हूँ, शायद मेंरा आख़री सफ़र हो। यह सुन कर उन्होंने अर्ज़ की मौला इस सफ़र को मुलतवी कर दिजीए। फ़रमाया मुम्किन नहीं है। फिर बात ही बात में उन्होंने अर्ज़ कि मैं कुआं खोद रहा हूँ। अकसर इधर पानी खारा निकलता है। आप दुआ कर दें पानी मीठा हो और कसीर हो । आपने थोड़ा पानी जो उस वक़्त बरामद हुआ था ले कर चखा और उसमें कुल्ली कर के कहा कि इसे कुएं में डाल दो। चुनान्चे उन्होंने ऐसा ही किया। ‘‘ फ़जब वमही ’’ उसका पानी शीरीं (मीठा) और कसीर हो गया।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की नुसरत के लिये रसूले करीम (स.अ.) का हुक्म

अनस बिन हारिस जो सहाबी ए रसूल और असहाबे सुफ़फ़ा में से में थे, का बयान करते है, मैंने देखा है कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) एक दिन रसूले ख़ुदा (स.अ.) की गोद में थे और वह उनको प्यार कर रहे थे। इसी दौरान में फ़रमाया ‘‘ अन अम्बी हाज़ा यक़तेदा बारे ज़ैने यक़ाला लहा करबल फ़मन शोहदा ज़ालेका फ़ल यनसेरहा ’’ कि मेरा यह फ़रज़न्द ‘‘ हुसैन ’’ उस ज़मीन पर क़त्ल किया जायेगा जिसका नाम करबला है। देखो तुम में से उस वक़्त जो भी मौजूद हो उसके लिये ज़रूरी है कि उसकी मद्द करे।

रावी का बयान है कि असल रावी और चश्म दीद गवाह अनस बिन हारिस जो कि उस वक़्त मौजूद थे वह इमाम हुसैन (अ.स.) के हमराह करबला में शहीद हो गये थे।

(असदुल ग़ाबेआ जिल्द 1 सफ़ा 123 व सफ़ा 349, असाबा जिल्द 1 सफ़ा 48, कन्ज़ुल आमाल जिल्द 6 सफ़ा 223, ज़ख़ायर अल अक़बा मुहिब तबरी सफ़ा 146)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की इबादत

उलेमा व मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ज़बरदस्त इबादत गुज़ार थे। आप शबो रोज़ में बेशुमार नमाज़ें पढ़ते और अनवाए अक़साम इबादत से सरफ़राज़ होते थे। आपने अच्चीस हज पा पियादा किए और यह तमाम हज ज़माना ए क़यामे मदीने मुनव्वरा में फ़रमाए थे। इराक़ में क़याम के दौरान आपको अमवी हंगामा आराइयों की वजह से किसी हज का मौक़ा नहीं मिल सका। (असद उल ग़ाबा जिल्द 3 सफ़ा 27)

 

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की सख़ावत

मसनदे इमामे रज़ा सफ़ा 35 में है कि सख़ी दुनियां के सरदार और मुत्तक़ी आख़ेरत के लोगों के सरदार होते हैं। इमाम हुसैन (अ.स.) सख़ी ऐसे थे जिनकी मिसाल नहीं। उलमा का बयान है कि उसामा इब्ने ज़ैद सहाबिए रसूल (स.अ.) बीमार थे, इमाम हुसैन (अ.स.) उन्हे देखने के लिये तशरीफ़ ले गये तो आपने महसूस किया कि वह बेहद रंजीदा हैं। पूछा ऐ मेरे नाना के सहाबी क्या बात है? ‘‘वाग़माहो’’  क्यों कहते हो? अर्ज़ कि मौला साठ हज़ार दिरहम का क़र्ज़ दार हूँ। आपने फ़रमाया घबराओ नहीं उसे मैं उसे अदा कर दूंगा । चुनान्चे आपने अपनी ज़िन्दगी में ही उन्हें क़रज़े के बार से सुबुक दोश फ़रमा दिया।

एक दफ़ा एक देहाती शहर में आया और उसने लोगों से दरयाफ़्त किया कि यहां सब से ज़्यादा सख़ी कौन है? लोगों ने इमाम हुसैन (अ.स.) का नाम लिया। उसने हाज़िरे खि़दमत हो कर बा ज़रिये अशआर सवाल किया। हज़रत ने चार हज़ार अशरफ़ियां इनायत फ़रमा दीं। शईब ख़ज़ाई का कहना है कि शहादते इमामे हुसैन (अ.स.) के बाद आपकी पुश्त पर बार बरदारी के घट्टे देखे गये। जिसकी वज़ाहत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने यह फ़रमाई थी कि आप अपनी पुश्त पर लाद कर अशरफ़ियां और ग़ल्लों के बोरे बेवाओं और यतीमो के घर रात के वक़्त पहुंचाया करते थे। किताबों में है कि आपके एक ग़ैर मासूम फ़रज़न्द को अब्दुल रहमान सलमा ने सुरा ए हम्द की तालीम दी, आपने एक हज़ार अशरफ़ियां और एक हज़ार क़ीमती ख़लअतें इनायत फ़रमाई।

(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 4 सफ़ा 74)

 

इमाम शिब्लंजी और अल्लामा इब्ने मोहम्मद तल्हा शाफ़ेई ने नूरूल अबसार और मतालेबुल सुवेल में एक अहम वाक़ेया आपकी सिफ़ते सख़ावत के मुताअल्लिक़ तहरीर किया है, जिसे हम इमाम हसन (अ.स.) के हाल में लिख आये हैं क्यों कि इस वाक़िये सख़ावत में वह भी शरीक थे।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) का अम्रे आस को जवाब

एक मरतबा माविया, उमरो आस और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) एक मक़ाम पर बैठे हुए थे। उमरो आस ने पूछा क्या वजह है कि हमारे अवलाद ज़्यादा होती है और आप हज़रात के कम? हज़रत ने उसके जवाब में एक शेर पढ़ा, जिसका तरजुमा यह है कि, कमज़ोर और ज़लील व हक़ीर चिड़यों के बच्चे ज़्यादा और शिकारी परिन्दे बाज़ और शाहीन वग़ैरा के बच्चे क़ुदरतन कम होते हैं। फिर उमरो आस ने पूछा कि हमारी मूंछों के बाल जल्दी सफ़ैद हो जाते हैं और आपके देर में, इसकी वजह क्या है? आपने फ़रमाया कि तुम्हारी औरते गन्दा दहन होती हैं, बा वक़्ते मक़ारबत उनके बुख़ारात से तुम्हारी मूछों के बाल सफ़ैद हो जाते हैं। फिर उसने पूछा कि इसकी क्या वजह है कि आप लोगों की दाढ़ी घनी निकलती है? आपने फ़रमाया कि इसका जवाब तो क़ुरआन में मौजूद है। उसके बाद आपने एक आयत पढ़ी, जिसका तरजुमा यह है। अच्छी ज़मीन से अच्छा सब्ज़ा उगता है और बुरी और ख़बीस ज़मीन से बुरी पैदावार होती है। (पारा 8 रूकू 14) उसके बाद माविया ने उमरो आस को मज़ीद सवाल करने से रोक दिया। तब आपने अरबी के शेर पढ़े, जिसका फ़ारसी में तरजुमा यह है।

नैश अक़रब न अज़ पैए कीं अस्त --- मुक़्तज़ाए तबीअतश ईं अस्त (मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 4 सफ़ा 75 व बेहार जिल्द 1 सफ़ा 148)

 

हज़रत उमर की वसीयत कि सनदे गु़लामी ए अहले बैत का नविशता मेरे कफ़न में रखा जाऐ

उल्माए अहले सुन्नत का बयान है कि एक दिन मंज़िले मनाख़ेरत में अब्दुल्लाह बिन उमर इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) के सामने फ़ख़रो इफ़तेख़ार की बातें करने लगे। यह सुन कर इमाम हसन (अ.स.) ने फ़रमाया कि तुम तो हमारे ग़ुलाम ज़ादे हो। इतनी बढ़ चढ़ कर क्या बातें कर रहे हो। इस पर अब्दुल्लाह बिन उमर रंजीदा हो कर अपने बाप के पास गये और इमाम हसन (अ.स.) ने जो कुछ कहा था उसे बयान किया। यह सुन कर हज़रत उमर ने फ़रमाया कि बेटा यह बात उन से लिख वा लेा, अगर लिख दें तो मेरे कफ़न में रख देना। एक रवायत में है कि उन्होंने लिख दिया और हज़रत उमर ने वसीयत कर दी कि इसे उनके कफ़न में रखा जाय क्यों कि मोहम्मद (स.अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) की ग़ुलामी बख़शिश का ज़रिया है।

यह रवायत इस दर्जा मशहूर है कि शोअरा ने भी इसे नज़म किया है। इस मक़ाम पर रहबरे शरीयत व तरीक़त हज़रत फ़ाज़िल मख़दमू सय्यद मोहम्मद नासिर जलाली मद् ज़िल्लहुल आली की वह नज़म दर्ज करता हूँ जो उन्होंने ज़ेरे उनवान ‘‘ शाने अदब ’’ तहरीर फ़रमाई है। जिसे हाफ़िज़ शफ़ीक़ अहमद नासरी पाक बंगाल जहांगीर रोड, कराची नम्बर 5 रिसाला ‘‘ ख़ून के आंसू ’’ में शाया किया है अगर चे इसके बाज़ मुनदरजात से मुझे इत्तेफ़ाक़ नहीं है। वह तहरीर फ़रमाते हैं

एक दिन इब्ने उमर से यह हसन कहने लगे

जानते हो मेरे नाना थे , शहन शाहे ज़मन

हमसरी का है अगर , मुझसे तुम्हे कुछ दावा

साफ़ कहता हूँ कि यह अमर नहीं मुस्तहसन

जानता हूँ मैं तुम्हें तुम हो ग़ुलाम इब्ने गु़लाम

मेरे रूतबे से ख़बर दार है , हर अहले वतन

सुन के यह बात हुए , इब्ने उमर सख़्त मुलूल

ज़रदिये रूख़ से अयां हो गई दिल की उलझन

देर तक पहले  तो ख़ामोश रहे हैरत से

फिर कहा फ़रते खि़ज़ालत से झुका कर गरदन

आप अपनी ज़बां से जिसे कहते हैं ग़ुलाम

है वह फ़रज़न्दे उमर कौन उमर फ़ख़र ज़मन

आज हैं अहले अरब उन्हीं की सरदारी में

आज है तख़्ते खि़लाफ़त पायही जलवा फ़िगन

नाम से उनके लरज़ जाते हैं दिल शाहों के

काम से उनके एयवाने अरब रशके चमन

मेरी तौक़ीर व शराफ़त की है दुनिया क़ायम

मेरी आज़ादिये अज़मत है जहां पर रौशन

फिर ग़ुलाम इब्ने ग़ुलाम आप मुझे कहते हैं

ग़ौर कीजिए है यही अहदे वफ़ा रसमे कोहन

जाके दरबारे खि़लाफ़त में करूंगा फ़रियाद

है कलाम आपका दर असल बहुत सब्र शिकन

आये इस हाल में नज़दिके उमर इब्ने उमर

अश्क आंखों में अलम दिल में लबों पर शेवन

दाद ख़्वाना तरीक़े से यह फिर अर्ज़ किया

देख लिजिये मुझ इस तरह से कहते हैं हसन

माजरा सुन के यह बेटे से उमर कहने लगे

सच तेरे साथ हसन का है यही तरज़े सुख़न

यूँ तेरी बात का कब दिल को यक़ीं आता है

हाँ अगर शाहे हसन लिख दें यह बातें मनो अन

आये फिर पेशे हसन इब्ने उमर और कहा

है ख़लीफ़ा का यह फ़रमान बा आदाबे हसन

आप लिख दीजिए काग़ज़ पर मुनासिब है यही

साफ़ वह बात कि जिससे है मुझे रंजो मेहन

सुन के इरशाद किया शाहे हसन ने कि सुनो

मुझ को डर है न किसी का न किसी से है जलन

लाओ काग़ज़ की अभी तुमको नविश्ता दे दूँ

किज़्ब के कांटों में उलझा नहीं मेरा दामन

है उमर  मेरे ग़ुलाम , और  मेरे नाना के

एक काग़ज़ पा दिया लिख के यह बे हीना व फ़न

लाये क़िरतासे हसन , पेशे उमर इब्ने उमर

ग़ुस्से के जोश में करते थे सब आज़ा सन सन

सर में सौदा था कि अब होगी हसन को ताजी़र

वहम था होंगे गिरफ़्तार , हसन के  दुश्मन

और था हाले उमर यह कि पढ़ा जब काग़ज़

बल न अबरू पा पड़े आई जबीं पर न शिकन

झूम कर फ़रते मसर्रत से यह इरशाद किया

बारे एहसाने हसन से नहीं  उठती गरदन

दस्ते अक़दस से दिया लिख के ग़ुलामी नामा

मेरी उम्मीद के कांटों को बनाया गुलशन

मिल गई अहमदे मुरसल से गु़लामी की सनद

हो गया पुर दुर्रे मक़सूद से मेरा दामन

दीनो दुनियां में मेरे वास्ते है बाएसे फ़ख़्र

इसे रखना यह वसीयत है मेरे ज़ेरे कफ़न

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की मुनाजात और ख़ुदा की तरफ़ से जवाब

अल्लामा इब्ने शहरे आशोब और अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) एक रात को जनाबे ख़दीजा (अ.स.) की क़ब्र पर तशरीफ़ ले गये। आपके हमराह अनस इब्ने मालिक सहाबिए रसूल भी थे। आपने मज़ारे ख़दीजा (अ.स.) पर नमाज़ें पढ़ीं और आप बारगाहे ख़ुदावन्दी में महवे मुनाजात हो गये, मुनाजात में आपने 6 अश्आर पढ़े जिनमें पहला शेर यह है। ‘‘ या रब या रब अन्ता मौला - फ़ा रहम अबीदन इलैका मलजाहा ’’ तरजुमा ऐ मेरे रब ऐ मेरे रब, तू ही मेरा मौला और आक़ा है। ऐ मालिक तू अपने ऐसे बन्दे पर रहम फ़रमा जिसकी बाज़ गश्त सिर्फ़ तेरी ही तरफ़ है। अभी आपकी मुनाजात तमाम न होने पाई थी कि हातिफ़े गै़बी की मनजूम आवाज़ आई। जिसका पहला शेर है कि

लब्बैक अब्दी वा अन्ता फ़ी कन्फ़ी, व कलमा क़लत क़द अलमनहा

तरजुमा ऐ मेरे बन्दे मैं तेरी सुन्ने के लिये मौजूद हूँ और तू मेरी बारगाह में आया हुआ है। तूने जो कुछ कहा है मैंने अच्छी तरह से सुन लिया है। (मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 78 व बेहार जिल्द 1 सफ़ा 144)

 

जंगे सिफ़्फ़ीन में इमाम हुसैन (अ.स.) की जद्दो जेहद

अगरचे मुवर्रेख़ीन का तक़रीबन इस पर इत्तेफ़ाक़ है कि इमाम हुसैन (अ.स.) अहदे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के हर मारके में मौजूद रहे लेकिन महज़ इस ख़्याल से कि यह रसूले अकरम (स.अ.) की ख़ास अमानत हैं। उन्हें किसी जंग में लड़ने की इजाज़त नहीं दी गई। (अनवारूल हुसैनिया सफ़ा 44) लेकिन अल्लामा शेख़ मेहदी माज़ नदरानी की तहक़ीक़ के मुताबिक़ आपने बन्दिशे आब तोड़ने के लियेय सिफ़्फ़ीन में नबर्द आज़माई फ़रमाई थी। (शजरा ए तूबा, तबा नजफ़े अशरफ़ 1354 हिजरी व बेहारल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 257 तबा ईरान) अल्लामा बाक़र ख़ुरासानी लिखते हैं कि इस मौक़े पर इमाम हुसैन (अ.स.) के हमराह हज़रते अब्बास भी थे।

(किबरियत अल अहमर सफ़ा 25 व ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 26)

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) गिरदाबे मसाएब में (वाक़िए करबला का आग़ाज़)

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) जब पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की ज़िन्दगी के आख़री लम्हात से ले कर इमाम हसन (अ.स.) की हयात के आख़री अय्याम तक बहरे मसाएब व आलाम के साहिल से खेलते हुए ज़िन्दगी के इस अहद में दाखि़ल हुए जिसके बाद आपके अलावा पंजेतन में कोई बाक़ी न रहा तो आपका सफ़ीना ए हयात ख़ुद गिरदाबे मसाएब में आ गया। इमाम हसन (अ.स.) की शहादत के बाद माविया की तमाम तर जद्दो जेहद यही रही कि किसी तरह इमाम हुसैन (अ.स.) का चिराग़े ज़िन्दगी भी इसी तरह गुल कर दें जिस तरह हज़रत अली (अ.स.) और इमाम हसन (अ.स.) की शम्मा ए हयात बुझा चुका है और उसके लिये वह हर क़िस्म का दाँव करता रहा और इससे उसका मक़सद यह था कि यज़ीद की खि़लाफ़त के मनसूबे को परवान चढ़ाये। बिल आखि़र उसने 56 हिजरी में एक हज़ार की जमाअत समेत यज़ीद के लिये बैअत लेने की ग़रज़ से हिजाज़ का सफ़र इख़्तेयार किया और मदीना ए मुनव्वरा पहुँचा। वहां इमाम हुसैन (अ.स.) से मुलाक़ात हुई उसने बैएते यज़ीद का ज़िक्र किया। आपने साफ़ लफ़्ज़ों में उसकी बदकारी का हवाला दे कर इनकार कर दिया। माविया को आपका इन्कार खला तो बहुत ज़्यादा लेकिन चंद उलटे सिधे अल्फ़ाज़ कहने के सिवा और कुछ कर न सका। इसके बाद मदीना और फिर मक्का में बैएते यज़ीद ले कर शाम को वापस चला गया।

अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि माविया ने जब मदीने में बैएत का सवाल उठाया तो हुसैन बिन अली (अ.स.) अब्दुल रहमान बिन अबी बक्र, अब्दुल्लाह इब्ने उमर, अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर ने बैएते यज़ीद से इन्कार कर दिया। उसने बड़ी कोशिश की लेकिन यह लोग न माने और रफ़्ए फ़ितना के लिये इमाम हुसैन (अ.स.) के अलावा सब मदीने से चले गये। माविया उनके पीछे मक्के पहुँचा और वहां उन पर दबाव डाला लेकिन कामयाब न हुआ। आखि़र कार शाम वापस चला गया। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 243) माविया बड़ी तेज़ी के साथ बेएते यज़ीद लेता रहा, और बक़ौल अल्लामा इब्ने क़तीबा इस सिलसिले में उसने टको में लोगों के दीन भी ख़रीद लिये। अल ग़रज़ रजब 60 हिजरी में माविया रख़्ते सफ़र बांध कर दुनिया से चल बसा। यजी़द जो अपने बाप के मिशन को कामयाब करना ज़रूरी समझता था। सब से पहले मदीने की तरफ़ मुतवज्जे हो गया और उसने वहां के वाली वलीद बिन उक़बा को लिखा कि इमाम हुसैन (अ.स.), अब्दुर रहमान इब्ने अबी बक्र, अब्दुल्लाह इब्ने उमर और इब्ने ज़ुबैर से मेरी बैएत ले ले, और अगर यह इन्कार करें तो उनके सर काट कर मेरे पास भेज दे। इब्ने अक़बा ने मरवान से मशविरा किया उसने कहा कि सब बैएत कर लेंगे लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.) हरगिज़ बैएत न करेंगे और तुझे उनके साथ पूरी सख़्ती का बरताव करना पड़ेगा।

साहेबे तफ़सीरे हुसैनी अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि वलीद ने एक शख़्स अब्दुल्लाह इब्ने उमर बिन उस्मान को इमाम हुसैन (अ.स.) और इब्ने ज़ुबैर को बुलाने के लिये भेजा। क़ासिद जिस वक़्त पहुँचा दोनों मस्जिद में महवे गुफ़्तुगू थे। आपने इरशाद फ़रमाया कि तुम चलो हम आते हैं। क़ासिद वापस चला गया और यह दोनांे आपस में बुलाने के सबब पर तबादला ए ख़्याल करने लगे। इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैंने आज एक ख़्वाब देखा है जिससे मैं समझता हूँ कि माविया ने इन्तेक़ाल किया और यह हमें बैएते यज़ीद के लिये बुला रहा है। अभी यह हज़रात जाने न पाये थे कि क़ासिद फिर आ गया और उसने कहा कि वलीद आप हज़रात के इन्तेज़ार में है। इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया कि जल्दी क्या है जा कर कह दे कि हम थोड़ी देर में आ जायेंगे। इसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) दौलत सरा में तशरीफ़ लाये और 30 बहादुरों को हमराह ले कर वलीद से मिलने का क़स्द फ़रमाया , आप दाखि़ले दरबार हो गये और बहादुराने बनी हाशिम बैरूने ख़ाना दरबारी हालात का मुतालेआ करते रहे। वलीद ने इमाम हुसैन (अ.स.) की मुकम्मल ताज़ीम की और माविया के मरने की ख़बर सुना ने के बाद बैएत का ज़िक्र किया। आपने फ़रमाया कि मसला सोच विचार का है तुम लोगों को जमा करो और मुझे भी बुला लो मैं ‘‘ अली रूसे अल शहाद ’’ आम मजमे में इज़्हारे ख़्याल करूंगा। वलीद ने कहा बेहतर है। फिर कल तशरीफ़ लाइयेगा। अभी आप जवाब न देने पाये थे कि मरवान बोल उठा, ऐ वलीद ! अगर हुसैन इस वक़्त तेरे क़ब्ज़े से निकल गये तो फिर हाथ न आयेंगे। उनको इसी वक़्त मजबूर कर दे और अभी बैएत ले ले, और अगर यह इन्कार करें तो हुक्मे यज़ीद के मुताबिक़ सर तन से उतार ले। यह सुन्ना था कि इमाम हुसैन (अ.स.) को जलाल आ गया। आपने फ़रमाया ‘‘ यब्ने ज़रक़ा ’’ किस्में दम है जो हुसैन को हाथ लगा सके, तुझे नहीं मालूम हम आले मोहम्मद (स.अ.) हैं। फ़रिश्तें हमारे घरों में आते जाते रहते हैं। हमें क्यों कर मजबूर किया जा सकता है कि हम यज़ीद जैसे फ़ासिक़ व फ़ाजिर और शराबी की बैएत कर लें। इमाम हुसैन (अ.स.) की आवाज़ बुलन्द होना था कि बहादुराने बनी हाशिम दाखि़ले दरबार हो गये और क़रीब था कि ज़बर दस्त हंगामा बरपा कर दें लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.) ने उन्हें समझा बुझा कर ख़ामोश कर दिया। इसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) वापस दौलत सरा तशरीफ़ ले गये। वलीद ने सारा वाक़ेया लिख कर भेज दिया। उसने जवाब में लिखा कि इस ख़त के जवाब में इमाम हुसैन (अ.स.) का सर भेज दो। वलीद ने यज़ीद का ख़त इमाम हुसैन (अ.स.) के पास भेज कर कहला भेजा कि फ़रज़न्दे रसूल मैं यज़ीद के कहने पर किसी सूरत से अमल नहीं कर सकता, लेकिन आप को बा ख़बर करता हूँ और बताना चाहता हूँ कि यज़ीद आपका ख़ून बहाने के दरपै है। इमाम हुसैन (अ.स.) ने सब्र के साथ हालात पर ग़ौर किया और नाना के रौज़े पर जा कर दरदे दिल बयान किया और बेइन्तेहा रोये। सुबह सादिक़ के क़रीब मकान वापस आये और दूसरी रात को फिर रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर तशरीफ़ ले गये और मुनाजात के बाद रोते रोते सो गये। ख़्वाब में आं हज़रत (स.अ.) को देखा कि आप हुसैन (अ.स.) की पेशानी का बोसा ले रहे हैं और फ़रमा रहे हैं कि ऐ नूरे नज़र अन्क़रीब उम्मत तुम्हंे शहीद कर देगी। बेटा तुम भूखे और प्यासे होंगे, तुम फ़रयाद करते होंगे और कोई तुम्हारी फ़रियाद रसी न करेगा। इमाम हुसैन (अ.स.) की आंख खुल गई, आप दौलत सरा वापस तशरीफ़ लाये और अपने आइज़्ज़ा को जमा कर के फ़रमाने लगे कि अब इसके सिवा कोई चारा कार नहीं है कि मैं मदीना छोड़ दूँ। तरके वतन का फ़ैसला करने के बाद आप, इमाम हसन (अ.स.) और मज़ारे जनाबे सय्यदा (स.अ.) पर तशरीफ़ ले गये। भाई से रूख़सत हुए और मां को सलाम किया क़ब्र से जवाबे सलाम आया। नाना के रौज़े पर रूख़्सते आखि़र के लिये तशरीफ़ ले गये, रोते रोते सो गये, सरवरे कायनात (स.अ.) ने जवाब में सब्र की तलक़ीन की और फ़रमाया बेटा हम तुम्हारे इन्तेज़ार में हैं।

उलेमा का बयान है कि इमाम हुसैन (अ.स.) 28 रजब 60 हिजरी यौमे सेह शम्बा ब इरादा ए मक्का रवाना हुए। अल्लामा इब्ने हजर मक्की का कहना है कि ‘‘ नफ़रूल मकता ख़ौफ़न अला नफ़सहू ’’ इमाम हुसैन (अ.स.) जान के ख़ौफ़ से मक्के को तशरीफ़ ले गये। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 47) आपके साथ तमाम मुख़द्देराते इस्मत व तहारत और छोटे छोटे बच्चे थे। अलबत्ता आपकी एक सहाबज़ादी जिनका नाम फ़ात्मा सुग़रा था और जिनकी उम्र उस वक़्त 7 साल थी, बवहे अलालते शदीद हमराह न जा सकीं। इमाम हुसैन (अ.स.) ने आपकी तीमार दारी के लिये हज़रत अब्बास की मां जनाबे उम्मुल बनीन को मदीने ही में छोड़ दिया था और कुछ फ़रिज़ा ए खि़दमत उम्मुल मोमेनीन जनाबे उम्मे सलमा के सिपुर्द कर दिया था। आप तीन शाबान 60 हिजरी यौमे जुमा को मक्के मोअज़्ज़मा पहुँच गये। आपके पहुँचते ही वालिये मक्का सईद इब्ने आस मक्का से भाग कर मदीने चला गया और वहां से यज़ीद को मक्के के तमाम हालात लिखे और बताया कि लोगों का रूझान इमाम हुसैन (अ.स.) की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहा है कि जिसका जवाब नहीं। यज़ीद ने यह ख़बर पाते ही मक्के में क़त्ले हुसैन (अ.स.) की साज़िश पर ग़ौर करना शुरू कर दिया।

इमाम हुसैन (अ.स.) मक्के मोअज़्ज़मा 4 माह शाबान , रमज़ान, शव्वाल, ज़ीक़ाद मुक़ीम रहे। यज़ीद जो बहर सूरत इमाम हुसैन (अ.स.) को क़त्ल करना चाहता था। उसने यह ख़्याल करते हुए कि हुसैन (अ.स.) अगर मदीने से बच कर निकल गये हैं तो मक्का में क़त्ल हो जायें और मक्के से बच निकलें तो कूफ़ा पहुँच कर शहीद हो सकें। यह इन्तेज़ाम किया कि कूफ़े से 12,000 (बारह हज़ार) ख़ुतूत दौराने क़याम मक्के में पहुँचवाये क्यों कि दुश्मनों को यक़ीन था कि हुसैन (अ.स.) कूफ़े में आसानी से क़त्ल किये जा सकेंगे। न यहां के बाशिन्दों में अक़िदे का सवाल है और न अक़ीदत का। यह फ़ौजी लोग हैं इनकी अक़्लें भी मोटी होती हैं। यही वजह है कि शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) से क़ब्ल जब तक जितने अफ़सर भेजे गये वह महज़ इस ग़र्ज़ से भेजे जाते रहे कि हुसैन (अ.स.) को कूफ़े ले जायें। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 68) और एक अज़ीम लशकर मक्के में शहीद किये जाने के लिये इरसाल किया और तीस 30 ख़्वारजियों को हाजियों के लिबास में ख़ास तौर पर भिजवा दिया जिसका क़ायद उमर इब्ने साअद था। (नासेख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 21, मुन्तखि़ब तरीही ख़ुलासेतुल मसाएब, सफ़ा 150, ज़िकरूल अब्बास 122)

अब्दुल हमीद ख़ान एडीटर मौलवी लिखते हैं कि ‘‘ इसके अलावा एक साज़िश यह भी की गई कि अय्यामे हज में 300 शामियों को भेज दिया गया कि वह गिरोहे हुज्जाज में शामिल हो जायें और जहां जिस हाल में भी हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) को पायें क़त्ल कर डालें। ’’ (शहीदे आज़म सफ़ा 71) ख़ुतूत जो कूफ़े से आये थे उन्हें शरई रंग दिया गया था और वह ऐसे लोगों के नाम से भेजे गये थे जिनसे इमाम हुसैन (अ.स.) मुतारिफ़ थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस का कहना है कि यह ख़ुतूत ‘‘ मन कुल तायफ़तः व जमा अता हर तायफ़ा ’’ और जमाअत की तरफ़ से भीजवाए गये थे। (इसरारूयल शहादतैन सफ़ा 27)

अल्लामा इब्ने हजर का कहना है कि ख़ुतूत भेजने वाले आम अहले कूफ़ा थे। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 117) इब्ने जरीर का बयान है कि इस ज़माने में कूफ़े में एक घर के अलावा कोई शिया न था। (तबरी)

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिये कूफ़े के हालात जानने के लिये जनाबे मुस्लिम इब्ने अक़ील को कूफ़े से रवाना कर दिया।

 

हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील

हज़रत मुस्लिम (अ.स.) हुक्मे इमाम पाते ही सफ़र के लिये रवाना हो गये। शहर से बाहर निकलते ही आपने देखा कि एक सय्यद ने एक आहू (हिरन) का शिकार किया है और उसे छुरी से ज़िब्हा कर डाला। दिल में ख़्याल पैदा हुआ कि इस वाक़ेए को इमाम हुसैन (अ.स.) से बयान करूं तो बेहतर होगा। इमाम हुसैन (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुए और वाक़िया बयान किया। आपने दुआये कामयाबी दी और रवानगी में उजलत की तरफ़ इशारा किया। जनाबे मुस्लिम इमाम हुसैन (अ.स.) के हाथों और पैरों का बोसा दे कर बा चश्में गिरया मक्के से रवाना हो गये। मुस्लिम इब्ने अक़ील के दो बेटे थे। मोहम्मद और इब्राहीम, एक की उम्र 7 साल दूसरे की 8 साल थी। यह दोनों बेटे बारवायत मदीना ए मुनव्वरा में थे। हज़रत मुस्लिम मक्के से रवाना हो कर मदीना पहुँचे और वहां पहुँच कर रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर नमाज़ अदा की और ज़्यारत वग़ैरा से फ़राग़त हासिल कर के अपने घर वारिद हुए। रात गुज़री सुबह के वक़्त अपने बच्चों को ले कर दो रहबरों समैत जंगल के रास्ते से कूफ़ा रवाना हुए। रास्ते में शिद्दते अतश की वजह से इन्तेक़ाल कर गये। आप जिस वक़्त कूफ़ा पहुँचे और वहा जनाबे मुख़्तार इब्ने अबी उबैदा सक़ाफ़ी के मकान पर क़याम फ़रमा हुए। थोड़े दिनों में अट्ठारा हज़ार (18,000) कूफ़ियों ने आपकी बैअत कर ली। इसके बाद बैअत करने वालों की तादाद 30,000 (तीस हज़ार) हो गई। इसी के दौरान यज़ीद ने अब्दुल्लाह इब्ने ज़ियाद को बसरा लिखा कि कूफ़े में इमाम हुसैन (अ.स.) का एक भाई मुस्लिम नामी पहुँच गया है तू जल्द से जल्द वहां पहुँच कर नोमान इब्ने बशीर से हुकूमते कूफ़ा का चार्ज ले ले और मुस्लिम का सर मेरे पास भेज दे। इब्ने ज़ियाद पहली फ़ुरसत में कूफ़े पहुँच गया। इसने दाखि़ले के वक़्त ऐसी शक्ल बनाई कि लोग समझे कि इमाम हुसैन (अ.स.) आ गये हैं लेकिन मुस्लिम इब्ने उमर बहाली ने पुकार कर कहा कि यह इब्ने ज़ियाद है।

हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील को जब इब्ने ज़ियाद की रसीदगी कूफ़े की इत्तेला मिली तो आप ख़ाना ए मुख़्तार से हट कर हानी इब्ने उरवा के मकान में चले गये। इब्ने ज़ियाद ने माक़िल नामी ग़ुलाम के ज़रिए जनाबे मुस्लिम की क़याम गाह का पता लगा लिया। उसे जब यह मालूम हुआ कि मुस्लिम हानि बिन उरवा के मकान में हैं तो हानी को बुलवा भेजा और पूछा कि तुमने मुस्लिम इब्ने अक़ील की हिमायत का बिड़ा उठाया है और वह तुम्हारे घर में हैं? जनाबे हानी ने पहले तो इन्कार कर दिया लेकिन जब माक़िल जासूस सामने लाया गया तो आपने फ़रमाया कि ऐ अमीर ! हम मुस्लिम को अपने घर बुला कर नहीं लाये बल्कि वह ख़ुद आ गये हैं। इब्ने ज़ियाद ने कहा, अच्छा जो सूरत भी हो तुम मुस्लिम को हमारे हवाले करो। जनाबे हानी ने जवाब दिया कि यह बिल्कुल ना मुम्किन है। यह सुन कर इब्ने ज़ियाद ने हुक्म दिया कि हानी को क़ैद कर दिया जाये। जनाबे हानी ने फ़रमाया कि मैं हर मुसिबत को बर्दाश्त करूंगा लेकिन मेहमान को तुम्हारे सिपुर्द न करूंगा। मुख़्तसर यह कि जनाबे हानी जिनकी उम्र 90 साल की थी , को खम्बे में बंधवा कर पांच सौ (500) कोड़े मारने का हुक्म दिया गया। जनाबे हानी बेहोश हो गये। उसके बाद उनका सर काट कर तने मुबारक को दार पर लटका दिया गया।

जब हज़रत मुस्लिम को जनाबे हानी की गिरफ़्तारी का इल्म हुआ तो आप अपने साथियो को ले कर बाहर निकल गये। दुश्मन से घमासान जंग हुई लेकिन क़तीर इब्ने शहाब, मोहम्मद इब्ने अशअस, शिम्र इब्ने ज़िलजौशन, शीस इब्ने रबी के बहकाने और ख़ौफ़ दिलाने से सब डर गये। यहां तक कि नमाज़े मग़रबैन में आपके हमराह सिर्फ़ 30 आदमी थे और जब आपने नमाज़ तमाम की तो कोई भी साथ न था। आपने चाहा कि कूफ़े से बाहर जा कर कहीं रात गुज़ार लें, मगर मोहम्मद इब्ने कसीर ने कहा कि कूफ़े के तमाम रास्ते बन्द हैं आप मेरे मकान में जा ठहरिये। इब्ने ज़ियाद ने बाप और बेटे दोनों को तलब किया और दरबार में निहायत सख़्त और सुस्त कहा। उस वक़्त उनके साथी मोहम्मद इब्ने कसीर और दरबारियों में सख़्त जंग हुई। बिल आखि़र यह बाप और बेटे दोनों शहीद हो गये।

हज़रत मुस्लिम को जब मोहम्मद कसीर की शहादत की इत्तेला मिली तो वह उनके घर से बाहर बरामद हुए। मुस्लिम यह चाहते थे कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाये कि मैं कूफ़े से बाहर चला जाऊँ और इसी कोशिश में घोड़े पर सवार हो कर कूफ़े के हर दरवाज़े पर गये लेकिन किसी दरवाज़े से रास्ता न मिला, क्यों कि हर जगह दो दो हज़ार सिपाहियों का पहरा था, नागाह सुबह हो गई और मुस्लिम नाचार अपना घोड़ा शारए आम पर छोड़ कर एक कूचे में घुस गये और वहां की एक बोसिदा मस्जिद में छुपे रहे। इब्ने ज़ियाद को जैसे यह मालूम था कि कूफ़े ही में मुस्लिम कहीं रू पोश हैं। उसने ऐलान करा दिया कि जो मुस्लिम को गिरफ़्तार कर के लायेगा या उनका सर दरबार में पहुँचायेगा तो उसे काफ़ी माल दिया जायेगा।

हज़रत मुस्लिम ने दिन मस्जिद में गुज़ारा और रात को मस्जिद से निकल कर खडे़ हुए। जनाबे मुस्लिम की हालत भूख और प्यास से ऐसी हो गई थी कि रास्ता चलना दूभर था। आप इसी हालत में एक महल्ले में सर गरदां फिर रहे थे कि आपकी नज़र एक ज़ईफ़ा (बूढ़ी औरत) पर पड़ी, आप उसके क़रीब गये और उससे पानी मांगा। उसने पानी दे कर ख़्वाहिश की कि जल्दी अपनी राह लगें क्यों कि यहां फ़िज़ा बहुत मुकद्दर है। आपने फ़रमाया कि ऐ ‘‘ तौआ ’’ जिसका कोई घर न हो वह कहां जाये। उसने पूछा कि आप कौन हैं? फ़रमाया मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) और अली ए मुर्तुज़ा का भतीजा और इमाम हुसैन (अ.स.) का चचा जा़द भाई हूँ। यह सुन कर ‘‘तौआने आपको अपने घर में जगह दी। आपने रात गुज़ारी लेकिन सुबह होते ही दुश्मन का लशकर आ पहुँचा क्यों कि पिसरे तौआ ने माँ से पोशिदा इब्ने ज़ियाद से चुग़ल ख़ोरी कर दी थी। लशकर का सरदार मोहम्मद बिन अशअस था जो इमाम हसन (अ.स.) की क़ातेला जादा बिन्ते अशअस का सगा भाई था। हज़रत मुस्लिम ने जब तीन हज़ार घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनी तो तलवार ले कर घर से बाहर निकल पड़े और सैकड़ों दुश्मनों को तहे तेग़ कर दिया। बिल आखि़र इब्ने अशअस ने और फ़ौज मांगी। इब्ने ज़ियाद ने कहला भेजा कि एक शख़्स के लिये तीन हज़ार फ़ौज कैसे न काफ़ी है। उसने जवाब दिया कि शायद तूने यह समझा है कि किसी बनिये बक़्क़ाल से लड़ने के लिये भेजा है। ग़र्ज़ कि जब मुस्लिम पर किसी तरह क़ाबू न पाया जा सका तो एक खस पोश गढ़े में आपको गिरा दिया गया, फिर गिरफ़्तार कर के इब्ने ज़ियाद के सामने पेश कर दिया।

इसने हुक्म दिया कि इन्हें कोठे से ज़मीन पर गिरा कर इनका सर काट लिया जाऐ । आपने कुछ वसीयतें की और कोठे से गिरते वक़्त ‘‘ अस्सलामो अलैका या अबा अब्दिल्लाह ’’ कहा और नीचे तशरीफ़ लाये। आपका सर काटा गया। उलमा का बयान है कि आपका और हानी का सर काट कर दमिश्क़ भेज दिया गया और तन बाज़ारे क़साबा में दार पर लटका दिया गया।

एक रवायत में है कि दोनों के पैरों में रस्सी बांध कर बाज़ारों में फिरा रहे थे कि क़बीला ए मुज़हज ने काफ़ी जंगो जिदाल कर के लाशें हासिल कर लीं और दफ़्न कर दिया। मुलाहेज़ा होः (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 260 से 276 तक व कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 68 व ख़ुलासतुल मसाएब सफ़ा 46)

आपकी शहादत 9 ज़िल्हिज 60 हिजरी को वाक़े हुई है।

(अनवारूल मजालिस बाब 9 मजालिस 2 तबा ईरान)

 

मोहम्मद और इब्राहीम की शहादत

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि शहादते हज़रत मुस्लिम के बाद लोगों ने इब्ने ज़ियाद को जनाबे मुस्लिम के दोनों कमसिन लड़कों के कूफ़े में मौजूद होने की ख़बर दी जिनका नाम मोहम्मद व इब्राहीम था। इब्ने ज़ियाद ने इनकी गिरफ़्तारी का हुक्म नाफ़िज़ कर दिया। पिसराने मुस्लिम क़ाज़ी शुरए के घर में पोशीदा थे। सरकारी ऐलान के बाद क़ाज़ी ने बच्चों से कहा कि हमारी और तुम्हारी दोनों की जान अब ख़तरे में है बेहतर यह है कि तुम्हें किसी सूरत से मदीने पहुँचा दिया जाय। बच्चों ने इसे क़ुबूल किया। क़ाज़ी ने अपने बेटे असद को हुक्म दिया कि इन बच्चों को दरवाज़े अराक़ेन के बाहर जो काफ़ला मदीना जाने के लिये ठहरा हुआ है उसमें छोड़ आ। असद उन बच्चों को ले कर जब रात के वक़्त वहां पहुँचा तो काफ़ला रवाना हो चुका था लेकिन इस मक़ाम से नज़र आ रहा था। असद ने बच्चों को उसी काफ़ले के रास्ते पर लगा दिया और घर वापस आया। कमसिन बच्चे थोड़ी दूर चले थे कि काफ़ला नज़रों से ग़ायब हो गया और सुबह हो गई। बच्चे हैरान व सरगरदान फिर रहे थे कि नागाह सरकारी आदमियों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें इब्ने ज़ियाद के पास पहुँचा दिया। उसने उन्हे क़ैद ख़ाने में बन्द कर के यज़ीद को बच्चों की गिरफ़्तारी की इत्तेला दे दी। क़ैद ख़ाने का दरबान इत्तेफ़ाक़न मुहिब्बे आले मोहम्मद (स.अ.) था। उसने रात के वक़्त बच्चों को छोड़ दिया और राहे क़ादसिया पर लगा कर एक अंगूठी दी और कहा कि क़ादसिया में मेरे भाई से मिलना और इस अंगूठी के ज़रिये से ताअर्रूफ़ के बाद उनसे कहना कि वह तुम्हें मदीना पहुँचा दें। बच्चे तो रवाना हो गये लेकिन सुबह होते ही दरबान जिसका नाम ‘‘ मशकूर ’’ था क़त्ल कर दिया गया। उससे पूछा गया कि तूने मुस्लिम के बेटों को क्यों छोड़ दिया? उसने कहा कि ख़ुशनूदिये ख़ुदा के लिये। इब्ने ज़ियाद ने पाँच सौ (500) कोड़े मारने का हुक्म दिया। मशकूर की शहादत के बाद उसे उमर इब्ने अल हारिस ने दफ़्न कर दिया।

पिसराने मुस्लिम बिन अक़ील, मशकूर की मेहरबानी से रिहा हो कर क़ादसिया जा रहे थे। हुदूदे कूफ़ा के अन्दर ही रास्ता भूल गये और सारी रात चक्कर लगा कर सुबह को अपने को कूफ़े में ही पाया। सुबह हो चुकि थी दुश्मन के ख़तरे से दोनों एक दरख़्त पर चढ़ गये। इत्तेफ़ाक़न एक औरत उस जगह पानी भरने आई उसने पानी में परछाई देख कर पूछा कि तुम कौन हो? उन्होंने इतमेनान करने के बाद कहा कि हम मुस्लिम के फ़रज़न्द हैं। उस औरत ने अपनी मलका को ख़बर दी। वह सरो पा बरहैना दौड़ कर आई और इन बच्चों को ले गईं और मकान की एक ख़ाली जगह पर इनको ठहरा दिया। थोड़ी रात गुज़री थी कि इस मोमिना का शौहर ‘‘ हारिस बिन उरवा ’’ सर गर्दा व परेशान घर में आया तो मोमिना ने पूछा कि आज बड़ी रात कर दी ख़ैर तो है? उसने कहा , मशकूर दरबान ने मुस्लिम के बेटों को क़ैद से रिहा कर दिया जिनकी तलाश के लिये इनाम व इकराम इब्ने ज़ियाद की तरफ़ से मुक़र्रर किया गया है। मैं भी अब तक उनकी तलाश में फिर रहा था। हारिस खाना खा कर बिस्तर पर लेट गया। अभी आंख न लगी थी कि बच्चों की सांस की आवाज़ को महसूस कर के उठ खड़ा हुआ, बिवी से पूछा कि यह किस के सांस की आवाज़ आती है? उसने कोई जवाब न दिया। यह उस तहख़ाने की तरफ़ चला जिसमें नौनिहालाने रिसालत जलवा अफ़रोज़ थे। उसकी आहट पा कर एक भाई ने दूसरे को जगा कर कहा कि भय्या अभी मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) अली मुर्तुज़ा (अ.स.) फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) हसने मुजतबा (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) और मेरे बाबा ख़्वाब में तशरीफ़ लाये थे और उन्होंने फ़रमाया कि हम तुम्हारें इन्तेज़ार में हैं। इतने में हारिस अन्दर दाखि़ल हो गया। उन्हें पकड़ कर कहा कि तुम कौन हो? उन्होंने फ़रमाया कि हम तेरे नबी की अवलाद हैं। ‘‘ हर बना मिनल सजन ’’ क़ैद ख़ाने से भाग कर आये हैं और तेरे घर में पनाह ली है। उसने कहा कि तुम क़ैद से भाग कर मौत के मुंह में आ गये हो। उसके बाद उसने उन यतीमों के रूख़सारों (गालों) पर ज़ोर से तमाचे मारे कि यह मुंह के बल गिर पड़े। फिर उसने उनके बाज़ुओं को कस कर बांधा और हाथ पाआंे बांध कर डाल दिया। यह बेचारे सारी रात अपनी बेबसी और बे कसी पर रोते रहे। जब सुबह हुई तो उन्हें नहर पर क़त्ल करने के लिये ले चला। बीवी ने फ़रियाद की, उसे एक तलवारी मारी। गु़लाम ने रोका तो उसे क़त्ल कर दिया। बेटे ने मना किया तो उसे भी क़त्ल कर दिया। अलग़रज़ नहरे फ़ुरात पर ले जा कर क़त्ल करना ही चाहा था कि बच्चों ने कहा कि ऐ शेख़ 1. हमें ज़िन्दा इब्ने ज़ियाद के पास ले चल। 2 हमें बाज़ार में बेच डाल। 3. हमारी कम सिनी पर रहम कर। 4. हमें दो रकअत नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे। उसने कहा कि क़त्ल के सिवा कोई चारा कार नहीं। अलबत्ता अगर नमाज़ पढ़ते हो तो पढ़ लो लेकिन कोई फ़ायदा नहीं है। अल ग़रज़ बच्चों ने वुज़ू किया और दो दो रकअत नमाज़ अदा कि और दुआ के लिये हाथ उठाये। इस मलऊन ने बड़े भाई की गरदन पर तलवार लगाई। सरे मुबारक दूर जा कर गिरा। छोटे भाई ने दौड़ कर सरे मुबारक उठाया लिया और भाई के ख़ून में लौटने लगा। इस ज़ालिम ने बड़े भाई की लाश पानी में डाल दी और छोटे का सर भी काट लिया। जब दोनों लाशें पानी में पहुँची तो बाहम बग़लगीर हो कर डूब गईं। रावी का बयान है कि हारिस ने जिस वक़्त इब्ने ज़ियाद के सामने फ़रज़न्दे मुस्लिम के सर पेश किये ‘‘ क़ाम सुम क़दो फ़ल ज़ालेका सलासन ’’ तो वह तीन मरतबा उठा और बैठा। फिर हुक्म दिया कि यह सर उसी पानी में डाल दिये जायें जिस जगह इनके तन डाले गयें हैं। चुनान्चे एक मुहिब्बे आले मोहम्मद (अ.स.) ने इन सरों को फ़रात में डाल दिया। कहा जाता है कि सरों के पानी में पहुँचते ही डूबे हुए जिस्म सतह आब पर उभर आये और अपने सरों समैत तह नशीन हो गये। अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि वह शख़्स जो मुस्लिम के बेटों के सरों को पानी में डाल ने के लिये लाया था उसका नाम ‘‘ मक़ातिल ’’ था। उसने दोनों सरों को पानी में डालने के बाद हारिस मलऊन को मक़तूल ग़ुलाम और बेटे की लाशों को बाबे बनी ख़ज़ीमा में दफ़्न कर दिया। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 276 से सफ़ा 285 व ख़ुलासतुल मसाएब सफ़ा 421) अल्लामा अरबेली लिखते हैं कि जनाबे मुस्लिम इब्ने अक़ील हानी इब्ने उरवा व मोहम्मद इब्ने कसीर और फ़रज़न्दाने मुस्लिम को ठिकाने लगाने के बाद उमर इब्ने साअद और इब्ने ज़ियाद के माबैन ‘‘ रै ’’ का मोहयदा हो गया और तय पाया कि हुर इब्ने यज़ीद रियाही को सब से पहले दो हज़ार सवारों समैत रवाना कर के इमाम हुसैन (अ.स.) को गिरफ़्तार कराया जाए और उन्हें कूफ़े ला कर क़त्ल क र दिया जाय। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 68)

 

मक्के मोअज़्ज़मा में इमाम हुसैन (अ.स.) की जान बच न सकी

यह वाक़ेया है कि इमाम हुसैन (अ.स.) मदीना ए मुनव्वरा से इस लिये आज़िमे मक्का हुए थे कि यहां उनकी जान बच जायेगी लेकिन आपकी जान लेने पर ऐसा सफ़्फ़ाक दुश्मन लगा हुआ था जिसने मक्का ए मोअज़्ज़मा और काबा ए मोहतरम में भी आपको महफ़ूज़ न रहने दिया और वह वक़्त आ गया कि इमाम हुसैन (अ.स.) मक़ामे अमन को महले ख़ौफ़ समझ कर मक्का ए मोअज़्ज़मा छोड़ने पर मजबूर हो गये और मजबूरी इस हद तक बढ़ गई कि आप हज तक न कर सके। यह मुसल्लेमात से है कि शयातीने बनी उमय्या के तीस ख़ूंख़ार हज के लिबास में इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ हो गये और क़रीब था कि आपको आलमे हज व तवाफ़ में क़त्ल कर दें। इमाम हुसैन (अ.स.) को जैसे ही साज़िश का पता लगा आपने फ़ौरन हज को उमरे में बदला और आठ ज़िल्हिज 60 हिजरी को जनाबे मुस्लिम के ख़त पर भरोसा कर के आज़िमे कूफ़ा हो गये। अभी आप रवाना न होने पाये थे कि अज़ीज़ व अक़रेबा ने कमाले हमदर्दी के साथ कूफ़े के सफ़र को न करने की दरख़्वास्त की। आपने फ़रमाया कि अगर मैं चूंटी के बिल में भी छुप जाऊँ तो भी क़त्ल ज़रूर किया जाऊँगा और सुनो मेरे नाना ने फ़रमाया है कि हुरमते मक्का एक दुम्बे के क़त्ल से बरबाद होगी। मैं डरता हूँ कि वह दुम्बा मैं ही न क़रार पाऊँ। मेरी ख़्वाहिश है कि मैं मक्का से बाहर चाहे एक ही बालिश्त पर क्यों न ही क़त्ल किया जाऊँ। (तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 20, नियाबुल मोअद्दता सफ़ा 236 , सवाएक़े मोहर्रेक़ा) यह वाके़या है कि यज़ीद का इरादा बहर सूरत इमाम हुसैन (अ.स.) को क़त्ल करना और इस्तेहसाले बनी फ़ात्मा था। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 87) यही वजह है कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) के मक्के मोअज़्ज़मा से रवाना होने की इत्तेला वालीए मक्का उमर बिन सआद को हुई तो उसने पूरी ताक़त से वापस लाने की सई की और इसी सिललिसे में उसने यहिया बिन सईद इब्ने अल आस को एक गिरोह के साथ आपको रोकने के लिये भेज दिया। ‘‘ फ़ा क़ालू लहू अन सरफ़ा अयना तज़हब ’’ इन लोगों ने आपको रोका और कहा कि आप यहां से कहां निकले जा रहे हैं फ़ौरन लौटिये। आपने फ़रमाया ऐसा हरगिज़ नहीं होगा। यह रोकना मामूली न था जिसमें मार पीट की भी नौबत आई। (दमाउस साकेबा सफ़ा 316) मक़सद यह है कि वालिये मक्का यह नहीं चाहता था कि इमाम हुसैन (अ.स.) इसके हुदूदे इक़्तेदार से निकल जायें और यज़ीद के मन्शा को पूरा न कर सकें क्यों कि उसके पेशे नज़र वालीए मदीना की बरतरफ़ी या तअत्तुल था। वह देख चुका था कि हुसैन (अ.स.) के मदीने से सालिम निकल आने पर वालीए मदीना बर तरफ़ कर दिया गया था।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की मक्के से रवानगी

अल ग़रज़ इमाम हुसैन (अ.स.) अपने जुमला आईज़्ज़ा और अक़रेबा व अनसारे जां निसार को हमराह ले कर जिनकी तादाद बक़ौल इमाम शिब्ली 72 थी मक्के से रवाना हो गये। आप जिस वक़्त मंज़िले सफ़ा पर पहुँचे तो फ़रज़दक़ शायर से मुलाक़ात हुई। वह कूफ़े से आ रहा था। इसरार पर उसने बताया कि चाहे लोगों के दिल आपके साथ हों लेकिन इनकी तलवारें आपके खि़लाफ़ हैं। आपने अपनी रवानगी की वजहं बयान फ़रमाईं और आप वहां से आगे बढ़े फिर मंज़िले हाजिज़ के एक चश्मे पर उतरे और वहां अब्दुल्लाह इब्ने मुती से मुलाक़ात हुई उन्होंने भी कूफ़ियों की बे वफ़ाई का ज़िक्र किया, इसके बाद आप मंज़िले बतन अल रहमा पहुँचे और वहां से मंज़िले ज़ातुल अर्क़ पर डेरा डाला। वहां एक शख़्स बशीर इब्ने ग़ालिब से मुलाक़ात हुई उसने भी कूफ़ियों की ग़द्दारी का तज़किरा किया। फिर आप वहां से आगे बढ़े। एक मक़ाम पर एक ख़ेमा नस्ब देखा। पूछा इस जगह कौन ठहरा है। मालूम हुआ कि ज़ोहैरे इब्ने क़ैन। आपने उन्हें बुलवा भेजा। जब वह आये तो आपने अपनी हिमायत का ज़िक्र किया। उन्होंने क़ुबूल कर के अपनी बीवी को बा रवायत अपने भाई के साथ घर रवाना कर दिया और ख़ुद इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ हो गये। फिर आप वहां से रवाना हो कर मंज़िले ‘‘ जबाला ’’ में पहुँचे वहां आपको हज़रते मुस्लिम व हानी और मोहम्मद बिन कसीर और अब्दुल्लाह बिन यक़तर जैसे दिलेरों की शहादत की ख़बर मिली। आपने ‘‘ निन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’फ़रमाय और दाखि़ले ख़ेमा हो कर हज़रत मुस्लिम की बच्चियों को कमाले मोहब्बत के साथ प्यार किया और बे इन्तेहा रोये। उसके बाद बक़ौले अल्लामा अरबली, आपने ब वक़्ते शब एक ख़ुतबा दिया जिसमें हालात की वज़ाहत के बाद इरशाद फ़रमाया कि मेरा क़त्ल यक़ीनी है। मैं तुम लोगों की गरदनों से तौक़ै बैएत उतारे लेता हूँ। तुम्हारा जिधर जी चाहे चले जाओ। दुनियां दार तो वापस हो गये लेकिन सब दींदार साथ ही रहे। फिर वहां से रवाना हो कर मंज़िले क़सर बनी मक़ातिल पर उतरे। वहां पर अब्दुल्लाह इब्ने हजर जाफ़ेई से मुलाक़ात हुई। आपके इसरार के बवजूद वह बक़ौले वाएज़ काशफ़ी आपके साथ न हुआ। फिर आप मंज़िले साअलबिया पर पहुँचे वहां जनाबे ज़ैनब की आग़ोश में सर रख कर सो गये। ख़्वाब में रसूले ख़ुदा को देखा कि बुला रहे हैं। आप रो पड़े उम्मे कुलसूम ने रोने की वजह पूछी आपने ख़्वाब का हवाला दिया और ख़ानदान की तबाही का असर ज़ाहिर किया। अली अकबर (अ.स.) ने अर्ज़ कि बाबा हम हक़ पर हैं हमें मौत से कोई डर नहीं। उसके बाद आप ने मंज़िले क़तक़तानिया पर ख़ुतबा दिया और वहां से रवाना हो कर क़बीला ए बनी सुकून में ठहरे। आपकी यहां सुकूनत की इत्तेला इब्ने ज़ियाद को दी गई। उसने एक हज़ार या दो हज़ार के लशकर समैत हुर बिन यज़ीदे रिहाइ को इमाम हुसैन (अ.स.) की गिरफ़्तारी के लिये रवाना कर दिया। इमाम हुसैन (अ.स.) अपनी क़याम गाह से निकल कर कूफ़े की तरफ़ ब दस्तूर रवाना हो गये। रास्ते मे बनी अकरमा का एक शख़्स मिला, उसने कहा क़ादसिया में ग़दीब तक सारी ज़मीन लश्कर से पटी पड़ी है। आपने उसे दुआए ख़ैर दी और ख़ुद आगे बढ़ कर ‘‘ मंज़िले शराफ़ ’’ पर क़याम किया। वहां आपने मोहर्रम 61 हिजरी का चांद देखा और आप रात गुज़ार कर बहुत सवेरे रवाना हो गये।

 

हुर बिन यज़ीदे रियाही

सुबह का वक़्त गुज़रा दोपहर आई, लशकरे हुसैनी बादया पैमाई कर रहा था कि नागाह एक साहाबिये हुसैन (अ.स.) ने तकबीर कही। लोगों ने वजह पूछी, उसने जवाब दिया कि मुझे कूफ़े की सिम्त ख़ुरमे और केले के दरख़्त जैसे नज़र आ रहे हैं। यह सुन कर लोग यह ख़्याल करते हुए कि इस जंगल में दरख़्त कहां, उस तरफ़ ग़ौर से देखने लगे, थोड़ी देर में घोड़ों की कनौतियां नज़र आई, इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि दुश्मन आ रहे हैं। लेहाज़ा मंज़िले ज़ुख़शब या जूहसम की तरफ़ मुड़ चले। लश्करे हुसैनी ने रूख़ बदला और लश्करे हुर ने तेज़ रफ़्तारी इख़्तेयार की। बिल आखि़र सामने आ पहुँचा और ब रवायते लजामे फ़रस पर हाथ डाल दिया। यह देख कर हज़रते अब्बास (अ.स.) आगे बढ़े और फ़रमाया तेरी माँ तेरे ग़म में बैठे। ‘‘ मातरीद ’’ क्या चाहता है? (मातईन सफ़ा 183)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि चूंकि लश्करे हुर प्यास से बेचैन था इस लिये साक़िये क़ौसर के फ़रज़न्द ने अपने बहादुरों को हुक्म दिया कि हुर के सवारों और सवारी के जानवरांे को अच्छी तरह सेराब कर दो। चुनान्चे अच्छी तरह सेराबी कर दी गई। उसके बाद नमाज़े ज़ौहर की अज़ान हुई । हुर ने इमाम हुसैन (अ.स.) की क़यादत में नमाज़ अदा की और बताया कि हमें आपकी गिरफ़्तारी के लिये भेजा गया है और हमारे लिये यह हुक्म है कि हम आपको इब्ने ज़ियाद के दरबार में हाज़िर करें। इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया कि मेरे जीते जी यह ना मुम्किन है कि मैं गिरफ़्तार हो कर ख़ामोशी के साथ कूफ़े में क़त्ल कर दिया जाऊं। फिर उसने तन्हाई में राय दी कि चुपके से रात के वक़्त किसी तरफ़ निकल जायें। आपने उसकी राय को पसन्द किया और एक रास्ते पर आप चल पड़े। जब सुबह हुई तो फिर हुर को पीछा करते देखा और पूछा कि अब क्या बात है? उसने कहा मौला किसी जासूस ने इब्ने ज़ियाद से मुख़बिरी कर दी है। चुनान्चे अब उसका हुक्म यह आ गया है कि मैं आप को बे आबो गियाह जंगल (जहां पानी और साया न हो) में रोक लूँ। गुफ़्तुगू के साथ साथ रफ़्तार भी जारी थी कि नागाह इमाम हुसैन (अ.स.) के घोड़े ने क़दम रोके, आपने लोगों से पूछा कि इस ज़मीन को क्या कहते हैं? कहा गया ‘‘ करबला ’’ आपने अपने साथियों को हुक्म दिया कि यहीं पर डेरे डाल दो और यहीं ख़ेमे लगा दो क्यो कि क़ज़ा ए इलाही यहीं हमारे गले मिलेगी।

(नूरूल अबसार सफ़ा 117 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 257, तबरी जिल्द 3 सफ़ा 307, कामिल जिल्द 4 सफ़ा 26, अबुल फ़िदा जिल्द 2 सफ़ा 201 व दमए साकेबा सफ़ा 330, अख़बारूल तवाल सफ़ा 250, इब्नुल वरदी जिल्द 1 सफ़ा 172, नासिक़ जिल्द 6 सफ़ा 219 बेहारूल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 286)

 

करबला में वुरूद

2 मोहर्रमुल हराम 61 हिजरी यौमे पंज शम्बा को इमाम हुसैन (अ.स.) वारिदे करबला हो गये। (नूरूल ऐन सफ़ा 46, हयवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 51 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 250, इरशादे मुफी़द व दमए साकेबा सफ़ा 321) अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी और अल्लामा अरबली का बयान है कि जैसे ही इमाम हुसैन (अ.स.) ने ज़मीने करबला पर क़दम रखा ज़मीने करबला ज़र्द हो गई और एक ऐसा ग़ुबार उठा जिससे आपके चेहरा ए मुबारक पर परेशानी के आसार नुमाया हो गये। यह देख कर असहाब डर गये और जनाबे उम्मे कुलसूम रोने लगीं। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 69 व रौज़तुल शोहदा सफ़ा 301)

साहेबे मख़ज़नुल बुका लिखते हैं कि करबला के फ़ौरन बाद जनाबे उम्मे कुलसूम ने इमाम हुसैन (अ.स.) से अर्ज़ कि भाई जान यह कैसी ज़मीन है कि इस जगह हमारा दिल दहल रहा है। इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया बस यह वही मक़ाम है जहां बाबा जान ने सिफ़्फ़ीन के सफ़र में ख़्वाब देखा था यानी यह वह जगह है जहां हमारा ख़ून बहेगा। किताब माईन में है कि इसी दिन एक सहाबी ने एक बेरी के दरख़्त से मिसवाक के लिये शाख़ काटी तो उससे ख़ूने ताज़ा जारी हो गया।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) का ख़त अहले कूफ़ा के नाम

करबला पहुँचने के बाद आपने सब से पहले एतमामे हुज्जत के लिये एहले कूफ़ा के नाम कै़स इब्ने मसहर के ज़रिये से एक ख़त इरसाल फ़रमाया, जिसमें आपने तहरीर फ़रमाया था कि तुम्हारी दावत पर मैं करबला तक आ गया हूँ। क़ैस ख़त लिये जा रहे थे कि रास्ते में गिरफ़्तार कर लिये गये और उन्हें इब्ने ज़ियाद के सामने कूफ़े ले जा कर पेश कर दिया गया। इब्ने ज़ियाद ने ख़त मांगा क़ैस ने बा रवायते चाक कर के फेंक दिया और बा रवायते इस ख़त को खा लिया। इब्ने ज़ियाद ने उन्हें ताज़याने (कोड़े) मार कर शहीद कर दिया। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 301, कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 66)

 

 

उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद का ख़त इमाम हुसैन (अ.स.) के नाम

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) के करबला पहुँचने के बाद, हुर ने इब्ने ज़ियाद को आपके करबला पहुँचने की ख़बर दी। उसने इमाम हुसैन (अ.स.) को फ़ौरन एक ख़त इरसाल किया जिसमें लिखा कि मुझे यज़ीद ने हुक्म दिया है कि मैं आप से उसके लिये बैएत ले लूँ, या क़त्ल कर दूं। इमाम हुसैन (अ.स.) ने इस ख़त का जवाब न दिया। ‘‘ अल क़ायमन यदह ’’ और उसे ज़मीन पर फेंक दिया। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 257 व नूरूल अबसार सफ़ा 117) इसके बाद आपने मोहम्मद बिन हनफ़िया को अपने करबला पहुँचनेे की एक ख़त के ज़रिये से इत्तेला दी और तहरीर फ़रमाया कि मैंने ज़िन्दगी से हाथ धो लिया है और अन्क़रीब उरूसे मौत से हमकनार हो जाऊंगा। (जलाउल अएवान सफ़ा 196)

 

दूसरी मोहर्रम से नवी मोहर्रम तक के मुख़्तसर वाक़ेयात

 

दूसरी मोहर्रमुल हराम 61 हिजरी

को आप करबला में वारिद हुए। आपने अहले कूफ़ा के नाम ख़त लिखा। आपके नाम इब्ने ज़ियाद का ख़त आया, इसी तारीख़ को आपके हुक्म से नहरे फ़ुरात के किनारे ख़ेमे नस्ब किये गये। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 69 व शहीदे आज़म सफ़ा 111) हुर ने रोका और कहा कि फ़ुरात से दूर ख़ेमे नस्ब कीजिए। (नूरूल ऐन सफ़ा 46) अब्बास इब्ने अली (अ.स.) को ग़ुस्सा आ गया । (शहीदे आज़म जिल्द 2 सफ़ा 371) इमाम हुसैन (अ.स.) ने गु़स्से पर क़ाबू किया और बक़ौल अल्लामा असफ़राईनी 3 या 5 मील के फ़ासले पर ख़ेमे नस्ब किये गये। (नूरूल ऐन सफ़ा 46) नस्बे ख़्याम के बाद अभी आप इसमें दाखि़ल ने हुए थे कि चंद अशआर आपकी ज़बान पर जारी हुए। जनाबे ज़ैनब ने ज्यों ही अश्आर को सुना इस दर्जा रोईं कि बेहोश हो गईं। इमाम (अ.स.) रूख़सार पर पानी छिड़ कर होश में लाये। (लहूफ़ सफ़ा 106 आसारतुल अहज़ान सफ़ा 36) फिर आले मोहम्मद (स.अ.) दाखि़ले ख़ेमा हुए। उसके बाद 60 हज़ार दिरहम पर 16 मुरब्बा मील ज़मीन ख़रीद कर चंद शरायत के उन्हीं को हिबा कर दी। (कशकोल बहाई सफ़ा 91 ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 144)

 

तीसरी मोहर्रमुल हराम

यौमे जुमा को उमर इब्ने साअद 5, 6 बक़ौल अल्लामा अरबली 22,000 (बाईस हज़ार सवार) व पियादे ले कर करबला पहुँचा और उसने इमाम हुसैन (अ.स.) से तबादलाए ख़्यालात की ख़्वाहिश की। हज़रत ने इरादा ए कूफ़े का सबब बयान फ़रमाया। उसने इब्ने ज़ियाद को गुफ़्तुगू की तफ़सील लिख दी। और यह भी लिखा कि इमाम हुसैन (अ.स.) फ़रमाते हैं कि अगर अब अहले कूफ़ा मुझे नहीं चाहते तो मैं वापस जाने को तैयार हूँ। इब्ने ज़ियाद ने उमर बिन साद के जवाब में लिखा कि अबा जब कि हम ने हुसैन को चुंगल में ले लिया है तो वह छुटकारा चाहते हैं। ‘‘ लात हीना मनास ’’ यह हरगिज़ नहीं होगा। इन से कह दो कि यह अपने तमाम आईज़्ज़ा व अक़रेबा समैत बैअते यज़ीद करें या क़त्ल होने के लिये आमादा हो जायें। मैं बैअत से पहले उनकी किसी बात पर ग़ौर करने के लिये तैयार नहीं हूँ। (नासिख़ व रौज़तुल शोहदा) इसी तीसरी तारीख़ की शाम को हबीब इब्ने मज़ाहिर क़बीला ए बनी असद में गये और उनमें से 90 जांबाज़ इमदादे हुसैनी के लिये तैयार किये। वह उन्हें ला रहे थे कि किसी ने इब्ने ज़ियाद को इत्तेला कर दी। उसने 400 (चार सौ) का लश्कर भेज कर उस कुमक को रूकवा दिया। (नासेख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 235)

 

चौथी मोहर्रमुल हराम

को इब्ने ज़ियाद ने मस्जिदे जामा में ख़ुत्बा दिया जिसमें उसने इमाम हुसैन (अ.स.) के खि़लाफ़ लोगों को भड़का दिया और कहा कि हुक्मे यज़ीद से तुम्हारे लिये ख़ज़ानों के मुंह खोल दिये गये हैं। तुम उसके दुश्मन इमाम हुसैन (अ.स.) से लड़ने के लिये आमादा हो जाओ। उसके कहने से बेशुमार लोग आमादा ए करबला हो गये और सब से पहले शिम्र ने रवानगी की दरख़्वास्त की। चुनान्चे शिम्र 4000 (चार हज़ार) इब्ने रकाब को दो हज़ार (2000) इब्ने नमीर को चार हज़ार (4000) इब्ने रहीना को तीन हज़ार (3000) इब्ने हरशा को दो हज़ार (2000) सवार दे कर करबला रवाना कर दिया। (दमएस साकेबा सफ़ा 322)

 

पाँचवीं मोहर्रमुल हराम

यौमे यकशम्बा को शीश इब्ने रबी को चार हज़ार (4000) उरवा इब्ने क़ैस को चार हज़ार (4000) सिनान इब्ने अनस को दस हज़ार (10,000) मोहम्मद इब्ने अशअस को एक हज़ार (1000) अब्दुल्लाह इब्ने हसीन को एक हज़ार का लश्कर दे कर रवाना कर दिया। (नासिख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 233 दमउस साकेबा सफ़ा 322)

 

छठी मोहर्रमुल हराम

यौमे दोशम्बा को ख़ूली इब्ने यज़ीद असबही को दस हज़ार (10,000) इब्नुल हुर को तीन हज़ार (3000) हज्जाज इब्ने हुर को एक हज़ार (1000) का लशकर दे कर रवाना कर दिया गया। इनके अलावा छोटे बड़े और कई लश्कर इरसाल करने के बाद इब्ने ज़ियाद ने उमर इब्ने साद को लिख कर भेजा कि अब तक तुझे अस्सी हज़ार का कूफ़ी लश्कर भेज चुका हूँ इनमें हेजाज़ी और शामी शामिल नहीं हैं। तुझे चाहिये कि बिना हिला हवाला हुसैन को क़त्ल कर दे। (नासिख़ुल जिल्द 6 सफ़ा 233, दमए साकेबा सफ़ा 322 जलाउल ऐन सफ़ा 197) इसी तारीख़ को खू़ली इब्ने यज़ीद ने इब्ने ज़ियाद के नाम एक ख़त इरसाल किया जिसमें उमर इब्ने साद के लिये लिखा कि यह इमाम हुसैन (अ.स.) से रात को छुप कर मिलता है और इनसे बात चीत किया करता है। इब्ने ज़ियाद ने इस ख़त को पाते ही उमरे साद के नाम एक ख़त लिखा कि मुझे तेरी तमाम हरकतों की इत्तेला है, तू छुप कर बातें करता है। देख मेरा ख़त पाते ही हुसैन पर पानी बन्द कर दे और उन्हें जल्द से जल्द मौत के घाट उतारने की कोशिश कर।

(नासिख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 236, अख़बारूल तौल सफ़ा 256 तबरी जिल्द 1 सफ़ा 212 अलबराता व अनहातिया जिल्द 8 सफ़ा 175)

 

सातवीं मोहर्रमुल हराम

यौमे सह शम्बा उमर इब्ने हजाज को पाँचसो सवारों समैत नहरे फ़ुरात पर इस लिये मुक़र्रर कर दिया कि इमाम हुसैन (अ.स.) के ख़ेमों तक पानी न पहुँच पाए। (तारीख़े तबरी जिल्द 1 सफ़ा 313 व नासिख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 236) फिर मज़ीद अहतीयात के लिये चार हज़ार (4000) का लशकर दे कर हजर को एक हज़ार (1000) का लशकर दे कर शीस इब्ने रवी को रवाना किया गया। (मक़तल मख़निफ़ सफ़ा 32) और पानी की बन्दिश कर दी गईं। पानी बन्द होने के बाद अब्दुल्लाह इब्ने हसीन ने निहायत करीह लफ़्ज़ों में ताना ज़नी की। (नूरूल ऐन सफ़ा 31) जिससे इमाम हुसैन (अ.स.) को सख़्त सदमा पहुँचा। (तज़किरा सफ़ा 121) फिर इब्ने हौशब ने ताना ज़नी की जिसका जवाब हज़रत अब्बास (अ.स.) ने दिया। (अल इमामत वल सियासत जिल्द 1 सफ़ा 8) आपने ग़ालेबन ताना ज़नी के जवाब में ख़ेमे से 19 क़दम के फ़ासले पर जानिबे क़िबला एक ज़र्ब तीशा से चश्मा जारी कर दिया। (मक़तले अवाम सफ़ा 78 व आसम कूफ़ी सफ़ा 266) और यह बता दिया कि हमारे लिये पानी की कमी नहीं है लेकिन हम इस मुक़ाम पर मोजिज़ा दिखाने के लिये नहीं आए बल्कि इम्तेहान देने आए हैं।

 

आठवीं मोहर्रमुल हराम

यौमे चार श्म्बा की शब को खे़मा ए आले मोहम्म्द (अ.स.) व आले मोहम्मद (स.अ.) से पानी बिल्कुल ग़ाएब हो गया। इस प्यास की शिद्दत ने बच्चों को बेचैन कर दिया। इमाम हुसैन (अ.स.) ने हालात को देख कर हज़रत अब्बास (अ.स.) को पानी लाने का हुक्म दिया। आप चन्द सवारों को ले कर तशरीफ़ ले गये और बड़ी मुश्किलों से पानी लाये। वज़लका समीउल अब्बास सक्क़ा इसी सक्क़ाई वजह से अब्बास (अ.स.) को सक़्क़ा कहा जाता है। (अख़बारूल तवाल सफ़ा 253, जलाउल ऐन सफ़ा 198 व दमए साकेबा सफ़ा 323) रात गुज़रने के बाद जब सुबह हुई तो यज़ीद इब्ने हसीन सहराई ने ब इजाज़त इमाम हुसैन (अ.स.), इब्ने साद को फ़हमाईश की लेकिन कोई नतीजा बरामद न हुआ। इसने कहा यह कैसे हो सकता है कि हुसैन को पानी दे कर हुकूमते ‘‘ रै ’’ छोड़ दूँ। (नासिख़ुल तवारीख़ जिल्द 3 सफ़ा 338) इमाम शिब्ली लिखते हैं कि इब्ने हसीन और इब्ने साद की गुफ़्तुगू के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने ख़ेमे के गिर्द ख़न्दक़ खोदने का हुक्म दिया। (नूरूल अबसार सफ़ा 117) इसके बाद हज़रत अब्बास (अ.स.) को हुक्म दिया कि कुएं खोद कर पानी बरामद करो। आपने कुआं तो खोदा लेकिन पानी न निकला। (मक़तल अबी मख़नफ़ सफ़ा 27)

 

नवीं मोहर्रमुल हराम

यौमे पंज शम्बा की शब को इमाम हुसैन (अ.स.) और उमरे साद में आख़री गुफ़्तुगू हुई। आपके हमराह हज़रत अब्बास (अ.स.) और अली अकबर (अ.स.) भी थे। आप ने गुफ़्तुगू में हर क़िस्म की हुज्जत तमाम कर ली। (दमए साकेबा सफ़ा 323) नवीं की सुबह को आपने हज़रत अब्बास (अ.स.) को फिर कुंआ खोदने का हुक्म दिया लेकिन पानी बरामद न हुआ। (नासिख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 245) थोड़ी देर के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने बच्चों की हालत के पेशे नज़र फिर हज़रत अब्बास (अ.स.) से कुआं खोदने की फ़रमाईश की। आपने सई बलीग़ शुरू कर दी। जब बच्चों ने कुंआ खुदता हुआ देखा तो सब कुज़े ले कर आ पहुँचे। अभी पानी निकलने न पाया था कि दुश्मन ने आ कर उसे बन्द कर दिया। फ़हर बत अतफ़ाले ख़्याम दुश्मन को देख कर बच्चे ख़मों में जा छुपे। फिर थोड़ी देर बाद हज़रत अब्बास (अ.स.) ने कुंआ खोदा वह भी बन्द कर दिया गया। हत्ताहफ़रा अरबन यहां तक कि चार कुंए खोदे और पानी हासिल न कर सके। ब रवाएते पांचवीं मरतबा पानी बरामद हुआ। सकीना ने कुज़ा भरा और दुश्मन के ख़ौफ़ से ख़ेमे की तरफ़ भागीं तनाबे ख़ेमा में पांव उलझे और आप गिर पड़ीं पानी जाता रहा और दुश्मन ने कुंआ बन्द कर दिया, सकीना प्यासी की प्यासी रहीं। (ख़ुलासेतुल मसाएब सफ़ा 112 तबा नवल किशोर सफ़ा 1876) इसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) एक नाक़े पर सवार हो कर दुश्मन के क़रीब गए और अपना ताअर्रूफ़ कराया लेकिन कुछ न बना। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 70) मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि नवीं तारीख़ को शिम्र कूफ़ा वापस गया और उसने उमरे साद की शिकायत कर के इब्ने ज़ियाद से एक सख़्त हुक्म हासिल किया जिसका मक़सद यह था कि अगर हुसैन (अ.स.) बैअत नहीं करते तो उन्हें क़त्ल कर के उनकी लाश पर घोड़ें दौड़ा दें और अगर तुझ से यह न हो सके तो शिम्र को चार्ज दे दे हम ने उसे हुक्मे तामील हुक्मे यज़ीद दिया है। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 306 व दम ए साकेगा सफ़ा 323)े इब्ने ज़ियाद का हुक्म पाते ही इब्ने साद तामील पर तैय्यार हो गया, इसी नवीं तारीख़ को शिम्र ने हज़रत अब्बास (अ.स.) और उनके भाईयों को अमान की पेशकश की उन्होंने बड़ी देर से उसे ठुकरा दिया। (जलाउल ऐन सफ़ा 198, तबरी सफ़ा 237 जिल्द 6) तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हों ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 176 से 182 तक। इसी नवीं की शाम आने से पहले शिम्र की तहरीक से इब्ने साद ने हमले का हुक्म दे दिया। इमाम हुसैन (अ.स.) ख़ेमे में तशरीफ़ फ़रमा थे। आपको हज़रते ज़ैनब फिर हज़रते अब्बास (अ.स.) ने फिर दुश्मन के आने की इत्तेला दी। हज़रत ने फ़रमाया मुझे अभी निंद सी आ गई थी, मैंने आं हज़रत (स.अ.) को ख़्वाब में देखा उन्होंने फ़रमाया कि अनका तरो ग़दा हुसैन तुम कल मेरे पास पहुँच जाओगे। (दमए साकेबा 322) जनाबे ज़ैनब रोने लगीं और इमाम हुसैन (अ.स.) ने हज़रते अब्बास से फ़रमाया कि भय्या तुम जा कर उन दुश्मनों से एक शब की मोहलत ले लो। हज़रत अब्बास तशरीफ़ ले गए और लड़ाई एक शब के लिये मुलतवी हो गई। (तारीख़े इस्लाम 272 तबा गोरखपुर 19310) जंग के रोकने की ग़रज़ क्या थी उसके लिये मुलाहेज़ा हो ज़िकरूल अब्बास सफ़ा 186)

 

शबे आशूर

नवीं का दिन गुज़रा , आशूर की रात आई, इलतवाए जंग के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) को जिस चीज़ की ज़्यादा फ़िक्र थी वह यह थी कि अपने असहाब को मौत से बचा लें। आपने रात के वक़्त अपने असहाब और रिश्तेदारों को जमा कर के फ़रमाया, इसमें शक नहीं कि तुम से बेहतर रिश्तेदार और असहाब किसी को नसीब नहीं हुए लेकिन देखो चूंकि यह सिर्फ़ मुझी को क़त्ल करना चाहते हैं इस लिये मैं तुम्हारी गरदनों से तौक़े बैएत उतारे लेता हूँं। तुम रात के अंधेरे में अपनी जाने बचा कर निकल जाओ, यह सुन्ना था कि हज़रते अब्बास, फ़रज़न्दाने मुस्लिम बिन अक़ील, मुस्लिम इब्ने औसजा, ज़ोहैर इब्ने क़ैन, साद इब्ने अब्दुल्लाह खड़े हो गये और अर्ज़ करने लगे, मौला आपने यह क्या फ़रमाया, ‘‘ अरे लानत है उस ज़िन्दगी पर जो आपके बाद बाक़ी रहे ’’ (इब्न अल वर्दी जिल्द 1 सफ़ा 173, इरशाद सफ़ा 297 व दमए साकेबा सफ़ा 324 जला उल अयून 199 इन्सानियत मौत के दरवाज़े पर सफ़ा 72)

ख़ुत्बे के बाद आपने हज़रते अब्बास को पानी लाने का हुक्म दिया। आप 30 सवारों और 20 प्यादों समेत नहर पर तशरीफ़ ले गए और बड़ी देर जंग करने के बवजूद पानी न ला सके। (तज़किराए ख़्वास अल उम्मता सफ़ा 141) उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) मौक़ा ए जंग देखने के लिये मैदान की तरफ़ ले गये। वापसी में ख़ैमा ए जनाबे ज़ैनब में गए, जनाबे ज़ैनब ने पूछा भय्या आपने असहाब का इम्तेहान ले लिया है या नहीं? आपने इत्मिनान दिलाया। फिर हिलाल इब्ने नाफ़ए ने जनाबे ज़ैनब को मुतमईन किया। (दमए साकेबा सफ़ा 325) जनाबे ज़ैनब से गुफ़्तुगू के बाद आपने फिर एक ख़ुत्बा फ़रमाया और आइज़्ज़ा व असहाब से मिस्ले साबिक़ कहा कि यह लोग मेरी जान चाहते हैं तुम लोग अपनी जाने न दो। यह सुन कर असहाब व रिश्तेदारो ने बड़ा दिलेराना जवाब दिया। (नासिख़ जिल्द 6 सफ़ा 227) इसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने असहाब को जन्नत दिखला दी। (वसाएले मुज़फ़्फ़री सफ़ा 394)

अल्लामा कन्तूरी लिखते हैं कि पानी न होने की वजह से ख़ेमे में शदीद इज़तेराब पैदा हो गया और जनाबे ज़ैनब के गिर्द 20 लड़के और लड़कियां जमा हो कर फ़रयाद करने लगीं। (मातीं जिल्द 1 सफ़ा 318) यह हालत बुरैर हमदानी को मालूम हो गई। वह कुछ साथियो को ले कर नहर पर पहुँचे। ज़बरदस्त जंग हुई। हज़रत अब्बास मदद को भेजे गए। चंद जाबाज़ काम आ गये। ग़ालेबन इसी मौक़े पर हज़रत अब्बास (अ.स.) के एक भाई अब्बास अल असग़र भी शहीद हुए हैं। (नासिख़ जिल्द 6 सफ़ा 289) अल ग़र्ज़ बुरैर हमदानी बहुत मुश्किल से एक मश्क़ ख़ेमे तक ले ही आये। बच्चे बेताबी की वजह से इस मश्क़ पर जा गिरें और मश्क़ का मुंह खुल गया, पानी बह गया। बच्चों और औरतों के साथ बुरैर ने भी मुंह पीट लिया और इन्तेहाई हसरत और अफ़सोस के साथ कहा, हाय आले मोहम्मद (स.अ.) की प्यास न बुझ सकी। (मायतीन जिल्द 1 सफ़ा 316) अल्लामा काशफ़ी लिखते हैं कि पानी की जद्दो जेहद की नाकामी के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने हुक्म दिया कि सब अपने अपने ख़ेमों में जा कर इबादत में मशग़ूल हो जायें। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 312)

 

मुजाहेदीने करबला की आख़री सहर

इमाम हुसैन (अ.स.) और आपके अस्हाब व आईज़्ज़ा मशग़ूले इबादत हैं। सफ़ैद ए सहरी नमूदार होने को है। ज़िन्दगी की आख़री सुबह होने वाली है। नागाह इमाम हुसैन (अ.स.) की आंख लग गई, आपने ख़्वाब में देखा कि बहुत से कुत्ते आप पर हमला आवर हैं और इन कुत्तों में ए अबलक़ मबरूस कुत्ता है जो बहुत ही सख़्ती कर रहा है। (दमए साकेबा सफ़ा 326)

अल्लामा दमीरी लिखते हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) को शिम्र ने शहीद किया है जो मबरूस था। (हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 51)

काशफ़ी का बयान है कि जब सुबह का इब्तेदाई हिस्सा ज़ाहिर हो गया तो आसमान से आवाज़ आई या ख़लील उल्लाह अरक़बी, ऐ अल्लाह के बहादुर सिपाहियों तैय्यार हो जाओ, मौक़ा ए इम्तेहान और वक़्ते मौत आ रहा है। उसके बाद सुबह हो गई। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 312, महीजुल एहज़ान सफ़ा 102)

 

सुबह आशूर

(तुलूए सुबहे महशर थी तुलूए सुबह आशूरा)

दस मोहर्रमुल हराम 61 हिजरी यौमे जुमा रात गुज़री, सुबह काज़िब का ज़ुहूर हुआ तो यज़ीदी काज़िबो और झूठों ने अपने लश्कर की तरतीब दे ली और सुबह सादिक़ का तुलू हुआ तो सादक़ैन ने नमाज़े सुबह का तहय्या किया। हज़रत अली अकबर (अ.स.) ने अज़ान कही और इमाम हुसैन (अ.स.) ने नमाज़े जमाअत पढ़ाई। अल्लाह के सच्चे बन्दे अभी मुस्से पर ही थे कि अस्सी हज़ार 80,000 के लशकर में हमला वर होने के आसार ज़ाहिर होने लगे। इमाम (अ.स.) मुसल्ले से उठ खड़े हुए और अपने 72 जांबाज़ों पर मुश्तमिल लशकर की तंज़ीम यूं फ़रमा दी। मैमना 20 बहादुर, मैसरा 20 बहादुर बाक़ी क़ल्बे लश्कर। मैमना के सरदार ज़ुहैरे क़ैन, मैसरा के हबीब इब्ने मज़ाहिर और अलमदारे लशकर हज़रत अब्बास (अ.स.) को क़रार दे दिया। (जलाल अल अयून सफ़ा 201, अख़बारूल तवारीख़ सफ़ा 203) इसके बाद हज़रत अब्बास (अ.स.) से फ़रमाया कि जंग छिड़ी ही चाहती है। भय्या एक दफ़ा पानी की और कोशीश कर लो, और सुनो सिर्फ़ अपने भाई भतीजों को जमा कर के कुआं खोदो, यानी असहाब को ज़हमत न दो। हज़रत अब्बास (अ.स.) ने कमाले जाफिशानी से कुआं खोदा लेकिन कोई नतीजा न निकला, फिर दूसरा कुआं खोदा वह भी बे सूद ही रहा। (दमउस साकेबा सफ़ा 329 हालाते सुबह आशूर) इमाम हुसैन (अ.स.) ख़ेमे में थे और बक़ौले अब्दुल हमीद ऐडीटर रिसाला मौलवी देहली, ठीक 10 बजे लश्कर वालों को उमरे साद का अर्जन्ट हुक्म मिलता है कि हुसैन को क़त्ल करने के लिये आगे बढ़ो, टिड्डी दल फ़ौज ने हरकत की और तीन दिन के भूखे प्यासे थोड़े से मुसाफ़िरों को क़त्ल करने दुश्मनाने इस्लाम आगे बढ़े। (शहीदे आज़म सफ़ा 166 तबा देहली) हज़रत ने घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनी। रसूले ख़ुदा (स.अ.) की ज़िरह ज़ेब तन की और खन्दक में आग देने का हुक्म दे कर आप असहाब की फ़हमाईश करने लगे। (नासिख़ जिल्द 6 सफ़ा 245) इतने में दुश्मनों ने ख़ेमों को घेर लिया। बुरैर इब्ने ख़ज़ीर ने बाहर निकल कर उन्हें समझाया लेकिन कोई फ़ायदा न हुआ। फिर आप ख़ुद दुश्मनों के सामने आए और अपना ताअर्रूफ़ कराया और बरवाएते यह भी फ़रमाया कि मुझे छोड़ दो, मैं यहां से हिन्द (1) या किसी और तरफ़ चला जाऊँ। मगर उन्होंने एक न सुनीं, फिर आपने फ़रमाया कि यह बता दो कि मुझे किस जुर्म की बिना पर क़त्ल करना चाहते हो? उन्होंने जवाब दिया नक़ तलक़ बुग़ज़न ले अबीका हम तुम्हें तुम्हारे बाप की दुश्मनी में क़त्ल कर रहे हैं। (नयाबुल मोवद्दता सफ़ा 246) फिर आपने क़ुरआन मजीद को हकम क़रार दिया। लेकिन उन्होंने एक न मानी। (नासिख़ुल तवारीख़ जिल्द 6 सफ़ा 250) फिर आपने बारगाहे ख़ुदा वन्दी में दस्ते दुआ बलन्द किया और आखि़र में बरवायते ‘‘ दमउस साकेबा सफ़ा 328 ’’ अर्ज़ की अल्ला हुम्मा सलता ग़ुलामसकीफ़ ख़ुदाया इन पर क़बीला ए सक़ी़फ़ के एक ग़ुलाम (मुख़्तार) को मुसल्लत कर के उन्हें ज़ुल्म आफ़रीनी का मज़ा चखाए।

1. अल्लामा इब्ने क़तीबा लिखते हैं कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया ‘‘ अन लस्तुम बराज़ैन बारूहल इराक़ फ़ातिर कूनी लाज़हबा अल्ल सिनदह ’’ तुम अगर मेरे इराक़ पहुँचने पर राज़ी नहीं हो तो मुझे छोड़ दो मैं सिन्ध (हिन्द) चला जाऊँ। तफ़सील के लिये देखें, मुख़्तारे आले मोहम्मद तबा लाहौर 12 मना।

 

जनाबे हुर की आमद

इमाम हुसैन (अ.स.) के मवाएज़ का असर सिर्फ़ हुर पर पड़ा। उन्होंने इब्ने साद के पास जा कर आख़री इरादह मालूम किया फिर अपने घोड़े को ऐड़ दी और इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो गए। (तारीख़े तबरी) इसके बाद घोड़े से उतर कर इमाम हुसैन (अ.स.) की रक़ाब को बोसा दिया। (रौज़ातुल अहबाब) इमाम ने हुर को माफ़ी दे कर जन्नत की बशारत दी। (तबरी) दमउस साकेबा सफ़ा 330 में है कि हुर के साथ इसका बेटा भी था। हमीद इब्ने मुस्लिम का बयान है कि उमरे साद ने लश्करे हुसैनी पर सब से पहले तीर चलाया। इसके बाद तीरों की बारिश शुरू हुई। रौज़तुल अहबाब में है कि जनाबे हुर को क़सूर इब्ने कनाना और इरशाद मुफ़ीद में है कि अय्यूब मशरह ने एक कूफ़ी की मदद से शहीद किया। तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हों किताब ‘‘ बहत्तर सितारें ’’ मोअल्लेफ़ा हक़ीर तबा लाहौर।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके असहाब व आइज़्ज़ा की अर्श आफ़रीं जंग

अल्लामा ईसा अरबली लिखते हैं कि जनाबे हुर की शहादत के बाद उमरे साद के लश्कर से दो नाबकार मुबारज़ तलब हुए जिनके नाम निसयान व सालिम थे। इनके मुक़ाबले के लिये इमाम हुसैन (अ.स.) के लश्कर से जनाबे हबीब इब्ने मज़ाहिर और यज़ीद इब्ने हसीन बरामद हुए और इन दोनों को चन्द हमलों में फ़ना के घाट उतार दिया। इसके बाद माक़िल इब्ने यज़ीद सामने आया। जनाबे यज़ीद इब्ने हसीन और बक़ौले मजलिसी बुरैर इब्ने ख़जी़र हमादानी ने उसे क़त्ल कर डाला। फिर मज़ाहिम इब्ने हरीस सामने आया। उसे जनाबे नाफ़े इब्ने हिलाल ने क़त्ल कर दिया। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 71)

 

जंगे मग़लूबा

उमर इब्ने साद ने जनाबे हुसैनी बहादुरों की शाने शुजाअत देखी तो समझ गया कि इनसे इन्फ़ेरादी मुक़ाबला न मुम्किन है, लेहाज़ा इजतेमाई हमले का प्रोग्राम बनाया और अपने चीफ़ कमाडण्र को हुक्म दिया कि कसीर तादाद में कमान अन्दाज़ों को ला कर यक बारगी तीर बारानी कर दो। जिसका नतीजा यह हुआ कि इमाम हुसैन (अ.स.) का तक़रीबन तमाम लश्कर मजरूह हो गया। 32 या 40 या 22 या 50 असहाब इसी वक़्त शहीद हो गए। (मुलाहेज़ा हो तफ़सील के लिये बहत्तर सितारें मोअल्लेफ़ा हक़ीर)

जंगे मग़लूबा के बाद हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) अपने बहादुरों को ले कर जिनकी कुल तादाद 32 थी मैदान में निकल आए और इस बे जिगरी से लड़े कि लश्करे मुख़ालिफ़ के छक्के छूट गए। जिस तरफ़ हमला करते थे सफ़ें साफ़ हो जाती थीं और हमले में बेशुमार दुश्मन मौत के घाट उतार दिए। इन भूखे प्यासे बहादुर शेरों ने लश्कर में ऐसी हल चल मचा दी, जिस से अफ़सरान तक के हाथ पांव फुला दिए। बिल आखि़र लश्करे कूफ़ा के कमानीर उरवा बिन क़ैस ने उमर इब्ने साद को कहला भेजा कि जल्द लश्कर और ख़ुसूसन तीर अन्दाज़ भेजो क्यों कि इन थोड़े से अलवी बहादुरों ने हमारी दुरगत बना दी है। (तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 35 तबरी जिल्द 6 सफ़ा 250 बेहारूल अनवार जिल्द 6 सफ़ा 299) उमर इब्ने साद ने फ़ौरन 500 कमानदारों को हसीन इब्ने नमीर के हमराह उरवा बिन क़ैस की कुमक में भेज दिया। इन रूबाहों ने पहुँचते ही तीर बारानी शुरू कर दी और इसका नतीजा यह हुआ कि इमाम हुसैन (अ.स.) के कई बहादुर काम आ गए और तक़रीबन कुल के कुल प्यादा हो गए। इसी दौरान उमर इब्ने साद ने आवाज़ दी कि आग लगाओ हम ख़ेमों को जलाऐंगें। यह देख कर इमाम हुसैन (अ.स.) ने शिम्र को पुकारा कि यह क्या बेहयाई की जा रही है। इतने में शबश इब्ने अरबी आ गया और उसने हरकते नाशाइस्ता से बाज़ रखा। (बेहारूल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 299)

मुवर्रिख़ इब्ने असीर और अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि दौराने जंग में नमाज़े ज़ौहर का वक़्त आ गया तो अबू सुमामा समदी या सैदावी ने खि़दमते इमाम हुसैन (अ.स.) में अर्ज़ कि मौला अगरचे हम दुश्मनों में घिरे हुए हैं लेकिन दिल यही चाहता है कि नमाज़े ज़ोहर अदा कर ली जाए। इमाम (अ.स.) ने अबू समामा को दुआ दी और नमाज़ का तहय्या फ़रमाया। तीर चूंकि मुसलसल आ रहे थे इस लिये ज़ुहैर इब्ने क़ैन और साद इब्ने अब्दुल्लाह इमाम हुसैन (अ.स.) के सामने खड़े हो कर तीरों को सीनों पर लेने लगे। यहां तक कि इमाम हुसैन (अ.स.) ने नमाज़ तमाम फ़रमा ली। मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि तलवारों और नेज़ों के ज़ख़्म के अलावा 13 तीर सईद के सीने में पेवस्त हो गए। नमाज़ तमाम हुई और जनाबे सईद भी दुनियां से रूख़सत हो गए। (तारीख़े कामिल बेहारूल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 299) जंगे मग़लूबा के बाद जो 32 असहाब बचे उनमें से बाज़ के मुख़्तसर हालात दर्ज ज़ैल किये जाते हैं।

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के मशहूर असहाब और उनकी शहादत

 

हबीब इब्ने मज़ाहिर

जनाबे हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रेयाब इब्ने अश्तर जनजवान इब्ने फ़क़अस इब्ने तरीफ़ इब्ने उमर बिन क़ैस हरस इब्ने साअलबा, इब्ने दवान, इब्ने असद अबू क़ासिम असदी के बेटे इमाम हुसैन (अ.स.) के बचपने के दोस्त थे। उन्हें रिसालत माब (स.अ.) के सहाबी होने का भी शरफ़ हासिल था। यह असहाबे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) में भी थे और हर जंग में शरीक रहे। उन्होंने कूफ़े में हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील का पूरा पूरा साथ दिया और यह शहादत के बाद करबला को पा पियादा रवाना हो कर इमाम हुसैन (अ.स.) की खि़दमत में पहुँचे थे। करबला पहुँच कर उन्होंने पूरी कोशिश की बनी असद से कुछ मद्द ले आयें लेकिन उमरे साद के लशकर ने रास्ते में मज़ाहेमत की। शबे आशूर एक शब की मोहलत के लिये जब हज़रत अब्बास (अ.स.) गए तो हबीब भी साथ थे। नमाज़े ज़ोहर आशूरा के मौक़े पर हसीन इब्ने नमीर की बद कलामी का जवाब हबीब ही ने दिया था और उसके कहने पर ‘‘ हुसैन की नमाज़ कु़बूल न होगी ’’ हबीब ने बढ़ कर घोड़े के मुंह पर तलवार लगाई थी फिर मैदान में मुसलसल लोगों से लड़ते और उन्हें क़त्ल करते रहे यहां तक कि बदील इब्ने हरीम अक़फ़ाई ने आप पर तलवार लगाई और बनी तमीम के एक शख़्स ने नैज़ा मारा और हसीन बिन नमीर ने सर काट लिया। हबीब की शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) ने इन्तेहाई दर्द अंगेज़ लहजे में कहा, ऐ हबीब मैं तुम को और अपने असहाब को ख़ुदा से लूंगा।

 

ज़ुहैर इब्ने क़ैन

जनाबे ज़ुहैर क़ैन इब्ने क़ैस नमीरी बजल्ली के बेटे थे। यह क़ौम के सरदार और रईस थे। 60 हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ हुए। शबे आशूर जब हज़रत अब्बास (अ.स.) एक शब की मोहलत के लिये आगे बढ़े तो आपके हमराह ज़ुहैर भी थे। इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़िन्दगी में जब शिम्र ने ख़ेमे के पास आ कर उसे जलाना चाहा था तो जनाबे जु़हैर ही ने इस से मुक़ाबला कर के इसे इस इरादे से बाज़ रखा था और नमाज़े ज़ोहर के लिये सईद के साथ ज़ुहैर ने भी इमाम हुसैन (अ.स.) की हिफ़ाज़त के लिये सीना तान दिया था। आपने मैदान में ज़बरदस्त जंग की बिल आखि़र कसीर इब्ने अब्दुल्ला शुएबी और महाजिर इब्ने औस तमीमी ने आप को शहीद कर दिया। शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) लाश पर तशरीफ़ लाए और कहा ज़ुहैर ख़ुदा तुम पर रहमत नाज़िल करे और तुम्हारे क़ातिलों पर जो बन्दरों और रीछों की तरह मसख़ हो गए हैं लानत करे।

 

नाफ़े इब्ने हिलाल

जनाबे नाफ़े, हिलाल इब्ने नाफ़े इब्ने जमल इब्ने साद अशीरा इब्ने मद हज जमली के बेटे थे। आप शरीफ़ुन नफ़्स सरदारे का़ैम , बहादुर और क़ारीए क़ुरआन रावी उल हदीस थे। आप हर जंग में अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के साथ रहे। करबला में जब हज़रत अब्बास (अ.स.) पानी की जद्दो जेहद के लिये नहरे फ़ुरात पर तशरीफ़ ले गये थे तो नाफ़े इब्ने हिलाल आपके साथ थे। मैदाने में कारज़ार करबला में नाफ़े इब्ने हिलाल ने 12 दुश्मनों को ज़हर से बुझे हुए तीर से क़त्ल किया फिर जब तीर ख़त्म हो गए तो तलवार से लड़ने लगे। बिल आखि़र तीर बारानी की गई और आपके दोनों बाज़ू टूट गए और आप गिरफ़्तार हो कर इब्ने साद के सामने लाए गए। फिर शिम्र के हाथों क़त्ल कर दिये गए।

 

मुस्लिम इब्ने औसजा

जनाबे मुस्लिम, औसजा इब्ने साद इब्ने सआलबा इब्ने दोदान इब्ने असद इब्ने हज़ीमा अबू हजल असदीसादी के बेटे थे। यह शरीफ़ तरीन मर्दुम, आबिदो ज़ाहिद और सहाबी ए रसूल थे। अकसर इस्लामी जंगों में शरीक रहे। कूफ़े में मुस्लिम बिन अक़ील की पूरी ताक़त से मद्द की आपके हमराह मदहज चार क़बीले तमीम व हमदान व कुन्दा व रबीआ थे। जनाबे हानी व मुस्लिम की शहादत के बाद अपने बाल बच्चों समेत करबला आ पहुँचे और इमाम हुसैन (अ.स.) के क़दमों में शरफ़े शहादत से सरफ़राज़ हुएै मुवर्रेख़ीन का बयान है कि मुस्लिम इब्ने औसजा नेहायत दिलेरी के साथ जंग फ़रमा रहे थे कि मुस्लिम इब्ने अब्दुल्ला ज़ेआनी तऊन और अब्दुल्ला इब्ने ख़स्तकारह ने मिल कर आपको शहीद कर दिया।

 

आबिस शाकरी

जनाबे आबिस, अबू शबीब बिन शाकरी इब्ने रबीह बिन मालिक इब्ने साब इब्ने माविया बिन कसीर बिन मालिक इब्ने चश्म इब्ने हम्दानी के बेटे थे। आप निहायत बहादुर, रईस, आबिद शब ज़िन्दह दार और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के मुख़लिस तरीन मानने वाले थे। आपके क़बीला ए बनू शाकिर पर अमीरल मोमेनीन (अ.स.) को बड़ा एतमाद था। इसी वजह से जंगे सिफ़्फ़ीन मे फ़रमाया था कि अगर क़बीला ए बनी शाकिर के एक हज़ार अफ़राद मौजूद हों तो दुनियां में इस्लाम के सिवा कोई मज़हब बाक़ी न रहे। आबिस ने कूफ़े में जनाबे मुस्लिम का पूरा साथ दिया और जब जनाबे मुस्लिम कूफ़ा पहुँचे तो आपने सब से पहले ताअउन का यक़ीन दिलाया था। आप कूफ़े से जनाबे मुस्लिम का ख़त ले कर मक्का गए थे और वहीं से इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ हो गए और यौमे आशूरा शहीद हो गए। आप मैदान में आए और मुबारज़ तलबी की मगर किसी मे दम न था कि आबिस से लड़ता बिल आखि़र इन पर इजतेमाई तौर पर पथराव किया फिर बेशुमार अफ़राद ने मिल कर उन्हें शहीद कर के सर काट लिया।

 

बुरैर हमादानी

जनाबे बुरैर इब्ने ख़ज़ीर हम्दानी मशरक़ी, बनू मशरिक़ के क़बीला ए हम्दान के एक मोअम्मर ताबेई थे। यह निहायत बहादुर आबिद और ज़ाहिद और बेमिस्ल क़ारीए क़ुरआन थे। इनका शुमार कूफ़े के शोरफ़ा में था। इन्होंने कूफ़े से मक्के जा कर इमाम हुसैन (अ.स.) की हमराही इख़्तेयार की थी और ता हयात साथ रहे। शबे आशूर पानी लाने में इन्होंने अज़ीम जद्दो जेहद की थी। मैदाने जंग में आपका मुक़ाबला यज़ीद इब्ने माक़ल से हुआ, आप ने उसे क़त्ल कर दिया। फिर रज़ी इब्ने मनक़ज़ अब्दी सामने आया। आपने ज़मीन पर दे मारा। इब्ने में क़ाअब इब्ने जाबिर अज़दी ने आपकी पुश्त में नेजा़ मारा और आपने उस रज़ी की नाक दांत से काट ली। जिसके सीने पर सवार थे। क़आब का नेज़ा बुरैर की पुश्त में रह गया और उसने तलवार से बुरैर को शहीद कर दिया।

 

 

इमाम हुसैन (अ.स.) के आइज़्ज़ा व अक़रेबा और औलाद की शहादत

असहाबे बावफ़ा और अन्साराने बासफ़ा की शहादत के बाद आपके आइज़्ज़ा व अक़रोबा यके बाद दीगरे मैदाने कारज़ार में आ कर शहीद हो गए। मेरे नज़दीक बनी हाशिम में सब से पहले जिसने शरफ़े शहादत हासिल किया वह अब्दुल्लाह इब्ने मुस्लिम इब्ने अक़ील थे।। आप हज़रत अली (अ.स.) की बेटी रूक़य्या बिन्ते सहबा बिन्ते उबाद बिन्ते रबिया बिन यहिया बिन अब्द बिन अल क़मा सअलबिया के फ़रज़न्द थे। आप मैदान में तशरीफ़ लाए और ऐसा शेराना हमला किया कि रूबाहों की हिम्मतें पस्त हो गईं। आपने तीन हमले फ़रमाऐ और 90 दुश्मनों को फ़िन्नार किया। दौराने जंग में उमर बिन सबीह सैदावी ने आपकी पेशानी पर तीर मारा। आपने फ़ितरत के तक़ाज़े पर तीर पहुँचने से पहले अपना हाथ पेशानी पर रख लिया और हाथ पेशानी से इस तरह पेवस्त हो गया कि फिर जुदा न हुआ। फिर उसने दूसरा तीर मारा जो साहब ज़ादे के दिल पर लगा और आप ज़मीन पर तशरीफ़ लाए। (नूरूल ऐन तरजुमा अबसारूल हुसैन सफ़ा 76) आपको ख़ाको खूं में ग़लता देख कर आपके भाई मोहम्मद बिन मुस्लिम आगे बढ़े और उन्होंने भी ज़बरदस्त जंग की। बिल आखि़र अबू जरहम अज़वी और लक़ीत और इब्ने अयास जहमी ने आपको शहीद कर दिया। (बेहारूल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 302) इनके बाद जाफ़र बिन अक़ील इब्ने अबी तालिब मैदान में तशरीफ़ ले गए। आपने 15 ज़बरदस्त दुश्मनों को फ़ना के घाट उतारा। आखि़र में बशर बिन खोत ने आपको शहीद कर दिया। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 82) इनके बाद जनाबे अब्दुर रहमान इब्ने अक़ील मैदान में तशरीफ़ लाए। आपने ज़बरदस्त जंग की और आपको दुश्मनों ने घेर लिया आखि़र कार उस्मान बिन ख़ालिद मलऊन की ज़र्बे शदीद से राहीए जन्नत हुए। इनके बाद अब्दुल्लाह अकबर बिन अक़ील मैदान में आए और ज़बरदस्त क़ेताल के बाद उस्मान बिन ख़ालिद के हाथों शहीद हुए। अबू मख़नफ़ के कहने के मुताबिक़ अब्दुल्लाह अकबर के बाद मूसा बिन अक़ील ने मैदान लिया और 70 आदमियों को क़त्ल कर के शहीद हुए। इनके बाद औन बिन अक़ील और जाफ़र बिन मोहम्मद बिन अक़ील और अहमद बिन मोहम्मद बिन अक़ील यके बाद दीगरे मैदान में तशरीफ़ लाए और कार हाए नुमाया कर के दर्जाए शहादत हासिल किया। इनके बाद औन बिन अब्दुल्लाह बिन जाफ़र मैदान में आए और 30 सवार 8 पियादों को क़त्ल करने के बाद अब्दुल्लाह इब्ने बत के हाथों शहीद हुए। आपके बाद जनाबे हसन मुसन्ना मैदान में तशरीफ़ लाए। आपने ज़बर दस्त जंग की और इस दर्जा ज़ख़्मी हो गए कि जां बर होने का कोई इम्कान न था। बिल आखि़र मक़तूलैन में डाल दिए गए। नतीजे पर उनका एक रिश्ते का मामू असमा बिन ख़रजा मकीनी बिन अबी हसान उन्हें उठा ले गए। इनके बाद जनाबे क़ासिम इब्ने हसन (अ.स.) मैदान में तशरीफ़ लाए। अगरचे आपकी उम्र अभी नाबालगी़ की हद से मुताजाविज़ न हुई थी लेकिन आपने ऐसी जंग की कि दुश्मनों की हिम्मते पस्त हो गईं। आपके मुक़ाबले में अरज़क़ शामी आया। आपने उसे पछाड़ दिया। इसके बाद चारों तरफ़ से हमले शुरू हो गए। आपने 70 दुश्मनों को क़त्ल किया आखि़र कार अमर बिन माद बिन उरवा बिन नफ़ील आज़दी की तेग़ से शहीद हुए। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आपका जिस्मे मुबारक ज़िन्दगी ही मे पामाले सुमे अस्पाँ हो गया था। उनके बाद अब्दुल्लाह इब्ने हसन (अ.स.) मैदान में आए और ज़बरदस्त जंग की, आपने 14 दुश्मानों को तहे तेग़ किया। आपको हानी इब्ने शीस ख़ज़रमी ने शहीद किया। उनके बाद अबू बक्र इब्ने हसन मैदान में आए आपना मैमना और मैसरे को तबाह कर दिया। आप 80 दुश्मानों को क़त्ल कर के शहीद हो गए। आपको बक़ौल अल्लामा समावी अब्दुल्ला इब्ने अक़बा ग़नवी ने शहीद किया है उनके बाद अहमद बिन हसन मैदान में आए। अगरचे आपकी उम्र 18 साल से कम थी लेकिन आपने यादगार जंग की और 60 सवारों को क़त्ल कर के दर्जा ए शहादत हासिल किया। उनके बाद अब्दुल्लाह असग़र मैदान में आए। आप हज़रत अली (अ.स.) के बेटे थे आपकी वालेदा लैला बिन्ते मसूद तमीमी थीं। आपने ज़बर दस्त जंग की और दर्जा ए शहादत हासिल किया। आप 21 दुश्मनों को क़त्ल कर के ब दस्ते अब्दुल्ला बिन उक़बा ग़नवी शहीद हुए।

बाज़ अक़वाल के बिना पर उनके बाद उमर बिन अली (अ.स.) मैदान में आए और शहीद हुए। तबरी का बयान है यह करबला में शहीद नहीं हुए। अकसर मुवर्रेख़ीन का कहना है कि अब्दुल्लाह असग़र के बाद अब्दुल्लाह बिन अली (अ.स.) असग़र मैदान में तशरीफ़ लाए। यह हज़रत अब्बास (अ.स.) के हक़ीक़ी भाई थे। उनकी उमर बवक़्ते शहादत 35 साल की थी। आपको हानी इब्ने सबीत खि़र्जरमी ने शहीद किया। उनके बाद हज़रत अब्बास (अ.स.) के दूसरे भाई उस्मान बिन अली (अ.स.) मैदान में आए। आपने रजज़ पढ़ा और ज़बरदस्त जंग की। दौराने क़ताल में ख़ूली इब्ने यज़ीद असबही ने पेशानी पर एक तीर मारा जिसकी वजह से आप ज़मीन पर आ गए। फिर एक शख़्स जो क़बीला ए अबानबिन दारिम का था ने आपका सर काट लिया। शहादत के वक़्त आपकी उम्र 23 साल थी। इनके बाद हज़रत अब्बास (अ.स.) के तीसरे हक़ीक़ी भाई मैदान में तशरीफ़ लाए और बक़ौले अबुल फर्ज बदस्ते ख़ूली इब्ने यज़ीद और बरवाएते अबू मख़न्नफ़ बा ज़रबे हानी इब्ने सबीत अल ख़ज़रमी शहीद हुए। शहादत के वक़्त आपकी उम्र 21 साल थी। इनके बाद फ़ज़ल बिन अब्बास बिन अली (अ.स.) मैदान में तशरीफ़ लाए और मशग़ूले कारज़ार हो गए। आपने 250 दुश्मानों को क़त्ल किया और बिल आखि़र चारों तरफ़ से हमला कर के आपको शहीद कर दिया गया। इनके बाद हज़रत अब्बास (अ.स.) के दूसरे बेटे क़ासिम इब्ने अब्बास (अ.स.) मैदान में तशरीफ़ लाए। आपकी उम्र बक़ौले इमाम असफ़रानी 19 साल की थी। आपने 800 दुश्मानों को फ़ना के घाट उतार दिया। इसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर पानी मांगा। पानी न मिलने पर आप फिर वापस गए और 20 सवारों को क़त्ल कर के शहीद हो गए।

 

अलमदारे करबला हज़रते अब्बास (अ.स.) की शहादत

इन बनी हाशिम के बहादुर नौ निहालो की शहादत के बाद हज़रते अब्बास (अ.स.) अलमदार मैदान में हुसूले आब के लिये तशरीफ़ लाए और कारे नुमायां कर के शहीद हो गए। आपके तफ़सीली हालात के लिये मुलाहेज़ा हो किताबे ज़िकरूल अब्बास 1 मोवल्लेफ़ा नजमुल हसन करारवी, मतबुआ लाहौर।

आपके मुख़्तसर हालात

यह हैं कि आप 4 शाबान 26 हिजरी मुताबिक़ 18 मई 6470 यौमे सह शम्बा को मदीना ए मुनव्वरा में पैदा हुए। आप इमाम हुसैन (अ.स.) के मुस्तक़िल अलमबरदार थे। आपको करबला में जंग करने की इजाज़त नहीं दी गई सिर्फ़ पानी लाने का हुक्म दिया गया था। आप कमाले वफ़ादारी की वजह से नहरे फ़ुरात में दाखि़ल हो कर प्यासे बरामद गए थे। आपका दाहिना हाथ ख़ेमे में पानी पहुँचाने की सई में जै़द इब्ने वरक़ा की तलवार से कट गया था, और बायां हाथ हकीम इब्ने तुफ़ैल की तलवार से कटा, फिर एक तीर मशकीज़े पर लगा और सारी पानी बह गया। फिर एक तीर आपके सीने में लगा। इसके बाद लौहे का गुर्ज़ सर पर पड़ा और आप ज़मीन पर आ गए। आपने इमामा हुसैन (अ.स.) को आवाज़ दी, इमाम हुसैन (अ.स.) ने कमर थाम कर आवाज़ दी ‘‘ अलाअन अन कसरा ज़हरी ’’ हाय मेरी कमर टूट गई। आपका लक़ब सक़्क़ा और कुन्नियत अबू फ़ज़ल थी। आप भी यौमे आशूरा शहीद हो गए। आपकी तारीख़े शहादत मौलाना रोम ने मिसरा ‘‘ सर दीं रा बुरीद बे दीने ’’ से निकाली है। शहादत के वक़्त आपकी उम्र 34 साल चन्द माह थी।

1.  कराची के एक मौलवी साहब ने अपने एक रिसाले में जो हज़रत अब्बास (अ.स.) के हालात पर मुश्तमिल है ज़िकरूल अब्बास पर बे सरो पा एतराज़ात किए हैं हम उनके साठ साल से उपर हो जाने की वजह से उनके एतराज़ात का जवाब देना पसन्द नहीं करते।

 

हज़रत अली अकबर (अ.स.) की शहादत

हज़रत अब्बास (अ.स.) की शहादत के बाद हज़रत अली अकबर (अ.स.) ने इज़्ने जिहाद की सई बलीग़ की। बिल आखि़र आप कामयाब हो कर मैदाने करबला में तशरीफ़ लाए। आपको इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने हाथों से आरास्ता किया, हज़रत अली (अ.स.) की तलवार हिमाएल की ज़िरह पहनाई और पैग़म्बरे इस्लाम की सवारी के घोड़े पर सवार फ़रमाया जिसका नाम उक़ाब या मुरतजिज़ था। आपकी रवानगी के वक़्त इमाम हुसैन (अ.स.) ने बारगाहे अहदियत में हाथों को बुलन्द कर के कहा ‘‘ मेरे पालने वाले अब तेरी राह में मेरा वह फ़रज़न्द क़ुरबान होने जा रहा है जो सूरत और सीरत में तेरे रसूल (स.अ.) से बहुत मुशाबेह है। मेरे मौला जब मैं नाना की ज़ियारत का मुश्ताक़ होता था तो इसकी सूरत देख लिया करता था, मालिक इसकी तू ही मदद फ़रमाना ’’ उलमा ने लिखा है कि मैदान में पहुँचने के बाद हज़रत अली अकबर ने रजज़ पढ़ी और मुक़ाबला शुरू हो गया और ऐसी ज़बरदस्त जंग हुई कि दुश्मनों के दांतों पसीने आ गए। सफ़ें की सफ़ें उलट गईं। एक सौ बीस दुश्मन फ़िन्नार वस सक़र हो गए। हज़रत अली अकबर (अ.स.) जो तीन दिन के भूखे और प्यासे थे बाप की खि़दमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ की बाबा जान, प्यास मारे डालती है, पानी की कोई सबील कर दीजिए। इमाम हुसैन (अ.स.) के पास पानी कहां था जो ज़ख़्मों से चूर अली अकबर जैसे बेटे की आख़री ख़्वाहिश पूरी फ़रमाते। आपने कहा बेटा पानी तो थोड़ी ही देर में नाना जान पिलायेंगे अलबत्ता अपनी ज़बान मेरे मुंह में दे दो। अली अकबर ने बेचैनी में अपनी ज़बान तो मुंह में दे दी लेकिन फ़ौरन ही खेंच ली और कहा बाबा जान ‘‘ लिसानाका ऐबस मन लस्सानी ’’ आपकी ज़बान तो मेरी ज़बान से भी ज़्यादा ख़ुश्क़ है फिर इमाम हुसैन (अ.स.) ने रसूले करीम (स.अ.) की एक अंगूठी अली अकबर (अ.स.) के मुंह मे दी और फ़रमाया बेटा जाओ ख़ुदा हाफ़िज़।

हज़रत अली अकबर (अ.स.) दोबारा मैदान में पहुँचे तारिक़ इब्ने शीस जिससे उमरे साद ने हुकूमते ‘‘ रै ’’ और ‘‘ मूसल ’’ का वायदा किया था अली अकबर (अ.स.) के मुक़ाबले में आ गया। आपने कमाले जवां मरदी से इस पर नैज़े का वार किया नैज़ा उसके सीने पर लग कर पुश्त में से दो बालिश्त बाहर निकल गया।। इसके मरते ही उसका बेटा उमर तारिक़ मैदान में आ गया। आपने उसे भी क़त्ल कर दिया। फिर तल्हा इब्ने तारिक़ सामने आया आपने इसका गरेबान पकड़ कर उसे पछाड़ दिया। यह देख कर उमरे साद ने मिसला इब्ने ग़ालिब को मुक़ाबले का हुक्म दिया वह अली अकबर (अ.स.) के सामने आ कर दो टुकड़े हो गया। उसके क़त्ल होने से हल चल मच गई। उमरे साद ने मोहकम इब्ने तुफ़ैल...... और इब्ने नौफ़िल को दो हज़ार सवारों के साथ अली अकबर (अ.स.) पर हमला करने का हुक्म दिया। अली अकबर (अ.स.) ने निहायत दिलेरी से हमले का जवाब दिया और प्यास से बेचैन हो कर इमाम हुसैन (अ.स.) की खि़दमत में फिर हाज़िर हुए और पानी का सवाल किया, आपने फ़रमाया बेटा अब तुम्हें साक़ीए कौसर ही सेराब करेंगे। नूरे नज़र जाने पदर जल्द जाओ, रसूले करीम (स.अ.) इन्तेज़ार फ़रमा रहे हैं। हज़रत अली अकबर (अ.स.) मैदान में वापस आए। दुश्मनों ने यूरिश कर दी, आपने शेरे गुरिसना की तरह हमले किये और थोड़ी ही देर में अस्सी दुश्मनों को क़त्ल कर डाला।

बिल आखि़र मुनकज़ बिन मुर्रा अब्दी और इब्ने नमीर ने सीने मे नैज़ा मारा। आपके हाथ से ऐनाने सिपर छूट गई और आप घोड़े की गिरदन से लिपट गए। घोड़ा जिस तरफ़ से गुज़रता था आपके जिस्म पर तलवारें लगती थीं। यहां तक कि आपका जिस्म पारा पारा हो गया। आपने आवाज़ दी ‘‘ या अबाताहो अदरिकनी ’’ बाबा जान ख़बर लिजिए। इमाम हुसैन (अ.स.) दौड़ कर पहुँचे लेकिन आप से पहले हज़रत ज़ैनब पहुँच गईं। उलेमा ने लिखा है कि ज़ैनब ने वहां पहुँच कर अपने को अली अकबर पर गिरा दिया था। इमाम हुसैन (अ.स.) ने उन्हें ख़ेमे में पहुँचाया और अली अकबर के चेहरे से ख़ून साफ़ किया और कहा कि ऐ बेटे तेरे बाद इस ज़िन्दगानीए दुनिया पर ख़ाक है फिर आपने अली अकबर को ख़ेमे में ले जाने की कोशिश की लेकिन हर क़िस्म के ज़ौफ़ ने कामयाब न होने दिया, बिल आखि़र बच्चों को आवाज़ दी, बच्चों आओ मेरी मद्द करो। चुनान्चे बच्चों की इमदाद से अली अकबर का लाशा ख़ेमे के क़रीब लाया गया और मुख़द्देराते असमत मे कोहरामे अज़ीम बरपा हो गया। रौज़तुल शोहदा सफ़ा 368 , कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 75 अबसारूल ऐन सफ़ा 34, अल्लामा समावी लिखते हैं कि हज़रत अली अकबर का असली नाम अली लक़ब अकबर और कुन्नियत अबुल हसन थी। आपकी उम्र शहादत के वक़्त 18 साल थी। (नूरूल ऐन तरजुमा अबसारूल ऐन सफ़ा 34)

 

हज़रत अली असग़र (अ.स.) की शहादत

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) बे यारो मद्दगार हो गए तो आप ख़ुद बा क़स्दे शहादत मैदान के लिये चले और वहां पहुँच कर आपने ‘‘ हल मिन नासेरिन यनसेरना ’’ की आवाज़ बलन्द की। जिनों के एक गिरोहे अज़ीम ने सआदते नुसरत हासिल करने की ख़्वाहिश की आपने उन्हें दुआ ए ख़ैर से याद फ़रमाया और नुसरत क़ुबूल करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मुझे शरफ़े शहादत हासिल करना है और मैंने आवाज़े इस्तेग़ासा इतमामे हुज्जत के लिये बुलन्द किया है। मेरा मक़सद यह है कि दुश्मनाने ख़ुदा व रसूल (स.अ.) के लिये मेरी मद्द न करने का कोई बहाना बाक़ी न रहे। अभी आप जिनों से बाते कर रहे थे कि नागाह हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अपनी कमाले अलालत के बा वजूद एक असा लिये हुए ख़ेमे से बाहर निकल आए। इमाम हुसैन (अ.स.) ने जनाबे उम्मे कुलसूम को आवाज़ दी, बहन फ़ौरन आबिदे बिमार को रोको, कहीं ऐसा न हो कि सादात का सिलसिला ए नसल व नस्ब ही ख़त्म हो जाए। सय्यदुश शोहदा ने आवाज़े इस्तेग़ासा का असर जब अपने ख़ेमों के बाशिन्दों पर देखा तो फ़ौरन वापस तशरीफ़ ला कर सबको समझाया और अपनी मौत का हवाला दे कर इसरारे इमामत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के सिपुर्द फ़रमाया। आप रवाना होना ही चाहते थे कि बा रवायत जनाबे सकीना घोड़े के सुम से लिपट गईं। इमाम हुसैन (अ.स.) ने सीने से लगाया, रूख़सार का बोसा दिया, सब्र की तलक़ीन की और जनाबे ज़ैनब को सकीना की निगाह दाश्त की हिदायत फ़रमाई। उसके बाद हज़रत अली असग़र को जिन्होंने अपने को झूले से गिरा दिया था इमाम हुसैन (अ.स.) ने बढ़ कर अपनी आग़ोश में लिया और मक़तल की तरफ़ रवाना हो गये।

मैदान मे पहुँच कर आप एक टीले पर बुलन्द हुए और आपने क़ौमे अशक़िया को मुख़ातिब कर के कहा कि देखो मैं अपने छ महीने के बच्चे को पानी पिलाने लाया हूँ। इसकी माँ का दूध ख़ुश्क हो गया और इसकी ज़बान सूख गई है, ख़ुदारा इसे पानी पिला कर इसकी जान बचा लो, और सुनो अगर मैं तुम्हारें ज़ौमे नाक़िस में गुनाहगार हो सकता हूँ तो मेरे इस मासूम बच्चे में गुनाह की सलाहियत नहीं हैं। यह तो बे ख़ता है इस सदाए पुर तासीर का असर यह हुआ कि लशकर का मिजाज़ बिगड़ने लगा, शक़ीउल क़ल्ब लशकरी रो पड़े। उमरे साद ने जब यह देखा तो फ़ौरन हुरमुला इब्ने काहिल अज़दी को हुक्म दिया, ‘‘ अक़ता कलामुल हुसैन ’’ हुसैन के कलाम को नोके तीर से क़ता कर दे। हुरमुला ने तीरे सेह शोबा चिल्ला ए कमान में जोड़ा और अली असग़र के गले की तरफ़ फेंका। तीर जो ज़हर से बुझा हुआ था अली असग़र के गले पर लगा और उसने अली असग़र के गले के साथ साथ इमाम हुसैन (अ.स.) का बाज़ू भी छेद दिया। इमाम हुसैन (अ.स.) ने बच्चे को सीने से लगा कर उसके ख़ून से चुल्लू भर लिया और चाहा कि आसमान की तरफ़ फेंकें, आसमान से जवाब आया, यह ख़ूने ना हक़ है इसे इस तरफ़ न फेकिये वरना क़यामत तक के लिये बारिश का सिलसिला बन्द हो जायेगा। आपने चाहा कि उसे ज़मीन की तरफ़ ही फेंक दें, उधर से भी जवाब मिल गया। तो आपने उसे अपने चेहरा ए मुबारक पर मल लिया और फ़रमाया, ‘‘ हकज़ा लाती जद्दी रसूल अल्लाह ’’ मैं इसी तरह अपने जद्दे नामदार हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की खि़दमत में पहुँचूगा। (अबसारूल ऐन व अनवारूल शहादत) इसके बाद आपने एक नन्हीं सी क़ब्र खोदी और उसमें हज़रत अली असग़र को दफ़्न फ़रमा दिया।

नन्हीं सी क़ब्र खोद के असग़र को गाड़ के

शब्बीर , उठ खड़े हुए , दामन को झाड़ के

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की रूख़सती

हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद न सरकार है न दरबार न लशकर है न अलमदार, अली असग़र को नन्हीं सी क़ब्र खोद कर दफ़्न फ़रमाते हैं और अकेले हरम के ख़ेमों की तरफ़ आते हैं और अहले बैत से रूख़सत होते हैं और फ़रमाते हैं ऐ ज़ैनब , ऐ उम्मे कुलसूम, ऐ रूक़य्या , ऐ रबाब, ऐ सकीना अलैकुम मिन्नी अस्सलाम, सलामे अलविदा यह मेरी आख़री रूख़सती है। ऐ बहनों , ऐ बीबियों , ऐ बेटियों बस ख़ुदा हाफ़िज़ो नासिर है और वही हामियों मद्दगार है।

बहन ज़ैनब देखो, हर मुसीबत में हर बला में ख़ुदा को याद रखना, अपने रहीमो करीम ख़ालीक़ को न भूलना। एनाने सब्र को हाथ से न छोड़ना। राहे इलाही में हर एक रंज व मुसिबत को राहत समझना। रस्सी से हाथ बंधे तो उफ़ न करना, चादर छिने तो ग़म न खाना। अम्मा के सब्र और बाबा के हिल्म के जौहर दिखलाना। नाना रसूल (स.अ.) तुम्हारे मद्दगार और ख़ुदा तुम्हारा हामी है। हां लुटने के लिये तय्यार हो जाओ। क़ैद होने के लिये कमरों को कस लो। चादरों को अच्छी तरह से ओढ़ लो। मक़नों को मज़मूती से बांध लो। ऐ बहन ज़ैनब यह यतीम बच्चे, यह असीराने अहलेबैत (अ.स.) का काफ़ला बस तुम्हारे साथ है। बीमारे करबला सय्यदे सज्जाद ज़ैनुल आबेदीन को ग़श से जगा दो, होशियार कर दो। अब तौक़ो ज़जीर पहन्ने और असीर होने का वक़्त आ गया है। बेड़ियां पहन्ने और कांटों पर पैदल चलने का ज़माना क़रीब है। अब जंगल के कांटों भरे रास्ते हैं और सहरा नवरदी है। कभी कूफ़ा व शाम के बाज़ार हैं और लोगों का हुजूम है, तमाशईयों का मजमा है, मां बहनों के नंगे सर हैं और ज़ैनुल आबदीन हैं । यज़ीद और इब्ने ज़ियाद के दरबार में शिम्र के ताज़याने हैं और हमारा लाडला बीमार है। ऐ ज़ैनुल आबेदीन !

प्यासा गला कटाया यह ओहदा है बाप का

पहनो गले में तौक़ यह हिस्सा है आप का

बस हमारे बाद दुनियां के इमाम तुम हो। ऐ जाने पदर इस कश्ती की मल्लाही अब तेरी ज़ात पर है। देखना आपकी मेहनत राएगां ना जाने पाऐ, अन्नाने सब्र व तहम्मुल हाथ से न छूटे। करबला से कूफ़ा और कूफ़े से शाम तक माँ बहनों के साथ, बेड़ियां पहने , तौक़ डाले, नंगे पांव जाओ, सब्रो रज़ा ए इलाही के जौहर दिखलाओ। तौहीद के ख़ुत्बे पढ़ो, हिदायत के रास्ते बताओ। हां हां बेटा देखना बेड़ी पहन कर सिलसिला ए सब्र छूट न जाए। बस हम राहे रज़ा सर से क़ता करने को तैय्यार हैं और तुम अपने पैरों से तय करना। राहे इलाही में ख़ार दार तौक़ को फूलों को हार समझना और इश्क़े इलाही में लौहे की तप्ती बेड़ियों को मोहब्बते ख़ुदा की जंजीरे जनाना। यह फ़रमाने के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) फटे पुराने कपड़े मांगते हैं, पोशाक के नीचे पहनते हैं, उन्हें भी जगह जगह से चाक फ़रमा देते हैं। सबब पूछा जाता है तो फ़रमाते हैं कि मेरे शहीद हो जाने के बाद यह ज़ालिम शक़ी मेरा लिबास भी लूटेंगें और कपड़े भी उतारेंगे। शायद यह फटे पुराने कपड़े नीचे देख कर छोड़ दें और इस तरह मेरी लाश बरहनगी से बच जाए।   (तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 40 व तबरी सफ़ा 34)

बहन के रूख़सत फ़रमा कर, बीबीयों को अलविदा कह कर, माँ की कनीज़ फ़िज़्ज़ा, पालने वाली को भी सलाम कर के बाली सकीना सीने पर सोने वाली लाडली बेटी को छाती से लगा कर मुह चूमते और फ़रमाते थे , बेटी तुम को ख़ुदा के सिपुर्द किया। ख़ेमे का परदा उठा, बाहर तशरीफ़ लाए, बहन ने रक़ाब थामी, ज़ुल्जना पर सवार हुए और मैदाने कारज़ार पर रवाना हो गए। (नामूसे इस्लाम)

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) मैदाने जंग में

जब आपके 72 असहाब व अन्सार और बनी हाशिम क़ुरबान गाहे इस्लाम पर चढ़ चुके तो आप ख़ुद अपनी क़ुरबानी पेश करने के लिये मैदाने कारज़ार में आ पहुँचे। लशकरे यज़ीद जो हज़ारों की तादाद में था, अस्हाबे बावफ़ा और बहादुराने बनी हाशिम के हाथों वासीले जहन्नम हो चुका था। इमाम हुसैन (अ.स.) जब मैदान में पहुँचे तो दुश्मनों के लशकर में से तीस हज़ार सवार व पियादे बाक़ी थे यानि सिर्फ़ एक प्यासे को तीस हज़ार दुश्मनों से लड़ना था। (कशफ़ुल ग़म्मा) मैदान पहुँचने के बाद आपने सब से पहले दुश्मनों को मुख़ातिब कर के एक ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। आपने कहा, ऐ ज़ालिमों ! मेरे क़त्ल से बाज़ आओ, मेरे ख़ून से हाथ न रंगो,  तुम जानते हो मैं तुम्हारे नबी का नवासा हूँ। मेरे बाबा अली (अ.स.) साबिक़े इस्लाम हैं, मेरी माँ फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) तुम्हारे नबी (स.अ.) की बेटी हैं और तुम जानते हो कि मेरे नाना रसूल अल्लाह (स.अ.) ने मुझे और मेरे भाई हसन (अ.स.) को सरदारे जवानाने जन्नत फ़रमाया है। अफ़सोस तुम कैसी बुरी क़ौम और कैसी बुरी उम्मत हो कि न तुम को ख़ुदा का ख़ौफ़ है न रसूल (स.अ.) से शर्म है। तुम अपने नबी की औलादों और अपने रसूल (स.अ.) की आल का ख़ून बहाते हो और मेरे ख़ूने ना हक़ पर आमादा होते हो, हालांकि न मैंने किसी को क़त्ल किया है न किसी का माल छिना है कि जिसके बदले में तुम मुझको क़त्ल करते हो। मैं तो दुनियां से बे ताअल्लुक़ अपने नाना रसूल (स.अ.) की क़ब्र पर मुजाविर बना बैठा था। तुम ने मुझे हिदायत के लिये बुलाया और मुझे न नाना की क़ब्र पर बैठने दिया न ख़ुदा के घर में रहने दिया। सुनो अब भी हो सकता है कि मुझे इसका मौक़ा दे दो कि मैं नाना की क़ब्र पर बैठूं या ख़ाना ए ख़ुदा में पनाह ले लूं। इसके बाद आपने इतमामे हुज्जत के लिये उमरे साद को बुलाया और उससे फ़रमाया, 1. तुम मेरे क़त्ल से बाज़ आओ। 2. मुझे पानी दे दो। 3. अगर यह मन्ज़ूर न हो तो फिर मेरे मुक़ाबले के लिये एक एक शख़्स को भेजो। उसने जवाब दिया आपकी तीसरी दरख़्वास्त मन्ज़ूर की जाती है और आपसे लड़ने के लिये एक एक शख़्स मुक़ाबले में आएगा। (रौज़तुल शोहदा)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) की नबर्द आज़माई

मोहाएदे के मुताबिक़ आपसे लड़ने के लिये लश्करे शाम से एक एक शख़्स आने लगा और आप उसे फ़ना के घाट उतारने लगे । सब से पहले जो शख़्स मुक़ाबले के लिये निकला वह ख़मीम इब्ने क़हतबा था आपने इस पर बरक़ ख़ातिफ़ की तरह हमला किया और उसे तबाह व बरबाद कर डाला। यह सिलसिला ए जंग थोड़ी देर जारी रहा और मुद्दते क़लील में कुश्तों के पुश्ते लग गए और मक़तूलीन की तादाद हदे शुमार से बाहर हो गई। यह देख कर उमरे साद ने लश्कर वालों को पुकार कर कहा क्या देखते हो सब मिल कर यक बारगी हमला कर दो। यह अली का शेर है इससे इनफ़ेरादी मुक़ाबले में कामयाबी क़त्अन न मुम्किन है। उमरे साद की इस आवाज़ ने लश्कर के हौसले बुलन्द कर दिये और सब ने मिल कर यक बारगी हमले का फ़ैसला किया। आपने लश्कर के मैमना और मैसरा को तबाह कर दिया। आपके पहले हमले में एक हज़ार नौ सौ पचास दुश्मन क़त्ल हुए और मैदान ख़ाली हो गया। अभी आप सुकून न लेने पाए थे कि अठ्ठाइस हज़ार दुश्मनों ने फिर हमला कर दिया। इस तादाद मे चार हज़ार कमान दार थे। अब सूरत यह हुई कि सवार प्यादे और कमान दारों ने हम आहंग व हम हमल हो कर मुसलसल मुतावातिर हमले शुरू कर दिये। इस मौक़े पर आपने जो शुजाअत का जौहर दिखाया इसके मुताअल्लिक़ मुवर्रेख़ीन का कहना है कि सर बरसने लगे, धड़ गिरने लगे और आसमान थरथराया, ज़मीं कांपी, सफ़ें उल्टीं, परे दरहम बरहम हो गए।

अल्लाह रे हुसैन का वो आख़री जिहाद,  हर वार पर अली ए वली दे रहे थे दाद

कभी मैसरा को उलटते थे कभी मैमना को तौड़ते हैं कभी क़ल्बे लश्कर में दरआते हैं कभी जिनाहे लश्कर पर हमला फ़रमाते हैं। शामी कट रहे हैं कूफ़ी गिर रहे हैं। लाशों के ढेर लग रहे हैं। हमले करते हुए फ़ौजों को भगाते हुए नहर की तरफ़ पहुँच जाते हैं। भाई की लाश तराई पर पड़ी नज़र आती है। आप पुकार कर कहते हैं, ऐ अब्बास तुम ने यह हमले न देखे, यह सफ़ आराई न देखी अफ़सोस तुम ने मेरी तन्हाई न देखी।

अल्लामा असफ़रानी का कहना है कि इमाम हुसैन (अ.स.) दुश्मनों पर हमला करते थे तो लशकर इस तरह से भागता था जिस तरह से टिड्डियां मुन्तशिर हो जाती हैं। नूरूल एैन में एक मुक़ाम पर लिखा है कि इमाम हुसैन (अ.स.) बहादुर शेर की तरह हमला फ़रमाते और सफ़ों को दरहम बरहम कर देते थे और दुश्मनों को इस तरह काट कर फेंक देते थे जिस तरह तेज़ धार आले से खेती कटती है।

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि ‘‘ आँ हज़रत हमलागरां अफ़गन्द हर कि बाद कोशीद शरबते मर्ग नोशीद व बहर जानिब कि ताख़त गिरोहे रा बख़ाक अन्दाख़्त ’’ कोई आपके अज़ीमुश्शान हमले की कोई ताब न ला सकता था, जो आपके सामने आता था शरबते मर्ग से सेराब होता था और आप जिस जानिब हमला करते थे गिरोह के गिरोह को ख़ाक में मिला देते थे। (कशफ़ुल ग़म्मा)

मुवर्रीख़ इब्ने असीर का बयान है कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) को यौमे आशुरा दाहिने और बाऐं जानिब से घेर लिया गया तो आपने दाईं जानिब हमला कर के सब को भगा दिया। फिर पलट कर बाईं जानिब हमला करते हुए तो सब को मार कर हटा दिया। ख़ुदा की क़सम। हुसैन (अ.स.) से बढ़ कर किसी शख़्स को ऐसा क़वी दिल, साबित क़दम बहादुर नहीं देखा गया जो शिकस्ता दिल हो, सदमे उठाए हुए हो, बेटों अज़ीज़ों और दोस्त अहबाब के दाग़ भी खाए हुए हो और फिर हुसैन (अ.स.) की सी साबित क़दमी और बे जिगरी से जंग कर सके। ब ख़ुदा दुश्मनों की फ़ौज के सवार और प्यादे हुसैन (अ.स.) के सामने इस तरह भागते थे जिस तरह भेड़ बकरियों के ग़ल्ले शेर के हमले से भागते हैं। हुसैन (अ.स.) जंग कर रहे थे ‘‘ इज़न ख़रजता ज़ैनब ’’ कि जनाबे ज़ैनब ख़ेमे से निकल आईं और फ़रमाया, काश आसमान ज़मीन पर गिर पड़ता। ऐ उमरे साद तू देख रहा है और अबू अब्दुल्लाह क़त्ल किये जा रहे हैं। यह सुन कर उमरे साद रो पड़ा। आंसू दाढ़ी पर बहने लगे और उसने मुंह फेर लिया। इमाम हुसैन (अ.स.) उस वक़्त ख़ज का झुब्बा पहने हुए थे, सर पर अमामा बंधा हुआ था और वसमा का खि़ज़ाब लगाए हुए थे। हुसैन (अ.स.) ने घोड़े से गिर कर भी उसी तरह जंग फ़रमाई जिस तरह जंग जू बहादुर सवार जंग करते थे, हमलों को रोकते थे और सवारों के पैरों पर हमले फ़रमाते थे। ऐ ज़ालिमों ! मेरे क़त्ल पर तुम ने ऐका कर लिया है। क़सम ख़ुदा की तुम मेरे क़त्ल से ऐसा गुनाह कर रहे हो जिसके बाद किसी के क़त्ल से भी इतने गुनाह गार न होगे। तुम मुझे ज़लील कर रहे हो और ख़ुदा मुझे इज़्ज़त दे रहा है और सुनो वह दिन दूर नहीं कि मेरा ख़ुदा तुम से अचानक बदला ले लेगा। तुम्हें तबाह कर देगा, तुम्हारा ख़ून बहाएगा, तुम्हें सख़्त अज़ाब में मुब्तिला कर देगा। (तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 40)

मिस्टर जेम्स कारकरन इमाम हुसैन (अ.स.) की बहादुरी का ज़िक्र करते हुए वाक़ेए करबला के हवाले से लिखते हैं कि ‘‘ दुनियां में रूस्तम का नाम बहादुरी मे मशहूर है लेकिन कई शख़्स ऐसे गुज़रे हैं कि इनके सामने रूस्तम का नाम लेने के क़ाबिल नहीं। चुनान्चे अव्वल दर्जे में हुसैन इब्ने अली (अ.स.) हैं क्यों कि मैदाने करबला में गर्म रेत पर और भूख के आलम में जिस शख़्स ने ऐसा ऐसा काम किया हो, उसके सामने रूसतम का नाम वही शख़्स लेता है जो तारीख़ से वाक़िफ़ नहीं है। किसके क़लम को क़ुदरत है कि इमाम हुसैन (अ.स.) का हाल लिखे, किसकी ज़बान मे ताक़त है कि इन बहत्तर बुज़ुर्गवारों की साबित क़दमी और तेवरे शुजाअत और हज़ारों खू ख़्वार सवारों के जवाब देने और एक एक के हलाक हो जाने के बाब में ऐसी तारीफ़ करे, जैसी होनी चाहिये। किस के बस की बात है जो इन पर वाक़े होने वाले हालात का तसव्वुर कर सके। लश्कर में घिर जाने के बाद से शहादत तक के हालात अजीब व ग़रीब क़िस्म की बहादुरी को पेश करते हैं। यह सच है कि एक की दवा, दो मश्हूर हैं और मुबालग़ा की यही हद है कि जब किसी हाल में यह कहा जाता है कि तुम ने चार तरफ़ से घेर लिया लेकिन हुसैन (अ.स.) और बहत्तर तन को आठ क़िस्म के दुश्मनों ने तंग किया था। चार तरफ़ से यज़ीदी फ़ौज जो आंधी की तरह तीर बरसा रही थी। पांचवा दुश्मन अरब की धूप, छठा दुश्मन गर्म रेत जो तनूर के ज़र्रात की मानिन्द जान लेवा हरकतें कर रहे थे। पस जिन्होंने ऐसे मारके में हज़ारों काफ़िरों का मुक़ाबला किया हो इन पर बहादुरी का ख़ात्मा हो चुका, ऐेसे लोगों से बहादुरी में कोई फ़ौक़ीयत नहीं रखता। ’’ (तारीख़े चीन दफ़्तर दोम बाब 16 जिल्द 2)

 

इमाम हुसैन (अ.स.) अपने मक़तूल बहादुरों को पुकारते हुए

भूख और प्यास के आलम में नबर्द आज़माई की भी कोई हद होती है। आखि़र कार जब इमाम हुसैन (अ.स.) का जिस्मे मुबारक तीरों से मिस्ले साही हो गया और आप बे हद ज़ख़्मी हो गए तो आप अपने बहादुर मक़तूलों की तरफ़ मुतवज्जा हो कर फ़रमाने लगे, ‘‘ ऐ बहादुर शेरो उठो और हुसैन की मद्द करो , बेशक तुम ने बड़ी मद्द की और तुम मेरी हिमायत में सर से गुज़र गए हो, जान से बे नियाज़ हो गए हो लेकिन सुनो अब वक़्त व हालात का तक़ाज़ा यह है कि इस वक़्त मेरी मद्द करो ’’ लेकिन अफ़सोस जान से गुज़र जाने वाले हयाते ज़ाहिरी से महरूम क्यों कर मद्द करते। बाज़ रवायतों में है कि आपकी आवाज़ पर ज़ाफ़र जिन ने लब्बैक कही और इमदाद की दरख़्वास्त की। आपने यह कह कर उसे मुस्तरद कर दिया कि मैं इम्तिहान देने के लिये आया हूँ और इतमामे हुज्जत के लिये सदाए इम्दाद बुलन्द की है वरना मुझे मद्द की ज़रूरत नहीं है। एक रवायत में है कि फिर फ़रिश्तों ने मदद करना चाही उन्हें भी जवाब दे दिया। एक और रवायत में है कि हुसैन (अ.स.) की इस आख़री पुकार पर कटी हुई गरदनों से लब्बैक की आवाज़ आई।

 

बारगाहे अहदीयत में इमाम हुसैन (अ.स.) के दिल की अवाज़

हुसैन (अ.स.) यको तन्हा, बे यारो मद्दगार, जलती हुई ज़मीन पर दुश्मनों के झुन्ड में खड़े हैं और नाना रसूले (स.अ.) अरबी का अमामा जिसके पेच कटे हुए ख़ून से भरा हुआ सर पर है, पै रहने अहमदी ज़ैबे तन है लेकिन तीरों से छलनी और ख़ून से रंगीन है। क़बा का दामन अली अकबर के ख़ून से लाल, चेहरा ए अनवर अली असग़र के ख़ून से गुलनार है, पेशानी मुबारक से ख़ून टपक रहा है और अब्बास (अ.स.) के ग़म से कमर टूट चुकी है। प्यास से कलेजा फुक रहा है, अन्सार की लाशें सामने पड़ीं हैं, बराबर का बेटा कड़ियल जवान, शबीहे पयम्बर सीने पर बर्छी खाए ख़ून से नाहाए सो रहा है। भाई की निशानी क़ासिम इब्ने हसन (अ.स.) ख़ून की मेंहदी लगाए उरूसे मौत से हम कनार आराम कर रहा है। बहन के लाडले दाग़ दे कर चले जा चुके हैं। लश्कर की ज़ीनत, बच्चों की ढारस, सकीना का सक्का, अली का शेर , क़ूव्वते बाज़ू, शाने कटाए नहर की तराई पर पड़ा है। 6 माह की जान तीरे सेह शोबा की नज़र हो चुकी है। क़त्ल गाह मेना का नक़्शा पेश कर रहा है,  ख़्याम से भूखे प्यासे बच्चों के रोने बिल बिलाने की जिगर सोज़ आवाज़ें आ रही हैं। बीबीयों के रोने और फ़रियाद करने की आवाज़ें दिल को जला रही हैं लेकिन अल्लाह रे हुसैन (अ.स.) का जज़्बा ए क़ुर्बानी, यह इश्क़े ख़ुदा का मतवाला, इस्लाम का फ़रेफ़ता, तौहीद का शेफ़ता , सब्रो रज़ा का मुजस्समा, यादे ख़ुदा में महो और मुनाजात में मशग़ूल है। जैसे जैसे मसाएब व आलाम बढ़ते जाते हैं चेहरा शग़ुफ़्ता होता जाता है। आप फ़रमाते हैं, मेरे पालने वाले मैं अपनी ज़िन्दगी से उस मौत को पसन्द करता हूँ जो तेरी राह में हो। मेरे मौला मुझे इसमें ख़ुशी महसूस होती है कि मैं सत्तर मरतबा तेरी बारगाह में शहीद किया जाऊ और इस क़त्ल पर फ़ख़्र करता हूं जिस में तेरे दीन की नुसरत का राज़ मुज़मिर हो। इसके बाद आप अर्ज़ करते हैं, तरकतुल नास तरानी हवाक  व अतीमतुल अयाल लकी अराक 1. मेरे मालिक तू जानता है और बेहतर जानता है कि मैंने तेरी मोहब्बत में सब से हाथ उठा लिया है और फ़क़त तेरे दीदार के शौक़ में अहलो अयाल को छोड़ दिया और बच्चों को यतीम बना दिया। 2. मालिक अगर तेरे दीदारे इश्क़ में मेरे टुकड़े कर दिए जाएं तब भी मेरा दिल तेरे सिवा किसी और की तरफ़ झुक नहीं सकता। यह कह कर आपने तलवार नियाम में रख ली क्यों कि सदा ए आसमानी आ गई थी कि ‘‘ अपना वादा ए तिफ़ली पूरा करो ’’ आपके हाथों का रूकना था कि सारा लश्कर मुसलसल हमले पर आमादा हो गया और चालीस हज़ार अफ़राद ने आपको घेरे में ले कर वार करना शुरू कर दिया।

 

इमाम हुसैन (अ.स.) अर्शे ज़ीन से फ़रशे ज़मीन पर

आप पर मुसलसल वार हो रहे थे कि नागाह एक पत्थ्र पेशानिये अक़दस पर लगा इसके फ़ौरन बाद अबवाल हतूफ़ जाफ़ई मलऊन ने जबीने मुबारक पर तीर मारा आपने उसे निकाल कर फेंक दिया और ख़ून पोछने के लिये आप अपना दामन उठाना ही चाहते थे कि सीना ए अक़दस पर एक तीरे सह शोबा पेवस्त हो गया, जो ज़हर में बुझा हुआ था। इसके बाद सालेह इब्ने वहब लईन ने आपके पहलू पर अपनी पूरी ताक़त से एक नेज़ा मारा जिसकी ताब न ला कर आप ज़मीने गर्म पर दाहिने रूख़सार के भल गिरे, ज़मीन पर गिरने के बाद आप फिर उठ खड़े हुए, वरआ इब्ने शरीक लईन ने आपके दायें शाने पर तलवार लगाई और दूसरे मलऊन ने दाहिने तरफ़ वार किया। आप फिर ज़मीन पर गिर पड़े, इतने में सिनान बिन अनस ने हज़रत के ‘‘ तरकूह ’’ हसली पर नैज़ा मारा और उसको खैंच कर दूसरी दफ़ा सीना ए अक़दस पर लगाया। फिर इसी ने एक तीर हज़रत के गुलू ए मुबारक पर मारा इन पैहम ज़रबात से हज़रत कमाले बेचैनी से उठ बैठे और आपने तीर को अपने हाथो से खींचा और ख़ून रीशे मुबारक पर मला। इसके बाद मालिक बिन नसर कन्दी लईन ने सरपर तलवार लगाई और वरह इब्ने शरीक ने शाने पर तलवार का वार किया। हसीन बिन नमीर ने दहने अक़दस पर तीर मारा। अबू अय्यूब ग़नवी ने हलक़ पर हमला किया। नसर बिन हरशा ने जिस्म पर तलवार लगाई इब्ने वहब ने सीना ए मुबारक पर नैज़ा मारा। यह देख कर उमरे साद ने आवाज़ दी अब देर क्या है इनका सर फ़ौरन काट लो। सर काटने के लिये शीस इब्ने रबी बढ़ा। इमाम हुसैन (अ.स.) ने इसके चेहरे पर नज़र की उसने हुसैन (अ.स.) की आंखांे में रसूल (स.अ.) की तसवीर देखी और कांप उठा। फिर सिनान बिन अनस आगे बढ़ा। इसके जिस्म में राशा पड़ गया। वह भी सरे मुबारक न काट सका। यह देख कर शिमरे मलऊन ने कहा, यह काम सिर्फ़ मुझसे हो सकता है और वह ख़न्जर लिये हुए इमाम हुसैन (अ.स.) के क़रीब आ कर सीना ए मुबारक पर सवार हो गया। आपने पूछा तू कौन है? उसने कहा मैं शिम्र हूँ। फ़रमाया , तू मुझे नहीं पहचानता? इसने कहा ‘‘ अच्छी तरह जानता हूँ ’’ तुम अली व फ़ात्मा के बेटे और मोहम्मद (स.अ.) के नवासे हो। आपने फ़रमाया फिर मुझे क्यों ज़बह करता है? इसने जवाब दिया इस लिये कि मुझे यज़ीद की तरफ़ से मालो दौलत मिलेगा। (कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 79)

इसके बाद आपने अपने दोस्तों को याद फ़रमाया और सलामे आख़री के जुमले अदा किये। ऐ शिम्र मुझे इजाज़त दे दे कि मैं अपने ख़ालिक़ की आख़री नमाज़े अस्र अदा कर लूँ। इसने इजाज़त दी, आप सजदे में तशरीफ़ ले गए। (रौज़तुल शोहदा सफ़ा 277) और शिम्र ने आपके गुलू ए मुबारक को कुन्द ख़न्जर की बारह ज़र्बों से क़ता कर के सरे अक़दस को नैज़े पर बुलन्द कर दिया। हज़रत ज़ैनब ख़ैमे से निकल पड़ीं, ज़मीन कांपने लगी, आलम में तारीकी छा गई, लोगों के बदन में कप कपीं पड़ गई। आसमान ख़ूं के आंसू रोने लगा। जो शफ़क़ की सूरत में रहती दुनियां तक क़ायम रहेगा। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 116) इसके बाद उमरे साद ने खूली बिन यज़ीद और हमीद बिन मुस्लिम के हाथों सरे मुबारक करबला से कूफ़े इब्ने ज़ियाद के पास भेज दिया। (अल हुसैन अज उमर बिन नसर सफ़ा 154) इमाम हुसैन (अ.स.) के सरे बुरिदा के बाद आपका लिबास लूटा गया। अखि़नस बिन मुरसिद अमामा ले गया, इस्हाक़ इब्ने हशूआ क़मीस पैराहन ले गया। अबहर बिन क़ाब पैजामा ले गया। असवद बिन ख़ालिद नालैन ले गया, अब्दुल्लाह बिन असीद कुलाह ले गया, बज़दल बिन सलीम अंगुशतरी ले गया। क़ैस बिन अशअस पटका ले गया। उमर बिन साद ज़िरह ले गया, जमीह बिन ख़लक़ अज़दी तलवार ले गया। अल्लाह रे ज़ुल्म एक कमर बन्द के लिये जमाल मलऊन ने हाथ क़ता कर दिया। एक अंगूठी के लिये बुज़दिल ने उंगली काट डाली।

इसके बाद दीगर शोहदा के सर काटे गाए, और लाशों पर घोड़े दौड़ाने के लिये उमरे साद ने लशकरियों को हुक्म दिया दस अफ़राद इस अहम जुर्म खुदाई के लिये तैयार हो गए। जिनके नाम यह है, इस्हाक बिन हवीया, अखनस बिन मरसद, हकीम बिन तुफ़ैल, उमरो बिन सबीह, सालिम बिन खसीमह, सालेह बिन वहब, वाएज़ बिन ताग़म, हानि बिन मसबत, असीद बिन मालिक। तवारीख़ में है कि ‘‘ फ़ला सवाअल हुसैन ब हवाफ़र ख़ैवलाहुम हत्ती रजू अज़हरा वहमदहू ’’ इमाम हुसैन (अ.स.) की लाश को इस तरह घोड़ों की टापों से पामाल किया कि आपका सीना और पुश्त टुकड़े टुकड़े हो गई। बाज़ मुवर्रेख़ीन का कहना है कि जब इन लोगों ने चाहा कि जिस्म को इस तरह पामाल कर दें कि बिल्कुल ना पैद हो जाए तो जंगल से एक शेर निकला और उसने लाशा पामाल होने से बचा लिया। (दमए साकेबा सफ़ा 350) अल्लामा इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के फ़ौरन बाद, जो मिट्टी रसूले ख़ुदा (स.अ.) जनाबे उम्मे सलमा को दे गए थे ख़ून से लाल हो गई। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 115) और रसूले ख़ुदा उम्मे सलमा के ख़्वाब में मदीने पहुँचे, उनकी हालत यह थी कि वह बाल बिखरा ए हुए, सर पर ख़ाक डाले हुए थे। उम्मे सलमा ने पूछा कि आप का यह क्या हाल है फ़रमाया ‘‘ शहादता क़तलन हुसैना अनफ़ा ’’ मैं अभी अभी हुसैन के क़त्ल गाह में था और अपनी आंखों से उसे ज़बह होते हुए देखा है। (सही तिरमिज़ी जिल्द 2 सफ़ा 306, मुस्तदरिक हाकिम जिल्द 4 सफ़ा 19 तहज़ीबुल तहज़ीब जिल्द 2 सफ़ा 356 ज़ख़ाएरूल ओक़बा सफ़ा 148)

 

शामे ग़रीबा

शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) के बाद अस्पे वफ़ा दार ने अपनी पेशानी इमाम हुसैन (अ.स.) के ख़ून मे रंगीन कर के अहले हरम में ख़बरे शहादत पहुँचा दी थी जिसकी वजह से ख़ेमें में कोहरामे अज़ीम बपा ही था कि दुश्मनों ने ख़ेमों का रूख़ किया और पहुँचते ही ख़ैमों में आग लगा दी और सामान लूटना शुरू कर दिया। अहले बैते रसूल (स.अ.) फ़रियादों फ़ुग़ां की आवाज़े बलन्द कर रहे थे और कोई फ़रयाद रस और पुरसाने हाल न था। तमाम बीबीयों के सरों से चादरें छीन लीं। फ़ात्मा बिन्ते हुसैन (अ.स.) के पैरों से छागलें उतार लीं और हज़रत ज़ैनब व उम्मे कुलसूम के कानों से गोशवारे खींच लिये। सय्यदे सज्जाद (अ.स.) के नीचे से बिस्तर खींच कर उन्हें ज़मीन पर डाल दिया। ग़रज़ कि एक ऐसा हशर बरपा कर दिया गया जो न किसी के हाथ कभी रवा रखा गया था और न इससे क़ब्ल सुनने में आया था। इन हालात को देख कर एक औरत जो क़बीला ए बकर इब्ने वाएल से थी एक तलवार का टुकड़ा ले कर इन मुख़ालिफ़ों पर हमलावर हुई जो आले रसूल (स.अ.) को लूट रहे थे। बाज़ रवाएतों में है कि एक बच्चे के कुर्ते में आग लगी हुई थी और वह बाहर की तरफ़ भाग रहा था, जैसे हवा लगती थी आग भड़क जाती थी, यह हाल देख कर एक दुश्मन ने तरस खाया, और बढ़ कर दामन से आग बुझ़ा दी, नौनिहाल ने जब उसे अपने ऊपर मेहरबान पाया तो पूछने लगा कि ऐ शेख़ नजफ़ का रास्ता किधर है? उसने कहा ऐ फ़रज़न्द इस कमसिनी में नजफ़ का रास्ता क्यों पूछते हो? फ़रमाया मैं अपने नाना के पास जा कर उनके सामने फ़रयाद करूंगा। (किताब तौज़ीह में यह वाक़ेया जनाबे सकीना की तरफ़ मन्सूब है)

अल ग़रज ज़ल्मों जौर की इन्तेहा हो रही थी किसी बीबी की पुश्त पर ताज़याने लगाए जा रहे थे किसी के रूख़सार पर तमाचे लगा रहे थे किसी की पीठ पर नै़ज़े की अनी चुभोई जा रही थी। जब सब कुछ लूटा जा चुका, ख़ैमे जल चुके और शाम आ गई तो वहीं के जले भुने ग़ल्ले के दानों से और ब रवाएते हुर की बीवी दाना पानी लाई और फ़ाक़ा शिकनी की गई।

इसके बाद हज़रत ज़ैनब ने जनाबे उम्मे कुलसूम से फ़रमाया कि बहन अब रात हो चुकी है, तारीकी छाई हुई है, तुम सब औरतों और बच्चों को एक जगह जमा करो, उनकी हिफ़ाज़त में मैं रात भर पहरा दूंगी। हज़रत उम्मे कुलसूम ने सब बीबीयों को जमा कर लिया लेकिन उन्हें जनाबे सकीना न मिलीं, आपने जनाबे ज़ैनब से अर्ज़े वाक़िया किया, जनाबे ज़ैनब मक़तल की तरफ़ हज़रत सकीना को तलाश करने के लिये निकलीं। एक नशेब से सकीना के रोने की आवाज़ आई, जा कर देखा कि सकीना बाप के सीने से लिपटी हुई गिरया कर रही है। जनाबे ज़ैनब उन्हें ख़ेमे में ले आईं। जनाबे सकीना का बयान है कि उस वक़्त बाबा की कटी हुई गरदन से यह आवाज़ आ रही थी

 

शिअती मा अन शरबतुम, मा अज़बे फ़ाज़ करूनी

औ समअतुम बेग़रीब ओ शहीद फ़ानद बूनी

व अनल सिब्तल लज़ी, मन ग़ैरे जुर्मिन क़तलूनी

व मजब्र द्दल ख़ल्ल बाअदल क़त्ल सहक़ूनी

लैताकुम फ़ी यौमे आशूरा , जमीआ तन्ज़रूनी

कैफ़ा असतसक़ी लुतफ़ली फ़ा बवाअन यरहमूनी

 

तरजुमाः ऐ मेरे शियों ! जब ठन्डा पानी पीना तो मुझे याद करना और जब किसी ग़रबी या शहीद के वाक़ेआत सुनना तो मुझ पर गिरया करना। ऐ मेरे दोस्तों सुनो मैं रसूल (स.अ.) का वह मज़लूम नवासा हूँ जिसे बिला जुर्म व ख़ता दुश्मनों ने क़त्ल कर दिया और फिर क़त्ल के बाद उसकी लाश पर घोड़े दौड़ा दिये। ऐ मेरे शियों ! काश तुम आज आशूरा के दिन होते तो यह रूह फ़रसा मनाज़िर देखते कि मैं अपने प्यासे बच्चे अली असग़र के लिये किसी तरह पानी मांग रहा था और यह संग दिल किस दिलेरी और बे बाकी से इन्कार कर रहे थे।

ग़रज़ कि हज़रत ज़ैनब जनाबे सकीना को बाप के सीने से समझा बुझा कर उठा लाईं और उन्हें जनाबे उम्मे कुलसूम के सिपुर्द कर के तिलाया फिरना शुरू कर दिया। (दमए साकेबा)

रात का काफ़ी हिस्सा गुज़रने के बाद जनाबे ज़ैनब ने देखा कि एक सवार घोड़ा बढ़ाये चला आ रहा है। आपने बढ़ कर उससे कहा कि हम आले रसूल (स.अ.) हैं हमारे छोटे बड़े, बूढ़े, जवान जब आज ही क़त्ल किये जा चुके हैं। अब हमारे छोटे छोटे बच्चे अभी रोते रोते सो गए हैं। ऐ सवार अगर तुझे हम को ज़्यादा लूटना मक़सूद है तो सुबह आ जाना और जो कुछ हमारे पास रह गया है उसे भी लूट लेना, लेकिन देख इन बच्चों को न सता और उन्हें सोने दे। ख़ुदा के लिये इस वक़्त चला जा, लेकिन सवार ने एक न सुनी और घोड़े के क़दम बराबर बढ़ते ही रहे। आखि़र ज़ैनब भी शेरे ख़ुदा की बेटी थीं, उन्हें जलाल आ गया और उन्होंने लजामे फ़रस पर बढ़ कर हाथ डाल दिया, और कहा कि मैं क्या कहती हूँ और तू क्या करता है। यह हाल देख कर सवार घोड़े से उतर पड़ा और ज़ैनब को सीने से लगा कर कहने लगा, ऐ बेटी मैं तेरा बाप अली हूँ, बेटी तेरी हिफ़ाज़त के लिये आया हूँ, ऐ जाने पदर तू बच्चों में जा मैं तेरी हिफ़ाज़त करूंगा। ज़ैनब ने फ़रियादो फ़ुग़ा शुरू कर दी और तमाम वाक़ियात बयान किये। अल ग़रज़ जब यह अश्र आफ़रीं रात तमाम हुई तो हुक्मे उमरे साद से लशकरियों ने आ कर आले रसूल (स.अ.) को घेर लिया और बिला महमिल व कजावे के नाक़ों पर सवार होने को कहा। चारो नाचार रसूल ज़ादियां नाक़ों पर सवार हुईं। हाल यह था कि सर खुले हुए थे, बाल बिखरे हुए थे और आंखों से आंसू जारी थे। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की अलालत की वजह से चूंकि ताबो तवां न रखते थे, इस लिये सवार होने से परेशानी थी। शिम्र ने ताज़ियाने से अज़ीयत पहुँचाई और फ़िज़्ज़ा ने दौड़ कर इमाम (अ.स.) को मदद दी और आप नाक़े पर सवार हो गए लेकिन ताक़त न होने की वजह से नाक़े की पुश्त पर संभलना दुश्वार था इस लिये दुश्मनाने इस्लाम ने आप के पैरों को नाक़े के पेट से मिला कर बांध दिया।

(असरारूल शहादत)

फिर उसके बाद उस काफ़िले को ले कर कूफ़े के लिये रवाना हुए और ग़ज़ब यह किया कि इन रसूल ज़ादियों को मक़तल की तरफ़ से गुज़ारा। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जैसे ही यह हुसैनी काफ़िला मक़तल में पहुँचा हश्र का समा पेश हो गया। ज़ैनब ने अपने को नाक़े से गिरा दिया और फ़रयादों फ़ुगां करने लगीं। आपने कहा ऐ मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) जिन पर मलाएका आसमान से दुरूद भेजते हैं देखिये यह हुसैन (अ.स.) ख़ाको ख़ून में आलूदा टुकड़े टुकड़े हो कर चटीयल मैदान में पड़े हैं। आपकी बेटियां और नवासियां क़ैदी हैं। आप की अवलाद मक़तूल है और हवा उन पर खाक उड़ा रही है।

यह दर्दनाक मरसिया सुन कर दोस्त व दुश्मन कोई ऐसा न था जो रोने न लगा हो। उस वक़्त उन लोगों को महसूस हुआ कि वह किस क़द्र शदीद गुनाह के मुरतकिब हुए हैं लेकिन अब क्या हो सकता था। (अल हुसैन अबू नसर सफ़ा 155) दम उस साकेबा में है कि जनाबे ज़ैनब की फ़रियाद से जानवर भी रोने लगे और उनकी आखों से आंसू टपक रहे थे। इस तरह हज़रत उम्मे कुलसूम भी नौहा ओ फ़रियाद कर रही थीं और जनाबे सकीना भी महवे गिरयाओ मातम थीं। बिल आखि़र दुश्मनों के तशद्दुद से यह काफ़ेला आगे बढ़ गया और आले रसूल की लाशें बे गोरो कफ़न ज़मीने गर्म करबला पर पड़ी रहीं। चंद दिनों के बाद बनी असद ने उन पर नमाज़ें पढ़ीं और उन्हें सिपुर्दे ख़ाक कर दिया।

 

सुबह ग्यारह मुहर्रम

वाक़ेया यह है कि अली (अ.स.) की बेटियां रसूल (स.अ.) की नवासियां बे महमिल व अमारी के नाक़ों पर सवार कर के दरबारे कूफ़ा में दाखि़ल की गईं, फिर एक हफ़्ता उन्हें कूफ़े के क़ैद ख़ाने में रखा गया। इसके बाद इन ग़रीबों को बारह रबीउल अव्वल 61 हिजरी यौमे चहार शम्बा को शाम पहुँचा दिया गया और वहां एक साल क़ैद में रखा गया। फिर वहां से रिहाई के बाद आले रसूल (स.अ.) 20 सफ़र 62 हिजरी करबला होते हुए आठ रबीउल अव्वल 62 हिजरी वारिदे मदीना मुनव्वरा हुए।

इस इजमाल की मुख़्तसर अलफ़ाज़ में तफ़सील यह है कि ग्यारहवीं मोहर्रम यौमे शम्बा को शिम्र बिन ज़िलजौशन ने हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से कहा कि अब तुम्हें औरतों और बच्चों समैत दरबारे इब्ने ज़ियाद में चलना होगा जो कूफ़े मे है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं सानीये ज़हरा से अर्ज़ करता हूँ। चुनान्चे उन्होंने फूफी से अर्ज़ कि। ज़ैनब बिन्ते अली (अ.स.) को जलाल आ गया। फ़ौरन भाई की वसीअत याद आ गई सर झुका कर कहा, बेटा हर मुसीबत बर्दाश्त करूंगी।

फिर रवानगी का बन्दो बस्त शुरू हो गया बे महमिल व अमारी के नाक़ों पर सर बरैहना मुख़्देराते अस्मत व तहारत सवार की गईं। सरों को ब रवायते नैजों पर बुलन्द किया गया और शोहदा के लाशों को ज़मीने गर्म पर छोड़ कर काफ़ला कूफ़ा के लिये रवाना हो गया। बाज़ारो कूफ़ा में दाख़ले के वक़्त हज़रत ज़ैनब (स.अ.) की फ़रियादी आवाज़ को मानन्द करने के लिये बाजों की आवाज़ तेज़ करा दी गई। ब रवायते हज़रत ज़ैनब ने मातम शुरू कर दिया फिर इनके हाथ पसे गरदन से बांध दिये गए। कूफ़े में दाखि़ला हुआ। बाज़ारे कूफ़ा में हज़रत ज़ैनब व उम्मे कुलसूल, हज़रत फ़ात्मा बिन्ते हुसैन और हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने ज़बर दस्त तक़रीर की और वाक़िये पर भरपूर रौशनी डाली। दारूल अमारा के दरवाज़े पर सरे मुस्लिम बिन अक़ील (अ.स.) लटका हुआ देखा गया। इब्ने ज़ियाद ने मुख़्तार को क़ैद ख़ाने से बुलाया और सरे हुसैन (अ.स.) तश्ते तिला में रख कर उनके सामने लाया गया, फिर छड़ी से दनदाने मुबारक इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ बे अदबी की गई। एक हफ़्ता कूफ़े के क़ैद ख़ाने में मुख़द्देराते अस्मत व तहारत को क़ैद रखने के बाद हुसैनी काफ़ले को शाम के लिये रवाना कर दिया गया। जो ब रवायते 36 दिन में और ब रवाएते 16 रबीउल अव्वल 61 हिजरी चहार शम्बा के दिन शाम पहुँचा। जब शाम की राजधानी दमिश्क़ में जहां यज़ीद का दरबार लगता था दाख़ले का मौक़ा आया तो तीन दिन तक इस काफ़ले को ‘‘ बाब अल साअत ’’ पर ठहराया गया क्यों कि दरबार के सजने में तीन दिन की ज़रूरत बाक़ी थी। फिर दरबार में दाखि़ला हुआ। हज़ारों कुर्सी नशीन आले मोहम्मद (स.अ.) की मुख़्दद्देरात (औरतों) का तमाशा देखने के लिये जमा थे। यज़ीद ने हज़रते ज़ैनब से कलाम करना चाहा। जनाबे फ़िज़्ज़ा ने मज़हमत की। फिर यज़ीद की ताना ज़नी पर बिन्ते अली ने दुख दर्द से भरे हुए अलफ़ाज़ में ज़बरदस्त तक़रीर की। दरबार में हलचल मची और मुख़्द्देराते असमत व तहारत को ऐसे क़ैद खाने में भेज दिया गया जिसमें धूप और औस से बचाव का कोई इन्तेज़ाम न था फिर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने मस्जिदे दमिश्क़ में यादगार ख़ुतबा दिया जो अज़ान के ज़रिए से मुनक़ेता कर दिया गया। (बिहार जिल्द 10 सफ़ा 233)

अल ग़रज़ यह हुसैनी काफ़िला तक़रीबन एक साल इस क़ैद ख़ाने में पड़ा रहा। इसी दौरान में हज़रत सकीना का इन्तेक़ाल भी हो गया। क़ुतूबे मक़ातिल से क़ैद ख़ाने में हिन्दा ज़ौजा ए यज़ीद के आने का भी पता मिलता है। काफ़ी वक़्त गुज़रने के बाद यह काफ़िला रिहा किया गया। एक ख़ाली मकान में मुख़्द्देराते तहारत ने एक हफ़्ता नौहा व मातम किया और शाम की औरतों से ताज़ीयत क़ुबूल की। फिर बशीर बिन जज़लम की रहनुमाई में यह काफ़िला 20 सफ़र 62 हिजरी को करबला पहुँचा। हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी जो सहाबिये रसूल और क़ब्रे हुसैन (अ.स.) के मुजाविरे अव्वल थे उन्होंने फ़रयादो फ़ुग़ा की हालत में इन्तेहाई रंजो ग़म के साथ इस काफ़िले का इस्तक़बाल किया। ज़ैनब ने क़ब्रे इमाम हुसैन (अ.स.) पर अपने को गिरा दिया। बरावएते तीन दिन तक फ़रयादो फ़ुग़ा और नौहा मातम के बाद यह काफ़ला मदीना ए मुनव्वरा को रवाना हुआ। क़रीबे मदीना काफ़िला ठहरा। बशीर ने ख़बरे ग़म अहले मदीना तक पहुँचाई, ज़ूक़ दर ज़ूक़ अहले मदीना क़ाफ़िले के मुस्तक़र पर सरो पा बरैहना रोते पीटते जमा हो गए। मोहम्मद हनफ़िया भी आए, अब्दुल्लाह बिन जाफ़र भी आए और उम्मे सलमा भी आईं। उम्मे सलमा के एक हाथ में फ़ात्मा सुग़रा का हाथ था और एक हाथ में वह शीशी थी जो रसूले ख़ुदा दे गए थे और इसमें करबला की मिट्टी ख़ून हो गई थी। काफ़िला दाखि़ले मदीना हुआ। हज़रत उम्मे कुलसूम ने मरसिया पढ़ा जिसका पहला शेर यह है।

मदीनातो जद्देना ला तक़बलीना,

फ़बल हसराते वाएहज़ान जैना

तरजुमाः- ऐ हमारे नाना के मदीने तू हमें क़ुबूल न कर (क्यों कि हम क़ुबूल किए जाने के क़ाबिल नहीं हैं) हम यहां हसरतों मुसीबतों और अन्दोह ग़म के साथ वापस आऐ हैं।

मदीने में दाखि़ले के बाद रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर बेपनाह फ़रयादो फ़ुग़ां की गई 15 शबाना रोज़ बनी हाशिम के घरों में चुल्हा नहीं जला और इनके घरो से धुआं नहीं उठा। इस वाके़ए हाल के बाद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) चालिस साल ज़िन्दा रहे और शबो रोज़ गिरया ओ ज़ारी फ़रमाते रहे। यही हाल हज़रत ज़ैनब, उम्मे कुलसूम और हज़रत फ़ात्मा नीज़ दीगर तमाम शुरकाए गिरदाब व मसाएब का रहा ता ज़िन्दगी इनके आंसू सूखे नहीं।

 

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की बहन जनाबे ज़ैनब व जनाबे कुलसूम के मुख़्तसर हालात विलादत, वफ़ात और मदफ़न

जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) और जनाबे ख़दीजतुल कुबरा (स.अ.) की नवासीयां, हज़रत अबू तालिब (अ.स.) व फ़ात्मा बिन्ते असद (स.अ.) की पोतियां हज़रत अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) की बेटियां इमाम हसन (अ.स.) व इमाम हुसैन (अ.स.) की हकी़की़ और हज़रत अब्बास (अ.स.) व जनाबे मोहम्मदे हनफ़िया की अलाती बहनें थीं। इस सिलसिले के पेशे नज़र जिसकी बालाई सतह में हज़रत हमज़ा, हज़रत जाफ़रे तैय्यार, हज़रत अब्दुल मुत्तलिब और हज़रत हाशिम भी हैं। इन दोनों बहनों की अज़मत बहुत नुमाया हो जाती है।

यह वाक़ेया है कि जिस तरह इनके आबाओ अजदाद, माँ बाप और भाई बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं इसी तरह यह दो बहने भी बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं। ख़ुदा ने इन्हें जिन ख़ानदानी सेफ़ात से नवाज़ा है इसका मुक़तज़ा यह है कि मैं यह कहूं कि जिस तरह अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) के फ़रज़न्द ला जवाब हैं इसी तरह इनकी दुख़्तरान ला जवाब हैं, बेशक जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम मासूम न थीं लेकिन इनके महफ़ूज़ होने में कोई शुब्हा नहीं जो मासूम के मुतरादिफ़ है। हम ज़ैल में दोनों बहनों का मुख़्तसर अलफ़ाज़ में अलग अलग ज़िक्र करते हैं।

 

हज़रत ज़ैनब की विलादत

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब बिन्ते अमीरल मोमेनीन (अ.स.) 5 जमादिल अव्वल 6 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में पैदा हुईं जैसा कि ‘‘ ज़ैनब अख़त अल हुसैन ’’ अल्लामा मोहम्मद हुसैन अदीब नजफ़े अशरफ़ सफ़ा 14 ‘‘ बतालता करबला ’’ डा0 बिन्ते अशाती अन्दलसी सफ़ा 27 तबा बैरूत ‘‘ सिलसिलातुल ज़हब ’’ सफ़ा 19 व किताबुल बहरे मसाएब और ख़साएसे ज़ैनबिया इब्ने मोहम्मद जाफ़र अल जज़ारी से ज़ाहिर है। मिस्टर ऐजाज़ुर्रहमान एम00 लाहौर ने किताब ‘‘ जै़नब ’’ के सफ़ा 7 पर 5 हिजरी लिखा है जो मेरे नज़दीक सही नहीं। एक रवायत में माहे रजब व शाबान एक में माहे रमज़ान का हवाला भी मिलता है। अल्लामा महमूदुल हुसैन अदीब की इबारत का मतन यह है। ‘‘ फ़क़द वलदत अक़ीलह ज़ैनब फ़िल आम अल सादस लिल हिजरत अला माअ तफ़क़ा अलमोरेखून अलैह ज़ालेका यौमल ख़ामस मिन शहरे जमादिल अव्वल अलख़ ’’ हज़रत ज़ैनब (स.अ.) जमादील अव्वल 6 हिजरी में पैदा हुईं। इस पर मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। मेरे नज़दीक यही सही है। यही कुछ अल वक़ाएक़ व अल हवादिस जिल्द 1 सफ़ा 113 तबा क़ुम 13410 में भी है।

 

हज़रत ज़ैनब की विलादत पर हज़रत रसूले करीम (स.अ.) का ताअस्सुर वक्त़े विलादत के मुताअल्लिक़ जनाबे आक़ाई सय्यद नूरूद्दीन बिन आक़ाई सय्यद मोहम्मद जाफ़र अल जज़ाएरी ख़साएस ज़ैनबिया में तहरीर फ़रमाते हैं कि जब हज़रत ज़ैनब (स.अ.) मुतावल्लिद हुईं और उसकी ख़बर हज़रत रसूले करीम (स.अ.) को पहुँची तो हुज़ूर जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.) के घर तशरीफ़ लाए और फ़रमाया कि ऐ मेरी राहते जान, बच्ची को मेरे पास लाओ, जब बच्ची रसूल (स.अ.) की खि़दमत में लाई गई तो आपने उसे सीने से लगाया और उसके रूख़सार पर रूख़सार रख कर बे पनाह गिरया किया यहां तक की आपकी रीशे मुबारक आंसुओं से तर हो गई। जनाबे सय्यदा ने अर्ज़ कि बाबा जान आपको ख़ुदा कभी न रूलाए, आप क्यों रो पड़े इरशाद हुआ कि ऐ जाने पदर, मेरी यह बच्ची तेरे बाद मुताअद्दि तकलीफ़ों और मुख़तलिफ़ मसाएब में मुबतिला होगी। जनाबे सय्यदा यह सुन कर बे इख़्तियार गिरया करने लगीं और उन्होंने पूछा कि इसके मसाएब पर गिरया करने का क्या सवाब होगा? फ़रमाया वही सवाब होगा जो मेरे बेटे हुसैन के मसाएब के मुतासिर होने वाले का होगा इसके बाद आपने इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखा। (इमाम मुबीन सफ़ा 164 तबा लाहौर) बरवाएते ज़ैनब इबरानी लफ़्ज़ है जिसके मानी बहुत ज़्यादा रोने वाली हैं। एक रवायत में है कि यह लफ़्ज़ जै़न और अब से मुरक्कब है। यानी बाप की ज़ीनत फिर कसरते इस्तेमाल से ज़ैनब हो गया। एक रवायत में है कि आं हज़रत (स.अ.) ने यह नाम ब हुक्मे रब्बे जलील रखा था जो ब ज़रिए जिब्राईल पहुँचा था।

 

विलादते ज़ैनब पर अली बिन अबी तालिब (अ.स.) का ताअस्सुर

डा0 बिन्तुल शातमी अन्दलिसी अपनी किताब ‘‘बतलतै करबला ज़ैनब बिन्ते अल ज़हरा ’’ तबा बैरूत के सफ़ा 29 पर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत ज़ैनब की विलादत पर जब जनाबे सलमाने फ़ारसी ने असद उल्लाह हज़रत अली (अ.स.) को मुबारक बाद दी तो आप रोने लगे और आपने उन हालात व मसाएब का तज़किरा फ़रमाया जिनसे जनाबे ज़ैनब बाद में दो चार होने वाली थीं।

 

हज़रत ज़ैनब की वफ़ात

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब (स.अ.) जब बचपन जवानी और बुढ़ापे की मंज़िल तय करने और वाक़े करबला के मराहिल से गुज़रने के बाद क़ैद ख़ाना ए शाम से छुट कर मदीने पहुँची तो आपने वाक़ेयाते करबला से अहले मदीना को आगाह किया और रोने पीटने, नौहा व मातम को अपना शग़ले ज़िन्दगी बना लिया। जिससे हुकूमत को शदीद ख़तरा ला हक़ हो गया। जिसके नतीजे में वाक़िये ‘‘ हर्रा ’’ अमल में आया । बिल आखि़र आले मोहम्मद (स.अ.) को मदीने से निकाल दिया गया।

अबीदुल्लाह वालीए मदीना अल मतूफ़ी 277 अपनी किताब अख़बारूल ज़ैनबिया में लिखता है कि जनाबे ज़ैनब मदीने में अकसर मजलिसे अज़ा बरपा करती थीं और ख़ुद ही ज़ाकरी फ़रमाती थीं। उस वक़्त के हुक्कामे को रोना रूलाना गवारा न था कि वाक़िये करबला खुल्लम खुल्ला तौर पर बयान किया जाय। चुनान्चे उरवा बिन सईद अशदक़ वाली ए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि मदीने में जनाबे ज़ैनब की मौजूदगी लोगों में हैजान पैदा कर रही है। उन्होंने और उनके साथियों ने तुझ से ख़ूने हुसैन (अ.स.) के इन्तेक़ाम की ठान ली है। यज़ीद ने इत्तेला पा कर फ़ौरन वाली ए मदीना को लिखा कि ज़ैनब और उनके साथियांे को मुन्तशर कर दे और उनको मुख़तलिफ़ मुल्कों में भेज दे। (हयात अल ज़हरा)

डा0 बिन्ते शातमी अंदलसी अपनी किताब ‘‘ बतलतए करबला ज़ैनब बिन्ते ज़हरा ’’ तबा बैरूत के सफ़ा 152 में लिखती हैं किे हज़रत ज़ैनब वाक़िये करबला के बाद मदीने पहुँच कर यह चाहती थीं कि ज़िन्दगी के सारे बाक़ी दिन यहीं गुज़ारें लेकिन वह जो मसाएबे करबला बयान करती थीं वह बे इन्तेहा मोअस्सिर साबित हुआ और मदीने के बाशिन्दों पर इसका बे हद असर हुआ। ‘‘ फ़क़तब वलैहुम बिल मदीनता इला यज़ीद अन वुजूद हाबैन अहलिल मदीनता महीज अल ख़वातिर ’’ इन हालात से मुताअस्सिर हो कर वालीए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि जनाबे ज़ैनब का मदीने में रहना हैजान पैदा कर रहा है। उनकी तक़रीरों से अहले मदीना में बग़ावत पैदा हो जाने का अन्देशा है। यज़ीद को जब वालीए मदीना का ख़त मिला तो उसने हुक्म दिया कि इन सब को मुमालिको अम्सार में मुन्तशिर कर दिया जाय। इसके हुक्म आने के बाद वालीए मदीना ने हज़रते ज़ैनब से कहला भेजा कि आप जहां मुनासिब समझें यहां से चली जायंे। यह सुनना था कि हज़रते ज़ैनब को जलाल आ गया और कहा कि ‘‘ वल्लाह ला ख़रजन व अन अर यक़त दमायना ’’ ख़ुदा की क़सम हम हरगिज़ यहां से न जायेंगे चाहे हमारे ख़ून बहा दिये जायें। यह हाल देख कर ज़ैनब बिन्ते अक़ील बिन अबी तालिब ने अर्ज़ कि ऐ मेरी बहन ग़ुस्से से काम लेने का वक़्त नहीं है बेहतर यही है कि हम किसी और शहर में चले जायें। ‘‘ फ़ख़्रहत ज़ैनब मन मदीनतः जदहा अल रसूल सुम्मा लम हल मदीना बादे ज़ालेका इबादन ’’ फिर हज़रत ज़ैनब मदीना ए रसूल से निकल कर चली गईं। उसके बाद से फिर मदीने की शक्ल न देखी। वह वहां से निकल कर मिस्र पहुँची लेकिन वहां ज़ियादा दिन ठहर न सकीं। ‘‘ हकज़ा मुन्तकलेतः मन बलदाली बलद ला यतमईन बहा अल्ल अर्ज़ मकान ’’ इसी तरह वह ग़ैर मुतमईन हालात में परेशान शहर बा शहर फिरती रहीं और किसी एक जगह मकान में सुकूनत इख़्तेयार न कर सकीं। अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी लिखते हैं कि हज़रत ज़ैनब अपने भाई की शहादत के बाद सुकून से न रह सकीं वह एक शहर से दूसरे शहर में सर गरदां फिरती रहीं और हर जगह ज़ुल्मे यज़ीद को बयान करती रहीं और हक़ व बातिल की वज़ाहत फ़रमाती रहीं और शहादते हुसैन (अ.स.) पर तफ़सीली रौशनी डालती रहीं। (ज़ैनब अख्तल हुसैन सफ़ा 44) यहां तक कि आप शाम पहुँची और वहां क़याम किया क्यों कि बा रवायते आपके शौहर अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार की वहां जायदाद थी वहीं आपका इन्तेक़ाल ब रवायते अख़बारूल ज़ैनबिया व हयात अल ज़हरा रोज़े शम्बा इतवार की रात 14 रजब 62 हिजरी को हो गया। यही कुछ किताब ‘‘ बतलतए करबला ’’ के सफ़ा 155 में है। बा रवाएते ख़साएसे ज़ैनबिया क़ैदे शाम से रिहाई के चार महीने बाद उम्मे कुलसूम का इन्तेक़ाल हुआ और उसके दो महीने बीस दिन बाद हज़रते ज़ैनब की वफ़ात हुई। उस वक़्त आपकी उम्र 55 साल की थी। आपकी वफ़ात या शहादत के मुताअल्लिक़ मशहूर है कि एक दिन आप उस बाग़ में तशरीफ़ ले गईं जिसके एक दरख़्त में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का सर टांगा गया था। इस बाग़ को देख कर आप बेचैन हो गईं। हज़रत ज़ुहूर जारज पूरी मुक़ीम लाहौर लिखते हैं।

करवां शाम की सरहद में जो पहुँचा सरे शाम

मुत्तसिल शहर से था बाग़ , किया उसमें क़याम

देख कर बाग़ को , रोने लगी हमशीरे इमाम

वाक़ेया पहली असीरी का जो याद आया तमाम

हाल तग़ईर हुआ , फ़ात्मा की जाई का

शाम में लटका हुआ देखा था सर भाई का

बिन्ते हैदर गई , रोती हुई नज़दीके शजर

हाथ उठा कर यह कहा, ऐ शजरे बर आवर

तेरा एहसान है , यह बिन्ते अली के सर पर

तेरी शाख़ों से बंधा था , मेरे माजाये का सर

ऐ शजर तुझको ख़बर है कि वह किस का था

मालिके बाग़े जिनां , ताजे सरे तूबा था

रो रही थी यह बयां कर के जो वह दुख पाई

बाग़बां बाग़ में था , एक शकी़ ए अज़ली

बेलचा लेके चला , दुश्मने औलादे नबी

सर पे इस ज़ोर से मारा , ज़मीं कांप गई

सर के टुकड़े हुए रोई न पुकारी ज़ैनब

ख़ाक पर गिर के सुए ख़ुल्द सिधारीं ज़ैनब

 

हज़रत ज़ैनब का मदफ़न

अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं। ‘‘ क़द अख़तलफ़ अल मुरखून फ़ी महल व फ़नहा बैनल मदीनता वश शाम व मिस्र व अली बेमा यग़लब अन तन वल तहक़ीक़ अलैहा अन्नहा मदफ़नता फ़िश शाम व मरक़दहा मज़ार अला लौफ़ मिनल मुसलेमीन फ़ी कुल आम ’’ ‘‘ मुवर्रेख़ीन उनके मदफ़न यानी दफ़्न की जगह में इख़्तेलाफ़ किया है कि आया मदीना है या शाम या मिस्र लेकिन तहक़ीक़ यह है कि वह शाम में दफ़्न हुई हैं और उनके मरक़दे अक़दस और मज़ारे मुक़द्दस की हज़ारों मुसलमान अक़ीदत मन्द हर साल ज़्यारत किया करते हैं । ’’ (ज़ैनब अख़्तल हुसैन सफ़ा 50 नबा नजफ़े अशरफ़) यही कुछ मोहम्मद अब्बास एम00 जोआईट एडीटर पीसा अख़बार ने अपनी किताब ‘‘ मशहिरे निसवां ’’ तबा लाहौर 19020 के सफ़ा 621 मे और मिया एजाज़ुल रहमान एम00 ने अपनी किताब ‘‘ ज़ैनब रज़ी अल्लाह अन्हा ’’ के सफ़ा 81 तबा लाहौर 19580 में लिखा है।

शाम में जहां जनाबे ज़ैनब का मज़ारे मुक़द्दस है उसे ‘‘ ज़ैनबिया ’’ कहते हैं। नाचीज़ को शरफ़े ज़ियारत 19660 में नसीब हुआ।

 

हज़रत उम्मे कुलसूम की विलादत, वफ़ात और उनका मदफ़न

तारीख़ के औराक़ शाहीद हैं कि हज़रते उम्मे कुलसूम अपनी बहन हज़रते ज़ैनब के कारनामों में बराबर की शरीक थीं। वह तारीख़ में अपनी बहन के दोश ब दोश नज़र आती हैं वह मदीने की ज़िन्दगी, करबला के वाक़ेयात, दोबारा गिरफ़्तारी और मदीने से अख़राज सब में हज़रते ज़ैनब के साथ रहीं। उनकी विलादत 9 हिजरी में हुई। उनका अक़्द 1. मोहम्मद बिन जाफ़र बिन अबी तालिब से हुआ। उनकी वफ़ात हज़रत ज़ैनब से दो महीने 20 दिन पहले हुईं। वह शाम में दफ़्न हैं। (ख़साएसे ज़ैनबिया)

(मोअज़्ज़म अल बलदान याकूत हम्वी जिल्द 4 सफ़ा 216) उनका मज़ार और सकीना बिन्तुल हुसन (अ.स.) का मज़ार शाम में एक ही इमारत में वाक़े है। उनकी उम्र 51 साल की थी। इनकी औलाद का तारीख़ में पता नहीं मिलता। अलबत्ता हज़रते ज़ैनब के अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार से चार फ़रज़न्द अली, मोहम्मद, औन, अब्बास और एक दुख़्तर उम्मे कुलसूम का ज़िक्र मिलता हैं। (ज़ैनब अख़्तल हुसैन सफ़ा 55 व सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 8 सफ़ा 558)

 

हाशिया 1. हज़रत उम्मे कुलसूम के साथ उमर बिन ख़त्ताब के अक़्द का फ़साना तौहीने आले मोहम्मद (स.अ.) का एक दिल सोज़ बाब है। इसकी रद के लिये मुलाहेज़ा हों मुक़द्देमा अहयाउल ममात अल्लामा जलालउद्दीन सियूती मतबूआ लाहौर।

तमाम

Comments powered by CComment