फिर मुहर्रम
एक बार फिर मुहर्रम और आशूरा आने वाला है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत (बलिदान) से लेकर आज तक हज़ार से ज़्यादा बार आशूरा आ चुका है और हर बार मकतबे आशूरा की नई तालिमात बयान और आपके मानने वालों के सामने पेश की जाती हैं और इस तरह यह इंकेलाब (क्राँति) आज तक ज़िन्दा है और इस की चमक से आँखें चकाचौन्ध हैं। तमाम क़ौमें इस दिन में शहीद होनी वाली शख़्सीयत के सामने अपने सरों को झुकाती हैं और इस मकतब के मानने वाले अपनी दुनिया व आख़िरत के लिये ज़ादे राह (मार्ग व्यय) इकठ्ठा करते हैं।
यह बात ज़हन में रहनी चाहिये कि आशूरा ने बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं। हमारे पुर्वजों और सैयदुश शोहदा अलैहिस्सलाम के मानने वालों की ख़िदमात (सेवाओ) व फ़िदाकारी का नतीजा है जो आशूरा का मकतब और उसके संस्कार अपने पवित्र मक़सद (लक्ष्य) और ज़ुल्म के आगे न झुकने के साथ हम तक पहुच सके हैं।
हम उस वक्त ख़ुद को आशूरा वाला कह सकते हैं जब हम उसकी राह में उसके मक़सद को पूरा करने की ख़ातिर किसी भी तरह की कोशिशों से न बचें और इस हुसैनी अमानत, बल्कि अमानते इलाही को सही सालिम, असरदार और हर तरह की तहरीफ़ (फेर बदल) से बचा कर अपनी आने वाली नस्लों तक पहुचायें। हाँ यह काम उस वक़्त पूरा हो सकता है जब हममें से मैं और तुम ख़त्म हो जाये और सिर्फ़ हमारा मक़सद अल्लाह हो जाये।
आशूरा और जो चीज़ें भी उसे ज़िन्दा करती हैं, उसकी ख़िदमत (सेवा) करना अहले बैत (अ) के मानने वालों का पहली ज़िम्मेदारी होनी चाहिये। हाँ बात वाज़ेह है कि आशूरा और उससे वाबस्ता मकतब के लिये बहुत सी सख़्तियाँ हैं लेकिन इन सख़्तियों का सवाब (पुन्य) उससे बढ़ कर होगा जितना हम तसव्वुर कर सकते हैं।
जिन लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की राह में नेकिया और ख़िदमतें अँजाम दी हैं, ज़हमतें, तकलीफ़ें बर्दाश्त की हैं उनके वह काम नूर के कलिमात (अक्षर) और हुरूफ़ से लिखे जायेगें। दूसरी तरफ़ जिन लोगों ने भी छोटे से छोटा ज़ुल्म (अत्याचार) भी इमाम हुसैन (अ) या अज़ादारी के मुक़ाबले में किया है या करते हैं, उनके काम और नाम आग के हर्फ़ों से लिखे जायेगें।
जो लोग इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी को अच्छा नही कहते थे जैसे, तुम्हारी ज़िम्मेदारी नही है, छोड़ों ख़ुद ही कर लेगें, या यह कि मर्द ने अपनी बीवी को या बीवी ने शौहर को या भाई ने भाई को या पड़ोसी ने पड़ोसी को उससे रोका हो और जिसने भी जिस तरह से भी अज़ादारी का राह में रुकावट डाली होगी, सब लिखे जा चुके हैं और लिखे जा रहे हैं।
अल्लाह के इंसाफ़ का डर
अल्लाह की कोई भी सिफ़त डराने वाली नही है, न उसकी रहमानीयत में डर है न ही रऊफ़ियत व रज़्ज़क़ियत व ग़फ़्फ़ारियत में, दुआ ए जोशने कबीर में अल्लाह के हज़ार नाम और सिफ़ात बयान हुए हैं जिसमें से सिवाए अदल (न्याय) के किसी में डर नही है। हाँ इस तरह की कुछ दूसरी सिफ़तों का ज़िक्र भी हुआ है मगर वह सब अदल (इंसाफ़) ही की तरफ़ पलटती हैं, इसलिये उसके अदल (इंसाफ़) से डरना चाहिये।
अगर अल्लाह हमारी नेकियों और अच्छे आमाल (कर्मों) का बारीकी से हिसाब करे और ज़र्रा बराबर भी न छोड़े तो बहुत ख़ुश करने वाली बात है लेकिन अगर वह गुनाह (पाप) का इसी तरह हिसाब कर ले तो ज़ाहिर है कि गुनाहगार (पापी) इंसान की क्या हालत होगी। यह भी मालूम होना चाहिये कि अल्लाह इंसान को सिर्फ़ एक बार नही जलायेगा ताकि उसका काम हो जाये बल्कि मौत और मुसीबत की हज़ारों वजहें जमा होगीं और इंसान को अपने घेरे में ले लेगीं फिर भी वह मरेगा नही बल्कि अज़ाब (पाप का सज़ा) झेलता रहेगा। क़ुरआने करीम में जहन्नम के बारे में ऐसी चीज़ें बयान हुई हैं कि अगर इंसान ज़र्रा बराबर भी फ़िक्र करे तो उसकी रातों की नींद उसकी आँखों से उड़ जायेगी। (و یاتیہ الموت من کل مکان وما ھو بمیت) और मौत हर तरफ़ से उसे घेर लेगी उसके बावजूद वह मरेगा नही।
इस ख़्याल में न रहें कि जिस के पास खाने को कुछ नही है या जो लोग जेलों में हैं सज़ायें काट रहे हैं बेचारे हैं इसलिये कि वह एक दिन जेल से और भूखा एक दिन भूख से रिहाई पा जायेगा। बेचारा वह है जो अदले इलाही (अल्लाह की अदालत) में फँस जाये और अल्लाह उसे माफ़ न करे।
जब इंसान का नाम ए आमाल (कर्म) अल्लाह के पास जाता है। तो जितने भी छोटे बड़े गुनाह (पाप) जहाँ कहीं जिससे भी होते हैं सब उसमें लिखा होता है।
इस हिसाब किताब में सिर्फ़ वही कामयाब होगा जिसका नाम ए आमाल (कर्म) नेकियों से भरा होगा। उनमें से बेहतरीन लोग वह होगें जिन्होने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की राह में ज़हमते कीं होगीं, थके होगें, इसलिये कि अगर यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के लिये न होता तो वह यह सख़्तिया बरदाश्त न करते।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मक़ाम व मरतबा इतना बुलंद है कि बुज़ुर्ग उलामा और बुज़ुर्गाने शहर उसमें शिरकत और ख़िदमत (सेवा) करना फ़ख़्र (गर्व) समझते हैं। जैसे हर साल कर्बला में आशूर के दिन मातमी दस्ते अज़ा ए तूरीज[1] के नाम से जुलूस निकालते थे जिसमें सैयद बहरूल उलूम[2] शरीक होते थे। आप फ़रमाते थे मैने इमाम ज़माना (अज्जल्लाहो फरजहुश शरीफ़) को इसमें देखा है। यह मातमी दस्ता जब तक मैं कर्बला (33 साल पहले) में था हर साल जुलूस उठाता था, हज़ारों लोग इसमें शिरकत करते थे और नंगे पैर दौड़ते और मातम करते थे। मैंने अकसर मराजे ए तक़लीद (शियों के सबसे बड़े धर्म गुरु) को देखा है कि वह नंगे पैर सर पीटते हुए या हुसैन या हुसैन करते थे। इसमें शरीक होने वालो में वज़ीर, वकील और रईस लोग शामिल हैं।
यह लोग अपने क़रीबी रिश्तेदारों के मरने पर भी ऐसा नही करते थे और उनकी सारी ज़िन्दगी ग़ुज़र जाती मगर वह कभी भी ऐसा नही करते। ख़ुश नसीब हैं वह लोग, ख़ुश नसीब.....।
अज़ादाराने हुसैनी
इमाम हुसैन (अ) के अज़ादार अपनी अज़ादारी के ज़रिये पैग़म्बरे इस्लाम (स) को ताज़ियत (पुरसा) पेश करते थे और उनके ग़म में शिरकत करते हैं, इमाम सादिक़ (अ) इस बारे में फ़रमाते हैं।[3]
अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ज़िन्दा होते तो हम उन्हे ताज़ियत (पुरसा) पेश करते।
हम तसव्वुर नही कर सकते कि आशूरा के दिन इमाम हुसैन (अ) के क़ल्बे नाज़नीन पर क्या गुज़री। हरगिज तसव्वुर नही कर सकते। कभी इंसान के ज़हन में ख़्यालात आते हैं मगर फिर भी वह तसव्वुर नही कर सकता। हमें यह नही कहना चाहिये कि इमाम को मज़बूत और सब्र करने वाला होना चाहिये, यक़ीनन इमामे मासूम दुनिया में सबसे ज़्यादा अहम और सबसे ज़्यादा अक़लमंद होते हैं, उनका दिल तमाम लोगों में सबसे ज़्यादा मज़बूत होता है और इसी तरह उनमें मेहरबानी भी सबसे ज़्यादा होती है और वह उन्हे कंटोल करने में भी महारत रखते हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बेटे इब्राहीम जो डेढ़ साल के थे, जब उनका इंतेक़ाल हुआ आप की आँखो से आँसू जारी हो गये और आप इतनी शिद्दत से रो रहे थे कि आपकी रीशे (दाढ़ी) मुबारक हिल रही थी। असहाब ने अर्ज़ किया ऐ अल्लाह के नबी, आप हमें सब्र करने को कहते हैं लेकिन आप ख़ुद इस तरह से रो रहे हैं तो आपने फ़रमाया: जब दिल तड़पता है तो आँखो से आँसू निकल ही पड़ते हैं।[4]
पैग़म्बरे इस्लाम (स) जिन्होने सिर्फ़ एक अठ्ठारह महीने के बेटे को खोया था इस तरह उसके ग़म में रो रहे थे जबकि इमाम हुसैन (अ) ने आशूर के दिन अपने अज़ीज़ (रिश्तेदार) व अंसार (दोस्त) सब को अल्लाह की राह में क़ुरबान कर दिया जिनमें हज़रत अबुल फ़ज़्लिल अब्बास जैसी शख़्सियतें शामिल हैं। अगर उन्हे आम लोगों की हिसाब करें तो यक़ीनन वह एक एक इंसान थे मगर यह बात नही भूलनी चाहिये कि वह आम लोग नही थे और उनमें से अकसर इमामत व इस्मत की आग़ोश के पले थे और वफ़ादारी व बुज़ुर्गी में इमामे मासूम के बाद सबके सरदार थे, उनकी मिसाल इस दुनिया में नही मिल सकती, बल्कि उनकी सच्चा तारीफ़ भी हमारे लिये मुम्किन नही है।
कुछ घंटों में इमाम हुसैन (अ) के दिले नाज़नीन पर इस क़दर मुसीबतें पड़ी और आप ने सब्र किया।
अल्लाह इन मुसीबतों का गवाह था उसने सब्र किया इसलिये कि वह बहुत सब्र करने वाला है। एक दिन वह भी आयेगा कि अल्लाह भी उस दिन अपनी हिकमत के मुताबिक़ सब्र नही करेगा और वह दिन उसके इंसाफ़ का दिन होगा, उस दिन इंतेक़ाम लिया जायेगा।
क़ातिलाने इमाम हुसैन (अ)
किताब कामिलुज़ ज़ियारत (शियों की एक मोतबर किताब) में ज़िक्र हुआ है कि जो लोग भी इमाम हुसैन (अ) के क़त्ल में शरीक थे, इन तीन बीमारियों में से एक में ज़रूर फँसेंगें, दीवानगी, बर्स और कोढ़।[5]
उसी हदीस में है कि यह बीमारियाँ उनकी नस्ल में भी मुन्तक़िल हुई हैं जैसे उनके बेटे, बेटियाँ, पोते सब इसमें मुब्तला हुए। जबकि उनका कोई क़ुसूर नही था और ऐसा नही होना चाहिये था लेकिन हमें यह जानना चाहिये कि यह इत्तेफ़ाक़ क़ातिलाने इमाम हुसैन (अ) के अमल (कर्म) का असरे वज़ई है। जैसे अगर कोई बाप शराबखोर हो तो उसकी नस्ल पर भी असर पड़ता है। अगर बाप बुरा हो तो उसकी नस्ल पर भी असर पड़ता है। यह एक तकवीनी मसला है।
उसी किताब में आया है कि तमाम क़ातिलाने इमाम हुसैन (अ) क़त्ल किये गये और कोई भी अपनी मौत से नही मरा। इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं कि उनमें से सब क़त्ल किये गये।[6] लेकिन उनका क़त्ल हो जाना काफ़ी नही है और अल्लाह इतने पर बस नही करेगा इसलिये कि इमाम हुसैन (अ) को अल्लाह ने बहुत ऊचा मक़ाम दे रखा है और ऐसी वारदात के इंतेक़ाम के लिये मौत काफ़ी नही है। यह एक ऐसी बात है जिसका शिया, सुन्नी, ईसाई सब ऐतेराफ़ करते हैं।
काबा का इफ़्तेखार और कर्बला की मंज़िलत
अल्लाह ने काबे की निसबत अपनी तरफ़ दी है इसलिये वह उसका घर कहा जाता है हालाँकि यह इज़ाफ़त ऐज़ाज़ी व इज़ाफ़ी है इसलिये कि अल्लाह का कोई मकान नही है और उसे मकान की ज़रूरत भी नही है। लेकिन फिर भी उसने उस इलाक़े को ज़मीन की गहराईयों से लेकर आसमान की बुलंदियों तक के लिये शराफ़त अता की है और उसे अपने नाम से मनसूब किया है।
काबा, अज़मत व शराफ़त की उस मंज़िल पर पहुँच गया कि अल्लाह ने उसको मोहतरम क़रार दिया है और उसकी ज़ियारत करने वालों को हुक्म दिया है कि शहरे मक्का और उस घर में दाख़िले के लिये अपने कपड़ों को उतार कर फेक दो और एहराम (हज के मख़सूस कपड़े) के साथ दुनिया की बहुत सी जायज़ लज़्ज़तों को छोड़ कर इसमें दाख़िल हो जाओ। एक दिन काबे ने दूसरी ज़मीनों से कहा: मैं तुमसे ज़्यादा बेहतर हूँ।[7] इस तरह उसने अपनी बेहतरी का ज़िक्र किया है। हदीस में आया है कि अल्लाह ने काबा से कहा: ख़ामोश हो जाओ, तुम से ज़्यादा बेहतर और बा फ़ज़ीलत कर्बला है।[8]
अल्लाह ने काबा को अपना घर क़रार दिया है। लेकिन कर्बला क्या है? कर्बला में क्या ख़ुसूसियत है? दूसरी ज़मीनों ने कर्बला से कहा: तुम्हारी क्या राय है कर्बला ने कहा: यह ख़ूबी मेरे अल्लाह ने मुझे दी है वर्ना मैं ख़ुद कुछ नही हूँ।
काबा की ‘मैं’ और कर्बला के जवाब का मक़सद ढ़ूढ़ना चाहिये। यह बात इसलिये बयान हुई है कि ताकि मक़ामे अमल में ख़ुद को कुछ नही समझना चाहिये और इस राह में जो भी काम अँजाम दें उसको अल्लाह की इनायत समझना चाहिये।
अगर मजलिस करने में कामयाब होते हैं तो इमाम हुसैन (अ) के लिये काम अँजाम देना चाहिये और इस राह में थकान महसूस नही करनी चाहिये, अज़ादारी मे शिरकत करके कहना चाहिये अल हम्दुलिल्लाह कि अल्लाह ने हमें तौफ़ीक़ दी। अल हम्दुलिल्लाह कि इमाम हुसैन ने हम पर लुत्फ़ किया। अल्लाह की तौफ़ीक़ हुई जो हमने इमाम हुसैन (अ) की राह में यह थकन बर्दाश्त की।
आशूरा का सदक़ा
बहुत सी चीज़ें जो हमारे मज़हब में बची हुई हैं वह इमाम हुसैन (अ) की क़ुरबानी का सदक़ा है। अगर इंसानियत, बन्दगी, दोस्ती, दूसरों की ख़िदमत, कमज़ोरों पर मेहरबानी, मज़लूमों की तरफ़दारी का जज़्बा हम में पाया जाता है तो यह सब इमाम हुसैन (अ) के आशूरा के क़याम का नतीजा है। यही वजह है कि उस यादगार को भूलना नही चाहिये बल्कि उसकी हिफ़ाज़त के लिये जितना भी हो सके जमा करें ताकि हमेशा की बुलंदी अपने लिये और अपनी नस्ल के लिये हासिल कर सकें।
हम अपनी ज़िन्दगी में ढ़ेरों पैसे ख़र्च करते हैं, लेकिन यह समझना चाहिये कि जो पैसा इमाम हुसैन (अ) की राह में ख़र्च होंगा, वह सबसे बेहतर होगा। हम ज़िन्दगी में किस क़दर दिमाग़ खर्च करते हैं? बीवी, बच्चो, घर, पेशा, काम...में। लेकिन अपना ज़हन हम जिस क़दर इमाम हुसैन (अ) की राह में ख़र्च करेंगें उसकी क़ीमत और अहमीयत उतनी ही ज़्यादा होगी। यह भी जानना चाहिये कि जो भी क़दम इस ख़ानदान की राह में उठेगा, उसका बदला अहले बैत (अ) से मिलेगा।
इमाम हुसैन (अ) के ज़ाकिर का ईनाम
दो बुज़ुर्ग आलिम थे एक मजलिस वग़ैरह में ज़्यादा लगे रहते थे और किसी भी तरह की ख़िदमत से चाहे माली हो या ज़बानी, पीछे नही रहते थे, लेकिन दूसरे इन चीज़ों की तरफ़ ज़्यादा तवज्जो नही देते थे। आख़िर कार दोनो का इंतेक़ाल हुआ, उनके इंतेक़ाल को चंद साल हो चुके हैं। वह आलिम जो इमाम हुसैन (अ) के ख़ादिम थे, उन्होने यह ईनाम पाया कि उनके बच्चे, पोते, सारी दुनिया में फैले हुए हैं और सब कोई मुअल्लिफ़, कोई उस्ताद और कोई मरज ए तक़लीद है। लेकिन दूसरे आलिम का कोई भी नाम व निशान बाक़ी नही है। यह एक की ख़िदमत और दूसरे की बे तवज्जोही का नतीजा है। इसलिये इमाम हुसैन (अ) के मतकब की जो भी ख़िदमत करेगा यक़ीनन वह उसका सिला पायेगा।
इस तरह के हज़ारो नमूने मौजूद हैं, जिनको अहले बैत (अ) की तरफ़ से इसका सिला मिला है, हम उनमें से कुछ का ज़िक्र करेंगें। हाँ यह भी मुमकिन है कि आप में से हर किसी ने अपनी या अपनी किसी करीबी इंसान की ज़िन्दगी में अहले बैत (अ) की बहुत सी इनायात के नमूने देखें होंगें।
किसी मुल्क में दो शख्स रहते थे, उनमें से एक मामूली सा काम करता था उसकी आमदनी बहुत कम थी, दूसरा शहर का मशहूर रईस था (दोनो का इन्तेक़ाल हो चुका है) वह मामूली शख्स रोज़ाना सुबह से शाम तक काम करता था, पसीना बहाता था, शाम को घर लौटता था और अपनी दिन भर की सारी कमाई का हिसाब करके उसका एक तिहाई हिस्सा अलग करके कहता था और कहता था: यह पैसा इमाम हुसैन (अ) के लिये है। इसी तरह हर साल अगर उन दो हिस्सों में से पैसा ज़्यादा हो जाता तो वह उसका ख़ुम्स निकालता था। उसने इमाम हुसैन (अ) के नाम से पैसा जमा किया और शहर के बाहर एक ज़मीन ख़रीदी, लोग उससे कहते थे: ऐसी जगह ज़मीन क्यों ख़रीदी है जहाँ न पानी है न आबादी।
वह कहता था मेरे पास इतने पैसे नही थे कि मैं शहर में ज़मीन ख़रीद सकता, उस जगह को मैंने इमाम हुसैन (अ) के नाम पर ख़रीदा है इस उम्मीद के साथ के दिन यहाँ इमामबाड़ा बनाऊँगा।
आज वह शहर तरक़्क़ी कर चुका है और वह ज़मीन शहर के बीच में आकर एक बहुत बड़ा इमाम बाड़ा बन चुकी है। ऐसा इमाम बाड़ा जहाँ साल के अकसर दिन में मजलिसें और महफ़िलें होती रहती हैं।
कुछ दिन पहले उस शख्स का बेटा मेरे पास ईरान आया था वह बता रहा था कि हुकूमत उस जगह को ख़रीद कर वहाँ कुछ बनाना चाह रही है और उसके बदले में पाँच अरब तूमान (ईरानी केरेन्सी) दे रही है लेकिन हमने क़बूल नही किया और कह दिया कि यह ज़मीन वक़्फ़ है हमारी प्रापर्टी नही है यह इमाम हुसैन (अ) की ज़मीन और मिलकियत है।
उस शख्स की ख़िदमात दुनिया में महफ़ूज़ हैं और जो प्रोग्राम उस इमाम बाड़े में होते हैं उसका नाम ज़िन्दा करते हैं और दूसरा ईनाम यह कि उसके अज्र व सवाब में इज़ाफ़ा होता रहता है जबकि उसका आख़िरत का सवाब महफ़ूज़ है।
दूसरी तरफ़ मैने नही सुना कि शहर का वह रईस, जिसने एक बालिश्त भी इमाम हुसैन के नाम पर कोई चीज़ छोड़ी हो, उसका पैसा उसके वारिसों में बट गया और उसका कोई नाम व निशान तक बाक़ी नही रह गया।
लिहाज़ा इमाम हुसैन (अ) का मसला एक तकवीनी मसला है यानी जो भी आपके लिये कोई ख़िदमत अँजाम देगा, आख़िरत से पहले इस दुनिया में उसका ईनाम पायेगा।
इमाम हुसैन (अ) के मानने वालों से दुश्मनी
जैसे इमाम हुसैन (अ) और उनके मानने वालों की ख़िदमत पर दुनिया और आख़िरत में सवाब है इसी तरह उनसे दुश्मनी और जंग का अंजाम बहुत बुरा होगा।
जान बूझ कर या बगैर जाने बूझे अगर कोई इमाम हुसैन (अ) के मानने वालों के लिये मुशकिलें खड़ी करेगा तो अगरचे उसकी कोई ग़लती न भी हो, आख़िरत से वह पहले इस दुनिया की मुसीबत में ज़रूर फँसेगा।
जैसे कोई दवा की बजाए ज़हर पी ले तो मर जायेगा, इमाम हुसैन (अ) से जंग भी ऐसे ही है। हालाँकि असली सज़ा उसे आख़िरत में मिलेगी। लेकिन इमाम हुसैन (अ) के लिये बुरा करने वाला उस दुनिया से पहले इस दुनिया में सज़ा पायेगा।
एक दूसरा मतलब जिसकी तरफ़ तवज्जो करनी चाहिये वह अल्लाह की तरफ़ से इमाम हुसैन (अ) की ख़िदमत के बदले में दी जाने वाली नेमत है। लिहाज़ा हमें दूसरी सारी नेमतों की तरह इस नेमत को भी ग़नीमत समझना चाहिये और उसे हाथ से नही जाने देना चाहिये इसलिये कि बाद में उसकी हसरत करेगें कि क्यों हमने उससे फ़ायदा नही उठाया। जबकि उस वक़्त का पछतावा कोई काम नही आयेगा।
एक और मतलब जिसकी तरफ़ तवज्जो करनी चाहिये वह यह है कि अगर हम इस वक़्त अज़ादारी करते हैं तो वह हमारे बाप दादा और हमसे पहले वाली नस्ल की ज़हमतों का नतीजा है लिहाज़ा उसको भूलना नही चाहिये और यह भी समझना चाहिये कि हम भी इमाम हुसैन (अ) की ख़िदमत करेंगें तो उसका असर भी हमारी आने वाली नस्ल पर पड़ेगा।
इमाम हुसैन (अ) के ग़म का ईनाम
बेहतर होगा कि हम इमामे मासूम(अ) के बयान में अपने काम का जायज़ा लें और देखे कि अहले बैत (अ) के लिये हमारी अज़ादारी और हमारा ग़म मनाना किस क़दर क़ीमती है। इमाम सादिक़(अ) से एक हदीस में इस तरह नक़्ल हुआ है कि हमारी मुसीबत पर ग़मगीन होने वाले का साँस लेना तसबीह और उसका ग़म मनाना इबादत है।[9]
इसलिये कि आप इमाम हुसैन (अ) पर होने वाले सारे ज़ुल्म पर ग़मगीन हैं। ऐसी हालत में आपका साँस लेना तसबीह है और फ़रिश्ते उसे लिखते रहते हैं और आपके नाम ए आमाल में हर साँस के बदले में एक सुबहानल्लाह लिखा जायेगा। इसके अलावा अल्लाह ने आपके ग़म मनाने को इबादत क़रार दिया है और यह दो बड़े सवाब उन सवाबों से अलग हैं जो इस राह में ख़िदमत से हासिल होंगें।
जो भी हज़रत की राह में ख़िदमत में ज़्यादा ज़हमत उठायेगा और अपने आराम और नींद को आपकी और आपके चाहने वालों की ख़िदमत के लिये ज़्यादा वक्फ़ करेगा और ज़्यादा सख़्तियाँ बर्दाश्त करेगा, वह ज़्यादा ईनाम पायेगा। एक बेहतरीन मिसाल जो हमारे मौज़ू से मुनासिबत रखती है, वह ख़्वाब है जो दो शिया फ़ोक़हा से नक़्ल हुआ है।[10]
उन दो फ़ोक़हा में से एक शेख़ अँसारी हैं, जिन के इल्म से तमाम हौज ए इल्मिया को 150 साल से ज़्यादा फ़ायदा उठाते हुए हो रहा है और दूसरे दरबंदी मरहूम हैं। यह दोनो हज़रात जवानी में एक साथ थे और शरीफ़ुल उलामा ए माज़िन्दरानी के दर्स में शरीक होते थे बाद में दोनो मरजए तक़लीद के मर्तबे तक पहुचे, उस ज़माने में नव्वे फ़ी लोग शेख़ अंसारी और दस फ़ी सद मरहूम दरबंदी की तक़लीद करते थे।
एक दिन शेख़ अंसारी के एक शागिर्द, जो उनके अच्छे शागिर्दों में होने के अलावा फ़ज़ीलत इल्मी के साथ साथ तक़वे में भी शोहरत रखते थे, ने ईरान सफ़र करने की इजाज़त चाही। आप नंगे पैर शहर के बाहर तक उन्हे रुख़सत करने आये, उस शागिर्द को कर्बला, काज़मैन, सामर्रा से होते हुए ईरान जाना था लेकिन अगले दिन कर्बला पहुचने से पहले ही लौट आये।
शेख़ अंसारी ने जब उसे नजफ़ में देखा तो पूछा क्यो लौट आये: शागिर्द ने जवाब दिया, कल जब मैं सफ़र में एक वीराने से गुज़र रहा था तो मैने ख़्वाब में देखा कि एक फ़रिश्ता मुझ से कह रहा है कि इस सहरा से कहाँ जा रहे हो तुम तीन दिन बाद मर जाओगे मैं नही जानता कि वह सच्चा ख़वाब है या नही मैं लौट आया कि अगर मैं तीन दिन बाद मरूँ तो नजफ़ में मरूँ जंगल में न मरूँ और अगर नही मरूगाँ तो दोबारा सफ़र पर जाऊँगा।
तीन दिन बाद उसका इंतेक़ाल हो गया उसी ने शेख़ से नक़्ल किया था कि उसी ख़वाब में मैंने एक सजा हुआ महल देखने के बाद पूछा यह किस का महल है कहा गया शेख़ अँसारी का, थोड़ी दूर पर एक दूसरा महल देखा जो उससे ज़्यादा शानदार था पूछा यह किसका महल है कहा गया यह दरबंदी का महल है।
उस ज़माने में शेख अँसारी भी और मरहूम दरबंदी भी दोनो ज़िन्दा थे, शेख़ अँसारी नजफ़ में थे और मरहूम दरबंदी कर्बला में, मरहूम दरबंदी मरजए तक़लीद होने के बावजूद इमाम हुसैन (अ) के लिये हमेशा मजलिसें पढ़ा करते थे। साल में एक बार वह एक ख़ास मजलिस पढ़ा करते थे जिसके कुछ वाक़ये मैने दो वास्तो़ से एक ऐसे शख्स से ख़ुद सुने हैं जो उस मजलिस में मौजूद था। वह मजलिस आशूर के दिन इमाम हुसैन (अ) के रौज़े के सहन में हुआ करती थी, आशूर के दिन ज़ोहर से पहले और सारी मजलिसें ख़त्म हो जाने के बाद आपकी मजलिस के लिये सहन लोगों से भर जाता था, वह लोगों से कहते कि मैं मजलिस नही पढ़ना चाहता, आपने कल से लेकर आज तक बहुत मजलिसें सुनी हैं मैं सिर्फ़ आपकी ज़बानी इमाम हुसैन (अ) से बातें करना चाहता हूँ। यह मजलिस अपनी मिसाल आप थी।
मरहूम दरबंदी की एक मुफ़स्सल किताब इमाम हुसैन (अ) पर है जिसका नाम इकसीरुल इबादात है अगरचे आपकी मरजईयत शेख़ अंसारी की तरह नही थी, शेख अंसारा का यह शागिर्द दोनो को पहचानता था और उस सच्चे ख़्वाब में उसने मरहूम दरबंदी के महल को ज़्यादा शानदार देखा था, वह कहता है कि मैंने उस फ़रिश्ते से पूछा कि ऐसा क्यो हैं जबकि शेख़ अंसारी का महल ज़्यादा शानदार होना चाहिये। उसने जवाब दिया कि यह दरबंदी के अमल का सिला नही है बल्कि दरबंदी के लिये इमाम हुसैन (अ) की तोहफ़ा है।
सैयदुश शोहदा (अलैहिस्सलाम) लोगों का हिसाब करेगें।
इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) से हदीस में नक़्ल हुआ है कि [11] क़यामत से पहले लोगों के आमाल का हिसाब करने वाले का नाम हुसैन इब्ने अली है। इस बात पर तवज्जो रहनी चाहिये कि क़यामत का दिन जन्नत व जहन्नम जाने का दिन है।
मरने के बाद तीन जगहों पर सबका हिसाब किताब होगा। हदीस में आया है कि मरते वक़्त, इंसान की रूह को मुशफ़िक़ व मेहरबान अल्लाह की बारगाह में ले जायेगें वहाँ उससे सवाल जवाब होगा, हदीस के मुताबिक़ जब तक हिसाब किताब ख़त्म नही होगा लाश उस जगह नही उठाई नही जायेगी।
दूसरा हिसाब किताब क़यामत से पहले है और तीसरा क़यामत के दिन।
इस हदीस से पता चलता है कि तमाम लोगो का मोमिन हो या काफ़िर, छोटा हो या बड़ा हिसाब बरज़ख़ में इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) लेगें।
हम सब का सामना इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) से होगा और हमें जवाब देना होगा। अल्लाह तअला ने उन्हे एक ख़ास मक़ाम अता किया है जो उनके नाना, बाप, माँ और भाई किसी को नही मिला है और वह क़यामत से पहले लोगों का हिसाब करना है।
इस मौक़े पर यह हदीस नक़्ल करना मुनासिब मालूम होता है एक दिन इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की क़ब्र बग़ैर किसी निशानी के जंगल में वीरान थी और हर कोई बग़ैर राहनुमाई के उसे पहचान और उसकी ज़ियारत नही कर सकता था, दूसरी तरफ़ उसके आस पास जासूस लगे हुए थे ताकि आपके ज़ायरों के गिरफ़तार कर सकें। इस बात से सब डरते थे और कस लोग आपकी ज़ियारत को जाते थे। इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) के एक मशहूर सहाबी, अब्दुल्लाह इब्ने बुकैर जिन्होने के अहकाम की बहुत सी हदीसें नक़्ल की हैं, वह कहते है कि मैंने इमाम से सवाल किया कि मेरा दिल चाहता है कि मैं इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की ज़ियारत को जाऊ? लेकिन डरता हूँ। इमाम ने फ़रमाया किस चीज़ से डरते हो। कहते हैं बादशाह और उसके मुख़बिर जासूसों और पुलिस से।
इमाम (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया: अगर कोई हमारी राह में डरता हो तो दो ऐसी नेमतों से जिससे दूसरे महरूम होगें, फ़ायदा उठायेगा। एक यह कि क़यामत में सब डर के मारे बेक़रार होंगें और जो लोग इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) का राह में डरते होगें, अमान में होगें और डर से निजात पा चुके होगें, दूसरे यह कि क़यामत में गुफ़तगू करने वाले इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) होगें। यह ख़ुद पाक ज़मीर लोगों के लिये सबसे बड़ी नेमत और इफ़्तेखार होगा।
क़ुरआन में हमने पढ़ा है इरशाद होता है कि[12] ऐसा दिन जो पचास हज़ार साल के बराबर होगा।
ऐसी नफ़सा नफ़सी के आलम के जब सबको अपनी अपनी फिक्र होगें, दूसरी जगह जिसे अल्लाह ने ‘अर्श का साया’ कहा है जहाँ आराम होगा। वह लोग जिन्होने दुनिया में इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) का राह में सख़्तियाँ बरदाश्त की होगीं, डरे होगें, उस जगह पर आप के साथ गुफ़्तगू कर रहे होगें, हाँ जिन लोगों ने दुनिया में डरने का कढ़वा मज़ा नही चखा होगा इस नेमत से महरूम रहेगें।
क़यामत के लिये ज़खीरा
आज जबकि हमारे पास फ़ुरसत है हमें क़यामत के लिये ज़खीरे की फ़िक्र में होना चाहिये। अमीरुल मोमिनीन (अलैहिस्सलाम) फ़रमाते हैं कि अगर वह चीज़ें जो मुर्दों ने देखी हैं तुम भी देख सकते तो यक़ीनन तुम्हारी दूसरी हालत होती और तुम अपने कामों का जायज़ा लेते।[13]
एक दूसरी हदीस में फ़रमाते हैं कि दुनिया अमल की जगह है हिसाब की नही और आख़िरत हिसाब की जगह है अमल की नही।[14] (न अपने आमाल में किसी नेकी का इज़ाफ़ा कर सकते हैं न ही किसी गुनाह को मिटा सकते हैं)
इसी वजह से और इस दलील के साथ कि मुर्दे उस दुनिया में कोई अमल नही कर सकते, कोई ज़िक्र नही कर सकते जिससे उनकी नेकी में इज़ाफ़ा हो जाये, वह तुम्हारी ज़िन्दगी पर हसरत करेंगें, जबकि हमारी हालत उनसे अलग है और हम ग़लतियों को दूर कर सकते हैं।
एक लफ़्ज़ में जो नमाज़ें पढ़ी हैं, रोज़े रखे हैं, अपने घर वालों और साथियों के साथ जो अच्छे अख़लाक़ और सुलूक के साथ पेश आये हैं और हर नेक काम जो अंजाम दिये हैं, सबकी सिला अल्लाह तअला के हाथ में है, लेकिन इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये काम और ज़हमत इन सबसे अलग है और ख़ुद हज़रत इन सब का देखेगें और उसका सिला देंगें। ख़ुश कीमत वह है जिसने इमाम हुसैन (अलैहिस्लाम) के लिये ज़्यादा ज़हमतें बर्दाश्त की हैं।
शायद किसी के ज़हन में यह बात आये कि क्या ऐसा हो सकता है? तो हम यह कह सकते है कि अल्लाह तअला इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये औरों से कुछ ज़्यादा का क़ायल है और वह किसी के लिये भी ऐसा नही है यहाँ तक कि चौदह मासूमीन के लिये भी नही। जैसे जैसे बहुत से अमल बहुत सी जगह पर मकरूह है मगर इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये मुसतहब, फ़ज़ीलत और सवाब में शुमार किया गया है जैसे बहुत सी हदीसों के मुताबिक़ बग़ैर जूते या चप्प्ल के नंगे पाव चलना मकरूह है चाहे जगह साफ़ सुथरी हो और दूसरे यह कि वह लोग जिनका लिबास मख़सूस है जैसे अहले क़लम कि उनका लिबास अबा या रिदा है, उनके लिये उसके बग़ैर बाहर निकलना मकरूह है यह दोनो चीज़ें पूरे साल मकरूह हैं लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने सेनान की सही हदीस के मुताबिक़, जिसे शेख़ अब्बास क़ुम्मी ने मफ़ातिहुल जेनान में, अल्लामा मजलिसी ने बेहार में और मरहूम अख़वी[15] ने अद दुआ वज़ ज़ियारह में आशूरा की बहस में नक़्ल किया है, जो पूरे साल अबा पहनता है उसे आशूर के दिन उसे उतार देना चाहिये और जो पूरे साल जूते पहनता है उसे उस दिन जूते उतार देने चाहियें।
[1] - तूरीज करबला से दस किलो मीटर के फ़ासले पर एक जगह है जहाँ से हर साल आशूर के दिन अज़ादार नंगे पाँव करबला तक पैदल जुलूस की शक्ल में या हुसैन या हुसैन करते हुए और मातम करते हुए इमाम हुसैन (अ) के रौज़े तक आते हैं।
[2] - सैयद मुहम्मद मेहदी इब्ने मुर्तज़ा बहरूल उलूम (1155 से 1212) बुज़ुर्ग उलामा में से और ज़ोहद व तक़वे में मशहूर थे। वह वहीद बहबहानी के शागिर्द हैं और 57 साल की उम्र में आपका इंतेक़ाल हुआ, नजफ़े अशरफ़ में शेख़ तूसी की कब्र के पास दफ़न हैं।
[3] - बेहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 63 हदीस 3 (सैयद रज़ी ने इस हदीस के मज़मून को करबला नामी अपने क़सीदे में ज़िक्र किया है।
[4] - इस तरह कि एक हदीस किताबे काफ़ी की जिल्द 3 पेज 45 पर नक़्ल हुई है।
[6]. कामिलुज़ जियारत पेज 63 हदीस 2v
[7] - काबा और वह तमाम चीज़ें जो हमारे
आस पास हैं सब अल्लाह ने पैदा की हैं और सब में अक़्ल व समझ है लेकिन अकसर लोग इसे नही समझ पाते। क़ुरआन में आया है कि सारी मख़लूक़ात अल्लाह की तसबीह में मशग़ूल हैं लेकिन तुम उनकी तसबीह को नही समझ पाते।(सूरह इसरा आयत 44)
[8] यही मज़मून मतलब के इख़्तेलाफ़ के साथ मुख़तलिफ़ किताबों में ज़िक्र हुआ है जैसे कामिलुज़ ज़ियारत पेज 455 हदीस 690.
[9] - बेहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 278 हदीस 4 बाब 34, अमाली ए शेख़ मुफ़ीद पेज 238 हदीस 3 मजलिस 40, अमाली ए शेख़ तूसी पेज 115 हदीस 178 मजलिस 4.
[10] - ख़्वाब मेयार नही है मगर कभी कभी हदीसों में ख़्वाब को ......कहा गया है। (रौज़तुल काफ़ी जिल्द 8 पेज 90 हदीस 59)
[11] - बेहारुल अनवार जिल्द 53 पेज 43 बाब 29 हदीस 13
[12] - सूरह मआरिज आयत 4
[13] - नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 20
[14] - उसूले काफ़ी जिल्द 8 पेज 58
[15] - आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद मुहम्मद हुसैनी शीराज़ी
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