पासबान-ए-ख़त्ते इमाम र.अ

अन्य पुस्तके
Typography
  • Smaller Small Medium Big Bigger
  • Default Helvetica Segoe Georgia Times

सैय्यद जवाद नकवी

बिस्मिल्लाह अर्हमानिर्हीम

चौबीसवां सालाना यौमे शहादते जान गुदाज़ रहबरे तशय्यो पाकिस्तान हज़रत हुज्जातुल इस्लाम वल-मुस्लेमीन सय्यद आरिफ़ हुसैनी अल-हुसैनी र.अ, तमाम मौमेनीन और तमाम पैरवाने राहे इमामत व विलायत को ताज़ीयत व तस्लीयत है। पांच अगस्त पाकिस्तान के शियों के लिए बहुत अहमीयत का दिन है क्योंकि इस दिन पाकिस्तानी शियों के दुश्मनों ने उनके राहनुमा व हादी को हक़ की पैरवी के जुर्म मे शहीद किया है। ये एक अज़ीम क़ुरबानी है जो शियों ने राहे ख़ुदा मे पैश की है।

अय्यामूल्लाह को ज़िन्दा रखना

हर क़ौम के अन्दर कुछ दिन ऐसे हैं जिनमे उस क़ौम की बड़ी क़ुरबानीयां अंजाम पाईं हैं और वो क़ुरबानीयां क़ौम के लिए एक यादगार और मक़ासिद को ज़िन्दा करने वाली निशानयां बन जाती हैं। ऐसी क़ौम जो किसी राह मे, किसी हदफ की ख़ातिर क़ुरबानी पैश करे, जिन अय्याम मे ये क़ुरबानीयां पैश होती हैं वो अय्याम उस क़ौम के अन्दर बहुत ही गिरामी और मोहतरम व मुकर्रम होते हैं, क़ौम उन की ताज़ीम करती है। क़ुरान मजीद मे ख़ुदा वन्दे ताला ने पैग़म्बर-ए-अकरम स.अ को हुक्म फ़रमाया है कि आप उन लोगो को अय्यामूल्लाह की याद दिलाऐं। वैसे तो हर दिन मख़लूक़े ख़ुदा है और योमे ख़ुदा है लेकिन ख़ासकर एक मोय्यन दिन को  योमे ख़ुदा कहना इस बुनयाद पर है कि उन के अन्दर आयाते इलाही की तजल्ली हुई और हक़ रूनुमा हुआ है। ऐसे मख़सूस और मोय्यन दिन मिल्लत को ज़रूर याद रखने चाहिए, उन मुनासबतों को मोहतरम जानना चाहिए, उन की क़द्रदानी और तेहसीन करनी चाहिए क्योंकि इन्हीं अय्याम मे नई नस्लें अपने गुज़िश्ता माज़ी और अपनी राहों से आशना होती हैं। अगर ये अय्याम ज़िन्दा ना हों तो नई नस्लें भूल जाती हैं और फ़रामोश कर जाती हैं, मक़ासिद और मकतब को भूल जाती हैं और ना सिर्फ़ भूल जाती हैं बल्कि उन्हें मुख़्तलिफ़ दिगर राहों पर डाल दिया जाता है क्योंकि ये नस्ले अपनी हक़ीक़त और असास से वाक़िफ़ नही होतीं। इसी क़ानून के मुताबिक़ जिस तरह हर क़ौम के अन्दर क़रबानयों के कुछ अय्याम हैं जिन को वो ज़िन्दा रखती हैं, मिल्लते पाकिस्तान के लिए भी मुतादिद अय्याम हैं जहां मिल्लते पाकिस्तान व ख़सूसन मिल्लते तशय्यो ने गिरां क़द्र क़ुरबानीयां पैश की हैं दीन की राह मे, ख़ुदा की राह मे और उन क़ुरबानयों को याद रखना पाकिस्तान की नई नस्ल और नई शिया नस्ल के लिए ज़रूरी है।

उम्मत का ख़त्ते रसूल स.अ से दूर होना

पैग़म्बर-ए-अकरम स.अ के बाद बहुत सारे लोगो के मुख़्तलिफ़ रूजहानात सामने आए। कुछ लोगो के लिए इक़्तिदार की बहुत अहमयत थी वो सब कुछ छोड़ छाड़ के इक़्तिदार के पीछे पड़े, कुछ लोगो के लिए और उमूर दिलचस्पी का बाइस थे जैसे बाज़ के लिए ज़ाती उमूर, क़बीले के उमूर, क़ौमी उमूर लेकिन अमीरूल मौमेनीन और अहलैबेत अ.स के लिए ख़सूसन हज़रते ज़ैहरा स.अ के लिए जिस चीज़ की बहुत अहमयत थी वो राहे रसूल अल्लाह स.अ, ख़त्ते रसूल अल्लाह स.अ और सिराते रसूल अल्लाह स.अ था जिसे ख़ुद रसूल अल्लाह स.अ ने क़ायम किया और जिस राह पर उम्मत को चलाया, अब जब रसूल स.अ इस दुनिया से रूख़सत हो गए हैं तो दूसरो की दिलचस्पीयां चाहे जिस चीज़ मे भी हों लेकिन रसूले अकरम स.अ के हक़ीक़ी वारसान की दिलचस्पी सब से ज़्यादा इस चीज़ मे थी कि रसूल स.अ की राह ख़त्म ना हो जाए या उस मे कहीं इनहराफ़ व कजी ना आ जाए और उम्मते रसूल स.अ को उस से हटा कर किसी दूसरे रास्ते पर ना डाल दिया जाए। इसी वजह से अमीरूल मौमेनीन अ.स और बाद मे उनकी औलाद उम्र भर इक़्तदार से महरूम रहे हत्ता अपने बुनयादी हुक़ूक़ से महरूम रहे लेकिन हर तरह के हालात के अन्दर राहे रसूल अल्लाह स.अ को फ़रामोश नही होने दिया।

आइम्मा-ए-अतहार अ.स मुहाफ़ेज़ीने ख़त्ते रसूल स.अ

आइम्मा-ए-अतहार अ.स ने अपनी तमाम उम्र मे जो सब से बड़ा कारनामा अंजाम दिया वो हिफ़ज़े ख़त्ते रसूल अल्लाह स.अ है और इसी का नाम तशय्यो है। तशय्यो जो आइम्मा-ए-अतहार की मीरास है, ना वो तशय्यो जो आबा व अजदाद की मीरास है, ना वो तशय्यो जो हुक्मरानों की मीरास है, दरबारों की, नवाबों की, राजाऔं की, महाराजाऔं की और ख़तीबों और ज़ाकिरों की मीरास है उस तशय्यो की बात नही हो रही है बल्कि वो तशय्यो जो आइम्मा-ए-अतहार अ.स की मीरास है दर हक़ीक़त वो असील तशय्यो, ख़ालिस व नाब तशय्यो ही आइम्मा-ए-अतहार अ.स की अज़ीम कोशिशों और क़ुरबानयों का नतीजा है। हर मासूम ने अपनी पूरी उम्र हिफ़ज़े ख़त्ते रसूल स.अ के ऊपर वक़्फ़ की। इस लिए कि अगर बाक़ी उमूर को अहमीयत दी जाए तो मुमकिन है कि वो उमूर हाथ आ जाएं, उन मे किसी हद तक कामयाबी हासिल हो जाए, मसलन अगर पूरी तवज्जोह इक़्तदार के हासिल करने पर सर्फ़ की जाए तो मुमकिन है कि इक़्तदार हासिल हो जाए लेकिन उस इक़्तदार पर बहुत कुछ क़ुरबान करना पड़ता है, उस पर राह को क़ुरबान करना पड़ता है, असल ख़त और हदफ़ को क़ुरबान करना पड़ता है ख़सूसन उस वक़्त कि जब इक़्तदार अक़दार के बग़ैर हो तो वो इक़्तदार बहुत सारी क़ुरबानीयां मांगता है। जिस तरह अमीरूल मौमेनीन अ.स से बार बार इक़्तदार ने ये क़ुरबानीयां तलब की हैं कि आप ये क़ुरबानी दें तो आप को ये इक़्तदार दे देते हैं, लेकिन अमीरूल मौमेनीन अ.स उन चीज़ों को क़ुरबान करने के लिए तैय्यार नही हुए इस वजह से इक़्तदार से महरूमी को बर्दाश्त कर लिया लेकिन असले राहे रसूल स.अ और राहे इस्लाम उस के उपर ज़र्रा बराबर भी समझौता नही बल्कि तमाम आइम्मा-ए-अतहार ने हर दौर मे ख़त्ते रसूल अल्लाह स.अ के लिए क्या अज़ीम जीहाद किया और क़ुरबानीयां दीं कि आज आइम्मा-ए-अतहार अ.स का ये ख़त मौजूद है।

शोहदा-ए-राहे ख़ुदा की शमें

इंसान के बहुत सारे मक़ासिद होते हैं जिन की ख़ातिर इंसान क़ुरबानी देता है लेकिन वो क़ुरबानीयां जो अस्ल राह की हिफ़ाज़त के लिए दी जाती हैं और वो शोहदा जो इस राह मे काम आते हैं उन्हें, जिस तरह इमामे राहिल र.अ का ये फ़रमान है कि ये शोहदा राहे ख़ुदा की शमें हैं, राहे ख़ुदा के चिराग़ हैं, इन चिराग़ो की रोशनी से राहे ख़ुदा मुशख़्ख़स होती है कि कहा से गुज़रना है? अगर ये चिराग़ ना हों तो जिहालत व ख़ुराफ़ात की ज़ुलमत मे इस बेराह रवी और इनहराफ़ात की ज़ुलमत मे रास्ता नज़र नही आता, अगर इस पर ये चिराग़ रोशन ना हों तो ख़सूसन नई नस्लो को रास्ता असलन नज़र नही आता। पस इन चिराग़ो से राहे इलाही रोशन है लेकिन चिराग़ो को नूरानी बाक़ी रखना, चिराग़ों को रोशन रखना ये उम्मतों का काम है और वारिसाने शोहदा का काम है कि इन चिराग़ों को बुझने ना दें। बाज़ औक़ात ये इत्तेफ़ाक़ भी रूनूमा होता है कि अंधेरे रास्तों मे निजात की राहें मौजूद होती हैं लेकिन वाज़ेह नही होतीं बल्कि तारीकी वजह से छुपी हुई होती हैं और अगर कोई चिराग़ उन राहों पर रोशन किया जाए ताकि लोगो को मालूम हो जाए कि अंधेरी रात मे रास्ता इधर से गुज़रता है तो जो राहज़न हैं और ख़सूसन रात के राहज़न उऩ की ये कोशिश होती है कि चिराग़ बुझा दें ताकि दोबारा ज़ुलमत व अंधेरा छा जाए और निजात का रास्ता ख़त्म हो जाए और वो उन ज़ुलमात और अंधेरो के अंदर राहज़नी कर सकें, कारवानों और क़ाफ़लो को लूट सकें, नस्लों को नई नस्लों को, लोगो को और जवानों को अपनी मतलूबा राहों पर डाल सकें। ये रात के राहज़न जो अंधेरों के मे अपना काम कर रहे हैं, रोशन चिराग़ों को बुझा देते हैं।

क़ुरान मजीद मे भी ख़ुदा वन्दे ताला ने इस ख़तरे की तरफ़ राहनुमाई की है कि कुछ लोग ऐसे हैं जिन का सारा ज़ोर व ऐहतमाम चिराग़े इलाही को बुझाना है।

(التوبۃ،۳۲)یریدون ان یطفوا نوراللہ بافواھھم

उनका काम ये है कि फूंको से, अफ़वाहों से ख़ुदा की राह मे जलते हुए चिराग़ों को गुल कर दें, बुझा दें लेकिन अल्लाह का इरादा ये है कि ये नूर और ये चिराग़ रोशन रहेगें और ये नूर अपने कमाल तक पहुंचेगा। पस शोहदा की यादों को ज़िन्दा रखना लाज़मी और वाजिब है ख़सूसन वो शोहदा जो राहे ख़ुदा के शोहदा हैं।

शोहदा की क़िसमें

सारे शोहदा गिरामी क़द्र हैं, क़ाबिले ऐहतराम हैं लेकिन कुछ शोहदा जो राहे ख़ुदा को रोशन रखने वाले हैं। कुछ वो शोहदा हैं जो बेगुनाह मारे गए हैं वो इस वजह से शहीद हैं, इस वजह से कि मज़लूम हैं उन्हे बेगुनाह मारा गया है लेकिन राहे ख़ुदा मे उनका कोई किरदार नही था आम दुनिया दारों की तरह अपनी ज़िन्दगी बसर ककर रहे थे और शायद बाज़ ऐसे भी थे जो सिरे से असलन राहे ख़ुदा से आशना ही नही थे लेकिन क्योंकि उनकी मज़लूमाना मौत हुई है और बेरहमी व बेदर्दी के साथ उन्हे मारा गया लिहाज़ा दीन ने उनको भी क़द्र दानी की निगाह से देखा है और उन्हे भी शोहदा के ज़ुमरे मे ज़िक्र किया है। लेकिन अस्ल शोहदा वो हैं जिन्हो ने राहे ख़ुदा को ज़िन्दा रखते हुए राहे ख़ुदा मे जान दी है।

 (آل عمران،۱۶۹)الذین قتلوا فی سبیل اللہ

राहे ख़ुदा मे जिनको मौत आयी है और मुश्किल यही चीज़ है, सबसे मुश्किल काम ख़ुदा की राह पर आना है वरना बाक़ी मराहिल आसान हैं, राहे ख़ुदा पर आने के बाद मरना बहुत आसान है, राहे ख़ुदा पर आना, राहे ख़ुदा की तशख़ीस, राहे ख़ुदा की जहत और राहे ख़ुदा का सही मिसदाक़ ढ़ूंडना इसके लिए बसीरत की ज़रूरत है, इस्तक़ामत और शुजाअत की ज़रूरत है, दिलेरी व आगाही की ज़रूरत है। बेबसीरत लोग राहे ख़ुदा को तशख़ीस नही दे सकते और बुज़दिल लोग राहे ख़ुदा का इंतेखाब नही कर सकते। बहुत सारे लोग हैं जिन्हे राहे ख़ुदा नज़र आजाता है और राहे ख़ुदा पर भी आजाते हैं लेकिन जारी नही रख पाते क्योंकि राहे ख़ुदा पर चलना दुशवार है इसी वजह से सबसे अज़ीम कारनामा राहे ख़ुदा पर आना, उसको तलाश करना, उसका मिसदाक़ ढ़ूडना और उस पर क़ायम रहना, और उस वक़्त तक क़ायम रहना कि उसी पर मर जाना है।

शहीदे राहे ख़ुदा की हक़ीक़त

इस मौत को ख़ुदा ने ये दर्जा दिया है कि इसी राह का ख़ुदा ने उसको चिराग़ बना दिया है, यानी ये शहीद जो राहे ख़ुदा पर जान देता है बाज़ाहिर उसका जिस्म दफ़्न हो जाता है लेकिन ख़ुदा फ़रमाता है कि ये दफ़्न नही हुआ, ये मरा नही है बल्कि रोशन तर हो गया है। इस राह को नुमाया रखने की अलामत है, ये दर हक़ीक़त अलम है शहीदे राहे ख़ुदा के लिए अलम है, यानी निशानी, अलम उस चीज़ को कहते हैं जिस से इंसान को इल्म हासिल होता है या जो इल्म हासिल करने का ज़रिआ हो उसे अलम कहते हैं। शहीद राहे ख़ुदा के लिए अलम बन जाता है, निशानी बन जाता है। शहीदे बुज़ुर्गवार, शहीद हुसैनी र.अ जिनका नाम शहादत के बाद बहुत रोशन हुआ और आज शहीद को बहुत इज़्ज़त व ऐहतेराम की निगाह से देखा जाता है ख़सूसन नई नस्ल जिन्हों ने शहीद को आंखो से नही देखा और सिर्फ़ शहीद की तसवीरें देखी हैं और शहीद के तज़करे सुने हैं उनके अन्दर शहीद के लिए ज़्यादा अक़ीदत नज़र आती है बजाए उन लोगो के जिन्हो ने शहीद को अपनी नज़रों से देखा, जो शहीद के साथ रहे ये एक हक़ीक़त है कि जिस नस्ल ने शहीद को नही देखा सिर्फ़ सुना है, नाम सुना है, तज़करे सुने हैं या किसी जगह पढ़ा है तो उनके दिलों मे बहुत अक़ीदत व बहुत ऐहतेराम है। शहीद बुज़ुर्गवार उन लोगों के दिलों मे भी हैं जो शहीद के साथ थे लेकिन अगर मुवाज़ना किया जाए तो नई नस्ल शहीद की ज़्यादा अक़ीदतमन्द है।

इस नस्ल को इस अक़ीदत के साथ उस चिराग़े हिदायत से आशना होना बहुत ज़रूरी है जो सरज़मीने पाकिस्तान पर राहे ख़ुदा का चिराग़ है और ये चिराग़ रोशन रखना बहुत ज़रूरी है क्योंकि तमाम मरहूमीन और शोहदा कुछ अरसा गुज़रने के बाद भुला दिए जाते हैं, ज़माना फ़रामोश करा देता है, नये हवादिस नये वाक़ियात उन शोहदा को फ़रामोश करा देते हैं। अगर ऐज़ाज़ी शोहदा को भूल जाएं तो शायद इतना नुक़सान ना हो जितना नुक़सान शोहदाऐ राहे ख़ुदा को और वो शोहदा जो चिराग़े राहे ख़ुदा हैं उनको भूलने का है। ख़ुदा का शुक्र है पाकिस्तान मे नई नस्ल, जवान नस्ल इस चिराग़े राहे ख़ुदा को नही भूली है बल्कि इस चिराग़ की ज़्यादा मुश्ताक़ और ज़्यादा आशिक़ नज़र आती है लेकिन आगही के लिहाज़ से, बाख़बर होने के लिहाज़ से कमी महसूस होती है। क्योंकि कोई ज़रिआ नही है जो उन्हे इस चिराग़ की सही हक़ीक़त से आशना करे।

शहीद हुसैनी र.अ का ज़माना और पाकिस्तान के हालात

शहीद हुसैनी र.अ का जो ज़ाहिरी उनवान था वो सब को मालूम है कि मुफ़ती जाफर हुसैन र.अ की रेहलत के बाद तेहरीके निफ़ाज़े फ़िक़हे जाफ़रया के दूसरे सर्बराह मुक़र्र हुए लेकिन क्योंकि तेहरीक के सरबराह को क़ाइदे मिल्लत कहा जाता था लिहाज़ा शहीदज भी क़ाइदे मिल्लत के नाम से मशहूर हुऐ। तेहरीके जाफ़रया 1979 ई. मे वजूद मे आई जब ज़िया-उल-हक़ का दौर था, ज़ाहेरन 1977 ई. मे ज़िया-उल-हक़ ने इक़तेदार संभाला था और मार्शल लॉ लगाया उस वक़्त भूट्टो की हुकूमत थी, इंतख़ाबात हुए, उसमे धांदली हुई, धांदली के नतीजे मे जलसे जूलूस और रेलयां शुरू हुईं और मुल्क के अन्दर एक अजीब सियासी बोहरान खड़ा हो गया, उस के बाद उस सियासी बोहरान के अन्दर उस फ़ौजी जर्नल ने जो उस वक़्त फ़ौज का चीफ़ था, उसने इक़तदार संभाल लिया और मुल्क के अन्दर मार्शल लॉ नाफ़िज़ कर दिया और वादा किया कि नव्वे दिन के अन्दर इंतख़ाबात करवाएगें लेकिन वो नव्वे दिन पूरे ग्यारह बारह साल मे तबदील हो गए, बाद मे उन्हे इक़तदार की बहुत लज़्ज़त मेहसूस हुई और इक़तदार छुड़वाने के लिए सारी दुनिया ने मुल्क के अन्दर जतन कर लिए लेकिन उन्हो ने इक़तदार नही छोड़ा और आख़िरकार इक़तदार की उसी मस्ती की हालत मे ही मरना पड़ा उस शख़्स को इक़तदार से दूर करने के लिए क़त्ल किया गया। एक ख़ास किस्म का अजीबो ग़रीब दौर था।

आइम्मा-ए-अतहार अ.स की हक़ीक़ी शिनाख़्त

हम अमूमन जब आइम्मा अ.स के हालाते ज़िन्दगी मुशाहेदा करते हैं तो उस मे ये भूल जाते हैं कि आइम्मा अ.स किस दौर मे थे? किस ज़माने मे थे? कौन हुक्मरान थे? हालात क्या थे? दबाऔ क्या था? अन्दरूनी व बाहरी हालात क्या थे? आइम्मा अ.स के पैरोकारों की क्या सूरते हाल थी? मुख़ालिफ़ों की क्या सूरते हाल थी? हुकूमत की क्या सूरते हाल थी? अमूमन इस का तज़किरा नही करते इस वजह से हमे आम्मा अ.स के ज़माने की मुकम्मल तौर पर सही सूरतेहाल से आशनाई नही होती सिर्फ़ हालाते ज़िनदगी जो लिखे जाते हैं कि आइम्मा अ.स पैदा हुए, पैदा होते हुए ये करामतें रूनुमा हुईं, ये मुबारकें दी गईं, उसके बाद चन्द एक शख़सी हालात ज़िक्र किए जाते हैं उसके बाद औलाद ज़िक्र की जाती है और ये है आइम्मा अ.स की सारी ज़िन्दगी और कुछ भी पता नही चलता लेकिन अगर आइम्मा अ.स की ज़िनदगी का मुकम्मल अहाता किया जाए तो फिर हर इमाम अ.स के इमामत ज़माने की सही तसवीर सामने आती है। इस के लिए हमे वाक़ायाती नही बल्कि तजज़ीयाती और तहलीली तारीख़ की ज़रूरत है।

शहीद हुसैनी र.अ की क़यादत का जितना भी ज़माना ग़ुज़रा है वो ज़िया-उल-हक़ का ज़माना ही था। ज़िया-उल-हक़ के ज़माने मे ही क़ायद बने और उसी के ज़माने मे ही शहीद हो गए और आप की शहादत के कुछ दिन बाद ज़िया-उल-हक़ भी मारा गया।

शहीद क़यादत से पहले

जब शहीद हुसैनी क़ाइद बने उससे पहले उन को पाकिस्तान मे लोग नही जानते थे क्योंकि शहीद जिस इलाक़े से ताल्लुक़ रखते थे वो पाकिस्तान की बिल्कुल आख़री बाउंडरी लाइन है। शहीद पैदा भी पाराचिनार के नवाह मे एक गॉव मे हुए और फिर वहीं पर पढ़ाई भी की, कुछ अर्से नजफ़े अशरफ़ रहे और कुछ अर्से क़ुम-ए-मुक़द्दस मे रहे वापस आकर फ़िर पाराचिनार मे ही मदरसे मे पढ़ाते रहे और शहीद का तबलीग़ी सिलसिला भी उसी इलाक़े मे था, कभी कभार पैशावर आते आकर मजालिस भी पढ़ते और कभी कभी रेडियो पर भी गुफ़्तगु करते हत्ता पशतून इलाक़े मे भील लोग मुकम्मल तौर पर उन को नही जानते थे और अगर कुछ लोग जानते भी थे तो इस तरह कि ये भी एक आलिम और उस्ताद हैं।

बहुत कम लोग पाकिस्तान के दूसरे इलाक़ो मे शहीद को जानते थे। बाज़ को सिर्फ़ सरसरी आशनाई थी क्योंकि क़ुम मे या नजफ़ मे साथ पढ़ते रहे तो इस वजह से आशना थे और वो अफ़राद बहुत ही कम थे जो शहीद को सिर्फ़ तालिबे इल्मी के ज़माने की आगाही से ज़रा बढ़ कर उन की लियाक़त, सलाहियत या फ़िकरी रुजहानात जानते हों।

मुफ़ती जाफ़र हुसैन की शख़्सियत

जिस ज़माने मे शहीद आए और आकर क़यादत सभांली, उस से पहले तहरीक-ए-निफ़ाज़े फ़िक़्ह-ए-जाफ़रया मुफ़ती जाफ़र हुसैन के ज़माने मे चार पांच साल का एक भरपूर उरूज का दौर गुज़ार चुकी थी, ख़ुदा उन पर रहमत नाज़िल फ़रमाये, बहुत अज़ीम और आला ख़ूबीयों के मालिक थे और सब से अज़ीम सिफ़त जो उनके अन्दर थी वो ये कि बहुत सादा ज़ीस्त इंसान थे। हत्ता क़यादत के ज़माने मे भी सादगी उनकी ज़र्बुलमसल थी जो हमने आंखो से देखी आम बसों मे सफ़र करते थे क़ाईदे मिल्लते जाफ़रया, शिया क़ौम का क़ायद मसलन गुजरानवाला से जी.टी रोड पर आते लोगों की तरह स्टोप पर खड़े होते, बस को हाथ देते सीट मिलती तो बैठ जाते वरना खड़े होकर दूर तक का सफ़र करते थे, हमें याद है जब पिंडी मे पहुंचते थे उतर के वहीं से अरबन ट्रांसपोर्ट बस पर इस्लामाबाद आ जाते, इस्लामाबाद मे एक बस स्टाप पर उतरते और फिर बाक़ी सारा रास्ता पैदल चल के क़ाईदे मिल्लत अकेले मदरसे मे आते या जहां पर उनको जाना होता वहां शरीक होते।

इस्लामी नज़रयाती काउंसिल के रूक्न थे उन के इजलासों मे भी इसी तरह बसों मे बैठ कर जाते थे। तालिबे इल्मी के ज़माने मे एक हमे भी ऐज़ाज़ था, उन की क़यादत के उरूज के ज़माने की बात कर रहा हूं कि इस्लामाबाद से उन्हें चकवाल आना था और मसलहत नही थी कि अकेले जायें लिहाज़ा इंतज़ाम किया गया कि उनके साथ कोई जाये, जाने के लिए जो इंतज़ाम किया गया वो एक छोटा सा चौदह पंद्रह साल का तालिबे इल्म इंतख़ाब किया गया जो उन्हें चकवाल छोड़ कर आऐ, यानी बन्दाऐ हक़ीर, हुक्म दिया गया कि आप को क़ाईदे मिल्लत को चकवाल पहुंचाना है। वहीं से टेक्सी पर बैठे और फ़ैज़ाबाद पहुंचे, फ़ैज़ाबाद से बस पर बैठ कर चकवाल पहुंचे, चकवाल मे तांगा लिया, फिर मुफ़्ती साहब के साथ गये, जहां उन्हें मजलिस पढ़नी थी वहां उन्हे पहुंचाया फिर वापस आ गये। यानी ये मुफ़्ती जाफ़र हुसैन की क़यादत का ज़माना था। इन्तहाई सादा और बहुत ही क़ाबिल इंसान थे।

मुफ़्ती जाफ़र हुसैन की ख़िदमात

उनके शाहकार अभी भी मौजूद हैं, नहजुल बलाग़ा का तर्जुमा जो फ़ौक़ुल आद्दा तर्जुमा है, हम मुफ़्ती साहब का तर्जुमा मुतार्र्फ़ नही करवा सके जो दुनिया के अन्दर नहजुल बलाग़ा का बहुत शाहकार तर्जुमा है। उनका दूसरा अज़ीम कारनामा सहीफ़-ए-सज्जादया का तर्जुमा है जो मुफ़्ती साहब मर्हूम ने किया और तीसरा इल्मी कारनामा सीरते अमीरूल मौमेनीन अ.स जो उन्हों ने तदवीन की थी एक जिल्द अपनी ज़िन्दगी मे छप गयी थी और बाक़ी सुना है कि छप गयी हैं। बहरकैफ़ मुफ़्ती साहब की तारीख़ से अच्छी आशनाई थी और उन्हों ने बहुत ही ज़ाहिदाना ज़िन्दगी बसर की। बक्खर मे जब तहरीक बनी तो मुफ़्ती साहब को बतौर रहबरे तहरीक इंतख़ाब किया गया, कुछ बुज़ुर्गान अभी भी हयात हैं, ख़ुदा उन्हें सेहत व सलामती अता फ़रमाये, कुछ इस दुनिया से गुज़र गये हैं जिन का बुनयादी रौल था, जिन मे से एक मरहूम सय्यद सफ़दर हुसैन नजफ़ी र.अ हैं, ये भी एक अज़ीम हस्ती हैं, उनका तहरीक के बनाने मे एक बुनयादी रौल था और मुफ़्ती साहब की क़यादत मे भी और बाद मे क़ौमयात मे भी एक बहुत बड़ा किरदार मरहूम सय्यद सफ़दर हुसैन नजफ़ी साहब का रहा है और इस तरह के कुछ बुज़ुर्गान जो दुनिया से चले गये हैं।

शिया क़ौम का अलमया

ऐ,काश उनमे से कुछ तारीख़ लिखते, शिया क़ौम की दक़ीक़ तारीख़, सियासी भी इजतमाई भी और मज़हबी तारीख़ भी रक़म करते कि गुज़िशता पचास साठ साला सफ़र इस क़ौम ने कैसे तय किया है ताकि आज की नस्ल को तारीख़ से सही और मुसतनद आगाही होती। अग़राक़, मुबालग़े, अफ़वाहें और मन घड़त ज़हनयात और ख़ाब और क़िस्से ये तारीख़ नही होती, जैसा कि आज कल बाज़ बयान करते हैं सब कुछ ख़ाबों की मदद से, सब कुछ तावीज़ों और जाली क़िस्सों की मदद से ये शख़सी वाक़यात जो नक़्ल करते हैं उसको तारीख़ नही कहते। ख़ुलासा नई नस्ल को उस तारीख़ से आशना होना ज़रूरी है कि साबेक़ा दौर किया था? तहरीक जो बनी आलमी सूरतेहाल के तनाज़ुर मे भी और मुल्की सूरतेहाल के तनाज़ुर मे भी बहुत ही हस्सास और नाज़ुक मौक़े पर बनी।

ज़िया-उल-हक़ का ख़ुद साख़ता इस्लाम

मुल्की सूरतेहाल मे ज़िया-उल-हक़ ने एक ढ़ंडोरा पीटा हुआ था कि मुल्क के अन्दर निज़ामे इस्लामी नाफ़िज़ करना चाहता है ज़िया-उल-हक़ बाज़ दीनी और सियासी जमाअतों की मदद से जिस मे जमाअत-ए-इस्लामी पैश पैश थी और कुछ दीगर सियासी जमाअतें जो आज और रंग मे हैं ये सब ज़िया-उल-हक़ के दस्त व बाज़ू थे और निज़ामे मुस्तफ़ा स.अ के लिए वज्द मे आए हुए थे, ख़ाह बरेलवी हों, देवबन्दी हों या अहले हदीस ये सब के सब ज़िया-उल-हक़ के साथ थे और इन्हों ने बहुत ही अजीब समा बनाया हुआ था कि मुल्क मे इस्लामी निज़ाम नाफ़िज़ हो रहा है, ज़िया-उल-हक़ रोज़ एक आर्डीनंस जारी कर देता और नमाज़ वाजिब क़रार देता था, अल्लाह ने कबसे वाजिब क़रार दी हुई थी तो उस वक़्त कोई नही पढ़ता था अब ज़िया-उल-हक़ ने नमाज़ वाजिब क़रार दी कि नमाज़ वाजिब है। सबने नमाज़ पढ़ना शुरू की, शियो ने भी शुरू करदी, सुन्नियों ने भी शुरू करदी, जिनको नही आती थी उन्हों ने भी नमाज़ पढ़ना शुरू करदी। सीखी नही बल्कि पढ़ना शुरू करदी। होटलों मे नमाज़ हो रही है, पार्कों मे नमाज़ हो रही है, सड़कों पर हर तरफ़ नमाज़ हो रही है।

ज़िया-उल-हक़ की मक्कारियां

अन्दरूनी मुल्की हालात के लेहाज़ से ज़िया-उल-हक़ का ज़माना था, ज़िया-उल-हक़ ज़िरक और बहुत ही मक्कार इंसान था, ये एक ख़ास पलानिगं के तहत आया था और ख़ास तरीक़े से इसने फ़ौज मे भी तरक़्क़ी की और फ़ौज के ज़रिए से सियासत मे आया और फिर सियासत मे भी इसने बड़ा अहम रौल अदा किया। अजीब मक्काराना और पुरफ़रेब किरदार उसने अदा किया है, बहरकैफ़ मुल्क मे ख़ास फ़ज़ा थी और निज़ामे मुस्तफ़ा स.अ का हर तरफ़ चर्चा था कि पाकिस्तान मे निज़ामे मुस्तफ़ा स.अ नाफ़िज़ हो रहा और बेरूनी इस्लामी दुनिया भी जिस मे सऊदी अरब और दीगर ममालिक भरपूर तरीक़े से इमदाद कर रहे थे। हर तरफ़ सज़ाऔं के पोस्टर नस्ब होते थे कि अगर ये काम किए तो ये सज़ायें मिलेंगी, किसी जगह सर क़लम करने के पोसटर लगे होते थे, किसी जगह कोड़े मारने के पोस्टर लगे होते थे, कई लोगों को सरेआम कोड़े मारते थे ये जितने ग्राउंड हैं इनमे लोगों को जमा करते और हज़ारो लाखो लोग जमा होते और उनके सामने लोगों को कोड़े मारते जो किसी भी जुर्म मे पकड़े जाते थे उन की सज़ा कोड़े होते, शरई अदालतें क़ायम हो गईं और वाज़ेह तौर पर मज़हबी जमाअतों ने और ज़िया-उल-हक़ ने मिल कर ये ऐलान किया कि निज़ामे मुस्तफ़ा स.अ का मेहवर फ़िक़्ह-ए-हनफ़या होगी। फ़िक़्ह-ए-हनफ़या यानी सुन्नी फ़िक़्ह जो चार फ़िक़्ह हैं उनमे से फ़िक़्ह-ए-हनफ़या को उन्हो ने मेहवर क़रार दिया कि पाकिस्तान के आईन और क़ानून के तौर पर ये फ़िक़्ह नाफ़िज़ होगी।

शिया इत्तेहाद के अवामिल

इसमे शियो को तशवीश हुई कि अगर पाकिस्तान मे ये फ़िक़्ह नाफ़िज़ होती है तो ज़ाहिर है कि ये एक ख़ास फ़िरक़े की फ़िक़्ह है और इससे दूसरे सारे फ़िरक़े मुतास्सिर होंगे, अपने अपने हुक़ूक़ से मेहरूम हो जाऐंगे। ये ज़ाहिरी पसे मंज़र, में बयान कर रहा हूं बाक़ी पीछे क्या कहानी थी? मोहर्रेकात और अवामिल क्या थे? वो और चीज़ है जो ज़ाहिरी मंज़र पर बताया गया, सामने नुमायां किया गया वो ये था जिस पर तशवीश हुई, बहरकैफ़ इस पर औलमा और ज़ोउमा को तशवीश हुई उस ज़माने मे पाकिस्तान मे औलमा के हाथ मे क़यादत नही थी, ज़ोउमा होते थे, शिया ज़ोउमा की इसतलाह थी कि ये क्लीन शैव लोग होते थे या अगर शैव नही करते थे तो ये लोग ज़ीरो मशीन फिरवाते थे, ये ज़ोउमा कहलाते थे, कराकोली टोपियाँ पहनते थे और हुकूमत से इंतज़ामया से गठ जोड़ होता था अस्ल मे ये लोग शिया क़ौम मे हुकूमत के नुमाइंदे होते थे, ये ज़ोउमाए क़ौम और क़ायदीन का किरदार अदा करते थे। जहां पर भी कोई शिया क़ौम की बात होती तो ये लोग पैश पैश होते थे, ना क़ौम औलमा को क़ाईद समझती थी, ना औलमा अपने आप को क़ाईद समझते थे, औलमा क़यादत को ममनूआ शजरा समझते थे और अवाम औलमा के बारे मे जो ज़ेहनयत रखती थी वो बहुत ग़लत ज़ेहनयत थी, औलमा को वो दूसरे पैशो के हिसाब से शुमार करते थे यानी औलमा भी दूसरे पैशो की तरह एक पैशा है, ये पैशावर लोग हैं, ये क़यादत व ज़आमत के क़ाबिल नहीं हैं लेहज़ा कुछ मशहूर शख़्सियात पैश पैश थीं।

तारीख़े तशय्यो की तदवीन की ज़रूरत

कुछ ज़ोउमा इस तहरीक मे शामिल थे और कुछ औलमा भी, बहरकैफ़ उस वक़्त सब मुतवज्जह हुए और उन्हों ने मिल कर इबतदाई मिटींगज़ कीं कुछ शायद लाहौर मे भी हुईं, उन मे अब हमे दक़ीक़ इल्म नही है कोई मुसतनद तारीख़ भी नही है ताकि हवालों के साथ आदमी बात करे कि कितनी मिटींगज़ हुईं, उस मे शोरका कौन कौन थे और उसका ऐजंडा क्या था और उसमे तसवीब क्या हुआ? आज तक किसी ने कोई तारीख़ तदवीन नही की क़ौम के लेहाज़ से ये बहुत बड़ा गैप है, एक क़ौम का मुदव्वन तारीख़ ना रखना, ये शिया क़ौम का बहुत बड़ा नुक़सान है और ये एक क़ौम की नाअहली और नालायक़ी है कि उसके पास अपनी तारीख़ मौजूद नही है। आज हम अगर नई नस्ल को बताना चाहें या कोई हवाला देना चाहें तो कोई सनद नही है कि ये काम जो उस वक़्त हुए किस तारीख़ को हुए? किन लोगों ने क्या फ़ैसले किए? उनके क्या दर्द थे? उनके क्या मसाइल थे? कुछ लोगों को जो उस ज़माने के हैं जिन के पास मुसतनदात हैं उन्हें ये काम हतमन करना चाहिए, कई लोगों को हमने तजावीज़ पैश की हैं, अर्ज़ की है कि आप लोग सब कुछ छोड़ छाड़ कर सिर्फ़ तारीख़ तदवीन करो जो भी आप के हाफ़ज़े के मुताबिक़ है अपनी ज़ेहनयत ना लिखना बल्कि मुसतनद तारीख़ तदवीन करो ताकि आइंदा नस्लें उसकी रोशनी मे कुछ समझ सकें।

पाकिस्तानी मोमैनीन का पहला इजतमा

बहरकैफ़ जो कुछ इबतदाई मराहिल मे हुआ वो नक़ले क़ौल ही हैं, कोई कुछ नक़्ल करता है और कोई कुछ नक़्ल करता है, लेकिन बक्खर मे भरपूर तरीक़े से इजलास हुआ, उस इजलास मे बहुत बड़ा कनवंशन हुआ जिस मे अवाम भी जमा हुए और औलमा भी कई हज़ार लोग शरीक थे, क्योंकि पाकिस्तान के अन्दर सियासत मे भी और मज़हब मे भी एक आम रूजहान है कि आदाद शुमार रियालों मे बताये जाते हैं यानी जिस तरह रूपया और पैसा, मसलन अगर आप दुकान पर जायें और उसे कहे कि ये चीज़ दो, वो आप से सौ रूपये मांगे तो वो ससती लगती है लेकिन अगर वो यही सौ रूपये की बजाये कहे कि हज़ार पैसा है तो हज़ार बड़ी रक़म है इसलिए इंसान को लगता है कि ये बड़ी मेहंगी चीज़ है। इसी तरह आज कल या पहले से भी ये रवश राइज है कि कोई भी प्रोग्राम होता है तो रियालों मे या पैसों मे बताई जाती है कि कितनी तादाद जमा हुई है, ये भी क्योंकि तारीख़ नही है इस वजह से तरह तरह की अफ़वाहें मुख़्तलिफ़ आदाद व शुमार होते हैं। तारीख़ ना होना यानी अपने माज़ी से मुनक़ता होना है। तारीख़ ना होना यानी आप कुछ भी साबित नही कर सकते, तारीख़ बहुत ज़रूरी है।

तारीख़ तशय्यो की अहमियत

ख़ानदानों मे शजरा देखें कितनी अहमियत है शजरों की ख़ुसूसन सादात और सादात की देखा देखी अब दूसरों ने भी शजरे बनाना शुरू कर दिए हैं। ख़ानदानों के अन्दर शजरे की बहुत अहमियत है, शाजरा उस ख़ानदान का माज़ी होता है, उस ख़ानदान की तारीख़ होता है इसलिए उसको बहुत अहमियत देते हैं। एक क़ौम जो इतने बड़े सफ़र करके आई है उसकी तारीख़ ना हो, ये नालाइक़ी और बहुत बड़ी ना अहली है। उसे तदवीन होना चाहिए, यही मुसतनादात होते हैं जो अगली नसलों के लिए आगाही फ़राहम करते हैं, यही तालीम व ताउल्लुम का निसाब बनता है आइंदा आने वालों का इसी पर दारोमदार होता है। अब कितने लोग बक्खर मे जमा हुए, ज़ाहिर है कोई पैसों और कोई रूपयों मे बताता है, कोई कहता है कि चन्द हज़ार थे कोई कहेगा मसलन लाख थे। बहरकैफ़ पाकिस्तान मे कहीं भी आदाद शुमार जो बताते हैं ऐतमाद ना किया करें क्योंकि कुछ तास्सुब की निगाह से बताते हैं, फ़र्ज़ करें कि अगर दस हज़ार आदमी हों तो वो कहेंगे कि दो तीन सौ आदमी थे, ये मुतास्सीबाना निगाह है। और अगर वो ख़ुद बानिए प्रोग्राम हो तो दस हज़ार आदमी को कहेगें कि एक लाख आदमी थे, तो दोनो क़ाबिले ऐतमाद नही हैं और कोई तीसरा ममबा ही नही है जिस से पता चले कि सही तादाद क्या थी?

मुफ़ती जाफ़र हुसैन की क़यादत

बक्खर मे एक अच्छी ख़ासी तादाद औलमा, ज़ौअमा और अवाम सारे तबक़ात उसके अन्दर सारी तनज़ीमें उस वक़्त थौड़ी तनज़ीमें थीं लेकिन दो थी वो वहां हाज़िर थीं, उन्होंने जनाब मुफ़ती साहब को क़ायद बनाया और उसका मौहरिक क्या बना? ज़िया-उल-हक़ का निज़ाम, ज़िया-उल-हक़ के इक़दामात, जो मज़हबी एहसासात और मज़हबी नारों के साथ हो रहे थे जिस मे शिया को अदम तहफ़्फ़ुज़ का एहसास हो रहा था। इस लिए ये लोग वहां जमा हुए और इन्होने वहां पर एक तहरीक बनाई तनज़ीम नही बनाई तहरीक बनाई, कोई तनज़ीमी ढांचा भी नही था क्योंकि तहरीक थी, एक मूवमेंट और एहतजाजी तहरीक कहलें एक चीज़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना  ये एक तहरीक थी और उसके रहबर, सरपर्सत के लिए काफ़ी नाम पैश हुए लेकिन रद हुए, फिर बहरकैफ़ मुफ़ती साहब पर इत्तफ़ाक़ हुआ, बाज़ ने उसमे भी इख़तलाफ़ किया लेकिन मुफ़ती साहब ख़ुदा उऩ पर रहमत नाज़िल करे जो बहुत ही जय्यद शख़्सियत थे क़ायद बने और क्योंकि शिया क़ौम के अन्दर पहली दफ़ा इस तरह का इत्तफ़ाक़ रूनुमा हो रहा था तो शिया क़ौम को बहुत ख़ुशी हुई, बहुत हगी जज़बा, शिया क़ौम की कैफ़ियत देखने वाली थी पाकिस्तान मे शहर शहर के अन्दर एक धूम मची हुई थी, उनके भरपूर दौरे हुए, भरपूर इस्तक़बाल हुए और एक दफ़ा ये तहरीक अपने औज पर जा पहुंची, फिर ज़ापिर है जैसी उसकी सूरतेहाल थी, करते करते फ़ौरन नीचे भी आ गई, तहरीक मे दम ख़त्म हो गया और सिर्फ़ अब बयानात की हद तक ज़िंदा थी।

इस्लामाबाद का तारीख़ी इजतमा

उस दौरान फिर एक और वाक़या ये रूनुमा हुआ कि इराक़ मे शहीद बाक़र-उस-सद्र र.अ की शहादत हुई और जिनके चेहलुम पर इस्लामाबाद मे कनवंशन रखा गया,पहले एक मजलिस रखी गई और फिर बुज़ुर्गान ने मिल कर ये फ़ैसला किया कि इसको क़ौमी कनवंशन की शक्ल दी जाये और वो क़ौमी कनवंशन ऐन वक़्त पर एहतजाजी तहरीक मे बदल गया और क बड़ी तादाद उस मे भी जमा हुई जो इस्लामाबाद के अन्दर था क्योंकि दारूलख़िलाफ़ा था जब उस जलसे ने एहतजाजी शक्ल इख़्तियार की तो उस के अन्दर पूरे पाकिस्तान से सब तबक़ात शरीक थे ज़ाकरीन थे, ख़ोतबा थे, मलंग थे, औलमा थे, तनज़ीमें थीं, बिलआख़िर हर तबक़ा उस के अन्दर था ये सब के सब जमा हुए उस वक़्त फ़ौरी फ़ैसले होते थे पहले से तैशुदा कुछ भी नही था वहीं पर बैठते कि अब पब्लिक इतनी हो गई है तो यूं किया जाये, ऐसे हो गया तो अब ऐसे किया जाये बहरकैफ़ ऐन वक़्त पर फ़ैसला हुआ कि एहतजाज किया जाये, एहतजाज के लिए "सैकर ट्रेट" पर जाया जाये सैकर ट्रेट पर चले गये एक ढेड़ दिन वहां क़याम हुआ और दुनिया मे अच्छा ख़ासा एक इशु बन गया ज़िया-उल-हक़ की हुकूमत पर बहुत बड़ा दबाऔ आया, बहुत बड़ा दबाऔ हुकूमत पर पैदा हुआ उस के उपर कुछ शिया मुशावरीन थे, कुछ बीच मे राबित लोग थे जिनहों ने पहले दबाऔ की कोशिश की और फिर फ़ौज आ गई, मुहासरा हुआ बहरकैफ़ वहा शदीद तसादुम का ख़तरा था और अगर तसादुम होता तो बहुत कुछ ख़ून ख़राबा होने का एहतमाल था। उस मे गैस के शैल से जो पुलिस ने फ़ायर किया था एक जवान शख़्सियत मौहम्मद हुसैन शाद जो तहरीके निफ़ाज़े फ़िक़्ह-ए-जाफ़रया के पहले शहीद कहलाते हैं। जब जूलूस निकला था उसी वक़्त शहीद हो गये थे पुलिस ने उन को गोली नही मारी बल्कि गैस फैंकी थी और गैस उसके सर पर लग गयी और बर वक़्त उसको शायद मदद नही पहुंची और वो शहीद हो गये जिन का ताल्लुक़ शायद झंग से था।

इस्लामाबाद कनवंशन के नताइज

इस कनवंशन मे ज़ाहिरी तौर पर बहुत मुसबत नताइज निकले हुकूमत दबाऔ मे आई या जैसे कहा जाता है कि हुकूमत घुटने टेकने पर मजबूर हो गई वाक़यन उसने घुटने टेक दिए और शिया वफ़्द उनसे मिले और मुतालबात किए, मुतालबात मे से ये था कि ये जो निफ़ाज़े फ़िक़्ह-ए-हनफ़या है ये नही होना चाहिए, एक फ़िरक़े की फ़िक़्ह सारे फ़िरक़ों पर नाफ़िज़ नही होनी चाहिए, शियो के हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ होना चाहिए और शियों ने बाक़ायदा अपने हुक़ूक़ लिखकर दिए जो चन्द एक उनमे से तसवीब हो गए, बाक़ायदा मीडिया मे, टीवी अख़बार मे कि शिया फ़िक़्ह की अज़ान का वक़्त अनाउँस करें, उस वक़्त से अभी अख़बार क़ानूनं मजबूर हैं, जो अख़बार नही लिखता क़ौमी अख़बार तो आप उस पर कैस कर सकते हैं। शियों को ये मालूम होना चाहिए, अगर कोई डैली अख़बार, रोज़नामा औक़ाते सहर व अफ़तार या औक़ाते नमाज़ या ग़ुरूब व तुलू लिखता है और साथ मे फ़िक़्ह-ए-जाफ़रया के औक़ात नही लिखता तो क़ानून की निगाह से वो मुजरिम है, उस पर कैस किया जा सकता है, उस के अलावा एक दीनयात का मसला छेड़ा गया, जो पहले से भी था वहां भी उठाया गया लेकिन जो बड़ी तबदीलयां आईं वो ये थीं।

ज़कात की माफ़ी

बहुत बड़ी इंक़लाबी तबदीली शियों को नसीब हुई, जो बहुत मारकतुलआरा बनी वो दरहक़ीक़त ज़कात की माफ़ी थी क्योंकि ज़िया-उल-हक़ ने बैंको मे आरडीनंस के ज़रिए से कहा था कि बैंक मे जिस जिस के पैसे हैं माहे रमज़ान मे उसकी सालाना ज़कात काटी जाएगी। ढाई फ़ीसद उनका काट लिया जाएगा शियों ने एहतजाज करके क़ुबूल करवा लिया कि शिया इस ज़कात से मुसतसना हैं और बाक़ायदा आरडीनंस हो गया और आर तक मुतसना हैं यानी आर भी पहला हफ़ता बैंको का ज़कात काटने का होता है और सब की काटते हैं सिवाए शियों के। अलबत्ता वो शिया जो फ़ार्म भरते हैं कि मे शिया हूं और जिनकी ज़कात नही काटी जाती उनमे बहुत बड़ी तादाद ग़ैर शियों की है जिन्होंने फ़ीर्म भरे हुए है की हम भी शिया हैं। जुलूस शियों ने निकाला और ज़कात दूसरों ने माफ़ कराली। बहुत से सैकूलर लोग हैं और बेदीन लोग हैं, ज़कात के क़ायल ही नही हैं, वो ज़कात नही देना चाहते तो उन्होने अपने आप को शिया शो किया हुआ है कि हम शिया हैं और उनकी ज़कीत ना कटने की वजह से उन्हें मिलीयंस का फ़ायदा होता है।

शियत का नया दौर

ये कनवंशन शियों का औज था इस कनवंशन के बाद फिर दोबारा शियों मे सुकूत तारी हो गया और काफ़ी अरसे तक ये सुकूत रहा,  मरहूम मुफ़ती साहब 1983 ई. मे बारगाहे इलाही मे जा पहुंचे और उनकी वफ़ात हो गई। एक साल पूरा गु ज़रा जिस मे शिया क़ौम का कोई भी रहबर नही था। उस दौरान बहुत सारे ग्रुप क़यादत के लिए फ़ालियत कर रहे थे, मुख़तलिफ़ शहरों और इलाक़ो मे, कुछ अपने तईं दौरे कर रहे थे। 1984 ई. रावलपिंडी मे एक और इजलास हुआ जिस मे उनको यही क़यादत का मसला तै करना था, उस इजलास मे कई नाम पैश हुए कि रावलपिंडी की तरफ़ से ये नाम हैं जो क़यादत के लिए पैश किए जाएंगे।

एक साल की क़यादत

बहरकैफ़ कुछ मारूफ़ शख़्सियात ने वो नाम रेजेक्ट करके जनाब हामिद अली मुसवी साहब का नाम पैश किया कि ये सबसे मौज़ूं क़ायद हैं। अल्लामा सय्यद साजिद अली नक़वी साहब ने दूसरा नाम रद करके उन्हों ने ये नाम पैश किया था कि ये क़यादत के लिए सबसे मौज़ूं आदमी हैं, बाक़ायदा तौर पर ये रसमी कारवाई हुई लेकिन इस इजलास मे उन्हों ने ये नही कहा था किये क़ौम के क़ायद होंगे, उन्हो ने ये कहा था कि क़ौम की क़यादत के लिए रावलपिंडी शहर की तरफ़ से ये मुजव्वज़ा नाम है। अगर सुप्रीम काउंसिल ने इनको बना लिया तो ये पूरी क़ौम के क़ायद हो जायेंगे, हमारी तरफ़ से ये क़ायद हैं बहरकैफ़ वहां कुछ लोग ऐसे थे जिन्हो ने इसी को पूरी क़ौम का फ़ैसला क़रार देकर दूसरे दिन अख़बारो मे दे दिया कि रावलपिंडी के इजलास मे हामिद अली मुसवी साहब क़ायद बन गये हैं, आगे सुप्रीम काउंसिल या मुजव्वज़ा की बात ही नही की गई! बाद मे सारे बहुत सटपटाये कि हमारि ये मुराद नही थी लेकिन उस वक़्त कहते हैं कि पानी सर से गुज़र चुका था, तो शिया क़ौम के अन्दर एक क़यादत इस तरह से वुजूद मे आ गई। इस पर बहुत लेदे शुरू हो गई, झगड़े शुरू हो गये, ग्रुप बनना शुरू हो गये, कोई हामी हुआ तो कोई मुख़ालिफ़।

शहीद हुसैनी र.अ की क़यादत पर इत्तफ़ाक़

उस वक़्त तहरीके निफ़ाज़े फ़िक्ह-ए-जाफ़रया के बुज़ुर्ग औलमा को ख़्याल आया कि उन्हो ने बहुत दैर करदी है लिहाज़ा यहां से उनकी कोशिशे बहुत तेज़ हो गईं और दोबारा उन्हों ने बक्खर मे फिर इजलास बुलाया और इजलास मे फिर यही हुआ कि क़ीयद कौन हो कौन ना हो, कई नाम पैश हुए और आख़िरकार शहीद का नाम पैश किया गया और शहीद के नाम पर इत्तफाक़ हो गया और शहीद को क़ायद बना लिया गया। 1984 ई. से शहीद की क़यादत का दौर शुरू होता है यानी पाकिस्तान मे शिया क़ौम के क़ायद शहीद पुसैनी मुतार्रफ़ होरे हैं, इस से पहले शहीद को कोई भी नही जानता था, हत्ता बहुत सारे शौरकाए इजलास जिन्हो ने शहीद की क़यादत के लिए हात खड़ा किया या सलवात पढ़ी तो वो भी नही जानते थे कि ये कौन हैं क्योंकि तरीक़ए कार ये होता था कि कुछ बुज़ुर्ग शख़्सियात, बुज़ुर्ग हसतियां एक का नाम लेते थे बाक़ी सारे कहते थे जिस का ये नाम लें हम उसी के हामी हैं। तो इसी तरीक़े से उनका नाम पैश किया गया और बाक़ियो ने सलवात पढ़ दी। बाद मे ख़बर हुई कि ये कौन शख़्सियत हैं? बहरकैफ़ शहीद के मुताल्लिक़ आशनाई आहिसता आहिसता होती चली गई, 1979 ई. मे तहरीक बनती है और 1984 ई. तक शहीद के ज़माने तक तहरीक चलती है, शिया क़ौम का एक सफ़र है, इंक़लाबे इस्लामी के हमज़मान बिल्कुल वही दिन हैं जब इरान मे इंक़लाब आता है 1979 ई. और चन्द माह के फ़ासले से ये सब कुछ हुआ, फ़रवरी मे इंक़लाब आया और ज़ाहेरन अप्रैल मे बक्खर मे ये इजलास हुआ, पहले फ़रवरी मे इंक़लाब आ चुका था।

शिया इजतमा और इंक़लाबे इस्लामी

शिया क़ौम का इतना बड़ा इजतमा बक्खर मे हुआ जिस मे इंक़लाब का ज़र्रा बराबर भी कोई असर नही था, कोई इंक़लाब की नुमाइंदगी नही कर रहा था, बिल्कुल मुतलक़ ख़ामोशी थी, सदियों की तारीख़ का एक इतना बड़ा और अहम वाक़या रूनुमा हुआ है वो भी शिया क़ौम के अन्दर, शिया मकतब के अन्दर, एक शिया फ़क़ीह के हाथों, एक शिया ममलकत के अन्दर और इधर पड़ोस मे शियों का इजतमा हो रहा है, इतना अज़ीम इजतमा लेकिन इस में आशनाई नही थी, अक्सर इमाम ख़ुमैनी र.अ से भी आशना नही थे।

बहरकैफ़ अमली तौर पर जो इजलास बक्खर के अन्दर हुआ था उसके उपर इंक़लाब की कोई तासीर नही थी, कोई बात नही थी, कुछ भी नही था और बक्खर इजलास के बाद जो सफ़र शुरू हुआ उसमे जो तहरीक के मुतालबात थे वो यही थे और क़ौमयात मद्दे नज़र थीं, शिया क़ौम थी और शिया क़ौम के हुक़ूक़ की बात थी, क्योंकि ज़िया-उल-हक़ के निज़ाम की वजह से शिया क़ौम के हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ का खटका हुआ, इस लिए जो तहरीक वुजूद मे आई थी उस के मद्दे नज़र फ़क़त क़ौमयात थीं और कोई चीज़ उनके मद्दे नज़र नही थी। ये क़ौमयात के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बनने वाली तहरीक थी जिस मे चन्द मोय्यन मुतालबात थे जिन मे से सबसे बड़ा मुतालबा ये था कि एक ख़ास फ़िरक़े की फ़िक़्ह दूसरों पर ना ठूसी जाये और ये कि जो भी ये करें उस मे शिया महफ़ूज़ रहें, उनकी ज़द मे ना आयें।

इस्लामाबाद कनवंशन मे भी अगरचे इमाम ख़ुमैनी र.अ की तसवीरें थी, शहीद सद्र र.अ के नाम पर कनवंशन हो रहा था, लेकिन ना कहीं शहीद बाक़र-उस-सद्र र.अ का नाम उस पूरे कनवंशन मे लिया गया और ना कोई इमाम ख़ुमैनी र.अ का तज़करा हुआ, उस मे किसी क़िस्म का इंक़लाब का साया नही था क्योंकि इधर इरान मे एक बहुत बड़ा इंक़लाब आया जिस ने दुनिया मे सनसनी फैला दी और उस के साथ ही, पहले शिया बक्खर मे जमा हुए और दो साल बाद इस्लामाबाद मे जमा हुए, इतना बड़ा अज़ीम कनवंशन किया, बाहर की दुनिया मे हुकूमत और एजंसिया और मुख़ालिफ़ फ़िरक़े, उनको यक़ीन हो गया कि इस इजतमा, इस हरकत और इस तहरीक के इंक़लाब के साथ ताल्लुक़ात हैं, ये उस से मुतास्सिर हो कर ये काम कर रहे हैं जब्कि ऐसा नही था, ज़िया-उल-हक़ ने जो फ़ज़ा बनाई थी ये उस का रद्दे अमल हो रहा था।

इंक़लाब-ए-इस्लामी की हिमायत

इंक़लाब से मुतास्सिर होकर कुछ भी नही हो रहा था, ये भी ज़हन मे रहे कि सारे शिया इंक़लाब के हामी थे। मसलन ज़ाकेरीन भी इंक़लाब के हामी थे, ख़ौतबा भी इंक़लाब के हामी थे, मलंग भी इंक़लाब के हामी थे और औलमा भी इंक़लाब के हामी थे, जितने आज इंक़लाब के मुख़ालिफ़ हैं ये सब उस वक़्त इंक़लाब के हामी थे। इस वजह से कि शिया इंक़लाब है, एक शिया फ़क़ीह है, शिया मुल्क मे आया है, शिया क़ौम का इंक़लाब है सब के सब हामी थे लेकिन अमली तौर पर इंक़लाब के कोई असरात इन हामियों के उपर नही थे और ना ही इंक़लाब के साथ कोई राबता था, ना ही कोई इंक़लाब की तर्जुमानी हो रही थी, ना कोई कोशिश थी कि पाकिस्तानी क़ौम की इंक़लाबी आगाही के लिए कोई क़दम उठाया जाये और ना उधर से कोई ख़ुसूसी काम हो रहा था। अलबत्ता जवानों मे थी कुछ आगाही उस की वजह ये थी कि जवानों मे कुछ अफ़राद थे और कुछ ग्रुप और तनज़ीमें थीं जिनका इंक़लाब के साथ लेकिन महदूद सतह पर राबता था। जवानों के अन्दर इंक़लाब लिए आगाही दिन बा दिन बढ़ती जा रही थी और इंक़लाबी जज़बा उनके अन्दर मौजूद था लेकिन अवामी सतह पर कुछ भी नही था। ये सब इस लिए नक़्ल किया है ताकि आप उन हालात से आगाह हों कि शहीद ने आकर क्या किया?

शिया क़ौम की दिलचस्पी

शहीद ने जब क़ौम की क़यादत संभाली तो सब से पहला काम जो शहीद ने किया वो ये कि नज़रियात की तरफ़ शिया क़ौम का रूख़ मोड़ा, शहीद ने दरहक़ीक़त ट्रेक चेंज किया, शहीद ने तहरीक का ख़त बदला जिस ख़त पर रिवायती तौर पर तहरीक जा रही थी शहीद ने एकदम उस ख़त को बदल के उस को नज़रियाती ख़त के उपर ले आए, क्योंकि ख़ुद शहीद पाकिस्तान मे उन नादिर शख़्सियात मे से थे जिन्हे इंक़लाबी शख़्सियत कहा जा सकता है, ना इंक़लाब का हामी, इंक़लाब के हामी तो बहुत से लोग थे जो बाद मे मुख़ालिफ हो गये और ये काम होता है। आग़ाज़ मे अहलेसुन्नत भी हामी थे, जमाअत-ए-इस्लामी दुनिया मे सबसे पहली जमाअत है जिस ने इंक़लाब को माना और मुबारकबाद पैश की।

इंक़लाब-ए-इस्लामी की मुनाफ़िक़ाना तफ़सीर

जमाअते इस्लामी और दिगर तनज़ीमो ने इंक़लाबे इस्लामी को क़ुबूल किया लेकिन बाद मे आहिस्ता आहिस्ता जुदा हो गये। जमाअते इस्लामी के मियां तुफ़ैल या प्रोफ़ैसर ग़फ़ूर ने बाद मे इंक़लाबे इस्लामी की तरदीद की, ज़ाहेरन प्रोफ़ैसर ग़फ़ूर का आर्टीकल है उन्हो ने लिखा है कि हम ये समझते थे कि ये इंक़लाब, इस्लामी इंक़लाब है फिर कुछ अर्से बाद हमारी ग़लत फ़हमी दूर हुई और हमे पता चला कि ये इंक़लाब शियाई है और फिर हमे पता चला कि ना, ये तो इरानी इंक़लाब है। ये जमाअते इस्लामी का थिंक टेंक है उसका आर्टीकल आज भी है जो बाक़ायदा उनके मैगज़ीन मे रसमी तौर पर छपा है और कई दफा रिप्रिंट हो चुका है कि ये इंक़लाब ना ही इस्लामी है और ना ही शियाई बल्कि ये इरानी इंक़लाब है उसके बाद से इन्हो ने इसको इरानी इंक़लाब कह कर छौड़ दिया। अलबत्ता ये तबदीली जो इन के अन्दर आई इस वजह से नही आई कि इनहो ने बाक़ायदा ख़ुद जाकर देखा हो कि ये इंक़लाब इस्लामी या शियाई नही बल्कि इरानी है। ये बाक़ायदा इंक़लाब के ख़िलाफ़ होने वाली कोशिशों का एक हिस्सा था, इंक़लाबे इस्लामी को शियाई कहकर सुन्नियों को काटा गया और इंक़लाब को इरानी कहकर सारे जहाने इस्लाम को और शिया व सुन्नी को दूर किया, ये इंक़लाब दुशमन ताक़तों की बाक़ायदा कामयाब तबलीग़ का एक नतीजा है जिन्हो ने पाकिस्तान की हद तक और कम अज़ कम अरब मुल्कों की हद तक लोगों को बावर करा दिया कि ये इंक़लाब इस्लामी नही है।

इमाम र.अ का नारा और बाज़ मसउलीन की मुर्जिमाना कोताही

इस बीच मे ग़फ़लतें भी बहुत हुई कि ये ख़ुद एक बहुत दर्दनाक पहलू है इसको किसी अलग वक़्त मे बयान करने की ज़रूरत है,"इंक़लाब का सुदूर" जो इमाम र.अ का असली नारा था की इंक़लाब को हम पूरी दुनिया मे सादिर करना चाहते हैं। इमाम र.अ के इस हदफ़ के बारे मे बाज़ मसउलीन व ज़िम्मेदाराने इंक़लाब ने बहुत ज़्यादा मुर्जिमाना हद तक ग़फ़लत बर्ती है जिस से आज भी इंक़लाब को नुक़सान पहुच रहा है और दुशमनाने इस्लाम को बावर कराने मे कामयाबी हुई है कि ये इंक़लाब इस्लामी भी नही, शियाई भी नही बल्कि इरानी है, ज़िम्मेदाराने इंक़लाब इस बाबत ग़ाफ़िल रहे कि इंक़लाब को बाहर की दुनिया मे इस तरह से मुतार्रफ़ करा सकें जिस तरह से इसका हक़ बनता है, यानी कम्यूनिस्टों जितना काम भी नही किया, कम्यूनिस्ट रूस मे इंक़लाब लाये और पूरे पाँच बर्रे आज़मों मे उन्हों ने अपना इंक़लाब मुतार्रफ़ करवाया और बाक़ायदा एक्सपोर्ट किया लेकिन इंक़लाबे इस्लामी के बाद ऐसे लोग इक़तदार पर आ गये जो ये नही चाहते थे कि इंक़लाब सादिर हो, मुहम्मद मुंतज़री चाहते थे कि इंक़लाब सादिर हो और इस तरह के बहुत सारे लोग थे, रफ़सनजानी साहब भी सुदूरे इंक़लाब के मुख़ालिफ़ लोगो मे से थे वो इमाम र.अ से भी कहते थे कि आप इंक़लाब के सुदूर की बात ना करें इस से यूरोप और अरब हमारे मुख़ालिफ़ हो जायेंगे, हमारा बाईकाट करदेंगे, हमारे साथ तिजारत नही करेंगे, ये उन की दलीलें होती थी और इन दलीलों की वजह से उन्होने ये सारा सिलसिला रोक दिया कि इंक़लाब के सुदूर की बात नही होनी चाहिए, लिहाज़ा इस से बहुत  नुक़सान पहुंचा है आज जो इस्लामी दुनिया के अन्दर एक बेदारी पैदा हुई है, ये इंक़लाबे इस्लामी का नतीजा है, वाक़यन वो लोग जो इस तरह की बात करते हैं उन्हे और शर्म आनी चाहिए। रहबरे मौअज़्ज़म ने फ़रमाया भी था कि मुझे बहुत पहले ये तवक़्क़ो थी कि मिसरी लोग बैदार होंगे लेकिन नही हुए, क्यों नही हुए? कुछ वजहें मिस्र मे थीं और कुछ वजह इरान मे थीं, कुछ इधर लोगों ने बन्द बांधा हुआ था कि ये सुदूरे इंक़लाब वाला काम हम को नही करना।

शहीद की हिकमते अमली

पाकिस्तान के अनदर इंक़लाबे इस्लामी के इब्तदाई पाँच साल मे मुकम्मल लाताल्लुक़ी थी क़ौमी सतह की बात कर रहा हूं, इनफ़रादी तौर पर एक आध आलिम या बाज़ जवान या कुछ तनज़ीमें मरबूत थीं लेकिन ज़ाहिर है कि वो अवामी माहौल नही बन सका। शहीद ने आकर पहली दफ़ा क़ौम का ट्रेक बदला कि क़ौमयात जो इसका क़िबला बने हुए थे, जिस तरह आज भी है, मे ये सारी गुफ़्तुगू इस लिए कर रहा हूं कि आज हमे देखना पड़ेगा कि ख़त्ते शहीद से हमारा फ़ासला कितना बढ़ गया है और शहीद ने क्या कारनामा अंजाम दिया? एक चलती हुई ट्रेन जो किसी और तरफ़ जा रही थी उस का रूख़ मोड़ा लेकिन आज फिर हम नज़रियात को बिल्कुल तर्क करके क़ौमियात की तरफ़ रूख़ कर बैठे हैं। शहीद क़ौमियात से रूख़ मोड़ कर नज़रियात के उपर ले आये क्योंकि शहीद नादिर शख़्सियात मे से थे जो इंक़लाबी थे बाक़ी सब इंक़लाब के हामी थे और हमे इस की आगाही भी होनी चाहिए जैसे मुसलमानों की कई क़िसमें हैं।

मुसलमानों की अक़साम क़ुरान की नज़र से

क़ुरान ने मुसलमानों की क़िसमे बयान की हैं। कौन से मुसलमान? फ़तहे मक्का से पहले के मुसलमान, फ़तहे मक्का के बाद के मुसलमान, हिजरत करने वाले मुसलमान और हिजरत ना करने वाले मुसलमान, ये क़ुरान ने ग्रोह बयान किए हैं और कहा है कि जो जन्गे बद्र मे शरीक थे वो मुसलमान, जो जन्गे बद्र मे शरीक नही हुए वो मुसलमान ये एक जैसे नही हैं, इन सब की क़ुरान ने क़िसमें बनाईं हैं कि ये सब एक जैसे नही हैं, मुजाहिदीन और ग़ैर मुजाहिदीन एक जैसे नही हैं। मुसलमानों की अक़साम मे से एक क़िस्म वो है जिन्हों ने पैग़ामे इस्लाम को समझ कर क़ुबूल किया, हक़्क़ानियते इस्लाम को दर्क किया, कुछ वो मुसलमान थे जिन्हों ने हक़्क़ानियते इस्लाम को नही समझा क्योंकि बाप मुसलमान हुआ तो बीवी और बैटा भी साथ मुसलमान हो गया, देखा देखी मुसलमान हो गये, ये तक़लीदी मुसलमान थे जिन्हो ने ख़ुद नही समझा लेकिन किसी और के उपर ऐतमाद की वजह से तबदील हो गये। एक ये तबक़ा था और एक वो तबक़ा था जिन्हों ने इस्लाम की ख़ातिर क़ुर्बानियां दी हैं, उन्हो ने मक्के मे बहुत सख़्त दौर गुज़ारा है, इस्लाम की ख़ातिर कठिन मराहिल के अन्दर जिन्हों ने क़ुर्बानियां दी हैं, हज़रत ख़दीजा स.अ का राज़ तशख़ीस मे बसीरत और रसूलअल्लाह स.अ के साथ इसतक़ामत दिखाना है। इन दो चीज़ों ने रसूलअल्लाह स.अ की निगाहों मे बीबी को बहुत अज़ीम बनाया हुआ था अगर्चे बाज़ लोगों को ये शुब्हा है कि रसूलअल्लाह स.अ की निगाहों मे हज़रत ख़दीजा स.अ का एहतराम उनकी दौलत की वजह से था जब्कि ऐसा नही है।

रसूलअल्लाह स.अ के ज़माने के मौअल्लफ़तुल क़ुलूब

इसी तरह के कुछ और मुसलमान भी थे जिहो ने मक्की दौर मे रसूलअल्लाह स.अ का भरपूर साथ दिया और हिजरत भी की, कुछ उस पर क़ायम रहे और कुछ ने बाद मे इसतक़ामत छौड़ दी, जिस तरह अबदुर्हमान इब्ने औफ़ जो एक बड़ी शख़्सियत हैं उनका ये कहना है कि जब हमारा मसाईब का इमतिहान था तो हम कामयाब हो गये और जब नेमतों का इमतिहान शुरू हुआ तो हम फ़ैल हो गये यानी जब अल्लाह ने हम पर मसाईब डाले तो हम ने भरपूर साथ दिया, इसतक़ामत दिखाई लेकिन जब मदीने मे आये, हुकूमत क़ायम हो गयी, बैतुलमाल भर गया, नेमतें आ गयीं तो उस मे हम नाकाम हो गये, एक ग्रोह है जिस को रसूलअल्लाह स.अ ने मौअल्लफ़तुल क़ुलूब कहा है कि वो लोग जो इस्लाम को क़ुबूल नही करते और मानते भी नही हैं, उनके उपर पैसा ख़र्च किया गया ताकि दुशमनी ख़त्म करें और इस्लाम के क़रीब हों क्योंकि इस्लाम के अन्दर उनको जाज़बा नज़र नही आता जब्कि बैतुलमाल के अन्दर जाज़बा नज़र आता है, इस्लाम की बजाये बैतुलमाल की कशिश ज़्यादा असर अंदाज़ होती है। उस वक़्त इंक़लाबियों मे भी एक बड़ी तादाद मौअल्लफ़तुल क़ुलूब इंक़लाबी हैं जिनको इंक़लाब समझ मे नही आया और ना ही इंक़लाब से कोई दिलचस्पी रखते हैं लेकिन इंक़लाब की हिमायत के फ़वायद ने उन्हें हामिए इंक़लाब बना दिया और इस्लाम मे मौअल्लफ़तुल क़ुलूब की मिसाल अबूसुफ़यान और आले अबूसुफ़यान हैं, ये इस्लाम की ख़ातिर नही बल्कि बैतुलमाल की ख़ातिर मुसलमान हुए। रसूलअल्लाह स.अ ने जंगे हुनैन की सारी ग़नीमतें अबूसुफ़यान को दे दीं। रसूलअल्लाह स.अ के सहाबा को इस पर बहुत ज़्यादा ताज्जुब हुआ कि जंग हम ने की है, लड़े भी हम हैं और माले ग़नीमत जो हमारा हक़ था वो रसूलअल्लाह स.अ ने उठा के उन को दे दिया, कभी इस तरह भी होता है कि ज़हमत इंक़लाबी करते हैं, सारी दौड़ धूप इंक़लाबी करते हैं जब्कि क्रेडिट मौअल्लफ़तुल क़ुलूब को दे दिया जाता है। ये होना चाहिए क्योंकि रसूलअल्लाह स.अ ने ये काम किया है लेकिन ये मौअल्लफ़तुल क़ुलूब कभी भी सदाक़त से इस्लाम के हामी नही हुए उन मे से बाज़ ने बहुत नुक़सान भी पहुंचाया है।

इंक़लाबे इस्लामी के मौअल्लफ़तुल क़ुलूब

इंक़लाब के बहुत सारे मौअल्लफ़तुल क़ुलूब इंक़लाबी हैं, कुछ लोग हामी हैं इंक़लाब के क्यों? इसलिए कि शिया इंक़लाब है और शिया जो भी करे वो ठीक है। य़े एक तास्सुबाती निगाह है और ये तास्सुब हर फ़िर्क़ा रखता है, सुन्नी जो करे वो सुन्नी को पसंद है और शिया जो करे वो शिया को पसंद है। अगर कहा जाये कि फ़लां ने ये काम किया है तो एक दम बिफर जाता है कि उस ने ग़लत काम किया है, उस ने ये काम क्यों किया? अगर उसे कहें कि ये काम करने वाला शिया था तो कहता है कि अच्छा फिर ठीक था उस ने जो भी किया वो ठीक ही किया है, ये तास्सुबाती निगाह है लिहाज़ा बाज़ लोगों की हिमायत की वजह ये थी कि ये शियाई इंक़लाब है, या बाज़ लोगों की असलन इंक़लाब समझ मे ही नही आ रहा था कि इंक़लाब क्या होता है? विलायते फ़क़ीह क्या है? निज़ाम क्या है? ये सब कुछ उनकी समझ मे नही आ रहा था इस वजह से वो हामी हो गये जब उनको समझ मे आना शुरू हुआ तो आहिस्ता आहिस्ता वो पीछे हट गये। पाकिस्तान मे भी ऐसा ही था बहुत सारे लोग इंक़लाब के हामी थे,बहुत सारे मौअल्लफ़तुल क़ुलूब थे, आज उनके उपर और हालत तारी हो गयी है और बिल्कुल दुशमने इंक़लाब बन गये हैं, वही मौअल्लफ़तुल क़ुलूब जो करबला मे आये और आले रसूल स.अ को क़्तल किया। आज पाकिस्तान के अन्दर भी बाज़ मौअल्लफ़तुल क़ुलूब इंक़लाबियों के यही जज़बात हैं कि वो इंक़लाब को तहे तैग़ करना चाहते हैं, निज़ाम, रहबरी, विलायते फ़क़ीह और हर चीज़ को मसलना चाहते हैं, वो इन सब चीज़ों को बिल्कुल बर्दाश्त नही कर सकते, क्योंकि मौअल्लफ़तुल क़ुलूब की आदत हो जाती है कि दरआमद आती रहे बल्कि बढ़ती रहे, जब वो कम हो जाती है तो मुख़ालिफ़ हो जाते हैं, इंक़लाबी होने का अलग म्यार है।

शहीद हुसैनी र.अ इंक़लाबी थे नाकि इंक़लाब के हामी

इंसान की सोच इंक़लाबी हो, फ़िक्र इंक़लाबी हो, अक़ीदा इंक़लाबी हो, ईमान इंक़लाबी हो, इंक़लाब को इंसान अपने ईमान का हिस्सा समझता हो और उसे अपना दीन समझता हो तो उसे इंक़लाबी कहते हैं। शहीद र.अ उन नादिर इंसानो मे से थे जिन्हें इंक़लाबी कहा जा सकता है ना इंक़लाब के हामी, मौअल्लफ़तुल क़ुलूब लोगों मे से नही थे, जितनी मुद्दत क़यादत की है एक रूपया भी शायद उन्हे इरान से वुसूल नही हुआ। इसलिए की वो मौअल्लफ़तुल क़ुलूब नही थे, बिल्कुल इस बात की हमे आगही है, लाहौर मे क़ुरानो सुन्नत के नाम से बहुत बड़ी कांर्फ़ेंस हुई जिस मे पूरे मुल्क से हर फ़र्द ने, शिया ने बल्कि जो भी शहीद से वाबस्ता थे आये बल्कि कुछ मुख़ालिफ़ भी थे, औलमा भी बहुत बड़ी तादाद मे मुख़ालिफ़ थे लेकिन जो हामी थे उन्हो ने पैसे भी दिये और शिर्कत भी की, सौ फ़ीसद अवामी हिमायत से वो कांर्फ़ेंस मनाक़िद हुई। शहीद ने जितने अज़ीम काम किए वो सब अपनी क़ौम की मदद से किए थे इरान से शहीद को कुछ अमाउंट नही आती थी लेकिन शहीद की ज़बान ऐसे चलती थी लगता ऐसे था कि ये तो इरान और इंक़लाब के अलावा बात ही नही करते, जंग की पूरी ख़बरें, पूरे वाक़यात सुनते फिर आकर उनको अपनी तक़ारीर के अन्दर बयान करते, उन का तजज़िया व तहलील करते और सब को बताते कि इस वक़्त क्या हो रहा है? शहीद की इंक़लाब से इतनी शदीद वाबस्तगी हो गयी थी जिस की वजह से शहीद के उपर ये तोहमत भी लगी कि ये पाकिस्तान से ज़्यादा इरान के हामी हैं यानी पाकिस्तानीयत मशकूक हो गयी थी अलबत्ता ये फ़िज़ा बनाई गयी थी।

शियत के ख़िलाफ़ फ़िज़ा साज़ी

कभी भी शियों की पाकिस्तान से वाबस्तगी या हुब्बुलवतनी मशकूक नही हुई लेकिन कुछ लोगों ने इंक़लाब से दूर करने के लिए ये जाली प्रोपेकंडा किया कि ऐजंसियों के नज़दीक शियों की पाकिस्तान के साथ हुब्बुलवतनी मशकूक हो गई है और अभी बाज़ लोगों ने इस को साफ़ करना चाहा, अपने नारे और शुआर बदल दिए। अब पइस को साफ़ करना चाहा, अपने नारे और शुआर बदल दिए। अब पता चल गया कि दिफ़ाए पाकिस्तान के अन्दर से क्या निकल कर सामने आया, कौन लोग हैं जिन का नारा दिफ़ाए पाकिस्तान है? किस क़िस्म की शक्लें हैं और उन के पीछे क्या कहानियां हैं? हमे इस की कोई ज़रूरत नही है कि पाकिस्तान के तोड़ने वालो और लूटने वालों को या पाकिस्तान के लग़द्दारों और अमेरीका के ग़ुलामों के सामने जा कर हम अपनी हुब्बुलवतनी साबित करें कि जी हमारा इम्तिहान ले लो, परवेज़ मुर्शफ़ जैसे ग़द्दार के सामने हम हुब्बुलवतनी साबित करते हैं कि हम पाकिस्तान से हुब्बुलवतनी रखते हैं, ये कोई इंसाफ़ या अक़्ल की बात नही है बल्कि हिमाक़त है, एक क़ौम को नंगा करने वाली बात है कि ग़द्दारो के सामने शिया क़ौम जाकर ये साबित करना शुरू कर दे कि हम मोहिब्बे वतन पाकिस्तानी हैं। पाकिस्तानियों की हुब्बुलवतनी किसी से भी ढकी छुपी नही है और हमे किसी ग़द्दार को सुबूत देने की ज़रूरत नही है। ये ख़ुद ग़द्दार लोग हैं जो मुल्क के दुशमन हैं लेकिन ये जो शायबा या प्रोपैकंडा हुआ है ये नफ़्सियाती जंग पहली दफ़ा शहीद के ख़िलाफ़ शुरू हुई थी। नफ़्सियाती या आसाबी जंग उस को कहते हैं जिस मे प्रोपैकंडे होते हैं, ऐजंसियां यूं कर रही हैं, फ़लां ये सोच रहा है, ये आसाबी जंग होती है और जो क़ौम आसाबी जंग हार जाये वो हर जगह ही हार जाती है, ये तै और मुसल्लम है, इरान और इंक़लाब की बरतरी ये है कि इरान सख़्ततरीन हालात मे भी आसाबी जंग नही हारता, सारी दुनिया मिल कर इरान के ख़िलाफ़ आसाबी जंग लड़ रही है लेकिन वो हारा नही बल्कि डटा हुआ है। हमें भी ऐसा ही होना चाहिए कि शिया क़ौम के ख़िलाफ़ जो आसाबी जंग शुरू होती है ये उस का हिस्सा है क्योंकि शिया इंक़लाब की हिमायत करते हैं पस पाकिस्तान के साथ इनकी हुब्बुलवतनी मशकूक है।

पाकिसतान के असली दुशमन

कितनी अजीब बात है, भारत, अमेरीका और इसराइल के साथ ताल्लुक़ात से हुब्बुलवतनी मशकूक नही होती और जो पाकिस्तान के साथ फ़्राड करें, धोका करें मसलन ये जो अभी पाकितान के ख़िलाफ़ स्कैंडल बने हुए हैं, देहशतगर्द ग्रुप बनाने से हुब्बुलवतनी मशकूक नही होती, ये जो अभी दिफ़ाए पाकिस्तान काउंसिल है इस की हुब्बुलवतनी मशकूक नही है, जितने देहशतगर्द ग्रुप हैं ये सारे उन के सरपर्सत और उस्ताद हैं, दिफ़ाए पाकिस्तान काउंसिल मे से किसी की भी हुब्बुलवतनी मशकूक नही है, जिनहों ने लशकरे झंगवी जैसा ख़ूंख़ार ग्रुप बनाया है, सिपाहे सहाबा जैसी देहशतगर्द तनज़ीम बनाई है, शिया क़ौम और पाकिस्तान को क़त्ल करने वाले, फ़ौज के ख़िलाफ़ हमले करने वाले, पाकिस्तान का सब कुछ मलियामेट करने वाले उनमे से किसी की भी हुब्बुलवतनी मशकूक नही है, क्यों? इसलिए कि दिफ़ाए पाकिस्तान काउंसिल उनका नाम है जब्कि शिया क़ौम की हुब्बुलवतनी मशकूक है, ये आसाबी जंग है।

लीडरशिप हार पहनाने, इस्क़बाल करवाने या फ़क़त दावतें खाने के लिए नही होतीं, लीडरशिप होती है महाज़े जंग पर आसाबी जंग मे इस्तक़ामत दिखाने के लिए, अपनी क़ौम का हौसला बलंद रखने के लिए।

रहबरे मौअज़्ज़म का ख़ैबर शिकन बयान

जब जंग बहुत ज़्यादा औज पर जा पहुंची है या जब इरान पर हमले की तारीख़ ऐलान होती है तो उसी वक़्त रहबरे मौअज़्ज़म आकर तक़रीर करते हैं कि ये शोबे अबुतालिब अ.स नही बल्कि ये ख़ैबर का ज़माना है, अब यहां पर दुशमन की सारी की सारी आसाबी जंग ढेर हो जाती है, धरी की धरी रह जाती है। इस को रहबर या लीडर कहते हैं, जो आसाबी जंग मे इस तरह हमला करे कि ख़ुद दुशमन कते आसाब तौड़ दे, उनकी इस्तक़ामत को नाबूद कर दे। हमे किसी क़िस्म की चीज़ मे कोई शक नही होना चाहिए, हर चीज़ पर यक़ीन मोहकम हो, हर काम मे मुसतहकम होकर चलें, ग़द्दारों के सामने सफ़ाइ पैश करने की ज़रूरत नही है। ये आसाबी जंग शहीद के ख़िलाफ़ शुरू हुई थी लेकिन शहीद ने किसी भी आसाबी जंग मे शिकस्त नही खाई ना अन्दरूनी और ना ही बेरूनी बल्कि इस्तक़ामत के साथ इंक़लाब व ख़त्ते इमाम र.अ और इमाम र.अ के नज़रिये को आकर पैश भी किया, मुतार्रफ़ भी करवाया और उस की पासबानी भी की।

शहीद हुसैनी र.अ का रास्ता

शहीद का अपना अलग कोई रास्ता नही है बल्कि शहीद का रास्ता वही इमाम ख़ुमैनी र.अ का रासता है, शहीद का रास्ता वही है जो ख़त्ते इमाम र.अ कहलाता है, शहीद की किताबें, शहीद के ख़ुतबात और जवानों को दिये जाने वाले दुरूस मौजूद हैं जो शहीद देते थे उन सब मे शहीद ने अपना ख़त पैश किया है। शहीद के जो दीन शनासी के मनाबे थे, जिन का शहीद मुतालेआ करते थे वो शहीद मुताहिरी र.अ और शहीद दस्तग़ीब र.अ की किताबें थीं, शहीद हुसैनी र.अ की मारफ़त या दीन शनासी के ये दो बड़े मंबे थे और पूरी जुर्रत व दिलेरी के साथ और बाक़ायदा नाम लेकर कहते थे कि शहीद मुताहिरी र.अ ये फ़रमाते हैं और शहीद दस्तग़ीब र.अ ये फ़रमाते हैं, कभी भी शहीद ने ये नही कहा कि मे ये कहता हूं, मेरा अपना इजतहाद है बल्कि शहीद ने हमेशा अपने आप को एक तालिबे इल्म समझा और जो अस्ल मुफ़क्केरीन थे उन मुफ़क्केरीन से जो कुछ समझा वो अपनी क़ौम को आकर अमानत व दयानत के साथ और बग़ैर कुछ छुपाये बता दिया, किसी चीज़ पर शहीद ने पर्दा नही डाला, दिलेरी व जुर्रत व शुजाअत के साथ सब कुछ बता देते थे इस बात पर शहीद को अन्दरूनी तौर पर भी बहुत सी मुशकिलात का सामना करना पड़ा, रवानी जंग व आसाबी जंग शहीद के ख़िलाफ़ शुरू हुई हत्ता वो लोग जिन्हों ने शहीद को क़यादत के लिए इंतख़ाब किया था वो भी इसी बात पर तरद्दुद का शिकार हो गये कि हम कुछ और समझते थे लेकिन ये तो कुछ और निकला है, वो ये समझे थे कि बार्डर पर रहने वाला आदमी है जिस को सही तरह से उर्दू भी नही आती, तक़रीर भी नही आती, पाकिस्तान के मसाइल से आशना भी नही है और उन मसाइल पर बात भी नही करत, झझक भी है और तकल्लुफ़ाती भी है।

शहीद हुसैनी र.अ की उसूल परसती

शहीद की ये आदत थी कि उठते थे वो कहते थे बिस्मिल्लाह पहले आप, वो ये समझते थे कि क़यादत मे भी यही कहेंगे लेकिन शहीद ने आदाब व अख़लाक़ मे तो बिस्मिल्लाह कहा, खाना खाते वक़्त या गाड़ी मे बैठते हुए तो उन्हो ने बिस्मिल्लाह कहा लेकिन जब क़यादत के उमूर मद्दे नज़र हुए तो कहा कि बिस्मिल्लाह अब ये क़यादत मुझे ख़ुद करनी है, जब नज़रिए की बात आती तो कहते बिस्मिल्लाह इमाम ख़ुमैनी र.अ, बिस्मिल्लाह इंक़लाब तो ये बात उनको नागवार गुज़री क्योंकि वो तो ये तवक़्क़ो रखते थे कि ये जो बिस्मिल्लाह का क़ायल आदमी है ये हर जगह यही कहेगा कि बिस्मिल्लाह आप, तो सब कुछ हमारे हाथ मे ही होगा क्योंकि इनको तो बोलना ही नही आता, और वाक़यन ऐसा ही था इबतदा मे जो शहीद की उर्दू गुफ़्तगू थी उस से सब महज़ूज़ होते थे और बाज़ तो शहीद की बातों का मज़ाक़ भी उड़ाते थे।

शहीद हुसैनी र.अ का पहला कारनामा

शहीद ने आकर जो कारनामा अंजाम दिया वो इमाम र.अ का ख़त पाकिस्तानी क़ौम को मुतार्रफ़ करवाया, वो ख़त जिस को वुजूद मे आये पांच साल हो चुके थ लेकिन वो पाकिस्तान मे ग़ैर मुतार्रफ़ था, उस के साथ मोहब्बत थी लेकिन आगही नही थी, शहीद ने आकर जवानों को इंक़लाब का नज़रिया समझाना शुरू किया, शहीद मुताहिरी र.अ की किताबें पढ़ कर शहीद ने पहली दफ़ा इंक़लाब का नज़रिया मुतार्रफ़ करवाया। शहीद के लिए अगर हम मुनासिब तरीन उनवान इंतख़ाब करें तो वो ये है कि शहीद हुसैनी र.अ पाकिस्तान मे पासबाने ख़तत्ते इंक़लाब थे जिस तरह हज़रत ज़ैहरा स.अ पासबाने ख़त्ते रसूल स.अ थीं, अमीरूल मौमेनीन अ.स पासबाने ख़त्ते रसूल स.अ थे और इस पासबानी की सज़ा भी बहुत मिलती है और सब को मिली जो भी पासबाने ख़त्ते इस्लाम होगा उस को ज़रूर सज़ा मिलेगी और ये सज़ा शहीद को भी मिली, ज़िन्दगी मे भी मिली और शहादत की सूरत मे भी ये सज़ा दी गई कि पासबाने ख़त्ते इंक़लाब हैं।

शहीद ने जब क़ौम की क़यादत संभाली तो सारा तमर्कुज़ क़ौमयात के उपर था, क़ौमी मसाइल वही जो आज कल हैं, नज़रियाती सफ़र पाकिस्तानी शिया क़ौम की बुनियाद मे रखा ही नही गया था शिया ज़ौअमा कहते थे कि इस क़ौम को नज़रियाती सफ़र की क्या ज़रूरत है, क़ौमी मसाइल यानी एक समाज के अन्दर रोज़र्माह के जो इजतमाइ, समाजी मसाइल पैदा होते हैं उन की नज़रो मे अस्ल वो चीज़ें मोहिम थीं, मसलन शिया क़ौम के हुक़ूक़ क्या हैं मसलन जिस इलाक़े मे शिया है वो अगर अपने मज़हबी मरासिम अदा करना चाहता है तो उसे हक़ होना चाहिए, उसे कोई ना छेड़े, शिया को तनासुब की बुनियाद पर नौकरियां मिलनी चाहिएं, शिया को तालीमी इदारों मे दाख़ले मिलें, शिया को फ़ला मिले।

बैहरेन के हालात मे तबदीली

जिस तरह बैहरेन के शिया थे लेकिन अब बैहरेन की तहरीक आहिस्ता आहिस्ता अपने असली ट्रेक और सही रास्ते की तरफ़ आ रही है, अब उन के शुआर बदल गये हैं, पहले क्या कहते थे? आले ख़लीफ़ा से उन का मुतालबा ये था कि शिया को नौकरियां दी जायें क्योकि बैहरेन मे अस्सी से पच्चासी फ़ीसद शिया हैं लेकिन नौकरियां सारी पाकिस्तानियों, बंगालियों और श्रीलंकन को दी हुई हैं, पुलिस में, फ़ौज में हर जगह पर दूसरे हैं क्योंकि वो ख़ुद इतने नही हैं कि सारी पौस्टें भर सकें लिहाज़ा जो ख़ुद भर सकते थे वो आले ख़लीफ़ा ने भर लीं और जो उन से नही भरी जा सकीं वो बाहर अड़ोस पड़ोस से लोग मंगवाकर भरीं, सारी नौकरियां उन को दीं लेकिन शिया वैसे ही बेरोज़गार हैं, किसी शौबे मे भी शिया नही है, ना टीचर, ना डॉक्टर, ना वकील जो भी मुल्क के अन्दर सीटें ख़ाली होती हैं उन मे शिया को नही लेते। इस तहरीक का आग़ाज़ इसी वजह से हुआ कि हमें नौकरियां दी जायें, अगर आप को नौकरियां दे दी जायें तो क्या बैहरेन के अन्दर शिया इस से बेहतर हो जायेगा? इबतदा यहां से थी लेकिन अब अलहम्दोलिल्लाह इस तहरीक के अन्दर बेदारी बढ़ गयी है और बहुत बेहतरी आ गयी है, जो बैहरेन की तहरीक है अगर्चे मुबारज़े के लिहाज़ से टकराऔ कम हो गया है लेकिन अभी भी जारी है और अब नहज़त की कैफ़यत बहुत बढ़ गयी है इसलिए कि बैहरेन की तहरीक मे क़ौमयात की जगह अब नज़रियात शामिल हो गये हैं।

शहीद ने जो बहुत बड़ा अज़ीम कारनामा अंजाम दिया वो ये कि पाकिस्तानी मिल्लत के अन्दर इंक़लाब बरपा किया, क़ौमयात व हुक़ूक़ के मुतमन्नी लोगों को नज़रियाती हदफ़ व मक़सद या नज़रियाती राह बतायी क्योंकि हुक़ूक़ की बात करने वाले जो हैं उन्हें इस से कोई सरोकार नही है कि हुकूमतें कैसी हैं, कौन होना चाहिए और कैन नही होना चाहिए, क्या हो और क्या नही होना चाहिए? जो भी हुकूमत हो अगर वो हमारे हुक़ूक़ पूरे कर रही है तो हम उस के हामीं हैं.

इस्लाम मुख़ालिफ़ पॉलिसी

जिस तरह से अभी ये सोच बन रही है कि जो पार्टी शिया हुक़ूक़ पूरे करेगी हम उस के हामी हैं, क्या ये इस्लामी क़ायदा है? मसलन उस वक़्त कोई पार्टी उठ कर कहती कि हमें वोट दो जो भी आप की मांगे हैं वो हम मानेंगे, क्या हम उस को वोट दे सकते हैं? शिया उसूल के हिसाब से और तरज़े फ़िक्र की बुनियाद पर मसलन अगर यज़ीद कहता है कि मे आप के सारे हुक़ूक़ पूरे करता हूं, मुझे आप ख़लीफ़ा मान लो, मेरी हुकूमत को मान लो, बनी उमय्या, बनी अब्बास आप के सारे हुक़ूक़ पूरे करते हैं, आप को नौकरियां मिलेंगी, मज़हबी आज़ादी मिलेगी, इबादतें और अज़ादारियां आज़ाद होंगी, दाख़ले और एडमीशन मिलेंगे, वीज़े मिलेंगे, सब कुछ मिलेगा सिर्फ़ हमे वोट देना होगा, तो क्या हम उन को वोट दे सकते हैं, हमे उनको वोट देने का क्या हक़ है? यानी एक ताग़ूत मसलन अमेरीका कहे कि मे शियों के सारे मुतालेबात पूरे करता हूं तो क्या हम अमेरीका को क़ुबूल करलेंगे, क्या मज़हब हमें इस बात की इजाज़त देता है? हर्गिज़ इजाज़त नही देता इसलिए कि इस्लाम को अपने मफ़ादात व हुक़ूक़ के लिए इस्तेमाल करना ये इस्लाम नही है। दीन के उपर हुक़ूक़ क़ुर्बान कर दिये जाते हैं, अगर वो दीन को नाबूद करके हुक़ूक़ दें भी तो क़ुबूल ना करो और कहो कि हमे ये हक़ नही चाहिए, क्योंकि आप ख़ुद नाहक़ हो।

पाकिस्तानी क़ौम की ख़त्ते अहलेबैत अ.स से दूरी

शिया के पास कोई मयार या कोई मीज़ान नही है, क्या शियों के इमामों अ.स ने शियों को कुछ भी नही बताया? अपने हाल पर छोड़ दिया है और उन्हे ये बताया है कि हर मुल्क और हर क़ौम के अन्दर अपनी मसलहत ख़ुद पहचानो, देखो कि कौनसी पार्टी तुमाहरे फ़ैवर मे है और कौनसी नही, एक तरफ़ से तो कहते हो कि इमाम सादिक़ अ.स सब कुछ बता कर चले गये हैं, इमाम अली अ.स ने नहजुल बलाग़ा मे सब कुछ बता दिया है, आइम्मा अ.स ने सब कुछ बता दिया है हम किसी लिहाज़ से पीछे नही हैं और जब अमली मैदान आता है तो कहते हैं कि अब हम पार्टीयों या ताग़ूतों का सहारा लेंगे।

शहीद हुसैनी र.अ ने इंक़लाबी फ़िक्र, इंक़लाब का नज़रिया और इमाम र.अ का ख़त आकर उन लोगो के सामने पैश किया जिन के मद्दे नज़र फ़क़त हुक़ूक़ थे और तहरीके निफ़ाज़े फ़िक़्ह-ए-जाफ़रिया जब बनी थी तो उस वक़्त औलमा नही बल्कि ज़ौअमा क़यादत करते थे, इंक़लाबे इस्लामी की बरकतों से क़यादत औलमा को मिली, औलमा क़ाबिले एतमाद बने हैं कि ये तमाम दुनिया के औलमा पर इंक़लाबे इस्लामी की ही बरकत और एहसाने अज़ीम है कि इन्हे इंक़लाब ने क़ाइद और रहबर बना दिया, जो लोगो की निगाहों मे कुछ और थे अब वो रहबरी के लायक़ हो गये और अवाम को उन को रहबर मानना पड़ा। ये अलग बात है कि ये किस हद तक इस अमानत को संभाल सके और किस हद तक नही संभाल सके, लेकिन इंक़लाब ने एक दफ़ा मे दुनिया की तवज्जोह औलमा की तरफ़ मौड़ दी।

ज़िया-उल-हक़ की दौग़ली पॉलीसी

ज़िया-उल-हक़ ने गवादर बंदरगाह को इरान की सपलाई के लिए फ़्री कर रखा था, इस मे भी वो अपने मक़ासिद हासिल करता था लेकिन ये काम उस ने किया, इसको ही उस ने बहाना क़रार दिया और जाकर शिकवा किया और कि हम आपकी जंग के अन्दर इतनी मदद करते हैं मसलन बाहर की दुनिया से आप को सप्लाई लाकर देते हैं और ये रहबर सैय्यद आरिफ़ जो आप का हामी है उस ने हमारी नाक मे दम कर रखा है, उस ने हमारा जीना हराम किया हुआ है, आप ही उनको कुछ समझायें, वज़ीरे ख़ारजा ने यही पैग़ाम पहुंचा दिया कि ज़िया-उल-हक़ ने आप का गिला किया है। आप को मालूम है कि शहीद ने क्या फ़रमाया? कहा कि ठीक है आप के साथ तआवुन करता होगा, मदद करता होगा और आप उस के साथ तआवुन जारी रखें, मे ये नही कहता हूं कि ना करें लेकिन हमें ये पता है कि पाकिस्तान मे शियों के साथ उस ने क्या रिवय्या इख़्तियार कर रखा है और हमे उस के साथ कैसा रिवय्या इख़्तियार करना है लिहाज़ा वो भी आप के साथ डिप्लोमैसी करता है, आप भी उस के साथ डिप्लोमैसी करें लेकिन ये हमे पता है कि ये शख़्स कितना ख़ूंख़ार और मक्कार है यानी ज़िया-उल-हक़ शहीद हुसैनी के हाथो इतना तंग था कि इरान को शिकवा करने गया था और वो ये समझता था कि शहीद हुसैनी की डोरें इरान के हाथ मे हैं, जब इरान रोकेगा तो ये रूक जायेंगे लेकिन शहीद हुसैनी नही रूके।

शहीद हुसैनी र.अ का क़ाते मौक़फ़

रहबरे मौअज़्ज़म जब सद्र थे तो पाकिस्तान आये तो रहबर का पाकिस्तान के अनदर एक भरपूर तारीख़ी इस्तक़बाल हुआ और वाक़यन सबने मिलकर आज़ीमुश्शान इस्तक़बाल किया। ये ज़िया-उल-हक़ के ज़माने मे ही था, ज़िया-उल-हक़ ने बहुत जतन किये कि शहीद एयरपोर्ट के अन्दर जायें जहां पर सरकारी व हुकूमती लोग खड़े हुए हैं, सफ़े अव्वल के लोग क्योंकि पूरी हुकूमती मशीनरी, फ़ौजी व ग़ैर फ़ौजी रहबरे मौअज़्ज़म के इस्तक़बाल के लिए इस्लामाबाद एयरपोर्ट पर आये हुए थे और उन्होंने पूरा ज़ोर लगाया कि शहीद हुसैनी भी हमारे साथ खड़े हों लेकिन आप उनके साथ नही बल्कि आम पब्लिक और अवाम मे ही खड़े हुए थे और कहा था कि ये मेरे साथी हैं और मे इनके साथ ही रहूंगा, तुमाहरे साथ नही खड़ा होना चाहता हूं, हत्ता रहबर के इस्तक़बाल मेरा नाम भी तुमाहरे साथ नही आना चाहिए, मे रहबर के इस्तक़बाल के लिए आया हूं और एक आम शिया की ही तरह उनका इस्तक़बाल करूंगा क्योंकि इस्लामी इंक़लाब के नुमाइंदे आ रहे हैं और मे अपनी क़ौम के साथ उनके इस्तक़बाल के लिए आया हूं और अपनी क़ौम के साथ ही उनका इस्तक़बाल करूंगा और वाक़यन ऐसा ही हुआ शहीद ने रहबरे मौअज़्ज़म का शानदार इस्तक़बाल करवाया।

शहीद हुसैनी र.अ मुदाफ़-ए-विलायते फ़क़ीह

शहीद ने इंक़लाब की ख़ातिर कितने रिस्क लिए लेकिन किसी आसाबी जंग मे इस्तक़ामत नही छोड़ी और बेबाक होकर सब कुछ कहते थे, राहे शहीद ये नही है कि चन्द मशकूक लोगों की ख़ातिर हम अपने इंक़लाबी शुआरों और अपनी इंक़लाबी अलामतों से दस्तबरदार हो जायें। शहीद की वो कैसेट मौजूद है जिस मे एक तक़रीर के दौरान शहीद ने पाकिस्तान के ही एक मारूफ़ आलिमेदीन को ख़िताब करके कहा था कि याद रखो मे अपने ख़ून का आख़िरी क़तरा और अपनी सारी औलाद तो इस राह मे क़ुर्बान कर दूंगा मगर विलायते फ़क़ीह की राह से एक इंच भी पीछे हटने के लिए तैय्यार नही हूं, शहीद ने ये क्यो कहा था? इसलिए कि कुछ ऐसे भी थे जो शहीद को ये मशवरा देते थे कि आप इंक़लाब, इमाम र.अ और विलायते फ़क़ीह की बातें ज़्यादा ना किया करो, क्यों? इसलिए कि एक तो पाकिस्तान के अन्दर बहुत ज़्यादा औलमा का ये नज़रिया नही है, वो आप से दूर हो जायेंगे और दूसरा एजंसिया और हुकूमत आप को तंग करेगी और दबाऔ डालेगी, ये शहीद को इस तरह की हज़ार दलीलें देते थे कि इस राह को छोड़ दें, लेकिन उस वक़्त शहीद ने उस जानाना लहजे मे कहा कि मे अपने ख़ून का आख़िरी क़तरा दे दूंगा और वादा सच कर दिखाया उसी राह मे शहीद ने अपने ख़ून का आख़िरी क़तरा भी बहा दिया लेकिन विलायते फ़क़ीह से एक इंच भी पीछे नही हटे। ये शहीद का रास्ता है, शहीद ने ये हुनर और ये कारनामा अंजाम दिया।

शहीद हुसैनी र.अ मुदाफ़-ए-ख़त्ते इमाम र.अ

वो इमाम र.अ का ख़त था जिसकी शहीद ने पासबानी की और हर पासबाने ख़त्ते इमाम र.अ को ये मालूम होना चाहिए कि बसा औक़ात उस को अली अ.स की तरह पच्चीस साल हर चीज़ से दूर और महरूम होकर फ़क़त ख़त महफ़ूज़ रखना पड़ता है। दूसरे किसी और काम मे मशग़ूल थे? दूसरे किशवर कशाइ मे मशग़ूल थे, मसलन फ़तूहात, फ़ौज कशी, इरान फ़तह हो रहा है, रूम फ़तह हो रहा है, अफ़्रीक़ा फ़तह हो रहा है, हिन्दुस्तान फ़तह हो रहा है, बैतुलमाल आ रहा है, ख़राज आ रहा है और मुसलमानों की तादाद बढ़ रही है। ये सब कुछ रसूलअल्लाह स.अ के बाद भी हुआ लेकिन इन तमाम फ़तहों मे फ़क़त अमीरूल मौमेनीन अ.स ने ख़त्ते रसूल स.अ महफ़ूज़ रखा और बाक़ी इस को कम्मियत के लिहाज़ से वुसअत देने मे लगे हुए थे। पासबान को पता होता है कि मुझे किन चीज़ों को फ़िदा करना है और किन चीज़ों को फ़िदा करना है? आसाबी जंग मे मुझे कितनी इस्तक़ामत दिखानी है और ख़त बचाने के लिए किस किस से मुक़ाबला करना है। मुल्क की हुदूद बढ़ाने के लिए हमला करना होता है, नेज़े, तलवारें और तीर चलाना होते हैं, दुशमन काफ़िर व मुशरिक से लड़ना होता है लेकिन ख़त बचाने के लिए किस से लड़ना होता है? हज़रत ज़ैहरा स.अ ने जो मुबारज़ा किया वो किस के ख़िलाफ़ किया? बार्डर पर नही बल्कि मस्जिद-ए-नबवी स.अ मे आकर मुबारज़ा किया ताकि ख़त्ते रसूल स.अ बाक़ी रहे।

इमाम र.अ मुहाफ़िज़-ए-ख़त्ते रसूल स.अ

वो ख़त्ते इमा जिस के शहीद ऱ.अ पासबान थे, उस के लिए कौनसी चीज़ें मुशकिल थीं जिनको शहीद ने बचाया यानी जिनकी ख़ुद इमाम र.अ ने भी ताकीद की। ख़ुद इमाम र.अ अपने ख़त की हिफ़ाज़त पर बहुत मुसिर थे और इमाम के अलाज़ थे कि :

"تا من زنده هستم نمی گذارم انقلاب بدست نا اهلان بافتد"

जब तक मे ज़िंदा हूं मुनाफ़ेक़ीन और ना अहलों को इंक़लाब के क़रीब नही आने दूंगा, जब तक मे ज़िंदा हूं ये लोग नही आ सकते और ये इमाम र.अ ने किया। पहली उबूरी हुकूमत मुकम्मल तौर पर एक पार्टी की थी जिसे इमाम ने बाल की तरह उठा कर बाहर फैंक दिया क्योंकि वो ख़त्ते इंक़लाब के लिए नासाज़ जमाअत थी उनके निकलने से बहुत बड़ा ख़ला पैदा हुआ जिस मे मेहदी बुज़ुर्गान और उसका पूरा ग्रोह, अगर वो इमाम के साथ मौजूद होते तो एक बहुत बड़ी ताक़त होती, बनी सद्र जब उबूरी हुकूमत के बाद पहला मुंतख़ब सद्र बना तो इमाम र.अ ने बाल की तरह उस को उठा कर बाहर फैंक दिया, क्यों? इस लिए कि वो ख़त्ते इमाम के साथ मुतारिज़ था अगर बनी सद्र और उस के साथी इमाम के साथ रहते तो ये इंक़लाब की बहुत बड़ी ताक़त थे, मुनाफ़ेक़ीन, मुजाहेदीन ख़ल्क़ जो आज कल दर बदर हैं उनको भी इमाम ने इस तरह से फैंका, इमाम ने कहा कि इंक़लाब से पहले और बाद मे ये दोनो आते थे और आकर अपने आप को इंक़लाब के अन्दर एडजस्ट करने की कोशिश करते थे कि हमें भी इंक़लाब के अन्दर शामिल कर लिया जाये, इमाम ने उन को उठा कर फैंका और न लोगों के हाथों बहुत ज़्यादा क़त्ले आम भी हुआ, इंक़लाब का बहुत नुक़सान हुआ, शहीद बहिशती र.अ जैसी शख़्सियात और बड़े अज़ीम लोग उन लोगों ने मारे हैं। इमाम ने उन को उठा कर बाहर फैंक दिया था कि मुनाफ़िक़ कभी अन्दर नही आ सकता। इमाम र.अ ख़ुद अपने ख़त के मुहाफ़िज़ थे, इमाम र.अ फ़रमाते थे कि मुमकिन ही नही कि मुख़ालिफ़े विलायते फ़क़ीह इस मिल्लत के अन्दर सर उठाये क्योंकि वो तबाही की तरफ़ ले जायेगा। वसियत नामे मे भी इमाम र.अ का सब से ज़्यादा इसरार इसी पर था कि ख़त को हिफ़्ज़ करना है। रहबरे मौअज़्ज़म ने फ़माया कि 2009 ई. इरान के अन्दर बहुत आशूब का साल था, सदारती इंतख़ाबात हुए और उन सदारती इंतख़ाबात मे जो बलवे हुए और जो लोग ये बलवे करवा रहे थे, वो कौन लोग थे? मीर हसन मुसवी जो इंक़लाब मे वज़ीरे आज़म रह चुका है, मेहदी क्रोबी जो पारलियामेंट का स्पीकर रह चुका है, मौहम्मद ख़ातमी जो आठ साल सद्र रह चुका है, हाशमी रफ़संजानी जो आठ साल सद्र रह चुका है और आठ साल से ज़्यादा स्पीकर रह चुका है, जंग का कमांडर रह चुका है ये लोग थे जो बलवे करवा रहे थे और ये सारे वो लोग थे जो इमाम ख़ुमैनी र.अ के बहुत क़रीबी लोग और इमाम र.अ के साथ जुड़े हुए थे।

ख़त्ते इमाम र.अ, शख़्सियते इमाम र.अ है

2009 ई. मे इमाम र.अ की बरसी के मौक़े पर रहबरे मौअज़्ज़म ने जो तक़रीर की उसका उनवान ख़ुसुसियाते ख़त्ते इमाम र.अ था जिसमे रहबर ने लोगो को कहा कि धोके मे नही आना, कुछ लोगो ने इमाम र.अ को पकड़ लिया है मगर ख़त्ते इमाम र.अ छोड़ दिया है, ख़त्ते इमाम छोड़ कर इमाम के हामी बने हुए हैं इन लोगों से होशियार रहें और ये पूरा वही मजमूआ था जो इमाम इमाम करते हत्ता उन्हों ने इमाम के घर के लोगों, मसलन इमाम का दामाद मौहम्मद रज़ा ख़ातमी जो कि पूर्व सद्र मौहम्मद ख़ातमी का छोटा भाई और इमाम की नवासी का शौहर है, को भी अपने साथ मिलाया हुआ था, ये वही शख़्स है जिसने बयान दिया था कि इरान की मुश्किलात का हल ये है कि लोग दिन छोड़ दें, इरानियों की सबसे बड़ी मुश्किल दीन है, इस क़िस्म के लोगों को उन्होंने इस्तेमाल किया हत्ता इमाम र.अ के पोते को अपने मक़सद के लिए इस्तेमाल किया ताकि लोगो को पता चले कि इमाम र.अ से हमारा वास्ता है, हमारी दोस्ती और क़ुर्बत रही है। रहबरे मौअज़्ज़म ने ये फ़रमाया था कि कुछ लोग मिल्लत के सामने बेहुवियत और बेशख़्सियत इमाम पैश करना चाहते हैं, बेशख़्सियत इमाम कौनसा इमाम है? यानी इमाम तो हो लेकिन उसका ख़त ना हो यानी माज़ाल्लाह अगर कोई ये काम रसूलअल्लाह स.अ के बारे मे करे कि रसूल स.अ हों लेकिन ख़त्ते रसूल स.अ ना हो, रसूल स.अ हों लेकिन आले रसूल स.अ ना हों, ये कैसे रसूल हैं कि जिनका ख़त आप रसूल से जुदा करलें और किर्फ़ रसूल से इश्क़ व मौहब्बत का दावा करें, हज़रत ज़ैहरा स.अ यही फ़रमा रहीं थीं कि तुम रसूल रसूल करते हो लेकिन तुम ने ख़त्ते रसूल छोड़ दिया, बग़ैर ख़त्ते रसूल के रसूल को मानते हो। यही हज़रत ज़ैहरा स.अ का मसाइब और उनके ख़ुतबे का लुब्बे लुबाब था कि तुम बग़ैर ख़त्ते रसूल स.अ के कैसे रसूल स.अ के हामी हो। रहबरे मौअज़्ज़म ने एक घंटे की तक़रीर उन लोगो की मौजूदगी मे की, कि बेशख़्सियत और बेहुवियत इमाम नही हो सकता, इमाम ख़ुमैनी ऱ.अ हमेशा ख़त्ते ख़ुमैनी र.अ के साथ है, यानी राहे ख़ुमैनी र.अ ही शिनाख़्ते इमाम ख़ुमैनी र.अ है।

अक़दारे हुसैनी अ.स व औज़ारे हुसैनी अ.स

इसी तरह बेहुवियत और बेशख़्सियत शहीद हुसैनी र.अ किस काम आएगा? सिवाए औज़ार के किसी काम नही आता, शहीद हुसैनी र.अ बा ख़त्ते शहीद हुसैनी र.अ, बाराहे शहीद हुसैनी, बाफ़िक्रे शहीद हुसैनी, शहीद हुसैनी की शख़्सियत और हुवियत ख़त्ते शहीद हुसैनी है, किस चीज़ से ख़त महफ़ूज़ रखा जाता है? मसलन फ़र्ज़ करलें कि एक जगह दो ग्रोह बैठे हुए हों और उन के दरमियान एक दस्तावैज़ पड़ी हुइ होजिस पर इख़्तलाफ़ हो, एक ग्रोह7 कहता हो कि मे इसको मानता हूं जब्कि दूसरा कहे कि मे इसको नही मानता मसलन आप क़ुरान खोल कर बीच मे रखते हैं एक ग्रोह कहे कि माज़ाल्लाह मे क़ुरान को नही मानता दूसरा कहे कि मे मानता हूं, एक मुसालहती ग्रुप बीच मे से पैदा हुआ और कहा कि उम्मत का इत्हाद अहम है, ये तुम किन चक्करों मे पड़ गये हो कि मे क़ुरान को मानता हूं या नही मानता हूं क़ुरान को दरमियान से हटाऔ क्योंकि इसमे इख़्तलाफ़ है, ये अस्ल झगड़े का मौज़ू है लिहाज़ा इसको समेटो, जब क़ुरान समेट कर अलग कर दो तो फिर कोई इख़्तलाफ़ नही है, अब तुम भाई भाई हो अब तुम एक दूसरे के गले लग जाऔ। पस जब किसी का ख़त लेलें या किसी से ख़त छीन लें क्योंकि अस्ल निज़ा और अस्ल झगड़ा इस ख़त पर है, अगर इसको दरमियान मे से समेट लें और फिर कहें कि अब आपस मे मिल जाऔ, ख़त्ते इमाम हटा कर क़ौम को मुत्तहिद करदो, ख़त्ते शहीद हटा कर उम्मत वाहिद करदो, ये शहीद हुसैनी र.अ और इमाम ख़ुमैनी र.अ औज़ार हैं ये इमाम ख़ुमैनी रहबर नही हैं। रहबर हुसैनी और औज़ारे हुसैनी मे फ़र्क़ है, रहबर ख़ुमैनी और औज़ारे ख़ुमैनी मे फ़र्क़ है।

मयार-ए-ख़ुमैनी र.अ व औज़ार-ए-ख़ुमैनी र.अ

इस वक़्त इरान मे ये ग्रुप कोई छोटे इंक़लाबी नही हैं और ना ही छोटे नाम हैं, ये कोई मामूली नाम नही हैं बहुत ही ग़ैर मामूली नाम हैं और इनकी ज़बानों पर हमेशा इमाम इमाम रहता है। रहबरे मौअज़्ज़म ने इस तक़रीर मे फ़रमाया कि ये बेख़त और बेहुवियत इमाम को इमाम मानते हैं यानी इन्हों ने इमाम का ख़त लपेट लिया अब इमाम इमाम करते हैं, ये ख़ुमैनी र.अ रहबर नही है बल्कि ये ख़ुमैनी र.अ औज़ार है। इस वक़्त मीर हसन मूसवी के हाथ मे इमाम ख़ुमैनी र.अ औज़ार है, ख़ातमी के हाथ मे इमाम ख़ुमैनी र.अ औज़ार है, रहबरे मौअज़्ज़म की नज़रों मे इमाम ख़ुमैनी र.अ अक़दार है, इमाम ख़ुमैनी र.अ ख़त है, इमाम ख़ुमैनी र.अ मयार है, वो इमाम ख़ुमैनी र.अ जो मयार है वो और ख़ुमैनी र.अ है, और वो ख़ुमैनी र.अ जो औज़ार है वो और ख़ुमैनी है। रहबर ने मिल्लत को ये बसीरत दी कि जिनकी ज़बानों पर औज़ार ख़ुमैनी का नाम है उनसे होशियार हों क्योंकि ख़ुमैनी र.अ मयार है, इस तरफ़ आयें जो बसीज का रास्ता था कि ख़ुमैनी मयार है नाकि औज़ार है, ख़त जब महफ़ूज़ रखा जाता है तो मालूम है कि कहां महफ़ूज़ रखा जाता है, यानी इस्लामे नाब इमाम के ख़त का उनवान है, इस्लामे नाब के बारे मे ख़ुद इमाम र.अ फ़रमाते हैं कि इस ख़त को महफ़ूज़ रखने के लिए चन्द आफ़तों से बचाना ज़रूरी है और पासबाने ख़त्ते इमाम के लिए ज़रूरी है कि वो उन हमलों और उन ख़तरों से उनका दिफ़ा करे। पासदारे इस्लाम व पासबाने इस्लाम जो मुहाफ़िज़े राहे इमाम है ना वो जो इमाम र.अ के नाम पर मफ़ादात ले रहा है बल्कि जो मुहाफ़िज़े ख़त्ते इमाम र.अ है उसके ये वज़ाइफ़ हैं उसे मुतवज्जेह होना चाहिए। ख़त को कौनसी चीज़ें ख़राब करती हैं, ख़त किन चीज़ों से उलझ जाता है? इमाम ने ख़ुद फ़रमाया है और शहीद हुसैनी को इससे आगही थी और शहीद हुसैनी का इनसे शदीद मुक़ाबला था। ख़त को जो चीज़ निगल जाती है उस अज़दहे का नाम तहज्जुर है, तहज्जुर एक ख़ास इस्लाम है जो पाकिस्तान मे अमूमन राइज है यामनी ख़ामोशी और जुमूद का मज़हब, लाताल्लुक़ी और तंग नज़री का मज़हब, सियासत, अमली ज़िन्दगी, माशरत, मईशत और मौजूदा ज़माने के तक़ाज़ों से लाताल्लुक़ ऐसा मज़हब जिस मे फ़क़त एक लाइन खिंची हुई है कि आप को ये चन्द इबादतें करनी हैं, तहारते करनी हैं, नमाज़ें अदा करनी हैं, रोज़े रखने हैं और सीधा जन्नत जाना है। बाक़ी ना पड़ोसियों का, ना हुक़ूक का और ना ज़िम्मेदारियों का पता हो, कोई भी ज़िम्मेदारी आप के कांधे पर नही है, आप का सिर्फ़ एक ही फ़रीज़ा है और वो है हूर जो आप के इंतज़ार मे जन्नत मे बैठी हुई है, बस उस तक पहुंचना आप का असली फ़रीज़ा है, इसको तहज्जुर कहते हैं। तहज्जुर यानी सुकूत, जुमूद, बे तहर्रुकी और ये चीज़ ख़त्ते इमाम को खा जाती है। पासबाने ख़त्ते इमाम का फ़रीज़ा क्या है? तहज्जुर की आफ़त से राहे इमाम को बचाये, तहज्जुर के अज़दहे के मुंह से ख़त्ते शहीद को बचाये, और मुतहज्जरीन को साथ मिलाने के लिए एक ही शर्त है वो ये है कि ख़त्ते इमाम को दरमियान से लपेट लो, इस्लामे नाब की बात मत करो, ख़त्ते इमाम व विलायते फ़क़ीह की बात मत करो, सब मुसलमान एक हैं, सब शिया एक हैं, मुतहज्जिर व इंक़लाबी एक हैं, इस मे क़र्बानी क्या हुई? ख़त्ते इमाम र.अ, ख़त्ते शहीद। शहीद का नाम ज़रूर लो मगर इस मे ख़त्ते शहीद ना हो, रसूल स.अ का नाम ज़रूर लो मगर ख़त्ते रसूल स.अ बीच मे नही होना चाहिए, ख़त बचाने के लिए ये एक बड़ी मुश्किल थी।

इल्तक़ात ख़त की दूसरी आफ़त

दूसरी मुश्किल इल्तक़ात, ये इमाम र.अ की इस्तलाहात हैं, ये इमाम र.अ की टर्मीनालॉजीज़ हैं और हमें इन इस्तलाहात से आशना होना चाहिए इनका तर्जुमा नही करना चाहिए, सी तरह अपनी ज़बान मे इनको राइज करने की ज़रूरत है क्योंकि कोई भी फ़िक्र उस वक़्त राइज होती है कि जब अपनी इस्तलाहात को किसी क़ौम की ज़बान मे राइज करने मे कामयाब हो जाये, वही फ़िक्र राइज होती है जिस तरह इस वक़्त पाकिस्तान मे मग़रिबी तहज़ीब और इंडियन कल्चर मौअफ़्फ़क़ और कामयाब है, क्यों? क्योंकि ये अपनी टर्मीनालॉजी राइज करने मे कामयाब हो गया है, आम लोग अपनी गुफ़्तुगू मे, बातचीत मे इन दो ज़बानों मे ही बात करते हैं, मग़रिबी ज़बीन मे और हिन्दी ज़बान मे यानी क्लचरल तौर पर इस ज़बान मे बात करते हैं। जब्कि हम क़ुरान की ज़बान मे, दीन की ज़बान मे या इंक़लाब की ज़बान मे बातचीत नही करते।

इल्तक़ाती ग्रोह

इल्तक़ात किस चीज़ का नाम है? इल्तक़ात यानी आप नाम इस्लाम का लो लेकिन आप को जिस मकतब के अन्दर, जिस अज़्म के अन्दर, जिस नज़रिये, पार्टी या ग्रोह के अन्दर कोई अपने काम की बात या अपने हदफ़ के लिये कोई मुनासिब चीज़ नज़र आती है वहां से लेते रहो और उसको भी शामिल करके, उसकी मदद से अपना हदफ़ हासिल करो तो इसको इल्तक़ात कहा जाता है। इस वक़्त इल्तक़ात के ग्रुप का नुमाइंदा जिसके सामने इमाम ने बहुत शिद्दत दिखाई व शदीद रद्दे अमल दिखाया हत्ता इमाम र.अ ने हुक्म दिया कि मे इसकी फ़ांसी से कमतर पर राज़ी नही हूं वो था मेहदी हाशमी, ये इल्तक़ाती इंसान था और इसके अलावा भी बहुत सारे इल्तक़ाती ग्रुप थे। डॉक्टर शरीयती के मुताल्लिक़ भी इमाम ख़ुमैनी र.अ का यही नज़रिया था कि इस ने दीन तो पढ़ा है और दीन की तरवीज भी करता है, अपने तईं सब कुछ करता है लेकिन ये इल्तक़ाती है, यानी इस्लाम और ग़ैर इस्लाम सब मिलाकर पैश करता है यानी अपने हदफ की ख़ातिर उसे परवाह नही है कि ये दीन की बात हो या दीन से बाहर की बात हो किसी अज़्म की बात हो अगर मेरा हदफ़, मेरा मुद्दा साबित करती है तो इसको आयते क़ुरान की तरह पैश करो, ये इल्तक़ात है, ख़त को ये इल्तक़ाती चीज़ें खा जाती हैं। इन दो चीज़ों पर इमाम र.अ ने अपनी ज़िन्दगी मे मुतहज्जिरीन के ख़िलाफ़ बहुत ज़्यादा शदीद मुबार्ज़ा किया और अपने पैरोकारों को आगाह किया कि ये मुतहज्जिरीन से होशियार रहना कि ये दीन की तबाही का बाइस हैं।

पाकिस्तान के अन्दर ये असली मुशकिल है, शहीद ने जो काम किया वो मुतहज्जिरीन के अन्दर ख़त्ते इमाम र.अ व राहे इंक़लाब आकर मुतार्रफ़ करवाया लेकिन शहीद र.अ की शहादत के बाद ये पासबानी ख़त्म हो गई, शहीद के बाद शहीद का नाम रह गया लेकिन ख़त्ते शहीद ग़ायब हो गया। यानी ख़त्ते इमाम र.अ और तहज्जुर मे जो फ़ासले थे वो मिटा दिए गये, ख़त्ते इमाम र.अ और इल्तक़ात मे जो फ़ासले थे वो मिटा दिए गये, इल्तक़ाती ग्रोह यानी जो आबाई तौर तरीक़ों को भी दीन मे शामिल करते हैं ये इल्तक़ाती ग्रोह हैं, जो मग़रिबी अफ़कार को दीन मे शामिल करते हैं, जो अफ़राती अफ़कार को दीन मे शामिल करते हैं ये इल्तक़ाती ग्रोह हैं।

तहज्जुर और इल्तक़ात में फ़र्क़

मुतहज्जिर और इल्तक़ाती मे क्या फ़र्क़ है? मुतहज्जिर दीन से एक चुटकी ले लेता है यानी जिनका दीन चुटकी बराबर है, नसवार की चुटकी जितना है बस वो मुंह मे रख लेते हैं और दीनदार हो जाते हैं और ये नशा उनका आख़िर तक रहता है कि हम दीनदार हैं, जिस तरह नसवार वाला नशा रखता है मेराज पर पहुंच जाता है इसी तरह ये दीन की चुटकी भी उनको मेराज करवा देती है, ये लोग बहुत गरदन अकड़ा कर चलते हैं कि हमारे क्या कहने, ख़ुसुसन जब नमाज़े तहज्जुद भी पढ़ते हों, तहज्जुद के साथ तहज्जुर भी हो जाये तो फिर ये ज़मीन पर पाँव नही रखते। इल्तक़ाती क्या करता है? वो इल्तक़ाती इस्लाम को सामने रखता है जितना समझ मे आया है और बाक़ी इस्लाम से बाहर बहुत सारी चीज़ें और मसाले इस मे लाकर डाल देता है जैसे किसी शख़्स से पूछा गया कि भाई दूध है उसने कहा कि भाई दूध आज कल मिलता ही नही है तो कहां से होगा? फिर कहा कि दही है तो कहा कि हां दही है जितना चाहे ले लो, कहा कि ताज्जुब है दूध मिलता ही नही और दही इतना ज़्यादा कहां से आ गया है? उसने कहा कि भाई दही दूध ही से बनता है ना उसने कहा यही तो तुम्हारी ग़लत फ़हमी है कि दही दूध से बनता है, दूध की तो झाग लगाते हैं दही मे अस्ल चीज़ें दूसरी होती हैं और बीच मे सिर्फ़ दूध की झाग लगाते हैं, बाक़ी उसके अन्दर बहुत सारी चीज़ें होती हैं, इल्तक़ाती कौन लोग हैं? इल्तक़ाती वो लोग हैं जो बहुत सारा मसाला बनाते हैं, कुछ इधर से और कुछ उधर से, कुछ सबज़ी डाली, कुछ बैसन डाला, कुछ उधर से अला बला डाली और बीच मे चुटकी दीन की भी डाल दी ताकि उसका ज़ायक़ा देती रहे ये इल्तक़ात की मिसाल है। पाकिस्तान के अन्दर जो इल्तक़ाती ग्रोह है जो इल्तक़ाती नज़रियात पैश कर रहा है ये रोशन फ़िक्र, ग़ामदी वग़ैरा जो टी.वी पर ज़्यादा इस्लाम पैश कर रहे हैं ये इल्तक़ाती ग्रोह है और जो तालेबानी फ़िक्र है वो तहज्जुर है।

मुतहज्जिर और इल्तक़ाती शिया

ये तहज्जुर की दो मोटी मिसालें हैं इसका का कोई ये मतलब ना समझे कि ये बाहर की दो मिसालें हैं तो शियों के अन्दर इस तरह के लोग मौजूद नही हैं, ना! तशय्यो के अन्दर भी दोनों मिसालें मौजूद हैं, तहज्जुर भी है और इल्तक़ात भी मौजूद है। इस वक़्त बाज़ ऐसे रोशन फ़िक्र मौजूद हैं जिनको काफ़ी मौक़ा मिल रहा है अपने अफ़कार को फैलाने का ये इल्तक़ाती लोग हैं जो लेबरल क़िस्म के लोग हैं उनका नज़रिया ये है कि इस्लाम इतना भी सख़्त मज़हब नही है बल्कि इस्लाम आज़ाद है, औरत आज़ाद है, हुक़ूक़ मसावी हैं, ये सब इल्तक़ाती लोग हैं। इमाम र.अ फ़रमाते थे कि ये दो फ़िक्र मेरे ख़त को यानी इस्लामे नाब को तबाह करदेंगी ये दो फ़िक्र इल्तक़ात और तहज्जुर, इन से बचाकर रखना है। आप तवज्जोह फ़रमायें कि अब पाकिस्तान मे ख़त्ते इमाम र.अ पैश करना कि जहां अक्सरयत मुतलक़ मुतहज्जिर हैं। तहज्जुर उनका मज़हब है और कुछ कम लोगों का ग्रोह है जिसका मज़हब इल्तक़ात है, उन इल्तक़ाती और मुतहज्जिरीन के बीच मे एक नया निज़ाम खोलना है और वो है ख़त्तो इमाम र.अ की बात करना। ये शहीद का काम था जब्कि बाज़ ख़वास का कहना था कि क़ौम को इकठ्ठा करना है तो ख़त्ते इमाम र.अ बीच मे से हटाना पड़ेगा, क्यों? वरना वो तबक़ा नही आता, ये तबक़ा नही आता, इमाम र.अ की तसवीर उतारनी पड़ेगी वरना क़ौम जमा नही होगी, फ़लां तबक़ा हस्सासियत रखता है, ख़त्ते इमाम र.अ लपेटना पड़ेगा ताकि ये सारी क़ौम मुत्तहिद हो जाये और यही ख़त्ते इमाम र.अ की मुशकिल है।

फ़िक्र-ए-हुसैनी र.अ राहे ख़ुदा का चिराग़

शहीद हुसैनी पासबाने ख़त्ते इंक़लाब थे अब शहीद को बाक़ी रखना, शहीद को ख़त्ते शहीद के साथ, फ़िक्रे शहीद के साथ ज़िन्दा रखना है, ये चिराग़े इलाही है, शहीद चिराग़े राहे ख़ुदा है, ये चिराग़ अगर बुझेगा तो राहे ख़ुदा तारीक हो जायेगी, नई नस्ल राहे ख़ुदा से भटक जायेगी। इस चिराग़े राहे ख़ुदा को रोशन रखने के लिए ज़रूरी है, चिराग़ को ज़िन्दा रखा जाये। चिराग़ को कैसे ज़िन्दा रखें? ये ना कहें कि चिराग़ लगाकर नीचे से दूसरी मसनवी लाइट लेज़र के ज़रिए से उसको दें, बसा औक़ात इस तरह करते हैं कि चिराग़ बुझा हुआ है, चिराग़ का मॉडल रखा हुआ है लेकिन चिराग़ बुझा हुआ है और नीचे से लेज़र लाइट के ज़रिए से दूर से उसको रोशन कर रखा है, इसको चिराग़ रोशन करना नही कहते, चिराग़ अपने नूर से रोशन हो, चिराग़ का नूर क्या है? उसकी राह, उसकी फ़िक्र, शहीद चिराग़े राहे ख़ुदा है वो राहे ख़ुदा जो इमाम र.अ ने मुतार्रफ़ करवाई, ये राहे ख़ुदा का चिराग़ है, ये चिराग़ अपने नूर से रोशन रहेगा, नूरे चिराग़ राहे शहीद है, बस शहीद को फ़िक्रे शहीद के साथ व शहीद को राहे शहीद के साथ ज़िन्दा रखना है और राहे शहीद वही राहे इमाम र.अ है। राहे इमाम र.अ राहे रसूलअल्लाह स.अ है, राहे अमीरूल मौमेनीन अ.स है, राहे फ़ातमी व हुसैनी अ.स है, राहे करबला है, और राहे करबला ना इल्तक़ाती रास्ता है और ना मुतहज्जिरीन का रास्ता है, तहज्जुर और इल्तक़ात के बीच मे तीसरा रास्ता हो, इससे क्या होगा? लेकिन बाज़ लोग कहते हैं कि राहे इमाम र.अ से क़ौम दो हिस्सों मे बट जायेगी, यही तो सारी मुशकिल है।

इल्तक़ातियों की ग़लत सोच

रसूलअल्लाह स.अ की राह को समेट लें तो क़ौम एक हो जाती है, ख़त्ते रसूल स.अ को लपेट लो तो क़ौम एक हो जाती है, अगर ख़त्ते रसूल स.अ की बात करो तो क़ौम दो हिस्सों मे बट जाती है। अब क़ौमियात तक़ाज़ा करती हैं कि नज़रियात की बिसात लपेट लो, बात ना करो लेकिन दीन का नज़रिया ये कहता है कि आप क़ौमियात के उपर दीन को फ़िदा ना करो। इस राह को तारीक मत करो ताकि आइंदा नस्लों के लिए मुशकिल ना बन जाये। आप आज अपने मसाइल किसी हीले से हल करलोगे क्योंकि ये आप के ज़माने के मसाइल हैं, कब के हैं? आप के एक साल के मसाइल हैं, दो साल के मसाइलल हैं, वक़्ती मसाइल जो ख़ुद हल हो जायेंगे किसी और वजह से हल हो जायेंगे उनके उपर ख़त क़ुर्बान ना करो उस ख़त को जो नस्लों को बचायेगा, जो नस्लों को ज़िन्दा रखेगा उन नस्लों से उनका हक़ मत छीनो, आप अपनी वक़्ती मुशकिल किसी भी तरीक़े से हल कर सकते हो और अगर राहे इमाम र.अ पर आ जाऔ तो ये वक़्ती मुशकिलात भी हल हो सकतीं हैं और हमेशा के लिए बुनियादी मुशकिलात भी हल हो सकती हैं। इमाम र.अ के लेबरइज़्म मे से एक ये है कि इमाम र.अ को लेबरइज़्म से बहुत हस्सासियत थी कि लेबरल को कभी भी इस ख़त के साथ मख़लूत मत होने दो।

रहबरे मौअज़्जम का अज़ीम कारनामा

इरान के अन्दर ये इत्तफ़ाक़ रूनुमा हुआ और रहबरे मौअज़्ज़म ने ख़त्ते इमाम र.अ की पासबानी का हक़ अदा किया, वाक़यन रहबरे मौअज़्ज़म के कारनामे जो किसी अलग बहस मे उनको मौज़ू बनना चाहिए कि वाक़यन रहबर ने जो अज़ीम कारहाय नुमायां अंजाम दिये हैं, इस वक़्त यूं समझें कि एक इंसान पूरी दुनिया के मुक़ाबले मे डटा हुआ है, उन अज़ीम कामों मे से जो रहबरे मौअज़्ज़म ने किए हैं एक ये है कि ख़त्ते इमाम र.अ को अपनी ख़ुसुसियात के साथ बचा रखा है, ना तहज्जुर को उसमें रख़ना पैदा करने दिया है और ना इल्तक़ात को और इसी तरह ख़ालिस व नाब ख़त रहबर ने महफ़ूज़ रखा है जो आज भी इंक़लाब की बक़ा का ज़ामिन है।

यूं तो यक़ीनन नही है कि एक मिल्लत की बक़ा का ज़ामिन तो वो ख़त्ते ख़ालिस हो और बाक़ियों का तहज्जुर व इल्तक़ात! मुतहज्जिर इंक़लाबी कैसे इंक़लाबी होंगे? मुतहज्जिर इंक़लाबी, इल्तक़ाती इंक़लाबी, ख़त्ते इमाम र.अ को कहां कहां से ले जा रहे हैं?

राहे शहीद र.अ, शख़्सियते शहीद र.अ है

रहबरे मौअज़्ज़म ने जो ताबीर इमाम र.अ के बारे मे फ़रमाई थी वही ताबीर शहीद के बारे मे इस्तेमाल कर रहा हूं। ख़त्ते शहीद र.अ शख़्सियते शहीद हुसैनी र.अ है, राहे शहीद हुसैनी, फ़िक्रे शहीद हुसैनी शख़्सियते शहीद हुसैनी है, ख़त्ते शहीद, राहे शहीद, फ़िक्रे शहीद को छोड़ना यानी शहीद को शख़्सियत के बग़ैर मानना, हुवियत के बग़ैर मानना और हुवियत के बग़ैर और शख़्सियत के बग़ैर जो हो वो औज़ार होता है मयार नही होता।

फ़िक्र-ए-शहीद हुसैनी र.अ के मुतालए की ज़रूरत

बस इस ऩस्ल को आगाह होना चाहिए कि राहे शहीद दक़ीक़न कौनसा रास्ता है, ख़ुद शहीद को पढ़ें, शहीद की किताबें पढ़ें, शहीद हुसैनी र.अ ने शहीद मुताहिरी र.अ को पाकिस्तानी क़ौम के सामने सबक़ के तौर पर पढ़ाया, निसाब व स्लेबस के तौर पर पढ़ाया, जवानों को और ख़ुसुसन आई.एस.औ के जवानों को क्योंकि उस वक़्त यही जवान शहीद के क़रीब थे बाक़ी जवान दूर थे, यही चन्द जवान थे कि हमेशा शहीद जहां भी गये ये जवान शहीद के साथ रहे, मसलन शहीद के ये जो दुरूस हैं, आप क्या समझते हैं कि जहां पर शहीद लेक्चर देते थे वहां कोई हज़ारों लोग बैठे होते थे, नही किसी दर्स मे नौ, किसी मे दस, किसी मे बारह, किसी मे पंद्रह, ये छोटे छोटे यूनुटों मे शहीद जाते, क़यादत के ज़माने मे दर्स देते जो किसी जगह रिकार्ड होता और किसी जगह रिकार्ड नही होता था, जो दर्स रिकार्ड हुए हैं वो जमा किए गये, लिखे गए और वो अल्हमदो लिल्लाह एक ज़ख़ीरा बना है लेकिन उसकी एक बहुत बड़ी तादाद है जो ज़ख़ीरा नही किए गये उन सब मे बाक़ायदा शहीद मुताहिरी र.अ और शहीद दस्तग़ीब र.अ की किताबों को स्लेबस के तौर पर उन जवानों को पढ़ाते थे ये काम शहीद र.अ ने किया। शहीद र.अ वो हैं जिन्हों ने इस राह मे ख़ून पैश किया है और वफ़ादारी दिखाई है, इतना सच्चा इंसान मेने पाकिस्तान मे नही देखा कि जिस ने बेबाक होकर सारी दुनिया के सामने कहा हो कि मे ख़ून का आख़िरी क़तरा दे दूंगा मगर विलायते फ़क़ीह से एक इंच, एक मिली मीटर भी पीछे हटने के लिए तैय्यार नही हूं और ऐसा ही हुआ, ख़ून के सारे क़तरे बहा दिये और सारी उम्र इस राह मे क़ुर्बान करदी और विलायते फ़क़ीह से एक इंच एक मिली मीटर भी पीछे नही हटे और हमको भी अपने आप को पीछे नही हटाना है।

इताअत-ए-वली-ए-फ़क़ीह, पैग़ाम-ए-शहीद हुसैनी र.अ

जिस तरह ख़ुद शहीद र.अ अपनी उम्र मे मौत के लम्हे तक इस ख़त से जुदा नही हुए, इसी तरह मेरे अज़ीज़ों हम को भी शहीद को इस राह से जुदा नही करना, दुशमन नही कर सका पैरोकार भी ना करें, वारिस भी ना करें, शहीद का नाम लेने वाले भी ना करें, दुशमन ने अपनी ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगाया कि शहीद को ख़त्ते शहीद या ख़त्ते इमाम सो जुदा करे लेकिन वो ये काम नही कर सका, हम भी हरगिज़ ग़लती ना करें, कोई ख़ैर ख़ाह, कोई पैरोकार भी ये ना करे, पासबाने ख़त्ते शहीद रहें, हर चन्द अली अ.स की तरह पच्चीस साल महरूमियत की ज़िन्दगी गुज़ारो मगर ख़त को क़ुर्बान ना करो, ख़ुद क़ुर्बान हो जाऔ, हुसैन इब्ने अली अ.स ने ख़त को क़ुर्बान नही किया ख़ुद क़र्बान हो गये, ज़ैहरा स.अ ख़ुद क़ुर्बान हो गईं लेकिन ख़त्ते रसूल स.अ क़ुर्बान नही किया, ये मालूम होना चाहिए कि क्या क़ुर्बान करना है और क्या बचाना है और शहीद यही हमें सिखा कर चले गये कि जब क़ुर्बानी का वक़्त आये तो क़ुर्बान हो जाऔ नाकि ख़ुद को बचाने के लिए ख़त क़ुर्बान कर दो शहीद इस राह मे हमारे लिए नमूना हैं कि इस राह मे जान भी दी जा सकती है, शहीद को पता था कि मे जिस राह पर जा रहा हूं उस राह मे ये ख़तरा मौजूद है व आख़िरकार यही हुआ और सारी दुनिया ने देखा यक़ीन जान लें कि शहीद की शहादत कोई मामूली नही थी इतनी संगीन थी कि इमाम ख़ुमैनी र.अ जैसे इस्तक़ामत वाले दिल को भी शहीद की शहादत ने हिला दिया।

इमाम ख़ुमैनी र.अ, सब्र व इस्तक़ामत का पैकर

इमाम ख़ुमैनी र.अ बहुत इस्तक़ामत वाले और बहुत ही सबूर इंसान थे, जब मुस्तुफ़ा ख़ुमैनी र.अ शहीद हुए इमाम र.अ को आकर बताया गया कि वो शहीद हो गये हैं इमाम र. ने कहा انا لله و انا اليه راجعون और अपने रोज़ को शैड्यूल के मुताबिक़ काम मे मशग़ूल हो गये लेकिन चन्द शहादतें ऐसी थीं जिन्हों ने इमाम ख़ुमैनी र.अ के दिल को वाक़यन हिला दिया, जिस तरह जनाबे हमज़ा सय्यदुशोहदा की शहादत ने रसूलअल्लाह स.अ का क़ल्बे नूरानी हिला दिया, रसूलअल्लाह स.अ को बहुत ज़्यादा तकलीफ़ हुई और वही कैफ़ियत करबला मे इमाम हुसैन अ.स की थी जब हज़रत अब्बास अ.स की निदा सुनी और फ़रमाया :

الان انكسرت ظهري

अब मेरी कमर टूट गई है

ये जुमले इमाम ख़ुमैनी र.अ के मुंह से दो दफ़ा निकले, एक दफ़ा जब शहीद मुताहिरी र.अ की शहादत की ख़बर सुनी तो पहली दफ़ा दुनिया ने किसी की शहादत पर इमाम र.अ को रोते हुए देखा जब्कि बहुत सारे बुज़ुर्ग शहीद हुए, शहीद बहिशती शहीद हुए, बड़े बड़े शहीद हुए इमाम र.अ नही रोये मगर शहीद मुताहिरी र.अ की शहादत पर इमाम बेसाख़ता रो पड़े, सारी दुनिया के सामने रो पड़े, इतना सब्र का पहाड़ उबल पड़ा, क्यों? इस लिए कि मुताहिरी र.अ मेमारे ख़त्ते इमाम र.अ थे, इमाम र.अ को ये पता था कि ये वार कहां पर हुआ है, सिर्फ़ इमाम ख़ुमैनी र.अ को पता था कि शहीद मुताहिरी र.अ के जाने से कौनसा मोर्चा ख़ाली हुआ है और ये बावर करलें कि अभी इंक़लाब को चौतीस साल होने वाले हैं ये मौर्चा जो ख़ाली हुआ था वो अभी तक ख़ाली है, मुताहिरी र.अ की जगह अभी तक ख़ाली है, बहुत अज़ीम शख़्सियात इस वक़्त मौजूद हैं, इस संगरे नज़रिए मे, इस आईड्योलॉजी मे, लेकिन शहीद मुताहिरी र.अ जैसा फ़रमान देने वाला मौजूद नही है, इस तरह का रासिख़ इंसान जो ज़ूब दर दीन हो इस तरह का शख़्स फिर पैदा नही हुआ।

और दूसरी दफ़ा इमाम ख़ुमैनी र.अ का दिल जो हिला वो शहीद हुसैनी र.अ की शहादत की ख़बर सुन कर उस वक़्त वाक़यन इमाम ख़ुमैनी र.अ ने अपनी उम्र का दर्दमंदाना तरीन पैग़ाम दिया, बहुत ही ग़मअंदोज़ बयान दिया और उसमे ये फ़रमाया कि :

"من فرزند عزيزی را از دست دادم"

मे बहुत अज़ीज़ बैटा खो चुका हूं, इमाम र.अ को ये पता था कि शहीद हुसैनी र.अ क्या कर रहा है? किस सरज़मीन पर क्या कर रहा है?

शहीद हुसैनी र.अ की जगह आज भी ख़ाली

पासबाने ख़त्ते रसूल स.अ, पासबाने ख़त्ते इमाम र.अ, पासबाने ख़त्ते फ़ातिमा स.अ, पासबाने ख़त्ते हुसैन अ.स, वो संगर अभी तक ख़ाली है। शहीद हुसैनी र.अ की शहादत के बाद पाकिस्तान मे बहुत कुछ हुआ लेकिन ख़त्ते इमाम र.अ का संगर, ख़त्ते इमाम र.अ का मौर्चा ख़ाली ही ख़ाली है, कोई मुहाफ़िज़े ख़त्ते इमाम र.अ नही है, किसी को परवाह ही नही किसी ने बात ही नही की। क़ौमों को लीडर मिल जाते हैं, क़ौमी मसाइल मे बहुत बड़े लीडर, मुमकिन है शहीद से भी ज़्यादा क़ाबिल लीडर पाकिस्तान मे मिल्लते तशय्यो को मिल जायें जो पाकिस्तान के क़ौमियात को बहुत ही बेहतर तरीक़े से हल कर दें, मे ये नही कहता कि नही होगा हो जायेगा लेकिन मुहाफ़िज़े ख़त्ते इमाम ख़ुमैनी र.अ, मुहाफ़िज़े ख़त्ते इस्लाम मिल्लत को कब मिलेगा? ये सदियों बाद पैदा होता है, इरान की पूरी पार्लियामैंट उड़ गयी, फिर पार्लियामैंट दोबारा भर गयी, मुसलसल नौ पार्लियामैंट मुतावातिर भरीं पार्लियामैंट कभी भी ख़ाली नही रही, इरान का प्रैज़ीक्यूटू जनरल शहीद हुआ फ़ौरन दूसरा बन गया, इरान के डॉक्टर चमरान शहीद हुए कई चमरान उनकी जगह पर आ गये जो आज भी मौजूद हैं, उस संगर मे अज़ीम लोग मौजूद हैं जहां से चमरान उठे, लेकिन जहां से मुताहिरी र.अ उठे एक भी दोबारा उस संगर के अन्दर नही आया, वाक़यन इस ख़ला का किसी किसी को पता चलता है कि इस वक़्त क्या ख़ला है और कहां ख़ला है और इस ख़ला का क्या नुक़सान होगा? अब मुमकिन है कि पाकिस्तानियों को क़ौमी लीडर मिल जाये लेकिन पाकिस्तान मे इंक़लाब को नज़रियाती लीडर कब मिलेगा, राहनुमा कब मिलेगा? जो मुहाफ़िज़े ख़त्ते इमाम र.अ हो, पासबान व पासदारे ख़त्ते इमाम र.अ हो। इसलिए ये दिन, ये शहादत, ये ख़ून जिस शजरे मे गिरा है।

शहीद की मौत दीन की हयात है

हम जो कहते हैं कि शहीद की जो मौत है वो क़ौम की हयात है लेकिन कुछ शहीद ऐसे हैं कि जिनकी मौत दीन की हयात है, इस्लाम की हयात है, इंक़लाब की हयात है, शहीद हुसैनी र.अ की मौत और ये ख़ून उस शजरे की जड़ों मे गिरा है और वो सरसब्ज़ होना है। जिस तरह अल्लामा इक़बाल र.अ अपना नज़रिया पैश कर गये और कहा कि मे मुन्तज़िर हूं, किनका मुन्तज़िर हूं? सहर ख़ैज़ लोगों का मुन्तज़िर हूं, अभी ख़ुफ़ता लोग हैं, ख़ुफ़ता लोगों मे पैग़ाम दिया है औरمنتظر سحر خیزان هستم मे सहर ख़ीज़ों का मुन्तज़िर हूं, वो नस्ले सहर ख़ीज़ पैदा होगी जो मेरे पैग़ाम को समझेगी और फिर देखेगें कि दुनिया का रूख़ क्या बनता है? इसी तरह शहीद का लहू मुन्तज़िर है सहर ख़ीज़ लोगों का, उस नस्ल का जो आये और इस ख़ला को भरे जो बीस साल से ये ख़ला मौजूद है पाकिस्तान मे तशय्यो के अन्दर जो ख़त्ते शहीद र.अ है कि इनशाल्लाह ख़ुदावन्द इस शहीद की अज़मत के तुफ़ैल व तमाम शोहदा जो इस राह मे काम आये हैं उन शोहदा के तुफ़ैल मिल्लते पाकिस्तान पर अपना लुत्फ़ व करम नाज़िल करेगा और अता फ़रमायेगा कि ख़त्ते इमाम र.अ अपनी ख़ुसुसियात के साथ नज़रियाए इमाम र.अ इस मिल्लत के अन्दर और इस नस्ल के अन्दर इनशाल्लाह ज़िन्दा होगा, जागेगा और जारी रहेगा इनशाल्लाह।

Comments powered by CComment