मुनाज़ेरा ए इमाम सादिक़ अ.स.

कुछ शुबहात
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इब्ने अबी लैला से मंक़ूल है कि मुफ़्ती ए वक़्त अबू हनीफ़ा और मैं बज़्मे इल्म व हिकमते सादिक़े आले मुहम्मद हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम में वारिद हुए।

इमाम (अ) ने अबू हनीफ़ा से सवाल किया कि तुम कौन हो?

मैं: अबू हनीफ़ा

इमाम (अ): वही मुफ़्ती ए अहले इराक़

अबू हनीफ़ा: जी हाँ

इमाम (अ): लोगों को किस चीज़ से फ़तवा देते हो?

अबू हनीफ़ा: क़ुरआन से

इमाम (अ): क्या पूरे क़ुरआन, नासिख़ और मंसूख़ से लेकर मोहकम व मुतशाबेह तक का इल्म है तुम्हारे पास?

अबू हनीफ़ा: जी हाँ

इमाम (अ): क़ुरआने मजीद में सूर ए सबा की 18 वी आयत में कहा गया है कि उन में बग़ैर किसी ख़ौफ़ के रफ़्त व आमद करो।

इस आयत में ख़ुदा वंदे आलम की मुराद कौन सी चीज़ है?

अबू हनीफ़ा: इस आयत में मक्का और मदीना मुराद है।

इमाम (अ): (इमाम (अ) ने यह जवाब सुन कर अहले मजलिस को मुख़ातब कर के कहा) क्या ऐसा हुआ है कि मक्के और मदीने के दरमियान में तुम ने सैर की हो और अपने जान और माल का कोई ख़ौफ़ न रहा हो?

अहले मजलिस: बा ख़ुदा ऐसा तो नही है।

इमाम (अ): अफ़सोस ऐ अबू हनीफ़ा, ख़ुदा हक़ के सिवा कुछ नही कहता ज़रा यह बताओ कि ख़ुदा वंदे आलम सूर ए आले इमरान की 97 वी आयत में किस जगह का ज़िक्र कर रहा है:

व मन दख़लहू काना आमेनन

अबू हनीफ़ा: ख़ुदा इस आयत में बैतल्लाहिल हराम का ज़िक्र कर रहा है।

इमाम (अ) ने अहले मजलिस की तरफ़ रुख़ कर के कहा क्या अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और सईद बिन जुबैर बैतुल्लाह में क़त्ल होने से बच गये?

अहले मजलिस: आप सही फ़रमाते हैं।

इमाम (अ): अफ़सोस है तुझ पर ऐ अबू हनीफ़ा, ख़ुदा वंदे आलम हक़ के सिवा कुछ नही कहता।

अबू हनीफ़ा: मैं क़ुरआन का नही क़यास का आलिम हूँ।

इमाम (अ): अपने क़यास के ज़रिये से यह बता कि अल्लाह के नज़दीक क़त्ल बड़ा गुनाह है या ज़ेना?

अबू हनीफ़ा: क़त्ल

इमाम (अ): फ़िर क्यों ख़ुदा ने क़त्ल में दो गवाहों की शर्त रखी लेकिन ज़ेना में चार गवाहो की शर्त रखी।

इमाम (अ): अच्छा नमाज़ अफ़ज़ल है या रोज़ा?

अबू हनीफ़ा: नमाज़

इमाम (अ): यानी तुम्हारे क़यास के मुताबिक़ हायज़ा पर वह नमाज़ें जो उस ने अय्यामे हैज़ में नही पढ़ी हैं वाजिब हैं न कि रोज़ा, जब कि ख़ुदा वंदे आलम ने रोज़े की क़ज़ा उस पर वाजिब की है न कि नमाज़ की।

इमाम (अ): ऐ अबू हनीफ़ा पेशाब ज़्यादा नजिस है या मनी?

अबू हनीफ़ा: पेशाब

इमाम (अ): तुम्हारे क़यास के मुताबिक़ पेशाब पर ग़ुस्ल वाजिब है न कि मनी पर, जब कि ख़ुदा वंदे आलम ने मनी पर ग़ुस्ल को वाजिब किया है न कि पेशाब पर।

अबू हनीफ़ा: मैं साहिबे राय हूँ।

इमाम (अ): अच्छा तो यह बताओ कि तुम्हारी नज़र इस के बारे में क्या है, आक़ा व ग़ुलाम दोनो एक ही दिन शादी करते हैं और उसी शब में अपनी अपनी बीवी से हम बिस्तर होते हैं, उस के बाद दोनो सफ़र पर चले जाते हैं और अपनी बीवियों को घर पर छोड़ देते हैं एक मुद्दत के बाद दोनो के यहाँ एक एक बेटा पैदा होता है एक दिन दोनो सोती हैं, घर की छत गिर जाती है और दोनो औरतें मर जाती हैं, तुम्हारी राय के मुताबिक़ दोनो लड़कों में से कौन सा ग़ुलाम है, कौन आक़ा, कौन वारिस है, कौन मूरिस?

अबू हनीफ़ा: मैं सिर्फ़ हुदूद के मसायल में बाहर हूँ।

इमाम (अ): उस इंसान पर कैसे हद जारी करोगे जो अंधा है और उस ने एक ऐसे इंसान की आंख फोड़ी है जिस की आंख सही थी और वह इंसान जिस के हाथ में नही हैं और वह इंसान जिस के हाथ नही है उस ने एक दूसरे इंसान का हाथ काट दिया है।

अबू हनीफ़ा: मैं सिर्फ़ बेसते अंबिया के बारे में जानता हूँ।

इमाम (अ): अच्छा ज़रा देखें यह बताओ कि ख़ुदा ने मूसा और हारून को ख़िताब कर के कहा कि फ़िरऔन के पास जाओ शायद वह तुम्हारी बात क़बूल कर ले या डर जाये। (सूर ए ताहा आयत 44)

यह लअल्ला (शायद) तुम्हारी नज़र में शक के मअना में है?

इमाम (अ): हाँ

इमाम (अ): ख़ुदा को शक था जो कहा शायद

अबू हनीफ़ा: मुझे नही मालूम

इमाम (अ): तुम्हारा गुमान है कि तुम किताबे ख़ुदा के ज़रिये फ़तवा देते हो जब कि तुम उस के अहल नही हो, तुम्हारा गुमान है कि तुम साहिबे क़यास हो जब कि सब से पहले इबलीस ने क़यास किया था और दीने इस्लाम क़यास की बुनियाद पर नही बना, तुम्हारा गुमान है कि तुम साहिबे राय हो जब कि दीने इस्लाम में रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहि वा आलिहि वसल्लम के अलावा किसी की राय दुरुस्त नही है इस लिये कि ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता है:

फ़हकुम बैनहुम बिमा अन्ज़ल्लाह

तू समझता है कि हुदूद में माहिर है जिस पर क़ुरआन नाज़िल हुआ है तुझ से ज़्यादा हुदुद में इल्म रखता होगा। तू समझता है कि बेसते अंबिया का आलिम है ख़ुदा ख़ातमे अंबिया अंबिया के बारे में ज़्यादा वाक़िफ़ थे और मेरे बारे में तूने ख़ुद ही कहा फ़रजंदे रसूल ने और कोई सवाल नही किया, अब मैं तुझ से कुछ सवाल पूछूँगा अगर साहिबे क़यास है तो क़यास कर।

अबू हनीफ़ा: यहाँ के बाद अब कभी क़यास नही करूँगा।

इमाम (अ): रियासत की मुहब्बत कभी तुम को इस काम को तर्क नही करने देगी जिस तरह तुम से पहले वालों को हुब्बे रियासत ने नही छोड़ा।

(ऐहतेजाजे तबरसी जिल्द 2 पेज 270 से 272)
 

 

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