इमामत और इमाम की ज़रुरत

अकीदाऐ इमामत
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इमामत भी तौहीद व नबुव्वत की तरह उसूले दीन में से है। इमामत यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स) की जानशीनी और दीनी व दुनियावी कामों में लोगों की रहबरी करना।

पैग़म्बर और नबी की ज़रुरत के बारे में हम ने जो दलीलें पढ़ी है। उन में से अकसर दलीलों की बुनियाद पर इमामत की ज़रुरत भी वाज़ेह व ज़ाहिर हो जाती है। इसलिये कि उन के बहुत से काम एक जैसे हैं लेकिन उस के अलावा भी बहुत से असबाब इमाम की ज़रुरत को हमारे लिये वाज़ेह करते हैं। जैसे:

1. इमाम की सर परस्ती में कमाल तक पहुचना

इंसान ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ जाने वाले आसान व मुश्किल रास्तों को तय करता है ता कि हर तरह का कमाल हासिल करे और इस में भी कोई शक व शुबहा नही है कि यह मुक़द्दस सफ़र किसी मासूम की राहनुमाई के बग़ैर मुम्किन नही है। यह बात अपनी जगह सही है कि ख़ुदा वंदे आलम ने इंसान को अ़क्ल जैसी नेमत से नवाज़ा है, ज़मीर जैसा नसीहत करने वाला दिया है, आसमानी किताबें नाज़िल की है, लेकिन फ़िर भी मुम्किन है कि इंसान इन तमाम चीज़ों के बा वजूद भटक जाये और गुनाह में पड़ जाये। ऐसी सूरत में एक मासूम रहबर का वुजूद समाज और उस में बसने वालों को भटकने और गुमराह होने से बचाने में काफ़ी हद तक मुअस्सिर है। इस का मतलब यह हुआ कि इमाम का वुजूद इंसान को उस के मक़सद और हदफ़ तक पहुचाता है।

2. आसमानी शरीयतों की हिफ़ाज़त

हम जानते हैं कि ख़ुदा के तमाम दीन जब नबियों के दिलों पर नाज़िल होते थे तो साफ़ और हयात बख़्श होते थे लेकिन नापाक समाज और बुरे लोग आहिस्ता आहिस्ता उस दीन को ख़ुराफ़ात के ज़रिये ख़राब बना देते थे। जिस के नतीजे में उस की पाकिज़गी ख़त्म हो जाती थी और फ़िर, उस में कोई जज़्ज़ाबियत बाक़ी रहती है न कोई तासीर, इसी वजह से मासूम इमाम का होना ज़रुरी है ता कि दीन की हक़ीक़त को बाक़ी रखे और समाज को बुराई, गुमराही, ख़ुराफ़ात और ग़लत फ़िक्रों से बचाए रखे।

3. उम्मत की समाजी और सियासी रहनुमाई

इंसान की समाजी ज़िन्दगी एक ऐसे रहबर के बग़ैर नही है जिस के क़ौल व फ़ैल पर अमल किया जाये। इसी लिये तारीख़ में तमाम लोग और मुख़्तलिफ़ गिरोह किसी न किसी रहबर की क़यादत में रहे। चाहे वह अच्छा रहबर हो या बुरा। लेकिन यह बात मुसल्लम है कि इंसान एक ऐसे समाज का मोहताज है जिस में सही और इंसाफ़ पसंद निज़ाम क़ायम हो और ज़ाहिर है कि कोई गुनाहगार या ख़ताकार इंसान ऐसे समाज को वुजूद में नही ला सकता बल्कि कोई मासूम इमाम ही ऐसे समाज को वुजूद बख़्श सकता है।

4. इतमामे हुज्जत

बहुत से इंसान ऐसे होते हैं जो हक़ व हक़ीक़त को जानते हुए भी उस की मुख़ालिफ़त करते हैं। ऐसी सूरत में अगर इमाम का वुजूद न होता तो यह लोग क़यामत के दिन अल्लाह की बारगाह में यह बहाना पेश करते कि अगर कुछ आसमानी रहबर हमारी हिदायत के लिये होते तो हम इन गुनाहों को न करते। इसी वजह से ख़ुदा वंदे आलम ने तमाम इंसानों की हिदायत के लिये मासूम इमामों को भेजा ता कि लोगों पर हुज्जत तमाम करें और उन के लिये उज़्र पेश करने को कोई रास्ता बाक़ी न रह जाये।

खुलासा

- इमामत उसूले दीन में से है।

- जो असबाब और दलायले नबुव्वत की ज़रुरत को साबित करते हैं। उन में अकसर दलीलें इमामत की ज़रुरत को भी साबित करती है। इस के अलावा बहुत से असबाब हैं जो इमामत की ज़रुरत को वाज़ेह व ज़ाहिर करते हैं। जैसे:

अ. इमाम की सर परस्ती में कमाल तक पहुचना।

आ. आसमानी शरीयतों की हिफ़ाज़त।

इ. उम्मत की समाजी और सियासी क़यादत।

ई. इतमामे हुज्जत।

 

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