ख़ुदा की याद हर मुश्किल का हल

अकीदाऐ तोहीद
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अली अब्बास

आज की तरक़्क़ी याफ़ता दुनिया में जिस क़दर आसाइश व आराम के वसायल मुहैय्या हैं उसी क़दर सुकून व इतमीनान का फ़ोक़दान है अगर एक तरफ़ सरमाया, औलाद, इल्म, हुनर वग़ैरह में इज़ाफ़ा होता है तो दूसरी जानिब उन्ही तमाम चीज़ों के ज़रिये बे चैनी व इज़तेराब में भी इज़ाफ़ा होता है सुकून व चैन, राहत व इतमीनान ऐसे अल्फ़ाज़ हैं जिन्हे सुनने के लिये समाअत तिशना रहती है। हर शख़्स अपनी मुसीबतों, परेशानियों और बेचैनियों की दास्तान इज़मेहलाल आमेज़ लहजे में सुनाता नज़र आता है। किसी को माली परेशानियों का शिकवा है तो कोई मालदारी से परेशान, कोई औलाद न होने की वजह से गिला मंद है तो कोई औलाद की ना फ़रमानी से तंग, किसी को भूख का ग़म है तो किसी को भूख न लगने का परेशानी, किसी के लिये नींद मुसीबत को किसी को नींद से अज़ीयत, ग़रज़ कि दुनिया में हर फ़र्द किसी न किसी परेशानी में गिरफ़तार ज़रूर है। कोई ऐसा नही है जिस की ज़िन्दगी हर ऐतेबार से पुर सुकून और मुतमईन हो, आख़िर यहा परेशानियां कहां से जन्म लेती हैं? उन का सर चश्मा कहां है? क्या किसी निज़ामे हयात में पूरी ज़िन्दगी को सुकून व चैन से गुज़ारने के उसूल बताये गये हैं?

उन सब सवालों का जवाब हमें क़ुरआन और अहादीस की रौशनी में मिल सकता है फ़क़त हौसले के साथ मुतालआ की ज़रूरत है।

कुफ़्र व बे ईमानी, ख़ुदा फ़रामोशी, ख़ुद फ़रामोशी, हिर्स व तमअ, माल व औलाद की बे हद चाहत, नमाज़ की तरफ़ तवज्जो न देना, लंबी लंबी आरज़ू, ख़ौफ़े का न होना, दुनिया परस्ती, गुनाह, कुफ़राने नेमत, मौत का डर, हादिसात की बुज़ुर्ग नुमाई, जल्द बाज़ी, ज़ाहिर बीनी, शराबख़ोरी, जुवाबाज़ी, ज़ेना कारी, शिर्क और इमामे वक़्त की पैरवी न करना, यह तमाम चीज़े क़ुरआन व हदीस में बे चैनियों के असबाब के उनवान से बयान की गई हैं। उन सब में अहम तरीन शय, ख़ुदा को भूल जाना है कि तमाम असबाब उसी एक सबब में जमा हो जाते हैं हर बुराई उसी एक वजह से वुजूद में आती है कि इंसान ख़ुदा को फ़रामोश कर दे और उस की याद से ग़ाफ़िल हो जाये।

मुसीबतों के माद्दी असबाब से क़त ए नज़र अगर इंसान अपने वुजूद को ख़ुदा के सामने महसूस करे तो उसे लगेगा कि यह तमाम मसायब ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से उस की तरक़्क़ी के लिये उस पर नाज़िल हुए हैं इस लिये कि कोई चाहने वाला अपने महबूब को परेशानियां नही देना चाहता। इंसान तो ख़ुदा की महबूब तरीन मख़लूक़ है यह कैसे हो सकता है कि जिस ख़ुदा ने इंसान को अहसने तक़वीम के मेयार पर बनाया हो। इंसान को परेशानियों और इज़तेराब में गिरफ़तार कर दे। ख़ुदा वंदे आलम किसी को परेशान नही करता यह तो इंसान ही है कि ख़ुदा के बनाये हुए उसूलों को छोड़ कर ख़ुद साख़्ता उसूलों की पैरवी करता है जिस के नतीजे में बलाओं, मुसीबतों और परेशानियों में मुबतला हो जाता है और उन्ही में उलझ कर ख़ुदा को भूल जाता है यहां तक कि कुफ़्र बकने लगता है।

इंसान अगर हक़ीक़त में ख़ुदा को याद रखने और उस की तरफ़ से आयद होने वाले हर क़िस्म के ईनाम व इकराम के सामने जिस तरह शुक्र गुज़ार रहता है बिल्कुल उसी तरह अगर मुश्किलात और दुशवारियों पर भी शुक्र व सब्र करे और उन्हे भी अपने हक़ में नेमत समझे तो दुनिया की बड़ी से बड़ी परेशानी उस के सुकून व इतमीनान में ख़लल नही डाल सकती, वह भूख और प्यास को भी ख़ुदा की अज़ीम तरीन नेमत समझेगा और दर बदरी भी उसे वतन महसूस होगी।

मजाज़ी मुहब्बत में गिरफ़तार मजनू के क़िस्सों में मिलता है कि एक मरतबा लैला शदीद बीमारी के बाद सेयतयाब हुई तो उस के घर वालों ने बतौरे शुक्राने लैला के हाथों ख़ैरात तक़सीम कराई, मजनू भी हुसूले ख़ैरात की ख़ातिर दरयूज़ा गरों की तरह दरवेशों की सफ़ में खड़ा हो गया हर एक फ़र्द लैला के हाथों से ख़ैरात पा कर बढ़ता गया मगर जब मजनू की बारी आई तो लैला बजाय इस के कि मजनू के साथ कोई इम्तियाज़ी सुलूक करती, मजनू के हाथ से कासा छीन कर फेक देती है, कासा ज़मीन पर गिरते ही टूट गया मजनू आगे बढ़ा और टूटे हुए कासे के टुकड़ों को हाथों में उठा कर वज्द की हालत में आ गया और आँखें बंद कर के मसर्रत से रक़्स करने लगा वहाँ मौजूद लोगों ने जब यह मंज़र देखा तो मजनू को मलामत करने लगे और कहने लगे कि इस में रक़्स व सुरुर की कौन सी बात है जो तुम इस क़दर ख़ुश हो गये, मजनू ने जवाब दिया तुम ने देखा नही लैला ने फ़क़त मेरा प्याला तोड़ा है किसी और का नहीं, इस अमल से मैं दूसरों की नज़र में मुनफ़िरद हो गया मेरी हैसियत उस दरवेशों में इम्तियाज़ी थी इसी लिये लैला ने मेरे साथ मुनफ़िरद सुलूक किया जो उस के ख़ुसूसी ताअल्लुक़ का अक्कास है। इसी बात पर तो नाज़ां हूँ कि लैला के इस इंफ़ेरादी बर्ताव ने मेरी मुहब्बत को नवाज़ा है।

रब से हक़ीक़ी मुहब्बत रखने वाले भी इसी तरह दुनिया की परेशानी और मुसीबत को ख़ेदा पेशानी के साथ बरदाश्त करते हैं बल्कि उस को ख़ुदा की नेमत समझते हैं और उस पर शुक्र करते हैं।

करबला में भर घर के उजड़ जाने के बाद भूख और प्यास, अज़ीज़ तरीन ख़ानदान और कुन्बे वालों की लाशों को बे गोर व कफ़न जलती ज़मीन पर देखने के बाद भी जनाबे ज़ैनब सलामु्ल्लाह अलैहा बारगाहे रब्बुल इज़्ज़त में न सिर्फ़ यह कि शिकायत ज़बान पर नही लायीं बल्कि ख़ुदा का शुक्र अदा किया, दरबारे इब्ने ज़ियाद में जब मुसीबतों का तअना मिला तो आप ने फ़रमाया: हम ने अपने परवरदिगार की जानिब से जो कुछ भी देखा अच्छा ही देखा। ख़ुदा की याद ही थी जिस ने दुखों बल्कि जुमला मुश्किलात व मसायब में तकलीफ़ बर्दाश्त करने का न सिर्फ़ हौसला दिया बल्कि उन को नेमत समझ कर शुक्र अदा करने की जुरअत अता की। इमाम हुसैन अलैहिस सलाम और जनाबे ज़ैनब सलामुल्ला अलैहा से मुहब्बत रखने वाला भी अगर करबला की दास्तान से इस रम्ज़ को हासिल न करे तो फिर उस के लिये यह सिर्फ़ एक कहानी तो होगी ज़िन्दगी का मंशूर और दस्तूरुल अमल नहीं।

 

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