हज़रत अली (अ.स.) की ज़ाहेरी खि़लाफ़त

इमाम अली अ.स.
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पैग़म्बरे इस्लाम स. के इन्तेक़ाल के बाद हज़रत अली (अ.स.) गोशा नशीनी के आलम में फ़राएज़े मन्सबी अदा फ़रमाते रहे यहां तक कि खि़लाफ़त के तीन दौरे इस्लाम की तक़दीर के चक्कर बन कर गुज़र गये और 35 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त ख़ाली हो गया। 23 , 24 साल की मुद्दते हालात को परखने और हक़ व बातिल के फ़ैसले के लिये काफ़ी होती हैं। बिल आखि़र असहाब इस नतीजे पर पहुँचे कि तख़्ते खि़लाफ़त हज़रत अली (अ.स.) को बिला शर्त हवाले कर देना चाहिये। चुनान्चे असहाब का एक अज़ीम गिरोह हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हुआ। इस गिरोह में ईराक़ , मिस्र , शाम , हिजाज़ , फि़लस्तीन और यमन के नुमाइन्दे शामिल थे। उन लोगों ने खि़लाफ़त क़ुबूल करने की दरख़्वास्त की।

हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया मुझे इसकी तरफ़ रग़बत नहीं है तुम किसी और को ख़लीफ़ा बना लो। इब्ने ख़लदून का बयान है कि जब लोगों ने इस्लाम के अन्जाम से हज़रत को डराया , तो आपने रज़ा ज़ाहिर फ़रमाई। नहजुल बलाग़ा में है कि आपने फ़रमाया कि मैं ख़लीफ़ा हो जाऊंगा तो तुम्हे हुक्मे ख़ुदावन्दी मानना पड़ेगा। बहर हाल आपने ज़ाहेरी खि़लाफ़त क़ुबूल फ़रमा ली। मुसन्निफ़ बिरीफ़ सरवे ने लिखा है कि अली (अ.स.) 655 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त पर बिठाए गये। जो हक़ीक़त के लेहाज़ से रसूल स. के बाद ही होना चाहिये था। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 26) रौज़ातुल अहबाब में है कि खि़लाफ़ते ज़ाहिरया क़ुबूल करने के बाद आपने जो पहला ख़ुतबा पढ़ा उसकी इब्तेदा इन लफ़्ज़ो से थी। अलहम्दो लिल्लाह अला एहसाना क़द रजअल हक़ अला मकानेह ख़ुदा का लाख लाख शुक्र और उसका एहसान है कि उसने हक़ को अपने मरकज़ और मकान पर फिर ला मौजूद किया। तारीख़े इस्लाम और जामए अब्बासी में है कि 18 जि़ल्हिज्जा को हज़रत अली (अ.स.) ने खि़लाफ़ते ज़ाहेरी क़ुबूल फ़रमाई और 25 जि़ल्हिज्जा 35 हिजरी को बैयते आम्मा अमल में आई। इन्साइक्लोपीडिया बरटानिका में है कि जब मौहम्मद साहब स. ने इन्तेक़ाल फ़रमाया तो अली (अ.स.) में मज़हबे इस्लाम के मुसल्लम अल सुबूत सरदार होने के हुक़ूक़ मौजूद थे लेकिन दूसरे तीन साहब अबू बक्र , उमर व उस्मान ने जाये खि़लाफ़त पर क़ब्ज़ा कर लिया और अली (अ.स.) मुलक़्क़ब बा ख़लीफ़ा न हुये लेकिन बादे उस्मान 656 हिजरी में अली (अ.स.) ख़लीफ़ा हो गये , अली (अ.स.) के अहदे खि़लाफ़त में सब से पहला काम तलहा व ज़ुबैर की बग़ावत को फ़रो करना था। जिन्हें बी बी आयशा ने बहकाया था। आयशा अली (अ.स.) की सख़्त दुश्मन थीं और ख़ास उन्हीं की वजह से अली (अ.स.) अब तक ख़लीफ़ा न हो सके थे। (मोहज़्ज़ब मुकालेमा , सफ़ा 34) मुवर्रिख़ जरजी ज़ैदान लिखते हैं कि , अगर हज़रत उमर के ज़माने में जब लोगों के दिलों में नबूवत की दहशत और रिसालत की हैबत क़ायम थी और सच्चा दीन क़ायम था , हज़रत अली (अ.स.) मुसलमानों के हाकिम मुक़र्रर होते तो आपकी हुकूमत और सियासत कहीं बेहतर और आला साबित होती और आपके कामों में ज़र्रा बराबर भी ज़ोफ़ ज़ाहिर न होता लेकिन इसको क्या किया जाय कि आपके पास खि़लाफ़त की खि़दमत उस वक़्त आई जब लोगों की नियतें फ़ासिद हो गईं थीं और इन्तेज़ामाते मुल्की और उसूली हुकूमत के मुताअल्लिक़ वालियो और मातहतों के दिलों में हिरस व लालच पैदा हो गई थी और इन सब से ज़्यादा लालची और मक्कार माविया इब्ने अबू सुफि़यान था क्योकि इसने अपनी हुकूमत जमाने के लिये लोगों को धोका फ़रेब दे कर उनके साथ मक्र व हीला कर के और मुसलमानों का माल बे दरेग़ लुटा कर लोगों को अपनी तरफ़ कर लिया था। (तारीख़ अल तमद्दुन अल इस्लामी 4 सफ़ा 37 प्रकाशित मिस्र)

फ़ाजि़ल माअसर सैय्यद इब्ने हसन जारचावी लिखते हैं कि अगर अली (अ.स.) रसूल स. के बाद ही ख़लीफ़ा तसलीम कर लिये जाते तो दुनिया मिनहाजे रिसालत पर चलती और राहवारे सलतनत व हुकूमत दीने हक़ की शाहराह पर सरपट दौड़ता मगर मसलेहत और दूर अन्देशी के नाम से जो आइन व रूसूम हुकमरां जमाअत का जुज़वे जि़न्दगी और औढना बिछोना बन गये थे , उन्होंने अली (अ.स.) की पोज़ीशन नाहमवार और उनका मौकफ़ ना इस्तेवार बना दिया था। पिछलों दौर की गै़र इस्लामी रसमों और इम्तियाज़ पसन्द ज़ेहनियतों की इस्लाह करने में उनको बड़ी दिक़्क़त हुई और फि़र भी खा़तिर ख़्वाह कामयाबी हासिल न हो सकी। तबीयते आदम मसावात की खूगर और माअशरती अदल से कोसों दूर हो चुकी थीं।

टली (अ.स.) ने बैअत के दूसरे रौज़ बैतुल माल का जायज़ा लिया और सब को बराबर तक़सीम कर दिया। हबशी ग़ुलाम और क़ुरैशी सरदार दोनों को दो दो दिरहम मिले। इस पर पेशानी पर सिलवटें पड़ने लगीं। बनी उमय्या को इस दौर में अपनी दाल गलते नज़र न आई। कुछ माविया से जा मिले , कुछ उम्मुल मोमेनीन आयशा के पास मक्के जा पहुँचे। आसम कूफ़ी का बयान है कि आयशा हज से वापस आ रहीं थीं कि उन्हें क़त्ले उस्मान की ख़बर मिली। उन्होने निहायत इशतेयाक़ से पूछा कि अब कौन ख़लीफ़ा हुआ। कहा गया , अली यह सुन कर बिल्कुल ख़ामोश हुईं। अब्दुल्लाह इब्ने सलमा ने कहा , क्या आप उस्मान की मज़म्मत और अली (अ.स.) की तारीफ़ नहीं करती थीं , अब नाख़ुश का सबब क्या है ? फ़रमाया आखि़र वक़्त में उसने तौबा कर ली थी। अब उसका क़सास चाहती हूं। इब्ने ख़ल्दून का बयान है कि आयशा ने ऐलान कराया कि जो शख़्स इस्लाम की हमदर्दी करना और ख़ूने उस्मान का बदला लेना चाहता हो और उसके पास सवारी न हो , वह आय उसे सवारी दी जायेगी। बिरीफ़ सरवे ऑफ़ हिस्ट्री में है कि आयशा जो अली (अ.स.) की पुरानी और हमेशा की दुश्मन थीं अदावत में इस कद्र बढ़ गईं कि उनके माज़ूद कर ने के लिये एक फ़ौज जमा कर ली।

हज़रत अली (अ.स.) को एक दूसरी दिक़्क़त यह दरपेश थी कि सारा आलमे इस्लाम इन उमवी आमिलो और हाकिमों से तंग आ गया था जो हज़रत उस्मान के अहद में मामूर थे , अगर अली (अ.स.) उनको ब दस्तूर रहने देते तो हुकूमत के बवजूद जमहूर को चैन न मिलता , और अगर हटाते हैं तो मुखा़लिफ़ों की तादाद में इज़ाफ़ा करते हैं। हुक्काम व आमिल मुद्दत से ख़ुदसरी के आदी और बैतूल माल को हज़म करने के ख़ूगर हो चुके थे। अकसर उनमें ऐसे थे जिनके बाप दादा अज़ीज़ व अक़रोबा अली (अ.स.) की तलवार से मौत के घाट उतर चुके थे या अली (अ.स.) को खरे और बे लौस अदलों इन्साफ़ का तमाशा देख चुके थे। उनको नज़र आ रहा था कि अली (अ.स.) हैं तो हम नहीं रह सकते और रहे भी तो मन मानी नहीं कर सकते। उन्होने वह कमीनगाह (छुपने की जगह) तलाश की जहां बैठ कर वह दामादे रसूल स.अ.व.व पर तीर चला सकें और वह मोरचे बनाए और वह घाटियां खोदीं जिनकी आड़ में छुप कर वह नई हुकूमत को जड़ से उखाड़ सकें।

तलहा व ज़ुबैर जो ख़ुद हुकूमत के ख़्वाहां और खि़लाफ़त के आरज़ू मन्द थे और हज़रत आयशा की हिमायत और मदद उनको हासिल थी। पहले तो हज़रत अली (अ.स.) से बैयत कर बैठे , फिर लगे उनसे साजि़शे करने। एक दिन आय और बसरे और कूफ़े की हुकूमत तलब करने लगे। हज़रत अली अ ने कहा मुझे तुम्हारी ज़रूरत है , मदीने में रहो और रोज़ मर्रा के कारोबारे हुकूमत में मेरी मदद करो। दूसरे दिन वह मक्का जाने की इजाज़त मांगने आय। वाशिंगटन एयरविंग लिखता है , ऐसी हालत में कि लब पर तक़वा और दिल में मक्र था। यह आयशा से जा मिले जो मुख़ालेफ़त के लिये तैय्यार थीं। यही मुवर्रिख़ लिखता है। अली (अ.स.) ख़लीफ़ा हो गये लेकिन देखते थे कि उनकी हुकूमत जीम नही है। गुज़शता ख़लीफ़ा के ज़माने में बहुत सी बद उन्वानियां पैदा हो गईं थीं जिनमें इस्लाह की ज़रूरत थी और बहुत से सूबे उन लोगों के हाथ में थे जिनकी वफ़ादारी पर उनको मुतलक़न एतेमाद न था। उन्होंने इस्लाहे आम का इरादा किया।

गवरनरों की तक़र्रूरी

पहली इस्लाह यह थी कि गवर्नर हटा दिये जायें। लोगों ने उनके इस अमल की मोअफ़ेक़त न की मगर अली (अ.स.) ने न माना और गवरनरों की तक़र्रूरी फ़रमा दी। आपने हालाते हाज़रा के पेशे नज़र इस ओहदे पर ज़्यादा उन लोगों को फ़ाएज़ किया जिन पर आपको कामिल एतेमाद था और जो अहदे साबिक़ में अपने हुक़ूक़े सरदारी से महरूम रखे गये थे। आपने अब्दुल्लाह को यमन का , सईद को बहरैन का , समाआ को तहामा का , औन को मियामा का , क़सम को मक्के का , क़ैस को मिस्र का , उस्मान बिन हनीफ़ को बसरे का , अम्मार को कूफ़े का और सहल को शाम का गवर्नर मुक़र्रर फ़रमा दिया। हज़रत अली (अ.स.) को सलाह दी गई कि वह माविया को अपनी जगह रहने दें मगर अली (अ.स.) ने ऐसी सलाहों पर तवज्जोह न की और क़सम खाई कि मैं रास्ते से मुन्हरिफ़ उमूर पर अमल न करूंगा। एहसान अल्लाह अब्बासी तारीख़े इस्लाम में लिखतें हैं। अली (अ.स.) ने सीधे तौर पर जवाब दिया कि मैं उम्मते रसूल स. पर बूरे लोगों को हुक्मरां नहीं रख सकता। अल्लामा जरज़ी ज़ैदान तारीख़े तमद्दुने इस्लामी में लिखते हैं , यह अम्र पहले मालूम हो चुका है कि अबू सुफि़यान और उसकी औलाद ने महज़ मजबूरी के आलम में इस्लाम क़ुबूल किया था क्यों कि उनको अपनी कामयाबी से मायूसी हो चुकि थी इस लिये माविया को खि़लाफ़त की आरज़ू महज़ दुनियावी अग़राज़ की वजह से पैदा हुई। क़ुरैश के चन्द चीदा चीदा सरदार उनके पास जमा हो गये। अग़राज़े नफ़सानी की बिना पर मन्सबे खि़लाफ़त का ख़ानदाने बनी हाशिम में जाना उनको बहुत शाक़ गुज़र रहा था।

आमिल हटते गये और कुछ माविया के पास शाम में और कुछ उम्मुल मोमेनीन आयशा के पास मक्के में जमा होते गये। तलहा व जु़बैर मक्के जा कर उम्मुल मोमेनीन से मिले और इन्तेक़ामे उस्मान के नाम से एक तहरीक उठाई। अब्दुल्लाह इब्ने आमिर और लैला इब्ने उमय्या ने जो माज़ूल गवर्नर थे और बैतुल माल का रूपया ले कर भाग आय थे माली इम्दाद दी। तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 169 में है कि बा रवायते साहबे रौज़ातुल अहबाब व इब्ने ख़लदून , इब्ने असीर लैला ने जनाबे आयशा को साठ हज़ार (60,000) दीनार जो छः लाख (6,00,000) दिरहम होते हैं और छः सौ (600) ऊँट इस ग़रज़ से दिये कि अली (अ.स.) से लड़ने की तैय्यारी करें। उन्हीं ऊँटों में एक निहायत उम्दा अज़ीम उल जुस्सा ऊँट था जिसका नाम असकर था और जिसकी क़ीमत ब रवायत मसूदी दो सौ अशरफ़ी थी। मुवर्रिख़ीन का बयान है कि इसी ऊँट पर सवार हो कर जनाब उम्मुल मोमेनीन आयशा दामादे रसूल स. शौहरे बुतूल अली (अ.स.) से लड़ीं और इसी ऊँट की सवारी की वजह से इस लड़ाई को जंगे जमल कहा गया।

जंगे जमल

(36 हिजरी)

यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि हज़रत अली (अ.स.) क़त्ले उस्मान के बाद 18 जि़लहिज्जा 35 हिजरी को तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतमक्किन हुये और आपने अनाने हुकूमत संभालने के बाद सब से पहला जो काम किया वह क़त्ले उस्मान की तहक़ीक़ात से मुताअल्लिक़ था। नायला ज़वजए उस्मान अगरचे कोई शहादत न दे सकीं और किसी का नाम न बता सकीं नीज़ उनके अलावा भी कोई चश्म दीद गवाह न मिल सका , जिसकी वजह से फ़ौरी सज़ाएं दी जायें लेेकिन हज़रत अली (अ.स.) तहक़ीक़ाते यक़ीनीया का अज़मे समीम कर चुके थे। अभी आप किसी नतीजे पर न पहुँचने पाये थे कि मक्के में साजि़शें शुरू हो गईं। हज़रत आयशा जो हज से फ़राग़त के बाद मदीने के लिये रवाना हो चुकी थीं और खि़लाफ़ते अली (अ.स.) की ख़बर पाने के बाद फिर मक्के में जा कर फ़रोकश हो गईं थीं। उन्होंने चार यारान , तल्हा , ज़ुबैर , अब्दुल्लाह , अबुल याअली के मशवेरे से इन्तेक़ामे ख़ूने उस्मान के नाम से एक साजि़शी तहरीक की बुनियाद डाल दी और क़त्ले उस्मान का इल्ज़ाम हज़रत अली (अ.स.) पर लगा कर लोगों को भड़काना शुरू कर दिया और इसका ऐलाने आम करा दिया कि जिसके पास अली (अ.स.) से लड़ने के लिये मदीना जाने के वास्ते सवारी न हो वह हमें इत्तेला दे , हम सवारी का बन्दो बस्त करेंगे। उस वक़्त अली (अ.स.) के दुश्मनों की कमी नहीं थी। किसी को आप से बुग़ज़े लिल्लाही था , कोई जंगे बद्र में अपने किसी अज़ीज़ के मारे जाने से मुतास्सिर था , किसी को प्रोपेगन्डे ने मुतास्सिर कर दिया गया था। ग़रज़ के एक हज़ार अफ़राद हज़रत आयशा की आवाज़ पर मक्के में जमा हो गये और प्रोग्राम बनाया गया कि सब से पहले बसरे पर छापा मारा जाय। चुनान्चे आप इन्हीं मज़कूरा चारों अफ़राद के मैमने और मैसरे पर मुशतमिल लशकर ले कर बसरे की तरफ़ रवाना हो गईं। आपके साथ अज़वाजे नबी में से कोई भी बीबी नहीं गई। हज़रत आयशा का यह लशकर जब मुक़ामे जातुल अरक़ में पहुँचा तो मुगीरा और सईद इब्ने आस ने लश्कर से मुलाक़ात की और कहा कि तुम अगर ख़ूने उस्मान का बदला लेना चाहते हो तो तल्हा और ज़ुबैर से लो क्यो कि उस्मान के सही क़ातिल यह हैं और अब तुम्हारे तरफ़दार बन गये हैं। इतिहास में है कि रवानगी के बाद जब मक़ामे हव्वाब पर हज़रत आयशा की सवारी पहुँची और कुत्ते भौंकने लगे तो उम्मुल मोमेनीन ने पूछा कि यह कौन सा मुक़ाम है ? किसी ने कहा इसे हवाब कहते हैं। हज़रत आयशा ने उम्मे सलमा की याद दिलाई हुई हदीस का हवाला हो दे कर कहा कि मैं अब अली (अ.स.) से जंग के लिये नहीं जाऊँगी क्यों कि रसूल अल्लाह स. ने फ़रमाया था कि मेरी एक बीवी पर हवाब के कुत्ते भौकेंगे और वह हक़ पर न होगी लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर के जि़द करने से आगे बढ़ीं , बिल आखि़र बसरे जा पहुँचीं और वहां के अलवी गर्वनर उस्मान बिन हनीफ़ पर रातो रात हमला किया और चालीस आदमियों को मस्जिद में क़त्ल करा दिया और उस्मान बिन हनीफ़ को गिरफ़्तार करा के उनके सर , डाढ़ी , मूंछ , भवें और पलकों के बाल नुचवा डाले और उन्हें चालीस कोडे़ मार कर छोड़ दिया। उनकी मद्द के लिये हकीम इब्ने जब्लता आये तो उन्हें भी सत्तर आदमियों समेत क़त्ल करा दिया गया। इस के बाद बैतुल मार पर क़ब्ज़ा न देने की वजह से सत्तर आदमी और शहीद हुए , यह वाक़ेया 25 रबीउस सानी , 36 हिजरी का है।

(तबरी)

हज़रत अली (अ.स.) को जब इत्तेला मिली तो आपने भी तैय्यारी शुरू कर दी , अभी आप बसरे की तरफ़ रवाना न होने पाये थे कि मक्के से उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा का ख़त आ गया। जिसमें लिखा था कि आयशा हुक्मे ख़ुदा व रसूल स. के खि़लाफ़ आपसे लड़ने के लिये मक्के से रवाना हो गई हैं , मुझे अफ़सोस है कि मैं औरत हूँ , हाजि़र नहीं हो सकती , अपने बेटे उमर बिन अबी सलमा को भेजती हूँ इसकी खि़दमत क़ुबूल फ़रमायें।

(आसिम कूफ़ी)

हज़रत अली (अ.स.) आखि़र रबीउल अव्वल 36 हिजरी में अपने लशकर समेत मदीने से रवाना हुए। आपने लश्कर की अलमदारी मोहम्मदे हनफि़या के सिपुर्द की और मैमने पर इमाम हसन (अ.स.) और मैसरे पर इमाम हुसैन (अ.स.) को मुताअय्यन फ़रमाया , और सवारों की सरदारी अम्मारे यासिर और पियादों की नुमाइन्दगी मौहम्मद इब्ने अबी बक्र के हवाले की और मुक़दमा तुल जैश का सरदार अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को क़रार दिया। मुक़ामे ज़ब्दा में आपने क़याम फ़रमाया और वहां से कूफ़े के वाली अबू मूसा अशअरी को लिखा कि फ़ौज रवाना करे , लेकिन चुंकि वह आयशा के ख़त से पहले ही मुतास्सिर हो चुका था लेहाज़ा उसने फ़रमाने अली (अ.स.) को टाल दिया। हज़रत को मक़ामे ज़ीक़ारा पर हालात की इत्तेला मिली , आपने उसे माज़ूद कर के क़रज़ा इब्ने काब को अमीर नामज़द कर दिया और मालिके अशतर के ज़रिेये से दारूल इमाराह ख़ाली करा लिया।

(तबरी)

इसके बाद इमाम हसन (अ.स.) के हमराह 7000 (सात हज़ार) कूफ़ी और मालिके अशतर के हमराह 12000 (बारह हज़ार) कूफ़ी 6 दिन के अन्दर जी़क़ार पहुँच गये। इसी मुक़ाम पर उवैसे क़रनी ने भी पहुँच कर बैयत की। इसी मुक़ाम पर उन ख़ुतूत के जवाब आये जो रबज़ा से हज़रत ने (तल्हा व ज़ुबैर) को लिखे थे जिनमें उनकी हरकतों का तज़किरा किया था और लिखा था कि अपनी औरतों को घर में बिठा कर नामूसे रसूल स. को जो दर बदर फिरा रहे हो इससे बाज़ आओ। जवाबात में इस्कीम के मातहत क़त्ले उस्मान की रट थी। इसके बाद इमाम हसन (अ.स.) ने एक ख़ुतबे में तलहा और ज़ुबैर के क़ातिले उस्मान होने पर रौशनी डाली। हज़रत अभी मक़ामे ज़ीक़ार ही में थे कि मज़लूम उस्मान बिन हनीफ़ आपकी खि़दमत में जा पहुँचे। हज़रत ने उस्मान का हाल देख कर बेहद अफ़सोस किया और फ़ौरन बसरे की तरफ़ रवाना हो गये। मुसन्निफ़ तारीख़े आइम्मा लिखते हैं कि आयशा के लशकर की आख़री तादाद 30,000 (तीस हज़ार) और हज़रत अली (अ.स.) के लशकर की तादाद 20,000 (बीस हज़ार) थी। सफ़ा 265 अल्लामा अब्बासी लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) तलहा , ज़ुबैर और आयशा के तमाम हालात देख रहे थे लेकिन यही चाहते थे कि लडा़ई न हो। जब बसरे के क़रीब आप पहुँचे तो क़आक़ा इब्ने उमरो को उन लोगों के पास भेजा और सुलह की पेश कश की। क़आक़ा ने जो रिर्पोट वापस आकर पहुँचाई इससे वह लोग तो मुतास्सिर हुए जो ज़ेरे क़यादत आसम इब्ने क़लीब अली (अ.स.) के पास बतौरे सफ़ीर आये हुए थे और उनकी तादाद 100 (सौ) थी , लेकिन आयशा वगै़रा पर कोई ख़ास असर न हुआ। आसम वग़ैरा ने अली (अ.स.) की बैयत कर ली और अपनी क़ौम से जा कर कहा कि अली (अ.स.) की बातें नबियों जैसी हैं। ग़रज़ कि दूसरे दिन अली (अ.स.) बसरा पहुँच गये। उसके बाद जमल वाले बसरा से निकल कर मुक़ामे ज़ाबुक़ा या ख़रबिया में जा ठहरे और वहां से अली (अ.स.) के मुक़ाबले के लिये हज़रत आयशा ऊंट पर सवार हो कर खुद निकल पड़ीं। हज़रत अली (अ.स.) ने अपने लशकर को हुक्म दिया कि आयशा और उनके लशकर पर हमला न करें , न उनका जवाब दें। ग़रज़ कि वह जंग की कोशिश कर के वापस गईं। उसके बाद अली (अ.स.) ने ज़ैद इब्ने सूहान को उम्मुल मोमेनीन के पास भेज कर जंग न करने की ख़्वाहिश की मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ।

15 जमादिल आखि़र 36 हिजरी यौमे पंजशम्बा बा वक़्ते शब तल्हा व ज़ुबैर ने शबख़ूँ मार कर हज़रत अली (अ.स.) को सोते में क़त्ल कर डालना चाहा लेकिन अली (अ.स.) बेदार थे और तहज्जुद में मशग़ूल थे। हज़रत को हमले की ख़बर दी गई , आपने हुक्मे जंग दे दिया। इस तरह जंग का आग़ाज़ हुआ।

मैदाने कारज़ार

हज़रत आयशा को तल्हा व ज़ुबैर लोहे व चमड़े से मढ़े हुये हौदज में बैठा कर मैदान में लाये और अलमदारी का मनसब भी उन्हीं के सिपुर्द किया और उसकी सूरत यह की कि हौदज में झन्डा नस्ब कर के मेहारे नाक़ा अस्कर लायली के सिपुर्द कर दी। यह देख कर हज़रत अली (अ.स.) रसूल अल्लाह स. के घोड़े दुलदुल पर सवार हो कर दोंनो लश्करों के दरमियान आ खड़े हुये , और ज़ुबैर को बुला कर कहा कि तुम लोग क्या कर रहे हो , अब भी सोचो और उस पर ग़ौर करो कि रसूल अल्लाह स. ने तुम से क्या कहा था। ऐ ज़ुबैर क्या तुम्हें मुझ से जंग करने के लिये मना नहीं किया था। यह सुन कर ज़ुबैर शरमिन्दा हुए और वापस चले आये लेकिन अपने लड़के अब्दुल्लाह के भड़काने से आयशा की तरफ़दारी में नबरद आज़माई से बाज़ न आये।

अलग़रज़ हज़रत अली (अ.स.) ने जब देखा कि यह जमल वाले ख़ूँरेज़ी से बाज़ न आयेंगे तो अपनी फ़ौज को ख़ुदा की तरसी की तलक़ीन फ़रमाने लगे , आपने कहा:- 1. बहादुरों सिर्फ़ दफ़ये दुश्मन की नियत रखना। 2. इब्तेदाए जंग न करना। 3. मक़तूलो के कपड़े न उतारना। 4. सुलह की पेशकश मान लेना और पेशकश करने वाले के हथियार न लेना। 5. भागने वालों का पीछा न करना। 6. ज़ख़्मी बीमार और औरतों व बच्चों पर हथियार न उठाना। 7. फ़तेह के बाद किसी के घर में न घुसना।

इसके बाद आयशा से फ़रमानो लगे , तुम अनक़रीब पशेमान होगी और अपने लोगों की तरफ़ मुतावज्जे हो कर कहा तुम में कौन ऐसा है जो क़ुरआन के हवाले से जंग करने से बाज़ रखे। यह सुन कर मुस्लिम नामी एक जांबाज़ इस पर तैयार हुआ और क़ुरआन ले कर उनके मजमे में जा घुसा। तल्हा ने उसके हाथ कटवा दिये , और फिर शहीद करा दिया।

हज़रत अली (अ.स.) के लशकर पर तीरों की बारिश शुरू हो गई। बारवायत तबरी आपने फ़रमाया अब इन लोगों से जंग जायज़ है। आपने मौहम्मद बिन हनफि़या को हुक्म दिया , मौहम्मद काफ़ी लड़ कर वापस आये। हज़रत अली (अ.स.) ने अलम ले कर एक ज़बर दस्त हमला किया और कहा बेटा इस तरह लड़ते हैं। फिर अलम मौहम्मद बिन हनफि़या के हाथ में दे कर कहा हां बेटा आगे बढ़ो , मौहम्मद हनफि़या अन्सार ले कर यहां तक कि हौदज तक मारते हुय जा पहुँचेे , बिल आखि़र सात दिन के बाद हज़रत अली (अ.स.) खुद मैदान में निकल पड़े और दुश्मन को पसपा कर डाला। मरवान के ज़हर आलूद तीर से तल्हा मारे गये और ज़ुबैर मैदाने जंग से भाग निकले। रास्ते मे वादीउस्सबा के क़रीब उमर बिने ज़रमोज़ ने उनका काम तमाम कर दिया। उसके बाद हज़रते आयशा बारह हज़ार जर्रार समेत आखि़री हमले के लिये सामने आ गईं। अलवी लशकर ने इस क़दर तीर बरसाए कि हौदज पुश्ते साही के मानिन्द हो गया। हज़रत आयशा ने क़ाअब इब्ने असवद को क़ुरआन दे कर हज़रत अली (अ.स.) के लशकर की तरफ़ भेजा। मालिके अशतर ने उसे रास्ते ही में क़त्ल कर दिया। उसके बाद आयशा के नाक़े को पैय कर दिया गया। ऊँट हौदज समेत गिर पड़ा और लोग भाग निकले। हज़रत अली (अ.स.) ने मौहम्मद बिन अबी बक्र को हुक्म दिया कि हौदज के पास जा कर उसकी हिफ़ाज़त करें। उसके बाद ख़ुद पहुँच कर कहने लगे , आयशा तुम ने हुरमते रसूल बरबाद कर दी। फिर मौहम्मद से फ़रमाया कि इन्हें अब्दुल्लाह इब्ने हनीफ़ ख़ज़ाई बसरी के मकान में ठहरायें । हज़रत ले कुशतों को दफ़्न कर ने का हुक्म दिया , और ऐलाने आम कराया कि जिसका सामान जंग में रह गया हो तो जामेउल बसरा में आ कर ले जाय। मसूदी ने लिखा है कि इस जंग में 13,000 (तेराह हज़ार) आयशा के और 5,000 (पांच हज़ार) हज़रत अली (अ.स.) के लशकर वाले मारे गये।

(मुरूज जुज़हब , जिल्द 5 सफ़ा 177)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि फ़तह के बाद अब्दुल रहमान इब्ने अबी बक्र ने हज़रते अली (अ.स.) की बैयत कर ली। मसूदी और आसम कूफ़ी ने लिखा है कि हज़रत अली (अ.स.) ने आयशा को मुताअदद्दि आदमियों से कहला भेजा कि जल्द से जल्द मदीने वापस चली जाओ , लेकिन उन्होंने एक न सुनी। आखि़र में बारवायते रौज़तुल अहबाब व हबीब उस सैर व आसम कूफ़ी , इमाम हसन (अ.स.) के ज़रिये से कहला भेजा अगर तुम अब जाने में ताख़ीर करोगी तो मैं तुम्हे ज़वजियते रसूल स. से तलाक़ दे दूँगा । यह सुन कर वह मदीने जाने के लिये तैय्यार हो गईं। हज़रते अली (अ.स.) ने चालीस (40) औरतों को मरदों के सिपाहियाना लिबास में हज़रते आयशा की हिफ़ाज़त के लिये साथ कर दिया , और खुद भी बसरे के बाहर तक पहुँचाने गये। (अलखि़ज़री जिल्द 2 सफ़ा 90) और मौहम्मद बिन अबी बक्र को हुक्म दिया कि इन्हें मंजि़ले मक़सूद तक जा कर पहुँचा आओ। एयरविंग लिखता है कि आयशा को अली (अ.स.) के हाथों सख़्त बरताव की उम्मीद हो सकती थी लेकिन वह आली हौसला शख़्स ऐसा न था जो एक गिरे हुए दुशमन पर शान दिखाता। उन्होंने इज़्ज़त दी और चालीस आदमियों के साथ मदीने के तरफ़ रवाना कर दिया।

उसके बाद हज़रत अली (अ.स.) ने बसरे के बैतुल माल का जायज़ा लिया , 6,00,000 (छः लाख) दुर्रे आबदार बरामद हुये , आपने सब अहले मारेका पर तक़सीम कर दिये और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को वहां का गवर्नर मुक़र्रर कर के बरोज़ सोमवार 16 रजब 36 हिजरी को कूफ़े की तरफ़ रवाना हो गये और वहां पहुँच कर कुछ दिनों क़याम किया और दौराने क़याम में कूफ़ा , ईराक़ , ख़ुरासान , यमन , मिस्र और हरमैन का इन्तेजा़म किया। ग़रज़ शाम के सिवा तमाम मुमालिके इस्लामी पर हज़रत का तसल्लुत हो गया और क़ब्ज़ा बैठ गया और इस अन्देशे से कि माविया ईराक़ पर क़ब्ज़ा न कर ले कूफ़े को दारूल खि़लाफ़ा बना लिया। इब्ने ख़ल्दूर लिखता है कि जमल के बाद सिस्तान में बग़ावत हुई , हज़रत ने रज़ी इब्ने क़ास अम्बरी मो भेज कर उसे फ़रो कराया।

ख़ुरासान में रफ़ए बग़ावत के लिये अलवी फ़ौज की जंग और जनाबे शहर बानों का लाना

तरीख़े इस्लाम में है कि अहदे उस्मानी में अहले फ़ारस ने बग़ावत व सरकशी कर के अब्दुल्लाह इब्ने मोअम्मर वालीए फ़ारस को मार डाला और हुदूदे फ़ारस से लशकरे इस्लाम से निकाल दिया। उस वक़्त फ़ारस की लशकरी छावनी मक़ामे असतख़र था। ईरान का आखि़री बादशा यज़द जरद इब्ने शहरयार इब्ने कि़सरा अहले फ़ारस के साथ था। हज़रत उस्मान ने अब्दुल्लाह इब्ने आमिर को हुक्म दिया कि बसरा और अमान के लशकर को मिला कर फ़ारस पर चढ़ाई करे। उसने तामीले इरशाद की। हुदूदे अस्तख़ा में ज़बरदस्त जंग हुई मुसलमान कामयाब हो गये और अस्तख़र फ़तेह हो गया।

अस्तख़र के फ़तेह होने के बाद 31 हिजरी में यज़द जरद मक़ामे रै और फिर वहां से ख़ुरासान और ख़ुरासान से मरव जा पहुँचा और वहीं सुकूनत इख़्तेयार कर ली। इसके हमराह चार हज़ार आदमी थे। मरव मे वह ख़ाक़ाने चीन की साजि़शी इमदाद की वजह से मारा गया और शाहाने अजम के गोरिस्तान अस्तख़र में दफ़्न कर दिया गया।

जंगे जमल के बाद ईरान , ख़ुरासान के इसी मक़ाम मरव में सख़्त बग़ावत हो गयी उस वक़्त ईरान में बारवायत इरशाद मुफ़ीद व रौज़तुल सफ़ा हरस इब्ने जाबिर जाअफ़ी गवर्नर थे। हज़रते अली (अ.स.) ने मरव के कजि़या न मरजि़या को ख़त्म करने के लिये इमदादी तौर पर ख़लीद इब्ने क़रआ यरबोई को रवाना किया। वहां जंग हुई और हरीस इब्ने जाबिर जाफ़ी ने यज़द जरद इब्ने शहरयार इब्ने कसरा (जो अहदे उस्मानी में मारा जा चुका था) की दो बेटियां आम असीरों में हज़रते अली (अ.स.) की खि़दमत में इरसाल कीं। एक का नाम शहर बानो और दूसरी का नाम केहान बानो था। हज़रत ने शहर बानों इमाम हुसैन (अ.स.) को और केहान बानों , मौहम्मद इब्ने अबी बक्र को अता फ़रमाईं। (जामेउल तवारीख़ सफ़ा 149 , कशफ़ल ग़म्मा सफ़ा 89 , मतालेबुल सेवेल सफ़ा 261 , सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120 , नूरूल अबसार सफ़ा 126 , तोहफ़ए सुलैमानिया शरह इरशादिया सफ़ा 391 प्रकाशित ईरान)

जंगे सिफ़्फ़ीन

(36 , 37 हिजरी)

सिफ़्फ़ीन नाम है उस मक़ाम का जो फ़ुरात के ग़रबी जानिब बरक़ा और बालस के दरमियान वाक़े है। (माजमुल बलदान सफ़ा 370) इसी जगह अमीरल मोमेनीन और माविया में ज़बरदस्त जंग हुई थी। इस जगह के मुताअल्लिक़ उलेमा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि बानीए जंगे जमल आयशा की मानिन्द माविया भी लोगों को क़त्ले उस्मान के फ़र्ज़ी अफ़साने के हवाले से हज़रते अली (अ.स.) के खि़लाफ़ भड़काता और उभारता था। जंगे जमल के बाद हज़रते अली (अ.स.) के शाम पर मुक़र्रर किये हुए हाकिम सुहैल इब्ने हनीफ़ ने कूफ़े आ कर हज़रत को ख़बर दी कि माविया ने ऐलाने बग़ावत कर दिया है और उस्मान की कटी हुई ऊँगलियों और ख़ून आलूद कुर्ता लोगों को दिखा कर अपना साथी बना रहा है और यह हालत हो चुकी है कि लोगों ने क़समे खा ली हैं कि ख़ूने उस्मान का बदला लिये बग़ैर न नरम बिस्तर पर सोयगें न ठंडा पानी पियेंगे। उमरे आस वहां पहुँच चुका है जो उसे मदद दे रहा है। हज़रते अली (अ.स.) ने माविया को एक ख़त मदीने से दूसरा कूफ़े से इरसाल कर के दावते बैयत दी लेकिन कोई नतीजा बरामद न हुआ। माविया जो जमए लशकर में मशग़ूलो मसरूफ़ था एक लाख बीस हज़ार (1,20,000) अफ़राद पर मुशतमिल लश्कर ले कर मक़ामे सिफ़्फ़ीन में जा पहुँचा। हज़रते अली (अ.स.) भी शव्वाल 36 हिजरी में (नख़लिया और मदाएन) होते हुये रक़ा में जा पहुँचे। हज़रत के लशकर की तादाद नब्बे हज़ार (90,000) थी। रास्ते में लशकर सख़्त प्यासा हो गया। एक राहिब के इशारे से हज़रत ने ज़मीन से एक ऐसा चश्मा बरामद किया जो नबी और वसी के सिवा किसी के बस का न था। (आसम कूफ़ी सफ़ा 212 , रौज़तुल सफ़ा जिल्द 2 सफ़ा 392) हज़रत ने अपने लशकर को सात हिस्सों में तक़सीम किया और माविया ने भी सात टुकड़े कर दिये। मक़ामे रका़ से रवाना हो कर आबे फ़रात उबूर किया। हज़रत के मुक़द्देमातुल जैश से माविया के मुक़द्दम ने मज़ाहेमत की और वह शिकस्त खा कर माविया से जा मिला। हज़रत का लशकर जब वारिदे सिफ़्फ़ीन हुआ तो मालूम हुआ की माविया ने घाट पर क़ब्ज़ा कर लिया है और अलवी लशकर को पानी देना नहीं चाहता। हज़रत ने कई पैग़ाम्बर भेजे और बन्दिशे आब को तोड़ने के लिये कहा मगर समाअत न की गई। बिल आखि़र हज़रत की फ़ौज ने ज़बर दस्त हमला कर के घाट छीन लिया। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि घाट पर क़ब्ज़ा करने वालों में इमाम हुसैन (अ.स.) और हज़रते अब्बास इब्ने अली (अ.स.) ने कमाल जुरअत का सुबूत दिया था। (जि़करूल अब्बास सफ़ा 26 मोअल्लेफ़ा हकी़र) हज़रत अली (अ.स.) ने घाट पर क़ब्ज़ा करने के बाद ऐलान करा दिया कि पानी किसी के लिये बन्द नहीं है। मतालेबुल सुवेल में है कि हज़रत अली (अ.स.) बार बार माविया को दावते मसालेहत देते रहे लेकिन कोई असर न हुआ आखि़र कार माहे जि़ल्हिज में लड़ाई शुरू हुई और इन्फ़ेरादी तौर पर सारे महीने होती रही। मोहर्रम 37 हिजरी में जंग बन्द रही और यकुम सफ़र से घमासान की जंग शुरू हो गई। एयरविंग लिखता है अली (अ.स.) को अपनी मरज़ी के खि़लाफ़ तलवार ख़ैंचना पड़ी। चार महीने तक छोटी छोटी लड़ाईयां होती रहीं जिन्मे माविया के 45,000 (पैंतालिस हज़ार) आदमी काम आये और अली (अ.स.) की फ़ौज ने उससे आधा नुकसान उठाया। जि़करूल अब्बास सफ़ा 27 में है कि अमीरल मोमेनीन अपनी रवायती बहादुरी से दुशमने इस्लाम के छक्के छुड़ा देते थे। अमरू बिन आस और बशर इब्ने अरताता पर जब आपने हमले किये तो यह लोग ज़मीन पर लेट कर बरेहना हो गये। हज़रते अली (अ.स.) ने मुँह फेर लिया , यह उठ कर भाग निकले। माविया ने अमरू आस पर ताना ज़नी करते हुये कहा कि दर पनाह औरत खुद गि़रीख़्ती तूने अपनी शर्मगाह के सदक़े में जान बचा ली। मुवर्रेख़ीन कर बयान है कि यकुम सफ़र से सात शाबान रोज़ जंग जारी रही। लोगों ने माविया को राय दी कि अली (अ.स.) के मुक़ाबले मे ख़ुद निकलें मगर वह न माने। एक दिन जंग के दौरान में अली (अ.स.) ने भी यही फ़रमाया था कि ऐ जिगर ख़्वारा के बेटे क्यों मुसलमानों को कटवा रहा है तू ख़ुद सामने आजा और हम दोनों आपस में फ़ैसला कुन जंग कर लें। बहुत सी तवारीख़ में है कि इस जंग में नब्बे (90) लड़ाईयां वुक़ू में आईं। 110 रोज़ तक फ़रीक़ैन का क़याम सिफ़्फ़ीन में रहा। माविया के 90,000 (नब्बे हज़ार) और हज़रते अली (अ.स.) के 20,000 (बीस हज़ार) सिपाही मारे गये। 13 सफ़र 37 हिजरी को माविया की चाल बाजि़यों और अवाम की बग़ावत के बाएस फ़ैसला हकमैन के हवाले से जंग बन्द हो गई। तवारीख़ में है कि हज़रते अली (अ.स.) ने जंगे सिफ़्फ़ीन में कई बार अपना लिबास बदल कर हमला किया है। तीन मरतबा इब्ने अब्बस का लिबास पहना , एक बार अब्बास इब्ने रबिया का भेस बदला , एक दफ़ा अब्बास इब्ने हारिस का रूप् इख़्तेयार किया और जब क़रीब इब्ने सबा हमीरी मुक़ाबले के लिये निकला तो अपने बेटे हज़रते अब्बास (अ.स.) का लिबास बदला और ज़बरदस्त हमला किया। मुलाहेज़ा हो मुनाकि़बे (एहज़ब ख़वारज़मी सफ़ा 196 क़लमी) लड़ाई निहायत तेज़ी से जारी थी कि अम्मारे यासिर जिनकी उम्र 93 साल थी , मैदान में आ निकले और अट्ठारा शामियों को क़त्ल कर के शहीद हो गये। हज़रत अली (अ.स.) ने आपकी शहादत को बहुत महसूस किया। एयर विंग लिखता है कि अम्मार की शहादत के बाद अली (अ.स.) ने बारह हज़ार सवारों को ले कर पुर ग़ज़ब हमला किया और दुशमनो की सफ़ें उलट दी और मालिके अशतर ने भी ज़बर दस्त बेशुमार हमले किये।

दूसरे दिल सुबह को हज़रत अली (अ.स.) फिर लशकरे माविया को मुखातिब कर के फ़रमाया कि लोगों सुन लो कि अहकामे ख़ुदा मोअत्तल को जा रहे हैं इस लिये मजबूरन लड़ रहा हूं। इस के बाद हमला शुरू कर दिया और कुशतों के पुश्ते लग गये।

लैलतुल हरीर

जंग निहायत तेज़ी के साथ जारी थी मैमना और मैसरा अब्दुल्लाह और मालिके अशतर के क़ब्ज़े में था। जुमे की रात थी , सारी रात जंग जारी रही। बरवायत आसम कूफ़ी 36,000 (छत्तीस हज़ार) सिपाही तरफ़ैन के मारे गये। 900 (नौ सौ) आदमी हज़रत अली (अ.स.) के हाथों क़त्ल हुए। लशकरे माविया से अल ग़यास , अल ग़यास की आवाज़ें बलन्द हो गईं। यहां तक कि सुबह हो गई और दोपहर तक जंग का सिलसिला जारी रहा। मालिके अशतर दुशमन के ख़ेमे तक जा पहुँचे क़रीब था कि , माविया ज़द में आ जाऐ और लशकर भाग खड़ा हो। नागाह उमरो बिन आस ने 500 (पांच सौ) क़ुरआन नैजा़ पर बलन्द कर दिये और आवाज़ दी कि हमारे और तुम्हारे दरमियान क़ुरआन है। वह लोग जो माविया से रिशवत खा चुके थे फ़ौरत ताईद के लिये खड़े हो गये और अशअस बिन क़ैस , मसूद इब्ने नदक़ , ज़ैद इब्ने हसीन ने आवाम को इस दरजा वरग़लाया कि वह लोग वही कुछ करने पर आमादा हो गये जो उस्मान के साथ कर चुके थे मजबूरन मालिके अशतर को बढ़ते हुए क़दम और चलती हुई तलवार रोकना पड़ी। मुवर्रिख़ गिबन लिखता है कि अमीरे शाम भागने का तहय्या कर रहा था लेकिन यक़ीनी फ़तेह , फ़ौज के जोश और नाफ़रमानी की बदौलत अली (अ.स.) के हाथ से छीन ली गई। ज़रजी ज़ैदान लिखता है कि नैजा़ पर क़ुरआन शरीफ़ देख कर हज़रत अली (अ.स.) की फ़ौज के लोग धोखा खा गये। नाचार अली (अ.स.) को जंग मुलतवी करनी पड़ी। बिल आखि़र अवाम ने माविया की तरफ़ उमरो आस और हज़रत की तरफ़ से उनकी मरज़ी के खि़लाफ़ अबू मूसा अशअरी को हकम मुक़र्रर करके माहे रमज़ान में बामक़ाम जोमतुल जन्दल फ़ैसला सुनाने को तय किया।

हकमैन का फ़ैसला

अल ग़रज़ माहे रमज़ान में बमुक़ाम अज़रह चार चार सौ अफ़राद समेत उमरो बिन आस और अबू मूसा अशअरी जमा हुये और अपना वह बाहमी फ़ैसला जिसकी रू से दोनों को खि़लाफ़त से माज़ूल करना था , सुनाने का इन्तेज़ाम किया। जब मिम्बर पर जा कर ऐलान करने का मौक़ा आया तो अबू मूसा ने उमरो बिन आस को कहा कि आप जा कर पहले बयान दें। उन्होंने जवाब दिया , आप बुज़ुर्ग हैं पहले आप फ़रमायंे। अबू मूसा मिम्बर पर गये और लोगों को मुख़ातिब कर के कहा कि मैं अली (अ.स.) को खि़लाफ़त से माज़ूल करता हूं। यह कह कर उतर आये। उमरो बिन आस जिससे फ़ैसले के मुताबिक़ अबू मूसा को यह तवक़्क़ो थी कि वह भी माविया की माज़ूली का ऐलान कर देगा लेकिन उस मक्कार ने इसके बर अक्स यह कहा कि मैं अबू मूसा की ताईद करता हूँ और अली (अ.स.) को हुकूमत से हटा कर माविया को ख़लीफ़ा बनाता हूँ। यह सुन कर अबू मूसा अशअरी बहुत ख़फ़ा हुए लेकिन तीर तरकश से निकल चुका था। यह सुन कर मजमे पर सन्नाटा छा गया। अली (अ.स.) ने मुसकुरा कर अपने तरफ़दारों से कहा कि मैं न कहता था कि दुशमन फ़रेब देने की फि़क्र में है।

जंगे नहरवान

हकमैन के मोहमल और मक्काराना फ़ैसले को हज़रत अली (अ.स.) और उनके तरफ़दारों ने मुस्तरद कर दिया और दोबारा आला पैमाने पर फ़ौज कशी का फ़ैसला और तहय्या कर लिया। अभी इसकी नौबत न आने पाई थी कि ख़वारिज की बग़ावत की इत्तेला मिली और पता चला कि वह लोग जो सिफ़्फ़ीन में जंग रोकने के खि़लाफ़ थे अब हज़रत के सख़्त मुख़ालिफ़ हो कर मक़ामे हरवरा में आ रहे हैं। फिर मालूम हुआ कि वह लोग बग़दाद से चार फ़रसख़ के फ़ासले पर बमुक़ाम नहरवान बतारीख़ 10 शव्वाल 37 हिजरी जा पहुँचे हैं और वहां मुसलमानों को सता रहे हैं। हज़रत ने मजबूरन उन पर चढ़ाई की। 12,000 (बाहर हज़ार) में से कुछ कूफ़े और मदाएन चले गये और कुछ ने बैयत कर ली। चार हज़ार (4000) आमादए पैकार हुये। बिल आखि़र लडा़ई हुई और नौ आदमियांे के अलावा सब मारे गये। इसी जंग में मशहूर मुनाफि़क़ व ख़ारजी ज़ुलसदिया भी मारा गया जिसका असली नाम मोज़ज था। इसके एक हाथ की जगह लम्बा सा पिस्तान बना हुआ था इसी लिये इसे ज़ुलसदिया कहा जाता था।

मौहम्मद इब्ने अबी बक्र की इबरत नाक मौत मौहम्मद इब्ने अबी बक्र मिस्र के गवर्नर थे। माविया ने छः हज़ार (6,000) फ़ौज के साथ अमर इब्ने आस को मौहम्मद से मुक़ाबले के लिये मिस्र भेज दिया। मौहम्मद ने हज़रत अली (अ.स.) को वाक़ेए की इत्तेला दी। आपने फ़ौरन जनाबे मालिके अशतर को उनकी मदद के लिऐ मिस्र रवाना कर दिया। माविया को जब मालिके अशतर की रवानगी का पता चला तो उसने मक़ामे अरीश या मुल्जि़म के ज़मींदार को ख़ुफि़या लिख कर भेजा कि मालिके अशतर मिस्र जा रहे हैं , अगर तुम उन्हें दावत वगै़रह के ज़रिये से क़त्ल कर दो तो मैं तुम्हारा खि़राज 20 साल के लिये माफ़ कर दूंगा। उस शख़्स ने ऐसा ही किया। जब मालिके अशतर पहुँचे तो उसने दावत दी और आपके लिये इफ़तारे सोम का इन्तेजा़म किया , और दूध में ज़हर मिला कर दे दिया। जनाबे मालिके अशतर शहीद हो गये। (तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 141 व तबरी जिल्द 6 सफ़ा 54) इधर मालिके अशतर शहीद हुए उधर उमरो आस ने जनाबे मौहम्मद इब्ने अबी बक्र पर मिस्र में हमला कर दिया। आपने पूरा पूरा मुक़ाबला किया लेकिन नतीजे पर गिरफ़तार हो गये। आपको माविया इब्ने ख़दीज ने माविया इब्ने अबू सुफि़यान के हुक्म से गधे की खाल में सी कर जि़न्दा जला दिया। हज़रते आयशा को जब इस इबरत नाक मौत की ख़बर मिली तो आप बे हद रंजिदा हुईं और ता हयात माविया और उमरो आस के लिये हर नमाज़ के बाद बद दुआ करने को वतीरा बना लिया। (तारीख़े कामिल जिल्द 3 सफ़ा 143 , हैवातुल हैवान वग़ैरा) इस वाकि़ये से अमीरल मोमेनीन को बेहद रंज पहुँचा और माविया को ख़ुशी हुई। (तबरी इब्ने ख़ल्दून मसूदी) यह वाक़ेया सफ़र 38 हिजरी का है।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 216)

किताब निहायतुल अरब फ़ी मारेफ़त निसाबुल अरब मोअल्लिफ़ा अबुल अब्बास अहमद बिने अली बिन अहमद बिन अब्दुल्लाह , तअलक़शन्दी , अल मुतावफ्फा 821 , हितरी मतबुआ बग़दाद 1908 ई0 में मुताबिक़ 299 के फ़ुट नोट में है कि मौहम्मद बिन अबी बक्र मक्के मदीने के दरमियान 10 हिजरी में पैदा हुए थे। उनकी परवरिश हज़रते अली (अ.स.) के आग़ोशे करामत में हुई थी। वफ़ाते अबू बक्र के बाद उनकी मां असमा बिन्ते उमैस से हज़रत ने अक़्द कर लिया था। हज़रत उनको बे हद चाहते थे। यह जंगे जमल और सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली (अ.स.) के साथ थे। सन् 37 में अमीरल मोमेनीन (अ.स.) ने उन्हें मिस्र का गवर्नर बना दिया। जब जंगे सिफ़्फ़ीन से अमीरल मोमेनीन बइरादा रवाना हो गये तो माविया ने एक बड़ा लशकर भेज कर मिस्र पर हमला करा दिया। काफ़ी जंग हुई बिल आखि़र मौहम्मद को शिकस्त हुई। अख़्तफ़ी मौहम्मद फ़ाअरफ़ माविया बिन ख़दीज मक़ाना क़ब्ज़ अलैहे व क़त्ला सुम हरक़ा मौहम्मद इब्ने अबी बक्र रूपोश हो गये लेकिन माविया ने उन्हें तलाश कर के गिरफ़्तार कर लिया फिर उन्हें क़त्ल कर के उन्हंे जला दिया। बड़े ज़ाहिद थे। तारीख़े आसम कूफ़ी के सफ़ा 338 में है कि उन्हें गधे की खाल में सी कर जलवा दिया था। हज़रत मौहम्मद बिन अबी बक्र की शहादत के नतीजे में हज़रते आयशा को भी कुएं में गिरा कर अमीरे माविया ने ख़त्म करा दिया था। (हबीब उस सैर वग़ैरा) असकी क़दरे तफ़सील आइन्दा आयेगी।

(चौदह सितारे)

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