"मुहब्बत व नफ़रत" या "तवल्ला व तबर्रा" और लग़वी (शब्दकोश) और मानवी ऐतेबार (रूप) से एक दूसरे की मुताज़ाद (शब्दविलोम) लफ़्ज़ें हैं और "लानत व मलामत" की मानवी हैसियत से क़द्रे हमआहन्ग है इस लिये बाज़ उल्मा लानत मालामत को तबर्रा से ताबिर करते है और यह कहते हैं किसी पर तबर्रा या लानत ना किजाये चाहे वह दुश्मनें अहलेबैत अ. ही क्यों न हो।
अक़्ली और मन्तक़ी उसूलों की रौशनी में "तबर्रा व लानत" के मोतरज़ीन की यह बाद दुरूस्त नहीं है कि जो लोग बूरे बदकिरदार थे या हैं उन पर लानत सलामत न किजाये इस ज़ैल में एक सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या किसी ऐसे आदमी पर जो वाक़ई बुरा है लानत करना या उसे बुरा कहना दुरूस्त है या नहीं? इस सवाल के जवाब में पहले हमें यह देखना होगा कि किसी आदमी को बुरा कहने और बुरा समझने में फ़र्क़ है ?
अहले इल्म हज़रात इस अम्र से बाख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि बुरे और भले के दरमियान फ़र्क़ पैदा करना हवासे बातिन का काम है, इसलिये बुरे को बुरा और भले को भला समझने पर इन्सान फ़ितरतन मजबूर है यानी भले और बुरे में तमीज़ करना इन्सान का फ़ितरी क़ौल है और अगर कोई आदमी या आलिम यह कहता है कि हम बुरे को भी बुरा नहीं समझते तो इस ना समझने वाले आदमी या आलिम के बारे में इसके अलावा और क्या समझा जा सकता है कि वो नफ़्से नातिक़ा से महरूम और मजनून है।
अव्वल तो बुरे शख़्स को बुरा न कहने वाला ख़ुद जिहालत में गिरफ़्तार हो जाता है यानी जब उसे मालूम हो कि फ़ुलॉ शख़्स बुरा है तो उसने उसको बुरा समझ लिया क्यों कि उसके नज़दीक मालूम करने और समझ लेने में कोई फ़र्क़ नहीं है, दूसरे यह अम्र भी क़ाबिले ग़ौर है कि जो शख़्स किसी बुरे आदमी को बुरा नहीं समझता वह बज़ाते ख़ुद बुरा है या अच्छा ?
इस मंज़िल में अक़्ल का फ़ैसला यह होगा कि अव्वल तो बुरे का बुरा न समझने वाला शख़्स बुरा न समझने का इक़रार ज़बानी कर रहा है वरना उसका दिल बुरे को बुरा ज़रूर समझा होगा दूसरे अगर वाक़ई इसका दिल भी बुरे को बुरा नहीं समझता तो इसका मतलब यह होगा कि उसने भी बुरे कामो को अन्जाम देते-देते अपने अन्दर यह फ़ितरते सानिया पैदा कर ली जो किसी बुरे शख़्स को बुरा समझने ही नहीं देती यानी बुरे को बा न समझने वाला शख़्स ख़ुद भी बुरा है।
इस फ़ितरी उसूल की रौशनी में यह मालूम हुआ कि "अच्छे को अच्छा" और "बुरे को बुरा" समझना या न समझना इन्सान का इख़्तेयानी फ़ेल नहीं है बल्कि फ़ितरी तक़ाज़ो के तहत इन्सान बुरे को बुरा और अच्छे को अच्छा समझने के लिये मजबूर है और इस मजबूरी के तहत अगर वह ज़ालिमों और ग़ासिबों को बुरा कहने लगे उनके अफ़आल और आमाल से नफ़रत करने लगे उनसे बचना चाहे, उनसे इज़हारे बेज़ारी करे, उनसी दूरी इख़्तियार करे और उन पर लानत मलामत करे तो इसमें क्या ग़लत है।
लानत का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद में मुख़तलिफ़ मक़ामात पर इस्तेमाल हुआ है मसअलन लानतुल्लाहे अल्लल काज़ेबीन और लानतुल्लाहे अल्ज़जालेमीन वग़ैरा लेकिन अगर कोई यह सवाल करे कि अल्लाह ने ख़ुद लानत की है मगर उसने दूसरों को लानत करने का हुक्म कहाँ दिया है ? इस इशतेबाह (शक) को क़ुरआने मजीद ने एक दूसरे मक़ाम पर इन अल्फ़ाज़ के साथ दूर किया है कि "उलाएका जज़ाओहुम इन्ना अलैहिम लानतुल्लाहे व मालाऐकतेही वन-नासे अजमाईन "
सुराए-आले इमरान आयत-87।
तर्जुमा- उनकी सज़ा यह है कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते और लोग उन पर लानत करते हैं, और दूसरी आयत में इरशाद हुआ कि "बेशक जिन लोगों ने कुफ़्र इख़्तियार किया और कुफ़्र ही की हालत में मर गये, उन्हीं पर ख़ुदा की फ़रिश्तों और तमाम लोगों की लानत है।"
सुराए बक़रा, आयत- 161।
इन आयतों से पता चलता है कि अगर फ़रिश्तों और उन तमाम लोगों जिनका शुमार मख़लूक़े ख़ुदा में है, लानत करने का हुक्म न होता तो क़ुरआन इसका तज़किरा ही न करता बल्कि यह कहता कि आख़ीर इन फ़रिश्तों और दीगर लोगों को क्या हो गया है कि वह लानत करने लगे हैं। इस अन्दाज़ में ज़िक्र न करना इस बात की मोहकम दलील है कि लानत करने का अमल निगाहे क़ुदरत में ममदूह व मुस्तहसन है नीज़ इस से यह भी ज़ाहिर होता है कि लानत करने का इस्तेहक़ाक़ (हक़) ग़ैरे ख़ुदा को भी है जिसमें फ़रिश्तें और इन्सान नुमाया हैसियत रखते हैं।
इसके अलावा हदीसो और तारीख़ों की किताबों से यह बात भी साबित है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मुस्तहक़ीने लानत पर नाम बनाम लानत की है तारीख़ में पैग़म्बरे इस्लाम नाम लेकर लानत करते नज़र आ रहे हैं। अल्लामा ज़मख़शरी ने रबीउलअबरार के सफ़ा नम्बर 92 पर तहरीर किया है कि जंगे ओहद में पैग़म्बरे इस्लाम ने अबू सुफ़ियान, सफ़वान इब्ने उमय्या और सहल इब्ने अमरू पर नाम लेकर लानत की। इसलिये किसी आलिम का यह कहना भी दुरूस्त नहीं हो सकता कि किसी मुस्तहक़े लानत पर उसके नाम के साथ लानत न की जाये।
मुख़्तसर यह कि बुरे बदकिरदार, बदआमाल और ख़ुसूसन दुशमनाने आले रसूल (स.अ. वा आलेही) पर लानत का जवाज़ क़ुरआन हदीस और तारीख़ से साबित है और इसमें न तो किसी इन्कार की गुंजाईश है, न उसकी तावील मुमकिन है और न उसे झुठलाया जा सकता है।
ज़ेरे नज़र किताब "ज़ुल्मत से निजात" जो आक़ाई वहीद मुहम्मदी के बेहतरीन क़लम का नतीजा है दरहक़ीक़त उस अक़्ली व नक़्ली और क़ुरआन व तारीख़ी बहस पर मुबनी (आधारित) है जिसके मुतरज्जिम जनाब अबु मोहम्मद हैं जिन्होंने इस गरॉक़द्र सरमाये को फ़ारसी से उर्दू में नक़्ल किया है।
उर्दू में इस किताब की मक़बूलियत के बाद बेहद इसरार हुआ कि इस किताब को हिन्दी में भी पेश किया जाये ताकि उर्दू न जानने वाले नौजवान भी फ़ायदा उठा सकें इसी लिये हिन्दी में यह किताब नाज़रीन की ख़िदमत में हाज़िर है।
हम इस किताब की इशाअत के साथ यह उम्मीद करते हैं कि यह गुमराहों के लिये मशअले राह बनेगी और अवामी सतह पर बेदारी की एक लहर पैदा करेगी। (सैय्यद अली अब्बास तबातबाई)
मुक़दमा
बिस्मिल्लाहिर्र-रहमानिर-रहीम, अल्हम्दो लिल्लाहे रब्बुल आलेमीन, व सल्लल लाहो अला सय्यदेना मुहम्मदिन व आलेहित-ताहेरीन व लानल-ल्लाहो अला आदा-ए-हिम अजमईन इला यौमिद-दीन।
क़ारेईन किराम! शायद आप भी मेरी तरह हों और आपका दिल भी यह चाहता हो कि ख़ुदा-ए-मेहरबान से दोस्ती और मोहब्बत करें और उसके क़रीब हो जायें और उसकी रहमत, लुत्फ़ो करम की ख़ुन्की नसीमें सहर (सुब्ह की हवा) की तरह अपने अन्दर महसूस करें ताकि आप ख़ुदा तक पहुँच जायें और ख़ुदा के मुक़र्रब बन्दों और उसके दोस्तों के साथ दोस्ती और मुहब्बत करें और उनकी विलायत के बाग़ में दाख़िल हो जायें और उनके क़ुर्ब और मन्ज़ेलत का नज़ारा करें, उनकी दोस्ती के फ़र्श पर बैठ कर दिलो जान उनके हवाले कर दें ताकि वह अपनी दोस्ती की सवारी पर बिठाकर ख़ुदा-ए-मेहरबान व ग़फ़ूर ओ रहीम के विसाल तक पहुँचा दें।
लेकिन इस सआदत व नेकबख़्शी का ख़ज़ाना कहाँ छिपा हुआ है? और इस अज़ीम ख़ुशबख़्ती और कामयाबी की कलीद (कुन्जी) कहाँ है?
क़ारेईने किराम! दोस्ती के लिये भी कुछ क़ानून और शर्ते होती हैं, जिनका मालूम करना हर दोस्त का फ़रीज़ा है।
दोस्ती की पहली शर्त यह है कि दोस्त के साथ हम ख़्याल और हमआह्नग होना ज़रूरी है और यह शर्त पूरी नहीं हो सकती मगर यह कि दोस्त के अलावा दूसरे को छोङना पङेगा और मुहब्बत और दोस्ती की आवाज़ पर बेदार रहने और दोस्त के साथ दुश्मनी करने वाले से बेज़ारी करनी पङेगी, फ़ारसी का शायर कहता है-
गर आशिक़े दिलदारी बा ग़ैर चे दिलदारी
कॉ दिल के दर ऊ ग़ैर अस्त दिलदार नमी गन्जद
(अगर किसी की मोहब्बत और इश्क़ का दावा है तो अगर इस दिल में किसी ग़ैर की मोहब्बत आ गई तो आशीक़ की मोहब्बत की जगह बाक़ी नहीं रहती)
लिहाज़ा ख़ुदा और रसूल और औलिया-अल्लाह (इमामों) से दोस्ती भी इस क़ाएदे की बुनियाद पर होना चाहिये।
क़ारईने किराम! हमारी यह किताब चन्द फ़सलों (भाग) पर मुशतमिल (आधारित) है-
1.पहली फ़स्ल (भाग)- दोस्ती और मोहब्बत के क़ानून और शर्ते।
2.दूसरी फ़स्ल- ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में किन लोगों पर लानत की है।
3.तीसरी फ़स्ल- दीने इस्लाम के दुश्मनों के बारे में अहलेबैत (अ.) की सीरत क्या है?
4.चौथी फ़स्ल- ख़ुदा के दुश्मनों से बेज़ारी (तबर्रा) करने वालों पर ख़ुदा की ख़ास इनायतें।
5.पाँचवी फ़स्ल- लानत का मौसम।
पहली फ़स्ल
(पहला भाग)
बन्दगी की पहली शर्त कल्मा-ए- "ला-इलाहा इलल्लाह" है जिसका पहला हिस्सा "ला इलाह" है जिसका मतलब है दूसरे तमाम ख़ुदाओ का इन्कार करना, उनसे बेज़ारी (तबर्रा) का ऐलान करना और उन सब से दूरी करना, उसके बाद कहीं "इलल्ल-लाह" की बारी आती है यानी दूसरे तमाम ख़ुदाओं के इन्कार के बाद ख़ुदाऐ वहदहू ला शरीक की वहदानियत का इक़रार करना होता है।
जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने करीम में इलाही रस्सी के तमस्सुक (जुङने) के लिये ताग़ूत (गुमराह करने वाला, शैतान) से इन्कार रक्ख़ा है और उसके बाद ख़ुदा पर इमान रखना क़रार दिया है, इरशाद होता है-
"जिस शख़्स ने झूठे ख़ुदाओं (बुतों) से इन्कार किया और ख़ुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वह मज़बूत रस्सी पकङ ली जो टूट ही नहीं सकती।"
(सुरा-ए-बक़रा, आयत-257)
यह वह शर्त है जिसको हर साहबे अक़्ल समझता है यहाँ तक की वह काफ़िर भी जो बुतों की पूजा करता है, तमाम चीज़ों से अपनी आँख़े बन्द कर लेता है और उनको पसे पुश्त (अनदेखा) कर देता है, यहाँ तक के अपने दिल में मौजूद ख़ुदा के नाम पर क़लम फ़ेर कर बुत के सामने सजदे में गिर जाता है।
अज़ हर चे ग़ैर दोस्त चराँन्गज़रद कसे
काफ़िर बराऐ ख़ातिरे बुत अज़ ख़ुदा गज़श्त
(क्योंकर ग़ैरे दोस्त से दोस्ती इख़्तियार न की जाऐ, जबकि काफ़िर बुत की ख़ातिर ख़ुदा से दूर हो गया)
हर साहबे अक़्ल इस बात पर यक़ीन रखता है कि अपने दोस्त के साथ बैठना और दोस्त के दुश्मन से ताल-मेल रखना, दोस्ती और सिदक़ो सफ़ा के उसूल और क़वानीन के ख़िलाफ़ है ऐसा करने से निफ़ाक़ ओ क़ुदरत की बू आती है।
लिहाज़ा सबसे पहले ज़रूरी है कि दोस्त और दुश्मन को पहचानें ताकि दोस्त से दोस्ती की जाये और दुश्मन से दुश्मनी।
दोस्त कौन है और दुश्मन कौन ?
हज़रत अमीरूलमोमिनीन अली इब्ने अबीतालिब (अ.) फ़रमाते हैं-
दोस्त की तीन क़िस्में हैं, और दुश्मन की भी, दोस्त यह है- तुम्हारा दोस्त, तुम्हारे दोस्त का दोस्त, तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन. और दुश्मन यह है, तुम्हारा दुश्मन, तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त। (नहजुल बलाग़ा सफ़्हा- 527)
एक दिल और एक दोस्त
कारेईने किराम! जब आपने दोस्त और दुश्मन को पहचान लिया तो उनमें से एक का इन्तेख़ाब करें जैसा कि बुज़ुर्गो का कहना भी है कि "दोस्त को अपनाओ और दोस्त के दुश्मन से दूर रहो- क्या इसके अलावा भी कोई दूसरा रास्ता हो सकता है कि इसको भी दोस्त रक्खो और उसको दुश्मन को भी दोस्त, न इस से दुश्मनी करो न उस से!? नहीं! हरग़िज़ नहीं!
दोस्ती में एक दिल और एक रंग होने नीज़ दोस्ती में सिदाक़तो सच्चाई होने पर क़ुरआने मजीद ने बहुत ताकीद की है और दोस्त के दुश्मन से दोस्ती करने को दोस्त की मसख़रा करना क़रार दिया है, इरशाद होता है-
"और जब उन लोगों से मिलतें हैं जो ईमान ला चुकें हैं तो कहते हैं, हम तो ईमान ला चुके और जब अपने शैतानों से मिलते हैं तो कहते हैं हम तो तुम्हारे साथ हैं, हम तो (मुसलमानों) का मज़ाक़ बनाते हैं " (सूरा-ए-बक़रा, आयत-14)
और इस तरह का अमल निफ़ाक़ के अलावा कुछ नहीं है-
इसी तरह मुनाफ़िक़ीन के बारे में इरशाद होता है-
"बेशक मुनाफ़िक़ीन जहन्नम के सबसे नीचे तबक़े में हैं।" (सूरा-ए-निसा आयत- 145)
नीज़ इसी चीज़ को मद-दे-नज़र रखते हुए इरशाद होता है-
ख़ुदा वन्दे आलम ने किसी आदमी के सीने में दो दिल नहीं पैदा किये "। (ताकि एक से किसी से मोहब्बत करे और दूसरे दिल से बुग़्ज़ो हसद रक्खे) (सूरा-ए-अहज़ाब आयत-4)
यहाँ इमामे मासूम अ. के कलाम से पर्दा उठता है कि आपने फ़रमाया-
"क्या दीन दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई दूसरी चीज़ है "
(उसूले काफ़ी जिल्द-2, सफ़्हा-125, बिहारूल अनवार, जिल्द- 67, सफ़्हा- 52)
यानी दीन का खुलासा यह है कि अल्लाह और रसूल और औलिया-अल्लाह (इमाम) से दोस्ती (तव्वला) और उनके दुश्मनों से दुश्मनी (तबर्रा) की जाये।
इसी तरह इरशाद होता है-
"वह शख़्स झुठा है जो ज़बान से हमारी विलायत (व मुहब्बत) का दावा करे लेकिन हमारे दुश्मनो से बराअत (तबर्रा) और बेज़ारी का इज़हार न करें "
(सरायर सफ़्हा-94, हवाला-59, बिहारूल- अनवार, जिल्द-27 सफ़्हा-58)
नीज़ मासूम (अ.) फ़रमातें हैं-
"अगर किसी के दिल में हमारी दोस्ती और हमारे दुश्मन की मोहब्बत जमा हो जाये तो वह हम में से नहीं है, और हमारा भी उससे कोई ताल्लुक़ नहीं है।"
(तफ़्सीरे क़ुम्मी, सफ़्हा- 514, बिहारूल अनवार जिल्द- 27, सफ़्हा- 51)
लिहाज़ा यहाँ पर दो ही रास्ते हैं-
या तो नबी वाले बनो या अबूसुफ़ियानी और अबूजहली, या तो अली (अ.) और फ़ातिमा (स.) वाला बने
या उमरी (ल.), बूबकरी (ल.) और उसमानी (लानतुल्लाह) बने, या इमामे हसन (अ.) या माविया(ल.) वाला बने, या फिर हुसैनी होने की लज़्ज़त हासिल करे या फिर यज़ीदी होने की ज़िल्लत, क्योंकि ज़ुल्मत और तारीकी का नूर से कोई वास्ता नहीं।
मुहब्बत का इज़हार और आज़ा व जवारेह
(दिल, दिमाग़, जिस्म के हिस्से) में बुग़्ज़।
सिर्फ उस शख़्स का ईमान कामिल है जिसके दिल में ईमान का चश्मा मौजे मारता है हुआ ज़बान की नहर से जारी हो और तमाम आज़ा और जवारेह को सैराब कर दे, लेहाज़ा ज़रूरी है कि ख़ुदा और रसूल और आलिया-अल्लाह (अहलेबैत) के दुश्मनों से बराअतो बेज़ारी, इन्सान के ज़बान और किरदार से ज़ाहिर हो।
ज़ाहिर सी बात है कि इन्सान अगर किसी की मुहोब्बत का दम भरता है या किसी से दुश्मनी रखता है तो उसकी ये मुहब्बत या दुश्मनी उसकी ज़बान या हाथ के ज़रिये ज़ाहिर हो क्योंकि जिस चीज़ का दिल हुक्म देता है, आज़ा व जवारेह को उसकी इताअत करना चाहिये क्योंकि तमाम बदन का हाकिम वही है और कूज़े से वही छलकता है जो उसमें होता है।
जी हाँ। पैग़म्बरे अकरम, औलिया-अल्लाह और अहलेबैत (अ. स.) से दोस्ती का असर ज़बान के ज़रिये उन पर दरूद और सलाम से होता है और उनके दुश्मनों से नफ़रत और बेज़ारी की अलामत ज़बान के ज़रिये उन पर लानत के ज़रिये ज़ाहिर होती है।
वाक़ेअन तअज्जुब है उस शख़्स पर जो हज़रत अली (अ.) और हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.) से मुहब्बत का दावा करे लेकिन दिल के एक गोशे में अबूबक्रे मलऊन और उमरे मलऊन की दोस्ती छुपी हुई हो क्योंकि कभी-कभी ख़्वास्ता न ख़्वास्ता (जाने-अनजाने) में दिल में छुपा हुआ राज़ ज़ाहिर हो जाता है इसी लिये हज़रत अली (अ.) ने इरशाद फ़रमाया- "गुफ़तुगू करो ताकि पहचान हो जाऐ क्योंकि इन्सान की हक़ीक़त उसकी ज़बान पर ज़ाहिर और रौशन हो जाती है "। (इमाली, शैख़े तूसी (रह0) सफ़्हा-494, हदीस 51, बिहारूल अनवार, जिल्द 71 सफ़्हा- 283)
दूसरी फ़स्ल
क़ुरआन में किन लोगों पर लानत की गई है
चन्द गिरोहों पर क़ुरआने मजीद में ख़ुदा और औलिया-अल्लाह की तरफ़ से वाज़ेह तौर (ख़ुले रूप) से लानत की गई है।
सवाल यह पैदा होता है कि "लानत" के क्या मतलब है?
तो इस सवाल के जवाब में यह कहा जायेगा कि लानत के मानी दूरी करना और छोङ देना है, तो अब ख़ुदा की लानत का मतलब यह है कि ख़ुदा किसी को अपनी रहमत से दूर कर दे या अपने लुत्फ़ ओ करम को ख़त्म कर दे।
क़ुरआने मजीद में जिन लोगों पर लानत की गई उन्में चन्द गिरोह यह है-
1. ख़ुदा और रसूल को अज़ीयत देने वाले।
2. हक़ाएक़े इलाही पर पर्दा डालने वाले।
3. ज़ालेमीन (ज़ुल्म करने वाले)।
ख़ुदा व रसूल को अज़ीयत देने वाले
सुन्नी शिया दोनों किताबों में इस तरह की बहुत सी रवायतें मौजूद हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स. अ.) ने इरशाद फ़रमाया-
"फ़ातिमा (स.) मेरा टुकङा हैं जिसने उसे अज़ीयत दी उसने मुझे अज़ीयत दी और जिसने मुझे अज़ीयत दी उसने ख़ुदा को अज़ीयत दी।" (सही बुख़ारी, जिल्द- 5 स-96, मतबूआ दारूल-उलूम, अवालिमे हज़रते ज़हरा (स.) जिल्द- अव्वल, स-143)
हज़रते सिद्दीक़ा-ए-कुबरा फ़ातिमा शहीदा(1) के घर में आग लगाने का दर्दनांक वाक़िया और आपके पहलू-ए-मुबारक पर जलता हुआ दरवाज़ा गिरने से मासूम बच्चे हज़रते मोहसिन(2) का शहीद हो जाना, इसी तरह शहज़ादि-ए-दो आलम का शबो रोज़ ख़ून के आँसू बहाना, नीज़ आपको रात में दफ़्न करना और आपकी क़ब्र का मख़फ़ी रहना(3)।
बैतुल अहज़ान, स.109, तारीख़े तबरी जि-2 स.443, मतबूआ मकतबा-ए-ग़रीब, मिस्र।
मनाक़िब इब्ने हरे आशोब, जि.3, स.385 । सियरे अलामुल-नब्ला जि.15, स.278 ।
बैतुल अहज़ान बाबे कैफ़ियते दफ़्ने फ़ातिमा ज़हरा (स0), सही बुख़ारी, जि.5, स.252, दारूल इल्म, मिस्र।)
और जिस वक़्त वह दोनो (अबुबक्र और उमर) हज़रते मासूमा-ए-आलम की ज़ाहिरी अयादत के लिये गये लेकिन हक़ीक़त यह है कि दोनों अयादत के लिये नहीं बल्कि दुख़्तरे रसूल (स.अ.) को बिस्तरे अलालत पर तड़पता हुआ देखने के लिये गये थे, उस वक़्त बीबी ने उनसे वाज़ेह तौर पर उनसे बराअत और बेज़ारी का सबूत दिया, यहाँ तक कि आपने उनके (अबुबक्र और उमर मलऊन) सलाम का जवाब भी न दिया और सबके सामने ख़ुदा को गवाह क़रार दिया कि इन दोनों ने मुझे अज़ीयत पहुँचाई है।
यह सब कुछ तारीख़ी गवाह और ऐनी शाहिद है कि इन लोगों (अबूबक्र, उमर और उनके साथी) ने हज़रते ज़हार सलामुल्लाहे अलैहा को अज़ीयत पहुँचाई है और नबी-ए-अकरम की इकलौती बेटी को सताया और हदीस की रौशनी में हज़रते ज़हरा ससामुल्लाहे अलैहा को अज़ीयत देने वाला ख़ुदा को अज़ीयत देने वाला है, कुरआने मजीद में ऐसे लोगों को ख़ुले तौर पर लानत का हक़दार बताया है-
बेशक जो लोग ख़ुदा और रसूल को अज़ीयत देते हैं, उन पर ख़ुदा ने दुनिया और आख़िरत दोनों में लानत की है और उनके लिये रूसवा करने वाला अज़ाब तैयार कर रक्ख़ा है।
(सूरा-ए-अहज़ाब, आयत-57)
इस लिये हज़रत फातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा ने अबुबक्र (ल0) से फ़रमाया-
मैं हर नमाज़ के बाद तुम पर नफ़रीन और लानत करूँगी।
कारेईने किराम अगर हम भी इन लोगों पर लानत करते हैं तो ग़ैर आक़िलाना एहसासात की वजह से नहीं बल्कि क़ुरआन के हुक्म की वजह से इनको लानत का मुस्तहक़ समझते हैं और ख़ुदा वन्दे आलम के सिखाये हुए अदब की वजह से यानी दोस्त को तलाश व कोशीश करना चाहिये कि अपने महबूब की शबीह और मिस्ल बना दे ताकि उसके नज़दीक हो सके।
इलाही हक़ाएक़ को छुपाने वाले
एक दूसरी हक़ीक़त यह है कि इन लोगों ने दीने इस्लाम के रोज़े रौशन की तरह वाज़ेह हक़ाएक (सच्चाईयों) पर पर्दा डाला और उनका इन्कार किया।
चुनाँचें पैग़म्बरे अकरम ने अपनी हयाते तय्यबा के हुज्जतुल-विदा की वापसी के मौक़े पर रोज़े ग़दीर (18 ज़िलहिज) को ख़ुदा के हुक्म से सवा लाख हाजियों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना जानशीन व ख़लीफ़ा मुक़र्रर फ़रमाया और अपनी उम्मत तक का रास्ता वाज़ेह तौर पर बयान फ़रमा दिया यह ऐलान आलमी पैमाने पर दुनिया भर से आये मुख़्तलिफ़ मक़ामात के नुमाईन्दों के सामने किया गया ताकि किसी मुसलमान के लिये ज़र्रा बराबर भी शक की गुंजाईश बाक़ी न रहे यही नहीं बल्कि आँहज़रत सलल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने अपनी हयाते तय्यबां में अपने बाद ख़िलाफ़त के मसअले को बयान फ़रमाया जिनका ज़िक्र शिया सुन्नी तारीख़ी, अहादीसी, तफ़्सीरी और ऐतेक़ादी किताबों में मौजूद है। ख़िलाफ़त ओ इमामत का यह मसअला सबसे बङी हक़ीक़त है जिसको ख़ुदा वन्दे आलम ने नाज़िल किया और अपने महबूब पैग़म्बर को ख़िताब करके फरमाया-
व इन लम तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहू- अगर आपने यह काम (ऐलाने विलायते हज़रत अली अलैहिस्सलाम ) न किया तो गोया सारी रिसालत का कोई काम ही अन्जाम न दिया
(सूरा-ए-मायदा, आयत- 67)
लेकिन इस गुमराह गिरोह ने इस अहम हक़ीक़त और नबा-ए-अज़ीम से साफ़ इन्कार कर दिया या इसमें तहरीफ़ करने लगे और जब दीन के इस असासी और बुनियादी रूकन का इन्कार कर दिया तो फिर इनको कोई चीज़ रोकना सकी, हज़ारों अहकामे इलाही को बदल डाला और दीन में बिदअतें फैलाना शुरू कर दीं। (इन लोगों ने क्या बिदअते फैलाईं इस सिलसिलें में किताब नस ओ इज्तेहाद का मुतालेआ करें)
इनके क्या क्या कारनामें थे जिनकी बिना पर क़ुरआने मजीद के मुताबिक़ इन्होंने अपने को ख़ुदा और तमाम लानत करने वालों की लानत का मुस्तहक़ बना लिया-
बेशक जो लोग (हमारी) इन रौशन दलीलों और हिदायतों को जिन्हें हमने नाज़िल किया है, इसके बाद छुपाते हैं जबकि हम किताब में लागों के सामने साफ़-साफ़ बयान कर चुके हैं यही लोग हैं जिन पर ख़ुदा भी लानत करता है और लानत करने वाले भी लानत करतें हैं।
(सूरा-ए-बक़रा, आयत, 159)
क़ारेईने किराम तव्वजो फ़रमायें कि इस गिरोह पर न सिर्फ़ लानत करना बुरा काम है बल्कि इन लोगों पर लानत करने वालों की ख़ुदा की नज़र में इतनी अहमियत है कि ख़ुदा ने लानत करने वालों को अपनी रदीफ़ (साथ) में रक्ख़ा है, यानी इस गिरोह पर ख़ुदा की लानत और लानत करने वालों की लानत है।
किस क़द्र अहम बात है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने नाम के बाद लानत करने वालों को क़रार दिया है।
ज़ालेमीन
अला लानतुल्लाहे अल्लल क़ौमिज़ ज़ालेमीन- (आगाह रहो कि ज़ालेमीन पर ख़ुदा की लानत है। )
(सूरा-ए-हूद, आयत, 18)
आप ख़ुद बताऐं कि क्या दीने इस्लाम के रास्ते में इन्हेराफ़ करने और उम्मते इस्लाम में इख़्तिलाफ़ की बुनियाद डालने और फ़ितना ओ फ़साद को हवा देने से बढ़कर कोई ज़ुल्म हो सकता है ? क्या वह लोग जिन्होंने ख़ाना-ए-वही ( बीबी फ़ातिमा (स.अ.) का घर ) को आग लगाई, शहरे इल्मे नबी के दरवाज़े को बन्द कर दिया, लोगों को गुमराह कर डाला और रिश्तेदारी का नजायज़ इस्तेमाल करते हुए ख़ुद को अल्लाह और रसूल का ख़लीफ़ा क़रार दिया और ख़ुदा के और रसूल के नाम पर कोई ज़ुल्म व ज़्यादती और ख़्यानत न छोड़ी, कोई ऐसा सितम नहीं जो अन्जाम न दिया हो, क्या यह सब कुछ अन्जाम देने वाले ज़ालिम नहीं ? !
"अगर यह सब ज़ुल्म नहीं तो ज़ुल्म क्या है?" ।
और ज़ालिम कौन हैं ? क्योंकि इनसे बढ़कर और क्या ज़ुल्म तसव्वुर किया जा सकता है ? ।
एक दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि जिन लोगों ने ख़ुदा पर लानत की है उनके बारे में हमारा वज़ीफ़ा (अमल) क्या है?
हमें क्या करना चाहिये ताकि इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की लानत के मुस्तहक़ हम न हों क्योंकि आप फ़रमाते हैं-
"जो शख़्स ख़ुदा के लानत शुदा लोगों पर लानत करने को गुनाह तसव्वुर करे, उस पर ख़ुदा की लानत है "। (किताब- रिजाल-कशी सफ़्हा- 528)
तीसरी फ़स्ल
दुश्मनाने दीन के बारे में अहलेबैत (अलैहिस्सलाम) की सीरत
कारेईने किराम! अब जबकि क़ुरआने मजीद की रौशनी से मलऊईन ( जिन पर लानत हो ) की पहचान हो गई है तो आईये अहलेबैत अलैहमुस्सलाम की बज़्म में बैठ कर यह पता लगायें कि इन लोगों पर लानत करने और इन से बेज़ारी की अहमियत क्या है और इन लोगों पर किस तरह लानत की जाये?।
आइये तारीख़ के सफ़्हात (पन्नों) में तलाश करते हैं-
(1) हज़रते रसूले अकरम (स.अ.) का इरशादे गिरामी है-
"मैं बहिशत में दाख़िल हुआ तो उसके दरवाज़े पर लिखा हुआ था- "ला इलाहा इलल्ललाह, मुहम्मदन हबीबल्लाह, अली इब्ने अबी तालिब वलीउल्लाह, फ़ातिमा अममतुल्लाह, अल-हसनो वल हुसैन सिफ़वतुल्लाह, अला मुबग़ज़ीहुम लानतुल्लाह "।
तरजुमा- "अल्लाह के अलावा कोई माबूद नहीं, हज़रते मुहम्मद अल्लाह के हबीब हैं, हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अल्लाह के वली हैं, और फ़ातिमा ज़हरा ख़ुदा की मुन्तख़ब कनीज़ हैं और इमामे हसन व इमामे हुसैन अल्लाह के चुने हुए हैं इन से बुग़्ज़ ओ हसद रखने वालों पर अल्लाह की लानत है "।
(ख़िसाले शैख़े सुदूक़, सफ़्हा- 324, बिहारूल अनवार, जि-27 स- 228)
दुशमनाने दीन से बेज़ारी और उन पर लानत करना जन्नत में वारिद होने की शर्तों में से एक शर्त है, जन्नत के दरवाज़े से वही दाख़िल हो सकता है जो दुनिया में हज़राते मोहम्मद वा आले मोहम्मद अलैहमुस्सलाम के दुश्मनो पर लानत को अपना शिआर (आदत) बनाये हुऐ है।
बा-दस्ते ख़ुद बर दरे जन्नत नवशित।
बुग़्ज़े अली जहन्नम, व हुब्बे अली बहुश्त।
(अपने हाथ से जन्नत के दरवाज़े पर लिखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बुग़्ज़ और दुशमनी जहन्नम है और उनकी मोहब्बत और दोस्ती जन्नत है।)
(2).ज़ियारते आशूरा- यह वह ज़ियारत है जिसकी सनद (सबूत) मुस्तहक़म और मतीन (प्रमाणित) है, जिस पर सद्रे इस्लाम (इस्लाम के शुरूआती दौर) ही से उल्मा-ए-इस्लाम ने ताईद और ताक़ीद (ज़ोर देना) की है, इस ज़ियारत में करबला के दर्दनांक वाक़ेये की बुनियाद डाले जाने का बयान किया गया है और उन बुनियाद डालने को पहचनवाया गया है और उन पर लानत की गई है, इस ज़ियारत में ख़ुदा और अहलेबैते रसूल के दुश्मनो पर लानत भेजने को दीन की बुनियाद बताया गया है और उन पर लानत को ख़ुदा और औलिया-अल्लाह से तक़र्रूब (क़रीब होने) का ज़रिया बताया हः-
"अल्ला हुम्मा इन्नी अतक़रूब इलैका-------- बिल बराअते मिनहुम वल लानता अलैहिम"
(तरजुमाः- ख़ुदाया! मैं क़ुरबत चाहता हूँ, उन लोगों (जिन्होंने आले मुहम्मद पर ज़ुल्म किये) से बराएत बेज़ारी और लानत के ज़रिये)
इस ज़ियारते शरीफ़ में अहलेबैत अलैहुम्मुस्साल पर ज़ुल्मों सितम की बुनियाद डालने वालों पर लानत का हुक्म औलिया-अल्लाह पर दुरूद और सलाम से भी ज़्यादा हुआ है।
इस ज़ियारत के आख़िर में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अहलेबैत अलैहुम्मुस्सलाम और आपके असहाब पर सौ मरतबा दुरूद और सलाम से पहले, सौ मरतबा दुश्मनो पर लानत को मुक़द्दम (अहमियत) रक्ख़ा गया है यानी पहले सौ मरतबा दुश्मनो पर लानत पढ़ी जाती है, उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आपके असहाब पर सौ मरतबा सलाम भेजा जाता है।
इससे लानत की अहमियत वाज़ेह हो जाती है कि दीने इस्लाम में लानत का मसअला कितना असासी और बुनियादी है।
सलाम के बाद एक बार फिर हाथ बुलन्द किये जाते है और इन तमाम ज़ुल्म व सितम की बुनियाद रखने वालों पर एक-एक करके लानत की जाती हैः-
अल्ला हुम्मा ख़ुस्सा अन्ता अव्वला ज़ालिम (अबूबक्र) बिल-लाअन मिन्नी व अब्दा बेह अव्वलन सुम्मा सानी ( उमर ) वस-सालिस ( उसमान ) वर-राजेह ( माविया ), अल्ला हुम्मा लाअन यज़ीद ख़ामेसन--------।
(तरजुमाः- ऐ अल्लाह! सबसे पहले ज़ालिम अबूबक्र पर मेरी तरफ़ से मख़सूस लानत हो और उसी से लानत की शुरूआत करता हूँ और उसके बाद दूसरे उमर पर, उसके बाद तीसरे उसमान पर और उसके बाद चौथे माविया पर, परवरदिगार फिर इनके पाँचवे यज़ीद पर लानत फ़रमा)
(मफ़ातिहुल- जिनान)
इन्सान एक के बाद एक लानत के बाद अपने को बारगाहे परवरदिगार में इस क़दर नज़दीक पाता है कि के जुमरे (गिरोह) में शामिल हो जाये।
(3)- हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम हर नमाज़ के बाद चार मर्दों और चार औरतों पर लानत किया करते थे। मर्दों में अबूबक्र, उमर, उसमान और माविया पर लानत और औरतों में अबूबक्रे मलऊन की बेटी आयशा पर, उमर की बेटी हफ़्सा पर, अबूसुफ़ियान की बीवी और माविया की माँ हिन्दा पर और उम्मुल-हकम पर।
( उसूले काफ़ी जिल्दः- 3 सफ़्हाः- 342 )
कारेईने किराम! इमाम (अ.स.) का हर नमाज़ के बाद इन लोगों पर लानत करना इस बात की वजह से था कि इन लोगों ने ख़ुदा और रसूल और दीने ख़ुदा नीज़ उम्मते रसूल पर ज़ुल्मों सितम किये, जैसा कि आपने कुमैत इब्ने ज़ैद के जवाब में इरशाद फ़रमायाः-
"ऐ कुमैल बिन ज़ैद! इस्लाम में किसी का ख़ूने ना-हक़ नहीं बहेगा, हराम तरीक़े से मालो दौलत क़स्ब नहीं की जायेगी, कोई ज़िना नहीं होगा मगर यह कि इनका हिसाब इन दोनों ( उमर और अबूबक्र ) की गर्दन पर होगा, यहाँ तक की हम अहलेबैत में से क़ायमें आले मुहम्मद (अ.स.) क़याम (ज़ाहिर) करेगा। "
"हम बनी हाशिम अपने छोटे बड़ों को हुक्म देते हैं कि इन दोनों पर लानत करें और इनके लिये ना-सज़ा कहें।"
(रिजालकशी- सः- 206, हः- 364, बिहारूल- अनवार जः- 47, सः- 323, हः- 17)।
इस सिलसिले में अहलेबैत इस्मतो तहारत (अ.स.) से बहुत सी रवायतें मौजूद हैं जो इस मुख़्तसर किताब की वुस्अत से बाहर हैं, मसअलन हज़रते अमीरूल- मोमिनीन (अ.स.) की वह दुआ जिसको आप शबो रोज़ की नमाज़े में दर्द भरी आवाज़ से पढ़ा करते थे और अबूबक्र और उमर और उनकी बेटियों पर लानत किया करते थे। (वह दुआ सनमी क़ुरैश (बलदुल-अमीनः – सः-551) है जिसका तरजुमा किताब के आख़ीर में पेश किया जाऐगा)।
इसी तरह हज़रत इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से एक दूसरी दुआ जिसमें इन ना-अहलों पर बेशुमार लानते की गई हैं, आप फ़रमाते हैः-
"हमारे दोस्तो और शियों पर हमारा हक़ यह है कि हर नमाज़ के बाद इस दुआ को पढ़ें "।
(महजुद-दावात, सफ़्हाः- 333)
बराअत (तबर्रा) शर्ते ईमान है
(1) हज़रते रसूले अकरम (स.अ.) फ़रमाते हैः-
"ख़ुदा वन्दे आलम किसी बन्दे के ईमान को उस वक़्त तक क़ुबूल नहीं करता जब तक हज़रत अली (अ.स.) की विलायत और उनके दुश्मनो से बेज़ारी न करे "।
(माअते मन्क़बता, स़ः- 176, बिहारूल अनवार, जिः-26, सः- 229)
(2) हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः-
"अगर कोई शख़्स हमारे दुश्मनो को दोस्त रक्खे या हमारी दोस्ती को दुश्मन रक्खे! क़सम उस परवरदिगार की जिसने सबऐ मसानी और क़ुरआने करीम को नाज़ील किया ऐसा शख़्स काफ़िर है " ।
(अमाली, शैखे सुदूक़, सः-52, हदीसः- 4)
(3) यह भी फ़रमाते हैः-
"उस ख़ुदा की क़सम जिसने हज़रते मुहम्मदे मुस्तफ़ा (स.अ.) को मबऊस बा-रिसालत किया अगर जनाबे जिबरईल और मिकाईल के दिल में ज़र्रा बराबर भी उमर और अबूबक्र की मुहब्बत होती तो ख़ुदा उनको आतीशे जहन्नम में डाल देता "।
(सराएरः- सः-43, हदीसः- 16, बिहारूल अनवार जिः- 45, सः- 339)
(4) फिर इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः-
"जो शख़्स भी हमारे दुश्मनो और हम पर ज़ुल्म करने वालों के काफ़िर होने में शक करे बेशक वो काफ़िर है "।
(रिजालकशी, जिल्दः- 2, सः- 811 )
अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने की फ़ज़ीलत
हज़रत इमाम ज़ैनुल-आबिदीन (अ.स.) फ़रमाते हैः-
"जो शख़्स उमर और अबूबक्र पर दिन में एक मरतबा लानत करे ख़ुदा वन्दे आलम सत्तर-सत्तर हज़ार नेकियाँ उसके नामा-ए-आमाल में लिख देता है और सत्तर-सत्तर हज़ार गुनाह मिटा देता है और सत्तर-सत्तर हज़ार दरजात बुलन्द कर देता है और जो शख़्स राम में उन पर एक मरतबा लानत करे उसके लिये भी वही अज्र और सवाब है "। (शिफ़ा-उस-सुदूर, जिः- 2, सः- 378)
1.बहुत से दलाएल और शवाहिद मौजूद हैं कि जिब्त और ताग़ूत से अबूबक्र और उमर मुराद हैं।
चौथी फ़स्ल
अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने वालों पर ख़ास इनायतें
अहलेबैत (अ.स.) के दुश्मनो पर लानत करने वालों और उनसे बेज़ारी करने वालों पर हमेशा ख़ुदा वन्दे आलम की इनायात शामिल रहीं हैं और आईम्मा-ए-ताहिरीन (अ.स.) की तरफ़ से भी उनकी हौंसला-अफ़ज़ाई और तशवीक़ (मदद) की गई है, और जिन लोगों ने इस अमले लानत को मुसलसल अन्जाम दिया है उन पर ख़ास तरीक़े से रहमतें और बरकतें नाज़ील हुईं हैं।
इस सिलसिले में चन्द नमूने आपकी ख़िदमत में पेश करना मुनासिब समझता हूः-
हज़रते ज़हरा (स.अ.) के क़ातिलों पर लानत करने वालों पर इमामें सादिक़ (अ.स.) की ख़ास इनायत
बशारे मकारी कहते हैः-
"मैं शहरे कूफ़ा में हज़रते इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ख़िदमते मुबारक में हाज़िर हुआ तो देखा कि हज़रत के सामने एक तख़्त में खुरमा रक्खा हुआ है और आप तनावुल फ़रमा रहें हैं, इमाम (अ.स.) ने मुझे देख कर ख़ुरमा खाने के लिये कहा, तो मैंने अर्ज़ किया "मौला! आप नोश फ़रमायें, मुझे माफ़ फ़रमायें, मैंने रास्ते में ऐसा दर्दनाक वाक़ेया देखा कि मेरा दिल तड़प रहा है लिहाज़ा कुछ खाने की तबीयत नहीं हो रही है"।
यह सुनकर हज़रत ने मुझसे फ़रमायाः- "तुम्हें मेरे हक़ की क़सम आगे बढ़ो और ख़ुरमा खाओ" पस मैंने मौला के हुक्म की तामील की और आगे बढ़कर ख़ुरमा खाना शुरू कर दिया।
उस वक़्त इमाम (अ.स.) ने मुझसे सवाल किया कि अब बताओ रास्ते में क्या देखा? उस वक़्त मैंने अर्ज़ कियाः- "मौला मैंने एक सिपाही को देखा जो एक औरत को बुरी तरह मारता हुआ क़ैदख़ाने की तरफ लिये जा रहा है और वह औरत नाला-ओ-फ़रियाद कर रही है और लोगों को ख़ुदा व रसूल का वास्ता देकर मदद के लिये पुकार रही है लेकिन कोई भी उसकी फ़रियाद-रसी नहीं करता।
उस वक़्त इमाम (अ.स.) ने मुझसे सवाल किया कि "उस औरत पर यह सब कुछ ज़ुल्म क्यों हो रहे थे "?
मैंने अर्ज़ कियाः- "मौला मैंने सुना कि लोग कह रहे है कि इस औरत का पैर ज़मीन पर लड़खड़ाया और ज़मीन पर गिर पड़ी तो इस औरत की ज़ुबान से यह जुमला जारी हुआः-
"लानल्लाहो क़ातिलीयके या फ़ातिमा (स.अ.)" (ऐ फ़ातिमा ज़हरा! आप को क़त्ल करने वालों पर अल्लाह की लानत करे)
जैसे ही इमामे सादिक़ (अ.स.) ने यह जुमला सुना तो खाने से हाथ रोक लिया और इस क़दर रोऐ के आपकी रीशे मुबारक और सीना-ए-मुबारक आँसूओं से भीग गये और इसके बाद इमाम अलेहिस्सलाम ने मुझ से फ़रमायाः- "ऐ बशार! उठो, मस्जिदे सहला में जाकर उस औरत की रिहाई के लिये दुआ करते है, और एक शख़्स को उस औरत की ख़बरगीरी के लिये रवाना किया और हम लोगों ने मस्जिदे सहला में जाकर दो रकअत नमाज़ पढ़ी और परवरदिगारे आलम की बारगाह में बा-दस्ते दुआ हुए और उस औरत की रिहाई के लिये दुआ की, इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम सजदे में गये और कुछ देर बाद सजदे से सर उठाया और फ़रमायाः- "चलो चलते हैं! कि वह औरत आज़ाद हो गई" रास्ते में उस शख़्स से मुलाक़ात हुई जो उस औरत की ख़बरगीरी करने गया था, उसने भी उस औरत की आज़ादी की ख़बर सुनाई।
इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने उस औरत के लिये अशरफ़ियों की एक थैली भिजवाई।
(बिहारूल- अनवार, जिः-97, सः- 441)
अबूराजेह पर इमामे ज़माना (अ.स.) की ख़ास इनायत
जनाबे अबूराजेह शहरे हिल्ला में साहबे हम्माम थे और वह बहुत ही कमज़ोर होने के साथ-साथ ख़ूबसूरत भी नहीं थे, उनका रंग गन्दुमी था।
यह उस ज़माने की बात है, जब दुश्मने अहलेबैत शहरे हिल्ला पर हुकूमत करता था और अहलेबैत (अ.स.) से उसको इस क़दर दुशमनी थी के जिस वक़्त वह बैठता था तो मक़ामें इमामे ज़माना(1) पर कमर लगा कर बैठता था।
(1.मक़ामे इमामे ज़माना शहरे हिल्ला में इमामे ज़माना से मनसूब एक जगह को कहते हैं।)
अबूराजेह हज़रते अमीरूलमोमिनीन अलैहिस्सलाम और जनाबे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा के ऐसे दोस्तदारों और चाहने वालों में से था जो आपके क़ातिलों के सख़्त दुश्मन थे।
जनाबे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा के क़ातिलो से उनके दिल में दुशमनी की आग इस क़दर थी कि उठते-बैठते उनकी ज़बान पर लानत और नफ़रीन हुआ करती थी।
जिस वक़्त यह ख़बर हाकिम को पहुँची तो ग़ुस्से के आलम में अबूराजेह की गिरफ़्तारी और शिकन्जा (एक तरह की सज़ा) देने का हुक्म सादिक़ कर दिया।
चुनाँचे उनको गिरफ़्तार करके इस तरह शिकन्जा दिया गया कि तमाम बदन मजरूह और ज़ख़्मी हो गया, दाँत टूट गये, उनकी ज़बान को बाहर निकलवाया गया और लोहे की ज़न्जीर से बाँध देते थे, उनकी नाक में सुराख़ करके उसमें रस्सी बाँध दी गई और उनको शहर के गली कूचों में मारते-पीटते हुऐ फिराया गया, यहाँ तक कि वह शहादत के क़रीब पहुँच गये।
कुछ लोगों ने बीच बचाव करके उनको क़त्ल होने से बचा लिया, उनके मजरूह और ज़ख़्मी बदन को घर ले जाया गया, रात ग़ुज़रती रही सुब्हा के वक़्त उनके रिश्तेदार अपने गुमान के मुताबिक़ उनकी लाश देखने के लिये आए लेकिन लोगों ने बड़े तआज्जुब से देखा कि अबूराजेह नमाज़ पढ़ने में मशग़ूल हैं और उनके तमाम ज़ख़्म बिल्कुल ठीक हो गये है।
और उनको पहले के बर-ख़िलाफ़ एक ख़ूबसूरत,सुर्ख़ दाढ़ी वाला बीस साल के जवान के जैसा पाया तो लोगों ने सवाल कियाः- "ऐ अबूराजेह! यह कैसे हुआ ?"
तो उन्होंने मुस्तुराते हुऐ कहाः- मैं जिस वक़्त दर्द और परेशानी के आलम में था, मेरी जान निकली जा रही थी, ज़बान में कुछ बोलने की ताक़त भी नहीं थी, उस वक़्त मेरे दिल ने बे-पनाहों की पनाह, मज़लूमों की फ़रियाद सुनने वाले इमामे ज़माना को पुकारा और कहाः- "ऐ मेरे मौला व आक़ा! आपकी दादी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के दुश्मनो की दुशमनी में मेरी यह हालत हो गई है"।
नागहाँ अन्धेरी रात में मेरा घर नूरानी हो गया, मैंने देखा की मेरे मौला व आक़ा मेरे सर पर हाथ फेर रहे हैं और कह रहे हैः- "ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हें दुबारा सेहत व सलामती अता करेगा"।
फ़ौरन मैंने अपने आपको इस हालत में देखा।
(अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिन व आले मुहम्मद, अल्ला हुम्मा लाअन मन ज़ल्मा आले मुहम्मदिन)
(बिहारूल- अनवार जिल्दः- 52, सफ़्हाः- 70)
अल्लामा अमीनी पर अहलेबैत अलैहुम्मुस्सलाम की करम-फ़रमाई
अल्लामा अमीनी रह0 "अल-ग़दीर" जैसी अज़ीमुश्शान किताब के मुअल्लिफ़ हैं और अहलेबैत अलैहमुस्सलाम की तरफ़ से दिफ़ाअ करने वाले अस्रे हाज़िर के अज़ीमुश्शान उल्मा में से हैं। मौसूफ़ ख़लीफ़ा (उमर) के मरग (मौत) के मौक़े पर महफ़िले जशन मनाया करते थे, एक रोज़ इत्तेफ़ाक के एक कट्टर सुन्नी जो अल्लामा अमीनी के मनाज़िरों से आगाह हो गया था उस महफ़िल में आ गया लेकिन जैसे ही उसे महफ़िल में सुन्ने को मिला तो ग़ुस्से की हालत में भरा एक कोने में चुपचाप बैठा रहा, उसके चहरे से ग़ुस्से के आसार नुमायाँ थे।
कुछ दिन बाद इस बिन बुलाये महमान ने अपने मेज़बान अल्लामा अमीनी की बग़दाद में अपने घर पर दावत की और जब मरहूम अल्लामा अमीनी तय शुदा तारीख़ पर इसके घर पहुँचे तो वहाँ पर एक जलील-उल-क़दर सय्यद से मुलाक़ात हुई और उनके साथ चलने पर बहुत ज़्यादा इसरार किया आख़ीर उस मेज़बान के घर पहुँचे तो उसने गर्म अन्दाज़ में उनका इस्तेक़बाल किया और उनके दुसरे तबक़े (हिस्से) की तरफ़ ले गया, जब यह लोग वहाँ पहुँचे तो देखा कि एक कमरा बन्द है जिसके अन्दर से कुछ इस तरह की आवाज़ें आ रहीं हैं जैसे उस कमरे में बहुत से लोग जमा हों।
मेज़बान इन दोनों हज़रात के लिये चाय लेकर आया और मुख़्तसर सी गुफ़्तुगू के बाद कहाः- "ऐ अमीनी साहब! आज मैं नवी रबी-उल-अव्वल और किताबे ग़दीर का हिसाब इकठ्ठा चुकाना चाहता हूँ! "
यह सुनते ही वह सय्यदे बुज़ुर्गवार खड़े हो जाते हैं और कहते हैः-
"क्या कहा? धमकी देते हो! " और उस शख़्स के गले को पकड़ कर ऐसे दबाया कि वह ज़मीन पर गिर पड़ा, उसके बाद उसके हाथ पैर बाँध कर दजले (एक नहर) की तरफ़ मौजूद ख़िड़की से उसको नहर में फेंक दिया। और यह दोनों हज़रात कमरे से बाहर निकले और बराबर वाले कमरे का ताला लगाकर वहाँ से रूख़सत हो गये, अल्लामा अमीनी कहते हैं कि कुछ देर बाद वह सैय्यदे बुर्ज़गवार अचानक ग़ायब हो गये।
इसी असना में किसी ने अल्लामा अमीनी को आवाज़ लगाई और दजला में मौजूद एक छोटी सी किश्ती में सवार करके उनको दूसरी तरफ़ उतार दिया ताकि कोई ख़तरा बाक़ी न रहे और वह साहेबे किश्ती कहता है कि मैंने ख़्वाब में हज़रत मूसा काज़िम (अ.स.) को देखा कि आपने मुझसे फ़रमायाः- "उठो! और फ़ुलाँ जगह जाकर अब्दुल हुसैन (अल्लामा अमीनी) जो कि जो कि हमारे दोस्तों में से हैं उनको ख़तरे से निजात दो और उनको बग़दाद से काज़मैन पहुँचा दो"। (करामाते सालेहीन, सः-291 )
शैख़े काज़िम अज़री पर जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की इनायत
शैख़े काज़िम अज़री एक क़दीमी शायर थे, जिन्होंने अपने अशआर में अहलेबैत (अ.स.) की मदहो सना की है और उनके अशआर की एक ख़ुसूसूयत यह भी थी कि उनके अशआर में अहलेबैत (अ.स.) के दुश्मनो पर साफ़-साफ़ तबर्रा होता था, चुनाँचे इस सिलसिले में पेश आने वाला एक हादसा अपनी ज़बानी बयान करते हैः-
"मैं जिस जगह रहता था वहाँ पर एक नासिबी (दुश्मने अहलेबैत) की दुकान थी और मैं जब भी वहाँ से गुज़रता था तो अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करता हुआ और बुरा भला कहता था, वह नासिबी यह सब सुनकर बहुत लाल पीला हो जाता था।
एक रोज़ रात में मैंने हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) को ख़्वाब में देखा कि आप फ़रमा रहीं हैः- "ऐ शैख़ (सिर्फ़ कल तक के लिये) अपने कलाम के रूख़ को बदल लो"!
मैं उठा तो ख़तरे का एहसास किया, दूसरे रोज़ जब उस नासबी से मुलाक़ात हुई तो बहुत नर्म लहजे में उसकी अहवाल पुरसी की और उसके बाद कहाः- "ऐ शैख़ तुमने जो पचास दिरहम मुझसे क़र्ज़ लिया था, कब देने का इरादा है?"
मुझे नहीं मालूम था कि नासिबी ने सुन्नी हाकिमें वक़्त से मेरी शिकायत की है कि यह फ़ुलाँ-फ़ुलाँ पर लानत करता है।
हाकिम ने इस बात की तहक़ीक़ के लिये दो अफ़राद को मुअय्यन किया था और वह उसकी दुकान में छुपे हुए थे ताकि उसकी लानत और ज़बान से नफ़रीन सुनें।
लेकिन जिस वक़्त उन लोगों ने मेरे नर्म लहजे को सुना और मेरे क़र्ज़ की बात सुनी तो उन्होंने क़ाज़ी से वाक़िये की तफ़्सील पेश की, यह सुन कर क़ाज़ी ने उस नासिबी को बुलाया और उसकी पिटाई की और उससे पचास दीनार दिलाकर हमें बा-इज़्ज़त वापस कर दिया।
इसके बाद जब मैंने देख लिया कि ख़तरा टल गया है फिर अपना पुराना तरीक़ा इख़्तियार कर लिया और हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के क़ातिलों पर लानत और नफ़रीन शुरू कर दी।
जिस वक़्त उस नासिबी ने यह करामत और इस मोजिज़े को देखा तो नर्मी के साथ इस वाक़िये का राज़ मालूम किया, मैंने भी उससे अपना सारा वाक़िया बयान कर दिया कि हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) ख़्वाब में तशरीफ़ लाईं थीं और मुझसे फ़रमाया थाः- "ऐ शैख़ अपने कलाम को बदल लो! "।
चुनाँचे यह पूरा वाक़िया सुन कर उस सुन्नी की आँख़ों से सैलाबे अश्क जारी हो गया और उसकी ज़बान पर यह जुमला ज़मज़मा करने लगाः-
"लअनल्लाहो क़ातीलीके या फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.)"
(ऐ फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) आपके क़ातिलों पर ख़ुदा की लानत हो)
पाँचवीं फ़स्ल
मौसमे लानत, अहलेबैत (अ.स.) की ख़ुशी
शिया तारीख़ की बिना पर ख़ुदा और रसूल का बदतरीन दुश्मन और हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) का क़ातिल (उमर) 9वीं रबी-उल-अव्वल को वासिले जहन्नुम हुआ।
9 वीं रबीउल-अव्वल
यह दिन अहलेबैत (अ.स.) की ख़ुशी का दिन है, यह दिन फ़िरऔन दौरे अहलेबैत और उनके हक़ को ग़ज़्ब करने वालो का रोज़े मर्ग (मौत) है, यह दिन मुशकिलात से रिहाई का दिन है, यह दिन दूसरी ग़दीर है, यह रोज़ गुनाहों की बख़्शिश, रोज़े बरकत, रोज़े खॉ- ख़्वाही (मज़लूमी) और ख़ुदा की ईदे अकबर है, यह दिन शियों की ख़ुशी और आमाल के क़ुबूल होने का दिन है, यह दिन सदक़ा देने, क़त्ले मुनाफ़िक़ और गुमराही व ज़लाल की नाबूदी का दिन है, यह दिन मोमिनीन से दरगुज़र करने, मज़लूम की हिमायत करने, गुनाहे कबीरा से परहेज़ करने और मोएज़ा व नसीहत और इबादत का दिन है। ( बिहारूल- अनवार, जिः- 31, सः- 120 )।
लिहाज़ा अहलेबैत (अ.स.) के दोस्तदारों पर लाज़िम है कि 9 रबीउल- अव्वल से 12 रबीउल- अव्वल तक ईद मनाऐं।
(बिहारूल-अनवार जिः-31, सः-120 )
और ख़ुसूसी महफ़िलें (तर्बराई महफ़िलें) मुन्अक़िद की जाऐं, ख़ुशी का इज़हार किया जाये और मुहम्मद व आले मुहम्मद (अ.स.) पर ज़ुल्मों सितम करने वालों पर लानत और नफ़रीन की जाये।
गुनाहों से इज्तेनाब करते हुए अहलेबैत (अ.स.) के दुश्मनो के ज़ुल्म और सितम को बयान करके उनसे बराअत (तबर्रे) का इज़हार किया जाये, और ख़ुदा व रसूल और औलिया अल्लाह (अहलेबैत) के दिलों को शाद किया जायें।
दुशमनाने ख़ुदा व रसूल से बराअत सरे फ़स्ले इन्तेज़ार है
आख़िर में हज़रते ज़हरा (स.अ.) की यादगार हज़रत इमामे ज़माना (अ.स.) को याद करते हैं और ख़ुदा वन्दे मन्नान और मेहरबान की बारगाह में आजिज़ाना तौर पर दस्ते-दुआ बुलन्द करते हैं किः-
"बारे-इलाहा मज़लूमीन ख़ुसूसन हरीमे इमामत व विलायत, हज़रते फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) के ख़ूने नाहक़ का बदला लेने वाले, इमामे ज़माना (अ.स.) के ज़ुहूर में ताजील फ़रमा" (आमीन सुम्मा आमीन)
हम उम्मदी की किरन दिल में रखते हुए इन्तेज़ार के आँसू बहाते हुऐ उस दिन का इन्तेज़ार करते हैं कि जब आने वाला आऐ और उसके ज़ुहूर से दुनिया में उजाला होऐ और मदीना-ए-रसूल में उस मज़लूमा बीबी के क़ातिलों (अबूबक्र व उमर) को क़ब्रों से निकाल कर उनके ग़ुन्चा-ए- नाशग़ुफ़्ता का इन्तेक़ाम ले, और यही बराअत और बेज़ारी का ऐलान हम इन्तेज़ार करने वालों के लिऐ सरे फ़स्ले इन्तेज़ार है और हम नज़रों से ग़ायब उस इमाम के चश्मबराह हैं।
अल्ला हुम्मा लाअन कातिली फ़ातिमा ज़हरा (स0)
चन्द मुजर्रब अमल
अहलेबैत (अ.स.) के दुश्मनो पर लानत करना परवरदिगार से क़ुरबत का बेहतरीन तरीक़ा और दुआ के क़ुबूल होने का बहतरीन ज़रिया है, लिहाज़ा हम यहाँ पर चन्द मुजर्रब अमल का ज़िक्र करते हैं।
अमलः- 1- सत्तर (70) या सात (7) मरतबा अल्ला हुम्मा लाअन उमर, सुम्मा अबाबक्र व उमर, सुम्मा उसमान व उमर, सुम्मा उमर, सुम्मा उमर, सुम्मा उमर, सुम्मा उमर, कहे इसके बाद अर्ज़ करे या मौताती या फ़ातिमा इग़सनी।
अमलः- 2- एक गढ़ा खोदे और इकत्तर (71) कंकरियाँ जमा करे और हर संगरेज़े पर यह लानत पढ़ कर गढ़े में डाल देः- लाअनल्लाहो उमर, सुम्मा अबाबक्र व उमर, सुम्मा उसमान व उमर, लाअनल्लाहो उमर इसके बाद गढ़े को बन्द कर दें।
दुआ-ए-सनमी क़ुरैश
इब्ने अब्बास बयान करते हैं कि एक रात मैं मस्जिदे रसूल में गया ताकि नमाज़े शब वहीं अदा करू, चुनॉचे मैंने हज़रते अमीरूलमोमिनीन (अ.स.) को नमाज़ में मशग़ूल देखा, एक गोशे में बैठकर हुस्ने इबादत देखने और क़ुरआन की आवाज़ सुनने लगा। हज़रत नवाफ़िले शब से फ़ारिग़ हुए और शफ़्अ व बित्र पढ़ी फिर कुछ इस क़िस्म की दुआऐं पढ़ीं जो मैंने कभी नहीं सुनी थीं, जब हज़रत नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो मैने अर्ज़ की कि मेरी जान आप पर क़ुर्बान हो! यह क्या दुआ थी? फरमाया कि यह दुआ-ए-सनमी क़ुरैश थी। और फ़रमाया क़सम है उस ख़ुदा की जिसके क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मुहम्मद (स.अ.) और अली (अ.स.) की जान है, जो शख़्स इस दुआ को पढ़गा उसको ऐसा अज्र नसीब होगा कि गोया उसने ऑहज़रत सलल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के साथ जंगे ओहद और जंगे तबूक में जिहाद किया हो और हज़रत के सामने शहीद हुआ हो, नीज़ उसको ऐसो 100 हज व उमरे का सवाब मिलेगा जो हज़रत के साथ बजा लाये गये हों और हज़ार महीनों के रोज़ों का सवाब भी हासिल होगा और क़यामत के दिन उसका हश्र जनाबे रिसालतमआब (स.अ.) और आईम्मा-ए-मासूमीन (अ.स.) के साथ होगा और ख़ुदा वन्दे आलम उसके तमाम गुनाह माफ़ कर देगा चाहे वह आसमान के सितारों, सहरा की रेत के ज़र्रों और तमाम दरख़्तों के पत्तो के बराबर ही क्यों न हों ! नीज़ वह शख़्स क़ब्र के अज़ाब से अमान में होगा, उसकी क़ब्र में बहिश्त का एक दरवाज़ा ख़ोल दिया जायेगा।
जिस हाजत के लिये वह यह दुआ पढ़ेगा इन्शाअल्लाह पूरी होगी। ऐ इब्ने अब्बास ! अगर हमारे किसी दोस्त पर बला व मुसीबत आये तो इस दुआ को पढ़े निजात होगी।
क़ारईने किराम! दुआऐ सनमी-ए-क़ुरैश बहुत सी दुआओं की किताबों में मौजूद हे, ख़ासकर वज़ाफ़ुल-अबरार में भी मौजूद है। अरबी इबादत के लिये दुआओं की किताबों को देखें यहाँ पर तर्जुमा पेश किया जा रहा हैः-
तर्जुमा दुआ-ए-सनमी क़ुरैश
बिस्मिल्लाहिर्र-रहमानिर्र-रहीम, "ऐ ख़ुदा वन्दे आलम तू मुहम्मद वा आले मुहम्मु पर रहमत नाज़िल फ़रमा! ख़ुदा वन्दा! तू क़ुरैश के दोनों (ज़ालिम) बातिल माबूदों और दोनों शैतानों और दोनों शरीक़ो (अबूबक्र व उमर) और उनकी दोनो बेटियों (आयशा और हफ़्सा) पर लानत कर जिन्होंने तेरे हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी की, तेरी वही को पीठ दिखाई, तेरे इन्आम के मुन्किर हुए, तेरे रसूल की बात नहीं मानी, तेरे दीन को पलट कर रख दिया, तेरी किताब के तक़ाज़ो को पूरा नहीं होने दिया, तेरे दुश्मनो से दोस्ती की, तेरी नेमतों को ठुकराया, और तेरे अहकाम को मुअत्तल किया, और तेरे फ़राएज़ को बातिल किया और तेरी आयतों से इलहाद किया और दोस्तों से अदावत की और तेरे दुश्मनो से मुहब्बत की और तेरे शहरों को ख़राब किया और तेरे बन्दों में फ़साद फैलाया। ख़ुदा वन्दा ! तू उन दोनों (उमर व अबूबक्र) और उनकी मुताबिअत करने वालों पर लानत कर क्योंकि उन्होंने ख़ाना-ए-नबूवत को तबाह किया और उसका दरवाज़ा बन्द किया और उसकी छत को तोड़ डाला और उसके आसमान को उसकी ज़मीन से और उसकी बलन्दी को उसकी पस्ती से और उसके ज़ाहिर को उसके बातिन से मिला दिया और उस घर के मकीनों का इस्तेसाल किया और उसके मददगारों को शहीद किया और उसके बच्चों को क़त्ल किया और उसके मेम्बर को उसके वसी और उसके इल्म के वारिस से ख़ाली किया और उसकी इमामत से इन्कार किया और दोनों (अबूबक्र व उमर) ने अपने परवरदिगार का शरीक बना लिया लिहाज़ा तू उनके अज़ाब को सख़्त कर और उन दोनों (अबूबक्र व उमर) को हमेशा दोज़ख़ में रख और तू ख़ूब जानता है कि दोज़ख़ क्या है वह किसी को बाक़ी नहीं रखता और न छोड़ता है। ख़ुदा वन्दा ! तू इन पर लानत कर हर बूरी बात के बदले जो इनसे सरज़द हुई हो यानी इन्होंने हक़ को पोशीदा किया, और मेम्बर पर चढ़े और मोमिन को तकलीफ़ दी और मुनाफ़िक़ से दोस्ती की और ख़ुदा के दोस्त को तकलीफ़ दी और रसूल के धुतकारे हुए (मरवान) को वापस ले आये और ख़ुदा के सच्चे और मुख़लिस बन्दों (अबूज़र) को जिला वतन किया और काफ़िर की मदद की और इमाम की बेहुरमती की और वाजिब में फ़ेर-बदल की और आसार के मुन्किर हुऐ और शर को इख़्तियार किया और (मासूम) का ख़ून बहाया, और ख़ैर को तब्दील किया और कुफ़्र को क़ायम किया और झूठ और बातिल पर अड़े रहे और मिरास पर नाहक़ क़ाबिज़ हुऐ और ख़िराज को मुन्क़ता किया और हराम से अपना पेट भरा और ख़ुम्स को अपने लिये हलाल किया और बातिल की बुनियाद क़ायम की और ज़ुल्म व जौर को राएज किया और दिल में निफ़ाक़ पोशीदा रक्खा और मक्र को क़ल्ब में छुपाऐ रक्खा और ज़ुल्मों सितम की इशाअत की और वादों के ख़िलाफ़ अमल किया और अमानत में ख़यानत की और अपने अहद को तोड़ा और ख़ुदा व रसूल के हलाल को हराम किया और ख़ुदा व रसूल के हराम को हलाल किया और मासूमा-ए-आलम के शिकम पर दरवाज़ा गिराकर शिग़ाफ़ता किया और हज़रते मोहसिन मासूम का हम्ल साक़ित किया और मासूमा-ए-आलम के पहलू को ज़ख़्मी किया और वह कागज़ जो बाग़े फ़िदक दे देने के लिये लिखा गया था फ़ाड़ डाला और जमीयत को परागन्दा किया और इज़्ज़दारों की बेइज़्ज़ती की और ज़लील को अज़ीज़ किया हक़दार को हक़ से महरूम किया और झूठ को फ़रेब के साथ अमल में लाये और ख़ुदा और रसूल के अमल को बदल दिया और इमाम की मुख़ालिफ़त की।
परवरदिगार ! जिन-जिन आयतों की आईनी हैसियत को उन्होंने बदला है उनके आदाद और शुमार (गिनती) के मुताबिक़ उन पर लानत कर और जितने फ़राएज़ छोड़े हैं, जितनी सुन्नतों को तब्दील किया है, जो-जो अहकाम मुअत्तल किये हैं, जिन-जिन रस्मों को मिटाया है, जिन-जिन वसीयतों को कुछ से कुछ कर दिया और वह ऊमूर जो इनके हाथों ज़ाया हुऐ, वह बैयत जिसके पड़ाख़च्चे उड़ाये, वह गवाहियाँ जो छुपाई, और वह दावे जिन्हे इन्साफ़ से महरूम रक्खा गया, वह सुबूत जिन्हें क़ुबूल करने से इन्कार किया और वह हीले बहाने जो तराशे गये, वह ख़यानत जो बरती गई और फिर वह पहाड़ी जिस पर यह जान बचाने के लिये चढ़ गये, वह मुअय्यन राहे जो इन्होने बदलीं और वह खोटे रास्ते जो इन्होंने इख़्तियार किये, उन सब के बराबर इन पर लानत भेज ! ऐ अल्लाह ! पोशीदा तौर पर, ज़ाहिर ब-ज़ाहिर और ऐलानिया तरीक़े से इन पर लानत कर, बेशुमार लानत, अब्दी ( हमेशा रहने वाली ) लानत, लगातार लानत, और हमेशा बाक़ी रहने वाले लानत, लानत जिसकी तादाद में कभी कमी न हो और इन पर इस लानत की मुद्दत कभी ख़त्म न हो, ऐसी लानत जो अव्वल से शुरू हो और आख़िर तक मुन्क़ता न हो और दोस्तों और इनके हवाख़्वाहों पर लानत, और इनके फ़रमाबरदारों और फिर इनकी तरफ़ रग़बत करने वालों पर लानत, और इनके ऐहतेजाज पर हम-आवाज़ होने वालों पर लानत और इनकी पैरवी करने वालों के साथ ख़ड़े होने वालो पर लानत, और इनके अक़वाल मानने वालों पर लानत और इनके अहकाम की तस्दीक़ करने वालों पर लानत भेज।
(इस जुमले को चार मर्तबा कहना है)
"ख़ुदा- वन्दा तू इन पर ऐसा अज़ाब नाज़िल कर की जिससे अहले दोज़ख़ फ़रियाद करने लगें, ऐ तमाम आलमीन के परवरदिगार ! मेरी यही दुआ क़ुबूल कर।
(फिर चार मर्तबा कहा जाऐ)
"पस ऐ ख़ुदा तू इन सब पर लानत कर और रहमत नाज़िल कर मुहम्मद (स.अ.) और आले मुहम्मद (स.अ.) पर" और फिर मुझको अपने हलाल के साथ अपने हराम से बेनियाज़ करदे और मोहताजी से मुझको पनाह दे, परवरदिगार! यक़ीनन मैंने बुरा किया और अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया, मै अपने गुनाहों का इक़रार करता हूँ, अब मैं तेरे सामने हूँ! तू अपने लिये मेरे नफ़्स की रिज़ामन्दी क़ुबूल कर क्योंकि मेरी बाज़गश्त तेरी तरफ़ है और मैं तेरी तरफ़ पलटूँ तो तू मुझ पर रहम फ़रमा, इनायत फ़रमा जो ख़ास तेरा हिस्सा है, अपने फ़ज़्ल और बख़्शिश और मग़फ़िरत और करम के साथ। ऐ रहम करने वालों में सबसे ज़्यादा रहीम , और रहमत फ़रमा ऐ अल्लाह तमाम नबीयों के सरदार ख़ातिमुल नबीईन पर और उन जनाब की पाको पाकीज़ा और ताहिर औलाद पर, अपनी रहमत से ऐ रहम करने वालों में सबसे ज़्यादा रहीम।
[[अलहम्दो लिल्लाह किताब "ज़ुलमत से निजात" पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन (अ.) फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क) के लिऐ टाइप कराया।
सैय्यद मौहम्मद उवैस नक़वी]]
फेहरीस्त
क़ुरआन में किन लोगों पर लानत की गई है
ख़ुदा व रसूल को अज़ीयत देने वाले
दुश्मनाने दीन के बारे में अहलेबैत (अलैहिस्सलाम) की सीरत
अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने की फ़ज़ीलत
अहलेबैत के दुश्मनो पर लानत करने वालों पर ख़ास इनायतें
हज़रते ज़हरा (स.अ.) के क़ातिलों पर लानत करने वालों पर इमामें सादिक़ (अ.स.) की ख़ास इनायत
अबूराजेह पर इमामे ज़माना (अ.स.) की ख़ास इनायत
अल्लामा अमीनी पर अहलेबैत अलैहुम्मुस्सलाम की करम-फ़रमाई
शैख़े काज़िम अज़री पर जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की इनायत
मौसमे लानत, अहलेबैत (अ.स.) की ख़ुशी
(बिहारूल-अनवार जिः-31, सः-120 )
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