लेखक: हुज्जतुल इस्लाम वल मुसलेमीन शेख़ जाफ़र अल हादी
एक दूसरे से पहचान की ज़रुरत....
و جعلناكم شعوبا و قبائل لتتعارفوا
और फिर तुम में शाख़ें और क़बीले क़रार दिये हैं ताकि आपस में एक दूसरे को पहचान सको।
(सूर ए हुजरात आयत 13)
इस्लाम जब आया तो आपस में लोग अलग अलग और बहुत से गिरोहों में बटे हुए ही नही थे बल्कि एक दूसरे से लड़ाई, झगड़े और ख़ून ख़राबे में लगे रहते थे मगर इस्लामी तालीमात के सदक़े में आपसी दुश्मनी और एक दूसरे से अजनबियत की जगह मेल जोल और दुश्मनी की जगह एक दूसरे की मदद और रिश्ते तोड़ने की बजाए नज़दीकी पैदा हुई और इसका नतीजा यह हुआ कि इस्लामी हुकुमत एक अज़ीम उम्मत की शक्ल में सामने आई।
जिसने उस वक़्त अज़ीम इस्लामी तहज़ीब व तमद्दुन को पेश किया और इस्लाम से वाबस्ता गिरोहों को हर ज़ालिम व जाबिर से बचा लिया और उनकी पुश्त पनाही की। जिस की बेना पर यह उम्मत दुनिया की तमाम कौ़मों में क़ाबिले ऐहतेराम क़रार पाई और ज़ालिमों की निगाहों में रोब व दबदबे और हैबत के साथ ज़ाहिर हुई।
लेकिन यह सब चीज़ें नही वुजूद में आयीं मगर इस्लामी उम्मत के दरमियान आपस का इत्तेहाद व भाईचारगी और तमाम गिरोहों का एक दुसरे से राब्ता रखने की बेना पर जो कि दीने इस्लाम के साये में हासिल हुआ था, हालाँकि इन की शहरियत, राय, सक़ाफ़त, पहचान और तक़लीद अलग अलग थी। अलबत्ता उसूल व असास फ़रायज़ व वाजिबात में इत्तेफ़ाक़ व इत्तेहाद काफ़ी हद तक मौजूद था। यक़ीनन इत्तेहाद, क़ुव्वत और इख़्तिलाफ़ कमज़ोरी है।
बहरहाल यह मसअला इसी तरह जारी रहा यहाँ कि एक दूसरे से जान पहचान और आपसी मेल जोल की जगह इख़्तिलाफ़ात ने ले ली और एक दूसरे की समझने की जगह नफ़रत ने ले ली और एक गिरोह दूसरे गिरोह के बारे में कुफ़्र के फ़तवे देने लगा इस तरह फ़ासले पर फ़ासले बढ़ते गये। जिसकी वजह से जो रही सही इज़्ज़त थी वह भी रुख़सत हो गई और मुसलमानों की सारी शानो शौकत ख़त्म हो गई और सारा रोब व दबदबा जाता रहा और हालत यह हुई कि क़यामत की अलमबरदार क़ौम ज़ालिमों के हाथों ज़िल्लत व रुसवाई उठाने पर मजबूर हो गई। यहाँ तक कि उनकी नशवो नुमा के दहानों में लोमड़ी और भेड़िये सिफ़त लोग क़ाबिज़ हो गये। यही नही बल्कि उनके घरों के अँदर तमाम आलम की बुराईयाँ, और दुनिया के सबसे बुरे और ख़राब लोग घुस आये। नतीजा यह हुआ मुसलमानों का सारा माल व मनाल लूट लिया गया और उनके मुक़द्देसात की तौहीन होने लगी और उनकी इज़्ज़तें फ़ासिक़ो और फ़ाजिरों की मरहूने मिन्नत हो गई और पस्ती के बाद पस्ती और हार के बाद हार होने लगी। कहीं अंदुलुस में खुली हुई हार का सामना हुआ तो कहीं बुख़ारा और समरकंद, ताशकंद, बग़दाद, माज़ी और हाल में फ़िलिस्तीन और अफ़ग़ानिस्तान में हार पर हार का सामना करना पड़ा।
और हाल यह हो गया कि लोग मदद के लिये बुलाते थे लेकिन कोई जवाब देने वाला न था, फ़रियाद करने वाले थे मगर कोई उनकी फ़रियाद सुनने वाला नही था।
ऐसा क्यों हुआ, इसलिये कि बीमारी कुछ और थी दवा कुछ और, अल्लाह ने तमाम कामों की बागडोर उनके ज़ाहिरी असबाब पर छोड़ रखी है, क्या इस उम्मत की इसलाह उस चीज़ के अलावा किसी और चीज़ से भी हो सकती है कि जिससे इब्तेदा में हुई थी?
आज उम्मते इस्लामी अपने ख़िलाफ़ किये जाने वाले समाजी, अक़ीदती और इत्तेहाद मुख़ालिफ़ सबसे शदीद और सख़्त हमले से जूझ रही है, मज़हबी मैदानों में अंदर से इख़्तिलाफ़ किया जा रहा है, इज्तेहादी चीज़ों को इख़्तिलाफ़ी चीज़ों के तौर पर पेश किया जा रहा है और यह हमला ऐसा है कि इसके बुरे नतीजे ज़ाहिर होने वाले ही हैं, क्या ऐसे मौक़े पर हम लोगों के लिये बेहतर नही है कि अपने इत्तेहाद की सफ़ों को मुत्तसिल रखें और आपसी ताअल्लुक़ात को मोहकम व मज़बूत करें? हम मानते हैं कि अगरचे हमारे बाज़ रस्म व रिवाज अलग अलग हैं मगर हमारे दरमियान बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जो एक और मुशतरक हैं जैसे किताब व सुन्नत जो कि हमारा मरकज़ और सर चश्मा हैं, वह मुशतरक हैं तौहीद व नबुव्वत, आख़िरत पर सब का ईमान है, नमाज़ व रोज़ा, हज व ज़कात, जिहाद और हलाल व हराम यह सब हुक्मे शरीयत हैं जो सब के लिये एक और मुशतरक है, नबी ए अकरम (स) और उनके अहले बैत (अ) से मुहब्बत और उनके दुश्मनों से नफ़रत करना हमारे मुशतरेकात में से हैं। अलबत्ता इसमे कमी व ज़ियादती ज़रुर पाई जाती है, कोई ज़्यादा मुहब्बत और दुश्मनी का दावा करता है और कोई कम, लेकिन यह ऐसा ही है जैसे कि एक हाथ की तमाम उँगलियाँ आख़िर में एक ही जगह (जोड़ से) जाकर मिलती हैं, हालाँकि यह तूल व अर्ज़ और शक्ल व सूरत में एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं या उसकी मिसाल एक जिस्म जैसी है, जिसके आज़ा व जवारेह मुख़्तलि़फ़ होते हैं, मगर बशरी फ़ितरत के मुताबिक़ जिस्मानी पैकर के अंदर हर एक का किरदार जुदा जुदा होता है और उनकी शक्लों में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है, मगर इसके बावजूद एक दूसरे के मददगार होते हैं और उनका मजमूआ एक ही जिस्म कहलाता है।
चुनाँचे बईद नही है कि उम्मते इस्लामिया की तशबीह जो यदे वाहिद और एक बदन से दी गई है इस में इसी हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया गया हो।
साबिक़ में मुख़्तलिफ़ इस्लामी फ़िरक़ों और मज़ाहिब के उलामा एक दूसरे के साथ बग़ैर किसी इख़्तिलाफ़ के ज़िन्दगी गुज़ारते थे बल्कि हमेशा एक दूसरे के साथ मदद किया करते थे, हत्ता बाज़ ने एक दूसरे के अक़ायदी या फ़िक़ही किताबों के शरह तक की है और एक दूसरे से शरफ़े तलम्मुज़ हासिल किया, यहाँ तक कि बाज़ तो दूसरे की तकरीम की बेना पर बुलंद हुए और एक दूसरे की राय की ताईद करते, बाज़ बाज़ को इजाज़ ए रिवायत देते या एक दूसरे से इजाज़ ए नक़्ले रिवायत लेते थे ताकि उनके फ़िरक़े और मज़हब की किताबों से रिवायत नक़्ल कर सकें और एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ते, उन्हे इमाम बनाते, दूसरे के ज़कात देते, एक दूसरे के मज़हब को मानते थे, ख़ुलासा यह कि तमाम गिरोह बड़े प्यार व मुहब्बत से एक दूसरे के साथ ऐसे ज़िन्दगी गुज़ारते थे, यहाँ तक कि ऐसा महसूस होता था कि जैसे उनके दरमियान कोई इख़्तिलाफ़ ही नही है, जबकि उन के दरमियान तन्क़ीदें और ऐतेराज़ात भी होते थे लेकिन यह तंक़ीदें मुहज़्ज़ब व मुवद्दब अंदाज़ में किसी इल्मी तरीक़े से रद्द होती थी।
इस के लिये ज़िन्दा और तारीख़ी दलीलें मौजूद हैं, जो इस अमीक़ और वसीअ तआवुन पर दलालत करती हैं, मुस्लिम उलामा ने इसी तआवुन के ज़रिया इस्लामी सक़ाफ़त और मीरास को सैराब किया है, उन्ही चीज़ों के ज़रिये मज़हबी आज़ादी के मैदान में उन्होने ताज्जुब आवर मिसालें क़ायम की हैं बल्कि वह इसी तआवुन के ज़रिये दुनिया में क़ाबिले ऐहतेराम क़रार पाये हैं।
यह मुश्किल मसअला नही है कि उलामा ए उम्मते मुसलिमा एक जगह जमा न हो सकें और सुल्ह व सफ़ाई से किसी मसअले में बहस व मुबाहसा न कर सकें और किसी इख़्तिलाफ़ी मसअले में इख़लास व सिदक़े नीयत के साथ ग़ौर व ख़ौज़ न कर सकें, नीज़ हर गिरोह को न पहचान सकें।
जैसे यह बात कितनी माक़ूल और हसीन है कि हर फ़िरक़ा अपने अक़ायद और फ़िक़ही व फ़िक्री मौक़िफ़ को आज़ादाना तौर पर वाज़ेह फ़ज़ा में पेश करे, ता कि उनके ख़िलाफ़ जो इत्तेहाम, ऐतेराज़, दुश्मनी और बेजा जोश में आने का, जो उमूर सबब बनते हैं वह वाज़ेह व रौशन हो जायें और इस बात को सभी जान लें कि हमारे दरमियान मुशतरक और इख़्तिलाफ़ी मसायल क्या हैं ता कि लोग उस से जान लें कि मुसलमानों के दरमियान ऐसी चीज़ें ज़्यादा हैं जिन पर सबका इत्तेफ़ाक़ है और उनके मुक़ाबले में इख़्तिलाफ़ी चीज़ें कम हैं, इससे मुसलमानों के दरमियान मौजूद इख़्तिलाफ़ और फ़ासले कम होगें और वह एक दूसरे के नज़दीक आ जायें।
यह रिसाला इसी रास्ते का एक क़दम है, ता कि हक़ीक़त रौशन हो जाये और उस को सब लोग अच्छी तरह पहचान लें, बेशक अल्लाह तौफ़ीक़ देने वाला है।
फ़िरक़ ए इमामिया जाफ़रिया
1. दौरे हाज़िर में इमामिया फ़िरक़ा मुसलमानों का बड़ा फ़िरक़ा है, जिसकी कुल तादाद मुसलमानों की तक़रीबन एक चौथाई है और इस फ़िरक़े की तारीख़ी जड़ें सदरे इस्लाम के उस दिन से शुरु होती हैं कि जिस सूर ए बय्यनह की यह आयत नाज़िल हुई थी:
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ أُولَـٰئِكَ هُمْ خَيْرُ الْبَرِيَّةِ
(सूर ए बय्यना आयत 7)
बेशक जो लोग ईमान लाये और अमले सालेह अंजाम दिया वही बेहतरीने मख़लूक़ हैं।
चुनाँचे जब यह आयत नाज़िल हुई तो रसूले ख़ुदा (स) ने अपना हाथ अली (अ) के शाने पर रखा उस वक़्त असहाब भी वहाँ मौजूद थे और आपने फ़रमाया:
(یا علی انت و شیعتک خیر البریہ)
ऐ अली, तुम और तुम्हारे शिया बेहतरीने मख़लूक़ हैं।
इस आयत की तफ़सीर के ज़ैल में देखिये, तफ़सीरे तबरी (जामेउल बयान), दुर्रे मंसूर (तालीफ़, अल्लामा जलालुद्दीन सुयुती शाफ़ेई), तफ़सीरे रुहुल मआनी तालीफ़ आलूसी बग़दादी शाफ़ेई।
इसी वजह से यह फ़िरक़ा जो कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ) की फ़िक़ह में उनका पैरोकोर होने की बेना पर उनकी तरफ़ मंसूब है। शिया फ़िरक़े का नाम से मशहूर हुआ।
2. शिया फ़िरक़ा बड़ी तादाद में ईरान, इराक़, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, में ज़िन्दगी बसर करता है, इसी तरह उस की एक बड़ी तादाद खाड़ी देशों तुर्की, सीरिया (शाम), लेबनान, रूस और उससे अलग होने वाले बहुत से नये देशों में मौजूद हैं, नीज़ यह फ़िरक़ा यूरोपी मुल्कों जैसे इँगलैंड, फ़्रास, जर्मनी और अमेरिका, इसी तरह अफ़्रीक़ा के मुमालिक और मशरिक़ी एशिया में भी फ़ैला हुआ है, उन मक़ामात पर उनकी मस्जिदें और इल्मी, सक़ाफ़ती और समाजी मराकिज़ भी हैं।
3. इस फ़िरक़े के लोग अगरते मुख़्तलिफ़ मुल्कों, क़ौमों और रंग व नस्ल से ताअल्लुक़ रखते हैं लेकिन इसके बावजूद अपने दीगर मुसलमान भाईयों के साथ बड़े प्यार व मुहब्बत से रहते हैं और तमाम आसान या मुश्किल मैदानों में सच्चे दिल और इख़लास के साथ उनका तआवुन करते हैं और यह सब अल्लाह के इस फ़रमान पर अमल करते हुए इसे अंजाम देते हैं:
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ
मोमिनीन आपस में भाई भाई हैं।
(सूर ए हुजरात आयत 10)
या इस क़ौले ख़ुदा पर अमल करते हैं:
وَتَعَاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوَىٰ
नेकी और तक़वा में एक दूसरे की मदद करो।
(सूर ए मायदा आयत 2)
और अल्लाह के रसूल (अ) के इस क़ौल की पाबंदी करते हुए:
मुसलमान आपस में एक दूसरे के लिये एक हाथ की तरह हैं।
(मुसनदे अहमद बिन हम्बल जिल्द 1 पेज 215)
या आपका यह क़ौल उन के लिये मशअले राह है:
मुसलमान सब आपस में एक जिस्म की तरह हैं।
(अस सहीहुल बुख़ारी, जिल्द 1 किताबुल अदब पेज 27)
4. पूरी तारीख़े इस्लाम में दीने ख़ुदा और इस्लामी उम्मत के दिफ़ा के सिलसिले में इस फ़िरक़े का एक अहम और वाज़ेह किरदार रहा है जैसे उसकी हुकुमतों, रियासतों ने इस्लामी सक़ाफ़त व तमद्दुन की हमेशा ख़िदमत की है, नीज़ इस फ़िरक़े के उलामा और दानिशवरों ने इस्लामी मीरास को ग़नी बनाने और बचाने के सिलसिले में मुख़्तलिफ़ इल्मी और तजरूबी मैदानों में जैसे हदीस, तफ़सीर, अक़ायद, फ़िक़ह, उसूल, अख़लाक़, देराया, रेजाल, फ़लसफ़ा, मौऐज़ा, हुकुमत, समाजियात, ज़बान व अदब बल्कि तिब व फ़िज़िक्स किमीया, रियाज़ियात, नुजूम और उसके अलावा बहुत हयातियाती उलूम के बारे में लाख़ों किताबें तहरीर करके इस सिलसिले में बहुत अहम किरदार अदा किया है बल्कि बहुत से उलूम की बुनियाद रखने वाले उलामा इसी फ़िरक़े से ताअल्लुक़ रखते हैं।[1]
5. शिया फ़िरक़ा मोअतक़ीद है कि ख़ुदा अहद व समद है, न उसने किसी को जना है और न उसे किसी ने जन्म दिया है और न ही कोई उसका हमसर है और उससे जिस्मानियत, जेहत, मकान, ज़मान, तग़य्युर, हरकत, सऊद व नुज़ूल वग़ैरह जैसी सिफ़तें जो उसकी सिफ़ाते कमाल व जलाल व जमाल के शायाने शान नही हैं, उनकी नफ़ी करता है।
और शिया यह अक़ीदा रखते हैं कि उसके अलावा कोई मअबूद नही, हुक्म और तशरीअ (शरीयत के क़ानून बनाना) सिर्फ़ उसी के हाथ में है और हर तरह का शिर्क चाहे वह ख़फ़ी हो या जली एक अज़ीम ज़ुल्म और न बख़्शा जाने वाला गुनाह है।
और शियों ने यह अक़ायद: अक़्ले मोहकम (सालिम) से अख़्ज़ किये है, जिनकी ताईद व तसदीक़ किताबे ख़ुदा और सुन्नते शरीफ़ा से भी होती है।
और शियों ने अपने अक़ायद के मैदान में उन हदीसों पर तकिया नही किया है जिन में इसराईलियात (जाली तौरेत और इंजील) और मजूसीयत की घड़ी हुई बातों की आमेज़िश है, जिन्होने अल्लाह तआला को इंसान की तरह माना है और वह उसकी तशबीह मख़लूक़ से देते हैं या फ़िर उसकी तरफ़ ज़ुल्म व जौर और लग़व व अबस जैसे अफ़आल की निस्बत देते हैं, हालाँकि अल्लाह तआला उन तमाम बातों से निहायत बुलंद व बरतर है या यह लोग ख़ुदा के पाक व पाक़ीज़ा मासूम नबियों की तरफ़ बुराईयों और कबीह बातों की निस्बत देते हैं।
6. शिया अक़ीदा रखते हैं कि ख़ुदा आदिल व हकीम है और उसने अदल व हिकमत से ख़ल्क़ किया है, चाहे वह जमाद हो या नबात, हैवान हो या इंसान, आसमान हो या ज़मीन, उसने कोई शय अबस नही ख़ल्क़ की है, क्योकि अबस (फ़ुज़ूल या बेकार होना) न तंहा उसके अदल व हिकमत के मनाफ़ी है बल्कि उसकी उलूहीयत से भी मनाफ़ी है जिसका लाज़िमा है कि खु़दा वंदे आलम के लिये तमाम कमालात का इस्बात किया जाये और उससे हर क़िस्म के नक़्स और कमी नफ़ी की जाये।
7. शिया यह अक़ीदा रखते हैं कि ख़ुदा वंदे आलम ने अदल व हिकमत के साथ इब्तेदाए ख़िलक़त से ही उसकी तरफ़ अंबिया और रसूलों को मासूम बना कर भेजा और फिर उन्हे वसीअ इल्म से आरास्ता किया जो वही के ज़रिये अल्लाह की जानिब से उन्हे अता किया गया और यह सब कुछ बनी आदम की हिदायत और उसे उसके गुमशुदा कमाल तक पहुचाने के लिये था ता कि उसके ज़रिये से ऐसी ताअत की तरफ़ भी उसकी रहनुमाई हो जाये जो उसे जन्नती बनाने के साथ साथ परवरदिगार की ख़ुशनूदी और उसकी रहमत का मुसतहिक़ क़रार दे और उन अंबिया व मुरसलीन के दरमियान आदम, नूह, इब्राहीम, मूसा, ईसा और हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा (स) सबसे मशहूर हैं जिनका ज़िक्र क़ुरआने मजीद में आया है या जिन के असमा और हालात हदीसों में बयान हुए हैं।
8. शियों का अक़ीदा है कि जो अल्लाह की इताअत करे, उसके अवामिर को नाफ़िज़ करे और ज़िन्दगी के हर शोअबे में उसके क़वानीन पर अमल करे वह निजात याफ़ता और कामयाब है और वही मदह व सवाब का हक़दार है, चाहे वह हबशी ग़ुलाम ही क्यो न हो और जिसने अल्लाह की नाफ़रमानी की और उसके अवामिर को न पहचाना और अल्लाह के अहकाम के बजाए दूसरों के अहकाम के बंधन में बंध गया, वह मज़म्मत, हलाक शुदा और घाटा उठाने वालों में से है, चाहे वह क़रशी सैयद ही क्यो न हो जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीसे शरीफ़ में आया है।
शिया अक़ीदा रखते हैं कि सवाब व सज़ा मिलने की जगह क़यामत का दिन है। जिस दिन हिसाब व किताब, मीज़ान व जन्नत व जहन्नम सबके सामने होगें और यह मरहला बरज़ख़ और आलमे क़ब्र के बाद होगा, नीज़ अक़ीद ए तनासुख़ जिसके मुनकेरीने क़यानत क़ायल हैं, उसको शिया बातिल क़रार देते हैं क्योकि अक़ीद ए तनासुख़ से क़ुरआने करीम और हदीसे पाक की तकज़ीब लाज़िम आती है।
9. शिया अक़ीदा रखते हैं कि अंबिया व मुरसलीन की आख़िरी फ़र्द और उन सबसे अफ़ज़ल नबी हज़रत मुहम्मद बिन अबदुल्लाद बिन अब्दुल मुत्तलिब हैं, जिन्हे ख़ुदा वंदे आलम ने हर ख़ता व लग़जिश से महफ़ूज़ रखा और हर गुनाहे सग़ीरा व कबीरा से मासूम क़रार दिया है चाहे वह क़बले नबुव्वत हो या बादे नबुव्वत, तबलीग़ का मरहला हो या कोई और काम हो और उनके ऊपर क़ुरआने करीम नाज़िल किया ता कि वह इंसानी ज़िन्दगी के लिये एक हमेशा बाक़ी रहने वाले क़ानून और दस्तूरुल अमल क़रार पाये। पस रसूले इस्लाम (स) ने रिसालत की तबलीग़ की और अमानत व सदाक़त व इख़लास के साथ लोगों तक पहुचा दिया और इस अहम और क़ीमती रास्ते में हर मुम्किन कोशिश की, शिया हज़रात के यहाँ रसूले इस्लाम की शख़्सियत, आपके ख़ुसूसियात, मोजिज़ात और आपके हालात से मुतअल्लिक़ सैकड़ों किताबें मौजूद हैं।
बतौरे नमूना देखिये: किताब अल इरशाद तालीफ़ शेख मुफ़ीद, आलामुल वरा, आलामुल होदा, तालीफ़ तबरसी, मौसूआ (मोअजम) बिहारुल अनवार, तालीफ़ अल्लामा मजलिसी और मौजूदा दौर की मौसूअतुर रसूलिल मुस्तफ़ा, तालीफ़ मोहसिन ख़ातेमी।
10. शियो का अक़ीदा है कि क़ुरआने करीम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) पर हज़रत जिबरईल (अ) के ज़रिये नाज़िल हुआ, जिसे कुछ बुज़ुर्ग सहाबा ने रसूले इस्लाम (स) के दौर में आपके हुक्म से जमा और मुरत्तब किया। जिन में सरे फ़ेहरिस्त हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) है, इन हज़रात ने बड़ी मेहनत और मशक़्क़त के साथ उसको लफ़्ज़ व लफ़्ज़ याद किया और उसके हुरुफ़ व कलेमात नीज़ सूरह व आयात की तादाद भी मुशख़्ख़स व मुअय्यन कर दी, इस तरह यह एक के बाद दूसरी नस्ल तक मुन्तक़िल होता आ रहा है और आज मुसलमानों के तमाम फ़िरक़े रात व दिन उसकी तिलावत करते हैं, न उसमें कोई ज़ियादती हुई और न ही कोई कमी, यह हर क़िस्म की तहरीफ़ व तबदीली से महफ़ूज़ है, शिया हज़रात के यहाँ इस बारे में भी मुतअद्दिद छोटी और बड़ी किताबें मौजूद हैं।[2]
11. शिया अक़ीदा रखते हैं कि जब हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) की वफ़ात का वक़्त क़रीब हुआ तो आपने हज़रत अली (अ) को तमाम मुसलमानों की रहबरी के लिये अपना ख़लीफ़ा और लोगों के लिये इमाम के तौर पर मंसूब किया ता कि अली (अ) उनकी सियासी क़यादतऔर फ़िक्री रहनुमाई फ़रमाएँ और उनकी मुश्किलों को हल करें, उनके नुफ़ूस का तज़किया करें और उनकी तरबीयत करें और यह सब ख़ुदा के हुक्म से मक़ामे ग़दीरे ख़ुम में रसूल (स) की हयात के आख़िरी दौर और आख़िर हज के बाद, उन मुसलमान हाजियों के दूर तक फैले मजमें अंजाम पाया, जो आपके साथ उसी वक़्त हज करके वापस आ रहे थे, जिनकी तादाद बाज़ रिवायात के मुताबिक़ एक लाख तक पहुचती है और उस मुनासिबत पर कई आयते नाज़िल हुईं।[3]
उसके बाद नबी ए अकरम (स) ने अली (अ) के हाथों पर लोगों से बैअत तलब की, चुनाँचे तमाम लोगों ने बैअत की और उन बैअत करने वालों में सबसे आगे मुहाजेरीन व अंसार के बुज़ुर्ग और मशहूर सहाबा थे मज़ीद तफ़सील के लिये देखिये: किताब अल ग़दीर, जिस में अल्लामा अमीनी ने मुसलमानों के तफ़सीरी और तारीख़ी मसादिर व मआख़िज़ से इस वाक़ेया को नक़्ल किया है।
12. शियों का अक़ीदा है कि चूँकि रसूले अकरम (स) के बाद इमाम की ज़िम्मेदारी वही है जो नबी की होती है जैसे उम्मत की क़यादत व हिदायत, तालीम व तरबीयत, तबयीने अहकाम और उनकी मुश्किलात का हल करना, नीज़ समाजी अहम उमूर का हल करना, लिहाज़ा यह ज़रुरी है कि इमाम और ख़लीफ़ा ऐसा होना चाहिये कि लोग उस पर भरोसा और ऐतेबार करते हों ताकि वह उम्मत तो अम्न व अमान के साहिल तक पहुचा सके, पस इमाम तमाम सलाहियतों और सिफ़ात में नबी जैसा होना चाहिये। जैसे (इस्मत और वसीअ इल्म) क्योकि इमाम के फ़रायज़ भी नबी की तरह होते हैं। अलबत्ता वही और नबुव्वत के अलावा, क्योकि नबुव्वते हज़रते मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह पर ख़त्म हो गई, आप ही ख़ातिमुल अँबिया ए वल मुरसेलीन हैं, नीज़ आपका दीन ख़ातिमुल अदयान और आपकी शरीयत ख़ातिमुश शरीया और किताब ख़ातिमुल कुतुब है, न आपके बाद कोई नबी और न आपके दीन के बाद कोई दीन और इसी तरह न आपकी शरीयत के बाद कोई शरीयत आयेगी। (शियों के पास इस मैदान में भी मुतअद्दिद और मुख़्तलिफ़ ज़ख़ीम, फ़िक्री और इस्तिदलाली किताबों मौजूद हैं।)
13. शियों का अक़ीदा है कि उम्मत को सीधी राह पर चलाने वाले मासूम क़ायद और वली की ज़रुरत इस बात की मुक़तज़ी और तलबगार है कि रसूल के बाद इमामत और ख़िलाफ़त का मंसब सिर्फ़ अली पर ही न ठहर जाये बल्कि क़यादत के इस सिलसिले को तवाल मुद्दत तक क़ायम रहना ज़रुरी है ता कि इस्लाम की जड़ें मज़बूत और उसकी बुनियादें महफ़ूज़ हो जायें और जो ख़तरात उसके उसूल और क़वायद ही को नही बल्कि हर इलाही अक़ीदे और ख़ुदाई निज़ाम के सामने मुँह खोले खड़े हैं उनसे उसको बचाया जा सके और उसके लिये तमाम आईम्मा (मुख़्तलिफ़ और मुतद्दिद दौर में उम्मत की रहबरी करके अपनी सीरत, तजुरबात और महारत का) ऐसा अमली नमूना और प्रोग्राम पेश कर सकें जिस की मदद से तमाम हालात में बाद में चलती रही।
14. शिया अक़ीदा रखते हैं कि नबी ए अकरम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) ने इसी सबब और इसी बुलंद पाया हिकमत की बेना पर अल्लाह के हुक्म की ख़ातिर अली (अ) के बाद गयारह इमाम मुअय्यन फ़रमाये। लिहाज़ा हज़रत अली (अ) को मिला कर कुल बारह इमाम है। जैसा कि उनकी तादाद के बारे में नबी ए अकरम (स) की हदीसों में वज़ाहत के अलावा तज़किरा भी है कि उन सब का ताल्लुक़ क़बील ए क़ुरैश से होगा। जैसा कि सही बुख़ारी व सही मुस्लिम में मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ के साथ इस मतलब की तरफ़ इशारा किया गया है। अलबत्ता उन के असमा और ख़ुसूसियात का तज़किरा नही है:
बुख़ारी और मुस्लिम दोनो ने रसूले ख़ुदा (स) रिवायत नक़्ल की है कि आपने फ़रमाया: बेशक दीने इस्लाम उस वक़्त तक ग़ालिब, क़ायम और मज़बूत रहेगा जब तक इस में बारह अमीर या बारह ख़लीफ़ा रहेगें, यह सब क़ुरैश से होगें।
(बाज़ नुस्खों में बनी हाशिम भी आया है और कुतुबे सिहाहे सित्ता के अलावा दूसरी क़ुतुबे फ़ज़ायल व मनाक़िब व शेर व अदब में उन हज़रात के असमा भी मज़कूर है।)
यह हदीसें अगरचे आईम्म ए इसना अशर (जो कि इमाम अली (अ) और औलादे अली (अ) हैं) के बारे में नस्स नही हैं लेकिन यह तादाद उसी पर मुनतबिक़ होती है जो शिया अक़ीदा रखते हैं और उसकी कोई तफ़सीर नही हो सकती मगर सिर्फ़ वही जो शिया कहते हैं।[4]
15. शियों का जाफ़री फ़िरक़ा यह अक़ीदा रखता है कि आईम्म ए इसना अशर (बारह इमामों) से मुराद हज़रत अली बिन अबी तालिब जो रसूल (स) के चचा ज़ाद भाई और अपकी बेटी फ़ातेमा ज़हरा (स) के शौहर हैं।
और हसन व हुसैन हैं (जो अली व फ़ातेमा के बेटे और रसूले इस्लाम (स) के नवासे हैं।)
ज़ैनुल आबेदीन अली बिन हुसैन (अस सज्जाद)
उसके बाद:
इमाम मुहम्मद बिन अली (अल बाक़िर)
इमाम जाफ़िर बिन मुहम्मद (अस सादिक़)
इमाम मूसा बिन जाफ़र (अल काज़िम)
इमाम अली बिन मूसा (अर रिज़ा)
इमाम मुहम्मद बिन अली (अल जवाद अत तक़ी)
इमाम अली बिन मुहम्मद (अल हादी)
इमाम हसन बिन अली (अल असकरी)
इमाम मुहम्मद बिन हसन (अल महदी अल मौऊद अल मुन्तज़र (अ))[5]
यही वह अहले बैत (अ) है जिन्हे रसूले ख़ुदा (स) ने अल्लाह के हुक्म से इस्लामी उम्मत का क़ायद क़रार दिया, क्योकि यह तमाम ख़ताओं और गुनाहों से पाक और मासूम हैं, यही हज़रात अपने जद के वसीअ इल्म के वारिस हैं, उनकी मवद्दत और पैरवी की हुक्म दिया गया है जैसा कि ख़ुदा ने इरशाद फ़रमाया है:
قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَىٰ
ऐ रसूल, आप कह दीजिये कि मैं तुम से इस तबलीग़े रिसालत का कोई अज्र नही चाहता अलावा इस के कि मेरे अक़रबा से मुहब्बत करो।
(सूर ए शूरा आयत 23)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّـهَ وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ
ऐ ईमानदारों, तक़वा इख़्तियार करो और सच्चों के साथ हो जाओ।
(सूर ए तौबा आयत 119)
देखिये कुतबे हदीस व तफ़सीर और फ़ज़ायल में फ़रीक़ैन के नज़दीक जो सहीह और दूसरी किताबें हैं।
16. शिया जाफ़री फ़िरक़ा अक़ीदा रखता है कि यह आईम्म ए अतहार वह हैं जिनके दामन पर तारीख़ न कोई ख़ता लिख सकी और न किसी ग़लती को साबित कर सकी, न क़ौल में न अमल में, उन्होने अपने ढेरों उलूम के ज़रिये उम्मते मुस्लिमा की ख़िदमत की है, और अपनी अमीक़ मारेफ़त, सालिम फ़िक्र के ज़रिये अक़ीदा व शरीयत, अख़लाक़ व आदाब, तफ़सीर व तारीख़ और मुस्तक़बिल के लायेह ए अमल को सही जेहत अता की है और हर मैदान में इस्लामी सक़ाफ़त को महफ़ूज़ कर दिया है जैसे उन्होने अपने कौ़ल और अमल के ज़रिये चंद ऐसे मुनफ़रिद और मुमता़ज़, नेक सीरत और पाक किरदार मर्दों और औरतों की तरबीयत की है, जिनके फ़ज़्ल व इल्म और हुस्ने सीरत के सब लोग क़ायल हैं।
और शिया ऐतेक़ाद रखते हैं कि अगरचे (यह बहुत अफ़सोस का मक़ाम है) उम्मते इस्लामिया ने उनको सियासी क़यादत से दूर रखा लेकिन उन्होने फिर भी अक़ायद के उसूलों और शरीयत के क़वायद व अहकाम की हिफ़ाज़त करके अपनी फ़िक्री और समाजी ज़िम्मेदारी को बेहतरीन तरीक़े से अदा किया है।
चुनाँचे मिल्लेत मुस्लिमा अगर उन्हे सियासी क़यादत का मौक़ा देती जिसे रसूले इस्लाम (स) ने ख़ुदा के हुक्म से उन्हे सौपा था तो यक़ीनन इस्लामी उम्मत सआदत व इज़्ज़त और अज़मते कामिला हासिल करती और यह उम्मत मुत्तहिद व मुत्तफ़िक़ व मुतवह्हिद रहती और किसी तरह का शिक़ाक़, इख़्तिलाफ़, नज़ाअ, लड़ाई, झगड़ा, क़ुश्त व कुश्तार और ज़िल्लत व रुसवाई का न देखना पड़ती।
इस सिलसिले में किताब अल इमाम सादिक़ वल मज़ाहिबिल अरबआ की तीन जिल्दें और दूसरी किताबें देखी जा सकती हैं।
17. शिया अक़ीदा रखते हैं कि मज़कूरा वजह और अक़ायद की किताबों में पाई जाने वाली नक़्ली व अक़ली कसीर दलीलों की बेना पर अहले बैत (अ) की पैरवी वाजिब है और उनके रास्ते और तरीक़े को अपनाना ज़रुरी है क्योकि उन्ही का तरीक़ा वह तरीक़ा है जिसे उम्मते के लिये रसूल (स) ने मुअय्यन फ़रमाया और उन से तमस्सुक का हदीसे सक़लैन (जो मुतवातिर है) हुक्म देती है जैसा कि रसूले ख़ुदा (स) ने इरशाद फ़रमाया है:
انی تارک فیکم الثقلین کتاب اللہ و عترتی اھل بیتی
जिसे सही मुस्लिम और दीगर दसियों मुस्लिम उलामा व मुहद्देसीन ने हर सदी में नक़्ल किया है।
देखिये, रिसाल ए हदीसे सक़लैन (मुवल्लेफ़ा वशनवी) जिसकी तसदीक़ अज़हर शरीफ़ ने तीस साल पहले की थी।
और गुज़श्ता अंबिया की हयात में भी ख़लीफ़ा और वसी बनाने का यही तरीक़ा था।
देखिये, इसबातुल वसीया, मुवल्लेफ़ा मसऊदी और फ़रीक़ैन की दीगर कुतुबे हदीस व तफ़सीर व तारीख़।
18. जाफ़री शिया अक़ीदा रखते हैं कि उम्मते इस्लामिया (अल्लाह उसको अज़ीज़ रखे) पर यह वाजिब है कि वह उन उमूर में तहक़ीक़ और बहस व मुबाहिसा करे लेकिन किसी पर सब्ब व शत्म, इल्ज़ाम व तोहमत और किसी को डराये और धमकाये बिना और तमाम इस्लामी फ़िरक़ों के उलामा व मुफ़क्केरीन पर लाज़िम है कि वह इल्मी इजतेमा शिरकत करें और सफ़ा व इख़लास के साथ गुफ़तुगू करें और अपने शिया मुसलमान भाईयों के उन नज़रियात पर ग़ौर व ख़ौज़ करे जिन पर वह क़ुरआन, सही मुतवातिर सुन्नत, तारीख़ी मुहासिबा (दलीलों) और रसूल और आँ हज़रत (स) के बाद के सियासी व समाजी के मुताबिक़ इस्तिदलाल पेश करते हैं।
19. और शिया अक़ीदा रखते हैं कि सहाबा और जो लोग रसूल (स) के साथ थे चाहे वह औरत हों या मर्द, उन्होने इस्लाम की बड़ी ख़िदमत की है, नशरे इस्लाम की राह में अपनी जान व माल की क़ुर्बानी दी है लिहाज़ा तमाम मुसलमानों पर वाजिब है कि उन का ऐहतेराम करें और उनकी गराँ क़द्र ख़िदमात का ऐतेराफ़ करें।
लेकिन उसका मतलब यह भी नही कि तमाम सहाबा (बतौरे मुतलक़) आदिल थे और उनके बाज़ आमाल व नज़रियात, तंक़ीद और ऐतेराज़ से मा फ़ौक़ हैं क्योकि सहाबा भी बशर हैं और उनसे भी ग़लती और भूल चूक होती है, चुनाँचे तारीख़ में यह बात मौजूद है कि उन में बाज़ हज़रात राहे मुस्तक़ीम से दूर हो गये थे, यहाँ तक कि कुछ लोग ख़ुद आँ हज़रत (स) के दौर में ही आपके रास्ते से दूर हो गये बल्कि क़ुरआने मजीद ने अपनी बाज़ आयतों और सूरों में जैसे सूर ए मुनाफ़ेकून, अहज़ाब, हुजरात, तहरीम, फ़त्ह, मुहम्मद और तौबा में इस बात की तसरीह की है।
लिहाज़ा बाज़ सहाबा हज़रात के आमाल पर जायज़ और मुहज़्ज़ब अंदाज़ में तंक़ीद करना हरगिज़ा कुफ़्र का सबब नही क़रार पा सकतास क्योकि कुफ़्र व ईमान का मेयार वाज़ेह है और उन दोनो का महवर व मर्कज़ रौशन है और वह तौहीद व रिसालत और ज़रुरियाते दीन जैसे वुजूबे नमाज़, रोज़ा, हज, शराब और जुए का हराम होना जैसी चीज़ों को मानना और उसका इंक़ार करना है, अलबत्ता क़लम और ज़बान को बदतमीज़ी और भोन्डी बातों से महफ़ूज़ रखना ज़रुरी है, क्योकि यह बातें एक मुहज़्ज़ब मुसलमान जो सीरते ख़ातिमुन नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) पर अमल पैरा है उस के लिये ज़ेब नही देती, बहरहाल इसके वाबजूद अकसर सहाबा सालेह और मुसलेह थे, जो लायक़े ऐहतेराम और मुसतहिक़्क़े इकराम हैं।
लेकिन इसके बावजूद सहाबा को जरह व तादील (आदिल या ग़ैर आदिल साबित करने) के क़वायद पर इस लिये तौला जाता है ताकि सही और क़ाबिले ऐतेमाद सुन्नत से वाक़िफ़ियत हासिल हो जाये, क्योकि हम जानते हैं कि रसूले ख़ुदा (स) के जाने के बाद आपकी तरफ़ बहुत ज़्यादा क़िज़्ब व बोहतान मंसूब है। (जैसा कि यह बात तमाम लोग जानते हैं और ख़ुद रसूल (स) ने इस बात की वाक़े होने की ख़बर भी दी थी) और इस बात के बारे में दोनो तरफ़ के उलामा हज़रात ने भी अहम किताबें लिखी हैं जैसे सुयूती और इब्ने जौज़ी वग़ैरह, ताकि वह हदीसें जो वाक़ेयन रसूले ख़ुदा (स) से सादिर हुई हैं उनके दरमियान और जो हदीसें गढ़ कर आपकी तरफ़ मंसूब की गई हैं उनके दरमियान इम्तियाज़ पैदा हो सके।
20. शिया, इमाम महदी मुन्तज़र (स) के वुजूद का अक़ीदा रखते हैं, क्यो कि इस बारे में कसीर रिवायात रसूले इस्लाम (स) से नक़्ल हुई हैं कि वह औलादे फ़ातेमा (अ) से होगें और इमाम हुसैन (अ) के नवें बेटे हैं, क्योकि इमाम हुसैन (अ) के आठवे बेटे (आठवी पुश्त) इमाम हसन असकरी (अ) हैं जिन की वफ़ात 260 हिजरी में हुई और आपको खु़दा ने सिर्फ़ एक बेटा इनायत किया था जिसका नाम मुहम्मद था चुनाँचे आप ही इमाम मेहदी (अ) हैं जिनकी कुनियत अबुल क़ासिम है।[6]
आपको मोवस्सक़ मुसलमानों को देखा है और आपकी विलादत, ख़ुसूसियात और इमामत नीज़ आपकी इमामत पर आप के वालिद की तरफ़ से नस्स की ख़बर दी है, आप अपनी विलादत के पाँच साल बाद लोगों की नज़रों से ग़ायब हो गये, क्योकि दुश्मनों ने आपको क़त्ल करने का इरादा कर लिया था लेकिन ख़ुदा वंदे आलम ने आपको इसलिये बचा कर रखा है ता कि आख़िरी ज़माने में अदल व इंसाफ़ पर मबनी इस्लामी हुकूमत क़ायम करें और ज़मीन को ज़ुल्म व फ़साद से पाक करे दें, जो कि ज़ुल्म व जौर से भरी होगी।
और यह कोई अज़ीब व ग़रीब बात नही है कि आपकी उम्र इस क़दर तूलानी कैसी होगी? क्योकि क़ुरआने मजीद इस वक़्त भी हज़रते ईसा (अ) के ज़िन्दा होने की ख़बर दे रहा है, जबकि उनकी विलादत को 2008 साल हो चुके हैं, इसी तरह हज़रते नूह (अ) अपनी क़ौंम में 950 साल ज़िन्दा रहे और अपनी क़ौम को अल्लाह की तरफ़ दावत देते रहे और हज़रते ख़िज़्र (अ) भी अभी तक ज़िन्दा है क्योकि अल्लाह तआला हर शय पर क़ादिर है, उसकी मशीयत पूरी होने वाली है, जिसे कोई टाल नही सकता। क्या उसने हज़रत युनुस (अ) के बारे में यह नही फ़रमाया कि
فَلَوْلَا أَنَّهُ كَانَ مِنَ الْمُسَبِّحِينَ ۔ لَلَبِثَ فِي بَطْنِهِ إِلَىٰ يَوْمِ يُبْعَثُونَ
(सूर ए साफ़्फ़ात आयत 143, 144)
अगर वह तसबीह करने वालों में से न होते तो रोज़े क़यामत तक उसी के पेट में रह जाते।
चुनाँचे अहले सुन्नत के अकसर बुज़ुर्ग और जलीलुल क़द्र उलामा इमाम मेहदी (अ) की विलादत और उनके वुजूद के क़ायल हैं और उन्होने उनके औसाफ़ व वालेदैन के नाम का ज़िक्र किया है जैसे
अ. अब्दिल मोमिन शबलन्जी अपनी किताब नुरुल अबसार फ़ी मनाक़िबे आले बैतिन नबीयिल मुख़्तार में।
आ. इब्ने हजर हैसमी मक्की शाफ़ेई ने अपनी किताब अस सवाएक़े मोहरेक़ा में कहते हैं अबुल क़ासिम मुहम्मह अल हुज्जह की उम्र उनके वालिद की वफ़ात के वक़्त पाँच साल की था कि लेकिन ख़ुदा ने इसी सिन में आपको हिकमत अता की और उनका नाम क़ायम मुन्तज़र है।
इ. क़ंदूज़ी हनफ़ी बलख़ी ने अपनी किताब यनाबिउल मवद्दत में इसका तज़िकरा किया है जो दौराने ख़िलाफ़ते उस्मानिया तुर्की में (आस्ताना) से छपी है।
ई. सैयद मुहम्मद सदीक़ हसन कंनौजी बुख़ारी ने अपनी किताब अल एज़ाआ लेमा काना वमा यकूनो बैना यदेईस साआ में इसे लिखा है।
यह हैं मुतक़द्देमीने उलामा के अक़वाल और मुतअख़्ख़ेरीन में से डाक्टर मुस्तफ़ा राफ़ेई ने अपनी किताब इस्लामुना में लिखा है, चुनाँचे जब उन्होने मसअल ए विलादत की बहस की है कि तो बड़ी तूल व तफ़सील के साथ बहस की है और इस बारे में उन तमाम ऐतेराज़ात और शुबहात के जवाब दिये हैं जो इस मक़ाम पर ज़िक्र किये जाते हैं।
21. जाफरी फ़िरक़े वाले लोग नमाज़ पढ़ते हैं, रोज़ा रखते हैं और अपने माल में से ज़कात व ख़ुम्स अदा करते हैं और मक्क ए मुकर्रमा जा कर एक बार बतौरे वाज़िब हज्जे बैतुलल्लाहिल हराम करते हैं और इसके अलावा भी मुसतहब हज्ज व उमरा अदा करते रहते हैं और नेकियों की तरफ़ दावत देते हैं और बुराईयों से रोकते हैं और अवलिया ए ख़ुदा व रसूल से मुहब्बत करते हैं और ख़ुदा व रसूल के दुश्मनों से दुश्मनी करते हैं और अल्लाह की राह में हर उस काफ़िर व मुशरिक से जिहाद करते हैं जो इस्लाम के ख़िलाफ़ ऐलाने जंग करता हो और उस हाकिम से जंग करते हैं, जो क़हर व ग़लबे के ज़रिये उम्मते मुसलिमा पर मुसल्लत हो गया हो और दीने इस्लाम (जो दीने हनीफ़ और हक़ है) की मुवाफ़िक़त करते हुए तमाम इक़्तेसादा, समाजी और घरेलू कामों और मशग़लों में मसरुफ़ रहते हैं, जैसे तिजारत, इजारा, निकाह, तलाक़, मीरास, तरबीयत व परवरिश, रज़ाअत और हिजाब वगै़रह और इस सब चीज़ों के अहकाम को इज्तेहाज के ज़रिये हासिल करते हैं, जिन्हे मुत्तक़ी और परहेज़गार उलामा, किताब, सही सुन्नत और अहले बैत साबित शुदा हदीसों और अक़्ल व इजमा के ज़रिये इस्तिम्बात करते हैं।
22. और शिया अक़ीदा रखते हैं कि तमाम यौमिया फ़रायज़ के अवक़ात मुअय्यन हैं, और यौमिया नमाज़ के लिये पाँच वक़्त हैं, फ़ज्र, ज़ोहर, अस्र, मग़रिब और एशा और अफ़ज़ल यह है कि हर नमाज़ को उसके मख़सूस वक़्त में अंजाम दिया जाये, मगर यह कि नमाज़े ज़ोहर व अस्र और नमाज़े मग़रिब व एशा को जमा करके पढ़ा जा सकता है, क्योकि रसूले ख़ुदा (स) ने किसी उज़्र, मरज़, बारिश और सफ़र के बग़ैर इन दो नमाज़ों को एक साथ पढ़ा था, जैसा कि सही मुस्लिम वग़ैरह में नक़्ल हुआ है, और यह उम्मते मुस्लिमा की सहूलत के लिये किया गया है, ख़ास तौर से हमारे ज़माने में एक फ़ितरी और आम बात है।
23. शिया भी दूसरे मुसलमानों की तरह अज़ान देते हैं, अलबत्ता जब जुमल ए हय्या अलल फ़लाह आता है तो उसके बाद हय्या अला खै़रिल अमल भी पढ़ते हैं, क्योकि रसूले ख़ुदा (स) के दौर में यह हिस्सा आज़ान में कहा जाता था लेकिन बाद में हज़रत उमर ने अपने इज्तेहाद की बेना पर यह इल्लत बताते हुए कि चूँकि इससे मुसलमान जिहाद करने से रुक जायेगें उसको अज़ान से हज़्फ़ कर दिया, उनका कहना था कि मुसलमान इससे यह समझ बैठेगें कि नमाज़ ही बेहतरीने अमल है लिहाज़ा जिहाद की तरफ़ फिर कोई रग़बत नही करेगा, इस लिये इसे अज़ान में हज़्फ़ कर दिया जाये तो बेहतर है। जैसा कि अल्लामा क़ौशजी अशअरी ने अपनी किताब शरहे तजरीदुल ऐतेक़ाद में और अल मुन्सिफ़ में, कंदी, कंजुल उम्माल में मुत्तक़ी हिन्दी वग़ैरह ने इसे नक़्ल किया है इस के अलावा उमर ने एक और जुमले का इज़ाफ़ा कर दिया। अस सलातों ख़ैरुन मिन नौम, जबकि यह जुमला रसूले इस्लाम (स) के ज़माने में नही था। देखिये, कुतुबे हदीस व तारीख़। जबकि इबादत और उसके मुक़द्दमात इस्लाम में शारेअ के अम्र और उसके इज़्म पर मौक़ूफ़ हैं यानी शरीयत में हर अमल के लिये क़ुरआन और सुन्नत से नस्से ख़ास या नस्से आम मौजूद हो, और अगर किसी अमल की नस्स न हो तो वह अमल मरदुद और बिदअत हैं जिसे उसके अंजाम देने वाले के मुँह पर मार दिया जायेगा, क्योकि इबादत में किसी चीज़ की ज़ियादती या कमी मुमकिन नही है, बल्कि तमाम शरई उमूर में किसी की ज़ाती राय का कोई दख़ल नही है, अलबत्ता शिया हज़रात जो अशहदो अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह के बाद अशहदो अन्ना अलीयन वलीयुल्लाह कहते हैं तो यह उन रिवायात की बेना पर है जो रसूले ख़ुदा (स) और अहले बैत (अ) से नक़्ल की गई हैं, और उनमें यह तसरीह मौजूद है कि मुहम्मद रसूलुल्लाह कहीं ज़िक्र नही हुआ या बाबे जन्नत पर नही लिखा गया मगर उसके साथ अली वलीयुल्लाह ज़रुर था और यह जुमला इस बात की अक्कासी करता है कि शिया अली (अ) को नबी भी नबी समझते चे जाय कि वह आपकी रुबूबियत या उलूहीयत का अल अयाज़ो बिल्लाह अक़ीदा रखते हों, लिहाज़ा तौहीद व रिसालत की शहादत के बाद तीसरी शहादत (अलीयन वलीयुल्लाह) कहना जायज़ है इस उम्मीद में कि यह भी मतलूबे परवरदिगार हो। अलबत्ता इसको ज़ुज़ और वुजूब के क़स्द से अंजाम न दे, यही शियों के अकसर उलामा का फ़तवा है।
लिहाज़ा यह ज़ियादती बग़ैर क़स्दे ज़ुज़ईयत के अंजाम दी जायेगी, जैसा कि हमने कहा है लिहाज़ा यह ऐसा नही है कि शरअ में उसकी कोई अस्ल न हो, इसलिये यह बिदअत है।
24. और शिया जमीन या मिट्टी या कंकड़ के टुकड़ों और पेड़ पौधों वग़ैरह पर सजदा करते हैं और दरी, क़ालीन या चादर कपड़े और खाई जाने वाली चीज़ों और ज़ेवरात पर सजदा नही होता, क्योकि इस सिलसिले में बड़ी तादाद में शिया व सुन्नती किताबों में हदीसें मौजूद हैं, क्योकि रसूले ख़ुदा (स) का तरीक़ा यह था कि आप मिट्टी और ज़मीन पर सजदा करते थे बल्कि आप मुसलमानों को भी यही हुक्म देते थे, चुनाँचे एक दिन जनाबे बेलाल ने अपने अम्मामे की कोर पर जला देने वाली गर्मी से बचने की बेना पर सजदा किया तो रसूल इस्लाम (स) ने बेलाल के अम्मामे को पेशानी से अलग कर दिया और फ़रमाया:
ऐ बेलाल, अपनी पेशानी को ज़मीन पर रखो।
इसी तरह की हदीस सुहैब और रबाह के बारे में नक़्ल की गई है, जब आपने फ़रमायाः
ऐ सुहैब और ऐ रबाह अपनी पेशानी को ज़मीन पर रखो।
देखिये, सही बुखारी व कंज़ुल उम्माल या अल मुसन्नफ़, तालीफ़ अब्दुल रज़्ज़ाक़ अस सनआनी, या अस सुजूद अलल अर्ज़, तालीफ़ काशिफ़ुल ग़िता।
और नबी ए अकरम (स) ने उस जगह यह इरशाद फ़रमाया (जैसा कि सही बुख़ारी वग़ैरह में आया हैः
मेरे लिये ज़मीन को मस्जिद और ताहिर व मुतह्हर बनाया गया है।
और फिर मिट्टी पर सजदा करना और पेशानी को ज़मीन पर रखना यही ख़ुदा के सामने सजदा करने का सबसे मुनासिब तरीक़ा है, क्योकि मअबूद के सामने यही ख़ुशू और ख़ुज़ू का सब से अच्छा तरीक़ा है, इसी तरह ख़ाक पर सजदा करना इंसान को उसकी असल्म हक़ीक़त की याद दिलाता है कि वह उसी से पैदा हुआ है, क्या ख़ुदा वंदे आलम ने नही फ़रमाया:
مِنْهَا خَلَقْنَاكُمْ وَفِيهَا نُعِيدُكُمْ وَمِنْهَا نُخْرِجُكُمْ تَارَةً أُخْرَىٰ
इसी ज़मीन से हमने तुम्हे पैदा किया है और इसी में पलटा कर ले जायेगें और फिर दोबारा उसी में से निकालेगें।
(सूरए ताहा आयत 55)
बेशक सजदा ख़ुज़ू की आख़िरी हद का नाम है और ख़ुशू की आख़िरी मंज़िल मुसल्ले (जानमाज़) फ़र्श, कपड़े और क़ीमती जवाहर पर सजदा करके हासिल नही होती, बल्कि बदल की अशरफ़ तरीन जगह यानी पेशानी को पस्त तरीन जगह यानी मिट्टी पर रखे।[7]
अलबत्ता उस मिट्टी को पाक होना चाहिये, उसी तहारत की ताकीद की बेना पर शिया लोग अपने साथ मिट्टी का ढेला (यानी सजदा गाह वग़ैरह) रखते हैं और बाज़ अवका़त यह मिट्टी तबर्रुक के तौर पर मुक़द्दस तरीन जगह से लेते हैं जैसे ज़मीने कर्बला, जिस में फ़रज़ंदे रसूल हजरत इमाम हुसैन (अ) शहीद कर दिये गये, जैसा कि बाज़ सहाबा मक्के के कंकड़ और पत्थर वग़ैरह को सफ़र में सजदे के लिये अपने साथ रखते थे।[8]
अलबत्ता शिया इस पर इसरार नही करते हैं और न ही इस चीज़ पर हमेशा ज़रुरी समझते हैं बल्कि वह हर पाक मिट्टी और पत्थर के ऊपर बिना किसी इशकाल और तरद्दुद के सजदा करते हैं, जैसे मस्जिदे नबवी और मस्जिदुल हराम के फ़र्श और वहाँ पर लगे हुए पत्थर।
इसी तरह शिया नमाज़ में अपने दाहिने हाथ को बाये हाथ पर नही रखते। (हाथ नही बाँधते) क्योकि रसूले इस्लाम (स) ने नमाज़ में यह काम अंजाम नही दिया और यह बात क़तई नस्से सरीह से साबित नही है, यही वजह है कि सुन्नी मालिकी हज़रात भी यह फ़ेल अंजाम नही देते।[9]
25. शिया फ़िरक़ा वुज़ू में दोनो हाथों को ऊपर की तरफ़ से कोहनियों से उँगलियों के सिरे तक धोते हैं और उसके बर ख़िलाफ़ नही करते क्योकि यह तरीक़ा उन्होने अपने इमामों से लिया है और उन्होने उसको अल्लाह के रसूल (स) से लिया है और अहले बैत (अ) अपने जद की बातों को दूसरों से ज़्यादा और बेहतर तरीक़े से जानते हैं कि उनके जद यह काम कैसे किया करते थे, जैसा कि रसूले ख़ुदा (स) भी इसी तरह अंजाम देते थे और उन्होने आयते वुज़ू की यह तफ़सीर की है कि इला आयते वुज़ू में (सूर ए मायदा आयत 6)[10] मअ के मायने में आया है जैसा कि शाफ़ेई सग़ीर ने अपनी किताब निहायतुल मोहताज में यही ज़िक्र किया है इसी तरह यह लोग अपने पैरों और सर को धोने के बजाए उनका मस्ह करते हैं, जिसका सबब हमने ऊपर ज़िक्र किया है और यही तरीक़ा इब्ने अब्बास का था जैसा कि उन्होने कहा है
वुज़ू सिर्फ़ दो चीज़ों के धोने और दो चीज़ों के मस्ह करने का नाम है।
(देखिये, सुन्न, मसानीद, तफ़सीरे फ़खरे राज़ी आयते वुज़ू के ज़ैल में)
26. शिया कहते है कि मुतआ (वक़्ती शादी) करना नस्से क़ुरआनी की बेना पर जायज़ है क्योकि ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है
فَمَا اسْتَمْتَعْتُم بِهِ مِنْهُنَّ فَآتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةً
(सूर ए निसा आयत 24)
पस जो भी उन औरतों से लज़्ज़त हासिल करे उसकी उजरत उन्हे बौतौरे फ़रीज़ा अदा करे।
यही वजह है कि तमाम मुसलमान रसूल (स) के ज़माने में मुतआ करते थे और तमाम सहाबा अहदे ख़िलाफ़ते उमर के निस्फ़ दौर तक मुतआ करते थे।
क्योकि मुतआ भी शरई शादी है जो दायमी शादी में नीचे बयान किये जाने वाले अहकाम में मुश्तरक है:
1. मुतआ में भी औरत शौहर वाली नही होनी चाहिये और सिग़ों को उसी तरह से पढ़ना ज़रुरी है कि ईजाब औरत की तरफ़ से और क़बूल मर्द की तरफ़ से हो।
2. दायमी शादी की तरह मुतआ में भी औरत को कुछ माल देना ज़रूरी है जिसे दायमी शादी में मेहर कहते हैं और मुतआ में अज्र कहते हैं जैसा कि क़ुरआनी नस्स के मुताबिक़ हमने ऊपर ज़िक्र किया है।
3. दायमी शादी की तरह मुतआ में भी मर्द से जुदा होने की सूरत में औरत पर इद्दा गुज़ारना ज़रुरी है।
4. मुतआ में भी मुफ़ारेक़त के बाद औरत पर दायमी निकाह की तरह इद्दा ज़रुरी है। इसी तरह मुतआ से पैदा होने वाली औलाद भी दायमी शादी की तरह मुतआ करने वाले शख़्स की औलाद होगी और मुतआ में भी दायमी निकाह की तरह औरत एक मर्द से ज़्यादा से एक वक़्त में मुतआ नही कर सकती।
5. मुतआ में दायमी निकाह की तरह बाप और औलाद और औलाद और माँ को एक दूसरे की मीरास मिलेगी।
मुतआ और शादी का फ़र्क़ नीचे बयान किया जा रहा है:
1. मुतआ में मुद्दत होती है, जबकि शादी में मुद्दत नही होती।
2. मुतआ वाली औरत का नफ़क़ा मर्द पर वाजिब नही है और औरत मर्द की मीरास नही पायेगी।
3. मुतआ करने वाले मर्द और औरत के दरमियान मीरास नही होती।
4. मुतआ में तलाक़ की ज़रूरत नही होती बल्कि मुद्दत ख़त्म हो जाने के बाद या दोनो के इत्तेफ़ाक़ से मुद्दत बख़शने के बाद ख़ुद व ख़ुद जुदाई हो जाती है।
इस तरह की शादी का क़ानून होने की चंद हिकमतें हैं:
1. जायज़ और मशरुत तरीक़े से औरत व मर्द की जिन्सी ज़रुरत का रास्ता फ़राहम करना है ताकि जो लोग बाज़ असबाब की बेना पर दायमी शादी नही कर सकते या जो लोग बीवी के मरने के बाद या किसी और सबब की बेना पर औरत से महरुम हो चुके हैं या औरत उन असबाब की बेना पर मर्द से महरुम हो गई हो और यह लोग ज़िन्दगी को शराफ़त और राहत के साथ गुज़ारना चाहते हों तो मुतआ उन के लिये आसान रास्ता है।
2. मुतआ दर अस्ल समाजी मुश्किलात को हल करने के लिये तशरीअ किया गया है ता कि इस्लामी समाज अख़लाक़ी बुराईयों में मुबतला न हो पाये।
कभी इस मुतआ के ज़रिये इंसान शादी से पहले जायज़ तरीक़े से एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचान सकता है, (जो मुमकिन है आईन्दा के लिये मुफ़ीद और नतीजा बख़्श हो) और उसके बाद इंसान फ़ेअले हराम में मुबतला होने से महफ़ूज़ रहता है, इसी तरह ज़ेना, जिन्सी दबाव और रुसवाई या दूसरे हराम उमूर में मुबतला न हो। जैसा मुश्त ज़नी, क्योकि जो एक बीवी पर सब्र नही कर सकता या इक़्तेसादी और माली मुश्किल की बेना पर या एक से ज़्यादा औरतों का ख़र्चा नही चला सकता वग़ैरह वग़ैरह और वह हराम काम भी नही करना चाहता हो तो उसके लिये यह रास्ता आसान है।
बहरहाल यह शादी भी क़ुरआन और हदीस से मुसतनद है और सहाबा ने एक दूसरे पर एक ज़माने तक अमल किया है, चुनाचे अगर यह शादी ज़ेना शुमार की जाये तो उसका मतलब यह हुआ कि ख़ुदा, रसूल और सहाबा ने ज़ेना को हलाल समझा और उसके अंजाम देने वाले एक ज़माने तक ज़ेना करते रहे। अल अयाज़ो बिल्लाह।
मज़ीद यह कि इस हुक़्म का नख़्स होना भी मालूम नही है, क्योकि इस का नस्ख़ होना किताब व सुन्नत से साबित नही है और न कोई क़तई व सरीह दलील इस पर मौजूद है।[11]
बहरहाल शिया इमामिया इस शादी को नस्से क़ुरआन और सुन्नते रसूल (स) की बेना पर हलाल समझते हैं लेकिन दायमी शादी और घर आबाद करने को तरजीह देते हैं, क्योकि ऐसी शादी क़वी और सालिम समाज की बुनियाद और असास है और वक़्ती शादी की तरफ़ ज़्यादा रग़बत नही रखते जिसे शरीयत में मुतआ कहते हैं, अगरचे (जैसा कि हमने पहले कहा कि) यह हलाल और जायज़ हैं।
और इस मक़ाम पर यह ज़िक्र कर देना भी मुनासिब है कि शिया इमामिया (किताब व सुन्नत और तालीम आईम्म ए अहले बैत (अ) पर अमल पैरा होने की बेना पर) औरत के हुक़ूक़ का ऐहतेराम करते हैं और उन्हे बड़ी अहमियत देते हैं और औरत के मक़ाम व मर्तबा, उनके हुक़ूक़ बिल ख़ुलूस उन के साथ ख़ुश अख़लाक़ी से पेश आने पर मिल्कियत, निकाह, तलाक़, गोद लेने और परवरिश करने, दूध पिलाने जैसे मसायल के साथ साथ, इबादात व मामलात के लिये निहायत आला अहकाम, जो उन के आईम्मा से नक़्ल हुए वह सब उन की फ़िक़ह में पाये जाते हैं।
27. शिया जाफ़री फिरका ज़ेना, लवात, सूद ख़ोरी, नफ़्से मोहतरमा का क़त्ल, शराब नोशी, जुवा, बलवा व बग़ावत, मक्र व फ़रेब बाज़ी, धोखाधड़ी, ज़खीरा अंदोज़ी, नाप तोल में कमी करना, ग़स्ब, चोरी, ख़ियानत, कीनह व खोट, रक़्स व ग़ेना, इत्तेहाम, बोहतान, चुग़लख़ोरी, फ़साद फ़ैलाना, मोमिन को अज़ीयत देना, ग़ीबत करना, गाली गलौज, झूठ व इल्ज़ाम और उनके अलावा तमाम गुनाहाने कबीरा व सग़ीरा को हराम जानते हैं और हमेशा उन गुनाहों से दूर रहते हैं और हत्तल इमकान उन से इजतेनाब करने की कोशिश करते हैं और उनको फैलने से रोकने के लिये हर मुमकिन वसायल बरुये कार लाते हैं जैसे तसनीफ़ व तालीफ़, किताबों की नश्र व इशाअत करना, अख़लाक़ी और तरबीयती रिसाले, मजालिस, इजतेमा और जलसे वग़ैरह क़ायम करना या नमाज़े जुमा के ख़ुतबे और दूसरी चीज़ें वग़ैरह......।
28. अख़लाक़ी फ़ज़ायल और मकारिमे अख़लाक़ को निहायत अहमियत देते हैं और मौएज़ा वग़ैरह से इश्क़ करते हैं और उनके सुनने के लिये दिलचस्बी से हाज़िर होते हैं और उसके लिये अपने घरों, मस्जिदों, पार्कों और मैदानों में जलसे, मजालिस और इजतेमाआत मुनासेबत या ग़ैर मुनासेबत से मुनअक़िद करते हैं. इसी बेना पर अज़ीम फ़वायद व मतालिब पर मुश्तमिल वह दुआएं पढ़ते हैं जो इस सिलसिले में रसूले इस्लाम (स) और अहले बैत इस्मत व तहारत (अ) से नक़्ल हुई है जैसे दुआए कुमैल, दुआए अबू हमज़ा, दुआएं सेमात, दुआएं जौशने कबीर, दुआएं मकारिमे अख़लाक़, दुआएं इफ़तेताह (जो रमज़ान में पढ़ी जाती है) वह उन दुआओं और बुलंद मज़ामीन पर मुश्तमिल मुनाजात को निहायत ख़ुशू व ख़ुज़ू और एक ख़ास गिरया व ज़ारी के साथ पढ़ते हैं, क्योकि यह दुआएँ नफ़्स को पाकीज़ा बनाती है और उन के ज़रिये इंसान अल्लाह से क़रीब होता है।
यह तमाम दुआएँ मौसूअतुल अदईया (मोअजमे अदईया) में जमा की गई हैं, इसी तरह यह कुतुब अदईया में भी मौजूद हैं जो उन के दरमियान रायज हैं।
29. और शिया नबी ए अकरम (स), अहले बैत (अ) और आपकी पाक नस्ल जो जन्नतुल बक़ीअ और मदीन ए मुनलव्वरा में दफ़्न हैं उनकी क़ब्रों का ऐहतेराम करते हैं, जिन में इमाम हसने मुजतबा (अ), इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ), इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) और इमाम जाफ़र (अ) हैं।
और नजफ़े अशरफ़ में इमामे अली (अ) का मज़ार है और करबला में इमाम हुसैन (अ) और आपके भाई, आपकी औलाद और आपके चचा की औलाद और आपके असहाब व अंसार (जो आप के साथ यौमे आशूरा शहीद हुए थे) के क़ब्रें हैं।
और सामर्रा में इमाम अली नक़ी (अ) और माम हसन असकरी (अ) के रौज़े हैं और काज़मैन में इमाम मुहम्मद तक़ी (अ) और इमाम मूसा काज़िम के रौज़े हैं जो सबके सब इराक़ में हैं और ईरान के शहर मशहद में इमाम अली रज़ा (अ) का रौज़ा है और क़ुम व शीराज़ (ईरान) में उन इमामों के बेटों और बेटियों के रौज़े हैं और दमिश्क़ (सीरिया) में करबला की शेर दिल ख़ातून जनाब सैय्यद ए ज़ैनब (अ) का रौज़ा है और क़ाहिरा (मिस्र) में सैय्यदा नफ़ीसा का रौज़ा है। (यह भी करीम ए अहले बैत (अ) हैं।)
बहरहाल उन तमाम रौज़ों और मज़ारों का ऐहतेराम करना रसूल (स) के पास व लिहाज़ की बेना पर है, क्योकि हर शख़्स अपनी औलाद में बाक़ी और महफ़ूज़ रहता है और किसी की औलाद का ऐहतेराम करना ख़ुद उसका ऐहतेराम करने के बराबर है जैसा कि क़ुरआने करीम ने आले इमरान, आले यासीन, आले इब्राहीम और आले याक़ूब की मदह फ़रमाई है और उनकी क़द्र व मंज़िलत की बुलंद क़रार दिया है हालाँकि उन में से बाज़ नबी भी नही थे।
ذُرِّيَّةً بَعْضُهَا مِن بَعْضٍ ۗ وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ
यह एक नस़्ल है जिस में एक का सिलसिला एक से है।
(सूर ए आले इमरान आयत 34)
इसी लिये क़ुरआने मजीद ने उन पर ऐतेराज़ नही किया, जिन लोगों ने यह कहा था:
قَالَ الَّذِينَ غَلَبُوا عَلَىٰ أَمْرِهِمْ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيْهِم مَّسْجِدًا
उन्होने कहा कि हम उन पर मस्जिद बनायेगें।
(सूर ए कहफ़ आयत 21)
यानी हम असहाबे कहफ़ के रौज़ों पर मस्जिद बनायेगें ता कि उनके पास ख़ुदा की इबादत की जाये और अल्लाह ने उनके अमल को शिर्क नही कहा, क्योकि मुसलमान मोमिन सिर्फ़ अल्लाह ही के लिये रुकू, सजदा और इबादत करता है और वह उन पाक व मुतहहर अवलिया की ज़रीह के क़रीब सिर्फ़ इस लिये जाता है क्योकि उन अवलिया की वजह से वह मकान मुक़द्दस हो गया है जैसे इब्राहीम (अ) की बेना पर मक़ामे इब्राहीम की क़दासत व करामत हासिल है, जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता है:
وَاتَّخِذُوا مِن مَّقَامِ إِبْرَاهِيمَ مُصَلًّى
और हुक्म दे दिया कि मक़ामे इब्राहीम को मुसल्ला बनाओ।
(सूर ए बक़रह आयत 125)
पस जो शख़्स मक़ामे इब्राहीम के पीछे नमाज़ पढ़े तो वह ऐसा नही है कि वह मक़ामे इब्राहीम की इबादत करता है या जो सफ़ा व मरवा के दरमियान सई करता है वह उन्हे अल्लाह समझ कर नही आया है कि वह उन दोनो पहाड़ों की इबादत कर रहा हो बल्कि यह इस लिये है कि अल्लाह ने उनके अपनी इबादत के लिये मुबारक व मुक़द्दस जगह क़रार दिया है, नतीजतन वह भी आख़िर में अल्लाह की तरफ़ मंसूब हैं बेशक मुअय्यन दिन और जगहें मुक़द्दस हैं जैसे अरफ़े का दिन, मेना व अरफ़ात का मैदान और उनका क़दासत की वजह उनका अल्लाह की तरफ़ मंसूब होना है।
30. इसी सबब की बेना पर शिया भी (दीगर मुसलमानों की तरह) शाने रसूले अकरम (स) व आले रसूल के मुहाफ़िज़ और उसका इदराक करने वाले हैं। अहले बैत (अ) के मुबारक रौज़ों की बड़े ऐहतेमाम से ज़ियारत करते हैं ता कि उससे उन की तकरीम हो और उन से इबरत हासिल करें और उनके साथ अहद को ताज़ा करें और उस अक़दार की मज़ीद पाबंदी करें जिस के लिये उन्होने जिहाद किया और उसी की हिफ़ाज़त के लिये शहीद हो गये, क्योकि उन मशाहिदे मुक़द्देसा की ज़ियारत करने वाले अपने ज़ियारतों में अहले क़ब्र के फ़ज़ायल और उनके जिहाद ही का ज़िक्र करते हैं या उन्होने जो नमाज़ें क़ायम कीं और ज़कात अदा की उसका तज़किरा करते हैं, नीज़ उन्होने उस राह में जो परेशानियाँ और मुसीबतें उठाईं हैं उन को बयान करते हैं जैसा कि रसूले इस्लाम (स) को अपनी मज़लूम नस्ल से जो दिसचस्बी थी उसकी वजह से आपने भी उन का ग़म मनाया है जैसा कि
जनाबे हमज़ा की शहादत पर आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया:
हाय हमज़ा पर कोई रोने वाला नही? जैसा कि तारीख़ और सीरत की किताबों में नक़्ल किया गया है।
क्या रसूले ख़ुदा (स) ने अपने अज़ीज़ बेटे इब्राहीम की मौत पर गिरया नही किया? क्या आप बक़ीअ में क़ब्रों की ज़ियारत करने नही जाते थे? क्या आपने यह नही फ़रमाया:
क़ब्रों की ज़ियारत करो क्योकि उनकी ज़ियारत तुम्हे आख़िरत की याद दिलाती है।
बेशक आईम्म ए अहले बैत (अ) की क़ब्रो की ज़ियारत और उनकी सीरते तय्यबा और राहे ख़ुदा में उनके जिहादी कारनामे आईन्दा नस्ल को उन अज़ीम क़ुरबानियों की याद दिलाता है जो उन ज़वाते मुकद्दसा ने इस्लाम व मुसलेमीन के रास्ते में पेश की हैं, उससे उनके अंदर राहे ख़ुदा में शहादत, शुजाअत व जवाँ मर्दी और ईसार व क़ुर्बानी की रुह बेदार होती है।
बेशक यह अमल इंसानियत, तहज़ीब व तमद्दुन और अक़्ल के ऐन मुताबिक़ अमल है, क्योकि उम्मतें अपने बुज़ुर्गों और तहज़ीब व तमद्दुन के बानियों को हमेशा ज़िन्दा रखती हैं और उनसे मरबूत तारीख़ों को बहर सूरत और हर हाल में बाक़ी रखने की कोशिश करती हैं, क्योकि यह उनकी इज़्ज़त और इफ़्तेख़ार का बाइस होती हैं और उनके ज़रिये उम्मतों का रुजहान उनकी अक़दार के बारे में और उनकी अहमियत के बारे में और ज़्यादा होता है।
यही वह चीज़ है जिसे क़ुरआने मजीद ने चाहा है जब उसने अपनी आयात में अंबिया, अवलिया, सालेहीन और उनके हालात का बड़े ऐबतेमाम से साथ तज़किरा किया है।
31. शिया रसूले अकरम (स) औऱ उनकी पाक आल से शिफ़ाअत तलब करते हैं और उनको ख़ुदा की बारगाह में अपने गुनाहों की बख़्शिश, तलबे हाजात और मरीज़ों की शिफ़ायाबी के लिये वसीला क़रार देते हैं क्योकि क़ुरआने मजीद ने इस बात को न सिर्फ़ यह कि बेहतर क़रार दिया है बल्कि उसने इसकी तरफ़ वाज़ेह अंदाज़ में दावत दी है:
وَلَوْ أَنَّهُمْ إِذ ظَّلَمُوا أَنفُسَهُمْ جَاءُوكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللَّـهَ وَاسْتَغْفَرَ لَهُمُ الرَّسُولُ لَوَجَدُوا اللَّـهَ تَوَّابًا رَّحِيمًا
(सूर ए निसा आयत 64)
और काश जब उन लोगों ने अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया था तो आपके पास आते और ख़ुद भी गुनाहों के लिये इस्तिफ़ार करते और रसूल (स) भी उनके हक़ में इस्तिग़फ़ार करते तो यह ख़ुदा को बड़ा ही तौबा करने वाला और मेहरबान पाते।
या यह फ़रमाया:
وَلَسَوْفَ يُعْطِيكَ رَبُّكَ فَتَرْضَىٰ
और अनक़रीब तुम्हारा परवर दिगार तुम्हे इस क़दर अता करेगा कि तुम ख़ुश हो जाओ।
(सूर ए ज़ुहा आयत 5)
और इससे मुराद मक़ामे शिफ़ाअत है।
यह बात कैसे माक़ूल है कि एक जानिब रसूले अकरम (स) को ख़ुदा गुनाहगारों की शिफ़ाअत के लिये मक़ामे शिफ़ाअत और साहिबाने हाजात के लिये मक़ामे वसीला इनायत फ़रमा दे और दूसरी तरफ़ लोगों को मना फ़रमाएं कि उनसे शिफ़ाअत तलब न करें? या नबी ए अकरम (स) पर हराम क़रार दे दिया कि आप इस मक़ाम से कोई इस्तेफ़ादा न करें।
क्या ख़ुदा ने औलादे याक़ूब का यह क़िस्सा ज़िक्र नही फ़रमाया है कि जब उन्होने अपने वालिद से शिफ़ाअत तलब की और इस तरह कहा:
قَالُوا يَا أَبَانَا اسْتَغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا إِنَّا كُنَّا خَاطِئِينَ
बाबा जान अब आप हमारे गुनाहों के लिये इस्तिग़फ़ार करें हम यक़ीनन ख़ताकार थे।
(सूर ए युसुफ़ आयत 97)
तो मासूम और करीम नबी (स) ने उन पर कोई ऐतेराज़ नही किया बल्कि उन से यह फ़रमाया:
قَالَ سَوْفَ أَسْتَغْفِرُ لَكُمْ رَبِّي ۖ إِنَّهُ هُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ
मै अपने रब से तुम्हारे लिऐ दुआ करूगाँ वो बहुत बड़ा रहीम और माफ करने वाला है।
(सूर ए युसुफ़ आयत 98)
यह दावा कोई नही कर सकता कि नबी (स) और आईंम्मा (अ) मर गये हैं लिहाज़ा उन से दुआ तलब करना मुफ़ीद नही? क्योकि अंबिया ख़ासाने ख़ुदा ज़िन्दा रहते हैं ख़ास तौर पर हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा (स) जिन के बारे में ख़ुदा ने इरशाद फ़रमाया:
جَعَلْنَاكُمْ أُمَّةً وَسَطًا لِّتَكُونُوا شُهَدَاءَ عَلَى النَّاسِ وَيَكُونَ الرَّسُولُ عَلَيْكُمْ شَهِيدًا
(सूर ए बक़रह आयत 143)
और हमने तुम को दरमियानी उम्मत क़रार दिया है ता कि तुम लोगों के आमाल के गवाह हो और पैग़म्बर तुम्हारे आमाल के गवाह रहें।
इस आयत में शहीदन के मअना शाहिद के हैं।
और दूसरी जगह फ़रमाया:
وَقُلِ اعْمَلُوا فَسَيَرَى اللَّـهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُولُهُ وَالْمُؤْمِنُونَ
और ऐ पैग़म्बर कह दीजिये कि तुम लोग अमल करते रहो कि तुम्हारे अमल को अल्लाह, रसूल और साहिबाने ईमान सब देख रहे हैं।
(सूर ए तौबा आयत 105)
यह आयतें रोज़े क़यामत तक चाँद, सूरज, और रात व दिन जारी व सारी रहेंगी, लिहाज़ा रसूले इस्लाम (स) और आपकी पाक आल (अ) लोगों पर गवाह हैं और शोहदा ज़िन्दा हैं जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम ने अपनी अज़ीज़ किताब में एक बार नही कई बार ज़िक्र किया है।
32. शिया जाफ़री फ़िरक़ा नबी (स) और आईम्मा (अ) की विलादत पर महफ़िल और ख़ुशी के प्रोग्राम करते हैं और उनकी वफ़ात पर मातम व अज़ा करते हैं और उन प्रोग्रामों में उन के फ़ज़ायल और मनाक़िब और उनकी हिदायत बख़्श सीरत व किरदार का ज़िक्र करते हैं, जो सही नक़्ल के ज़रिये उन तक पहुची है और यह सब क़ुरआन की इत्तेबाअ में करते हैं क्योकि क़ुरआने करीम ने बार बार नबी ए अकरम (स) और दूसरे नबियों के मनाक़िब ज़िक्र किये हैं और उन्हे सराहा है और तमाम लोगों के ज़हनों को तास्सी, इक़्तेदा, इबरत और हिदायत हासिल करने की ख़ातिर उसकी तरफ़ मुतवज्जे किया है।
शिया उन महफ़िलों में हराम अफ़आल अंजाम देने से परहेज़ करते हैं जैसे औरत और मर्दों का एक जगह जमा होना, हराम चीजों का उन महफ़िलों में खाना पीना और मदह व सना में हद से आगे बढ़ जाना।[13]
या इसी क़िस्म के दूसरे नामुनासिब अफ़आल अंजाम देना जो रूहे शरीयत के ख़िलाफ़ हैं और उन में शरई मुसल्लम हुदुद का ख़्याल न रखा जाये या ऐसी चीज़ जिसके लिये क़ुरआन और सही हदीस की ताईद न हो या किताब व सुन्नत से इस्तिम्बात किया हुआ कोई कुल्ली क़ायदा
33.शिया जाफ़री फ़िरक़ा ऐसी किताबों से इस्तेफ़ादा करता है जो नबी ए अकरम (स) और अहले बैत इस्मत व तहारत (अ) की हदीसों पर मुश्तमिल है जैसे अल काफ़ी तालीफ़ सिक़तुल इस्लाम शेख़ कुलैनी, मन ला यहज़ोरोहुल फ़क़ीह तालीफ़ शेख सदूक़ और अल इस्तिबसार व तहज़ीब तालीफ़ शेख़ तूसी, उनके यहाँ यह हदीस की अहम किताबें हैं।
यह किताबें अगरचे सही हदीसों पर मुश्तमिल हैं लेकिन न उनके मुवल्लेफ़ीन व मुसन्नेफ़ीन और न ही शिया फ़िरक़ा उन तमाम हदीसों को सही क़रार देता है। यही वजह है कि शिया फ़ोक़हा उनकी तमाम हदीसों को सही नही जानते बल्कि वह सिर्फ़ उन्ही हदीसों को क़बूल करते हैं जो उनके नज़दीक शरायते सेहत पर खरी उतरती हों, जो इल्मे दिराया, रेजाल और क़वानीने हदीस पर पूरी नही उतरती हैं उन को तर्क कर देते हैं।
34.इसी तरीक़े से शिया (अक़ायद, फ़िक़ह और दुआ व अख़लाक़ के मैदान में) दूसरी किताबों से इस्तेफ़ादा करते हैं। जिन में आईम्मा (अ) से मुख़्तलिफ़ क़िस्म की हदीसें नक़्ल की गई हैं जैसे नहजुल बलाग़ा जिसे सैयद रज़ी ने तालीफ़ किया है और उसमें इमाम अली (अ) के ख़ुतबे, ख़ुतूत और हिकमत आमेज़ मुख़्तसर कलेमात मौजूद हैं और इसी तरह इमाम ज़ैनुल आबेदीन अली बिन हुसैन का रिसाल ए हुक़ूक़ और सहीफ़ ए सज्जादिया या इमाम अली (अ) का सहीफ़ ए अलविया और दीगर किताबें जैसे उयूने अख़बारे रज़ा, अत तौहीद, एललुश शरायेअ और मआनिल अख़बार तालीफ़ शेख़ सदूक़ वग़ैरह।
35.शिया जाफ़री फ़िरक़ा बाज़ अवक़ात पैग़म्बरे इस्लाम (स) की उन सही हदीसों से भी बिना किसी तास्सुब व कीनह व नख़वत व तकब्बुर के इसतेनाद करता है जो अहले सुन्नत वल जमाअत[14] भाईयों की किताबों में मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर नक़्ल की गई हैं, जिसकी गवाह शियों की वह क़दीम व जदीद किताबें हैं, जिनमें सहाब ए केराम, नबी (स) की बीवियाँ, रसूल के मशहूर सहाबा और अकाबिर रावियों से नक़्ल हुई हैं जैसे अबू हुरैरा, अनस वग़ैरह, अलबत्ता एक शर्त के साथ वह यह कि क़ुरआने मजीद और दीगर सही हदीस से मुतआरिज़ न हो और न ही अक़्ले मोहकम (सालिम) और इजामा ए उलामा के ख़िलाफ़ न हो।
36.शिया अक़ीदा रखते हैं कि मुसलमानों को दौरे क़दीम व जदीद में जिन मुश्किलात, जानी या माली नुक़सान का सामना करना पड़ा है, वह सिर्फ़ दो चीज़ों का नतीजा है:
1. अहले बैत (अ) को भूला देना जब कि वह दर हक़ीक़त क़यादत की लियाक़त और सलाहियत रखते थे, इसी तरह उनके इरशादात व तालीमात को भूला देना, बिल ख़ुसूस क़ुरआने मजीद की तफ़सीर उन से हट कर बयान करना।
2. इस्लामी फ़िरक़ों और मज़हिब के दरमियान इख़्तिलाफ़, तफ़रक़ा और लड़ाई झगड़े।
यही वजह है कि शिया फ़िरक़ा हमेशा मिल्लते इस्लामिया की सफ़ों के दरमियान इत्तेहाद क़ायम करने की दावत देता है और तमाम लोगों की तरफ़ प्यार व दोस्ती और भाई चारगी का हाथ बढ़ाता है और उसके साथ साथ उन फ़िरक़ों व मज़ाहिब के अहकाम और उनके नज़रियात और उनके उलामा के इज्तेहाद का भी ऐहतेराम करता है।
चुनाँचे इस रास्ते में शिया जाफ़री फ़ोक़हा इब्तेदाई सदियों से ही अपनी फ़िक़ही, तफ़सीरी और कलामी किताबों में ग़ैर शिया फ़ोक़हा के नज़रियात का ज़िक्र करते आये हैं जैसे शेख तूसी किताब फ़िक़ह में अल ख़िलाफ़, शेख़ तबरसी की किताब तफ़सीर में मजमउल बयान जिनकी तारीफ़ अल अज़हर युनिवर्सिटी के बुज़ुर्ग उलामा ने की है।
या इल्मे कलाम नसीरुद्दीन तूसी की किताब तजरीदुल ऐतेक़ाद, जिस की तशरीह आलिमे अहले सुन्नत अलाउद्दीन क़ौशजी अशअरी ने की है।
37. शिया जाफ़री फ़िरक़े के बुज़ुर्ग उलामा तमाम इस्लामी मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के उलामा के दरमियान फ़िक़ह, अक़ायद और तारीख़ी मौज़ूआत में गुफ़तुगू और तबादल ए ख़्याल की ज़रुरत पर ज़ोर देते हैं और दौरे हाज़िर के मुसलमानों के मसायल के दरमियान तफ़ाहुम की ताकीद करते हैं और तोहमत व इत्तेहाम के तीरों और दुश्नाम बाज़ी से फ़ज़ा को ज़हर आलूद करने से हत्तल इमकान इज्तेनाब करते हैं ता कि इस्लामी मिल्लत के दरमियान जो फ़ासला मौजूद है और उसकी वजह से वह मुतअद्दिद हिस्सों में बटी हुई है, उसमें एक मंतिक़ी क़ुरबत की फ़ज़ा हमवार हो, ताकि इस्लाम और मुसलमानों के दुश्मनों का रास्ता बंद हो जाये, जो हमारे दरमियान ऐसी दरारों की खोज में रहते जिनके ज़रिये वह बग़ैर किसी इस्तिसना के तमाम मुसलमानों को नुक़सान पहुचा सकें।
और इसी वजह से शिया फ़िरक़ा किसी भी अहले क़िबला (मुसलमान) को काफ़िर नही कहता। क्योकि शियों का फ़िक़ही मज़हब और उनका अक़ीदा यह है कि काफ़िर वह होता है जिसके कुफ्र पर तमाम मुसलमानों का इजमा हो। शिया अहले क़िबला से दुश्मनी नही करते और न उन क़हर व ग़लबा और ज़ब्र व इकराह पसंद करते हैं और शिया तमाम इस्लामी फ़िरक़ों और मज़ाहिब के उलामा के इज्तेहाद का ऐहतेराम करते हैं और जो शख़्स किसी दूसरे मज़हब से शिया मज़हब में आया है उसके तमाम आमाल को मुस्किते तकलीफ़ और उसे बरीउज़ ज़िम्मा समझते हैं, क्योकि जब उसने अपने मज़हब के मुताबिक़ नमाज़, रोज़े, हज्ज, ज़कात, निकाह, तलाक़ और ख़रीद व फ़रोख़्त जैसे उमूर अंजाम दिये लिहाज़ा गुज़श्ता फ़रायज़ की क़ज़ा वाजिब नही है। इसी तरह उसके लिये तजदीदे निकाह व तलाक़ वाजिब नही है अलबत्ता शर्त यह है कि मज़हब के मुताबिक़ जारी हुए हों।
इसी तरह अपने मुसलमान भाईयों के साथ बिल्कुल उसी तरह रहते हैं जैसे कि अगर वह उनके भाई या रिश्तेदार होते तो उस वक़्त भी उन के साथ ऐसे ही रहते।
लेकिन शिया इस्तेमारी फ़िरक़ों की ताईद व तसदीक़ नही करते हैं जैसे बहाईयत, बाबीईयत और क़ादयानी या इसके मानिन्द दूसरे फ़िरक़े बल्कि शिया उनकी मुख़ालेफ़त करते हैं और उनसे मुहारेबा करते हैं और उन से हर क़िस्म के राब्ते को हराम क़रार देते हैं।
शिया (बाज़ अवक़ात न कि हमेशा) तक़य्या करते हैं जिसका मतलब यह है कि अपने मज़हब और अक़ीदे को (किसी सबब की बेना पर) पोशिदा किया जाये और यह तक़य्या नस्से क़ुरआनी के मुताबिक़ एक जायज़ अम्र है और इस पर तमाम इस्लामी मज़ाहब अमल करते हैं अलबत्ता जब किसी दुश्मन के दरमियान फ़ँस जायें। (और इज़हारे अक़ीदे की सूरत में यक़ीनी तौर पर ख़तरा मौजूद हो) तो तक़य्या किया जा सकता है और यह दो सबब की बेना पर होता है:
1.अपनी जान की हिफ़ाज़त की ख़ातिक ता कि उस का ख़ून बेकार न बह जाये।
2.मुसलमानों का इत्तेहाद बाक़ी रहे और उन के दरमियान इख़्तिलाफ़ व इफ़्तेराक़ पैदा न हो।
38.शिया फ़िरक़ा समझता है कि आज मुसलमानो के पीछे रह जाने का सबब फ़िक्री, सक़ाफ़ती, इल्मी और टेकनाँलाजी के मैदान में उनका आपस में इख़्तिलाफ़ व तफ़रक़ा है और इसका इलाज यह है कि ख़ुद मुसलमान मर्दों और औरतों के शऊर को बुलंद किया जाये और उनकी फ़िक्री, सक़ाफ़ती और इल्मी सतह की तरक़्क़ी के लिये इल्मी मराकिज़ बनाये जाएँ। जैसे युनिवर्सिटियाँ, मदरसे, इदारे और जदीद उलूम के नतायज व तजरुबात से इक़्तेसादी आबाद कारी, सनअत व हिरफ़त की मुश्किलात को दूर किया और मुसलमानों को मैदाने अमल और ख़ुशहाल ज़िन्दगी की सरगर्मियों में लाने कि लिये उनके दरमियान इतमिनान व ऐतेमाद की फ़ज़ा क़ायम की जाये ता कि उनमें इस्तिक़लाल और ख़ुद ऐतेमादी पैदा हो सके और दूसरों की ख़ुशामद और उनकी इत्तेबा से महफ़ूज़ रहें। इसी लिये शिया हज़रात जहाँ से भी गुज़रे और जिस तरह भी रहे वहाँ उन्होने इल्मी व तालीमी मरकज़ों की बुनियाद रखी और मुख़्तलिफ़ इल्मी मैदानों में उनके माहिरीन की तरबीयत के लिये इदारे क़ायम किये। इसी तरह उन्होने मुल्क और शहर की युनिवर्सिटियों और दीनी मदरसों में दाख़िले लिये। जिसके नतीजे में वहाँ से ज़िन्दगी के हर शोअबे में आला दर्जे के उलामा और अहले फ़न तालीम से फ़ारिग़ हुए और जिसके बाद उन्होने बा क़ायदा इल्मी मरकज़ों तक रसाई हासिल की और क़ाबिले क़द्र ख़दमात छोड़ीं।
39.शिया फ़िरक़े अपने उलामा और फ़ोकहा से तक़लीद के ज़रिये हमेशा राब्ते में रहता है, इस लिये कि वह अपने फ़िक़ही मुश्किलात में उन उलामा की तरफ़ रूजू करते हैं और अपनी ज़िन्दगी के तमाम मसायल में उन उलामा की राय पर अमल करते हैं, क्योकि फ़ोक़हा (उनके अक़ीदे के मुताबिक़) आख़िरी इमाम के वकील हैं और उसके आम नायब हैं। यही वजह है कि हमारे उलामा अपने उमूर मआश व इक़्तेसाद में सरकारी हुकूमतों पर अपना दारोमदार नही रखते, इसी तरह उनके उलामा हज़रात इस अज़ीम फ़िरक़े के अफ़राद के दरमियान वसाक़त और ऐतेमाद के अज़ीम और आली मर्तबा पर फ़ायज़ होते हैं।
और इस फ़िरक़े के दीनी इल्मी मदारिस (जो उलामा साज़ी के मराकिज़ हैं) ख़ुम्स व ज़कात के अमवाल से अपनी इक़्तेसादी हाजात को पूरा करते हैं, जिन्हे लोग अपने दिली मैल व रग़बत के साथ फ़ोक़हा के हवाले करते हैं और उसे नमाज़, रोज़े की तरह एक शरई वज़ीफ़ा समझते हैं।
और शिया इमामिया के नज़दीक अपनी दर आमद के मुनाफ़े (बजट) से ख़ुम्स निकालना वाजिब है, जिस पर वाज़ेह दलीलें मौजूद हैं और इस बारे में कुछ रिवायात सेहाह और सोनन में भी नक़्ल हुई हैं।[15]
40.शिया इमामिया फ़िरक़ा अक़ीदा रखता है कि मुसलमानों का हक़ है कि उन इस्लामी हुकूमतों से फ़ायदा उठायें, जो किताब व सुन्नत के मुताबिक़ अमल करती है और मुसलमानों के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त करती है और दूसरी हुकूमतों से मुनासिब और मुसालेमत आमेज़ में राब्ता क़ायम करती हैं और अपनी सरहदों की हिफ़ाज़त करती हैं और मुसलमानों के सक़ाफ़ती, इक़्तेसादी और सियासी इस्तिक़लाल के लिये कोशिश करती रहती हैं ता कि मुसलमान बा ईज़्ज़त रह सकें। जैसा कि अल्लाह तआला ने चाहा है:
وَلِلَّـهِ الْعِزَّةُ وَلِرَسُولِهِ وَلِلْمُؤْمِنِينَ
और ईज़्ज़त सिर्फ़ ख़ुदा और उसके रसूल और मोमिनीन के लिये हैं।
(सूर ए मुनाफ़ेक़ून आयत 8)
और ख़ुदा ने फ़रमाया:
وَلَا تَهِنُوا وَلَا تَحْزَنُوا وَأَنتُمُ الْأَعْلَوْنَ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ
ख़बरदार सुस्ती न करना और मुसीबत पर ग़मगीन न होना अगर तुम साहिबाने ईमान हो।
(सूर ए आले इमरान आयत 139)
और शिया अक़ीदा रखते हैं कि इस्लाम (क्योकि वह कामिल और जामेअ दीन है इस लिये) के पास हुकूमती निज़ाम से मुतअल्लिक़ एक दक़ीक़ राह व रविश और दस्तुरुल अमल मौजूद है, लिहाज़ा अज़ीम इस्लामी मिल्लत के उलामा पर लाज़िम है कि वह इस कामिल निज़ाम को अमली जामा पहनाने के लिये एक साथ बैठ कर बात चीत और गुफ़्तुगू करें ता कि इस उम्मत को परेशान हाली और सरगरदानी और कभी न तमाम होने वाली मुश्किलात से बाहर निकालें और अल्लाह ही नासिर व मददगार है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِن تَنصُرُوا اللَّـهَ يَنصُرْكُمْ وَيُثَبِّتْ أَقْدَامَكُمْ
अगर तुम ने ख़ुदा की मदद की तो ख़ुदा तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हे साबित क़दम रखेगा।
(सूर ए मुहम्मद आयत 7)
यह शिया इमामिया (जिसे जाफ़री फ़िरक़ा भी कहा जाता है) के हक़ीक़ी और वाक़ई अक़ायद और उनकी शरीयत के अहम ख़द्द व ख़ाल थे जिन्हे मैने आपक सामने बिल्कुल वाज़ेह और रौशन इबारत में पेश कर दिया है।
इस फ़िरक़े के लोग इस वक़्त अपने दीगर मुसलमान भाईयों और बहनों के साथ तमाम इस्लामी मुल्कों में ज़िन्दगी बसर करते हैं और मुसलमानों की ईज़्ज़त व आबरु और उनके समाज व मुआशरे की हिफ़ाज़त के लिये हरीस हैं और इस राह में अपनी जान व माल और शख़्सियत तक को क़ुर्बान करने क लिये तैयार रहते हैं।
[1]. देखिये मुहम्मद सद्र की किताब तासीसुश शिया लेउलूमिल इस्लाम, अज़ ज़रिया एला तसानिफ़िश शिया जिल्द 29 तालीफ़ आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, कशफ़ुज़ ज़ुनुन तालीफ़ आफ़ंदी, मोजमुल मुअल्लेफ़ीन तालीफ़ उमर रज़ा कुहाला, आयानुश शिया तालीफ़ मोहसिन अमीन आमुली वग़ैरह।
[2]. तारीख़े क़ुरआन, अत तमहीद फ़ी उलूमिल क़ुरआन, तालीफ़ मुहम्मद हादी मारेफ़त वग़ैरह।
[3]. (وَقَالَتِ الْيَهُودُ يَدُ اللَّـهِ مَغْلُولَةٌ ۚ غُلَّتْ أَيْدِيهِمْ وَلُعِنُوا بِمَا قَالُوا ۘ بَلْ يَدَاهُ مَبْسُوطَتَانِ يُنفِقُ كَيْفَ يَشَاءُ ۚ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرًا مِّنْهُم مَّا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَكُفْرًا ۚ وَأَلْقَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاءَ إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ ۚ كُلَّمَا أَوْقَدُوا نَارًا لِّلْحَرْبِ أَطْفَأَهَا اللَّـهُ ۚ وَيَسْعَوْنَ فِي الْأَرْضِ فَسَادًا ۚ وَاللَّـهُ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِينَ (सूर ए मायदा आयत 67), यह आयत भी इस सिलसिले में नाज़िल हुई।
(حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنزِيرِ وَمَا أُهِلَّ لِغَيْرِ اللَّـهِ بِهِ وَالْمُنْخَنِقَةُ وَالْمَوْقُوذَةُ وَالْمُتَرَدِّيَةُ وَالنَّطِيحَةُ وَمَا أَكَلَ السَّبُعُ إِلَّا مَا ذَكَّيْتُمْ وَمَا ذُبِحَ عَلَى النُّصُبِ وَأَن تَسْتَقْسِمُوا بِالْأَزْلَامِ ۚ ذَٰلِكُمْ فِسْقٌ ۗ الْيَوْمَ يَئِسَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِن دِينِكُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِ ۚ الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ فِي مَخْمَصَةٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّإِثْمٍ ۙ فَإِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ) (सूर ए मायदा आयत 3) ( لِّلْكَافِرِينَ لَيْسَ لَهُ دَافِعٌ) (सूर ए मआरिज आयत 2)
[4]. ख़ुलाफ़ाउन नबी, तालीफ़ हायरी बहरानी।
[5]. बित तहक़ीक़ अरब व अजम के (ग़ैर शिया) मुमताज़ शायरों ने ऐसे मुफ़स्सल क़सीदे कहे हैं जिन में बारह इमामों के मुकम्मल नाम मज़कूर हैं जैसे उन शायरों में हसकफ़ी, इब्ने तूलून, फ़ज़्ल बिन रोज़बहान, जामी, अत्तार नैशापुरी, मौलवी के क़सीदे, यह सब मज़हबे इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम शाफ़ेई वग़ैरह के पैरों हैं, हम यहाँ पर नमूने के तौर पर उन में से दो क़सीदे ज़िक्र कर रहे हैं।
पहला क़सीदा जनाब हसकफ़ी हनफ़ी का है जिनका शुमार छटी सदी हिजरी के उलामा में से होता है कहते हैं
अव्वल (इमाम अली) हैदर और उनके बाद उनके बेटे इमाम हसन और इमाम हुसैन हैं।
उसके बाद जाफ़र सादिक़ और उनके बेटे इमाम मूसा काज़िम हैं और उनके बाद सैयद व सरदार अली है।
जिन्हे इमाम रज़ा के नाम से जाना जाता है, आपके बाद आपके बेटे मुहम्मद (तक़ी) फिर अली, और उनके सच्चे बेटे
यानी हसन (असकरी) हैं और उनके फ़ौरन बाद आपके बेटे इमाम मुहम्मद (महदी आख़िरुज़ ज़मान) है, उन्ही हज़रात के बारे में अक़ीदा रखती है
एक क़ौम यही मेरे इमाम और सरदार हैं जिन के असमा बाहम ऐसे मिले हुए हैं जिन में से किसी एक को भी छोड़ा नह जा सकता।
वह अल्लाह के बंदों पर उसकी हुज्जत हैं और वह उस तक पहुचने का रास्ता और मक़सद हैं।
वह दिनों में अपने रब के लिये रोज़े रखते हैं, रात की तारिकियों में रुकू व सजदे में मशग़ूल रहते हैं।
दूसरी क़सीदा जनाब शमसुद्दीन मुहम्मद बिन तूलून का है जिनका शुमार दसवी सदी हिजरी के उलामा में होता है वह कहते हैं:
तुम बारह इमामों से वाबस्ता रहो जो कि मुस्तफ़ा ख़ैरुल बशर की आल हैं।
अबू तुराब (अली) हसन, हुसैन और ज़ैनुल आबेदीन का बुग़्ज़ बुरा है।
मुहम्मद बाक़िर जिन्होने इल्म के कितने ही बाब खोले और सादिक़ हैं जिन्हे जाफ़र के नाम से दुनिया में पुकारो।
मूसा जो कि काज़िम हैं और उनके बेटे अली जिन का लक़ब रज़ा है और उनकी क़द्र व मंज़िलत बुलंद हैं।
मुहम्मद तक़ी हैं जिनका दिल असरारे इलाही से मामूर है और अली नक़ी हैं जिनकी ख़ूबियाँ चारों तरफ़ फैली हुई हैं।
और हसन असकरी पाक व पाकीज़ा हैं और इमाम मुहम्मद मेहदी हैं जो जल्दी ही ज़ाहिर होगें।
देखिये किताब अल आईम्मतो इसना अशर मुअल्लिफ़ मुवर्रिख़े दमिश्क़ शमसुद्दीन मुहम्मद बिन तूलून वफ़ात (953 हिजरी क़मरी)
तहक़ीक़ डाक्टर सलाहुद्दीन अल मुन्जिद, मतबूआ बैरुत लेबनान।
[6]. आम्मा की सिहाहे सित्ता और उनके अलावा दूसरी किताबों में मौजूद है नबी ए अकरम (स) ने फ़रमायाः
आख़िरी ज़माने में मेरी नस्ल में एक शख़्स ज़ाहिर होगा जिसका नाम मेरा नाम होगा और उसकी कुनियत मेंरी कुनियत होगी, वह ज़मीन को अदल व इंसाफ़ से उसी तरह से भर देगा जैसे वह ज़ुल्म व जौर से भरी होगी।
[7]. देखिये, अल मुसन्नफ़, सनआनी।
[8]. देखिये, अल यवाक़ीत वल जवाहर, शअरानी अंसारी मिस्री, जो दसवीं सदी हिजरी के उलामा में से हैं।
[9]. देखिये, सही बुख़ारी, सही मुस्लिम, सोनने बहीक़ी।
[10]. मालिकियों की राय जानने के लिये देखिये, बिदायतुल मुजतहिद तालीफ़, इब्ने रुश्दे क़ुरतुबी।
[11]. इस सिलसिले में उन तमाम हदीसों की तरफ़ रूजू किया जाये जो मुख़्तलिफ़ इस्लामी मज़ाहिब की कुतुबे सेहाह, सोनन और मोतबर मसानीद में नक़्ल की गई हैं।
[12]. सबकी शाफ़ेई की किताब शिफ़ाउ सेक़ाम पेज 107 पर और इसी की तरह सोनन इब्ने माजा में जिल्द 1 पेज 117 में नक़्ल हुआ है।
[13]. ग़ुलू का मतलब यह है कि किसी इंसान को उलूहियत या रुबूबियत का दर्जा दे दें या यह अक़ीदा रखे कि यह किसी काम के अंजाम देने में मशीयते इलाही या इज़्ने ख़ुदा के बग़ैर उसे अंजाम देता है जैसा कि यहूद व नसारा अंबिया के बारे में ऐसा अक़ीदा रखते हैं।
[14]. यहाँ पर इस बात पर तवज्जो करना ज़रुरी है कि शिआ इमामिया भी अहले सुन्नत हैं क्योकि शिया ही जो कुछ सुन्नते नबवी (स0 में वारिद हुआ है उसे क़ौलन व अमलन तसलीम करते हैं और उन में वह वसीयतें हैं जो रसूल (स) ने अहले बैत (अ) के हक़ में कीं और शिया उन पर कमा हक्क़हू अमल पैरा हैं और इस बात की गवाही शिया के अक़ायद, उनकी फ़िक़ह और उनकी हदीसों की किताबें इस बात की बेहतरीन गवाह हैं और इस सिलसिले में अभी जल्दी ही एक मुफ़स्सल इनसाईक्लो पीडिया (मोअजम) भी दस जिल्दों में छपी है जिस में रसूले इस्लाम (स) की शिया किताबों से रिवायतों को जमा किया गया है। जिसका नाम सोननुन नबी (स) है।
[15]. बहसे ख़ुम्स से मुतअल्लिक़ शिया फ़ोक़हा की इस्तिदलाली और इस्तिमबाती किताबें मुलाहिज़ा करें।
Comments powered by CComment