अक़ायदे नूर

अक़ीदे
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मुक़द्दमा

अल हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस सलातो वस सलामो अला ख़ैरे ख़लक़िहि मुहम्मद व आलिहित ताहेरीन ला सिय्यमा बक़िय्यतिल्लाहि फ़िल अरज़ीन अल्लाहुम्मज अलना मिन आवानिहि व अंसारिहि

 

 इंसान तीन चीज़ों का मजमूआ है: अफ़कार, सिफ़ात और किरदार। अगर यह तीनों चीज़ें सही जेहत और सही रास्ते पर हों तो इँसान अपने हदफ़ यानी मंज़िल कमाल तक पहुचता है अब अगर कोई दीन इंसान को ख़ुशबख़्त बनाना चाहता है तो उसे ऊपर बयान की गई तीनों चीज़ों का अहल होना ज़रूरी है। दीने इस्लाम तन्हा वह दीन है जिसने तीनों जिहात पर ख़ुसूसी तवज्जो दी है और इस सिलसिले में अहकाम व दस्तूरात बयान कियह हैं, उन तीनों में से इल्मे अख़लाक़ इंसानी सिफ़ात को सँवारता है, फ़ुरु ए दीन उस के रफ़तार व किरदार को बनाते हैं, उसूले दीन इंसान के अफ़कार व नज़रियात को जेहत देते हैं।

 

नूर इस्लामिक मिशन, तबलीग़े दीन के हवाले से हकी़क़ी इस्लाम को पहचनवाने और अफ़राद की सही इस्लामी तरबीयत के लिऐ तीनों जिहात पर काम कर रहा है। इसी सिलसिले की एक कड़ी अक़ायदे नूर बाज़ अहम और ज़रूरी मौज़ूआत पर पाठ (सबक़) की सूरत में आप के हाथों में है।

 

इस मजमूए की बाज़ ख़ुसूसियात

 

1. मतालिब को कम और आसान ज़बान में पेश किया गया है ता कि उस्ताद की मदद के बग़ैर भी समझा जा सके।

2. आम फ़हम बनाने के लियह सख़्त इस्तेलाहों और पेचीदा दलीलों वग़ैरह से परहेज़ किया गया है।

3. हर सबक़ के आख़िर में ख़ुलासा और सवालात भी पेश किये गये हैं ता कि पढ़ने वाला नतीजे की तरफ़ भी मुतवज्जे हो सके और सबक़ की मश्क़ भी हो जाये।

 

ख़ुदा से दुआ है कि हमें हक़ीक़ी दीन को समझने और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।

 

 

 

पहला सबक़

 

दीन की ज़रुरत और इस्लाम की हक़्क़ानीयत

 

दीन

 

दीन लुग़त में इताअत और जज़ा वग़ैरह के मअना में है और इस्तेलाह में ऐसे अमली और अख़लाक़ी अहकाम व अक़ायद के मजमूए को कहते हैं जिसे ख़ुदा ने नबियों के ज़रिये इंसान की दुनियावी और आख़िरत की हिदायत व सआदत के लियह नाज़िल फ़रमाया है, उन अक़ायद को जान कर और उन अहकाम पर अमल करके इंसान दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकता है। जो इल्मे वुजूदे खु़दा, सिफ़ाते सुबूतिया व सल्बिया, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत के बारे में बहस करता है उसे उसूले दीन कहते हैं।

 

दीन की ज़रुरत

 

दीन हर इंसान के लियह ज़रुरी है इस लियह कि इँसान को फ़ुज़ूल पैदा नही किया गया है बल्कि उस की ज़िन्दगी के कुछ उसूल होते है जिन पर अमल करके वह अपनी ज़िन्दगी में कमाल पैदा कर सकता है और सआदत की मंज़िलों तक पहुच सकता है लेकिन सवाल यह है कि उन उसूल व क़वानीन को कौन मुअय्यन करे? इस सवाल के जवाब में तीन राहें मौजूद हैं जिन में से सिर्फ़ एक राह सही है:

 

पहला रास्ता

 

हर इंसान अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ अपने लिये क़ानून बनाए, यह रास्ता ग़लत है इस लिये कि इंसान का इल्म महदूद है जिसके नतीजे में वह हमेशा ग़लतियाँ करता रहता है और उस की नफ़सानी ख़्वाहिशात का तूफ़ान किसी वक़्त भी उस को ग़र्क़ कर सकता है लिहाज़ा आप ख़ुद सोचें कि क्या इंसान अपनी नाक़िस और महदूद फ़िक्र के ज़रिये अपने लियह उसूल व क़वानीन बना सकता है।

 

दूसरा रास्ता

 

इंसान लोगों की फ़िक्रों और सलीक़ों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून मुअय्यन करे, यह रास्ता भी ग़लत है इस लिये कि लोगों की तादाद भी ज़्यादा है और उन की ख़्वाहिशें, फ़िक्रें और सलीक़ें भी मुख़्तलिफ़ हैं तो इंसान किस किस की बातों पर अमल करेगा और दूसरी बात यह है कि दूसरे लोग भी तो इंसान ही हैं इस लिये उन में भी ग़लतियों का बहुत ज़्यादा इम्कान पाया जाता है लिहाज़ा जब लोग अपने लिये भी क़ानून नही बना सकते तो फिर किसी दूसरे के लिये किस तरह क़ानून बना सकते है?

 

तीसरा रास्ता

 

इंसान ख़ुद को किसी ऐसी ज़ात के हवाले कर दे जिस ने उसको बनाया है और जो उसके माज़ी, हाल और मुस्तक़िबल से आगाह है यानी इंसान अपनी ज़िन्दगी की तरीक़ा और जीने का सलीक़ा उसी से हासिल करे जिसने उसे पैदा किया है।

 

यह तीसरा रास्ता ही सही है इस लिये कि जिस तरह हम अपनी गाड़ी को मैकेनिक और अपने जिस्म को बीमारी के वक़्त डाक्टर के हवाले कर देते हैं क्योकि वह इस सिलसिले में हम से ज़्यादा आगाह है उसी तरह हमें अपनी ज़िन्दगी के उसूल व क़वानीन को मुअय्यन करने के लियह अपने आप को उस ज़ात के हवाले कर देना चाहिये जो हर चीज़ का जानने वाला है। वह ज़ात सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम की ज़ात है जिसने इस्लाम की शक्ल में इंसान की इंफ़ेरादी और समाजी ज़िन्दगी के लियह उसूल व क़वानीन नाज़िल फ़रमाए हैं।

 

इस्लाम की हक़्क़ानीयत

 

दीने इस्लाम चूँकि आख़िरी दीन है इसी लियह उसे ख़ुदा ने कामिल बनाया है और उसी मुक़द्दस दीन के आने के बाद दूसरे आसमानी दीन ख़त्म कर दियह गयह क्योकि जब कामिल आ जाये तो नाक़िस की कोई ज़रूरत बाक़ी नही रह जाती, दीने इस्लाम को ख़ुदा वंदे आलम ने हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वा आलिहि वसल्लम के ज़रिये इंसान की हिदायत के लियह नाज़िल फ़रमाया है, सआदत का यह चिराग़ दुनिया वालों के लियह उस वक़्त रौशन हुआ जब इँसान और इंसानियत को बुराईयों और ख़राबियों के अँधेरों ने घेर रखा था।

 

खु़दा की तरफ़ से भेजा गया यह मुक़द्दस दीन ऐसा है कि हर फ़र्द और हर तबक़ा उस के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार कर दुनिया व आख़िरत की बेहतरीन ख़ुशियाँ हासिल कर सकता है।

 

बुढ़े व बच्चे, पढ़े लिखे व अनपढ़, मर्द व औरत, अमीर व ग़रीब सब के सब मसावी तौर पर दीने इस्लाम से फ़ायदा उठा सकते हैं इस लिये कि इस्लाम दीने फ़ितरत है और फ़ितरत इँसानों के तमाम तर इख़्तिलाफ़ात के बावजूद सब के अंदर एक जैसी होती है।

 

नतीजा यह हुआ कि इस्लाम एक ऐसा दीन है जो इँसानों की बुनियादी और फ़ितरी मुश्किलों को हल करता है लिहाज़ा यह हमेशा ज़िन्दा रहने वाला दीन है। यह बात भी वाज़ेह है कि इस्लाम आसान दीन है और इँसान पर सख़्ती नही करता, ख़ुदा वंदे आलम ने इस दीन के बुनियादी उसूल व क़वायद अपनी किताब क़ुरआने मजीद में बयान फ़रमाया है जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर नाज़िल हुई है।

 

ख़ुलासा

 

-लुग़त में दीन, इताअत और जज़ा के मअना में है और इस्तेलाह में उन अमली व अख़लाक़ी अहकाम को दीन कहते हैं जिसे ख़ुदा वंद ने नबियों के ज़रिये नाज़िल फ़रमाया है।

 

-हर इँसान के लियह दीन ज़रुरी है क्योकि वह दीन के बग़ैर अपनी ज़िन्दगी में सआदत हासिल नही कर सकता।

 

-सिर्फ़ ख़ुदा, इँसान की ज़िन्दगी के लियह क़ानून बना सकता है क्योकि वह हर चीज़ का जानने वाला है।

 

-दीने इस्लाम, आख़िरी और कामिल आसमानी दीन है जिसे हमारे नबी हज़रत मुहम्मद (स) ले कर आयह हैं और उस के बुनियादी क़वानीन क़ुरआने मजीद में मौजूद हैं।

 

-इस्लाम दीने फ़ितरत है लिहाज़ा यह दीन बड़े छोटे, पढ़े लिखे, ज़ाहिल, मर्द व औरत, गोरे काले, अमीर व ग़रीब सब के लियह सआदत बख़्श है।

 

सवालात

1. इस्तेलाह में दीन के क्या मअना है?

2. दीन का होना क्यों ज़रुरी है?

3. इंसान अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून क्यो नही बना सकता है?

4. क्यो सिर्फ़ ख़ुदा ही इँसान की ज़िन्दगी के लिये उसूल व क़वानीन बना सकता है?

5. क्या इस्लाम हर फ़र्द और तबक़े के लियह सआदत बख़्श है? क्यों?

 

 

 

दूसरा सबक़

 

दीन की हक़ीक़त

 

हमने पहले सबक़ में पढ़ा कि अगर हम ख़ुदा के भेजे हुए दीन और उस के ज़रिये बनाये गये उसूल और क़ानून पर अमल करें तो दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकते हैं। सिर्फ़ वह शख़्स सआदत मंद और ख़ुशबख़्त है जो अपनी ज़िन्दगी को गुमराही और जिहालत में न गुज़ारे बल्कि अच्छे अख़लाक़ के साथ नेक काम अंजाम दे, दीने इस्लाम ने भी इस सआदत की तरफ़ इस अंदाज़ में दावत दी है:

 

1. उन सही अक़ायद का ऐहतेराम करो जिस को तुम ने अपनी अक़्ल और फ़ितरत के ज़रिये क़बूल किया है।

2. नेक और अच्छा अख़लाक़ रखो।

3. हमेशा नेक और अच्छे काम करो।

 

इस बुनियाद पर दीन तीन चीज़ों का मजमूआ है:

 

1. अक़ायद या उसूले दीन

2. अख़लाक़

3. अहकाम व अमल

 

1. अक़ायद व उसूले दीन

 

अगर हम अपनी अक़्ल व शुऊर का सहारा लें तो मालूम होगा कि इतनी बड़ी दुनिया और उस की हैरत अंगेज़ निज़ाम ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में नही आ सकता और उसमें पाया जाने वाला यह नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में नही आ सकता बल्कि ज़रुर कोई ऐसा पैदा करने वाला है जिसने अपने ला महदूद इल्म व ताक़त और तदबीर के ज़रिये इस दुनिया को बनाया है और वही उस के निज़ाम को एक मोहकम व उस्तवार क़ानून के साथ चला रहा है, उसने कोई चीज़ बे मक़सद पैदा नही की है और दुनिया का छोटी बड़ी कोई भी चीज़ उस के क़ानून से बाहर नही है।

 

इसी तरह इस बात को भी नही माना जा सकता कि ऐसा मेहरबान ख़ुदा जिसने अपने लुत्फ़ व करम के ज़रिये इंसान को पैदा किया है वह इँसानी समाज को उस की अक़्ल पर छोड़ दे जो अकसर हवा व हवस का शिकार रहती है लिहाज़ा ज़रुरी है कि खु़दा ऐसे नबियों के ज़रिये कुछ उसूल व क़वानीन भेजे जो मासूम हो यानी जिन से ग़लती न होती हो और यह भी ज़रुरी है कि ख़ुदा कुछ ऐसे लोगों को आख़िरी नबी का जानशीन बनाये जो उन के बाद उन के दीन को आगे बढ़ाये और नबी की ख़ुद भी मासूम हों।

 

चूँकि ख़ुदा के बताए हुए रास्ते पर अमल करने या न करने की जज़ा या सज़ा इस महदूद और मिट जाने वाली दुनिया में पूरी तरह से ज़ाहिर नही हो सकती लिहाज़ा ज़रुरी है कि एक ऐसा मरहला हो जहाँ इंसान के अच्छे या बुरे कामों का ईनाम या सज़ा दी जा सके। किताब के अगले भाग में इसी के बारे में बताया जायेगा।

 

2. अख़लाक़

 

दीन हमें हुक्म देता है कि अच्छी सिफ़तों और आदतों को अपनायें, हमेशा ख़ुद को अच्छा बनाने की कोशिश करें। फ़र्ज़ शिनास, ख़ैर ख़्वाह, मेहरबान, ख़ुशमिज़ाज

 

और दूसरों से मुहब्बत रखने वाले बनें, हक़ की तरफ़दारी करें, ग़लत का कभी साथ न दें, कहीं भी हद से आगे न बढ़ें, दूसरों की जान, माल, ईज़्ज़त का ख़्याल रखें, इल्म हासिल करने में सुस्ती न करें, ख़ुलासा यह कि ज़िन्दगी के हर मरहले में अदालत की रिआयत करें।

 

3. अहकाम व अमल

 

दीन हमें यह भी हुक्म देता है कि हम वह काम अंजाम दें जिस में हमारी और समाज की भलाई हो और उन कामों से बचें जो इंफ़ेरादी या समाजी ज़िन्दगी में फ़साद या बुराई का सबब बनते हैं। इबादत की सूरत में ऐसे आमाल अंजाम दें जो बंदगी और फ़रमाँ बरदारी की अलामत हैं जैसे नमाज़, रोज़ा और उस के अलावा तमाम वाजिबात को अंजाम दें और तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करें।

 

यही वह क़वानीन हैं जो दीन लेकर आया है और जिस की तरफ़ हमे दावत देता है ज़ाहिर है कि उन में से बाज़ क़वानीन ऐतेक़ादी है यानी उसूले दीन से मुतअल्लिक़ हैं, बाज़ अख़लाक़ी है और बाज़ अमली हैं, दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही हैं बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं। इन्ही क़वानीन पर अमल करके इंसान सआदत हासिल कर सकता है।

 

ख़ुलासा

 

-वह शख़्स सआदतमंद है जो अपनी ज़िन्दगी को जिहालत और गुमराही में न गुज़ारे, अच्छा अख़लाक़ रखता हो और अच्छे काम करता हो।

 

-दीन तीन हिस्सों में तक़सीम होता है:

 

1. अक़ायद या उसूले दीन

 

2. अख़लाक़

 

3. अहकाम व अमल।

 

-दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही है बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे जुड़े हुए हैं।

 

सवालात

 

1. कौन सआदतमंद हैं?

2. दीन के कितने हिस्से हैं? मुख़्तसर बयान करें

3. क्या दीन के तीनों हिस्से एक दूसरे अलग हैं?

 

 

 


तीसरा सबक़

उसूले दीन में तक़लीद करना सही नही है

हमारे समाज में बहुत से लोग उसूले दीन पर ईमान रखते हैं और फ़ुरु ए दीन पर अमल करते हैं लेकिन उन में कुछ ऐसे अफ़राद भी हैं जो फ़ुरु ए दीन की तरह उसूले दीन में भी तक़लीद करते हैं यानी वह जिस तरह से नमाज़, रोज़े के मसायल में किसी मुजतहिद की तक़लीद करते हैं उसी तरह तौहीद, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत के बारे में भी अपने बुज़ुर्गों की तक़लीद करते हैं और कहते हैं: क्योकि हमारे बाप दादा ने कहा है कि ख़ुदा एक है, आदिल है, हज़रत मुहम्मद (स) नबी है, इमाम बारह हैं और क़यामत आयेगी। इस लिये हम भी उन सब चीज़ों पर यक़ीन रखते हैं। लेकिन यह तरीक़ा बिल्कुल दुरुस्त नही है, इस लिये कि उसूले दीन में तक़लीद जायज़ ही नही है।

 

हर इंसान के लिये ज़रुरी है कि वह उसूले दीन (तौहीद, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत) पर दलील के साथ ईमान रखें और सिर्फ़ इस बात पर बस न करें कि चुँकि हमारे बाप दादा मुसलमान हैं लिहाज़ा हम भी मुसलमान है।

 

अब सवाल यह है कि उसूले दीन को दलील के साथ जानने के लिये कितनी किताबों का मुतालआ किया जाये और कौन कौन सी मोटी मोटी किताबों को पढ़ा जाये? उस का जवाब यह है कि दलील जानने के लियह मोटी मोटी किताबों का मुतालआ करने की ज़रुरत नही है बल्कि इंसान सिर्फ़ आसान और सादा दलीलों को छोटी छोटी किताबों को पढ़ने या आलिमों से सवाल करने के ज़रिये जान ले तो यही काफ़ी है। हाँ अगर ज़्यादा जानना चाहता है तो बड़ी बड़ी किताबों का मुतालआ और इस सिलसिले में तहक़ीक़ करना बेहद फ़ायदे मंद साबित होगा।

 

फ़िर यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि सादा और आसान दलील से क्या मुराद है? किसी दलील के सादा और आसान होने का मेयार क्या है? इस के जवाब में हम आप के लिये एक मिसाल पेश करते हैं जिस से आप समझ सकते हैं कि सादा दलील क्या होती है। एक बुढ़िया चर्ख़ा चला रही थी, उसी हालत में उससे पूछा गया कि ख़ुदा के वुजूद पर तुम्हारे पास क्या दलील है? तुम कैसे यक़ीन रखती हो कि कोई ख़ुदा है? उसने फ़ौरन चर्खे से हाथ हटा लिया जिस की वजह से चर्खा रुक गया तो बुढ़िया ने कहा: जब यह छोटा सा चर्खा किसी चलाने वाले के ब़ग़ैर नही चल सकता तो इतनी बड़ी दुनिया किसी चलाने वाले के बग़ैर किस तरह से चल सकती है? इस दुनिया का पूरे नज़्म के साथ चलते रहना इस बात की दलील है कि कोई ख़ुदा है जो उसे चला रहा है।

 

बुढ़िया के इस वाक़ेया से सादा और आसान दलील का मेयार समझ में आ जाता है। अब हम से अगर कोई कहे कि ख़ुदा के वुजूद को साबित करो तो हम उसे यह जवाब दे सकते हैं कि हर चीज़ का कोई न कोई बनाने वाला होता है, हर चीज़ का कोई न कोई चलाने वाला होता है लिहाज़ा इतनी बड़ी दुनिया को चलाने वाला कोई न कोई ज़रुर है और वह ख़ुदा है।

 

नोट: हाँ अगर किसी दीनदार और क़ाबिले ऐतेमाद आलिमें दीन की बताई हुई दलील की बुनियाद पर यक़ीन हासिल हो जाये तो उसे उस यक़ीन की बुनियाद पर उसूले दीन को क़बूल कर सकता है और इसमें कोई हरज भी नही है। इस लियह कि क़ुरआने पाक में तक़लीद के बारे में काफ़िरों को बुरा भला कहा गया है वह उन के लिये यक़ीन हासिल न होने की वजह से है क्योकि वह गुमान पर अमल करते थे जैसा कि इरशाद हो रहा है:

 

وما لهم بذلک من علم ان هم الا یظنون.

 

 

 

उन्हे इस का यक़ीन नही है बल्कि वह सिर्फ़ गुमान करते हैं। (सूरह जासिया आयत 24)

 

 

 

खु़लासा

 

-उसूले दीन में तक़लीद जायज़ नही है बल्कि उन उसूल को सादा और आसान दलीलों के ज़रिये जानना ज़रुरी है लिहाज़ा हम यह नही कह सकते कि चुँकि तौहीद, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत पर हमारे बुज़ुर्गों को ईमान है लिहाज़ा हम भी उन पाँचों उसूलों पर ईमान रखते हैं।

 

-सादा और आसान दलील की मिसाल, चर्ख़ा चलाने वाली बुढ़िया का वाक़ेया है जिस के पढ़ने के बाद मालूम हो जाता है कि सादा और आसान दलील का मेयार क्या है।

सवालात

 

1.  क्या उसूले दीन में तक़लीद करना जायज़ है?

2.  उसूले दीन पर किस तरह ईमान रखना चाहिये?

3.  सादा और आसान दलील का क्या मतलब है?

 

 

 


चौथा सबक़

ख़ुदा की मारेफ़त फितरी है

ख़ुदा की मारेफ़त हासिल करना एक फ़ितरी अम्र है जो हर इंसान के अंदर पाया जाता है। फ़ितरी होने का मतलब यह है कि इंसान को यह सिखाया नही जाता कि कोई ख़ुदा है जिसने इस दुनिया को बनाया है बल्कि अपने जम़ीर और फ़ितरत की तरफ़ मुतवज्जे होते ही वह यह जान लेता है कि किसी आलिम व क़ादिर ज़ात ने इस दुनिया को पैदा किया है, उस का दिल ख़ुदा से आशना होता है और उस की रूह की गहराईयों से मारेफ़ते ख़ुदा की आवाज़ें सुनाई देती हैं।

 

उलामा और दानिशवरों ने अपने इल्मी तजरुबों से यह साबित किया है कि अगर किसी बच्चे को पैदा होने के बाद किसी ऐसे दूर दराज़ इलाक़े में छोड़ दिया जाये जहाँ इंसानों का साया भी न पाया जाता हो, किसी तरह का कोई दीन या मज़हब मौजूद न हो तो जब यह बच्चा समझदार होगा तो ख़ुद ब ख़ुद वह उस ज़ात की तरफ़ मायल हो जायेगा जिसने इस दुनिया को पैदा किया है, हाँ यह मुमकिन है कि वह पहचान में ग़लती करते हुए किसी जानवर या पेड़ पौधे या दूसरी चीज़ों को ख़ुदा समझ बैठे लेकिन उस के इस काम से यह बात ज़रुर साबित हो जाता है कि ख़ुदा की मारेफ़त हासिल करना फ़ितरी है। इंसान की यह पाक फ़ितरत और वक़्त और ज़्यादा जलवा नुमा होती है जब वह किसी बला या मुसीबत में फंस जाता है और निजात के सारे रास्ते बंद पाता है, ऐसी सूरत में उसे अपने अंदर एक आवाज़ सुनाई देती है कि अब भी एक ज़ात ऐसी है जो उसे इस मुसीबत से निजात दे सकती है। मिसाल के तौर पर कोई ऐसा शख़्स जिस के बहुत से क़वी और ख़तरनाक जानी दुश्मन हैं जो उसे क़त्ल करना चाहते हैं उन्होने अपने हथियारों को इस लिये तैयार कर रखा है कि उस के बदन को टुकड़े टुकड़े कर डालें। वह नही जानता कि वह दुश्मनों के हाथ लग जाये और वह उसे क़त्ल कर दें, ख़ौफ़ से न रातों को नींद आती है न दिन का चैन हासिल है और निजात की उम्मीदें हर तरफ़ से ख़त्म हो गई हैं, ऐसी सूरत में अगर कोई उस से सवाल करे कि क्या कोई निजात का रास्ता है? तो वह जवाब देगा कि अब ख़ुदा ही बचा सकता है।

 

एक शख़्स ने इमाम जाफ़र सादिक (अ) से ख़ुदा के वुजूद के बारे में सवाल किया तो आप ने फ़रमाया: कभी कश्ती का सफ़र किया है। उसने जवाब दिया जी हाँ, फ़रमाया: क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम्हारी नाव डूबने लगी हो, तुम्हे तैरना न आता हो और बचने का कोई रास्ता न हो? जवाब दिया: जी हाँ। फ़रमाया क्या तुम्हारा दिल उस वक़्त किसी ऐसी चीज़ की तरफ़ मुतवज्जे था जो उस वक़्त भी तुम्हे उस ख़ौफ़नाक मन्ज़र से निजात दे सके? जवाब दिया जी हाँ फ़रमाया: वह वही ख़ुदा है जो उस वक़्त भी निजात दे सकता है जब कोई निजात देने वाला न हो और वही है जो उस वक़्त भी मदद कर सकता है जब कोई मददगार न हो।[1] उसी पाक फ़ितरत की तरफ़ इशारा करते हुए ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में फ़रमाता है:

 

فطرة الله التی فطر الناس علیها لا تبدیل لخلق الله

 

यह दीन वह फ़ितरते इलाही है जिस पर उसने इंसानो को पैदा किया है, ख़िलक़ते ख़ुदा में कोई तब्दीली नही आ सकती। (सूरए रूम आयत 30)

 

ख़ुलासा

 

-ख़ुदा की मारेफ़त के फ़ितरी होने के मतलब यह है कि इंसानों को यह सिखाया नही जा सकता कि इस दुनिया का कोई पैदा करने वाला मौजूद है बल्कि उस की रूह की गहराईयों से मारेफ़ते ख़ुदा की आवाज़ सुनाई देती है।

 

-इंसान की यह पाक फ़ितरत उस वक़्त और जलवा नुमा होती है जब वह किसी बला मुसीबत में फंस जाता है और अपने लिये निजात के सारे रास्ते बंद पाता है, ऐसी सूरत में उस की ज़मीर कहता है कि अब भी कोई ज़ात है जो उसे बचा सकती है और वह ख़ुदा है।

सवालात

 

1. मारेफ़ते ख़ुदा के फ़ितरी होने का क्या मतलब है?

2. इंसान की यह पाक फ़ितरत किस वक़्त ज़्यादा जलवा नुमा होती है?

3. वुजूदे ख़ुदा के बारे में सवाल करने वाले शख़्स के जवाब में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने क्या फ़रमाया वाक़ेया नक़्ल कीजिये?

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[1].हक़्क़ुल यक़ीन, शुब्बर, पेज 8

 

 

 

 

पाँचवा सबक़

दुनिया का हैरत अंगेज़ निज़ाम और ख़ुदा की मारेफ़त

हमारी निगाह जब किसी मुनज़्ज़म और सजी हुई चीज़ पर पड़ती है तो फ़ौरन हमारे ज़ेहन में यह ख़्याल आता है कि ज़रुर कोई न कोई इस का नज़्म देने वाला है जिसने इस चीज़ को नज़्म दिया है। इसलिये कि हम यह जानते हैं कि ख़ुद ब ख़ुद या किसी हादसे (blast) के ज़रिये वुजूद में आने वाली चीज़ सजी हुई नही होती बल्कि वह हर तरह के नज़्म से दूर और बिखरी हुई होती है।

 

जब हम कूलर, टी वी, रेडियों, गाड़ी, फ़ोन, इंटरनेट और दीगर मशीनों के नज़्म पर नज़र डालते हैं तो क्या इस बात के क़ायल होते हैं कि यह तमाम चीज़ें और उनका नज़्म ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में आ गया है? नही, हरगिज़ नही बल्कि अगर कोई ऐसा कह भी दे तो दूसरे उसका मज़ाक़ उड़ायेगें, तो जब आप उन छोटी छोटी चीज़ों के बारे में यक़ीन नही कर सकते कि उन का नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में आया है तो क्या आप इस बात पर यक़ीन कर सकते हैं कि यह हैरत अँगेज़ दुनिया और उसका अजीब व ग़रीब निज़ाम बिना किसी नज़्म देने वाले के ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में आ गया है?

 

दानिशवर हज़रात इसी नज़्म में ग़ौर व फ़िक्र करने के बाद हैरत अंगेज़ चीज़ों को ईजाद करते हैं, किसान भी इसी नज़्म की वजह से खेती की हरियाली का इंतेज़ार करता है, इसी नज़्म की बुनियाद पर बारिश के बारे में भविष्यवाणी की जाती है, न्यूटरोन, प्रोटोन और इलेक्टरोन भी इसी नज़्म की वजह से अपनी धूरी पर धूम रहे हैं, दिन व रात इसी नज़्म की नतीजा हैं, चमकते तारे, हरे भरे पेड़, चाँद, सूरज, दरिया....... सब के सब इसी नज़्म की वजह से मौजूद हैं, गोया दुनिया का पूरा निज़ाम एक ख़ास नज़्म के तहत है और अगर यह नज़्म न हो तो फिर कुछ न हो।

 

यही वजह है कि काफ़िर और नास्तिक दानिशवर भी जैसे जैसे दुनिया के नज़्म के सिलसिले में तहक़ीक़ात करते जाते हैं उनके दिल में ईमान की किरण फूटती रहती है और वह लोग वुजूदे ख़ुदा के क़ायल होते जाते हैं।

 

लापस नुजूमी (astronomer) कहता है कि मुम्किन नही है कि मंज़ूम ए शम्सी के बारे में यह कहा जाये कि यह ख़ुद ब ख़ुद blast के ज़रिये वुजूद में आया है, बल्कि ऐतेराफ़ करना पड़ेगा कि एक ज़ात (ख़ुदा) है जिसने यह नज़्म पैदा किया है।[1]

 

न्यूटन कहता है कि कान की बनावट से हमें समझ में आता है कि उसका बनाने वाला आवाज़ के तमाम क़वानीन से आशना था और आँख को देख कर मालूम होता है कि उसे पैदा करने वाला नूर और रौशनी के पेचीदा और मुश्किल क़ानूनों को जानता था।[2]

 

दुनिया के इस हैरत अंगेज़ नज़्म के सिलसिले में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

 

.... وخلق کل شی فقدره تقدیرا

 

(ख़ुदा वंदे आलम) ने हर चीज़ को पैदा किया और उस के लिये एक ख़ास नज़्म और अंदाज़ा बनाया है। (सूरह फ़ुरक़ान आयत 2)

 

ख़ुलासा

 

- जब हम किसी सजी हुई चीज़ को देखते हैं तो फ़ौरन समझ जाते हैं कि ज़रुर कोई न कोई है जिसने उसे सजाया है। लिहाज़ा यह पूरी दुनिया और उसका निज़ाम हैरत अंगेज़ नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले या सजाने वाले के वुजूद में नही आ सकता और वह नज़्म देने वाला ख़ुदा वंदे आलम है।

 

- बड़े बड़े दानिशवरों ने भी अपनी तहक़ीक़ात के बाद ख़ुदा के वुजूद का ऐतेराफ़ किया है। न्यूटन कहता है कि कान की बनावट से समझ में आता है कि उस का बनाने वाला आवाज़ के तमाम क़वानीन से आशना था और आँख को देख कर मालूम होता है कि उसे पैदा करने वाला नूर और रौशनी के पेचीदा और मुश्किल क़वानीन से वाकि़फ़ था।

 

सवालात

1. यह दुनिया और उसका हैरत अंगेज़ निज़ाम ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में क्यों नही आ सकता?

2. लापस नुजूमी (astronomer) ने इस दुनिया के नज़्म के बारे में क्या कहा है?

 

[1]. सुख़नी दर बारए ख़ुदा पेज 54

[2]. आफ़रिदगारे जहान पेज 225

 

 

 

छठा सबक़

तौहीद और उस की दलीलें

तौहीद यानी ख़ुदा की वहदानियत क़ायल होना और उसे एक मानना। तौहीद के मुक़ाबले में शिक्र का इस्तेमाल होता है जिस का मतलब ख़ुदा वंदे आलम के कामों में किसी को शरीक मानना या बहुत से ख़ुदाओं को मानना। नबियों की दावत और उसूले दीन की पहली बुनियाद यही ‘’तौहीद है। तौहीद को न मान कर शिक्र को मानना क़ुरआने मजीद की नज़र में अज़ीम ज़ुल्म है:

 

ان الشرک لظلم عظیم

 

बेशक शिक्र बहुत बड़ा ज़ुल्म है। (सुरह लुक़मान आयत 13)

अल्लाह के एक होने की दलीलें 1.जब आप पेन्टिंग (painting) की किसी नुमाईशगाह में जाते हैं तो आप की नज़र एक ऐसी पेंटिंग पर पड़ती है जो बहुत ख़ूब सूरत और अनोखी है, जब आप उसके और क़रीब जाते हैं तो देखते हैं कि उसमें एक ही तरह का नज़्म पाया जाता है और उसका हर कोना दूसरे से मिलता जुलता है और किसी तरह का इख़्तिलाफ़ उस के अंदर मौजूद नही है तो आप यक़ीन कर लेतें हैं कि उस का बनाने वाला कोई एक शख़्स है जिसने उसमें अपना हुनर दिखाया है और यह ख़ूब सूरत पेंटिंग वुजूद में आ गई। इस लिये कि अगर उसके बनाने वाले एक से ज़्यादा होते तो कहीं कहीं उस में इख़्तिलाफ़ वुजूद में आ ही जाता।

 

यह दुनिया भी ऐसी ही एक अज़ीम पेटिंग हैं जिस का बनाने वाला ख़ुद ख़ुदा है और चुँकि इस दुनिया में एक ही निज़ाम पाया जाता है लिहाज़ा मानना पड़ेगा कि ख़ुदा भी एक है जिसने इस निज़ाम को क़ायम किया है। दानिशवरों का भी यह कहना है कि दुनिया एक ही निज़ाम के तहत चल रही है।

 

हिशाम बिन हकम ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से सवाल किया: ख़ुदा के एक होने की दलील क्या है?

 

फ़रमाया: दुनिया की चीज़ों का एक दूसरे से जुड़े होना और मख़लूक़ात का कामिल होना ख़ुदा के एक होने की दलील है।[1] इस हदीस में इमाम (अ) ने दुनिया पर एक ही निज़ाम के हाकिम होने को ही ख़ुदा की वहदानियत की दलील बताया है।

 

2.अल्लाह के एक होने की दूसरी दलील यह है कि जितने भी नबी आये, सब ने एक ख़ुदा की तरफ़ दावत दी और किसी ने भी यह नही कहा कि हम किसी दूसरे ख़ुदा की तरफ़ से आये हैं। हर नबी ने अपने बाद आने वाले नबी के बारे में ख़बर दी है, हज़रत मूसा (अ) ने हज़रत ईसा (अ) और हज़रत ईसा (अ) ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में ख़बर दी है जिस से मालूम होता है कि नबुव्वत का सारा सिलसिला एक ही ख़ुदा पर ख़त्म होता है और अगर बहुत से ख़ुदा होते तो मूसा (अ) कहते कि मैं किसी और ख़ुदा की तरफ़ से आया हूँ, ईसा (अ) कहते कि मैं किसी और ख़ुदा की तरफ़ से आया हूँ, इसी तरह पैग़म्बरे अकरम (स) कहते कि मेरा ख़ुदा मूसा और ईसा के ख़ुदा से अलग है।

 

इन दो दलीलों के अलावा भी बहुत सी दलीलें बड़ी किताबों में मौजूद हैं जिन से मालूम होता है कि ख़ुदा सिर्फ़ एक है।

 

ख़ुलासा

 

-तौहीद यानी ख़ुदा को एक मानना, तौहीद के मुक़ाबले में शिर्क है जो क़ुरआने करीम की नज़र में अज़ीम ज़ुल्म है।

 

-कायनात में एक ही निज़ाम की हुक्मरानी इस बात की दलील है कि जिस ख़ुदा ने यह निज़ाम क़ायम किया है वह भी एक है।

 

-अल्लाह के एक होने की दूसरी दलील यह है कि सारे नबी इसी बात के दावेदार थे कि हम एक ही ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गये हैं।

 

सवालात

 

1.तौहीद का क्या मतलब है?

2.पूरी कायनात में एक ही निज़ाम का हाकिम होना किस बात की दलील है? कैसे?

3.क्या सारे नबियों के ख़ुदा अलग अलग थे?

 

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[1]. तौहीदे शेख सदूक़ पेज 250

 

 

 

सातवाँ सबक़

तौहीद की क़िस्में

हमारे उलामा ने तौहीद की चार क़िस्में बयान की हैं:

 

1. तौहीदे ज़ात

2. तौहीदे सिफ़ात

3. तौहीदे अफ़आल

4. तौहीद इबादत

 

1. तौहीदे ज़ात: अभी तक जो हमने तौहीद के बारे में पढ़ा है वह तौहीदे ज़ात ही है। तौहीदे ज़ात का मतलब यह है कि ख़ुदा की ज़ात एक है और उस का कोई शरीक नही है, न उस को किसी ने पैदा किया है और न ही वह किसी का बाप या माँ है, न वह किसी दूसरे का जुज है और न कोई दूसरा उस की जुज़ है यानी वह किसी चीज़ से मिल कर नही बना है।

2. तौहीद सिफ़ात: तौहीद सिफ़ात का मतलब यह है कि ख़ुदा की सिफ़ात ऐने ज़ात हैं यानी उस की सिफ़ात और उसकी ज़ात जो अलग अलग चीज़ें नही हैं, ऐसा नही है कि ख़ुदा की ज़ात अलग है और उस की क़ुदरत अलग है या ख़ुदा की ज़ात अलग है और उसका इल्म अलग है बल्कि सही तो यह है कि ख़ुदा ही इल्म है और ख़ुदा ही क़ुदरत है।

3. तौहीद अफ़आल: तौहीदे अफ़आल का मतलब यह है कि दुनिया में जितने भी काम अंजाम पाते हैं वह ख़ुदा वंदे आलम से मुतअल्लिक़ होते हैं। इंसानों का खाना पीना, उनकी साँसों का आना जाना, सूरज का निकलना और डूबना, चाँद का चमकना, जानवरों का चलना फिरना, नदियों का बहना, तारों का चमकना, यह सब कुछ हक़ीक़त में अल्लाह के काम हैं, इंसान भी अपने कामों में ख़ुदा का मोहताज है। मिसाल के तौर पर जब हम एक बल्ब को चलता हुआ देखते हैं तो समझते हैं कि यह उस की अपनी बिजली है लेकिन ग़ौर करने के बाद मालूम होता है कि उस बल्ब की निस्बत बिजली घर से है उसी वजह से यह रौशनी दे रहा है यानी अगर बिजली घर न होता तो बल्ल बिजली देने की सलाहियत नही के बावजूद रौशनी न दे पाता। इसी तरह अगर इंसान या दूसरे जानदारों को ख़ुदा की तरफ़ से ताक़त (power) न मिलती तो वह अपने काम को अंजाम नही दे सकते थे। लेकिन चुँकि ख़ुदा ने क़ुदरत व ताक़त के साथ इंसान को इख़्तियार भी दिया है लिहाज़ा यह नही कहा जा सकता कि अगर इंसान ने गुनाह अंजाम दिया है तो वह ख़ुदा ने अँजाम दिया है और वह गुनाह करने वाला सज़ा का हक़दार नही है। इसलिये कि जब ख़ुदा ने उसे इख़्तियार दिया है तो सज़ा देने का हक़ भी रखता है और वह हम से यह सवाल कर सकता है कि जब तुम गुनाह पर मजबूर न थे तो तुमने उसे क्यों अंजाम दिया?

4. तौहीदे इबादत: तौहीदे इबादत का मतलब यह है कि इबादत सिर्फ़ हक़ीक़ी ख़ुदा यानी अल्लाह की करनी चाहिये क्योकि सिर्फ़ वही इबादत के लायक़ है और सिर्फ़ वह ही ऐसी सिफ़ात व कमालात का हामिल है जिन की वजह से उस की इबादत की जा सकती है।

 

ख़ुलासा

 

-तौहीद की चार क़िस्में हैं:

 

1. तौहीदे ज़ात: यानी ख़ुदा एक है और कोई उस का शरीक नही है।

2. तौहीदे सिफ़ात: यानी ख़ुदा की ज़ात उस की सिफ़ात से जुदा नही हैं।

3. तौहीद अफ़आल: यानी दुनिया में जो भी काम होता है सब की निस्बत ख़ुदा की तरफ़ है लेकिन यहाँ यह नही कहा जा सकता कि अगर इंसान गुनाह कर रहा है तो वह ख़ुदा का काम है। इस लिये कि ख़ुदा ने इंसान को इख़्तियार दो कर भेजा है।

4. तौहीदे इबादत: यानी इबादत के लायक़ सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम है।

 

सवालात

1. तौहीद की क़िस्मों को मुख़्तसर वज़ाहत के साथ बयान करें?

2. तौहीदे अफ़आल की वजह से यह कहना सही है कि अगर इंसान कोई गुनाह करे तो वह ख़ुदा ने किया है? क्यो?

 

आठवाँ सबक़

तौहीद के फ़ायदे

 

यह बात मुसल्लम है कि अक़ीदा इंसान पर अपना असर छोड़ता है, अगर अक़ीदा बुरा है तो असर भी बुरा होगा और अगर अक़ीदा अच्छा है तो असर भी अच्छा होगा। तौहीद भी एक ऐसा अक़ीदा है जो मुख़्तलिफ़ जेहतों से हमारी ज़िन्दगी पर नेक और अच्छे असरात ज़ाहिर करता है। किताबों में ख़ुदा पर ईमान रखने के बहुत से फ़ायदे बयान किये गये है जिन में से बाज़ यहाँ ज़िक्र किये जा रहे हैं:

 

1. गुनाहों से बचना

 

जो शख़्स अल्लाह पर ईमान रखता है वह तमाम हालात में अल्लाह को हाज़िर व नाज़िर जानता है जिस की वजह से वह ख़ुदा वंदे आलम से शर्म करता है और गुनाह करने से बचता है नतीजे में उस की इंफ़ेरादी और समाजी ज़िन्दगी भी बेहतरीन, सालिम और ख़ुदा पसंद हो जाती है।

 

2. तंहाई का अहसास न करना

 

इंसान एक समाजी मख़लूक़ है जो दूसरों के बग़ैर ज़िन्दगी नही गुज़ार सकता और समाज से दूर रह कर तंहाई को इख़्तियार कर लेना उस की फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। यक़ीनन उसे कोई अपना चाहिये जो उस का हमदम और हमेशा साथ रहने वाला हो। ख़ुदा से बढ़ कर कौन अपना और हमेशा साथ रहने वाला हो सकता है इस लिये कि क़रीब से करीब तरीन शख़्स भी हर वक़्त इंसान के साथ नही रह सकता लेकिन ख़ुदा सिर्फ़ ज़िन्दगी ही में नही बल्कि मौत के बाद भी उस के साथ है। लिहाज़ा अगर कोई ख़ुदा पर ईमान रखे तो उसे किसी तरह की तंहाई का अहसास नही सतायेगा और वह हमेशा यह कहता हुआ नज़र आयेगा कि कोई नही तो ख़ुदा तो है।

 

3. ज़िन्दगी के मक़सद से वाक़िफ़ होना

 

ख़ुदा पर ईमान के ज़रिये इंसान अपने मक़सद की पहचान हासिल कर लेता है, जब वह जान लेता है कि ख़ुदा ने हमें पैदा किया है और ख़ुदा कोई काम बे मक़सद अंजाम नही देता लिहाज़ा उसने हमें भी बे मक़सद पैदा नही किया है बल्कि ज़रुर किया हदफ़ व मक़सद के लियह पैदा किया है और वह हदफ़ व मक़सद उस की इताअत व बंदगी है तो वह अपनी ज़िम्मेदारी को भी पहचान लेता है, हर काम ख़ुदा से करीब होने के लिये अंजाम देता है, उस की इताअत करता है और यही उस की ज़िन्दगी का मक़सद है जिस को वह ख़ुदा पर ईमान के ज़रिये पहचान लेता है।

 

4. नेक कामों से न थकना

 

अगर सिर्फ़ लोगों को ख़ुश करने के लिये नेक काम किया जाये तो अकसर देखने में आता है कि लोग उस की क़द्र नही करते, जब तक फ़ायदा होता रहता है लोग उस के पीछे पीछे रहते हैं और जब फ़ायदा ख़त्म हो जाता है तो उस की नेकियों को भूल कर उस के दुश्मन हो जाते हैं नतीजे में वह शख़्स मायूस हो कर नेक काम करना भूल जाता है। इसी लिये यह मुहावरा बन गया है कि ‘’नेक कर दरिया में डाल’’ लेकिन अगर कोई शख़्स ख़ुदा पर ईमान रखे और सिर्फ़ उस को ख़ुश करने के लियह काम अंजाम दे तो लोगों की बुराईयों और उन की दुश्मनी से कभी मायूस नही होगा और नेक काम करने से कभी नही थकेगा। इसलियह कि उसे यक़ीन है कि मेरा अमल का असली ईनाम तो आदिल ख़ुदा देगा जिस के यहाँ ज़र्रा बराबर अमल भी बर्बाद नही जाता। कु़रआने मजीद में इरशाद होता है:

 

فمن یعمل مثقال ذرة خیرا یره

 

जो ज़र्रा बराबर भी नेकी करेगा उस की जज़ा पायेगा।

(सूर ए ज़िलज़ाल आयत 10)

 

ख़ुदा पर ईमान रखने वाले कभी नही कहते कि ‘’नेकी कर दरिया में डाल’’ बल्कि वह यह कहते हुए नज़र आते हैं कि नेकी करो और आख़िरत के पूँजी जमा करो।

 

ख़ुलासा

 

-अक़ीदा इंसान पर अपना असर छोड़ता है, अक़ीद ए तौहीद के भी बहुत से फ़ायदे हैं जो इंसानी ज़िन्दगी में पायह जाते हैं जिन में कुछ यह हैं:

 

1. गुनाहों से बचना।

2. तंहाई का अहसास न करना।

3. ज़िन्दगी के मक़सद से वाक़िफ़ होना।

4. नेक कामों से न थकना।

 

सवालात

 

1. इंसान ख़ुदा पर ईमान के ज़रिये किस तरह गुनाहों से बच सकता है?

2. ख़ुदा पर ईमान रखने वाला नेक कामों से क्यो नही थकता?

 

 

नवा सबक़

 

सिफ़ाते सुबूतिया

 

सिफ़ाते खु़दा की दो क़िस्में हैं: सिफ़ाते सुबूतिया और सिफ़ात सल्बिया। इस सबक़ में हम सिफ़ाते सुबूतिया के बारे में पढ़ेगें। सिफ़ाते सुबूतिया उन सिफ़तों को कहते हैं जो ख़ुदा में पाई जाती हैं और वह आठ हैं:

 

1. ख़ुदा अज़ली व अबदी है: अज़ली है यानी उस की कोई इब्तिदा नही है बल्कि हमेशा से है और अबदी है यानी उस की कोई इंतिहा नही है बल्कि वह हमेशा रहेगा और कभी नाबूद नही होगा।

2. ख़ुदा क़ादिर व मुख़्तार है: ख़ुदा क़ादिर है यानी हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है और वह मुख़्तार है यानी अपने कामों को अपने इरादे और इख्तियार से अंजाम देता है और कोई उसे मजबूर नही कर सकता।

3. ख़ुदा आलिम है: ख़ुदा वंदे आलम तमाम चीज़ों के बारे में कामिल तौर पर जानता है और वह हर चीज़ से वाक़िफ़ है, जिस तरह वह किसी चीज़ के वुजूद में आने के बाद उसे जानता है उसी तरह वुजूद में आने से पहले जानता है।

4. ख़ुदा मुदरिक है: यानी वह हर चीज़ को समझता है, वह कान नही रखता लेकिन तमाम बातों को सुनता है, आँख नही रखता लेकिन तमाम चीज़ों को देखता है।

5. ख़ुदा हई है: यानी वह हयात रखता है और ज़िन्दा है।

6. ख़ुदा मुरीद है: यानी वह कामों की मसलहत से आगाह है वह वही काम अंजाम देता है जिस में मसलहत हो और कोई भी काम अपने इरादे और मसलहत के बग़ैर अंजाम नही देता।

7. ख़ुदा मुतकल्लिम है: यानी वह कलाम करता है लेकिन ज़बान से नही बल्कि दूसरी चीज़ों में बोलने की क़ुदरत पैदा कर देता है और फ़रिश्तों या अपने वलियों से हम कलाम होता है। जैसा कि उस ने पेड़ में क़ुदरते कलाम पैदा की और हज़रत मूसा (अ) से बात की, इसी तरह वह आसमान को बोलने की ताक़त देता है तो फ़रिश्ते सुनते हैं और वहयी लेकर नाज़िल होते हैं।

8. ख़ुदा सादिक़ है: यानी वह सच्चा है और झूठ नही बोलता। इस लिये कि झूठ बोलना अक़्ल की नज़र से एक बुरा काम है और ख़ुदा बुरा काम अंजाम नही देता।

 

तमाम सिफ़ाते सुबूतिया की मज़बूत और मोहकम दलीलें बड़ी किताबों में मौजूद हैं जिन से यह मालूम होता है कि अल्लाह तआला क्यों अज़ली, अबदी, क़ादिर व मुख़्तार, आलिम, मुदरिक, हई, मुरीद, मुतकल्लिम और सादिक़ है।

 

ख़ुलासा

 

-सिफ़ाते ख़ुदा की दो क़िस्में हैं:

 

1. सिफ़ाते सुबूतिया

 

2. सिफ़ाते सल्बिया

 

-सिफ़ाते सुबूतिया उन सिफ़ात को कहते हैं जो ख़ुदा में पाई जाती हैं और वह सिफ़ात आठ हैं:

 

1.अज़ली व अबदी

 

2.क़ादिर व मुख़्तार

 

3.आलिम

 

4.मुदरिक

 

5.हई

 

6.मुरीद

 

7.मुतकल्लिम

 

8.सादिक़

 

सवालात

 

1. सिफ़ाते सुबूतिया की तारीफ़ बयान करें?

2. ख़ुदा के मुदरिक, हई और मुरीद होने का क्या मतलब है?

3. ख़ुदा के अज़ली व अबदी होने के क्या मअना हैं?

 

 

 

दसवाँ सबक़

सिफ़ाते सल्बिया

पिछले सबक़ में हमने पढ़ा कि ख़ुदा की सिफ़ात की दो क़िस्में हैं: सिफ़ाते सुबूतिया और सिफ़ाते सल्बिया। हम सिफ़ाते सल्बिया के बारे में आशनाई हासिल कर चुके और अब हम इस सबक़ में सिफ़ाते सल्बिया के बारे में पढ़ेगें।

 

सिफ़ाते सल्बिया उन सिफ़तों को कहते हैं जिन में ऐब व कमी और बुराई के मअना पाये जाते हैं। ख़ुदा वंदे आलम इस तरह के तमाम सिफ़ात से दूर है और उस में यह सिफ़तें नही पाई जाती हैं। आम तौर पर हमारे उलामा सात सिफ़ाते सल्बिया को बयान करते हैं:

 

1. ख़ुदा शरीक नही रखता: यानी ख़ुदा वाहिद है, कोई ख़ुदा के बराबर और उस के जैसा नही है, वह वाहिद है और अपने तमाम कामों को तन्हा अंजाम देता है। सिर्फ़ वही इबादत के लायक़ और सब का पैदा करने वाला है।

2. ख़ुदा मुरक्कब नही है: यानी वह कई चीज़ों से मिल कर नही बना है, न वह किसी का जुज़ है और न कोई दूसरा उस का जुज़ है वह मिट्टी, पानी, आग, हवा, हाथ, पैर, आँख, नाक, कान या दूसरी चीज़ से मिल कर नही बना है।

3. ख़ुदा जिस्म नही रखता: जिस्म उस चीज़ को कहते हैं जिस में लम्बाई, चौड़ाई और गहराई पाई जाती हो। लम्बाई, चौड़ाई और गहराई महदूद होती है लेकिन ख़ुदा वंदे आलम ला महदूद है और उस की कोई हद नही है लिहाज़ा उस की लम्बाई, चौड़ाई या गहराई का तसव्वुर नही किया जा सकता।

4. ख़ुदा दिखाई नही देता: न वह दुनिया में दिखाई देता है और न आख़िरत में दिखाई देगा। इस लिये कि वह चीज़ दिखाई देती है जो जिस्म रखती हो लेकिन हम जानते हैं कि ख़ुदा जिस्म नही रखता।

5. ख़ुदा पर हालात तारी नही होते: यानी उस में भूल, नींद, थकन, लज़्ज़त, दर्द, बीमारी, जवानी, बुढ़ापा और उन जैसी दूसरी हालतें नही पाई जाती हैं इस लिये कि ऐसी चीज़ें ऐब और कमी है और ख़ुदा तरह के ऐब से पाक है।

6. ख़ुदा मकान नही रखता: यानी ख़ुदा हर जगह है इस लियह कि वह ला महदूद है, उस की कोई हद नही है, मकान वह रखता है जो महदूद हो।

7. ख़ुदा मोहताज नही है: यानी ख़ुदा हर चीज़ से बेनियाज़ है, न वह अपनी ज़ात में किसी का मोहताज है और न सिफ़ात में। उलामा ने बड़ी किताबों में सिफ़ाते सुबूतिया की तरह सिफ़ाते सल्बिया की भी मज़बूत दलीलें बयान की हैं जिन को पढ़ने के बाद यह मालूम हो जाता है कि ख़ुदा वंदे आलम के अंदर सिफ़ाते सल्बिया क्यो नही पाई जाती है।

 

ख़ुलासा

 

-सिफ़ाते सल्बिया उन सिफ़तों को कहते हैं जिन में ऐब व नक़्स और बुराईयों के मअना पाये जाते हैं और ख़ुदा उन तमाम सिफ़तों से पाक है।

 

-सिफ़ाते सल्बिया सात है:

 

1. ख़ुदा शरीक नही रखता।

2. मुरक्कब नही है।

3. जिस्म नही रखता।

4. दिखाई नही देता।

5. उस पर हालात तारी नही होते।

6. वह मकान नही रखता।

7. वह किसी का मोहताज नही है।

 

सवालात

 

1. सिफ़ाते सल्बिया की तारीफ़ बयान करें?

2. कम से कम पाँच सिफ़ात सल्बिया लिखें?

3. ख़ुदा जिस्म क्यो नही रखता?

4. ख़ुदा पर किस तरह के हालात तारी नही होते?

 

 

ग्यारहवाँ सबक़

अद्ल

 

उसूले दीन में अद्ल को तौहीद के बाद शुमार किया जाता है। अद्ल से मुराद यह है कि अल्लाह आदिल (इंसाफ़ वाला) है और किसी पर ज़ुल्म नही करता। ख़ुदा वंदे आलम अद्ल, नबुव्वत, इमामत, क़यामत, जज़ा (ईनाम) व सज़ा, अहकाम की हिकमतों और तमाम कामों से मुतअल्लिक़ है लिहाज़ा अगर ख़ुदा के अदल को न माना जाये को बहुत से इस्लामी मसायल हल नही हो पायेगें।

 

अदले ख़ुदा का मतलब

 

अद्ले ख़ुदा के बहुत से मअना बयान हुए हैं जिन में से बाज़ यह हैं:

 

1. ख़ुदा आदिल है यानी वह हर ऐसे काम से पाक है जो मसलहत और हिकमत के बर ख़िलाफ़ हो।

2. ख़ुदा आदिल है यानी उस की बारगाह में तमाम इंसान बराबर हैं और अमीर ग़रीब, गोरे काले, आलिम जाहिल, वग़ैरह सब एक जैसे हैं, बड़ाई का पैमाना और मेयार सिर्फ़ तक़वा और परहेज़गारी है। क्यो कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

 

ان اکرمکم عندالله اتقاکم

 

बेशक ख़ुदा के नज़दीक तुम में से सब से ज़्यादा इज़्ज़त और फ़ज़ीलत वाला वह है जो सब से ज़्यादा मुत्तक़ी (परहेज़गार) हो। (सूर ए हुजरात आयत 13)

 

3. ख़ुदा आदिल है यानी किसी के ज़र्रा बराबर अमल को भी बेकार नही जाने देता। क़ुरआने मजीद में इरशाद है: فمن یعمل مثقال ذرة خیرا یره ومن یعمل مثقال ذرة شرا یره

 

जो ज़र्रा बराबर भी नेकी करेगा उस की जज़ा (ईनाम) पायेगा और जो ज़र्रा बराबर भी बुराई करेगा उस की सज़ा पायहगा।

 

अदले ख़ुदा की दलील

 

ख़ुदा आदिल है और वह ज़ुल्म नही करता। इस लियह कि ज़ुल्म एक बुरा काम और ऐब है और ख़ुदा हर ऐब से पाक है, दूसरी बात यह कि ज़ुल्म करने के बहुत से सबब (कारण) होते हैं जिन में से एक भी ख़ुदा में नही पाया जाता और वह असबाब (कारण) यह हैं:

 

1. जिहालत: ज़ुल्म वह करता है जो उस की बुराई को न जानता हो जब कि ख़ुदा हर चीज़ के बारे में जानता है।

2. ज़रुरत: ज़ुल्म वह करता है जो किसी चीज़ का मोहताज हो और उस चीज़ को हासिल करने के लियह उसे ज़ुल्म का सहारा लेना पड़े। लेकिन ख़ुदा किसी चीज़ का मोहताज नही है।

3. आजिज़ी: ज़ुल्म वह करता है जो ख़ुद से किसी ख़तरे को टालने में बेबस हो और आख़िर कार उसे ज़ुल्म का सहारा लेना पड़े। लेकिन ख़ुद आजिज़ और बेबस नही है बल्कि हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

4. बद अख़लाक़ी: ज़ुल्म वह करता है जो बुरा अख़लाक़ रखता हो और अपने दिल में किसी की दुश्मनी लिये बैठा हो या किसी से जलता हो लेकिन ख़ुदा इन सब बुराईयों से पाक है।

 

इन ही चार असबाब में से किसी एक सबब की बुनियाद पर दुनिया में ज़ुल्म होते हैं लेकिन ख़ुदा वंदे आलम में इन में से एक सबब भी नही पाया जाता लिहाज़ा साबित हो जाता है कि ख़ुदा वंदे आलम ज़ालिम नही बल्कि आदिल (इंसाफ़ वाला) है।

 

ख़ुलासा

 

-अल्लाह तआला आदिल (न्याय प्रिय) है और किसी पर ज़ुल्म नही करता।

 

-ख़ुदा के अद्ल का मतलब यह है कि वह तमाम काम मसलहत व हिकमत की बुनियाद पर करता है, उस की नज़र में सारे इंसान बराबर है।

 

-दुनिया में ज़ुल्म के चार असबाब हैं: जिहालत, ज़रुरत, आजिज़ी (बेबसी), बद अख़लाक़ी, लेकिन ख़ुदा वंदे आलम में इन में से कोई एक सबब भी नही पाया जाता लिहाज़ा साबित हो जाता है कि ख़ुदा आदिल (इंसाफ़ वाला) है।

 

सवालात

 

1. अदले ख़ुदा के कम से कम दो मअना बयान करें?

2. अदले ख़ुदा की क्या दलील है?


बारहवाँ सबक़

 

नबुव्वत

 

ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गयह नबियों की नबुव्वत और रिसालत पर अक़ीदा और ईमान रखना भी उसूले दीन में से एक है, अल्लाह के नबी लोगों की हिदायत और रहनुमाई के लियह भेजे गये हैं। उनकी तादाद एक लाख चौबीस हज़ार है, उनमें से आख़िरी नबी पैग़म्बरे इस्लाम (स) है जिन के बाद नबुव्वत का सिलसिला ख़त्म हो गया है।

 

नबी की ज़रुरत

 

हम सब जानते हैं कि ख़ुदा ने इस फैली हुई दुनिया को बे मक़सद पैदा नही किया है और यह भी वाज़ेह है कि इंसान को पैदा करने से ख़ुदा को कोई फ़ायदा नही पहुचता है। इस लिये कि हम पिछले सबक़ों में पढ़ चुके हैं कि ख़ुदा किसी चीज़ को मोहताज नही है लिहाज़ा इंसान को पैदा करने का मक़सद और उस का फ़ायदा इंसान को ही मिलता है और वह फ़ायदा व मक़सद यह है कि तमाम मौजूदात अपने कमाल की मंज़िलों को तय करे। ख़ास तौर पर इंसान हर लिहाज़ से कमाल तक पहुच सके।

 

लेकिन यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि इंसान किस तरह और किस के सहारे से हर लिहाज़ से अपने कमाल की मंज़िलें तय कर सकता है?

 

वाज़ेह है कि इंसान उसी वक़्त अपने कमाल तक पहुच सकता है जब उसे आसमानी क़वानीन और सही तरबीयत करने वाले के ज़रिये सहारा मिले, उस के बग़ैर इंसान के लियह मुम्किन न होगा कि वह कमाल तक पहुचे। इस लिये कि ग़ैर आसमानी रहबर अपनी अक़्ल और समझ के महदूद होने की वजह से सही तौर पर इंसान की रहनुमाई नही कर सकता और चुँ कि वह भूल चूक और ग़लतियों से महफ़ूज़ नही होता लिहाज़ा रहबरी के लायक़ भी नही है। (मगर यह कि वह आसमानी रहबरों की पैरवी करे।)

 

लेकिन अल्लाह के नुमाइंदे (दूत) ग़ैब की दुनिया से राब्ता और हर तरह की ख़ता व ग़लती से महफ़ूज़ होने की वजह से इंसान को हक़ीक़ी कमाल और ख़ुशियों तक पहुचा सकते हैं।

 

इन सब बातों का नतीजा यह हुआ कि इंसान की हिदायत व तरबीयत उस पैदा करने वाले की तरफ़ से होना चाहिये जो उस की तमाम ख़्वाहिशों से वाक़िफ़ है और यह भी जानता है कि कौन सी चीज़ इंसान के लिये नुक़सान का सबब है और कौन सी चीज़ उस के फ़ायदे का सबब है और यह इलाही क़वानीन भी ख़ुदा के उन नबियों के ज़रिये ही लागू होने चाहिये। जो हर तरह की ख़ता और ग़लतियों से महफ़ूज़ होते हैं।

 

इंसान एक समाजी मख़लूक़ है

 

सभी का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि इंसान एक समाजी मख़लूक़ है यानी किसी कोने में अकेला बैठ कर ज़िन्दगी नही गुज़ार सकता बल्कि वह मजबूर है कि दूसरे इंसानों के साथ ज़िन्दगी गुज़ारे, इसी को समाजी ज़िन्दगी कहते हैं। अकसर इंसान नफ़सानी ख़्वाहिशों की वजह से इख़्तिलाफ़ात और ग़ैर आदिलाना कामों में फँस जाता है। अब अगर सही और आदिलाना क़ानून न हो तो यह समाज और मुआशरा हरगिज़ कमाल और सआदत की राह पर नही जा सकता।

 

लिहाज़ा वाज़ेह हो जाता है कि एक ऐसा सही और आदिलाना क़ानून लाज़िम व ज़रूरी है जो शख़्सी और समाजी हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त करे लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि यह क़ानून कौन बनाये? बेहतर क़ानून बनाने वाला कौन है? उस की शर्त़े क्या हैं?

 

क़ानून बनाने वाले की पहली शर्त यह है कि वह जिनके लियह क़ानून बनाना चाहता है उन की रूहानी और जिस्मानी ख़ुसूसियात और ख़्वाहिशात वग़ैरह से आगाह हो, हम जानते हैं कि ज़ाते ख़ुदा के अलावा कोई और नही जो इंसान के मुस्तक़बिल में होने वाले उन हादसों से आगाह हो, जो समाज को एक मुश्किल में तब्दील कर देते हैं लिहाज़ा सिर्फ़ उसी को हक़ है कि इंसान के लिये ऐसा क़ानून बना यह जो उसकी पूरी ज़िन्दगी में फ़ायदे मंद साबित हो और उसे नाबूदी से निजात दे। ख़ुदा उन क़वानीन को इंसान तक अपने बुलंद मर्तबे, मुम्ताज़ और ख़ता व लग़ज़िश से मासूम मुन्तख़ब बंदों के ज़रिये पहुँचाता है ताकि इंसान उन क़वानीन की मदद से कमाल तक पहुँचे।

 

इंसानों की रहबरी में पैग़म्बरों का दूसरा अहम किरदार यह है कि वह ख़ुद सबसे पहले क़ानून पर अमल करते हैं यानी वह उन क़वानीन के बारे में इंसान के लिये ख़ुद नमून ए अमल होते हैं ताकि दूसरे अफ़राद भी उनकी पैरवी करते हुए ख़ुदा के नाज़िल किये गये क़वानीन को अपनी ज़िन्दगी में लागू करें, यही वजह है कि हर मुसलमान का अक़ीदा है कि ख़ुदा ने हर ज़माने में एक या चंद पैग़म्बरों को भेजा है ताकि आसमानी तालीम व तरबियत के ज़रिये इंसानों को कमाल व सआदत की मंज़िलों तक पहुँचाये।

 

एक शख़्स ने इमाम सादिक़ (अ) से सवाल किया: पैग़म्बरों के आने का सबब क्या है? इमाम ने उसके जवाब में फ़रमाया: जब मोहकम और क़तई दलीलों से साबित हो गया कि एक हकीम ख़ुदा है जिसने हमें वुजूद बख़्शा है जो जिस्म व जिस्मानियात से पाक है, जिसको कोई भी देख नही सकता तो उस सूरत में ज़रूरी है कि उसकी तरफ़ से कुछ रसूल और पैग़म्बर हों जो लोगों को ख़ैर और सआदत की तरफ़ हिदायत करें और जो चीज़ उनके ज़रर व नुक़सान का सबब है उससे आगाह करें। ऐसे आसमानी हादी व रहबर से ज़मीन कभी ख़ाली नही रह सकती। [1]

 

ख़ुलासा

 

- तमाम नबियों की नबुव्वत और रिसालत पर ऐतेक़ाद रखना उसूले दीन में से है ।

 

- ख़ुदा वंदे आलम ने जिन असबाब की ख़ातिर पैग़म्बरों को भेजा है वह यह हैं:

 

1. इंसान कमाल की मंज़िलों तक पहुँचे।

 

2. इंसानों के लिये पैग़म्बर नमून ए अमल बनें।

 

3. इंसानों की सही हिदायत व रहनुमाई हो सके।

 

- सिर्फ़ ख़ुदा ही को हक़ है कि वह इंसानों के लियह क़ानून बनाये। इस लियह कि उसी ने उन्हे पैदा किया है और वही उन की रुहानी व जिस्मानी हालात, ख़्वाहिशों, उन की पिछली, हाल की और आईन्दा की ज़िन्दगी और सारे हालात के बारे में पूरी तरह से जानता है।

 

- ख़ुदा अपने बनाये हुए क़ानून को अपने ख़ास बंदों के ज़रिये इंसानों तक पहुचाता है जो बुलंद मर्तबा, मुम्ताज़ और ख़ता व ग़लतियों से महफ़ूज़ और मासूम होते हैं।

 

सवालात

 

1. क्या नबियों की नबुव्वत व रिसालत पर ऐतेक़ाद रखना उसूले दीन में से है?

2. हमें नबियों की ज़रुरत क्यो है और ख़ुदा ने उन्हे क्यो भेजा है?

3. सिर्फ़ ख़ुदा ही को इंसानों के लिये क़ानून बनाने का हक़ है?

4. ख़ुदा अपने बनाये क़ानून को किन लोगों के ज़रिये इंसानों तक पहुचाता है?

 

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[1]. उसूले काफ़ी जिल्द 2 पेज 168

 

 

तेरहवाँ सबक़

 

नबियों का मासूम होना

 

हम पिछले सबक़ में पढ़ चुके हैं कि नबियों के आने का मक़सद लोगों की हिदायत व रहबरी है और यह बात भी अपनी जगह मुसल्लम है कि अगर ख़ुद रहबर और हादी गुनाहों में फंसे हों तो वह अपनी क़ौम की हिदायत नही कर सकते और उन्हे नेकी और पाक दामनी की तरफ़ दावत नही दे सकते। हर नबी के लिये ज़रुरी है कि वह सब से पहले इस तरह लोगों का ऐतेमाद हासिल करे कि उसके क़ौल व अमल में ख़ता और ग़लती का ऐहतेमाल भी न दिया जाये, अगर नबी मासूम न हो तो दुश्मन उन की ख़ता और ग़लती को बुनियाज बना कर और दोस्त उन की दावत को बे बुनियाद समझ कर दीन को क़बूल नही करेगें। लिहाज़ा ज़रुरी है कि अल्लाह के नबी मासूम हों यानी हर तरह की ख़ता, ग़लती और भूल चूक से पाक हों ता कि लोग उन की पैरवी करते हुए सआदत व ख़ुशियों की मंज़िलों तक पहुचें।

 

यह कैसे मुम्किन है कि ख़ुदा बिला क़ैद व शर्त किसी इंसान की इताअत का हुक्म दे दे जबकि उसके अंदर ख़ता का इम्कान व ऐहतेमाल भी पाया जाता हो? ऐसी सूरत में क्या लोगों को उस की इताअत व पैरवी करना चाहिये? अगर पैरवी करें तो गोया उन्होने एक ख़ता कार की पैरवी की है और अगर न करें तो नबियों की रहबरी बे मक़सद हो जायेगी।

 

यही वजह है कि मुफ़स्सेरीन जब आयत

 

اطیعوا الله واطیعوا الرسول و اولی الامر منکم

 

इताअत करो ख़ुदा की और इताअत करो रसूल और उलिल अम्र की, (सूर ए निसा आयत 59) पर पहुचते हैं तो कहते हैं कि ख़ुदा ने बिला क़ैद व शर्त रसूल की इताअत का हुक्म दिया है और यह इस बात की दलील है कि रसूल भी मासूम हैं और उलिल अम्र यानी आइम्म ए मासूमीन (अ) भी वर्ना ख़ुदा हरगिज़ उन की बिला क़ैद व शर्त पैरवी करने का हुक्म नही देता। नबियों की इस्मत को साबित करने का एक रास्ता यह है कि हम ख़ुद को देखें, जब हम अपने अंदर ग़ौर व फ़िक्र करेंगे तो देखेंगे कि हम भी बाज़ गुनाहों या गंदे और बुरे कामों में मासूम हैं जैसे क्या कोई अक़्लमंद इंसान बैतुल ख़ला की गंदगी या कूढ़ा करकट खा सकता है? क्या कोई समझदार इंसान बिजली के नंगे तार को छू सकता है? क्या कोई समझदार और मतीन इंसान नंगा हो कर सड़क व बाज़ार में आ सकता है? ऐसे बहुत से दूसरे सवाल जिनका जवाब क़तई तौर पर नही में होगा यानी ऐसे काम समझदार लोग कभी नही करेंगे और अगर कोई शख़्स ऐसे काम अंजाम दे तो यक़ीनन या तो वह दीवाना होगा या फ़िर किसी मजबूरी में वह अफ़आल अंजाम दे रहा होगा।

 

जब हम ऐसे कामों का तवज्जो करते हैं तो मालूम होता है कि इन कामों की बुराई हमारे लिये इस क़द्र वाज़ेह व ज़ाहिर है कि हम उसे अंजाम नही दे सकते।

 

इस मक़ाम पर पहुँचने के बाद हम यह कह सकते हैं कि हर अक़्ल मंद व समझदार इंसान बाज़ गंदे और बुरे कामों से महफ़ूज़ है यानी एक तरह की इस्मत का हामिल है ।

 

इस मरहले से गुज़रने के बाद हम देखते है कि बाज़ लोग बहुत से दूसरे कामों को भी अंजाम नही देते हैं जबकि आम लोगों के लियह वह मामूली सी बात होती है जैसे एक माहिर और जानकार डाँक्टर जो हर तरह के जरासीम के बारे में जानता है, हरगिज़ इस बात पर राज़ी नही होगा कि सड़क पर लगे नल का गंदा पानी पिये जब कि मुम्किन है कि एक आम इंसान उस पानी को हमेशा पिये और उस में किसी तरह की कराहत का अहसास भी न करे।

 

इससे मालूम होता है कि इंसान का इल्म जितना ज़्यादा होगा वह उतना ही बुरे और गंदे कामों से अमान में रहेगा लिहाज़ा अगर किसी का इल्म और उसका ईमान इतना ज़्यादा बुलंद हो जाये और ख़ुदा पर उसका यक़ीन इस क़द्र ज़्यादा हो जाये कि वह हर जगह उसको हाज़िर व नाज़िर जानता हो तो यक़ीनन ऐसा शख़्स महफ़ूज़ होगा, अब उसके सामने हर बुरा काम और हर गुनाह बैतुल ख़ला की गंदगी, कूड़ा करकट खाने, बिजली के नंगे तार को छूने या कूचे व बाज़ार में बिल्कुल बरहना होने के मानिन्द होगा ।

 

इन तमाम बातों का नतीजा यह हुआ कि हमारे अंबिया अपने बे पनाह इल्म और बे नज़ीर ईमान की वजह से गुनाहों और हर तरह की भूल चूक से महफ़ूज़ हैं और कभी भी गुनाहों के असबाब उन पर ग़लबा हासिल नही कर सकते और यही अंबिया की इस्मत का मफ़हूम है।

 

ख़ुलासा

 

-अंबिया ए इलाही (अ) का मासूम होना लाज़मी है इस लिये कि :

 

1.जो शख़्स ख़ुद गुनाह अंजाम देता हो उसमें ख़ता का इम्कान हो वह दूसरों की हिदायत नही कर सकता।

 

2.ख़ुदा ऐसे शख़्स की बिला क़ैद व शर्त पैरवी करने का हुक्म नही दे सकता जिसमें गुनाह अंजाम देने का इम्कान हो।

 

-अंबिया ए इलाही (अ) अपने बे पनाह इल्म और बे नज़ीर ईमान की वजह से गुनाह अंजाम नही देते।

 

सवालात

 

1. हादी व रहबर को ख़ता व ग़लतियों से क्यों महफ़ूज़ होना चाहिये?

2. ख़ुदा ख़ताकार शख़्स की बिला क़ैद व शर्त पैरवी करने का हुक्म क्यों नही दे सकता?

3. किस तरह आक़िल और बाशऊर इंसान बाज़ गंदे और बुरे कामों को अंजाम देने में मासूम होता है? चंद मिसालों से वाज़िह करें।

 

 

 

चौदहवाँ सबक़

 

नबी को पहचानने के रास्ते

 

किसी भी दावा करने वाले के दावे को ग़ौर व फ़िक्र के बग़ैर क़ुबूल कर लेना अक़्ल व शऊर के ख़िलाफ़ है। मुम्किन है कि नबुव्वत व रिसालत का दावा करने वाला सच्चा हो और ख़ुदा की तरफ़ से ही भेजा गया हो लेकिन उसके साथ यह ऐहतेमाल व इम्कान भी पाया जाता है कि नबुव्वत व रिसालत का मुद्दई झूठा हो और ज़ाती मफ़ाद के पेशे नज़र अपनी नबुव्वत का दावा कर बैठा हो, लिहाज़ा ज़रूरी है कि सच्चे नबी को पहचानने के लियह हमारे पास चंद मेयार मौजूद हों। जिनमें से दो बहुत अहम हैं :

 

 

 

1. मोजिज़ा

 

पैग़म्बरों की नबुव्वत और आलमे ग़ैब से उनके राब्ते को साबित करने वाले चंद रास्तों में से एक रास्ता मोजिज़ा है। मोजिज़ा वह काम है जिसे अंबिया (अ) ख़ुदा वंदे आलम के हुक्म से अपनी हक़्क़ानियत और आलमे ग़ैब से अपने राब्ते को साबित करने के लिये अंजाम देते हैं और दूसरे अफ़राद उसे अंजाम देने से आजिज़ व मजबूर होते हैं। क़ुरआन करीम में मोजिज़ा को आयत यानी अलामत से ताबीर किया गया है। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं: ख़ुदा ने अपने पैग़म्बरों और जानशीनो को मोजिज़ा इनायत किया ताकि उनके दावे की सदाक़त पर गवाह हो, मोजिज़ा एक ऐसी अलामत है जिसे ख़ुदा अपने पैग़म्बरों, रसूलों और अपनी हुज्जतों के अलावा किसी और को नही देता ताकि उसके ज़रिये सादिक़ व सच्चे नबी को झूठे मुद्दई से जुदा कर सके और सच्चे और झूठे में पहचान हो सके।[1]

 

 

 

2. ग़ुज़िश्ता पैग़म्बरों की पेशीनगोई

 

नबी को पहचानने का दूसरा रास्ता यह है कि उसके बारे में गुज़िश्ता नबी ने ख़बर दी हो । पैग़म्बरे इस्लाम (अ) ने भी जब अपनी नबूवत का ऐलान किया तो गवाही के तौर पर यह दलील पेश की कि मैं वही पैग़म्बर हूँ जिसका नाम तौरैत व इंजील में आया है लेकिन बहुत से यहूदियों और ईसाईयों ने न सिर्फ़ यह कि अपनी आसमानी किताबों की तरफ़ रुजू न किया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हक़्क़ानियत को क़बूल न किया बल्कि इस्लाम व मुसलेमीन से बहुत सी जंगें लड़ीं, उन की किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इस्में गिरामी के मौजूद होने के बारे में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

 

و اذ قال عیسی ابن مریم یا بنی اسرائیل انی رسول الله الیکم مصدقا لما بین یدی من التوراه و مبشرا برسول یاتی من بعدی اسمه احمد فملما جاءهم بالبینات قالوا هذا سحر مبین याद करो उस वक़्त को जब ईसा (अ) बिन मरियम ने बनी इस्राईल से कहा: मैं तुम्हारी तरफ़ ख़ुदा का भेजा हुआ रसूल हूँ, तौरैत की तस्दीक़ करता हूँ और तुम्हें अपने बाद आने वाले पैग़म्बर की बशारत देता हूँ जिसका नाम अहमद है लेकिन जब वह पैग़म्बर मोजिज़ात और निशानियो के साथ आया तो उन लोगों (यहूदियों और ईसाईयों) ने कहा कि यह तो ख़ुला हुआ जादू है।

 

उन्हीं यहूदियों की नस्ल ‘’इसराईल’’ आज भी पूरी दुनिया में मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िश में मसरूफ़ है और इस्लाम को तबाह करना चाहती है लेकिन जिस तरह से पैग़म्बर (स) के ज़माने में यहूदी कामयाब न हो सके। उसी तरह आज भी वह इस्लाम व मुसलेमीन के सामने ज़लील व बेबस नज़र आ रहे हैं।

 

 

 

ख़ुलासा

 

- सच्चे नबी को इन रास्तों से पहचाना जा सकता है:

 

1. मोजिज़ा

2. गुज़िश्ता पैग़म्बरों की पेशीनगोई

 

- मोजिज़ा वह काम है जिसको अंजाम देने से आम इंसान आजिज़ व नातवाँ होता है।

- अंबिया (अ) अपनी हक़्क़ानियत और आलमें ग़ैब से अपने राब्ते को साबित करने के लिऐ यह ख़ुदा के हुक्म से मोजिज़ा दिखाते थे।

 

- गुज़िश्ता आसमानी किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के आने की बशारत दी गई है, इस सिलसिले में क़ुरआन में आयत भी मौजूद है।

 

सवालात

 

1. नबी को पहचानने के कौन कौन से रास्ते हैं? हर एक पर मुख़्तसर रौशनी डालें।

2. मोजिज़ा किसे कहते हैं?

3. अम्बिया मोजिज़ा क्यों दिखाते थे?

4. क्या पैग़म्बरे इस्लाम के बारे में गुज़िश्ता आसमानी किताबों में बशारत दी गई है?

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[1]. बिहारुल अनवार जिल्द 11 पेज 21

 

 

 

पंद्रहवाँ सबक़

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) आख़िरी नबी

 

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रते मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) आख़िरी नबी हैं यानी आप पर सिलसिले नबूवत ख़त्म हो गया । इसी लिये आपको (स) ख़ातिमुल अम्बिया कहा जाता है । यह बात दीने इस्लाम की ज़रूरियात में से है यानी हर मुसलमान के लिये ज़रूरी है कि जिस तरह वह तौहीद का इक़रार करता है उसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ख़ातेमीयत का भी इक़रार करे ।

 

दर हक़ीक़त पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मबऊस होने के बाद क़ाफ़िले बशरीयत ने एक के बाद एक (आहिस्ता आहिस्ता) आपने कमाल की राहें तय कीं और इस मक़ाम पर पहुच गया कि अब वह अपने रुश्द व नुमू की राहों को इस्लामी तालीमात के सहारे ख़ुद तय कर सकता था यानी इस्लाम एक ऐसा क़ानून बनकर सामने आया जो ऐतेक़ादात के लिहाज़ से भी कामिल था और अमल के लिहाज़ से भी इस तरह मुनज़्ज़म किया गया था कि हर ज़माने के इंसान की ज़रूरतों को पूरा कर सके।

 

 

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ख़ातिमुल अंबिया होने की दलीलें

 

1. हुज़ूरे अकरम (स) की ख़ातेमियत पर बहुत सी क़ुरआनी आयात गवाह हैं मिसाल के तौर पर इरशाद होता है:

 

ما کان محمدا ابا احد من رجالکم ولکن رسول الله و خاتم النبین (सूर ए अहज़ाब आयत 40)

 

‘’हज़रते मोहम्मद (स) मर्दों में से किसी के बाप नही हैं बल्कि वह सिर्फ़ रसूले ख़ुदा और ख़ातिमुल अम्बिया हैं।’’

 

मज़कूरह आयत से मालूम होता है कि जिस तरह लोगों के लिये पैग़म्बरे इस्लाम (स) की रिसालत वाज़िह व ज़ाहिर थी उसी तरह आप (स) की ख़ातेमीयत भी साबित व उस्तुवार थी ।

 

2. बहुत सी रिवायतें मौजूद हैं जो आप (स) की ख़ातेमीयत पर वाज़िह दलील हैं । यहाँ सिर्फ़ चंद रिवायात ज़िक्र की जा रही हैं:

 

अ) जाबिर बिन अब्दुलाहे अंसारी ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से एक मोतबर हदीस नक़ल की है कि आपने (स) फ़रमाया: ‘’मैं पैग़म्बरों के दरमियान उसी तरह हूँ जैसे कोई ख़ूबसूरत घर बना डाले, उसे कामिल कर दे लेकिन उसमें सिर्फ़ एक ईट की जगह छोड़ दे, अब जो भी इस घर में दाख़िल होगा तो कहेगा कि कितना ख़ूबसूरत घर है लेकिन इसमें एक कमी है कि यह जगह ख़ाली ह , मैं भी इमारते नबूवत की वहू आख़िरी ईट हूँ और नबूवत मुझ पर ख़त्म होती है’’

 

ब) इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं:

 

حلال محمد حلال الی یوم القیامة وحرامه حرام ابدا الی یوم القیامة [1]

 

‘’हलाले मोहम्मद ता क़यामत हलाल और हरामे मोहम्मद ता क़यामत हराम है’’

 

स) शिया व सुन्नी किताबों में एक मारूफ़ और मोतबर हदीस मौजूद है जिसमें नबी अकरम (स) हज़रत अमीरुल मोमीनीन (अ) को ख़िताब करते हुए फ़रमाते हैं:

 

انت منی بمنزلة هارون من موسی الا انه لا نبی بعدی

 

ऐ अली (अ) तुमको मुझसे वही निस्बत है जो हीरून (अ) को मूसा (अ) से थी बस फ़र्क़ यह है कि मेरे बाद कोई नबी न होगा।‘’[2]

 

 

ख़ुलासा

 

- पैग़म्बरे इस्लाम हज़रते मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) आख़िरी नबी हैं इसी लिये आपको (स) ख़ातिमुल अम्बिया कहा जाता है । ख़तिमीयते रसूले इस्लाम (स) पर ईमान रखना ज़रूरियाते दीन में से है।

 

-इस्लाम ऐतेक़ादात और आमल के लिहाज़ से इस तरह मुनज़्ज़म किया गया है कि हर ज़माने के इंसान की ज़रूरतों को पूरा कर सकता है । इसी लिया इस्लाम आख़िरी दीन और नबी अकरम (स) आख़िरी रसूल हैं ।

 

- पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ख़ातेमीयत पर बहुत सी आयात व रिवायात दलील के तौर पर मौजूद हैं।

 

 

 

सवालात

 

1. पैग़म्बरे इस्लाम (स) को ख़ातिमुल अम्बिया क्यों कहा जाता है?

2. क्या पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ख़तिमीयत पर ईमान रखना ज़रूरीयाते दीन में से है?

3. दीने इस्लाम के आख़िरी दीन और नबी अकरम (स) के आख़िरी रसूल होने का क्या सबब है?

4. नबी अकरम (स) की ख़तिमीयत पर दलालत करने वाली वह हदीस लिखें जो आपने हज़रत अली (अ) को ख़िताब करके बयान फ़रमाई थी।

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[1]. उसूले काफ़ी जिल्द 1 पेज 58

[2]. सही बुख़ारी बाब 14 पेज 387, सही मुस्लिम जिल्द 3 पेज 278

 

 

 

सोलहवाँ सबक़

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का सबसे बड़ा मोजिज़ा

 

तमाम उलमा ए इस्लाम इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) का सबसे बड़ा मोजिज़ा क़ुरआने मजीद है इस लिये कि:

 

1. क़ुरआन एक ऐसा अक़्ली मोजिज़ा है जो लोगों की रूह व फ़िक्र के मुताबिक़ है।

 

2. क़ुरआन हमेशा बाक़ी रहने वाला मोजिज़ा है।

 

3. क़ुरआन एक ऐसा मोजिज़ा है जो चौदह सदियों से आवाज़ दे रहा है कि अगर तुम कहते हो कि यह किताब, ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल नही हुई है तो उसके जैसी किताब लाकर दिखाओ।

 

क़ुरआने मजीद ने अपने मुन्किरों को कई मक़ाम पर चैलेंज किया है, एक जगह इरशाद होता है:

 

قل لئن اجتمعت الانس والجن علی ان یاتو بمثل هذا القرآن لا یاتون بمثله و لو کان بعضهم لبعض ظهیرا (सूर ए इसरा आयत 88)

 

‘’कह दो कि अगर तमाम इंसान और जिन मिल जुल कर इस बात पर तैयार हो जायें कि इस क़ुरआन जैसी किताब ले आयें तो वह उसके जैसा नही ला सकते। अगरचे वह एक दूसरे की मदद ही क्यों न करें।’’

 

दूसरे मक़ाम पर क़ुरआने मजीद अपने उस चैलेंज को आसान बना कर पेश करता है:

 

فاتو بعشر سور مثله مفتریات وادعو من استطعتم من دون الله ان کنتم صادقین (सूर ए हूद आयत 13)

 

‘’तो तुम उसके जैसे दस सूरह ले आओ और ख़ुदा के अलावा जिसको चाहो मदद के लिये बुला लो अगर तुम अपने दावे में सचे हो।’’

 

फ़िर क़ुरआन ने एक जगह चैलेंज को और आसान कर दिया , इरशाद होता है:

 

و ان کنتم فی ریب مما نزلنا علی عبدنا فاتو بسورة من مثله (सूर ए बक़रा आयत 21)

 

‘’अगर तुमको इस उसमें शक व शुबहा है जो हमने अपने बंदे पर नाज़िल किया है तो उसके जैसा एक सूरह ही ले आओ।’’

 

क़ुरआन में इतने चैलेंजों का आना इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि अगरचे पैग़म्बरे इस्लाम (स) को बहुत से दूसरे मोजिज़े भी अता किये गये थे लेकिन उन्होने अपनी हक़्क़ानियत को साबित करने के लिये क़ुरआन के इजाज़ पर ही सबसे ज़्यादा तकिया किया है।

 

वलीद बिन मुग़ीरा का क़िस्सा

जिन लोगों को क़ुरआने मजीद ने चैलेंज किया था उसमें से एक वलीद बिन मुग़ीरा था जो उस ज़माने में अरब के दरमियान फ़िक्र व तदब्बुर के लिहाज़ से बहुत मशहूर था । एक दिन उसने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहा कि क़ुरआन की चंद आयात पढ़िये, हुज़ूरे अकरम (स) ने सुर ए ‘’हाम मीम सजदा’’ की चंद आयतों की तिलावत फ़रमाई, उन आयतों ने वलीद के अंदर ऐसा असर किया कि वह बे इख़्तियार अपनी जगह से उठा और ‘’क़बील ए बनी मख़ज़ूम’’ की एक नशिस्त में पहुँचा औऱ कहने लगा कि ख़ुदा की क़सम मोहम्मद (स) से ऐसा कलाम सुना है जो न इंसानों जैसा कलाम है और न परियों जैसा... फ़िर उसने कहा: उनकी गुफ़्तार में एक ख़ास मिठास और मख़सूस जमाल है, उसकी बुलंदी फलदार दरख़त की तरह और उसकी बुनियाद मोहकम है, वह एक ऐसा कलाम है जो हर कलाम पर ग़ालिब रहेगा और उस पर कोई ग़ालिब न हो पायेगा ।

 

यह बात सुनकर सब हैरान रह गये और सब कहने लगे कि वलीद मोहम्मद (स) पर फ़िदा हो गया है लेकिन वलीद ने कहा क्या तुम समझते हो मोहम्मद (स) दीवाने हैं? आज तक उन पर कभी दीवानगी के आसार दिखाई दिया हैं? लोगों ने कहा: नही! फिर वलीद ने पूछा: क्या तुम यह तसव्वुर करते हो कि मोहम्मद (स) झूठे? हैं क्या आज तक तुम्हारे दरमियान वह सदाक़त व अमानत में मशहूर नही हैं?! क़ुरैश के सरदारों ने कहा तो फिर हम उनकी तरफ़ कौन सी निस्बत दें? वलीद ने कुछ देर सोचने के बाद कहा हम यह कहते हैं कि वह ‘’जादूगर’’ हैं।

 

क़ुरैश ने यह बात सारे अरब में फैला दी कि मोहम्मद (स) जादूगर हैं उनकी आयात जादू हैं उनसे दूरी इख़्तियार करो और उनकी बातों को न सुनो लेकिन उनकी तमाम कोशिशें नाकाम हो गयीं, हक़ीक़त के तिशना अफ़राद जूक़ दर जूक़ क़ुरआन के दामन में पनाह लेने लगे और इस असमानी पैग़ाम से सैराब होने लगे, दुश्मनों को शिकस्ते फ़ाश का सामना करना पड़ा।

 

आज भी क़ुरआन दुनिया वालों को चैलेंज कर रहा है कि ऐ फ़लसफ़ियों, ऐ अदीबों अगर तुम उम आयात की हक़्क़ानियत के बारे में शक करते हो तो उसका जवाब लाओ!!

 

यहूदियत व ईसाईयत, इस्लाम और क़ुरआन के ख़िलाफ़ हर पर साल करोड़ो डाँलर ख़र्च कर रही है लेकिन हम कहते हैं कि इतना ख़र्च करने की जगह तुम क़ुरआन का चैलेंज मान लो और इस क़ुरआन के किसी एक सूरह का भी जवाब ले आओ।

 

 

 

ख़ुलासा

 

-क़ुरआने मजीद, रसूले इस्लाम का सबसे बड़ा मोजिज़ा है इस लिये कि वह लोगों की रूह व फ़िक्र से साज़गार और हमेशा बाक़ी रहने वाला है, उसने अपने मुनकिरों को चैलेंज किया है कि उसका मिस्ल ला कर दिखाओ!

 

-क़ुरआन में कई मक़ाम पर मुनकिरों को चैलेंज किया किया है और सबसे आसान शक्ल में अपना चैलेंज पेश करते हुए कहा है कि सिर्फ़ एक सूरह ही लाकर दिखाओ।

 

-आज भी क़ुरआन दुनिया वालों को चैलेंज कर रहा है कि अगर तुम्हें इसकी आयतो के बारे में शक है तो उसकी मिसाल ला कर दिखाओ।

 

सवालात

 

1. क़ुरआने मजीद रसूले अकरम (स) का सबसे बड़ा मोजिज़ा क्यों है?

2. अपने मुनकिरों के लिये क़ुरआने मजीद का सबसे असान चैलेंज कौन सा है?

3. क्या कुरआन आज भी अपने मुनकिरों को चैलेंज कर रहा है?

 

 


सतरहवाँ सबक़

 

इमामत और इमाम की ज़रुरत

 

इमामत भी तौहीद व नबुव्वत की तरह उसूले दीन में से है। इमामत यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स) की जानशीनी और दीनी व दुनियावी कामों में लोगों की रहबरी करना।

 

पैग़म्बर और नबी की ज़रुरत के बारे में हम ने जो दलीलें पढ़ी है। उन में से अकसर दलीलों की बुनियाद पर इमामत की ज़रुरत भी वाज़ेह व ज़ाहिर हो जाती है। इसलिये कि उन के बहुत से काम एक जैसे हैं लेकिन उस के अलावा भी बहुत से असबाब इमाम की ज़रुरत को हमारे लिये वाज़ेह करते हैं। जैसे:

 

1. इमाम की सर परस्ती में कमाल तक पहुचना

 

इंसान ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ जाने वाले आसान व मुश्किल रास्तों को तय करता है ता कि हर तरह का कमाल हासिल करे और इस में भी कोई शक व शुबहा नही है कि यह मुक़द्दस सफ़र किसी मासूम की राहनुमाई के बग़ैर मुम्किन नही है। यह बात अपनी जगह सही है कि ख़ुदा वंदे आलम ने इंसान को अ़क्ल जैसी नेमत से नवाज़ा है, ज़मीर जैसा नसीहत करने वाला दिया है, आसमानी किताबें नाज़िल की है, लेकिन फ़िर भी मुम्किन है कि इंसान इन तमाम चीज़ों के बा वजूद भटक जाये और गुनाह में पड़ जाये। ऐसी सूरत में एक मासूम रहबर का वुजूद समाज और उस में बसने वालों को भटकने और गुमराह होने से बचाने में काफ़ी हद तक मुअस्सिर है। इस का मतलब यह हुआ कि इमाम का वुजूद इंसान को उस के मक़सद और हदफ़ तक पहुचाता है।

 

2. आसमानी शरीयतों की हिफ़ाज़त

 

हम जानते हैं कि ख़ुदा के तमाम दीन जब नबियों के दिलों पर नाज़िल होते थे तो साफ़ और हयात बख़्श होते थे लेकिन नापाक समाज और बुरे लोग आहिस्ता आहिस्ता उस दीन को ख़ुराफ़ात के ज़रिये ख़राब बना देते थे। जिस के नतीजे में उस की पाकिज़गी ख़त्म हो जाती थी और फ़िर, उस में कोई जज़्ज़ाबियत बाक़ी रहती है न कोई तासीर, इसी वजह से मासूम इमाम का होना ज़रुरी है ता कि दीन की हक़ीक़त को बाक़ी रखे और समाज को बुराई, गुमराही, ख़ुराफ़ात और ग़लत फ़िक्रों से बचाए रखे।

 

3. उम्मत की समाजी और सियासी रहनुमाई

 

इंसान की समाजी ज़िन्दगी एक ऐसे रहबर के बग़ैर नही है जिस के क़ौल व फ़ैल पर अमल किया जाये। इसी लिये तारीख़ में तमाम लोग और मुख़्तलिफ़ गिरोह किसी न किसी रहबर की क़यादत में रहे। चाहे वह अच्छा रहबर हो या बुरा। लेकिन यह बात मुसल्लम है कि इंसान एक ऐसे समाज का मोहताज है जिस में सही और इंसाफ़ पसंद निज़ाम क़ायम हो और ज़ाहिर है कि कोई गुनाहगार या ख़ताकार इंसान ऐसे समाज को वुजूद में नही ला सकता बल्कि कोई मासूम इमाम ही ऐसे समाज को वुजूद बख़्श सकता है।

 

 

4. इतमामे हुज्जत

 

बहुत से इंसान ऐसे होते हैं जो हक़ व हक़ीक़त को जानते हुए भी उस की मुख़ालिफ़त करते हैं। ऐसी सूरत में अगर इमाम का वुजूद न होता तो यह लोग क़यामत के दिन अल्लाह की बारगाह में यह बहाना पेश करते कि अगर कुछ आसमानी रहबर हमारी हिदायत के लिये होते तो हम इन गुनाहों को न करते। इसी वजह से ख़ुदा वंदे आलम ने तमाम इंसानों की हिदायत के लिये मासूम इमामों को भेजा ता कि लोगों पर हुज्जत तमाम करें और उन के लिये उज़्र पेश करने को कोई रास्ता बाक़ी न रह जाये।

 

 

 

खुलासा

 

-इमामत उसूले दीन में से है।

-जो असबाब और दलायले नबुव्वत की ज़रुरत को साबित करते हैं। उन में अकसर दलीलें इमामत की ज़रुरत को भी साबित करती है। इस के अलावा बहुत से असबाब हैं जो इमामत की ज़रुरत को वाज़ेह व ज़ाहिर करते हैं। जैसे:

 

क.इमाम की सर परस्ती में कमाल तक पहुचना।

 

ख.आसमानी शरीयतों की हिफ़ाज़त।

 

ग.उम्मत की समाजी और सियासी क़यादत।

 

घ.इतमामे हुज्जत।

 

 

सवालात

 

1. क्या इमामत उसूले दीन में से है?

2. इमाम का वुजूद क्यों ज़रुरी हैं? मुख़्तसर वज़ाहत के साथ दो दलीलें लिखें।

3. किस तरह ख़ुदा वंदे आलम इमाम को भेज कर लोगों पर हुज्जत तमाम करता है?

 

 

 


अठ्ठारवाँ सबक़

 

इमाम की सिफ़ात

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जानशीन के उनवान से मुसलमानों के इमाम को चंद बुलंद तरीन सिफ़ात का हामिल होना चाहिये इसलिये कि ख़ुद मक़ामे इमामत भी एक ऐसा मुहिम मक़ाम है, उम्मत की दीनी व दुनियावी रहबरी की ज़िम्मेदारी संभालता है । उनमें से चंद सिफ़तें यह हैं:

 

 

 

1. मासूम होना

 

इमाम के लिये ज़रूरी है कि वह पैग़म्बर (स) की तरह मासूम हो यानी हर तरह की ख़ता व ग़लती और भूल चूक से महफ़ूज़ हो, वरना वह लोगों के लिये किसी सूरत में नमूने अमल (IDEAL) और क़ाबिले एतिमाद शख़्स नही हो सकता, इसी तरह वह समाज को भी सआदत की मंज़िलों तक नही पहुँच सकता। इसलिये कि जो ख़ुद गुनाहगार होगा वह मुआशरे की बुराईयों को दूर नही कर सकता है।

 

 

 

2. इल्मे ग़ैब का हामिल होना

 

इमाम पैग़म्बर (स) की तरह ही लोगों के लिये इल्मी पनाहगाह होता है। उसके लिये ज़रूरी है कि वह दीन के तमाम उसूल व फ़ुरूअ, क़ुरआन के ज़ाहिर व बातिन, सुन्नते पैग़म्बर (स) और इस्लाम से मुतअल्लिक़ तमाम उलूम और तमाम जुज़ईयात से कामिल तौर पर वाक़िफ़ हो। इसी तरह यह भी ज़रूरी है कि कायनात के ज़र्रे ज़र्रे का इल्म भी उसके पास हो, इमाम को आलिमे ग़ैब भी होना चाहिये और तमाम उलूमे इलाही से कामिल तौर पर वाक़िफ़ होना चाहिये।

 

 

 

3. शुजाअत होना

 

इमाम के लिये यह भी ज़रूरी है कि वह मआशरे का सबसे शुजा शख़्स हो। इसलिये कि शुजाअत के बग़ैर हक़ीक़ी रहबरी वजूद में नही आ सकती। इमाम को तमाम तल्ख़ हादिसात, अंदरूरी व बैरूनी दुश्मनों, ख़यानत कार और ज़ालिम अफ़राद और मआशरे की तमाम बुराईयों से मुक़ाबला करने के लिये शुजाअत होना चाहिये।

 

 

 

4. ज़ोहद व तक़वा का हामिल होना

 

जो दुनिया और उसकी रंगिनियों से दिल लगाते हैं वह जल्दी धोखा खा जाते हैं और उनके गुमराह होने का इम्कान भी ज़्यादा होता है लेकिन इमाम को चाहिये कि वह दुनिया का ‘’असीर’’ न हो बल्कि उसका ‘’अमीर’’ हो। उसके लिये ज़रूरी है कि वह हवा ए नफ़्स और माल व मनाल व जाह व मक़ाम की क़ैद से आज़ाद रहे और ज़िन्दगी के हर लम्हे में ज़ोहद व तक़वा इख़्तियार किये रहे ताकि वह किसी से भी फ़रेब न खा सके।

 

 

 

5. बेहतरीन अख़लाक़ से मुत्तसिफ़ होना

 

क़ुरआने मजीद में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में इरशाद होता है ‘’अगर तुम सख़्त और संगदिल होते तो लोग तुम्हारे पास से इधर उधर भागते।’’[1] इस आयत से मालूम होता है कि किसी भी क़ाइद व रहबर को बेहतरीन अख़लाक़ का हामिल होना चाहिये ताकि लोग ख़ुद ब ख़ुद उसकी जानिब आयें। हर तरह की बदअख़लाक़ी और संगदिली पैग़म्बर या इमाम के लिये बहुत बड़ा ऐब है, उसे हर तरह के बुराईयों से मुनज़्ज़ह व मुबर्रा व पाक और तमाम बेहतरीन अख़्लाक़ का हामिल होना चाहिये।

 

 

 

6. ख़ुदा की तरफ़ से होना

 

इमाम ख़ुदा की तरफ़ पैग़म्बरे इस्लाम (स) या गुज़िश्ता इमाम (अ) के ज़रिये मोअय्यन किया जाता है इसलिये कि ख़ुदा वंदे आलम और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अलावा कोई दूसरा किसी के मासूम होने का इल्म नही रखता है और लोग भी किसी के मुस्तक़बिल से आगाह नही हैं कि फ़लाँ शख़्स आइंदा कैसा रहेगा और क्या करेगा? लिहाज़ा इमाम को ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब होना चाहिये। लोग किसी को इमाम नही बना सकते इसलिये कि मुम्किन है कि लोग किसी शख़्स को बहुत पाक और मासूम जानें लेकिन हक़ीक़त में वह एक गुनाहगार शख़्स हो लिहाज़ा यह मानना पड़ेगा कि सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम की ज़ात ही है जिसको ‘’इमाम’’ मोअय्यन करने का हक़ है इसलिये कि वह हर शख़्स के ज़ाहिर व बातिन से आगाह है और कामिल तौर पर जानता है कि कौन मासूम है और कौन ग़ैरे मासूम? कौन शख़्स जानशीने पैग़म्बर बनकर करामत की रहबरी की लियाक़त रखता है और कौन नही रखता?

 

इमाम की इन सिफ़ात और शराइत के अलावा और भी बहुत सी दूसरी सिफ़ात उलमा ए इस्लाम ने बयान की हैं जो बड़ी किताबों में मौजूद हैं।

 

 

 

ख़ुलासा

 

- पैग़म्बरे इस्लाम के जानशीन के उनवान से मुसल्मानों के इमाम को चंद बुलंद तरीन सिफ़ात का हामिल होना चाहिये, जिनमें से कुछ का ज़िक्र यहाँ पर किया जा रहा हैं:

 

1. मासूम होना।

 

2. बेपनाह इल्म का हामिल होना।

 

3. शुजा होना।

 

4. साहिबे ज़ोहद व तक़वा होना।

 

5. बेहतरीन अख़लाक़ का हामिल होना।

 

6. ख़ुदा की तरफ़ से होना।

 

 

 

सवालात

 

1. क्या पैग़म्बरे इस्लाम के जानशीन को बुलंद तरीन सिफ़ात का हामिल होना चाहिये? क्यों?

 

2. इमाम की सिफ़ात में से दो सिफ़तों को मुख़्तसर वज़ाहत के साथ लिखें?

 

3. क्यों इमाम को बेहतरीन अख़लाक़ का हामिल होना चाहिये?

 

4. क्या ख़ुदा के अलावा भी कोई शख़्स इमाम को मोअय्यन कर सकता है? क्यों?

 

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[1]. सूर ए आले इमरान आयत 59


उन्नीसवाँ सबक़

हमारे अइम्मा (अ)

 

हम शियों का अक़ीदा है कि ख़ुदा वंदे आलम ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की रिसालत को जारी रखने के लिये बारह मासूम इमामों को आप (स) के जानशीन के उनवान से इंतिख़ाब किया है और हुज़ूरे अकरम (स) के बाद इनमें से हर इमाम ने अपने ज़माने में मुसलमानों का क़यादत व रहबरी की ज़िम्मेदारी संभाली, इमामत का यह सिलसिला जारी रहा यहाँ तक कि इमामे ज़माना (अ) की इमामत शुऱू हुई। जो अल्लाह के करम से आज तक जारी है और रोज़े क़यामत तक जारी रहेगी।

 

 

 

हमारे अइम्मा बारह हैं

 

इस बात पर बहुत सी शिया व सुन्नी रिवायतें दलालत करती हैं कि रसूले इस्लाम (स) के ख़लीफ़ाओं की तादाद बारह हैं। अहले सुन्नत की मोतबर किताबों सही बुख़ारी, सही मुस्लिम, सुनने तिरमिज़ी, सुनने इबने दाऊद, मुसनदे अहमद वग़ैरा में इस तरह की रिवायात वारिद हुई हैं, मिसाल के तौर पर जाबिर बिन समरा कहते हैं कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सुना है कि मेरे बाद बारह अमीर (ख़लीफ़ा) आयेगें। फिर आपने कुछ कहा जो मैं सुन न सका ...... लेकिन मेरे वालिद ने बताया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा सबके सब क़ुरैश से होंगें।[1] इसी तरह एक मर्तबा जब आप (स) के जानशीनों के बारे में सवाल हुआ तो आपने (स) फ़रमाया:

 

اثنا عشر کعدة نقباء بنی اسرائیل ‘’मेरे जानशीन बनी इस्राइल के नोक़बा की तरह बारह हैं।’’[2]

 

 

 

इमामों की नाम बनाम वज़ाहत

 

शिया रिवायतों के अलावा सुन्नी रिवायतों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हमारे इमामों की नाम बनाम वज़ाहत फ़रमाई है। मशहूर सुन्नी आलिमे दीन शैख़ सुलैमान क़ंदूज़ी अपनी किताब ‘’यनाबीउल मवद्दा’’ में नक़्ल करते हैं कि एक बार नासल नाम का एक यहूदी हुज़ूरे अकरम (स) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अपने दूसरे सवालों के ज़िम्न में उसने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से आपके (स) जानशीनों के बारे में भी पूछा तो आपने (स) फ़रमाया: ‘’अली बिन अबी तालिब (अ) मेरे वसी हैं और उनके बाद मेरे दो फ़रज़ंद, हसन (अ) व हुसैन (अ) और फिर हुसैन (अ) की नस्ल में आने वाले नौ इमाम मेरे वसी हैं’’ उस यहूदी ने उनके नाम पूछे तो आपने (स) फ़रमाया: ‘’हुसैन (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद अली (अ) (इमाम सज्जाद), अली (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद मोहम्मद (अ) (इमाम बाक़िर), मोहम्मद (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद जाफ़र (अ), जाफ़र (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद मूसा (अ), मूसा (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद अली (अ) (इमाम रिज़ा) अली (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद मोहम्मद (अ) (इमाम मोहम्मद तक़ी), अली (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद हसन (अ) (इमाम हसन असकरी), और हसन (अ) के बाद उनके फ़रज़ंद हुज्जतुल मेहदी (अज) (इमाम ज़माना) हैं और यही बारह इमाम हैं। ‘’[3]

 

 

 

ज़माने के इमाम को पहचानना

 

सुन्नी किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) से ये हदीस नक़्ल हुई है कि

 

من مات بغیر امام مات میتة جاهلیة [4]

 

‘’यानी जो शख़्स किसी इमाम के बग़ैर मर जाये वह जाहिलीयत की मौत मरता है।’’

 

इसी तरह की अहादीस शिया किताबों में भी मौजूद हैं, जैसा कि एक हदीस में वारिद हुआ है:

 

من مات ولم یعرف امامه مات میتة جاهلیة [5]

 

‘’जो शख़्स अपने ज़माने के इमाम को पहचाने बग़ैर मर जाये वह जाहिलीयत की मौत मरता है’’

 

इन अहादीस से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि हर ज़माने में एक इमाम मौजूद होता है जिसको पहचानना वाजिब है और उसकी मारिफ़त हासिल न करना इंसान के जाहिलीयत और कुफ़्र के दौर में लौटने का सबब बनता है।

 

 

 

ख़ुलासा

 

- हम शियों का अक़ीदा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जानशीन औऱ हमारे इमामों की तादाद बारह है। हर ज़माने में इमाम का होना ज़रूरी है और आज तक इमामे ज़माना (अज) की इमामत जारी है और रोज़े क़यामत तक जारी रहेगी।

 

- शिया किताबों के अलावा सही बुख़ारी, सही मुस्लिम, सुनने अबी दाऊद, और मुसनदे अहमद जैसी किताबों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) की यह हदीस नक़्ल है कि मेरे ख़ुलफ़ा बारह हैं और सबके सब कुरैश से हैं।

 

- शिया और सुन्नी किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ये हदीस नक़्ल हुई है कि जो शख़्स अपने ज़माने के इमाम को न पहचाने, वह जाहिलीयत की मौत मरता है। इस हदीस से मालूम होता है कि हर ज़माने में एक इमाम मौजूद होता है जिसकी मारिफ़त हासिल करना वाजिब है।

 

 

 

सवालात

 

1. इमामों की तादाद के बारे में हमारा अक़ीदा क्या है?

2. इमामो का तादाद के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने क्या फ़रमाया है?

3. क्या पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हमारे इमामों की नाम ब नाम वज़ाहत फ़रमाई है?

4. पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस के मुताबिक़ अपने ज़माने के इमाम को न पहचानने का क्या नुक़सान है?

 

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[1]. सही बुख़ारी जिल्द 9 पेज 100

[2]. मुसनदे अहमद बिन हम्बल जिल्द 1 पेज 398

[3]. यनीबीउल मवद्दा पेज 441

[4]. अल मोजमुल मुक़द्दस ले अलफ़ाज़िल अहादीसिन नबविया जिल्द 6 पेज 302

[5]. बहारूल अनवार जिल्द 6 पेज 16 (क़दीम तबाअत)


बीसवाँ सबक़

मआद (क़यामत)

 

मौत के बाद क़यामत के दिन दुनिया में किये गये कामों का ईनाम या सज़ा पाने के लिये तमाम इंसानों के दोबारा ज़िन्दा किये जाने को ‘’मआद’’ कहते हैं।

 

मआद, उसूले दीन का पाचवाँ हिस्सा है जो बहुत अहम है और क़ुरआने मजीद की 1200 आयतें मआद के बारे में नाज़िल हुई हैं, दूसरे उसूले दीन की तरह जो शख़्स मआद का इंकार करे वह मुसलमान नही रहता. तमाम नबियों ने तौहीद की तरह लोगों को इस अक़ीदे की तरफ़ भी दावत दी है।

 

 

 

मआद की दलीलें

 

उलामा ने मआद की ज़रुरत पर बहुत सी दलीलें पेश की हैं जिन में से बाज़ यह हैं:

 

1.ख़ुदा का आदिल होना

 

ख़ुदा वंदे आलम ने इंसानों को अपनी इबादत के लिये पैदा किया है लेकिन इंसान दो तरह के होते हैं:

1. वह जो ख़ुदा के नेक और सालेह बंदे हैं।

2. वह जो ख़ुदा की मासियत और गुनाहों में डूबे हुए हैं।

 

चूँकि ख़ुदा आदिल है लिहाज़ा ज़रुरी है कि वह मोमिन को ईनाम और गुनाह करने वाले को सज़ा दे। लेकिन यह काम इस दुनिया में नही हो सकता इस लिये कि जिस शख़्स ने सैकड़ों क़त्ल किये हों उसे इस दुनिया अगर सज़ा दी जाये तो उसे ज़्यादा से ज़्यादा मौत की सज़ा दी जायेगी। जो सिर्फ़ एक बार होगी जब कि उसने सैकड़ों क़त्ल किये हैं लिहाज़ा कोई ऐसी जगह होनी चाहिये जहाँ ख़ुदा उसे उस के अमल के मुताबिक़ सज़ा दे और वह जगह आख़िरत (मआद) है।

 

2. इंसान का बे मक़सद न होना

 

हम जानते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को बे मक़सद पैदा नही किया है बल्कि एक ख़ास मक़सद के तहत उसे वुजूद अता किया है और वह ख़ास मक़सद यह दुनियावी ज़िन्दगी नही है। इस लिये कि यह महदूद और ख़त्म हो जाने वाली ज़िन्दगी है जिस के बाद सब को उस दुनिया की तरफ़ जाना है जो हमेशा बाक़ी रहने वाली है लिहाज़ा अगर उसी दुनियावी ज़िन्दगी को पैदाईश का मक़सद मान लिया जाये तो यह एक बेकार और बे बुनियाद बात होगी। लिहाज़ा अगर ज़रा ग़ौर व फ़िक्र किया जाये तो मालूम हो जायेगा कि इंसान इस महदूद दुनियावी ज़िन्दगी के लिये नही बल्कि एक बाक़ी रहने वाली ज़िन्दगी के लिये पैदा किया गया है जो बाद के बाद की ज़िन्दगी यानी मआद है और यह दुनिया उसी असली ज़िन्दगी के लिये एक गुज़रगाह है। इस सिलसिले में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

 

افحسبتم انما خلقناکم عبثا و انکم الینا لا ترجعون.

 

 

 

क्या तुम यह ख़याल करते हो कि हम ने तुम्हे बे मक़सद पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ पलट कर न आओगे? (सूर ए मोमिनून आयत 115)

 

मआद के दिन सब के आमाल उन के सामने लाये जायेगें। जिन लोगों ने नेक आमाल अंजाम दिये है उन का नाम ए आमाल दाहिने हाथ में होगा लेकिन जिन लोगों ने बुरे आमाल किये होगें उन की नाम ए आमाल बायें हाथ में होगा और बुरे आमाल वाला अफ़सोस करेगा कि ऐ काश मैं बुरे काम अंजाम न देता।

 

 

 

ख़ुलासा

 

-क़यामत के दिन ईनाम और सज़ा पाने के लिये मौत के बाद तमाम इंसानों के दोबारा ज़िन्दा होने को मआद कहते हैं, इस्लाम में मआद को काफ़ी अहमियत हासिल है। मआद की दो अहम दलीलें:

 

1. ख़ुदा का आदिल होना: इस दुनिया में नेक काम करने वालों को ईनाम और गुनाह करने वालों को सज़ा नही दी जा सकती। लिहाज़ा एक ऐसी जगह का होना ज़रुरी है जहाँ ख़ुदा अपनी अदालत के ज़रिये ईनाम और सज़ा दे सके और वह जगह वही आलमे आख़िरत या मआद है।

2. इंसान का बे मक़सद न होना: ख़ुदा ने इंसान को बे मक़सद पैदा नही किया है बल्कि ख़ास मक़सद के तहत उसे वुजूद बख़्शा है और वह ख़ास मक़सद यह महदूद दुनियावी ज़िन्दगी नही हो सकती। इस लिये कि यह एक बेकार बात होगी, वह ख़ास मक़सद हमेशा बाक़ी रहने वाली ज़िन्दगी है और इस दुनिया के बाद हासिल होगी जिसे मआद कहते हैं।

 

 

 

सवालात

 

1. मआद की तारीफ़ बयान करें?

2. अदालते ख़ुदा के ज़रिये मआद को साबित करें?

3. इंसान की पैदाईश का मक़सद यह दुनियावी ज़िन्दगी क्यों नही हो सकती?

 

 

 

इक्कीसवाँ सबक़

मआद जिस्मानी है या रूहानी

जब मआद की बात आती है तो हमारे ज़हन में एक सवाल पैदा होता है कि क्या मौत के बाद की ज़िन्दगी सिर्फ़ रुहानी ज़िन्दगी है? क्या जिस्म ख़त्म हो जायेगा? क्या आख़िरत की ज़िन्दगी सिर्फ़ रूह से मुतअल्लिक़ है?

 

इन तमाम सवालों का जवाब सिर्फ़ एक जुमला है और वह यह कि मआद या आख़िरत की ज़िन्दगी न सिर्फ़ यह कि रूहानी है बल्कि जिस्मानी भी है। इस नज़रिये पर बहुत सी दलीलें मौजूद हैं जिन में से बाज़ यह है:

 

1. एक दिन उबई बिन ख़लफ़ पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ख़िदमत में एक पुरानी हडडी ले कर आया और मआद यानी मौत के बाद ज़िन्दा होने का इंकार करने की ग़रज़ से उसने हड्डियों को मसल दिया और उस के बुरादे को हवा में बिखेर दिया फिर सवाल किया कि कैसे मुम्किन है कि यह फ़ज़ा में बिखरी हुई हड्डी दोबारा अपनी पुरानी सूरत में आ जाये? तो यह आयत नाज़िल हुई: (........................) कह दो कि उसे वही ज़ात दोबारा ज़िन्दा करेगी जिसने उस पहली बार वुजूद बख़्शा। (सूर ए यासीन आयत 79)

2. क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

 

قل یحییها الذی انشاها اول مرة

 

(क़यामत के दिन तुम क़ब्रों से निकलोगे।)(सूर ए क़मर आयत 7)

 

हम जानते हैं कि क़ब्र बदन की जगह है, रूह का मक़ाम नही है लिहाज़ा साबित हो जाता है कि क़ब्र से लोगों के जिस्म निकलेगें।

 

3. क़ुरआने मजीद में एक आयत है जिस में बयान हुआ है कि एक अरबी शख्स लोगों से पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में कहता था: क्या यह इंसान तुम से इस बात का वादा कर रहा है कि तुम मर कर ख़ाक और हड्डी हो जाओगे और उस के बाद फिर ज़िन्दगी हासिल कर लोगे?

 

इस आयत से भी मालूम होता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) लोगों से यह फ़रमाते थे कि यही जिस्म ख़ाक होने के बाद दोबारा ज़िन्दा किया जायेगा।

 

इस तरह की बहुत सी आयतें क़ुरआने मजीद में मौजूद हैं जिस का मुतालआ करने के बाद वाज़ेह हो जाता है कि मआद सिर्फ़ रूहानी नही है बल्कि जिस्मानी भी है।

 

 

 

ख़ुलासा

 

-मआद सिर्फ़ रूहानी नही बल्कि जिस्मानी भी है।

-मआद के जिस्मानी होने पर उबई बिन ख़लफ़ का वाक़ेया और क़ुरआन की आयते मोहकम और मज़बूत दलीलें हैं।

 

सवालात

 

1. मआद जिस्मानी है या रूहानी?

2. उबई बिन ख़लफ़ के वाक़ेया के ज़रिये साबित करें कि मआद जिस्मानी भी है?


बाईसवाँ सबक़

 

रजअत

 

रजअत अक़्ल की रौशनी में

 

अरबी ज़बान में रजअत पलटने के मअना में है और इस्तेलाह में मौत के बाद और क़यामत से पहले बाज़ लोगों के दोबारा ज़िन्दा होने को रजअत कहते हैं, इमाम मेहदी (अ) के ज़हूर के साथ ही रजअत भी होगी। यह एक ऐसी हक़ीक़त है जो न अक़्ल के ख़िलाफ़ है और न ही वहयी से इस का टकराव ज़ाहिर होता है।

 

इस्लाम और दूसरे आसमानी दीन की नज़र से इंसान की अस्ल उस की वह रुह होती है जिस को नफ़्स भी कहा जाता है और वह बदन के फ़ना हो जाने के बाद भी बाक़ी रहती है।

 

दूसरी तरफ़ हम देखते हैं कि ख़ुदा क़ादिरे मुतलक़ है और उस की क़ुदरत को कोई चीज़ महदूद नही कर सकती।

 

बयान की गई दोनो बातों से यह वाज़ेह हो जाता है कि रजअत का मसला अक़्ल के हिसाब से एक मुम्किन काम है। इस लिये कि जो ख़ुदा इंसान को पहली बार पैदा कर सकता है उस ख़ुदा के लिये कुछ इंसानों को दोबारा इस दुनिया में पलटाना तो और भी ज़्यादा आसान होगा।

 

 

 

रजअत क़ुरआन की नज़र में

 

क़ुरआने मजीद में पिछली उम्मतों और क़ौमों में रजअत के नमूने पाये जाते हैं जिन से मालूम होता है कि तारीख़ में कुछ ऐसे लोग गुज़रे हैं जिन को ख़ुदा ने मौत के बाद दोबारा इस दुनिया में पलटाया है। हज़रत मूसा (अ) की क़ौम के बारे में इरशाद होता है:

 

و اذ قلتم یا موسی لن نومن لک حتی نری الله جهرة فاخذتکم الصاعقة و انتم تنظرون

 

(और याद करो उस वक़्त को जब तुम ने कहा: ऐ मूसा, हम उस वक़्त तक तुम पर ईमान नही लायेगें जब कि ख़ुदा को देख नही लेते। लिहाज़ा तुम पर बिजली गिरी और तुम देखते रह गये फिर हमने तुम्हे तुम्हारी मौत के बाद ज़िन्दा किया कि शायद तुम शुक्र गुज़ार बन जाओ।) (सूर ए बक़रा आयत 55, 56)

 

इसी तरह क़ुरआने मजीद में हज़रत ईसा (अ) की ज़बानी इरशाद होता है: واحي الموتي باذن الله

 

(मैं मुर्दों को ख़ुदा के हुक्म से ज़िन्दा करता हूँ।) (सूर ए आले इमरान आयत 49)

 

पिछली दोनो आयतें रजअत के मुम्किन होने को साबित करती हैं जब कि ऐसी भी आयतें मौजूद हैं जिन में क़यामत से पहले बाज़ लोगों के बारे में ज़िन्दा होने की ख़बर दी गई है और यही वह रजअत है। जिस के हम शिया क़ायल है, यह रजअत अभी तक वाक़े नही हुई है, इस सिलसिले में इरशाद होता है: و اذ وقع القول علیهم اخرجنا لهم دابة من الارض تکلمهم ان الناس کانوا بآیاتنا لا یوقنون و یوم نحشر من کل امة فوجا ممن یکذب بآیاتنا فهم یوزعون

 

(और जब उन पर वादा पूरा होगा तो हम ज़मीन से एक चलने वाला निकाल कर खड़ा कर देगें जो उन से बात करे कि कौन लोग हमारी आयतों पर यक़ीन नही रखते थे और उस हम हर उम्मत से एक फ़ौज इकठ्ठा करेगें। जो हमारी निशानियों को झुठलाया करते थे और फिर अलग अलग तक़सीम कर दिये जायेगें।) (सूर ए नम्ल आयत 82, 83)

 

क़यामत से पहले पेश आने वाली रजअत के सुबूत में इन आयतों को दलील बनाने के लिये नीचे बयान होने वाली बातों पर तवज्जो देना ज़रुरी है:

 

1. शिया और सुन्नी मुफ़स्सिरों के मुताबिक़ यह आयतें क़यामत के बारे में नाज़िल हुई है। पहली आयत, क़यामत की अलामत बयान कर रही है जब कि जलालुद्दीन सुयूती एक रिवायत नक़्ल करते हैं जिस में ज़िक्र हुआ है कि चौपाये का निकलना क़यामत की निशानी है।[1]

2. बिला शक व शुबहा क़यामत के दिन तमाम इंसान उठाये जायेगें न कि कोई ख़ास गिरोह। इस लिये कि क़ुरआने मजीद में सूरते हाल यूँ बयान की गई है: ذلک یوم مجموع له الناس

 

(उस दिन जब सब लोग जमा किये जायेगें।) (सूर ए हूद आयत 103) इस आयत से वाज़ेह है कि क़यामत के दिन तमाम इंसान ज़िन्दा किये जायेगें और यह बात किसी ख़ास गिरोह से मख़सूस नही है।

 

3. सूर ए नम्ल की 83 वी आयत में एक ख़ास गिरोह के ज़िन्दा किये जाने के बारे में बात कही गई है और यह आयत तमाम इंसानों के उठाये जाने का इंकार कर रही है इस आयत में इरशाद हुआ है: و یوم نحشر من کل امة فوجا ممن یکذب بآیاتنا فهم یوزعون

 

(और उस दिन हम हर उम्मत से एक एक गिरोह को इकठ्ठा करेगें जो हमारी आयतों को झुटलाया करते थे।)

 

यह आयत इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि तमाम इंसान ज़िन्दा नही किये जायेगें।

 

नतीजा: इन तीनों बातों से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि इंसानों के एक ख़ास गिरोह के ज़िन्दा किये जाने की जो बात इस आयत में ज़िक्र हुई है वह क़यामत से पहले वाक़े होगी। इसलिये कि क़यामत में सिर्फ़ कोई ख़ास गिरोह नही उठाया जायेगा बल्कि तमाम इंसान उठाये जायेगें लिहाज़ा मानना पड़ेगा कि यह ज़िन्दा किया जाना क़यामत के दिन के ज़िन्दा किये जाने से बिल्कुल अलग होगा और यही रजअत है।

 

इसी लिये अहले बैत (अ) से इस सिलसिले में बहुत सी हदीसें नक़्ल हुई हैं। यहाँ सिर्फ़ दो रिवायतों को बयान किया जा रहा है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) इरशाद फ़रमाते हैं: तीन दिन ख़ुदा के हैं: ज़हूर इमाम ज़माना, रजअत और क़यामत।

 

आप एक और मक़ाम पर इरशाद फ़रमाते हैं: दो शख़्स हमारे दोबारा पलटने (रजअत) पर ईमान न रखे वह से नही है।

 

 

 

रजअत का फ़लसफ़ा

 

अक़ीद ए रजअत को जानने के बाद ज़हन में यह सवाल पैदा होता है कि आख़िर रजअत क्यों वाक़े होगी और बाज़ लोगों को दोबारा इस दुनिया में पलटाए जाने का फ़लसफ़ा क्या है?

 

इस सिलसिले में ग़ौर व फ़िक्र करने से रजअत के दो अहम मक़सद सामने आते हैं:

 

1. बाज़ काफ़िरों को इस दुनिया में वापस भेज कर उन्हे हक़ीक़ी इस्लाम की अज़मत व सर बुलंदी और कुफ़्र की पस्ती को दिखाना।

2. नेक और सालेह लोगों को ईनाम और ज़ालिमों और काफ़िरों को सज़ा देना।

 

 

 

ख़ुलासा

-अरबी ज़बान में ‘’रजअत’’ पलटने के मअना में है और इस्तेलाह में मौत के बाद और क़यामत से पहले लोगों के दोबारा दुनिया में वापस आने के मअना में है।

 

-इमामे ज़माना के ज़हूर के साथ ही रजअत होगी, यह एक ऐसी हक़ीक़त है जो न अक़्ल के मुख़ालिफ़ हैं और न ही वहयी ए ख़ुदा के बर ख़िलाफ़। इस लिये कि ख़ुदा ला महदूद क़ुदरत का हामिल है लिहाज़ा वह इस बात पर भी क़ादिर है कि इंसान को दोबारा इस दुनिया में पलटा दे।

 

-क़ुरआने मजीद में भी ऐसी आयतें मौजूद हैं जिनसे वाज़ेह तौर पर अक़ीद ए रजअत साबित होता है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते है कि जो शख़्स दुनिया में हमारे दोबारा पलटने पर यक़ीन न रखे वह हम से नही है।

 

रजअत के दो अहम फ़लसफ़े:

 

1. बाज़ काफ़िरों को दोबारा इस दुनिया में पलटा कर उन्हे इस्लाम की हक़ीक़ी अज़मत और कुफ़्र की ज़िल्लत दिखाना।

2. मोमिन और नेक लोगों को ईनाम और ज़ालिमों और काफ़िरों को सज़ा देना।

 

 

 

सवालात:

1. लुग़त और इस्तेलाह में रजअत के क्या मअना हैं?

2. रजअत कब वाक़े होगी?

3. रजअत को अक़्ली ऐतेबार से साबित करें?

4. रजअत के बारे में इमाम सादिक़ (अ) ने क्या फ़रमाया है?

5. रजअत के दो फ़लसफ़े बयान करें?

 

 

 

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[1]. तफ़सीरे दुर्रुल मंसूर जिल्द 5 पेज 77, सूर ए नम्ल आयत 82 की तफ़सीर में

 

 

 

तेईसवाँ सबक़

 

बरज़ख़

 

आयाते क़ुरआन और अहादीस मासूमीन (अ) से मालूम होता है कि मौत इंसान की नाबूदी का नाम नही है बल्कि मौत के बाद इंसान की रूह बाक़ी रहती है। अगर आमाल नेक हों तो वह रूह आराम व सुकून और नेमतों के साथ रहती है और अगर आमाल बुरे हों तो क़यामत तक अज़ाब में मुब्तला रहती है।

 

मौत के बाद से क़यामत तक के दरमियान की ज़िन्दगी को बरज़ख़ कहा जाता है। बरज़ख़ की ज़िन्दगी कोई ख़्याली ज़िन्दगी नही है बल्कि एक हक़ीक़ी ज़िन्दगी है।

 

बरज़ख़ के बारे में रिवायत में आया है कि

 

ان القبر ریاض من ریاض الجنة او حفرة من حفر النار

 

बरज़ख़ जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ या फिर जहन्नम की आग का एक हिस्सा है।[1]

 

 

 

हज़रत अली (अ) का फ़रमान

 

हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) से एक तूलानी रिवायत कई सनदों के साथ मोतबर किताबों में नक़्ल हुई है। आप उस रिवायत में बरज़ख़ के हालात को इस तरह बयान करते हैं:

 

जब इंसान की ज़िन्दगी का आख़िरी दिन और आख़िरत का पहला दिन होगा तो उस की बीवी, माल व दौलत और उस के आमाल उस के सामने मुजस्सम हो जायेगें, उस वक़्त मरने वाला शख़्स माल से सवाल करेगा कि क़सम ख़ुदा की मैं तेरा लालची था अब बता तू मेरे हक़ में क्या कर सकता है? माल जवाब देगा अपना कफ़न मुझ से लेकर चले जाओ। फिर वह अपने बच्चों की तरफ़ रुख़ कर के कहेगा: क़सम ख़ुदा की मैं तुम्हारा मुहिब और हामी था अब तुम मेरे लिये क्या कर सकते हो? वह जवाब देगें हम आप को क़ब्र तक पहुचा देगें और उस में दफ़्न कर देगें, उस के बाद वह आमाल की तरफ़ करेगा और कहेगा कि ख़ुदा की क़सम! मैं ने तुमसे मुँह फेर रखा था और तुम्हें अपने लिये दुशवार और मुश्किल समझता था अब तुम बताओ कि मेरे हक़ में क्या कर सकते हो? तो आमाल जवाब देंगे कि हम क़ब्र और क़यामत में तुम्हारे साथ रहेंगे यहाँ तक कि परवरदिगार के हुज़ूर में एक साथ हाज़िर होगें।

 

अब अगर इस दुनिया से जाने वाला अवलियाउल्लाह में से होगा तो उसके पास कोई ऐसा आयेगा जो लोगों में सब से ज़्यादा ख़ूबसूरत, ख़ुशबूदार और ख़ुश लिबास होगा और उससे कहेगा कि तुम्हे हर तरह के ग़म व दुख से दूरी और बहिशती रिज़्क़ और जावेद वादी की बशारत हो, इसलिये कि अब तुम बेहतरीन मंज़िल में आ चुके हो वह मरने वाला वली ए ख़ुदा सवाल करेगा ‘’तू कौन है?’’ वह जवाब देगा मैं तेरा नेक अमल हूँ लिहाज़ा अब तुम इस दुनिया से बहिश्त की तरफ़ कूच करो, फिर वह ग़ुस्ल और काधाँ देने वाले अफ़राद से कहेगा कि इसकी तजहीज़ व तकफ़ीन को ख़त्म करो........और अगर मय्यत ख़ुदा के दुश्मन की होगी तो उसके पास कोई आयेगा जो मख़्लूक़ाते ख़ुदा में सबसे ज़्यादा बद लिबास और बदबूदार होगा और वह उससे कहेगा मैं तुझे दोज़ख़ और आतिशे जहन्नम की ख़बर सुनाता हूँ फिर वह उसके ग़ुस्ल देने वालों और काँधा देने वालों से कहेगा कि वह इसके कफ़न व दफ़न में देर करें।

 

जब वह क़ब्र में दाख़िल होगा तो क़ब्र में सवाल करने वाले आ पहुँचेगें और उसके कफ़न को नोच देंगें और उस से मुख़ातिब हो कर कहेगें कि बता तेरा रब कौन है? नबी कौन है? और तेरा दीन क्या है? वह जवाब देगा कि मैं नही जानता। फिर सवाल करने वाले कहेगें कि क्या तूने मालूम नही किया और हिदायत हासिल नही की? फिर उस के सर पर ऐसा लोहे का गुर्ज़ लगायेगें कि जिस से जिन्नात व इंसान के अलावा ज़मीन के सारे जानवर हिल जायेगें। उस के बाद वह उस की क़ब्र में जहन्नम का एक दरवाज़ा खोल देगें और कहेगें कि बदतरीन हालत में सो जा और वह हालत ऐसी होगी कि तंगी की शिद्दत की वजह से वह नैज़े और उस की नोक की तरह हो जायेगा और उस का दिमाग़ नाख़ुनों और गोश्तों से बाहर निकल पड़ेगा। ज़मीन के साँप बिच्छू उससे लिपट जायेगें और अपने डंक से उस के बदन को अज़ाब देगें। मय्यत उसी अज़ाब में बाक़ी रहेगी। यहाँ तक कि ख़ुदा उसे क़ब्र से उठायेगा। (बरज़ख़ का) अरसा उस पर इस क़दर सख़्त और दुशवार होगा कि वह हमेशा यह आरज़ू करेगा कि जल्द से जल्द क़यामत आ जाये।[2]

 

 

 

ख़ुलासा

 

-मौत के बाद इंसान की रूह बाक़ी रहती है, अगर आमाल नेक हों तो वह रूह नेमतों से सर फ़राज़ रहती है और अगर आमाल बुरे हों तो क़यामत तक अज़ाब में मुबतला रहती है।

 

-मौत से क़यामत तक के दरमियानी मुद्दत को ‘’बरज़ख़’’ कहा जाता है।

 

-इमाम अली (अ) ने अपने एक तूलानी बयान में बरज़ख़ के हालात को बयान किया है।

 

सवालातः

 

1. मौत के बाद इंसान की रूह के साथ कैसा सुलूक होता है?

2. बरज़ख़ किसे कहते हैं?

3. बयान किजिये कि बुरे आमाल रखने वाले के साथ क़ब्र में क्या होगा?

 

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[1]. बिहारुल अनवार जिल्द 6 पेज 159 रिवायत 19

[2]. तफ़सीरे अयाशी जिल्द 2 पेज 227, फ़ुरु ए काफ़ी जिल्द 3

 

 


चौबीसवाँ सबक़

 

जन्नत

 

इंसान क़यामत में उठाये जाने के बाद अपने नाम ए आमाल को देखेगा और उसी के मुताबिक़ जन्नत या जहन्नम में जहन्नम में जायेगा। जन्नत एक हमेशा बाक़ी रहने वाली जगह है जिसे ख़ुदा वंदे आलम ने अपने नेक और सालेह बंदों को ईनाम देने के लिये पैदा किया है, जन्नत में हर तरह की जिस्मानी और रुहानी लज़्ज़तें मौजूद होगें।

 

 

 

जिस्मानी लज़्ज़तें

 

क़ुरआन मजीद की आयतों में बहिश्त की बहुत सी जिस्मानी लज़्ज़तों का तज़किरा हुआ है जिन में से बाज़ यह है:

 

1. बाग़: बहिश्त में आसमान व ज़मीन से भी ज़्यादा बड़े बाग़ होगें। (सूर ए आले इमरान आयत 133) यह बाग़ तरह तरह के फलों से भरे हुए होगें। (सूर ए दहर आयत 14, सूर ए नबा आयत 32)

2. महल: क़ुरआने मजीद में बहिश्त के घरों के बारे में ‘’मसाकिने तय्यबा’’ का लफ़्ज़ आया है जिस में समझ में आता है कि उस में हर क़िस्म का आराम व सुकून होगा। (सूर ए तौबा आयत 72)

3. लज़ीज़ खाने: क़ुरआन की आयतों से मालूम होता है कि बहिश्त में हर तरह के खाने होगें। इसलिये कि इस बारे में

 

مما یشتهون.

 

 

 

(सूर ए मुरसलात आयत 42) की ताबीर इस्तेमाल हुई है जिस के मअना हैं जन्नती जो भी चाहेगा वह हाज़िर होगा।

 

4. लज़ीज़ शरबत: जन्नत में तरह तरह के लज़ीज़ शरबत होगें। इस लिये कि क़ुरआन मजीद में

 

لذة للشاربین

 

5. (सूर ए मुहम्मद आयत 47) का इस्तेमाल हुआ है यानी वह शरबत, पीने वाले के लिये लज़ीज़ होता है।

6. बीवियाँ: ज़ौजा या बीवी इंसान के सुकून का सबब होती है। आयतों और हदीसों से मालूम होता है कि जन्नत में ऐसी बीवियाँ होगीं। जो हर तरह की ज़ाहिरी और बातिनी ख़ुसूसियात से आरास्ता होंगी, वह इंतेहाई हसीन, मेहरबान और पाक होगीं। (सूर ए बक़रा आयत 25, सूर ए आले इमरान आयत 15)

 

रूहानी लज़्ज़ते

 

क़ुरआने मजीद में जन्नत की जिस्मानी लज़्ज़तों की तरह बहुत सी रुहानी लज़्ज़तों का भी तज़किरा हुआ है जिन में से बाज़ यह है:

 

1. मख़्सूस ऐहतेराम: जन्नत में दाख़िल होते ही फ़रिश्ते उन का मख़सूस इस्तिक़बाल करेगें और हमेशा ऐहतेराम करेगें, हर दरवाज़े से फ़रिश्ते दाख़िल होगें और कहेगें कि दुनिया में इज़्ज़त और इस्तेक़ामत की वजह से तुम पर सलाम हो। (सूर ए राद आयत 23, 24)

2. मुहब्बत और दोस्ती का माहौल: बहिश्त में हर तरह की मुहब्बत और दोस्ती का माहौल होगा। (सूर ए निसा आयत 69)

3. ख़ुशी और मुसर्रत का अहसास: ख़ुशी और मुसर्रत की वजह से जन्नत वालों के चेहरे खिले होगें, उन की शक्ल व सूरत नूरानी, ख़ुश और मुस्कुराती हुई होगी। (सूर ए अबस आयत 39)

4. ख़ुदा वंदे आलम की ख़ुशनूदी: ख़ुदा के राज़ी होने का अहसास सबसे बड़ी लज़्ज़त है जो जन्नत वालों को हासिल होगी। (सूर ए मायदा आयत 119)

5. ऐसी नेमतें जिन का तसव्वुर भी नही किया जा सकता: जन्नत में ऐसी चीज़ें और नेमतें होगीं जिन का इंसान तसव्वुर भी नही कर सकता। पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं कि जन्नत में ऐसी नेमते होगीं जिन्हे न किसी आँख ने देखा है और न किसी दिल में उन का ख़्याल भी आया होगा। (नहजुल फ़साहा हदीस 2060)

 

क़ुरआने मजीद में जन्नत की उन तमाम जिस्मानी व रूहानी लज़्ज़तों और नेमतों की वजह से मुसलमानों से कहा गया है:

 

لمثل هذا فلیعمل العاملون .

 

(अगर ऐसी जन्नत चाहिये तो अमल करने वाले वैसा ही अमल करें।)

 

 

 

ख़ुलासा

 

-इंसान अपने नाम ए आमाल के मुताबिक़ या जन्नत में जायेगा या जहन्नम में। जन्नत एक हमेशा बाक़ी रहने वाली जगह है जहाँ ख़ुदा वंदे आलम नेक लोगों को ईनाम देगा।

 

-जन्नत में बहुत से जिस्मानी व रूहानी लज़्ज़तें और नेंमतें होगीं। जिस्मानी लज़्ज़तें जैसे बाग़, महल, लज़ीज़ खाने, लज़ीज़ शरबत, ख़ूबसूरत बीवियाँ वग़ैरह।

 

-रूहानी लज़्ज़तें जैसे जन्नत वालों को ख़ास ऐहतेराम, मुहब्बत व दोस्ती का माहौल, ख़ुशी का अहसास, ख़ुशनूदी ए ख़ुदा और ऐसी नेमतें जिन का तसव्वुर भी नही किया जा सकता।

 

-ऐसी जन्नत पाने के लिये आमाल भी उसी तरह करने होगें। इस लिये कि क़ुरआन में वाज़ेह तौर पर इरशाद होता है:

 

لمثل هذا فلیعمل العاملون

 

 

 

(सूर ए साफ़्फ़ात आयत 60)

 

 

 

 

 

सवालात

 

1. जन्नत क्या है?

2. जन्नत की कम से कम तीन जिस्मानी नेमतों को बयान करें?

3. जन्नत की कम से कम तीन रूहानी लज़्ज़तों को बयान करें?

4. क़ुरआन ने जन्नत हासिल करने का क्या तरीक़ा बताया है?

 

 

पच्चीसवाँ सबक़

 

जहन्नम

 

क़यामत में उठाये जाने के बाद कुफ़्फ़ार व मुनाफ़ेक़ीन और गुनाह गार जहन्नम में जायेगें। जहन्नम के अज़ाब और मुसीबतों का मुक़ाबला दुनिया की मुसीबतों से नही किया जा सकता।

 

क़ुरआने मजीद में ख़ुदा वंदे आलम जहन्नम की बहुती ही दर्दनाक हालत के बारे में इरशाद फ़रमाता है ‘’जिन्होने हमारी आयतों को इंकार किया है जल्दी ही हम उन्हे आग में झोंक देगें और जब भी उन के बदन की खाल जल कर ख़त्म हो जायेगी हम दोबारा एक नई खाल उन के बदन पर चढ़ा देगे ता कि वह दोबारा जलें और हमारे अज़ाब को चखें बेशक ख़ुदा वंदे आलम क़ुदरत वाला और हकीम है।

 (सूर ए निसा आयत 65)

 

जिस तरह से पिछले सबक़ में हमने पढ़ा कि ख़ुदा ने जन्नत वालों के लिये जिस्मानी व रूहानी लज़्ज़ते क़रार दी है उसी तरह से जहन्नम वालों के लिये भी ख़ुदा ने जिस्मानी व रूहानी सज़ा का इंतेज़ाम किया है जिन में से कुछ यह है:

 

जिस्मानी अज़ाब

 

1. अज़ाब की शिद्दत: जहन्नम का अज़ाब इस क़दर शदीद होगा कि जहन्नम वाले यह आरज़ू करेगा कि अपनी बीवी, बच्चे, भाई और ज़मीन के तमाम लोगों को फ़िदा कर दे ताकि इस अज़ाब से निजात पा सके। (सूर ए मआरिज आयत 11, 14)

 

2. ख़ौफ़नाक आवाज़ें: जहन्नम में चीख व पुकार, फ़रियाद और भयानक आवाज़े होगीं। (सूर ए फ़ुरक़ान आयत 13, 14)

 

3. गंदा पानी: जब भी जहन्नम वाले प्यास की शिद्दत की वजह से पानी माँगेंगें तो उन्हे गर्म, गंदा और सड़ी हुआ पानी दिया जायेगा और वह उसे पी लेगें। (सूर ए अनआम आयत 70, सूर ए युनुस आयत 4, सूर ए क़हफ़ आयत 29, सूर ए मुहम्मद आयत 15)

 

4. खाना: ज़क़्क़ूम (थूहड़) का पेड़, गुनाह करने वालों के लिये खाना होगा और पिघले हुए ताँबें की तरह पेट में खौलेगा। (सूर ए दुख़ान आयत 43, 46)

 

5. आग का लिबास: क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है कि जो लोग काफ़िर हुए हैं उन के लिये आग से लिबास काट कर निकाला जायेगा और जलती और खौलती हुई एक बहने वाली चीज़ उन के सर पर डालेगी जिस की वजह से उन का ज़ाहिरी और बातिनी हिस्सा पिघल जायेगा। (सूर ए हज आयत 19, 21)

 

रूहानी अज़ाब

 

1. ग़म व दुख और हसरत: जहन्नम वाले जब भी जहन्नम के ग़म व दुख से निकलना चाहेगें उन से कहा जायेगा कि पलट जाओ और जहन्नम के अज़ाब को चखो। (सूर ए हज आयत 22)

2. लानत: जहन्नम वाले एक दूसरे पर लानत भेजेगें। (सूर ए अनकबूत आयत 25)

3. शैतान की बुराई: जहन्नम वाले शैतान से कहेगें कि तुम्हारी वजह से हम गुमराह हुए। वह जवाब देगा कि ख़ुदा ने तुम्हे सच्चा वादा दिया तुम ने कबूल न किया और मैंने झूठा वादा दिया और तुमने कबूल कर लिया। लिहाज़ा मेरे बजाए ख़ुद को बुरा भला कहो। (सूर ए इब्राहीम आयत 22)

4. जहन्नम में जाने का सबब: कुफ़्र व निफ़ाक की वजह से तो लोग जहन्नम में जायेगें ही उस के अलावा अगर कोई इबादात और वाजिबात को बजा न लाये और जिन चीज़ों से मना किया गया है उन्हे अंजाम दे वह भी जहन्नम में जायेगा। इस लिये कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है (जन्नत वाले, जहन्नम वालों से सवाल करेगें कि किस चीज़ ने तुम्हे जहन्नम में झोंक दिया? वह जवाब देगें कि हम नमाज़ी नही थे, ग़रीबों की मदद नही करते थे, बुराई करने वालों के साथ हो जाते थे और क़यामत का इंकार करते थे।) (सूर ए मुद्दसिर आयत 40, 42)

 

ख़ुलासा

 

- कुफ़्फ़ार, मुनाफ़ेक़ीन और गुनाहगार लोग जहन्नम में जायेगें।

 

- जहन्नम में बहुत से जिस्मानी और रुहानी अज़ाब होगें जो दुनिया के अज़ाब और सज़ा से क़ाबिले क़यास न होगें।

 

- जहन्नम वाले शदीद अज़ीब में रहेगें, उन के आस पास भयानक आवाज़े होगीं, जहन्नम वालों का खाना गंदा और सड़ा हुआ पानी और आग का खाना होगा और उन का लिबास आग का होना।

 

- उन का रूहानी अज़ाब यह होगा कि वह हमेशा ग़म व दुख में रहेगें, एक दूसरे पर लानत भेजेगें, इसी तरह शैतान भी उन की बुराई करेगा।

 

- कुफ़्फ़ार व मुनाफ़ेक़ीन तो जहन्नम में जायेगें ही, उन के अलावा वह लोग भी जहन्नम में जायेगें जो नमाज़ नही पढ़ते, ग़रीबों की मदद नही करते, बुरों का साथ देते हैं और क़यामत का इंकार करते हैं।

 

सवालात

 

1. जहन्नम किन लोगों के लिये है?

2. जहन्नम वालों का खाना पीना, लिबास और उन के आस पास का माहौल कैसा होगा?

3. शैतान जहन्नम वालों से क्या कहेगा?

4. क़ुफ़्र व निफ़ाक़ के अलावा जहन्नम में जाने के दूसरे असबाब क्या है?

 

 

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