आठवें इमाम हज़रत अली रज़ा बिन मूसा अलैहिस्सलाम की विलादत और शहादत के सिलसिले मे इखतेलाफ पाया जाता है। लेकिन क़ौले मशहूर के मुताबिक़ इमाम अलैहिस्सलाम बरोज़े जुम्मेरात या जुम्मा ग्यारह ज़ीक़ादा सन 148 हिज्री क़मरी को मदीने मे पेदा हुए।
हज़रत के वालिदे गिरामी हज़रत इमाम मूसा कज़िम अलैहिस्सलाम और आपकी वालदा-ए-माजिदा हज़रत नजमा खातून, मराकिश की बाशिन्दी थीं जिसे कदीम ज़माने मे अंदलिस कहा जाता था आप को तुकतम, अरवी, ख़िज़रान, सकीना, (सकन) और सम्मान के नामो से भी पुकारा जाता था, आप की कुन्नियत और लक़ब उममुन नियान था।
हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की विलादत के बाद आप को ताहैरा नाम से पुकारा जाने लगा कनीज़ की तरह इमामे मूसा कासिम अलैहिस्सलाम के घर मे दाखिल हुईं। इमामे मूसा कज़िम अलैहिस्सलाम की वालदा-ए-गिरामी फरमाती हैं:
पैग़म्बरे इस्लाम को मेने ख़्वाब मे देखा के वो मुझ से फरमा रहे थे: ऐ हमीदा, नजमा को अपने बेटे मूसा कज़िम (अलैहिस्सलाम) को बक्श दो। और उसे (आंहज़रत की ज़ोजियत में देदो)
फ़ा इन्नहू सा यलेदो मिनहा ख़ैरुन अहलिल अर्ज़े
(अनकरीब ही उन से ज़मीन पर बहतरिन इनसान पैदा होगा)
आप होशमन्दी व ज़कावत और दयानत व इबादत और खुदावन्दे सुब्हान से लो लगाने और मुनाजात व दुआओ के सिलसिले मे ज़माने की यगाना खातून थीं।
उसूले काफ़ी (मुतरजिम) 2/402, कश्फ़ुल ग़िमा 2/259,312, ऐलामुल वरी 313, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1/235, इर्शाद 2/239, उयूने अख़बारे रज़ा (अ.) 1/24 जिल्द 2 व 3, अल बिहारुल अनवार 49/2 से 8 तक, अल मनाक़िब 4/367, अल फ़ुसूलुल महिम्मह 226, अल इख़तेसास 197
शैख सुदूक और शैख मुफीद के अलावा वो दुसरे अकाबरीन ने हिशाम बिन ऐहमद (ऐहमद) के हवाले से नक़्ल किया है, कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फरमाया: क्या तुम्हें कुछ ख़बर है कि मरकिश (अन्दलिस) से कोई आया है? अर्ज़ किया नही (मुझे मालूम नहीं है) फरमाया: हाँ एक शख़्स आया है, आओ चलो मेरे साथ उस के पास चलते हैं, मरकब पर सवार हुऐ और इस आदमी तक पहुचे, देखा के एक अन्दलिसी आदमी अपने साथ कनीज़े लाया है, इमाम अलैहिस्सलाम ने उन मे से नो कनिज़ो को देखा और फरमाया: मुझे इन की ज़रूरत नही है। फिर फरमाया: और भी कोई कनीज़ है? उस ने कहा: नही, फरमाया: है तो लेकर आओ, उस ने अर्ज़ किया: नही, खुदा की क़सम मेरे पास और कोई कनीज़ नही है, मगर ये एक बिमार कनीज़ है, इमाम ने फरमाया: फिर ले कर क्यो नही आ रहे हो? उस ने ध्यान नही दिया उस बीमार कनीज़ को हाज़िर नही किया, इमाम अलैहिस्सलाम भी घर वापस आ गऐ।
फ़िर इमाम अलैहिस्सलाम ने दूसरे दिन सुबह मुझ से फरमाया: जाओ और जाकर जिस क़ीमत पर भी हो उस कनीज़ को खरीद लो, रावी कहता है: मैं उस के पास जाकर गोया हुआ उस ने भी कहा फ़लाँ क़ीमत से कम नही दूंगा मैने भी कहा जो क़ीमत चाहोगे दूंगा। उस अन्दलिस (मराकिश) आदमी ने कहा: कनीज़ तुम्हारी हुई लेकिल ये बताओ वो आदमी जो कल तुम्हारे साथ आया था वह कोन था? वह बनी हाशिम घराने का है उस ने कहा, बनी हाशिम के किस घराने और क़बीला से है मेने कहा: उन में सबसे अफज़ल में से हैं वह बोला मैं चाहता हुँ कि ज़्यादा वज़ाहत करो, मेने कहा, मुझे इस से ज़्यादा मालूम नही: इस कनीज़ के सिल्सिले में तुम्हें एक वाक़ेआ बताता हुँ, वह यह कि मैंने इस कनीज़ को मराकिश के एक दूर उफतादा इलाक़े से खरीदा है: उस वक़्त एक एहले किताब औरत ने मुझ से कहा: मुनासिब नही है कि यह तुम्हारी मिलकियत क़रार पाये, क्यों कि इस को तो इस सर ज़मीन के सबसे अफज़ल इंसान की मिलकियत मे होना चाहिए, मगर यह औरत इस के पास कुछ ही वक़्त के लिए रहेगी क्योकि इस से एक ऐसा बच्चा दुनिया मे आयेगा जो आलमे मशरिक़ व मग़रिब मे ब मिसाल होगा।
हिशाम का कहना है: मेने उस कनीज़ को हज़रत मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की खिदमत मे लाकर हाज़िर किया और आप से इमामे अली बिन मूसा अर्रज़ा अलैहिस्सलाम की विलादत हुई।
विलादत:
शैख़ सुदूक ने अली बिन मिसम और उन्होंने अपने वालिद के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहा: मेने अपनी वालिदा को कहते हुऐ सुना था कि हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की वालिदा जनाबे नजमा ख़ातून को कहते हुऐ सुना है कि जब मेरे बेटे अली (बिन मूसा अर्रज़ा) अलैहिस्सलाम मेरे बतन मे थै मेने कभी भी बोझ महसूस नही किया और सौते वक़्त (सूब्हान अल्लाह) और सद़ाये लाएलाहा इल्लल्लाह की आवाज़ कानो मे ग़ूजा करती जो वह शिक्मे मादर से पढ़ा करते और अवाज़ सुन कर मे ख़ौफ ज़दा हो जाया करती और जब सो कर उठा करती तो फिर वो आवाज़े बन्द हो जाया करती थीं।
विलादत के वक़्त इस बच्चे ने अपना हाथ जमीन पर रखा, सर को आसमान की तरफ बुलन्द किया होटों को जुमबिश दी और कलाम करना शुरू कर दिया, इसी असना में उन के वालिद मूसा बिन जाफर अलैहिस्सलाम तशरीफ लाए और मुझ से फरमाया (ऐ नजमा, खुदा की यह नेमते अज़ीम तुम्हें मुबारक हो) बच्चे को सफेद कपड़े मे लपेट कर हज़रत को सोंपा, आप ने दाऐ कान मे अज़ान और बाऐ कान मे अक़ामत कही फिर फुरात का पानी तलब किया और हलक़ को फुरात से तर किया, फिर मुझे लोटाते हुऐ फरमाया:
ख़ुज़ीही फ़ाइन्नाहू बक़ीयतुल्लाहे फ़ी अरज़ेह
(इस बच्चे को लो जो कि ज़मीन पर अल्ला की निशानी और हुज्जत है)
लक़ब:
हज़रत के अलक़ाब मे रज़ा, साबिर, रज़ी, वफी, फाज़िल और सिद्दीक़ वग़ैरा सर फ़हरिस्त है।
आप की कुन्नियत: अबुल हसन और अबु अली थी।
(उयूने अख़बारे रज़ा 1/23, बिहारुल अनवार 49/9, कश्फ़ुल ग़िमा 2/260, अल मुनाक़िब 4/366, अल फ़ुसूलुल महिम्मह 226,)
हज़रत के दौर के ख़लीफ़ा-ए-वक़्तः
हारून रशीद, मुहम्मद अमीन, और अब्दुल्लाह मामून थे।
हज़रत की उम्र: मशहूर अक़वाल के मुताबिक़ पचपन साल थी।
और सर अंजाम सफ़र के महीने के आखरी दिनों मे सन दो से तीन हिज्री क़मरी मे मामून के ज़हरे दग़ा के ज़रिऐ शहीद कर दिए गए।
आलमे आले मुहम्मद
अल्लामा तबरसी और दुसरो ने अबा सलत के हवाले से लिख़ा है कि उन्होंने कहा मुहम्मद बिन इसहाक़ बिन मूसा जाफ़र ने मेरे लिए नक़्ल किया कि हज़रत के वालिद मूसा बिन जाफ़र अलैहिस्सलाम अपने बच्चो से फरमाया करते थेः
हाज़ा अख़ुकुम अली बिन मूसा अर्रज़ा आलिमो आले मुहम्मदिन फ़स अलूहो अन अदयानेकुम वहफ़ज़ू मा यक़ूलो लकुम, फ़ा इन्नी समेतो अबी, जाफ़र बिन मुहम्मदिन ग़ैरा मर्रातिन यक़ूलो ली, इन्ना आलेमा आले मुहम्मदिन लफ़ी सुलबेका, व लैयतनी अदरकतोहु, फ़ा इन्नहु समीयो अमीरिल मोमिनीना अलीयुन
तुम्हारा यह भाई, अली बिन मूसा अल रज़ा आलमे आले मुहम्मद है, अपने दीनी मसाइल उन से दरयाफ़्त करो क्योकि मेने अपने वालिद जाफर बिन मुहम्मद को बारहा यह फ़रमाते सुना है कि ब शक खानदाने आलेमुहम्मद का आलिम तुम्हारे सुल्ब मे है काश कि मैं अपनी मौत से पहले उस से मुलाक़ात कर पाता, और देख पाता यक़ीनन वह अमीरूल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम का हमनाम है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इबादत
शैख सुदूक़ और दुसरो ने अबा सलत से नक़्ल करते हुए लिख़ा है कि उन्होंने कहा: सर खस मे उस घर के दरवाज़े पर जिस में इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम नज़र बन्द थे मैं आया और कैद़ ख़ाने के ज़िम्मेदार से दर्खास्त की कि इमाम से मुलाक़ात करना चाहता हुँ, उस ने कहा: तुम उन से मुलाक़ात नही कर सकते हो मेने पुछा, कयो ?
कहा क्योंके वो हर वक़्त नमाज़ और इबादत मे मशग़ूल रहते हैं और दिन व रात में यह नमाज़ें हज़ार हज़ार रकत भी हो जाया करती हैं बस दिन के इबतिदाई औक़ात और ज़ोहर से पहले और थोड़ा मग़रिब से पहले नमाज़ की हालत मे नहीं होते लेकिन इन खाली औक़ात में भी बारगाहे खुदा वन्दी में मुसल्ले पर बैठ कर दुआऐं और मुनाजात में मशग़ूल रहते थे।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/197 जिल्द 6, बिहारुल अनवार 49/91 जिल्द 5 सफ़्हा 170 अनवारुल बहिया 332)
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम भी अपने बाप दादा की तरह खुदा की इबादत व सताइश के शैदाई और बारगाहे खुदावन्दी में अपनी बन्दगी पर फ़ख्र किया करते थे।
शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ख़ुरासान के दौरे के मौक़े पर एक हमसफ़र और हमराह के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्होंने कहाः जब इमाम (अ.) ने एहवाज़ से रवानगी फ़रमाई तो हम लोग एक दीहात पहुंचे, वहां इमाम (अ.) नमाज़ के लिये ख़ड़े हुए और जब सज्दे में गये तो मेनें सुना कि वह सज्दे की हालत में अपने पर्वरदिगार के हुज़ूर अर्ज़ कर रहे थे।
लकल हमदो इन आतैतोका वला हुज्जता ली इन असयतोका
(ख़ुदावन्द अगर तेरी इताअत करता हूँ तो हम्दो सताइश तेरे लिये मख़सूस है, और अगर तेरी नाफ़रमानी करूं तो मेरे लिये कोई बहाना नहीं होगा और मेने और दूसरों ने तेरी बन्दगी और इताअत में कोई ऐहसान नहीं किया है और मेरे लिये कोई बहाना नहीं है और अगर बुराई की, और ग़लती का इरतेकाब किया, अगर मुझ को नेकी और भलाई नसीब हुई तो ऐ ख़ुदाऐ करीम वह सब तेरी बारगाह से नसीब हुई है, ऐ ख़ुदा दुनिया के मशरिक़ व मग़रिब में जो भी मर्द और औरते हैं, उन सब को माफ़ फ़रमा।
रावी कहता हैः हम ने काफ़ी अरसे तक हज़रत के साथ नमाज़े जमाअत पढ़ी, हज़रत हमेशा ही पहली रकअत में सूरह-ए-हम्द के बाद इन्ना अंज़लनाह और दूसरी रकअत में हम्द के बाद सूरह-ए-क़ुलहो वल्लाहो अहद पढ़ा करते थे।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/222,हाशिया 5, बिहारुल अनवार 49/116 हाशिया 1)
इसी तरह मरहूम सुदूक़ ने अबा सलत के हवाले से नक़्ल किया है कि जब हज़रत इमामे रज़ा (अ.) सनाबाद इलाक़े में पहुंचे तो हमीद के घर गये (वहीं पर हारून रशीद की भी क़ब्र वाक़े है) आप ने हमीद बिन उतबा के घर पहुंच कर नमाज़ क़ाएम की और जब सज्दे में गये तो पांच सो मर्तबा सुबहान अल्लाह कहा, जिस की तादाद मैंने ख़ुद शुमार की थी।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/167 हाशिया 1, बिहारुल अनवार 49/125 हाशिया 1)
हज़रत की तिलावते क़ुरआन पर तवज्जोहः
रजाए बिन अबी ज़हाक ने मदीने से मक्के की जानिब सफ़र में हमराही के दौरान अपनी रिपोर्ट में नक़्ल करते हुये लिख़ाः
रात के वक़्त इमामे रज़ा (अ.) क़ुरआन की बहुत ज़्यादा तिलावत किया करते थे, जब भी किसी ऐसी आयत की तिलावत करते जिसमें जन्नत या दोज़ख़ का ज़िक्र आता तो बहुत ज़्यादा गिरया करते और ख़ुदावन्दे आलम से जन्नत के हुसूल की दर्ख़ास्त करते और दोज़ख़ की आग से पनाह मांगा करते थे।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/196 बिहारुल अनवार 49/94)
यह भी रिवायत की गई है कि हज़रत हर तीसरे दिन क़ुर्बान की तिलावत पूरी किया करते थे और फ़रमाया करते थेः अगर चाहूं तो इस से कम मुद्दत में भी क़ुर्आन ख़त्म कर सकता हूँ लेकिन कोई भी ऐसी आयत नहीं कि जिस की तिलावत न की हो और उस पर ग़ौरो फ़िक्र न किया हो और इस बारे में कि यह आयत कब और केसे नाज़िल हुई है इन सब पर ग़ौर व फ़िक्र करता हूँ इस लिये हर तीन दिन बाद पूरा क़ुर्आन एक बार ख़त्म कर पाता हूँ।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/193 हाशिया 4, अल मुनाक़िब 4/360, अल बिहार 49/90, हाशिया 3, कशफ़ुल ग़िमा 2/316, आलामुल वरी 327,)
शैख़ सुदूक़ ने अपने सनद से रिवायत की है कि एक शख़्स ने हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम से अर्ज़ कियाः ख़ुदा की क़सम ख़ानदान और पदरी नसब के लिहाज़ से इस सरज़मीन पर आप से ज़्यादा शरीफ़ और नजीब कोई नहीं है, इमाम ने फ़रमायाः अत्तक़वा शर्राफ़ाहुम व ताअतुल्लाहे अहाज़नहुम (तक़वे ने उन्हें शरफ़ बख़शा ख़ुदा की इताअत और बन्दगी ने उन्हें सर फ़राज़ किया)
एक दूसरे आदमी ने हजरत से अर्ज़ कियाः (अन्ता वल्लाहे ख़ैरुन नास) ख़ुदा की क़सम आप बहतरीन इंसानों में से हैं, हज़रत ने फ़रमायाः क़सम मत ख़ाओ मुझ से अच्छा वह है इलाही तक़वे का मालिक हो और ख़ुदा की इताअत और बन्दगी में उसकी चाहत और लगाओ ज़्यादा हो, ख़ुदा की क़सम यह आयत नस्ख़ नहीं हुई है जिस में ख़ुदा वन्दे आलम फ़रमाता है। (इन्ना अकरमाकुम इन्दल्लाहे अतक़ाकुम) ख़ुदा के नज़दीक तुम में सब से मोहतरम और गिरामी वह है जिसका तक़वा सब से ज़्यादा हो।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/261, हाशिया 10, अल बिहार 49/95, हाशिया 8)
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का अख़लाक़ः
1- शैख़ सुदूक़ अपनी सनद में इब्राहीम बिन अब्बास के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्होंने कहाः
मैंने हज़रत रज़ा (अ.) की गुफ़तुगू के दौरान क के दौरान की यह नहीं देख़ा कि अपने कलाम के दौरान किसी पर ज़ुल्म करें और यह भी नहीं देख़ा कि हज़रत ने किसी की बात बीच से ही काटी हो उन्हों ने किसी भी ज़रूरत मन्द को मायूस नहीं किया और हत्तल मक़दूर उस की ज़रूरतों को पूरा किया करते थे। इसी तरह मैंने हज़रत को कभी भी किसी के सामने पैर फ़ैलाते हुए नहीं देख़ा वह अपने सामने बेठे हुए आदमी के मुक़ाबले में दीवार या किसी सहारे से टैक लगा कर नहीं बेठा करते थे। और इसी तरह कभी यह नहीं देख़ा कि किसी ग़ुलाम के साथ बद सुलूकी या बद ज़बानी की हो। इसी तरह कभी नहीं देख़ा कि हज़रत ने कभी किसी के सामने किसी जगह पर थूका हो, हज़रत को ज़ौर से हस्ते हुए नहीं देख़ा बल्कि उन की हसी में मुसकुराहट हुआ करती थी और जब अकेले होते और ख़ाने का दसतर ख़्वान लगता तो सभी ग़ुलामों, हत्ता कि चोकीदारों और जानवरों की देख़ भाल करने वाले ख़ादिम को भी दसतर ख़्वान पर अपने साथ बेठाया करते थे और काफ़ी में ज़िक्र हुआ है, कि इमाम अलैहिस्सलाम ने किसी के जवाब में जिस ने पूछा था कि उन लोगों के लिये अलग दसतर ख़्वान कयूं नहीं लगवाते ? फ़माया था कि ख़ामोश रहो सब का ख़ुदा एक है और सब के वालिदैन एक जैसे होते हैं और आमाल की जज़ा भी इंसानों के आमाल पर मुनहसिर है।
(रोज़तो मिनल काफ़ी 2/34 हाशिया 296)
हज़रत रात में बहुत कम सोया करते और ज़्यादा तर रात में सुब्ह तक जागते रहते, कसरत से रोज़े रख़ा करते और महीने में तीन दिन का रोज़ा कभी तर्क नहीं किया करते थे। (महीने के शुरु जुमेरात, महीने का आख़री बुद्ध और दरमियानी महीने का रोज़ा) वह फ़रमाया करते थेः महीने के यह तीन रोज़े पूरी दूनिया के बराबर हैं। हज़रत पोशीदा तौर पर सदक़े और एहसान व भलाई का काम ज़्यादा किया करते और उन की यह भलाई रात की तारीकी में ज़्यादा हुआ करती थी, लिहाज़ा अगर कोई यह ख़याल करे कि फ़ज़ीलत व नेकी में हज़रत की मानिन्द किसी ने किसी और को भी देख़ा है तो उस की बात की तसदीक़ व ताईद न करे।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/197, हाशिया 7, अल बिहार 49/90, हाशिया 4, कशफ़ुल ग़िमा 2/306, आलामुल विरा 327, अल मुनाक़िब 4/360)
ग़रीबो और हाजत मन्दों की हाजत रवाईः
शैख़ कलीनी और दूसरों ने मोअमर बिन ख़ल्लाद के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहाः इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम जब भी ख़ाना तनावुल फ़रमाने के लिये दसतर ख़्वान पर बेठते तो अपने पास एक बड़ा पियाला रख़ लिया करते और जो भी अच्छा ख़ाना होता उस में से उंडेल दिया करते फ़िर हुक्म फ़रमाते कि इस पियाले को ग़रीबों के हवाले किया जाये, फ़िर यह आयत तिलावत फ़रमाया करते (फ़ला अक़तहामल अक़ाबता) पस उस मोड़ से नहीं गुज़र सकते हैं। इय आयत के ज़िम्न में ज़िक्र हुआ है कि उक़बा का मतलब बन्दे का आज़ाद करना है या फ़क़्र व दंगदस्ती के मोक़े पर ख़ाना ख़िलाना है।
फ़िर इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ख़ुदा वन्दे आलम जानता है कि हर किसी में बन्दों या ग़ुलामों को आज़ाद करने की सलाहियत नहीं होती है फिर उन के लिये जन्नतमें दाख़िल होने का रास्ता क़रार दिया है ताकि मिसकीनों को ख़ाना ख़िला कर रास्ता अपना सकें।
(अल काफ़ी 2/52, हाशिया 12, अल मुहासिन 2/151, अल बिहार 49/97, हाशिया 11, अनवारुल बहय्यत 333,)
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की एक ख़ुरासानी को मददः
शैख़ कलीनी और दूसरों ने बसा बिन हमज़ा के हवाले से नक़्ल करते हुए लिख़ा है कि उन्हें ने कहाः मैं हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में दूसरे लोगों के हमराह एक बेठक में मौजूद था और लोग हलाल व हराम से मुतअल्लिक़ मसाइल इमाम अलैहिस्सलाम से दरयाफ़्त कर रहे थे अचानक एक बुलन्द क़द गन्दुमू चाहने वाला और आप के वालिद और दादा के शैदाईयों में से एक हूं, अभी सफ़रे हज से लोटा हूं, मेरे असासा और माल व असबाब गुम हो गया है, यहां तक कि घर तक पहुंचने के लिये कुछ भी नहीं बचा है अगर आप मुनासिब समझें तो मेरी कुछ मदद करें ताकि मैं अपने घर पहुंच सकूं, ख़ुदा वन्दे आलम ने मुझे नेमत अता की है वहां पर मैं दौलत मन्द आदमी हूं जब अपने वतन पहुंच जाऊंगा तो जो रक़म आप मुझे देंगे उतना ही सदक़ा और ख़ैरात मैं आप की तरफ़ से बांट दूंगा क्यों कि मैं ख़ुद ग़रीब नहीं हूं और सदक़े व ख़ैरात का मुसतहक़ भी नहीं हूं इमाम अलैहिस्सलाम ने उस से फ़रमायाः ख़ुदा की तुम पर रहमत हो, बैठ जाओ, फ़िर हाज़रीन की तरफ़ रुख़ कर के उन से गुफ़तगू करनी शुरु कर दी और जब सभी लोग चले गए और वहां सिर्फ़ हज़रत और सुलैमान जाफ़री व हेसमा और मैं रह गया तो इमाम ने फ़रमायाः मुझे इजाज़त दें मैं घर के अन्दर जाना चाहता हूं, सुलैमान ने अर्ज़ कियाः ख़ुदा वन्दे आलम आप के काम में वुसअत अता करे।
इमाम अलैहिस्सलाम घर के अन्दर तशरीफ़ ले गऐ और थोड़ी देर बाद पावस लोटो, दरवाज़ा बन्द किया और फ़रमायाः वह ख़ुरासानी आदमी कहां है? इमाम ने दाख़िल होने से पहले बस अपना हाथ ही निकाला था अर्ज़ कियाः मैं यहां हूं, फ़रमायाः यह दो सौ दीनार रख़ो और अपने ज़ादे सफ़र पर ख़र्च करो इसे तबर्रुक समझ कर रख़ो और मेरी तरफ़ से सदक़ा देने की ज़रूरत भी नहीं है, जाओ मैं तुम्हे न देखूं और तुम भी मुझे न देखना फ़िर वह आदमी चला गया सुलैमान जाफ़री ने हज़रत से अर्ज़ कियाः मेरी जान आप पर फ़िदा होः आप ने बहुत ज़्यादा करम व एहसान किया है फ़िर इस आदमी से ख़ुद को छुपाना क्यों ? हज़रत ने फ़रमायाः मैं इस बात से डरता था कि कहीं जो दरख़ास्त इस ने मुझ से की है यह इस के चहरे पर शरमिन्दगी के आसार न देख़ लूं मैं नहीं चाहता था कि वह शरमिन्दा हो क्या रसूले ख़ुदा (स.) की यह हदीस नहीं सुनी कि जिस में उन्हों ने प़रमाया है (अल मुसततेरू बिल हसानते...............) जो कोई अपनी नेकी को छुपाता है उसका सवाब सत्तर हज के बराबर है और जो कोई ख़ुले आम तौर पर गुनाह करता है वह ज़लील व ख़्वार होता है लेकिन जो कोई इस को पोशीदा रखता है उस की बख़शिश हो जाती है।
(अल काफ़ी 4/23, हाशिया 3, अल मुनाक़िब 4/360, अल बिहार 49/101 हाशिया 19)
इमाम अलैहिस्सलाम सभी लोगों हत्ता जानवरों की भी पनाह गाह थे। रवानदी औऱ इबने शहरे आशूब और दूसरों ने सुलैमान जाफ़री के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहा एक बाग़ मैं हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के साथ उन की ख़िदमत में हाज़िर थे कि अचानक एक चुड़िया आई और हज़रत के सामने आकर बैठ गई और फ़रयाद करनी शुरु कर दी वह बहुत ज़्यादा मुज़तरिब और परेशान थी हज़रत ने मुझ से फ़रमायाः यह चुड़िया कह रही है मेरे घोसले में सांप आ गया है और मेरे बच्चों को खा जाना चाहता है, तुम यह छड़ी लेकर जाओ और उस सांप को मार डालो। सुलैमान कहते हैं मेने छड़ी उठाई और वहां जाकर देख़ा तो वाक़ेअन सांप घोसले में घुस कर चुड़िया के बच्चों को खाने ही वाला था मैंने उस सांप को मार डाला।
(अल मुनाक़िब 4/334, अल बिहार 49/88, नक़्ल अज़ बसाएरुद दराजात सातवां हिस्सा बाब 14 हाशिया)
इमाम अलैहिस्सलाम की पनाह में हिरनः
शैख़ सुदूक़ और इबने शहर आशूब ने नक़्ल किया है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम अपने दौर-ए-मरू के दौरान रास्ते में फ़रवीनी या फ़ोज़ा नामी जगह पर क़याम फ़रमा हुऐ, वहां हज़रत के हुक्म पर एक हमाम तय्यार किया गया (शैख़ सुदूक़ का कहना है) कि इस वक़्त वह हमाम इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के नाम से मंसूब है। उस वक़्त वहां पर एक झरना भी था जिस का पानी कम हो चुका था आप ने हुक्म फ़रमाया कि उस की तामीर की जाऐ फ़िर उसका पानी ज़्याजा हो गया। फ़िर उसके ऊपर ही एक हौज़ बनाया गया, इमामे रज़ा (अ.) उस हौज़ में दाख़िल हुऐ, ग़ुस्ल फ़रमाया फ़िर बाहर निकले और उस हौज़ के पास नमाज़ अदा की, लोग भी वहां आये और उन्हों ने नमाज़ पढ़ी, लोग जूक़ दर जूक़ आते उसका पानी पीते और ग़ुस्ल किया करते थे और तबर्रुक के तौर पर अपने साथ भी ले जाया करते थे, आज वह झरना खान के नाम से मशहूर है और लोगों का वहां मजमा लगा रहता है।
इब्ने शहरे आशूब का कहना हैः वा रोवेया अन्नहू.......................... ऐसी हालत में जबकि हज़रत अपने असहाब के साथ उस झरने के पास बेठे हुऐ थे एक हिरन आया और हज़रत के पास पनाह हासिल की (शायद कि उस हिरन का कोई शिकार करना चाहता था, जिस ने इमाम (अ.) के पास आकर पनाह हासिल की और उसकी जान बच गई, इसी लिये हज़रत को या हज़रते ज़ामिने आहू (हिरन की जान की ज़मानत लेने वाला) कहा जाता है, इब्ने हम्माद नामी शाएर अपने अशआर में इसी बात की तरफ़ इशारा करते हुऐ कहता है।
अल लज़ी ला ज़ाबेही....................
ऐसा इमाम जिस की पनाह में हिरन पनाह हासिल करे जब कि वहां लोगों का इजतेमा हो यह वह है जिस के जद्दे बुज़ुर्गवार अली-ए-मुर्तज़ा हैं जो कि पाक व पाकीज़ा और आला मर्तबे व बावक़ार हसती हैं।
(कशफ़िल ग़ुमा 2/305, इसबातुल हिदायत 3/296, हाशिया 126, अख़बारे उयूने रज़ा 2/145, अल मुनाक़िब 4/348, अल बिहार 49/123, हाशिया 5-)
हम अपने महमान से ख़िदमत नहीं लिया करतेः
आइम्मा अतहार (अ.) का शयवाह यह था कि अपने महमानों की ख़िदमत किया करते थे, उन की ताज़ीम व तकरीम किया करते थे और महमानों को अपने लिये काम नहीं कि करने दिया करते थे। शैख़ कलीनी अपनी सनद के हवाले से नक़्ल करते हैं कि एक मर्तबा एक महमान हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के पास आया और वह इमाम के सामने बेठा फ़ुरुज़ां शमा दान के पास महवे गुफ़तुगू था, अचानक फ़ानूस बुझ गई, महमान ने अपना हाथ आगे बढ़ाया कि फ़ानूस को दोबारह से रौशन करे लेकिन इमाम (अ.) ने उस को इस काम से रोका और ख़ुद उठ कर फ़ानूस को रौशन किया और फ़रमायाः इन्ना क़ौमुन ला नसतख़देमो अज़याफ़ना (हम ऐसे घराने के लोग हैं जो अपने महमानों से काम नहीं लिया करते)
इमाम अलैहिस्सलाम ने अजनबी आदमी की मालिश कीः
इब्ने शहरे आशूब ने रिवायत की है इमाम (अ.) ग़ुस्ल करने के लिये हमाम तशरीफ़ ले गऐ एक आदमी ने जो उस हमाम के अन्दर नहा रहा था और इमाम (अ.) को नहीं पहचानता था, हज़रत से कहने लगा कि उस के बदन की मालिश कर दें, इमाम (अ.) भी उठे और उसके बदन की मालिश शुरु कर दी जब कुछ लोग हमाम में दाख़िल हुऐ और उन्हों ने हज़रत को पहचान लिया फ़िर जब उस आदमी को भी इमाम (अ.) के बारे में पता चला तो उसने हज़रत से माज़रत तलब की और शरमिन्दगी का इज़हार किया फ़िर भी इमाम (अ.) ने मालिश जारी रख़ी।
(अल मुनाक़िब 4/362, अल बिहार 49/99, हाशिया 61)
अपने एक चाहने वाले पर शिया पर महरबानीः
इब्ने शहरे आशूब मूसा बिन सय्यार के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहाः कि मैं हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में हाज़िर था और आप शहरे तूस पहुंच ने ही वाले थे कि अचानक हम लोगों ने नाला व फ़रयाद की बुलन्द आवाज़ सुनी, मैं उस आवाज़ की सिम्त बढ़ा तो एक जनाज़ा देखा, जब उस जनाज़े की तरफ़ देखा तो क्या देखा कि इमाम (अ.) अपने मरकब से उतर गऐ और उस जनाज़े को उठाने के साथ ही ख़ुद को जनाज़े से चिपका लिया जिस तरह कोई भैड़ अपने बच्चे को गोद में सटा लिया करती है, फ़िर मेरे तरफ़ रुख़ कर के फ़रमायाः या मूसा बिन सय्यारिन मन शय्येआ....................... (ऐ मूसा बिन सय्यार, जो कोई मेरे शिआ का जनाज़ा उठाऐगा, उस के गुनाह धुल जाऐंगे इस तरह जैसे कि जिस तरह बच्चा अपने माँ के बतन से ऐसी हालत में पैदा होता है कि वह बिल्कुल बे गुनाह हुआ करता है)
जब जनाज़ा ज़मीन पर रखा गया तो मैंने देखा कि मेरे मौला इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम, मय्यत की तरफ़ बढ़े, लोगों को पीछे हटाया और ख़ुद को जनाज़े तक पहुंचाया और अपना हाथ मय्यत के सीने पर रखा और फ़रमायाः ऐ फ़लां इब्ने फ़लां तुम्हें जन्नत की बशारत दी जाती है इस के बाद से तुम्हारे लिये ख़ौफ़ व हिरास नहीं पाया जाता। मैंने अर्ज़ कियाः मौला आप पर में फ़िदा हो जाऊं, क्या आप इस मुर्दा इंसान को जानते हैं ? जबकि ख़ुदा गवाह है कि पहले कभी आप यहां तशरीफ़ नहीं लाऐ थे ? फ़रमायाः मूसा इब्ने सय्यार क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि हर सुब्ह व शाम को हमारे शियों के आमाल हमारे हुज़ूर में पैश किये जाते हैं? और जब रात में हम उन के आमाल में कोई ग़लती देख़ते हैं तो ख़ुदा से दरख़ास्त करते हैं कि उन्हें माफ़ कर दे और जब कोई नेकी देखते हैं तो ख़ुदा का शुक्रिया अदा करते हैं और उस इंसान के लिये जज़ा-ए-ख़ैर तलब करते हैं।
(अल मुनाक़िब 4/341, अल बिहार 49/98, हाशिया 13, अनवारुल बहय्यत 337-)
हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने वाक़फ़िया गिरोह के एक सरकरदा के अज़ाब की ख़बर दी हज़रत इमामे मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद एक कड़वा वाक़ेआ पैश हुआ, वह गिरोह वाक़फ़िया की तशकील और उसका मारिज़ वुजूद में आना था, उन्हों ने हज़रत इमामे रज़ा (अ.) की इमामत को नहीं माना और इमामे मूसा काज़िल (अ.) की इमामत तक ही इस सिलसिले को रोक दिया, इस की एहम वजह यह थी कि उस गिरोह के सरकरदा लोग अली बिन अबी हमज़ा बताएनी, ज़ियाद बिन मरवाने क़नदी, और उसमान बिन ईसा वग़ैरा ने दुनियावी उमूर के लालच में आकर, चूंकि वह ईमामे मूसा काज़िम (अ.) के नुमाइंदे थे और बहुत सामान व असासा जमा कर रखा था, उस माल व असबाब को इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के हवाले न करने की नीयत से उन की इमामत का इंकार कर बैठे थे, इमामे रज़ा (अ.) ने ऐसे गिरोह को, मलऊन, मुशरिक, और काफ़िर क़रार दिया है और लोगों को उन की सोहबत और उन के पास उठने और बेठने से मना किया है।
शैख़ कशी ने उन्हीं में से एक सरकरदा पर जिस का नाम अली बिन अबी हमज़ा बताएनी था, अज़ाब नाज़िल होने की ख़बर को हज़रत इमामे रज़ा (अ.) से नक़्ल किया है। अब्दुल रहमान एक रिवायत नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहाः मैं इमामे रज़ा (अ.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ आप ने मुझ से फ़रमायाः क्या अली बिन अबी हमज़ा की मौत वाक़े हो गई? मैंने अर्ज़ किया हां, तो आप ने फ़रमायाः क़द दख़ालन नार बैशक दौज़ख़ में दाख़िल हुआ है। रावी कहता है, मैं यह बात सुन कर बेचैन हो गया, आप ने फ़रमायाः जान लो कि मेरे वालिद के बाद होने वाले इमाम के बारे में उस से पूछा गया तो उस ने जवाब दियाः उन के बाद मैं किसी इमाम को नहीं पहचानता हूं। फ़िर उसके बाद उस की क़ब्र पर एक ज़रबत लगाई गई जिस की वजह से उसकी क़ब्र से आज के शौले उठने लगे।
एक दूसरी रिवायत में आया है कि हज़रत इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमायाः अली बिन अबी हमज़ा को उस की क़ब्र में बिठा कर सभी आइम्मा अलैहिमुस्सलाम ने एक एक कर के पूछा, उसने सब का नाम लेकर जवाब दिया और जब मेरी बारी आई और रहा तो उस के सर पर एक ऐसी ज़रबत लगी जिसकी वजह से उसकी क़ब्र आग से भर गई।
(रिजालुल कशी 444, हाशिया 833-834, तनक़ीहुल मक़ाल 2/261, मोजिमे रिजाले हदीस 11/217-)
इब्ने शहरे आशूब माज़ंदेरानी ने इस मोज़ू को हसन बिन अली विशा के हवाले से ज़्यादा वज़ाहत के साथ नक़्ल किया है।
वह कहते हैः मेरे मौला हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने (मर्द) में मुझे तलब किया और फ़रमायाः ऐ हसन, आज अली बिन अबी हमज़ा बताएनी की मौत वाक़े हो गई है और अभी उसको क़ब्र में दफ़्न कर दिया गया है और मलाऐका उसकी क़ब्र में दाख़िल हुऐ हैं और उस से पूछा है कि मन रब्बोका? फ़ क़ाला अल्लाह (तेरा पर्वरदिगार कौन है) उसने कहा अल्लाह, फ़िर पूछा तुम्हारा नबी कौन है? जवाब दिया मुहम्मद (स.) फ़िर पूछा तुम्हारा इमाम व वली कौन है? उसने जवाब दिया अली बिन अबी तालिब, कहा उन के बाद कौन है? उसने कहाः हसन (अ.) सवाल किया गया उनके बाद कौन है? उसने जवाब दिया हुसैन (अ.) पूछा उन के बाद कौन है? कहा अली बिन हुसैन (अ.) पूछा उन के बाद कौन हैं? कहा मुहम्मद बिन अली, पूछा गया उन के बाद कौन है? कहाः जाफ़र इब्ने मुहम्मद, पूछा फ़िर उन के बाद कौन है? उसकी ज़बान लड़खड़ाई और कोई जवाब नहीं दे पाया, फ़िर पूछा गया मूसा इब्ने जाफ़र के बाद तुम्हारा इमाम कौन है? वह जवाब नहीं दे पाया और ख़ामौश रहा, पूछा गया क्या इमाम मूसा इब्ने जाफ़र (अ.) ने तुम्हें इस तरह का हुक्म दिया था? उसके बाद उन्होंने उसको आग के गुर्ज़ से मारा इस तरह कि क़यामत तलक उसकी क़ब्र में आग के शौले भड़कते रहेंगे।
रावी का कहना हैः मैं हज़रत के पास से निकल कर बाहर आया और उस दिन और तारीख़ को नौट कर के रख लिया अभी कुछ ही वक़्त गुज़रा था कि कूफ़े के एक शख़्स ने मूझे ख़त लिखा जिस में बताएनी के मौत की ख़बर का ज़िक्र किया गया था और जो दिन व तारीख़ मैंने लिखी थी वोह ही थी जिस को इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने बताया था।
(अल मुनाक़िब 4/337, अल बिहार 49/58,)
हज़रत इमामे मूसा काज़िल (अ.) ने उस के पहले फ़रमाया थाः मन ज़लामा इब्नी............. (जो कोई मेरे इस फ़र्ज़न्द के हक़ में ज़ुल्म करेगा और मेरे बाद उसकी इमामत का मुनकिर होगा (जैसा कि फ़िर्क़-ए-वाक़फ़िया ने किया) वह ऐसा होगा जिसने कि अली इब्ने अबी तालिब के हक़ में जफ़ा किया होगा और रसूले ख़ुदा के बाद उन की इमामत का इंकार किया होगा।
(उसूले काफ़ी 3/102, ज़ीला/हाशिया 61, कशफ़ुल ग़िमा 2/272, उयूने अख़बारे रज़ा 1/40, हाशिया 29, किताबुल ग़ीबत 25)
ज़ालिम हुकूमत के बारे में हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का नज़रया
सुलैमान जाफ़री का कहना हैः मैंने इमामे रज़ा (अ.) से पूछा सितमगर (हारून) जैसे ताग़ूत के लिये काम करने के सिलसिले में आप का क्या नज़रया है? तो इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमायाः या सुलैमानो, अद्दुख़ूलो फ़ी आमालेहीम वल ओनो लहुम.......... (ऐ सुलैमान) उन के कामों में शरीक होना, उन की मदद करना और उन की ज़रूरीयात को फ़राहम करने में उन का साथ देना और कोशिश करना, कुफ़्र के बराबर और हम पल्ला है और उन की तरफ़ ज़्यादा ग़ौर करना और उन पर भरोसा करना, यह भी गुनाहे कबीरा में से है जिस की सज़ा दोज़ख़ की आग है।
(वसाइले शिया 12/138, हाशिया 12, नक़्ल अज़ तफ़सीरे अयाशी 1/238)
शैख़ तूसीः शैख़ कलीनी और दूसरों ने हलन बिन हुसैन अनबारी (एक शिया) के हवाले से नक़्ल करते हुऐ लिख़ा है कि उन्हों ने कहाः मैंने हज़रत इमामे रज़ा (अ.) को एक ख़त रवाना कर के अपने काम का तरीक़ा बयान करते हुऐ फ़रीज़ा मालूम करना चाहा और लिख़ा मैं हुकूमते अब्बासी के दरबार में मुलाज़िम हूं और मुझे अपनी जान का ख़तरा है, क्यों कि वोह मुझे कहते हैं कि मैं राफ़ज़ी हूं और ख़लीफ़ को भी इस बात का पता चल गया है, इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने ख़त के जवाब में तहरीर फ़रमायाः तुम्हें जो ख़ौफ़ व ख़तरा है उस से बाख़बर हुआ, अगर तुम जानते हो कि जो मुलाज़ेमत तुम ने इख़तियार कर रख़ी है, और काम कर रहे हो, और यह ऐसा काम है जिस की ताकीद व सिफ़ारिश रसूले ख़ुदा ने फ़रमाई है और तुम्हारे इस काम से तुम्हारे हम मसलक शियों की मदद होती है, और तुम्हें जो कुछ नसीब होता है उस से दूसरों की भी मदद होती है, इस तरह कि तुम ख़ुद को उन में से एक क़रार देते हो तो इस तरह के उमूर की अंजाम देही ज़ालिम ओर सितमगर के दरबार में काम करने की बुराई को दूर कर देती है और अगर ऐसा नहीं है तो ज़ालिम व सितमगर के यहां काम करने की इजाज़त नहीं है।
(अल काफ़ी 5/111, हाशिया 4, तहज़ीबुल एहकाम 6/335, हाशिया 49, वसाइले शिया 12/145, बाब हाशिया 1/48,)
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम और हारून की हुकूमत का ज़माना
जैसा कि ज़िक्र किया गया है हज़रत इमामे रज़ा (अ.) का दौर 183 हिज्री से शुरू हुआ और 203 हिज्री में ज़हरे तग़ा से शहीद किये जाने के बाद इख़तेताम पज़ीर हुआ, हज़रत ने अपनी इस बीस बरस की मुद्दत को सतराह साल मदीने में और तीन साल मरू में गुज़ारी, हज़रत की इमामत के दस साल हारून रशीद के दौरे हुकूमत व सलतनत में और पांच साल लईन और पांच साल मामून के दौरे ख़िलाफ़त में गुज़ारे।
इमामे रज़ा (अ.) ने अपने वालिदे बुज़ुर्ग वार के बाद अपनी इमामत को ज़ाहिर किया और हारून रशीद के सिलसिले में अपने वालिदे बुज़ुर्ग वार की हिकमते अमली और को जारी रख़ा वह इस दस साला दौर में हारुन रशीद की ईज़ा रसानीयों से महफ़ूज़ न थे।
इमामे रज़ा (अ.) को शहीद करने की हारून की साज़िशः
शैख़ सुदूक़ अपनी सनद के हवाले से नक़्ल करते हैं कि जब हारून रक़्क़ा से जानिबे मक्का रवाना हो रहा था तो ईसा बिन जाफ़र ने उस से कहा याद करो उस क़सम को जो तुम ने ख़ाई थी कि मूसा बिन जाफ़र के बाद आले अबी तालिब में जो कोई भी इमामत का दावा करेगा उस को क़त्ल कर दिया जायेगा और अब मूसा बिन जाफ़र के बेटे अली ने इमामत का दावा कर दिया है और उन के शिया भी उन के सिलसिले में वही अक़ीदा रख़ते हैं जो उन के वालिद के सिलसिले में रख़ते थे हारून ने ग़ज़ब आलूद निगाहों से देखा और कहाः मा तरा तोरीदो अन अक़तोलहुम कुल्लोहुम......... तुम क्या चाहतो हो क्या मैं उन सब को मार डालूं?
(अख़बारे उयूने रज़ा 2/245, हाशिया 3, अल हिजार 49/113, हाशिया 1)
इस रिवायत से पता चलता है कि इमामे मूसा अल काज़िम (अ.) को शहीद करने के बाद हारून रशीद पर किस क़दर अवामी दबाओ था हालां कि जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया है उस ने अपनी मंसूबा बंदी के ज़रीये इस तरह ज़ाहिर किया कि इमाम मूसा काज़ीम (अ.) रहलत फ़ितरी थी लेकिन लोगों को हज़रत की शहादत के बारे में पता चल गया और हारून को भी अवाम के बा ख़बर होने से आगाही थी इस लिये दूसरे जुर्म का इरतेकाब नहीं करना चाहता था और यह भी नक़्ल किया जाता है कि जब याहया बिन ख़ालिद बरमकी ने हारून से कहाः यह अली (मूसा बिन जाफ़र) के बेटे हैं जिन्हों ने अपने वालिद की जगह ले रखी है और इमामत का दावा कर रहे हैं (वह हारून को इमामे रज़ा (अ.) के ख़िलाफ़ भड़का रहा था) हारून ने कहाः मा यकफ़ीना मा सनाआना बे अबीहे? हम ने जो कुछ इन के वालिद के साथ किया और उन्हें क़त्ल कर दिया क्या यह काफ़ी नहीं है? क्या तुम यह चाहते हो कि हम इन सब को मार डालें?
(अख़बारे उयूने रज़ा 2/246, हाशिया 4, अल बिहार 49/113, हाशिया 2, इसबाते वसीयह 388, अल मुनाक़िब 4/369, अल फ़ुसूलुल महिम्मा 227, इसबाते हिदायत 3,313)
शैख़ सुदूक़ इस रिवायत के ज़ैल में कहते हैः बरमकीयों के दिल में ऐहले बैते रसील (स.) की निसबत दिल में बहुत ज़्यादा बुग़्ज़ व हसद था वह ख़ुल कर अपनी दुशमनी का इज़हार किया करते थे। यही वजह थी कि हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने अर्फ़े के दिन उन पर लानत भेजी और ख़ुदा ने बरमकीयों की बुनयाद ही ख़त्म कर दी थी और वह ज़लील व ख़्वार हो कर रह गये यही याहया बरमकी था जिसका हाथ इमामे मूसा काज़िम (अ.) की शहादत में था। शैख़ कशी अब्दुल्लाह ताऊस से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहाः मैं ने इमामे रज़ा (अ.) से अर्ज़ कियाः क्या याहया बिन ख़ालिद ने आप के वादिल मूसा बिन जाफ़र (अ.) को ज़हर दिया था? फ़रमायाः हां उसने तीस अदद ज़हर आलूद ख़ुरमे उन्हें दी थीं।
(रिजालुल कशती 604, हाशिया 1123, अल बिहार 49/66, हाशिया 86, कशफ़ुल ग़िमा 2/303)
हारून उन से 189 हिज्री में बदज़न हुआ, उन के इक़तेदार के ख़िलाफ़ हो कर उन पर टूट पड़ा और उन की बुनियादों को उख़ाड़ फ़ेका।
हारून रशीद ने इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को बुलाया मगर
सैय्यद इब्ने ताऊस हज़रत इमामे रज़ा (अ.) के हवाले से दुआ को नक़्ल करते हुऐ कहते हैः अबा सलत हरवी के हवाले से नक़्ल किया गया है कि उन्हों ने कहाः हज़रत इमामे रज़ा (अ.) अपने घर में बेठे हुऐ थे कि हारून रशीद का क़ासिद आया और बोला ऐ अबा सलत हारून रशीद ने इस वक़्त मुझे बुलाया है उस का मक़सद मुझे नुक़सान पहुंचाना है। लेकिन ख़ुदा की क़सम वह मुझे नुक़सान नहीं पहुंचा सकता और ऐसी हरकत अंजाम नहीं दे सकता जो मुझे न पसंद हो क्यों कि मेरे जद्दे आला की दुआऐं मेरे साथ हैं जो उन्हों ने मेरे हक़ में की थीं।
अबा सलत का कहना हैः मैं हज़रत के साथ ही था और हम लोग हारून रशीद के पास हाज़िर हुऐ हज़रत इमामे रज़ा (अ.) हारून की तरफ़ देखा और वह दुआ जो नहजुल दावात में तफ़सील से मौजूद है पढ़ी, जब हारून रशीद के रुबरु हुऐ तो हारून ने हज़रत की तरफ़ देखा और बोलाः ऐ अबुल हसन मैंने हुक्म दिया है कि आप को एक लाख़ दिरहम दिये जायें आप अपने ऐहले ख़ाना की ज़रूरीयात को तहरीर कर दें और जब हज़रत वहां से निकलने लगे तो हारून ने हज़रत की तरफ़ देखा और बोलाः अरदतो व अरादल्लाहो, वमा अदारल्लाहो ख़ैरुन
मुझे क्या करना था और क्या किया और ख़ुदा ने कुछ और ही चाहा था और जो कुछ ख़ुदा चाहता है अच्छा ही होता है।
(नहजुल दावात /85, अल बिहार 49/116, इसबाते हिदायत 3/308, हाशिया 171,)
हारून मुझे कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकता
कई रिवायतों से पता चलता है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः हारून मुझे कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकता।
1- शैख़ कलीनी अपनी सनद के हवाले से सफ़वान बिन याहया से नक़्ल करते हैं कि जब मूसा बिन जाफ़र (अ.) का इंतेक़ाल हो गया तब इमामे रज़ा (अ.) ने अपनी इमामत के सिलसिले में बात उठाई हमें हज़रत के सिलसिले में ख़ौफ़ लाहक़ था लिहाज़ा हज़रत से अर्ज़ किया गया कि आज आप ने बहुंत बडा क़दम उठाया है और हमें इस ज़ालिह सितमगर बादशाह की तरफ़ से डर मेहसूस हो रहा है हज़रत ने फ़रमायाः वह जितनी ही चाहे कोशिश कर ले मुझ तक उस की रसाई नहीं हो सकती (वह मुझे कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकता है)
अल काफ़ी मुतरजिम 2/404, हाशिया अल मुनाक़िब 4/340, कशफ़ुल ग़िमा 2/273, 315, अल इर्शाद 2/2246, अल बिहार 49/115, हाशिया 6, अल फ़ुसूलुल महिम्मा 247,
2- एक दूसरी रिवायत में मज़कूर है कि मुहम्मद बिन सना कहते हैं हारून रशीद के दौराने ख़िलाफ़त मैंने इमामे रज़ा (अ.) से अर्ज़ किया आप ने अम्रे इमामत में ख़ुद को मशहूर कर दिया है और अपने पिदरे बुज़ुर्ग वार की जगह हासिल कर ली है व कैफ़ा हारूना यक़तोरुद दमा जब कि हारून की तलवार से ख़ून टपक रहा है। यानी हमें डर है कि कहीं हारून आप को भी न क़त्ल कर डाले। हज़रत ने फ़रमायाः जिस बात ने मुझे निडर बना दिया है वह रसूले ख़ुदा का वह क़ौल है जिसमें उन्हों ने यह फ़रमाया है कि अगर अबू जहल मेंरे जिस्म के रुऐं को भी नुक़सान पहुंचाने में कामयाब हो गया तो जान लेना कि मैं पैग़म्बर नहीं हूं, और मैं तुम्हे कहता हूं किः इन अख़ाज़ा हारूनो मिन रासी शअरतन फ़शहदू इन्नी लसतो बे इमामिन (अगर हारून ने मेरे सर का एक बाल भी बांका कर दिया तो तुम गवाह रहना कि मैं इमाम नहीं रहूंगा)
(अर्रोज़तो मिनल काफ़ी 2/70, हाशिया 371, अल बिहार 49/115, हाशिया 7, अल मुनाक़िब 4/339, इसबाते वसीअत 386/388, इसबाते हिदायत 3/253, हाशिया 23)
हारून रशीद के दौरे ख़िलाफ़त में इमाम मुशकिलों में घिरे थे
शैख़ सुदूक़ और दूसरों ने एहमद बिन मुहम्मद बिन अबी नस्र बज़नती से नक़्ल करते हुऐ लिखा है कि मैं इमामे मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद हज़रत रज़ा (अ.) की इमामत में वाक़फ़िया गिरोह के ग़लत प्रोपोगंडे की वजह से शक में पड़ गया, मैंने हज़रत को एक ख़त तहरीर किया और मुलाक़ात करने की इजाज़त तलब की फ़िर मैंने अपने ज़हन में तीन सवाल तैयार किये ताकि हज़रत से तीन आयतों के बारे में पूछूंगा हज़रत की तरफ़ से ख़त का जवाब आया जिस में उन्हों ने तहरीर फ़रमाया था ख़ुदा वन्दे आलम हमें और तुम्हें आफ़ीयत अता फ़रमाऐ।
अम्मा मा तलबता मिनल इज़ने अलय्या, फ़इन्नद दुख़ूला एलय्या साबुन.........
और मेरे पास आने और मुलाक़ात करने की तरख़ास से बारे में तुम्हें बता दूं कि फ़िलहाल मेरे पास आना मुशकिल अम्र होगा क्यों कि लोगों से मनुलाक़ात करने के सिलसिले में हारून के सितमगर दरबार की तरफ़ से मुझ पर सख़तियां और पाबंदियां आएद की जा रही हैं और मुसतक़बिल में अगर ख़ुदा ने चाहा तो यह परेशानियां ख़त्म हो जाऐंगी।
बज़नती का कहना हैः इसी ख़त में मेरे सवालों का जवाब भी दे दिया जबकि ख़ुदा की क़सम मैंने अपने मजूज़ा सवालों को उन के पास लिख कर भी नहीं भेजा था, मैंने इस बात पर हैरत का इज़हार किया और फ़िर हज़रत की हक़्क़ानियत के सिलसिले में मेरा शक व शुबह दूर हो गया।
(उयून अख़बारे रज़ा 2/229, हाशिया 18, अल मुनाक़िब 4/326, अल बिहार 49/36, हाशिया 17)
मज़कूरा रिवायत से पता चलता है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को उन के वालिद की शहादत के बाद नज़र बन्द रखा गया था और उन लोगों पर जो हज़रत से मुलाक़ात करने आया करते थे मुहाफ़ीज़ों के ज़रीये कड़ी नज़र रखी जाती थी और उन्हें तरह तरह से सताया जाता था।
अमीन के दौरे ख़िलाफ़त में इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम
हारून रशीद लानतुल्लाह अलैह ने ज़ुबेदा के बतन से पैदा होने वाले अपने बड़े बेटे अमीन को अपना वली एहद मुक़र्र कर के अपनी ज़िनदगी में ही लोगों से उस के लिये बेअत करा ली थी और अब्दुल्लाह मामून को जो कि ईरानी कनीज़ मेराजिल के बतन से दूसरा बेटा था अपना दूसरा जानशीन वली एहद मुक़र्र किया।
उस के बाद हारून 193, हिज्री में अपने बेटे मामून के साथ ख़ुरासान रवाना हो गया ताकि वहां मुख़ालेफ़ीन को सरकूब कर सके और सरअंजाम उसी साल वहीं पर चल बसा और ख़ुरासान में दफ़्न कर दिया गया मसऊदी का कहना है, कि जब वह मरा तो उसकी उम्र 44 साल और 4 महीने थी उसने तीस साल छे महीने ख़िलाफ़त की, लेकिन याक़ूबी का कहना है उसकी मौत जमादीउल अव्वल 193 में चासील साल की उम्र में हुई।
(तारीख़े याक़ूबी 2/443)
इस मुद्दत के दौरान अमीन से इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को कोई नुक़सान नहीं नहीं पहुंचा वह मदीने में आज़ाद थे। उन्हें शागिर्दों की तरबियत का बहतरीन मोक़ा मिल गया और शियों के उमूर की देख भाल की।
इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमाया मामून अमीन का क़त्ल करेगा
शैख़ सुदूक़ने हुसैन बिन बशार के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहा कि हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया यक़ीन जानो कि अब्दुल्लाह मुहम्मद का क़त्ल करेगा, मैंने हज़रत से अर्ज़ किया क्या हारून का बेटा मुहम्मद बिन हारून को मार डालेगा? फ़रमायाः हां अब्दुल्लाह जो कि ख़ुरासान में है बग़दाद में मौजूद मुहम्मद बिन ज़ुबेदा का क़त्ल कर देगा (इमामे रज़ा के इस इर्शाद के बाद) पता चला कि अब्दुल्लाह ने मुहम्मद अमीन का क़त्ल कर दिया।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/226, हाशिया 12, कशफ़ुल ग़िमा 2/314, आलामुल वरा 323, अल मुनाक़िब 4/335, अल फ़ुसूलुल महिम्मा 329, इसबाते हिदायत 3/266, हाशिया 50,)
मामून के ज़माने में इमामे रज़ा अलैहिस्साम
अब्बादुल्लाह ने अपने भाई मुहम्मद अमीन का क़त्ल 198 हिज्री में किया था और ख़ुद ख़ुरासान में सातवें अब्बासी ख़लीफ़ा के उनवान से ख़ुरासान में तख़्त नशीन हुआ, लेकिन उसे अपनी हुकूमत का दवाम परेशान किये हुऐ था।
एकः- इमाम के पैरो कारों और अलवियों ने उसे तसलीम नहीं किया था और कुछ इलाक़ों में तो ऐलानिया मुख़ालेफ़त भी हो रही थी।
दोः- अब्बासी भी मामून के ख़िलाफ़ थे क्यों कि उसने अपने भाई अमीन का सर क़लम कर के नेज़े पर बुलन्द किया था जबकि अब्बासी, अमीन को ही अपना वलीएहद मानते थे और ज़ुबेदा के बेटे अमीन को जिस की मां अब्बासीयों में मशहूर थी, मामून पर फ़ौक़ीयत देते थे।
तीनः- अरब लोग भी अपने अरबी ताअस्सुब की वजह से मामून की ज़ेरे क़यादत जाने को तैयार नहीं थे क्योंकि वह देख रहे थे कि मामून ईरानीयों के ज़्यादा क़रीब आ गया है और उसका मुरब्बी और मोअल्लिम फ़ज़्ल बिन सहल बन गया है जोकि ईरानी है और वह मामून के दरबार में वज़ीरे आज़म और साथ में फ़ौज का कमांडर भी है।
चारः- ईरानी लोग ख़ास तौर पर ख़ुरासान के लोग ऐहले बैत अलैहिमुस्सलाम के शैदा और दोस्त थे जबकि मामून ख़ानदाने ऐहले बैत अलैहिमुस्सलाम का दुशमन और शदीद मुख़ालिफ़ था, इस लिये अवाम के दौरान कोई मक़बुलियत और मक़ाम व मंज़िलत हासिल नहीं कर सकता था, यह अम्र और दूसरे उमूर सबब बने कि मामून कोई रास्ता निकाले उसकी नज़र में बहतरीन रास्ता यही नज़र आया कि हज़रत इमामे रज़ा (अ.) को मदीने से बुलाऐ ताकि शियों और ख़ास कर अलवियों की तवज्जोह को मरकज़े ख़िलाफ़त की जानिब मबज़ूल कराऐ।
दूसरी बात जिसका ज़िक्र ज़रूरी है यह है कि हालांकि मामून यह दिखावा किया करता था कि वह इमामे रज़ा (अ.) का चाहने वाला और उन शिया है, इसी लिये हज़रत इमामे रज़ा (अ.) को अपनी ख़िलाफ़त और वलीएहदी की तजवीज़ भी पैश की लेकिन हक़ीक़त यह है कि इन सब का मक़सद उवामुन नास, ख़ुसूसन ऐहले बैत अलैहिमुस्सलाम के मानने वालों की तवज्जोह को अपनी जानिब कराना था। क्यों कि मामून के तारीख़ी वाक़ेआत इस बात की निशान देही करते हैं कि यह सब कारावाईयां दिखावे की थीं, वह मामून जिस ने ख़िलाफ़त व सलतनत को दांतो से पकड़ रखा हो और उसी ज़िम्न में अमीन को मौत के घाट उतार दिया हो, और उसका सर क़लम कर के नोके नेज़ा पर बुलन्द किया हो ताकि दूसरे लोग इबरत हासिल करें वह लोगों को हुक्म देता है कि अमीन पर लानत भेजें, ऐसा आदमी क्यों कर ख़िलाफ़ इमामे रज़ा (अ.) के हवाले कर देता?
जी हां मामून एक सियासी आदमी था वह ख़ुद को शिया ज़ाहिर करता था, इसी लिये मरहूम अरबली जैसे कुछ दानिशवरों ने मामून के हाथों इमामे रज़ा (अ.) की शहादत को बईद क़रार देते हुऐ इस बाबत इंकार किया है और शैख़ मुफ़ीद की राय पर नुकता चीनी भी की है जिसे हम बाद में बयान करेंगे।
(कशफ़ुल ग़िमा 2/282)
मामून की इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को दावत
मामून अपने मक़सद को हासिल करने की ख़ातिर इमामे रज़ा (अ.) को दावत देकर ज़्यादा ही बुलाया करता लेकिन इमामे रज़ा (अ.) क़बूल नहीं फ़रमाते थे लेकिन मामून भी पीछा छोड़ने वालों में से नहीं था सरअंजान इमाम अलैहिस्सलाम ख़ुरासान की जानिब रवाना होते हैं।
मसऊदी ने लिखा है मामून ने दूसरी मर्तबा इमाम (अ.) को ख़त लिखा और उन्हें क़सम दी कि ख़ुरासान के लिये निकल पड़ें मामून ने अपने आदमियों को हुक्म दिया कि रजा बिन अबी ज़ह्हाक की सरबराही में एक दस्ता इमाम (अ.) को बसरा ऐहवाज़ और फ़ारस होते हुऐ ख़ुरासान लेकर आयेगा।
मामून का मक़सद यह था कि इमाम (अ.) कूफ़ा और क़ुम जैसे शिया बाशिनदेगाम वाले शहरों से उबूर न करें क्यों कि उसे यह ख़ौफ़ लाहक़ था कि लोग इन शहरों में इमाम का वालेहाना और पुर जौश ख़ैर मक़दम करेंगे और हो सकता है कि इन के साथ शामिल हो कर उस के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दें।
मदीना छोड़ते वक़्त क़बरे पैग़म्बर पर हाज़री
मदीना छोड़ कर ख़ुरासान की जानिब रवाना होने के मोक़े पर इमाम रज़ा (अ.) के ग़मो अनदोह का कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता था।
1- शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में महहूल सजिसतानी से नक़्ल करते हुऐ लिखा है कि उन्हों ने कहाः जब हज़रत को मदीने से ख़ुरासान की जानिब तलब किया गया तब मैं वहीं पर मोजूद था हज़रत मस्जिदे नबवी में दाख़िल हुऐ ताकि अपने जद्दे अमजद रसूले अकरम (स.) को अलविदा कहें उन्हों ने कई मर्तबा ख़ुदा हाफ़िज़ी की और हर मर्तबा क़बरे रसूल (स.) की तरफ़ जाते और व यालू सोतहू बिल बुकाऐ वन नहीबे हर मर्तबा उन के गिरया करने की आवाज़ बुलन्द हो जाया करती थी मैं हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और सलाम किया उन्हों ने सलाम का जवाब दिया मैंने हज़रत के दौराऐ ख़ुरासान पर मुबारक बाद पैश की।
फ़क़ाला ज़रनी (ज़ुरनी) फ़इन्नी उख़रजो मिन जवारे जद्दी...........................
फ़रमाया मुझे अकेला छोड़ दो, और फ़रमायाः मुझ से मुलाक़ात करो, यह सच है कि मुझे अपने जद्दे बुज़ुर्गवार की सरज़मीन से लेजाया जा रहा है और मैं दयारे ग़ैर में दुनिया से रुख़सत हुंगा और हारून की बग़ल में दफ़्न हुंगा।
रावी कहता हैः मैं भी हज़रत के साथ चल पड़ा और उस वक़्त तक साथ रहा जब हज़रत ने इस दारे फ़ानी को विदा किया और तूस में हारून की बग़ल में सुपुर्दे ख़ाक हुऐ।
मेरे लिये गिरया व ज़ारी करो
वह हसन बिन अली व शाए के हवाले से यह भी नक़्ल करते हैः कि उन्हों ने कहा इमामे रज़ा (अ.) ने मुझ से फ़रमाया जब मुझे मदीने से ख़ुरासान ले जाना चाहते थे तब मैंने अपने ऐहले ख़ाना को बुला कर कहाः जमाअतो अयाली फ़अमरतोहुम अन यबकू.................. मैंने अपने घर वालों को बुला कर कहा मेरे लिये इस क़दर रोयें ताकि मैं सुन सकूं फ़िर उन के दर्मियान बारह हज़ार दीनार तक़सीम किये और कहाः अम्मा इन्नी ला अरजेओ इला ऐयालेही अबादा (जान लो कि अब मैं अपने घर वालों की तरफ़ हर गिज़ लोट करर नहीं आ सकता) जी हां इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया मुझ पर गिरया व ज़ारी करो लेकिन जब आप के मज़लूम जद्दे आला इमामे हुसैन (अ.) अपने जवान बेटे के सरहाने तशरीफ़ लाऐ और .....सुना कि औरतें गिरया व ज़ारी कर रही हैं तो जाकर उन को चुप किया और फ़रमायाः उसकुतना फ़इन्नल बुकाआ अमामाकुन्ना (चुप हो जाओ कि अभी रोना बाक़ी है) और दूसरी जगह अपनी लख़ते जीगर सकीना से फ़रमाया मेरी बच्ची अपने आसूओं से अपने बाप का सीना छलनी न करो।
(मसाऐबुल ओलिया 1/399)
ख़ाना-ए-काबा के आख़री दीदार के मोक़े पर बाप का ख़ुदा हाफ़िज़ी और रुख़सत के वक़्त इमामे जवाद अलैहिस्सलाम का रद्दे अमल
मसऊदी और मरहूम अरबली उमय्या बिन अली के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहा उसी साल जब हज़रत ख़ुरासान के लिये रवाना हुऐ मैं हज के मोक़े पर हज़रत के साथ मौजूद था, उस वक़्त इमामे रज़ा (अ.) के साथ उन के फ़र्ज़नद इमामे जवाद भी हाज़िर थे, हज़रत ने ख़ाना-ए-काबा से ख़ुदा हाफ़िज़ी की तवाफ़ किया और मक़ामे इब्राहीम में नमाज़ अदा की और इमामे जवाद अलैहिस्सलाम ख़ादिम के दौश पर थे और वह भी तवाफ़ कर रहे थे, उसके बाद इमाम (अ.) हुज्र-ए-इसमाईल के पास आये, वहां बेठे और ज़्यादा देर तक बेठे रहे। खादिम ने अर्ज़ किया मेरी जान आप पर क़ुर्बान हो आप ऊठ जाईये फ़रमाया मैं यहां से तब तक ऊठना नही चाहता जब तक कि ख़ुदा न चाहे, उस वक़्त हज़रत के चेहरे पर रंज व ग़म के आसार नुमायां थे। (व असतबाना फ़ी वजहिल ग़म) ख़ादिम हज़रत के पास आऐ और अर्ज़ किया आप पर फ़िदा हो जाऊं अबू जाफ़र (अ.) हुज्र-ए-इसमाईल में बेठे हैं और वहां से उठ नहीं रहे हैं इमामे रज़ा (अ.) अपनी जगह से उठे और फ़र्ज़नद की तरफ़ आये और फ़रमायाः ऐ मेरे हबीब उठ जाओ (क़ाला कैफ़ा अक़ूमो व क़द वद्दअतल बैता........ ) अर्ज़ किया में केसे यहां से उठ जाऊं जब कि आप ने ऐसी हालत में ख़ाना-ए-काबा से ख़ुदा हाफ़िज़ी की और अलविदा किया कि अब दोबारह लोट कर नहीं आयेंगे।
फ़िर इमाम (अ.) ने फ़रमाया मेरे हबीब उठ ख़ड़े हों और हज़रत जवाद अलैहिस्सलाम वालिद की इताअत में उठ ख़ड़े हुऐ।
कशफ़ुल ग़िमा 2/362, इसबाते वसीअत 392, हाशिया 29, अल बिहार 49/120, हाशिया 61/50/63/40,
इमामे जवाद अलैहिस्सलाम को रसूले ख़ुदा (स.) के हवाले किया गया
मसऊदी ने लिखा है कि जब इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपने ऐहलो अयाल से फ़रमाया कि मुझ पर गिरया व ज़ारी करो उसके बाद इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को मस्जिदुन नबी में लेकर आये उनका हाथ क़ब्रे रसूल (स.) पर रखा और ख़ुद को क़ब्रे रसूल (स.) पर गिरा दिया और पैग़म्बरे इस्लाम से दरख़ास्त की कि इमामे जवाद (अ.) की हिफ़ाज़त फ़रमायें इमाम मुहम्मद तक़ी ने अपने वालिद से अर्ज़ किया ऐ बाबा जान ख़ुदा की क़सम आप अपने रब की तरफ़ जा रहे हैं इमाम रज़ा (अ.) ने अपने सभी वकीलों को हुक्म दिया कि इमामे मुहम्मद तक़ी (अ.) का हुक्म मानें आप ने फ़रमाया इन की इताअत करें और इन की मुख़ालेफ़त न करें अपने भरोसे के शियों की मौजूदगी में हज़रत ने इमामे मुहम्मद तक़ी की इमामत और अपनी जानशिनी का ऐलान फ़रमाया। उसके बाद जैसा कि मामून ने हुक्म जारी किया था बरसा के रास्ते ख़ुरासान के लिये रवाना हुऐ।
मर्व की जानिब इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की रवानगी और क़ुम आमद
बहर हाल इमाम (अ.) ने मामून के बहुत ज़्यादा इसरार और दबाओ में आकर मदीने से मर्व की तरफ़ रवानगी फ़रमाई। मरहुम सुदूक़ और कलीनी ने जो रिवायत नक़्ल की है उस से पता चलता है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का मक़सद सफ़र और हरकते बसरा ऐहवाज़ और फ़ारस होते हुऐ नीशापूर था लेकिन सैय्यद अब्दुल करीम बिन ताऊस मुतवफ़्फ़ी 693 हिज्री क़म्री ने फ़रहातुल ग़रा में नक़्ल किया है इमामे रज़ा (अ.) शहरे क़ुम में दाख़िल हुऐ और क़ुम के लोगों ने आप का वालेहाना इसतक़बाल किया हर कोई यह चाहता था कि इमामे रज़ा (अ.) उन के मेहमान बनें मगर हज़रत ने फ़रमाया मेरा नाक़ा यह ज़िम्मेदारी अंजाम देगा वह जहां रहेगा में वहां क़याम करूंगा फ़िर हुआ यह कि नाक़ा एक घर के दरवाज़े पर आकर रुका और वहीं बेठ गया उस घर के मालिक ने एक दिन पहले रात में ख़्वाब देखा था कि हज़रत इमामे रज़ा (अ.) कल उसके मेहमान होंगे फ़िर क्या था देखते ही देखते वह जगह अज़ीम व शान ज़ियारत गाह बन गई और मरहूम मोहद्दिस क़ुम्मी का कहना है कि वह जगह हमारे ज़माने में एक आबाद जगह और मदरसा बन गई।
उसूले काफ़ी 2/407, हाशिया 7, उयूने अख़बारे रज़ा 2/161, मुनताहिल आमाल 2/190,
अलबत्ता मरहूम सुदूक़ और कलीनी ने लिखा है कि मामून ने इमामे रज़ा (अ.) से कहा था कि जबल और क़ुम के रास्ते से सफ़र न करें।
इमामे रज़ा (अ.) निशापूर में दाख़िल हुऐ और वहां लोगों ने उन का पुर जोश ख़ैर मक़दम किया इस जगह के आलिमों ने इमामे रज़ा (अ.) से हदीस नक़्ल करने की दरख़ास्त की और इमाम (अ.) ने भी उन की दरख़ास्त के जवाब में सिलसिलातुज़ ज़हब की हदीस बयान फ़रमाई जो कि किताबे अरबाईन ओलिया में दर्ज है।
तारीख़े याक़ूबी में भी ज़िक्र है कि हज़रत को बसरा के रास्ते लाया गया और वह मर्व में दाख़िल हुऐ और किताब के ज़मीमे में ज़िक्र है कि हमेदान व क़ुम को बसरा का और कूफ़े का रास्ता कहा जाता है।
(तारीख़े याक़ूबी 2/465)
यह जगह मेरा मदफ़न है
शैख़ सुदूक़ अबासलत हरवी के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहा कि उस के बाद हज़रत सनाबाद में हमीद बिन क़हतबह ताई (तूसी) के घर में दाख़िल हुऐ और वहां गऐ जहां हारून रशीद मक़बरे में दफ़न हुआ था, सुम्मा ख़त्ता बेयदेही इला जानिबे............
(उस के बाद उस क़ब्र के पास निशान खींना और फ़रमाया यह मिट्टी मेरी क़ब्र की है और इस में मैं दफ़्न हुंगा)
और बहुत जल्द ख़ुदा वन्दे आलम मेरे शियों और चाहने वालों के लिये आमदो रफ़्त का मक़ाम क़रार देगा ख़ुदा की क़सम जो वहां ज़ियारत को आयेगा ख़ानदाने रिसालत की तरफ़ से शिफ़ाअत और ग़ुफ़राने इलाही की सिफ़ारिश के बग़ैर वापस नहीं जा सकता।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/147, बाब 39, हाशिया 1, अल बिहार 49/125, हाशिया 1, जिल्द 102/36, हाशिया 22,अल मुनाक़िब 4/344)
मदीना-ए-मुनव्वरा से इमामे रज़ा (अ.) की हिजरत की बरकतें
इमामे रज़ा (अ.) अपने जद्दे बुज़ुर्गवार नबी-ए-करीम (स.) की मरक़द से अलग होने पर ख़ुश नहीं थे मगर हज़रत की ईरान आमद से बहुत सी बरकतें वुजूद में आईं।
पहलीः- हज़रत के खुरासान आमद से वसी पैमाने पर सक़ाफ़ती सियासी और समाजी आसार और हक़ की तोसीअ अमल में आई।
दूसरीः- मामून ख़ुद को शिया क़रार देता था उस ने इमामे रज़ा (अ.) के लिये बहुत सी इल्मी इजतेमाआत तशकील दिये और इमाम (अ.) ने दूसरे मज़ाहिब के उलेमा और काबेरीन से मुनाज़ेरात अंजाम दिये और हक़ वाज़ह करने के साथ शिया अक़ीदे की ख़ुसूसीयात को भी उजागर किया।
तीसरीः- इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़ुरासान में रौशन ज़िन्दगी ने मामून के चहरे को बरमला कर दिया, इमाम (अ.) की निसबत उसका जो ज़ालिमाना रवय्या था वह खुल कर ज़ाहिर हो गया। मामून ने इमाम (अ.) की इलमी बहस और मुनाज़ेरों की नशिस्त को बंद कर दिया, हज़रत को ईद की नमाज़ में शरीक होने से भी रोक दिया और सर अंजाम इमामे रज़ा (अ.) की शहादत ने इमाम को ज़लील व ख़्वार कर के रख दिया।
बहरहाल जो बरकतें रसूले ख़ुदा (स.) की मदीने की जानिब हिजरते इमामे हसन अलैहिस्सलाम की सुल्ह ने ज़ाहिर की इमामे रज़ा (अ.) की हिजरत ने भी वही बरकत ज़ाहिर की।
ख़िलाफ़त और वली ऐहदी सोंपने का वाक़ेआ
शैख़ सुदूक़ और दूसरों ने अबासलत हरवी के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहा मामून ने इमाम अली बिन मूला रज़ा से अर्ज़ किया है ऐ फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा मेने आप की फ़ज़ीलत और इल्म व तक़वे इबातद को भी और ज़ोहद व पारसाई को देखते हुऐ कि आप मुझ से ज़्यादा अफ़ज़ल हैं और ख़िलाफ़त के हक़दार भी हैं इमाम ने फ़रमाया ख़ुदा की इबादत पर फ़ख़्र करता हूं और दुनिया में ज़ोहद इख़तियार कर के उस के अज़ाब से निजात की उम्मीद रखता हूं और इलाही हराम करदा चीज़ों से परहेज़ करते हुऐ ख़ुदा की अता करदा दौलत व नेमत और अल्लाह से कामयाबी की उम्मीद रखता हूं औऱ दुनिया में तवाज़ा की वजह से ख़ुदा वन्दे आलम के क़रीब आला व अरफ़ा मक़ाम व मंज़िलत का तलबगार हूं।
मामून ने कहा मैं ख़ुद को तख़ते ख़िलाफ़त से हटा कर आरप को ख़लीफ़ा मुक़र्र करना चाहता हूं और आप की बेअत करना चाहता हूं। फ़ क़ाला लहुर रज़ा इन कानत हाज़ेहिल ख़िलाफ़तो...
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उस से फ़रमाया अगर यह ख़िलाफ़त तुम्हारा हक़ है और ख़ुदा ने इस को तुम्हारे लिये क़रार दिया है तो जाइज़ नहीं है कि जो लिबास ख़ुदा ने तुम्हारे बदन पर क़रार दिया है उस को उतारो और किसी दूसरे को पहनाओ और अगर यह ख़िलाफ़त तुम्हारे लिये नहीं है तो तुम्हारे लिये यह जाइज़ नहीं है कि वह चीज़ मेरे लिये क़रार दो जो तुम्हारे लिये नहीं है।
मामून ने कहा ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स.) ख़ुद आप के पास इस को क़बूल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है आप को क़बूल करना है होगा इमाम ने फ़रमाया मैं दिली तौर पर हरगिज़ यह तजवीज़ क़बूल करने पर रज़ा मंद नहीं हूं।
मामून कुछ अर्से तक इमाम से दरख़ास्त करता रहा और दबाव डालता रहा लेकिन इमाम (अ.) के बारहा इंकार के बाद मामून मायूस हो गया तो बोला अगर ख़िलाफ़त क़बूल नहीं करेंगे और मेरी बेअत भी पसन्द नहीं है तो फ़िर आप मेरे वलीऐहद बन जाईये।
फ़ क़ालर्रज़ा वल्लाहे लक़द हद्दासनी अबी अन अबाऐही अन अमीरुल मोमिनीन..................
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ख़ुदा की क़सम मेरे वालिद ने अपने आबा व अजदाद और उन्हों ने अमीरुल मोमिनीन और उन्हों ने रसूले ख़ुदा (स.) के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने फ़रमाया यह बात यक़ीनी है कि मैं तुम से पहले मज़लूमाना तर्ज़ पर ज़हरे जफ़ा से क़त्ल किया जाऊंगा और इस दारे फ़ानी को अलविदा कहूंगा ऐसी हालत में कि आसमान और ज़मीन के फ़रिशते मुझ पर गिरया करेंगे दयारे ग़ैर में हारून रशीद की बग़ल में दफ़्न किया जाऊंगा।
मामून ने गिरया किया और कहा ऐ फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा (स.) आप को कौन क़त्ल करेगा या कोई नुक़सान पहुंचाने की गुसताख़ी करेगा जब कि मैं ज़िन्दा हूं फ़रमाया जब बताना होगा तो बताऊंगा कि कौन मुझे क़त्ल करेगा।
मामून ने कहा आप अपनी बातों से मेरी वलीऐहदी क़बूल करना नहीं चाहते ताकि लोग यह कहें कि आप ज़ाहिद हैं और इस दुनिया को तर्क कर दिया है।
इमाम ने फ़रमाया ख़ुदा की क़सम जब से उस पर्वरदिगार ने मुझे पैदा किया है मैंने कभी झूट नहीं बोला है और इस दुनिया में दुनिया के लिये ज़ोहद इख़तियार नहीं किया है और तुम्हारे इस मक़सद और ग़र्ज़ व ग़ायत से मैं बख़ूबी वाक़िफ़ हूं।
मामून ने कहा मेरा मक़सद किया है फ़रमाया क्या मैं अमान में हूं कहा हां आप अमान में हैं फ़रमाया तुम्हारा मक़सद यह है कि लोग यह न कहें कि अली बिन मूसा रज़ा ने दुनिया तर्क कर दी है बल्कि दुनिया ने इन को छोड़ दिया है क्या देखते नहीं कि दुनिया के लालच में आकर ख़िलाफ़त तक रसाई पाने की खातिर वलीऐहदी क़बूल कर ली है।
मामून हज़रत की बातें सुन कर ग़ज़ब नाक हो गया और बोला आप मुसलसल ऐसी बातें किये जा रहे हैं जो मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है आप मेरी ताक़त व सलतनत में अमान में हैं ता हम अगर मेरी वीलऐहदी की तजवीज़ को नहीं माना तो गर्दन उड़ा दूंगा .........अबुल फ़रज भी लिखते हैं मामून ने इमाम को धमकाया और कहा अगर क़बूल नहीं किया तो मारे जायेंगे।
(अमाली सुदूक़े मजलिस 16, हाशिया 3, उयूने अख़बारे रज़ा 2/151, हाशिया 3, इलालुल शराया बाब 173, हाशिया 1, अल मुनाक़िब 4/362, मक़ातेलुल तालेबीन 454, अल वाऐज़ीन 1/223,)
हज़रत इमाम रज़ा (अ.) वलीऐहदी क़बूल करने से कराहियत मेहसूस करते थे लेकिन क़बूल करने पर मजबूर हुऐ अलबत्ता क़बूल करने में भी बरकतें शमिल थीं।
शैख़ सुदूक़ और दूसरों ने रय्यान रे हवाले से नक़्ल किया है उन्हों ने कहा है मैं ने हज़रत रज़ा (अ.) से अर्ज़ किया ऐ फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा लोग यह कह रहे हैं कि आप ने ऐसी हालत में वलीऐहदी का ओहदा क़बूल किया जब कि आप ज़ोहद व तर्के दुनिया की बातें करते हैं इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः बे शक ख़ुदा वन्दे आलम इस बाबत मेरी अदमे रिज़ाईयत से आगाही रखता है जब कि उस को क़बूल करने और क़त्ल कर दिये जाने के दर्मियान पाया तब मैं ने इस को कबूल कर लिया।
(अमाली सुदूक़े मजलिस 17, हाशिया 3, उयूने अख़बारे रज़ा 2/150, हाशिया 2, इलालुल शराया बाब 173, हाशिया 3,)
इस सिलसिले में रिवायतें बहुत ज़्यादा पाई जाती हैं मिन जुमला यह रिवायत कि यासिर नक़्न करते हैं कि जब हज़रत ने वलीऐहदी का मंसब क़बूल कर लिया तो मैं ने हज़रत को जानिबे आसमान दोनों हाथ बुलन्द कर के यह अर्ज़ करते हुऐ सुना ख़ुदा वन्द तू बख़ुबी जानता है कि मैं इस सिलसिले में किस क़दर मजबूर और लाचार था इस लिये इस सिलसिले में मुझ से बाज़पुर्स मत करना। इसी तरह जिस तरह तूने अपने पैग़म्बर युसूफ़ से मिस्र की वलीऐहदी क़बूल कर लेने के बाद बाज़ पुर्सी नहीं की।
(रोज़ातुल वाएज़ैन 1/229, अल बिहार 49/130, हाशिया 5, जलाइल उयून 492)
वलीऐहदी क़बूल करने की शर्तें
जैसा कि ज़िक्र किया गया जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को इन हालात का सामना करना पड़ा तो मामून लानतुल्लाह अलैह की ज़ोर ज़बरदस्ती और दबाओ में आकर फ़रमायाः मैं इस शर्त पर वलीऐहद बनुंगा कि किसी काम में अम्र व नहीं, नहीं करूंगा क़ज़ावत नहीं करूंगा किसी चीज़ की तबदीली नहीं करूंगा। दूसरी रिवायतों में यह आया है कि किसी को भी काम से बरख़ास्त नहीं करूंगा या काम पर नहीं रखूंगा फ़तवा नहीं दूंगा बल्कि दूर रह कर मशवेरत का काम अंजाम दूंगा मुझे इन सभी उमूर से दूर रखा जाये मामून ने भी इमाम (अ.) की सभी शर्तों को मान लिया।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/160, उसूले काफ़ी (मुतर्जिम) 2/407, हाशिया 7, अल इर्शाद 2/251, कशफ़ुल ग़िमा 2/275-297, अल बिहार 49/134-155, हाशिया 27, आलामुल वरा 336, अल मुनाक़िब 4/362)
यह वाक़ेआ पांच रमज़ान सन 201 हिज्री में रोनुमा हुआ।
(अल बिहार 49/221, हाशिया 9, उयूने अख़बारे रज़ा 2/274)
और याक़ूबी का कहना है मामून ने पीर के रौज़ सात रमज़ान सन 201 हिज्री में ख़ुद के बाद हज़रत की वलीऐहदी पर मबनी बेअत अंजाम दी।
शैख़ मुफ़ीद अरबली और तबरसी रहमतुल्लाह अलैह ने लिखा है कि फ़िर मामून ने हज़रत इमामे रज़ा (अ.) से अर्ज़ किया आप लोगों से हम कलाम हों, इमाम ने पहले तो ख़ुदा की हम्दो सना की फिर फ़रमायाः इन्ना लना अलैकुम हक़्क़न बेरसूल अल्लाह व लकुम अलैना हक़्क़ा बेही......................................
(अल इर्शाद 2/253, कशफ़ुल ग़िमा 2/277, आलामुल वरा 335)
मामून का ज़ाहिरी दिखावा तुम्हें धोका न दे
जी हां मामून का ज़ाहिरी तौर पर मंसूबा यह था कि इमाम का दिखावे के लिये अहतेराम तो किया जाये इसी लिये मुख़तलिफ़ मज़हबों के आलिमों में इमाम के लिये बेहस व मुबाहेसा और मुनाज़ेरे के इजतेमाआत मुनअक़िद करता और इमामे रज़ा (अ.) भी उन्हीं की आसमानी किताबों की रौशनी में उन से बात करते और उन पर ग़लबा हासिल किया करते थे, उसने हज़रत को अपना वलीऐहद तो क़रार दिया था लेकिन हक़ीक़त में यह सिर्फ़ एक सियासी चाल थी और हक़ीक़त से कोसों दूर भी मंदरजा ज़ैल रिवायतों पर ग़ौर फ़रमायें।
शैख़ सुदूक़ हसन बिन जहेम के हवाले से लिखते हैं कि उन्हों ने एक तवील रिवायत के ज़िम्न में कहा है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने जब उलेमा के लिये दलीलें पैश कीं और सब का जवाब दे दिया तो घर तशरीफ़ लाये, मैं हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ कीः ऐ फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा (स.) मैं ख़ुदा का शुक्र अदा करता हूं कि देख रहा हूं कि अमीरुल मोमिनीन (मामून) आप की इज़्ज़त व तकरीम बजालाते हैं और आप की बातें सुनते और मानते हैं।
इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ऐ जेहम के बेटे, मामून का मेरे लिये अहतेराम व इज़्ज़त देना तुम्हें किसी मुग़ालते में न डाले। फ़इन्नहू सायक़तोलनी बिस्सिम्मे व होवा ज़ालेमुन (यक़ीनी तौर पर वह मुझे ज़हर देकर ज़ुल्म व जफ़ा के साथ क़त्ल कर डालेगा) और यह एक ऐशा अहद व वादा है जिस को मेरे आबाओ अजदाद ने रसूले ख़ुदा से नक़्ल किया है। ऐ जेहम के बेटे इस बात का इज़हार उस वक़्त तक किसी से न करो जब तक कि मैं ज़िन्दा हूं।
जेहम का कहना हैः मैंने भी यह बात किसी को नहीं बताई उस वक़्त तक जब तक कि तूस में हज़रत को ज़हर देकर हमीद बिन क़ेहतबा ताई के घर में हारून रशीद के बग़ल में सुपुरदे लहेद नहीं कर दिया गया।
एक रिवायत में आया है कि हज़रत ने फ़रमायाः ऐ जेहम के बेटे, मामून की बातों के धोके में न आना क्योंकि अंक़रीब ही वह मुझे अचानक और धोके से ख़त्म कर देगा और ख़ुदा वन्दे आलम उस से मेरा बदला लेगा।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/218, ततिम्मातुल मुनतहा 343, अलबिहार 49/180, सफ़्हा 284, हाशिया 4, कशफ़ुल ग़िमा 2/277 )
इमाम अलैहिस्सलाम ने किसी को जो कि ख़ुश हो रहा था फ़रमायाः ख़ुशी मत बनाओ क्योंकि यह काम पूरा नहीं होगा।
(आलामुल वरा 335, अल मुनाक़िब 4/364, अल इर्शाद 2/254, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1/226, इसबातुल हिदायत 3/261, हाशिया 37, सफ़्हा 317)
मर्व में इमामे रज़ा (अ.) की मौजूदगी से नाराज़गी
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम उस बात से कि मामून लानतुल्लाहे अलैह के पास और अपने नबी-ए-करीम (स.) के शहरे मदीना से दूर थे। बहुत ज़्यादा रंजीदा ख़ातिर थे, यहां तक कि इस बाबत ख़ुदा से मौत मांगा करते थे।
1- यासिर नामी ख़ादिम से नक़्ल है कि जब भी जुमे के दिन हज़रत इमाम रज़ा (अ.) जामा मस्जिद से घर वापस आया करते, ऐसी हालत में कि रास्ते की गर्दो ग़ुबार बदन और लिबास पर हुआ करता और पसीना भी ख़ुश्क नहीं हुआ करता, अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठा के फ़रमाया करतेः अल्लाहुम्मा इन काना फ़राजी मिम्मा अना फ़ीहे बिल मौते फ़अज्जिल लियस्साअत।
(ख़ुदा वन्द अगर मेरी निजात, जिस हाल में कि मैं हूं, मेरी मौत में है तो अभी इसी वक़्त मुझे मौत देदे)
और हज़रत हर वक़्त ग़मज़दा और अफ़सुर्दा रहा करते यहां तक कि इसी हालत में इस दुनिया से रुख़सत फ़रमा गये और इमाम अलैहिस्सलाम ने अपनी वलीऐहदी के बहुत ही कम अर्से में मुख़तसर ख़ुतबा जो पढ़ा उस से इन की निहायत ही अफ़सुर्दगी और ग़म व अन्दोह की निशान देही होती है।
(अल बिहार 49/140, हाशिया 13, मुनतख़ेबुल तवारीख़ 581, ततिम्मातुल मुनतहा 280)
शैख़ सुदूक़ एक रिवायत में लिखते हैं इमाम (अ.) ने मामून से फ़रमायाः यह कि मैं यहां (ख़ुरासान) में वलीऐहद हो गया हूं, इस अम्र ने मेरी नज़र में मेरी सूरते हाल और हैसियत में इज़ाफ़ा नहीं किया है जब मैं मदीने में था सवारी पर बेठ कर मदीने की गली व कूचों घूमता था और लोग मुझ से कुछ तलब करते और मैं भी उन की ख़्वाहिशें पूरी करता, मुख़तलिफ़ शेहरों में ख़ुतूत लिखता था और लोग भी मेरे ख़ुतूत पर ग़ौर दिया करते थे और मदीने में भी कुछ ज़्यादा प्यारा और अज़ीज़ कोई दूसरा नहीं था। जो ख़ुदा वन्दे आलम ने इस से पहले मुझे नेमतें अता की हैं उन में तुम ने कोई इज़ाफ़ा नहीं किया है।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/177, हाशिया 29, अल बिहार 49/155, हाशिया 27)
नतीजाः
इमाम रज़ा (अ.) की वलीऐहदी के सिलसिले में मजमूई तौर पर वारिद होने वाली रिवायतों से यह नतीजा लिया जा सकता है।
1- इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम वलीऐहदी क़बूल करने पर राज़ी नहीं थे।
2- हज़रत की वलीऐहदी की मिसाल मिस्री फ़राग़ना के क़ुफ़्र व ज़ुल्म वाले दरबार में इंकारे बातिल और और हक़ को हासिल करने के लिये हज़रत युसूफ़ की वलीऐहदी जैसी थी।
3- जैसा कि ज़िक्र किया गया है कि इमाम (अ.) यह ओहदा क़बूल करने पर मजबूर थे।
4- हज़रत की वलीऐहदी का ओहदा एक ज़ाहिरी अम्र था जो हक़ीक़त से ख़ाली था।
5- इस ओहदे का क़बूल करना, अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के ज़माने की छे रुकनी शुरा में शमूलियत जैसा मजबूरी की हालत में और अदमे रज़ा मन्दी की बुनियाद पर था।
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की दुआऔ से बारिश की अलामत
शैख़ सुदुक़ लिखते है जिस वक़्त मामून ने इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को वलीऐहद बनाया, उस के बाद से कुछ अरसे तक बारिश नबहीं हुई मामून के तरफ़ दारों और इमामे रज़ा (अ.) पर एतेराज़ करने वाले मुख़ालेफ़ीन ने कहाः जब से इमामे अली रज़ा (अ.) यहां आये हैं और वलीऐहद बने हैं तब से ख़ुदा ने बारिश नाज़िल नहीं की है।
यह बात मामून के कानों तक पहुंची तो उसको बहुत सदमा हुआ, इमाम अलैहिस्सलाम से अर्ज़ कियाः काफ़ी अर्से से बारिश नहीं हुई है, काश कि ख़ुदा वन्दे आलम से दुआ करते कि लोगों के लिये बारिश हो जाती।
इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ठीक है, मामून ने अर्ज़ कियाः कब दुआ करेंगे ? इमाम ने फ़रमायाः पीर के दिन (जब कि उस दिन जुमे का दिन था) क्यों कि पिछली रात, रसूले ख़ुदा (स.) को ख़्वाब में देखा जब कि अमीरुल मोमिनीन हजरत अली अलैहिस्सलाम भी उन के साथ थे, उन्हों ने फ़रमायाः कि मेरे बच्चे पीर तक सब्र करो, फ़िर उस दिन ख़ुदा से बारिश की दुआ करो, ख़ुदा भी लोगों पर बारिश नाज़िल करेगा फ़िर यह लोग ख़ुदा के नज़दीक तुम्हारी अज़मत और मक़ाम व मर्तबे को समझ जायेंगे।
पीर का दिन आया, इमाम (अ.) बियाबान की तरफ़ गऐ और उसी वक़्त लोग भी अपने घरों से बाहर निकले और नज़ारा देखने लगे, इमाम (अ.) मिंबर पर तशरीफ़ ले गये, ख़ुदा की हम्द व तारीफ़ की और अर्ज़ कियाः ख़ुदा वन्द! तूने हम ऐहले बैत के हक़ को बड़ा समझा, तेरे हुक्म के सबब लोगों ने हम से तमस्सुक किया है। और तेरी रेहमत व फ़ज़्ल और एहसान व नेमत की उम्मीद रखते हैं इस लिये उन पर बे ज़रर, फ़ाएदे मन्द बारिश नाज़िल फ़रमा, लेकिन यह बारिश तभी नाज़िल फ़रमाना जब यह लोग अपने घरों को लौट जायें।
रावी कहता हैः ख़ुदा की क़सम, उसी वक़्त आसमान में बादलों की गरदिश शुरु हो गई, बिजली कड़की, आवाज़ें गूंजने लगीं और लोगों में भगदड़ मच गई कि बारिश शुरु होने से पहले अपने घरों को पहुंच जायें।
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ऐ लोगों! होसला रखो यह बादल तुम्हारे लिये नहीं हैं। बल्कि फ़लां सरज़मीन के लिये हैं वह बादल चले गये और उस की जगह दूसरे बादल बिजली की कड़क और गरज के साथ आ गये, लोगों ने वहां से जाने का इरादा ही किया था कि इमामे रज़ा (अ.) ने फ़िर फ़रमायाः यह बादल भी फ़लां जगह के लिये हैं, इसी तरह दस मर्तबा बादल आये और चले गये और अलैहिस्सलाम हर मर्तबा फ़रमाते थे यह तुम्हारे लिये नहीं हैं बल्कि फ़लां इलाक़े के लिये हैं फिर ग्यारहवीं मर्तबा बादल घिर कर आया तो इमाम ने फ़रमायाः यह बादल तुम्हारे लिये हैं जाओ जाकर ख़ुदा की अता कर्दा नेमत और फ़ज़ीलत की ख़ातिर उस का शुक्रिया अदा करो। उठो और अपने घरों को जाओ क्योंकि जब तक अपने घरों को नहीं जाओगे बारिश नहीं हो गी। उसके बाद ख़ुदा के करम से बारिश हो गई फिर इमाम (अ.) मिंबर से नीचे तशरीफ़ लाये और लोग भी अपने घरों को रवाना हो गऐ उस के बाद जब बारिश शुरु हुई तो इस क़दर हुई कि नेहरें तालाब और घड़े और पानी के ज़ख़ीरे वग़ैरा सब भर गये लोग कहने लगेः हैनाइन ले वलादे रसूल अल्लाह (स.) करामातुल्लाह अज़्ज़ा व जल्लाह। ख़ुदा की करामतें फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा (स.) को मुबारक हों।
फिर इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम अवाम की तरफ़ बढ़े जिन्होंने इजतेमा कर रखा था, आप ने फ़रमायाः ऐ लोगों ख़ुदा वन्दे आलम जो नेमतें तुम्हें अता करता है, उस में तक़वा इख़तियार करो और ख़ुद को गुनाह और नाफ़रमानी में मुबतला न कर के उन्हें ख़ुद से दूर करो, और ख़ुदा की हमेशा इताअत करो और ख़ुदा का शुक्र बजालाते रहो।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/179, व 180, अल मुनाक़िब 4/370, अल बिहार 49/180, हाशिया 16, इसबाते हिदायत 3/259, हाशिया 35)
इमाम अलैहिस्सलाम के हुक्म से दो शेर एक गुस्ताख़ को निगल गये
हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम से बारिश हो जाने के बाद आप की मक़बुलियत और अज़मत में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया लेकिन कज अंदेशी और बुग़ज़ व हसद रखने वालों को हिदायत नसीब न हुई और कुछ लोग तो इमाम (अ.) की शान में गुस्ताख़ी कर बैठे उन्हीं में एक जो कि मामून के दरबार में मुलाज़िम था और उस का नाम हमीद बिन मेहरान था, इमाम (अ.) के पास आकर कहाः
ऐ फ़रज़न्दे मूसा, तुम अपनी हदों से गुज़र चुके हो ख़ुदा वन्दे आलम ने मोअय्यन और मुक़र्र वक़्त पर बारिश नाज़िल की, तुम ने उसे उपनी दुआओं का नतीजा क़रार दिया और इस बात को ख़ुदा के नज़दीक अपनी क़ुरबत और मक़ाम व मर्तबे में अज़मत की दलील क़रार दिया, ऐसा लगता है कि तुम ने इब्राहीम ख़लीलुल्लाह अलैहिस्सलाम की मानिन्द मोजिज़ा कर दिया हो कि उन्हों ने परिन्दों को ज़िब्ह किया उन के बाल व पर नोचे और गोश्त को पहाड़ की चोटी पर रखने बाद उन्हों आवाज़ दी तो ख़ुदा के हुक्म पर ज़िन्दा हो कर परवाज़ करने लगे अगर तुम सच्चे हो तो इन दो शैरों को जो कि मामून की मसनद के ग़िलाफ़ पर तसवीर की शक्ल में थे इशारा करते हुऐ कहा इन्हें ज़िन्दा करो और मुझ पर हमला करने के लिये बोलो, अगर ऐसा नहीं किया तो न तो यह और न तुम्हारी दुआ से जो बारिश हुई तुम्हारे लिये कोई मोजिज़ा नहीं होगा।
इमाम (अ.) उस आदमी के बुग़्ज़ और हसद को देख कर ग़ुस्से में आ गये और चिल्ला कर बोले ऐ शैरों! इस फ़ाजिर शख़्स को उस के अंजाम तक पहुंचा तो मुह से आवाज़ निकलते ही वह दोनों शैर अपनी असली हालत में आगये और पलक झपकते ही उस आदमी को चीर फ़ाड़ कर के चट कर गऐ यहां तक कि ज़मीन पर पड़ा हुआ ख़ून भी चाट गऐ, और उस का नाम व निशान मिटा दिया लोग हैरत ज़दा हो कर यह माजरा देख रहे थे। जब यह वाक़ेआ ख़त्म हो गया तो शैरों ने इमामे रज़ा (अ.) से अर्ज़ किया कि ऐ वली-ए-ख़ुदा अब आप क्या हुक्म देते हैं। क्या आप की इजाज़त है कि इस मामून को भी चीर फ़ाड़ ढालें मामून ने इन दोनों शैरों की बात सुन कर बेहोशी इख़तियार कर ली इमाम (अ.) ने फ़रमायाः नहीं रुक जाओ, फिर इमाम ने अपने बात दोहराई और फ़रमायाः जाओ अपनी जगह वापस चले जाओ, फिर वह अपनी तसवीर की हालत में तबदील हो गऐ।
जब मामून को होश आया तो उस ने कहा ख़ुदा का शुक्र है कि इस ने हमें हमीद बिन मेहरान जैसे आदमी से बचा लिया।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2,182, अल मुनाक़िब 4,370,)
ईद का वाक़ेआ और इमाम अलैहिस्सलाम
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को वली ऐहद हुऐ कुछ अर्सा गुज़र गया और ईद का मोक़ा आया (इमाम (अ.) की दुआओं और मुनाजात से पता चलता है कि वह ईदुज़्ज़ोहा का मोक़ा था) मामून ने हज़रत को कहलवाया कि आप तैय्यार रहें और ख़ुद नमाज़ पढ़ाईये और लोगों के लिये ख़ुत्बे पढ़ें ताकि उन्हें सुकून और इतमेनान हासिल हो।
इमाम (अ.) ने मामून को पैग़ाम भेजा
मेरे और तुम्हारे दर्मियान जो शर्तें रखी गईं हैं उन से तुम वाक़िफ़ होंगे यह तय नहीं पाया था कि मैं ममलेकती उमूर में मुदाख़ेलत करूं मामून ने कहा मैं यह चाहता हूं कि लोगों औकर सिपाहीयों के दिल को सुकून व इतमेनान हासिल हो और ख़ुदा वन्दे आलम ने आप को जो फ़ज़ीलत अता की हैं उस से लोगों को आगाह होना चाहिये इस बीच दोनों के दर्मियान बातों का सिलसिला और बहस जारी रही इमाम (अ.) का यह ही इसरार था कि मामून अपनी बात से पीछे हट जाये और इमाम (अ.) को नमाज़ न पढ़ानी पड़े जब इमाम ने देखा कि मामून का इसरार बढ़ता ही जा रहा है तो आप ने फ़रमायाः अगर इस काम से मुझे रोके रखोगे तो बहुत ही अच्छा और पसन्द दीदा होगा लेकिन अगर ज़्यादा मजबूर करोगे तो मैं अपने नाना रसूले अकरम और दादा अली बिन अबुतालिब की रविश पर अमल करते हुऐ घर से निकलुंगा और नमाज़ पढ़ाऊंगा।
मामून ने कहा आप जैसा मुनासिब समझें अमल करें लेकिन नमाज़ आप ही पढ़ाऐंगे। फिर उस ने सभी लोगों और लशकरों को हुक्म दिया कि सुब्ह के वक़्त इमाम के घर पर इजतेमा करें।
मामून के हुक्म के बा औरतों और मर्दों बूढ़े जवान हुकूमती, लशकरी सभी सरदार सिपाही इमाम के दर्वाज़े पर आकर जमा हो गऐ, जब सूरज नमूदार हुआ तो इमाम ने ग़ुस्ल किया, सूती कपड़ों का अमामा सर पर रखा अमामे का एक कोना सीने पर और दूसरा कोना दोनों शानों के बीच में क़रार दिया कुरते का दामन ऊपर कमर पर बांधा थोड़ा इत्र लगाया और अपने अतराफ़ के लोगों को भी ऐसा करने को कहा फिर तीर निमा असा हाथ में लिया और बाहर तशरीफ़ लाऐ रावी कहता है हम लोग भी हज़रत के साथ पीछे पीछे चल रहे थे, हज़रत ने अपना पांयचा ज़ानू तक चढ़ा रखा था और पैरों में नालैन नहीं थीं बल्कि नंगे पैर चल रहे थे आसमान की तरफ़ हाथ बुलन्द किया चार मर्तबा तकबीर बुलन्द आवाज़ में पढ़ी रावी कहता है कि इस क़दर अज़मत व जलाल टपक रहा था गोया आसमान और घर की दीवारें हज़रत का जवाब दे रही हों।
लशकरी और सिपाही नीज़ अवाम का मजमा इमाम के दरवाज़े पर मोअद्दब और दस्त बसता सफ़े बांधे खड़ा हुआ था इमाम (अ.) ने दरवाज़े पर रुके और फ़रमायाः अल्लाह होअकबर अल्लाह होअकबर, अल्लाह होअकबर अलामा हदाना, अल्लाह होअकबर अला मा रज़क़ना......
इमाम (अ.) ने इस तकबीर से अपनी आवाज़ बुलन्द की और हम ने भी अपनी आवाज़ें तकबीर के साथ बुलन्द कीं लोगों के अन्दर मानवीयत इस क़दर भर गई थी कि मर्व का पूरा शहर हरकत में आ गया था। सब की आंख़ों से आसूं जारी थे हर तरफ़ आहो बुका की फ़रयाद थी, इस हालत में इमाम (अ.) ने तीन मर्तबा सदा-ए-तकबीर बुलन्द की जब लशकरीयो और सिपाहीयों ने इमाम (अ.) को इस सादगी और नंगे पांव की हालत में मुशाहेदा किया तो सभी अपनी सवारियों से उतर गऐ और पा बरहेना चलने लगे, पूरा शहर नाला व फ़रयाद बन गया, लोगों को अपने आसूं और फ़रयाद पर क़ाबू पाना मुशकिल हो रहा था।
हज़रत थोड़ी दूर चलते और रुक कर नारा-ए-तकबीर बुलन्द करते थे और चार बार तकबीर की आवाज़ें बुलन्द फ़रमाते जाते थे। हम तो यह ही ख़यार कर रहे थे कि आसमान व ज़मीन और शहर की दीवारें हज़रत की तकबीर का जवाब दे रही हैं। हम भी आप की आवाज़ से आवाज़ मिला कर नारा-ए-तकबीर बुलन्द करते जा रहे थे। उसी वक़्त इस मलाकूती मंज़र की ख़बर मामून के कानों तक पहुंची फ़ज़्ल बिन सहल ने जिस के पास विज़ारते उज़मा और सदारते लशकर दोनों मंसब थे मामून से कहा कि ऐ अमीरुल मोमिनीन अगर इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम इसी हालत में ईद गाह तक पहुंच गऐ तो लोग उन के शेदाई हो जायेंगे इस लियें मसलेहत इसी में है कि उन्हें ईद गाह तक न पहुंचने दिया जाये और रास्ते से ही वापस बुला लिया जाये।
मामून ने अपने आदमीयों को भेज कर इमाम (अ.) को घर वापस जाने का हुक्म दिया इमाम (अ.) ने भी अपनी नालैन तलब फ़रमाई उस को पहना और घर की जानिब लोट गये शैख़ मुफ़ूद ने इस रिवायत के ज़िम्न में लिखा है कि मामून ने पैग़ाम भेजा कि हम ने आप को तकलीफ़ दी इस लिये मुझे पसन्द नहीं कि आप को परेशानी हो इस लिये आप वापस लोट जायें इस बार भी वह ही ईद की नमाज़ पढ़ायेगा जो हमेशा पढ़ाता है हज़रत ने अपनी नालैन तलब की पहना और सवारी पर सवार हो कर घर लोट गये उस दिन लोगों की नमाज़ों में ख़लल वाक़े हो गया और लोग सहीह ठंग से नमाज़ न पढ़ सके।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2/161-162, उसूले काफ़ी 2/407, हाशिया 7, इल इर्शाद 2/256, आलामुल वरा 336, इसबाते वसीयत 396, हाशिया 33, अल बिहार 49/134, कशफ़ुल ग़िमा 2/265, अल मुनाक़िब 4/371, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1/327)
मामून ने इमामे रज़ा (अ.) के दर्स व बहस पर पाबन्दी लगा दी और आप ने नफ़रीन की
इमामे रज़ा (अ.) की मौजूदगी की एक बरकत मर्व में आप की मौजूदगी में लोगों को मुख़तलिफ़ मज़ाहिब के आलिमों के दर्मियान बहस व मुनाज़ेरे के जलसों का इंऐक़ाद था, हालांकि ख़ुद मामून ने इस की मुनियाद रखी थी शायद इसी लिये इमाम जवाब न दे सके और उन्हों शर्मिंदगी उठानी पड़ी लेकिन ख़ुद मामून ने उसे बन्द करने का हुम्द दिया।
शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में अब्दुस्सलाम बिन हरवी के हवाले से नक़्ल करते हैं कि मामून को यह ख़बर दी गई कि हज़रत अली बिन मूसा रज़ा (अ.) बहस व मुनाज़ेरे के ऐहतेमाम करते हैं और लोग भी उन के इल्म व मालूमात के शेदाई होते जा रहे हैं (और यह बात हुकूमते वक़्त के लिये नुक़सार का सबब है) मामून ने अपने दरबान मुहम्मद बिन अम्र व तूसी और हाजिब को हुक्म दिया कि इजतेमा को बन्द कर दिया जाऐ उस ने भी लोगों को हज़रत के इस दरसी प्रोगिराम में शरीक होने से रोक दिया फिर मामून ने हज़रत को तलब किया और आप की सरज़निश और तेहक़ीर की, इमामे रज़ा (अ.) ग़ैज़ व ग़ज़ब की हालत में उस के दरबार से निकले और यह फ़रमाते हुऐ जा रहे थेः बे हक़्क़े मुसतफ़ा व मुरतज़ा और सैय्यदे निसवां उसे इस तरह नफ़रीन करूंगा कि इस शहर के सभी लोग यहां तक कि आवारा कुत्ते भी इस को मुसतरिद करेंगे और इस की तोहीन करेंगे, इस तरह कि उसकी ज़िन्दगी परेशान हो जायेगी।
फिर इमाम अलैहिस्सलाम अपने घर तशरीफ़ लाये और वुज़ू किया और नमाज़ के लिये उठ खड़े हुऐ और नमाज़ के क़ुनूत में एक लमबी दुआ पढ़ी जिस का इबतेदाई हिस्सा कुछ इस तरह से हैः अल्लाहुम्मा या ज़ल क़ुदरतिल जामेअते वर्रेहमतिल वासेअते.......................
इस दुआ के दर्मियान मामून और उस की हुकूमत के लिये लानत भेजते हुऐ फ़रमायाः
सल्ले अला मन शराफ़तिस सलाते अलैहि.................................................
(ख़ुदा वन्दा दुरूद भेज उस पर जिस पर दुरूद व नमाज़ निसार होने के बाद शराफ़त हालिस हुई और उस से मेरा बदला ले जिस ने मेरी तेहक़ीर की और मुझ पर सितम किया, मेरे शियों को मेरे दरवाज़े से भगा दिया, उसे ज़िल्लत व ख़वारी का मज़ा चखा दे।
(उयून अख़बारे रज़ा 2,184, हाशिया 1, अल मुनाक़िब 4,345, इसबाते हिदायत 3,261, हाशिया 36)
हक़ का दिफ़ा हज़रत की शहादत का सबब हुआ
शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में मुहम्मद बिन सनान के हवाले से नक़्ल किया है कि मैं ख़ुरासान में अपने मौला हज़रत इमामे रज़ा (अ.) की ख़िदमत में था मामून ने पीर और जुम्मेरात के दिन दरबारे आम लगा रखा था और ऐसे मौक़े पर इमामे रज़ा (अ.) को भी अपने
साथ बैठाया करता था एक दिन मामून को ख़बर मिली कि सूफ़ीया के एक बाशिन्दे ने चौरी की है, हुक्म दिया कि उस को दरबार में हाज़िर किया जाये जब दरबार में हाज़िर हुआ तो मामून ने देखा चौर की पैशानी पर सजदे का निशान है, उस ने कहाः इस ख़ूबसूरत असर के होते हुऐ चौरी जैसा गिनोंहना काम करते हो क्या तुम ने इबादत के ख़ूबसूरत आसार के और ज़ाहिर तौर पर नेक असर के होते चोरी की है?
उस ने कहा अमल की ज़रूरत ने मुझे इस काम पर मजबूर किया क्यों कि तुम ने ख़ुम्स और बैतुल माल से मेरा हक़ मुझे नहीं दिया, मामून ने कहा, बैतुल माल और ख़ुम्स से तुम्हारा केसा हक़ है?
जवाब दियाः ख़ुदा वन्दे आलम ने ख़ुम्स के इसतेमाल को 6 तरीक़ों से जाइज़ क़रार दिया है और फ़रमाया हैः वालमू इन्नमा ग़निमतुम........... (इनफ़ाल आयत 41) और बैतुल माल के इसतेमाल के भी छे तरीक़े क़रार दिये हें, मा अफ़ाअल्लाहो अला रसूलेही......... (हशर आयत 7) और एक तरीक़ा और ज़रीआ-ए-इसतेमाल, सफ़र में दरपैश मुशकिल और मुसीबत में मुबतला लोगों की मदद करना है और तुम मुझे मेरा हक़ नहीं दे रहे हो ताकि मैं अपने वतन पहुंच सकू और मेरे पास कोई और ज़रीआ और चीज़ नहीं है। इस के अलावा मैं क़ुर्आन का जानकार और उस से वाक़फ़ियत रखता हूं।
मामून ने कहाः क्या तुम्हें इस सिलसिले में जो बक़वास कर रहे हो ख़ुदा की मुक़र्र करदा सज़ा का इल्म है और क्या मैं तुम्हें इस सिलसिले में तुम्हें तंमबीह और पाक करूं?
सूफ़ी ने कहाः हर गिज़ नहीं, पहले तुम ख़ुद से शुरु करो ख़ुद को पाक करो उस के बाद दूसरों को तंमबीह और पाक करो पहले ख़ुद पर ख़ुदा की मुक़र्र करदा हद को जारी करो उसके बाद दूसरों पर जारी करो।
मामून ने हज़रत की तरफ़ रुख़ किया और कहाः इस सिलसिले में आप क्या फ़रमाते हैं इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमायाः फ़ा क़ाला इन्नाहु यक़ूलो, सरिक़ता फ़सरेक़ा फ़रमायाः वह कहता है कि तुम ने चौरी की है इस लियें उस ने भी चौरी की है।
मामून को बहुत ग़ुस्सा आया उस ने सूफ़ी की तरफ़ रुख़ कर के कहा ख़ुदा की क़सम तुम्हारा हाथ क़लम कर दूंगा सूफ़ी ने जवाब दियाः क्या तुम मेरा हाथ काटोगे जब कि तुम मेरे नोकर और ग़ुलाम हो?
मामून ने कहाः वाय हो तुझ पर मैं तेरा ग़ुलाम कैसे हो गया?
सूफ़ी ने जवाब दियाः क्यों कि तुम्हारी मां को मुसलमानों के बैतुल माल से ख़रीदा गया इस लिहाज़ से तुम दुनिया में मशरीक़ व मग़रिब सभी मुसलमानों के जब तक कि तुम्हें अज़ाद न करा दिया जाये ग़ुलाम रहोगे लेकिन जहां तक मेरे हिस्से का सवाल है मैंने अभी तक अपने हक़ से तुम्हें आज़ाद नहीं किया है दूसरी तरफ़ तुम ने लोगों के ख़ुम्स के माल में ख़ुर्द व बुर्द की है और मेरे ख़ानदाने रिसालत का भी हक़ अदा नहीं किया है। और दूसरी बात यह कि जो चीज़ ख़ुद ख़बीस और नापाक हो वह अपने जैसी किसी दूसरी चीज़ को पान नहीं किया करती है इस लिये पाक चीज़ ही नापाक चीज़ को पाकीज़ा बना सकती है। और अगर किसी की गरदन पर ख़ुद ही हद वाजिब हो वह दूसरों पर हद जारी नहीं कर सकता है इस लिये सब से पहले ख़ुद तुम पर हद जारी करनी होगी क्या तुम ने ख़ुदा का वह इर्शाद नहीं सुना हैः जिस में फ़रमाया कि अतामोरुनन नासा बिलबिर्रे व तनसौना अनफ़ोसाकुम.........
(क्या तुम लोगों को नेकी की दावत देते हो जब कि ख़ुद को भुला बैठे हो हालांकि आसमानी किताबें पढ़ते हो क्या तुम ग़ौर व फ़िक्र नहीं करते हो ? (बक़रा आयत 2)
मामून ने (जो के शायद लाजावाब हो गया था) इमाम (अ.) की तरफ देखा और बोला इस बारे मे क्या ख़याल है? इमाम (अ.) ने फरमाया ख़ुदा-वन्दे-आलम ने अपनी वही के ज़रिये मुहम्मद (स.) से फ़रमाया फ़ा लिल्लाहिल हुज्जतुल बालेग़तो ......................... खुदा वन्दे आलम के लिए वाज़ेह और वसी और मुसतेहकम दलील है। (अनआम आयत 149) और यह दलील व हुज्जत इस तरह है जाहिल व नादान लोग अपनी नादानी के बावजूद इन से आगाह व वाक़िफ़ हैं इस तरह ज़िस तरह दाना इंसान अपने इल्म की रौशनी से आगाह व वाक़िफ़ है और दुनिया व आख़ेरत भी हुज्जत व दलील की वजह से क़ायम है। और इस आदमी ने भी अपने लिए हुज्जद और दलील बयान की है (इस तरह इमाम ने इस अजनबी इंसान का दिफ़ा किया) उस के बाद मामून ने हुक्म दिया और सूफी को आज़ाद कर दिया गया लेकिन व ख़ुद एक अरसे तक लोगो की नज़रो से पोशिदा रहा और उसके बाद हमेशा ही इमाम को रास्ते से हटाने के फ़िराक़ में रहा और सर अंजाम हज़रत को ज़हरे दग़ा से शहीद कर दिया
(उयूने अख़बारे रज़ा 2,263, हाशिया 1, इलालुल शराया बाब 174, हाशिया 2, अल बिहार 49,288, हाशिया 1, अल मुनाकिब 4,368)
मैं और हारून एक ही जगह दफ़्न होंगे
शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में मूसा बिन मेहरान के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहाः अली बिन मूसा रज़ा (अ.) को मदीने की मस्जिद में देखा कि हारून रशीद ख़ुत्बा पढ़ रहा था उन्हों ने मुझ से फ़रमायाः क्या तुम मुझे और उसे देख रहे हो? हम दोनों एक ही मक़बरे में दफ़्न होंगे।
एक दूसरी रिवायत में नक़्ल किया गया है कि रावी ने कहाः मिना या अरफ़ात में थे कि हज़रत रज़ा (अ.) ने हारून की तरफ़ देखा और फ़रमायाः हम और हारून जड़ी हुई उंगलियों की तरह एक ही साथ रहेंगे हम लोग हज़रत का मक़सद नहीं समझ पाये कि हज़रत के इस जुमले का मक़सद क्या है और जब तूस में हज़रत की वफ़ात हो गई तब मामून ने हुक्म दिया कि इमामे रज़ा (अ.) को हारून की बग़ल में दफ़्न किया जाये।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2,247, हाशिया 1 व 2, उसूले काफ़ी 2,411, हाशिया 9, अल बिहार 49,286, हाशिया 8 व 9, कशफ़ुल ग़िमा 2,303)
रसूले ख़ुदा ने इमाम रज़ा (अ.) की शहादत की ख़बर दी
शैख़ सुदूक़ अपनी सनद मे इमामे सादिक़ और उन्होंने अपने वालिद और उन्होंने भी अपने आबाओ अजदाद अलैहिमुस्सलाम के हवाले से नक़्ल किया है कि रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः सातुदफ़नो बिज़अतुन मिन्नी बे अर्ज़े ख़ुरासान.........................(मुसतक़बिल में मेरे जिस्म का एक तुकड़ा ख़ुरासान की सर ज़मीन में दफ़्न होगा उस जगह की जो मोमिन भी ज़ियारत करेगा ख़ुदा वन्दे आलम उस पर जन्नत वाजिब करेगा और उस का ज़िस्म जहन्नुम की आग से मेहफ़ूज़ होगा और दोज़ख़ की आग उस पर हराम होगी।
(अमाली सूदूक़े मजलिस 15, हाशिया 6, उयूने अख़बारे रज़ा 2,286, हाशिया 4, अल बिहार 49,284, हाशिया 3)
हज़रत अली (अ.) ने इमाम (अ.) की शहादत की ख़बर दी
हज़रत अली (अ.) के हवाले से भी नक़्ल किया है कि उन्हींने फ़रमायाः सायुक़तलो रजोलुन मिन वुलदी बे अर्ज़े ख़ुरासान बिस्सिम्मे ज़ुलमन......... (मेरे बच्चो मे से एक मुसतकबिल मे ज़हर दगा के ज़रिऐ खुरासान की सर ज़मीन मे मोत को गले लगायेगा इस का नाम से मेरे नाम से और उस के वालिद का नाम इमरान बिन मूसा के फरज़न्द से मुशाबेह होगा)
बस जान लो कि जो भी दयारे ग़ैर मे उन की ज़ियारत करेगा ख़ुदा वन्दे आलम उस के नये और पुराने गुनाहों को माफ़ कर देगा चाहे उसके गुनाहों की तादाद आसमान के सितारों और बारिश के क़तरों और दरख़्त के पत्तों की तादाद जितनी ही क्यों न हो।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2,289, हाशिया 17, मिनल ऐहज़ारतिल फ़क़ीयत 2,349, हाशिया 30, अमाली सुदूक़े मजलिस 35, हाशिया 5, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1,234, अल बिहार 49,286, हाशिया 11 व जिल्द 102,34 हाशिया 11)
इमामे रज़ा (अ.) की शहादत के बारे में इमामे सादिक़ (अ.) का बयान
शैख़ सुदूक़ अपनी सनद में हुसैन बिन ज़ैद के हवाले से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने कहाः कि मैं ने हज़रत इमामे जाफ़रो सादिक़ को फ़रमाते हुऐ सुना है कि मेरे फ़रज़न्द मूसा से एक ऐसा बच्चा दुनिया में आयेगा जिसका नाम अमीरुल मोमिनीन (अ.) से मिलता होगा और वह ख़ुरासान की सरज़मीने तूस में ज़हरे दग़ा रे ज़रिये शहीद होगा और वहीं पर मज़लूमाना तौर परर दफ़्न कर दिया जायेगा लिहाज़ा हर कोई उसकी ज़ियारत करेगा और उन की निसबत मारेफ़त रखता होगा ख़ुदा वन्दे आलम उस को उन लोगों के बराबर जिन्हों ने फ़त्हे मक्का से क़ब्ल इंफ़ाक़ और जिहाद किया था, अज्र अता करेगा।
(अमाली सुदूक़े मजलिस 25, हाशिया 1, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1,234, मिनल ऐहज़ारतिल फ़क़ीयत 2,349, हाशिया 25, उयूने अख़बारे रज़ा 2,285, हाशिया 3, अल बिहार 49,286, हाशिया 10, जिल्द 102, हाशिया 9, इसबाते हिदायत 3,92, हाशिया 47)
इमाम रज़ा (अ.) की दर्दनाक शहादत का वाक्या
जैसा कि बयान किया गया है कि मामून लानतुल्लाह अलैही हज़रत इमामे रज़ा (अ.) को अपनी हुकूमत को इसतेहकाम बख़्शने के लिये मरकज़े ख़िलाफ़त लेकर आया और इमामे रज़ा (अ.) के लिये उसका सभी अदब व ऐहतेराम और इज़्ज़त व तकरीम का प्रोगिराम दिखावे के अलावा कुछ और न था लेकिन मामून देख रहा था कि लोगों के दर्मियान इमाम की मक़बुलियत बढ़ती ही जा रही है लिहाज़ा उस को ख़तरे का ऐहसास हुआ और दूसरी तरफ़ बनी अब्बास ने भी इमाम (अ.) की वली ऐहदी को लेकर उस पर दबाओ डाल रखा था, इस के अलावा इमाम (अ.) के हक़ के दिफ़ा में सरिही बयान और लेहजे की सराहत, ताग़ूत और ज़ालिम बादशाह की तवज्जोह आप को शहीद करने की तरफ़ मबज़ूल व मुसतेहकम होती गई लेकिन मामून ने आप की शहादत के लिये बहुत ही शातिराना चाल चली और कोशिश की कि उसकी साज़िश का राज़ फ़ाश न हो वह बेख़बर था कि ज़ुल्म व सितम चाहे जिस हद तक और जिस लिबास और आड़ में हो हमेशा के लिये पोशिदा नहीं रह सकता एक न एक दिन तो बरमला हो कर ही रहता है।
वैयलुल लिलमुफ़तरीनल जाहेदीना इनदन क़ज़ाऐ मुद्दते मूसा अबदी व हबीबी...........
(बन्दा और दौस्त की मंज़िल और मर्हला गुज़र जाने के बाद मूसा का इंतेख़ाब किया अफ़सोस और लानत हो अली बिन मूसा पर छोटी निसबत देने वालों कृपर वह तो मेरे दौस्त व मुनिस व मददगार हैं यह वोह हैं जिन के दौश पर बारहा नबुवत की ज़िम्मेदारी डाल सकता हो और ज़िम्मेदारीयां अंजाम दिलाने के ज़रिये इमतेहान में मुबतिला कर सकता हूं। उसे (मामून) जैसा पलीद व ना बकार आदमी क़त्ल करेगा और तूस जैसे शहर में कि जिसे सालह बन्दे ज़ुलक़रनेन ने बनाया है, बद तरीन ख़ल्क़ (हारून) के बग़ल में दफ़्न किया जायेगा।
(उसूले काफ़ी (मुतरजिम) 2,473, अनवारुल बहीयत 365)
एक ख़ुरासानी का ख़्वाब
शैख़ सुदूक़ ने इमामे रज़ा (अ.) के हवाले से नक़्ल किया है कि एक ख़ुरासानी आदमी ने हज़रत से अर्ज़ कियाः यबना रसूल अल्लाह मेने रसूले ख़ुदा (स.) को ख़्वाब में देखा गोया वह मुझ से फ़रमा रहे थे केसे रहोगे कि जब मेरे जिस्म का एक टुकड़ा (नवासा) तुम्हारी सरज़मीन में दफ़्न होगा और मेरी अमानत तुम्हारे हवाले की जायेगी और तुम्हारी सरज़मीन में मेरा सितारा डूबेगा?
फ़क़ाला रज़ा अलैहिस्सलामः अना मदफ़ूनो फ़ी अर्ज़ेकुम व अना बिज़अतुन मिन नबीयेकुम व अनल वदीअतो वन नजमो
(इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमायाः मैं तुम्हारी सरज़मीन में दफ़्न होंगा और मैं तुम्हारे पैग़म्बर के जिस्म का टुकड़ा हूं मैं वह अमानत हूं और मैं ही हूं वह सितारा) इस लिये जान लो कि जो कोई मेरी ज़ियारत करेगा और उस हक़ और पेरवी को जो ख़ुदा ने मेरे लिये वाजिब क़रार दिया है, पहचाने गा, क़यामत के दिन मैं और मेरे वालिदे बुज़ुर्गवार उस की शिफ़ाअत करेंगे और जिन की शिफ़ाअत कर वाने वाले हम होंगे वह क़यामत के दिन निजात पायेगा अगर्चे उस के गुनाह जिन व इन्स के बराबर ही क्यों न हो।
(अमाली सुदूक़े मजलिस 15, हाशिया 10, उयूने अख़बारे रज़ा 2,287, हाशिया 11, मिनल ऐहज़ारतिल फ़क़ीयत 2,350, हाशिया 33, अल बिहार 49,283 हाशिया 1, जिल्द 102, 32, हाशिया 3, कशफ़ुल ग़िमा 2,329, आलामुल वरा 333, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1,233-374,)
शहादत की कहानी इमाम की ज़बानी
शैख़ सुदूक़ की ज़िक्र करदा तफ़सीली रिवायत के मुताबिक़ः हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने हरसमा बिन आइन को तलब किया और फ़रमायाः ऐ हरसमा मेरी मौत का वक़्त आन पहुंचा है मैं अंक़रीब ही अपने नाना और दादा अली (अ.) से जा मिलुंगा।
व क़द अज़ामा हाज़त्ताग़ी अला सम्मी............
और यह ज़ालिम (मामून) मुझे ज़हर आलूद अंगूर और अनार के ज़रीये मारना चाहता है अंगूरे ज़हरे आलूदा के ज़रीये ज़हरीला बनाया जायेगा और अनार दानों को ग़ुलाम के हाथों में लगे ज़हर से ज़हर आलूद किया जायेगा वह कल के दिन मामून (मामून) मुझे अपने पास बुलायेगा और उस ज़हर आलूद अंगूर और अनार को ज़बरदस्ती मुझे खिलायेगा इब्ने जोज़ी ने भी अंगूर के वाक़ेऐ की तरफ़ इशारा किया है और कहा हैः धागे के ज़रीये अंगूर को ज़हर आलूद किया गया उसके बाद हज़रत को खिलाया गया।
(उयूने अख़बारे रज़ा 2,275, हाशिया 1, अल बिहार 49,293, हाशिया 8, कशफ़ुल ग़िमा 2,265 व 332, आलामुल वरा 343, अल मुनाक़िब 4,373, इसबातुल हिदायत 3,281 हाशिया 98, तज़करातुल ख़वास 318)
अबा सलत हरवी की रिवायत
शैख़ दुसूक़ और दूसरों ने अबा सलत हरवी से रिवायत की है कि उन्हों ने कहाः एक दिन मैं हज़रत इमामे रज़ा (अ.) की ख़िदमत में हाज़िर था हज़रत ने मुझ से फ़रमायाः ऐ अबा सलत हारून के मक़बरे में जहां हारून को दफ़्न किया गया है टारों तरफ़ से मट्टी उठा कर लाओ, अबा सलत का कहना है मैं गया और हारून रशीद के मक़बरे में दाख़िल हुआ क़ब्र के चारों तरफ़ की मट्टी उठा कर हज़रत के पास लाया जब मैं हज़रत के पास ख़ड़ा हुआ तो हज़रत ने फ़रमायाः यह मट्टी मुझे दो वह मट्टी जो दरवाज़े के पास और हारून की क़ब्र के पीछे के हिस्से की थी हज़रत ने लिया और सूंगा फिकर उसे ज़मीन पर डालते हुऐ फ़रमायाः अंक़रीब ही इस जगह मेरे लिये क़ुब्र बनाई जाऐगी (और हारून मेरे सामने होगा और मैं इस के पीछे दफ़्न हूंगा लेकिन क़ब्र ख़ोदने के वक़्त एक बहुत ही सख़्त पत्थर ज़ाहिर होगा और ख़ुरासान में जितनी भी कदालें हैं अगर लाकर उस को निकालना चाहेंगे तो भी वह पत्थर नहीं निकलेगा उस के बाद वह मिट्टी जो हारून के क़ब्र के नीचे और ऊपर की सिम्त लाया था हज़रत ने लेकर सूंघा और वही बात दोबारह दोहराई।
फ़िर फ़रमायाः (क़िबले की जानिब की) यह मिट्टी मुझे दो क्यों कि यही मेरी क़ब्र की जगह है अंक़रीब मेरी क़ब्र यहीं बनाई जाऐगी उन्हें कहना कि सात दरजा नीचे तक ख़ोदेंगे और मेरी लहद व ज़राआ और एक बालिश्त बनायेंगे क्यों कि ख़ुदा वन्दे आलम जिस क़दर चाहेगा उस को वसी करेगा।
जब क़ब्र ख़ोदी जाऐगी तो सरहाने से रुतूबत निकलती हुई दिखाई देगी उस वक़्त वोह दुआ पढ़ना जो तुम्हें बताऊंगा उस के बाद पानी उबल कर इस तरह निकलेगा कि उस में छोटी छोटी मछलीयां तैरती हुई नज़र आऐंगी यह रोटी मैं तुम्हें दे रहा हूं इन को टुकड़े कर के उन मछलीयों को ख़िला देना उस के बाद एक बड़ी मछली दिखाई देगी जो उन सारी छोटी मछलीयों को निगल जायेगी उस के बाद वह जाकर छिप जायेगी उस के बाद वह दुआ पढ़ना जो मैं तुम्हें बताऊंगा फिर उसके बाद वह सारा पानी क़ब्र से निकल कर ख़त्म हो जायेगा यह सब कुछ जो तुम्हें बता रहा हूं सिर्फ़ व सिर्फ़ मामून की मौजूदगी में अंजाम देना।
मैं कल मामून के पास जाऊंगा
फ़िर फ़रमायाः ऐ अबा सलत मैं कल उस फ़ाजिर शख़्स के पास जाऊंगा अगर मैं उस के घर से बाहर आया तो मुझ से बात करना और अगर सर को ठका हुआ देखा तो मुझ से बात मत करना अबा सलत ने कहा दूसरे दिन सुब्ह को इमाम अलैहिस्सलाम ने अपना लिबास ज़ैब तन किया और मेहराबे इबादत में बैठ कर इंतेज़ार करने लगे।
इसी मौक़े पर मामून का ग़ुलाम हाज़िर हुआ और बोलाः मामून ने आप को तलब किया है इमाम (अ.) ने अपनी नालैन पहनी और अबा को दौश पर डाला और ग़ुलाम के साथ रवाना हो गये मैं भी हज़रत के पीछे पीछे रवाना हुआ जब हज़रत मामून के पास पहुंचे तो मैंने देखा कि मामून के सामने रंग बरंगे फल मिन जुम्ला अंगूर तबक़ में रखे हुऐ थे और मामून अंगूर के दानों को खा रहा था और वह अंगूर जो ज़हर में डूबे हुऐ थो अलग रखे थे।
जब उस की नज़र इमामे रज़ा (अ.) पर पड़ी तो वह उठ खड़ा हुआ और हज़रत को गले से लगाया पैशानी का बोसा लिया और आप को अपने पास बैठा लिया और फिर ज़हर आलूद अंगूर का गुच्छा हज़रत की तरफ़ बढ़ाते हुऐ बोलाः ऐ फ़रज़न्दे रसूल मैंने इस से अच्छा अंगूर आज तक नहीं देखा हज़रत इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमायाः शायद जन्नत का अंगूर इस से अच्छा हो।
मामून ने कहाः यह अंगूर खायें हज़रत ने फ़रमायाः मुझे इस अंगूर से दूर ही रखो मामून ने कहा कोई फ़ाइदा नहीं इसे खाना ही पड़ेगा क्या आप मुझ पर इलज़ाम लगाना चाहते हैं उस के बाद उस ने एक अंगूर का गुच्छा उठाया और खाने लगा अंदर ज़हर आलूद गुच्छा इमाम की तरफ़ बढ़ाते हुऐ खाने की ज़िद करने लगा।
फ़क़ाला मिनहुर्रज़ा अलैहिस्सलाम सलासा हब्बातिन, सुम्मा रमा बेही व क़ामा................
हज़रत रज़ा (अ.) ने उन अंगूर में से सिर्फ़ तीन दाने खाये और बाक़ी को ज़मीन पर फेंक दिया फिर फ़ौरन उठ ख़ड़े हुऐ मामून बोला कहां जा रहे हो वहीं जहां पर तुम ने भैजना चाहा है।
उस के बाद हज़रत मामून लानतुल्लाह के दरबार से निकले अपने सर को ठक रखा था और मैंने भी हज़रत के हुक्म के मुताबिक़ उन से कोई बात नहीं की फिर वह घर में दाख़िल हुऐ और मुझ से फ़रमाया कि घर का दरवाज़ा बन्द कर दो वह अपने बिसतर पर गये और मैं भी घर के आंगन में ग़मज़दा और मायूस खड़ा रहा।
इमामे जवाद अलैहिस्सलाम की अपने वालिद के सरहाने मौजूदगी
नोजवान को देखा जो इमामे रज़ा (अ.) से शक्ल व सूरत में मुशाबेहत रखता था। वोह जैसी ही अन्दर दाख़िल हुआ मैं उस की तरफ़ बढ़ा और अर्ज़ कियाः तुम कहां से दाखिल हुऐ जब कि मैं ने दरवाज़ा तो बन्द कर रखा था ?
फ़क़ालाः अल्लज़ी जाआ बी मिनल मदीनते फ़ी हाज़ल वक़्ते, होवल लज़ी अदख़लनी अद्दारा वल बाबो मुग़लक़ुन......................................
(फ़रमायाः जो ख़ुदा मुझे शहरे मदीना से शहरे यहां तूस ला सकता है वह इस बन्द दरवाज़े से दाख़िल कराने की भी ताक़त रखता है। तुम कौन हो ? फ़रमायाः मैं तुम पर ख़ुदा की हुज्जत हूं, ऐ अबा सलत! मैं मुहम्मद बिन अली (अ.) हूं)
अबा सलत ने कहाः वोह अपने वालिद के पास गये और अपने साथ मुझे भी आने का इशारा किया मैं भी अन्दर दाख़िल हुआ।
फ़लम्मा नज़ारा एलैहिर्रज़ा अलैहिस्सलाम व सबा एलैहि फ़आनक़ाहु व ज़म्माहु ऐला सदरेही....
(लिहाज़ा जैसे ही अपने वालिदे गिरामी के कमरे में दाख़िल हुऐ और उस मज़लूम व मसमूम की निगाह उन पर पड़ी अपनी जगह से उढ़े और इमामे जवाद अलैहिस्सलाम को अपने कलेजे से लगाया। उन की पैशानी का बोसा लिया और अपने अज़ीज़ फ़रज़न्द को आग़ोश में भीच ज़ोर से लिया, उन की आँखों के बीच का बोसा लिया अपने फ़रज़न्द को अपने बिसतर पर बैठाया, इमामे जवाद अलैहिस्सलाम अपने बाबा के सीने से लिपट कर उन की ख़ुशबू सूंघ रहे थे इमामे रज़ा (अ.) कुछ राज़ की बातें उन के कान में बता रहे थे, जिसको मैं नहीं समझ पाया कि क्या कहा था)
अलबत्ता वोह राज़ की बातें, इमामत व विलायत और वह उलूम थे जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से हज़रत अली (अ.) और उन से होते हुऐ एक के बाद एक सभी इमामों तक मुंतक़िल होते रहे हैं, इस वाक़े के बाद इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की पाकीज़ा रुह अपने अजदाद अलैहिमुस्सलाम की रुह से मुलहक़ हो गई।
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का ग़ुस्लो कफ़न
फिर इमामे जवाद अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ऐ अबा सलत उस कमरे के अंदर जाओ और ग़ुस्ल के लिये पानी और लकड़ी का तख़ता लेकर आओ, मेने अर्ज़ कियाः इस कमरे में न तो पानी है और न ही लकड़ी का तख़ता। आप ने फ़रमायाः मैं ने जो कुछ कहा उस पर अमल करो, मैं भी कमरे में दाखिल हुआ मैंने देखा कि वहां पानी और तख़ता दोनों मौजूद हैं, उन्हें लेकर आया और अपना लिबास ऊपर उठाया ताकि इमामे रज़ा (अ.) को ग़ुस्ल देने में हज़रत की मदद कर सकूं।
फ़क़ाला लीः तनाहा या अबा सलतिन फ़इन्ना ली मन योईननी ग़ैरोका
(मुझ से फ़रमायाः ऐ अबा सलत तुम हट जाओ, यक़ीनी तौर पर तुम्हारे अलावा कोई और है जो मेरी मदद करेगा) (यानी फ़रिशते और मलाऐका मेरी मदद करेंगे)
ग़ुस्ल देने के बाद मुझ से फ़रमायाः कमरे के अंदर जाओ और हज़रत के लिये जो कफ़न और हुनूत का सामान रखा है मेरे लिये लेकर आओ, मैं जब कमरे में दाखिल हुआ तो देखा एक टोकरी में कफ़न और हुनूत का सामान रखा हुआ है जब कि उस से पहले कमरे में कुछ भी नहीं था, वोह सब सामान लेकर मैं बाहर आ गया, इमामे जवाद अलैहिस्सलाम ने अपने वालिद को कफ़न और हुनूत दिया और उन की नमाज़े जनाज़ा पढ़ी, फिर फ़रमायाः ताबूत लेकर आओ, मैंने अर्ज़ कियाः बड़हई के पास जाऊं और ताबूत बनवाने के लिये बोलूं ? आप ने फ़रमायाः उठो और जाकर देखो उसी कमरे में ताबूत रखा हुआ है, मैं ने वोह ताबूत उठा कर हज़रत की ख़िदमत में पैश किया। उन्हों ने इमामे रज़ा (अ.) के पाकीज़ा जिस्म को उठा कर ताबूत में रखा, दो रकत नमाज़ पढ़ी अभी नमाज़ पूरी भी नहीं हुई थी कि देखा आप का ताबूत ज़मीन से बुलन्द हुआ और घर की छत को पार करता हुआ आसमान की तरफ़ परवाज़ करने लगा। मैंने अर्ज़ कियाः यबना रसूल अल्लाह (स.) मामून आयेगा और हज़रत इमामे रज़ा (अ.) के बारे में मुझ से पूछेगा तो मैं क्या जवाब दूंगा ? हज़रत ने फ़रमायाः ख़ामौश रहो जल्द ही ताबूत वापस आयेगा, ऐ अबा सलत ! अगर कोई पैग़म्बर दुनिया के मशरिक़ी हिस्से में रेहलत करे और उसका वसी मग़रिबी हिस्से में रहता हो तो ख़ुदा वन्दे आलम उन की रुहों को एक जगह जमा कर के मिलाता है, हज़रत बात कर ही रहे थे कि अचानक छत में शिग़ाफ़ हुआ और ताबूत ज़मीन पर आकर रुक गया, इमामे जवाद (अ.) ने हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को ताबूत से निकाला और उन के बिसतर पर इस तरह लिटा दिया गोया ग़ुस्लो कफ़न न किया हो।
मामून लानतुल्लाह की रिया कारी
फिर इमामे जवाद (अ.) ने फ़रमायाः ऐ अबा सलत उठो और मामून के लिये दरवाज़ा खोलो, मामून को उसके नोकरों के साथ दरवाज़े पर खड़ा देखा।
फ़दख़ाला बाकेयन हज़ीनन क़द शक़्क़ा जैबहु, व लतामा रासोहु
(मामून ग़म व अंदोह की हालत में रोता हुआ दाख़िल हुआ, उस ने गिरेबान चाक कर रखा था और सर पीट रहा था।)
वह कहने लगा, ऐ मेरे मौला, मैं आप के ग़म में निढ़ाल हो गया। फिर हज़रत के सरहाने खड़े होकर बोला ग़ुस्लो कफ़न की कारावाई शुरु की जाये फिर हज़रत की क़ब्र तैयार करने का हुक्म दिया जब क़ब्र तैयार की जाने लगी तो जैसा कि इमामे रज़ा (अ.) ने फ़रमाया था, वैसा ही हुआ और हारून की क़ब्र के तीन कौनों में ज़मीन खोदी न जा सकी मामून के एक हवारी ने उस से कहा क्या आप को यक़ीन नहीं है कि वोह इमाम नहीं ? मामून ने कहाः क्यों नहीं मैं मानता हूं उस ने कहा तो फिर इमाम को चाहे वोह ज़िन्दा हो या मुर्दा दोनों सूरतो में अवाम में सब से मुक़द्दम होता है मामून ने भी हुक्म दिया सिमते क़िबला, हारून के सामने, क़ब्र तैयार की जाये और मैंने भी क़ब्र की सूरते हाल के सिलसिले में इमाम की वसीअत से मामून को बाख़बर किया, उस ने भी वैसा ही करने का हुक्म दिया जब क़ब्र से पानी और मछली का वाक़ेआ मामून ने देखा तो बोलाः हज़रत रज़ा (अ.) अपनी ज़िन्दगी में ही मौजिज़ा और करामतें दिखाया करते थे और उन्हें वफ़ात के बाद भी मेरे लिये उन की करामतें ज़ाहिर हो रही हैं। (जब बड़ी मछली ने छोटी मछलीयों को निगल लिया तो मामून से एक वज़ीर ने जो वहां मौजूद था कहाः क्या आप को मामूल है कि हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम आप को किस बात से आगाह कराना चाहते हैं ? मामून ने कहा नहीं।
उस ने कहा हज़रत ने आप को यह ख़बर दी है कि आप बनी अब्बास की हुकूमत इन छोटी मछलीयों की तरह इस क़दर तवील मुद्दत होने कै बावजूद किसी के ज़रिये मुकम्मल तौर पर ख़त्म कर दी जायेगी, किसी दूसरे के ज़रिये जो आप से ज़्यादा ताक़त वर होगा इस हुकूमत का क़िला क़िमा हो जायेगा ख़ुदा वन्दे आलम, हमारे ही ख़ानदान से एक आदमी को तुम पर मुसल्लत करेगा और तुम सब का एक साथ ख़ातमा हो जायेगा, मामून ने कहाः तुम सही कह रहे हो।
अबा सलत का कहना हैः इमामे रज़ा (अ.) के दफ़्न हो जाने के बाद मामून ने मुझ से कहाः जो दुआऐं तुम ने पढ़ीं वह मुझे भी याद कराओ, मैंने कहाः ख़ुदा की क़सम वह दुआऐं भूल गया, मगर मामून को मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ जब कि मैं सच बोल रहा था, उस ने मुझे कैदी बना कर बन्द कर देने का हुक्म दिया, मैं एक साल तक जैल में रहा, क़ैद ख़ाने में मेरा दिल घबराता था, एक रात जागता रहा और ख़ुदा की मुनाजात और दुआओं में गुज़ारी और मुहम्मद व आले मुहम्मद को याद किया और ख़ुदा वन्दे आलम से दरख़्वास की कि मेरे लिये कोई रास्ता निकल कर सामने आये और निजात हालिस हो अभी मेरी हुआ ख़त्म भी नहीं हुई थी कि देखा हज़रत मुहम्मद बिन अली इमामे जवाद (अ.) क़ैद ख़ाने में दाखिल हुऐ और फ़रमायाः ऐ अबा सलत, परैशान हो गऐ ? मैंने अर्ज़ किया हां ख़ुदा की क़सम!
फ़रमायाः उठो और मेरे साथ बाहर आओ, फिर उन्हों ने मेरी कमर और हाथ पावं में पड़ी बैड़ीयों और ज़ंजीरों को हाथ से मस किया और वह ख़ुल कर ज़मीन पर आ पड़ीं, उन्हों ने मेरा हाथ पकड़ा और क़ैद ख़ाने से निकाल कर बाहर लाये जबकि सिपाही मुझे वहां से निकाल कर जाते हुऐ देख रहे थे, लेकिन इमामत के ऐजाज़ से वह कुछ बोलने पर क़ादिर नहीं थे, जब हम बाहर आये तो इमाम ने फ़रमायाः तुम ख़ुदा की पनाह में हो अब मामून तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, अबा सलत का कहना हैः मैं चला गया और वोह ही हुआ जैसा कि इमामे अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया था।
(अमाली सुदूक़े मजलिस 94, हाशिया 17, उयूने अख़बारे रज़ा 2/271 हाशिया 1, अल बिहार 49/300, हाशिया 10, आलामुल वरा 340, अल मुनाक़िब 4)
मसऊदी ने भी अब्दुल रेहमान बिन याहया की ज़बानी हज़रत की शहादत का वाक़ेआ नीज़ इमामे जवाद (अ.) के ज़रिये हज़रत को ग़ुस्लो कफ़न देने और नमाज़ पढ़ने का ज़िक्र किया है।
(इसबाते वसीयत 304, हाशिया 2)
नीज़ याक़ूबी का भी लिखना है कि मामून तीन दिन तक इमाम (अ.) की क़ब्र के पास मौजूद था, रोज़ाना उस के लिये रोटी और नमक लाया जाता और बस उस का खाना यही था, फिर वह चार दिन बाद वहां से रवाना हुआ।
(तारीख़े याक़ूबी 2/471)
ज़हर आलूद अनार का वाक़ेआ
शैख़ मुफ़ीद और दूसरों ने लिखा है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम मामून को अकेले में बहुत ज़्यादा नसीहतें फ़रमाते थे और ख़ुदा से डराया करते थे और अगर इमाम के बरख़िलाफ़ कोई काम करता तो उसको बहुत ज़्यादा बुरा भला कहा करते, मामून भी ज़ाहिरी तौर पर उन की बातों को मानता था यहां तक कि उस को बुरा मानता और पसन्द नहीं करता था।
इक दिन इमामे रज़ा (अ.) मामून के पास तशरीफ़ लाये देखा मामून वुज़ू करने में मसरूफ़ है, इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ऐ मामून के सरबराह ख़ुदा की परसतिश में जूसरों को शरीक क़रार न दो, यह सुन कर मामून ने ग़ुलाम को हटा दिया। ख़ुद पानी डाला और वुज़ू किया। लेकिन हज़रत के सिलसिले में उस के दिल में नफ़रत और कीने ने जड़ पकड़ना शुरु कर दिया दूसरी तरफ़ मामून जब भी फ़ज़ल बिन सहल और उसके भाई हसन की बातें इमाम (अ.) से करता तो हज़रत उन की बुराईयों को उजागर करते थे और हमेशा ही मामून के गौश गुज़ार करते थे कि इन दोनों की बातों को बग़ैर किसी तेहक़ीक़ के मान न लिया करो।
फ़ज़ल और हसन क इस बात की ख़बर हो गई उस के बाद उन दोनों ने इमाम (अ.) के ख़िलाफ़ मामून को वरग़लाना शुरु कर दिया, वह मुख़तलिफ़ बहानों से इमाम अलैहिस्सलाम के कान और उन की बातों पर नुकता चीनी और तंक़ीद किया करते और इस तरह की बातें करते और इस तरह की बातें करते जिस से मामून और इमामे रज़ा (अ.) के दर्मियान दुरीयां बढ़ती जायें, यह दोनों हर वक़्त, अवाम के दर्मियान इमाम अलैहिस्सलाम की बढ़ी मक़बूलियत से मामून को ख़ाएफ़ किया करते थे, नतीजा यह हुआ कि इमाम के सिलसिले में मामून के नज़रिये में तबदीली आ गई और उस ने भी इमाम अलैहिस्सलाम को क़त्ल करने का मंसूबा बना लिया। चुंनाचे एक दिन हज़रत ने मामून के साथ खाना नौश किया और बीमार हो गऐ यह देख कर मामून ने भी बीमार होने का बहाना बनाया।
इस के बाद अब्दुल्लाह बिन बशीर रिवायत करते है कि उन्हों ने कहाः मामून ने मुझे हुक्म दिया कि अपने नाख़ूनों को बढ़ाओ और अपने इस काम को मामुली काम ज़ाहिर करो, मैंने भी ऐसा ही किया फिर उसने इमली की तरह की कोई चीज़ दी और कहा इस को अपने दोनों हाथों में अच्छी तरह रगड़ लो, मैंने भी हुक्म के मुताबिक़ अमल किया। फिर उसने मुझे अलेका छोड़ दिया और इमाम (अ.) के पास जाकर बोलाः अब आप की तबीअत केसी है ? हज़रत ने फ़रमायाः उम्मीद है कि जल्द ही सेहत याब हो जाऊंगा, मामून ने कहा मैं भी आज अलहमदो लिल्लाह सेहतयाब हूं, क्या आप के ग़ुलामों और नौकरों में से कोई आज आप के पास आया है ? हज़रत ने फ़रमायाः नहीं, मामून यह सुन कर अपने आदमीयों पर ग़ुस्सा कर के चिल्लाने लगा कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में कमी और कोताही क्यों की जा रही है। फिर बोलाः अभी आप थोड़ा अनार का रस नौश फ़रमालें क्यों कि बीमारी से वुजूद में आने वाली कमज़ोरी दूर करने के लिये उसका ख़ाना ज़रूरी है, उसके बाद अब्दुल्लाह बिन बशीर को तलब किया और कहाः हमारे लिये अनार लेकर आओ, उसका कहना है कि मैंने भी हुक्म की तामीर की और अनार लेकर आया, मामून ने कहाः अनार को अपने हाथों से निचोड़ कर उसका रस निकालो। मैंने भी उसी हाथ से जो मामून ने ज़हर आलूद किया था अनार को निचोड़ कर उसका रस निकाला और मामून ने वह रस इमाम अलैहिस्सलाम को ज़बर दसती पिला दिया जिस की वजह से इमाम अलैहिस्सलाम की बीमारी में इज़ाफ़ा हो गया, और सरअंजाम शहादत वाक़े हुई। याक़ूबी ने भी अपनी तारीख़ की दूसरी जिल्द के सफ़्हा नम्बर 471 में इसी बात की तरफ़ इशारा किया है और लिखा है कि हज़रत की बीमारी तीन दिन से ज़्यादा न थी और इस वाक़ेए के बाद दो दिन से ज़्यादा नहीं रहे और इस दारे फ़ानी को विदा किया। और अबा सलत के हवाले से भी नक़्ल किया गया है कि उन्हों ने कहाः जिस वक़्त मामून हज़रत इमामे रज़ा (अ.) के पास से उठ कर गया मैं कमरे में दाखिल हुआ, हज़रत ने मुझ से फ़रमायाः ऐ अबा सलत इन लोगों ने अपना काम कर दिया, (मुझे ज़हर दे दिया) इस हालत में आप ख़ुदा की हम्द व सना और शुक्र में मशग़ूल थे। शैख़ सुदूक़ ने भी रिवायत नक़्ल की है और कहा है कि उस वक़्त इमाम (अ.) को बुख़ार था और मामून हज़रत की मिज़ाज पुर्सी को आया और अनार भी हज़रत के घर में रखा था, और मुहम्मद बिन जहम से भी रिवायत की गई है कि उन्हों ने कहाः हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम को अंगूर बहुत पसन्द था, हज़रत के लिये अंगूर का बन्द व बस्त किया गया जब आप को ज़हर दिया गया तो कुछ अंगूर को सुई के ज़रीये ज़हर आलूद किया गया और हज़रत को खाने के लिये दिया गया। हज़रत ने उस बुख़ार और बीमारी की हालत में वह ज़हर आलूद अंगूर नौश फ़रमाया और उसी से उन की शहादत वाक़े हुई।
बताया जाता है कि इस तरह से ज़हर का दिया जाना बहुत ही होशियारी पर मबरी माहिराना काम है।
(अल अर्शाद 2,260, से 262, तक अल बिहार 49,308, हाशिया 18 मक़ातेलुत्तालेबीन 456, कशफ़ुल ग़िमा 2,281, करोज़ातुल वाऐज़ीन 1,232, आलामुल वरा 339, अल मुनाक़िब 4,374, उयूने अख़बारे रज़ा 2,267, हाशिया 1, इसबाते वसीयत 401, (इबारत में फ़र्क़ के साथ है)
लिखा गया है कि इमामे रज़ा (अ.) की ज़बाने मुबारक से आख़री जुमला जो अदा हुआ वह यह आयत थीः क़ुल लौ कुनतुम फ़ी बुयुतेकुम लबाराज़ल्लज़ीना कोतेबा अलैहेमुल क़त्लो ऐला मज़ाजेऐहिम.........
कह दो कि तुम अगर घरो में भी होते अगर उन के नसीब में क़त्ल किया जाना लिखा था तो वह अपने बिसतर में भी इस लिखी तक़दीर से दो चार कर दिये जाते (और उन का क़त्ल कर दिया जाता) (आले इमरान आयत 154)
नौटः इन तमाम रिवायात से यह नतीजा अख़्ज़ होता है कि मामून ने मुसलसल कई मरतबा इमाम को ज़हर दिया, एक मरतबा हज़रत के खाने में ज़हर मिलाया, दूसरी मरतबा अनार को ज़हर आलूद किया और उसके ज़रिये हज़रत को ज़हर दिया फिर तीसरी मरतबा अंगूर में ज़हर डाल कर हज़रत को खिलाया। अला लानतुल्लाहे अलल क़ौमिज़्ज़ालेमीन।
इसी बुनियाद पर अबुल फ़रज इसफ़ेहानी वग़ैरा के हवाले से अबा सलत हरवी के ज़रिये कहा गया है कि उन्हों ने कहाः इमाम अलैहिस्सलाम जब हालते ऐहतेज़ार में थे उस वक़्त मामून हज़रत के सरहाने आया और फूट फूट कर रोने लगा और बोलाः मेरे भाई, मेरे लिये बहुत मुशकिल है कि मैं ज़िन्दा रहूं, मुझे आप के बाहयात होने की तमन्ना थी आप की मौत से ज़्यादा मेरे लिये तकलीफ़ देने वाली यह बात है कि लोग यह कह रहे हैं कि मैंने आप को ज़हर दिया है। (मक़ातेलुत्तालेबीन 460, अल बिहार 49,309 हाशिया 19)
मज़कूरा दावे का दूसरा गवाह यह है कि जब मामून ने इमामे रज़ा (अ.) को शहीद कर दिया तो इमाम अलैहिस्सलाम की वफ़ात की ख़बर को चौबीस घंटे छुपाये रखा फिर आले मुहम्मद के घराने वालों को जो कि ख़ुरासान में मौजूद थे तलब किया और जब वह लोग आये तो उन्हें ताज़ीयत पैश की और ज़ाहिरी तौर पर उन के सामने इज़हारे रंज व ग़म करता रहा।
वराहुम इय्याहो सहीहल जसादे इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के जिस्मे मुबारक को उन्हें दिखाया कि बिलकुल सही व सालिम है।
(अल इर्शाद 2,262, अल बिहार 49,309, आलामुल वरा 344, कशफ़ुल ग़िमा 2,282, व 333, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1,233, मक़ातेलुत्तालेबीन 458)
जैसा कि ज़िक्र किया गया है, कि हारून रशीद लानतुल्लाह अलैह ने हज़रत इमामे मूसा काज़िम (अ.) को भी इसी तरह शहीद किया था और वह अपने घिनोने काम को एक फ़ितरी और मामूली मौत ज़ाहिर कर रहा था।
मरहूम रवानदी और अल्लामा मजलिसी ने बसाएरुद दरजात में हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने मुसाफ़िर से फ़रमायाः अमा इन्नी राऐतो रसूल अल्लाहे (स.) अल बारेहतो व होवा यक़ूलोः या अलीयो मा इनदना ख़ैरुन लका ।
ऐ मुसाफ़िर, जान लो कि कल रात मैंने अपने नाना रसूले ख़ुदा (स.) को ख़्वाब में देखा कि वोह फ़रमा रहे थे, ऐ अली जो कुछ हमारे पास है वह तुम्हारे लिये बेहतर है, और कुछ दिनों बाद रेहलत फ़रमा गये।
(अल ख़िराज वल जराएह 295, हाशिया 24 अल बिहार 49,306, हाशिया 15, बसाऐरुद दरजात सफ़्हा 483, जलाऐलुल उयून 498)
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया बदतरीन ख़ल्क़े ख़ुदा मुझे ज़हर देकर मारेगा
शैख़ सुदूक़ ने अपनी सनद में अबा सलत हरवी के हवाले से नक़्ल किया है कि उन्हों ने कहाः समेतुर्रज़ा अलैहिस्सलाम यक़ूलोः वल्लाहे मा मिन्ना इल्ला मक़तूलुन शहीदुन, फ़क़ीला लहुः फ़मन यक़तोलोका यबना रसूल अल्लाह? क़ालाः शर्रो ख़लक़िल्लाहे फ़ी ज़मानी, यक़तोलोनी बिस्सिम्मे, यदफ़ोनोनी फ़ी जारिन मुज़ीअतिन व बिलादिन ग़ुरबतिन) हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम को फ़रमाते हुआ सुना कि ख़ुदा की क़सम हम ऐहले बैत में से कोई भी नहीं है जो मक़तूल और शहीद न हो, अर्ज़ा किया गया, ऐ फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा (स.) आप को कौन मारेगा ? फ़रमायाः मेरे ज़माने में ख़ुदा की बद तरीन मख़लूक़, मुझे ज़हर देकर मारेगी, फिर मुझे हलाकत के मक़ाम पर (हारून रशीद के मक़बरे में) दयारे ग़ैर में दफ़्न कर देगा। फिर फ़रमायाः जान लो ! जो कोई दयारे ग़ैर में मेरी ज़ियारत करेगा ख़ुदा वन्दे आलम उसके नामा-ए-आमाल में एक लाख शहीद, एक लाख सिद्दीक़, एक लाख हाजी, और उम्रा करने वाला, और एक लाख मुजाहिद का अज्र व सवाब, मंज़ूर फ़रमायेगा और वह हमारे गिरोह और लोगों में मेहशूर किया जायेगा और जन्नत में भी आला मक़ाम हासिल करेगा जहां हमारे ऐहबाब होंगे।
(अमाली शैख़ सुदूक़े मजलिस 15, हाशिया 8, उयूने अख़बारे रज़ा 2,287, हाशिया 9, अल बिहार 49,283, हाशिया 2 व जिल्द 102,32 हाशिया 2, रोज़ातुल वाऐज़ीन 1,233, इसबाते हिदायत 3,254, हाशिया 26)
बहुत सी रिवायतों से यह नतीजा निकलता है कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का क़ातिल मामून लानतुल्लाह अलैह था और अल्लामा मजलिसी मरहूम अरबिली के कलाम के नक़्ल के ज़िम्न में लिखते हैः फ़ल हक़्क़ो मा इख़तारहुस सुदूक़ो वल मुफ़ीदो व ग़ैरोहुमा मिन अजिल्लते असहाबेना अन्नहु अलैहिस्सलाम मज़ा शहीदन बेसिम्मिल मामूनिल लईने अलैहिल्लानतो........
हक़ वही है जो दो शिया बुज़ुर्गवारों यानी सुदूक़ और मुफ़ीद और उन के अलावा दूसरों ने माना है कि इमामे रज़ा (अ.) मलऊन मामून के ज़रिये दिये गये ज़हर से शहीद हुऐ, ख़ुदा वन्दे आलम मामून और दीगर ग़ासिबों और सितमगरों पर हमेशा लानत करे। आमीन या रब्बील आलामीन। (अल बिहार 49,313)
यहां मुनासिब मालूम होता है के इमामे रज़ा (अ.) के उन दो अशआर का ज़िक्र किया जाये जो उन्हों ने देबिले ख़ज़ाई के अशआर के जवाब में बयान फ़रमाये थे। उस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि शैख़ सुदूक़ और दूसरों के नक़्ल करने के मुताबिक़ देबिल बिन ख़ज़ाई ने काफ़ी तवील क़सीदा लिखा और इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में हाज़िर हुऐ उन की मौजूदगी में उस को पढ़ा, उस क़सीदे का आग़ाज़ इस तरह होता है.
मदारेसो आयातिन ख़ालत अन तिलावतिन
व मंज़ेलो वहीइन मुक़फ़ेरुल अरासातिन
(आयतों के वह मदरसे जो तिलावत और क़राअत से ख़ाली हों और वही की मंज़िलें और जगहें जो ख़ुश्क ज़मीन में तबदील हो गई हों)
देबिल ने अपना क़सीदा पढ़ा और इस शैर पर पहुंचे।
अरा फ़ैअहुम फ़ी ग़ैरेहिम मुताक़स्सेमन
व ऐदीहिम मिन फ़ैएहिम सफ़ेरातुन
(देख रहा हूं कि उन की दौलत दूसरों को बांट दी गई और वही लोग अपनी दौलत से मेहरूम कर दिये गये)
इस मौक़े पर इमाम (अ.) ने गिरया फ़रमाया और इर्शाद फ़रमायाः सद्दक़ता या ख़ुज़ाई, ऐ ख़ुज़ाई तुम ने सच कहा फिर देबिल अपना क़सीदा पढ़ते हुऐ इस शैर पर पहुंचेः
व क़बरुन बेबग़दादे लेनफ़सिन ज़कीयतिन
ताज़म्मनाहा रेहमानो फ़ी ग़ुरोफ़ातिन
(और बग़दाद (मूसा बिन जाफ़र अलैहिस्सलाम) की पाकीज़ा हसती की क़ब्र है जिसको ख़ुदा वन्दे आलम ने जनती कमरों के गिर्द क़रार दिया है)
ख़ुद के लिये इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का मरसियाः
क्या यहां मैं दो अशआर का इज़ाफ़ा कर के तुम्हारा क़सीदा कामिल कर दूं ? अर्ज़ कियाः जी हां ज़रूर ज़रूर इज़ाफ़ा करें ऐ फ़रज़न्दे रसूल ख़ुदा (स.)
इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः
वक़बरिन बेतूसिन या इलाहा मिन मुसीबतिन
तवक़्क़दा बिल अहशाऐ फ़ी हराक़ातिन
ऐलल हशरे हत्ता यबअसल्लाहो क़ाऐमन
योफ़र्रेजो अन्नल हम्मा वल कुरोबातिन
और तूस में भी एक क़ब्र है जिस के मालिक को क्या क्या मुसीबतें और परेशानियां नहीं झैलनी पड़ी हैं वह मुसीबत ऐसी है जो इंसान को अन्दर जला देती है।
उन मुसीबतों के आसार व नताइज उस वक़्त तक बाक़ी रहेंगे जब तक कि ख़ुदा वन्दे आलम क़ायमे आले मुहम्मद का ज़हूर न कर दे, और वह ही आकर हमारे रंज व ग़म को दूर करेंगे।
देबिल ने अर्ज़ कियाः यब्ना रसूल अल्लाहे हाज़ल क़बरिल्लज़ी बेतूसिन क़बरो मन होवा? क़ालर्रज़ा अलैहिस्सलामः क़बरीः
(ऐ फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा (स.), वह क़ब्र जो तूस में होगी वह किस की होगी ? फ़रमायाः मेरी क़ब्र होगी, और ज़्यादा अर्सा नहीं गुज़रेगा कि वहां शियों और ज़ियारत करने वालों का मजमा लग जाऐगा लिहाज़ा जान लो कि जो कोई दयारे ग़ैर तूस में मेरी ज़ियारत करेगा वह क़यामत के दिन मेरे साथ मेरे हम रुतबा होगा। और वह बख़शा जायेगा।
(कमालुद्दीन 1,374, उयूने अख़बारे रज़ा 2,294, हाशिया 34, आलामुल वरा 330, कशफ़ुल ग़िमा 2,323,327, अल मुनाक़िब 4,338, अल बिहार 49,239 हाशिया 9, शैख़ मुफ़ीद ने भी इख़तेसार के साथ देबिल के वाक़ेऐ का ज़िक्र किया है। अल इर्शाद 2,255, इसबाते हिदायत 3,284 हाशिया 102)
याद दहानीः दीगर किताबों मिनजुमला मुनाक़िब में पहली बैत का दूसरा मिसरा इस तरह आया हैः अलहत अल्ल अहशाऐ बिज़्ज़फ़ाराते ऐसी मुसीबतें जो नुफ़ूस और दिलों को मजरूह कर दे)
मेहदी मोऊद अज्जल्लाहो ताला फ़राजाहुश्शरीफ़ का नाम सुनकर इमामे रज़ा (अ.) का शदीद गिरया।
अबा सलत का कहना हैः देबिल ने अपने शेर जारी रखते हुऐ कहाः
ख़ुरूजे इमामिन ला महालता ख़ारेजुन
यक़ूमो अलस मिल्लाहे वल बराकाते
योमय्येज़ो फ़ीना कुल्ला हक़्क़ा व बातिले
व यजज़ी अलन नोमाऐ वन्नक़ेमाते
(सर अंजाम ऐसा इमाम ज़हूर करेगा जो ख़ुदा का नाम और इलाही बरकतों के हमराह इंक़ेलाब लाऐगा)
वह हमारे दर्मियान हर हक़ व बातिल को अलग करेगा और अच्छाई और बुराई के बदले मआवेज़ा देगा।
जब इमाम अलैहिस्सलाम ने देबिल से यह दो बैत सुने रावी कहता हैः फ़ाबकर्रज़ा अलैहिस्सलाम बुकाअन शदीदन (इमाम अलैहिस्सलाम शिद्दत के साथ गिरया करने लगे)
देबिल का कहना हैः फिर इमाम अलैहिस्सलाम ने अपना सर उठाया और मुझ से फ़रमायाः ऐ ख़िज़ाई यह दो बैत रूहुल क़ुदुस ने तुम्हारी ज़बान पर जारी किये हैं।
क्या तुम जानते हो यह इमाम (क़ायम) कौन है? और कब इंक़ेलाब लायेंगे मैंने अर्ज़ किया नहीं मेरे मौला मैंने बस इतना सुना है कि आप लोगों के दर्मियान से एक इमाम का ज़हूर होगा जो ज़मीन को बद उनवानी से पाक और अद्ल व इंसाफ़ से भर देंगे। इमाम (अ.) ने फ़रमायाः ऐ देबिल मेरे बाद इमामत की ज़िम्मेदारी मेरे बैटे मुहम्मद पर होगी और मुहम्मद के बाद उन के बैटे अली इमाम होंगे और अली के बाद उन के फ़रज़न्द हसन और हसन के बाद उन के साहिब ज़ादे इमाम और हुज्जत क़ायमे मुंतज़िर होंगे, जिन की ग़ैबत के दौरान लोग उन का इंतेज़ार करेंगे और ज़हूर के मौक़े पर उन के पैरो कार होंगे और यहां तक कि अगर दुनिया की उम्र एक दिन भी बाक़ी रह जाऐगी तो ख़ुदा वन्दे आलम उस दिन को इतना तूलानी बना देगा कि वह ज़हूर करें और दुनिया को उसी तरह अद्ल व इंसाफ़ से भर देंगे जैसी कि वह ज़ुल्म व सितम से भरी होगी मगर यह कब ज़हूर करेंगे इस सिलसिले में मेरे वालिद ने अपने वालिद उन्होंने अपने आबा व अज्दाद अली अलैहिस्सलाम के हवाले से पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़बानी सुना कि उन्हों ने फ़रमायाः आप के नवासों में हज़रत क़ायम का ज़हूर कब होगा तो आप ने फ़रमायाः उन की मिसाल क़यामत की मिसाल जैसी है चूंकी सिवा-ए-ख़ुदा के उस का वक़्त कोई नहीं जानता है। अचानक ही तुम तक आयेगी।
(कमालुद्दीन 1,372, हाशिया 6, उयूने अख़बारे रज़ा 2,296, हाशिया 35, कशफ़ुल ग़िमा 2,328, आलामुल वरा 331, अल मुनाक़िब 4,339, अल बिहार 49,337, हाशिया 6, अल फ़ुसूलुल महिम्मा 233)
इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि तिबरी ने अपनी तारीख़ में इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के बारे में ग़ैरे हक़ीक़त पसन्द दाना और नामक़ूल बातें पैश की हैं वह लिखता हैः
सुम्मा इन्ना अली इब्ने मूसा अकाला ऐनाबन फ़कसरा मिनहो फ़माता फ़ोजाअतुन
(फिर अली बिन मूला रज़ा ने हद से ज़ियादा अंगूर खा लिया जिस की वजह से उन की अचानक मौत वाक़े हो गई)
(तारीख़े तिबरी जिल्द 7,150)
अलबत्ता वाज़ेह है कि इस तरह की तारीख़ का लिखना और क़ज़ावत करना बहुत बड़ा ज़ुल्म है क्योंकि दीगर उमूर मिन जुमला ग़िज़ा और ख़ुराक में ज़्यादा पसन्दी ख़ुदा के औलिया का शैवा नहीं रहा है।
रात मे तदफ़ीन
शैख़ सुदूक़ ख़ादिम यासिर के हवाले अपनी सनद में तहरीर करते हैं कि तूस में हज़रत इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम की हालत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई उन्हों ने अपनी ज़िन्दगी के आख़री वक़्त में ज़ोहर की नमाज़ अदा करने के बाद मुझ से फ़रमायाः
ऐ यासिर क्या मेरे हमराह लोगों ने खाना खा लिया मैंने अर्ज़ कियाः ऐ मेरे मौला जब आप की यह हालत है तो कौन खाना खा सकता है ?
यासिर का कहना है कि यह सुन कर इमाम अलैहिस्सलाम उठ कर बैठ गऐ और फ़रमायाः दसतरख़्वान पिछाई और सब को दसतरख़्वान पर बुलाओ इस के बाद सब अफ़राद की अलग अलग ख़ेरियत दरयाफ़्त की, उन्हें दिलासा दिया और फ़रमायाः ख़्वातीनों के लिये भी खाना ले जाओ, जब सब ने खाना खा लिया इमाम (अ.) को नकाहत ने घेर लिया और बेहोश हो गऐ और उसके बाद गिरया व ज़ारी की आवाज़ें बुन्द हो गईं और मामून की औरतें और कनीज़ें रोती हुई सर पीटती हुईं नंगे पावं घर से निकलीं और तूस में आहो बुका की आवाज़ें सुनाई देने लगीं मामून भी रोता हुआ सर पीटता नंगे पावं अपनी दाढ़ी पर हाथ रख के निकला और इमाम (अ.) के सरहाने आकर खड़ा हो गया, और जब इमाम अलैहिस्सलाम की हालत में सुधार आया तो अर्ज़ कियाः मेरे मौला व आक़ा ख़ुदा की क़सम मुझे नहीं मालूम कि वह मुसीबतों में से कौन सी मुसीबत मेरे लिये बड़ी है आप की जुदाई या लोगों का यह इलज़ाम मैंने आप को ज़हर देकर मारा है।
इमाम अलैहिस्सलाम ने उस की तरफ़ देखा ऐ मोमिनों के सरदार, (मेरे बैटे) अबु जाफ़र के साथ अच्छा बरताओ तुम्हारी और उन की उम्र की दो उंगलियों की तरह है। (यानी तुम दोनों की मौत एक साथ और क़रीब ही है)
ख़ादिम यासिर का कहना हैः इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम उसी रात रहलत फ़रमा गऐ जब सुब्ह हुई तो लोग जमा हुऐ और कहने लगे कि मामून ने इमाम (अ.) को धोके और फ़रैब के ज़रिये मारा है यह भी कह रहे थेः
क़ोतेला इब्ने रसूल अल्लाहे (फ़रज़न्दे रसूले ख़ुदा (स.) को माकर डाला) यही जुमला हर ज़बान पर था। मामून ने मुहम्मद बिन जाफ़र (इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम के चचा) से जो मामून से इमाम नामा हासिल कर के ख़ुरासान में ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे, कहाः लोगों के पास जायें और उन से कहें आज इमामे रज़ा (अ.) का जनाज़ा दफ़्न नहीं किया जायेगा क्यों कि मामून को यह ख़ौफ़ सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि इमामे रज़ा अलैहिस्सलाम का जनाज़ा बाहर जाये और लोग शौर कर बैठें।
उन्हों ने भी लोगों तक पैग़ाम पहुंचा दिया और लोग चले गऐ फिर मामून ने हुक्म दिया कि इमाम अलैहिस्सलाम को रात के अंधेरे में दफ़्न किया जाये रात में ही हज़रत को ग़ुस्ल दिया गया और सुपुर्दे लहद कर दिया गया।
व ग़ुस्सेला अबुल हसने फ़िल्लैले व दोफ़ेना
(उयूने अख़बारे रज़ा 2,269, हाशिया 1, अल बिहार 49,299 हाशिया 9, जलाएल उयून 498, अनवारुल बहीयत 370)
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