लेखकः डा. मोहम्मद तक़ी अली आबदी
चौथा अध्याय
शादी का तरीक़ा
अ. शादी का ख्याल आने पर दुआ
ब. पैग़ाम देना
स. मंगनी
द. निकाह की तारीखों का तय करना
च. महर
छ. खुतबः और निकाह के सीग़े
ज. रूखसती (विदाई) व दुआ
झ. दावत-ए-वलीमा (विवाह भोज)
शादी का बुनियादी तात्पर्य –संभोग-
जवानी में क़दम रखने के बाद प्राकृतिक रूप से प्रत्येक नौजवान मर्द और औरत को अपनी नई ज़िन्दगी का आरम्भ करने के लिए एक अच्छे साथी की तलाश होती है और यह तलाश औरत के मुक़ाबले में मर्द को ज़्यादा होती है। क्योंकि उसे अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ अपने नाम व निशान अर्थात नस्ल को बाक़ी रखने के लिए औलाद की ख्वाहिश होती है जिसका पूरा होना औरत के बिना सम्भव नही है ------ मर्द को औरत की तलाश इसलिए भी होती है कि वह प्राकृतिक तौर पर औरत की सरपरस्ती (देख-भाल, पालन-पोषण) करना चाहता है और औरत इसलिए मर्द का साथ इख़्तियार कर लेती है कि वह प्राकृतिक तौर पर मर्द की सरपरस्ती (अभीभावकता) को क़ुबूल करना चाहती है ------ प्राकृतिक तौर पर मर्द और औरत एक दूसरे की इच्छा इसलिए भी करते हैं कि दोनों मिलकर एक घर को बसा सकें और घरेलू जीवन (अर्थात जोड़ा बनाकर जीवन) व्यतीत कर सकें।
घरेलू जीवन व्यतीत करने की यह प्राकृतिक इच्छा मनुष्यों के अलावा कुछ पशु-पक्षियों (जैसे शेर-शेरनी, कबूतर-कबूतरी, चिङिया-चिडढ़ा आदि) में भी पाई जाती है जो जोड़ा बनाकर ही जीवन व्यतीत करते हैं ------ क़ुदरती और प्राकृतिक तौर पर इन जोड़ो में मादा, नर की सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ औलाद देने की ज़िम्मेदारी भी निभाती है और नर प्राकृतिक इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ घर (अर्थात मादा और बच्चों) की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी निभाता है।
यह बात देखने में आती है कि इस तरह घरेलू जीवन व्यतीत करने के लिए जोडा बनाने (मुख्य रूप से कबूतर को देखा जा सकता है जो कबूतरी से कोशिश के साथ जोड़ा बनाता है) घर बसाने और घर की हिफ़ाज़त (देखरेख) करने का पूरा रोल नर ही अदा करता है। जो मनुष्य में भी पाया जाता है।
शादी का ख़्याल आने पर दुआ
चूँकि क़ुदरती और प्राकृतिक मर्द जोड़ा बनाने, घर बसाने और औलाद की इच्छा के लिए हमेशा एक अच्छी (न कि बुरी) औरत की तलाश करता रहता है। इसीलिए इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ.) ने हर मर्द को प्राकृतिक तौर पर औरत का ख्याल आने और शादी का इरादः करने पर दो रकअत नमाज़ पढ़ने, खुदा की तारीफ करने और निम्नलिखित दुआ पढ़ने की शीक्षा दी हैः
अल्लाहुम्मा इन्नी ओरीदो अनअताज़व्वजा फकददिर ली मिनन निसाऐअअफ़्फहुन्ना फरजाँव व अहफज़हुन्ना ली फी नफसेहा व माली वऔसअहुन्ना ली रिज़कन व अअज़माहुन्ना ली बरकतन फी नफ़सेहा व माली इन्नी अतरोको फकददिर ली मिनहा वलादन तय्येबन तजअलोहू खलाफन सालेहन फी हयाती व बअदा मौती। (123)
(अर्थात) ए अल्लाह- मेरा इरादः है कि मै निकाह कँरू, तू मेरे लिए औरतों मे से ऐसी औरत मेरे भाग्य में लिख जो पर्हेज़गारी में सब से बढ़ी हूई हो और मेरे लिए अपने नफ़्स (आत्मा) और मेरे माल की सबसे ज़्यादा हिफाज़त (सुरक्षा) करने वाली हो और मेरे लिए रिज़्क (रोज़ी) की बढ़ोतरी के हिसाब से सब से ज़्यादा नसीब वाली हो और इसी तरह बरकत (लाभ) में भी मेरे लिए सबसे बढ़ी हो। फिर मुझे उसके गर्भ से एक पाकीज़ा और नेक औलाद देना जो मेरी ज़िन्दगी में और मरने के बाद मेरी नेक यादगार बने।
मासूम (अ,) की बताई हुई उपर्युकत दुआ से इस बात का अन्दाज़ा हो जाता है कि औरत का पाक और पाकिज़ा होना, अपने नफ्स और पति के माल की हिफाज़त करना, पति की रोज़ी व बरकत में बढ़ोतरी होना और नेक औलाद को जनना ही मुख्य खूबियों मे है जिस के लिए अल्लाह ने शुरू शुरू (अर्थात शादी के लिए औरत का ख्याल आते ही) में ही दुआ करना एक मोमिन का कर्तव्य है और दुआ को कबूल करना अल्लाह के ऊपर। क्योंकि क़ुर्आन-ए-करीम में है किः-
और तुम्हारा पर्वरदीगार फ़र्माता है कि तुम मुझ से दुआऐं मांगो मै तुम्हारी (दुआ) क़ुबूल करूगाँ। (124)
बहरहाल यह याद रखना चाहिए कि क़ुदरत (हालात) होने पर हर नौजवान मर्द को शादी करने और घर बसाने का ख्याल करना चाहिए क्योंकि रसूल-ए-अक़रम (स,) का इर्शाद हैः-
ए जवानों- अगर शादी करने की क़ुदरत रखते हो तो शादी करो क्योंकि शादी आँख को नामहरमों से ज़्यादा दूर रखती है और पाकदामनी और पर्हेज़गारी पैदा करती है। (125)
इसके अतिरिक्त शादी करने और घर बसाने की क़ुदरत न होने की हालत में क़ुर्आन में मिलता हैः-
और जो लोग निकाह करने की क़ुदरत नही रखते उनको चाहिए की पाकदामनी पैदा करें यहाँ तक की खुदा उनको अपने फज़ल (व करम) से मालदार बना दे। (126)
जो इस बात का सुबूत है कि घर बसाने की क़ुदरत न होने की हालत में शादी नही करना चाहिए। लेकिन अगर क़ुदरत है तो चाहिए कि नौजवान मर्द अपने शादी के ख्याल को अपने माता-पिता पर भी प्रकट कर दें, उनसे सलाह लें और उनकी सलाह पर अमल करें तो बेहतर (उचित) है क्योंकिः-
बेटे का बाप पर एक हक़ होता है और बाप का बेटे पर एक हक़ होता है। चूनाँचे बाप का बेटे पर यह हक़ है कि बेटा हर बात में उसका कहना माने मगर खुदा की नाफरमानी में (न माने) और बेटे का हक़ बाप पर यह है कि बाप उसका नाम अच्छा रखे उसको अच्छी-अच्छी बातें सिखाए और उसे क़ुर्आन-ए-पाक की शीक्षा दे। (127)
और शादी के लिए रिश्ते का चयन करना खुदा-ए-पाक की नाफरमानी (अर्थात उसके आदेश का न मानना) नहीं है।
माता-पिता की सलाह पर अमल करना इसलिए भी उचित है कि अधिकतर नौजवानों से ज़्यादा माता-पिता या अभिभावक बेटे की नई ज़िन्दगी को द्रष्टिगत रखकर अच्छे से अच्छा साथी तलाश करने की फिक्र में रहते हैं। और वह अपनी इस तलाश में अपने अनुभव के कारण काफी हद तक क़ामयाब भी रहते हैं ------ और लड़की के माता-पिता या अभिभावक को तो इस्लाम धर्म ने पूरी इजाज़त दी है कि वह उसके लिए पति का चयन करें। मसायल में यहाँ तक मिलता है किः-
जब लड़की किशोरी (जवान) हो जाए और अपने बुरे भले को समझने का सलीक़ा रखती हो अगर वह किसी के साथ शादी करना चाहे और अगर वह कुँवारी हो तो वह लाज़मी अहतियात की बुनियाद पर अपने बाप या दादा से इजाज़त ले। लेकिन माँ और भाई की इजाज़त ज़रूरी नही। (128)
पैग़ाम देना
बहरहाल माता-पिता की सलाह के बाद ज़माने (समय) के उसूल के अनुसार मर्द या उसके माता-पिता को औरत के घर शादी का पैग़ाम भेजना चाहिए। ज़माने के इस उसूल से औरत की हैसीयत और उसकी इज़्ज़त का भी अन्दाज़ा होता है। जिसमें मर्द की तरफ से शादी का पैग़ाम दिया जाता है और औरत की तरफ से शादी के पैग़ाम की स्वीक्रति या अस्वीक्रति होती है------- और अगर लड़की के माता-पिता या अभिभावक अपनी ओर से रिश्ते (चयन) की पेशकश करें तो यह तरीक़ा शरीअत (धर्म के क़ानून) के विपरीत नही है बल्कि पैग़म्बर (स.) की सुन्नत (अर्थात वह काम जो पैग़म्बर (स.) ने किया हो) पर अमल करना। क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः-
(तब) शुएब (अ.) ने कहा मै चाहता हूँ कि अपनी इन दोनों लड़कियों में से एक के साथ तुम्हारा इस (महर) पर निकाह कर दूँ--------। (129)
अर्थात जनाबे शुएब (अ,) पैग़म्बर ने जनाबे मूसा (अ,) जैसे नेक, पर्हेज़गार, सच्चे, अच्छे ईमानदार और बहादुर मर्द के निकाह में देने के लिए अपनी एक लड़की की पेश-कश की जिस से यह नतीजा निकलता है कि नेक, पर्हेज़गार और ईमानदार मर्द के निकाह में देने के लिए अपनी लड़की की पेश-कश की जा सकती है। जो शरीयत के हिसाब से ग़लत नही है। वरन् वर्तमान समाज में बुरा ज़रूर समझा जाता है। अतः उचित है कि पसन्द के होते हुवे भी मर्द की ओर से पैग़ाम भेजा जाए ताकि समाज में औरत की हैसियत और इज़्ज़त बाक़ी रहे।
यूँ भी प्रकृति ने मर्द को मुहब्बत का देवता और औरत को मुहब्बत की देवी बनाया है। मर्द परवाहः (पतंगा) जैसा है और औरत शमअ। शमअ हमेशा अपनी जगह पर मौजूद रहती है और परवानः दूर से उसके करीब जाता है और अपनी जान को निछावर कर देता है। ठीक इसी तरह से बुलबुल और फूल (गुल) का भी रिश्ता है। फूल अपनी जगह पर मौजूद रहता है और बुलबुल उसको तलाश करते हुवे उसके पास पहुँच जाती है------- इसी तरह मर्द को भी चाहिए कि वह बुलबुल या परवानः की तरह फूल या शमअ को तलाश करते करते औरत के घर तक पहुँचे और अपना शादी का पैग़ाम दे। क्योंकि मर्द को शादी के लिए औरत करना और अपना पैग़ाम देना कोई बुराई की बात नहीं है।
लेकिन इस्लामी शरीअत के अनुसार मर्द, अपनी शादी का पैग़ाम हर औरत के पास नही दे सकता। बल्कि उसे हराम और हलाल (130) औरतों को ज़रूर देखना होगा। क्योंकि हराम औरत से शादी करने के बाद औलाद हराम और हलाल औरत से शादी करने के बाद औलाद हलाल होगी और समाज में केवल उन्हीं औलादों को इज़्ज़त मिलती है जो हलाल है और शादी का तात्पर्य भी यही होता है कि घर बसाने के साथ-साथ जाएज़ और हलाल औलाद को हासिल किया जा सके। जिन को समाज में इज़्ज़त की निगाह से देखा जा सके।
पिछले अध्याय में इस बात को स्पष्ट किया जा चुका है कि औरत के चयन में हलाल और हराम को ध्यान में रखने के साथ-साथ अच्छी और बुरी को भी देख लेना चाहिए क्योंकि औरतें मर्दों की खेतियाँ (131) हैं। जिसमें मर्द अपनी बीज डालता है। अतः औरत यदि अच्छी होगी तो उससे मिलने वाला फल (अर्थात बच्चा) भी होगा। इसीलिए रसूल-ए-खुदा (स,) अपने असहाब (साथियों) को समझाते थे कि वह पत्नी के चयन में बहुत देख भाल करें अर्थात बीज डालने से पहले यह देख लिया करें कि ज़मीन भी अच्छी और ठीक है या नही ताकि औलाद में माँ की तरफ से बुरी बातें पैदा न हों। (132)
रसूल-ए-खुदा (स.) ने यह भी इर्शाद फर्माया किः-
इस बारे में निगाह रखो कि तुम अपनी औलाद को किस बर्तन में रख रहे हो। क्योंकि अरूक़-ए-निसवानी –वसास- (अर्थात अख़लाक़-ए- माता-पिता बच्चों की तरफ परिवर्तित करने वाली) होती है। (133)
शायद इसी लिए हज़रत अली (अ,) को कहना पङाः-
अक़ील ऐसा बहादुर ख़ानदान पर्हेज़गार औरत तलाश करो कि जिस के गर्भ में ऐसा बहादुर बच्चा पैदा हो कि जो कर्बला में हुसैन (अ.) की देख-रेख कर सके। (134)
और हुवा भी यही कि बहादुर खानदान की पर्हेज़गार औरत जनाबे उम्मुल बनीन के गर्भ से जनाबे अबुल फ़ज़्लिल अब्बास (अ.) जैसे पर्हेज़गार, मासूम जैसे और बहादुर बेटे पैदा हुवे जिन्होनें कर्बला में इमामे हुसैन (अ,) की सुरक्षा का हक़ अदा कर दिया।
अतः प्रत्येक मर्द को चाहिए कि वह अपने बराबर और अपने जैसी औरत के चयन में, औरत से सम्बन्धित मालूमात हासिल करने के साथ-साथ उसके पूरे खानदान से सम्बन्धित भी मालूमात हासिल करे ताकि एक अच्छा रिश्ता बनाया जा सके--------- और मालूमात हासिल करने के बाद पति-पत्नी का रिश्ता बनाने के लिए मर्द स्वयं, उस औरत के यहाँ अपनी शादी का पैग़ाम भेजे या अपने माता-पिता, अभिभावक, परिवार के दूसरे लोगों, दोस्तों आदि किसी के द्वारा औरत के यहाँ अपनी शादी का पैग़ाम (135) भिजवाए------ और शादी का पैग़ाम आने पर लड़की वालों को चाहिए कि वह भी मर्द और उसके खानदान से सम्बन्धित मालूमात हासिल करें, हराम व हलाल (136) और अच्छे व बुरे (137) पर ध्यान दें और अपने हम कफो (138) (बराबर) और अपने जैसे होने पर ही अपनी बेटी देने (अर्थात शादी करने) पर राज़ी होने को उस समय ज़ाहिर करें जब लड़की की मर्ज़ी ले लें। क्योंकि इस्लाम में अपनी शादी के लिए पति के चयन में लड़कियों का पूरा अधिकार होता है। अतः उनकी मर्ज़ी लेना ज़रूरी है।
तारीख इस बात की गवाह है कि रसूल-ए-खुदा (स.) ने अपनी बेटी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.) को अपने लिए पति के चयन में पूरी तरह आज़ाद रखा -------- जब हज़रत अली (अ,) ने रसूल-ए-खुदा से उनकी बेटी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.) की शादी अपने साथ करने का ख्याल ज़ाहिर किया तो रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ,) को जवाब दिया कि अब तक कई लोग फ़ातिमा ज़हरा (स.) से शादी का ख़्याल लेकर मेरे पास आये. तो मैने उनकी बात फ़ातिमा ज़हरा (स.) के सामने रखी। लेकिन फ़ातिमा ज़हरा (स.) के चेहरे से मालूम हुआ कि वह उन लोगों के साथ शादी नहीं करना चाहती हैं। इसलिए तुम्हारी बात भी फ़ातिमा ज़हरा (स.) से कहूँगा------ रसूल-ए-खुदा (स.) फ़ातिमा ज़हरा (स.) के पास गए और शादी के लिए आए हुवे पैग़ाम को सुनाया तो फ़ातिमा ज़हरा ने मुँह नही फेरा और चुपचाप बैठी रहीं। चुपचाप रहने से रसूल-ए-खुदा (स.) समझ गये कि फ़ातिमा ज़हरा (स.) ने इस पैग़ाम को मान लिया है ------ बाद में जनाबे ज़हरा (स.) के राज़ी होने की खबर हज़रत अली (अ,) को दे दी।
उपर्युक्त वाक़िए (विवरण) से यह सबक़ मिलता है कि हर बाप को अपनी बेटी के लिए पति के चयन में बेटी की मर्ज़ी (सहमति) लेना ज़रूरी है। बेटी की मर्ज़ी से ही सम्बन्धित एक वाक़िया यह भी मिलता है किः-
एक परेशान व दुखी लड़की हज़रत पैग़म्बर (स.) के पास आई और कहा कि – या रसूलल्लाह (स) खुद इस के हाथों........। आख़िर तुम्हारे बाप ने क्या किया है ? ............................... इन्होंने अपने एक भतीजे से मेरी मर्ज़ी के बिना मेरी शादी कर दी है। ------ अब तो वह शादी कर चुका, इसलिए अब तुम विवाद (मुख़ालिफत) न करो ------ मुत्मइन (संतुष्ट) रहो और चचा के बेटे की बीवी बन कर रहो। या रसूलल्लाह (स.) चचा के बेटे से मुझे मुहब्बत नही है। ऐसे मर्द की बीवी कैसे बनूँ जिससे कि मुहब्बत न हो ?
अगर तुम उससे मुहब्बत नहीं करती हो तो कोई बात नहीं है तुम्हे अधिकार है जाओ जिससे तुम्हे मुहब्बत है उसे अपना पति बना लो--------
या रसूलल्लाह (स.) -------- वास्तव में मै उसे बहुत चाहती हूँ। उसके अलावा और किसी से मुहब्बत नही करती, इसलिए उसके अलावा और किसी की बीवी नही बन सकती। बात तो बस इतनी है कि मेरे बाप ने शादी के लिए मेरी रज़ामन्दी (इच्छा) क्यों नहीं ली। मै जानबूझकर आप के पास आई हूँ कि आपसे सवाल करूँ और यह जवाब आप से सुन लूँ और पूरी दुनियां की औरतों को बता दूँ कि शादी के लिए बाप पूरी तरह फैसला नही कर सकता। शादी के लिए लड़कीयों को भी अधिकार है और उनकी रज़ामन्दी भी ज़रूरी है। (139)
इस्लामी शरीअत ने शादी के लिए लड़के और लड़की की रज़ामन्दी हासिल करने के लिए लड़के और लड़की को यहाँ तक इजाज़त दी है कि वह दोनों नामहरम (अर्थात वह लोग जो एक दूसरे को नही देख सकते) होने के बावजूद ज़रूरत के मुताबिक़ एक दूसरे को देख कर अपनी पसन्द से रिश्ता तय कर सकते हैं। रसूल-ए-खुदा का इर्शाद है किः-
एक दूसरे को देखकर अपनी पसन्द से शादी करना दोनों के बीच हमेशा प्रेम व मुहब्बत का कारण होता है। (140)
मंगनीः- बहरहाल पैग़ाम दिये जाने के बाद लड़के और लड़की की रज़ामन्दी होने पर ही मंगनी (अर्थात रिश्ता तय करने) की रस्म होनी चाहिए। जिस के लिए हज़रत अली (अ,) का इर्शाद हैः-
जुमए (शुक्रवार) का दिन मंगनी का दिन है। (141)
जो औरत की इज़्ज़त और हैसियत बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीक़ा है।
मुसलमानों में मंगनी और निकाह के बीच कुछ और भी रसमें होती है जिन में मिठाई और तरकारी का जाना या आना, मांझा, तिलक, रात्री जागरण (रत जगा) आदि। इनमें कुछ में कोई शरई रूकावट नही लेकिन कुछ रस्में (जैसे तिलक आदि) दूसरी क़ौमों की रस्में हैं जिनको अपनाना ग़लत है। क्योंकि क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः-
और जो व्यक्ति सीधे रास्ते के प्रकट (ज़ाहिर) होने के बाद रसूल (स.) से मुखालिफत (सरकशी) करे और मोमिनीन के तरीक़े के अलावा किसी और रास्ते पर चले जो जिधर वह फिर गया है हम भी उधर फेर देंगे और (आखिर) उसे जहन्नम (नरक) में झोंक देंगे और वह तो बहुत ही बुरा ठिकाना है। (142)
निकाह की तारीखों का तय करनाः- मंगनी होने के बाद अक्द-ए-निकाह अर्थात बारात की तारीखें तय होना चाहिए। जिसके लिए चाँद के महीनें ((143)) और तारीख के साथ दिन और वक़्त का भी ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.) ने महीना, तारीख, दिन और वक़्त को ध्यान में रखते हुवे होने वाले निकाह के अलग अलग असरात (प्रभाव) बताए हैं। एक हदीस में मिलता हैः-
शव्वाल (ईद) के महीने में निकाह करना अच्छा नहीं है। (144)
जहाँ तक तारीख का सवाल है तो इस में नेक और बद (अर्थात अच्छी और बुरी, सअद व नहस) तारीख को ध्यान में रखते हुवे तहतशशुआअ (145) (अर्थात चाँद के महीने के वह दो या तीन दिन जब चाँद इतना महीन होता है कि दिखाई नही देता। यह दिन ख़राब माने जाते हैं) और क़मर दरअक्रब (146) (चाँद का वृश्चिक राशि अर्थात् बुर्ज-ए-अक्रब में होना जो बहुत ज़्यादा खराब माना जाता है) का मुख्य रूप से ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ.) ने इर्शाद फर्मायाः-
जो व्यक्ति तहतशशुआअ में निकाह या संभोग करे वह याद रखे उसका जो वीर्य (नुत्फ़ा) पैदा होगा वह पूर्ण होने से पहले गिर जाएगा। (147)
और आप ही का इर्शाद है किः-
जो व्यक्ति क़मर दरअक़्रब मे शादी या संभोग करे उसका अन्जाम (अन्त) अच्छा नही होगा। (148)
महीने की तारीख के साथ-साथ दिन और वक़्त का भी ख़्याल रखना चाहिए. हज़रत अली (अ.) ने बताया किः-
जुमए का दिन मंगनी और निकाह का दिन है। (149)
और समय के लिए इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ,) ने इर्शाद फर्माया किः-
रात के वक़्त निकाह करना सुन्नत है। (150)
इससे विपरीत दिन में निकाह से सम्बन्धित मिलता है किः-
इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ.) को ख़बर पहुँची कि एक व्यक्ति ने दिन में ऐसे वक़्त निकाह किया है कि हवा गर्म चलती थी। फ़र्माया मुझे गुमान (शंका) नहीं है कि उनमें आपस में मुहब्बत और प्रेम हो। चुनाँचे थोड़े ही समय के बाद अलगाव हो गया। (151)
बहरहाल निकाह के लिए महीना, तारीख, दिन और वक़्त तय होने पर बताना चाहिए, मोमिनीन को निकाह में बुलाना चाहिए और उन्हे खाना खिलाना चाहिए। जिस के लिए हज़रत अली (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया किः-
निकाह में मोमिनीन को बुलाना, उनको खाना खिलाना और निकाह से पहले खुतबः पढ़ना सुन्नत है। (152)
महर
निकाह के समय सब से मुख्य बात महर (अर्थात वह रक़्म जो निकाह के समय दुल्हन को दिये जाने के लिए तय होती है) का तय होना है। जिसे बातचीत होने के समय भी तय किया जा सकता है। और निकाह से पहले शरई तौर से लड़की वाले, लड़के वालों से आधा महर माँग सकते हैं। जिससे वह लड़की के दहेज ((153)) या शादी के दूसरे खर्चों को पूरा कर सकें और निकाह के समय बाक़ी आधा महर या पूरा महर लड़के को अदा कर देना चाहिए---------- लेकिन सम्भव है कि इस्लाम के उपर्युक्त उसूल (क़ानून, नियम) और कायदे से फायदः उठा कर लड़की वाले अधिक से अधिक महर तय करने की कोशीश करें। इस लिए पैग़म्बर-ए-इस्लाम (स.) ने इर्शाद फ़र्मायाः-
मेरी उम्मत की बेहतरीन औरत वह हैं जो खूबसूरत (सुन्दर) हों और जिन का महर कम हो। (154)
और उचित यह है कि सुन्नत महर तय करें जो पाँच सौ दिरहम (155) है और हदीस मे आया है कि वह बहुत ख़राब औरत है जिसका महर बहुत हो। इसके विपरीत इमाम-ए-जाफ़र सादिक़ (अ,) का इर्शाद है किः-
वह औरत बरकत वाली है जो कम खर्च हो। (156)
और अगर कोई औरत अपने पति को अपना महर माफ कर दे तो खुदा वन्दे आलम हर दिरहम के बदले में एक नूर उसकी कब्र मे देता है और हर दिरहम के बदले में हज़ार फरिश्तों को हुक्म फ़र्माता है कि वह उस औरत के लिए क़यामत तक नेकियाँ लिखें। (157) इसी महर से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः-
और औरतों को उनके महर खुशी-खुशी दे डालो फिर अगर वह खुशी-खुशी तुम्हें कुछ छोड़ दें तो शौक से नोशे जान खाओ पियो। (158)
याः-
.... तो उन्हें जो महर तय किया है दे दो और महर के तय होने के बाद अगर आपस में (कम व ज़्यादा पर) राज़ी हो (मान) जाओ तो इसमें तुम पर कुछ गुनाह नहीं है। बेशक खुदा (हर चीज़ से) वाकिफ़ (जानने वाला) और मसलहतों (भलाइयों) का पहचान ने वाला है। (159)
अर्थात महर माफ़ करना या आपस में कमी या ज़्यादती पर राज़ी हो जाना शरई हिसाब से ठीक है।
खुतबः और निकाह के सीग़ेः- महर के तय होने के बाद निकाह की बारी आती है। जिसमें सब से पहले निकाह का खुतबः (160) पढ़ना चाहिए और उसके बाद निकाह के सीग़े जारी करना चाहिए। जिसे कई तरह से पढ़ा जा सकता है। मर्द और औरत के अलग-अलग वकील (आम तौर से यही तरीक़ा प्रचलित है), मर्द और औरत खुद (स्वयं), मर्द खुद औरत का वकील, मर्द और औरत दोनों नाबालिग़ होने पर दोनों के वली (संरक्षक, अभिभावक) के अलग-अलग वकील, एक ही व्यक्ति मर्द और औरत दोनों का वकील आदि निकाह के सीग़े जारी कर सकते हैं।
निकाह के सीग़े जारी होने अर्थात ईजाब व क़ुबूल के बाद मर्द और औरत दोनों ससुराल वाले हो जाते हैं। जिसके लिए क़ुर्आन में मिलता हैः-
और वही तो वह (खुदा) है जिस ने पानी (मनी अर्थात वीर्य) से आदमी को पैदा किया फिर उसको खानदान और ससुराल वाला बनाया। (161)
निकाह के बाद निकाह मे शरीक़ लोगों को चाहिए कि दूल्हा और दुल्हन को ख़ैर व बरकत की दुआऐं दें और पति (शौहर) अपनी धर्म पत्नी (ज़ौजअः-ए-मनकूहा) को निकाह व महर को सनद लिख कर दे जो की निकाहः नामा कहलाता है। इसी मौक़े पर निकाह में शरीक होने वाले लोगों की दावत करें। क्योंकि यह पैग़म्बरों (अ.) की सुन्नत है। रसूल-ए-खुदा (स,) का इर्शाद हैः-
निकाह के वक़्त खाना पैग़म्बरों की सुन्नत है। (162)
रुख़्सती (विदाई) व दुआ
निकाह के बाद हर खानदान में दुल्हन के घर में कुछ खास रस्में अदा की जाती हैं और बाद में रुखसती है। उस वक़्त अल्लाहो अकबर पढ़ना सुन्नत है (163) (आम तौर से अज़ान दी जाती है जिसमें कोई नुकसान नहीं) इस मौक़े पर हर माता-पिता को चाहिए कि वह अपनी बेटी को उसके नए घर और नए माहौल में जाने के आदाब (तौर तरीक़े) पति के साथ रहन-सहन के तरीक़े, और उसकी ज़िम्मेदारियों और हुक़ूक़ से सम्बन्धित वसीयत और नसीहत करें। क्योंकि यह नसीहत वह महान नेअमत (तोहफ़ा) है जिस पर अमल करने से लड़की की पूरी ज़िन्दगी, हंसते खेलते और खुश रहते हुवे व्यतीत होती है। जिसकी हर माता-पिता ख्वाहिश करता है।
बहरहाल रूख्सती के बाद जिस वक़्त दूल्हा (लड़का) दुल्हन (लड़की अर्थात धर्म पत्नी) को अपने घर लोए तो उसे हज़रत अली (अ,) की बतायी हुवी यह दुआ पढ़ना चाहिएः-
अल्लाहुम्मा बे कलेमातेका असतहललतोहा व बेअमानतेका अख़ज़तोहा अल्लाहुम्म- जअलहा वलूदाँव व दूदन ला तफ़रको ताकोलो मिममा राहा व ला तसअलो अम्मा साराहा।
अर्थात ए अल्लाह मैने तेरे कलाम-ए-मुक़ददस (पाक व पाकीज़ा कलाम) से अपने लिए हलाल किया और तेरी हिफाज़त में इसे लिया, या अल्लाह इससे औलाद बहुत ज़्यादा पैदा हो। मुझ से इसे मुहब्बत रहे और कभी दुश्मनी न हो। जो मिले खाले और जो मिल जाए पहन लें। (164)
और इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ,) ने बताया है कि यह दुआ पढ़ेः-
बे कलेमातिल्लाहे इस तहललकतो फरजहा व फी अमानतिल्लाहे अखज़तोहा अल्लाहुम्मा इन क़ज़ैता ली फी रहमेहा शैअन फजअलहो बररन तक़ीय्यवं वजअलहो मुसललमन सविय्यन व ला तजअल फीहे शिरकन लिश्शैतान।
अर्थात मैनें अल्लाह के कलेमात मुक़ददस से इसकी योनि (अन्दामेनिहानी) को अपने ऊपर हलाल और अल्लाह के अमान में इसको लिया। ए खुदा- अगर तू ने इसके गर्भ से मेरे लिए कोई चीज़ तय की है तो उसको पाक व पाकीज़ा, हर तरह से सहीह व सालिम व पूर्ण बना। जिसमें शैतान का कोई हिस्सा न हो। (165)
इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ,) से भी यह नक़्ल है कि जब दूल्हा दुल्हन को विदा करा के अपने घर में लाए तो दूल्हा और दुल्हन दोनों क़िबले की ओर मुँह करके खड़े हो जायें और दूल्हा अपना दाहिना हाथ दुल्हन के माथे पर रखकर यह दुआ पढ़ेः-
अल्लाहुम्मा अला किताबेका तज़व्वजतोहा व फी अमानतेका अखज़तोहा व बेकलेमातेका इसतहललतो फरजहा फाइन कज़ैता ली फी रहमेहा शैअन फजअलहो मोसल्लामन सविय्यन वला तजअलहो शिरका शैतानिन।
अर्थात ऐ अल्लाह – मैने तेरी किताब के क़ानून के अनुसार इस से निकाह किया है और तेरी हिफाज़त में इसको लिया है और तेरे पाक व पाकीज़ा कलमात से इस की योनि (अन्दामेनिहानी) को अपने लिए हलाल किया हैः अतः अगर तूने इस के गर्भाशय से मेरे लिए कोई चीज़ तय की है तो उसको पूर्ण और सहीह व सालिम बना और उसमें शैतान का हिस्सा न होने पाए। (166)
फिर दुल्हन के दोनों पैर एक बर्तन में धोये जायें और उस पानी को घर के कोने कोने छिड़क दें। क्योंकि यह खैर व बरकत के लिए होता है। मिलता है कि पैग़म्बर-ए-इस्लाम (स,) ने हज़रत अली (अ,) को वसीअत फ़र्मायी किः-
ऐ अली (अ,)। जब दुल्हन तुम्हारे घर आए तो उसकी जूतियाँ उतरवा दो कि वह बैठे। फिर उसके पैर धुलवा कर उस घर के दर्वाज़े से पीछली दीवार तक सब जगह छिड़कवा दो कि ऐसा करने से सत्तर हज़ार किस्म की बरकतें दाखिल होंगी। सत्तर हज़ार तरह की रहमतें तुम पर और उस दुल्हन पर नाज़िल होंगी। उस रहमत की बरकत उस मकान के हर कोने में पहुँचेगी और वह दुल्हन जब तक उस मकान में रहेगी दीवानगी और कोढ़ की बीमारियों से बची रहेगी। (167)
यह है इस्लामी शिक्षाऐं। जो संभोग का समय करीब आने से पहले ही दूल्हा को हर-हर क़दम पर अपने लिए ख़ैर व बरकत की दुआऐं करने, शैतान से बचे रहने, नेक, सहीह व सालिम अर्थात पूर्ण औलाद न होने, परेशानियों से दूर होने, रहमतें और बरकतें नाज़िल होने आदि से सम्बन्धित दुआऐं और अमल की शीक्षा देता है। साथ ही साथ दूल्हा के दिमाग़ में यह बात बैठा देना चाहता है के तुम्हारे लिए दुल्हन के पैर का धोवन (168) भी रहमत व बरकत का कारण होता है न कि ज़हमत और परेशानी का ----------- तो घर में दुल्हन का रहना कितना ज़्यादा बरकत का कारण होगा --------- अतः हर सच्चे मुसलमान मर्द (पति) पर औरत (पत्नी) का आदर करना और उसकी हयात व वुजूद को बाक़ी रखना (169) आव्यशक है। ताकि घर पर हमेशा खुदा की रहमत व बरकत बनी रहे।
बहरहाल हर खानदान में दुल्हन आने के बाद दूल्हा के घर भी कुछ मुख्य रस्में अदा होती हैं। उसके बाद दूल्हा को दुल्हन के पास लाया जाता है और केवल दूल्हा से दुल्हन के आँचल पर दो रकअत नमाज़ पढ़ाई जाती है (जो रस्म सी बन गई है) जबकि इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ.) ने दूल्हा और दुल्हन दोनों को दो दो रकअत नमाज़ पढ़ने की शीक्षा दी है और इसकी ज़िम्मेदारी दूल्हा को दी है। (170) मिलता है किः-
जब दुल्हन को तुम्हारे पास लायें तो उससे कहो कि पहले वज़ू कर ले और तुम भी वज़ू कर लो और वह दो रकअत नमाज़ पढ़े और तुम भी दो रकअत नमाज़ पढ़ो। इसके बाद खुदा की तारीफ करो और मुहम्मद (स,) व आले मुहम्मद (अ.) पर दुरूद भेजो फिर दुआ मांगो और जो औरत दुल्हन के साथ आई हों उन से कहो वो सब आमीन कहें और यह दुआ पढ़ोः-
अल्लाहुम्मर ज़ुक़नी उलफताहा व वुददहा व रेज़ाहा वरज़ेनी बेहा वजमऊ बैनना बे अहसनिजतेमाईन व ऐसरे ईतेलाफिन फइन्नका तोहिब्बुल हलाला व तुकरेहुल हरामा
(अर्थात या अल्लाह। मुझे इस औरत की मुहब्बत, प्रेम, दोस्ती और खुशी अता कर और मुझे इस से राज़ी रख और मेरे और इसके बीच मुहब्बत व प्रेम बनाए रख क्योंकि तू हलाल को पसन्द करता है और हराम से नाराज़ है) इसके बाद इमाम (अ,) ने इर्शाद फ़र्माया यह याद रखो कि प्रेम व मुहब्बत खुदा की तरफ से है और दुश्मनी शैतान की तरफ से और शैतान यह चाहता है कि जिस चीज़ को खुदा ने हलाल किया है आदमियों की तबीयतें (रूचियाँ) किसी न किसी तरह उससे फिर जायें। (171)
इसके बाद धीरे धीरे वह समय करीब आने लगता है जिसका इन्तिज़ार औरत और मर्द को जवानी में क़दम रखने से पहले से होता है। प्राकृतिक तौर पर दूल्हा और दुल्हन की धड़कने तेज़ हो जाती हैं, दोनो में ख़ास मुहब्बत और लगाव की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है, दोनो उचित और हलाल प्राकृतिक सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए बेचैन होते हैं। यहाँ तक की दोनों को सेक्सी क्रिया (अमल) की आखिरी हरकत जिमाअ (मैथुन, संभोग) (जिसके शरई उसूल और क़ानून अगले अध्याय में लिखे जायेंगे) के लिए एकान्त (अर्थात कमरे) में भेज दिया जाता है। जो प्राकृतिक धर्म इस्लाम की दृष्टि में शादी का असल और बुनियादी तात्पर्य होता है। जिसके लिए दूल्हा और दुल्हन धार्मिक और सामाजिक रूप से पूरे जीवन के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र (आज़ाद) होते हैं। इसी को सुहाग रात कहा जाता है। जो बेहद जज़बाती (भावुक), खुशी अता करने वाली और नशीली होती है। ऐसे समय पर भी अपनी भावनाओं और इच्छाओं (ख्वाहिशात) पर काबू रखना और शरीअत के तय की हुवी हदों से क़दम बाहर न निकालना कोई आसान काम नहीं है।
इस्लामी शीक्षाओं ने इस बेहद भावुक, खुशीयों से भरी हुई और नशीली रात को भी खुदा के ज़िक्र (की याद) और दुआ से भर दिया है। इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ.) ने बताया है कि जब दूल्हा संभोग के लिए पहली बार दुल्हन के पास जाए तो उसकी पेशानी (माथे) के बाल पकड़ कर क़िबले की ओर मुँह करे और यह दुआ पढ़ेः-
अल्लाहुम्मा बे अमानतेका अखज़तोहा व बेकलेमातेका असतहललतोहा फइन क़ज़ैता ली मिनहा वलादन फजअलहो मुबारकन तकिय्यन मिन शीअते आले मुहम्मदिव व ला तजअल लिशशैताने फीहे शिरकांव वला नसीबा।
अर्थातऐअल्लाह। मैने तेरी हिफाज़त से इसे लिया और तेरे कलामात से अपने ऊपर इसे हलाल किया अब अगर तूने इसके गर्भ से मेरे लिए कोई बच्चा तय किया है तो उसे मुबारक व पाकीज़ा और आले मुहम्मद (अ.) के शीओं मे से बना, उसमें शैतान का कोई हिस्सा न हो। (172)
और जब किसी ने मासूम (अ.) से सवाल किया कि बच्चा शैतान का हिस्सा क्योंकर बन सकता है तो फ़र्मायाः
अगर संभोग के समय खुदा का नाम लिया गया है तो शैतान दूर हो जाएगा और अगर नही लिया गया है तो वह अपना लिंग उस व्यक्ति के लिंग के साथ दाखिल कर देगा। फिर रावी ने पूछा कि यह क्योंकर जानें कि किसी व्यक्ति में शैतान शरीक हुआ है या नहीं। फ़र्माया जो व्यक्ति हमें दोस्त रखता है उसमें शैतान शरीक नहीं हुआ और जो हमारा दुश्मन है उसमें ज़रूर शरीक हुआ है। (173)
किसी पूछने वाले ने यह पूछा कि आदमी के वीर्य में शैतान के शरीक होने की रोक थाम क्योंकर हो सकती है तो आप ने फ़र्मायाः- जिस समय संभोग का इरादः हो यह पढ़ो
बिस्मिल्लाह हिर् रहमान निर् रहीमिल लज़ी ला इलाहा इल्ला होवा बदीउस्समावाते वलअरज़े अल्लाहुम्मा इन क़ज़ैता मिन्नी फी हाज़ेहिल लैलते ख़लीफतन फला तजअल लिश्शैताने फीहे शिरकाँव व ला नसीबाँव व ला हज़्ज़ा वजअलहो मोमिनम मुखलेसम मुसफ्फम मिनश्शैतान व रिज़जहू जल्ला सनाअका।
अर्थात मै उस खुदा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा रहम करने वाला और महरबान है। उसके अलावा और कोई खुदा नहीं वह आसमान और ज़मीन का पैदा करने वाला है या अल्लाह अगर तूने इस रात में मेरा वारिस (उत्तराधिकारी) मेरे वीर्य से पैदा करना तय किया है तो इस में शैतान का कोई हिस्सा न हो बल्कि इसको पूर्ण रूप से मोमिन बना जो शैतान और पहली बुराईयों से दूर हो। तेरी तारीफ़ (वंदना) हमारी ताक़त से बहुत ज़्यादा है। (174)
खुद और बच्चे को शैतान से बचाने के लिए ही हज़रत अली (अ.) ने मैथुन के समय यह दुआ पढने को बतायी हैः
बिस्मिल्लाह व बिल्लाहे अल्लाहुम्मा जन्निबनी व जन्नेबिश्शैतान अम्मा रज़कतनी।
अर्थात मैं अल्लाह के नाम और अल्लाह की मदद से आरम्भ करता हूँ या अल्लाह तू मुझको शैतान से बचा और जो औलाद मुझे दे उसे भी शैतान से बचाना। (175)
और पैग़म्बर-ए-इस्लाम ने इर्शाद फ़र्माया कि जब तुम में से कोई व्यक्ति से संभोग करना चाहे तो यह दुआ पढ़े।
बिस्मिल्लाहे अल्लाहुम्मा जन्निबनश्शैताना व जन्नेबिश्शैताना मा रज़कतना।
अर्थात अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ,ऐअल्लाह तू हमें शैतान से बचा और शैतान को उस चीज़ से अलग रख जो तू हमें अता करे। (176)
और यह फ़र्माया कि जब अगर बच्चा पैदा होगा तो शैतान कदापि उसको नुक़सान (हानि) न पहुँचा सकेगा। शैतान से बचने के लिए सबसे आसान तरीक़ा यह बताया गया है कि बिस्मिल्लाह और आऊज़ो बिल्लाह पढ़ ले। (177) और इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ,) ने बताया है कि सेक्सी मिलाप अर्थात संभोग के समय यह दुआ पढ़ोः
अल्लाहुम्मर ज़ुकनी वलदाँव वज अल्हो तक़ीययन ज़कीय्यन लैसा फी ख़लक़ेही ज़ियादतुँव व ला नुकसानुन वजअल आकेबताहू इला खैरिन।
अर्थात या अल्लाह मुझे एक ऐसी औलाद दो जो पाक व साफ हो और उसकी पैदाईश में कमी या ज़्यादती न हो अर्थात् पूर्ण हो और उसका अन्त अच्छा हो। (178)
इसका मतलब यह है कि इस्लाम धर्म के शिक्षकों (अर्थात् आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.)) ने जाएज़ सेक्सी इच्छा की पूर्ति का ख़्याल पैदा होने से लेकर मैथुन की आख़िरी मंज़िल तक खुदा की याद को बाक़ी रखने, नेक साथी की तमन्ना करने, शैतान से बचे रहने, नेक और पूर्ण औलाद पैदा होने की दुआ करने से सम्बन्धित दुआओं की शिक्षा दी है ताकि औरत और मर्द की भावनाऐं पाकीज़ा रहें और वह ईश्वर से दुआ भी करे तो पाक दामनी के साथ नेक औलाद की दुआ करें।
बहरहाल सुहागरात (179) (शबे ज़ुफ़ाफ) के बाद भी दुआओं के इस क्रम को बाक़ी रखने के लिए इस्लाम धर्म ने दूल्हा और दुल्हन पर, मुसतहिब करार दिया है कि वह घर में आए और सभी रिश्तेदारों को सलाम करें और उनके लिए दुआ करें। साथ ही साथ रिश्तेदारों के लिए भी मुसतहिब है कि वह दूल्हा और दुल्हन को ख़ैर और बरकत की दुआऐं दें।
दावत-ए-वलामः- इसके बाद ज़रूरी है कि दावत-ए-वलीमः (अर्थात विवाह भोज, बहू-भोज, महमानी के खाने) का इन्तिज़ाम करे ताकि लोगों को औरत और मर्द के जाएज़ सेक्सी मिलाप का इल्म (ज्ञान) हो सके। इसी दावत-ए-वलीमः के लिए रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्माया है किः
वलीमः पहले दिन ज़रूरी है दूसरे दिन कोई हरज (नुकसान) नहीं और तीसरे दिन रियाकारी (ढ़ोंग) है। (180)
और वलीमः के दिन में होने से सम्बन्धित मिलता है किः
निकाह का रात में होना सुन्नत है और वलीमः दिन में तैय्यार कराना सुन्नत है।
वलीमे के अवसर पर भी मुसतहिब है कि दावत-ए-वलीमः में शरीक होने वाले लोग दूल्हा और दुल्हन को ख़ैर व बरकत की दुआऐं दें।
शादी का बुनियादी तात्पर्य –संभोगः- इन सभी मंज़िलों से गुज़रने के बाद औरत औऱ मर्द एक दूसरे से हर तरह का (मुख्य रूप से मैथुन, संभोग अर्थात सेक्सी) का स्वाद उठा सकते हैं। जिसके लिए शादी का क़दम उठाया जाता है और यही शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य भी होता है।
अगर इस्लाम की दृष्टि में शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य मैथुन (अर्थात औरत और मर्द का शारीरिक और सेक्सी मिलाप) न होता तो इस्लाम धर्म, सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति के न होने की सूरत में औरत और मर्द दोनों को बिना किसी तलाक़ के निकाह तोड़ देने का हक़ न देता। मसाएल में मिलता है किः
अगर औरत को निकाह के बाद मालूम हो जाए कि उसका पति निकाह से पहले दीवाना (पागल) था या बाद में दीवाना हुआ है या उसे पता चल जाये कि वह लिंग नही रखता या नामर्द है और संभोग नही कर सकता या निकाह के बाद संभोग करने से पहले ही नामर्द हो जाए या उसका अंड कोष निकाह से पहले निकाल दिया गया हो तो वह (अगर चाहे तो) निकाह को तोड़ सकती है। (182)
इसी तरहः
अगर मर्द को निकाह के बाद मालूम हो जाए कि औरत दीवानी (पागल) है या उसको कोढ़ है, या उसके सफेद दाग़ है, या वह अन्धी है या फालिज (लक़वे) आदि के कारण चलने उठने के लायक़ नही है, या उसके पेशाब और हैज़ का रास्ता या हैज़ और पाखाने का रास्ता एक हो गया है या उसकी शर्मगाह (योनि) में ऐसा गोश्त या हड्डी है जिसके कारण संभोग नही किया जा सकता है तो वह (अगर चाहे तो) निकाह को तोड़ सकता है। (183)
इनमें औरत और मर्द की कुछ बुराईयों (अर्थात पागलपन, कोढ़, सफेद दाग आदि) ऐसे हैं जो दिमाग़ी सुकून पर बार होते हैं और कुछ बुराईयों (अर्थात लिंग न होना, संभोग के लायक न होना, पेशाब और हैज़ या हैज़ और पाखाने का रास्ता एक होना, योनि में अलग का गोश्त या हड्डी होना) ऐसे हैं जो शादी के असल तात्पर्य के ही विपरीत है। इसलिए इस्लाम धर्म ने बिना तलाक़ के निकाह को तोड़ देने का हक़ (अधिकार) दोनों (औरत और मर्द) को दिया है ताकि वह अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए दूसरे को तलाश करें और दिमाग़ी सुकून तथा प्राकृतिक सेक्सी इच्छा की पूर्ति कर सकें। क्योंकि इसका सम्बन्ध मर्द और औरत की पूरी ज़िन्दगी से रहता है।
मैथुन के तरीक़े
अ- मैथुन की मनाही
ब- घ्रणित मैथुन
स- पुनीत मैथुन
द- अनिवार्य मैथुन
य- वज़ू और दुआ
र- एकान्त
ल- मसास व दस्तबाज़ी
व- स्नान व तयम्मुम
श- मैथुन के राज़ को बयान करने की मनाही
ष- संतान
स- संतान की शिक्षा और प्रशिक्षण
ह- मर्द और औरत के अधिकार
चूँकि इस्लाम की दृष्टि में शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य शिष्टाचार (अख़्लाक़) और पाकदामनी (इस्मत) की हिफाज़त करते हुए औरत और मर्द का एक दूसरे के उचित (जाएज़, हलाल) अंगों से सेक्सी इच्छा की पूर्ति करना है। जिसका सम्बन्ध औऱत और मर्द के पूरे जीवन से रहता है। इसीलिए इस्लाम धर्म ने रोज़े की हालत में, एतिक़ाफ़ (एकान्त वास अर्थात एकान्त में ईश्वर की तपस्या) की सूरत में और औरत के खूने हैज़ (अर्थात मासिकधर्म) निफास (रक्त स्राव जो प्रसूतिका के शरीर से बच्चा जनने के चालिस दिन तक होता रहता है) आने की सूरत के अतिरिक्त किसी और समय पर एक दूसरे से सेक्सी इच्छा की पूर्ति करने में रूकावट नही डाली है। मगर यह कि इस्लाम के शिक्षकों (आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.) ने कुछ ऐसे अवसरों या हलाल की ओर इशारा ज़रूर किया है जिसका असर (प्रभाव) पति या पत्नी या संतान पर पड़ता है। जिसके नतीजे में पति और पत्नी में जुदाई (अलगाव) या औलाद नेक, बुरी होती है, और अधिकतर अवसरों में संतान में कुछ शारीरिक कमीयां भी हो जाती हैं। जबकि सेक्सी मिलाप के द्वारा मिलने वाले औलाद जैसे महान फल के नेक और हर प्रकार की शारीरिक कमियों से दूर होने के प्रत्येक माता-पिता तमन्ना (इच्छा) करते हैं। अतः ज़रूरी है कि पति और पत्नी दोनों को सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संभोग के शरई (धार्मिक) तरीकों का ज्ञान होना चाहिए ताकि वह हराम (मनाही), मक्रूह (घ्रणित), मुस्तहिब (पुनीत) और वाजिब (अनिवार्य) को ध्यान में रखते हुवे एक दूसरे से स्वाद और आन्नद उठा सकें। पाकीज़गी बाक़ी रख सकें और सेक्सी मिलाप से मिलने वाला फल (औलाद) नेक और हर तरह की शारीरिक बुराईयों और कमियों से पाक हो।
मैथुन की मनाही
याद रखना चाहिए कि इस्लामी शरीअत के उसूलों और क़ानूनों के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाले सच्चे मुसलमान का एक-एक क़दम और एक-एक कार्य अज्र व सवाब (पुण्य) के लिए होता है। जिसमें जीवन के सभी हिस्सों के साथ-साथ औरत और मर्द की मैथुन क्रिया भी है। इसमें भी इस्लामी शरीअत ने पवित्रता (तक़द्दुस) का रंग भर दिया है।
रसूल-ए-खुदा (स,) ने इर्शाद फ़र्मायाः
तुम लोग जो अपने बीवीयों के पास जाते हो यह भी पुण्य का कारण है। सहाबा ने पूछा या रसूल्लाह (स.)। हम में का कोई व्यक्ति अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति करता है और इसमें क्या उसको सवाब (पुण्य) मिलेगा? आप ने फ़र्माया तुम्हारा क्या ख़्याल (विचार) है, यदि वह अपनी इच्छा हराम (ग़लत) तरीक़े से पूरी करे तो गुनाह (पाप) होगा या नही ? सहाबा जवाब दिया हाँ, गुनाह होगा। आप ने फ़र्माया तो इसी तरह जब वह हलाल (सहीह) तरीक़े से अपनी सेक्सी इच्छा पूरी करे तो उस से सवाब मिलेगा। (184)
इस्लाम धर्म ने जहाँ औरत और मर्द का एक दूसरे से अपनी सेक्सी इच्छा को पूरा करना सवाब और पुण्य का कारण हुवा करता है वहीं कुछ मौकों पर हराम होने की वजह से पाप और अज़ाब का कारण हो जाता है।
1.याद रखना चाहिए की औरत की योनि (जहाँ संभोग के समय मर्द अपना लिंग दाखिल करता है) के रास्ते से प्राकृतिक तौर पर प्रत्येक माह (185) तीन से दस दिन तक खूने हैज़ (अर्थात मासिक धर्म) आता है। उस हालत में औरत से संभोग करना हराम है। क्योंकि उस हालत में संभोग करना औरत और मर्द दोनों के लिए शारीरिक तकलीफों और आतशक व सोज़ाक जैसी भयानक बीमारियों के पैदा होने और गर्भ ठहरने पर बच्चे में कोढ़ और सफेद दाग की बीमारी होने का कारण होता है। जबकि इस्लाम धर्म मनुष्य को तन्दुरूस्त और निरोग देखना चाहता है। इसी लिए इस्लाम धर्म ने हैज़ आने के दिनों में संभोग को हराम (अर्थात वह काम जिसके करने पर पाप हो) करार दिया है। क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः
(ए रसूल (स)) तुम से लोग हैज़ के बारे में पूछते हैं। तुम उनसे कह दो कि यह गन्दगी और घिन बीमारी है तो हैज़ (के दिनों) में तुम औरतों से अलग रहो और जब तक वह पाक (अर्थात खून आना बन्द) न हो जाए उनके पास न जाओ। फिर जब वह पाक हो जायें तो जिधर से तुम्हे खुदा ने आदेश (हुक्म) दिया है उनके पास जाओ। बेशक खुदा तौबहः करने वालों और साफ सुथरे लोगों को पसन्द करता है। (186)
चूँकि हैज़ के ज़माने में औरत की तबीअत खून निकलने की ओर लगी रहती है और मैथुन से कार्य करने की कुव्वत में हैजान (बेचैनी) होती है और दोनों कुव्वतों के एक दूसरे के विपरीत होने की वजह से तबीअत को जो बदन की बादशाह है हैजान होता है और उसी की वजह से विभिन्न तरह की बीमारियां होती हैं। इसके अतिरिक्त मर्द की सेक्सी इच्छा मैथुन के समय मनी (वीर्य) निकालने की तरफ लगी रहती है और शरीर के रोम-कूप (मसामात) खुल जाते है और खूने हैज़ से बुखारात (भाप) बुलन्द (ऊपर उठकर) हो कर बुरे असर (प्रभाव) डालती है। इसके अलावा खुद खून भी मर्द के लिंग के सूराख़ में दाखिल होकर सोजाक आदि जैसी बीमारी पैदा करने का कारण होता है। इन्ही कारणों से शरीअत ने हैज़ की हालत मे मैथुन क्रिया को पूरी तरह से हराम करार दिया है। (187)
-आदाब-ए-ज़वाज- के लेखक ने लिखा है कि हायजः औरत (अर्थात वह औऱत जिसके खूने हैज़ आ रहा हो) से मैथुन करने की मनाही (हराम होने, हुरमत) में दो युक्तियाँ हैं। एक मासिक धर्म की गन्दगी जिससे मनुष्य की तबीयत घ्रणित (कराहियत) करती है। दूसरे यह कि मर्द और औरत को बहुत से शारीरिक नुक़सान पहुँचते है। चुनाँचे आधुनिक चिकित्सा ने हायजः औरत से मैथुन की जिन हानियों व बिमारियों को स्पष्ट किया है उनमे से दो मुख्य और अहम हैं। एक यह कि औरत के लिंग में दर्द पैदा हो जाता है औऱ कभी कभी गर्भाशय में जलन पैदा हो जाती है। जिससे गर्भाशय खराब हो जाता है और औरत बांझ हो जाती है। दूसरा यह कि हैज़ के कीटाणु (मवाद) मर्द के लिंग में पहुँच जाते हैं जिस से कभी कभी पीप जैसा माददः (पदार्थ) बनकर जलन पैदा करता है। और कभी कभी यह पदार्थ फैलता हुआ अंडकोष तक पहुँच जाता है और उनको तकलीफ देता है। आखिरकार (अन्त में) मर्द बांझ हो जाता है, इस प्रकार की और भी बीमारियाँ और तकलीफें पैदा होती है। जिसको दृष्टिगत रखते हुवे सभी आधुनिक चिकित्सक इस बात को मानते हैं कि हैज़ आने की हालत में मैथुन क्रिया से दूर रहना अनिवार्य है। यह ऐसी वास्तविकता है जिसे हज़ारों साल पहले कुर्आन-ए-हकीम ने बताया था यह भी कुर्आन-ए-करीम का मौजिजः हैः-(188)
ऐसी (अर्थात खूने हैज़ आने की) सूरत (हालत) में इस्लामी शरीअत ने यह अनुमति (इजाज़त) ज़रूर दे रखी है कि संभोग के अलावा औरत के शरीर का बोसा लेना, प्यार करना छातियों से खेलना, साथ लेटना और सोना, शरीर से शरीर मिलाना संक्षिप्त यह कि किसी भी तरह से स्वाद व आन्नद उठाना जाएज़ है। (189)
वरना संभोग के कर गुज़रने का खतरा होने की सूरत में बीवी से दूर रहना ही बेहतर (उचित) है। लेकिन फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपनी सेक्सी इच्छाओं को काबू न कर पाने की सूरत में संभोग कर बैठे तो शरीअत ने उस पर कफ्फारः (जुर्माना) लगाया है। (190)
मसाएल में यहाँ तक मिलता है कि हायज़ः औरत की योनि (अर्थात आगे के सूराख) में मर्द के लिंग के खतरे वाली जगह से कम हिस्सा भी दाखिल न हो। (191)
2.खूने हैज़ आने की हालत में मर्द कभी-कभी (बीमारी आदि के डर से) औरत के आगे के सूराख को छोड़कर पीछे के सूराख में अपना लिंग इस ख्याल से दाखिल कर देता है कि खूने हैज़ पीछे के सूराख से नही आ रहा है अर्थात वह पाक है। या यह कहा जाए कि वह आगे और पीछे दोनों सूराखों को एक ही जैसा समझता है। जबकि कुछ आलिमों (विद्वानों) ने पीछे के सूराख में लिंग को दाखिल करना हराम और कुछ ने सख्त मकरूह माना है। रसूल-ए-खुदा का इर्शाद है किः-
उस व्यक्ति पर अल्लाह की लानत है जो अपनी औरत के पास उसके पीछे के रास्ते में आता है। (192)
और जामेअ तिरमिज़ी में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है किः
अल्लाह तआला (क़यामत के दिन) उस व्यक्ति की ओर निगाह उठा कर नही देखेगा जो किसी मर्द या किसी औरत के पास पीछे के रास्ते में आएगा। (193)
क्योंकि पीछे के रास्ते में लिगं दाखिल करने और वीर्य के निकलने से वीर्य नष्ट (बेकार) हो जाता है और इस्लामी शरीअत कदापि पसन्द नही करती कि प्राकृतिक तौर पर तैय्यार होने वाले क़ीमती जौहर (मूल्यवान वीर्य) को नष्ट होने दिया जाए। इसीलिए इस्लाम ने गुदमैथुन को हराम करार दिया है। क्योंकि इसमें वीर्य नष्ट हो जाता है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर हैज़ आने के दिनों में औरत के पीछे के सूराख में लिंग को दाखिल करने की अनुमति होती तो हैज़ आने के दिनों में औरत से दूर रहने (अर्थात मैथुन न करने) का हुक्म नही दिया जाता और यह कहा जाता किः
फिर जब वह पाक हो जाए तो जिधर से तुम्हे खुदा ने हुक्म दिया है उनके पास जाओ। बेशक खुदा तौबा करने वालों और पाक व पाकीज़ा लोगों को पसन्द करता है। (194)
अर्थात हर हालत में औरत के पास जाने का आदेश केवल उनके आगे के सूराख मे है----- और पाक होने का अर्थ विद्वानों ने खूने हैज़ का आना बन्द हो जाना माना है न कि स्नान करना।
मसाएल में मिलता है किः
जब औरत हैज़ से पाक हो जाए चाहे अभी स्नान न किया हो उसको तलाक़ देना सहीह है और उसका पति उस से संभोग भी कर सकता है और उचित यह है कि संभोग से पहले योनि के स्थान को धो ले, फिर भी यह मुसतहिब है कि स्नान करने से पहले संभोग करने से बचा रहे। लेकिन दूसरे काम जो हैज़ की हालत में हराम थे (अर्थात जिसकी मनाही थी) जैसे मस्जिद में ठहरना, क़ुर्आन के शब्दों को छूना अब भी हराम है जब तक स्नान न कर ले। (195)
अर्थात खूने हैज़ आना बन्द हो जाने की सूरत में शर्मगाह (योनि) को धोकर संभोग किया जा सकता है। विद्वानों ने यह भी लिखा है कि उचित यह है कि स्नान के बाद ही संभोग करे।
3.खूने हैज़ की तरह खूने नफ़ास (रक्तस्राव, अर्थात वह खून जो बच्चा पैदा होने के बाद औरत की योनि से निकलता है) आने की हालत में भी औरत से संभोग करना हराम है। मसाएल में मिलता है किः
नफ़ास की हालत में औरत को तलाक़ देना और उससे संभोग करना हराम है लेकिन यदि उस से संभोग किया जाये कफ्फारः (जुर्मानः) वाजिब नहीं है। (196)
4.इस्लामी शरीअत ने औरत और मर्द को सेक्सी इच्छा की पूर्ति की पूरी आज़ादी देने के साथ-साथ रोज़े की हालत में संभोग की मनाही की है। क्योंकि रोज़ः बातिल (टूट) हो जाता है। मसाएल में मिलता है किः
संभोग से रोज़ः टूट जाता है। चाहे केवल खतने का हिस्सः ही अन्दर दाखिल हो और वीर्य भी बाहर न निकले। (197)
जबकि रोज़ो (अर्थात रमज़ान के महीने और रोज़ो) की रातों में अपनी बीवी से संभोग करना जाएज़ और हलाल है।
क़ुर्आन-ए-करीम में हैः
(मुस्लमानों) तुम्हारे लिए रोज़ों की रातों मे अपनी बीवीयों के पास जाना हलाल कर दिया गया, औरतें तुम्हारी चोलीं है और तुम उसके दामन हो, खुदा ने देखा तुम (पाप करके) अपनी हानि करते थे (कि आँख बचाके अपनी बीवी के पास चले जाते थे) तो उसने तुम्हारी तौबः कुबूल की (स्वीकृति कर ली) और तुम्हारी ग़लती को माफ कर दिया। अब तुम उस से संभोग करो और (संतान से) जो कुछ खुदा ने तुम्हारे लिए (भाग्य में) लिख दिया है उसे मांगो और खाओ पियो। यहाँ तक कि सुबह की सफ़ेद धारी (रात की) काली धारी से आसमान पर पूर्व की ओर तुम्हें साफ दिखाई देने लगे। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो और (हाँ) जब तुम मस्जिदों में एतिकाफ़ (एकान्त में ईशवर की तपस्या) करने बैठो तो उनसे (रात को भी) संभोग न करो। यह खुदा की (तय की हुवी) हदें हैं। तो तुम उनके पास भी न जाना यूँ बिल्कुल स्पष्ट रूप से खुदा अपने क़ानूनों को लोगो के सामने बयान करता है ताकि वह लोग (क़ानून उल्लघंन) से बचें। (198)
5.क़ुर्आन की उपर्युक्त आयत से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि एतिकाफ़ की हालत में संभोग की मनाही की गयी है। मसाएल में यह भी मिलता है किः
औरत से संभोग करना और सावधानी (अहतियात) के रूप में उसे छूना, सेक्स के साथ बोसा देना (प्यार करना) चाहे मर्द हो या औरत हराम है। (199)
औरः
मुस्तहिब (पुनीत) सावधानी यह है कि एकान्त में ईश्वर की तपस्या करने वाला हर उस चीज़ से बचा करे जो हज के मौक़े पर एहराम (अर्थात वह वस्त्र जो हाजी हज के मौक़े पर पहनते हैं) की हालत में हराम हैं। (200)
6.याद रखना चाहिए कि हाजी जब मीक़ात (अर्थात एहराम बांधने की जगह) से हज की नीयत कर लेता है और तकबीर पढ़ लेता है तो कुछ मुबाह (जाएज़) चीज़े उस पर हराम हो जाती है। इन ही मुबाह चीज़ों में पति और पत्नी भी है जो एक दूसरे पर एहराम की हालत में हराम हो जाते हैं। मिलता है किः
एहराम की हालत में अपनी पत्नी से संभोग करना, बोसा (चुम्मा, प्यार) लेना, सेक्स की निगाह से देखना बल्कि हर तरह का स्वाद और आन्नद हासिल करना हराम है। (201)
और यह हराम, हलाल में उस समय बदलता है जब तवाफें निसाअ (202) कर लिया जाए। मसाएल में है किः
तवाफ़े निसाअ और नमाज़े तवाफ के बाद औरत पर पति और पति पर पत्नी हलाल हो जाती है। (203)
याद रखना चाहिए किः
तवाफ़े निसाअ केवल मर्दों से मख़सूस (के लिए) नहीं है बल्कि औरतों. नपुंस्कों, नामर्दों और तमीज़ रखने वाले (अर्थात अच्छा-बुरा समझने वाले) बच्चों के लिए भी ज़रूरी है। अगर व्यक्ति तवाफ़े निसाअ न करे तो पत्नी हलाल न होगी। जैसा कि पूर्व में बयान किया जा चुका है। इसी तरह अगर औरत तवाफ़े निसाअ न करे तो पति हलाल न होगा। बल्कि अगर अभिभावक तमीज़ न रखने वाले बच्चे के एहराम बाँधे तो अहतियात वाजिब (ज़रूरी एहतीयात) यह है कि उसको तवाफ़े निसाअ करना चाहिए ताकि बालिग़ होने के बाद औरत या मर्द उस पर हलाल हो जाऐं। (204)
घ्रणित मैथुनः
फक़ीहों (विद्धानों) ने आठ मौकों पर मैथुन करने को मक्रूह करार दिया है।
1.चन्द्र ग्रहण की रात
2.सूर्य ग्रहण का दिन
3.सूर्य के पतन (गिराव अर्थात (12) बजे के आस-पास) के समय (ब्रहस्पतिवार के अतिरिक्त किसी दिन में)।
4.सूर्य के डूबते समय, जब तक की लाली न छट जाये।
5.मुहाक़ की रातों में (अर्थात चाँद के महीने की उन दो या तीन रातों में जब चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता)
6.सुबह होने से लेकर सूरज निकलने तक।
7.रमज़ान के अतिरिक्त हर चाँद के महीने की चाँद रात को
8.हर माह की पन्द्रहवीं रात को इस के अतिरिक्त विद्धानों ने कुछ और मौक़ो पर भी मैथुन को घ्रणित बताया है।
1.जैसे सफर की हालत में जब कि स्नान के लिए पानी न हो।
2.काली, पीली या लाल आंधी चलने के समय।
3.ज़लज़ले (भूकंप) के समय। (205)
मोअतबर हदीस (यक़ीन करने योग्य हदीसों) में मिलता है कि निम्नलिखित मौक़ों पर मैथुन करना मक्रूह (घ्रणित) है।
1.सुबह से सूर्य निकलने (सूर्योदय) तक (206)
2.सूर्यास्त से लेकर लाली खत्म होने तक
3.सूर्य ग्रहण के दिन
4.चन्द्र ग्रहण के दिन
5.उस रात या दिन में जिसमें काली, पीली या लाल आँधी आये या भूकंप मसहूस हो, खुदा की क़सम यदि कोई व्यक्ति इन मौकों पर मैथुन करेगा और उससे सन्तान पैदा होगी तो उस संतान में एक भी आदत ऐसी नहीं देखेगा जिस से (प्रसन्ता) हासिल हो क्योंकि उसने खुदा के ग़ज़ब की निशानियों को कम समझा। (207)
इन क़ानूनो के ज़ाहरी कारण यह है कि चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण ज़मीनी निज़ाम पर लाज़मी (अनिवार्य) रूप से अपना असर छोड़ते हैं। अतः इस बात का डर है कि ऐसे मौके पर गर्भ ठहरने की सूरत में बच्चे मे कुछ ऐसी कमियाँ पैदा हो जायें जो माता-पिता के ज़हनी सुकून को बरबाद कर दें, जिसको प्राकृतिक धर्म (इस्लाम) पसन्द नहीं करता----- शायद इसी लिए इस्लाम धर्म ने उपर्युक्त मौक़ो पर मैथुन क्रिया को घ्रणित करार दिया गया है।
इस्लाम में शादी (निकाह) का तात्पर्य सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ सदैव नेक व सहीह व पूर्ण संतान का द्रष्टिगत रखना भी है। इसी लिए आइम्मः-ए-मासूमिन (अ.) ने मैथुन के लिए महीना, तारीख, दिन, समय और जगह को द्रष्टिगत रखते हुवे अलग-अलग असरात (प्रभाव) बताये है जिसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है।
कमर दर अक्रब (अर्थात जब चाँद व्रश्चिक राशि मे हो) और तहतशशुआअ (अर्थात चाँद के महीने के वह दो या तीन दिन जब चाँद इतना महीन होता है कि दिखाई नही देता) में मैथुन करना घ्रणित है। (209)
तहतशशुआअ में मैथुन करने पर बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव से सम्बनधित इमाम-ए-मूसी-ए-काज़िम (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया किः
जो व्यक्ति अपनी औरत से तहतशशुआअ में मैथुन करे वह पहले अपने दिल में तय करले कि पैदाइश (हमल, गर्भ, बच्चा) पूर्व होने से पहले गर्भ गिर जायेगा। (210)
तारीख से सम्बन्धित इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) ने फ़र्मायाः
महीने के आरम्भ, बीच और अन्त में मैथुन न करो क्योंकि इन मौकों में मैथुन करना गर्भ के गिर जाने का कारण होता है और अगर संतान हो भी जाए तो ज़रूरी है कि वह दीवानगी (पागलपन) में मुब्तला (ग्रस्त) होगी या मिर्गी में। क्या तुम नहीं देखते कि जिस व्यक्ति को मिर्गी की बीमारी होती है, या उसे महीने के शुरू में दौरा होता है या बीच में या आखिर में। (211)
दिनों के हिसाब से बुद्धवार की रात में मैथुन करना घ्रणित बताया गया है इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) का इर्शाद है किः
बुद्धवार की शाम को मैथुन (संभोग) करना उचित नहीं है। (212)
जहाँ तक समय का सम्बन्ध है उसके लिए ज़वाल (बारह बजे के आस पास) औऱ सूर्यास्त के समय सुबह शुरू होने के समय से सूर्योदय तक के अलावा पहली घड़ी में संभोग नही करना चाहिए। क्योंकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनियां को आख़िरत पर इख़्तियार करे। यह बात रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ.) को वसीयत करते हुवे इर्शाद फर्मायी किः
या अली (अ.) रात की पहली घड़ी (पहर) में संभोग न करना क्योंकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनियां को आख़िरत पर इख्तियार करे। या अली (अ.) यह वसीयतें (शिक्षाऐं) मुझ से सीख लो जिस तरह मैने जिबरईल से सीखी है। (213)
वास्तव में रसूल-ए-खुदा (स.) की यह वसीयत (अन्तिम कथन) केवल हज़रत अली (अ,) से नही है बल्कि पूरी उम्मत से है। इसी वसीयत में रसूल-ए-खुदा (स,) ने मक्रूहात (घ्रणित मैथुन) की सूची इस तरह गिनाई हैः
.......ऐअली (अ.) उस दुल्हन को सात दिन दूध, सिरका, धनिया और खटटे सेब न खाने देना। हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.) ने कहा किः या रसूलल्लाह (स.) इसका क्या कारण है ? फ़र्माया कि इन चीज़ो के खाने से औरत का गर्भ ठंडा पड़ जाता है और वह बाँझ हो जाती है और उसके संतान नही पैदा होती।ऐअली (अ,) जो बोरिया घर के किसी कोने में पड़ा हो उस औरत से अच्छा है जिसके संतान न होती हो। फिर फ़र्माया या अली (अ.) अपनी बीवी से महीने के शुरू, बीच, आखिर में संभोग न किया करो कि उसको और उसके बच्चों को दीवानगी, बालखोरः (एक तरह की बीमारी) कोढ़ और दिमाग़ी ख़राबी होने का डर रहता है। या अली (अ,) ज़ोहर की नमाज़ के बाद संभोग न करना क्योंकि बच्चा जो पैदा होगा वह परेशान हाल होगा। या अली (स,) संभोग के समय बातें (214) करना अगर बच्चा पैदा होगा तो इसमें शक नहीं कि वह गूँगा हो। और कोई व्यक्ति अपनी औरत की योनि की तरफ न देखे (215) बल्कि इस हालत में आँखें बन्द रखे। क्योंकि उस समय योनि की तरफ देखना संतान के अंधे होने का कारण होता है। या अली (अ,) जब किसी और औरत के देखने से सेक्स या इच्छा पैदा हो तो अपनी औरत से संभोग न करना क्योंकि बच्चा जो पैदा होगा नपुंसक या दिवाना होगा। या अली (अ.) जो व्यक्ति जनाबत (वीर्य निकलने के बाद) की हालत में अपनी बीवी के बिस्तर में लेटा हो उस पर लाज़िम है कि क़ुर्आन-ए-करीम न पढ़े क्योंकि मुझे डर है कि आसमान से आग बरसे और दोनों को जला दे। या अली (अ,) संभोग करने से पहले एक रूमाल अपने लिए और एक अपने बीवी के लिए ले लेना। ऐसा न हो कि तुम दोनों एक ही रूमाल प्रयोग करो कि उस से पहले तो दुश्मनी पैदा होगी और आखिर में जुदाई तक हो जाएगी। या अली (अ.) अपनी औरत से खड़े खड़े संभोग न करना कि यह काम गधों का सा है। अगर बच्चा पैदा होगा तो वह गधे ही की तरह बिछौने पर पेशाब किया करेगा या अली (अ,) ईद-उल-फितर की रात संभोग न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उससे बहुत सी बुराईयां प्रकट होंगी। या अली (अ,) ईद-उल-क़ुर्बान की रात संभोग न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो उसके हाथ में छः उँगलियाँ होंगी या चार। या अली (अ,) फलदार पेड़ के नीचे संभोग न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो या क़ातिल व जल्लाद (हत्यारा) होगा या ज़ालिमों (अत्याचारों) का लीडर। या अली (अ,) सूर्य के सामने संभोग न करना मगर यह कि परदः डाल लो क्योंकि अगर बच्चा पैदा होगा तो मरते दम तक बराबर बुरी हालत और परेशानी में रहेगा। या अली (अ,) अज़ान व अक़ामत के बीच संभोग न करना। अगर बच्चा पैदा होगा तो उसकी प्रव्रति खून बहाने की ओर होगी।
या अली (अ,) जब तुम्हारी बीवी गर्भवती हो तो बिना वज़ू के उस से संभोग न करना वरना बच्चा कनजूस पैदा होगा। या अली (अ,) शाअबान की पन्द्रहवीं तारीख को संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो लुटेरा और ज़ुल्म (अत्याचार) को दोस्त रखता होगा और उसके हाथ से बहुत से आदमी मारें जायेंगे। या अली (अ. कोठे पर (216) संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो मुनाफिक़ और दग़ाबाज़ होगा। या अली (अ.) जब तुम यात्रा (सफर) पर जाओ तो उस रात को संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो नाहक़ (बेजा) माल खर्च करेगा और बेजा खर्च करने वाले लोग शैतान के भाई हैं और अगर कोई ऐसे सफर में जायें जहाँ तीन दिन का रास्ता हो तो संभोग करे वरना अगर बच्चा पैदा हुआ तो अत्याचार को दोस्त रखेगा।(217)
जहाँ रसूल-ए-खुदा (स.) ने उपर्युक्त बातें इर्शाद फ़र्मायीं हैं वहीं किसी मौक़े पर यह भी फ़र्माया किः
उस खुदा कि कसम जिस की क़ुदरत में मेरी जान है अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत से ऐसे मकान में संभोग करे जिस में कोई जागता हो और वह उनको देखे या उनकी बात या सांस की आवाज़ सुने तो संतान जो उस मैथुन से पैदा होगी नाजी न होगी (अर्थात उसे मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकती) बल्कि बलात्कारी होगी। (218)
इसी तरह की बात इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ,) ने इर्शाद फ़र्मायी है किः
मर्द को उस मकान में जिसमें कोई बच्चा हो अपनी औरत या लौंडी से संभोग नही करना चाहिए वरनः वह बच्चा बलात्कारी होगा। (219)
शायद इसी लिए इमाम-ए-ज़ैनुल आबिदीन (अ,) जिस समय संभोग का इरादः करते तो नौकरों को हटा देते, दरवाज़ा बन्द कर देते, पर्दः डाल देते और फिर किसी नौकर को उस कमरे के करीब आने की इजाज़त (आज्ञा, अनुमति) नहीं होती थी। (220)
अतः ज़रूरी अहतेयात यह है कि अच्छे और बुरे की तमीज़ (समझ) न रखने वाले बच्चे के सामने भी मैथुन न करें। क्योंकि इस से बच्चे के बलात्कार की ओर आकर्षित होने का डर है।
यह भी घ्रणित है कि कोई एक आज़ाद (स्वतन्त्र) औरत के सामने दूसरी आज़ाद औरत से संभोग करे।
इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया है किः
एक आज़ाद औरत से दूसरी आज़ाद औरत के सामने संभोग मत करो मगर ग़ुलाम (कनीज़) से दूसरी कनीज़ के सामने संभोग करने में कोई नुक़सान (आपत्ति) नहीं है। (221)
इन सभी चीज़ो के साथ-साथ औरत और मर्द को इस बात का भी ख़्याल रखना चाहिए कि वह ख़िज़ाब लगाकर या पेट भरा रहने की सूरत में संभोग न करें। क्योंकि इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ,) ने इर्शाद फ़र्माया किः
अगर कोई व्यक्ति खिज़ाब लगाये हुवे अपनी औरत से संभोग करेगा तो जो बच्चा पैदा होगा नपुंसक पैदा होगा। (222)
और आप ही ने इर्शाद फ़र्माया किः
तीन चीज़ शरीर के लिए बहुत खतरनाक (हानिकारक) बल्कि कभी हलाक करने वाली (प्राण घातक) भी होती है। पेट भरे होने की हालत में हमाम में जाना (अर्थात स्नान करना) पेट भरा होने की हालत में संभोग और बूढ़ी औरत से संभोग करना। (223)
संभोग के समय इसका भी ख्याल (ध्यान) रखना चाहिए किः
अगर किसी के पास कोई ऐसी अंगूठी हो जिस पर कोई नामे खुदा हो उस अंगूठी को उतारे बिना संभोग न करे। (224)
जहाँ यह सभी चीज़े हैं वहीं काबे की तरफ मुँह करके संभोग करना घ्रणित है। इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) से सवाल करने वाले ने सवाल किया किः
क्या मर्द नंगा (निर्वस्त्र) होकर संभोग कर सकता है। फ़र्माया नहीं। इसके अतिरिक्त न ही क़िब्ले की ओर मुँह करके संभोग कर सकता है न काबे की ओर पीठ करके और न ही किश्ती में। (225)
जबकि आधुनिक युग के अधिकतर जोड़े पूरे नंगे होकर (अर्थात पूरे कपड़े उतार कर) संभोग करने से अधिक स्वाद और आन्नद महसूस करते हैं और यह कहते हैं कि इस से संभोग में कई गुना बढ़ोतरी हो जाती है। लेकिन उन्हे यह मालूम नहीं कि इस तरह मैथुन क्रिया से पैदा होने वाले बच्चे बेशर्म होते हैं। रसूल-ए-अकरम ने फ़र्मायाः
जंगली जानवरों की तरह नंगे न हो, क्योंकि नंगे होकर संभोग करने से संतान बेशर्म पैदा होती है। (226)
बहरहाल अगर बहुत ज़्यादा ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होगा कि सभी मकहूरात (घ्रणित मैथुन) संभोग से अधिकतर बच्चे का फायदः (अर्थात शारीरिक कमीयों से पाक) होगा और कुछ (जैसे संभोग के बाद लगी हुई गंदगी को दूर करने के लिए मर्द और औरत से अलग-अलग रूमाल होने) में औरत और मर्द का फायदः (अर्थात दुश्मनी या जुदाई न होना) होगा।
याद रखना चाहिए कि जिस तरह घ्रणित मैथुन से मर्द और औरत या बच्चे का लाभ होगा उसी तरह पुनीत मैथुन (मुस्तहिबाते जिमाअ) से औरत और मर्द या बच्चे का ही लाभ होगा।
पुनीत मैथुनः पिछले अध्याय में लिखा जा चुका है कि संभोग के समय वज़ू किये होना और बिस्मिल्लाह कहना पुनीत है। वास्तव में यह इस्लाम धर्म की सर्वोच्च शिक्षाऐं है कि वह व्यक्ति को ऐसे हैजानी, जज़बाती और भावुक माहौल (संभोग के समय) में भी अपने खुदा से बेखबर नही होने देना चाहता। जिसका अर्थ यह है कि एक सच्चे मुस्लमान का कोई काम खुदा की याद या खुदा के क़ानून से अलग हट कर नही होता है। उसके दिमाग़ में हर समय यह बात रहती है कि वह दुनियां का हर काम (यहाँ तक कि मैथुन भी) खुदा कि खुशनूदी के लिए करता है ------ यही कारण है कि ऐसा खुदा का नेक, अच्छा व्यक्ति जिस समय सेक्सी इच्छा की पूर्ति कर रहा होता है उस समय खुदा अपने छिपे हुए खज़ाने से, उसके लिए संतान जैसी वह महान नेअमत (अर्थात ईश्वर का दिया हुआ वह महान धन) तय करता है जो दीन (धर्म) और दुनिया के लिए लाभदायक और प्रयोग योग्य सिद्ध होती है।
उसी नेक औऱ लाभदायक और प्रयोग योग्य संतान प्राप्त करने के लिए जहाँ रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ,) को घ्रणित मैथुन की शिक्षा दी है वहीं पुनीत मैथुन से सम्बन्धित बताया है किः
या अली (अ,) सोमवार की रात को मैथुन करना अगर संतान पैदा हुवी तो हाफिज़े क़ुर्आन और खुदा की नेअमत पर राज़ी व शाकिर होगी। या अली (अ,) अगर तुम ने मंगलवार की रात को मैथुन किया तो जो बच्चा पैदा होगा वह इस्लाम की सआदत (प्रताप) प्राप्त करने के अलावा शहादत का पद (मरतबा) भी पायेगा। मुँह से उसके खुशबूँ आती होगी। दिल उसका रहम (दया) से भरा होगा। हाथ का वह सखी (दाता) होगा। और ज़बान उसकी दूसरों की बुराई और उनसे सम्बन्धित ग़लत बात कहने से रूकी रहेगी। या अली (अ,) अगर तुम ब्रहस्पतिवार की रात को मैथुन करोगे तो जो बच्चा पैदा होगा वह शरीअत का हाकिम (पदाधिकारी) होगा या विद्धान और अगर ब्रहस्पतिवार के दिन ठीक दोपहर के समय मैथुन करोगे तो आखिरी समय तक शैतान उस के पास न आ सकेगा और खुदा उसको दीन और दुनिया में तरक्की देगा। या अली (अ,) अगर तुम ने शुक्रवार की रात को मैथुन किया तो बच्चा जो पैदा होगा वह बात चीत में बहुत मीठा और सरल व सुन्दर मंजी हुवी भाषा के बोलने वालों में प्रसिद्ध होगा और कोई बोलने वाला (व्याखता) उसकी बराबरी न कर सकेगा और अगर शुक्रवार के दिन अस्र की नमाज़ के बाद मैथुन करे तो बच्चा जो पैदा होगा वह ज़माने के बहुत ही बुद्धिजीवीयों में गिना जाएगा। अगर शुक्रवार की रात इशाअ की नमाज़ के बाद मैथुन किया तो उम्मीद है कि जो बच्चा पैदा होगा वह पूर्ण उत्तराधिकारियों (वली-ए-कामिल) में गिना जाएगा। (227)
पुनीत मैथुन से सम्बन्धित यह भी मिलता है कि छुप कर मैथुन करना चाहिए जैसा कि ऊपर भी वर्णन किया जा चुका है कि इमाम-ए-ज़ैनुल आबेदीन (अ,) जब भी संभोग का इरादः करते थे तो दरवाज़े बन्द करते, उन पर पर्दः डालते और किसी को कमरे की तरफ न आने देते थे। छुप कर संभोग करने ही से सम्बन्धित उन घ्रणित मैथुन को भी दृष्टिगत रखा जा सकता है जिसमें अच्छे और बुरे की पहचान न रखने वाले बच्चे के सामने भी संभोग करने को मना किया गया है। या एक आज़ाद (स्वतन्त्र) और से मौजूदगी (उपस्थिति) में दूसरी आज़ाद औरत के साथ मैथुन करने को भी घ्रणित बताया गया है। अतः इस से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि छुप कर मैथुन करना ही पुनीत (मुस्तहिब) है। इसी से सम्बन्धित रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्माया किः
कव्वे की सी तीन आदतें सीखो। छुप कर मैथुन करना, बिल्कुल सुबह रोज़ी की तलाश में जाना, दुश्मनों से बहुत बचे रहना। (228)
पुनीत मैथुन में यह भी मिलता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी औरत से फौरन संभोग न करे। बल्कि पहले छाती, रान आदि को मसले, सहलाए, (अर्थात मसास करे) छेड़-छाड़ और मज़ाक करे। इस बात को सेक्सी शिक्षा के विद्धानों ने माना है। उनकी दृष्टि में एकदम से संभोग करने पर मर्द का वीर्य शीघ्र ही निकल जाता है जिसके कारण मर्द की इच्छा तो पूरी हो जाती है लेकिन औरत की इच्छा पूरी नहीं हो पाती। जिसकी वजह से औरत अपने मर्द से नफ़रत करने लगती है। शायद इसी लिए प्राकृतिक धर्म इस्लाम ने मसास (मसलना, सहलाना) चूमना चाटना छेड़-छाड़, हंसी-मज़ाक, प्यार व मुहब्बत की बातें आदि को पुनीत करार दिया है ताकि औरत उपर्युक्त कार्यों से संभोग के लिए पूरी तरह तैय्यार हो जाए और जब उससे संभोग किया जाए तो वह भी मर्द की तरह से पूरी तरह सेक्सी संतुष्टि (अर्थात स्वाद और आन्नद) प्राप्त कर सके। इसीलिए रसूल-ए-खुदा ने इर्शाद फ़र्माया किः
जो व्यक्ति अपनी औरत से संभोग करे वह मुर्ग़ की तरह उस के पास न जाए बल्कि पहले मसास और छेड़-छाड़ी हंसी मज़ाक करे उसके बाद संभोग करे। (229)
यही वजह है कि जिस समय इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ,) से किसी ने पूछा किः
अगर कोई व्यक्ति हाथ या उंगली से अपनी बीवी या अपनी लौड़ी (अर्थात वह औरत जिसे मर्द ने खरीद लिया हो) की योनि के साथ छेड़-छाड़ करे तो कैसा ? फ़र्माया कोई नुकसान नहीं लेकिन बदन (शरीर) के हिस्सों (अंगों) के अलावा कोई और चीज़ (वस्तु) उस स्थान में प्रवेश न करे। (231)
अर्थात औरत को संभोग के लिए पूरी तरह तैय्यार करने और गर्म करने के लिए मर्द औरत की योनि (शर्मगाह) में अपनी उंगली या शरीर के किसी अंग से छेड़-छाड़ कर सकता है ताकि औरत और मर्द को पूरी तरह से सेक्सी स्वाद और आन्नद प्राप्त हो सके।
अनिवार्य मैथुन
घ्रणित और पुनीत मैथुन की तरह अनिवार्य मैथुन में मर्द पर वाजिब है कि वह अपनी जवान बल्कि बूढ़ी पत्नी से चार महीने में एक बार मैथुन अवश्य करे।
मसाएल में है किः-
पति अपनी जवान पत्नी से चार महीने से अधिक संभोग को नही छोड़ सकता। बल्कि एहतियात (सावधानी) यह है कि अपनी बूढ़ी पत्नी के साथ भी इससे अधिक समय तक संभोग को न छोड़े। (232)
यह भी मिलता है किः-
औरत के जो हुक़ूक़ (अधिकार) मर्द पर है उनमें से एक यह भी है कि अगर मर्द घर में मौजूद है और कोई शरई (धार्मिक) उज़र (आपत्ति) न रखता हो तो चार महीने में एक बार संभोग करे यह अनिवार्य है और अगर कई पत्नियाँ हों और उनमें से किसी एक के साथ एक रात सोये तो अनिवार्य है कि औरों (दूसरों) के पास भी एक एक रात सोये। विद्धानों का एक गिरोह मानता है और यह मानना सावधानी पर आधारित मालूम होता है कि चार रातों मे से एक रात एक औरत के लिए मखसूस हो। अब चाहे इसमें एक औरत हो या ज़्यादा (पास सोने का तात्पर्य यह नही है कि संभोग भी अवश्य करे) लौङियों (वह औरत जिन्हें खरीद लिया गया हो) के हक़ (अधिकार) मे और उन औरतों के हक़ में जिन से मुतअः किया है यह क़ानून अनिवार्य नही है बल्कि लौड़ी के हक़ मे अच्छा तरीक़ा यह है कि उसकी सेक्सी इच्छा की पूर्ति मर्द खुद करे या उसका किसी के साथ निकाह कर दे। कुछ हदीसों में आया है कि अगर ऐसा न किया और वह बलात्कार कर बैठी तो इसका गुनाहः मालिक के नामः-ए-आमाल में लिखा जाएगा। (233)
बहरहाल जब संभोग से सम्बन्धित हराम, मक्रूह, मुस्तहिब और वाजिब का ज्ञान हो गया तो आव्यश्क है कि संभोग की कुछ बुनियादी और अनिवार्य बातों का अवश्य ध्यान में रखे क्योंकि संभोग का सम्बन्ध औरत और मर्द की पूरी ज़िन्दगी (के पूरे जीवन) से रहता है।
वज़ू और दुआ
जैसा कि ऊपर भी वर्णन किया जा चुका है कि संभोग का इरादः होने पर सब से पहले वज़ू करे और खुदा से नेक और पाकीज़ा संतान की दुआ करे। जैसा कि कुछ नबीयों ने भी किया। जनाब-ए-ज़करिया (अ.) ने नेक संतान की दुआ करते हुवे कहाः
....... ऐ मेरे पालने वाले तू मुझ को (भी) अपनी बारगाह से नेक और पाक संतान दे। बेशक तू ही दुआ का सुनने वाला है। (234)
या जनाब-ए-इब्राहीम (अ.) ने दुआ किः
परवर्दिगारा मुझे एक नेक सीरत (औलाद) अता फ़र्मा। (235)
अतः संभोग से पहले नेक संतान की दुआ अवश्य माँग लेना चाहिए।
एकान्तः वज़ू और दूआ के अलावा संभोग के लिए यह भी आव्यशक है कि छुप कर संभोग करने के लिए एकान्त अर्थात उस कमरे में जाया जाए जिस में औरत और मर्द का बिस्तर लगा हुआ हो। उसके दर्वाज़े और खिड़कियां बन्द करके अगर सम्भव हो तो पर्दे गिरा दें ((236)) ताकि दोनों को तस्ल्ली (संतोष) हो जाए कि उनकी सेक्सी क्रिया को कोई और नही देख सकता। संभोग से पूर्व उचित है कि औरत और मर्द दोनों पेशाब कर लें क्योंकि इस तरह स्वाद और आन्नद ज़्यादा देर तक बाकी रहता है।
मसास व दस्तबाज़ी
बन्द कमरे में जब औरत और मर्द को पूरी तरह इस बात का यक़ीन हो जाए कि उनकी सेक्सी क्रिया कलापों को कोई और नही देख रहा है तो सर्व प्रथम आव्यश्कता अनुसार वस्त्र को उतारे फिर पुनीत है कि दोनों आपस में सेक्सी खेल खेलें। दोनों एक दूसरे के हस्सास (संवेदनशील) अंगों को मस (स्पर्श) करें, सहलाए, खुजलायें और मसलें ताकि प्राकृतिक तौर पर वह चीकनाहट और तरी पैदा हो सके जिसे -मज़ी- कहा जाता है। जिसका काम पहले से निकल कर रास्ते को चिकना करना होता है ताकि मैथुन कठीनाई और परेशानी न होकर स्वाद और आन्नद पैदा हो सके ------ याद रखना चाहिए कि मसास (अर्थात अंगों को सहलाना, खुजलाना और मसलना) और दस्तबाज़ी की इस क्रिया में मर्द मुख्य रूप से ध्यान रखे। अर्थात वह प्यार और मुहब्बत की बातों के साथ साथ औरत को गोद में ले, चूमे चाटे, छाती (स्तन) के निपुलों को मसले, छाती को धीरे धीरे दबाए, होटों या ज़बान को धीरे धीरे चूसे, बगल, गुददी और रान आदि में उंगलियाँ फेरे, योनि में उंगली से हल्के हल्के हरकत दे, अपना लिंग औरत के हाथ में दे ताकि वह उसे धीरे धीरे दबाए और तनाव पैदा होने पर अपनी सेक्सी इच्छा को उस समय तक काबू में रखे जब तक कि औरत की सांसें उखड़ी न शुरू हो जायें, और औरत अपनी आँखे बन्द न करने लगे, ज़ोर से सीने से चमटने न लगे, चेहरे पर लाली, खुशी और ताज़गी के आसार (लक्षण, निशानात) न पैदा हो जाए------- अगर इस बीच मर्द को स्वाद महसूस हो तो वह अपने ख्याल को बाटे, अगर वीर्य अपनी जगह से हरकत कर चुका हो तो सांस रोके ताकि वीर्य रूक जाए और न निकले। लेकिन इस बीच भी औरत के संवेदनशील अंगों को हाथों से सहलाता (237) रहे ताकि औरत की इच्छा कम न हो--- फिर जब औरत की आँखों में लाल ड़ोरें मालूम हों या वह लम्बी लम्बी सांसें ले, या वह मर्द को ज़ोर से सीने से चिमटा ले---- उस समय औरत को सीधा लिटा कर उसकी क़मर के नीचे तकीया रख दे और उसकी रानों को खोल दें या उसके दोनों पैर समेट कर सुरीन (चूतड़) के नीचे रख दें ताकि औरत का मुख्य स्थान (आगे का सुराख) ऊचाँ हो जाए इस तरह मर्द के लिंग का मुहँ औरत के मुख्य स्थान के बिल्कुल सामने होगा और मर्द का लिंग आसानी के साथ औरत के गर्भ के मुहँ तक पहुँच जाएगा ----- तब मर्द अपने लिंग को, औरत के मुख्य सुराख में सख्ती से प्रवेश (दाखिल) कर दे। इस क्रिया से औरत को तकलीफ़ नही होगी बल्कि उसके स्वाद में काफी हद तक बढ़ोतरी होगी------ फिर अगर पैर औरत के चूतड़ के नीचे हो तो एक-एक कर के औरत के दोनों पैर फैला दें और खुद भी अपने पैर फैलाकर औरत पर इस तरह छा जाए (238) कि उसके शरीर के एक एक हिस्से को छुपा लें। लेकिन उस समय भी प्यार और मुहब्बत, प्रेम, मसलता और सहलाता रहे, होठों और ज़बान को चूसता रहे, धीरे धीरे लिंग को निकालता और दाखिल करता रहे, जिससे गर्भ फैल जाता है, उसका मुहँ खुल जाता है और इस वजह से गर्भ कुछ ऊचाँ भी हो जाता है। जिससे मर्द का लिंग टकराता है (जिसका अनुभव कुछ बहुत जल्दी अनुभव करने वाले लोगों को आसानी से हो जाता है) इस क्रिया से औरत बहुत जल्दी मुन्ज़िल हो जाती (अर्थात उसका वीर्य निकल जाता है) है। ऐसे समय में मर्द को स्वाद बिल्कुल नही उठाना चाहिए ताकि उसका वीर्य शीघ्र न निकले। बल्कि जब औरत मुन्ज़िल होने के बिल्कुल करीब हो अर्थात वह मर्द को कस के दबाये। तब मर्द भी जल्दी जल्दी दाखिल और खारिज (डाले और निकाले) करके मुन्ज़िल (वीर्य को निकाल दे) हो जाये। अगर इत्तिफाक (संयोगवश) से औरत उस समय तक मुन्ज़िल न हो और वह अपने हाथों या टागों से मर्द को कस कर दबा रही हो ताकि मर्द अलग न हो तो मर्द को चाहिए कि उस समय तक अपने लिंग को औरत की योनि से बाहर न निकाले जब तक कि औरत मुन्ज़िल न हो जाए। फिर कुछ देर बाद लिंग को निकाल कर मर्द धीरे से औरत से अलग हो जाए और औरत कुछ देर तक चित लेटी रहे, अपनी रानों को चिपकाये रहे ताकि गर्भ ठहरने में आसानी हो। उसके बाद अपने अपने रूमाल से (रसूल-ए-अकरम (स.) की वसीयत के अनुसार एक रूमाल होने पर पहले औरत और मर्द में दुश्मनी होती है और बाद में अलगाव) शरीर पर लगी हुई गन्दगी को साफ़ करें और मर्द के लिए ज़रूरी है कि वह पेशाब कर ले ताकि कई तरह की बीमारियों से बचा रहे।
बहरहाल मर्द का वीर्य निकलते ही उसके वीर्य के पदार्थ के पचास करोड़ जरसूमे (अर्थात छोटे-छोटे कीड़े जो बिना सूक्ष्मदर्शी के नही दिखाई देते) औरत के गर्भ में पहुँच कर अंड़ो की पैदाइश के स्थान की तरफ़ दौड़ते हैं जहाँ लगभग तीन लाख अंडे होते है------- और कभी कभी मर्द का जरसूमा औरत के अंडे से मिलकर बच्चे की पैदाइश का कार्य शुरूअ कर देता है। (229)
यह खुदा कि क़ुदरत (दैवी माया) है कि मर्द के वीर्य पदार्थ के जरसूमें उछलते कुदते सुरक्षा के साथ औरत के गर्भ में पहुँच कर अंडो से मिलते और बच्चे की पैदाइश का कार्य प्रारम्भ करते है। चाहे मर्द लिंग लम्बा और छोटा हो, औरत का गर्भ दूर हो या करीब, मर्द का लिंग औरत के गर्भाशय से टकराये या न टकराये। हर सूरत में प्राकृतिक तौर पर मर्द के वीर्य पदार्थ के जरसूमे उछलते कूदते ही औरत के गर्भाशय में पहुँचते है और गर्भ करार पाता है।
संभोग का उपर्युक्त तरीक़ा (अर्थात और नीचे और मर्द ऊपर होने की हालत) ही सब से अच्छा और आसान तरीक़ा है। जिसकी तरफ क़ुर्आन-ए-करीम ने भी इशारा किया है किः
तो जब मर्द औरत के ऊपर छा जाता है (अर्थात संभोग करता है) तो बीवी एक हल्के से गर्भ से गर्भवती हो जाती है। (240)
और मर्द उसी समय औरत पर पूरी तरह छा सकता है जब मर्द ऊपर और औरत उसके नीचे हो और मर्द का ऊपर होना इसलिए भी उचित है कि मर्द को अपना वीर्य औरत के गर्भ में टपकाना पडता है जिसके लिए क़ुर्आन में मिलता हैः
और यह कि वह नर और मादा दो तरह (के जीव) वीर्य से जब (गर्भ) में जब डाला जाता है, पैदा करता है। (241)
या
क्या गर्भ (सर्व प्रथम) वीर्य का एक कतरा न था जो गर्भ में डाली जाती है। (242)
और
तो जिस वीर्य को तुम (औरतों के) गर्भ में डालते हो क्या तुम ने देख भाल लिया है क्या तुम उस से आदमी बनाते हो या हम बनातें हैं।(243)
उपर्युक्त क़ुर्आनी आयतों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मर्द को अपना वीर्य औरत के गर्भ मे टपकाने, डालने के लिए संभोग के समय औरत के ऊपर ही होना चाहिए। मर्द के ऊपर होने ही से सम्बन्धित रसूल-ए-खुदा (स.) ने एक हदीस में इर्शाद फ़र्माया किः
जब मर्द औरत के चारों तरफ बैठ जाए फिर उसके साथ मिलकर खूब थक जाए तो स्नान (ग़ुस्ल) अनिवार्य (वाजिब) हो जाता है।(244)
और औरत के चारों किनारों पर बैठना उसी समय सम्भव है जब औरत नीचे और मर्द ऊपर हो।
लेकिन याद रखना चाहिए कि इस्लामी शरीअत (प्राकृतिक धर्म) ने मनुष्य की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुवे केवल उपर्युक्त अच्छे और आसान तरीक़े का ही हुक्म (आदेश) नहीं दिया है बल्कि संभोग के लिए पूरी स्वतन्त्रा और छूट दी है कि हर मनुष्य जिस तरीक़े से चाहे अपनी पसन्द के अनुसार संभोग करे।
क़ुर्आन-ए-करीम में है किः
तुम्हारी बीवीयां (गोया) तुम्हारी खेती है तो तुम अपनी खेती में जिस तरह चाहो आओ।(245)
अर्थात अपनी पसन्द के अनुसार जिस तरह चाहो संभोग करो।
संभोग के विभिन्न तरीक़ों को इस्तिलाह (परिभाषा) में –आसन- कहा जाता है इनकी कुल तादाद (गिनती) चौरासी बताई जाती है। लेकिन डाक्टर केवल घेर के कथा अनुसार छः आसनों को छोड़कर उनमें सब के सब बेकार और अधिकतर असम्भव हैं। छः सम्भव आसन इस तरह हैँ।
1.औरत नीचे और मर्द ऊपर की अवस्था में
2.औरत व मर्द पहलू बा पहलू की अवस्था में
3.मर्द नीचे और औरत ऊपर की अवस्था में
4.औरत और मर्द लगभग खड़े रहने की अवस्था में
5.औरत और मर्द आगे पीछे की अवस्था में
6. औरत और मर्द बैठने की अवस्था में
लेकिन इनमें प्रारम्भिक दो आसन ज़्यादा प्रचलित और उपयोग में आने वाले हैं। तिसरा आसन इस्लामी दृष्टि से हराम (अर्थात वह कार्य जिसे करने पर पाप हो) तो नही लेकिन चिकित्सा शास्त्र के हिसाब से हानिकारक अवश्य है। क्योंकि मर्द का वीर्य पूरी तरह से नही निकल पाता। बल्कि अधिकतर मर्द की लिंग में कुछ हिस्सा बाकी रह जाता है। जो बाद में सड़ता और बीमारी का कारण बनता हैं। इसके अतिरिक्त ऐसी सूरत (अर्थात मर्द के नीचे और मर्द के ऊपर की अवस्था) में मर्द के लिंग में औरत की योनि से बहुत सा पदार्थ आकर एकत्र हो जाता है जो हानिकारक है। ऐसी हालत में सब से बड़ी हानि यह होती है कि गर्भ ठहरने की सम्भावना बहुत कम रहती है। बाकी आसन भी प्रयोग में आते हैं लेकिन उनका प्रयोग पहली दो आसनों की तुलना में बहुत कम होता है इनमें भी पहला आसन ही ज़्यादा प्रचलित आसान और उचित है और इसी से ज़्यादा सेक्सी इच्छा की पूर्ति होती है क्योंकि इस सूरत में औरत और मर्द दोनों मैथुन क्रिया में पूरी सरगर्मी से भाग लेते हैं।
यहाँ यह भी लिखना उचित है कि सुल्तान अहमद इस्लाही ने अपनी किताब –जिमाअ- के आदाब में निम्नलिखित इस्लामी आसनों का वर्णन किया है।
1.औरत खड़ी हो औरत मर्द भी खड़ा हो (लेकिन रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ,) को वसीयत करते (आखिरी शिक्षा देते) हुवे खड़े खड़े संभोग करने से मना फ़र्माया है क्योंकि यह क्रिया गधों की सी है। रसूल-ए-खुदा (स.) ने यह भी फर्माया कि अगर इस हालत में गर्भ ठहरे तो बच्चा गधों ही कि तरह बिछौने पर पेशाब करेगा। (247)
2.औरत बैठी हो और मर्द भी बैठा हो
3.औरत बैठी हो और मर्द खड़ा हो
4.औरत लेटी हो और मर्द आगे से आगे के रास्ते में मैथुन करे।
5.औरत लेटी हो और मर्द पीछे की ओर से आगे के रास्ते में मैथुन करे।
6.औरत करवट लेटी हो और मर्द बैठकर उससे मैथुन करे।
7.औरत करवट लेटी हो और मर्द भी करवट ही की हालत में पीछे की ओर से मैथुन करे।
8.औरत चित लेटी हो और मर्द करवट हो और आगे के रास्ते में आगे की ओर से मैथुन करे।
9.औरत करीब करीब रूकू की अवस्था (हालत) में हो और मर्द पीछे की ओर से आगे के रास्ते में मैथुन करे।
10.औरत करीब करीब सज्दे की हालत में हो और मर्द पीछे की ओर से आगे के रास्ते में मैथुन करे।
11.औरत रुकू और सज्दे की हालत में हो और मर्द आगे के रास्ते में पीछे की ओर से मैथुन करे।(248)
उपर्युक्त आसनों के अतिरिक्त भी बहुत से आसन हैं जिनमें कुछ से औरतों को स्वाद मिलने के बजाए तकलीफ होती है और यही तकलीफ जब ज़्यादा बढ़ जाती है तो वह रोना भी आरम्भ कर देतीं हैं। अतः उचित है कि संभोग के लिए ऐसा तरीका अपनाया जाए जिस से औरत और मर्द दोनों स्वाद प्राप्त करने के साथ साथ खुश भी हो और एक संभोग के बाद दूसरे संभोग के अवसरों की प्रतिक्षा (इन्तिज़ार) करते रहें। यह न हो कि एक बार संभोग के बाद मैथुन से नफरत हो जाए।
नफरत पैदा होने का मौका मुख्य रूप से उस समय आ जाता है जब मर्द संभोग के फन को पहलवानी का फ़न समझकर सूहागरात या किसी दूसरे मौके पर अपनी औरत पर पूरे ज़ोर व शोर से टूटकर एक के बाद एक कई बार संभोग के द्वारा औरतों पर अपनी मर्दानगी का रोब (प्रभाव) जमाने की कोशिश (का प्रयत्न) करता है जबकि यह बिल्कुल ग़लत है। क्योंकि कुछ मौकों मुख्य रूप से पहली रात (अर्थात सुहागरात) में औरत में झिझक या रुकावट हो सकती है इस लिए उस रात का खाली चला जाना कोई बूरा (249) (ऐब) नहीं है। यूँ भी बीवी की मौजूदगी (उपस्तिथि) में बहुत सी रातें ऐसी आती है जिनको सुहागरात समझकर भरपूर संभोग का स्वाद प्राप्त किया जा सकता है।
स्नान या तयम्मुमः
बहरहाल क़ुर्आन शिक्षा अनुसार औरत और मर्द अपनी पसन्द और आसानी के अनुसार मैथुन का कोई भी तरीका अपना सकते हैं और जब दोनों मिलकर खूब थक जायें तो उन पर ग़ुस्ल (स्नान) अनिवार्य (वाजिब) हो जाता है। रसूल-ए-अकरम (स.) का इर्शाद है किः
जब मर्द औरत के चारों किनारों पर बैठ जाए फिर उसके साथ मिलकर खूब थक जाए तो ग़ुस्ल वाजिब हो जाता है। (250)
इसी ग़ुस्ल को ग़ुस्ले जनाबत कहा जाता है जिसके दो प्रकार हैः ग़ुस्ले तरतीबी, ग़ुस्ले इरतेमासी (इनका वर्णन पहले किया जा चुका है) इसी ग़ुस्ल से सम्बन्धित कुर्आन-ए-करीम में हैः
ऐ ईमानदारों। तुम नशे की हालत में नमाज़ के करीब न जाओ ताकि जो कुछ मुँह से कहो समझो भी तो और न जनाबत की हालत में यहाँ तक की ग़ुस्ल करो मगर रास्ता चालते में (जब ग़ुस्ल सम्भव नही है तो ज़रूरत नहीं है) बल्कि अगर तुम बीमार हो (और पानी नुकसान करे) या सफर में हो या तुम में से किसी को पैखाना निकल आए और औरतों से संभोग किया हो और तुम को पानी न मिल पा रहा हो (कि स्नान करो) तो पाक मिट्टी पर तयम्मुम कर लो और (इसका तरीका यह है कि) अपने मुँह और हाथों पर मिटटी भरा हाथ फेर लो। बेशक (निसंदेह) खुदा माफ़ करने वाला (औऱ) बख्शने वाला है। (251)
या
ऐ ईमानदारों। जब तुम नमाज़ के लिए तय्यार हो तो अपने मुँह और कोहनियों तक हाथ धो लिया करो और अपने सरों और टखनों तक पैर का मसह कर लिया करो। और अगर तुम जनाबत की हालत में हो तो तुम तहारत (ग़ुस्ल) कर लो (हाँ) और अगर तुम बीमार हो या सफर में हो या तुम में से किसी को पखना निकल आए या औरत से संभोग किया हो और तुम को पानी न मिल सके तो पाक मिट्टी से तय्यमुम कर लो अर्थात (दोनों हाथ मार कर) उससे अपने मुहँ अपने हाथों का मसह कर लो (देखो तो खुदा ने कैसी आसानी कर दी) खुदा तो यह चाहता ही नहीं कि तुम पर किसी तरह की सख्ती करे बल्कि वह यह चाहता है कि पाक व पाकीज़ा कर दे और तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दे ताकि तुम शुक्रगुज़ार बन जाओ। (252)
उपर्युक्त क़ुर्आनी आयतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि संभोग के बाद औरत और मर्द दोनों पर ग़ुस्ल-ए-जनाबत (स्नान) वाजिब हो जाता है और अगर स्नान करना सम्भव नहीं है तो तयम्मुम करना वाजिब (अनिवार्य) है----- लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संभोग के फौरन बाद ग़ुस्ल करना वाजिब है। बल्कि कई बार संभोग कर के केवल एक स्नान कर लेना काफी और जाएज़ है। मगर इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि नमाज़ का समय जाने से पहले ग़ुस्ल-ए-जनाबत कर लिया जाए ताकि नमाज़ अदा किया जा सके ------- यह भी याद रखना चाहिए कि एक ही औरत से एक बार संभोग करने से पहले योनि (शर्मगाह) को धोकर वज़ू कर लेना पुनीत (मुस्तहिब) है।
इमाम-ए-अली-ए-रिज़ा (अ,) का इर्शाद है किः
एक बार संभोग करने के बाद अगर दोबारा संभोग करने का इरादा हो और ग़ुस्ल न करे तो चाहिए कि वज़ू करे और वज़ू करने के बाद संभोग करे। (253)
याद रहना चाहिए कि योनि धोने से और वज़ू करने से थोड़ी सफाई हो जाती है और दुबारा संभोग में कुछ अधिक स्वाद और आनन्द मिलता है।
अगर दो, तीन या चार स्वतन्त्र औरतों से एक के बाद एक संभोग करना हो तो उचित है कि हर संभोग के बाद स्नान कर ले। मिलता है कि रसूल-ए-अकरम (स,) ने एक रात अपनी सभी पाक व पाकीज़ा बीवीयों के यहाँ चक्कर लगाया और उनमे से हर औरत के पास आपने ग़ुस्ल फ़र्माया। (254) लेकिन अगर कोई कनीज़ों (अर्थात वह औरतें जिन्हे खरीदा गया हो) मे एक के बाद एक से संभोग करना है तो हर एक के लिए केवल वज़ू करना ही काफी है।
इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः
जो व्यक्ति अपनी कनीज़ से संभोग करे और फिर चाहे कि ग़ुस्ल से पहले दूसरी कनीज़ से भी संभोग करे तो उस पर लाज़िम (अनिवार्य) है कि वज़ू कर ले। (255)
बहरहाल संभोग के बाद वज़ू या ग़ुस्ल करना अनिवार्य है जिस से सफाई व पाकीज़गी पैदा होती है और सफाई और पाकीज़गी को खुदा पसन्द करता है ---- वज़ू या ग़ुस्ल से तबीअत में चुस्ती, फुरती और खुशी पैदा होती है। इसी के द्वारा कुछ खतरनाक बीमारियों से भी बचा जा सकता है। जिसे चिकित्सा शास्त्र के विद्धानों ने भी माना है।
मैथुन के राज़ को बयान करने की मनाहीः
मैथुन से सम्बन्धित ध्यान में रखने वाली बुनियादी और मुख्य बातों में एक बात यह भी है कि औरत और मर्द अपने खास सेक्सी (शारीरिक) मिलाप के राज़ो को दूसरों (सहेली और दोस्तों) के सामने बयान न करे। क्योंकि यह बहुत बुरा गुनाह (पाप) है। रसूल-ए-खुदा (स.) का इर्शाद है किः
कयामत (महाप्रलय) के दिन अल्लाह के निकट सब से खराब पोज़ीशन वाला वह व्यक्ति होगा जो अपनी बीवी से संभोग करने के बाद उसका राज़ फैलाता है। (256)
संतानः बहरहाल औरत और मर्द के शारीरिक मिलाप के नतीजे में उस समय संतान वुजूद में आती है जब खुदा कि रहमत और बरकत शरीक होती है। और अगर खुदा न ख्वास्ता खुदा की रहमत और बरकत नही होती तो औरत और मर्द पूरी ज़िन्दगी पूरे जोश व खरोश के साथ शारीरिक मिलाप करते रहते हैं लेकिन एक संतान भी पैदा नहीं कर पाते। क्योंकि संतान का पैदा करना मनुष्य के बस (सामथ्यर) की बात नही। इसी से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मनुष्य के मस्तिष्क को झिंझोड़ते हुवे मिलता है किः
तो जिस वीर्य को तुम (औरतों के) गर्भ में डालते हो क्या तुमने देख भाल लिया है कि तुम उससे आदमी बनाते हो या हम बनाते हैं। (257)
अर्थात मनुष्य को पैदा करने वाला केवल और केवल खुदा ही है, जो माँ के गर्भाशय में नौ महीने तक पड़ा रहता है। जिसकी पैदाइश (बनावट) की विभिन्न मंज़िलों से सम्बन्धित किताब –अल काफ़ी- में इमाम-ए-बाक़िर (अ,) से रिवायत है किः
जब अल्लाह अज़ व जल ऐसे वीर्य को जिस से हज़रत आदम (अ,) के वीर्य को जिस (अभिवचन, वादा) लिया होता है, आलमे बशरीयत (मानवता के संसार) में पैदा करने का इरादः करता है तो सब से पहले उस मर्द में मैथुन की ख्वाहिश (इच्छा) पैदा करता है। जिसके वीर्य में वह नुत्फः (वीर्य) मौजूद होता है और उसकी पत्नी के गर्भ को आदेश देता है कि अपने दरवाज़े खोल दे ताकि उस समय मनुष्य की पैदाइश से सम्बन्धित कज़ा व कदर (खुदा का लिखा हुवा) आदेश पारित (नाफिज़) हो। फिर गर्भ के दरवाज़े खुल जाते हैं और उसमें नुत्फः दाखिल हो जाता है फिर चालीस दिन तक वह वही एक हालत से दूसरी हालत की तरफ बदलता रहता है। फिर वह ऐसा गोश्त का लोथड़ा बन जाता है कि जिस में रगों का जाल होता है। फिर अल्लाह दो फरिश्तों को भेजता है जो औरत के मुँह के रास्ते से उसके गर्भ में दाखिल हो जाते है, जहाँ वह पैदाइश (तखलीक़, सूजन) का काम जारी करते हैं। उस गोश्त के लोथड़े में वह पुरानी रूह जो वीर्यों और गर्भों से स्थानान्तरित होती हुई आती है सामर्थ्य और शक्ति के हिसाब से मौजूद होती है। फिर फरिश्ते उसमें ज़िन्दगी और बक़ा की रूह फूँक देते हैं और अल्लाह की इजाज़त से उसमें आँख, कान, और दूसरे सभी अंग बना देते हैं। फिर अल्लाह उन दोनों को वही (अर्थात खुदा की तरफ से आया हुआ आदेश) कहता है कि- इस पर मेरी कज़ा और कद्र और नाफ़िज़ (लागू) आदेश को लिख दो और जो कुछ लिखो उसमें तेरी तरफ़ से बदअ (शुरूअ, प्रारम्भ) की शर्त लगा दो।
तब वह फरिश्ते कहते हैःऐपरवर्दिगार हम क्या लिखें ?
परवर्दिगार उनको आदेश देता हैः अपने सरों को उसकी माँ की सर के तरफ उठाओ। फिर वह फरिश्ते जब सर उठाकर उधर देखते हैं तो मालूम होता है कि तकदीर की तख़्ती उसकी पेशानी (माथे) से टकरा रही है, जिसमें उस बच्चे (शिशु) की सूरत और खूबसूरती, उसकी उम्र (आयु) और उसके अच्छे या बुरे आदि होने के बारे में सब कुछ लिखा होता है। फिर उन फ़रिश्तों में से एक दूसरे के लिए पढ़ता है और दोनों लिखते हैं वह सब कुछ जो उस शिशु (बच्चे) की तक़दीर (भाग्य) में होता है और शुरूअ की शर्त भी वह लिखते जाते हैं। (258)
और यह बच्चा (शिशु) कभी लड़का (नर) और कभी लड़की (मादा) हुआ करती है। जिस से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः
सारे आसमान और ज़मीन की हुकूमत खास खुदा ही की है। जो चाहता है पैदा करता है (और) जिसे चाहता है (केवल) बेटियाँ देता है और जिसे चाहता है (केवल) बेटे अता करता है। या उनको बेटे, बेटियाँ (संतान की) दोनों किस्में देता है और जिस को चाहता है बाँझ बना देता है बेशक (निःसन्देह) वह बड़ा जानने वाला और हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है। (259)
उपर्युक्त आयत से सम्बन्धित हाशिये में मौलाना फ़र्मान अली ने लिखा है किः
चूँकि लोग आम तौर से पहले के भी और अब भी बेटियों को विभिन्न कारणों से पसन्द नहीं करते हैं और यही कारण था कि कुफ़्फ़ार ने खुदा की तरफ बेटियों की निसबत (संज्ञा) दी और अपनी तरफ बेटों की। तो मोमेनीन को जो प्राकृतिक तौर से बेटी होने से दुख होता है तो खुदावन्दे आलम उसका बदला देता है। चूँनाचे हज़रत रसूल-ए-खुदा (स.) फ़र्माते हैं वह औरत बहुत बरकत वाली है जो पहले बेटी जने (पैदा करे) क्योंकि खुदा ने पहले बेटियों का वर्णन किया है फिर फ़र्माया है बेटी रहमत और बेटा नेअमत। यह बिल्कुल वाक़ेए का बयान है और इसी वजह से लोगों को शाक़ (अरूचिकर) भी होता है मगर यह भी याद रखना चाहिए कि नेअमत प्राप्त होने पर सवाब नहीं मिलता बल्कि महनत पर मिलता है। (260)
यह वास्तविकता है कि पहले भी और अब भी ऍसे लोग अत्याधिक मिल जाते हैं। जो बेटी की पैदाइश पर बहुत ज़्यादा दुखित होते हैं, गुस्सा (क्रोध) करते हैं, पेच व ताब खाते हैं, ग़लत बात मुँह से निकालते हैं बेटी को मार डालते हैं या उस बेटी को जनने वालीयों (अर्थात अपनी पत्नी) को ही मार डालते हैं ताकि वह किसी बेटी को न जन सके------ मनुष्य की इसी प्रकृति से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में इशारः मिलता है किः
यह लोग खुदा के लिए बेटियाँ तज्वीज़ (निर्णय) करते हैं (सुब्हानल्लाह) वह इससे पाक व पाकीज़ा है (अर्थात उसे इसकी ज़रूरत नहीं है) और अपने लिए (बेटे) जो चाहते (और पसन्द) है और जब उनमें से किसी एक को लड़की पैदा होने की खुशखबरी दी जाए तो दुख के मारे उसका मुँह काला हो जाता है और वह ज़हर सा का घूँट पी कर रह जाता है (बेटी की) आर (लज्जा) है जिसकी इसको खुशख़बरी दी गयी है अपनी कौम के लोगों से छिपा छिपा करता है (और सोचता रहता है) कि या उसको ज़िल्लत (अपमान) उठा कर जीवित रहने दे या (ज़िन्दा ही) उसको ज़मीन में गाड़ दे देखो तो यह लोग कितना बुरा हुक्म (आदेश) लगाते हैं। (261)
और क्या उसने अपनी मख़लूक़ात (अर्थात वह सब चीज़े जो दुनियां में हैं) में से खुद तो बेटीयाँ ली हैं और तुम को चुन कर बेटे दिए हैं। हालाँकि जब उनमें किसी व्यक्ति को उस चीज़ (बेटी) की खुशख़बरी दी जाती है जिसकी मसल (उदाहरण) उसने खुदा के लिए बयान की हो तो वह (क्रोध के मारे) काला हो जाता है और ताओ पेच खाने लगता है। (262)
अर्थात बेटीयों की पैदाइश खुदा की ओर से एक खुशख़बरी है जो रहमत बन कर आती है। अतः इस पर मनुष्य (अर्थात माता पिता) को खुश होना चाहिए न कि दुखी।
बहरहाल लड़का हो या लड़की या दोनों हर हाल मे मनुष्य को खुदा का शुक्र अदा करना चाहिए। क्योंकि खुदा ने उसे औलाद की नेअमत दी, वंचित नहीं रखा। माता पिता का कर्तव्य है कि बच्चे का अच्छे से अच्छा नाम रखने और शिक्षा और प्रशिक्षण (तालीम व तर्बियत) का भी उचित प्रबन्ध करे।
संतान की शिक्षा और प्रशिक्षणः बच्चों को सहीह शिक्षा और प्रशिक्षण करना माता पिता का कर्तव्य है। और यह कर्तव्य उस समय से आरम्भ हो जाता है जब औरत और मर्द आपस में संभोग कर रहें होते हैं। क्योंकि समय का प्रभाव बच्चे पर अवश्य पड़ता है। मिलता है किः
हज़रत अली (अ.) के सामने पति और पत्नी आए दोनों गोरे रंग के थे और उनकी संतान का रंग काला था। बाप कहता है कि यह मेरी संतान नहीं है। मेरा रंग गोरा है और मेरी पत्नी का भी. लेकिन इस बच्चे का रंग काला है। अवश्य इसकी माँ ने कोई ग़लती की है। हज़रत अली (अ,) ने फ़र्माया कि – न तुम ने कोई ग़लती की है और न तुम्हारी पत्नी ने। यह बच्चा तुम्हारे ही वीर्य का है। अब उस व्यक्ति ने आशचर्य से पूछा मौला। गोरे माता पिता का बच्चा काला कैसे हो सकता है। हज़रत अली (अ.) ने जवाब दिया कि –इसलिए ऐसा हुवा कि जब वीर्य (गर्भ) ठहर रहा था तब तुम खुदा को याद नहीं कर रहे थे और तुम्हारी पत्नी के ध्यान में किसी काले हबशी का ख्याल था जिसका नतीजा यह निकला। (263)
अर्थात मैथुन (संभोग) के बीच खुदा की याद करने और अपने ध्यान में नेक ख़्यालों को लाने पर ही नेक संतान पैदा हो सकती है। और जब वीर्य (नुत्फः, हमल, गर्भ) ठहर जाता है तो उसके प्रशिक्षण की ज़िम्मेदारी केवल औरत पर ही होती है। क्योंकि उसके एक-एक अच्छे या बुरे का प्रभाव उसके पेट में पलने और बढ़ने वाले बच्चे पर पड़ता रहता है। मिलता है किः
अल्लामः मजलिसी (र.) अपने बच्चे को मस्जिद लेकर जाते हैं। अब बच्चा कभी खेलता है और कभी सजदः करता है। एक मोमिन आया और उसने पानी से भरकर मशकिज़ः रखा और नमाज़ पढ़ने लगा। अब बच्चे के दिमाग में शरारत आई और उसने उस मोमिन के मशकीज़े मे सुराख कर दिया। मशकिज़ः फट गया और सारा पानी बह गया। नमाज़ के बाद अल्लामः मजलिसी (र,) को इस वाकये का ज्ञान हुआ तो बहुत दुखी हुवे और सोच कर कहने लगे कि मैने कोई हराम काम नहीं किया, वाजिब, मुस्तहिब और हराम का ख़्याल रखा. ऍसा ज़ुल्म (ग़लत काम) मेरे बच्चे ने कैसे किया ? वास्तव में यह ग़लती माँ की तरफ से है। अब उन्होने अपनी बीवी से पूछा कि ----- हमारे बच्चे ने यह ग़लती की कि एक मज़दूर के मश्कीज़े को नुकसान पहुँचाया और उसका पानी बहा दिया। उसने ऍसा किया, वास्तव में हमारी ग़लती है। माँ ने बहुत सोचा और कहाः हाँ मेरी ही ग़लती है। गर्भ के दौरान में मौहल्ले के किसी घर चली गई थी और उसमें अनार का पेड़ था। मैने मालिक की इजाज़त (आज्ञा) के बिना सूई अनार में दाखिल कर दी और उसमें जो रस निकला उसे मैने चखा और उसको मैने नहीं बताया। (264)
अतः यह मानना पड़ेगा कि गर्भ के दौरान माँ के हर काम का असर (प्रभाव) बच्चे पर पड़ता है और जब बच्चा दुनियां में आ जाता है तो वह धीरे धीरे माँ और बाप की आदतों और तरीक़ो को सीखता रहता है। इसीलिए उचित है कि माँ और बाप ऐसी ज़िन्दगी व्यतीत करें जिसका प्रभाव बच्चे पर अधिक पड़े। क्योंकि यही माँ और बाप बच्चे (अर्थात परिवार, खानदान) को बनाने के दो मुख्य अंग होते है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब माँ और बाप और दोनों इस्लामी शिक्षाओं पर पूरी तरह अमल कर रहे हों।
मर्द और औरत के अधिकारः- हर मर्द और औरत पर अपनी वैवाहिक ज़िन्दगी खुशगवार (रुचिकर, सुस्वाद) और बेमिस्ल (अद्वितीय) बनाने के लिए अनिवार्य है कि वह इस्लाम के बताए हुवे अपने अपने अधिकारों और कर्तव्यों पर पूरी पाबन्दी से अमल करें। क्योंकि प्राकृतिक धर्म (इस्लाम) ने मनुष्य की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुवे ही मर्द औऱ औरत के अलग-अलग अधिकार और कर्तव्य बताए हैं। जिन पर अलम करने के बाद यह सम्भव ही नहीं है कि वैवाहिक जीवन में कोई अरूचिकर मौका आ सके और वह अरूचिकर मौक़े बढ़ते बढ़ते तलाक़ (औरत और मर्द में अलगाव पैदा) की नौबत ला सकें।
याद रखना चाहिए कि प्रत्येक परिवार के मर्द और औरत (अर्थात पति और पत्नी) दो मुख्य सदस्य होते हैं जिसका संरक्षक मर्द है। इसकी तरफ रसूल-ए-खुदा (स,) ने इशारः किया हैः
मर्द परिवार के संरक्षक हैं और हर संरक्षक पर अपने अधिक लोगों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी (का उत्तरदायित्व) होती है। (265)
और औरत घर की मालिकः (रानी) होती है। जो अपने कर्तव्यों को पूरा करने से घर को जन्नत (स्वर्ग) की तरह बना सकती है और वास्तव में यही उसका जिहाद (अर्थात धर्म के लिए युद्ध) भी है। हज़रत अली (अ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः
औरत का जिहाद यही है कि वह पत्नी होने की हैसीयत से अपने कर्तव्यों को खूबसूरती के साथ पूरा करे। (266)
लेकिन औरत और मर्द को यह बात अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि किसी पत्नी का पति बनना या किसी पति की पत्नी बनना कोई आसान और मामूली काम नही है जिसे हर एक अच्छी तरह से निभा सके। बल्कि दोनों को वैवाहिक जीवन में हर हर क़दम पर समझदारी, अक़्लमंदी, होशमंदी, और होशियारी की आव्यशकता है। अपने-अपने अधिकारों और कर्तव्यों का जानना ज़रूरी है, ताकि पति और पत्नी बनकर एक दूसरे के जीवन की आव्यशकताओं को पूरा करें और एक दूसरे के दिलों को इस तरह अपने कब्ज़े (अधिकार) में कर लें कि एक के बिना दूसरे का दिल ही न लगे और दोनों पर एक जान दो क़ालिब का मुहावरा पूरा उतर सके। यह तभी सम्भव है कि जब दोनों अपने-अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हुवे इस्लामी हदों में रहकर एक दूसरे की खुशी और मर्ज़ी (इच्छा) के तरीक़े तलाश कर लें। क्योंकि दोनों के एक दूसरे पर अधिकार और कर्तव्य है। जिसकी तरफ इस्लाम की क़ानूनी किताब क़ुर्आन-ए-करीम में इशारः मौजूद हैः
..... और शरीअत के अनुसार औरतों का (मर्दों पर) वही सब कुछ (अधिकार) है जो (मर्दों का) औरतों पर है हाँ मगर यह कि मर्दों को (श्रेष्ठता, फ़ज़ीलत में) औरतों पर प्रधानता (फौक़ियत) अवश्य है। (267)
अर्थात इस्लाम में दोनों (पति और पत्नी) पर ज़िम्मेदारी डाली है।
इस्लाम ने मर्द (पति) पर यह ज़िम्मेदारी (बार) सौंपी है कि वह औरत (पत्नी) की देखभाल करे, उससे अपनी मुहब्बत, चाहत और प्रेम को दर्शाये (268) उसका आदर करे, (269) उसके साथ अच्छा व्यवहार (270) करे, बुराई तलाश न करे, जितना सम्भव हो सके उसकी ग़लतियों पर ध्यान न दे, (271) रात में अपनी पत्नी के पास जाए (272), चार महीने में एक बार संभोग अवश्य करे (273) इत्यादि। वास्तव में यही वह बातें है जिस से पत्नी के दिल को जीता जा सकता है। उपर्युक्त बातों के साथ मर्द को यह भी याद रखना चाहिए कि वह अपनी पत्नी से सलाह न करे, उन्हे पर्दे में रखे, अजनबी (नामहरम) मर्द से मुलाक़ात न होने दे, (274) कोठों और खिड़कियों में जगह न दे, सूरः-ए-यूसुफ की शिक्षा न दे, (275) ज़ीन की सवारी से मना करे, (276) उसकी आज्ञा का पालन न करे, (277) अपना राज़ उनसे न कहे (278) इत्यादि। क्योंकि यह बातें धीरे-धीरे पति और पत्नी के बीच फूट और बिगाड़ का कारण बनती हैं। अनुभव से यह भी पता चलता है कि पति पत्नी के बीच फूट और बिगाड़ के कारणों मे ग़लत ऐतिराज़ व शिकायत, बीवी की माँ (अर्थात लड़के की सास जो प्राकृतिक तौर पर अपने दामाद से अत्याधिक मुहब्बत करती है, लेकिन कमअक़्ल होने के कारण से कुछ ऐसी बातें कर बैठती है जिस से बेटी दामाद के बीच तलाक़ तक की घड़ी आ जाती है) मर्द (पति) का पत्नी पर शक करना, (279) मर्द (पति) का अजनबी (नामहरम) औरतों पर निगाह डालना, रात में घर देर से आना इत्यादि भी हैं जिससे तलाक़ तक की घड़ी आ सकती है। जिसे इस्लाम ने जाएज़ और हलाल होने के बावजूद हद से ज़्यादा बुरा और अरूचिकर कार्य बताया है।
इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) ने इर्शाद फ़र्मायाः
शादी (विवाह) कीजिए लेकिन तलाक़ न दीजिए। क्योंकि तलाक़ होने से आसमान हिल जाता है। (280)
लेकिन यही तलाक़ उस समय ज़रूरी हो जाता है जब औरत बलात्कार कर बैठी हो रसूल-ए-खुदा (स,) ने इर्शाद फ़र्मायाः
मुझ से जिबरील-ए-अमीन (अ.) ने औरतों के बारे में इतना ज़ोर दे कर यह बात कही कि मैं समझता हूँ कि अलावा उस मौक़े पर कि वह बलात्कार कर बैठी हो उन्हे हरगिज़ (कदापि) तलाक़ नही देनी चाहिए। (281)
और बलात्कारी औरत (अर्थात बलात्कार जिसकी आदत बन चुकि हो) को अगर पति तलाक़ नहीं देता बल्कि उस पर राज़ी (संतुष्ट) रहता है तो रसूल-ए-खुदा (स.) के इर्शाद की रौशनी में पति स्वर्ग की खुशबू भी नहीं सूघँ सकता। आप ने इर्शाद फ़र्मायाः
पाँच सौ साल में तय होने वाले रास्ते में स्वर्ग की खुशबू आती है लेकिन दो तरह के लोगों को स्वर्ग की खुशबू नहीं मिल सकती। माता पिता के आक़ (अर्थात वह व्यक्ति जिसको उसके माता पिता ने किसी बड़ी ग़लती के कारण अपनी संतान होने से इन्कार कर दिया हो) किये हुए और बेग़ैरत (बेशर्म) मर्द ------ किसी ने आप से पूछा या रसूलल्लाह (स.) बेग़ैरत मर्द कौन हैं ? फ़र्माया वह मर्द जो जानता हो कि उसकी पत्नी बलात्कारी है (और उसके इस बुरे काम पर खामोश रहे) (282)
बहरहाल मर्द जो औरत की तुलना में बहादुर और अक़्लमंद होता है अपने वैवाहिक जीवन में खराब और नाज़ुक हालात पैदा होने पर उन्हें अच्छे और खूबसूरत बनाने तथा तलाक़ का मौका न आने देने की मुख्य भूमिका निभा सकता है। शायद इसी लिए इस्लाम में तलाक़ देने का अधिकार केवल मर्द को दिया है। जो प्राकृतिक तौर पर काम को जल्दी करने की प्रवृत्ति नहीं रखता बल्कि ग़ौर व फिक्र तथा अपनी बुद्धी का प्रयोग कर के अच्छे से अच्छा रास्ता निकालने पर क़ुदरत रखता है। (जबकि आधुनिक युग में छोटी-छोटी बातों पर भी मर्द जल्दी कर के पत्नी को तलाक़ दे देता है। जिससे जहाँ तक सम्भव हो सके मर्दों को बचना चाहिए ताकि कई जीवन खराब न हों और न ही आसमान कांपे) कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि तलाक़ का मौक़ा आ जाने के बावजूद, मर्द के मुक़ाबले (की तुलना) में और ज़्यादा समझदारी और होशियारी से कदम उठाकर अपने खराब और बुरे वैवाहिक जीवन को खुशी और आराम के जीवन में तबदील (परिवर्तित) कर लेने की मुख्य भूमिका अदा करती है- और वह इस बात पर पूरी तरह क़ुदरत भी रखती है, क्योंकि यह बात दुनियां में मानी जा चुकि है कि औरत एक अजीब व ग़रीब ताक़त की मालिक होती है। वह खुदा के लिखे हुवे की तरह होती है। वह जो चाहे वह बन (कर) सकती है। (283)
इसी औरत पर खराब और बुरे हालात न पैदा करने के लिए ही इस्लाम ने कुछ बार (ज़िम्मेदारी) सौंपा है कि पति की बात को माने, उसका आदर करे, उसकी आज्ञा के बिना कोई काम न करे (यहाँ तक भी सुन्नती रोज़े भी न रखे, अपने माल के अलावा परिवार वालों के सदकः तक न दे, घर से बाहर न निकले इत्यादि।) पति को संभोग से मना न करे, (284) पति के लिए खुशबू लगाये, अपनी आवाज़ को पति की आवाज़ से ऊँचा न करे इत्यादि। यही वह बातें है जिस से पति का दिल जीता जा सकता है। औरत को यह भी ख्याल रखना चाहिए कि वह जहाँ तक सम्भव हो सके अपने पति (मर्द) को नाखुश (अप्रसन्न) न करे। क्योंकि इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ,) ने फ़र्माया किः
जो औरत एक इस हाल में बीताये कि उसका पति उससे अप्रसन्न रहा हो तो जब तक उसका पति राज़ी (प्रसन्न) न होगा उसकी नमाज़ कुबूल न होगी। जो औरत दूसरे मर्दों के लिए खुशबू लगायेगी जब तक उस खुशबू को दूर न कर लेगी उसकी नमाज़ कुबूल न होगी। (285)
कुछ इसी तरह की बात एक और मौक़े पर फ़र्मायी हैः
कोई चीज़ पति के आज्ञा के बिना न दे अगर देगी तो सवाब उसके पति के नामः-ए-आमाल (कर्म पत्र) में लिखा जाएगा और गुनाह उस औरत के, और किसी रात इस हालत में न सोये कि उसका पति उस से अप्रसन्न हो। उस औरत ने कहा या रसूलल्लाह (स.) चाहे उसके पति ने कितना ही अत्याचार किया हो। (286)
अर्थात औरत के लिए मर्द के साथ प्रेम, मुहब्बत और शीलता का व्यवहार करना ही बेहतर (उचित) है क्योंकि यह सवाब एवं पुण्य का कारण होता है------ जबकि आधुनिक युग में औरत और मर्द के साथ बुरा व्यवहार करने मे फख्र महसूस करती है। जिससे वह ग़ुनाह व पाप की मुस्तहक़ (पात्र) होती हैं----- आम तौर से जिसका व्यवहार अच्छा होता है जो लोगों से हस्ता हुआ मिलता है मुस्कुरा कर बात करता है वह सबकी दृष्टि में महान और प्रीय होता है इसी लिए रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्मायाः
अच्छे व्यवहार से बेहतर कोई अमल नहीं है। (287)
और इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ) ने इर्शाद फ़र्मायाः
अच्छे व्यवहार से बढ़कर जीवन में और कोई चीज़ नही है। (288)
जबकि बुरा व्यवहार, चिड़चिड़ापन, खराब ज़बान से ही जीवन में खराबियां और परेशानियां पैदा होती हैं। जिससे जीवन अज़ाब (पीड़ा युक्त) हो जाता है। इसीलिए इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) ने फ़र्मायाः
बुरे व्यवहार का व्यक्ति स्वयं अपने को अज़ाब में डाल लेता है। (289)
अतः प्रत्येक औरत और मर्द का कर्तव्य है कि वह अपना अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए सर्वप्रथम अपने को अच्छे व्यवहार का बनाए।
औरत को चाहिए कि वह उपर्युक्त ज़िम्मेदारियों को निभाते हुवे (कर्तव्यों का पालन करते हुवे) इस बात का भी ध्यान रखे कि पति से प्रेम व मुहब्बत को ज़ाहिर करे, शिकवा व शिकायत न करे, अजनबी मर्दों से मेल मिलाप न रखे, पर्दे में रहे, पति कि ग़लतियों कि अंदेखी करे, पति के परिवार वालों से मेल मिलाप रखे, पति के कामों में दिलचस्पी दिखाए, पति पर शक न करे इत्यादि। क्योंकि यह वह बातें है जिस से घर स्वर्ग जैसा मालूम होता है हमेशा खुशी महसूस होती है और कभी भी फूट, बिगाड़ और अप्रसन्नता पैदा नही होती। जिसका बच्चों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। और औरत और मर्द का वैवाहिक जीवन बेमिसाल, लाजवाब व्यतीत होता है लेकिन यह सब उसी समय सम्भव है जब मर्द और औरत (अर्थात पति और पत्नी) दोनों इस्लामी शिक्षाओं पर पूरी तरह अमल कर के मुत्तक़ी और पर्हेज़गार बन जाए ऐसे ही मुत्तक़ी और पर्हेज़गारों के लिए क़ुर्आन-ए-करीम ने दुनियां मे भी भलाई बतायी है और आख़िरत (परलोक, यमलोक) में भीः-
और जब पर्हेज़गारों से पूछा जाता है कि तुम्हारे परवर्दिगार ने क्या नाज़िल किया तो बोल उठते हैं कि सब अच्छे से अच्छा। जिन लोगों ने नेकी की उनके लिए इस दुनियां में (भी) भलाई है और आखिरत का घर तो (उनके लिए) अच्छा ही है और पर्हेज़गारों का भी (आखिरत का) घर कितना अच्छा है। वह हमेशा बहार वाले (हरे भरे) बाग़ हैं जिनमें (बिना झिझक) जा पहुँचेंगे। उनके नीचे नहरें जारी होंगी और यह लोग जो चाहेंगे उनके लिए मौजूद है। यूँ खुदा पर्हेज़गार को जज़ा (सवाब, नेअमत, फल) अता फ़र्माता (देता) है। (290)
और आखिरत (परलोक, यमलोक) के अच्छे औक खूबसूरत घर में और आराम व सुकून के साथ-साथ सेक्सी स्वाद व आनन्द और सेवा के लिए हूर व ग़िलमान मौजूद हैं अर्थात सेक्स एक ऐसी मुख्य और अनिवार्य चीज़ है जिसका सम्बन्ध दुनियां के साथ-साथ आखिरत में भी है।
सेक्स और परलोक
पिछले अध्यायों तक लिखी गयी सभी बातें मनुष्य की पैदाईश से लेकर जीवन के आखिरी दिन तक बाक़ी रहने वाली –सेक्सी इच्छा- (जिन्सी ख्वाहिश) से सम्बन्धित है। जो सभी मनुष्यों यहाँ तक की दीवाने और पागल (291) दिखाई देने वाले लोगों में भी एक जैसी होती और महसूस की जाती है।
इस अध्याय (सेक्स और परलोक) में उन बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिस से यह स्पष्ट होता है कि दुनियां के सभी मनुष्यों में से कुछ मनुष्यों की सेक्सी इच्छा परलोक में भी बाकी रहेगी। जहाँ उनके जोड़े हुरों से लगाए जायेंगे। यही मनुष्य मुत्तक़ी और पर्हेज़गार होगें। जो बिना विलम्भ किये ईमान लाने वाले, खुदा की खुशी और रज़ा को चाहने वाले, खुदा के क़ानून की पाबंदी करने वाले, खुदा से दुआ और तौबः करने वाले, सब्र (धीरज और धौर्य) करने वाले, खुदा की राह में खर्च करने वाले और दुनियां के कुछ दिनों के मुक़ाबले में आखिरत के लम्बे जीवन (दीर्घकालीन जीवन) को पसन्द करने वाले होते हैं। यह वह लोग है जो दुनियां की कुछ दिनों की इम्तिहान गाह (परिक्षा केन्द्र) में परलोक को दृष्टिगत रखते हुवे जल्दी- जल्दी तोशए आख़िरत (अर्थात वह काम जो यम लोक, परलोक में काम आए) जमा करते रहते हैं। क्योंकि दुनियां हमेशा रहने की जगह नहीं बल्कि एक आने जाने का रास्ता है। जिसमें रहकर परलोक का सामाने-सफर तैय्यार किया जा सकता है। शायद इसी लिए हज़रत अली (अ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः
ऐ लोगों। दुनिया एक आने जाने की जगह और आख़िरत ठहरने की जगह है। अतः अपनी आने जाने की जगह से हमेशा ठहराव की जहग के लिए सामान-ए-सफर (अर्थात वह काम जो परलोक में काम आ सके, तोशः) उठा लो। जिसके सामने तुम्हारा कोई राज़ (रहस्य) छुपा नहीं उसके सामने अपने पर्दे चाक न करो और इसके पहले के तुम्हारे शरीरों को दुनिया से निकाल लिया जाए दिलों को इस से अलग कर लो।
इस दुनिया में केवल तुम्हारी परीक्षा ली जा रही है, वास्तव में तुम्हें दूसरी जगह के लिए पैदा किया गया है। जब कोई मरता है तो लोग पूछते हैं कि क्या छोड़ गया है। और फ़रिशते पूछते हैं कि इसने आगे के लिए क्या सामान भेजा है। खुदा तुम्हारा भला करे कुछ तो आगे के लिए भेजो वह एक तरह का (खुदा के ऊपर) कर्ज़ः होगा। सारे का सारा पीछे न छोड़ जाओ कि वह तुम्हारे लिए बोझ बने।(292)
इस दुनिया से परलोक के लिए अच्छे कामों को जमा करने के लिए मनुष्य के लिए आव्यशक है कि वह कम उम्मीदें (आशाऐं) करे, खुदा के दिए हुवे पर उसका धन्यवाद (शुक्र) अदा करे और हराम (अर्थात वह काम जिसके करने पर गुनाह पड़ता है) से बचा रहे। क्योंकि ज़्यादा आशाऐं, खुदा के दिए हुवे पर उसका ध्नयवाद करना और हराम को कर बैठना ही वह चीज़े होती हैं जो मनुष्य को गुमराह कर के (अर्थात धार्मिक रास्ते से हटाकर) जहन्नुम (नरक) में ढकेल दिया करती है। इसी लिए हज़रत अली (अ,) ने एक खुतबे में इर्शाद फ़र्मायाः
ए लोगों कम उम्मीदें, नेअमतों (खुदा के दिए हुवे) पर शुक्र और हराम से बचना यही तक़वा और पर्हेज़गारी है। अगर यह न हो सके तो कम से कम इतना तो हो कि हराम तुम्हारे सब्र पर ग़ालिब न आने (अर्थात विजेता न होने) पाये और नेअमतों के समय खुदा का शुक्र न भूल जाओ।
खुदा वन्दे आलम ने खुली हुवी रौशन दलीलों और आख़िरी हुज्जत (दलील, प्रमाण) देने वाली स्पष्ट किताबो के द्वारा तुम्हारे लिए किसी बहाने या विवश्ता (उज्र) का मौका बाक़ी नहीं रखा। (293)
उपर्युक्च चीज़ो के अतिरिक्त सेक्सी इच्छाओं की पैरवी और खुदा के बन्दों (लोगों) पर अत्याचार (अर्थात उन्हें कष्ट देना) भी नर्क में जाने का कारण हुवा करती है। हज़रत अली (अ,) ने फ़र्मायाः
आख़िरत के लिए सब से बुरा सामाने सफर खुदा के बन्दों पर अत्याचार है। (294)
इन खुदा के बन्दों में दुनिया के सभी लोगों के साथ एक कड़ी में बन्धे हुवे पति- पत्नी और बच्चे भी आते हैं। जिन में से किसी एक को भी दूसरे पर अत्याचार नहीं करना (कष्ट नहीं देना) चाहिए। क्योंकि हज़रत अली (अ,) के कथनानुसार यह अत्याचार और कष्ट परलोक के लिए सब से बुरा सामाने सफर (अर्थात परलोक में काम आने वाली चीज़) है। जिस के होते हुवे स्वर्ग का मिल जाना कठिन है। जबकि आधुनिक युग में औरत ---- मर्द और बच्चों पर ---- माता पिता पर औप मर्द ----- औरत और बच्चों पर अत्याचार करने और कष्ट देने पर फख्र महसूस करते हैं। लेकिन वह यह नहीं समझते कि यह अत्याचार और कष्ट उन्हें नर्क तक पहुँचाने मे मददगार साबित (सिद्ध) होता है। जो अत्याधिक ख़राब और बुरा ठिकाना है।
अत्याचार करने और कष्ट देने की सूची (औरत, बच्चे और मर्द) में औरत सदैव ऊपर रही है। (इसका अनुमान आधुनिक युग में भी लगाया जा सकता है) क्योंकि हज़रत अली (अ,) के कथनानुसार औरत की ख़स्लत (प्रवृति, स्वभाव) में अत्याचार करना, कष्ट देना और लड़ाई-झगड़े को पैदा करना ही होता है।
नहजुल बलाग़ी में हैः
........ वास्तव में जानवरों के जीवन का उद्देशय (मक़्सद) पेट भरना है, फाड़ खाने वाले जंगली जानवरों के जीवन का उद्देशय दूसरों पर हमला कर के चीरना फाड़ना है और औरतों का उद्देशय दुनिया की ज़िन्दगी का बनाव- सिंगार और लड़ाई झगड़े का पैदा करना होता है। मोमिन वह है जो घमण्ड से दूर रहते हैं। मोंमिन वह हैं जो मेहरबान हैं मोमिन वह हैं जो खुदा से डरते हैं। (295)
जहाँ हज़रत अली (अ,) ने औरत को लड़ाई झगड़े फैलाने और पैदा करने वाला बताया है वहीं रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्मायाः
औरतें शैतानों की रस्सीयाँ हैं।
अर्थात औरतें कम अक़्ल (मन्द बुद्धि, नाक़िसुल अक्ल) होने के कारण (296) शैतान के कब्ज़े (चंगुल) में शीघ्र आ जाती है और शैतान उस मन्द बुद्धि औरत के हाथों दुनिया में लड़ाई झगड़ा (दंगा, फ़साद) फैलाने (अर्थात खुदा के बन्दों पर अत्याचार करने का काम लेता है और हज़रत अली (अ.) के विचारानुसार मर्द वह होता है जो औरत के लड़ाई झगड़े फ़ैलाने के बावजूद भी खुदा से डरता रहता है और औरत जैसी कमज़ोर जाति पर मज़बूत (क़वी) (297) होने की वजह से अत्याचार नही करता और न ही कष्ट देता है।
बहरहाल हज़रत अली (अ.) ने औरतों को जहाँ लड़ाई झगड़ा फ़ैलाने और पैदा करने वाला बताया है वहीं पूरी तरह से (सरापा) आफत (मुसीबत) भी बताया है.
औरत सरापा (पूरी तरह से) आफत (मुसीबत) है और इस से ज़्यादा आफत यह है कि उसके बिना कोई चारा नहीं (अर्थात गुज़ारा नही)। (298)
अर्थात औरतों के साथ होने या न होने ----- दोनों हालातों (अवस्थाओं) में मर्द के लिए मुसीबत ही मुसीबत है शायद इसी लिए मर्द। इस पूरी तरह से मुसीबत औरत को अपने गले से लगा लेता है ताकि मुसीबत के साथ साथ उसके शरीर से चिमटने और लिपटने पर स्वाद और आनन्द भी मिलता रहे। हज़रत अली (अ,) इर्शाद फ़र्माया किः
औरत एक बिच्छु है लिपट जाए तो (उसके ज़हर में) स्वाद है। (299)
लेकिन जिस तरह बिच्छु अपनी आदत (खस्लत, प्रविति) के अनुसार डंक मारे बिना नही रह सकता उसी तरह औरत भी लड़ाई झगड़ा फ़ैलाए बिना नहीं रह सकती। (अर्थात कुछ को छोड़कर अधिकतर) औरत की खस्लत में अत्याचार करना, ढ़ोंग मचाना, कष्ट देना और शत्रुता फ़ैलाना इत्यादि कुट कुट कर भरा होता है ऐसी औरतों के लिए रसूलल्लाह (स.) ने इर्शाद फर्मायाः
जो औरत अपने पति को दुनिया में तकलीफ पहुँचाती है हूरे उससे कहती हैं, तुम पर खुदा की मार, अपने पति को कष्ट न पहुँचा (दे), यह मर्द तेरे लिए नहीं है तू इसके लाएक (पात्र) नहीं वह शीघ्र ही तुझ से जुदा (अलग) होकर हमारी तरफ आ जाएगा। (300)
अर्थात अपने पति को कष्ट देने वाली औरत स्वर्ग नही पहुँच सकती।
सम्भव है ऐसी ही दुश्मन औरतों से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम ने ऐलान किया होः
ऐ ईमानदारों। तुम्हारी बीवी और तुम्हारी औलादें में से कुछ तुम्हारे दुश्मन हैं और तुम उनसे बचे रहो और अगर तुम मांफ कर दो और छोड़ दो और बख्श दो तो खुदा बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है।(301)
उपर्युक्त क़ुर्आन की आयत से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि औरत (302) के अलावा कुछ बच्चे भी मर्द के दुश्मन हुआ करते हैं। जिन पर वह क़वी होने के बावजूद भी अत्याचार नहीं करता और न ही कष्ट देता है बल्कि मोमिन (303) होने की वजह से मआफ़ करता, छोड़ देता, बख़्शता, महरबानी करता और उनके लिए खुदा से दुआ करता रहता हैः
और वह लोग जो (हम से) कहा करते है कि परवर्दिगार हमें हमारी बीवीयों और बच्चों की तरफ से आँखों की ठंडक अता फर्मा (दे) और हम को पर्हेज़गारों का पेशवा (लीडर, अगुवाकार) बना, यह वह लोग हैं जिन्हे उनकी जज़ा (इनआम) में (स्वर्ग के) बालाखाने (ऊँचे ऊँचे मकानात, दर्जे) अता किये (दिये) जायेंगे और वहाँ उन्हे सम्मान (तअज़ीम) और सलाम (का हदिया, तोहफः) पेश किया जाएगा और यह लोग उसमें हमेशा रहेंगे और वह रहने और ठहरने की क्या अच्छी जगह है। (304)
और इस दुआ के नतीजे में बीवी, बच्चे नेक होकर, मर्द की आँखों को ठंडक पहुँचाते हैं उनके हक़ (परिश्रमिक) में फ़रिश्ते भी दुआ करने लगते हैः
जो फ़रिश्ते आसमान अर्थात (अर्श) को उठाये हुवे हैं और जो उसके चारो तरफ (तैनात) हैं (सब) अपने परवर्दिगार की तारीफ़ के साथ तसबीह (प्राथना) करते हैं और उस पर ईमान रखते हैं और मोमिन के लिए बख्शिश की दुआऐं माँगा करते हैं कि परवर्दिगार तेरी रहमत और तेरा इल्म (ज्ञान, जानकारी) हर चीज़ को अपने घेरे में किये (लिये) हुवे है तो जिन लोगों ने (सच्चे) दिल से तौबः कर ली और तेरे रास्ते पर चले उनको बख़्श दे और उनको नर्क (जहन्नम) के आज़ाब (पाप, कष्ट) से बचा ले। ऐ हमारे पालने वाले उनको हमेशा बहार वाले बागों में जिनका तूने उनसे वायदा किया है दाखिल कर (पहुँचा) और उनके बाप दादाओं (पूर्वजों) और उनकी पत्नीयों और औलादों में से जो लोग नेक हों उनको (भी बख़्शिश दे)। बेशक (निःसंदेह) तू ही सबसे ज़्यादा शक्ति शाली (और) हिकमत (युक्ति) वाला है। (305)
बहरहाल मोमिन मर्द और फ़रिश्तों की दुआओं को क़ुबूल करते हुवे खुदा कहता हैः
.. (और खुदा उन अर्थात मुत्तक़ी और पर्हेज़गार लोगों से कहेगा) ऐ मेरे बन्दों। आज न तो तुम को कोई ख़ौफ (डर) है और न तुम दुखी होगे। (यह) वह लोग हैं जो हमारी निशानियों (आयतों) पर ईमान लाये और (हमारे) कहे पर चले (फ़र्मांबर्दार थे)। तो तुम अपनी बीवीयों (पत्नियों) के साथ इज़्ज़त और सम्मान के साथ स्वर्ग मे दाखिल हो जाओ। उन पर सोने की रकाबियों और प्यालों का दौर चलेगा और वहाँ जिस चीज़ को जी चाहेगा और जिससे आँख़ें स्वाद और आनन्द उठायें (सब मौजूद हैं) और तुम इसमें हमेशा रहोगे और यह जन्नत (स्वर्ग) जिसके तुम वारिस (हिस्सेदार) कर दिये गये हो, तुम्हारे द्वारा दुनियां में किये गये कार्यों का फल है। (306)
मालूम हुआ कि मोमिन मर्द के साथ उनकी नेक पत्नी (और नेक बच्चे) भी स्वर्ग में दाखिल हो जायेंगे। जिस में वह हमेशा हमेशा रहेंगे। जो नर्क (जहन्नुम) की तुलना (मुक़ाबले) में अच्छा और खूबसूरत ठिकाना है। जहाँ उनके आराम व सुकून का सारा सामान मौजूद होगा। वह जो चाहेगा वह मिलेगा और दोनों साथ रहकर खूब स्वाद और आनन्द उठायेंगे।
स्वर्ग के रहने वाले आज (क़यामत के दिन) एक न एक मशूग़ले (काम) में जी बहला रहे हैं वह अपनी पत्नीयों के साथ (ठंडी) छाओं में तकिये लगाये तख़्तों पर (चैन से) बैठे हुवे हैं। (307)
क्योंकि हूरें भी उस नेक (अर्थात पति पर अत्याचार न करने वाली) औरत से यह नहीं कह पायेगी किः
......... यह मर्द तेरे लिए नहीं है। तू इसके लाइक़ (पात्र, योग्य) नहीं। वह शीघ्र ही तुझ से जुदा (अलग) होकर हमारी तरफ़ आ जायेगा। (308)
अर्थात नेक औरतें बिल्कुल हूर जैसी होंगी बल्कि उनसे बढ़कर होंगी। क्योंकि वह और नेक मर्द स्वर्ग में रहकर आपस में स्वाद व आनन्द उठायेंगे।
यहाँ यह लिखना अनुचित नहीं है कि आज मोमिन मर्द की चेतावनी या दुआ के नतीजे में औरत नेक नहीं हो पाती तो वह स्वर्ग में दाखिल नहीं हो सकती। अतः केवल मोमिन मर्द ही स्वर्ग में दाख़िल होंगे। जहाँ उनकी सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए खुदा उनके जोड़े हूरों से लगायेगा। क़ुर्आन-ए-करीम में है किः
और हम बड़ी बड़ी आँखों वाली हूरों से उनके जोड़े लगा देंगे। (309)
खुदा जाने कि उन हूरों में कितना आकर्षण (खिचाव, कशिश) है कि उनका ख्याल आते, नाम सुनते या नाम लेते ही सभी मर्दों मुख्य रूप से नेक मर्दों के शरीर में एक मुख़्य तरह की लहर दौड़ जाती है, चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और खुशी व प्रसन्नता को ज़ाहिर करने लगते हैं। जबकि उन हूरों को आज तक किसी ऍसे मनुष्य ने नहीं देखा जो दुनिया के लोगों को बता सके कि वह हूरें कैसी है। ----- फिर भी आकर्षण (खिचाव) बाक़ी है---- और अपनी अपनी आँखों से देख ले तो क्या हालत होगी। ---- इसका केवल विचार किया जा सकता है बल्कि यह विचार से भी ऊपर की चीज़ है।
बहरहाल स्वर्ग में सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए हूरों जैसी महान नेअमत (अता, तोहफः) केवल नेक और पर्हेज़गार मर्दों के लिए होगी। क्योंकि मर्द प्राकृतिक तौर पर और चीज़ों (बेटों आदि) के साथ साथ औरत को भी पसन्द करता है। जिस (अर्थात औरत) की आव्यशकता उसको स्वर्ग के लम्बे जीवन में उसी तरह महसूस होगी जिस तरह दुनिया के कुछ दिनों के जीवन में महसूस होती है। ---- लेकिन परलोक में यह आव्यशकता उसी समय पूरी हो सकती है जबकि मर्द दुनिया में रहकर खुदा पर ईमान लाए, खुदा के क़ानूनों (आदेशों) पर पूरी तरह अमल करे, सच बोले, सब्र (धैर्य, धीरज) व शुक्र से काम ले, अच्छे काम करता रहे, खुदा की राह (के लिए) खूब खर्च करे, रातों मे उठकर खूब इबादत (प्राथना) करे, तौबः (अर्थात खुदा से पापों की क्षमा चाहता) व मोक्ष-प्राप्ति की दुआ करता रहे, दुनिया के कुछ दिनों के आराम व सुकून की तुलना में जन्नत (स्वर्ग) अर्थात आख़िरत (परलोक) के (अधिकारों) को पूरा करता रहे, किसी पर अत्याचार न करे और न ही किसी को कष्ट दे इत्यादि। ------ तब ही मर्द को स्वर्ग में दाखिल होने का इजाज़तनामः (अनुमति पत्र, आज्ञा पत्र) मिल सकता है, जो बेहतरीन, खूबसूरत और अच्छा ठिकाना है। जहाँ और नेअमतों के साथ- साफ सुथरी बीवीयों जैसी महान नेअमत भी मिलेगी। क़ुर्आन-ए-करीम में हैः
.. (दुनिया में) लोगों को उनकी पसन्दीदः चीज़े (जैसे) बीवियों और बेटों और सोने चाँदी के बड़े बड़े लगे हुए ढेरों और अच्छे व खूबसूरत घोड़ो और जानवरों और खेती के साथ लगाव भला करके दिखा दिया गया है। यह सब दुनिया कि ज़िन्दगी के (कुछ दिनों के) फ़ायदे (लाभ) हैं और (हमेशा का) अच्छा ठिकाना तो खुदा ही के यहाँ है (ए रसूल (स.)) इन लोगों से कहो कि क्या तुम को इन सब चीज़ो से अच्छी चीज़ बता दूँ (अच्छा सुनों) जिन लोगों ने पर्हेज़गारी और नेकी को अपनाया उनके लिए उनके परवर्दिगार (खुदा) के यहाँ (स्वर्ग में) वह बाग़ात हैं जिनके नीचे नहरें जारी हैं (और वह) सदैव उसमें रहेंगे और उसके अलावा उनके लिए साफ़ सुथरी बीवियां हैं और (सबसे बढ़कर) खुदा की खुशनुदी है और खुदा अपने उन बन्दों (लोगों) को खूब देख भाल रहा है जो यह दुआऐं माँगा करते है किऐहमारे पालने वाले हम तो (बिना किसी सोच विचार के) ईमान लाये हैं अतः तू भी हमारे गुनाहों (पापों) बख्श (माफ़ कर दे) और हम को नर्क के आज़ाब (पाप , दुखों) से बचा (यही लोग हैं) सब्र (धीरज) करने वाले और सच बोलने वाले और (खुदा के) क़ानूनों पर अमल करने वाले और (खुदा की राह में) खर्च करने वाले और पिछली रातों में (खुदा से तौबः) व मोक्ष- प्राप्ति करने वाले। (310)
अर्थात स्वर्ग मे साफ सुथरी बीवियाँ नेक काम करने वालों और पर्हेज़गार लोगों को केवल उनके द्वारा दुनिया में किये गये नेक कामों के बदले मे दी जायेगी। इसी खूशखबरी से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः
और जो लोग ईमान लाए और उन्होने नेक काम किये उनको (ए पैग़म्बर (स.)) खुशखबरी दे दो कि उनके लिए (स्वर्ग के) वह बाग़ात हैं जिनके नीचे नहरें जारी हैं जब उन्हें उन (बाग़ात) का कोई मेवा (फल) खाने को मिलेगा तो कहेंगे यह तो वही मेवा है जो पहले भी हमें खाने को मिल चुका है (क्योंकि) उन्हें मिलती जुलती सूरत व रंग के (मेवे) मिला करेगें और स्वर्ग में उनके लिए साफ सुथरी बीबियाँ होंगी और यह लोग उस (बाग़) में हमेशा (सदैव) रहेंगे। (311)
और
बेशक (निःसंदेह) पर्हेज़गार लोग बाग़ों और नेअमतों में होंगे जो (जो नेअमत) उनके परवर्दिगार ने उन्हें दी हैं उनके मज़े ले रहे हैं और उनका परवर्दिगार उनहें नर्क के अज़ाब (पाप) से बचायेगा जो काम तुम कर चुके हो उनके बदले में (आराम से) तख़्तों पर जो बिछे हुवे हैं तकिये लगा कर खूब मज़े से खाओ पीयो और बड़ी बड़ी आँखों वाली हूर से उनका बियाह (विवाह) रचायेंगे। और जिन लोंगो ने ईमान में उनका साथ दिया तो हम उनकी संतान को भी उनके दर्जे तक पहुँचा देंगे। (312)
इसी तरह।
और बड़ी बड़ी आँखों वाली हूरें जैसे ठीक (अहतियात) से रखे हुवे मोती। यह बदला है उनके नेक कामों का। वहाँ न तो बुरी और खराब बात सुनेगा और न गुनाह (पाप) की बात (गालियाँ, फ़ोहश) बस उनका कमाल (उनकी बात) सलाम ही सलाम होगा और दाहिने हाथ वाले (वाह) दाहिने हाथ वालों का क्या कहना है बे कांटे की बेरीयों और लदे गुथे हुवे केलों और लम्बी-लम्बी छाओं और झरने के पानी और बहुत सारे मेवों में होंगे जो न कभी ख्तम होंगे और न उनकी कोई रोक टोक और ऊँचे ऊँचे (नरम गबभों के) फ़रिश्तों में (मज़े करते) होगें (उनको वह हूरें मिलेंगी) जिनको हम ने नित नया पैदा किया है तो हम ने उन्हें कवाँरियाँ प्यारी प्यारी हमजोलियाँ बनाया (यह सब सामान) दाहिने हाथ (में अपना कर्मपत्र, नामः-ए-आमाल) लेने वालों के वास्ते है।(313)
या
उन बाग़ों में खुश मिज़ाज और खूबसूरत औरतें होंगी तो तुम दोनों अपने परवर्दिगार की किस किस नेअमत (अता) को न मानोंगे वह हूरें जो ख़ैमों मे छुपी बैठी हैं। फिर तुम दोनों अपने परवर्दिगार की कौन कौन सी नेअमत से इन्कार करोगे। उनसे पहले उनको किसी इन्सान ने छुआ तक नहीं और न जिन ने। फिर तुम दोनों अपने मालिक की किस किस नेअमत का इन्कार करोगे यह लोग हरे कालीनों और खूबसूरत व नाज़ुक मसनदों पर तकीया लगाए (बैठे) होगें फिर तुम दोनों अपने परवर्दिगार की किन किन नेअमतों का इन्कार करोगे। (314)
अर्थात स्वर्ग में नेक काम करने वाले और पर्हेज़गार लोगों के लिए बड़ी बड़ी आँखों (जैसे ठीक से रखी हुवी मोतियों) वाली हर घड़ी नयी पैदा की हुवी, कुँवारी प्यारी, उनसे पहले किसी इन्सान या जिन की छुई तक नहीं, खैमों में छुपी हुई, शर्मीली तख़्तों पर सजी सजाई हुई बैठी होंगी।
स्वर्ग में इन नेक काम करने वालों लोगों के लिए हूरों के अलावा सेवा के लिए आस पास चक्कर लगाते, हाथों में शरबत के प्याले लिए, खूबसूरत या कहा जाए ठीक से रखे हुए मोती, खुश मिज़ाज और खुश अख़लाक लड़के (अर्थात ग़िलमान) होगें जिस से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः
.. (और सेवा के लिए) नौजवान लड़के आस पास चक्कर लगाया करेंगे वह (खूबसूरती में) गोया अहतियात (ठीक) से रखे हुए मोती है और एक दूसरे की तरफ मुँह करके (मज़े की) बातें करेंगे। (315)
और
... नौजवान लड़के जो स्वर्ग में सदैव (लड़के ही बने) रहेंगे (शरबत आदि के) प्याले और चमकदार टोटिदार और साफ शराब के प्याले लिए हुवे उनके पास चक्कर लगाते होंगे। (316)
बहरहाल उपर्युक्त क़ुर्आनी आयतों की रौशनी में यह नतीजा आसानी के साथ, निकाला जा सकता है कि परलोक में हर तरह के आराम व सुकून और सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आव्यशक है कि मनुष्य दुनिया कि इम्तिहानगाह (परिक्षा केन्द्र) में ईमानदार रहे, नेक काम करता रहे, दूसरों के अधिकारों को पूरा करता रहे, दुआ व तौबः करे, खुदा की राह में खर्च करे, अल्लाह के क़ानूनों पर अमल करे, खुदा की वन्दना (इबादत, प्राथना) करे, अपने वायदे को पूरा करे, सच बोले इत्यादि। क्योंकि यही बातें नेकी और पर्हेज़गारी की निशानियाँ हैं। जिससे सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः
.. नेकी कुछ यही थोड़ी है कि (नमाज़ में) अपने मुँह पूरब या पश्चिम की ओर कर लो, बल्कि नेकी तो उसकी है जो खुदा और परलोक के दिन और फ़रिशतों और (खुदा की) किताबों और पैग़मबरों पर ईमान लाए और उसकी मुहब्बत में अपना माल रिश्तेदारों (परिवार वालों) और यतीमों (अनाथों) और मोहताजों और परदेसीयों और माँगनेवालों और लौड़ी ग़ुलाम (के आज़ाद करने) में ख़र्च करे और पाबन्दी से नमाज़ पढ़े और ज़कात देता रहे और जब कोई वायदा करे तो अपनी बात को पूरा करे और भूख व प्यास, दुख और कठिनाईयों के समय साबित क़दम रहे, यही लोग वह हैं जो (अपने ईमान के दावे में) सच्चे निकले और यही लोग पर्हेज़गार हैं। (317)
उपर्युक्त क़ुर्आनी आयतों के हिसाब से मुत्तक़ी और पर्हेज़गार लोगों की पहचान होने के बाद किताब के अन्त में यह दुआ कि खुदाया (हे ईश्वर) हम सब को जीवन के हर भाग (शोबे, हिस्से) में क़ुर्आन व आइम्मः-ए-मासूमीन (अ,) के बताये हुवे रास्ते पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़र्मा (उमंग पैदा कर) ताकि नेक, मुत्तक़ी और पर्हेज़गार बन कर जन्नत (स्वर्ग) में पहुँचने के लाएक़ (पात्र, योग्य) हो सकें। आमीन सुम्मा आमीन।
हवाशी
123. तहज़ीब अल इस्लाम पेज न. (107) व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तक़ीन भाग चार पेज 308, 1314 हि.
124. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-मोमिन आयत न. 60
125. सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम, आदाबे जवाज पेज (12) व (13) से नक़्ल व मसाएले ज़िन्दगी पेज (176) से नक़्ल.
126. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-नूर आयत न. (33) और पाकदामनी इख्तियार करने के लिए रसूले खुदा ने इर्शाद फ़र्मायाः
जिस किसी को निकाह करने की क़ुव्वत न हो वह रोज़े रखे, रोज़ा उनके लिए गुनाहों से बचाओ है। (देखिए सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम आदाबे ज़वाज पेज (13) से नक्ल।
जो व्यक्ति किसी ग़ैर औरत को देखे और उसको वह औरत अच्छी मालूम हो बाद में उसके वह व्यक्ति अपनी औरत से इस ख्याल से मैथुन, संभोग करे कि यह औरत और वह औरत एक जैसी है और शैतान को अपने दिल मे रास्ता न दे और अगर औरत न रखता हो तो दो रकअत नमाज़ पढ़े और हम्दे खुदा (खुदा की वन्दना करे) बजा लाए और सलवात (दुरूद) मुहम्मद (स.) व आले मुहम्मद (अ) पर भेजे, उसके बाद खुदा से सवाल करे कि खुदा वन्दा उसे औरत अता करे तो खुदा उसे औरत या वह चीज़ देगा कि उसको हराम से बचाए रखे। (देखिए तोहफाऐ अहमदिया, दूसरा भाग, सैय्यद अबू अल हसन पेज 141-142, बुसताने मुर्तज़वी, 1305 हि.
127. नहजुल बलाग़ा, इर्शाद न, 399, पेज 931
128. तौज़ीह अल मसाएल, खूई मसअलः न. 2420 पेज 283, व तौज़ीह अस मसाएल, गुलपाएगानी, मसअलः न 2384 पेज 386
129. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-कसस आयत न. 27
130. क़ुर्आन-ए-करीम में हराम औरतों की सूची इस तरह गिनाई गयी है।
मुसलमानो। निम्नलिखित औरतें तुम पर हराम की गयी हैं। तुम्हारी माँयें (दादी नानी आदि सब) और तुम्हारी बेटीयाँ (पोतियाँ नवासियाँ आदि) और तुम्हारी बहनें और तुम्हारी फूफीयाँ और खालायें और भतीजीयाँ और भानजीयाँ और तुम्हारी वह माँयें जिन्होने तुम को दुध पिलाया है और तुम्हारी दूध शरीक (रिज़ाई) बहनें और तुम्हारी बीवीयों की माँयें (सास) और उन औरतों (के पेट) से (पैदा हुई हैं) जिन से तुम संभोग कर चुके हो। हाँ अगर तुम ने उन बीवीयों से (केवल निकाह किया हो) संभोग न किया हो तो (उन माँओं की) लड़कियों से (निकाह करने में) तुम पर कुछ गुनाह नही और तुम्हारे वीर्य से पैदा हुए लड़कों (पोतों, नवासों आदि) की बीवीयाँ (बहूऐं) और दो बहनो से एक साथ निकाह करना मगर जो कुछ जो हो चुका (वह माफ है) बेशक खुदा बड़ा बखशने वाला और महरबान है। (देखिए सूरः-ए-निसाअ आयत न, 23)
और क़ुर्आन ही ने हलाल औरतों की सूची इस तरह गिनाई है।
और हमनें तुम्हारे वास्ते तुम्हारी उन बीवीयों को हलाल कर दिया है जिन को तुम महर दे चुके हो और तुम्हारी उन लौङियों को भी जो खुदा ने तुम को (बिना लड़े भिड़े) माले गनीमत (युद्ध में शत्रु से लूटा हुआ माल) में अता की है और तुम्हारे चाचा की बेटीयाँ और तुम्हारे मामू की बेटीयाँ और तुम्हारी खालाओं की बेटीयाँ ...... (देखिए सूरः- अहज़ाब आयत न. 50)
क़ुर्आन ने हराम और हलाल के साथ शादी अर्थात रिश्ते के चयन का कुल्लिया (व्यापक नियम) इस तरह बयान किया हैः
गंदी औरत गंदे मर्दों के लिए (मुनासिब) हैं और गंदे मर्द गंदी औरत के लिए और पाक औरत पाक मर्दों के लिए (उचित) हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए। लोग जो कुछ भी इनके सम्बन्ध में बाका करते हैं उससे यह लोग पूरी तरह अलग है इन ही (पाक लोगों के लिए (आखिरत) में बख्शिश (मोक्ष) है और इज़्ज़त की रोज़ी। (देखिए सूरः-नूर आयत न. 26)
131. क़ुर्आन-ए-करीम में है किः
तुम्हारी बीवीयों (वास्तव में) तुम्हारी खेती हैं तो तुम अपनी खेती में जिस तरह चाहो आओ। (देखिए सूरः-ए-बक़रा आयत न. 233)
132 व 133. हयाते इन्सान के छः मरहले, पेज 25
134. तरबीयते औलाद पेज 19
135. यहाँ इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि अगर किसी ने किसी औरत से निकाह का पैगाम भेजा है तो उसमें दूसरे को पैग़ाम नहीं देना चाहिए क्योंकि यह मनुष्ता, शराफत और हमदर्दी से गीरी हुई बूरी हरकत है जिसे इस्लामी शरीअत बिल्कुल पसन्द नही करती। इसीलिए रसूले खुदा ने इर्शाद फ़र्मायाः
कोई शख्स अपने भाई के पैग़ाम पर पैग़ाम न दे जब तक कि पहला शख्स अपना पैग़ाम छोड़ न दे या दूसरे को पैग़ाम देने की आज्ञा दे। (देखिए सहीह बुखारी, आदाबे ज़वाज, पेज (23) से नक़्ल।
136. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-निसाअ आयत न. (23) में लिखी हराम औरतों की सूची के अनुसार हराम मर्दों की सूची में बाप, दादा, नाना, पोता, नवासा, भाई, चाचा, मामूँ, भतीजा भानजा आदि आयेंगे जो औरतों पर हराम हैं। और क़ुर्आने क़रीम के सूराऐ अहज़ाब आयत न. (50) में वर्णित हलाल औरतों की मदद से हलाल मर्दों की सूची में चाचा का बेटा, फूफी का बेटा, मामूँ का बेटा, खाला का बेटा, जिसने महर दे कर निकाह किया हो आदि आयेंगे जो औरत पर हलाल हैं। (तक़ी अली आबदी)
137. अच्छे मर्दों के लिए हज़रत अली (अ) ने इर्शाद फर्माया है किः
मर्दों की खूबीयाँ हालात के बदलाव में मालूम होती हैं। (देखिए नहजुल बलाग़ा इर्शाद न. (217) पेज 874)
138. रसूले खुदा (स) ने इर्शाद फर्माया किः
अपनी बेटी अपने बराबर वाले और अपने जैसे को दो और अपने बराबर और अपने जैसे की बेटी लो और नुत्फे (वीर्य) के लिए ऍसी औरत तलाश करो जो उसके लिए मुनासिब (उचित) हो ताकि उससे लाएक़ (अच्छी) औलाद पैदा हो। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम, पेज 103)
139. इस्लाम में नारी के विशेष अधिकार, पेज 83-84
140. तिरमाज़ी, निसाई, आदाबे ज़वाज, पेज (21) से नक़्ल
141. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 107
142. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-निसाअ आयत न. 115
143. कोक शास्त्र से सम्बन्धित संस्कृत किताबों में भी चाँद के महीने (अर्थात वैशाख, ज्येशठ, आषाढ़, श्रवण, भादृपद, आश्विन, कार्तिक, मार्ग शीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, और चैत्न) और तारीख के असरात (प्रभाव) औरत मर्द और बच्चे पर बताये गये हैं। (तक़ी अली आबदी)
144. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 107
145. चाँद के महीने के वह आखिरी तीन दिन जिसमें चाँद नहीं निकलता।
146. चाँद के महीने के वह आखिरी दिन जिसमें चाँद बुर्जे अकरब (व्रश्चिक राशि) में रहता है। इसके मालूम करने का तरीका यह है कि पहले यह मालूम करे के सूरज किस बुर्ज में है इस तरह से ईसवी कलैन्डर की तारीख तक जनवरी से तमाम दिनों की गिनती करके उस में दस को बढ़ायें। फिर हर बुर्ज में दिनों को बाटें (अर्थात सभी बुर्जों को दिनों में इस तरह बाटें।) जदी (मकर राशि) 29. दलव (कुंभ राशि) 30, हूत (मीन राशि) 30, हमल (मेष राशि) 31, सौर (वृष राशि) 31, जौज़ा (मिथुन राशि) 32, सर्तान (कर्क राशि) 31, असद (सिंह राशि) 30, संबुल (कन्या राशि) 31, मीज़ान (तुला राशि) 30, अक्रब (वृश्चिक राशि) 30, और क़ौस (धनु राशि) 29। फिर आखिर में बचे हुवे या पूरे पूरे बटे हुए दिनों से सूरज का बुर्ज मालूम हो जाएगा। उदाहरणर्थात यह मालूम करना है कि (14) नवम्बर 1993 ई. (28 जमादी अल अव्वल 1414 हि.) को सूरज किस बुर्ज (राशि) में है तो पहली जनवरी से (14) नवम्बर तक सभी दिनों की गिनती करें।
जनवरी (31) + फरवरी 28+ मार्च (31) + अप्रैल (30) + मई (31) + जून (30) + जुलाई (31) + अगस्त (31) + सितम्बर (30) + अक्तूबर (31) + नवम्बर (14) = (318) दिन इसमें (10) को बढ़ाओ (318) + (10) = (328) अब (328) को राशियों के दिनों में बाँटा, जदी (29) + दलव (30) + हूत (30) + हमल (31) + सौर 31+ जौज़ा (32) + सर्तान (31) + असद (31) + संबुलः (31) + मीज़ान (30) = (306) इसके बाद (22) दिन (328 – (306) = 22) बचे जो बुर्जे अक्रब (वृश्चिक राशि) में आयें। अतः मालूम हुआ कि सूरज बुर्जे अक्रब में है।
और चाँद के महीने की तारीख (28 जमादी अल अव्वल. (14) नवम्बर) को (13) से गुणा देकर उसमें (26) को बढ़ाया। फिर बुर्जे अक्रब (जिस में (14) नवम्बर को सूरज है) से हर राशि में 30-30 बाटते चले गए तो आखिरी राशि चाँद का बुर्ज (की राशि) होगा। इस तरह चाँद की तारीखों को (13) से गुणा करने पर 28*13=364, (26) को बाढ़ाने पर 364+26 = (39) अब बुर्जे अक्रब (जिसमें (14) नवम्बर को सूरज है) से 30-30 हर बुर्ज में बाटने पर अक्रब 30+ कौस 30+ जदी 30+ दवल 30+ हूत 30+ हमल 30+ सौर 30+ जौज़ा 30+ सर्तान 30+ असद 30+ संबुल 30+ मीज़ान 30+ अक्रब (30) = (390) पूरे पूरे बुर्जे अक्रब में बट गये अतः मालूम हुआ कि (14) नवम्बर (28) जामादी अल अव्वल को क़मर दर अक्रब (अर्थात चाँद बुर्जे अक्रब में) हुआ।
क़ुर्आने करीम में हैः
बहुत बा बरकत है वह खुदा जिसने आसमान पर बुर्ज बनाए और उन बुर्जों में सूरज का चिराग और जगमगाता चाँद बनाया। (सूराऐ फुर्क़ान आयत न. 61)
आठवां आसमान जिसे शरीअत में कुर्सी कहते हैं उसकी खबुर्ज़े की काशों के से बारह टुकड़े बराबर के हैं उन्ही को बुर्ज कहते हैं। इन में हर एक सूरज तो एक महीना रहता है और चाँद एक ही महीनें में सब बुर्जों को तय करता और हर बुर्ज में ढ़ाई दिन रहता है (देखिए क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-हजर आयत न. (16) का हाशिया) और इन्ही सूरज और चाँद के बुरूज से क़मर दर अक्रब निकाला जाता है जो लगभग दो दिन पाँच घन्टे रहता है। और दो क़मर दर अक्रब के बीच लगभग (25) दिन (10) घंटे का वकफा रहता है यह घंटा, मिनट, सेकेंड मे रहता है जिसके निकालने का तरीक़ा नुजूम (ज्योतिष) की किताबों (जैसे देखिए मुहम्मद वाजिद अली शाह के काल में लिखी गई किताब अनवार उस नुजूम, सैय्यद मुहम्मद हसन, उर्फ मीर ग़ुलाम हुसैन दहलवी, पेज 29-30, 37-38 आदि, हसन प्रिंटिंग प्रेस, हीवेट रोड, लखनऊ) आसानी के लिए जनतरीयों को भी देखा जा सकता है। (तक़ी अली आबदी)
147 से 149. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 107
150. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 107, निकाह के रात में होने से सम्बन्धित अल्लामा सैय्यद ज़ीशान हैदर जवादी ने लिखा है किः
अक़्द का रात में होना उस सुहावने माहौल की तरफ इशारा है जिस में सेक्सी लगाव के बहुत से कारण खुद से पैदा हो जाते हैं और इन्सान एक दीमागी सुकून महसूस करने लगता है। (देखिए खानदान और इन्सान, अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी, पेज 46, मज़हबी दुनियां 19, कोहलन टोला, इलाहाबाद, 1983 ई,
151 व 152. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 107
153. आधुनिक युग में दहेज देने या लेने के खिलाफ एहतिजाज किया जाता है। जबकि पैग़मबर ए इस्लाम (स.) ने अपनी बेटी फातमः ज़हरा (स) को दहेज दिया जो इस बात की दलील है कि आप अपनी बेटी को नये घर का इन्तिज़ाम (रख रखाव) के लिए दहेज दे सकते हैं। लेकिन उसे इस बात का ज़रूर ध्यान रखना चाहिए कि रसूल ए खुदा (स) ने अपनी बेटी का दहेज तय्यार करने के लिए लड़के (अर्थात हज़रत अली (अ)) से महर की माँग की और उसी से दहेज तैय्यार किया। अतः हर बाप को अपनी बेटी का दहेज तैय्यार करने के लिए चाहिए की वह उसके होने वाले पति से महर की माँग करे और उसी से ज़िन्दगी की ज़रूरतों का सामान, अर्थात दहेज तैय्यार करे। (तक़ी अली आबदी)
154. वसाएल अल शीअः भाग (14) पेज 78, मसाएल ए ज़िन्दगी पेज (189) से (190) से नक्ल.
155. हदीस मे आया है कि पाँच सौ को इस लिए तय किया गया है कि परवर्दिगार ने अपने ऊपर वाजिब करार दिया है कि जो मोमिन अल्लाहो अकबर सौ बार, सौ बार ला इलाहा इललल्लाह, सौ बार अलहमदो लिल्लाह, सौ बार सुबहान अल्लाह और सौ बार अल्ला हुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद (सब मिला कर पाँच सौ बार) कहेगा और उसके बाद कहेगा अल्लाहुम्मा ज़वविजनी मिनल हूरिल ऍन (अर्थात ऐ अल्लाह मेरा बड़ी बड़ी आँखों वाली हूर से जोड़ा लगा) तो खुदा बड़ी बड़ी आँखों वाली हूर से उसका जोड़ा लगाऐगा और उस मोमिन बन्दे के पढ़े गये पाँच सौ कलमात को महर करार देगा। (देखिए औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन पेज 309)
156. वसाएल अल शीअः भाग (14) पेज 78, मसाएल ए ज़िन्दगी पेज (190) से नक्ल.
157. तोहफत उल अवाम पेज 428
158 व 159. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-निसाअ, आयत न, (4) व 24
160. आम तौर से शीओं में निकाह के समय खुतबः पढ़ा जाता है जो इमाम ए मुहम्मद ए तक़ी (अ) ने खलीफ़ा मामून रशीद की बेटी उम उल फज़ल के साथ अपने अक्द ए निकाह के मौके पर पढ़ा। (देखिए औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन पेज 309, तहज़ीब अल इस्लाम पेज 108, तोहफत उल अवाम पेज 424, 425, चौदह सितारे, सैय्यद नजमुल हसन करारवी, पेज 382, शीआ बुक ऐजन्सी, इन्साफ प्रेस, लाहौर, 1974 ई. कुछ विद्धानों ने इसी को बेहतर जाना है।
161. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-फुरक़ान, आयत न. 54
162. तहज़ीब अल इस्लाम, पेज 107
163. मिलता है कि रूखसत की रात में रसूल ए खुदा (स) ने अपना खच्चर अशहब नाम का मगाया और एक चादर जो रंग बिरंग के टुकड़ो से जोड कर बनाई गई थी उसके मुँह पर डाल दी। जनाब सलमान ए फारसी को हुक्म दिया कि इसकी लगाम थाम कर चलें। हज़रत फातिमः ज़हरा (स) को हुक्म दिया की उस पर सवार हो जायें और खुद आन हज़रत पीछे पीछे रवाना हुवे। रास्ते में फ़रिश्तों की आवाज़ आन हज़रत (स) के मुबारक कान में पहुँची देखा की जिबरईल व मीकाईल (अ) एक एक हज़ार फ़रिश्तों को साथ लेकर आयें हैं और उन्होंने अर्ज़ की कि खुदा ने हमको हज़रत ज़हरी (स) की विदाई की मुबारकबाद के लिए भेजा है। उस वक़्त से जिबरईल व मीकाईल अपने साथ के फ़रिश्तों के साथ अल्लाहो अकबर कहते रहे। इसी वजह से दुल्हन की रूखसती (विदाई) के समय अल्लाहो अकबर कहना सुन्नत है। (देखिए तहज़ीब उल इस्लाम पेज 113)
164 व 165. तहज़ीब उल इस्लाम पेज 117
166. तहज़ीब उल इस्लाम पेज 116, व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन पेज 312
167. तहज़ीब अल इस्लाम, पेज (111) व तोहफ ए अहमदया भाग (2) पेज 139
168. वर्तमान युग में अधिकतर लोग दुल्हन के पैर केवल रस्म समझ कर धुलाते हैं न की रसूल अल्लाह (स) की वसीयत समझ कर ...... खुदा करे रसूल अल्लाह (स) की वसीयत समझकर पैर धुलायें और घर के कोने कोने में पानी छिड़क कर खैर व बरकत (लाभ) का अन्दाज़ः लगायें। आमीन (तक़ी अली आबदी)
169. जब कि वर्तमान युग मे दुल्हन के वुजूद को शौहर...... दहेज, अच्छे की तलाश न पसन्दीदः आदि के हरकत के कारण खत्म कर देते हैं या दुल्हन खुद .... कुछ खटपट, अपनी पसन्द के अनुसार जीवन व्यतीत न होने, दहेज, अच्छे का चयन न होने आदि के कारण अपने वुजूद को खत्म कर लेती है, इस तरह की खबरें रोज़ पढ़ने और सुनने को मिलती हैं जिसको खत्म करना हर औरत और मर्द का अपनी अपनी जगह कर्तव्य है। (तक़ी अली आबदी)
170. जबकि आम तौर से देखने में यह आता है कि दूल्हा तो खामोशी से दुल्हन के आँचल पर दो रकअत नमाज़ पढ़ लेता है लेकिन दुल्हन से नहीं कह पाता की नमाज़ पढ़ो..... मुमकिन है कि किसी मौके पर दुल्हन शरई सबब (मज़हबी कारण अर्थात मासिक खून आने) की वजह से नमाज़ न पढ़ सकी हो और बाद में धीरे धीरे उसी को रस्म बना लिया गया हो। अतः चाहिए कि इस रस्म को तोड़े और इमाम ए मुहम्मद ए बाक़िर (अ) की शिक्षा के अनुसार दूल्हा और दुल्हन दोनों नमाज़ पढ़े और अपने लिए खैर व बरकत की दुआऐं करें। यही इस्लाम मज़हब की बुनियादी शिक्षा भी है। (तक़ी अली आबदी)
171. तहज़ीब उल इस्लाम, पेज (116) व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तक़ीन, पेज 313
172 से 175. तहज़ीब अल इस्लाम पेज (116) से 118
176. आदाबे ज़वाज पेज 60, सहीह बुखारी, सुनन तिरमीज़ी अबू दाऊद, आदाबे इज़दवाज, सैय्यद अहमद उरूज कादरी, पेज 9, इदारः ए शहादत ए हक़, नई दिल्ली 1986 ई.)
177 व 178. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 118.
179. मिलता है कि पैग़मबर ए इस्लाम (स) जनाबे फातिमः ज़हरा (अ) और हज़रत अली (अ) के घर गये और पानी मगाया, उससे वज़ू किया और वज़ू का पानी हज़रत अली (अ) पर डाल कर यह दुआ किः
अल्लाहुम्मा बारिक फीहेमा व बारिक लहोमा फी बेनाए हेमा (अर्थात ए खुदा इन के सम्बन्धों में बरत नाज़िल फर्मा और इनकी सुहाग रात को इनके लिए मुबारक बना) (देखिए इब्ने सऊद, तिबरानी, इब्ने असाकर, आदाबे इज़दवाज पेज (16) से नक़्ल)
181 व 182. तहज़ीब अल इस्लाम, पेज (107) व 114
182 व 183. देखिए तौज़ीहु अल मसाएल (उर्दू) सैय्यद अबुल अल कासिम अल खुई या आकाए सैय्यद मुहम्मद रज़ा गुलपाएगानी क्रमशः पेज (283) या पेज 386
184. सहीह मुस्लिम आदाब ए ज़वाज पेज (61) व आदाब ए इज़दिवाज पेज 15
185. मसाएल में मिलता है किः
जहाँ भी एक महीना कहा जाए उससे वहाँ महीने की पहली तारीख से लेकर तीसवीं तारीख तक का समय तय नहीं बल्कि खून आना शुरू से लेकर तीस दिन खत्म होने तक के समय से मुराद है। (देखिए तौज़ीहु अल मसाएल (उर्दू) सैय्यद अबुल अल कासिम अल खुई पेज (57) आकाए सैय्यद मुहम्मद रज़ा गुलपाएगानी पेज 90-91.
186 व 187. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. (222) व हाशिया
188. आदाब ए ज़वाज, पेज 64
189. मसाएल में मिलता है किः
मासिक खून आने वाली औरत के साथ संभोग के अलावा बाकी हर तरह की छेड़ छाड़, चुमा चाटी जाएज़ है। (देखिए तौज़ीह अल मसाएल, सैय्यद अबुल अल कासिम अल खुई पेज 58)
190. मसाएल में मिलता है किः
अगर औरत के मासिक खून आने के दिनों को तीन हिस्सों में बाँटा जाए और शौहर पहले हिस्से में औरत के आगे के हिस्सें में मैथुन करे तो मुसतहब बल्कि अहतियात यह है कि चने के अठठारह दानों के बराबर सोना कफ्फारे के तौर पर फकीर को दे और अगर दूसरे हिस्से में मैथुन करे तो नौ दानों के बराबर और अगर तीसरे हिस्से में मैथुन करे तो साढे चार दानों के बराबर दे। जैसे एक औरत को छः दिन हैज़ आता है तो अगर शौहर पहले दो दिनों की रात में मैथुन करे तो मुसतहिब बल्कि अहतियात यह है कि अठठारह दोने को देना पड़ेगा और तीसरे चौथे दिन या रात में हो तो नौ दाने और पाँचवे या छटे दिन या रात में साढ़े चार दाने देने पड़ेगें। (देखिए तौज़ीहुल मसाएल (उर्दू) मुहम्मद रज़ा गुलपाएगानी पेज (79) व अल खूई पेज 50)
191. शर्मगाह योनि में मैथुन करना औरत के लिए हराम है और मर्द के लिए भी अगरचे (चाहे) केवल खतने की जगह हो और वीर्य भी न निकले बल्कि अहतियात वाजिब यह है कि खतने वाली जगह से कम जगह भी दाखिल (प्रविष्ट) न करे। और हैज़ वाली औरत के पीछे के हिस्से में भी मैथुन न करें। (चूँकि सख्त (बहुत ज़्यादा) मक्रूह है। (देखिए तौज़ीहुल मसाएल (उर्दू) गुलपाएगानी पेज 79)
192. मसनद अहमद, 444/2, 479, अबू दाऊद भाग (1) किताब अल निकाह, बाब फी जेमाअ अल निकाह, जिमाअ के आदाब, सुल्तान अहमद इस्लामी पेज 28-29 अल कलम प्रेस एण्ड पब्लीकेशन्स, नई दिल्ली, 1991 ई. से नक़्ल।.
193. तिरमिज़ी भाग 1, अबवाब अल रिज़ाअ, जिमाअ के आदाब पेज. (250) से नक़्ल।
194. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. 222
195.तौज़ीह अल मसाएल, खुई पेज (51) व गुलपाएगानी पेज 80-81
196. तौज़ीह अल मसाएल खूई पेज 58, जबकि आकाए गुलपाएगानी ने कफ्फारः अदा करने को अहतियाते मुसतहिब बताया है। मिलता है किः
निफास की हालत में औरत को तलाक़ देना बातिल है और उससे संभोग करना हराम है और अगर शौहर उस से संभोग कर ले तो अहतियाते मुसतहिब यह है कि जिस तरह अहकामे हैज़ में बयान हो चुका है कफ्फारः अदा करे। (देखिए तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) आकाए गुलपाएगानी पेज 92)
197. तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) खूई, पेज 172
198. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. 187
199 व 200. तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) खूई पेज 190
201. दस्तूर ए हज, मसाएल ए हज मुताबिक फतवाए अबू अल कासिम अल खूई, रूह अल्लाह खुमैनी, अनुवादक सैय्यद मुहम्मद सालेह रिज़वी, पेज 39, निज़ामी प्रेस, लखनऊ, 1980 ई.।
202. यहाँ रहे कि अहले सुन्नत के यहाँ तवाफ ए निसाअ नहीं है। (तक़ी अली आबदी)
203 व 204. दस्तूर ए हज, पेज (82) व 83
205. देखिए हयात ए इन्सान के छः मरहले पेज (32) से 36
206. इमाम ए जाफ़र ए सादिक (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया किः जिस समय सूरज निकलता है या निकलने के बाद अभी पूरी तरह रौशन न हुआ हो बल्कि थोड़ी लाली ली हो और इसी तरह डूबने से पहले जब रौशनी कम हो गई हो और लाली लिए हुवे हो या डूबता हो, उन वक़्तों में मुजनिब (अर्थात वीर्य निकलना) होना मक्रूह है (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज (111) व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन पेज 313
207. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 115
208. यही वजह है कि चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के मौकों पर गर्भवती औरतों को विभिन्न तरह की हिदायतें की जाती हैं। जैसे कुछ काटे नहीं, जागती रहे आदि। क्योंकि इन मौकों पर गर्भवती औरत के किये गये कार्य का असर गर्भ में बढ़ रहे बच्चे पर ज़रूर पड़ता है। (तकी अली आबदी)
209. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 108
210. वही पेज (109) व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन में यही हदीस इमाम ए जाफर ए सादिक (अ.) से नक्ल है (देखिए पेज 313)
211. तहज़ीब अल इस्लाम, पेज 109
212. तोहफत अल अवाम, पेज 430
213. तहज़ीब अल इस्लाम, पेज 113
214. बातें न करने से सम्बन्धित ही इमाम ए जाफऱ ए सादिक (अ) ने इर्शाद फर्माया किः
अगर संभोग के समय बात किया जाए तो ख़ौफ है कि बच्चा गूँगा पैदा हो और अगर उस हालत में मर्द औरत की तरफ देखे तो खौफ है कि बच्चा अन्धा पैदा हो। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 109)
215. जहाँ एक मौके पर इमाम ए जाफर ए सादिक (अ) ने संभोग के समय औरत की योनि की तरफ न देखने की बात कही है। वहीं दूसरी जगह मिलता है किः
संभोग के समय औरत की योनि की ओर देखनें में कोई हर्ज नहीं। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 109)
216. यहाँ कोठे से मुराद आसमान के नीचे खुली छत है न कि कोठे का कमरा। (तकी अली आबदी)
217. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 111-112
218 व 219. वही पेज 110, व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन (313) – (314) लेकिन अगर कनीज़ से संभोग कर रहा है तो कोई हर्ज नही। हदीस में है किः
लौड़ी से ऐसी हालत में संभोग करना कि उस मकान में कोई व्यक्ति हो जो उनको देखे या उन की आवाज़ सुने कुछ हर्ज नहीं (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम, पेज 110)
220 से 222. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 110, 115
223. हयात ए इन्सान के छः मरहले पेज 38
224 व 225. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 115-116, 110-111
226. कानून ए मुबाशरत पेज 12
227. तहज़ीब अल इस्लाम, पेज 112-113 व तोहफः ए अहमदया भाग (2) पेज 141
228 व 229. तहज़ीब अल इस्लाम पेज (114) व (109) व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन पेज 314
230. याद रखना चाहिए कि इमाम ए जाफर ए सादिक (अ) से संभोग से सम्बन्धित निम्नलिखित बातें भी पूछी गयी कि
(अ) अगर संभोग के समय औरत या मर्द के मुँह से कपड़ा हट जाए तो कैसा। फर्माया कुछ हर्ज नहीं।
(ब) अगर कोई संभोग करने की हालत में अपनी औरत का बोसा ले (प्यार करे) तो कैसा। फर्माया कुछ हर्ज नही। (इस तरह करने से सेक्सी स्वाद व आनन्द काफी हद तक बढ़ जाता है। जिसका अहसास (अनुभव) औरत और मर्द दोनों को होता है।) (तकी अली आबदी)
(स) अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत को नंगा कर के देखे तो कैसा। फर्माया न देखने में स्वाद व आनन्द ज़्यादा है।
(द) क्या पानी में संभोग कर सकते हैं। फर्माया कोई हर्ज नहीं।
और इमाम रज़ा (अ) से पूछा गया कि हम्माम (स्नानग्रह) में संभोग कर सकते हैं। फर्माया कुछ हर्ज नहीं। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम, पेज (109) व 110)
231. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 110
232. तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) मुहम्मद रज़ा गुलपाएगानी पेज (391) और अबू अल कालिस अल खूई के अमलये मे मिलता है कि
मर्द को अपनी जवान और विवाहित बीवी से चार महीनें में एक बार ज़रूर संभोग करना चाहिए। (देखिए तौज़ीह अल मसाएल अल खूई पेज 287)
233. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 122
234 व 235. क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-आले इमरान, आयत न.38 व सूराऐ वस्साफफात, आयत न. (100)
236. तोहफ ए अहमदया भाग (2) पेज 139
237. सेक्स के विशेषज्ञों (माहिरीन ए जिनसीयात) ने औरत की सेक्सी इच्छा बढ़ाने और भड़काने के लिए चाँद की तारीखों के हिसाब से अलग अलग हस्सास (संवेदन शील) अंगों को बताया है जिस को सहलाने और मसलने से औरत बहुत जल्दी काबू हो कर संभोग के लिए तैय्यार हो जाती है और मर्द अपनी पूरी मर्दानगी के साथ संभोग करके खुद भी स्वाद व आनन्द उठाता है और बीवी को भी स्वाद व आनन्द पहुँचता है। उसी मौके पर और खुद भी स्वाद व आनन्द लेती है और मर्द को भी मज़े देती है। खुद भी वीर्यपात होती है और मर्द को भी पूरे प्यार से वीर्यपात कराती है और हमेशा सेक्सी मिलाप की इच्छा करती रहती है।
चाँद की तारीखों के हिसाब से औरत के संवदेन शील (हस्सास) अंगों का चार्ट इस तरह तैय्यार किया गया है।
बायें तरफ |
दायें तरफ |
तारीख अंग |
तारीख अंग |
पांवों का अंगूठा तलवे (कफे पा) पिंडिली घुटने के नीचे 9. छाती 5. रान 10. गर्दन 11. होंठ 12. चेहरा 13. कान के नीचे 14. पेशानी (माथा) 15. सर 16. सर 17. पेशानी 18. कान के नीचे 19. चेहरा 20. मुँह और होंठ |
6. कमर 7. योनि (शर्गगाह) 8. नाफ़ 21. होंठ 10. गर्दन 22. होंठ 23. नाफ 24. योनि 25. कमर 26. रान 27. घुटने के नीचे 28. पींड़ली 29 तलवे 30. अंगूठा
|
(देखिए कानूने मुबाशिरत, पेज 33-34)
238. औरत पर छाने से सम्बन्धित क़ुर्आन में हैः तो जब मर्द औरत के ऊपर छा जाता है (अर्थात संभोग करता है) तो बीवी एक हल्के से गर्भ से गर्भावती हो जाती है। (क़ुर्आने करीम सूराऐ एअराफ आयत न. 186)
या
तुम उनके लिए लिबास हो और वह तुम्हारे लिए लिबास है।
(देखिए क़ुर्आने करीम सूराऐ बकरा आयत न. 187)
अर्थात संभोग के समय मर्द और औरत एक दूसरे से इस तरह लिपट और चिमट जाते हैं जिस तरह से लिबास (वस्त्र) बदन (शरीर) से चिमटा रहता है इसके अतिरिक्त दोनों एक दूसरे के मुख्य अंगों को संभोग की हालत में लिबास ही की तरह छिपा लेते हैं शायद इसीलिए दोनों को एक दूसरे का लिबास कहा जाता है।
239. हयात ए इन्सान के छः मरहले पेज 44
240 से 243. क़ुर्आने करीम सूराऐ एअराफ आयत न, 189, सूराऐ नज्म आयत न. 45-46 सूराऐ कयामत आयत न, (37) और सूराऐ वाकेआ आयत न, 58-59
244. सहीह बुखारी भाग (1) किताब अल ग़ुस्ल जुमाअ के आदाब पेज (20) से नक़्ल
245. क़ुर्आने करीम सूराऐ बकरा आयत न. 223
246. सेक्स तकनीक डा केवल धैर्य, पेज 199, शमअ बुक डिपो, नई दिल्ली, जिमाअ के आदाब ने नक़्ल
247. देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 112
248. देखिए जिमाअ के आदाब, पेज 61
249. वर्तमान युग में कुछ जगह ज़रूर यह देखने में आया है कि अगर मर्द पहली रात (अर्थात सुहाग रात) में अपनी नई नवेली दुल्हन से किसी वजह से संभोग नही करता तो लड़की के घर वाले (मुख्य रूप से माँ) मर्द के नामर्द (नपुन्सक) होने का यकीन करके विभिन्न प्रकार की बातें करने लगते है जबकि उन्हे दो चार दिन हालात को देख कर ही फैसला करना चाहिए न कि पहले ही दिन। (तक़ी अली आबदी)
250. सहीह बुखारी भाग (1) किताब अल ग़ुस्ल जिमाअ के आदाब पेज (20) से नक़्ल
251 व 252. क़ुर्आने करीम सूराऐ निसाअ आयत न. (43) व सूराऐ माएदा आयत न.6
253. औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अस मुत्तकीन पेज 317
254. जिमाअ के आदाब पेज 15
255. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 110
256. सहीह मुस्लिम भाग (4) किताब अल निकाह जिमाअ के आदाब पेज (54) से नक्ल व आदाब ए ज़वाज पेज (70) और आदाब ए इज़दिवाज पेज (15) से नक्ल
257. क़ुर्आने करीम सूराऐ वाकेआ आयत न. 58-59
258. फुरूअ अल काफी भाग (6) पेज 14, हयात ए इन्सान के छः मरहले पेज (48) -49 से नक्ल
259 व 260. क़ुर्आने करीम सूराऐ शोअरा आयत न. 49-50 व हाशिया मौलाना फर्मान अली.
261 व 262. क़ुर्आने करीम सूराऐ नहल आयत न, 57-59 व सूरः ज़खरफ आयत न. 16-17
263. तरबीयत ए औलाद पेज (39) (औलाद अर्थात संतान की शिक्षा पद्धति से सम्बन्धित विस्तार से मालूमात के लिए यह किताब देखी जा सकती है)
264. तरबीयत ए औलाद पेज 41-42
265. मुसतदरक भाग (2) पेज 550, खानदान का अख्लाक पेज (612) से नक्ल
266. बिहार अल अनवार भाग (103) पेज (254) खानदान का अख्लाक पेज (24) से नक्ल
267. क़ुर्आने करीम सूराऐ बकरा आयत न, 228
268. इसी सम्बन्ध में रसूल ए खुदा (स) ने बताया कि मर्द का औरत से यह कहना की मुझे तुझ से मुहब्बत है उसके दिल से कभी नही निकलता।
(देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज (118) व शाफी भाग (2) पेज 138, खानदान का अख्लाक पेज (166) से नक्ल)
और इमाम ए जाफर सादिक़ (अ) ने बीवी से मुहब्बत करने वाले व्यकति को अपना दोस्त बताया है।
जो व्यक्ति अपनी बीवी से मुहब्बत को ज़्यादा ज़ाहिर करता है वह हमारे दोस्तों में से है।
(देखिए खानदान का अख्लाक पेज 166)
269. रसूल ए खुदा न (स) ने इर्शाद फर्मायाः
नेक और उचकोटि के लोग अपनी बीवीयों की इज़्ज़त करते है और कम अक्ल और नीच लोग उनकी तौहीन (बेइज़्ज़ती) करते हैं
(देखिए खानदान का अख्लाक पेज न. 169)
और इमाम ए जाफर ए सादिक़ (अ) ने फर्माया जो व्यक्ति शादी करे उसे चाहिए की अपनी बीवी की इज़्ज़त और आदर करे। (देखिए बिहार अल अनवार भाग (103) पेज 224, खानदान का अख्लाक पेज 170)
270. रसूल ए खुदा (स) ने इर्शाद फर्मायाः
तुम में सब से बेहतर वह व्यक्ति है जो अपनी औरत के साथ सब से बेहतर व्यवहार करे। फर्माया कि हर व्यतक्ति के बीवी और बच्चे उसके कैदी हैं और खुदा सब से ज़्यादा उस व्यक्ति को दोस्त रखता है जो अपने कैदीयों के साथ अच्छा व्यवहार करता है। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 221)
271. हदीस में आया है किः
औरत का हक मर्द पर यह है कि उसे पेट भर खाना खिलाए आव्यश्कता अनुसार कपड़े दे और अगर जान बुझ कर उससे कोई ग़लती हो जाए तो मांफ करे। (तहज़ीब अल इस्लाम पेज 120)
और हज़रत अली (अ) ने यहाँ तक कहा है किः
हर हाल में औरत से निबाह करे। उनसे अच्छी हंस हंस के बातें करो शायद इस तरीके से उनके आमाल नेक हो जाए (देखिए बिहार अल अनवार भाग (103) पेज 223, खानदान का अख्लाक पेज (198) से नक्ल)
इसी तरह इमाम ए ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने इर्शाद फर्मायाः तुम पर औरत का हक़ यह है कि उसके साथ मेहरबानी करो क्योंकि वह तुम्हारी देख भाल में है उसके खाने कपड़े का इन्तिज़ाम करो, उसकी ग़लतीयों को माँफ करो। (देखिए बिहार अल अनवार भाग (47) पेज 5, खानदान का अख्लाक पेज (198) से नक्ल)
इसी लिए रसूल ए खुदा (स) ने इर्शाद फर्मायाः
औरत की मिसाल पसली की हड्डी सी है कि अगर उसके हाल पर रहने दोगे तो फायदः पाओगे और अगर सीधा करना चाहोगे तो सम्भव है कि वह टूट जाऐ। (संक्षिपत यह है कि ज़रा ज़रा सी अप्रसन्ताओं पर सब्र करो।) (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 122)
272. इमाम ए जाफर ए सादिक (अ) ने इर्शाद फर्माया कि
जिस शहर में किसी व्यक्ति की पत्नी मौजूद हो वह उस शहर में रात को किसी दूसरे व्यक्ति के मकान में सोये और अपनी बीवी के पास न आये तो यह बात उस मकान मालिक की हलाकत (मर जाने) का कारण होगा। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121,)
273. कुर्आन ए करीम में मिलता है कि जो लोग अपनी बीवी के पास जाने से कसम खाऐं उन के लिए चार महीने की मोहलत (ढ़ील) है। (देखिए क़ुर्आने करीम सूराऐ बकरा आयत न. 227)
274. हज़रत अली (अ) ने इमाम ए हसन (अ) को वसीयत फर्माया कि देखो अपनी बातों मे हसी की बात का ज़िक्र तक न लाना चाहे झूठ कहने वाले (रावी) की गर्दन पर की हैसीयत से हो खबरदार औरतों से सलह व मशवरा न लेना क्योंकि उनकी अक्ल कमज़ोर और इरादः (ढ़ीला) होता है और उन्हें पर्दें मे पाबन्द कर के उनकी आँखों पर पहरा बैठा दो क्योंकि मर्द जितना सख्त होगा उनकी इज़्ज़त उतनी बची रहेगी (महफूज़ रहेगी) और उनका घर से निकलना उतना खतरनाक नहीं जितना किसी गैर भरोसेमंद को ग़ैर महरम को उनके घरों मे जाने देना है और उनकी ताक़त सामथ्ये भर कोशिश करें की तुम्हारे अलावा किसी (ग़ैर महरम, गैर मर्द) से उनकी जान पहचान न होने पाये। और औरतों को उनके नीजी कामों के अलावा दूसरे कामों में मनमानी मत करने दो औरत एक फूल है कारफार्म (काम करने वाली) नहीं उसकी वाजिबी इज़्ज़त से आगे न बढ़ो और उसे इतना सर न चड़ाओ कि वह अपने गैर की सिफारिश करने लगे और देखो औरत पर बिना वजह शक न करना क्योंकि यह (शक) नेक चलन औरत को बदचलनी और पाक दामन को बुराईयों की दावत देती है (देखिए नहज उल बलाग़ा, बकतूब न. (31) पेज 740, (उर्दू) अनुवाद शिया जनरल बुक एजेन्सी, इन्साफ प्रेस लाहौर, 1974 ई. व तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121, औरत से सम्बन्धित और विस्तार के लिए देखा जा सकता है लेखक का लेख,
औरत नहज अल बलागा की रौशनी में पेज 27-35 मासिक बाब ए शहर ए इल्म आल इण्ङिया अली मिशन, फैज़ाबाद, वर्ष 3. क्रमाक (100) जून जुलाई 1989 ई,)
औरत से मशवरे (सलाह) से सम्बन्धित ही मिलता है किः
रसूल अल्लाह जब जंगों का इरादः करते थे तो पहले अपनी औरतों से सलाह लिया करते थे और जो कुछ वह राय देती थी उसके उलटा अम्र फर्माते थे (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121-122)
इसीलिए हज़रत अली (अ) ने कहा किः
जिस व्यक्ति के कामों की सलाह देने वाली औरत हो वह मलऊन है। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121)
275. रसूल खुदा (स) से नक्ल है किः
औरतों को कोठो और खिड़कियों मे जगह मत दो और उनको कोई चीज़ लिखना न सिखाओ और सूराऐ युसूफ की शिक्षा उन्हें न दो उन्हें चरखा काटना सिखाओ और सूराऐ नूर की शिक्षा दो (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121)
276. मालूम होना चाहिए की रसूल खुदा (स) ने औरतों को ज़ीन की सवारी से मना फर्माया है और यह भी फर्माया है कि तुम नेक कामों में भी औरतों की पैरवी न करो ऍसा न हो की उनकी लालच बढ़ जाए और फिर वह तुम्हें बुराई की तरफ ले जाऐं उन्में से जो बुरी हैं उनसे पनाह मांगों और जो नेक हैं उनसे भी पनाह मागों (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121)
277. औरतों की इताअत (आज्ञा पालन) से सम्बन्धित रसूल ए खुदा (स) ने फर्मायाः
जो व्यक्ति अपनी औरत की आज्ञा का पालन करेगा खुदा उसे औंधे मुँह नर्क (जहनन्म) डालेगा लोंगो ने कहा या रसूल अल्लाह इस आज्ञा पालन से कौन सी आज्ञा का पालन मुराद (तात्पर्य) है फर्माया औरत उस से हम्मामों (स्नानग्रहो) में जाने की और शादीयों की ईद गाहों की सैर की या मैदान ए जंग के लिए जाने की आज्ञा (इजाज़त) मांगे और वह उसको इजाज़त दे या घर से बाहर फेंके जाने के लिए अच्छे कपड़े माँगे और या उसे ला दे। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121)
278. इमाम ए मुहम्मद ए बाकिर (अ) ने फर्माया किः
अपना राज़ (भेद) उनसे न कहो और तुम्हारे अज़ीज़ो व रिश्तेदारों (परिवार वालों) के बारे में जो कुछ वह कहे उनकी एक न सुनो। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121)
279. हज़रत इमाम अली (अ) ने हज़रक इमाम हसन (अ) को वसियत करते हुए कहा किः
देखो औरत पर बिना वजह शक को ज़ाहिर न करना क्योंकि यह (शक) नेक चलन औरत को बद चलनी और पाक दामन को बुराई की दावत देती है (देखिए नहज उल बलाग़ा (उर्दू अनुवाद) मकतूब (31) पेज 740)
280 व 281. माकारिम अल अख्लाक पेज (225) व 248, खानदान का अख्लाक पेज 270-271 से नक्ल।
282. वसाएल ए शीअः भाग (14) पेज 109, खानदान का अख्लाक पेज (226) से नक्ल
283. किताब दर शामोश ए खुशबख्ती पेज 142, खानदान का अख्लाक पेज (24) से नक्ल।
284. इमाम मुहम्मद ए बाकिर से नक्ल है किः
एक औरत हज़रत रसूल अल्लाह (स) की खिदमत मे आई (पास आई) और कहा या रसूलल्लाह (स) शौहर (पति) का हक (ज़ौजा) पत्नी पर क्या है फर्माया ज़रूरी है कि पति की आज्ञा का पालन करे किसी समय और किसी हाल में उसके आदेश को रद न करे उसके घर से और उसके माल में से बिना उसकी अनुमति (इजाज़त) के सदका तक न दे (दान तक न करे) बिना उसके अनुमति के सुन्नती ज़ा न रखे जिस समय वह संभोग का इरादः करे इन्कार न करे चाहे ऊँट की पीठ पर ही क्यों सवार न हो पति के मकान से बिना उसके अनुमति के बाहर न निकले अगर बिना अनुमति के बाहर निकल गई तो जह तक पलट कर न आऐगी सभी आसमान और ज़मीन के फ़रिश्ते और सभी गज़ब (देवा प्रकोप औक क्रोध) और रहमत (दया) के फरिश्ते उस पर लानत किये जायेंगे फिर उसने कहा कि या रसूलल्लाह (स) मर्द पर किसका हक सब से बहा है फर्माया बाप का कहा औरत पर सब से बड़ा हक किसका है फर्माया पति का कहा पति पर मेरा हक उतना नहीं है जितना उसका मुझपर फर्माया नहीं तेरे और उसके हक का प्रतिशत एक और सौ का भी नहीं है उस औरत ने कहा की या रसूलल्लाह (स) उसी खुदा की कसम जिस ने आपको हक ज़ाहिर करने के लिए नबी बनाया मै हरगिज़ हरगिज़ (कभी भी) निकाह न करूँगी।
इसी तरह
एक औरत हज़रत रसूल अल्लाह (स) की खिदमत मे आई (पास आई) और कहा औरत पर जो हक शौहर (पति) के होते हैं उनके बारे में सवाल किया आहज़रत ने इर्शाद फर्माया कि वह हक इतने हैं कि बयान में नही आ सकते उनमें से एक ये है कि औरत बिना पति के अनुमति के सुन्नती रोज़े न रखे बिना उसकी अनुमति के घर से बाहर न निकले अच्छी से अच्छी खूशबू से अपने आप को मोअत्तर करे (खुशबू अपने लगाए) अच्छे से अच्छे कपड़े पहने और जहाँ तक हो सके अपने आप को बना सवार के उसके सामने आए और अगर वह संभोग का इरादः करे तो वह इन्कार न करे।(देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज (118) व 119)
और रसूल ए खुदा ने इर्शाद फर्माया किः
जिस औरत को उसका पति संभोग के लिए बुलाए और यह इतनी देर कर दे कि पति सो जाए तो जब तक वह जाग न जाएगा फरिश्तें बराबर उस पर लानत किये जायेंगें। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 120)
और हर औरत को यह याद रखना चाहिए किः
औरत की बिना पति के अनुमति के सेवाए निम्नलिखित चीज़ो के किसी और काम में अपना नीजी माल खर्च नहीं कर सकती अर्थात हज, ज़कात, माँ बाप के साथ अच्छा सुलूक (देख रेख) और अपने परेशान व गरीब परिवार जनो और गरीब की मदद (सहायता) करना। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 120)
285 व 286. तहज़ीब अल इस्लाम पेज 119
287. शाफी भाग (1) पेज 177, खानदान का अख्लाक पेज (176) से नक्ल
288. बिहार अल अनवार भाग (71) पेज 389, खानदान का अख्लाक पेज (35) से नक्ल.
289. शाफी भाग (1) पेज 176, खानदान का अख्लाक पेज (176) से नक्ल
290. कुर्आन ए करीम सूराऐ नहल आयत न, 30-31
291. देखने में दीवाने और पागल लगने वाले लोग (सम्भव है यह लोग सेक्सी इच्छा की पूर्ति न हो पाने पर ही दीवाने और पागल हो जाते हों।) भी अपने में सेक्सी इच्छा महसूस को अनुभूत करते हैं जिसका सुबूत उनकी हरकतों या बोल चाल से मिल जाया करता है।
इसी लखनऊ शहर में एक (18) या (20) साल का बिल्कुल नंगा या केवल कभी कभी केवल कमीज़ पहने हुवे एक नौजवान लड़का दिखाई देता है जो चलती हुई सड़क पर रास्ता चलते अपना लिंग हाथ में लेने कभी कभी हस्त मैथुन करके वीर्य निकालने और वीर्य को अपने हाथ पर देखनें में बहुत ज़्यादा खुश होता है (यह लड़का हुसैना बाद के ईलाकों में अकसर दिखाई देता है।) और साठ से सत्तर साल का एक बूढ़ा अपनी कमर पर तहबन्द हिलाता देखा जा सकता है जिस ज़बान पर हर वक्त यह शब्द
तसवीर बनाता हूँ तसवीर नहीं बनती
रहते हैं अर्थात उसके दिमाग में कोई खास तसवीर ही रहती है (इस व्यक्ति को सब्ज़ी मंण्ङी चौक के ईलाके मे देखा जा सकता है)
या इसी तरह के और उदाहरण तलाश किये जा सकते हैं। (तकी अली आबदी)
292 से 295. नहज अल बलागा खुतबः न 202, 81, (221) और (115) पेज 609, 318, (874) और 466.
296. जंग ए जमल (एक इस्लामी युद्ध का नाम जमल) के बाद औरतों की बुराई करते हुवे हज़रत अली (अ) ने एक खुतबे में इर्शाद फर्मायाः
ए गिरोह मरदुम (जंग समूह) औरतों के ईमान हिस्से की कमी और अकल ए कमज़ोर (कम) होती हैं।
ईमान में कमी का सबूत यह है कि वह हैज़ (मासिक धर्म का खून आने) के दिनों में नमाज़ और रोज़ा अदा करने के काबिल नही रहती।
अक्ल कम होने का सबूत यह है कि दो औरतों की गवाही एक मर्द के बराबर तय पायी है और
हिस्से में कमी का सुबूत यह है किः मीरास में उनका हिस्सा मर्दों के मुकाबले (की तुलना में) में आधा होता है
अतः बुरी औरतों से डरते रहो और अच्छी औरतों से भी डरते रहा करो अच्छी बातों में भी उनकी बातों को न माना करो ताकि बुरी बातों में सलाह देने की उन्हे हिम्मत ही न हो (देखिए नहज अल बलागा, खुतबः न. (80) पेज 316)
लेकिन यह खुदा का प्रबन्ध है कि उनके बच्चे के लिए पहली पाठशला उनकी माँ (अर्थात औरत जो कम अक्ल कही गई) की गोद को बनाया गया है। जो बच्चों की शिक्षा दिक्षा (तालीम व तरबीयत) की वह मुख्य कड़ी है जिस के द्वारा बच्चा तरक्की की आखिरी मंज़िल तक आसानी से पहुच सकता है लेकिन यह उसी वक्त सम्भव है जब औरत अपनी अक्ल का सही प्रयोग करे क्योंकि औरत चीज़ को कर डालने पर कुदरत रखती है।
इस्लाम ने इसी (कम अक्ल) औरत अर्थात मां की अज़मत व प्रतीशठा को बताते हुए कहा
माँओं के पैरों के नीचे जनन्त (स्वर्ग) है (देखिए नहज अल फसाहत ज़न अज़ दीदगाह ए नहज उल बलागा, फातिमा आलाई रहमानी, पेज (250) साज़मान ए तबलीगात ए इस्लामी क़ुम. ईरान से नक्ल।
297. कुर्आन ए करीम में मर्दों के ताकतवर होने से सम्बन्धित मिलता हैः
मर्दों का औरतों पर काबू है (देखिए कुर्आन ए करीम सूराऐ निसाअ आयत न.34
298 व 299. नहज उल बलागा इर्शाद न (238) व (61) पेज (878) व 830
300. मुहज्जा अल बैज़ा भाग (2) पेज 72, खानदान का अख्लाक पेज (34) से नक्ल
301.कुर्आन ए करीम सूराऐ तग़ाबन आयत न. 14
302. शायद इसीलिए शरीयत ने मर्दों को दुश्मन औरतों से बचाने के लिए तलाक देने और दुश्मन बच्चों से बचने के लिए आक (अर्थात अपनी संतान को बहिशकृत) करने का हक दे रखा हो। (बच्चों को आक करने का हक औरत अर्थात माँ को भी है)
303. याद रखना चाहिए कि जो मर्द अपनी औरत और बच्चों पर अत्याचार करे वह मोमिन नहीं गैर मोमिन है और यकीनी तौर पर (वास्तव में) नर्क का हकदार है। (तकी अली आबदी)
304 से 307. कुर्आन ए करीम सूराऐ फुर्कान आयत न (74) से 76, सूराऐ मोमिन आयत न, 7-8 सूराऐ ज़खरूफ आयत न. (68) से (72) और सूराऐ यासीन आयत न 55-56
308. मुहज्जा अल बैज़ा भाग (2) पेज 72, खानदान का अख्लाक पेज (34) से नक्ल
309 से 317. कुर्आन ए करीम सूराऐ दुखान आयत न, 54, सूराऐ आले इमरान आयत न, 14-17 सूराऐ बकरः आयत न. (25) सूराऐ तूर आयत न. (17) – 21, सूराऐ वाकेआ आयत न 22-30, सूराऐ रहमान आयत न, 70-77, सूराऐ तूर आयत न. 24-25, सूराऐ वाकेआ आयत न. 17-18, सूराऐ बकरा आयत न, 177.
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